सूर्य-सिद्धांत अध्याय-13 ज्यौतिषोपनिषदध्यायः (सूर्य घड़ी का दण्ड)
अथ गुप्ते शुचौ देशे स्नातः शुचिरलङ्कृतः ।
सम्पूज्य भास्करं भक्त्या ग्रहान् भान्यथ गुह्यकान् ॥
पारम्पर्योपदेशेन यथाज्ञानं गुरोर्मुखात् ।
आचार्यः शिष्यबोधार्थं सर्वं प्रत्यक्षदर्शिवान् ॥
स्नान से पवित्र होकर अलंकार धारण कर एकांत में भक्तिपूर्वक भगवान भास्कर, ग्रहों, नक्षत्रों तथा गुह्य की पूजा कर परम्परा से प्राप्त उपदेशों द्वारा तथा गुरु के मुखारविंद से प्राप्त यथार्थ ज्ञान से शिष्यों को अवगत कराने हेतु, सब कुछ प्रत्यक्ष प्रदर्शित करने वाले तथा आश्चर्य उत्पन्न करने वाले पृथ्वी और खगोल की रचना आचार्य को करनी चाहिए ।।१-२।।
भूभगोलस्य रचनां कुर्यादाश्चर्यकारिणीम् ।
अभीष्टं पृथिवीगोलं कारयित्वा तु दारवम् ॥
दण्डं तन्मध्यगं मेरोरुभयत्र विनिर्गतम् ।
आधारकक्षाद्वितयं कक्षा वैषुवती तथा ॥
अभीष्ट परिमाण वाला काष्ठ का एक पृथ्वी का गोल बनाकर उसके मध्य एक ऐसा दण्ड स्थापित करे जो मध्यगत होता हुआ दोनों मेरु स्थान में बराबर निकला रहे । दोनों मेरुओं से दो आधार वृत्त की रचना करें । दोनों आधार वृत्तों के मध्यगत विषुवद् वृत्त की रचना करे । तीनों वृत्तों पर एक एक अंश के ३६० चिन्ह अंकित करे ।। ३-४ ।।
भगणांशाङ्गुलैः कार्या दलितैस्तिस्र एव ताः ।
स्वाहोरात्रार्धकर्णैश्च तत्प्रमाणानुमानतः ॥
क्रान्तिविक्षेपभागैश्च दलितैर्दक्षिणोत्तरैः ।
स्वैः स्वैरपक्रमैस्तिस्रो मेषादीनामपक्रमात् ॥
कक्षाः प्रकल्पयेत्ताश्च कर्क्यादीनां विपर्ययात् ।
तद्वत्तिस्रस्तुलादीनां मृगादीनां विलोमतः ॥
पूर्वोक्त निरक्ष (नाडी) वृत्त के दक्षिणोत्तर भाग में स्व स्व अहोरात्र वृत्तों के अर्धव्यास से विषुवद वृत के प्रमाणानुसार द्वारा स्व स्व क्रांति विक्षेपांशो से चिह्नित बिंदुओं से अर्थात स्व स्व द्युज्या व्यासार्धा से मेषादि राशियों के तीन अहोरात्र वृत्त होते है । उन्ही के विपरीत क्रम से कर्कादि तीन राशियों की कक्षाये होती है । उसी प्रकार तुलादि तीन राशियों की कक्षाये होती है तथा वही विपरीत क्रम से मकरादि तीन राशियों की भी कक्षाये होती है ।। ५-७ ।।
याम्यगोलाश्रिताः कार्याः कक्षाधाराद्द्वयोरपि ।
याम्योदग्गोलसंस्थानां भानामभिजितस्तथा ॥
सप्तर्षीणामगस्त्यस्य ब्रह्मादीनां च कल्पयेत् ।
मध्ये वैषुवती कक्षा सर्वेषामेव संस्थिता॥
कक्षा आधार वृत्त से दक्षिण और उत्तर भाग में स्थित नक्षत्रों, अभिजित, सप्तर्षिमण्डल, अगस्त्य, ब्रह्महृदय, लुब्धक आदि के भी अहोरात्र वृतों की रचना से करनी चाहिये । सभी अहोरात्र वृत्तों के मध्य में विषुवदवृत्तीय कक्षा होती है ।। ८-९ ।।
तदाधारयुतेरूर्ध्वमयने विषुवद्वयम् ।
विषुवत्स्थानतो भागैः स्फुटैर्भगणसञ्चरात् ॥
क्षेत्राण्येवमजादीनां तिर्यग्ज्याभिः प्रकल्पयेत् ।
अयनादयनं चैव कक्षा तिर्यक्तथापरा ॥
उस विषुव वृत्त और उसके आधार वृत्त के युति स्थान से ऊपर दोनों अयन बिन्दु होते है। तथा नाड़ी वृत्त और उन्ममण्डलवृत्त का सम्पात बिन्दु विषुव स्थान होता है । प्राची में सायन मेषादि बिन्दु पश्चिम में सायन तुलादि बिन्दु होते है । इन विषुव बिन्दुओं से तीस-तीस अंशों पर राशियों का सन्निवेशकर के तिर्यक ज्या रेखाओं द्वारा मेषादि राशियों के क्षेत्रों की कल्पना करनी चाहिये । एक अयन बिन्दु से दुसरे अयन बिन्दु तक तिर्यक नाडीवृत के प्रमाणा नुसार एक अन्य वृत्त की रचना करने पर इसकी क्रान्तिवृत्त संज्ञा होती है । इसी वृत में सूर्य प्रकाशित करते हुये भ्रमण करते है ।। १०-११ ।।
क्रान्तिसञ्ज्ञा तया सूर्यः सदा पर्येति भासयन् ।
चन्द्राद्याश्च स्वकैः पातैरपमण्डलमाश्रितैः ॥
चंद्रादि ग्रहों की कक्षायें क्रान्तिवृत्त से सम्बन्धित अपने अपने सम्पात बिन्दुओं से अपनी-अपनी क्रान्ति तुल्य अन्तरित होते हुये विक्षेप के अग्रभाग में दिखलाई पड़ती है ।। १२ ।।
ततो +अपकृष्टा दृश्यन्ते विक्षेपान्तेष्वपक्रमात् ।
उदयक्षितिजे लग्नमस्तं गच्छच्च तद्वशात् ॥
उदय क्षितिज से लगा हुआ उदय लग्न या लग्न संज्ञक तथा पश्चिम में अस्तंगत होता हुआ अस्त लग्न तथा लंका के क्षितिज पर उदय होता हुआ क्रान्तिवृत का खमध्य स्थित भाग मध्य लग्न संज्ञक होता है ।। १३ ।।
लङ्कोदयैर्यथासिद्धं खमध्योपरि मध्यमम् ।
मध्यक्षितिजयोर्मध्ये या ज्या सान्त्याभिधीयत् ।।
ज्ञेया चरदलज्या च विषुवत्क्षितिजान्तरम् ।
कृत्वोपरि स्वकं स्थानं मध्ये क्षितिजमण्डलम् ॥
मध्य स्थान से क्षितिज वृत पर्यन्त ज्या रेखा अन्त्या संज्ञक होती है । विषुवत क्षितिज वृत्त और अपने क्षितिज वृत्त के अन्तर की ज्या चरज्या होती है । अपने स्थान को ऊपर करके वहाँ से मध्य में अपना क्षितिज मण्डल होता है ।
वस्त्रच्छन्नं बहिस्चापि लोकालोकेन वेष्टितम् ।
अमृतस्रावयोगेन कालभ्रमणसाधनम् ॥
तुङ्गबीजसमायुक्तं गोलयन्त्रं प्रसाधयेत् ।
गोप्यमेतत्प्रकाशोक्तं सर्वगम्यं भवेदिह् ।।
लोकालोक गोल और अदृश्य गोल के नियामक क्षितिज वृत्त से वेष्टित विधि से निर्मित गोल को वस्त्र से ढक दें । वास्त्राच्छान्न गोल पर जल धारा का एसा प्रभाव करें जिससे की गोल भ्रमण करता हुआ नाक्षत्र काल को सूचित करे । गोल में पारा का संयोग इस प्रकार करे जिससे गोल भ्रमण करता हुआ नाक्षत्र काल सूचित करे । इस विधि को गुप्त रखना चाहिये अन्यथा इसे प्रकाशित करने पर यह सिद्धान्त सर्वगम्य हो जाएगा ।। १६-१७ ।।
तस्माद्गुरूपदेशेन रचयेद्गोलमुत्तमम् ।
युगे युगे समुच्छिन्ना रचनेयं विवस्वतः ॥
इसलिए गुरु द्वारा उपदिष्ट विधि से उत्तम गोलयन्त्र की रचना करनी चाहिये । युग के युगान्तर में यह रचना विधि लुप्त हो जाती है । भगवान सूर्य के प्रसाद से उनकी इच्छानुसार किसी को पुनः यह विद्या प्राप्त हो जाती है ।। १८ ।।
प्रसादात्कस्यचिद्भूयः प्रादुर्भवति कामतः ।
कालसंसाधनार्थाय तथा यन्त्राणि साधयेत् ॥
कालज्ञान हेतु इस प्रकार के यंत्रों का निर्माण करना चाहिये । यन्त्र को चमत्कारिक ढंग से चलायमान करने के लिए उसमें पारे का प्रयोग एकान्त स्थान में करना चाहिये ।। १९ ।।
एकाकी योजयेद्बीजं यन्त्रे विस्मयकारिणि ।
शङ्कुयष्टिधनुश्चक्रैश्छायायन्त्रैरनेकधा ॥
गुरूपदेशाद्विज्ञेयं कालज्ञानमतन्द्रितैः ।
तोययन्त्रकपालाद्यैर्मयूरनरवानरैः ॥
ससूत्ररेणुगर्भैश्च सम्यक्कालं प्रसाधयेत् ॥
पारदाराम्बुसूत्राणि शुल्वतैलजलानि च् ।
बीजानि पांसवस्तेषु प्रयोगास्ते +अपि दुर्लभाः ॥
शंकु, यष्टि, धनु, चक्र, आदि अनेक प्रकार के छाया यंत्रों द्वारा तन्द्रा रहित दैवज्ञ गुरु द्वारा बताये गए मार्ग से कालज्ञान करना चाहिये । कपाल आदि जल यन्त्रों से, मयूर, नर, तथा वानर यन्त्रों से, जिनमें सूत्र के साथ बालू भरे होते है, उनमे विधिवत कालज्ञान करना चाहिये । यन्त्र को गतिशील करने के लिए उसमें पारा, आरा, जल, सूत्र, ताम्र, तेल एवं जल का प्रयोग करना चाहिये । पारा और पासू को यन्त्र में स्थापित करना चाहिये किन्तु ये प्रयोग भी दुर्लभ है ।। २०-२२ ।।
तांरपात्रमधश्छिद्रं न्यस्तं कुण्डे +अमलाम्भसि ।
षष्टिर्मज्जत्यहोरात्रे स्फुटं यन्त्रं कपालकम् ॥
ताम्रपात्र के निचे छिद्र कर स्वच्छ जल वाले कुण्ड में डाल दे । यदि एक अहोरात्र में वह ६० बार जल में डूब जाय तो वही शुद्ध कपालयन्त्र होता है ।। २३ ।।
नरयन्त्रं तथा साधु दिवा च विमले रवौ ।
छायासंसाधनैः प्रोक्तं कालसाधनमुत्तमम् ॥
केवल दिन में जब आकाश स्वच्छ हो तथा निर्मल रवि हो उस समय शंकु यन्त्र से सम्यक छाया साधन करने से उत्तम काल का ज्ञान होता है ।। २४ ।।
ग्रहनक्षत्रचरितं ज्ञात्वा गोलं च तत्त्वतः ।
ग्रहलोकमवाप्नोति पर्यायेणात्मवान्नरः ॥
ग्रह नक्षत्रों के चरित को तथा गोल को यथार्थ रूप में जानकर मनुष्य ग्रहलोक को प्राप्त करता है तथा जन्मान्तर में भी आत्मज्ञानी होता है ।। २५ ।।