सूर्य-सिद्धांत अध्याय-2 स्पष्टाधिकारः (ग्रहों की स्थिति)
अदृश्यरूपाः कालस्य मूर्तयो भगणाश्रिताः ।
शीघ्रमन्दोच्चपाताख्या ग्रहाणां गतिहेतवः ॥
तद्वातरश्मिभिर्*बद्धास्तैस्सव्येतरपाणिभिः ।
प्राक्पश्चादपकृष्यन्ते यथासन्नं स्वदिङ्मुखम् ॥
भगण पर आश्रित शीघ्रोच्च, मन्दोच्च एवं पात संज्ञक काल की अदृश्य मूर्तियाँ ग्रहों की गति का कारण होती है । इन शीध्रोच्च मन्दोच्च पात संज्ञक अदृश्य शक्तियों की वायुरूपी रस्सी से बंधे हुये ग्रह उन्हीं शक्तियों द्वारा वामदक्षिणहस्त से अपनी दिशा में अपने समीप अपकृष्ट होते है ।। १-२ ।।
प्रवहाख्यो मरुत्तांस्तु स्वोच्चाभिमुखमीरयेत् ।
पूर्वापराकृष्टास्ते *गतिं यान्ति पृथग्विधाः ॥
ग्रहात्प्राग्भगणार्धस्थः प्राङ्मुखं कर्षति ग्रहम् ।
उच्चसंज्ञो +अपरार्धस्थस्तद्वत्पश्चान्मुखं ग्रहम् ॥
प्रबह नामक वायु ग्रहों को उनके उच्चों की तरफ प्रेरित करती है । पूर्व और पश्चिम की ओर खिचें हुये ग्रहों की भिन्न-भिन्न गति होती जाती है ।। ३ ।। ग्रहों का उच्च संज्ञक स्थान यदि पूर्व दिशा में ६ राशि से अल्प दूरी पर हो तो ग्रह को पूर्व दिशा में तथा यदि पश्चिम दिशा में खींच लेता है ।। ४ ।।
स्वोच्चापकृष्टा *भगणैः प्राङ्मुखं यान्ति यद्ग्रहाः ।
तत्तेषु धनमित्युक्तमृणं पश्चान्मुखेषु *च् ।।
अपने अपने उच्च स्थानों से अपकृष्ट ग्रह अपने मध्यम स्थान से जितने राश्यादि तक पूर्व दिशा में जाते है उतने राश्यादि मान मध्यम ग्रह में जोड़े जाते है अतः इसे धन संस्कार कहते है तथा पश्चिम दिशा में उच्चाकर्षण फल घटाया जाता है अतएव उसे ऋण संस्कार कहते है ।। ५ ।।
*दक्षिणोत्तरतो +अप्येवं पातो *राहुः स्वरंहसा ।
विक्षिपत्येष विक्षेपं चन्द्रादीनामपक्रमात् ॥
उत्तराभिमुखं पातो विक्षिपत्यपरार्धगः ।
ग्रहं प्राग्भगणार्धस्थो याम्यायामपकर्षति ॥
इसी प्रकार राहू नामक पात भी क्रान्त्यन्त बिन्दु से ग्रह को अत्यन्त वेग से उत्तर और दक्षिण दिशा में विक्षेप तुल्य दूरी तक विक्षिप्त करता है । यदि पातस्थान ग्रह से पश्चिम दिशा में ६ राशि से अल्प दुरी पर होता है तो ग्रह को उत्तर दिशा में और यदि ६ राशि से अल्प पूर्व दिशा में होता है तो ग्रह को दक्षिण दिशा में आकर्षित कर लेता है ।। ६-७ ।।
बुधभार्गवयोः शीघ्रात्तद्वत्पातो *यदा स्थितः ।
तच्छीघ्राकर्षणात्तौ तु विक्षिप्येते यथोक्तवत् ॥
बुध और शुक्र के शीध्रोच्चों से इनके पात पूर्वोक्त नियमानुसार पूर्व दिशा में यदि ६ राशि से अल्प दूरी पर हो तथा पश्चिम दिशा में भी ६ राशि से अल्प हो तो क्रम से उत्तर एवं दक्षिण में आकर्षित करता है ।। ८ ।।
महत्वान्मण्डलस्यार्कः स्वल्पमेवापकृष्यत् ।
मण्डलाल्पतया चन्द्रस्ततो बह्वपकृष्यत् ।।
सूर्य का विम्बमान बृहद होने से सूर्य अपने मंदोच्च पात द्वारा अल्प आकर्षित होता है किन्तु बिम्बमान लघु होने से चंद्रमा अपने मन्दोच्च से सूर्य की अपेक्षा अत्यधिक आकर्षित हो जाता है ।। ९ ।।
भौमादयो +अल्पमूर्तित्वाच्छीघ्रमन्दोच्चसञ्ज्ञकैः ।
दैवतैरपकृष्यन्ते सुदूरमतिवेगिताः ॥
भौमादि पञ्चताराग्रह लघु बिम्बात्मक होने के कारण अपने-अपने शीघ्रोच्च और मंदोच्च रूपी अदृश्य दैवी शक्तियों द्वारा अत्यन्त वेग पूर्वक सुदूर अपकृष्ट हो जाते है ।। १० ।।
अतो धनर्णं सुमहत्तेषां गतिवशाद्भवेत् ।
आकृष्यमाणास्तैरेवं व्योम्नि यान्त्यनिलाहताः ॥
यही कारण है की भौमादि ग्रहों में उनकी गतियों के कारण धन एवं ऋण संस्कार अधिक होते है । इस प्रकार प्रबह वायु के वेग से आहात होकर अपने अपने पातों से आकृष्ट होते हुये भौमादि ग्रह आकाश में अपनी-अपनी कक्षा में भ्रमण करते है ।। ११ ।।
*वक्रातिवक्रा विकला मन्दा मन्दतरा समा ।
तथा शीघ्रतरा शीघ्रा ग्रहाणामष्टधा गतिः ॥
वक्र, अनुवक्र, कुटिल, मन्द, मन्दतर, सम, शीघ्रतर तथा शीघ्रक्ष– ये आठ प्रकार की ग्रहों की गतियां होती है ।। १२ ।।
तत्रातिशीघ्रा शीघ्राख्या मन्दा मन्दतरा समा ।
ऋज्वीति पञ्चधा ज्ञेया *या वक्रा सातिवक्रगा ॥
इस आठ प्रकार की गतियों में अतिशीघ्र, शीघ्र, मन्द, मन्दतर और सम – ये पाँच प्रकार की मार्गी गतियाँ है । जो वक्रगति है, वही अनुवक्र भी है । वक्र, अनुवक्र एवं कुटील – ये तीन गतियाँ वक्र गति संज्ञक होती है । इस प्रकार गतियों के मार्गी और वक्री प्रमुख दो भेद होते है ।। १३ ।।
तत्तद्गतिवशान्नित्यं यथा दृक्तुल्यतां ग्रहाः ।
प्रयान्ति तत्प्रवक्ष्यामि स्फुटीकरणमादरात् ॥
उन गतियों के अनुसार प्रतिदिन ग्रह जिस प्रकार दृकतुल्य हो जाते है अब उस स्पष्टीकरण प्रक्रिया को मैं आदरपूर्वक कह रहा हूँ ।। १४ ।।
राशिलिप्ताष्टमो भागः प्रथमं ज्यार्धमुच्यत् ।
तत्तद्विभक्तलब्धोनमिश्रितं तद्द्वितीयकम् ॥
आद्येनैवं क्रमात्पिण्डान् भक्त्वा *लब्धोनसंयुताः ।
*खण्डकाः स्युश्चतुर्विंशज्यार्धपिण्डाः क्रमादमी ॥
एक राशि में जितनी कलाएं होती है उनके अष्टमांश को प्रथम ज्यार्ध कहते है । प्रथम ज्यार्ध को प्रथम ज्यार्ध से ही भाग देकर लब्धि को प्रथम ज्यार्ध से घटाकर शेष को प्रथम ज्यार्ध में जोड़ने से द्वीतीय ज्यार्ध का मान होता है । आद्य ज्यार्ध से अग्रिम पिण्डों को विभक्त कर लब्धि से रहित ज्याखण्डों को ज्यार्ध में जोड़ने से अग्रिम ज्यापिण्ड होता है । इसी प्रकार क्रम से २४ ज्यार्ध पिण्डों के मान होते है ।। १५-१६ ।।
तत्त्वाश्विनो +अङ्काब्धिकृता रूपभूमिधरर्तवः ।
खाङ्काष्टौ पञ्चशून्येशा बाणरूपगुणेन्दवः ॥
शून्यलोचनपञ्चैकाश्छिद्ररूपमुनीन्दवः ।
वियच्चन्द्रातिधृतयो गुणरन्ध्राम्बराश्विनः ॥
मुनिषड्यमनेत्राणि चन्द्राग्निकृतदस्रकाः ।
पञ्चाष्टविषयाक्षीणि कुञ्जराश्विनगाश्विनः ॥
रन्ध्रपञ्चाष्टकयमा वस्वद्र्यङ्कयमास्तथा ।
कृताष्टशून्यज्वलना नगाद्रिशशिवह्नयः ॥
षट्पञ्चलोचनगुणाश्चन्द्रनेत्राग्निवह्नयः ।
यमाद्रिवह्निज्वलना रन्ध्रशून्यार्नवाग्नयः ॥
एक वृत्तपाद में साधित २४ ज्या पिण्डों का मान क्रम से इस प्रकार है –
(१) तत्वाश्विनः – २२५ (२) आंकाब्धिकृतः – ४४९ (३) रूपभूमिघरर्त्तव: – ६७१
(४) खांकाष्टौ – ८९० (५) पञ्चशून्येशाः – ११०५ (६) बाणरूपगुणेन्दवः – १३१५
(७) शून्यलोचनपञ्चैकः – १५२० (८) छिद्ररूपमुनीन्दवः – १७१९ (९) वियच्चान्द्रातिघृतयः – १९१० (१०) गुणरन्ध्राम्बराश्विन: – २०९३ (११) मुनिषड् यमनेत्राणि – २२६७
(१२) चन्द्राग्निकृतदस्रका: – २४३१, (१३) पञ्चाष्टतिषयाक्षीणि – २५८५
(१४) कुज्जराश्विनगाश्विनः – २७२८ (१५) रन्ध्रपञ्चाष्टकयमा: – २८५९
(१६) वस्वद्रयंकयमा -२९७८ (१७) कृताष्टशून्यज्वलन – ३०८४ (१८) नगाद्रिशशिवह्नयः – ३१७७ (१९) षट्पञ्चलोचनगुणा: – ३२५६ (२०) चन्द्रनेत्राग्निवह्नय: – ३३२१
(२१) यमाद्रिवह्निज्वलना: – ३३७२ (२२) रन्ध्रशून्यार्णवाग्नय: – ३४०९
(२३) रूपाग्निसागरगुणाः – ३४३१ (२४) वस्वग्निकृतवह्नय: – ३४३८ ।। १७-२२ ।।
रूपाग्निसागरगुणा वस्वग्निकृतवह्नयः ।
प्रोज्झ्योत्क्रमेण व्यासार्धादुत्क्रमज्यार्धपिण्डिकाः ॥
उत्क्रम ज्यार्ध पिण्डों को व्यासार्ध से घटाने पर २४ ऊत्क्रमज्याओं के मान ज्ञात हो जाते है ।। २२ ।।
मुनयो रन्ध्रयमला रसषट्का मुनीश्वराः ।
द्व्यष्टैका रूपषड्दस्राः सागरार्थहुताशनाः ।।
खर्तुवेदा नवाद्र्यर्था दिङ्नागास्त्र्यर्थकुञ्जराः ।
नगाम्बरवियच्चन्द्रा रूपभूधरशङ्कराः ॥
शरार्णवहुताशैका भुजङ्गाक्षिशरेन्दवः ।
नवरूपमहीध्रैका गजैकाङ्कनिशाकराः ॥
गुणाश्विरूपनेत्राणि पावकाग्निगुणाश्विनः ।
वस्वर्णवार्थयमलास्तुरङ्गर्तुनगाश्विनः ॥
नवाष्टनवनेत्राणि पावकैकयमाग्नयः ।
गजाग्निसागरगुणा उत्क्रमज्यार्धपिण्डकाः ॥
(१) मुनय: -७, (२) रन्ध्रयमला – २९, (३) रसषट्का: – ६६ (४) मुनीश्वरा: – ११७
(५) द्व्यष्टैका – १८२, (६) रूपषड्दस्त्र – २६१ (७) सागरार्थहुताशना – ३५४
(८) खर्तुवेदा: – ४६० (९) नवाद्र्यर्था: – ५७९ (१०) दिंनगा:- ७१० (११) त्र्यर्थकुञ्जर: – ८५३ (१२) नगाम्बरवियच्चन्द्रा: – १००७ (१३) रूपभूधरशंकरा:- ११७१ (१४) शरार्णवहुताशैका: – १३४५ (१५) भुजंगाक्षिशरेन्दव: – १५२८ (१६) नवरूपमहीध्रैका – १७१९ (१७) गजैकाकंनिशाकरा – १९१८ (१८) गुणाश्विरूपनेत्राणि – २१२३ (१९) पावकाग्निगुणाश्विन: – २३३३ (२०) वस्वर्णवार्थयमला – २५०८ (२१) तुरंगर्तुनगाश्विन: – २७६७ (२२) नवाष्टनवनेत्राणि – २९८९ (२३) पावकैकयमाग्नय: – ३२१३ (२४) गजाग्निसागरगुणा: – ३४३८ ।। २३-२७ ।।
परमापक्रमज्या तु सप्तरन्ध्रगुणेन्दवः ।
तद्गुणा ज्या त्रिजीवाप्ता तच्चापं क्रान्तिरुच्यत् ।।
परमक्रान्तिज्या का मान १३९७ कला होता है । परमक्रान्तिज्या से इष्टज्या को गुणाकर गुणनफल में त्रिज्या से भाग देने से लब्धि क्रान्तिज्या होती है इसका चाप मान इष्टक्रान्ति होता है ।। २८ ।।
ग्रहं संशोध्य मन्दोच्चात्तथा शीघ्राद्विशोध्य च् ।
शेषं केन्द्रपदं तस्माद्भुजज्या कोटिरेव च् ।।
गताद्भुजज्या विषमे गम्यात्कोटिः पदे भवेत् ।
*युग्मे तु गम्याद्बाहुज्या कोटिज्या तु गताद्भवेत् ॥
मध्यमग्रह को अपने अपने मन्दोच्च एवं शीघ्रोच्च से घटाने पर शेष क्रमशः मन्द केंद और शीघ्र केन्द्र होते है । केन्द्र से पद ज्ञान तथा पद से भुज और कोटी का ज्ञान होता है । विषम पद से गत चाप की जीवा भुजज्या तथा गम्य चाप की जीवा कोटि संज्ञक होती है । सम पद में गम्य चाप की जीवा भुजज्या तथा गत चाप की ज्या कोटीज्या होती है ।। २९-३० ।।
लिप्तास्तत्त्वयमैर्भक्ता *लब्धं ज्यापिण्डिकं गताम् ।
गतगम्यान्तराभ्यस्तं विभजेत्तत्त्वलोचनैः ॥
तदवाप्तफलं योज्यं ज्यापिण्डे *गतसंज्ञक् ।
स्यात्क्रमज्याविधिरयमुत्क्रमज्यास्वपि स्मृतः ॥
जिस चाप की ज्या अभीष्ट हो, उस चाप की कला को २२५ से भाग देने पर लब्धि गत ज्यापिण्ड होता है । शेष को ऐष्य ज्या पिण्ड और गत ज्या पिण्ड के अन्तर से गुणा कर गुणन फल को २२५ से भाग देने पर जो लब्धि प्राप्त हो उसे गत ज्यापिण्ड में जोड़ने से अभीष्ट चाप की ज्या होगी । यही ज्या साधन की विधि है तथा इसी प्रकार उत्क्रमज्या का भी साधन किया जाता है ।। ३१-३२ ।।
ज्यां *प्रोज्झ्य शेषं तत्त्वाश्विहतं तद्विवरोद्धृतम् ।
संख्यातत्त्वाश्विसंवर्गे *संयोज्य धनुरुच्यत् ।।
इष्टज्या से जितनी ज्या घट सके उन्हें घटाकर शेष को २२५ से गुणा कर उसमें दोनों ज्या के अन्तर से भाग देने पर प्राप्त लब्धि को, शुद्ध ज्या संख्या और २२५ से गुणनफल में जोड़ देने पर अभीष्ट चाप का मान ज्ञात हो जायेगा ।। ३३ ।।
रवेर्मन्दपरिध्यंशा मनवः शीतगो रदाः ।
युग्मान्ते विषमान्ते तु नखलिप्तोनितास्तयोः ॥
युग्मान्ते +अर्थाद्रयः *खाग्निसुराः सूर्या नवार्णवाः ।
ओजे द्व्यगा वसुयमा रदा रुद्रा गजाब्दयः ॥
सम पदान्त में सूर्य का १४ एवं चन्द्रमा का ३२ अंश मन्द परिध्यंश होता है । विषम पद में समपद की अपेक्षा २० कला न्यून सूर्य का मन्द परिध्यंश १३ अंश ४० कला तथा चन्द्रमा का ३१ अंश ४० कला होता है । भौमादि पाँच ग्रहों के क्रम से समपदान्त में ७५, ३०, ३३, १२, ४९ अंश मन्द परिध्यंश होते है तथा विषम पदान्त में क्रम से ७२, २८, ३२, ११ एवं ४८ मन्द परिध्यंश होते है ।। ३४-३५ ।।
कुजादीनां *अतः शीघ्रा युग्मान्ते +अर्थाग्निदस्रकाः ।
गुणाग्निचन्द्राः *खनगा द्विरसाक्षीणि गो+अग्नयः ॥
ओजान्ते *द्वित्रियमला द्विविश्वे यमपर्वताः ।
खर्तुदस्रा वियद्वेदाः शीघ्रकर्मणि कीर्तिताः ॥
समपदान्त में भौमादि ग्रहों के शीघ्र परिध्यंश क्रम से २३५, १३३, ७०, २६२, ३९ अंश होते है तथा विषम पदान्त में क्रमशः २३२, १३२, ७२, २६०, ४० अंश शीघ्रफल साधन हेतु शीघ्र परिध्यंश कहे गए है ।। ३६-३७ ।।
ओजयुग्मान्तरगुणा भुजज्या त्रिज्ययोद्धृता ।
*युग्मे वृत्ते धनर्णं स्यादोजादूनाधिके स्फुटम् ॥
विषम और समपदान्त की मन्द अथवा शीघ्र परिधियों के अन्तर को मन्दकेन्द्र या शीघ्रकेन्द्र की भुजज्या से गुणा कर त्रिज्या से भाग देने पर प्राप्त लब्धि को समपदान्त परिधि में धन ऋण करने से स्फुट परिधि होती है । यदि केन्द्र समपदान्त में हो और विषमपदान्त की परिधि से समपदान्त की परिधि अल्प हो तो लब्धि फल का समपदान्त परिधि में धन संस्कार अधिक होने पर ऋण संस्कार होगा ।। ३८ ।।
तद्गुणे भुजकोटिज्ये भगणांशविभाजित् ।
तद्भुजज्याफलधनुर्मान्दं लिप्तादिकं फलम् ॥
इष्ट स्थानीय स्पष्ट परिधि से मन्दकेन्द्र भुजज्या को तथा केन्द्र कोटिज्या को गुणाकर भगणांश ३६० से भाग देने पर क्रम से भुजफल एवं कोटिफल सिद्ध होंगे ।। ३९ ।।
*शैघ्र्यं कोटिफलं केन्द्रे मकरादौ धनं स्मृतम् ।
संशोध्यं तु *त्रिजीवायां कर्क्यादौ कोटिजं फलम् ॥
तद्बाहुफलवर्गैक्यान्मूलं कर्णश्चलाभिधः ।
त्रिज्याभ्यस्तं भुजफलं चलकर्णविभाजितम् ॥
लब्धस्य चापं लिप्तादिफलं *शैघ्र्यमिदं स्मृतम् ।
एतदाद्ये कुजादीनां चतुर्थे चैव कर्मणि ॥
मकरादि छः राशियों में यदि शीघ्रकेन्द्र हो तो शीघ्रकोटिफल का त्रिज्या में धन संस्कार करने से तथा कर्कादि छः राशियों में शीघ्रकेन्द्र हो तो शीघ्रकोटिफल का त्रिज्या में ऋण संस्कार करने से स्पष्ट शीघ्रकोटि होती है । शीघ्र भुजफल और शीघ्रकोटि फल के वर्ग योग का वर्गमूल स्फुट शीघ्रकर्ण होता है । भुजफल को त्रिज्या से गुणाकर चलकर्ण से भाग देने पर लब्धि का चाप कलादि शीघ्रफल होता है । यह शीघ्रफल भौमादि पञ्चताराग्रहों के प्रथम और चतुर्थ कर्म में उपयोगी होता है ।। ४०-४२ ।।
मान्दं कर्मैकमर्केन्दोर्भौमादीनामथोच्यत् ।
*शैघ्र्यं मान्दं पुनर्मान्दं शैघ्र्यं चत्वार्यनुक्रमात् ॥
मध्ये शीघ्रफलस्यार्धं मान्दमर्धफलं तथा ।
मध्यग्रहे *मन्दफलं सकलं शैघ्र्यमेव च् ।।
सूर्य और चन्द्रमा को स्पष्ट करने के लिए केवल एक ही मन्दफल संस्कार किया जाता है । शेष भौमादि पञ्चतारा ग्रहों के लिए संस्कार विधि कह रहा हूँ । पहले शीघ्रफल पश्चात् मन्दफल पुनः मन्दफल तदन्तर शीघ्रफल का संस्कार क्रम एवं अनुक्रम से करना चाहिये । मध्यम ग्रह में पहले शीघ्रफल का आधा तदन्तर मन्दफल का आधा पश्चात् समग्र मन्दफल एवं समग्र शीघ्रफल का संस्कार किया जाता है ।। ४३-४४ ।।
अजादिकेन्द्रे सर्वेषां *शैघ्र्ये मान्दे च कर्मणि ।
धनं ग्रहाणां लिप्तादि तुलादाव्र्णमेव च् ।।
सूर्यादि सभी ग्रहों के मन्द केन्द्र और शीघ्र केन्द्र मेषादि ६ राशियों में हो तो मध्यम ग्रह में कलादि मन्दफल और शीघ्रफल का धन संस्कार तथा तुलादि केन्द्र होने पर मध्यम ग्रह में ऋण संस्कार किया जाता है ।। ४५ ।।
अर्कबाहुफलाभ्यस्ता ग्रहभुक्तिर्विभाजिता ।
भचक्रकलिकाभिस्तु लिप्ताः कर्या ग्रहे +अर्कवत् ॥
सूर्य के भुजफल को ग्रहगतिकला से गुणाकर गुणनफल को भचक्रकला से भाग देने पर जो कलात्मक लब्धि हो उसे भुजान्तर कहते है । उसका संस्कार अभीष्ट ग्रह में सूर्य मन्दफल के अनुसार करना चाहिये ।। ४६ ।।
स्वमन्दभुक्तिसंशुद्धा मध्यभुक्तिर्निशापतेः ।
दोर्ज्यान्तरादिकं कृत्वा भुक्तावृणधनं भवेत् ॥
ग्रहभुक्तेः फलं कार्यं ग्रहवन्मन्दकर्मणि ।
दोर्ज्यान्तरगुणा भुक्तिस्तत्त्वनेत्रोद्धृता पुनः ॥
स्वमन्दपरिधिक्षुण्णा भगणांशोद्धृता कलाः ।
कर्क्यादौ तु धनं तत्र मकरादावृणं स्मृतम् ॥
चन्द्रमा की मन्दोच्चगति से चन्द्रमा की मध्यम गति घटाने से शेष केन्द्र गति होती है । चन्द्र केन्द्र गति से आगे कही गई विधि द्वारा चन्द्रगतिफल का साधन कर चन्द्रमा का मध्यम गति में आगे निर्दिष्ट विधि धन-ऋण करने से चन्द्रमा की स्पष्टागति होती है । स्पष्ट ग्रहसाधन हेतु जिस प्रकार मन्दफल का साधन किया जाता है उसी प्रकार मन्दगतिफल का भी साधन करना चाहिये । चन्द्रगतिफल साधन में चन्द्रमा की मन्दकेन्द्रगति तथा अन्यग्रहों की मध्यमा गति को गत-गम्य भुजज्याओं के अन्तर से गुणाकर २२५ से भाग देने पर जो लब्धि प्राप्त हो उसे मन्दपरिधि से गुणाकर भगणांश ३६०° से भाग देने पर पाप्त कलादि लब्धि को कर्कादि केन्द्र होने पर मध्यम गति से जोड़ने तथा मकरादि केन्द्र होने पर मध्यम गति से घटाने पर ग्राहों की स्पष्टा गति होती है ।। ४७-४९ ।।
मन्दस्फुटीकृतां भुक्तिं प्रोज्झ्य शीघ्रोच्चभुक्तितः ।
तच्छेशं विवरेणाथ हन्यात्त्रिज्यान्त्यकर्णयोः ॥
चलकर्णहृतं भुक्तौ कर्णे त्रिज्याधिके धनम् ।
ऋणमूने +अधिके प्रोज्झ्य शेषं वक्रगतिर्भवेत् ॥
ग्रहों की मन्दस्पष्ट गति को अपनी-अपनी शीघ्रोच्चगति से घटाकर शेष को त्रिज्या और अन्त्य कर्ण के अन्तर से गुणाकर चलकर्ण से भाग देनेपर प्राप्त लब्धि शीघ्रगतिफल होती है । शीघ्रकर्ण यदि त्रिज्या से अधिक हो तो फल धन अल्प हो तो फल ऋण होता है । मन्दस्पष्ट गति में शीघ्र गतिफल का धन ऋण संस्कार करने से स्पष्ट गति होती है । यदि ऋण शीघ्रगतिफल मन्दस्पष्ट गतिसे अधिक हो तो शीघ्र गतिफल से मन्द स्पष्ट गति को घटाने पर जो शेष रहे वह ग्रह की वक्रगति होती है ।। ५०-५१ ।।
दूरस्थितः स्वशीघ्रोच्चाद्ग्रहः शिथिलरश्मिभिः ।
सव्येतराकृष्ततनुर्भवेत्वक्रगतिस्तदा ॥
अपने शीघ्रोच्च से दूर स्थित होने पर शीघ्रोच्च रश्मियों के शिथिल हो जाने से अर्थात शीघ्रोच्चजन्य आकर्षण शक्ति के शिथिल हो जाने पर ग्रह वाम भाग में आकृष्ट हो कर वक्री हो जाते है ।। ५२ ।।
कृतर्तुचन्द्रैर्वेदेन्द्रैः शून्यत्र्येकैर्गुणाष्टभिः ।
शररुद्रैश्चतुर्थेषु केन्द्रांशैर्भूसुतादयः ॥
भवन्ति वक्रिणस्तैस्तु स्वैः स्वैश्चक्राद्विशोधितैः ।
अवशिष्टांशतुल्यैः स्वैः केन्द्रैरुज्झन्ति वक्रताम् ॥
भौमादि ग्रह अपने अपने चतुर्थ शीघ्रकेन्द्र से क्रमशः १६४, १४४, १३०. १६३ तथा ११५ अंशों पर होते है तो इनका वक्रगतित्व आरम्भ होता है । उक्त शीघ्र केन्द्रांशों को चक्र में घटाने से अवशिष्ट अंशों के तुल्य ग्रह होने पर ग्रह वक्रगति का त्याग करते है ।। ५३-५४ ।।
महत्त्वाच्छीघ्रपरिधेः सप्तमे भृगुभूसुतौ ।
अष्टमे जीवशशैजौ नवमे तु शनैश्चरः ॥
मन्दपरिधि की अपेक्षा शीघ्रपरिधि के बड़ी होने से शुक्र और मंगल अपने केन्द्र से सातवीं राशि में गुरु और बुध आठवीं राशि में तथा शनि नवम राशि में अपना वक्रत्व त्याग देते हैं ।। ५५ ।।
कुजार्किगुरुपातानां ग्रहवच्छीघ्रजं फलम् ।
वामं तृतीयकं मान्दं बुधभार्गवयोः फलम् ॥
स्वपातोनाद्ग्रहाज्जीवा शीघ्राद्भृगुजसौम्ययोः ।
विक्षेपघ्न्यन्त्यकर्णाप्ता विक्षेपस्त्रिज्यया विधोः ॥
अहर्गणोत्पन्न भौम शनि और गुरु के पातो में ग्रहवत् शीघ्रफल का संस्कार करना चाहिये । बुध और शुक्र के पातो का तृतीया संस्कार करना चाहिये । यदि ऋण हो तो धन, धन हो तो ऋण करना चाहिये । यहाँ चन्द्रमा के पात का उल्लेख नहीं है अतः चन्द्रमा का गणितगत पात ही ग्राह्य है । स्पष्ट भौम, गुरु और शनि ग्रहों को अपने अपने संस्कृत पातों से रहित कर शेष की जीवा साधन करनी चाहिये तथा बुध और शुक्र के शीघ्रोच्चों से उनके पातों को घटाकर शेष की जीवा साधन करनी चाहिये । इस प्रकार साधित जीवा को विक्षेप से गुणाकर गुणनफल में अन्त्य कर्ण से भाग देने से कलात्मक लब्धि क्रान्तिसंस्कार योग्य शर होता है । चन्द्रमा के साधन में शीघ्रकर्ण का उपयोग न होने से स्पष्टचन्द्र से पात को घटाकर शेष की जीवा को विक्षेप से गुणा कर त्रिज्या से भाग देने पर लब्धि चन्द्रमा का कलात्मक विक्षेप होता है ।। ५६-५७ ।।
विक्षेपापक्रमैकत्वे क्रान्तिर्विक्षेपसंयुता ।
दिग्भेदे वियुता स्पष्टा भास्करस्य यथागता ॥
विक्षेप और मध्यमक्रान्ति की एक ही दिशा हो तो विक्षेप और क्रान्ति का योग करने से स्पष्ट क्रान्ति होती है । विक्षेप और क्रान्ति की दिशा भिन्न होने पर क्रान्ति और विक्षेप का अन्तर करने से स्पष्ट क्रान्ति होती है । सूर्य की गणितागत क्रान्ति ही स्फुट क्रान्ति होती है । क्योकी क्रान्ति वृत्त में भ्रमण करने से सूर्य का विक्षेप नहीं होता ।। ५८ ।।
ग्रहोदयप्राणहता खखाष्टैकोद्धृता गतिः ।
चक्रासवो लब्धयुता स्वाहोरात्रासवः स्मृताः ॥
अभीष्ट ग्रह की स्पष्टगति को ग्रहनिष्ठ राश्युदयासुओं से गुणाकर १८०० से भाग देने पर जो लब्धि प्राप्त हो उसे चक्रकला में जोड़ने पर अभीष्ट ग्रह के अहोरात्रासु होते है ।। ५९ ।।
क्रान्तेः क्रमोत्क्रम्मज्ये द्वे कृत्वा तत्रोत्क्रमज्यया ।
हीना त्रिज्या दिनव्यासदलं तद्दक्षिणोत्तरम् ॥
क्रान्तिज्या विषुवद्भाघ्नी क्षितिज्या द्वादशोद्धृता ।
त्रिज्यागुणाहोरात्रार्धकर्णाप्ता चरजासवः ॥
स्फुटक्रान्ति से ज्या और उत्क्रमज्या दोनों का साधन कर त्रिज्या में से उत्क्रमज्या को घटाने से शेष अहोरात्रवृत्त का व्यासार्द्ध होता है, इसे द्युज्या भी कहते है । यह व्यासार्द्ध, दक्षिणक्रान्ति होने पर दक्षिणगोल का, उत्तरक्रान्ति होने पर उत्तरगोल का होता है । क्रान्तिज्या को पलाभा से गुणाकर गुणनफल में १२ का भाग देने पर लब्धि क्षितिज्या होती है । कुज्या को त्रिज्या से गुणाकर गुणनफल को अहोरात्र के व्यासार्धरूपी कर्ण से भाग देने पर लब्धि चरज्या होती है इसका चाप चर संज्ञक होता है ।। ६०-६१ ।।
तत्कार्मुकमुदक्क्रान्तौ *धनशनी पृथक्ष्थित् ।
स्वाहोरात्रचतुर्भागे दिनरात्रिदले स्मृत् ।।
याम्यक्रान्तौ विपर्यस्ते द्विगुणे तु दिनक्षप् ।
विक्षेपयुक्तोनितया क्रान्त्या भानामपि स्वक् ।।
उक्त चरज्या को चापात्मक बनाने से चरासु होते है । उत्तरक्रान्ति होने पर चरासु को अहोरात्रासु के चतुर्थाश में जोड़ने से दिनार्ध तथा घटाने के रात्र्यर्ध काल होता है । दक्षिण क्रान्ति होने पर विपरीत संस्कार करने से, ऋण संस्कार करने से दिनार्घ तथा धन संस्कार करने से रात्र्यर्ध मान होता है । दोनों को द्विगुणितकरने पर क्रम से दिनमान और रात्रिमान होते है । इसी प्रकार विक्षेप को क्रान्ति में धन ऋण कर नक्षत्रों का दिनरात्री मान ज्ञात करनी चाहिये ।। ६२-६३ ।।
भभोगो +अष्टशतीलिप्ताः खाश्विशैलास्तथा तिथेः ।
ग्रहलिप्ताभभोगाप्ता भानि भुक्त्या दिनादिकम् ॥
रवीन्दुयोगलिप्ताभ्यो योगा भभोगभाजिताः ।
गता गम्याश्च षष्टिघ्न्यो भुक्तियोगाप्तनाडिकाः ॥
अर्कोनचन्द्रलिप्ताभ्यस्तिथयो भोगभाजिताः ।
गता गम्याश्च षष्टिघ्न्यो नाड्यो भुक्त्यन्तरोद्धृताः ॥
नक्षत्र का भोग ८०० कला तथा तिथि का भोग ७२० कला होता है । ग्रह की कला को नक्षत्र भोग ८०० से भाग देने पर लब्धि गत नक्षत्र होता है । ग्रहगति द्वारा गतगम्य दिनादि का साधन करना चाहिये । शेष कला को ८०० में घटाकर शेष में ग्रहगति का भाग देने से भोग्य दिनादि होता है ।। ६४ ।।
सूर्य और चन्द्र के योग की कलाओं को नक्षत्र भोग ८०० से भाग देने पर लब्धि गत विष्कुम्भादि योग होते है । शेष को ६० से गुणा कर रवि चन्द्र की गति से भाग देने पर वर्तमान योग का गत-गम्य काल होता है ।। ६५ ।।
सूर्य रहित चन्द्रमा की कला को तिथि भोग ७२० कला से भाग देने पर लब्धि गततिथि होती है । शेष को ६० से गुणाकर रवि-चन्द्र गत्यन्तर से भाग देने पर वर्तमान तिथि का गतगम्य मान होता है । गतकला को ७२० में घटाने से शेष ऐष्य कला होती है । गतकला को ६० से गुणाकर रवि-चन्द्र की गत्यन्तर कला से भाग देने पर गत मान तथा ऐष्या कला को ६० से गुणाकर गत्यन्तर कला से भाग देने पर ऐष्य मान होता है ।। ६६ ।
ध्रुवाणि शकुनिर्नागं तृतीयं तु चतुष्पदम् ।
किंस्तुघ्नं तु चतुर्दश्याः कृष्णायाश्चापरार्धतः ॥
बवादीनि ततः सप्त चराख्यकरणानि च् ।
मासे +अष्टकृत्व एकैकं करणानां प्रवर्तत् ।।
तिथ्यर्धभोगं सर्वेषां करणानां प्रकल्पयेत् ।
एषा स्फुतगतिः प्रोक्ता सूर्यादीनां खचारिणाम् ॥
कृष्णपक्ष की चतुर्दर्शी के उत्तरार्ध से क्रमशः शकुनी, चतुष्पद, नाग तथा किंस्तुध्न ये चार स्थिर करण होते है । तदन्तर बव आदि सात चर वर करण होते है । एक मास में बवादि करण आठ बार आते है प्रत्येक करण का भोगमान तिथ्यर्थ तुल्य होता है । इस प्रकार सर्यादि ग्रहों की स्पष्टगति कही गई है । एक तिथि का आधा करण होता है । कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के उत्तरार्ध से कारणों की प्रवृत्ति होती है । प्रथम चार स्थिर करण होते है, जैसे चतुर्दर्शी के उत्तरार्ध में शकुनि अमावास्या के पूर्वार्ध में चतुष्पद तथा उत्तरार्ध में नाग तथा शुक्ल प्रतिपदा के पूर्वार्ध में किंस्तुध्न करण होते है । तत्पश्चात प्रतिपदा के उत्तरार्ध से बव आदि सात चर करणों की प्रवृति होती है । प्रतिपदा के उत्तरार्ध में बव, द्वितीया के पूर्वार्ध में बालव तथा उत्तरार्ध में कौलव इस प्रकार बव-बालव-कौलव-तैतिल-गर-वाणिज-विष्टि – ये सात करणों की प्रवृत्ति होती है ।। ६७-६९ ।।
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