Shree Naval Kishori

सार्धानि षट्सहस्राणि योजनानि विवस्वतः ।
विष्कम्भो मण्डलस्येन्दोः सहाशीत्या चतुश्शतम् ॥

सूर्यबिम्ब व्यास का प्रमाण ६५०० योजन तथा चन्द्रबिम्ब का व्यास प्रमाण ४८० योजन है । इनके व्यास को अपनी अपनी स्पष्टगति से गुणाकर उसमें अपनी अपनी मध्यमागति से भाग देने पर इनके स्पष्ट विम्बव्यास होते है ।। १ ।।

स्फुटस्वभुक्त्या गुणितौ मध्यभुक्त्योद्धृतौ स्फुटौ ।
रवेः स्वभगणाभ्यस्तः शशाङ्कभगणोद्धृतः ॥
शशाङ्ककक्षागुणितो भाजितो वा +अर्ककक्षया ।
विष्कम्भश्चन्द्रकक्षायां तिथ्याप्ता मानलिप्तिका ॥

पूर्वोक्त प्रकार से स्पष्ट किये हुए सूर्यबिम्ब के व्यास को रविभागण से गुणाकर चन्द्रभगण से भाग देने पर अथवा चन्द्रकक्षा से गुणाकर सूर्यकक्षासे भाग देने पर लब्धि चन्द्रकक्षा में अथवा चन्द्रधिष्ठित आकाशगोल में स्पष्ट सूर्यबिम्ब व्यास होता है । स्पष्ट सूर्यव्यास और चन्द्रव्यास में १५ का भाग देने से चन्द्रकक्षा में सूर्य और चन्द्र के कलादी व्यासमान होते है ।। २-३ ।।

स्फुटेन्दुभुक्तिर्भूव्यासगुणिता मध्ययोद्धृता ।
लब्धं सूची महीव्यासस्फुटार्कश्रवणान्तरम् ॥
मध्येन्दुव्यासगुणितं मध्यार्कव्यासभाजितम् ।
विशोध्य लब्धं सूच्यां तु तमो लिप्तास्तु पूर्ववत् ॥

स्पष्टचन्द्रगति को भूव्यास से गुणाकर मध्यचन्द्र गतिकला से भाग देने पर प्राप्त लब्धि सूची होती है । सूर्य के स्पष्ट योजनात्मक बिम्ब में भूव्यास को घटाकर शेष को चन्द्र के मध्यम योजनात्मक बिम्बव्यास से गुणाकर सूर्य के मध्यम योजनात्मक बिम्बव्यास से भाग देने पर जो लब्धि प्राप्त हो उसको पूर्वसाधित सूची में घटाने से शेष तमोमय भूछाया होती है । इस भूछाया को पूर्वोक्त प्रकार से कलात्मक करना चाहिये ।। ४-५ ।।

भानोर्भार्धे महीच्छाया तत्तुल्ये +अर्कसमे +अपि ।
शशाङ्कपाते ग्रहणं कियद्भागाधिकोनक् ।।

सूर्य से ६ राशि के अंतर में भूछाया भ्रमण करती है ।सूर्य के तुल्य अथवा छ: राशि युक्त रवि के तुल्य या उससे कुछ न्यूनाधिक अंशों पर चन्द्रपात होने से ग्रहण होता है ।। ६ ।।

तुल्यौ राश्यादिभिः स्याताममावास्यान्तकालिकौ ।
सूर्येन्दू पौर्णमास्यन्ते भार्धे भागादिकौ समौ ॥

अमान्तकाल में सूर्य और चंद्रमा के राश्यादि अवयव समान होते है । तथा पुर्णिमा के अन्त में सूर्य और चन्द्र के परस्पर ६ राशि के अन्तर पर रहने से इनके मात्र अवयवादि तुल्य होते है ।। ७ ।।

गतैष्यपर्वनाडीनां स्वफलेनोनसंयुतौ ।
समलिप्तौ भवेतां तौ पातस्तात्कालिको +अन्यथा ॥

पूर्व के दिन जिस काल में सूर्य और चंद्रमा स्पष्ट किये गए हो उसके और अमान्त अथवा पूर्णिमान्त के बीच में जितनी गत-गम्य घटी हो उनका “इष्टनाडीगुणाभुक्ति:” इत्यादि प्रकार से जो फल प्राप्त हो उसको गत-गम्य घटिकाओं में क्रम से सूर्य और चन्द्रमा में हीन और युक्त करने से समकल होते है और पात में विलोम संस्कार करने से तात्कालिक पात होता है ।। ८ ।।

छादको भास्करस्येन्दुरधःस्थो घनवद्भवेत् ।
भूच्छायां प्राङ्मुखश्चन्द्रो विशत्यस्य भवेदसौ ॥

सूर्य से नीचे स्थित चन्द्रमा मेघ की तरह सूर्य का आच्छादक होता है । पुर्वाभिमुख भ्रमण करता हुआ चन्द्रमा भूछाया में प्रवेश करता है । जिससे चन्द्र ग्रहण होता है ।। ९ ।।

तात्कालिकेन्दुविक्षेपं छाद्यच्छादकमानयोः ।
योगार्धात्प्रोज्झ्य यच्छेषं तावच्छन्नं तदुच्यत् ।।
यद्ग्राह्यमधिके तस्मिन् सकलं न्यूनमन्यथा ।
योगार्धादधिके न स्याद्विक्षेपे ग्राससम्भवः ॥

छाद्य और छादक के मानैक्यार्ध में तात्कालिक चन्द्रशर घटाने से शेष ग्रास प्रमाण होता है । ग्राह्यमान से ग्रासमान अधिक हो तो सम्पूर्ण ग्रहण और न्यून हो तो न्यून ग्रहण होता है । मानैक्यार्ध से शर अधिक होने पर ग्रहण सम्भव नहीं होता ।। १०-११ ।।

ग्राह्यग्राहकसंयोगवियोगौ दलितौ पृथक् ।
विक्षेपवर्गहीनाभ्यां तद्वर्गाभ्यामुभे पद् ।।
षष्ठ्या संगुण्य सूर्येन्द्वोर्भुक्त्यन्तरविभाजित् ।
स्यातां स्थितिविमर्दार्धे नाडिकादिफले तयोः ॥

छाद्य और छादक बिम्बों के योग और अन्तर को पृथक-पृथक आधा कर उनमे से शर का वर्ग घटाकर शेष दोनों का वर्गमूल लें । इन दोनों को ६० से गुणाकर सूर्य और चन्द्र के गत्यन्तर से भाग देने पर घटिकादि फल क्रम से स्थित्यर्ध विमर्दार्ध होते है ।। १२-१३ ।।

स्थित्यर्धनाडिकाभ्यस्ता गतयः षष्ठिभाजिताः ।
लिप्तादि प्रग्रहे शोध्यं मोक्षे देयं पुनः पुनः ॥
तद्विक्षेपैः स्थितिदलं विमर्दार्धे तथा +असकृत् ।
संसाध्यमन्यथा पाते तल्लिप्तादिफलं स्वकम् ॥

सूर्य-चन्द्र और पात की गतियों को पृथक-पृथक स्थित्यर्धर्धघटिकाओं से गुणाकर ६० का भाग देने से जो कलादिफल प्राप्त हो उसको सूर्य और चन्द्र में घटाने से स्पर्शस्थित्यर्ध होता है । सूर्य और चन्द्रमा में जोड़ने से मोक्षस्थित्यर्ध होता है तथा पात से विलोम करना चाहिये । इस प्रकार तात्कालिक सूर्य चन्द्र और पात होते है तात्कालिक चन्द्र और पात से पूर्वोक्त रीती से शर साधन कर स्पर्शस्थित्यर्ध और मोक्षस्थित्यर्ध का साधन करे। पुनः इससे चालन देकर शर साधन कर स्पर्श स्थित्यर्ध और मोक्ष स्थित्यर्ध का साधन करे । इस प्रकार असकृत कर्म करने से स्पर्श स्थित्यर्ध और मोक्षस्थित्यर्ध स्पष्ट होंगे । इसी प्रकार स्पर्शमर्दार्ध और मोक्षमर्दार्ध का भी साधन करना चाहिये ।। १४-१५ ।।

स्फुटतिथ्यवसाने तु मध्यग्रहणमादिशेत् ।
स्थित्यर्धनाडिकाहीने ग्रासो मोक्षस्तु संयुत् ।।

स्पष्टतिथ्यन्तकाल में मध्यग्रहण होता है । स्पष्ट तिथ्यन्तकाल में स्पर्शस्थित्यर्धघटिका घटाने से स्पर्श काल तथा मोक्षस्थित्यर्ध घटिका जोड़ने से मोक्षकाल होता है ।। १६ ।।

तद्वदेव विमर्दार्धनाडिकाहीनसंयुत् ।
निमीलनोन्मीलनाख्ये भवेतां सक`लग्रह् ।।

सम्पूर्ण ग्रहण में स्पष्टतिथ्यन्तकाल में स्पर्शमर्दार्ध घटी को और मोक्षमर्दार्ध घटी को हीन-युत करने से क्रमशः सम्मीलन और उन्मीलनकाल होते है ।। १७ ।।

इष्टनाडीविहीनेन स्थित्यर्धेनार्कचन्द्रयोः ।
भुक्त्यन्तरं समाहन्यात्षष्ट्याप्ताः कोटिलिप्तिकाः ॥

इष्ट घटयादिमान को स्पर्शस्थित्यर्ध घटयादि में घटाने से जो शेष रहे उनको सूर्य-चन्द्र के गत्यन्तर से गुणाकर ६० का भाग द्नें पर फल कोटीकाल होती है । यहाँ ग्रहण के आरम्भ से मध्यग्रहण पर्यन्त इष्टघटिका होती है ।।१८ ।।

भानोर्ग्रहे कोटिलिप्ता मध्यस्थित्यर्धसंगुणाः ।
स्फुटस्थित्यर्धसंभक्ताः स्फुटाः कोटिकलाः स्मृता ॥

सूर्यग्रहण में पूर्वोक्त प्रकार से साधन की हुई कोटिकलाओं को मध्यस्थित्यर्ध से गुणाकर स्पष्टस्थित्यर्ध का भाग देने से फल स्पष्टकोटीकला होती है ।। १९ ।।

क्षेपो भुजस्तयोर्वर्गयुतेर्मूलं श्रवस्तु तत् ।
मानयोगार्धतः प्रोज्झ्य ग्रासस्तात्कालिको भवेत् ॥

भुज अर्थात तात्कालिक शर तथा पूर्वोक्त प्रकार से साधन की हुई कोटि इन दोनों के वर्गयोग का वर्गमूल कर्ण होता है इस कर्ण को मानैक्यार्ध में घटाने से इष्टकालिक ग्रासमान होता है ।। २० ।।

मध्यग्रहणतश्चोर्ध्वमिष्टनाडीर्विशोधयेत् ।
स्थित्यर्धान्मौक्षिकाच्छेषं प्राग्वच्च्छेषं तु मौक्षिक् ।।

मध्यग्रहण से आगे इष्टघटयादि को मोक्षस्थित्यर्ध में घटाने से जो शेष हो उसे गत्यन्तर से गुणाकर ६० का भाग देने से कोटीकला प्राप्त होती है उससे पूर्वोक्त प्रकार से “क्षेपो भुजस्तयोर्वर्गयुतेर्मूलं श्रवस्तु तत्” इत्यादि से कर्ण लाकर कर्ण को मानैक्यार्ध में घटाने से शेष इष्टग्रास होता है ।। २१ ।।

ग्राह्यग्राहकयोगार्धाच्छोध्याः स्वच्छन्नलिप्तिकाः ।
ताद्वर्गात्प्रोज्झ्य तत्कालविक्षेपस्य कृतिं पदम् ॥
कोटिलिप्ता रवेः स्पष्टस्थित्यर्धेनाहता हृताः ।
मध्येन लिप्तास्तन्नाड्यः स्थितिवद्ग्रासनाडिकाः ॥

मानैक्यखण्ड में इष्टग्रास को घटाकर शेष के वर्ग में तात्कालिक शर का वर्ग घटाकर, शेष का वर्गमूल लेने से चन्द्रग्रहण में कोटिलिप्ता होती है । सूर्यग्रहण में इस प्रकार से प्राप्त कोटीकला को स्पष्टस्थित्यर्ध से गुणाकर मध्यस्थित्यर्ध का भाग देने से प्राप्त लब्धि स्पष्ट कोटीकला होती है । इन कोटीकलाओं को ६० से गुणाकर सूर्य-चन्द्र के गत्यंतर का भाग देने से प्राप्त घटिकादि लब्धि स्वकीय स्थित्यर्ध में घटा देने से शेष इष्टग्रास घटिका होती है ।। २२-२३ ।।

नतज्या +अक्षज्ययाभ्यस्ता त्रिज्याप्ता तस्य कार्मुकम् ।
वलनांशा सौम्ययाम्याः पूर्वापरकपालयोः ॥
राशित्रययुताद्ग्राह्यात्क्रान्त्यंशैर्दिक्षमैर्युताः ।
भेदे +अन्तराज्ज्या वलना सप्तत्यङ्गुलभाजिता ॥

सूर्यग्रहण में सूर्य की नतकालज्या को तथा चन्द्रग्रहण में चन्द्र की नतकालज्या को स्वदेशीय अक्षज्या से गुणाकर त्रिज्या से भाग देने से प्राप्त लब्धि का चाप पूर्व-पश्चिम नतज्या के क्रम से उत्तर-दक्षिण आक्षवलन होता है । सत्रिभ ग्रह की क्रान्ति के तुल्य आयनवलन होता है । इन दोनों की एक दिशा होने पर योग तथा भिन्नदिशा होने पर अन्तर करने से फल स्पष्टवलन होता है । स्पष्टवलनज्या में ७० का भाग देने से अंगुलादि वलन होता है ।। २४-२५ ।।

सोन्नतं दिनमध्यार्धं दिनार्धाप्तं फलेन तु ।
छिन्द्याद्विक्षेपमानानि तान्येषामङ्गुलानि तु ॥

दिनमान, दिनार्धमान और उन्नत घटिकाओं के योग में दिनमान के आधे का भाग देने से जो फल प्राप्त हो उससे पूर्व साधित विक्षेपादिकों में भाग देने से लब्ध फल उन विक्षेपादिकों के अंगुलादि मान होते है ।। २६ ।।