Shree Naval Kishori

सूर्य-सिद्धांत अध्याय-8 नक्षत्रग्रहयुत्यधिकारः (तारों के बारे में)

प्रोच्यन्ते लिप्तिका भानां स्वभोगो +अथ दशाहतः ।
भवन्त्यतीतधिष्ण्यानां भोगलिप्तायुता ध्रुवाः ॥

अश्विन्यादि नक्षत्रों की वक्ष्यमाण भोगकलाओं को १० से गुणाकर अश्विन्यादि गत नक्षत्रों की भोग कलाओं को जोड़ने से अश्विन्यादि नक्षत्रों के ध्रुव होते है ।। १ ।।

अष्टार्णवाः शून्यकृताः पञ्चषष्टिर्नगेषवः ।
अष्टार्था अब्धयो +अष्टागा अङ्गागा मनवस्तथा ॥
कृतेषवो युगरसाः शून्यवाणा वियद्रसाः ।
खवेदाः सागरनगा गजागाः सागरर्तवः ॥
मनवो +अथ रसा वेदा वैश्वमाप्यार्धभोगगम् ।
आप्यस्यैवाभिजित्प्रान्ते वैश्वान्ते श्रवणस्थितिः ।।
त्रिचतुः पादयोः सन्धौ श्रविष्ठा श्रवणस्य तु ।
स्वभोगतो वियन्नागाः षट्कृतिर्यमलाश्विनः ॥
रन्ध्राद्रयः क्रमादेषां विक्षेपाः स्वादपक्रमात् ।
दिङ्मासविषयाः सौम्ये याम्ये पञ्च दिशो नव् ।।
सौम्ये रसाः खं याम्ये +अगाः सौम्ये खार्कास्त्रयोदश् ।
दक्षिणे रुद्रयमलाः सप्तत्रिंशदथोत्तर् ।।
याम्य +अध्यर्धत्रिककृता नव सार्धशरेषवः ।
उत्तरस्यां तथा षष्टिस्त्रिंशत्षट्त्रिंशदेव हि ॥
दक्षिणे त्वर्धभागस्तु चतुर्विंशतिरुत्तर् ।
भागाः षड्विंशतिः खं च दास्रादीनां यथाक्रमम् ॥

अश्विनी नक्षत्र की भोगकला ४८ को दश से गुणा किया तो ४८० हुए, गत नक्षत्र का अभाव होने के कारण अश्विन का यही कलात्मक ध्रुव ४८० हुआ । भरणी की भोगकला ४० को १० से गुणाकर ४०० एक गत नक्षत्र की भोगकला ८०० जोड़ने से भरणी नक्षत्र का ध्रुव १२०० हुआ । इसी प्रकार संपूर्ण नक्षत्रों की ध्रुव कला साधन कर ऊपर दी गई है । यहां भगवान सूर्य ने पाठ में लाघव के लिए सब नक्षत्रों की भोगकला ही पढ़ी है । अपने अपने ध्रुव स्थानों से अपनी अपनी योगतारायाए जितनी जितनी कलाओं के अंतर से स्थित है वे अनी अपनी भोगकलाए होती है , परन्तु यहां भगवान सूर्य ने लाघव के लिए भोगाकलाओ में बीस का अपवर्तन दे कर लिखा है । उत्तराषाढ़ा अभिजीत श्रवण और घनिष्ठा नक्षत्र की योगतारा अपने भोगस्थान से पश्चिम में स्थित होने के कारण उक्त रीति से उनके ध्रुव नहीं आते इसीलिए भिन्न रीति से इनके ध्रुव कहे गए है ।।२-९।।

अशीतिभागैर्याम्यायामगस्त्यो मिथुनान्तगः ।
विंशे च मिथुनस्यांशे मृगव्याधो व्यवस्थितः ॥
विक्षेपो दक्षिणे भागैः खार्णवैः स्वादपक्रमात् ।
हुतभुग्ब्रह्महृदयौ वृषे द्वाविंशभागगौ ॥
अष्टाभिस्त्रिंशता चैव विक्षिप्तावुत्तरेण तौ ।
गोलं लब्ध्वा परीक्षेत विक्षेपं ध्रुवकं स्फुटम् ॥

अगस्त्य का ध्रुवक ३ राशि और दक्षिण शर ८० अंश है । लुब्धक का ध्रुवक ८० अंश और दक्षिण शर ४० अंश है । अग्नि का ध्रुवक ५२ अंश और उत्तर शर ८ अंश है । ब्रह्महृदय का ध्रुवक ५२ अंश और उत्तर शर ३० अंश है । इन अश्विनी आदि नक्षत्रों के तथा अगस्त्य आदि ताराओं के ध्रुवक और शरों को गोल रचना कर गणक वेध द्वारा इनकी परीक्षा करे, क्योकी यह पाठ पठित ध्रुवक और शर ग्रन्थ निर्माण काल के है । कालान्तर में वेधोपलब्ध लेने चाहिये ।। १०-१२ ।।

वृषे सप्तदशे भागे यस्य याम्यो +अंशकद्वयात् ।
विक्षेपो +अभ्यधिको भिन्द्याद्रोहिण्याः शकतं तु सः ॥

वृषराशि के १७ अंश में स्थित जिस ग्रह का दक्षिण शर दो अंश से अधिक होता है वह रोहिणी शकट का भेदन करता है ।। १३ ।।

ग्रहवद्द्युनिशे भानां कुर्याद्दृक्कर्म पूर्ववत् ।
ग्रहमेलकवच्छेषं ग्रहभुक्त्या दिनानि च् ।।

जिस प्रकार ग्रहों का दिनमान, रात्रिमान साधन किया गया है उसी प्रकार नक्षत्रों का भी दिनमान और रात्रिमान साधन करना चाहिए । अनंतर आक्षदृक्कर्म का साधन कर नक्षत्रों के ध्रुवक में इसका संस्कार कर ग्रहयुति साधन की तरह नक्षत्रग्रहयुतिकाल का साधन करना चाहिये । ग्रह नक्षत्र की युति के दिनों का साधन केवल ग्रहगति से ही करना चाहिये ।। १४ ।।

एष्यो हीने गृहे योगो ध्रुवकादधिके ततः ।
विपर्ययाद्वक्रगते ग्रहे ज्ञेयः समागमः ॥

आयनदृक्कर्म संस्कृतग्रह, आक्षदृक्कर्म संस्कृत नक्षत्र ध्रुव से हीन हो तो गम्य और अधिक हो तो गत योग होता है । वक्रगति ग्रह का इससे विलोम अर्थात नक्षत्रध्रुव से ग्रह अधिक हो तो गम्य और न्यून हो तो गत योग होता है ।। १५ ।।

फाल्गुन्योर्भाद्रपदयोस्तथैवाषाढयोर्द्वयोः।
विशाखाश्विनिसौम्यानां योगतारोत्तरा स्मृता ॥
पश्चिमोत्तरताराया द्वितीया पश्चिमे स्थिता ।
हस्तस्य योगतारा सा श्रविष्ठायाश्च पश्चिमा ॥
ज्येष्ठाश्रवणमैत्राणां बार्हस्पत्यस्य मध्यमा ।
भरण्याग्नेयपित्र्याणां रेवत्याश्चैव दक्षिणा ॥
रोहिण्यादित्यमूलानां प्राची सार्पस्य चैव हि ।
यथा प्रत्यवशेषाणां स्थूला स्याद्योगतारका ॥

पूर्वाफाल्गुनि, उत्तराफाल्गुनि, पूर्वाभ्राद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, विशाखा, अश्विनी और मृगशिरा इनके तारापुञ्जों में उत्तरदिशा स्थित तारों को योग तारा कहते है । पञ्चतारात्मक हस्तनक्षत्र के पश्चिमोत्तर में स्थित पश्चिमतारा से उत्तर दिशा में स्थित जो तारा, उससे दूसरी पश्चिम तारा अर्थात वायव्यदिशा में स्थित तारा योगतारा है । धनिष्ठा नक्षत्र की पश्चिम दिशा में स्थित तारा योगतारा है ।ज्येष्ठा, श्रवण, अनुराधा और पुष्य इनको मध्यतारा योगतारा है । भरणी, कृत्तिका, मघा और रेवती इनकी दक्षिण दिशा में स्थित तारा योगतारा है । रोहिणी, पूनर्वसू, मूल और आश्लेषा इनके पूर्व दिशा में स्थित तारा योगतारा है । शेष नक्षत्रों की स्थूल अर्थात बड़ी और कान्तिमती तारा योग तारा कही जाती है ।। १६-१९ ।।

पूर्वस्यां ब्रह्महृदयादंशकैः पञ्चभिः स्थितः ।
प्रजापतिर्वृषान्ते +असौ सौम्ये +अष्टत्रिंशदंशकैः ॥

ब्रह्महृदय से ५ अंश पूर्व वृषान्त के निकट अपने क्रान्त्यग्र से ३८ अंश उत्तर की दिशा में तारात्मक ब्रह्म की स्थिति है । अर्थात ब्रह्मा का ध्रुवक १ राशि २७ अंश तथा उत्तर शर ३८ अंश है ।। २० ।।

अपांवत्सस्तु चित्राया उत्तरे +अंशैस्तु पञ्चभिः ।
बृहत्किञ्चिदतो भागैरापः षड्भिस्तथोत्तर् ।।

चित्रा नक्षत्र से ५ अंश उत्तर की ओर अपांवत्स की तारा है । अपांवत्स से कुछ दूरी पर स्थूलतारात्मक आपसंज्ञक ६ अंश उत्तर दिशा में स्थित है ।। २१ ।।