सूर्य-सिद्धांत अध्याय-9 उदयास्ताधिकारः (उनका उदय और अस्त)
अथोदयस्तमययोः परिज्ञानं प्रकीर्त्यत् ।
दिवाकरकराक्रान्तमूर्तिनामप्लतेजसाम् ॥
सूर्य की किरणों से आक्रान्त अल्प तेजवाले ज्योतिष्पिण्डों के उदय एवं अस्त कालज्ञान का विवेचन कर रहा हूँ ।। १ ।।
सूर्यादभ्यधिकाः पश्चादस्तं जीवकुजार्जजाः ।
ऊनाः प्रागुदयं यान्ति शुक्रज्ञौ वक्रिणौ तथा ॥
गुर, भौम और शनि ये तीनों ग्रह सूर्य से राश्यादिमान में अधिक होने पर पश्चिम में अस्त तथा न्यून होने पर पूर्व में उदय होते है । इसी प्रकार वक्री शुक्र और बुध सूर्य से अधिक होने पर पश्चिम में अस्त तथा न्यून होने पर पूर्व में उदय होते है ।। २ ।।
ऊना विवस्वतः प्राच्यामस्तं चन्द्रज्ञभार्गवाः ।
व्रजन्त्यभ्यधिकाः पस्चादुदयं शीघ्रयायिनः ॥
शीघ्रगामी ग्रह चन्द्र, बुध और शुक्र सूर्य से न्यून होने पर पूर्व में अस्त होते है तथा सूर्य से अधिक होने पर पश्चिम में उदय होते है ।। ३ ।।
सूर्यास्तकालिकौ पश्चात्प्राच्यामुदयकालिकौ ।
दिवा चार्कग्रहौ कुर्याद्दृक्कर्माथ ग्रहस्य तु ॥
पश्चिम दिशा में ग्रहों का उदयास्त साधन करना हो तो सूर्यास्तकालिक पूर्वदिशा में उदयास्त साधन करना हो तो सूर्योदय कालिक तथा दिन में इष्ट कालिक सूर्य और ग्रह का साधन करना चाहिये । तदनन्तर ग्रह में आयन और आक्षदृक्कर्म का संस्कार करना चाहिये ।। ४ ।।
ततो लग्नान्तरप्राणाः कालांशाः षष्टिभाजिताः ।
प्रतीच्यां षड्भयुतयोस्तद्वल्लग्नान्तरासवः ॥
पूर्वोदयास्तसाधन करना हो तो सूर्य और दृग्ग्रह के “भोग्यासूकूनकस्याथ भुक्तासूनधिकस्य च” इत्यादि प्रकार से अन्तरासुओं का साधन कर तथा पश्चिमोदयास्तसाधन करना हो तो छः राशियुत सूर्य और छः राशियुत दृग्ग्रह के अन्तरासुओं का साधन कर इन अन्तरासुओं में ६० का भाग देने से जो लब्धि प्राप्त हो उसे इष्टकालांश कहते है ।। ५ ।।
एकादशामरेज्यस्य तिथिसङ्ख्यार्कजस्य च् ।
अस्तांशा भूमिपुत्रस्य दश सप्ताधिकास्ततः ॥
पश्चादस्तमयो +अष्टाभिरुदयः प्राङ्महत्तया ।
प्रागस्तमुदयः पश्चादल्पत्वाद्दशभिर्भृगोः ॥
एवं बुधो द्वादशभिश्चतुर्दशभिरंशकैः ।
वक्री शीघ्रगतिश्चार्कात्करोत्यस्त्मयोदयौ ॥
बृहस्पति के ११ शनि के १५ तथा मंगल के १७ कालांश होते है । शुक्र का नीचासतन्न में बड़ा बिम्ब होता है इसलिये पश्चिम में ८ असताकालांश और पूर्व में ८ उदय कालांश होता है । छोटे बिम्ब के कारण पूर्व में १० कालांशों से अस्त और पश्चिम में १० कालांशों से उदय होता है । वक्री होने पर शीघ्र गति बुध का बड़ा बिम्ब होने के कारण पश्छिम में १२ कालांशों से अस्त और पूर्व में १२ कालांशों से उदय होता है ।बुध का बिम्ब छोटा होने से १४ कालांशो पर पूर्व में अस्त तथा पश्छिम में उदय होता है ।। ६-८ ।।
एभ्यो +अधिकैः कालभागैर्दृश्या न्यूनैरदर्शनाः ।
भवन्ति लोके खचरा भानुभाग्रस्तमूर्तयः ॥
सूर्य के तीक्ष्ण किरणों से ढके हुए ग्रहों के बिम्ब अपने-अपने उक्त कालांशों से अधिक इष्टकालांश होने पर दर्शन योग्य होते है और न्यून इष्टकालांश होने पर अदृश्य होते है ।। ९ ।।
तत्कालांशान्तरकला भुक्त्यन्तरविभाजिताः ।
दिनादि तत्फलं लब्धं भुक्तियोगेन वक्रिणः ॥
पाठपठित कालांश और इष्टकालांशों की अन्तर कलाओं में सूर्य और ग्रह की कालगति की अन्तर कला का तथा वक्री ग्रह हो तो गतियोगकला दका भाग देने से लब्ध फल गत-गम्य दिनादि होते है ।। १० ।।
तल्लग्नासुहते भुक्ती अष्टादशशतोद्धृत् ।
स्यातां कालगती ताभ्यां दिनादि गतगम्ययोः ॥
सूर्य और इष्टग्रह की कलात्मक गतियों को ग्रहाधिष्ठित राशि के लग्नोदयासुओं से पृथक-पृथक गुणाकर १८०० का भाग दे, लब्ध फल क्रम से सूर्य और ग्रह की कालगति होती है । इन कालगतियों से पूर्वोक्त प्रकार से पूर्वोक्त कालांशों के अन्तर द्वारा उदय और अस्तकाल के गत-गम्य दियादि का साधन करना चाहिये ।।११ ।।
स्वात्यगस्त्यमृगव्याधचित्राज्येष्ठाः पुनर्वसुः ।
अभिजिद्ब्रह्महृदयं त्रयोदशभिरंशकैः ॥
हस्तश्रवणफाल्गुन्यः श्रविष्टा रोहिणीमघाः ।
चतुर्दशांशकैर्दृश्या विशाखाश्विनिदैवतम् ॥
कृत्तिकामैत्रमूलानि सार्पं रौद्रर्क्षमेव च् ।
दृश्यन्ते पञ्चदशभिराषाढाद्द्वितयं तथा ॥
स्वाती, अगस्त्य, मृगव्याध, चित्रा, ज्येष्ठा, पुनर्वसु, अभिजित और ब्रह्महृदय के १३ कालांश होते है । हस्त, श्रवण, पूर्वाफाल्गुनि, उत्तराफाल्गुनी, धनिष्ठा, रोहिणी और मघा के १४ कालांश विशाखा, अश्विनी, कृत्तिका, अनुराधा, मूल, आश्लेषा, आर्द्रा, पूर्वाषाढा तथा उत्तराषाढा के १५ कालांश, भरणी, पुष्य और मृगशिरा के सूक्ष्म बिम्ब होने के कारण २१ कालांश है तथा शेष शततारा, पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा, रेवती, अग्नि, ब्रह्म, अपांवत्स और आप के १७ कालांश है । ये सभी नक्षत्र और तारे अपने अपने कालांशों के तुल्य सूर्य से अन्तरित होने पर दृश्य और अदृश्य होते है ।। १२-१४ ।।
भरणीतिष्यसौम्यानि सौक्ष्म्यात्त्रिःसप्तकांशकैः ।
शेषाणि सप्तदशभिर्दृश्यादृश्यानि भानि तु ॥
अष्टादशशताभ्यस्ता दृश्यांशाः स्वोदयासुभिः ।
विभज्य लब्धाः क्षेत्रांशास्तैर्दृश्यादृश्यताथवा ॥
नक्षत्र और ताराओं के पूर्वोक्त कालांशों को १८०० से गुणाकर ग्रह की राशि के उदयासुओं से भाग देने पर भागफल उन नक्षत्र और तारों के क्षेत्रांश अंश होते है । उनसे ग्रहों की तरह नक्षत्र और तारों का भी उदय-अस्त साधन पूर्वोक्तरीति से करना चाहिये ।। १६ ।।
प्रागेषामुदयः पश्चादस्तो दृक्कर्म पूर्ववत् ।
गतैष्यदिवसप्राप्तिर्भानुभुक्त्या सदैव हि ॥
नक्षत्रों का पूर्व में उदय और पश्चिम में अस्त होता है । नक्षत्रों में पूर्ववत आक्षदृक्कर्म का संस्कार करना चाहिये । सदैव सूर्य की गति से ही गत गम्य दिनादि का साधन होता है ।। १७ ।।
अभिजिद्ब्रह्महृदयं स्वातीवैष्णववासवाः ।
अहिर्बुध्न्यमुदक्ष्थत्वान्न लुप्यन्ते +अर्करश्मिभिः ॥
अभिजित, ब्रह्महृदय, स्वाती, श्रवण, धनिष्ठा तथा उत्तराभाद्रपदा का उत्तर शर अधिक है इसलिये ये कभी भी अस्त नहीं होते है ।। १८ ।।