Shree Naval Kishori

मध्यलग्नसमे भानौ हरिजस्य न सम्भवः ।
अक्षोदङ्मध्यभक्रान्तिसाम्ये नावनतेरपि ॥

त्रिभोनलग्न के तुल्य रवि होने पर लम्बन का अभाव होता है । अंक्षाशों के और मध्यलग्न अर्थात दशम लग्न वा त्रिभोनलग्न के उत्तर क्रान्त्यंशों के समान होने पर निति का अभाव होता है ।। १ ।।

देशकालविशेषेण यथावनतिसम्भवः ।
लम्बनस्यापि पूर्वान्यदिग्वशाच्च तथोच्यत् ।।

देश और काल के अनुसार जिस प्रकार नति का सम्भव और त्रिभोनलग्न के पूर्वापर दिशा के अनुरोध से देशकाल विशेष से जैसे लम्बन उत्पन्न होता है उसका विवेचन करने जा रहा हूँ ।। २ ।।

लग्नं पर्वान्तनाडीनां कुर्यात्स्वैरुदयासुभिः ।
तज्ज्यान्त्यापक्रमज्याघ्नी लम्बज्याप्तोदयाभिधा ॥

पूर्वान्तकाल में स्वदेशीय उदयासुओं द्वारा लग्न साधन करना चाहिये । तदन्तर उसकी ज्या को परमक्रान्तिज्या से गुणाकर लम्बज्या से भाग देने पर लब्धि उदय संज्ञिका लग्न की अग्रा होगी ।। ३ ।।

तदा लङ्कोदयैर्लग्नं मध्यसंज्ञं यथोदितम् ।
तत्क्रान्त्यक्षांशसंयोगो दिक्षाम्ये +अन्तरमन्यथा ॥

पूर्वान्तकाल में लंकोदयासुओं से पूर्वोक्त प्रकार से मध्यलग्न का साधन कर इस के क्रान्त्यंश और स्वदेशीय अंक्षाशों का एकदिशा में योग और भिन्न दिशा में अन्तर करना चाहिये । इस प्रकार जो शेषांश दक्षिण अथवा उत्तर दिशा के हों उनकी ज्या को मध्यज्या कहते है ।। ४ ।।

शेषं नतांशास्तन्मौर्वी मध्यज्या साभिधीयत् ।
मध्योदयज्ययाभ्यस्ता त्रिज्याप्ता वर्गितं फलम् ॥
मध्यज्यावर्गविश्लिष्टं दृक्क्षेपः शेषतः पदम् ।
तत्त्रिज्यावर्गविश्लेषान्मूलं शङ्कुः स दृग्गतिः ॥

मध्यज्या को उदयज्या से गुणाकर त्रिज्या का भाग देने से जो लब्धि प्राप्त हो उसके वर्ष को मध्यज्या के वर्ग में घटाकर शेष का वर्गमूल लेने से दृक्क्षेप होता है । दृक्क्षेप के वर्ग को त्रिज्यावर्ग में घटाकर शेष का वर्गमूल लेने से दृग्गतिसंज्ञक शंकु होता है ।। ५-६ ।।

नतांशबाहुकोटिज्ये +अस्फुटे दृक्क्षेपदृग्गती ।
एकज्यार्धगतश्छेदो लब्धं दृग्गतिजीवया ॥
मध्यलग्नार्कविश्लेषज्या छेदेन विभाजिता ।
रवीन्द्वोर्लम्बनं ज्ञेयं प्राक्पश्चाद्घटिकादिकम् ॥

दशमलग्न ने नातांशों की भुजज्या और कोटिज्या को क्रम से स्थूल दृकक्षेप और दृग्गति कहते है ।एक राशिज्या के वर्ग में दृग्गतिज्या का भाग देने से लब्धि छेदसंज्ञक होती है । त्रिभोन लग्न और सूर्य के अन्तरांशों की ज्या में छेद का भाग देने से जो लब्धि प्राप्त हो वह त्रिभोनलग्न से पूर्वापर भाग में सूर्य-चन्द्र का घटिकादि लम्बन होता है ।। ७-८ ।।

मध्यलग्नाधिके भानौ तिथ्यन्तात्प्रविशोधयेत् ।
धनमूने +असकृत्कर्म यावत्सर्वं स्थिरीभवेत् ॥

मध्यलग्न अर्थात त्रिभोनलग्न से सूर्य अधिक हो तो दर्शान्तकाल में लम्बन को हीन करना चाहिये यदि त्रिभोनलग्न से सूर्य न्यून हो तो दर्शान्तकाल में लम्बन को धन करना चाहिये । लम्बन संस्कृत दर्शान्त काल से पुनः पुनः तब तक लम्बन आदि सम्पूर्ण गणित करें । जब तक लम्बन आदि स्थिर न हो जाय अर्थात पूर्व तुल्य न हो जाय ।इस प्रकार साधन किया हुआ स्थिरीभूत दर्शान्तकाल स्पष्ट दर्शान्तकाल होता है ।।९ ।।

दृक्क्षेपः शीततिग्मांश्वोर्मध्यभुक्त्यन्तराहतः ।
तिथिघ्नत्रिज्यया भक्तो लब्धं सावनतिर्भवेत् ॥
दृक्क्षेपात्सप्ततिहृताद्भवेद्वावनतिः फलम् ।
अथवा त्रिज्यया भक्तात्सप्तसप्तकसङ्गुणात् ॥
मध्यज्यादिग्वशात्सा च विज्ञेया दक्षिणोत्तरा ।
सेन्दुविक्षेपदिक्षाम्ये युक्ता विश्लेषितान्यथा ॥

दृकक्षेप को सूर्यचन्द्र के गत्यन्तर से गुणाकर १५ से गुणित त्रिज्या से भाग देने पर लब्धि कलादि नति होती है ।। १० ।।
‘दृक्क्षेप में ७० का भाग देने से अथवा दुक्क्षेप को ४९ से गुणाकर त्रिज्या का भाग देने से फल कलादि नति होती है । ११ ।।
मध्यज्या के दिशा के अनुसार नति की दिशा जाननी चाहिए । नति और चन्द्रशर का एक दिशा में योग और भिन्न दिशा में अन्तर करने से शर होता है ॥ १२ ।।

तया स्थितिविमर्दार्धग्रासाद्यं तु यथोदितम् ।
प्रमाणं वलनाभीष्टग्रासादि हिमरश्मिवत् ॥

नति संस्कृत स्पष्टशर से चन्द्रग्रहणोक्त प्रकार से स्थित्यर्ध , मर्दार्ध, ग्रास, सम्मीलन, उन्मीलन, वलन, इष्टग्रास आदि का साधन करना चाहिये ।। १३ ।।

स्थित्यर्धोनाधिकात्प्राग्वत्तिथ्या(?)न्तलाल्लम्बनं पुनः ।
ग्रासमोक्षोद्भवं साध्यं तन्मध्यहरिजान्तरम् ॥
प्राक्कपाले +अधिकं मध्याद्भवेत्प्राग्रहणं यदि ।
मौक्षिकं लम्बनं हीनं पश्चार्धे तु विपर्ययः ॥
तदा मोक्षस्थितिदले देयं प्रग्रहणे तथा ।
हरिजान्तरकं शोध्यं यत्रैतत्स्याद्विपर्ययः ॥
एतदुक्तं कपालैक्ये तद्भेदे लम्बनैकता ।
स्वे स्वे स्थितिदले योज्या विमर्दार्धे +अपि चोक्तवत् ॥

मानैक्यखण्ड के वर्ग में स्पष्टशर का वर्ग घटाकर मूल लेने से स्थित्यर्धकला होती है । इसको ६० से गुणाकर सूर्य-चन्द्र की गत्यन्तर कला से भाग देने से घटिकादिक स्थित्यर्ध होता है । तिथ्यन्त अर्थात गणितागत दर्शान्तकाल में स्पर्शकालिक स्थित्यर्ध घटाकर तथा मोक्षकालिक स्थित्यर्ध जोड़कर “एकज्यावर्गतश्छेद-” इत्यादि प्रकार से असकृत् स्पार्शिकलम्बन और मौक्षिक लम्बन का साधन करना चाहिये । पूर्वकपाल में मध्यकालिकलम्बन से स्पार्शिकलम्बन अधिक और मोक्षिकलम्बन न्यून हो अथवा पश्चिमकपाल में मध्यलम्बन से स्पार्शिकलम्बन न्यून हो तथा मौक्षिकलम्बन अधिक हो तो स्पार्शिकलम्बन और मध्यलम्बन का तथा मध्यलम्बन और मौक्षिकलम्बन का अन्तर क्रम से स्पर्शस्थित्यर्ध और मोक्षस्थित्यर्ध में जोड़ना चाहिये । यदि पूर्वकपाल में मध्यलम्बन से स्पर्शिकलम्बन न्यून हो और मौक्षिकलम्बन अधिक हो अथवा पश्चिम कपाल में मध्यलम्बन से स्पार्शिकलम्बन् अधिक हो और मौक्षिकलम्बन न्यून हो तो स्पर्शिकलम्बन और मध्यकलम्बन तथा मध्यलंबन और मौक्षिकलंबन का अन्तर अपने अपने स्थित्यर्धों में घटाना चाहिये । यह लम्बनान्तरों का संस्कार स्पर्श मध्य अथवा मध्य मोक्ष एक कपाल में होने पर होता है यदि कपालभेद हो अर्थात पूर्वकपाल में स्पर्श और पश्चिम कपाल में मध्य अथवा पूर्वकपाल में मध्य और पश्चिम कपाल में मोक्ष हो तब लम्बनों के योग का संस्कार होता है । ऐसे ही मर्दार्ध में भी उक्तरीति से अपने अपने स्थित्यधों में संस्कार होता है ।। १४-१७ ।।