Shree Naval Kishori

सूर्य-सिद्धांत अध्याय-6 छेद्यकाधिकारः (ग्रहणों का पूर्व अनुमान/ आकलन)

न छेद्यकमृते यस्माद्भेदा ग्रहणयोः स्फुटाः ।
ज्ञायन्ते तत्प्रवक्ष्यामि छेद्यकज्ञानमुत्तमम् ॥

छेद्यक के बिना सूर्यचन्द्र के ग्रहण के भेद स्पष्ट ज्ञात नहीं होते इसलिये उस उत्तम छेद्यक ज्ञान को कह रहा हूँ ।। १ ।।

सुसाधितायामवनौ बिन्दुं कृत्वा ततो लिखेत् ।
सप्तवर्गाङ्गुलेनादौ मण्डलं वलनाश्रितम् ॥

संशोधित समतल भूमि में इष्टस्थान में बिन्दु निश्चित कर उस बिन्दु से ७ के वर्ग के व्यासार्ध से निर्मित प्रथम वृत्त वलनवृत्त होता है ।। २ ।।

ग्राह्यग्राहकयोगार्धसम्मितेन द्वितीयकम् ।
मण्डलं तत्समासाख्यं ग्राह्यार्धेन तृतीयकम् ॥

ग्राह्रा और ग्राहकबिम्ब के योगार्ध से समाससंज्ञक दूसरा वृत तथा ग्राह्यबिम्ब के व्यासार्ध से तीसरा ग्राह्य वृत्त का निर्माण करें ।। ३ ।।

याम्योत्तराप्राच्यपरासाधनं पूर्ववद्दिशाम् ।
प्रागिन्दोर्ग्रहणं पश्चान्मोक्षो +अर्कस्य विपर्ययात् ॥

इन वृतों में त्रिप्रश्नाधिकारोक्त प्रकार से पूर्वापरा और याम्योत्तरा दिशा का साधना करना चाहिए । चन्द्रमा का पूर्व दिशा में स्पर्श और पश्चिम दिशा में मोक्ष तथा सूर्य का पश्चिमदिशा में स्पर्श एवं पूर्वदिशा में मोक्ष होता है ।। ४ ।।

यथादिशं प्राग्रहणं वलनं हिमदीधितेः ।
मौक्षिकं तु विपर्यस्तं विपरीतमिदं रवेः ॥

चन्द्र के स्पर्शिक वलन का पूर्वचिन्ह से पूर्वापर सूत्र से अर्धज्या की तरह यथागत दिशा में न्यास होता है । मौक्षिक वलन का विपरीत अर्थात पश्चिम चिन्ह से पूर्वापर सूत्र से अर्धज्या की तरह दक्षिण हो तो उत्तराभिमुख और उत्तर हो तो दक्षिणाभिमुख दान करना चाहिये । सूर्य का स्पार्शिकवलन पश्छिम चिन्ह से पूर्वापर सूत्र से दक्षिण हो तो उत्तराभिमुख और उत्तर हो तो दक्षिणाभिमुख और उत्तर हो तो उत्तराभिमुख दान करना चाहिए ।। ५ ।।

वलनाग्रान्नयेन्मध्यं सूत्रं यद्यत्र संस्पृशेत् ।
तत्समासे ततो देयौ विक्षेपौ ग्रासमौक्षिकौ ॥

वलनाश्रित वृत्त में स्थित स्पार्शिक और मौक्षिक वलनाग्रा चिन्हों से वृत्त के केन्द्रपर्यन्त किये हुए सूत्र मानैक्यार्ध वृत की परिधि को जहां स्पर्श करे वहां से अर्धज्या के तुल्य क्रमानुसार स्पर्श और मोक्षकाल के शरों का वक्ष्यमाण क्रम से दान करना चाहिये ।। ६ ।।

विक्षेपाग्रात्पुनः सूत्रं मध्यबिन्दुं प्रवेशयेत् ।
तद्ग्राह्यबिन्दुसंस्पर्शाद्ग्रासमोक्षौ विनिर्दिशेत् ॥

मानैक्यार्धवृत्तस्थ शराग्र चिह्नो से वृत्त के केंद्र पर्यन्त की गई रेखा और ग्राह्य वृत्त की परिधि के संपात चिह्नो पर स्पर्श और मोक्ष होता है । तथा मोक्षकालिक शराग्रसुत्र और ग्राह्म बिम्ब के सम्पात बिंदु पर मोक्ष होता है ।।७।।

नित्यशो +अर्कस्य विक्षेपाः परिलेखे यथादिशम् ।
विपरीताः शशाङ्कस्य तद्वशादथ मध्यमम् ॥
वलनं प्राङ्मुखं देयं तद्विक्षेपैकता यदि ।
भेदे पश्चान्मुखं देयमिन्दोर्भानोर्विपर्ययात् ॥

सूर्य ग्रहण में शर का दान दिशा के क्रम से करना चाहिए । चंद्रग्रहण में इससे विपरीत शरदान होता है । चंद्रग्रहण में मध्य ग्रहण कालिक वलन एवं शर दोनों की दक्षिण दिशा हो तो उत्तर चिह्न से , उत्तर दिशा हो तो दक्षिण चिह्न से, पूर्वाभिमुख मध्यग्रहण कालिक स्पष्ट वलन का दान करना चाहिए । यदि दक्षिण वलन और उत्तरशर हो तो दक्षिण चिह्न से , उत्तर वलन और दक्षिणशर हो तो उत्तर चिह्न से, पश्चिमामिमुख मध्यग्रहणकलिक स्पष्ट वलन का दान करना चाहिए । यदि दक्षिण वलन और शर हो तो उत्तर चिह्न से , तथा उत्तर वलन दक्षिण शर हो तो दक्षिण चिह्न से पूर्वाभिमुख वलन का दान करना चाहिए ।।८-९।।

वलनाग्रात्पुनः सूत्रं मध्यबिन्दुं प्रवेशयेत् ।
मध्यसूत्रेण विक्षेपं वलनाभिमुखं नयेत् ॥
विक्षेपाग्राल्लिखेद्वृत्तं ग्राहकार्धेन तेन यत् ।
ग्राह्यवृत्तं समाक्रान्तं तद्ग्रस्तं तमसा भवेत् ॥

वलनाश्रितवृत्त में स्थित मध्यवलनाग्र चिन्ह से वृत्त के केन्द्रपर्यन्त की गई रेखा में केन्द्र से मध्यविक्षेप का दान कर शराग्र को केन्द्र मान कर छादकबिम्ब के मानार्ध तुल्य व्यासार्ध से निर्मित वृत्तग्राह्यवृत्त जितना आवृत होगा उतना भाग छादकबिम्ब से आच्छादित होगा ।। १०-११ ।।

छेद्यकं लिखता भूमौ फलके वा विपश्चिता ।
विपर्ययो दिशां कार्यः पूर्वापरकपालयोः ॥

समान भूमि में अथवा काष्ठादि से निर्मित पट्टिका में छेद्यक बनाते समय गणक को पूर्वापर कपाल में दिशाओं का व्यतिक्रम करना चाहिये ।

स्वच्छत्वाद्द्वादशांशो +अपि ग्रस्तश्चन्द्रस्य दृश्यत् ।
लिप्तात्रयमपि ग्रस्तं तीक्ष्णत्वान्न विवस्वतः ॥

चन्द्र बिम्ब के स्वच्छ होने से १२वाँ भाग भी ग्रसित होने पर चन्द्र ग्रहण स्पष्ट दिखलाई देता है किन्तु सूर्यबिम्ब के तीक्ष्ण प्रकाश के कारण ३ कला का भी सूर्यग्रहण दृष्टिगत नहीं होता ।। १३ ।।

स्वसंज्ञितास्त्रयः कार्या विक्षेपाग्रेषु बिन्दवः ।
तत्र प्राङ्मध्ययोर्मध्ये तथा मौक्षिकमध्ययोः ॥
लिखेन्मत्स्यौ तयोर्मध्यान्मुखपुच्छविनिःसृतम् ।
प्रसार्य सूत्रद्वितयं तयोर्यत्र युतिर्भवेत् ॥
तत्र सूत्रेण विलिखेच्चापं बिन्दुत्रयस्पृशा ।
स पन्था ग्राहकस्योक्ता येनासौ सम्प्रयास्यति ॥

स्पर्श, मध्य और मोक्षकालिक शराग्रों पर क्रम से स्पर्श, मध्य और मोक्ष संज्ञक तीन बिन्दु कल्पना कर स्पर्श और मध्य तथा मध्य और मोक्ष संज्ञक बिन्दुओं से दो मत्स्य बनाकर उनकी मुखपुच्छगत रेखाओं को अपने मार्ग में बढाने से जहां उनका योग हो उस योग बिन्दु को केन्द्र मानकर स्पर्श, मध्य और मोक्षसंज्ञक बिन्दुओं को स्पर्श करते हुए व्यासार्धरूप सूत्र से जो चाप बनेगा वह चापात्मक ग्राहक मार्ग होगा । उस मार्ग से ग्राहक बिम्ब ग्राह्यबिम्ब के आच्छादन के लिए गमन करेगा ।। १४-१६ ।।

ग्राह्यग्राहकयोगार्धात्प्रोज्झ्येष्टग्रासमागतम् ।
अवशिष्टाङ्गुलसमां शलाकां मध्यबिन्दुतः ॥
तयोर्मार्गोन्मुखीं दद्याद्ग्रासतः प्राग्ग्रहाश्रिताम् ।
विमुञ्चतो मोक्षदिशि ग्राहकाध्वानमेव सा ॥
स्पृशेद्यत्र ततो वृत्तं ग्राहकार्धेन संलिखेत् ।
तेन ग्राह्यं यदाक्रान्तं तत्तमोग्रस्तमादिशेत् ॥

मानैक्यखण्ड में इष्टग्रास घटाकर शेष अंगुल तुल्य शलाका को मध्यबिन्दु से स्पर्श मोक्ष शराग्र की दिशा में अंकित करे अर्थात मध्यग्रास से पूर्व इष्टग्रास होने पर स्पर्श शराग्राभिमुखी और मध्यग्रास से पश्चात इष्टग्रास होने पर मोक्षशराग्राभिमुखी शलाका अंकित करनी चाहिये । शलाका ग्राहकमार्ग को जहाँ सपर्श करे उस बिन्दु को केन्द्र मानकर ग्राहक बिम्ब व्यासार्द्ध से वृत्त बनायें वह वृत्त ग्राह्य वृत्त के जितने भाग को काटेगा उतना भाग ग्राहक बिम्ब से आच्छादित होगा ।। १७-१९ ।।

मानान्तरार्धेन मितां शलाकां ग्रासदिङ्मुखीम् ।
निमीलनाख्यां दद्यात्सा तन्मार्गे यत्र संस्पृशेत् ॥
ततो ग्राहकखण्डेन प्राग्वन्मण्डलमालिखेत् ।
तद्ग्राह्यमण्डलयुतिर्यत्र तत्र निमीलनम् ॥

ग्राह्रा विम्ब के केन्द्र से मानान्तर खण्ड के तुल्य एक शलाका ग्रास की दिशा की ओर रखने से ग्राहक मार्ग को जिस स्थान पर शलाका स्पर्श करती है उस स्थान पर सम्मीलन का केन्द्र होता है । इसी केन्द्र से ग्राहक बिम्ब व्यासार्ध से खीचा गया वृत्त ग्राह्य बिम्ब को जहां स्पर्श करेगा वही सम्मीलन का आरम्भ स्थान होगा ।।२०-१२ ।।

एवमुन्मीलने मोक्षदिङ्मुखीं सम्प्रसारयेत् ।
विलिखेन्मण्डलं प्राग्वदुन्मीलनमथोक्तवत् ॥

इसी प्रकार मध्यबिन्दु से मोक्षशराग्र की दिशा में मानान्तरार्ध तुल्य शलाका रखकर, शलाका और ग्राहकमार्ग के योगस्थान से ग्राहक बिम्ब व्यासार्ध से ग्राहकवृत्त बनायें ।ग्राहकवृत्त और ग्राह्यवृत्त का जिस दिशा में जिस स्थान पर योग होगा उस स्थान से उस दिशा में उन्मीलन आरम्भ होगा ।। २२ ।।

अर्धादूने सधूंरं स्यात्कृष्णमर्धाधिकं भवेत् ।
विमुञ्चतः कृष्णतांरं कपिलं सकलग्रह् ।।

चन्द्रग्रहण में चन्द्रबिम्ब का आधे से अल्प ग्रास होने पर ग्रस्तभाग धूम्रवर्ण का अर्धाधिक ग्रस्त होने पर ग्रस्तभाग कृष्णवर्ण का, मोक्षाभिमुख होने पर कृष्णताम्रवर्ण तथा सम्पूर्ण ग्रहण होने पर कपिलवर्ण होता है ।सूर्यग्रहण में सूर्य का ग्रास सदैव कृष्णवर्ण ही होता है ।। २३ ।।

रहस्यमेतद्देवानां न देयं यस्य कस्यचित् ।
सुपरीक्षितशिष्याय देयं वत्सरवासिन् ।।

छेद्यक प्रकरण देवताओं का गोपनीय विषय है ।इसे जिस-किसी को नहीं देना चाहिये एक वर्ष पर्यन्त अपने पास रखकर भलीभांति परीक्षा किये हुए शिष्य को यह विद्या देनी चाहिये ।। २४ ।।