Shree Naval Kishori

सूर्य-सिद्धांत अध्याय-10 चन्द्रशृंगोन्नत्यधिकारः (चंद्रमा का उदय और अस्त)

उदयास्तविधिः प्राग्वत्कर्तव्यः शीतगोरपि ।
भागैर्द्वादशभिः पश्चाद्दृश्यः प्राग्यात्यदृश्यताम् ॥

चन्द्रमा के भी उदय और अस्त का साधन पूर्वोक्त विधि से करना चाहिये । चन्द्रमा १२ अंशों तक सूर्य से अन्तरित होकर पश्चिम में उदित और पूर्व दिशा में अस्त होता है ।। १ ।।

रवीन्द्वोः षड्भयुतयोः प्राग्वल्लग्नान्तरासवः ।
एकराशौ रवीन्द्वोश्च कार्या विवरलिप्तिकाः ॥
तन्नाडिकाहते भुक्ती रवीन्द्वोः षष्टिभाजित् ।
तत्फलान्वितयोर्भूयः कर्तव्या विवरासवः ॥
एवं यावत्स्थिरीभूता रवीन्द्वोरन्तरासवः ।
तैः प्राणैरस्तमेतीन्दुः शुक्ले +अर्कास्तमयात्परम् ॥

शुक्लपक्ष में अभीष्टदिन में सूर्यास्तकाल के समय स्फुट सूर्य और चन्द्रमा का साधन कर चन्द्रमा में आयन और आक्षदृक्कर्म का संस्कार करें । स्फुट सूर्य और चन्द्र में ६ राशि जोड़कर इंके अन्तारासुओं का साधन करना चाहिये । सूर्यास्त के अनन्तर इन अन्तरासुओं के तुल्य रात्रि व्यतीत होने पर चन्द्रमा अस्त होता है ।। २-४ ।।

भगणार्धं रवेर्दत्त्वा कार्यास्तद्विवरासवः ।
तैः प्राणैः कृष्णपक्षे तु शीतांशुरुदयं व्रजेत् ॥

भगणार्ध अर्थात ६ राशि सूर्य में जोड़कर दृक्कर्म संस्कृत केवल चन्द्र के अन्तारासुओं का साधन करना चाहिये इन्ही अन्तरासुओं के तुल्य सूर्यास्त के अनन्तर कृष्णपक्ष में चन्द्रमा उदित होता है ।। ५ ।।

अर्केन्द्वोः क्रान्तिविश्लेषो दिक्षाम्ये युतिरन्यथा ।
तज्ज्येन्दुरर्काद्यत्रासौ विज्ञेया दक्षिणोत्तरा ॥
मध्याह्नेन्दुप्रभाकर्णसङ्गुणा यदि सोत्तरा ।
तदार्कघ्नाक्षजीवायां शोध्या योज्या च दक्षिणा ॥
शेषं लम्बज्यया भक्तं लब्धो बाहुः स्वदिङ्मुखः ।
कोटिः शङ्कुस्तयोर्वर्गयुतेर्मूलं श्रुतिर्भवेत् ॥

सूर्य और चन्द्र की स्पष्टक्रान्तिज्याओं का एक दिशा में अन्तर तथा भिन्न दिशा में योग करने से सूर्य से, चन्द्रमा जिस दिशा में रहता है उस दिशा की ज्या होती है । इस ज्या रूप भुज को चन्द्रच्छायाकर्ण से गुणाकर द्वादश गुणित अक्षज्या में, उत्तर भुज होने पर ऋण तथा दक्षिण भुज होने पर धन करने से जो शेष रहे उसमे स्वदेशीय लम्बज्या का भाग देने से भाग फल संस्कारोत्पन्न दिशा में भुज होता है । द्वादशांगुल शंकु कोटी होती है । इन दोनों के वर्गयोग का वर्गमूल लेने से श्रृंगोन्नति में कर्ण होता है ।। ६-८ ।।

सूर्योनशीतगोर्लिप्ताः शुक्लं नवशतोद्धृताः ।
चन्द्रबिम्बाङ्गुलाभ्यस्तं हृतं द्वादशभिः स्फुटम् ॥

सूर्य रहित चन्द्र की कला में ९०० का भाग देने से लब्धि चन्द्रमा का अंगुलात्मक शुल्क मान होता है । इसे अंगुलात्मक चन्द्रबिम्ब से गुणाकर १२ से भाग देने पर प्राप्त लब्धि स्पष्ट शुक्लमान होता है ।। ९ ।।

दत्त्वार्कसंज्ञितं बिन्दुं ततो बाहुं स्वदिङ्मुखम् ।
ततः पश्चान्मुखी कोटिं कर्णं कोट्यग्रमध्यगम् ॥
कोटिकर्णयुताद्बिन्दोर्बिम्बं तात्कालिकं लिखेत् ।
कर्णसूत्रेण दिक्षिद्धिं प्रथमं परिकल्पयेत् ॥
शुक्लं कर्णेन तद्बिम्बयोगादन्तर्मुखं नयेत् ।
शुक्लाग्रयाम्योत्तरयोर्मध्ये मत्स्यौ प्रसाधयेत् ॥
तन्मद्ख्यसूत्रसंयोगाद्बिन्दुत्रिस्पृग्लिखेद्धनुः ।
प्राग्बिम्बं यादृगेव स्यात्तादृक्तत्र दिने शशी ॥

समतल भूमि में दिक्साधन कर दिक्सूत्र संपात में अर्क संज्ञक बिन्दु बना कर वहाँ से अपनी दिशा में पूर्व साधित भुज के तुल्य रेखा करे । उस भुज के अग्र से पश्चिमाभिमुखी द्वादश अंगुलात्मक कोटी का दान कर कोटि के अग्र से सूर्यसंज्ञक बिन्दु पर्यन्त कर्ण के तुल्य रेखा करे । कोटीकर्ण के योग बिन्दु को केन्द्र मानकर तात्कालिक अंगुलात्मक चन्द्रबिम्ब व्यासार्द्ध से चन्द्रमण्डल बनाकर कर्णरेखा से दिक्साधन करना चाहिये । फिर चन्द्रबिम्बपरिधि और कर्णरेखा के सम्पात बिन्दु से कर्णरेखा के मार्ग से चन्द्रबिम्ब केन्द्र के ओर पूर्व साधित शुक्ल अंकित कर शुक्लाग्र और दक्षिणोत्तर चिन्हों से दो मत्स्य बनाकर उनके मुख्पुच्छगत रेखाओं के सम्पात बिन्दु को केन्द्र मानकर शुक्लाग्र और दक्षिणोत्तर चिन्हों को स्पर्श करते हुए चाप से निर्मित चन्द्रवृत क्षेत्रस्थ चापच्छेद से यहाँ जैसे दिखता है वैसा ही उस दिन आकाश में भी चन्द्रमंडल दिखेगा ।। १०-१३ ।।

कोट्या दिक्साधनात्तिर्यक्षूत्रान्ते शृङ्गमुन्नतम् ।
दर्शयेदुन्नतां कोटिं कृत्वा चन्द्रस्य साकृतिः ॥

चन्द्र मण्डल में कर्ण रेखा की तरह कोटीरेखा से दिक्साधन कर कोटि को उन्नत करके दक्षिणोत्तर रेखा के अन्त में अर्थात दक्षिण दिशा की ओर अथवा उत्तर दिशा की ओर उन्नत श्रृंग को बनाने से आकाश में स्थित चन्द्रमा की दृश्य आकृति होती है ।। १४ ।।

कृष्णे षड्भयुतं सूर्यं विशोध्येन्दोस्तथासितम् ।
दद्याद्वामं भुजं तत्र पश्चिमं मण्डलं विधोः ॥

कृष्णपक्ष में ६ राशियुत सूर्य को चन्द्रमा में घटाकर पूर्वोक्त प्रकार से असितमान का साधन करना चाहिये । यानाः भुज का संस्कार विपरीत होता है तथा चन्द्रमण्डल के पश्चिम भाग में कृष्णमान की वृद्धि होती है ।। १० ।।