सूर्य-सिद्धांत अध्याय-14 मानाध्यायः (लोकों की गति और मानवीय क्रिया-कलाप)
ब्राह्मं दिव्यं तथा पित्र्यं प्राजापत्यं गुरोस्तथा ।
सौरं च सावनं चान्द्रमार्क्षं मानानि वै नव् ।।
ब्रह्मा, दिव्य, पित्र्य, प्राजापत्य, गौरव, सौर, सावन, चान्द्र तथा नक्षत्र – ये नौ प्रकार के काल मान बताये गए है ।। १ ।।
चतुर्भिर्व्यवहारो +अत्र सौरचान्द्रार्क्षसावनैः ।
बार्हस्पत्येन षष्ट्यब्दं ज्ञेयं नान्यैस्तु नित्यशः ॥
यहाँ सौर, चन्द्र, नक्षत्र और सावन इन चार मानो का व्यवहार होता है । साठ सवत्सरों को बार्हस्पत्य मान से गणना होती है । शेष चार ब्राह्म, पित्र्य, दिव्य तथा प्राजापत्य मानो की नित्य आवश्यकता नहीं पड़ती ।। २ ।।
सौरेण द्युनिशोर्मानं षडशीतिमुखानि च् ।
अयनं विषुवच्चैव संक्रान्तेः पुण्यकालता ॥
दिन-रात्री का मान, षडशीतिमुख सक्रान्तियो का मान, अयन, विषुव, तथा सक्रान्तियों का पुण्यकाल सौर मान से ज्ञात किया जाता है ।। ३ ।।
तुलादि षडशीत्यह्नां षडशीतिमुखं क्रमात् ।
तच्चतुष्टयमेव स्याद्द्विस्वभावेषु राशिषु ॥
षड्विंशे धनुषो भागे द्वाविंशे निमिषस्य च् ।
मिथुनाष्टादशे भागे कन्यायास्तु चतुर्दश् ।।
तुलादि से ८६ दिनों पर एक षडशीतिमुख होता है । ये क्रम से चार द्विस्वभाव राशियों में होती है । तुलादि से ८६ दिनों पर तदन्तर मीन के २२ अंश पर तत्पश्चात मिथुन के १८ वे अंश पर तथा कन्या के १४ वे अंश पर षडशीतिमुख सक्रांति का काल होता है ।। ४-५ ।।
ततः शेषाणि कन्याया यान्यहानि तु षोडश् ।
क्रतुभिस्तानि तुल्यानि पितॄणां दत्तमक्षयम् ॥
कन्या राशि के जो १६ दिन रह जाते है । वे यज्ञों के तुल्य होते है तथा उनमे पितरों के लिए दिया हुआ दान अक्षय होता है ।। ६ ।।
भचक्रनाभौ विषुवद्द्वितयं समसूत्रगम् ।
अयनद्वितयं चैव चतस्रः प्रथितास्तु ताः ॥
तदन्तरेषु संक्रान्तिद्वितयं द्वितयं पुनः ।
नैरन्तर्यात्तु संक्रान्तेर्ज्ञेयं विष्णुपदीद्वयम् ॥
राशि चक्र में समसूत्रगत दो विषुव संक्रांतियाँ तथा एक ही व्यास रेखागत २ अयन संक्रान्तियाँ कुल चार संक्रान्तियाँ प्रसिद्ध है । इन संक्रान्तियों के मध्य में 2-2 संक्रान्तियाँ होती है । अव्यवहित क्रम से उक्त चार संक्रान्तियों के बाद वाली १-१ संक्रांति विष्णुपदी संज्ञक होती है । इस प्रकार विषुव संक्रांतियों में दो तथा अयन संक्रांतियों में दो विष्णुपदी सक्रान्तियाँ होती है ।। ७-८ ।।
भानोर्मकरसङ्क्रान्तेः षण्मासा उत्तरायणम् ।
कर्क्यादेस्तु तथैव स्यात्षण्मासा दक्षिणायनम् ॥
द्विराशिनाथ ऋतवस्ततो +अपि शिशिरादयः ।
मेषादयो द्वादशैते मासास्तैरेव वत्सरः ॥
सूर्य के मकर राशि में संक्रमण काल से छः मास तक उत्तरायण एवं कर्क संक्रांति से छः मास तक दक्षिणायन होता है । दो-दो राशियों के भोगकाल को ऋतू कहा जाता है । शिशिरादि ऋतूओं की प्रवृत्ति मकर राशि से होती है । मेषादि १२ राशियों में सूर्य के रहने से १२ मास होते है तथा इन्ही १२ मासों से १ सौर वर्ष होता है ।। ९-१० ।।
अर्कमानकलाः षष्ट्या गुणिता भुक्तिभाजिताः ।
तदर्धनाड्यः सङ्क्रान्तेरर्वाक्पुण्यं तथा पर् ।।
सूर्य बिम्ब के कलामान को ६० से गुणाकर सूर्य की गति से भाग देने पर जो लब्धि घटयादी हो उसका आधा घटी संक्रांति काल से पूर्व तथा पश्चात् में संक्रांति का पूण्य काल होता है ।। ११ ।।
अर्काद्विनिःसृतः प्राचीं यद्यात्यहरहः शशी ।
तच्चान्द्रमानमंशैस्तु ज्ञेया द्वादशभिस्तिथिः ॥
सूर्य और चन्द्रमा की युति के अनन्तर चन्द्रमा सूर्य से पृथक होकर प्रतिदिन जितना पूर्व दिशा में जाता है वही चान्द्रमान है । सूर्य से चन्द्रमा के अन्तर १२ अंश होने पर १ तिथि होती है ।। १२ ।।
तिथिः करणमुद्वाहः क्षौरं सर्वक्रियास्तथा ।
व्रतोपवासयात्राणां क्रिया चान्द्रेण गृह्यत् ।।
तिथि, करण , विवाह, क्षौर तथा जातकर्म प्रभृति अन्य सभी कार्य, व्रत-उपवास तथा यात्रा की क्रियायें चांद्रमान से व्यवहृत होती है ।। १३ ।।
त्रिंशता तिथिभिर्मासश्चान्द्रः पित्र्यमहः स्मृतम् ।
निशा च मासपक्षान्तौ तयोर्मध्ये विभागतः ॥
30 तिथियों का १ चंद्रमास होता है । वही पितरों का एक अहोरात्र होता है । मासान्त के मध्यरात्री तथा पक्षान्त में पितरों का दिनार्ध होता है । इन दोनों के मध्य भाग में साढ़े सात तिथि से दिन का तथा कृष्णपक्ष के अमावास्या के बाद साढ़े सात तिथि से रात्री आरम्भ होता है ।। १४ ।।
भचक्रभ्रमणं नित्यं नाक्षत्रं दिनमुच्यत् ।
नक्षत्रनाम्ना मासास्तु ज्ञेयाः पर्वान्तयोगतः ॥
कार्तिक्यादिषु संयोगे कृत्तिकादि द्वयं द्वयम् ।
अन्त्योपान्त्यौ पञ्चमश्च त्रिधा मासत्रयं स्मृतम् ॥
भचक्र का दैनिक भ्रमण एक नाक्षत्र दिन होता है । पर्वान्त से जिस नक्षत्र का योग होता है उसी नक्षत्र के नाम से मासों के नाम होते है । कृत्तिकादि दो दो नक्षत्रों के संयोग से कार्तिक आदि मास, अन्तिम, उपान्तिम और पाँचवाँ मास तीन-तीन नक्षत्रों के संयोग से होते है ।। १५-१६ ।।
वैशाखादिषु कृष्णे च योगः पञ्चदशे तिथौ ।
कार्त्तिकादीनि वर्षाणि गुरोरस्तोदयात्तथा ॥
वैशाख आदि मासों में कृष्णपक्ष की १५ वीं तिथि को कृतिका आदि नक्षत्रों के योग से बार्हस्पत्य कार्तिकादि मास होते है । इस से जिस मास में गुरु अस्त या उदय होगा उस मास से सम्बन्धित बृहस्पति का वर्ष प्रारम्भ होता है ।। १७ ।।
उदयादुदयं भानोः सावनं तत्प्रकीर्तितम् ।
सावनानि स्युर्*एतेन यज्ञकालविधिस्तु तैः ॥
सूतकादिपरिच्छेदो दिनमासाब्दपास्तथा ।
मध्यमा ग्रहभुक्तिस्तु सावनेनैव गृह्यत् ।।
सूर्य के एक उदय से दुसरे उदय पर्यन्त का समय सावन दिन संज्ञक होता है । इस सावन दिवसों से ही यज्ञ आदि के कार्यों के लिए समय का निर्णय किया जाता है । सुतकादि का निर्धारण, दिन, मास और वर्ष स्वामियों का निर्णय तथा पध्यग ग्रहपति का निर्णय सावन मान से ही किया जाता है ।। १८-१९ ।।
सुरासुराणामन्योन्यमहोरात्रं विपर्ययात् ।
यत्प्रोक्तं तद्भवेद्दिव्यं भानोर्भगणपूरणात् ॥
सूर्य के बारह राशियों के भोगकाल में देवताओं और दैत्यों का विपर्यय से जो अहोरात्र कहा गया है वही दिव्यमान होता है ।। २० ।।
मन्वन्तरव्यवस्था च प्राजापत्यमुदाहृतम् ।
न तत्र द्युनिशोर्भेदो ब्राह्मं कल्पः प्रकीर्तितम् ॥
मन्वन्तर व्यवस्था प्राजापत्य मान कहा गया है । वहाँ दिन-रात्री का भेद नहीं होता । कल्प का मान ब्रह्म मान कहा गया है ।। २१ ।।
एतत्ते परमाख्यातं रहस्यं परमाद्भुतम् ।
ब्रह्मैतत्परमं पुण्यं सर्वपापप्रणाशनम् ॥
दिव्यं चार्क्षं ग्रहाणां च दर्शितं ज्ञानमुत्तमम् ।
विज्ञायार्कादिलोकेषु स्थानं प्राप्नोति शास्वतम् ॥
इस समय जो परभाग का वर्णन किया गया है वह परम अदभुत, रहस्यमय तथा ब्रह्मस्वरूप है । अतः यह शास्त्र पूण्य प्रदान करने वाला तथा सभी पापों का नाश करने वाला होगा । इसमें दिव्य और नक्षत्रमानों का विवेचन तथा ग्रहों के उत्तम ज्ञान को प्रदर्शित किया गया है । इसका ज्ञान प्राप्त कर मनुष्य सुर्यादी लोकों में संदैव स्थान प्राप्त करता है ।। २२-२३ ।।
इत्युक्त्वा मयमामन्त्र्य सम्यक्तेनाभिपूजितः ।
दिवमाचक्रमे +अर्कांशः प्रविवेश स्वमण्डलम् ॥
इस प्रकार मय से भलीभाँति कहकर सुर्याशावातार पुरुष मय से पूजित होकर स्वर्ग में चक्रमण करते हुये अपने मण्डल में प्रविष्ट हो गए ।। २४ ।।
मयो +अथ दिव्यं तज्ञानं ज्ञात्वा साक्षाद्विवस्वतः ।
कृतकृत्यमिवात्मानं मेने निर्धूतकल्मषम् ॥
अन्तर साक्षात भगवान् सूर्य से ज्ञान प्राप्त कर मयासुर ने अपने आप को पाप रहित और कृतकृत्य माना ।। २५ ।।
ज्ञात्वा तमृषयश्चाथ सूर्यलब्धवरं मयम् ।
परिबब्रुरुपेत्याथो ज्ञानं पप्रच्छुरादरात् ॥
स तेभ्यः प्रददौ प्रीतो ग्रहाणां चरितं महत् ।
अत्यद्भुततमं लोके रहस्यं ब्रह्मसम्मितम् ॥
मय ने सूर्य से ज्योतिष ज्ञान रूपी वरदान प्राप्त कर लिया है, ऋषि लोग यह जानकार मय के पास आये और सादर के साथ उक्त ज्ञान के विषय में पूछा । मय दानव ने प्रसन्न होकर, लोक के अत्यन्त रहस्यमय ब्रह्म संज्ञक इस ज्ञान को जिज्ञासु ऋषियों को प्रदान किया ।। २६-२७ ।।