Shree Naval Kishori

श्रीविष्णुपुराण द्वितीयअंश

अध्याय-01 प्रियव्रत के वंश का वर्णन

श्रीमैत्रेयजी बोले – हे भगवन ! हे गुरो ! मैंने जगत की सृष्टि के विषय में आपसे जो कुछ पूछा था वह सब आपने मुझसे भली प्रकार कह दिया ॥ १ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! जगतकी सृष्टि सम्बन्धी आपने जो यह प्रथम अंश कहा है, उसकी एक बात मैं और सुनना चाहता हूँ ॥ २ ॥ स्वायम्भुवमनु के जो प्रियव्रत और उत्तानपाद दो पुत्र थे, उनमेंसे उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव के विषय में तो आपने कहा ॥ ३ ॥ किन्तु, हे द्विज ! आपने प्रियव्रत की सन्तान के विषय में कुछ भी नही कहा, अत: मैं उसका वर्णन सुनना चाहता हूँ, सो आप प्रसन्नतापूर्वक कहिये ॥ ४ ॥

श्रीपराशरजी बोले – प्रियव्रत ने कर्दमजी की पुत्री से विवाह किया था । उससे उनके सम्राट और कुक्षि नामकी दो कन्याएँ तथा दस पुत्र हुए ॥ ५ ॥ प्रियव्रत के पुत्र बड़े बुद्धिमान, बलवान, विनयसम्पन्न और अपने माता-पिता के अत्यंत प्रिय कहे जाते हैं; उनके नाम सुनो – ॥ ६ ॥ वे आग्निध्र, अग्निबाहू, बपुष्मान, मेधा, मेधातिथि, भव्य, सवन और पुत्र थे तथा दसवाँ यथार्थनामा ज्योतिष्मान था । वे प्रियव्रत के पुत्र अपने बल-पराक्रम के कारण विख्यात थे ॥ ७ – ८ ॥ उनमे महाभाग मेधा, अग्निबाहू और पुत्र – ये तीन योगपरायण तथा अपने पूर्वजन्मका वृतांत जाननेवाले थे । उन्होंने राज्य आदि भोगों में अपना चित्त नहीं लगाया ॥ ९ ॥ हे मुने ! वे निर्मलचित्त और कर्म-फल की इच्छा से रहित थे तथा समस्त विषयों में सदा न्यायानुकूल ही प्रवृत्त होते थे ॥ १० ॥

हे मुनिश्रेष्ठ ! राजा प्रियव्रत ने अपने शेष सात महात्मा पुत्रों को सात द्वीप बाँट दिये ॥ ११ ॥ हे महाभाग ! पिता प्रियव्रत ने आग्निध्र को जम्बूद्वीप और मेधातिथि को प्लक्ष नामक दूसरा द्वीप दिया ॥ १२ ॥ उन्होंने शाल्मलद्वीप में वपुष्मान को अभिषिक्त किया; ज्योंतिष्मान को कुशद्वीप का राजा बनाया ॥ १३ ॥ द्युतिमान को क्रौंचद्वीप के शासनपर नियुक्त किया, भव्य को प्रियव्रतने शाकद्वीप का स्वामी बनाया और सवन को पुष्करद्वीप का अधिपति किया ॥ १४ ॥

हे मुनिसत्तम ! उनमें जो जम्बूद्वीप के अधीश्वर राजा आग्रिध्र थे उनके प्रजापति के समान नौ पुत्र हुए । वे नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत्त, रम्य, हिरण्वान, कुरु, भद्राक्ष और सत्कर्मशील राजा केतुमाल थे ॥ १५ – १७ ॥ हे विप्र ! अब उनके जम्बूद्वीप के विभाग सुनो । पिता आग्निध्र ने दक्षिण की ओरका हिमवर्ष [ जिसे अब भारतवर्ष कहते है ] नाभि को दिया ॥ १८ ॥ इसीप्रकार किम्पुरुष को हेमकूटवर्ष तथा हरिवर्ष को तीसरा नैषधवर्ष दिया ॥ १९ ॥ जिसके मध्य में मेरुपर्वत है वह इलावृत्तवर्ष उन्होंने इलावृत को दिया तथा नीलाचल से लगा हुआ वर्ष रम्य को दिया ॥ २० ॥

पिता आग्निध्र ने उसका उत्तरवर्ती श्वेतवर्ष हिरण्वान को दिया तथा जो वर्ष श्रुंगवानपर्वत के उत्तर में स्थित है वह कुरु को और जो मेरु के पूर्व में स्थित है वह भद्राश्व को दिया तथा केतुमाल को गन्धमादनवर्ष दिया । इसप्रकार राजा आग्निध्र ने अपने पुत्रोंको ये वर्ष दिये ॥ २१ – २३ ॥ हे मैत्रेय ! अपने पुत्रों को इन वर्षो में अभिषिक्त कर वे तपस्या के लिये शालग्राम नामक महापवित्र क्षेत्र को चले गये ॥ २४ ॥

हे महामुने ! किम्पुरुष आदि जो आठ वर्ष है उनमें सुख की बहुलता है और बिना यत्न के स्वभाव से ही समस्त भोगसिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है २५ उनमें किसी प्रकार के विपर्यय (असुख या अकालमृत्यु आदि) तथा जरामृत्यु आदिका कोई भय नहीं होता और धर्म, अधर्म अथवा उत्तम, अधम और मध्यम आदिका ही भेद है उन आठ वर्षों में कभी कोई युगपरिवर्तन भी नहीं होता २६

महात्मा नाभि का हिम नामक वर्ष था; उनके मेरुदेवी से अतिशय कान्तिमान ऋषभ नामक पुत्र हुआ २७ ऋषभजी के भरत का जन्म हुआ जो उनके सौ पुत्रों में सबसे बड़े थे । महाभाग पृथ्वीपति ऋषभदेवजी धर्मपूर्वक राज्य-शासन तथा विविध यज्ञों का अनुष्ठान करने के अनन्तर अपने वीर पुत्र भरत को राज्याधिकार सौंपकर तपस्या के लिये पुलहाश्रम को चले गये ॥ २८ – २९ ॥ महाराज ऋषभ ने वहाँ भी वानप्रस्थ आश्रम की विधि से रहते हुए निश्चयपूर्वक तपस्या की तथा नियमानुकूल यज्ञानुष्ठान किये ॥ ३० ॥ वे तपस्या के कारण सुखकर अत्यंत कृष हो गये और उनके शरीर की शिराएँ दिखायी देने लगीं । अंत में अपने मुख में एक पत्थर की बटिया रखकर उन्होंने नग्नावस्था में महाप्रधान किया ॥ ३१ ॥

पिता ऋषभदेवजी ने वन जाते समय अपना राज्य भरतजी को दिया था; अत: तबसे यह (हिमवर्ष) इस लोक में भारतवर्ष नामसे प्रसिद्ध हुआ ३२ भरतजी के सुमति नामक परम धार्मिक पुत्र हुआ । पिता (भरत) ने यज्ञानुष्ठानपूर्वक यथेच्छ राज्य-सुख भोगकर उसे सुमति को सौंप दिया ॥ ३३ ॥ हे मुने ! महाराज भरत ने पुत्र को राज्यलक्ष्मी सौंपकर योगाभ्यास में तत्पर हो अंत में शालग्रामक्षेत्र में अपने प्राण छोड़ दिये ॥ ३४ ॥ फिर इन्होने योगियों के पवित्र कुल में ब्राह्मणरूप से जन्म लिया । हे मैत्रेय ! इनका वह चरित्र मैं तुमसे फिर कहूँगा ॥ ३५ ॥

तदनन्तर सुमति के वीर्य से इन्द्रद्युम्र का जन्म हुआ, उससे परमेष्ठी और परमेष्ठी का पुत्र प्रतिहार हुआ ॥ ३६ ॥ प्रतिहार के प्रतिहर्ता नामसे विख्यात पुत्र उत्पन्न हुआ तथा प्रतिहर्ता नामसे विख्यात पुत्र उत्पन्न हुआ तथा प्रतिहर्ता पुत्र भवम भवका उद्रीथ और उद्रीथ का पुत्र अति समर्थ प्रस्ताव हुआ ॥ ३७ ॥ प्रस्ताव का पृथु – पृथुका नक्त और नक्त का पुत्र गय हुआ । गय जे नर और उसके विराट नामक पुत्र हुआ ॥ ३८ ॥ उसका पुत्र महावीर्य था, उससे धीमान का जन्म हुआ तथा धीमान का पुत्र महान्त और उसका पुत्र मनस्यु हुआ ॥ ३९ ॥ मनस्यु का पुत्र त्वष्टा, त्वष्टा का विरज और विरज का पुत्र रज हुआ । हे मुने रज के पुत्र शतजित के सौ पुत्र उत्पन्न हुए ॥ ४० ॥ उनमें विप्रज्योति प्रधान था । उन सौ पुत्रों से यहाँ की प्रजा बहुत बढ़ गयी । तब उन्होंने इस भारतवर्ष को नौ विभागों से विभूषित किया ४१ उन्हीं के वंशधरों ने पूर्वकाल में कृतत्रेतादि युगक्रम से इकहत्तर युगपर्यन्त इस भारतभूमि को भोगा था ४२ हे मुने ! यही इस वाराहकल्प में सबसे पहले मन्वन्तराधिप स्वायम्भुवमनुका वंश है, जिसने उससमय इस सम्पूर्ण संसार को व्याप्त किया हुआ था ४३

– इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे प्रथमोऽध्यायः –

अध्याय-02 भूगोल का विवरण

श्रीमैत्रेयजी बोले – हे ब्रह्मन ! आपने मझसे स्वायम्भुवमनु के वंश का वर्णन किया । अब मैं आपके मुखार्विदं से सम्पूर्ण पृथ्वीमंडल का विवरण सुनना चाहता हूँ ॥ १ ॥ हे मुने ! जितने भी सागर, द्वीप, वर्ष, पर्वत, वन, नदियाँ और देवता आदि की पुरियाँ है, उन सबका जितना – जितना परिमाण है, जो आधार है, जो उपादान-कारण है और जैसा आकार है, वह सब आप यथावत वर्णन कीजिये ॥ २ -३ ॥

श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! सुनो, मैं इन सब बातोंका संक्षेप से वर्णन करता हूँ, इनका विस्तारपूर्वक वर्णन तो सौ वर्ष में भी नही हो सकता ॥ ४ ॥ हे द्विज ! जम्बू, प्लक्ष, शाल्मल, कुश, क्रोंच, शाक और सातवाँ पुष्कर – ये सातों द्वीप चारों ओर से खारे पानी, इक्षुरस, मदिरा, घृत, दधि, दुग्ध और मीठे जलके सात समुद्रों से घिरे हुए है ॥ ५ – ६ ॥

हे मैत्रेय ! जम्बुद्वीप इन सबके मध्य में स्थित है और उसके भी बीचों – बीच में सुवर्णमय सुमेरुपर्वत है ॥ ७ ॥ इसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन है और नीचे के ओर यह सोलह हजार योजन पृथ्वी में घुसा हुआ है । इसका विस्तार ऊपरी भाग में बत्तीस हजार योजन है तथा नीचे केवल सोलह हजार योजन है । इसप्रकार यह पर्वत इस पृथ्वीरूप कमल की कर्णिका (कोश) के समान है ॥ ८ – १० ॥ इसके दक्षिण में हिमवान, हेमकूट और निषध तथा उत्तर में नील, श्वेत और शृंगी नामक वर्षपर्वत है ॥ ११ ॥ उनमे बीच के दो पर्वत [ निषध और नील] एक-एक लाख योजनतक फैले हुए हैं, उनसे दूसरे-दूसरे दस-दस हजार योजन कम है । [अर्थात हेमकूट और श्वेत नब्बे – नब्बे हजार योजन तथा हिमवान और शृंगी अस्सी- अस्सी सहस्त्र योजनतक फैले हुए है ] वे सभी दो – दो सहस्र योजन ऊँचे और इतने ही चौड़े है ॥ १२ ॥

हे द्विज ! मेरुपर्वत के दक्षिण की ओर पहला भारतवर्ष है तथा दूसरा किम्पुरुषवर्ष और तीसरा हरिवर्ष है ॥ १३ ॥ उत्तर की ओर प्रथम रम्यक, फिर हिरण्मय और तदनन्तर उत्तरकुरुवर्ष है जो भारतवर्ष के समान है ॥ १४ ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! इनमें से प्रत्येकका विस्तार नौ – नौ हजार योजन है तथा इन सबके बीचमें इलावृतवर्ष है जिसमें सुवर्णमय सुमेरुपर्वत खड़ा हुआ है ॥ १५ ॥ हे महाभाग ! यह इलावृतवर्ष सुमेरु के चारों और नौ हजार योजनतक फैला हुआ है । इसके चारों ओर चार पर्वत है ॥ १६ ॥ ये चारों पर्वत मानो सुमेरु को धारण करने के लिये ईश्वरकृत कीलियाँ है । इनमे से मन्दराचल पूर्व में, गन्धमादन दक्षिण में, विपुल पश्चिम में और सुपार्श्व उत्तर में है । ये सभी दस – दस हजार योजन ऊँचे है ॥ १७ – १८ ॥ इनपर पर्वतों की ध्वजाओं के समान क्रमश: ग्यारह – ग्यारह सौ योजन ऊँचे कदम्ब, जम्बू, पीपल और वटके वृक्ष है ॥ १९ ॥

हे महामुने ! इनमें जम्बू (जामुन) वृक्ष जम्बुद्वीप के नामका कारण है उसके फल महान गजराज के समान बड़े होते है जब वे पर्वतपर गिरते है तो फटकर सब ओर फ़ैल जाते है २० उनके रस से निकली जम्बू नामकी प्रसिद्ध नदी वहाँ बहती है, जिसका जल वहाँ के रहनेवाले पीते है २१ उसका पान करनेसे वहाँ के शुद्धचित्त लोगों को पसीना, दुर्गन्ध, बुढ़ापा अथवा इन्द्रियक्षय नहीं होता २२ उसके किनारे की मृत्तिका उस रस से मिलकर मंदमंद वायु से सूखनेपर जाम्बूनद नामक सुवर्ण हो जाती है, जो सिद्ध पुरुषों का भूषण है २३ मेरु के पूर्व में भद्राश्ववर्ष और पश्चिम में केतुमालवर्ष है तथा हे मुनिश्रेष्ठ ! इन दोनों के बीच में इलावृतवर्ष है ॥ २४ ॥ इसी प्रकार उसके पूर्व की ओर चैत्ररथ, दक्षिण की ओर गंधमादन, पश्चिम की ओर वैभ्राज और उत्तर की ओर नंदन नामक वन है ॥ २५ ॥ तथा सर्वदा देवताओं से सेवनीय अरुणोद, महाभद्र, असितोद और मानस – ये चार सरोवर है ॥ २६ ॥

हे मैत्रेय ! शीताम्भ, कुमुन्द, कुररी, माल्यवान तथा वैकंक आदि पर्वत मेरु के पूर्व दिशाके केसराचल है ॥ २७ ॥ त्रिकुट, शिशिर, पतंग, रुचक और निषाद आदि केसराचल उसके दक्षिण ओर है ॥ २८ ॥ शिखिवासा, वैडूर्य, कपिल, गन्धमादन और जारूधि आदि उसके पश्चिमीय केसरपर्वत है ॥ २९ ॥ तथा मेरु के अति समीपस्थ इलावृतवर्ष में और जठरादि देशों में स्थित शंखकूट, ऋषभ, हँस, नाग तथा कालंज आदि पर्वत उत्तरदिशा के केसराचल है ॥ ३० ॥

हे मैत्रेय ! मेरु के ऊपर अन्तरिक्षा में चौदह सहस्त्र योजन के विस्तारवाली ब्रह्माजी की महापुरी (ब्रह्मपुरी) है ॥ ३१ ॥ उसके सब ओर दिशा एवं विदिशाओं में इन्द्रादि लोकपालों के आठ अति रमणीक और विख्यात नगर है ॥ ३२ ॥ विष्णुपादोभ्दवा श्रीगंगाजी चन्द्रमंडल को चारो ओर से आप्लावित कर स्वर्गलोक से ब्रह्मपुरी में गिरती है ॥ ३३ ॥ वहाँ गिरनेपर वे चारों दिशाओं में क्रम से सीता, अलकनंदा, चक्षु और भद्रा नामसे चार भागों में विभक्त हो जाती है ॥ ३४ ॥ उनमें से सीता पूर्वकी ओर आकाशमार्ग से एक पर्वत से दूसरे पर्वतपर जाती हुई अंत में पूर्वस्थित भद्राश्ववर्ष को पारकर समुद्र में मिल जाती है ॥ ३५ ॥ इसीप्रकार, हे महामुने ! अलकनंदा दक्षिण-दिशा की ओर भारतवर्ष में आती है और सात भागों में विभक्त होकर समुद्र में मिल जाती अहि ॥ ३६ ॥ चक्षु पश्चिमदिशा के समस्त पर्वतों को पारकर केतुमाल नामक वर्ष में बहती हुई अंत में सागर में जा गिरती है ॥ ३७ ॥ तथा हे महामुने ! भद्रा उत्तर के पर्वतों और उत्तरकुरुवर्ष को पार करती हुई उत्तरीय समुद्र में मिल जाती है ॥ ३८ ॥ माल्यवान और गंधमादनपर्वत उत्तर तथा दक्षिण की ओर नीलाचल और निषधपर्वततक फैले हुए है । उन दोनों के बीच में कर्णिकाकार मेरुपर्वत स्थित है ॥ ३९ ॥

हे मैत्रेय ! मर्यादापर्वतों के बहिर्भाग में स्थित भारत, केतुमाल, भद्राश्व और कुरुवर्ष इस लोकपद्म के पत्तों के समान है ॥ ४० ॥ जठर और देवकूट – ये दोनों मर्यादापर्वत है जो उत्तर और दक्षिण की ओर नील तथा निषधपर्वततक फैले हुए है ॥ ४१ ॥ पूर्व और पश्चिम की ओर फैले हुए गंधमादन और कैलास – ये दो पर्वत जिनका विस्तार अस्सी योजन है, समुद्र के भीतर स्थित है ॥ ४२ ॥ पूर्व के समान मेरु की पश्चिम ओर भी निषध एयर पारियात्र नामक दो मर्यादापर्वत स्थित है ॥ ४३ ॥ उत्तर की ओर त्रिश्रुंग और जारूधि नामक वर्षपर्वत है । ये दोनों पूर्व और पश्चिमकी ओर समुद्र के गर्भ में स्थित है ॥ ४४ ॥ इसप्रकार, हे मुनिवर ! तुमसे जठर आदि मर्यादापर्वतों का वर्णन किया, जिनमें से दो – दो मेरु की चारों दिशाओं में स्थित है ॥ ४५ ॥

हे मुने ! मेरु के चारों ओर स्थित जिन शीतांत आदि केसरपर्वतों के विषय में तुमसे कहा था, उनके बीच में सिद्ध – चारणादि से सेवित अति सुंदर कन्दराएँ है ॥ ४६ ॥ हे मुनिसत्तम ! उनमें सुरम्य नगर तथा उपवन है और लक्ष्मी, विष्णु, अग्नि एवं सूर्य आदि देवताओं के अत्यंत सुंदर मन्दिर है जो सदा किन्नरश्रेष्ठों से सेवित रहते है ॥ ४७ ॥ उन सुंदर पर्वत – द्रोणियों में गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, दैत्य और दानवादि अहर्निश क्रीडा करते है ॥ ४८ ॥ हे मुने ! ये सम्पूर्ण स्थान भौम (पृथ्वी के ) स्वर्ग कहलाते हिल ये धार्मिक पुरुषों के निवासस्थान है । पापकर्मा पुरुष इनमें सौ जन्म में भी नहीं जा सकते ॥ ४९ ॥

हे द्विजो ! श्रीविष्णुभगवान भद्राश्ववर्ष में हयग्रीवरूप से, केतुमालवर्ष में वराहरूप से और भारतवर्ष में कूर्मरूप से रहते है ॥ ५० ॥ तथा वे भक्तप्रतिपालक श्रीगोविंद कुरुवर्ष में मत्स्यरूप से रहते है । इस प्रकार वे सर्वमय सर्वगामी हरि विश्वरूप से सर्वत्र ही रहते है । हे मैत्रेय ! वे सबके आधारभूत और सर्वात्मक है ॥ ५१ – ५२ ॥ हे महामुने ! किम्पुरुष आदि जो आठ वर्ष है उनमें शोक, श्रम, उव्देग और क्षुधा का भय आदि कुछ भी नहीं है ॥ ५३ ॥ वहाँ की प्रजा स्वस्थ, आतंकहीन और समस्त दु:खोंसे रहित है तथा वहाँ के लोग दस-बारह हजार वर्ष की स्थिर आयुवाले होते है ॥ ५४ ॥ उनमें वर्षा कभी नहीं होती, केवल पार्थिव जल ही है और न उन स्थानों में कृतत्रेतादि युगों की ही कल्पना है ॥ ५५ ॥ हे द्विजोत्तम ! इन सभी वर्षों में सात – सात कुल पर्वत है और उनसे निकली हुई सैकड़ो नदियाँ है ॥ ५६ ॥

– इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे द्वितीयोऽध्यायः –

अध्याय-03 भारतादि नौ खंडो का विभाग

श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! जो समुद्र के उत्तर तथा हिमालय के दक्षिण में स्थित है वह देश भारतवर्ष कहलाता है उसमें भरत की सन्तान बसी हुई है हे महामुने ! इसका विस्तार नौ हजार योजन है । यह स्वर्ग और अपवर्ग प्राप्त करनेवालों की कर्मभूमि है ॥ २ ॥ इसमें महेंद्र, मलय, सहय, शुक्तिमान, ऋक्ष, विन्ध्य और पारियात्र – ये सात कुलपर्वत है ॥ ३ ॥ हे मुने ! इसी देश में मनुष्य शुभकर्मोंद्वारा स्वर्ग अथवा मोक्ष प्राप्त कर सकते है और यहीसे [पाप-कर्मों में प्रवृत्त होनेपर ] वे नरक अथवा तिर्यग्योनि में पड़ते है ॥ ४ ॥ यही से स्वर्ग, मोक्ष, अन्तरिक्ष अथवा पाताल आदि लोकों को प्राप्त किया जा सकता है, पृथ्वी में यहाँ के सिवा और कही भी मनुष्य के लिये कर्म की विधि नहीं है ॥ ५ ॥

इस भारतवर्ष के नौ भाग है; उनके नाम ये हैइंद्रद्वीप, कसेरू, ताम्रपर्ण, गभस्तिमान, नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व और वारुण तथा यह समुद्र से घिरा हुआ द्वीप उनमें नवाँ है यह द्वीप उत्तरसे दक्षिणतक सहस्त्र योजन है । इसके पुर्वीय भाग में किरात लोग और पश्चिमीय में यवन बसे हुए है ॥ ८ ॥ तथा यज्ञ, युद्ध और व्यापार आदि अपने-अपने कर्मों की व्यवस्था के अनुसार आचरण करते हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र्गण वर्णविभागानुसार मध्य में रहते है ॥ ९ ॥ हे मुने ! इसकी शतद्रु और चन्द्रभागा आदि नदियाँ हिमालय की तलैटी से वेद और स्मृति आदि पारियात्र पर्वत से, नर्मदा और सुरसा आदि विंध्याचलसे तथा तापी, पयोष्णी और निर्विन्ध्या आदि ऋक्षगिरी से निकली है ॥ १० – ११ ॥ गोदावरी, भीमरथी और कृष्णवेणी आदि पापहारिणी नदियाँ सहयपर्वत से उप्तन्न हुई कही जाती है ॥ १२ ॥ कृतमाला और ताम्रपर्णी आदि मलयाचल से, त्रिसामा और आर्यकुल्या आदि महेन्द्रागिरी से तथा ऋषि कुल्या और कुमारी आदि नदियाँ शुक्तिमान पर्वत से निकली है । इनकी और भी सहस्त्रों शाखा नदियाँ और उपनदियाँ है ॥ १३ – १४ ॥

इन नदियों के तटपर कुरु, पांचाल और मध्यदेशादि के रहनेवाले, पुर्वदेश और कामरूप के निवासी, पुंड्र, कलिंग, मगध और दाक्षिणात्यलोग, अपरांतदेशवासी, सौराष्ट्रगण तथा शूर, आभीर और अर्बुदगण, कारुष, मालब और पारियात्रनिवासी, सौवीर, सैन्धव, हूण, साल्व और कोशल देशवासी तथा माद्र, आराम, अम्बष्ठ और पारसीगण रहते है ॥ १५ – १७ ॥ हे महाभाग ! वे लोग सदा आपस में मिलकर रहते है और इन्हींका जल पान करते है । इनकी सन्निधि के कारण वे बड़े ह्रष्ट-पुष्ट रहते है ॥ १८ ॥

हे मुने ! इस भारतवर्ष में ही सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलि नामक चार युग है, अन्यत्र कहीं नहीं ॥ १९ ॥ इस देश में परलोक के लिये मुनिजन तपस्या करते है, याज्ञिक लोग यज्ञानुष्ठान करते है और दानीजन आदरपूर्वक दान देते है ॥ २० ॥ जम्बूद्वीप में यज्ञमय यज्ञपुरुष भगवान विष्णु का सदा यज्ञोद्वारा यजन किया जाता है, इसके अतिरिक्त अन्य द्वीपों में उनकी और – और प्रकार से उपासना होती है ॥ २१ ॥ हे महामुने ! इस जम्बुद्वीप से भी भारतवर्ष सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि यह कर्मभूमि है इसके अतिरिक्त अन्यान्य देश भोग-भूमियाँ अहिं ॥ २२ ॥ हे सत्तम ! जीवको सहस्त्रो जन्मों के अनन्तर महान पुण्यों का उदय होनेपर ही कभी इस देशमें मनुष्य-जन्म प्राप्त होता है ॥ २३ ॥ देवगण भी निरंतर यही गान करते है किजिन्होंने स्वर्ग और अपवर्ग के मार्गभूत भारतवर्ष में जन्म लिया है वे पुरुष हम देवताओं की अपेक्षा भी अधिक धन्य )बडभागी) है २४ जो लोग इस कर्मभूमि में जन्म लेकर अपने फलाकार से रहित कर्मों को परमात्मस्वरूप श्रीविष्णुभगवान को अर्पण करने से निर्मल (पापपुण्यसे रहित ) होकर उन अनंत में ही लीन हो जाते है [ वे धन्य है ] २५

पता नही, अपने स्वर्गप्रदकर्मों का क्षय होनेपर हम कहाँ जन्म ग्रहण करेंगे ! धन्य तो वे ही मनुष्य हैं जो भारतभूमि में उत्पन्न होकर इन्दिर्यों की शक्ति से हीन नही हुए है २६

हे मैत्रेय ! इस प्रकार लाख योजन के विस्तारवाले नववर्ष-विशिष्ट इस जम्बुद्वीप का मैंने तुमसे संक्षेप से वर्णन किया ॥ २७ ॥ हे मैत्रेय ! इस जम्बुद्वीप को बाहर चारों ओर से लाख योजन के विस्तारवाले वलयाकार खारे पानी के समुद्र ने घेरा हुआ है ॥ २८ ॥

– इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे तृतीयोऽध्यायः –

अध्याय-04 प्लक्ष तथा शाल्मल आदि द्वीपोंका विशेष वर्णन

श्रीपराशरजी बोले-जिस प्रकार जम्बूद्वीप क्षारसमुद्रसे घिरा हुआ है उसी प्रकार क्षारसमुद्रको घेरे हुए प्लक्षद्वीप स्थित है ॥१॥ जम्बूद्वीपका विस्तार एक लक्ष योजन है; और हे ब्रह्मन्! प्लक्षद्वीपका उससे दूना कहा जाता है ॥२॥ प्लक्षद्वीपके स्वामी मेधातिथिके सात पुत्र हुए। उनमें सबसे बड़ा शान्तहय था और उससे छोटा शिशिर ॥३॥ उनके अनन्तर क्रमशः सुखोदय, आनन्द, शिव और क्षेमक थे तथा सातवाँ ध्रुव था। ये सब  प्लक्षद्वीपके अधीश्वर हुए ॥४॥ [उनके अपने-अपने अधिकृत वर्षों में] प्रथम शान्तहयवर्ष है तथा अन्य शिशिरवर्ष, सुखोदयवर्ष, आनन्दवर्ष, शिववर्ष, क्षेमकवर्ष और ध्रुववर्ष हैं ॥५॥ तथा उनकी मर्यादा निश्चित करनेवाले अन्य सात पर्वत हैं ॥६॥

हे मुनिश्रेष्ठ! उनके नाम ये हैं, सुनो- गोमेद, चन्द्र, नारद, दुन्दुभि, सोमक, सुमना और सातवाँ वैभ्राज ॥७॥

इन अति सुरम्य वर्ष-पर्वतों और वर्षों में देवता और गन्धर्वोके सहित सदा निष्पाप प्रजा निवास करती है ॥८॥ वहाँके निवासीगण पुण्यवान् होते हैं और वे चिरकालतक जीवित रहकर मरते हैं; उनको किसी प्रकारकी आधि-व्याधि नहीं होती, निरन्तर सुख ही रहता है ॥९॥ उन वर्षोंकी सात ही समुद्रगामिनी नदियाँ हैं । उनके नाम मैं तुम्हें बतलाता हूँ जिनके श्रवणमात्रसे वे पापोंको दूर कर देती हैं ॥ १०॥ वहाँ अनुतप्ता, शिखी, विपाशा, त्रिदिवा, अक्लमा, अमृता और सुकृता-ये ही सात १ नदियाँ हैं ॥११॥

यह मैंने तुमसे प्रधान-प्रधान पर्वत और नदियोंका वर्णन किया है; वहाँ छोटे-छोटे पर्वत और नदियाँ तो और भी सहस्रों हैं । उस देशके हृष्ट-पुष्ट लोग सदा उन नदियोंका जल पान करते हैं ॥१२॥ हे द्विज! उन लोगोंमें ह्रास अथवा वृद्धि नहीं होती और न उन सात वर्षों में युगकी ही कोई अवस्था है ॥१३॥

हे महामते! हे ब्रह्मन्! प्लक्षद्वीपसे लेकर शाकद्वीपपर्यन्त छहों द्वीपोंमें सदा त्रेतायुगके समान समय रहता है ॥१४॥ इन द्वीपोंके मनुष्य सदा नीरोग रहकर पाँच हजार वर्षतक जीते हैं और इनमें वर्णाश्रम-विभागानुसार पाँचों धर्म (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) वर्तमान रहते हैं ॥१५॥

वहाँ जो चार वर्ण हैं वह मैं तुमको सुनाता हूँ ॥१६॥ हे मुनिसत्तम! उस द्वीपमें जो आर्यक, कुरर, विदिश्य और भावी नामक जातियाँ हैं; वे ही क्रमसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं ॥१७॥

हे द्विजोत्तम! उसीमें जम्बूवृक्षके ही परिमाणवाला एक प्लक्ष (पाकर)-का वृक्ष है, जिसके नामसे उसकी संज्ञा प्लक्षद्वीप हुई है॥१८॥ वहाँ आर्यकादि वर्णोद्वारा जगत्स्रष्टा, सर्वरूप, सर्वेश्वर भगवान् हरिका सोमरूपसे यजन किया जाता है ॥ १९॥ प्लक्षद्वीप अपने ही बराबर परिमाणवाले वृत्ताकार इक्षुरसके समुद्रसे घिरा हुआ है ॥२०॥

हे मैत्रेय! इस प्रकार मैंने तुमसे संक्षेपमें प्लक्षद्वीपका वर्णन किया, अब तुम शाल्मलद्वीपका विवरण सुनो ॥२१॥

शाल्मलद्वीपके स्वामी वीरवर वपुष्मान् थे । उनके पुत्रोंके नाम सुनो- हे महामुने! वे श्वेत, हरित, जीमूत, रोहित, वैद्युत, मानस और सुप्रभ थे । उनके सात वर्ष उन्हींके नामानुसार संज्ञावाले हैं ॥ २२-२३॥ यह (प्लक्षद्वीपको घेरनेवाला) इक्षुरसका समुद्र अपनेसे दूने विस्तारवाले इस शाल्मलद्वीपसे चारों ओरसे घिरा हुआ है ॥२४॥ वहाँ भी रत्नोंके उद्भवस्थानरूप सात पर्वत हैं, जो उसके सातों वर्षों के विभाजक हैं तथा सात नदियाँ हैं ॥२५॥ पर्वतोंमें पहला कुमुद, दूसरा उन्नत और तीसरा बलाहक है तथा चौथा द्रोणाचल है, जिसमें नाना प्रकारकी महौषधियाँ हैं ॥ २६॥ पाँचवाँ कंक, छठा महिष और सातवाँ गिरिवर ककुद्मान् है। अब नदियोंके नाम सुनो  ॥२७॥

वे योनि, तोया, वितृष्णा, चन्द्रा, मुक्ता, विमोचनी और निवृत्ति हैं तथा स्मरणमात्रसे ही सारे पापोंको शान्त कर देनेवाली हैं ॥२८॥ श्वेत, हरित, वैद्युत, मानस, जीमूत, रोहित और अति शोभायमान सुप्रभ-ये उसके चारों वर्षों से युक्त सात वर्ष हैं ॥२९॥

हे महामुने! शाल्मलद्वीपमें कपिल, अरुण, पीत और कृष्ण-ये चार वर्ण निवास करते हैं जो पृथक्-पृथक् क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं । ये यजनशील लोग सबके आत्मा, अव्यय और यज्ञके आश्रय वायुरूप विष्णुभगवान् का श्रेष्ठ यज्ञोंद्वारा यजन करते हैं ॥३०-३१॥ इस अत्यन्त मनोहर द्वीपमें देवगण सदा विराजमान रहते हैं । इसमें शाल्मल (सेमल)-का एक महान् वृक्ष है जो अपने नामसे ही अत्यन्त शान्तिदायक है ॥३२॥ यह द्वीप अपने समान ही विस्तारवाले एक मदिराके समुद्रसे सब ओरसे पूर्णतया घिरा हुआ है ॥३३॥ और यह सुरासमुद्र शाल्मलद्वीपसे दूने विस्तारवाले कुशद्वीपद्वारा सब ओरसे परिवेष्टित है ॥३४॥

कुशद्वीपमें [वहाँके अधिपति] ज्योतिष्मान्के सात पुत्र थे, उनके नाम सुनो । वे उद्भिद, वेणुमान् , वैरथ, लम्बन, धृति, प्रभाकर और कपिल थे। उनके नामानुसार ही वहाँके वर्षोंके नाम पड़े ॥ ३५-३६॥ उसमें दैत्य और दानवोंके सहित मनुष्य तथा देव, गन्धर्व, यक्ष और किन्नर आदि निवास करते हैं ॥ ३७॥

हे महामुने! वहाँ भी अपने-अपने कर्मोंमें तत्पर दमी, शुष्मी, स्नेह और मन्देहनामक चार ही वर्ण हैं, जो क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ही हैं ॥३८-३९॥ अपने प्रारब्धक्षयके निमित्त शास्त्रानुकूल कर्म करते हुए वहाँ कुशद्वीपमें ही वे ब्रह्मरूप जनार्दनकी उपासनाद्वारा अपने प्रारब्धफलके देनेवाले अत्युग्र अहंकारका क्षय करते हैं ॥४०॥ ४१

हे महामुने! उस द्वीपमें विद्रुम, हेमशैल, द्युतिमान् , पुष्पवान् , कुशेशय, हरि और सातवाँ मन्दराचल-ये सात वर्षपर्वत हैं। तथा उसमें सात ही नदियाँ हैं, उनके नाम क्रमशः सुनो- ॥ ४१-४२॥ वे धूतपापा, शिवा, पवित्रा, सम्मति, विद्युत् , अम्भा और मही हैं । ये सम्पूर्ण पापोंको हरनेवाली हैं ॥४३॥ वहाँ और भी सहस्रों छोटी-छोटी नदियाँ और पर्वत हैं । कुशद्वीपमें एक कुशका झाड़ है । उसीके कारण इसका यह नाम पड़ा है ॥४४॥ यह द्वीप अपने ही बराबर विस्तारवाले घीके समुद्रसे घिरा हुआ है और वह घृत-समुद्र क्रौंचद्वीपसे परिवेष्टित है ॥ ४५ ॥

हे महाभाग! अब इसके अगले क्रौंचनामक महाद्वीपके विषयमें सुनो, जिसका विस्तार कुशद्वीपसे दूना है ॥ ४६॥ क्रौंचद्वीपमें महात्मा द्युतिमान्के जो पुत्र थे; उनके नामानुसार ही महाराज द्युतिमान् ने उनके वर्षों के नाम रखे ॥४७॥

हे मुने! उसके कुशल, मन्दग, उष्ण, पीवर, अन्धकारक, मुनि और दुन्दुभि- ये सात पुत्र थे ॥४८॥ वहाँ भी देवता और गन्धर्वोसे सेवित अति मनोहर सात वर्षपर्वत हैं ।

हे महाबुद्धे ! उनके नाम सुनो- ॥४९॥ उनमें पहला क्रौंच, दूसरा वामन, तीसरा अन्धकारक, चौथा घोड़ीके मुखके समान रत्नमय स्वाहिनी पर्वत, पाँचवाँ दिवावृत्, छठा पुण्डरीकवान् और सातवाँ महापर्वत दुन्दुभि है। वे द्वीप परस्पर एक-दूसरेसे दूने हैं; और उन्हींकी भाँति उनके पर्वत भी [उत्तरोत्तर द्विगुण] हैं ॥५०-५१॥ इन सुरम्य वर्षों और पर्वतश्रेष्ठोंमें देवगणोंके सहित सम्पूर्ण प्रजा निर्भय होकर रहती है ॥५२॥ हे

महामुने! वहाँके ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र क्रमसे पुष्कर, पुष्कल, धन्य और तिष्य कहलाते हैं ॥५३॥

हे मैत्रेय! वहाँ जिनका जल पान किया जाता है उन नदियोंका विवरण सुनो । उस द्वीपमें सात प्रधान तथा अन्य सैकड़ों क्षुद्र नदियाँ हैं ॥५४॥ वे सात वर्षनदियाँ गौरी, कुमुद्वती, सन्ध्या, रात्रि, मनोजवा, क्षान्ति और पुण्डरीका हैं ॥५५॥ वहाँ भी रुद्ररूपी जनार्दन भगवान् विष्णुकी पुष्करादि वर्णोद्वारा यज्ञादिसे पूजा की जाती है ॥५६॥ यह क्रौंचद्वीप चारों ओरसे अपने तुल्य परिमाणवाले दधिमण्ड (मटे)-के समुद्रसे घिरा हुआ है ॥५७॥ और हे महामुने! यह मढेका समुद्र भी शाकद्वीपसे घिरा हुआ है, जो विस्तारमें क्रौंचद्वीपसे दूना है ॥५८॥

शाकद्वीपके राजा महात्मा भव्यके भी सात ही पुत्र थे। उनको भी उन्होंने पृथक्-पृथक् सात वर्ष  दिये ॥ ५९॥ वे सात पुत्र जलद, कुमार, सुकुमार, मरीचक, कुसुमोद, मौदाकि और महाद्रुम थे । उन्हींके नामानुसार वहाँ क्रमशः सात वर्ष हैं और वहाँ भी वर्षोंका विभाग करनेवाले सात ही पर्वत हैं ॥६०-६१॥

हे द्विज! वहाँ पहला पर्वत उदयाचल है और दूसरा जलाधार; तथा अन्य पर्वत रैवतक, श्याम, अस्ताचल, आम्बिकेय और अति सुरम्य गिरिश्रेष्ठ केसरी हैं ॥६२॥ वहाँ सिद्ध और गन्धर्वोसे सेवित एक अति महान् शाकवृक्ष है, जिसके वायुका स्पर्श करनेसे हृदयमें परम आह्लाद उत्पन्न होता है ॥६३॥ वहाँ चातुर्वर्ण्यसे युक्त अति पवित्र देश और समस्त पाप तथा भयको दूर करनेवाली सुकुमारी, कुमारी, नलिनी, धेनुका, इक्षु, वेणुका और गभस्ती-ये सात महापवित्र नदियाँ हैं ॥६४-६५ ॥

हे महामुने! इनके सिवा उस द्वीपमें और भी सैकड़ों छोटी-छोटी नदियाँ और सैकड़ोंहजारों पर्वत हैं ॥६६॥ स्वर्ग-भोगके अनन्तर जिन्होंने पृथिवी-तलपर आकर जलद आदि वर्षों में जन्म ग्रहण  किया है वे लोग प्रसन्न होकर उनका जल पान करते हैं ॥६७॥ उन सातों वर्षों में धर्मका ह्रास पारस्परिक संघर्ष (कलह) अथवा मर्यादाका उल्लंघन कभी नहीं होता ॥ ६८॥ वहाँ मग, मागध, मानस और मन्दग- ये चार वर्ण हैं। इनमें मग सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण हैं, मागध क्षत्रिय हैं, मानस वैश्य हैं तथा मन्दग शूद्र हैं ॥ ६९॥ ६९ ॥

हे मुने! शाकद्वीपमें शास्त्रानुकूल कर्म करनेवाले पूर्वोक्त चारों वर्णोद्वारा संयत चित्तसे विधिपूर्वक सूर्यरूपधारी भगवान् विष्णुकी उपासना की जाती है ॥ ७० ॥

हे मैत्रेय! वह शाकद्वीप अपने ही बराबर विस्तारवाले मण्डलाकार दुग्धके समुद्रसे घिरा हुआ है और हे ब्रह्मन्! वह क्षीर-समुद्र शाकद्वीपसे दूने परिमाणवाले पुष्करद्वीपसे परिवेष्टित है ॥७१-७२॥

पुष्करद्वीपमें वहाँके अधिपति महाराज सवनके महावीर और धातकि नामक दो पुत्र हुए । अतः उन दोनोंके नामानुसार उसमें महावीर-खण्ड और धातकीखण्ड नामक दो वर्ष हैं ॥७३॥ हे महाभाग! इसमें मानसोत्तर नामक एक ही वर्ष-पर्वत कहा जाता है जो इसके मध्यमें वलयाकार स्थित है तथा पचास सहस्र योजन ऊँचा और इतना ही सब ओर गोलाकार फैला हुआ है ॥७४-७५ ॥ यह पर्वत पुष्करद्वीपरूप गोलेको मानो बीचमेंसे विभक्त कर रहा है और इससे विभक्त होनेसे उसमें दो वर्ष हो गये हैं; उनमें से प्रत्येक वर्ष और वह पर्वत वलयाकार ही है ॥७६-७७॥ वहाँके मनुष्य रोग, शोक और राग-द्वेषादिसे रहित हुए दस सहस्र वर्षतक जीवित रहते हैं ।। ७८॥ हे द्विज । उनमें उत्तम-अधम अथवा वध्य-वधक आदि (विरोधी) भाव नहीं हैं और न उनमें ईर्ष्या, असूया, भय, द्वेष और लोभादि दोष ही हैं ॥ ७९ ॥ महावीरवर्ष मानसोत्तर पर्वतके बाहरकी ओर है और धातकी-खण्ड भीतरकी ओर । इनमें देव और दैत्य आदि निवास करते हैं ॥८० ॥ दो खण्डोंसे युक्त उस पुष्करद्वीपमें सत्य और मिथ्याका व्यवहार नहीं है और न उसमें पर्वत तथा नदियाँ ही हैं ॥८१॥ वहाँके मनुष्य और देवगण समान वेष और समान रूपवाले होते हैं । हे मैत्रेय! वर्णाश्रमाचारसे हीन, काम्य कर्मोंसे रहित तथा वेदत्रयी, कृषि, दण्डनीति और शुश्रूषा आदिसे शून्य वे दोनों वर्ष तो मानो अत्युत्तम भौम (पृथिवीके) स्वर्ग हैं ॥८२-८३॥

हे मुने! उन महावीर और धातकीखण्ड नामक वर्षों में काल (समय) समस्त ऋतुओंमें सुखदायक और जरा तथा रोगादिसे रहित रहता है ॥८४॥ पुष्करद्वीपमें ब्रह्माजीका उत्तम निवासस्थान एक न्यग्रोध (वट)-का वृक्ष है, जहाँ देवता और दानवादिसे पूजित श्रीब्रह्माजी विराजते हैं ॥ ८५ ॥ पुष्करद्वीप चारों ओरसे अपने ही समान विस्तारवाले मीठे पानीके समुद्रसे मण्डलके समान घिरा हुआ है ॥८६॥ ।

इस प्रकार सातों द्वीप सात समुद्रोंसे घिरे हुए हैं और वे द्वीप तथा [उन्हें घेरनेवाले] समुद्र परस्पर समान हैं, और उत्तरोत्तर दूने होते गये हैं ।। ८७॥ सभी समुद्रोंमें सदा समान जल रहता है, उसमें कभी न्यूनता अथवा अधिकता नहीं होती ॥८८॥

हे मुनिश्रेष्ठ ! पात्रका जल जिस प्रकार अग्निका संयोग होनेसे उबलने लगता है उसी प्रकार चन्द्रमाकी कलाओंके बढ़नेसे समुद्रका जल भी बढ़ने लगता है ॥ ८९॥ शुक्ल और कृष्ण पक्षोंमें चन्द्रमाके उदय और अस्तसे न्यूनाधिक न होते हुए ही जल घटता और बढ़ता है ॥९० ॥

हे महामुने! समुद्रके जलकी वृद्धि और क्षय पाँच सौ दस (५१०) अंगुलतक देखी जाती है ॥९१॥ हे विप्र! पुष्करद्वीपमें सम्पूर्ण प्रजावर्ग सर्वदा [बिना प्रयत्नके] अपने-आप ही प्राप्त हुए षड्रस भोजनका आहार करते हैं ॥ ९२॥

स्वादूदक (मीठे पानीके) समुद्रके चारों ओर लोक निवाससे शून्य और समस्त जीवोंसे रहित उससे दूनी सुवर्णमयी भूमि दिखायी देती है ॥९३॥ वहाँ दस सहस्र योजन विस्तारवाला लोकालोक-पर्वत है । वह पर्वत ऊँचाईमें भी उतने ही सहस्र योजन है ॥ ९४॥ उसके आगे उस पर्वतको सब ओरसे आवृतकर घोर अन्धकार छाया हुआ है, तथा वह अन्धकार चारों ओरसे ब्रह्माण्ड-कटाहसे आवृत है ॥९५ ॥

हे महामुने! अण्डकटाहके सहित द्वीप, समुद्र और पर्वतादियुक्त यह समस्त भूमण्डल पचास करोड़ योजन विस्तारवाला है ॥९६॥

हे मैत्रेय! आकाशादि समस्त भूतोंसे अधिक गुणवाली यह पृथिवी सम्पूर्ण जगत्की आधारभूता और उसका पालन तथा उद्भव करनेवाली है ॥९७॥

अध्याय-05 सात पाताल लोकों का वर्णन

श्रीपराशरजी बोले हे द्विज ! मैंने तुमसे वह पृथ्वीका विस्तार कहा; इसकी ऊँचाई भी सत्तर सहस्त्र योजन कही जाती है ॥ १ ॥ हे मुनिसत्तम ! अटल, वितल, नितल, गभस्तिमान, महातल, सुतल और पाताल इन सातों में से प्रत्येक दस-दस सहस्त्र योजन की दूरीपर है ॥ २ ॥ हे मैत्रेय ! सुंदर महलों से सुशोभित वहाँ की भूमियाँ शुक्ल, कृष्ण, अरुण और पीत वर्ण की तथा शर्करामयी (कंकरीली), सैली (पत्थरकी ) सुवर्णमयी है ॥ ३ ॥ हे महामुने ! उनमें दानव, दैत्य, यक्ष और बड़े- बड़े नाग आदिकों की सैकड़ो जातियाँ निवास करती है ॥ ४ ॥

एक बार नारदजी ने पाताल लोक से स्वर्ग में आकर वहाँ के निवासियों से कहा था कि पाताल तो स्वर्ग से भी अधिक सुंदर है ॥ ५ ॥ जहाँ नागगण के आभूषणों में सुंदर प्रभायुक्त आह्लादकारिणी शुभ्र मणियाँ जड़ी हुई है उस पाताल को किसके समान कहें ? ॥ ६ ॥ जहाँ तहाँ दैत्य और दानवों की कन्याओं से सुशोभित पाताललोक में किस मुक्त पुरुष की भी प्रीति न होगी ॥ ७ ॥ जहाँ दिन में सूर्य की किरणे केवल प्रकाश ही करती है, घाम नहीं करतीं; तथा रात में चन्द्रमा की किरणों से शीत नहीं होता, केवल चाँदनी ही फैलती है ॥ ८ ॥ जहाँ भक्ष्य, भोज्य और महापानादि के भोगों से आनन्दित सर्पों तथा दानवादिकों को समय जाता हुआ भी प्रतीत नही होता ॥ ९ ॥ जहाँ सुंदर वन, नदियाँ, रमणीय सरोवर और कमलों के वन है, जहाँ नरकोकीलों लो सुमधुर कूक गूँजती है एवं आकाश मनोहारी है ॥ १० । और हे द्विज ! जहाँ पातालनिवासी दैत्य, दानव, एवं नागगणद्वारा अति स्वच्छ आभूषण, सुगंधमय अनुलेपन, वीणा, वेणु और मृंदगादि के स्वर तथा तूर्य ये सब एवं भाग्यशालियों के भोगनेयोग्य और भी अनेक भोग भोगे जाते है ॥ ११ १२ ॥

पातालों के नीचे विष्णुभगवान् का शेष नामक जो तमोमय विग्रह है उसके गुणों का दैत्य अथवा दानवगण भी वर्णन नहीं कर सकते ॥ १३ ॥ जिन देवर्षिपूजित देवका सिद्धगण अनंत कहकर बखान करते है वे अति निर्मल, स्पष्ट स्वस्तिक चिन्हों से विभूषित तथा सहस्त्र सिरवाले है ॥ १४ ॥ जो अपने फणों की सहस्त्र मणियों से सम्पूर्ण दिशाओं को देदीप्यमान करते हुए संसार के कल्याण के लिये समस्त असुरों को वीर्यहीन करते रहते है ॥ १५ ॥ मद के कारण अरुणनयन, सदैव एक ही कुंडल पहने हुए तथा मुकुट और माला आदि धारण किये जो अग्नियुक्त श्वेत पर्वत के समान सुशोभित है ॥ १६ ॥ मद से उन्मत्त हुए जो नीलाम्बर तथा श्वेत हारों से सुशोभित होकर मेघमाला और और गंगाप्रवाह से युक्त दूसरे कैलास पर्वत के समान विराजमान है ॥ १७ ॥ जो अपने हाथों में हल और उत्तम मूसल धारण किये है तथा जिनकी उपासना शोभा और वारुणी देवी स्वयं मूर्तिमती होकर करती है ॥ १८ ॥ कल्पांत में जिनके मुखों से विशाग्रिशिखा के समान देदीप्यमान संकर्षणनामक रूद्र निकलकर तीनों लोकों का भक्षण कर जाता है ॥ १९ ॥ वे समस्त देवगणों से वन्दित शेषभगवान् अशेष भूमंडल को मुकुटवत धारण किये हुए पातालतल में विराजमान है ॥ २० ॥ उनका बल-वीर्य, प्रभाव, स्वरूप (तत्त्व ) और रूप (आकार) देवताओं से भी नहीं जाना और कहा जा सकता ॥ २१ ॥ जिनके फणों की मणियों की आभासे अरुण वर्ण हुई यह समस्त पृथ्वी फूलों की माला के समान रखी हुई है उनके बल-वीर्य का वर्णन भला कौन करेगा ? ॥ २२ ॥

जिस समय मदमत्तनयन शेषजी जमुहाई लेते है उस समय समुद्र और वन आदि के सहित यह सम्पूर्ण पृथ्वी चलायमान हो जाती है ॥ २३ ॥ इनके गुणों का अंत गन्धर्व, अप्सरा, सिद्ध, किन्नर, नाग और चारण आदि कोई भी नहीं पा सकते, इसलिये ये अविनाशी देव अनंत कहलाते है ॥ २४ ॥ जिनका नाग-वधुओंद्वारा लेपित हरिचन्दन पुन:पुन: श्वास-वायुसे छट छुटकर दिशाओं को सुगन्धित करता रहता है ॥ २५ ॥ जिनकी आराधना से पूर्वकालीन महर्षि गर्ग ने समस्त ज्योतिर्मंडल (ग्रहनक्षत्रादि) और शकुन- अपशकुनादि नैमित्तिक फलों को तत्त्वत: जाना था ॥ २६ ॥ उन नागश्रेष्ठ शेषजी ने इस पृथ्वी को अपने मस्तकपर धारण किया हुआ है, जो स्वयं भी देव, असुर और मनुष्यों के सहित सम्पूर्ण लोकमाला को धारण किये हुए है ॥ २७ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे चतुर्थोऽध्यायः

अध्याय-06 भिन्न – भिन्न नरकों का तथा भगवन नाम के माहात्म्य का वर्णन

श्रीपराशरजी बोले – हे विप्र ! तदनन्तर पृथ्वी और जल के नीचे नरक है जिन में पापी लोग गिराये जाते है । हे महामुने ! उनका विवरण सुनो ॥ १ ॥

रौरव, सूकर, रोध, ताल, विशसन, महाज्वाल, तप्तकुंभ, लवण, विलोहित, रुधिराम्भ, वैतरणि, कृमांश, कृमिभोजन, असिपत्रवन, कृष्ण, लालाभक्ष, दारुण, पुयवह, पाप, वह्रिज्वाल, अध्:शिरा, सदंश, कालसूत्र, तमस, आवीचि, श्वभोजन, अप्रतिष्ठ और अप्रचि – ये सब तथा इनके सिवा और भी अनेकों महाभयंकर नरक है, जो यमराज के शासनाधीन है और अति दारुण शस्त्र-भय तथा अग्नि-भय देनेवाले है और जिनमें जो पुरुष पापरत होते है वे ही गिरते है ॥ २ – ६ ॥

  • जो पुरुष कूटसाक्षी (झूठा गवाह अर्थात जानकर भी न बतलानेवाला या कुछ-का – कुछ कहनेवाला) होता है अथवा जो पक्षपात से यथार्थ नहीं बोलता और जो मिथ्या भाषण करता है वह रौरवनरक में जाता है ॥ ७ ॥
  • हे मुनिसत्तम ! भ्रूण (गर्भ) नष्ट करनेवाले ग्रामनाशक और गो-हत्यारे लोग रोध नामक नरक में जाते है जो श्वासोच्छवास को रोकनेवाला है ॥ ८ ॥
  • मद्य-पान करनेवाला, ब्रह्मघाती, सुवर्ण चुरानेवाला तथा जो पुरुष इनका संग करता है ये सब सूकरनरक में जाते है ॥ ९ ॥
  • क्षत्रिय अथवा वैश्य का वध करनेवाला तालनरक में तथा गुरुस्त्री के साथ गमन करनेवाला, भगिनीगामी और राजदूतों को मारनेवाला पुरुष तप्तकुंडनरक में पड़ता है ॥ १० ॥
  • सती स्त्री को बेचनेवाला, कारागृहरक्षक, अश्वविक्रेता और भक्तपुरुष का त्याग करनेवाला ये सब लोग तप्तलोहनरक में गिरते है ॥ ११ ॥
  • पुत्रवधु और पुत्री के साथ विषय करनेवाला पुरुष महाज्वाल नरक में गिराया जाता है, तथा जो नराधम गुरुजनों क अपमान करनेवाला और उनसे दुर्वचन बोलनेवाला होता है तथा जो वेद की निंदा करनेवाला, वेद बेचनेवाला या अगम्या स्त्री से सम्भोग करता है, हे द्विज ! वे सब लवणनरक में जाते है ॥ १२-१३ ॥
  • चोर तथा मर्यादा का उल्लंघन करनेवाला पुरुष विलोहित नरक में गिरता है ॥ १४ ॥
  • देव, द्विज और पितृगण से द्वेष करनेवाला तथा रत्न को दूषित करनेवाला कृमिभक्ष नरक में और अनिष्ट यज्ञ करनेवाला कृमिश नरक में जाता है ॥ १५ ॥
  • जो नराधम पितृगण, देवगण और अतिथियों को छोडकर उनसे पहले भोजन कर लेता है वह अति उग्र लालाभक्ष नरक में पड़ता है; और बाण बनानेवाला वेधकनरक में जाता है ॥ १६ ॥
  • जो मनुष्य कर्नी नामक बाण बनाते है और जो खड्गादी शस्त्र बनानेवाले है वे अति दारुण विशसन नरक में गिरते है ॥ १७ ॥
  • असत – प्रतिग्रह (दूषित उपायों से धन-संग्रह) करनेवाला, अयाज्य-याजक और नक्षत्रोपजीवी (नक्षत्र-विद्याको न जानकर भी उसका ढोंग रचनेवाला) पुरुष अधोमुख नरक में पड़ता है ॥ १८ ॥
  • साहस (निष्ठुर कर्म) करनेवाला पुरुष पुयवह नरक में जाता है, तथा [ पुत्र-मित्रादि की वंचना करके] अकेले ही स्वादु भोजन करनेवाला और लाख, मांस, रस, तिल तथा लवण आदि बेचनेवाला ब्राह्मण भी उसी (पुयवह) नरक में गिरता है ॥ १९ – २० ॥
  • हे द्विजश्रेष्ठ ! बिलाव, कुक्कुट, छाग, अश्व, शूकर तथा पक्षियों को पालने से भी पुरुष उसी नरक में जाता है ॥ २१ ॥
  • नट या मल्लवृत्ति से रहनेवाला, धीवर का कर्म करनेवाला, कुंढ (उपपति से उत्पन्न सन्तान) का अन्न खानेवाला, विष देनेवाला, चुगलखोर, स्त्री की असदवृत्ति के आश्रय रहनेवाला, धन आदि के लोभ से बिना पर्व के अमावास्या आदि पर्वदिनों का कार्य करानेवाला द्विज, घर में आग लगानेवाला, मित्र की हत्या करनेवाला, शकुन आदि बतानेवाला, ग्राम का पुरोहित तथा सोम (मदिरा) बेचनेवाला – ये सब रुधिरान्ध नरक में गिरते है ॥ २२- २३ ॥
  • यज्ञ अथवा ग्राम को नष्ट करनेवाला पुरुष वैतरणी नरक में जाता है, तथा जो लोग वीर्यपातादि करनेवाले, खेतों की बाड तोड़नेवाले, अपवित्र और छलवृत्ति के आश्रय रहनेवाले होते है वे कृष्ण नरक में गिरते है ॥ २४ – २५ ॥
  • जो वृथा ही वनों को काटता है वह असिपत्रवन नरक में जाता है । मेषोपजीवी और व्याधगण वह्रीज्वाल नरक में गिरते है तथा हे द्विज ! जो कच्चे घडो अथवा ईट आदि को पकाने के लिये उनमे अग्नि डालते है, वे भी उस (वह्रीज्वाल नरक) में ही जाते है ॥ २६ – २७ ॥
  • व्रतों को लोप करनेवाले तथा अपने आश्रम से पतित दोनों ही प्रकार के पुरुष संदेश नामक नरक में गिरते है ॥ २८ ॥
  • जिन ब्रह्मचारियों का दिन में तथा सोते समय [ वूरी भावनासे] वीर्यपात हो जाता है, अथवा जो अपने ही पुत्रों से पढ़ते है वे लोग श्वभोजन नरक में गिरते है ॥ २९ ॥

इस प्रकार, ये तथा अन्य सैकड़ो-हजारों नरक है, जिनमें दुष्कर्मी लोग नाना प्रकार की यातनाएँ भोग करते है ॥ ३० ॥ इन उपरोक्त पापों के समान और भी सहस्रों पाप-कर्म है, उनके फल मनुष्य भिन्न-भिन्न नरकों में भोगा करते है ॥ ३१ ॥ जो लोग अपने वर्णाश्रम धर्म के विरुद्ध मन, वचन अथवा कर्म से कोई आचरण करते है वे नरक में गिरते है ॥ ३२ ॥ अधोमुख नरक निवासियों को स्वर्गलोक में देवगण दिखायी दिया करते है और देवता लोग नीचे के लोकों में नारकी जीवों को देखते है ॥ ३३ ॥ पापी लोग नरकभोग के अनन्तर क्रम से स्थावर, कृमि, जलचर, पक्षी, पशु, मनुष्य, धार्मिक पुरुष, देवगण तथा मुमुक्षु होकर जन्म ग्रहण करते है ॥ ३४ ॥ हे महाभाग ! मुमुक्षुपर्यन्त इन सब में दूसरों की अपेक्षा पहले प्राणी सहस्त्रगुण अधिक है ॥ ३५ ॥ जितने जीव स्वर्ग में है उतने ही नरक में है, जो पापी पुरुष प्रायश्चित नहीं करते वे ही नरक में जाते है ॥ ३६ ॥

भिन्न-भिन्न पापों के अनुरूप जो – जो प्रायश्चित है उन्हीं- उन्हीं को महर्षियों ने वेदार्थ का स्मरण करके बताया है ॥ ३७ ॥ हे मैत्रेय ! स्वायम्भुवमनु आदि स्मृतिकारों ने महान पापों के लिये महान और अल्पों के लिये अल्प प्रायश्चित्तों की व्यवस्था की है ॥ ३८ ॥ किन्तु जितने भी तपस्यात्मक और कर्मात्मक प्रायश्चित है उन सब में श्रीकृष्ण स्मरण सर्वश्रेष्ठ है ॥ ३९ ॥ जिस पुरुष के चित्त में पाप-कर्म के अनन्तर पश्चाताप होता है उसके लिये ही प्रायश्चित्तों का विधान है । किन्तु यह हरिस्मरण तो एकमात्र स्वयं ही परम प्रायश्चित है ॥ ४० ॥ प्रात:काल, सायंकाल, रात्रि में अथवा मध्यान्ह में किसी भी समय श्रीनारायण का स्मरण करने से पुरुष के समस्त पाप तत्काल क्षीण हो जाते है ॥ ४१ ॥ श्रीविष्णु भगवान के स्मरण से समस्त पापराशि के भस्म हो जाने से पुरुष मोक्षपद प्राप्त कर लेता है, स्वर्ग-लाभ तो उसके लिये विश्वरूप माना जाता है ॥ ४२ ॥ हे मैत्रेय ! जिसका चित्त जप, होम और अर्चनादि करते हुए निरंतर भगवान वासुदेव में लगा रहता है उसके लिये इंद्रपद आदि फल तो अन्तराय (विघ्न) है ॥ ४३ ॥ कहाँ तो पुनर्जन्म के चक्र में डालनेवाली स्वर्ग-प्राप्ति और कहाँ मोक्ष का सर्वोत्तम बीज ‘वासुदेव’ नामक जप ! ॥ ४४ ॥

इसलिये हे मुने ! श्रीविष्णुभगवान का अहर्निश स्मरण करने से सम्पूर्ण पाप क्षीण हो जाने के कारण मनुष्य फिर नरक में नहीं जाता ॥ ४५ ॥ चित्त को प्रिय लगनेवाला ही स्वर्ग है और उसके विपरीत (अप्रिय लगनेवाला) ही नरक है । हे द्विजोत्तम ! पाप और पुण्यके दूसरे नाम नरक और स्वर्ग है ॥ ४६ ॥ जब कि एक ही वस्तु सुख और दुःख तथा ईर्ष्या और कोपका कारण हो जाती है तो उसमें वस्तुता (नियतस्वभावत्व) ही कहाँ है ? ॥ ४७ ॥ क्योंकि एक ही वस्तु कभी प्रीति की कारण होती है तो वही दूसरे समय दुःखदायिनी हो जाती है और वही कभी क्रोध की हेतू होती है तो कभी प्रसन्नता देनेवाली हो जाती है ॥ ४८ ॥ अत: कोई भी पदार्थ दुःखमय नहीं है और न कोई सुखमय है । ये सुख-दुःख तो मन के ही विकार है ॥ ४९ ॥ [परमार्थत:] ज्ञान ही परब्रह्म है और [अविद्या की उपाधि से ] वही बंधन का कारण है । यह सम्पूर्ण विश्व ज्ञानमय ही है; ज्ञान से भिन्न और कोई वस्तु नहीं है । हे मैत्रेय ! विद्या और अविद्या को भी तुम ज्ञान ही समझो ॥ ५० – ५१ ॥

हे द्विज ! इसप्रकार मैंने तुमसे समस्त भूमंडल, सम्पूर्ण पाताललोक और नरकों का वर्णन कर दिया ॥ ५२ ॥ समुद्र, पर्वत, द्वीप, वर्ष और नदियाँ – इन सभी की मैंने संक्षेप से व्याख्या कर दी ॥ ५३ ॥

– इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे पंचमोऽध्यायः –

अध्याय-07 भूर्भुवः आदि सात ऊर्ध्वलोकों का वृतांत

श्रीमैत्रेयजी बोले – ब्रह्मन ! आपने मुझसे समस्त भूमंडल का वर्णन किया । हे मुने ! अब मैं भुवर्लोक आदि समस्त लोकों के विषय में सुनना चाहता हूँ ॥ १ ॥ हे महाभाग ! मुझ जिज्ञासु से आप ग्रहगण की स्थिति तथा उनके परिमाण आदि का यथावत वर्णन कीजिये ॥ २ ॥

श्रीपराशरजी बोले – जितनी दूरतक सूर्य और चन्द्रमा की किरणों का प्रकाश जाता है; समुद्र, नदी और पर्वतादि से युक्त उतना प्रदेश पृथ्वी कहलाता है ॥ ३ ॥ हे द्विज ! जितना पृथ्वी का विस्तार और परिमंडल (घेरा) है उतना ही विस्तार और परीमंडल भुवर्लोक का भी है ॥ ४ ॥ हे मैत्रेय ! पृथ्वी से एक लाख योजन दूर सूर्यमंडल है एयर सूर्यमंडल से भी एक लक्ष योजन के अंतरपर चन्द्रमंडल है ॥ ५ ॥ चन्द्रमा से पुरे सौ हजार योजन ऊपर सम्पूर्ण नक्षत्रमंडल प्रकाशित हो रहा है ॥ ६ ॥

हे ब्रह्मन ! नक्षत्रमडंल से दो लाख योजन ऊपर बुध और बुध से भी दो लक्ष योजन ऊपर शुक्र स्थित है ॥ ७ ॥ शुक्र से इतनी ही दुरीपर मंगल है और मंगल से भी दो लाख योजन ऊपर बृहस्पतिजी है ॥ ८ ॥ हे द्विजोत्तम ! बृहस्पतिजी से दो लाख योजन ऊपर शनि है और शनि से एक लक्ष योजन के अंतरपर सप्तर्षिमडंल है ॥ ९ ॥ तथा सप्तर्षियों से भी सौ हजार योजन ऊपर समस्त ज्योतिश्वक्रकी नाभिरूप ध्रुवमंडल स्थित है ॥ १० ॥ हे महामुने ! मैंने तुमसे यह त्रिलोकी की उच्चता के विषय में वर्णन किया । यह त्रिलोकी यज्ञफल की भोग-भूमि है और यज्ञानुष्ठान की स्थिति इस भारतवर्ष में ही है ॥ ११ ॥

ध्रुव से एक करोड़ योजन ऊपर महर्लोक है, जहाँ कल्पांत-पर्यन्त रहनेवाले भृगु आदि सिद्धगण रहते है ॥ १२ ॥ हे मैत्रेय ! उससे भी दो करोड़ योजन ऊपर जनलोक है जिसमें ब्रह्माजी के प्रख्यात पुत्र निर्मलचित्त सनाकादि रहते है ॥ १३ ॥ जनलोक से चौगुना अर्थात आठ करोड़ योजन ऊपर तपलोक है; वहाँ वैराज नामक देवगणों का निवास है जिनका कभी दाह नहीं होता ॥ १४ ॥

तपलोक से छ:गुना अर्थात बारह करोड़ योजन के अंतरपर सत्यलोक सुशोभित है जो ब्रह्मलोक भी कहलाता है और जिसमें फिर न मरनेवाले अमरगण निवास करते है ॥ १५ ॥ जो भी पार्थिव वस्तु चरणसंचार के योग्य है वह भूर्लोक ही है । उसका विस्तार मैं कह चूका ॥ १६ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! पृथ्वी और सूर्य के मध्य में जो सिद्धगण और मुनिगण सेवित स्थान है, वही दूसरा भुवर्लोक है ॥ १७ ॥ सूर्य और ध्रुव के बीच में जो चौदह लक्ष योजन का अंतर है, उसीको लोकस्थिति का विचार करनेवालों ने स्वर्लोक कहा है ॥ १८ ॥ हे मैत्रेय ! ये (भू: , भुव:, स्व: ) ‘कृतक’ त्रैलोक्य कहलाते है और जन, तप तथा सत्य – ये तीनों ‘अकृतक’ लोक है ॥ १९ ॥ इन कृतक और अकृतक त्रिलोकियों के मध्य में महर्लोक कहा जाता है, जो कल्पांत में केवल जनशून्य हो जाता है, अत्यंत नष्ट नहीं होता [ इसलिये यह ‘कृतकाकृत’ कहलाता है ] ॥ २० ॥

हे मैत्रेय ! इसप्रकार मैंने तुमसे ये सात लोक और सात ही पाताल कहे । इस ब्रह्माण्ड का बस इतना ही विस्तार है ॥ २१ ॥ यह ब्रह्माण्ड कपिथ्य (कैथे) के बीज के समान ऊपर-नीचे सब ओर अंडकटाह से घिरा हुआ है ॥ २२ ॥

हे मैत्रेय ! यह अंड अपने से दसगुने जल से आवृत है और वह जलका सम्पूर्ण आवरण अग्नि से घिरा हुआ है ॥ २३ ॥ अग्नि वायु से और वायु आकाश से परिवेष्टित है तथा आकाश भूतों के कारण तामस अहंकार और अहंकार महत्तत्व से घिरा हुआ है । हे मैत्रेय ! ये सातों उत्तरोत्तर एक-दूसरे से दसगुने है ॥ २४ ॥ महत्तत्व को भी प्रधान ने आवृत कर रखा है । वह अनंत है; तथा उसका न कभी अंत (नाश) होता है और न कोई संख्या ही है; क्योंकि हे मुने ! वह अनंत, असंख्येय, अपरिमेय और सम्पूर्ण जगत का कारण है और वही परा प्रकृति है ॥ २५ – २६ ॥ उसमें ऐसे-ऐसे हजारों, लाखों तथा सैकड़ों करोड़ ब्रह्माण्ड है ॥ २७ ॥ जिस प्रकार काष्ठ में अग्नि और तिल में तेल रहता है उसीप्रकार स्वप्रकाश चेतनात्मा व्यापक पुरुष प्रधान में स्थित है ॥ २८ ॥ हे महाबुद्धे ! ये संश्रयशील प्रधान और पुरुष भी समस्त भूतों की स्वरूपभूता विष्णु-शक्ति से आवृत है ॥ २९ ॥

हे महामते ! वह विष्णु-शक्ति ही [ प्रलय के समय ] उनके पार्थक्य और [स्थिति के समय ] उनके सम्मिलन की हेतु है तथा सर्गारम्भ के समय वही उनके क्षोम की कारण है ॥ ३० ॥ जिस प्रकार जल के संसर्ग से वायु सैकड़ो जलकणों को धारण करता है उसी प्रकार भगवान विष्णु की शक्ति भी प्रधान-पुरुषमय जगत को धारण करती है ॥ ३१ ॥

हे मुने ! जिस प्रकार आदि-बीज से ही मूल, स्कन्ध और शाखा आदि के सहित वृक्ष उत्पन्न होता है और तदनन्तर उससे और भी बीज उत्पन्न होते है, तथा उन बीजों से अन्यान्य वृक्ष उत्पन्न होते है और वे भी उन्हीं लक्षण, द्रव्य और कारणों से युक्त होते है, उसी प्रकार पहले अव्याकृत [प्रधान] से महत्तत्त्व से लेकर पंचभूतपर्यन्त उत्पन्न होते है तथा उनसे देव, असुर आदिका जन्म होता है और फिर उनके पुत्र तथा उन पुत्रों के अन्य पुत्र होते है ॥ ३२ -३४ ॥ अपने बीज से अन्य वृक्ष के उत्पन्न होने से जिस प्रकार पूर्ववृक्ष की कोई क्षति नहीं होती उसी प्रकार अन्य प्राणियों के उत्पन्न होने से उनके जन्मदाता प्राणियों का ह्रास नहीं होता ॥ ३५ ॥

जिसप्रकार आकाश और काल आदि सन्निधिमात्र से ही वृक्ष के कारण होते है उसी प्रकार भगवान श्रीहरि भी बिना परिणाम के ही विश्व के कारण है ॥ ३६ ॥ हे मुनिसत्तम ! जिस प्रकार धान के बीज में मूल, नाल, पत्ते, अंकुर, तना, कोष, पुष्प, क्ष्रीर, तंडुल, तुष और कण सभी रहते हैं; तथा अन्कुरोत्पत्ति की हेतुभूत सामग्री के प्राप्त होनेपर वे प्रकट हो जाते है, उसी प्रकार अपने अनेक पुर्वकर्मों में स्थित देवता आदि विष्णु-शक्ति का आश्रय पानेपर आविर्भूत हो जाते है ॥ ३७ – ३९ ॥ जिससे यह सम्पूर्ण जगत उत्पन्न हुआ है, जो स्वयं जगतरूप से स्थित है, जिससे यह स्थित है तथा जिसमें यह लीन हो जायगा वह परब्रह्म ही विष्णुभगवान है ॥ ४० ॥ वह ब्रह्म ही उन (विष्णु) का परमधाम (परस्वरूप) है, वह पद सत और असत दोनों से विलक्षण है तथा उससे अभिन्न हुआ ही वह सम्पूर्ण चराचर जगत उससे उत्पन्न हुआ है ॥ ४१ ॥ वही अव्यक्त मूलप्रकृति है, वही व्यक्तस्वरूप संसार हैं, उसी में यह सम्पूर्ण जगत लीन होता है तथा उसी के आश्रय स्थित है ॥ ४२ ॥ यज्ञादि क्रियाओं का कर्ता वही है, यज्ञरूप से उसीका यजन किया जाता है और उन यज्ञादि का फलस्वरूप भी वही है तथा यज्ञ के साधनरूप जो स्र्त्रुवा आदि है वे सब भी हरि से अतिरिक्त और कुछ नहीं है ॥ ४३ ॥

– इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे षष्ठोऽध्यायः –

अध्याय-08 सूर्य, नक्षत्र एवं राशियोंकी व्यवस्था तथा कालचक्र, लोकपाल और गंगाविर्भावका वर्णन

श्रीपराशरजी बोले- हे सुव्रत! मैंने तुमसे यह ब्रह्माण्डकी स्थिति कही, अब सूर्य आदि ग्रहोंकी स्थिति और उनके परिमाण सुनो ॥१॥

हे मुनिश्रेष्ठ ! सूर्यदेवके रथका विस्तार नौ हजार योजन है तथा इससे दूना उसका ईषा-दण्ड (जूआ और रथके बीचका भाग) है ॥२॥ उसका धुरा डेढ़ करोड़ सात लाख योजन लम्बा है जिसमें उसका पहिया लगा हुआ है॥३॥ उस पूर्वाह्न, मध्याह्न और पराह्नरूप तीन नाभि, परिवत्सरादि पाँच अरे और षड्-ऋतुरूप छ: नेमिवाले अक्षयस्वरूप संवत्सरात्मक चक्रमें सम्पूर्ण कालचक्र स्थित है ॥४॥ सात छन्द ही उसके घोड़े हैं, उनके नाम सुनो- गायत्री, बृहती, उष्णिक, जगती, त्रिष्टुप् अनुष्टुप् और पंक्ति- ये छन्द ही सूर्यके सात घोड़े कहे गये हैं ॥५॥

हे महामते! भगवान् सूर्यके रथका दूसरा धुरा साढ़े पैंतालीस सहस्र योजन लम्बा है ॥६॥ दोनों धुरोंके परिमाणके तुल्य ही उसके युगार्हो (जूओं)-का परिमाण है, इनमेंसे छोटा धुरा उस रथके एक युगार्द्ध (जूए)-के सहित ध्रुवके आधारपर स्थित है और दूसरे धुरेका चक्र मानसोत्तरपर्वतपर स्थित है ॥७॥

इस मानसोत्तरपर्वतके पूर्वमें इन्द्रकी, दक्षिणमें यमकी, पश्चिममें वरुणकी और उत्तरमें चन्द्रमाकी पुरी है; उन पुरियोंके नाम सुनो ॥८॥ इन्द्रकी पुरी वस्वौकसारा है, यमकी संयमनी है, वरुणकी सुखा है तथा चन्द्रमाकी विभावरी है॥ ९॥ हे मैत्रेय! ज्योतिश्चक्रके सहित भगवान् भानु दक्षिण-दिशामें प्रवेशकर छोड़े हुए बाणके समान तीव्र वेगसे चलते हैं ॥१०॥

भगवान् सूर्यदेव दिन और रात्रिकी व्यवस्थाके कारण हैं और रागादि क्लेशोंके क्षीण हो जानेपर वे ही क्रममुक्तिभागी योगिजनोंके देवयान नामक श्रेष्ठ मार्ग हैं ॥११॥ हे मैत्रेय! सभी द्वीपोंमें सर्वदा मध्याह्न तथा मध्यरात्रिके समय सूर्यदेव मध्य आकाशमें सामनेकी ओर रहते हैं* ॥१२॥

इसी प्रकार उदय और अस्त भी सदा एक-दूसरेके सम्मुख ही होते हैं । हे ब्रह्मन्! समस्त दिशा और विदिशाओंमें जहाँके लोग [रात्रिका अन्त होनेपर] सूर्यको जिस स्थानपर देखते हैं उनके लिये वहाँ उसका उदय होता है और जहाँ दिनके अन्तमें सूर्यका तिरोभाव होता है वहीं उसका अस्त कहा जाता है ॥१३-१४॥ सर्वदा एक रूपसे स्थित सूर्यदेवका वास्तवमें न उदय होता है और न अस्त; बस, उनका देखना और न देखना ही उनके उदय और अस्त हैं ॥१५॥ मध्याह्नकालमें इन्द्रादिमेंसे किसीकी पुरीपर प्रकाशित होते हुए सूर्यदेव [पार्श्ववर्ती दो पुरियोंके सहित] तीन पुरियों और दो कोणों (विदिशाओं)-को प्रकाशित करते हैं, इसी प्रकार अग्नि आदि कोणोंमेंसे किसी एक कोणमें प्रकाशित होते हुए वे [पार्श्ववर्ती दो कोणोंके सहित] तीन कोण और दो पुरियोंको प्रकाशित करते हैं ॥१६॥ सूर्यदेव उदय होनेके अनन्तर मध्याह्नपर्यन्त अपनी बढ़ती हुई किरणोंसे तपते हैं और फिर क्षीण होती हुई किरणोंसे अस्त हो जाते हैं * ॥१७॥

सर्यके उदय और अस्तसे ही पूर्व तथा पश्चिम दिशाओंकी व्यवस्था हुई है । वास्तवमें तो, वे जिस प्रकार पूर्वमें प्रकाश करते हैं उसी प्रकार पश्चिम तथा पार्श्ववर्तिनी [उत्तर और दक्षिण] दिशाओंमें भी करते हैं ॥ १८॥ सूर्यदेव देवपर्वत सुमेरुके ऊपर स्थित ब्रह्माजीकी सभाके अतिरिक्त और सभी स्थानोंको प्रकाशित करते हैं; उनकी जो किरणें ब्रह्माजीकी सभामें जाती हैं वे उसके तेजसे निरस्त होकर उलटी लौट आती हैं ॥ १९॥ सुमेरुपर्वत समस्त द्वीप और वर्षों के उत्तरमें है इसलिये उत्तरदिशामें (मेरुपर्वतपर) सदा [ एक ओर ] दिन और [ दूसरी ओर ] रात रहते हैं ॥ २० ॥ रात्रिके समय सूर्यके अस्त हो जाने पर उसका तेज अग्निमें प्रविष्ट हो जाता है; इसलिये उस समय अग्नि दूरहीसे प्रकाशित होने लगता है ॥२१॥ इसी प्रकार, हे द्विज! दिनके समय अग्निका तेज सूर्य में प्रविष्ट हो जाता है; अत: अग्निके संयोगसे ही सूर्य अत्यन्त प्रखरतासे प्रकाशित होता है ॥२२॥ इस प्रकार सूर्य और अग्निके प्रकाश तथा उष्णतामय तेज परस्पर मिलकर दिन-रातमें वृद्धिको प्राप्त होते रहते हैं ॥२३॥

मेरुके दक्षिणी और उत्तरी भूम्यर्द्धमें सूर्यके प्रकाशित होते समय अन्धकारमयी रात्रि और प्रकाशमय दिन क्रमश: जलमें प्रवेश कर जाते हैं ॥ २४॥ दिनके समय रात्रिके प्रवेश करनेसे ही जल कुछ ताम्रवर्ण दिखायी देता है, किन्तु सूर्य-अस्त हो जानेपर उसमें दिनका प्रवेश हो जाता है; इसलिये दिनके प्रवेशके कारण ही रात्रिके समय वह शुक्लवर्ण हो जाता है॥ २५ ॥

इस प्रकार जब सूर्य पुष्करद्वीपके मध्यमें पहुँचकर पृथ्वीका तीसवाँ भाग पार कर लेता है तो उसकी वह गति एक मुहूर्तकी होती है। [ अर्थात् उतने भागके अतिक्रमण करने में उसे जितना समय लगता है वही महर्त कहलाता है ] ॥ २६॥ हे द्विज! कुलाल-चक्र (कुम्हारके चाक) के सिरेपर घमते हए जीवके समान भ्रमण करता हआ यह सुर्य पृथ्वीके तीसों भागोंका अतिक्रमण करनेपर एक दिनरात्रि करता है ॥२७॥ हे द्विज! उत्तरायणके आरम्भमें सूर्य सबसे पहले मकरराशिमें जाता है, उसके पश्चात् वह कुम्भ और मीन राशियोंमें एक राशिसे दूसरी राशिमें जाता है ॥ २८॥ इन तीनों राशियोंको भोग चुकनेपर सूर्य रात्रि और दिनको समान करता हुआ वैषुवती गतिका अवलम्बन करता है, [ अर्थात् वह भूमध्य-रेखाके बीचमें ही चलता है ] ॥ २९ ॥ उसके अनन्तर नित्यप्रति रात्रि क्षीण होने लगती है और दिन बढ़ने लगता है । फिर [ मेष तथा वष राशिका अतिक्रमण कर 1 मिथनराशिसे निकलकर उत्तरायणकी अन्तिम सीमापर उपस्थित हो वह कर्कराशिमें पहुँचकर दक्षिणायनका आरम्भ करता है ॥ ३०-३१॥ जिस प्रकार कलाल-चक्रके सिरेपर स्थित जीव अति शीघ्रतासे घूमता है उसी प्रकार सूर्य भी दक्षिणायनको पार करने में अति शीघ्रतासे चलता है ॥३२॥ अतः वह अति शीघ्रतापूर्वक वायुवेगसे चलते हुए अपने उत्कृष्ट मार्गको थोडे समयमें ही पार कर लेता है ॥३३॥ हे द्विज! दक्षिणायनमें दिनके समय       शीघ्रतापूर्वक चलनेसे उस समयके साढ़े तेरह नक्षत्रोंको सूर्य बारह मुहूर्तों में पार कर लेता है, किन्तु रात्रिके समय (मन्दगामी होनेसे) उतने ही नक्षत्रोंको अठारह मुहूर्तोंमें पार करता है ॥ ३४ ॥ कुलाल-चक्रके मध्यमें स्थित जीव जिस प्रकार धीरे-धीरे चलता है उसी प्रकार उत्तरायणके समय सूर्य मन्दगतिसे चलता है ॥ ३५ ॥ इसलिये उस समय वह थोड़ी-सी भूमि भी अति दीर्घकालमें पार करता है, अतः उत्तरायणका अन्तिम दिन अठारह मुहूर्तका होता है, उस दिन भी सूर्य अति मन्दगतिसे चलता है और ज्योतिश्चक्रार्धके साढ़े तेरह नक्षत्रोंको एक दिनमें पार करता है किन्तु रात्रिके समय वह उतने ही (साढ़े तेरह) नक्षत्रोंको बारह मुहूर्तों में ही पार कर लेता है ॥३६-३८॥ अत: जिस प्रकार नाभिदेशमें चक्रके मन्द-मन्द घूमनेसे वहाँका मृत्-पिण्ड भी मन्दगतिसे घूमता है उसी प्रकार ज्योतिश्चक्रके मध्यमें स्थित ध्रुव अति मन्द गतिसे घूमता है ॥ ३९॥

हे मैत्रेय! जिस प्रकार कुलाल-चक्रकी नाभि अपने स्थानपर ही घूमती रहती है, उसी प्रकार ध्रुव भी अपने स्थानपर ही घूमता रहता है ॥४०॥

इस प्रकार उत्तर तथा दक्षिण सीमाओंके मध्यमें मण्डलाकार घूमते रहनेसे सूर्यकी गति दिन अथवा रात्रिके समय मन्द अथवा शीघ्र हो जाती है ॥४१॥ जिस अयनमें सूर्यकी गति दिनके समय मन्द होती है उसमें रात्रिके समय शीघ्र होती है तथा जिस समय रात्रि-कालमें शीघ्र होती है उस समय दिनमें मन्द हो जाती है ॥४२॥ हे द्विज! सूर्यको सदा एक बराबर मार्ग ही पार करना पड़ता है; एक दिन-रात्रिमें यह समस्त राशियोंका भोग कर लेता है ॥४३॥ सूर्य छ: राशियोंको रात्रिके समय भोगता है और छ: को दिनके समय । राशियोंके परिमाणानुसार ही दिनका बढ़ना-घटना होता है तथा रात्रिकी लघुता-दीर्घता भी राशियोंके परिमाणसे ही होती है ॥४४-४५॥ राशियोंके भोगानुसार ही दिन अथवा रात्रिकी लघुता अथवा दीर्घता होती है । उत्तरायणमें सूर्यकी गति रात्रिकालमें शीघ्र होती है तथा दिनमें मन्द । दक्षिणायनमें उसकी गति इसके विपरीत होती है ॥४६-४७॥

रात्रि उषा कहलाती है तथा दिन व्युष्टि (प्रभात) कहा जाता है; इन उषा तथा व्युष्टिके बीचके समयको सन्ध्या कहते हैं * ॥४८॥ इस अति दारुण और भयानक सन्ध्याकालके उपस्थित होनेपर मन्देहा नामक भयंकर राक्षसगण सूर्यको खाना चाहते हैं ॥४९॥ हे मैत्रेय! उन राक्षसोंको प्रजापतिका यह शाप है कि उनका शरीर अक्षय रहकर भी मरण नित्यप्रति हो ॥५०॥ अतः सन्ध्याकालमें उनका सूर्यसे अति भीषण युद्ध होता है; हे महामुने! उस समय द्विजोत्तमगण जो ब्रह्मस्वरूप ॐकार तथा गायत्रीसे अभिमन्त्रित जल छोड़ते हैं, उस वज्रस्वरूप जलसे वे दुष्ट राक्षस दग्ध हो जाते हैं ॥५१-५२॥ अग्निहोत्रमें जो ‘सूर्यो ज्योतिः’ इत्यादि मन्त्रसे प्रथम आहुति दी जाती है उससे सहस्रांशु दिननाथ देदीप्यमान हो जाते हैं ॥५३॥ ॐकार विश्व, तैजस् और प्राज्ञरूप तीन धामोंसे युक्त भगवान् विष्णु है तथा सम्पूर्ण वाणियों (वेदों)-का अधिपति है, उसके उच्चारणमात्रसे ही वे राक्षसगण नष्ट हो जाते हैं ॥५४॥ सूर्य विष्णुभगवान् का अति श्रेष्ठ अंश और विकाररहित अन्तर्ज्योति:स्वरूप है । ॐकार उसका वाचक है और वह उसे उन राक्षसोंके वधमें अत्यन्त प्रेरित करनेवाला है ॥५५॥ उस ॐकारकी प्रेरणासे अति प्रदीप्त होकर वह ज्योति मन्देहा नामक सम्पूर्ण पापी राक्षसोंको दग्ध कर देती है ॥५६॥ इसलिये सन्ध्योपासन-कर्मका उल्लंघन कभी न करना चाहिये । जो पुरुष सन्ध्योपासन नहीं करता वह भगवान् सूर्यका घात करता है ॥५७॥ तदनन्तर [उन राक्षसोंका वध करनेके पश्चात्] भगवान् सूर्य संसारके पालनमें प्रवृत्त हो बालखिल्यादि ब्राह्मणोंसे सुरक्षित होकर गमन करते हैं ॥५८॥

पन्द्रह निमेषकी एक काष्ठा होती है और तीस काष्ठाकी एक कला गिनी जाती है । तीस कलाओंका एक मुहूर्त होता है और तीस मुहूर्तोंके सम्पूर्ण रात्रि-दिन होते हैं ॥५९॥ दिनोंका ह्रास अथवा वृद्धि क्रमशः प्रात:काल, मध्याह्नकाल आदि दिवसांशोंके ह्रास-वृद्धिके कारण होते हैं; किन्तु दिनोंके घटते-बढ़ते रहनेपर भी सन्ध्या सर्वदा समान भावसे एक मुहूर्तकी ही होती है ॥६०॥ उदयसे लेकर सूर्यकी तीन मुहूर्तकी गतिके कालको ‘प्रात:काल’ कहते हैं, यह सम्पूर्ण दिनका पाँचवाँ भाग होता है ॥६१॥ इस प्रात:कालके अनन्तर तीन मुहूर्तका समय ‘संगव’ कहलाता है तथा संगवकालके पश्चात् तीन मुहूर्तका मध्याह्न’ होता है ॥६२॥ मध्याह्नकालसे पीछेका समय ‘अपराह्न कहलाता है इस काल-भागको भी बुधजन तीन मुहूर्तका ही बताते हैं ॥६३॥ अपराह्नके बीतनेपर ‘सायाह्न’ आता है । इस प्रकार [सम्पूर्ण दिनमें] पन्द्रह मुहूर्त और [प्रत्येक दिवसांशमें] तीन मुहूर्त होते हैं ॥६४॥

वैषुवत दिवस पन्द्रह मुहूर्तका होता है, किन्तु उत्तरायण और दक्षिणायनमें क्रमश: उसके वृद्धि और ह्रास होने लगते हैं । इस प्रकार उत्तरायणमें दिन रात्रिका ग्रास करने लगता है और दक्षिणायनमें रात्रि दिनका ग्रास करती रहती है ॥६५-६६॥ शरद् और वसन्त-ऋतुके मध्यमें सूर्यके तुला अथवा मेषराशिमें जानेपर ‘विषुव’ होता है । उस समय दिन और रात्रि समान होते हैं ॥६७॥ सूर्यके कर्कराशिमें उपस्थित होनेपर दक्षिणायन कहा जाता है और उसके मकरराशिपर आनेसे उत्तरायण कहलाता है ॥६८॥

हे ब्रह्मन् ! मैंने जो तीस मुहूर्तके एक रात्रि-दिन कहे हैं, ऐसे पन्द्रह रात्रि-दिवसका एक ‘पक्ष’ कहा जाता है ॥६९॥ दो पक्षका एक मास होता है, दो सौरमासकी एक ऋतु और तीन ऋतुका एक अयन होता है तथा दो अयन ही [मिलाकर] एक वर्ष कहे जाते हैं ॥ ७० ॥

[सौर, सावन, चान्द्र तथा नाक्षत्र–इन] चार प्रकारके मासोंके अनुसार विविधरूपसे कल्पित संवत्सरादि पाँच प्रकारके वर्ष ‘युग’ कहलाते हैं यह युग ही [मलमासादि] सब प्रकारके काल-निर्णयका कारण कहा जाता है ॥७१॥ उनमें पहला संवत्सर, दूसरा परिवत्सर, तीसरा इद्वत्सर,

चौथा अनुवत्सर और पाँचवाँ वत्सर है। यह काल ‘युग’ नामसे विख्यात है ॥७२॥

श्वेतवर्षके उत्तरमें जो शृंगवान् नामसे विख्यात पर्वत है उसके तीन शृंग हैं, जिनके कारण यह शृंगवान् कहा जाता है ॥७३॥ उनमेंसे एक शृंग उत्तरमें, एक दक्षिणमें तथा एक मध्यमें है । मध्यशृंग ही ‘वैषुवत’ है । शरद् और वसन्त-ऋतुके मध्यमें सूर्य इस वैषुवतशृंगपर आते हैं; अतः हे मैत्रेय! मेष अथवा तुलाराशिके आरम्भमें तिमिरापहारी सूर्यदेव विषुवत्पर स्थित होकर दिन और रात्रिको समान परिमाण कर देते हैं । उस समय ये दोनों पन्द्रह-पन्द्रह मुहूर्तके होते हैं । ७४-७५ ॥ हे मुने! जिस समय सूर्य कृत्तिकानक्षत्रके प्रथम भाग अर्थात् मेषराशिके अन्तमें तथा चन्द्रमा निश्चय ही विशाखाके चतुर्थांश [अर्थात् वृश्चिकके आरम्भ ]-में हों; अथवा जिस समय सूर्य विशाखाके तृतीय भाग अर्थात् तुलाके अन्तिमांशका भोग करते हों और चन्द्रमा कृत्तिकाके प्रथम भाग अर्थात् मेषान्तमें स्थित जान पड़ें तभी यह ‘विषुव’ नामक अति पवित्र काल कहा जाता है; इस समय देवता, ब्राह्मण और पितृगणके उद्देश्यसे संयतचित्त होकर दानादि देने चाहिये । यह समय दानग्रहणके लिये मानो देवताओंके खुले हुए मुखके समान है । अतः ‘विषुव’ कालमें दान करनेवाला मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है ॥७६-७९॥ यागादिके काल-निर्णयके लिये दिन, रात्रि, पक्ष, कला, काष्ठा और क्षण आदिका विषय भली प्रकार जानना चाहिये । राका और अनुमति दो प्रकारकी पूर्णमासी तथा सिनीवाली और कुहू दो प्रकारकी अमावास्या होती हैं ॥८० ॥

माघ-फाल्गुन, चैत्र-वैशाख तथा ज्येष्ठ-आषाढ़-ये छ: मास उत्तरायण होते हैं और श्रावण-भाद्र, आश्विन-कार्तिक तथा अगहन-पौष-ये छ: दक्षिणायन कहलाते हैं । ८१॥ मैंने पहले तुमसे जिस लोकालोकपर्वतका वर्णन किया है, उसीपर चार व्रतशील लोकपाल निवास करते हैं ॥ ८२॥ हे द्विज! सुधामा, कर्दमके पुत्र शंखपाद और हिरण्यरोमा तथा केतुमान्–ये चारों निर्द्वन्द्व, निरभिमान, निरालस्य और निष्परिग्रह लोकपालगण लोकालोकपर्वतकी चारों दिशाओंमें स्थित हैं ॥८३-८४॥

जो अगस्त्यके उत्तर तथा अजवीथिके दक्षिणमें वैश्वानरमार्गसे भिन्न [ मृगवीथि नामक ] मार्ग है वही पितृयानपथ है ।। ८५ ॥ उस पितृयानमार्गमें महात्मा। मुनिजन रहते हैं । जो लोग अग्निहोत्री होकर प्राणियोंकी उत्पत्तिके आरम्भक ब्रह्म (वेद)-की स्तुति करते हुए यज्ञानुष्ठानके लिये उद्यत हो कर्मका आरम्भ करते हैं वह (पितृयान) उनका दक्षिणमार्ग है ॥८६॥ वे युगयुगान्तरमें विच्छिन्न हुए वैदिक धर्मकी सन्तान, तपस्या, वर्णाश्रम-मर्यादा और विविध शास्त्रोंके द्वारा पनः स्थापना करते हैं । ८७॥ पर्वतन धर्मप्रवर्तक ही अपनी उत्तरकालीन सन्तानके यहाँ उत्पन्न होते हैं और फिर उत्तरकालीन धर्म-प्रचारकगण अपने यहाँ सन्तानरूपसे उत्पन्न हुए अपने पितृगणके कुलोंमें जन्म लेते हैं । ८८॥ इस प्रकार, वे व्रतशील महर्षिगण चन्द्रमा और तारागणकी स्थितिपर्यन्त सूर्यके दक्षिणमार्गमें पुनः-पुनः आतेजाते रहते हैं । ८९॥

नागवीथिके उत्तर और सप्तर्षियोंके दक्षिणमें जो सूर्यका उत्तरीय मार्ग है उसे देवयानमार्ग कहते हैं ॥९० ॥ उसमें जो प्रसिद्ध निर्मलस्वभाव और जितेन्द्रिय ब्रह्मचारिगण निवास करते हैं वे सन्तानकी इच्छा नहीं करते, अतः उन्होंने मत्यको जीत लिया है ॥९१ ॥ सर्यके उत्तरमार्गमें अस्सी हजार ऊर्ध्वरेता मुनिगण प्रलयकालपर्यन्त निवास करते हैं ॥९२॥ उन्होंने लोभके असंयोग, मैथुनके त्याग, इच्छा और द्वेषकी अप्रवृत्ति, कर्मानुष्ठानके त्याग, काम-वासनाके असंयोग और शब्दादि विषयोंके दोषदर्शन इत्यादि कारणोंसे शुद्धचित्त होकर अमरता प्राप्त कर ली है ॥९३-९४॥ भूतोंके प्रलयपर्यन्त स्थिर रहनेको ही अमरता कहते हैं । त्रिलोकीकी स्थितितकके इस कालको ही अपुनार (पुनर्मृत्युरहित) कहा जाता है ॥९५॥ हे द्विज! ब्रह्महत्या और अश्वमेधयज्ञसे जो पाप और पुण्य होते हैं उनका फल प्रलयपर्यन्त कहा गया है ॥९६॥

हे मैत्रेय! जितने प्रदेशमें ध्रुव स्थित है, पृथिवीसे लेकर उस प्रदेशपर्यन्त सम्पूर्ण देश प्रलयकालमें नष्ट हो जाता है ॥९७॥ सप्तर्षियोंसे उत्तर-दिशामें ऊपरकी ओर जहाँ ध्रुव स्थित है वह अति तेजोमय स्थान ही आकाशमें विष्णुभगवान् का तीसरा दिव्यधाम है ॥९८॥ हे विप्र! पुण्य-पापके क्षीण हो जानेपर दोष-पंकशून्य संयतात्मा मुनिजनोंका यही परमस्थान है ॥९९॥ पाप-पुण्यके निवृत्त हो जाने तथा देह-प्राप्तिके सम्पूर्ण कारणोंके नष्ट हो जानेपर प्राणिगण जिस स्थानपर जाकर फिर शोक नहीं करते वही भगवान् विष्णुका परमपद है ॥१००॥ जहाँ भगवान् की समान ऐश्वर्यतासे प्राप्त हुए योगद्वारा सतेज होकर धर्म और ध्रुव आदि लोक-साक्षिगण निवास करते हैं वही भगवान् विष्णुका परमपद है ॥१०१॥ हे मैत्रेय! जिसमें यह भूत, भविष्यत् और वर्तमान चराचर जगत् ओत-प्रोत हो रहा है वही भगवान् विष्णुका परमपद है ॥१०२॥ जो तल्लीन योगिजनोंको आकाशमण्डलमें देदीप्यमान सूर्यके समान सबके प्रकाशकरूपसे प्रतीत होता है तथा जिसका विवेक-ज्ञानसे ही प्रत्यक्ष होता है वही भगवान् विष्णुका परमपद है ॥१०३॥ हे द्विज! उस विष्णुपदमें ही सबके आधारभूत परम तेजस्वी ध्रुव स्थित हैं, तथा ध्रुवजीमें समस्त नक्षत्र, नक्षत्रोंमें मेघ और मेघोंमें वृष्टि आश्रित है । हे महामुने! उस वृष्टिसे ही समस्त सृष्टिका पोषण और सम्पूर्ण देवमनुष्यादि प्राणियोंकी पुष्टि होती है ॥१०४-१०५॥ तदनन्तर गौ आदि प्राणियोंसे उत्पन्न दुग्ध और घृत आदिकी आहुतियोंसे परितुष्ट अग्निदेव ही प्राणियोंकी स्थितिके लिये पुन:वृष्टिके कारण होते हैं ॥१०६॥ इस प्रकार विष्णुभगवान् का यह निर्मल तृतीय लोक (ध्रुव) ही त्रिलोकीका आधारभूत और वृष्टिका आदिकारण है ॥१०७॥

हे ब्रह्मन्! इस विष्णुपदसे ही देवांगनाओंके अंगरागसे पाण्डुरवर्ण हुई-सी सर्वपापापहारिणी श्रीगंगाजी उत्पन्न हुई हैं ॥ १०८॥ विष्णुभगवान् के वाम चरणकमलके अंगूठेके नखरूप स्रोतसे निकली हुई उन गंगाजीको ध्रुव दिन-रात अपने मस्तकपर धारण करता है ॥१०९॥ तदनन्तर जिनके जलमें खड़े होकर प्राणायाम परायण सप्तर्षिगण उनकी तरंगभंगीसे जटाकलापके कम्पायमान होते हुए, अघमर्षण-मन्त्रका जप करते हैं तथा जिनके विस्तृत जलसमूहसे आप्लावित होकर चन्द्रमण्डल क्षयके अनन्तर पुन: पहलेसे भी अधिक कान्ति धारण करता है, वे श्रीगंगाजी चन्द्रमण्डलसे निकलकर मेरुपर्वतके ऊपर गिरती हैं और संसारको पवित्र करनेके लिये चारों दिशाओंमें जाती हैं ॥११०–११२॥ चारों दिशाओंमें जानेसे वे एक ही सीता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्र-इन चार भेदोंवाली हो जाती हैं ॥११३॥ जिसके अलकनन्दा नामक दक्षिणीय भेदको भगवान् शंकरने अत्यन्त प्रीतिपूर्वक सौ वर्षसे भी अधिक अपने मस्तकपर धारण किया था, जिसने श्रीशंकरके जटाकलापसे निकलकर पापी सगरपुत्रोंके अस्थिचूर्णको आप्लावित कर उन्हें स्वर्गमें पहुंचा दिया । हे मैत्रेय! जिसके जलमें स्नान करनेसे शीघ्र ही समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और अपूर्व पुण्यकी प्राप्ति होती है ॥११४–११६॥ जिसके प्रवाहमें पुत्रोंद्वारा पितरोंके लिये श्रद्धापूर्वक किया हुआ एक दिनका भी तर्पण उन्हें सौ वर्षतक दुर्लभ तप्ति देता है ॥११७॥ हे द्विज! जिसके तटपर राजाओंने महायज्ञोंसे यज्ञेश्वर भगवान् पुरुषोत्तमका यजन करके इहलोक और स्वर्गलोकमें परमसिद्धि लाभ की है ॥ ११८॥ जिसके जलमें स्नान करनेसे निष्पाप हुए यतिजनोंने भगवान् केशवमें चित्त लगाकर अत्युत्तम निर्वाणपद प्राप्त किया है ॥११९॥ जो अपना श्रवण, इच्छा, दर्शन, स्पर्श, जलपान, स्नान तथा यशोगान करनेसे ही नित्यप्रति प्राणियोंको पवित्र करती रहती है ॥१२०॥ तथा जिसका ‘गंगा, गंगा’ ऐसा नाम सौ योजनकी दूरीसे भी उच्चारण किये जानेपर [ जीवके ] तीन जन्मोंके संचित पापोंको नष्ट कर देता है ॥१२१॥ त्रिलोकीको पवित्र करनेमें समर्थ वह गंगा जिससे उत्पन्न हुई है, वही भगवान् का तीसरा परमपद है ॥१२२॥

अध्याय-09 ज्योतिश्वक्र और शिशुमारचक्र

श्रीपराशरजी बोले – आकाश में भगवान विष्णु का जो शिशुमार (गिरगिट अथवा गोधा) के समान आकारवाला तारामय स्वरूप देखा जाता है, उसके पुच्छ-भाग में ध्रुव अवस्थित है ॥ १ ॥ यह ध्रुव स्वयं घूमता हुआ चंद्रमा और सूर्य आदि ग्रहों को घुमाता है । उस भ्रमणशील ध्रुव के साथ नक्षत्रगण भी चक्र के समान घूमते रहते है ॥ २ ॥

सूर्य, चन्द्रमा, तारे, नक्षत्र और अन्यान्य समस्त ग्रहगण वायु-मंडलमयी डोरी से ध्रुव के साथ बँधे हुए है ॥ ३ ॥

मैंने तुमसे आकाश में ग्रहगण के जिस शिशुमारस्वरूप का वर्णन किया है, अनंत तेज के आश्रय स्वयं भगवान नारायण ही उसके ह्रदयस्थित आधार है ॥ ४ ॥ उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने उन जगत्पति की आराधना करके तारामय शिशुमार के पुच्छस्थान में स्थिति प्राप्त की है ॥ ५ ॥ शिशुमार के आधार सर्वेश्वर श्रीनारायण है, शिशुमार ध्रुव का आश्रय है और ध्रुव में सूर्यदेव स्थित है तथा हे विप्र ! जिसप्रकार देव, असुर और मनुष्यादि के सहित यह सम्पूर्ण जगत सूर्य के आश्रित है, वह तुम एकाग्र होकर सुनो ।

सूर्य आठ मासतक अपनी किरणों से छ: रसों से युक्त जल को ग्रहण करके उसे चार महीनों में बरसा देता है उससे अन्न की उत्पत्ति होती है और अन्नही से सम्पूर्ण जगत पोषित होता है ॥ ६- ८ ॥ सूर्य अपनी तीक्ष्ण रश्मियों से संसार का जल खींचकर उससे चन्द्रमा का पोषण करता है और चन्द्रमा आकाश में वायुमयी नाड़ियों के मार्ग से उसे धूम, अग्नि और वायुमय मेघों में पहुँचा देता है ॥ ९ ॥ यह चन्द्रमाद्वारा प्राप्त जल मेघों से तुरंत ही भ्रष्ट नहीं होता इसलिये ‘अभ्र’ कहलाता है । हे मैत्रेय ! कालजनित संस्कार के प्राप्त होनेपर यह अभ्रस्थ जल निर्मल होकर वायु की प्रेरणा से पृथ्वीपर बरसने लगता है ॥ १० ॥

हे मुने ! भगवान सूर्यदेव नदी, समुद्र, पृथ्वी तथा प्राणियों से उत्पन्न – इन चार प्रकार के जलों का आर्कषण करते है ॥ ११ ॥ तथा आकाशगंगा के जल को ग्रहण करके वे उसे बिना मेघादि के अपनी किरणों से ही तुरंत पृथ्वीपर बरसा देंते है ॥ १२ ॥ हे द्विजोत्तम ! उसके स्पर्शमात्र से पाप-पंक के धुल जाने से मनुष्य नरक में नहीं जाता । अत: वह दिव्यस्नान कहलाता है ॥ १३ ॥ सूर्य के दिखलायी देते हुए, बिना मेघों के ही जो जल बरसता है वह सूर्य की किरणोंद्वारा बरसाया हुआ आकाशगंगा का ही जल होता है ॥ १४ ॥ कृत्तिका आदि विषम (अयुम्म) नक्षत्रों में जो सूर्य के प्रकाशित रहते हुए बरसता है उसे दिग्गजोंद्वारा बरसाया हुआ आकाशगंगा का जल समझना चाहिये ॥ १५ ॥ रोहिणी और आर्दा आदि सम संख्यावाले नक्षत्रों में जिस जल को सूर्य बरसाता है वह सूर्यरश्मियोंद्वारा [ आकाशगंगा से ] ग्रहण करके ही बरसाया जाता है ॥ १६ ॥ हे महामुने ! आकाशगंगा के ये सम तथा विषम नक्षत्रों में बरसनेवाले दोनों प्रकार के जलमय दिव्य स्नान अत्यंत पवित्र और मनुष्यों के पाप-भय को दूर करनेवाले है ॥ १७ ॥

हे द्विज ! जो जल मेघोंद्वारा बरसाया जाता है वह प्राणियों के जीवन के लिये अमृतरूप होता है और ओषधियों का पोषण करता है ॥ १८ ॥ हे विप्र ! उस वृष्टि के जल से परम वृद्धि को प्राप्त होकर समस्त ओषधियाँ और फल पकनेपर सुख जानेवाले [ गोधूम, यव आदि अन्न] प्रजावर्ग के [ शरीर की उत्पत्ति एवं पोषण आदि के ] साधक होते है ॥ १९ ॥ उनके द्वारा शास्त्रविद मनिषिगण नित्यप्रति यथाविधि यज्ञानुष्ठान करके देवताओं को संतुष्ट करते है ॥ २० ॥ इसप्रकार सम्पूर्ण यज्ञ, वेद, ब्राह्मणादि वर्ण, समस्त देवसमूह और प्राणिगण वृष्टि के ही आश्रित है ॥ २१ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! अन्न को उत्पन्न करनेवाली वृष्टि ही इन सबको धारण करती है तथा उस वृष्टि की उत्पत्ति सूर्य से होती है ॥ २२ ॥

हे मुनिवरोत्तम ! सूर्य का आधार ध्रुव है, ध्रुव का शिशुमार है तथा शिशुमार के आश्रय श्रीनारायण है ॥ २३ ॥ उस शिशुमार के ह्रदय में श्रीनारायण स्थित है जो समस्त प्राणियों के पालनकर्ता तथा आदिभूत सनातन पुरुष है ॥ २४ ॥

 

– इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे सप्तमोऽध्यायः –

अध्याय-10 द्वादश सूर्यों के नाम एवं अधिकारियों का वर्णन

श्रीपराशरजी बोले – आरोह और अवरोह के द्वारा सूर्य की एक वर्ष में जितनी गति है उस सम्पूर्ण मार्ग की दोनों काष्ठाओं का अंतर एक सौ अस्सी मंडल है ॥ १ ॥ सूर्य का रथ [ प्रतिमास ] भिन्न-भिन्न आदित्य, ऋषि, गन्धर्व, अप्सरा, यक्ष, सर्प और राक्षसगणों से अधिष्ठित होता है ॥ २ ॥ हे मैत्रेय ! मधुमास चैत्र में सूर्य के रथ में सर्वदा घाता नामक आदित्य, क्रतुस्थला अप्सरा, पुलस्त्य ऋषि, वासुकि सर्प, रथभृत यक्ष, हेति राक्षस और तुम्बुरु गन्धर्व- ये सात मासाधिकारी रहते है ॥३–४॥ तथा अर्यमा नामक आदित्य, पुलह ऋषि, रथौजा यक्ष, पूंज्जिकस्थला अप्सरा, प्रहेति राक्षस, कच्छवीर सर्प और नारद नामक गन्धर्व – ये वैशाख-मास में सूर्य के रथपर निवास करते है । हे मैत्रेय ! अब जेष्ठ मास में सुनो ॥५–६॥

उस समय मित्र नामक आदित्य, अत्रि ऋषि, तक्षक सर्प, पौरुषेय राक्षस, मेनका अप्सरा, हाहा गन्धर्व और रथस्वन नामक यक्ष – ये उस रथ में वास करते है ॥७॥ तथा आषाढ़ मास में वरुण नामक आदित्य, वसिष्ठ ऋषि, नाग सर्प, सहजन्या अप्सरा, हूहू गन्धर्व, रथ राक्षस और रथचित्र नामक यक्ष उसमें रहते है ॥८॥

श्रावण – मास में इंद्र नामक आदित्य, विश्वावसु गन्धर्व, स्त्रोत यक्ष, एलापुत्र सर्प, अंगिरा ऋषि, प्रम्लोचा अप्सरा और सर्पि नामक राक्षस सूर्य के रथ में बसते है ॥९॥ तथा भाद्रपद में विवस्वान नामक आदित्य, उग्रसेन गन्धर्व, भृगु ऋषि, आपूरण यक्ष, अनुम्लोचा अप्सरा, शंखपाल सर्प और व्याघ्र नामक राक्षसका उसमें निवास होता है ॥१०॥

आश्विन मास में पूवा नामक आदित्य, वसुरूचि गन्धर्व, वात राक्षस, गौतम ऋषि, धनंजय सर्प, सुवेण गन्धर्व और घृताची नामकी अप्सरा का उसमें वास होता है ॥११॥ कार्तिक मास में उसमें विश्वावसु नामक गन्धर्व, भरद्वाज ऋषि, पर्जन्य आदित्य, ऐरावत सर्प, विश्वाची अप्सरा, सेनजित यक्ष तथा आप नामक राक्षस रहते है ॥१२॥

मार्गशीर्ष के अधिकारी अंश नामक आदित्य, काश्यप ऋषि, ताक्षर्य यक्ष, महापद्म सर्प, उर्वशी अप्सरा, चित्रसेन गन्धर्व और विद्युत् नामक राक्षस है ॥१३॥ हे विप्रवर ! पौष मास में क्रतु ऋषि, भग आदित्य. ऊर्णायु गंधर्व, स्फूर्ज राक्षस, ककोंटक सर्प, अरिष्टनेमि यक्ष तथा पूर्वचिति अप्सरा जगत को प्रकाशित करने के लिये सूर्यमंडल में रहते है ॥१४-१५॥

हे मैत्रेय ! त्वष्ठा नामक आदित्य, जमदग्नि ऋषि, कम्बल सर्प, तिलोतमा अप्सरा, ब्रहमोपेत राक्षस, ऋतजित यक्ष और धृतराष्ट्र गन्धर्व – ये सात माघ मास में भास्करमंडल में रहते है । अब, जो फाल्गुन मास में सूर्य के रथ में रहते है उनके नाम सुनो ॥१६–१७॥ हे महामुने ! वे विष्णु नामक आदित्य, अश्वतर सर्प, रम्भा अप्सरा, सूर्यवर्चा गन्धर्व, सत्यजित यक्ष, विश्वामित्र ऋषि और यज्ञोपेत नामक राक्षस है ॥ १८ ॥

हे ब्रह्मन ! इस प्रकार विष्णुभगवान की शक्ति से तेजोमय हुए ये सात-सात गण एक – एक मासतक सूर्यमंडल में रहते है ॥१९॥ मुनिगण सूर्य की स्तुति करते है, गन्धर्व सम्मुख रहकर उनका यशोगान करते है, अप्सराएँ नृत्य करती है, राक्षस रथ के पीछे चलते है, सर्प वहन करने के अनुकूल रथ को सुसज्जित करते है और यक्षगण रथ की बागडोर सँभालते है तथा नित्यसेवक बालखिल्यादि इसे सब ओरसे घेरे रहते है ॥२०–२२॥ हे मुनिसत्तम ! सूर्यमंडल के ये सात- सात गण ही अपने-अपने समयपर उपस्थित होकर शीत ग्रीष्म और वर्षा आदि के कारण होते है ॥२३॥

– इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे अष्टमोऽध्यायः –

अध्याय-11 सूर्यशक्ति एवं वैष्णवी शक्ति का वर्णन

श्रीमैत्रेयजी बोले – भगवन ! आपने जो कहा कि सूर्यमंडल में स्थित सातों गण शीत – ग्रीष्म आदि के कारण होते है, सो मैंने सुना ॥१॥ हे गुरो ! आपने सूर्य के रथ में स्थित और विष्णु-शक्ति से प्रभावित गन्धर्व, सर्प, राक्षस, ऋषि, बालखिल्यादि, अप्सरा तथा यक्षों के तो पृथक-पृथक व्यापार बतलाये, किन्तु हे मुने ! यह नहीं बतलाया कि सूर्य का कार्य क्या है ? ॥२-३॥ यदि सातों गण ही शीत, ग्रीष्म और वर्षा के करनेवाले है तो फिर सूर्य का क्या प्रयोजन है ? और यह कैसे कहा जाता है कि वृष्टि सूर्य से होती है ? ॥४॥ यदि सातों गणों का यह वृष्टि आदि कार्य समान ही है तो ‘सूर्य उदय हुआ, अब मध्यमें हैं, अब अस्त होता है’ ऐसा लोग क्यों कहते हैं ? ॥५॥

श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! जो कुछ तुमने पूछा है उसका उत्तर सुनो, सूर्य सात गणों में से ही एक है तथापि उनमें प्रधान होने से उनकी विशेषता है ॥६॥ भगवान विष्णु की जो सर्वशक्तिमयी ऋक, यजु:, साम नाम की परा शक्ति है वह वेदत्रयी ही सूर्य को ताप प्रदान करती है और [उपासना किये जानेपर ] संसार के समस्त पापों को नष्ट कर देती है ॥७॥ हे द्विज ! जगत की स्थिति और पालन के लिये वे ऋक, यजु: और सामरूप विष्णु सूर्य के भीतर निवास करते है ॥८॥ प्रत्येक मासमें जो – जो सूर्य होता है उसी – उसी में वह वेदत्रयीरूपिणी विष्णु की परा शक्ति निवास करती है ॥९॥ पूर्वाह में ऋक, मध्यान्ह में बृहद्र्थन्तरादि यजु: तथा सायंकाल में सामश्रुतियाँ सूर्य की स्तुति करती है ॥१०॥

यह ऋक-यजु: – सामस्वरूपिणी वेदत्रयी भगवान विष्णु का ही अंग है । यह विष्णु-शक्ति सर्वदा आदित्य में रहती है ॥११॥

यह त्रयीमथी वैष्णवी शक्ति केवल सूर्यही की अधिष्ठात्री हो, सो नही; बल्कि ब्रह्मा, विष्णु और महादेव भी त्रयीमय ही है ॥१२॥ सर्ग के आदि में ब्रह्मा ऋगमय है, उसकी स्थिति के समय विष्णु यजुर्मय है तथा अन्तकाल में रूद्र साममय है । इसीलिये सामगान की ध्वनि अपवित्र मानी गयी है ॥१३॥ [ रूद्र के नाशकारी होने से उनका साम अपवित्र माना गया है अत: सामगान के समय (रात में) ऋक तथा यजुर्वेदके अध्ययन का निषेध किया गया है । इसमें गौतम की स्मृति प्रमाण है – ‘ न सामध्यनावृम्यजुषी’ अर्थात सामगान के समय ऋक – यजु: का अध्ययन न करें । ]

इसप्रकार, वह त्रयीमयी सात्त्विकी वैष्णवी शक्ति अपने सप्तगणों में स्थित आदित्य में ही ]अतिशय रूपसे] अवस्थित होती है ॥१४॥ उससे अधिष्ठित सूर्यदेव भी अपनी प्रखर रश्मियों से अत्यंत प्रज्वलित होकर संसार के सम्पूर्ण अन्धकार को नष्ट कर देते है ॥१५॥

उन सूर्यदेव की मुनिगण स्तुति करते है, गन्धर्वगण उनके सम्मुख यशोगान करते है । अप्सराएँ नृत्य करती हुई चलती है, राक्षस रथ के पीछे रहते है, सर्पगण रथ का साज सजाते है और यक्ष घोड़ों की बागडोर सँभालते है तथा बालखिल्यादि रथ को सब ओर से घेरे रहते है ॥१६-१७॥ त्रयीशक्तिरूप भगवान विष्णु का न कभी उदय होता है और न अस्त ये सात प्रकार के गण तो उनसे पृथक है ॥१८॥ स्तम्भ में लगे हुए दर्पण के निकट जो कोई जाता है उसीको अपनी छाया दिखायी देने लगती है ॥१९॥ हे द्विज ! इसी प्रकार वह वैष्णवी शक्ति सूर्य के रथ से कभी चलायमान नहीं होती और प्रत्येक मास में पृथक – पृथक सूर्य के उसमें स्थित होनेपर वह उसकी अधिष्ठात्री होती है ॥२०॥

हे द्विज ! दिन और रात्रि के कारणस्वरूप भगवान सूर्य पितृगण, देवगण और मनुष्यादि को सदा तृप्त करते घूमते रहते है ॥२१॥ सूर्य की जो सुषुम्रा नाम की किरण है उससे शुक्लपक्ष में चंद्रमा का पोषण होता है और फिर कृष्णपक्ष में उस अमृतमय चन्द्रमा की एक – एक कला का देवगण निरंतर पान करते है ॥२२॥ हे द्विज ! कृष्णपक्ष के क्षय होनेपर ] चतुर्दशी के अनन्तर ] दो कलायुक्त चन्द्रमा का पितृगण पान करते है । इस प्रकार सूर्यद्वारा पितृगण का तर्पण होता है ॥२३॥

सूर्य अपनी किरणों से पृथ्वी से जितना जल खींचता है उस सबको प्राणियों की पुष्टि और अन्न की वृद्धि के लिये बरसा देता है ॥२४॥ उससे भगवान सूर्य समस्त प्राणियों को आनन्दित कर देते है और इस प्रकार वे देव, मनुष्य और पितृगण आदि सभी का पोषण करते है ॥२५॥ हे मैत्रेय ! इस रीति से सूर्यदेव देवताओं की पाक्षिक, पितृगण की मासिक तथा मनुष्यों की नित्यप्रति तृप्ति करते रहते है ॥२६॥

 

– इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे नवमोऽध्यायः –

अध्याय-12 नवग्रहों का वर्णन तथा लोकान्तरसम्बन्धी व्याख्यान का उपसंहार

श्रीपराशरजी बोले – चन्द्रमा का रथ तीन पहियोंवाला है, उसके वाम तथा दक्षिण ओर कुंद-कुसुम के समान श्वेतवर्ण दस घोड़े जुते हुए हैं । ध्रुव के आधारपर स्थित उस वेगशाली रथ से चन्द्रदेव भ्रमण करते है और नागवीधिपर आश्रित अश्विनी आदि नक्षत्रों का भोग करते है । सूर्य के समान इनकी किरणों के भी घटने – बढने का निश्चित क्रम है ॥१–२॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! सूर्य के समान समुद्रगर्भ से उत्पन्न हुए उसके घोड़े भी एक बार जोत दिये जानेपर एक कल्पपर्यन्त रथ खींचते रहते है न ॥३॥ हे मैत्रेय ! सुरगण के पान करते रहनेसे क्षीण हुए कलामात्र चन्द्रमा का प्रकाशमय सूर्यदेव अपनी एक किरण से पुन: पोषण करते है ॥४॥ जिस क्रम से देवगण चन्द्रमा का पान करते है उसी क्रम से जलापहारी सूर्यदेव उन्हें शुक्ल प्रतिपदा से प्रतिदिन पुष्ट करते है ॥५॥ हे मैत्रेय ! इस प्रकार आधे महीने में एकत्रित हुए चन्द्रमा के अमृत को देवगण फिर पीने लगते हैं क्योंकि देवताओं का आहार तो अमृत ही है ॥६॥ तैतीस हजार, तैतीस सौ, तैतीस (३३ ३३३) देवगण चंद्र्स्थ अमृत का पान करते है ॥७॥ जिस समय दो कलामात्र रहा हुआ चन्द्रमा सुर्यमंडल में प्रवेश करके उसकी अमा नामक किरण में रहता है वह तिथि अमावस्या कहलाती है ॥८॥ उस दिन रात्रि में वह पहले तो जल में प्रवेश करता है, फिर वृक्ष-लता आदि में निवास करता है और तदनन्तर क्रम से सूर्य में चला जाता है ॥९॥ वृक्ष और लता आदि में चन्द्रमा की स्थिति के समय [अमावास्या को ] जो उन्हें काटता है अथवा उनका एक पत्ता भी तोड़ता है उसे ब्रह्महत्या का पाप लगता है ॥१०॥ केवल पन्द्रहवी कलारूप यत्किंचित भाग के बच रहनेपर उस क्षीण चन्द्रमा को पितृगण म्ध्यान्होत्तर काल में चारों ओर से घेर लेते है ॥११॥ हे मुने ! उस समय उस द्विकलाकार चन्द्रमा की बची हुई अमृतमयी एक कलाका वे पितृगण पान करते है ॥१२॥ अमावास्या के दिन चन्द्र- रश्मि से निकले हुए उस सुधामृत का पान करके अत्यंत तृप्त हुए सौम्य, बर्हिषद और अग्निष्ठाता तीन प्रकार के पितृगण एक मासपर्यन्त संतुष्ट रहते है ॥१३॥ इस प्रकार चन्द्रदेव शुक्लपक्ष में देवताओं की और कृष्णपक्ष में पितृगण की पुष्टि करते है तथा अमृतमय शीतल जलकणों से लता-वृक्षादिका और लता-ओषधि आदि उत्पन्न करके तथा अपनी चन्द्रिकाद्वारा आल्हादित करके वे मनुष्य, पशु, एवं कीट – पतंगादि सभी प्राणियों का पोषण करते है ॥१४–१५॥

चन्द्रमा के पुत्र बुध का रथ वायु और अग्निमय द्रव्य का बना हुआ है और उसमें वायु के समान वेगशाली आठ पिशंगवर्ण घोड़े जुटे है ॥१६॥ वरूथ [ रथ की रक्षा के लिये बना हुआ लोहे का आवरण ] , अनुकर्ष [ रथ का नीचे का भाग ] , उपासंग [ शस्त्र रखने का स्थान ] और पताका तथा पृथ्वी से उत्पन्न हुए घोड़ों के सहित शुक्र का रथ भी अति महान है ॥१७॥ तथा मंगल का अति शोभायमान सुवर्ण-निर्मित महान रथ भी अग्नि से उत्पन्न हुए, पद्मराग – मणि के समान, अरुणवर्ण, आठ घोड़ों से युक्त है ॥१८॥ जो आठ पाण्डुरवर्ण घोड़ों से युक्त सुवर्ण का रथ है उसमें वर्ष के अंत में प्रत्येक राशि में बृहस्पतिजी विराजमान होते है ॥१९॥ आकाश से उत्पन्न हुए विचित्रवर्ण घोड़ों से युक्त रथ में आरूढ़ होकर मंदगामी शनैश्वरजी धीरे-धीरे चलते है ॥२०॥

राहुका रथ धूसर (मटियाले) वर्ण का है , उसमें भ्रमर के समान कृष्णवर्ण आठ घोड़े जुते हुए है । हे मैत्रेय ! एक बार जोत दिये जानेपर वे घोड़े निरंतर चलते रहते है ॥२१॥ चन्द्रपर्वों (पूर्णिमा) पर यह राहू सूर्य से निकलकर चन्द्रमा के पास आता है तथा सौरपर्वो (अमावास्या) पर यह चन्द्रमा से निकलकर सूर्य के निकट जाता है ॥२२॥ इसी प्रकार केतु के रथ के वायुवेगशाली आठ घोड़े भी पुआल के धुएँकी – सी आभावाले तथा लाख के समान लाल रंग के है ॥२३॥

हे महाभाग ! मैंने तुमसे यह नवों ग्रहों के रथों का वर्णन किया, ये सभी वायुमयी डोरी से ध्रुव के साथ बँधे हुए है ॥२४॥ हे मैत्रेय ! समस्त ग्रह, नक्षत्र और तारामंडल वायुमयी रज्जू से ध्रुव के साथ बँधे हुए यथोचित प्रकार से घूमते रहते है ॥२५॥ जितने तारागण हैं उतनी ही वायुमयी डोरियाँ है । उनसे बंधकर वे सब स्वयं घूमते तथा ध्रुव को घुमाते रहते है ॥२६॥ जिस प्रकार तेली लोग स्वयं घुमते हुए कोल्हू को भी घुमाते रहते है उसी प्रकार समस्त ग्रहगण वायु से बंध कर घूमते रहते है ॥२७॥ क्योंकि इस वायुचक्र से प्रेरित होकर समस्त ग्रहगण अलातचक्र (बनैती) के समान घुमा करते है, इसलिये यह ‘प्रवह’ कहलाता है ॥२८॥

जिस शिशुमारचक्र का पहले वर्णन कर चुके है, तथा जहाँ ध्रुव स्थित है, हे मुनिश्रेष्ठ ! अब तुम उसकी स्थिति का वर्णन सुनो ॥२९॥ रात्रि के समय उनका दर्शन करने से मनुष्य दिन में जो कुछ पापकर्म करता है उनसे मुक्त हो जाता है तथा आकाशमंडल में जितने तारे इसके आश्रित है उतने ही अधिक वर्ष वह जीवित रहता है ॥३०॥ उत्तानपाद उसकी ऊपर की हनु (ठोड़ी) है और यज्ञ नीचे की तथा धर्म ने उसके मस्तकपर अधिकार कर रखा है ॥३१॥ उसके ह्रदय-देश में नारायण हैं, दोनों चरणों में अश्विनीकुमार हैं तथा जंघाओं में वरुण और अर्यमा है ॥३२॥ संवत्सर उसका शिश्र है, मित्र ने उसके अपान-देश को आश्रित कर रखा है, तथा अग्नि, महेंद्र, कश्यप और ध्रुव पुच्छभाग में स्थित है । शिशुमार के पुच्छभाग में स्थित ये अग्नि आदि चार तारे कभी अस्त नहीं होते ॥३३–३४॥ इस प्रकार मैंने तुमसे पृथ्वी, ग्रहगण, द्वीप, समुद्र, पर्वत, वर्ष और नदियों का तथा जो – जो उनमे बसते है उन सभी के स्वरूप का वर्णन कर दिया । अब इसे संक्षेप से फिर सुनो ॥३५–३६॥

हे विप्र ! भगवान विष्णु का जो मूर्तरूप जल है उससे पर्वत और समुद्रादि के सहित कमल के समान आकारवाली पृथ्वी उत्पन्न हुई ॥३७॥ हे विप्रवर्य ! तारागण, त्रिभुवन, वन, पर्वत, दिशाएँ, नदियाँ और समुद्र सभी भगवान विष्णु ही है तथा और भी जो कुछ है अथवा नहीं है वह सब भी एकमात्र वे ही है ॥३८॥ क्योंकि भगवान विष्णु ज्ञानस्वरूप है इसलिये वे सर्वमय है, परिच्छिन्न प्दार्थाकार नहीं है । अत: इन पर्वत, समुद्र और पृथ्वी आदि भेड़ों को तुम एकमात्र विज्ञान का ही विलास जानो ॥३९॥ जिस समय जीव आत्मज्ञान के द्वारा दोषरहित होकर सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाने से अपने शुद्ध-स्वरूप में स्थित हो जाता है उस समय आत्मवस्तु में संकल्पवृक्ष के फलरूप पदार्थ-भेड़ों की प्रतीति नहीं होती ॥४०॥

हे द्विज ! कोई भी घटादि वस्तु है ही कहाँ ? आदि, मध्य और अंत से रहित नित्य एकरूप चित्त ही तो सर्वत्र व्याप्त है । जो वस्तु पुन: – पुन: बदलती रहती है, पूर्ववत नही रहती, उसमें वास्तविकता ही क्या है ? ॥४१॥ देखो, मृत्तिका ही घटरूप हो जाती है और फिर वही घट से कपाल, कपाल से चूर्णरज और रज से अणुरूप हो जाती है । तो वीर बताओ अपने कर्मों के वशीभूत हुए मनुष्य आत्मस्वरूप को भूलकर इसमें कौन-सी सत्य वस्तु देखते है ॥४२॥ अत: हे द्विज ! विज्ञान से अतिरिक्त कभी कहीं कोई पदार्थोदि नहीं हैं । अपने – अपने कर्मों के भेद से भिन्न-भिन्न चित्तोद्वारा एक ही विज्ञान नाना प्रकार से मान लिया गया है ॥४३॥ वह विज्ञान अति विशुद्ध, निर्मल, नि:शोक और लोभादि समस्त दोषों से रहित है । वही एक सत्स्वरूप परम परमेश्वर वासुदेव है, जिससे पृथक और कोई पदार्थ नहीं है ॥४४॥

इस प्रकार मैंने तुमसे यह परमार्थ का वर्णन किया है, केवल एक ज्ञान ही सत्य है, उससे भिन्न और सब असत्य है । इसके अतिरिक्त जो केवल व्यवहारमात्र है उस त्रिभुवन के विषय में भी मैं तुमसे कह चूका ॥४५॥ मैने कर्म-मार्ग-सम्बन्धी यज्ञ, पशु, वर्हि, समस्त ऋत्विक, सोम, सुरगण तथा स्वर्गमय कामना आदिका भी दिग्दर्शन करा दिया । भुर्लोकादि के सम्पूर्ण भोग इन कर्म कलापों के ही फल है ॥४६॥ यह जो मैंने तुमसे त्रिभुवनगत लोकों का वर्णन किया है इन्हीं में जीव कर्मवश घुमा करता है ऐसा जानकर इससे विरक्त हो मनुष्य को वही करना चाहिये जिससे ध्रुव, अचल एवं सदा एकरूप भगवान वासुदेव में लीन हो जाय ॥४७॥

– इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे दशमोऽध्यायः –

अध्याय-13 भरत चरित्र

श्रीमैत्रेयजी बोले- हे भगवन्! मैंने पृथिवी, समुद्र, नदियों और ग्रहगणकी स्थिति आदिके विषयमें जो कुछ पूछा था सो सब आपने वर्णन कर दिया ॥१॥ उसके साथ ही आपने यह भी बतला दिया कि किस प्रकार यह समस्त त्रिलोकी भगवान् विष्णुके ही आश्रित है और कैसे परमार्थस्वरूप ज्ञान ही सबमें प्रधान है ॥२॥ किन्तु भगवन्! आपने पहले जिसकी चर्चा की थी वह राजा भरतका चरित्र मैं सुनना चाहता हूँ, कृपा करके कहिये ॥३॥ कहते हैं, वे राजा भरत निरन्तर योगयुक्त होकर भगवान् वासुदेवमें चित्त लगाये शालग्रामक्षेत्रमें रहा करते थे ॥४॥ इस प्रकार पुण्यदेशके प्रभाव और हरिचिन्तनसे भी उनकी मुक्ति क्यों नहीं हुई, जिससे उन्हें फिर ब्राह्मणका जन्म लेना पड़ा ॥५॥ हे मुनिश्रेष्ठ! ब्राह्मण होकर भी उन महात्मा भरतजीने फिर जो कुछ किया वह सब आप कृपा करके मुझसे कहिये ॥६॥

श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय! वे महाभाग पृथ्वीपति भरतजी भगवान् में चित्त लगाये चिरकालतक शालग्रामक्षेत्रमें रहे ॥७॥ गुणवानोंमें श्रेष्ठ उन भरतजीने अहिंसा आदि सम्पूर्ण गुण और मनके संयममें परम उत्कर्ष लाभ किया ॥८॥ ‘हे यज्ञेश! हे अच्युत! हे गोविन्द! हे माधव! हे अनन्त! हे केशव! हे कृष्ण! हे विष्णो! हे हृषीकेश! हे वासुदेव! आपको नमस्कार है-इस प्रकार राजा भरत निरन्तर केवल भगवन्नामोंका ही उच्चारण किया करते थे । हे मैत्रेय! वे स्वप्नमें भी इस पदके अतिरिक्त और कुछ नहीं कहते थे और न कभी इसके अर्थके अतिरिक्त और कुछ चिन्तन ही करते थे ॥९-१०॥ वे नि:संग, योगयुक्त और तपस्वी राजा भगवान्की पूजाके लिये केवल समिध, पुष्प और कुशाका ही संचय करते थे । इसके अतिरिक्त वे और कोई कर्म नहीं करते थे ॥११॥

एक दिन वे स्नानके लिये नदीपर गये और वहाँ स्नान करनेके अनन्तर उन्होंने स्नानोत्तर क्रियाएँ कीं ॥१२॥ हे ब्रह्मन् ! इतनेहीमें उस नदी-तीरपर एक आसन्नप्रसवा (शीघ्र ही बच्चा जननेवाली) प्यासी हरिणी वनमेंसे जल पीनेके लिये आयी ॥१३॥ उस समय जब वह प्रायः जल पी चुकी थी, वहाँ सब प्राणियोंको भयभीत कर देनेवाली सिंहकी गम्भीर गर्जना सुनायी पड़ी ॥ १४॥ तब वह अत्यन्त भयभीत हो अकस्मात् उछलकर नदीके तटपर चढ़ गयी; अतः अत्यन्त उच्च स्थानपर चढ़नेके कारण उसका गर्भ नदीमें गिर गया॥१५॥

नदीकी तरंगमालाओंमें पड़कर बहते हुए उस गर्भभ्रष्ट मृगबालकको राजा भरतने पकड़ लिया ॥१६॥ हे मैत्रेय! गर्भपातके दोषसे तथा बहुत ऊँचे उछलनेके कारण वह हरिणी भी पछाड़ खाकर गिर पड़ी और मर गयी ॥ १७॥ उस हरिणीको मरी हुई देख तपस्वी भरत उसके बच्चेको अपने आश्रमपर ले आये ॥१८॥

हे मुने! फिर राजा भरत उस मृगछौनेका नित्यप्रति पालन-पोषण करने लगे और वह भी उनसे पोषित होकर दिन-दिन बढ़ने लगा ॥१९॥ वह बच्चा कभी तो उस आश्रमके आस-पास ही घास चरता रहता और कभी वनमें दूरतक जाकर फिर सिंहके भयसे लौट आता ॥२०॥ प्रात:काल वह बहुत दूर भी चला जाता, तो भी सायंकालको फिर आश्रममें ही लौट आता और भरतजीके आश्रमकी पर्णशालाके आँगनमें पड़ रहता ॥२१॥

हे द्विज! इस प्रकार कभी पास और कभी दर रहनेवाले उस मगमें ही राजाका चित्त सर्वदा आसक्त रहने लगा, वह अन्य विषयोंकी ओर जाता ही नहीं था ॥२२॥ जिन्होंने सम्पूर्ण राज-पाट और अपने पुत्र तथा बन्धुबान्धवोंको छोड़ दिया था वे ही भरतजी उस हरिणके बच्चेपर अत्यन्त ममता करने लगे ॥२३॥ उसे बाहर जानेके अनन्तर यदि लौटनेमें देरी हो जाती तो वे मनही-मन सोचने लगते –’अहो ! उस बच्चेको आज किसी भेड़ियेने तो नहीं खा लिया ? किसी सिंहके पंजेमें तो आज वह नहीं पड़ गया? ॥२४॥ देखो, उसके खुरोंके चिह्नोंसे यह पृथिवी कैसी चित्रित हो रही है ? मेरी ही प्रसन्नताके लिये उत्पन्न हुआ वह मृगछौना न जाने आज कहाँ रह गया है ? ॥२५॥ क्या वह वनसे कुशलपूर्वक लौटकर अपने सींगोंसे मेरी भुजाको खुजलाकर मुझे आनन्दित करेगा ? ॥२६॥ देखो, उसके नवजात दाँतोंसे कटी हुई शिखावाले ये कुश और काश सामाध्यायी [शिखाहीन] ब्रह्मचारियोंके समान कैसे सुशोभित हो रहे हैं? ॥२७॥ देरके गये हुए उस बच्चेके निमित्त भरत मुनि इसी प्रकार चिन्ता करने लगते थे और जब वह उनके निकट आ जाता तो उसके प्रेमसे उनका मुख खिल जाता था ॥२८॥

इस प्रकार उसीमें आसक्तचित्त रहनेसे, राज्य, भोग, समृद्धि और स्वजनोंको त्याग देनेवाले भी राजा भरतकी समाधि भंग हो गयी ॥२९॥ उस राजाका स्थिरचित्त उस मृगके चंचल होनेपर चंचल हो जाता और दूर चले जानेपर दूर चला जाता ॥३०॥

कालान्तरमें राजा भरतने, उस मृगबालकद्वारा पुत्रके सजल नयनोंसे देखे जाते हुए पिताके समान अपने प्राणोंका त्याग किया ॥३१॥ हे मैत्रेय! राजा भी प्राण छोड़ते समय स्नेहवश उस मृगको ही देखता रहा तथा उसीमें तन्मय रहनेसे उसने और कुछ भी चिन्तन नहीं किया ॥३२॥ तदनन्तर, उस समयकी सुदृढ़ भावनाके कारण वह जम्बूमार्ग (कालंजरपर्वत)-के घोर वनमें अपने पूर्वजन्मकी स्मृतिसे युक्त एक मृग हुआ ॥३३॥ हे द्विजोत्तम! अपने । पूर्वजन्मका स्मरण रहनेके कारण वह संसारसे उपरत हो गया और अपनी माताको छोड़कर फिर शालग्रामक्षेत्रमें आकर ही रहने लगा ॥३४॥ वहाँ सूखे घास-फूंस और पत्तोंसे ही अपना शरीर-पोषण करता हुआ वह अपने मृगत्व-प्राप्तिके हेतुभूत कर्मोंका निराकरण करने लगा ॥३५॥

तदनन्तर, उस शरीरको छोड़कर उसने सदाचार सम्पन्न योगियोंके पवित्र कुलमें ब्राह्मण-जन्म ग्रहण किया । उस देहमें भी उसे अपने पूर्वजन्मका स्मरण बना रहा ॥३६॥ हे मैत्रेय ! वह सर्वविज्ञान सम्पन्न और समस्त शास्त्रोंके मर्मको जाननेवाला था तथा अपने आत्माको निरन्तर प्रकृतिसे परे देखता था ॥३७॥ हे महामुने! आत्मज्ञानसम्पन्न होनेके कारण वह देवता आदि सम्पूर्ण प्राणियोंको अपनेसे अभिन्नरूपसे देखता था ॥३८॥ उपनयन-संस्कार हो जानेपर वह गुरुके पढ़ानेपर भी वेद-पाठ नहीं करता था तथा न किसी कर्मकी ओर ध्यान देता और न कोई अन्य शास्त्र ही पढता था ॥ ३९॥ जब कोई उससे बहुत पूछताछ करता तो जडके समान कुछ असंस्कृत, असार एवं ग्रामीण वाक्योंसे मिले हुए वचन बोल देता ॥४०॥ निरन्तर मैला-कुचैला शरीर, मलिन वस्त्र और अपरिमार्जित दन्तयुक्त रहनेके कारण वह ब्राह्मण सदा अपने नगरनिवासियोंसे अपमानित होता रहता था ॥४१॥

हे मैत्रेय ! योगश्रीके लिये सबसे अधिक हानिकारक सम्मान ही है, जो योगी अन्य मनुष्योंसे अपमानित होता है वह शीघ्र ही सिद्धि लाभ कर लेता है ॥४२॥

अतः योगीको, सन्मागका दूषित न करत हुए एसा नाचरण करना चाहिये जिससे लोग अपमान करें और संगतिसे दूर रहें ॥४३॥ हिरण्यगर्भके इस सारयुक्त वचनको स्मरण रखते हुए वे महामति विप्रवर अपने-आपको लोगोंमें जड और उन्मत-सा ही प्रकट करते थे ॥४४॥ कुल्माष (जौ आदि) धान, शाक, जंगली फल अथवा कण आदि जो कुछ भक्ष्य मिल जाता उस थोड़े-से को भी बहुत मानकर वे उसीको खा लेते और अपना कालक्षेप करते रहते ॥४५॥

फिर पिताके शान्त हो जानेपर उनके भाई-बन्धु उनका सड़े-गले अन्नसे पोषण करते हुए उनसे खेतीबारीका कार्य कराने लगे ॥४६॥ वे बैलके समान पुष्ट शरीरवाले और कर्ममें जडवत् निश्चेष्ट थे । अत: केवल आहारमात्रसे ही वे सब लोगोंके यन्त्र बन जाते थे । [अर्थात् सभी लोग उन्हें आहारमात्र देकर अपना-अपना काम निकाल लिया करते थे] ॥४७॥

उन्हें इस प्रकार संस्कारशून्य और ब्राह्मणवेषके विरुद्ध आचरणवाला देख रात्रिके समय पृषतराजके सेवकोंने बलिकी विधिसे सुसज्जितकर कालीका बंलिपशु बनाया। किन्तु इस प्रकार एक परम योगीश्वरको बलिके लिये उपस्थित देख महाकालीने एक तीक्ष्ण खड्ग ले उस क्रूरकर्मा राजसेवकका गला काट डाला और अपने पार्षदोंसहित उसका तीखा रुधिर पान किया ॥४८-५०॥

तदनन्तर, एक दिन महात्मा सौवीरराज कहीं जा रहे थे । उस समय उनके बेगारियोंने समझा कि यह भी बेगारके ही योग्य है ॥५१॥ राजाके सेवकोंने भी भस्ममें छिपे हुए अग्निके समान उन महात्माका रंग-ढंग देखकर उन्हें बेगारके योग्य समझा ॥५२॥ हे द्विज! उन सौवीरराजने मोक्षधर्मके ज्ञाता महामुनि कपिलसे यह पूछनेके लिये कि ‘इस दुःखमय संसारमें मनुष्योंका श्रेय किसमें है’ शिबिकापर चढ़कर इक्षुमती नदीके किनारे उन महर्षिके आश्रमपर जानेका विचार किया ॥५३-५४॥

तब राजसेवकके कहनेसे भरत मुनि भी उसकी पालकीको अन्य बेगारियोंके बीचमें लगकर वहन करने लगे ॥५५॥ इस प्रकार बेगारमें पकड़े जाकर अपने पर्वजन्मका स्मरण रखनेवाले, सम्पूर्ण विज्ञानके एकमात्र पात्र वे विप्रवर अपने पापमय प्रारब्धका क्षय करनेके लिये उस शिबिकाको उठाकर चलने लगे ॥५६॥ वे बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ द्विजवर तो चार हाथ भूमि देखते हुए मन्द-गतिसे चलते थे, किन्तु उनके अन्य साथी जल्दी। जल्दी चल रहे थे ॥५७॥

इस प्रकार शिबिकाकी विषम-गति देखकर राजाने कहा- “अरे शिबिकावाहको! यह क्या करते हो? समान गतिसे चलो” ॥५८॥ किन्तु फिर भी उसकी गति उसी प्रकार विषम देखकर राजाने फिर कहा-“अरे क्या है? इस प्रकार असमान भावसे क्यों चलते हो?” ॥५९॥ राजाके बार-बार ऐसे वचन सुनकर वे शिबिकावाहक [भरतजीको दिखाकर] कहने लगे-“हममेंसे एक यही धीरे-धीरे चलता है” ॥६०॥

राजाने कहा- अरे, तूने तो अभी मेरी शिबिकाको थोड़ी ही दूर वहन किया है; क्या इतनेहीमें थक गया? तू वैसे तो बहुत मोटा-मुष्टण्डा दिखायी देता है, फिर क्या तुझसे इतना भी श्रम नहीं सहा जाता? ॥६१॥

ब्राह्मण बोले-राजन् ! मैं न मोटा हूँ और न मैंने आपकी शिबिका ही उठा रखी है । मैं थका भी नहीं हूँ और न मुझे श्रम सहन करनेकी ही आवश्यकता है ॥६२॥

राजा बोले-अरे, तू तो प्रत्यक्ष ही मोटा दिखायी दे रहा है, इस समय भी शिबिका तेरे कन्धेपर रखी हुई है और बोझा ढोनेसे देहधारियोंको श्रम होता ही है ॥६३॥

ब्राह्मण बोले-राजन् ! तुम्हें प्रत्यक्ष क्या दिखायी दे रहा है, मुझे पहले यही बताओ । उसके ‘बलवान्’ अथवा ‘अबलवान्’ आदि विशेषणोंकी बात तो पीछे करना ॥६४॥ ‘तूने मेरी शिबिकाका वहन किया है, इस समय भी वह तेरे ही कन्धोंपर रखी हुई है’-तुम्हारा ऐसा कहना सर्वथा मिथ्या है, अच्छा मेरी बात सुनो ॥६५॥ देखो, पृथिवीपर तो मेरे पैर रखे हैं, पैरोंके ऊपर जंघाएँ हैं और जंघाओंके ऊपर दोनों ऊरु तथा ऊरुओंके ऊपर उदर है ॥६६॥ उदरके ऊपर वक्षःस्थल बाहु और कन्धोंकी स्थिति है तथा कन्धोंके ऊपर यह शिबिका रखी है। इसमें मेरे ऊपर कैसे बोझा रहा? ॥६७॥ इस शिबिकामें जिसे तुम्हारा कहा जाता है वह शरीर रखा हुआ है । वास्तवमें तो ‘तुम वहाँ (शिबिकामें) हो और मैं यहाँ (पृथिवीपर) हूँ’-ऐसा कहना सर्वथा मिथ्या है ॥६८॥ हे राजन् ! मैं, तुम और अन्य भी समस्त जीव पंचभूतोंसे ही वहन किये जाते हैं । तथा यह भूतवर्ग भी गुणोंके प्रवाहमें पड़कर ही बहा जा रहा है ॥६९॥ हे पृथिवीपते! ये सत्त्वादि गुण भी कर्मोके वशीभूत हैं और समस्त जीवोंमें कर्म अविद्याजन्य ही हैं ॥७०॥ आत्मा तो शुद्ध, अक्षर, शान्त, निर्गुण और प्रकृतिसे परे है तथा समस्त जीवोंमें वह एक ही ओत-प्रोत है। अत: उसके वृद्धि अथवा क्षय कभी नहीं होते ॥७१॥

हे नृप! जब उसके उपचय (वृद्धि), अपचय (क्षय) ही नहीं होते तो तुमने यह बात किस युक्तिसे कही कि ‘तू मोटा है?’ ॥७२॥ यदि क्रमशः पृथिवी, पाद, जंघा, कटि, ऊरु और उदरपर स्थित कन्धोंपर रखी हुई यह शिबिका मेरे लिये भाररूप हो सकती है तो उसी प्रकार तुम्हारे लिये भी तो हो सकती है? [क्योंकि ये पृथिवी आदि तो जैसे तुमसे पृथक् हैं वैसे ही मुझ आत्मासे भी सर्वथा भिन्न हैं] ॥७३॥ तथा इस युक्तिसे तो अन्य समस्त जीवोंने भी केवल शिबिका ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण पर्वत, वृक्ष, गृह और पृथिवी आदिका भार उठा रखा है ।७४॥ हे राजन्! जब प्रकृतिजन्य कारणोंसे पुरुष सर्वथा भिन्न है तो उसका परिश्रम भी मुझको कैसे हो सकता है? ॥७५॥ और जिस द्रव्यसे यह शिबिका बनी हुई है उसीसे यह आपका, मेरा अथवा और सबका शरीर भी बना है; जिसमें कि ममत्वका आरोप किया हुआ है ॥७६॥

श्रीपराशरजी बोले- ऐसा कह वे द्विजवर शिबिकाको धारण किये हुए ही मौन हो गये; और राजाने भी तुरन्त पृथिवीपर उतरकर उनके चरण पकड़ लिये ॥७७॥

राजा बोला- अहो द्विजराज! इस शिबिकाको छोड़कर आप मेरे ऊपर कृपा कीजिये। प्रभो! कृपया बताइये, इस जडवेषको धारण किये आप कौन हैं? ॥७८॥ हे विद्वन् ! आप कौन हैं? किस निमित्तसे यहाँ आपका आना हुआ? तथा आनेका क्या कारण है? यह सब आप मुझसे कहिये। मुझे आपके विषयमें सुननेकी बड़ी उत्कण्ठा हो रही है ॥७९॥

ब्राह्मण बोले-हे राजन् ! सुनो, मैं अमुक हूँ–यह बात कही नहीं जा सकती और तुमने जो मेरे यहाँ आनेका कारण पूछा सो आना-जाना आदि सभी क्रियाएँ कर्मफलके उपभोगके लिये ही हुआ करती हैं ॥८०॥ सुख-दुःखका भोग ही देह आदिकी प्राप्ति करानेवाला है तथा धर्माधर्मजन्य सुख-दुःखोंको भोगनेके लिये ही जीव देहादि धारण करता  है ॥८१॥ हे भूपाल! समस्त जीवोंकी सम्पूर्ण अवस्थाओंके कारण ये धर्म और अधर्म ही हैं, फिर विशेषरूपसे मेरे आगमनका कारण तुम क्यों पूछते हो? ॥८२॥

राजा बोला- अवश्य ही, समस्त कार्यों में धर्म  और अधर्म ही कारण हैं और कर्मफलके उपभोगके लिये ही एक देहसे दूसरे देहमें जाना होता है ॥८३॥ किन्तु आपने जो कहा कि ‘मैं कौन हूँ—यह नहीं बताया जा सकता’ इसी बातको सुननेकी मुझे इच्छा हो रही है ॥ ८४॥

हे ब्रह्मन् ! ‘जो है [अर्थात् जो आत्मा कर्ता। भोक्तारूपसे प्रतीत होता हुआ सदा सत्तारूपसे वर्तमान है] वही मैं हूँ’- ऐसा क्यों नहीं कहा जा सकता? हे द्विज! यह ‘अहम्’ शब्द तो आत्मामें किसी प्रकारके दोषका कारण नहीं होता ॥ ८५॥

ब्राह्मण बोले-हे राजन्! तुमने जो कहा कि ‘अहम्’ शब्दसे आत्मामें कोई दोष नहीं आता सो ठीक ही है, किन्तु अनात्मामें ही आत्मत्वका ज्ञान करानेवाला भ्रान्तिमूलक ‘अहम्’ शब्द ही दोषका कारण है ॥८६॥ हे नृप! ‘अहम्’ शब्दका उच्चारण जिह्वा, दन्त, ओष्ठ और तालुसे ही होता है, किन्तु ये सब उस शब्दके उच्चारणके कारण हैं, ‘अहम्’ (मैं) नहीं ॥ ८७॥ तो क्या जिह्वादि कारणोंके द्वारा यह वाणी ही स्वयं अपनेको ‘अहम्’ कहती है? नहीं। अतः ऐसी स्थितिमें ‘तू मोटा है’ ऐसा कहना भी उचित नहीं है ॥८८॥ सिर तथा कर-चरणादिरूप यह शरीर भी आत्मासे पृथक् ही है। अतः हे राजन् ! इस ‘अहम्’ शब्दका मैं कहाँ प्रयोग करूँ? ॥ ८९॥ तथा हे नृपश्रेष्ठ! यदि मुझसे भिन्न कोई और भी सजातीय आत्मा हो तो भी ‘यह मैं हूँ और यह अन्य है’-ऐसा कहा जा सकता था ।९०॥ किन्तु, जब समस्त शरीरोंमें एक ही आत्मा विराजमान है तब ‘आप कौन हैं? मैं वह हूँ।’ ये सब वाक्य निष्फल ही हैं ॥९१॥

‘तू राजा है, यह शिबिका है, ये सामने शिबिकावाहक हैं तथा ये सब तेरी प्रजा हैं’ हे नृप! इनमेंसे कोई भी बात परमार्थतः सत्य नहीं है ॥९२॥ हे राजन्! वृक्षसे लकड़ी हुई और उससे तेरी यह शिबिका बनी; तो बता इसे लकड़ी कहा जाय या वृक्ष? ॥ ९३॥ किन्तु ‘महाराज वृक्षपर बैठे हैं ऐसा कोई नहीं कहता और न कोई तुझे लकड़ीपर बैठा हुआ ही बताता है! सब लोग शिबिकामें बैठा हुआ ही कहते हैं ॥ ९४॥ हे नृपश्रेष्ठ! रचनाविशेषमें स्थित लकड़ियोंका समूह ही तो शिबिका है। यदि वह उससे कोई भिन्न वस्तु है तो काष्ठको अलग करके उसे ढूँढ़ो ॥९५ ॥ इसी प्रकार छत्रकी शलाकाओंको अलग रखकर छत्रका विचार करो कि वह कहाँ रहता है। यही न्याय तुममें और मुझमें लागू होता है [अर्थात् मेरे और तुम्हारे शरीर भी पंचभूतसे अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं हैं] ॥९६॥ पुरुष, स्त्री, गौ, अज (बकरा), अश्व, गज, पक्षी और वृक्ष आदि लौकिक संज्ञाओंका प्रयोग कर्महेतुक शरीरोंमें ही जानना चाहिये॥९७ ॥ हे राजन्! पुरुष (जीव) तो न देवता है, न मनुष्य है, न पशु है और न वृक्ष है। ये सब तो कर्मजन्य शरीरोंकी आकृतियोंके ही भेद हैं॥९८॥

लोकमें धन, राजा, राजाके सैनिक तथा और भी जो-जो वस्तुएँ हैं, हे राजन् ! वे परमार्थतः सत्य नहीं हैं, केवल कल्पनामय ही हैं ॥९९॥ जिस वस्तुकी परिणामादिके कारण होनेवाली कोई संज्ञा कालान्तरमें भी  नहीं होती, वही परमार्थ-वस्तु है । हे राजन्! ऐसी वस्तु कौन-सी है? ॥ १००॥ [तू अपनेहीको देख] समस्त प्रजाके लिये तू राजा है, पिताके लिये पुत्र है, शत्रुके लिये शत्रु है, पत्नीका पति है और पुत्रका पिता है। हे राजन्! बतला, मैं तुझे क्या कहूँ? ॥ १०१॥ हे महीपते! तू क्या यह सिर है, अथवा ग्रीवा है या पेट अथवा पादादिमेंसे कोई है? तथा ये सिर आदि भी ‘तेरे’ क्या हैं? ॥ १०२॥ हे पृथिवीश्वर! तू इन समस्त अवयवोंसे पृथक् है; अत: सावधान होकर विचार कि ‘मैं कौन हूँ’॥ १०३ ॥ हे महाराज! आत्मतत्त्व इस प्रकार व्यवस्थित है। उसे सबसे पृथक् करके ही बताया जा सकता है। तो फिर, । मैं उसे ‘अहम्’ शब्दसे कैसे बतला सकता हूँ? ॥ १०४॥

क्रमशः

अध्याय-14 जडभरत और सौवीरनरेशका संवाद

श्रीपराशरजी बोले – उनके ये परमार्थमय वचन सुनकर राजाने विनयावनत होकर उन विप्रवर से कहा ॥ १ ॥

राजा बोले – भगवन ! आपने जो परमार्थमय वचन कहे है उन्हें सुनकर मेरी मनोवृत्तियाँ भ्रांत-सी हो गयी है ॥ २ ॥ हे विप्र ! आपने सम्पूर्ण जीवों में व्याप्त जिस असंग विज्ञान का दिग्दर्शन कराया है वह प्रक्रति से परे ब्रह्म ही है ॥ ३ ॥ परन्तु आपने जो कहा कि मैं शिबिका को वहन नहीं कर रहा हूँ, शिबिका मेरे ऊपर नहीं है, जिसने इसे उठा रखा है वह शरीर मुझसे अत्यंत पृथक है । जीवों की प्रवृत्ति गुणों [ सत्त्व, रज, तम ] की प्रेरणा से होती है और गुण कर्मों से प्रेरित होकर प्रवृत्त होते है – इसमें मेरा कर्तृत्व कैसे माना जा सकता है ? ॥ ४ – ५ ॥ हे परमार्थज्ञ ! यह बात मेरे कानों में पड़ते ही मेरा मन परमार्थ का जिज्ञासु होकर बड़ा उतावला हो रहा है ॥ ६ ॥

हे द्विज ! मैं तो पहले ही महाभाग कपिलमुनि से यह पूछनेके लिये कि बताइये ‘संसार में मनुष्यों का श्रेय किसमें बीचही में, आपने जो वाक्य कहे है उन्हें सुनकर मेरा चित्त परमार्थ – श्रवण करने के लिये आपकी ओर झुक गया है ॥ ८ ॥ हे द्विज ! ये कपिलमुनि सर्वभूत भगवान विष्णु के ही अंश है । इन्होने संसार का मोह दूर करने एक लिये ही पृथ्वीपर अवतार लिया है ॥ ९ ॥ किन्तु आप जो इस प्रकार भाषण कर रहे है उससे मुझे निश्चय होता है कि वे ही भगवान कपिलदेव मेरे हितकी कामना से यहाँ आपके रूप में प्रकट हो गये है ॥ १० ॥ अत: हे द्विज ! हमारा जो परम श्रेय हो वह आप मुझ विनीत से कहिये । हे प्रभो ! आप सम्पूर्ण विज्ञान-तरंगों के मानो समुद्र ही है ॥ ११ ॥

ब्राह्मण बोले – हे राजन ! तुम श्रेय पूछना चाहते हो या परमार्थ ? क्योंकि हे भूपते ! श्रेय तो सब अपारमार्थिक ही है ॥ १२ ॥ हे नृप ! जो पुरुष देवताओं की आराधना करके धन, सम्पत्ति, पुत्र और राज्यादिकी इच्छा करता है उसके लिये तो वे ही परम श्रेय है ॥ १३ ॥ जिसका फल स्वर्गलोक की प्राप्ति है वह यज्ञात्मक कर्म भी श्रेय है; किन्तु प्रधान श्रेय तो उसके फल की इच्छा न करने में ही है ॥ १४ ॥ अत: हे राजन ! योगयुक्त परुषों को प्रकृति आदि से अतीत उस आत्मा का ही ध्यान करना चाहिये, क्योंकि उस परमात्मा का संयोगरूप श्रेय ही वास्तविक श्रेय है ॥ १५ ॥

इस प्रकार श्रेय तो सैकड़ो – हजारों प्रकार के अनेकों हैं, किन्तु ये सब परमार्थ नहीं हैं । अब जो परमार्थ है सो सुनो ॥ १६ ॥ यदि धन ही परमार्थ है तो धर्म के लिए उसका त्याग क्यों किया जाता है ? तथा इच्छित भोगों की प्राप्ति के लिये उसका व्यय क्यों किया जाता है ? ॥ १७ ॥ हे नरेश्वर ! यदि पुत्र को परमार्थ कहा जाय तो वह तो अन्य का परमार्थभूत है, तथा उसका पिता भी दूसरे का पुत्र होने के कारण उस का परमार्थ होगा ॥ १८ ॥ अत: इस चराचर जगत में पिताका कार्यरूप पुत्र भी परमार्थ नहीं है । क्योंकि फिर तो सभी कारणों के कार्य परमार्थ हो जायेंगे ॥ १९ ॥ यदि संसार में राज्यादिकी प्राप्ति को परमार्थ कहा जाय तो ये कभी रहते है और कभी नहीं रहते । अत: परमार्थ भी आगमापायी हो जायगा ॥ २० ॥ यदि ऋक, यजु: और सामरूप वेदत्रयी से सम्पन्न होंनेवाले यज्ञकर्म को परमार्थ मानते हो तो उसके विषय में मेरा ऐसा विचार है ॥ २१ ॥ हे नृप ! जो वस्तु कारणरूपा मृत्तिका का कार्य होती है वह कारण की अनुगामिनी होने से मृत्तिकारूप ही जानी जाती है ॥ २२ ॥ अत: जो क्रिया समिध, घृत और कुशा आदि नाशवान द्रव्यों से सम्पन्न होती है वह भी नाशवान ही होगी ॥ २३ ॥ किन्तु परमार्थ को तो प्राज्ञ पुरुष अविनाशी बतलाते है और नाशवान द्रव्यों से निष्पन्न होने के कारण कर्म नाशवान ही हैइसमें संदेह नहीं २४ यदि फलाशा से रहित निष्कामकर्म को परमार्थ मानते हो तो वह तो मुक्तिरूप फल का साधना होने से साधन ही है, परमार्थ नहीं ॥ २५ ॥ यदि देहादि से आत्मा का पार्थक्य विचारकर उसके ध्यान करने की परमार्थ कहा जाय तो वह तो अनारमासे आत्मा का भेद करनेवाला है और परमार्थ में भेद है नहीं ॥ २६ ॥ यदि परमात्मा और जीवात्मा के संयोग को परमार्थ कहे तो ऐसा कहना सर्वथा मिथ्या हैं, क्योंकि अन्य द्रव्य से अन्य द्रव्य की एकता कभी नहीं हो सकती ॥ २७ ॥

अत: हे राजन ! नि:संदेह ये सब श्रेय ही है, [ परमार्थ नहीं ] अब जो परमार्थ है वह मैं संक्षेप से सुनाता हूँ, श्रवण करो ॥ २८ ॥ आत्मा एक, व्यापक, सम, शुद्ध, निर्गुण और प्रकृति से परे है; वह जन्मवृद्धि आदि से रहित, सर्वव्यापी और अव्यय है २९ हे राजन ! वह परम ज्ञानमय है, असत नाम और जाति आदि से उस सर्वव्यापक का संयोग कभी हुआ, है और होगा ३० वह, अपने और अन्य प्राणियों के शरीर में विद्यमान रहते हुए भी, एक ही है’ – इस प्रकार का जो विशेष ज्ञान है वही परमार्थ है; द्वैत भावनावाले पुरुष तो अपरमार्थदर्शी है ३१ जिस प्रकार अभिन्न भाव से व्याप्त एक ही वायु के बाँसुरी के छिद्रों के भेद से षड्ज आदि भेद होते है उसी प्रकार एक ही परमात्मा के अनेक भेद प्रतीत होते है ॥ ३२ ॥ एकरूप आत्मा के जो नाना भेद है वे बाह्य देहादिकी कर्मप्रवृत्ति के कारण ही हुए है । देवादि शरीरों के भेद का निराकरण हो जानेपर वह नहीं रहता । उसकी स्थिति तो अविद्या के आवरणतक ही है ॥ ३३ ॥

– इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे एकादशोऽध्यायः –

अध्याय-15 ऋभु का निदाघ को अद्वैतज्ञानोपदेश

श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! ऐसा कहनेपर, राजाको मौन होकर मन-ही-मन सोच-विचार करते देख वे विप्रवर यह अद्वैत-सम्बन्धिनी कथा सुनाने लगे ॥ १ ॥

ब्राह्मण बोले – हे राजशारर्दूल ! पूर्वकाल में महर्षि ऋभु ने महात्मा निदाघ को उपदेश करते हुए जो कुछ कहा था वह सुनो ॥ २ ॥ हे भूपते ! परमेष्ठी श्रीब्रह्माजी का ऋभु नामक एक पुत्र था, वह स्वभाव से ही परमार्थतत्त्व को जाननेवाला था ॥ ३ ॥ पूर्वकाल में महर्षि पुलस्त्य का पुत्र निदाघ उन ऋभु का शिष्य था । उसे उन्होंने अति प्रसन्न होकर सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया था ॥ ४ ॥ हे नरेश्वर ! ऋभु ने देखा कि सम्पूर्ण शास्त्रोका ज्ञान होते हुए भी निदाघ की अद्वैत में निष्ठा नहीं है ॥ ५ ॥

उस समय देविकानदी के तीरपर पुलस्त्यजी का बसाया सम्पन्न नगर था ॥ ६ ॥ हे पार्थिवोत्तम ऋभु का शिष्य योगवेत्ता निदाघ रहता था ॥ ७ ॥ महर्षि ऋभु अपने दिव्य निदाघ को देखने के लिये एक सहस्त्र दिव्यवर्ष बीतनेपर उस नगर में गये ॥ ८ ॥ जिस समय निदाघ बलिवैश्वदेव के अनन्तर अपने द्वारपर प्रतीक्षा कर रहा था, वे उसके दृष्टिगोचर हुए और वह उन्हें द्वारपर पहुँच अर्घ्यदानपूर्वक अपने घरमें ले गया ॥ ९ ॥ उस द्विजश्रेष्ठ ने उनके हाथ-पैर धुलाये और फिर आसनपर बिठाकर आदरपूर्वक कहा – ‘भोजन कीजिये’ ॥ १० ॥

निदाघ ने कहा – हे द्विजश्रेष्ठ ! मेरे घर में सत्तू, जौकी लप्सी, कंद-मूल-फलादि तथा पुए बने हैं । आपको इनमें से जो कुछ रुचे वही भोजन कीजिये ॥ १२ ॥

ऋभु बोले – हे द्विज ! ये तो सभी कुत्सित अन्न है, मुझे तो तुम हलवा, खीर तथा मट्ठा और खांडसे बने स्वादिष्ट भोजन कराओ ॥ १३ ॥

तब निदाघ ने अपनी स्त्री से कहा – हे गृहदेवि ! हमारे घरमें जो अच्छी – से अच्छी वस्तु हो उसीसे इनके लिये अति स्वादिष्ट भोजन बनाओ ॥ १४ ॥

ब्राह्मण जडभरत ने कहा – उसके ऐसा कहनेपर उसकी पत्नीने अपने पतिकी आज्ञा से उन विप्रवर के लिये अति स्वादिष्ट अन्न तैयार किया ॥ १५ ॥

हे राजन ! ऋभु के यथेच्छ भोजन कर चुकनेपर निदाघ ने अति विनीत होकर उन महामुनि से कहा ॥ १६ ॥

निदाघ बोले – हे द्विज ! कहिये भोजन करके आपका चित्त स्वस्थ हुआ न ? आप पूर्णतया तृप्त और संतुष्ट हो गये न ? ॥ १७ ॥ हे विप्रवर ! कहिये आप कहाँ रहनेवाले हैं ? कहाँ जाने की तैयारिमें हैं ? और कहाँ से पधारे हैं ? ॥ १८ ॥

ऋभु बोले – हे ब्राह्मण ! जिसको क्षुधा लगती है उसीकी तृप्ति भी हुआ करती है । मुझको तो कभी क्षुधा ही नहीं लगी, फिर तृप्ति विषय में तुम क्या पूछते हो ? ॥ १९ ॥ जठराग्नि के द्वारा पार्थिव धातुओं के क्षीण हो जानेसे मनुष्य को क्षुधा की प्रतीति होती है और जल के क्षीण होने से तृषा का अनुभव होता है ॥ २० ॥ हे द्विज ! ये क्षुधा और तृषा तो देह के ही धर्म है, मेरे नहीं; अत: स्वस्थता और तुष्टि भी मनही में होते हैं, अत: य मनही के धर्म है, पुरुष (आत्मा) से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है । इसलिये हे द्विज ! ये जिसके धर्म है उसीसे इनके विषय में पूछो ॥ २२ ॥ और तुमने जो पूछा कि ‘आप कहाँ रहनेवाले है ? कहाँ जा रहे है ? तथा कहाँ से आये हैं ‘ सो इन तीनों के विषय में मेरा मत सुनो ॥ २३ ॥ आत्मा सर्वगत है, क्योंकि यह आकाश के समान व्यापक है; अत: ‘कहाँ से आये हो, कहाँ रहते हो और कहाँ जाओगे ?’ यह कथन भी कैसे सार्थक हो सकता है ? ॥ २४ ॥ मैं तो न कहाँ जाता हूँ, न आता हूँ और न किसी एक स्थानपर रहता हूँ । [ तू, मैं और अन्य पुरुष भी देहादिके कारण जैसे पृथक-पृथक दिखायी देते है वास्तव में वैसे नहीं है ] वस्तुत: तू तू नहीं हैं, अन्य अन्य नहीं है और मैं मैं नहीं हूँ ॥ २५ ॥

वास्तव में मधुर मधुर है भी नहीं; देखो, मैंने तुमसे जो मधुर अन्न की याचना की थी उससे भी मैं यही देखना चाहता था कि ‘ तुम क्या कहते हो ।’ हे द्विजश्रेष्ठ ! भोजन करनेवाले के लिये स्वादु और अस्वादु भी क्या है ? क्योंकि स्वादिष्ट पदार्थ ही जब समयांतर से अस्वादु हो जाता है तो वही उद्वेगजनक होने लगता है ॥ २६ – २७ ॥

इसीप्रकार कभी अरुचिकर पदार्थ रुचिकर हो जाते है और रुचिकर पदार्थों से मनुष्य को उद्वेग हो जाता है । ऐसा अन्न भला कौन –सा है जो आदि, मध्य और अंत तीनों काल में रुचिकर ही हो ? ॥ २८ ॥ जिस प्रकार मिट्टीका घर मिट्टीसे लीपने – पोतने से दृढ़ होता है, उसी प्रकार यह पार्थिव देह पार्थिव अन्न के परमाणुओं से पुष्ट हो जाता है ॥ २९ ॥ जौ, गेहूँ, मूँग, घृत, तेल, दूध, दही, गुड़ और फल आदि सभी पदार्थ पार्थिव परमाणु ही तो है । [ इनमें से किसको स्वादु कहें और किसको अस्वादु ? ] ॥ ३० ॥ अत: ऐसा जानकर तुम्हें इस स्वादु-अस्वादु का विचार करनेवाले चित्त को समदर्शी बनाना चाहिये, क्योंकि मोक्ष का एकमात्र उपाय समता ही है ॥ ३१ ॥

ब्राह्मण बोले – हे राजन ! उनके ऐसे परमार्थमय वचन सुनकर महाभाग निदाघ ने उन्हें प्रणाम करके कहा ॥ ३२ ॥ “प्रभो ! आप प्रसन्न होइये ! कृपया बतलाइये, मेरे कल्याण की कामनासे आये हुए आप कौन है ? हे द्विज ! आपके इन वचनों को सुनकर मेरा सम्पूर्ण मोह नष्ट हो गया है” ॥ ३३ ॥

ऋभु बोले – हे द्विज ! मैं तेरा गुरु ऋभु हूँ; तुझको सदसद्विवेकिनी बुद्धि प्रदान करने के लिये मैं यहाँ आया था । अब मैं जाता हूँ, जो कुछ परमार्थ है वह मैंने तुझसे कह ही दिया है ॥ ३४ ॥ इस परमार्थतत्त्व का विचार करते हुए तू इस सम्पूर्ण जगत को एक वासुदेव परमात्माही का स्वरूप जान; इसमें भेद-भाव बिलकुल नहीं है ॥ ३५ ॥

ब्राह्मण बोले – तदनंतर निदाघ ने ‘बहुत अच्छा’ कह उन्हें प्रणाम किया और फिर उससे परम भक्तिपूर्वक पूजित हो ऋभु स्वेच्छानुसार चले गये ॥ ३६ ॥

– इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे द्वादशोऽध्यायः –

अध्याय-16 ऋभु की आज्ञा से निदाघ का अपने घरको लौटना

ब्राह्मण बोले – हे नरेश्वर ! तदनन्तर सहस्त्र वर्ष व्यतीत होनेपर महर्षि ऋभु निदाघ को ज्ञानोपदेश करने के लिये फिर उसी नगर को गये ॥ १ ॥

वहाँ पहुँचनेपर उन्होंने देखा कि वहाँ का राजा बहुत-सी सेना आदि के साथ बड़ी धूम-धामसे नगर में प्रवेश कर रहा है और वनसे कुशा तथा समिध लेकर आया हुआ महाभाग निदाघ जनसमूह से हटकर भूखा-प्यासा दूर खड़ा है ॥ २ – ३ ॥

निदाघ को देखकर ऋभु उसके निकट गये और उसका अभिवादन करके बोले – ‘हे द्विज ! यहाँ एकांत में आप कैसे खड़े हैं ‘ ॥ ४ ॥

निदाघ बोले – हे विप्रवर ! आज इस अति रमणीक नगर में राजा जाना चाहता है, सो मार्गमें बड़ी भीड़ हो रही है, इसलिये मैं यहाँ खड़ा हूँ ॥ ५ ॥

ऋभु बोले – हे द्विजश्रेष्ठ ! मालुम होता है आप यहाँ की सब बातें जानते हैं । अत: कहिये इनमें राजा कौन है ? और अन्य पुरुष कौन है ? ॥ ६ ॥

निदाघ बोले – यह जो पर्वत के समान ऊँचे मत्त गजराजपर चढ़ा हुआ है वही राजा है, तथा दूसरे लोग परिजन है ॥ ७ ॥

ऋभु बोले – आपने राजा और गज, दोनों एक साथ ही दिखाये किन्तु इन दोनों के पृथक-पृथक विशेष चिन्ह अथवा लक्षण नहीं बतलाये ॥ ८ ॥ अत: हे महाभाग ! इन दोनों में क्या-क्या विशेषताएँ हैं, यह बतलाइये । मैं यह जानना चाहता हूँ कि इनमें कौन राजा है और कौन गज है ? ॥ ९ ॥

निदाघ बोले – इनमें जो नीचे है वह गज है और उसके ऊपर राजा है । हे द्विज ! इन दोनों का बाह्य – वाहक – सम्बन्ध है – इस बातको कौन नहीं जानता ? ॥ १० ॥

ऋभु बोले – हे ब्रह्मन ! मुझे इसप्रकार समझाइये, जिससे मैं यह जान सकूँ कि ‘नीचे’ इस शब्द का वाच्य क्या है ? और ‘ऊपर’ किसे कहते हैं ॥ ११ ॥

ब्राह्मण ने कहा – ऋभु के ऐसा कहनेपर निदाघ ने अकस्मात उनके ऊपर चढकर कहा – ‘सुनिये, आपने जो पूछा है वही बतलाता हूँ — ॥ १२ ॥ इस समय राजाकी भान्ति मैं तो ऊपर हूँ और गजकी भान्ति आप नीचे हैं । हे ब्रह्मन ! आपको समझाने के लिये ही मैंने यह दृष्टांत दिखलाया है” ॥ १३ ॥

ऋभु बोले – हे द्विजश्रेष्ठ ! यदि आप राजा के समान है और मैं गजके समान हूँ तो यह बताइये कि आप कौन हैं ? और मैं कौन हूँ ? ॥ १४ ॥

ब्राह्मण ने कहा – ऋभु के ऐसा कहनेपर निदाघ ने तुरंत ही उनके दोनों चरण पकड़ लिये और कहा – ‘निश्चय ही आप आचार्यचरण महर्षि ऋभु है ॥ १५ ॥ हमारे आचार्यजी के समान अद्वैत – संस्कारयुक्त चित्त और किसीका नहीं हैं; अत: मेरा विचार है कि आप हमारे गुरूजी ही आकर उपस्थित हुए हैं’ ॥ १६ ॥

ऋभु बोले – हे निदाघ ! पहले तुमने सेवा-शुश्रूषा करके मेरा बहुत आदर किया था अत: तुम्हारे स्नेहवश मैं ऋभु नामक तुम्हारा गुरु ही तुमको उपदेश देने के लिये आया हूँ ॥ १७ ॥ हे महामते ! समस्त पदार्थों में अद्वैत – आत्म – बुद्धि रखना’ यही परमार्थ का सार है जो मैंने तुम्हें संक्षेप में उपदेश कर दिया ॥ १८ ॥

ब्राह्मण बोले – निदाघ से ऐसा कह परम विद्वान गुरुवर भगवान ऋभु चले गये और उनके उपदेश से निदाघ भी अद्वैत-चिन्तन में तत्पर हो गया ॥ १९ ॥ और समस्त प्राणियों को अपने से अभिन्न देखने लगा हे धर्मज्ञ ! हे पृथ्वीपते ! जिसप्रकार उस ब्रह्मपरायण ब्राह्मण ने परम मोक्षपद प्राप्त किया, उसी प्रकार तू भी आत्मा, शत्रु और मित्रादि में समान भाव रखकर अपनेको सर्वगत जानता हुआ मुक्ति लाभ कर ॥ २० – २१ ॥ जिस प्रकार एक ही आकाश श्वेत-नील आदि भेदोंवाला दिखायी देता हैं, उसी प्रकार भ्रान्तदृष्टियों को एक ही आत्मा पृथक-पृथक दीखता है ॥ २२ ॥ इस संसार में जो कुछ है वह सब एक आत्मा ही है और वह अविनाशी है, उससे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है; मैं, तू और ये सब आत्मस्वरूप ही है । अत: भेद-ज्ञानरूप मोह को छोड़ ॥ २३ ॥

श्रीपराशरजी बोले – उनके ऐसा कहनेपर सौविरराजने परमार्थदृष्टि का आश्रय लेकर भेद-बुद्धिको छोड़ दिया और वे जातिस्मर ब्राह्मणश्रेष्ठ भी बोधयुक्त होने से उसी जन्म में मुक्त हो गये ॥ २४ ॥ इस प्रकार महाराज भरत के इतिहास के इस सारभूत वृतांत को जो पुरुष भक्तिपूर्व कहता या सुनता है उसकी बुद्धि निर्मल हो जाती है, उसी कभी आत्म-विस्मृति नहीं होती और वह जन्म-जन्मान्तर में मुक्ति की योग्यता प्राप्त कर लेता है ॥ २५ ॥

– इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे त्रयोदशोऽध्यायः –

 ॥ इति श्रीपराशरमुनिविरचिते श्रीविष्णुपरत्वनिर्णायके श्रीमति विष्णुमहापुराणे द्वितियोंऽश: समाप्त: ॥

One Response

  1. (नोट :- सभी अंश के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये, त्रुटियाँ सुधारने के लिये कमेंट्स कीजिये किस जगह कौन-सी त्रुटियाँ हैं, वह बताये, हम सुधारने की प्रयाश करेंगे ।। )

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