Shree Naval Kishori

पद्मपुराण-2 भूमि खण्ड

अध्याय-01 शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना

यं सर्वदेवं परमेश्वरं हि निष्केवलं ज्ञानमयं प्रधानम् l

वदन्ति नारायणमादिसिद्धं सिद्धेश्वरं तं शरणं प्रपद्ये ।।’

(16435)

सूतजी कहते हैं— पश्चिम समुद्रके तटपर द्वारका नामसे प्रसिद्ध एक नगरी है। वहाँ योगशास्त्रके ज्ञाता एक ब्राह्मण देवता सदा निवास करते थे। उनका नाम या शिवशर्मा से वेद-शास्त्रोंके अच्छे विद्वान् थे। उनके पाँच पुत्र हुए, जिन्हें शास्त्रोंका पूर्ण ज्ञान था। उनके नाम इस प्रकार हैं- यज्ञशर्मा, वेदशर्मा, धर्मशर्मा, विष्णुशर्मा तथा सोमशर्मा- ये सभी पिताके भक्त थे। द्विजश्रेष्ठ शिवशर्माने उनकी भक्ति देखकर सोचा- ‘पितृभक्त पुरुषोंके हृदयमें जो भाव होना चाहिये, वह मेरे इन पुत्रोंके हृदयमें हैं या नहीं इस बातको बुद्धिपूर्वक परीक्षा करके जाननेका प्रयत्न करूँ।’ शिवशर्मा ब्रह्म बेताओं में श्रेष्ठ थे। उन्हें उपायका ज्ञान था। उन्होंने मायाद्वारा अपने पुत्रोंके सामने एक घटना उपस्थित की। पुत्रोंने देखा, उनकी माता महान् ज्वररोगसे पीड़ित होकर मृत्युको प्राप्त हो गयी। तब वे पिताके पास जाकर बोले- ‘तात। हमारी माता अपने शरीरका परित्याग करके चली गयी। अब उसके विषयमें आप हमें क्या आजा देते हैं?’ द्विजश्रेष्ठ शिवशर्माने अपने भक्तिपरायण ज्येष्ठ पुत्र यज्ञशर्माको सम्बोधित करके कहा-‘बेटा। इस तो हथियार से अपनी माताके सारे अंगोंको टुकड़े टुकड़े करके इधर-उधर फेंक दो। पुत्रने पिताकी आज्ञाके अनुसार ही कार्य किया। पिताने भी यह बात सुनी। इससे उन्हें उस पुत्रकी भक्तिके विषयमें पूर्ण निश्चय हो गया। अब उन्होंने दूसरे पुत्रकी पितृ-भक्ति जानने काविचार किया और वेदशमके पास जाकर कहा ‘बेटा! मैं स्त्रीके बिना नहीं रह सकता। तुम मेरी आज्ञा मानकर जाओ और समस्त सौभाग्य सम्पत्तिसे युक्त जो स्त्री मैंने देखी है, उसे मेरे लिये यहाँ बुला लाओ।’ पिताके ऐसा कहनेपर वेदशर्मा बोले-‘मैं आपका प्रिय कार्य करूँगा।’ यो कहकर वे पिताको प्रणाम करके चले गये और उस स्त्रीके पास पहुँचकर बोले- ‘देवि ! मेरे पिता तुम्हारे लिये प्रार्थना करते हैं; यद्यपि वे वृद्ध हैं तथापि तुम मेरे अनुरोधसे उनपर कृपा करके उनके अनुकूल हो जाओ।’

वेदशर्माकी ऐसी बात सुनकर मायासे प्रकट हुई उस स्त्रीने कहा—‘ब्रह्मन् ! तुम्हारे पिता बुढ़ापेसे कष्ट पा रहे हैं; अतः मैं कदापि उन्हें पति बनाना नहीं चाहती। उन्हें खाँसीका रोग है, उनके मुँहमें कफ भरा रहता है। इस समय दूसरी दूसरी बीमारियोंने भी उन्हें पकड़ रखा है। रोगके कारण वे शिथिल एवं आर्त हो गये हैं; अतः मुझे उनका समागम नहीं चाहिये। मैं तुम्हारे साथ रमण करना चाहती हूँ। तुम्हारा प्रिय कार्य करूँगी। तुम दिव्य लक्षणोंसे सम्पन्न, दिव्यरूपधारी तथा महान् तेजस्वी हो; अतः मैं तुम्हींको पाना चाहत हूँ। मानद! उस बूढ़ेको लेकर क्या करोगे। मेरे शरीरका उपभोग करनेसे तुम्हें समस्त दुर्लभ सुखोंकी प्राप्ति होगी, विप्रवर तुम्हें जिस-जिस वस्तुकी इच्छा होगी, यह सब ला दूंगी इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।’ यह महान् पापपूर्ण अप्रिय वचन सुनकर वेदशमाने कहा- देवि! तुम्हारा वचन अधर्मयुक्त, पापमिश्रित और अनुचित है मैं पिताका भक्त और निरपराध है:मुझसे ऐसी बात न कहो। शुभे। मैं पिताके लिये ही यहाँ आया हूँ और उन्होंके लिये तुमसे प्रार्थना करता हूँ। इसके विपरीत दूसरी कोई बात न कहो। मेरे पिताजीको ही स्वीकार करो। देवि इसके लिये तुम चराचर प्राणियोंसहित त्रिलोकीको जो-जो वस्तु चाहोगी, वह सब निस्सन्देह तुम्हें अर्पण करूँगा। अधिक क्या कहूँ, देवताओंका राज्य आदि भी यदि चाहो तो तुम्हें दे सकता हूँ।’

स्त्री बोली- यदि तुम अपने पिताके लिये इस प्रकार दान देनेमें समर्थ हो तो मुझे इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओंका अभी दर्शन कराओ।

वेदशर्मा बोले- देवि! मेरा बल, मेरी तपस्याका प्रभाव देखो मेरे आवाहन करनेपर ये इन्द्र आदि श्रेष्ठ देवता यहाँ आ पहुँचे।

देवताओंने वेदशर्मासे कहा-‘द्विजश्रेष्ठ! हम तुम्हारा कौन-सा कार्य करें ?’

वेदशर्मा बोले— देवगण! यदि आपलोग मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे अपने पिताके चरणों में पूर्ण भक्ति प्रदान करें। ‘एवमस्तु’ कहकर सम्पूर्ण देवता जैसे आये थे, वैसे लौट गये। तब उस स्त्रीने हर्षमें भरकर कहा- तुम्हारी तपस्याका बल देख लिया। देवताओंसे मुझे कोई काम नहीं है। यदि तुम मुझे मुँहमाँगी वस्तु देना चाहते हो और अपने पिताके लिये मुझे ले जाना चाहते हो तो अपना सिर अपने ही हाथसे काटकर मुझे अर्पण कर दो।’

वेदशमने कहा- देवि! आज मैं धन्य हो गया। शुभे। मैं पिताके लिये अपना मस्तक भी दे दूंगा; ले लो, ले लो। यह कहकर द्विजश्रेष्ठ वेदशर्माने तीखी धारवाली तेज तलवार उठायी और हँसते हँसते अपना मस्तक काटकर उस स्त्रीको दे दिया। खूनमें डूबे हुए उस मस्तकको लेकर वह शिवशर्मा के पास गयी।

स्त्रीने कहा- विप्रवर तुम्हारे पुत्र वेदशर्माने मुझे तुम्हारी सेवाके लिये यहाँ भेजा है; यह उनका मस्तक है, इसे ग्रहण करो इसको उन्होंने अपने हाथसे काटकर दिया है।उस मस्तकको देखकर वेदशमकि चारों भाई काँप उठे। उन पुण्यात्मा बन्धुओंमें इस प्रकार बात होने लगी- ‘अहो! धर्म ही जिसका सर्वस्व था, वह हमारी माता सत्य समाधिके द्वारा मृत्युको प्राप्त हो गयी। हमलोगोंमें ये वेदशर्मा ही परम सौभाग्यशाली थे, जिन्होंने पिताके लिये प्राण दे दिये। ये धन्य तो थे ही और अधिक धन्य हो गये।’ शिवशमांने उस स्त्रीकी बात सुनकर जान लिया कि वेदशर्मा पूर्ण भक्त था। तत्पश्चात् उन्होंने अपने तृतीय पुत्र धर्मशर्मासे कहा ‘बेटा! यह अपने भाईका मस्तक लो और जिस प्रकार यह जी सके, वह उपाय करो।’

सूतजी कहते हैं- धर्मशर्मा भाईके मस्तकको लेकर तुरंत ही वहाँसे चल दिये। उन्होंने पिताकी भक्ति, तपस्या, सत्य और सरलताके बलसे धर्मको आकर्षित किया। उनकी तपस्यासे खिंचकर धर्मराज धर्मशर्मा के पास आये और इस प्रकार बोले ‘धर्मशर्मन्! तुम्हारे आवाहन करनेसे में यहाँ उपस्थित हुआ हूँ; मुझे अपना कार्य बताओ, मैं उसे निस्सन्देह पूर्ण करूंगा।’

धर्मशर्माने कहा – धर्मराज! यदि मैंने गुरुकी सेवा की हो, यदि मुझमें पिताके प्रति निष्ठा और अविचल तपस्या हो तो इस सत्यके प्रभावसे मेरे भाई वेदशर्मा जी उठें।

धर्म बोले- महामते मैं तुम्हारी तपस्या और पितृभक्ति सन्तुष्ट हूँ, तुम्हारे भाई जी जायेंगे तुम्हारा कल्याण हो । धर्मवेत्ताओंके लिये जो दुर्लभ है, ऐसा कोई उत्तम वरदान मुझसे और माँग लो।

धर्मशर्माने जब धर्मका यह उत्तम वचन सुना तो उस महायशस्वीने महात्मा वैवस्वतसे कहा ‘धर्मराज! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो पिताके चरणोंकी पूजामें अविचल भक्ति, धर्ममें अनुराग तथा अन्तमें मोक्षका वरदान मुझे दीजिये।’ तब धर्मने कहा—’मेरी कृपासे यह सब कुछ तुम्हें प्राप्त होगा।’ उनके मुखसे यह महावाक्य निकलते ही वेदशर्मा उठकर खड़े हो गये। मानो वे जाग उठे हो उठते हो महाबुद्धिमान् वेदशर्माने धर्मशर्मा से कहा- ‘भाई। वे देवी कहाँगयीं? पिताजी कहाँ हैं?’ धर्मशर्माने थोड़ेमें सब हाल कह सुनाया। सब हाल जानकर वेदशर्माको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने धर्मशर्मा से कहा – ‘प्रिय बन्धु ! इस पृथ्वीपर तुम्हारे जैसा मेरा हितैषी कौन है?’ तदनन्तर दोनों भाई प्रसन्न होकर अपने पिता शिवशर्माके पास गये। उस समय धर्मशर्माने तेजस्वी पितासे कहा ‘महाभाग ! आज मैंने आपके पुत्र वेदशर्माको मस्तक और जीवनके साथ यहाँ ला दिया है। आप इन्हें स्वीकार कीजिये।’

तदनन्तर शिवशर्माने विनीत भावसे सामने खड़े चौथे पुत्र महामति विष्णुशर्मासे कहा- ‘बेटा! मेरा हुए कहना करो। आज ही इन्द्रलोकको जाओ और वहाँसे अमृत ले आओ। मैं अपनी इस प्रियतमाके साथ इस समय अमृत पीना चाहता हूँ; क्योंकि अमृत सब रोगोंको दूर करनेवाला है।’ महात्मा पिताका यह वचन सुनकर विष्णुशर्माने उनसे कहा- ‘पिताजी! मैं आपके कथनानुसार सब कार्य करूँगा।’ यह कहकर परम बुद्धिमान् धर्मात्मा विष्णुशर्माने पिताको प्रणाम किया और उनकी प्रदक्षिणा करके अपने महान् बल, तपस्यातथा नियमके प्रभावसे आकाशमार्गद्वारा इन्द्रलोककी यात्रा की।

अन्तरिक्षमार्गसे जब वे आकाशके भीतर घुसे, तब देवराज इन्द्रने उन्हें देखा और उनका उद्देश्य जानकर उसमें विघ्न डालना आरम्भ किया। उन्होंने मेनकासे कहा- ‘सुन्दरी! मेरी आज्ञासे शीघ्रतापूर्वक जाओ और विप्रवर विष्णुशर्माके कार्यमें बाधा डालो।’ देवराजकी आज्ञा पाकर मेनका बड़ी उतावलीके साथ चली। उसका सुन्दर रूप था और वह सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित थी । नन्दनवनके भीतर पहुँचकर वह झूलेमें जा बैठी और मधुर स्वरसे गीत गाने लगी। उसका संगीत बीणाके स्वरके समान था। विष्णुशर्माने उसे देखा और उसके मनोभावको समझ लिया। उन्होंने सोचा—’यह एक बहुत बड़े विघ्नके रूपमें उपस्थित हुई है, इन्द्रने इसे भेजा है; यह मेरी भलाई नहीं कर सकती।’ यह विचारकर वे शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ गये। मेनकाने उन्हें जाते देखा और पूछा – ‘महामते ! कहाँ जाओगे ?’ विष्णुशर्मा बोले—’मैं पिताके कार्यसे इन्द्रलोकमें जाऊँगा, वहाँ पहुँचने के लिये मुझे बड़ी जल्दी है।’ मेनकाने कहा- ‘विप्रवर! मेँ कामदेवके वाणसे घायल होकर इस समय तुम्हारी शरणमें आयी हूँ। यदि धर्मका पालन करना चाहते हो तो मेरी रक्षा करो।’

विष्णुशर्मा बोले – सुमुखि ! मुझे देवराजका सारा चरित्र मालूम है; तुम्हारे मनमें क्या है, यह भी मुझसे छिपा नहीं है। तुम्हारे तेज और रूपसे विश्वामित्र आदि दूसरे लोग ही मोहित होते हैं। मैं शिवशर्माका पुत्र हूँ, मुझपर तुम्हारा जादू नहीं चल सकता। अबले! मँ योगसिद्धिको प्राप्त हूँ, तपस्यासे सिद्ध हो चुका हूँ। काम आदि बड़े-बड़े दोषोंको मैंने पहले ही जीत लिया है। तुम किसी दूसरे पुरुषका आश्रय लो, मैं इन्द्रलोकको जा रहा हूँ।

यों कहकर द्विजश्रेष्ठ विष्णुशर्मा शीघ्रतापूर्वक चले गये। मेनकाका प्रयत्न निष्फल हुआ। देवराजके पूछनेपर उसने सब कुछ बता दिया। तब इन्द्रने बारंबार विघ्न उपस्थित किया, किन्तु महायशस्वी ब्राह्मणने अपने तेजसेउन सब विघ्नोंका नाश कर दिया। उनके उपस्थित किये हुए भयंकर विघ्नोंका विचार करके महातेजस्वी विष्णुशर्माको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने सोचा- ‘मैं इन्द्रलोकसे इन्द्रको गिरा दूँगा और देवताओंकी रक्षाके लिये दूसरा इन्द्र बनाऊँगा।’ वे इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि देवराज इन्द्र वहाँ आ पहुँचे और बोले – ‘महाप्राज्ञ विप्र ! तपस्या, नियम, इन्द्रियसंयम, सत्य और शौचके द्वारा तुम्हारी समानता करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। तुम्हारी इस पितृभक्तिसे मेँ देवताओंसहित परास्त हो गया। साधुश्रेष्ठ ! तुम मेरे सारे अपराध क्षमा करो और मुझसे कोई वर माँगो। तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे माँगनेपर मैं दुर्लभ-से-दुर्लभ वर भी दे दूँगा।’ यह सुनकर विष्णुशर्माने देवराजसे कहा-‘ आपको महात्मा ब्राह्मणोंके तेजका विनाश करनेकी कभी चेष्टा नहीं करनी चाहिये; क्योंकि यदि श्रेष्ठ ब्राह्मण क्रोधमें भर जायँ तो समस्त पुत्र-पौत्रोंके साथ अपराधी व्यक्तिका संहार कर सकते हैं- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। यदि आप इस समय यहाँ न आये होते तो मैं अपनी तपस्याके प्रभावसे आपके इस उत्तम राज्यको छीनकर किसीदूसरेको दे डालनेका विचार कर चुका था। मेरी आँखें क्रोधसे लाल हो रही थीं। [किन्तु आपके आनैसे मेरा भाव बदल गया।] देवेन्द्र! आप आकर मुझे वर देना चाहते हैं तो अमृत दीजिये, साथ ही पिताके चरणोंमें अविचल भक्ति प्रदान कीजिये।’

इस प्रकार बातचीत होनेपर इन्द्रने प्रसन्न चित्तसे ब्राह्मणको अमृतसे भरा घड़ा लाकर दिया तथा वरदान देते हुए कहा- ‘विप्रवर! अपने पिताके प्रति तुम्हारे हृदयमें सदा अविचल भक्ति बनी रहेगी।’ याँ कहकर इन्द्रने ब्राह्मणको विदा किया। तदनन्तर विष्णुशर्मा अपने पिताके पास जाकर बोले- ‘तात! मैं इन्द्रके यहाँसे अमृत ले आया हूँ। इसका सेवन करके आप सदाके लिये नीरोग हो जाइये।’ शिवशर्मा पुत्रकी यह बात सुनकर बहुत सन्तुष्ट हुए और सब पुत्रोंको बुलाकर कहने लगे- ‘तुम सब लोग पितृभक्तिसे युक्त और मेरी आज्ञाके पालक हो। अतः प्रसन्नतापूर्वक मुझसे कोई कर माँगो इस भूतलपर जो दुर्लभ वस्तु होगी, वह भी तुम्हें मिल जायगी।’ पिताकी यह बात सुनकर वे सभी पुत्र एक-दूसरेकी ओर देखते हुए उनसे बोले- ‘मुक्त आपकी कृपासे हमारी माता, जो यमलोकको चली गयी हैं, जी जायें।’

शिवशर्माने कहा – ‘पुत्रो ! तुम्हारी मरी हुई पुत्रवत्सला माता अभी जीवित होकर हर्षमें भरी हुई यहाँ आयेगी- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।’ ऋषि शिव मुखसे यह शुभ वाक्य निकलते ही उन पुनको माता हर्षमें भरी हुई वहाँ आ पहुँची और बोली- ‘मेरे सौभाग्यशाली पुत्रो! इसीलिये संसारमें पुण्यात्मा स्विय पुण्यसाधक पुत्रकी इच्छा करती है। जिसका कुलके अनुरूप आचरण हो, जो अपने कुलका आधार तथा माता-पिताको तारनेवाला हो-ऐसे उत्तम पुत्रको कोई भी स्त्री पुण्यके बिना कैसे पा सकती है। न जाने मैंने कैसे-कैसे पुण्य किये थे, जिनके फलस्वरूप ये धर्मप्राण, धर्मात्मा, धर्मवत्सल तथा अत्यन्त पुण्यभागी महात्मा मुझे पतिरूपमें प्राप्त हुए। मेरे सभी पुत्र परत है। इससे बढ़कर प्रसन्नताको बात औरक्या होगी। अहो ! संसारमें पुण्यके ही बलसे उत्तम पुत्रकी प्राप्ति होती है। मुझे पाँच पुत्र प्राप्त हुए हैं, जिनका हृदय विशाल है तथा जिनमें एक-से-एक बढ़कर है। मेरे सभी पुत्र यज्ञ करनेवाले, पुण्यात्मा, तपस्वी, तेजस्वी और पराक्रमी हैं।’

इस प्रकार माताके कहनेपर पुत्रोंको बड़ा हर्ष हुआ और वे अपनी माताको प्रणाम करके बोले—’माँ ! अच्छे माता-पिताकी प्राप्ति बड़े पुण्यसे होती है। तुम सदा पुण्य कर्म करती रहती हो। हमारे बड़े भाग्य थे, जो तुम हमें माताके रूपमें प्राप्त हुईं, जिनके गर्भमें आकर हमलोग उत्तम पुण्योंसे वृद्धिको प्राप्त हुए हैं। हमारी यही अभिलाषा है कि प्रत्येक जन्ममें तुम्हीं हमारी माता और ये ही हमारे पिता हों।’ पिता बोले- पुत्रो ! तुमलोग मुझसे कोई परम उत्तम और पुण्यदायक वरदान माँगो । मेरे सन्तुष्ट होनेपर तुमलोग अक्षय लोकोंका उपभोग कर सकते हो

पुत्रोंने कहा – पिताजी! यदि आप हमपर प्रसन्न हैं और वर देना चाहते हैं तो हमें भगवान् श्रीविष्णुके गोलोकधाममें भेज दीजिये, जहाँ किसी प्रकारकी चिन्ता और व्याधि नहीं फटकने पाती।

पिता बोले- पुत्रो ! तुमलोग सर्वथा निष्पाप हो; इसलिये मेरे प्रसाद, तपस्या और इस पितृभक्तिके बलसेवैष्णवधामको जाओ।

महर्षि शिवशर्माके यह उत्तम वचन कहते ही भगवान् श्रीविष्णु अपने हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये गरुड़पर सवार हो वहाँ आ पहुँचे और पुत्रोंसहित शिवशर्मासे बारंबार कहने लगे- ‘विप्रवर ! पुत्रसहित तुमने भक्तिके बलसे मुझे अपने वशमें कर लिया है। अतः इन पुण्यात्मा पुत्रों तथा पतिके साथ रहनेकी इच्छावाली इस पुण्यमयी पत्नीको साथ लेकर तुम मेरे परमधामको चलो।’

शिवशर्माने कहा – भगवन्! ये मेरे चारों पुत्र ही इस समय परम उत्तम वैष्णवधाममें चलें। मैं पत्नीके साथ अभी भूलोकमें ही कुछ काल व्यतीत करना चाहता हूँ। मेरे साथ मेरा कनिष्ठ पुत्र सोमशर्मा भी रहेगा।

सत्यभाषी महर्षि शिवशर्माके यों कहनेपर देवेश्वर भगवान् श्रीविष्णुने उनके चार पुत्रोंसे कहा- ‘तुमलोग दाह और प्रलयसे रहित मोक्षदायक गोलोकधामको चलो।’ भगवान्‌के इतना कहते ही उन चारों सत्यतेजस्वी ब्राह्मणका तत्काल विष्णुके समान रूप हो गया, उनके शरीरका श्यामवर्ण इन्द्र नीलमणिके समान शोभा पाने लगा। उनके हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित होने लगे। वे विष्णुरूपधारी महान् तेजस्वी द्विज पितृभक्तिके प्रभावसे विष्णुधामको प्राप्त हो गये ।

अध्याय-02 सोमशर्माकी पितृ-भक्ति

सूतजी कहते हैं- भगवान् श्रीविष्णुका गोलोकधाम तमसे परे परम प्रकाशरूप है। पूर्वोक्त चारों ब्राह्मण जब उस लोकमें चले गये, तब महाप्राज्ञ शिवशर्माने अपने छोटे पुत्रसे कहा-‘महामते सोमशर्मन् ! तुम पिताकी भक्तिमें रत हो। मैं इस समय तुम्हें यह अमृतका घड़ा दे रहा हूँ; तुम सदा इसकी रक्षा करना। मैं पत्नी के साथ तीर्थयात्रा करने जाऊँगा।’ यह सुनकर सोमशर्माने कहा – ‘महाभाग ! ऐसा ही होगा।’ बुद्धिमान् शिवशर्मा सोमशर्माके हाथमें वह घड़ा देकर वहाँसे चल दिये और दस वर्षोंतक निरन्तर तपस्यामें लगेरहे। धर्मात्मा सोमशर्मा दिन-रात आलस्य छोड़कर उस अमृत- कुम्भकी रक्षा करते रहे। दस वर्षोंके पश्चात् महायशस्वी शिवशर्मा पुनः लौटकर वहाँ आये। ये मायाका प्रयोग करके भार्यासहित कोढ़ी बन गये। जैसे वे स्वयं कुष्ठरोग से पीड़ित थे, उसी प्रकार उनकी स्त्री भी थीं। दोनों ही मांसके पिण्डकी भाँति त्याग देनेयोग्य दिखायी देते थे। वे धीरचित्त ब्राह्मण महात्मा सोमशर्माके समीप आये। वहाँ पधारे हुए माता-पिताको सर्वथा दुःखसे पीड़ित देख महायशस्वी सोमशर्माको बड़ी दया आयी। भक्तिसे उनका मस्तक झुक गया। वे उन दोनोंकेचरणोंमें पड़ गये और बोले-‘पिताजी मैं दूसरे किसीको ऐसा नहीं देखता, जो तपस्या, गुण-समुदाय और उत्तम पुण्यसे युक्त होकर आपकी समानता कर सके। फिर भी आपको यह क्या हो गया ? विप्रवर! सम्पूर्ण देवता सदा दासकी भाँति आपकी आज्ञाके पालनमें लगे रहते हैं। वे आपके तेजसे खिंचकर यहाँ आ जाते हैं। आप इतने शक्तिशाली हैं तो भी किस पापके कारण आपके शरीरमें यह पीड़ा देनेवाला रोग हो गया ? ब्राह्मणश्रेष्ठ ! इसका कारण बताइये। यह मेरी माता भी पुण्यवती है, इसका पुण्य महान् है; यह पतिव्रत धर्मका पालन करनेवाली है। यह अपने स्वामीकी कृपासे समूची त्रिलोकीको भी धारण करनेमें समर्थ है। जो राग-द्वेषका परित्याग करके भाँति भौतिके कर्मोंद्वारा अपने पतिदेवका पूजन करती है, देवताओंकी ही भाँति गुरुजनोंके प्रति भी जिसके हृदयमें आदरका भाव है, वह मेरी माता क्यों इस कष्टकारी कुष्ठरोगका दुःख भोग रही है ?” शिवशर्मा बोले महाभाग तुम शोक न करो सबको अपने कर्मोंका ही फल भोगना पड़ता है; क्योंकि मनुष्य प्रायः [पूर्वकृत ] पाप और पुण्यमय कर्मोंसे युक्तहोता ही है। अब तुम हम दोनों रोगियों को धोकर साफ करो।

पिताका यह शुभ वाक्य सुनकर महायशस्वी सोमशमने कहा- आप दोनों पुण्यात्मा हैं; मैं आपकी सेवा अवश्य करूँगा माता पिताकी शुश्रूषाके सिवा मेरा और कर्तव्य ही क्या है।’ सोमशर्मा उन दोनोंके दुःखसे दुःखी थे। वे माता-पिताके मल-मूत्र तथा कफ आदि धोते। अपने हाथसे उनके चरण पखारते और दबाया करते थे। उनके रहने और नहाने आदिका प्रबन्ध भी वे पूर्ण भक्तिके साथ स्वयं ही करते थे। विप्रवर सोमशर्मा बड़े यशस्वी, धर्मात्मा और सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ थे वे अपने दोनों गुरुजनोंको कंधेपर बिठाकर तीर्थोंमें ले जाया करते थे। वे वेदके ज्ञाता थे; अतः मांगलिक मन्त्रोंका उच्चारण करके दोनोंको अपने हाथसे विधिपूर्वक नहलाते और स्वयं भी स्नान करते थे। फिर पितरोंका तर्पण और देवताओंका पूजन भी वे उन दोनोंसे प्रतिदिन कराया करते थे। स्वयं अग्निमें होम करते और अपने दोनों महागुरु माता-पिताको प्रसन्न करते हुए अपने सब कार्य उन्हें बताया करते थे सोमशर्मा उन दोनोंको प्रतिदिन शय्यापर सुलाते और उन्हें वस्त्र तथा पुष्प आदि सब सामग्री निवेदन करते थे। परम सुगन्धित पान लगाकर माता-पिताको अर्पण करते तथा नित्यप्रति उनकी इच्छाके अनुसार फल, मूल, दूध आदि उत्तमोत्तम भोज्य पदार्थ खानेको देते थे। इस क्रमसे वे सदा ही माता-पिताको प्रसन्न रखनेकी चेष्टा करते थे। पिता सोमशर्माको बुलाकर उन्हें नाना प्रकारके कठोर एवं दुःखदायी वचनोंसे पीड़ित करते और आतुर होकर उन्हें डंडोंसे पीटते भी थे। यह सब करनेपर भी धर्मात्मा सोमशर्मा कभी पिताके ऊपर क्रोध नहीं करते थे वे सदा सन्तुष्ट रहकर मन, वाणी और क्रिया- तीनोंके ही द्वारा पिताकी पूजा करते थे।

ये सब बातें जानकर शिवशर्मा अपने चरित्रपर विचार करने लगे। उन्होंने सोचा- ‘सोमशर्माका मेरी सेवामें अधिक अनुराग दिखायी देता है, इसीलियेसमयपर मैंने इसके तपकी परीक्षा की है किन्तु मेरा पुत्र भक्ति-भाव तथा सत्यपूर्ण बर्तावसे भ्रष्ट नहीं हो रहा है।

निन्दा करने और मारनेपर भी सदा मीठे वचन बोलता है। इस प्रकार मेरा बुद्धिमान् पुत्र दुष्कर सदाचारका पालन कर रहा है। अतः अब मैं भगवान् श्रीविष्णुके प्रसादसे इसके दुःख दूर करूँगा।’ इस प्रकार बहुत देरतक सोच-विचार करनेके पश्चात् परम बुद्धिमान् शिवशर्माने पुनः मायाका प्रयोग किया। अमृतके घड़ेसे अमृतका अपहरण कर लिया। उसके बाद सोमशर्माको बुलाकर कहा- ‘बेटा! मैंने तुम्हारे हाथमें रोगनाशक अमृत सौंपा था, उसे शीघ्र लाकर मुझे अर्पण करो, जिससे मैं इस समय उसका पान करूँ।’

पिता के यों कहनेपर सोमशर्मा तुरंत उठकर चल दिये। अमृतके घड़ेके पास जाकर उन्होंने देखा कि वहखाली पड़ा है उसमें अमृतकी एक बूँद भी नहीं है यह देखकर परम सौभाग्यशाली सोमम मन-ही मन कहा- ‘यदि मुझमें सत्य और गुरु-शुश्रूषा है, यदि मैंने पूर्वकालमें निश्छल हृदयसे तपस्या की है, इन्द्रियसंयम सत्य और शौच आदि धर्मोका ही सदा पालन किया है, तो यह घड़ा निश्चय ही अमृतसे भर जाय।’ महाभाग सोमशर्माने इस प्रकार विचार करके ज्यों ही उस घड़ेकी ओर देखा, त्यों ही वह अमृतसे भर गया। घहेको भरा देख उसे हाथमें ले महायशस्वी सोमशर्मा तुरंत ही पिताके पास गये और उन्हें प्रणाम करके बोले- ‘पिताजी लीजिये, यह अमृतसे भरा घड़ा आ गया। महाभाग! अब इसे पीकर शीघ्र ही रोगसे मुक्त हो जाइये।’ पुत्रका यह परम पुण्यमय तथा सत्य और धर्मके उद्देश्यसे युक्त मधुर वचन सुनकर शिवशर्माको बड़ा हर्ष हुआ। वे बोले-‘पुत्र ! आज मैं तुम्हारी तपस्या, इन्द्रियसंयम, शौच, गुरुशुश्रूषा तथा भक्तिभावसे विशेष संतुष्ट हूँ। लो, अब मैं इस विकृत रूपका त्याग करता हूँ।’

यों कहकर ब्राह्मण शिवशर्माने पुत्रको अपने पहले रूपमें दर्शन दिया। सोमशमने माता-पिताको पहले जिस रूपमें देखा था, उसी रूपमें उस समय भी देखा। वे दोनों महात्मा सूर्यमण्डलकी भाँति तेजसे दिप रहे थे। सोमशर्माने बड़ी भक्तिके साथ उन महात्माओंके चरणोंमें मस्तक झुकाया। तदनन्तर वे दोनों पति-पत्नी पुत्रसे बातचीत करके अत्यन्त प्रसन्न हुए। फिर धर्मात्मा ब्राह्मण भगवान् श्रीविष्णुकी कृपासे अपनी पत्नीको साथ ले विष्णुधामको चले गये। अपने पुण्य और योगाभ्यासके प्रभावसे उन महर्षिने दुर्लभ पद प्राप्त कर लिया।

अध्याय-03 सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप

ऋषियोंने कहा- सूतजी! अब हम महात्मा सुव्रतका चरित्र सुनना चाहते हैं। वे महाप्राज्ञ किस गोत्रमें उत्पन्न हुए और किसके पुत्र थे? ब्राह्मण सुव्रतकी क्या तपस्या थी और किस प्रकार उन्होंने भगवान् श्रीहरिकी आराधना की थी ?

सूतजी बोले- विप्रगण! मैं सुव्रतके दिव्य एवं पावन चरित्रका वर्णन करता हूँ। यह प्रसंग परम कल्याणकारी तथा भगवान् श्रीविष्णुकी चर्चासे युक्त हैं। पूर्व कल्पकी बात है, नर्मदाके पापनाशक तटपर अमरकण्टक तीर्थके भीतर कौशिक- वंशमें एक श्रेष्ठ ब्राह्मण उत्पन्न हुए थे। उनका नाम था सोमशर्मा। उनके कोई पुत्र नहीं था। इस कारण वे बहुत दुःखी रहा करते थे। उनकी पत्नीका नाम था सुमना। वह उत्तम व्रतका आचरण करनेवाली थी। एक दिन उसने अपने पतिको चिन्तित देखकर कहा-‘नाथ! चिन्ता छोड़िये। चिन्ताके समान दूसरा कोई दुःख नहीं है, क्योंकि वह शरीरको सुखा डालती है। जो उसे त्यागकर यथोचित बर्ताव करता है, वह अनायास ही आनन्दमें मस्त रहता है। विप्रवर! मेरे सामने आप अपनी चिन्ताका कारण बताइये।’

सोमशर्माने कहा – सुव्रते! न जाने किस पापसे मैं निर्धन और पुत्रहीन हूँ। यही मेरे दुःखका कारण है। सुमना बोली- प्राणनाथ! सुनिये। मैं एक ऐसी बात बताती हूँ, जो सब सन्देहोंका नाश करनेवाली है। पाप एक वृक्षके समान है, उसका बीज है लोभ मोह उसकी जड़ है। असत्य उसका तना और माया उसकी शाखाओंका विस्तार है। दम्भ और कुटिलता पत्ते हैं। कुबुद्धि फूल है और अनृत उसकी गन्ध है। छल, पाखण्ड, चोरी, ईर्ष्या, क्रूरता, कूटनीति और पापाचारसे युक्त प्राणी उस मोहमूलक वृक्षके पक्षी हैं, जो मायारूपी शाखाओंपरबसेरे लेते हैं। अज्ञान उस वृक्षका फल है और अधर्मको उसका रस बताया गया है। दुर्भावरूप जलसे साँधनेपर उसकी वृद्धि होती है। अश्रद्धा उसके फूलने फलनेको ऋतु है जो मनुष्य उस वृक्षकी छायाका आश्रय लेकर संतुष्ट रहता है, उसके पके हुए फलको प्रतिदिन खाता है और उन फलोंके अधर्मरूप रससे पुष्ट होता है, वह ऊपरसे कितना ही प्रसन्न क्यों न हो, वास्तवमें पतनकी ओर ही जाता है। इसलिये पुरुषको चिन्ता छोड़कर लोभका भी त्याग कर देना चाहिये।

स्त्री, पुत्र और धनकी चिन्ता तो कभी करनी ही नहीं चाहिये। प्रियतम ! कितने ही विद्वान् भी मूर्खोके मार्गका अवलम्बन करते हैं। दिन-रात मोहमें डूबे रहकर निरन्तर इसी चिन्तामें पड़े रहते हैं कि किस प्रकार मुझे अच्छी स्त्री मिले और कैसे मैं बहुत से पुत्र प्राप्त करूँ। ब्रह्मन् ! आप चिन्ता और मोहका त्याग करके विवेकका आश्रय लीजिये।

कोई पूर्वजन्ममें ऋण देनेके कारण इस जन्ममें अपने सम्बन्धी होते हैं और कोई कोई धरोहर हड़प लेनेके कारण भी सम्बन्धीके रूपमें जन्म लेते हैं। पत्नी, पिता, माता, भृत्य, स्वजन और बान्धव – सब लोग अपने-अपने ऋणानुबन्धसे ही इस पृथ्वीपर उत्पन्न होते हैं। जिसने जिसकी जिस भावसे धरोहर हड़प ली है, वह उसी भावसे उसके यहाँ जन्म लेता है। धरोहरका स्वामी रूपवान् और गुणवान् पुत्र होकर पृथ्वीपर उत्पन्न होता है और धरोहरके अपहरणका बदला लेनेके लिये दारुण दुःख देकर चला जाता है। जो किसीका ऋण लेकर मर जाता है, उसके यहाँ दूसरे जन्ममें ऋणदाता पुरुष पुत्र, भाई, पिता, पत्नी और मित्ररूपसे उत्पन्न होता है। वह सदा ही अत्यन्त दुष्टतापूर्ण बर्ताव करता है। गुणोंकी ओर तो वह कभीदेखता ही नहीं क्रूर स्वभाव और निष्ठुर आकृति बनाये अपने स्वजनोंको सदा कठोर बातें सुनाया करता है प्रतिदिन मीठी-मीठी वस्तुएँ स्वयं खाता है। घरमें रहते हुए धनका बलपूर्वक उपभोग करता है और रोकनेपर कुपित हो जाता है।

विप्रवर! अब मैं आपके सामने शत्रु-स्वभाववाले वर्णन करती हूँ। वह बाल्यावस्थासे ही सदा पुत्रका शत्रुओंका-सा बर्ताव करता है। खेल-कूदमें भी पिता माताको मार-मारकर भागता है और बारंबार हँसा करता है। क्रोधयुक्त स्वभावको लेकर ही बड़ा होता है और सदा वैरके काममें लगा रहता है। वह प्रतिदिन पिता और माताकी निन्दा करता है फिर विवाह सम्बन्ध हो जानेपर नाना प्रकारसे धनका अपव्यय करता है। ‘घर और खेत आदि सब मेरा ही है’ [तुमलोग कौन हो मेरा हाथ रोकनेवाले ?] यों कहकर पिता और माताको प्रतिदिन पीटता रहता है। उनकी मृत्युके पश्चात् न वह श्राद्ध करता है और न कभी दान ही देता है। ऐसे बहुतेरे पुत्र इस पृथ्वीपर उत्पन्न होते रहते हैं।

अब मैं उस पुत्रका वर्णन करती है, जिसके द्वारा प्रिय वस्तुकी प्राप्ति होती है। वैसा बालक बचपनसे ही माता-पिताका प्रिय करता है। वयस्क (बड़ा) होनेपर भी उनके प्रियसाधनमें लगा रहता है और सदा अपनी भक्तिसे माता-पिताको सन्तुष्ट रखता है स्नेहसे, मीठी वाणीसे तथा प्रिय लगनेवाली बातचीतसे उन्हें प्रसन्न रखने की चेष्टा करता है। माता-पिताकी मृत्युके पश्चात् सम्पूर्ण श्राद्धकर्म और पिण्डदान आदिका कार्य करता है तथा उनकी सद्गतिके लिये तीर्थयात्रा भी करता है।

प्रियतम ! अब इस समय आपके सामने उदासीन पुत्रका वर्णन करती हूँ-विप्रवर! उदासीन बालक सदा उदासीन भावसे ही रहता है। वह न कुछ देता है और न लेता है। न रुष्ट होता है और न सन्तुष्ट । इस प्रकार मैंने पुत्रोंके सम्बन्धमें सब कुछ बता दिया। पुत्रोंकी ऐसी ही गति है। जैसे पुत्र होते हैं, वैसे ही पिता, माता, पत्नी, बन्धु-बान्धव तथा भृत्य आदि अन्य लोग भी बताये गये हैं। [इनमें भी शत्रु, मित्र और उदासीन आदि भेद होतेहैं।] मनुष्योंकी तो बात ही क्या है, पशु-घोड़े, हाथी, भैंस आदि भी ऐसे ही होते हैं। नौकरोंकी भी यही स्थिति है; ये सब ऋणके सम्बन्धसे ही प्राप्त होते हैं। हम दोनोंने पूर्वजन्ममें न तो किसीसे ऋण लिया है और न किसीकी धरोहर ही हड़पी है। इतना ही नहीं, हमने किसीके साथ वैर भी नहीं किया है। [इसीलिये हमें धन और पुत्र आदि किसी भी वस्तुकी प्राप्ति नहीं हुई है।] यह जानकर आप शान्ति धारण करें और व्यर्थकी चिन्ता छोड़ दें। आपने किसीको दान नहीं दिया है, तब धन कैसे आये। अतः प्राणनाथ ! दुःखी न होइये। द्विजश्रेष्ठ ! जिस पुरुषको धन मिलना निश्चित है, उसके हाथमें अनायास ही धन आ जाता है। मनुष्य उस धनकी बड़े यत्नसे रक्षा करता है। किन्तु जब वह जानेको होता है, तब चला ही जाता है ऐसा समझकर आप शान्त हो जाइये। निरर्थक चिन्ता छोड़िये। महान् मोहसे मूढ़ (विवेकशून्य) हुए मानव पापमें आसक्तचित्त होकर कहने लगते हैं कि “यह घर, यह पुत्र और ये स्त्रियाँ मेरी ही हैं।’ किन्तु प्राणनाथ ! संसारका यह बन्धन सदा झूठा ही दिखायी देता है।

सोमशर्मा बोले- कल्याणी! तुम ठीक कहती हो; तुम्हारा यह वचन सब प्रकारके सन्देहोंका नाश करनेवाला है तथापि सत्यके ज्ञाता साधु पुरुष वंशकी इच्छा रखते हैं। प्रिये मुझे पुत्रकी चिन्ता है जीमें आता है – जिस किसी उपायसे सम्भव हो, मैं पुत्र अवश्य उत्पन्न करूँ।

सुमनाने कहा – महाभाग ! एक ही विद्वान् पुत्र श्रेष्ठ है, बहुत से गुणहीन पुत्रोंको लेकर क्या करना है? एक ही पुत्र कुलका उद्धार करता है; दूसरे तो केवल कष्ट देनेवाले होते हैं। पुण्यसे ही पुत्र प्राप्त होता है, पुण्यसे ही अच्छा कुल मिलता है तथा पुण्यसे ही उत्तम गर्भकी प्राप्ति होती है। इसलिये आप पुण्यका अनुष्ठान कीजिये प्राणनाथ पुण्यकर्म करनेवाले मनुष्य ही सुख- राशिका उपभोग करते हैं।

सोमशर्मा बोले- भद्रे मुझे पुण्यका अनुष्ठान बताओ उत्तम पुण्य कैसा होता है? पुण्यके लक्षणोंका वर्णन करो।सुमनाने कहा – प्राणनाथ ! पुरुष या स्त्रीको सदा जिस प्रकार बर्ताव करना चाहिये तथा जिस प्रकार पुण्य करनेसे कीर्ति, पुत्र, प्यारी स्त्री और धनकी प्राप्ति होती है, वह सब मैं बताती हूँ तथा पुण्यका लक्षण भी कहती हूँ। ब्रह्मचर्य, तपस्या, पंचयज्ञोंका अनुष्ठान, दान, नियम, क्षमा, शौच, अहिंसा, उत्तम शक्ति और चोरीका अभाव- ये दस पुण्यके अंग हैं इनके अनुष्ठानसे धर्मकी पूर्ति करनी चाहिये। धर्मात्मा पुरुष मन, वाणी और शरीर-तीनोंकी क्रियासे धर्मका सम्पादन करता है। फिर वह जिस-जिस वस्तुका चिन्तन करता है, वह दुर्लभ होनेपर भी उसे प्राप्त हो जाती है।

सोमशर्माने पूछा- भामिनि धर्मका स्वरूप कैसा है ? और उसके कौन-कौन से अंग हैं? प्रिये! इस विषयको सुननेकी मेरे मनमें बड़ी रुचि हो रही है; अतः तुम प्रसन्नतापूर्वक इसका वर्णन करो।

सुमना बोली- ब्रह्मन् ! जिनका अत्रिवंशमें जन्म हुआ है तथा जो अनसूयाके पुत्र हैं, उन भगवान् दत्तात्रेयजीने ही सदा धर्मका साक्षात्कार किया है। महर्षि दुर्वासा और दत्तात्रेय – इन दोनोंने उत्तम तपस्या की है। उन्होंने तपस्या और आत्मबलके साथ धर्मानुकूल बर्ताव किया है। उन्होंने वनमें रहकर दस हजार वर्षोंतक तपस्या की, बिना कुछ खाये -पीये केवल हवा पीकर जीवन निर्वाह किया इससे वे दोनों शुभदर्शी हो गये हैं। तत्पश्चात् उतने ही समय (दस हजार वर्ष) तक उन दोनोंने पंचाग्निसेवन किया। उसके बाद वे जलके भीतर खड़े हो उतने ही वर्षोंतक तपस्या में लगे रहे। यतिवर दत्तात्रेय और मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा बहुत दुर्बल हो गये। तब मुनिवर दुर्वासाके मनमें] धर्मके प्रति बड़ा क्रोध हुआ। इसी समय बुद्धिमान् धर्म साक्षात् वहाँ आ पहुँचे। उनके साथ ब्रह्मचर्य और तप आदि भी मूर्तिमान् होकर आये। सत्य ब्रह्मचर्य, तप और इन्द्रियसंयम-ये उत्तम एवंविद्वान ब्रह्मपके रूपमें आये नियमने महाप्राज्ञ पण्डितका रूप धारण कर रखा था और दान अग्निहोत्रीका स्वरूप धारण किये महर्षि दुर्वासाके निकट उपस्थित हुआ था। क्षमा, शान्ति, लज्जा, अहिंसा और अकल्पना (निःसंकल्प अवस्था) – ये सब स्त्री रूप धारण किये यहाँ आयी थीं बुद्धि, प्रज्ञा, दया, श्रद्धा मेधा, सत्कृति और शान्ति – इनका भी वही रूप था। पाँचों अग्नियाँ, परम पावन वेद और वेदांग ये भी अपना-अपना दिव्य रूप धारण किये उपस्थित थे। इस प्रकार धर्म अपने परिवारके साथ वहाँ आये थे। ये सब-के-सब मुनिको सिद्ध हो गये थे।

धर्म बोले- ब्रह्मन् ! आपने तपस्वी होकर भी क्रोध क्यों किया है? क्रोध तो मनुष्यके श्रेय और तपस्या- दोनोंका ही नाश कर डालता है; इसलिये तपस्याके समय इस सर्वनाशी क्रोधको अवश्य त्याग देना चाहिये। द्विजश्रेष्ठ! स्वस्थ होइये; आपकी तपस्याका फल बहुत उत्तम है।

दुर्वासाने कहा- -आप कौन हैं, जो इन श्रेष्ठ – ब्राह्मणोंके साथ यहाँ पधारे हैं? तथा आपके साथ ये सुन्दर रूप और अलंकारोंसे सुशोभित स्त्रियाँ कैसे खड़ी हैं?

धर्म बोले- मुने! ये जो आपके सामने ब्राह्मणके रूपमें सम्पूर्ण तेजसे युक्त दिखायी देते हैं, जो हाथमें दण्ड और कमण्डलु लिये अत्यन्त प्रसन्न जान पड़ते हैं; इनका नाम ‘ब्रह्मचर्य’ है। इसी प्रकार ये जो दूसरे तेजस्वी ब्राह्मण खड़े हैं, इनपर भी दृष्टिपात कीजिये। इनके शरीरका रंग पीला और आँखें भूरे रंगकी हैं; ये ‘सत्य’ कहलाते है। धर्मात्मन् इन्होंके समान जो अपनी दिव्य प्रभासे विश्वेदेवोंकी समानता कर रहे हैं तथा जिनका आपने सदा ही आश्रय लिया है, वहीं ये आपके मूर्तिमान् ‘तप’ है इनका दर्शन कीजिये। जिनकीजानी प्रसादगुणसे युक्त है, जो दीप्तिमान् दिखायी देते हूँ, सम्पूर्ण जीवॉपर दया करना जिनका स्वभाव है तथा जो सर्वदा आपका पोषण करते हैं, वे ही ‘दम’ (इन्द्रियसंयम) यहाँ व्यक्तरूप धारण करके उपस्थित हैं। जिनके मस्तकपर जटा है, जिनका स्वभाव कुछ कठोर जान पड़ता है, जिनके शरीरका रंग कुछ पीला हैं, जो अत्यन्त तीव्र और महान् सामर्थ्यशाली प्रतीत होते हैं तथा जिन्होंने श्रेष्ठ ब्राह्मणका रूप धारण कर हाथमें तलवार ले रखी है, वे पापोंका नाश करनेवाले ‘नियम’ हैं। जो अत्यन्त श्वेत और महान् दीप्तिमान् हैं, जिनके शरीरका रंग शुद्ध स्फटिकमणिके समान जान पड़ता है, जिनके हाथमें जलसे भरा कमण्डलु है तथा जिन्होंने दातुन ले रखी है, वे ‘शौच’ ही यहाँ ब्राह्मणका रूप धारण करके आये हैं।

स्त्रियोंमें यह शुश्रूषा है, जो सत्यसे विभूषित, परम सौभाग्यवती और अत्यन्त साध्वी है। जिसका स्वभाव अत्यन्त धीर है, जिसके सारे अंगोंसे प्रसन्नता टपक रही है, जिसका रंग गोरा और मुखपर हास्यकी छटा छा रही है, वह कमललोचना सरस्वती है। द्विजश्रेष्ठ यह दिव्य आभूषणोंसे युक्त क्षमा उपस्थित है, जो परम शान्त, सुस्थिर और अनेकों मंगलमय विधानोंसे सुशोभित है। महाप्राज्ञ तुम्हारी ज्ञानस्वरूपा शान्ति भी दिव्य आभूषणोंसे विभूषित होकर यहाँ आयी है। यह तुम्हारी प्रज्ञा है, जो परोपकारमें संलग्न, सत्यपरायण तथा स्वल्प भाषण करनेवाली है। यह क्षमाके साथ बड़ी प्रसन्न रहती है। इस यशस्विनीके शरीरका वर्ण श्याम है। जिसका शरीर तपाये हुए सोनेके समान उद्दीप्त दिखायी दे रहा है, वह महाभागा अहिंसा है। यह अत्यन्त प्रसन्न और अच्छी मन्त्रणासे युक्त है। यह यत्र-तत्र दृष्टि नहीं डालती ज्ञानभावसे आक्रान्त हो सदा तपस्यामें लगी रहती है। महाभाग यह देखिये आपकी श्रद्धा भी आयी है, जो नाना प्रकारकी बुद्धिसे आक्रान्त और अनेकों जानोंसे आकुल होनेपर भी सुस्थिर है। यह श्रद्धा मनोहर और मंगलमयी है। सबका शुभ चिन्तन करनेवाली, सम्पूर्ण जगत्की माता यशस्विनी तथागौरवर्णा है। इधर यह मेधा उपस्थित है, जिसके शरीरका रंग हंस और चन्द्रमाके समान श्वेत है, गलेमें मोतियोंका हार लटक रहा है और हाथमें पुस्तक तथा स्फटिकाक्षकी माला शोभा पा रही है। यह प्रज्ञा है, जो सदा ही अत्यन्त प्रसन्न रहा करती है; यह प्रज्ञादेवी पीत वस्त्रसे शोभा पा रही है। द्विजश्रेष्ठ! जो त्रिभुवनका उपकार और पोषण करनेमें अद्वितीय है, जिसके शीलकी सदा ही प्रशंसा होती रहती है, वह दया भी आपके पास आयी है यह वृद्धा, परम विदुषी, तपस्विनी, भावकी भार्या और मेरी माता है। सुव्रत ! मैं आपका मूर्तिमान् धर्म हूँ। ऐसा समझकर शान्त होइये। मेरी रक्षा कीजिये। विप्रवर! आप कुपित क्यों हो रहे हैं?

दुर्वासाने कहा- देव! जिससे मुझे क्रोध हुआ है, वह कारण सुनिये। मैंने इन्द्रियसंयम और शौच आदि क्लेशमय साधनोंद्वारा अपने शरीरका शोधन किया तथा तपस्या की; किन्तु ऐसा करनेपर भी देख रहा हूँ- केवल मेरे ही ऊपर आपकी दया नहीं हो रही है। धर्मराज मैं आपके इस बर्तावको न्याययुक्त नहीं मानता। यही मेरे क्रोधका कारण है, दूसरा कुछ नहीं; इसलिये मैं आपको तीन शाप दूंगा।

“धर्म ! अब आप राजा और दासीपुत्र होइये साथ ही स्वेच्छानुसार चाण्डाल योनिमें भी प्रवेश कीजिये।’ इस प्रकार तीन शाप देकर द्विजश्रेष्ठ दुर्वासा चले गये।

सोमशर्माने पूछा- भामिनि महात्मा दुर्वासाका शाप पाकर धर्मकी क्या अवस्था हुई? उन शापका उपभोग उन्होंने किस प्रकार किया? यदि जानती हो तो बताओ।

सुमना बोली- प्राणनाथ ! धर्मने भरतवंशमें राजा युधिष्ठिरके रूपमें जन्म ग्रहण किया। दासीपुत्र होकर जब वे उत्पन्न हुए, तब विदुर नामसे उनकी प्रसिद्धि हुई अब तीसरे शापका उपभोग बतलाती हूँ-जिस समय महर्षि विश्वामित्रने राजा हरिश्चन्द्रको बहुत कष्ट पहुँचाया, उस समय परम बुद्धिमान् धर्म चाण्डालके स्वरूपको प्राप्त हुए थे।

अध्याय-04 सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन

सोमशर्माने कहा – भामिनि। ब्रह्मचर्यके लक्षणका विस्तारपूर्वक वर्णन करो।

सुमना बोली- नाथ! सदा सत्यभाषणमें जिसका अनुराग है, जो पुण्यात्मा होकर साधुताका आश्रय लेता है, ऋतुकाल प्राप्त होनेपर अपनी स्त्रीके साथ समागम करता है, स्वयं दोषोंसे दूर रहता है और अपने कुलके सदाचारका कभी त्याग नहीं करता, वही सच्चा ब्रह्मचारी है द्विजश्रेष्ठ! यह मैंने गृहस्थके ब्रह्मचर्यका वर्णन किया है। यह ब्रह्मचर्य गृहस्थ पुरुषोंको सदा मुक्ति प्रदान करनेवाला है। अब मैं यतियों (संन्यासियों) के ब्रह्मचर्यका वर्णन करूँगी, आप ध्यान देकर सुनें। यतिको चाहिये कि वह इन्द्रियसंयम और सत्यसे युक्त हो पापसे सदा डरता रहे तथा स्त्रीके संगका परित्याग करके ध्यान और ज्ञानमें निरन्तर संलग्न रहे। यह यतियोंका ब्रह्मचर्य बतलाया गया। अब आपके समक्ष वानप्रस्थके ब्रह्मचर्यका वर्णन करती हूँ, सुनिये। वानप्रस्थीको सदाचारसे रहना और काम-क्रोधका परित्याग करना चाहिये। वह उच्छवृत्तिसे जीविका चलाये और प्राणियोंके उपकारमें संलग्न रहे। यह वानप्रस्थका ब्रह्मचर्य बताया गया।

अब सत्यका वर्णन करती हूँ। जिसकी बुद्धि पराये धन और परायी स्त्रियोंको देखकर लोलुपतावश उनके प्रति आसक्त नहीं होती, वही पुरुष सत्यनिष्ठ कहा गया है। अब दानका वर्णन करती हूँ जिससे मनुष्य जीवित रहता है। भूखसे पीड़ित मनुष्यको भोजनके लिये अन्न अवश्य देना चाहिये। उसको देनेसे महान् पुण्य होता है तथा दाता मनुष्य सदा अमृतका उपभोग करता है। अपने वैभवके अनुसार प्रतिदिन कुछ-न-कुछ दान करना चाहिये। सहानुभूतिपूर्ण वचन, तृण, शय्या, घरकी शीतल छाया, पृथ्वी, जल, अन्न, मीठी बोली, आसन, वस्त्र या निवासस्थान और पैर धोनेके लिये जल ये सब वस्तुएँ जो प्रतिदिन अतिथिको निष्कपट भावसे अर्पण करता है; वह इहलोक और परलोकमें भीआनन्दका अनुभव करता है जो दान और स्वाध्याय आदि शुभ कर्मोंके द्वारा अपने प्रत्येक दिनको सफल बनाता है, वह इस जगत् में मनुष्य होकर भी देवता ही है इसमें तनिक भी सन्देहकी बात नहीं है।

अब मैं सांगोपांग धर्मके साधनभूत उत्तम नियमोंका वर्णन करती हूँ। जो देवताओं और ब्राह्मणोंकी पूजा में संलग्न रहता है, नित्य-निरन्तर शौच, सन्तोष आदि नियमोंका पालन करता है तथा दान, व्रत और सब प्रकारके परोपकारी कार्योंमें योग देता है, उसके इस कार्यको नियम कहा गया है। द्विजश्रेष्ठ ! अब मैं क्षमाका स्वरूप बतलाती हूँ, सुनिये। दूसरोंद्वारा की हुई अपनी निन्दा सुनकर अथवा किसीके द्वारा मार खाकर भी जो क्रोध नहीं करता और स्वयं मार खाकर भी मारनेवाले व्यक्तिको नहीं मारता, वह क्षमाशील कहलाता है। अब शौचका वर्णन करती हूँ। जो राग-द्वेषसे रहित होकर प्रतिदिन स्नान और आचमन आदिका व्यवहार करता है और इस प्रकार जो बाहर तथा भीतरसे भी शुद्ध है, उसे शौचयुक्त (पवित्र) माना गया है। अब मैं अहिंसाका रूप बतलाती हूँ। विज्ञ पुरुषको किसी विशेष आवश्यकताके बिना एक तिनका भी नहीं तोड़ना चाहिये। संयमके साथ रहकर प्रत्येक जीवकी हिंसासे दूर रहना चाहिये और अपने प्रति जैसे बर्तावकी इच्छा होती है वैसा ही बर्ताव दूसरोंके साथ स्वयं भी करना चाहिये। अब शान्तिके स्वरूपका वर्णन करती हूँ। शान्तिसे सुखकी प्राप्ति होती है। | अतः शान्तिपूर्ण आचरण अपना कर्तव्य है। कभी खिन्न नहीं होना चाहिये। प्राणियोंके साथ वैरभावका सर्वथा परित्याग करके मनमें भी कभी वैरका भाव नहीं आने देना चाहिये। अब अस्तेयका स्वरूप बतलाती हूँ। परधन और परस्त्रीका कदापि अपहरण न करे। मन, वाणी तथा शरीरके द्वारा भी कभी किसी दूसरेकी वस्तु लेनेकी चेष्टा न करे। अब दमका वर्णन करती है। इन्द्रियोंका दमन करके मानके द्वारा उन्हें प्रकाश देते रहना और उनकी चंचलताका नाशकरना चाहिये। इससे मनुष्यमें चेतनाका विकास होता है। अब मैं शुश्रूषाका स्वरूप बतलाती हूँ। मन, वाणी और शरीरसे गुरुके कार्य साधनमें लगे रहना शुश्रूषा है। द्विजश्रेष्ठ! इस प्रकार मैंने आपसे धर्मका सांगोपांग वर्णन किया। जो मनुष्य ऐसे धर्ममें सदा संलग्न रहता है उसे संसारमै पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता यह मैं आपसे सच-सच कह रही हूँ। महाप्राज्ञ ! यह जानकर आप धर्मका अनुसरण करें।

सोमशर्माने पूछा- देवि! तुम्हारा कल्याण हो, तुम इस प्रकार धर्मकी परम पुण्यमयी उत्तम व्याख्या कैसे जानती हो? किसके मुँहसे तुमने यह सब सुना है ? सुमना बोली- महामते। मेरे पिताका जन्म भार्गव वंशमें हुआ है। वे सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञानमें निपुण हैं। उनका नाम है महर्षि च्यवन । मैं उन्हींकी कन्या हूँ। ये मुझे प्राणोंसे भी अधिक प्रिय मानते थे जिस-जिस तीर्थ, मुनि समाज अथवा देवालयमें वे जाते, मैं भी उनके साथ वहाँ जाया करती थी। मेरे पिताजीके एक मित्र हैं, जिनका नाम है वेदशर्मा कौशिकवंशमें उनका | जन्म हुआ है। एक दिन वे घूमते-घामते पिताजीके पास आये। उस समय वे बहुत दुःखी थे और बारंबार चिन्तामग्न हो जाते थे तब उनसे मेरे पिताने कहा ‘सुव्रत। मालूम होता है आप किसी दुःखसे संतप्त हैं। आपको दुःख कैसे प्राप्त हुआ है, मुझे इसका कारण बतलाइये।’ यह सुनकर वेदशर्माने कहा- ‘मेरी स्त्री बड़ी साध्वी और पतिव्रता है, किन्तु अबतक उसे कोई पुत्र नहीं | हुआ 1। मेरा वंश चलानेवाला कोई नहीं है। यही मेरे दुःखका कारण है; आपने पूछा था, इसलिये बताया है।’

इसी बीचमें कोई सिद्ध पुरुष मेरे पिताके आश्रमपर आये। पिताजी और वेदशर्मा दोनोंने बड़े होकर भक्तिपूर्वक सिद्धका पूजन किया। भोजन आदि उपचारों और मीठे वचनोंसे उनका स्वागत किया। फिर आपने पहले जिस प्रकार अन किया था, उसी प्रकार उन दोनोंने भी सिद्धसे। अपने मनकी बात पूछी। तब धर्मात्मा सिद्धने मेरे पिता और उनके मित्रसे इस प्रकार कहा—’धर्मके।अनुष्ठानसे ही स्त्री, पुत्र और धन-धान्यकी प्राप्ति होती है।’ उनके उपदेशसे वेदशर्माने धर्मका अनुष्ठान पूरा किया। उस धर्मसे उन्हें महान् सुख और सुयोग्य पुत्रकी प्राप्ति हुई उन सिद्ध महात्माके सांगसे ही धर्मके विषयमें मेरी बुद्धिका ऐसा निश्चय हुआ है।

सोमशर्माने पूछा – प्रिये। धर्मसे कैसी मृत्यु और कैसा जन्म होता है? शास्त्र के अनुसार उस मृत्यु और जन्मका लक्षण जैसा निश्चित किया गया हो, वह सब मुझे बताओ।

सुमना बोली- प्राणनाथ! जिसने सत्य, शौच, क्षमा, शान्ति, तीर्थ और पुण्य आदिके द्वारा धर्मका पालन किया है, उसकी मृत्युका लक्षण बतलाती हूँ। धर्मात्मा पुरुषको मृत्युके समय कोई रोग नहीं होता, उसके शरीरमें कोई पीड़ा नहीं होती; श्रम, ग्लानि, स्वेद और भ्रान्ति आदि उपद्रव भी नहीं होते। गीत-ज्ञान विशारद दिव्यरूपधारी गन्धर्व और वेदपाठी ब्राह्मण उसके पास आकर मनोहर स्तुति किया करते हैं। वह स्वस्थ रहकर सुखदायक आसनपर विराजमान होता है। अथवा देवपूजामें बैठा होता है ऐसा भी हुआ करता है कि धर्मपरायण बुद्धिमान् पुरुष [मृत्युकालमें ] स्नान के लिये तीर्थ स्थानमें पहुँचा हो। अग्निहोत्र-गृह, गोशाला, देवमन्दिर, बगीचा, पोखरा, पीपल या बड़का वृक्ष तथा पाकर अथवा बेलका पेड़ये मृत्युके लिये पवित्र स्थान माने गये हैं। धर्मात्मा पुरुष धर्मराजके दूतको प्रत्यक्ष देखता है वे स्नेहसे युक्त और मुसकराते हुए दिखायी देते हैं। वह मरनेवाला जीव स्वप्न, मोह तथा क्लेशके अधीन नहीं होता। धर्मराजके दूत उससे कहते हैं-‘महाभाग परम बुद्धिमान् धर्मराज आपको बुला रहे हैं।’ दूतोंकी यह बात सुनकर उसे मोह और सन्देह नहीं होता। उसका चित्त प्रसन्न हो जाता है। वह ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न हो भगवान् श्रीविष्णुका स्मरण करता है और संतुष्ट एवं हृष्टचित्त होकर उन दूतोंके साथ चला जाता है।

सोमशर्माने पूछा- भद्रे पापियोंकी मृत्यु किन ! लक्षणोंसे युक्त होती है, इसका विस्तारके साथ वर्णन करो।सुमना बोली- प्राणनाथ ! सुनिये, मैं महापातकी मनुष्यों की मृत्युके स्थान और चेष्टाका वर्णन करती हूँ। दुष्टात्मा पुरुष विष्ठा और मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओंसे युक्त और पापियोंसे भरे हुए भूभागमें रहकर बड़े दुःखसे प्राण त्याग करता है। चाण्डालके स्थानपर जाकर दुःखपूर्वक मरता है। गदहोंसे घिरी हुई भूमिमें, वेश्याके भवनमें तथा चमारके घरमें जाकर वह मृत्युको प्राप्त होता है। हड्डी, चमड़े और नखोंसे भरी हुई पृथ्वीपर पहुँचकर दुष्टात्मा पुरुषकी मृत्यु होती है। अब मैं उसे ले जानेकी इच्छासे आये हुए यमदूतोंकी चेष्टाका वर्णन करती हूँ। वे अत्यन्त भयानक, घोर और दारुण रूप धारण किये आते हैं। उनके शरीर अत्यन्त काले, पेट लंबे-लंबे और आँखें कुछ-कुछ पीली होती हैं। कोई पीले, कोई नीले और कोई अत्यन्त सफेद होते हैं। पापी मनुष्य उन्हें देखकर काँप उठता है, उसके शरीरसे बारंबार पसीना छूटने लगता है।

अब मैं दुःखी जीवकी चेष्टा बताती हूँ। लोभ और स्वादसे मोहित होकर पापी पुरुष जो पराये धन और परायी स्त्रियोंका अपहरण किये रहते हैं, पहले दूसरेसे ऋण लेकर बादमें उसे चुका नहीं पाते तथा असत्प्रतिग्रह आदि जो अन्य बड़े-बड़े पाप किये रहते है-सारांश यह कि मृत्युसे पहले वे जितने भी पापका आचरण किये रहते हैं, वे सभी महापापीके कण्ठमें आकर उसके कफको रोक देते और दुःसह दुःख पहुंचाते हैं। असह्य पीड़ाओंसे उसका कष्ठ घरघराने लगता है। वह बारंबार रोता और माता, पिता, भाई, पत्नी तथा पुत्रोंका स्मरण करता है। फिर महापापसे मोहित होकर वह सबको भूल जाता है। अत्यन्त पीड़ासे व्याकुल होनेपर भी उसके प्राण शीघ्रतापूर्वक नहीं निकलते। वह काँपता, तलमलाता और रह-रहकर मूर्च्छित हो जाता है। इस प्रकार लोभ और मोहसे युक्त मनुष्य सदा मूर्च्छित होकर ही प्राण त्यागता है। तत्पश्चात् यमराजके दूत उसे यमलोकमें ले जाते हैं। उस समय उसको जो दुःख भोगना पड़ता है, उसका वर्णन करती हूँ। जहाँ ढेर के ढेर अंगारे बिछेहोते हैं, उस मार्गपर पापीको घसीटते हुए ले जाया जाता है। वहाँ वह दुष्टात्मा जीव बारंबार आगमें जलता और छटपटाया करता है। जहाँ बारह सूर्योके तापसे युक्त अत्यन्त तीव्र धूप पड़ती है, उसी मार्गसे उसे पहुँचाया जाता है। वहाँ वह सूर्यकी प्रचण्ड किरणोंसे संतप्त और भूख-प्यास से पीड़ित होता रहता है। यमदूत प्याससे उसे गदा, डंडे और फरसोंसे मारते, कोड़ोंसे पीटते तथा गालियाँ सुनाते हैं। तदनन्तर वे पापीको उस मार्गपर ले जाते हैं, जहाँ जाड़ा अधिक पड़ता है और ठंडी हवाका झोंका सहना पड़ता है। पापी पुरुष शीतसे पीड़ित होकर उस मार्गको तय करता है; यमदूत उसे घसीटते हुए नाना प्रकारके दुर्गम स्थानोंमें ले जाते हैं। इस प्रकार देवता और ब्राह्मणोंकी निन्दा करनेवाले, सम्पूर्ण पापोंसे युक्त दुष्टात्मा पापी पुरुषको यमराजके दूत यमलोकमें ले जाते हैं।

वहाँ पहुँचकर वह दुष्टात्मा यमराजको काले अंजनकी राशिके समान देखता है। वे उग्र, दारुण और भयंकर रूप धारण किये भैंसेपर सवार दिखायी देते हैं अनेकों यमदूत उन्हें घेरे खड़े रहते हैं उनके साथ हैं। सब प्रकारके रोग और चित्रगुप्त भी उपस्थित होते हैं। द्विजश्रेष्ठ ! उस समय भगवान् धर्मराजका मुख विकराल दाढ़ोंके कारण अत्यन्त भयानक और कालके समान प्रतीत होता है। यमराज धर्ममें बाधा डालनेवाले उस महापी दुष्टको देखते और अत्यन्त दुःखदायी, दुस्सह अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा पीड़ा पहुँचाते हुए उसे कठोर दण्ड देते हैं। वह पापी एक हजार युगांतक नाना प्रकारकी यातनाओंमें पकाया जाता है। इस प्रकार दुष्ट बुद्धिवाला पापात्मा मनुष्य अपने पापका उपभोग करता है। तत्पश्चात् वह जिन-जिन योनियोंमें जन्म लेता है, उसका भी वर्णन करती हूँ। कुछ कालतक कुत्तेकी योनिमें रहकर वह दुष्टात्मा अपना पाप भोगता है। उसके बाद व्याघ्र और फिर गदहा होता है। तदनन्तर बिलाव, सूअर और साँपकी योनिमें जन्म लेता है। इस तरह अनेक मेवाली सम्पूर्ण पापयोनियों में उसे बारंबार जन्म लेना पड़ता है। इस प्रकार मैंने आपसे पापियोंके जन्मका सारा वृत्तान्त भी बतला दिया।

अध्याय-05 वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश

सोमशर्माने पूछा- कल्याणी! मैं किस प्रकार सर्वज्ञ और गुणवान् पुत्र प्राप्त कर सकूँगा? सुमना बोली- स्वामिन् । आप महामुनि वसिष्ठजीके पास जाइये; वे धर्मके ज्ञाता हैं, उन्हींसे प्रार्थना कीजिये। उनसे आपको धर्मज्ञ एवं धर्मवत्सल पुत्रको प्राप्ति होगी।

सूतजी कहते हैं-पत्नीके यों कहनेपर द्विजश्रेष्ठ सोमशर्मा सब बातोंके जाननेवाले, तेजस्वी और तपस्वी महात्मा वसिष्ठजीके पास गये। वे गंगाजीके तटपर स्थित अपने पवित्र आश्रम में विराजमान थे। सोमशर्माने बड़ी भक्तिके साथ बारंबार उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया। तब पापरहित महातेजस्वी ब्रह्मपुत्र वसिष्ठजी उनसे बोले-‘महामते! इस पवित्र आसनपर सुखसे बैठो।’ यह कहकर उन योगीश्वरने पूछा-‘महाभाग ! तुम्हारे पुण्यकर्म और अग्निहोत्र आदि कार्य कुशलसे हो रहे हैं न? शरीरसे तो नीरोग रहते हो न ? धर्मका पालन तो सदा करते ही होगे द्विजश्रेष्ठ बताओ, मैं तुम्हारी कौन सी प्रिय कामना पूर्ण करूँ?’ इस प्रकार संभाषण करके वसिष्ठजी चुप हो गये। तब सोमशमनि कहा- ‘तात! किस पापके कारण मुझे दरिद्रताका कष्ट भोगना पड़ता है? मुझे पुत्रका सुख क्यों नहीं मिलता, इस बातका मेरे मनमें बड़ा सन्देह है। किस पापसे ऐसा हो रहा है, यह बताइये। महामते। मैं महान् पापसे मोहित एवं विवेकशून्य हो गया था, अपनी प्यारी पत्नीके समझाने और भेजनेसे आज आपके पास आया हूँ।

वसिष्ठजीने कहा- द्विजश्रेष्ठ मैं तुम्हारे सामने पुत्रके पवित्र लक्षणका वर्णन करता हूँ। जिसका मन पुण्यमें आसक्त हो, जो सदा सत्यधर्मके पालनमें तत्पर रहता हो और जो बुद्धिमान्, ज्ञानसम्पन्न, तपस्वी, बताओंमें श्रेष्ठ, सब कर्मोंमें कुशल, धीर, वेदाध्ययन परायण, सम्पूर्ण शास्त्रोंका वक्ता, देवता और ब्राह्मणोंका पुजारी, समस्त यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाला, ध्यानी,त्यागी, प्रिय वचन बोलनेवाला, भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानमें तत्पर, नित्य शान्त, जितेन्द्रिय सदा जप करनेवाला पितृभक्तिपरायण, सदा समस्त स्वजनोंपर स्नेह रखनेवाला, कुलका उद्धारक, विद्वान् तथा कुलको सन्तुष्ट करनेवाला हो ऐसे गुणोंसे युक्त उत्तम पुरुष ही सुख देनेवाला होता है। इसके सिवा दूसरे तरहके पुत्र सम्बन्ध जोड़कर केवल शोक और सन्ताप देते हैं। ऐसा पुत्र किस कामका। उसके होनेसे कोई लाभ नहीं है महाप्राज्ञ तुम पूर्वजन्ममें शुद्र थे तुम्हें धर्माधर्मका ज्ञान नहीं था, तुम बड़े लोभी थे। तुम्हारे एक स्त्री और बहुत से पुत्र थे। तुम दूसरोंके साथ सदा द्वेष रखते थे। तुमने सत्यका कभी श्रवण नहीं किया था। तीर्थोकी यात्रा नहीं की थी। महामते। तुमने एक ही काम किया था- खेती करना। बार-बार तुम उसीमें लगे रहते थे। द्विजश्रेष्ठ ! तुम पशुओंका पालन भी करते थे। पहले गाय पालते थे, फिर भैंस और घोड़ोंको भी पालने लगे। तुमने अन्नको बहुत महँगा कर रखा था। तुम इतने निर्दयी थे कि कभी किसीको किंचित् भी दान नहीं किया। देवताओंकी पूजा नहीं की। पर्व आनेपर ब्राह्मणोंको धन नहीं दिया तथा श्राद्धकाल उपस्थित होनेपर भी तुमने श्रद्धापूर्वक कुछ नहीं किया। तुम्हारी साध्वी स्त्री कहती थी ‘आज श्राद्धका दिन है। यह श्वशुरके श्राद्धका समय है और यह सासके।’ महामते। उसकी ये बातें सुनकर तुम घर छोड़ कहीं अन्यत्र भाग जाते थे। तुमने धर्मका मार्ग न कभी देखा था न सुना ही था लोभ ही तुम्हारी माता, लोभ ही पिता, लोभ ही भ्राता और लोभ ही स्वजन एवं बन्धु था तुमने सदाके लिये धर्मको तिलांजलि देकर एकमात्र लोभका ही आश्रय लिया था इसीलिये तुम दुःखी और गरीबी से पीड़ित हुए हो। तुम्हारे हृदयमें प्रतिदिन महातृष्णा बढ़ती जाती थी।

रात में सो जानेपर भी तुम सदा धनकी ही चिन्तामें लगेरहते थे। इस प्रकार क्रमशः हजार, लाख करोड़ अरब, खरब और दस खरब सोनेकी मुहरें तुम्हें प्राप्त हो गया; फिर भी तृष्णा तुम्हारा पिंड नहीं छोड़ती थी। वह सदा बढ़ती ही रहती थी। तुमने कभी दान, होम या धनका उपभोग भी नहीं किया। जितना कमाया, सब जमीनके अंदर गाड़ दिया। तुम्हारे पुत्रोंको भी उस गड़े हुए धनका पता न था तुम्हारे हृदयमें तृष्णाकी आग प्रज्वलित होती रहती थी उसीके दुःखसे तुम्हें कभी सुख नहीं मिलता था। तृष्णाकी आगसे संतप्त होकर तुम हाहाकार मचाते और अचेत रहते थे। विप्रवर! इस प्रकार मोहमें पड़े-पड़े ही तुम कालके अधीन हो गये। स्त्री और पुत्र पूछते ही रह गये; किन्तु तुमने उन्हें न तो उस धनका पता बताया और न उन्हें दिया ही तुम प्राण त्यागकर यमलोकमें चले गये। इस प्रकार मैंने तुम्हारे पूर्वजन्मका सारा वृत्तान्त कह सुनाया।

विप्रवर! उसी कर्मके कारण तुम निर्धन और दरिद्र हो। जिसके ऊपर भगवान् श्रीविष्णु प्रसन्न होते हैं, उसीके घरमें सदा सुशील, ज्ञानी और सत्यधर्मपरायण पुत्र होते हैं। संसारमें जिसको भक्तिमान् श्रेष्ठ पुत्रकी प्राप्ति हुई है, वह भगवान्का कृपापात्र है। भगवान् श्रीविष्णुको कृपाके बिना कोई भी स्त्री, पुत्र, उत्तम जन्म तथा उत्तम कुलको और श्रीविष्णुके परम धामको नहीं पा सकता।

सोमशर्माने पूछा- ज्ञान-विज्ञानके पण्डित विप्रवर वसिष्ठजी। यदि ऐसी बात है तो मुझे ब्राह्मण-वंशमें जन्म कैसे मिला? इसका सारा कारण बतलाइये। वसिष्ठजी बोले- ब्रह्मन् ! पूर्वजन्ममें तुम्हारे द्वारा एक धर्मसम्बन्धी कार्य भी बन गया था, उसे बताता हूँ; उन दिनों एक निष्पाप, सदाचारी, अच्छे विद्वान्, विष्णुभक्त और धर्मात्मा ब्राह्मण थे, जो तीर्थ यात्राके व्याजसे समूची पृथ्वीपर अकेले विचरण किया करते थे। एक दिन वे महामुनि घूमते-घामते तुम्हारे घरपर आये द्विजश्रेष्ठ ! उस 1 समय उन्होंने अपने ठहरनेके लिये तुमसे कोई स्थान माँगा तुम बड़ी प्रसन्नताके साथ बोले ‘विद्वन्! अहा, आज मैं धन्य हो गया। आज मैंने पावन तीर्थकी यात्रा कर ली तथा इस समय मुझे।आपके दर्शनसे तीर्थसेवनका फल प्राप्त हो गया। यह कहकर तुमने उन्हें ठहरनेके लिये परम पवित्र गोशालाका स्थान दिखलाया और वहाँ ठहराकर उनके शरीरको सेवा करके दोनों पैरोंको भी दबाया। फिर उनके चरणोंको जलसे धोकर चरणोदकसे अपने मस्तकका अभिषेक किया। तत्पश्चात् तुरंत हो दूध, दही, घी और मट्ठेके साथ उन ब्राह्मण-देवताको अन्न अर्पण किया।

महामते ! इस प्रकार अपनी स्त्रीसहित सेवा करके तुमने ब्राह्मणको बहुत सन्तुष्ट कर लिया। दूसरे दिन प्रातःकाल अत्यन्त शुभकारक पुण्य दिवस आया। उस दिन शुद्ध आषाढ़ मास की शुक्ला द्वादशी थी, जो सब पापका नाश करनेवाली है; उसी तिथिको भगवान् श्रीविष्णु योगनिद्राका आश्रय लेते हैं। वह तिथि आनेपर बुद्धिमान् और विद्वान् पुरुष घरके सारे काम छोड़कर भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानमें संलग्न हो गये। गीत और मंगलवाद्योंके द्वारा परम उत्सव मनाने लगे। समस्त ब्राह्मण वेदके सूक्तों और मंगलमय स्तोत्रोंद्वारा भगवान्की स्तुति करने लगे। ऐसे महोत्सवका अवसर पाकर वे श्रेष्ठ ब्राह्मण उस दिन वहीं ठहर गये। उन्होंने एकादशीका व्रत किया और उसका माहात्म्य भी पढ़कर सुनाया। तुमने अपनी स्त्री और पुत्रोंके साथ एकादशीसे होनेवाले उत्तम पुण्यका वर्णन सुना। उस महापुण्यमय प्रसंगको सुनकर स्त्री और पुत्रोंसे प्रेरित हो ब्राह्मणके संसर्गसे तुमने भी एकादशी व्रतका आचरण किया। स्त्री और पुत्रोंके साथ जाकर प्रात:काल स्नान किया और प्रसन्न मनसे गन्ध- पुष्प आदि पवित्र उपचारों तथा सब प्रकारके नैवेद्यद्वारा भगवान् श्रीमधुसूदनकी पूजा की। फिर नृत्य और गीत आदिके द्वारा उत्सव मनाते हुए रात्रिमें जागरण किया। तत्पश्चात् भगवान्‌को स्नान कराकर भक्तिके साथ बारंबार उनके चरणों में मस्तक झुकाया और महात्मा ब्राह्मणके दिये हुए भगवान्के चरणोदकका पान किया, जो परम शान्ति प्रदान करनेवाला है। इसके बाद ब्राह्मणको भक्तिपूर्वक प्रणाम करके तुमने उन्हें उत्तम दक्षिणा दी और पुत्र एवं पत्नी आदिके साथ व्रतका पारण किया। इस प्रकार भक्ति और सद्भावके द्वारा तुमने ब्राह्मणकोभलीभाँति प्रसन्न कर लिया। अतः ब्राह्मणके संग और भगवान् श्रीविष्णुके प्रसादसे सत्यधर्ममें स्थित होनेके कारण तुम्हें ब्राह्मणका शरीर प्राप्त हुआ है।

तुमने धनके लालच में आकर पुत्रका स्नेह त्याग दिया। उसी पापका यह फल है कि तुम पुत्रहीन हो गये। विप्रवर! उत्तम पुत्र, उत्तम कुल, धन, धान्य, पृथ्वी, स्त्री, उत्तम जन्म, श्रेष्ठ मृत्यु, सुन्दर भोग, सुख, राज्य, स्वर्ग तथा मोक्ष आदि जो-जो दुर्लभ वस्तुएँ हैं, वे सभी परमात्मा भगवान् श्रीविष्णुकी कृपासे प्राप्त होती हैं। इसलिये अबसे भगवान् नारायणकी आराधना करके तुमउस उत्कृष्ट पदको प्राप्त कर सकोगे, जो श्रीविष्णुका परमपद कहलाता है। महाभाग ! यह जानकर तुम श्रीनारायणके भजनमें लग जाओ।

सूतजी कहते हैं- वसिष्ठजीके द्वारा इस प्रकार समझाये जानेपर वे महानुभाव ब्राह्मण हर्षमें भर गये और भक्तिपूर्वक महर्षि वसिष्ठके चरणोंमें प्रणाम करके उनकी आज्ञा ले अपने घरको पधारे। वहाँ पहुँचकर अपनी स्त्री सुमनासे प्रसन्नतापूर्वक बोले-‘प्रिये! तुम्हारी कृपासे ब्रह्मर्षि वसिष्ठजीके द्वारा ही मुझे अपने पूर्वजन्मकी सारी चेष्टाएँ ज्ञात हो गयीं।

अध्याय-06 सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना

सूतजी कहते हैं—तदनन्तर सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ महाबुद्धिमान् सोमशर्मा अपनी स्त्री सुमनाके साथ नर्मदाके अत्यन्त पुण्यदायक तटपर गये और कपिला संगम नामक पुण्यतीर्थमें नहाकर देवताओं तथा पितरोंका तर्पण करके शान्तचित्तसे भगवान् नारायणके मंगलमय नामका जप करते हुए तपस्या करने लगे। महामना सोमशर्मा द्वादशाक्षर मन्त्रका जप और भगवान्का ध्यान करते थे। वे सदा निश्चिन्त होकर बैठने, सोने, चलने और स्वप्नके समय भी केवल भगवान् श्रीविष्णुकी ओर ही दृष्टि रखते थे। उन्होंने काम-क्रोधका परित्याग कर दिया था। साथ ही पातिव्रत्य धर्ममें तत्पर रहनेवाली परम सौभाग्यवती सती-साध्वी सुमना भी अपने तपस्वी पतिकी सेवामें लगी रहती थी। सोमशर्मा जब भगवान्का ध्यान करने लगे, उस समय अनेक प्रकारके विघ्नोंने सामने आकर उन्हें भय दिखाया। भयंकर विषवाले काले साँप उनके पास पहुँच जाते थे। सिंह, बाघ और हाथी उनकी दृष्टिमें आकर भय उत्पन्न करते थे। इस प्रकार बड़े-बड़े विघ्नोंसे घिरे रहनेपर भी वे महाबुद्धिमान् धर्मात्मा ब्राह्मण भगवान् विष्णुके ध्यानसे कभी विचलित नहीं होते थे। एक दिनकी बात है, एक महाभयानक सिंहभयंकर गर्जना करता हुआ वहाँ आया; उसे देखकर सोमशर्मा भयसे थर्रा उठे और भगवान् श्रीनरसिंह (विष्णु) -का ध्यान करने लगे। इन्द्रनीलमणिके समान श्याम विग्रहपर पीताम्बर शोभा पा रहा है। श्रीभगवान्का बल और तेज महान् है। वे अपने चारों हाथमें क्रमशः शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण कियेहुए हैं। मोतियोंका विशाल हार चन्द्रमाकी भाँति चमक रहा है। उसके साथ ही कौस्तुभमणि भी भगवान्के श्रीविग्रहको उद्भासित कर रही है। श्रीवत्सका चिन वक्षःस्थलकी शोभा बढ़ा रहा है। श्रीभगवान् सब प्रकारके आभूषणोंकी शोभासे सम्पन्न हैं। कमलके समान खिले हुए नेत्र, मुखपर मुसकानको मनोहर छटा, स्वाभाविक प्रसन्नता और रत्नमय हार उनकी शोभाको दुगुनी कर रहे हैं। इस प्रकार परम शोभायमान भगवान् श्रीविष्णुको मनोहर झाँकीका सोमशर्माने ध्यान किया।

तत्पश्चात् वे उनकी स्तुति करने लगे-‘शरणागत वत्सल श्रीकृष्ण! आप ही मुझे शरण देनेवाले हैं। देवदेवेश्वर ! आपको नमस्कार है। जिन परमात्माके उदरमें तीनों लोक और सात भुवन स्थित हैं, उन्होंकी शरणमें मैं आ पड़ा हूँ, भय मेरा क्या करेगा। कृत्या आदि प्रबल विघ्न भी जिनसे भय मानते हैं तथा जो सबको दण्ड देनेमें समर्थ हैं, उन भगवान्‌के मैं शरणागत हूँ। जो समस्त देवताओं, महाकाय दानवों तथा क्लेश उठानेवाले भक्तोंके भी आश्रय हैं, उन भगवान्की मैं शरणमें आया हूँ। जो भयका नाश करनेके लिये अभयरूप बने हुए हैं और पापके नाशके लिये ज्ञानवान् हैं तथा जो ब्रह्मरूपसे एक अद्वितीय हैं, उन भगवान्‌की मैं शरणमें हूँ जो रोगोंका नाश करनेके लिये औषधरूप हैं, जिनमें रोग-शोकका नाम भी नहीं है, जो लौकिक आनन्दसे भी शून्य हैं, उन भगवान्‌की मैं शरणमें हूँ। जो अविचल लोकोंको भी विचलित कर सकते हैं, उन भगवान्‌की में शरण में आया हूँ; भय मेरा क्या करेगा। जो समस्त साधुओंका पालन करनेवाले हैं, जिनकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति हुई है तथा जो विश्वात्मा इस विश्वकी सदा ही रक्षा करते हैं, उन भगवान्को में शरण में आया हूँ। ‘जो सिंहके रूपमें मेरे सामने उपस्थित होकर भय दिखा रहे हैं, उन भक्तभयहारी भगवान् श्रीनृसिंहजी की मैं शरणमें आया हूँ। ग्राहसे युद्ध करते समय आपत्ति में पड़ा हुआ विशालकाय गजराज जिनकी शरणमें आया था और जो गजेन्द्रमोक्षकी लीलामें स्वयं उपस्थित हुएथे, उन शरणागतवत्सल प्रभुकी मैं शरणमें आया है। हिरण्याक्षका वध करनेवाले भगवान् श्रीवराहकी शरणमें हूँ। ये सब जीव मृत्युका रूप धारण करके मुझे भय दिखा रहे हैं, किन्तु मैं अमृतकी शरणमें पड़ा है। श्रीहरि वेदोंका ज्ञान प्रदान करनेवाले, ब्राह्मण भन ब्रह्मा तथा ब्रह्मज्ञानस्वरूप हैं; मैं उनकी शरणमें पड़ा हूँ। जो निर्भय, संसारका भय दूर करनेवाले और भयदाता हैं, उन भयरूप भगवान्‌की मैं शरणमें है भव मेरा क्या करेगा। जो समस्त पुण्यात्माओंका उद्धार और सम्पूर्ण पापियोंका विनाश करनेवाले हैं, उन धर्मरूप भगवान् श्रीविष्णुकी मैं शरणमें पड़ा हूँ।

‘यह परम प्रचण्ड आँधी मेरे शरीरको अत्यन्त पीड़ा दे रही है, मैं इसे भी भगवान्का ही स्वरूप मानकर इसकी शरणमें हूँ, अतः ये भगवान् वायु मुझे सदा ही आश्रय प्रदान करें। अत्यन्त शीत, अधिक वर्षा और दुःसह ताप देनेवाली धूप-इन सबके रूपमें जिन भगवान्‌का साक्षात्कार हो रहा है, मैं उन्हींकी शरण में आया हूँ। ये जो कालरूपधारी जीव यहाँ आकर मुझे भय देते हुए विचलित कर रहे हैं, सब के सब भगवान् श्रीविष्णुके स्वरूप हैं; मैं सर्वदा इनकी शरण में हूँ। जिन्हें सर्वदेवस्वरूप, परमेश्वर, केवल, ज्ञानमय और प्रधानरूप बतलाते हैं, उन सिद्धोंके स्वामी आदिसिद्ध भगवान् श्रीनारायणकी मैं शरणमें हूँ।’

इस प्रकार प्रतिदिन भगवान् श्रीकेशवका ध्यान और स्तवन करते हुए सोमशर्माने अपनी भक्तिके बलसे भगवानको हृदयमें बिठा लिया। उनका उद्यम और पुरुषार्थ देखकर भगवान् श्रीहृषीकेश प्रकट हो गये और उन्हें हर्ष प्रदान करते हुए बोले-‘महाप्राज्ञ सोमशर्मन्! अपनी पत्नीके साथ मेरी बात सुनो; विप्रवर! मैं वासुदेव हूँ, सुव्रत! तुम मुझसे कोई उत्तम वर माँगो ।’ श्रीभगवान्‌का यह कथन सुनकर द्विजश्रेष्ठ सोमशर्माने अपने नेत्र खोले: देखा तो विश्वके स्वामी श्रीभगवान् दिव्यरूप धारण किये सामने खड़े हैं। उनके शरीरकी कान्ति मेघके समान श्याम है, वे महान् अभ्युदयशाली और सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित हैं। सम्पूर्णआयुध उनकी शोभा बढ़ा रहे हैं। उनका श्रीविग्रह दिव्य लक्षण सम्पन्न है। नेत्र खिले हुए कमलके समान है। पीतवस्त्र श्रीअंगों की शोभा बढ़ा रहा है। देवेश्वर भगवान् श्रीविष्णु शंख, चक्र और गदा धान किये गरुड़पर विराजमान हैं। वे इस जगत् तथा ब्रह्मा आदिके भी भलीभाँति भरण-पोषण करनेवाले। है। यह विश्व उन्हींका स्वरूप है। वे सनातन रूप धारण करनेवाले हैं। वे विश्वसे अतीत, निराकार परमात्मा हैं।

भगवान् श्रीजनार्दनको इस रूपमें उपस्थित देख विद्रवर सोमशर्मा महान् हर्षमें भर गये और करोड़ों सूर्वक समान तेजस्वी एवं लक्ष्मीसहित शोभा पानेवाले श्रीभगवान्‌को साष्टांग प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़े अपनी स्त्री सुमनाके साथ उनकी स्तुति करने लगे ‘देव! जगन्नाथ! आपकी जय हो, सबको सम्मान देनेवाले लक्ष्मीपते! आपकी जय हो। योगियोंके स्वामिन्! योगीन्द्र आपकी जय हो यहके स्वामी हो! आपकी जय हो। विष्णुरूपसे यज्ञेश्वर ! और शिवरूपसे यज्ञविध्वंसक सनातन और सर्वव्यापक परमेश्वर! आपकी जय हो, जय हो। सर्वेश्वर! अनन्त ! आपकी जय हो। जयस्वरूप प्रभो! आपको मेरा प्रणाम है। ज्ञानवानोंमें श्रेष्ठ! आपकी जय हो। ज्ञाननायक ! आपकी जय हो। सब कुछ देनेवाले सर्वज्ञ परमेश्वर ! आपकी जय हो । सत्त्वगुणको उत्पन्न करनेवाले प्रभो! आपकी जय हो ।

‘यज्ञव्यापी परमेश्वर! आप प्रज्ञास्वरूप हैं, आपकी जय हो । प्राण प्रदान करनेवाले प्रभो! आपकी जय हो। पापनाशक पुण्येश्वर! आपकी जय हो। पुण्यपालक हो! आपकी जय हो। ज्ञानस्वरूप ईश्वर! आपकी जय हो। आप ज्ञानगम्य हैं, आपको नमस्कार है। कमललोचन! आपकी जय हो। आपकी नाभिसे कमलका प्रादुर्भाव हुआ था; अतः पद्मनाभ नामसे प्रसिद्ध आपको प्रणाम है। गोविन्द! आपकी जय हो। गोपाल ! आपकी जय हो। शंख धारण करनेवाले निर्मलस्वरूप परमात्मन्! आपकी जय हो चक्र धारण करनेवाले अव्यक्तरूप परमेश्वर ! व्यक्तरूपधारी आपको नमस्कारहै। प्रभो! आपके अंग पराक्रमसे शोभा पा रहे हैं, आपकी जय हो। विक्रम नायक आपकी जय हो। विद्यासे विलसित रूपवाले देवेश्वर! आपकी जय हो। वेदमय परमेश्वर! आपको नमस्कार है। पराक्रमसे सुशोभित अंगोंवाले प्रभो! आपकी जय हो। उद्यम प्रदान करनेवाले देव! आपकी जय हो। आप ही उद्यमके योग्य समय और उद्यमरूप हैं; आपको बारंबार नमस्कार है। भगवन्! आप उद्यममें समर्थ हैं, आपकी जय हो। उद्यम करानेवाले भी आप ही हैं, आपकी जय हो। युद्धोद्योग प्रवृत्त होनेवाले आप सर्वात्माको नमस्कार है।

‘सुवर्ण आपका तेज है, आपको नमस्कार है। आप विजयी वीर हैं, आपको नमस्कार हैं। आप अत्यन्त तेजःस्वरूप और सर्वतेजोमय हैं, आपको प्रणाम है। आप दैत्य-तेजके विनाशक और पापमय तेजका अपहरण करनेवाले हैं. आपको नमस्कार है। गौओं और ब्राह्मणोंका हित साधन करनेवाले आप परमात्माको प्रणाम है। आप हविष्य-भोजी तथा हव्य और कव्यका वहन करनेवाले अग्नि हैं, आप ही स्वधारूप हैं; आपको नमस्कार है। आप स्वाहारूप, यज्ञस्वरूप और योगके बीज हैं; आपको नमस्कार है। हाथमें शार्ङ्ग नामक धनुष धारण करनेवाले, आप हरिको प्रणाम है।

‘कार्य-कारणरूप जगत्‌को प्रेरित करनेवाले विज्ञानशाली परमेश्वरको नमस्कार है। वेदस्वरूप भगवान्‌को प्रणाम है। सबको पवित्र करनेवाले प्रभुको नमस्कार है। सबके क्लेशोंका अपहरण करनेवाले, हरित केशोंसे युक्त श्रीभगवान्‌को प्रणाम है विश्वके आधारभूत परमात्मा केशवको नमस्कार है। कृपामय और आनन्दमय ईश्वरको नमस्कार है। क्लेशोंका नाश करनेवाले नित्यशुद्ध भगवान् श्रीअनन्तको नमस्कार है। जिनका स्वरूप नित्य आनन्दमय है, जो दिव्य होनेके साथ ही दिव्यरूप धारण करते हैं, ग्यारह रुद्र जिनके चरणोंकी वन्दना करते हैं तथा ब्रह्माजी भी जिनके सामने मस्तक झुकाते हैं, उन भगवान्‌को प्रणाम है। प्रभो ! देवता और असुरोंके स्वामी भी आपके चरणकमलोंमेंमाथा टेकते हैं। आप देवेश, अमृत और अमृतात्मा हैं; आपको बारंबार नमस्कार है। आप क्षीरसागरमें निवास करनेवाले और लक्ष्मीके प्रियतम हैं, आपको नमस्कार है। आप ओंकार, विशुद्ध तथा अविचलरूप हैं; आपको बारंबार प्रणाम है। आप व्यापी, व्यापक और सब प्रकारके दुःखोंको दूर करनेवाले हैं; आपको नमस्कार है।

‘वराहरूपधारी आपको प्रणाम है। महाकच्छपके रूपमें आपको नमस्कार है। वामन और नृसिंहका रूप धारण करनेवाले आप परमात्माको प्रणाम है। सर्वज्ञ मत्स्यभगवान्को प्रणाम है। श्रीराम, कृष्ण, ब्राह्मणश्रेष्ठ कपिल और हयग्रीवके रूपमें अवतीर्ण हुए आपभगवान्‌को प्रणाम है।’

इस प्रकार इन्द्रियोंके स्वामी भगवान् श्रीजनार्दनका स्तवन करके सोमशर्माने फिर कहा- ‘प्रभो! ब्रह्माजी भी आपके पावन गुणोंकी सीमाको नहीं जानते तथा सर्वेश्वर ! रुद्र और इन्द्र भी आपकी स्तुति करनेमें असमर्थ हैं; फिर दूसरा कौन आपके गुणोंका वर्णन कर सकता है। मुझमें बुद्धि ही कौन-सी है, जो मैं आपकी स्तुति कर सकूँ। केशव ! मैंने अपनी छोटी बुद्धिके अनुसार आपके निर्गुण और सगुण रूपोंका स्तवन किया है। सर्वेश ! मैं जन्म-जन्मसे आपका ही दास हूँ। लोकेश ! मुझपर | दया कीजिये।’

अध्याय-07 श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना

श्रीहरि बोले- ब्रह्मन् मैं तुम्हारी इस तपस्या, पुण्य, सत्य तथा पावन स्तोत्रसे बहुत सन्तुष्ट हूँ। मुझसे कोई वर माँगो

सोमशर्माने कहा – प्रभो! पहले तो आप मुझे भलीभाँति निश्चित किया हुआ एक वर यह दीजिये कि मैं प्रत्येक जन्ममें आपकी भक्ति करता रहूँ। दूसरा यह कि मुझे मोक्ष प्रदान करनेवाले अपने अविचल परमधामका दर्शन कराइये। तीसरे वरके रूपमें मुझे एक ऐसा पुत्र दीजिये, जो अपने वंशका उद्धारक, दिव्य लक्षणोंसे सम्पन्न, विष्णुभक्तिपरायण, मेरे कुलको धारण करनेवाला, सर्वज्ञ, सर्वस्व दान करनेवाला, जितेन्द्रिय, तप और तेजसे युक्त, देवता, ब्राह्मण तथा इस जगत्का पालन करनेवाला, श्रीभगवान् (आप) का पुजारी और शुभ संकल्पवाला हो। इसके सिवा, श्रीकेशव ! आप मेरी दरिद्रता हर लीजिये।

श्रीहरि बोले- दिजश्रेष्ठ ऐसा ही होगा, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। मेरे प्रसादसे तुमको सुयोग्य पुत्रकी प्राप्ति होगी, जो तुम्हारे वंशका उद्धार करनेवाला होगा। तुम इस मनुष्यलोकमें भी परम उत्तम दिव्य एवं मनुष्योचित भोगोंका उपभोग करोगे। तदनन्तर तुम परमगतिको प्राप्त होगे।

इस प्रकार भगवान् श्रीहरि स्त्रीसहित ब्राह्मणको वरदान देकर अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर द्विजश्रेष्ठ सोमशर्मा अपनी पत्नी सुमनाके साथ नर्मदाके पुण्यदायक तटपर उस परमपावन उत्तम तीर्थ अमरकण्टकमें रहकर दान-पुण्य करने लगे। इस प्रकार बहुत समय व्यतीत हो जानेपर एक दिन सोमशर्मा कपिला और नर्मदाके संगममें स्नान करके निकले और घर आकर ब्राह्मणोचित कर्ममें लग गये। उस दिन व्रतसे शोभा पानेवाली परम सौभाग्यवती सुमनाने पतिके सहवाससे गर्भ धारण किया। समय आनेपर उस बड़भागिनीने देवताओंके समान कान्तिमान् उत्तम पुत्रको जन्म दिया, जिसके शरीरसे तेजोमयी किरणें छिटक रही थीं। उसके जन्मके समय आकाशमें बारंबार देवताओंके नगारे बजने लगे। तत्पश्चात् ब्रह्माजी देवताओंको साथ लेकर वहाँ आये और स्वस्थ चित्तसे उस बालकका नाम उन्होंने ‘सुव्रत’ रखा। नामकरण करके महाबली देवता स्वर्गको चले गये।उनके
जानेके पश्चात् द्विजश्रेष्ठ * भूमिख सोमशर्माने बालकके जातकर्म आदि संस्कार किये। उस बड़भागी पुत्र सुव्रतके, जो भगवान्‌की कृपासे प्राप्त हुआ था, जन्म लेनेपर ब्राह्मणके घरमें धन-धान्यसे परिपूर्ण महालक्ष्मी निवास करने लगी। हाथी, घोड़े, भैंसें, गरें, सोने और रत्न आदि किसी भी वस्तुको कमी न रही। सोमशर्माका घर रत्नराशिसे कुबेर भवनकी भाँति शोभा पाने लगा। ब्राह्मणने दान-पुण्य आदि धर्मोका अनुष्ठान किया। तीर्थोंमें जाकर वे नाना प्रकारके पुण्यों में लगे रहे और भी जो-जो दान पुण्य हो सकते हैं, उन सबका उन्होंने अनुष्ठान किया। मेधावी सोमशर्माका सारा जीवन ही ज्ञान और पुण्यके उपार्जनमें लगा रहा। उन्होंने बड़े हर्षके साथ पुत्रका विवाह किया। फिर पुत्रके भी पुत्र उत्पन्न हुए, जो बड़े ही पुण्यात्मा और उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न थे। भी सदा सत्यवादी, धर्मात्मा तपस्वी तथा दान धर्ममें संलग्न थे। उन पौत्रोंके भी पुण्यसंस्कार ” सोमशर्माने ही सम्पन्न किये। सुमना और सोमशर्मा दोनों ही सौभाग्यशाली थे वे महान् अभ्युदयसे युद्ध होकर सदा हर्षमें भरे रहते थे।सूतजी कहते हैं- एक समय महर्षि व्यासने अत्यन्त विस्मित होकर लोकनाथ ब्रह्माजीसे सुव्रतका सारा उपाख्यान पूछा।

ब्रह्माजीने कहा-सुव्रत बड़ा मेधावी बालक था। वह बाल्यकालसे ही भगवान् श्रीविष्णुका चिन्तन करने लगा। उसने गर्भमें ही पुरुषोत्तम भगवान् श्रीनारायणका दर्शन किया था। पूर्वकर्मोके प्रभावसे वह सदा भगवान्के ध्यानमें लगा रहता था। वह गान, विद्याभ्यास और अध्यापन करते समय भी शंख-चक्रधारी, उत्तम पुण्यदायी भगवान् श्रीपद्यनाभका ध्यान और चिन्तन किया करता था। इस प्रकार वह द्विजश्रेष्ठ सदा श्रीभगवान्‌का ध्यान करते हुए ही बच्चोंके साथ खेला करता था। वह मेधावी, पुण्यात्मा और पुण्यमें प्रेम रखनेवाला था। उसने अपने साथी बालकोंका नाम अपनी ओरसे परमात्मा श्रीहरिके नामपर ही रख दिया था। वह महामुनि था और भगवान्के ही नामसे अपने मित्रोंको भी पुकारा करता था। ‘ओ केशव ! यहाँ आओ, चक्रधारी माधव बचाओ, पुरषोत्तम ! तुम्हीं मेरे साथ खेलो मधुसूदन! हम दोनोंको वनमें ही चलना चाहिये।’ इस प्रकार श्रीहरिके नाम ले-लेकर वह ब्राह्मणबालक मित्रोंको बुलाया करता था । खेलने, पढ़ने, हँसने, सोने, गीत गाने, देखने, चलने, बैठने, ध्यान करने, सलाह करने, ज्ञान अर्जन करने तथा शुभ कर्मोंका अनुष्ठान करनेके समय भी वह श्रीभगवान‌को ही देखता और जगन्नाथ, जनार्दन आदि नामोंका उच्चारण किया करता था। विश्वके एकमात्र स्वामी श्रीपरमेश्वरका ध्यान करता रहता था। तृण, काष्ठ, पत्थर तथा सूखे और गीले सभी पदार्थोंमें वह धर्मात्मा बालक श्री केशवको ही देखता, कमललोचन श्रीगोविन्दका ही साक्षात्कार किया करता था। सुमनाका पुत्र ब्राह्मण सुव्रत बड़ा बुद्धिमान् था यह आकाशमें, पृथ्वीपर, पर्वतोंमें, वनोंमें, जल, । थल और पाषाणमें तथा सम्पूर्ण जीवोंके भीतर भी भगवान् श्रीनृसिंहका ही दर्शन करता था। *इस प्रकार बालकोंके साथ खेलमें सम्मिलित होकर वह प्रतिदिन खेलता तथा मधुर अक्षर और उत्तम रागसे युक्त गीतोंद्वारा श्रीकृष्णका गुणगान किया करता था। उसके गीत- ताल, लय, उत्तम स्वर और मूर्च्छनासे युक्त होते थे। सुव्रत कहता- ‘सम्पूर्ण देवता सदा भगवान् श्रीमुरारिका ध्यान करते हैं। जिनके श्रीअंगोंके भीतर सम्पूर्ण जगत् स्थित है, जो योगके स्वामी, पापका नाश करनेवाले और शरणागतोंके रक्षक हैं, उन भगवान् श्रीमधुसूदनका मैं भजन करता हूँ। जो सम्पूर्ण जगत् के भीतर सदा जागते और व्याप्त रहते हैं, जिनमें समस्त गुणवानोंका निवास है तथा जो सब दोषोंसे रहित हैं, उन परमेश्वरका चिन्तन करके मैं सदा उनके युगल चरणोंमें मस्तक झुकाता हूँ। जो गुणोंके अधिष्ठान हैं, जिनके पराक्रमका अन्त नहीं है, वेदान्तज्ञानसे विशुद्ध बुद्धिवाले पुरुष जिनका सदा स्तवन किया करते हैं, इस अपार, अनन्त और दुर्गम संसारसागरसे पार होनेके लिये जो नौकाके समान हैं, उन सर्वस्वरूप भगवान् श्रीनारायणकी मैं शरण लेता हूँ। मैं श्रीभगवान्‌के उन निर्मल युगल चरणोंको प्रणाम करता हूँ, जो योगीश्वरोंके हृदयमें निवास करते हैं, जिनका शुद्ध एवं पूर्ण प्रभाव सदा और सर्वत्र विख्यात है। देव! मैं दीन हूँ, आप अशुभके भयसे मेरी रक्षा कीजिये। संसारका पालन करनेके लिये जिन्होंने धर्मको अंगीकार किया है, जो सत्यसे युक्त, सम्पूर्ण लोकोंके गुरु, देवताओंके स्वामी, लक्ष्मीजीके एकमात्र निवासस्थान, सर्वस्वरूप और सम्पूर्ण विश्वके आराध्य हैं;उन भगवान्‌के सुयशका मेँ सुमधुर रससे युक्त संगीत एवं ताल-लयके साथ गान करता हूँ। में अखिल भुवनके स्वामी भगवान् श्रीविष्णुका ध्यान करता हूँ, जो इस लोकमें दुःखरूपी अन्धकारका नाश करनेके लिये चन्द्रमाके समान हैं। जो अज्ञानमय तिमिरका ध्वंस करनेके लिये साक्षात् सूर्यके तुल्य हैं तथा आनन्दके अखण्ड मूल और महिमासे सुशोभित हैं, जो अमृतमय आनन्दसे परिपूर्ण, समस्त कलाओंके आधार तथा गीतके कौशल हैं, उन श्रीभगवान्‌का मेँ अनन्य अनुरागसे गान करता हूँ। जो उत्तम योगके साधनों से युक्त हैं, जिनकी दृष्टि परमार्थकी ओर लगी रहती है, जो सम्पूर्ण चराचर जगत्को एक साथ देखते रहते हैं। तथा पापी लोगोंको जिनके स्वरूपका दर्शन नहीं होता, उन एकमात्र भगवान् श्रीकेशवकी मैं सदाके लिये शरण लेता हूँ।’

इस प्रकार सुमनाका पुत्र सुव्रत दोनों हाथोंसे ताली बजाकर ताल देते हुए श्रीकृष्णके सुयशका गान करता और बालकोंके साथ सदा प्रसन्न रहता था। प्रतिदिन बालस्वभावके अनुसार खेलता और भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानमें लगा रहता था। अपने सुलक्षण पुत्र सुव्रतको खेलते देख माता सुमना कहती- ‘बेटा! आ, कुछ भोजन कर ले; तुझे भूख सता रही होगी।’ यह सुनकर वह बुद्धिमान् बालक सुमनाको उत्तर देता – ‘ माँ! भगवान्का ध्यान महान् अमृतके तुल्य है, मैं उसीसे तृप्त रहता हूँ- मुझे भूख नहीं सताती।’ भोजनके आसनपर बैठकर जब वह अपने सामने मिष्टान्न परोसा हुआदेखत तब कहता-इस अन्नसे भगवान् विष्णु तृप्त हो।’ वह धर्मात्मा बालक जब सोनेके लिये जाता, तब वहाँ भी श्रीकृष्णका चिन्तन करते हुए कहता-‘मैं योगनिद्रापरायण भगवान् श्रीकृष्णकी शरणमें आया हूँ।’ इस प्रकार भोजन करते, वस्त्र पहनते, बैठते और सोते समय भी वह श्रीवासुदेवका चिन्तन करता और उन्हींको सब वस्तुएँ समर्पित कर देता था। धर्मात्मा सुव्रत युवावस्था आनेपर काम-भोगका परित्याग करके वैडूर्य पर्वतपर जा भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानमें लग गया। वहीं उस मेधावीने श्रीविष्णुका चिन्तन करते हुए तपस्या आरम्भ कर दी। उस श्रेष्ठ पर्वतपर सिद्धेश्वर नामक स्थानके पास वह निर्जन वनमें रहता और काम-क्रोध आदि सम्पूर्ण दोषोंका परित्याग करके इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए तपस्या करता था। उसने अपने मनको एकाग्र करके भगवान् श्रीविष्णुके साथ जोड़ दिया। इस प्रकार परमात्माके ध्यानमें सौ वर्षोंतक लगे रहनेपर उसके ऊपर शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् श्रीजगन्नाथ बहुत प्रसन्न हुए तथा लक्ष्मीजीके साथ उसके सामने प्रकट होकर बोले ‘धर्मात्मा सुव्रत। अब ध्यानसे उठो, तुम्हारा कल्याण हो; मैं विष्णु तुम्हारे पास आया हूँ, मुझसे वर माँगो ।’ मेधावी सुव्रत भगवान् श्रीविष्णुके ये उत्तम वचन सुनकर अत्यन्त हर्षमें भर गये। उन्होंने आँख खोलकर देखा, जनार्दन सामने खड़े हैं; फिर तो दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने श्रीभगवान्‌को प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे

सुव्रत बोले-

संसारसागरमतीय गभीरपारं

दुःखोर्मिभिर्विविधमोहमयैस्तरङ्गैः

सम्पूर्णमस्ति निजदोषगुणैस्तु प्राप्तं

तस्मात् समुद्धर जनार्दन मां सुदीनम्

जनार्दन ! यह संसार-समुद्र अत्यन्त गहरा है, इसका पार पाना कठिन है। यह दुःखमयी लहरों और मोहमयी भाँति-भाँति की तरंगों से भरा है। मैं अत्यन्त दीन हूँ और अपने ही दोषों तथा गुणोंसे पाप-पुण्योंसे प्रेरित होकर इसमें आ फैसा हूँ: अतः आप मेरा इससे उद्धार कीजिये।

कर्माम्बुदे महति गर्जति वर्षतीव

विद्युल्लतोल्लसति पातकसञ्चयै ।

मोहान्धकारपटलैर्मम नष्टदृष्टे

दीनस्य तस्य मधुसूदन देहि हस्तम् ॥

कर्मरूपी बादलोंकी भारी घटा घिरी हुई है, जो गरजती और बरसती भी है। मेरे पातकोंकी राशि विद्युल्लताकी भाँति उसमें थिरक रही है। मोहरूपी अन्धकार समूहसे मेरी दृष्टि-विवेकशक्ति नष्ट हो गयी है, मैं अत्यन्त दीन हो रहा हूँ; मधुसूदन! मुझे अपने हाथका सहारा दीजिये।

संसारकाननवर बहुदुःखवृक्षैः

संसेव्यमानमपि मोहमयैश्च सिंहः l

संदीप्तमस्ति करुणाबहुवनितेजः

संतप्यमानमनर्स परिपाहि कृष्ण ॥

यह संसार एक महान् वन है, इसमें बहुत से दुःख ही वृक्षरूपमें स्थित हैं। मोहरूपी सिंह इसमें निर्भय होकर निवास करते हैं इसके भीतर शोकरूपी प्रचण्ड दावानल प्रज्वलित हो रहा है, जिसकी आँचसे मेरा चित्त सन्तप्त हो उठा है। कृष्ण! इससे मुझे बचाइये।

संसारवृक्षमतिजीर्णमपीह उच्च

मायासुकन्दकरुणाबहुदुः खशाखम्

जायादिसङ्घछदनं फलितं मुरारे

तं चाधिरूढपतितं भगवन् हि रक्ष

संसार एक वृक्षके समान है, यह अत्यन्त पुराना होनेके साथ बहुत ऊँचा भी है: माया इसकी जड़ है, शोक तथा नाना प्रकारके दुःख इसकी शाखाएँ हैं, पत्नी आदि परिवारके लोग पत्ते हैं और इसमें अनेक प्रकारके फल लगे हैं। मुरारे! मैं इस संसार वृक्षपर चढ़कर गिर रहा हूँ; भगवन्! इस समय मेरी रक्षा कीजिये- मुझे बचाइये।

दुःखानलैर्विविधमोहमयैः सुधूमैः

शोकैर्वियोगमरणान्तकसंनिभैश्च

दग्धोऽस्मि कृष्ण सततं मम देहि मोक्षं

ज्ञानाम्बुनाथ परिषिच्य सदैव मां त्वम्

कृष्ण मैं दुःखरूपी अग्नि, विविध प्रकारके मोहरूपी धुएँ तथा वियोग, मृत्यु और कालके समानशोकोंसे जल रहा हूँ; आप सर्वदा ज्ञानरूपी जलसे सींचकर मुझे सदाके लिये संसार-बन्धनसे छुड़ा दीजिये ।

मोहान्धकारपटले महतीव गर्ते

संसारनाम्नि सततं पतितं हि कृष्ण ।

कृत्वा तरीं मम हि दीनभयातुरस्य

तस्माद् विकृष्य शरणं नय मामितस्त्वम् ॥

कृष्ण! मैं मोहरूपी अन्धकार – राशिसे भरे हुए संसार नामक महान् गड्ढे में सदासे गिरा हुआ हूँ, दीन हूँ और भयसे अत्यन्त व्याकुल हूँ; आप मेरे लिये नौका बनाकर मुझे उस गड्ढेसे निकालिये, वहाँसे खींचकर अपनी शरणमें ले लीजिये।

त्वामेव ये नियतमानसभावयुक्ता

ध्यायन्त्यनन्यमनसा पदवीं लभन्ते ।

नत्वैव पादयुगलं च महत्सुपुण्यं

ये देवकिन्नरगणाः परिचिन्तयन्ति ॥

जो संयमशील हृदयके भावसे युक्त होकर अनन्य चित्तसे आपका ध्यान करते हैं। वे आपकी पदवीको प्राप्त हो जाते हैं तथा जो देवता और किन्नरगण आपके दोनों परम पवित्र चरणोंको प्रणाम करके उनका चिन्तन करते वे भी आपकी पदवीको प्राप्त होते हैं।

नान्यं वदामि न भजामि न चिन्तयामि

त्वत्पादपद्मयुगलं सततं नमामि ।

एवं हि मामुपगतं शरणं च रक्ष

दूरेण यान्तु मम पातकसञ्चयास्ते ।

दासोऽस्मि भृत्यवदहं तव जन्म जन्म

त्वत्पादपद्मयुगलं सततं नमामि ॥

(21 । 20-27)

मैं न तो दूसरेका नाम लेता हूँ न दूसरेको भजता हूँ और न दूसरेका चिन्तन ही करता हूँ; नित्य निरन्तर आपके युगल चरणोंको प्रणाम करता रहता हूँ। इस प्रकार मैं आपकी शरणमें आया हूँ। आप मेरी रक्षा करें, मेरे पातकसमूह शीघ्र दूर हो जायँ। मैं नौकरकी भाँति जन्म-जन्म आपका दास बना रहूँ। भगवन्! आपके युगल चरण-कमलोंको सदा प्रणाम करता हूँ।

श्रीकृष्ण! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं, तो मुझे यह उत्तम वरदान दीजिये-मेरे माता-पिताको सशरीर अपने परमधाममें पहुँचाइये। मेरे ही साथ मेरी पत्नीको भी अपने लोकमें ले चलिये।

श्रीहरि बोले- ब्रह्मन् ! तुम्हारी यह उत्तम कामना अवश्य पूर्ण होगी।

इस प्रकार सुव्रतकी भक्तिसे सन्तुष्ट होकर भगवान् श्रीविष्णु उन्हें उत्तम वरदान दे दाह और प्रलयसे रहित वैष्णवधामको चले गये। सुव्रतके साथ ही सुमना और सोमशर्मा भी वैकुण्ठधामको प्राप्त हुए।

अध्याय-08 राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन

ऋषियोंने कहा – महाभाग सूतजी ! आप महात्मा राजा पृथुके जन्मका विस्तारके साथ वर्णन कीजिये । हम उनकी कथा सुननेके लिये उत्सुक हैं। महाराज पृथुने जिस प्रकार इस पृथ्वीका दोहन किया तथा देवताओं, पितरों और तत्त्ववेत्ता मुनियोंने भी जिस प्रकार उसको दुहा था, वह सब प्रसंग मुझे सुनाइये ।। सूतजी बोले- द्विजवरो। मैं वेनकुमार पृथुके जन्म, पराक्रम और क्षत्रियोचित पुरुषार्थका विस्तारके साथ वर्णन करूँगा ऋषियोंने जो रहस्यकी बातें कही हैं, उन्हें भी बताऊँगा। जो प्रतिदिन वेननन्दन पृथुकीकथाको विस्तारपूर्वक कहेगा, उसके सात जन्मके पाप नष्ट हो जायँगे। पृथुका जन्म – वृत्तान्त तथा सम्पूर्ण चरित्र ही पापोंका नाश करनेवाला और पवित्र है।

पूर्वकालमें अंग नामके प्रजापति थे, जिनका जन्म अत्रिवंशमें हुआ था। वे अत्रिके समान ही प्रभावशाली, धर्मके रक्षक, परम बुद्धिमान् तथा वेद और शास्त्रोंके तत्त्वज्ञ थे। उन्होंने ही सम्पूर्ण धर्मोंकी सृष्टि की थी । मृत्युकी एक परम सौभाग्यवती कन्या थी, जिसका नाम था सुनीथा। महाभाग अंगने उसीके साथ विवाह किया और उसके गर्भसे वेन नामक पुत्रको जन्म दिया, जोधर्मका नाश करनेवाला था। राजा वेन वेदोक्त सदाचाररूप धर्मका परित्याग करके काम, लोभ और महामोहवश पापका ही आचरण करता था। मद और मात्सर्यसे मोहित होकर पापके ही रास्ते चलता था। उस समय सम्पूर्ण द्विज वेदाध्ययनसे विमुख हो गये। वेनके राजा होनेपर प्रजाजनोंमें स्वाध्याय और यज्ञका नाम भी नहीं सुनायी पड़ता था । यज्ञमें आये हुए देवता यजमानके द्वारा अर्पण किये हुए सोमरसका पान नहीं करते थे। वह दुष्टात्मा राजा ब्राह्मणोंसे प्रतिदिन यही कहता था कि ‘स्वाध्याय न करो, होम करना छोड़ दो, दान न दो और यज्ञ भी न करो।’ प्रजापति वेनका विनाशकाल उपस्थित था; इसीलिये उसने यह क्रूर घोषणा की थी। वह सदा यही कहा करता था कि ‘मैं ही यजन करनेके योग्य देवता, मैं ही यज्ञ करनेवाला यजमान तथा मैं ही यज्ञ-कर्म हूँ। मेरे ही उद्देश्यसे यज्ञ और होमका अनुष्ठान होना चाहिये। मैं ही सनातन विष्णु, मैं ही ब्रह्मा, मैं ही रुद्र, मैं ही इन्द्र तथा सूर्य और वायु हूँ। हव्य और कव्यका भोक्ता भी सदा मैं ही हूँ। मेरे सिवा दूसरा कोई नहीं है।’

यह सुनकर महान् शक्तिशाली मुनियोंको वेनके प्रति बड़ा क्रोध हुआ। वे सब एकत्रित हो उस पापबुद्धि राजाके पास जाकर बोले- राजाको धर्मका मूर्तिमान् स्वरूप माना गया है। इसलिये प्रत्येक राजाका यह कर्तव्य है कि वह धर्मकी रक्षा करे। हमलोग बारह वर्षोंमें समाप्त होनेवाले यज्ञकी दीक्षा ग्रहण कर रहे हैं। तुम अधर्म न करो; क्योंकि ऐसा करना सत्पुरुषोंका धर्म नहीं है। महाराज! तुमने यह प्रतिज्ञा की है कि ‘मैं राजा होकर धर्मका पालन करूँगा, अतः उस प्रतिज्ञाके अनुसार धर्म करो और सत्य एवं पुण्यको आचरणमें लाओ।’

ऋषियोंकी उपर्युक्त बातें सुनकर वह क्रोधसे आगबबूला हो उठा और उनकी ओर दृष्टिपात करके द्वितीय यमराजकी भाँति बोला-‘अरे! तुमलोग मूर्ख हो, तुम्हारी बुद्धि मारी गयी है। अतः निश्चय ही तुमलोग मुझे नहीं जानते। भला ज्ञान, पराक्रम, तपस्या और सत्यके द्वारा मेरी समानता करनेवाला इस पृथ्वीपर दूसराकौन है मैं ही सम्पूर्ण भूतों और विशेषतः सब धर्मोकी उत्पत्तिका कारण हैं। यदि चाहूँ तो इस पृथ्वीको जला सकता हूँ, जलमें दबा सकता हूँ तथा पृथ्वी और आकाशको रुँध सकता हूँ।’

जब वेनको किसी प्रकार भी अधर्म मार्गसे हटाया न जा सका, तब महर्षियोंने क्रोधमें भरकर उसे बलपूर्वक पकड़ लिया। वह विवश होकर छटपटाने लगा। उधर क्रोधमें भरे हुए ऋषियोंने राजा वेनकी बायीं जाँपको मधना आरम्भ किया। उससे काले अंजनकी राशिके समान एक नाटे कदका मनुष्य प्रकट हुआ। उसकी आकृति विलक्षण थी लंबा मुँह, विकराल आँखें नीले कवचके समान काला रंग, मोटे और चौड़े कान, बेडौल बढ़ी हुई बाँहें और विशाल भद्दा-सा पेट-यही उसका हुलिया था। ऋषियोंने उसकी ओर देखा और कहा-‘निषीद (बैठ जाओ)।’ उनकी बात सुनकर वह भयसे व्याकुल हो बैठ गया । [ ऋषियोंने ‘निषीद’ कहकर उसे बैठनेकी आज्ञा दी थी; इसलिये उसका नाम ‘निषाद’ पड़ गया।] पर्वतों और वनोंमें ही उसके वंशकी प्रतिष्ठा हुई। निषाद, किरात, भील, नाहलक, भ्रमर, पुलिन्द तथा और जितने भी म्लेच्छजातिके पापाचारी मनुष्य हैं, वे सब वेनके उसी अंगसे उत्पन्न हुए हैं।

तब यह जानकर कि राजा वेनका पाप निकल गया, समस्त ऋषियोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। अब उन्होंने राजाके दाहिने हाथका मन्धन आरम्भ किया। उससे पहले तो पसीना प्रकट हुआ; किन्तु जब पुनः जोरसे मन्थन किया गया, तब वेनके उस सुन्दर हाथसे एक पुरुषका प्रादुर्भाव हुआ, जो बारह आदित्योंके समान तेजस्वी थे। उनके मस्तकपर सूर्यके समान चमचमाता हुआ मुकुट और कानोंमें कुण्डल शोभा पा रहे थे। उन महाबली राजकुमारने आजगव नामका आदि धनुष, दिव्य बाण और रक्षाके लिये कान्तिमान् कवच धारण कर रखे थे। उनका नाम ‘पृथु’ हुआ। वे बड़े सौभाग्यशाली, वीर और महात्मा थे। उनके जन्म लेते ही सम्पूर्ण प्राणियोंमें हर्ष छा गया। उस समय समस्तlब्राह्मणोंने मिलकर पृथुका राज्याभिषेक किया। तदनन्तर ब्रह्माजी, सब देवता तथा नाना प्रकारके स्थावर-जंगम प्राणियोंने महाराज पृथुका अभिषेक किया। उनके पिताने कभी भी सम्पूर्ण प्रजाको प्रसन्न नहीं किया था। किन्तु पृथुने सबका मनोरंजन किया। इसलिये सारी प्रजा सुखी होकर आनन्दका अनुभव करने लगी। प्रजाका अनुरंजन करनेके कारण ही वीर पृथुका नाम ‘राजराज’ हो गया।

द्विजवरो! उन महात्मा नरेशके भवसे समुद्रका जल भी शान्त रहता था। जब उनका रथ चलता, उस समय पर्वत दुर्गम मार्गको छिपाकर उन्हें उत्तम मार्ग देते थे। पृथ्वी बिना जोते ही अनाज तैयार करके देती थी। सर्वत्र गौएँ कामधेनु हो गयी थीं। मेघ प्रजाको इच्छाके अनुसार वर्षा करता था । सम्पूर्ण ब्राह्मण और क्षत्रिय देवयज्ञ तथा बड़े-बड़े उत्सव किया करते थे। राजा पृथुके शासनकालमें वृक्ष इच्छानुसार फलते थे, उनके पास जानेसे सबकी इच्छा पूर्ण होती थी। देशमें न कभी अकाल पड़ता, न कोई बीमारी फैलती और न मनुष्योंकी अकाल मृत्यु ही होती थी। सब लोग मुखसे जीवन बिताते और धर्मानुष्ठानमें लगे रहते थे।”

ब्राह्मणो! प्रजाओंने अपनी जीवन रक्षाके लिये पहले जो अन्नका बीज बो रखा था, उसे एक बार यह पृथ्वी पचाकर स्थिर हो गयी। उस समय सारी प्रजा राजा पृथुके पास दौड़ी गयी और मुनियोंके कथनानुसार बोली- ‘राजन्! हमारे लिये उत्तम जीविकाका प्रबन्ध कीजिये।’ राजाओंमें श्रेष्ठ पृथुने देखा प्रजाके ऊपर बहुत बड़ा भय उपस्थित हुआ है। यह देखकर तथा महर्षियोंकी बात मानकर महाराज पृथुने धनुष और बाण हाथमें लिया और क्रोधमें भरकर बड़े वेगसे पृथ्वीके ऊपर धावा किया। पृथ्वी गायका रूप धारण करके तीव्र गतिसे स्वर्गकी ओर भागी। फिर क्रमशः ब्रह्माजी, भगवान् श्रीविष्णु तथा रुद्र आदि देवताओंकी शरण में गयी; किन्तु कहीं भी उसे अपने बचावका स्थान नमिला। अन्तमें अपनी रक्षाका कोई उपाय न देखकर वह वेनकुमार पृथुकी ही शरणमें आयी और बाणोंके आपातसे व्याकुल हो उन्हींके पास खड़ी हो गयी। उसने नमस्कार करके राजा पृथुसे कहा “महाराज! रक्षा करो, रक्षा करो। महाप्राज्ञ! मैं

धारण करनेवाली भूमि हूँ। मेरे ही आधारपर सब लोग टिके हुए हैं। राजन्। यदि मैं मारी गयी तो सात लोक नष्ट हो जायँगे। गौओंकी हत्यामें बहुत बड़ा पाप है, इस बातका श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है। मेरा नाश होनेपर सारी प्रजा नष्ट हो जायगी। राजन्! यदि मैं न रही तो तुम प्रजाको कैसे धारण कर सकोगे। अतः यदि तुम प्रजाका कल्याण करना चाहते हो तो मुझे मारनेका विचार छोड़ दो। भूपाल ! मैं तुम्हें हितकी बात बताती हैं, सुनो। अपने क्रोधका नियन्त्रण करो, मैं अन्नमयी हो जाऊँगी, समस्त प्रजाको धारण करूँगी। मैं स्त्री है। स्त्री अवध्य मानी गयी है। मुझे मारकर तुम्हें प्रायश्चित्तका भागी होना पड़ेगा।’ राजा पृथु बोले- यदि किसी एक महापापी एवंदुराचारीका वध कर डालनेपर सब लोग सुखसे जी सकें, तथा पुण्यदर्शी साधु पुरुषोंको सुख मिलता हो तो एक पापिष्ठ पुरुषका विनाश करना कर्तव्य माना गया है। वसुधे तुमने भी प्रजाके सम्पूर्ण स्वार्थीका विनाश किया है। इस समय जितने भी बीज थे, उन सबको तुम पचा गयीं। बीजोंको हड़पकर स्वयं तो स्थिर हो गयीं और प्रजाको मार रही हो। ऐसी दशामें [मेरे हाथसे बचकर] अब कहाँ जाओगी वसुन्धरे। संसारके हितके लिये मेरा यह कार्य उत्तम ही माना जायगा। तुमने मेरी आज्ञाका उल्लंघन किया है, इसलिये इन तीखे बाणोंसे मारकर मैं तुम्हें मौतके घाट उतार दूँगा। तुम्हारे न रहनेपर मैं त्रिलोकीमें रहनेवाली पावन प्रजाको अपने ही तेज और धर्मके बलसे धारण करूंगा, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है वसुन्धरे मेरा शासन धर्मके अनुकूल है, अतः इसे मानकर मेरी आज्ञासे तुम प्रजाके जीवनकी सदा ही रक्षा करो। भद्रे ! यदि इस प्रकार आज ही मेरी आज्ञा मान लोगी तो मैं प्रसन्न होकर सदा तुम्हारी रखवाली करूँगा।

पृथ्वी देवी गौके रूपमें खड़ी थीं उनका शरीर बाणोंसे आच्छादित हो रहा था। उन्होंने धर्मात्मा और परम बुद्धिमान् राजा पृथुसे कहा- ‘महाराज! तुम्हारी आज्ञा सत्य और पुण्यसे युक्त है। अतः प्रजाके लिये मैं उसका विशेषरूपसे पालन करूँगी। राजेन्द्र ! तुम स्वयं ही कोई उपाय सोचो, जिससे तुम्हारे सत्यका पालन हो सके और तुम इन प्रजाओंको भी धारण कर सको मैं भी जिस प्रकार समूची प्रजाकी वृद्धि कर सकूँ- ऐसा कोई उपाय बताओ। महाराज! मेरे शरीरमें तुम्हारे उत्तम बाण धँसे हुए हैं, उन्हें निकाल दो और सब ओरसे मुझे समतल बना दो, जिससे मेरे भीतर दुग्ध स्थिर रह सके।’

सूतजी कहते हैं— ब्राह्मणो पृथ्वीकी बात सुनकर राजा पृथुने अपने धनुषके अग्रभागसे विभिन्न रूपवाले भारी-भारी पर्वतोंको उखाड़ डाला और भूमिको समतल बना दिया। राजकुमार पृथुने पृथ्वीके शरीरसे अपने वार्णोंको स्वयं ही निकाल लिया। उनके अविर्भावसे पहले केवल प्रजाओंकी हो उत्पत्ति हुईथी। कोई सच्चा राजा नहीं हुआ था। उन दिनों यह सारी प्रजा कहीं भूमिमें गुफा बनाकर, कहीं पर्वतपर, कहीं नदी के किनारे, जंगली झाड़ियोंमें, सम्पूर्ण तीर्थोंमें तथा समुद्र के किनारों पर निवास करती थी। सब लोग पुण्य कर्मोंमें लगे रहते थे फल, फूल और मधु यही उनका आहार था । वेनकुमार पृथुने प्रजाके इस कष्टको देखा और उसे दूर करनेके लिये स्वायम्भुव मनुको बछड़ा तथा अपने हाथको ही दुग्धपात्र बनाकर पृथ्वीसे सब प्रकारके धान्य और गुणकारी अन्नमय दूधका दोहन किया। सुधाके समान लाभ पहुँचानेवाले उस पवित्र अन्नसे प्रजा पितरों तथा ब्रह्मा आदि देवताओंका यजन पूजन करने लगी। द्विजवरो। उस समयकी सारी प्रजा पुण्यकर्ममें संलग्न रहती थी; अतः देवताओं, पितरों, विशेषतः ब्राह्मणों और अतिथियोंको अन्न देकर पश्चात् स्वयं भोजन करती थी। उसी अन्नसे अन्यान्य यज्ञोंका अनुष्ठान करके वह देवेश्वर भगवान् श्रीविष्णुका यजन और तर्पण करती तथा उसी अन्नके द्वारा सम्पूर्ण देवता तृप्त होते थे। फिर श्रीभगवान्‌की प्रेरणासे मेघ पानी बरसाता और उससे पवित्र अन्न आदि उत्पन्न होता था।

तदनन्तर समस्त ऋषियों, महामना ब्राह्मणों तथा सत्यवादी देवताओंने भी इस पृथ्वीका दोहन किया। अब मैं यह बताता हूँ कि पितर आदिने किस प्रकार बछड़ोंकी कल्पना करके पूर्वकालमें वसुधाको दुहा था । द्विजोत्तमो! पितरोंने चाँदीका दोहन पात्र बनाकर यमको बछड़ा बनाया, अन्तकने दुहनेवाले ग्वालेका काम किया और ‘स्वधा’ रूपी दुग्धको दुहा। इसके बाद सर्पों और नागने तक्षकको बछड़ा बनाकर तूंबीका पात्र हाथमें ले विषरूपी दूध दुहा। वे महाबली और महाकाय भयानक सर्प उस विषसे ही जीवन धारण करते हैं। विष ही उनका आधार, विष ही आचार, विष ही बल और विष ही पराक्रम है। इसी प्रकार समस्त असुरों और दानवोंने भी अन्नके अनुरूप लोहेका पात्र बनाकर सम्पूर्ण कामनाओंके साधनभूत मायामय दूधका दोहन किया, जो उनके समस्त शत्रुओंका विनाश करनेवाला है। वही उनका बल और पुरुषार्थ है, उसीसे दानव जीवन धारणकरते हैं। उसीको पाकर आज भी समस्त दानव मायामें प्रवीण देखे जाते हैं। इसके बाद गन्धर्वो और अप्सराओंने पृथ्वीका दोहन किया। नृत्य और संगीतकी विद्या ही उनका दूध थी। उसीसे गन्धर्व, यक्ष और अप्सराओंकी जीविका चलती है। परम पुण्यमय पर्वतोंने भी इस पृथ्वीसे नाना प्रकारके रत्न और अमृतके समान ओषधियोंका दोहन किया। वृक्षोंने पत्तोंके पात्रमें पृथ्वीका दूध दुहा। जलने और कटनेके बाद भी फिरसे अंकुर निकल आना – यही उनका दूध था। उस समय पाकरका पेड़ बछड़ा बना था और शालके पवित्र वृक्षने दुहनेका काम किया था।

गुह्यक, चारण, सिद्ध और विद्याधरोंने भी सबको धारण करनेवाली इस पृथ्वीको दुहा था। उस समय यह वसुन्धरा सम्पूर्ण अभिलषित पदार्थोंको देनेवाली कामधेनु बन गयी थी। जो लोग जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करते थे, उन्हें भिन्न-भिन्न पात्र और बछड़ोंके द्वारा वह वस्तु यह दूधके रूपमें प्रदान करती थी । यह धात्री (धारण करनेवाली) और विधात्री (उत्पन्न करनेवाली) है। यह श्रेष्ठ वसुन्धरा है, यह समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली धेनु है तथा यह पुण्योंसे अलंकृत, परम पावन, पुण्यदायिनी, पुण्यमयी और सब प्रकारके धान्यको अंकुरित करनेवाली है। यह सम्पूर्ण चराचर जगत्की प्रतिष्ठा और योनि (उत्पत्तिस्थान) है। यही महालक्ष्मी और सब प्रकारकेकल्याणकी जननी है। यही पाँचों भूतोंका प्रकाश और रूप है। यह समुद्रपर्यन्त पृथ्वी पहले ‘मेदिनी’ के नामसे प्रसिद्ध थी। फिर अपनेको वेनकुमार राजा पृथुकी पुत्री स्वीकार करनेके कारण यह ‘पृथ्वी’ कहलाने लगी।

ब्राह्मणो! पृथुके प्रयत्नसे इस पृथ्वीपर घर और गाँवोंकी नींव पड़ी। फिर बड़े-बड़े कस्बे और शहर इसकी शोभा बढ़ाने लगे। यह धन-धान्यसे सम्पन्न हुई और सब प्रकारके तीर्थ इसके ऊपर प्रकट हुए। इस वसुमती देवीकी ऐसी ही महिमा बतलायी गयी है। यह सर्वदा सर्वलोकमयी मानी गयी है। वेनकुमार महाराज पृथुका ऐसा ही प्रभाव पुराणोंमें वर्णित है। ये महाभाग नरेश सम्पूर्ण धर्मोके प्रकाशक, वर्णों और आश्रमोंके संस्थापक तथा समस्त लोकोंके धारण-पोषण करनेवाले थे। जो सौभाग्यशाली राजा इस लोकमें वास्तविक राजपद प्राप्त करना चाहते हों, उन्हें परम प्रतापी राजा वेनकुमार पृथुको नमस्कार करना चाहिये। जो धनुर्वेदका ज्ञान और युद्धमें सदा ही विजय प्राप्त करना चाहते हों, उन्हें भी महाराज पृथुको प्रणाम करना चाहिये। सम्राट् पृथु राजा-महाराजाओंको भी जीविका प्रदान करनेवाले थे। द्विजवरो! यह प्रसंग धन, यश, आरोग्य और पुण्य प्रदान करनेवाला है। जो मनुष्य महाराज पृथुके चरित्रका श्रवण करता है, उसे प्रतिदिन गंगास्नानका फल मिलता है तथा वह सब पापोंसे शुद्ध होकर भगवान् श्रीविष्णुके परमधामको जाता है।

अध्याय-09 मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति

ऋषियोंने पूछा- सूतजी ! पापाचारपूर्ण बर्ताव करनेवाले जिस राजा वेनका आपने परिचय दिया है, उस पापीको उस व्यवहारका कैसा फल मिला ?

सूतजी बोले- ब्राह्मणो । पृथु-जैसे सौभाग्यशाली और महात्मा पुत्रके जन्म लेनेपर राजा वेन पापरहित हो गया। उसे धर्मका फल प्राप्त हुआ। जिन नरेशॉने समस्त महापापका उपार्जन किया है, उनके वे पाप तीर्थयात्रासे नष्ट हो जाते हैं और संतोंका संग प्राप्तहोनेसे पुण्यकी ही वृद्धि होती रहती है। पापियोंसे बातचीत करने, उन्हें देखने, स्पर्श करने, उनके साथ बैठने, भोजन करने तथा उनके संगमें रहनेसे पापका संचार होता है और पुण्यात्माओंके संगसे केवल पुण्यका ही प्रसार होता है, जिससे सारे पाप धुल जानेके कारण मनुष्य पुण्य-गतिको ही प्राप्त करते हैं।

ऋषियोंने पूछा- महामते ! पापी मनुष्योंको परम सिद्धिकी प्राप्ति कैसे होती है, यह बात [भी] हमेंविस्तार के साथ बतलाइये।

सूतजी बोले – नर्मदा, यमुना और गंगा- इन नदियोंकी धाराके आस-पास जो महापापी रहते हैं, वे जान-बूझकर या बिना जाने भी इनके जलमें नहाते और क्रीड़ा करते हैं अतः महानदीके संसर्गसे उन्हें परम गतिकी प्राप्ति हो जाती है। द्विजवरो! महानदीके सम्पर्क से अथवा अन्यान्य नदियोंके परम पवित्र जलका दर्शन, स्पर्श और पान करनेसे पापियोंका पाप नष्ट हो जाता है। तीर्थोंके प्रभाव तथा संतोंके संगसे पापियोंका पाप उसी प्रकार नष्ट होता है, जैसे आग ईंधनको जला डालती है। महात्मा ऋषियोंके संसर्ग, उनके साथ वार्तालाप करनेसे, दर्शन और स्पर्शसे तथा पूर्वकालमें सत्संग प्राप्त होनेसे राजा वेनका सारा पाप नष्ट हो गया था। पुण्यका संसर्ग हो जानेपर अत्यन्त भयंकर पापका भी संचार नहीं होता।

पूर्वकालमें मृत्युके एक सौभाग्यशालिनी कन्या उत्पन्न हुई थी, जिसका नाम सुनीथा रखा गया था । वह पिताके कार्योंको देखती और खेल-कूदमें सदा उन्होंका अनुकरण किया करती थी। एक दिन सुनीथा अपनी सखियोंके साथ खेलती हुई वनमें गयी। वहाँ गीतकी ध्वनि उसके कानोंमें पड़ी। तब सुनीथाने उस ओर दृष्टिपात किया। देखा, गन्धर्वकुमार महाभाग सुशंख भारी तपस्या में लगा हुआ है। उसके सारे अंग बड़े ही मनोहर थे। सुनीथा प्रतिदिन वहाँ जाकर उस तपस्वीको सताने लगी। सुशंख रोज-रोज उसके अपराधको क्षमा कर देता और कहता-‘जाओ, चली जाओ यहाँसे।’ उसके यों कहनेपर वह बालिका कुपित हो जाती और बेचारे तपस्वीको पीटने लगती थी। उसका यह बर्ताव देखकर एक दिन सुशंख क्रोधमूर्च्छित हो उठा और बोला- ‘कल्याणी! श्रेष्ठ पुरुष मारनेके बदले न तो मारते हैं और न किसीके गाली देनेपर क्रोध ही करते हैं; यही धर्मकी मर्यादा है।’ पाप करनेवाली सुनीथासे ऐसा कहकर वह धर्मात्मा गन्धर्व क्रोधसे निवृत्त हो रहा और उसे अबला स्त्री जानकर बिना कुछ दण्ड दिये लौट गया।सुनीथाने पिताके पास जाकर कहा-‘तात मैंने वनमें जाकर एक गन्धर्वकुमारको पीटा है, वह काम क्रोधसे रहित हो तपस्या कर रहा था। मेरे पीटनेपर उस धर्मात्माने कहा है-मारनेवालेको मारना और गाली देनेवालेको गाली देना उचित नहीं है। पिताजी! बताइये, उसके इस कथनका क्या कारण है?’ सुनीथाके इस प्रकार पूछने पर धर्मात्मा मृत्युने उससे कुछ भी नहीं कहा। उसके प्रश्नका उत्तर ही नहीं दिया। तदनन्तर वह फिर वनमें गयी। सुशंख तपस्यामें लगा था। दुष्ट स्वभाववाली सुनीधाने उस श्रेष्ठ तपस्वीके पास जाकर उसे कोड़ोंसे पीटना आरम्भ किया। अब वह महातेजस्वी

गन्धर्व अपने क्रोधको न रोक सका। उस सुन्दरी बालिकाको शाप देते हुए बोला-‘गृहस्थ धर्ममें प्रवेश करनेपर जब तुम्हारा अपने पतिके साथ सम्पर्क होगा, तब तुम्हारे गर्भसे देवताओं और ब्राह्मणोंकी निन्दा करनेवाला, पापाचारी, सब प्रकारके पापोंमें आसक्त और दुष्ट पुत्र उत्पन्न होगा।’ इस प्रकार शाप दे वह पुनः जाकर तपस्यामें ही लग गया।

महाभाग गन्धर्वकुमारके चले जानेपर सुनीथा अपने घर आयी। वहाँ उसने पितासे सारा वृत्तान्त कहसुनाया। मृत्युने कहा- ‘अरी! उस निर्दोष तपस्वीको तुमने क्यों मारा है? भद्रे तपस्यामें लगे हुए पुरुषको मारना यह तुम्हारे द्वारा उचित कार्य नहीं हुआ।’ धर्मात्मा मृत्यु ऐसा कहकर बहुत दुःखी हो गये।

सूतजी कहते हैं- एक समयकी बात है, महर्षि अत्रिके पुत्र महातेजस्वी राजा अंग नन्दन- वनमें गये थे। वहाँ उन्होंने गन्धर्वों, किन्नरों और अप्सराओंके साथ देवराज इन्द्रका दर्शन किया। उनके वैभव, उनके भोगविलास और उनकी लीला देखकर धर्मात्मा अंग सोचने लगे—’ किस उपायसे मुझे इन्द्रके समान पुत्रकी प्राप्ति हो ?’ क्षणभर इस बातका विचार करके राजा अंग खिन्न हो उठे। नन्दन वनसे जब वे घर लौटे तो अपने पिता अत्रिके चरणोंमें मस्तक झुकाकर बोले ‘पिताजी! आप ज्ञानवानों में श्रेष्ठ और पुत्रपर स्नेह रखनेवाले हैं। मुझे इन्द्रके समान वैभवशाली पुत्र कैसे प्राप्त हो, इसका कोई उपाय बताइये।’

अत्रिने कहा- साधुश्रेष्ठ! भक्ति करने और श्रद्धापूर्वक ध्यान लगानेसे भगवान् श्रीविष्णु संतुष्ट होते हैं और संतुष्ट होनेपर वे सदा सब कुछ देते रहते हैं। भगवान् श्रीगोविन्द सब वस्तुओंके दाता, सबकी उत्पत्तिके कारण, सर्वज्ञ, सर्ववेत्ता, सर्वेश्वर और परमपुरुष हैं। इसलिये तुम उन्हींकी आराधना करो। बेटा! तुम जो-जो चाहते हो, वह सब उनसे प्राप्त होगा। भगवान् श्रीविष्णु सुख, परमार्थ और मोक्ष देनेवाले तथा इस जगत्के ईश्वर है। अतः जाओ, उनकी आराधना करो; उनसे तुम्हें इन्द्रके समान पुत्र प्राप्त होगा।

ब्रह्माजीके पुत्र अंगके पिता महर्षि अत्रि ब्रह्माके समान ही तेजस्वी थे। उनसे आज्ञा लेकर अंगने प्रस्थान किया। वे सुवर्ण और रत्नमय शिखरोंसे सुशोभित मेरुगिरिके मनोहर शिखरपर चले गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने गंगाजीके पवित्र तटपर एकान्तमें स्थित रत्नमय कन्दरामें प्रवेश किया। महामुनि अंग बड़े मेधावी और धर्मात्मा थे। वे काम-क्रोधका त्याग त्याग करके सम्पूर्ण इन्द्रियोंको कावूमें रखकर भगवान्के मनोमय स्वरूपकाध्यान करने लगे। क्लेशहारी भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान करते-करते वे ऐसे तन्मय हो गये कि बैठने, सोने, चलने तथा चिन्तन करनेके समय भी उन्हें नित्य निरन्तर भगवान् श्रीमधुसूदन ही दिखायी देते थे। उनका मन भगवान्में लग गया था। वे योगबुक और जितेन्द्रिय होकर चराचर जीवों तथा सूखे और गीले आदि समस्त पदार्थो केवल भगवान् श्रीविष्णुका ही दर्शन करते थे। इस प्रकार तपस्या करते उन्हें सौ वर्ष बीत गये। नियम, संयम तथा उपवासके कारण उनका सारा शरीर दुर्बल हो गया था; तो भी वे अपने तेजसे सूर्य और अग्निके समान देदीप्यमान दिखायी दे रहे थे। इस तरह तपस्यामै प्रवृत्त हो ध्यानमें लगे हुए राजा अंगके सामने भगवान् श्रीविष्णु प्रकट हुए और बोले ‘मानद। यर माँगो, इन्द्रियोंके स्वामी भगवान् श्रीवासुदेवको उपस्थित देख राजा अंगको बड़ा हर्ष हुआ, उनका चित्त प्रसन्न हो गया। वे भगवान्को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे। अंग बोले- भूतभावन! आप ही सम्पूर्ण भूतकी गति है। पावन परमेश्वर आप प्राणियों के आत्मा, सब भूतकि ईश्वर और सगुण स्वरूप धारण करनेवाले हैं; आपको नमस्कार है। आप गुणस्वरूप,गुह्य तथा गुणातीत हैं; आपको नमस्कार है। गुण, गुणकर्ता, गुणसम्पन्न और गुणात्मा भगवान्‌को प्रणाम है। आप भव (संसाररूप), भवकर्ता तथा भक्तोंके संसार-बन्धनका अपहरण करनेवाले हैं; आपको नमस्कार हैं। भवकी उत्पत्तिके कारण होनेसे आपका नाम ‘भव’ है; इस भवमें आप अव्यक्तरूपसे छिपे हुए हैं, इसलिये आपको ‘भवगुह्य’ कहा गया है तथा आप रुद्ररूपसे इस भव—संसारका विनाश करते हैं, इससे आपका नाम भवविनाशी है। आपको प्रणाम है। आप यज्ञ, यज्ञरूप, यज्ञेश्वर और यज्ञकर्ममें संलग्न हैं; आपको नमस्कार है। शंख धारण करनेवाले भगवान्‌को प्रणाम है। सोनेके समान वर्णवाले परमात्माको नमस्कार है। चक्रधारी श्रीविष्णुको प्रणाम है। सत्य, सत्यभाव, सर्वसत्यमय, धर्म, धर्मकर्ता और सर्वविधाता आप भगवान्‌को प्रणाम है। धर्म आपका अंग है, आप श्रेष्ठ वीर और धर्मके आधारभूत हैं; आपको नमस्कार है। आप माया मोहके नाशक होते हुए भी सब प्रकारकी मायाओंके उत्पादक हैं; आपको नमस्कार है। आप मायाधारी मूर्त (साकार) और अमूर्त (निराकार) भी हैं; आपको प्रणाम है। आप सब प्रकारकी मूर्तियोंको धारण करनेवाले और कल्याणकारी हैं, आपको नमस्कार है। ब्रह्मा, ब्रह्मरूप और परब्रह्मस्वरूप आप परमात्माको प्रणाम है। आप सबके धाम तथा धामधारी हैं, आपको नमस्कार है। आप श्रीमान् श्रीनिवास, श्रीधर, क्षीरसागरवासी और अमृतस्वरूप हैं आपको प्रणाम है [संसाररूपी रोगके लिये] महान् औषध, दुष्टोंके लिये घोररूपधारी, महाप्रज्ञापरायण, अक्रूर (सौम्य), प्रमेध्य (परम पवित्र) तथा मेध्यों (पावन वस्तुओं) के स्वामी आप परमेश्वरको नमस्कार है। आपका कहीं अन्त नहीं है, आप अशेष (पूर्ण) और अनय (पापरहित) हैं: आपको प्रणाम है। आकाशको प्रकाशित करनेवाले सूर्य-चन्द्रस्वरूप आपको नमस्कार है। आप हवनकर्म, हुतभोजी अग्नि तथा हविष्यरूप हैं; आपको नमस्कार है। आप बुद्ध (जानी), बुध (विद्वान्) तथा सदा बुद्ध (नित्यज्ञानी) हैं; आपको प्रणाम है।

स्वाहाकार, शुद्ध अव्यक्त, महात्मा, व्यास (वेदोंकाविस्तार करनेवाले), वासव (वसुपुत्र इन्द्र) तथा वसुस्वरूप हैं; आपको नमस्कार है। आप वासुदेव, विश्वरूप और वह्निस्वरूप हैं; आपको प्रणाम है। हरि, कैवल्यरूप तथा वामनभगवान्‌को नमस्कार है। सत्त्वगुणकी रक्षा करनेवाले भगवान् नृसिंहदेवको प्रणाम है। गोविन्द एवं गोपालको नमस्कार है। भगवन्! आप एकाक्षर (प्रणव), सर्वाक्षर (वर्णरूप) और हंसस्वरूप है; आपको प्रणाम है। तीन पाँच और पचीस तत्त्व आपके ही रूप हैं; आप समस्त तत्त्वोंके आधार हैं। आपको नमस्कार है। आप कृष्ण (सच्चिदानन्दस्वरूप), कृष्णरूप (श्यामविग्रह) तथा लक्ष्मीनाथ हैं आपको प्रणाम है। कमललोचन! आप परमानन्दमय प्रभुको नमस्कार है। आप विश्वके भरण-पोषण करनेवाले तथा पापके नाशक हैं, आपको प्रणाम है। पुण्यों में भी उत्तम पुण्य तथा सत्यधर्मरूप आप परमात्माको नमस्कार है। शाश्वत, अविनाशी एवं पूर्ण आकाशस्वरूप परमेश्वरको प्रणाम है। महेश्वर श्रीपद्मनाभको नमस्कार है। केशव ! आपके चरणकमलोंमें मैं प्रणाम करता हूँ। आनन्दकन्द ! कमलाप्रिय वासुदेव! सर्वेश्वर ईशा! मधुसूदन मुझे अपनी दासता प्रदान कीजिये शंख धारण करनेवाले शान्तिदायी केशव आपके चरणोंमें मस्तक झुकाता हूँ। प्रत्येक जन्ममें मुझपर कृपा कीजिये । मेरे स्वामी पद्मनाभ! संसाररूपी दुःसह अग्निके तापसे मैं दग्ध हो रहा हूँ, आप ज्ञानरूपी मेघकी धारासे मेरे तापको शान्त कीजिये तथा मुझ दीनके लिये शरणरूप हो जाइये।

अंगके मुखसे यह स्तोत्र सुनकर भगवान्ने अंगको अपने श्रीविग्रहका दर्शन कराया। उनका मेघके समान श्याम वर्ण तथा महान् ओजस्वी शरीर था तथा हाथमें शंख, चक्र, गदा और पद्म शोभा दे रहे थे। सब और महान् प्रकाश छा रहा था। श्रीभगवान् गरुड़की पीठपर बैठे थे। अंगोंमें सब प्रकारके आभूषण शोभा पा रहे थे। हार, कंकण और कुण्डलोंसे सुशोभित तथा वनमालासे उज्ज्वल उनका अत्यन्त दिव्यरूप बड़ा सुन्दर जान पड़ता था भगवान् श्रीजनार्दन अंगके सामने विराजमान थे। श्रीवत्स नामक चिह्न और पुण्यमयकौस्तुभमणिसे उनकी अपूर्व शोभा हो रही थी। वे सर्वदेवमय श्रीहरि समस्त अलंकारोंकी शोभासे सम्पन्न अपने श्रीविग्रहकी झाँकी कराकर ऋषिश्रेष्ठ अंगसे बोले—’महाभाग! मैं तुम्हारी तपस्यासे संतुष्ट हूँ, तुम कोई उत्तम वर माँग लो।’

अंगने भगवान्के चरणकमलोंमें बारंबार प्रणाम किया और अत्यन्त हर्षमें भरकर कहा ‘देवेश्वर! मैं आपका दास हूँ; यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं तो जैसी शोभा स्वर्गमें सम्पूर्ण तेजसे सम्पन्न इन्द्रकी है, वैसी ही शोभा पानेवाला एक सुन्दर पुत्र मुझे देनेकी कृपा करें। वह पुत्र सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षा करनेवाला होना चाहिये। इतना ही नहीं, वह बालक समस्त देवताओंकाप्रिय, ब्राह्मण-भक्त, दानी, त्रिलोकीका रक्षक, सत्यधर्मका निरन्तर पालन करनेवाला, यजमानोंमें श्रेष्ठ, त्रिभुवनकी शोभा बढ़ानेवाला, अद्वितीय शूरवीर, वेदोंका विद्वान्, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, शान्त, तपस्वी और सर्वशास्त्रविशारद हो। प्रभो ! यदि आप वर देनेके लिये उत्सुक हों तो मुझे ऐसा ही पुत्र होनेका वरदान दीजिये।’

भगवान् वासुदेव बोले- महामते ! तुम्हें इन सद्गुणोंसे युक्त उत्तम पुत्रकी प्राप्ति होगी, वह अत्रिवंशका रक्षक और सम्पूर्ण विश्वका पालन करनेवाला होगा। तुम भी मेरे परम धामको प्राप्त होगे ।

इस प्रकार वरदान देकर भगवान् श्रीविष्णु अन्तर्धान हो गये।

अध्याय-10 सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति

ऋषियोंने पूछा- सूतजी ! गन्धर्वश्रेष्ठ सुशंखने जब सुनीथाको शाप दे दिया, तब वह शाप उसके ऊपर किस प्रकार लागू हुआ ? उसके बाद सुनीथाने कौन-कौन-सा कार्य किया? और उसको कैसा पुत्र प्राप्त हुआ ? सूतजी बोले- ब्राह्मणो! हम पहले बता आये हैं। कि सुशंखके शाप देनेपर सुनीथा दुःखसे पीड़ित हो अपने पिताके निवासस्थानपर आयी और वहाँ उसने पितासे अपनी सारी करतूतें कह सुनायीं। मृत्युने सब बातें सुनकर अपनी पुत्री सुनीथासे कहा-‘बेटी! तूने बड़ा भारी पाप किया है। तेरा यह कार्य धर्म और तेजका नाश करनेवाला है। काम-क्रोधसे रहित, परम शान्त, धर्मवत्सल और परब्रह्ममें स्थित तपस्वीको जो चोट पहुँचाता है. उसके पापात्मा पुत्र होता है तथा उसे उस पापका फल भोगना पड़ता है। वही जितेन्द्रिय और शान्त है, जो मारनेवालेको भी नहीं मारता । किन्तु तूने निर्दोष होनेपर भी उन्हें मारा है; अतः तेरे द्वारा यह महान् पाप हो गया है। पहले तूने ही अपराध किया है; फिरउन्होंने भी शाप दे दिया। इसलिये अब तू पुण्यकर्मोका आचरण कर, सदा साधु पुरुषोंके संगमें रहकर जीवन व्यतीत कर। प्रतिदिन योग, ध्यान और दानके द्वारा काल-यापन करती रह ।

बाले! सत्संग महान् पुण्यदायक और परम कल्याणकारक होता है। सत्संगका जो गुण है, उसके विषयमें एक सुन्दर दृष्टान्त देख। जल एक सद्वस्तु है; उसके स्पर्शसे, उसमें स्नान करनेसे, उसे पीनेसे तथा उसका दर्शन करनेसे भी बाहर और भीतरके दोष धुल जानेके कारण मुनिलोग सिद्धि प्राप्त करते हैं तथा समस्त चराचर प्राणी भी जल पीते रहनेसे दीर्घायु होते हैं। [इसी प्रकार संतोंके संगसे मनुष्य शुद्ध एवं सफलमनोरथ होते हैं ।] पुत्री ! सत्संगसे मनुष्य संतोषी, मृदुगामी, सबका प्रिय करनेवाला, शुद्ध, सरस, पुण्यबलसे सम्पन्न, शारीरिक और मानसिक मलोंको दूर करनेवाला, शान्तस्वभाव तथा सबको सुख देनेवाला होता है। जैसे सुवर्ण अग्निके सम्पर्क में आनेपर मैल त्याग देता है, उसी प्रकार मनुष्य संतोंके संगसे पापकापरित्याग कर देता है। * जिसमें सत्यकी अग्नि प्रज्वलित रहती है, वह अपने पुण्यमय तेजसे प्रकाशमान होता रहता है। जिसमें सत्यकी दीप्ति है, जो ज्ञानके द्वारा भी अत्यन्त निर्मल हो गया है तथा ध्यानके द्वारा अत्यन्त तेजस्वी प्रतीत होता है, पापसे पैदा हुए मनुष्य उसका स्पर्श नहीं कर सकते। सत्यरूपी अग्निसे महात्मा पुरुष पापरूपी ईंधनको भस्म कर डालना चाहता है। इसलिये बेटी! तुझे सत्यका संसर्ग करना चाहिये, असत्यका नहीं। महाभागे ! जाओ, भगवान् श्रीविष्णुका चिन्तन करो; पापभावको छोड़कर केवल पुण्यका आश्रय लो।’

पिताके इस प्रकार समझानेपर दुःखमें पड़ी हुई सुनीथा उनके चरणोंमें प्रणाम करके निर्जन वनमें चली गयी और वहाँ एकान्तमें रहकर तपस्या करने लगी। उसने काम, क्रोध, बालोचित चपलता, मोह, द्रोह औरमायाको त्याग दिया। एक दिन उसके पास उसकी रम्भा आदि सखियाँ, जो तपः शक्तिसे सम्पन्न थीं, आयीं। उन्होंने देखा, सुनीथा दुःखका अनुभव कर रही है। ध्यानके ही साथ उसे चिन्ता करते देख वहाँ आयी हुई सहेलियोंने कहा- ‘सखी! तुम्हारा कल्याण हो, तुम चिन्ता किसलिये करती हो? इस चिन्तामें क्यों डूबी हुई हो ? अपने सन्तापका कारण बताओ। चिन्ता तो केवल दुःख देनेवाली होती है। एक ही चिन्ता सार्थक मानी गयी है, जो धर्मके लिये की जाती है। धर्मनन्दिनी! दूसरी चिन्ता जो योगियोंके हृदयमें होती है, [जिसके द्वारा वे ब्रह्मका चिन्तन करते हैं] वह भी सार्थक है। इनके सिवा और जितनी भी चिन्ताएँ हैं, सब निरर्थक हैं। उसकी कल्पना भी नहीं करनी चाहिये। चिन्ता शरीर, बल और तेजका नाश करनेवाली है; वह सारे सुखोंको नष्ट कर डालती है। साथ ही रूपको भी हानि पहुँचाती है। चिन्ता तृष्णा, मोह और लोभ इन तीन दोषोंको ले आती है तथा प्रतिदिन उसीमें घुलते रहनेपर वह पापको भी उत्पन्न करती है। चिन्ता रोगोंकी उत्पत्ति और नरककी प्राप्तिका कारण है। अतः चिन्ताको छोड़ो। जीव पूर्वजन्ममें अपने कर्मोंद्वारा जिन शुभाशुभ भोगोंका उपार्जन करता है, उन्हीं का वह दूसरे जन्ममें उपभोग करता है। अतः समझदारको चिन्ता नहीं करनी चाहिये। तुम चिन्ता छोड़कर अपने सुख-दुःख आदिकी ही बात बताओ।

सखियोंके ये वचन सुनकर सुनीथाने अपना वृत्तान्त कहना आरम्भ किया। पहले सुशंखने उसे वनमें जिस प्रकार शाप दिया था, वह सारी घटना उसने सहेलियोंसे कह सुनायी। उसने अपने अपराधोंका भी वर्णन किया। उस समय महाभागा सुनीथा मानसिक दुःखसे बड़ा कष्टपा रही थी। उसका सारा वृत्तान्त सुनकर सखियाँने कहा-‘महाभागे तुम्हें दुःखको तो त्याग ही देना चाहिये, क्योंकि वह शरीरका नाश करनेवाला है शुभे तुम्हारे अंगोंमें सती स्त्रियोंके जो उत्तम गुण हैं, उन्हें हम अन्यत्र कहीं नहीं देखतीं। उत्तम स्त्रियोंका पहला आभूषण रूप है, दूसरा शील, तीसरा सत्य, चौथा आर्यता (सदाचार), पाँचवाँ धर्म, छठा सतीत्व, सातवाँ दृढ़ता, आठवाँ साहस (कार्य करनेका उत्साह), नवाँ मंगलगान, दसवाँ कार्य कुशलता, ग्यारहवाँ कामभावका आधिक्य और बारहवाँ गुण मीठे वचन बोलना है। बाले! इन सभी गुणांने तुम्हारा सम्मान बढ़ाया है; अतः देवि! तुम तनिक भी भय न करो। वरानने। जिस उपायसे तुम्हें धर्मात्मा पतिकी प्राप्ति होगी, उसे हम जानती हैं। तुम्हारा काम तो हमलोग ही सिद्ध कर देंगी। महाभागे ! अब तुम स्वस्थ एवं निश्चिन्त हो जाओ। हम तुम्हें एक ऐसी विद्या प्रदान करेंगी, जो पुरुषोंको मोहित कर लेती है।

यह कहकर सखियोंने सुनीथाको वह सुखदायक विद्याबल प्रदान किया और कहा- ‘कल्याणी! तुम देवता आदिमेंसे जिस-जिस पुरुषको मोहित करना चाहो, उसे उसे तत्काल मोहित कर सकती हो।’ सखियोंके यों कहनेपर सुनीथाने उस विद्याका अभ्यास किया। जब वह विद्या भलीभाँति सिद्ध हो गयी, तब सुनीथा बड़ी प्रसन्न हुई। वह सखियोंके साथ ही पुरुषोंको देखती हुई वनमें घूमने लगी। तदनन्तर उसने गंगाजीके तटपर एक रूपवान् ब्राह्मणको देखा, जो समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न और सूर्यके समान तेजस्वी थे। वे तपस्या कर रहे थे। उनका प्रभाव दिव्य था। उन तपस्वी महर्षिका रूप देखकर सुनीथाका मन मोह गया। उसने अपनी सखी रम्भासे पूछा—’ये देवताओंसे भी श्रेष्ठ महात्मा कौन हैं ?’ रम्भा बोली- ‘सखी अव्यक्त परमेश्वरसे ब्रह्माजीकी उत्पत्ति हुई है। उनसे प्रजापति अत्रिका जन्म हुआ, जो बड़े धर्मात्मा हैं। ये महामना तपस्वी उन्होंके पुत्र हैं, इनका नाम अंग है। भद्रे ये नन्दनवनमें आये थे। वहाँ नाना प्रकारके तेजसे सम्पन्न इन्द्रका वैभवदेखकर इन्होंने भी उनके समान पद पानेकी अभिलाषा की। सोचा- जब मुझे भी वंशको बढ़ानेवाला ऐसा ही पुत्र प्राप्त हो, तब मेरा जन्म कल्याणकारी हो सकता है, साथ ही यश और कीर्ति भी मिल सकती है।’ ऐसा विचार करके इन्होंने तपस्या और नियमोंके द्वारा भगवान् हृषीकेशकी आराधना की है। जब भगवान् अत्यन्त प्रसन्न होकर इनके सामने प्रकट हुए, तब इन महर्षिने इस प्रकार वर माँगा – ‘मधुसूदन! मुझे इन्द्रके समान वैभवशाली तथा अपने समान तेजस्वी एवं पराक्रमी पुत्र प्रदान कीजिये । वह पुत्र आपका भक्त एवं सब पापों का नाश करनेवाला होना चाहिये।’ श्रीभगवान्ने कहा—’महात्मन्! मैंने तुम्हें ऐसा पुत्र होनेका वर दिया। वह सबका पालन करनेवाला होगा।” [यों कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये।] तबसे विप्रवर अंग किसी पवित्र कन्याकी तलाशमें हैं। जैसी तुम सब अंगों से मनोहर हो, वैसे ही कन्या वे चाहते हैं; अतः इन्हींको पतिरूपमें प्राप्त करो। इनसे तुम्हें पुण्यात्मा पुत्रकी प्राप्ति होगी। ये महाभाग तपस्वी और पुण्यबलसे सम्पन्न हैं। इनके वीर्यसे उत्पन्न हुआ पुत्र इन्हींकी गुणसम्पत्तिसे युक्त, महातेजस्वी, समस्त धर्मात्माओं में श्रेष्ठ, परम सौभाग्यशाली, युक्तात्मा और योगतत्त्वका ज्ञाता होगा।”

सुनीधा बोली- भद्रे तुमने ठीक कहा है. मैं ऐसा ही करूंगी। इस विद्यासे ब्राह्मणको मोहमें डालूंगी। तुम मुझे सहायता प्रदान करो; जिससे इस समय मैं उनके पास जाऊँ।

रम्भाने कहा- मैं तुम्हारी सहायता करूँगी, तुम मुझे आज्ञा दो।’ सुनीथाके नेत्र बड़े-बड़े थे। वह रूप और यौवनसे शोभा पा रही थी। उसने सद्भावनापूर्वक मायासे दिव्यरूप धारण किया। उसका मुख बड़ा ही मनोहर था। संसारमें उसके सुन्दर रूपकी कहीं तुलना नहीं थी। वह तीनों लोकोंको मोहित करने लगी। सुन्दरी सुनीथा झूलेपर जा बैठी और वीणा बजाती हुई मधुर स्वरमें गीत गाने लगी। उसका स्वर बड़ा मोहक था। उस समय महर्षि अंग अपनी पवित्र गुफाके भीतर एकान्तमें ध्यान लगाये बैठे थे। वे काम-क्रोधसे रहितहोकर भगवान् श्रीजनार्दनका चिन्तन कर रहे थे। उत्तम ताल – स्वरके साथ गाया हुआ वह मधुर और मनोहर गीत सुनकर अंगका चित्त ध्यानसे विचलित हो गया। उस मायामय संगीतने उन्हें मोह लिया था। वे तुरंत ही आसनसे उठे और बारंबार इधर-उधर दृष्टि दौड़ाने लगे। मायासे उनका मन चंचल हो उठा था। वे बड़े वेगसे बाहर निकले और झूलेपर बैठी हुई वीणाधारिणी स्त्रीकी ओर देखा। वह मुसकराती हुई गा रही थी। महायशस्वी अंग उसके गीत और रूप दोनोंपर मुग्ध हो गये। तत्पश्चात् वे महान् मोहके वशीभूत हो उस तरुणीके पास गये। विशाल नेत्र और मनोहर मुसकानवाली मृत्युकी यशस्विनी कन्या सुनीथाको देखकर अंगने पूछा-‘सुन्दरी तुम कौन हो? किसकी ! कन्या हो ? सखियोंसे घिरी हुई यहाँ किस कामसे आयी हो ? किसने तुम्हें इस वनमें भेजा है ?”

परम बुद्धिमान् अंगका यह महत्त्वपूर्ण वचन सुनकर सुनीथा उनसे कुछ न बोली। उसने केवल सखीके मुखकी ओर देखा। रम्भाने इशारेसे कुछ कहकर सुनीथाको समझा दिया और वह स्वयं ही उन श्रेष्ठ ब्राह्मणसे आदरपूर्वक बोली- महर्षे यह मृत्युकी परम सौभाग्यवती कन्या है, लोकमें इसकी सुनीथाके नामसे प्रसिद्धि है। यह सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न है। इस समय यह बाला अपने लिये धर्मात्मा, तपस्वी, शान्त, जितेन्द्रिय, महाप्राज्ञ और वेदविद्या-विशारद पतिकी खोज है।’

यह सुनकर अंगने अप्सराओंमें श्रेष्ठ रम्भासे कहा- ‘भद्रे ! मैंने सर्वविश्वमय भगवान् श्रीहरिकी आराधना की है; उन्होंने मुझे पुत्र होनेका वरदान दिया है, जो सम्पूर्ण सिद्धियोंका दाता है। अतः इस वरदानकी सफलता के निमित्त उत्तम पुत्रकी प्राप्तिके लिये मैं किसी पुण्यबलसे सम्पन्न महापुरुषकी कन्याके साथ विवाहका विचार कर रहा था किन्तु कहीं भी अपने लिये परम मंगलमयी कन्या नहीं पा सका। यह धर्मकी सुमुखी कन्या धर्माचारपरायणा है। यदि वास्तवमें यह पतिकी ही तलाशमें है तो मुझे ही स्वीकार करे।इसकी प्राप्तिके लिये मैं अदेव वस्तु भी दे सकता हूँ।’

रम्भा बोली- ‘द्विजश्रेष्ठ! आपको इसी प्रकार उदारतापूर्वक इसकी अभीष्ट वस्तु इसे देनी चाहिये। यह सदाके लिये आपकी धर्मपत्नी हो रही है आप कभी इसका परित्याग न करें। इसके दोष गुणोंपर कभी आपको ध्यान नहीं देना चाहिये। विप्रवर इस विषयमें आप मुझे प्रत्यक्ष विश्वास दिलाइये। सत्यकी प्रतीति दिलानेवाला अपना हाथ इसके हाथमें दीजिये।’ अंगने कहा- ‘एवमस्तु निश्चय ही अपना हाथ मैंने इसे दे दिया।’

इस प्रकार सत्यका विश्वास करानेवाला सम्बन्ध करके अंगने सुनीथाको गान्धर्वविवाहकी प्रणालीके अनुसार ग्रहण किया। सुनीथाको उन्हें सौंपकर रम्भाके हृदयमें बड़ा हर्ष हुआ। वह अपनी सखीसे आज्ञा लेकर घरको चली गयी। दूसरी दूसरी सखियोंने भी प्रसन्न होकर अपने-अपने घरकी राह ली। उन सब सहेलियोंके चले जानेपर द्विजश्रेष्ठ अंग अपनी प्यारी पत्नीके साथ विहार करने लगे। उसके गर्भसे उन्होंने एक सर्वलक्षण सम्पन्न पुत्र उत्पन्न किया और उसका नाम वेन रखा। सुनीथाका वह महातेजस्वी बालक दिनोदिन बढ़ने लगा और वेद-शास्त्र तथा उपकारी धनुर्वेदका अध्ययन करके समस्त विद्याओंका पारगामी विद्वान् हो गया। क्योंकि यह बड़ा मेधावी था अंगकुमार चेन सज्जनोचित आचारसे रहता था। वह क्षत्रियधर्मका पालन करने लगा। वैवस्वत मन्वन्तर आनेपर संसारकी सारी प्रजा राजाके बिना निरन्तर कष्ट पाने लगी। उस समय सब लोगोंने वेनको ही सब लक्षणोंसे सम्पन्न देखा तब श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने उन्हें प्रजापतिके पदपर अभिषिक्त कर दिया। तत्पश्चात् समस्त ऋषि अपने-अपने तपोवनमें चले गये। उन सबके जानेके पश्चात् अकेले वेन ही राज्यका पालन करने लगे। इस प्रकार वेन भूमण्डलके प्रजापालक हुए। उनके समयमें सब लोग सुखसे जीवन बिताते थे। प्रजा उनके धर्मसे प्रसन्न रहती थी। वेनके राज्यका प्रभाव ऐसा ही था। उनके शासनकालमें सर्वत्र धर्मका प्रभाव छा रहा था।

अध्याय-11 छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन

ऋषियोंने पूछा- सूतजी जब इस प्रकार राजा वेनकी उत्पत्ति ही महात्मा पुरुषसे हुई थी, तब उन्होंने धर्ममय आचरणका परित्याग करके पापमें कैसे मन लगाया ?

सूतजी बोले- वेनकी जिस प्रकार पापाचारमें प्रवृत्ति हुई, वह सब बात में बता रहा हूँ। धर्मके ज्ञाता प्रजापालक राजा वेन जब शासन कर रहे थे, उस समय कोई पुरुष छद्मवेष धारण किये उनके दरबार में आया उसका नंग-धड़ंग रूप विशाल शरीर और सफेद सिर था। वह बड़ा कान्तिमान् जान पड़ता था। काँखमें मोरपंखकी बनी हुई मार्जनी (ओघा) दवाये और एक हाथमें नारियलका जलपात्र (कमण्डलु) धारण किये वह वेद-शास्त्रोंको दूषित करनेवाले शास्त्रका पाठ कर रहा था। जहाँ महाराज वेन बैठे थे, उसी स्थानपर वह बड़ी उतावलीके साथ पहुँचा। उसे आया देख वेनने पूछा- आप कौन हैं, जो ऐसा अद्भुत रूप धारण किये यहाँ आये हैं? मेरे सामनेसब बातें सच-सच बताइये।’ वेनका वचन सुनकर उस पुरुषने उत्तर दिया- ‘तुम इस प्रकार धर्मके पचड़े में पड़कर जो राज्य चला रहे हो, वह सब व्यर्थ है। तुम बड़े मूढ़ जान पड़ते हो। [मेरा परिचय जानना चाहते हो तो सुनो) में देवताओंका परम पूज्य है। मैं हो ज्ञान, मैं ही सत्य और मैं ही सनातन ब्रह्म हूँ। मोक्ष भी मैं ही हूँ। मैं ब्रह्माजीके देहसे उत्पन्न सत्यप्रतिज्ञ पुरुष हूँ। मुझे जिनस्वरूप जानो सत्य और धर्म ही मेरा कलेवर है। ज्ञानपरायण योगी मेरे ही स्वरूपका ध्यान करते हैं।

वेनने पूछा- आपका धर्म कैसा है? आपका शास्त्र क्या है? तथा आप किस आचारका पालन करते हैं? ये सब बातें बताइये।

जिन बोला- जहाँ ‘अर्हन्’ देवता, निर्ग्रन्थ गुरु और दयाको ही परम धर्म बताया गया है, वहीं मोक्ष देखा जाता है। यही जैन दर्शन है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। अब मैं अपने आचार बतला रहा हूँ। मेरे मतमें यजनयाजन और वेदाध्ययन नहीं है सन्ध्योपासन भी नहीं है। तपस्या, दान, स्वधा (श्राद्ध) और स्वाहा (अग्निहोत्र) का भी परित्याग किया गया है। हव्यकव्य आदिकी भी आवश्यकता नहीं है। यज्ञ-यागादि क्रियाओंका भी अभाव है। पितरोंका तर्पण, अतिथियोंका सत्कार तथा बलिवैश्वदेव आदि कर्मोंका भी विधान नहीं ‘किया गया है। केवल ‘अर्हन्’ का ध्यान ही उत्तम माना गया है। जैन-मार्गमें प्रायः ऐसे धर्मका आचरण ही दृष्टिगोचर होता है।

प्राणियोंका यह शरीर पाँचों तत्त्वोंसे ही बनता और परिपुष्ट होता है। आत्मा वायुस्वरूप है; अतः श्राद्ध और यज्ञ आदि क्रियाओंकी कोई आवश्यकता नहीं है। जैसे पानीमें जल-जन्तुओंका समागम होता है तथा जिस प्रकार बुलबुले पैदा होते और विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार संसार में समस्त प्राणियोंका आवागमन होतारहता है। अन्तकाल आनेपर वायुरूप आत्मा शरीर छोड़कर चला जाता है और पंचतत्त्व पाँचों भूतोंमें मिल जाते हैं। फिर मोहसे मुग्ध मनुष्य परस्पर मिलकर मरे हुए जीवके लिये श्राद्ध आदि पारलौकिक कृत्य करते है। मोहवश क्षवाह तिथिको पितरोंका तर्पण करते हैं। भला, मरा हुआ मनुष्य कहाँ रहता है? किस रूपमें आकर श्राद्ध आदिका उपभोग करता है? मिष्टान्न खाकर तो ब्राह्मणलोग तृप्त होते हैं [मृतात्माको क्या मिलता है ?] इसी प्रकार दानकी भी आवश्यकता नहीं जान पड़ती। दान क्यों दिया जाता है? दान देना उत्कृष्ट कर्म नहीं समझना चाहिये। यदि अन्नका भोजन किया जाय तो इसीमें उसकी सार्थकता है। यदि दान ही देना हो तो दयाका दान देना चाहिये, दयापरायण होकर प्रतिदिन जीवोंकी रक्षा करनी चाहिये। ऐसा करनेवाला पुरुष चाण्डाल हो या शूद्र, उसे ब्राह्मण ही कहा गया है। दानका भी कोई फल नहीं है, इसलिये दान नहीं देना चाहिये जैसा श्राद्ध, वैसा दान दोनोंका एक ही उद्देश्य है केवल भगवान् जिनका बताया हुआ धर्म ही भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है। मैं तुम्हारे सामने उसीका वर्णन करता हूँ। वह बहुत पुग्यदायक है। पहले शान्तचित्तसे सबपर दया करनी चाहिये। फिर हृदयसे – मनके शुद्ध भावसे चराचरस्वरूप – एकमात्र जिनकी आराधना करनी चाहिये। उन्होंको नमस्कार करना उचित है। नृपश्रेष्ठ वेन ! माता-पिताके चरणोंमें भी कभी मस्तक नहीं झुकाना चाहिये, फिर औरोंकी तो बात ही क्या है?

वेनने पूछा- ये ब्राह्मण तथा आचार्यगण गंगा आदि नदियोंको पुण्यतीर्थं बतलाते हैं; इनका कहना है, ये तीर्थ महान् पुण्य प्रदान करनेवाले हैं। इसमें कहाँतक सत्य है, यह बतानेकी कृपा कीजिये।

जिन बोला- महाराज। आकाशसे बादल एक ही समय जो पानी बरसाते हैं, वह पृथ्वी और पर्वत सभी स्थानोंमें गिरता है। वही बहकर नदियोंमें एकत्रित होता है और वहाँसे सर्वत्र जाता है। नदियाँ तो जल बहानेवाली हैं ही, उनमें तीर्थ कैसा सरोवर औरसमुद्र सभी जलके आश्रय हैं, पृथ्वीको धारण करनेवाले पर्वत भी केवल पत्थरकी राशि हैं, इनमें तीर्थं नामकी कोई वस्तु नहीं है। यदि समुद्र आदिमें स्नान करनेसे सिद्धि मिलती है तो मछलियोंको सबसे पहले सिद्ध होना चाहिये; पर ऐसा नहीं देखा जाता। राजेन्द्र एकमात्र भगवान् जिन ही सर्वमय हैं, उनसे बढ़कर न कोई धर्म है न तीर्थ संसारमें जिन ही सर्वश्रेष्ठ हैं; अतः उन्हींका ध्यान करो, इससे तुम्हें नित्य सुखकी प्राप्ति होगी।

इस प्रकार उस पुरुषने वेद, दान, पुण्य तथा यज्ञरूप समस्त धर्मोकी निन्दा करके अंगकुमार राजा वेनको पापके भावोद्वारा बहुत कुछ समझाया बुझाया। उसके इस प्रकार समझानेपर वेनके हृदयमें पापभावका उदय हो गया वेन उसकी बातोंसे मोहित हो गया। उसने उसके चरणोंमें प्रणाम करके वैदिक धर्म तथा सत्य-धर्म आदिकी क्रियाओंको त्याग दिया। पापात्मा बेनके शासनसे संसार पापमय हो गया उसमें सब तरहके पाप होने लगे। वेनने वेद, यज्ञ और उत्तम धर्मशास्त्रोंका अध्ययन बंद करा दिया। उसके शासनमें ब्राह्मणलोग न दान करने पाते थे न स्वाध्याय । इस प्रकार धर्मका सर्वथा लोप हो गया और सब ओर महान् पाप छा गया। वेन अपने पिता अंगके मना करनेपर भी उनकी आज्ञाके विपरीत ही आचरण करता था। वह दुरात्मा न पिताके चरणोंमें प्रणाम करता था न माताके वह पुण्य तीर्थ-स्नान और दान आदि भी नहीं करता था। उसके महायशस्वी पिताने अपने भाव और स्वरूपपर बहुत कालतक विचार किया, किन्तु किसी तरह उनकी समझमें यह बात नहीं आयी कि वेन पापी कैसे हो गया।

तदनन्तर एक दिन सप्तर्षि अंगकुमार वेनके पास आये और उसे आश्वासन देते हुए बोले- ‘वेन ! दुःसाहस न करो, तुम यहाँ समस्त प्रजाके रक्षक बनाये गये हो; यह सारा जगत् तुमपर ही अवलम्बित है, धर्माधर्मरूप सम्पूर्ण विश्वका भार तुम्हारे ही ऊपर है। अतः पाप कर्म छोड़कर धर्मका आचरण करो।’सप्तर्षियोंके यों कहनेपर वेन हँसकर बोला- ‘मैं ही परम धर्म हूँ और मैं ही सनातन देवता अर्हन् हूँ। धाता,रक्षक और सत्य भी मैं ही हूँ। मैं परम पुण्यमय सनातन जैनधर्म हूँ। ब्राह्मणो! मुझ धर्मरूपी देवताका ही तुमलोग अपने कर्मोंद्वारा भजन करो।’ ऋषि बोले- राजेन्द्र ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीन वर्ण द्विजाति कहलाते हैं। इन सभी वर्णोंके लिये
सनातन श्रुति ही परम प्रमाण है। समस्त प्राणी वैदिक आचारसे ही रहते हैं और उसीसे जीविका चलाते हैं। राजाके पुण्यसे प्रजा सुखपूर्वक जीवन निर्वाह करती है और राजाके पापसे उसका नाश हो जाता है;इसलिये तुम सत्यका आचरण करो। यह जैनधर्म सत्ययुग, त्रेता और द्वापरका धर्म नहीं है; कलियुगका प्रवेश होनेपर ही कुछ मनुष्य इसका आश्रय लेंगे। जैनधर्म ग्रहण करके सब मनुष्य पापसे मोहित हो जायँगे; वे वैदिक आचारका त्याग करके पाप बटोरेंगे। भगवान् श्रीगोविन्द सब पापोंके हरनेवाले हैं। वे ही कलियुगमें पापका संहार करेंगे। पापियोंके एकत्रित होनेपर म्लेच्छोंका नाश करनेके लिये साक्षात् भगवान् श्रीविष्णु ही कल्किरूपमें अवतीर्ण होंगे, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। अतः वेन ! तुम कलियुगके व्यवहारको त्याग दो और पुण्यका आश्रय लो। वेनने कहा- ब्राह्मणो ! मैं ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ हूँ,

विश्वका ज्ञान मेरा ही ज्ञान है जो मेरी आज्ञाके विपरीत
बर्ताव करता है, वह निश्चय ही दण्डका पात्र है। पापबुद्धि राजा वेनको बहुत बढ़-बढ़कर बातें करते देख ब्रह्माजीके पुत्र महात्मा सप्तर्षि कुपित हो उठे। उनके शापके भयसे वेन एक बाँबीमें घुस गया किन्तु वे ब्रह्मर्षि उस क्रूर पापीको वहाँसे बलपूर्वक पकड़ लाये और क्रोधमें भरकर राजाके बायें हाथका मन्थन करने लगे। उससे एक नीच जातिका मनुष्य पैदा हुआ, जो बहुत ही नाटा, काला और भयंकर था। वह निषादों और विशेषतः म्लेच्छोंका धारण-पोषण करनेवाला राजा हुआ। तत्पश्चात् ऋषियोंने दुरात्मा वेनके दाहिने हाथका मन्थन किया। उससे महात्मा राजा पृथुका जन्म हुआ, जिन्होंने वसुन्धराका दोहन किया था। उन्होंके पुण्य प्रसादसे राजा येन धर्म और अर्थका ज्ञाता हुआ।

अध्याय-12 वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश

सूतजी कहते हैं-द्विजवरो। ऋषियोंके पुण्यमय संसर्गसे, उनके साथ वार्तालाप करनेसे तथा उनके द्वारा शरीरका मन्थन होनेसे, वेनका पाप निकल गया। तत्पश्चात् उसने नर्मदाके दक्षिण तटपर रहकर तपस्या आरम्भ की। तृणविन्दु ऋषिके पापनाशक आश्रमपर निवास करते हुए वेनने काम-क्रोधसे रहित हो सौ वर्षो सेकुछ अधिक कालतक तप किया। राजा वेन निष्पाप हो गया था। अतः उसकी तपस्यासे प्रसन्न होकर शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् श्रीविष्णुने उसे प्रत्यक्ष दर्शन दिया और प्रसन्नतापूर्वक कहा ‘राजन् ! तुम मुझसे कोई उत्तम वर माँगो ।’

वेनने कहा- देवेश्वर! यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझेयह उत्तम वर दीजिये। मैं पिता और माताके साथ इसी शरीरसे आपके परमपदको प्राप्त करना चाहता हूँ। देव!
आपके ही तेजसे आपके परमधाममें जाना चाहता हूँ। भगवान् श्रीविष्णु बोले- महाभाग पूर्वकालमें तुम्हारे महात्मा पिता अंगने भी मेरी आराधना की थी। उसी समय मैंने उन्हें वरदान दिया था कि तुम अपने पुण्यकर्मसे मेरे परम उत्तम धामको प्राप्त होगे। वेन! मैं तुम्हें पहलेका वृत्तान्त बतला रहा हूँ तुम्हारी माता सुनीथाको बाल्यकालमें सुशंखने कुपित होकर शाप दिया था तदनन्तर तुम्हारा उद्धार करनेकी इच्छासे मैंने ही राजा अंगको वरदान दिया कि ‘तुम्हें सुयोग्य पुत्रकी प्राप्ति होगी।’ गुणवत्सल! तुम्हारे पितासे तो मैं ऐसा कह ही चुका था, इस समय तुम्हारे शरीरसे भी मैं ही [पृथुके रूपमें] प्रकट होकर लोकका पालन कर रहा हूँ। पुत्र अपना ही रूप होता है यह श्रुति सत्य है। अतः राजन्! मेरे वरदानसे तुम्हें उत्तम गति मिलेगी। अब तुम एकमात्र दान-धर्मका अनुष्ठान करो। दान ही सबसे श्रेष्ठ धर्म है; इसलिये तुम दान दिया करो। दानसे पुण्य होता है, दानसे पाप नष्ट हो जाता है, उत्तम दानसे कीर्ति होती है। और सुख मिलता है। जो श्रद्धायुक्त चित्तसे सुपात्र ब्राह्मणको गौ, भूमि, सोने और अन्न आदिका महादान देता है, वह अपने मनसे जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करता है, वह सब मैं उसे देता हूँ।

वेनने कहा- जगन्नाथ! मुझे दानोपयोगी कालका लक्षण बतलाइये, साथ ही तीर्थका स्वरूप और पात्रके उत्तम लक्षणका भी वर्णन कीजिये। दानकी विधिको विस्तार के साथ बतलाने की कृपा कीजिये। मेरे मनमें यह सब सुननेकी बड़ी बड़ा है।

भगवान् श्रीविष्णु बोले- राजन्! मैं दानका समय बताता हूँ। महाराज! नित्य, नैमित्तिक और काम्य- ये दानकालके तीन भेद हैं। चौथा भेद प्रायिक (मृत्यु) सम्बन्धी कहलाता है। भूपाल। मेरे अंशभूत सूर्यको उदय होते देख जो जलमात्र भी अर्पण करता है, उसके पुण्यवर्द्धक नित्यकर्मकी कहाँतक प्रशंसा की जाय उस उत्तम बेलाके प्राप्त होनेपर जो श्रद्धा औरभक्ति के साथ स्नान करता तथा पितरों और देवताओंका पूजन करके दान देता है, जो अपनी शक्ति और प्रभावके अनुसार दयार्द्र-चित्तसे अन्न-जल, फल फूल, वस्त्र, पान, आभूषण, सुवर्ण आदि वस्तुएँ दान करता है, उसका पुण्य अनन्त होता है। राजन्। मध्याहन और तीसरे पहरमें भी जो मेरे उद्देश्यसे खान-पान आदि वस्तुएँ दान करता है, उसके पुण्यका भी अन्त नहीं है। अतः जो अपना कल्याण चाहता है, उस पुरुषको तीनों समय निश्चय ही दान करना चाहिये। अपना कोई भी दिन दानसे खाली नहीं जाने देना। चाहिये। राजन्! दानके प्रभावसे मनुष्य बहुत बड़ा बुद्धिमान्, अधिक सामर्थ्यशाली, धनाढ्य और गुणवान् होता है। यदि एक पक्ष या एक मासतक मनुष्य अन्नका दान नहीं करता तो मैं उसे भी उतने ही समयतक भूखा रखता हूँ। उत्तम दान न देनेवाला मनुष्य अपने मलका भक्षण करता है। मैं उसके शरीरमें ऐसा रोग उत्पन्न कर देता हूँ, जिससे उसके सब भोगोंका निवारण हो जाता है। जो तीनों कालोंमें ब्राह्मणों और देवताओंको दान नहीं देता तथा स्वयं ही मिष्टान्न खाता है, उसने महान् पाप किया है। महाराज ! शरीरको सुखा देनेवाले उपवास आदि भयंकर प्रायश्चित्तोंके द्वारा उसको अपने देहका शोषण करना चाहिये।

नरश्रेष्ठ! अब मैं तुम्हारे सामने नैमित्तिक पुण्यकालका वर्णन करता हूँ, मन लगाकर सुनो। महाराज! अमावास्या, पूर्णिमा, एकादशी, संक्रान्ति, व्यतीपात और वैधृति नामक योग तथा माघ, आषाढ़, वैशाख और कार्तिककी पूर्णिमा, सोमवती अमावास्या, मन्वादि एवं युगादि तिथियाँ, गजच्छाया (आश्विन कृष्ण त्रयोदशी) तथा पिताकी क्षयाह तिथि दानके नैमित्तिक काल बताये गये हैं। नृपश्रेष्ठ ! जो मेरे उद्देश्यसे भक्तिपूर्वक ब्राह्मणको दान देता है, उसे मैं निश्चयपूर्वक महान् सुख और स्वर्ग, मोक्ष आदि बहुत कुछ प्रदान करता हूँ।

अब दानका फल देनेवाले काम्य-कालका वर्णन करता हूँ। समस्त व्रतों और देवता आदिके निमित्त जब सकामभावसे दान दिया जाता है, उसे श्रेष्ठ ब्राह्मणौनेदानका काम्यकाल बताया है। राजन्! मैं तुमसे आभ्युदयिक कालका भी वर्णन करता हूँ। सम्पूर्ण शुभकमौका अवसर, उत्तम वैवाहिक उत्सव, नवजात पुत्रके जातकर्म आदि संस्कार तथा चूडाकर्म और उपनयन आदिका समय, मन्दिर, ध्वजा, देवता, बावली, कुआँ, सरोवर और बगीचे आदिकी प्रतिष्ठाका शुभ अवसर इन सबको आभ्युदयिक काल कहा गया है। उस समय जो दान दिया जाता है, वह सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाला होता है।

नृपश्रेष्ठ। अब मैं पाप और पीड़ाका निवारण करनेवाले अन्य कालका वर्णन करता हूँ। मृत्युकाल प्राप्त होनेपर अपने शरीरके नाशको समझकर दान देना चाहिये। वह दान यमलोकके मार्गमें सुख पहुँचानेवाला होता है। महाराज नित्य, नैमितिक और काम्याभ्युदयिक कालसे भिन्न अन्त्यकाल (मृत्युसम्बन्धी काल) – का तुम्हें परिचय दिया गया। ये सभी काल अपने कर्मोंका फल देनेवाले बताये गये हैं।

राजन् ! अब मैं तुम्हें तीर्थका लक्षण बताता हूँ। उत्तम तीथोंमें ये गंगाजी बड़ी पावन जान पड़ती हैं। इनके सिवा सरस्वती, नर्मदा, यमुना, तापी (ताप्ती), चर्मण्वती, सरयू घाघरा और वेणा नदी भी पुण्यमयी तथा पापका नाश करनेवाली हैं। कावेरी, कपिला, विशाला, गोदावरी और तुंगभद्रा ये भी जगत्‌को पवित्र करनेवाली मानी गयी हैं। भीमरथी नदी सदा पापको भय देनेवाली बतायी गयी है। वेदिका, कृष्णगंगा तथा अन्यान्य श्रेष्ठ नदियाँ भी उत्तम हैं। पुण्यपर्वके अवसरपर स्नान करनेके लिये इनसे सम्बद्ध अनेक तीर्थ हैं। गाँव अथवा जंगलमें जहाँ भी नदियाँ हों, सर्वत्र ही वे पावन मानी गयी हैं। अतः वहाँ जाकर स्नान, दान आदि कर्म करने चाहिये। यदि नदियोंके तीर्थका नाम ज्ञात न हो तो उसका ‘विष्णुतीर्थ’ नाम रख लेना चाहिये सभी तोयोंमें मैं ही देवता हूँ। तीर्थ भी मुझसे भिन्न नहीं हैं – यह निश्चित बात है। जो साधक तीर्थ-देवताओंके पास जाकर मेरे ही नामका उच्चारण करता है, उसे मेरे नामके अनुसार ही पुण्य फल प्राप्त होता है। नृपनन्दन! अज्ञाततीर्थों और देवताओंकी संनिधिमें स्नान-दान आदि करते हुए मेरे ही नामका उच्चारण करना चाहिये। विधाताने तोथका नाम ही ऐसा रखा है।

भूमण्डलपर सात सिन्धु परम पवित्र और सर्वत्र स्थित हैं। जहाँ कहीं भी उत्तम तीर्थ प्राप्त हो, वहाँ स्नान-दान आदि कर्म करना चाहिये। उत्तम तीर्थोके प्रभावसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। राजन्। मानस आदि सरोवर भी पावन तीर्थ बताये गये हैं तथा जो छोटी-छोटी नदियाँ हैं, उनमें भी तीर्थ प्रतिष्ठित है। कुको छोड़कर जितने भी खोदे हुए जलाशय हैं, उनमें तीर्थकी प्रतिष्ठा है। भूतलपर जो मेरु आदि पर्वत हैं, वे भी तीर्थरूप हैं। यज्ञभूमि, यज्ञ और अग्निहोत्र में भी तीर्थकी प्रतिष्ठा है। शुद्ध श्राद्धभूमि, देवमन्दिर, होमशाला, वैदिक स्वाध्यायमन्दिर, घरका पवित्र स्थान और गोशाला ये सभी उत्तम तीर्थ हैं। जहाँ सोमयाजी ब्राह्मण निवास करता हो, वहाँ भी तीर्थकी प्रतिष्ठा है। जहाँ पवित्र बगीचे हों, जहाँ पीपल, ब्रह्मवृक्ष (पाकर) और बरगदका वृक्ष हो तथा जहाँ अन्य जंगली वृक्षोंका समुदाय हो, उन सब स्थानोंपर तीर्थका निवास है। इस प्रकार इन तीर्थोका वर्णन किया गया। जहाँ पिता और माता रहते हैं, जहाँ पुराणोंका पाठ होता है, जहाँ गुरुका निवास है तथा जहाँ सती स्त्री रहती है वह स्थान निस्संदेह तीर्थ है। जहाँ श्रेष्ठ पिता और सुयोग्य पुत्र निवास करते हैं, वहाँ भी तीर्थ है। ये सभी स्थान तीर्थ माने गये हैं।

महाप्राज्ञ ! अब तुम दानके उत्तम पात्रका लक्षण सुनो। दान श्रद्धापूर्वक देना चाहिये। उत्तम कुलमें उत्पन्न, वेदाध्ययनमें तत्पर, शान्त, जितेन्द्रिय, दयालु, शुद्ध, बुद्धिमान्, ज्ञानवान् देवपूजापरायण, -तपस्वी, विष्णुभक्त, ज्ञानी, धर्मज्ञ, सुशील और पाखण्डियोंके संगसे रहित ब्राह्मण ही दानका श्रेष्ठ पात्र है। ऐसे पात्रको पाकर अवश्य दान देना चाहिये। अब मैं दूसरे दान पात्रोंको बताता हूँ। उपर्युक्त गुणोंसे युक्त बहिनके पुत्र ( भानजे) को तथा पुत्रीके पुत्र (दौहित्र) को भी दानका उत्तम पात्र समझो। इन्हीं भावोंसे युक्त दामाद, गुरु और यज्ञकीदीक्षा लेनेवाला पुरुष भी उत्तम पात्र है। नरश्रेष्ठ! ये दान देनेयोग्य श्रेष्ठ पात्र बताये गये हैं। जो वेदोक्त आचारसे युक्त हो, वह भी दान पात्र है। धूर्त और काने ब्राह्मणको दान न दे। जिसकी स्त्री अन्याययुक्त दुष्कर्ममें प्रवृत्त हो, जो स्त्रीके वशीभूत रहता हो, उसे दान देना निषिद्ध है। चोरको भी दान नहीं देना चाहिये । उसे दान देनेवाला मनुष्य तत्काल चोरके समान हो जाता है। अत्यन्त जड और विशेषतः शठ ब्राह्मणको भी दान देना उचित नहीं है। वेद-शास्त्रका ज्ञाता होनेपर भी जो सदाचारसे रहितहो, वह श्राद्ध और दानमें सम्मिलित करनेयोग्य कदापि नहीं है। श्रद्धापूर्वक उत्तम कालमें, उत्तम तीर्थमें और उत्तम पात्रको दान देनेसे उत्तम फल मिलता है। राजन् ! संसारमें प्राणियोंके लिये श्रद्धाके समान पुण्य, श्रद्धाके समान सुख और श्रद्धाके समान तीर्थ नहीं है। * नृपश्रेष्ठ ! श्रद्धा भावसे युक्त होकर मनुष्य पहले मेरा स्मरण करे, उसके बाद सुपात्रके हाथमें द्रव्यका दान दे। इस प्रकार विधिवत् दान करनेका जो अनन्त फल है, उसे मनुष्य पा जाता है और मेरी कृपासे सुखी होता है।

अध्याय-13 श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा

भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-नृपश्रेष्ठ! अब मैं पुनः नैमित्तिक दानका वर्णन करता हूँ। जो सत्पात्रको हाथी, घोड़ा और रथ दान करता है, वह भृत्योंसहित पुण्यमय प्रदेशका राजा होता है। राजा होनेके साथ ही वह धर्मात्मा, विवेकी, बलवान्, उत्तम बुद्धिसे युक्त, सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये अजेय और महान तेजस्वी होता है। महाराज ! जो महान् पर्व आनेपर भूमिदान अथवा गोदान करता है, वह सब भोगोंका अधीश्वर होता है। जो पर्व आनेपर तीर्थमें गुप्त दान देता है, उसे शीघ्र ही अक्षय निधियोंकी प्राप्ति होती है जो तीथोंमें महापर्वके प्राप्त होनेपर ब्राह्मणको सुन्दर वस्त्र और सुवर्णका महादान देता है, उसके बहुत से सद्गुणी और वेदोंके पारगामी पुत्र उत्पन्न होते हैं वे सभी आयुष्मान्, पुत्रवान् यशस्वी, पुण्यात्मा यज्ञ करनेवाले तथा तत्वज्ञानी होते हैं। महामते दान करनेवालेको सुख, पुण्य एवं धनकी प्राप्ति होती है। महाराज! कपिला गौका दान करनेवाले पुरुष महान् सुख भोगते हैं; ब्रह्माकी आयुपर्यन्त वे भी ब्रह्मलोकमें निवास करते हैं। सुशील ब्राह्मणको वस्त्रसहित सुवर्णका दान देकर मनुष्य अग्निके समान तेजस्वी होता है और अपनी इच्छाकेअनुसार वैकुण्ठ धाममें निवास करता है। अब आभ्युदयिक दानका वर्णन करता हूँ।

नृपश्रेष्ठ यज्ञ आदिमें जो दान दिया जाता है, वह यदि शुद्धभावसे दिया गया हो तो उससे मनुष्यकी बुद्धि बढ़ती है तथा दाताको कभी दुःख नहीं उठाना पड़ता। वह जीवनभर सुख भोगता है और मृत्युके पश्चात् दिव्य गतिको प्राप्त होकर इन्द्रलोकके भोगोंका अनुभव करता है। इतना ही नहीं, वह हजार कल्पांतकके लिये अपने कुलको स्वर्गमें ले जाता है। अब दूसरे प्रकारका दान बताता हूँ। शरीरको बुढ़ापेसे पीड़ित और क्षीण जानकर मनुष्यको [अपने कल्याणके लिये ] दान अवश्य करना चाहिये, उसे किसीकी भी आशा नहीं रखनी चाहिये। ‘मेरे मर जानेपर ये मेरे पुत्र तथा अन्यान्य स्वजन सम्बन्धी, बन्धु-बान्धव कैसे रहेंगे; मेरे बिना मेरे मित्रोंकी क्या दशा होगी ?’ इत्यादि बातें सोचकर उनके मोहसे मुग्ध हुआ मनुष्य कुछ भी दान नहीं कर पाता । ऐसा जीव यमलोकके मार्गमें पहुँचकर बहुत दुःखी हो जाता है; वह भूख-प्याससे व्याकुल तथा नाना प्रकारके दुःखोंसे पीड़ित रहता है । संसारमें कोई भी किसीका नहीं है; अतः जीते-जी स्वयं ही अपने लिये दान करनाचाहिये। अन्न, जल, सोना, बछड़ेसहित उत्तम गौ, भूमि तथा नाना प्रकारके फल दान करने चाहिये। यदि अधिक शुभ फलकी इच्छा हो तो पैरोंको आराम देनेवाले जूते भी दान देने चाहिये।

बेनने पूछा भगवन् पुत्र, पत्नी, माता, पिता और गुरु ये सब तीर्थ कैसे हैं इस विषयका विस्तारके साथ वर्णन कीजिये।

भगवान् श्रीविष्णु बोले- [ राजन् ! पहले इस बातको सुनो कि पत्नी कैसे तीर्थ है।] काशी नामकी एक बहुत बड़ी पुरी है, जो गंगासे सटकर बसी होनेके कारण बहुत सुन्दर दिखायी देती है। उसमें एक वैश्य रहते थे, जिनका नाम था कृकल उनकी पत्नी परम साध्वी तथा उत्तम व्रतका पालन करनेवाली थी। वह सदा धर्माचरणमें रत और पतिव्रता थी। उसका नाम था सुकला। सुकलाके अंग पवित्र थे। वह सुयोग्य पुत्रोंकी जननी, सुन्दरी, मंगलमयी, सत्यवादिनी, शुभा और शुद्ध स्वभाववाली थी। उसकी आकृति देखने में बड़ी मनोहर थी। व्रतोंका पालन करना उसे अत्यन्त प्रिय था। इस प्रकार वह मनोहर मुसकानवाली सुन्दरी अनेक गुणोंसे युक्त थी। वे वैश्य भी उत्तम वक्ता, धर्मज्ञ, विवेक-सम्पन्न और गुणी थे। वैदिक तथा पौराणिक धर्मोक श्रवणमें उनकी बड़ी लगन थी। उन्होंने तीर्थयात्राके प्रसंगमें यह बात सुनी थी कि “तीथका सेवन बहुत पुण्यदायक है, वहाँ जानेसे पुण्यके साथ ही मनुष्यका कल्याण भी होता है।’ इस बातपर उनके मनमें श्रद्धा तो थी ही, ब्राह्मणों और व्यापारियोंका साथ भी मिल गया। इससे वे धर्मके मार्गपर चल दिये। उन्हें जाते देख उनकी पतिव्रता पत्नी पतिके स्नेहसे मुग्ध होकर बोली।सुकलाने कहा – प्राणनाथ! मैं आपकी धर्मपत्नी हूँ, अतः आपके साथ रहकर पुण्य करनेका मेरा अधिकार है। मैं आपके मार्गपर चलती हूँ। इस सद्भावके कारण मैं कभी आपको अपनेसे अलग नहीं कर सकती। आपकी छायाका आश्रय लेकर मैं पातिव्रत्यके उत्तम व्रतका पालन करूंगी, जो नारियोंके पापका नाशक और उन्हें सद्गति प्रदान करनेवाला है। जो स्त्री पतिपरायणा होती है, वह संसारमें पुण्यमयी कहलाती है। युवतियोंके लिये पतिके सिवा दूसरा कोई ऐसा तीर्थ नहीं हैं, जो इस लोकमें सुखद और परलोकमें स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला हो। साधुश्रेष्ठ! स्वामीके दाहिने चरणको प्रयाग समझिये और बायेंको पुष्कर जो स्त्री ऐसा मानती है तथा इसी भावनाके अनुसार पतिके चरणोदकसे स्नान करती है, उसे उन तीथोंमें स्नान करनेका पुण्य प्राप्त होता है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि स्त्रियोंके लिये पतिके चरणोदकका अभिषेक प्रयाग और पुष्करतीर्थमें स्नान करनेके समान है। पति समस्त तीर्थोंके समान है। पति सम्पूर्ण धर्मोका स्वरूप है। यज्ञकी दीक्षा लेनेवाले पुरुषको यज्ञोंके अनुष्ठानसे जो पुण्य प्राप्त होता है, वही पुण्य साध्वी स्त्री अपने पतिकी पूजा करके तत्काल प्राप्त कर लेती है। * अतः प्रियतम! मैं भी आपकी सेवा करती हुई तीर्थोंमें चलूँगी और आपकी ही छायाका अनुसरण करती हुई लौट आऊंगी।

कृकलने अपनी पत्नीके रूप, शील, गुण भक्ति और सुकुमारता देखकर बारंबार उसपर विचार किया ‘यदि मैं अपनी पत्नीको साथ ले लूँ तो मैं तो अत्यन्त दुःखदायी दुर्गम मार्गपर भी चल सकूँगा, किन्तु वहाँ सर्दी और धूपके कारण इस बेचारीका तो हुलिया हीबिगड़ जायगा। रास्तेमें कठोर पत्थरोंसे ठोकर खाकर इसके कोमल चरणोंको बड़ी पीड़ा पीड़ा होगी। उस अवस्थामें इसका चलना असम्भव हो जायगा। भूख-प्यास से जब इसके शरीरको कष्ट पहुँचेगा तो न जाने इसकी क्या दशा होगी। यह सदा मुझे प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय है तथा नित्य निरन्तर मेरे गार्हस्थ्यधर्मका यही एक आधार है। यह बाला यदि मर गयी तो मेरा तो सर्वनाश ही हो जायगा। यही मेरे जीवनका अवलम्बन है, यही मेरे प्राणोंकी अधीश्वरी है। अतः मैं इसे तीथोंमें नहीं ले जाऊँगा, अकेला ही यात्रा करूंगा।’

यह सोचकर उन्होंने अपनी पत्नीसे कहा- मैं तेरा कभी त्याग नहीं करूँगा। पता दिये बिना ही वे चुपके से साथियोंके साथ चले गये। महाभाग कुकल बड़े पुण्यात्मा थे उनके चले जानेपर सुन्दरी सुकला देवाराधनको बेलामें पुण्यमय प्रभातके समय जब सोकर उठी, तब उसने स्वामीको घरमें नहीं देखा। फिर तो वह हड़बड़ाकर उठ बैठी और अत्यन्त शोकसे पीड़ित होकर रोने लगी। वह बाला अपने पतिके साथियोंके पास जा जाकर पूछने लगी-महाभागगण! आपलोग मेरे बन्धु हैं, मेरे प्राणनाथ कृकल मुझे छोड़कर कहीं चले गये हैं; यदि आपने उन्हें देखा हो तो बताइये। जिन महात्माओंने मेरे पुण्यात्मा स्वामीको देखा हो, वे मुझे बतानेकी कृपा करें।’ उसकी बात सुनकर जानकार लोगोंने उससे परम बुद्धिमान् कृकलके विषयमें इस प्रकार कहा-‘शुभे तुम्हारे स्वामी कृकल धार्मिक यात्राके प्रसंगसे तीर्थसेवनके लिये गये हैं। तुम शोक क्यों करती हो? भद्रे ! वे बड़े-बड़े तीर्थोंकी यात्रा पूरी करके फिर लौट आयेंगे।’

राजन्! विश्वासी पुरुषोंके द्वारा इस प्रकार विश्वास दिलाये जानेपर सुकला पुनः अपने घरमें गयी और करुण स्वरसे फूट-फूटकर रोने लगी। वह पतिपरायणा नारी थी। उसने यह निश्चय कर लिया कि ‘जबतक मेरे स्वामी लौटकर नहीं आयेंगे, तबतक मैं भूमिपर चटाई बिछाकर सोऊँगी। घी, तेल और दूध-दही नहीं खाऊँगी। पान और नमकका भीग कर दूंगी। गुड़ आदि मीठी वस्तुकोभी छोड़ दूंगी। जबतक मेरे स्वामीका पुनः यहाँ आगमन नहीं होगा, तबतक एक समय भोजन करूँगी अथवा उपवास करके रह जाऊँगी।’

इस प्रकार नियम लेकर सुकता बड़े दुःखसे दिन बिताने लगी। उसने एक वेणी धारण करना आरम्भ कर दिया। एक ही अँगियासे वह अपने शरीरको ढकने लगी। उसका वेष मलिन हो गया। वह एक ही मलिन वस्त्र धारण करके रहती और अत्यन्त दुःखित हो लंबी साँस खींचती हुई हाहाकार किया करती थी। विरहाग्निसे दग्ध होनेके कारण उसका शरीर काला पड़ गया। उसपर मैल जम गया। इस तरह दुःखमय आचारका पालन करनेसे वह अत्यन्त दुबली हो गयी। निरन्तर पतिके लिये व्याकुल रहने लगी। दिन-रात रोती रहती थी। रातको उसे कभी नींद नहीं आती थी और न भूख ही लगती थी ।

सुकलाकी यह अवस्था देख उसकी सहेलियोंने आकर पूछा- ‘सखी सुकला! तुम इस समय रो क्यों रही हो ? सुमुखि हमें अपने दुःखका कारण बताओ।’

सुकला बोली- सखियो ! मेरे धर्मपरायण स्वामी मुझे छोड़कर धर्म कमाने गये हैं। मैं निर्दोष, साध्वी, सदाचार-परायणा और पतिव्रता हूँ। फिर भी मेरे प्राणाधार मेरा त्याग करके तीर्थ-यात्रा कर रहे हैं; इसीसे मैं दुःखी हूँ। उनके वियोगसे मुझे बड़ी पीड़ा हो रही है। सखी! प्राण त्याग देना अच्छा है, किन्तु प्राणाधार स्वामीका त्यागना कदापि अच्छा नहीं है। प्रतिदिनका यह दारुण वियोग अब मुझसे नहीं सहा जाता। सखियो ! यही मेरे दुःखका कारण है। नित्यके विरहसे ही मैं कष्ट पा रही हूँ।

सखियोंने कहा- बहिन ! तुम्हारे पति तीर्थ-यात्राके लिये गये हैं। यात्रा पूरी होनेपर वे घर लौट आयेंगे। तुम व्यर्थ ही शोक कर रही हो वृथा ही अपने शरीरको सुखा रही हो तथा अकारण ही भोगोंका परित्याग कर रही हो। अरी! मौजसे खाओ-पीयो; क्यों कष्ट उठाती हो । कौन किसका स्वामी, कौन किसके पुत्र और कौन किसके सगे-सम्बन्धी हैं? संसारमें कोई किसीका नहीं है किसीके साथ भी नित्य सम्बन्ध नहीं है। वाले!खाना-पीना और मौज उड़ाना, यही इस संसारका फल है मनुष्यके मर जानेपर कौन इस फलका उपभोग करता है और कौन उसे देखने आता है।

सुकला बोली- सखियो। तुमलोगोंने जो बात कही है, वह वेदोंको मान्य नहीं है। जो नारी अपने स्वामीसे पृथक् होकर सदा अकेली रहती है, उसे पापिनी समझा जाता है। श्रेष्ठ पुरुष उसका आदर नहीं करते। वेदोंमें सदा यही बात देखी गयी है कि पतिके साथ नारीका सम्बन्ध पुण्यके संसर्गसे ही होता है और किसी कारणसे नहीं [अतः उसे सदा पतिके ही साथ रहना चाहिये।] शास्त्रोंका वचन है कि पति ही सदा नारियोंके लिये तीर्थ है इसलिये स्त्रीको उचित है कि वह सच्चे भावसे पति सेवामें प्रवृत्त होकर प्रतिदिन मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा पतिका ही आवाहन करे और सदा पतिका ही पूजन करे पति स्त्रीका दक्षिण अंग है। उसका वाम पार्श्व ही पत्नीके लिये महान् तीर्थ है। गृहस्थ नारी पतिके वाम भागमें बैठकर जो दान-पुण्य और यज्ञ करती है, उसका बहुत बड़ा फल बताया गया है; काशीकी गंगा, पुष्कर तीर्थ, द्वारकापुरी, उज्जैन तथा केदार नामसे प्रसिद्ध महादेवजीके तीर्थमें स्नान करनेसे भी वैसा फल नहीं मिल सकता। यदि स्त्री अपने पतिको साथ लिये बिना ही कोई यज्ञ करती है, तो उसे उसका फल नहीं मिलता। पतिव्रता स्त्री उत्तम सुख, पुत्रका सौभाग्य, स्नान, दान, वस्त्र, आभूषण, सौभाग्य, रूप,तेज, फल, यश, कीर्ति और उत्तम गुण प्राप्त करती है। पतिकी प्रसन्नतासे उसे सब कुछ मिल जाता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो स्त्री पतिके रहते हुए उसकी सेवाको छोड़कर दूसरे किसी धर्मका अनुष्ठान करती है, उसका वह कार्य निष्फल होता है। तथा लोकमें वह व्यभिचारिणी कही जाती है। नारियोंका यौवन, रूप और जन्म-सब कुछ पतिके लिये होते हैं; इस भूमण्डलमें नारीकी प्रत्येक वस्तु उसके पतिकी आवश्यकता पूर्तिका ही साधन है। जब स्त्री पतिहीन हो जाती है, तब उसे भूतलपर सुख, रूप, यश, कीर्ति और पुत्र कहाँ मिलते हैं। वह तो संसारमें परम दुर्भाग्य और महान् दुःख भोगती है। पापका भोग ही उसके हिस्सेमें पड़ता है। उसे सदा दुःखमय आचारका पालन करना पड़ता है। पतिके संतुष्ट रहनेपर समस्त देवता स्त्रीसे संतुष्ट रहते । ऋषि और मनुष्य भी प्रसन्न रहते हैं। राजन् ! पति ही स्त्रीका स्वामी, पति ही गुरु, पति ही देवताओंसहित उसका इष्टदेव और पति ही तीर्थ एवं पुण्य है। पतिके बाहर चले जानेपर यदि स्त्री शृंगार करती है तो उसका रूप, वर्ण-सब कुछ भाररूप हो जाता है। पृथ्वीपर लोग उसे देखकर कहते हैं कि यह निश्चय ही व्यभिचारिणी है, इसलिये किसी भी पत्नीको अपने सनातन धर्मका त्याग नहीं करना चाहिये। सखियो! इस विषयमें एक पुराना इतिहास सुना जाता है, जिसमें रानी सुदेवाके पापनाशक एवं पवित्र चरित्रका वर्णन है।

अध्याय-14 सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन

सखियोंने पूछा- महाभागे ! ये रानी सुदेवा कौन थीं? उनका आचार-विचार कैसा था? यह हमें बताओ।

सुकला बोली- सखियो ! पहले की बात है, अयोध्यापुरीमें मनुपुत्र महाराज इक्ष्वाकु राज्य करते थे । वे धर्मके तत्त्वज्ञ, परम सौभाग्यशाली, सब धर्मोके अनुष्ठानमें रत, सर्वज्ञ और देवता तथा ब्राह्मणोंके पुजारी थे। काशीके राजा वीरवर महात्मा देवराजकी सदाचारपरायणा कन्या सुदेवाके साथ उन्होंने विवाह किया था। सुदेवा सत्यव्रतके पालनमें तत्पर रहती थीं। पुण्यात्मा राजा इक्ष्वाकु उनके साथ अनेक प्रकारके उत्तम पुण्य और यज्ञ किया करते थे।

एक दिन अपनी रानीके साथ गंगाके तटवर्ती वनमें गये और वहाँ शिकार खेलने लगे। उन्होंने बहुत-से सिंहों और शूकरोंको मारा। वे शिकारमें लगे ही हुए थे कि इतनेमें उनके सामने एक बहुत बड़ा सूअर आ निकला उसके साथ झुंड-के झुंड सूअर थे। वह अपने पुत्र-पौत्रोंसे घिरा था। उसकी प्रियतमा शूकरी भी उसके बगलमें मौजूद थी। उस समय सूअरने राजाको देखकर अपने पुत्रों, पौत्रों तथा पत्नीसे कहा- ‘प्रिये! कोसलदेशके वीर सम्राट् महातेजस्वी इक्ष्वाकु यहाँ शिकार खेलनेके लिये पधारे हैं। उनके साथ बहुत से कुत्ते और व्याध हैं। इसमें सन्देह नहीं कि ये मुझपर भी प्रहार करेंगे। महाराज इक्ष्वाकु बड़े पुण्यात्मा हैं, ये राजाओंके भी राजा और समस्त विश्वके अधिपति हैं। प्रिये। मैं इन महात्माके साथ रणभूमिमें पुरुषार्थ और पराक्रम दिखाता हुआ युद्ध करूँगा। यदि मैंने अपने तेजसे इन्हें जीत लिया तो पृथ्वीपर अनुपम कीर्ति भोगूँगा और यदि वीरवर महाराजके हाथसे मैं ही युद्धमें मारा गया तो भगवान् श्रीविष्णुके लोकमें जाऊँगा। न जाने पूर्वजन्ममें मैंने कौन-सा पाप किया था, जिससे सूअरकी योनिमें मुझे आना पड़ा। आज में महाराजके अत्यन्तभयंकर, पैने और तेज धारवाले सैकड़ों बाणोंकी जलधारासे अपने पूर्वसंचित घोर पातकको धो डालूँगा। तुम मेरा मोह छोड़ दो और इन पुत्रों, पौत्रों तथा श्रेष्ठ कन्याको और बाल-वृद्धसहित समूचे कुटुम्बको साथ लेकर पर्वतकी कन्दरामें चली जाओ। इस समय मेरा स्नेह त्यागकर इन बालकोंकी रक्षा करो।’

शूकरी बोली- नाथ! मेरे बच्चे तुम्हारे ही बलसे पर्वतपर गर्जना करते हुए विचरते हैं। तुम्हारे तेजसे ही निर्भय होकर यहाँ कोमल मूल-फलका आहार करते हैं। महाभाग ! बीहड़ वनोंमें, झाड़ियोंमें, पर्वतोंपर और गुफाओंमें तथा यहाँ भी जो ये सिंहाँ और मनुष्योंके तीव्र भयकी परवा नहीं करते, उसका यही कारण है कि ये तुम्हारे तेजसे सुरक्षित हैं। तुम्हारे त्याग देनेपर मेरे सभी बच्चे दीन, असहाय और अचेत हो जायेंगे। [तुमसे अलग रहनेमें मेरी भी शोभा नहीं है।] उत्तम सोनेके बने हुए दिव्य आभूषणों, रत्नमय उपकरणों तथा सुन्दर वस्त्रोंसे विभूषित होकर और पिता, माता, भाई, सास, ससुर तथा अन्य सम्बन्धियोंसे आदर पाकर भी पतिहीना स्त्री शोभा नहीं पाती। जैसे आचारके बिना मनुष्य, ज्ञानके बिना संन्यासी तथा गुप्त मन्त्रणाके विना राज्यकी शोभा नहीं होती, उसी प्रकार तुम्हारे बिना इस यूथकी शोभा नहीं हो सकती। प्रिय ! प्राणेश्वर! तुम्हारे बिना मैं अपने प्राण नहीं रख सकती। महामते ! मैं सच कहती हूँ-तुम्हारे साथ यदि मुझे नरकमें भी निवास करना पड़े तो उसे सहर्ष – स्वीकार करूँगी। यूथपते! हम दोनों ही अपने पुत्र पौत्रोंसहित इस उत्तम यूथको लेकर किसी पर्वतकी दुर्गम कन्दरामें घुस जायँ, यही अच्छा है। तुम जीवनकी आशा छोड़कर मरनेके लिये जा रहे हो; बताओ, इसमें तुम्हें क्या लाभ दिखायी देता है ?

सूअर बोला- प्रिये! तुम वीरोंके उत्तम धर्मको नहीं जानती; सुनो, मैं इस समय तुम्हें वही बताता हूँ। यदि योद्धा शत्रुके प्रार्थना करने या ललकारनेपर भीकाम, लोभ, भय अथवा मोहके कारण उसे युद्धका अवसर नहीं देता, वह एक हजार युगौतक कुम्भीपाक नामक नरकमें निवास करता है। वीर पुरुष युद्धमें शत्रुका सामना करके यदि उसे जीत लेता है तो यश और कीर्तिका उपभोग करता है; अथवा निर्भयतापूर्वक लड़ता हुआ यदि स्वयं ही मारा जाता है, तो वीरलोकको प्राप्त हो दिव्य भोगोंका उपभोग करता है। प्रिये! बीस हजार वर्षोंतक वह इस सुखका अनुभव करता है। मनुपुत्र राजा इक्ष्वाकु यहाँ पधारे हैं, जो स्वयं बड़े वीर हैं। ये मुझसे युद्ध चाहें तो मुझे अवश्य ही इन्हें युद्धका अवसर देना चाहिये। शुभे ! महाराज युद्धके अतिथि होकर आये हैं और अतिथि सनातन श्रीविष्णुका स्वरूप होता है; अतः युद्धरूपसे इनका सत्कार करना मेरा आवश्यक कर्तव्य है।

शूकरी बोली- प्राणनाथ! यदि आप महात्मा राजाको युद्धका अवसर प्रदान करेंगे तो मैं भी आपके साथ रहकर आपका पराक्रम देखूँगी।

यो कहकर शूकरीने तुरंत अपने प्यारे पुत्रोंको बुलाया और कहा- ‘बच्चो! मेरी बात सुनोः युद्धभूमिमें सनातन विष्णुरूप अतिथि पधारे हैं, उनके सत्कार के लिये मेरे स्वामी जायेंगे इनके साथ मुझे भी नहीं जाना चाहिये। तुम्हारी रक्षा करनेवाले प्राणनाथ जबतक यहाँ उपस्थित हैं, तभीतक तुम दूरके पर्वतकी किसी दुर्गम गुफामें चले जाओ। पुत्रो! मनुपुत्र इक्ष्वाकु बड़े बलवान् और दुर्दमनीय राजा हैं; ये हमलोगोंके लिये कालस्वरूप हैं, सबका संहार कर डालेंगे। अतः तुम दूर भाग जाओ।’

पुत्रोंने कहा- जो माता-पिताको [संकटमें ] छोड़कर जाता है, वह पापात्मा है, उसे महारौद्र एवं अत्यन्त घोर नरकमें गिरना पड़ता है, यह उसके लिये अनिवार्य गति है। जो निर्दयी अपनी माताके पवित्र दूधको पीकर परिपुष्ट होता है और माँ-बापको [विपत्तिमें] छोड़कर चल देता है, वह कीड़ों और दुर्गन्धसे परिपूर्ण नरकमें पड़कर सदा पीका भोजन करता है। इसलिये माँ! हमलोग पिताको और तुम्हेंयहाँ छोड़कर नहीं जायँगे । ऐसा निश्चय करके समस्त शूकर मोर्चा बाँधकर खड़े हो गये। वे सभी बल और तेजसे सम्पन्न थे। उधर अयोध्याके वीर महाराज मनुकुमार इक्ष्वाकु अपनी सुन्दरी भार्या तथा चतुरंगिणी सेनाके साथ आखेटके लिये चले। उनके आगे-आगे व्याध, कुत्ते और तेज चलनेवाले वीर योद्धा थे। वे लोग उस स्थानके समीप गये, जहाँ बलवान् शूकर अपनी पत्नीके साथ मौजूद था। छोटे-बड़े बहुत-से सूअर सब ओरसे उसकी रक्षा कर रहे थे। गंगाके किनारे मेरु पर्वतकी तराईमें पहुँचकर महाराज इक्ष्वाकुने व्याधोंसे कहा- ‘बड़े-बड़े वीर योद्धाओंको शूकरका सामना करनेके लिये भेजो।’ इस प्रकार महाराजकी आज्ञासे भेजे हुए बलवान्, तेजस्वी तथा पराक्रमी योद्धा हाँका डालते हुए दौड़े और वायुके समान वेगसे चलकर तत्काल शूकरके पास जा पहुँचे। वनचारी व्याध अपने तीखे बाणों तथा चमचमाते हुए नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे वीरोंका बाना बाँधकर खड़े हुए और उस वराहको बाँधने लगे।

यह देख वह यूथपति वराह अपने सैकड़ों पुत्र, पौत्र तथा बान्धवोंके साथ युद्धके मैदानमें आ धमका और शत्रुओंपर टूट पड़ा। वह बड़े वेगसे उनका संहार करने लगा। व्याध उसकी पैनी दाढ़ोंसे घायल हो होकर समरभूमिमें गिरने लगे। तदनन्तर शूकरों और व्याधोंमें भयानक संग्राम आरम्भ हुआ। वे क्रोधसे लाल आँखें किये एक-दूसरेको मारने लगे। व्याधोंने बहुतेरे शूकरोंको और शुकरोंने अनेक व्याधोंको मार गिराया। वहाँकी जमीन खूनसे रँग गयी। कितने ही सूअर मर-खप गये, कितने घायल हुए और कितने ही भाग भागकर बीहड़ स्थानों, झाड़ियों, कन्दराओं और अपनी अपनी माँदोंमें जा घुसे। यही दशा व्याधोंकी भी हुई। कितने ही मर गये, कितने ही सूअरोंकी पैनी दादोंके आघातसे कट गये और कितने ही टुकड़े टुकड़े होकर प्राण त्याग स्वर्गलोकको चले गये। केवल वह बलाभिमानी वराह अपनी पत्नी तथा पाँच-सातपुत्र-पौत्रोंके साथ युद्धकी इच्छासे मैदानमें डटा रहा।

उस समय शूकरीने उससे कहा – ‘नाथ ! मुझे और इन
बालकोंको साथ लेकर अब यहाँसे चले चलो।’ शूकरने कहा – महाभागे ! दो सिंहाँके बीचमें पानी पी सकता है, किन्तु दो सूअरोंके बीचमें सूअर सिंह नहीं पी सकता । सूअर जातिमें ऐसा उत्तम बल देखा जाता है। यदि मैं संग्राममें पीठ दिखाकर चला जाऊँ तो उस बलका नाश ही करूँगा-मेरी जातिकी प्रसिद्धि ही नष्ट हो जायगी। मुझे परम कल्याणदायक धर्मका ज्ञान है। जो योद्धा काम, लोभ अथवा भयसे युद्धतीर्थका त्याग करके भाग जाता है, यह निस्सन्देह पापी है जो तीखे शस्त्रोंका व्यूह देखकर प्रसन्न होता है और रणसिन्धुमें गोता लगाकर तीर्थके पार पहुँच जाता है, वह अपने आगेकी सौ पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है और अन्तमें विष्णुधामको जाता है। जो अस्त्र शस्त्रोंसे सुसज्जित योद्धाको सामने आते देख प्रसन्नतापूर्वक उसकी ओर बढ़ता है, उसके पुण्य फलका वर्णन सुनो- ‘उसे पग-पगपर गंगा स्नानका महान् फल प्राप्त होता हैं। जो काम या लोभवश युद्धसे भागकर घरको चला जाता है, वह अपनी माताके दोषको प्रकाशित करता है और व्यभिचारसे उत्पन्न कहलाता है। मैं इस वीर-धर्मको जानता हूँ, अतः युद्ध छोड़कर भाग कैसे सकता हूँ। तुम बच्चोंको लेकर यहाँसे चली जाओ और सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करो।

पतिकी बात सुनकर शूकरी बोली- ‘प्रिय ! मैं तुम्हारे स्नेह बन्धनमें बँधी हूँ तुमने प्रेम, आदर, हास-परिहास तथा रति-क्रीड़ा आदिके द्वारा मेरे मनको बाँध लिया है। अतः मैं पुत्रोंके साथ तुम्हारे सामने प्राण त्याग करूंगी।’ इस तरह बातचीत करके एक- दूसरेका हित चाहनेवाले दोनों पति पत्नीने युद्धका ही निश्चय किया। कोसलसम्राट् इक्ष्वाकुने देखा वर्षकि समय आकाशमें मेघ जिस प्रकार बिजलीकी चमकके साथ गर्जते हैं, उसी तरह अपनी पत्नीके साथ शुकर भी गर्जना करता है और अपने खुरोंके अग्रभागसे मानो महाराजकोयुद्धके लिये ललकार रहा है।

अपनी दुर्द्धर्ष सेनाको उस दुर्द्धर्ष वराहके द्वारा परास्त होते देख राजा इक्ष्वाकुको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने धनुष और कालके समान भयंकर बाण लेकर अश्वके द्वारा बड़े वेगसे शूकरपर आक्रमण किया। उन्हें आते देख सूअर भी आगे बढ़ा। वह घोड़ेके पैरोंके नीचे आ गया, इतनेमें ही राजाने उसे अपने तीखे आणका निशाना बनाया सूअर घायल होकर बड़े वेगसे उछला और घोड़ेसहित राजाको लाँघ गया। उसने अपनी दादोंसे मारकर घोड़के पैरोंमें घाव कर दिया था। इससे उसको बड़ी पीड़ा हो रही थी, उससे चला नहीं जाता था; अन्ततोगत्वा वह पृथ्वीपर गिर पड़ा। तब राजा एक छोटे-से रथपर सवार हो गये। यूथपति सूअर अपनी जातिके स्वभावानुसार रणभूमिमें भयंकर गर्जना कर रहा था, इतनेमें ही कोसलसम्राट्ने उसके ऊपर गदासे प्रहार किया। गदाका आघात पाकर उसने शरीर त्याग दिया और भगवान् श्रीविष्णुके श्रेष्ठ धाममें प्रवेश किया। इस प्रकार महाराज इक्ष्वाकुके साथ युद्ध करके वह शूकरराज हवा वेगसे उखड़कर गिरे हुए वृक्षकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ा। उस समय देवता उसके ऊपरफूलोंकी वर्षा कर रहे थे।

तदनन्तर वे समस्त शूर, क्रूर और भयंकर व्याध हाथोंमें पाश लिये उस शूकरीकी ओर चले। शूकरी अपने चार बच्चोंको घेरकर खड़ी थी। उस महासमरमें कुटुम्बसहित अपने पतिको मारा गया देख वह शोकसे मोहित होकर पुत्रोंसे बोली- ‘बच्चो। जबतक मैं यहाँ खड़ी हूँ, तबतक शीघ्र गतिसे अन्यत्र भाग जाओ।’ यह सुनकर उनमेंसे ज्येष्ठ पुत्रने कहा-‘मैं जीवनके लोभसे अपनी माताको संकटमें छोड़कर चला जाऊँ, यह कैसे हो सकता है। माँ यदि मैं ऐसा करू तो मेरे जीवनको धिक्कार है। मैं अपने पिताके वैरका बदला लूँगा। युद्धमें शत्रुको परास्त करूँगा। तुम मेरे तीनों छोटे भाइयोंको लेकर पर्वतको कन्दरामें चली जाओ। जो माता-पिताको विपत्तिमें छोड़कर जाता है, वह पापात्मा है। उसे कोटि-कोटि कीड़ोंसे भरे हुए नरकमें गिरना पड़ता है।’ बेटेकी बात सुनकर शूकरी दुःखसे आतुर होकर बोली- ‘आह, मेरे बच्चे ! मैं महापापिनी तुझे छोड़कर कैसे जा सकती हूँ। मेरे ये तीन पुत्र भले ही चले जायें।’

ऐसा निश्चय करके उन दोनों माँ-बेटेने शेष तीन बच्चोंको आगे कर लिया और व्याधोंके देखते-देखते वे विकट मार्गसे जाने लगे। समस्त शूकर अपने तेज और बलसे जोशमें आकर बारंबार गरज रहे थे। इसी बीचमें वे शूरवीर व्याध वेगसे चलकर वहाँ आ पहुँचे। शूकरी और शूकर- दोनों माँ-बेटे व्याधोंका मार्ग रोककर खड़े हो गये। व्याध तलवार, बाण और धनुष लिये अधिक समीप आ गये और तीखे तोमर, चक्र तथा मुसलोंका प्रहार करने लगे। ज्येष्ठ पुत्र माताको पीछे करके व्याधोंके साथ युद्ध करने लगा। कितनोंको दाढ़ोंसे कुचलकर उसने मार डाला। कितनोंको थूथनोंकी चोटसे धराशायी कर दिया और कितनोंको खुरोंके अग्रभागसे मारकर मौतके घाट उतार दिया। बहुत-से शूरवीर रणभूमिमें ढेर हो गये। राजा इक्ष्वाकु संग्राममें सूअरको युद्ध करते देखकर और उसे पिताके समान ही शूरवीर जानकर स्वयं उसके सामने आये। महातेजस्वी, प्रतापी मनुकुमारके हाथमें धनुष-बाण थे। उन्होंने अर्धचन्द्राकारतीखे बाणसे शूकरपर प्रहार किया। उसकी छाती गयी और वह राजाके हाथसे घायल होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। गिरते ही उसके प्राण पखेरू उड़ गये। पुत्रके शोक और मोहसे अत्यन्त व्याकुल होकर शूकरी उसकी लाशपर गिर पड़ी; फिर सँभलकर उसने अपने थूथनसे ऐसा प्रहार किया, जिससे अनेकों शूरवीर धरतीपर सो गये। कितने ही व्याथ धराशायी हुए, कितने ही भाग गये और कितने ही कालके गाल में चले गये। शुकरी अपने दादोंके प्रहारसे राजाकी विशाल सेनाको खदेड़ने लगी।

यह देख काशीनरेश देवराजकी पुत्री महारानी सुदेवाने अपने पतिसे कहा- ‘प्राणनाथ! इस शूकरीने आपकी बहुत बड़ी सेनाका विध्वंस कर डाला; फिर भी आप इसकी उपेक्षा क्यों कर रहे हैं? मुझे इसका कारण बताइये।’ महाराजने उत्तर दिया- ‘प्रिये! यह स्त्री है। स्त्रीके वधसे देवताओंने बहुत बड़ा पाप बताया है; इसीलिये मैं इस शूकरीको न तो स्वयं मारता हूँ और न किसी दूसरेको ही इसे मारनेके लिये भेज रहा हूँ। इसके बधके कारण होनेवाले पापसे मुझे भय लगता है।’ यों कहकर महाबुद्धिमान् राजा चुप हो गये। व्याधोंमें एकका नाम भार्गव था; उसने देखा – शूकरी समस्त वीरोंका संहार कर रही है, बड़े-बड़े सूरमा भी उसके सामने टिक नहीं पाते हैं। यह देख व्याधने बड़े वेगसे एक पैने बाणका प्रहार किया और उस शूकरीको बींध डाला। शूकरीने भी झपटकर व्याधको पछाड़ दिया। व्याधने गिरते-गिरते शुकरीपर तेज धारवाली तलवारका भरपूर हाथ जमाया। वह बुरी तरहसे घायल होकर गिर पड़ी और धीरे-धीरे साँस लेती हुई मूर्च्छित हो गयी।

रानी सुदेवाने उस पुत्रवत्सला शूकरीको जब धरतीपर गिरकर बेहोश होते और ऊपरको श्वास लेते देखा तो उनका हृदय करुणासे भर आया। वे उस दुःखिनीके पास गयीं और ठंडे जलसे उसका मुँह धोया, फिर समस्त शरीरपर पानी डाला। इससे शूकरीको कुछ होश हुआ । उसने रानीको पवित्र एवं शीतल जलसे अपने शरीरका अभिषेक करते देख मनुष्योंकी बोलीमेंकहा-‘देवि! तुमने मेरा अभिषेक किया है, इसलिये तुम्हारा कल्याण हो; तुम्हारे दर्शन और स्पर्शसे आज मेरी पापराशि नष्ट हो गयी।’ पशुके मुखसे यह अद्भुत वचन सुनकर रानी सुदेवाको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे मन-ही-मन कहने लगीं- ‘यह तो आज मैंने विचित्र बात देखी; पशु-जातिकी यह मादा इतनी स्पष्ट, सुन्दर, स्वर और व्यंजनसे युक्त तथा उत्तम संस्कृत बोल रही है!’ महाभागा सुदेवा इस घटनासे हर्षमग्न होकर अपने पतिसे बोलीं- ‘राजन् ! इधर देखिये, यह अपूर्व जीव है; पशु जातिकी स्त्री होकर भी मानवीकी भाँति उत्तम संस्कृत बोल रही है।’ इसके बाद रानीने शूकरीसे उसका परिचय पूछा- ‘भद्रे ! तुम कौन हो ? तुम्हारा बर्ताव तो बड़ा विचित्र दिखायी देता है; तुम पशुयोनिकी स्त्री होकर भी मनुष्योंकी तरह बोलती हो। अपने और अपने स्वामी के पूर्व जन्मका वृत्तान्त सुनाओ।’

शूकरी बोली-देवि ! मेरे पति पूर्वजन्ममें संगीत त-कुशल गन्धर्व थे इनका नाम रंगविद्याधर था। [कुछ लोग इन्हें गीतविद्याधर भी कहते थे] ये सब थे। एक समयकी बात है, महातेजस्वीमुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यजी मनोहर कन्दराओं और झरनोंसे सुशोभित गिरिवर मेरुपर निष्कपट भावसे तपस्या कर रहे थे। रंगविद्याधर अपनी इच्छाके अनुसार उस स्थानपर गये और एक वृक्षकी छायामें बैठकर गानेका अभ्यास करने लगे। उनका मधुर संगीत सुनकर मुनिका चित्त ध्यानसे विचलित हो गया। वे गायकके पास जाकर बोले- ‘विद्वन्! तुम्हारे गीतके उत्तम स्वर, ताल, लय और मूर्च्छनायुक्त भावसे मेरा मन ध्यानसे विचलित हो गया है। जब मन निश्चल होता है, तभी समस्त विद्याएँ प्राणियोंको सिद्धि प्रदान करती हैं। मन एकाग्र होनेपर ही तप और मन्त्रोंकी सिद्धि होती है। इन्द्रियोंका यह महान् समुदाय अधम और चंचल है; यह मनको ध्यानसे हटाकर सदा विषयोंकी ओर ही ले जाता है। इसलिये जहाँ शब्द, रूप तथा युवती स्त्रीका अभाव होता है, वहीं मुनिलोग अपने तपकी सिद्धिके लिये जाया करते हैं । [तुम्हारे इस संगीतसे मेरे ध्यानमें बाधा पड़ती है] अतः मेरा अनुरोध है कि तुम इस स्थानको छोड़कर कहीं अन्यन्त्र चले जाओ; अन्यथा मुझे ही यह स्थान छोड़कर दूसरी जगह जाना पड़ेगा।’गीतविद्याधरने कहा – महामते। जिस महात्माने इन्द्रियोंके समुदाय तथा उसके बलको जीत लिया है, उसीको तपस्वी, योगी, धीर और साधक कहते हैं। आप जितेन्द्रिय नहीं हैं, इसीलिये तेजसे हीन हैं। ब्रह्मन् ! यह वन सबके लिये साधारण है-इसपर सबका समान अधिकार है; इसमें कोई ‘ननु नच’ नहीं हो सकता। जैसे इसके ऊपर देवताओं और सम्पूर्ण जीवोंका स्वत्व है, उसी प्रकार मेरा और आपका भी है। ऐसी दशामें मैं इस उत्तम वनको छोड़कर क्यों चला जाऊँ? आप जायँ, चाहे रहें; मुझे इसकी परवा नहीं है।

विप्रवर पुलस्त्यजी धर्मात्मा हैं; इसलिये वे क्षमा करके स्वयं ही उस स्थानको छोड़कर अन्यत्र चले गये और योगासनसे बैठकर तपस्या करने लगे। महाभाग मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यके चले जानेपर दीर्घकालके पश्चात् गन्धर्वको पुनः उनका स्मरण हो आया। वे सोचने लगे- ‘मुनि मेरे ही भयसे भाग गये थे― चलूँ, देखूँ । कहाँ गये? क्या करते हैं और कहाँ रहते हैं?’ यह विचारकर गीतविद्याधरने पहले महर्षिके स्थानका पता लगाया और फिर वराहका रूप धारण करके वे उनके उत्तम आश्रमपर गये, जहाँ पुलस्त्यजी आसनपर विराजमान थे। उनके शरीरसे तेजकी ज्वाला उठ रही थी। किन्तु मेरे पतिपर इसका कुछ प्रभाव न पड़ा, वे कुचेष्टापूर्वक थूथनके अग्रभागसे उन नियमशील ब्राह्मणका तिरस्कार करने लगे। यहाँतक कि उनके आगे जाकर उन्होंने मल-मूत्रतक कर दिया; किन्तु पशु जानकर मुनिने उनको छोड़ दिया-दण्ड नहीं दिया। [ मुनिकी इस क्षमाका मेरे पतिपर उलटा ही असर हुआ, उनकी उद्दण्डता और भी बढ़ गयी।] एक दिन शूकरकेही रूपमें वे फिर वहाँ गये और बारंबार अट्टहास करने लगे। कभी ठहाका मारकर हँसते, कभी रोते और कभी मधुर स्वरसे गीत गाते थे।

सूअरकी चेष्टा छिपी देखकर मुनि समझ गये कि हो न हो, यह वही नीच गन्धर्व है और मुझे ध्यानसे विचलित करनेकी चेष्टा कर रहा है। फिर तो उन्हें बड़ा क्रोध हुआ। वे शाप देते हुए बोले—’ओ महापापी! तू शूकरका रूप धारण करके मुझे इस प्रकार विचलित कर रहा है, इसलिये अब शूकरकी ही योनिमें जा।’ देवि! यही मेरे पतिके शूकरयोनिमें पड़नेका वृत्तान्त है। यह सब मैंने तुम्हें सुना दिया। अब अपना हाल बताती हूँ, सुनो। पूर्वजन्ममें मुझ पापिनीने भी घोर पातक किया है।

अध्याय-15 शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार

शुकरी बोली- कलिंग (उड़ीसा) नाम प्रसिद्ध एक सुन्दर देश है, वहाँ श्रीपुर नामका एक नगर था। उसमें वसुदत्त नामके एक ब्राह्मण निवास करते थे। ये सदा सत्यधर्ममें तत्पर, वेदवेत्ता, ज्ञानी, तेजस्वी, गुणवान् और धन-धान्यसे भरे-पूरे थे। अनेक पुत्र-पौत्र उनके घरकी शोभा बढ़ाते थे मैं वसुदत्तकी पुत्री थी मेरे और भी कई भाई, स्वजन तथा बान्धव थे। परम बुद्धिमान् पिताने मेरा नाम सुदेवा रखा। मैं अप्रतिम सुन्दरी थी। संसारमें दूसरी कोई स्त्री ऐसी नहीं थी, जो रूपमें मेरी समानता कर सके। रूपके साथ ही चढ़ती जवानी पाकर मैं गर्वसे उन्मत्त हो उठी। मेरी मुसकान बड़ी मनोहर थी। बचपनके बाद जब मुझे हाव-भावसे युक्त यौवन प्राप्त हुआ, तब मेरा भरा-पूरा रूप देखकर मेरी माताको बड़ा दुःख हुआ। वह पितासे बोलो – ‘महाभाग! आप कन्याका विवाह क्यों नहीं कर देते? अब यह जवान हो चुकी है, इसे किसी योग्य वरको सौंप दीजिये।’ वसुदत्तने कहा- ‘कल्याणी । सुनो; मैं उसी वरके साथ इसका विवाह करूँगा, जो विवाहके पश्चात् मेरे ही घरपर निवास करे, क्योंकि सुदेवा मुझे प्राणोंसे भी बढ़कर प्यारी है। मैं इसे आँखोंसे ओट नहीं होने देना चाहता।

तदनन्तर एक दिन सम्पूर्ण विद्याओंमें विशारद एक कौशिक गोत्री ब्राह्मण भिक्षाके लिये मेरे द्वारपर आये। उन्होंने वेदोंका पूर्ण अध्ययन किया था। वे बड़े अच्छे स्वरसे वेद-मन्त्रोंका उच्चारण करते थे। उन्हें आया देख मेरे पिताने पूछा- ‘आप कौन हैं? आपका नाम, कुल, गोत्र और आचार क्या है? यह बताइये।’ पिताकी बात सुनकर ब्राह्मण कुमारने उत्तर दिया- ‘कौशिकवंशमें मेरा जन्म हुआ है। मैं वेद-वेदांगोंका पारंगत विद्वान् हूँ, मेरा नाम शिवशर्मा है; मेरे माता-पिता अब इस संसारमें नहीं हैं।” शिवशर्माने जब इस प्रकार अपना परिचय दिया, तब मेरे पिताने शुभ लग्न में उनके साथ मेरा विवाहकर दिया। अब उनके साथ ही मैं पिताके घरपर रहने लगी। परन्तु मैं माता-पिताके धनके घमंडसे अपनी विवेकशक्ति खो बैठी थी। मुझ पापिनीने कभी भी अपने स्वामीकी सेवा नहीं की। मैं सदा उन्हें क्रूर दृष्टिसे ही देखा करती थी। कुछ व्यभिचारिणी स्त्रियोंका साथ हो गया था, अतः संग-दोषसे मेरे मनमें भी वैसा ही नीच भाव आ गया था। मैं जहाँ-तहाँ स्वच्छन्दतापूर्वक घूमती-फिरती और माता-पिता, पति तथा भाइयोंके हितकी परवा नहीं करती थी। शिवशर्माका शील और उनकी साधुता सबको ज्ञात थी, अतः माता-पिता आदि सब लोग मेरे पापसे दुःखी रहते थे। मेरा दुष्कर्म देख पतिदेव उस घरको छोड़कर चले गये। उनके जानेसे पिताजीको बड़ी चिन्ता हुई। उन्हें दुःखसे व्याकुल देख माताने पूछा- ‘नाथ! आप चिन्तित क्यों हो रहे हैं?’ वसुदत्तने कहा- ‘प्रिये! सुनो, दामाद मेरी पुत्रीको त्यागकर चले गये। सुदेवा पापाचारिणी है और वे पण्डित तथा बुद्धिमान् थे मैं क्या जानता था कि यह मेरी कन्या सुदेवा ऐसी दुष्टा और कुलनाशिनी होगी।’

ब्राह्मणी बोली- नाथ! आज आपको पुत्रीके गुण और दोषका ज्ञान हुआ है-इस समय आपकी आँखें खुली हैं; किन्तु सच तो यह है कि आपके ही मोह और स्नेहसे लाड़ और प्यारसे यह इस प्रकार बिगड़ी है। अब मेरी बात सुनिये- सन्तान जबतक पाँच वर्षकी न हो जाय, तभीतक उसका लाड़-प्यार करना चाहिये। उसके बाद सदा सन्तानकी शिक्षाकी ओर ध्यान देते हुए उसका पालन पोषण करना उचित है। नहलाना-धुलाना, उत्तम वस्त्र पहनाना, अच्छे खान-पानका प्रबन्ध करना-ये सब बातें सन्तानकी पुष्टिके लिये आवश्यक है। साथ ही पुत्रोंको उत्तम गुण और विद्याकी ओर भी लगाना चाहिये। पिताका कर्तव्य है कि वह सन्तानको सद्गुणोंकी शिक्षा देनेके लिये सदा कठोर बना रहे। केवल पालन-पोषणके लिये उसके प्रति मोह-ममतारखे । पुत्रके सामने कदापि उसके गुणोंका वर्णन न करे उसे राहपर लानेके लिये कड़ी फटकार सुनाये तथा इस प्रकार उसे साधे, जिससे वह विद्या और गुणोंमें सदा ही निपुण होता जाय। जब माता अपनी कन्याको, सास अपनी पुत्र वधूको और गुरु अपने शिष्योंको ताड़ना देता है, तभी वे सीधे होते हैं। इसी प्रकार पति अपनी पत्नीको और राजा अपने मन्त्रीको दोषोंके लिये कड़ी फटकार सुनायें। शिक्षा – बुद्धिसे ताड़न और पालन करनेपर सन्तान सद्गुणोंद्वारा प्रसिद्धि लाभ करती है।

शिवशर्मा उत्तम ब्राह्मण थे। उनके साथ रहनेपर भी इस कन्याको आपने घरमें निरंकुश स्वच्छन्द बना रखा था। इसीसे उच्छृंखल हो जानेके कारण यह नष्ट हुई है। पुत्री अपने पिताके घरमें रहकर जो पाप करती है, उसका फल माता-पिताको भी भोगना पड़ता है; इसलिये समर्थ पुत्रीको अपने घरमें नहीं रखना चाहिये। जिससे उसका ब्याह किया गया है, उसीके घरमें उसका पालन-पोषण होना उचित है। वहाँ रहकर वह भक्तिपूर्वक जो उत्तम गुण सीखती और पतिकी सेवा करती है, उससे कुलकी कीर्ति बढ़ती है और पिता भी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है। ससुरालमें रहकर यदि वह पाप करती है तो उसका फल पतिको भोगना पड़ता है। यहाँ सदाचारपूर्वक रहनेसे वह सदा पुत्र-पौत्रोंके साथ वृद्धिको प्राप्त होती है। प्राणनाथ ! पुत्रीके उत्तम गुणोंसे पिताकी कीर्ति बढ़ती है। इसलिये दामाद के साथ भी कन्याको अपने घर नहीं रखना चाहिये। इस विषयमें एक पौराणिक इतिहास सुना जाता है, जो अट्ठाईसवें द्वापरके आनेपर संघटित होनेवाला है यदुकुलश्रेष्ठ वीरवर उग्रसेनके यहाँ जो घटना घटित होनेवाली है, उसीका मैं [ भूतकालके रूपमें] वर्णन करूँगी।

माथुर प्रदेशमें मथुरा नामकी नगरी है, वहाँ उग्रसेन नामवाले यदुवंशी राजा राज्य करते थे। वे शत्रुविजयी, सम्पूर्ण धर्मोके तत्त्वज्ञ, बलवान्, दाता और सद्गुणोंके जानकार थे। मेधावी राजा उग्रसेन धर्मपूर्वक राज्यका संचालन और प्रजाका पालन करते थे। उन्हीं दिनों परम पवित्र विदर्भदेशमें सत्यकेतु नामसे प्रसिद्ध एक प्रतापीराजा थे। उनकी एक पुत्री थी, जिसका नाम पद्मावती था। वह सत्य-धर्ममें तत्पर तथा स्त्री समुचित गुणोंसे युक्त होनेके कारण दूसरी लक्ष्मीके समान थी। मथुराके राजा उग्रसेनने उस मनोहर नेत्रोंवाली पद्मावतीसे विवाह किया। उसके स्नेह और प्रेमसे मथुरानरेश मुग्ध हो गये। पद्मावतीको वे प्राणोंके समान प्यार करने लगे। उसे साथ लिये बिना भोजनतक नहीं करते थे। उसके साथ क्रीड़ा-विलास में ही राजाका समय बीतने लगा। पद्मावतीके बिना उन्हें एक क्षण भी चैन नहीं पड़ता था। इस प्रकार उस दम्पतिमें परस्पर बड़ा प्रेम था।

कुछ कालके पश्चात् विदर्भनरेश सत्यकेतुने अपनी पुत्री पद्मावतीको स्मरण किया। उसकी माता उसे न देखनेके कारण बहुत दुःखी थी। उन्होंने मथुरानरेश उग्रसेनके पास अपने दूत भेजे। दूतोंने वहाँ जाकर आदरपूर्वक राजासे कहा ‘महाराज ! विदर्भनरेश सत्यकेतुने अपनी कुशल कहलायी है और आपका कुशल- समाचार वे पूछ रहे हैं। यदि उनका प्रेम और स्नेहपूर्ण अनुरोध आपको स्वीकार हो तो राजकुमारी पद्मावतीको उनके यहाँ भेजनेकी व्यवस्था कीजिये । वे अपनी पुत्रीको देखना चाहते हैं।’ नरश्रेष्ठ उग्रसेनने जब दूतोंके मुँहसे यह बात सुनी तो प्रीति, स्नेह और उदारताके कारण अपनी प्रिय पत्नी पद्मावतीको विदर्भराजके यहाँ भेज दिया। पतिके भेजनेपर पद्मावती बड़े हर्षके साथ अपने मायके गयी। वहाँ पहुँचकर उसने पिताके चरणोंमें प्रणाम किया। उसके आनेसे महाराज सत्यकेतुको बड़ी प्रसन्नता हुई। पद्मावती वहाँ अपनी सखियोंके साथ निःशंक होकर घूमने लगी। पहलेकी ही भाँति घर, वन, तालाब और चौबारोंमें विचरण करने लगी। यहाँ आकर वह पुनः बालिका बन गयी; उसके बर्तावमें लाज या संकोचका भाव नहीं रहा।

एक दिनकी बात है—’पद्मावती [अपनी सखियोंके साथ] एक सुन्दर पर्वतपर सैर करनेके लिये गयी। उसकी तराईमें एक रमणीय वन दिखायी दिया, जो केलोंके उद्यानसे शोभा पा रहा था। पहाड़पर भी फूलोंकी बहार थी। राजकुमारीने देखा-एक ओर ऐसारमणीय पर्वत, दूसरी ओर मनोहर वनस्थली और बीचमें स्वच्छ जलसे भरा सर्वतोभद्र नामक तालाब है। बालोचित चपलता, नारी- स्वभाव और खेल-कूदकी रुचि – इन सबका प्रभाव उसके ऊपर पड़ा। वह महेलियोंके साथ तालाब में उत्तर पड़ी और हँसती-गाती हुई जल-क्रीड़ा करने लगी।

इसी समय कुबेरका सेवक गोभिल नामक दैत्य दिव्य विमानपर बैठकर आकाशमार्ग से कहीं जा रहा था। तालाबके ऊपर आनेपर उसकी दृष्टि विशाल नेत्रोंवाली विदर्भ- राजकुमारी पद्मावतीपर पड़ी, जो निर्भय होकर स्नान कर रही थी। गोभिलको ज्ञान-शक्ति बहुत बड़ी हुई थी, उसने निश्चित रूपसे जान लिया कि ‘यह विदर्भ- नरेशकी कन्या और महाराज उग्रसेनकी प्यारी पत्नी है। परन्तु यह तो पतिव्रता होनेके कारण आत्मबल हो सुरक्षित है, परपुरुषोंके लिये इसे प्राप्त करना नितान्त कठिन है। उग्रसेन महामूर्ख है, जो उसने ऐसी सुन्दरी पत्नीको मायके भेज दिया है आह! यह पतिव्रता नारी पराये पुरुषके लिये दुर्लभ है, इधर कामदेव मुझे अत्यन्त पीड़ा दे रहा है। मैं किस प्रकार इसके निकट जाऊँ और कैसे इसका उपभोग करूँ ?’ इसी उधेड़-बुनमें पड़े-पड़े उसने अपने लिये एक उपाय निकाल लिया। गोभिलने महाराज उग्रसेनका मायामय रूप धारण किया। वह ज्यों-का-त्यों उग्रसेन बन गया। वही अंग, वही उपांग, वैसे ही वस्त्र, उसी तरहका वेष और वही अवस्था पूर्णरूपसे उग्रसेन – सा होकर वह पर्वतके शिखरपर उतरा और एक अशोकवृक्षको छायामें शिलाके ऊपर बैठकर उसने मधुर स्वरसे संगीत छेड़ दिया वह गीत सम्पूर्ण विश्वको मोहित करनेवाला था ताल, लय और उत्तम स्वरसे युक्त उस मधुर गानको सखियोंके मध्यमें बैठी हुई सुन्दरी पद्मावतीने भी सुना वह सोचने लगी- कौन गायक यह गीत गा रहा है? राजकुमारीके मनमें उसे देखनेकी उत्कण्ठा हुई। उसने सखियोंके साथ जाकर देखा, अशोककी छायामें उज्ज्वल शिलाखण्डके ऊपर बैठा हुआ कोई पुरुष गा रहा है; वह महाराज उग्रसेन-सा ही जान पड़ता है।वास्तवमें तो वह राजाके वेषमें नीच दानव गोभिल ही था पद्मावती विचार करने लगी- मेरे धर्मपरायण स्वामी मथुरानरेश अपना राज्य छोड़कर इतनी दूर कब और कैसे चले आये ? वह इस प्रकार सोच ही रही थी कि उस पापीने स्वयं ही पुकारा’ प्रिये ! आओ, आओ; देवि! तुम्हारे बिना मैं नहीं जी सकता। सुन्दरी! तुमसे अलग रहकर मेरे लिये इस प्रिय जीवनका भार वहन करना भी असम्भव हो गया है। तुम्हारे स्नेहने मुझे मोह लिया है; अतः मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं रह सकता।’

पतिरूपधारी दैत्यके ऐसा कहनेपर पद्मावती कुछ लज्जित -सी होकर उसके सामने गयी। वह पद्मावतीका हाथ पकड़कर उसे एकान्त स्थानमें ले गया और वहाँ अपनी इच्छाके अनुसार उसका उपभोग किया। महाराज उग्रसेनके गुप्त अंगमें कुछ खास निशानी थी, जो उस पुरुषमें नहीं दिखायी दी। इससे सुन्दरी पद्मावतीके मनमें उसके प्रति सन्देह उत्पन्न हुआ। राजकुमारीने अपने वस्त्र संभालकर पहन लिये; किन्तु उसके हृदयमें इस घटनासे बड़ा दुःख हुआ। वह क्रोधमें भरकर नीच दानव गोभिलसे बोली-‘ ओ नीच! जल्दी बता, तू कौन है? तेरा आकार दानव-जैसा है, तू पापाचारी और निर्दयी है।’ यह कहते-कहते आत्मग्लानिके कारण उसकी आँखें भर आयीं। वह शाप देनेको उद्यत होकर बोली-‘दुरात्मन्! तूने मेरे पतिके रूपमें आकर मेरे साथ छल किया और इस धर्ममय शरीरको अपवित्र करके मेरे उत्तम पातिव्रत्यका नाश कर डाला है। अब यहीं तू मेरा भी प्रभाव देख ले, मैं तू तुझे अत्यन्त कठोर शाप दूँगी।’

उसकी बात सुनकर गोभिलने कहा-‘पतिव्रता स्त्री, भगवान् श्रीविष्णु तथा उत्तम ब्राह्मणके भयसे तो समस्त राक्षस और दानव दूर भागते हैं। मैं दानव धर्मके अनुसार ही इस पृथ्वीपर विचर रहा हूँ पहले मेरे दोषका विचार करो, किस अपराधपर तुम मुझे शाप देनेको उद्यत हुई हो ?’

पद्मावती बोली- पापी। मैं साध्वी और पतिव्रता हूँ, मेरे मनमें केवल अपने पतिकी कामनारहती है; मैं सदा उन्हींके लिये तपस्या किया करती हूँ। मैं अपने धर्ममार्गपर स्थित थी, किन्तु तूने माया रचकर मेरे धर्मके साथ ही मुझे भी नष्ट कर दिया। इसलिये रे दुष्ट! तुझे भी मैं भस्म कर डालूंगी।

गोभिल बोला- राजकुमारी यदि उचित समझो तो सुनो, मैं धर्मकी ही बात कह रहा हूँ। जो स्त्री प्रतिदिन मन, वाणी और क्रियाद्वारा अपने स्वामीकी सेवा करती है, पतिके संतुष्ट रहनेपर स्वयं भी संतोषका अनुभव करती है, पतिके क्रोधी होनेपर भी उसका त्याग नहीं करती, उसके दोषोंकी ओर ध्यान नहीं देती, उसके मारनेपर भी प्रसन्न होती है और स्वामीके सब कामों में आगे रहती है, वही नारी पतिव्रता कही गयी है। यदि स्त्री इस लोकमें अपना कल्याण करना चाहती हो तो वह पतित, रोगी, अंगहीन, कोड़ी, सब धर्मोसे रहित तथा पापी पतिका भी परित्याग न करे जो स्वामीको छोड़कर जाती और दूसरे दूसरे कामोंमें मन लगाती है, वह संसारमें सब धर्मोसे बहिष्कृत व्यभिचारिणी समझी जाती है। जो पतिकी अनुपस्थितिमें लोलुपतावश ग्राम्य-भोग तथा श्रृंगारका सेवन करती है, उसे मनुष्य कुलटा कहते हैं। मुझे वेद और शस्त्रोंद्वारा अनुमोदित धर्मका ज्ञान है। गृहस्थ धर्मका परित्याग करके पतिकी सेवा छोड़कर यहाँ किसलिये आय? इतनेपर भी अपने ही मुँहसे कहती हो मैं पतिव्रता हूँ। कर्मसे तो तुममें पातिव्रत्यका लेशमात्र भी नहीं दिखायी देता। तुम डर भय छोड़कर पर्वत और उनमें मतवाली होकर घूमती-फिरती हो, इसलिये पापिनी हो। मैंने यह महान् दण्ड देकर तुम्हें सीधी राहपर लगाया हैं-अब कभी तुमसे ऐसी धृष्टता नहीं हो सकती। बताओ तो पतिको छोड़कर किसलिये यहाँ आयी हो? यह श्रृंगार, ये आभूषण तथा यह मनोहर वेष धारण करके क्यों खड़ी हो ? पापिनी! बोलो न किसलिये और किसके लिये यह सब किया है? कहाँ है तुम्हारा पातिव्रत्य ? दिखाओ तो मेरे सामने व्यभिचारिणी स्त्रियाँके समान बर्ताव करनेवाली नारी! तुम इस समय अपने पतिसे चार सौ कोस दूर हो; कहीं हैतुम पतिको देवता मानने का भाव दुष्टा कहाँको तुम्हे लाज नहीं आती, अपने बतांवर घृणा नहीं होती? तुम क्या मेरे सामने बोलती हो कहाँ है तुम्हारी तपस्याका प्रभाव। कहाँ है तुम्हारा तेज और बल। आज ही मुझे अपना बल, वीर्य और पराक्रम दिखाओ।

पद्मावती बोली- ओ नीच असुर ! सुन; पिताने स्नेहवश मुझे पतिके घरसे बुलाया है, इसमें कहाँ पाप है। मैं काम, लोभ, मोह तथा डाहके वश पतिको छोड़कर नहीं आयी है मैं यहाँ भी पतिका चिन्तन करती हुई ही रहती हूँ। तुमने भी छलसे मेरे पतिका रूप धारण करके ही मुझे धोखा दिया है।

गोभिलने कहा- पद्मावती मेरी युक्तियुक्त बात सुनो। अंधे मनुष्योंको कुछ दिखायी नहीं देता; तुम धर्मरूपी नेत्रसे हीन हो, फिर कैसे मुझे यहाँ पहचान पातीं। जिस समय तुम्हारे मनमें पिताके घर आनेका भाव उदय हुआ, उसी समय तुम पतिकी भावना छोड़कर उनके ध्यानसे मुक्त हो गयी थीं। पतिका निरन्तर चिन्तन ही सतियोंके ज्ञानका तत्त्व है। जब वही नष्ट हो गया, जब तुम्हारे हृदयकी आँख ही फूट गयी, तब ज्ञान नेत्रसे हीन होनेपर तुम मुझे कैसे पहचानतीं।

ब्राह्मणी कहती है- प्राणनाथ ! गोभिलकी बात सुनकर राजकुमारी पद्मावती धरतीपर बैठ गयी। उसके हृदयमें बड़ा दुःख हो रहा था। गोभिलने फिर कहा ‘शुभे मैंने तुम्हारे उदरमें जो अपने वीर्यकी स्थापना की है, उससे तीनों लोकोंको त्रास पहुँचानेवाला पुत्र उत्पन्न होगा।’ यो कहकर वह दानव चला गया। गोभिल बड़ा दुराचारी और पापात्मा था। उसके चले जानेपर पद्मावती महान् दुःखसे अभिभूत होकर रोने लगी। रोनेका शब्द सुनकर सखियाँ उसके पास दौड़ी आयीं और पूछने लगी- राजकुमारी रोती क्यों हो? मथुरानरेश महाराज उग्रसेन कहाँ चले गये ?’ पद्मावतीने अत्यन्त दुःखसे रोते-रोते अपने छले जानेकी सारी बात बता दो सहेलियाँ उसे पिताके घर ले गयीं। उस समय वह शोकसे कातर हो थर-थर काँप रही थी। सखियोंने पद्मावतीकी माताके सामने सारी घटना कह दी। सुनते ही महारानी अपने पतिके महलमें गर्यो और उनसेकन्याका सारा वृत्तान्त उन्होंने कह सुनाया। उस सुनकर • महाराज सत्यकेतुको बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने सवारी और वस्त्र आदि देकर कुछ लोगोंके साथ पुत्रीको मथुरामें उसके पतिके घर भेज दिया।

धर्मात्मा राजा उग्रसेन पद्मावतीको आयी देख बहुत प्रसन्न हुए। वे रानीसे बार-बार कहने लगे ‘सुन्दरी! मैं तुम्हारे बिना जीवन धारण नहीं कर सकता। प्रिये तुम अपने गुण, शील, भक्ति, सत्य और पातिव्रत्य आदि सद्गुणोंसे मुझे अत्यन्त प्रिय लगती हो।’ अपनी प्यारी भार्या पद्मावतीसे यों कहकर नृपश्रेष्ठ महाराज उग्रसेन उसके साथ विहार करने लगे। सब लोगोंको भय पहुँचानेवाला उसका भयंकर गर्भ दिन-दिन बढ़ने लगा; किन्तु उस गर्भका कारण केवल पद्मावती ही जानती थी। अपने उदरमें बढ़ते हुए उस गर्भके विषयमें पद्मावतीको दिन-रात चिन्ता बनी रहती थी। दस वर्षतक वह गर्भ बढ़ता ही गया। तत्पश्चात् उसका जन्म हुआ। वही महान् तेजस्वी और महाबली कंस था, जिसके भवसे तीनों लोकोंके निवासी थर्रा उठे थे तथा जो भगवान् श्रीकृष्णके हाथसे मारा जाकर मोक्षको प्राप्त हुआ। स्वामिन्! ऐसी घटना भविष्यमें संघटित होनेवाली है. वह मैंने सुन रखा है मैंने आपसे जो कुछ कहा है, वह समस्त पुराणोंका निश्चित मत है। इस प्रकार पिताके घरमें रहनेवाली कन्या बिगड़ जाती है। अतः कन्याको घरमें रखनेका मोह नहीं करना चाहिये। यह सुदेवा बड़ी दुष्टा और महापापिनी है। अतः इसका परित्याग करके आप निश्चिन्त हो जाइये।

शूकरी कहती है-माताकी यह बात यह उत्तम सलाह सुनकर मेरे पिता द्विजश्रेष्ठ वसुदत्तने मुझे त्याग देनेका ही निश्चय किया। उन्होंने मुझे बुलाकर कहा – ‘दुष्टे ! कुलमें कलंक लगानेवाली दुराचारिणी ! तेरे ही अन्यायसे परम बुद्धिमान् शिवशर्मा चले गये। जहाँ तेरे स्वामी रहते हैं, वहाँ तू भी चली जा; अथवा तू जो स्थान तुझे अच्छा लगे, वहीं जा, जैसा जीमें आये, वैसा कर।’ महारानीजी ! यों कहकर पिता-माता औरकुटुम्बके लोगोंने मुझे त्याग दिया। मैं तो अपनी लाज हया खो चुकी थी, शीघ्र ही वहाँसे चल दी। किन्तु कहीं भी मुझे ठहरनेके लिये स्थान और सुख नहीं मिलता था। लोग मुझे देखते ही ‘यह कुलटा आयी!” कहकर दुत्कारने लगते थे।

कुल और मानसे वंचित होकर घूमती-फिरती मँ प्रान्तसे बाहर निकल गयी और गुर्जर देश (गुजरात प्रान्त) के सौराष्ट्र (प्रभास) नामक पुण्यतीर्थमें जा पहुंची, जहाँ भगवान् शिव (सोमनाथ) का मन्दिर हैं। मन्दिरके पास ही वनस्थल नामसे विख्यात एक नगर था, जिसकी उस समय बड़ी उन्नति थी। मैं भूखसे अत्यन्त पीड़ित थी, इसलिये खपरा लेकर भीख माँगने चली। परन्तु सब लोग मुझसे घृणा करते थे। ‘यह पापिनी आयी [भगाओ इसे]’ यों कहकर कोई भी मुझे भिक्षा नहीं देता था। इस प्रकार दुःखमय जीवन व्यतीत करती मैं बड़े भारी रोगसे पीड़ित हो गयी। उस नगरमें घूमते-घूमते मैंने एक बड़ा सुन्दर घर देखा, जहाँ वैदिक पाठशाला थी। वह घर अनेक ब्राह्मणोंसे भरा था और वहाँ सब ओर वेदमन्त्रोंकी ध्वनि हो रही थी। लक्ष्मीसे युक्त और आनन्दसे परिपूर्ण उस रमणीय गृहमें मैंनेप्रवेश किया। वह सब ओरसे मंगलमय प्रतीत होता था। मेरे पति शिवशर्माका ही वह घर था। मैं दुःखसे पीड़ित होकर बोली- भिक्षा दीजिये।’ द्विजश्रेष्ठ शिवरामने भिक्षाका शब्द सुना। उनकी एक भार्या थी, जो साक्षात् लक्ष्मीके समान रूपवती थी। उसका मुख बड़ा ही सुन्दर था। वह मंगला नामसे प्रसिद्ध थी। परम बुद्धिमान् धर्मात्मा शिवशमनि मन्द मन्द मुसकराती हुई अपनी पत्नी मंगलासे कहा- ‘प्रिये। वह देखो-एक दुबली-पतली स्त्री आयी है, जो भिक्षाके लिये द्वारपर खड़ी है; इसे घरमें बुलाकर भोजन दो मुझे आयी जान मंगलाका हृदय अत्यन्त करुणासे भर आया। उसने मुझ दीन-दुर्बल भिक्षुकीको मिष्टान्न भोजन कराया। मैं अपने पतिको पहचान गयी थी, उन्हें देखकर लज्जासे मेरा मस्तक झुक गया। परम सुन्दरी मंगलाने मेरे इस भावको लक्ष्य किया और स्वामीसे पूछा- ‘प्राणनाथ ! यह कौन है, जो आपको देखकर लजा रही है? मुझपर कृपा करके इसका यथार्थ परिचय दीजिये।’

शिवशर्माने कहा— प्रिये ! यह विप्रवर वसुदत्तकी कन्या है। बेचारी इस समय भिक्षुकीके रूपमें यहाँ आयी है। इसका नाम सुदेवा है। यह मेरी कल्याणमयी भार्या है, जो मुझे सदा ही प्रिय रही है। किसी विशेष कारणसे यह अपना देश छोड़कर आज यहाँ आयी है, ऐसा समझकर तुम्हें इसका अच्छे ढंगसे स्वागत सत्कार करना चाहिये। यदि तुम मेरा भलीभाँति प्रिय करना चाहती हो तो इसके आदरभावमें कमी न करना।

पतिकी बात सुनकर मंगलमयी मंगला बहुत प्रसन्न हुई। उसने अपने ही हाथ मुझे स्नान कराकर उत्तम वस्त्र पहननेको दिया और स्वयं भोजन बनाकर खिलाने-पिलाने लगी। रानीजी! अपने स्वामीके द्वारा इतना सम्मान पाकर मुझे अपार दुःख हुआ। मेरे हृदयमें पश्चात्तापकी तीव्र अग्नि प्रचलित हो उठी। मैंने मंगलाके किये हुए सम्मान और अपने दुष्कर्मकी ओर देखा; इससे मनमें दुःसह चिन्ता हुई, यहाँतक कि प्राण जानेकी नौबतआ गयी। मैं ऐसी पापिनी थी कि पतिसे कभी मीठे वचनतक नहीं बोली। उलटे उन श्रेष्ठ ब्राह्मणके विपरीत बुरे कर्मोंका ही आचरण करती रही। इस प्रकार चिन्ता करते-करते मेरा हृदय फट गया और प्राण शरीर छोड़कर चल बसे।

तदनन्तर यमराजके दूत आये और मुझे साँकलके दृढ़ बन्धनमें बाँधकर यमपुरीको ले चले। मार्गमें जब मैं अत्यन्ना दुःखी होकर रोती तब वे मुझे मुगदरोंसे पीटने और दुर्गम मार्गसे से जाकर कष्ट पहुँचाते थे। बीच बीचमें मुझे फटकारें भी सुनाते जाते थे। उन्होंने मुझे यमराजके सामने ले जाकर खड़ा कर दिया। महात्मा यमराजने बड़ी क्रोधपूर्ण दृष्टिसे मेरी ओर देखा और मुझे अंगारोंकी ढेरीमें फेंकवा दिया। उसके बाद मैं कई नरकोंमें डाली गयी। मैंने अपने स्वामीके साथ धोखा किया था, इसलिये एक लोहेका पुरुष बनाकर उसे आगसे तपाया गया और वह मेरी छातीपर सुला दिया गया। नरककी प्रचण्ड आगमें तपायी जानेपर मैं नाना प्रकारको पीड़ाओंसे अत्यन्त कष्ट पाने लगी। असिपत्र वनमें पड़कर मेरा सारा शरीर छिन्न-भिन्न हो गया। फिर मैं पीब, रक्त और विष्ठामें डाली गयी।कीड़ोंसे भरे हुए कुण्डमें रहना पड़ा। आरीसे मुझे चीरा गया। शक्ति नामक अस्त्रका भलीभाँति मुझपर प्रहार किया गया। दूसरे- दूसरे नरकोंमें भी मैं गिरायी गयी। अनेक योनियोंमें जन्म लेकर मुझे असह्य दुःख भोगना पड़ा। पहले सियारकी योनिमें पड़ी, फिर कुत्तेकी योनिमें जन्म लिया। तत्पश्चात् क्रमशः साँप, मुर्गे, बिल्ली और चूहेकी योनिमें जाना पड़ा। इस प्रकार धर्मराजने पीड़ा देनेवाली प्रायः सभी पापयोनियोंमें मुझे डाला। उन्होंने ही मुझे इस भूतलपर शूकरी बनाया है। महाभागे तुम्हारे हाथमें अनेक तीर्थोंका वास है। देवि ! तुमने अपने हाथके जलसे मुझे सींचा है, इसलिये तुम्हारी कृपासे मेरा सब पाप दूर हो गया। तुम्हारे तेज और पुण्यसे मुझे अपने पूर्वजन्मकी बातोंका ज्ञान हुआ है। रानीजी ! इस समय संसारमें केवल तुम्हीं सबसे बड़ी पतिव्रता हो। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि तुमने अपने स्वामीकी बहुत बड़ी सेवा की है। सुन्दरी यदि मेरा प्रिय करना चाहती हो तो अपने एक दिनकी प्रतिसेवाका पुण्य मुझे अर्पण कर दो। इस समय तुम्हीं मेरी माता, पिता और सनातन गुरु हो। मैं पापिनी, दुराचारिणी, असत्यवादिनी और ज्ञानहीना हूँ। महाभागे ! मेरा उद्धार करो।

सुकला बोली- सखियो ! शूकरीकी यह बात सुनकर रानी सुदेवाने राजा इक्ष्वाकुकी ओर देखकर पूछा – ‘महाराज ! मैं क्या करूँ? यह शूकरी क्या कहती है ?’

इक्ष्वाकुने कहा- शुभे। यह बेचारी पाप-योनिमेंपड़कर दुःख उठा रही है; तुम अपने पुण्योंसे इसका उद्धार करो, इससे महान् कल्याण होगा। महाराजकी आज्ञा लेकर रानी सुदेवाने शूकरीसे कहा—’देवि! मैंने अपना एक वर्षका पुण्य तुम्हें अर्पण किया।’ रानी सुदेवाके इतना कहते ही वह शूकरी तत्काल दिव्य देह धारण कर प्रकट हुई। उसके शरीरसे तेजकी ज्वाला निकल रही थी। सब प्रकारके आभूषण और भाँति-भाँतिके रत्न उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। वह साध्वी दिव्यरूपसे युक्त दिव्य विमानपर बैठी और अन्तरिक्ष लोकको चलने लगी। जाते समय उसने मस्तक झुकाकर रानीको प्रणाम किया और कहा – ‘महाभागे ! तुम्हारी कृपासे आज मैं पापमुक्त होकर परम पवित्र एवं मंगलमय वैकुण्ठको जा रही हूँ।’ यों कहकर वह वैकुण्ठको चली गयी।

सुकला कहने लगी- इस प्रकार पहले मैंने पुराणोंमें नारीधर्मका वर्णन सुना है। ऐसी दशामें जब पतिदेव यहाँ उपस्थित नहीं हैं, मैं किस प्रकार भोगोंका उपभोग करूँ। मेरे लिये ऐसा विचार निश्चय ही पापपूर्ण होगा।

सुकलाके मुखसे इस प्रकार उत्तम पातिव्रत्य धर्मका वर्णन सुनकर सखियोंको बड़ा हर्ष हुआ । नारियोंको सद्गति प्रदान करनेवाले उस परम पवित्र धर्मका श्रवण करके समस्त ब्राह्मण और पुण्यवती स्त्रियाँ धर्मानुरागिणी महाभागा सुकलाकी प्रशंसा करने लगीं।

अध्याय-16 सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना

भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-राजेन्द्र सुकला के मनमें केवल पतिका ही ध्यान था और पतिकी ही कामना थी। उसके सतीत्वका प्रभाव देवराज इन्द्रने भी भलीभीत देखा तथा उसके विषयमें पूर्णतया विचार करके वे मन-ही-मन कहने लगे—’मैं इसके अविचल धैर्य [और धर्म] को नष्ट कर दूँगा।’ ऐसा निश्चय करके उन्होंने तुरंत ही कामदेवका स्मरण किया। महाबलीकामदेव अपनी प्रिया रतिके साथ वहाँ आ गये और हाथ जोड़कर इन्द्रसे बोले-‘नाथ ! इस समय किसलिये आपने मुझे याद किया है? आज्ञा दीजिये, मैं सब प्रकारसे उसका पालन करूँगा।’

इन्द्रने कहा— कामदेव ! यह जो पातिव्रत्यमें तत्पर रहनेवाली महाभागा सुकला है, वह परम पुण्यवती और मंगलमयी है; मैं इसे अपनी ओर आकर्षित करनाचाहता हूँ। इस कार्यमें तुम मेरी पूरी तरहसे सहायता करो ।

कामदेवने उत्तर दिया ‘सहस्रलोचन! मैं आपकी इच्छापूर्ति के लिये आपकी सहायता अवश्य करूँगा। देवराज! मैं देवताओं, मुनियों और बड़े-बड़े ऋषीश्वरोंको भी जीतनेकी शक्ति रखता हूँ फिर एक साधारण कामिनीको, जिसके शरीरमें कोई बल ही नहीं होता, जीतना कौन बड़ी बात है मैं कामिनियोंके विभिन्न अंगोंमें निवास करता हूँ। नारी मेरा घर है उसके भीतर मैं सदा मौजूद रहता हूँ। अतः भाई, पिता, स्वजन सम्बन्धी या बन्धु बान्धव-कोई भी क्यों न हो, यदि उसमें रूप और गुण है तो वह उसे देखकर मेरे बाणोंसे घायल हो ही जाती है। उसका चित्त चंचल हो जाता है, वह परिणामकी चिन्ता नहीं करती। इसलिये देवेश्वर में मुकलाके सतीत्वको अवश्य नष्ट करूँगा।’

इन्द्र बोले- मनोभव! मैं रूपवान् गुणवान् और धनी बनकर कौतूहलवश इस नारीको [ धर्म और ] धैर्य विचलित करूँगा।

कामदेवसे यों कहकर देवराज इन्द्र उस स्थानपर गये, जहाँ कृकल वैश्यकी प्यारी पत्नी सुकला देवी निवास करती थी। वहाँ जाकर वे अपने हाव-भाव, रूप और गुण आदिका प्रदर्शन करने लगे। रूप और सम्पत्तिसे युक्त होनेपर भी उस पराये पुरुषपर सुकला दृष्टि नहीं डालती थी; परन्तु वह जहाँ-जहाँ जाती, वहीं-वहीं पहुँचकर इन्द्र उसे निहारते थे। इस प्रकार सहस्रनेत्रधारी इन्द्र अपने सम्पूर्ण भावोंसे कामजनित चेष्टा प्रदर्शित करते हुए चाहभरे हृदयसे उसकी ओर देखते थे। इन्द्रने उसके पास अपनी दूती भी भेजी। वह मुसकराती हुई गयी और मन ही मन सुकलाको प्रशंसा करती हुई बोली-‘अहो इस नारीमें कितना सत्य, कितना धैर्य, कितना तेज और कितना क्षमाभाव है। संसार में इसके रूपकी समानता करनेवाली दूसरी कोई भी सुन्दरी नहीं है।’ इसके बाद उसने सुकलासे पूछा-‘कल्याणी! तुम कौन हो, किसको पत्नी हो ? जिस पुरुषको तुम जैसी गुणवती भार्या प्राप्त है, वहीइस पृथ्वीपर पुण्यका भागी है।’

दूतीकी बात सुनकर मनस्विनी सुकलाने कहा ‘देवि! मेरे पति वैश्य जातिमें उत्पन्न, धर्मात्मा और सत्यप्रेमी हैं; उन्हें लोग कुकल कहते हैं। मेरे स्वामीकी बुद्धि उत्तम है, उनका चित्त सदा धर्ममें ही लगा रहता है। वे इस समय तीर्थ-यात्रा के लिये गये हैं; उन्हें गये आज तीन वर्ष हो गये। अतः उन महात्माके बिना मैं बहुत दुःखी हूँ। यही मेरा हाल है। अब यह बताओ कि तुम कौन हो, जो मुझसे मेरा हाल पूछ रही हो ?’ सुकलाका कथन सुनकर दूतीने पुनः इस प्रकार कहना आरम्भ किया- ‘सुन्दरी ! तुम्हारे स्वामी बड़े निर्दयी हैं, जो तुम्हें अकेली छोड़कर चले गये। वे अपनी प्रिय पत्नीके घातक जान पड़ते हैं, अब उन्हें लेकर क्या करोगी। जो तुम जैसी साध्वी और सदाचार-परायणा पत्नीको छोड़कर चले गये, वे पापी नहीं तो क्या हैं। बाले ! अब तो वे गये; अब उनसे तुम्हारा क्या नाता है। कौन जाने वे वहाँ जीवित हैं या मर गये। जीते भी हों तो उनसे तुम्हें क्या लेना है। तुम व्यर्थ ही इतना खेद करती हो। इस सोने-जैसे शरीरको क्यों नष्ट करती हो मनुष्य बचपनमें खेल-कूदके सिवा और किसी सुखका अनुभव नहीं करता। बुढ़ापा आनेपर जब जरावस्था शरीरको जीर्ण बना देती है, तब दुःख ही दुःख उठाना रह जाता है। इसलिये सुन्दरी! जबतक जवानी है, तभीतक संसारके सम्पूर्ण सुख और भोग भोग लो। मनुष्य जबतक जवान रहता है, तभीतक वह भोग भोगता है। सुख भोग आदिकी सब सामग्रियोंका इच्छानुसार सेवन करता है। इधर देखो ये एक पुरुष आये हैं, जो बड़े सुन्दर गुणवान् सर्वज्ञ, धनी तथा पुरुषोंमें श्रेष्ठ हैं। तुम्हारे ऊपर इनका बड़ा स्नेह है ये सदा तुम्हारे हित साधनके लिये प्रयत्नशील रहते हैं। इनके शरीरमें कभी बुढ़ापा नहीं आता। स्वयं तो ये सिद्ध हैं ही, दूसरोंको भी उत्तम सिद्धि प्रदान करनेवाले हैं। उत्तम सिद्ध और सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ हैं। लोकमें अपने स्वरूपसे सबकी कामना पूर्ण करते हैं।

सुकला बोली- दूती ! यह शरीर मल-मूत्रकाlखजाना है, अपवित्र है; सदा ही क्षय होता रहता है। शुभे! यह पानीके बुलबुलेके क्षणभंगुर है। फिर इसके रूपका क्या वर्णन करती हो। पचास वर्षकी अवस्थातक ही यह देह दृढ़ रहती है, उसके बाद प्रतिदिन क्षीण होती जाती है। भला, बताओ तो, मेरे इस शरीरमें ही तुमने ऐसी क्या विशेषता देखी है, जो अन्यत्र नहीं है। उस पुरुषके शरीरसे मेरे शरीरमें कोई भी वस्तु अधिक नहीं है। जैसी तुम, जैसा वह पुरुष, वैसी ही मैं- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है, ऊँचे उठनेका परिणाम पतन ही है। ये बड़े-बड़े वृक्ष और पर्वत कालसे पीड़ित होकर नष्ट हो जाते हैं। यही दशा सम्पूर्ण भूतोंकी है-इसमें रत्तीभर भी संदेह नहीं दूती! आत्मा दिव्य है। वह रूपहीन है। स्थावर-जंगम सभी प्राणियोंमें वह व्याप्त है। जैसे एक ही जल भिन्न-भिन्न घड़ोंमें रहता है, उसी प्रकार एक ही शुद्ध आत्मा सम्पूर्ण भूतोंमें निवास करता है। घड़ोंका नाश होनेसे जैसे सब जल मिलकर एक हो जाता है, उसी प्रकार आत्माकी भी एकता समझो [स्थूल सूक्ष्म और कारणरूप] त्रिविध शरीरका नाश होनेपर पंचकोशके सम्बन्धसे पाँच प्रकारका प्रतीत होनेवाला आत्मा एकरूप हो जाता है। संसारमें निवास करनेवाले प्राणियोंका मैंने सदा एक ही रूप देखा है। [किसीमें कोई अपूर्वता नहीं है।] कामको खुजलाहट सब प्राणियोंको होती है। उस समय स्त्री और पुरुष दोनोंकी इन्द्रियोंमें उत्तेजना पैदा हो जाती है, जिससे वे दोनों प्रमत्त होकर एक दूसरे से मिलते हैं। शरीरसे शरीरको रगड़ते हैं। इसीका नाम मैथुन है। इससे क्षणभरके लिये सुख होता है, फिर वैसी ही दशा हो जाती है। दूती! सर्वत्र यही बात देखी जाती है। इसलिये अब तुम अपने स्थानको लौट तुम्हारे प्रस्तावित कार्यमें कोई नवीनता नहीं है। कम-से-कम मेरे लिये तो इसमें कोई अपूर्व बात नहीं

जान पड़ती अतः मैं कदापि ऐसा नहीं कर सकती। भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-सुकलाके याँ दूती चली गयी। उसने इन्द्रसे उसकी कही | हुई सारी बातें संक्षेपमें सुना दी। सुकलाका भाषण सत्यऔर धर्मसे युक्त था। उसके साहस, धैर्य और ज्ञानकी आलोचना करके इन्द्र मन ही मन सोचने लगे- ‘इस पृथ्वीपर दूसरी कोई स्त्री ऐसी नहीं है, जो इस तरहकी बात कह सके। इसका वचन योगस्वरूप, निश्चयात्मक तथा ज्ञानरूपी जलसे प्रक्षालित है। इसमें सन्देह नहीं कि यह महाभागा सुकला परम पवित्र और सत्यस्वरूपा है। यह समस्त त्रिलोकीको धारण करनेमें समर्थ है।’ यह विचारकर इन्द्रने कामदेवसे कहा- ‘अब मैं तुम्हारे साथ कृकलपत्नी सुकलाको देखने चलूँगा।’ कामदेवको अपने बलपर बड़ा घमंड था। वह जोशमें आकर इन्द्रसे बोला-‘देवराज! जहाँ वह पतिव्रता रहती है, उस स्थानपर चलिये। मैं अभी चलकर उसके ज्ञान, वीर्य, बल, धैर्य, सत्य और पातिव्रत्यको नष्ट कर डालूँगा। उसकी क्या शक्ति है, जो मेरे सामने टिक सके।’

कामदेवकी बात सुनकर इन्द्रने कहा – ‘काम! मैं जानता हूँ, यह पतिव्रता तुमसे परास्त होनेवाली नहीं है। यह अपने धर्ममय पराक्रमसे सुरक्षित है। इसका भाव बहुत सच्चा है। यह नाना प्रकारके पुण्य किया करती है। फिर भी मैं यहाँसे चलकर तुम्हारे तेज, बल और भयंकर पराक्रमको देखूंगा।’ यह कहकर इन्द्र धनुर्धर वीर कामदेवके साथ चले। उनके साथ कामकी पत्नी रति और दूती भी थी। वह परम पुण्यमयी पतिव्रता अपने घरके द्वारपर अकेली बैठी थी और केवल पतिके ध्यानमें तन्मय हो रही थी। वह प्राणोंको वशमें करके स्वामीका चिन्तन करती हुई विकल्प-शून्य हो गयी थी। कोई भी पुरुष उसकी स्थितिकी कल्पना नहीं कर सकता था। उस समय इन्द्र अनुपम तेज और सौन्दर्यसे युक्त, विलास तथा हाव-भावसे सुशोभित अत्यन्त अद्भुत रूप धारण करके सुकलाके सामने प्रकट हुए। उत्तम विलास और कामभावसे युक्त महापुरुषको इस प्रकार सामने विचरण करते देख महात्मा कृकल वैश्यकी पत्नीने उसके रूप, गुण और तेजका तनिक भी सम्मान नहीं किया। जैसे कमलके पत्तेपर छोड़ा हुआ जल उस पत्तेको छोड़कर दूर चला जाता है-उसमें ठहरता नहीं, उसी प्रकार वह सती भी उस पुरुषकी ओर आकृष्ट नहीं हुई। महासती सुकलाका तेज सत्यकी रज्जुसे आवद्ध था [उस पुरुषकी दृष्टिसे बचनेके लिये] वह घरके भीतर चली गयी और अपने पतिमें ही अनुरक्त हो उन्हींका चिन्तन करने लगी।

इन्द्र सुकलाके शुद्ध भावको समझकर सामने खड़े हुए कामदेवसे बोले- ‘इस सतीने सत्यरूप पतिके ध्यानका कवच धारण कर रखा है। [तुम्हारे बाग इसे चोट नहीं पहुँचा सकते.] अतः सुकलाको परास्त करना असम्भव है। यह पतिव्रता अपने हाथमें धर्मरूपी धनुष और ध्यानरूपी उत्तम बाण लेकर इस समय रणभूमिमें तुमसे युद्ध करनेको उद्यत है। अज्ञानी पुरुष ही त्रिलोकीके महात्माओंके साथ वैर बाँधते हैं। कामदेव इस सतीके तपका नाश करनेसे हम दोनोंको अनन्त एवं अपार दुःख भोगना पड़ेगा। इसलिये अब हमें इसे छोड़कर वहाँसे चल देना चाहिये। तुम जानते हो, पहले एक बार मैं सतीके साथ समागम करनेका पापमय परिणाम —असह्य दुःख भोग चुका हूँ। महर्षि गौतमने मुझे भयंकर शाप दिया था। आगकी लपटको छूतेका साहस कौन करेगा कौन ऐसा मूर्ख है, जो अपने गलेमें भारी पत्थर बांधकर समुद्रमें उतरना चाहेगा तथा किसको मौतके मुखमें जानेकी इच्छा है, जो सती स्त्रीको विचलित करनेका प्रयत्न करेगा।’

इन्द्रने कामदेवको उत्तम शिक्षा देनेके लिये बहुत ही नीतियुक्त बात कही; उसे सुनकर कामदेवने इन्द्रसे कहा- ‘सुरेश ! मैं तो आपके ही आदेश से यहाँ आया था। अब आप धैर्य, प्रेम तथा पुरुषार्थका त्याग करके ऐसी पौरुषहीनता और कायरताकी बातें क्यों करते हैं। पूर्वकालमें मैंने जिन-जिन देवताओं, दानवों और तपस्या में अ लगे हुए मुनीश्वरोंको परास्त किया है, वे सब मेरा उपहास करते हुए कहेंगे कि ‘यह कामदेव बड़ा डरपोक 1 है, एक साधारण स्त्रीने इसको क्षणभरमें परास्त कर है दिया।’ इसलिये मैं अपने सम्मानरूपी धनकी रक्षा करूँगा और आपके साथ चलकर इस सतीके तेज, बल और धैर्यका नाश करूंगा आप डरते क्यों हैं। देवराजइन्द्रको इस प्रकार समझा-बुझाकर कामदेवने पुष्पयुक्त धनुष और बाण हाथमें ले लिये तथा सामने खड़ी हुई अपनी सखी क्रीड़ासे कहा- ‘प्रिये ! तुम माया रचकर वैश्यपत्नी सुकलाके पास जाओ। वह अत्यन्त पुण्यवती, सत्यमें स्थित, धर्मका ज्ञान रखनेवाली और गुणज्ञ है। यहाँसे जाकर तुम मेरी सहायताके लिये उत्तम-से-उत्तम कार्य करो।’ क्रीड़ासे यों कहकर वे पास ही खड़ी हुई प्रीतिको सम्बोधित करके बोले-‘तुम्हें भी मेरी सहायताके लिये उत्तम कार्य करना होगा; तुम अपनी चिकनी चुपड़ी बातोंसे सुकलाको वशमें करो।’ इस प्रकार अपने अपने कार्यमें लगे हुए वायु आदिके साथ उपर्युक्त व्यक्तियोंको भेजकर कामदेवने उस महासतीको मोहित करनेके लिये इन्द्रके साथ पुनः प्रयाण किया।

सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके उद्देश्यसे जब इन्द्र और कामदेव प्रस्थित हुए तब सत्यने धर्मसे कहा ‘महाप्राज्ञ धर्म कामदेवकी जो चेष्टा हो रही है, उसपर दृष्टिपात करो। मैंने तुम्हारे, अपने तथा महात्मा पुण्यके लिये जो स्थान बनाया था, उसे यह नष्ट करना चाहता है। दुष्टात्मा काम हमलोगोंका शत्रु है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। सदाचारी पति, तपस्वी ब्राह्मण और पतिव्रता पत्नी ये तीन मेरे निवास स्थान हैं जहाँ मेरी वृद्धि होती है जहाँ मैं पुष्ट और सन्तुष्ट रहता हूँ, वहाँ तुम्हारा भी निवास होता है। श्रद्धाके साथ पुण्य भी वहाँ आकर क्रीड़ा करते हैं। मेरे शान्तियुक्त मन्दिरमें क्षमाका भी आगमन होता है। जहाँ मैं रहता हूँ, वहाँ सन्तोष, इन्द्रियसंयम, दया, प्रेम, प्रज्ञा और लोभहीनता आदि गुण भी निवास करते हैं। वहीं पवित्र भाव रहता है। ये सभी सत्यके बन्धु बान्धव हैं। धर्म! चोरी न करना, अहिंसा, सहनशीलता और बुद्धि-ये सब मेरे ही परमें आकर धन्य होते हैं। गुरु-शुश्रूषा, लक्ष्मीके साथ भगवान् श्रीविष्णु तथा अग्नि आदि देवता भी मेरे घरमें पधारते हैं। मोक्ष मार्गको प्रकाशित करनेवाले ज्ञान और उदारता आदिसे युक्त हो पूर्वोक्त व्यक्तियोंके साथ मैं धर्मात्मा पुरुषों और सती स्त्रियोंके भीतर निवास करता हूँ। ये जितने भी साधु-महात्मा हैं, सब मेरे गृहस्वरूप हैं;इन सबके भीतर मैं उक्त कुटुम्बियों के साथ वास करता हूँ। जो जगत्के स्वामी, त्रिशूलधारी, वृषभवाहन तथा साक्षात् ईश्वर हैं, वे कल्याणमय भगवान् शिव भी मेरे निवास स्थान हैं। कृकल वैश्यकी प्रियतमा भार्या मंगलमयी सुकला भी मेरा उत्तम गृह है; किन्तु आज पापी काम इसे भी जला डालनेको उद्यत हुआ है। ये बलवान् इन्द्र भी कामका साथ दे रहे हैं: कामकी ही करतूतसे अहल्याका संग करनेपर एक बार जो हानि उठानी पड़ी है, उस प्राचीन घटनाका इन्हें स्मरण क्यों नहीं होता। सतीके सतीत्वका नाश करनेसे ही इन्हें महान् दुःखमें पड़कर दुःसह शापका उपभोग करना पड़ा था। फिर भी आज कामदेवके साथ आकर ये धर्मचारिणी कृकलपत्नी सुकलाका अपहरण करनेको उतारू हुए हैं।’

धर्मने कहा- मैं कामका तेज कम कर दूँगा; [मैं यदि चाहूँ तो] उसकी मृत्युका भी कारण उपस्थित कर सकता हूँ। मैंने एक ऐसा उपाय सोच लिया है, जिससे यह काम आज ही भाग खड़ा होगा। यह महाप्रज्ञा पक्षिणीका रूप धारण करके सुकलाके पर जाय और अपने मंगलमय शब्दसे उसको स्वामीके शुभागमनकी सूचना दे।

धर्मके भेजनेसे प्रज्ञा सुकलाके घरमें गयी और वहाँ मंगलजनक शब्दका उच्चारण किया। सुकलाने धूप- गन्ध आदिके द्वारा उसका समादर और पूजन किया तथा सुयोग्य ब्राह्मणको बुलाकर पूछा- इस शकुनका क्या तात्पर्य है? मेरे पतिदेव कब आयेंगे ?’

ब्राह्मणने कहा— भद्रे ! यह शकुन तुम्हारे स्वामीके शुभागमनकी सूचना दे रहा है ये सात दिनसे पहले पहले यहाँ अवश्य आ जायेंगे। इसमें अन्तर नहीं हो सकता।
ब्राह्मणका यह मंगलमय वचन सुनकर सुकलाको बड़ी प्रसन्नता हुई।

उधर कामदेवकी भेजी हुई क्रीड़ा सती स्वीका रूप धारण करके उस सुन्दरी पतिव्रताके घर गयी। उस रूपवती नारीको आयी देख मुकलाने आदरयुक्त वचन कहकर उसका सम्मान किया और अपनेको धन्य माना।उसकी पुण्यमयी वाणीसे पूजित होकर क्रीड़ा मुसकराती हुई बातचीत करने लगी। उसका मायामय वचन विश्वको मोहित करनेवाला था। सुननेपर सत्य और विश्वासके योग्य जान पड़ता था। क्रीड़ा बोली- ‘देवि! मेरे स्वामी बड़े बलवान्, गुणज्ञ, धीर तथा अत्यन्त पुण्यात्मा हैं; परन्तु मुझे छोड़कर न जाने कहाँ चले गये हैं। वह मेरे पूर्वजन्मके कर्मोंका फल है, जो आज इस रूपमें सामने आया है; मैं कैसी मन्दभागिनी हूँ। महाभागे नारियोंके लिये रूप, सौभाग्य, श्रृंगार, सुख और सम्पत्ति-सब कुछ पति ही है; यही शास्त्रोंका मत है।’

पतिव्रता सुकलाने क्रीड़ाकी ये सारी बातें सुनीं। उसे विश्वास हो गया कि यह सब कुछ इस दुःखिनी नारीके हृदयका सच्चा भाव है। वह उसके दुःखसे दुःखी हो गयी और अपनी बातें भी उसे बताने लगी। उसने पहलेका अपना सारा हाल थोड़ेमें कह सुनाया। अपने दुःख-सुखकी बात बताकर मनस्विनी सुकला चुप हो गयी; तब क्रीड़ाने उस पतिव्रताको सान्त्वना दी और बहुत कुछ समझाया बुझाया। तदनन्तर एक दिन उसने सुकलासे कहा-‘सखी देखो, वह सामने बड़ा सुन्दर वन दिखायी दे रहा है अनेकों दिव्य वृक्ष उसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। वहाँ एक परम पवित्र पापनाशन तीर्थ है; वरानने! चलो, हम दोनों भी वहाँ -संचय करनेके लिये चलें।’ पुण्य-‍
यह सुनकर सुकला उस मायामयी स्त्रीके साथ वहाँ जानेको राजी हो गयी। उसने वनमें प्रवेश करके देखा तो उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो उसमें नन्दन-वनकी शोभा उतर आयी है। सभी ऋतुओंके फूल खिले थे; सैकड़ों कोकिलौके कलरवसे सारा वन प्रान्त गूंज रहा था। माधवी लता और माधव (वसन्त) ने उस उपवनकी शोभाको सब भावोंसे परिपूर्ण बनाया था! सुकलाको मोहित करनेके लिये ही उसकी सृष्टि की गयी थी। उसने क्रीड़ाके साथ सबके मनको भानेवाले उस वनमें घूम-घूमकर अनेकों दिव्य कौतुक देखे इसी समय रतिके साथ काम और इन्द्र भी वहाँ आये। इन्द्र सम्पूर्ण भोगोंके अधिपति होकर भी काम-क्रीडाके लिये व्यग्र थे। उन्होंने कामदेवको पुकारकर कहा-‘लो, यह सुकला आगयी, क्रीड़ाके आगे खड़ी है। इस महाभागा सतीपर प्रहार करो।’

कामदेव बोला सहसलोचन लीला और चातुरीसे युक्त अपने दिव्य रूपको प्रकट कीजिये, जिसका आश्रय लेकर मैं इसके ऊपर अपने पाँचों बाणोंका पृथक् पृथक् प्रहार करूँ। त्रिशूलधारी महादेवने मेरे रूपको पहले ही हर लिया। मेरा शरीर है ही नहीं। जब मैं किसी नारीको अपने बाणोंका निशाना बनाना चाहता हूँ, उस समय पुरुष शरीरका आश्रय लेकर अपने रूपको प्रकट करता हूँ। इसी तरह पुरुषपर प्रहार करनेके लिये मैं नारी- देहका आश्रय लेता हूँ। पुरुष जब पहले-पहल किसी सुन्दरी नारीको देखकर बारम्बार उसीका चिन्तन करने लगता है, तब मैं चुपकेसे उसके भीतर घुसकर उसे उन्मत्त बना देता हूँ। स्मरण चिन्तनसे मेरा प्रादुर्भाव होता है, इसीलिये मेरा नाम ‘स्मर’ हो गया है। आज मैं आपके रूपका आश्रय लेकर इस नारीको अपनी इच्छाके अनुसार नचाऊँगा। यों कहकर कामदेव इन्द्रके शरीरमें घुस गया और पुण्यमयी कृकल-पत्नी सती सुकलाको घायल करनेके लिये हाथमें बाण ले उत्कण्ठापूर्वक अवसरकी प्रतीक्षा करने लगा। वह उसके नेत्रोंको ही लक्ष्य बनाये बैठा था।

भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-राजन्। क्रीड़ाकी प्रेरणासे उस सुन्दर बनमें गयी हुई वैश्यपत्नी सुकलाने पूछा- ‘सखी! यह मनोरम दिव्य वन किसका है ?” क्रीड़ा बोली- यह स्वभावसिद्ध दिव्य गुणोंसे युक्त सारा वन कामदेवका है, तुम भलीभाँति इसका निरीक्षण करो।

दुरात्मा कामकी यह चेष्टा देखकर सुन्दरी सुकलाने वायुके द्वारा लायी हुई वहाँके फूलोंको सुगन्धको नहीं ग्रहण किया। उस सतीने वहाँके रसोंका भी आस्वादन नहीं किया। यह देख कामदेवका मित्र वसन्त बहुत लज्जित हुआ। तत्पश्चात् कामदेवकी पत्नी रति प्रीतिको साथ लेकर आयी और सुकलासे हँसकर बोली- ‘भद्रे ! तुम्हारा कल्याण हो, मैं तुम्हारा स्वागत करती हूँ।तुम रति और प्रीतिके साथ यहाँ रमण करो।’ सुकलाने कहा-‘जहाँ मेरे स्वामी हैं, वहीं मैं भी हूँ मैं सदा पतिके साथ रहती हूँ। मेरा काम, मेरी प्रीति सब वहीं है। यह शरीर तो निराश्रय है-छायामात्र है।’ यह सुनकर रति और प्रीति दोनों लज्जित हो गयीं तथा महाबली कामके पास जाकर बोली- ‘महाप्राज्ञ अब आप अपना पुरुषार्थ छोड़ दीजिये, इस नारीको जीतना कठिन है। यह महाभागा पतिव्रता सदैव अपने पतिकी ही कामना रखती है।’

कामदेवने कहा- देवि! जब यह इन्द्रके रूपको देखेगी, उस समय मैं अवश्य इसे घायल करूँगा।

तदनन्तर देवराज इन्द्र परम सुन्दर दिव्य वेष धारण किये रतिके पीछे-पीछे चले; उनकी गतिमें अत्यन्त ललित विलास दृष्टिगोचर होता था सब प्रकारके आभूषण उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। दिव्य माला, दिव्य वस्त्र और दिव्य गन्धसे सुसज्जित हो वे पतिव्रता सुकलाके पास आये और उससे इस प्रकार बोले ‘भद्रे! मैंने पहले तुम्हारे सामने दूती भेजी थी, फिर प्रीतिको रवाना किया। मेरी प्रार्थना क्यों नहीं मानती ? मैं स्वयं तुम्हारे पास आया हूँ, मुझे स्वीकार करो।’

सुकला बोली- मेरे स्वामीके महात्मा पुत्र (सत्य, धर्म आदि) मेरी रक्षा कर रहे हैं। मुझे किसीका भय नहीं है। अनेक शूरवीर पुरुष सर्वत्र मेरी रक्षाके लिये उद्यत रहते हैं। जबतक मेरे नेत्र खुले रहते हैं, तबतक मैं निरन्तर पतिके ही कार्यमें लगी रहती हूँ। आप कौन हैं, जो मृत्युका भी भय छोड़कर मेरे पास आये हैं?

इन्द्रने कहा- तुमने अपने स्वामीके जिन शूरवीर पुत्रोंकी चर्चा की है, उन्हें मेरे सामने प्रकट करो! मैं कैसे उन्हें देख सकूँगा।

सुकला बोली- इन्द्रिय-संयमके विभिन्न गुणोंद्वारा उत्तम धर्म सदा मेरी रक्षा करता है। वह देखो, शान्ति और क्षमाके साथ सत्य मेरे सामने उपस्थित है। महाबली सत्य बड़ा यशस्वी है। यह कभी मेरा त्याग नहीं करता। इस प्रकार धर्म आदि रक्षक सदा मेरी देख भाल किया करते हैं; फिर क्यों आप बलपूर्वक मुझेप्राप्त करना चाहते हैं। आप कौन हैं, जो निडर होकर इसके साथ यहाँ आये हैं? सत्य, धर्म, पुण्य और ज्ञान दूतीके आदि बलवान् पुत्र मेरे तथा मेरे स्वामीके सहायक हैं। वे सदा मेरी रक्षामें तत्पर रहते हैं। मैं नित्य सुरक्षित हूँ। इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रहमें तत्पर रहती हूँ। साक्षात् शचीपति इन्द्र भी मुझे जीतनेकी शक्ति नहीं रखते। यदि महापराक्रमी कामदेव भी आ जाय तो मुझे कोई परवा नहीं है; क्योंकि मैं अनायास ही सतीत्वरूपी कवचसे सदा सुरक्षित हूँ। मुझपर कामदेवके बाण व्यर्थ हो जयेंगे, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। उलटे महाबली धर्म आदि तुम्हींको मार डालेंगे। दूर हटो, भाग जाओ, मेरे सामने न खड़े होओ। यदि मना करनेपर भी खड़ेरहोगे तो जलकर खाक हो जाओगे। मेरे स्वामीकी अनुपस्थितिमें यदि तुम मेरे शरीरपर दृष्टि डालोगे तो जैसे आग सूखी लकड़ीको जला देती है, उसी प्रकार मैं भी तुम्हें भस्म कर डालूँगी।”

सुकलाने जब यह कहा, तब तो उस सतीके भयंकर शापके डरसे व्याकुल हो सब लोग जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये। इन्द्र आदिने अपने-अपने लोककी राह ली सबके चले जानेपर पुण्यमयी पतिव्रता सुकला पतिका ध्यान करती हुई अपने घर लौट आयी। वह घर पुण्यमय था। यहाँ सब तीर्थ निवास करते थे। सम्पूर्ण यज्ञोंकी भी वहाँ उपस्थिति थी। राजन्! पतिको ही देवता माननेवाली वह सती अपने उसी घरमें आकर रहने लगी।

अध्याय-17 सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना

भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-राजन् कुकल वैश्य सब तीर्थोंकी यात्रा पूरी करके अपने साथियोंके साथ बड़े आनन्दसे घरकी ओर लौटे। वे सोचते थे मेरा संसारमें जन्म लेना सफल हो गया; मेरे सब पितर स्वर्गको चले गये होंगे। वे इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि एक दिव्य रूपधारी विशालकाय पुरुष उनके पिता पितामहाँको प्रत्यक्षरूपसे बाँधकर सामने प्रकट हुए और बोले— ‘वैश्य! तुम्हारा पुण्य उत्तम नहीं है। तुम्हें तीर्थ-यात्राका फल नहीं मिला। तुमने व्यर्थ ही इतना परिश्रम किया।’ यह सुनकर कृकल वैश्य दुःखसे पीड़ित हो गये। उन्होंने पूछा- आप कौन हैं, जो ऐसी बात कह रहे हैं? मेरे पिता पितामह क्यों बाँधे गये हैं? मुझे तीर्थका फल क्यों नहीं मिला?’धर्मने कहा- जो धार्मिक आचार और उत्तम व्रतका पालन करनेवाली, श्रेष्ठ गुणोंसे विभूषित, पुण्यमें अनुराग रखनेवाली तथा पुण्यमयी पतिव्रता पत्नीको अकेली छोड़कर धर्म करनेके लिये बाहर जाता है, उसका किया हुआ सारा धर्म व्यर्थ हो जाता है – इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो सब प्रकारके सदाचारमें संलग्न रहनेवाली, प्रशंसाके योग्य आचरणवाली, धर्मसाधनमें तत्पर, सदा पातिव्रत्यका पालन करनेवाली, सब बातोंको जाननेवाली तथा ज्ञानकी अनुरागिणी है, ऐसी गुणवती, पुण्यवती और महासती नारी जिसकी पत्नी हो, उसके घरमें सर्वदा देवता निवास करते हैं। पितर भी उसके घरमें रहकर निरन्तर उसके यशकी कामना करते रहते हैं। गंगा आदि पवित्र नदियाँ,सागर, यज्ञ, गौ, ऋषि तथा सम्पूर्ण तीर्थ भी उस घरमें मौजूद रहते हैं। पुण्यमयी पत्नीके सहयोगसे गृहस्थ धर्मका पालन अच्छे ढंगसे होता है। इस भूमण्डलमें गृहस्थधर्मसे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। वैश्य गृहस्थका घर यदि सत्य और पुण्यसे युक्त हो तो परम पवित्र माना गया है, वहाँ सब तीर्थ और देवता निवास करते हैं। गृहस्थका सहारा लेकर सब प्राणी जीवन धारण करते हैं। गृहस्थ आश्रमके समान दूसरा कोई उत्तम आश्रम मुझे नहीं दिखायी देता जिसके घरमें साध्वी स्त्री होती है, उसके यहाँ मन्त्र, अग्निहोत्र, सम्पूर्ण देवता, सनातन धर्म तथा दान एवं आचार सब मौजूद रहते हैं। इसी प्रकार जो पत्नीसे रहित है, उसका घर जंगलके समान है। वहाँ किये हुए यज्ञ तथा भाँति-भाँतिके दान सिद्धिदायक नहीं होते। साध्वी पत्नीके समान कोई तीर्थ नहीं है, पत्नीके समान कोई सुख नहीं है तथा संसारसे तारनेके लिये और कल्याण साधनके लिये पत्नीके समान कोई पुण्य नहीं है। जो अपनी धर्मपरायणा सती नारीको छोड़कर चला जाता है, वह मनुष्यों में अधम है। गृह धर्मका परित्याग करके तुम्हें धर्मका फल कहाँ मिलेगा। अपनी पत्नीको साथ लिये बिना जो तुमने तीर्थमें श्राद्ध और दान किया है, उसी दोषसे तुम्हारे पूर्वज बाँधे गये हैं। तुम चोर हो और तुम्हारे ये पितर भी चोर हैं; क्योंकि इन्होंने लोलुपतावश तुम्हारा दिया हुआ श्राद्धका अन्न खाया है। तुमने श्राद्ध करते समय अपनी पत्नीको साथ नहीं रखा था जो सुयोग्य पुत्र श्रद्धासे युक्त हो अपनी पत्नीके दिये हुए पिण्डसे श्राद्ध करता है, उससे पितरोंको वैसी ही तृप्ति होती है, जैसी अमृत पीनेसे- इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। पत्नी ही गार्हस्थ्य धर्मकी स्वामिनी है; उसके बिना ही जो तुमने शुभ कर्मोंका अनुष्ठान किया है, यह स्पष्ट ही तुम्हारी चोरी है। जब पत्नी अपने हाथसे अन्न तैयार करके देती है, तो वह अमृतके समान मधुर होता है। उसी अन्नको पितर प्रसन्न होकरभोजन करते हैं तथा उसीसे उन्हें विशेष संतोष और तृप्ति होती है। अतः पत्नीके बिना जो धर्म किया जाता है, वह निष्फल होता है।

कृकलने पूछा- धर्म! अब कैसे मुझे सिद्धि प्राप्त होगी और किस प्रकार मेरे पितरोंको बन्धनसे छुटकारा मिलेगा?

धर्मने कहा – महाभाग ! अपने घर जाओ। तुम्हारी धर्मपरायणा, पुण्यवती पत्नी सुकला तुम्हारे बिना बहुत दुःखी हो गयी थी; उसे सान्त्वना दो और उसीके हाथसे श्राद्ध करो। अपने घरपर ही पुण्यतीर्थोंका स्मरण करके तुम श्रेष्ठ देवताओंका पूजन करो, इससे तुम्हारी की हुई तीर्थ यात्रा सफल हो जायगी।

भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं—राजन्! यों कहकर धर्म जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये; परम बुद्धिमान् कृकल भी अपने घर गये और पतिव्रता पत्नीको देखकर मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए। सुकलाने स्वामीको आया देख उनके शुभागमनके उपलक्ष में मांगलिक कार्य किया। तत्पश्चात् धर्मात्मा वैश्यने धर्मकी सारी चेष्टा बतलायी। स्वामीके आनन्ददायक वचन सुनकर महाभागा सुकलाको बड़ा हर्ष हुआ। उसके बाद कुकलने घरपर ही रहकर पत्नीके साथ श्रद्धापूर्वक श्राद्ध और देवपूजन आदि पुण्यकर्मका अनुष्ठान किया। इससे प्रसन्न होकर देवता पितर और मुनिगण विमानोंके द्वारा यहाँ आये और महात्मा कृकल और उसकी महानुभावा पत्नी दोनोंकी सराहना करने लगे। मैं ब्रह्मा तथा महादेवजी भी अपनी-अपनी देवी के साथ वहाँ गये सम्पूर्ण देवता उस सतीके सत्यसे सन्तुष्ट थे। सबने उन दोनों पति-पत्नीसे कहा— ‘सुव्रत ! तुम्हारा कल्याण हो, तुम अपनी पत्नीके साथ वर माँगो।’

कृकलने पूछा- देववरो मेरे किस पुण्य और तपके प्रसंगसे पत्नीसहित मुझे वर देनेको आपलोग पधारे हैं?इन्द्रने कहा- यह महाभागा सुकला सती है। इसके सत्यसे सन्तुष्ट होकर हमलोग तुम्हें वर देना चाहते हैं।

यह कहकर इन्द्रने उसके सतीत्वकी परीक्षाका सारा वृत्तान्त थोड़ेमें कह सुनाया। उसके सदाचारका माहात्म्य सुनकर उसके स्वामीको बड़ी प्रसन्नता हुई। हर्षोल्लाससे कृकलके नेत्र डबडबा आये। धर्मात्मा वैश्यने पत्नीके साथ समस्त देवताओंको बारम्बार साष्टांग प्रणाम किया और कहा – ‘महाभाग देवगण! आप सब लोग प्रसन्न हों; तीनों सनातन देवता ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव हमपर सन्तुष्ट हों तथा अन्य जो पुण्यात्मा ऋषि मुझपर कृपा करके यहाँ पधारे हैं, वे भी प्रसन्नता प्राप्त करें। मैं सदा भगवान्‌की भक्ति करता रहूँ । आपलोगोंकी कृपासे धर्म तथा सत्यमें मेरा निरन्तर अनुराग बना रहे। तत्पश्चात् अन्तमें पत्नी और पितरके साथ मैं भगवान् श्रीविष्णुकेधाममें जाना चाहता हूँ।’

देवता बोले- महाभाग ! एवमस्तु, यह सब कुछ तुम्हें प्राप्त होगा।

भगवान् श्रीविष्णुने कहा- राजन्! यह कहकर देवताओंने उन दोनों पति-पत्नीके ऊपर फूलोंकी वर्षा की तथा ललित, मधुर और पवित्र संगीत सुनाया। वर देकर वे उस पतिव्रताकी स्तुति करते हुए अपने-अपने लोकको चले गये। इस परम उत्तम और पवित्र उपाख्यानको मैंने पूर्णरूपसे तुम्हें सुना दिया। राजन्! जो मनुष्य इसे सुनता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। स्त्रीमात्रको सुकलाका उपाख्यान श्रद्धापूर्वक सुनना चाहिये इसके श्रवणसे वह सौभाग्य, सतीत्व तथा पुत्र-पौत्रोंसे युक्त होती है। इतना ही नहीं, पतिके साथ सुखी रहकर वह निरन्तर आनन्दका अनुभव करती है।

अध्याय-18 पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना

वेनने कहा- भगवन्! आपने सब तीर्थोंमें उत्तम भार्या तीर्थका वर्णन तो किया, अब पितरोंको तारनेवाले पितृतीर्थका वर्णन कीजिये।

भगवान् श्रीविष्णुने कहा- परम पुण्यमय कुरुक्षेत्रमें कुण्डल नामके एक ब्राह्मण रहते थे। उनके सुयोग्य पुत्रका नाम सुकर्मा था। सुकमकि माता और पिता दोनों ही अत्यन्त वृद्ध, धर्मज्ञ और शास्त्रवेत्ता थे। मुकर्माको भी धर्मका पूर्ण ज्ञान था। वे श्रद्धायुक्त होकर बड़ी भक्तिके साथ दिन-रात माता-पिताको सेवामें लगे रहते थे। उन्होंने पितासे ही सम्पूर्ण वेद और अनेक शास्त्रोंका अध्ययन किया। वे पूर्णरूपसे सदाचारका पालन करनेवाले, जितेन्द्रिय और सत्यवादी थे। अपने हो हाथ माता-पिताका शरीर दबाते, पैर धोते और उन्हें स्नान-भोजन आदि कराते थे। राजेन्द्र सुकर्मा स्वभावसे ही भक्तिपूर्वक माता-पिताकी परिचर्या करते और सदा उन्होंके ध्यानमें लीन रहते थे।उन्हीं दिनों कश्यप-कुलमें उत्पन्न एक ब्राह्मण थे, जो पिप्पल नामसे प्रसिद्ध थे। वे सदा धर्म-कर्ममें लगे रहते थे और इन्द्रिय-संयम, पवित्रता तथा मनोनिग्रहसे सम्पन्न थे। एक समयकी बात है, वे महामना बुद्धिमान् ब्राह्मण दशारण्यमें जाकर ज्ञान और शान्तिके साधनमें तत्पर हो तपस्या करने लगे। उनकी तपस्याके प्रभावसे आस-पासके समस्त प्राणियोंका पारस्परिक वैर-विरोध शान्त हो गया। वे सब वहाँ एक पेटसे पैदा हुए भाइयोंकी तरह हिल-मिलकर रहते थे। पिप्पलकी तपस्या देख मुनियों तथा इन्द्र आदि देवताओंको भी बड़ा विस्मय हुआ ।

देवता कहने लगे-‘अहो! इस ब्राह्मणकी कितनी तीव्र तपस्या है। कैसा मनोनिग्रह है और कितना इन्द्रियसंयम है ! मनमें विकार नहीं। चित्तमें उद्वेग नहीं।’ काम-क्रोधसे रहित हो, सर्दी-गर्मी और हवाका झोंका सहते हुए वे तपस्वी ब्राह्मण पर्वतकी भाँति अविचलभावसे स्थित रहे। ऐसी अवस्थामें पहुँचकर उनका चित एकाग्र हो गया। वे ब्रह्मके ध्यानमें तन्मय थे। उनका मुख- कमल प्रसन्नतासे खिल उठा था। वे पत्थर और काठकी भाँति निश्चेष्ट एवं सुस्थिर दिखायी देते थे। धर्ममें उनका अनुराग था। तपसे शरीर दुर्बल हो गया था और हृदयमें पूर्ण श्रद्धा थी। इस प्रकार उन बुद्धिमान् ब्राह्मणको तपस्या करते एक हजार वर्ष बीत गये।

यहाँ बहुत सी चीटियोंने मिलकर मिट्टीका ढेर लगा दिया। उनके ऊपर बाँबीका विशाल मन्दिर-सा बन गया। काले साँपोंने आकर उनके शरीरको लपेट लिया। भयंकर विषवाले सर्प उन उग्र तेजस्वी ब्राह्मणको डेंस लेते थे; किन्तु जहर उनके शरीरपर गिर जाता था, उनकी त्वचाको भेदकर भीतर नहीं फैलने पाता था। उनके सम्पर्क में आकर साँप स्वयं ही शान्त हो जाते थे। उनकी देहसे नाना प्रकारकी तेजोमयी लपटें निकलती दिखायी देती थीं। पिप्पल तीनों काल तपमें प्रवृत्त रहते थे। वे तीन हजार वर्षोंतक केवल वायु पीकर रह गये। तब देवताओंने उनके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा की और कहा-‘महाभाग ! तुम जिस जिस वस्तुको प्राप्त करना चाहते हो, वह सब निश्चय ही प्राप्त होगी। तुम्हें समस्त अभिलषित पदार्थोंको देनेवाली सिद्धि स्वतः ही प्राप्त हो जायगी।’

यह वाक्य सुनकर महामना पिप्पलने भक्तिपूर्वक मस्तक झुका समस्त देवताओंको प्रणाम किया और बड़े हर्षमें भरकर कहा- ‘देवताओ! यह सारा जगत् मेरे वशमें हो जाय ऐसा वरदान दीजिये मैं विद्याधर होना चाहता हूँ।’ ‘एवमस्तु’ कहकर देवताओंने उन ब्राह्मणको अभीष्ट वरदान दिया और अपने-अपने स्थानको चले गये। राजेन्द्र तबसे द्विजश्रेष्ठ पिप्पल विद्याधरका पद पा गये और इच्छानुसार विचरते हुए सर्वत्र सम्मानित होने लगे। एक दिन महातेजस्वी पिप्पलने विचार किया- ‘देवताओंने मुझे वर दिया है कि सम्पूर्ण विश्व तुम्हारे वशमें हो जायगा। अतः उसकी परीक्षा करनी चाहिये।’ यह सोचकर वे उसे आजमाने को तैयार हुए। जिस-जिस व्यक्तिका व मनसे चिन्तन करते, वही वहीउनके वशमें हो जाता था। इस प्रकार जब उन्हें देवताओंकी बातपर विश्वास हो गया, तब वे [ अहंकारके वशीभूत हो] सोचने लगे मेरे समान श्रेष्ठ पुरुष इस संसारमें दूसरा कोई नहीं है।’

पिप्पल जब इस प्रकारकी भावना करने लगे, तब उनके मनका भाव जानकर एक सारसने कहा “ब्राह्मण! तुम ऐसा अहंकार क्यों कर रहे हो कि ‘मैं ही सबसे बड़ा हूँ।’ मैं तो ऐसा नहीं मानता कि सबको वशमें करनेकी सिद्धि केवल तुम्हींको प्राप्त हुई है। पिप्पल मेरी समझमें तुम्हारी बुद्धि मूढ़ है, तुम पराचीन तत्त्वको नहीं जानते। तुमने तीन हजार वर्षोंतक तप किया है, इसीका तुम्हें गर्व है फिर भी तुम यहाँ मुद मूढ़ ही रह गये। कुण्डलके जो सुकर्मा नामक पुत्र हैं, वे विद्वान् पुरुष हैं; उनकी बुद्धि उत्तम है। वे अर्वाचीन तथा पराचीन तत्त्वको जानते हैं। पिप्पल! तुम कान खोलकर सुन लो, संसारमें सुकर्माके समान महाज्ञानी दूसरा कोई नहीं है। उन्होंने दान नहीं दिया; ध्यान, होम और यज्ञ आदि कर्म भी कभी नहीं किया। न तीर्थ करने गये, न गुरुकी उपासना ही की। वे केवल माता पिताके हितैषी हैं, वेदाध्ययनसम्पन्न हैं तथा सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता हैं। यद्यपि सुकर्मा अभी बालक हैं, तो भी उन्हें जैसा ज्ञान प्राप्त है, वैसा तुम्हें अबतक नहीं हुआ। ऐसी दशामें तुम व्यर्थ ही यह गर्वका बोझ ढो रहे हो।

पिप्पल बोले-आप कौन हैं, जो पक्षीके रूपमें आकर इस प्रकार मेरी निन्दा कर रहे हैं? इस समय मुझे अर्वाचीन और पराचीनका स्वरूप पूर्णतया समझाइये।

सामने का दिखेष्ठ! कुण्डलके बालक पुत्रको जैसा ज्ञान प्राप्त है, वैसा तुममें नहीं है । यहाँसे जाओ और अर्वाचीन एवं पराचीनका स्वरूप तथा मेरा परिचय भी उन्हींसे पूछो। वे धर्मात्मा हैं, तुम्हें सारा ज्ञान बतलायेंगे। सारसकी यह बात सुनकर विप्रवर पिप्पल बड़े वेगसे कुण्डलके आश्रमको ओर गये। वहाँ पहुंचकर उन्होंने देखा, सुकर्मा माता-पिताकी सेवामें लगे हैं। वे सत्यपराक्रमी महात्मा अपने माता-पिताके चरणोंकेनिकट बैठे थे। उनके भीतर बड़ी भक्ति थी। वे परम शान्त और सम्पूर्ण ज्ञानकी महान् निधि जान पड़ते थे। कुण्डलकुमार सुकमनि जब पिप्पलको अपने द्वारपर आया देखा, तब वे आसन छोड़कर तुरंत खड़े हो गये और आगे बढ़कर उनका स्वागत किया। फिर उनको आसन, पाद्य और अर्घ्य आदि निवेदन करके पूछा ‘महाप्राज्ञ ! आप कुशलसे तो हैं न? मार्गमें कोई कष्ट तो नहीं हुआ? जिस कारणसे आपका यहाँ आना हुआ है, वह सब मैं बताता हूँ। महाभाग ! आपने तीन हजार वर्षोंतक तपस्या करके देवताओंसे वरदान प्राप्त किया सबको वशमें करनेकी शक्ति और इच्छानुसार गति पायी है। इससे उन्मत्त हो जानेके कारण आपके –

मनमें गर्व हो आया। तब महात्मा सारसने आपकी सारी चेष्टा देखकर आपको मेरा नाम बताया और मेरे उत्तम ज्ञानका परिचय दिया।

पिप्पलने पूछा- ब्रह्मन् ! नदीके तीरपर जो सारस मिला था, जिसने मुझे यह कहकर आपके पास भेजा कि वे सब ज्ञान बता सकते हैं, ‘ वह कौन था ? सुकर्माने कहा – विप्रवर! सरिताके तटपर जिन्होंने सारसके रूपमें आपसे बात की थी, वे साक्षात् महात्मा ब्रह्माजी थे।

[ यह सुनकर धर्मात्मा] पिप्पलने कहा ब्रह्मन् ! मैंने सुना है, सारा जगत् आपके अधीन है; इस बातको देखनेके लिये मेरे मनमें उत्कण्ठा हो रही है। आप यत्न करके मुझे अपनी यह शक्ति दिखाइये। तब सुकर्माने पिप्पलको विश्वास दिलानेके लिये देवताओंका स्मरण किया। उनके आवाहन करनेपर सम्पूर्ण देवता वहाँ आये और सुकर्मासे इस प्रकार बोले—’ब्रह्मन् ! तुमने किसलिये हमें याद किया है, इसका कारण बताओ।’

सुकर्माने कहा – देवगण! विद्याधर पिप्पल आज मेरे अतिथि हुए हैं, ये इस बातका प्रमाण चाहतेहैं कि सम्पूर्ण विश्व मेरे वशमें कैसे है। इन्हें विश्वास दिलाने के लिये ही मैंने आपलोगोंका आवाहन किया है। अब आप अपने-अपने स्थानको पधारें।’

तब देवताओंने कहा- ‘ब्रह्मन् ! हमारा दर्शन निष्फल नहीं होता। तुम्हारा कल्याण हो; तुम्हारे मनको जो रुचिकर प्रतीत हो, वही वरदान हमसे माँग लो।’ तब द्विजश्रेष्ठ सुकमने देवताओंको भक्तिपूर्वक प्रणाम करके यह वरदान माँगा ‘देवेश्वरो माता-पिताके चरणोंमें मेरी उत्तम भक्ति सदा सुस्थिर रहे तथा मेरे माता-पिता भगवान् श्रीविष्णुके धाममें पधारें। ‘

देवता बोले- विप्रवर! तुम माता-पिताके भक्त तो हो ही, तुम्हारी उत्तम भक्ति और भी बढ़े।

यों कहकर सम्पूर्ण देवता स्वर्गलोगको चले गये। पिप्पलने भी वह महान् और अद्भुत कौतुक प्रत्यक्ष देखा। तत्पश्चात् उन्होंने कुण्डलपुत्र सुकर्मासे कहा-‘वक्ताओंमें श्रेष्ठ! श्रेष्ठ! परमात्माका अर्वाचीन और पराचीन रूप कैसा होता है, दोनोंका प्रभाव क्या है? यह बताइये।’

सुकर्माने का – ब्रह्मन् ! मैं पहले आपको पराचीन रूपकी पहचान बताता हूँ, उसीसे इन्द्र आदि देवता तथा चराचर जगत् मोहित होते हैं। ये जो जगत्के स्वामी परमात्मा हैं, वे सबमें मौजूद और सर्वव्यापक हैं। उनके रूपको किसी योगीने भी नहीं देखा है। श्रुति भी ऐसा कहती है कि उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। उनके न हाथ हैं न पैर, न नाक है न कान और न मुख ही है। फिर भी वे तीनों लोकोंके निवासियोंके सारे कर्म देखा करते हैं। कान न होनेपर भी सबकी कही हुई बातों को सुनते हैं। वे परम शान्ति प्रदान करनेवाले हैं। हाथ न होनेपर भी काम करते और पैरोंसे रहित होकर भी सब ओर दौड़ते हैं। वे व्यापक, निर्मल, सिद्ध, सिद्धिदायक और सबके नायक हैं। आकाशस्वरूप और अनन्तहैं। व्यास तथा मार्कण्डेय उनके स्वरूपको जानते हैं। अब मैं भगवान्‌के अर्वाचीन रूपका वर्णन करूँगा, तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। ‘जिस समय सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा प्रजापति ब्रह्माजी स्वयं ही सबका संहार करके श्रीभगवान्‌के स्वरूपमें स्थित होते हैं और भगवान् श्रीजनार्दन उन्हें अपनेमें लीन करके पानीके भीतर शेषनागकी शय्यापर दीर्घकालतक अकेले सोये रहते हैं, उस समयकी बात है। महामुनि मार्कण्डेयजी जल और अन्धकारसे व्याकुल हो इधर-उधर भटक रहे थे। उन्होंने देखा सर्वव्यापी ईश्वर शेषनागकी शय्यापर सो रहे हैं। उनका तेज करोड़ों सूर्योंके समान जान पड़ता है। वे दिव्य आभूषण, दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण किये योगनिद्रामें स्थित हैं। उनका श्रीविग्रह बड़ा ही कमनीय है। उनके हाथोंमें शंख, चक्र और गदा विराजमान हैं। उनके पास ही उन्होंने एक विशालकाय स्त्री देखी, जो काली अंजन-राशिके समान थी। उसका रूप बड़ा भयंकर था। उसने मुनिश्रेष्ठ मार्कण्डेयसे कहा ‘महामुने! डरो मत।’ तब उन योगीश्वरने पूछा- ‘देवि तुम कौन हो ?’ मुनिके इस प्रकार पूछनेपर देवीने बड़े आदरके साथ कहा- ‘ब्रह्मन्! जो शेषनागकी शय्यापर सो रहे हैं, वे भगवान् श्रीविष्णु हैं। मैं उन्हींकी वैष्णवी शक्ति कालरात्रि हूँ ।

पिप्पलजी ! यों कहकर वह देवी अन्तर्धान हो गयी। उसके चले जानेपर मार्कण्डेयजीने देखा भगवान्की नाभिसे एक कमल प्रकट हुआ, जिसकी कान्ति सुवर्णके समान थी। उसीसे महातेजस्वी लोकपितामह ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। फिर ब्रह्माजीसे समस्तचराचर प्राणी, इन्द्रादि लोकपाल तथा अग्नि आदि देवताओंका जन्म हुआ। इस प्रकार मैंने यह अर्वाचीनका स्वरूप बतलाया है। अर्वाचीन रूप शरीरधारी है और पराचीन रूप शरीररहित है, अतः ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवता अर्वाचीन हैं। ये लोक भी, जो तीनों भुवनोंमें स्थित हैं, अर्वाचीन ही माने गये हैं। विद्याधर ! मोक्षरूप जो परम स्थान है; जिसे परब्रह्म कहते हैं, जो अव्यक्त, अक्षर, हंसस्वरूप, शुद्ध और सिद्धियुक्त है, वही पराचीन है। इस प्रकार तुम्हारे सामने पराचीन स्वरूपका वर्णन किया गया।

विद्याधरने पूछा- सुव्रत ! आप अर्वाचीन और पराचीन स्वरूपके विद्वान् हैं। तीनों लोकोंका उत्तम ज्ञान आपमें वर्तमान है। फिर भी मैं आपमें तपस्याकी पराकाष्ठा नहीं देखता। ऐसी दशामें आपके इस प्रभावका क्या कारण है? कैसे आपको सब बातोंका ज्ञान प्राप्त हुआ ?

सुकर्माने कहा – ब्रह्मन् ! मैंने यजनयाजन, धर्मानुष्ठान ज्ञानोपार्जन और तीर्थ सेवन- कुछ भी नहीं किया। इनके सिवा और भी किसी शुभकर्मजनित पुण्यका अर्जन मेरे द्वारा नहीं हुआ। मैं तो स्पष्टरूपसे एक ही बात जानता हूँ-वह है पिता और माताकी सेवा-पूजा। पिप्पल ! मैं स्वयं ही अपने हाथसे माता-पिताके चरण धोनेका पुण्यकार्य करता हूँ। उनके शरीरकी सेवा करता तथा उन्हें स्नान और भोजन आदि कराता हूँ। प्रतिदिन तीनों समय माता-पिताकी सेवामें ही लगा रहता हूँ। जबतक मेरे माँ-बाप जीवित हैं, तबतक मुझे यह अतुलनीय लाभ मिल रहा है कि तीनों समयमैं शुद्धभावसे मन लगाकर इन दोनोंकी पूजा करता हूँ। पिप्पल ! मुझे दूसरी तपस्यासे क्या लेना है। तीर्थयात्रा तथा अन्य पुण्यकर्मोसे क्या प्रयोजन है। विद्वान् पुरुष सम्पूर्ण यहाँका अनुष्ठान करके जिस फलको प्राप्त करते हैं, वही मैंने पिता-माताकी सेवासे पा लिया है जहाँ माता-पिता रहते हों, वही पुत्रके लिये गंगा, गया और पुष्करतीर्थ है- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। माता-पिताकी सेवासे पुत्रके पास अन्यान्य पवित्र तीर्थ भी स्वयं ही पहुँच जाते हैं। जो पुत्र माता-पिताके जीते जी उनकी सेवा करता है, उसके ऊपर देवता तथा पुण्यात्मा महर्षि प्रसन्न होते हैं। पिताकी सेवासे तीनों लोक संतुष्ट हो जाते हैं। जो पुत्र प्रतिदिन माता-पिताके चरण पखारता है, उसे नित्यप्रप्ति गंगास्नानका फल मिलता है। जिस पुत्रने ताम्बूल, वस्त्र, खान-पानकी विविध सामग्री तथा पवित्र अन्नके द्वारा भक्तिपूर्वक माता-पिताका पूजन किया है, वह सर्वज्ञ होता है।

द्विजश्रेष्ठ ! माता-पिताको स्नान कराते समय जब उनके शरीरसे जलके छींटे उछटकर पुत्रके सम्पूर्ण अंगोंपर पड़ते हैं, उस समय उसे सम्पूर्ण स्नान करनेका फल होता है। यदि पिता पतित, भूखसे व्याकुल, सब कार्यों में वृद्ध, असमर्थ, रोगी और कोढ़ी हो गये हों तथा माताकी भी वही अवस्था हो, उस समयमें भी जोपुत्र उनकी सेवा करता है, उसपर निस्सन्देह भगवान् श्रीविष्णु प्रसन्न होते हैं। वह योगियोंके लिये भी दुर्लभ भगवान् श्रीविष्णुके धामको प्राप्त होता है जो किसी अंगसे हीन, दीन, वृद्ध, दुःखी तथा महान् रोगसे पीड़ित माता-पिताको त्याग देता है, वह पापात्मा पुत्र कीड़ोंसे भरे हुए दारुण नरकमें पड़ता है। जो पुत्र बूढ़े माँ-बापके बुलानेपर भी उनके पास नहीं जाता, वह मूर्ख विष्ठा खानेवाला कीड़ा होता है तथा हजार जन्मोंतक उसे कुत्तेकी योनिमें जन्म लेना पड़ता है। वृद्ध माता-पिता जब घरमें मौजूद हों, उस समय जो पुत्र पहले उन्हें भोजन कराये बिना स्वयं अन्न ग्रहण करता है, वह घृणित कोड़ा होता है और हजार जन्मोंतक मल-मूत्र भोजन करता है। इसके सिवा वह पापी तीन सौ जन्मोंतक काला नाग होता है। जो पुत्र कटु वचनोंद्वारा माता-पिताकी निन्दा करता है, वह पापी बाघकी योनिमें जन्म लेता हैं तथा और भी बहुत दुःख उठाता है। जो पापात्मा पुत्र माता-पिताको प्रणाम नहीं करता, वह हजार युगोंतक कुम्भीपाक नरकमें निवास करता है। पुत्रके लिये माता-पितासे बढ़कर दूसरा कोई तीर्थ नहीं है। माता-पिता इस लोक और परलोकमें भी नारायणके समान हैं। इसलिये महाप्राज्ञ! मैं प्रतिदिन माता पिताकी पूजा करता और उनके योग क्षेमकी चिन्तामें लगा रहता हूँ। इसीसे तीनों लोक मेरे वश होगये हैं। माता-पिताके प्रसादसे ही मुझे पराचीन तथा वासुदेवस्वरूप अर्वाचीन तत्त्वका उत्तम ज्ञान प्राप्त हुआ है। मेरी सर्वज्ञतामें माता-पिताकी सेवा ही कारण है। भला, कौन ऐसा विद्वान् पुरुष होगा, जो पिता-माताकी पूजा नहीं करेगा। ब्रह्मन् ! श्रुति (उपनिषद्) और शास्त्रोंसहित सम्पूर्ण वेदोंके सांगोपांग अध्ययनसे ही क्यालाभ हुआ, यदि उसने माता-पिताका पूजन नहीं किया। उसका वेदाध्ययन व्यर्थ है। उसके यज्ञ, तप, दान और पूजनसे भी कोई लाभ नहीं। जिसने माँ-बापका आदर नहीं किया, उसके सभी शुभकर्म निष्फल होते हैं। माता-पिता ही पुत्रके लिये धर्म, तीर्थ, मोक्ष, जन्मके उत्तम फल, यज्ञ और दान आदि सब कुछ हैं।

अध्याय-19 सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन

सुकर्मा कहते हैं- अब मैं इस विषय में पुण्यात्मा राजा ययातिके चरित्रका वर्णन करूँगा, जो सम्पूर्ण पापका नाश करनेवाला है। सोमवंशमें एक नहुष नामके राजा हो गये हैं। उन्होंने अनेकों दानधर्मोका अनुष्ठान किया, जिनकी कहीं तुलना नहीं थी। उन्होंने अपने पुण्यके प्रभावसे इन्द्रलोकपर अधिकार प्राप्त किया था। उन्होंके पुत्र राजा यति हुए जो शत्रुओंका मानमर्दन करनेवाले थे। वे सत्यका आश्रय ले धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करते थे। प्रजाके सब कार्योंकी स्वयं ही देख-भाल किया करते थे। वे उत्तम धर्मकी महिमा सुनकर सब प्रकारके दान-पुण्य, यज्ञानुष्ठान एवं तीर्थ सेवन आदिमें लगे रहते थे। महाराज ययातिने अस्सी हजार वर्षोंतक इस पृथ्वीका राज्य किया। उनके चार पुत्र हुए, जो उन्होंके समान शूरवीर, बलवान् और पराक्रमी थे। तेज और पुरुषार्थमें भी वे पिताकी समानता करते थे। इस प्रकार ययातिने दीर्घकालतक धर्मपूर्वक राज्य किया।

एक समयकी बात है, ब्रह्माजीके पुत्र नारदजी इन्द्रलोक में गये। उन्हें आया देख इन्द्रने भक्तिपूर्वक मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और मधुपर्क आदिसे उनकी पूजा करके उन्हें एक पवित्र आसनपर बिठाया। तत्पश्चात् वे उन महामुनिसे पूछने लगे-‘देवर्षे किस लोकसे आपका यहाँ आना हुआ है? तथा यहाँ पदार्पण करनेका क्या उद्देश्य है?’

नारदजीने कहा- मैं इस समय भूलोकसे आरहा हूँ। नहुष – पुत्र ययातिसे मिलकर अब आपसे मिलनेके लिये आया हूँ।

इन्द्रने पूछा – इस समय पृथ्वीपर कौन राजा सत्य और धर्मके अनुसार प्रजाका पालन करता है? कौन सब धर्मोंसे युक्त, विद्वान्, ज्ञानवान्, गुणी, ब्राह्मणोंके कृपापात्र, ब्राह्मणभक्त, वेदवेत्ता, शूरवीर, दाता, यज्ञ करनेवाला और पूर्ण भक्तिमान् है ?

नारदजीने कहा- नहुषके बलवान् पुत्र ययाति इन गुणोंसे युक्त हैं। वे अपने पितासे भी बढ़े-चढ़े हैं। उन्होंने सौ अश्वमेध और सौ वाजपेय यज्ञ किये हैं। भक्तिपूर्वक अनेक प्रकारके दान दिये हैं। उनके द्वारा लाखों-करोड़ों गौएँ दानमें दी जा चुकी हैं। उन्होंने कोटिहोम तथा लक्षहोम भी किये हैं। ब्राह्मणको भूमि आदिका दान भी दिया है। उन्होंने ही धर्मके सांगोपांग स्वरूपका पालन किया है। ऐसे गुणोंसे युक्त नहुष – पुत्र राजा ययाति अस्सी हजार वर्षोंसे सत्य धर्मके अनुसार विधिवत् राज्य करते आ रहे हैं। इस कार्यमें वे आपकी समानता करते हैं।

सुकर्मा कहते हैं- मुनीश्वर नारदके मुखसे ऐसी बात सुनकर बुद्धिमान् इन्द्र कुछ सोचने लगे। वे ययातिके धर्म- पालनसे भयभीत हो उठे थे। उनके मनमें यह बात आयी कि ‘पूर्वकालमें राजा नहुष सौ यज्ञोंके प्रभावसे मेरे इन्द्रपदपर अधिकार करके देवताओंके राजा बन बैठे थे। शचीकी बुद्धिके प्रभावसे उन्हें पदभ्रष्ट होना पड़ा था। ये महाराज ययाति भी ऐसे ही सुने जाते हैं।इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि ये इन्द्रपदपर अधिकार कर लेंगे। अतः जिस किसी उपायसे सम्भव हो, उन्हें स्वर्गमें लाऊँगा।’

क्यालिसे डरे हुए देवराजने ऐसा विचार करके उन्हें बुलानेके लिये दूत भेजा। अपने सारथि मातलिको विमानके साथ रवाना किया। मातलि उस स्थानपर गये, वहाँ नहुष पुत्र धर्मात्मा ययाति अपनी राजसभामें विराजमान थे। सत्य ही उन श्रेष्ठ नरेशका आभूषण देवराजके सारथिने उनसे कहा-‘राजन्! मेरी बात सुनिये, देवराज इन्द्रने मुझे इस समय आपके पास भेजा है। उनका अनुरोध है कि अब आप पुत्रको राज्य दे आज ही इन्द्रलोकको पधारें महीपते। वहाँ इन्द्रके साथ रहकर आप स्वर्गका आनन्द भोगिये।’

ययातिने पूछा- मातले! मैंने देवराज इन्द्रका कौन सा ऐसा कार्य किया है, जिससे तुम ऐसी प्रार्थना कर रहे हो ?

मातलिने कहा- राजन्! लगभग एक लाख वर्षोंसे आप दान यज्ञ आदि कर्म कर रहे हैं। इन कर्मोके फलस्वरूप इस समय स्वर्गलोकमें चलिये और देवराज इन्द्रके सखा होकर रहिये इस पांचभौतिक शरीरको भूमिपर ही त्याग दीजिये और दिव्य रूप धारण करके मनोरम भोगोंका उपभोग कीजिये।

ययातिने प्रश्न किया- मनुष्य जिस शरीरसे सत्यधर्म आदि पुण्यका उपार्जन करता है, उसे वह कैसे छोड़ सकता है।

मातलिने कहा— राजन् ! तुम्हारा कथन ठीक है, तथापि मनुष्यको अपना यह शरीर छोड़कर ही जाना पड़ता है [ क्योंकि आत्माका शरीरके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है]। शरीर पंचभूतोंसे बना हुआ है; जब इसकी संधियाँ शिथिल हो जाती हैं, उस समय वृद्धावस्थासे पीड़ित मनुष्य इस शरीरको त्याग देना चाहता है।

ययातिने पूछा – साधुश्रेष्ठ! वृद्धावस्था कैसे उत्पन्न होती है तथा वह क्यों शरीरको पीड़ा देती है? इन सब बातोंको विस्तारसे समझाओ। मातलिने कहा- राजन्! पंचभूतोंसे इसशरीरका निर्माण हुआ है तथा पाँच विषयोंसे यह घिरा हुआ है। वीर्य और रक्तका नाश होनेसे प्रायः शरीर खोखला हो जाता है, उसमें प्रचण्ड वायुका प्रकोप होता है। इससे मनुष्यका रंग बदल जाता है वह दु:खसे संतप्त और हतबुद्धि हो जाता है जो स्त्री देखी-सुनी होती है, उसमें चित्त आसक्त होनेसे वह सदा भटकता रहता है। शरीरमें तृप्ति नहीं होती; क्योंकि उसका चित सदा लोलुप रहा करता है। जब कामी मनुष्य मांस और रक्त क्षीण होनेसे दुर्बल हो जाता है, तब उसके बाल पक जाते हैं। कामाग्निसे शरीरका शोषण हो जाता है। वृद्ध होनेपर भी दिन-दिन उसकी कामना बढ़ती ही जाती है। बूढ़ा मनुष्य ज्यों-ज्यों स्त्रीके सहवासका चिन्तन करता है, त्यों-त्यों उसके तेजकी हानि होती है। अतः काम नाशस्वरूप है, यह नाशके लिये ही उत्पन्न होता है। काम एक भयंकर ज्वर है, जो प्राणियोंका काल बनकर उत्पन्न होता है। इस प्रकार इस शरीरमें जीर्णता-जरावस्था आती है।

ययातिने कहा- मातले! आत्माके साथ यह शरीर ही धर्मका रक्षक है, तो भी यह स्वर्गको नहीं जाता – इसका क्या कारण है? यह बताओ।

मातलि बोले – महाराज ! पाँचों भूतोंका आपसमें ही मेल नहीं है। फिर आत्माके साथ उनका मेल कैसे हो सकता है। आत्माके साथ इनका सम्बन्ध बिलकुल नहीं है। शरीर समुदायमें भी सम्पूर्ण भूतोंका पूर्ण संघट नहीं है; क्योंकि जरावस्थासे पीड़ित होनेपर सभी अपने-अपने स्थानको चले जाते हैं। इस शरीरमें अधिकांश पृथ्वीका भाग है। यह पृथ्वीको समानताको लेकर ही प्रतिष्ठित है जैसे पृथ्वी स्थित है, उसी प्रकार यह भी यहीं स्थित रहता है। अतः शरीर स्वर्गको नहीं जाता।

ययातिने कहा- मातले! मेरी बात सुनो। जब पापसे भी शरीर गिर जाता है और पुण्यसे भी, तब मैं इस पृथ्वीपर पुण्यमें कोई विशेषता नहीं देखता। जैसे पहले शरीरका पतन होता है, उसी प्रकार पुनः दूसरे शरीरका जन्म भी हो जाता है। किन्तु उस देहकी उत्पत्ति कैसे होती है? मुझे इसका कारण बताओ।मातलि बोले राजन् नारकी पुरुषोंके अधर्ममात्रसे एक ही क्षणमें भूतोंके द्वारा नूतन शरीरका निर्माण हो जाता है। इसी प्रकार एकमात्र धर्मसे ही देवत्वकी प्राप्ति करानेवाले दिव्य शरीरकी तत्काल उत्पत्ति हो जाती है। उसका आविर्भाव भूतोंके सारतत्त्वसे होता है। कमक मेलसे जो शरीर उत्पन्न होता है, उसे रूपके परिमाणसे चार प्रकारका समझना चाहिये। [ उद्भिज्ज, स्वेदन, अण्डज और जरायुज-ये ही चार प्रकारके शरीर हैं।] स्थावरोंको उद्भिज्ज कहते हैं। उन्हें तृण, गुल्म और लता आदिके रूपमें जानना चाहिये कृमि, कीट और पतंग आदि प्राणी स्वेदन कहलाते हैं। समस्त पक्षी, नाके और मछली आदि जीव अण्डज हैं। मनुष्यों और चौपायको जरायुज जानना चाहिये।

भूमिके पानीसे सींचे जानेपर बोये हुए अन्नमें उसकी गर्मी चली जाती है। फिर वायुसे संयुक्त होनेपर क्षेत्रमें बीज जमने लगता है। पहले तपे हुए बीज जब पुनः जलसे सींचे जाते हैं, तब गर्मी के कारण उनमें मृदुता आ जाती है; फिर वे जड़के रूपमें बदल जाते हैं। उस मूलसे अंकुरकी उत्पत्ति होती है। अंकुरसे पत्ते निकलते हैं, पत्तेसे तना, तनेसे काण्ड, काण्डसे प्रभव, प्रभवसे दूध और दूधसे तण्डुल उत्पन्न होता है। तण्डुलके पक जानेपर अनाजकी खेती तैयार हुई समझी जाती है। अनाजों में शालि (अगहनी धान) से लेकर जौतक दस अन्न श्रेष्ठ माने गये हैं। उनमें फलकी प्रधानता होती है। शेष अन्न क्षुद्र बताये गये हैं। भक्ष्य, भोज्य, पेय, लेह्य, चोष्य और खाद्य-ये अन्नके छः भेद हैं तथा मधुर आदि छः प्रकारके रस हैं। देहधारी उस अन्नको पिण्डके समान कौर या ग्रास बनाकर खाते हैं। वह अन्न शरीरके भीतर उदरमें पहुँचकर समस्त प्राणोंको क्रमशः स्थिर करता है। खाये हुए अपक्व भोजनको वायु दो भागों में बाँट देती है। अन्नके भीतर प्रवेश करके उसे पचाती और पृथक् पृथक् गुणोंसे युक्त करती है। अग्निके ऊपर जल और जलके ऊपर अन्नको स्थापित करके प्राण स्वयंजालके नीचे स्थित हो धीरे-धीरे जठराग्निको प्रज्वलित करता है। वायुसे उद्दीप्त की हुई अग्नि जलको अधिक गर्म कर देती है। उसकी गर्मीके कारण अन्न सब ओरसे भलीभाँति पच जाता है। पचा हुआ अन्न कीट और रस- इन दो भागोंमें विभक्त होता है। इनमें कीट मलरूपसे बारह छिद्रोंद्वारा शरीरके बाहर निकलता है। दो कान, दो नेत्र, दो नासा-छिद्र, जिह्वा, दाँत, ओठ, लिंग, गुदा और रोमकूपये ही मल निकलनेके बारह मार्ग हैं। इनके द्वारा कफ, पसीने और मल-मूत्र आदिके रूपमें शरीरका मैल निकलता है। हृदयकमलमें शरीरकी सब गाड़ियाँ आबद्ध है। उनके मुखमें प्राण अन्नका सूक्ष्म रस डाला करता है। वह बारम्बार उस रससे नाड़ियोंको भरता रहता है तथा रससे भरी हुई नाड़ियाँ सम्पूर्ण देहको तृप्त करती रहती हैं।

नाड़ियोंके मध्य में स्थित हुआ रस शरीरकी गर्मीसे पकने लगता है। उस रसके जब दो पाक हो जाते हैं, तब उससे त्वचा, मांस, हड्डी, मज्जा, मेद और रुधिर आदि उत्पन्न होते हैं। रक्तसे रोम और मांस, मांससे केश और स्नायु, स्नायुसे मज्जा और हड्डी तथा मज्जा और हड्डीसे वसाकी उत्पत्ति होती है। मज्जाले शरीरकी उत्पत्तिका कारणभूत वीर्य बनता है। इस प्रकार अन्नके बारह परिणाम बताये गये हैं। जब ऋतुकालमें दोषरहित वीर्य स्त्रीकी योनिमें स्थित होता है, उस समय वह वायुसे प्रेरित हो रजके साथ मिलकर एक हो जाता है। वीर्य स्थापन के समय कारण शरीरयुक्त जीव अपने कर्मोंसे प्रेरित होकर योनिमें प्रवेश करता है।

वीर्य और रज दोनों एकत्र होकर एक ही दिनमें कललके आकारमें परिणत हो जाते हैं, फिर पाँच रातमें उनका बुदबुद बन जाता है। तत्पश्चात् एक महीने में ग्रीवा मस्तक, कंधे की हड्डी तथा उदर-ये पाँच अंग उत्पन्न होते हैं; फिर दो महीने में हाथ, पैर, पसली, कमर और पूरा शरीर- ये सभी क्रमशः सम्पन्न होते हैं। तीन महीने बीतते-बीतते सैकड़ों अंकुरधियाँ प्रकट होजाती हैं। चार महीनोंमें क्रमशः अँगुली आदि अवयव भी उत्पन्न हो जाते हैं। पांच महीनोंमें मुँह नाक और कान तैयार हो जाते हैं छः महीनों के भीतर दाँतकि मसूड़े जिझ तथा कानोंके छिद्र प्रकट होते हैं। सात महीनोंमें गुदा, लिंग, अण्डकोष, उपस्थ तथा शरीरकी सन्धियाँ प्रकट होती हैं। आठ मास बीतते-बीतते शरीरका प्रत्येक अवयव, केशोंसहित पूरा मस्तक तथा अंगको पृथक्-पृथक् आकृतियाँ स्पष्ट हो जाती हैं। माताके आहारसे जो छः प्रकारका रस मिलता है,

उसके बलसे गर्भस्थ बालककी प्रतिदिन पुष्टि होती है। नाभिमें जो नाल बंधा होता है, उसीके द्वारा बालकको रसकी प्राप्ति होती रहती है। तदनन्तर शरीरका पूर्ण विकास हो जानेपर जीवको स्मरण शक्ति प्राप्त होती है तथा वह दुःख सुखका अनुभव करने लगता है। उसे पूर्वजन्मके किये हुए कर्मोंका, यहाँतक कि निद्रा और शयन आदिका भी स्मरण हो आता है। वह सोचने लगता है-‘मैंने अबतक हजारों योनियोंमें अनेकों बार चक्कर लगाया। इस समय अभी-अभी जन्म ले रहा हूँ, मुझे पूर्वजन्मोंकी स्मृति हो आयी है; अतः इस जन्ममें मैं यह कल्याणकारी कार्य करूँगा, जिससे मुझे फिर गर्भमें न आना पड़े। मैं यहाँ से निकलनेयर संसार-बन्धनकी निवृत्ति करनेवाले उत्तम ज्ञानको प्राप्त करनेका प्रयत्न करूँगा।’

जीव गर्भवासके महान् दुःखसे पीड़ित हो कर्मवश माता उदरमें पढ़ा-पड़ा अपने मोक्षका उपाय सोचता रहता है। जैसे कोई पर्वतकी गुफामें बंद हो जानेपर बड़े दु:खसे समय बिताता है, उसी प्रकार देहधारी जीव जरायु (जेर) के बन्धनमें बंधकर बहुत दुःखी होता और बड़े कष्टसे उसमें रह पाता है। जैसे समुद्रमें गिरा हुआ मनुष्य दुःखसे छटपटाने लगता है, वैसे ही गर्भके जलसे अभिषिक्त जीव अत्यन्त व्याकुल हो उठता है। जिस प्रकार किसीको लोहेके पड़ेमें बंद करके आगसे पकाया।जाय, उसी प्रकार गर्भरूपी कुम्भमें डाला हुआ जीव जठराग्निसे पकाया जाता है। आगमें तपाकर लाल लाल की हुई बहुत सी सुइयोंसे निरन्तर शरीरको छेदनेपर जितना दुःख होता है, उससे आठगुना अधिक कष्ट गर्भमें होता है। गर्भवाससे बढ़कर कष्ट कहीं नहीं होता। देहधारियोंके लिये गर्भमें रहना इतना भयंकर कष्ट है, जिसकी कहीं तुलना नहीं है। इस प्रकार प्राणियोंके गर्भजनित दुःखका वर्णन किया गया। स्थावर और जंगम-सभी प्राणियोंको अपने-अपने गर्भके अनुरूप कष्ट होता है।

जीवको जन्मके समय गर्भवासकी अपेक्षा करोड़ गुनी अधिक पीड़ा होती है। जन्म लेते समय वह मूच्छित हो जाता है। उस समय उसका शरीर हड्डियोंसे युक्त गोल आकारका होता है। स्नायुबन्धनसे बँधा रहता है। रक्त, मांस और वसासे व्याप्त होता है। मल और मूत्र आदि अपवित्र वस्तुएँ उसमें जमा रहती हैं। केश, रोम और नखोंसे युक्त तथा रोगका आश्रय होता है। मनुष्यका यह शरीर जरा और शोकसे परिपूर्ण तथा कालके अग्निमय मुखमें स्थित है। इसपर काम और क्रोधके आक्रमण होते रहते हैं। यह भोगकी तृष्णासे आतुर विवेकशून्य और राग-द्वेषके वशीभूत होता है। इस देहमें तीन सौ साठ हड्डियाँ तथा पाँच सौ मांस पेशियाँ हैं, ऐसा समझना चाहिये। यह सब ओरसे साढ़े तीन करोड़ रोमोंद्वारा व्याप्त है तथा स्थूल सूक्ष्म एवं दृश्य-अदृश्यरूपसे उतनी ही नाड़ियाँ भी इसके भीतर फैली हुई हैं। उन्हींके द्वारा भीतरका अपवित्र मल पसीने आदिके रूपमें निकलता रहता है। शरीरमें बत्तीस दाँत और बीस नख होते हैं। देहके अंदर पित्त एक कुडव’ और कफ आधा आढकर होता है। वसा तीन पल, कलल पंद्रह पल, वात अर्बुद पल, मेद दस पल, महारक्त तीन पल, मज्जा उससे चौगुनी (बारह पल), वीर्य आधा कुडव, बल चौथाई कुडव, मांस- पिण्डहजार पल तथा रक्त सौ पल होता है और मूत्रका कोई नियत माप नहीं है।

राजन्! आत्मा परम शुद्ध है और उसका यह देहरूपी घर, जो कर्मोके बन्धनसे तैयार किया गया है, नितान्त अशुद्ध है। इस बातको सदा ही याद रखना चाहिये वीर्य और रजका संयोग होनेपर ही किसी भी योनिमें देहकी उत्पत्ति होती है तथा यह हमेशा पेशाब और पाखानेसे भरा रहता है; इसलिये इसे अपवित्र माना गया है। जैसे घड़ा बाहरसे चिकना होनेपर भी यदि विष्ठासे भरा हो तो वह अपवित्र ही समझा जाता है, उसी प्रकार यह देह ऊपरसे पंचभूतोंद्वारा शुद्ध किया जानेपर भी भीतरकी गंदगीके कारण अपवित्र ही माना गया है जिसमें पहुँचकर पंचगव्य और हविष्य आदि अत्यन्त पवित्र पदार्थ भी तत्काल अपवित्र हो जाते हैं, उस शरीरसे बढ़कर अशुद्ध दूसरा क्या हो सकता है। जिसके द्वारोंसे निरन्तर क्षण-क्षणमें कफ-मूत्र आदि अपवित्र वस्तुएँ बहती रहती हैं, उस अत्यन्त अपावन शरीरको कैसे शुद्ध किया जा सकता है। शरीरके छिद्रोंका स्पर्शमात्र कर लेनेपर हाथको जलसे शुद्ध किया जाता है, तथापि मनुष्य अशुद्ध ही बने रहते हैं; किन्तु फिर भी उन्हें देहसे वैराग्य नहीं होता। जैसे जन्मसे ही काले रंगकी ऊन धोनेसे कभी सफेद नहीं होती, उसी प्रकार यह शरीर धोनेसे भी पवित्र नहीं हो सकता। मनुष्य अपने शरीरके मलको अपनी आँखों देखता है, उसकी दुर्गन्धका अनुभव करता है और उससे बचनेके लिये नाक भी दबाता है; किन्तु फिर भी उसके मनमेंवैराग्य नहीं होता। अहो मोहका कैसा माहात्म्य है, जिससे सारा जगत् मोहित हो रहा है अपने शरीरके दोषोंको देखकर और सुँधकर भी वह उससे विरक्त नहीं होता। जो मनुष्य अपने देहकी अपवित्र गन्धसे घृणा करता है, उसे वैराग्यके लिये और क्या उपदेश दिया जा सकता है। सारा संसार पवित्र है, केवल शरीर ही अत्यन्त अपवित्र है; क्योंकि जन्मकालमें इस शरीरके अवयवोंका स्पर्श करनेसे शुद्ध मनुष्य भी अशुद्ध हो जाता है अपवित्र वस्तुकी गन्ध और लेपको दूर करनेके लिये शरीरको नहलाने-धोने आदिका विधान है। गन्ध और लेपकी निवृत्ति हो जानेके पश्चात् भावशुद्धिसे वस्तुतः मनुष्य शुद्ध होता है।

जिसका भीतरी भाव दूषित है, वह यदि आगमें प्रवेश कर जाय तो भी न तो उसे स्वर्ग मिलता है और न मोक्षकी ही प्राप्ति होती है; उसे सदा देहके बन्धनमें ही जकड़े रहना पड़ता है। भावकी शुद्धि ही सबसे बड़ी पवित्रता है और यही प्रत्येक कार्यमें श्रेष्ठताका हेतु है। पत्नी और पुत्री – दोनोंका ही आलिंगन किया जाता है; किन्तु पत्नीके आलिंगनमें दूसरा भाव होता है और पुत्रीके आलिंगन में दूसरा भिन्न-भिन्न वस्तुओंके प्रति मनकी वृत्तिमें भी भेद हो जाता है। नारी अपने पतिका और भावसे चिन्तन करती है और पुत्रका और भावसे तुम बलपूर्वक अपने मनको शुद्ध करो, दूसरी दूसरी बाह्य शुद्धियोंसे क्या लेना है जो भावसे पवित्र है. जिसका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है, वही स्वर्ग तथा मोक्षको प्राप्त करता है। उत्तम वैराग्यरूपी मिट्टी तथाज्ञानरूप निर्मल जलसे माँजने-धोनेपर पुरुषके अविद्या तथा रागरूपी मल-मूत्रका लेप नष्ट होता है। इस प्रकार इस शरीरको स्वभावतः अपवित्र माना गया है। केलेके वृक्षकी भाँति यह सर्वथा सारहीन है; अध्यात्म ज्ञान ही इसका सार है। देहके दोषको जानकर जिसे इससे वैराग्य हो जाता है, वह विद्वान् संसार-सागरसे पार हो जाता है। इस प्रकार महान् कष्टदायक जन्मकालीन दुःखका वर्णन किया गया।

गर्भमें रहते समय जीवको जो विवेक-बुद्धि प्राप्त होती है, वह उसके अज्ञान-दोषसे या नाना प्रकारके कर्मोंकी प्रेरणासे जन्म लेनेके पश्चात् नष्ट हो जाती है। योनि-यन्त्रसे पीड़ित होनेपर जब वह दुःखसे मूर्च्छित हो जाता है और बाहर निकलकर बाहरी हवाके सम्पर्क में आता है, उस समय उसके चित्तपर महान् मोह छा जाता है। मोहग्रस्त होनेपर उसकी स्मरणशक्तिका भी शीघ्र ही नाश हो जाता है; स्मृति नष्ट होनेसे पूर्वकमकी वासनाके कारण उस जन्ममें भी ममता और आसक्ति बढ़ जाती है। फिर संसारमें आसक्त होकर मूढ जीव न आत्माको जान पाता है न परमात्माको, अपितु निषिद्ध कर्ममें प्रवृत्त होजाता है। बाल्यकालमें इन्द्रियोंकी वृत्तियाँ पूर्णतया व्यक्त नहीं होतीं; इसलिये बालक महान् से महान् दुःखको सहन करता है, किन्तु इच्छा होते हुए भी न तो उसे कह सकता है और न उसका कोई प्रतिकार ही कर पाता है। शैशवकालीन रोगसे उसको भारी कष्ट भोगना पड़ता है। भूख-प्यासकी पीड़ासे उसके सारे शरीरमें दर्द होता है। बालक मोहवश मल-मूत्रको भी खानेके लिये मुँह में डाल लेता है। कुमारावस्थामें कान बिंधानेसे कष्ट होता है। समय-समयपर उसे माता-पिताकी मार भी सहनी पड़ती है। अक्षर लिखने पढ़नेके समय गुरुका शासन दुःखद जान पड़ता है। जवानीमें भी इन्द्रियोंकी वृत्तियाँ कामना और रागकी प्रेरणासे इधर-उधर विषयोंमें भटकती हैं; फिर मनुष्य रोगोंसे आक्रान्त हो जाता है अतः युवावस्थामें भी सुख कहाँ है। युवकको ईर्ष्या और मोहके कारण महान् दुःखका सामना करना पड़ता है, यह राग ईर्ष्यालु व्यक्तिके लिये केवल दुःखका कारण होता है। कामाग्निसे संतप्त रहनेके कारण उसे रातभर नींद नहीं आती। दिनमें भी अर्थोपार्जनकी चिन्तासे सुख कहाँ मिलता है। कीड़ोंसे पीड़ित कोढ़ी मनुष्यको अपनी कोढ़ खुजलानेमें जो सुखप्रतीत होता है, वही स्त्रियोंके साथ सम्भोग करनेमें भी है।’ जवानीके बाद जब वृद्धावस्था मनुष्यको दबा लेती। है, तब असमर्थ होनेके कारण उसे पत्नी पुत्र आदि बन्धुबान्धव तथा दुराचारी भृत्य भी अपमानित कर बैठते हैं। बुढ़ापैसे आक्रान्त होनेपर मनुष्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- इनमेंसे किसीका भी साधन नहीं कर सकता; इसलिये युवावस्थामें ही धर्मका आचरण कर सेना चाहिये।

प्रारब्ध कर्मका क्षय होनेपर जो जीवोंका भिन्न भिन्न देहोंसे वियोग होता है, उसीको मरण कहा गया है। वास्तवमें जीवका नाश नहीं होता। मृत्युके समय जब शरीरके मर्मस्थानोंका उच्छेद होने लगता है और जीवपर महान् मोह छा जाता है, उस समय उसको जो दुःख होता है, उसकी कहीं भी तुलना नहीं है। वह अत्यन्त दुःखी होकर ‘हाय बाप! हाय मैया ! हा प्रिये!’ आदिकी पुकार मचाता हुआ बारम्बार विलाप करता है। जैसे साँप मेढकको निगल जाता है, उसी प्रकार वह सारे संसारको निगलनेवाली मृत्युका ग्रास बना हुआ है। भाई-बन्धुओंसे उसका साथ छूट जाता है; प्रियजन उसे घेरकर बैठे रहते हैं। वह गरम-गरम लम्बी साँसें खींचता है, जिससे उसका मुँह सूख जाता है। रह-रहकर उसे मूर्च्छा आ जाती है। बेहोशीकी हालतमें वह जोर-जोरसे इधर उधर हाथ-पैर पटकने लगता है। अपने काबूमें नहीं रहता। लाज छूट जाती है और वह मल-मूत्रमें सना पड़ा रहता है। उसके कण्ठ, ओठ और तालु सूख जाते हैं। वह बार-बार पानी माँगता है। कभी धनके विषयमेंचिन्ता करने लगता है—’हाय! मेरे मरनेके बाद यह किसके हाथ लगेगा?’ यमदूत उसे कालपाशमें बाँधकर घसीट ले जाते हैं। उसके कण्ठमें घरघर आवाज होने लगती है; दूतोंके देखते-देखते उसकी मृत्यु होती है। जीव एक देहसे दूसरी देहमें जाता है। सभी जीव सबेरे मल-मूत्रकी हाजतका कष्ट भोगते हैं; मध्याह्नकालमें उन्हें भूख-प्यास सताती है और रात्रिमें वे काम-वासना तथा नींदके कारण क्लेश उठाते हैं [ इस प्रकार संसारका सारा जीवन ही कष्टमय है]।

पहले तो धनको पैदा करनेमें कष्ट होता है, फिर पैदा किये हुए धनकी रखवालीमें क्लेश उठाना पड़ता है; इसके बाद यदि कहीं वह नष्ट हो जाय तो दुःख और खर्च हो जाय तो भी दुःख होता है भला, धनमें सुख है ही कहीं जैसे देहधारी प्राणियोंको सदा मृत्युसे भय होता है; उसी प्रकार धनवानोंको चोर, पानी, आग, कुटुम्बियों तथा राजासे भी हमेशा डर बना रहता है। जैसे मांसको आकाशमें पक्षी, पृथ्वीपर हिंसक जीव और जलमें मत्स्य आदि जन्तु भक्षण करते हैं, उसी प्रकार सर्वत्र धनवान् पुरुषको लोग नोचते खसोटते रहते हैं सम्पत्तिमें धन सबको मोहित करता – उन्मत्त बना देता है, विपत्तिमें सन्ताप पहुँचाता है और उपार्जनके समय दुःखका अनुभव कराता है; फिर धनको कैसे सुखदायक कहा जाय । हेमन्त और शिशिरमें जाड़ेका कष्ट रहता है। गर्मीमें दुस्सह तापसे संतप्त होना पड़ता है और वर्षाकालमें अतिवृष्टि तथा अल्पवृष्टिसे दुःख होता है। इस प्रकार विचार करनेपर कालमें भी सुख कहाँ है।यही दशा कुटुम्बकी भी है। पहले तो विवाहमें विस्तारपूर्वक व्यय होनेपर दुःख होता है; फिर पत्नी जब गर्भ धारण करती है, तब उसे उसका भार ढोनेमें कष्टका अनुभव होता है। प्रसवकालमें अत्यन्त पीड़ा भोगनी पड़ती है तथा फिर सन्तान होनेपर उसके मल उठाने आदिमें क्लेश होता है। इसके सिवा हाय ! मेरी स्त्री भाग गयी, मेरी पत्नीको सन्तान अभी बहुत छोटी है, वह बेचारी क्या कर सकेगी? कन्याके विवाहका समय आ रहा है, उसके लिये कैसा वर मिलेगा ? इत्यादि चिन्ताओंके भारसे दबे हुए कुटुम्बीजनोंको कैसे सुख मिल सकता है। राज्यमें भी सुख कहाँ है सदा सन्धिविग्रहको चिन्ता लगी रहती है। जहाँ पुत्रसे भी भय प्राप्त होता है. यहाँ सुख कैसा एक द्रव्यकी अभिलाषा रखनेके कारण आपसमें लड़नेवाले कुत्तोंकी तरह प्रायः सभी देहधारियोंको अपने सजातियोंसे भय बना रहता है। कोई भी राजा राज्य छोड़कर उनमें प्रवेश किये बिना इस भूतलपर विख्यात न हो सका। जो सारे सुखोंका परित्याग कर देता है, वही निर्भय होता है। राजन्! पहननेके लिये दो वस्त्र हों और भोजनके लिये सेर भर अन्न- इतनेमें ही सुख है। मान-सम्मान, छत्र चँवर और राज्यसिंहासन तो केवल दुःख देनेवाले हैं। समस्त भूमण्डलका राजा ही क्यों ने हो, एक खाटके नापकी भूमि ही उसके उपभोगमें आती है। जलसे भरे हजारों महोद्वारा अभिषेक कराना क्लेश और श्रमको ही बढ़ाना है। [स्नान तो एक घड़ेसे भी हो सकता है।] प्रातःकाल पुरवासियोंके साथ शहनाईका मधुर शब्द सुनना अपने राजत्वका अभिमानमात्र है। केवल यह कहकर सन्तोषलाभ करना है कि मेरे महलमें सदा शहनाई बजती है। समस्त आभूषण भारमात्र हैं, सब प्रकारके अंगराग मैलके समान हैं, सारे गीत प्रलापमात्र हैं और नृत्य पागलोंकी सी चेष्टा है। इस प्रकार विचार करके देखा जाय, तो राजोचित भोगों से भी क्या सुख मिलता है। राजाओंका यदि किसीके साथ युद्ध छिड़ जाय तो एक-दूसरेको जीतनेकी इच्छासे वे सदा चिन्तामग्न रहते हैं। नहुष आदि बड़े-बड़े सम्राट् भी राज्य लक्ष्मी के मदसे उन्मत्त होनेके कारण स्वर्गमें जाकर भी वहाँसे भ्रष्ट हो गये। भला, लक्ष्मीसे किसको सुख मिलता है।”

स्वर्गमें भी सुख कहाँ है। देवताओंमें भी एक देवताकी सम्पत्ति दूसरेकी अपेक्षा बढ़ी चढ़ी तो होती ही है, वे अपनेसे ऊपरकी श्रेणीवालोंके बढ़े हुए वैभवको देख-देखकर जलते हैं। मनुष्य तो स्वर्गमें जाकर अपना मूल गँवाते हुए ही पुण्यफलका भी उपभोग करते हैं। जैसे जड़ कट जानेपर वृक्ष विवश होकर धरतीपर गिर जाता है, उसी प्रकार पुण्य क्षीण होनेपर मनुष्य भी स्वर्गसे नीचे आ जाते हैं। इस प्रकार विचारसे देवताओंके स्वर्गलोकमें भी सुख नहीं जान पड़ता। स्वर्गसे लौटनेपर देहधारियोंको मन, वाणी और शरीरसे किये हुए नाना प्रकारके भयंकर पाप भोगने पड़ते हैं। उस समय नरककी आगमें उन्हें बड़े भारी कष्ट और दुःखका सामना करना पड़ता है। जो जीव स्थावरयोनिमें पड़े हुए हैं, उन्हें भी सब प्रकारके दुःख प्राप्त होते हैं। कभी उन्हें कुल्हाड़ीके तीव्र प्रहारसे काटा जाता है तो कभी उनकी छाल काटी जाती है और कभी उनकी डालियों, पत्तों और फलोंको भी गिराया जाता है; कभी प्रचण्ड आँधीसे वे अपने-आप उखड़कर गिर जाते हैं तोकभी हाथी या दूसरे जन्तु उन्हें समूल नष्ट कर डालते हैं। कभी वे दावानलकी आँचमें झुलसते हैं तो कभी पाला पड़नेसे कष्ट भोगते हैं। पशु-योनिमें पड़े हुए जीवोंकी कसाइयोंद्वारा हत्या होती है; उन्हें डंडों से पीटा जाता है, नाक छेदकर त्रास दिया जाता है, चाबुकोंसे मारा जाता है, बेत या काठ आदिकी बेड़ियोंसे अथवा अंकुशके द्वारा उनके शरीरको बन्धनमें डाला जाता है। तथा बलपूर्वक मनमाने स्थानमें ले जाया जाता और बाँधा जाता है तथा उन्हें अपने टोलोंसे अलग किया जाता है। इस प्रकार पशुओंके शरीरको भी अनेक प्रकारके दुःख भोगने पड़ते हैं।

देवताओंसे लेकर सम्पूर्ण चराचर जगत् पूर्वोक्तदुःखोंसे ग्रस्त है; इसलिये विद्वान् पुरुषको सबका त्याग कर देना चाहिये। जैसे मनुष्य इस कंधेका भार उस कंधे पर लेकर अपनेको विश्राम मिला समझता है, उसी प्रकार संसारके सब लोग दुःखसे ही दुःखको शान्त करनेकी चेष्टा कर रहे हैं। अतः सबको दुःखसे व्याकुल जानकर विचारवान् पुरुषको परम निर्वेद धारण करना चाहिये, निर्वेदसे परम वैराग्य होता है और उससे ज्ञान। ज्ञानसे परमात्माको जानकर मनुष्य कल्याणमयी मुक्तिको प्राप्त होता है। फिर वह समस्त दुःखोंसे मुक्त होकर सदा सुखी, सर्वज्ञ और कृतार्थ हो जाता है। ऐसे ही पुरुषको मुक्त कहते हैं। राजन् ! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार मैंने सब बातें तुम्हें बता दीं।

अध्याय-20 पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन

ययाति बोले- मातले । मर्त्यलोकके मानव बड़े भयानक पाप करते हैं; उन्हें उन कर्मोंका क्या फल

मिलता है? इस समय यही बात बताओ। मातलिने कहा- राजन्! जो लोग वेदोंकी निन्दा और वेदोक्त सदाचारकी गर्हणा करते हैं तथा जो अपने कुलके आचारका त्याग करके दूसरोंका आचार ग्रहण करते हैं, जो सब साधुओंको पीड़ा देते हैं, वे सब पातकी हैं। तत्त्ववेत्ता पुरुषोंने इन दुष्कर्मोको पातक नाम दिया है। जो माता-पिताकी निन्दा करते, बहिनको सदा मारते और उसकी गर्हणा करते हैं, उनका यह कार्य निश्चय ही पातक है। जो श्राद्धकाल आनेपर भी काम, क्रोध अथवा भयसे, पाँच कोसके भीतर रहनेवाले दामाद, भांजे तथा बहिनको नहीं बुलाता और सदा दूसरोंको ही भोजन कराता हैं, उसके श्राद्धमें पितर अन्न ग्रहण नहीं करते, उसमें विघ्न पड़ जाता है। दामाद आदिकी उपेक्षा श्राद्धकर्ता पुरुषके लिये हत्या के समान है, उसे बहुत बड़ा पातक माना गया है। इसी प्रकार यदि दान देते समय बहुत से ब्राह्मण आ जायें तथा उनमेंसे एकको तो दान दिया जाय और दूसरोंको न दिया जाय तो यह दानके फलको नष्ट करनेवाला बहुत बड़ा पातक मानागया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रको उचित है कि वह प्रत्येक पुण्यपर्वके अवसरपर निर्धन ब्राह्मणकी पूजा करें तथा जहाँतक हो सके, उसे धनकी प्राप्ति करायें। श्राद्धके समय निमन्त्रित ब्राह्मणके अतिरिक्त यदि दूसरा कोई ब्राह्मण आ जाय तो उन दोनोंकी ही भोजन, वस्त्र, ताम्बूल और दक्षिणाके द्वारा पूजा करनी चाहिये; इससे श्राद्धकर्ताके पितरोंको बड़ा हर्ष होता है। यदि श्राद्धकर्ता धनहीन हो तो वह एककी ही पूजा कर सकता है। जो श्राद्धमें ब्राह्मणको भोजन कराकर आदरपूर्वक दक्षिणा नहीं देता, उसे गोहत्या आदिके समान पाप लगता है। महाराज! व्यतीपात और वैधृति योग आनेपर अथवा अमावास्या तिथिको या पिताकी क्षयाह-तिथि प्राप्त होनेपर अपराह्नकालमें ब्राह्मण आदि वर्णोंको अवश्य श्राद्ध करना चाहिये।

विज्ञ पुरुषको उचित है कि वह अपरिचित ब्राह्मणको श्राद्ध में निमन्त्रित न करे। अपरिचितोंमें भी यदि कोई वेद-वेदांगोंका पारगामी विद्वान् हो तो उस ब्राह्मणको श्राद्ध में निमन्त्रित करना और दान देना उचित है। राजन् ! निमन्त्रित ब्राह्मणका अपूर्व आतिथ्य सत्कार करना चाहिये। जो पापी इसके विपरीतआचरण करता है, उसे निश्चय ही नरकमें जाना पड़ता है इसलिये दान, श्राद्ध तथा पर्वके अवसरपर ब्राह्मणको निमन्त्रित करना आवश्यक है। पहले ब्राह्मणकी भलीभाँति जाँच और परख कर लेनी चाहिये, उसके बाद उसे श्राद्ध और दानमें सम्मिलित करना उचित है। जो बिना ब्राह्मणके श्राद्ध करता है, उसके घरमें पितर भोजन नहीं करते शाप देकर लौट जाते हैं। ब्राह्मणहीन श्राद्ध करनेसे मनुष्य महापापी होता है तथा ब्राह्मणघाती कहलाता है। राजन्! जो पितृकुलके आचारका परित्याग करके स्वेच्छानुसार बर्ताव करता है, उसे महापापी समझना चाहिये; वह सब धर्मोसे बहिष्कृत है। जो पापी मनुष्य शिवकी परिचर्या छोड़कर शिवभक्तोंसे द्वेष रखते हैं तथा जो ब्राह्मणोंसे द्रोह करते हुए सदा भगवान् श्रीविष्णुकी निन्दा करते हैं, वे महापापी हैं, सदाचारकी निन्दा करनेवाले पुरुषोंकी गणना भी इसी श्रेणीमें है। सर्वप्रथम उत्तम ज्ञानस्वरूप पुण्यमय भागवत

पुराणकी पूजा करनी चाहिये। तत्पश्चात् विष्णुपुराण, हरिवंश, मत्स्यपुराण और कूर्मपुराणका पूजन करना उचित है जो पद्मपुराणकी पूजा करते हैं, उनके द्वारा भगवान् श्रीमधुसूदनकी प्रत्यक्ष पूजा हो जाती है। जो श्रीभगवान्के ज्ञानस्वरूप पुराणकी पूजा किये बिना ही उसे पढ़ते और लिखते हैं, लोभमें आकर बेच देते हैं, अपवित्र स्थानमें मनमाने ढंगसे रख देते हैं तथा स्वयं अशुद्ध रहकर अशुद्ध स्थानमें पुराणकी कथा कहते और सुनते हैं, उनका यह सब कार्य गुरुनिन्दाके समान माना गया है। जो गुरुकी पूजा किये बिना हो उनसे शास्त्र श्रवण करना चाहता है, गुरुकी सेवा नहीं करता, उनकी विचार रखता है, उनकी बातका अभिनन्दन नहीं करता, आज्ञा भंग करनेका अपितु प्रतिवाद कर देता है, गुरुके कार्यकी, करनेयोग्य होनेपर भी उपेक्षा करता है तथा जो गुरुको पीड़ित असमर्थ, विदेशको ओर प्रस्थित और शत्रुओंद्वारा अपमानित देखकर भी उनका साथ छोड़ देता है, वह पापी तबतक कुम्भीपाक नरक में निवास करता है, जबतक कि चौदह इन्द्रोंकीआयु पूरी नहीं हो जाती। जो स्त्री, पुत्र और मित्रोंकी अवहेलना करता है, उसके इस कार्यको भी गुरुनिन्दाके समान महान् पातक समझना चाहिये। ब्राह्मणकी हत्या करनेवाला, सुवर्ण चुरानेवाला, शराबी, गुरुकी शय्यापर सोनेवाला तथा इनका सहयोगी ये पाँच प्रकारके मनुष्य महापातकी माने गये हैं जो क्रोध, द्वेष, भय अथवा लोभसे विशेषत: ब्राह्मणके मर्म आदिका उच्छेद करता है, दरिद्र भिक्षुक ब्राह्मणको द्वारपर बुलाकर पीछे कोरा जवाब दे देता है, जो विद्याके अभिमानमें आकर सभामें उदासीन भावसे बैठे हुए ब्राह्मणोंको भी निस्तेज कर देता है तथा जो मिथ्या गुर्णोद्वारा अपनेको जबर्दस्ती ऊँचा सिद्ध करता है और गुरुको ही उपदेश करने लगता है-इन सबको ब्राह्मणघाती माना गया है।

जिनका शरीर भूख और प्याससे पीड़ित है, जो अन्न खाना चाहते हैं, उनके कार्यमें विघ्न खड़ा करनेवाला मनुष्य भी ब्राह्मणघाती ही है। जो चुगलखोर, सब लोगोंके दोष ढूँढनेमें तत्पर सबको उद्वेगमें डालनेवाला और क्रूर है तथा जो देवताओं, ब्राह्मणों और गौओंके निमित्त पहलेकी दी हुई भूमिको हर लेता है, उसे ब्रह्मपाती कहते हैं। दूसरोंके द्वारा उपार्जित द्रव्यका और ब्राह्मणके धनका अपहरण भी ब्रह्महत्या के समान ही भारी पातक है। जो अग्निहोत्र तथा पंचयज्ञादि कर्मोंका परित्याग करके माता, पिता और गुरुका अनादर करता है, झूठी गवाही देता है, शिवभक्तोंकी बुराई और अभक्ष्य वस्तुका भक्षण करता है, वनमें जाकर निरपराध प्राणियोंको मारता है तथा गोशाला, देवमन्दिर, गाँव और नगरमें आग लगाता है, उसके ये भयंकर पाप पूर्वोक्त पापके ही समान हैं।

दीनौका सर्वस्वा छीन लेना, परायी स्त्री, दूसरे के हाथी, घोड़े, गौ, पृथ्वी, चाँदी, रत्न, अनाज, रस, चन्दन, अरगजा, कपूर, कस्तूरी, मालपूआ और वस्त्रको चुरा लेना तथा परायी धरोहरको हड़प लेना-ये सब पाप सुवर्णकी चोरीके समान माने गये हैं। विवाह करनेयोग्य कन्याका योग्य वरके साथ विवाह न करना, पुत्र एवं मित्रकी भार्याओं और अपनी बहिनोंके साथ समागमकरना, कुमारी कन्याके साथ बलात्कार करना, अन्त्यज जातिकी स्त्रीका सेवन तथा सवर्णा स्त्रीके साथ सम्भोग – ये पाप गुरु-पत्नी-गमनके समान बताये गये हैं। जो ब्राह्मणको धन देनेकी प्रतिज्ञा करके न तो उसे देता है और न फिर उसको याद ही रखता है, उसका यह कार्य उपपातकोंकी श्रेणीमें रखा गया है। ब्राह्मणके धनका अपहरण, मर्यादाका उल्लंघन, अत्यन्त मान, अधिक क्रोध, दम्भ, कृतघ्नता, अत्यन्त विषयासक्ति, कृपणता, शठता, मात्सर्य, परस्त्री गमन और साध्वी कन्याको कलंकित करना; परिवित्ति *, परिवेत्ता तथा उसकी पत्नी – इनसे सम्पर्क रखना, इन्हें कन्या देना अथवा इनका यज्ञ कराना; धनके अभावमें पुत्र, मित्र और पत्नीका परित्याग करना; बिना किसी कारणके ही स्त्रीको छोड़ देना, साधु और तपस्वियोंकी उपेक्षा करना; गौ, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री तथा शूद्रोंके प्राण लेना; शिवमन्दिर, वृक्ष और फुलवाड़ीको नष्ट करना; आश्रमवासियोंको थोड़ा-सा भी कष्ट पहुँचाना, भृत्यवर्गको दुःख देना; अन्न, वस्त्र और पशुओंकी चोरी करना; जिनसे माँगना उचित नहीं है, ऐसे लोगोंसे याचना करना; यज्ञ, बगीचा, पोखरा, स्त्री और सन्तानका विक्रय करना; तीर्थयात्रा, उपवास, व्रत और शुभ कर्मोंका फल बेचना, स्त्रियोंके धनसे जीविका चलाना, स्त्रीद्वारा उपार्जित अन्नसे जीवन निर्वाह करना तथा किसीके छिपे हुए अधर्मको लोगोंके सामने खोलकर रख देना- इन सब पापोंमें जो लोग रचे-पचे रहते हैं, जो दूसरोंके दोष बताते, पराये छिद्रपर दृष्टि रखते, औरोंका धन हड़पना चाहते और परस्त्रियोंपर कुदृष्टि रखते हैं- इन सभी पापियोंको गोघातकके तुल्य समझना चाहिये।

जो मनुष्य झूठ बोलता, स्वामी, मित्र और गुरुसे द्रोह रखता, माया रचता और शठता करता है; जो स्त्री, पुत्र, मित्र, बालक, वृद्ध, दुर्बल मनुष्य, भृत्य, अतिथि और बन्धुबान्धवोंको भूखे छोड़, अकेले भोजन कर लेता है; जो अपने तो खूब मिठाई उड़ाते और दूसरोंकोअन्न भी नहीं देते, उन सबको पृथक्-पाकी समझना चाहिये। वेदज्ञ पुरुषोंमें उनकी बड़ी निन्दा की गयी है। जो स्वयं ही नियम लेकर फिर उन्हें छोड़ देते हैं जिन्होंने दूसरोंके साथ धोखा किया है, जो मदिरा पीनेवालोंसे संसर्ग रखते और घाव एवं रोगसे पीड़ित तथा भूख-प्यास से व्याकुल गौका यत्नपूर्वक पालन नहीं करते, वे गो-हत्यारे माने गये हैं; उन्हें नरककी यातना भोगनी पड़ती है। जो सब प्रकारके पापोंमें डूबे रहते साधु, ब्राह्मण, गुरु और गौको मारते तथा सन्मार्गमें स्थित निर्दोष स्त्रीको पीटते हैं जिनका सारा शरीर आलस्यसे व्याप्त रहता है, अतएव जो बार-बार सोया करते हैं, जो दुर्बल पशुओंको काममें लगाते, बलपूर्वक हाँकते, अधिक भार लादकर कष्ट देते और घायल होनेपर भी उन्हें जोतते रहते हैं, जो दुरात्मा मनुष्य वैलोंको बधिया करते हैं तथा गायके बछड़ोंको नाथते हैं, वे सभी महापापी हैं। उनके ये कार्य महापातकोंके तुल्य हैं।

जो भूख-प्यास और परिश्रमसे पीड़ित एवं आशा लगाकर घरपर आये हुए अतिथिका अनादर करते हैं, ये नरकगामी होते हैं जो मूर्ख, अनाथ, विकल, दीन, बालक, वृद्ध और सुधातुर व्यक्तिपर दया नहीं करते, उन्हें नरकके समुद्रमें गिरना पड़ता है। जो नीतिशास्त्रकी आज्ञाका उल्लंघन करके प्रजासे मनमाना कर वसूल करते हैं और अकारण ही दण्ड देते हैं, उन्हें नरकमें पकाया जाता है। जिस राजाके राज्यमें प्रजा सूदखोरों, अधिकारियों और चोरोंद्वारा पीड़ित होती है, उसे नरकोंमें पकना पड़ता है। जो ब्राह्मण अन्यायी राजासे दान लेते हैं, उन्हें भी घोर नरकोंमें जाना पड़ता है। पापाचारी पुरवासियोंका पाप राजाका ही समझा जाता है। अतः राजाको उस पापसे डरकर प्रजाको शासनमें रखना चाहिये। जो राजा भलीभाँति विचार न करके, जो चोर नहीं है उसे भी चोरके समान दण्ड देता और चोरको भी साधु समझकर छोड़ देता है, वह नरकमें जाता है। जो मनुष्य दूसरोंके घी, तेल, मधु, गुड़ ईख, दूध,साग, दही, मूल, फल, घास, लकड़ी, फूल, पत्ती, काँसा, चाँदी, जूता, छाता, बैलगाड़ी, पालकी, मुलायम आसन, ताँबा, सीसा, गंगा, शंख, वंशी आदि बाजा, धरकी सामग्री, ऊन, कपास, रेशम, रंग, पत्र आदि तथा महीन वस्त्र चुराते हैं या इसी तरहके दूसरे दूसरे इल्योंका अपहरण करते हैं, वे सदा नरकमें पड़ते हैं। दूसरेकी वस्तु थोड़ी हो या बहुत-जो उसपर ममता करके उसे चुराता है, वह निस्सन्देह नरकमें गिरता है। इस तरहके पाप करनेवाले मनुष्य मृत्युके पश्चात् यमराजकी आज्ञासे यमलोकमें जाते हैं। यमराजके महाभयंकर दूत उन्हें ले जाते हैं। उस समय उनको बहुत दुःख उठाना पड़ता है। देवता, मनुष्य तथा पशु पक्षी इनमेंसे जो भी अधर्ममें मन लगाते हैं, उनके शासक धर्मराज माने गये हैं। वे भाँति-भाँतिके भयानक दण्ड देकर पापका भोग कराते हैं। विनय और सदाचारसे युक्त मनुष्य यदि भूलसे मलिन आचारमें लिप्त हो जायँ तो उनके लिये गुरु ही शासक माने गये हैं; वे कोई प्रायश्चित्त कराकर उनके पाप धो सकते हैं। ऐसे लोगोंको यमराजके पास नहीं जाना पड़ता परस्त्रीलम्पट, चोर तथा अन्यायपूर्ण बर्ताव करनेवाले पुरुषोंपर राजाका शासन होता है-राजा ही उनके दण्ड-विधाता माने गये हैं; परन्तु जो पाप छिपकर किये जाते हैं, उनके लिये धर्मराज हो दण्डका निर्णय करते हैं। इसलिये अपने किये हुए पापोंके लिये प्रायश्चित करना चाहिये। अन्यथा वे करोड़ों कल्पोंमें भी [फल भोग कराये बिना] नष्ट नहीं होते। मनुष्य मन, वाणी तथा शरीरसे जो कर्म करता है, उसका फल उसे स्वयं भोगना पड़ता है; कमोंके अनुसार उसकी सद्गति या अधोगति होती है। राजन्! इस प्रकार संक्षेपसे मैंने तुम्हें पापके भेद बताये हैं; बोलो, अब और क्या सुनाऊँ ? ययातिने कहा – मातले। अधर्मके सारे फलका वर्णन तो मैंने सुन लिया; अब धर्मका फल बताओ। मातलिने कहा- राजन्! जो श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको जूता और खड़ाऊँ दान करता है, वह बहुत बड़े विमानपर बैठकर सुखसे परलोककी यात्रा करता है,वस्त्र दान करनेवाले मनुष्य दिव्य वस्त्र धारण करके परलोकमें जाते हैं। पालकी दान करनेसे भी जीव विमानद्वारा सुखपूर्वक यात्रा करता है। सुखासन (गद्दे, कुर्सी आदि) के दानसे भी वह सुखपूर्वक जाता है। बगीचा लगानेवाला पुरुष शीतल छायामें सुखसे परलोककी यात्रा करता है। फूल-माला दान करनेवाले पुरुष पुष्पक विमानसे जाते हैं। जो देवताओंके लिये मन्दिर, संन्यासियोंके लिये आश्रम तथा अनाथों और रोगियोंके लिये घर बनवाते हैं वे परलोकमें उत्तम महलोंके भीतर रहकर विहार करते हैं। जो देवता, अग्नि, गुरु, ब्राह्मण, माता और पिताकी पूजा करता है तथा गुणवानों और दीनोंको रहनेके लिये घर देता है, वह सब कामनाओंको पूर्ण करनेवाले ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। राजन्! जिसने श्रद्धाके साथ ब्राह्मणको एक कौड़ीका भी दान किया है, वह स्वर्गलोक में देवताओंका अतिथि होता है तथा उसकी कीर्ति बढ़ती है। अतः श्रद्धापूर्वक दान देना चाहिये। उसका फल अवश्य होता है।

अहिंसा, क्षमा, सत्य, लज्जा, श्रद्धा, इन्द्रिय संयम, दान, यज्ञ, ध्यान [और ज्ञान] ये धर्मके दस साधन हैं। अन्न देनेवालेको प्राणदाता कहा गया है और जो प्राणदाता है, वही सब कुछ देनेवाला है। अतः अन्न-दान करनेसे सब दानोंका फल मिल जाता है। अन्नसे पुष्ट होकर ही मनुष्य पुण्यका संचय करता है; अतः पुण्यका आधा अंश अन्न-दाताको और आधा भाग पुण्यकर्ताको प्राप्त होता- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका सबसे बड़ा साधन है शरीर और शरीर स्थिर रहता है अन्न तथा जलसे; अतः अन्न और जल ही सब पुरुषार्थोके साधन हैं। अन्न-दानके समान दान न हुआ है न होगा। जल तीनों लोकोंका जीवन माना गया है। वह परम पवित्र, दिव्य, शुद्ध तथा सब रसोंका आश्रय है।

अन्न, पानी, घोड़ा, गौ, वस्त्र, शय्या, सूत और आसन- इन आठ वस्तुओंका दान प्रेतलोकके लिये बहुत उत्तम है। इस प्रकार दानविशेषसे मनुष्यधर्मराजके नगरमें सुखपूर्वक जाता है; इसलिये धर्मका अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। राजन्! जो लोग क्रूर कर्म करते और दान नहीं देते हैं, उन्हें नरकमें दुःसह दुःख भोगना पड़ता है। दान करके मनुष्य अनुपम सुख भोगते हैं।

जो एक दिन भी भक्तिपूर्वक भगवान् शिवकी पूजा करता है, वह भी शिवलोकको प्राप्त होता है; फिर जो अनेकों बार उनकी अर्चना कर चुका है, उसके लिये तो कहना ही क्या है। श्रीविष्णुकी भक्तिमें तत्पर औरश्रीविष्णुके ध्यानमें संलग्न रहनेवाले वैष्णव वैकुण्ठधाममें चक्रधारी भगवान् श्रीविष्णुके समीप जाते हैं। श्रीविष्णुका उत्तम लोक श्रीशंकरजीके निवासस्थानसे ऊपर समझना चाहिये। वहाँ श्रीविष्णुके ध्यानमें तत्पर रहनेवाले वैष्णव मनुष्य ही जाते हैं। मनुष्योंमें श्रेष्ठ, सदाचारी, यज्ञ करानेवाले, सुनीतियुक्त और विद्वान् ब्राह्मण ब्रह्मलोकको जाते हैं। युद्धमें उत्साहपूर्वक जानेवाले क्षत्रियों को इन्द्रलोककी प्राप्ति होती है तथा अन्यान्य पुण्यकर्ता भी पुण्यलोकोंमें गमन करते हैं।

अध्याय-21 मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना

ययाति बोले- मातले! तुमने धर्म और अधर्म सबका उत्तम प्रकारसे वर्णन किया। अब देवताओंके लोकोंकी स्थितिका वर्णन करो। उनकी संख्या बताओ। जिस पुण्यके प्रसंगसे जिसने जो लोक प्राप्त किया हो, उसका भी वर्णन करो।

मातलिने कहा- राजन्! देवताओंके लोक भावमय हैं। भावोंके अनेक रूप दिखायी देते हैं; अतः भावात्मक जगत्की संख्या करोड़ोंतक पहुँच जाती है। परन्तु पुण्यात्माओंके लिये उनमेंसे अट्ठाईस लोक ही प्राप्य हैं, जो एक-दूसरेके ऊपर स्थित और अत्यन्त विशाल हैं। जो लोग भगवान् शंकरको नमस्कार करते हैं, उन्हें शिवलोकका विमान प्राप्त होता है। जो प्रसंगवश भी शिवका स्मरण या नाम कीर्तन अथवा उन्हें नमस्कार कर लेता है, उसे अनुपम सुखकी प्राप्ति होती है। फिर जो निरन्तर उनके भजनमें ही लगे रहते हैं, उनके विषयमें तो कहना ही क्या है जो ध्यानके द्वाराभगवान् श्रीविष्णुका चिन्तन करते हैं और सदा उन्हींमें मन लगाये रहते हैं, वे उन्हींके परम पदको प्राप्त होते हैं। नरश्रेष्ठ! श्रीशिव और भगवान् श्रीविष्णुके लोक एक-से ही हैं, उन दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है; क्योंकि उन दोनों महात्माओं – श्रीशिव तथा श्रीविष्णुका स्वरूप भी एक ही है। श्रीविष्णुरूपधारी शिव और श्रीशिवरूपधारी विष्णुको नमस्कार है। श्रीशिवके हृदयमें विष्णु और श्रीविष्णुके हृदयमें भगवान् शिव विराजमान हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव – ये तीनों देवता एकरूप ही हैं। इन तीनोंके स्वरूपमें कोई अन्तर नहीं है, केवल गुणका भेद बतलाया गया है। * राजेन्द्र आप श्रीशिवके भक्त तथा भगवान् विष्णुके अनुरागी हैं; अतः आपपर ब्रह्मा, विष्णु और शिव-तीनों देवता प्रसन्न हैं। मानद ! मैं इन्द्रकी आज्ञासे इस समय आपके पास आया हूँ। अतः पहले इन्द्रलोकमें चलिये; उसके बाद क्रमशः ब्रह्मलोक, शिवलोक तथा विष्णुलोकको जाइयेगा। वे लोक दाहऔर प्रलयसे रहित हैं।

पिप्पलने पूछा- ब्रह्मन् ! मातलिकी बात सुनकर पुत्र राजा ययातिने क्या किया? इसका विस्तारके साथ वर्णन कीजिये।

सुकर्मा बोले- विप्रवर! सुनिये, उस समय सम्पूर्ण धर्मात्माओं में श्रेष्ठ नृपवर ययातिने मातलिसे इस प्रकार कहा- देवदूत! तुमने स्वर्गका सारा गुण अवगुण मुझे पहले ही बता दिया है। अतः अब मैं शरीर छोड़कर स्वर्गलोकमें नहीं जाऊँगा। देवाधिदेव इसे तुम यही जाकर कह देना। भगवान् हीकेशके नामका उच्चारण ही सर्वोत्तम धर्म है। मैं प्रतिदिन इसी रसायनका सेवन करता हूँ। इससे मेरे रोग, दोष और पापादि नष्ट हो गये हैं । संसारमें श्रीकृष्णका नाम सबसे बड़ी औषध है। इसके रहते हुए भी मनुष्य पाप और व्याधियोंसे पीड़ित होकर मृत्युको प्राप्त हो रहे हैं- यह कितने आश्चर्यकी बात है। लोग कितने बड़े मूर्ख हैं कि श्रीकृष्ण नामका रसायन नहीं पीते। * भगवान्की पूजा, ध्यान, नियम, सत्य भाषण तथा दानसे शरीरकी शुद्धि होती है। इससे रोग और दोष नष्ट हो जाते हैं। तदनन्तर भगवान्के प्रसादसे मनुष्य शुद्ध हो जाता है। इसलिये मैं अब स्वर्गलोकको नहीं चलूँगा अपने तपसे, भावसे और धर्माचरणके द्वारा भगवत् कृपासे इस पृथ्वीको ही स्वर्ग बनाऊँगा। यह जानकर तुम यहाँसे जाओ और सारी बातें इन्द्रसे कह सुनाओ।’ राजा ययातिकी यह बात सुनकर मातलि चले गये। उन्होंने इन्द्रसे सब बातें निवेदन कीं। उन्हें सुनकर इन्द्र पुनः राजाको स्वर्गमें लानेके विषयमें विचार करने लगे।

पिप्पलने इन्द्रके दूत महाभाग मातलिके चले जानेपर धर्मात्मा ययातिने कौन पूछा- ब्रान् सा कार्य किया?

सुकमी बोले- विप्रवर देवराजके दूत मातलि जब चले गये, तब राजा ययातिने मन-ही-मन कुछविचार किया और तुरंत ही प्रधान प्रधान दूतोंको बुलाकर उन्हें धर्म और अर्थसे युक्त उत्तम आदेश दिया- ‘दूतो! तुमलोग मेरी आज्ञा मानकर अपने और दूसरे देशोंमें जाओ तुम्हारे मुखसे वहाँके सब लोग मेरी धर्मयुक्त बात सुनें और सुनकर उसका पालन करें। जगत्के मनुष्य परम पवित्र और अमृतके समान सुखदायी भगवत् सम्बन्धी भावोंद्वारा उत्तम मार्गका आश्रय लें। सदा तत्पर होकर शुभ कर्मोंका अनुष्ठान, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, भगवान्का ध्यान और तपस्या करें। सब लोग विषयोंका परित्याग करके यज्ञ और दानके द्वारा एकमात्र मधुसूदनका पूजन करें। सर्वत्र सूखे और गीलेमें, आकाश और पृथ्वीपर तथा चराचर प्राणियों में केवल श्रीहरिका दर्शन करें। जो मानव लोभ या मोहवश लोकमें मेरी इस आज्ञाका पालन नहीं करेगा, उसे निश्चय ही कठोर दण्ड दिया जायगा। मेरी दृष्टिमें वह चोरकी भाँति निकृष्ट समझा जायगा।’

राजाके ये वचन सुनकर दूतोंका हृदय प्रसन्न हो गया। वे समूची पृथ्वीपर घूम-घूमकर समस्त प्रजाको महाराजका आदेश सुनाने लगे- ‘ब्राह्मणादि चारों वर्णोंके मनुष्यो ! राजा ययातिने संसारमें परम पवित्र अमृत ला दिया है। आप सब लोग उसका पान करें। उस अमृतका नाम है- पुण्यमय वैष्णव धर्म वह सब दोषोंसे रहित और उत्तम परिणामका जनक है। भगवान् केशव सबका क्लेश हरनेवाले, सर्वश्रेष्ठ, आनन्दस्वरूप और परमार्थ तत्त्व हैं। उनका नाममय अमृत सब दोषको दूर करनेवाला oहै। महाराज ययातिने उस अमृतको यहीं सुलभ कर दिया है । संसारके लोग इच्छानुसार उसका पान करें। भगवान् विष्णुकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ है। उनके नेत्र कमलके समान सुन्दर हैं। वे जगत्के आधारभूत और महेश्वर हैं। पापका नाश करके आनन्द प्रदान करते हैं। दानवों और दैत्योंका संहार करनेवाले हैं। यज्ञ उनके अंगस्वरूप हैं, उनकेहाथमें सुदर्शन चक्र शोभा पाता है। वे पुण्यकी निधि और सुखरूप हैं। उनके स्वरूपका कहीं अन्त नहीं है। सम्पूर्ण विश्व उनके हृदयमें निवास करता है। वे निर्मल, सबको आराम देनेवाले, ‘राम’ नामसे विख्यात, सबमें रमण करनेवाले, मुर दैत्यके शत्रु, आदित्यस्वरूप, अन्धकारके नाशक, मलरूप कमलोंके लिये चाँदनीरूप, लक्ष्मी निवासस्थान, सगुण और देवेश्वर हैं। उनका नामामृत सब दोषोंको दूर करनेवाला है। राजा ययातिने उसे यहीं सुलभ कर दिया है, सब लोग उसका पान करें। यह नामामृतस्तोत्र दोषहारी और उत्तम पुण्यका जनक है। लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुमें भक्ति रखनेवाला जो महात्मा पुरुष प्रतिदिन प्रातः काल नियमपूर्वक इसका पाठ करता है, वह मुक्त हो जाता है। *

सुकर्मा कहते हैं-राजा ययातिके दूत सम्पूर्ण देशों, द्वीपों, नगरों और गाँवोंमें कहते फिरते थे ‘लोगो ! महाराजकी आज्ञा सुनो, तुमलोग पूरा जोर लगाकर सर्वतोभावेन भगवान् विष्णुकी पूजा करो दान, यज्ञ, शुभकर्म, धर्म और पूजन आदिके द्वारा भगवान् मधुसूदनकी आराधना करते हुए मनकी सम्पूर्ण वृत्तियोंसे उन्हींका ध्यान – चिन्तन करो।’ इस प्रकार राजाके उत्तम आदेशका, जो शुभ पुण्य उत्पन्न करनेवाला था, भूतल निवासी सब लोगोंने श्रवण किया। उसी समयसे सम्पूर्ण मनुष्य एकमात्र भगवान् मुरारिका ध्यान, गुणगान, जप और तप करने लगे। वेदोक्त सूक्तों और मन्त्रोंद्वारा, जो कानोंको पवित्र करनेवाले तथा अमृतके समान मधुर थे, श्रीकेशवका यजन करने लगे। उनका चित्त सदाभगवान्में ही लगा रहता था। वे समस्त विषयों और दोषोंका परित्याग करके व्रत, उपवास, नियम और दानके द्वारा भक्तिपूर्वक जगन्निवास श्रीविष्णुका पूजन करते थे। राजाका भगवदाराधन-सम्बन्धी आदेश भूमण्डलपर प्रवर्तित हो गया। सब लोग वैष्णव प्रभावके कारण भगवान्‌का यजन करने लगे। यज्ञ विधिको जाननेवाले विद्वान् नाम और कर्मोंके द्वारा श्रीविष्णुका वजन करते और उन्होंके ध्यानमें संलग्न रहते थे। उनका सारा उद्योग भगवान्के लिये ही होता था। वे विष्णु पूजामें निरन्तर लगे रहते थे जहाँतक यह सारा भूमण्डल है और जहाँतक प्रचण्ड किरणोंवाले भगवान् सूर्य तपते हैं, वहाँतक समस्त मनुष्य भगवद्धत हो गये। श्रीविष्णु के प्रभावसे, उनका पूजन, स्तवन और नाम-कीर्तन करनेसे सबके शोक दूर हो गये। सभी पुण्यात्मा और तपस्वी बन गये। किसीको रोग नहीं सताता था। सब-के-सब दोष और रोषसे शून्य तथा समस्त ऐश्वर्योंसे सम्पन्न हो गये थे।

महाभाग ! उन लोगोंके घरोंके दरवाजोंपर सदा ही पुण्यमय कल्पवृक्ष और समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली गौएँ रहती थीं। उनके घरमें चिन्तामणि नामकी मणि थी, जो परम पवित्र और सम्पूर्ण मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली मानी गयी है। भगवान् विष्णुकी कृपासे पृथ्वीके समस्त मानव प्रकार के दोषोंसे रहित हो गये थे पुत्र तथा पौत्र उनकी शोभा बढ़ाते थे वे मंगलसे युक्त, परम पुण्यात्मा, दानी, ज्ञानी और ध्यानपरायण थे। धर्मके ज्ञाता महाराज ययातिके शासनकालमें दुर्भिक्षऔर व्याधियोंका भय नहीं था। मनुष्योंकी अकाल मृत्यु नहीं होती थी। सब लोग विष्णु-सम्बन्धी व्रतोंका पालन करनेवाले और वैष्णव थे भगवान्‌का ही ध्यान और उन्होंके नामोंका जप उनकी दिनचर्याका अंग बन गया था। वे सब लोग भाव-भक्तिके साथ भगवान्की आराधनामें तत्पर रहते थे। द्विजश्रेष्ठ ! उस समय सब लोगों के घरोंमें तुलसीके वृक्ष और भगवान्के मन्दिर शोभा पाते थे। सबके घर साफ-सुथरे और चमकीले थे तथा उत्तम गुणोंके कारण दिव्य दिखायी देते थे। सर्वत्र वैष्णव भाव छा रहा था। नाना प्रकारके मांगलिक उत्सवोंका दर्शन होता था। विप्रवर भूलोक सदा ध्वनियाँ सुनायी पड़ती थीं, जो आपसमें टकराया करती थीं। वे ध्वनियाँ समस्त दोषों और पापका विनाश करनेवाली थीं। भगवान् विष्णु भक्ति रखनेवाली स्त्रियोंने अपने-अपने घरके दरवाजेपर शंख, स्वस्तिक और पद्मकी आकृतियाँ लिख रखी थीं। सब लोग केशवका गुणगान करते थे। कोई ‘हरि’ और ‘मुरारि’ का उच्चारण करता तो कोई ‘श्रीश’, ‘अच्युत’ तथा माधवका नाम लेता था। कितने ही श्रीनरसिंह, कमलनयन, गोविन्द कमलापति कृष्ण और राम नामकी रट लगाते हुए भगवान्‌की शरणमें जाते, मन्त्रोंके द्वारा उनका जप करते तथा पूजन भी करते थे। सब-के-सब वैष्णव थे; अतः वे श्रीविष्णुके ध्यानमें मग्न रहकर उन्हींको दण्डवत् प्रणाम किया करते थे।

कृष्ण, विष्णु, हरि, राम, मुकुन्द, मधुसूदन, नारायण, हृषीकेश, नरसिंह, अच्युत, केशव, पद्मनाभ, वासुदेव, वामन, वाराह, कमठ, मत्स्य, कपिल, सुराधिप, विश्वेश, विश्वरूप, अनन्त, अनम, शुचि पुरुष पुष्कराक्ष, श्रीधर, श्रीपति, हरि, श्रीद, श्रीश, श्रीनिवास, सुमोक्ष, मोक्षद और प्रभु-इन नामोंका उच्चारण करते हुए पृथ्वीके समस्त मानव-बाल, वृद्ध और कुमार भी भगवान्का भजन करते थे। घरके काम-धंधों में लगी हुई स्त्रियाँ सदा भगवान् श्रीहरिको प्रणाम करतीं और बैठते, सोते, चलते, ध्यान लगाते तथा ज्ञान प्राप्त करते समय भी वे लक्ष्मीपतिका स्मरण करती रहती थीं। खेल-कूदमेंलगे हुए बालक गोविन्दको मस्तक झुकाते और दिन रात मधुर हरिनामका कीर्तन करते रहते थे। द्विजश्रेष्ठ ! सर्वत्र भगवान् विष्णुके नामकी ही ध्वनि सुनायी पड़ती थी। भूतलके समस्त मानव वैष्णवोचित भावसे रहा करते थे। महलों और देवमन्दिरोंके कलशोंपर सूर्यमण्डलके समान चक्र शोभा पाते थे। पृथ्वीपर सर्वत्र श्रीकृष्णका भाव दृष्टिगोचर होता था। यह भूतल विष्णुलोककी समानताको पहुँच गया था। वैकुण्ठमें वैष्णव लोग जैसे विष्णुका उच्चारण करते हैं, उसी प्रकार इस पृथ्वीपर मनुष्य कृष्ण नामका कीर्तन करते थे। भूतल और वैकुण्ठ दोनों लोकोंका एक ही भाव दिखायी देता था। वृद्धावस्था और रोगका भय नहीं था; क्योंकि मनुष्य अजर-अमर हो गये थे। भूलोकमें दान और भोगका अधिक प्रभाव दृष्टिगोचर होता था। प्रायः सब मनुष्य-द्विजमात्र वेदोंके विद्वान् और ज्ञान-ध्यानपरायण थे सब यज्ञ और दानमें लगे रहते थे। सबमें दयाका भाव था। सभी परोपकारी, शुभ विचार-सम्पन्न और धर्मनिष्ठ थे। महाराज ययातिके उपदेशसे भूमण्डलके समस्त मानव वैष्णव हो गये थे।

भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं— नृपश्रेष्ठ वेन ! नहुषपुत्र महाराज ययातिका चरित्र सुनो वे सर्वधर्म परायण और निरन्तर भगवान् विष्णुमें भक्ति रखनेवाले थे। उन्हें इस पृथ्वीपर रहते एक लाख वर्ष व्यतीत हो गये। परन्तु उनका शरीर नित्य नूतन दिखायी देता था, मानो वे पचीस वर्षके तरुण हो। भगवान् विष्णुके प्रसादसे राजा ययाति बड़े ही प्रशस्त और प्रौढ़ हो गये थे भूमण्डलके मनुष्य कामनाओंके वन्धनसे रहित होनेके कारण यमराजके पास नहीं जाते थे। वे दान पुण्यसे सुखी थे और सब धर्मोक अनुष्ठान में संलग्न रहते थे जैसे दुर्वा और पटवृक्ष पृथ्वीपर विस्तारको प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार वे मनुष्य पुत्र-पौत्रोंके द्वारा वृद्धिको प्राप्त हो रहे थे। मृत्युरूपी दोषसे हीन होनेके कारण वे दीर्घजीवी होते थे। उनका शरीर अधिक कालतक दृढ़ रहता था वे सुखी थे और बुढ़ापेका रोग उन्हें भी नहीं गया था। पृथ्वीके सभी मनुष्य पचीस वर्षकीअवस्थाके दिखायी देते थे। सबका आचार-विचार सत्यसे युक्त था। सभी भगवान्‌के ध्यानमें तन्मय रहते थे। समूची पृथ्वीपर जगत्में किसीकी मृत्यु नहीं सुनी जाती थी। किसीको शोक नहीं देखना पड़ता था । कोई भी दोषसे लिप्त नहीं होते थे।

एक समय इन्द्रने कामदेव और गन्धर्वोंको बुलाया तथा उनसे इस प्रकार कहा- ‘तुम सब लोग मिलकर ऐसा कोई उपाय करो, जिससे राजा ययाति यहाँ आ जायँ ।’ इन्द्रके यों कहनेपर कामदेव आदि सब लोग नटके वेषमें राजा ययातिके पास आये और उन्हें आशीर्वादसे प्रसन्न करके बोले-‘महाराज ! हमलोगएक उत्तम नाटक खेलना चाहते हैं।’ राजा ययाति ज्ञान विज्ञानमें कुशल थे। उन्होंने नटोंकी बात सुनकर सभा एकत्रित की और स्वयं भी उसमें उपस्थित हुए। नटोंने विप्ररूपधारी भगवान् वामनके अवतारकी लीला उपस्थित की। राजा उनका नाटक देखने लगे। उस नाटकमें साक्षात् कामदेवने सूत्रधारका काम किया। वसन्त पारिपार्श्वक बना। अपने वल्लभको प्रसन्न करनेवाली रति-नटीके वेषमें उपस्थित हुई। नाटकमें सब लोग पात्रके अनुरूप वेष धारण किये अभिनय करने लगे । मकरन्द (वसन्त)- ने महाप्राज्ञ राजा ययातिके चित्तको क्षोभमें डाल दिया।

अध्याय-22 ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन

सुकर्मा कहते हैं-पिप्पल! महाराज ययाति कामदेवके गीत, नृत्य और ललित हास्यसे मोहित होकर स्वयं भी नट-स्वरूप हो गये। वे मल-मूत्रका त्याग करके आये और पैरोंको धोये बिना ही आसनपर बैठ गये। यह छिद्र पाकर वृद्धावस्था तथा कामदेवने राजाके शरीरमें प्रवेश किया। नृपश्रेष्ठ उन सबने मिलकर इन्द्रका कार्य पूरा कर दिया। नाटक समाप्त हो गया। सब लोग अपने-अपने स्थानको चले गये। तत्पश्चात् धर्मात्मा राजा ययाति जरावस्थासे पराजित हुए। उनका चित्त काम भोग में आसक्त हो गया। एक दिन वे कामयुक्त होकर वनमें शिकार खेलनेके लिये गये। उस समय उनके सामने एक हिरन निकला, जिसके चार सींग थे। उसके रूपकी कहीं तुलना नहीं थी। उसके सभी अंग सुन्दर थे। रोमावलियाँ सुनहरे रंगकी थीं, मस्तकपर रत्न-सा जढ़ा हुआ प्रतीत होता था। सारा शरीर चितकबरे रंगका था। वह मनोहर मृग देखने ही योग्य था राजा धनुष-बाण लेकर बड़े वेगसे उसके पीछे दौड़े। मृग भी उन्हें बहुत दूर ले गया और उनके देखते-देखते वहाँ अन्तर्धान हो गया। राजाको वहाँ नन्दनवन के समान एक अद्भुत वन दिखायी दिया,जो सभी गुणोंसे युक्त था। उसके भीतर राजाने एक बहुत सुन्दर तालाब देखा, जो दस योजन लंबा और पाँच योजन चौड़ा था । सब ओर कल्याणमय जलसे भरा वह सर्वतोभद्र नामक तालाब दिव्य भावोंसे शोभा पा रहा था। राजा रथके वेगपूर्वक चलनेसे खिन्न हो गये थे। परिश्रमके कारण उन्हें कुछ पीड़ा हो रही थी; अतः सरोवर के तटपर ठंडी छायाका आश्रय लेकर बैठ गये।

थोड़ी देर बाद स्नान करके उन्होंने कमलकी सुगन्धसे सुवासित सरोवरका शीतल जल पिया। इतनेमें ही उन्हें अत्यन्त मधुर स्वरमें गाया जानेवाला एक दिव्य संगीत सुनायी पड़ा, जो ताल और मूर्च्छनासे युक्त था। राजा तुरंत उठकर उस स्थानकी ओर चल दिये, जहाँ गीतकी मनोहर ध्वनि हो रही थी। जलके निकट एक विशाल एवं सुन्दर भवन था । उसीके ऊपर बैठकर रूप, शील और गुणसे सुशोभित एक सुन्दरी नारी मनोहर गीत गा रही थी। उसकी आँखें बड़ी-बड़ी थीं। रूप और तेज उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। चराचर जगत् में उसके जैसी सुन्दरी स्त्री दूसरी कोई नहीं थी। महाराज ययातिके शरीरमें जरायुक्त कामका संचार पहले ही हो चुका था । उस स्त्रीको देखते ही वह काम विशाल रूपमें प्रकटहुआ। राजा कामाग्निसे जलने और कामज्वरसे पीड़ित होने लगे। उन्होंने उस सुन्दरीसे पूछा – ‘शुभे ! तुम कौन हो? किसकी कन्या हो? तुम्हारे पास यह कौन बैठी है? कल्याणी! मुझे सब बातोंका परिचय दो। मैं नहुषका पुत्र हूँ। मेरा जन्म चन्द्रवंशमें हुआ है। पृथ्वीके सातों द्वीपोंपर मेरा अधिकार है। मैं तीनों लोकोंमें विख्यात हूँ। मेरा नाम ययाति है। सुन्दरी! मुझे दुर्जय काम मारे डालता है। मैं उत्तम शीलसे युक्त हूँ। मेरी रक्षा करो। तुम्हारे समागमके लिये मैं अपना राज्य समूची पृथ्वी और यह शरीर भी अर्पण कर दूँगा। यह त्रिलोकी तुम्हारी ही है।

राजाकी बात सुनकर सुन्दरीने अपनी सखी विशालाको उत्तर देनेके लिये प्रेरित किया। तब विशाला ने कहा – ‘नरश्रेष्ठ! यह रतिकी पुत्री है। इसका नाम अनुविन्दुमती है मैं इसके प्रेम और सौहार्दवश सदा इसके साथ रहती हूँ। हम दोनोंमें स्वाभाविक मित्रता है, जिससे में सर्वदा प्रसन्न रहती है। मेरा नाम विशाला है। मैं वरुणकी पुत्री हूँ। महाराज! मेरी यह सुन्दरी सखी योग्य वरकी प्राप्तिके लिये तपस्या कर रही है। इस प्रकार मैंने आपसे अपनी इस सखीका तथा अपना भी पूरा-पूरा परिचय दे दिया।’

ययाति बोले शुभे मेरी बात सुनो यह सुन्दर मुखवाली रतिकुमारी मुझे ही पतिरूपमें स्वीकार करे। यह वाला जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करेगी, वह सब मैं इसे प्रदान करूँगा।

विशालाने कहा- राजन्! मैं इसका नियम बतलाती हूँ, पहले उसे सुन लीजिये। यह स्थिर यौवनसे युक्तः सर्वज्ञ, वीरके लक्षणोंसे सुशोभित, देवराजके समान तेजस्वी, धर्मका आचरण करनेवाले, जिलोकपूजित, सुबुद्धि, सुप्रिय तथा उत्तम गुणोंसे युक पुरुषको अपना पति बनाना चाहती है।

ययाति बोले- मुझे इन सभी गुणोंसे युक्त समझो मैं इसके योग्य पति हो सकता हूँ।

विशालाने कहा- राजन्! मैं जानती हूँ, आप अपने पुण्यके लिये तीनों लोकोंमें विख्यात हैं। मैंनेपहले जिन-जिन गुणोंकी चर्चा की है, वे सभी आपके भीतर विद्यमान हैं; केवल एक ही दोषके कारण यह मेरी सखी आपको पसंद नहीं करती आपके शरीरमें वृद्धावस्थाका प्रवेश हो गया है। यदि आप उससे मुक हो सकें, तो यह आपकी प्रियतमा हो सकती है। राजन् ! यही इसका निश्चय है। मैंने सुना है, पुत्र, भ्राता और भूत्य- जिसके शरीरमें भी इस जरावस्थाको डाला जाय, उसीमें इसका संचार हो जाता है। अतः भूपाल! आप अपना बुढ़ापा तो पुत्रको दे दीजिये और स्वयं उसका यौवन लेकर परम सुन्दर बन जाइये मेरी सखी जिस रूपमें आपका उपभोग करना चाहती है,

उसीके अनुकूल व्यवस्था कीजिये। ययाति बोले- महाभागे ! एवमस्तु, मैं तुम्हारी आज्ञाका पालन करूँगा।

राजा ययाति काम भोगमें आसक्त होकर अपनी विवेकशक्ति खो बैठे थे वे घर जाकर अपने पुत्रोंसे बोले- ‘तुमलोगोंमें से कोई एक मेरी दुःखदायिनी जरावस्थाको ग्रहण कर ले और अपनी जवानी मुझे दे दे, जिससे मैं इच्छानुसार भोग भोग सकूँ। जो मेरी वृद्धावस्थाको ग्रहण करेगा, वह पुत्रोंमें श्रेष्ठ समझा जायगा और वही मेरे राज्यका स्वामी होगा। उसको सुख, सम्पत्ति, धन-धान्य, बहुत-सी सन्तानें तथा यश और कीर्ति प्राप्त होगी।’

तुरुने कहा- पिताजी इसमें सन्देह नहीं कि पिता-माताकी कृपासे ही पुत्रको शरीरको प्राप्ति होती है; अतः उसका कर्तव्य है कि वह विशेष चेष्टाके साथ माता-पिताकी सेवा करे। परन्तु महाराज! यौवन दान करनेका यह मेरा समय नहीं है।

तुरुकी बात सुनकर धर्मात्मा राजाको बड़ा क्रोध हुआ। वे उसे शाप देते हुए बोले-‘तूने मेरी आज्ञाका अनादर किया है, अतः तू सब धर्मोसे बहिष्कृत और – पापी हो जा तेरा हृदय पवित्र ज्ञानसे शून्य हो जाय और तू कोढ़ी हो जा।’ तुरुको इस प्रकार शाप देकर वे अपने दूसरे पुत्र पसे बोले-‘बेटा! तू मेरी जस्को ग्रहण कर और मेरा अकण्टक राज्य भोग।’ यह सुनकरयदुने हाथ जोड़कर कहा-पिताजी कृपा कीजिये। मैं बुढापेका भार नहीं ढो सकता। शीतका कष्ट सहना, अधिक राह चलना, कदन्न भोजन करना, जिनकी जवानी बीत गयी हो ऐसी स्त्रियोंसे सम्पर्क रखना और मनकी प्रतिकूलताका सामना करना ये वृद्धावस्थाके पाँच हेतु हैं।’ यदुके यों कहनेपर महाराज ययातिने कुपित होकर उन्हें भी शाप दिया- ‘जा, तेरा वंश राज्यहीन होगा, उसमें कभी कोई राजा न होगा।’

यदुने कहा- महाराज मैं निर्दोष हूँ। आपने मुझे शाप क्यों दे दिया? मुझ दीनपर दया कीजिये, प्रसन्न हो जाइये।

ययाति बोले- बेटा! महान् देवता भगवान् विष्णु जब तेरे वंशमें अपने अंशसहित अवतार लेंगे, उस समय तेरा कुल पवित्र – शापसे मुक्त हो जायगा राजा ययातिने कुरुको शिशु समझकर छोड़ दिया और शर्मिष्ठाके पुत्र पूरुको बुलाकर कहा- ‘बेटा! तू मेरी वृद्धावस्था ग्रहण कर ले।’ पूरुने कहा-‘राजन् ! मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा। मुझे अपनी वृद्धावस्था दीजिये और आज ही मेरी युवावस्थासे सुन्दर रूप धारण कर उत्तम भोग भोगिये।’ यह सुनकर महामनस्वी राजाका चित्त अत्यन्त प्रसन्न हुआ। वे पूरुसे बोले ‘महामते! तूने मेरी वृद्धावस्था ग्रहण की और अपना यौवन मुझे दिया इसलिये मेरे दिये हुए राज्यका उपभोग कर।’ अब राजाकी बिलकुल नयी अवस्था हो गयी। वे सोलह वर्षके तरुण प्रतीत होने लगे। देखने में अत्यन्त सुन्दर, मानो दूसरे कामदेव हों। महाराजने पुरुको अपना धनुष, राज्य, छत्र, घोड़ा, हाथी, धन, खजाना, देश, सेना, चँवर और व्यजन-सब कुछ दे डाला। धर्मात्मा नहुपकुमार अब कामात्मा हो गये। वे कामासक्त होकर बारंबार उस स्त्रीका चिन्तन करने लगे। उन्हें अपने पहले वृत्तान्तका स्मरण न रहा। नयी ब जवानी पाकर वे बड़ी शीघ्रताके साथ कदम बढ़ते हुए अश्रुबिन्दुमतीके पास गये। उस समय उनका चित्त कामसे उन्मत्त हो रहा था। वे विशाल नेत्रोंवाली व विशालाको देखकर बोले- ‘भद्रे मैं प्रबल दोषरूपवृद्धावस्थाको त्यागकर यहाँ आया अब मैं तरुण हूँ, अत: तुम्हारी सखी मुझे स्वीकार करे।’

विशाला बोली- राजन् ! आप दोषरूपा जरावस्थाको त्यागकर आये हैं, यह बड़ी अच्छी बात है; परन्तु अब भी आप एक दोषसे लिप्त हैं, जिससे यह आपको स्वीकार करना नहीं चाहती। आपकी दो सुन्दर नेत्रोंवाली स्त्रियाँ है- शर्मिष्ठा और देवयानी ऐसी दशामें आप मेरी इस सखीके वशमें कैसे रह सकेंगे ? जलती हुई आगमें समा जाना और पर्वतके शिखरसे कूद पड़ना अच्छा है; किन्तु रूप और तेजसे युक्त होनेपर भी ऐसे पतिसे विवाह करना अच्छा नहीं है, जो सौतरूपी विषसे युक्त हो। यद्यपि आप गुणोंके समुद्र हैं, तो भी इसी एक दोषके कारण यह आपको पति बनाना पसंद नहीं करती।

ययातिने कहा- शुभे! मुझे देवयानी और शर्मिष्ठासे कोई प्रयोजन नहीं है। इस बातके लिये मैं सत्यधर्मसे युक्त अपने शरीरको छूकर शपथ करता हूँ। अश्रुबिन्दुमती बोली- राजन्! मैं ही आपके राज्य और शरीरका उपभोग करूँगी। जिस-जिस कार्यके लिये मैं कहूँ, उसे आपको अवश्य पूर्ण करना होगा। इस बातका विश्वास दिलानेके लिये अपना हाथ मेरे हाथमें दीजिये।

ययातिने कहा- राजकुमारी मैं तुम्हारी सिवा किसी दूसरी स्वीको नहीं ग्रहण करूंगा। वरानने। मेरा राज्य, समूची पृथ्वी, मेरा यह शरीर और खजाना सबका तुम इच्छानुसार उपभोग करो सुन्दरी लो, मैंने तुम्हारे हाथमें अपना हाथ दे दिया।

अश्रुबिन्दुमती बोली- महाराज! अब मैं आपकी पत्नी बनूँगी। इतना सुनते ही महाराज ययातिकी आँखें हर्षसे खिल उठीं; उन्होंने गान्धर्व विवाहकी विधिसे काम-कुम्हारी अनुमदुमतीको ग्रहण किया और युवावस्थाके द्वारा से उसके साथ विहार करने लगे। अनुविन्दुमतीमें आसक्त होकर वहाँ रहते हुए राजाको बीस हजार वर्ष बीत गये। इस प्रकार इन्द्रके लिये किये हुए कामदेवके प्रयोगसे उस स्त्रीने महाराजको भलीभाँतिमोहित कर लिया। एक दिनकी बात है-कामनन्दिनी अनुविन्दुमतीने मोहित हुए राजा ययातिसे कहा ‘प्राणनाथ! मेरे हृदयमें कुछ अभिलाषा जाग्रत हुई है। आप मेरे उस मनोरथको पूर्ण कीजिये पृथ्वीपते। आप यज्ञोंमें प्रधान अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करें।’

राजा बोले- महाभागे ! एवमस्तु, मैं तुम्हारा प्रिय कार्य अवश्य करूँगा। ऐसा कहकर महाराजने राज्य-भोगसे नि:स्पृह अपने पुत्र पूरुको बुलाया। पिताका आह्वान सुनकर पूरु आये उन्होंने भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर राजाके चरणों में प्रणाम किया और अनुविन्दुमतीके युगल चरणोंमें भी मस्तक झुकाया। इसके बाद वे पितासे बोले ‘महाप्राज्ञ! मैं आपका दास हूँ; बताइये, मेरे लिये आपकी क्या आज्ञा है, मैं कौन-सा कार्य करूँ ?’

राजाने कहा- बेटा! पुण्यात्मा द्विजों, ऋत्विजों और भूमिपालको आमन्त्रित करके तुम अश्वमेध यज्ञकी तैयारी करो।

महातेजस्वी पूरु बड़े धार्मिक थे। उन्होंने पिताके कहनेपर उनकी आज्ञाका पूर्णतया पालन किया। तत्पश्चात् राजा ययातिने काम-कन्याके साथ यज्ञकी दीक्षा ली। उन्होंने अश्वमेध यज्ञमें ब्राह्मणों और दोनोंको अनेक प्रकारके दान दिये। यज्ञ समाप्त होनेपर महाराजने उस सुमुखीसे पूछा—’बाले! और कोई कार्य भी, जो तुम्हें अत्यन्त प्रिय हो, बताओ; मैं तुम्हारा कौन-सा कार्य करूँ?’ यह सुनकर उसने राजासे कहा- ‘महाराज ! मैं इन्द्रलोक, ब्रह्मलोक, शिवलोक तथा विष्णुलोकका दर्शन करना चाहती हूँ।’ राजा बोले- ‘महाभागे ! तुमने जो प्रस्ताव किया है, वह इस समय मुझे असाध्य प्रतीत होता है। वह तो पुण्य, दान, यज्ञ और तपस्यासे ही साध्य है। मैंने आजतक ऐसा कोई मनुष्य नहीं देखा या सुना है, जो पुण्यात्मा होकर भी मर्त्यलोकसे इस शरीरके साथ ही स्वर्गको गया हो। अतः सुन्दरी ! तुम्हारा बताया हुआ कार्य मेरे लिये असाध्य है। प्रिये ! दूसरा कोई कार्य बताओ, उसे अवश्य पूर्ण करूंगा।’ अश्रुविन्दुमती बोली- राजन् ! इसमें सन्देहनहीं कि यह कार्य दूसरे मनुष्योंके लिये सर्वथा असाध्य है; पर आपके लिये तो साध्य ही है-यह मैं बिलकुल सच-सच कह रही हूँ। इसी उद्देश्यसे मैंने आपको अपना स्वामी बनाया था आप सब प्रकारके शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न और सब धर्मोसे युक्त हैं। मैं जानती हूँ- आप भगवान् विष्णुके भक्त हैं, वैष्णवोंमें परम श्रेष्ठ हैं। जिसके ऊपर भगवान् विष्णुकी कृपा होती है, वह सर्वत्र जा सकता है। इसी आशासे मैंने आपको पति- रूपमें अंगीकार किया था। राजन्! केवल आपने ही मृत्युलोकमें आकर सम्पूर्ण मनुष्योंको जरावस्थाकी पीड़ासे रहित और मृत्युहीन बनाया है। नरश्रेष्ठ! आपने इन्द्र और यमराजका विरोध करके मर्त्यलोकको रोग और पापसे शून्य कर दिया है। महाराज! आपके समान दूसरा कोई भी राजा नहीं है। बहुत से पुराणोंमें भी आपके जैसे राजाका वर्णन नहीं मिलता। मैं अच्छी तरह जानती हूँ, आप सब धर्मो के ज्ञाता हैं।

राजाने कहा- भद्रे ! तुम्हारा कहना सत्य है, मेरे लिये कोई साध्य असाध्यका प्रश्न नहीं है। जगदीश्वरकी कृपासे मुझे स्वर्गलोकमें सब कुछ सुलभ है। तथापि मैं स्वर्गमें जो नहीं जाता हूँ, इसका कारण सुनो। मेरे छोड़ देनेपर मानवलोककी सारी प्रजा मृत्युका शिकार हो जायगी, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। सुमुखि ! यही सोचकर मैं स्वर्गमें नहीं चलता है यह मैंने तुम्हें सच्ची बात बतायी है।

रानी बोली- महाराज! उन लोकोंको देखकर मैं फिर मर्त्यलोकमें लौट आऊँगी। इस समय उन्हें देखनेके लिये मेरे मनमें इतनी उत्सुकता हुई है, जिसकी कहीं तुलना नहीं है।

राजाने कहा- देवि! तुमने जो कुछ कहा है, उसे निस्सन्देह पूर्ण करूँगा।

अपनी प्रिया अश्रुबिन्दुमती यों कहकर राजा सोचने लगे – ‘मत्स्य पानीके भीतर रहता है, किन्तु वह भी जालसे बँध जाता है। स्वर्गमें या पृथ्वीपर जो स्थावर आदि प्राणी हैं, उन सबपर कालका प्रभाव है। एकमात्र काल ही इस जगत्के रूपमें उपलब्ध होता है। कालसेपीड़ित मनुष्यको मन्त्र, तप, दान, मित्र और बन्धु बान्धव-कोई भी नहीं बचा सकते। विवाह, जन्म और मृत्यु-ये कालके रचे हुए तीन बन्धन हैं। ये जहाँ, जैसे और जिस हेतुसे होनेको होते हैं, होकर ही रहते हैं; कोई उन्हें मेट नहीं सकता। उपद्रव, आघातदोष, सर्प और व्याधियाँ- ये सभी कर्मसे प्रेरित होकर मनुष्यको प्राप्त होते हैं। आयु कर्म, धन, विद्या और मृत्यु- ये पाँच बातें जीवके गर्भमें रहते समय ही रच दी जाती है।” जीवको देवत्व मनुष्य पशु-पक्षी आदि तिर्यग्योनियाँ और स्थावर योनि- ये सब कुछ अपने-अपने कर्मानुसार ही प्राप्त होते हैं। मनुष्य जैसा करता है, वैसा भोगता है; उसे अपने किये हुएको हो सदा भोगना पड़ता है। वह अपना ही बनाया हुआ दुःख और अपना ही रचा हुआ सुख भोगता है जो लोग अपने धन और बुद्धिसे किसी वस्तुको अन्यथा करनेकी बुद्धि रखते हैं, वे भी अपने उपार्जित सुख-दुःखाँका उपभोग करते हैं। जैसे बछड़ा हजारों गौओंके बीचमें खड़ी होनेपर भी अपने माताको पहचानकर उसके पास पहुँच जाता है, उसी प्रकार पूर्व जन्मके किये हुए शुभाशुभ कर्म कर्ताका अनुसरण करते हैं। पहलेका किया हुआ कर्म कतकि सोनेपर उसके साथ ही सोता है, उसके खड़े होनेपर खड़ा होता है और चलनेपर पीछे-पीछे चलता है। तात्पर्य यह कि कर्म छायाकी भाँति कतक साथ लगा रहता है। जैसे छाया और धूप सदा एक-दूसरेसे सम्बद्ध होते हैं, उसी प्रकार कर्म और कर्ताका भी परस्पर सम्बन्ध है। शस्त्र, अग्नि, विष आदिसे जो बचाने योग्य वस्तु है, उसको भी दैव ही बचाता है। जो वास्तवमें अरक्षित वस्तु है, उसकी दैव ही रक्षा करता है। दैवने जिसका नाश करदिया हो, उसकी रक्षा नहीं देखी जाती। यह मेरे पूर्वकमका परिणाम ही है, दूसरा कुछ नहीं है। इस | स्त्रीके रूपमें दैव ही यहाँ आ पहुँचा है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। मेरे घरमें जो नाटक खेलनेवाले नट और नर्तक आये थे, उन्हीं के संगसे मेरे शरीरमें जरावस्थाने प्रवेश किया है। इन सब बातोंको मैं अपने कमका ही परिणाम मानता हूँ।”

इस प्रकारकी चिन्तामें पड़कर राजा ययाति बहुत दुःखी हो गये। उन्होंने सोचा- ‘यदि मैं प्रसन्नतापूर्वक इसकी बात नहीं मानूंगा तो मेरे सत्य और धर्म-दोनों ही चले जायेंगे, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जैसा कर्म मैंने किया था, उसके अनुरूप ही फल आज दृष्टिगोचर हुआ है। यह निश्चित बात है कि दैवका विधान टाला नहीं जा सकता है।’

इस तरह सोच-विचारमें पड़े हुए राजा ययाति सबके क्लेश दूर करनेवाले भगवान् श्रीहरिकी शरणमें गये। उन्होंने मन ही मन भगवान् मधुसूदनका ध्यान और नमस्कारपूर्वक स्तवन किया तथा कातरभावसे कहा- ‘लक्ष्मीपते मैं आपकी शरणमें आया हूँ, आप मेरा उद्धार कीजिये।’

सुकर्मा कहते हैं- परम धर्मात्मा राजा ययाति इस प्रकार चिन्ता कर ही रहे थे कि रतिकुमारी देवी अश्रुबिन्दुमतीने कहा- ‘राजन् ! अन्यान्य प्राकृत मनुष्योंकी भाँति आप दुःखपूर्ण चिन्ता कैसे कर रहे हैं। जिसके कारण आपको दुःख हो, वह कार्य मुझे कभी नहीं करना है।’ उसके यों कहनेपर राजाने उस वरांगनासे 1 कहा-‘देवि! मुझे जिस बातकी चिन्ता हुई है, उसे बताता हूँ; सुनो। मेरे स्वर्ग चले जानेपर सारी प्रजा दीनहो जायगी। तथापि अब मैं तुम्हारे साथ स्वर्गलोकको चलूँगा।’ यों कहकर राजाने अपने उत्तम पुत्र पुरुको, जो सब धर्मो के ज्ञाता, वृद्धावस्थासे युक्त और परम बुद्धिमान् थे, बुलाया और इस प्रकार कहा- ‘धर्मात्मन् ! मेरी आज्ञासे तुमने धर्मका पालन किया है, अब मेरी वृद्धावस्था दे दो और अपनी युवावस्था ग्रहण करो। खजाना, सेना तथा सवारियोंसहित मेरा यह राज्य तथा समुद्रसहित समूची पृथ्वीको भोगो। मैंने इसे तुम्हें ही दिया है। दुष्टोंको दण्ड देना और साधु पुरुषोंकी रक्षा करना तुम्हारा कर्तव्य है।

तात! तुम्हें धर्मशास्त्रको प्रमाण मानकर उसीके अनुसार सब कार्य करना चाहिये। महाभाग ! शास्त्रीय विधिके अनुसार भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंका पूजन करना, क्योंकि वे तीनों लोकोंमें पूजनीय हैं पाँचवें सातवें दिन खजानेकी देखभाल करते रहना, सेवकोंको धन और भोजन आदिसे प्रसन्न करके सदा इनका आदर करना। गुप्तचरोंको नियुक्त करके राज्यके प्रत्येक अंगपर दृष्टि रखना, सदा दान देते रहना, शत्रुपर अनुराग या विश्वास न करना, विद्वान् पुरुषोंके द्वारा सदा अपनी रक्षाका प्रबन्ध रखना। बेटा! अपने मनको काबू में रखना, कभी शिकार खेलनेके लिये न जाना। स्त्री, खजाना, सेना और शत्रुपर कभी विश्वास न करना। सुयोग्य पात्रों और सब प्रकारके बलोंका संग्रह करना। यज्ञोंके द्वारा भगवान् हृषीकेशका पूजन करना और सदा पुण्यात्मा बने रहना प्रजाको जिस वस्तुकी इच्छा हो, वह सब उन्हें प्रतिदिन देते रहना। बेटा! तुम प्रजाको सुख पहुँचाओ, प्रजाका पालन-पोषण करो। पराये धन और परायी स्त्रियोंके प्रति कभी दूषित विचार मनमें न लाना। वेद और शास्त्रोंका निरन्तर चिन्तन करना और सदा अस्त्र-शस्त्रोंके अभ्यासमें लगे रहना। हाथी और रथ हाँकनेका अभ्यास भी बढ़ाते रहना।’

पुत्रको ऐसा आदेश देकर राजाने आशीर्वादके द्वारा उसे प्रसन्न किया और अपने हाथसे राजसिंहासनपर बिठाया। फिर अपनी वृद्धावस्था ले पुत्रको यौवन समर्पित करके महाराजने समस्त प्रजाओंको बुलाया औरबड़े हर्षमें भरकर यह वचन कहा—’सज्जनो! मैं अपनी इस पत्नी के साथ पहले इन्द्रलोकमें जाता हूँ, फिर क्रमशः ब्रह्मलोक और शिवलोकमें जाऊँगा। इसके बाद समस्त लोकोंके पाप दूर करनेवाले तथा जीवोंको सद्गति प्रदान करनेवाले विष्णुधामको प्राप्त होऊंगा इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरी समस्त प्रजाको कुटुम्बसहित यहीं सुखपूर्वक रहना चाहिये। यही मेरी आज्ञा है। आजसे ये महाबाहु पूरु आपलोगोंके रक्षक हैं। इनका स्वभाव धीर है, मैंने इन्हें शासनका अधिकार देकर राजाके पदपर प्रतिष्ठित किया है।’

महाराजके यों कहनेपर प्रजाजनोंने कहा- नृपश्रेष्ठ सम्पूर्ण वेदोंमें धर्मका हो श्रवण होता है. पुराणोंमें भी धर्मको ही व्याख्या की गयी है, किन्तु पूर्वकालमें किसीने धर्मका साक्षात् दर्शन नहीं किया। केवल हमलोगोंने ही चन्द्रवंशमें राजा नहुषके घर उत्पन्न हुए आपके रूपमें उस दशांग धर्मका साक्षात्कार किया है। महाराज! आप सत्यप्रिय, ज्ञान-विज्ञान-सम्पन्न, पुण्यकी महान् राशि, गुणोंके आधार तथा सत्यके ज्ञाता हैं। सत्यका पालन करनेवाले महान् ओजस्वी पुरुष परम धर्मका अनुष्ठान करते हैं। आपसे बढ़कर दूसरा कोई पुरुष हमारे देखनेमें नहीं आया है। आप जैसे धर्मपालक एवं सत्यवादी राजाको हम मन, वाणी और शरीर किसीकी भी क्रियाद्वारा छोड़नेमें असमर्थ है। महाराज! जब आप ही नहीं रहेंगे, तब स्त्री, धन, भोग और जीवन लेकर हम क्या करेंगे। अतः राजेन्द्र ! अब हमें यहाँ रहनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। आपके साथ ही हम भी चलेंगे।’

प्रजाजनोंकी यह बात सुनकर राजा ययातिको बड़ा हर्ष हुआ। वे बोले-‘आप सब लोग परम पुण्यात्मा हैं, मेरे साथ चलें।’ यो कहकर वे कामकन्याके साथ रथपर सवार हुए। वह रथ चन्द्रमण्डलके समान जान पड़ता था। सेवकगण हाथमें चँवर और व्यजन लेकर महाराजको हवा कर रहे थे। राजाके मनमें किसी प्रकारकी पीड़ा नहीं थी। उनके राज्यमें ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य तथा शूद्र- सभी वैष्णव थे। इनके सिवा जो अन्त्यज थे, उनके मनमें भी भगवान् विष्णुके प्रति भक्ति थी। सभी दिव्य माला धारण किये तुलसीदलों से शोभा पा रहे थे। उनकी संख्या अरबों-खरबोंतक पहुँच गयी। सभी भगवान् विष्णुके ध्यानमें तत्पर और जप एवं दानमें संलग्न रहनेवाले थे। सब-के-सब विष्णु भक्त और पुण्यात्मा थे। उन सबने महाराजके साथ दिव्य लोकोंकी यात्रा की। उस समय सबके हृदयमें महान् आनन्द छा रहा था। राजा ययाति सबसे पहले इन्द्रलोकमें गये, उनके तेज, पुण्य, धर्म और तपोबलसे और लोग भी साथ-साथ गये। वहाँ पहुँचनेपर देवता, गन्धर्व, किन्नर तथा चारणसहित देवराज इन्द्र उनके सामने आये और उनका सम्मान करते हुए बोले- ‘महाभाग ! आपका स्वागत है! आइये, मेरे घरमें पधारिये और दिव्य, पावन एवं मनोरम भोगोंका उपभोग कीजिये।’

राजाने कहा- देवराज आपके चरणारविन्दों में प्रणाम करके हमलोग सनातन ब्रह्मलोकमें जा रहे हैं।

यह कहकर देवताओंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए वे ब्रह्मलोकमें गये। वहाँ मुनिवरोंके साथ महातेजस्वी ब्रह्माजीने अर्ध्यादि सुविस्तृत उपचारोंके द्वारा उनका आतिथ्य सत्कार किया और कहा ‘राजन्! तुम अपने शुभ कर्मोंके फलस्वरूप विष्णुलोकको जाओ।’ ब्रह्माजीके यों कहनेपर के पहले शिवलोकमें गये, वहाँ भगवान् शंकरने पार्वतीजीके साथ उनका स्वागत-सत्कार किया और इस प्रकार कहा— ‘महाराज ! तुम भगवान् विष्णुके भक्त हो, अतः मेरे भी अत्यन्त प्रिय हो, क्योंकि मुझमें और विष्णुमें कोई अन्तर नहीं है। जो विष्णु हैं, वही मैं हूँ तथा मुझीको विष्णु समझो, पुण्यात्मा विष्णुभक्तके लिये भी यही स्थान है। अतः महाराज! तुम यहाँ इच्छानुसार रह सकते हो।”

भगवान् शिवके यों कहनेपर श्रीविष्णुके प्रिय भक्त ययातिने मस्तक झुकाकर उनके चरणोंमें भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और कहा-‘महादेव! आपने इस समय जो कुछ भी कहा है, सत्य है, आप दोनोंमें वस्तुतः कोई अन्तर नहीं है। एक ही परमात्माके स्वरूपकी ब्रह्मा,विष्णु और शिव-तीन रूपोंमें अभिव्यक्ति हुई है। तथापि मेरी विष्णुलोक में जानेकी इच्छा है, अतः आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ। भगवान् शिव बोले-‘महाराज! एवमस्तु तुम विष्णुलोकको जाओ।’ उनको आज्ञा पाकर राजाने कल्याणमयी भगवती उमाको नमस्कार किया और उन परमपावन विष्णुभक्तोंके साथ वे विष्णुधामको चल दिये। ऋषि और देवता सब ओर खड़े हो उनकी स्तुति कर रहे थे। गन्धर्व, किन्नर, सिद्ध, पुण्यात्मा, चारण, साध्य, विद्याधर, उनचास मरुद्गण, आठों वसु, ग्यारहों रुद्र बारहों आदित्य, लोकपाल तथा समस्त त्रिलोकी चारों और उनका गुणगान कर रही थी महाराज ययातिने रोग-शोकसे रहित अनुपम विष्णुलोकका दर्शन किया। सब प्रकारकी शोभासे सम्पन्न सोनेके विमान उस लोककी सुषमा बढ़ा रहे थे चारों ओर दिव्य छटा छा रही थी वह मोक्षका उत्तम धाम वैष्णवोंसे शोभा पा रहा था। देवताओंकी वहाँ भीड़ सी लगी थी।

नहुषनन्दन ययातिने सब प्रकारके दाहसे रहित उस दिव्य धाममें प्रवेश करके क्लेशहारी भगवान् नारायणका दर्शन किया। भगवान्‌के ऊपर चंदोवे तने हुए थे, जिनसे उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। वे सब प्रकारके आभूषण और पीत वस्त्रोंसे विभूषित थे। उनके वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न शोभा पा रहा था। सबके महान् आश्रय भगवान् जगन्नाथ लक्ष्मीके साथ गरुड़पर विराजमान थे वे ही परात्पर परमेश्वर हैं। सम्पूर्ण देवलोककी गति हैं परमानन्दमय कैवल्यसे सुशोभित हैं। बड़े-बड़े लोक, पुण्यात्मा वैष्णव, देवता तथा गन्धर्व उनकी सेवामें रहते हैं। राजा ययातिने अपनी पत्नीसहित निकट जाकर गन्धर्वोद्वारा सेवित, देववृन्दसे घिरे दुःख-क्लेशहारी प्रभु नारायणको नमस्कार किया तथा उनके साथ जो अन्य वैष्णव पधारे थे, उन्होंने भी भक्तिपूर्वक भगवान्‌के दोनों चरण कमलोंमें मस्तक झुकाया। परम तेजस्वी राजाको प्रणाम करते देख भगवान् हृषीकेशने कहा- महाराज! मैं तुमपर बहुत संतुष्ट हूँ। तुम मेरे भक्त हो; अतः तुम्हारे मनमें यदि कोई दुर्लभ मनोरथ हो तो लिये वरमाँगो। मैं उसे निस्सन्देह पूर्ण करूँगा ।’

राजा बोले- मधुसूदन! जगत्पते! देवेश्वर! यदि आप मुझपर सन्तुष्ट हैं तो सदाके लिये मुझे अपना दास बना लीजिये।

भगवान् श्रीविष्णुने कहा- -महाभाग ! ऐसा ही होगा। तुम मेरे भक्त हो, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। राजन् ! तुम अपनी पत्नीके साथ सदा मेरे लोकमें निवास करो।

भगवान्‌की ऐसी आज्ञा पाकर उनकी कृपासे महाराज ययाति परम प्रकाशमान विष्णुलोकमें निवास करने लगे।

सुकर्मा कहते हैं—पिप्पलजी! यह सम्पूर्ण पापनाशक चरित्र मैंने आपको सुना दिया। संसारमें राजा ययातिका दिव्य एवं शुभ जीवनचरित्र परम कल्याणदायक तथा पितृभक्त पुत्रोंका उद्धार करनेवाला है। पिताकी सेवाके प्रभावसे पूरुको राज्य प्राप्त हुआ। पिता-माताके समान अभीष्ट फल देनेवाला दूसरा कोई नहीं है। जो पुत्र माताके बुलानेपर हर्षमें भरकर उसकी ओर जाता है, उसे गंगास्नानका फल मिलता है। जो माता और पिताके चरण पखारता है, वह महायशस्वी पुत्र उन दोनोंकी कृपासे समस्त तीर्थोंके सेवनका फल भोगता है। उनके शरीरको दबाकर व्यथा दूर करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। जो भोजन और वस्त्र देकर माता पिताका पालन करता है, उसे पृथ्वीदानका पुण्य प्राप्त होता है। गंगा और माता सर्वतीर्थमयी मानी गयी हैं।इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जैसे जगत्‌में समुद्र परम पुण्यमय एवं प्रतिष्ठित माना गया है, उसी प्रकार इस संसारमें पिता-माताका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। ऐसा पौराणिक विद्वानोंका कथन है। जो पुत्र माता पिताको कटुवचन सुनाता और कोसता है, वह बहुत दुःख देनेवाले नरकमें पड़ता है। जो गृहस्थ होकर भी बूढ़े माता-पिताका पालन नहीं करता, वह पुत्र नरकमें पड़ता और भारी यातना भोगता है। जो दुर्बुद्धि एवं पापाचारी पुरुष पिताकी निन्दा करता है, उसके उस पापका प्रायश्चित्त प्राचीन विद्वानोंको भी कभी दृष्टिगोचर नहीं हुआ है।

विप्रवर! यही सब सोचकर मैं प्रतिदिन माता पिताकी भक्तिपूर्वक पूजा करता हूँ और चरण दबाने आदिकी सेवामें लगा रहता हूँ। मेरे पिता मुझे बुलाकर जो कुछ भी आज्ञा देते हैं, उसे मैं अपनी शक्तिके अनुसार बिना विचारे पूर्ण करता हूँ। इससे मुझे सद्गति प्रदान करनेवाला उत्तम ज्ञान प्राप्त हुआ है। पिता माताकी कृपासे संसारमें तीनों कालोंका ज्ञान सुलभ हो जाता है। पृथ्वीपर रहनेवाले जो मनुष्य माता-पिताकी भक्ति करते हैं, उन्हें यह ज्ञान प्राप्त होता है। मैं यहीं रहकर स्वर्गलोकतककी बातें जानता हूँ। विद्याधर श्रेष्ठ ! आप भी जाइये और भगवत्स्वरूप माता-पिताकी आराधना कीजिये। देखिये, इन माता-पिताके प्रसादसे ही मुझे ऐसा ज्ञान मिला है।सुकर्माके मुखसे ये उपदेश सुनकर पिप्पलको अपनी करतूतपर बड़ी लज्जा आयी और वे द्विजश्रेष्ठ सुकर्माको प्रणाम करके स्वर्गको चले गये। तत्पश्चात् धर्मात्मासुकर्मा माता- -पिताकी सेवामें लग गये। महामते ! पितृतीर्थसे सम्बन्ध रखनेवाली ये सारी बातें मैंने तुम्हें बता दीं; बोलो अब और किस विषयका वर्णन करूँ ?

अध्याय-23 गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश

वेनने कहा- भगवन्! देवदेवेश्वर! आपने मुझपर कृपा करके भार्यातीर्थ, परम उत्तम पितृतीर्थ एवं परम पुण्यदायक मातृतीर्थका वर्णन किया। हृषीकेश! अब प्रसन्न होकर मुझे गुरुतीर्थकी महिमा बतलाइये।

भगवान् श्रीविष्णु बोले- राजन् ! गुरुतीर्थ बड़ा उत्तम तीर्थ है, मैं उसका वर्णन करता हूँ। गुरुके अनुग्रहसे शिष्यको लौकिक आचार-व्यवहारका ज्ञान होता है, विज्ञानकी प्राप्ति होती है और वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है जैसे सूर्य सम्पूर्ण लोकोंको प्रकाशित करते हैं, उसी प्रकार गुरु शिष्योंको उत्तम बुद्धि देकर उनके अन्तर्जगत्को प्रकाशपूर्ण बनाते हैं। सूर्य दिनमें प्रकाश करते हैं, चन्द्रमा रातमें प्रकाशित होते हैं और दीपक केवल घरके भीतर उजाला करता है; परन्तु गुरु अपने शिष्यके हृदयमें सदा ही प्रकाश फैलाते रहते हैं। वे शिष्यके अज्ञानमय अन्धकारका नाश करते हैं; अतः शिष्योंके लिये गुरु ही सबसे उत्तम तीर्थ हैं। यह समझकर शिष्यको उचित है कि वह सब तरहसे गुरुको प्रसन्न रखे गुरुको पुण्यमय जानकर मन, वाणी और शरीर-तीनोंकी क्रियासे उनकी आराधना करता रहे।

नृपश्रेष्ठ! भार्गव वंशमें उत्पन्न महर्षि च्यवन मुनियोंमें श्रेष्ठ थे। एक दिन उनके मनमें यह विचार हुआ कि ‘मैं इस पृथ्वीपर कब ज्ञानसम्पन्न होऊँगा।’ इस प्रकार सोचते-सोचते उनके मनमें यह बात आयी कि ‘मैं तीर्थयात्राको चलूँ; क्योंकि तीर्थयात्रा अभीष्ट फलकोदेनेवाली है।’ ऐसा निश्चय करके वे पिता आदिको तथा पत्नी, पुत्र और धनको भी घरपर ही छोड़कर तीर्थयात्राके प्रसंगसे भूतलपर विचरने लगे। मुनीश्वर च्यवनने नर्मदा, सरस्वती तथा गोदावरी आदि समस्त नदियों और समुद्रके तटोंकी यात्रा की। अन्यान्य क्षेत्रों, सम्पूर्ण तीर्थों तथा पुण्यमय देवताओंके स्थानोंमें भ्रमण किया। इस प्रकार यात्रा करते हुए वे ओंकारेश्वर तीर्थमें आये और एक बरगदकी शीतल छायामें बैठकर सुखपूर्वक विश्राम करने लगे। उस वृक्षकी छाया ठंडी और थकावटको दूर करनेवाली थी। मुनिश्रेष्ठ च्यवन वहाँ लेट गये। लेटे-लेटे ही उनके कानोंमें पक्षियोंका मनोहर शब्द सुनायी पड़ा, जो ज्ञान-विज्ञानसे युक्त था। उस वृक्षके ऊपर अपनी पत्नीके साथ एक दीर्घजीवी तोता रहता था, जो कुंजलके नामसे प्रसिद्ध था। वह तोता बड़ा ज्ञानी था। उसके उज्ज्वल, समुज्ज्वल, विज्ज्वल और कपिंजल – ये चार पुत्र थे। चारों ही माता-पिताके बड़े भक्त थे। वे भूखसे आकुल होनेपर चारा चुगनेके लिये पर्वतीय कुंजों और समस्त द्वीपोंमें भ्रमण किया करते थे। उनका चित्त बहुत एकाग्र रहता था। सन्ध्याके समय मुनिवर च्यवनके देखते-देखते वे चारों तोते अपने पिताके सुन्दर घोंसलेमें आये। वहाँ आकर उन सबने माता-पिताको प्रणाम किया और उन्हें चारा निवेदन करके उनके सामने खड़े हो गये। तत्पश्चात् अपने पंखोंकी शीतल हवासे माता-पिताकी सेवा करने लगे।कुंजल पक्षी अपनी पत्नीके साथ भोजन करके जब प्हुआ, तब पुत्रोंके साथ बैठकर परम पवित्र दिव्य कथाएँ कहने लगा।

उज्ज्वलने कहा- पिताजी! इस समय पहले मेरे लिये उत्तम ज्ञानका वर्णन कीजिये; इसके बाद ध्यान, व्रत, पुण्य तथा भगवान्‌के शतनामका भी उपदेश दीजिये।

कुंजल बोला- बेटा! मैं तुम्हें उस उत्तम ज्ञानका उपदेश देता हूँ, जिसे किसीने इन चर्मचक्षुओंसे नहीं देखा है; उसका नाम है— कैवल्य (मोक्ष)। वह केवल अद्वितीय और दुःखसे रहित है जैसे वायुशून्य प्रदेशमें रखा हुआ दीपक हवाका झोंका न लगनेके कारण स्थिर भावसे जलता है और घरके समूचे अन्धकारका नाश करता रहता है, उसी प्रकार कैवल्यस्वरूप ज्ञानमय आत्मा सब दोषोंसे रहित और स्थिर है। उसका कोई आधार नहीं हैं [ वहीं सबका आधार है ] ।’ बेटा! वह आशा तृष्णासे रहित और निश्चल है। आत्मा न किसीका मित्र है न शत्रु। उसमें न शोक है, न हर्ष, न लोभ है न मात्सर्य । वह भ्रम, प्रलाप, मोह तथा सुख-दुःखसे रहित है। जिस समय इन्द्रियाँ सम्पूर्ण विषयोंमें भोग बुद्धिका त्याग कर देती हैं, उस समय [सब प्रकारकी आसक्तियोंसे रहित] केवल आत्मा रह जाता है; उसे कैवल्यरूपकी प्राप्ति हो जाती है। जैसे दीपक प्रज्वलित होकर जब प्रकाश फैलाता है, तब बत्तीके आधारसे वह तेलको सोखता रहता है। फिर उस तेलको भी काजलके रूपमें उगल देता है। महामते। दीपक स्वयं ही तेलको खींचता और अपने तेजसे निर्मल बना रहता है। इसी प्रकार देहरूपी बत्तीमें स्थित हुआ आत्मा कर्मरूपी तेलका शोषण करता रहता है। वह विषयोंका काजल बनाकर प्रत्यक्ष दिखा देता है और जपसे निर्मल होकर स्वयं ही प्रकाशित होता है। उसमेंक्रोध आदि दोषोंका अभाव है। क्लेश नामक वायु उसका स्पर्श नहीं करती। वह निःस्पृह और निश्चल होकर स्वयं अपने तेजसे प्रकाशमान रहता है। स्वकीय स्थानपर स्थित रहकर ही अपने तेजसे सम्पूर्ण त्रिलोकीको देखा करता है। यह आत्मा केवल ज्ञानस्वरूप है [इसीको परमात्मा कहते हैं]। इस परमात्माका ही मैंने तुमसे वर्णन किया है।

अब मैं चक्रधारी भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानका वर्णन आरम्भ करता । वह ध्यान दो प्रकारका है निराकार और साकार निराकारका ध्यान केवल ज्ञानरूपसे होता है, ज्ञाननेत्रसे उनका दर्शन किया जाता है। योगयुक्त महात्मा तथा परमार्थपरायण संन्यासी उन सर्वज्ञ एवं सर्वद्रष्टा परमेश्वरका साक्षात्कार करते हैं। वत्स! वे हाथ-पैरसे हीन होकर भी सर्वत्र जाते और समस्त चराचर त्रिलोकीको ग्रहण करते हैं। उनके मुख और नाक नहीं हैं, फिर भी वे खाते और सूंघते हैं। बिना कानके ही सब कुछ श्रवण करते हैं। वे सबके साक्षी और जगत्के स्वामी हैं। रूपहीन होते हुए भी पाँच इन्द्रियोंसे युक्त रूप धारण करते हैं। समस्त लोकोंके प्राण हैं। चराचर जगत्के जीव उनकी पूजा करते हैं। बिना जिहाके ही वे बोलते हैं। उनकी सब बातें वेदशास्त्रोंके अनुकूल होती है। उनके त्वचा नहीं है, फिर भी वे सबके स्पर्शका अनुभव करते हैं। उनका स्वरूप सत् और आनन्दमय है; वे विरक्तात्मा हैं। उनका रूप एक है। वे आश्रयरहित और जरावस्थासे शून्य हैं। ममता तो उन्हें छू भी नहीं गयी है। वे सर्वव्यापक, सगुण, निर्गुण और निर्मल हैं। वे किसीके वशमें नहीं हैं तो भी उनका मन सब भक्तोंके अधीन रहता है। वे सब कुछ देनेवाले और सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ हैं। उनका पूर्णरूपसे ध्यान करनेवाला कोई नहीं है। वे सर्वमय और सर्वत्र व्यापक हैं।इस प्रकार जो परमात्माके सर्वमय स्वरूपका ध्यान
करता है, वह अमृतके समान सुखदायी और आकार
रहित परम पद (मोक्ष) को प्राप्त होता है। अब परमात्माके ध्यानका दूसरा रूप साकार ध्यान बतलाता हूँ। मूर्तिमान् आकारके चिन्तनको साकार ध्यान कहते हैं तथा जो निरामय तत्त्वका चिन्तन है, उसे निराकार ध्यान कहा गया है। यह समस्त ब्रह्माण्ड, जिसकी कहीं तुलना नहीं है, भगवान्की वासनासे ही वासित है- भगवान्‌में ही इसका निवास है; इसीलिये उन्हें ‘वासुदेव’ कहते हैं। वर्षाके लिये उन्मुख मेघका जैसा वर्ण होता है, वैसा ही उनका भी वर्ण है। वे सूर्यके समान तेजस्वी, चतुर्भुज और देवताओंके स्वामी हैं। उनके दाहिने हाथोंमेंसे एकमें सुवर्ण और रत्नोंसे विभूषित शंख शोभा पा रहा है। बायें हाथोंमेंसे एकमें चक्र प्रतिष्ठित है, जिसकी तेजोमयी आकृति सूर्यमण्डलके समान है। कौमोदकी गदा, जो बड़े-बड़े असुरोंका विनाश करनेवाली है, उन परमात्माके दूसरे बायें हाथमें सुशोभित है तथा उनके दूसरे दाहिने हाथमें सुगन्धपूर्ण महान् पद्म शोभा पा रहा है। इस प्रकार आयुधसहित भगवान् कमलापतिका ध्यान करना चाहिये । शंखके समान ग्रीवा, गोल-गोल मुख और पद्मपत्र समान बड़ी-बड़ी आँखें अत्यन्त मनोहर जानपड़ती हैं। रत्नोंके समान चमकीले दाँतोंसे भगवान् हृषीकेशकी बड़ी शोभा हो रही है। उनके घुँघराले हैं, बिम्बाफलके समान लाल-लाल ओठ हैं तथा मस्तकपर धारण किये हुए किरीटसे कमलनयन श्रीहरि अत्यन्त सुशोभित हो रहे हैं। विशाल रूप, सुन्दर नेत्र तथा कौस्तुभमणिसे उनकी कान्ति बहुत बढ़ गयी है। सूर्यके समान तेजसे प्रकाशित होनेवाले कुण्डल और पुण्यमय श्रीवत्स-चिह्नसे श्रीहरि सदा देदीप्यमान दिखायी देते हैं। उनके श्यामविग्रहपर बाजूबन्द, कंगन और मोतियोंके हार नक्षत्रोंके समान छबि पा रहे हैं। इनसे सुशोभित भगवान् विजय विजयी पुरुषोंमें सर्वश्रेष्ठ जान पड़ते हैं। सोनेके समान रंगवाले पीताम्बरसे गोविन्दकी सुषमा और भी बढ़ गयी है। रत्नजटित मुँदरियोंसे सुशोभित अँगुलियोंके कारण भगवान् बड़े सुन्दर प्रतीत होते हैं। सब प्रकारके आयुधोंसे पूर्ण और दिव्य आभूषणोंसे विभूषित श्रीहरि गरुड़की पीठपर विराजमान हैं। वे इस विश्वके स्रष्टा और जगत्के स्वामी हैं। जो मनुष्य इस प्रकार भगवान्की मनोहर झाँकीका प्रतिदिन अनन्य चित्तसे ध्यान करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो अन्तमें भगवान् श्रीविष्णुके लोकको जाता है। बेटा! इस जगदीश्वरके ध्यानका यह सारा प्रकार मैंने तुम्हें बता दिया। 2अब व्रतोंके भेद बताता हूँ, जिनके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना होती है। जया, विजया, पापनाशिनी, जयन्ती, त्रिः स्पृशा, वंजुली, तिलगन्धा, अखण्डा तथा मनोरक्षा- ये सब एकादशी या द्वादशियोंके भेद हैं। इनके सिवा और भी बहुत सी ऐसी तिथियाँ हैं, जिनका प्रभाव दिव्य है। अशून्यशयन और जन्माष्टमी ये दोनों महान् व्रत हैं। इन व्रतोंका आचरण करनेसे प्राणियोंके सब पाप दूर हो जाते हैं।

पुत्र ! अब भगवान्के शतनामस्तोत्रका वर्णन करता हूँ। यह मनुष्योंकी पापराशिका नाशक और उत्तम गति प्रदान करनेवाला है। विष्णुके इस शतनाम स्तोत्रके ब्रह्मा ऋषि, अनुष्टुप् छन्द, प्रणव (ओंकार) देवता है। सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धि तथा मोक्षके निमित्त इसका विनियोग किया जाता है।” *

हृषीकेश (इन्द्रियोंके स्वामी), केशव, मधुसूदन (मधु दैत्यको मारनेवाले), सर्वदैत्यसूदन (सम्पूर्ण दैत्योंके संहारक), नारायण, अनामय (रोग-शोकसे रहित), जयन्त, विजय, कृष्ण, अनन्त, वामन, विष्णु, विश्वेश्वर, पुण्य, विश्वात्मा, सुरार्चित (देवताओंद्वारा पूजित), अनघ (पापरहित), अघहर्ता, नारसिंह, श्रीप्रिय (लक्ष्मीके प्रियतम), श्रीपति, श्रीधर, श्रीद (लक्ष्मी प्रदान करनेवाले), श्रीनिवास, महोदय (महान् अभ्युदयशाली), श्रीराम, माधव, मोक्ष, क्षमारूप, जनार्दन, सर्वज्ञ, सर्ववेत्ता, सर्वेश्वर, सर्वदायक, हरि, मुरारि, गोविन्द, पद्मनाभ, प्रजापति, आनन्द, ज्ञानसम्पन्न,ज्ञानद, ज्ञानदायक, अच्युत, सबल, चन्द्रवक्त्र (चन्द्रमाके समान मनोहर मुखवाले), व्याप्तपरावर (कार्य कारणरूप सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त), योगेश्वर, जगद्योनि (जगत्की उत्पत्तिके स्थान), ब्रह्मरूप, महेश्वर, मुकुन्द, वैकुण्ठ, एकरूप, कवि, ध्रुव, वासुदेव, महादेव, गोप्रिय, ब्राह्मणप्रिय, गोहित, यज्ञ, ब्रह्मण्य यज्ञांग, यज्ञवर्धन (यज्ञोंका विस्तार करनेवाले), यज्ञ भोक्ता, वेद-वेदांगपारग, वेदज्ञ, वेदरूप, विद्यावास, सुरेश्वर, प्रत्यक्ष, महाहंस, शंखपाणि, पुरातन, पुष्कर, पुष्कराक्ष, वाराह, धरणीधर, प्रद्युम्न, कामपाल, व्यासध्यात (व्यासजीके द्वारा चिन्तित ), महेश्वर (महान् ईश्वर ), सर्वसौख्य, महासौख्य, सांख्य, पुरुषोत्तम, योगरूप, महाज्ञान, योगीश्वर, अजित, प्रिय, असुरारि, लोकनाथ, पद्महस्त, गदाधर, गुहावास, सर्ववास, पुण्यवास, महाजन, वृन्दानाथ, बृहत्काय, पावन, पापनाशन, गोपीनाथ, गोपसख, गोपाल, गोगणाश्रय, परात्मा, पराधीश, कपिल तथा कार्यमानुष (संसारका उद्धार करनेके लिये मानव-शरीर धारण करनेवाले) आदि नामोंसे प्रसिद्ध सर्वस्वरूप परमेश्वरको मैं प्रतिदिन मन, वाणी तथा क्रियाद्वारा नमस्कार करता हूँ। जो पुण्यात्मा पुरुष शतनामस्तोत्र पढ़कर स्थिरचित्तसे भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति करता है, वह सम्पूर्ण दोषोंका त्याग करके इस लोकमें पुण्यस्वरूप हो जाता है तथा अन्तमें वह भगवान् मधुसूदनके लोकको प्राप्त होता है। यह शतनामस्तोत्र महान् पुण्यका जनक और समस्तपातकोंकी शुद्धि करनेवाला है। मनुष्यको ध्यानयुक्त होकर अनन्यचित्तसे इसका जप और चिन्तन करना चाहिये। प्रतिदिन इसका जप करनेवाले पुरुषको नित्यप्रति गंगास्नानका फल मिलता है। इसलिये सुस्थिर और एकाग्रचित्त होकर इसका जप करना उचित है। *

सुखकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको चाहिये कि जहाँ शालग्रामकी शिला तथा द्वारकाकी शिला (गोमतीचक्र) हों, उन दोनों शिलाओंके समीप पूर्वोक्त स्तोत्रका जप करे। ऐसा करनेसे वह संसारमें नाना प्रकारके सुख भोगकर अन्तमें अपने सहित एक सौ एक पीढ़ीका उद्धार कर देता है। जो कार्तिकमें प्रतिदिन प्रातः स्नान करके मधुसूदनकी पूजा करता और भगवान्के सामनेशतनामस्तोत्रको पढ़ता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है। बेटा! माघ-स्नान करनेवाला पुरुष यदि भगवान्‌की पूजा करके उनका ध्यान करता और इस स्तोत्रका जप अथवा श्रवण करता है तो वह मदिरापान आदिसे होनेवाले पापोंका भी त्याग करके परमपदको प्राप्त होता है। बिना किसी विघ्नके उसे विष्णुपदकी प्राप्ति हो जाती है। जो मनुष्य श्राद्ध कालमें भोजन करनेवाले ब्राह्मणोंके सामने इस पापनाशक शतनामस्तोत्रका पाठ करता है, उसके पितर संतुष्ट होकर परमगतिको प्राप्त होते हैं। यह स्तोत्र सुख तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है। निश्चय ही इसका जप करना चाहिये। जपकर्ता मनुष्य भगवान् श्रीविष्णुकी कृपासे पूर्ण सिद्ध हो जाता है-उसे सब प्रकारकी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं।

अध्याय-24 कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन

तदनन्तर कुंजलने अपने पुत्र विश्वलको उपदेश देते हुए कहा- ‘बेटा! प्रत्येक भोगमें शुभ और अशुभ कर्म ही कारण हैं। पुण्य कर्मसे जीव सुख भोगता है। और पाप कर्मसे दुःखका अनुभव करता है। किसान अपने खेतमें जैसा बीज बोता है, वैसा ही फल उसे प्राप्त होता है। इसी प्रकार जैसा कर्म किया जाता है, वैसा ही फलका उपभोग किया जाता है। इस शरीर के विनाशका कारण भी कर्म ही है। हम सब लोग कर्मके अधीन हैं। संसारमें कर्म ही जीवोंकी संतान है। कर्म ही उनके बन्धु बान्धव हैं तथा कर्म ही यहाँ पुरुषको सुख-दुःखमें प्रवृत्त करते हैं। जैसे किसानको उसके प्रयत्नके अनुसार खेतीका फल प्राप्त होता है, उसी प्रकार पूर्वजन्मका किया हुआ कर्म ही कर्ताको मिलता है। जीव अपने कर्मोंके अनुसार ही देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी और स्थावर योनियोंमें जन्म लेता है तथा उन योनियोंमें वह सदा अपने किये हुए कर्मको ही भोगता है। दुःख और सुख दोनों अपने ही किये हुए कर्मोके फल हैं। जीव गर्भकी शय्यापर सोकर पूर्व शरीरके किये हुए शुभाशुभ कर्मो का फल भोगता है पृथ्वीपर कोई भी पुरुष ऐसा नहीं है, जो पूर्वजन्मके किये हुए कर्मको अन्यथा कर सके। सभी जीव अपने कमाये हुए सुख-दुःखको ही भोगते हैं। भोगके बिना किये हुए कर्मका नाश नहीं होता। पूर्वजन्मके बन्धनस्वरूप कर्मको कौन मेट सकता है।

बेटा! विषय एक प्रकारके विघ्न हैं। जरा आदि अवस्थाएं उपद्रव हैं। ये पूर्वजन्मके कमसे पीड़ित मनुष्यको पुनः पुनः पीड़ा पहुँचाते रहते हैं। जिसको जहाँ भी सुख या दुःख भोगना होता है, दैव उसे बलपूर्वक वहाँ पहुँचा देता है, जीव कमसे बंधा रहता है। प्रारब्धको ही जीवोंके सुख-दुःखका उत्पादक बताया गया है।

महाप्राज्ञ चोल देशमें सुबाहु नामके एक राजा हो गये हैं। जैमिनि नामके ब्राह्मण उनके पुरोहित थे। एकदिन पुरोहितने राजा सुबाहुको सम्बोधित करके कहा ‘राजन्! आप उत्तम उत्तम दान दीजिये। दानके ही प्रभावसे सुख भोगा जाता है। मनुष्य मरनेके पश्चात् दानके ही बलसे दुर्गम लोकोंको प्राप्त होता है। दानसे सुख और सनातन यशकी प्राप्ति होती है। दानसे ही मर्त्यलोकमें मनुष्यकी उत्तम कीर्ति होती है। जबतक इस जगत् में कीर्ति स्थिर रहती है, तबतक उसका कर्ता स्वर्गलोकमें निवास करता है। अतः मनुष्योंको चाहिये कि वे पूर्ण प्रयत्न करके सदा दान करते रहें ।’

राजाने पूछा-द्विजश्रेष्ठ! दान और तपस्या इन दोमें दुष्कर कौन है? तथा परलोकमें जानेपर कौन महान् फलको देनेवाला होता है? यह मुझे बतलाइये।

जैमिनि बोले- राजन्! इस पृथ्वीपर दानसे बढ़कर दुष्कर कार्य दूसरा कोई नहीं है। यह बात प्रत्यक्ष देखी जाती है। सारा लोक इसका साक्षी है। संसारमें लोभसे मोहित मनुष्य धनके लिये अपने प्यारे प्राणोंकी भी परवा न करके समुद्र और घने जंगलोंमें प्रवेश कर जाते हैं। कितने ही मनुष्य धनके लिये दूसरोंकी सेवातक स्वीकार कर लेते हैं। विद्वान् लोग धनके लिये पाठ करते हैं तथा दूसरे दूसरे लोग धनकी इच्छासे ही हिंसापूर्ण और कष्टसाध्य कार्य करते हैं। इसी प्रकार कितने ही लोग खेतीके कार्यमें संलग्न होते हैं। इस तरह दुःख उठाकर कमाया हुआ धन प्राणोंसे भी अधिक प्रिय जान पड़ता है। ऐसे धनका परित्याग करना अत्यन्त कठिन है। महाराज! उसमें भी जो न्यायसे उपार्जित धन है, उसे यदि श्रद्धापूर्वक विधिके अनुसार सुपात्रको दान दिया जाय तो उसका फल अनन्त होता है। श्रद्धा देवी धर्मकी पुत्री हैं, वे विश्वको पवित्र एवं अभ्युदयशील बनानेवाली हैं। इतना ही नहीं, वे सावित्रीके समान पावन, जगत्को उत्पन्न करनेवाली तथा संसारसागरसे उद्धार करनेवाली हैं। आत्मवादी विद्वान् श्रद्धासे ही धर्मका चिन्तन करते हैं। जिनके पास किसी भी वस्तुकासंग्रह नहीं है, ऐसे अकिंचन मुनि श्रद्धालु होनेके कारण ही स्वर्गको प्राप्त हुए हैं।”

नृपश्रेष्ठ! दानके कई प्रकार हैं। परन्तु अन्नदानसे बढ़कर प्राणियोंको सद्गति प्रदान करनेवाला दूसरा कोई दान नहीं है। इसलिये जलसहित अन्नका दान अवश्य करना चाहिये। दानके समय मधुर और पवित्र वचन बोलनेकी भी आवश्यकता है। अन्नदान संसार सागरसे तारनेवाला, हितसाधक तथा सुख-सम्पत्तिका हेतु है। यदि शुद्ध चित्तसे श्रद्धापूर्वक सुपात्र व्यक्तिको एक बार भी अन्नका दान दिया जाय तो मनुष्य सदा ही उसका उत्तम फल भोगता रहता है। अपने भोजनमें से मुट्ठीभर अन्न ‘अग्रग्रास’ के रूपमें अवश्य दान करना चाहिये। उस दानका बहुत बड़ा फल है, उसे अक्षय बताया गया है। जो प्रतिदिन सेरभर या मुट्ठीभर भी अन्न न दे सके, वह मनुष्य पर्व आनेपर आस्तिकता, श्रद्धा तथा भक्तिके साथ एक ब्राह्मणको भोजन करा दे राजन् जो प्रतिदिन ब्राह्मणको अन्न देते और जलसहित मिष्टान्न भोजन कराते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। वेदोंके पारगामी ऋषि अन्नको ही प्राणस्वरूप बतलाते हैं: अनकी उत्पत्ति अमृतसे हुई है। महाराज! जिसने किसीको अन्नका दान किया है, उसने मानो प्राणदान दिया है। इसलिये आप यत्न करके अन्नका दान दीजिये। सुबाहुने कहा- द्विजश्रेष्ठ! अब मुझसे स्वर्गके गुणोंका वर्णन कीजिये।

जैमिनि बोले- राजन् स्वर्गमें नन्दनवन आदि अनेकों दिव्य उद्यान हैं, जो अत्यन्त मनोहर, पवित्र और समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं। इनके सिवा वहाँ परम सुन्दर दिव्य विमान भी हैं। पुण्यात्मा मनुष्य उन विमानोंपर सुखपूर्वक विचरण किया करते हैं। वहाँ नास्तिक नहीं जाते; चोर, असंयमी, निर्दय, चुगलखोर, कृतघ्न और अभिमानी भी नहीं जाने पाते जो सत्यकेआधारपर रहनेवाले, शूर, दयालु, क्षमाशील, याज्ञिक तथा दानशील हैं, वे ही मनुष्य वहाँ जाने पाते हैं। वहाँ किसीको रोग, बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, जाड़ा, गर्मी, भूख, प्यास और ग्लानि नहीं सताती। राजन्! ये तथा और भी बहुत -से स्वर्गलोकके गुण हैं। अब वहाँके दोषोंका वर्णन सुनिये। वहाँ सबसे बड़ा दोष यह है कि दूसरोंकी अपनेसे बढ़ी हुई सम्पत्ति देखकर मनमें असंतोष होता है तथा स्वर्गीय सुखमें आसक्त चित्तवाले प्राणियोंका [पुण्य क्षीण होते ही] सहसा वहाँसे पतन हो जाता है। यहाँ जो शुभ कर्म किया जाता है, उसका फल वहीं (स्वर्गमें) भोगा जाता है। राजन्! यह कर्मभूमि है और स्वर्गको भोगभूमि माना गया है।

सुबाहुने कहा- ब्रह्मन् ! स्वर्गके अतिरिक्त जो दोषरहित सनातन लोक हों, उनका मुझसे वर्णन कीजिये

जैमिनि बोले- राजन् ! ब्रह्मलोकसे ऊपर भगवान् श्रीविष्णुका परम पद है। वह शुभ, सनातन एवं ज्योतिर्मय धाम है। उसीको परब्रह्म कहा गया है। विषयासक्त मूढ़ पुरुष वहाँ नहीं जा सकते। दम्भ, लोभ, भय, क्रोध, द्रोह और द्वेषसे आक्रान्त मनुष्योंका वहाँ प्रवेश नहीं हो सकता। जो ममता और अहंकारसे रहित, निर्द्वन्द्व, जितेन्द्रिय तथा ध्यान-योगपरायण हैं, वे साधु पुरुष ही उस धाममें प्रवेश करते हैं।

सुबाहुने कहा – महाभाग! मैं स्वर्गमें नहीं जाऊँगा, मुझे उसकी इच्छा नहीं है। जिस स्वर्गसे एक दिन नीचे गिरना पड़ता है, उसकी प्राप्ति करानेवाला कर्म ही मैं नहीं करूँगा। मैं तो ध्यानयोगके द्वारा देवेश्वर लक्ष्मीपतिका पूजन करूँगा और दाह तथा प्रलयसे रहित विष्णु लोकमें जाऊँगा ।

जैमिनि बोले- राजन् ! तुम्हारा कहना ठीक है, तुमने सबके कल्याणकी बात कही है। वास्तवमें राजा दानशील हुआ करते हैं। वे बड़े-बड़े यज्ञोंद्वारा भगवान्श्रीविष्णुका यजन करते हैं। यहाँ सब प्रकारके दान दिये जाते हैं। उत्तम यज्ञोंमें पहले अन्न और फिर वस्त्र एवं ताम्बूलका दान किया जाता है। इसके बाद सुवर्णदान, भूमिदान और गोदानकी बात कही जाती है। इस प्रकार उत्तम यज्ञ करके राजालोग अपने शुभ कमोंके फलस्वरूप विष्णुलोकमें जाते हैं। दानसे तृप्तिलाभ करते और संतुष्ट रहते हैं। अतः राजेन्द्र आप भी न्यायोपार्जित धनका दान कीजिये। दानसे ज्ञान और ज्ञानसे आपको सिद्धि प्राप्त होगी।

जो मनुष्य इस उत्तम और पवित्र आख्यानका श्रवण करेगा, वह सब पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोकमें जायगा। सुबाहुने पूछा- ब्रह्मन्! मनुष्य किस दुष्कर्मसे नरक में पड़ते हैं और किस शुभकर्मके प्रभावसे स्वर्गमें जाते हैं? यह बात मुझे बताइये।

जैमिनिने कहा- जो द्विज लोभसे मोहित हो पावन ब्राह्मणत्वका परित्याग करके कुकर्मसे जीविका चलाते हैं, वे नरकगामी होते हैं जो नास्तिक हैं, जिन्होंने धर्मकी मर्यादा भंग की है; जो काम-भोगके लिये उत्कण्ठित, दाम्भिक और कृतघ्न हैं; जो ब्राह्मणोंको धन देनेकी प्रतिज्ञा करके भी नहीं देते, चुगली खाते, अभिमान रखते और झूठ बोलते हैं जिनकी बातें परस्पर विरुद्ध होती हैं; जो दूसरोंका धन हड़प लेते, दूसरोंपर कलंक लगानेके लिये उत्सुक रहते और परायी सम्पत्ति देखकर जलते हैं, वे नरकमें जाते हैं। जो मनुष्य सदा प्राणियोंके प्राण लेनेमें लगे रहते, परायी निन्दामें प्रवृत्त होते; कुएँ, बगीचे, पोखरे और पाँसलेको दूषित करते; सरोवरोंको नष्ट-भ्रष्ट करते तथा शिशुओं, भृत्यों और अतिथियोंको भोजन दिये बिना ही स्वयं भोजन कर लेते हैं, जिन्होंने पितृयाग (श्राद्ध) और देवयाग (यज्ञ) का त्याग कर दिया है, जो संन्यास तथा अपने रहनेके आश्रमको कलंकित करते हैं और मित्रोंपर लांच्छन लगाते हैं, वे सब-के-सब नरकगामी होते हैं।

जो प्रयाज नामक यज्ञों, शुद्ध चित्तवाली कन्याओं, साधु पुरुषों और गुरुजनोंको दूषित करते हैं जो काठ, कील, शूल अथवा पत्थर गाड़कर रास्ता रोकते हैं,कामसे पीड़ित रहते और सब वर्णोंके यहाँ भोजन कर लेते हैं तथा जो भोजनके लिये द्वारपर आये हुए जीविकाहीन ब्राह्मणोंकी अवहेलना करते हैं, वे नरकोंमें पड़ते हैं। जो दूसरोंके खेत, जीविका, घर और प्रेमको नष्ट करते हैं; जो हथियार बनाते और धनुष-बाणका विक्रय करते हैं; जो मूढ़ मानव अनाथ, वैष्णव, दीन, रोगातुर और वृद्ध पुरुषोंपर दया नहीं करते तथा जो पहले कोई नियम लेकर फिर संयमहीन होनेके कारण चंचलतावश उसका परित्याग कर देते हैं, वे नरकगामी होते हैं।

अब मैं स्वर्गगामी पुरुषोंका वर्णन करूँगा। जो मनुष्य सत्य, तपस्या, ज्ञान, ध्यान तथा स्वाध्यायके द्वारा धर्मका अनुसरण करते हैं, वे स्वर्गगामी होते हैं। जो प्रतिदिन हवन करते तथा भगवान्‌के ध्यान और देवताओंके पूजनमें संलग्न रहते हैं, वे महात्मा स्वर्गलोकके अतिथि होते हैं। जो बाहर-भीतरसे पवित्र रहते, पवित्र स्थानमें निवास करते, भगवान् वासुदेवके भजनमें लगे रहते तथा भक्तिपूर्वक श्रीविष्णुकी शरण में जाते हैं; जो सदा आदरपूर्वक माता-पिताकी सेवा करते और दिनमें नहीं सोते; जो सब प्रकारकी हिंसासे दूर रहते, साधुओंका संग करते और सबके हितमें संलग्न रहते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। जो गुरुजनोंकी सेवामें संलग्न, बड़ोंको आदर देनेवाले, दान न लेनेवाले, सहस्रों मनुष्योंको भोजन परोसनेवाले, सहस्रों मुद्राओंका दान करनेवाले तथा सहस्रों मनुष्योंको दान देनेवाले हैं, वे पुरुष स्वर्गलोकको जाते हैं। जो युवावस्थामें भी क्षमाशील और जितेन्द्रिय हैं; जिनमें वीरता भरी है; जो सुवर्ण, गौ, भूमि, अन्न और वस्त्रका दान करते हैं; जो अपनेसे द्वेष रखनेवालोंके भी दोष कभी नहीं कहते, बल्कि उनके गुणोंका ही वर्णन करते हैं; जो विज्ञ पुरुषको देखकर प्रसन्न होते, दान देकर प्रिय वचन बोलते तथा दानके फलकी इच्छाका परित्याग कर देते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। जो पुरुष प्रवृत्तिमार्गमें तथा निवृत्तिमार्ग में भी मुनियों और शास्त्रोंके कथनानुसार ही आचरण करते हैं, वे स्वर्गलोकके अतिथि होते हैं।जो मनुष्योंसे कटु वचन बोलना नहीं जानते, जो प्रिय वचन बोलनेके लिये प्रसिद्ध हैं; जिन्होंने बावली, कुआँ, सरोवर, पाँसला, धर्मशाला और बगीचे बनवाये हैं; जो मिथ्यावादियोंके लिये भी सत्यपूर्ण बर्ताव करनेवाले और कुटिल मनुष्योंके लिये भी सरल हैं, वे दयालु तथा सदाचारी मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं।

जो एकमात्र धर्मका अनुष्ठान करके अपने प्रत्येक दिवसको सदा सफल बनाते हैं तथा नित्य ही व्रतका पालन करते हैं; जो शत्रु और मित्रकी समान भावसे सराहना करते और सबको समान दृष्टिसे देखते हैं; जिनका चित्त शान्त है, जो अपने मनको वशमें कर चुके हैं, जिन्होंने भयसे डरे हुए ब्राह्मणों तथा स्त्रियोंकी रक्षाका नियम ले रखा है; जो गंगा, पुष्कर तीर्थ और विशेषतः गया में पितरोंको पिण्ड दान करते हैं, वे स्वर्गगामी होते हैं। जो इन्द्रियोंके वशमें नहीं रहते, जिनकी संयममें प्रवृत्ति है; जिन्होंने लोभ, भय और क्रोधका परित्याग कर दिया है; जो शरीरमें पीड़ा देनेवाले जूँ, खटमल और डाँस आदि जन्तुओंका भी पुत्रकी भाँति पालन करते हैं- उन्हें मारते नहीं; सर्वदा मन और इन्द्रियोंके निग्रहमें लगे रहते हैं और परोपकारमें ही जीवन व्यतीत करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोकके अतिथि होते हैं। जो विशेष विधिके अनुसार यज्ञोंका अनुष्ठान करते, सब प्रकारकेद्वन्द्वोंको सहते तथा इन्द्रियोंको वशमें रखते हैं; जो पवित्र और सत्त्वगुणमें स्थित रहकर मन, वाणी तथा क्रियाद्वारा भी कभी परायी स्त्रियोंके साथ रमण नहीं करते; निन्दित कर्मोंसे दूर रहते, विहित कर्मोंका अनुष्ठान करते तथा आत्माकी शक्तिको जानते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं।

जो दूसरोंके प्रतिकूल आचरण करता है, उसे अत्यन्त दुःखदायी घोर नरकमें गिरना पड़ता है तथा जो सदा दूसरोंके अनुकूल चलता है, उस मनुष्यके लिये सुखदायिनी मुक्ति दूर नहीं है। राजन् ! कर्मोंद्वारा जिस प्रकार दुर्गति और सुगति प्राप्त होती है, वह सब मैंने तुम्हें यथार्थरूपसे बतला दिया।

कुंजल कहता है-धर्म-अधर्मकी सम्पूर्ण गतिके विषयमें महर्षि जैमिनिका भाषण सुनकर राजा सुबाहुने कहा—’द्विजश्रेष्ठ! मैं भी धर्मका ही अनुष्ठान करूँगा, पापका नहीं। जगत्की उत्पत्तिके स्थानभूत भगवान् वासुदेवका निरन्तर भजन करूँगा।’

इस निश्चयके अनुसार राजा सुबाहुने धर्मके द्वारा भगवान् मधुसूदनका पूजन किया तथा नाना प्रकारके यज्ञोंद्वारा भगवान्‌की आराधना करके तथा सम्पूर्ण भोगोंको भोगकर वे शीघ्र ही प्रसन्नतापूर्वक विष्णुलोकको पधार गये।

अध्याय-25 कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना

तदनन्तर वक्ताओंमें श्रेष्ठ कुंजलने विज्वलको परम पवित्र श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्रका उपदेश किया इस श्रीवासुदेवाभिधानस्तोके अनुष्टुप् छन्द नारद ऋषि और ओंकार देवता हैं; सम्पूर्ण पातकोंके नाशतथा चतुर्वर्गकी सिद्धिके लिये इसका विनियोग है ।’ ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ – यही इस स्तोत्रका मूलमन्त्र है। ll3 llजो परम पावन, पुण्यस्वरूप, वेदके ज्ञाता,वेदमन्दिर, विद्याके आधार तथा यज्ञके आश्रय हैं, उन प्रणवस्वरूप परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ। जो आवास (गृह) और आकारसे रहित, उत्तम प्रकाशरूप, महान् अभ्युदयशाली, निर्गुण तथा गुणोंके उत्पादकहैं, उन प्रणवस्वरूप परमात्माको मैं प्रणाम करता हूँ। जो गायत्री-सामका गान करनेवाले, गीतके ज्ञाता, गीतप्रेमी तथा गन्धर्वगीतका अनुभव करनेवाले हैं, उन प्रणव स्वरूप परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ।जो महान् कान्तिमान्, अत्यन्त उत्साही, महामोहके नाशक, सम्पूर्ण जगत्में व्यापक तथा गुणातीत हैं; जो सर्वत्र विद्यमान रहकर शोभायमान हो रहे हैं, प्राणियोंके ऐश्वर्य एवं कल्याणकी वृद्धि करते हैं तथा समताका भाव उत्पन्न करनेके लिये सद्धर्मका प्रसार करनेवाले हैं, उन प्रणवस्वरूप परमेश्वरको मैं नमस्कार करता हूँ। जो विचारक हैं, वेद जिनका स्वरूप है, जो ‘यज्ञ’ के नामसे पुकारे जाते हैं, यज्ञ जिन्हें अत्यन्त प्रिय है, जो सम्पूर्ण विश्वकी उत्पत्तिके स्थान तथा समस्त जगत्का उद्धार करनेवाले हैं; संसार सागरमें डूबे हुए प्राणियोंको बचानेके लिये जो नौकारूपसे विराजमान हैं, उन प्रणवस्वरूप श्रीहरिको मैं प्रणाम करता हूँ। जो सम्पूर्ण भूतोंमें निवास करते हैं, नाना रूपोंमें प्रतीत होते हुए भी एक रूपसे विराजमान हैं तथा जो परमधाम और कैवल्य (मोक्ष) के रूपमें प्रतिष्ठित हैं, उन सुखस्वरूप वरदाता भगवान्को मैं प्रणाम करता हूँ।

जो सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, शुद्ध, निर्गुण, गुणोंके नियन्ता और प्राकृत भावोंसे रहित हैं, उन वेदसंज्ञक परमात्माको नमस्कार करता हूँ। जो देवताओं और दैत्योंके वियोगसे वर्जित (सर्वदा सबसे संयुक्त), तुष्टियोंसे रहित तथा वेदों और योगियोंके ध्येय हैं, उन ॐ कारस्वरूप परमेश्वरको नमस्कार करता हूँ। व्यापक, विश्वके ज्ञाता, विज्ञानस्वरूप परमपदरूप, शिव, कल्याणमय गुणोंसे युक्त, शान्त एवं प्रणवरूप ईश्वरको मैं प्रणाम करता हूँ। जिनकी मायाके प्रभावमें आकर ब्रह्मा आदि देवता और असुर भी उनके परम शुद्ध रूपको नहीं जानते तथा जो मोक्षके द्वार हैं, उन परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ।

जो आनन्दके मूलस्रोत, केवल (अद्वितीय) तथा शुद्ध हंसस्वरूप हैं; कार्य-कारणमय जगत् जिनका स्वरूप है; जो गुणोंके नियन्ता तथा महान् प्रभा-पुंजसेपरिपूर्ण हैं, उन श्रीवासुदेवको नमस्कार है। जो पांचजन्य नामक शंख और सूर्यके समान तेजस्वी सुदर्शन चक्रसे विराजमान हैं तथा कौमोदकी गदा जिनकी शोभा बढ़ा रही है, उन भगवान् श्रीविष्णुकी मैं सदा शरण लेता हूँ। जो उत्तम गुणोंसे सम्पन्न हैं, जिन्हें गुणोंका कोश माना जाता है, जो चराचर जगत्के आधार तथा सूर्य एवं अग्निके समान तेजस्वी हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण लेता हूँ। जो अपने प्रकाशकी किरणोंसे अविद्याके बादलोंको छिन्न-भिन्न कर देते हैं, संन्यास धर्मके प्रवर्तक हैं तथा सूर्यके समान तेजसे सबसे ऊँचे लोकमें प्रकाशित होते हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ। जो चन्द्रमाके रूपमें अमृतके भंडार हैं, आनन्दकी मात्रासे जिनकी विशेष शोभा हो रही है, देवताओंसे लेकर सम्पूर्ण जीव जिनका आश्रय पाकर ही जीवन धारण करते हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ। जो सूर्यके रूपमें सर्वत्र विराजमान रहकर पृथ्वीके रसको सोखते और पुनः नवीन रसकी वृष्टि करते हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके भीतर प्राणरूपसे व्याप्त हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण लेता हूँ। जो महात्मा स्वरूपसे सबकी अपेक्षा ज्येष्ठ हैं, देवताओंके भी आराध्य देव हैं, सम्पूर्ण लोकोंका पालन करते हैं तथा प्रलयकालीन जलमें नौकाकी भाँति स्थित रहते हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण लेता हूँ। सम्पूर्ण विश्व जिनका स्वरूप है, जो स्थावर और जंगम-सभी प्राणियोंके भीतर निवास करते हैं, स्वाहा जिनका मुख है तथा जो देववृन्दकी उत्पत्तिके कारण हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ। जो सब प्रकारके परम पवित्र रसोंसे परिपुष्ट और शान्तिमय रूपोंसे युक्त हैं, संसारमें गुणज्ञ माने जाते हैं, रत्नोंके अधीश्वर हैं और निर्मल तेजसे शोभा पाते हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैंशरण लेता हूँ। जो सर्वत्र विद्यमान, सबकी मृत्युके हेतु, सबके आश्रय, सर्वमय तथा सर्वस्वरूप हैं, जो इन्द्रियाँके बिना ही विषयोंका अनुभव करते हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ। जो अपने तेजोमय स्वरूपसे समस्त लोकों तथा चराचर जगत्के सम्पूर्ण जीवोंका पालन करते हैं तथा केवल ज्ञान ही जिनका स्वरूप है, उन परम शुद्ध भगवान् वासुदेवकी मैं शरण लेता हूँ।

जो दैत्योंका अन्त करनेवाले, दुःख नाशके मूल कारण, परम शान्त, शक्तिशाली और विराट्रूपधारी हैं; जिनको पाकर देवता भी मुक्त हो जाते हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण लेता हूँ। जो सुखस्वरूप और सुखसे पूर्ण हैं, सबके अकारण प्रेमी हैं, जो देवताओंके स्वामी और ज्ञानके महासागर हैं, जो परम हितैषी, कल्याणस्वरूप, सत्यके आश्रय और सत्त्व गुणमें स्थित हैं, उन भगवान् वासुदेवका मैं आश्रय लेता हूँ। यज्ञ और पुरुषार्थ जिनके रूप हैं; जो सत्यसे युक्त, लक्ष्मीके प्रति, पुण्यस्वरूप, विज्ञानमय तथा सम्पूर्ण जगत्के आश्रय हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण लेता हूँ। जो क्षीर सागरके बीचमें शेषनागकी विशाल शय्यापर शयन करते हैं तथा भगवती लक्ष्मी जिनके युगल चरणारविन्दोंकी सेवा करती रहती हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण लेता हूँ। श्रीवासुदेवके दोनों चरणकमल पुण्यसे युक्त, सबका कल्याण करनेवाले तथा सर्वदा अनेकों तीर्थोंसे सुसेवित हैं, मैं उन्हें प्रतिदिन प्रणाम करता हूँ। श्रीवासुदेवका चरण समस्त पापको हरनेवाला है, वह लाल कमलकी शोभा धारण करता है; उसके तलवेमें ध्वजा और वायुके चिह्न हैं; वह नूपुरों तथा मुद्रिकाओंसे विभूषित है। ऐसी सुषमासे युक्त भगवान् वासुदेवके चरणको मैं प्रणाम करता हूँ। देवता, सिद्ध, मुनि तथा नागराज वासुकि आदि जिसका भक्तिपूर्वक सदा ही स्तवन करते हैं, श्रीवासुदेवके उस पवित्र चरणकमलको मैं प्रतिदिन प्रणाम करता हूँ। जिनकी चरणोदकस्वरूपा गंगाजीमें गोते लगानेवाले प्राणी पवित्र एवं निष्पाप होकर स्वर्गलोकको जाते हैं तथा परम संतुष्ट मुनिजनउसमें अवगाहन करके मोक्ष प्राप्त करते हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण लेता हूँ। जहाँ भगवान् श्रीविष्णुका चरणोदक रहता है, वहाँ गंगा आदि तीर्थ सदैव मौजूद रहते हैं; आज भी जो लोग उसका पान करते हैं, वे पापी रहे हों तो भी शुद्ध होकर श्रीविष्णु भगवान् के उत्तम धामको जाते हैं। जिनका शरीर अत्यन्त भयंकर पाप-पंकमें सना है, वे भी जिनके चरणोदकसे अभिषिक्त होनेपर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, उन परमेश्वरके युगलचरणोंको मैं निरन्तर प्रणाम करता हूँ। उत्तम सुदर्शन चक्र धारण करनेवाले महात्मा श्रीविष्णुके नैवेद्यका भक्षण करनेमात्रसे मनुष्य वाजपेय यज्ञका फल प्राप्त करते हैं तथा सम्पूर्ण पदार्थ पा जाते हैं। दुःखका नाश करनेवाले, मायासे रहित, सम्पूर्ण कलाओंसे युक्त तथा समस्त गुणोंके ज्ञाता जिन भगवान् नारायणका ध्यान करके मनुष्य उत्तम गतिको प्राप्त होते हैं, उन श्रीवासुदेवको मैं सदा प्रणाम करता हूँ।

जो ऋषि, सिद्ध और चारणोंके वन्दनीय हैं; देवगण सदा जिनकी पूजा करते हैं, जो संसारकी सृष्टिका साधन जुटानेमें ब्रह्मा आदिके भी प्रभु हैं, संसाररूपी महासागरमें गिरे हुए जीवका जो उद्धार करनेवाले हैं, जिनमें वत्सलता भरी हुई है, जो श्रेष्ठ और समस्त कामनाओंको सिद्ध करनेवाले हैं; उन भगवान्‌के उत्तम चरणोंको मैं भक्तिपूर्वक प्रणाम करता हूँ। जिन्हें असुरोंने अपने यज्ञमण्डपमें देवताओंसहित सामगान करते हुए वामन ब्रह्मचारीके रूपमें देखा था, जो सामगान के लिये उत्सुक रहते हैं, त्रिलोकीके जो एकमात्र स्वामी हैं तथा युद्धमें पाप या मृत्युसे डरे हुए आत्मीयजनोंको जो अपनी ध्वनिमात्रसे निर्भय बना देते हैं, उन भगवान्के परम पावन युगल चरणारविन्दोंकी मैं वन्दना करता हूँ। जो यज्ञके मुहानेपर विप्र-मण्डलीमें खड़े हो अपने ब्राह्मणोचित तेजसे देदीप्यमान एवं पूजित हो रहे हैं, दिव्य तेजके कारण किरणोंके समूहसे जान पड़ते हैं तथा इन्द्रनीलमणिके समान दिखायी देते हैं, जो देवताओंके हितकी इच्छासे विरोचनके दानी पुत्र बलिके समक्ष मुझे तीन पग भूमि दीजिये।’ ऐसा कहकरयाचना करते हैं, उन श्रेष्ठ ब्राह्मण श्रीवामनजीको मैं प्रणाम करता हूँ। भगवान्ने जब वामनसे विराट्रूप होकर अपना पैर बढ़ाया, तब उनका विक्रम (विशाल डग) आकाशको आच्छादित करके सहसा तपते हुए सूर्य और चन्द्रमातक पहुँच गया; इस बातको सूर्यमण्डलमें स्थित हुए मुनिगणोंने भी देखा। फिर उन चक्रधारी भगवान्‌के विराट्रूपमें, जो समस्त विश्वका खजाना है, सम्पूर्ण देवता भी लीन हो गये।भगवान् वामनके उस विक्रमकी कहीं तुलना नहीं है, मैं इस समय उस विक्रमका स्तवन करता हूँ।

भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार यह सारा वृत्तान्त मैंने तुम्हें सुना दिया । कुंजल पक्षी तथा महात्मा च्यवनका चरित्र नाना प्रकारकी कल्याणमयी वार्ताओंसे युक्त है। मैं इसका वर्णन करूँगा, तुम सुनो।

अध्याय-26 कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध

भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं— धर्मात्मा कुंजलने अपने चौथे पुत्र कपिंजलको पुकार कर बड़ी प्रसन्नताके साथ कहा- ‘बेटा! तुम मेरे उत्तम पुत्र हो; बोलो, आहार लानेके लिये यहाँसे किस स्थानपर जाते हो ? वहाँ तुमने कौन-सी अपूर्व बात देखी अथवा सुनी है ? वह मुझे बताओ।’

कपिंजलने कहा – पिताजी! मैंने जो अपूर्व बात देखी है, उसे बताता हूँ, सुनिये कैलास सब पर्वतों में श्रेष्ठ है। उसकी कान्ति चन्द्रमाके समान श्वेत है। वह नाना प्रकारकी धातुओंसे व्याप्त है। भाँति-भाँति के वृक्ष उसकी शोभा बढ़ाते हैं। गंगाजीका शुभ्र एवं पावन जल सब ओरसे उस पर्वतको नहलाता रहता है। वहाँसे सहस्रों विख्यात नदियोंका प्रादुर्भाव हुआ है। उस पर्वत शिखरपर भगवान् शिवका मन्दिर है, जहाँ कोटि कोटि शिवगण भरे रहते हैं। पिताजी! एक दिन मैं उसी कैलासपर, जो शंकरजीका घर है, गया था। वहाँ मुझे एक ऐसा आश्चर्य दिखायी दिया, जो पहले कभी देखने या सुननेमें नहीं आया था। मैं उस अद्भुत घटनाका वर्णन करता हूँ, सुनिये। गिरिराज मेरुका पवित्र शिखर महान् अभ्युदयसे युक्त है; वहाँसे हिम और दूधके समान रंगवाला गंगानदीका प्रवाह बड़े वेगसे पृथ्वीकी ओर गिरता है। वह स्रोत कैलासके शिखरपर पहुँचकर सब ओर फैल जाता है। उस जलसे दस योजनका लंबा चौड़ा एक भारी तालाब बन गया है, उसे ‘गंगाहद’कहते हैं। वह तालाब परम पवित्र और निर्मल जलसे सुशोभित है। महामते! गंगाह्रदके सामने ही शिलाके ऊपर एक कन्या बैठी थी, जिसके केश खुले थे। रूपके वैभवस उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। वह कन्या दिव्य रूप और सब प्रकारके शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थी। उसने दिव्य आभूषण धारण कर रखे थे। उस स्थानपर वह बड़ी शोभासम्पन्न दिखायी देती थी। पता नहीं, वहगिरिराज हिमालयकी कन्या पार्वती थी या समुद्रतनया लक्ष्मी । इन्द्र या यमराजकी पत्नी भी ऐसी सुन्दरी नहीं दिखायी देतीं। उसके शील, सद्भाव, गुण तथा रूप जैसे दीख पड़ते थे, वैसे अन्य दिव्यांगनाओंमें नहीं दृष्टिगोचर होते शिलाके ऊपर बैठी हुई वह कन्या किसी भारी दुःखसे व्याकुल थी और फूट-फूटकर रो रही थी और कोई स्वजन सम्बन्धी उसके पास नहीं थे। नेत्रोंसे गिरते हुए निर्मल अश्रुबिन्दु मोतीके दाने जैसे चमक रहे थे। वे सब-के-सब गंगाजीके स्रोतमें ही गिरते और सुन्दर कमल पुष्पके रूपमें परिणत हो जाते थे। इस प्रकार अगणित सुन्दर पुष्प गंगाजीके जलमें पड़े थे और पानीके वेगके साथ बह रहे थे।

पिताजी! इस प्रकार मैंने यह अपूर्व बात देखी है। आप वक्ताओंमें श्रेष्ठ हैं; यदि इसका कारण जानते हों तो मुझपर कृपा करके बतायें। गंगाके मुहानेपर जो सुन्दरी स्त्री रो रही थी, जिसके नेत्रोंसे गिरे हुए आँसू सुन्दर कमलके फूल बन जाते थे, वह कौन थी ? यदि मैं आपका प्रिय हूँ तो मुझे यह सारा रहस्य बताइये ।

कुंजल बोला- बेटा ! बता रहा हूँ, सुनो। यह देवताओंका रचा हुआ वृत्तान्त है। इसमें महात्मा श्रीविष्णुके चरित्रका वर्णन है, जो सब पापोंका नाश करनेवाला है। एक समयकी बात है, राजा नहुषने संग्राममें महापराक्रमी हुंड नामक दैत्यको मार डाला। उस दैत्यके पुत्रका नाम विहुण्ड था, वह भी बड़ा पराक्रमी और तपस्वी था। उसने जब सुना कि राजा नहुषने उसके पिताका मन्त्री तथा सेनासहित वध किया है, तब उसे बड़ा क्रोध हुआ और वह देवताओंका विनाश करनेके लिये उद्यत होकर तपस्या करने लगा। तपसे बढ़े हुए उस दुष्ट दैत्यका पुरुषार्थ सम्पूर्ण देवताओंको विदित था। वे जानते थे कि समरभूमिमें विहुण्डके वेगको सहन करना अत्यन्त कठिन है। उधर, विहुण्डके मनमें त्रिलोकीका नाश कर डालने की इच्छा हुई। उसने निश्चय किया, मैं मनुष्यों और देवताओंको मारकर पिताके वैरका बदला लूँगा। इस प्रकार अत्याचारके लिये उद्यत हो देवताओं और ब्राह्मणोंकेलिये कण्टकरूप उस पापी दैत्यने उपद्रव मचाना आरम्भ किया। समस्त प्रजाको पीड़ा देने लगा। उसके तेजसे संतप्त होकर इन्द्र आदि देवता परम तेजस्वी देवाधिदेव भगवान् श्रीविष्णुकी शरणमें गये और बोले- ‘भगवन् ! विहुडके महान् भयसे आप हमारी रक्षा करें।’

भगवान् विष्णु बोले- पापी विहुण्ड देवताओंके लिये कण्टकरूप है, मैं अवश्य उसका नाश करूँगा। देवताओंसे यों कहकर भगवान् श्रीविष्णुने मायाको प्रेरित किया। सम्पूर्ण विश्वको मोहित करनेवाली महाभागा विष्णुमायाने विहुण्डका वध करनेके लिये रूप और लावण्यसे सुशोभित तरुणी स्त्रीका रूप धारण किया। वह नन्दनवनमें आकर तपस्या करने लगी। इसी समय दैत्यराज विहुण्ड देवताओंका वध करनेके लिये दिव्य मार्गसे चला। नन्दनवनमें पहुँचनेपर उसकी दृष्टि तपस्विनी मायापर पड़ी। वह इस बातको नहीं जान सका कि यह मेरा ही नाश करनेके लिये उत्पन्न हुई है। यह सुन्दरी स्त्री कालरूपा है, यह बात उसकी समझमें नहीं आयी मायाका शरीर तपाये हुए सुवर्णके समान दमक रहा था। रूपका वैभव उसकी शोभा बढ़ा रहा था। पापात्मा विहुण्ड उस सुन्दरी युवतीको देखते ही लुभा गया और बोला- ‘भद्रे ! तुम कौन हो ? कौन हो? तुम्हारे शरीरका मध्यभाग बड़ा सुन्दर है, तुम है. मेरे चित्तको मथे डालती हो। सुमुखि! मुझे संगम प्रदान करो और कामजनित वेदनासे मेरी रक्षा करो। देवेश्वरि ! अपने समागमके बदले इस समय तुम जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करो, वह सब तुम्हें देनेको तैयार हूँ।’

माया बोली – दानव ! यदि तुम मेरा ही उपभोग करना चाहते हो, तो सात करोड़ कमलके फूलोंसे भगवान् शंकरकी पूजा करो। वे फूल कामोदसे उत्पन्न, दिव्य, सुगन्धित और देवदुर्लभ होने चाहिये । उन्हीं फूलोंकी सुन्दर माला बनाकर मेरे कण्ठमें भी पहनाओ। तभी मैं तुम्हारी प्रिय भार्या बनूँगी।

विहुण्डने कहा- देवि ! मैं ऐसा ही करूँगा। तुम्हारा माँगा हुआ वर तुम्हें दे रहा हूँ। यह कहकर दैत्यराज विहुण्ड जितने भी दिव्य एवंपवित्र वन थे, उनमें विचरण करने लगा। उसके चित्तपर कामका आवेश छा रहा था। बहुत खोजनेपर भी उसे कामोद नामक वृक्ष कहीं नहीं दिखायी दिया। वह स्वयं इधर-उधर जाकर पूछ-ताछ करता रहा; किन्तु सर्वत्र लोगंकि मुँहसे उसे यही उत्तर मिलता था कि ‘यहाँ कामोद वृक्ष नहीं है।’ दुष्टात्मा विहुण्ड उस वृक्षका पता लगाता हुआ शुक्राचार्यके पास गया और भक्तिपूर्वक मस्तक झुकाकर पूछने लगा- ‘ब्रह्मन्। मुझे फूलोंसे लदे सुन्दर कामोद वृक्षका पता बताइये।’

शुक्राचार्य बोले- दानव! कामोद नामका कोई वृक्ष नहीं है। कामोदा तो एक स्त्रीका नाम है। वह जब किसी प्रसंगसे अत्यन्त हर्षमें भरकर हँसती है, तब उसके मनोहर हास्यसे सुगन्धित, श्रेष्ठ तथा दिव्य कामोद पुण्प उत्पन्न होते हैं। उनका रंग अत्यन्त पीला होता है तथा वे दिव्य गन्धसे युक्त होते हैं। उनमेंसे एक फूलके द्वारा भी जो भगवान् शंकरकी पूजा करता है, उसकी बड़ी से बड़ी कामनाको भी भगवान् शिव पूर्ण कर देते हैं। कामोदाके रोदनसे भी वैसे ही सुन्दर फूल उत्पन्न होते हैं; किन्तु उनमें सुगन्ध नहीं होती। अतः उनका स्पर्श नहीं करना चाहिये।

शुक्राचार्यकी यह बात सुनकर ने पूछा ‘भृगुनन्दन। कामोदा कहाँ रहती है?”

शुक्राचार्य बोले सम्पूर्ण पातकौका शोधन करनेवाले परम पावन गंगाद्वार (हरिद्वार) नामक तीर्थके पास कामोद नामक पुर है, जिसे विश्वकर्माने बनाया था। उस कामोद नगरमें दिव्य भोगोंसे विभूषित एक सुन्दरी स्त्री रहती है, जो सम्पूर्ण देवताओंसे पूजित है। वह भाँति-भाँति के आभूषणोंसे अत्यन्त सुशोभित जान पड़ती है। तुम वहीं चले जाओ और उस युवतीकी पूजा करो। साथ ही किसी पवित्र उपायका अवलम्बन करके उसे हँसाओ यह कहकर शुक्राचार्य चुप हो गये और वह महातेजस्वी दानव अपना कार्य सिद्ध करनेके लिये उद्यत हुआ।

कपिंजलने पूछा- पिताजी! कामोदाके हास्यसेजो पवित्र दिव्यगन्धसे युद्ध और देवता तथा दानवोंके लिये दुर्लभ सुन्दर फूल उत्पन्न होते हैं, उन्हें सम्पूर्ण देवता क्यों चाहते हैं? उन हास्यजनित फूलोंसे पूजित होनेपर भगवान् शंकर क्यों सन्तुष्ट होते हैं? उस फूलका क्या गुण है? कामोदा कौन है और वह किसकी पुत्री है?

कुंजल बोला- पूर्वकालकी बात है, देवताओं और बड़े-बड़े दैत्योंने अमृतके लिये परस्पर उत्तम सौहार्द स्थापित करके उद्यमपूर्वक क्षीरसागरका मन्थन किया। देवताओं और दैत्योंके मधनेसे चार कन्याएँ प्रकट हुईं। फिर कलशमें रखा हुआ पुण्यमय अमृत दिखायी पड़ा। उपर्युक्त कन्याओंमेंसे एकका नाम लक्ष्मी था, दूसरी वारुणी नामसे प्रसिद्ध थी, तीसरीका नाम कामोदा और चौथीका ज्येष्ठा था। कामोदा अमृतकी लहरसे प्रकट हुई थी। वह भविष्यमें भगवान् श्रीविष्णुकी प्रसन्नताके लिये वृक्षरूप धारण करेगी और सदा ही श्रीविष्णुको आनन्द देनेवाली होगी। वृक्षरूपमें वह परम पवित्र तुलसीके नामसे विख्यात होगी। उसके साथ भगवान् जगन्नाथ सदा ही रमण करेंगे जो तुलसीका एक पत्ता भी ले जाकर श्रीकृष्णभगवान‌को समर्पित करेगा, उसका भगवान् बड़ा उपकार मानेंगे और ‘मैं इसे क्या दे डालूँ ?’ यह सोचते हुए वे उसके ऊपर बहुत प्रसन्न होंगे।

इस प्रकार पूर्वोक्त चार कन्याओंमेंसे जो कामोदा नामसे प्रसिद्ध देवी है, वह जब हर्षसे गद्गद होकर बोलती और हँसती है, तब उसके मुखसे सुनहरे रंगके सुगन्धित फूल झड़ते हैं। वे फूल बड़े सुन्दर होते हैं। कभी कुम्हलाते नहीं हैं जो उन फूलोंका यत्नपूर्वक संग्रह करके उनके द्वारा भगवान् शंकर ब्रह्मा तथा विष्णुकी पूजा करता है, उसके ऊपर सब देवता संतुष्ट होते हैं और वह जो-जो चाहता है, वही वही उसे अर्पण करते हैं। इसी प्रकार जब कामोदा किसी दुःखसे दुःखी होकर रोने लगती है, तब उसकी आँखोंके आँसुओंसे भी फूल पैदा होते और झड़ते हैं। महाभाग ! वे फूल भी देखनेमें बड़े मनोहर होते हैं; किन्तु उनमें सुगन्ध नहीं होती। वैसे फूलोंसे जो शंकरका पूजन करता है, उसेदुःख और संताप होता है जो पापात्मा एक बार भी उस तरहके फूलोंसे देवताओंकी पूजा करता है, उसे वे निश्चय ही दुःख देते हैं।

भगवान् श्रीविष्णुने पापी विडुण्डके पराक्रम और दुःसाहसपर दृष्टि डालकर देवर्षि नारदको उसके पास भेजा। उस समय वह दुरात्मा दानव कामोदाके पास जा रहा था। नारदजी उसके समीप जाकर हँसते हुए बोले—’ दैत्यराज ! कहाँ जा रहे हो? इस समय तुम बड़े उतावले और व्यग्र जान पड़ते हो।’ विहुण्डने ब्रह्मकुमार नारदजीको हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा- ‘द्विजश्रेष्ठ ! मैं कामोद पुष्पके लिये चला हूँ।’ यह सुनकर नारदजीने कहा- ‘दैत्य ! तुम कामोद नामक श्रेष्ठ नगरमें कदापि न जाना; क्योंकि वहाँ सम्पूर्ण देवताओंको विजय दिलानेवाले परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीविष्णु रहते हैं। दानव जिस उपायसे कामोद नामक फूल तुम्हारे हाथ लग सकते हैं, वह मैं बता रहा हूँ। वे दिव्य पुष्प गंगाजीके जलमें गिरेंगे और प्रवाहके पावन जलके साथ बहते हुए तुम्हारे पास आ जायँगे। वे देखनेमें बड़े सुन्दर होंगे। तुम उन्हें पानीसे निकाल लाना। इस प्रकार उन फूलोंका संग्रह करके अपना मनोरथ सिद्ध करो।’

दानवश्रेष्ठ विहुण्डसे यह कहकर धर्मात्मा नारदजी कामोद नगरकी ओर चल दिये। जाते-जाते उन्हें वह दिव्य नगर दिखायी दिया। उस नगरमें प्रवेश करके वे कामोदाके घर गये और उससे मिले। कामोदाने स्वागत आदिके द्वारा मुनिको प्रसन्न किया और मीठे वचनोंमें कुशल- समाचार पूछा। द्विजश्रेष्ठ नारदजीने कामोदाके दिये हुए दिव्य सिंहासनपर बैठकर उससे पूछा भगवान् श्रीविष्णुके तेजसे प्रकट हुई कल्याणमयी देवी! तुम यहाँ सुखसे रहती हो न ? किसी तरहका कष्ट तो नहीं है?’

कामोदा बोली- महाभाग। मैं आप जैसे महात्माओं तथा भगवान् श्रीविष्णुकी कृपासे सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रही हूँ। इस समय आपसे कुछ प्रश्नोत्तर करनेका कारण उपस्थित हुआ है आप मेरेप्रश्नका समाधान कीजिये। मुने! सोते समय मैंने एक दारुण स्वप्न देखा है, मानो किसीने मेरे सामने आकर कहा है- ‘अव्यक्तस्वरूप भगवान् हृषीकेश संसारमें जायेंगे – वहाँ जन्म ग्रहण करेंगे।’ महामते। ऐसा स्वप्न देखनेका क्या कारण है? आप ज्ञानवानोंमें श्रेष्ठ हैं, कृपया बताइये।

नारदजीने कहा- भद्रे । मनुष्य जो स्वप्न देखते हैं, वह तीन प्रकारका होता है-वातिक (वातज), पैत्तिक (पित्तज) और कफज सुन्दरी! देवताओंको न नींद आती है न स्वप्न । मनुष्य शुभ और अशुभ नाना प्रकारके स्वप्न देखता है। वे सभी स्वप्न कर्मसे प्रेरित होकर दृष्टिपथमें आते हैं। पर्वत तथा ऊँचे-नीचे नाना प्रकारके दुर्गम स्थानोंका दर्शन होना वातिक स्वप्न है। अब कफाधिक्यके कारण दिखायी देनेवाले स्वप्न बता रहा हूँ। जल, नदी, तालाब तथा पानीके विभिन्न स्थान ये सब कफज स्वप्नके अन्तर्गत हैं। देवि! अग्नि तथा बहुत से उत्तम सुवर्णका जो दर्शन होता है, उसे पैत्तिक स्वप्न समझो अब मैं भावी (भविष्यमें तुरंत फल देनेवाले) स्वप्नका वर्णन करता हूँ- प्रातःकाल जो कर्मप्रेरित शुभ या अशुभ स्वप्न दिखायी देता है, वह क्रमशः लाभ और हानिको व्यक्त करनेवाला है। सुन्दरी इस प्रकार मैंने तुमसे स्वप्नकी अवस्थाएँ बतायीं। भगवान् श्रीविष्णुके सम्बन्धमें यह बात अवश्य होनेवाली हैं, इसी कारण तुम्हें दुःस्वप्न दिखायी दिया है।

कामोदा बोली- नारदजी सम्पूर्ण देवता भी जिनका अन्त नहीं जानते, उन्हें भी जिनके स्वरूपका ज्ञान नहीं है, जिनमें सम्पूर्ण विश्वका लय होता है, जिन्हें विश्वात्मा कहते हैं और सारा संसार जिनकी मायासे मुग्ध हो रहा है, वे मेरे स्वामी जगदीश्वर श्रीविष्णु संसारमें क्यों जन्म ले रहे हैं ?

नारदजीने कहा- देवि! इसका कारण सुनोः महर्षि भृगुके शापसे भगवान् संसारमें अवतार लेनेवाले हैं। [यही बात बतानेके लिये उन्होंने मुझे तुम्हारे पास भेजा है।] इसीलिये तुम्हें दुःस्वप्नका दर्शन हुआ है। बेटा! यों कहकर नारदजी ब्रह्मलोकको चले गये।उस समय कामोदा भगवान्‌के दुःखसे दुःखी हो गयी और गंगाजीके तटपर जलके समीप बैठकर बारंबार हाहाकार करती हुई करुण स्वरसे विलाप करने लगी। वह अपने नेत्रोंसे जो दुःखके आँसू बहाती थी, वे ही गंगाजीके जलमें गिरते थे। पानीमें पड़ते ही वे पुनः पद्म-पुष्पके रूपमें प्रकट होते और धाराके साथ वह जाते थे। दानवश्रेष्ठ विहुण्ड भगवान् श्रीविष्णुकी मायासे मोहित था। उसने उन फूलोंको देखा; किन्तु महर्षि शुक्राचार्यके बतानेपर भी वह इस बातको न जान सका कि ये दुःखके आँसुओंसे उत्पन्न फूल हैं। उन्हें देखकर वह असुर बड़े हर्षमें भर गया और उन सबको जलसे निकाल लाया। फिर वह उन खिले हुए पद्म-पुष्पोंसे गिरिजापतिकी पूजा करने लगा। विष्णुकी मायाने उसके मनको हर लिया था; अतः विवेकशून्य होकर उस दैत्यराजने सात करोड़ फूलोंसे भगवान् शिवका पूजन किया। यह देख जगन्माता पार्वतीको बड़ा क्रोध हुआ; उन्होंने शंकरजीसे कहा- नाथ! इस दुर्बुद्धि दानवका कुकर्म तो देखिये – यह शोकसे उत्पन्न फूलों द्वारा आपका पूजन कर रहा है, इसे दुःख और संताप ही मिलेगा; यह सुख पानेका अधिकारी नहीं है।’

भगवान् शिव बोले- भद्रे ! तुम सच कहती हो, इस पापीने सत्यपूर्ण उद्योगको पहलेसे ही छोड़ रखा है। इसकी चेतना कामसे आकुल है; अतः यह दुष्टात्मा गंगाजीके जलमें पड़े हुए शोकजनित फूलोंको ग्रहण करता है तथा उनसे मेरा पूजन भी करता है। दुःख और शोकसे उत्पन्न ये फूल तो शोक और संताप ही देनेवाले हैं; इनके द्वारा किसीका कल्याण कैसे हो सकता है। देवि! मैं तो समझता हूँ, यह ध्यानहीन है; क्योंकि अब पापाचारी हो गया है। अतः तुम इसे अपने ही तेजसे मार डालो।

भगवान् शंकरके ये वचन सुनकर भगवती पार्वतीने कहा-‘नाथ में आपकी आनसे इसका अवश्य संहार करूँगी।’ यो कहकर देवी वहाँ गयीं और विहुण्डके वधका उपाय सोचने लगीं। वे एक महात्मा ब्राह्मणका मायामय रूप बनाकर पारिजातके सुन्दरफूलोंसे अपने स्वामी शंकरजीकी पूजा करने लगी। इतनेमें ही उस पापी दानवने आकर देवीकी दिव्य पूजाको नष्ट कर दिया। वह दुष्टात्मा कालके वशीभूत हो चुका था। उसने पार्वतीद्वारा पारिजातके फूलोंसे की हुई पूजाको मिटा दिया और स्वयं लोभवश शोकजनित पुष्पोंसे शंकरजीका पूजन करने लगा। उस समय उस दुष्टके नेत्रोंसे की अविरल बूँदे निकलकर शिवलिंगके मस्तकपर पड़ रही थीं। यह देखकर देवीने ब्राह्मणके रूपमें ही पूछा- आप कौन हैं, जो शोकाकुल चित भगवान् शिवकी पूजा कर रहे हैं? ये शोकजनित अपवित्र आँसू भगवान्के मस्तकपर पड़ रहे हैं। आप ऐसा क्यों करते हैं? मुझे इसका कारण बताइये।

विहुण्ड बोला – ब्रह्मन्! कुछ दिन हुए मैंने एक सुन्दरी स्त्री देखी, जो सब प्रकारकी सौभाग्य सम्पदासे युक्त और समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थी। देखने में वह कामदेवका विशाल निकेतन जान पड़ती थी। उसके मोहसे मैं संतप्त हो उठा, कामसे मेरा चित्त व्याकुल हो गया। जब मैंने उससे समागमकी प्रार्थना की, तब वह बोली- ‘कामोदके फूलोंसे भगवान् शंकरकी पूजा करो तथा उन्हीं फूलोंको माला बनाकर मेरे कण्ठमें पहनाओ। सात करोड़ पुष्पोंसे महेश्वरका पूजन करो।’ उस स्त्रीको पानेके लिये ही मैं पूजा करता हूँ; क्योंकि भगवान् शिव अभीष्ट फलके दाता हैं।

देवीने कहा- अरे ! कहाँ तेरा भाव है, कहाँ ध्यान है और कहाँ तुझ दुरात्माका ज्ञान है ? [तू कामोद पुष्पोंसे पूजा कर रहा है न?] अच्छा बता, कामोदाका सुन्दर रूप कैसा है ? तूने उसके हास्यसे उत्पन्न सुन्दर फूल कहाँ पाये हैं?

विहुण्ड बोला- ‘ब्रह्मन् ! मैं भाव और ध्यान कुछ नहीं जानता। कामोदाको मैंने कभी देखा भी नहीं है। गंगाजीके जलमें जो फूल बहकर आते हैं, उन्हींका मैं प्रतिदिन संग्रह करता हूँ और उन्हींसे एकमात्र शंकरजीका पूजन करता हूँ। महात्मा शुक्राचार्यने मेरे सामने इस फूलका परिचय दिया था। मैं उन्हींकी आज्ञासे नित्यप्रति पूजा करता हूँ।देवीने कहा- पापी! ये फूल कामोदाके रोदनसे उत्पन्न हुए हैं। इनकी उत्पत्ति दुःखसे हुई है। इन्हींसे तू पापपूर्ण भावना लेकर, प्रतिदिन भगवान्‌की पूजा करता है, किन्तु दिव्य पूजा नष्ट करके तू शोकजनित पुष्पोंसे पूजन कर रहा है- यह आज तेरे द्वारा भयंकर अपराध हुआ है; इसके लिये मैं तुझे दण्ड दूँगा ।

यह सुनकर कालके वशीभूत हुआ दानव विहुण्ड बोला- ‘रे दुष्ट ! रे अनाचारी! तू मेरे कर्मकी निन्दा करता है? तुझे अभी इस तलवारसे मौतके घाट उतारता हूँ।’ यों कहकर वह ब्राह्मणको मारनेके लिये तीखी तलवार ले उसकी ओर झपटा। यह देख ब्राह्मणरूपमेंखड़ी हुई भगवती परमेश्वरी कुपित हो उठीं और ज्यों ही वह दैत्य उनके पास पहुँचा त्यों ही उन्होंने अपने मुँहसे ‘हुंकार’ का उच्चारण किया। हुंकारकी ध्वनि होते ही वह अधम दानव निश्चेष्ट होकर गिर पड़ा, मानो वज्रके आघातसे पर्वत फट पड़ा हो। उस लोक संहारक दानवके मारे जानेपर सम्पूर्ण जगत् स्वस्थ हो गया, सबके दुःख और सन्ताप दूर हो गये। बेटा ! गंगाजीके तीरपर दुःखसे व्याकुलचित्त होकर बैठी हुई जो सुन्दरी स्त्री रो रही थी, [ वह कामोदा ही थी; ] उसके रोनेका यही कारण था। यह सारा रहस्य जो तुमने पूछा था, मैंने कह सुनाया ।

अध्याय-27 कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य

भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-राजन् धर्मात्मा पक्षी महाप्राज्ञ कुंजल अपने पुत्रोंसे यों कहकर चुप हो गया। तब वटके नीचे बैठे हुए द्विजश्रेष्ठ च्यवनने उस महाशुकसे कहा—’महात्मन्! आप कौन हैं, जो पक्षीके रूपसे धर्मका उपदेश कर रहे हैं? आप देवता, गन्धर्व अथवा विद्याधर तो नहीं हैं? किसके शापसे आपको यह तोतेकी योनि प्राप्त हुई है? यह अतीन्द्रिय ज्ञान आपको किससे प्राप्त हुआ है ?”

कुंजल बोला- सिद्धपुरुष मैं आपको जानता हूँ; आपके कुल, उत्तम गोत्र, विद्या, तप और प्रभावसे भी परिचित है तथा आप जिस उद्देश्यसे पृथ्वीपर विचरण करते हैं, उसका भी मुझे ज्ञान है। श्रेष्ठ व्रतका पालन करनेवाले ब्राह्मण! आपका स्वागत है। मैं आपकी पूछी हुई सब बातें बताऊँगा। इस पवित्र आसनपर बैठकर शीतल छायाका आश्रय लीजिये। अव्यक्त परमात्मासे ब्रह्माजीका प्रादुर्भाव हुआ। उनसे प्रजापति भृगु प्रकट हुए, जो ब्रह्माजीके समान गुणोंसे न्युक्त हैं। भृगुसे भार्गव (शुक्राचार्य) का जन्म हुआ, जो सम्पूर्ण धर्म और अर्थशास्त्रके तत्वज्ञ हैं। उन्होंके वंशआपने जन्म ग्रहण किया है। पृथ्वीपर आप च्यवनके नामसे विख्यात है [अब मेरा परिचय सुनिये ] मैं देवता, गन्धर्व या विद्याधर नहीं हूँ। पूर्वजन्ममें कश्यपजीके कुलमें एक श्रेष्ठ ब्राह्मण उत्पन्न हुए थे। उन्हें वेद वेदांगोंके तत्त्वका ज्ञान था। वे सब धर्मोको प्रकाशित करनेवाले थे। उनका नाम विद्याधर था; वे कुल, शील और गुण – सबसे युक्त थे। विप्रवर विद्याधर अपनी तपस्याके प्रभावसे सदा शोभायमान दिखायी देते थे। उनके तीन पुत्र हुए- वसुशर्मा, नामशर्मा और धर्मशर्मा उनमें धर्मशर्मा मैं ही था, अवस्थामें सबसे छोटा और गुणोंसे हीन । मेरे बड़े भाई वसुशर्मा वेद-शास्त्रोंके पारगामी विद्वान् थे। विद्या आदि सद्गुणोंके साथ उनमें सदाचार भी था नामशर्मा भी उन्हींकी भाँति महान् पण्डित थे। केवल मैं ही महामूर्ख निकला। विप्रवर! मैं विद्याके उत्तम भाव और शुभ अर्थको कभी नहीं सुनता था और गुरुके घर भी कभी नहीं जाता था।

यह देख मेरे पिता मेरे लिये बहुत चिन्तित रहने लगे। वे सोचते -‘मेरा यह पुत्र धर्मशर्मा कहलाता है,पर इसके लिये यह नाम व्यर्थ है। इस पृथ्वीपर न तो यह विद्वान् हुआ और न गुणोंका आधार ही ।’ यह विचारकर मेरे धर्मात्मा पिताको बड़ा दुःख हुआ। वे मुझसे बोले- ‘बेटा! गुरुके घर जाओ और विद्या सीखो।’ उनका यह कल्याणमय वचन सुनकर मैंने उत्तर दिया- ‘पिताजी! गुरुके घरपर बड़ा कष्ट होता है । वहाँ प्रतिदिन मार खानी पड़ती है, धमकाया जाता है। नींद लेनेकी भी फुरसत नहीं मिलती। इन असुविधाओंके कारण मैं गुरुके मन्दिरपर नहीं जाना चाहता, मैं तो आपकी कृपासे यहीं स्वच्छन्दतापूर्वक खेलूँगा, खाऊँगा और सोऊँगा।’

धर्मात्मा पिता मुझे मूर्ख समझकर बहुत दुःखी हुए और बोले- ‘बेटा! ऐसा दुःसाहस न करो। विद्या सीखनेका प्रयत्न करो। विद्यासे सुख मिलता है, यश और अतुलित कीर्ति प्राप्त होती है तथा ज्ञान, स्वर्ग और उत्तम मोक्ष मिलता है; अतः सीखो। विद्या पहले तो दुःखका मूल जान पड़ती है, किन्तु पीछे वह बड़ी सुखदायिनी होती है। इसलिये तुम गुरुके घर जाओ और विद्या सीखो।’ पिताके इतना समझानेपर भी मैं उनकी बात नहीं मानता और प्रतिदिन इधर-उधर घूम-फिरकर अपनी हानि किया करता था। विप्रवर! मेरा बर्ताव देखकर लोगोंने मेरा बड़ा उपहास किया, मेरी बड़ी निन्दा हुई। इससे मैं बहुत लज्जित हुआ। जान पड़ा यह लज्जा मेरे प्राण लेकर रहेगी। तब मैं विद्या पढ़नेको तैयार हुआ। [ अवस्था अधिक हो चुकी थी,] सोचने लगा-‘किस गुरुके पास चलकर पढ़ाने के लिये प्रार्थना करूँ ?’ इस चिन्तामें पड़कर मैं दुःख शोकसे व्याकुल हो उठा। ‘कैसे मुझे विद्या प्राप्त हो ? किस प्रकार मैं गुणोंका उपार्जन करूँ? कैसे मुझे स्वर्ग मिले और किस तरह मैं मोक्ष प्राप्त करूँ ?’ यही सब सोचते-विचारते मेरा बुढ़ापा आ गया।

एक दिनकी बात है, मैं बहुत दुःखी होकर एक देवालय में बैठा था, वहाँ अकस्मात् कोई सिद्ध महात्माआ पहुँचे। मानो मेरे भाग्यने ही उन्हें भेज दिया था। उनका कहीं आश्रय नहीं था, वे निराहार रहते थे। सदा आनन्दमें मग्न और निःस्पृह थे प्रायः एकान्तमें हो रहा करते थे। बड़े दयालु और जितेन्द्रिय थे परब्रह्मायें लीन, ज्ञानी, ध्यानी और समाधिनिष्ठ थे। मैं उन परम बुद्धिमान् ज्ञानस्वरूप महात्माकी शरणमें गया और भक्तिसे मस्तक झुका उन्हें प्रणाम करके सामने खड़ा हो गया। मैं दीनताकी साक्षात् मूर्ति और मन्दभागी था। महात्माने मुझसे पूछा-‘ब्रह्मन्! तुम इतने शोकमग्न कैसे हो रहे हो? किस अभिप्रायसे इतना दुःख भोगते हो ?’ मैंने अपनी मूर्खताका सारा पूर्व वृत्तान्त उनसे कह सुनाया और निवेदन किया-‘मुझे सर्वज्ञता कैसे प्राप्त हो? इसीके लिये मैं दुःखी हूँ। अब आप ही मुझे आश्रय देनेवाले हैं।’

सिद्ध महात्माने कहा- ब्रह्मन् सुनो, मैं तुम्हारे सामने ज्ञानके स्वरूपका वर्णन करता हूँ। ज्ञानका कोई आकार नहीं है [ ज्ञान परमात्माका स्वरूप है]। वह सदा सबको जानता है, इसलिये सर्वज्ञ है। मायामोहित मूढ़ पुरुष उसे नहीं प्राप्त कर सकते ज्ञान भगवत्तत्त्वके चिन्तनसे उद्दीप्त होता है, उसकी कहीं भी तुलना नहीं है। ज्ञानसे ही परमात्माके स्वरूपका साक्षात्कार होता है। चन्द्रमा और सूर्य आदिके प्रकाशसे उसका दर्शन नहीं किया जा सकता। ज्ञानके न हाथ हैं न पैर; न नेत्र हैं। न कान। फिर भी वह सर्वत्र गतिशील है। सबको ग्रहण करता और देखता है। सब कुछ सूँघता तथा सबकी बातें सुनता है। स्वर्ग, भूमि और पाताल तीनों लोकोंमें प्रत्येक स्थानपर वह व्यापक देखा जाता है। जिनकी बुद्धि दूषित है, वे उसे नहीं जानते। ज्ञान सदा प्राणियोंके हृदयमें स्थित होकर काम आदि महाभोगों तथा महामोह आदि सब दोषको विवेककी आगसे दग्ध करता रहता है। अतः पूर्ण शान्तिमय होकर इन्द्रियोंके विषयोंका मर्दन उनकी आसक्तिका नाश करना चाहिये। इससे समस्त तात्त्विक अर्थोका साक्षात्कार करानेवाला ज्ञानकट होता है। यह शान्तिमूलक ज्ञान निर्मल तथा पापनाशक है। इसलिये तुम शान्ति धारण करो; वह सब प्रकारके सुखोंको बढ़ानेवाली है। शत्रु और मित्रमें समान भाव रखो। तुम अपने प्रति जैसा भाव रखते हो, वैसा ही दूसरोंके प्रति भी बनाये रहो। सदा विपूर्वक रहकर आहारपर विजय प्राप्त करो, इन्द्रियोंको जीतो किसीसे मित्रता न जोड़ो; वैरका भी दूरसे ही त्याग करो। निस्संग और निःस्पृह होकर एकान्त स्थानमें रहो। इससे तुम सबको प्रकाश देनेवाले ज्ञानी, सर्वदर्शी बन जाओगे। बेटा! उस स्थितिमें पहुँचनेपर तुम मेरी कृपासे एक ही स्थानपर बैठे-बैठे तीनों कोंमें होनेवाली बातोंको जान लोगे- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

कुंजल कहता है- विप्रवर उन सिद्ध महात्माने ही मेरे सामने ज्ञानका रूप प्रकाशित किया था। उनकी आज्ञामें स्थित होकर मैं पूर्वोक्त भावनाका ही चिन्तन करने लगा। इससे सद्गुरुकी कृपा हुई, जिससे एक ही स्थानमें रहकर मैं त्रिभुवनमें जो कुछ हो रहा है, सबको जानता हूँ।

च्यवनने पूछा- खगश्रेष्ठ! आप तो ज्ञानवानों में श्रेष्ठ हैं, फिर आपको यह तोतेकी योनि कैसे प्राप्त हुई ?

कुंजलने कहा- ब्रह्मन्! संसर्गसे पाप और संसर्गसे पुण्य भी होता है। अतः शुद्ध आचार विचारवाले कल्याणमय पुरुषको कुसंगका त्याग कर देना चाहिये। एक दिन कोई पापी व्याध एक तोते के बच्चेको बाँधकर उसे बेचनेके लिये आया। वह बच्चा देखनेमें बड़ा सुन्दर और मीठी बोली बोलनेवाला था। एक ब्राह्मणने उसे खरीद लिया और मेरी प्रसन्नताके लिये उसको मुझे दे दिया। मैं प्रतिदिन ज्ञान और ध्यानमें स्थित रहता था। उस समय वह तोतेका बच्चा बाल स्वभावके कारण कौतूहलवश मेरे हाथपर आ बैठता और बोलने लगता तात । मेरे पास आओ, बैठो स्नानके लिये जाओ और अब देवताओंका पूजन करो।’ इस तरहकी मीठी-मीठी बातें वह मुझसे कहा करता था। उसकेवाग्विनोदमें पड़कर मेरा सारा उत्तम ज्ञान चला गया। एक दिन मैं फूल और फल लानेके लिये वनमें गया था। इसी बीचमें एक बिलाव आकर तोतेको उठा ले गया। यह दुर्घटना मुझे केवल दुःख देनेका कारण हुई। बिलाव उस पक्षीको मारकर खा गया। इस प्रकार उस तोतेकी मृत्यु सुनकर मुझे बड़ा दुःख हुआ। असह्य शोकके कारण अत्यन्त पीड़ा होने लगी। मैं महान् मोह जालमें बँधकर उसके लिये प्रलाप करने लगा। सिद्ध महात्माने जिस ज्ञानका उपदेश दिया था, उसकी याद जाती रही। तब तो मीठे वचन बोलनेवाले उस तोतेको तथा उसके ज्ञानको याद करके मैं ‘हा वत्स! हा वत्स!’ कहकर प्रतिदिन विलाप करने लगा।

इस प्रकार विलाप करता हुआ मैं शोकसे अत्यन्त पीड़ित हो गया । अन्ततोगत्वा उसी दुःखसे मेरी मृत्यु हो गयी। उसीकी भावनासे मोहित होकर मुझे प्राण त्यागना पड़ा। द्विजश्रेष्ठ ! मृत्युके समय मेरा जैसा भाव था, जैसी बुद्धि थी, उसी भाव और बुद्धिके अनुसार मेरा तोतेकी योनिमें जन्म हुआ है । परन्तु मुझे जो गर्भवास प्राप्त हुआ, वह मेरे ज्ञान और स्मरण शक्तिको जाग्रत् करनेवाला था। गर्भमें स्वयं ही मुझे अपने पूर्वकर्मका स्मरण हो आया। मैंने सोचा- ‘ओह ! मुझ मूर्ख, अजितेन्द्रिय तथा पापीने यह क्या कर डाला।’ फिर गुरुदेवके अनुग्रहसे मुझे उत्तम ज्ञान प्राप्त हुआ। उनके वाक्यरूपी स्वच्छ जलसे मेरे शरीरके भीतर और बाहरका सारा मल धुल गया। मेरा अन्तःकरण निर्मल हो गया । पूर्वजन्ममें मृत्युकाल उपस्थित होनेपर मैंने तोतेका ही चिन्तन किया और उसीकी भावनासे भावित होकर मैं मृत्युको प्राप्त हुआ। यही कारण है कि मुझे पृथ्वीपर तोतेके रूपमें पुनः जन्म लेना पड़ा। मृत्युके समय प्राणियोंका जैसा भाव रहता है, वे वैसे ही जीवके रूपमें उत्पन्न होते हैं। उनका शरीर, पराक्रम, गुण और स्वरूप- सब उसी तरहके होते हैं। वे भावस्वरूप होकर ही जन्म लेते हैं। *महामते। इस तोतेके शरीरमें मुझे अतुलित ज्ञान प्राप्त हुआ है, जिसके प्रभावसे मैं भूत, भविष्य और वर्तमान- तीनों कालोंको प्रत्यक्ष देखता हूँ। यहाँ रहकर भी उसी ज्ञानके प्रभावसे मुझे सब कुछ ज्ञात हो जाता है। विप्रवर! संसारमें भटकनेवाले मनुष्योंको तारने के लिये गुरुके समान बन्धन-नाशक तीर्थ दूसरा कोई नहीं है।” भूतलपर प्रकट हुए जलसे बाहरका ही सारा मल नष्ट होता है; किन्तु गुरुरूपी तीर्थ जन्म जन्मान्तरके पापका भी नाश कर डालता है। संसारमें जीवोंका उद्धार करनेके लिये गुरु चलता-फिरता उत्तम तीर्थ है।

भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं— नृपश्रेष्ठ! वह परम ज्ञानी शुक महात्मा च्यवनको इस प्रकार तत्त्वज्ञानका उपदेश देकर चुप हो गया। यह सब परम उत्तम जंगम तीर्थकी महिमाका वर्णन किया गया। राजन्! तुम्हारा कल्याण हो ! तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, उसे वरके रूपमें माँग लो।

वेनने कहा- जनार्दन! मुझे राज्य पानेकी अभिलाषा नहीं है। मैं दूसरी कोई वस्तु भी नहीं चाहता। केवल आपके शरीरमें प्रवेश करना चाहता हूँ।

भगवान् श्रीविष्णु बोले- राजन्! तुम अश्वमेध और राजसूय यज्ञोंके द्वारा मेरा वजन करो गौ, भूमि, सुवर्ण, अन्न और जलका दान दो महामते। दानसे ब्रह्महत्या आदि घोर पाप भी नष्ट हो जाते हैं। दानसे चारों पुरुषार्थोंकी भी सिद्धि होती है, इसलिये मेरे उद्देश्यसे दान अवश्य करना चाहिये। जो जिस भावसे मेरे लिये दान देता है, उसके उस भावको मैं सत्य कर देता हूँ।” ऋषियोंके दर्शन और स्पर्शसे तुम्हारी पापराशि नष्ट हो चुकी है। यज्ञोंके अन्तमें तुम निश्चय ही मेरेशरीरमें आ मिलोगे।

वेनसे यों कहकर श्रीहरि अन्तर्धान हो गये। उनके अदृश्य हो जानेपर नृपश्रेष्ठ वेन बड़े हर्षके घर आये और कुछ सोच-विचारकर अपने पुत्र पृथुको निकट बुला मधुर वाणीमें बोले–’बेटा! तुम वास्तवमें पुत्र हो। तुमने इस भूलोकमें बहुत बड़े पातकसे मेरा उद्धार कर दिया। मेरे वंशको उज्ज्वल बना दिया। मैंने अपने दोर्षोसे इस कुलका नाश कर दिया था, किन्तु तुमने फिर इसे चमका दिया है। अब मैं अश्वमेध यज्ञके द्वारा भगवान्‌का यजन करूँगा और नाना प्रकारके दान दूँगा। फिर भगवान् विष्णुकी कृपासे उनके उत्तम धामको जाऊँगा। अतः महाभाग ! अब तुम यज्ञकी उत्तम सामग्रियोंको जुटाओ और वेदोंके पारगामी विद्वान् ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करो।’ साथ

सूतजी कहते हैं— वेनकी आज्ञा पाकर परम धर्मात्मा राजकुमार पृथुने नाना प्रकारकी पवित्र सामग्रियाँ एकत्रित कीं तथा नाना देशोंमें उत्पन्न हुए समस्त ब्राह्मणोंको निमन्त्रित किया। तदनन्तर राजा वेनने अश्वमेध यज्ञ किया और ब्राह्मणोंको अनेक प्रकारके दान दिये। इसके बाद वे भगवान् विष्णुके धामको चले गये। महर्षियो! इस प्रकार मैंने आपलोगोंसे राजा पृथुके समस्त चरित्रका वर्णन किया। यह सब पापोंकी शान्ति और सम्पूर्ण दुःखोंका विनाश करनेवाला है। धर्मात्मा राजा पृथुने इस प्रकार पृथ्वीका राज्य किया और तीनों लोकॉसहित भूमण्डलकी रक्षा की। उन्होंने पुण्य- धर्ममय कर्मोंके द्वारा समस्त प्रजाका मनोरंजन किया।

यह मैंने आपलोगोंसे परम उत्तम भूमिखण्डका वर्णन किया है। पहला सृष्टिखण्ड है और दूसराभूमिखण्ड अब भूमिखण्डके माहात्म्यका वर्णन आरम्भ करता हूँ। जो श्रेष्ठ मनुष्य इस खण्डके एक श्लोकका भी श्रवण करता है, उसके एक दिनका पाप नष्ट हो जाता है। जो श्रेष्ठ बुद्धिसे युक्त पुरुष इसके एक अध्यायको सुनता है, उसे पर्वके अवसरपर ब्राह्मणोंको एक हजार गोदान देनेका फल मिलता है। साथ ही उसपर भगवान् श्रीविष्णु भी प्रसन्न होते हैं। जो इस पद्मपुराणका प्रतिदिन पाठ करता है, उसपर कलियुगमें कभी विघ्नोंका आक्रमण नहीं होगा । ब्राह्मणो! अश्वमेध यज्ञका जो फल बतलाया जाता है, इस पद्मपुराणके पाठसे उसी फलकी प्राप्ति होती है। पुण्यमय अश्वमेध यज्ञ कलियुगमें नहीं होता, अतः उस समय यह पुराण ही अश्वमेधके समान फल देनेवाला है। कलियुगमें मनुष्य प्रायः पापी होते हैं, अतः उन्हें नरकके समुद्रमें गिरना पड़ता है; इसलिये उनको चाहिये कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थोंकेसाधक इस श्रवण करें । पुण्यमय पुराणका जिसने पुण्यके साधनभूत इस पद्मपुराणका श्रवण किया, उसने चतुर्वर्गके समस्त साधनोंको सिद्ध कर लिया। इसका श्रवण करनेवाले मनुष्यके ऊपर कभी भारी विघ्नका आक्रमण नहीं होता। धर्मपरायण पुरुषोंको पूरी पुराणसंहिताका श्रवण करना चाहिये । इससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी भी सिद्धि होती है। भूमिखण्डका श्रवण करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है तथा रोग, दुःख और शत्रुओंके भयसे भी छुटकारा पाकर सदा सुखका अनुभव करता है। पद्मपुराणमें पहला सृष्टिखण्ड, दूसरा भूमिखण्ड, तीसरा स्वर्गखण्ड, चौथा पातालखण्ड और पाँचवाँ सब पापोंका नाश करनेवाला उत्तरखण्ड है। ब्राह्मणो! इन पाँचों खण्डोंको सुननेका अवसर बड़े भाग्यसे प्राप्त होता है। सुननेपर ये मोक्ष प्रदान करते हैं- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

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