- अध्याय ३९ सृष्टि तत्वका वर्णन, जीवकी सत्ताका प्रतिपादन, आश्रमोंके आचारका निरूपण
- अध्याय ४० उत्तमलोक, अध्यात्मतत्व तथा ध्यानयोगका वर्णन
- अध्याय ४१ पांचशिखाका राजा जनकको उपदेश
- अध्याय ४२ त्रिविध तापोंसे छूटनेका उपाय, भगवान तथा वासुदेव आदि शब्दोंकी ब्याख्या, परा और अपरा विधाका निरूपण, खाण्डिक्य और केशिध्वजकी कथा, केधिध्वजद्धारा अविधाके बीजका प्रतिपादन
- अध्याय ४३ मुक्तिप्रद योगका वर्णन
- अध्याय ४४ राजा भरतका मृगशरीरमें आसक्तिके कारण मृग होना, ज्ञान समपन्न ब्रहामण होकर जड— वृत्तिसे रहना, जड़भरत और सौवीरनरेशका संवाद
- अध्याय ४५ जड़भरत और सौवीर नरेशका संवाद— परमार्थका निरूपण, ऋभुका निदाधको अद्धैतज्ञानका उपदेश
- अध्याय ४६ शिक्षा— निरूपण
- अध्याय ४७ वेदके द्वितीय अंग कल्पका वर्णन, गणेश— पूजन, ग्रहशान्ति तथा श्राद्धका निरूपण
- अध्याय ४८ व्याकरण— शास्त्रका वर्णन
- अध्याय ४९ निरुक्त— वर्णन
- अध्याय ५० त्रिस्कन्ध ज्योतिषके वर्णन— प्रसंगमें गणित— विषयका प्रतिपादन
- अध्याय ५१ त्रिस्कन्ध ज्योतिषका जातकस्कंध
- अध्याय ५२ त्रिस्कन्ध ज्योतिषका सहिंताप्रकरण (विविध उपयोगी विषयोंका वर्णन)
- अध्याय ५३ छन्दःशास्त्रका संक्षिप्त परिचय
- अध्याय ५४ शुकदेवजीका मिथलागमन, राजाभवनमें युवतियोंद्धारा उनकी सेवा, राजा जनकके द्धारा शुकदेवजीका सत्यकार और शुकदेवजीके साथ उनका मोक्ष विषयक संवाद
- अध्याय ५५ व्यासजीका शुकदेवको अनध्यायका कारण बताते हुय "प्रवह" आदि सात वायुओंका परिचय देना, सनत्कुमारका शुकको ज्ञान उपदेश
- अध्याय ५६ शुकदेवजीको सनत्कुमारका उपदेश
- अध्याय ५७ श्रीशुकदेवजीकी ऊर्धव गति, श्र्वेतद्धीप तथा वैकुण्ठधाममें जाकर शुकदेवजीके द्धारा भगवान् विष्णुकी स्तुति, भगवानकी आज्ञासे शुकदेवजीका व्यासजीके पास आकर भागवतशास्त्र पढ़ना
नारदपुराण पूर्वभाग द्वितीयपाद
अध्याय ३९ सृष्टि तत्वका वर्णन, जीवकी सत्ताका प्रतिपादन, आश्रमोंके आचारका निरूपण
श्रीनारदजीने पूछा— सनन्दनजी ! इस स्थावर—जङमरूप जगत्की उत्पत्ति किससे हुई है और प्रलयके समय यह किसमें लीन होता है?
श्रीसनन्दनजी बोले— नारदजी ! सुनो, मैं भरद्वाजके पूछनेपर भृगुजीने जो शास्त्र बताया है, वही कहता हूँ ।
भृगुजी बोले— भरद्वाज ! महर्षियोंने जिन पूर्वपुरुषको मानस—नामसे जाना और सुना है, वे आदि—अन्तसे रहित देव ’अव्यक्त’ नामसे विख्यात हैं । वे अव्यक्त पुरुष शाश्चत, अक्षय एवं अविनाशी है; उन्हींसे उत्पन्न होकर सम्पूर्ण भूत—प्राणी जन्म और मृत्युको प्राप्त होते हैं । उन स्वयम्भू भगवान् नारायणने अपनी नाभिसे तेजोमय दिव्य कमल प्रकट किया । उस कमलसे ब्रह्मा उत्पन्न हुए जो वेदस्वरूप हैं, उनका दूसरा नाम विधि है । उन्होंने ही सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरकी रचना की है । उन्होंने ही सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरकी रचना की है । इस प्रकार इस विराट् विश्वके रूपमें साक्षात् भगवान् विष्णु ही विराज रहे हैं, जो अनन्त नामसे विख्यात हैं । वे सम्पूर्ण भूतोंमें आत्मारूपसे स्थित हैं । जिनका अन्तः करण शुद्ध नहीं है, ऐसे पुरुषोंके लिये उनका ज्ञान होना अत्यन्त कठिन है ।
भरद्वाजजीने पूछा— जीव क्या है और कैसा है? यह मैं जानना चाहता हूँ । रक्त और मांसके संघात (समूह) तथा मेंद—स्त्रायु और अस्थियोंके संग्रहरूप इस शरीरके नष्ट होनेपर तो जीव कहीं नहीं दिखायी देता ।
भृगुने कहा— मुने ! साधारणतया पाँच भूतोंसे निर्मित किसी भी शरीरको यहाँ एकमात्र अन्तरात्मा धारण करता है। वही गन्ध, रस, शब्द, स्पर्श, रुप तथा अन्य गुणोंका भी अनुभव करता है । अन्तरात्मा सम्पूर्ण अंगोंमें व्याप्त रहता है। वही इसमें होनेवाले सुख—दु:खका भी अनुभव करता है । अन्तरात्मा सम्पूर्ण अंगोंमें व्याप्त रहता है । वही इसमें होनेवाले सुख—दुःखका भी अनुभव करता है । इस शरीरके पाँचों तत्व जब अलग—अलग हो जाते हैं, तब वह इस देहको त्यागकर अदृश्य हो जाता है । चेतनता जीवका गुण बतलाया जाता है । वह स्वयं चेष्टा करता है और सबको चेष्टामें लगाता है । मुने ! देहका नाश होनेसे जीवका नाश नहीं होता । जो लोग देहके नाशसे जीवके नाशकी बात कहते हैं, वे अज्ञानी हैं और उनका यह कथन मिथ्या है । जीव तो इस देहसे दूसरी देहमें चला जाता है । तत्वदर्शी पुरुष अपनी तीव्र और सूक्ष्म बुद्धिसे ही उसका दर्शन करते हैं । विद्वान् पुरुष शुद्ध एवं सात्त्विक आहार करके सदा रातके पहले और पिछले पहरमें योगयुक्त तथा विशुद्ध—चित्त होकर अपने भीतर ही आत्माका दर्शन करता है ।
मनुष्यको सब प्रकारके उपायोंसे लोभ और क्रोधको काबूमें करना चाहिये । सब ज्ञानोंमें यही पवित्र ज्ञान है और यही आत्मसंयम है । लोभ और क्रोध सदा मनुष्यके श्रेयका विनाश करनेको उद्यत रह्ते हैं । अतः सर्वथा उनका त्याग करना चाहिये । क्रोधसे सदा लक्ष्मीको बचावे और मात्सर्यसे तपकी रक्षा करे । मान और अपमानसे विद्याको बचावे तथा प्रमादसे आत्माकी रक्षा करे । ब्रह्मन् ! जिसके सभी कार्य कामनाओंके बन्धनसे रहित होते हैं तथा त्यागके लिये जिसने अपने सर्वस्वकी आहुति दे दी है, वही त्यागी और बुद्धिमान् है । किसी भी प्राणीकी हिंसा न करे, सबसे मैत्रीभाव निभाता रहे और संग्रहका त्याग करके बुद्धिके द्वारा अपनी इन्द्रियोंको जीते । ऐसा कार्य करे जिसमें शोकके लिये स्थान न हो तथा जो इहलोक और परलोकमें भी भयदायक न हो । सदा तपस्यामें लगे रहकर इन्द्रियोंका दमन तथा मनका निग्रह करते हुए मुनिवृत्तिसे रहे । आसक्तिसे जितने विषय हैं, उन सबमें अनासक्त रहे और जो किसीसे पराजित नहीं हुआ, उस परमेंश्वरको जीतने (जानने या प्राप्त करने)—की इच्छा रखे । इन्द्रियोम्से जिन—जिन वस्तुओंका ग्रहण होता है, वह सब व्यक्त है । यही व्यक्तिकी परिभाषा है । जो अनुमानके द्वारा कुछ—कुछ जानी जाय उस इन्द्रियातीत वस्तुको अव्यक्त जानना चाहिये । जबतक (ज्ञानकी कमीके कारण) पूरा विश्वास न हो जाय, तबतक ज्ञेयस्वरूप परमात्माका मनन करते रहना चाहिये और पूर्ण विश्वास हो जानेपर मनको उसमें लगाना चाहिये अर्थात् ध्यान करना चाहिये । प्राणायामके द्वारा मनको वशमें करे और संसारकी किसी भी वस्तुका चिन्तन न करे । ब्राह्मण ! सत्य ही व्रत, तपस्या तथा पवित्रता है, सत्य ही प्रजाकी सृष्टि करता है ।सत्यसे ही मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं । असत्य तमोगुणका स्वरूप है, तमोगुण मनुष्यको नीचे (नरकमें) ले जाता है । तमोगुणसे ग्रस्त मनुष्य अज्ञानान्धकारसे आवृत होनेके कारण ज्ञानमय प्रकाशको नहीं देख पाते । नरकको तम और दुष्प्रकाश कहते हैं । इहलोककी सृष्टि शारीरिक और मानसिक दुःखोंसे परिपूर्ण है । यहाँ जो सुख हैं वे भी भविष्यमें दु:खको ही लानेवाले हैं । जगत्को इन सुख—दुःखोंसे संयुक्त देखकर विद्वान् पुरुष मोहित नहीं होते । बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह दुःखसे छूटनेका प्रयत्न करे । प्राणियोंको इहलोक और परलोकमें प्राप्त होनेचाला जो सुख है, वह अनित्य है । मोक्षरूपी फलसे बढ़कर कोई सुख नहीं है । अतः उसीकी अभिलाषा करनी चाहिये । धर्मके लिये जो शम—दमादि सद्गुणोंका सम्पादन किया जाता है, उसका उद्देश्य भी सुखकी प्राप्ति ही है । सुखरूप प्रयोजनकी सिद्धिके लिये ही सभी कर्मोंका आरम्भ किया जाता है । किंतु अनृत (झूठ) से तमोगुणका प्रादुर्भाव होता है । फिर उस तमोगुणसे ग्रस्त मनुष्य अधर्मके ही पीछे चलते हैं, धर्मपर नहीं चलते । वे क्रोध, लोभ, मोह, हिंसा और असत्य आदिसे आच्छादित होकर न तो इस लोकमें सुख पाते हैं, न परलोकमें ही । नाना प्रकारके रोग, व्याधि और उग्र तापसे पीड़ित होते हैं । बध, बन्धनजनित क्लेश आदिसे तथा भूख, प्यासे और परिश्रमजनित संतापसे संतप्त रहते हैं । वर्षा, आँधी, अधिक गरमी और अधिक सर्दिके भयसे चिन्तित होते हैं । शारीरिक दुःखोंसे दु: खी तथा बन्धु—धन आदिके नाश अथवा वियोगसे पाप्त होनेवाले मानसिक शोकोंसे व्याकुल रह्ते हैं और जरा तथा मृत्युजनित कष्टसे या अन्य इसी प्रकारके क्लेशोंसे पीडित रहा करते हैं स्वर्गलोकमें जबतक जीवित रहता है सदा उसे सुख ही मिलता है । इस लोकमें सुख और दु:ख दोंनों है । नरकमें केवल दुःख—ही—दु:ख बताया गया है । वास्तविक सुख तो वह परमपद—स्वरूप मोक्ष ही है ।
भरद्वाजजी बोले—ब्रह्मर्षियोंने पूर्वकालमें जो चारआश्रमोंका विधान किया है, उन आश्रमोंके अपने—अपने आ़चार क्या है? यह बतानेकी कृपा करें ।
भृगुजीने कहा— मुने ! जगत्का हित—साधन करनेवाले भगवान् ब्रह्माजीने पहलेसे ही धर्मकी रक्षाके लिये चार आश्रमोंका उपदेश किया है । उनमेंसे गुरुकुलमें निवास ही पहला आश्रम बतलाया जाता है । इस आश्रममें शौच् संस्कार, नियम तथा व्रतके नियमपूर्वक पालनमें चित्त लगाकर दोनों संध्याओंके समय उपासना करनी चाहिये । सूर्यदेव तथा अग्रिदेवका उपस्थान करे । आलस्य छोड़्कर गुरुको प्रणाम करे । गुरुमुखसे वेदका श्रवण और अभ्यास करके अपने अन्तःकरणको पवित्र करे । तीनों समय स्त्रान करके ब्रह्यचर्यपालन, अग्रिहोत्र तथा गुरु—शुश्रूषा करे । प्रतिदिन भिक्षा माँगे और भिक्षामें जो कुछ प्राप्त हो, वह सब गुरुके अर्पित कर दे तथा अपने अन्तरात्माको भी गुरुके चरणोंमें अर्पित कर दे । गुरुके वचन और आज्ञाका पालन करनेमें कभी प्रतिकूलता न दिखाये—सदा आज्ञापालनके लिये तैयार रहे तथा गुरुकी कृपासे प्राप्त हुए वेद—शास्त्रोंके स्वाध्यामें तत्पर रहे । इस विषयमें यह उक्ति प्रसिद्ध है—जो द्विज गुरुकी आराधना करके वेदका ज्ञान प्राप्त करता है, उसे स्वर्गरूप फ्लकी उपलब्धि होती है और उसका सम्पूर्न मनोरथ सिद्ध हो जाता है ।
दूसरे आश्रमको गार्हस्थ्य कहते हैं । उसके सदाचारका जो स्वरूप है, उसकी पूर्णारूपसे व्याख्या करेंगे । जो गुरुकुलसे लौटे हुए सदाचारपरायण स्त्रातक हैं और धर्मानुष्ठानका फ़ल चाह्ते हैं, उनके लिये गृहस्थ—आश्रमका विधान है । इसमें धर्म, अर्थ और काम—तीनोंकी प्राति होती है । यहाँ त्रिवर्ग—साधनकी अपेक्षा रखकर निन्दित कर्मके परित्यागपूर्वक उत्तम (न्याययुक्त) कर्मसे धनोपार्जन करे । वेदोंके स्वाध्यायद्वारा, उपलब्ध हुई प्रतिष्ठासे अथवा ब्रह्मर्षिनिर्मित मार्गसे प्राप्त हुए धनके द्वारा या समुद्रसे उपलब्ध हुए द्र्व्यद्वारा अथवा नियमोंके अभ्यास तथा देवताके कृपाप्रसादसे मिली हुई सम्पत्तिद्वारा गृह्स्थ पुरुष अपनी गृहस्थी चलावे । गृहस्थ—आश्रमको सम्पूर्ण आश्रमोंका मूल कहते हैं । गुरुकुलमें निवास करनेवाले ब्रह्मचारी, संन्यासी तथा अन्य लोग जो संसलित व्रत, निमय एवं धर्मका अनुष्ठान करनेवाले हैं, उन सबका आधार गृहस्थ—आश्रम है । उनके अतिरिक्त भी गृहस्थ—आश्रममें भिक्षा और बलिवैश्व आदिका वितरण चलता रहता है । वनाप्रस्थोंके लिये भी आवश्यक द्र्व्य—सामग्री गृहस्थाश्रमसे ही प्राप्त होती है । प्राय: ये श्रेष्ठ पुरुष उत्तम पथ्य अन्नका सेवन करते हुए स्वाध्यायके प्रसङ्र्से अथवा तीर्थयात्राके लिये देश—दर्शनके निमित्त इस पृथ्वीपर घूमते रह्ते हैं । गूहस्थको उचित है कि उठकर उनकी अगवानी करे, उनके चरणोंमें मस्तक झुकाये, उनसे ईर्ष्यारहित वचन बोले, उनके लिये आवश्यक वस्तुओंका दान करे, उन्हें सुख और सत्कारपूर्वक आसन दे तथा उनके लिये सुखसे सोने और खाने—पीनेकी सुव्यवस्था करे । इस विषयमें यह उक्ति है—जिसके घरमें अतिथि निराश होकर लौट जाता है, उसे वह अपना पाप दे उसका पुण्य लेकर चला जाता है । इसके सिवा, इस आश्रममें यज्ञ—कर्मोंद्वारा देवता तृप्त होते हैं, श्राद्ध एवं तर्पणसे पितरोंकी तृप्ति होती है, विद्याके बार—बार श्रवण और धारणसे ऋषि संतुष्ट होते हैं और संतानोत्पादनसे प्रजापतिको प्रसन्नता होती है । इस विषयमें हैं—इस आश्रममें सम्पूर्ण भूतोंके लिये वात्सल्यका भाव होता है । देवता और अतिथियोंका वाणीद्वारा स्तवन किया जाता है । इसमें दूसरोंको सताना, कष्ट देना या कठोरता करना निन्दित है । इसी तरह दूसरोंकी अवहेलना तथा अपनेमें अहंकार और दम्भका होना भी निन्दित ही माना गया है । अहिंसा, सत्य और अक्रोध—ये सभी आश्रमके लिये तप हैं । जिसके गृहस्थ—आश्रममें प्रतिदिन धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्गका सम्पदन होता है, वह इस लोकमें सुखका अनुभव करके श्रेष्ठ पुरुषोंकी गतिको प्राप्त होता है । जो गृहस्थ उञ्छवृत्तिसे रहकर अपने धर्मके पालनमें तत्पर है और काम्यसुखको त्याग चुका है, उसके लिये स्वर्गलोक दुर्लभ नहीं है ।
वानप्रस्थी भी धर्मका अनुष्ठान करते हुए पुण्य तीर्तों तथा नदियों और झरनोंके आसपास रह्ते है; वनोंमेंरहकर तपस्या करते और घूमते हैं । ग्रामीण वस्त्र, भोजन और उपभोगका वे त्याग कर देते हैं । जंगली अन्न, फल, मूल और पत्तोंका परिमित एवं नियमित भोजन करते हैं । अपने स्थानपर ही बैठते हैं और पृथ्वी, पत्थर, सिकता, कंकड़ तथा बालूपर सो जाते हैं । काश, कुश, मृगचर्म तथा वल्कलसे ही अपने शरीरको ढकते हैं । केश, दाढ़ी, मूँछ, नख तथा लोम धारण किये रह्ते हैं । नियत समयपर स्त्रान करते और शुष्क बलिवैश्व एवं होमका शस्त्रोक्त समयपर अनुष्ठान करते हैं । समिधा, कुशा, पुष्प—संचय तथा सम्मार्जन आदि कार्योंमें ही विश्राम पाते हैं । सदीं, गरमी तथा वायुके आघातसे उनके शरीरकी सारी त्वचाएँ फटी होती हैं । अनेक प्रकारके नियम और योगचर्याके अनुष्ठानसे उनके शरीरका मांस और रक्त सूख जाता है और अस्थि—चर्मवशिष्ट होकर धैर्यपूर्वक सत्त्वगुणके योगसे शरीर धारण करते हैं । जो ब्रह्मर्षियोंद्वारा विहित इस व्रतचर्याका नियमपूर्वक पालन करता, है, वह अग्रिकी भाँति सम्पूर्ण दोषोंको जला देता है और दुर्जय लोकोंपर अधिकार पाप्त कर लेता है । अब संन्यासियोंका आचार बतलाया जाता है । धन, स्त्री तथा राजोचित सामग्रियोंमें जो अपना स्त्रेह बना हुआ है, उस स्त्रेह—बन्धनको काटकर तथा अग्रिहोत्र आदि कर्मोंका विधिपूर्वक त्याग करके विरक्त एवं जिज्ञासु पुरुष संन्यासी होते हैं । वे ढेले, पत्थर और सुवर्णको समान समझते हैं । धर्म, अर्थ और काममयी प्रवृत्तियोंमें उनकी बुद्धि आसक्त नहीं होती । शत्रु, मित्र और उदासीनोंके प्रति उनकी दृष्टि समान रह्ती है । वे स्थावर, जरायुज, अण्डज और स्वेदज प्राणियोंके प्रति मन, वाणी और क्रियाद्वारा कभी द्रोह नहीं करते । उनका कोई एक निवासस्थान नहीं होता । वे पर्व्त, नदी—तट, वृक्ष मूल तथा देवमन्दिर आदि स्थानोंमें ठहरते और विचरते हुए कभी किसी समूहके पास जाकर रह्ते हैं अथवा नगर या गाँवमें विश्राम करते हैं । क्रोध, दर्प, लोभ, मोह, कृपणता, दम्भ, निन्दा तथा अभिमानके कारण उनसे कभी हिंसा नहीं होती । इस विषयमें ऐसा कहा है—जो मुनि सम्पूर्ण भूतोंको अभयदान देकर स्वच्छन्द विचरता है, उसको कभी उन सब प्राणियोंसे भय नहीं होता । ब्राह्मण संन्यासी अग्रिहोत्रको अपने शरीरमें स्थापित करके शरीररूपी अग्रिको तृप्त करनेके लिये भिक्षान्नरूपी हविष्यकी आहुति अपने मुखमेंम डालता है और उसी शरीरसंचित अग्रिद्वारा उत्तम लोकोंमें जाता है । अपने संकल्पके अनुसार बुद्धिको संयममें रखनेवाला जो पवित्र ब्राह्मण शास्त्रोक्तविधिसे संन्यास—आश्रममें विचरता है, वह ईंधनरहित अग्रिकी भाँति परम शान्तिमय ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है ।
अध्याय ४० उत्तमलोक, अध्यात्मतत्व तथा ध्यानयोगका वर्णन
भरद्वाजजी बोले— महर्षे ! इस लोकसे उत्तम एक लोक यानी प्रदेश सुना जाता है । मैं उस उत्तम लोकको जानना चाहता हूँ । आप उसके विषयमें बतलानेकी कृपा करें ।
भृगुजीने कहा— उत्तरमें हिमालयके पास सर्वगुणसम्पन्न पुण्यमय प्रदेश है, जो पुण्यदायक, क्षेमकारक और कमनीय है । वही ’उत्तम लोक’ कहा जाता है । वहाँके मनुष्य पापकर्मसे रहित, पवित्र, अत्यन्त निर्मल, लोभ—मोहसे शून्य तथा उपद्रवरहित हैं । वह प्रदेश स्वर्गके समान है । वहाँ सात्त्विक शुभ गुण बताये गये हैं । वहाँ समय आनेपर ही मृत्यु होती है (अकाल मृत्यु नहीं होती) । रोग वहाँके मनुष्योंका स्पर्श नहीं करता । वहाँ किसीके मनमें परायी स्त्रीके लिये लोभ नहीं होता । सब लोग अपनी ही स्त्रीसे प्रेम रखनेवाले हैं । उस देशमें धनके लिये दूसरोंका वध नहीं किया जाता । उस प्रदेशमें अधर्म अच्छा नहीं माना जाता । किसीको धर्मविषयक संदेह नहीं होता । वहाँ किये हुए कर्मका फल प्रत्यक्ष मिलता है । इस लोकमें तो किन्हींके पास जीवन—निर्वाहमात्रके लिये सब सामग्री उपलब्ध है और कोई—कोई बड़े परिश्रमसे जीविका चलाते हैं । यहाँ कुछ लोग धर्मपरायण हैं, कुछ लोग शठता करनेवाले हैं, कोई सुखी है, कोई दु:खी; कोई धनवान है, कोई निर्धन । इस लोकमें परिश्रम, भय, मोह और तीव्र क्षुधाका कष्ट प्राप्त होता है । मनुष्योंके मनमें धनके लिये लोभ रह्ता है, जिससे अज्ञानी पुरुष मोहित होते हैं । कपट, शठता, चोरी, परनिन्दा, दोषदृष्टि दूसरोंपर चोट करना, हिंसा, चुगली तथा मिथ्याभाषण—इन दुर्गुणोंका जो सेवन करता है, उसकी तपस्या नष्ट होती है । जो विद्वान् इनका आचरण नहीं करता उसकी तपस्या बढ़्ती है । इस लोकमें धर्म और अधर्म—सम्बन्धी कर्मके लिये नाना प्रकारकी चिन्ता करनी पड़्ती है । लोकमें यह कर्मभूमि है । यहाँ शुभ और अशुभ कर्म करके मनुष्य शुभ कर्मोंका शुभ फल और अशुभ कर्मोंका अशुभ फल पाता है । पूर्वकालमें यहाँ प्रजापति ब्रह्मा, अन्यान्य देवता तथा महर्षियोंने यज्ञ और तपस्या करके पवित्र हो ब्रह्मलोक प्राप्त किया था । पृथ्वीका उत्तरीय भाग सबसे अधिक पवित्र और शुभ है । यहाँ जो पुण्य कर्म करनेवाले मनुष्य हैं, वे यदि सत्कार (शुभ फल) चाह्ते हैं तो पृथ्वीके उस भागमें जन्म पाते हैं । कुछ लोग कर्मानुसार पशु—पक्षी आदिकी योनियोंमें जन्म लेते हैं, दूसरे लोग क्षीणायु होकर यहीं भूतलपर नष्ट हो जाते हैं । जो एक—दूसरेको खा जानेके लिये उद्यत रह्ते हैं, ऐसे लोभ और मोहमें डूबे हुए मनुष्य यहीं चक्कर लगाते रह्ते हैं, उत्तर दिशाको नहीं जाते । जो गुरुजनोंकी सेवा करते और इन्द्रियसंयमपूर्वक ब्रह्मचर्यके पालनमें तत्पर होते हैं, वे मनीषी पुरुष सम्पूर्ण लोकोंका मार्ग जानते हैं । इस प्रकार मैंने ब्रह्माजीके बताये हुए धर्मका संक्षेपसे वर्णन किया है । जो जगत्के धर्म और अधर्मको जानता है, वही बुद्धिमान् है ।
भरद्वाजजीने कहा— तपोधन ! पुरुषके शरीरमेंं अध्यात्म—नामसे जिस वस्तुका चिन्तन किया जाता है, वह अध्यात्म क्या है और कैसा है । यह मुझे बताइये ।
भृगुजी बोले— ब्रह्मार्षे ! जिस अध्यात्मके विषयमेंं पूछ रहे हो, उसकी व्याख्या करता हूँ । तात ! वह अतिशय कल्याणकारी सुखस्वरूप है । अध्यात्मज्ञानका जो फल मिलता है—वह है सम्पूर्ण प्राणियोंका हित । पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और पाँचवाँ तेज—ये पाँच महाभूत हैं, जो सब प्राणियोंकी उत्पत्ति और लयके स्थान हैं । जो भूत जिससे उत्पन्न होते हैं, वे फिर उसीमें लीन हो जाते हैं । जैसे समुद्रसे लहरें उठती हैं और फिर उसीमें लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार ये महाभूत क्रमश: अपने—अपने कारणरूप अन्य भूतोंसे उत्पन्न होते और प्रलयकाल आनेपर फिर उन्हींमें लीन हो जाते हैं । जैसे कछुआ अपने अङ्गोको फैलाकर फिर उन्हें समेंट लेता है, उसी प्रकार भूतात्मा परमेंश्वर अपने रचे हुए भूतोंको पुन: अपनेमें लीन करते हैं । महाभूत पाँच ही हैं । सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति करनेवाले परमात्माने समस्त प्राणियोंमें उन्हीं पाँचों भूतोंको भलीभाँति नियुक किया है, किंतु जीव उन परमात्माको नहीं देखता है ।
शब्द, कान और शरीरके छिद्र—ये तीनों आकाशसे प्रकट हुए हैं । स्पर्श, चेष्टा और त्वचा—ये तीन रूपोंमें तेजकी उपलब्धि कही जाती है । रस, क्लेद (गीलापन) और जिह्वा—ये तीन जलके गुण बताये गये हैं । गन्ध, नासिका और शरीर—ये तीन भूमिके कार्य हैं । इन्द्रियरूपमें पाँच ही महाभूत हैं और छठा मन है । इस प्रकार श्रोत्रादि पाँच इन्द्रियोंका और मनका ही परिचय दिया गया है । बुद्धिको सातवाँ तत्त्व कहा गया है । क्षेत्रज्ञ आठवाँ है । कान सुननेके लिये और त्वचा स्पर्शका अनुभव करनेके लिये है और क्षेत्रज्ञ साक्षीकी भाँति स्थित है । दोनों पैरोंसे ऊपर सिरतक—जो कुछ भी नीचे—ऊपर है, सबको वह क्षेत्रज्ञ ही देखता है । क्षेत्रज्ञ (आत्मा) व्यापक है । इसने इस सम्पूर्ण शरीरको बाहर—भीतरसे व्याप्त कर रखा है । पुरुष ज्ञाता है और सम्पूर्ण इन्द्रियाँ उसके लिये ज्ञेय हैं । तम, रज और सत्त्व—ये सारे भाव पुरुषके आश्रित हैं । जो मनुष्य इस अध्यात्मज्ञानको जान लेता है, वह भुतोंके आवागमनका विचार करके धीरे—धीरे उत्तम शान्ति पा लेता है । पुरुष जिससे देखता है, वह नेत्र है । जिससे सुनता है, उसे श्रोत्र (कान) कह्ते हैं । जिससे सूँघता है, उसका नाम प्राण (नासिका) है । वह जिह्वासे रसका अनुभव करता है और त्वचासे स्पर्शको जानता है । बुद्धि सदा ज्ञान या निश्चय कराती है । पुरुष जिससे कुछ इच्छा करता है, वह मन है । बुद्धि इन सबका अधिष्ठान है । अतः पाँच विषय और पाँच इन्द्रियाँ उससे पृथक् कही गयी हैं । इन सबका अधिष्ठाता चेतन क्षेत्रज्ञ इनसे नहीं देखा जाता ।
प्रीति या प्रसन्नता सत्त्वगुणका कार्य है । शोक रजोगुण और क्रोध तमोगुण है । इस प्रकार ये तीन भाव हैं, लोकमें जो—जो भाव हैं, वे सब इन तीनों गुणोंमें आबद्ध हैं । सत्त्व, रज और तम—ये तीन गुण सदा प्राणियोंके भीतर रह्ते हैं । इसलिये सब जीवोंमें सात्त्विकी, राजसी और तामसी—यह तीन प्रकारकी अनुभूति देखी जाती है । तुम्हारे शरीर अथवा मनमें जो कुछ प्रसन्नतासे संयुक्त है, वह सब सात्तिक भाव है । मुनिश्रेष्ठ ! जो कुछ भी दु:खसे सयुक्त और मनको अप्रसन्न करनेवाला है, उसे रजोगुणका ही प्रकाश समझो । इससे अतिरिक्त जो कुछ मोहसे संयुक्त हो और उसका आधार व्यक्त न हो तथा जो ज्ञानमें न आता हो, वह तमोगुण है—ऐसा निश्चय करे । हर्ष, प्रीति, आनन्द, सुख एवं चित्तकी शान्ति—इन भावोंको सात्त्विक गुण समझना चाहिये । असंतोष, परिताप, शोक, लोभ तथा असहनशीलता—ये रजोगुणके चिन्ह हैं । अपमान, मोह, प्रमाद, स्वप्र, तन्द्रा आदि भाव तमोगुणके ही भिन्न—भिन्न कार्य हैं । जो बहुधा दोषकी ओर जाता है, उस मनके दो स्वरूप हैं—याचना करना और संशय । जिसका मन अपने अधीन है, वह इस लोकमें तो सुखी होता ही है, मरनेके बाद परलोकमें भी उसे सुख मिलता है ।
सत्त्व (बुद्धि) तथा क्षेत्रज्ञ (पुरुष)—ये दोनों सूक्ष्म हैं । जिसे इन दोनोंका अन्तर (पार्थक्य) ज्ञात हो जाता है, वह भी इहलोक और परलोकमें सुखका भागी होता है । इनमें एक तो गुणोंकी सृष्टि करता है और एक नहीं करता । सत्त्व आदि गुण आत्माको नहीं जानते, किंतु आत्मा सब प्रकारसे गुणोंको जानता है । यद्यपि पुरुष गुणोंका द्रष्टामात्र है, तथापि बुद्धिसे संसर्गसे वह अपनेको उनका स्त्रष्टा मानता है । इस प्रकार सत्त्व और पुरुषका संयोग हुआ है, किंतु इनका पार्थक्य निश्चित है । जब बुद्धि मनके द्वारा इन्द्रियरूपी घोड़ोंकी रास खींचती है और भलीभाँति काबूमें रखती है, उस समय आत्मा प्रकाशित होने लगता है । जो मुनि प्राकृत कर्मोंका त्याग करके सदा आत्मामें ही रमण करता है, वह सम्पूर्ण भूतोंका आत्मा होकर उत्तम गतिको प्राप्त होता रहता है । जैसे जलचर पक्षी जलसे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार शुद्धबुद्धिपुरुष लिप्त नहीं होता । वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें अनासक्तभावसे रहता है । इस प्रकार अपनी बुद्धिद्वारा विचार करके मनुष्य अनासक्त—भावसे व्यवहार करे । वहा हर्ष—शोकसे रहित हो सभी अवस्थाओंमें सम रहे । ईर्ष्या—द्वेषको त्याग दे । बुद्धि और चेतनकी एकता है, यही ह्रदयकी सुदृढ़ ग्रन्थि है । इसको खोलकर विद्वान् पुरुष सुखी हो जाय और संशयका उच्छेद करके सदाके लिये शोक त्याग दे । जैसे मलिन मनुष्य गङ्गामें स्त्रान करके शुद्ध होते हैं, उसी प्रकार श्रेष्ठ विद्वान् इस ज्ञानगङ्गामें गोता लगाकर निर्मल हो जाते हैं—ऐसा जानो। इस तरह जो मनुष्य इस उत्तम अध्यात्म—ज्ञानको जानते हैं, वे कैवल्यको प्राप्त होते हैं । ऐसा समझकर सब मनुष्य सम्पूर्ण भूतोंके आवागमनपर दृष्टि रखते हुए बुद्धिपूर्वक विचार करें । इससे धीरे—धीरे शान्ति प्राप्त होती है । जिनका अन्त: करण पवित्र नहीं है, वे मनुष्य भिन्न—भिन्न विषयोंकी ओर प्रवृत्त हुई इन्द्रियोंमें यदि पृथक्—पृथक् आत्माकी खोज करना चाहें तो उन्हें इस प्रकार आत्माका साक्षात्कार नहीं हो सकता । आत्मा तो इन सब इन्द्रिय, मन और बुद्धिका साक्षी होनेके कारण उनसे परे है—ऐसा जान लेनेपर ही मनुष्य ज्ञानी हो सकता है । इस तत्त्वको जान लेनेपर मनीषी पुरुष अपनेको कृतकृत्य मानते हैं । अज्ञानी पुरुषोंको जो महान् भय प्राप्त होता है, वह ज्ञानियोंको नहीं प्राप्त होता । जो फलकी इच्छा और आसक्तिका त्याग करके कर्म करता है, वह अपने पूर्वकृत कर्मबन्धनको जला देता है । ऐसा पुरुष यदि कर्म करता है तो उसका किया हुआ कर्म प्रिय अथवा अप्रिय फल नहीं उत्पन्न कर सकता । यदि मनुष्य अपनी आयुभर लोकको सताता है तो कर्ममें लगे हुए उस पुरुषका वह अशुभ कर्म उसके लिये यहाँ अशुभ फल ही उत्पन्न करता है । देखो, कुशल (पुण्य) कर्म करनेसे कोई भी शोकमें नहीं पड़्ता, परंतु यदि उससे पाप बनता है तो सदाके लिये भयपूर्ण स्थान प्राप्त होता है ।
भरद्वाजजी बोले— ब्रह्मन ! मुझे अभयपदकी सिद्धिके लिये ध्यानयोग बताइये । जिस तत्त्वको जानकर मनुष्य आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों तापोंसे मुक्त हो जाता है, उसका मुझे उपदेश कीजिये ।
भृगुजीने कहा— मुने ! मैं तुम्हैं ध्यानयोग बतलाता हूँ । (यद्यपि) वह चार प्रकारका है (किंतु यहाँ एक ही बताया जाता है), जिसे जानकर महर्षिगण इस जगत्में शाश्वत सिद्धिको प्राप्त होते हैं । योगी लोग भलीभाँति अभ्यासमें लाये हुए ध्यानका जिस प्रकार अनुष्ठान करते हैं, वैसा ही ध्यान करके ज्ञानतृप्त महर्षिगण संसारदोषसे मुक्त हो गये हैं । उन मुक्त पुरुषोंका पुन: इस संसारमें आगमन नहीं होता । वे जन्मदोषसे रहित हो अपने शुद्ध स्वरूपमें स्थित हो गये हैं । उनपर शीत—उष्ण आदि द्वन्द्वोंका प्रभाव नहीं पड़ता । वे सदा अपने विशुद्ध स्वरूपमें स्थित, सब प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त तथा परिग्रहशून्य हैं । अनासक्ति आदि गुण मनको शान्ति प्रदान करनेवाले हैं ।
अनेक प्रकारकी चिन्ताओंसे पीड़ित मनको ध्यानके द्वारा एकाग्र करके ध्येय वस्तुमें स्थित करे । इन्द्रियसमुदायको सब ओरसे समेंट करके ध्यानयोगी मुनि काष्ठकी भाँति स्थित हो जाय । कानसे किसी शब्दको न ग्रहण करे । त्वचासे स्पर्शका अनुभव न करे । नेत्रेसे रूप न देखे तथा जिह्वासे रसोंका आस्वादन न करे । नासिकाद्वारा सब प्रकारके गन्धोंको ग्रहण करना भी त्याग दे । पाँचों विषय पाँचों इन्द्रियोंको मथ डालनेवाले हैं । तत्त्ववेत्ता पुरुष ध्यानके द्वारा इन विषयोंकी अभिलाषा छोड़ दे । तदनन्तर सशक्त एवं बुद्धिमान् पुरुष पाँच इन्द्रियोंको मनमें लीन करके पाँचों इन्द्रियोंसहित इधर—उधर भटकनेवाले मनको ध्येय वस्तुमें एकाग्र करे । मन चारों ओर विचरण करनेवाला है । उसका कोई दृढ़ आधार नहीं है । पाँचों इन्द्रियोंके द्वार उसके निकलनेके मार्ग हैं । वह अजितेन्द्रिय पुरुषके लिये बलवान् और जितेन्द्रियके लिये निर्बल है । धीर पुरुष पूर्वीक्त ध्यानके साधनमें शीघ्रतापूर्वक मनको एकाग्र करे । जब वह इन्द्रिय और मनको अपने वशमें कर लेता है तो उसका पूर्वोक्त ध्यान सिद्ध हो जाता है । इस प्रकार मैंने यहाँ प्रथम ध्यानमार्गका वर्णन किया है ।
इसके बाद पहलेसे वशमें किया हुआ मनसहित इन्द्रियवर्ग पुन: अवसर पाकर स्फुरित होता है, ठीक इसी तरह जैसे बादलमें बिजली चमकती है । जिस प्रकार पत्तेपर रखी हुई जलकी बूँद सब ओरसे चञ्चल एवं अस्थिर होती है, उसी प्रकार प्रथम ध्यानमार्गमें साधकका चित्त भी चञ्चल होता है । क्षणभरके लिये कभी एकाग्र होकर कुछ देर ध्यानमार्गमें स्थिर होता है, फिर भ्रान्त होकर वायुकी भाँति आकाशमें दौड़ लगाने लगता है । परंतु ध्यानयोगका ज्ञाता पुरुष इससे ऊबे नहीं । वह क्लेश, चिन्ता, ईर्ष्या और आलस्यका त्याग करके पुन; ध्यानके द्वारा चित्तको एकाग्र करे । प्रथम ध्यानमार्गपर चलनेवाले मुनिके ह्रदयमें विचार, वितर्क एवं विवेककी उत्पत्ति होती है । मन उद्विग्र होनेपर उसका समाधान करे । ध्यानयोगी मुनि कभी उससे खिन्न या उदासीन न हो । ध्यानद्वारा अपना हित—साधन अवश्य करे । इन इन्द्रियोंकी धीरे—धीरे शान्त करनेका प्रयत्न करे । क्रमश: इनका उपसंहार करे । ऐसा करनेपर इनकी पूर्णरूपसे शान्ति हो जायगी । मुनीश्वर ! प्रथम ध्यानमार्गमेंं पाँचों इन्द्रियों और मनको स्थापित करके नित्य अभ्यास करनेसे य स्वयं शान्त हो जाते हैं । इस प्रकार आत्मसंयम करनेवाले पुरुषको जिस सुखकी प्राप्ति होती है, वह किसी लौकिक पुरुषार्थ और प्रारब्धसे नहीं मिलता । उस सुखके प्राप्त होनेपर मनुष्य ध्यानके साधनमें रम जाता है । इस प्रकार ध्यानका अभ्यास करनेवाले योगीजन निरामय मोक्षको प्राप्त होते हैं ।
सनन्दनजी कहते हैं— ब्रह्मन् ! महर्षि भृगुके इस प्रकार कहनेपर परम धर्मात्मा एवं प्रतापी भरद्वाज मुनि बड़े विस्मित हुए और उन्होंने भृगुजीकी बड़ी प्रशंसा की ।
अध्याय ४१ पांचशिखाका राजा जनकको उपदेश
सूतजी कहते हैं— ब्राह्मणो ! सनन्दनजीका मोक्षधर्मसम्बन्धी वचन सुनकर तत्त्वज्ञ नारदजीने पुन; अध्यात्मविषयक उत्तम बात पूछी ।
नारदजी बोले— महाभाग ! मैंने आपके बताये हुए अध्यात्म और ध्यानविषयक मोक्ष—शास्त्रको सुना, यह सब बार—बार सुननेपर भी मुझे तृप्ति नहीं हो रही है (अधिकाधिक सुननेकी इच्छा बढ़्ती जा रही है) । सर्वज्ञ मुने ! जीव अविद्याके बन्धनसे जिस प्रकार मुक्त होता है, वह उपाय बताइये । साधु पुरुषोंने जिसका आश्रय ले रखा है, उस मोक्ष—धर्मका पुन: वर्णन कीजिये ।
सनन्दनजीने कहा— नारद ! इस विषयमें विद्वान् पुरुष इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं । जिससे यह ज्ञात होता है कि मिथिलानरेश जनकने किस प्रकार मोक्ष प्राप्त किया था । यह उस समयकी बात है, जब मिथिलामें जनकवंशी राजा जनदेवका राज्य था । जनदेव सदा ब्रह्मकी प्राप्ति करानेवाले धर्मोंका ही चिन्तन किया करते थे । उनके दरबारमें एक सौ आचार्य बराबर रहा करते थे, जो उन्हें भिन्न—भिन्न आश्रमोंके धर्मोंका उपदेश देते रह्ते थे । ’ इस शरीरको त्याग देनेके पश्चात् जीवकी सत्ता रहती है या नहीं? अथवा देह—त्यागके बाद उसका पुनर्जन्म होता है या नहीं? ’ इस विषयमें उन आचार्योंका जो सुनिश्चित सिद्धान्त था, वे लोग आत्मतत्त्वके विषयमें जैसा विचार उपस्थित करते थे, उससे शास्त्रानुयायी राजा जनदेवको विशेष संतोष नहीं होता था । एक बार कपिलाके पुत्र महामुनि पञ्चशिख सम्पूर्ण पृथ्वीकी परिक्रमा करते हुए मिथिलामें आ पहूँचे । वे सम्पूर्ण संन्यास—धर्मोंके ज्ञाता और तत्त्वज्ञानके निर्णयमें एक सुनिश्चित सिद्धन्तके पोषक थे । उनके मनमें किसी प्रकारका संदेह नहीं था । वे निर्द्वन्द्व होकर विचरा करते थे । उन्हें ऋषियोंमें अद्वितीय बताया जाता है । कामना तो उन्हें छू भी नहीं गयी थी । वे मनुष्योंके हृदयमें अपने उपदेशद्वारा अत्यन्त दुर्लभ सनातन सुखकी प्रतिष्ठा करना चाह्ते थे । सांख्यके विद्वान तो उन्हें साक्षात् प्रजापति महर्षि कपिलकाही स्वरूप समझते हैं । उन्हें देखकर ऐसा जान पड़्ता था, मानो सांख्यशास्त्रके प्रवर्तक भगवान् कपिल स्वयं पञ्चशिखके रूपमें आकर लोगोंको आश्चर्यमें डाल रहे हैं । उन्हें आसुरि मुनिका प्रथम शिष्य और चिरञ्जीवी बताया जाता है । एक समय उन्होंने महर्षि कपिलके मतका अनुसरण करनेवाले मनियोंकी विशाल मण्डलीमें जाकर सबमें अन्तर्यामीरूपसे स्थित परमार्थस्वरूप अव्यक्त ब्रह्मके विषयमें निवेदन किया था और क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञका अन्तर स्पष्टरूपसे जान लिया था । यही नहीं, जो एकमात्र अक्षर एवं अविनाशी ब्रह्म नाना रूपोंमें दिखायी देता है, उसका ज्ञान भी आसुरिने उस मुनिमण्डलीमें प्राप्त किया था, उन्हींके शिष्य पञ्चशिख थे, जो देव—कोटिके पुरुष होते हुए भी मानवीके दूधसे पले थे । कपिला नामकी एक ब्राह्मणी थी, जो पति—पुत्र आदि कुटुम्बके साथ रह्ती थी; उसीके पुत्रभावको प्राप्त होकर वे उसके स्तनोंका दूध पीते थे । अत: कपिलाका दूध पीनेके कारण उनकी कापिलेय संज्ञा हुई । उन्होंने नैष्ठिक (ब्रह्ममें निष्ठा रखनेवाली) बुद्धि प्राति की थी । कापिलेयकि उत्पत्तिके सम्बन्धमें यह बात मुझे भगवान् ब्रह्माजीने बतायी थी । उनके कपिलापुत्र कहलाने और सर्वज्ञ होनेका यही उत्तम वृत्तान्त है । धर्मज्ञ पञ्चशिखने उत्तम ज्ञान प्राप्त किया था । वे राजा जनकको सौ आचार्योंपर समानभावसे अनुरक्त जानकर उनके दरबार्मे गये । वहाँ जाकर उन्होंने अपने युक्तियुक्त वचनोंसे उन सब आचार्योंको मोहित कर दिया । उस समय महाराज जनक कपिलानन्दन पञ्चशिखका ज्ञान देखकर उनके प्रति आकृष्ट हो गये और अपने सौ आचार्योंको छोड़्कर उन्हींके पीछे चलने लगे । तब मुनिवर पञ्चशिखने राजाको धर्मानुसार चरणोंमें पड़ा देख उन्हें योग्य अधिकारी मानकर परम मोक्षका उपदेश किया, जिसका सांख्य—शास्त्रमें वर्णन है । उन्होंने ’जातिनिर्वेद’ का वर्णन करके ’कर्मनिर्वेद’ का उपदेश किया । तत्पश्चात् ’सर्वनिर्वेद’ की बात बतायी । उन्होंने कहा—जिकसे लिये धर्मका आचरण किया जाता है, जो कर्मोंके फलका उदय होनेपर प्राप्त होता है, वह इहलोक या परलोकका भोग नश्वर है । उसपर आस्था करना उचित नहीं । वह मोहरूप चञ्चल और अस्थिर है ।
कुछ नास्तिक ऐसा कहा करते हैं कि ’ देहरूपी आत्माका विनाश प्रत्यक्ष देखा जा रहा है, सम्पूर्ण लोक इसका साक्षी है; फिर भी यदि कोई शान्त्र—प्रमाणकी ओट लेकर देहसे भिन्न आत्माकी सत्ताका प्रतिपादन करता है तो वह परास्त ही है; क्योंकि उसका कथन लोकानुभवके विरुद्ध है । आत्माके स्वरूपका अभाव हो जाना ही उसकी मृत्यु है । जो लोग मोहवश आत्माको देहसे भिन्न मानते हैं, उनकी वह मान्यता ठीक नहीं है । यदि ऐसी वस्तुका भी अस्तित्व मान लिया जाय, जो लोकमें सम्भव नहीं है अर्थात् यदि शास्त्रके आधारपर यह स्वीकार किया जाय की शरीरसे भिन्न कोई अजर—अमर आत्मा है, जो स्वर्ग आदि लोकोंमें दिव्य सुख भोगता है, तब तो बंदीलोग, जो राजाको अजर—अमर कह्ते हैं, उनकी वह बात भी ठीक माननी पड़ेगी । सारांश यह है कि जैसे बंदीलोग आशीर्वादमें उपचारतः राजाको अजर—अमर कहते हैं, उसी प्रकार शास्त्रका वह वचन भी औपचारिक ही है । नीरोग शरीरको ही अजर—अमर और यहाँके प्रत्यक्ष सुख—भोगको ही स्वर्गीय सुख कहा गया है । यदि आत्मा है या नहीं—यह संशय उपस्थित होनेपर अनुमानसे उसके अस्तित्वका साधन किया जाय तो इसके लिये कोई ऐसा ज्ञापक हेतु नहीं उपलब्ध होता, जो कहीं व्यभिचरित न होता हो; फिर किस अनुमानका आश्रय लेकर लोक—व्यवहारका निश्चय किया जा सकता है । अनुमान और आगम—इन दोनों प्रमाणोंका मूल्य प्रत्यक्ष प्रमाण है । आगम या अनुमान यदि प्रत्यक्ष अनुभवके विरुद्ध है तो वह कुछ भी नहीं है, उसकी प्रामाणिकता स्वीकार नहीं की जा सकती ।जिस किसी भी अनुमानमें ईश्वर, अदृष्ट अथवा नित्य आत्माकी सिद्धिके लिये की हुई भावना भी व्यर्थ है; अत: नास्तिकोंके मतमें शरीरसे भिन्न जीवका अस्तित्व नहीं है, यह बात स्थिर हुई । जैसे वटवृक्षके बीजमें पत्र, पुष्प, फल, मूल तथा त्वचा आदि अन्तर्हित होते हैं, जैसे गायके द्वारा खायी हुई घासमेंसे घी, दूध आदि प्रकट हो जाते हैं तथा जिस प्रकार अनेक औषध—द्वव्योंका पाक एवं अधिवासन करनेसे उसमें नशा पैदा करनेवाली शक्ति आ जाती है, उसी प्रकार वीर्यसे ही शरीर आदिके साथ चेतनता भी प्रकट होती है ।’
(इस नास्तिक मतका खण्डन इस प्रकार समझना चाहिये) मरे हुए शरीरमें जो चेतनताका अतिक्रमण देखा जाता है, वही देहातिरिक्त आत्माके अस्तित्वमें प्रमाण है । यदि चेतनता देहका ही धर्म होता तो मृतक शरीरमें भी उसकी उपलब्धि होती । मृत्युके पश्चात् कुछ कालतक शरीर तो रहता है, पर उसमें चेतनता नहीं रह्ती । अत: चेतन आत्मा शरीरसे भिन्न है—यह सिद्ध होता है । नास्तिक भी रोग आदिकी निवृत्तिके लिये मन्त्रजप तथा तान्त्रिक—पद्धतिसे देवता आदिकी आराधना करते हैं । वह देवता क्या है? यदि पाञ्चभौतिक है तो घट आदिकी भाँति उसका दर्शन होना चाहिये और यदि वह भौतिक पदार्थोंसे भिन्न है तो चेतनकी सत्ता स्वतः सिद्ध हो गयी । अतः देहसे भिन्न आत्मा है—यह प्रत्यक्ष अनुभवसे सिद्ध हो जाता है; और देह ही आत्मा है, यह प्रत्यक्ष अनुभवके विरुद्ध जान पड़्ता है । यदि शरीरकी मृत्युके साथ आत्माकी भी मृत्यु मान ली जाय, तब तो उसके किये हुए कर्मोंका भी नाश मानना पड़ेगा; फिर तो उसके शुभाशुभ कर्मोंका फल भोगनेवाला कोई नहीं रह जायगा और देहकी उत्पत्तिमें अकृताभ्यागम (बिना किये हुए कर्मका ही भोग प्राप्त हुआ ऐसा) माननेका प्रसंग उपस्थित होगा । ये सब प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि देहातिरिक्त चेतन आत्माकी सत्ता अवश्य है । नास्तिकोंकी ओरसे जो हेतुभूत दृष्टान्त दिये गये हैं, वे मूर्त पदार्थ हैं । मूर्त जड—पदार्थसे मूर्त जड—पदार्थकी ही उत्पत्ति होती है—यही उनके द्वारा सिद्ध होता है । जैसे काष्ठसे अग्रिकी उत्पत्ति आदि ।
पञ्चभूतोंसे आत्माकी उतपत्तिकी भाँति यदि मूर्तसे अमूर्तकी उत्पत्ति मानी जाय तो पृथ्वी आदि मूर्त भूतोंसे अमूर्त आकाशकी भी उत्पत्ति स्वीकार करनी पड़ेगी, जो असम्भव है । अतः स्थूल भूतोंके संयोगसे अमूर्त चेतन आत्माकी उत्पत्ति सर्वथा असम्भव है ।
आत्माकी सत्ता न माननेपर लोकयात्राका निर्वाह नहीं होगा । दान, धर्मके फलकी प्राप्तिके लिये कोई आस्था नहीं रहेगी; क्योंकि वैदिक शब्द तथा लौकिक व्यवहार सब आत्माको ही सुख देनेके लिये हैं । इस प्रकार मनमें अनेक प्रकारके तर्क उठते हैं और उन तर्कों तथा युक्तियोंसे आत्माकी सत्ता या असत्ताका निर्धारण कुछ भी होता नहीं दिखायी देता । इस प्रकार विचार करते हुए भिन्न—भिन्न मतोंकी ओर दौड़्नेवाले लोगोंकी बुद्धि कहीं एक जगह प्रवेश करती है और वहीं वृक्षकी भाँति जड़ जमाये जीर्ण हो जाती है । इस प्रकार अर्थ और अनर्थसे सभी प्राणी दु:खी रह्ते हैं । केवल शास्त्र ही उन्हें खींचकर राहपर लाते हैं, ठीक उसी तरह, जैसे महावत हाथीपर अङ्गकुश रखकर उन्हें काबूमें किये रह्ते हैं । बहुत—से शुष्क ह्रदयवाले लोग ऐसे विषयोंकी लिप्सा रखते हैं, जो अत्यन्त सुखदायक हो; किंन्तु इस लिप्सामें उन्हें भारी—से—भारी दु; खोंका ही सामना करना पड़्ता है और अन्तमें वे भोगोंको छोड़्कर मृत्यके ग्रास बन जाते हैं । जो एक दिन नष्ट होनेवाला है, जिसके जीवनका कुछ ठिकाना नहीं, ऐसे अनित्य शरीरको पाकर इन बन्धु—बान्धवों तथा स्त्री—पुत्रादिसे क्या लाभ है? यह सोचकर जो मनुष्य इन सबको क्षणभरमें वैराग्य़ूर्वक त्यागकर चल देता है, उसे मृत्युके बाद फिर जन्म नहीं लेना पड़्ता । पृथ्वी, आकाश, जल, अग्रि और वायु—ये सदा शरीरकी रक्षा करते रह्ते हैं, इस बातको अच्छी तरह समझ लेनेपर इसके प्रति आसक्ति कैसे हो सकती है? जो एक दिन मृत्युके मुखमें पड़्नेवाला है, ऐसे शरीरसे सुख कहाँ?
पञ्चशिखने फिर कहा— राजन् ! अब मैं उस परम उत्तम सांख्यशात्रका वर्णन करता हूँ, जिसका नाम है—सम्यड्मन (मनको संदेहरहित करनेवाला), उसमें त्यागकी प्रधानता है । तुम ध्यान देकर सुनो । उसका उपदेश तुम्हारे मोक्षमें सहायक होगा । जो लोग मुक्तिके लिये प्रयत्नशील हो, उन सबको चाहिये कि सम्पूर्ण सकाम कर्मोंका और धन आदिका भी त्याग करें । जो त्याग किये बिना व्यर्थ ही विनीत (शम—दमादि साधनोंमें तत्पर) होनेका झूठा दावा करते हैं, उन्हें दु:ख देनेवाले अविद्यारूप क्लेश प्राप्त होते रह्ते हैं । शास्त्रोंमें द्र्व्यका त्याग करनेके लिये यज्ञ आदि कर्म, भोगका त्याग करनेके लिये व्रत, दैहिक सुखोंके त्यागके लिये तप और सब कुछ त्यागनेके लिये योगके अनुष्ठानकी आज्ञा दी गयी है । यही त्यागकी सीमा है । सर्वस्व—त्यागका यह एकमात्र मार्ग ही दु:खोंसे छुटकारा पानेके लिये उत्तम बताया गया है । इसका आश्रय न लेनेवालोंको दुर्गति भोगनी पड़ती है ।
छठे मनसहित पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ बतायी हैं, जिनकी स्थिति बुद्धिमें है, इनका वर्णन करके पाँच कर्मेन्द्रियोंका निरूपण करता हूँ । दोनों हाथ काम करनेवाली इन्द्रिय हैं । दोनों पैर चलने—फिरनेका कार्य करनेवाली इन्द्रिय हैं । लिङ मैथुन—जनक सुख और संतानोत्पादन आदिके लिये है । गुदा नामक इन्द्रियका कार्य मलत्याग करना है । वाक्—इन्द्रिय शब्दविशेषका उच्चारण करनेके लिये है । मनको इन पाँचोंसे संयुक्त माना गया है । इस प्रकार पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और मन—ये सब मिलकर ग्यारह इन्द्रियाँ हैं । इन सबको मनरूप जानकर बुद्धिके द्वारा शीघ्र इनका त्याग कर देना चाहिये । श्रवणकालमें श्रोत्ररूपी इन्द्रिय, शब्दरूपी विषया और चित्तरूपी कर्ता—इन तीनका संयोग होता है । इसी प्रकार स्पर्श, रूप, रस तथा गन्धके अनुभवकालमें भी इन्द्रिय, विषय एवं मनका संयोग अपेक्षित है । इस तरह तीन—तीनके पाँच समुदाय हैं । ये सब गुण कहे गये हैं । इनसे शब्दादि विषयोंका ग्रहण होता है और इसीके लिये ये कर्ता, कर्म और करणरूपी त्रिविध भाव बारी—बारीसे उपस्थित होते हैं । इनमेंसे एक—एकसे सात्त्विक, राजस और तामस तीन—तीन भेद होते हैं । हर्ष, प्रीति, आनन्द, सुख और चित्तकी शान्ति—ये सब भाव बिना किसी कारणके हो या किसी कारणवश हो, सात्त्विक गुण माने गये हैं । असंतोष, संताप, शोक, लोभ तथा क्षमाका अभाव—ये किसी कारणसे हो या अकारण—रजोगुणके चिह्ल हैं । अविवेक, मोह, प्रमाद, स्वप्र और आलस्य—ये किसी तरह भी क्योंन हो, तमोगुणके ही नाना रूप हैं ।
जो इस मोक्ष—विद्याको जानकर सावधानीके साथ आत्मतत्त्वका अनुसंधान करता है, वह जलसे कमलके पत्तेकी भाँति कर्मके अनिष्ट फलोंसे कभी लिप्त नहीं होता । संतानोंके प्रति आसक्ति और भिन्न—भिन्न देवताओंके लिये सकाम यज्ञोंका अनुष्ठान—ये सब मनुष्यके लिये नाना प्रकारके दृढ़ बन्धन हैं । जब वह इन बन्धनोंसे छूटकर दु:ख—सुखकी चिन्ता छोड़ देता है, उस समय सर्वश्रेष्ठ गति (मुक्ति) प्राप्त कर लेता है । श्रुतिके महावाक्योंका विचार और शास्त्रमें बताये हुए मङ्गलमय साधनोंका अनुष्ठान करनेसे मनुष्य जरा तथा मृत्युके भयसे रहित होकर सुखसे रहता है । जब पुण्य और पापका क्षय तथा उनसे मिलनेवाले सुख—दु:खादि फलोंका नाश हो जाता है, उस समय सब वस्तुओंकी आसक्तिसे रहित पुरुष आकाशके समान निर्लेप एवं निर्गुण आत्माका साक्षात्कार कर लेता है । जो शरीरमें आसक्ति न रखकर उसके प्रति अपनेपनका अभिमान त्याग देता है, वह दु:खसे छूट जाता है । जैसे वृक्षके प्रति आसक्ति न रखनेवाला पक्षी जलमें गिरते हुए वृक्षको छोड़्कर उड़ जाता है, उसी प्रकार जो शरीरकी आसक्तिको छोड़ चुका है, वह मुक्त पुरुष सुख और दु:ख दोनोंका त्याग करके उत्तम गतिको प्राप्त होता है ।
आचार्य पञ्चशिखके बताये हुए इस अमृतमय ज्ञानको सुनकर राजा जनक उसे पूर्नरूपसे विचार करके एक निश्चित सिद्धिन्तपर पहुँच गये और शोकरहित हो बड़े सुखसे रहने लगे । फिर तो उनकी स्थिति ऐसी हो गयी कि एक बार मिथिलानगरीको आगसे जलती देखकर भूपालने स्वयं यह उद्गार प्रकट किया कि’ इस नगरके जलनेसे मेंरा कुछ भी नहीं जलता ।’ महामुनि नारदजी ! इस अध्यायमेंं मोक्षतत्त्वका निर्णय किया गया है । जो सदा इसका स्वाध्याय और चिन्तन करता रह्ता है, वह दु:ख—शोकसे रहित हो कभी किसी प्रकारके उपद्रवका अनुभव नहीं करता तथा जिस प्रकार राजा जनक पञ्चशिखके समागमसे इस ज्ञानको पाकर मुक्त हो गये थे, उसी प्रकार वह भी मोक्ष प्राप्त करता है ।
अध्याय ४२ त्रिविध तापोंसे छूटनेका उपाय, भगवान तथा वासुदेव आदि शब्दोंकी ब्याख्या, परा और अपरा विधाका निरूपण, खाण्डिक्य और केशिध्वजकी कथा, केधिध्वजद्धारा अविधाके बीजका प्रतिपादन
सूतजी कहते हैं— महर्षियो ! उत्तम अध्यात्मज्ञान सुनकर उदारबुद्धि नारदजी बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने पुन: प्रश्र किया ।
नारदजी बोले— दयानिधे ! मैं आपाकी शरणमें हूँ । मुने ! मनुष्यको आध्यात्मिक आदि तीनों तापोंका अनुभव न हो, वह उपाय मुझे बतलाइये ।
सनन्दनजीने कहा— विद्वन् ! गर्भमें, जन्मकालमें और बुढ़ापा आदि अवस्थाओंमें प्रकट होनेवाले जो तीन प्रकारके
दु:ख—समुदाय हैं, उनकी एकमात्र अमोघ एवं अनिवार्य ओषधि भगवान्की प्राप्ति ही मानी गयी है । जब भगवत्प्राप्ति होती है, उस समय ऐसे लोकोत्तर आनन्दकी अभिव्यक्ति होती है, जिससे बढ़्कर सुख और आह्लाद कहीं है ही नहीं । यही उस भगवत्प्राप्तिकी पहचान है । अत: विद्वान् मनुष्योंको भगवान्की प्राप्तिके लिये अवश्य प्रयत्न करना चाहिये । महामुने ! भगवत्प्राप्तिके दो ही उपाय बताये गये हैं—ज्ञान और (निष्काम) कर्म । ज्ञान भी दो प्रकारका कहा जाता है । एक तो शास्त्रके अध्ययन और अनुशीलनसे प्राप्त होता है और दूसरा विवेकसे प्रकट होता है । शब्दब्रह्म और परब्रह्म परमात्माका बोध विवेकजन्य ज्ञान है । मुनिश्रेष्ठ ! मनुजीने भी वेदार्थका स्मरण करके इस विषयमें जो कुछ कहा है, उसे मैं स्पष्ट बताता हूँ—सुनो । जानने योग्य़ ब्रह्म दो प्रकारका है—एक शब्दव्रह्म
(शास्त्रज्ञान)—में पारङत हो जाता है, वह विवेकजन्य ज्ञानद्वारा परब्रह्मको प्राप्त कर लेता है । अथर्ववेदकी श्रुति कह्ती है कि दो प्रकारकी विद्याएँ जानने योग्य हैं—परा और अपरा । परासे निर्गुण—सगुणरूपा परमात्माकी प्राप्ति होती है । जो अव्यक्त, अजर, चेष्टारहित, अजन्मा, अविनाशी, अनिर्देश्य (नाम आदिसे रहित), रूपहीन, हाथ—पैर आदि अङ्गोसे शून्य, व्यापक, सर्वगत, नित्य, भूतोंका आदिकारण तथा स्वयं कारणहीन है, जिससे सम्पूर्ण व्याप्य वस्तुएँ व्याप्त हैं, समस्त जगत् जिससे प्रकट हुआ है एवं ज्ञानीजन ज्ञानदृष्टिसे जिसका साक्षात्कार करते हैं, वही परमधामस्वरूप ब्रह्म है । मोक्षकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको उसीका ध्यान करना चाहिये । वही वेदवाक्योंद्वारा प्रतिपादित, अतिसूक्ष्म भगवान् विष्णुका परम पद है । परमात्माका वह स्वरूप ही ’भगवत्’ शब्दका वाच्यार्थ है और ’भगवत्’ शब्द उस अविनाशी परमत्माका वाचक कहा गया है । इस प्रकार जिसका स्वरूप बतलाया गया है, वही परमात्माका यथार्थ तत्त्व है । जिससे उसका ठीक—ठीक बोध होता है, वही परा विद्या अथवा परम ज्ञान है । इससे भिन्न जो तीनों वेद हैं उन्हें अपर ज्ञान या अपरा विद्या कहा गया है ।
ब्रह्मन ! यद्यपि वह ब्रह्म किसी शब्द या वाणीका विषय नहीं है, तथापि उपासनाके लिये ‘भगवान्’ इस नामसे उसका कथन किया जाता है । देवर्षे ! जो समस्त उसका कथन किया जाता है । देवर्षे ! जो समस्त कारणोंका भी कारण है, उस परम शुद्ध महाभूति नामवाले परब्रह्मके लिये ही भगवत् शब्दका प्रयोग हुआ है । ‘भगवत शब्दके
‘भ’कारके दो अर्थ हैं—सम्भर्ता (भरण—पोषण करनेवाला) तथा भर्ता (धारण करनेवाला) । मुने !’ ग’ कारके तीन अर्थ हैं—गमयिता (प्रेरक), नेता (सञ्चालक) तथा स्त्रष्टा (जगत्की सृष्टि करनेवाला) ।’ भ’ और’ ग’ के योगसे’ भग’ शब्द बनता है, जिसका अर्थ इस प्रकार है—सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सम्पूर्ण धर्म, सम्पूर्ण यश, सम्पूर्ण श्री, सम्पूर्न ज्ञान तथा सम्पूर्ण वैराग्य—इन छ: का नाम ‘भग’ है । उस सर्वात्मा परमेंश्वरमें सम्पूर्ण भूत—प्राणी निवास करते हैं तथा वह स्वयं भी सब भूतोंमें वास करता है, इसलिये वह अव्यय परमात्मा ही ‘व’ कारका अर्थ है । साधुशिरोमणे ! इस प्रकार ‘भगवान्’ यह महान् शब्द परब्रह्मस्वरूप भगवान् वासुदेवका ही बोध करानेवाला है । पुज्यपदका जो अर्थ है, उसको सूचित करनेकी परिभाषासे युक्त यह भगवत्—शब्द परमात्माके लियेतो प्रधानरूपसे प्रयुक्त होता है और दूसरोंके लिये गौणरूपसे । जो सब प्रणियोंकी उत्पत्ति और प्रलयको, आवागमनको तथा विद्या और अविद्याको जानता है, वही भगवान् कहलाने योग्य है । त्याग करने योग्य अवगुण आदिको छोड़कर जो अलौकिक ज्ञान, शाक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य और तेज आदि सद्गुण हैं, वे सभी भगवत शब्दके वाच्यार्थ हैं । उन परमात्मामें सम्पूर्ण भूत वास करते हैं और वह भी समस्त भूतोंमें निवास करता है, इसीलिये उसे ‘वासुदेव’ कहा गया है ।
पूर्वकालमें अखाण्डिक्य जनकसे उनके पूछनेपर केशिध्वजने भगवान् अनन्तके वासुदेव नामकी यथार्थ व्याख्या इस प्रकार की थी । परमात्मा सम्पूर्ण भूतोंमें वास करते है और वे भूतप्राणी भी उनके भीतर रहते हैं तथा वे परमात्मा ही जगत्के धारण—पोषण करनेवाले और स्रष्टा हैं; अत: उन सर्वशक्तिमान् प्रभुको ‘वासुदेव’ कहा गया है । मुने ! जो सम्पूर्ण जगत्के आत्मा तथा समस्त आवरणोंसे परे हैं, वे परमात्मा सम्पूर्ण भूतोंकी प्रकृति, प्राकृत विकार तथा गुण और दोषोंसे ऊपर उठे हुए हैं । पृथ्वी और आकाशके बीचमें जो कुछ स्थित है, वह सब उन्हींसे व्याप्त है । सम्पूर्ण कल्याणमय गुण उनके स्वरूप हैं । उन्होंने अपनी शक्तिके लेशमात्रसे सम्पूर्ण भूतसमुदायको व्याप्त कर रखा है । वे अपनी इच्छामात्रसे मनके अनुकूल अनेक शरीर धारण करते हैं और सारे जगत्का हित—साधन करते रहते ……. …….. …….. ……… ……. … वीर्य और शाक्ति आदि गुणोंकी एकमात्र राशि हैं । प्रकृति आदिसे भी परे हैं और उन समस्त कार्य—कारणोंके स्वामी परमेंश्वरमें समस्त क्लेशोंका सर्वथा अभाव है । वे सबका शासन करनेवाले ईश्वर हैं । व्यष्टि और समष्टि जगत् उन्हींका स्वरूप है । वे ही व्यक्त हैं और वे ही अव्यक्त । वे सबके स्वामी, सम्पूर्ण सृष्टिके ज्ञाता, सर्वशक्तिमान् तथा परमेंश्वर नामसे प्रसिद्ध हैं । जिसके द्वारा निर्दोष, विशुद्ध निर्मल तथा एकरूप परमात्माके स्वरूपका साक्षात्कार अथवा बोध होता है, उसीका नाम ज्ञान है और इसके विपरीत जो कुछ है, वह अज्ञान कहा गया है । भगवान् पुरुषोत्तमका दर्शन स्वाध्याय और संयमसे होता है । ब्रह्मकी प्राप्तिक कारण होनेसे वेदका भी नाम ब्रह्म ही है । इसीलिये वेदोंका स्वाध्याय किया जाता है । स्वाध्यायसे योगका अनुष्ठान करे और योगसे स्वाध्यायका अभ्यास करे । इस प्रकार स्वाध्याय और योग—दोनों साधनोंका सम्पादन होनेसे परमात्मा प्रकाशित होते हैं । उनका दर्शन करनेके लिये स्वाध्याय और योग दोनों नेत्र हैं ।
नारदजीने पूछा— भगवन् ! जिसके जान लेनेपर मैं सर्वाधार परमेंश्वरका दर्शन कर सकूँ, उस योगको मैं जानना चाहता हूँ । कृपा करके उसका वर्णन कीजिये ।
सनन्दनजीने कहा— पूर्वाकालमें केशिध्वजने महात्मा खाण्डिक्य जनकको जिस प्रकार योगका उपदेश दिया था, वही मैं तुम्हें बतलाता हूँ ।
नारदजीने पूछा— ब्रह्मन् ! खाण्डिक्य और केशिध्वज कोन थे ? तथा उनमें योगसम्बन्धी बातचीत किस प्रकार हुई थी ?
सनन्दनजीने कहा— नारदजी ! पूर्वकालमें धर्मध्वज जनक नामक एक राजा हो गये हैं । उनके बड़े पुत्रका नाम अमितध्वज था । उसके छोटे भाई कृतध्वजके नामसे विख्यात थे । राजा कृतध्वज सदा अध्यात्मचिन्तनमें ही अनुरक्त रह्ते थे । कृतध्वजके पुत्र केशिध्वज हुए । ब्रह्मन् ! वे अपने सद्ज्ञानके कारण धन्य हो गये थे । अमितध्वजके पुत्रका नाम खाण्डिक्य जनक था । खाण्डिक्य कर्मकाण्डमें निपुण थे । एक समय केशिध्वजने खाण्डिक्यको परास्त करके उन्हें राज्यसिंहासनसे उतार दिया । राज्य्से भ्रष्ट होनेपर खाण्डिक्य थोड़ी—सी साधन—सामग्री लेकर पुरोहित और मन्त्रियोंके साथ एक दुर्गम वनमें चले गये । इधर केशिध्वजने ज्ञाननिष्ठ होते हुए भी निष्कामभावसे अनेक यज्ञोंका अनुष्ठान किया । योगवेत्ताओंमें श्रेष्ठ नारदजी ! एक समय केशिध्वज जब यज्ञमें लगे हुए थे, उनकी दूध देनेवाली गायको निर्जन वनमें किसी भयङ्कर व्याघ्रने मार डाला । व्याघ्रद्वारा गौको मारी गयी जानकर राजाने ऋत्विजोंसे इसका प्रायश्चित्त पूछा— ‘इस विषयमें क्या करना चाहिये ?’ ऋत्विज् बोले—’ महाराज ! हम नहीं जानते । आप कशेरुसे पूछिये । ‘नार्दजी ! जब राजाने कशेरुसे यह बात पूछी तो उन्होंने भी वैसा ही उत्तर देते हुए कहा— ‘राजेन्द्र ! मैं इस विषयमें कुछ नहीं जानता । आप शुनकसे पूछिये, वे जानते होगे । ‘तब राजाने शुनकके पास जाकर यही प्रश्न किया । मुने ! प्रश्न सुनकर शुनकने भी वैसा ही उत्तर दिया— ‘राजन् ! इस विषयमें न तो कशेरु कुछ जानते हैं और न मैं । इस समय पृथ्वीपर दूसर कोई भी इसका ज्ञाता नहीं है । एक ही व्यक्ति इस बातको जानता है, वह है तुम्हारा शत्रु ‘खाण्डिक्य’, जिसे तुमने परास्त किया है । ‘मुने ! शुनककी यह बात सुनकर राजाने कहा—अच्छा तो अब मैं अपने शत्रुसे ही यह बात पूछनेके लिये जाता हूँ । यादि वह मुझे प्रायश्चित्त बतला देगा तब तो यह यज्ञ साङ्रोपाङ पूर्ण होगा ही ।’ ऐसा कहकर राजा केशिध्वज काला मृगचर्म धारण किये रथपर बैठे और जहाँ महाराज खाण्डिक्य रहते थे, उस वनमें गये । खाण्डिक्यने अपने उस शत्रुको आते देख धनुष चढ़ा लिया और क्रोधसे आँखे लाल करके कहा ।
खाण्डिक्य बोले— अरे ! क्या तू काले मृगचर्मको कवचके रूपमें धारण करके हमें मारेगा ?
केशिध्वजने कहा— खाण्डिक्यजी ! मैं आपसे एक संदेह पूछनेके लिये आया हूँ । आपको मारनेके लिये नहीं आया हूँ ।
तदनन्तर परम बुद्धिमान् खाण्डिक्यने अपने समस्त मन्त्रियों और पुरोहितके साथ एकान्तमें सलाह की । मन्त्रियोंने कहा—’ यह शत्रु इस समय हमारे वशमें है, अत: इसे मार डालना चाहिये । इसके मारे जानेपर यह सारी पृथ्वी आपके अधीन हो जायगी । ‘यह सुनकर खाण्डिक्य उन सबसे बोले— ‘नि: संदेह ऐसी ही बात है । इसके मारे जानेपर यह सारी पृथ्वी अवश्य मेंरे अधीन हो जायगी । परंतु इसे पारलौकिक विजय प्राप्त होगी और मुझे सम्पूर्ण पृथ्वी । यदि इसे न मारूँ तो पारलौकिक विजय मेंरी होगी और इसे सारी पृथ्वी मिलेगी । पारलौकिक विजय अनन्तकालके लिये होती है तथा पृथ्वीकी जीत थोड़े ही दिन रहती है । इसलिये मैं तो इसे मारूँगा नहीं । यह जो कुछ पूछेगा उसे बतलाऊँगा ।’ ऐसा निश्चय करके खाण्डिक्य जनक अपने शत्रुके समीप गये और इस प्रकार बोले— ‘तुम्हें जो कुछ पूछना हो वह सब पूछ लो, मैं बताऊँगा । ‘नारदजी ! खाण्डिक्यके ऐसा कहनेपर केशिध्वजने होमसम्बन्धी गायके मारे जानेका सब वृत्तान्त ठीक—ठीक बता दिया और उसके लिये कोई व्रतरूप प्रायश्चित्त पूछा ! खाण्डिक्यने भी वह सम्पूर्ण प्रायश्चित्त जिसका कि उसके लिये विधान था, केशिध्वजको विधिपूर्वक बता दिया । सब बातें जान लेनेपर महात्मा खाण्डिक्यकी आज्ञा ले केशिध्वजने यज्ञभूमिको प्रस्थान किया और वहाँ पहुँचकर क्रमश: प्रायश्चित्तका सारा कार्य पूर्ण किया । फिर धीरे—धीरे यज्ञ समाप्त होनेपर राजाने अवभृथस्त्रान किया । तत्पश्चात् कृतकार्य होकर राजा केशिध्वजने मन—ही—मन सोचा— ‘मैंने सम्पूर्ण ऋत्विजोंका पूजन तथा सब सद्स्योंका सम्मान किया । साथ ही याचकोंको भी उनकी मनोवाञ्छित वस्तुएँ दीं । इस लोकके अनुसार जो कुछ कर्तव्य था वह सब मैंने पूरा किया । तथापि न जाने क्यों मेंरे मनमें ऐसा अनुभव होता है कि मेंरा कोई कर्तव्य अधूरा रह गया है ।’ इस प्रकार सोचते—सोचते राजाके ध्यानमें यह बात आयी कि मैंने अभीतक खाण्डिक्यजीको गुरुदक्षिणा नहीं दी है । नारदजी ! तब वे रथपर बैठकर फिर उसी दुर्गम वनमें गये, जहाँ खाण्डिक्य रहते थे । खाण्डिक्यने पुन: उन्हें आते देख हथियार उठा लिया । यह देख राजा केशिध्वजने कहा— ‘खाण्डिक्यजी ! क्रोधन कीजिये । मैं आपका अहित करनेके लिये नहीं, गुरुदक्षिणा देनेके लिये आया हूँ । आपके उपदेशके अनुसार मैंने अपना यज्ञ भलीभाँति पूरा कर लिया है । अतः अब मैं आपको गुरुदक्षिणा देना चाहता हूँ । आपकी जो इच्छा हो, माँग लीजिये ।’
उनके ऐसा कहनेपर खाण्डिक्यने पुन: अपने मन्त्रियोंसे सलाह ली और कहा—’ यह मुझे गुरुदक्षिणा देना चाहता है, मैं इससे क्या माँगूँ ? ‘मन्त्रियोंने कहा— ‘आप इससे सम्पूर्ण राज्य माँग लीजिये।’ तब राजा खाण्डिक्यने उन मन्त्रियोंसे हँसकर कहा— ‘पृथ्वीका राय तो थोड़े ही समयतक रहनेवाला है, उसे मेंरे—जैसे लोग कैसे माँग सकते हैं ? आपका कथन भी ठीक ही है, क्योंकि आपलोग स्वार्थ—साधनके मन्त्री हैं । परमार्थ क्या और कैसा है? इस विषयमें आपलोगोंको विशेष ज्ञान नहीं है ।’ ऐसा कहकर वे राजा केशिध्वजके पास आये और इस प्रकार बोले— ‘क्या तुम निश्चय ही गुरुदक्षिणा दोगे ?’ उन्होंने कहा— ‘जी हाँ।’ उनके ऐसा कहनेपर खाण्डिक्यने कहा—’आप अध्यात्मज्ञानरूप परमार्थविद्याके ज्ञाता हैं । यदि मुझे अवश्य ही गुरुदक्षिणा देना चाहते हैं तो जो कर्म सम्पूर्ण क्लेशोंका नाश करनेमें समर्थ हो, उसका उपदेश कीजिये ।’
केशिध्वजने पूछा— राजन् ! आपने मेंरा निष्कण्टक राज्य क्यों नहीं माँगा ? क्योंकि क्षत्रियोंके लिये राज्य मिलनेसे बढकर प्रिय वस्तु और कोई नहीं है ।
खाण्डिक्य बोले—केशिध्वजजी ! मैंने आपका सम्पूर्ण राज्य क्यों नहीं माँगा, इसका कारण सुनिये । विद्वान् पुरुष राज्यकी इच्छा नहीं करते । क्षत्रियोंका यह धर्म है कि वे प्रजाकी रक्षा करें और अपने राज्यके विरोधियोंका धर्मयुद्धके द्वारा वध करें । मैं इस कर्तव्यके पालनमें असमर्थ हो गया था, इसलिये यदि आपने मेंरे राज्यका अपहरण कर लिया है तो इसमें कोई दोषकी बात नहीं है । यह राजकार्य अविद्या ही है । यदि समझपूर्वक इसका त्याग न किया जाय तो यह बन्धनका ही कारण होती है । यह राज्यकी चाह जन्मान्तरके कर्मोंद्वारा प्राप्त सुख—भोगके लिये होती है । अत: मुझे राज्य लेनेका अधिकार नहीं है । इसके सिवा क्षत्रियोंका किसीसे याचना करना धर्म नहीं है । यह साधु पुरुषोंका मत है । इसलिये अविद्याके अन्तर्गत जो आपका यह राज्य है उसकी याचना मैंने नहीं की है । जिनका चित्त ममतासे आकृष्ट है और जो अहंकाररूपी मदिराका पान करके उन्मत्त हो रहे हैं, वे अज्ञानी पुरुष ही राज्यकी अभिलाषा करते हैं ।
केशिध्वजने कहा—मैं भी विद्यासे मृत्युके पार जानेकी इच्छा रखकर कर्तव्यबुद्धिसे राज्यकी रक्षा और निष्कामभावसे अनेक प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान करता हूँ । कुलनन्दन ! बडे सौभाग्यकी बात है कि आपका मन विवेकरूपी धनसे सम्पन्न हुआ है, अत: आप अविद्याका स्वरूप सुनें—अविद्यारूपी वृक्षकी उत्पत्तिका जो बीज है, यह दो प्रकारका है—अनात्मामें आत्मबुद्धि और जो अपना नहीं है उसे अपना मानना अर्थात् अहंता और ममता ।
जिसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है तथा जो मोहरूपी अन्धकारसे आवृत हो रहा है, वह देहाभिमानी जीव इस पाञ्चभौतिक शरीरमें ‘ मैं ’ और ‘ मेंरे ’ पनकी दृढ भावना कर लेता है, परंतु जब आत्मा आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी आदिसे सर्वथा पृथक् है तो कोन बुद्धिमान् पुरुष शरीरमें आत्मबुद्धि करेगा ? जब आत्मा देहसे परे है तो देहके उपभोगमें आनेवाले गृह और क्षेत्र आदिको कोन बुद्धिमान् पुरुष ‘यह मेंरा है’ ऐसा कहकर अपना मान सकता है ? इस प्रकार इस शरीरके अनात्मा होनेसे इसके द्वारा उत्पन्न किये हुए पुत्र, पौत्र आदिमें भी कोन विद्वान् अपनापन करेगा ? मनुष्य सारे कर्म शरीरके उपभोगके लिये ही करता है; किंतु जब यह देह पुरुषसे भिन्न है तो वे कर्म केवल बन्धनके ही कारण होते हैं । जैसे मिट्टोके घरको मनुष्य मिट्टी और जलसे ही लीपते—पोतते हैं उसी प्रकार यह पार्थिव शरीर भी अन्न और जलकी सहायतासे ही स्थिर रहता है । यदि पञ्चभूतोंका बना हुआ यह शरीर पाञ्चभौतिक पदार्थोंसे ही पुष्ट होता है तो इसमें पुरुषके लिये कोन—सी गर्व करनेकी बात है । यह जीव अनेक सहस्र जन्मोंसे संसारूपी मार्गपर चल रहा है और वासनारूपी धूलसे आच्छादित होकर केवल मोहरूपी श्रमको प्राप्त होता है । सौम्य ! जिस समय ज्ञानरूपी गरम जलसे इसकी वह वासनारूपी धूल धो दी जाती है, उसी समय इस संसारमार्गके पथिकका मोहरूपी श्रम शान्त हो जाता है । उस मोहरूपी श्रमके शान्त होनेपर पुरुषका अन्त: करण निर्मल होता है और वह निरतिशय परम निर्वाणपदको प्राप्त कर लेता है । यह ज्ञानमय विशुद्ध आत्मा निर्वाणस्वरूप ही है । इस प्रकार मैंने आपको अविद्याका बीज बतलाया है । अविद्याजनित क्लेशोंको नष्ट करनेके लिये योगके सिवा दूसरा कोई उपाय नही है ।
अध्याय ४३ मुक्तिप्रद योगका वर्णन
सनन्दनजी कहते हैं— नारदजी ! केशिध्वजके इस अध्यात्मज्ञानसे युक्त अमृतमय वचनको सुनकर खाण्डिक्यने पुन उन्हें प्रेरित करते हुए कहा ।
खाण्डिक्य बोले—योगवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महाभाग केशिध्वज ! आप उस योगका वर्णन कीजिये ।
केशिध्वजने कहा— खाण्डिक्यजी ! मैं योगका स्वरूप बतलाता हूँ, सुनिये । उस योगमें स्थित होनेपर मुनि ब्रह्ममें लीन होकर फिर अपने स्वरूपसे च्युत नहीं होता । मन ही मनुष्योंके बन्धन और मोक्षका कारण है । विषयोंमें आसक्त होनेपर वह बन्धनका कारण होता है और विषयोंसे दूर हटकर वही मोक्षका साधक बन जाता है । अत: विवेकज्ञानसम्पन्न विद्वान् पुरुष मनको विषयोंसे हटाकर परमेंश्वरका चिन्तन करे । जैसे चुम्बक अपनी शक्तिसे लोहेको खींचकर अपनेमें संयुक्त कर लेता है, उसी प्रकार ब्रह्मचिन्तन करनेवाले मुनिके चित्तको परमात्मा अपने स्वरूपमें लीन कर लेता है । आत्मज्ञानके उपायभूत जो यम—नियम आदि साधन हैं, उनकी अपेक्षा रखनेवाली जो मनकी विशिष्ट गति है, उसका ब्रह्मके साथ संयोग होना ही ‘योग’ कहलाता है । जिसका योग इस प्रकारकी विशेषतावाले धर्मसे युक्त होता है, वह योगी ‘मुमुक्षु’ कहलाता है । पहले—पहल योगका अभ्यास करनेवाला योगी ‘युञ्जान’ कहलाता है । और जब उसे परब्रह्म परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है, तब वह ‘विनिष्पन्नसमाधि’ (युक्त) कहलाता है । यदि किसी विघ्नदोषसे उस पूर्वोक्त योगी (युञ्जान)—का चित्त दूषित हो जाता है तो दूसरे जन्मोंमें उस योगभ्रष्टकी अभ्यास करते रहनेसे मुक्ति हो जाती है । ‘विनिष्पन्नसमाधि’ योगी योगकी अग्निसे अपनी सम्पूर्ण कर्मराशिको भस्म कर डालता है । इसलिये उसी जन्ममें शीघ्र मुक्ति प्राप्त कर लेता है । योगीको चाहिये कि वह अपने चित्तको योगसाधनके योग्य बनाते हुए ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा अपरिग्रहका निष्कामभावसे सेवन करे । ये पाँच यम हैं । इनके साथ शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा परब्रह्म परमात्मामें मनको लगाना—इन पाँच नियमोंका पालन करे । इस प्रकार ये पाँच यम और पाँच नियम बताये गये हैं । सकामभावसे इनका सेवन किया जाय तो ये विशिष्ट फल देनेवाले होते हैं और निष्कामभावसे किया जाय तो मोक्ष प्रदान करते हैं ।
यत्नशील साधकको उचित है कि स्वस्तिक, सिद्ध, पद्म आदि आसनोंमेंसे किसी एकका आश्रय ले यम और नियम नामक गुणोंसे सम्पन्न हो नियमपूर्वक योगाभ्यास करे । अभ्याससे साधक के जो प्राणवायुको वशमें करता है, उस क्रियाको प्राणायाम समझना चाहिये । उसके दो भेद हैं—सबीज और निर्बीज (जिसमें भगवान्के नाम और रूपका आलम्बन हो, वह सबीज प्राणायाम है और जिसमें ऐसा कोई आलम्बन नहीं है, वह निर्बीज प्राणायाम कहलाता है) साधु पुरुषोंके उपदेशसे प्राणायामका साधन करते समय जब योगीके प्राण और अपान एक दूसरेका पराभव करते (दबाते) हैं, तब क्रमश: रेचक और पूरक नामक दो प्राणायामहोते हैं और इन दोनोंका एक ही समय संयम (निरोध) करनेसे कुम्भक नामक तीसरा प्राणायाम होता है । राजन् ! जब योगी सबीज प्राणायामका अभ्यास करता है, तब उसका आलम्बन सर्वव्यापी अनन्तस्वरूप भगवान् विष्णूका साकाररूप होता है । योगवेत्ता पुरुष प्रत्याहारका अभ्यास (इन्द्रियोंको विषयोंकी ओरसे समेंटकर अपने भीतर लानेका प्रयत्न) करते हुए शब्दादि विषयोंमें अनुरक्त हुई इन्द्रियोंको रोककर उन्हें अपने चित्तकी अनुगामिनी बनावे। ऐसा करनेसे अत्यन्त चञ्चल इन्द्रियाँ भलीभाँति वशमें हो जाती हैं । यदि इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं तो कोई योगी उसके द्वारा योगका साधन नहीं कर सकता । प्राणायामसे प्राण—अपानरूप वायु और प्रत्याहारसे इन्द्रियोंको अपने वशमें करके चित्तको उसके शुभ आश्रयमें स्थिर करे ।
खाणिडक्यने पूछा— महाभाग ! बताइये, चित्तका वह शुभा आश्रय क्या है, जिसका अवलम्बन करके वह सम्पूर्ण दोषोंकी उत्पत्तिको नष्ट कर देता है ।
केशिध्वजने कहा— राजन् ! चित्तका आश्रय ब्रह्म है । उसके दो स्वरूप हैं—मूर्त और अमूर्त अथवा अपर और पर । भूपाल ! संसारमें तीन प्रकारकी भावनाएँ हैं और उन भावनाओंके कारण यह जगत् तीन प्रकारका कहा जाता है । पहली भावनाका नाम “ कर्मभावना ” है, दूसरीका “ ब्रह्मभावना ” है और तीसरीका “ उभयात्मिका भावना ” है । इनमेंसे पहलीमें कर्मकी भावना होनेके कारण वह ‘ कर्मभावात्मिका ’ है, दूसरीमें ब्रह्मकी भावना होनेसे वह ‘ ब्रह्मभावात्मिका ’ कहलाती है और तीसरीमें दोनों प्रकारकी भावना होनेसे उसको ‘उभयात्मिका’ कहते हैं । इस तरह तीन प्रकारकी भावात्मक भावनाएँ हैं । ज्ञानी नरेश ! सनक आदि सिद्ध पुरुष सदा ब्रह्मभावनासे युक्त होते हैं । उनसे भिन्न जो देवताओंसे लेकर स्थावर—जङ्गमपर्यन्त सम्पूर्ण प्राणी हैं, वे कर्मभावनासे युक्त होते हैं । हिरण्यग्रर्भ, प्रजापति आदि सच्चिदानन्द ब्रह्मका बोध और सृष्टिरचनादि कर्मोंका अधिकार—दोनोंसे युक्त हैं; अत: उनमें ब्रह्मभावना एवं कर्मभावना दोनोंकी ही उपलब्धि होती है ।
राजन् ! जबतक विशेष भेदज्ञानके भेदज्ञानके हेतुभूत सम्पूर्ण कर्म क्षीण नहीं हो जाते, तभीतक भेददर्शी मनुष्योंकी दृष्टिमें यह विश्व तथा परब्रह्म भिन्न—भिन्न प्रतीत होते हैं । जहाँ सम्पूर्ण भेदोंका अभाव हो जाता है, जो केवल सत् है और वाणीका अविषय है तथा जो स्वयं ही अनुभवस्वरूप है, वही ब्रह्मज्ञान कहा गया है । वही अजन्मा एवं निराकार विष्णुका परम स्वरूप है, जो उनके विश्वरूपसे सर्वथा विलक्षण है । राजन् ! योगका साधक पहले उस निर्विशेष स्वरूपका चिन्तन नहीं कर सकता, इसलिये उसे श्रीहरिके विश्वमय स्थूलरूपका ही चिन्तन करना चाहिये । भगवान् हिरण्यगर्भ, इन्द्र, प्रजापति, मरुद्रण, वसु, रुद्र, सूर्य, तारे, ग्रह, गन्धर्व, यक्ष और दैत्य आदि समस्त देव—योनियाँ; मनुष्य, पशु, पर्वत, समुद्र, नदी, वृक्ष, सम्पूर्ण भूत तथा प्रधानसे लेकर विशेषपर्यन्त उन भूतोंके कारण तथा प्रधानसे लेकर विशेषपर्यन्त उन भूतोंके कारण तथा चेतन—अचेतन, एक पैर, दो पैर और अनेक पैरवाले जीव तथा बिना पैरवाले प्राणी—ये सब भगवान् विष्णुके त्रिविध भावनात्मक मूर्तरूप हैं । यह सम्पूर्ण चराचर जगत् परब्रह्मस्वरूप भगवान् विष्णुका उनकी शक्तिसे सम्पन्न ‘विश्व’ नामक रूप है । ‘क्षेत्रज्ञ’ अपराशक्ति है तथा अविद्याको कर्मनामक तीसरी शक्ति माना गया है । राजन् ! क्षेत्रज्ञ शक्ति सब शरीरोंमें व्याप्त है; परंतु वह इस असार संसारमें अविद्या नामक शक्तिसे आवृत हो अत्यन्त विस्तारसे प्राप्त होनेवाले सम्पूर्ण सांसारिक क्लेश भोगा करती है । परम बुद्धिमान् नरेश ! उस अविद्या—शक्तिसे तिरोहित होनेके कारण वह श्रेत्रज्ञ—शक्ति सम्पूर्ण प्राणियोंमें तारतम्यसे दिखायी देती है । वह प्राणहीन जड पदार्थोंमें बहुत कम है । उनसे अधिक वृक्ष—पर्वत आदि स्थावरोंमें स्थित है । स्थावरोंसे अधिक सर्प आदि जीवोंमें और उनसे भी अधिक पक्षियोंमें अभिव्यक्त हुई है । पक्षियोंकी अपेक्षा उस शक्तिमें मृग बढे—चढे हैं और मृगोंसे अधिक पशु हैं । पशुओंकी अपेक्षा मनुष्य परम पुरुष भगवान्की उस क्षेत्रज्ञ—शक्तिसे अधिक प्रभावित हैं । मनुष्योंसे भी बढे हुए नाग, गन्धर्व, यक्ष आदि देवता हैं । देवताओंसे भी इद्र और इन्द्रसे भी प्रजापति उस शक्तिमें बढे हैं । प्रजापतिकी अपेक्षा भी हिरण्यगर्भ ब्रह्माजीमें भगवान्की उस शक्तिका विशेष प्रकाश हुआ है । राजन् ! ये सम्पूर्ण रूप उस परमेंश्वरके ही शरीर हैं । क्योंकि ये सब आकाशकी भाँति उनकी शक्तिसे व्याप्त हैं। महामते ! विष्णु नामक ब्रह्मका दूसरा अमूर्त्त (निराकार) रूप है, जिसका योगीलोग ध्यान करते हैं और विद्वान् पुरुष जिसे ‘सतू’ कहते हैं । जनेश्वर ! भगवान्का वही रूप अपनी लीलासे देव, तिर्यक् और मनुष्य आदि चेष्टाओंसे युक्त सर्वशाक्तिमय रूप धारण करता है । इन रूपोंमें अप्रमेंय भगवान्की जो व्यापक एवं अव्याहत चेष्टा होती है, वह सम्पूर्ण जगत्के उपकारके लिये ही होती है, कर्मजन्य नहीं होती । राजन् ! योगके साधकको आत्मशुद्धिके लिये विश्वरूपभगवान्के उस सर्वपापनाशक स्वरूपका ही चिन्तन करना चाहिये । जैसे वायुका सहयोग पाकर प्रज्वलित हुई अग्नि ऊँची लपटें उठाकर तृणसमूहको भस्म कर डालती है, उसी प्रकार योगियोंके चित्तमें विराजमान भगवान् विष्णु उनके समस्त पापोंको जला डालतो हैं । इसलिये सम्पूर्ण शक्तियोंके आधारभूत भगवान् विष्णुमें चित्तको स्थिर करे—यही शुद्ध धारणा है ।
राजन् ! तीनों भावनाओंसे अतीत भगवान् विष्णु ही योगियोंकी मुक्तिके लिये इनके सब ओर जानेवाले चञ्चल चित्तके शुभ आश्रय हैं । पुरुषसिंह ! भगवान्के अतिरिक्तजो मनके दूसरे आश्रय सम्पूर्ण देवता आदि हैं, वे सब अशुद्ध हैं । भगवान्का मूर्तरूप चित्तको दूसरे सम्पूर्ण आश्रयोंसे नि:स्पृह कर देता है—चित्तको जो भगवान्में धारण करना—स्थिरतापूर्वक लगाना है, इसे ही ‘धारणा’ समझना चाहिये । नर्सेश ! बिना किसी आधारके धारणा नहीं हो सकती; अत: भगवानके सगुण—साकार स्वरूपका जिस प्रकार चिन्तन करना करना चहिये, वह बतलाता हूँ, सुनो । भगवान्का मुख प्रसन्न एवं मनोहर है । उनके नेत्र विकसित कमलदलके समान विशाल एवं सुन्दर हैं । दोनों कपोल बडे ही सुहावने और चिकने हैं । ललाट चौडा और प्रकाशसे उद्भासित है । उनके दोनों कान बराबर हैं और उनमें धारण किये हुए मनोहर कुण्डल कंधेके समीपतक लटक रहे हैं । ग्रीवा शङ्खकी—सी शोभा धारण करती है । विशाल वक्ष:—स्थलमें श्रीवत्सका चिह्न सुशोभित है । उनके उदरमें तिरङ्गाकार त्रिवली तथा गहरी नाभि है । भगवान् विष्णु बडी—बडी चार अथवा आठ भुजाएँ धारण करते हैं । उनके दोनों ऊरु तथा जंघे समानभावसे स्थित हैं और मनोहर चरणारविन्द हमारे अम्मुख स्थिरभावसे खडे हैं । इस प्रकार उन ब्रह्मस्वरूप भगवान् विष्णुका चिन्तन करना चाहिये । उनके मस्तकपर किरीट, गलेमें हार, भुजाओंमें केयूर और हाथोंमें कडे आदि आभूषण उनकी शोभा बढा रहे हैं । शार्ङ्गधनुष, पाञ्चजन्य शङ्ख, कोमोदकी गदा, नन्दक खङग, सुदर्शन चक्र, अक्षमाला तथा वरद और अभयकी मुद्रा—ये सब भगवान्के करकमलोंकी शोभा बढाते हैं । उनकी अंगुलियोंमें रत्नमयी मुद्रिकाएँ शोभा दे रही हैं । राजन् ! इस प्रकार योगी भगवान्के मनोहर स्वरूपमें अपना चित्त लगाकर तबतक उसका चिन्तन करता रहे, जबतक उसी स्वरूपमें उसकी धारणा दृढ न हो जाय । चलते—फिरते, उठते—बैठते अथवा अपनी इच्छाके अनुसार दूसरा कोई कार्य करते समय भी जब वह धारणा चित्तसे अलग न हो, तब उसे सिद्ध हुई मानना चाहिये । इसके दृढ होनेपर बुद्धिमान् पुरुष भगवान्के ऐसे स्वरूपका चिन्तन करे, जिसमें शङ्ख, चक्र, गदा तथा शार्ङ्ग धनुष आदि आयुध न हो । वह स्वरूप परम शान्त तथा अक्षमाला एवं यज्ञोपवीतसे विभूषित हो । जब यह धारणा भी पूर्ववत् स्थिर हो जाय तो भगवान्के किरीट, केयूर आदि आभूषणोंसे रहित स्वरूपका चिन्तन करे । तत्पश्चात् विद्वान् साधक अपने चित्तसे भगवान्के किसी एक अवयव (चरण या मुखारविन्द)—का ध्यान करे । तदनन्तर अवयवोंका चिन्तन छोडकर केवल अवयवी भगवान्के ध्यानमें तत्पर हो जाय। राजन् ! जिसमेंं भगवान्के स्वरूपकी ही प्रतीति होती है, ऐसी जो अन्य वस्तुओंकी इच्छासे रहित ध्येयाकार चित्तकी एक अनवरत धारा है, उसीको ‘ध्यान’ कहते हैं । वह अपने पूर्व यम—नियम आदि छ: अङ्गोंसे निष्पन्न होता है । उस ध्येय पदार्थका ही जो मनके द्वारा सिद्ध होनेयोग्य कल्पनाहीन (ध्याता, ध्येय और ध्यानकी विपुटीसे रहित) स्वरूप ग्रहण किया जाता है, उसे ही ‘समाधि’ कहते हैं ।
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खाण्डिक्य बोले—राजन् ! आपने योगद्वारा परमात्मभावको प्राप्त करनेके उपायका वर्णन किया । इससे मेंरा सभी कार्य सम्पन्न हो गया । आज आपके उपदेशसे मेंरे मनकी सारी मलिनता नष्ट हो गयी । मैंने जो ‘मेंरे’ शब्दका प्रयोग किया, यह भी असत्य ही है, अन्यथा ज्ञेय तत्त्वको जाननेवाले ज्ञानी पुरुष तो यह भी नहीं कह सकते । ‘में’ और ‘मेंरा’ यह बुद्धि तथा अहंता—ममताका व्यवहार बी अविद्या ही है । परमार्थ वस्तु तो अनिर्वचनीय है, क्योंकि वह वाणीका विषय नहीं हैं । केशिध्वजजी ! आपने जो इस अविनाशी मोक्षदायक योगका वर्णन किया है, इसके द्वारा मेंरे कल्याणके लिये आपने सब कुछ कर दिया ।
सनन्दनजी कहते हैं— ब्रह्मन् ! तदनन्तर राजा खाण्डिक्यने यथोचितरूपसे महाराज केशिध्वजका पूजन किया और वे उनसे समानित होकर पुन: अपनी राजधानीमें लौट आये । खाण्डिक्य भगवान् विष्णुमें चित्त लगाये हुए योगसिद्धिके लिये विशालापुरी (बदरिकाश्रम)—को चले गये । वहाँ यम—नियम आदि गुणोंसे युक्त हो उन्होंने भगवान्की अनन्यभावसे उपासना की और अन्तमें वे अत्यन्त निर्मल परब्रह्म परमात्मा भगवान्विष्णुमें लीन हो गये। नारदजी ! तुमने आध्यात्मिक आदि तीनों तापोंकी चिकित्साके लिये जो उपाय पूछा था, वह सब मैंने बताया ।
अध्याय ४४ राजा भरतका मृगशरीरमें आसक्तिके कारण मृग होना, ज्ञान समपन्न ब्रहामण होकर जड— वृत्तिसे रहना, जड़भरत और सौवीरनरेशका संवाद
नारदजी बोले—महाभाग ! मैंने आध्यात्मिक आदि तीनों तापोंकी चिकित्साका उपाय सुन लिया तथापि मेंरा मन अभी भ्रममें भटक रहा है । वह शीघ्रतापूर्वक स्थिर नहीं हो पाता । ब्रह्मन् ! आप दूसरोंको मान देनेवाले हैं । बताइये, यदि दुष्टलोग किसीके मनके विपरीत बर्ताव करें तो मनुष्य उसे कैसे सह सकता है ?
सूतजी कहते हैं—नारदजीका यह कथन सुनकर ब्रह्मपुत्र सनन्दनजीको बडा हर्ष हुआ । उन्हें राजा भरतके चरित्रका स्मरण हो आया और वे इस प्रकार बोले ।
सनन्दनजीने कहा—नारदजी ! मैं इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास कहूँगा, जिसे सुनकर तुम्हारे भ्रान्त मनको बडी स्थिरता प्राप्त होगी । मुनिश्रेष्ठ ! प्राचीन कालमें भरतनामसे प्रसिद्ध एक राजा हुए थे, जो ऋषभदेवजीके पुत्र थे और जिनके नामपर इस देशको ‘ भारतवर्ष ’ कहते हैं । राजा भरतने बाप—दादोंके क्रमसे चले आते हुए राज्यको पाकर उसका धर्मपूर्वक पालन किया । जैसे पिता अपने पुत्रको संतुष्ट करता है, उसी प्रकार वे प्रजाको प्रसन्न रखते थे । उन्होंने नाना प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान करके सर्वदेवस्वरूप भगवान् विष्णुका यजन किया । वे सदा भगवान्का ही चिन्तन करते और उन्हींमें मन लगाकर नाना सत्कर्मोंमें लगे रहते थे । तदनतर पुत्रोंको जन्म देकर विद्वान् राजा भरत विषयोंसे विरक्त हो गये और राज्य त्यागकर पुलस्त्य एवं पुलह मुनिके आश्रमको चले गये । उन महर्षियोंका आश्रम शालग्राम नामक महाक्षेत्रमें था । मुक्तीकी इच्छा रखनेवाले बहुत—से साधक उस तीर्थका सेवन करते थे । मुने ! वहीं राजा भरत तपस्यामें संलग्न हो यथाशक्ति पूजनसामग्री जुटाकर उसके द्वारा भक्तिभावसे भगवान् महाविष्णुकी आराधना करने लगे । नारदजी ! वे प्रतिदिन प्रात:—काल निर्मल जलमें स्नान करते तथा अविनाशी परब्रह्मकी स्तुति एवं प्रणवसहित वेद—मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए भक्तिपूर्वक सूर्यदेवका उपस्थान करने थे । तदनन्तर आश्रमपर लौटते और अपने ही लाये हुए समिधा, कुशा तथा मिट्टी आदि द्रव्योंसे और फल, फूल, तुलसीदल एवं स्वच्छ जलसे एकाग्रतापूर्वक जगदीश्वर भगवान् वासुदेवकी पूजा करते थे । भगवान्की पूजाके समय वे भक्तिके प्रवाहमें डूब जाते थे । एक दिनकी बात है, महाभाग राजा भरत प्राप: काल स्नान करके एकाग्रचित्त हो जप करते हुए तीन मुहूर्त (छ: घडी)—तक शालग्रामीके जलमें खडे रहे । ब्रह्मन् ! इसी समय एक प्यासी हरिणी जल पीनेके लिये अकेली ही वनसे नदीके तटपर आयी । उसका प्रसवकाल निकट था । वह प्राय: जल पी चुकी थी, इतनेमें ही सब प्राणियोंको भय देनेवाली सिंहकी गर्जना उच्चस्वरसे सुनायी पडी। फिर तो वह उस सिंहनादसे भयभीत हो नदीके तटकी ओर उछल पडी। बहुत ऊँचाईकी ओर उछलनेसे उसका गर्भ नदीमें ही गिर पडा और तरङ्गमालाओंमें डूबता—उतराता हुआ वेगसे बहने लगा । राजा भरतने गर्भसे गिरे हुए उस मृगके बच्चेको दयावश उठा लिया । मुनीश्वर ! उधर वह हरिणी गर्भ गिरनेके अत्यन्त दुःखसे और बहुत ऊँचे चढनेके परिश्रमसे थककर एक स्थानपर गिर पडी और वहीं मर गयी । उस हरिणीको मरी हुई देख तपस्वी राजा भरत मृगके बच्चेका लिये हुए अपने आश्रमपर आये और प्रतिदिन उसका पालन—पोषण करने लगे । मुने ! उनसे पोषित होकर वह मृगका बच्चा बढने लगा । उस मृगमें राजाका चित्त जैसा आसक्त हो गया था, वैसा भगवान्में भी नहीं हुआ । उन्होंने अपने राज्य और पुत्रोंको छोडा, समस्त भाई—बन्धुओंको भी त्याग दिया, परंतु इस हरिनके बच्चेमें ममता पैदा कर ली। उनका चित्त मृगकी ममताके वशीभूत हो गया था: इसलिये उनकी समाधि भङ्ग हो गयी । तदनन्तर कुछ समय बीतनेपर राजा भरत मृत्युको प्राप्त हुए । उस समय जैसे पुत्र पिताको देखता है, उसी प्रकार वह मृगका बच्चा आँसू बहाते हुए उनकी ओर देख रहा था । राजा भी प्राणोंका त्याग करते समय उस मृगकी ही ओर देख रहे थे । द्विजश्रेष्ठ ! मृगकी भावना करनेके कारण राजा भरत दूसरे जन्ममें मृग हो गये । किंतु पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण होनेसे उनके मनमें संसारकी ओरसे वैराग्य हो गया । वे अपनी माँको त्यागकर पुन: शालग्राम—तीर्थमें आये और सूखे घास तथा सूखे पते खाकर शरीरका पोषण करने लगे । ऐसा करनेसे मृगशरीरकी प्राप्ति करानेवाले कर्मका प्रायश्चित्त हो गया; अत: वहीं अपने शरीरका त्याग करके वे जातिस्मर (पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण करनेवाले) ब्राह्मणके रूपमें उत्पन्न हुए। सदाचारी योगियोंके श्रेष्ठ एवं शुद्ध कुलमें उनका जन्म हुआ । वे सम्पूर्ण विज्ञानसे सम्पन्न तथा समस्त शास्त्रोंके तत्त्वज्ञ हुए ।
मुनिश्रेष्ठ ! उन्होंने आत्माको प्रकृतिसे परे देखा । महामुने ! वे आत्मज्ञानसम्पन्न होनेके कारण देवता आदि सम्पूर्ण भूतोंको अपनेसे अभिन्न देखते थे । उपनयनसंस्कार हो जानेपर वे गुरुके पढाये हुए वेद—शास्त्रका अध्ययन नहीं करते थे । किन्हीं वैदिक कर्मोंकी ओर ध्यान नहीं देते और न शास्त्रोंका उपदेश ही ग्रहण करतेत थे । जब कोई उनसे बहुत पूछ—ताछ करता तो वे जडके समान गँवारोंकी—सी बोलीमें कोई बात कह देते थे । उनका शरीर मैला—कुचैला होनेसे निन्दित प्रतीत होता था । मुने ! वे सदा सलिन वस्त्र पहना करते थे । इन सब कारणोंसे वहाँके समस्त नागरिक उनका अपमान किया करते थे । सम्मान योगसम्म्त्तिकी अधिक हानि करता है और दूसरे लोगोंसे अपमानित होनेवाला योगी योगमार्गमें शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है—ऐसा विचार करके वे परम बुद्धिमान् ब्राह्मण जन—साधारणमें अपने—आपको जड और उन्मत्त—सा ही प्रकट करते थे, भीगे हुए चने और उडद, बडे, साग, जगंली फल और अन्नके दाने आदि जो—जो सामयिक खाद्य वस्तु मिल जाती, उसीको बहुत मानकर खा लेते थे । पिताकी मृत्यु होनेपर भाई—भतीजे और बन्धु—बान्धवोंने उनसे खेतीबारीका काम कराना आरम्भ किया । उन्हींके दिये हुए सडे—गले अन्नसे उनके शरीरका पोषण होने लगा । उनका एक—एक अङ्ग बैलके समान मोटा था और काम—काजमें वे जडकी भाँति जुते रहते थे । भोजनमात्र ही उनका वेतन था; इसलिये सब लोग उनसे अपना काम निकाल लिया करते थे ।
ब्रह्मन् ! एक समय सौवीर—राजने शिबिकापर आरूढ हो इक्षुमती नदीके किनारे महर्षि कपिलके श्रेष्ठ आश्रमपर जानेका निश्चय किया था । वे मोक्षधर्मके ज्ञाता महामुनि कपिलसे यह पूछना चाहते थे कि इस दु:खमय संसारमें मनुष्योंके लिये कल्याणकारी साधन क्या है ? उस दिन राजाकी बेगारमें बहुत—से दूसरे मनुष्य भी पकडे गये थे । उन्हींके बीच भरतमुनि भी बेगारमें पकडकर लाये गये । नारदजी ! वे सम्पूर्ण ज्ञानके एकमात्र भाजन थे । उन्हें पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण था; अत: वे अपने पापमय प्रारब्धका क्षय करनेके लिये उस शिबिकाको कंधेपर उठाकर ढोने लगे । बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ जडभरतजी (क्षुद्र जीवोंको बचानेके लिये) चार हाथ आगेकी भूमि देखते हुए मन्दगतिसे चलने लगे; किंतु उनके सिवा दूसरे कहार जल्दी—जल्दी चल रहे थे । राजाने देखा कि पालकी समान गतिसे नहीं चल रही है, तो उन्होंने कहा—’ अरे पालकी ढोनेवाले कहारो ! यह क्या करते हो ? सब लोग एक साथ समान गतिसे चलो ।’ किंतु इतना कहनेपर भी जब शिबिकाकी गति पुन: वैसी ही विषम दिखायी दी, तब राजाने डाँटकर पूछा—’ अरे ! यह क्या है ? तुमलोग मेंरी आज्ञाके विपरीत चलते हो ?’ राजाके बार—बार ऐसे वचन् सुनकर पालकी ढोनेवाले कहारोंने जडभरतकी ओर संके करके कहा— ‘यही धीरे—धीरे चलता है ।’
राजाने पूछा—अरे ! क्या तू थक गया ? अभी तो थोडी ही दूरतक तूने मेंरी पालकी ढोयी है । क्या तुझसे यह परिश्रम सहन नही होता ? वैसे तो तू बडा मोटा—ताजा दिखायी देता है ।
ब्राह्मणने कहा—राजन् ! न मैं मोटा हूँ और न मैंने आपकी पालकी ही ढोयी है । न तो मैं थका हूँ और न मुझे कोई परिश्रम ही होता है । इस पालकीको ढोनेवाला कोई दूसरा ही है ।
राजा बोले—मोटा तो तू प्रत्यक्ष दिखायी देता है और पालकी तेरे ऊपर अब भी मौजूद है और बोझ ढोनेमें देहधारियोंको परिश्रम तो होता ही है ।
ब्राह्मणने कहा—राजन् ! इस विषयमें मेंरी बात सुनो । ‘सबसे नीचे पृथ्वी है, पृथ्वीपर दो पैर हैं, दोनों पैरोंपर दो जङ्घे हैं, उन जङ्घोंपर दो ऊरु हैं तथा उनके ऊपर उदर है । फिर उदरके ऊपर छाती, भुजाएँ और कंधे हैं और कंधोंपर यह पालकी रखी गयी है । ऐसी दशामें मेंरे ऊपर भार कैसे रहा ? पालकीमें भी जिसे तुम्हारा कहा जाता है, वह शरीर रखा हुआ है । राजन् ! मैं तुम और अन्य सब जीव पञ्चभूतोंद्वारा ही ढोये जाते हैं तथा यह भूतवर्ग भी गुणोंके प्रवाहमें पडकर ही बहा जा रहा है । पृथ्वीपते ! ये सत्त्व आदि गुण भी कर्मोंके वशीभूत हैं और वह कर्म समस्त जीवोंमें अविद्याद्वारा ही संचित है । आत्मा तो शुद्ध, अक्षर, शान्त, निर्गुण और प्रकृतिसे परे है । वह एक ही सम्पूर्ण जीवोंमें व्याप्त है। उसकी वृद्धि अथवा ह्रास कभी नहीं होता। जब आत्मामें न तो वृद्धि होती है और न ह्नास ही, तब तुमने किस युक्तिसे यह बात कही है कि तू मोटा है । यदि क्रमश: पृथ्वी . पैर, जङ्घा, ऊरु, कटि तथा उदर आदि अङ्गोंपर स्थित हुए कंधेके ऊपर रखी हुई यह शिबिका मेंरे लिये भाररूप हो सकती है तो उसी प्रकार तुम्हारे लिये भी तो हो सकती है । राजन् ! इस युक्तिसे तो अन्य समस्त जीवोंने भी न केवल पालकी उठा रखी है, बल्कि सम्पूर्ण पर्वत, वृक्ष, गृह और पृथ्वी आदिका भार भी अपने ऊपर ले रखा है । राजन् ! जिस द्रव्यसे यह पालकी बनी हुई है, उसीसे यह तुम्हारा, मेंरा अथवा अन्य सबका शरीर भी बना है, जिसमें सबने ममता बढा रखी है ।
सनन्दनजी कहते हैं—ऐसा कहकर वे ब्राह्मणदेवता कंधेपर पालकी लिये मौन हो गये । तब राजाने भी तुरंत पृथ्वीपर उतरकर उनके दोनों चरण पकड लिये ।
राजाने कहा—हे विप्रवर ! यह पालकी छोडकर आप मेंरे ऊपर कृपा कीजिये और बताइये, यह छद्मवेश धारण किये हुए आप कोन हैं ? किसके पुत्र हैं ? अथवा आपके यहाँ आगमनका क्या कारण है ? यह सब आप मुझसे कहिये ।
ब्राह्मण बोले—भूपाल ! सुनो—मैं कोन हूँ यह बात बतायी नहीं जा सकती और तुमने जो यहाँ आनेका कारण पूछा, उसके उत्तरमें यह निवेदन है कि कहीं भी आने—जानेका कर्म कर्मफलके उपभोगके लिये ही हुआ करता है । धर्माधर्मजनित सुख—दु:खोंका उपभोग करनेके लिये ही जीव देह आदि धारण करता है । भूपाल ! सब जीवोंकी सम्पूर्ण अवस्थाओंके कारण केवल उनके धर्म और अधर्म ही हैं ।
राजाने कहा—इसमें संदेह नहीं कि सब कर्मोंके धर्म और अधर्म ही कारण हैं और कर्मफलके उपभोगके लिये एक देहसे दूसरी देहमें जाना होता किंतु आपने जो यह कहा कि ‘मैं कोन हूँ’ यह बात बतायी नहीं जा सकती, इसी बातको सुननेकी मुझे इच्छा हो रही है ।
ब्राह्मण बोले—राजन् ! ‘ अहं ’ शब्दका उच्चारण जिह्वा, दन्त, ओठ और तालु ही करते हैं, किंतु ये सब ‘अहं’ नहीं हैं; क्योंकि ये सब उस शब्दके उच्चारणमात्रमें हेतु हैं । तो क्या इन जिह्वा आदि कारणोंके द्वारा यह वाणी ही स्वयं अपनेको ‘अहं’ कहती है ? नहीं; अत: ऐसी स्थितिमें ‘तू मोटा है’ ऐसा कहना कदापि उचित नहीं। राजन् ! सिर और हाथ—पैर आदि लक्षाणोंवाला यह शरीर आत्मासे पृथक् ही है; अत: इस ‘अहं’ शब्दका प्रयोग मैं कहाँ और किसके लिये करूँ ? नृपश्रेष्ठ ! यदि मुझसे भिन्न कोई और भी सजातीय आत्मा हो तो भी ‘यह मैं हूँ और यह अन्य है’—ऐसा कहना उचित हो सकता था । जब सम्पूर्ण शरीरोंमें एक ही आत्मा विराजमान है, तब ‘आप कोन हैं और मैं कोन हूँ’ इत्यादि प्रश्नवाक्य व्यर्थ ही हैं । नरेश ! ‘तुम राजा हो, यह पालकी है और ये सामने पालकी ढोनेवाले खडे हैं तथा यह जगत् आपके अधिकारमें हैं—ऐसा जो कहा जाता है, वह वास्तवमें सत्य नहीं है । वृक्षसे लकडी पैदा हुई और उससे यह पालकी बनी, जिसपर तुम बैठते हो । यदि इसे पालकी ही कहा जाय तो इसका ‘वृक्ष’ नाम अथवा ‘लकडी’ नाम कहाँ चला गया ? यह तुम्हारे सेवकगण ऐसा नहीं कहते कि महाराज पेडपर चढे हुए हैं और न कोई तुम्हें लकडीपर ही चढा हुआ बतलाता है । सब लोग पालकीमें ही बैठा हुआ बतलाते हैं; किंतु पालकी क्या है—लकडियोंका समुदाय । वही अपने लिये एक विशेष नामका आश्रय लेकर स्थित है ।
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अध्याय ४५ जड़भरत और सौवीर नरेशका संवाद— परमार्थका निरूपण, ऋभुका निदाधको अद्धैतज्ञानका उपदेश
सनन्दनजी कहते हैं—नारदजी ! ब्राह्मणका परमार्थयुक्त वचन सुनकर सौवीर—नरेशने विनयसे नम्र होकर कहा ।
राजा बोले—विप्रवर ! आपने सम्पूर्ण जीवोंमें व्याप्त जिस विवेक—विज्ञानका दर्शन कराया है, वह प्रकृतिसे परे ब्रह्मका ही स्वरूप है । परंतु आपने जो यह कहा कि मैं पालकी नहीं ढोटा हूँ और न मुझपर पालकीका भार ही है । जिसने यह पालकी उठा रखी है, वय शरीर मुझसे भिन्न है । जीवोंकी प्रवृत्ति गुणोंकी प्रेरणासे होती है और ये गुण कर्मोंसे प्रेरित होकर प्रवृत्त होते हैं । इसमें मेंरा कर्तृत्व क्या है ? परमार्थके ज्ञाता द्विजश्रेष्ठ ! आपकी वह बात कानमें पडते ही मेंरा मन परमार्थका जिज्ञासु होकर उसे प्राप्त करनेके लिये विह्नल हो उठा है। महाभाग द्विज ! मैं पहलेसेही महर्षि कपिलके पास जाकर यह पूछनेके लिये उद्यत हुआ था कि इस जगत्में श्रेय क्या है, यह मुझे बताइये । किंतु इसके बीचमें ही आपने जो ये बातें कही हैं, उन्हे सुनकर मेंरा मन परमार्थश्रवणके लिये आपकी ओर दौड रहा है । महर्षि कपिलजी सर्वभूतस्वरूप भगवान् विष्णुके अंश हैं और संसारके मोहका नाश करनेके लिये इस पृथ्वीपर उनका आगमन हुआ है—ऐसा मुझे जान पडता है । वे ही भगवान् कपिल मेंरे हितकी कामनासे यहाँ आपके रूपमें प्रत्यक्ष प्रकट हुए हैं, तभी तो आप ऐसा भाषण कर रहे हैं । अत: ब्रह्मन् ! मेंरे मोहका नाश करनेके लिये जो परम श्रेय हो, वह मुझे बताइये; क्योंकि आप सम्पूर्ण विज्ञानमय जलकी तरंगोंके समुद्र जान पडते हैं ।
ब्राह्मणने कहा—भूपाल ! क्या तुम श्रेयकी ही बात पूछते हो ? जो मनुष्य देवताकी आराधना करके धन—सम्पत्ति चाहता है, पुत्र तथा राज्य (एवं स्वर्ग)—की अभिलाषा करता है, उसके लिये तो वे ही वस्तुएँ श्रेय हैं; परंतु विवेकी पुरुषके लिये परमात्माकी प्राप्ति ही श्रेय है । स्वर्गलोकरूप फल देनेवाला जो यज्ञ आदि कर्म है, वह भी श्रेय ही है; परंतु प्रधान श्रेय तो उसके फलकी इच्छा न करनेमें ही है । भूपाल ! योगयुक्त तथा अन्य पुरुषोंको भी सदा परमात्माका चिन्तन करना चाहिये: क्योंकि परमात्माका संयोगरूप जो श्रेय है, वही वास्तविक श्रेय है । इस प्रकार श्रेय तो अनेक हैं, सैकडों और हजारों प्रकारके हैं; किंतु वे सब परमार्थ नहीं हैं । परमार्थ मैं बतलाता हूँ, सुनो—यदि धन ही परमार्थ होता तो धर्मके लिये उसका त्याग क्यों किया जाता तथा भोगोंकी प्राप्तिके लिये उसका व्यय क्यों किया जाता ? नरेश्वर ! यदि इस संसारमें राज्य आदिकी प्राप्तिको परमार्थ कहा जाय तो वे कभी रहते हैं और कभी नहीं रहते हैं; इसलिये परमार्थको भी आगमापायी मानना पडेगा । यदि ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके मन्त्रोंसे सम्पन्न होनेवाले यज्ञकर्मको तुम परमार्थ मानो तो उसके विषयमें मैं जो कहता हूँ, उसे सुनो । राजन् ! कारणभूत मृत्तिकासे जो कर्म उत्पन्न होता है, वह कारणका अनुगमन करनेसे मृत्तिकास्वरूप ही समझा जाता है । इस न्यायसे समिधा, घृत और कुशा आदि विनाशशील द्रव्योंद्वारा जो क्रिया सम्पादित होती है, वह भी अवश्य ही विनाशशील होगी; परंतु विद्वान् पुरुष परमार्थको अविनाशी मानते हैं । जो क्रिया नाशवान् पदार्थोंसे सम्पन्न होती है, वह और उसका फल दोनों निस्संदेह नाशवान् होते हैं । यदि निष्काम—भावसे किया जानेवाला कर्म स्वर्गादि फल न देनेके कारण परमार्थ माना जाय तो मेंरे विचारसे वह परमार्थभूत मोक्षका साधनमात्र है और साधन कभी परमार्थ हो नहीं सकता (क्योंकि वह साध्य माना गया है) राजन् ! यदि आत्माके ध्यानको ही परमार्थ नाम दिया जाय तो वह दूसरोंसे आत्माका भेद करनेवाला है; कितुं परमार्थमें भेद नहीं होता । अत: राजन् ! निस्संदेह ये सब श्रेय ही हैं, परमार्थ नहीं। भूपाल! अब मैं संक्षेपसे परमार्थका वर्णन करता हूँ, सुनो—
नरेश्वर ! आत्मा एक, व्यापक, सम, शुद्ध, निर्गुण और प्रकृतिसे परे है, उसमें जन्म और वृद्धि आदि विकार नहीं हैं । वह सर्वत्र व्यापक तथा परम ज्ञानमय है । असत् नाम और जाति आदिसे उस सर्वव्यापक परमात्माका न कभी संयोग हुआ, न है और न होगा ही । वह अपने और दूसरेके शरीरोंमें विद्यमान रहते हुए भी एक ही है । इस प्रकारका जो विशेष ज्ञान है, वही परमार्थ है । द्वैतभावना रखनेवाले पुरुष तो अपरमार्थदर्शी ही हैं। जैसे बाँसुरीमें एक ही वायु अभेदभावसे व्याप्त है; किंतु उसके छिद्रोंके भेदसे उसमें षड्ज, ऋषभ आदि स्वरोंका भेदा हो जाता है, उसी प्रकार उस एक ही परमात्माके देव, मनुष्य आदि अनेक भेद प्रतीत होते हैं । उस भेदकी स्थिति तो अविद्याके आवरणतक ही सीमित है । राजन् ! इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास सुनो—
निदाघ नामक ब्राह्मणको उपदेश देते हुए महामुनि ऋभुने जो कुछ कहा था, उसीका इसमें वर्णन है । परमेंष्ठी ब्रह्माजीके एक ऋभु नामक पुत्र हुए । भूपते ! वे स्वभावसे ही परमार्थतत्त्वके ज्ञाता थे । पूर्वकालमें पुलस्त्यमुनिके पुत्र निदाघ उनके शिष्य हुए थे । ऋभुने बडी प्रसन्नतोके साथ निदाघको सम्पूर्ण तत्त्वज्ञानका उपदेश दिया था । समस्त ज्ञानप्रधान शास्त्रोंका उपदेश प्राप्त कर लेनेपर भी निदाघकी अद्वैतमें निष्ठा नहीं हुई । नरेश्वर ! ऋभुने निदाघकी इस स्थितिको ताड लिया था। देविका नदीके तटपर वीरनागर नामक एक अत्यन्त समृद्धिशाली और परम रमणीय नगर था, उसे महर्षि पुलस्त्यने बसाया था । उसी नगरमें पहले महर्षि ऋभुके शिष्य योगवेत्ता निदाट निवास करते थे । उनके वहाँ रहत हुए जब एक हजार दिव्य वर्ष व्यतीत हो गये, तब महर्षि ऋभु अपने शिष्य निदाघको देखनेके लिये उनके नगरमें गये । निदाघ बलिवैश्वदेवके अन्तमें द्वारपर बैठकर आतिथियोंकी प्रतीक्षा कर रहे थे । वे ऋभुको पाद्य और अर्घ्य देकर अपने घरमेंले गये और हाथ—पैर धुलाकर उन्हें आसनपर बिठाया तत्पश्चात् ! द्विजश्रेष्ठ निदाघने आदरपूर्वक कहा—’विप्रवर । अब भोजन कीजिये ।’
ऋभु बोले—द्विजश्रेष्ठ ! आपके घरमें भोजन करने योग्य जो—जो अन्न प्रस्तुत हो, उसका नाम बतलाइये ।
निदाघबे कहा—द्विजश्रेष्ठ ! मेंरे घरमें सत्तू, जौकी लपसी और बाटी बनी हैं । आपको इनमेंसे जो कुछ रुचे, वही इच्छानुसार भोजन कीजिये ।
ऋभु बोले—ब्रह्मन् ! इन सबमें मेंरी रुचि नहीं है । मुझे तो मीठा अन्न दो । हलुआ, खीर और खाँडके बने हुए पदार्थ भोजन कराओं ।
निदाघने अपनी स्त्रीसे कहा—शोभने ! हमारे घरमें जी अच्छी—से—अच्छी भोजन—सामग्री उपलब्ध हो, उसके द्वारा इन अतिथि—देवताके लिये मिष्टान्न बनाओ । पतिके ऐसा कहनेपर ब्राह्मणपत्नाने स्वामीकी आज्ञाका आदर करते हुए ब्राह्मण देवताके लिये मीठा भोजन तैयार किया । राजन् ! महामुनि ऋभुके इच्छानुसार मिष्टान्न भोजन कर लेनेपर निदाघने विनीतभावसे खडे होकर पूछा ।
निदाघ बोले—ब्रह्मन् ! कहिये, भोजनसे आपको भलीभाँति तृप्ति हुई ? आप संतुष्ट हो गये न ? अब आपका चित्त पूर्णत: स्वस्थ है न ? विप्रवर ! आप कहाँके रहनेवाले हैं कहाँ जानेको उद्यत हैं और कहाँसे आपका आगमन हुआ है ? यह सब बताइये ।
ऋभुने कहा—ब्रह्मन् ! जिसे भूख लगती है, उसीको अन्न भोजन करनेपर तृप्ति भी होती है । मुझे तो न कभी भूख लगी और न तृप्ति हुई । फिर मुझसे क्यों पूछते हो ? जठराग्निसे पार्थिव धातु (पहलेके खाये हुए पदार्थ)—के पच जानेपर क्षुधाकी प्रतीति होती है । इसी प्रकार पिये हुए जलके क्षीण हो जानेपर मनुष्योंको प्यासका अनुभव होता है । द्विज ! ये भूख और प्यास देहके ही धर्म हैं, मेंरे नहीं। अत: मुझे कभी भूख लगनेकी सम्भावना ही नहीं है । इसलिये मुझे तो सर्वदा तृप्ति रहती ही है । ब्रह्मन् ! मनकी स्वस्थता और संतोष—ये दोनों चित्तके धर्म (विकार) हैं। अत: आत्मा इन धर्मोंसे संयुक्त नहीं होता और तुमने जो यह पूछा है कि आपका निवास कहाँ है, आप कहाँ जायँगे और आप कहाँसे आते हैं—इन तीनों प्रश्रोंके विषयमें मेंरा मत सुनो । आत्मा सबमें व्याप्त है । यह आकाशकी भाँति सर्वव्यापक है, अत: इसके विषयमें कहाँसे आये, कहाँ रहते हैं और कहाँ जायँगे—यह प्रश्र कैसे सार्थक हो सकता है ? इसलिये मैं न जानेवाला हूँ और न आनेवाला । (तू, मैं और अन्यका भेद भी शरीरको लेकर ही है) वास्तवमें न तू तू है, न अन्य अन्य है और न मैं मैं हूँ (केवल विशुद्ध आत्मा ही सर्वत्र विराजमान है) इसी प्रकार मीठा भी मीठा नहीं है। मैंने जो तुमसे मिष्टान्नके लिये पूछा था उसमें भी मेंरा यही भव था कि देखूँ, ये क्या कहते हैं । द्विजश्रेष्ठ ! इस विषयमें मेंरा विचार सुनो । मीठा अन्न भी तृप्त हो जानेके बाद मीठा नहीं लगता तो वही उद्वेगजनक हो जाता है । कभी—कभी जो मीठा नहीं है, वह भी मीठा लगता है अर्थात् अधिक भूख होनेपर फीका अन्न भी मीठा (अमृतके समान) लगता है । ऐसा कोन—सा अन्न है, जो आदि, मध्य और अन्त—तीनों कालमें रुचिकर ही हो । जैसे मिट्टीक घर मिट्टीसे लिपनेपर स्थिर होता है, उसी प्रकार यह पार्थिव शरीर पार्थिव परमाणुओंसे पुष्ट होता है । जौ, गेहूँ, मूँग, घी, तेल, दूध, दही, गुड और फल आदि सभी भोज्य—पदार्थ पार्थिव परमाणु ही तो हैं (इनमेंसे कोन स्वादिष्ट है और बे—मीठेका विचार करनेवाला है, उस मनको तुम्हें समदर्शी बनाना चाहिये; क्योंकि समता ही मोक्षका उपाय है ।
राजन् ! ऋभुके ये परमार्थयुक्त वचन सुनकर महाभाग निदाघने उन्हें प्रणाम करके कहा—’ब्रह्मन् ! आप प्रसन्न होइये और बताइये, मेंरा हितसाधन करनेके लिये यहाँ पधारे हुए आप कोन हैं ? आपके इन वचनोंको सुनकर मेंरा सम्पूर्ण मोह नष्ट हो गया है ।’
ऋभु बोले—द्विजश्रेष्ठ ! मैं तुम्हारा आचार्यऋभु हूँ और तुम्हें तत्त्वको समझनेवाली बुद्धि देनेके लिये यहाँ आया था। अब मैं जाता हूँ । जो कुछ परमार्थ है, वह सब मैंने तुम्हें बता दिया । इस प्रकार परमार्थ—तत्त्वका विचार करते हुए तुम इस सम्पूर्ण जगत्को एकमात्र वासुदेवसंज्ञक परमात्माका स्वरूप समझो । इसमें भेदका सर्वथा अभाव है ।
ब्राह्मण जडभरत कहते हैं—तदनन्तर निदाघने ‘बहुत अच्छा’ कहकर गुरुदेवको प्रणाम किया और बडी भक्तिसे उनकी पूजा की । तत्पश्चात् वे निदाघकी इच्छा न होनेपर भी वहाँसे चले गये । नरेश्वर ! तदनन्तर एक सहस्र दिव्य वर्ष बीतनेके बाद गुरुदेव महर्षि ऋभु निदाघको ज्ञानोपदेश करनेके लिये पुन: उसी नरमें आये । उन्होंने नगरसे बाहर ही निदाघको देखा । वहाँका राजा बहुत बडी सेना आदिके साथ धूम—धामसे नगरमें प्रवेश कर रहा था और निदाघ मनुष्योंकी भीड—भाडसे दूर हटकर खडे थे । वे जंगलसे समिधा और कुशा लेकर आये थे और भूख—प्याससे उनका गला सूख रहा था । निदाघको देखकर ऋभु उनके समीप गये और अभिवादन करके बोले—’बाबाजी ! आप यहाँ एकान्तमें कैसे खडे हैं ?’
निदाघ बोले—विप्रवर ! आज इस रमणीय नगरमें यहाँके राजा प्रवेश करना चाहते हैं। अत: यहाँ मनुष्योंकी यह बहुत बडी भीड इकठ्ठी हो गयी है। इसीलिये मैं यहाँ खडा हूँ ।
ऋभुने पूछा—द्विजश्रेष्ठ ! आप यहाँकी बातोंके जानकार मालूम होते हैं । अत: बताइये, यहाँ राजा कोन है और दूसरे लोग कोन हैं ?
निदाघ बोले—यह जो पर्वतशिखरके समान ऊँचे और मतवाले गजराजपर चढा हुआ है, वही राजा है और दूसरे लोग उसके परिजन हैं ।
ऋभुने पूछा—महाभाग ! मैंने हाथी तथा राजाको एक ही साथ देखा है । आपने विशेषरूपसे इनका पृथक—पृथक् चिह्न नहीं बताया; इसलिये मैं पहचान न सका । अत: आप इनकी विशेषता बतलाइये । मैं जानना चाहता हूँ कि इनमें कोन राजा है और कोन हाथी ?
निदाघ बोले—ब्रह्मन् ! इनमें यह जो नीचे है, वह हाथी है और इसके ऊपर ये राजा बैठे हैं । इन दोनोंमें एक वाहन है और दूसरा सवार । भला, वाह्य—वाहक—सम्बन्धको कोन नहीं जानता ?
ऋभुने पूछा—ब्रह्मन् ! जिस प्रकार मैं अच्छी तरह समझ सकूँ, उस तरह मुझे समझाइये । ‘नीचे’ इस शब्दका क्या अभिप्राय है और ‘ ऊपर ’ किसे कहते हैं ?
ब्राह्मण जडभरत कहते हैं—ऋभुके ऐसा कहनेपर निदाघ सहसा उनके ऊपर चढ गये और इस प्रकार बोले—’सुनिये, आप मुझसे जो कुछ पूछ रहे हैं, वह अब समझाकर कहता हूँ । इस समय मैं राजाकी भाँति ऊपर हूँ और श्रीमान् गजराजकी भाँति नीचे । ब्राह्मणदेव ! आपको भलीभाँति समझानेके लिये ही मैंने यह दृष्टान्त दिखाया है ।
ऋभुने कहा—द्विजश्रेष्ठ ! यदि आप राजाके समान हैं और मैं हाथीके समान हूँ तो यह बताइये कि आप कौन हैं और मैं कोन हूँ ?
ब्राह्मण कहते हैं—ऋभुके ऐसा कहनेपर निदाघ्ने तुरंत ही उनके दोनों चरणोंमें मस्तक नवाया और कहा—’भगवन् ! आप निश्चय ही मेंरे आचार्यपाद महर्षि ऋभु हैं; क्योंकि दूसरेका ह्रदय इस प्रकार अद्वैत—संस्कारसे सम्पन्न नहीं है . जैसा कि मेंरे आचार्यका । अत: मेंरा विश्वास है, आप मेंरे गुरुजी ही यहाँ पधारे हुए हैं ।
ऋभुने कहा—निदाघ ! पहले तुमने मेंरी बडी सेवा—शुश्रूषा की है । इसलिये अत्यन्त स्नेहवश मैं तुम्हें उपदेश देनेके लिये तुम्हारा आचार्य ऋभु ही यहाँ आया हूँ । महामते ! समस्त पदार्थोंमें अद्वैत आत्मबुद्धि होना ही परमार्थका सार है । मैंने तुम्हें संक्षेपसे उसका उपदेश कर दिया ।
ब्राह्मण जडभरत कहते हैं—विद्वान् गुरु महर्षि ऋभु निदाघसे ऐसा कहकर चले गये । निदाघ भी उनके उपदेशसे अद्वैतपरायण हो गये और सम्पूर्ण प्राणियोंको अपनेसे अभिन्न देखने लगे । ब्रह्मर्षि निदाघने इस प्रकार ब्रह्मपरायण होकर परम मोक्ष प्राप्त कर लिया। धर्मज्ञ नरेश ! इसी प्रकार तुम भी आत्माको सबमें व्याप्त जानते हुए अपनेमें तथा शत्रु और मित्रमें समान भाव रखो ।
सनन्दनजी कहते हैं—ब्राह्मणके ऐसा कहनेपर राजाओंमें श्रेष्ठ सौवीर—नरेशने परमार्थकी ओर दृष्टि रखकर भेदबुद्धि त्याग दी और वे ब्राह्मण भी पूर्वजन्मकी बातोंकी स्मरण करके बोधयुक्त हो उसी जन्ममें मुक्त हो गये । मुनीश्वर नारद ! इस प्रकार मैंने तुम्हे परमार्थरूप यह अध्यात्मज्ञान बताया है । इसे सुननेवाले ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंको भी यह मुक्ति प्रदान करनेवाला है ।
अध्याय ४६ शिक्षा— निरूपण
सूतजी कहते हैं—सनन्दनजीका ऐसा वचन सुनकर नारदजी अतृप्त—से रह गये । वे और भी सुननेके लिये उत्सुक होकर भाई सनन्दनजीसे बोले ।
नारदजीने कहा— भगवन् ! मैंने आपसे जो कुछ पूछा है, वह सब आपने बता दिया । तथापि भगवत्सम्बन्धी चर्चाको बारंबार सुनकर भी मेंरा मन तृप्त नहीं होता—अधिकाधिक सुननेके लिये उत्कण्ठित हो रहा है । सुना जाता है, परम धर्मज्ञ व्यास—पुत्र शुकदेवजीने आन्तरिक और बाह्य—सभी भोगोंसे पूर्णत: विरक्त होकर बडी भारी सिद्धि प्राप्त कर ली । ब्रह्मन् ! महात्माओंकी सेवा (सत्सङ्ग) किये बिना प्राय: पुरुषको विज्ञान (तत्त्व—ज्ञान) नहीं प्राप्त होता, किंतु व्यासनन्दन शुकदेवने बाल्यावस्थामें ही ज्ञान पा लिया: यह कैसे सम्भव हुआ ? महाभाग ! आप मोक्षशास्त्रके तत्त्वको जाननेवाली हैं । मैं सुनना चाहता हूँ, आप मुझसे शुकदेवजीका रहस्यमय जन्म और कर्म कहिये।
सनन्दनजी बोले— नारद ! सुनो, मैं शुकदेवजीकी उत्पत्तिका वृत्तान्त संक्षेपसे कहूँगा । मुने ! इस वृत्तान्तको सुनकर मनुष्य ब्रह्मतत्त्वका ज्ञाता हो सकता है । अधिक आयु हो जानेसे, बाल पक जानेसे, धनसे अथवा बन्धु—बान्धवोंसे कोई बडा नहीं होता । ऋषि—मुनियोंने यह धर्मपूर्ण निश्चय किया है कि हमलोगोंमें जो ‘अनूचान’ हो, वही महान् है ।
नारदजीने पूछा—सबको मान देनेवाले विप्रवर ! पुरुष ‘अनूचान’ कैसे होता है ? वह उपाय मुझे बताइये; क्योंकि उसे सुननी लिये मेंरे मनमें बडा कोतूहल है ।
सनन्दनजी बोले—नारद ! सुनो, मैं अनुचानका लक्षण बताता हूँ, जिसे जानकर मनुष्य अङ्गोंसहित वेदोंका ज्ञाता वेदाङ्ग होता है । शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्यौतिष तथा छन्द: शास्त्र—इन छ: को विद्वान् पुरुष कहते हैं । धर्मका प्रतिपादन करनेमें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद—ये चार वेद ही प्रमाण बताये गये हैं । जो श्रेष्ठ द्विज गुरुसे छहो अङ्गोसहित वेदोंका अध्ययन भलीभाँति करता है, वह ‘अनूचान’ होता है; अन्यथा करोडों ग्रन्थ बाँच लेनेसे भी कोई ‘ अनुचान ’ नही कहलाता सकता ।
नारदजीने कहा— मानद ! आप अङ्गोंसहित इन सम्पूर्ण वेदोंके महापण्डित हैं । अत: मुझे अङ्गों और वेदोंका लक्षण विस्तारपूर्वक बताइये ।
सनन्दनजी बोले— ब्रह्मन् ! तुमने मुझपर प्रश्रका यह अनुपम भार रख दिया । मैं संक्षेपसे इन सबके सुनिश्चित सार—सिद्धान्तका वर्णन करूंगा । वेदवक्ता ब्रह्मार्षियोंने वेदोंकी शिक्षामें स्वरको प्रधान कहा है; अत: स्वरका वर्णण करता हूँ, सुनो—स्वर—शास्त्रोंके निश्चयके अनुसार विशेषरूपसे आर्चिक (ऋक्सम्बन्धी), गाथिक (गाथा—सम्बन्धी) और सामिक (सामसम्बन्धी) स्वर—व्यवधानका प्रयोग करना चाहिये । ऋचाओंमें एकका अन्तर देकर स्वर होता है । गाथाओंमें दोके व्यवधानसे और साम—मन्त्रोंमें तीनके व्यवधानसे स्वर होता है । स्वरोंका इतना ही व्यवधान सर्वत्र जानना चाहिये । ऋक्, साम और यजुर्वेदके अङ्गभूत जो याज्य—स्तोत्र, करण और मन्त्र आदि याज्ञिकोंद्वारा यज्ञोंमें प्रयुक्त होते हैं, शिक्षा—शास्त्रका ज्ञान न होनेसे उनमें विस्वर (विरुद्ध स्वरका उच्चारण) हो जाता है । मन्त्र यदि यथार्थ स्वर और वर्णसे हीन हो तो मिथ्या—प्रयुक्त होनेके कारण वह उस अभीष्ट अर्थका बोध नहीं कराता: इतना ही नहीं, वह वाक्रूपी वज्र यजमानकी हिंसा कर देता है—जैसे ‘इन्द्रशत्रु’ यह पद स्वरभेदजनित अपराधके कारण यजमानके लिये ही अनिष्टकारी हो गया । सम्पूर्ण वाङमयके उच्चारणके लिये वक्ष: स्थल, कण्ठ और सिर—ये तीन स्थान हैं । इन तोनोंको सवन कहते हैं, आर्थात् वक्ष: स्थानमें नीचे स्वरसे जो शब्दोच्चारण होता है, उसे प्रात: सवन कहते हैं: कण्ठस्थानमें मध्यम स्वरसे किये हुए शब्दोच्चारणका नाम माध्यन्दिनसवन है तथा मस्तकरूप स्थानमें उच्च स्वरसे जो शब्दोच्चारण है, उसे तृतीयसवन कहते हैं। अधरोत्तरभेदसे सप्तस्वरात्मा सामके भी पूर्वोक्त तीन ही स्थान हैं । उरोभाग, कण्ठ तथा सिर—ये सातों स्वरोंके विचरण—स्थान हैं । किंतु उर: स्थलमें मन्द्र और अतिस्वारकी ठीक अभिव्यक्ति न होनेसे उसे सातों स्वरोंका विचरण—स्थल नहीं कहा जा सकता: तथापि अध्ययनाध्यापनके लिये वैसा विधान किया गया है। (ठीक अभिव्यक्ति न होनेपर भी उपांशु या मानस प्रयोगमें वर्ण तथा स्वरका सूक्ष्म उच्चारण तो होता ही है ।) कठ, कलाप, तैत्तिरीय तथा आह्वरक शाखाओंमें और ऋवेद तथा सामवेदमें प्रथम स्वरका उच्चारण करना चाहिये । ऋग्वेदकी प्रवृत्ति दूसरे और तीसरे स्वरके द्वारा होती है । लौकिक व्यवहारमें उच्च और मध्यमका संघात—स्वर होता है । आह्वरक शाखावाले तृतीय तथा प्रथममें उच्चारित स्वरोंका प्रयोग करते हैं । तैत्तिरीय शाखावाले द्वितीयसे लेकर पञ्चमतक चार स्वरोंका उच्चारण करते हैं । सामगान करनेवाले विद्वान् प्रथम (षडज), द्वितीय (ऋषभ), तृतीय गान्धार, चतुर्थ मध्यम, मन्द्र पञ्चम, क्रुष्ट धैवत तथा अतिस्वार निषाद—इन सातों स्वरोंका प्रयोग करते हैं । द्वितीय और प्रथम—ये ताण्डी ताण्डयप्रञ्चविंशादि ब्राह्मणके अध्येता कोथुम आदि शाखावाले तथा भाल्लवी छन्दोग शाखावाले विद्वानोंके स्वर हैं तथा शतपथ ब्राह्मणमें आये हुए ये दोनों स्वर वाजसनेयी शाखावालोंके द्वारा भी प्रत्युक्त होते हैं । ये सब वेदोंमें प्रयुक्त होनेवाले स्वर विशेषरूपसे बताये गये हैं । इस प्रकार सार्ववैदिक स्वर—संचार कहा गया है ।
अब मैं सामवेदके स्वर—संचारका वर्णन करूँगा । अर्थात् छन्दोग विद्वान् सामगानमें तथा ऋक्पाठमें जिन स्वरोंका उपयोग करते हैं, उनका यहाँ विशेषरूपसे निरूपण किया जाता है । यहाँ श्लोक थोडे होगे; किंतु उनमें अर्थ—विस्तार अधिक होगा । यह उत्तम वेदाङ्गका विषय सावधानीसे श्रवण करनेयोग्य है । नारद ! मैंने तुम्हें पहले भी कभी तान, राग, स्वर, ग्राम तथा मूर्च्छनाओंका लक्षण बताया है, जो परम पवित्र, पावन तथा पुण्यमय है । द्विजातियोंको ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके स्वरूपका परिचय कराना—इसे ही शिक्षा कहते हैं । सात स्वर, तीन ग्राम, इक्कीस मूर्च्छना और उनचास तान—इन सबको स्वर—मण्डल कहा गया है । षडज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत तथा सातवाँ निषाद—ये सात स्वर हैं । षड्ज, मध्यम और गान्धार—ये तीन ग्राम कहे गये हैं । भूर्लोकसे षडज उत्पन्न होता है, भुवर्लोकसे मध्यम प्रकट होता है तथा स्वर्ग एवं मेंघलोकसे गान्धारका प्राकटय होता है । ये तीन ही ग्राम—स्थान हैं । स्वरोंके राग—विशेषसे ग्रामोंके विविध राग कहे गये हैं । साम—गान करनेवाले विद्वान् मध्यम—ग्राममें बीस, षडजग्राममें चौदह तथा गान्धारग्राममें पंद्रह तान स्वीकार करते हैं । नन्दी, विशाला, सुमुखी, चित्रा, चित्रवती, सुखा तथा बला—ये देवताओंकी सात मूर्च्छनाएँ जाननी चाहिये । आप्यायिनी, विश्वभृता, चन्द्रा, हेमा, कपर्दिनी, मैत्री तथा बार्हती—ये पितरोंकी सात मूर्च्छनाएँ हैं । षङजस्वरमें उत्तर मन्द्रा, ऋषभमें अभिरूढता (या अभिरुद्नता) तथा गान्धारमें अश्वक्रान्ता नामवाली तीसरी मूर्च्छना मानी गयी है । मध्यमस्वरमें सौवीरा पञ्चममें हृषिका तथा धैवतमें उत्तरायता नामकी मूर्च्छना जाननी चाहिये। निषादस्वरमें रजनी नामक मूर्च्छनाको जाने। ये ऋषियोंकी सात मूर्च्छनाएँ हैं । गन्धर्वगण देवताओंकी सात मूर्च्छनाओंका आश्रय लेते हैं । यक्षलोग पितरोंकीसात मूर्च्छनाएँ अपनाते हैं, इसमें संशय नहीं है। ऋषियोंकी जो सात मूर्च्छनाएँ हैं, उन्हें लौकिक कहा गया है—उनका अनुसरण मनुष्य करते हैं । षडजस्वर देवताओंको और ऋषभस्वर ऋषि—मुनियोंको तृप्त करता है । गान्धारस्वर पितरोंको, मध्यमस्वर गन्धर्वोंको तथा पञ्चमस्वर देवताओं, पितरों एवं महर्षियोंको भी संतुष्ट करता है । निषादस्वर यक्षोंको तथा धैवत सम्पूर्ण भूत—समुदायको तृप्त करता है । गानकी गुणवृत्ति दस प्रकारकी है अर्थात् लौकिक—वैदिक गान दस गुणोंसे युक्त हैं । रक्त, पूर्ण, अलंकृत, प्रसन्न, व्यक्त, विक्रुष्ट, श्लक्ष्ण, सम, सुकुमार तथा मधुर—ये ही वे दसों गुण हैं । वेणु, वीणा तथा पुरुषके स्वर जहाँ एकमें मिलकर अभिन्न—से प्रतीत होते हैं और उससे जो रञ्जन होता हैं, उसका नाम ‘रक्त’ है । स्वर तथा श्रुतिकी पूर्ति करनेसे तथा छन्द एवं पादाक्षरोंके संयोग (स्पष्ट उच्चारण)—से जो गुण प्रकट होता है, उसे ‘पूर्ण’ कहते हैं । कण्ठ अर्थात् प्रथम स्थानमें जो स्वर स्थित है, उसे नीचे करके ह्रदयमें स्थापित करना और ऊँचे करके सिरमें ले जाना—यह ‘अलंकृत’ कहलाता है । जिसमें कण्ठका गद्गदभाव निकल गया है और किसी प्रकारकी शङ्का नहीं रह गयी है, वह ‘प्रसन्न’ नामक गुण है । जिसमें पद, पदार्थ, प्रकृति, विकार, आगम, लोप, कृदन्त, तद्धित्त, समास, धातु, निपात, उपसर्ग, स्वर, लिङग, वृत्ति, वार्तिक, विभक्त्यर्थ तथा एकवचन, बहुवचन, आदिका भलीभाँति उपपादन हो, उसे ‘व्यक्त’ कहते हैं । जिसके पद और अक्षर स्पष्ट हो तथा जो उच्च स्वरसे बोला गया हो, उसका नाम ‘विक्रुष्ट’ है । द्रुत (जल्दबाजी) और विलम्बित—दोनों दोषोंसे रहित, उच्च, नीच, प्लुच, समाहार, हेल, ताल और उपनय आदि उपपत्तियोंसे युक्त गीतको ‘श्लक्ष्ण’ कहते हैं । स्वरोंके अवाप—निर्वाप (चढाव—उतार)—के जो प्रदेश हैं, उनका व्यवहित स्थानोंमें जो समावेश होता है, उसीका नाम ‘सम’ है । पद, वर्ण, स्वर तथा कुहरण (अव्यक्त अक्षरोंको कण्ठ दबाकर बोलना)—ये सभी जिसमें मृदु—कोमल हो, उस गीतको ‘सुकुमार’ कहा गया है । स्वभावसे ही मुखसे निकले हुए ललित पद एवं अक्षरोंके गुणसे सम्मन्न गीत ‘मधुर’ कहलाता है । इस प्रकार गान इन दस गुणोंसे युक्त होता है।
इसके विपरीत गीतके दोष बताये जाते हैं—इस विषयमें ये श्लोक कहे गये हैं । शङ्कित, भीषण, भीत, उद्घुष्ट, आनुनासिक, काकस्वर, मूर्धगत (अत्यन्त उच्च स्वरसे सिरतक चढाया हुआ अपूर्णगान), स्थान—विवर्जित, विस्वर, विरस, विश्लिष्ट, विषमाहत, व्याकुल तथा तालहीन—ये चौदह गीतके दोष हैं । आचार्यलोग समगानकी इच्छा करते हैं। पण्डितलोग पदच्छेद (प्रत्येक पदका विभाग) चाहते हैं । स्त्रियाँ मधुर गीतकी अभिलाषा करती हैं और दूसरे लोग विक्रुष्ट (पद और अक्षरके विभागपूर्वक उच्च स्वरसे उच्चारित) गीत सुनना चाहते हैं । षडजस्वरका रंग कमलपत्रके समान हरा है । ऋषभस्वर तोतेके समान कुछ पीलापन लिये हरे रंगका है । गान्धार सुवर्णके समान कान्तिवाला है । मध्यमस्वर कुन्दके सदृश श्वेतवर्णका है । पञ्चमस्वरका रंग श्याम है । धैवतको पीले रंगका माना गया है । निषादस्वरमें सभी रंग मिले हुए हैं । इस प्रकार ये स्वरोंके वर्ण कहे गये हैं । पञ्चम, मध्यम और षडज—ये तीनों स्वर ब्राह्मण माने गये हैं । ऋषभ और धैवत—ये दोनों ही क्षत्रिय हैं । गान्धार तथा निषाद—ये दोनों स्वर आधे वैश्य कहे गये हैं और पतित होनेके कारण ये आधे शूद्र हैं । इसमें संशय नहीं है । जहाँ ऋषभके अनन्तर प्रकट हुए षडजके साथ धैवतसहित पञ्चमस्वर मध्यमरागमें प्राप्त होता है, उस निषदसहित स्वरग्रामको ‘षाडव’ या ‘षाडजव’ जानना चाहिये । यदि मध्यमस्वरमें पञ्चमका विराम हो और अन्तरस्वर गान्धार हो जाय तथा उसके बाद क्रमसे ऋषभ, निषाद एवं पञ्चमका उदय हो तो उस पञ्चमको भी ऐसा ही (षाडव या षाडजव) समझे । यदि मध्यमस्वरका आरम्भ होनेपर गान्धारका आधिपत्य (वृद्धि) हो जाय, निषादस्वर बारंबार जाता—आता रहे, धैवतका एक ही बार उच्चारण होनेके कारण वह दुर्बलावस्थामें रहे तथा षडज और ऋषभकी अन्य पाँचोंके समान ही स्थिति हो तो उसे ‘मध्यम ग्राम’ कहते हैं । जहाँ आरम्भमें षडज हो और निषादका थोडा—सा स्पर्श किया गया हो तथा गान्धारका अधिक उच्चारण हुआ हो, साथ ही धैवतस्वरका कम्पन—पातन देखा जाता हो तथा उसके बाद दूसरे स्वरोंका यथारुचि गान किया गया हो, उसे ‘षडजग्राम’ कहा गया है । जहाँ आरम्भमें षडज हो और इसके बाद अन्तरस्वर—संयुक्त काकली देखी जाती हो अर्थात् चार बार केवल निषादका ही श्रवण होता हो, पञ्चम स्वरमें स्थित उस आधारयुक्त गीतको ‘श्रुति कैशिक’ जानना चाहिये । जब पूर्वोक्त कैशिक नामक गीतको सब स्वरोंसे संयुक्त करके मध्यमसे उसका आरम्भ किया जाय और मधममें ही उसकी स्थापना हो तो वह ‘कैशिक मध्यम’ नामक ग्रामराग होता है । जहाँ पूर्वोक्त काकली देखी जाती हो और प्रधानता पञ्चम स्वरकी हो तथा शेष दूसरे—दुसरे स्वर सामान्य स्थितिमें हो तो कश्यप ऋषि उसे मध्यम ग्रामजनित ‘कैशिक राग’ कहते हैं । विद्वान् पुरुष ‘गा’ का अर्थ गेय मानते हैं और ‘ध’ का अर्थ कलापूर्वक बाजा बजाना कहते हैं और रेफसहित ‘व’ का अर्थ वाद्य—सामग्री कहते हैं । यही ‘गान्धर्व’ शब्दका लक्ष्यार्थ है । जो सामगान करनेवाले विद्वानोंका प्रथम स्वर है, वही वेणुका मध्यम स्वर कहा गया है । जो उनका द्वितीय स्वर है, वही वेणुका गान्धार स्वर है और जो उनका तृतीय है, वही वेणुका ऋषभ स्वर माना गया है । सामग विद्वानोंके चौथे स्वरको वेणुका षडज कहा गया है । उनका पञ्चम वेणुका धैवत होता है । उनके छठेको वेणुका निषाद समझना चाहिये और उनका सातवाँ ही वेणुका पञ्चम माना गया है । मोर षडज स्वरमें बोलता है । गायें ऋषभ स्वरमें रँभाती हैं, भेड और बकरियाँ गान्धार स्वरमें बोलती हैं । तथा क्रौञ्च (कुरर) पक्षी मध्यम स्वरमें बोलता है । जब साधारणरूपसे सब प्रकारके फूल खिलने लागते हैं, उस वसन्त ऋतुमें कोयल पञ्चम स्वरमें बोलती है । घोडा धैवत स्वरमें हिनहिनाता है और हाथी निषाद स्वरमें चिग्घाडता है । षडज स्वर कण्ठसे प्रकट होता है । ऋषभ मस्तकसे उत्पन्न होता है, गान्धारका उच्चारण मुखसहित नासिकासे होता है और मध्यम स्वर ह्रदयसे प्रकट होता है । पञ्चम स्वरका उत्थान छाती, सिर और कण्ठसे होता है । धैवतको ललाटसे उत्पन्न जानना चाइये तथा निषादका प्राकटय सम्पूर्ण संधियोंसे होता है । षडज स्वर नासिका, कण्ठ, वक्ष: स्थल, तालु, तालु, जिह्वा तथा दाँतोंके आश्रित है । इन छ: अङ्गोंसे उसका जन्म होता है । इसलिये उसे ‘षडज’ कहा गया है । नाभिसे उठी हुई वायु कण्ठ और मस्तकसे टकराकर व्रुषभके समान गर्जना करती है । इसलिये उससे प्रकट हुए स्वरका नाम ‘ऋषभ’ है । नाभिसे उठी हुई वायु कण्ठ और सिरसे टकराकर पवित्र गन्ध लिये हुए बहती है । इस कारण उसे ‘गान्धार’ कहते हैं । नाभिसे उठी हुई वायु ऊरु तथा ह्र्दयसे टकराकर नाभिस्थानमें आकर मध्यवर्ती होती है । अत: उससे निकले हुए स्वरका नाम ‘मध्य’ होता है । नाभिसे उठी हुई वायु वक्ष, हृदय, कण्ठ और सिरसे टकराकर इन पाँचों स्नानोंसे स्वरके साथ प्रकट होती है । इसलिये उस स्वरका नाम ‘पञ्चम’ रखा जाता है । इसलिये उस स्वरका साथ प्रकट होती है । इसलिये उस स्वरका नाम ‘पञ्चम’ रखा जाता है । अन्य विद्वान् धैवत और निषाद—इन दो स्वरोंको छोडकर शेष पाँच स्वरोंको पाँचों स्थानोंसे प्रकट मानते हैं । पाँचों स्थानोंमें स्थित होनेके कारण इन्हें सब स्थानोंमें धारण किया जाता है । षडज स्वर अग्निके द्वारा गाया गया है । ऋषभ ब्रह्माजीके द्वारा गाया कहा जाता है । गान्धारका गान सोमने और मध्यम स्वरका गान विष्णुने किया है । नारदजी ! पञ्चम स्वरका गान तो तुम्हींने किया है, इस बातको स्मरण करो । धैवत और निषाद—इन दो स्वरोंको तुम्बुरुने गाया है । विद्वान् पुरुषोंने ब्रह्माजीको आदि—षडज स्वरका देवता कहा है । ऋषभका प्रकाश तीखा और उद्दीस है, इसलिये अग्निदेव ही उसके देवता हैं । जिसके गान करनेपर गौएँ संतुष्ट होती हैं, वह गान्धार है और इसी कारण गौएँ ही उसकी अधिष्ठात्री देवी हैं । गान्धारको सुनकर गौएँ पास आती हैं, इसमें संदेह नहीं है । पञ्चम स्वरके देवता सोम है, जिन्हें ब्राह्मणोंका राजा कहा गया है । जैसे चन्द्रमा शुक्लपक्षमें बढता है और कृष्णपक्षमें घटता है, उसी प्रकार स्वरग्राममें प्राप्त होनेपर जिस स्वरका ह्नास होता और वृद्धि होती है तथा इन पूर्वोत्पन्न स्वरोंकी जहाँ अतिसंधि होती है, वह धैवत है । इसीसे उसके धैवतत्वका विधान किया गया है । निषादमें सब स्वरोंका निषादन (अन्तर्भाव) होता है, इसीलिये वह निषाद कहलाता है । यह सब स्वरोंको अभिभूत कर लेता है—ठीक उसी तरह, जैसे सूर्य सब नक्षत्रोंको अभिभूत करता है; क्योंकि सूर्य ही इसके अधिदेवता हैं । काठकी वीणा तथा गात्रवीणा—ये गान—जातिमें दो प्रकारकी वीणाएँ होती हैं ।
नारद ! सामगानके लिये गात्रवीणा होती है, उसका लक्षण सुनो। गात्रवीणा उसे कहते हैं, जिसपर सामगान करनेवाले विद्वान् गाते हैं । वह अंगुलि और अङ्गुष्ठसे रञ्जित तथा स्वर—व्यञ्जनसे संयुक्त होती है । उसमें अपने दोनों हाथोंको संयममें रखकर उन्हें घुटनोंपर रखे और गुरुका अनुकणर करे, जिससे भिन्न बुद्धि न हो । पहले प्रणवका उच्चारण करे, फिर व्याहृतियोंका । तदनन्तर गायत्री मन्त्रका उच्चारण करके सामगान प्रारम्भ करे । सब अंगुलियोंको फैलाकर स्वरमण्डलका आरोपण करे । अंगुलियोंसे अङ्गुष्ठका और अङ्गुष्ठसे अंगुलियोंका स्पर्श कदापि न करे । अंगुलियोंको बिलगाकर न रखे और उनके मूलभागका भी स्पर्श न करे, सदा उन अंगुलियोंके मध्यपर्वमें अँगूठेके अग्रभागसे स्पर्श करना चाहिये । विभागके ज्ञाता पुरुषको चाहिये कि मात्रा—द्विमात्रा—वृद्धिके विभागके लिये बायें हाथकी अंगुलियोंसे द्विमात्रका दर्शन कराता रहे । जहाँ त्रिरेखा देखी जाय, वहाँ संधिका निर्देश करे; वह पर्व है, ऐसा जानना चाहिये । शेष अन्तर—अन्तर है । साममन्त्रमें (प्रथम और द्वितीय स्वरके बीच) जौके बराबर अन्तर करे तथा ऋचाओंमें तिलके बराबर अन्तर करे । मध्यम पर्वोंमें भलीभाँति निविष्ट किये हुए स्वरोंका ही निवेश करे । विद्वान् पुरुष यहाँ शरीरके किसी अवयवको कँपाये नहीं । नीचेके अङ्ग—ऊरु, जङ्घा आदिको सुखपूर्वक रखकर उनपर दोनों हाथोंको प्रचलित परिपाटीके अनुसार रखे (अर्थात् दाहिने हाथको गायके कानके समान रखे और बायेंको उत्तानभावसे रखे) । जैसे बादलोंमें बिजली मणिमय सूत्रकी भाँति चमकती दिखायी देती है, यही विवृत्तियों (पदादि विभागों)—के छेद—बिलगाव—स्पष्ट निर्देशका दृष्टान्त है। जैसे सिरके बालोंपर कैंची चलती है और बालोंको पृथक् कर देती है, उसी प्रकार पद और स्वर आदिका पृथक्—पृथक् विभागपूर्वक बोध कराना चाहिये । जैसे कछुआ अपने सब अङ्गोंको समेंट लेता है, उसी प्रकार अन्य सब चेष्टाओंको विलीन करके मन और दृष्टि देकर विद्वान् पुरुष, स्वस्थ, शान्त तथा निर्भीक होकर वर्णोंका उच्चारण करे । मन्त्रका उच्चारण करते समय नाककी सीधमें पूर्व दिशाकी ओर गोकर्णके समान आकृतिमें हाथको उठाये रखे और हाथके अग्रभागपर दृष्टि रखते हुए शास्त्रके अर्थका निरन्तर चिन्तन करता रहे । मन्त्र—वाक्यको हाथ और मुख दोनोंसे साथ—साथ भलीभाँति प्रचारित करे । वर्णोंका जिस प्रकार द्रुतादि वृत्तिसे आरम्भमें उच्चारण करे, उसी प्रकार उन्हें समाप्त भी करे । (एक ही मन्त्रमें दो वृत्तियोंकी योजना न करे) । अभ्याघात, निर्घात, प्रगान तथा कम्पन न करे, समभावसे साममन्त्रोंका गान करे । जैसे आकाशमें श्येन पक्षी सम गतिसे उडता है, जैसे जलमें विचरती हुई मछलियों अथवा आकाशमें उडते हुए पक्षियोंके मार्गका विशेष रूपसे पता नहीं चलता, उसी प्रकार सामगानमें स्वरगत श्रुतिके विशेष स्वरूपका अवधारण नहीं होता । सामान्यत: गीतमात्रकी उपलब्धि होती है । जैसे दहीमें घी अथवा काठके भीतर अग्नि छिपी रहती है और प्रयत्नसे उसकी उपलब्धि भी होती है, उसी प्रकार स्वरगत श्रुति भी गीतमें छिपी रहती है, प्रयत्नसे उसके विशेष स्वरूपकी भी उपलब्धि होती है । प्रथम स्वरसे दूसरे स्वरपर जो स्वर—संक्रमण होता है, उसे प्रथम स्वरसे संधि रखते हुए ही करे, जैसे छाया एवं धूप सूक्ष्म गतिसे धीरे—धीरे एक स्थानसे दूसरे स्थानपर जाते हैं—न तो पूर्वस्थानसे सहसा सम्बन्ध तोडते हैं और नये स्थानपर ही वेगसे जाते है, उसी प्रकार स्वर—संक्रमण भी सम तथा अविच्छिन्न भावसे करे । जब प्रथम स्वरको खींचते हुए द्वितीय स्वर होता है, तब उसे ‘कर्षण’ कहते हैं। विद्वान् पुरुष निम्नाङ्कित छ: दोषोंसे युक्त कर्षणका त्याग करे, अनागत तथा अतिक्रान्त अवस्थामें कर्षण न करे । द्वितीय स्वरके आरम्भसे पहले उसकी अनागत अवस्था है, प्रथम स्वरका सर्वथा व्यतीत हो जाना उसकी अतिक्रान्तावस्था है; इन दोनों स्थितियोंमें प्रथम स्वरका कर्षण न करे । प्रथम मात्राका विच्छेद करके भी कर्षण न करे । उसे विषमाहत—कम्पित करके भी द्वितीय स्वरपर न जाय। कर्षणकालमें तीन मात्रासे अधिक स्वरका विस्तार न करे । अस्थितान्तका त्याग करे अर्थात् द्वितीय स्वरमें भी त्रिमात्रायुक्त स्थिति करनी चाहिये, न कि दो मात्रासे ही युक्त। जो स्वर स्थानसे च्युत होकर अपने स्थानका अतिवर्तन (लङ्घन) करता है, उसे सामगान करनेवाले विद्वान् ‘विस्वर’ कहते हैं और वीणा बजाकर गानेवाले गायक उसे ‘विरक्त’ नाम देते हैं । स्वयं अभ्यास करनेके लिये द्रुतवृत्तिसे मन्त्रोच्चारण करे । प्रयोगके लिये मध्यम वृत्तिका आश्रय ले और शिष्योंके उपदेशके लिये विलम्बित वृत्तिका अवलम्बन करे । इस प्रकार शिक्षाशास्त्रोक्त विधिसे जिसने ग्रन्थ (सामगान) को ग्रहण किया है, वह विद्वान् द्विज ग्रन्थोच्चारणकी शिक्षा लेनेवाले शिषोंको हाथसे ही अध्ययन कराये।
क्रुष्ट (सप्तम एवं पञ्चम) स्वरका स्थान मस्तकमें है । प्रथम (षडज) स्वरका स्थान ललाटमें है । द्वितीय ऋषभ स्वरका स्थान दोनों भौंहोके मध्यमें हैं । तृतीय (गान्धार) स्वरका स्थान दोनों कानोंमें हैं । चतुर्थ (मध्यम) स्वरका स्थान कण्ठ है । मन्द्र (पञ्चम)—का स्थान रसना बतायी जाती है । (मन्द्रस्योरसि तूच्यते—इस पाठके अनुसार उसका स्थान वक्ष: स्थल भी है ।) अतिस्वार नामवाले नीच स्वर (निषाद) का स्थान ह्रदयमें बताया जाता है । अङ्गुष्ठके शिरोभागमें क्रुष्ट (सप्तम—पञ्चम) का न्यास करना चाहिये अङ्गुमें ही प्रथम स्वरका भी स्थान बताया गया है । तर्जनीमें गान्धार तथा मध्यमामें ऋषभकी स्थिति है । अनामिकामें षडज और कनिष्ठिकामें धैवत हैं । कनिष्ठाके नीचे मूल भागमें निषाद स्वरकी स्थिति बताये । मन्द्र स्वरसे सर्वथा पृथक् न होनेसे निषाद ‘अपर्व’ है । उसका पृथक् ज्ञान न होनेके कारण उसे ‘असंज्ञ’ कहा गया है तथा उसमें लिङ्ग, वचन आदिका सम्बन्ध न होनेसे उसे ‘अव्यय’ भी कहते हैं । अत: मन्द्र ही मन्दीभूत होकर ‘परिस्वार’ (निषाद) कहा गया है । क्रुष्ट स्वरसे देवता जीवन धारण करते हैं और प्रथमसे मनुष्य: द्वितीय स्वरसे पशु तथा तृतीयसे गन्धर्व और अप्सराएँ जीवन धारण करती हैं । अण्डज (पक्षी) तथा पितृगण चतुर्थ—स्वरजीवी होते हैं । पिशाच, असुर तथा राक्षस मन्दस्वरसे जीवन—निर्वाह करते हैं । नीच अतिस्वार (निषाद)—से स्थावर—जङ्गमरूप जगत् जीवन धारण करता है । इस प्रकार सामिक स्वरसे सभी प्राणी जीवन धारण करते हैं ।
जो दीप्तास, आयता, करुणा, मृदु तथा मध्यम श्रुतियोंका विशेषज्ञ नहीं है, वह आचार्य कहलानेका अधिकारी नहीं है । मन्द्र (पञ्चम), द्वितीय, चतुर्थ, अतिस्वार (षष्ठ) और तृतीय—इन पाँच स्वरोंकी श्रुति ‘दीप्ता’ कही गयी है । (प्रथमकी श्रुति मृदु है) और सप्तमकी श्रुति ‘करुणा’ है । अन्य जो ‘मृदु’, ’ मध्यमा’ और ‘आयता’ नामवाली श्रुतियाँ हैं, वे द्वितीय स्वरमें होती हैं । मैं उन सबके पृथक्—पृथक लक्षण बताता हूँ । नीच अर्थात् तृतीय स्वर परे रहते द्वितीय स्वरकी आयता श्रुति होती है, विपर्यय अर्थात् चतुर्थ स्वर परे रहनेपर उक्त स्वरकी मुदुभूता श्रुति होती है । अपना स्वर परे हो और स्वरान्तर परे न हो तो उसकी मध्यमा श्रुति होती है । यह सब विचारकर सामस्वरका प्रयोग करना चाहिये । क्रुष्ट स्वर परे होनेपर द्वितीय स्वरमें स्थित जो श्रुति है, उसे ‘दीप्ता’ समझे । प्रथम स्वरमें हो तो वह ‘मृदु’ श्रुति मानी गयी है । यदि चतुर्थ स्वरमें हो तो वही श्रुति मृदु कहलाती है । तथा मन्द्र स्वरमें हो तो दीप्ता होती है । सामकी समाप्ति होनेपर जिस किसी भी स्वरमें स्थित श्रुति दीप्ता ही होती है । स्वरके समाप्त होनेसे पहले आयतादि श्रुतिका प्रयोग न करे । स्वर समाप्त होनेपर भी जबतक गानका विच्छेद न हो जाय, दो स्वरोंके मध्यमें भी श्रुतिका प्रयोग न करे। ह्रस्व तथा दीर्घ अक्षरका गान होते समय भी श्रुति नहीं करनी चाहिये (केवल प्लुतमें ही श्रुति कर्तव्य है) तथा जहाँ घुट—संज्ञ्क स्वर हो, वहाँ भी श्रुतिका प्रयोग न करे । तालव्य इकारका ‘आ’ ‘इ’ भाव होता है और ‘आ उ’ भाव होता है; ये दो प्रकारकी गतियाँ हैं और ऊष्म वर्ण ‘श ष स’ के साथ जो त्रिविध पदान्त सन्धि है—ये सब मिलकर पाँच स्थान हैं; इन स्थानोंमें घुट—संज्ञक स्वर जानना चाहिये (इसमें श्रुति नहीं करनी चाहिये) । श्रुतिस्थानोंमें जहाँ स्वर और स्वरान्तर समाप्त न हुए हो तथा ओ ह्नस्व, दीर्घ एवं ‘घुट’ संज्ञाके स्थल हैं, वे सब श्रुतिसे रहित हैं, उनमें श्रुति नहीं करनी चाहिये । वहाँ स्वरसे ही श्रुतिवत् कार्य होता है ।
(सामव्यतिरिक्त स्थलोंमें) उदात्त स्वरमें ‘दीप्ता’ नामवाली श्रुतिको जाने । स्वरितमें भी विद्वान् लोग ‘दीप्ता’ की ही स्थिति मानते हैं । अनुदात्तमें ‘मृदु’ श्रुति जाननी चाहिये । गान्धर्व गानमें श्रुतिका अभाव होनेपर भी स्वरको ही श्रुतिके समान करना चाहिये, वहाँ स्वरमें ही श्रुतिका वैभव निहित है । उदात्त, अनुदात्त, स्वरित, प्रचय तथा निघात—ये पाँच स्वरभेद होते हैं ।
इसके बाद मैं आर्चिकके तीन स्वरोंका प्रतिपादन करता हूँ । पहला उदात्त, दूसरा अनुदात्त और तीसरा स्वरित है । जिसको उदात्त कहा गया है, वही स्वरितसे परे हो तो विद्वान् पुरुष उसे प्रचय कहते हैं । वहाँ दूसरा कोई स्वरान्तर नहीं होता । स्वरितके दो भेद हैं—वर्ण—स्वार तथा अतीत—स्वार । इसी प्रकार वर्ण भी मात्रिक एवं उच्चरितके पश्चात दीर्घ होता है । प्रत्यय—स्वाररूप प्रत्ययका दर्शन होनेसे उसे सात प्रकारका जानना चाहिये । वह क्या, कहाँ और कैसा हैं, इसका ज्ञान पदसे प्राप्त करना चाहिये । दाहिने कानमें सातों स्वरोंका श्रवण करावे । आचार्योंने पुत्रों और शिष्योंके हितकी इच्छासे ही इस शिक्षाशास्त्रका प्रणयन किया है । उच्च (उदात्त)—से कोई उच्चतर नहीं है और नीच (अनुदात्त)—से नीचतर नहीं है । फिर विशिष्ट स्वरके रूपमें जो ‘स्वार’ संज्ञा दी जाती है, उसमें स्वारका क्या स्थान है? (इसके उत्तरमें कहते हैं—) उच्च (उदात्त) और नीच (अनुदात्त)—के मध्यमें जो ‘साधारण’ यह श्रुति है, उसीको शिक्षाशास्त्रके विद्वान् स्वार—संज्ञामें ‘स्वार’ नामसे जानते हैं । उदात्तमें निषाद और गान्धार स्वर हैं, अनुदात्तमें ऋषभ और धैवत स्वर हैं । और ये—षडज, मध्यम तथा पञ्चम—स्वरितमें प्रकट होते हैं । जिसके परे ‘क’ और ‘ख’ हैं तथा जो जिह्वामूलीयरूप प्रयोजनमो सिद्ध करनेवाली है, उस ‘ऊष्मा’ (क, ख)—को ‘मात्रा’ जाने । वह अपने स्वरूपसे ही ‘कला’ है (किसी दूसरे वर्णका अवयव नहीं है । इसे उपध्मानीयका भी उपलक्षण मानना चाहिये) ।
जात्य, क्षैप्र, अभिनिहित, तैरव्यञ्जन, तिरोविराम, प्रश्लिष्ट तथा सातवाँ पादवृत्त—ये सात वार हैं । अब मैं इन सब स्वारोंका पृथक्—पृथक् लक्षण बतलाता हूँ । लक्षण कहकर उन सबके यथायोग्य उदाहरण भी बताऊँगा । जो अक्षर ‘य’ कार और ‘व’ कारके साथ स्वरित होता है तथा जिसके आगे उदात्त नहीं होता, वह ‘जात्य’ स्वार कहलाता है । जब उदात्त ‘इ’ वर्ण और ‘उ’ वर्ण कहीं पदादि अनुदात्त अकार परे रहते सन्धि होनेपर ‘य’ ‘व’ के रूपमें परिणत हो स्वरित होते हैं, तो वहाँ सदा ‘क्षैप्र’ स्वारका लक्षण समझना चाहिये । ‘ए’ और ‘ओ’ इन दो उदात्त स्वारोंसे परे जो वकारसहित अकार निहित (अनुदात्तरूपमें निपातित) हो और उसका जहाँ लोप (‘ए’ कार या’ उ’ कार में अनुप्रवेश) होता है, उसे ‘अभिनिहित’ स्वार माना जाता है । छन्दमें जहाँ कहीं या जो कोई भी ऐसा स्वरित होता है, जिसके पूर्वमें उदात्त हो, तो वह सर्व बहुस्वार—(सर्वत्र बहुलतासे होनेवाला स्वर) ‘तैरव्यञ्जन’ कहलाता है । यदि उदात्त अवग्रह हो और अवग्रहसे परे अनन्तर स्वरित हो तो उसे ‘तिरोविराम’ समझना चाहिये । जहाँ उदात्त ‘इ’ कारको अनुदात्त ‘इ’ कारसे संयुक्त देखो, वहाँ विचार लो कि ‘प्रश्लिष्ट’ स्वार है । जहाँ स्वर अक्षर अकारादिमें स्वरित हो और पूर्वपदके साथ संहिता विभक्त हो, उसे पादवृत्त स्वारका शास्त्रोक्त लक्षण समझना चाहिये ।
‘जात्य’ स्वारका उदाहरण है—’स जात्येन’ इत्यादि । श्रुष्टी + अग्र = श्रुष्टयग्ने आदि स्थलोंमें ‘क्षैप्र’ स्वार है । ‘वे मन्वत’ इत्यादिमें ‘अभिनिहित’ स्वार जानना चाहिये । उ + ऊतये = ऊतये, वि + ईतये = वीतये इत्यादिमें ‘तैरव्यञ्जन’ नामक स्वार है । ‘विस्कभिते विस्कभिते’ आदि स्थलोंमें ‘तिरोविराम’ है । ‘हि इन्द्र गिर्वण; = ’हीन्द्र०’ इत्यादिमें ‘प्रश्लिष्ट’ स्वार है । ‘क ईम् कईं वेद’ इत्यादिमें ‘पादवृत्त’ नामक स्वार है । इस प्रकार ये सब सात स्वार हैं।
जात्य स्वरोंको छोडकर एक पूर्ववर्ती उदात्त अक्षरसे परे जो भी अक्षर हो, उसकी स्वरित संज्ञा होती है । यह स्वरितका सामान्य लक्षण बताया जाता है । पूर्वोक्त चार स्वार उदात्त अथवा एक अनुदात्त परे रहनेपर शास्त्रत: ’कम्प’ उत्पन्न करते हैं । (जिसका स्वरूप चल हो, उस स्वारका नाम कम्प है) इसका उदाहरण है ‘जुह्वग्नि: ।’ ‘उप त्वा जुहू’, ‘उप त्वा जुह्वो मम’ इत्यादि । पूर्वपद ‘इ’ कारान्त हो और परे ‘उ’ कारकी स्थिति हो तो मेंधावी पुरुष वहाँ ‘ह्नस्व कम्प’ जाने—इसमें संशय नहीं है । यदि ‘उ’ कारद्वययुक्त पद परे हो तो इकारान्त पदमें दीर्घ कम्प जानना चाहिये । इसका दृष्टान्त है—’शग्ध्यृषू’ इत्यादि । तीन दीर्घ कम्प जानने चाहिये, जो संध्यक्षरोंमें होते हैं । उनके क्रमश: उदहारण ये हैं—मन्या । पथ्या । न इन्द्राभ्याम् । शेष ह्नस्व कहे गये है । जब अनेक उदात्तोंके बाद कोई अनुदात्त प्रत्यय हो तो एक उदात्त परे रहते दूसरे—तीसरे उदात्तकी ‘शिवकम्प’ संज्ञा होती है अर्थात् वह शिवकम्पसंज्ञक आद्युदात्त होता है । किंतु वह उदात्त प्रत्यय होना चाहिये । जहाँ दो, तीन, चार आदि उदात्त अक्षर हो, नीच—अनुदात्त हो और उससे पूर्व उच्च अर्थात् उदात्त हो और वह भी पूर्ववर्ती उदात्त या उदात्तोंसे परे हो तो वहाँ विद्वान् पुरुष ‘उदात्त’ मानते हैं । रेफ या ‘ह’ कारमें कहीं द्वित्व नहीं होता—दो रेफ या दो ‘ह’ कारका प्रयोग एक साथ नहीं होता । कवर्ग आदि वर्गोंके दूसरे और चौथे अक्षरोंमें भी कभी द्वित्व नहीं होता । वर्गके चौथे अक्षरको तीसरेके द्वारा और दूसरेको प्रथमके द्वारा पीडित न करे । आदि मध्य और अन्त्य (क, ग, ङ आदि)—को अपने ही अक्षरसे पीडित (संयुक्त) करे । यदि संयोगदशामें अनन्त्य (जो अन्तिम वर्ण नहीं है, वह ‘ग’ कार आदि) वर्ण पहले हो और ‘न’ कारादि अन्त्य वर्ण बादमें हो तो मध्येमें यम (य व र ल ञ म ङ ण न) अक्षर स्थित होता है, वह पूर्ववर्ती अक्षरका सवर्ण हुआ करता है। पूर्ववर्ती श ष स तथा य र ल व—इन अक्षरोंसे संयुक्त वर्गान्त्य वर्णॊंको देखकर यम निवृत्त हो जाते हैं—ठीक वैसे ही, जैसे चोर—डाकुओंको देखकर राही अपने मार्गसे लौट जाते हैं । संहितामें जब वर्गके तीसरे और चौथे अक्षर संयुक्त हो तो पदकालमें चतुर्थ अक्षरसे ही आरम्भ करके उत्तर पद होगा । दूसरे, तीसरे और ‘ह’ कार—इन सबका संयोग हो तो उत्तरपद हकारादि ही होगा । अनुस्वार, उपध्मानीय तथा जिह्वामूलीयके अक्षर किसी पदमें नहीं जाते, उनका दो बार उच्चारण नहीं होता । यदि पूर्वमें र या ह अक्षरसे संयोग हो तो परवर्ती अक्षरका द्वित्व हो जाता है । जहाँ संयोगमें स्वरित हो तथा उद्धत (नीचेसे ऊपर जाने)—में और पतन (ऊँचेसे नीचे जाने)—में स्वरित हो, वहाँ पूर्वाङ्गको आदिमें करके (नीचमें उच्चत्व लाकर) पराङ्गके आदिमें स्वरितका संनिवेश करे । संयोगके विरत (विभक्त) होनेपर जो उत्तरपदसे असंयुक्त व्यञ्जन दिखायी दे, उसे पूर्वाङ्ग जानना चाहिये तथा जिस व्यञ्जनसे उत्तरपदका आरम्भ हो, उसे पराङ्ग । संयोगसे परवर्ती भागको स्वरयुक्त करना चाहिये, क्योंकि वह उत्तम एवं संयोगका नायक है, वहीं प्रधानतया स्वरकी विश्रान्ति होती है तथा व्यञ्जनसंयुक्त वर्णका पूर्व अक्षर स्वरित है: उसे बिना स्वरके ही बोलना चाहिये । अनुस्वार, पदान्त, प्रत्यय तथा सवर्णपद परे रहनेपर होनेवाला द्वित्व तथा रेफस्वरूप स्वरभक्ति—यह सब पूर्वाङ्ग कहलाता है । पादादिमें, पदादिमें, संयोग तथा अवग्रहोमें भी ‘य’ कारके द्वित्वका प्रयोग करना चाहिये; उसे ‘य्य’ शब्द जानना चाहिये । अन्यत्र ‘य’ केवल ‘य’ के रूपमें ही रहता है । पदादिमें रहते हुए भी विच्छेद विभाग न होनेपर अथवा संयोगके अन्तमें स्थित होनेपर र् ह् रेफविशिष्ट य—इनको छोडकर अन्य वर्णोंका अयादेश द्वित्वाभाव देखा जाता है । स्वयं संयोगयुक्त अक्षरको गुरु जानना चाहिये । अनुस्वारयुक्त तथा विसर्गयुक्त वर्णका गुरु होना तो स्पष्ट ही है । शेष अणु (ह्नस्व) है। ‘ह्नि’ ‘गो’ इनमें प्रथम संयुक्त और दूसरा विसर्गयुक्त है । संयोग और विसर्ग दोनोंके आदि अक्षरका गुरुत्व भी स्पष्ट है । जो उदात्त है, वह उदात्त ही रहता है; जो स्वरित है, वह पदमें नीच (अनुदात्त) होता है। जो अनुदात्त है, वह तो अनुदात्त रहता ही है; जो प्रचयस्थ स्वर है, वह भी अनुदात्त हो जाता है। विभिन्न मन्त्रोंमें आये हुए ‘अग्नि:’, ’सुत:, ’ ‘मित्रम्, ’इदम्’ , ‘वयम्’, ‘अया’, ‘वहा’, ‘प्रियम्’, ‘दूतम्’, ‘घृतम्’, ’चित्तम्’ तथा ‘अभि’—ये पद नीच (अर्थात् अनुदात्तसे आरम्भ) होते हैं । ‘अर्क’, ‘सुत’, ‘यज्ञ’,’कलश’, ‘शत’ तथा ‘पवित्र’—इन शब्दोंमें अनुदात्तसे श्रुतिका उच्चारण प्रारम्भ किया जाता है । ‘हरि’,’वरुण’,’वरेण्य’, ‘धारा’ तथा ‘पुरुष’—इन शब्दोंमें रेफयुक्त स्वर ही स्वरित होता है । ‘विश्वानर’ शब्दमें नकारयुक्त और अन्यत्र ‘नर’ शब्दोंमें रेफयुक्त स्वर ही स्वरित होता है। परंतु ‘उदुत्तमं त्वं वरूण’ इत्यादि वरुण—सम्बन्धी दो मन्त्रोंमें ‘व’ कार ही स्वरित होता है, रेफ नहीं। ‘उरु धारा मरं कृतम्’, ‘उरु धारेव दोहने’ इत्यादि मन्त्रोंमें ‘धारा’ का ‘धाकार’ ही स्वरित होता है, रेफ नहीं । (यह पूर्व नियमका अपवाद है) ह्नस्व या दीर्घ जो अक्षर यहाँ स्वरित होता है, उसकी पहली आधी मात्रा उदात्त होती है और शेष आधी मात्रा उसस परे अनुदात होती है (पाणिनिने भी यही कहा है—’तस्यादित उदात्तमर्धह्नस्वम’ [ १।२।३२ [ ) कम्प, उत्स्वरित और अभिगीतके विषयमें जो द्विस्वरका प्रयोग होता है, वहाँ ह्नस्वको दीर्घके समान करे और ह्नस्व कर्षण करे । पलक मारनेमें जितना समय लगता है, वह एक मात्रा है । दुसरे आचार्य ऐसा मानते हैं कि बिजली चमककर जितने समयमें अदृश्य हो जाती है, वह एक ‘मात्रा’ का मान है । कुछ विद्वानोंका ऐसा मत है कि ऋ छ अथवा श के उच्चारणमें जितना समय लगता है, उतने कालकी एक मात्रा होती है । समासमें यदि अवग्रह (विग्रह या पद—विच्छेद) करे तो उसमें समासपदको संहितायुक्त ही रखे; क्योंकि वहाँ जिससे अक्षरादिकरण होता है, उसी स्वरको उस समास—पदका अन्त मानते हैं । सर्वत्र, पुत्र, मित्र, सखि, अद्रि, शतक्रतु, आदित्य, प्रजातवेद, सत्पति, गोपति, वृत्रहा, समुद्र—ये सभी शब्द अवग्राह्म (अवग्रहके योग्य) हैं । ‘स्वर्युव:’, ‘देवयुव:’, ‘अरतिम्’, ‘देवतातये’, ‘चिकिति:’, ‘चुक्रुधम’—इस सबमें एक पद होनेके कारण पण्डितलोग अवग्रह नहीं करते । अक्षरोंके नियोगसे चार प्रकारकी विवृत्तियाँ जाननी चाहिये, ऐसा मेंरा मत है । अब तुम मुझसे उनके नाम सुनो—वत्सानुसृता, वत्सानुसारिणी, पाकवती और पिपीलिका । जिसके पूर्वपदमें ह्नत्व और उत्तरपदमें दीर्घ है, वह ह्नस्वादिरूप बछडोंसे अनुगत होनेक कारण ‘वत्सानुसृता’ विवृत्ति कही गयी है । जिसमें पहले ही पदमें दीर्घ और उत्तर पदमें ह्नस्व हो, वह ‘वत्सानुसारिणी’ विवृत्ति है । जहाँ दोनों पदोंमें ह्नस्व है, वह ‘पाकवती’ कहलाती है तथा जिसके दोनों पदोंमें दीर्घ है, वह ‘पिपीलिका’ कही गयी है । इन चारों विवृत्तियोंमें एक मात्राका अन्तर होता है । दूसरोंके मतमें यह अन्तर आधा मात्रा है और किन्हींके मतमें अणु मात्रा है । रेफ तथा श ष स—ये जिनके आदिमें हो, ऐसे प्रत्यय परे होनेपर ‘मकार’ अनुस्वारभावको प्राप्त होता है । य व ल परे हो तो वह परसवर्ण होता है और स्पर्शवर्ण परे हो तो उन—उन वर्गोंके पञ्चम वर्णको प्राप्त होता है । नकारान्त पद पूर्वमें हो और स्वर परे हो तो नकारके द्वारा पूर्ववर्ती आकार अनुरञ्जित होता है, अत: उसे ‘रक्त’ कहते है (यथा ‘महाँ३असि’ इत्यादि) । यदि नकारान्त पद पूर्वमें हो और य व हि आदि व्यञ्जन परे हो तो पूर्वकी आधी मात्रा—अणु मात्रा अनुरञ्जित होती है । पूर्वमें स्वरसे संयुक्त हलन्त नकार यदि पदान्तमें स्थित हो और उसके परे भी पद हो तो वह चार रूपोंसे युक्त होता है । कहीं वह रेफ होता है, कहीं रंग (या रक्त) बनता है, कहीं उसका लोप और कहीं अनुस्वार हो जाता है (यथा ‘भवांश्चिनोति में रेफ होता है । ‘महाँ ३ असि’ में रंग है । ‘महाँ इन्द्र’ में ‘न’ का लोप हुआ है । पूर्वका अनुनासिक या अनुस्वार हुआ है) । ‘रंग’ ह्रदयसे उठता है, कांस्यके वाद्यकी भाँति उसकी ध्वनि होती है । वह मृदु तथा दो मात्राका (दीर्घ) होता है । दधन्वाँ २ यह उदाहरण है । नारद ! जैसे सौराष्ट्र देशकी नारी ‘अरां’ बोलती है, उसी प्रकार ‘रंग’ का प्रयोग करना चाहिये—यह मेंरा मत है । नाम, आख्यात, उपसर्ग तथा निपात—इन चार प्रकारके पदोंके अन्तमें स्वरपूर्वक ग ड द व ङ ण न म ष स—ये दस अक्षर ‘पदान्त’ कहे गये हैं । उदात्त स्वर, अनुदात्त स्वर और स्वरित स्वर जहाँ भी स्थित हो, व्यञ्जन उनका अनुसरण करते हैं । आचार्यलोग तीनों स्वरोंकी ही प्रधानता बताते हैं । व्यञ्जनोंको तो मणियोंके समान समझे और स्वरको सूत्रके समान; जैसे बलवान् राजा दुर्बलके राज्यको हडप लेता है, उसी प्रकार बलवान् दुर्बल व्यञ्जनको हर लेता है । ओभाव, विवृत्ति, श, ष, स, र, जिह्नामूलीय तथा उपध्मानीय—ये ऊष्माकी आठ गतियाँ हैं । ऊष्मा (सकार) इन आठ भावोंमें परिणत होता है । संहितामें जो स्वर—प्रत्यया विवृत्ति होती है, वहाँ विसर्ग समझे अथवा उसका तालव्य होता है । जिसकी उपधामें संध्यक्षर (ए, ओ, ऐ, औ) हो ऐसी सन्धिमें यदि य और व लोपको प्राप्त हुए हो तो वहाँ व्यञ्जननामक विवृत्ति और स्वरनामक प्रतिसंहिता होती है । जहाँ ऊष्मान्त विरत हो और सन्धिमें ‘व’ होता हो, वहाँ जो विवृत्ति होती है, उसे ‘स्वर विवृत्ति’ नामसे कहना चाहिये । यदि ‘ओ’ भावका प्रसंधान हो तो उत्तर पद ऋकारादि होता है; वैसे प्रसंधानको स्वरान्त जानना चाहिये । इससे भिन्न ऊष्माका प्रसंधान होता है (यथा ‘वायो ऋ’ इति। यहाँ ओभावका प्रसंधान है । ‘क इह’ यहाँ ऊष्माका प्रसंधान है) । जब श ष स आदि परे हो, उस समय यदि प्रथम (वर्गके पहले अक्षर) और उत्तम (वर्गके अन्तिम अक्षर) पदान्तमें स्थित हो तो वे द्वितीय स्थानको प्राप्त होते हैं । ऊष्मसंयुक्त होनेपर अर्थात् सकारादि परे होनेपर प्रथम जो तकार आदि अक्षर हैं, उनको द्वितीय (थकार आदि)—कि भाँति दिखाये—थकार आदिकी भाँति उच्चारण करे, उन्हें स्पष्ट: थकार आदिके रूपमें ही न समझ ले । उदाहरणके लिये—’मत्स्य:’,’क्षुर:’ और ‘अप्सरा:’ आदि उदाहरण हैं । लौकिक श्लोक आदिमें छन्दका ज्ञान करानेके लिये तीन हेतु हैं—छन्दोमान, वृत्त और पादस्थान (पदान्त) । परंतु ऋचाएँ स्वभावत: गायत्री आदि छन्दोंसे आवृत हैं । उनकी पाद—गणना या गुरु, लघु एवं अक्षरोंकी गणना तो छन्दोविभागको समझनेके लिये ही है; उन लक्षणोंके अनुसार ही ऋचाएँ हो, यह नियम नहीं है। लौकिक छन्द ही पाद और अक्षर—गणनाके अनुसार होते हैं । ऋवर्ण और स्वरभक्तिमें जो रेफ है, उसे अक्षरान्तर मानकर छन्दकी अक्षर—गणना या मात्रागणनामें सम्मिलित करे । किंतु स्वरभक्तियोंमें प्रत्ययके साथ रेफरहित अक्षरकी गणना करे । ऋवर्णमें रेफरूप व्यञ्जनकी प्रतीति पृथक् होती है और स्वररूप अक्षरकी प्रतीति अलग होती है । यदि ‘ऋ’ से ऊष्माका संयोग न हो तो उस ऋकारको लघु अक्षर जाने । जहाँ ऊष्मा (शकार आदि)—से संयुक्त होकर ऋकार पीडित होता है, उस ऋवर्णको ही स्वर होनेपर भी गुरु समझना चाहिये; यहाँ ‘तृचम्’ उदाहरण है । (यहाँ ऋकार लघृ है) । ऋषभ, गृहीत, बृहस्पति, पृथिवी तथा निऋति—इन पाँच शब्दोंमें ऋकार स्वर ही है, इसमें संशय नहीं है। श, ष, स, ह, र—ये जिसके आदिमें हो, ऐसे पदमें द्विपद सन्धि होनेपर कहीं ‘इ’ और ‘उ’ से रहित एकपदा स्वरभक्ति होती है, वह क्रमवियुक्त होती है । स्वरभक्ति दो प्रकारकी कही गयी है—ऋकार तथा रेफ । उसे अक्षरचिन्तकोंने क्रमश: ‘स्वरोदा’ और ‘व्यञ्जनोदा’ नाम दिया है । श, ष, स के विषयमें स्वरोदया एवं विवृत्ता स्वरभक्ति मानी गयी है और हकारके विषयमें विद्वान् लोग व्यञ्जनोदया एवं संवृता स्वरभक्ति निश्चित करते हैं (दोनोंके क्रमश: उदाहरण हैं—’ऊर्षति, अर्हति) । स्वरभक्तिका प्रयोग करनेवाला पुरुष तीन दोषोंको त्याग दे—इकार, उकार तथा ग्रस्तदोष । जिससे परे संयोग हो और जिससे परे छ हो, जो विसर्गसे युक्त हो, द्विमात्रिक (दीर्घ) हो, अवसानमें हो, अनुस्वारयुक्त हो तथा घुडन्त हो—ये सब लघु नहीं माने जाते ।
पथ्या (आर्या) छन्दके प्रथम और तृतीय पाद बारह मात्राके होते हैं । द्वितीय पाद अठारह मात्राका होता है और अन्तिम (चतुर्थ) पाद पंद्रह मात्राका होता है । यह पथ्याका लक्षण बताया गया: जो इससे भिन्न है, उसका नाम विपुला है । अक्षरमें जो ह्नस्व है, उससे परे यदि संयोग न हो तो उसकी ‘लघु’ संज्ञा होती है । यदि ह्नस्वसे परे संयोग हो तो उसे गुरु समझे तथा दीर्घ अक्षरोंको भी गुरु जाने । जहाँ स्वरके आते ही विवृति देखी जाती हो, वहाँ स्वरके आते ही विवृत्ति देखी जाती हो, वहाँ गुरु स्वर जानना चाहिये: वहाँ लघुकी सत्ता नहीं है । पदोंके जो स्वर है, उनके आठ प्रकार जानने चाहिये—अन्तोदात्त, आद्युदात्त, उदात्त, अनुदात्त, नीचस्वरित, मध्योदात्त, स्वरित तथा द्विरुदात्त—ये आठ पद—संज्ञाएँ हैं । ‘अग्निर्वृत्राणि’ इसमें ‘अग्नि:’अन्तोदात्त है । ‘सोम: पवते’ इसमें ‘सोम:’ आद्युदात्त है । ‘प्र वो यह्नम्’ इसमें ‘प्र’ उदात्त और ‘व:’ अनुदात्त है । ‘बलं न्युब्जं वीर्यम्’ इसमें ‘वीर्यम्’ नीचस्वरित हौ । ‘हविषा विधेम’ इसमें ‘हविषा’ मध्योदात्त है । ‘भूर्भुव: स्व:’ इसमें ‘स्व:’ स्वरित है । ‘वनस्पति:’ में ‘व’ कार और ‘स्प’ दो उदात्त होनेसे यह द्विरुदात्तका उदाहरण है । नाममें अन्तर एवं मध्यमें उदात्त होता है । निपातमें अनुदात्त होता है । उपसर्गमें आद्य स्वरसे परे स्वरित होता है तथा आख्यातमें दो अनुदात्त होते हैं । स्वरितसे परे जो धार्य अक्षर हैं (यथा ‘निहोता सत्सि’ इसमें ‘ता’ स्वरित है, उससे परे ‘सत्सि’ ये धार्य अक्षर हैं), वे सब प्रचयस्थान हैं; क्योंकि ‘स्वरित’ प्रचित होता है । वहाँ आदिस्वरितका निघात स्वर होता है । जहाँ प्रचय देखा जाय, वहाँ विद्वान् पुरुष स्वरका निघात करे । जहाँ केवल मृदु स्वरित हो, वहाँ निघात न करे । आचार्य—कर्म पाँच प्रकारका होता है—मुख, न्यास, करण, प्रतिज्ञा तथा उच्चारण । इस विषयमें कहते हैं, सप्रतिज्ञ उच्चारण ही श्रेय है । जिस किसी भी वर्णका करण (शिक्षादि शास्त्र) नहीं उपलब्ध होता हो, वहाँ प्रतिज्ञा (गुरुपरम्परागत निश्चय)—का निर्वाह करना चाहिये; क्योंकि करण प्रतिज्ञारूप ही है । नारद ! तुम, तुम्बुरु, वसिष्ठजी तथा विश्वावसु आदि गन्धर्व भी सामके विषयमें शिक्षाशास्त्रोक्त सम्पूर्ण लक्षणोंको स्वरकी सूक्ष्मताके कारण नहीं जान पाते ।
जठराग्निकी सदा रक्षा करे । हितकर (पथ्य) भोजन करे । भोजन पच जानेपर उष: कालमें नींदसे उठ जाय और ब्रह्मका चिन्तन करे । शरत्कालमें जो विषुवद्योग (जिस समय दिन—रात बराबर होते हैं) आता है, उसके बीतनेके बाद जबतक वसन्त ऋतुकी मध्यम रात्रि उपस्थित न हो जाय तबतक वेदोंके स्वाध्यायके लिये उष:—कालमें उठना चाहिये । सबेरे उठकर मौनभावसे आम, पलाश, बिल्व, अपामार्ग अथवा शिरीष—इनमेंसे किसी वृक्षकी टहनी लेकर उससे दाँतुन करे । खैर, कदम्ब, करबीर तथा करंजकी भी दाँतुन ग्राह्य है । काँटे तथा दूधवाले सभी वृक्ष पवित्र और यशस्वी माने गये हैं । उनकी दाँतुनसे इस पुरुषकी वाक्—इन्द्रियमें सूक्ष्मता (कफकी) कमी होकर सरलतापूर्वक शब्दोच्चारणकी शक्ति) तथा मधुरता (मीठी आवाज) आती है । वह व्यक्ति प्रत्येक वर्णका स्पष्ट उच्चारण कर लेता है, जैसी कि ‘प्राचीनौदवज्रि’ नामक आचार्यकी मान्यता है । शिष्यको चाहिये वह नमकके साथ सदा त्रिफलाचूर्ण भक्षण करे । यह त्रिफला जठराग्निको प्रज्वलित करनेवाली तथा मेंधा (धारणशक्ति)—को बढानेवाली है । स्वर और वर्णके स्पष्ट उच्चारणमें भी सहयोग करनेवाली है । पहले जठरानलकी उपासना अर्थात्—मल—मूत्रादिका त्याग करके आवश्यक धर्मों (दाँतुन, स्नान, संध्योपासन)—का अनुष्ठान करनेके अनन्तर मधु और घी पीकर शुद्ध हो वेदका पाठ करे । पहले सात मन्त्रोंको उपांशुभावसे (बिना स्पष्ट बोले) पढे उसके बाद मन्द्रस्वरमें वेदपाठ आरम्भ करके यथेष्ट स्वरमें मन्त्रोच्चारण करे । यह सब शाखाओंके लिये विधि है । प्रात: काल ऐसी वाणीका उच्चारण न करे, जो प्राणोंका उपरोध करती हो; क्योंकि प्राणोपरोधसे वैस्वर्य (विपरीत स्वरका उच्चारण) हो जाता है । इतना ही नहीं, उससे स्वर और व्यञ्जनका माधुर्य भी लुप्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है । कुतीर्थसे प्राप्त हुई दग्ध (अपवित्र) वस्तुको जो दुर्जन पुरुष खा लेते हैं, उनका उसके दोषसे उद्धार नहीं होता—ठीक उसी तरह, जैसे पापरूप सर्पके विषसे जीवनकी रक्षा नहीं हो पाती । इसी प्रकार कुतीर्थ (बुरे अध्यापक)—से प्राप्त हुआ जो दग्ध (निष्फल) अध्ययन है, उसे जो लोग अशुद्ध वर्णोंके उच्चारणपूर्वक भक्षण (ग्रहण) करते हैं, उनका पापरूपी सर्पके विषकी भाँति पापी उपाध्यायसे मिले हुए उस कुत्सित अध्ययनके दोषसे छुटकारा नहीं होता । उत्तम आचार्यसे प्राप्त अध्ययनको ग्रहणे करके अच्छी तरह अभ्यासमें लाया जाय तो वह शिष्यमें सुप्रतिष्ठित होता है और उसके द्वारा सुन्दर मुख एवं शोभन स्वरसे उच्चारित वेदकी बडी शोभा होती है । जो नाक, आँख, कान आदिके विकृत होनेसे विकराल दिखायी देता है, जिसके ओठ लंबे—लंबे हैं, जो सब बात नाकसे ही बोलता है, जो गद्नद—कण्ठसे बोलता है अथवा जिसकी जीब बँधी—सी रहती है अर्थात् जो रुक—रुककर बोलता है, वह वेदमन्त्रोंके प्रयोगका अधिकारी नहीं है । जिसका चित्त एकाग्र है, अन्त: करण वशमें है और जिसके दाँत तथा ओष्ठ सुन्दर हैं, ऐसा व्यक्ति यदि स्नानसे शुद्ध हो गाना छोड दे तो वह मन्त्राक्षरोंका ठीक प्रयोग कर सकता है । जो अत्यन्त क्रोधी, स्तब्ध, आलसी तथा रोगी हैं और जिनका नम इधर—उधर फैला हुआ है, वे पाँच प्रकारके मनुष्य विद्या ग्रहण नहीं कर पाते । विद्या धीरे—धीरे पढी जाती है। धन धीरे—धीरे कमाया जाता है, पर्वतपर धीरे—धीरे चढना चाहिये । मार्गका अनुसरण भी धीरे—धीरे ही करे और एक दिनमें एक योजनसे अधिक न चले । चींटी धीरे—धीरे चलकर सहस्त्रों योजन चली जाती है । किंतु गरुड भी यदि चलना शुरू न करे तो वह एक पग भी आगे नहीं जा सकता । पापीकी पापदूषित वाणी प्रयोगों (वेदमन्त्रों)—का उच्चारण नहीं कर सकती—ठीक उसी तरह, जैसे बातचीतमें चतुर सुलोचना रमणी बहरेके आगे कुछ नहीं कह सकती । जो उपांशु (सूक्ष्म) उच्चारण करता है, जो उच्चारणमें जल्दबाजी करता है तथा जो डरता हुआ—सा अध्ययन करता है, वह सहस्त्र रुपों (शद्बोच्चारण)—के विषयमें सदा संदेहमें ही पडा रहता है । जिसने केवल पुस्तुकके भरोसे पढा है, गुरूके समीप अध्ययन नहीं किया है, वह सभामें समानित नहीं होता—वैसे ही, जैसे जारपुरुषसे गर्भ धारण करनेवाली स्त्री समाजमें प्रतिष्ठा नहीं पाती । प्रतिदिन व्यय किये जानेपर अञ्जनकी पर्वतराशिका भी क्षय हो जाता है और दीमकोंके द्वारा थोडी—थोडी मिट्टीके संग्रहसे भी बहुत ऊँचा वल्मीक बन जाता है, इस
दृष्टान्तको सामने रखते हुए दान और अध्ययनादि सत्कर्मोंमें लगे रहकर जीवनके प्रत्येक दिनको सफल बनावे—व्यर्थ न बीतने दे । कीडे चिकने धूलकणोंसे जो बहुत ऊँचा वल्मीक बना लेते हैं, उसमें उनके बलका प्रभाव नहीं है, उद्योग ही कारण है । विद्याको सहस्त्रों बार अभ्यासमें लाया जाय और सैकडों बार शिष्योंको उसे पढाया जाय, तब वह उसी प्रकार जिह्वाके अग्रभागपर आ जायगी, जैसे जल ऊँचे स्थानसे नीचे स्थानमें स्वयं बह आता है । अच्छी जातिके घोडे आधी रातमें भी आधी ही नींद सोते हैं अथवा वे आधॊ रातमें सिर्फ एल पहर सोते हैं, उन्हींकी भाँति विद्यार्थियोंके नेत्रोंमें चिरकालतक निद्रा नहीं ठहरती । विद्यार्थीं भोजनमें आसक्त होकर अध्ययनमें विलम्ब न करे । नारीके मोहमें न फँसे । विद्याकी अभिलाषा रखनेवाला छात्र आवश्यकता हो तो गरुड और हंसकी भाँति बहुत दूरतक भी चला जाय । विद्यार्थी जनसमूहसे उसी तरह डरे, जैसे सर्पसे डरता है । दोस्ती बढानेके व्यसनको नरक समझकर उससे भी दूर रहे । स्त्रियोंसे उसी तरह बचकर रहे, जैसे राक्षसियोंसे । इस तरह करनेवाला पुरुष ही विद्या प्राप्त कर सकता है । शठ प्रकृतिके मनुष्य विद्यारूप अर्थकी सिद्धि नहीं कर पाते । कायर तथा अहंकारी भी विद्या एवं धनका उपार्जन नहीं कर पाते । लोकापवादसे डरनेवाले लोग भी विद्या और धनसे वञ्चित रह जाते हैं तथा ‘जो आज नहीं कल’ करते हुए सदा आगामी दिनकी प्रतीक्षामें बैठे रहते हैं, वे भी न विद्या पढ पाते हैं न धन ही लाभ करते हैं । जैसे खनतीसे धरती खोदनेवाला पुरुष एक दिन अवश्य पानी प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार गुरुकी निरन्तर सेवा करनेवाला छात्र गुरुमें स्थित विद्याको अवश्य ग्रहण कर लेता है । गुरुसेवासे विद्या प्राप्त होती है अथवा बहुत धन व्यय करनेसे उनकी प्राप्ति होती है । अथवा एक विद्या देनेसे दूसरी विद्या मिलती है; अन्यथा उसकी प्राप्ति नहीं होती । यद्यपि बुद्धिके गुणोंसे सेवा किये बिना भी विद्या प्राप्त हो जाती है; तथापि वन्ध्या युवतीकी भाँति वह सफल नहीं होती । नारद ! इस प्रकार मैंने तुमसे शिक्षाग्रन्थका संक्षेपसे वर्णन किया है । इस आदिवेदाङ्गको जानकर मनुष्य ब्रह्मभावकी प्राप्तिके योग्य हो जाता है । (पूर्वभाग—द्वितीय पाद, अध्याय ५०)
अध्याय ४७ वेदके द्वितीय अंग कल्पका वर्णन, गणेश— पूजन, ग्रहशान्ति तथा श्राद्धका निरूपण
सनन्दनजी कहते है—मुनीश्वर ! अब मैं कल्पग्रन्थका वर्णन करता हूँ; जिसके विज्ञानमात्रसे मनुष्य कर्ममें कुशल हो जाता है।
कल्प के प्रकार और उनका व्याख्या
कल्प पाँच प्रकारके माने गये हैं—नक्षत्रकल्प, वेदकल्प, संहिताकल्प, आङ्गिरसकल्प और शान्तिकल्प ।
नक्षत्रकल्पमें नक्षत्रोंके स्वामीका विस्तारपूर्वक यथार्थ वर्णन किया गया है; वह यहाँ भी जानने योग्य है ।
मुनीश्वर ! वेदकल्पमेंं ऋगादि—विधानका विस्तारसे वर्णन है—जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी सिद्धिके लिये कहा गया है ।
संहिताकल्पमें तत्त्वदर्शी मुनियोंने मन्त्रोंके ऋषि, छन्द और देवताओंका निर्देश किया है ।
आङ्गिरसकल्पमें स्वयं ब्रह्माजीने अभिचार—विधिसे विस्तारपूर्वक छ: कर्मोंका वर्णन किया है ।
गृहकल्प का वर्णन
मुनिश्रेष्ठ ! शान्तिकल्पमेंं दिव्य, भौम और अन्तरिक्ष—सम्बन्धी उत्पातोंकी पृथक—पृथक् शान्ति बतायी गयी है।
यह संक्षेपसे कल्पके स्वरूपका परिचय दिया गया है, अन्य शाकाओंमें इसका विशेष रूपसे पृथक्—पृथक् निरूपण किया गया है।
द्विजश्रेष्ठ ! गृहकल्प सबके लिये उपयोगी है, अत: इस समय उसीका वर्णन करूँगा । सावधान होकर सुनो ।
पूर्वकालमें ‘ॐकार’ और ‘अथ’ शब्द—ये दोनों ब्रह्माजीके कण्ठका भेदन करके निकले थे, अत: ये मङ्गल—सूचक हैं । जो शास्त्रोक्त कर्मोंका अनुष्ठान करके उन्हें ऊँचे उठाना चाहता है, वह ‘अथ’ शब्दका प्रयोग करे। इससे वह कर्म अक्षय होता है।
परिसमूहनके लिये परिगणित शाखावाले कुश कहे गये हैं, न्यून या अधिक संख्यामें उन्हें ग्रहण करनेपर वे अभीष्ट कर्मको निष्फल कर देते हैं । पृथ्वीपर जो कृमि, कीट और पतंग आदि भ्रमण करते हैं, उनकी रक्षाके लिये परिसमूहन कहा गया है ।
ब्रह्मन ! वेदीपर जो तीन रेखाएँ कही गयी हैं, उनको बराबर बनाना चाहिये; उन्हे न्यूनाधिक नहीं करना चाहिये; ऐसा ही शास्त्रका कथन है।
नारद ! यह पृथ्वी मधु और कैटभ नामवाले दैत्योंके मेंदेसे व्याप्त है, इसलिये इस गोबरसे लीपना चाहिये । जो गाय वन्ध्या, दुष्टा, दीनाङ्गी और मृतवत्सा (जिसके बछरे मर जाते हो, ऐसी) हो, उसका गोबर यज्ञके कार्यमें नहीं लाना चाहिये, ऐसी शास्त्रकी आज्ञा है।
विप्रवर ! जो पतङ्ग आदि भयंकर जीव सदा आकाशमेंं उडते रहते हैं, उनपर प्रहार करनेके लिये वेदीसे मिट्टी उठानेका विधान है।
स्त्रुवाके मूलभागसे अथवा कुशसे वेदीपर रेखा करनी चाहिये । इसका उद्देश्य है अस्थि, कण्टक, तुष—केशादिसे शुद्धि। ऐसा ब्रह्माजीका कथन है।
द्विजश्रेष्ठ ! सब देवता और पितर जलस्वरूप हैं, अत: विधिज्ञ ऋषि—मुनियोंने जलसे वेदीका प्रोक्षण करनेकी आज्ञा दी है।
सौभाग्यवती स्त्रियोंके द्वारा ही अग्नि लानेका विधान है। शुभदायक मृण्मय पात्रको जलसे धोकर उसमें अग्नि रखकर लानी चाहिये ।
वेदीपर रखा हुआ अमृतकलश दैत्योंद्वारा हडप लिया गया, यह देखकर ब्रह्मा आदि सब देवताओंने वेदीकी रक्षाके लिये उसपर समिधासहित अग्निकी स्थापना की ।
यज्ञशाला का दिशा अनुसार सभी चीज का वर्णन
नारद ! यज्ञसे दक्षिण दिशामेंं दानव आदि स्थित होते हैं; अत: उनसे यज्ञकी रक्षाके लिये ब्रह्माको यज्ञवेदीसे दक्षिण दिशामें स्थापित करना चाहिये ।
नारद ! उत्तर दिशामें प्रणीता—प्रोक्षणी आदि सब यज्ञपात्र रखे । पश्चिममें यजमान रहे और पूर्वदिशामें सब ब्राह्मणोंको रहना चाहिये ।
किसी भी कर्म के लिये कर्ता का उर्जावान अर्थात जोशीला रहना चाहिये
जुएमें, व्यापारमें और यज्ञकर्ममें यदि कर्ता उदासीनचित्त हो जाय तो उसका वह कर्म नष्ट हो जाता है—यही वास्तविक स्थिति है ।
यज्ञ कर्म में प्रयुक्त होने वाले चीजों का नाम एवं उसके व्याख्या
यज्ञकर्ममें अपनी ही शाखाके विद्वान् ब्राह्मणोंको ब्रह्मा और आचार्य बनाना चाहिये । अन्य ऋत्विजोंके लिये कोई नियम नहीं है, यथालाभ उनका पूजन करना चाहिये ।
तीन—तीन अंगुलकी दो पवित्री होनी चाहिये । चार अंगुलकी एक प्रोक्षणी, तीन अंगुलकी एक आज्यस्थाली और छ: अंगुलकी चरुस्थाली होनी चाहिये । दो अंगुलका एक उपयमन कुश और एक अंगुलका सम्मार्जन कुश रखे । स्रुव छ: अंगुलका और स्रुक साढे तीन अंगुलका बताया गया है ।
समिधाएँ प्रादेशमात्र (अँगूठेसे लेकर तर्जनीके शिरोभागतकके नापकी) हो । पूर्णपात्र छ: अंगुलका हो । प्रोक्षणीके उत्तर भागमें प्रणीता—पात्र रहे और वह आठ अंगुलका हो । जो कोई भी तीर्थ (सरोवर), समुद्र और सरिताएँ है, वे सब प्रणीता—पात्रमें स्थित होते है: अत: उसे जलसे भर दे ।
द्विजश्रेष्ठ ! वस्त्रहीन वेदी नग्न कही जाती है: अत; विद्वान् पुरुष उसके चारों ओर कुश बिछाकर उसके ऊपर अग्निस्थापन करे । इन्द्रका वज्र, विष्णुका चक्र और महादेवजीका त्रिशूल—ये तीनों कुशरूपसे तीन ‘पवित्रच्छेदन’ बनते हैं ।
पवित्रीसे ही प्रोक्षणीको प्रणीताके जलसे संयुक्त करना चाहिये । अत: पवित्र—निर्माण अत्यन्त पुण्यदायक कर्म कहा गया है । आज्यस्थाली पलमात्रकी बनानी चाहिये ।
कुम्हारके चाकपर गढा हुआ मिट्टीका पात्र ‘आसुर’ कहा गया है । वही हाथसे बनाया हुआ—स्थालीपात्र आदि हो तो उसे ‘दैविक’ माना गया है ।
स्त्रुवसे शुभ और अशुभ सभी कर्म होते हैं। अत: उसकी पवित्रताके लिये उसे अग्निसे तपानेका विधान है । स्रुवको यदि अग्रभागकी ओरसे थाम लिया जाय तो स्वामीकी मृत्यु होती है । मध्यमें पकडा जाय तो प्रजा एवं संततिका नाश होता है और मूलभागमें उसे पकडनेसे होता-की मृत्यु होती है; अत: विचार कर उसे हाथमें धारण करना चाहिये ।
अग्नि, सूर्य, सोम, विरञ्चि (ब्रह्माजी), वायु तथा यम—ये छ: देवता स्रुवके एक—एक अंगुलमें स्थित हैं । अग्नि भोग और धनका नाश करनेवाले हैं, सूर्य रोगकारक होते हैं । चन्द्रमाका कोई फल नहीं है । ब्रह्माजीसब कामना देनेवाले है, वायुदेव वृद्धिदाता हैं और यमराज मृत्युदायक माने गये हैं (अत: स्रुवको मूलभागकी ओर तीन अंगुल छोडकर चौथे—पाँचवें अंगुलपर पकडना चाहिये) ।
सम्मार्जन और उपयमन नामक दो कुश बनाने चाहिये । इनमेंसे सम्मार्जन कुश सात शाखा (कुश)—का और उपयमन कुश पाँचका होता है ।
स्रुव तथा स्रुक—निर्माण करनेके लिये श्रीपर्णी (गंभारी), शमी, खदिर, विकङकत (कँटाई) और पलाश—ये पाँच प्रकारके काष्ठ शुभ जानने चाहिये । हाथभरका स्रुवा उत्तम माना गया है और तीस अंगुलका स्रुवा । यह ब्राह्मणोंके स्रुव और स्रुकके विषयमें बताया गया है; अन्य वर्णवालोंके लिये एक अंगुल छोटा रखनेका विधान है ।
नारद ! शूद्रों, पतितों तथा गर्दभ आदि जीवोंके दृष्टि—दोषका निवारण करनेके लिये सब पात्रोंके प्रोक्षणकी विधि है ।
विप्रवर ! पूर्णपात्र—दान किये बिना यज्ञमें छिद्र उत्पन्न हो जाता है और पूर्णापात्रकी विधि कर देनेपर यज्ञकी पूर्ति हो जाती है आठ मुट्टीका ‘किञ्चित’ होता है, चार किञ्चितका ‘पुष्कल’ होता है और चार पुष्कलका एक ‘पूर्णपात्र’ होता है, ऐसा विद्वानोंका मत है ।
होमकाल प्राप्त होनेपर अन्यत्र कहीं आसन नहीं देना चाहिये । दिया जाय तो अग्निदेव अतृप्त होते और दारूण शाप देते हैं ।
अग्निदेव का रूप परिचय
‘आघार’ नामकी दो आहुतियाँ अग्निदेवकी नासिका कही गयी हैं । ‘आज्यभाग’ नामवाली दो आहुतियाँ उनके नेत्र हैं । ‘प्राजापत्य’ आहुतिको मुख कहा गया है और व्याहृति होमको कटिभाग बताया गया है । पञ्चवारुण होमको दो हाथ, दो पैर और मस्तक कहते हैं । विप्रवर ! ‘स्विष्टकृत्’ होम तथा पूर्णाहुति—ये दो आहुतियाँ दोनों कान हैं । अग्निदेवके दो मुख, एक ह्रदय, चार कान, दो नाक, दो मस्तक, छ: नेत्र, पिङ्गल वर्ण और सात जिह्वाएँ हैं । उनके वाम—भागमें तीन और दक्षिण—भागमें चार हाथ हैं । स्त्रुक, स्रुवा, अक्षमाला और शक्ति—ये सब उनके दाहिने हाथोंमें हैं । उनके तीन मेंखला और तीन पैर हैं । वे घृतपात्र लिये हुए हैं । दो चँवर धारण करते हैं । भेडपर चढे हुए हैं । उनके चार सींग हैं । बालसूर्यके समान उनकी अरुण कान्ति है। वे यज्ञोपवीत धारण करके जटा और कुण्डलोंसे सुशोभित हैं । इस प्रकार अग्निके स्वरूपका ध्यान करके होमकर्म प्रारम्भ करे ।
दूध, दही, घी और घृतपक्व या तैलपक्व पदार्थका जो हाथसे हवन करता है, वह ब्राह्मण ब्रह्महत्यारा होता है (इन सबका स्रुवासे होम करना चाहिये) । मनुष्य जो अन्न खाता है, उसके देवता भी वही अन्न खाते हैं।
सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धिके लिये हविष्यमें तिलका भाग अधिक रखना उत्तम माना गया है । होममें तीन प्रकारकी मुद्राएँ बतायी गयी हैं—मृगी, हंसी और सूकरी ।
अभिचार—कर्ममें सूकरी—मुद्राका उपयोग होता है और शुभकर्ममें मृगी तथा हंसी नामवाली मुद्राएँ उपयोगमें लायी जाती हैं। सब अंगुलियोंसे सुकरी—मुद्रा बनती है। हंसी—मुद्रामें कनिष्ठिका अंगुलि मुक्त रहती है और मृगी नामवाली मुद्रा केवल मध्यमा, अनामिका और अङ्गुष्ठद्वारा सम्पन्न होनेवाली कही गयी है ।
पूर्वोक्त प्रमाणवाली आहुतिको पाँचों अंगुलियोंसे लेकर उसके द्वारा अन्य ऋत्विजोंके साथ हवन करे । हवन—सामग्रीमें दही, मधु और घी मिलाया हुआ तिल होना चाहिये । पुण्यकर्मोंमें संलग्न होनेपर अपनी अनामिका अंगुलिमें कुशोंकी पवित्री अवश्य धारण करनी चाहिये ।
गणपति के प्रकोप से बचने का विधि
भगवान् रुद्र और ब्रह्माजीने गणेशजीको ‘गणपति’ पदपर बिठाया और कर्मोंमें विघ्न डालनेका कार्य उन्हें सौंप रखा है । वे विघ्नेश विनायक जिसपर सवार होते हैं, उस पुरुषके लक्षण सुनो ।
वह स्वप्नमें बहुत अगाध जलमें प्रवेश कर जाता है, मूँड मुडाये मनुष्योंको तथा . गेरुआ वस्त्र धारण करनेवाले पुरुषोंको देखता है । कच्चा मांस खानेवाले ग्रुध्र आदि पक्षियों तथा व्याघ्र आदि पशुओंपर चढता है। एक स्थानपर चाण्डालों, गदहो और ऊँटोंके साथ उनसे घिरा हुआ बैठता है । चलते समय भी अपने—आपको शत्रुओंसे अनुगत मानता है—उसे ऐसा भान होता है कि शत्रु मेंरा पीछा कर रहे हैं। (जाग्रत्—अवस्थामें भी) उसका चित्त विक्षिप्त रहता है । उसके द्वारा किये हुए प्रत्येक कार्यका आरम्भ निष्फल होता है । वह अकारण खिन्न रहता है ।
विघ्नराजका सताया हुआ मनुष्य राजाका पुत्र होकर भी राज्य नहीं पाता । कुमारी कन्या अनुकूल पति नहीं पाती, विवाहिता स्त्रीको अभीष्ट पुत्रकी प्राप्ति नहीं होती । श्रीत्रियको आचार्यपद नहीं मिलता, शिष्य स्वाध्याय नहीं कर पाता, वैश्यको व्यापारमें और किसानको खेतीमें लाभ नहीं हो पाता ।
ऐसे पुरुषको किसी पवित्र दिन एवं शुभ मुहूर्तमें विधिपूर्वक स्नान कराना चाहिये । पीली सरसों पीसकर उसे घीसे ढीला करे और उस मनुष्यके शरीरमें उसीका उबटन लगाये । प्रियङ्गु, नागकेसर आदि सब प्रकारकी ओषधियों और चन्द, अगुरु, कस्तूरी आदि सब प्रकारकी सुगन्धित वस्तुओंको उसके मस्तकमें लगाये ।
फिर उसे भद्रासनपर बिठाकर उसके लिये ब्राह्मणोंसे शुभ स्वस्तिवाचन (पुण्याहवाचन) कराये । अश्वशाला, गजशाला, वल्मीक (बाँबी), नदीसङ्गम तथा जलाशयसे लायी हुई पाँच प्रकारखि मिट्टी, गोरोचन, गन्ध (चन्दन, कुंकुम, अगुरु आदि) और गुग्गुल—ये सब वस्तुएँ जलमें छोडे और उसी जलमें छोडे जो गहरे और कभी न सूखनेवाले जलाशयसे ए रंगके चार नये कलशोंद्वारा लाया गया हो ।
तदनन्तर लाल रंगके वृषभचर्मपर भद्रासन स्थापित करे । (इसी भद्रासनपर यजमानको बैठाकर ब्राह्मणोंसे पूर्वोक्त स्वस्तिवाचन कराना चाहिये। इसके सिवा स्वस्तिवाचनके अनन्तर जिनके पति और पुत्र जीवित हो, ऐसी सुवेशधारिणी स्त्रियोंद्वारा मह्हल—गान कराते हुए पूर्वदिशावर्ती कलशको लेकर आचार्य निम्नङ्कित मन्त्रसे यजमानका अभिषेक कर ।) सहस्त्राक्षं शतधारमृषिभि: पावनं कृतम्।
तेन त्वामभिषिञ्चामि पावमान्य: पुनन्तु ते॥
‘जो सहस्त्रों नेत्रों अनेक प्रकारकी शक्तियों—से युक्त हैं, जिसकी सैकडों धाराएँ (बहुत—से प्रवाह) हैं और जिसे महर्षियोंने पावन बनाया है, उस पवित्र जलसे मैं तुम्हारा अभिषेक करता हूँ । पावमानी ऋचाएँ तथा यह पवित्र जल तुम्हे पवित्र करें (और विनायकजनित विघ्नकी शान्ति हो) ।’
(तदनन्तर दक्षिण दिशामें स्थित द्वितीय कलश लेकर नीचे लिखे मन्त्रको पढते हुए अभिषेक करे—)
भगं ते वरुणो राजा भगं सुर्यो बृहस्पति: ।
भगमिन्द्रश्च वायुश्च भगं सप्तर्षयो ददु: ॥
‘राजा वरुण, सूर्य, बृहस्पति, इन्द्र, वायु तथा सप्तर्षिगण तुम्हें कल्याण प्रदान करें ।’
(फिर तीसरा पश्चिम कलश लेकर निम्नाङ्कित मन्त्रसे अभिषेक करे
यत्ते केशेषु दौर्भाग्यं सीमन्ते यच्च मूर्धनि ।
ललाटे कर्णयोरक्ष्णोरापस्तद् घ्नन्तु सर्वदा ॥
तुम्हारे केशोंमें, सीमन्तमें, मस्तकपर, ललाटमें, कानोंमें और नेत्रोंमें भी जो दुर्भाग्य (या अकल्याण) है, वह सब सदाके लिये जल शान्त कर दे ।’
( तत्पश्चात् चौथा कलश लेकर पूर्वोक्त तीनों मन्त्र पढकर अभिषेक करे । इस प्रकार स्नान करनेवाले यजमानके मस्तकपर बायें हाथमें लिये हुए कुशोंको रखकर उसपर गूलरकी स्रुवासे सरसोंका तेल उठाकर डाले, उस समय निम्नाङिक मन्त्र पढे—) ‘ॐ मिताय स्वाहा । ॐ संमिताय स्वाहा । ॐ शालाय स्वाहा । ॐ कटंकटाय स्वाहा । ॐ कूष्णाण्डाय स्वाहा । ॐ राजपुत्राय स्वाहा ।’ मस्तकपर होमके पश्चात् लौकिक अग्निमें भी स्थालीपाककी विधिसे चरु तैयार करके उक्त छ: मन्त्रोंसे ही उसी अग्निमें हवन करे ।
फिर होमशेष चरुद्वारा बलिमन्त्रोंको पढकर इन्द्रादि दिक्पालोंको बलि भी अर्पित करे ।
मातृका का पूजन विधि
तत्पश्चात् कृताकृत आदि उपहार—द्रव्य भगवान् विनायकको अर्पित करके उनके समीप रहनेवाली माता पार्वतीको भि उपहार भेंट करे । फिर पृथ्वीपर मस्तक रखकर ‘तत्पुरुषाय विद्महे । वक्रतुण्डाय धीमहि। तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ।’ इस मन्त्रसे गणेशजीको और ‘सुभगायै विद्महे । काममालिन्यै धीमहि । तन्नो गौरी प्रचोदयात ।’ इस मन्त्रसे अम्बिकादेवीको नमस्कार करे । फिर गणेशजननी अम्बिकाका उपस्थान करे। उपस्थानसे पूर्व फूल और जलसे अर्घ्य देकर दूर्वा, सरसों और पुष्पसे पूर्व अञ्जलि अर्पण करे । (उपस्थानका मन्त्र इस प्रकार है—)
रूपं देहि यशो देहि भगं भगवति देहि में ।
पुत्रान् देहि धनं देहि सर्वकामांश्च देहि में ॥
‘भगवति ! मुझे रूप दो, यश दो, कल्याण प्रदान करो, पुत्र दो, धन दो और सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करो ।’
पार्वतीजीका उपस्थान करके धूप, दीप, गन्ध, माल्य, अनुलेप और नैवेद्य आदिके द्वारा उमापति श्रीभगवान् शङ्करकी पूजा करे। तदनन्तर श्वेत वस्त्र धारण करके श्वेत चन्दन और मालासे अलंकृत हो ब्राह्मणोंको भोजन कराये और गुरुको भी दक्षिणासहित दो वस्त्र अर्पित करे ।
ग्रह पूजन
इस प्रकार विनायककी पूजा करके लक्ष्मी, शान्ति, पुष्टि, वृद्धि तथा आयुकी इच्छा रखनेवाले वीर्यवान् पुरुषको ग्रहोकी भी पूजा करनी चाहिये । सूर्य, सोम, मङ्गल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु—इन नवों ग्रहोकी क्रमश: स्थापना करनी चाहिये । सूर्यकी प्रतिमा ताँबेसे, चन्द्रमाकी रजत (या स्फटिक)—से, मङ्गलकी लाल चन्दनसे, बुधकी सुवर्णसे, गुरुकी सुवर्णसे, शुक्रकी रजतसे, शनिकी लोहेसे तथा राहु—केतुकी सीसेसे बनाये, इससे शुभकी प्राप्ति होती है । अथवा वस्त्रपर उनके—उनके रंगके अनुसार वर्णकसे उनका चित्र अङ्कित कर लेना चाहिये । अथवा मण्डल बनाकर उनमें गन्ध (चन्दन—कुंकुम आदि)—से ग्रहोकी आकृति बना ले । ग्रहोके रंगके अनुसार ही उन्हें फूल और वस्त्र भी देने चाहिये । सबके लिये गन्ध, बलि, धूप और गुग्गुल देना चाहिये ।
प्रत्येक ग्रहके लिये (अग्निस्थापनपूर्वक) समन्त्रक चरुका होम करना चाहिये । ‘आ कृष्णेन रजसा०’ इत्यादि सूर्य देवताके, ‘इमं देवा:’ इत्यादि चन्द्रमाके, ‘अग्निर्मूर्धा दिव: ककुत्०’ इत्यादि मङ्गलके, ‘उदबुध्यस्व०’ इत्यादि मन्त्र बुधके, ‘बृहस्पते अति यदर्य:’ इत्यादि मन्त्र बृहस्पतिके, ‘अन्नात् परिस्नुतो०, इत्यादि मन्त्र शुक्रके ‘शन्नो देवी०’ इत्यादि मन्त्र शनैश्चरके, ‘काण्डात् काण्डात’ इत्यादि मन्त्र राहुके और ‘केतुं कृण्वन्नकेतवे०’ इत्यादि मन्त्र केतुके हैं ।
आक, पलाश, खैर, अपामार्ग, पीपल, गूलर, शमी, दूर्वा और कुशा—ये क्रमश: सूर्य आदि ग्रहोकी समिधा हैं ।
सूर्यादि ग्रहोमेंसे प्रत्येकके लिये एक सौ आठ या अट्ठाईस बार मधु, घी, दही अथवा खीरकी आहुति देनी चाहिये ।
गुड मिलाया हुआ भात, खीर, हविष्य (मुनि—अन्न), दूध मिलाया हुआ साठीके चावलका भात, दही—भात, घी—भात, तिलचूर्णमिश्रित भात, माष (उडद) मिलाया हुआ भात और खिचडी—इनको ग्रहके क्रमानुसार विद्वान् पुरुष ब्राह्मणके लिये भोजन दे ।
अपनी शक्तिके अनुसार यथाप्राप्त वस्तुओंसे ब्राह्मणोंका विधिपूर्वक सत्कार करके उनके लिये क्रमश: धेनु, शङ्ख, बैल, सुवर्ण, वस्त्र, अश्व, काली गौ, लोहा और बकरा—ये वस्तुएँ दक्षिणामें दे । ये ग्रहोकी दक्षिणाएँ बतायी गयी हैं ।
जिस—जिस पुरुषके लिये जो ग्रह जब अष्टम आदि दुष्ट स्थानोंमें स्थित हो, वह पुरुष उस ग्रह्की उस समय विशेष यत्नपूर्वक पूजा करे ।
ब्रह्माजीने इन ग्रहोको वर दिया है कि ‘जो तुम्हारी पूजा करें, उनकी तुम भी पूजा (मनोरथपूर्तिपूर्वक सम्मान) करना राजाओंके धन और जातिका उत्कर्ष तथा जगत्की जन्म—मृत्यु भी ग्रहोके ही अधीन है: अत: ग्रह सभीके लिये पूजनीय हैं ।
जो सदा सूर्यदेवकी पूजा एवं स्कन्दस्वामीको तथा महागणपतिको तिलक करता है, वह सिद्धिको प्राप्त होता है । इतना ही नहीं, उसे प्रत्येक कर्ममें सफलता एवं उत्तम लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है ।
जो मातृयाग किये बिना ग्रहपूजन करता है, उसपर मातृकाएँ कुपित होती हैं और उसके प्रत्येक कार्यमें विघ्न डालती हैं। शुभकी इच्छा रखनेवाले मनुष्योंको ‘वसो: पवित्रम्०’ इस मन्त्रसे वसुधारा समर्पित करके प्रत्येक माङ्गलिक कर्ममें गौरी आदि मातृकाओंकी पूजा करनी चाहिये ।
उनके नाम ये हैं—गौरी . पद्मा, शची, मेंधा, सावित्री, विजया, जया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, मातृकाएँ, वैधृति, धृति, पुष्टि, ह्रष्टि और तुष्टि । इनके साथ अपनी कुलदेवी और गणेशजी अधिक हैं ।
वृद्धिके अवसरोंपर इन सोलह मातृकाओंकी अवश्य पूजा करनी चाहिये । इन सबकी प्रसन्नताके लिये क्रमश: आवाहन, पाद्य, अर्घ्य, (आचमनीय), स्नान, (वस्त्र), चन्दन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, फल, नैवेद्य, आचमनीय, ताम्बूल, पूगीफल, आरती तथा दक्षिणा—ये उपचार समर्पित करने चाहिये ।
अब मैं पितृकल्पका वर्णन करूँगा, जो धन और संततिकी वृद्धि करनेवाला है । अमावस्या, अष्टका, वृद्धि (विवाहादिका अवसर), कृष्णपक्ष, दोनों अयनोंके आरम्भका दिन, श्राद्धीय द्रव्यकी उपस्थिति, उत्तम ब्राह्मणकी प्राप्ति, विषुवत् योग, सूर्यकी संक्रान्ति, व्यतीपात योग, गजच्छाया, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण तथा श्राद्धके लिये रुचिका होना—ये सभी श्राद्धके समय अथवा अवसर कहे गये हैं ।
सम्पूर्ण वेदोंके ज्ञानमें अग्रगण्य, श्रोत्रिय, ब्रह्मवेत्ता, युवक, मन्त्र और ब्राह्मणरूप वेदका तत्त्वज्ञ, ज्येष्ठ सामका गान करनेवाला, त्रिमधु, त्रिसुपर्ण, भानजा, ऋत्विक्, जामाता, यजमान, श्वशुर, मामा, त्रिणाचिकेत, दौहित्र, शिष्य, सम्बन्धी, बान्धव कर्मनिष्ठ, तपोनिष्ठ, पञ्चाग्निसेवी, ब्रह्मचारी तथा पिता—माताके भक्त बाह्मण श्राद्धकी सम्पत्ति हैं ।
रोगी, न्यूनाङ्ग, अधिकाङ्ग, काना, पुनर्भूकी संतान, अवकीर्णी (ब्रह्मचर्य—आश्रममें रहते हुए ब्रह्मचर्य भंग करनेवाला), कुण्ड (पतिके जीते—जी पर—पुरुषसे उत्पन्न की हुई संतान), गोलक (पतिकी मृत्युके बाद जारज संतान), खराब नखवाला, काले दाँतवाला, वेतन लेकर पढानेवाला, नपुंसक, कन्याको कलङ्कित करनेवाला, स्वयं जिसपर दोषारोपण किया गया हो वह, मित्र—द्रोही, चुगलखोर, सोमरस बेचनेवाला, बडे भाईके अविवाहित रहते विवाह करनेवाला, माता, पिता और गुरुका त्याग करनेवाला, कुण्ड और गोलकका अन्न खानेवाला, शूद्रसे उत्पन्न, एक पतिको छोडकर आयी हुई स्त्रीका पति, चोर और कर्मभ्रष्ट—ये ब्राह्मण श्राद्धमें निन्दित हैं (अत: इनका त्याग करना चाहिये) ।
श्राद्धकर्ता पुरुष मन और इन्द्रियोंको वशमें रखकर, पवित्र हो, श्राद्धसे एक दिन पहले ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे । उन ब्राह्मणोंको भी उसी समयसे मन, वाणी, शरीर तथा क्रियाद्वारा पूर्ण संयमशील रहना चाहिये ।
श्राद्धके दिन अपराह्णकालमें आये हुए ब्राह्मणोंका स्वागतपूर्वक पूजन करे । स्वयं हाथमें कुशकी पवित्री धारण किये रहे । जब ब्राह्मणलोग आचमन कर लें, तब उन्हें आसनपर बिठाये । देवकार्यमें अपनी शक्तिके अनुसार युग्म (दो, चार, छ: आदि संख्यावाले) ब्राह्मणोंको और श्राद्धमें अयुग्म (एक, तीन पाँच, आदि संख्यावाले) ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे । सब ओरसे घिरे हुए गोबर आदिसे लिपे—पुते पवित्र स्थानमें, जहाँ दक्षिण दिशाकी ओर भूमि कुछ नीची हो, श्राद्ध करना चाहिये ।
वैश्वदेव—श्राद्धमें दो ब्राह्मणोंको पूर्वाभिमुख बिठाये और पितृकार्यमें तीन ब्राह्मणको उत्तराभिमुख । अथवा दोनोंमें एक—एक ब्राह्मणको ही सम्मिलित करे । मातामहोके श्राद्धमें भी ऐसा ही करना चाहिये । अर्थात् दो वैश्वदेव—श्राद्धमें और तीन मातामहादि श्राद्धमें अथवा उभयपक्षमेंम एक—ही—एक ब्राह्मण रखे ।
वैश्वदेव—श्राद्धके लिये ब्राह्मणका हाथ धुलानेके निमित्त उसके हाथमें जल दे और आसनके लिये कुश दे । फिर ब्राह्मणसे पूछे—’मैं विश्वेदेवोंका आवाहन करना चाहता हूँ ।’ तब ब्राह्कण आज्ञा दें—’आवाहन करो ।’ इस प्रकार उनकी आज्ञा पाकर ‘विश्वेदेवास आगत०’ इत्यादि ऋचा पढकर विश्वेदेवोंका आवाहन करे । तब ब्राह्मणके समीपकी भूमिपर जौ बिखेरे । फिर पवित्रीयुक्त अर्घ्यपात्रमें ‘शं नो देवी०’ इस मन्त्रसे जल छोडे, ‘यवोऽसि०’ इत्यादिसे जौ डाले, फिर बिना मन्त्रके ही गन्ध और पुष्प भी छोड दे । तत्पश्चात् ‘या दिव्या आप:’ इस मन्त्रसे अर्घ्यको अभिमन्त्रित करके ब्राह्मणके हाथमें संकल्पपूर्वक अर्घ्य दे और कहे—’अमुकश्राद्धे विश्वेदेवा: इदं वो हस्तार्घ्यं नम: ।’ यों कहकर वह अर्घ्यजल कुशयुक्त ब्राह्मणके हाथमें या कुशापर गिरा दे । तत्पश्चात् हाथ धोनेके लिये जल देकर क्रमश: गन्ध, पुष्प, धूप, दीप तथा आच्छादन वस्त्र अर्पण करे; पुन: हस्तशुद्धिके लिये जल दे । (विश्वेदेवोंको जो कुछ भी दे, सव्यभावसे उत्तराभिमुख होकर दे और पितरोंको प्रत्येक वस्तु अपसव्यभावसे दक्षिणाभिमुख होकर देनी चाहिये) ।
वैश्वदेवकाण्डके अनन्तर यज्ञोपवीत अपसव्य करके पिता आदि तीनके लिये तीन द्विगुण—भुग्र कुशोंको उनके आसनके लिये अप्रदक्षिण—क्रमसे दे । फिर पूर्ववत् ब्राह्मणोंकी आज्ञा लेकर ‘उशन्तस्त्वा०’ इत्यादि मन्त्रसे पितरोंका आवाहन करके ‘आयन्तु न:०’ इत्यादिका जप करे । ‘अपहता असुरा राक्षा, सि वेदिषद:०’ यह मन्त्र पढ कर सब ओर तिल बिखेरे । वैश्वदेव—श्राद्धमें जो कार्य जौसे किया जाता है, वही पितृश्राद्धमें तिलसे करना चाहिये । अर्घ्य आदि पूर्ववत् करे। संस्रव (ब्राह्मणके हाथसे चुए हुए जल) पितृपात्रमें ग्रहण करके भूमिपर दक्षिणाग्र कुश रखकर उसके ऊपर उस पात्रको अधोमुख करके ढुलका दे और कहे ‘पितृभ्य: स्थानमसि।’ फिर उसके ऊपर अर्घ्यपात्र और पवित्रक आदि रखकर गन्ध, पुष्प, धूप, दीप आदि पितरोंको निवेदित करे ।
इसके बाद ‘अग्नौ करण’ कर्म करे । घीसे तर किया हुआ अन्न लेकर ब्राह्मणोंसे पूछे—’अग्नौ करिष्ये; (मैं अग्निमें इसकी आहुति देना चाहता हूँ) । तब ब्राह्मण इसके लिये आज्ञा दें । इस प्रकार आज्ञा लेकर वह पिण्डपितृयज्ञकी भाँति उस अन्नकी दो आहुति दे (उस समय ये दो मन्त्र क्रमश: पढे—अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा नम: । सोमाय पितृमते स्वाहा नम:) । फिर होमशेष अन्नको एकाग्रचित्त होकर यथाप्राप्त पात्रोंमें—विशेषत: चाँदीके पात्रोंमें परोसे। इस प्रकार अन्न परोसकर ‘पृथिवी ते पात्रं द्यौरपिधानम्०’ इत्यादि मन्त्र पढकर पात्रको अभिमन्त्रित करे। फिर ‘इदं विष्णु०’ इत्यादि मन्त्रका उच्चारण करके अन्नमें ब्राह्मणके अँगूठेका स्पर्श कराये। तदनन्तर तीनों व्याहृतियोंसहित गायत्रीमन्त्र तथा’ मधु वाता०’ इत्यादि तीन ऋचाओंका जप करे और ब्राह्मणोंसे कहे—’आप सुखपूर्वक अन्न ग्रहण करें।’ फिर वे ब्राह्मण भी मौन होकर प्रसन्नतापूर्वक भोजन करें । उस समय यजमान क्रोध और उतावलीको त्याग दे और जबतक ब्राह्मणलोग पूर्णत: तृप्त न हो जायँ, तबतक पूछ—पूछकर प्रिय अन्न और हविष्य उन्हें परोसता रहे । उस समय पूर्वोक्त मन्त्रोंका तथा पावमानी आदि ऋचाओंका जप या पाठ करते रहना चाहिये । तत्पश्चात् अन्न लेकर ब्राह्मणोंसे पूछे—’क्या आप पूर्ण तृप्त हो गये ?’ ब्राह्मण कहें—’हाँ, हम तृप्त हो गये ।’ यजमान फिर पूछे—’शेष अन्न क्या किया जाय ?’ ब्राह्मण कहें—’इष्टजनोंके साथ भोजन करो ।’ उनकी इस आज्ञाको ‘बहुत अच्छा’ कहकर स्वीकार करे । फिर हाथमें लिये हुए अन्नको ब्राह्मणोंके आगे उनकी जूठनके पास ही दक्षिणाग्र कुश भूमिपर रखकर उन कुशोंपर तिल—जल छोडकर वह अन्न रख दे । उस समय ‘ये अग्निदग्धा: ०’ इत्यादि मन्त्रका पाठ करे । फिर ब्राह्मणोंके हाथमें कुल्ला करनेके लिये एक—एक बार जल दे । फिर पिण्डके लिये तैयार किया हुआ सारा अन्न लेकर दक्षिणाभिमुख हो पिण्डपितृयज्ञ—कल्पके अनुसार तिलसहित पिण्डदान करे । इसी प्रकार मातामह आदिके लिये पिण्ड दे । फिर ब्राह्मणोंके आचमनार्थ जल दे, तदनन्तर ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराये और उनके हाथमें जल देकर उनसे प्रार्थनापूर्वक कहे—आपलोग ‘अक्षय्यमस्तु’ कहें । तब ब्राह्मण ‘अक्षय्यम् अस्तु’ बोलें । इसके बाद उन्हें यशाशक्ति दक्षिणा देकर कहे—’अब मैं स्वधावाचन कराऊँगा ।’ ब्राह्मण कहें—’स्वधावाचन कराओ।’ इस प्रकार उनकी आज्ञा पाकर पितरों और मातामहाहिके लिये ‘आप यह स्वधावाचन करें, ऐसा कहे । तब ब्राह्मण बोले—’अस्तु स्वधा ।’ इसके अनन्तर पृथ्वीपर जल सींचे और ‘विश्वेदेवा: प्रीयन्ताम्’ यों कहे । ब्राह्मण भी इस वाक्यको दुहरायें—’प्रीयन्तां विश्वेदेवा: ।’ तदनन्तर बाह्मणोंकी आज्ञासे श्राद्धकर्ता निम्नाडिकत मन्त्रका जप करे—
दातारो नोऽभिवर्धन्तां वेदा: सन्ततिरेव च ।
श्रद्धा च नो मा विगमद् बहु देयं च नोऽस्त्विति ॥
‘मेंरे दाता बढें । वेद और संतति बढे । हमारी श्रद्धा कम न हो और हमारे पास दानके लिये बहुत धन हो ।’
यह कहकर ब्राह्मणोंसे नम्रतापूर्वक प्रिय वचन बोले और उन्हें प्रणाम करके विसर्जन करे—’वाजे—वाजे०’ इत्यादि ऋचाओंको पढकर प्रसन्नतापूर्वक विसर्जन करे । पहले पितरोंका, फिर विश्वेदेवोंका विसर्जन करना चाहिये । पहले जिस अर्घ्यपात्रमें संस्त्रवका जल डाला गया था, उस पितृपात्रको उत्तान करके ब्राह्मणोंको विदा करना चाहिये । ग्रामकी सीमातक ब्राह्मणोंके पीछे—पीछे जाकर उनके कहनेपर उनकी परिक्रमा करके लौटे और पितृसेवित श्राद्धान्नको इष्टजनोंके साथ भोजन करे । उस रात्रिमें यजमान और ब्राह्मण—दोनोंको ब्रह्मचारी रहना चाहिये ।
इसी प्रकार पुत्र—जन्म और विवाहादि वृद्धिके अवसरोंपर प्रदक्षिणावृत्तिसे नान्दीमुख पितरोंका यजन करे । दही और बेर मिले हुए अन्नका पिण्ड दे और तिलसे किये जानेवाले सब कार्य जौसे करे । एकोद्दिष्ट श्राद्ध बिना वैश्वदेवके होता है । उसमें एक ही अर्घ्यपात्र तथा एक ही पवित्रक दिया जाता है । इसमें आवाहन और अग्नौकरणकी क्रिया नहीं होती । सब कार्य जनेऊको अपसव्य रखकर किये जाते हैं । ‘अक्षय्यमस्तु’ के स्थानमें ‘उपतिष्ठताम’ का प्रयोग क रे। ‘वाजे—वाजे’ इस मन्त्रसे ब्राह्मणका विसर्जन करते समय ‘अभिरम्यताम्’ यों कदे और ये ब्राह्मणलोग ‘अभिरता: स्म:’ ऐसा उत्तर दें । सपिण्डीकरण श्राद्धमें पूर्वोक्त विधिसे अर्घ्यसिद्धिके लिये गन्ध, जल और तिलसे युक्त चार अर्घ्यपात्र तैयार करे । (इनमेंसे तीन तो इतरोंके पात्र हैं और एक प्रेतका पात्र होता है) । इनमें प्रेतके पात्रका जल पितरोंके पात्रोंमें डाले । उस समय ‘ये समाना०’ इत्यादि दो मन्त्रोंका उच्चारण करे । शेष क्रिया पूर्ववत् करे । यह सपिण्डिकरण और एकोद्दिष्ट श्राद्ध माताके लिये भी करना चाहिये । जिसका सपिण्डीकरणश्राद्ध वर्ष पूर्ण होनेसे पहले हो जाता है, उसके लिये एक वर्षतक ब्राह्मणको सान्नोदक कुम्भदान देते रहना चाहिये । एक वर्षतक प्रतिमस मृत्युतिथिको एकोद्दिष्ट करना चाहिये; फिर प्रत्येक वर्षमें एक बार क्षयाहतिथिको एकोद्दिष्ट करना उचित है । प्रथम एकोद्दिष्ट तो मरनेके बाद ग्यारहवें दिन किया जाता है । सभी श्राद्धोंमें पिण्डोंको गाय, बकरे अथवा लेनेकी इच्छावाले ब्राह्मणोंको दे देना चाहिये । अथवा उन्हें अग्निमें या अगाध जलमें डाल देना चाहिये । जबतक ब्राह्मणलोग भोजन करके वहाँसे उठ न जायँ, तबतक उच्छिष्ट स्थानपर झाडू न लगाये । श्राद्धमेंम हविष्यान्नके दनसे एक मासतक और खीर देनेसे एक वर्षतक पितरोंकी तृप्ति बनी रहती है । भाद्रपद कृष्णा त्रयोद्शीको विशेषत: मघा नक्षत्रका योग होनेपर जो कुछ पितरोंके निमित्त दिया जाता है वह अक्षय होता है । एक चतुर्दशीको छोडकर प्रतिपदासे अमावास्यातककी चौदह तिथियोंमें श्राद्ध—दान करनेवाला पुरुष क्रमश: इन चौदह फलोंको पाता है—रूप—शीलयुक्त कन्या, वुद्धिमान् तथा रूपवान् दामाद, पशु, श्रेष्ठ पुत्र, द्यूत—विजय, खेतीमें लाभ, व्यापारमें लाभ, दो खुर और एक खुरवाले पशु, ब्रह्मतेजसे सम्पन्न पुत्र, सुवर्ण, रजत, कुप्यक (त्रपु—सीमा आदि), जाति—भाइयोंमें श्रेष्ठता और सम्पूर्ण मनोरथ । जो लोग शस्त्रद्वारा मारे गये हो, उन्हींके लिये उस चतुर्दशी तिथिको श्राद्ध प्रदान किया जाता है । स्वर्ग, संतान, ओज, शौर्य, क्षेत्र, बल, पुत्र, श्रेष्ठता, सौभाग्य, समृद्धि, प्रधानता, शुभ, प्रवृत्तचक्रता (अप्रतिहत शासन), वाणिज्य आदि, नीरोगता, यश, शोकहीनता, परम गति, धन, वेद, चिकित्सामें सफलता, कुप्य (त्रपु—सीसा आदि), गौ, बकरी, भेड अश्व तथा आयु—इन सत्ताईस प्रकारके काम्य पदार्थोंको क्रमश: वही पाता है जो कृत्तिकासे लेकर भरणीपर्यन्त प्रत्येक नक्षत्रमें विधिपूर्वक श्राद्ध करता है तथा आस्तिक, श्रद्धालु एवं मद—मात्सर्य आदि दोषोंसे रहित होता है । वसु, रुद्र और आदित्य—ये तीन प्रकारके पितर श्राद्धके देवता हैं । ये श्राद्धसे संतुष्ट किये जानेपर मनुष्योंके पितरोंको तृप्त करते हैं । जब पितर तृप्त होते है, तब वे मनुष्योंको आयु, प्रजा, धन, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सुख तथा राज्य प्रदान करते हैं । इस प्रकार मैंने कल्पाध्यायका विषय थोडेमें बताया है । वेद तथा पुराणान्तरसे विशेष बातें जाननी चाहिये । मुनीश्वर ! जो विद्वान् इस कल्पाध्यायका चिन्तन करता है, वह इस लोकमें कर्म—कुशल होता है और परलोकमें शुभ गति पाता है । जो मनुष्य देवकार्य तथा पितृकार्यमें इस कल्पाध्यायका भक्तिपूर्वक श्रवण करता है, वह यज्ञ और श्राद्धका पूरा फल पाता है । इतना ही नहीं, वह इस लोकमें धन, विद्या, यश और पुत्र पाता है तथा परलोकमें उसे परम गति प्राप्त होती है । अब मैं वेदके मुखस्वरूप व्याकरणका संक्षपसे वर्णन करूँगा । एकाग्रचित्त होकर सुनो । (पूर्वभाग, द्वितीय पाद, अध्याय ५१)
अध्याय ४८ व्याकरण— शास्त्रका वर्णन
सनन्दन उवाच–
अथ व्याकरणं वक्ष्ये संक्षेपात्तव नारद ।
सिद्धरूपप्रबन्धेन मुखं वेदस्य साम्प्रतम् ॥१॥
सनन्दनजी कहते हैं—अब मैं शब्दोंके सिद्धरूपोंका उल्लेख करते हुए तुमसे संक्षेपमें व्याकरणका वर्णन करता हूँ; क्योंकि व्याकरण वेदका मुख है ॥१॥
सुप्तिडन्तं पदं विप्र सुपां सप्त विभक्तय: ।
स्वौजस: प्रथमा प्रोक्ता सा प्रातिपदिकात्मिका ॥२॥
विप्रवर ! सुबन्त और तिडस्त पदको शब्द कहते हैं । सुप्की सात विभक्तियाँ हैं । उनमेंसे प्रथमा विभक्ति सु, औ, जस्—इस प्रकार बतायी गयी है । प्रथमा विभक्ति प्रातिपदिक स्वरूप मानी गयी है ॥२॥
सम्बोधने च लिङ्गादावुक्ते कर्मणि कर्तरि ।
अर्थवत्प्रातिपदिकं धातुप्रत्ययवर्जितम् ॥३॥
सम्बोधनमें प्रथमा विभक्तिका प्रयोग होता है; जहाँ प्रातिपदिकके अतिरिक्त लिङ्ग, परिमाण और वचन आदिका बोध कराना हो, वहाँ भी प्रथमा विभक्तिका ही प्रयोग होता है । उक्त कर्ममें तथा उत कर्तामें भी प्रथमा विभक्तिका ही प्रयोग होता है । धातु और प्रत्ययसे रहित सार्थक शब्दकी प्रातिपदिक संज्ञा होती है ॥३॥
अमौशसो द्वितीया स्यात् तत्कर्म क्रियते च यत् ।
द्वितीया कर्मणि प्रोक्तान्तरान्तरेण संयुते ॥४॥
अम्, औ, शस्—यह द्वितीया विभक्ति है । जो किया जाता है, उसे कर्म कहते हैं । अनुक्त कर्ममें द्वितीया विभक्तिका प्रयोग कहा गया है । ‘अन्तरा’, ‘अन्तरेण’ इन शब्दोंका जिसके साथ संयोग या अन्वय हो उस शब्दमें द्वितीया विभक्तिका प्रयोग करना चाहिये ॥४॥
टाभ्याम्भिसस्तृतीया स्यात् करणे कर्तरीरिता ।
येन क्रियते तत्करणं स कर्ता स्यात्करोति य: ॥५॥
‘टा’,’भ्याम’, भिस’—यह तृतीया विभक्ति हैं । करणमें और अनुक्त कर्तामें तृतीया विभक्ति बतायी गयी है । जिसकी सहायतासे कार्य किया जाता है, उसका नाम करण है और जो कार्य करता है, उसे कर्ता कहते हैं ॥५॥
डेभ्याम्भ्यसश्चतुर्थी स्यात्सम्प्रदाने च कारके ।
यस्मै दित्सां धारयेद्वै रोचते सम्प्रदानकम् ॥६॥
‘डे’,’भ्याम्’ ‘भ्यस्’—यह चतुर्थी विभक्ति है । इसका प्रयोग सम्प्रदान कारकमें होता है । जिस व्यक्तिको कोई वस्तु देनेकी इच्छा मनमें धारण की जाय, उसकी ‘सम्प्रदान’ संज्ञा होती है तथा जिसको कोई वस्तु रुचिकर प्रतीत होती है, वह भी सम्प्रदान है ॥६॥
पञ्चमी स्यान्डसिभ्याम्भ्यो ह्यपादाने च कारके ।
यतोऽपैति समादत्ते अपादाने च यं यत: ॥७॥
‘डसि’, ‘भ्याम्’,’भ्यम्’ यह पञ्चमी विभक्ति है । इसका प्रयोग अपादान कारकमें होता है । जहाँसे कोई जाता है . जिससे कोई किसी वस्तुको लेता है तथा जिस स्थानसे कोई वस्तु अलग की जाती या स्वत: अलग होती है, विभाग या अलगावकी उस सीमाको अपादान कारक कहते हैं ॥७॥
डसोसामश्च षष्ठी स्यात्स्वामिसम्बन्धमुख्यके।
डयोस्सुप: सप्तमी तु स्यात्सा चाधिकरणे भवेत्॥८॥
‘डस’,’ओस्’, ‘आम’—यह षष्ठी विभक्ति है । जहाँ स्वामी—सेवक आदि सम्बन्धकी प्रधानता हो, वहाँ षष्ठी विभक्तिका प्रयोग होता है । ‘डि’,’ओस’ ‘सुप्’—यह सप्तमी विभक्ति है । इसका प्रयोग अधिकरण कारकमें होता है ॥८॥
आधारे चापि विप्रेन्द्र रक्षार्थानां प्रयोगत: ।
ईप्सितं चानीप्सिताद् यत्तदपादानकं स्मृतम् ॥९॥
विप्रवर ! आधारमें भी सप्तमी होती है । भयार्थक तथा रक्षार्थक धातुओंका प्रयोग होनेपर भयके कारणकी अपादान संज्ञा होती है । इसी प्रकार वारणार्थक धातुओंका प्रयोग होनेपर अनीप्सितसे रक्षानिये जो अबिष्ट वस्तु उसकी अपादान संज्ञा होती है ॥९॥
पञ्चमी पर्यपाङयोगे इतरर्तेऽन्यदिङमुखे ।
एतैर्योगे द्वितीया स्यात्कर्मप्रवचनीयकै: ॥१०॥
परि, अप,आङ, इतर, ऋते, अन्य तथा दिग्वाचक शब्द—इन सबके योगमें भी पञ्चमी विभक्ति होती है । ‘कर्मप्रवचनीय’ संज्ञावाले शब्दोंके साथ योग होनेपर द्वितीया विभक्ति होती है ॥१०॥
लक्षणेत्थंभूतेऽभिरभागे चानुपरिप्रति ।
अन्तरेषु सहार्थे च हीए ह्युपश्च कथ्यते ॥११॥
लक्षण इत्थम्भूताख्यान भाग तथा वीप्सा—इन सबकी अभिव्यक्तिके लिये प्रयुक्त हुए प्रति, परि, अनु—इन अव्ययोंकी ‘कर्मप्रवचनीय’ संज्ञा होती है। ‘भाग’ अर्थको छोडकर शेष जो लक्षण आदि अर्थ हैं, उनकी अभिव्यक्तिके लिये प्रयुक्त होनेवाला ‘अभि’ अव्यय भी ‘कर्मप्रवचनीया’ होता है । हीन अर्थको प्रकाशित करनेवाला ‘अनु’ तथा ‘हीन’ और ‘अधिक; अर्थोंको प्रकट करनेके लिये प्रयुक्त ‘उप’ अव्यय भी ‘कर्मप्रवचनीय’ होते हैं । अन्तर अर्थात् मध्य अर्थ तथा सहार्थ यानी तृतीया विभक्तिका अर्थ व्यक्त करनेके लिये प्रयुक्त हुआ ‘अनु’ शब्द भी ‘कर्मप्रवचनीय’ है ॥११॥
द्वितीया च चतुर्थी स्याच्चेष्टायाँ गतिकर्मणि ।
अप्रणिषु विभक्ती द्वे मन्यकर्मण्यनादरे ॥१२॥
गत्यर्थक धातुओंके कर्ममें द्वितीया और चतुर्थी दोनों विभक्तियाँ प्रयुक्त होती हैं, यदि गमनकी चेष्टा प्रकट होती हो । ज्ञानार्थक ‘मन्’ धातुका कर्म यदि कोई प्राणिभिन्न वस्तु हो और अनादर अर्थ प्रकट करना हो तो उसमें भी द्वितीया और चतुर्थी दोनों विभक्तियाँ होती हैं ॥१२॥
नम: स्वस्तिस्वधास्वाहालंवषडयोग ईरिता ।
चतुर्थी चैता तादर्थ्ये तुमर्थाद्भाववाचिन: ॥१३॥
नम:, स्वस्ति, स्वधा, स्वाहा, अलम्, वषट्—इन सब अव्यय शब्दोंके योगमें चतुर्थी विभक्तिके प्रयोगका विधान है । तादर्थ्यमें अर्थात् जिस वस्तुके लिये कोई कार्य किया जाता है . उस ‘वस्तु’ के बोधक शब्दमें चतुर्थी विभक्ति होती है । ‘तुमुन्’ के अर्थमें प्रयुक्त अव्ययभिन्न भावार्थक प्रत्ययान्त शब्दमें भी चतुर्थी विभक्तिका ही प्रयोग होना चाहिये ॥१३॥
तृतीया सहयोगे स्यात्कुत्सितेऽङ्गे विशेषणे ।
काले भावे सप्तमी स्यादेतैर्योगे च षष्ठयपि ॥१४॥
स्वामीश्वराधिपतिभि: साक्षिदायादसूतकै: ।
निर्धारणे द्वे विभक्ती षष्ठी हेतुप्रयोगके ॥१५॥
‘सह’ तथा उसके पर्यायवाची शब्दोंसे योग होनेपर तृतीया विभक्ति होती है । यदि कोई विकृत अङ्ग विशेषणरूपसे प्रयुक्त हुआ हो तो उसमें भी तृतीया विभक्ति होती है । जहाँ एक क्रियाके होते समय दूसरी क्रिया लक्षित होती हो . वहाँ सप्तमी विभक्ति होती है । ‘स्वामी’, ‘ईश्वर’,’अधिपति’.’साक्षी’,’दायाद’,’प्रसूत’ (तथा ‘प्रतिभू’)—इन शब्दोंके योगमें सप्तमी और षष्ठी दोनों विभक्तियाँ होती हैं । जिस समुदायमेंसे किसी एककी जाति—सम्बन्धी, गुण—सम्बन्धी, क्रिया—सम्बन्धी अथवा किसी विशेष नामवाले व्यक्तिसम्बन्धी विशेषताका निश्चय करना हो, उस समुदायबोधक शब्दमें सप्तमी और षष्ठी दोनों विभक्तियाँ होती हैं । ‘हेतु’ शब्दका प्रयोग करके यदि हेत्वर्थका प्रकाशन किया जाय तो षष्ठी विभक्ति होती है ॥१४—१५॥
स्मृत्यर्थकर्मणि तथा करोते: प्रतियत्नके ।
हिंसार्थानां प्रयोगे च कृति कर्मणि कर्तरि ॥१६॥
स्मरणार्थक क्रियाओंके कर्ममें शेषषष्ठी होती है । ‘कृ’ धातुके कर्ममें भी शेषषष्ठीका विधान है । यदि प्रतियत्न (गुणाधान या संस्कार) सूचित होता हो । हिंसा अर्थवाले धातुओंका प्रयोग होनेपर उनके कर्ममें शेषषष्ठी होती है । कृदन्त शब्दका योग होनेपर कर्ता और अर्ममें षष्ठी होती है ॥१६॥
न कर्तृकर्मणो: षष्ठी निष्ठादिप्रतिपादने ।
एता वै द्विविधा ज्ञेया: सुबादिषु विभक्तिषु ।
भूवादिषु तिडन्तेषु लकारा दश वै स्मृता: ॥१७॥
यदि निष्ठा आदिका प्रतिपादन करनेवाले प्रत्ययोंसे युक्त शब्दका प्रयोग हो तो कर्ता और कर्ममें षष्ठी नहीं होती । ये विभक्तियाँ दो प्रकारकी जाननी चाहिये—सुप और तिङ । ऊपर सुबादि विभक्तियोंके विषयमें वर्णन किया गया है । क्रियावाचक ‘भू’ ‘वा’ आदि शब्द ही तिङ विभक्तियोंके साथ संयुक्त होनेपर तिडन्त कहे गये हैं । इनमें दस लकार बताये गये हैं ॥१७॥
तिप्तसन्तीति प्रथमो मध्य: सिपथस्थ उत्तम: ।
मिब्वस्मस: परस्मै तु पदानां चात्मनेपदम् ॥१८॥
‘तिप’ ‘तस्’ ‘अन्ति’ यह प्रथम पुरुष है । ‘सिप्’ ‘थस्’ ‘थ’—यह मध्यम पुरुष है तथा ‘मिप्’ ‘वस्’ ‘मस्’ यह उत्तम पुरुष । ये सब परस्मैपदके प्रत्यय हैं । अब आत्मनेपद बताया जाता है ॥१८॥
ते आतेऽन्ते प्रथमो मध्य: से आथे ध्वे तथोत्तम: ।
ए वहे मह आदेशा ज्ञेया ह्मन्ये लिडादिषु ॥१९॥
‘ते’ ‘आते’ ‘अन्ते’ यह प्रथम पुरुष है । ‘से’ ‘आथे’ ‘ध्वे’ यह मध्यम पुरुष है । ‘ए’ ‘वहे’ ‘महे’ यह उत्तम पुरुष है । ये ‘लट’ लकारके स्थानमें होनेवाले आदेश है । ‘लिट’ आदि लकारोंके स्थानमें होनेवाले प्रत्ययरूप आदेश दूसरे हैं, उन्हें जानना चाहिये ॥१९॥
नाम्रि प्रयुज्यमाने तु प्रथम: पुरुषो भवेत् ।
मध्यमो युष्मदि प्रोक्त उत्तम: पुरुषोऽस्मदि ॥२०॥
जहाँ ‘युष्मद’,’अस्मद’ शब्दोंके अतिरिक्त अन्य कोई भी नाम उक्त कर्ता या उक्त कर्मके रूपमें प्रयुक्त होता हो, वहाँ प्रथम पुरुष होता है । ‘युष्मद’ शब्द उक्त कर्ता या उक्त कर्मके रुपमें प्रयुक्त हो तो मध्यम पुरुष होता है और ‘अस्मद्’ शब्दका उक्त कर्ता या उक्त कर्मके रूपमें प्रयोग हो तो उत्तम पुरुष कहा गया है ॥२०॥
भूवाद्या धातव: प्रोक्ता: सनाद्यन्तास्तथा तत: ।
लडीरितो वर्तमाने भूतेऽनद्यतने तथा ॥२१॥
मास्मयोगे च लङ्वाच्यो लोडाशिषि च धातुत: ।
विध्यादौ स्यादाशिषि च लिडितो द्विविधो मुने ॥२२॥
क्रिया—बोधक ‘भू’ ‘वा’ आदि शब्दोंको ‘धातु’ कहा गया है । ‘सन्’ आदि प्रत्यय जिनके अन्तमें हो, उनकी भी धातु संज्ञा है । धातुओंसे वर्तमानकालमें लटलकारका विधान है । अनद्यतन (आजसे पहलेके) भूतकालमें लङ लकार होता है तथा ‘म’ और ‘स्म’ इन दोनोंके योगमें लङ् (और लुङ्) लकार होता है, यह बताना चाहिये । आशीर्वाद और विधि आदि अर्थमें धातुसे लोट् लकारका विधान है । विधि आदि अर्थमें तथा आशीर्वादमें लिड लकारका भी प्रयोग होता है, किंतु विधिलिङ् और आशिष्—लिङ्के धातु—रूपोंमें अन्तर होता है । मुने ! इसीलिये वह दो प्रकारका माना गया है ॥२१—२२॥
लिडतीते परोक्षे स्याच्छ्वस्तने लुङ भविष्यति ।
स्यादेवाद्यतने लृट च भविष्यति तु धातुत: ॥२३॥
परोक्ष भूतकालमें लिट् लकारका प्रयोग होता है । आजके बाद होनेवाले भविष्यामें ‘लुट्’ का प्रयोग किया जाता है । आज होनेवाले भविष्यमें धातुसे लृट् लकार होता है ॥२३॥
भूते लुङतिपत्तौ च क्रियाया लृङ प्रकीर्तित: ।
सिद्धोदाहरणं विद्धि संहितादिपुर: सरम् ॥२४॥
सामान्य भूतकालमें लुङ लकारका प्रयोग करना चाहिये । हेतुहेतुमद्भाव आदि जो लिडके निमित्त हैं, उन्हींके होनेपर भविष्य—अर्थमें लृङ लकारका प्रयोग होता है; किंतु यदि क्रियाकी असिद्धि सूचित होती हो तभी ऐसा होना उचित है ।
मुने ! [ अब संधिका प्रकरण आरम्भ करते हैं—] संधिके सिद्ध उदाहरण संहिता आदि ग्रन्थोंके अनुसार समझो ॥२४॥
दण्डाग्रं च दधीदं च मधूदकं पितृषभ: ।
होतृकारस्तथा सेयं लाङ्गलीषा मनीषया ॥२५॥
गङ्गोदकं तवल्कार ऋणार्णं च मुणीश्वर ।
शीतार्तश्च मुनिश्रेष्ठ सैन्द्र: सौकार इत्यपि ॥२६॥
पहले स्वर—संधिके उदाहरण दिये जाते हैं—
दण्ड + अग्रम् = दण्डाग्रम् (डंडेका सिरा) ।
दधि + इदम् = दधीदम् (यह दही) ।
मधु + उदकम् = मधूदकम् (मधु और जल) ।
पितृ + ऋषभ:= पितृषभ: (पितृवर्गमें श्रेष्ठ) ।
होतृ + लृकार = होतृकार: (होताका लृकार) ।
इसी प्रकार ‘मनीषा’ के साथ ‘लाङ्गलीषा’ भी सिद्धसंधि है ।
मुनीश्व ! गङ्गा + उदकम् = गङ्गोदकम् (गङगाजल),
तव + लृकार:= तवल्कार: (तुम्हारा लृकार),
सा + इयम् = सेयम् (वह यह = स्त्री) ।
स + ऐन्द्र:= सैन्द्र: (वह इन्द्रका भाग) ।
स + औकार:= सौकार: (वय औकार) ।
ऋण + ऋणम् = ऋणार्णम् (ऋणके लिये ऋण)
शीत + ऋत:= शीतार्त: (शीतसे युक्त) ।
कृष्ण + एकत्वम् = कृष्णैकत्वम् (कृष्णकी एकता) ।
गङ्ग + ओघ:= गङ्गौघ: (गङ्गाकी जलराशिका प्रवाह)—ये वृद्धि संधिके उदाहरण हैं ॥२५—२६॥
वध्वासनं पित्रर्थो नायको लवणस्तथा ।
त आद्या विष्णवे ह्यत्र तस्मा अर्घो गुरा अध: ॥२७॥
दधि + अत्र = दध्यत्र (यहाँ दही है,)
वधू + आसनम् = वध्वासनम (बहूका आसन),
पितृ + अर्थ:= पित्रर्थ: (पिताका धन),
लृ + आकृति:= लाकृति: (देवजातिकी माताका स्वरूप)—ये यणसंधिके उदाहरण हैं ।
(हरे + ए = हरये—भगवान्के लिये) ।
नै + अक:= नायक: (स्वामी) ।
लो + अण:= लवण: (नमक) ।
(पौ + अक:= पावक:—अग्नि)—ये अयादि संधि कहलाते हैं।
ते + आद्या:= त आद्या: (वे प्रथम हैं) ।
विष्णो + एह्यत्र = विष्ण एह्यत्र (भगवन् विष्णो ! तहाँ पधारिये) ।
तस्मै + अर्घ:= तस्मा अर्घ: (उनके लिये अर्घ्य) ।
गुरौ + अध:= गुरा अध: (गुरुके समीप नीचे) । इन उदाहरणोंमें यलोप और वलोप हुए हैं ॥२७॥
हरेऽव विष्णोऽवेत्येषादसो मादप्यमी अघा: ।
शौरी एतौ विष्णू इमौ दुर्गे अमू नो अर्जुन: ॥२८॥
आ एवं च प्रकृत्यैते तिष्ठन्ति मुनिसत्तम ।
हरे + अव = हरेऽव (भगवन ! रक्षा कीजिये) ।
विष्णो + अव = विष्णोऽव (विष्णो ! रक्षा कीजिये) । यह पूर्वरूप संधि है ।
अदस् शब्दसम्बन्धी मकारसे परे यदि दीर्घ ‘ई’ और ‘ऊ’ हो तो वे ज्यों—के—त्यों रह जाते हैं । इस अवस्थाको प्रकृतिभाव कहते हैं ।
जैसे अमी + अघा: (ये पाणी हैं).
शौरी + एतौ = (ये दोनों श्रीकृष्ण—बलराम हैं),
विष्णु + इमौ = (ये दोनों विष्णुरूप हैं),
दुर्गे + अमू = (ये दोनों दूर्गारूप हैं) । ये भी प्रकृतिभावके ही उदाहरण हैं ।
नो + अर्जुन: (अर्जुन नहीं है),
आ + एवम् (ऐसा ही है)—इनमें भी सन्धि नहीं होती ।
मुनिश्रेष्ठ नारद ! ‘अमी + अघा:’ से लेकर यहाँतकके सभी उदाहरण ऐसे हैं, जो अपनी प्रकृतावस्थामें ही रह्ते हैं ॥२८ १ / २॥
षडत्र षण्मातरश्च वाक्छूरो वाग्घरिस्तथा ॥२९॥
अब व्यञ्जन सन्धिके उदाहरण दिये जाते हैं ।
षट + अत्र = षडत्र (यहाँ छ: हैं) ।
षट + मातर:= षण्मातर: (छ: माताएँ) ।
वाक + शूर:= वाक्छूर: (बोलनेमें बहादुर) ।
वाक + हरि:= वागघरि: (वाणीरूप भगवान्) ॥२९॥
हरिश्शेते विभुश्चिन्त्यस्तच्छेषो यच्चरस्तथा ।
प्रश्रस्त्वथ हरिष्षष्ठ: कृष्णष्टीकत इत्यपि ॥३०॥
हरिस् + शेते = हरिश्शेते) श्रीहरि शयन करते हैं) ।
विभुस् + चिन्त्य:= विभुश्चिन्त्य: (सर्वव्यापी परमेंश्वर चिन्तन करने योग्य हैं) ।
तत् + शेष:= तच्छेष: (उसका शेष) ।
यत् + चर:= यच्चर: (जिसमें चलनेवाला) ।
प्रश् + न:= प्रश्न: (सवाल) ।
हरिस् + षष्ठ:= कृषष्णाष्टीकते (श्रीकृष्ण जाते हैं) इत्यादि ॥३०॥
भवान्षष्ठश्च षट् सन्त: षट् ते तल्लेप एव च ।
चक्रिंश्छिन्धि भवाञ्छौरिर्भवाञ्शीरिरिहेत्यपि ॥३१॥
भवान् + षष्ठ: (आप छठे हैं) । इसमें पूर्व नियमके अनुसार प्राप्त होनेपर तवर्गका टवर्ग नहीं होता ।
इसी तरह षट सन्त: (छ: सत्पुरुष) और षट ते (वे छ: हैं) इत्यादिमें भी ष्टुत्व नहीं हुआ है ।
तत् + लेप:= तल्लेप: (उपका लेप) ।
चक्रिन् + छिन्धि = चक्रिंश्छिन्धि (चक्रधारी प्रभो ! मेंरा बन्धन काटिये) ।
भवान् + शौरि:= भवाञ्छौरि:, भवाञ्शौरि: इह (आप श्रीकृष्ण यहाँ हैं). (भवाञ्च्छौरि: भवाञ्च्शौरि:) इस पदच्छेदमें ये चार रूप बनते हैं ॥३१॥
सम्यडडनन्तोऽङ्गच्छाया कृष्णं वन्दे मुनीश्वर ।
तेजांसि मंस्यते गङ्गा हरिश्छेत्तामरश्शिव: ॥३२॥
सम्यड + अनन्त:= सम्यडडनन्त: (अच्छे शेषनाग).
सुगण् + ईश:= सुगण्णीश: (अच्छे गणकोंके स्वामी) ।
सन + अच्युत:= सन्नच्युत: (नित्य सत्स्वरूप श्रीहरि) ।
अङ्ग + छाया + अङ्गच्छाया (शरीरकी परछाई)
कृष्णम + वन्दे = कृष्णं वन्दे (श्रीकृष्णको प्रणाम करता हूँ) ।
तेजान् + सि = तेजांसि (तेज),
मन् + स्यते = मंस्यते (मानेंगे) ।
गं + गा = गङ्गा (देव—नदी गङ्गा) ।
मुनीश्वर नारद ! यहाँतक व्यञ्जन—सन्धिका वर्णन हुआ ।
अब विसर्ग—सन्धि प्रारम्भ करते हैं।
हरि: छेत्ता = हरिश्छेत्ता (श्रीहरि बन्धन काटनेवाले हैं) ।
अमर:+ शिव:= अमरश्शिव: (भगवान् शिव अमर हैं) ॥३२॥
राम काम्य: कृप पूज्यो हरि: पूज्योऽर्च्य एव हि ।
रामो दृष्टोऽबला अन्न सुप्ता दृष्टा इमा यत: ॥३३॥
राम:+ काम्य:= राम काम्य: (श्रीराम कमनीय हैं) ।
कृप:+ पूज्य:= कृप पूज्य: (कृपाचार्य पूज्य हैं) ।
पूज्यस् + अर्च्य:= पूज्योऽर्च्य: (पूजनीय और अर्चनीय) ।
रामस् + दृष्ट:= रामो दृष्ट: (राम देखे गये हैं) ।
अबलास् + अत्र = अबला अत्र (यहाँ अबलाएँ हैं) ।
सुप्तास् + दृष्टा:= सुप्ता दृष्टा: (सोयी देखी गयीं) ।
इमास् + अत:= इमायत: (ये स्त्रियाँ हैं, अत:) ॥३३॥
विष्णुर्नम्यो रविरयं गी फलं प्रातरच्युत: ।
भक्तैर्वन्द्योऽप्यन्तरात्मा भो भो एष हरिस्तथा ।
एष शार्ङ्गी सैष राम: संहितैवं प्रकीर्तिता ॥३४॥
विष्णु:+ नम्य:= विष्णुर्नम्य: (श्रीविष्णु प्रणामके योग्य हैं) ।
रवि:+ अयम् = रविरयम् (ये सूर्य हैं) ।
गी:+ फलम् = गी फलम् (वाणीका फल) ।
प्रातर + अच्युत:= प्रातरच्युत: (प्रात: का श्रीहरि) ।
भक्तैस् + वन्द्य:= भक्तैर्वन्द्य: (भक्तजनोंके द्वारा वन्दनीय हैं) ।
अन्तर + आत्मा = अन्तरात्मा (जीवात्मा या अन्तर्यामी परमात्मा) ।
भोस् + भो:= भो भो; (हे हे)—ये सब उदाहरण पूर्वोक्त नियमोंसे ही बन जाते हैं ।
एषस् + हरि:= एष हरि: (ये श्रीहरि हैं) ।
एषस् + शार्ङ्गी = एष गार्ङ्गी (ये शार्ङ्गधारी हरि हैं)
सस् + एषस् + राम:= सैष राम: (वही ये श्रीराम हैं) । इस प्रकार संहिता (सन्धि)—का प्रकरण बताया गया है ॥३४॥
(अब सुबन्तका प्रकरण आरम्भ करते हुए पहले स्वरान्त शब्दोंका शुद्ध रूप देते हैं। उसमें भी एक श्लोकद्वारा मङ्गलाचरणके लिये श्रीरामका स्मरण करते हुए ‘राम’ शब्दके प्राय: सभी विभक्तियोंके एक—एक रूपका उल्लेख करते हैं—)
रामेंणाभिहितं करोमि सततं रामं भजे सादरं
रामेंणापह्रतं समस्तदुरितं रामाय तुभ्यं नम: ।
रामान्मुक्तिभीप्सिता मम सदा रामस्य दासोऽस्म्यहं
रामें रज्यतु में मन: सुविशदं हे राम तुभ्यं नम: ॥३५॥
मैं श्रीरामके द्वारा दिये हुए आदेशका सदा पालन करता हूँ ।
श्रीरामका आदरपूर्वक भजन करता हूँ।
रामने (मेंरा) सारा पाप हर लिया ।
भगवान् श्रीराम ! तुम्हें नमस्कार है।
मुझे श्रीरामसे मोक्षकी प्राप्ति अभीष्ट है ।
मैं सदाके लिये श्रीरामका दास हूँ ।
मेंरा निर्मल मन श्रीराममें अनुरक्त हो ।
हे श्रीराम ! तुम्हें नमस्कार है ॥३५॥
सर्व इत्यादिका गोपा: सखा चैव पतिर्हरि: ॥३६॥
सर्व आदि शब्द सर्वनाम माने जाते हैं ।
‘गोपा: ‘का अर्थ है गौओंका पालन करनेवाला ।
सखाका अर्थ है मित्र ।
यह ‘सखि’ शब्दका रूप है ।
पतिका अर्थ है स्वामी ।
हरि शब्दका अर्थ है भगवान् विष्णु ॥३६॥
सूश्रीर्भानु: स्वयम्भूश्च कर्ता रा गौस्तु नौरिति ।
अनडवान्गोधुग्लिट च द्वौ त्रयश्चत्वार एव च ॥३७॥
जो उत्तम श्रीसे सम्पन्न हो, उसे सुश्री कहते हैं ।
भानुका अर्थ है सूर्य और किरण ।
स्वयम्भूका अर्थ है स्वयं प्रकट होनेवाला । इसका प्रयोग प्राय: ब्रह्माजीके लिये होता है ।
काम करनेवालेको कर्ता कहते हैं । यह ‘कर्तृ’ शब्दका रूप है ।
‘रै’ शब्द धनका वाचक है ।
पुँल्लिङ्गमें ‘गो’ शब्दका अर्थ बैल होता है और स्त्रीलिङ्गमें गाय ।
‘नौ’ शब्द नौकाका वाचक है । यहाँतक स्वरान्त पुँल्लिङ्ग शब्दोंके रूप दिये गये हैं ।
अब हलन्त पुँल्लिङ्ग शब्दोंके रूप दिये जा रहे हैं ।
गाडी खींचनेवाले बैलको अनडवान कहते हैं । यह अनडुहशब्दका रूप है ।
गाय दुहनेवालेको गोधुक कहते हैं । मूल शब्द गोदुह है ।
लिह शब्दका अर्थ है चाटनेवाला ।
‘द्वि’ शब्द संख्या दोका, ‘त्रि’ शब्द तीनका और ‘चतुर’ शब्द चारका वाचक है । इनमेंसे पहला केवला द्विवचनमें और शेष दोनों केवल बहुवचनमें प्रयुक्त होते हैं ॥३७॥
राजा पन्थास्तथा दण्डी ब्रह्महा पञ्च चाष्ट च ।
अष्टौ अयं मुने सम्राट सुराडबिभ्रदवपुष्मत: ॥३८॥
राजा राजन्—शब्दका रूप है ।
पन्था: कहते हैं मार्गको । यह पथिन् शब्दका रूप है ।
जो दण्ड धारण करे, उसे दण्डी कहते हैं ।
ब्रह्महन् शब्द ब्राह्मणघातीके अर्थमें प्रयुक्त होता है ।
पञ्चन्—शब्द पाँचका और अष्टन् शब्द आठका वाचका है । ये दोनों बहुवचनान्त होते हैं ।
अयम्का अर्थ है यह: यह ‘इदम्’ शब्दका रूप है ।
‘सम्राट्’ कहते हैं बादशाह या चक्रवर्ती राजाको ।
सुराज् शब्दके रूप—सुराट सुराजौ सुराज: इत्यादि हैं । शेष रूप सम्राज शब्दकी भाँति जानने चाहिये । इसका अर्थ है—अच्छा राजा ।
बिभ्रत्का अर्थ है धारण—पोषण करनेवाला ।
वपुष्मत् (वपुष्मान्) का अर्थ है शरीरधारी ॥३८॥
प्रत्यङ पुमान महान् धीमान् विद्वान्षटपिपठीश्च दो: ।
उशनासाविमें प्रोक्ता: पुंस्यज्झल्विरामका: ॥३९॥
प्रत्यञ्च—शब्दका अर्थ है प्रतिकूल या पीछे जानेवाला ‘भीतरकी और’ भी अर्थ है ।
पुमान्का अर्थ है पुरुश, जो पुंस्—शब्दका रूप है ।
महान् कहते हैं श्रेष्ठको ।
धीमान्का अर्थ है बुद्धिमान् । (धीमत्—शब्दके रूप वपुष्मत् शब्दकी भाँति जानने चाहिये) ।
विद्वानका अर्थ है पण्डित ।
षष् शब्द छ: का वाचक और बहुवचनान्त है । (इसके रूप इस प्रकार हैं—षट् षड् २ । षड्भि: । षड्भ्य: २ । षण्णाम् । षट्सु षट्त्सु ।)
जो पढनेकी इच्छा करे, उसे ‘पिपठी:’ कहते हैं ।
दो: का अर्थ है भुजा ।
उशनाका अर्थ है शुक्राचार्य ।
अदस् शब्दका अर्थ है ‘य’ या ‘वह’ । ये अजन्त (स्वरान्त) और हलन्त पुँल्लिङ्ग शब्द कहे गये ॥३९॥
राधा सर्वा गतिर्गोपी स्त्री श्रीर्धेनुर्वधू: स्वसा।
गौर्नौरुपानदद्यौर्गोवत् ककुप्संवित्तु वा क्वचित् ॥४०॥
अब स्त्रीलिङ्ग शब्दोंका दिग्दर्शन कराते हैं ।
राधाका अर्थ है भगवान् श्रीकृष्णकी आह्लादिनी शक्ति, जो उनकी भी आराध्या होनेसे ‘राधा’ कहलाती हैं ।
सर्वाका अर्थ है सब (स्त्री) ।
‘गति:’ का अर्थ है—गमन, मोक्ष, प्राप्ति या ज्ञान ।
‘गोपी’ शब्द प्रेम—भक्तिकी आचार्यरूपा गोपियोंका वाचक है ।
स्त्रीका अर्थ है नारी ।
‘श्री’ शब्द लक्ष्मीका वाचक है ।
धेनुका अर्थ दूध देनेवाली गाय है ।
वधूका अर्थ है जाया अथवा पुत्रवधू ।
स्वसा कहते हैं बहिनको ।
गो—शब्दका रूप स्त्रीलिङ्गमें भी पुँल्लिङ्गके समान होता है ।
नौ—शब्दका रूप पहले दिया जा चुका है ।
उपाना शब्द जूतेका वाचक है ।
द्यौ स्वर्गका वाचक है ।
ककुभ शब्द दिशाका वाचक है ।
संविद्—शब्द बुद्धि एवं ज्ञानका वाचक है ॥४०॥
रुग्विडुद्भा: स्त्रियाँ तप: कुलं सोमपमक्षि च ।
ग्रामण्यम्बु खलप्वेवं कर्तृ चातिरि वातिन् ॥४१॥
रुक् नाम है रोगका।
विट—शब्द वैश्यका वाचक है ।
उद्भ: का अर्थ है उत्तम प्रकाश या प्रकाशित होनेवाली । ये शब्द स्त्री—लिड्गमें प्रयुक्त होते हैं ।
अब नपुंसकलिङ्ग शब्दोंका परिचय देते हैं ।
तपस्—शब्द तपस्याका वाचक है ।
कुल—शब्द वंश या समुदायका वाचक है ।
सोमप—शब्दका अर्थ है सोमपान करनेवाला ।
‘अक्षिका अर्थ है आँख ।
गाँवके नेताको ग्रामणी कहते हैं ।
अम्बु—शब्द जलका वाचक है ।
खलपू का अर्थ है खलिहान या भूमि साफ करनेवाला ।
कर्तृ—शब्द कर्ताका वाचक है ।
जो धनकी सीमाको लाँघ गया हो, उस कुलको अतिरि कहते हैं ।
जो पानी नावली शक्तिसे बाहर हो, जिसे नावसे भी पार करना असम्भव हो, उसे ‘अतिनु’ कहते हैं ॥४१॥
स्वनडुच्च विमलघु वाश्चत्वारीदमेंव च ।
एतद्ब्रह्माहश्च दण्डी असृक्किञ्चित्त्यदादि च ॥४२॥
जिस कुल या गृहमें गाडी खींचनेवाले अच्छे बैल हो, उसको ‘स्वनडुत्; कहते हैं ।
जिस दिना आकाश साफ हो, उस दिनको विमलद्यु कहते हैं ।
वार—शब्द जलका वाचक है ।
चतुर् शब्दका रुप नपुंसकलिङ्गमें केवल प्रथमा और द्वितीयामें ‘चत्वारि’ होता है, शेष पुँल्लिङ्गवत् ।
इदम्—शब्दके रूप नपुंसकमें इस प्रकार हैं—इदम् इमें इमानि, शेष पुँल्लिङ्गवत् ।
एतत्—शब्दके रूप पुँल्लिगमें—एष: एतौ एते इत्यादि सर्वशब्दके समान होते हैं ।
नपुंसकमें केवल प्रथम दो विभक्तियोंमें ये रूप हैं—एतत एते एतानि ।
ब्रह्मन्—शब्दके रूप नपुंसकमें ‘ब्रह्म ब्रह्मणी ब्रह्माणि’ हैं । शेष पुँल्लिङ्गुवत् ।
अहन्—शब्द दिनका वाचक है । दण्डिन्—शब्दके नपुंसकमें ‘दण्डि दण्डिनी दण्डीनि’ ये रूप हैं । शेष पुँल्लिङ्गवत् ।
असृक—शब्द रक्तका वाचक है ।
किम्—शब्दके रूप पुँल्लिङ्गमें ‘क: को के’ इत्यादि सर्ववत् होते हैं ।
नपुंसकमें केवल प्रथम दो विभक्तिमें ‘किम् के कानि’—ये रूप होते हैं ।
चित्—शब्दके रूप ‘चित्त् चिती चिन्ति, चिता चिद्भ्याम् चिद्भि:’ इत्यादिह होते हैं ।
त्यद आदि शब्दोंके रूप पुँल्लिङ्गमें ‘स्य: त्यौ ते’ इत्यादि सर्ववत् होते हैं।
नपुंसकमें ‘त्यत् त्ये त्यानि’—ये रूप होते हैं ॥४२॥
एतद्बेभिद्नवाग् गवाङ्गोअग् गोडगोग् गोङ ।
तिर्यग्यकृच्छकृच्चैव ददद्भवत्पचत्तुदत् ॥४३॥
(इदम् और) एतत्—शब्दके रूप अन्वादेशमें द्वितीया, टा और ओस् विभक्तियोंमें कुछ भिन्न होते हैं । पुँल्लिङ्गमें ‘एनम् एनौ एनान्, एनेन एनयो: ।’ नपुंसक्में ‘एनत् एने एनानि’ ये रूप हैं । अन्वादेश न होनेपर पूर्वोक्त रूप होते हैं ।
बेभित्—शब्दके रूप इस प्रकार हैं—’बेभित् बेभिद् बेभिदी बेभिदि (यहाँ नुम् नहीं होता) । बेभिदा बेभिद्भयाम् बेभिद्भि:’ इत्यादि ।
गवाक्—शब्दके रूप गति और पूजा—अर्थके भेदसे अनेक होते हैं । गति—पक्षमें गवाक्का अर्थ है गायके पास जानेवाला और पूजा—पक्षमें उसका अर्थ है गो—पूजक । प्रथमा और द्वितीया विभक्तियोंमें उसके उभयपक्षीय रूप इस प्रकार हैं—एकवचनमें ये नौ रूप होते हैं—गवाक् गवाग् गोअक् गोअग् गोक् गवाङ् गोअङ् गोङ द्विवचनमें चार रूप होते हैं—गोची गवाञ्ची गोअञ्ची गोञ्ची । बहुवचनमें तीन रूप हैं—गवाञ्चि गोअञ्चि और गोञ्चि । प्रथमा और द्वितीया विभक्तियोंमें ये ही रूप होते हैं ‘। तृतीयासे लेकर सप्तमीके एकवचनमें सर्वत्र चार—चार रूप होते हैं—’गोचा गवाञ्चा गोअञ्चा गोञ्चा’ इत्यादि । भ्याम्, भिस् और भ्यस्में छ:—छ: रूप होते हैं—गवाग्भ्याम् गोअग्भ्याम् गोग्भ्याम् गवाङभ्याम् गोअङ्भ्याम् गोङ्भ्याम् इत्यादि । सप्तपीके बहुवचनमें भी नौ रूप होते हैं—गवाङ्क्षु गोअङ्क्षु गोङ्क्षुगवाडक्षु गोअङ्षु गोङ्षु गवाक्षु गोअक्षु गोक्षु । इस प्रकार कुल एक सौ नौ रूप होते हैं ।
तिर्यक—शब्द पशु—पक्षियोंका वाचक है ।
यकृत—शब्द कलेजा तथा उससे सम्बन्ध रखनेवाली बीमारीका बोधक है ।
शकृत—शब्द विष्ठाका वाचक है ।
ददत्—शब्दका रूप पुँल्लिङ्गमें बिभ्रत शब्दकी तरह होता है । नपुंसकमें ‘ददत, ददती, ददन्ति ददति’ ये रूप होत हैं । शेष पुँल्लिङ्गवत् ।
भवत् शब्दका अर्थ है, पूज्य । शतृ प्रत्ययान्त ‘भवत्’ शब्द्के रूप पुँल्लिङ्गमें ‘भवन् भवन्तौ भवन्त:’ इत्यादि होते हैं । शेष पूर्ववत् । स्त्रीलिङ्गमें’ भवन्ती भवन्त्यौ भवन्त्य:’ इत्यादि गोपीके समान रूप हैं । नपुंसकमें पूर्ववत् हैं ।
पचत्—शब्दका रूप सभी लिङ्गोंमें शतृ—प्रत्ययान्त ‘भवत्’ शब्दके समान होता है ।
तुदत्—शब्द पुँल्लिङ्गमें पचत्शब्दके ही समान है । स्त्रीलिङ्गमें डीप प्रत्यय होनेपर उसके दो रूप होते हैं—तुदती और तुदन्ती, फिर इन दोनोंके रूप गोपी—शब्दकी भाँति चलते हैं । नपुंसकमें प्रथम दो विभक्तियोंके रूप इस प्रकार हैं—तुदत् तुदती तुदन्ती तुदन्ति । शेष पुँल्लिङ्गवत ॥४३॥
दीव्यद्धनुश्च पिपठी; पयोऽद: सुपुमांसि च ।
गुणद्रव्यक्रियायोगांस्त्रिलिङ्गांश्च कति ब्रुवे ॥४४॥
दीव्यत्—शब्दके रूप सभी लिङ्गोंमें पचत्के समान हैं ।
धनुष्—शब्दके रूप इस प्रकार हैं—धनु: धनुषी धनूंषि । धनुषा धनुर्भ्याम् इत्यादि ।
पिपठिष—शब्दके रूप नपुंसकमें इस प्रकार हैं—’पिपठी: पिपठिषी पिपठींषि’ शेष पुँल्लिङ्गवत् ।
पयस्—शब्दके रूप तपस्—शब्दके समान होते हैं । यह दूध और जलका वाचक है ।’
अदस्—शब्दके पुँल्लिङ्ग रूप बताये जा चुके हैं ।
जिस कुलमें अच्छे पुरुष होते हैं, उसे सुपुम् कहते हैं ।
अब हम कुछ ऐसे शब्दोंका वर्णन करते हैं, जो गुण, द्रव्य और क्रियाके सम्बन्धसे तीनों लिङ्गोंमें प्रयुक्त होते हैं ॥४४॥
शुक्त: कीलालपाश्चैव शुचिश्च गामणी: सुधी ।
पटु: स्वयम्भू: कर्ता च माता चैव पिता च ना ॥४५॥
सत्यानायुरपुंसश्च मतभ्रमरदीर्घपात् ।
धनाढयसोम्यौ चागर्हस्तादृक् स्वर्णमथो बहु ॥४६॥
शुक्त, कीलालपा, शुचि, ग्रामणी, सुधी, पटु, स्वयम्भू तथा कर्ता ।
मातृ—शब्द यदि परिच्छेतृवाचक हो तो तीनों लिङ्गोंमें प्रयुक्त होता है । इसके पुँल्लिङ्गरूप—माता, मातारौ, मातार:’ इत्यादि; नपुंसकरूप—मातृ, मातृणी, मातृणि’ इत्यादि और स्त्रीलिङ्गरूप—’मात्री, मात्र्यौ मात्र्य:’ हैं । जननीवाची मातृ—शब्द नित्य—स्त्रीलिङ्ग है । इसके रूप इस प्रकार हैं—’माता मातरौ मातर: । मातरम् मातरौ मातृ:’ इत्यादि । इसके शेष रूप स्वसृ—शब्दके समान हैं ।
पितृ—शब्द यदि कुलका विशेषण हो तो नपुंसकमें प्रयुक्त हो सकता है । अन्यथा वहनित्य पुँल्लिङ्ग है । इसके रूप ‘पिता पितरौ पितर: । पितरम् पितरौ पितृन’ इत्यादि हैं । शेष कर्तृशब्दके समान समझने चाहिये ।
नृ—शब्द नित्य पुँल्लिङ्ग है और उसके सभी रूप पितृ—शब्दके समान हैं । केवल षष्ठीके बहुवचनमें इसके दो रूप होते हैं ‘नृणाम् नृणाम’ ।
सत्य, अनायुष, अपुंस, मत, भमर, दीर्घपात, धनाढय, सोम्य, अगर्ह, तादृक, स्वर्ण, बहु—ये शब्द भी तीनों लिङ्गोंमें प्रयुक्त होते हैं ॥४६॥
सर्वं विश्वोभये चोभौ अन्यान्यतरेतराणि च ॥४७॥
डतरो डतमो नेमस्त्वत्समौ त्वसिमावपि ।
पूर्व: परावरौ चैव दक्षिणश्चोत्तराधरौ ॥४८॥
अपर: स्वोऽन्तरस्त्यत्तद्यदेवेतत्किमसावयम् ।
युष्मदस्मच्च प्रथमश्चरमोऽल्पस्तयार्धक: ॥४९॥
नेम: कतिपयो द्वे निपाता: स्वरादयस्तथा ।
उपसर्गविभक्तिस्वरप्रतिरूपाश्चाव्यया: ॥५०॥
अब सर्वनामशब्दोंको सूचित करते हैं—सर्व, विश्व, उभय, उभ, अन्य, अन्यतर, इतर, डतर, डतम, नेम, त्व, त्वत्, सम, सिम, पूर्व, पर, अवर, दक्षिण, उत्तर, अधर, अपर, स्व, अन्तर, त्यत्, तद, यद, एतद, इदम्, अदस, किम्, एक, द्वि, युष्मद, अस्मद, भवत् । ये सर्वनाम हैं और इनके रूप प्राय: सर्व—शब्दके समान ही हैं ।
प्रथम, चरम, तय, अल्प, अर्ध, कतिपय और नेम—इन शब्दोंके प्रथमाके बहुवचनमें दो रूप होते हैं यथा—प्रथमें प्रथमा:, चरमें चरमा: इत्यादि ।
स्वरादि और निपात तथा उपसर्ग, विभक्ति एवं स्वरके प्रतिरूपक शब्द अव्ययसंज्ञक होते हैं ॥४७—५०॥
तद्धिताश्चाप्यपत्यार्थे पाण्डवा: श्रैधरस्तथा ।
गार्ग्यो नाडायनात्रेयौ गाङ्गेय: पैतृष्वस्त्रीय: ॥५१॥
अब तद्धित—प्रत्ययान्त शब्दोंका उल्लेख करते हैं । निम्नांकिती शब्द अपत्यवाचक संज्ञाके रूपमें प्रयुक्त होते हैं । पाण्डव, श्रेधर, गार्ग्य, नाडायन, आत्रेय, गाङ्गेय, पैतृष्वस्त्रीय ॥५१॥
देवतार्थे चेदमर्थे ह्यैन्द्रं ब्राह्मो हविर्बलि: ।
क्रियायुजो: कर्मकर्त्रोर्धौरेय: कोङ्कुमं तथा ॥५२॥
निम्नांकित शब्द देवतार्थक और इदमर्थक प्रत्ययसे युक्त हैं । यथा—ऐन्द्रं हवि:, ब्राह्मो बलि: । क्रियामें संयुक्त कर्म और कर्तासे ततद्धित प्रत्यय होते हैं—धुरें वहति इति धेरेय: । जो धुर अर्थात् भारको वहन करे, वह धौरेय है । यहाँ धुर शब्द कर्म है और वहन—क्रियामें संयुक्त भी है, अत: उससे ‘एय’ यह तद्धित प्रत्यय हुआ । आदि स्वरकी वृद्धि हुई और ‘ धौरेय ’ शब्द सिद्ध हुआ । इसी प्रकार कुङ्कुमेंन रक्तं वस्त्रम्—इसमें कुङ्कुम शब्द ‘रँगना’ क्रियाका कर्ता है और वह उसमें संयुक्त भी है । अत: उससे तद्धित अण प्रत्यय होकर आदिपदकी वृद्धि हुई और ‘कोङ्कुम’ शब्द सिद्ध हुआ ॥५२॥
भवाद्यर्थे तु कानीन: क्षत्रियो वैदिक: स्वक: ।
स्वार्थे चौरस्तु तुल्यार्थे चन्द्रवन्मुखमीक्षते ॥५३॥
अब ‘भव’ आदि अर्थोंमें होनेवाले तद्धित प्रत्ययोंका उदाहरण देते हैं—कन्यायाँ भव: कानीन: । जो अविवाहिता कन्यासे उत्पन्न हुआ हो, उसे ‘कानीन कहते हैं । क्षत्रस्यापत्यं जाति: क्षत्रिय: । क्षत्रकुलसे उत्पन्न उसी जातिका बालक ‘क्षत्रिय’ कहलाता है । वेदे भव: वैदिक: । इक—प्रत्यय और आदि स्वरकी वृद्धि हुई है। स्व एव स्वक: । यहाँ स्वार्थमें ‘क’ प्रत्यय है । चोर एव चौर:, स्वार्थमें अण् प्रत्यय हुआ है । तुल्य—अर्थमें वत् प्रत्यय होता है । यथा—चन्द्रवन्मखमीक्षते—चन्द्रमाके समान मुख देखाता है । चन्द्र + वत् = चन्द्रवत् ॥५३॥
ब्राह्मणत्वं ब्राह्मणता भावे ब्राह्मण्यमेंव च ।
गोमानधनी च धनवानस्त्यर्थे प्रमितौ कियान् ॥५४॥
भाव—अर्थमें त्व, ता और य प्रत्यय होते हैं यथा—ब्राह्मणस्य भाव: ब्राह्मणत्वम्, ब्राह्मणता, ब्राह्मण्यम् । अस्त्यर्थमें मतुप् और इन प्रत्यय होते हैं—गौ: अस्यास्ति इति गोमान् । धनमस्यास्ति इति धनी (जिसके पास गौ हौ, वह ‘गोमान्’ जि्सके पास धन हो, वह ‘धनी’ है) । अकारान्त, मकारान्त तथा मकारोपध शब्दसे एवं झयन्त शब्दसे परे मत्के ‘म’ का’ ‘व’ हो जाता है—यथा धनमस्यास्ति इति धनवान् । परिमाण—अर्थमें ‘इदम्’, ‘किम्’, ‘यत्’, ‘तत्’, ‘एतत्’—इन शब्दोंसे वतुप् प्रत्यय होता है, किंतु ‘इदम्’ और ‘किम्’ शब्दोंसे परे वतुपके वकारका ‘इय’ आदेश हो जाता है । दृक, दृश, वतु—ये परे हो तो इदम्के स्थानमें ‘ई’ तथा ‘किम्’ के स्थानमें ‘कि’ हो जाते हैं । किं परिमाणं यस्य स कियान्—यहाँ परिमाण—अर्थमें वतुप्—प्रत्यय, इयादेश तथा ‘कि’—भाव करनेसे कियान् बनता है । इसका अर्थ है—’ कितना’ ॥५४॥
जातार्थे तुंदिल: श्रद्धालुरौन्नत्ये तु दन्तुर: ।
स्त्रग्वी तपस्वी मेंधावी मायाव्यस्त्यर्थ एव च ॥५५॥
अब जातार्थमें होनेवाले प्रत्ययोंका उदाहरण देते हैं । तुन्द: संजात: अस्य तुन्दिल; । जिसको तोंद हो जाय, उसे ‘तुन्दिल’ कहते हैं । तुन्द + इल = तुन्दिल । श्रद्धा संजाता अस्य इति श्रद्धालु: । श्रद्धा + आलु । इसी प्रकार दयालु कृपालु आदि बनते हैं ।) दाँतोंकी ऊँचाई व्यक्त करनेके लिये दन्त शब्दसे उर—प्रत्यय होता है । उन्नता: दन्ता अस्य इति दन्तुर: (ऊँचे दाँतवाला) । अस . माया, मेंधा तथा स्त्रज्—इन शब्दोंसे अस्यर्थमें विन् प्रत्यय होता है । इनके उदाहरण क्रमसे तपस्वी, मायावी, मेंधावी (बुद्धिमान्) और स्त्रग्वी हैं । स्रग्वीका अर्थ माला धारण करनेवाला है ॥५५॥
वाचालश्वैव वाचाटो बहुकुत्सितभाषिणि ।
ईषदपरिसमाप्तौ कल्पब्देशीय एव च ॥५६॥
खराब बातें अधिक बोलनेवालेके अर्थमें वाच् शब्दसे ‘आल’ और ‘आट’ प्रत्यय होते हैं । कुत्सितं बहु भाषते इति वाचाल:, वाचाट: । ईषत् (अल्प) और असमाप्तिके अर्थमें कल्पप, देश्य और देशीय प्रत्यय होते हैं ॥५६॥
कविकल्प: कविदेश्य: प्रकारवचने तथा ।
पटुजातीय: कुत्सायाँ वैद्यपाश: प्रशंसने ॥५७॥
वैद्यरूपो भूतपूर्वे मतो दृष्टचरो मुने ।
प्राचुर्यादिष्वन्नमयो मृन्मय: स्त्रीमयस्तथा ॥५८॥
जैसे—ईषत्, ऊन: कवि: कविकल्प:, कविदेश्य:, कविदेशीय: । जहाँ प्रकार बतलाना हो, वहाँ किम् और सर्वनाम आदि शब्दोंसे ‘था’ प्रत्यय होता है । तेन प्रकारेण तथा । तत् + था = तथा । त्यदादि शब्दोंका अन्तिम हल् . निवृत्त होकर वे अकारान्त हो जाते हैं, विभक्ति परे रहनेपर । (था, दा, त्र, तस् आदि प्रत्यय विभक्तिरूप माने गये हैं) । इस नियमके अनुसार ततके स्थानमें त हो जानेसे ‘तथा’ बना । जहाँ किसी विशेष प्रकारके व्यक्तिका प्रतिपादन हो, वहाँ जातीय प्रत्यय होता है । यथा—पटुप्रकार:—पटुजातीय: । पटु—शब्दसे जातीय प्रत्यय हुआ । किसीकी हीनता प्रकाशित करनेके लिये संज्ञाशब्दसे पाश प्रत्यय होता है । जैसे—कुत्सितो वैद्य: वैद्यपाश: (खराब वैद्या) । प्रशंसा—अर्थमें रूप प्रत्यय होता है । यथा—प्रशस्तो वैद्य: वैद्यरूप: (उत्तम वैद्य) । मुनिवर नारदजी ! भूतपूर्व अर्थको व्यक्त करनेके लिये चर प्रत्यय होता है । यथा—पूर्वं दृष्टो दृष्टचर: (पहलेका देखा हुआ) ।
प्राचुर्य (अधिकता) और विकारार्थ आदि व्यक्त करनेके लिये मय प्रत्यय होता है । जैसे—सन्नमयो यज्ञ: । जिसमें अधिक अन्न व्यय किया जाय, वह अन्नमय यज्ञ है । यहाँ अन्न—शब्दसे मयट प्रत्यय हुआ । इसी प्रकार मृन्मय: अश्व: (मिट्टीका घोडा) तथा स्त्रीमय: पुरुष: इत्यादि उदाहरण समझने चाहिये ॥५७—५८॥
जातार्थे लज्जितोऽत्यर्थे श्रेयाञ्छेष्ठश्च नारद ।
कृष्णतर: शुक्लतम: किम् आख्यानतोऽव्ययात् ॥५९॥
किन्तरां चैवातितरामपि ह्युच्चैस्तरामपि ।
परिमाणे जानुदघ्नं जानुद्वयसमित्यपि ॥६०॥
जात—अर्थमें तारकादि शब्दोंसे इत प्रत्यय होता है। यथा—लज्जा संजाता अस्य इति लज्जित: (जिसके मनमें लज्जा पैदा हो, गयी हो, उसे लज्जित कहते हैं) । नारदजी ! यदि बहुतोंमेंंसे किसी एककी अधिक विशेषता बतानी हो तो तम और इष्ठ प्रत्यय होते हैं और दोमेंसे एककी विशेषता बतलानी हो तो तर और ईयसु प्रत्यय होते हैं । ईयसुमें उकार इत्संज्ञक है । अयम् एषां अतिशयेन प्रशस्य: श्रेष्ठ: (यह इन सबमें अधिक प्रशंसनीय है, अत: श्रेष्ठ है) । द्वयो: प्रशस्य श्रेयान् (दोमेंसे जो एक अधिक प्रशंसनीय है, वह श्रेयान् कहलाता है । यहाँ भी प्रशस्य + ईयस = श्रेयस् (पूर्ववत् श्र आदेश हुआ) । इसके रूप इस प्रकार हैं—श्रेयसा श्रेयाँसौ श्रेयाँस: । श्रेयाँसम् श्रेयाँसौ श्रेयस: । श्रेयसा श्रेयोभ्याम् श्रेयोभि: इत्यादि । इसी प्रकार जो दोमेंसे एक अधिक कृष्ण है, उसे कृष्णतर और जो बहुतोंमेंसे एक अधिक शुक्ल है, उसे शुक्लतम कहते हैं। कृष्ण + तर = कृष्णतर । शुक्ल + तम = शुक्लतम । किम्, क्रियावाचक शब्द (तिडन्त) और अव्ययसे परे जो तम और तर प्रत्यय हैं, उनके अन्तमें आम् लग जाता है। उदाहरणके लिये किंतराम्, अतितराम् तथा उच्चैस्तराम् इत्यादि प्रयोग हैं । प्रमाण (जल आदिके माप) व्यक्त करनेके लिये द्वयस, दघ्र और मात्र प्रत्यय होते हैं । जानु प्रमाणम् अस्य इति जानुदघ्नं जलम् (जो घुटनेतक आता हो, उस जलको जानुदघ्न कहते हैं) जानु + दघ्न = जानुदघ्न । इसी प्रकार जानुद्वयसम् और जानुमात्रम्—ये प्रयोग भी होते है ॥ ५९—६०॥
जानुमात्रं च निद्धरि बहूनां च द्वयो: क्रमात् ।
कतम: कतर: संख्येयविशेषावधारणे ॥६१॥
द्वितीयश्च तृतीयश्च चतुर्थ: षष्ठपञ्चमौ ।
एकादश: कतिपयथ: कतिथ: कति नारद ॥६२॥
दोमेंसे एकका और बहुतोंमेंसे एकका निश्चय करनेके लिये ‘किम्’ ‘यत्’ और ‘तत्’ शब्दोंसे क्रमश: डतर और डतम प्रत्यय होते हैं। यथा—भवतो: करत: श्याम: (आप दोनोंमें कोन श्याम है ?) भवतां कतम: श्रीराम: ? (आपलोगोंमें कोन श्रीराम हैं ?) संख्या (गणना) करनेयोग्य वस्तुविशेषका निश्चय करनेके लिये द्वि—शब्दसे द्वितीय, त्रि—शब्दसे तृतीय, चतुर—शब्दसे चतुर्थ और षष—शब्दसे षष्ठ रूप बनते हैं । इनका अर्थ क्रमश: इस प्रकार है—दूसरा, तीसरा, चौथा और छठा । पञ्चन, सप्तन, अष्टन, नवन् और दशन्—इन शब्दोंके ‘न’ कारको मिटाकर ‘म’ कार बढ जाता है, जिससे पञ्चम, सप्तम, अष्टम, नवम, दशम रूप बनते हैं । एकादशन्से अष्टादशन्तक उत अर्थमें ‘न’ कारका लोप होकर सभी शब्द अकारान्त हो जाते है, जिनके ‘राम’ शब्दके समान रूप होते हैं । यथा एकादश: द्वादश: इत्यादि । नारदजी ! कति और कतिपय शब्दोंसे थ—प्रत्यय होता है, जिससे कतिथ: और कतिपयथ: पद बनते हैं ॥६१—६२॥
विंशश्च विंशतितमस्तथा शततमादय: ।
द्वेधा द्वैधा द्विधा संख्या प्रकारेऽथ मुनीश्वर ॥६३॥
बीसवेंके अर्थमें विंश: और विंशतितम:—ये दो रूप होते हैं । शत आदि संख्यावाचक शब्दोंसे (तथा मास, अर्धमास एवं संवत्सर शब्दोंसे) नित्य ‘तम’ प्रत्यय होता है । यथा—शततम: (एकशततम:, मासतम:, अर्धमासतम: संवत्सरतम:) । मुनीश्वर ! क्रियाके प्रकारका बोध करानेके लिये संख्यावाचक शब्दसे स्वार्थमें ‘धा’ प्रत्यय होता है—जैसे (एकधा) द्विधा, त्रिधा इत्यादि ॥६३॥
क्रियावृत्तौ पञ्चकृत्वो द्विस्त्रिर्बहुश इत्यपि ।
द्वितयं त्रितयं चापि संख्यायाँ हि द्वयं त्रयम् ॥६४॥
क्रियाकी आवृत्तिका बोध करानेके लिये कृत्वस् प्रत्यय होता है और ‘स्’ कारका विसर्ग हो जाता है । यथा—पञ्चकृत्व; (पाँच बार), द्वि:, त्रि: (दो बार, तीन बार) । बहु—शब्दसे ‘धा, शस् एवं कृत्वस्’ तीनों ही प्रत्यय होते हैं—यथा बहुधा, बहुश;, बहुकृत्व: । संख्याके अवयवका बोध करानेके लिये ‘तय’ प्रत्यय होता है । उददाहरणके लिये द्वितय, त्रितय, चतुष्टय और पञ्चतय आदि शब्द हैं । द्वि और त्रि शब्दोंसे आगे जो ‘तय’ प्रत्यय है, उसके स्थानमें विकल्पसे अय हो जाता है; फिर द्वि और त्रि शब्दके इकारका लोप होनेसे द्वय, त्रय शब्द बनते हैं ॥६४॥
कुटीरश्च शमीरश्च शुण्डारोऽल्पार्थके मत: ।
स्त्रैण: पौंस्नस्तुण्डिभश्च वृन्दारककृषीवलौ ॥६५॥
कुटी, शमी और शुण्डा शब्दसे छोटेपनका बोध करानेके लिये ‘र’ प्रत्यय होता है। छोटी कुटीको कुटीर हैं। कुटी + र = कुटीर: । इसी प्रकार छोटी शमीको शमीर और छोटी शुण्डाको शुण्डार कहते हैं । शुण्डा—शब्द हाथीकी सूँ ड और मद्यशाला (शराबखाने)—का बोधक है । स्त्री और पुंस शब्दोंसे नञ् प्रत्यय होता है। आदि स्वरकी वृद्धि होती है । ञकर इत्संज्ञक है। नके स्थानमें ण होता है । इस प्रकार स्त्रैण शब्द बनता है । जिस पुरुषमें स्त्रीका स्वभाव हो तथा जो स्त्रीमें अधिक आसक्त हो, उसे स्त्रैण कहते हैं । पुंस + न, आदिवृद्धि = पौंस्न (पुरुषसम्बन्धी) । तुण्डि आदि शब्दोंसे अस्त्यर्थमें ‘भ’ प्रत्यय होता है । तुण्डि + भ = तुण्डिभ: (बढी हुई नाभिवाला) । श्रृङ्ग और वृन्द शब्दोंसे अस्त्यर्थमें ‘आरक’ प्रत्यय होता है। श्रृङ्ग + आरक = श्रृङ्गरक: (पर्वत) । वृन्द आरक = वृन्दारक: (देवता) । रजस् और कृषि आदि शब्दोंसे ‘बल’ प्रत्यय होता है, रजस्वला स्त्री, कृषीवल: (किसान) ॥६५॥
मलिनो विकटो गोमी भौरिकिबिधमुत्कटम् ।
अवटीटोऽवनाटश्च निविडं चेक्षुशाकिनम् ॥६६॥
निविरीसमैषुकारिभक्तं विद्याचणस्तथा ।
विद्याचञ्चुर्बहुतिथं पर्वत: श्रृङ्गिणस्तथा ॥६७॥
स्वामी विषमं रूप्यं चोपत्यकाधित्यका तथा ।
चिल्लश्च चिपिटं चिक्कं वातूलं कुतुपस्तथा ॥६८॥
बलूलश्च हिमेंलुश्च कहिकश्चोपडस्तत: ।
ऊर्णायुश्च मरुत्तश्चैकाकी चर्मण्वती तथा ॥६९॥
ज्योत्स्त्रा तमिस्त्राऽष्टीवच्च कक्षीवद्रुमण्वती ।
आसन्दीवच्च चक्रीवत्तूष्णीकां जल्पतक्यपि ॥७०॥
कतम: कतर: संख्येयविशेषावधारणे ॥६१॥
द्वितीयश्च तृतीयश्च चतुर्थ: षष्ठपञ्चमौ ।
एकादश: कतिपयथ: कतिथ: कति नारद ॥६२॥
विंशश्च विंशतितमस्तथा शततमादय: ।
द्वेधा द्वैधा द्विधा संख्या प्रकारेऽथ मुनीश्वर ॥६३॥
क्रियावृत्तौ पञ्चकृत्वो द्विस्त्रिर्बहुश इत्यपि ।
द्वितयं त्रितयं चापि संख्यायाँ हि द्वयं त्रयम् ॥६४॥
कुटीरश्च शमीरश्च शुण्डारोऽल्पार्थके मत: ।
स्त्रैण: पौंस्नस्तुण्डिभश्च वृन्दारककृषीवलौ ॥६५॥
मलिनो विकटो गोमी भौरिकिबिधमुत्कटम् ।
ज्योत्स्त्रा तमिस्त्राऽष्टीवच्च कक्षीवद्रुमण्वती ।
आसन्दीवच्च चक्रीवत्तूष्णीकां जल्पतक्यपि ॥७०॥
मल—शब्दसे अस्त्यर्थमें इन प्रत्यय होता है । मलम् अस्यास्ति इति मलिन: (मलयुक्त) । मल + इन अकार—लोप = मलिन ।
सम्, प्र, उद् और वि—इनसे कट प्रत्यय होता है,—यथा संकट:, प्रकट:, उत्कट:, विकट: ।
गो—शब्दसे मिन्—प्रत्यय होता है । अस्त्यर्थमें—गो + मिन् = गोमी (जिसके पास गौएँ हो, वह पुरुष) ज्योत्स्त्रा (चाँदनी), तमिस्त्रा (अँधेरी रात), श्रृङ्गिण, (श्रृङ्गवाला), ऊर्जस्विन (ओजस्वी), ऊर्जस्वल, गोमिन, मलिन और मलीमस (मलिन)—ये शब्द मत्वर्थमें निपातन—सिद्ध हैं ।
‘भारिकिविधम्’ इसकी व्युत्पत्ति यों है—भौरिकीणां विषयो देश:—भौरिकिविधम् (भौरिकि नामवाले वर्ग—विशेषके लोगोंका देश) । ऐषुकारीणाम् विजानुमात्रं च निद्धरि बहूनां च द्वयो: क्रमात् । षयो देश:—ऐषुकारिभक्तम् (ऐषुकारि—बाण ननानेवाले लोगोंका देश) । इन दोनों उदाहरणोंमें क्रमश: ‘विध’ एवं ‘भक्त’ प्रत्यय हुए हैं । भौरिक्यादि तथा ऐषुकार्यादि शब्दोंसे ‘विध’ एवं ‘भक्त’ प्रत्यय होनेका नियम है ।
उत्कटम्—इसकी सिद्धिका नियम पहले बताया गया है,
नासिकाकी निचाई व्यक्त करनेके लिये ‘अव’ उपसर्गसे’ ‘टीट’, ‘नाट’ और ‘भ्रट’ प्रत्यय होते हैं । तथा नि उपसर्गसे ‘विड’ और ‘विरीस’ प्रत्यय होते हैं । इसके सिवा ‘नि’ से ‘इन’ और ‘पिट’ प्रत्यय भी होते हैं । ‘इन’—प्रत्यय परे होनेपर ‘नि’ के स्थानमें चिक् आदेश हो जाता है और ‘पिट’ प्रत्यय परे होनेपर ‘नि’ के स्थानमें ‘चि’ आदेश होता है । मूलोक्त उदाहरण इस प्रकार हैं—अवटीट:, अवनाट: (अवभअत:) = नीची नाकवाला पुरुष । निविडम् (नीची नाक), निविरीसम्, चिकिनम्, चिपिटम्, चिक्कम्—इन सबका अर्थ नीची नाक है ।
जिसके आँखसे पानी आता हो उसको ‘चिल्ल: और ‘पिल्ल’ कहते हैं । ल प्रत्यय है और क्लिन्न—शब्द प्रकृति है—जिसके स्थानमें चिल्ल और पिल्ल आदेश हुए हैं ।
पैदा करनेवाले खेतके अर्थमें पैदावार—वाचक शब्दसे शाकट और शाकिन प्रत्यय होते हैं । जैसे ‘इक्षुशाकटम्’ ‘इक्षुशाकिनम्’ । उसके द्वारा विख्यात है, इस अर्थमें चञ्चु और चण प्रत्यय होते हैं । जो विद्यासे विख्यात है, उसे ‘विद्याचण’ और ‘विद्याचञ्चु’ कहते हैं ।
बहु आदि शब्दोंसे ‘तिथ’ प्रत्यय होता है, पूरण अर्थमें । बहूनां पूरणम् इति = बहुतिथम् । श्रृङ्गिण शब्द पर्वतका वाचक है, इसे निपात—सिद्ध बताया जा चुका है ।
ऐश्वर्यवाचक स्व—शब्दसे आमिन् प्रत्यय होता है—स्व आमिन् = स्वामी (अधीश्वर या मालिक) ।
‘रूप’ शब्दसे आहत और प्रशंसा अर्थमें ‘य’ प्रत्यय होता है । यथा विषमम्, आहतं वा रूपमस्यास्तीति—रूप्य: कार्षापण: (खराब पैसा), रूप्यम् आभूषणम् (खराब आभूषण) इत्यादि ।
‘उप’ और ‘अधि’ से त्यक प्रत्यय होता है, क्रमश: समीप एवं ऊँचाईकी भूमिका बोधक होनेपर । पर्वतके पासकी भूमिको ‘उपत्यका’ (तराई) कहते हैं और पर्वतके ऊपरकी (ऊँची) भूमिको ‘अधित्यका’ कहते हैं ।
‘वात’ शब्दसे ‘ऊल’ प्रत्यय होता है, असहन एवं समूहके अर्थमें । वातं न सहते वातूल: । जो हवा न सह सके, वह ‘वातूल’ है । वात + ऊल, अलोप = वातूल: । वातके समूह (आँधी)—को भी ‘वातूल’ कहते हैं ।
‘कुतू’ शब्दसे ‘डुप’ प्रत्यय होता है, डकार इत्संज्ञक, टिलोप । ह्नस्वा कुतू: कुतुप: (चमडेका तैलपात्र—कुप्पी) । बलं न सहते (बल नहीं सहता)—इस अर्थमें बल—शब्दसे ‘ऊल’—प्रत्यय होता है । बल + ऊल = बलूल: । हिमं न सहते (हिमकी नहीं सहता) इस अर्थमें हिमसे एलु प्रत्यय होता है । हिम + एलु = हिमेंलु: । अनुकम्पा—अर्थमें मनुष्यके नामवाचक शब्दसे ‘इक’ एवं ‘अड’ आदि प्रत्यय होते हैं तथा स्वरादि प्रत्यय परे रहनेपर पूर्ववर्ती शब्दके द्वितीय स्वरसे आगेके सभी अक्षर लुप्त हो जाते हैं । यदि द्वितीय स्वर सन्धि—अक्षर लुप्त हो जाते हैं । यदि द्वितीय स्वर सन्धि—अक्षर हो तो उसका भी लोप हो जाता है । इन सब नियमोंके अनुसार ये दो उदहारण हैं—अनुकम्पित: कहोड: = कहिक: । अनुकम्पित: उपेन्द्रदत्त: = उपड: । ‘ऊर्णायु:’ का अर्थ है उनवाला जीव (भेड आदि) अथवा ऊनी कम्बल आदि । ‘ऊर्णा’ से युस् प्रत्यय होकर ‘ऊर्णायु:’ बना है ।
पर्व और मरुत् शब्दोंसे त प्रत्यय होता है । पर्व + त + पर्वत: (पहाड) । मरुत् + त = मरुत्त: (मरुआ नामक पौधा अथवा महाराज मरुत्त) ।
एक शब्दसे असहाय—अर्थमें आकिन्, कन् और उसका लुक्, ये तीनों कार्य बारी—बारीसे होते हैं । एक + आकिन् = एकाकी । एक + क = एकक: । कन्का लोप होनेपर एक: । इन सबका अर्थ—अकेला, असहाय है ।
चर्मण्वती एक नदीका नाम है । (इसमें चर्मन् शब्दसे मतुप्, मकारका वकारादेश, नलोपका अभाव और णत्व आदि कार्य निपातसिद्ध हैं । स्त्रीलिङ्गबोधक डीप् प्रत्यय हुआ है) । ‘ज्योत्स्नां और ‘तमिस्त्रा’ निपात—सिद्ध हैं, यह बात गोमीके प्रसङ्गमें कही गयी है । इसी प्रकार अष्ठीवत्, कक्षीवत्, रुमण्वत, आसन्दीवत तथा चक्रीवत्—ये शब्द भी निपात—सिद्ध हैं । यथा—आसन्दीवान् ग्राम:, अष्ठीवान् नाम ऋषि: चक्रीवान् नाम राजा, कक्षीवान् नाम ऋषि: रुमण्वान् नाम पर्वत: । तूष्णीं शब्दसे काम् प्रत्यय होता है, अकच्के प्रकरणमें । तूष्णीकाम् आस्ते (चुप बैठता है) । मित् कार्य अन्तिम स्वरके बाद होता है । तिङ्न्त, अव्यय और सर्वनामसे ‘टि’ के पहले अकच् होता है, चकार इत्संज्ञक है । इस नियमके अनुसार ‘जल्पति’ इस तिडन्त पदके इकारसे पहले अकच् होनेसे ‘जल्पतकि’ (बोलता है) रूप बनता है ॥६६—७०॥
कंव: कम्भश्च कंयुश्च कन्ति: कन्तुस्तथैव च।
कन्त: कंयश्च शंवश्च शम्भ: शंयुस्तथा पुन: ॥७१॥
कम् और शम्—ये मकारान्त अव्यय हैं । कम्का अर्थ जल और सुख है, शम्का अर्थ सुख है । इन दोनोंसे सात प्रत्यय होते हैं—व, भ, युस्, ति, तु, त और यस् । युस् और यस्का सकार इत्संज्ञक है । इन सबके उदाहरण क्रमश: इस प्रकार हैं—कंव:, कम्भ:, कंयु:, कन्ति:, कन्तु:, कन्त:, कंय: । शंव:, शंभ:, शंयु:, शन्ति:, शन्तु:, शान्त:, शंय: । अहम्—यह मकारान्त अव्यय अहंकारके अर्थमें प्रयुक्त होता है और शुभम्—यह मकारान्त अव्यय शुभ—अर्थमें है । इनसे ‘युस्’—प्रत्यय होता है, सकार इत्संज्ञक है। अहम् + यु = अहंयु: (अहंकारवान्), शुभम् + यु = शुभंयु: (शुभयुक्त पुरुष) ॥७१॥
शन्ति: शन्तु: शन्तशंयौ तथाहंयु: शुभंयुवत्।
भवति बभूवभविताभविष्यतिभवत्वभवद्भवेच्चापि ॥७२॥
भूयादभूदभविष्यल्लादावेतानि रूपाणि ।
अत्ति जघासात्तात्स्यत्यत्त्वाददद्याद्द्विरघसदात्स्यत् ॥७३॥
(अब तिडन्तप्रकरण प्रारम्भ करके कुछ धातुओंके रूपोंका दिग्दर्शन कराते हैं । वैयाकरणोंने दस प्रकारके धातु—समुदाय माने हैं, उन्हें ‘नवगणी या दसगणी’ के नामसे जाना जाता जाता है । उनके नाम हैं—भ्वादि, अदादि, जुहोत्यादि, दिवादि, स्वादि, तुदादि, रुधादि, तनादि, क्र्यादि तथा चुरादि । भ्वादिगणके सभी धातुओंके रूप प्राय: एक प्रकार एवं एक शैलीके होते हैं . दूसरे—दूसरे गणोंके धातु भी अपने—अपने ढंगमें एक ही तरहके होते हैं । यहाँ सभी गणोंके एक—एक धातुके नौ लकारोंमें एक—एक रूप दिया जाता है । शेष धातु और उनके रूपोंका ज्ञान विद्वान् गुरुसे प्राप्त करना चाहिये) ।
‘भू’ धातुके लट लकारमें ‘भवति भवत: भवन्ति ” इत्यादि रूप बनते हैं ।
लिट लकारमेंं ‘बभूव बभूवतु: बभूवु:’ इत्यादि,
लुटमें ‘भविता भवितारौ भवितार:’ इत्यादि,
लृटमें ‘भविष्यति भविष्यत: भविष्यन्ति’ इत्यादि,
लोटमें ‘भवतु भवतात् भवताद भवताम भवन्तु इत्यादि,
लडलकारमें ‘अभवत् भवेताम् भवेयु:’ इत्यादि, आशिष,
लिडमें भॄयात् ‘भूयास्ताम् भूयासु:’ इत्यादि
लुङमें ‘अभूत अभूताम् अभूवन्’ इत्यादि तथा
लृङ लकारमें ‘अभविष्यत् अभविष्यताम् अभविष्यन्’ इत्यादि—ये सब रूप होते हैं ।
‘भू’ धातुका अर्थ सत्ता है, ‘भवति’ का अर्थ ‘होता है’—ऐसा किया जाता है ।
अब अदादि गणके ‘अद’ धातुका पूर्ववत् प्रत्येक लकारमें एक—एक रूप दिया जाता है, ‘अद्’ धातु भक्षण अर्थमें प्रयुक्त होता है । अत्ति । जघास । अत्ता । अत्स्यति। अत्तु । आदत् । अद्यात् । अघसत् । आत्स्यत् ॥७२—७३॥
जुहोति जुहाव जुहवाञ्चकार होता होष्यति जुहोतु ।
अजुहोज्जुहुयाद्धूयादहौषीदहोष्यद्दीव्यति ।
दिदेवदेवितादेविष्यतिदीव्यतुचादीव्यद्दीव्येद्दीव्याद्वै ॥७४॥
अदेवीददेविष्यत्सुनोति सुषाव सोता सोष्यति वै ।
सुनोत्वसुनोत्सुनुयात्सूयादसावीदसोष्यत्तुदतिच ॥७५॥
तुतोद तोत्ता तोत्स्यति तुदत्वतुदतुदेत्तुद्याद्धि ।
अतौत्सीदतोत्स्यदिति च रुणद्धि रुरोध रोद्धा रोत्स्यतिवै ॥७६॥
रुणद्ध्वरुणद्रुन्ध्याद्रुध्यादरौत्सीदरोत्स्यच्च ।
तनोति ततान तनिता तनिष्यति तनोत्वतनोत्तनुयाद्धि ॥७७॥
तन्यादतनीच्चातानीदतनिष्यत् क्रीणाति चिक्राय क्रेता क्रेष्यति
क्रीणात्त्विति च अक्रीणात् क्रीणीयात् ।
क्रीयादक्रैषीदक्रेष्यच्चोरयतिचोरयामासचोरयिताचोरयिष्यतिचोरय
त्वचोरयच्चोरयेच्चोर्यादचूचुरदचोरयिष्यदित्येवं दशवैगणा:॥७८॥
जुहोत्यादि गणमें ‘हु’ धातु धातु प्रधान है । इसका प्रयोग अग्निमें आहुति डालनेके अर्थमें या देवताको तृप्त करनेके अर्थमें होता है । इसका प्रत्येक लकारमें रूप इस प्रकार है—जुहोति । जुहाव, जुहवाञ्चकार, जुहवम्नभूव, जुहवामास । होता । होष्यति । जुहोतु । अजुहोत् । जुहुयात् । हूयात् । अहौषीत् । अहोष्यत ।
दिवादि गणमें ‘दिव’ धातु प्रधान है । इसके अनेक अर्थ हैं—क्रीडा, विजयकी इच्छा, व्यवहारा, द्युति, स्तुति, मोद, मद, स्वप्न, कान्ति और गति । इसके रूप पूर्ववत् विभिन्न लकारोंमें इस प्रकार हैं—दीव्यति । दिदेव । देविता । देविष्यति । दीव्यतु । अदीव्यत् । दीव्येत् । दीव्यात् । अदेवीत् । अदेविष्यत् ।
स्वादिगणमें ‘सु’ धातु प्रधान है । यह मूलत: ‘षुञ’ धातुके नामसे प्रसिद्ध है । इसका अर्थ है अभिषव अर्थात् नहलाना, रस निचोडना, नहाना एवं सोमरस निकालना । रूप इस प्रकार हैं—सुनोति । सुषाव । सोता । सोष्यति । सुनोतु । असुनोत् । सुनुयात् । सूयात् । असावीत । असोष्यत् । ये परस्मैपदके रूप हैं;
आत्मनेपदमें सुनुते, ‘सुषुवे’ इत्यादि रूप होते हैं ।
तुदादिगणमें ‘तुद्’ धातु प्रधान है, जिसका अर्थ है पीडा देना । रूप इस प्रकार हैं—तुदति । तुतोद । तोत्ता । तोत्स्यति । तुदतु । अतुदत् । तुदेत । तुद्यात् । अतौत्सीत् । अतोत्स्यत् ।
रुधादिगणमें ‘रुध्’ धातु प्रधान है, जिसका अर्थ है—रूँधना, बाड लगाना, घेरा डालना या रोकना । रूप इस प्रकार हैं—रुणद्धि।रुरोध: रोद्धा । रोत्स्यति। रुणद्ध । अरुणत् । रुन्ध्यात् । रुद्धयात् । अरौत्सीत् । अरोत्स्यत ।
तनादिगणमें ‘तन्’ धातु प्रधान है । इसका अर्थ है विस्तार करना, फैलाना: रूप इस प्रकार हैं—तनोति । ततान । तनिता । तनिष्यति । तनोतु । अतनोत् । तनुयात् । तन्यात् । अतनीत्, अतानीत । अतनिष्यत् ।
क्र्यादिमें क्री—धातु प्रधान है—जिसका अर्थ है खरीदना, एक द्रव्य देकर दूसरा द्रव्य लेना । रूप इस प्रकार हैं—क्रीणाति । चिक्राय । क्रेता । क्रेष्यति । क्रीणातु । अक्रीणात् । क्रीणीयात् । क्रीयात् । अक्रैषीत् । अक्रेष्यत् ।
चुरादिगणमें ‘चुर्’ धातु प्रधान है . जिसका अर्थ है चुराना: रूप इस प्रकार है—चोरयति । चोरयामास, चोरयाञ्चकार, चोरयाम्बभूव । चोरयिता । चोरयिष्यति । चोरयत् । अचोरयत् । चोरयेत् । चोर्यात् । अचूचुरत् । अचोरयिष्यत् । इस प्रकार ये धातुओंके दस गुण माने गये हैं ॥७४—७८॥
प्रयोजके भावयति सनीच्छायाँ बुभूषति ।
क्रियासमभिहारे तु पण्डितो बोभूयते मुने ॥७९॥
प्रयोजकके व्यापारमें प्रत्येक धातुसे णिच् प्रत्यय होता है । ‘च’ कार और ‘ण’ कार इत्संज्ञक हैं । णिच् प्रत्यय परे रहनेपर स्वरान्त अङ्गकी वृद्धि होती है । भू से णिच् करनेपर भू + इ बना; फिर वृद्धि और आव् आदेश करनेपर भावि बना, उससे धातुसम्बन्धी अन्य कार्य करनेपर भावयति रूप बनता है । जो कर्ताको प्रेरणा दे, उसे प्रयोजक कहते हैं । जैसे—’चैत्र: पण्डितो भवति’ (चैत्र पण्डित होता है),’त मैत्र: अध्यापनादिना प्रेरयति’ (उसे मैत्र पढाने आदिके द्वारा पण्डित होनेमें प्रेरणा देता है) । इस वाक्यमें चैत्र प्रयोज्य कर्ता है और मैत्र प्रयोजक कर्ता है । इस प्रयोजकके व्यापारमें ही णिच् प्रत्यय होता है; इसलिये उसीके अनुसार प्रथम, मध्यम आदि पुरुषकी व्यवस्था एवं क्रिया होती है । प्रयोज्य कर्ता प्रयोजकके व्यापारमें कर्म बन जाता है, इसलिये उसमें द्वितीया विभक्ति होती है और प्रयोजक कर्तामें प्रथमा विभक्ति । यथा—’मत्र: चैत्रं पण्डितं भावयति’ (मैत्र चैत्रको पण्डित बनानेमें योग देता है) । इसी प्रकार अन्य धातुओंसे भी प्रेरणार्थक प्रत्यय होता है । यथा—’छात्र: पठति, गुरु: प्रेरयति इति गुरु: छात्रं पाठयति’ (छात्र पढता है, गुरु उसे प्रेरित करता है; इसलिये गुरु छात्रको पढाता है) ।
इच्छा—अर्थमें ‘सन्’ प्रत्यय होता है’भवितुम् इच्छति बुभूषति: (होनेकी इच्छा करता है) । इसी प्रकार पठ, गम्, आदि धातुओंसे भी इच्छा—अर्थमें पिपठिषति (पढनेकी इच्छा करता है), जिगमिषति (जाना चाहता है)—इत्यादि सन्नन्त रूप होते हैं ।
मुने ! क्रिया—समभिहारमें एक स्वरवाले हलादि धातुसे ‘यङ’ प्रत्यय होता है, इस नियमके अनुसार भू—धातुसे यङ्प्रत्यय होनेपर धातुका द्वित्व होता है; क्योंकि सन् और यङ परे रहनेपर धातुके द्वित्व होने (एकसे दो हो जाने)—का नियम है । फिर धातु—प्रत्ययसम्बन्धी अन्य कार्य करनेपर बोभूयते रूप बनता है। यथा—’देवदत्त ” पण्डितो बोभूयते’ (देवदत्त बडा भारी पण्डित हो रहा है) । ‘बार—बार’ या ‘अधिक’ अर्थका बोध कराना ही क्रियासमभिहार कहलाता है । इस तरहके प्रयोग्को यङन्त कहते हैं ।
पठ और गम् आदि धातुओंसे यङ—प्रत्यय करनेपर पापठयते, (बार—बार या बहुत पढता है) । जङ्गम्यते (बार—बार या बहुत जाता है) इत्यादि रूप होते हैं ॥७९॥
तथा यङ्लुकि विप्रेन्द्र बोभवीति च पठयेत ।
पुत्रीयतीत्यात्मनीच्छायाँ तथाचारेऽपि नारद ।
अनुदात्तङितो धातो: क्रियाविनिमये तथा ॥८०॥
यङ—प्रत्ययक लुक् (लोप होना) भी देखा जाता है । उस दशामें बोभवीति, बोभोति, पापठीति और जङ्गमीति इत्यादि रूप होते हैं । इन रूपोंको यङ्लुगन्त रूप कहते हैं । अर्थ यङन्तके ही समान होते हैं ।’आत्मन: पुत्रम् इच्छति ” (अपने लिये पुत्र चाहता है) । इस वाक्यसे पुत्रकी इच्छा व्यक्त होती है । ऐसे स्थलोंमें इच्छा—क्रियाके कर्मभूत शाब्दसे क्यच्—प्रत्यय होता है । ककार और चकारकी इत्संज्ञा होती है । उपर्युक्त उदाहरणमें पुत्र—शब्दसे क्यच्—प्रत्यय करनेपर पु + य इस अवस्थामें पुत्रमेंं ‘त्र’ के अकारका इ हो जाता है, फिर ‘पुत्रीय’ की धातुसंज्ञा करके तिडन्तके समान रूप चलते हैं । इस प्रकार ‘पुत्रीयति’ इत्यादि रूप होते हैं । ‘पुत्रीयति ‘का अर्थ है—अपने लिये पुत्र चाहता है । ऐसे प्रयोगको नामधातु कहते हैं ।
नारदजी ! कर्मभूत उपमानवाचक शब्दसे आचार—अर्थमें भी क्यच् होता है । यथा—’पुत्रमिवाचरति पुत्रीयति छात्रम्’ (गुरुजी छात्रके साथ पुत्रका—सा बर्ताव करते हैं) ।
अब आत्मनेपदका प्रकारण आरम्भ करते हैं । जिस धातुमें अनुदात्त स्वर और डकारकी इत्संज्ञा होती है . उससे आत्मनेपदके प्रत्यय होते हैं । यथा—एधते, वर्धते इत्यादि । ये अनुदात्तेत हैं। त्रैड पालने—यह डित धातुहै, इसके केवल आत्मनेपदमें ‘त्रायते’ इत्यादि रूप होते हैं । जहाँ क्रियाका विनिमय व्यक्त होता हो, वहाँ भी आत्मनेपद होता है । यथा—व्यतिलुनीते (दूसरेके योग्य लवनरूप कार्य दूसरा करता है) ॥८०॥
निविशादेस्तथा विप्र विजानीह्यात्मनेपदम्।
परस्मैपदमाख्यातं शेषात् कर्तरि शाब्दिकै: ॥८१॥
विप्रव ! निपूर्वक ‘विश्’ एवं वि और परापूर्वक ‘ज’ इत्यादि धातुओंसे भी आत्मनेपद ही जानो । यथा—निविशते, विजयते, पराजयते इत्यादि । भाव और कर्ममें प्रत्यय होनेपर भी आत्मनेपर ही होता है । आत्मनेपदके जितने निमित्त हैं, उन्हें छोडकर शेष धातुओंसे कर्तामें परस्मैपद होता है—ऐसा वैयाकरणोंका कथन है ॥८१॥
ञित्स्वरितेतश्च उभे यक्च स्याद्भावकर्मणो: ।
जिन धातुओंमें ‘स्वरित’ और ‘ञ’ की इत्संज्ञा हुई हो, उनसे परस्मैपद और अत्मनेपद दोनों होते हैं । यथा—’खनति, खनते । श्रयति, श्रयते’ इत्यादि ।
(अब भाव—कर्म—प्रकरण आरम्भ करते हैं—) भाव और कर्ममें धातुसे यक प्रत्यय होता है । भावमें प्रत्यय होनेपर क्रियामें केवल औत्सर्गिक एकवचन होता है और सदा प्रथम पुरुषके ही एकवचनका रूप लिया जाता है । उस दशामें कर्ता तृतीयान्त होता है। भू धातुसे भावमें प्रत्यय करनेपर ‘भूयते’ रूप होता है । वाक्यमें उसका प्रयोग इस प्रकार है —’त्वया मया अन्यैश्च भूयते ।’ सकर्मक धातुसे कर्ममें प्रत्यय होनेपर कर्म उक्त हो जाता है अतः उसमें प्रथमा विभक्ति होती है और अनुक्त कर्तामें तृतीया विभक्तिका प्रयोग होता है । कर्ताके अनुसार ही क्रियामें पुरुष और वचनकी व्यवस्था होती है । यथा—’चैत्र: आनन्दमनुभवति इति कर्मणि प्रत्यये चैत्रेणानन्दोऽनुभूयते’, (चैत्रसे आनन्दका अनुभव किया जाता या आनन्द भोगा जाता है) चैत्रस्त्वामनुभवति, (चैत्रेण त्वमनुभूयसे, चैत्रसे तुम अनुभव किये जाते हो) चैत्रो मामनुभवति, चैत्रेणाहमनुभूये’ (चैत्रसे मैं अनुभव किया जाता हूँ) इत्यादि उदाहरण भाव—कर्मके हैं ।
सौकर्यातिशयं चैव यदा द्योतयितुं मुने ॥८२॥
विबक्ष्यते न व्यापारो लक्ष्ये कर्तुस्तदापरे ।
लभन्ते कर्तृतां पश्य पच्यते ह्योदन: स्वयम् ॥८३॥
साध्वसिश्छिनत्त्येवं स्थाली पचति वै मुने ।
धातो: सकर्मकात् कर्तृकर्मणोरपि प्रत्यया: ॥८४॥
मुने ! जब अतिशय सौकर्य प्रकाशित करनेके लिये लक्ष्यमेंं कर्ताके व्यापारकी विवक्षा नहीं रह जाती, तब कर्म और करण आदि दूसरे कारक ही कर्तृभावको प्राप्त होते हैं। यथा—’चैत्रौ वह्निना स्थाल्यामोदनं पचति’ (चैत्र आगसे बटलोईमें भात पकाता है)—इस वाक्यमें जब चैत्रके कर्तृत्वकी विवक्षा न रहे और करण आदिके कर्तृत्वकी विवक्षा हो जाय तो वे ही कर्ता हो जाते हैं और तदनुकूल क्रिया होती है । यथा—’वह्नि: पचति’ (आग पकाती है) । यहाँ करण ही कर्तारूपमें प्रयुक्त हुआ है ।’स्थाली पचति’ (बटलोई पकाती है)—यहाँ अधिकरण ही कर्ताके रूपमें प्रयुक्त हुआ है । ‘ओदन: स्वयं पच्यते’ (भात स्वयं पकता है)—यहाँ कर्म ही कर्तारूपमें प्रयुक्त हुआ है । जब कर्म ही कर्तारूपमें प्रयुक्त हो तो कर्तामें लकार होता है; परंतु कर्मवद्भाव होनेसे यक् और आत्मनेपद आदि ही होते हैं । अत: ‘पचति’ न होकर ‘पच्यते’ रूप होता है। ऐसे प्रयोगको कर्म—कर्तृप्रकरणके अन्तर्गत मानते हैं । दूसरा उदाहरण इस प्रकार है—’असिना साधु छिनत्ति’ (तलवारसे अच्छी तरह काटता है)—इस वाक्यमें उपर्युक्त नियमानुसार करणमें कर्तृत्वकी विवक्षा होनेपर ऐसा वाक्य बनेगा—’साधु असिश्छिनत्ति’ (तलवार अच्छा काटती है) । मुने ! सकर्मक धातु भी कर्मकर्तृमेंं अकर्मक हो जाता है, अत: उससे भाव तथा कर्तामें भी लकार होता है । यथा भावे—पच्यते ओदनेन । कर्तरि—पच्यते ओदन: । सम्प्रदान और सपादान करकोंमें कर्तृत्वकी विवक्षा कभी नहीं की जाती, क्योंकि यह अनुभवके विरुद्ध है । सामान्य स्थितिमें सकर्मक धातुसे ‘कर्ता’ और ‘कर्म’ में प्रत्यय होते हैं ॥८२—८४॥
तस्माद् वाकर्मकाद्विप्र भावे कर्तरि कीर्तिता: ।
फलव्यापारयोरेकनिष्ठतायामकर्मक: ॥८५॥
धतुस्तयोर्धर्मिभेदे सकर्मक उदाह्रत: ।
गौणे कर्मणि दुह्यादे: प्रधाने नीह्रकृष्वहाम् ॥८६॥
बृद्धिभक्षार्थयो: शब्दकर्मकाणां निजेच्छया ।
प्रयोज्यकर्मण्यन्येषां ण्यन्तानां लादयो मता: ॥८७॥
विप्रवर ! वही धातु यदि अकर्मक हो तो उससे ‘भाव’ और ‘कर्ता’ में प्रत्यय कहे गये हैं ।
सभी धातुओंके फल और व्यापार—ये दो अर्थ हैं । ये दोनों जहाँ एकमात्र कर्तामें ही मौजूद हो, उन धातुओंको अकर्मक कहते हैं । जैसे—भू—धातुका अर्थ सत्ता है । सत्ताका तात्पर्य है—आत्मधारणानुकूल व्यापार । इसमें आत्मधारणरूप फल और तदनुकूल व्यापार दोनों केवल कर्तामें ही स्थित हैं: अत: भू—धातु अकर्मक है ।
जहाँ फल और व्यापार दोनों भिन्न—भिन्न धर्मोंमें स्थित हो, वहाँ धातुको सकर्मक माना गया है । जैसे—’पच्’ धातुका अर्थ हैं—विक्लित्त्यनुकूल व्यापार (चावल आदिको गलानेके अनुरूप प्रयत्न) । इसमें विक्लित्ति (गलना) यह फल है, जो चावलमें होता है और इसके अनुकूल जो चूल्हेंमें आग जलाने आदिका व्यापार है, वह कर्तामें है; अत: ‘पच्’ धातु सकर्मक हुआ है । ‘दुह’ आदि धातुओंके दो कर्म होते हैं । यथा—’गां दोग्धि पय:’ (गायसे दूध दुहता है)—इसमें गाय गौण कर्म है और दूध प्रधान कर्म । दुह आदि धातुओंके गौण कर्ममें ही प्रत्यय होता है । यथा—’गौर्दुह्यते पय:, बलिर्याच्यते वसुधाम्’ इत्यादि । नी, ह, कृष् और वह—इन चार धातुओंके प्रधान कर्ममें प्रत्यय होता है । यथा—’अजां ग्रामं नयति’—इस वाक्यमें अजा प्रधान कर्म और ग्राम गौण कर्म है । प्रधान कर्ममें प्रत्यय होनेपर वाक्यका स्वरूप इस प्रकार होगा—’अजा ग्रामं नीयते ।’ ज्ञानार्थक और भक्षणार्थक धातुओंके एवं शब्दकर्मक धातुओंके ण्यन्त होनेपर उनसे प्रधान या अप्रधान किसी भी कर्ममें अपनी इच्छाके अनुसार प्रत्यय कर सकते हैं । यथा—’बोध्यए माणवकं धर्म:, माणवको धर्मम् इति वा ।’ अन्य गत्यर्थक एवं अकर्मक धातुओंके ण्यन्त होनेपर उनके प्रयोज्य कर्ममें लकार आदि प्रत्यय माने गये हैं। यथा—’मासमास्यते माणवक:’ ॥८५—८७॥
फलव्यापारयोर्धातुराश्रये तु तिड: स्मृता: ।
फले प्रधानं व्यापारस्तिङर्थस्तु विशेषणम् ॥८८॥
धातु फल और व्यापाररूप अर्थोंका बोधक होता है । जैसे—भू—धातु आत्मधारणरूप फल और तदनुकूल व्यापारका बोधक है । फल और व्यापार दोनोंका जो आश्रय है, उसमें अर्थात् कर्ता एवं कर्ममें (तथा भावमें भी) तिङ—प्रत्यय होते हैं, फलमें व्यापारकी ही प्रधानता है, तिडर्थरूप जो फल है वह उस व्यापारका विशेषण होता है । जैसे—’पचति’—इस क्रियाद्वारा चावल आदिके गलनेका प्रतिपादन होता है । यहाँ विक्लित्तिरूप फलके अनुकूल जो अग्निप्रज्वालन और फूत्कारादि व्यापार हैं, उनके आश्रयभूत कर्तामें प्रत्यय हुआ है ।’ओदन: पच्यते’ इत्यादिमें फलाश्रयभूत कर्ममें तिङ प्रात्यय होनेके कारण ओदनमें प्रथमा विभक्ति है ॥८८॥
एधितव्यमेंधनीयमिति कृत्ये निदर्शनम् ।
भावे कर्मणि कृत्या: स्यु: कृत: कर्तरिकीर्तिता: ॥८९॥
कर्ता कारक इत्याद्या भूते भूतादि कीर्तितम् ।
गम्यादि गम्ये निर्दिष्टं शेषमद्यतने मतम् ॥९०॥
(अब कृदन्त—प्रकरण प्रारम्भ करते हैं—कृत्—प्रत्यय जिसके अन्तमें हो, वह कृदन्त है। ण्वुल तृच्, अच् आदि प्रत्यय ‘कृत्’ कहलाते हैं। कृत्—प्रत्ययोंमेंसे जो कृत्य, क्त और खलर्थ प्रत्यय हैं, व केवल भाव और कर्ममें ही होते हैं । तव्यत्, तव्य, अनीयर, केलिमर आदि प्रत्यय कृत्य कहलाते हैं । घञ् आदि प्रत्यय भाव, करण और अधिकरणमें होते हैं । सामान्या: कृत्—प्रत्यय ‘कर्ता’ मेंम प्रयुक्त होते हैं । यहाँ पहले कृत्य प्रत्ययोंके उदाहरण देते हैं—) एधितव्यम् और एधनीयम—ये कृत्य प्रत्ययके उदाहरण हैं । ‘कृत्य’ भाव और कर्ममें तथा ‘कृत’ कर्तामें बताये गये हैं ।’त्वया मया अन्यैश्च एधितव्यम्’ यहाँ भावमें तव्य और अनीयर प्रत्यय हुए हैं । कर्ममें प्रत्ययका उदाहरण इस प्रकार समझना चाहिये ।’छात्रेण पुस्तकं पठनीयम्’ ‘ग्रन्थ: पठितव्य:’ इत्यादि कर्ममें प्रत्यय होनेसे कर्तामें तृतीया विभक्ति और कर्ममें प्रथमा विभक्ति हुई है। कर्ता, कारक: इत्यादि ‘कृत्’ प्रत्ययके उदाहरण हैं। यथा—’राम: कर्ता’ ‘ब्रह्मा कारक:’ यहाँ कर्तामें ‘तृच’ और ‘ण्वुल’ प्रत्यय हुए हैं । ‘वु’ के स्थानमें अक् आदेश होता है । णू ल् च आदिकी इत्संज्ञा होती है । ‘क’ और ‘क्तवतु’ ये प्रत्यय भूतकालमें होते हैं । यथा—’भूत: भूतवान्’ इत्यादि; और ‘गम्य’ आदि शब्द भविष्यत् अर्थमें निर्दिष्ट हुए हैं । शेष शब्द वर्ममान कालमें प्रयुक्त होने योग्य माने गये हैं ॥८९—९०॥
अधिस्त्रीत्यव्ययीभावे यथाशक्तिच कीर्तितम् ।
रामाश्रितस्तत्पुरुषे धान्यार्थो यूपदारु च ॥९१॥
व्याघ्रभी राजपुरुषोऽक्षशौण्डो द्वुगुरुच्यते ।
पञ्चगवं दशग्रामी त्रिफलेति तु रूढित: ॥९२॥
(अब समासका प्रकरण आरम्भ करते हैं)—समास चार प्रकारके माने गये हैं—अव्ययीभाव, तत्पुरुष, बहुव्रीहि और द्वन्द्व । ‘तत्पुरुष’ का एक विशष्ट भेद ‘कर्मधारय’ और कर्मधारयका एक विशिष्ट भेद ‘द्विगु’ है । भूतपूर्व: इत्यादि स्थलोंमें ओ समास है, उसका कोई नाम नहीं निर्देश किया जा सकता । अत: उसे केवल समासमात्र जानना चाहिये जिसमें प्रथम पद अव्यय हो वहस समास अव्ययीभाव होता है । अथवा अव्ययीभावके अधिकारमें जो समासविधायक वचन हैं, उनके अनुसार जहाँ समास हुआ है, वह अव्ययीभाव समास है । अव्ययीभाव अव्ययसंज्ञक होता है । अत: सभी विभक्तियोंमें उसका समान रूप है । अकारान्त अव्यय़ीभावमें विभक्तियोंका ‘अम्’ आदेश हो जाता हैं, परंतु पञ्चमी विभक्तिको छोडकर ऐसा होता है । तृतीया और सप्तमीमें भी अम्भाव वैकल्पि्क है । यथा अपदिशम् अपदिशे इत्यादि । अधिस्त्रि और यथाशक्ति आदि पद अव्यय़ीभाव समासके अन्तर्गत बताये गये हैं । द्वितीयान्तसे लेकर सप्तम्यन्त तकके पद सुबन्तके साथ समस्त होते हैं और वह समास तत्पुरुष होता है । तत्पुरुषके उदाहण इस प्रकार हैं—रामम् + आश्रित: = रामाश्रित: । धान्येन अर्थ: = धान्यार्थ: यूपाय + दारु = युपदारु । व्याघ्रात भी: = व्याघ्रभी: राज्ञ: + पुरुष: = राजपुरुष: । अक्षेषु शौण्ड: = अक्षशौण्ड: इत्यादि । जिसमें संख्यावाचक शब्द पूर्वमें हो, वह ‘द्विगु’ कहा गया है ।’पञ्चानां गवां समाहार: पञ्चगवम् ।’ दशानां ग्रामाणां समाहार: दशग्रामी (यहाँ स्त्रीलिङ्गसूचक ‘डिप्’ प्रत्यय हुआ है) ।’त्रयाणां फलानां समाहार: त्रिफलां (इसमें स्त्रीत्वसूचक ‘टाप्’ प्रत्यय हुआ है) । त्रिफला—शब्द आँवले, हर्रे और बहेडेके लिये रूढ (प्रसिद्ध) है ॥९१—९२॥
नीलोत्पलं महाषष्ठी तुल्यार्थे कर्मधारय़: ।
अब्राह्मणो नञि प्रोक्त: कुम्भकारादिक: कृत: ॥९३॥
समानाधिकरण तत्पुरुषकी ‘कर्मधारय’ संज्ञा होती है । उसके दोनों पर प्राय: विशेष्य—विशेषण होते हैं । विशेषणवाचक शब्दका प्रयोग प्राय: पहले होता है ।’नीलं च तत् उत्पलं च नीलोत्पलम्, महती चासौ षष्ठी च महाषष्ठी ।’ जहाँ ‘न’ शब्द किसी सुबन्तके साथ समस्त होता है, वह ‘नञ तत्पुरुष’ कहलाता है ।’न ब्राह्मण: अब्राह्मण: ‘ इत्यादि । कुम्भकार आदि पदोंनें ‘उपपद तत्पुरुषं समास है ॥९३॥
अन्यार्थे तु बहुव्रीहौ ग्राम: प्राप्तोदको द्विज ।
पञ्चगू रूपवद्भार्यो मध्याह्न: ससुतादिक: ॥९४॥
विप्रवर ! जहाँ अन्य अर्थकी प्रधानता हो, उस समासकी बहुव्रीहिमें गणना होती है ।’ प्राप्तम् उदकं यं स प्राप्तोदको ग्राम:’ (जहाँ जल पहुँचा हो, वह ग्राम ‘प्राप्तोदक’ है) । इसी तरह—’ पञ्च गावो यस्य स पञ्चगु: । रूपवती भार्या यस्य स रूपवदभार्य: ।’ मध्याह्न:—पद तत्पुरुष समास है ।’सुतेन सह आगत: ससुत:’ आदि पद बहुव्रीहि समासके अन्तर्गत हैं ॥९४॥
समुच्चये गुरुं चेशं भजस्वान्वाचये त्वट।
भिक्षामानय गां चापि वाक्यमेंवानयोर्भवेत् ॥९५॥
चार्थमें द्वन्द्व समास होता है । ‘च’ के चार अर्थ हैं—समुच्चय, अन्वाचय, इतरेतरयोग और समाहार । परस्पर निरपेक्ष अनेक पदोंका एकमें अन्वय होना ‘समुच्चय’ कहलाता है । समुच्चयमें ‘ईशं गुरुं च भजस्व’ यह वाक्य है । इसमें ईश और गुरु दोनों स्वतन्त्ररूपसे ‘भज’ इस क्रियापदसे अन्वित होते हैं । ईश—पदाका क्रियाके साथ अन्वय हो जानेपर पुन: क्रियापदकी आवृत्ति करके गुरुपदका भी उसमें अन्वय होता है । यही उन दोनोंकी निरपेक्षता है । समास साकाडक्ष पदोंमें होता है । अत: समुच्चय—वाक्यमें द्वन्द्व समास नहीं होता है । जहाँ एक प्रधान और दूसरा अप्रधानरूपसे अन्वित हो, वहाँ अन्वाचय होता है—जैसे भिक्षामट गाञ्चानय’ इस वाक्यमें भिक्षाके लिये गमन प्रधान है और गौका लाना अप्रधान या आनुषङ्गिक कार्य है । अत: एकार्थीभावरूप सामर्थ्य न होनेसे अन्वाचयमें भी द्वन्द्व समास नहीं होता । समुच्चय और अन्वाचयमें वाक्यमात्रका ही प्रयोग होता है ॥९५॥
इतरेतरयोगे तु रामकृष्णौ समाहृतौ ।
रामकृष्णं द्विज द्वौ द्वौ ब्रह्म चैकमुपास्यते ॥९६॥
उद्भूत अवयव—भेद—समूहरूप परस्पर अपेक्षा रखनेवाले सम्मिलित पदोंका एकधर्मावच्छिन्नमें अन्वय होना इतरेतरयोग कहलाता है । अत: इसमें सामर्थ्य होनेके कारण समास होता है, यथा—’रामकृष्णौ भज’ इस वाक्यमें’रामश्च—कृष्णश्च रामकृष्णौ’ इस प्रकार समास है । इतरेतरयोग द्वन्द्वमें समस्यमान पदार्थगत संख्याका समुदायमें आरोप होता है । इसलिये वहाँ द्विवचनान्त या बहुवचनान्तका प्रयोग देखा जाता है । समूहको समाहार कहते हैं । वहाँ अवयवगत भेद तिरोहित होता है । यथा—’रामश्च कृष्णश्चेत्यनयो: समाहार: रामकृष्णम्।’ समाहार द्वन्द्वमें अवयवगत संख्या समुदायमें आरोपित नहीं होती । इसलिये एकत्व—बुद्धिसे एकवचनान्तका प्रयोग किया जाता है । समाहारमें नपुंसकलिङ्ग होता है । विप्रवर ! इतरेतरयोगमें राम और कृष्ण दोनों दो हैं और समाहारमें उनकी एकता है, इसलिये कि ब्रह्मरूपसे उन्हें एक मानकर उनकी उपासना की जाती है ॥९६॥
अध्याय ४९ निरुक्त— वर्णन
सनन्दनजी कहते हैं—अब मैं निरुक्तका वर्णन करता हूँ, जो वेदका कर्णरूप उत्तम अङ्ग है । यह वैदिक धातुरूप है, इसे पाँच प्रकारका बताया गया है ॥१॥ उसमें कहीं वर्णका आगम होता है, कहीं वर्णका विपर्यय होता है, कहीं वर्णोंका विकार होता है और कहीं वर्णका नाश माना गया है ॥२॥ नारद ! जहाँ वर्णोंके विकार अथवा नाशद्वारा जो धातुके साथ विशेष अर्थका प्रकाशक संयोग होता है, वह पाँचवाँ उत्तम योग कहा गया है ॥३॥
वर्णके आगमसे ‘हंस:’ पदकी सिद्धि होती है ।
वर्णोंके विषर्यय (अदल—बदल)—से ‘सिंह:’ पद सिद्ध होता है ।
वर्णनाशसे ‘पृषोदर:’ सिद्ध होता है ॥४॥ ‘भ्रमर’ आदि शब्दोंमें पाँचवाँ योग समझना चाहिये । वेदोंमें लौकिक नियमोंका विकल्प या विपर्यय कहा गया है । यहाँ ‘पुनर्वसु’ पदको उदाहरणके रूपमें रखना चाहिये ॥५॥ ‘नभवस्वत’—में ‘वत्’ प्रत्यय परे रहते भसंज्ञा हो जानेसे ‘स’ का रुत्व नहीं हुआ । (वार्तिक भी है—’नभोंऽङ्गिरोमनुषां वत्युपसंख्यानम्’) ‘वृषन् अश्वो यस्य स:’ इस विग्रहमें ब्रहुव्रीहि समास होनेपर ‘वृषन् + अश्व:’ इस अवस्थामें अन्तर्वर्तिनी विभक्तिका आश्रय लेकर पदसंज्ञा करके नकारका लोप प्राप्त था, किंतु ’वृषण् वस्वश्वयो:’ इस वार्तिकके नियमानुसार भसंज्ञा हो जानेसे न लोप नहीं हुआ: अत: ‘वृषणश्व:’ यही वैदिक प्रयोग है । (लोकमें ‘वृषाश्व:’ होता है ।) कहीं—कहीं आत्मनेपदके स्थानमें परस्मैपदका प्रयोग होता है । यथा—’ प्रतीपमन्य ऊर्मिर्युध्यति’ यहाँ ‘युध्यते’ होना चाहिय, किंतु परस्मैपदका प्रयोग किया गया है । ‘प्र’ आदि उपसर्ग यदि धातुके पहले हो तो उनकी उपसर्ग एवं गतिसंज्ञा होती है; किंतु वेदमें वे धातुके बादमें या व्यवधान देकर प्रयुक्त होनेपर भी ‘उपसर्ग’ एवं ‘गति’ कहलाते हैं—यथा ’हरिभ्यां याह्योक आ । आ मन्द्रैरिन्द्र हरिभिर्याहि।’ यहाँ ‘आयादि’ के अर्थमें ‘याहि+आ’ का व्यवहित तथा पर प्रयोग है। दूसरे उदाहरणमें आ + याहिके बीचमेंं बहुत—से पदोंका व्यवधान है ॥६॥ वेदमें विभक्तियोंका विपर्यास देखा जाता है, जैसे—’दध्रा जुहोति’; यहाँ ‘दुहि’ शब्द ‘हु’ धातुका कर्म है, उसमें द्वितीया होनी चाहिये, किंतु’तृतीया च होश्छन्दसि’ इस नियमके अनुसार कर्ममें तृतीया हो गयी है । ‘अभ्युत्सादयामक:’ इसमें अभि+उतपूर्वक ‘सद्’ धातुसे लुङ लकारमें ‘आम्’ और ‘अक’—का अनुप्रयोग हुआ है
(लोकमें ‘अभ्युदषीषदत्’ रूप बनता है) । ‘मा त्वाग्निर्ध्वनयीत’ इसमें ‘नोनयति ध्वनय०’ इत्यादि वैदिक सूत्रके द्वारा च्लिके चङभावका निषेध होता है । माङके योगमें ‘अट आट’ न होनेसे ‘ध्वनयीत्’ रूप हुआ है (लोकमें घटादि ध्वन धातुका रूप अदिध्वनत्’ होता है और चुरादिका रूप ‘अदिध्वनत्’ होता है) । ‘ध्वनयीत’ इत्यादि प्रमुक उदाहरण हैं । ‘निष्टर्क्य०’ इत्यादि प्रयोग वेदमें निपातनसे सिद्ध होते हैं । ‘छन्दसि निष्टर्क्य’ इत्यादि सूत्र इसमें प्रमाण हैं । यहाँ ‘निस् पूर्वक कृत्’ धातुसे ‘ऋदुपधाच्च’ सूत्रके अनुसार ‘क्यप्’ प्राप्त था; परंतु ‘ण्यत्’ प्रत्यय हुआ है; साथ ही ‘कृत’ में आदि—अन्तका विषर्यय होनेसे ‘तृक’ रूप बना । फिर गुण होनेसे तर्क्य हुआ । ‘निस्’ के ‘स्’ का षत्व हुआ और ष्टुत्व होकर ‘निष्टर्क्य’ सिद्ध हुआ । ‘गृभाय’ इत्यादि प्रयोग वैकल्पिक ‘शायच’ होनेसे बनते हैं । ह्र—धातुसे शायच हुआ और ‘ह्रग्रहोर्भश्छन्दसि’ के आदेशानुसार’ ह’ के स्थानमें ‘भ’ ओ गया तो ‘गृभाय’ बना—’गृभाय जिह्वया मधु’ ॥७॥ शास्त्रकार सुप, तिङ उपग्रह (परस्मैपद—आत्मनेपर), लिङ्ग, पुरुष, काल, हल्, अच्, स्वर, कर्तृ, (कारक) और यङ—इन सबका व्यत्यय (विपर्यय) चाहते हैं, वह भी बाहुलकसे सिद्ध होता है ॥८॥ ‘रात्री’ शब्दमें ‘रात्रेश्चाजसौ’ (पा० सू० (४।१।३१) इस नियमके अनुसार रात्रि—शब्दसे डीप—प्रत्यय हुआ है । (लोकमें ‘कृदिकारादक्तिन: ‘से डीष होकर अन्तोदात्त होता है ।) ‘विभ्वी’ में बी विभु—शब्दसे ‘भुवश्च’ के नियमानुसार डीष हुआ है । ‘कद्रू:’ पदमें ‘कद्रुकमण्डल्वोश्छन्दसि’ से ऊङ प्रत्यय हुआ हैं । ‘आविष्टयो वर्धते’ इत्यादि स्थलोंमें ‘अविष्टयस्योपसंख्यान्म छन्दसि’ के नियमानुसार ‘आविस्’ अव्यय से ‘त्पप्’ यह तद्धित—प्रत्यय हुआ है । ‘वाजसनेयिन: ‘में’ वाजसनेयेन प्रोक्तमधीयते’ इस व्युत्पत्तिके अनुसार वाजसनेय—शब्दसे ‘शौनकादिभ्यश्छन्दसि ” सूत्रके द्वारा ‘णिनि’ प्रत्यय हुआ है ॥९॥ ‘कर्णेभि:’ में ‘बहुलं छ्न्दसि’ के नियमानुसार ‘भिस्’ के स्थानमें ‘ऐस’ आदेश नहीं हुआ है । ‘यशोभग्य:’ पदमें वेशोयश आदेर्भगाद्यल’ इस सूत्रसे ‘यल’ प्रत्यय हुआ है । इत्यादि उदाहरण जानने चाहिये । ‘चतुरक्षरम्’ पदसे चार अक्षरवाले ‘आश्रावय’ ‘अस्तु श्रौषट’ आदि पदोंकी ओर संकेत किया गया है । अक्षर—समूह वाच्य हो तो ‘छन्दस्’ शब्दसे ‘यत्’ प्रत्यय होता है—’छ्न्दस्य:’ यह उदाहरण है । ‘देवास:’ में ‘आज्जसेरसुक्’ इस नियमके अनुसार ‘असुक्’ का आगम हुआ है । ‘सर्वदेव’ शब्दसे स्वार्थमें’ ‘तातिल्’ प्रत्यय होता है ।’सविता न: सुवतु सर्वदेवतातिम्’ इस उदाहरणमें ‘सर्वदेव’ शब्दसे ‘तातिल्; प्रत्यय होनेपर ‘सवदेवताति’ शब्दकी सिद्धि होती है । ‘युष्मद्’,’अस्मद’ शब्दोंसे सादृश्य—अर्थमें ‘वतुप्’ प्रत्यय होता है । इस नियमसे ‘त्वावत:’ पदकी सिद्धि हुई है ।’त्वावत:’ का पर्याय है ‘त्वत्सदृशान्’ (तुम्हारे सदृश) ॥१०॥ ‘उभयाविनम्’ इत्यादि पदोमें ‘बहुलं छन्दोविन्प्रकरणे०’ इत्यादि नियमसे उभय शब्दके अकारका दीर्घ होनेसे ‘उभयाविनम्’ रूप बना है । प्रत्य, पूर्व आदि शब्दोंसे इवार्थमें ‘थाल’ प्रत्यय होता है, इस नियमसे ‘प्रत्नथा’ बनता है । इसी प्रकार ‘पूर्वथा’ आदि भी हैं । वेदमें ‘ऋच’ शब्द परे होनेपर त्रिका सम्प्रसारण होता है और उत्तरपदके आदिका लोप हो जाता है । तिस्त्र ऋचो यस्मिन्’ तत तृचं सूक्तम् । जिसमें तीन ऋचाएँ हो, उस सूक्तका नाम ‘तृच’, है ।’त्रि + ऋच’ इस अवस्थामें ‘त्रि’ का सम्प्रसारण होनेपर ‘तृ’ बना और ऋच्के ऋका लोप हो गया तो ‘तृचम्’ सिद्ध हो गया । ‘इन्द्रश्च विष्णो यदपस्पृधेथाम्’ यहाँ ‘अप’ उपसर्गके साथ ‘स्पृध’ धातुके लङ लकारमें प्रथम पुरुषके द्विवचनका रूप है । ‘अपस्पृधेथाम’ यह निपातनसे सिद्ध होता है । रेफका सम्प्रसारण और अलोप निपातनसे ही होता है । माङका योग न होनेपर भी अडागमका अभाव हुआ है (लोकमें इसका रूप ‘अपास्पर्धेथाम’ होता है) । ‘वसुभिर्नो अव्यात’ इत्यादिमें ‘अव्यादवद्या०’ इत्यादि सूत्रके अनुसार व्यपर ‘अ’ परे होनेपर एङ (ओ)—का प्रकृतिभाव हुआ है । ‘आपो अस्मान् मातर;’ इत्यादि प्रयोग भी ‘आपो जुषाणो०’ आदि नियमके अनुसार प्रकृति—भावसे सिद्ध होते हैं । आकार परे रहनेपर ‘आपो’ आदिमें प्रकृतिभाव होता है ॥११॥’समानो गर्भ: सगर्भस्तत्र भव: सगर्भ्य: ।’ यहाँ’समानस्य स:’ इत्यादि सूत्रसे समानका ‘स’ आदेश हुआ है । ‘सगर्भसय़ूथसनुताद्यत’ से यत्—प्रत्यय हुआ है । ‘अष्टापदी’ यहाँ ‘छन्दसि च’—के नियमानुसार उत्तरपद परे रहते अष्टनके ‘न’ का ‘आ’ आदेश हो गया है । ‘ऋतौ भवम ऋत्व्यम्’—जो ऋतुमें हो, उसे ‘ऋत्व्य’ कहते हैं । ‘ऋत्व्यवास्त्व्य:’ इत्यादि सूत्रसे निपातन करनेपर ‘ऋत्व्यम’ पदकी सिद्धि होती है । अतिशयेन ‘ऋजु’ इति ‘र्जिष्ठम्’—जो अत्यन्त ऋजु (कोमल या सरल) हो, उसे ‘रजिष्ठ’ कहा गया है । ‘विभाषर्जोश्छन्दसि’ के नियमानुसार इष्ठ, इमन् और ईयम् परे रहनेपर ऋजुके ‘ऋ’ के स्थानमें ‘र’ होता है । ‘ऋजु इष्ठ’ इस अवस्थामें ॠके स्थानमें ‘र’ तथा उकार लोप होनेसे ‘रजिष्ठ’ शब्द बना है । ‘त्रिपञ्चकम’—त्रीणि पञ्चकानि यत्र तत् ’त्रिपञ्चकम्’ इस विग्रहके अनुसार बहुवीहिसमास करनेपर ‘त्रिपञ्चकम’ की सिद्धि होती है ।’हिरण्ययेन सविता रथेन’ इस मन्त्र—वाक्यमें ‘ऋत्व्यवास्त्व्य’ आदि सूत्रके अनुसार हिरण्य—शब्दसे ‘मयट’ प्रत्यय और उसठे ‘म’—का लोप निपातन किया जाता है । इससे ‘हिरण्यय’ शब्द्की सिद्धि होती है । ‘इतरम्’—वेदमें इतर शब्दसे ‘अदड’ का निषेध है। अत: ‘सु’ का ‘अम्’ आदेश होनेसे ‘इतरम्’ पद सिद्ध होता है । यथा—’वार्त्रघ्नमितरम’ । ‘परमें व्योमन्’ यहाँ ‘व्योमनि’ रूप प्राप्त था; किंवु ‘सुपां सुलुक्’ इत्यादि नियमसे डि—विभक्तिका लुक हो गया ॥१२॥ ‘उर्विया’ की जगह ‘उरुणा’ रूप प्राप्त था । ‘टा’ का ‘इया’ आदेश होनेसे ‘उर्विया’ रुप बना । ‘इयाडियाजीकाराणामुप—संख्यानम्’ इस वार्तिकसे यहाँ ‘इयाज्’ हुआ है । ‘स्वप्रया के स्थानमें ‘स्वप्नेन’ यह रूप प्राप्त था, कितु ‘सुपा’ सुलुक्०’ इत्यादि नियमके अनुसार ‘टा’ का ‘अयाच्’ हो गया; अत; ‘स्वप्नया’ रूप बना । ‘वारयध्वम’ रूप प्राप्त था, किंतु ‘ध्वमो ध्वात्’ सूत्रसे ‘ध्वम’ के स्थानमें ‘ध्वात’ आदेश होनेसे’ ‘वारयध्वात’ हो गया । ‘अदुहत’ के स्थानमें ‘अदुह्न’ यह वैदिक प्रयोग है । ‘लोपस्त आत्मनेपदेषु’ इस सूत्रसे तलोप और ‘बहुलं छ्न्दसि’ से रुटका आगम हुआ है । ‘वि’ पादपूर्तिके लिये है । ‘अवधिषम’ य़ह रूप प्राप्त था, इसके स्थानमें ‘वधीं’ रूप हुआ है । यहाँ ‘अम्’ का ‘म’ आदेश और अडागमका अभाव तथा ‘ईद’ का आगम हुआ है—वर्धी वृत्रम । ‘यजध्वैनं’—यहाँ ‘यजध्वम् + एनम्’ इस दशामें ‘ध्वम’ के ‘म’ का लोप होकर वृद्धि होनेसे उक्त रूपकी सिद्धि हुई है ।’तमो भरन्त एमसि’—यहाँ ‘इम:’ के स्थानमें ‘इदन्तो मसि’ इस सूत्रके अनुसार ‘एमसि’ रूप हुआ है।’स्विन्न: स्नात्वी मलादिव’—इस मन्त्रमें ‘स्नात्वा’ रूप प्राप्त था; किंतु ‘स्नात्व्यादयश्च’—इस सूत्रके अनुसार उसके स्थानमें ‘स्नात्वी’ निपातन हुआ । ‘गत्वाय’—गत्वाके स्थानमें ‘क्त्वो यक’ सूत्रके अनुसार ‘यक’ का आगम होनेसे उक्त पद सिद्भ होता है । ‘अस्थभि;’ में अस्थि—शब्दके ‘इ’ को ‘अनङ’ आदेश होकर नलोप हो गया है । ‘छन्दस्यपि दृश्यते’ इस नियमसे इलादि विभक्ति परे रहनेपर भी ‘अनङ’ आदेश होता है॥१३॥ ‘गोनाम्’ यहाँ आम्—विभक्ति परे रहते नुटका आगम हुआ है । किसी छन्दके पादान्तमें गो—शब्द हो तो प्राय: षष्ठी—बहुवचनमें वहाँ नुट्का आगम हो जाता है । ‘अपरिहवृता:’ यहाँ ‘हु हवरेश्छन्दसि’ से पाप्त हुए ‘हु’ आदेशका अभाव निपातित हुआ है । ‘ततुरि: ‘ जगुरि:’ इत्यादि पद भी ‘बहुलं छन्दसि’ के नियमसे निपातनद्वारा सिद्ध होते हैं । ‘ग्रसिताम्’ ‘ग्रसु’ अदनेका निष्ठान्त रूप है । यहाँ इट्का निषेध प्राप्त था, किंतु निपातनसे इट हो गया है । इसी प्रकार ‘स्कभित’ आदिको भी समझना चाहिये । ‘पश्वे’ यहाँ ‘जसादिषु छन्दसि वा वचनं०’ इत्यादिसे वैकल्पिक घि—संज्ञा होनेके कारण घि—संज्ञाके अभावमें यण् होनेसे ‘पश्वे’ रूप बना है । इसी तरह ‘दधद’ यह दधातिके स्थानमें निपातित हुआ है; लेटका रूप है।’दधद्रत्नानि दाशुषे’ यह मन्त्र हौ । ‘बभूथ’ यह लिट लकारके मध्यम पुरुषका एकवचन है । वेदमें इसके ‘इट’ का अभाव निपातित हुआ है। ‘प्रमिणन्ति’—यहाँ ‘प्रणीणन्ति’ रूप प्राप्त था । ‘मीनातेर्निगमें’ सूत्रसे ह्नस्व हो गया । ‘अवीवृधत’—’नित्यं छ्न्दसि’ से चड परे रहते उपधा ऋवर्णका ‘ऋ’—भाव नित्य होता है ॥१४॥ ‘मित्रयु:’ यहाँ दीर्घका निषेध होता है । ‘दुष्ट इवाचरति’ इस अर्थमें क्यच् परे रहते दुष्ट शब्दका ‘दुरस’ आदेश होता है । ‘दुरस्यु:’ यह निपातनात् सिद्ध रूप है । इसी प्रकार ‘द्रविणस्यु:’ इत्यादि भी है । वेदमें’ क्त्वा’ परे रहते हाधातुका’ हि’ आदेश विकल्पसे होता है । ‘हि’ आदेश न होनेपर ‘घुमास्था०’ इत्यादि सूत्रसे ‘आ’ के स्थानमें ‘ई’ हो जाता है; अत: ‘हित्वा’ और ‘हीत्वा’ दोनों रूप होते हैं । ‘सु’ पूर्वक धा—धातुसे ‘क्त’ प्रत्यय परे होनेपर ‘इत्व’ निपातन किया जाता है: इससे ‘सुधितम’ रूप बनता है—यथा’गर्भं माता सुधितं वक्षणासु ।’’दाधर्ति’ ‘दर्धर्ति’ और ‘दर्धर्षि’ आदि रूप निपातनसे सिद्ध हैं । ये ‘धृ’—धातुके यडलुगन्त रूप हैं । ‘स्ववद्भि:’ अव—धातुसे असुन् करनेपर ‘अवस’ रूप होता है । ‘शोभनमवो येषां ते स्ववस: तै: स्ववद्भि’ यह उसकी व्युत्पत्ति है । ‘स्वव: स्वतवसोरुषसश्चेष्यते’ इस वार्तिकसे भकारादि प्रत्यय परे रहते ‘स्ववस्’ आदि शब्दोंके ‘स’ का ‘त’ हो जाता है । प्रसवार्थक ‘सू’ धातुके लिटमें ‘ससूवेति निगमें’ सूत्रसे ‘ससूव’ यह निपातसिद्ध रूप है । यथा—’गृष्टि: ससूव स्थविरम’ । ‘सुधित’ इत्यादि सूत्रसे ‘धत्स्व’ के स्थानमें ‘धिस्व’ निपातित होता है—’धिस्व वज्रं दक्षिण इन्द्रहस्ते’ ॥१५॥ ‘प्रप्रायमग्नि:’ यहाँ ‘प्रसमुपोद: पादपूरणे’ से पादपूर्तिके लिये ‘प्र’ उपसर्गका द्वित्व हो गया है । ‘हरिवते हर्यश्वाय’ यहाँ ‘छन्दसीर: ‘से’ ‘मतुप्’ के ‘म’ का ‘व’ हुआ है । ‘अक्षण्वन्त: में अक्षि—शब्दसे मतुप . ‘छन्दस्यपि दृश्यते’ से अनड—आदेश तथा ‘अनो नुट’ से’ नुट’ का आगम हुआ है । ‘सुपथिन्तर;’ में ‘नादघस्य’ से ‘नुट’ का आगम विशेष कार्य है । ‘रथीतर;’ में ‘ईद्रथिन:’ से ‘ई’ हुआ है । ‘नसत्तम’ में नञपूर्वक सद—धातुसे निष्ठामें नत्वका अभाव निपातित हुआ है । इसी प्रकार सूत्रोक्त ‘निषत्त’ आदि शब्दोंको जानना चाहिये । ‘अम्नेरेव’—इसमें ‘अम्नस्’ शब्द ईषत अर्थमें है । वेदमें सकारका वैकल्पिक रेफ निपातित हुआ है । वेदमें सकारका वैकल्पिक रेफ निपातित हुआ है । ‘भुवरथो इति’ यहाँ ‘भुवश्च महाव्याह्रते:’ से भुवस्के ‘स’ का ‘र’ हुआ है ॥१६॥ ‘ब्रूहि’ यहाँ ‘ब्रूहि प्रेष्य०’ इत्यादि सूत्रसे उकार प्लुत हुआ है । यथा—अग्नयेऽनुब्रू३हि । ‘अद्यामावास्येत्या३त्थ’ यहाँ ‘निगृह्यानुयोगे च’ इस सूत्रसे वाक्यके ‘टि’ का प्लुतभाव होता है । ‘अग्नीत्प्रेषणे परस्य च’ इस सूत्रसे आदि और परका भी प्लुत ह्ता है । उदाहरणके लिये ‘ओ३श्रा ३ वय’ इत्यादि पद है । इन सबमें प्लुत हुआ है । ‘दाश्वान्’ आदि पद क्वसु—प्रत्ययान्त निपातित होते हैं । ‘स्वतवान्’ शब्दके नकारका विकल्पसे ‘रु’ होता है, पायु—शब्द परे रहनेपर—स्वतवाँ: पायुरग्ने।’ ‘त्रिभिष्ट्वं देव सवित: ।’ यहाँ ‘त्रिभिस त्वम्’ इस दशामें ‘युष्मत्तत्ततक्षुष्वन्त: पादम्’ इस सूत्रमें ‘स’ के स्थानमें ‘ष’ होकर ष्टुत्व होनेसे ‘त्रिभिष्ट्वम बनता है । ‘नृभिष्टत:’ यहाँ ‘स्तुतस्तोमयोश्छन्दसि’ इस सूत्रसे ‘नॄनिस’ के ‘स’ का ‘ष’ होकर ष्टुत्व हुआ है ॥१७॥ ‘अभीषुण:’ यहाँ ‘सुञ:’ सूत्रसे ‘स’ का ‘ष’ हुआ है । ‘ऋताषाहम’ में सहे: पृतनर्ताभ्यां च’ इस सूत्रसे ‘स्’ का मूर्धन्य आदेश हुआ है । ‘न्यषीदत्’ यहाँ भी ‘निव्यभिभ्योऽडव्यवाये वा छन्दसि’ इस सूत्रसे ‘स’ का मूर्धन्य हुआ है। ‘नृमणा:’ इसा पदमें ‘छन्दस्यृदवग्रहात्’ सूत्रसे’ न’ का ‘ण’ हुआ पदमें ‘छन्दस्यृदवग्रहात्’ सूत्रसे ‘न’ का ‘णि’ हुआ है । बाहुलक चार प्रकारके होते हैं—कहीं प्रवित्ति होती है, कहीं अप्रवृत्ति होती है, कहीं वैकल्पिक विधि है और कहीं अन्यथाभाव होता है । इस प्रकार सम्पूर्ण वैदिक पद—समुदाय सिद्ध है । इस प्रकार सम्पूर्ण वैदिक पद—समुदाय सिद्ध है । क्रियावाची ‘भू’ ‘वा’ आदि शब्दोंकी ‘धातु’ संज्ञा जाननी चाहिये । ‘भू’ आदि धातु परस्मैपदी माने गये हैं ॥१८—१९॥ ‘एध’ आदि छत्तीस धातु उदात्त एवं आत्मनेपदी हैं (इन्हें ‘अनुदात्तेत’ माना गया है) । मुने !’ अत’ आदि सैंतीस धातु परस्मैपदी हैं ॥२०॥ शीकृ आदि बयालीस धातु आत्मनेपदमें परिगणित हुए हैं । फक्क आदि पचास धातु उदात्तेत् (परस्मैपदी) कहे गये हैं ॥२१॥ वर्च आदि इक्कीस धातु अनुदानेत (आत्मनेपदी) बताये गये हैं । ‘गुप’ आदि बयालीस धातु ‘उदात्तेत्’ (परस्मैपदी) कहे गये हैं ॥२२॥ ‘घिणी’ आदि दस धातु शाब्दिकोंद्वारा ‘अनुदात्तेत’ कहे गये हैं । ‘अणु’ आदि सत्ताईस धातु ‘उदात्तेत’ बताये गये हैं ॥२३॥ ‘अय’ आदि चौतीस धातु वैयाकरणोंद्वारा अनुदात्तेत (आत्मनेपदी) माने गये हैं । ‘मव्य’ आदि बहत्तर धातु उदात्तानुबन्धी कहे गये हैं ॥२४॥ ‘धावु’ धातु अकेला ही ‘स्वरितेत’ कहा गया है । ‘क्षुध’ आदि बावन धातु ‘अनुदात्तेत’ कहे गये हैं ॥२५॥ ‘घुषिर’ आदि अठासी धातु ‘उदात्तेत्’ माने गये हैं । ‘द्युते’ आदि बाईस धातु ‘अनुदात्तेत’ स्वीकार किये गये हैं ॥२६॥ घटादिमें तेरह धातु ‘षित’ और ‘अनुदात्तेत’ कहे गये हैं । तदनन्तर ‘ज्वर’ आदि बावन धातु उदात्त बताये गये हैं ॥२७॥ ‘राजृ’ धातु ‘स्वरितेत’ है । उसके बाद ‘भ्राजृ’ भ्राश्रृ और भ्लाश्रृ’—ये तीन धातु ‘अनुदात्तेत’ कहे गये हैं । तदनन्तर ‘स्यमु’ धातुसे लेकर आगे सभी आद्युदात्त एवं उदात्तेत (परस्मैपदी) हैं ॥२८॥ फिर एकमात्र ‘षह’ धातु ‘अनुदात्तेत’ तथा अकेला ‘रम’ धातु ‘आत्मनेपदी’ है । उसके बाद ‘सद’ आदि तीन धातु ‘उदात्तेत्’ हैं । फिर ‘कुच’ आदि चार धातु भी ‘उदात्तेत’ (परस्मैपदी) ही हैं ॥२९॥ इसके बाद ‘हिक्क’ आदि पैंतीस धातु ‘स्वरितेत्’ हैं । ‘श्रिञ’ धातु स्वरितेत् है । ‘भृञ’ आदि चार धातु भी स्वरितेत ही हैं ॥३०॥ ‘धेट’ आदि छियालीस धातु परस्मैपदी कहे गये हैं । ‘स्मिङ’ आदि अठारह धातु आत्मनेपदी माने गये हैं ॥३१॥ फिर ‘पूङ’ आदि तीन धातु अनुदात्तेत कहे गये हैं । ‘ह्न’ धातु परस्मैपदी है । फिर ‘गुप ‘से लेकर तीन धातु आत्मनेपदी हैं ॥३२॥ ‘रम’ आदि धातु अनुदात्तेत हैं और ‘ञिक्ष्विदा’ उदात्तेत है । स्कम्भु आदि पंद्रह धातु परस्मैपदी हैं ॥३३॥ ‘कित’ धातु’ उदात्तेत’ है । ‘दान’ ‘शान’—ये दो धातु उभयपदी हैं । ‘पच’ आदि नौ धातु स्वरितेत् (उभयपदी) हैं । वे परस्मैपदी (और आत्मनेपदी दोनों) माने गये हैं ॥३४॥ फिर तीन स्वरितेत् धातु हैं । परिभाषणार्थक ‘वद’ और ‘वच’ धातु परस्मैपदी हैं । ये एक हजार छ: धातु भ्वादि कहे गये हैं ॥३५॥
‘अद’ और ‘हन्’ धातु परस्मैपदी कहे गये हैं । ‘द्विष’ आदि चार धातु स्वरितेत् माने गये हैं ॥३६॥ यहाँ केवल ‘चक्षिड धातु आत्मनेपदी कहा गया है । फिर ‘ईर’ आदि तेरह धातु अनुदात्तेत हैं ॥३७॥ मुने ! वैयाकरणोंने ‘षूड’ और ‘शीड’—इन दो धातुओंको आत्मनेपरी कहा है । फिर ‘षु’ आदि सात धातु परस्मैपदी बताये गये हैं ॥३८॥ मुनीश्वर ! यहाँ एक ‘ऊर्णुञ’ धातु स्वरितेत् कहा गया है । ‘द्यु’ आदि तीन धातु परस्मैपदी बताये गये हैं ॥३९॥ नारद ! केवल ‘ष्टुञ’ धातुको शाब्दिकोंने उभयपदी कहा है ॥४०॥ ‘रा’ आदि अठारह धातु परस्मैपदी माने गये हैं । नारद ! फिर केवल ‘इङ’ धातु आत्मनेपदी कहा गया है ॥४१॥ उसके बाद ‘विद’ आदि चार धातु परस्मैपदी माने गये हैं । ‘ञिष्वप् शये’ यह धातु परस्मैपदी कहा गया है ॥४२॥ मुने! ‘श्वस’ आदि धातु मैंने तुम्हें परस्मैपदी कहे हैं । ‘दीधीड’ और ‘वेवीड’—ये दो धातु आत्मनेपदी माने गये हैं ॥४३॥ ‘षस’ आदि तीन धातु ‘उदात्तेत’ हैं । मुनिश्रेष्ठ ! ‘चर्करीतं च’ यह यङलुगन्तका प्रतीक है । यह अदादि माना गया है । ‘ह्नड’ धातु अनुदात्तेत कहा गया है ॥४४॥ इस प्रकार अदादि गणमें तिहत्तर धातु बताये गये हैं ।
‘हु’ आदि चार धातु (हु, भी, ह्नी और पृ) परस्मैपदी माने गये हैं ॥४५॥ ‘भृञ्’ धातु स्वरितेत् और ‘ओहाक’ धातु उदात्तेत है । ‘माङ’ और ‘ओहाड’—ये दोनों धातु अनुदात्तेत हैं । दानार्थक ‘दा’ और धारणार्थक ‘धा’—इनमें स्वरितकी इत्संज्ञा हुई है ॥४६॥ ‘णिजिर’ आदि तीन धातु स्वरितेत् कहे गये हैं । ‘घृ’ आदि बारह धातु परस्मैपदी माने गये हैं ॥४७॥ इस प्रकार ह्वादि (जुहोत्यादि) गणमें बाईस धातु कहे गये हैं ।
‘दिव’ आदि पचीस धातु परस्मैपदी कहे गये हैं ॥४८॥ नारद ! ‘षूड’ आदि ‘दूङ’—ये आत्मनेपदी हैं । ‘षूड’ आदि सात धातु ओदित और आत्मनेपदी माने गये हैं ॥४९॥ विप्रवर ! ‘लीड’ आदि धातु यहाँ आत्मनेपदी बताये गये हैं । श्यति (शो) आदि चार धातु परस्मैदपदी हैं ॥५०॥ मुने ! ‘जनी’ आदि पंद्रह धातु आत्मनेपदी हैं । ‘म्रृष’ आदि पाँच धातु ‘स्वरितेत’ कहे गये हैं ॥५१॥ ‘पद’ आदि ग्यारह धातु आत्मनेपदी हैं । यहाँ वृद्धि—अर्थमें ही अकर्मक ‘राध’ धातुका ग्रहण है । यह स्वादि और चुरादिगणमें भी पढा गया है ॥५२॥ राध आदि तेरह धातु उदात्तेत् कहे गये हैं । तत्पश्चात् रध आदि आठ धातु परस्मैपदी बताये गये हैं ॥५३॥ शम आदि छियालीस धातु उदात्तेत कहे गये हैं । इस प्रकार दिवादिमें एक सौ चालीस धातु माने गये हैं ॥५४॥
‘सु’ आदि नौ धातु स्वरितेत् कहे गये हैं । मुने ! ‘दु’ आदि सात धातु परस्मैपदी बताये गये हैं ॥५५॥ ‘अश’ और ‘ष्टिघ’ ये दो धातु अनुदात्तेत् कहे गये हैं । यहाँ ‘तिक’ आदि चौदह धातुओंको परस्मैपदी माना गया है ॥५६॥ विप्रवर ! स्वादिगणमे कुल बत्तीस धातु बताये गये हैं ।
मुनिश्रेष्ठ ! ‘तुद’ आदि छ: स्वरितेत् हैं ॥५७॥ ‘ॠषी’ धातु उदात्तेत् है और ‘जुषी’ आदि चार धातु आत्मनेपदी हैं । ‘व्रश्च’ आदि एक सौ पाँच धातु उदात्तेत कहे गये हैं ॥५८॥ मुनीश्वर ! यहाँ केवल ‘गुरी’ धातु अनुदात्तेत बताया गया है । ‘णू’ आदि चार धातु परस्मैपदी माने गये हैं ॥५९॥ ‘कुङ’ धातुको ‘अनुदात्तेत’ कहा गया है । यहीं कुटादिगणकी पूर्ति हुई है । ‘पृङ’ और ‘मृङ’—ये आत्मनेपदी धातु हैं । ‘रि’ और ‘पि’ से छ: धातुतक परस्मैपदमें गिने गये हैं ॥६०॥ ‘दृड’ ‘धृड’—ये दो धातु आत्मनेपदी कहे गये हैं । मुने ! ‘प्रच्छ’ आदि सोलह धातु परस्मैपदी बताये गये हैं ॥६१॥ मुने ! फिर ‘मिल’ आदि छ; धातु स्वरितेत् कहे गये हैं । इसके बाद ‘कृती’ आदि तीन धातु परस्मैपदी हैं ॥६२॥ इस प्रकार तुदादिमें एक सौ सत्तावन धातु हैं ।
‘रुध’ आदि नौ धातु स्वरितेत् हैं । ‘ कृती ’ धातु परस्मैपदी है । ‘ञिइन्धी’ से तीन धातुतक अनुदात्तेत् कहे गये हैं । तत्पश्चात ‘शिष पिष’ आदि बारह धातु उदात्तेत् हैं । इस प्रकार रुधादि—गणमें कुल पचीस धातु हैं ॥६३—६४॥
‘तनु’ धातुसे लेकर सात धातु ‘स्वरितेत’ कहे गये हैं । ‘मनु’ और ‘वनु’—ये दोनों आत्मनेपदी हैं । ‘कृञ’ धातु स्वरितेत कहा गया है ॥६५॥ विप्रवर ! इस प्रकार वैयाकरणोंने तनादिगणमें दस धातुओंकी गणना की है ।
‘क्री’ आदि सात धातु उभयपदी हैं । मुनीश्वर ! ‘स्तम्भु’ आदि चार सौत्र (सूत्रोक्त) धातु परस्मैपदी कहे गये हैं । ‘क्रूञ्’ आदि बाईस धातु उदात्तेत् कहे गये हैं ॥६६—६७॥ ‘ वृङ ’ धातु आत्मनेपदी है । ‘श्रन्थ’ आदि इक्कीस धातु परस्मैपदी हैं और ‘ग्रह धातु स्वरितेत् है ॥६८॥ इस प्रकार विद्वानोंने क्र्यादिगणमें बावन धातु गिनाये हैं ।
चुर आदि एक सौ छत्तीस धातु ञित (उभयपदी) माने गये हैं ॥६९॥ मुने ! चित आदि अठारह (या अडतीस ?) आत्मनेपदी माने गये हैं ।’ ‘चर्च ‘से लेकर’ धृष’ धातुतक ‘ञित’ (उभयपदी) कहे गये हैं ॥७०॥ इसके बाद अडतालीस अदन्त धातु भी उभयपदी ही हैं । ‘पद’ आदि इस धातु आत्मनेपदमें परिगणित हुए हैं ॥७१॥ यहाँ सूत्र आदि आठ धातुओंको भी मनीषी पुरुषोंने उभयपदी कहा है । प्रातिपदिकसे धात्वर्थमें णिच और प्राय: सब बातें इष्ठ प्रत्ययकी भाँति होती हैं । तात्पर्य यह कि ‘इष्ठ’ प्रत्यय परे रहते जैसे प्रातिपदिक, पुंवद्भाव, रभाव, टिलोप . विन्मतुब्लोप, यणादिलोप, प्र, स्थ, स्फ आदि आदेश और भसंज्ञा आदि कार्य होते हैं, उसी प्रकार ‘णि’ परे रहते भी सब कार्य होगे ॥७२॥ ‘उसे करता है, अथवा उसे कहता है’ इस अर्थमें भी प्राति पदिकसे णिच प्रत्यय होता है । प्रयोजक व्यापारमें प्रेषण आदि वाच्य हो तो धातुसे णिच् होता है । कर्तृ—व्यापारके लिये जो करण है, उससे धात्वर्थमें णिच होता है । चित्र आदि आठ धातु उदात्तेत हैं । किंतु ‘संग्राम’ धातुको शब्दशास्त्रके विद्वानोंने अनुदात्तेत माना है । स्तोभ आदि सोलह धातु अदन्त धातुओंके निदर्शन हैं ॥७३—७४॥ ‘बहुलमेंतन्निदर्शनम’—इसमें जो बहुल शब्द आया है, उससे अन्य जो सूत्रोक्त लौकिक और वैदिक धातु हैं, उन सबका ग्रहण होता है । सभी धातु सब गणोंमें हैं और सबके अनेक अर्थ हैं ॥७५॥ इन धातुओंके अतिरिक्त सानादि प्रत्यय जिनके अन्तमें हों, उनकी भी धातु—संज्ञा होती है । नामधातु भी धातु ही हैं । नारद ! इस प्रकार अनन्त धातुओंकी उद्भावना हो सकती है । यहाँ संक्षेपसे सब कुछ बताया गया है । इसका विस्तार तत्सम्बन्धी ग्रन्थोंमें है ॥७६॥
(उपदेशावस्थामें एकाच अनुदात्त धातुसे परे वलादि आर्धधातुकको इटका आगम नहीं होता । जिनमें यह निषेध लागू होता है, उन धातुओंको ‘अनिट’ कहते हैं । उन्हीं अनिट या एकाच अनुदात्त धातुओंका यहाँ संग्रह किया जाता है—) अजन्त धातुओंमें—ऊकारान्त, ऋकारान्त, यु, रु, क्ष्णु, शीङ स्नु, नु, क्षु, श्वि, डीङ, श्रिञ, वृङ, वृञ—इन सबको छोडकर शेष सभी अनुदात्त (अर्थात अनिट) माने गये हैं ॥७७॥ शक्लृ, पच् . मुच्, रिच्, वच्, सिच्, प्रच्छ, त्यज्, निजिर, भज्, भञ्ज, भुज्, भ्रस्ज, मस्ज, यज्, युज्, रुज, रञ्ज, विजिर, स्वञ्ज, सञ्स, सृञ्ज ॥७८॥ अद, क्षुद्, खिद, छिद, तुद, नुद, पद, भिद, विद (सत्ता), विद (विचारणे), शद, सद, स्विद, स्कन्द, हद, क्रुध्, क्षुध्, बुध्, ॥७९॥ बन्ध्, युध्, रुध्, राध्, व्यध्, शुध्, साध्, सिध्, मन् (दिवादि), हन्, आप्, क्षिप्, क्षुप्, तप्, तिप्, स्तृप्, दृप् ॥८०॥ लिप्, लुप्, वप्, शप्, स्वप्, सृप्, यभ्, रभ्, लभ्, गम्, नम्, यम्, रम्, क्रुश्, दंश, दिश्, दृश, मृश्, रिश्, रुश्, लिश्, विश्, स्पृश्, कृष् ॥८१॥ त्विष्, तुष्, द्विष्, पुष्, पिष्, विष्, शिष्, शुष्, श्लिष्, घस्, वस्, दह, दिह, दुह, नह, मिह, रुह, लिह् तथा वह् ॥८२॥ ये हलन्तोंमें एक सौ दो धातु अनुदात्त माने गये हैं । ‘च’ आदिकी निपात संज्ञा होती है । ‘प्र’ आदि उपसर्ग ‘गति’ कहलाते हैं । भिन्न—भिन्न दिशा, देश और कालमें प्रकट हुए शब्द अनेक अर्थोंके बोधक होते हैं । विप्रवर ! वे देश—कालके भेदसे सभी लुङ्गोंमें प्रयुक्त होते हैं । यहाँ गणपाठ, सूत्रपाठ, धातुपाठ तथा अनुनासिकपाठ—’पारायण’ कहा गया है । नारद ! वैदिक और लौकिक स्भी शब्द नित्यसिद्ध हैं ॥८३—८५॥ फिर वैयाकरणोंद्वारा जो शब्दोंका संग्रह किया जाता है, उसमें उन शब्दोंका पारयण ही मुख्य हेतु है (पारायण—जनित पुण्यलाभके लिये ही उनका संकलन होता है) । सिद्ध शब्दोंका ही प्रकृति, प्रत्यय, आदेश और आगम आदिके द्वारा लघुमार्गसे सम्यक् निरूपण किया जाता है । इस प्रकार तुमसे निरुक्तका यत्किंचित् ही वर्णन किया गया है। नारद ! इसका पूर्णरूपसे वर्णन तो कोई भी कर ही नहीं सकता ॥८६—८८॥ (पूर्वभाग द्वितीयपाद अध्याय ५३)
अध्याय ५० त्रिस्कन्ध ज्योतिषके वर्णन— प्रसंगमें गणित— विषयका प्रतिपादन
सनन्दन उवाच-
ज्यौतिषाङ्गं प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ब्रह्मणा पुरा ।
यस्य विज्ञानमात्रेण धर्मसिद्धिर्भवेन्नृणाम् ॥१॥
त्रिस्कन्धं ज्यौतिषं शास्त्रं चतुर्लक्षमुदाह्रतम् ।
गणितं जातकं विप्र संहितास्कन्धसंज्ञितम् ॥२॥
गणिते परिकर्माणि खगमध्यस्फुटक्रिये ।
अनुयोगश्चन्द्रसूर्यग्रहणं चोदयास्तकम् ॥३॥
छाया श्रृङ्गोन्नतियुती पातसाधनमीरितम् ।
श्री सनन्दनजी कहते हैं—देवर्षे ! अब मैं ज्यौतिष नामक बेदाङ्गका वर्णन करूँगा, जिसका पूर्वकालमें साक्षात ब्रह्माजीने उपदेश किया है तथा जिसके विज्ञानमात्रसे मनुष्योंके धर्मकी सिद्धि हो सकती है ॥१॥ ब्रह्मन् ! ज्यौतिषशास्त्र चार लाख श्लोकोंका बताया गया है । उसके तीन स्कन्ध हैं, जिनके नाम ये हैं—गणि (सिद्धान्त), जातक (होरा) और संहिता ॥२॥ गणितमें परिकर्म, ग्रहोके मध्यम एवं स्पष्ट करनेकी रीतियाँ बतायै गयी हैं । इसके सिवा अनुयोग (देश, दिशा और कालका ज्ञान), चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, उदय, अस्त, छायाधिकार, चन्द्र—श्रृङ्गोन्नति, ग्रहयुति (ग्रहोका योग) तथा पात (महापात सूर्य—चन्द्रमाके क्रान्तिसाम्य)—का साधन—प्रकार कहा गया है॥३ . १ / २॥
जातके राशिभेदाश्च ग्रहयोनिवियोनिजे ॥४॥
निषेकजन्मारिष्टानि ह्यायुर्दायो दशाक्रम: ।
कर्माजीवं चाष्टवर्गो राजयोगाश्च नाभसा: ॥५॥
चन्द्रयोगा: प्रव्रज्याख्या राशिशीलं च दृक्फलम् ।
ग्रहभावफलं चैवाश्रययोगप्रकीर्णके ॥६॥
अनिष्टयोगा: स्त्रीजन्मफलं निर्याणमेंव च ।
नष्टजन्मविधानं च तथा द्रेष्काणलक्षणम् ॥७॥
जातकस्कन्धमें राशिभेद, ग्रहयोनि, (ग्रहोकी जाति, रूप और गुण आदि) वियोनिज (मानवेतर—जन्मफल), गर्भाधान, जन्म, अरिष्ट, आयुर्दाय, दशाक्रम, कर्माजीव (आजीविका), अष्टकवर्ग . राजयोग, नाभसयोग, चन्द्रयोग, प्रवज्यायोग, राशिशील, ग्रहदृष्टिफल, ग्रहोके भावफल, आश्रययोग, प्रकीर्ण, अनिष्टयोग, स्त्रीजातक—फल, निर्याण (मृत्युविषयक विचार), नष्ट—जन्म—विधान (अज्ञात जन्म—कालको जाननेका प्रकार) तथा द्रेष्काणों के स्वरूप—इन सब विषयोंका वर्णन है ॥४—७॥
संहिताशास्त्ररूपं च ग्रहचारोऽब्दलक्षणम् ।
तिथिवासरनक्षत्रयोगतिथ्यर्द्धसंज्ञका: ॥८॥
मुहूर्तोपग्रहा: सूर्यसंक्रान्तिर्गोचर: क्रमात् ।
चन्द्रताराबलं चैव सर्वलग्नार्तवाह्वय: ॥९॥
आधानपुंससीमन्तजातनामात्रभुक्तय: ।
चौलं कर्णच्छिदा मौञ्जी क्षुरिकाबन्धनं तथा ॥१०॥
समावर्तनवैवाहप्रतिष्ठासद्मलक्षणम् ।
यात्रा प्रवेशनं सद्योवृष्टि: कर्मविलक्षणम् ॥११॥
उत्पत्तिलक्षणं चैव सर्व संक्षेपतो ब्रुवे ।
अब संहितास्कन्धके स्वरूपका परिचय दिया जाता है । उसमें ग्रहचार (ग्रहोकी गति), वर्षलक्षण, तिथि, दिन, नक्षत्र, योग, करण, मुहूर्त, उपग्रह, सूर्य—संक्रन्ति, ग्रहगोचर, चन्द्रमा और ताराका बल, सम्पूर्ण लग्नों तथा ऋतुदर्शनका विचार, गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्न—प्राशन, चूडाकरण, कर्णवेध, उपनयन, मौञ्जीबन्धन (वेदारम्भ), क्षुरिकाबन्धन, समावर्तन, विवाह, प्रतिष्ठा, गृहलक्षण, यात्रा, गृहप्रवेश, तत्काल वृष्टिज्ञान, कर्मवैलक्षण्य तथा उत्पत्तिका लक्षण—इन सब विषयोंका संक्षेपसे वर्णन करूँगा (११ . १ / २॥)
एकं दश शतं चैव सहस्रायुतलक्षकम् ॥१२॥
प्रयुतं कोटिसंज्ञा चार्बुदमब्जं च खर्वकम् ।
निखर्वं च महापद्यं शङ्कुर्जलधिरेव च ॥१३॥
अन्त्यं मध्यं परार्द्धं च संज्ञा दशगुणोत्तरा: ।
क्रमादुत्क्रुमतो वापि योग: कार्योऽन्तरं तथा ॥१४॥
हन्याद्रुणेन गुण्यं स्यात् तेनैवोपान्तिमादिकान् ।
शुद्धयेद्धरो युदुणश्च भाज्यान्त्यात् तत्फलं मुने ॥१५॥
[ अब गणितका प्रकरण प्रारम्भ किया जाता है—] एक (इकाई), दश (दहाई), शत (सैकडा), सहस्त्र (हजार), अयुत (दस हजार), लक्ष (लाख), प्रयुत (दस लाख), कोटि (करोड), अर्बुद (द्स करोड), अब्ज (अरब), खर्व (दस अरब), निखर्व (खर्व), महापद्म (दस खर्व), शङ्कु (नील), जलधि (दस नील), अन्त्य (पद्म), मध्य (दस पद्म), परार्ध (शङ्ख) इत्यादि संख्याबोधक संज्ञाएँ उत्तरोत्तर दसगुनी मानी गयै हैं । यथास्थानीय अङ्कोंका योग या अन्तर क्रम या व्युत्क्रमसे करना चाहिये ॥१२—१४॥
गुण्यके अन्तिम अङ्को गुणकसे गुणना चाहिये । फिर उसके पार्श्ववर्ती अङ्कको भी उसी गुणकसे गुणना चाहिये । इस तरह आदि अङ्कतक गुणन करनेपर गुणनफल प्राप्त हो जता है, मुने ! इसी प्रकार भागफल जाननेके लिये भी यत्न करे । जितने अङ्कसे भाजकके साथ गुणा करनेपर भाज्यमेंंसे घट जाय, वही अङ्क लब्धि अथवा भागफल होता है ॥१५॥
समाङ्कघातो वर्ग: स्यात् तमेंवाहु: कृतिं बुधा: ।
अन्त्यात्तु विषमात्त्यक्त्वा कृतिं मूलं न्यसेत्पृथक् ॥१६॥
द्विगुणेनामुना भक्ते फलं मूले न्यसेत् क्रमात् ।
तत्कृतिं च त्यजेद्विप्र मूलेन विभजेत् पुन: ॥१७॥
एवं मुहुर्वर्गमूलं जायते च मुनीश्वर ।
दो समान अङ्कोंके गुणनफलको वर्ग कहा गया है । विद्वान् पुरुष उसीको कृति कह्ते हैं । (जैसे४ का वर्ग ४ * ४ = १६ और ९ का वर्ग ९ * ९ = ८१ होता है) [ वर्गमूल जाननेके लिये दाहिने अङ्कसे लेकर बायें अङ्कतक अर्थात् आदिसे अन्ततक विषम और समका चिह्न कर देना चाहिये । खडी लकीरको विषमका और पडीको समका चिह्न माना गया है ] । अन्तिम विशममें जितनें वर्ग घट सकें उतने घटा देना चाहिये । उस वर्गका मूल लेना और उसे पृथक् रख देना चाहिये ॥१६॥ फिर द्विगुणित मूलए सम अङ्कमें भाग दे और जो लब्धि आवे उसका वर्ग विषममें घटा दे, फिर उसे दूना करके पङक्तिमें रख दे । मुनीश्वर ! इस प्रकार बार—बार करनेसे पङक्तिका आधा वर्गमूल होता है ॥१७ १ / २॥
समत्र्यङ्कहति: प्रोक्तो घनस्तत्र विधि: पदे ॥१८॥
प्रोच्यते विषमं त्वाद्यं समें द्वे च तत: परम् ।
विशोध्यं विषमादन्त्याद्घनं तन्मूलमुच्यते ॥१९॥
त्रिनिघ्याप्तं मूलकृत्या समं मूले न्यसेत् फलम् ।
तत्कृतिञ्चान्त्यनिहतान्त्रिघ्नीं चापि विशोधयेत् ॥२०॥
घनं च विषमादेवं घनमूलं मुहुर्भवेत् ।
समान तीन अङ्कोंके गुणनफलको ‘घन’ कहा गया है । अब घनमूल निकालनेकी विधि बतायी जाती है—दाहिनेके प्रथम अङकपर घन या विषमका चिह्न (खडी लकीरके रूपमें) लगावे, उसके वामभागमें पार्श्ववर्ती दो अङ्कोंपर (पडी लकीरके रूपमें) अघन या समका चिह्न लगावे । इसी प्रकार अन्तिम अङ्कतक एक घन (विषम) और दो अघन (सम)—के चिह्न लगाने चाहिये । अन्तिम या विषम घनमें जितने घन घट सकें उतने घटा दे । उस घनको अलग रखें । उसका घनमूल ले और उस घनमूलका वर्ग करे, फिर उसमें तीनसे गुणा करे । उससे आदि अङ्कमें भाग दे, लब्धिको अलग लिख ले, उस लब्धिका वर्ग करे और उसमें अन्त्य (प्रथम मूलाङ्क) एवं तीनसे गुणा करे, फिर उसेक बादके अङ्कमें उसे घटा दे तथा अलग रखी हुई लम्धिके घनको अगले घन अङ्कमें घटा दे, इस प्रकार बार—बार करनेसे घनसूल सिद्ध होता है ॥२० . १ / २॥
अन्योन्यहारनिहतौ हरांशौ तु समच्छिदा ॥२१॥
लवा लवघ्नाश्च हरा हरघ्ना हि सवर्णनम् ।
भागप्रभागे विज्ञेयं मुने शास्त्रार्थचिन्तकै: ॥२२॥
अनुबन्धेऽपवाहे चैकस्य चेदधिकोनक: ।
भागास्तलस्थहारेण हारं स्वांशाधिकेन तान् ॥२३॥
ऊनेन चापि गुणयेद्धनर्णं चिन्तयेत् तथा ।
कार्यस्तुल्यहरांशानां योगश्चाप्यन्तरो मुने ॥२४॥
अहारराशौ रूपं तु कल्पयेद्धरमप्यथ ।
अंशाहतिश्छेदघातहृद्भिन्नगुणने फलम् ॥२५॥
छेदं चापि लवं विद्वन् परिवर्त्य हरस्य च ।
शेष: कार्यो भागहोर कर्तव्यो गुणनाविधि: ॥२६॥
भिन्न अङ्कोंके परस्पर हरसे हर (भाजक) और अंश (भाज्य) दोनोंको गुण देनेसे सबके नीचे बराबर हर हो जाता है । भागप्रभागमें अंशको अंशसे और हरको हरसे गुणा करना चाहिये । भागानुबन्ध एवं भागापवाहमें यदि एक अङ्क अपने अंशसे अधिक या ऊन होवे तो तलस्थ हरसे ऊपरवाले हरको गुण देना चाहिये । उसके बाद अपने अंशसे अधिक ऊन किये हुए हरसे (अर्थात् भागनुबन्धमें हर अंशका योग करके और भागापवाहमें हर अंशका अन्तर करके) अंशको गुण देना चाहिये । ऐसा करनेसे भागानुबन्ध और भागापवाहका फल सिद्ध होगा । जिसके नीचे हर न हो उसके नीचे एक हरकी कल्पना करनी चाहिये । भिन्न गुणन—साधनमें अंश—अंशका गुणन करना और हर—हरके गुणनसे भाग देना चाहिये । इससे भिन्न गुणनमें फलकी सिद्धि होगी । (यथा २ / ७ * ३ / ८ यहाँ २ और ३ अंश हैं और ७, ८ हर हैं, इनमें अंश—अंशसे गुणा करनेपर २ * ३ = ६ हुआ और हर—हरके गुणनसे ७ * ८ = ५६ हुआ । फिर ६ * ५६ करनेसे ६ / ५६ जिसे दोसे काटनेपर ३ / २८ उत्तर हुआ) ॥२१—२५॥ विद्वन् ! भिन्न संख्याके भागमेंं भाजकके हर और अंशको परिवर्तित कर (हरको अंश और अंशको हर बनाकर) फिर भाज्यके हर—अंशके साथ गुणन—क्रिया करनी चाहिये, इससे भागफल सिद्ध होता है । (यथा ३ / ८ ४ / ५ मेंं हर और अंशके परिवर्तनसे ३ / ८ * ५ / ४ = १५ * ३२ यही भागफल हुआ) ॥२६॥
हरांशयो: कृती वर्गे घनौ घनविधौ मुने ।
पदसिद्धयै पदे कुर्यादथो खं सर्वतश्च खम् ॥२७॥
भिन्नङ्के वर्गादि—साधनमें यदि वर्ग करना हो तो हर और अंश दोनोंका वर्ग करे तथा घन करना हो तो दोनोंका घन करे । इसी प्रकार वर्गमूल निकालना हो तो दोनोंका वर्गमूल और चनमूल निकालना हो तो भी दोनोंका घनमूल निकालना चाहिये । (यथा—३ / ७ का वर्ग हुआ ९ / ४९ और मूल हुआ ३ / ७, इसी प्रकार ३ / ७ का घन हुआ २७ / ३४३ और मूल हुआ ३ / ७) ॥२७॥
छेदं गुणं गुं छेदं वर्गं मूलं पदं कृतिम् ।
ऋणं स्वं स्वमृणं कुर्याददृश्ये राशिप्रसिद्धये ॥२८॥
अथ स्वांशाधिकोने तु लवाढयोनो हरो हरा।
अंशस्त्वविकृतस्तत्र विलोमें शेषमुक्तवत् ॥२९॥
विलोमविधिसे राशि जाननेके लिये दृश्यमें हरको गुणक, गुणकको हर, वर्गको मूल, मूलको वर्ग, ऋणको धन और धनको ऋण बनाकर अन्तमें उलटी क्रिया करनेसे राशि (इष्ट संख्या) सिद्ध होती है । विशेषता यह है कि जहाँ अपना अंश जोडा गया हो वहाँ हरमें अंशको जोडकर और जहाँ अपना अंश घटाया गया हो, वहाँ हरमें अंशको घटाकर हर कल्पना करे और अंश ज्यों—का—त्यों रहे । फिर दृश्य राशिमें विलोम क्रिया उक्त रीतिसे करे तो राशि सिद्ध होती है ॥२८—२९॥
उद्दिष्टराशि: संक्षुण्णो हृतोंऽशैं रहितो युत: ।
इष्टघ्नदृष्टमेंतेन भक्तं राशिरितीरितम् ॥३०॥
अभीष्ट संख्या जाननेक लिये इष्ट राशिकी कल्पना करनी चाहिये । फिर प्रश्रकर्ताके कथनानुसार उस राशिको गूणा करे या भाग दे । कोई अंश घटानेको कहा गया हो तो घटावे और जोडनेको कहा गया हो तो जोड दे अर्थात् प्रश्रमें जो—जो क्रियाएँ कही गयी हो, वे इष्टराशिमें करके फिर जो राशि निष्पन्न हो, उससे कल्पित इष्ट—गुणित दृष्टमें भाग दे, उसमें जो लब्धि हो, वही इष्ट राशि है१ ॥३०॥
योगोऽन्तरेणोनयुर्तोऽर्धितो राशी तु संक्रमें ।
राश्यन्तरह्रतं वर्गान्तरं योगस्ततश्व तौ ॥३१॥
संक्रमण—गणितमें (यदि दो संख्याओंका योग और अन्तर ज्ञात हो तो) योगको दो जगह लिखकर एक जगह अन्तरको जोडकर आधा करे तो एक संख्याका ज्ञान होगा और दूसरी जगह अन्तरको घटाकर आधा करे तो दूसरी संख्या ज्ञात होगी—इस प्रकार दोनों राशियाँ (संख्याएँ) ज्ञात हो जाती है । वर्गसंक्रमणमें (यदि दो संख्याओंका वर्गान्तर तथा अन्तर ज्ञात हो तो) वर्गान्तरमें अन्तरसे भाग देनेपर जो लब्धि आती है, वही उनका योग है; योगका ज्ञान हो जानेपर फिर पूर्वोक्त प्रकारसे दोनों संख्याओंका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये ॥३१॥
गजघ्नीष्टकृतिर्व्येका दलिता चेष्टभाजिता ।
एकोऽस्य वर्गो दलित: सैको राशि: परो मत: ॥३२॥
द्विगुणेष्टहृतं रूपं सेष्टं प्राग्रूपकं परम् ।
वर्गयोगान्तरे व्येके राश्योर्वर्गौ स्त एतयो: ॥३३॥
इष्टवर्गकृतिश्चेष्टघनोऽष्टघ्नौ च सैकक: ।
आद्य: स्यातामुभे व्यक्ते गणितेऽव्यक्त एव च ॥३४॥
वर्गकर्मगणितमें४ इष्टका वर्ग करके उसमें आठसे गुणा करे, फिर एक घटा दे, उसका आधा करे । तत्पश्चात्—उसमें इष्टसे भाग दे तो एक राशि ज्ञात होगी । फिर उसका वर्ग करके आधा करे और उसमें एक जोड दे तो दूसरी संख्या ज्ञात होगी५ ॥३२॥
अथवा कोई इष्ट—कल्पना करके उस द्विगुणित इष्टसे १ में भाग देकर लब्धिमें इष्टको जोडे तो प्रथम संख्या होगीऔर दूसरी संख्या १ होगी । ये दोनों संखाएँ वे ही होगी, जिनके वर्गोंके योग और अन्तरमें एक घटानेपर भी वर्गाङ्क ही शेष रहता है ॥३३॥ किसी इष्टके वर्गका वर्ग तथा पृथक् उसीका घन करके दोनोंको पृथक्—पृथक् आठसे गुणा करे । फिर पहलेमें एक जोडे तो दोनों संख्याएँ ज्ञात होगी । यह विधि व्यक्त और अव्यक्त दोनों गणितोंमें उपयुक्त है ॥३४॥
गुणघ्नमूलोनयुते सगुणार्धकृते: पदम् ।
दृष्टस्य च गुणर्धोनयुतं वर्गीकृतं गुण: ॥३५॥
यदा लवोनयुग्राशिर्दृश्यं भागोनयुग्भुवा ।
भक्तंतथा मूलगुणं ताभ्यां साध्योऽथ व्यक्तवत् ॥३६॥
गुणकर्म अपने इष्टङ्कुगुणित मूलसे ऊन या युक्त होकर यदि कोई संख्या दृश्य हुई हो तो मूल गुणकके आधेका वर्ग दृश्य—संख्यामें जोडकर मूल लेना चाहिये । उसमें क्रमसे मूल गुणकके आधा जोडना और घटाना चाहिये । (अर्थात जहाँ इष्टगुणितमूलसे ऊन होकर दृश्य हो वहाँ गुणकार्धको जोडना तथा यदि इष्टगुणितमूलयुक्त होकर दृश्य हो तो उक्त मूलमें गुणकार्ध घटाना चाहिये) फिर उसका वर्ग कर लेनेसे प्रश्रकर्ताकी अभीष्ट राशि (संख्या) सिद्ध होती है । यदि राशि मूलोन या मूलयुक्त होकर पुन: अपने किसी भागसे भी ऊन या युत होकर दृश्य होती हो तो उस भागको १ में ऊन या युत कर यदि भाग ऊन हुआ हो तो घटा करके और (यदि युत हुआ हो तो जोड करके) उसके द्वारा पृथक्—प्रुथक् दृश्य और मूल गुणकमें भाग दे; फिर इस नूतन दृश्य और मूलगुणकसे पूर्ववत् राशिका साधन करना चाहिये ॥३५—३६॥
प्रमाणेच्छे सजातीये आद्यन्ते मध्यगं फलम् ।
इच्छाघ्नमाद्यह्रत्स्वेष्टं फलं व्यस्ते विपर्ययात् ॥३७॥
(त्रैराशिकमें) प्रमाण और इच्छा ये समान जातिके होते है, इन्हें आदि और अन्तमें रखे, फल भिन्न जातिका है, अत: उसे मध्यमें स्थापित करे । फलको इच्छासे गुणा करके प्रमाणके द्वारा भाग देनेसे लब्धि इष्टफल होती है । (यह क्रम त्रैराशिक बताया गया है ।) व्यस्त त्रैराशिकमें इससे विपरीत क्रिया करनी चाहिये । अर्थात् प्रमाण—फलको प्रमाणसे गुणा करके इच्छासे भाग देनेपर लब्धि इष्टफल होती है । (प्रमाण, प्रमाण—फल और इच्छ—इन तीन राशियोंको जानकर इच्छाफल जाननेकी क्रियाको त्रैराशिक कहते हैं ।) ॥३७॥
पञ्चराश्यादिकेऽन्योपक्षं कृत्वा फलच्छिदाम् ।
बहुराशिवधे भक्ते फलं स्वल्पवधेन च ॥३८॥
इष्टकर्मविधेर्मूलं च्युतं मिश्रात् कलान्तरम् ।
मानघ्नकालश्चातीतकालघ्नफलसंहृता: ॥३९॥
स्वयोगभक्ता मिश्रघ्ना: सम्प्रयुक्तदलानि च ।
पञ्चराशिक, सप्तराशिक (नवराशिक, एकादशराशिक) आदिमें फल और हरोंको परस्पर पक्षमें परिवर्तन करके (प्रमाण—पक्षवालेको इच्छा—पक्षमें और इच्छा—पक्षवालेको प्रमाण—पक्षमें रखकर) अधिक राशियोंके घातमें अल्पराशिके घातसे भाग देनेपर जो लब्धि आवे, वही इच्छाफल है ॥३८॥ मिश्रधनको इष्ट मानकर इष्टकर्मसे मूलधनका ज्ञान करे, उसको मिश्रधनमें घटानेसे कलान्तर (सूद) समझना चाहिये । अपने—अपने प्रमाण धनसे अपने—अपने कालको गुणा करना, उसमें अपने—अपने व्यतीत काल और फलके घात (गुणा)—से भाग देना, लब्धिको पृथक् रहने देना, उन सबमें उन्हींके योगका पृथक्—पृथक् भाग देना तथा सबको मिश्रधनसे गुणा कर देना चाहिये । फिर क्रमसे प्रयुक्त व्यापारमें लगाये हुए धनखण्डके प्रमाण ज्ञात होते हैं ॥३९ . १ / २॥
बहुराशिफलात् स्वल्पराशिमासफलं बहु ॥४०॥
चेद्राशिजफलं मासफलाहतिहृतं चय: ।
पञ्चराशिकादिमें फल और हरको अन्योन्य पक्षनयन करनेसे इच्छा—पक्षमें फलके चले जानेसे इच्छापक्ष बहुराशि और प्रमाण—पक्ष स्वल्पपराशि माना गया है । इसी गणितके उदाहरणमें जब इच्छाफल जानकर मूलधन जानना होगा तो फलोंको परस्पर पक्षमें परिवर्तन करनेसे प्रमाण—पक्ष (स्वल्पराशि) का फल ही बहुराशि (इच्छापक्ष)—से अधिक होगा । यहाँ राशिजफलको इष्टमास और प्रमाण—फलके गुननसे भाग देनेपर मूलधन होता है ॥४० . १ / २॥
क्षेपा मिश्रहता: क्षेपयोगभक्ता: फलानि चा ॥४१॥
भजेच्छिदोंऽशैस्तैर्मिश्रै रूपं कालश्च पूर्तिकृत् ।
प्रक्षेप (पूँजीके टुकडे)—को पृथक्—मिश्रधनसे गुण देना और उसमें प्रक्षेपके योगसे भाग देना चाहिये । इससे पृथक्—पृथक् फल ज्ञात होते हैं । वापी आदि पूरणके प्रश्रमें—अपने—अपने अंशोंसे हरमें भाग देना, फिर उस सबके योगसे १ में भाग देनेपर वापीके भरनेके समयका ज्ञान होता है२ ॥४१ . १ / २॥
गुणो गच्छेऽसमें व्येके समें वर्गोऽर्धितेऽन्तत: ॥४२॥
यद् गच्छान्तफलं व्यस्तं गुणवर्गभवं हि तत् ।
व्येकं व्येकगुणाप्तं च प्राग्घ्नं मानं गुणात्तरे ॥४३॥
(द्विगुणचयादि—वृद्धिमें फलका साधन)—(जहाँ द्विगुण—त्रिगुण आदि चय हो वहाँ) पद यदि विषम संख्य (३, ५, ७ आदि) हो तो उसमें १ घटाकर गुणक लिखे । यदि पद सम हो तो आधा करके वर्गचिह्न लिखे । इस प्रकार एक घटाने और आधा करनेमें भी जब विषमाङ्क हो तब गुणकचिह्न, जब समाङ्क हो तब वर्गचिह्न करना एवं जबतक पदकी कुल संख्या समाप्त न हो जाय तबतक करते रहना चाहिये । फिर अन्त्य चिह्नसे उलटा गुणज और वर्गफल साधन करके आद्य चिह्नतक जो फल हो, उसमें १ घटाकर शेषमें एकोन गुणकसे भाग देना चाहिये । लब्धिको आदि अङ्कसे गुणा करनेपर सर्वधन होता है ॥४२—४३॥
भुजकोटिकुतेर्योगमूलं कर्णश्च दोर्भवेत् ।
श्रुतिकोटिकृतेरन्त: पदं दो: कर्णवर्गयो: ॥४४॥
विवराद् यत्पदं कोटि: क्षेत्रे त्रिचतुरस्त्रके ।
राश्योरन्तरवर्गेण द्विघ्ने घाते युते तयो: ॥४५॥
वर्गयोगोऽथ योगान्तर्हतिर्वर्गान्तरं भवेत् ।
(क्षेत्रव्यवहार—प्रकरण)—भुज और कोटिके वर्गयोगका मूल कर्ण होता है, भुज और कर्णके वर्गान्तरका मूल कोटि होता है तथा कोटि एवं कर्णके वर्गान्तरका मूल भुज होता है—यह बात त्रिभुज अथवा चतुर्भुज क्षेत्रके लिये कही गयी है । अथवा राशिके अन्तरवर्गमें उन्हीं दोनों राशियोंका द्विगुणित घात (गुणनफल) जोड दें तो वर्गयोग होता है अथवा उन्हीं दोनों राशियोंके योगान्तरका घात वर्गान्तर होता है ॥४५ . १ / २॥
व्यास आकृतिसंक्षुण्णोऽद्रयाप्त: स्यात् परिधिर्मुने ॥४६॥
ज्याव्यासयोगविवराहतमूलोनितोऽर्धित: ।
व्यास: शर: शरोनाच्च व्यासाच्छरगुणात् पदम् ॥४७॥
द्विघ्नं जीवाथ जीवार्धवर्गे शरहृते युते ।
व्यासो वृत्ते भवेदेवें प्रोक्तं गणितकोविदै: ॥४८॥
मुने ! व्यासको २२ से गुण देना और ७ से भाग देना चाहिये, इससे स्थूल परिधिका ज्ञान होता है ॥४६॥ ज्या (जीवा) और व्यासका योग एक जगह रखना और अन्तरको दूसरी जगह रखना चाहिये । फिर इन दोनोंका घात (गुणा) करना चाहिये । उस गुणका मूल लेना और उसको व्यासमें घटा देना चाहिये । फिर उसका आधा करे, वही ‘शर’ होगा । व्यासमें शरको घटाना, अन्तरको शरसे गुण देना, उसका मूल लेना और उसे दूना करना चाहिये तो ‘जीवा’ हो जायगी । जीवाका आधा करके उसका वर्ग करना, शरसे भाग देना और लब्धिमें शरको जोड देना चाहिये, तो व्यासका मान होगा ॥४७—४८॥
चापोननिघ्न: परिधि: प्रागाख्य: परिधे: कृते: ।
तुर्त्यांशेन शरघ्नेनाद्योनेनाद्यं चतुर्गुणम् ॥४९॥
व्यासघ्नं प्रभजेद्विप्र ज्यका संजायते स्फुटा ।
ज्याङघ्नीषुघ्नोवृत्तवर्गोऽब्धिघ्नव्यासाढयामौर्विहृत् ॥५०॥
लब्धोनवृत्तवर्गाङ्घ्रे: पदेऽर्धात् पतिते धनु: ।
परिधिसे चापको घटाकर शेषमें चापसे ही गुणा करनेपर गुणनफल ‘प्रथम’ कहलाता है । परिधिका वर्ग करना, उसका चौथा भाग लेना, उसे पाँचसे गुणा करना और उसमें ‘प्रथम’ को घटा देना चाहिये । यह भाजक होगा । चतुर्गुणित व्यासको प्रथमसे गुण देना, यह भाज्य हुआ । भाज्यमें भाजकसे भाग देना, यह जीवा हो जायगी २ ॥४९ . १ / २॥ व्यासको चारसे गुणा करके उसमेंं जीवाको जोड देना, यह भाजक हुआ । परिधिके वर्गको जीवाकी चौथाई औ पाँचसे गुण देना, यह भाज्य हुआ । भाजकसे भाज्यमें भाग देना, जो लब्धि आवे, उसे परिधिवर्गके चतुर्थांशमें घटा देना और शेषका मूल लेना, उसे वृत्त (परिधि) के आधेमें घटा देनेपर तो धनु (चाप) होगा ॥५० . १ / २॥
स्थूलमध्याण्वन्नवेधो वृत्ताङ्काशेशभागिक: ॥५१॥
वृभाङ्गांशकृतिर्वेधनिघ्नी घनकरा मितौ ।
वारिव्यासहतं दैर्घ्यं वेधाङ्गुलहतं पुन: ॥५२॥
खखेन्दुरामविहृतं मानं द्रोणदि वारिण: ।
विस्तारयामवेधानामङ्गुल्योऽन्योन्यताडिता: ॥५३॥
रसाङ्काभ्राब्धिभिर्भक्त धान्ये द्रोणादिका मिति: ।
उत्सेधव्यासदैर्घ्याणामङ्गुलान्यश्मनो द्विज ॥५४॥
मिथोघ्नानि भजेत् खाक्षेशैर्द्रोणदिमितिर्भवेत् ।
विस्ताराद्यडगुलान्येवं मिथोघ्नान्ययसां भवेत् ॥५५॥
बाणेभमार्गणैर्लब्धं द्रोणाद्यं मानमादिशेत् ।
(अन्नादि राशि—व्यवहार) राशि—व्यवहारमें स्थूल, मध्यम, सूक्ष्म, अन्नराशियोंमें क्रमश: उनकी परिधिका नवमांश, दशमांश और एकादशांश वेध होता है । परिधिका षष्ठांश लेकर उसका वर्ग करना और उसे वेधसे गुण देना चाहिये । उसका नाम ‘घनहस्त’ होगा । जलके व्यास (चौडाई)—से लंबाईको गुण देना, फिर उसीको गहराईके अंगुल—मानसे गुण देना तथा ३१०० से भाग देना चाहिये । इससे जलका द्रोणात्मक मान ज्ञात होगा ॥५२ . १ / २॥ चौडाई, गहराई और लंबाईके अंगुलात्मक मानको परस्पर गुण देना और उसमें ४०९६ से भाग देना तो अन्नका द्रोणादि मान होगा । ऊँचाई, व्यास (चौडाई) और लंबाईके अंगुलात्मक मानको परस्पर गुण देना और ११५० से भग देना चाहिये; वह पत्थरका द्रोणात्मक मान होगा । विस्तार आदिके अंगुलात्मक मानको परस्पर गुणा करना चाहिये और ५८५ से भाग देना चाहिये, तो लब्धि लोहेके द्रोणात्मक मानका सूचक होती है ॥५५ . १ / २॥
दीपशङ्कुतलच्छिघ्न: शङ्कुर्भा भवेन्मुने ॥५६॥
नरोनदीपकशिखौच्यभक्तो ह्यथ भोद्धते ।
शङ्कु नृदीपाधश्छिद्र्घ्ने दीपौच्च्यं नरान्विते ॥५७॥
विशङ्कुदीपौच्चगुणा छाया शङ्कुद्धता भवेत् ।
दीपशङेक्वेन्त चाथच्छायाग्रविवरघ्नभा ॥५८॥
मानान्तरहृता भूमि: स्यादथो भूनराहति: ।
प्रभाप्त जायते दीपशिखौच्च्यं स्यात् त्निराशिकात् ॥५९॥
एतत्संक्षेपत: प्रोक्तं गणिते परिकर्मकम् ।
ग्रहमध्यादिकं वक्ष्ये गणिते नातिविस्तरात् ॥६०॥
छाया—साधनमें प्रदीप और शङ्कुतलका जो अन्तर हो उससे शङ्कुको गुण देना और दीपककी ऊँचाईमें शङ्कुको घटाकर उससे उस गुणित शङ्कुमें भाग देना तो छायाका मान होगा । शङ्कु और दीपतलके अन्तरसे शङ्कुको गुण देना और छायासे भाग देना; फिर लब्धिमें शङ्कुको जोड देना तो दीपककी ऊँचाई हो जायगी । शङ्कुसे भाग देना और तो शङ्कु तथा दीपकका अन्तर ज्ञात होगा । छायाग्रके अन्तरसे छायाको गुण देना छायाके प्रमाणान्तरसे भाग देना तो ‘भू’ होगी । ‘भू’ और शङ्कुका घाण (गुणा) करना और छायासे भाग देना तो दीपककी ऊँचाई होगी । उपर्युक्त सब बातोंका ज्ञान त्रैराशिकसे ही होता है । यह परिकर्मगणित मैंने संक्षेपसे कहा । अब ग्रहका मध्यादिक गणित बताता हूँ, वह भी अधिक विस्तारसे नहीं ॥५६—६०॥
युगमानं स्मृतं विप्र खचतुष्करदार्णवा: ।
तद्दशांशास्तु चत्त्वार: कृताख्यं पदमुच्यते ॥६१॥
त्रयस्त्रेता द्वापरो द्वौ कलिरेक: प्रकीर्तित: ।
मनु: कृताब्दसहिता युगानामेंकसप्तति: ॥६२॥
विधेर्दिने स्युर्विप्रेन्द्र मनवस्तु चतुर्दश ।
तावत्येव निशा तस्य विप्रेन्द्र परिकीर्तिता ॥६३॥
स्वयम्भुव: सृष्टिगतानब्दान् सम्पिण्डय नारद ।
खचरानयनं कार्यमथवेष्टयुगादित: ॥६४॥
विप्रवर ! चारों युगोंका सम्मिलित मान तैंतालीस लाख बीस हजार वर्ष बतलाया गया है । उसके दशांशमेंं चारका गुणा करनेपर सत्ययुग नामक पाद होगा । (उसका मान १७ लाख २८ हजार वर्ष है) । दशांशमें तीनका गुणा करनेपर (१२९६००० वर्ष) है । त्रेता नामक पाद होता है । दशांशमें दोखा गुणा करनेपर (८६४००० वर्ष) द्वापर नामक पाद होता है और उक्त दशांशको एकगुना ही रखनेपर (४३२००० वर्ष) कलियुग नामक पाद कहा गया है । कृताब्दसहित (एक सत्ययुग अधिक) इकहत्तर चतुर्युगका एक मन्वन्तर होता है ॥६१—६२॥ ब्रह्मन् ! ब्रह्माजीके एक दिनमेंं चौदह मनु होते हैं और उतने ही सगयकी उनकी एक रात्रि होती है ॥६३॥ नारद ! ब्रह्माजीके वर्तमान कल्पमें जितने वर्ष बीत गये हैं, उन्हें एकत्र करके ग्रहानयन (ग्रह—साधन) करना चाहिये । अथवा इष्ट युगादिसे ग्रह—साधन करे ॥६४॥
युगे सूर्यज्ञशुक्राणां खचतुष्करदार्णवा: ।
कुजार्किगुरुशीघ्राणां भगणा: पूर्वयायिनाम् ॥६५॥
इन्दो रसाग्नित्रित्रीषुसप्तभूधरमार्गणा: ।
दस्त्रत्र्यष्टरसाङ्काक्षिलोचनानि कुजस्य तु ॥६६॥
बुधशीघ्रस्य शून्यर्तुखाद्रित्र्यङ्कनगेन्दव: ।
बृहस्पते: खदस्राक्षिवेदषडवह्नयस्तथा ॥६७॥
सितशीघ्रस्य षटसप्तत्रियमाश्चिखभूधरा: ।
शनेर्भुजङ्गषटपञ्चरसवेदनिशाकरा: ॥६८॥
चन्द्रोच्चस्याग्निशून्याश्विवसुसर्पार्णवा युगे ।
वामं पातस्य वस्वग्नियमाश्विशिखिदस्रका: ॥६९॥
एक युगमें पूर्व दिशाकी ओर चलते हुए सूर्य, बुध और शुक्रके ४३२०००० ‘भगण’ होते हैं । तथा मङ्गल, शनि और बृहस्पतिके शीघ्रोच्च भगण भी उतने ही होते हैं ॥६५॥ एक युगमें चन्द्रमाके भगण ५७७५३३३६ होते हैं। भौमके २२९६८३२, बुधके शीघ्रोच्चके १७९३७०६०, बृहस्पतिके ३६४२२०, शुक्रके शीघ्रोच्चके ७०२२३७६, शनिके १४६५६८ तथा चन्द्रमाके उच्चके भगण ४८८२०३ होते हैं। चन्द्रमाके पातकी वामगतिसम्बन्धी भगणोंकी संख्या २३२२३८ है ॥६६—६९॥
उदयादुदयं भानोर्भूमिसावनवासरा: ।
वसुद्वयष्टाद्रिरूपाङ्कसप्ताद्रितिथयो युगे ॥७०॥
षडवह्नित्रिहुताशाङ्कतिथयश्चाधिमासका: ।
तिथिक्षया यमार्थाश्विद्वयष्टव्योमशराश्विन: ॥७१॥
खचतुष्कसमुद्राष्टकुपञ्च रविमासका: ।
षट्त्र्यग्नित्रयवेदाग्निपञ्च शुभ्रांशुमासका: ॥७२॥
प्राग्गते: सूर्यमन्दस्य कल्पे सप्ताष्टवह्नय: ।
कोजस्य वेदखयमा बौधस्याष्टर्तुबह्नय: ॥७३॥
खखरन्ध्राणि जैवस्य शौक्रस्यार्थगुणेषव: ।
गोऽग्नय: शनिमन्दस्य पातानामथ नामत: ॥७४॥
मनुदस्रास्तु कोजस्य बौधस्याष्टाष्टसागरा: ।
कृताद्रिचन्द्रा जैवस्य शौक्रस्याग्निखनन्दका: ॥७५॥
शनिपातस्य भगणा: कल्पे यमरसर्वत: ।
सूर्यके एक उदयसे दूसरे उदयपर्यन्त जो दिनका मान होता है, उसे भौमवासर या सावन वासर कहते हैं । वे एक महायुग (चतुर्युग)—में १५७७९१७८२८ होते हैं । (चान्द्र दिवस १६०३००००८० होते हैं) । अधिमास १५९३३३६ होते हैं तथा तिथिक्षय २५०८२२५२ होते हैं ॥७०—७१॥ रविमासोंकी संख्या ५१८४०००० है । चान्द्र मास ५३४३३३३६ होते हैं ॥७२॥ पूर्वाभिमुख गतिके क्रमसे एक कल्पमें सूर्यके मन्दोच्च भगण ३८७, मङ्गलके मन्दोच्च भगण, २०४, बुधके मन्दोच्च ३६८, गुरुके मन्दोच्च ९००, शुक्रके मन्दोच्च ५३५ तथा शनिके मन्दोच्च भगण ३९ होते हैं । अब मङ्गल आदि ग्रहोके पातोंकी विलोमगति (पश्चिम—गमन)—के अनुसार एक कल्पमें होनेवाले भगण बताये जात हैं ॥७३—७४॥ भौमपातके भगण २१४, बुधपातके भगण ४८८, गुरुपातके भगण १७४, भृगुपातके भगण ९०३ तथा शनिपातके भगण ६६२ होते हैं ॥७५ . १ / २॥
वर्तमानयुगे याता वत्सरा भगणाभिधा: ॥७६॥
मासीकृता युता मासैर्मधुशुक्लादिभिर्गतै: ।
पृथक्स्थास्तेऽधिमासघ्ना: सूर्यमासविभाजिता: ॥७७॥
लब्धाधिमासकैर्युक्ता दिनीकृत्य दिनान्विता ।
द्विष्ठास्तिथिक्षयाभ्यसताश्चान्द्रवासरभाजिता: ॥७८॥
लब्धोनरात्रिरहिता लङ्कायामार्धरात्रिक: ।
सावनो द्युगण: सूर्याद दिनमासाब्दपास्तत: ॥७९॥
सप्तभि: क्षयित: शेष: सूर्याद्यो वासरेश्वर: ।
मासाब्ददिनसंख्याप्तं द्वित्रिघ्नं रूपसंयुतम् ॥८०॥
सप्तोद्धृतावशेषौ तौ विज्ञेयौ मासवर्षपौ ।
वर्तमान युग (जिस युगमें, जिस समयके अहर्गण या ग्रहादिका ज्ञान करना हो उस समय)—में सृष्टयादि काल या युगादिकालसे अबतक जितने वर्ष बीत चुके हो, वे सूर्यके भगण होते हैं । भगणको बारहसे गुणा करके मास बनाना चाहिये । उसमें ‘वर्तमान वर्षके’ चैत्र शुक्ल प्रतिपदासे लेकर वर्तमान मासतक जितने मास बीते हो, उनकी संख्या जोडकर योगफलको दो स्थानोंमें रखना चाहिये । द्वितीय स्थानमें रखे हुए मासगणको युगके उपर्युक्त अधिआसोंकी संख्यासे गुणा करके गुननफलमें युगके सूर्यसासोंकी संख्यासे भाग दे । फिर जो लब्धि हो, उसे अधिमासकी संख्या माने और उसको प्रथम स्थानस्थित मासगणमें जोडे । (योगफल बीते हुए चान्द्रमासोंकी संख्याका सूचक होता है) उस संक्याको तीससे गुणा करे (तो गुणनफल तिथि—संक्याका सूचक होता है), उसमें वर्तमान मासकी शुक्ल प्रतिपदासे इष्टतिथितककी संख्या जोडे (जोडनेसे चान्द्र दिनकी संख्या ज्ञात होती है) इसको भी दो स्थानोंमें रखे । दूसरे स्थानमें स्थित संख्याको युगके लिये कथित तिथिक्षय—संख्यासे गुणा करे । गुणनफलमें युगकी चान्द्र दिन (तिथि) संख्याके द्वारा भाग दे । जो लब्धि हो, वही तिथिक्षय—संख्या है, उसको प्रथम स्थानमें स्थित चान्द्र दिन—संख्यामेंसे घटा दे तो अभीष्ट दिनका लंकार्धरात्रिकालिक सावन दिनगण (अहर्गण) होता है । इससे दिनपति, मासपति और वर्षपतिका ज्ञान करे ॥७६—७९॥ यथा—दिनगणमें ७ से भाग देनेपर शेष बचे हुए १ आदि संख्याके अनुसार रवि आदि वारपति चाहिये । तथा दिनगणमें ३० से भाग देकर लब्धिको २ से गुणा करके गुणनफलमें १ जोड दे । फिर उसमें ७ से भाग देकर १ आदि शेष होनेपर रवि आदि मासपत्ति समझे । इसी प्रकार दिनगणमें ३६० से भाग देकर लब्धिको ३ से गुणा करके गुणनफलमें १ जोडे, फिर उसमें ७ से भाग देनेपर १ आदि शेष संख्याके सनुसार रवि आदि ‘वर्तमान’ वर्षपति होते हैं ॥८० . १ / २॥
ग्रहस्य भगणाभ्यस्तो दिनराशि: कुवासरै: ॥८१॥
विभाजितो मध्यगत्या भगणादिर्ग्रहो भवेत् ।
एवं स्वशीघ्रमन्दोच्चा ये प्रोक्ता: पूर्वयायिन: ॥८२॥
विलोमगतय: पातास्तद्वच्चक्राद् विशोधिता: ।
(मध्यमग्रहज्ञान)—युगके लिये कथित भगणकी संख्यासे दिनगणको गुणा करे । गुणनफलमें युगकी कुदिन (सावनदिन)—संख्यासे भाग देनेपर भगणादि ग्रह लंकार्धरात्रिकालिक होता है । इसी प्रकार पूर्वाभिमुख गतिवाले जो शीघ्रोच्च और मन्दोच्च कहे गये हैं, उनके भगणके द्वारा उनका भी साधन होता है । विलोम (पश्चिमाभिमुख) गतिवाले जो ग्रहोके पातभगण कहे गये हैं, उनके द्वारा इसी प्रकार जो पात सिद्ध हो, उनको १२ राशिमें घटानेसे शेषको मेंषादि—क्रमसे राश्यादिपात समझना चाहिये४ ॥८२ . १ / २॥
योजनानि शतान्यष्टौ भूकर्णो द्विगुणानि तु ॥८३॥
तद्वर्गतो दशगुणात् पदं भूपरिधिर्भवेत् ।
लम्बज्याघ्नस्व्रिजीवाप्त: स्फुटो भूपरिधि: स्वक: ॥८४॥
(भूपरिधिप्रमाण)—पृथ्वीका व्यास १६०० योजन है । इस (१६००)—के वर्गको १० से गुणा करके गुणुनफलका मूल भूमध्यपरिधि होता है; अर्थात् वर्गमूलकी जो संख्या हो, उतने योजनकी पृथ्वीकी परिधि जाननी चाहिये । इस भूमध्य—परिधिकी संख्याको अपने—अपने लम्बांश—ज्यासे गुणा करके उसमें त्रिज्या (३४३८)—से भाग देकर जो लब्धि हो, वह स्पष्ट भूपरिधिकी योजन—संख्या होती है ॥८३—८४॥
तेन देशान्तराभ्यस्ता ग्रहभुक्तिर्विभाजिता ।
कलादि तत्फलं प्राच्यां ग्रहेभ्य: परिशोधयेत् ॥८५॥
रेखाप्रतीचीसंस्थाने प्रक्षिपेत् स्यु: स्वदेशजा: ।
राक्षसालयदेवौक: शैलयोर्मध्यसूत्रगा: ॥८६॥
अवन्तिकारोहितकं यथा सन्निहितं सर: ।
वारप्रवृत्ति: प्राग्देशे क्षपार्धेऽभ्यधिके भवेत् ॥८७॥
तद्देशान्तरनाडीभि: पश्चादूने विनिर्दिशेत् ।
(ग्रहोमें देशान्तर—संस्कार)—ग्रहकी कलादि मध्यम गतिको देशान्तर—योजन (रेखादेशसे जितने योजन पूर्व या पश्चिम अपना स्थान ओह उस)—से गुणा करके गुणनफलमें ‘स्पष्टभूपरिधि—योजन’ के द्वारा भाग देनेपर जो लब्धि हो, वह कला आदि है । उस लब्धिको रेखासे पूर्व देशमें पूर्वसाधित ग्रहमें घटानेसे और पश्चिम देशमें जोडनेसे स्वस्थानीय अर्धरात्रिकालिक ग्रह होता है ॥८५ . १ / २॥
(रेखा—देश)—लङ्कासे सुमेंरुपर्वतपर्यन्त याम्योत्तर—रेखामें जो—जो देश (स्थान) हैं, वे रेखा—देश कहलाते हैं। जैसे उज्जयिनी, रोहितक, कुरुक्षेत्र आदि ॥८६ . १ / २॥
(वार—प्रवृत्ति)—भूमध्यरेखासे पूर्वदेशमें रेखा—देशीय मध्यरात्रिसे, देशान्तर घटीतुल्य पीछे और रेखासे पश्चिम देशमें मध्यरात्रिसे देशान्तर घटीतुल्य पूर्व ही वार—प्रवृत्ति (रवि—आदि वारोंका आरम्भ) होती है ॥८७—१—२॥
इष्टनाडीगुणा भुक्ति: षष्टया भक्ता कलादिकम् ॥८८॥
गते शोद्धयें तथा योज्यं गम्ये तात्कालिको ग्रह ।
भचक्रलिप्ताशीत्यंशं परमं दक्षिणोत्तरम् ॥८९॥
विक्षिप्यते स्वपातेन स्वक्रान्त्यन्तादनुष्णगु: ।
तन्नवांशं द्विगुणितं जीव्वस्त्रिगुणितम कुज: ॥९०॥
बुधशुक्रार्कजा: पातैर्विक्षिप्यन्ते चतुर्गुणम् ।
(इष्टकालमें मध्यम ग्रह जाननेकी विधि)—मध्यरात्रिसे जितनी घडी बाद ग्रह बनाना हो, उस संखासे ग्रहकी कलादि गतिको गुणा करके गुणनफलमें ६० से भाग देकर लब्धितुल्य कलादि फलको पूर्वसाधित ग्रहमें जोडनेसे तथा जितनी घडी मध्यरात्रिसे पूर्व ग्रह बनाना हो, उतनी संख्यासे गतिको गुणा करके गुणनफलमें ६० से भाग देकर कलादि फलको पूर्वसाधित ग्रहमें घटानेसे इष्टकालिक ग्रह होता है३ ॥८८ . १ / २॥
(चन्द्रादि ग्रहोके परम विक्षेप)—भचक्रकला (२१६००)—के ८० वाँ भाग (२७०) कलापर्यन्त क्रान्तिवृत्त (सूर्यके मार्ग)—से परम दक्षिण और उत्तर चन्द्रमा विक्षिप्त होता (हटता) है । एवं गुरु ६० कला, मङ्गल ९० कला, बुध, शुक्र और शनि—ये तीनों १२० कलापर्यन्त क्रान्तिवृत्तसे दक्षिण और उत्तर हटते रहते हैं ॥९० . १ / २॥
राशिलिप्ताष्टमो भाग: प्रथमं ज्यार्द्धमुच्यते ॥९१॥
तत्तद् विभक्तलब्धोनमिश्रितं तद् द्वितीयकम् ।
आद्ये नैवं क्रमात् पिण्डान् भक्त्वा लब्धोनसंयुता: ॥९२॥
खण्डका: स्युश्चतुर्विंशाज्यार्द्धपण्डा: क्रमादमी ।
परमापक्रामज्या तु सप्तरन्ध्रगुणेन्दव: ॥९३॥
तद्रुणा ज्या त्रिजीवाप्ता तच्चापं क्रान्तिरुच्यते ।
अभीष्ट जीवासाधनके लिये उपयोगी २४ जीवासाधन)—१ राशि—कला १८०० का आठवाँ भाग (२२५ कला) प्रथम जीवाध होता है । उस (प्रथम जीवार्ध) से प्रथम जीवार्धमें भाग देकर लब्धिको प्रथम जीवार्धमें ही घटाकर शेष (प्रथमखण्ड) को प्रथम जीवार्धमें ही जोडनेसे द्वितीय जीवार्ध होता है । इसी प्रकार प्रथम जीवासे ही द्वितीय जीवामें भाग देकर लब्धिको द्वितीय खण्डमें घटाकर शेषको द्वितीय जीवार्धमें जोडनेसे तृतीय जीवार्ध होता है । इसी तरह आगे भी क्रिया करनेसे क्रमश: २४ जीवार्ध सिद्ध३ होते हैं ॥९२ . १ / २॥
इस प्रकार सूर्यकी परमक्रान्तिज्या १३९७ होती है । इस (परमक्रान्तिज्या)—से ग्रहकी ज्या (भुजज्या) को गुणाकरके त्रिज्याके द्वारा भाग देनेसे ‘इष्टक्रान्ति—ज्या’ होती है । उसका चाप बनानेसे ‘इष्ट्क्रान्ति’ (मध्यमा) कहलाती है ॥९३ . १ / २॥
ग्रहं संशोध्य मन्दोच्चात् तथा शीघ्राद्विशोध्य च ॥९४॥
शेषं केन्द्रपदं तस्माद्भुजज्या कोटिरेव च ।
गताद्भुजज्याविषमें गम्यात् कोटि: पदे भवेत् ॥९५॥
युग्मे तु गम्याद्वहुच्या कोटिज्या तु गताद् भवेत् ।
लिप्तास्तत्त्वयमैर्भक्ता लब्धं ज्यापिण्डकं गतम् ॥९६॥
गतगम्यान्तराभ्यस्तं विभजेत्तत्त्वलोचनै: ।
तदवाप्तफलं योज्यं ज्यापिण्डे गतसंज्ञके ॥९७॥
स्यात्क्रमज्या विधिरयमुत्क्रमज्यास्वपि स्मृत: ।
ज्यां प्रोह्य शेषं तत्त्वाश्विहतं तद्विवरोद्धृतम् ॥९८॥
संख्यातत्त्वाश्विसंवर्गे संयोज्य धगुरुच्यते ।
(‘भुजज्या’ और ‘कोटिज्या’ बनानेकीरीति—) ग्रहोको अपने—अपने मन्दोच्चमें घटानेसे शेष उस ग्रहका ‘मन्द केन्द्र’ तथा शीघ्रोच्चमें घटानेसे शेष उस ग्रहका ‘शीघ्र केन्द्र’ कहलाता है । उस राश्यादि केन्द्रकी ‘भुजज्या’ और ‘कोटिज्या’ बनानी चाहिये । विषम (१, ३) पदमें ‘गत’ चपकी जीवा भुजज्या और ‘गम्य’ चापकी जीवा कोटिज्या कहलाती है । सम (२, ४) पदमें ‘गम्य’ चापकी जीवा ‘भुजज्या’ और ‘गत’ चापकी जीवा ‘कोट्ज्या’ होती है २ ॥९५ . १ / २॥
(इष्टज्या—साधन—विध)—जितने राश्यादि चापकी जीवा बनाना हो, उसकी कला बनाकर उसमें २५५ से भाग देकर जो लब्धि हो, उतनी संख्या (सिद्ध २४ ज्या—पिण्डमें) गत ज्यापिण्डकी संख्या समझे । शेष कलाको ‘गत ज्या’ और ‘गम्य ज्या’ के अन्तरसे गुणा करके २२५ से भाग देकर लब्ध कलादिको ‘गत ज्या \—पिण्डमें जोडनेसे ‘अभीष्ट ज्या’ होती है। ‘उत्क्रमज्या’ भी इसी विधिसे बनायी जाती है ॥९७ . १ / २॥
(जीवासे चाप बनानेकी विधि)—इष जीवाकी कलामें सिद्ध जीवापिण्डोंमेंसे जितनी संख्यायावाली जीवा घटे, उसको घटाना चाहिये । शेष कलाको २२५ से गुणा करके गुणनफलमें गत, गम्य जीवाके अन्तरसे भाग देकर जो लब्धि कलादि हो, उसको घटायी हुई सिद्ध—वी—संख्यासे गुणित २२५ में जोडनेसे इज्याला चाप होता है४ ॥९८ . १ / २॥
रवेर्मन्दपरिध्यंशा मनव: शीतगो रदा: ॥९९॥
युग्मान्ते विषमान्ते तु नखलिप्तोनितास्तयो: ।
युग्मान्तेऽर्थाद्रय: खाग्निसुरा: सूर्या नवार्णवा: ॥१००॥
ओजे द्वयगा वसुयमा रदा रुद्रा गजाब्धय ।
कुजादीनामत: शैघ्न्या युग्मान्तेऽर्थाग्निदस्त्रका: ॥१०१॥
गुणाग्निचन्द्र खनगा द्विरसाक्षीणि गोऽग्नय: ।
ओजान्ते द्वित्रियमला द्विविश्वे यमपर्वता: ॥१०२॥
खर्तुदस्त्रा वियद्वेदा: शीघ्रकर्मणि कीर्तिता: ।
ओजयुग्मान्तरगुणा भुजज्या त्रिज्ययोद्धृता ॥१०३॥
युग्मवृत्ते धरर्णं स्यादोजादूनाधिके स्फुटम् ।
(रवि और चन्द्रमाके मन्दपरिध्यंश)—समपदके अन्तमें सूर्यक १४ अंश और चन्द्रमाके ३२ अंश मन्दपरिधि मान होते हैं और विषमपदके अन्तमें २० कला कम अर्थात् सूर्यके १३।४० और चन्द्रमाके ३१।४० मन्दपरिध्यंश हैं ॥९९ . १ / २॥
(मङ्गलादि ग्रहोकी मन्द और शीघ्र परिधि)—समपदान्तमें मङ्गलके ७५, बुधके ३० गुरुके ३३, शुक्रके १२ और शनिके ४९ तथा विषमपदान्तमें मङ्गलके ७२, बुधके २८ . गुरुके ३२, शुक्रके ११ और शनिके ४८ मन्द परिध्यंश हैं। इसी प्रकार समपदके अन्तमें मङ्गलके २३५, बुधके १३३, गुरुके ७०, शुक्रके २६० और शनिके ४० शीघ्र परिध्यंश कहे गये हैं ॥१०२ . १ / २॥
(अभीष्ट स्थानमें परिधिसाधन)—अभीष्ट स्थानमें मन्द या शीघ्र परिधि बनानी हो तो उस ग्रहकी भुजज्याको विषम—समपदान्त—परिधिके अन्तरसे गुणा करके गुणनफलमें त्रिज्या (३४३८)—से भाग देकर जो अंशादि लब्धि हो, उसको समपदान्त—परिधिमें जोडने या घानेसे (विषमपदान्तसे समपदान्त कम हो तो जोडने अन्यथा घटानेसे) इष्टस्थानमें स्पष्ट मन्द या शीघ्र परिध्यंश होते हैं१ ॥१०३ . १ / २॥
तद्नुणे भुजकोटिज्ये भगणांशविभाजिते ॥१०४॥
तद्भुजज्याफलधनुर्मान्दं लिप्तादिकं फलम् ।
शैघ्यं कोटिफलं केन्द्रे मकरादौ धनं स्मृतम् ॥१०५॥
संशोघ्रयं तुत्रिजीवायाँ कर्क्यादौ कोटिजं फलम् ।
तद्वाहुफलवर्गैक्यान्मूलं कर्णश्वलाभिध: ॥१०६॥
त्रिज्याभ्यस्तं भुजफलं चलकर्णविभाजितम् ।
लब्धस्य चापं लिप्तादिफलं शैघ्रयमिदं स्मृतम् ॥१०७॥
एतदाद्ये कुजादीनां चतुर्थे चैव कर्मणि ।
मान्दं कर्र्मैकमर्केन्द्वोर्भौमादीनामथोच्यते ॥१०८॥
शैघ्य्रं मान्दं पुनर्मान्दं शैघ्य्रं चत्वार्यनुक्रमात् ।
(भुजफल—कोटिफल—साधन)—इस प्रकार साधित स्पष्ट परिधिसे ग्रहकी ‘भुजज्या’ और ‘कोटिज्या’ को पृथक—पृथक् गुणा करके भगणांश (३६०)—से भाग देकर लब्ध (भुजज्यासे) भुजफल और (कोटिज्यासे) कोटिफल होते हैं । एवं मन्द परिधिद्वारा मन्दफल और शीघ्र परिधिद्वारा शीघ्र—फल समझने चाहिये । यहाँ मन्द परिधिवश भुजज्याद्वारा जो भुजफल आवे, उसका चाप बनानेसे मन्द कलादि फल होता है ॥१०४ . १ / २॥
(शीघ्र कर्णसाधन—) पूर्वविधिसे शीघ्र परिधिद्वारा जो कोटिफल आवे, उसको मकरादि केन्द्र हो तो त्रिज्या (३४३८)—में जोडे । कर्कादि केन्द्र हो तो घटावे । जोड या घटाकर जो फल हो, उसके वर्गमें शीघ्र भुजफलके वर्गको जोड दे । फिर उसका मूल लेनेसे शीघ्र कर्ण होता है ॥१०५—१०६॥
(शीघ्र फलसाधन—) पूर्वविधिसे साधित शीघ्र भुजफलको त्रिज्यासे गुणा करके शीघ्र कर्णके द्वारा भाग देनेपरजो कलादि लब्धि हो, उसके चाप बनानेसे शीघ्र ‘भुजफल’ होता है । यह शीघ्रफल मङगलादि ५ ग्रहोमें प्रथम और चतुर्थ कर्ममें संस्कृत (धन या ऋण) किया जाता है ॥१०७ . १ / २॥
रवि और चन्द्रमामें केवल एक ही मन्दफलका संस्कार (धन या ऋण) किया जाता है । मुने ! अब मङ्गलादि ५ ग्रहोके संस्कारका वर्णन करता हूँ । उनमें प्रथम शीघ्रफलका, द्वितीय मन्दफलका, तृतीय भी मन्दफलका और चतुर्थ शीघ्रफलका संस्कार किया जाता है ॥१०८ . १ / २॥
अजादिकेन्द्रे सर्वेषां शैघ्य्रे मान्दे च कर्मणि ॥१०९॥
धनं ग्रहाणां लिप्तादि तुलादावृणमेंव तत् ।
अर्कबाहुफलाभ्यस्ता ग्रहभुक्तिर्विभाजिता ॥११०॥
भचक्रकलिकाभिस्तु लिप्ता: कार्या ग्रहेऽर्कवत् ।
(संस्कारविधि—) शीघ्र या मन्द केन्द्र मेंषादि (६ राशिके भीतर) हो तो शीघ्रफल और मन्दफल जोडे जाते हैं । यदि तुलादि केन्द्र (६ राशिसे ऊपर) हो तो घटाये जाते हैं ॥१०९ . १ / २॥
(रविभुजफल—संस्कार—) प्रत्येक ग्रहकी गतिकलाको पृथक्—पॄथक् सूर्यके मन्द भुजफल—कलासे गुणा करके उसमें २१६०० के द्वारा भग देनेसे जो कलादि लब्धि हो, उसको पूर्वसाधित उदयकालिक ग्रहोमें रविमन्दफलवत् संस्कार (मन्दफल धन हो तो धन, ऋण हो तो ऋण) करना चाहिये । इससे स्पष्ट सूर्योदयकालिक ग्रह होते हैं ॥११० . १ / २॥
स्वमन्दभुक्तसंशुद्भेर्मध्यभुक्तेर्निशापते: ॥१११॥
ग्रहभुक्ते: फलं कार्यं ग्रहवन्मन्दकर्मणि ।
दोर्ज्योन्तरगुणा भुक्तिस्तत्त्वनेत्रोद्भृता पुन: ॥११२॥
स्वमन्दपरिधिक्षुण्णा भगणांशोद्भृता: कला: ।
कर्कादौ तु धनं तत्र मकरादावृणं स्मृतम् ॥११३॥
मन्दस्फुटीकृतां भुक्तिं प्रोज्झय शीघ्रोच्च भुक्तित: ।
तच्छेषं विवरेणाथ हन्यात्त्रिज्यान्त्यकर्णयो: ॥११४॥
चलकर्णहृतं भुक्तौ कर्णे त्रिज्याधिके धनम् ।
ऋणमूनेऽधिके प्रोज्झय शेषं वक्रगतिर्भवेत् ॥११५॥
(स्पष्टग्रहगतिसाधनार्थगतिफल—) चन्द्रमध्यगतिमें चद्रमन्दोच्चगतिको घटाकरौससे (अर्थात् चन्द्रकेन्द्र—गतिसे) तथा अन्य ग्रहोकी (स्वल्पान्तरसे) अपनी—अपनी गतिसे ही मन्दस्पष्टगतिसाधनमें फल साधन करे । यथा—उक्त गति (चन्द्रकी केन्द्रगति और अन्य ग्रहोकी गति) को दोर्ज्यान्तर (गम्यज्या और गतज्योके अन्तर)—से गुना करके उसको २२५ के द्वारा भाग देकर लब्धिको अपनी—अपनी मन्दपरिधिसे गुणा करके भगणांश (३६०)—के द्वारा भाग देनेसे जो कलादि फल लब्धि, हो, उसको कर्कादि (३ से ऊपर ९ राशिके भीतर) केन्द्र हो तो मधगतिमें धन करने (जोडने) तथा मकरादि (९ राशिसे ऊपर ३ राशितक) केन्द्र हो तो घटानेसे मन्दस्पष्ट गति होती है । पुन: इस मन्दस्पष्ट गतिको अपनी शीघ्रोच्च गतिमें घटाकर शेषको त्रिज्या तथा अन्तिम शीघ्रकर्णके अन्तरसे गुणा करके पूर्वकसाधित शीघ्रकर्णके द्वारा भाग देनेसे जो लब्धि (कलादि) हो, उसको यदि कर्ण त्रिज्यासे अधिक हो तो मन्दस्पष्ट गतिमें धन करने (जोडने) और अल्प हो तो घटानेसे स्पष्ट गति होती है । यदि साधित ऋणगतिफल मन्दस्पष्ट गतिसे अधिक हो तो उसी (ऋणगतिफल)—में मन्दस्पष्ट गतिको घटाकर जो बचे, वह वक्र—गति होती है । इस स्थितिमें वह ग्रह वक्र—गति रहात है ॥१११—११५॥
कृतर्तुचन्द्रैर्वेदेन्द्रै: शून्यत्र्येकैर्गुणाष्टिभि: ।
शतरुद्रैश्चतुर्थेषु केन्द्रांशैर्भूसुतादय: ॥११६॥
वक्रिणश्चकरशुद्धैस्तैरंशैरुज्झन्ति वक्रताम् ।
क्रान्तिज्या विषवद्भाघ्नी क्षितिज्या द्वादशोद्धृता ॥११७॥
त्रिज्यागुणा दिनव्यासभक्ता चापं सरासव ।
तत्कार्मुकमुदक्क्रान्तौ धनहीने पृथक् स्थिते ॥११८॥
स्वाहोरात्रचतुर्भागे दिनरात्रिदले स्मृते ।
याम्यक्रान्तौ विपर्यस्ते द्विगुणे तु दिनक्षपे ॥११९॥
(ग्रहोकी वक्र केन्द्रांश—संख्या—) मङ्गल अपने चतुर्थ शीघ्रकेन्द्रांश १६४ में, बुध १४४ केन्द्रांशमें, गुरु १३० केन्द्रांशमें, शुक्र १६२ केन्द्रांशमें और शनि ११५ शीघ्रकेन्द्रांशमें वक्रगति होता है । अपने—अपने वक्रकेन्द्रांशको ३६० में घटानेसे शेषके तुल्य केन्द्रांश होनेपर फिर वह मार्ग—गति होता है२ ॥११६ . १ / २॥
(कालज्ञान—) रवि—क्रान्तिज्याको पलभा३ से गुणा करके गुणनफलमें १२ से भाग देनेपर लब्धि ‘कुज्या’ होती है। उस (कुज्या)—को त्रिज्यासे गुना करके द्युज्या (क्रान्तिकी कोटिज्या) से भाग देकर लब्धि (चरज्या)—के चाप बनानेसे चरासु४ होते हैं । उस चर—चापको यदि उत्तर क्रान्ति हो तो १५ घटीमें जोडनेसे दिनार्ध और १५ घटीमें घटानेसे रात्र्यर्ध होता है । दक्षिणक्रान्ति हो तो विपरीत (यानी १५ घटीमें घटानेसे दिनार्ध और जोडनेसे रात्र्यर्ध) होता है । दिनार्धको दूना करनेसे दिनमान और रात्र्यर्धको दूना करनेसे रात्रिमान होता है ॥११७—११९॥
भभोगोऽष्टशतीलिप्ता: खाश्विशैलास्तथा तिथे: ।
ग्रहलिप्ता भभोगाप्ता भानि भुक्त्या दिनादिकम् ॥१२०॥
रवीन्दुयोगलिप्ताभ्यो योगा भभोगभाजिता: ।
गतगम्याश्च षष्टिघ्न्यो भुक्तियोगाप्तनाडिका: ॥१२१॥
अर्कोनचन्द्रलिप्ताभ्यस्तिथयो भोगभाजिता: ।
गता गम्याश्च षष्टिघ्न्यो नाडयो भुक्त्यन्तरोद्धृता: ॥१२२॥
(पञ्चाङ्ग—साधन—) ८०० कला एक—एक नक्षत्रका और ७२० कला एक—एक तिथिका भोगमान होता है । (अत: ग्रह किस नक्षत्रमें हैं, यह जानना हो तो) राश्यादि ग्रहको कलात्मक बनाकर उसमें भभोग (८००) के द्वारा भाग देनेसे जो लब्धि हो, उसके अनुसार अश्विनी आदि गत नक्षत्र समझने चाहिये । शेष कलादिसे ग्रहकी गतिके द्वारा उसकी गत और गम्यघटीको समझना चाहिये ॥१२०॥
उदयकलिक स्पष्टरवि और चन्द्रका योग करके उसकी कलामें भभोग (८००)—के द्वारा भाग देकर लब्धि—गत विष्कुम्भ आदि योग होते हैं । शेष वर्तमान योगकी गतकला है । उसको ८०० में घटा देनेसे गम्यकला होती है । उस गत और गम्यकलाको ६० से गुणा करके उससे रवि और चन्द्रकी गति—कलाके योगसे भाग देनेपर गत और गम्यघटी होती है ॥२१२॥
स्पष्टचन्द्रमें स्पष्टसूर्यको घटाकर शेष राश्यादिकी कला बनाकर उसमें तिथिभोग (७२०)—से भाग देनेपर लब्धि गतिथि—संख्या होती है । शेष वर्तमान तिथिकी गतकला है । उसको (७२०) में घटानेसे गम्यकला होती है । गत और गम्यकलाको पृथक् ६० से गुणाकर चन्द्र और रविके स्पष्ट गत्यन्तरसे भाग देकर लब्धि—क्रमसे भुक्त (गत) और गम्य घटी होती हैं । (पञ्चाङ्गमें वर्तमान तिथिके आगे गम्यघटी लिखी जाती है) ॥१२२॥
तिथय: शुक्लप्रतिपदो याता द्विघ्ना नगोद्धृता: ।
शेषं बवो बालवश्च कोलवस्तैतिलो गर: ॥१२३॥
वणिजश्च भवेद्विष्टि: कृष्णभूतापरार्द्धत: ।
शकुनिर्नागश्च चतुष्पद; किंस्तुघ्नमेंव च ॥१२४॥
(तिथिमें करण जाननेकी रीति—) शुक्लपक्षकी प्रतिपदादि गत—तिथि——संख्याको दूना करके ७ के द्वारा भाग देनेसे १ आदि शेषमें क्रमसे १ बव, २ बालव, ३ कोलव, ४ तैतिल, ५ गर, ६ वणिज, ७ विष्टि (भद्रा)—ये करण वर्तमान तिथिके पूर्वार्धमें होते हैं । ये ७ करण शुक्ल प्रतिपदाके उत्तरार्धसे कृष्ण १४ के पूर्वार्धतक (२८)’तिथियोंमें ८ आवृत्ति कर आते हैं। इसलिये ये ७ चर करण कहलाते हैं । कृष्णपक्ष १४ के उत्तरार्धसे शुक्ल प्रतिपदाके पूर्वार्धतक, क्रमसे १ शकुनि, २ नाग, ३ चतुष्पद और ४ किंस्तुघ्न—ये चार स्थिर करण होते हैं ॥१२३—१२४॥
शिलातलेऽम्बुसंशुद्धे वज्रलेपेऽपि वा समें ।
तत्र शङ्कवङ्गुलैरिष्टै: समं मण्डलमालिखेत् ॥१२५॥
तन्मध्ये स्थापयेच्छाङंकु कल्पनाद्वादशाङ्गुलम् ।
तच्छायाग्रं स्पृशेद्यत्र वृत्ते पूर्वापरार्द्धयो: ॥१२६॥
तत्र विन्दुं विधायोभौ वृत्ते पूर्वापराभिधौ ।
तन्मध्ये तिमिना रेखा कर्तव्या दक्षिणोत्तरा ॥१२७॥
याम्योत्तरदिशोर्मध्ये तिमिना पूर्वपश्चिमा ।
दिङ्मध्यमत्स्यै: संसाध्या विदिशस्तद्वदेव हि ॥१२८॥
चतुरस्त्रं बहि: कुर्यात सूत्रैर्यध्याद्विनि: सृतै: ।
भुजसूत्राङ्गुलैस्तत्र दत्तैरिष्टप्रभा स्मृता ॥१२९॥
प्राक्पश्चिमाश्रिता रेखा प्रोच्यते सममण्डले ।
उन्मण्डले च विषुवन्मण्डले परिकीर्त्यते ॥१३०॥
रेखा प्राच्यपरा साध्या विषुवद्भाग्रगा तथा ।
इष्टच्छायाविषुवतोर्मध्यमग्राभिधीयते ॥१३१॥
(दिक्साधन—) जलसे संशोधित (परीक्षित) शिलातल या वज्रलेप (सीमेंट) से सम बनाये हुए भूतलमें जिस अङ्गुलमानसे शङ्कु बनाया गया हो, उसी अङ्गुलमानसे अभीष्ट त्रिज्याङ्गुलसे वृत्त बनाकर उसके मध्य (केन्द्र)—में समान द्वादश विभाग (कल्पित अङ्गुल)—से बने हुए शङ्कुकी स्थापना करे । उस शङ्कुकी छायाका अग्र भाग दिनके पूर्वार्धमें जहाँ वृत्त—परिधिमें स्पर्श करे, वहाँ पश्चिम बिन्दु जाने और दिनके उत्तरार्धमें फिर उसी शङ्कुकी छायाका अग्रभाग जहाँ वृत्तपरिधिको स्पर्श करे, वहाँ पूर्व बिन्दु समझे । इस प्रकार पूर्व और पश्मिम बिन्दुका ज्ञान करे । अर्थात् उन दोनों बिन्दुओंमें एक सरल रेखा खींचनेसे पूर्वापर—रेखा होगी । उस पूर्वापर रेखाके दोनों अग्रोंको केन्द्र मानकर दो वृत्तार्ध बनानेसे मत्स्याकार होगा। उसके मुख एवं पुच्छमें रेखा करनेसे दक्षिणोत्तर—रेखा होगी । यह दक्षिणोत्तररेखा केन्द्रबिन्दुमें होकर जाती है । यह रेखा जहाँ वृत्तमें स्पर्श करे, वहाँ दक्षिण तथा उत्तर दिशाके बिन्दु समझे । फिर इस दक्षिणोत्तर—रेखापर पूर्व—युक्तिसे मत्स्योत्पादनद्वारा पूर्वापर—रेखा बनावे तो यह रेखा केन्द्रबिन्दुमें होकर ठीक पूर्व और पश्चिम—बिन्दुक वृत्तमें स्पर्श करेगी । इस प्रकार चार दिशाओंको जानकर पुन: दो—दोदिशाओंके मध्यबिन्दुसे मत्स्योत्पादनद्वारा विदिशाओं कोणों—का ज्ञान करना चाहिये ॥ १२५—१२८॥
(इस प्रकार वृत्तमें दिशाओंका ज्ञान होनेपर) वृत्तके बाहर चारों दिशाओंके बिन्दुओंसे स्पर्शरेखाद्वारा चतुरस्त्र (चतुर्भुज) बनावे । वृत्तके मध्यकेन्द्रसे भुजाङ्गुलतुल्य (भुजकी दिशामें उत्तर या दक्षिण) बिन्दुपर छायारेखा होती है । उस छायारेखाको पूर्वापर—रेखाके समानान्तर बनावे । पूर्वापर—रेखा, पूर्वापर—वृत्त, उन्मण्डल और नाडी वृत्तके धरातलमें होती है । इसलिये क्षितिज धरातलगत वृत्तके केन्द्रसे पूर्वापर रेखा खींचकर फिर पलभाग्र बिन्दुगत पूर्वापरके समानान्तर रेखा बनावे। इस प्रकार इष्ट—छायाग्रगत तथा पलभा रेखाके बीच (अन्तर)—को ‘अग्रा’ कहते हैं ॥१२९—१३१॥
शङ्कुच्छायाकृतियुतेर्मूलं कर्णोऽस्य वर्गत: ।
प्रोज्झय शङ्कुकृतिं मूलं छाया शङ्कुर्विपर्ययात् ॥१३२॥
शङ्कु (१२)—के वर्गमें छायाके वर्गको जोडकर मूल लेनेसे छायाकर्ण होता है और छायाकर्णके वर्गमें शङ्कुके वर्गको घटानेसे मूल छाया होती है तथा छायाके—घटानेसे मूल शङ्कु होता है ॥१२३२॥
त्रिंशत्कृत्वो युगे भानां चक्रं प्राक् परिलम्बते ।
तद्नुणाद्भूदिनैर्भक्ताद् द्युगणाद्यदवाप्यते ॥१३३॥
तद्दोस्त्रिघ्नाद्दशाप्तांशा विज्ञेया अयनाभिधा: ।
तत्संस्कृताद्रहात्क्रान्तिच्छायाचरदलादिकम् ॥१३४॥
(अयनांश—साधन—) एक युगमें राशिचक्र सृष्टयादि स्थानसे पूर्व और पश्चिमको ६०० बार चलित होता है । जो उसके भगण कहलाते हैं । इसलिये अहर्गणको ६०० से गुणा करके युगके कुदिनसे भाग देकर राश्यादि—फलसे भुज बनावे । उस भुजको ३ से गुणा करके १० के द्वारा भाग दे तो लब्धि अयनांश होती है । इस अयनांशको अहर्गणद्वारा साधित ग्रहमें जोडकर क्रान्ति, छाया और चरखण्ड आदि बनाने चाहिये ॥१३३—१३४॥
शङ्कुच्छायाहते त्रिज्ये विषुवत्कर्णभाजिते ।
लम्बाक्षज्ये तयोश्चापे लम्बाक्षौ दक्षिणौ सदा ॥१३५॥
स्वाक्षार्कापक्रमयुतिर्दिक्याम्येऽन्तरमन्यथा ।
शेषा नतांशा: सूर्यस्य तद्वाहुज्या च कोटिजा ॥१३६॥
शङ्कुमानाङ्गलाभ्यस्ते भुजन्निज्ये यथाक्रमम् ।
कोटिज्यया विभज्याप्ते छायाकर्णावहर्दले ॥१३७॥
(लम्बांश और अक्षांस—साधन—) शङ्कु (१२) और पलभाको पृथक् त्रिज्यासे गुणा करके उसमें पलकर्णसे भाग देनेपर लब्धि क्रमश: ‘लम्बज्या’ और ‘अक्षज्या’ होती है । दोनोंके चाप बनानेसे ‘लम्बांश’ और ‘अक्षांश’ होते हैं । इनकी दिशा सर्वदा दक्षिण समझी जाती है२ ॥१३५॥
(सूर्य—ज्ञानसे मध्याह्न—छाया—साधन—) अपने अक्षांश और सूर्यके क्रान्त्यंश दोनों एक दिशाकी ओर हो तो योग करनेसे और यदि भिन्न दिशाके हो तो दोनोंको अन्तर करनेसे शेष सूर्यका ‘नतांश’ होता है । उस ‘नतांश’ की ‘भुजज्या’ और ‘कोटिज्या’ बनावे । भुजज्या और त्रिज्याको पृथक्—पृथक्शङ्कुमान (१२) से गुणा करके उसमें कोटिज्यासे भाग दनेपर लब्धि क्रमश: मध्याह्नकालमें छाया और छायाकर्णके मानका सूचक होती हैं३ ॥१३६—१३७॥
स्वाक्षार्कनतभागानां दिक्साम्येऽन्तरमन्यथा ।
दिग्भेदे पक्रम: शेषस्तस्य ज्या त्रिज्यया हता ॥१३८॥
परमापक्रमज्याप्ता चापं मेंषादिगो रवि: ।
कर्क्यादौप्रोज्झयचक्रार्द्धात्तु लादौ भार्धसंयुतात् ॥१३९॥
मृगादौ प्रोज्झय चक्रात्तु मध्याह्नेऽर्क: स्फुटो भवेत् ।
तन्मान्दमसकृद्वामं फलं मध्यो दिवाकर: ॥१४०॥
(मध्याह्न—छायासे—सूर्यसाधन—) अपने ‘अक्षांश’ और मध्याह्नकालिक सूर्यक ‘नतांश’ दोनों एक दिशाके हो तो अन्ता करनेसे और यदि भिन्न दिशाके हो तो योग करनेसे जो फल हो, वह सूर्यकी ‘क्रान्ति’ होती है । ‘क्रान्तिज्या’ की ‘त्रिज्या’ से गुणा करके उसमें ‘परमक्रान्तिज्या’ (१३९७)—से भाग देनेपर लब्धि सूर्यकी ‘भुजज्या’ होती है। उसके चाप बनाकर मेंषादि ३ राशिमें सूर्य हो तो वही स्पष्त सूर्य होता है । ककर्दादि ३ रशिमें हो तो उस चापको ६ राशिमें घटानेसे,
तुलादि ३ राशिमें हो तो ६ राशिमें जोडनेसे और मकरादि ३ राशिमें हो तो १२ राशिमें घटानेसे जो योग या अन्तर हो, वह मध्याह्नमें स्पष्ट सूर्य होता है । उस स्पष्ट सूर्यसे विपरीत क्रियाद्वारा मन्दफलसाधन कर बार—बार संस्कार करनेसे मध्यम सूर्यका ज्ञान होता है ॥१३८—१४०॥
ग्रहोदयाप्राणहता खखाष्टैकोद्धृआ गति: ।
चक्रासवो लब्धयुता: स्वाहोरात्रासव: स्मृता: ॥१४१॥
(ग्रहोके अहोरात्र—मान—) जिस राशिमें तत्काल ग्रहो हो, उस राशिके उदयमानसे उस ग्रहकी गतिको गुणा करके उसमें १८०० से भाग देकर लब्ध असुको ‘अहोरात्रासु’ (२१६००)—में जोडनेपर उस ग्रहका अहोरात्रमान होता है। असुसे पल और घडी बना लेनी चाहिये । ॥१४१॥
त्रिभद्युकर्णार्द्धगुणा: स्वाहोरात्रार्द्धभाजिता: ।
क्रमादेकद्वित्रिभज्यास्तच्चापानि पृथक पृथक् ॥१४२॥
स्वाधोऽध: प्रविशोध्याथ मेंषाल्लङ्कोदयासव: ।
खागाष्टयोऽर्थगोऽगैका: शरत्र्यङ्कहिमांशव: ॥१४३॥
स्वदेशचरखण्डोना भवन्तीष्टोदयासव: ।
वस्ता व्यस्तैर्युता: स्वै: स्वै: कर्कटाद्यास्ततस्वय: ॥१४४॥
उत्क्रमेंण षडेवैते भवन्तीष्टास्तुलादय: ।
राशियोंके उदयमान—१ १राशि, २ राशि, ३ राशिकी ज्याको पृथक्—पृथक ‘परमाल्पद्युज्या’ (परसक्रान्तिकी कोटिज्या)—से गुणा करके उसमें अपनी—अपनी द्युज्या (क्रान्तिकोटिज्या) से भाग देकर लब्धियोंके चाप बनावे । उनमें प्रथम चाप मेंषका उदय (लङ्कोदय)—मान होता है । प्रथाम चापको द्वितीय चापमें घटानेपर शेष वृषका उदयमान होता है एवं द्वितीय चापको तृतीय चापमें घटाकर जो शेष रहे, वह मिथुनका लङ्कोदयमान होता है । यथा—१६७० असु मेंषका, १७९५ वृषका तथा १९३५ मिथुनका सिद्ध लङ्कोदयमान है । इन तीनोंमें क्रमसे अपने देशीय तीनों चरखण्डोंको घटावे तो क्रमश: तीनों अपने देशके मेंष आदि तीन रासियोंके उदयमान होते हैं । पुन: उन्हीं तीनों लङ्कोदयमानोंको उत्क्रमसे रखकर—इन तीनोंमें अपने देशके तीनों चरखण्डोंको उत्क्रमसे जोडनेपर कर्क आदि ३ रासियोंके स्वदेशोदयमान होते हैं एवं मेंषादि कन्यापर्यन्त ६ राशियोंके उदयमान सिद्ध होते हैं । पुन: ये ही उत्क्रमसे तुलादि ६ राशियोंके मान होते हैं ॥१४४ . १ / २॥
गतभोग्यासव: कार्या: सायनात् स्वेष्टभास्करात् ॥१४५॥
स्वोदयासुहता भुक्तभोग्या भक्ता: खवह्निभि: ।
अभीष्टघटिकासुभ्यो भोग्यासून्प्रविशोधयेत् ॥१४६॥
तद्वदेवैष्यलग्नासूनेवं यातांस्तथोत्क्रमात् ।
शेषं चेत् त्रिंशताभ्यस्तमशुद्धेन विभाजितम् ॥१४७॥
भागयुक्तं च हीनं च व्ययनांशं तनु: कुजे ।
लग्न—साधन—इष्टकालिक सायनांश सूर्यके भुक्तांश और भोग्यांशद्वारा ‘भुक्तासु’ और ‘भोग्यासु’ का साधन करना चाहिये । (यथा—भुक्तांशको सायन सूर्यके स्वदेशोदयमानसे गुणा करके ३० का भाग देनेपर लब्धि ‘भुक्तासु’ और भोग्याशको स्वदेशोदयमानसे गुणा करके उसमें ३० के द्वारा भाग देनेपर लब्धि ‘भोग्यासु’ होते हैं । इष्ट घटीके ‘असु’ बनाकर उसमें ‘भोग्यासु’ को घटावे, घटाकर जो शेष बचे, उसमें अग्रिम राशियोंमेंसे जितनेके स्वदेशोदयमान घटें, उतने घटावे । (अथवा) इसी प्रकार ‘इष्टासु’ में ‘भुक्तासु’ घटाकर शेषमें, गत राशियोंके उत्क्रमसे उनके जितने स्वदेशोदयमान घटें, घटावे । जिस राशितकका मान घट जाय, वहाँतक ‘शुद्ध’ और जिसका मान नहीं घटे, वह ‘अशुद्ध’ संज्ञक होती है । बचे हुए ‘इष्टासु’ को ३० से गुणा करके ‘अशुद्ध’ राशिके उदयमानसे भाग देकर लब्ध अंशादिको (भोग्य—क्र्म—विधि हो तो) शुद्ध राशिसंख्यामें जोडने और (भुक्त—उत्क्रम—विधि हो तो) अशुद्ध राशिकी संख्यामें घटानेसे ‘सायन लग्न’ होता है । उसमें अयनांश घटानेसे फलकथनोपयुक्त उदयलग्न होता है ॥१४७ . १ / २॥
प्राक् पश्चान्नतनाडीभिस्तद्वल्लङ्कोदयासुभि: ॥१४८॥
भानौ क्षयधने कृत्वा मध्यलग्नं तदा भवेत् ।
भोग्यासूनूनकस्याथा भुक्तासूनधिकस्य च ॥१४९॥
सपिण्डयान्तरलग्नासूनेवं स्यात्कालसाधनम् ।
(मध्य—दशम लग्न—साधन—) इसी प्रकार पूर्व ‘नतकालासु’ से लङ्कोदयद्वारा अंशादि साधन करके उसको सूर्यमें घटानेसे तथा पश्चिम ‘नतकालासु’ और लङ्कोदयद्वारा (त्रैराशिकसे) अंशादि साधन करके सूर्यमें जोडनेसे मध्य (दशम = आकाशमध्य) लग्न होता है ॥१४८ . १ / २॥
(लग्न और स्पष्ट—सूर्यको जानकर इष्टकाल—साधन—) लग्न और सूर्य इन दोनोंमें जो ऊन पीछे हो, उसके ‘भोग्यांश’ द्वारा ‘भोग्यासु’ और जो अधिके (आगे) हो उसके भुक्तांशद्वारा ‘भुक्तासु’ साधनकर दोनोंको जोडे तथा उसमें उन दोनों (लग्न और सूर्य)—के बीचमें जो राशियाँ हो, उनके उदयासुओंको जोडे तो ‘इष्टकालासु’ होते हैं ॥१४९ . १ / २॥
विराह्नर्कभुजांशाश्चेदिन्द्राल्पा: स्याद्नहो विधो: ॥१५०॥
तेंऽशा: सिवघ्ना: शैलाप्ता व्यग्वर्काश: शरोऽङ्गुलै: ।
अर्कं विधुर्विधुं भूभा छादयत्यथा छन्नकम् ॥१५१॥
छाद्यच्छादकमानार्धं शरोनं ग्राह्यवर्वितम् ।
तत् खच्छन्नं च मानैक्यार्धं शराढयं दशाहतम् ॥१५२॥
छन्नघ्नमस्मान्मूलं तु स्वाङ्गोनं ग्लौवपुर्हृतम् ।
स्थित्यर्द्धं घटिकादि स्याद् व्यगुवाह्वंशसंमितै: ॥१५३॥
इष्टै: पलैस्तदूनाढयं व्यगावूनेऽर्कषडगृहात् ।
तदन्यथाधिके तस्मिन्नेवं स्पष्टे मुखान्त्यगे ॥१५४॥
(ग्रहण—साधन—) पर्वान्त कालमें स्पष्ट सूर्य, चन्द्र और राहुका साधन करे । सूर्यमें राहुको घटाकर जो शेष बचे, उसके भुजांश यदि १४ से अल्प हो तो चन्द्रग्रहण की सम्भावना समझे ॥१५०॥ उन भुजाशोंको ११ से गुणा कर ७ से भाग देनेपर लब्धि—अङ्क अङ्गुलादि ‘शर’ होता है ॥१५० . १ / २॥
सूर्यको चन्द्रमा और चन्द्रमाको भूभा (पृथिवीकी छाया) छादित करती है । इसलिये सूर्यग्रहणमें सूर्य छाद्य उर चन्द्रमा छादक तथा चन्द्रग्रहणमें चन्द्रमा छाद्य, भूभा छादक (ग्रहणकर्त्री) है—ऐसा समझना चाहिये । अब छन्न (ग्रास) मान कहते हैं—छाद्य और छेदकके विम्बमानका योग करके उसके आधेमें ‘शर’ घटानेसे ‘छन्न’ (ग्रास) मान होता है । यदि ग्रासमान ग्राह्य (छाद्य)—से अधिक हो तो उसमें छाद्यको घटाकर जो शेष बचे, उतना खच्छन्न (खग्रास) समझना चाहिये ।
मानैक्यार्ध (छाद्य—छादकके विम्ब—योगार्ध) में शर जोडकर १० से गुणा करे । फिर ग्रासमानसे गुणा करके गुणनफलका जो मूल हो उसमें अपना षष्ठांश घटाकर शेषमें चन्द्र—विम्बसे भाग देनेपर लब्दि—प्राप्त घटी आदिको स्थित्यर्ध समझे । इस स्थित्यर्धको दो स्थानों में रखे । व्यगु (व्यग्वर्क—राहु घटाया हुआ सूर्य) यदि ६ या १२ राशिसे ऊन हो तो द्विगुणित व्यगु भुजांशतुल्य पलको प्रथम स्थानगत स्थित्यर्धमें घटावे और द्वितीय स्थानवालेमें जोडे । यदि व्यगु ६ या १२ से अधिक हो तो विपरीत क्रमसे (प्रथम स्थानमें जोडने और द्वितीय स्थानमें घटानेसे) स्पर्श और मोक्षकालिक स्पष्ट स्थित्यर्ध होते हैं ॥१५१—१५४॥
ग्रासे नखाहते छाद्यमानासे स्युर्विशोपक: ।
पूर्णान्तं मध्यमत्र स्याद्दर्शान्तेऽङ्गं त्रिभोनकम् ॥१५५॥
पृथक् तत्क्रान्त्यभागसंस्कृतौ स्युर्नतांशका: ।
तद् द्विद्वयंशकृतिर्द्विघ्नी द्वयूनार्धार्कयुता हर: ॥१५६॥
त्रिभोनाङ्गार्कविश्लेषांशाशोनघ्ना: पुरन्दरा: ।
हराप्ता लम्बनं स्वर्णं वित्रिभेऽर्काधिकोनके ॥१५७॥
विश्वघ्नलम्बनकलाढयोनस्तु तिथिवद् व्यगु: ।
शरोऽतो लम्बनें षड्घ्नं तल्लवाढयोनवित्रिभात् ॥१५८॥
नतांशास्तद्दशांशोनघ्ना धृत्यस्तद्विवर्जितै: ।
साष्टेन्देलिप्तै: षडिभस्तु भक्त नतिर्नतांशदिक् ॥१५९॥
तयोनाढयो हि भिन्नैकदिक् शर: स्फुटतां व्रजेत् ।
ततश्छन्नस्थितिदले साध्ये स्थित्यर्धषडढति: ॥१६०॥
अंशास्तैर्वित्रिभं द्विष्टं रहितं सहितं क्रमात् ।
विधाय ताभ्यां संसाध्ये लम्बने पूर्ववत्तयो: ॥१६१॥
पूर्वोक्ते संस्कृते ताभ्यां स्थित्यर्द्धे भवत: स्फुटे ।
ताभ्यां हीनयुतो मध्यदर्श: कालौ मुखान्तगौ ॥१६२॥
(ग्रहणका विंशोपक बिस्वा फल—) अङ्गुलादि ग्रासमानको २०से गुणा करके गुणनफलमें अङ्गुलात्मक छाद्यमानसे भाग दे, जो लब्धि आवे, वह विंशोपक फल होता है ।
(सूर्यग्रहणमें विशेष लम्बन—घटी—साधन—) पर्वान्तकालमें ग्रहणका मध्य होता है । सूर्यग्रहणमें दर्शान्त कालिक लग्न बनाकर उसमें तीन राशि घटानेसे ‘वित्रिभ’ या ‘त्रिभोन’ लग्न कहलाता है । उसको पृथक रखकर उसकी क्रान्ति और अक्षांशके संस्कार (एक दिशामें योग, भिन्न दिशामें अन्तर) करनेसे ‘नतांश’ होता है । उसका २२ वाँ भाग करके वर्ग करना चाहिये । यदि २ से कम हो तो उसीमें, यदि २ से अधिक हो जाय तो २ घटाकर शेषके आधेको उसी (वर्ग)—में जोडकर पुन: १२ में जोडनेसे ‘हार’ होता है । ‘त्रिभोन’ लग्न और सूर्यके अन्तरांशके दशमांशको १४ में घटाकर शेषको उसी दशमांशसे गुणा करे । उसमें पूर्वसाधित हारसे भाग देनेपर लब्धितुल्य घटयादि लम्बन होता है । यह (लम्बन) यदि वित्रिभ सूर्यसे अधिक हो तो धन, अल्प हो तो ऋण होता है । अर्थात् साधित दर्शान्तकालमें इस लम्बनको जोडने—घटानेसे पृष्ठस्थानीय दर्शान्तकाल होता है ॥१५५—१५७॥
घटयादि लम्बनको १३ से गुणा करनेपर गुणनफल कलादि होता है । उसको व्यग्वर्कमें जोड या घटाकर ‘शर’ बनावे तो (पृष्ठीय दर्शान्तकालिक) शर (स्पष्ट) होता है । तथा घटयादि लम्बनको ६ से गुणा करके गुणनफलको अंशादि मानकर वित्रिभमें जोड या घटाकर नतांश—साधन करे । नतांशके दशमांशको १८ में घटाकर शेषको उसी दशमांशसे गुणा करे: गुणनफलको ६ अंश १८ कलामें घटाकर जो शेष बचे, उससे गुणनफलमें ही भाग देनेसे लब्धि अङ्गुलादि नतांशकी दिशाकी ही नति होती है । इस नति और पूर्व साधित शर दोनोंके संस्कार (भिन्न दिशा हो तो अन्तर, एक दिशा हो तो योग)—से स्पष्ट शर होता है । सूर्यग्रहणमें उसी शरसे और स्थित्यर्थ बनावे । स्थित्यर्धको ६ से गुणा करके अंशादि गुणनफलको वित्रिभमें घटावे और दूसरे स्थानमें जोडे । इन दोनों परसे पूर्वविधिसे पृथक् लम्बनसाधन करके क्रमश: पूर्वविधिसे साधित स्पर्श और मोक्षकालमें संस्कार करनेसे स्पष्ट पृष्ठस्थानीय स्पर्श और मोक्षकाल होते है ॥१५८—१६२॥
अर्का घना विश्व ईशा नवपञ्चदशांशका: ।
कालांशास्तैरूनयुक्ते रवौ ह्यस्तोदयौ विधो: ॥१६३॥
दृष्ट्वा ह्यादौ खेटविम्बं दृगौच्यं लम्बमेंक्ष्य च।
तल्लम्बपातबिम्बान्तर्दृगौच्याप्तरविघ्रभा ॥१६४॥
(ग्रहोके उदयास्तकालांश—) १२, १७, १३, ११, ९, १५, ये क्रमसे चन्द्र, मङ्गल, बुध, गुरु, शुक्र और शनिके कालांश हैं । अपने—अपने कालांशतुल्य सूर्यसे पीछे ग्रह होते हैं तो अस्त और कालांशतुल्य सूर्यसे आगे होते हैं तो उदय होता है । (अर्थात् ग्रह अपने—अपने कालांशके भीतर सूर्यसे पीछे या आगे जबतक रहते हैं, तबतक सूय सान्निध्यवश अस्त (अदृश्य) रहते हैं) ॥१६३॥
(ग्रहोके प्रतिविम्बद्वारा छायासाधन—) सम भूमिमें रखे हुए दर्पण आदिमें ग्रहोके प्रतिविम्बको देखकर दृष्टिस्थानसे भूमिपर्यन्त लम्ब पातकर दृष्टिकी ऊँचाईका मान समझे । लम्बमूल और प्रतिबिम्बके अन्तर—प्रमाणको दृष्टिकी ऊँचाईसे भाग देकर लब्धिको १२ से गुणा करनेपर उस समय उस ग्रहकी छायाका प्रमाण होता है ॥१६४॥
अस्ते सावयवा ज्ञेया गतैष्यास्तिथयो बुधै: ।
शरेन्द्वाप्तोत्तराशा सा संस्कृतार्कापमैर्विधो: ॥१६५॥
षोडशघ्नतिथिर्हीना स्वघ्नतिथ्याक्शभाहृता ।
व्यस्तेषु क्रान्तिभागैश्व द्विघ्नतिथ्या हृता स्फुटम् ॥१६६॥
संस्कारदिक्कं वलनमङ्गुलाद्यं प्रजायते ।
स्वेष्वंशोना: सितं तिथ्यो वलनाशोन्नतं विधो: ॥१६७॥
श्रृङ्गमन्यन्नतं वाच्यं वलनाङ्गुललेखनात् ।
(चन्द्रश्रृङ्गोन्नति—ज्ञान—) सूर्यास्त—समयमें सावयव गत और एष्य तिथिका साधन करे । उस सावयव तिथिको १६ से गुणा करके उसमें तिथिके वर्गको घटाकर शेषको स्वदेशीय पलभासे गुणा करे । गुणनफलमें १५ से भाग देकर लब्धि (फल)—की दिशा उत्तर समझे । उसमें सूर्यकी क्रान्तिका यथोक्त संस्कार (एक दिशामें योग, भिन्न दिशामें अन्तर) करे । तथा चन्द्रमाके शर और क्रान्तिका विपरीत संस्कार करके जो फल हो उसमें द्विगुणित तिथिसे भाग देनेपर जितनी लब्धि हो, उतना अङ्गुल संस्कार—दिशाका वलन होता है । चन्द्रमासे जिस दिशामें सूर्य रहता है, वही संस्कारकी दिशा समजी जाती है । तिथिमें अपना पञ्चमांश घटानेसे शुक्ल (चन्द्रके श्वेत भाग)—का अङ्गुलादि मान होता है । वलनकी जो दिशा होती है . उस दिशाका चन्द्रश्रृङ्ग उन्नत और अन्य दिशामेंं नत होता है । तदनुसार परिलेख करना चाहिये१ ॥१६७ . १ / २॥
पञ्चर्त्वगाङ्गवशिखा: कर्णशेषहता: पृथक् ॥१६८॥
प्रकृत्यार्काङगसिद्धाग्निभक्ता: लब्धोनसंयुता: ।
त्रिज्याधिकोने श्रवणे वपूंषि त्रिहृता: कुजात् ॥१६९॥
ऋज्वोरनृज्वोर्विवरं गत्यन्तरविभाजितम् ।
वक्रर्ज्वोर्गतियोगाप्तं गम्येऽतीते दिनादिकम् ॥१७०॥
स्वनत्या संस्कृतौ स्वेषू दिक्साम्येऽन्येऽन्तरं युति: ।
याम्योदक्खेटविवरं मानैक्यार्धाल्पकं यदा ॥१७१॥
तदा भेदो लम्बनाद्यं स्फुटार्थं सूर्यपर्ववत् ।
(ग्रहयुति—ज्ञानार्थ मङ्गलादि पाँच ग्रहोके विम्बसाधन—) मङ्गलादिके ५, ६, ७, ९, ५, इस मध्यमविम्बमानोंको क्रमसे मङ्गलादि ग्रहोके कर्णशेष (त्रिज्या और अपने—अपने शीघ्र कर्णके अन्तर)—से गुणा करके गुणनफलको २ स्थानोंमें रखे । एक स्थानमें क्रमसे मङ्गलादि ग्रहके २१, १२, ६, २४, और ३ का भाग देकर लब्धिको द्वितीय स्थानमें स्थित गुणनफलमें, यदि कर्ण त्रिज्यासे२ अधिक हो तो घटावे, यदि त्रिज्यासे अल्प हो तो जोडे फिर उसमें ३ से भाग देनेपर क्रमश: मङ्गलादि ग्रहोके विम्ब—प्रमाण होते हैं ।
(ग्रहोकी युतिके गत—गम्य दिन—साधन—) जिन दो ग्रहोके युतिकालका ज्ञान करना हो, वे दोनों मार्गी हो, अथवा दोनों वक्री हो तो दोनों ग्रहोकी अन्तर—कलामें दोनोंकी गत्यन्तर—कलासे भाग देना चाहिये । यदि एक वक्र और एक मार्गी हो तो दोनोंकी गति—योगकलासे भाग देना चाहिये । फिर जो लब्धि आवे, वह ग्रहयुतिके गत या गम्य दिनादि है ।
(ग्रहोकी युतिमें भेद—ज्ञान—) जिन दो ग्रहोकी युति होती हो, उन दोनोंके अपनी—अपनी नतिसे संस्कृत शार (भॄपृष्ठस्थानाभिप्रायिक शर) एक दिशाके हो तो अन्तर, यदि भिन्न दिशाके हो तो योग करनेसे दोनों ग्रहोका अन्तर (दक्षिणोत्तरान्तर) होता है । यह अन्तर यदि दोनोंके विम्बमान—योगार्धसे अल्प हो तो उनके योगमें भेद (एकसे दूसरा आच्छादित) होता है । इसलिये इनमें नीचेवालेको छादक और ऊपरवालेको छाद्य मानकर सूर्यग्रहणके समान ही लम्बन, ग्रासमान आदि साधन करना चाहिये ॥१७१ . १ / २॥
एकायनगतौ स्यातां सूर्याचन्द्रमसौ यदा ।
तद्युते मण्डले क्रान्त्योस्तुल्यत्वे वैधृताभिध: ॥१७२॥
विपरीतायनगतौ चन्द्राकौं क्रान्तिलिप्तिका: ।
समास्तदा व्यतीपातो भगणार्द्धे तयोर्युतौ ॥१७३॥
भास्करेन्द्वोर्भचक्रान्तश्चक्रार्धावधि संस्थयो: ।
दृक्तुल्यसाधितांशादियुक्तयो: स्वावपक्रमौ ॥१७४॥
अथौजपदगस्येन्दो: क्रान्तिर्विक्षपेसंस्कृता ।
यदि स्यादधिका भानो: क्रान्ते: पातो गतस्तदा ॥१७५॥
न्य़ूना चेत्स्यात्तदा भावी वामं युग्मपदस्य च ।
पदान्यत्वं विधो: क्रान्तिर्विक्षेपाच्चेद् विशुद्धयति ॥१७६॥
क्रान्त्योर्ज्ये त्रिज्ययाभ्यस्ते परमापक्रमोद्धृते ।
तच्चापातरमर्द्धं वा योज्यं भाविनि शीतगौ ॥१७७॥
शोध्यं चन्द्राद्नते पाते तत्सूर्यगतिताडितम् ।
चन्द्रभुक्त्या हृतं भानौ लिप्तादि शशिवत्फलम् ॥१७८॥
तद्वच्छशाङ्कपातस्य फलं देयं विपर्ययात् ।
कर्मैतदसकृत्तावत्क्रान्ती यावत्सेमें तयो: ॥१७९॥
(पाताधिकार—पातकी संज्ञा—) जब सूर्य और चन्द्रमा दोनों एक ही अयन (याम्यायन—दक्षिणायन अथवा सौम्यायन—उत्तरायण)—में हो तथा उन दोनोंके राश्यादि योग १२ राशि हो तो उस स्थितिमें दोनोंके क्रान्तिसाम्य होनेपर वैधृति नामका पात कहलाता है । तथा जब दोनों भिन्न (पृथक्—पृथक) अयनमें हो और दोनोंका योग ६ राशि हो तो उस स्थितिमें दोनोंके दोनोंके क्रान्तिसाम्य होनेपर व्यतीपात नामक पात होता है ।
जब सूर्य—चन्द्रका अन्तर चक्र (०) या ६ राशि हो, उस समयमें तात्कालिक अयनांसादिसे युक्त सूर्य और चन्द्रमाकी अपनी—अपनी क्रान्तिका साधन करे । यदि शर—संस्कृत चन्द्रमाकी क्रान्ति (स्पष्ट क्रान्ति) तात्कालिक सूर्यकी क्रान्तिसे अधिक हो तथा चन्द्रमा यदि विषम पदमें हो तो पातकालको गत (बीता हुआ) समझना चाहिये । यदि विषमपदस्थ चन्द्रमाकी शर—संस्कृत क्रान्तिसे अल्प हो तो पातकालको भावी (होनेवाला) समझना चाहिये । यदि चन्द्रमा समपदमें हो तो इससे विपरीत (सूर्यकी क्रान्तिसे चन्द्रमाकी स्पष्ट क्रान्ति अधिक हो तो भावी, अल्प हो तो गत) पातकाल समझे । यदि स्पष्ट क्रान्ति बनानेमें चद्रमाके शरमें क्रान्ति घटायी जाय तो इस स्थितिमें चन्द्रमा—के विम्ब और स्थानमें पदकी भिन्नता होती है ।
(स्फुट—क्रान्ति—साम्य—ज्ञान—प्रकार—) सूर्य और चन्द्रमा दोनोंकी ‘क्रान्तिज्या’ को त्रिज्यासे गुणा करके उसमें परम क्रान्तिज्यासे भाग देकर जो लब्धियाँ हो, उन दोनोंके चाप बनाये । उन दोनों चापोंका जो अन्तर हो उसको सम्पूर्ण या अर्ध (कुछ न्यून) करके गम्य पात हो तो चन्द्रमामें जोडे: गतपात हो तो घटावे । पुन: उपर्युक्त चापके अन्तर या उसके खण्डको सूर्यकी गतिसे गुणा करके गुणनफलमें चन्द्रगतिसे भाग देकर जो लब्धि (कलादि) हो, उसको चन्द्रमाके समान ही सूर्यमें संस्कार करे (गम्यपात हो तो जोडे, गतपात हो तो घटावे) । इसी प्रकार (सूर्य फलवत् = उक्त चापान्तरको चन्द्रपातकी गतिसे गुणा करके उसमें चन्द्रगतिसे भाग देकर) लब्धिरूप चन्द्रपातके कलादि फलको चन्द्रपात (राहु)—में विपरीत संस्कार करे (गत—पातमें जोडे, गम्य पातमें घटावे) तो पातकालासन्न समयके सूर्य, चन्द्रमा और चन्द्रपात होते हैं । फिर इन तीनों (रवि, चन्द्र और चन्द्रपात) के द्वारा उपर्युक्त क्रियाको तबतक बार—बार करता रहे जबतक दोनोंकी क्रान्ति सम न हो जाय ॥१७२—१७९॥
क्रान्त्यो: समत्वे पातोऽथ प्रक्षिप्तांशोनिते विधौ ।
हीनेऽर्द्धरात्रिकाद्यातो भावी तात्कालिकेऽधिके ॥१८०॥
स्थिरीकृतार्द्धरात्रेन्द्वोर्द्वयोर्विवरलिप्तिका: ।
षष्टिघ्यश्चभुक्त्याप्ता: पातकालस्य नाडिका: ॥१८१॥
इस प्रकार क्रान्ति—साम्य होनेपर पात समझना चाहिये । यदि उपर्युक्त क्रियाद्वारा प्राप्त अंशादिसे युक्त या हीन किया हुआ चन्द्रमा अर्धरात्रिकालिक साधित चन्द्रमासे अल्प (पीछे) हो तो पातकालको ‘गत’ समझे और यदि अधिक (आगे) हो तो पातकालको भावी समझे ।
(अर्धरात्रिसे गत, गम्य पातकालका ज्ञान—) उपर्युक्त क्रियाद्वारा स्थिरीकृत (पातकालिक) चन्द्रमा और अर्धरात्रिकालिक चन्द्रमा जो हो—इन दोनोंकी अन्तरकलाको ६० से गुणा करके गुणनफलमें चन्द्रकी गति—कलासे भग देनेपर जो लब्धि हो, उतनी घटी अर्धरात्रिसे पीछे या आगे (गत पातमें पीछे, गम्य पातमें आगे) तक पातकालकी घडी समझी जाती है ॥१८०—१८१॥
रवीन्द्वोर्मानयोगार्द्धं षष्टया संगुण्य भाजयेत् ।
तयोर्भुक्त्यन्तरेणाप्तं स्थित्यर्धं नाडिकादि तत् ॥१८२॥
पातकाल: स्फुटो मध्य: सोऽपि स्थित्यर्द्धवर्जित: ।
तस्य सम्भवकाल: स्यात्तत्संयुक्तोऽन्त्यसंज्ञित: ॥१८३॥
आद्यन्तकालयोर्मध्य: कालो ज्ञेयोऽतिदारुण: ।
प्रज्वलज्ज्वलनाकार: सर्वकर्मसु गर्हित: ॥१८४॥
इत्येतद्नणिते किञ्चित्प्रोक्तं संक्षेपतो द्विज ।
जातकं वच्मि समयाद्राशिसंज्ञापुर: सरम् ॥१८५॥
(पातके स्थितिकाल, आरम्भ तथा अन्तकालका साधन—) सूर्य तथा चन्द्रमाके विम्बयोगार्धको ६० से गुणा करके गुणनफलमें सूर्य—चन्द्रकी गत्यन्तरकलासे भाग देकर जो लब्धि हो वह पातकी स्थित्यर्ध घडी होती है । इसको पातके स्पष्ट मध्यकालमें घटानेसे पातका आरम्भकाल होता है और जोडनेसे अन्तकाल होता है । पातके आरम्भकालसे अन्तकालतक जो मध्यका काल है, वह प्रज्वलित अग्निके समान अत्यन्त दारुण (भयानक) होता है । जो सब कार्यमें निषिद्ध है । ब्रह्मन् ! इस प्रकार मैंने गणितस्कन्धमेंं संक्षेपसे कुछ (उपयोगी) विषयोंका प्रतिपादन किया है । अब (अगले अधायमें) राशियोंके संज्ञादि कथनपूर्वक जातकका वर्णन करूँगा ॥१८२—१८५॥
॥ इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने द्वितीयपादे ज्यौतिषगणितवर्णनं नाम
चतु: पञ्चाशत्तमोऽध्याय: ॥५४॥
अध्याय ५१ त्रिस्कन्ध ज्योतिषका जातकस्कंध
सनन्दनजी कहते हैं—नारद ! मेंष आदि राशियाँ कालपुरुषके क्रमश: मस्तक, मुख, बाहु, ह्रदय, उदर, कटि, वस्ति (पेंडू), लिङ्ग, ऊरु, जानु, जङ्घा और दोनों चरण हैं ॥१॥ मङ्गल, शुक्र, बुध, चन्द्रमा, सूर्य, बुध, श्रुक्त, मङ्गल, गुरु, शनि, शनि तथा ग्रुरु—ये क्रमश: मेंष आदि राशियोंके अधीश्वर (स्वामी) हैं ॥२॥ विषम राशियोंमें पहले सूर्यकी, फिर चन्द्रमाकी होरा बीतती है तथा सम राशियोंमें पहले चन्द्रमाकी, फिर सूर्यकी होरा बीतती है । आदिके दश अंशतक उसी राशिका द्रेष्काण होता है और उस राशिके स्वामी ही उस द्रेष्काणके स्वामी होते हैं । ग्यारहसे बीसवें अंशतक उस राशिसे पाँचर्वी राशिका द्रेष्काण होता है और उसके स्वामी ही उस द्रेष्काणके स्वामी होते हैं: इसी प्रकार अन्तिम दश अंश (अर्थात् २१ से ३० वें अंशतक) उस राशिसे नवम राशिका द्रेष्काण होता है और उसीके स्वामी उस द्रेष्काणके स्वामी कहे गये हैं ॥३॥ विषम राशियोंमें पहले पाँच अंशतक मङ्गल, फिर पाँच अंशतक शनि, फिर आठ अंशतक बृहस्पति, फिर सात अंशतक बुध और अन्तिम पाँच अंशतक शुक्र त्रिंशांशेश कहे गये हैं । सम राशियोंमें इसके विपरीत क्रमसे पहले पाँच अंशतक शुक्र, फिर सात अंशतक बुध, फिर आठ अंशतक बृहस्पति, फिर पाँच अंशतक शनि और अन्तिम पाँच अंशतक मङ्गल त्रिंशांशेश बताये गये हैं ॥४॥ मेंष आदि राशियोंके नवमांश मेंष, मकर, तुला और कर्कसे प्रारम्भ होते हैं (यथा—मेंष, सिंह, धनुके मेंषसे; वृष, कन्या, मकरके मकरसे; मिथुन, तुला और कुम्भके तुलासे तथा कर्क, वृश्चिक और मीनके नवमांश कर्कसे चलते हैं ।) २ . / १ / २ अंशके द्वादशांश होते हैं, जो अपनी राशिसे प्रारम्भ होकर अन्तिम राशिपर पूरे होते हैं और उन—उन रआसियोंके स्वामी ही उन द्वादशांशोंके स्वामी कहे गये हैं । इस प्रकार ये राशि, होरा आदि षड्वर्ग१ कहलाते हैं ॥५॥
वृष, मेंष, धनु, कर्क, मिथुन, और मकर—ये रात्रिसंज्ञक हैं अर्थात् रातमें बली माने गये हैं—ये पृष्ठभागसे उदय लेनेके कारण पृष्ठोदय कहलते हैं (किंतु मिथुन पृष्ठोदय नहीं है) । शेष राशियोंकी दिन संज्ञा है (वे दिनमें बली और शीर्षोदय माने गये हैं); मीन राशिको उभयोदय कहा गया है । मेंष आदि राशियाँ क्रमसे क्रूर और सौम्य (अर्थात् मेंष आदि विषम राशियाँ क्रूर और वृष आदि सम राशियाँ सौम्य) हैं ॥६॥ मेंष आदि राशिय़ाँ क्रमसे पुरुष . स्त्री और नपुंसक होती हैं (नवीन मतमें दो विभाग हैं, मेंष आदि विषम राशियाँ पुरुष और वृष आदि सम राशियाँ स्त्री हैं) । इसी प्रकार मेंष आदि राशियाँ क्रमश: चर, स्थिर और द्विस्वभावमें विभाजित हैं (अर्थात् मेंष चर, वृष स्थिर और मिथुन द्विस्वभाव हैं, कर्क चर, सिंह स्थिर और कन्या द्विस्वभाव है । इसी क्रमसे शेष राशियोंको भी समझे) । मेंष आदि राशियाँ पूर्व आदि दिशाओंमें स्थित हैं (यथा—मेंष, सिंह, धनु पूर्वमें; वृष कन्या, मकर दक्षिणमें; मिथुन, तुला, कुम्भ पश्चिममें और कर्क, वृश्चिक, मीन उत्तरमें स्थित, हैं) । ये सब अपनी—अपनी दिशामें रहती हैं ॥७॥ सूर्यका उच्च मेंष, चन्द्रमाका वृष, मङ्गलका मकर, बुधका कन्या, गुरुका कर्क, शुक्रका मीन तथा शनिका उच्च तुला है । सूर्यका मेंषमें १० अंश, चन्द्रमाका वृषमें ३ अंश, मङ्गलका मकरमें २८ अंश, बुधका कन्यामें १५ अंश, गुरुका कर्कमें ५ अंशम शुक्रका मीनमें २७ अंश तथा शनिका तुलामें २० अंश उच्चांश परमोच्च है ॥८॥
सूर्यादि ग्रहोकी जो उच्च राशियाँ कही गयी हैं, उनसे सातवीं राशि उन ग्रहोका नीच स्थान है ।
चरमें पूर्व नवमांश वर्गोत्तम है। स्थिरमें मध्य (पाँचवाँ) नवमांश और द्विस्वभावमें अन्तिम (नवाँ) नवमांश वर्गोत्तम है। तनु (लग्न) आदि बारह भाव हैं ॥९॥ सूर्यका सिंह, चन्द्रमाका वृष, मङ्गलका मेंष, बुधका कन्या, गुरुका धन, शुक्रका तुला और शनिका कुम्भ यह मूल त्रिकोण कहा गया है । चतुर्थ और अष्टभावका नाम चतुरस्त्र है । नवम और पञ्चमका नाम त्रिकोण है ॥१०॥ द्वादश, अष्टम और षष्ठका नाम त्रिक है; लघ्न चतुर्थ . सप्तम और दशमका नाम केन्द्र है। द्विपद, जलचर, कीट और पशु—ये राशियाँ क्रमश: केन्द्रमें बली होती हैं (अर्थात् द्विपद लग्नमें, जलचर चतुर्थमें, कीटा सातवेंमें और पशु दसवेंमें बलवान् मागे गये हैं) ॥११॥ केन्द्रके बादके स्थान (२, ५ . ८, ११, ये) ‘पणफर’ कहे गये हैं। उसके बादके ३, ६, ९, १२—ये आपोक्लिम कहलाते हैं । मेंषका स्वरूप रक्तवर्ण, वृषका श्वेत, मिथुनका शुकके समान हरित, कर्कका पाटल (गुलाबी), सिंहका धूम्र, कन्याका पाण्डु (गौर), तुलाका चितकबरा, वृश्चिकका कृष्णवर्ण, धनुका पीत, मकरका पिङ्ग, कुम्भका बभ्रु (नेवले) के सदृश और मीनका स्वच्छ वर्ण है । इस प्रकार मेंषसे लेकर सब राशियोंकी कान्तिका वर्णन किया गया है । सब राशियाँ स्वामीकी दिशाकी ओर झुकी रहती हैं । सूर्याश्रित राशिसे दूसरेका नाम ‘वेशि’ है ॥१२—१३॥
(ग्रहोके शील, गुण आदिका निरूपण—)सूर्यदेव कालपुरुषके आत्मा, चन्द्रमा मन, मङ्गल पराक्रम, बधु वाणी, गुरु ज्ञान एवं सुख, शुक्र काम और शनैश्वर दुःख हैं ॥१४॥ सूर्य—चन्द्रमा राजा, मङ्गल सेनापति, बुध राजकुमार, बृहस्पति तथा शुक्र मन्त्री और शनैश्वर सेवक या दूत हैं, यह ज्यौतिष शास्त्रके श्रेष्ठ विद्वानोंका मत है ॥१५॥ सूर्यादि ग्रहोके वर्ण इस प्रकार हैं । सूर्यका ताम्र, चन्द्रमाका शुक्ल, मङ्गलका रक्त, बुधका हरित, बृहस्पतिका पीत, शुक्रका चित्र (चितकबरा) तथा शनैश्वरका काला है । अग्नि, जल, कार्तिंकेय, हरि, इन्द्र, इन्द्राणी और ब्रह्मा—ये सूर्यादि ग्रहोके स्वामी हैं ॥१६॥ सूर्य, शुक्र, मङ्गल, राहु शनि, चन्द्रमा, बुध तथा बृहस्पति—ये क्रमश: पूर्व, अग्निकोण, दक्षिण, नैऋत्यकोण, पश्चिम, वायव्यकोण, उत्तर तथा ईशनकोणके स्वामी हैं । क्षीण चन्द्रमा, सूर्य, मङ्गल और शनि—ये पापग्रह हैं—इनसे युक्त होनेपर बुध भी पापग्रह हो जाता है ॥१७॥ बुध और शनि नपुंसक ग्रह हैं । शुक्र और चन्द्रमा स्त्रीग्रह हैं । शेष सभी (रवि, मङ्गल गुरु) ग्रह पुरुष हैं । मङ्गल, बुध, गुरु, शुक्र तथा शानि—ये क्रमश: अग्नि, भूमि, आकाश, जल तथा वायु—इन तत्त्वोंके स्वामी हैं ॥१८॥ शुक्र और गुरु ब्राह्मण वर्णके स्वामी हैं । भौम तथा रवि क्षत्रिय वर्णके अधिपति हैं । शनि अन्त्यजोंके तथा राहु म्लेर्च्छेके स्वामी हैं ॥१९॥ चन्द्रमा, सूर्य और बृहस्पति सत्त्वगुणके, बुध और शुक्र रजोगुणके तथा मङ्गल और शनैश्वर तमोगुणके स्वामी हैं । सूर्य देवताओंके, चन्द्रमा जलके, मङ्गल अग्निके, बुध क्रीडाविहारके, बृहस्पति भूमिके, शुक्र कोषके, शनैश्वर शयनके तथा राहु ऊसरके स्वामी हैं ॥२०॥ स्थूल (मोटे सूतसे बना हुआ), नवीन, अग्निसे जला हुआ, जलसे भीगा हुआ, मध्यम (न नया न पुराना), सुदृढ (मजबूत) तथा फटा हुआ, इस प्रकार क्रमसे सूर्य़ आदि ग्रहोका वस्त्र है । ताम्र (ताँबा), मणि, सुवर्ण, काँसा, चाँदी, मोती और लोहा—ये क्रमश: सूर्य आदि ग्रहोके धातु हैं । शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद् और हेमन्त—ये क्रमसे शनि, शुक्र, मङ्गल, चन्द्र, बुध तथा गुरुकी ऋतु हैं । लग्नमें जिस ग्रहका द्रेष्काण हो, उस ग्रहकी ऋतु समझी जाती है ॥२१—२२॥
(ग्रहोकी दृष्टि—) नारद ! सभी ग्रह अपने—अपने आश्रितस्थानसे ३, १०, स्थानको एक चरणसे; ५, ९, स्थानको दो चरणसे; ४, ८, स्थानको तीन चरणसे और सप्तम स्थानको चार चरणसे देखते हैं । किंतु ३, १०, स्थानको शनि: ५ . ९, को गुरु तथा ४, ८, को मङ्गल पूर्ण दृष्टिसे ही देखते हैं । अन्य ग्रह केवल सप्तम स्थानको ही पूर्ण दृष्ट चारों चरणों से देखते हैं ॥२३॥
(ग्रहोके कालमान—) अयन (६ मास), मुहूर्त (२ घडी), अहोरात्र, ऋतु (२ मास), मास, पक्ष तथा वर्ष—ये कमसे सूर्य आदि ग्रहोके कालमान हैं । तथा कटु (मिर्च आदि), लवण, तिक्त (निम्बादि), मिश्र (सब रसोंका मेंल), मधुर, आम्ल (खट्टा) और कषाय (कसैला)—ये क्रमश: सूर्य आदि ग्रहोके रस हैं ॥२४॥
(ग्रहोकी स्वाभाविक बहुसम्मत मैत्री—)ग्रहोके जो अपने—अपने मूल त्रिकोण स्थान कहे गये हैं, उस (मूल त्रिकोण) स्थानसे २, १२, ५, ९, ८, ४, इन स्थानोंके तथा अपने उच्च स्थानोंके स्वामी ग्रह मित्र होते हैं और इनसे भिन्न (मूल त्रिकोणसे १, ३, ६, ७, १०, ११) स्थानोंके स्वामी शत्रु होते हैं ।
(मतान्तरसे ग्रह—मैरी—) सूर्यका बृहस्पति, चन्द्रके गुरु—बुध, मङ्गलके शुक्र—बुध, बुधके रविको छोडकर शेष सब ग्रह, गुरुके मङ्गलको छोडकर सब ग्रह और शनिके मङ्गल—चन्द्र—रविको छोडकर शेष सभी ग्रह मित्र होते हैं । यह मत अन्य विद्वानोंद्वारा स्वीकृत है ।
(ग्रहोकी तात्कालिक मैत्री—(उस—उस समयमें जो—जो दो ग्रह २, १२ । ३, ११। ४, १०—इन स्थानोंमें हो वे भभी परस्पर तात्कालिक मित्र होते हैं । (इनसे भिन्न स्थानमें स्थित ग्रह तात्कालिक शत्रु होते हैं) इस प्रकार स्वाभाविक मैत्रीमें (मूल त्रिकोणसे जिन स्थानोंके स्वामीको मित्र कहा गया है—उनमें) दो स्थानोंके स्वामीको मित्र, एक स्थानके स्वामीको सम और अनुक्त स्थानके स्वामीको शत्रु समझे । तदनन्तर तात्कालिक मित्र और शत्रुका विचार करके दोनोंके अनुसार अधिमित्र, मित्र, सम, शुत्र और अधिशत्रुंका निश्चय करना चाहिये१ ॥२५—२७॥
(ग्रहोके बलका कथन—)अपने—अपने उच्च, मूल, त्रिकोण, गृह और नवमांशमें ग्रहोके स्थानसम्बन्धी बल होते हैं । बुध और गुरुको पूर्व (उदय—लग्न) में, रवि और मङ्गलको दक्षिण (दशम भाव)—में, शनिको पश्चिम (सप्तम भाव)—में और चन्द्र तथा शुक्रको उत्तर (चतुर्थ भाव)—में दिक्सम्बन्धी बल प्राप्त होता है । रवि और चन्द्रम उत्तरायण (मकरसे ६ राशि)—में रहनेपर तथा अन्य ग्रह वक्र और समागममें (चन्द्रमाके साथ) होनेपर चेष्टाबलसे युक्त समझे जाते हैं । तथा जिन दो ग्रहोमें युति होती है, उनमें उत्तर दिशामें रहनेवाला भी चेष्टाबलसे सम्पन्न समझा जाता है ॥२८—२९॥ चन्द्रमा, मङ्गल और शनि ये रात्रिमें, बुध दिन और रात्रि दोनोंमें तथा अन्य ग्रह (रवि, गुरु और शुक्र) दिनमें बली होते हैं । कृष्णपक्षमेंम पापग्रह और शुक्लपक्षमें शुभग्रह बली होते हैं । इस प्रकार विद्वानोंने ग्रहोका कालसम्बन्धी बल माना है ॥३०॥ शनि, मङ्गल, बुध, गुरु, शुक्र, चन्द्रमा तथा रवि—ये उत्तरोत्तर बली होते हैं । इस प्रकार यह ग्रहोका नैसर्गिक स्वाभाविक बल है ॥३० १ \ २ ||
(वियोनि जन्म—ज्ञान—) (प्रश्न, आधान या जन्म—समयमें) यदि पापग्रह निर्बल हो, शुभग्रह बलवान् हो, नपुंसक (बुध, शनि) केन्द्रमें हो तथा लग्नपर शनि या बुधकी दृष्टी हो तो तात्कालिक चन्द्रमा जिस राशिके द्वादशांशमें हो, उस राशिके सदृश वियोनि (मानवेतर प्राणी)—का जन्म जानना चाहिये । अर्थात् चन्द्रमा यदि वियोनि राशिके द्वादशांशमें हो तब वियोनि प्राणियोंका जन्म समझना चाहिये । अथवा पापग्रह अपने नवमांशमें और शुभग्रह अन्य ग्रहोके नवमांशमें हो था निर्बला वियोनि राशि लग्नमें हो तो भी विद्वान् पुरुष वियोनि या मानवेतर जीवके ही जन्मका प्रतिपादन करें ॥३१-३३ १ \ २ ||
(वियोनिके अङ्गोंमें राशिस्थान—( १ मस्तक, २ मुख, गला (गर्दन), ३ पैर, कंधा, ४ पीठ, ५ ह्रदय, ६ दोनों पार्श्व, ७ पेट, ८ गुदा—मार्ग, ९ पिछले पैर, १० लिङ्ग, ११ अण्डकोश, १२ चूतड तथा पुच्छ—इस प्रकार चतुष्पद आदि (पशु—पक्षी)—के अङ्गोंमें मेंषादि राशियोंके स्थान हैं ॥३४॥
(वियोनि वर्ण—ज्ञान—) लग्नमें जिस ग्रहका योग हो उस ग्रहके समान और यदि किसीका योग न हो तो लग्नके नवमांश (राशि—राशिपति)—के समान वियोनिका वर्ण (श्याम, और आदि रंग) कहना चाहिये । बहुत—से ग्रहोके योग या दृष्टि हो तो उनमें जो बली हो या जितने बली हो, उनके सदृश वर्ण कहना चाहिये । लग्नके सप्तम भावमें ग्रह हो तो (उस ग्रहके समान उस ग्रहका जैसा वर्ण कहा गया है वैसा) चिह्न उस वियोनिके पीठ आदि अङोंमें जानना चाहिये ॥३५॥
(पक्षिजन्म ज्ञान—)ग्रहयुत लग्नमें पक्षिद्रेष्कोण१ हो अथवा बुधका नवमांश हो य चरराशिका नवमांश हो तथा उसपर शनि या चन्द्रमा अथवा दोनोंकी दृष्टि हो तो क्रमश: शनि और चन्द्रमाकी दृष्टिसे स्थलचर और जलचर पक्षीका जन्म समझना चाहिये ॥३६॥
(वृक्षादि जन्म—ज्ञान—( यदि लग्न, चन्द्र, गुरु और सूर्य—ये चारों निर्बल हो तो वृक्षोंका जन्म जानना चाहिये । स्थल या जल—सम्बन्धी वृक्षोंके भेद लग्नांशके अनुसार समझने चाहिये । उस स्थल या जलचर नवांशका स्वामी लग्नसे जितने नवमांश आगे हो उतनी ही स्थाल या जलसम्बन्धी वृक्षोंकी संख्या जाननी चाहिये ॥३७—३८॥ यदि उक्त अंशके स्वामी सूर्य हो तो अन्त: सार (सखुआ, शीशम आदि), शनि हो तो दुर्भग (किसी उपयोगमें न आनेवाले कुर्कुस, फरहद आदि खोटे वृक्ष), चन्द्रमा हो तो दूधवाले वृक्ष, मङ्गल हो तो काँटेवाले, गुरु हो तो फलवान् (आम आदि), बुध हो तो विफल (जिसमें फल नहीं होते ऐसे) वृक्ष, शुक्र हो तो पुष्पके वृक्षो (गेंदा, गुलाब आदि)—का जन्म समझना चाहिये । चन्द्रमाके अंशपति होनेसे समस्त चिकने वृक्ष (देवदारु आदि) तथा मङ्गलके अंशपति होनेपर कडुए वृक्ष (निम्बादि) का भी जन्म समझना चाहिये । यदि शुभग्रह अशुभ राशिमें हो तो सुन्दर भूमिमें खराब वृक्षका जन्म देता है । इससे अर्थत: यह बात निकली कि यदि कोई शुभग्रह अंशपति हो और वह शुभराशिमें स्थित हो तो सुन्दर भुमिमें सुन्दर वृक्षका जन्म होता है और यदि पापग्रह अंशपति होकर पापराशिमें स्थित हो तो खराब भूमिमें कुत्सित वृक्षका जन्म होता है । इसके सिवा, वह अंशपति अपने नवमांशसे आगे जितनी संख्यापर अन्य नवमांशमें हो, उतनी ही संख्यामें और उतने ही प्रकारके वृक्षोंका जन्म समझना चाहिये ॥३९-४० १/२ ||
(आधान—ज्ञान—( प्रतिमास मङ्गल और चन्द्रमाके हेतुसे स्त्रीको ऋतुधर्म हुआ करता है । जिस समय चन्द्रमा स्त्रीकी राशिसे नेष्ट (अनुपचय) स्थानमें हो और शुभ पुरुषग्रह (बृहस्पति)—से देखा जाता हो तथा पुरुषकी राशिसे अन्यथा (इष्ट उपचय स्थानमें) हो और बृहस्पतिसे दृष्ट हो तो उस स्त्रीको पुरुषका संयोग प्राप्त होता है । आधान—लग्नसे सप्तम भावपर पापग्रहका योग या दृष्टि हो तो रोषपूर्वक और शुभग्रहका योग एवं दृष्टि हो तो प्रसन्नतापूर्वक पति—पत्नीका संयोग होता है ॥४१—४२॥ आधानकालमें शुक्र, रवि, चन्द्रमा और मङ्गल अपने—अपने नवमांशमें हो, गुरु लग्नसे केन्द्र या त्रिकोणमें हो तो वीर्यवान् पुरुषको निश्चय ही संतान होती है ॥४३॥ यदि सूर्यसे सप्तम भावमें मङ्गल और शनि हो तो वे पुरुषके लिये तथा चन्द्रमसे सप्तममें हो तो स्त्रीके लिये रोगप्रद होते हैं । सूर्यसे १२, २में शनि और मङ्गल हो तो स्त्रीके लिये घातक होते हैं । अथवा इन (शनि—मङ्गल)—में एकसे युत और अन्यसे दृष्ट रवि हो तो वह पुरुषके लिये और चन्द्रमा यदि एकसे युत तथा अन्यसे दृष्ट हो तो चह स्त्रोके लिये घातक होता है ॥४४॥
दिनमें गर्भाधान हो तो शुक्र मातृग्रह हौर सूर्य पितृग्रह होते हैं । रात्रिमें गर्भाधान हो तो चन्द्रमा मातृग्रह और शनि पितृग्रह होते हैं । पितृग्रह यदि विषम राशिमें हो तो पिताके लिये और मातृग्रह सम राशिमें हो तो माताके लिये शुभकारक होता है । यदि पारग्रह बारहवें भावमें स्थित होकर पापग्रहसे देखा जाता और शुभग्रहसे न देखा जाता हो, अथवा लग्नमें शनि हो तथा उसपर क्षीण चन्द्रमा और मङ्गलकी दृष्टि हो तो गर्भाधान होनेसे स्त्रीका मरण होता है । लग्न और चन्द्रमा दोनों या इनमेंसे एक भी दो पापग्रहोके बीचमें हो तो गर्भाधान होनेपर स्त्रि गर्भके सहित (साथ ही) या पृथक मृत्युको प्राप्त होती है । लग्न अथवा चन्द्रमासे चतुर्थ स्थानमें पापग्रह हो, मङ्गल अष्टम भावमें हो अथवा लग्नसे ४, १२ वें स्थानमें मङ्गल और शनि हो तथा चन्द्रमा क्षीण हो तो भी गर्भवती स्त्रीका मरण होता है । यदि लग्नमें मङ्गल और सप्तममें रवि हो तो गर्भवती स्त्रीका शस्त्रद्वारा मरण होता है । गर्भाधानकालमें जिस मासका स्वामी अस्त हो, उस मासमें गर्भका स्त्राव होता है, इसलिये इस प्रकारके लग्नको गर्भाधानमें त्याग देना चाहिये ॥४५—४९॥
आधानकालिक लग्न या चन्द्रमाके साथ अथवा इन दोनोंसे ५, ९, ७, ४, १०, वें स्थानमें सब शुभग्रह हो और ३, ६, ११, भावमें सब पापग्रह हो तथा लग्न और चन्द्रमापर सूर्यकी दृष्टि हो तो गर्भ सुखी रहता है ॥५०॥ रवि, गुरु चन्द्रमा और लग्न—ये विषम राशि एवं विषम नवमांशमें हो अथवा रवि और गुरु विषम राशिमें स्थित हो तो पुत्रका जन्म समझना चाहिये । उक्त सभी ग्रह यदि सम—राशि और सम—नवमांशमें हो अथवा मङ्गल, चन्द्रमा और शुक्र—ये सम—राशिमें हो तो विज्ञजनोंको कन्याका जन्म समझना चाहिये । अथवा वे सब द्विस्वभाव राशिमें हो और बुधसे देखे जाते हो तो अपने—अपने पक्षके यमल (जुडर्वी संतान)—के जन्मकारक होते हैं । अर्थात् पुरुषग्रह दो पुत्रोंके और स्त्रीग्रह दो कन्याओंके जन्मदायक होते हैं । यदि दोनों प्रकारके ग्रह हो तो एक पुत्र और एक कन्याका जन्म समझना चाहिये। लग्नसे विषम ३, ५, आदि स्थानोंमें स्थित शनि भी पुत्रजन्म—कारक होता है ॥५१—५३॥
क्रमश: विषम एवं सम—राशिमें स्थित रवि और चन्द्रमा अथवा बुध और शनि एक—दूसरेको देखते हो, अथवा सम—राशिस्थ सूर्य़को विषम—राशिस्थ मङ्गल देखता हो या विषम—सम राशिस्थ लग्न एवं चन्द्रमापर मङ्गलकी दृष्टि हो अथवा चन्द्रमा सम—राशि और लग्न विषम—राशिमेंम स्थित हो तथा उनपर मङ्गलकी दृष्टि हो अथवा लग्न, चन्द्रमा और शुक्र—ये तीनों पुरुषराशिके नवमांशमें हो तो इन सब योगोंमें नपुंसकका जन्म होता है ॥ ५४ १/२ ॥
शुक्र और चन्द्रमा सम—राशिमें हो तथा बुध, मङ्गल, लग्न और बृहस्पति विषम—राशिमें स्थित होकर पुरुषहसे देखे जाते हो अथवा लग्न एवं चन्द्रमा सम—राशिमें हो या पूर्वोक्त बुध, मङ्गल, लग्न एवं गुरु सम—राशिमें हो तो ये यमल (जुडवी) संतानको जन्म देनेवाले होते हैं ॥ ५५ १/२ ॥
यदि बुध अपने (मिथुन या कन्याके) नवमांशमें स्थित होकर द्विस्वभाव राशिस्थ ग्रह और लग्नको देखता हो तो गर्भमें तीन संतानोंकी स्थिति समझनी चाहिये। उनमें दो तो बुध—नवमांशके सदृश होगे और एक लग्नांशके सदृश। यदि बुध और लग्न दोनों तुल्य नवमांशमें हो तो तीनों संतानोंको एक—सा ही समझना चाहिये१ ॥ ५६ १/२ ॥
यदि धनु—राशिका अन्तिमांश लग्न हो, उसी अंशमें बली ग्रह स्थित हो और बलवान् बुध या शनिसे देखे जाते हो, तो गर्भमें बहुत (तीनसे अधिक) संतानोंकी स्थिति समझनी चाहिये ॥५७ १/२ ॥
(गर्भमासोंके अधिपति—) शुक्र, मङ्गल, बृहस्पति, सूर्य, चन्द्रमा, शनि, बुध, आधान—लग्नेश, सूर्य और चन्द्रमा२—ये गर्भाधानकालसे लेकर प्रसवपर्यन्त १० मासोंके क्रमश: स्वामी हैं । आधान—समयमें जो ग्रह बलवान् या निर्बल होता है, उसके मामसें उसी प्रकार शुभ या अशुभ फल होता है ॥ ५८ १/२ ॥ बुध त्रिकोण (५,९)-में हो और अन्य ग्रह निर्बल हो तो गर्भस्थ शिशुके दो मुख, चार पैर और चार हाथ होते हैं । चन्द्रमा वृषमें हो और अन्य सब पापग्रह राशि—संधिमें हो तो बालक गूँगा होता है । यदि उक्त ग्रहोपर शुभ ग्रहोकी दृष्टि हो तो वह बालक अधिक दिनोंमें बोलता है ॥५९—६०॥ मङ्गल और शनि यदि बुधकी राशि नवमांशमें हो तो शिशु गर्भमें ही दाँतसे युक्त होता है । चन्द्रमा कर्कराशिमें होकर लग्नमें हो तथा उसपर शनि और मङ्गलकी दृष्टि हो तो गर्भस्थ शिशु कुबडा होता है । मीन राशि लग्नमें हो और उसपर शनि, चन्द्रमा तथा मङ्गलकी दृष्टि हो तो गर्भका बालक पङ्गु होता है । पापग्रह और चन्द्रमा राशिसंधिमें हो और उनपर शुभ—ग्रहकी दृष्टि न हो तो गर्भस्थ शिशु जड (मूर्ख) होता है । मकरका अन्तिम अंश लग्नमें हो और उसपर शनि, चन्द्रमा तथा सूर्यकी दृष्टि हो तो गर्भका बच्चा वामन (बौना) होता है । पञ्चम तथा नवम लग्नके द्रेष्काणमें पापग्रह हो तो जातक क्रमश; पैर, मस्तक और हाथसे रहित होता है ॥६१—६२॥
गर्भाधानके समय यदि सिंह लग्नमें सूर्य और चन्द्रमा हो तथा उनपर शनिज और मङगलकी दृष्टि हो तो शिशु नेत्रहीन होता है । यदि शुभ और पापग्रह दोनोंकी दृष्टी हो तो आँखमें फूली होती है । यदि लग्नसे बारहवें भावमें चन्द्रमा हो तो बालकका वाम नेत्र और सूर्य हो तो दक्षिण नेत्र नष्ट होता है । ऊपर जो अशुभ योग कहे गये हैं, उनपर शुभग्रहकी दृष्टि हो तो उन योगोंके फल पूर्ण नहीं होते हैं (ऐसी परिस्थितिमें देवाराधन एवं चिकित्सा आदि यत्नोंसे अशुभ फलका निवारण हो जाता है) ॥६३ १/२॥
यदि आधानलग्नमें शनिका नवमांश हो और शनि सप्तम भावमें हो तो तीन वर्षपर प्रसव होता है । यदि इसी स्थितिमें चन्द्रमा हो (अर्थात् लग्नमें चन्द्रमाका नवमांश हो और चन्द्रमा सप्तम भावमें स्थित हो) तो बारह वर्षपर प्रसव होता है । इन योगोंका विचार जन्मकालमें भी करना चाहिये ॥६४—६५॥ आधानकालमें जिस द्वादशांशमें चन्द्रमा हो, उससे उतनी ही संख्या आगे राशिमें चन्द्रमाके जानेपर बालकका जन्म होता है । द्वादशांशभुक्त अंशादिको दोसे गुणा करके उसमें ५ से भाग देनेपर लब्धि राश्यादि मानकी सूचक होती है ॥६६—६७॥
(जन्मज्ञान—( (शिशुकी जन्म—कुण्डलीमें) यदि चन्द्रमा जन्मलग्नको नहीं देखता हो तो पिताके परोक्षमें बालकका जन्म समझना चाहिये । इसी योगमें यदि सूर्य चर राशिमें मध्य (दशम) भावसे आगे (११, १२)—में अथवा पीछे (९, ८)—में हो तो पिताके विदेश रहनेपर पुत्रक जन्म समझना चाहिये । (इससे यह सिद्ध होता है कि यदि सूर्य स्थिर राशिमें हो तो स्वदेशमें रहते हुए पिताके परोक्षमें और द्विस्वभाव राशिमें हो तो स्वदेश और परदेशके मध्य स्थानमें पिताके रहनेपर बालकका जन्म होता है) ।
लग्नमें शनि और सप्तम भावमें मङ्गल हो अथवा बुध और शुक्रके बीचमें चन्द्रमा हो तो भी पिताके परोक्षमें शिशुका जन्म समझना चाहिये। पापग्रहकी राशिवाले लग्नमें चन्द्रमा हो अथावा वह वृश्चिकके द्रेष्काणमें हो तथा शुभग्रह २। ११ भावमें स्थित हो तो सर्पका या सर्पसे वेष्टित मनुष्यका जन्म समझना चाहिये ॥६८—७०॥
मुनिश्रेष्ठ ! यदि सूर्य चतुष्पद राशिमें हो और ग्रह बलयुक्त हों तो एक ही कोशमें लिपटे हुए दो शिशुओंका जन्म समझना चाहिये | शनि या मङ्गलसे युक्त सिंह, वृष, या मेंष लग्न हो तो लग्नके नवमांशकी राशि जिस अङ्गकी हो, उस अङ्गमें नालसे लिपटे हुए शिशुका जन्म समझना चाहिये ।
यदि लग्न और चन्द्रमापर गुरुकी दृष्टि न हो अथवा चन्द्रमा सूर्यसे संयुक्त हो तथा उसे गुरु नहीं देखता हो अथवा चन्द्रमा पापग्रह और सूर्यसे संयुक्त हो तो शिशुको पर—पुरुषके वीर्यसे उत्पन्न समझना चाहिये । यदि दो पापग्रह पापराशिमें स्थित होकर सूर्यसे सप्तम भावमें हो तो सूर्यके चर आदि राशिके अनुसार विदेश, स्वदेश या मार्गसें बालकका जन्म समझना चाहिये । पूर्ण चन्द्रमा अपनी राशिमें हो, बुध लग्नमें हो, शुभग्रह चतुर्थ भावमें हो अथवा जलचर राशि लग्न हो और उससे सप्तम स्थानमें चन्द्रमा हो तो नौकापर शिशुका जन्म समझना चाहिये । नारद ! यदि जलचर राशि लग्नको जलचर राशिस्थ पूर्ण चन्द्रमा देखता हो अथवा वह १०, ४ या लग्नमें हो तो जलमें प्रसव होता है, इसमें संशा नहीं । यदि लग्न और चन्द्रमसे शनि बारहवें भावमें हो, उसपर पापग्रहकी दृष्टि हो तो बालकका कारागारमें जन्म होता है । तथा कर्क या वृश्चिक लग्नमें शनि हो और उसपर चन्द्रमाकी दृष्टि हो तो गङ्ढे में बालकका जन्म समझना चाहिये । जलचर राशिस्थ शनि लग्नमें हो तथा उसपर बुध, सूर्य या चन्द्रमाकी दृष्टि हो तो क्रमश: क्रीडास्थान, देवालय और ऊसर भूमिमें शिशुका प्रसव समझना चाहिये । यदि मङ्गल बलवान् होकर लग्नगत शनिको देखता हो तो श्मशान—भूमिमें, चन्द्रमा और शुक्र देखते हो तो रम्य स्थानमें, ग्रुरु देखता हो तो अग्निहोत्रग्रुहमें, सूर्य देखता हो तो राजगृह, देवालय और गोशालामें तथा बुध देखता हो तो चित्रशालामें बालकका जन्म समझना चाहिये ॥७१—७९॥
यदि लग्नमें चरराशि हो तो मार्गमें लग्नराशिके कथित स्थानके समान सथानमें बालकका जन्म होता है । यदि लग्नमें स्थिर राशि हो तो स्वदेशके ही उक्त स्थानमें जन्म होता है तथा यदि लग्न—राशि अपने नवमांशमें हो तो स्वगृहमें ही वैसे स्थानमें जन्म होता है । मङ्गल और शनिसे त्रिकोण (५, ९)—में अथवा सप्तम भावमें चन्द्रमा हो तो जातकको माता त्याग देती है । यदि उसपर गुरुकी दृष्टि हो तो त्यक्त होनेपर भी दीर्घायु होता है । पापग्रहसे दृष्ट चन्द्रमा यदि लग्नमें हो और मङ्गल सप्तम भावमें स्थित तो मातासे त्यक्त होनेपर जातक मर जाता है । अथवा पापदृष्ट चन्द्रमा यदि शनि—मङ्गलसे ११वें भावसे स्थित हो तो भी शिशुकी मृत्यु हो जाती है । यदि चन्द्रमा शुभग्रहसे देखा जाता हो तो बालक दूसरेके हाथमें जाकर सुखी होता है । यदि पापसे ही दृष्ट हो तो दूसरेके हाथमें जानेपर भी हीनायु होता है ॥८०—८२॥
पितृसंज्ञक ग्रह बली हो तो पिताके घरमें और मातृसंज्ञक ग्रह बली हो तो माता (अर्थात् माता) के घरमें जन्म समझना चाहिये । मुने ! यदि शुभग्रह नीच स्थानमें हो तो वृक्षादिके नीचे तृण-पत्रादिकी कूटीमें जन्म समझना चाहिये | शुभग्रह नीच स्थानमें हो और लग्न अथवा चन्द्रमापर एक स्थानस्थित शुभग्रहोकी दृष्टि न हो तो निर्जन स्थानमें प्रसव होता है । यदि चन्द्रमा शनिकी राशिके नवमांशमें स्थित होकर चतुर्थ भावमें विद्यमान हो तथा शनिसे दृष्ट या युत हो तो प्रसवकालमें ‘प्रसूतिका’ का शयन पृथिवीपर समझना चाहिये । शीर्षोदय राशि लग्न हो तो शिरकी ओरसे तथा पृष्ठोदय राशि लग्न हो तो पृष्ठ (पैर)—की ओरसे शिशुका जन्म होता है । चन्द्रमासे चतुर्थ स्थानमें पापग्रह हो तो माताके लिये कष्ट समझना चाहिये ॥८३-८५ १/२॥
जन्मसमयमें सब ग्रहोकी अपेक्षा शनि बलवान् हो तो सूतिका गृह पुराना, किंतु संस्कार किया हुआ समझना चाहिये । मङ्गल बली हो तो जला हुआ, चन्द्रमा बली हो तो नया और सूर्य बली हो तो अधिक काष्ठसे युक्त होकर भी मजबूत नहीं होता । बुध बली हो तो प्रसवगृह बहुत चित्रोंसे युक्त, शुक्र बली हो तो चित्रोंसे युक्त नवीन और मनोहर तथा गुरु बली हो तो सूतिकाका गृह सुदृढ समझना चाहिये ॥८६—८७॥
लग्नमें तुला, मेंष, कर्क, वृश्चिक या कुम्भ हो तो (वास्तु भूमिमें) पूर्वभागमें; मिथुन, कन्या, धनु या मीन हो तो उत्तर भागमें, वृष हो तो पश्चिम भागमें तथा मकर या सिंह हो तो दक्षिण भागमें सूतिकाका घर समझना चाहिये ॥८८॥
(गृहराशियोंके स्थान—( घरकी पूर्व आदि दिशाओंमें मेंष आदि दो—दो राशियोंका और चारों कोणोंमें चारों द्विस्वभाव राशियोंको समझे । सूतिकागृहके समान ही सूतिकाके पलंगमें भी लग्न आदि भावोंको समझे । वहाँ ३, ६, ९, और १२ वें भावको क्रामश: चारों पायोंमें समझना चाहिये । चन्द्रमा और लग्नके) बीचमें जितने ग्रह हो उतनी उपसूतिकाओंकी प्रसवकालमें उपस्थिति समझनी चाहिये । दृश्य चक्रार्धमें (सप्तम भावसे आगे लग्नतक जितने ग्रह हो, उतनी उपसूतिकाओंको घरसे बाहर समझे और अदृश्य चक्रार्धमें (लग्नसे आगे सप्तमपर्यन्त) जितने ग्रह हो, उतनी उपसूतिकाओंकी उपस्थिति घरके भीतर रहती है । बहुत—से आचार्यों और मुनियोंने इससे भिन्न मत प्रकट किया है । (अर्थात् दृश्य चक्रार्धमें जितने ग्रह हो उतनी उपसूतिकाओंको घरके भीतर तथा अदृश्य चक्रार्धमें जितने ग्रह हो, उतनीको घरके बहर कहा है) ॥८९—९०॥
लग्नमें जो नवमांश हो, उसके स्वामी ग्रहके सदृश अथवा जन्मसमयमें जो ग्रह सबसे बली हो, उसके समान शिशुका शरीर समझना चाहिये । इसी प्रकार चन्द्रमा जिस नवमांशमें हो उस राशिके समान वर्ण (गौर आदि) समझना चाहिये । एवं द्रेष्काणवश लग्न आदि भावोंसे जातकके मस्तक आदि अङ्ग—विभाग जानना चाहिये । यथा—लग्नमें प्रथम द्रेष्काण हो तो लग्न मस्तक, २।१२ नेत्र, ३।११ कान, ४।१० नाक, ५।९ कपोल, ६।८ हनु (ठुड्डी) और ७ सप्तम भाव मुख । द्वितीय द्रेष्काण हो तो लग्न कण्ठ, २।१२ कंधा, ३।११ पसली, ४।१० ह्रदय, ५।९ भुज, ६।८ पेट और ७ नाभि । तृतीय द्रेष्काण हो तो लग्न वस्ति (नाभि और लिङ्गके मध्यका स्थान), २।१२ लिङ्ग, गुदमार्ग, ३।१२ अण्डकोश, ४।१० जाँघ, ५।९ घुटना, ६।८ पिण्डली और सप्तम भाव पैर समझना चाहिये ॥९१—९३॥
जिस अङ्गकी राशिमें पापग्रह हो, उस अङ्गमें व्रण और यदि उसपर शुभ ग्रहकी दृष्टि हो तो उस अङ्गमें चिह्न (तिल मशक आदि) समझना चाहिये । पापग्रह अपनी राशि या नवमांशमें, अथवा स्थिर राशिमें हो तो जन्मके साथ ही व्रण होता है अन्यथा उस ग्रहकी दशा—अन्तर्दशामें आगे चलकर व्रण होता है । शनिके स्थानमें वात या पत्थरके आघातसे, मङ्गलके स्थानमें विष, शस्त्र और अग्निसे, बुधके स्थानमें पृथ्वी (मिट्टी)—के आघातसे, सूर्याश्रित अङ्गमें काष्ठ और पशुसे, क्षीण चन्द्राश्रित अङ्गमें सींगवाले पशु और जलचरके आघातसे व्रण होता है । जिस अङ्गकी राशिमें तीन पापग्रह हो, उस अङ्गमें निश्चितरूपसे व्रण होता ही है । षष्ठ भावमें पापग्रह हो तो उस राशिके आश्रित अङ्गमें व्रण होता है । यदि उसपर शुभग्रहकी दृष्टि हो तो उस अङ्गमें तिल या मसा होता है । यदि शुभग्रहका योग हो तो उस अङ्गमें चिह्न (दाग) मात्र होता है ॥९४-९६ १/२॥
(ग्रहोकें स्वरूप और गुणका वर्णन—)सूर्यकी आकृति चतुरस्त्र है, शरीरकी कान्ति और नेत्र पिङ्गल हैं । पित्तप्रधान प्रकृति है और उनके मस्तकपर थोडे—से केश हैं । चन्द्रमाका आकार गोल है; उनकी प्रकृतिमें वात और कफकी प्रधानता है, वे पण्डित और मृदुभाषी हैं तथा उनके नेत्र बडे सुन्दर हैं । मङ्गलकी दृष्टि क्रूर है, युवावस्था है, पित्तप्रधान प्रकृति है और वह चञ्चल स्वभावका है । बुधकी प्रकृतिमें कफ, पित्त और वातकी प्रधानता है, वह हास्यप्रिय और अनेकार्थक शब्द बोलनेवाला है । बृहस्पतिकी अङ्गकान्ति, केश और नेत्र पिङ्गल हैं, उनका शरीर बडा है, प्रकृतिमें कफकी प्रधानता है और वे बडे बुद्धिमान् हैं । शुक्रके अङ्ग और नेत्र सुन्दर हैं, मस्तकपर काले घुँघराले केश हैं और वे सर्वदा सुखी रहनेवाले हैं । शनिका शरीर लम्बा और नेत्र कपिश वर्णके हैं, उनकी वातप्रधान प्रकृति है, उनके केश कठोर हैं और वे बडे आलसी हैं ॥९७—१००॥
(ग्रहोके धातु—) स्नायु (शिरा), हड्डी, शोणित, त्वचा, वीर्य, वसा और मज्जा—ये क्रमश: शनि, सूर्य, चन्द्र, बुध, शुक्र, गुरु और मङ्गलके धातु हैं ॥१०१॥
(अरिष्टकथन—) चन्द्रमा, लग्न और पापग्रह—ये राशिके अन्तिमांशमें हो अथवा चन्द्रमा और तीनों पापग्रह ये लग्नादि चारों केन्द्रोंमें हो तथा कर्क लग्न हो तो जातककी मृत्यु होती है । दो पापग्रह लग्न और सप्तम भावमें हो तथा चन्द्रमा एक पापग्रहसे युक्त हो और उसपर शुभग्रहकी दृष्टि न हो तो शिशुका शीघ्र मरण होता है ॥१०२—१०३॥ क्षीण चन्द्रमा १२ वें भावमें हो, पापग्रह लग्न और अष्टम भावमें हो तथा शुभग्रह केन्द्रमें न हो तो उत्पन्न शिशुकी मृत्यु होती है । अथवा पापयुक्त चन्द्रमा सप्तम, द्वादश या लग्नमें स्थित हो तथा उसपर केन्द्रसे भिन्नस्थानमें स्थित शुभग्रहकी दृष्टि न हो तो जातककी मृत्यु होती है । यदि चन्द्रमा ६, ८, स्थानमें रहकर पापग्रहसे देखा जाता हो तो शिशुका शीघ्र मरण होता है । शुभग्रहसे दृष्ट हो तो ८ वर्षमें और शुभ तथा पापग्रह दोनोंसे दृष्ट हो तो ४ वर्षमें जातककी मृत्यु हो जाती है । क्षीण चन्द्रमा लग्नमें तथा पापग्रह ८, १, ४, ७, १०, में स्थित हो तो उत्पन्न बालकका मरण होता है । अथवा दो पापग्रहोके बीचमें होकर चन्द्रमा ४, ७, ८, स्थानमेंम स्थित हो या लग्न ही दो पापग्रहोके बीचमें हो तो जातककी मृत्यु होती है । पापग्रह ७, ८, में हो और उनपर शुभग्रहकी दृष्टि न हो तो मातासहित शिशुकी मृत्यु होती है । राशिके अन्तिमांशमें चन्द्रमा पाग्रहसे अदृष्ट हो तथा पापग्रह त्रिकोण (५, ९)—में हो अथवा लग्नमें चन्द्रमा और सप्तममें पापग्रह हो तो शिशुका मरण होता है । राहुग्रस्त चन्द्रमा पापग्रहसे युक्त हो और मङ्गल अष्टम स्थानमें स्थित हो तो माता और शिशु दोनोंकी मृत्यु होती है । इसी प्रकार राहुग्रस्त सूर्य यदि पापग्रहसे युक्त हो तथा बली पापग्रह अष्टम भावमें स्थित हो तो माता और शिशुका शस्त्रसे मरण होता है ॥१०४—१०९॥
(आयुर्दायकथन:—( चन्द्रमा और बृहस्पतिसे युक्त कर्क लग्न हो, बुध और शुक्र केन्द्रमें हो और शेष ग्रह (रवि, मङ्गल एवं शनि) ३, ६, ११, स्थानमें हो तो ऐसे योगमें उत्पन्न जातककी आयु बहुत अधिक होती है । मीन लग्नमें मीनका नवर्माश हो, बुध वृषमें २५ कलापर हो तथा शेष सब ग्रह अपने—अपने उच्च स्थानमें हो तो जातककी आयु परम (१२० वर्ष ५ दिनकी) होती है । लग्नेश बली होकर केन्द्रमें हो, उसपर शुभग्रहकी दृष्टि हो तो बालक धनसहित दीर्घायु होता है । चन्द्रमा अपने उच्चमें हो, शुभग्रह अपनी राशिमें हो, बली लग्नेश लग्नमें हो तो जातककी ६० वर्षकी आयु होती है । केन्द्रमें शुभग्रह हो और अष्टम भाव शुद्ध (ग्रहरहित) हो तो ७० वर्षकी आयु होती है । शुभग्रह अपने—अपने मूल त्रिकोणमें हो, गुरु अपने उच्चमें हो तथा लग्नेश बलवान् हो तो ८० वर्षकी अयु होती है । सबल शुभग्रह केन्द्रमें हो और अष्टम भावमें कोई ग्रह न हो तो ३० वर्षकी आयु होती है । अष्टमेंश नवम भावमें हो, बृहस्पति अष्टम भावमें रहकर पापग्रहसे दृष्ट हो तो २४ वर्षकी आयु होती है । लग्नेश और अष्टमेंश दोनों अष्टम भावमें स्थित हो तो २७ वर्षकी आयु होती है । लग्गमें पापग्रहसहित बृहस्पति हो, उसपर चन्द्रमाकी दृष्टि हो तथा अष्टममें कोई ग्रहन हो तो २२ वर्षकी आयु समझनी चाहिये । शनि नवम भाव या लग्नमें हो, शुक्र केन्द्रमें हो और चन्द्रमा १२ या ९ में हो तो १०० वर्षकी आयु होती है । बृहस्पति कर्कमें होकर केन्द्रमें हो अथवा बृहस्पति और शुक्र दोनों केन्द्रमें हो तो १०० वर्षकी आयु समझनी चाहिये। अष्टमेंश लग्नमें हो और अष्टम भावमें शुभग्रह न हो तो ४० वर्षकी आयु होती है । लग्नेश अष्टम भावमें और अष्टमेंश लग्नमें हो तो ५ वर्षकी आयु होती है । शुक्र और बृहस्पति एक राशिमें हो अथवा बुध और चन्द्रमा लग्न या अष्टम भावमें हो तो ५० वर्षकी आयु होती है ॥११०—११८॥
मुने ! मैंने इस प्रकार ग्रहयोग-सम्बन्धसे आयुर्दायका प्रमाण कहा है । अब गणितद्वारा स्पष्टायुर्दायका वर्णन करता हूँ । सूर्य, चन्द्रमा और लग्नमेंसे यदि सूर्य अधिक बली हो तो पिण्डायु, चन्द्रमा बली हो तो निसर्गायु और लग्न बली हो तो अंशायुका साधन करना चाहिये । उसका साधन—प्रकार मैं बतलता१ हूँ ॥१११ १/२॥
(पिण्डायु और निसर्गायुका२ साधन:—( सूर्य आदि ग्रह अपने—अपने उच्चमें हो तो क्रमश: १९, २५, १५, १२, १५, २१, और २० वर्ष पिण्डायुके प्रमाण होते हैं तथा २०, १, २, ९, १८, २०, ५०, ये क्रमश: सूर्यादि ग्रहोके निसर्गायुर्दायके प्रमाण होते हैं ॥१२०—१२१॥
पिण्डायु और निसर्गायुमें आयु—साधन करना हो तो राश्यादि ग्रहमें अपने उच्चको घटाना चाहिये। यदि वह ६ राशिसे अल्प हो तो उसको १२ राशिमें घटाकर ग्रहण करें । उसके अंश बनानेसे वह आयुर्दाय—साधनमें उपयोगी होता है । जो ग्रह शत्रुके गृहमें हो उसके अंशोंमें उसीका तृतीयाँश घटावे । यदि वह ग्रह वक्रगति न हो तभी ऐस करना चाहिये । (यदि ग्रह वक्रगति हो तो शत्रुगृहमें रहनेपर भी तृतीयाँश नहीं घटाना चाहिये) तथा शनि और शुक्रको छोडकर अन्य ग्रह अस्त हो तो उनके अंशोंमें आधा घटा देना चाहिये । (शनि और शुक्र अस्त हो तो भी उनके अंशोंमें आधा नहीं घटाना चाहिये) । यदि किसी ग्रहमें दोनों हानि प्राप्त हो (अर्थात् वह शत्रुगृहमें हो और अस्त भी हो) तो उसमें अधिक हानिमात्र करें (अर्थात् केवल आधा घटावे, तृतीयाँश नहीं) । यदि लग्नमें पापग्रह हो तो उसकी राशिको छोडकर केवल अंशादिसे आयुर्दायके अंशको गुणा करके गुणनफलमें ३६० का भाग देकर लब्ध अंशादिको पूर्वोक्त अंशमें घटावे । इस प्रकार पापग्रहके समस्त लब्धांश घटावे । यदि उसमें शुभग्रहका योग या दृष्टि हो तो लब्धांशका आधा घटाना चाहिये । इस तरह आगे बताये जानेवाले प्रकारसे आयुर्दाय—साधन योग्य स्पष्ट अंश उपलब्ध होते हैं ॥११२—१२५॥
(पिण्डायु—साधन:—( उन स्पष्टांशोंको अपने—अपने पूर्वोक्त गुणक (उच्चस्थ वर्ष—संख्या १९ आदि)—से गुणा करके गुणनफलमें ३६० से भाग देनेपर लब्धि वर्ष—संख्या होती है । शेषको १२ से गुणा करके ३६० से भाग देनेपर लब्धि मास—संख्या होती है । पुन: शेषको ३० से गुणा करके ३६० के द्वारा भाग देनेपर लब्धि दिन—संख्या होगी । फिर शेषको ६० से गुणा कर ३६० से भाग देनेपर लब्धि घटी एवं पलादि रूप होगी१ ॥१२६—१२७॥
(लग्नायु—साधन:—( लग्नकी राशियोंको छोडकर अंशादिको कला बनाकर २०० से भाग देनेपर लब्धि वर्ष—संख्या होगी । शेषको १२ से गुणाकर २०० से भाग देनेपर लब्धि मास—संख्या होगी । पुन: पूर्ववत् ३० आदिसे गुणा करके हरसे भाग देनेपर लब्धि दिनादिकी सूचक होगी२ ॥१२८—॥
(अंशायुर्दाय३—साधन:—) लग्नसहित ग्रहोके पृथक्—पृथक अंश बनाकर ४० से भाग देकर जो शेष बचे उसे आयुर्दाय—साधनोपयोगी अंशादि समझे; उसमें जो विशेष संस्कार कर्तव्य है, उसका वर्णन करता हूँ । लग्नमें ग्रहको घटावे । यदि शेष ६ राशिसे अल्प हो तो उसमें निम्नाङ्कित संस्कार विशेष करना चाहिये, अन्यथा नहीं । यदि घटाया हुआ ग्रह ६ राशिसे अल्प और १ राशिसे अधिक हो तो उन अंशोंसे ३० में भाग देकर लब्धिको १ में घटावे और शेषको गुणक समझे । यदि ग्रह घटाया हुआ लग्न १ राशिसे अल्प हो तो उन्हीं अंशोंमें ३० का भाग देकर लब्धिको १ में घटानेसे शेष गुणक होता है । इस प्रकार शुभग्रहके गुणकको आधा करके गुणक समझे और पापग्रहके समस्त गुणकोंको ग्रहण करे । फिर इस प्रकारके गुणकोंसे उपर्युक्त आयुर्दायके अंशको गुणा करे तो संस्कृत अंश होता है । यह संस्कार कहा गया है । इस संस्कृत आयुर्दायके अंशको कलात्मक बनाकर २०० से भाग देकर लब्धिको वर्ष समझे । फिर शेषको १२ ए गुणा करके गुणनफलमें २०० का भाग देनेसे लब्धिको मस समझे। तत्पश्चात् शेषमें ३० आदिसे गुणा करके २०० का भाग देनेसे लब्धिको दिन एवं घटी आदि समझे ।
लग्नके आयुर्दायु अंशादिको ३ से गुणा करके गुणनफलमें १० का भाग देनेसे जो लब्धि हो, वह वर्ष है । फिर शेषको १२ आदिसे गुणा करके १० से भाग देनेपर जो लब्धि हो उसे मासादि समझे । (लग्नकी आयुमें इतनी विशेषता है कि) यदि लग्न सबल हो तो लग्नकी जितनी भुक्त राशिसंख्या हो उतने वर्ष और अधिक जोडे । तथा अंशादिको २ से गुणा करके ५ का भाग देकर लब्धिको मस समझकर उसे भी जोडे तथा शेषको ३० आदिसे गुणा करके हरसे भाग देकर जो लब्धि आवे, उसके तुल्य दिनादि रूप फल भी जोडे तो लग्नायु स्पष्ट होती है । यह क्रिया पिण्डायु और निसर्गायुमें नहीं की जाती है ॥१३५ १/२ ॥
(दशा—निरूपण:—(लग्न, सॄर्य और चन्द्रमा—इन तीनोंमें जो अधिक बली है, प्रथम उसीकी दशा होती है । फिर उससे केन्द्रस्थित ग्रहोकी, अदनन्तर ‘पणफर’ स्थित ग्रहोकी, तत्पश्चात् ‘आपोक्लिम’ स्थित ग्रहोकी दशा होती है । केन्द्रादि—स्थित ग्रहोमें बलके अनुसार ही पूर्व—पूर्व दशा होती है । एक स्थानमें स्थित दो या तीन ग्रहोमें यदि बलकी समानता हो तो उनमें जिसकी अधिक आयु हो उसकी प्रथम दशा होती है । आयुके वर्षादिमें भी समता हो तो जिस ग्रहका सूर्य—सान्निध्यसे प्रथम उदय हुआ हो, उसकी प्रथम द्शा है ॥१३६—१३७॥
(अन्तर्दशा—कथन:—(दशापति पूर्णदशाका पाचक होता है, तथापि उसके साथ रहनेवाला ग्रह आधे (१/२) का, दशापतिसे त्रिकोण (५, ९)—में रहनेवाला तृतीयाँश (१/२) का, सप्तममें रहनेवाला सप्तमांश (१/७) का, चतुरस्त्र (४।८)—में रहनेवाला चतुर्थोंश (१/४) अन्तर्दशाका पाचक होता है । इससे सिद्ध है कि इन स्थानोंसे भिन्न स्थानमें स्थित ग्रहोकी अन्तर्दशा नहीं होती है ॥१३८—॥
(अन्तर्दशा—साधनके गुणक:—(मूल दशापतिका ८४, उसके साथ रहनेवालेका ४२, त्रिकोणमें रहनेवालेका २८, सप्तममें रहनेवालेका १२ तथा चतुर्थ—अष्टममें रहनेवालेका २१ गुणक कहा गया है । वर्षादि रूप दशा—प्रमाणको अपने—अपने गुणकसे गुणा करके सब गुणकोंके योगसे भाग देनेपर जो लब्धि आवे, वह वर्ष होता है । शेषको १२, ३० आदिसे गुणा करके गुणनफलमें गुणकके योगसे भाग देनेपर जो लब्धि आवे, वह मास—दिन आदिका सूचक होती है । नारदजी ! इस प्रकार अन्तर्दशामें उपदशाके मान समझने चाहिये ॥२३९-२४१ १/२॥
(दशाफल:—( दशारम्भ—कालमें यदि चन्द्रमा दशापतिके मित्रकी राशि, स्वोच्च, स्वराशि या दशापतिसे १, ४, ७, ३, १०, ११, में शुभ स्थानमें हो तो जिस भावमें चन्द्रमा हो, उस भावकी विशेषरूपसे पुष्टि करता हुआ शुभ फल देता है । इन स्थानोंसे भिन्न स्थानमें हो तो उस भावका नाशक होता है ॥१४२—१४३॥ पहले जिस ग्रहके जो द्रव्य बताये गये हैं, भाव और राशियोंमें जो उन ग्रहोकी दृष्टि तथा योगका फल कहा गया है एवं आजीविका आदि जो—जो फल बताये गये हैं, उन सबका विचार उस ग्रहकी दशामें करना चाहिये । जो ग्रह पापदशामें प्रवेशके समय अपने शत्रुसे देखा जाता हो, वह विपत्तिकारक (अत्यन्त अशुभ फल देनेवाला) होता है तथा जो शुभग्रह मित्रसे दृष्ट हो और शुभवर्गमें रहकर तत्काल बलवान् हो, वह सब आपत्ति (दुष्ट फल)—को नष्ट कर देता है। जिसका (आगे बताया जानेवाला) अष्टक वर्गज फल पूर्ण शुभ हो तथा जो ग्रह लग्न या चन्द्रमासे १, ३, ६, १०, ११, में स्वोच्च स्थानमें स्वराशिमें, अपने मूल त्रिकोणमें तथा मित्रकी राशिमें हो, उसका अशुभ फल भी मध्यम हो जाता है, मध्यम फल श्रेष्ठ हो जाता है तथा शुभ फल तो अत्यन्त श्रेष्ठ होता है । यदि वह ग्रह इससे भिन्न स्थानमें हो, तो उसके पाप—फलकी वृद्धि होती है और उसका शुभ फभ भी अल्प हो जाता है । इन फलोंको भी ग्रहके बराबलको समझकर तदनुसार स्वल्प या अधिक समझना चाहिये ॥१४४—१४८॥
(लग्न—दशा—फल—( चर लग्नमें प्रथम, द्वितीय, तृतीय द्रेष्काण हो तो क्रमसे लग्नकी दशा शुभ, मध्यम और अशुभ फल देनेवाली होती है । द्विस्वभाव लग्न हो तो इससे विपरीत फल होता हैं (अर्थात् प्रथमादि द्रेष्काणमें क्रमसे अशुभ, मध्यम और शुभ फल देनेवाली दशा होती है) । स्थिर लग्न हो तो प्रथमादि द्रेष्टकाणमें अशुभ, शुभ और मध्यम फल देनेवाली दशा होती है । लग्न यदि अपने स्वामी, गुरु और बुधसे युक्त एवं दृष्ट हो तो उसकी दशा शुभप्रद होती है । यदि वह पापग्रहसे युक्त या दृष्ट हो अथवा पापके मध्यमें हो तो उसकी दशा अशुभ फल देनेवाली होती है ॥१४९—१५०॥
(अष्टक—वर्ग—कथन—(सृर्य जन्म—कालिक स्वाश्रित राशिसे १। २। १०। ४। ८। ११। ९। ७ इन स्थानोंमेंम शुभ होता है । मङ्गल और शनिसे भी इन्हीं स्थानोंमें रहनेपर वह शुभ होता है । शुक्रसे ७। १२। ६ में, गुरुसे ९। ५। ९ में भी वह शुभ होता है । लग्नसे ३। ६। १०। ११। १२। ४ इन स्थानोंमें सूर्य शुभ होता है ॥१५१—१५२॥
चन्द्रमा लग्नसे ६, ३, १० . ११, स्थानोंमें: मङ्गलसे २, ५, ९ सहित इन्हीं ६, ३, १०, ११ स्थानोंमें: अपने स्थानसे ३, ६, १०, ११, ७, १ में; सूर्यसे ३, ६, १०, ११, ७, ८, में: शनिसे ६, ३, ११, ५ में: बुधसे ५, ३, ८, १, ४, ७, १० में; गुरुसे १, ४, ७, १०, ८, ११, १२ में और शुक्रसे ४, ५, ९, ३, ११, ७, १० इस स्थानोंमें शुभ होता है ॥१५३—१५४॥
मङगल सूर्यसे ३, ६, १०, ११, ५ में: लग्नसे ३, ६, १०, ११ . १ मेंं’ चन्द्रमासे ३, ६, ११ में; अपने आश्रित स्थानसे १, ४, ७, १०, ८, ११, २ में; शनिसे ९, ८, ११, १, ४, ७, १० में; बुधसे ६, ३, ५, ११ में; शुक्रसे ६, ११, २, ८ में और गुरुसे १०, ११, १२, ६ स्थानोंमें शुभ होता है ॥१५५—१५६॥
बुध शुक्रसे ५, ३ सहित २, १, ८, ९, ४, ११ स्थानोंमें; शनि और मङ्गलसे १०, ७ सहित २, १, ८, ९, ४ और ११ वें स्थानमें: गुरुसे १२, ६, ११, ८ वें स्थानोंमें; सूर्यसे ९, ११, ६, ५, १२ वें स्थानोंमें; अपने आश्रित स्थानसे १, ३, १०, ९, ११, ६, ५, १२ वें स्थानोंमें; चन्द्रमासे ६, १०, ११, ८, ४, १० में और लग्नसे १ तथा पूर्वोक्त ६, १०, ११, ८, ४, १० स्थानोंमें शुभ होता है ॥१५७—१५८॥
गुरु मङ्गलसे १०, २, ८, १, ७, ४, ११ स्थानोंमें; अपने आश्रित स्थानसे ३ सहित पूर्वोक्त (१०, २, ८, १, ७, ४, ११) स्थानोंमें; सूर्यसे ३, ९ सहित पूर्वोक्त (१०, २, ८, १, ७, ४, ११) स्थानोंमें; शुक्रसे ५, २, ९, १०, ११, ६ में; चन्द्रमासे २, ११, ५, ९, ७ में; शनिसे ५, ३, ६, १२ में; बुधसे ९, ४, ५, ६, २, १०, १, ११ में तथा लग्नसे ७ सहित पूर्वोक्त (९। ४, ५, ६, २, १०, १, ११) स्थानोंमें शुभ होता है ॥१५९—१६०॥
शुक्र लग्नसे १, २, ३, ४, ५, ११, ८, ९ स्थानोंमें; चन्द्रमासे भी इन्हीं स्थानों १, २, ३, ४, ५, ११, ८, ९—में और १२ वें स्थानमें; अपने आश्रित स्थानसे १० सहित उक्त (१, २, ३, ४, ५, ११, ८, ९) स्थानोंमें; शनिसे ३, ५, ९, ४, १०, ८, ११ स्थानोंमें; सूर्यसे ८, ११, १२ स्थानोंमें; गुरुसे ९, ८, ५, १०, ११ स्थानोंमें; बुधसे ५, ३, ११, ६, ९ स्थानोंमें और मङ्गलसे ३, ६, ९, ५, ११ तथा बारहवें स्थानोंमें शुभ होता है ॥१६१—१६२॥
शनि अपने आश्रित स्थानसे ३, ५, ११, ६ में; मङ्गलसे १० १२ सहित पूर्वोक्त (३, ५, ११, ६) स्थानोंमें; सूर्यसे १, ४, ७, १०, ११, ८, २ में; लग्नसे ३, ६, १०, ११, १, ४ में; बुधसे ९, ८, ११, ६, १०, १२ में; चन्द्रमसे ११, ३, ६ में; शुक्रसे ६, ११, १२ में और गुरुसे ५, ११, ६ स्थानोंमें शुभ होता है ॥१६३—१६४॥
उपर्युक्त स्थानोंमें ग्रह रेखा—प्रद और अनुक्त स्थानोंमें बिन्दुप्रद होते हैं । जो ग्रह लग्न या चन्द्रमासे वृद्धि या उपचय स्थान (३, ६, १०, ११) में हो, या अपने मित्रगृहमें, उच्च स्थानमें तथा स्वराशिमें स्थित हो, उनके द्वारा शुभ फलकी अधिकता होती है और इनसे भिन्न स्थानोंमें जो ग्रह हो, उनके द्वारा अशुभ फलोंकी अधिकता होती है ॥१६५॥
(एकादि रेखावाले स्थानका फल—( उक्त प्रकारसे जिस स्थानमें एक रेखा हो, वहाँ ग्रहके जानेपर कष्ट होता है । दो रेखावाले स्थानमें जानेसे धनका नाश होता है । तीन रेखावालेमें जानेसे क्लेश होता है । चार रेखावाले स्थानमें ग्रहके पहुँचनेसे मध्यम फल होता है (शुभ—अशुभ फलकी तुल्यता होती है) । पाँच रेखावाले स्थानमें सुखकी प्राप्ति, छ; रेखावालेमें धनका लाभ, सात रेखावाले स्थानमें सुख तथा आठ रेखावाले स्थानमें चारवश ग्रहके जानेपर अभीष्ट फलकी सिद्दि होती है ॥१६६॥
(आजीविका—कथन—( जन्मकालिक लग्न और चन्द्रमासे १० वें स्थानमें यदि सूर्य आदि ग्रह हो तो क्रमसे पिता—माता, शुत्र, मित्र, भाई, स्त्री और नौकरके द्वारा धनका लाभ होता है । जन्मलग्न, जन्मकालिक चन्द्र तथा जन्मकालिक सूर्य—इन तीनों दशम स्थानके स्वामी जिस नवमांशमें हो, उस नवमांशके अधिपतिकी वृत्तिसे आजीविका समझनी चाहिये । यथा—उक्त दशम स्थानोंके स्वामी सूर्यके नवमांशमें हो तो तृण (पत्र—पुष्पादि), सुवर्ण, औषध, ऊन ऊनी वस्त्र तथा रेशम आदिसे जीविका समझे । चन्द्रमाके नवमांशमें हो तो खेती, जलज (मोती, मूँगा, शङ्ख, सीप आदि) और स्त्रीके द्वारा जीविका चलती है । मङ्गलके नवमांश हो तो धातु अस्त्र—शस्त्र और साहससे जीवन—निर्वाह होता है । बुधके नवमांशमें हो तो काव्य, शिल्पकलादिसे, गुरुके नवमांशमें हो तो कव्या, शिल्पकलादिसे, गुरुके नवमांशमें हो तो देवता और ब्राह्मणोंके द्वारा तथा लोहा—सोना आदिके खानसे, शुक्रके नवमांशमें हो तो चाँदी, गौ तथा रत्न आदिसे और शनिके नवमांशमें हो तो परपीडन, परिश्रम और नीच कर्मद्वारा धनकी प्राप्ति होती है ॥१६७—१६९॥
(राजयोगका वर्णन:—) शनि, सूर्य, गुरु और मङ्गल—ये चारों यदि अपने—अपने उच्चमें हो और इन्हींमें कोई एक लग्नमें हो तो इन चारों लग्नोंमें जन्म लेनेवाले बालक राजा होते हैं । लग्न अथवा चन्द्रमा वर्गोत्तम नवमांशमें हो और उसपर ४ . ५ या ६ ग्रहकी दृष्टि हो तो इसके २२ भेदमेंं २२ प्रकारके राजयोग होते हैं । मङ्गल अपने उच्चमेंं हो, रवि और चन्द्रमा धनराशिमें हो और मकरस्थ शनि लग्नमें हो तो जातक राजा होता है । उच्च (मेंष)—क अरवि लग्नमें हो, चन्द्रमासहित शनि सप्तम भावमें हो, बृहस्पति अपनी राशि (धनु या मीन)—में हो तो जन्म लेनेवाला राज होता है ॥१७०—१७१॥ शनि अथवा चन्द्रमा अपने उच्चराशिका होकर लग्नमें हो, षष्ठ भावमें सूर्य और बुध हो, शुक्र तुलामें, मङ्गल मेंषमें और गुरु कर्कमें हो तो इन दोनों लग्नोंमें जन्म लनेसे शिशु राजा होते हैं । उच्चस्थ१ मङ्गल यदि चन्द्रमाके साथ लग्नमें हो तो भी जातक राजा होता है । चन्द्रमा वृषा लग्नमें हो और सूर्य, गुरु तथा शनि ये क्रमसे ४, ७, १० वें स्थानमें हो तो जातक राजा होता है। मकर लग्नमें शनि हो और लग्नसे ३, ६, ९ एवं १२ वें भावमें क्रमश: चन्द्रमा, मङ्गल, बुध तथा बृहस्पति हो तो जन्म लेनेवाला बालक राजा होता है ॥१७२—१७३॥
गुरुसहित चन्द्रमा धनमें और मङ्गल मकरमें हो तथा बुध या शुक्र अपने उच्चमें स्थित होकर लग्नमें विद्यमान हो तो उन दोनों योगोंमें जन्म लेनेवाला शिशु राजा होता है । बृहस्पतिसहित कर्क लग्न हो, बुध, चन्द्रमा तथा शुक्र तीनों ११ वें भावमें हो और सूर्य मेंषमें हो तो जातक राजा होता है । चन्द्रमासहित मीन लग्न ही, सूर्य, शनि, मङ्गल—ये क्रमसे सिंह, कुम्भ और मकरमें हो तो उत्पन्न बालक राजा होता है । मङ्गलसहित मेंष लग्न हो, बृहस्पति कर्कमें हो अथवा कर्कस्थ बृहस्पति लग्नमें हो तो जातक नरेश होता है । मङगल और शनि पञ्चम भावमें, गुरु, चन्द्रमा तथा शुक्र चतुर्थ भावमें और बुध कन्या लग्नमें हो तो जन्म लेनेवाला शिशु राजा होता है ॥१७४—१७६॥ मकर लग्नमें शनि हो तथा मेंष, कर्क, सिंह—ये अपने—अपने स्वामीसे युक्त हो, शुक्र तुलामें और बुध मिथुनमें हो तो बालक यशस्वी राजा होता है ॥१७७॥ मुनीश्वर ! इन बताये हुए योगोंमेंं जन्म लेनेवाला जिस किसीका पुत्र भी राजा होता है । तथा आगे जो योग बताये जायँगे, उनमें जन्म लेनेवाले राजकुमारको ही राजा समझना चाहिये। (यदि अन्य व्यक्ति इस योगमें उत्पन्न हुआ हो तो वह राजाके तुल्य होता है, राजा नहीं) । ॥१७८॥
तीन या अधिक ग्रह बली होकर अपने—अपने उच्च या मूल त्रिकोणमें हो तो बालक राजा होता है । सिंहमें सूर्य, मेंष लग्नमें चन्द्रमा, मकरमें मङ्गल, कुम्भमें शनि और धनुमें बृहस्पति हो तो उत्पन्न शिशु भूपाल होता है । मुने ! शुक्र अपनी राशिमें होकर चतुर्थ स्थानमें स्थित हों, चन्द्रमा नवम भावमें रहकर शुभ ग्रहसे दृष्ट या युक्त हो तथा शेष ग्रह ३, १, ११ वें भावमें विद्यमान हो तो जातक इस वसुधाका अधीश्वर होता है । बुध सबल होकर लग्नमें स्थित हो, बलवान् शुभग्रह नवम भावमें स्थित हो तथा शेष ग्रह ९, ५, ३, ६, १० और ११ वें भावमें हो तो उत्पन्न बालक धर्मात्मा नरेश होता है । चन्द्रमा, शनि और बृहस्पति क्रमश: द्सवें, ग्यरहवें तथा लग्नमें स्थित हो, बुध और मङ्गल द्वितीय भावमें तथा शुक्र और रवि चतुर्थ भावमें स्थित हो तो जातक भूपाल होता है । वृष लग्नमें चन्द्रमा, द्वितीयमें गुरु, ११ वेंमें शनि तथा शेष ग्रह भी स्थित हो तो बालक नरेश होता है ॥१७९—१८३॥
चतुर्थ भावमें गुरु, १० वें भावमें रवि और चन्द्रमा, लग्नमें शनि और ११ वें भावमें शेष ग्रह हो तो उत्पन्न शिशु राजा होता है । मङ्गल और शनि लग्नमें हो, चन्द्रमा, गुरु, शुक्र, रवि और बुध—ये क्रमसे ४, ७, ९, १० और ११ वेंमें हो तो ये स्ब ग्रह ऐसे बालकको जन्म देते हैं, जो भावी नरेश होता है । मुनीश्वर ऊपर कहे हुए योगोंमें उत्पन्न मनुष्यके दशम भाव या लग्नमें जो ग्रह हों, उसकी दशा—अन्तर्दशा आनेपर उसे राज्यकी प्राप्ति होती है । इन दोनों स्थानोंमें ग्रहन हो तो जन्म—समयमें जो ग्रह बलवान् हो, उसकी दशामें राज्यलाभ समझना चाहिये तथा ओ ग्रह जन्म—समयमें शत्रु—राशि या अपनी नीच राशिमें हो, उसकी राशिमें क्लेश, पीडा आदिकी प्राप्ति होती है ॥१८५ . १ / २॥
(नाभस१ योग—कथन—( समीपवर्ती दो केन्द्रस्थानोंमें ही (रविसे शनिपर्यन्त) सब ग्रह हो तो ‘गदा’ नामक योग होता है। केवल लग्न और सप्तम दो ही स्थानोंमें सब ग्रह हो तो ‘शकट’ योग होता है । दशम और चतुर्थमें ही सब ग्रहोकी स्थिति हो तो ‘विहग’ (पक्षी) योग होता है । ५, ९ और लग्न—इन तीन ही स्थानोंमें सब ग्रह हो तो ‘श्रूङ्गाटक’ योग होता है । इसी प्रकार यदि लग्न भिन्न स्थानसे त्रिकोण स्थानोंमें ही सब ग्रह हो तो ‘हल’नामक योग होता है ॥१८६—१८७॥ लग्न और सप्तममें सब शुभु ग्रह हो अथवा चतुर्थ—दशममें सब पापग्रह हो तो दोनों स्थितियोंमें ‘वज्र’ योग होता है । इसके विपरीत यदि लग्न, सप्तममें सब पापग्रह अथवा चतुर्थ, दशममें सब शुभग्रह हो तो ‘यव’ योग होता है । यदि चारों केन्द्रोंमें सब (शुभ और पाप)—ग्रह मिलकर बैठे हो तो ‘कमल’ योग होता है और केन्द्रस्थानसे बाहर (चारों पणफर अथवा चारों आपोक्लिमस्थानोंमें) ही सब ग्रह स्थित हो तो ‘वापी’ नामक योग होता है ॥१८८॥ लग्नसे लगातार ४ स्थान (१, २, ३, ४) में ही सब ग्रह मौजूद हो तो ‘यूप’ योग होता है । चतुर्थसे चार स्थान (४, ५, ६, ७)—में ही सब ग्रह स्थित हो तो ‘शर’ योग होता है । सप्तमसे ४ स्थान (७, ८, ९, १०)—में ही सब ग्रहोकी स्थिति हो तो ‘शक्ति’ योग होता है और दशमसे ४ स्थान (१०, ११, १२, १)—में ही सब ग्रह मौजूद हो तो ‘दण्ड’ योग होता है ॥१८९॥ लग्नसे क्रमश: सात स्थानों (१, २, ३, ४, ५, ६, ७),—में सब ग्रह हो तो ‘नौका’ योग, चतुर्थ भावसे आरम्भ करके लगातार सात स्थानोंमें सातों ग्रह हो तो’कूट’ योग, सप्तम भावसे आरम्भ करके लगातार सात स्थानोंमें सातों ग्रह विद्यमान हो तो ‘छत्र’ योग और दशमसे आरम्भ करके सात स्थानोंमें सब ग्रह स्थित हो तो ‘चाप’नामक योग होता है। इसी प्रकार केन्द्रभिन्न स्थानसे आरम्भ करके लगातार सात स्थानोंमें सब ग्रह हो तो ‘अर्धचन्द्र’ नामक योग होता है ॥१९०॥
लग्नसे आरम्भ करके एक स्थानका अन्तर देकर क्रमश: (१, ३, ५, ७, ९ और ११ इन) ६ स्थानोंमें ही सब ग्रह स्थित हो तो ‘चक्र’ नामक योग होता है और द्वितीय भावसे लेकर एक स्थानका अन्तर देकर क्रमश: ६ स्थानों (२, ४, ६, ८, १०, १२)—में ही सब ग्रह मौजूद हो तो ‘समुद्र’ नामक योग होता है ।
७ से १ स्थानतकमें सब ग्रहोके रहनेपर क्रमश: वीणा आदि नामवाले ७ योग होते हैं । जैसे—७ स्थानोंमें सब ग्रह हो तो ‘वीणा’, ६ स्थानोंमें सब ग्रह हो तो ‘दाम’, ५ स्थानोंमें सब ग्रह हो तो ‘पाश’, ४ स्थानोंमें सब ग्रह हो तो ‘क्षेत्र’, ३ स्थानोंमें सब ग्रह हो तो ‘शूल’, २ स्थानोंमें सब ग्रह हो तो ‘युग’ और एक ही स्थानमें सब ग्रह हो तो ‘गोल’ नामक योग होता है । सब ग्रह चरराशिमें हो तो ‘रज्जु’, स्थिर राशिमें हो तो’मुसल’ और द्विस्वभावमें हो तो ‘नल’ नामक योग होता है । सब शुभग्रह केन्द्रस्थानोंमें हो तो’माला’ और सब पापग्रह केन्द्रस्थानोंमें हो तो’सर्प’ नामक योग होता है ॥१९१—१९३॥
(इन योगोंमें जन्म लेनेवालोंके फल—( रज्जुयोगमें जन्म लेनेवाला बालक ईर्ष्यावान् और राह चलने (यात्रा करने या घूमने—फिरने)—की इच्छावाला होता है । मुसलयोगमें उत्पन्न शिशु धन और मानसे युक्त होता है । नलयोगमें उत्पन्न पुरुष अङ्गहीन, स्थिरबुद्धि और धनी होता है । मालायोगमें पैदा हुआ मानव भोगी होता है तथा सर्पयोगमें उत्पन्न पुरुष दुःखसे पीडित होता है ॥१९४॥ वीणायोगमें जिसका जन्म हुआ हो, वह मनुष्य सब कार्योंमें निपुण तथा सङ्गीत और नृत्यमें रुचि रखनेवाला होता है । दामयोगमें उत्पन्न मनुष्य दाता और धनाढय होता है । पाशयोगमें उत्पन्न धनवान् और सुशील होता है । केदार (क्षेत्र)—योगमें पैदा हुआ खेतीसे जीविका चलानेवाला होता है तथा शूलयोगमें उत्पन्न पुरुष शूरवीर, शस्त्रसे आघात न पानेवाला और अधन (धनहीन) होता है । युगयोगमें जन्म लेनेवाला पाखण्डि तथा गोलयोगमें उत्पन्न मनुष्य मलिन और निर्धन होता है ॥१९५—१९६॥
चक्रयोगमें जन्म लेनेवाले पुरुषके चरणोंमें राजा लोग भी मस्तक झुकाते हैं । समुद्रयोगमें उत्पन्न पुरुष राजोचित भोगोंसे सम्पन्न होता है । अर्धचन्द्रमें पैदा हुआ बालक सुन्दर शरीरवाला तथा चापयोगमें उत्पन्न शिशु सुखी और शूरवीर होता है ॥१९७॥ छत्रयोगमें उत्पन्न मनुष्य मित्रोंका उपकार करनेवाला तथा कूटयोगमें उत्पन्न मिथ्याभाषी और जेलक मालिक होता है । नौकायोगमें उत्पन्न पुरुष निश्चय ही यशस्वी और सुखी होता है । यूपयोगमें जन्म लेनेवाला मनुष्य दानी, यज्ञ करनेवाला और आत्मवान् (मनस्वी और जितात्मा) होता है । शरयोगमें उत्पन्न मनुष्य दूसरोंको कष्ट देनेवाला और गोपनीय स्थानोंका स्वामी होता है । शक्तियोगमें उत्पन्न नीच, आलसी और निर्धन होता है तथा दण्डयोगमें उत्पन्न पुरुष अपने प्रियजनोंसे वियोगका कष्ट भोगता है ॥१९८—१९९॥
(चन्द्रयोगका कथन—( यदि चन्द्रमासे द्वितीयमें सूर्यको छोडकर कोई भी अन्य ग्रह हो तो ‘सुनफा’ योग होता है । द्वादशमें हो तो ‘अनफा’ और दोनों (२, १२) स्थानोंमें ग्रह हो तो ‘दुरुधरा’ योग समझना चाहिये, अन्यथा (अर्थात् २, १२ में कोई ग्रह नहीं हो तो) ‘केमद्रुम’ योग होता है ॥२००॥
(उक्त योगोंका फल—)’सुनफा’ योगमें जन्म लेनेवाला पुरुष अपने भुजबलसे उपार्जित धनका, भोगी, दाता, धनवान्, और सुखी होता है । ‘अनफा’ योगमें उत्पन्न मनुष्य रोगहीन, सुशील, विख्यात और सुन्दर रूपवाला होता है । ‘दुरुधरा’ योगमें जन्म लेनेवाला भोगी, सुखी, धनवान्, दाता और विषयोंसे नि: स्पृह होता है तथा ‘केमद्रुम’ योगमें उत्पन्न मनुष्य अत्यन्त मलिन, दुःखी, नीच और निर्धन होता है ॥२०१—२०१॥
(द्विग्रहयोगफल—( मुने ! सूर्य यदि चन्द्रमासे युक्त हो तो भाँति-भाँतिके यंत्र (मशीन) और पत्थरके कार्यमें कुशल बनाता है । मङ्गलसे युक्त हो तो वह बालकको नीच कर्ममें लगाता है, बुधसे युक्त हो तो यशस्वी, कार्यकुशल, विद्वान् एवं धनी बनाता है, गुरुसे युक्त हो तो दूसरोंके कार्य करनेवाला, शुक्रसे युक्त हो तो धातुओं (ताँबा आदि)—के कार्यमें निपुण तथा पात्र—निर्माण—कलाका जानकार बनाता है ॥२०३—२०४॥
चन्द्रमा यदि मङ्गलसे युक्त हो तो जातक कूट वस्तु (नकली सामान), स्त्री और आसव—अरिष्टादिका क्रय—विक्रय करनेवाला तथा माताका द्रोही होता है । बुधके साथ चन्द्रमा हो तो उत्पन्न शिशुको धनी, कार्यकुशल तथा विनय और कीर्तिसे युक्त करता है; गुरुसे युक्त हो तो चञ्चलबुद्धि, कुलमें मुख्य, पराक्रमी और अधिक धनवान् बनाता है । मुने ! यदि शुक्रसे युक्त हो तो बालकको वस्त्रनिर्माण-कलाका ज्ञाता बनता है और यदि शनिसे युक्त हो तो वह बालकको ऐसी स्त्रीके पेटसे उत्पन्न कराता है, जिसने पतिके मरनेपर या जीते—जी दूसरे पतिसे सम्बन्ध स्थापित कर लिया हो ॥२०५—२०६॥
मङ्गल यदि बुधसे युक्त हो तो उत्पन्न हुआ बालक बाहुसे युद्ध करनेवाला (पहलवान) होता है । गुरुसे युक्त हो तो नगरका मालिक, शुक्रसे युक्त हो तो जूआ खेलनेवाला तथा गायोंको पालनेवाला और शनिसे युक्त हो तो मिथ्यावादी तथा जुआरी होता है ॥२०७॥
नारद ! बुध यदि बृहस्पतिसे युक्त हो तो उत्पन्न शिशु नृत्य और सङगीतका प्रेमी होता है | शुक्रसे युक्त हो तो मायावी और शनिसे युक्त हो तो उत्पन्न मनुष्य लोभी और क्रुर होता है ॥२०८॥
गुरु यदि शुक्रसे युक्त हो ती मनुष्य विद्वान्, शनिसे युक्त हो तो रसोइया अथवा घडा बनानेवाला (कुम्हार) होता है । शुक्र यदि शनिके साथ हो तो मन्द दृष्टिवाला तथा स्त्रीके आश्रयसे धनोपार्जन करनेवाला होता है ॥२०९॥
(प्रव्रज्यायोग—( यदि जन्म—समयमें चार या चारसे अधिक ग्रह एक स्थानमें बलवान् हो तो मनुष्य गृहत्यागी संन्यासी होता है । उन ग्रहोमें मङ्गल, बुध, गुरु, चद्रमा, शुक्र, शनि और सूर्य बली हो तो मनुष्य क्रमश: शाक्य (रक्त—वस्त्रधारी बौद्ध), आजीवक (दण्डी), भिक्षु, (यती), वृद्ध (वृद्धश्रावक), चरक (चक्रधारी), अह्नी (नग्न) और फलाहारी होता है । प्रव्रज्याकारक ग्रह यदि अन्य ग्रहसे पराजित हो तो मनुष्य उस प्रव्रज्यासे गिर जाता है । यदि प्रव्रज्याकारक ग्रह सूर्य—सान्निध्यवश अस्त हो तो मनुष्य उसकी दीक्षा ही नहीं लेता और यदि वह ग्रह बलवान् हो तो उसकी ‘प्रव्रज्या’ में प्रीति रहती है । जन्मराशीशको यदि अन्य ग्रह नहीं देखता हो और जन्मराशीश यदि शनिको देखता हो अथवा निर्बल जन्मराशीशको शनि देखता हो या शनिके द्रेष्काण अथवा मङ्गल या शनिके दृष्टि हो तो इन योंगोंसे विरक्त होकर गृहत्याग करनेवाला पुरुष संन्यास—धर्मकी दीक्षा लेता है ॥२१०—२१३॥
(अश्विन्यादि नक्षत्रोंमें जन्मका फल—( अश्विनी नक्षत्रमें जन्म हो तो बालक सुन्दर रूपवाला और भूषणप्रिय होता है । भरणीमें उत्पन्न शिशु सब कार्य करनेमें समर्थ और सत्यवक्ता होता है । कृत्तिकामें जन्म लेनेवाला अमिताहारी, परस्त्रीमें आसक्त, स्थिरबुद्धि और प्रियवक्त होता है । रोहिणीमें पैदा हुआ मनुष्य धनवान्; मृगशिरामें भोगी; आर्द्रामें हिंसास्वभाववाला, शठ और अपराधी; पुनर्वसुमें जितेन्द्रिय, रोगी और सुशील तथा पुष्यमें कवि और सुखी होता है ॥२१४—२१५॥ आश्लेषा नक्षत्रमें उत्पन्न मनुष्य धूर्त, शठ, कृतघ्न, नीच और खान—पानका विचार न रखनेवाल होता है । मघामें भोगी, धनी तथा देवादिका भक्त होता है । पूर्वा फाल्गुनीमें दाता और प्रियवक्त होता है । उत्तरा फाल्गुनीमें धनी और भोगी; हस्तमें चोरस्वभाव, ढीठ और निर्लज्ज तथा चित्रामें नाना प्रकारके वस्त्र धारण करनेवाला और सुन्दर नेत्रोंसे युक्त होता है । स्वातीमें जन्म लेनेवाला मनुष्य धर्मात्मा और दयालु होता है । विशाखामें लोभी, चतुर और क्रोधी: अनुराधामें भ्रमणशील और विदेशवासी; ज्येष्ठामें धर्मात्मा और संतोषी तथा मूलमें धनीमानी और सुखी होता है । पूर्वाषाढमें मानी, सुखी और हृष्ट: उत्तराषाढमें विनयी और धर्मात्मा; श्रवणमें धनी, सुखी और लोकमें विख्यात तथा धनिष्ठामें दानी, शूरवीर और धनवान् होता है । शतभिषामें शत्रुको जीतनेवाला और व्यसनमें आसक्त; पूर्वभाद्रपदमें स्त्रीके वशीभूत और धनवान्; उत्तर—भाद्रपदमें वक्ता, सुखी और सुन्दर तथा रेवतीमें जन्म लेनेवाला शूरवीर, धनवान् और पवित्र ह्रदयवाला होता है ॥२१६—२२०॥
(मेंषादि चन्द्रराशिमें जन्मका फल—( मेंषराशिमें जन्म लेनेवाला कामी, शूरवीर और कृतज्ञ; वृषमें सुन्दर, दानी और क्षमावान्; मिथुनमें स्त्रीभोगासक्त, द्यूतविद्याको जाननेवाला तथा कर्कराशिमें स्त्रीके वशीभूत और छोटे शरीरवाला होता है । सिंहराशिमें स्त्रीद्वेषी, क्रोधी, मानी, पराक्रमी, स्थिरबुद्धि और सुखी होता है । कन्याराशिमें धर्मात्मा, कोमल शरीरवाला तथा सुबुद्धि होता है । तुलाराशिमें उत्पन्न पुरुष पण्डित, ऊँचे कदवाला और धनवान् होता है । वृश्चिकराशिमें जन्म लेनेवाला रोगी, लोकमें पूज्य और क्षत (आघात)—युक्त होता है । धनुमें जन्म लेनेवाला कवि, शिल्पज्ञ और धनवान्; मकरमें कार्य करनेमें अनुत्साही, व्यर्थ घूमनेवाला और सुन्दर नेत्रोंसे युक्त: कुम्भमें परस्त्री और परधन हरण करनेके स्वभाववाला तथा मीनमें धनु—सदृश (कवि और शिल्पज्ञ) होता है ॥२२१—२२३॥
यदि चन्द्रमाकी राशि बली हो तथा राशिका स्वामी और चन्द्रमा दोनों बलवान् हो तो ऊपर कहे हुए फल पूर्णरूपसे संघटित होते हैं—ऐसा समझना चाहिये । अन्यथा विपरीत फल (अर्थात् निर्बल हो तो फलका अभाव या बलके अनुसार फलमें भी तारतम्य) जानना चाहिये। इसी प्रकार अन्य ग्रहोकी राशिके अनुसार फलका विचार करना चाहिये ॥२२४॥
(सूर्यादि ग्रह—राशि—फल—) सूर्य यदि मेंष—राशिमें हो तो जातक लोकमें विख्यात होता है । वृषमें हो तो स्त्रीका द्वेषी, मिथुनमें हो तो धनवान्, कर्कमें हो तो उग्र स्वभाववाला, सिंहमें हो तो मूर्ख, कन्यामें हो तो कवि, तुलामें हो तो कलवार, वृश्चिकमें हो तो धनवान्, धनुमें हो तो लोकपूज्य, मकरमें हो तो लोभी, कुम्भमें हो तो निर्धन और मीनमें हो तो जातक सुखसे रहित होता है ॥२२५॥
मङ्गल यदि सिंहमें हो तो जातक निर्धन, कर्कमें हो तो धनवान, स्वराशि (मेंष, वृश्चिक)—में हो तो भ्रमणशील, बुधराशि (कन्या—मिथुन)—में हो तो कृतज्ञ, गुरुराशि (धनु—मीन)—में हो तो विख्यात, शुक्रराशि (वृष—तुल)—में हो तो परस्त्रीमें आसक्त, मकरमें हो तो बहुत पुत्र और धनवाला तथा कुम्भमें हो तो दुःखी, दुष्ट और मिथ्यास्वभाववाला होता है ॥२२६ १/२॥
बुध यदि सूर्यकी राशि (सिंह)—में हो तो स्त्रीका द्वेषी, चन्द्रराशि (कर्क)—में हो तो अपने परिजनोंका द्वेषी, मङ्गलकी राशि (मेंष—वृश्चिक)—में हो तो निर्धत और सत्त्वहीन, अपनी राशि (मिथुन—कन्या)—में हो तो बुद्धिमान् और धनवान्, गुरुकी राशि (धनु—मीन)—में हो तो मान और धनसे युक्त, शुक्रकी राशि (वृष—तुला)—में हो तो पुत्र और स्त्रीसे सम्पन्न तथा शनिकी राशि (मकर—कुम्भ)—में हो तो ऋणी होता है ॥२२७ १/२॥
गुरु यदि सिंहमें हो तो सेनापति, कर्कमें हो तो स्त्री—पुत्रादिसे युक्त एवं धनी, मङ्गलकी राशि (मेंष—वृश्चिक)—में हो तो धनी और क्षमाशील, बुधकी राशि (मिथुन—कन्या)—में हो तो वस्त्रादि विभवसे युक्त, अपनी राशि (धनु—मीन)—में हो तो मण्डल (जिला)—का मालिका शुक्रकी राशि (वृष—तुला)—में हो तो धनी और सुखी तथा शनिकी राशि (मकर—कुम्भ)—में हो तो मकरमें ऋणवान् और कुम्भमें धनवान् होता है ॥२२८ १/२॥
शुक्र सिंहमें हो तो जातक स्त्रीद्वारा धन—लाभ करनेवाला, कर्कमें हो तो घमण्ड और शोकसे युक्त, मङ्गलकी राशि (मेंष—वृश्चिक)—में हो तो बन्धुओंसे द्वेष रखनेवाला, बुधकी राशि (मिथुन—कर्क)—में हो तो धनी और पापस्वभाव, गुरुकी राशि (धनु—मीन)—में हो तो धनी और पण्डित, अपनी राशि (वृष—तुला)—में हो तो धनवान् और क्षमावान् तथा शनिकी राशि (मकर—कुम्भ)—में हो तो स्त्रीसे पराजित होता है ॥२२९ १/२॥
शनि यदि सिंहमें हो तो पुत्र और धनसे रहित, कर्कमें हो तो धन और संतानसे हीन, मङ्गलकी राशि (मेंष—वृश्चिक)—में हो तो निर्बुद्धि और मित्रहीन, बुधकी राशि (मिथुन—कन्या)—में हो तो प्रधान रक्षक, गुरुकी राशि (धनु—मीन)—में हो तो सुपुत्र, उत्तम स्त्री और धनसे युक्त, शुक्रकी राशि (वृष—तुला)—में हो तो राजा और अपनी राशि (मकर—कुम्भ)—में हो तो जातक ग्रामका अधिपति होता है ॥२३० १/२॥
(चन्द्रपर दृष्टिका फल—( मेषस्थित चन्द्रमापर मङ्गल आदि ग्रहोकी दृष्टि हो तो जातक क्रमसे राजा, पण्डित, गुणवान्, चोर—स्वभाव, तथा निर्धन होता है ॥२३१॥
वृषस्थ चन्द्रमापर मङ्गल आदि ग्रहोकी दृष्टि हो तो क्रमसे निर्धन, चोर—स्वभाव, राजा, पण्डित तथा प्रेष्य (भृत्य) होता है । मिथुनराशिमें स्थित चन्द्रमापर मङ्गल आदि ग्रहोकी दृष्टि हो तो मनुष्य क्रमश: धातुओंसे आजीविका करनेवाला, राजा, पण्डित, निर्भय, वस्त्र बनानेवाला तथा धनहीन होता है । अपनी राशि (कर्क)—में स्थित चन्द्रमापर यदि मङ्गलादि ग्रहोकी दृष्टि हो तो जन्म लेनेवाला शिशु क्रमश: योद्धा, कवि, पण्डित, धनी, धातुसे जीविका करनेवाला तथा नेत्ररोगी होता है । सिंहराशिस्थ चन्द्रमापर यदि बुधादि ग्रहोकी दृष्टि हो तो मनुष्य क्रमश; ज्यौतिषी, धनवान्, लोकमें पूज्य, नाई, राजा तथा नरेश होता है । कन्या—राशिस्थित चद्रमापर बुध आदि ग्रहोकी दृष्टि हो तो शुभग्रहो (बुध, गुरु, शुक्र)—की दृष्टि होनेपर जातक क्रमश: राजा, सेनापति एवं निपुण है और अशुभ (शनि, मङ्गल, रवि)—की दृष्ट होनेपर स्त्रीके आश्रयसे जीविका करनेवाला होता है । तुला—राशिस्थ चन्द्रमापर यदि (बुध आदि बुध, गुरु, शुक्र)—की दृष्टि हो तो उत्पन्न बालक क्रमसे भूपति, सोनार और व्यापारी होता है तथा शेषग्रह (शनि, रवि और मङल)—की दृष्टि होनेपर वह हिंसाके स्वभाववाला होता है ॥२३२—२३४॥ वृश्चिक—राशिस्थ चन्द्रमापर बुध आदि ग्रहोकी दृष्टि होनेपर क्रमसे जातक दो संतानका पिता, मृदुस्वभाव, वस्त्रादिकी रँगाई करनेवाला, अङ्गहीन, निर्धन और भूमिपति होता है । धन—राशिस्थ चन्द्रमपर बुध आदि सुभग्रहोकी दृष्टि हो तो उत्पन्न बालक क्रमश; अपने कुल, पृथ्वी तथा जनसमूहका पालक होता है । शेष ग्रहो (शानि, रवि तथा मङ्गल)—की दृष्टि हो तो जातक दम्भी और शठ होता है ॥२३५॥ मकर—राशिस्थित चन्द्रमापर बुध आदिकी दृष्टि हो तो वह क्रमशा; भूमिपति, पण्डित, धनी, लोकमें पूज्य, भूपति तथा परस्त्रीमें आसक्त होता है । कुम्ब—राशिस्थ चन्द्रमापर भी उक्त ग्रहोकी दृष्टि होनेपर इसी प्रकार (मकर—राशिस्थके समान) फल समझना चाहिये । मीन—राशिस्थ चन्द्रमापर शुभग्रहो (बुध, गुरु और शुक्र)—की दृष्टि हो तो जातक क्रमश: हास्यप्रिय, राजा और पण्डित होता है । (तथा शेष ग्रहो पापग्रहो)—की दृष्टि होनेपर अनिष्ट फल समझना चाहिये । ॥२३६॥ होरा (लग्न) के स्वामीकी होरामें स्थित चन्द्रमापर उसी होरामें स्थित ग्रहोकी दृष्टि हो तो वह शुभप्रद होता है । जिस तृतीयाँश (द्रेष्काण)—में चन्द्रमा हो उसके स्वामीसे तथा मित्र—राशिस्थ ग्रहोसे युक्त या दृष्ट चन्द्रमा शुभप्रद होता है । प्रत्येक राशिमें स्थित चन्द्रमापर ग्रहोकी दृष्टि होनेसे जो—जो फल कहे गये हैं, उन राशियोंके द्वादशांशमें स्थित चन्द्रमापरभी उन-उन ग्रहोकी दृष्टी होनेसे वे ही फल प्राप्तहोते हैं ।
अब नवमांशमें स्थित चिन्द्रमापर भिन्न—भिन्न ग्रहोकी दृष्टिसे प्राप्त होनेवाले फलोंका वर्णन करता हूँ । मङ्गलके नवमांशमें स्थित चन्द्रमापर यदि सूर्यादि ग्रहोकी दृष्टि हो तो जातक क्रमश: ग्राम या नगरका रक्षक, हिंसाके स्वभाववाला, युद्धमें निपुण, भूपति, धनवान् तथा झगडालू होता है । शुक्रके नवमांशमें स्थित चन्द्रमापर सूर्यादि ग्रहोकी दृष्टि हो तो उत्पन्न बालक क्रमश: मूर्ख, परस्त्रीमें आसक्त, सुखी, काव्यकर्ता, सुखी तथा परस्त्रीमें आसक्ति रखनेवाला होता है । बुधके नवमांशमें स्थित चन्द्रपापर यदि सूर्यादि ग्रहोकी दृष्ट हो तो बालक क्रमश: नर्तक, चोरस्वभाव, पण्डित, मन्त्री, सङ्गीतज्ञ तथा शिल्पकार होता है । अपने (कर्क) नवमांशमें स्थित चन्द्रमापर यदि सूर्यादि ग्रहोकी दृष्टि हो तो वह छोटे शरीरवाला, धनवान्, तपस्वी, लोभी, अपनी स्त्रीकी कमाईपर पलनेवाला तथा कर्तव्यपरायण होता है । सुर्यके नवमांश (सिंह)—में स्थित चन्द्रमापर यदि सूर्यादि ग्रहोकी दृष्टि हो तो बालक क्रमश; क्रोधी, राजमन्त्री, निधिपति या मन्त्री, राजा, हिंसाके स्वभाववाला तथा पुत्रहीन होता है । गुरुके नवमांशमें स्थित चन्द्रमापर सूर्यादि ग्रहोकी दृष्टि हो तो बालक क्रमश: हास्यप्रिय, रणमें कुशल, बलवान्, मन्त्री, धर्मात्मा तथा धर्मशील होता है । शनिके नवमांशमें स्थित चन्द्रमापर यदि सूर्यादि ग्रहोकी हो तो जातक क्रमश: अल्पसंतति, दुःखी, अभिमानी, अपने कार्यमें तत्पर, दुष्टस्त्रीका पति तथा कृपण होता है । जिस प्रकार मेंषादि राशि या उसके नवमांशमें स्थित चन्द्रमापर सूर्यादि ग्रहोके दृष्टि—फल कहे गये हैं, इसी प्रकार मेंषादि राशि या नवमांशमें स्थित सूर्यपर चन्द्रादि ग्रहोकी दृष्टिसे भी प्राप्त होनेवाले फल समझने चाहिये ॥२३७—२४३॥
(फलोंमें न्यूनाधिक्य—(चन्द्रमा यदि वर्गोत्तम नवमांशमें हो तो पूर्वोक्त शुभ फल पूर्ण, अपने नवमांशमें हो तो मध्यम (आधा) और अन्य नवमांशमें हो तो अल्प समझना चाहिये । (इसीसे यह भी सिद्ध हो जाता है कि जो अशुभ फल कहे गये है, वे भी विपरीत दशामें विपरीत होत हैं अर्थात् वर्गोत्तममें चद्रमा हो तो अशुभ फल अल्प, अपने नवमांशमें हो तो आधा और अन्य नवमांशमें हो तो पूर्ण होते हैं) । राशि और नवमांशके फलोंमें भिन्नता होनेपर यदि नवमांशका स्वामी बली हो तो वह राशिफलको रोककर ही फल देता है ॥२४४ १/२॥
(द्वादश भावगत ग्रहोके फल—( सूर्य यदि लग्नमें हो तो शिशु शूरवीर, दीर्घसूत्री (देरसे काम करनेके स्वभाववाला), दुर्बल दृष्टिवाला और निर्दय होता है । यदि मेंषमें रहकर लग्नमें हो तो धनवान् और नेत्ररोगी होता है और सिंह लग्नमें हो तो रात्र्यन्ध (रतौंधीवाला), तुलालग्नमें हो तो अंधा और निर्धन होता है । कर्क लग्नमें हो तो जातककी आँखमें फूली होती है ।
द्वितीय भावमें सूर्य हो तो बालक बहुत धनी, राजदण्ड पानेवाला और मुखका रोगी होता है । तृतीय स्थानमें हो तो पण्डित और पराक्रमी होता है । चतुर्थ स्थानमें सूर्य हो तो सुखहीन और पीडायुक्त होता है । सूर्य पञ्चम भावमें हो तो मनुष्य धनहीन और पुत्रहीन होता है । षष्ठ भावमें हो तो बलवान् और शत्रुओंको जीतनेवाला होता है । सप्तम भावमें स्थित हो तो मनुष्य अपनी स्त्रीसे पराजित होता है । अष्टम भावमें हो तो उसके पुत्र थोडे होते हैं और उसे दिखायी भी कम ही देता है । नवम भावमें हो तो जातक पुत्रवान्, धनवान् और सुखी होता है । दशम भावमें ह तो विद्वान् और पराक्रमी तथा एकादश भावमें हो तो अधिक धनवात् और मानी होता है । यदि द्वादश भावमें सूर्य हो तो उत्पन्न बालक नीच और धनहीन होता है ॥२४५—२४९॥
चन्द्रमा यदि मेंष लग्नमें हो तो जातक गूँगा, बहिरा, अंधा और दूसरोंका दास होता है । वृष लग्नमें हो तो वह धनी होत है । द्वीतीय भावमें हो तो विद्वान् और धनवान्, तृतीय भावमें हो तो हिंसाके स्वभाववाला, चतुर्थ स्थानमें हो तो उस भावके लिये कहे हुए फलों (सुख, ग्रुहादि)—से सम्पन्न, पञ्चम भावमें हो तो कन्यारूप संतानवाला और आलसी होता है । छठे भावमें हो तो बालक मन्दाग्निका रोगी होता है, उसे अभीष्ट भोग बहुत कम मिलते हैं तथा वह उग्र स्वभावका होता है । सप्तम भावमें हो तो जातक ईर्ष्यावान् और अत्यन्त कामी होता है । अष्टम भावमें हो तो रोगसे पीडित, नवम भावमें हो तो मित्र और धनसे युक्त, दशम भावमें हो तो धर्मात्मा, बुद्धिमान् और धनवान् होता है । एकादश भावमें हो तो उत्पन्न शिशु विख्यात, बुद्धिमान् और धनवान् होता है तथा द्वादश भावमें हो तो जातक क्षुद्र और अङ्गहीन होता है ॥२५२ १/२॥
मङगल लग्नमें हो तो उत्पन्न शिशु क्षत शरीरवाला होता है । द्वितीय भावमें हो तो वह कदन्न१ भोजी तथा नवम भावमें हो तो पापस्वभाव होता है । इनसे भिन्न (३, ४, ५, ६, ७, ८, १०, ११, १२) स्थानोंमें यदि मङ्गल हो तो उसके फल सूर्यके समान ही होते हैं ॥२५३ १/२॥
बुध लग्नमें हो तो जातक पण्डित होता है । द्वितीय भावमें हो तो शिशु धनवान्, तृतीय भावमें हो तो दुष्ट स्वभाव, चतुर्थ भावमें हो तो पण्डित, पञ्चम भावमें हो तो राजमन्त्री, षष्ठ भावमें हो तो शत्रुहीन, सप्तममें हो तो धर्मज्ञाता, अष्टम भावमें हो तो विख्यात गुणवाला और शेष (९, १०, ११, १२) भावोंमें हो तो जैसे सूर्यके फल कहे गये हैं, वैसे ही उसके फल भी समझने चाहिये ॥२५४ १/२॥
बृहस्पति लग्नमें हो तो जातक विद्वान, द्वितीय भावसें हो तो प्रियभाषी, तृतीय भावमें हो तो कृपण, चतुर्थमें हो तो सुखा, पञ्चममें हो तो विज्ञ, षष्ठममें हो तो नीच स्वभाववाला, नवममें हो तो तपस्वी, दशममें हो तो धनवान्, एकादशमें हो तो नित्य लाभ करनेवाला और द्वादशमें हो तो दुष्ट ह्रदयवाल होता है ॥२५५ १/२॥ शुक्र लग्नमें हो तो जातक कामी तथा पञ्चम भावमें हो तो कामी तथा पञ्चम भावमें हो तो सुखी होता है और अन्य भावों (२, ३, ४, ६, ८, ९, १०, ११, १२)—में हो तो वह उत्पन्न बालकको बृहस्पतिके समान ही फल देता है ॥२५६ १/२॥
शनि लग्नमें हो तो जातक निर्धन, रोगी, कामातुर, मलिन, बाल्यावस्थामें रोगी और आलसी होता है । किंतु यदि अपनी राशि (मकर—कुम्भ) या अपने उच्च (तुला) में हो तो जातक भूपति, ग्रामपति, पण्डित और सुन्दर शरीरवाला होता है । अन्य (द्वितीय आदि) भावोंमें सूर्यके समान ही शनिके भी फल होते हैं ॥२५७—२५८॥
(फलमें न्यूनाधिकत्व—( शुभग्रह यदि अपने उच्चमें हो तो पूर्णरूपसे उपर्युक्त फल प्राप्त होता है । यदि अपने मूल त्रिकोणमें हो तो तीन चरण, अपनी राशिमें हो तो आधा, मित्रके गृहमें हो तो एक चरण तथा शत्रुकी राशिमें हो तो उससे भी कम फल प्राप्त होता है और नीचमें या अस्त हो तो कुछ भी फल नहीं होता है । (इस प्रकार शुभ ग्रह्के फल कहनेसे सिद्ध होता है कि पापग्रहका फल इसके विपरीत होता है । अर्थात् पापग्रह नीचमें या अस्त हो तो पूर्ण फल, शत्रु—राशिमें तीन चरण, मित्र—राशिमें आधा, अपनी राशिमें एक चरण, अपने मूल त्रिकोणमें उससे भी अल्प और अपने उच्चमें हो तो अपना कुछ भी फल नहीं देता है) ॥२५९ १/२॥
(स्वराशिस्थ ग्रहफल—( यदि अपनी राशिमें एक ग्रह हो तो जातक अपने पिताके सदृश धनवान् और यशस्वी होता है । दो ग्रह अपनी राशिमें हो तो बालक अपने कुलमें श्रेष्ठ, तीन ग्रह हो तो बन्धुओंमें माननीय, चार ग्रह हो तो विशेष धनवान्, पाँच ग्रह हो तो सुखी, छ: ग्रह हो तो भोगी और यदि सातों ग्रहा अपनी राशिमें स्थित हो तो जातक राजा होता है ॥२६० १/२॥
यदि अपने मित्रकी राशिमें एक ग्रह हो तो जातक दूसरेके धनसे पालित, दो ग्रह हो तो मित्रोंके द्वारा पोषित और तीन ग्रह हो तो मित्रोंके द्वारा पोषित और तीन ग्रह हो तो वह अपने बन्धुओंके द्वारा पालित होता है । यदि चार ग्रह मित्रराशिमें हो तो बालक अपने बाहुबलसे जीवननिर्वाह करता है । पाँच ग्रह हो तो बहुत लोगोंका पालन करनेवाला होता है । छ: ग्रह हो तो सेनापति और सातों ग्रह मित्रराशिमें हो तो जातक राजा होता है ॥२६१ १/२॥
पापग्रह यदि विषम राशि और सूर्यकी होरा (राश्यर्ध)—में हो तो जातक लोकमें विख्यात, महान् उद्योगी, अत्यन्त तेजस्वी, बुद्धिमान् धनवान् और बलवान् होता है । तथा शुभग्रह यदि समराशि और चन्द्रमाकी होरामें हो तो जातक कान्तिमान्, मृदु (कोमल) शरीरवाला, भाग्यवान्, भोगी और बुद्धिमान् होता है । यदि पापग्रह समराशि और सूर्यकी होरामें हो तो पूर्वॊक्त फल मध्यम (आधा) होता है । एवं शुभ यदि विषमराशि और सूर्यकी होरामें हो तो ऊपर कहे हुए फल नहीं प्राप्त होते हैं ॥२६२—२६४॥
चन्द्रमा यदि अपने या अपने मित्रके द्रेष्काणमें हो तो जातक सुन्दर स्वरूपवाला और गुणवान् होता है । अन्य द्रेष्काणमें हो तो उस द्रेष्काणकी राशि और द्रेष्काणपतिके सदृश ही फल प्राप्त होता है । सारांश यह है कि उस
द्रेष्काणका स्वामी यदि चन्द्रमाका मित्र हो तो तीन चरण फल मिलता है, सम हो तो दो चरण (आधा) फल मिलता
है, तथा शत्रु हो तो एक चरण फल होता है । यदि सर्प द्रेष्काण, शस्त्र द्रेष्काण, चतुष्पद द्रेष्काण और पक्षी
द्रेष्ट्काणमें चन्द्रमा हो तो जातक क्रमश: उग्र—स्वभाव, हिंसाके स्वभाववाला, गुरुकी शय्यापर बैठनेवाला और
भ्रमणशील होता है ॥२६६ १/२॥
(लग्ननवमांश राशिफल—( लग्नमें मेंषका नवमांश हो तो जातक चोरस्वभाव, वृष—नवमांश हो तो भोगी, मिथुन—नवमांश हो तो धनी, कर्क—नवमांश हो तो बुद्धिमान्, सिंह—नवमांश हो तो राजा, कन्या—नवमांश हो तो नपुंसक, तुला—नवमांश हो तो शत्रुको जीतनेवाला, वृश्चिक—नवमांश ओह तो बेगारी करनेवाला, धनुका नवमांश हो तो दासकर्म करनेवाला, मकर—नवमांश हो तो पापस्वभाव, कुम्भ—नवमांश हो तो हिंसाके स्वभाववाला और मीन—नवमांश लग्नमें हो तो बुद्धिहीन होता है । किंतु यदि वर्गोत्तम नवमांश (अर्थात् जो राशि हो उसीका नवमांश भी) हो तो वह जातक इन (चोरस्वभाव आदि सब)—का शासक होता है । (जैसे मेंष—नवमांशमें उत्पन्न मनुष्य चोरस्वभाव होता है, किंतु यदि मेंष राशिमें मेंषका नवमांश हो तो वह चोरस्वभाववालोंका शासक होता है, इत्यादि ।) इसी प्रकार मेंषादि राशियोंके द्वादशांशमें मेंषादि राशियोंके समान फल प्राप्त होते हैं ॥२६७—२६८॥
(मङगल आदि ग्रहोके त्रिंशांशफल—( मङ्गल अपने त्रिंशांशमें हो तो जातक स्त्री, बल, आभूषण तथा परिजनादिसे सम्पन्न, साहसी और तेजस्वी होता है । शनि अपने त्रिंशांशमें हो तो रोगो, स्त्रीके प्रति कुटिल, परस्त्रीमें आसक्त, दुःखी वस्त्रादि आवश्यक सामग्रीसे सम्पन्न, किंतु मलिन होता है । गुरु अपने त्रिंशांशमें हो तो जातक सुखी, बुद्धिमान, धनी, कीर्तिमान्, तेजस्वी, लोकमें मान्य, रोगहीन, उद्यमी और भोगी होता है । बुध अपने त्रिंशांशमें हो तो मनुष्य मेंधावी, कलाकुशल, काव्य और शिल्पविद्याका ज्ञाता, विवादी, कपटी, शास्त्रतत्त्वज्ञ तथा साहसी होता है । शुक्र अपने त्रिंशांशमें हो तो जातक अधिक संतान, सुख, आरोग्य, सौन्दर्य और धनसे युक्त, मनोहर शरीरवाला तथा अजितोन्द्रिय होता है ॥२६९—२७३॥
(सूर्य—चन्द्र—फल—( मङ्गलके त्रिंशांशमें सूर्य हो तो जातक शूरवीर, चन्द्रमा हो तो दीर्घसूत्री, बुधके त्रिंशांशमें सूर्य हो तो जातक कुटिल और चन्द्रमा हो तो हिंसाके स्वभाववाला होता है । गुरुके त्रिशांशमें रवि हो तो गुणी और चन्द्रमा हो गुरुके त्रिंशांशमें रवि हो तो गुणी और चन्द्रमा हो तो भी गुणी होता है । शुक्रके त्रिंशांशमें सूर्य हो तो बालक सुखी और चन्द्रमा हो तो विद्वान् होता है । शनिके त्रिंशांशामें रवि हो तो सुन्द्रर शरीरवाला तथा चद्रमा हो तो सर्वजनप्रिय होता है ॥२७४॥
(करक ग्रह—( अपने—अपने मूल त्रिकोण, स्वराशि या स्वोच्चमें स्थित ग्रह यदि केन्द्रमें हो तो वे सब परस्पर कारक (शुभफलदायक) होते है, उनमें दशम स्थानमें रहनेवाला सबसे बढकर कारक होता है ॥२७५॥
(शुभजन्मलक्षण—) लग्न या चन्द्रमा वर्गोत्तम नवमांशमें हो या वेशि (सुर्यसे द्वितीय) स्थानमें शुभग्रह हो अथवा केन्द्रोंमें कारक ग्रह हो तो जन्म शुभप्रद होता है । अर्थात् इस स्थितिमें जन्म लेनेवाला बालक सुखी और यशस्वी होता है ॥२७६॥
गुरु, जन्मराशि और जन्म—लग्नेश ये सभी या इनमेंसे एक भी केन्द्रमें हो तो जीवनके मध्यभागमें सुखप्रद होते हैं । तथा पृष्ठोदय राशिमें रहनेवाला ग्रह वयस्के अन्तमें, द्विस्वभाव राशिस्थ ग्रह वयस्के मध्यमें और शीर्षोदय राशिस्थ ग्रह पूर्ववयस्में अपने—अपने फल देते हैं ॥२७७॥
(ग्रहगोचरफलसमय—( सूर्य और मङ्गल ये दोनों राशिमें प्रवेश करते ही अपने राशि—सम्बन्धी (गोचर) फल देते हैं । शुक्र और बृहस्पति राशिके मध्यमें जानेपर और चन्द्रमा तथा शनि ये दोनों राशिके अन्तिम तृतीयाँशमें पहुँचनेपर अपने शुभ या अशुभ गोचर फल देते हैं । तथा बुध सर्वदा (आदि, मध्य, अन्तमें) अपने शुभाशुभ फलको देता है ॥२७८॥
(शुभाशुभ योग—( लग्न या चन्द्रमासे पञ्चम और सप्तम भाव शुभग्रह और अपने स्वामीसे युक्त या दृष्ट हो तो जातकको उन दोनों (पुत्र और स्त्री)—का सुख सुलभ होता है, अन्यथा नहीं । तथा कन्या लग्नमें रवि और मीन लग्नमें शनि हो तो ये दोनों स्त्रीका नाश करनेवाले होते हैं । इसी प्रकार पञ्चम भव (मेंष—वृश्चिकसे अतिरिक्त राशि)—में मङ्गल हो तो पुत्रका नाश करनेवाला होता है । यदि शुक्रसे केन्द्र (१, ४, ७, १०)—में पापग्रह हो अथवा दो पापग्रहोके बीचमें शुक्र हो, उनपर शुभग्रहका योग या दृष्टि नहीं हो तो उस जातककी स्त्रीका मरण अग्निसे या गिरनेसे होता है । लग्नसे १२, ६ भावोंमें चन्द्रमा और सूर्य हो तो वह स्त्रीसहित एक नेत्रवाले (काण) पुरुषको जन्म देता है । ऐसा मुनियोंने कहा है । लग्नसे सप्तम या नवम, पञ्चममें शुक्र और सूर्य दोनों हो तो उस जातककी स्त्री विकल (अङ्गहीना) होती है ॥२७९—२८२॥
शनि लग्नमें और शुक्र सप्तम भावमें राशिसन्धि (कर्क, वृश्चिक, मीनके अन्तिमांश) में हो तो वह जातक वन्ध्या स्त्रीका पति होता है । यदि पञ्चम भाव शुभग्रहसे युक्त या दृष्ट न हो, लग्नसे १२, ७ में और लग्नमें यदि पापग्रह हो तथा पञ्चम भावमें क्षीण चन्द्रमा स्थित हो तो वह पुरुष पुत्र और स्त्रीसे रहित होता है । शनिके वर्ग (राशि—नवांश)—में शुक्र सप्तम भावमें हो और शनिसे दृष्ट हो तो वह जातक परस्त्रीमें आसक्त होता है । यदि वे दोनों (शनि और शुक्र) चन्द्रमाके साथ हो तो वह स्वयं परस्त्रीमें आसक्त और उसकी पत्नी परपुरुषमें आसक्त होती है ॥२८४ १/२॥
शुक्र और चन्द्रमा दोनों सप्तम भावमें हो तो जातक स्त्रीहीन अथवा पुत्रहीन होता है । पुरुष और स्त्री ग्रह सप्तम भावमें हो और उनपर शुभग्रहोकी दृष्टि हो तो पति—पत्नी दोनों परिणताङ्ग (परमायुर्दाय भोगकर वृद्धावस्थातक जीनेवाले) होते हैं । दशम, सप्तम और चतुर्थ भावमें क्रमश: चन्द्रमा, शुक्र और पापग्रह हो तो जातक वंशका नाशक होता है । अर्थात् उसका वंश नष्ट हो जाता है । बुध जिस द्रेष्काणमें हो उसपर यदि केन्द्र—स्थित शनिकी दृष्टि हो तो जातक शिल्पकलामें कुशल होता है । शुक्र यदि शनिके नवमांशमें होकर द्वादश भावमें स्थित हो तो जातक दासीका पुत्र होता है । सूर्य और चन्द्रमा दोनों सप्तम भावमें रहकर शनिसे दृष्ट हो तो जातक नीच स्वभाववाला होता है । शुक्र और मङ्गल दोनों सप्तम भावमें स्थित हो और उनपर पाग्रहकी दृष्टि हो तो जातक वातरोगी होता है । कर्क या वृश्चिकके नवमांशमें स्थित चन्द्रमा यदि पापग्रहसे युक्त हो तो बालक गुप्त रोगसे ग्रस्त होता है । चन्द्रमा यदि पापग्रहोके बीचमें रहकर लग्नमें स्थित हो तो उत्पन्न शिशु कुष्ठरोगी होता है । चन्द्रमा दशम भावमें, मङ्गल सप्तम भावमें और शनि यदि वेशि (सूर्यसे द्वितीय) स्थानमें हो तो जातक विकल (अङ्गहीन) होता है । सूर्य और चन्द्रमा दोनों परस्पर नवमांशमें हो तो बालक शूलरोगी होता है । यदि दोनों किसी एक ही स्थानमें हो तो कृश (क्षीणशरीर) होता है । यदि सूर्य, चन्द्रमा, मड्गल और शनि—ये चारों क्रमश: ८, ६, २, १२ भावोंमें स्थित हो तो इनमें जो बली हो, उस ग्रहके दोष (कफ, पित्त और वात—सम्बन्धी विकार)—से जातक नेत्रहीन होता है । यदि ९, ११, ३, ५—इन भावोंमें पापग्रह हो तथा उनपर शुभग्रहकी दृष्टि नहीं हो तो वे उत्पन्न शिशुके लिये कर्णरोग उत्पन्न करनेवाले होते हैं । सप्तम भावमें स्थित पापग्रह यदि शुभग्रहसे दृष्ट न हो तो वे दन्तरोग उत्पन्न करते हैं । लग्नमें गुरु और सप्तम भावमें शनि हो तो जातक वातरोगसे पीडित होता है । ४ या ७ भावमें मङ्गल और लग्नमें बृहस्पति हो अथवा शनि लग्नमें और मङ्गल ९, ५, ७ भावमें हो अथवा बुधसहित चन्द्रमा १२ भावमें हो तो जातक उन्मादरोगसे पीडित होता है ॥२९३ . १ / २॥ यदि ५, ९, २ और १२ भावोंमें पापग्रह हो तो उस जातकको बन्धन प्राप्त होता है । (उसे जेलला कष्ट भोगना पडता है) । लग्नमें जैसी राशि हो उसके अनुकूल ही बन्धन समझना चाहिये । (जैसे चतुष्पद राशि लग्न हो तो रस्सीसे बँधकर, द्विपदराशि लग्न हो तो बेडीसे बँधकर तथा जलचर राशि लग्न हो तो बिना बन्धनके ही वह जेलमें रहता है) । यदि सर्प, श्रृडखला, पाशसंज्ञक द्रेष्काण लग्नमें हो तथा उनपर बली पापग्रहकी दृष्टि हो तो भी पूर्वोक्त प्रकारसे बन्धन प्राप्त होता है । मण्डल (परिवेष)—युक्त चन्द्रमा यदि शनिसे युक्त और मङ्गलसे देखा जाता हो तो जातक मृगी रोगसे पीडित, अप्रियभाषी और क्षयरोगसे युक्त होता है । मण्डल (परिवेष)—युक्त चन्द्रमा यदि दशम भावस्थित सूर्य, शनि और मङ्गलसे दृष्ट हो तो जातक भृत्य (दूसरेका नौकर) होता है; उनमें भी एकसे दृष्ट हो तो श्रेष्ठ दोसे दृष्ट हो तो मध्यम और तीनोंसे दृष्ट हो तो अधम भृत्य होता है ॥२९४—२९६॥
(स्त्रीजातककी विशेषता—(ऊपर कहे हुए पुरुष जातकके जो—जो फल स्त्री—जातकमें सम्भव हो, वे वैसे योगमें उत्पन्न स्त्रीमात्रके लिये समझने चाहिये । जो फल स्त्रीमें असम्भव हो, वे सब उसके पतिमें समझने चाहिये । स्त्रीके स्वामीकी मृत्युका विचार अष्टम भावसे, शरीरके शुभाशुभ फलका विचार लग्न और चन्द्रमासे तथा सौभाग्य और पतिके स्वरूप, गुण आदिका विचार सप्तम भावसे करना चाहिये ॥२९७ १/२॥ स्त्रीके जन्मसमयमें लग्न और चन्द्रमा दोनों समराशि और सम नवमांशमें हों तो वह स्त्री अपनी प्रकृति (स्त्रीस्वभाव)-से युक्त होती है | यदि उन दोनों (लग्न और चन्द्रमा) पर शुभग्रहकी दृष्टि हो तो वह सुशीलतारूप आभूषणसे विभूषित होती है । यदि वे दोनों (लग्न तथा चन्द्रमा) विषमराशि और विषम नवमांशमें हो तो वह स्त्री पुरुषसदृश आकार और स्वभाववाली होती है । यदि उन दोनोंपर पापग्रहकी दृष्टि हो तो स्त्री पापस्वभाववाली और गुणहीना होती है ॥२९८ १/२॥
लग्न और चन्द्रमाके आश्रित मङ्गलकी राशि (मेंष—वृश्चिक)—में यदि मङ्गलका त्रिंशांश हो तो वह स्त्री बालावस्थामें ही दुष्ट—स्वभाववाली होती है । शनिका त्रिंशांश हो तो दासी होती है । गुरुका त्रिंशांश हो तो सच्चरित्रा, बुधका त्रिंशांश हो तो मायावती (धूर्त) और शुक्रका त्रिंशांश हो तो वह उतावली होती है । शुक्रराशि (वृष—तुला)—में स्थित लग्न या चन्द्रमामें मङ्गलका त्रिंशांश हो तो नारी बुरे स्वभाववाली, शनिका त्रिंशांश हो तो पुनभू (दूसरा पति करनेवाली), गुरुका त्रिंशांश हो तो गुणवती, बुधका त्रिंशांश हो तो कलाओंको जाननेवाली और शुक्रशा त्रिंशांश हो तो लोकमें विख्यात होती है । बुधराशि (मिथुन—कन्या)—में स्थित लग्न या चन्द्रमामें यदि मङ्गला त्रिंशांश हो तो मायावती, शनिका हो तो हीजडी, गुरुका हो तो पतिव्रता, बुधका हो तो गुणवती और शुक्रका हो तो चञ्चला होती है । चन्द्र—राशि (कर्क)—में स्थित लग्न या चन्द्रमामें यदि मङ्ग्लका त्रिंशांश हो तो नारी स्वेच्छाचारिणी, शनिका हो तो पतिके लिये घातल, गुरुका हो तो गुणवती, बुधका हो तो शिल्पकला जाननेवाली और शुक्रका त्रिंशाश हो तो नीच स्वभाववाली होती है । सिंहराशिस्थ लग्न या चन्द्रमामें यदि मङ्गलका त्रिंशांश हो तो पुरुषके समान आचरण करनेवाली, शनिका हो तो कुलटा स्वभाववाली, गुरुका हो तो रानी, बुधका हो तो पुरुषसदृश बुद्धिवाली और शुक्रका त्रिंशांश हो तो अगम्यगामिनी होती है । गुरुराशि (धनु—मीन)—स्थित लग्न या चन्द्रमामें मङ्गलका त्रिंशांश हो तो नारी गुणवती, शनिका हो तो भोगोंमें अल्प आसक्तिवाली, गुरुका हो तो गुणवती, बुधका हो तो ज्ञानवती और शुक्रका त्रिंशांश हो तो पतिव्रता होती है । शनिराशि (मकर—कुम्भ) स्थित लग्न या चन्द्रमामें मङ्गलका त्रिंशांश हो तो स्त्री दासी, शनिका हो तो नीच पुरुषमें आसक्त, गुरुका हो तो पतिव्रता, बुधका हो तो दुष्ट—स्वभाववाली और शुक्रका त्रिंशांश हो तो संतान—हीना होती है । इस प्रकार लग्न और चन्द्राश्रित राशियोंके फल ग्रहोके बलके अनुसार न्य़ून या अधिक समझने चाहिये २९९ १/२-३०४॥
शुक्र और शनि ये दोनों परस्पर नवमांशमें (शुक्रके नवमांशमें शनि और शनिके नवमांशमें शुक्र) हो अथवा शुक्रराशि (वृष—तुला) लग्नमें कुम्भका नवमांश हो तो इन दोनों योगोंमें जन्म लेनेवाली स्त्री कामाग्निसे संतप्त हो स्त्रियोंसे भी क्रीडा करती है ॥३०५॥
(पतिभाव—( स्त्रीके जन्मलग्नसे सप्तम भावमें कोई ग्रह नहीं हो तो उसका पति कुत्सित होता है । सप्तम स्थान निर्बल हो और उसपर शुभग्रहकी दृष्टि नहीं हो तो उस स्त्रीका पति नपुंसक होता है । सप्तम स्थानमें बुध और शनि हो तो भी पति नपुंसक होता है । यदि सप्तम भावमें चरराशि हो तो उसका पति परदेशवासी होता है । सप्तम भावमें सूर्य हो तो उस स्त्रीको पति त्याग देता है । मङ्गल हो तो वह स्त्री बालविधवा होती है । शनि सप्तम भावमें पापग्रहसे दृष्ट हो तो वह स्त्री कन्या (अविवाहिता) रहकर ही वृद्धावस्थाको प्राप्त होती है ॥३०६—३०७॥
यदि सप्तम भावमें एकसे अधिक पापग्रह हो तो भी स्त्री विधवा होती है, शुभ और पाप दोनों हो तो वह पुनर्भू होती है । यदि सप्तम भावमें पापग्रह निर्बल हो और उसपर शुभग्रहकी दृष्टि न हो तो भी स्त्री अपने पतिद्वारा त्याग दी जाती है, अन्यथा शुभग्रहकी दृष्टि होनेपर वह पतिप्रिया होती है ॥३०८॥
मङ्गलके नवमांशमें शुक्र और शुक्रके नवमांशमें मङ्गल हो तो वह स्त्री परपुरुषमें आसक्त होती है । इस योगमें चन्द्रमा यदि सप्तम भावमें हो तो वह अपने पतिकी आज्ञासे कार्य करती है ॥३०९॥
यदि चन्द्रमा और शुक्रसे संयुक्त शनि एवं मङ्गलकी राशि (मकर, कुम्भ, मेंष और वृश्चिक) लग्नमें हो तो वह स्त्री कुलटा—स्वभाववाली होती है । यदि उक्त लग्नपर पापग्रहकी दृष्टि हो तो वह स्त्री अपनी मातासहित कुलटा—स्वभाववाली होती है । यदि सप्तम भावमें मङ्गलका नवमांश हो और उसपर शनिकी दृष्टि हो तो वह नारी रोगयुक्त योनिवाली होती है । यदि सप्तम भावमें शुभग्रहका नवमांश हो तब तो वह पतिकी प्यारी होती है । शनिकी राशि या नवमांश सप्तम भावमें हो तो उस स्त्रीका पति वृद्ध और मूर्ख होता है । सप्तम भावमें मङ्गलकी राशि या नवमांश हो तो उसका पति स्त्रीलोलुप और क्रोधी होता है । बुधकी राशि या नवमांश हो तो विद्वान् और सब कार्यमें निपुण होता है । गुरुकी राशि या नवमांश हो तो जितेन्द्रिय और गुणी होता है । चन्द्रमाकी राशि या नवमांश हो तो कामी और कोमल होता है । शुक्रकी राशि या नवमांश हो तो भाग्यवान् तथा मनोहर स्वरूपवाला होता है । सूर्यकी राशि या नवमांश सप्तम भावमें हो तो उस स्त्रीका पति अत्यन्त कोमल और अधिक कार्य करनेवाला होता है ॥३१२ १/२॥
शुक्र और चन्द्रमा लग्नमें हो तो वह स्त्री सुख तथा ईर्ष्यावाली होती है । यदि बुध और चन्द्रमा लग्नमें हो तो कलाओंको जाननेवाली तथा सुख और गुणोंसे युत होती है । शुक्र और बुध लग्नमें हो तो सौभाग्यवती, कलाओंको जाननेवाली और अत्यन्त सुन्दरी होती है । लग्नमें तीन शुभग्रह हो तो वह अनेक प्रकारके सुख, धन और गुणोंसे युत होती है ॥३१४ १/२॥
पापग्रह अष्टम भावमें हो तो वह स्त्री अष्टमेंश जिस ग्रहके नवमांशमें हो उस ग्रह्के पूर्वकथित बाल आदि वयस्में विधवा होती है । यदि द्वितीय भावमें शुभग्रह हो तो वह स्त्री स्वयं ही स्वामीके सम्मुख मृत्युको प्रापत होती है । कन्या, वृश्चिक, सिंह या वृष राशिमें चद्रमा हो तो स्त्री थोडी संततिवाली होती है । यदि शनि मध्यम बली तथा चन्द्रमा, शुक्र और बुध ये तीनों निर्बल हो तथा शेष ग्रह (रवि, मङ्गल और गुरु) सबल होकर विषम राशि—लग्नमें हो तो वह स्त्री कुरूपा होती है ॥३१५—३१७॥
गुरु, मङ्गल, शुक्र, बुध ये चारों बली होकर समराशि लग्नमें स्थित हो तो वह स्त्री अनेक शास्त्रोंको और ब्रह्मको जाननेवाली तथा लोकमें विख्यात होती है ॥३१८॥
जिस स्त्रीके जन्मलग्नसे सप्तममें पापग्रह हो और नवम भावमें कोई ग्रह हो तो स्त्री पूर्वकथित नवमस्थ ग्रहजनित प्रव्रज्याको प्राप्त होती है । इन (कहे हुए) विषयोंका विवाह, वरण या प्रश्नकालमें भी विचार करना चाहिये ॥३१९॥
(निर्याण (मृत्यु) विचार—( लग्नसे अष्टम भावको जो—जो ग्रह देखते हैं, उनमें जो बलवान् हो उसके धातु (कफ, पित्त या वात)—के प्रकोपसे जातक (स्त्री—पुरुष)—का मरण होता है । अष्टम भावमें जो राशि हो, वह काल पुरुषके जिस अङ्ग (मस्तकादि)—में पडती हो; उस अङ्गमें गोर होनेसे जातककी मृत्यु होती है । बहुत ग्रहोकी दृष्टि या योग हो तो उन—उन ग्रहोसे सम्बन्ध रखनेवाले रोगोंसे मरण होता है । यथा अष्टममें सूर्य हो तो अग्निसे, चन्द्रमा हो तो जलसे; मङ्गल हो तो शस्त्रघातसे, बुध हो तो ज्वरसे, गुरु हो तो अज्ञात रोगसे, शुक्र हो तो प्याससे और शनि हो तो भूखसे मरण होता है । तथा अष्टम भावमें चर राशि हो तो परदेशमें, स्थिर राशि हो तो स्वस्थानमें और द्विस्वभाव राशि हो तो मार्गमें मृत्यु होती है । सूर्य और मङ्गल यदि १०, ४ भावमें हो तो पर्वत आदि ऊँचे स्थानसे गिरकर मनुष्यकी मृत्यु होती है ॥३२०—३२२॥
४, ७, १० भावोंमें यदि शनि, चन्द्र, मङ्गल हो तो कूपमें गिरकर मरण होता है । कन्या—राशिमें रवि और चन्द्रमा दोनों, हो उनपर पापग्रहकी दृष्टि हो तो अपने सम्बन्धीके द्वारा मरण होत है । यदि उभयोदय (मीन) लग्नमें चन्द्रमा और सूर्य दोनों हो तो जलमें मरण होता है । यदि मङ्गलकी राशिमें स्थित चन्द्रमा दो पापग्रहोके बीचमें हो तो शस्त्र या अग्निसे मृत्यु होती है ॥३२३—३२४॥
मकरमें चन्द्रमा और कर्कमें शनि हो तो जलोदररोगसे मरण होता है । कन्याराशिमें स्थित चन्द्रमा दो पापग्रहोके बीचमें हो तो रक्तशोषरोगसे मृत्यु होती है । यदि दो पापग्रहोके बीचमें स्थित चन्द्रमा, शनिकी राशि (मकर और कुम्भ)—में हो तो रज्जु (रस्सी), अग्नि अथवा ऊँचे स्थानसे गिरकर मृत्यु होती है । ५, ९ भावोंमें पापग्रह हो और उनपर शुभग्रहकी दृष्टि न हो तो बन्धनसे मृत्यु होती है । अष्टम भावमें पाश, सर्प या निगड द्रेष्काण हो तो भी बन्धनसे ही मृत्यु होती है । पापग्रहके साथ बैठा हुआ चन्द्रमा यदि कन्याराशिमें होकर सप्तम भावमें स्थित हो तथा मेंषमें शुक्र और लग्नमें सूर्य हो तो अपने घरमें स्त्रीके निमित्तसे मरण होता है । चतुर्थ भावमें मङ्गल या सूर्य हो, दशम भावमें शनि हो और लग्न, ५, ९ भावोंमें पापग्रहसहित चन्द्रमा हो अथवा चतुर्थ भावमें सूर्य और दशममें मङ्गल रहकर क्षीण चन्द्रमासे दृष्ट हो तो इन योगोंमें काष्ठसे आहत होकर मनुष्यकी मृत्यु होती है । यदि ८, १०, लग्न तथा ४ भावोंमें क्षीण चन्द्रमा, मङ्गल, शनि और सूर्य हो तो लाठीके प्रहारसे मृत्यु होती है । यदि वे ही (क्षीण चन्द्रमा, मङ्गल, शनि तथा सूर्य) १०, ९ लग्न और ५ भावोंमें हो तो मुद्नर आदिके आघातसे मृत्यु होती है । यदि ४, ७, १० भावोंमें क्रमश: मङ्गल, रवि और शनि हो तो शस्त्र, अग्नि तथा राजाके द्वारा मृत्यु होती है । यदि शनि, चन्द्रमा और मङ्गल—ये २, ४, १० भावोंमें हो तो कीडोंके क्षतसे शरीरका पतन (मरण) होता है । यदि दशम भावमें सूर्य और चतुर्थ भावमें मङ्गल हो तो सवारीपरसे गिरनेके कारण मृत्यु होती है । यदि क्षीण चन्द्रमाके साथ मङ्गल सप्तम भावमें हो तो यन्त्र (मशीन)—के आघातसे मृत्यु होती है । यदि मङ्गल, शनि और चन्द्रमा—ये तुला, मेंष तथा शनिकी राशि (मकर—कुम्भ)—में हो अथवा क्षीण चन्द्रमा, सूर्य और मड्गल—ये १०, ७, ४ भावोंमें स्थित हो तो विष्ठाके समीप मृत्यु होती है । क्षीण चन्द्रमापर मङ्गलकी दृष्टि हो और शनि सप्तम भावमें हो तो गुह्य (बवासीर आदि)—रोग या कीडा, शस्त्र, अग्नि अथवा काष्ठके आघातसे मरण होता है । मङ्गलसहित सूर्य सप्तम भावमें, शनि अष्टममें और क्षीण चन्द्रमा चतुर्थ भावमें हो तो पक्षीद्वारा मरण होता है । यदि लग्न, ५, ८, ९ भावोंमें सूर्य, मङल, शानि और चन्द्रमा हो तो पर्वत—शिखरसे गिरनेके कारण अथवा वज्रपातसे या दीवार गिरनेसे मृत्यु होती है ॥३२५—३३५॥
लग्नसे २२ वाँ द्रेष्काण अर्थात् अष्टम भावका द्रेष्काण जो हो, उसका स्वामी अथवा अष्टम भावका स्वामी—ये दोनों या इनमेंसे जो बली हो, वह अपने गुणोंसे (पूर्वोक्त अग्निशस्त्रादिद्वारा) मनुष्यके लिये मरणकारण होता है । लग्नमें जो नवमांश होता है, उसका स्वामी जो ग्रह हो उसके समान स्थान (अर्थात् वह जिस राशिमें हो उस राशिका जैसा स्थान) बताया गया है, वैसे स्थान तथा उसपर जिस ग्रहका योग या दृष्टि हो उसके समान स्थानमें, परदेशमें मनुष्यका मरण होता है तथा लग्नके जितने अंश अनुदित (भोग्य) हो, उन अंशोंमें जितने समय हो, उतने समयतक मरणकालमें मोह होता है । यदि उसपर अपने स्वामीकी दृष्टि हो तो उससे द्विगुणित और शुभग्रहकी दृष्टि हो तो उससे त्रिगुणित समयपर्यन्त मोह होता है । इस विषयकी अन्य बातें अपनी बुद्धिसे विचारकर समझनी चाहिये ॥३३७ १/२॥
(शव—परिणाम—( अष्टम स्थानमें जिस प्रकारका द्रेष्काण हो उसके अनुसार देहधारीकी मृत्यु और उसकी शवके परिणामपर विचार करना चाहिये । यथा—अग्नि (पापग्रह)—का द्रेष्काण हो तो मृत्युके बाद उसका शव जलाकर भस्म किया जाता है । जल (सौम्य) द्रेष्काण हो तो जलमें फेंका जानेपर वह वहीं गल जाता है । यदि सौम्य द्रेष्काण पापग्रहसे युक्त या पाप द्रेष्काण शुभग्रहसे युक्त हो तो मुर्दा न जलाया जाता है, न जलमें गलाया जाता है, अपितु सूर्यकिरण और हवासे सूख जाता है । यदि सर्प द्रेष्काण अष्टम भावमें हो तो उस मुर्देको गीदड और कोए आदि नोंचकर खाते हैं ॥३३८ १/२ ॥
(पूर्वजन्मस्थिति—) सूर्य और चन्द्रमामें जो अधिक बलवान् हो, वह जिस द्रेष्काणमें स्थित हो उस द्रेष्काणके स्वामीके अनुसार पूर्वजन्मकी स्थिति समझी जाती है । यथा—उक्त द्रेष्काणका स्वामी गुरु हो तो जातक पूर्वजन्ममें देवलोकमें था । चन्द्रमा या शुक्र द्रेष्काणका स्वामी हो तो वह पितृलोकमें था । सूर्य या मङ्गल द्रेष्काणका स्वामी हो तो वह जातक पहले जन्ममें भी मर्त्यलोकमें ही था और शनि या बुध हो तो वह पहले नरकलोकमें रहा है—ऐसा समझना चाहिये । यदि उक्त द्रेष्काणका स्वामी अपने उच्चमें हो तो जातक पूर्वजन्ममें देवादि लोकमें श्रेष्ठ था । यदि उच्च और नीचके मध्यमें हो तो उस लोकमें उसकी मध्यम स्थिति थी और यदि अपने नीचमें हो तो वह उस लोकमें निम्नकोटिकी अवस्थामें था—ऐसा उच्च और नीच स्थानके तारतम्यसे समझना चाहिये ।
(गति—भावी जन्मकी स्थिति—( षष्ठ और अष्टम भावके द्रेष्काणोंके स्वामीमेंसे जो अधिक बली हो, मरनेके बाद जातक उसी ग्रहके (पूर्वदर्शित) लोकमेंम जाता है तथा सप्तम स्थानमें स्थित ग्रह बली हो तो वह अपने लोकमें ले जाता है ।
(मोक्षयोग—( यदि बृहस्पति अपने उच्चमें होकर ६, १, ४, ७, ८, १० अथवा १२ में शुभग्रहके नवमांशमें हो और अन्य ग्रह निर्बल हो तो मरण होनेपर मनुष्यका मोक्ष होता है । यह योग जन्म और मरण दोनों कालोंसे देखन चाहिये ॥३४१ १/२॥
(अज्ञात जन्म—समयको जाननेका प्रकार—( जिस व्यक्तिके आधान या जन्मका समय अज्ञात हो, उसके प्रश्न—लग्नसे जन्म—स्मय समझना चाहिये। प्रश्न—लग्नके पूर्वार्ध (१५ अंशतक)—में उत्तरायण और उत्तरार्ध (१५ अंशके बाद)—में दक्षिणायन जन्मका समय समझना चाहिये । त्र्यंश (द्रेष्काण) द्वारा क्रमश: लग्न, ५, ९ राशिमें गुरु समझकर फिर प्रश्नकर्ताके वयस्के अनुसार वर्षमानकी कल्पना करनी चाहिये । लग्नमें सूर्य हो तो ग्रीष्मऋतु, अन्यत्या अन्य ग्रहोके ऋतुका वर्णन पहले किया जा चुका है । अयन और ऋतुमें भिन्नता हो तो चन्द्रमा, बुध और गुरुकी ऋतुओंके स्थानमें क्रमसे शुक्र, मङ्गल, शनिकी ऋतु परिवर्तित करके समझना चाहिये तथा ऋतु सर्वथा सूर्यकी राशिसे ही (सौरमाससे ही) ग्रहण करनी चाहिये । इस प्रकार अयन और ऋतुके ज्ञान होनेपर लग्नके द्रेष्काणमें पूर्वार्ध हो तो ऋतुका प्रथम मास, उत्तरार्ध हो तो द्वितीय मास समझना चाहिये तथा द्रेष्काणके पूर्वार्ध या उत्तरार्धके भुक्तांशोंसे अनुपात द्वारा तिथि (सूर्यके गत अंशादि) का ज्ञान करना चाहिये ॥३४४ १/२॥
(दिन—रात्रि जन्म—ज्ञान—( प्रश्न लग्नमें दिनसंज्ञक, रात्रि—संज्ञक राशियाँ हो तो विलोमक्रमसे (दिनसंज्ञक राशिमें रात्रि और रात्रिसंज्ञक राशिमें दिन) जन्मका समय समझना चाहिये और लग्नके अंशादिसे अनुपात द्वारा इष्ट घटयादिको समझना चाहिये ।
(जन्म—लग्नज्ञान—) केवल जन्म—लग्न जाननेके लिये प्रश्नकर्ता प्रश्न करे तो लग्नसे, (१, ५, ९में) जो राशि बली हो, वही उसका जन्म—लग्न समझना चाहिये अथवा वह जिस अङ्गका स्पर्श करते हुए प्रश्न करे, उस अङ्गकी राशिको ही जम—लग्न कहना चाहिये ।
(जन्म—राशि—ज्ञान—( जन्म—राशि जाननेके लिये प्रश्न करे तो प्रश्न—लग्नसे जितने आगे चन्द्रमा हो, चन्द्रमासे उतने ही आगे जो राशि हो वह पूछनेवालेकी जन्मराशि समझनी चाहिये ॥३४५—३४६॥
(प्रकारान्तरसे अज्ञात जन्मकालादिका ज्ञान—(प्रश्नलग्नमें वृष या सिंह हो तो लग्नराश्यादिको कलात्मक बनाकर १० से गुणा करे । मिथुन या वृश्चिक हो तो ८ से, मेंष या तुला हो तो ७ से, मकर या कन्या हो तो ५ से गुणा करे । शेष राशियों (कर्क, धन, कुम्भ, मीन)—मेंसे कोई लग्न हो तो उसकी कलाको अपने संख्यासे (जैसे कर्कको ४ से) गुणा करे । यदि लग्नमें ग्रह हो तो फिर उसी गुणनफलको गुहगुणकोंसे भी गुणा करे । जैसे—बृहस्पति हो तो १० से, मङ्गल हो तो ८ से, शुक्र हो तो ७ से, बुध हो तो ५ से, अन्य ग्रह (रवि, शनि और चन्द्रमा) हो तो ५ से गुणा करे । इस प्रकार लग्नकी राशिके अनुसार गुणन तो निश्चित ही रहता है । यदि उसमें ग्रह हो तभी ग्रहका गुणन भी करना चाहिये । जितने ग्रह हो, सबके गुणकसे गुणा करना चाहिये इस प्रकार गुणनफलको ध्रुवपिण्ड मानकर उसको ७ से गुणाकर २७ के द्वारा भाग देकर १ आदि शेषके अनुसार अश्विनी आदि जन्म—नक्षत्र समझने चाहिये । इस प्रणालीमें विशेषता यह है कि उक्त रीतिसे आयी हुई संख्यामेंम कभी ९ जोडकर और कभी ९ घटाकर नक्षत्र लिया जाता है । तथा उक्त ध्रुवपिण्डको १० से गुणा करके गुणनफलसे वर्ष, ऋतु और मास समझे । पक्ष और तिथि जाननी हो तो ध्रुवपिण्डको ८ से गुणा करके २ से भाग देकर एक शेष हो तो शुक्लपक्ष और दो शेष हो तो कृष्णपक्ष समझे। इसमें भी ९ जोड या घटाकर ग्रहण करना चाहिये। अर्थात् गुणनफलमें ९ जोड या ९ घटाकर भाग देना चाहिये । इसी प्रकार पक्षज्ञान होनेपर गुणनफलमें ही १५ से भाग देकर शेषके अनुसार प्रतिपदा आदि तिथि समझे तथा अहोरात्र जानना हो तो ध्रुवपिण्डको ७ से गुणा करके दोसे भाग देकर एक शेष हो तो दिन और दो शेष हो तो रात्रि समझे। लग्न—नवांश, इष्ट—घडी तथा होरा जानना हो तो ध्रुवपिण्डको ५ से गुणा करके अपने—अपने विकल्पसे (अर्थात् लग्न जाननेके लिये १२ से, इष्ट घडी जाननेके लिये ६० से (अथवा दिन या रात्रिका ज्ञान होनेपर दिनमान या रात्रिमान—घटीसे), नवमांशके लिये ९ से तथा होराके लिये २ से भाग देकर सेषद्वारा सबका ज्ञान करना चाहिये । इस प्रकार जिनके जन्म—समय आदिका ज्ञान न हो उनके लिये इन सब बातोंका विचार करना चाहिये ॥३४७—३५०॥
(द्रेष्काणका स्वरूप—( हाथमें फरसा लिये हुए काले रंगका पुरुष, जिसकी आँखें लाल हो और जो सब जीवोंकी रक्षा करनेमें समर्थ हो, मेंषके प्रथम द्रेष्काणका स्वरूप है । प्याससे पीडित एक पैरसे चलनेवाला, घोडेके समान मुख, लाल वस्त्रधरी और घडेके समान आकार—यह मेंषके द्वितीय द्रेष्काणका स्वरूप है । कपिलवर्ण, क्रूरदृष्टि, क्रूरस्वभाव, लाल वस्त्रधारी और अपनी प्रतिज्ञा भङ्ग करनेवाला—यह मेंषके तृतीय द्रेष्काणका स्वरूप है । भूख और प्याससे पीडित, कटे—छँटे घुँघराले केश तथा दूधके समान धवल वस्त्र—यह वृषके प्रथम द्रेष्काणका स्वरूप है । मलिनशरीर, भूखसे पीडित, बकरेके समान मुख और कृषि आदि कार्योंमें कुशल—यह वृषके दूसरे द्रेष्काणका रूप है । हाथीके समान विशालकाय, शरभ के समान पैर, पिङ्गल वर्ण और व्याकुल चित्त—यह वृषके तीसरे द्रेष्काणका स्वरूप है । सूईसे सीने—पिरोनेका काम करनेवाली, रूपवती, सुशीला तथा संतानहीना नारी, जिसने हाथको ऊपर उठा रखा है, मिथुनका प्रथम द्रेष्काण है । कवच और धनुष धारण किये हुए उपवनमें क्रीडा करनेकी इच्छासे उपस्थित गरुडसदृश मुखवाला पुरुष मिथुनका दूसरा द्रेष्काण है । नृत्य आदिकी कलामें प्रवीण, वरुणके समान रत्नोंके अनन्त भण्डारसे भरा—पूरा, धनुर्धर वीर पुरुष मिथुनका तीसरा द्रेष्काण है । गणेशजीके समान कण्ठ, शूकरके सदृश मुख, शरभके—से पैर और वनमें रहनेवाला—यह कर्कके प्रथम द्रेष्काणका रूप है । सिरपर सर्प धारण किये, पलाशकी शाखा पकडकर रोती हुई कर्कशा स्त्री—यह कर्कके दूसरे द्रेष्काणका स्वरूप है । चिपटा मुख, सर्पसे वेष्टित, स्त्रीकी खोजमें नौकापर बैठकर जलमें यात्रा करनेवाला पुरुष—यह कर्कके तीसरे द्रेष्काणका रूप है ॥३५१—३५६॥
सेमलके वृक्षके नीचे गीदड और गीधको लेकर रोता हुआ कुत्ते—जैसा मनुष्य—यह सिंहके प्रथम द्रेष्काणका स्वरूप है । धनुष और कृष्ण म्रुघचर्म धारण किये, सिंह—सदृश पराक्रमी तथा घोडेके समान आकृतिवाला मनुष्य—यह सिंहके दूसरे द्रेष्काणका स्वरूप है । फल और भोज्यपदार्थ रखनेवाला, लंबी दाढीसे सुशोभित, भालू—जैसा मुख और वानरोंके—से चपल स्वभाववाला मनुष्य—सिंहके तृतीय द्रेष्काणका रूप है । फूलसे भरे कलशवाली, विद्याभिलाषिणी, मलिन वस्त्रधारिणी कुमारी कन्या—यह कन्या राशिके प्रथम द्रेष्काणका स्वरूप है । हाथमें धनुष, आय—व्ययका हिसाब रखनेवाला, श्याम—वर्ण शरीर, लेखनकार्यमें चतुर तथा रोएँसे भरा मनुष्य—यह कन्या राशिके दूसरे द्रेष्काणका स्वरूप है । गोरे अङ्गोपर धुले हुए स्वच्छ वस्त्र, ऊँचा कद, हाथमें कलश लेकर देवमन्दिरकी ओर जाती हुई स्त्री—यह कन्या राशिके तीसरे द्रेष्काणका परिचय है ॥३५७—३५९॥
हाथमें तराजू और बटखरे लिये बाजारमें वस्तुएँ तौलनेवाला तथा बर्तन—भाँडोंकी कीमत कूतनेवाला पुरुष तुलाराशिका प्रथम द्रेष्काण है । हाथमें कलश लिये भूख—प्याससे व्याकुल तथा गीधके समान मुखवाला पुरुष, जो स्त्री—पुत्रके साथ विचरता है, तुलाका दूसरा द्रेष्काण है । हाथमें धनुष लिये हरिनका पीछा करनेवाला, किन्नरके समान चेष्टवाला, सुवर्णकवचधारी पुरुष तुलाका तृतीय द्रेष्काण है । एक नारी, जिसके पैर नाना प्रकारके सर्प लिपटे होनेसे श्वेत दिखायी देते हैं, समुद्रसे किनारेकी ओर जा रही है, यही वृश्चिकके प्रथम द्रेष्टकाणका रूप है । जिसके सब अङ्ग सर्पोंसे ढके हैं और आकृति कछुएके समान है तथा जो स्वामीके लिये सुखकी इच्छा करनेवाली है; ऐसी स्त्री वृश्चिकका दूसरा द्रेष्काण है । मलयगिरिका निवासी सिंह, मुखाकृति कछुए—जैसी है, कुत्ते, शूकर और हरिन आदिको डरा रहा है, वही वृश्चिकका तीसरा द्रेष्काण है ॥३६०—३६२॥
मनुष्यके समान मुख, घोडे—जैसा शरीर, हाथमें धनुष लेकर तपस्वी और यज्ञोंकी रक्षा करनेवाला पुरुष धनुराशिका द्रेष्काण है । चम्पापुरुषके समान कान्तिवाली, आसनपर बैठी हुई, समुद्रके रत्नोंको बढानेवाली, मझोले कदकी स्त्री धनुका दूसरा द्रेष्काण है । दाढी—मूँछ बढाये आसनपर बैठा हुआ, चम्पापुष्पके सदृश कान्तिमान्, दण्ड, पट्ट—वस्त्र और मृगचर्म धारण करनेवाला पुरुष धनुका तीसरा द्रेष्काण है । मगरके समान दाँत, रोएँसे भरा शरीर तथा सूअर—जैसी आकृतिवाला पुरुष मकरका प्रथम द्रेष्काण है । कमलदलके समान नेत्रोंवाली, आभूषण—प्रिया श्यामा स्त्री मकरका दूसरा द्रेष्काण है । हाथमें धनुष, कम्बल, कलश और कवच धारण करनेवाला किन्नरके समान पुरुष मकरका तीसरा द्रेष्काण है ॥३६३—३६६॥
गीधके समान मुख, तेल, घी और मधु पीनेकी इच्छावाला, कम्बलधारी पुरुष कुम्भका प्रथम द्रेष्काण है। हाथमें लोहा, शरीरमें आभूषण तथा मस्तकपर भाँड (बर्तन) लिये मलिन वस्त्र पहनकर जली गाडीपर बैठी हुई स्त्री कुम्भका दूसरा द्रेष्काण है । कानमें बडे—बडे रोम शरीरमें श्याम कान्ति, मस्तकपर किरीट तथा हाथमें फल—पत्र धारण करनेवाला बर्तनका व्यापारी कुम्भका तीसरा द्रेष्काण है । भूषण बनानेके लिये नाना प्रकारके रत्नोंको हाथमें लेकर समुद्रमें नौकापर बैठा हुआ पुरुष मीनका प्रथम द्रेष्काण है । जिसके मुखकी कान्ति चम्पाके पुष्पके सदृश मनोहर है, वह अपने परिवारके साथ नौकापर बैठकर समुद्रके बीचसे तटकी ओर आती हुई स्त्री मीनका दूसरा द्रेष्काण है। गङेढके समीप तथा चोर और अग्निसे पीडित होकर रोता हुआ, सर्पसे वेष्टित, नग्न शरीरवाला पुरुष मीन राशिका तीसरा द्रेष्काण है । इस प्रकार मेंषादि बारहो राशिक तीसरा द्रेष्काण है । इस प्रकार मेंषादि बारहो राशियोंमें होनेवाले छत्तीस द्रेष्काणांशके रूप क्रमसे बताये गये हैं । मुनिश्रेष्ठ नारद ! यह संक्षेपमें जातक नामक स्कन्ध कहा गया है | अब लोक-व्यवहारके लिये उपयोगी संहितास्कन्धका वर्णन सुनो—॥३६७—३७०॥ (पूर्वभाग द्वितीय पाद अध्याय ५५)
अध्याय ५२ त्रिस्कन्ध ज्योतिषका सहिंताप्रकरण (विविध उपयोगी विषयोंका वर्णन)
सनन्दनजी बोले—नारदजी ! चैत्रादि मासोंमें क्रमश: मेंषादि राशियोंमें सूर्यकी संक्रान्ति होती है । चैत्र शुक्ल प्रतिपदाके आरम्भमें जो वार (दिन) हो, वही ग्रह उस (चान्द्र) वर्षका राजा होता है । सूर्यके मेंषराशि—प्रवेशके समय जो वार हो, वह सेनापति (या मन्त्री) होता है । कर्क राशिकी संक्रान्तिके समय जो वार हो, वह सस्य (धान्य)—का अधिपति होता है । उक्त वर्ष आदिका अधिपति यदि सूर्य हो तो वह मध्यम (शुभ और अशुभ दोनों) फल देता है । चन्द्रमा हो तो उत्तम फल देता है । मङ्गल अधिपति हो तो अनिष्ट (अशुभ) फल देनेवाला होता है । बुध, गुरु और शुक्र—ये तीनों अति उत्तम (शुभ) फलकी प्राप्ति करानेवाले होते हैं । शनि अधिपति हो तो अशुभ फल होता है । इन ग्रहोके बलाबल देखकर तदनुसार इनके न्यून या पूर्ण फल समझने चाहिये ॥१—३॥
(धूमकेतु—पुच्छलतारा आदिके फल—( यदि कदाचित् कहींसे सूर्य—मण्डलमें दण्ड (लाठी), कबन्ध (मस्तकहीन शरीर) कौआ या कीलके आकारवाले केतु (चिह्न) देखनेमेंम आवे, तो वहाँ व्याधि, भ्रान्ति तथा चोरोंके उपद्रवसे धनका नाश होता है । छत्र, ध्वज, पताका या सजल मेंघखण्ड—सदृश अथवा स्फुलिङ्ग (आग्निकण) सहित धूम सूर्यमण्डलमें दीख पडे तो उस देशका नाश होता है । शुक्ल, लाल, पीला अथवा काला सूर्यमण्डल दीखनेमें आवे, तो क्रमसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णोंको पीडा होती है मुनिवर ! यदि तीन या चार प्रकारके रंग सूर्यमण्डलमें दीख पडें, तो राजाओंका नाश होता है । यदि सूर्यकी ॠर्ध्वगामिनी किरण लाल रंगकी दीख पडे, तो सेनापतिका नाश होता है । यदि उसका पीला वर्ण हो तो राजकुमारका, श्वेत वर्ण हो तो राजपुरोहितका तथा उसके अनेक वर्ण हो तो प्रजाजनोंका नाश होता है । इसी तरह धूम्र वर्ण हो तो राजाका और पिशङ्ग (कपिल) वर्ण हो तो मेंघका नाश होता है । यदि सूर्यकी उक्त किरणें नीचेकी ओर हो, तो संसारका नाश होता है ॥४-७ १/२॥
सूर्य शिशिर ऋतु (माघ—फाल्गुन)—में ताँबेके समान (लाल) दीख पडे, तो संसारके लिये शुभ (कल्याणकारी) होता है । ऐसे ही वसन्त (चैत्र—वैशाख)—में कुंकुमवर्ण, ग्रीष्ममें पाण्डु (श्वेत—पीत—मिश्रित)—वर्ण, वर्षामें अनेक वर्ण, शरद—ऋतुमें कमलवर्ण तथा हेमन्तमें रक्तवर्णका सूर्यविम्ब दिखायी दे, तो उसे शुभप्रद समझना चाहिये । मुनिश्रेष्ठ नारद ! यदि शीतकालमें (अगहनसे फाल्गुनतक) सूर्यका बिम्ब पीला, वर्षामें (श्रावणसे कार्तिकतक) श्वेत (उजला) तथा ग्रीष्ममें (चैत्रसे आषाढतक) लाल रंगका दीख पडे, तो क्रमसे रोग, अवर्षण तथा भय उपस्थित करनेवाला होता है । यदि कदाचित् सूर्यका आधा विम्ब इन्द्रधनुषके सदृश दीख पडे तो राजालोंमें परस्पर विरोध बढता है । खरगोशके रक्तके सदृश सूर्यका वर्ण हो तो शीघ्र ही राजाओंमें महायुद्ध प्रारम्भ होता है । यदि सूर्यका वर्ण मोरकी पाँखके समान हो, तो वहाँ बारह वर्षोंतक वर्षा नहीं होती है । यदि सूर्य कभी चन्द्रमाके समान दिखायी दे, तो वहाँके राजाको जीतकर दूसरा राजा राज्य करता है । यदि सूर्य श्याम रंगका दीख पडे तो कीडोंका भय होता है । भस्म समान दीख पडे तो समूचे राज्यपर भय उपस्थित होता है और यदि सूर्यमण्डलमें छिद्र दिखायी दे, तो वहाँके सबसे बडे सम्राटकी मृत्यु होती है । कलशके समान आकारवाला सूर्य देशमें भूखमरीका भय उपस्थित करता है । तोरण—सदृश आकारवाला सूर्य ग्राम तथा नगरोंका नाशक होता है । छत्राकार सूर्य उदित हो तो देशका नाश और सूर्य—बिम्ब खण्डित दीख पडे तो राजाका नाश होता है ॥८—१४॥
यदि सूर्योदय या सूर्यास्तके समय बिजलीकी गडगडाहट और वज्रपात एवं उल्कापात हो तो राजाका नाश या राजाओंमें परस्पर युद्ध होता है । यदि पंद्रह या साढे सात दिनतक दिनमें सूर्यपर तथा रातमें चन्द्रमापर परिवेष (मण्डल) हो अथवा उदय और अस्त—समयमें वह अत्यन्त रक्तवर्णका दिखायी दे, तो राजाका परिवर्तन होता है ॥१५—१६॥
उदय या अस्तके समय यदि सूर्य शस्त्रके समान आकारवाले या गदहे, ऊँट आदिके सदृश अशुभ आकारवाले मेंघसे खण्डित—सा प्रतीत हो तो राजाओंमें युद्ध होता है ॥१७॥
(चन्द्रश्रृङ्गोन्नति—फल—( मीन तथा मेंष राशिमें यदि (द्वितीया—तिथिको उदयकालमें) चन्द्रमाका दक्षिण श्रृङ्ग उन्नत (ऊपर उठा) हो तो वह शुभप्रद होता है । मिथुन और मकरमें यदि उत्तर श्रृङ्ग उन्नत हो तो उसे श्रेष्ठ समझना चाहिये । कुम्भ और वृषमें यदि दोनों श्रृङ्ग सम हो तो शुभ है । कर्क और धनुमें यदि श्रृङ्ग शरसदृश हो तो शुभ है । वृश्चिक और सिंहमें भी धनुष—सदृशा हो तो शुभ है तथा तुला और कन्यामें यदि चन्द्रमाका श्रृङ्ग शूलके सदृश दीख पडे तो शुभ फल समझना चाहिये । इससे विपरीत स्थितिमें चन्द्रमाका उदय हो तो उस मासमें पृथ्वीपर दुर्भिक्ष, राजाओंमें परस्पर विरोध तथा युद्ध आदि अशुभ फल प्रकट होते हैं ॥१८—१९१/२॥
पूर्वाषाढ, उत्तराषाढ, मूल और ज्येष्ठा—इन नक्षत्रोंमें चन्द्रमा यदि दक्षिण दिशामें हो तो जलचर, वनचर और सर्पका नाश तथा अग्निका भय होता है । विशाखा और अनुराधामें यदि दक्षिणभागमें हो तो पापफल देनेवाला होता है । मघा और विशाखामें यदि चन्द्रमा मध्यभागमें होकर चले तो भी सौम्य (शुभ)—प्रद होता है । रेवतीसे मृगशिरापर्यन्त ६ नक्षत्र ‘अनागत’, आर्द्रासे अनुराधापर्यन्त बारह नक्षत्र ‘मध्ययोगी’ और वासव ज्येष्ठा से नौ नक्षत्र ‘गतयोगी’ हैं । इनमें भी चद्रमा उत्तर भागमें रहनेपर शुभप्रद होता है ॥२२ १/२॥
भरणी, ज्येष्ठा, आश्लेषा, आर्द्रा, शतभिषा और स्वाती ये अर्धभोग (४०० कला), ध्रुव (तीनों उत्तरा, राहिणी), पुनर्वसु और विशाखा—ये सार्धैकभोग (१२०० कला) तथा अन्य नक्षत्र सम (पूर्ण) भोग (८०० कला) हैं । साधारणतया चन्द्रमाकी दक्षिण श्रृङ्गोन्नति अशुभ और उत्तर श्रृङोन्नति शुभप्रद है । तिथिके अनुसार चन्द्रमामें शुक्ल न होकर यदि शुक्लतामें हानि (कमी) हो तो प्रजाके कार्योंमें हानि और शुक्लतामें वृद्धि (अधिकता) हो दो प्रजाजनकी वृद्धि होती है । समतामें समता समझनी चाहिये । यदि चन्द्रमाका विम्ब मध्यम मानसे विशाल (बडा) देखनेमें आवे तो सुभिक्षकारक (सस्ती लानेवाला) और छोटा दीख पडे तो दूर्भिक्षकारक (महँगी या अकाल लानेवाला) होता है । चन्द्रमाका श्रृङ्ग अधोमुख हो तो शस्त्रका भय लाता है । दण्डाकर हो तो कलह (राज—प्रजामें युद्ध) होता है । चन्द्रमाका श्रृङ्ग अथवा बिम्ब मङ्गलादि ग्रहो (मङ्गल, बुध, गुरु, शुक्र तथा शनि)—से आहत (भेदित) दीख पडे तो क्रमश: क्षेम, अन्नादि, वर्षा, राजा और प्रजाका नाश होता है ॥२६ १/२॥
(भौम—चार—फल—( जिस नक्षत्रमें मङ्गलका उदय हो, उससे सातवें, या नवें नक्षत्रमें वक्र हो तो वह ‘उष्ण’ नामक वक्र होता है । उसमें प्रजाको पीडा और अग्निका भय प्राप्त होता है । यदि उदयके नक्षत्रसे दसवें, ग्यारहवें तथा बारहवें नक्षत्रमें मङगल वक्र हो तो वह ‘अश्वमुख’ नामक वक्र होता है । उसमें अन्न और वर्षाका नाश होता है । यदि तेरहवें या चौदहवें नक्षत्रमें वक्र हो तो ‘व्यालमुख’ वक्र कहलाता है । उसमें भी अन्न और वर्षाका नाश होता है । पंद्रहवें या सोलहवें नक्षत्रमें वक्र हो तो ‘रुधिरमुख’ वक्र कहलाता है । उसमें मङ्गल दुर्भिक्ष, क्षुधा तथा रोगको बढाता है । सत्रहवें या अट्ठारहवें नक्षत्रमें वक्र हो तो वह ‘मुसल’ नामक वक्र होता है । उससे धन—धान्यका नाश तथा दुर्भिक्षका भय होता है । यदि मङ्गल पूर्वाफाल्गुनी या उत्तराफल्गुनी नक्षत्रमें उदित होकर उत्तराषाढमें वक्र हो तथा रोहिणीमें अस्त हो तो तीनों लोकोंके लिये नाशकारी होता है । यदि मङ्गल श्रवणमें उदित होकर पुष्यमें वक्रगति हो तो धनकी हानि करनेवाला होता है ॥२७—३३॥
मङ्गल जिस दिशामें उदित होता है, उस दिशाके राजाके लिये भयकारक होता है । यदि मघा—नक्षत्रके मध्य होकर चलता हुआ मङ्गल उसीमें वक्र हो जया तो अवर्षण (वर्षाका अभाव) और शस्त्रका भय लाता है तथा राजाके लिये विनाशकारी होता है । यदि मङ्गल मघा, विशाखा, या रोहिणीके योगताराका भेदन करके चले तो दुर्भिक्ष, मरण तथा रोग लानेवाला होता है । उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ, उत्तर भाद्रपद, रोहिणी, मूल, श्रवण और मृगशिरा—इन नक्षत्रोंके बीचमें तथा रोहिणीके दक्षिण होकर मङ्गलकर चले तो अनावृष्टिकारक होता है । मङ्गल सब नक्षत्रोंके उत्तर होकर चले तो शुभप्रद है और दक्षिण होकर चले तो अशुभ फल देनेवाला तथा प्रजामें कलह उत्पन्न करनेवाला होता है ॥३७ १/२॥
(बुध—चार—फल—( यदि कदाचित् आँधी, मेंघ आदि उत्पात न होनेपर (शुद्ध आकाशमें) भी बुधका उदय देखनेमें न आवे तो अनावृष्टि, अग्निभय, अनर्थ और राजाओंमें युद्धकी सम्भावना समझनी चाहिये । धनिष्ठा, श्रवण, उत्तराषाढ, मृगशिरा और रोहिणीमें चलता हुआ बुध यदि उन नक्षत्रोंके योगताराओंका भेदन करे तो वह लोकमें बाधा और अनावृष्टि आदिके द्वारा भयकारी होता है । यदि आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा और मघा—इन नक्षत्रोंमें बुध दृश्य हो तो दुर्भिक्ष, कलह, रोग तथा अनावृष्टि आदिका भय उपस्थित करनेवाला होता है । हस्तसे छ: (हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा तथा ज्येष्ठा) नक्षत्रोंमें बुधके रहनेसे लोकमें कल्याण, सुभिक्ष तथा आरोग्य होता है । उत्तर भाद्रपद, उत्तरा फाल्गुनी, कृत्तिका और भरणीमें विचरनेवाला बुध वैद्य, घोडे और व्यापारियोंका नाश करनेवाला होता है । पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढ और पूर्व भाद्रपदमें विचरता हुआ बुध यदि इन नक्षत्रोंके योगताराओंका भेदन करे तो क्षुधा, शस्त्र, अग्नि और चोरोंसे प्राणियोंको भय प्राप्त होता है ॥४३ १/२॥
भरणी, कृत्तिका, रोहिणी और स्वाती—इन नक्षत्रोंमें बुधकी गति ‘प्राकृतिकी’ कही गयी है । आर्द्रा, मृगशिरा, आश्लेषा और मघा—इन नक्षत्रोंमें बुधकी गति ‘मिश्रा’ मानी गयी है । पूर्वा फाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, पुष्य और पुनर्वसु—इनमें बुधकी ‘सक्षिप्ता’ गति कही गयी । पूर्व भाद्रपद, उत्तर भाद्रपद, रेवती और अश्विनी—इनमें बुधकी ‘तीक्ष्णा’ गति होती है । उत्तराषाढ, पूर्वाषाढ और मूलमें उनकी ‘योगान्तिका’ गति मानी गयी है । श्रवण, चित्रा, धनिष्ठा और शतभिषामें ‘घोरा’ गति और विशाखा, अनुराधा तथा हस्ता—इन नक्षत्रोंमें बुधकी ‘पाप’ संज्ञक गति होती है । इन प्राकृत आदि सात प्रकारकी गतियोंमें उदित होनेपर जितने दिनतक बुध दृश्य रहता है, उतने ही दिन उनमें अस्त होनेपर अदृश्य रहता है । उन दिनोंकी संख्या क्रमसे ४०, ३०, २२, १८, ९, १५ और ११ है । बुध जब प्राकृत गतिमें रहता है, तब संसारमें कल्याण, आरोग्य और सुभिक्ष (अन्न—वस्त्र आदिकी वृद्धि) करता है । मिश्र और संक्षिप्त गतिमें मध्यम फल देता है तथा अन्य गतियोंमें अनावृष्टि (दुर्भिक्ष)—कारक होता है । वैशाख, श्रावण, पौष और आषाढमें उदित होनेपर बुध पापरूप फल देता है औरा अन्य मासोंमें उदित होनेपर वह शुभ फल देता है । आश्विन और कार्तिकमें बुधका उदय हो तो शस्त्र, दुर्भिक्ष और अग्निका भय प्राप्त होता है । यदि उदित हुए बुधकी कान्ति चाँदी अथवा स्फटिकके समान स्वच्छ हो तो वह श्रेष्ठ फल देनेवाला होता है ॥४४—५२॥
(बृहस्पति—चार—फल—( कृत्तिका आदि दो—दो नक्षत्रोंके आश्रयसे कार्तिक आदि मास होते हैं; परंतु अन्तिम (आश्विन), पञ्चम (फाल्गुन) और एकादश (भाद्रपद)—ये तीन नक्षत्रोंसे पूर्ण होते हैं । इसी प्रकार बृहस्पतिका जिन नक्षत्रोंमें उदय होता है, उन नक्षत्रोंसे (मासके अनुसार ही) संवत्सरोंके नाम होते हैं । उन संव्त्सरोंमें कार्तिक और मार्गशीर्ष नामक संवत्सर प्राणियोंके लिये अशुभ फलदायक होते हैं । पौष और माघ नामक संवत्सर शुभ फल देनेवाले होते हैं । पौष और माघ नामक संवत्सर शुभ फल देनेवाले होते हैं। फाल्गुन और चैत्र नामक संवत्सर मध्य (शुभ—अशुभ दोनों) फल देते हैं । वैशाख शुभप्रद और ज्येष्ठ मध्यम फल देते हैं । वैशाख शुभप्रद और ज्येष्ठ मध्यम फल देनेवाला होता है । आषाढ मध्यम और श्रावण श्रेष्ठ होता है तथा भाद्रपद भी कभी श्रेष्ठ होता है और कभी नहीं होता; परंतु आश्विन संवत्सर तो प्रजाजनोंके लिये अत्यन्त श्रेष्ठ होता है । बृहस्पति जब नक्षत्रोंके उत्तर होकर चलता है, तब संसारमें कल्याण, आरोग्य तथा सुभिक्ष करनेवाला होता है। जब नक्षत्रोंके दक्षिण होकर चलता है, तब विपरीत परिणाम (अशुभ, रोगवृद्धि तथा दुर्भिक्ष) उपस्थित करता है तथा जब मध्य होकर चलता है, उस समय मध्यम फल प्रस्तुत करता है । गुरुका बिम्ब यदि पीतवर्ण, अग्निसदृश, श्याम, हरित और लाल दिखायी दे तो प्रजाजनोंमें क्रमश: व्याधि, अग्नि, चोर, शस्त्र और अस्त्र का भय उपस्थित होता है । यदि गुरुका वर्ण धूएँके समान हो तो वह अनावृष्टिकारक होता है । यदि गुरु दिनमें (प्रात:—सायं छोडकर) दृश्य हो तो राजाका नाश, रोगभय अथवा राष्ट्रका विनाश होता है । कृत्तिका तथा रोहिणी ये संवत्सरके शरीर हैं । पूर्वाषाढ और उत्तराषाढ ये दोनों नाभि हैं, आर्द्रा ह्रदय और मघा संवत्सरका पुष्प है । यदि शरीर पापग्रहसे पीडित तो तो दुर्भिक्ष, अग्नि और वायुका भय उपस्थित होता है । नाभि पापग्रहसे युक्त हो तो क्षुधा और तृषासे पीडा होती है । पुष्प पापग्रहसे आक्रान्त हो तो मूल और फलोंका नाश होता है । यदि हृदय—नक्षत्र पापग्रहसे पीडित हो तो अन्नादिका नाश होता है । शरीर आदि शुभग्रहसे संयुक्त हो तो सुभिक्ष और क्ल्याणादि शुभ फल प्राप्त होते हैं ॥५६—६१॥
यदि मघा आदि नक्षत्रोंमें बृहस्पति हो तो वह क्रमश: शस्य—वृद्धि, प्रजामें आरोग्य, युद्ध, अनावृष्टि, द्विजातियोंको पीडा, गौओंको सुख, राजाओंको सुख, स्त्री—समाजको सुख, वायुका अवरोध, अनावृष्टि, सर्पभय, सुवृष्टि, स्वास्थ्य, उत्सववृद्धि, महार्घ, सम्पत्तिकी वृद्धि, देशका नाश, अतिवृष्टि, निर्वैरता, रोग—वृद्धि, भयकी हानि, रोगभय, अन्नकी वृद्धि, वर्षा, रोगकी वृद्धि, धान्यकी वृद्धि और अनावृष्टिरूप फल देता है ॥६२—६४॥
(शुक्र—चार—फल—( शुक्रके तीन मार्ग हैं—सौम्य (उत्तरा), मध्य और याम्य (दक्षिण) । इनमेंसे प्रत्येकमें तीन—तीन वीथियाँ हैं और एक—एक वीथीमें बारी—बारीसे तीन—तीन नक्षत्र आते हैं । इन नक्षत्रोंको अश्वनीसे आरम्भ करके जानना चाहिये । इस प्रकार उत्तरसे दक्षिणतक शुक्रके मार्गमें क्रमश: नाग, इभ, ऐरावत, वृष, उष्ट्र, खर, मृग, अज तथा दहन—ये नौ वीथियाँ हैं ॥६५—६६॥ उत्तरमार्गकी तीन वीथियोंमें विचरण करनेवाला शुक्र धान्य, धन, वृष्टि और शस्य (अन्नकी फसल)—इन सब वस्तुओंको पुष्ट एवं परिपूर्ण करता है । मध्यमार्गकी जो तीन वीथियाँ हैं, उनमें शुक्रके जानेसे सब अशुभ ही फल प्राप्त होते हैं । मघासे पाँच नक्षत्रोंसें जब शुक्र जाता है तो पूर्व दिशामें उठा हुआ मेंघ सुवृष्टिकारक तथा शुभप्रद होता है । स्वातीसे तीन नक्षत्रतक जब शुक्र रहता है तब पश्चिम दिशा (देश)—में मेंघ सुवृष्टिकारक और शुभदायक होता है । शेष सब नक्षत्रोंमें उसका फल विपरीत (अनावृष्टि और दुर्भिक्ष करनेवाला) होता है । शुक्र जब बुधके साथ रहता है तो सुवृष्टिकारक होता है । कृष्णपक्षकी अष्टमी, चतुर्दशी और अमावास्यामें यदि शुक्रका उदय या अस्त हो तो पृथ्वी जलसे परिपूर्ण होती है । गुरु और शुक्र परस्पर सप्तम राशिमें हो तथा एक पूर्व वीथीमें और दूसरा पश्चिम वीथीमें विद्यमान हो तो वे दोनों देशमें अनावृष्टि तथा दुर्भिक्ष लानेवाले और राजाओंमें परस्पर युद्ध करानेवाले होते हैं । मङ्गल, बुध, गुरु और शनि यदि शुक्रसे आगे होते हैं तो युद्ध, अतिवायु, दुर्भिक्ष और अनावृष्टि करनेवाले होते हैं ॥६७—७२॥ पूर्वाषाढ, अनुराधा, उत्तरा फाल्गुनी, आश्लेषा, ज्येष्ठा—इन नक्षत्रोंमें शुक्र हो तो वह सुभिक्षकारक होता है । मूलमें हो तो शस्त्रभय और अनावृष्टि देनेवाला होता है। उत्तर भाद्रपद और रेवतीमें शुक्रकें रहनेपर भय प्राप्त होता है ॥७३॥
(शनि—चार—फल—( श्रवण, स्वाती, हस्त, आर्द्रा, भरणी और पूर्वा फाल्गुनी—इन नक्षत्रोंमें विचरनेवाला शनि मनुष्योंके लिये सुभिक्ष, आरोग्य तथा खेतीकी उपज बढानेवाला होता है ॥७४॥ जन्मनक्षत्रसे प्रारम्भ करके मनुष्याकृति शनि चक्रके मुखमें एक, गुदामें दो, सिरमें तीन, नेत्रोंमें दो, हृदयमें पाँच, बायें हाथमें चार, बायें पैरमें तीन, दक्षिण पादमें तीन तथा दक्षिण हाथमें चार—इस तरह नक्षत्रोंकी स्थापना करे । शनिका वर्तमान नक्षत्र जिस अङ्गमें पडे, उसका फल निम्नलिखितरूपसे जानना चाहिये । शनि—नक्षत्र मुखमें हो तो रोग, गुदामें हो तो लाभ, सिरमें हो तो हानि, नेत्रमें हो तो लाभ, ह्रदयमें हो तो सुख, बायें हाथमें हो तो बन्धन, बायें पैरमें हो तो परिश्रम, दाहिने पैरमें हो तो श्रेष्ठ यात्रा और दाहिने हाथमें हो तो धन—लाभ होता है । इस प्रकार क्रमश: फल कहे गये हैं ॥७५—७७॥ बहुधा वक्रगामी होनेपर शनि इन फलोंकी प्राप्ति कराता ही है। यदि वह सम मार्गपर हो तो फल भी मध्यम होता है और यदि वह शीघ्रगति हो तो उत्तम फल प्राप्त होते हैं ॥७८॥
(राहु—चार—फल—(भगवान् विष्णुने अपने चक्रसे राहुका मस्तक काट दिया तो भी अमृत पी लेनेके कारण उसकी मृत्यु नहीं हुई; अत: उसे ग्रहके पदपर प्रतिष्ठित कर लिया गया ॥७९॥ वह ब्रह्माजीके वरसे सम्पूर्ण पर्वों (पूर्णिमा और अमावास्या)—के समय चन्द्रमा और सूर्यको पीडा देता है; किंतु ‘शर’ तथा ‘अवनति’ अधिक होनेके कारण वह उन दोनोंसे दूर ही रहता है ॥८०॥ एक सूर्यग्रहणके बाद दूसरे सूर्यग्रहणका तथा एक चन्द्रग्रहणके बाद दूसरे चन्द्रग्रहणका विचार छ: मासपर पुन: कर लेना चाहिये । प्रति छ: मासपर क्रमश: ब्रम्हादि सात देवता पर्वेश (ग्रहणके अधिपति) होते हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं—ब्रह्मा, चन्द्रमा, इन्द्र, कुबेर, वरुण, अग्नि तथा यम । ब्राह्मपर्वमें ग्रहण होनेपर पशु, धान्य और द्विजोंकी वृद्धि होती है ॥८१—८२॥
चन्द्रपर्वमें ग्रहण हो तो भी ऐसा ही फल होता है; विशेषता इतनी ही है कि लोगोंको कफसे पीडा होती है । इन्द्रपर्वमें ग्रहण होनेपर राजाओंमें विरोध, जगत्में दुःख तथा खेती—बारीका नाश होता है । वारुणपर्वमें ग्रहण होनेपर राजाओंका अकल्याण और प्रजाजनोंका कल्याण होता है ॥८३—८४॥
अग्निपर्वमें ग्रहण हो तो वृष्टि, धान्यवृद्धि तथा कल्याणकी प्राप्ति होती है और यमपर्वमें ग्रहण होनेपर वर्षाका अभाव, खेतीकी हानि तथा दुर्भिक्षरूप फल प्राप्त होते हैं ॥८५॥
वेलाहीन समयमें अर्थात् वेलसे पहले ग्रहण हो तो खेतीकी हानि तथा राजाओंको दारुण भय प्राप्त होता है और ‘अतिवेल’ कालमें अर्थात् वेला बिताकर ग्रहण हो तो फूलोंकी हानि होती है, जगत्में भय होता है और खेती चौपट हो जाती है ॥८६॥
जब एक ही मासमें चन्द्रमा—सूर्य—दोनोंका ग्रहण हो तो रजाओंमें विरोध होता है तथा धन और वृष्टिका विनाश होता है ॥८७॥
ग्रहण लगे हुए चन्द्रमा और सूर्यका उदय अथवा अस्त हो तो वे राजाओं और धान्योंका विनाश करनेवाले होते हैं । यदि चन्द्रमा और सूर्यका सर्वग्रास ग्रहण हो तो वे भूखमरी, रोग तथा अग्निका भय उपस्थित करनेवाले होते हैं ॥८८॥
उत्तरायणमें ग्रहण हो तो ब्राह्मणों और क्षत्रियोंकी हानि होती है तथा दक्षिणायनमें ग्रहण होनेपर अन्य वर्णके लोगोंको हानि पहुँचती है । सूर्य या चन्द्रमाके विम्बके उत्तर, पूर्व आदि भागमें यदि राहुका दर्शन हो (स्पर्श देखनेमें आवे) तो वह क्रमश: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंको हानि पहुँचाता है ॥८९॥
इसी तरह ग्रहणके समय ग्रासके और मोक्षके भी दस—दस भेद होते हैं; जिनकी सूक्ष्म गतिको देवता भी नहीं जान सकते, फिर साधारण मनुष्योंकी तो बात ही क्या है ॥९०॥
गणितद्वारा ग्रहोको लाकर उनके ‘चार’ (गतिमान, स्पर्श और मोक्ष कालकी स्थिति)—पर विचार करना चाहिये । जिससे उन ग्रहोद्वारा ग्रहणकालके शुभ और अशुभ लक्षण (फल)—को हम देख और जान सकें ॥९१॥ अत: बुद्धिमान पुरुषको चाहिये कि उस समयका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये अनुसंधान करे । धूम—केतु आदि तारोंका उदय और अस्त मनुष्योंके लिये उत्पातरूप होता है ॥९२॥ वे उत्पात दिव्य, भौम और अन्तरिक्ष भेदसे तीन प्रकारके हैं । वे शुभ और अशुभ दोनों प्रकारके फल देनेवाले हैं । आकाशमें यज्ञकी ध्वजा, अस्त्र—शस्त्र, भवन और बडे हाथीके सदृश तथा खंभा, त्रिशूल और अङ्कुश—इन वस्तुओंके समान जो केतु दिखायी देते हैं, उन्हें ‘आन्तरिक्ष’ उत्पात कहते है । साधारण ताराके समान उदित होकर किसी नक्षत्रके साथ केतु हो तो ‘दिव्य’ उत्पात कहा गया है । भूलोकसे सम्बन्ध रखनेवाले (भूकम्प आदि) उत्पातोंको ‘भौम’ उत्पात कहते हैं ॥९३—९४॥ केतुतारा एक होकर भी प्राणियोंको अशुभ फल देनेके लिये भिन्न—भिन्न रूप धारण करता है । जितने दिनोंतक आकाशमें विविधरूपधारी केतु देखनेमें आता है, उतने ही मास या सौ वर्षोंतक वह अपना शुभाशुभ फल देता है । जो दिव्य केतु हैं, वे सदा प्राणियोंको विविध फल देनेवाले होते हैं ॥९५—९६॥ ह्नस्व, चिकना और प्रसन्न (स्वच्छ) श्वेत रङ्गका तेतु सुवृष्टि देता है । शीघ्र अस्त होनेवाला विशाल केतु अवृष्टि देता है ॥९७॥ इन्द्रधनुषके समान कान्तिवाला धूमकेतु तारा अनिष्ट फल देता है । दो, तीन या चारू रूपोंमें प्रकट त्रिशूलके समान आकारवाला केतु राष्टुका विनाशक होता है ॥९८॥ पूर्व तथा पश्चिम दिशामें सूर्य—सम्बन्धी केतु मणि, हार एवं सूवर्णके समान देदीप्यमान दीखायी दे तो उन दिशाओंके राजाओंकी हानि होती है ॥९९॥ पलाश, विम्बफल, रक्त और तोतेकी चोंच आदिके समान वर्णका केतु अग्निकोणमें उदित हो तो शुभ फल देनेवाला होता है ॥१००॥ भूमिसम्बन्धी केतुओंकी कान्ति जल एवं तेलके समान होती है । वे भूखमरीका भय देनेवाले हैं । चन्द्रजनित केतुओंका वर्ण श्वेत होता है । वे सुभिक्ष और कल्याण प्रदान करनेवाले होते हैं ॥१०१॥ ब्रह्मदण्डसे उत्पन्न तथा तीन रंग और तीन अवस्थाओंसे युक्त धूमकेतु नामक पितामहजनित (अन्तरिक्ष) केतु प्रजाओंका विनाश करनेवाला माना गया है ॥१०२॥ यदि ईशानकोणमें श्वेतवर्णके शुक्रजनित केतु उदित हो तो वे अनिष्ट फल देनेवाले होते हैं । शिखारहित एवं कनकनामसे प्रसिद्ध शनैश्चरसम्बन्धी केतु भी अनिष्ट फलदायक हैं ॥१०३॥ गुरुसम्बन्धी केतुओंकी विकच संज्ञा है । वे दक्षिण दिशामें प्रकट होनेपर भी अभीष्ट साधक माने गये हैं । उसी दिशामें सूक्ष्म तथा शुक्लवर्णवाले बुधसम्बन्धी केतु हो तो वे चोर त्था रोगका भय प्रदान करनेवाले हैं ॥१०४॥ कुङ्कुनामसे प्रसिद्ध मङ्गल—सम्बन्धी केतु लाल रंगके होते हैं । उनकी आकृति सूर्यके समान होती है । वे भी उक्त दिशामें उदित होनेपर अनिष्टदायक होते हैं । अग्निके समान कान्तिवाले अग्निम्बन्धी केतु विश्वरूप नामसे प्रसिद्ध हैं । वे अग्निकोणमें उदित होनेपर सुखद होते हैं ॥१०५॥ श्याम वर्णवाले सूर्यसम्बन्धी केतु अरुण कहलाते हैं । वे पाप अर्थात् दुःख देनेवाले होते हैं । रीछके समान रंगवाले शुक्रसम्बन्धी केतु शुभदायक होते हैं ॥१०६॥ कृत्तिका तारामें उदित हुआ धूमकेतु निश्चय ही प्रजाजनोंका नाश करता है । राजमहल, वृक्ष और पर्वतपर प्रकट हुआ केतु राजाओंका नाश करनेवाला होता है ॥१०७॥ कुमुद पुष्पके समान वर्णवाला कोमुद नामक केतु सुभिक्ष लानेवाला होता है । संध्याकालमें मस्तकसहित उदित हुआ गोलाकार केतु अनिष्ट फल देनेवाला होता है ॥१०८॥
(कालमान)— ब्राह्म, दैव, मानव, पित्र्य, सौर, सावन, चान्द्र, नाक्षत्र तथा बार्हस्पत्य—ये नौ मान होते हैं ॥१०९॥ इस लोकमें इन नौ मानोंमेंसे पाँचके ही द्वारा व्यवहार होता है । किंतु उन नवों मानोंका व्यवहारके अनुसार पृथक्—पृथक् कार्य बताया जायगा ॥११०॥ सौर मानसे ग्रहोकी सब प्रकारकी गति (भगणादि) जाननी चाहिये। वर्षाका समय तथा स्त्रीके प्रसवका समय सावन मानसे ही ग्रहण किया जाता है ॥१११॥ वर्षोंके भीतरका घटीमान आदि नक्षत्र मानसे ही लिया जाता है । यज्ञोपवीत, मुण्डन, तिथि एवं वर्षेशका निर्णय तथा पर्व, उपवास आदिका निश्चय चन्द्र मानसे किया जाता है । बार्हस्पत्य मानसे प्रभवादि संवत्सरका स्वरूप ग्रहण किया जाता है ॥११२—११३॥ उन—उन मानोंके अनुसार बारह महीनोंका उनका अपना—अपना विभिन्न वर्ष होता है । बृहस्पतिकी अपनी मध्यम गतिसे प्रभव आदि नामवाले साठ संवत्सर होते हैं ॥११४॥ प्रभव, विभव, शुक्ल, प्रमोद, प्रजापति, अङ्गिरा, श्रीमुख, भाव, युवा, धाता, ईश्वर, बहुधान्य, प्रमाथी, विक्रम, वृष, चित्रभानु, सुभानु, तारण, पार्थिव, व्यय, सर्वजित, सर्वधारी, विरोधी, विकृत, खर, नन्दन, विजय, जय, मन्मथ, दुर्मुख, हेमलम्ब, विलम्ब, विकारी, शर्वरी, प्लव, शुभकृत्, शोभन, क्रोधी, विश्वावसु, पराभव, प्लवङ्ग, कीलकम सौम्य, समान, विरोधकृत्, परिभावी, प्रमादी, आनन्द, राक्षस, अनल, पिङ्गल, कालयुक्त सिद्धार्थ, रौद्र, दुर्मति, दुन्दुभि, रुधिरोद्रारी, रक्ताक्ष, क्रोधन तथा क्षय—ये साठ संवत्सर जानने चाहिये । ये सभी अपने नामके अनुरूप फल देनेवाले हैं । पाँच वर्षोंका युग होता है । इस तरह साठ संवत्सरोंमें बारह युग होते हैं ॥११५—२१२॥ उन युगोंके स्वामी क्रमश: इस प्रकार जानने चाहिये—विष्णु, बृहस्पति, इन्द्र, लोहित, त्वष्टा, अहिर्बुध्न्य, पितर, विश्वेदेव, चन्द्रमा, इन्द्राग्नि, अश्विनीकुमार तथा भग। इसी प्रकार युगके भीतर जो पाँच वर्ष होते हैं, उनके स्वामी क्रमश: अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, ब्रह्मा और शिव हैं ॥१२२—१२३॥
संवत्सरके राजा, मन्त्री तथा धान्येशरूप ग्रहोके बलाबलका विचार करके तथा उनकी तात्कालिक स्थितिको भी भलीभाँति जानकर संवत्सरका फल समझना चाहिये ॥१२४॥ मकरादि छ: राशियोंमें छ: मासतक सूर्यके भोगसे सौम्यायन (उत्तरायण) होता है। वह देवताओंका दिन और कर्कादि छ: राशियोंमें छ: मासतक सूर्यके भोगसे दक्षिणायन होता है, वह देवताओंकी रात्रि है ॥१२५॥ गृहप्रवेश, विवाह, प्रतिष्ठा तथा यज्ञोपवीत आदि शुभकर्म माघ आदि उत्तरायणके मासोंमें करने चाहिये ॥१२६॥ दक्षिणायनमें उक्त कार्य गर्हित (त्याज्य) माना गया है, अत्यन्त आवश्यकता हो तो उस समय पूजा आदि यत्न करनेसे शुभ होता है । माघसे दो—दो मासोंकी शिशिरादि छ: ऋतुएँ होती हैं ॥१२७॥ मकरसे दो—दो राशियोंमें सूर्यभोगके अनुसार क्रमश: शिशिर, वसन्त और ग्रीष्म—ये तीन ऋतुएँ उत्तरायणमें होती हैं और कर्कसे दो—दो राशियोंमें सूर्यभोगके अनुसार क्रमश: वर्षा, शरद् और हेमन्त—ये तीन ऋतुएँ दक्षिणायनमें होती हैं ॥१२८॥ शुक्लपक्षकी प्रतिपदासे अमावास्यातक ‘चन्द्र मास’ होता है । सूर्यकी एक संक्रान्तिसे दूसरी संक्रान्तितक ‘सौर मास’ होता है । तीस दिनोंका एक ‘सावन मास’ होता है और चन्द्रमाद्वारा सब नक्षत्रोंके उपभोगमें जितने दिन लगते हैं, उतने अर्थात् २७ दिनोंका एक ‘नाक्षत्र मास’ होता है ॥१२९॥ मधु, माधव, शुक्र, शुचि, नभ:, नभस्य, इष, उर्ज, सहा:, सहस्य, तप और तपस्य—ये चैत्रादि बारह मासोंकी संज्ञाएँ हैं । जिस मासकी पौर्णमासी जिस नक्षत्रसे युक्त हो, उस नक्षत्रके नामसे ही उस मासका नामकरण होता है । (जैसे जिस मासकी पूर्णिमा चित्रा नक्षत्रासे युक्त होती है, उस मासका नाम ‘चैत्र’ होता है और वह पौर्णमासी भी उसी नामसे विख्यात होती है, जैसे चैत्री, वैशाखी आदि) । प्रत्येक मासके दो पक्ष क्रमश: देवपक्ष और पितृपक्ष हैं, अन्य विद्वान् उन्हें शुक्ल एवं कृष्ण पक्ष कहते हैं ॥१३०—१३२॥ वे दोनों पक्ष शुभाशुभ कार्योंमें सदा उपयुक्त माने जाते हैं । ब्रह्मा, अग्नि, विरञ्चि, विष्णु, गौरी, गणेश, यम, सर्प, चन्द्रमा, कार्तिकेय, सूर्य, इन्द्र, महेन्द्र, वासव, नाग, दुर्गा, दण्डधर, शिव, (विष्णु, काम और शिव)—ये सब शुक्ल प्रतिपदासे लेकर क्रमश: उनतीस तिथियोंके स्वामी होते हैं । अमावास्या नामक तिथिके स्वामी पितर माने गये हैं ।
(तिथियोंकी नन्दादि पाँच संज्ञा—(प्रतिपदा आदि तिथियोंकी क्रमश: नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा—ये पाँच संज्ञाएँ मानी गयी हैं । पंद्रह तिथियोंमें इनकी तीन आवृत्ति करके इनका पृथक—पृथक् ज्ञान प्राप्त करना चाहिये । शुक्लपक्षमें प्रथम आवृत्तिकी (१, २, ३, ४, ५—ये) तिथियाँ अधम द्वितीय आवृत्तिकी (६, ७, ८, ९, १०—ये) तिथियाँ मध्यम और तृतीय आवृत्तिकी (११, १२, १३, १४, १५—ये) तिथियाँ शुभ होती हैं । इसी प्रकार कृष्णपक्षकी प्रथम आवृत्तिकी नन्दादि तिथियाँ इष्ट (शुभ), द्वितीय आवृत्तिकी मध्यम और तृतीय आवृत्तिकी अनिष्टप्रद (अधम) होती हैं । दोनों पक्षोंकी ८, १२, ६, ४, ९, १४—ये तिथियाँ पक्षरन्ध्र कही गयी हैं। इन्हें अत्यन्त रूक्ष कहा गया है । इनमें क्रमश: आरम्भकी ४, १४, ९, ९, २५ और ५ घडियाँ सब शुभ कार्योंमें त्याग देने योग्य हैं । अमावास्या और नवमीको छोडकर अन्य सब विषम तिथियाँ (३, ५, ११, १३) सब कार्योंसे प्रशस्त हैं । शुक्लपक्षकी प्रतिपदा मध्यम है (कृष्ण पक्षकी प्रतिपदा शुभ है) । षष्ठीमें तैल, अष्टमीमें मांस चतुर्दशीमें क्षौर एवं पूर्णिमा और अमावास्यामें स्त्रीका सेवन त्याग दे । अमावास्या, षष्ठी, प्रतिपदा, द्वादशी, सभी पर्व और नवमी—इन तिथियोंमें कभी दातौन नहीं करना चाहिये । व्यतीपात, संक्रान्ति, एकादशी, पर्व, रवि और मङ्गलवार तथा षष्ठी तिथि और वैधृति—योगमें अभञ्जन (उबटन)—का निषेध है । जो मनुष्य दशमी तिथिमें आँवलेसे स्नान करता है, उसको पुत्रकी हानि उठानी पडती है । त्रयोदशीको आँवलेसे स्नान करनेपर धनका नाश होता है और द्वीतीयाको उससे स्नान करनेवालोंके धन और पुत्र दोनोंका नाश होता है । इसमें संशय नहीं है । अमावास्या, नवमी और सप्तमी—इन तीन तिथियोंमें आँवलेसे स्नान करनेवालोंके कुलका विनाश होता है ॥१४४ १/२॥
जो पूर्णिमा दिनमें पूर्ण चन्द्रमसे युक्त हो (अर्थात् जिसमें रात्रिके समय चन्द्रमा कलाहीन हो) वह पूर्णिमा ‘अनुमती’ कहलाती है और जो रात्रिमें पूर्ण चन्द्रमासे युक्त हो वह ‘राका’ कहलाती है । इसी प्रकार अमावास्या भी दो प्रकारकी होती है । इसी प्रकार अमावास्या भी दो प्रकारकी होती है । जिसमें चन्द्रमाकी किंचित् कलाका अंश शेष रहता है, वह ‘सिनीवाली’ कही गयी है तथा जिसमें चन्द्रमाकी सम्पूर्ण कला लुप्त हो जाती है, वह अमावास्या ‘कुहू’ कहलाती है ॥१४५—१४६॥
(युगादि तिथियाँ—(कार्तिक शुक्लपक्षकी नवमी सत्ययुगकी आदि तिथि है (इसी दिन सत्य्युगका प्रारम्भ हुआ था), वैशाख शुक्लपक्षकी पुण्यमयी तृतीया त्रेतायुगकी आदि तिथि है । माघकी अमावास्या द्वापरयुगकी आदि तिथि और भाद्रपद कृष्णा त्रयोदशी कलियुगकी आदि तिथि है । (ये सब तिथियाँ अति पुण्य देनेवाली कही गयी हैं) ॥१४७—१४८॥
(मन्वादि तिथियाँ—( कार्तिकशुक्ला द्वादशी, अश्विनशुक्ला नवमी, चैत्रशुक्ला तृतीया, भाद्रपदशुक्ला तृतीया, पौषशुक्ला एकादशी, आषाढशुक्ला दशमी, माघशुक्ला सप्तमी, भाद्रपदकृष्णा अष्टमी, श्रावणकी अमावास्या, फाल्गुनकी पूर्णिमा, आषाढकी पूर्णिमा, कार्तिककी पूर्णिमा, ज्येष्ठकी पौर्णमासी और चैत्रकी पूर्णिमा—ये चौदह मन्वादि तिथियाँ हैं । ये सब तिथियाँ मनुष्योंके लिये पितृकर्म (पार्वण—श्राद्ध)—में अत्यन्त पुण्य देनेवाली हैं ॥१४९—१५१—१—२॥
(गजच्छाया—योग—( भादोंके२ कृष्णपक्षकी (शुक्लादि क्रमसे भाद्रकृष्ण और कृष्णादि क्रमसे आश्विन कृष्ण पक्षकी) त्रयोदशीमें यदि सूर्य हस्त—नक्षत्रमें और चन्द्रमा मघामें हो तो ‘गजच्छाया’ नामक योग होता है; ओ पितरोंके पार्वणादि श्राद्ध कर्ममें अत्यन्त पुण्य प्रदान करनेवाला है ॥१५२ १/२॥
किसी एक दिनमें तीन तिथियोंका स्पर्श हो तो क्षयतिथि तथा एक ही तिथिका तीन दिनमें स्पर्श हो तो अधिक तिथि (अधितिथि) होती है । ये दोनों ही निन्दित हैं । जिस दिन सूर्योंदयसे सूर्यास्तपर्यन्त जो तिथि रहती है, उस दिन वह ‘अखण्ड तिथि’ कहलाती है । यदि सूर्यास्तसे पूर्व ही समाप्त होती है तो वह ‘खण्ड तिथि’ कही जाती है ॥२५३ १/२ १५४- ॥
(क्षणतिथिकथन—( प्रत्येक तिथिमें तिथि—मानका पंद्रहवाँ भाग ‘क्षणतिथि’ कहलाता है । (अर्थात् प्रत्येक तिथिमें उसी तिथेसे आरम्भ करके पंद्रह तिथियोंके अन्तर्भोग होते हैं) । तथा उन क्षणतिथियोंका भी आधा क्षण तिथ्यर्ध (क्षण
होते हैं। दिनमानका पंद्रहवाँ भाग दिनके मुहूर्तका मान है और रात्रिमानका पंद्रहवाँ भाग रात्रिके मुकूर्तका मान समझना चाहिये: इनसे दिन तथा रात्रिमें क्षण—नक्षत्रका विचार करे ॥२२४—२२६ १/२॥
वारोंमें निन्द्य मुहूर्त—रविवारको अर्यमा, सोमवारको ब्राह्म तथा राक्षस, मङ्गलवारको पितर और अग्नि, बुधवारको अभिजित्, गुरुवारको राक्षस और जल, शुक्रवारको ब्राह्म और पितर तथा शनिवारको शिव और सर्प मुहूर्त निन्द्य माने गये हैं; इसलिये इन्हें शुभ कार्योंमें त्याग देना चाहिये ॥२२७—२२८॥
मुहूर्तका विशेष प्रयोजन—जिस—जिस नक्षत्रमें यात्रा आदि जो—जो कर्म शुभ या अशुभ कहे गये हैं; वे कार्य उस—उस नक्षत्रके स्वामीके मुहूर्तमें भी शुभ या अशुभ होते हैं। ऐसा समझकर उस मुहूर्तमें सदा वैसे कार्य करने या त्याग देने चाहिये ॥२२९॥
भूकम्पादि संज्ञाओंसे युक्त नक्षत्र—सूर्य जिस नक्षत्रमें हो, उससे सातवें नक्षत्रकी भूकम्प, पाँचवेंकी विद्युत, आठवेकी शूल, दसवेंकी अशनि, अठारहवेंकी केतु, पंद्रहवेंकी शूल, दसवेंकी अशनि, अठारहवेंकी केतु, पंद्रहवेंकी दण्ड, उन्नीसवेंकी उल्का, चौदहवेंकी निर्घातपात, इक्कीसवेंकी मोह, बाईसवेंकी निर्घात, तेईसवेंकी कम्प, चौबीसवेंकी कुलिश तथा पचीसवेंई परिवेष संज्ञा समझनी चाहिये; इन संज्ञाओंसे युक्त चन्द्र—नक्षत्रोंमें शुभ कर्म नहीं करने चाहिये ॥२३०—२३२—१—२—॥
सूर्यके नक्षत्रसे आश्लेषा, मघा, चित्रा, अनुराधा, रेवती तथा श्रवणतककी जितनी संख्या हो, उतनी ही यदि अश्विनीसे चन्द्र—नक्षत्रतककी संख्या हो तो उसपर दुष्टयोगका सम्पात अर्थात् रुद्रके प्रचण्ड अस्त्रका प्रहार होता है। अत: उसका नाम ‘चण्डीशचण्डायुध’ योग है। उसमें शुभ कर्म नहीं करना चाहिये ॥२३३—२३४ १/२॥
क्रकचयोग—प्रतिपदादि तिथिकी तथा रवि आदि वारकी संख्या मिलानेसे यदि १३ हो तो वह क्रकचयोग होता है जो शुभ कार्यमें अत्यन्त निन्दित माना गया है ॥२३५॥
संवर्तयोग—रविवारको सप्तमी और बुधवारको प्रतिपदा हो तो ‘संवर्तयोग’ जानना चाहिये। य शुभ कार्यको नष्ट करनेवाला है ॥२३६ १/२॥
आनन्दादि योग—१आनन्द, २कालदण्ड, ३धूम्र, ४धाता, ५सुधाकर सौम्य, ६ध्वाङ्क्ष, ७केतु, ८श्रीवत्स, ९वज्र, १०मुद्रर, ११छत्र, १२मित्र, १३मानस, १४पद्म, १५लुम्ब, १६उत्पात, १७मृत्यु, १८काण, १९सिद्धि, २०शुभ, २१अमृत, २२मुसल, २३अन्तक गद, २४ कुञ्चर मातङ्ग, २५राक्षस, २६चर, २७सुस्थिर और २८वर्धमान—ये क्रमश: पठित २८ योग अपने—अपने नामके समान ही फल देनेवाले कहे गये हैं ।
इन योगोंको जाननेकी रीति—रविवारको अश्विनी नक्षत्रसे, सोमवारको मृगशिरासे, मङ्गलवारको आश्लेषासे, बुधवारको हस्तसे, गुरुवारको अनुराधासे, शुक्रवारको उत्तराषाढसे और शनिवारको शतभिषासे आरम्भ करके उस दिनके नक्षत्रतक गणना करनेपर जो संख्या हो, उसी संख्यावाला योग उस दिन होगा ॥२३७—२४१॥
सिद्धियोग—रविवारको हस्त, सोमवारको मृगशिरा, मङ्गलवारको अश्विनी, बुधवारको अनुराधा, बृहस्पतिवारको पुष्य, शुक्रवारको रेवती और शनिवारको रोहिणी हो तो सिद्धियोग होता है ॥२४२—१—२॥
रवि और मङ्गलवारको नन्दा १।६।११।, शुक्र और सोमवारको भद्राअ २।७।१२, बुधवारको जया ३।८।१३, गुरुवारको रिक्ता ४।९।१४ और शनिवारको पूर्णा ५।१०।१५ न करे ॥२४३ १/२॥
सिद्धयोग—शुक्रवारको नन्दा, बुधवारको भद्रा, मङ्गलवारको जया, शनिवारको रिक्त और गुरुवारको पूर्णा तिथि हो तो ‘सिद्धयोग’ कहा गया है ॥२४४ १/२॥
दग्धयोग—सोमवारको एकादशी, गुरुरको षष्ठी, बुधवारको तृतीया, शुक्रवारको अष्टमी, शनिवारको नवमी तथा मङ्गलवारको पञ्चमी तिथि हो तो ‘दग्धयोग’ कहा गया है ॥२४५—२४६॥
ग्रहोके जन्मनक्षत्र—रविवारको भरणी, सोमवारको चित्रा, मङ्गलवारको उत्तराषाढ, बुधवारको धनिष्ठा, गुरुवारको उत्तराफाल्गुनी, शुक्रवारको ज्येष्ठा और शनिवारको रेवती—ये क्रमश: सूर्यादि ग्रहोके जन्मनक्षत्र होनेके कारण शुभ कार्यके विनाशक होते हैं ॥२४७ १/२॥
यदि रवि आदि वारोंमें विशाखा आदि चार—चार नक्षत्र हो अर्थात् रविवारको विशाखासे, सोमको पूर्वाषाढसे, मङगलको धनिष्ठासे, बुधको रेवतीसे, गुरुवारको रोहिणीसे, शुक्रको पुष्यसे और शनिको उत्तरा फाल्गुनीसे चार—चार नक्षत्र हो तो क्रमश: उत्पात, मृत्यु, काण तथा सिद्ध नामक योग कहे गये हैं ॥२४८ १/२॥
परिहार—ये जो ऊपर तिथि और वारके संयोगसे तथा वार और नक्षत्रके संयोगसे अनिष्टकारक योग बताये गये हैं, वे सबहूर्णोके देश—भारतके पश्चिमोत्तर—भागमें- बंगालमें और नेपाल देशमें ही त्याज्य हैं। अन्य देशोंमें ये अत्यन्त शुभप्रद हैं ॥२४९ १/२॥
सूर्यसंक्रान्तिकथन:—रवि आदि वारोंमें सूर्यकी संक्रान्ति होनेपर क्रमश: घोरा, ध्वांक्षी, महोदरी, मन्दा, मन्दाकिनी, मिश्रा तथा राक्षसी—ये संक्रान्तिके नाम होते हैं। उक्त घोरा आदि संक्रान्तियाँ क्रमश: शूद्र, चोर, वैश्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, गौ आदि पशु तथा चारों वर्णोंसे अतिरिक्त मनुष्योंको सुख देनेवाली होती हैं। यदि सूर्यकी संक्रान्ति पूर्वाह्नमें हो तो वह क्षत्रियोंको हानि पहुँचाती है। मध्याह्नमें हो तो ब्राह्मणोंको, अपराह्णमें हो तो वैश्योंको, सूर्यास्त—समयमें हो तो शूद्रोंको, रात्रिके प्रथम प्रहरमें हो तो पिशाचोंको, द्वितीय प्रहरमें हो तो निशाचरोंको, तृतीय प्रहरमें हो तो नाटयकारोंको, चतुर्थ प्रहरमें हो तो गोपालकोंको और सूर्योदय—समयमें हो तो लिङ्गधारियों वेशधारी बहुरूपियों, पाखण्डियों अथवा आश्रम या सम्प्रदायके चिह्न धारण करनेवालों को हानि पहुँचाती है ॥२५०—२५३ १/२॥
यदि सूर्यकी मेंष—संक्रान्ति दिनमें हो तो संसारमें अनर्थ और कलह पैदा करनेवाली है। रात्रिमें मेंष—संक्रान्ति हो तो अनुपम सुख और सुभिक्ष होता है तथा दोनों संध्याओंके समय हो तो वह वृष्टिका नाश करनेवाली है ॥२५४—१—२॥
करण—संक्रान्तिवश सूर्यके वाहन—भोजनादि—बव आदि ग्यारह करणोंमें संक्रान्ति होनेपर क्रमश: १ सिंह, २ बाघ, ३ सूअर, ४ गदहा, ५ हाथी, ६ भैंसा, ७ घोडा, ८ कुत्ता, ९ बकरा, १० बैल और ११ मुर्गा—ये सूर्यके वाहन होते हैं तथा १ भुशुण्डी, २ गदा, ३ तलवार, ४ लाठी, ५ धनुष, ६ बरछी, ७ कुन्त भाला, ८ पाश ९ अङ्कुश, १० अस्त्र जो फेंका जाता है और ११ बाण—इन्हें क्रमश: सूर्यदेव अपने हाथोंमें धारण करते हैं। १ अन्न, २ खीर, ३ भिक्षान्न, ४ पकवान, ५ दूध, ६ दही, ७ मिठाई, ८ गुड, ९ मधु, १० घृत और ११ चीनी—ये बव आदिकी संक्रान्तिमें क्रमश: भगवान् सूर्यके हविष्य भोजन होते हैं ॥२५५—२५७ १/२॥
सूर्यकी स्थिति—बव, वणिज, विष्टि, बालव और गर—इन कारणोंमें सूर्य बैठे हुए, कोलव, शकुनि और किंस्तुघ्न—इन करणोंमें खडे हुए तथा चतुष्पद, तैतिल और नाग—इन तीन करणोंमें सोते हुए, संक्रान्ति करते एक राशिसे दूसरी राशिमें जाते हो तो इन तीनों अवस्थाओंकी संक्रान्तिमें प्रजाको क्रमश: धर्म, आयु और वर्षाके विषयमें समान, श्रेष्ठ और अनिष्ट फल प्राप्त होते हैं तथा ऊपर कहे हुए अस्त्र, वाहन और भोजन तथा उससे आजीविका या व्यवहार करनेवाले मनुष्यादि प्राणियोंका अनिष्ट होता है एवं जिस प्रकार सोये, बैठे, खडे हुए संक्रान्ति होती है, उसी प्रकार सोये, बैठे और खडे हुए प्राणियोंका अनिष्ट होता है ॥२५८—२६० १/२॥
नक्षत्रोंकी अन्धाक्षादि संज्ञाएँ—रोहिणी नक्षत्रसे आरम्भ करके चार—चार नक्षत्रोंको क्रमश: अन्ध, मन्दनेत्र, मध्यनेत्र और सुलोचन माने और पुन: आगे इसी क्रमसे सूर्यके नक्षत्रतक गिनकर नक्षत्रोंकी अन्ध आदि चार संज्ञाएँ समझे।
संक्रान्तिकी विशेष संज्ञा—स्थिर राशियों वृष, सिंह, वृश्च्क और कुम्भ—में सृर्यकी संक्रान्तिका नाम ‘विष्णुपदी’, द्विस्वभाव राशियों मिथुन, कन्या, धनु और मीन—में ‘षडशीतिमुखा’, तुला और मेंषमें ‘विषुव’ विषुवत्, मकरमें ‘सौम्यायन’ और कर्कमें ‘याम्यायन’ संज्ञा होती है ॥२६१—२६३॥
पुण्यकाल—याम्यायन और स्थिर राशियोंकी विष्णुपद संक्रान्तिमें संक्रान्तिकालसे पूर्व १६ घडी, द्विस्वभाव राशियोंकी षडशितिमुखा और सौम्यायन—संक्रान्तिमें संक्रान्तिकालके पश्चात् १६ घडी तथा विषवत् मेंष, तुला संक्रान्तिमें मध्य संक्रान्ति—कालसे ८ पूर्व और ८ पश्चात—की १६ घडीका समय पुण्यदायक होता है ॥२६४॥
सूर्योदयसे पूर्वकी तीन घडी प्रात:—संध्या तथा सूर्यास्तके बादकी तीन घडी सायं—संध्या कहलाती है। यदि सायं—सध्यामें याम्यायन या सौम्यायन कोई संक्रान्ति हो तो पूर्व दिनमें और प्रात:—संध्यामें संक्रान्ति हो तो पूर्व दिनमें और प्रात:—संध्यामें संक्रान्ति हो तो पर दिनमें सूर्योदयके बाद पुण्यकाल होता है ॥२६५॥
जब सूर्यकी संक्रान्ति होती है, उस समय प्रत्येक मनुष्यके लिये जैसा शुभया अशुभ चन्द्रमा होता है, उसीके अनुसार इस महीनेमें मनुष्योंको चन्द्रमाका शुभ या अशुभ फल प्राप्त होता है ॥२६६॥
किसी संक्रान्तिके बाद सूर्य जितने अंश भोगकर उस संक्रान्तिके आगे अयनसंक्रान्ति करे, उतने समयतक संक्रान्ति या ग्रहणका जो नक्षत्र हो, वह तथा उसके आगे—पीछेवाले दोनों नक्षत्र उपनयन और विवाहादि शुभ कार्योंमें अशुभ होते हैं। संक्रान्ति या ग्रहणजनित अनिष्ट फलों दोषों—की शान्तिके लिये तिलोंकी ढेरीपर तीन त्रिशूलवाला त्रिकोण—चक्र लिखे और उसपर यथाशक्ति सुवर्ण रखकर ब्राह्मणोंको दान दे ॥२६७—२६९॥
ग्रह–गोचर—ताराके बलसे चन्द्रमा बली होता है और चन्द्रमाके बली होनेपर सूर्य बली हो जाता है तथा संक्रमणकारी सूर्यके बली होनेसे अन्य सब ग्रह भी बली समझे जाते हैं ॥२७०॥
मुनीश्वर ! अपनी जन्मराशियोंसे ३, ११, १०, ६ स्थानमें सूर्य शुभ होता है; परंतु यदि क्रमश: जन्मराशिसे ही ९, ५, ४ तथा १२ वें स्थानमें स्थित शनिके अतिरिक्त अन्य ग्रहोसे वह विद्ध न हो तभी शुभ होता है। इसी प्रकार चन्द्रमा जन्मराशिसे ७, ६, ११, १, १० तथा ३ में शुभ होते हैं: यदि क्रमश: २, १२, ८, ५, ४ और ९ में स्थित बुधसे भिन्न ग्रहोसे विद्ध न हो। मङ्गल जन्मराशिसे ३, ११, ६ में शुभ हैं; यदि क्रमश : १२, ५ तथा ९ वें स्थानमें स्थित अन्य ग्रहसे विद्ध न हो। शनि भी अपनी जन्मराशिसे इन्हीं ३, ११, ६ स्थानोंमें शुभ हैं; यदि क्रमश: १२, ५, ९ स्थानोंमें स्थित सूर्यके सिवा अन्य ग्रहोसे विद्ध न हो। बुध अपनी जन्मराशिसे २, ४, ६, ८, १० और ११ स्थानोंमेंम शुभ हो; यदि क्रमश: ५, ३, ९, १, ८ और १२ स्थानोंमें स्थित चन्द्रमाके सिवा अन्य किसी ग्रहसे विद्ध न हो। मुनीश्वर ! गुरु जन्मराशिसे २, ११, ९, ५ और ७ इन स्थानोंमें शुभ होते हैं; यदि क्रमश: १२, ८, १०, ४ और ३ स्थानोंमें स्थित अन्य किसी ग्रहसे विद्ध न हो। इसी प्रकार शुक्र भी जन्मराशिसे १, २, ३, ४, ५, ८, ९, १२ तथा ११ स्थानोंमें शुभ होते हैं; यदि क्रमश: ८, ७, १, १०, ९, ५, ११, ६, ३ स्थानोंमें स्थित अन्य ग्रहसे विद्ध न हो ॥२७१-२७६॥
जो ग्रह गोचरमें वेधयुक्त हो जाता है, वह शुभ या अशुभ फलको नहीं देता: इसलिये वेधका विचार करके ही शुभ या अशुभ फल समझना चाहिये ॥२७७॥ वामवेढ होने वेध-स्थानमें ग्रह और शुभ स्थानमें अन्य ग्रहके होने-से दुष्ट अशुभ ग्रह भी शुभकारक हो जाता है। यदि दुष्ट ग्रह भी शुभग्रहसे दृष्ट हो तो शुभकारक हो जाता है तथा शुभप्रद ग्रह भी पापग्रहसे दृष्ट हो तो अनिष्ट फल देता है। शुभ और पाप दोनों ग्रह यदि अपने शत्रुसे देखे जाते हो अथवा नीच राशिमें या अपने शत्रुकी राशिमें हो तो निष्फल हो जाते हैं। इसी प्रकार जो ग्रह अस्त हो वह भी अपने शुभ या असुभ फलको नहीं देता है। ग्रह यदि दुष्ट-स्थानमें हो तो यत्नपूर्वक उसक शान्ति कर लेनी चाहिये। हानि और लाभ ग्रहोके ही अधीन हैं, इसलिये ग्रहोको विशेष यत्नपूर्वक पूजा करनी चाहिये ॥२७८-२८०१/२॥
सूर्य आदि नवग्रहोंकी तुष्टिके लिये क्रमश: मणि (पद्मराग-लाल), मुक्ता (मोती), विद्रुम (मूँगा), मरकत (पन्ना), पुष्पराग (पोखराज), वज्र (हीरा), नीलम, गोमेद-रत्न एवं वैदूर्य (लहसनिया) धारण करना चाहिये ॥२८९-२८२॥
(चन्द्र—शुद्धिमें विशेषता—)शुक्लपक्षके प्रथम दिन प्रतिपदामें जिस व्यक्तिके चन्द्रमा शुभ होते हैं, उसके लिये शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष दोनों ही शुभद होते हैं। अन्यथा यदि शुक्ल प्रतिपदामें चन्द्रमा अशुभ हो तो दोनों पक्ष अशुभ ही होते हैं। पहले जो जन्मराशिसे २, ९, ५ वें चन्द्रमाको अशुभ कहा गया है, वह केवल कृष्णपक्षमें ही होता है। शुक्ल पक्षमें २, ९ तथा ५ वें स्थानमें स्थित चन्द्रमा भी शुभप्रद ही होता है, यदि वह ६, ८, १२ वें स्थानोंमें स्थित अन्य ग्रहोसे विद्ध न हो ॥२८३—२८४॥
(तारा—विचार—)अपने—अपने जन्मनक्षत्रसे नौ नक्षत्रोंतक गिने तो क्रमश: १ जन्म, २ सम्पत्, ३ विपत्, ४ क्षेम, ५ प्रत्यरि, ६ साधक, ७ वध, ८ मित्र तथा ९ परम मित्र—इस प्रकार ९ ताराएँ होती हैं। फिर इसी प्रकार आगे गिननेपर १० से १८ तक तथा १९ से २७ तक क्रमश: वे ही ९ ताराएँ होगी। इनमें १, ३, ५ और ७वीं तारा अपने नामके अनुसार अनिष्ट फल देनेवाली होती हैं। इन चारों ताराओंमें इनके दोषकी शान्तिके लिये ब्राह्मणोंको क्रमश: शाक, गुड, लवण और तिलसहित सुवर्णका दान देना चाहिये। कृष्णपक्षमें तारा बलवती होती है और शुक्लपक्षमें चन्द्रमा बलवान् होता है ॥२८५—२८७॥
(चन्द्रमाकी अवस्था—)प्रत्येक राशिमें चन्द्रमाकी बारह—बारह अवस्थाएँ होती हैं, जो यात्रा तथा विवाह आदि शुभ कार्योंमें अपने नामके सदृश ही फल देती हैं ।
(अवस्थाका ज्ञान—)अभीष्ट दिनमें गत नक्षत्र—संख्याको ६० से गुणा करके उसमें वर्तमान नक्षत्रकी भुक्त भयात घडीको जोड दे, योगफलको चारसे गुणा करके गुणनफलमें ४५ का भाग दे । जो लब्धि आवे, उसमें पुन: १२ से भाग देनेपर १ आदि शेषके अनुसार मेंषादि राशियोंमें क्रमश: प्रवास, नष्ट, मृत, जय, हास्य, रति, मुदा, सुप्त, भुक्त, ज्वर, कम्प और सुस्थिति—ये बारह गत अवस्थाएँ सूचित होती हैं । ये अपने—अपने नामके समान फल देनेवाले होती हैं ॥२८८—२८९॥
(मेंषादि लग्नोंमेंम कर्तव्य—)पट्ट—बन्धन राजसिंहासन, राजमुकुट आदि धारण, यात्रा, उग्र कर्म, संधि, विग्रह, आभूषणधारण, धातु, खानसम्बन्धी कार्य और युद्धकर्म—ये सब मेष लग्नमें आरम्भ करनेसे सिद्ध होते हैं ॥२९०॥ वृष लग्नमें विवाह मङ्गप्रवेश, कृषि, वाणिज्य तथा पशुपालन आदि कार्य सिद्ध होते हैं ॥२९१॥ मिथुन लग्नमें कला, विज्ञान शिल्प, आभूषण, युद्ध संश्रव कीर्ति साधक कर्म, राज—कार्य, विवाह, राज्याभिषेक आदि कार्य करने चाहिये ॥२९२॥ कर्क लग्नमें वापी, कूप, तडाग, जल रोकनेके लिये बाँध, जल निकालनेके लिये नाली बनाना, पौष्टिक कर्म, चित्रकारी तथा लेखन आदि कार्य करने चाहिये ॥२९३॥ सिंह लग्नमें ईख तथा धान्यसम्बन्धी सब कार्य, वाणिज्य (क्रय—विक्रय), हाट, कृषिकर्म तथा सेवा आदि कर्म, स्थिर कार्य, साहस, युद्ध तथा आभूषण बनाना आदि कार्य सम्पन्न होते हैं ॥२९४॥
कन्या लग्नमें विद्यारम्भ, शिल्पकर्म, ओषधिनिर्माण एवं सेवन, आभूषण—निर्माण और उसका धारण, समस्त चर और स्थिर कार्य, पौष्टिक कर्म तथा विवाहादि समस्त शुभ कार्य करने चाहिये ॥२९५॥ तुला लग्नमें कृषिकर्म, व्यापार, यात्रा, पशुपालन, विवाह—उपनयनादि संस्कार तथा तौलसम्बन्धी जितने कार्य हैं, वे सब सिद्ध होते हैं ॥२९६॥ वृश्चिक लग्नमें गृहारम्भादि समस्त स्थिर कार्य, राजसेवा, राज्याभिषेक, गोपनीय और स्थिर कर्मोंका आरम्भ करना चाहिये ॥२९७॥
धनु लग्नमें उपनयन, विवाह, यात्रा, अश्वकृत्य, गजकृत्य, शिल्पकला तथा चर, स्थिर और मिश्रित कार्योंको करना चाहिये ॥२९८॥ मकर लग्नमें धनुष बनाना, उसमें प्रत्यञ्चा बाँधना, बाण छोडना, अस्त्र बनाना और चलाना, कृषि, गोपालन, अश्वकृत्य, गजकृत्य तथा पशुओंका क्रय—विक्रय और दास आदिकी नियुक्ति—ये सब कार्य करने चाहिये ॥२९९॥ कुम्भ लग्नमें कृषि, वाणिज्य, पशुपालन, जलाशय, शिल्पकर्म, कला आदि, जलपात्र कलश आदि तथा अस्त्र—शस्त्रका निर्माण आदि कार्य करना चाहिये ॥३००॥ मीन लग्नमें उपनयान, विवाह, राज्याभिषेक, जलाशयकी प्रतिष्ठा, गृहप्रवेश, भूषण, जलपात्रनिर्माण तथा अश्वसम्बन्धी कृत्य शुभ होते हैं ॥३०१॥
इस प्रकार मेंषादि लग्नोंके शुद्ध (शुभ स्वामीसे युक्त या दृष्ट) रहनेसे शुभ कार्य सिद्ध होते हैं । पापग्रहसे युक्त या दृष्ट लग्न हो तो उसमें केवल क्रूर कर्म ही सिद्ध होते हैं, शुभ कर्म नहीं ॥३०२॥
वृष, मिथुन, कर्क, कन्या, मीन, तुला और धनु—ये शुभग्रहकी राशि होनेके कारण शुभ हैं तथा अन्य (मेष, सिंह, वृश्चिक, मकर और कुम्भ—ये) पापराशियाँ हैं ॥३०३॥
लग्नपर जैसे (शुभ या अशुभ) ग्रहोका योग या दृष्टि हो उसके अनुसार ही लग्न अपना फल देता है। यदि लग्नमें ग्रहके योग या दृष्टिका अभाव हो तो लग्न अपने स्वभावके अनुकूल फल देता है ॥३०४॥ किसी लग्नके आरम्भमें कार्यका आरम्भ होनेपर उसका पूर्ण फल मिलता है। लग्नके मध्यमें मध्यम और अन्तमें अल्प फल प्राप्त होता है। यह बात सब लग्नोंमें समझनी चाहिये ॥३०५॥ कार्यकर्ताके लिये सर्वत्र पहले लग्नबल, उसके बाद चन्द्रबल देखना चाहिये। चन्द्रमा यदि बली हो और सप्तम भावमें स्थित हो तो सब ग्रह बलवान् समझे जाते हैं ॥३०६॥ चन्द्रमाका बल आधार और अन्य ग्रहोके बल आधेय हैं। आधारके बलपर ही आधेय स्थिर रहता है ॥३०७॥ यदि चन्द्रमा शुभदायक हो तो सब ग्रह शुभ फल देनेवाले होते हैं। यदि चन्द्रमा अशुभ हो तो अन्य सब ग्रह भी अशुभ फल देनेवाले हो जाते हैं। लेकिन धन—स्थानके स्वामीको छोडकर ही यह नियम लागू होता है; क्योंकि यदि धनेश शुभ हो तो वह चन्द्रमाके अशुभ होनेपर भी अपने शुभ फलको ही देता है ॥३०८॥
लग्नके जितने अंश उदित हो गये क्षितिजसे ऊपर आ गये हो, उनमें जो ग्रह हो वह लग्नके फलको देता है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि लग्नके जितने भावांश हो, उनके भीतर रहनेवाला ग्रह लग्नभावका फल देता है तथा उससे आगे—पीछे हो तो लग्नराशिमें रहता हुआ भी आगे—पीछेके भावका फल देता है। लग्नके कथित अंशसे जो ग्रह आगे बढ जाता है, वह द्वितीय भावका फल देता है। इस प्रकार सब भावोंमें ग्रहोकी स्थिति और फलकी कल्पना करनी चाहिये। सब गुणोंसे युक्त लग्न तो थोडे दिनोंमें नहीं मिल सकता; अत: स्वल्प दोष और अधिक गुणोंसे युक्त लग्नको ही सब कार्योंमें सर्वदा ग्रहण करना चाहिये: क्योंकि आधिक दोषोंसे युक्त कालको ब्रह्माजी भी शुद्ध नहीं कर सकते; इसलिये थोडे दोषसे युक्त होनेपर भी अधिक गुणवाला लग्न—काल हितकर होता है ॥३०९—३११ १/२॥
(स्त्रियोंके प्रथम रजोदर्शन—) अमावास्या, रिक्ता (४, ९, १४,) ८, ६, १२ और प्रतिपदा—इन तिथियोंमें परिघ योगके पूर्वार्धमें, व्यतीपात और वैधृतिमें, संध्याके समय, सूर्य और चन्द्रके ग्रहणकालमें तथा विष्टि भद्रा—में स्त्रीका प्रथम मासिकधर्म अशुभ होता है । रवि आदि वारोंमें प्रथम रजोदर्शन हो तो वह स्त्री क्रमश: रोगयुक्त, पतिकी प्रिया, दुःखयुक्ता पुत्रवती, भोगवती, पतिव्रता एवं क्लेशयुक्त होती है ॥३१२—३१४॥ भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, पूर्वा फाल्गुनी, आश्लेषा, विशाखा, ज्येष्ठा, पूर्वाषाढ और पूर्व भाद्रपद—ये नक्षत्र तथा चैत्र, कार्तिक, आषाढ और पौष—ये मास प्रथम मासिकधर्ममें अनिष्टकारक कहे गये हैं । भद्रा, सूर्यकी संक्रान्ति, निद्रा—अवस्था—रात्रिकाल, सूर्य़ग्रहण तथा चन्द्र—ग्रह्ण—ये सब प्रथम मासिकधर्ममें शुभ नहीं हैं । अशुभ योग, निन्द्य नक्षत्र तथा निन्दित दिनमें प्रथम मासिकधर्म हो तो वह स्त्री कुलटा स्वभाववाली होती है ॥३१५—३१६॥ इसलिये इन सब दोषोंकी शान्तिके लिये विज्ञ पुरुषको चाहिये कि वह तिल, घृत और दूर्वासे गायत्री—मन्त्रद्वारा १०८ बार आहुति करे तथा सुवर्णदान, गोदान एवं तिलदान करे ॥३१७॥
(गर्भाधान—संस्कार—) मासिकधर्मके आरम्भसे चार रात्रियाँ गर्भाधानमें त्याज्य हैं । सम रात्रियोंमें जब चन्द्रमा विषमराशि और विषम नवमांशमें हो, लग्नपर पुरुषग्रह (रवि, मङ्गल तथा बृहस्पति)—की दृष्टि हो तो पुत्रार्थी पुरुष सम (२, ४, ६, ८, १०, १२) तिथियोंमें, रेवती, मूल, आश्लेषा और मघा—इन नक्षत्रोंको छोडकर अन्य नक्षत्रोंसे उपवीती और अनग्न (सवस्त्र) होकर स्त्रीका सङ्ग करे ॥३१८—३१९॥
(पुंसवन और सीमन्तोन्नयन—)प्रथम गर्भ स्थिर हो जानेपर तृतीय या द्वितीय मासमें पुंसवन कर्म करे । उसी प्रकार ४, ६ या ८ वेम मासमें उस मासमें स्वामी जब बली हो तथा स्त्री—पुरुष दोनोंको चन्द्रमा और ताराका बल प्राप्त हो तो सीमन्त—कर्म करना चाहिये । रिक्ता तिथि और पर्वको छोडकर अन्य तिथियोंमें ही उसको करनेकी विधि है । मङ्गल, बृहस्पति तथा रविवारमें, तीक्ष्ण और मिश्रसंज्ञक नक्षत्रोंको छोडकर अन्य नक्षत्रोंमें जब चन्द्रमा विषमराशि और विषमराशिके नवमांशमें हो, लग्नसे अष्टम स्थान शुद्ध (ग्रहवर्जित) हो, स्त्री—पुरुषके जन्म—लग्नसे अष्टम राशिलग्न न हो तथा लग्नमें शुभग्रहका योग और दृष्टि हो, पापग्रहकी दृष्टि न हो एवं शुभग्रह लग्नसे ५, १, ४, ७, ९, १० में और पापग्रह ६, ११ तथा ३ में हो एवं चन्द्रमा १२, ८ तथा लग्नसे अन्य स्थानोंमें हो तो उक्त दोनों कर्म (पुंसवन और सीमन्तोन्नयन) करने चाहिये ॥३२०—३२४॥ यदि एक भी बलवान् पापग्रह लग्नसे १२, ५ और ८ और ८ भावमें हो तो वह सीमन्तिनी स्त्री अथवा उसके गर्भका नाश कर देता है ॥३२५॥
(जातकर्म और नामकर्म—)जन्मके समयमें ही जातकर्म कर लेना चाहिये। किसी प्रतिबन्धकवश उस समय न कर सके तो सूतक बीतनेपर भी उक्त लग्नमें पितरोंका पूजन (नान्दीमुख कर्म) करके बालकका जातकर्म—संस्कार अवश्य करना चाहिये एवं सूतक बीतनेपर अपने—अपने कुलकी रीतिके अनुसार बालकका नामकरण—संस्कार भी करना चाहिये । भलीभाँति सोच—विचारकर देवता आदिका वाचक, मङ्गलदायक एवं उत्तम नाम रखना चाहिये । यदि देश—कालादि—जन्य किसी प्रतिबन्धसे समयपर कर्म न हो सके तो समयके बाद जब गुरु और शुक्रका उदय हो, तब उत्तरायणमें चर, स्थिर, मृदु और क्षिप्र संज्ञक नक्षत्रोंमें शुभग्रहके वार (सोम, बुध, ग्रुरु और शुक्र)—में पिता और बालकके चन्द्रबल और ताराबल प्राप्त होनेपर शुभ लग्न और शुभ नवांशमें, लग्नसे अष्टम भावमें कोई ग्रह न हो तब बालकका जातकर्म और नामकर्म—संस्कार करने चाहिये ॥३२६—३२९ १/२॥
(अन्न—प्राशन—)बालकोंका जन्मसे ६ वें या ८ वें मासमें और बालिकाओंका जन्मसे ५ वें या ७ वें मासमें अन्नप्राशनकर्म शुभ होता है । परंतु रिक्ता (४, ९, १४,) तिथिक्षय, नन्दा (१, ६, ११), १२, ८—इन तिथियोंको छोडकर (अन्य तिथियोंमें) शुभ दिनमें चर, स्थिर, मृदु और क्षिप्रसंज्ञक नक्षत्रमें लग्नसे अष्टम और दशम स्थान शुद्ध (ग्रहरहित) होनेपर शुभ नवांशयुक्त शुभ राशिलग्नमें, लग्नपर शुभग्रहका योग या दृष्टि होनेपर जब पापग्रह लग्नसे ३, ६, ११ भावमें और शुभग्रह १, ४, ७, १०, ५, ९ भावमें हो तथा चन्द्रमा १२, ६, ८ स्थानसे भिन्न स्थानमें हो तो पूर्वाह्न—समयमें बालकोंका अन्नप्राशनकर्म शुभ होता है ॥३३०—३३४॥
(चूडाकरण—)बालकोंके जन्मसमयसे तीसरे या पाँचवें वर्षमें अथवा अपने कुलके आचार—व्यवहारके अनुसार अन्य वर्षमासमें भी उत्तरायणमें, जब गुरु और शुक्र उदित हो अस्त न हो, पर्व तथा रिक्तासे अन्य तिथियोंमें, शुक्र, गुरु, सोमवारमें, अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, मृगशिरा, ज्येष्ठा, रेवती, हस्त, चित्रा, स्वाती, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा—इन नक्षत्रोंमें अपने—अपने गृह्यसूत्रमें बतायी हुई विधिके अनुसार चूडाकरणकर्म करना चाहिये । राजाओंके पट्टबन्धन, बालकोंके चूडाकरण, अन्नप्राशन और उपनयनमें जन्म—नक्षत्र प्रशस्त उत्तम होत है । अन्य कर्मोंमें जन्म—नक्षर अशुभ कहा गया है । लग्नसे अष्टम स्थान शुद्ध हो, शुभ राशि लग्न हो, उसमें शुभग्रहका नवमांश हो तथा जन्मराशि या जन्मलग्नसे अष्टम राशिलग्न नहो, चन्द्रमा लग्नसे ६, ८, १२ स्थानोंस भिन्न स्थानोंमें हो, शुभग्रह २, ५, ९, १, ४, ७, १० भावमें हो तथा पापग्रह ३, ६, ११ भावमें हो तो चूडाकरण कर्म प्रशस्त होता है ॥३३५—३३९—१—२॥
(सामान्य क्षौर—कर्म—)तेल लगाकर तथा प्रात: और सायं संध्याके समयमें क्षौर नहीं कराना चाहिये। इसी प्रकार मङ्गलवारको तथा रात्रिमें बी क्षौरका निषेध है । दिनमें भी भोजनके बाद क्षौर नहीं कराना चाहिये । युद्धयात्रामें भी क्षौर कराना वर्जित है । शय्यापर बैठकर या चन्दनादि लगाकर क्षौर नहीं कराना चाहिये । जिस दिन कहींकी यात्रा करनी हो, उस दिन भी क्षौर न करावे तथा क्षौर करानेके बाद उससे नवें दिन भी क्षौर न करावे । राजाओंके लिये क्षौर करानेके बाद उससे ५ वें—५ वें दिन क्षौर करानेका विधान है । चूडाकरणमें जो नक्षत्र—वार आदि कहे गये हैं, उन्हीं नक्षत्रों और वार आदिमें अथवा कभी भी क्षौरमें विहित नक्षत्र और वारके उदय (मुहूर्त एवं क्षण)—में क्षौर कराना शुभ होता है ॥३४०—३४१ १/२॥
(क्षौरकर्ममें विशेष—)राजा अथवा ब्राह्मणोंकी आज्ञासे यज्ञमें, माता—पिताके मरणमें, जेलसे छूटनेपर तथा विवाहके अवसरपर निषिद्ध नक्षत्र, वार एवं तिथि आदिमें भी क्षौर कराना शुभप्रद कहा गया है । समस्त मङ्गल कार्योंमें, मङ्गलार्थ इष्ट देवताके समीप क्षुरोंको अर्पण करना चाहिये१ ॥३४२—३४३॥
(उपनयन—) जिस दिन उपनयनका मुहूर्त स्थिर हो, उससे पूर्व ९ वें, ७ वे, ५ वें या तीसरे दिन उनपयनके लिये विहित नक्षत्र (या उस नक्षत्रके मुहूर्त)—में शुभ वार और शुभ लग्नमें अपने घरोंको चँदोवा, पताका और तोरण आदिसे अच्छि तरह अलंकृत करके, ब्राह्मणोंद्वारा आशीर्वचन, पुण्याहवाचन आदि पुण्य कार्य कराकर, सौभाग्यवती स्त्रियोंके साथ, माङ्गलिक बाजा बजवाते और मङ्गलगान करते—कराते हुए घरसे पूर्वोत्तर—दिशा (ईशानकोण)—में जाकर पवित्र स्थानसे चिकनी मिट्टी खोदकर ले ले और पुन; उसी प्रकार गीत—वाद्यके साथ घर लौट आवे । वहाँ मिट्टी या बाँसके बर्तनमें उस मिट्टीको रखकर उसमें अनेक अवस्तुओंसे युक्त और भाँति—भाँतिके पुष्पोंसे सुशोभित पवित्र जल डाले | (इसी प्रकार और भी अपने कुलके अनुरूप आचारक पालन करे ) ॥३४४—३४७॥ गर्भाधान अथवा जन्मसे आठवें वर्षमें ब्राह्मण—बालकोंका, ग्यारहवें वर्षमें क्षत्रिय बालकोंका और बारहवें वर्षमें वैश्य—बालकोंका मौञ्जीबन्धन यज्ञोपवीत—संस्कार होना चाहिये ॥३४८॥ जन्मसे पाँचवें वर्षमें यज्ञोपवीत—संस्कार करनेपर बालक वेद—शास्त्र—विशारद तथा श्रीसम्पन्न होता है। इसलिये उसमें ब्राह्मण—बालकका उपनयन—संस्कार करना चाहिये ॥३४९॥ शुक्र और बृहस्पति निर्बल हो तब भी वे बालकके लिये शुभदायक होते हैं। अत: शास्त्रोक्त वर्षमें उपनयनसंस्कार अवश्य करना चाहिये। शास्त्रने जिस वर्षमें उपनयनकी आञा नहीम दी है, उसमें वह संस्कार नहीं करना चाहिये ॥३५०॥ गुरु, शुक्र तथा अपने वेदकी शाखाके स्वामी—ये दृश्य हो—अस्त न हुए हो तो उत्तरायणमें उपनयनसंस्कार करना उचित है । बृहस्पति, शुक्र, मङ्गल और बुध—ये क्रमश: ऋक्, यजु:, साम और अथर्ववेदके अधिपति है ॥३५१॥ शरद्, ग्रीष्म और वसन्त—ये व्युत्क्रमसे द्विजातियोंके उपनयनका मुख्य काल हैं अर्थात् शरद् ऋतु वैश्योंके, ग्रीष्म क्षत्रियोंके और वसन्त ब्राह्मणोंके उपनयनका मुख्य काल है। माघ आदि पाँच महीनोंमें उन सबके लिये उपनयनका साधारण काल है ॥३५२॥ माघ मासमें जिसका उपनयन हो वह अपने कुलोचित आचार तथा धर्मका ज्ञाता होता है। फाल्गुनमें यज्ञोपवीत धारण करनेवाला पुरुष विधिज्ञ तथा धनवान् होता है। चैत्रमें उपनयन होनेपर ब्रह्मचारी वेद—वेदाङ्गोंका पारगामी विद्वान् होता है ॥३५३॥ वैशाख मासमें जिसका उपनयन हो, वह धनवान तथा वेद, शास्त्र एवं विविध विद्याओंमें निपुण होता है और ज्येष्ठमें यज्ञोपवीत लेनेवाला द्विज विधिज्ञोंमें श्रेष्ठ और बलवान् होता है ॥३५४॥
शुक्लपक्षमें द्वितीया, पञ्चमी, त्रयोदशी, दशमी और सप्तमी तिथियाँ यज्ञोपवीतसंस्कारके लिये ग्राह्य हैं। शेष तिथियोंको मध्यम माना गया है। क्रुष्णपक्षमें द्वितीया, तृतीय और पञ्चमी ग्राह्य हैं। अन्य तिथियाँ अत्यन्त निन्दित हैं ॥३५५—३५६॥ हस्त, चित्रा, स्वाती, रेवती, पुष्य, आर्द्रा, पुनर्वसु, तीनों उत्तरा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, अश्विनी, अनुराधा तथा रोहिणी—ये नक्षत्र उपनयन—संस्कारके लिये उत्तम हैं ॥३५७॥ जन्मनक्षत्रसे दसवाँ ‘कर्म’ संज्ञक हैं, सोलहवाँ ‘संघात’ नक्षत्र हैं, अठारहवाँ ‘समुदय’ नक्षत्र है, तेईसवाँ ‘विनाश’ कारक है और पचीसवाँ ‘मानस’ है। इनमें शुभ कर्म नहीं आरम्भ करने चाहिये। गुरु, बुध और शुक्र—इन तीनोंके वार उपनयनमें प्रशस्त हैं। सोंमवार और रविवर ये मध्यम माने गये हैं। शेष दो वार मङ्गल और शनैश्चर निन्दित हैं। दिनके तीन भाग करके उसके आदि भागमें देव—सम्बन्धी कर्म (यज्ञ—पूजनदि) करने चाहिये ॥३५८—३६०॥ द्वितीय भागमें मनुष्य—सम्बन्धी कार्य (आतिथि—सत्यकार आदि) करनेका विधान है और तृतीय भागमें पैतृक कर्म (श्राद्ध—तर्पणादि)—का अनुष्ठान करना चाहिये। गुरु, शुक्र और अपनी वैदिक शाखाके अधिपति अपनी नीच राशिमें या उसके किसी अंशमें हो अथवा अपने शत्रकी राशिमें या उअसके किसी अंशमें हो अथवा अपने शत्र्की राशिमें या उसके किसी अंशमें स्थित हो तो उस समय यज्ञोपवीत लेनेवाला द्विज कला और शीलसे रहित होता है। इसी प्रकार अपनी शाखाके अधिपति, गुरु एवं शुक्र यदि अपने अधिशत्रु—गृहमेंम या उसके किसी अंशमें स्थित हो तो ब्रह्मचर्यव्रत (यज्ञोपवीत) ग्रहण करनेवाला द्विज महापातकी होता है। गुरु, शुक्र एवं अपनी शाखाके अधिपति ग्रह यदि अपनी उच्च राशि या उसके किसी अंशमें हो, अपनी राशि या उसके किसी अंशमें हो अथवा केन्द्र (१, ४, ७, १०) या त्रिकोण (५, ९)—में स्थित हो तो उस समय यज्ञोपवीत लेनेवाला ब्रह्मचारी अत्यन्त धनवान् तथा वेद—वेदाङ्गोंका पारङ्गत विद्वान् होता है ॥३६१—३६४॥ यदि गुरु, शुक्र अथवा शाखाधिपति परमोच्च स्थानमें हो और मृत्यु (आठवाँ) स्थान शुद्ध हो तो उस समय व्रह्मचर्यव्रत ग्रहण करनेवाला द्विज वेद—शास्त्रमें ‘निष्णात’ होता है ॥३६५॥ गुरु, शुक्र अथवा शाखाधिपति यदि अपने अधिमित्रगृहमें या उसके उच्च गृहमें अथवा उसके अंशमें स्थित हो तो यज्ञोपवीत लेनेवाला ब्रह्मचारी विद्या तथा धनसे सम्पन्न होता है ॥३६६॥ शाखाधिपतिका दिन हो, बालकको शाखाधिपतिका बल प्राप्त हो तथा शाखाधिपतिका ही लग्न हो—ये तीन बातें उपनयन—संस्कारमें दुर्लभ हैं ॥३६७॥ उसके चतुर्थांशमें चन्द्रमा हो तो यज्ञोपवीत लेनेवाला बालक विद्यामें निपुण होता है: किंतु यदि वह पापग्रहके अंशमे अथवा अपने अंशमें हो तो यज्ञोपवीती द्विज सदा दरिद्र और दुःखी रहता है ॥३६८॥ जब श्रवणादि नक्षत्रमें विद्यमान चन्द्रमा कर्कके अंश—विशेषमें स्थित हो तो ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण करनेवाला द्विज वेद, शास्त्र तथा धन—धान्य—समृद्धिसे सम्पन्न ओता है ॥३६९॥ शुभ लग्न हो, शुभग्रहका अंश चल रहा हो, मृत्युस्थान शुद्ध हो तथा लग्न और मृत्यु—स्थान शुभग्रहोसे संयुक्त हो अथवा उनपर शुभग्रहोकी दृष्टि हो, अभीष्ट स्थानमें स्थित बृहस्पति, सूर्य और चन्द्रमा आदि पाँच बलवान् ग्रहोसे लग्नस्थान संयुक्त या दृष्ट हो अथवा स्थान आदिके बलसे पूर्ण चार ही शुभग्रहयुक्त ग्रहोद्वारा लग्नस्थान देखा जाता हो और वह इक्कीस महादोषोंसे रहित हो तो यज्ञोपवीत लेना शुभ है। शुभग्रहोसे संयुक्त या दृष्ट सभी राशियाँ शुभ हैं ॥३७०—३७२॥ वे शुब राशियाँ शुभ ग्रहके नवांशमें हो तो व्रतबन्ध (यज्ञोपवीत)—में ग्राह्य हैं, किंतु कर्कराशिका अंश शुभ ग्रहसे युक्त तथा दृष्ट हो तो भी कभी ग्रहण करने योग्य नहीं है ॥३७३॥ इसलिये वृष और मिथुनके अशं तथा तुला और कन्याके अंश शुभ हैं। इस प्रकार लग्नगा नवांश होनेपर व्रतबन्ध उत्तम बताया गया है ॥३७४॥ तीसरे, छठे और ग्यारहवें स्थानमें पापग्रह हो, छठा, आठवाँ और बारहवाँ स्थान शुभग्रहसे खाली हो और चन्द्रमा छठे, आठवें, लग्न तथा बारहवें स्थानमें न हो तो उपनयन शुभ होता है ॥३७५॥ चन्द्रमा अपने उच्च स्थानमें होकर भी यदि व्रती पुरुषके व्रतबन्ध—मुहूर्त—सम्बन्धी लग्नमें स्थित हो तो वह उस बालकको निर्धन और क्षयका रोगी बना देता है ॥३७६॥ यदि सूर्य केन्द्रस्थानमें प्रकाशित हो तो यज्ञोपवीत लेनेवाले बालकोंके पिताका नाश हो जाता है। पाँच दोषोंसे रहित लग्न उपनयनमें शुभदायक होता है ॥३७७॥ वसन्त ऋतुके सिवा और कभी कृष्णपक्षमें, गलग्रहमें अनध्यायके दिन, भद्रामें तथा षष्ठीको बालकका उपनयन—संस्कार नहीं होना चाहिये ॥३७८॥ त्रयोदशीसे लेकर चार, सप्तमीसे लेकर तीन दिन और चतुर्थी ये आठ गलग्रह अशुभ कहे गये हैं ॥३७९॥
(क्षुरिका—बन्धनकर्म—)अब मैं क्षत्रियोंके लिये क्षुरिका—बन्धन कर्मका वर्णन करूँगा, जो विवाहके पहले सम्पन्न होता है। विवाहके लिये कहे हुए मासोंमें, शुक्लपक्षमें, जबकि बृहस्पति, शुक्र और मङ्गल अस्त न हो, चन्द्रमा और ताराका बल प्राप्त हो, उस समय मौञ्जीबन्धनके लिये बतायी हुई तिथियोंमें, मङ्गलवारको छोडकर शॆष सभी दिनोंमें यह कर्म किया जाता है। कर्ताका लग्नगत नवांश यदि अष्टमोदयसे रहित न हो, अष्टम, शुद्ध हो; चन्द्रमा छठे, आठवें और बारहवेंमें न होकर लग्नमें स्थित हो; शुभग्रह दूसरे, पाँचवें, नवें, लग्न, चतुर्थ, सप्तम और दशम स्थानोंमें हो; पापग्रह तीसरे, ग्यारहवें और छठे स्थानमें हो तो देवताओं और पितरोंकी पूजा करके क्षुरिका—बन्धनकर्म करना चाहिये ॥३८०—३८३॥ पहले देवताओंके समीप क्षुरिका (कटार)—की भलीभाँति पूजा करे। तत्पश्चात् शुभ लक्षणोंसें युक्त उस शुरिकाको उत्तम लग्नमें अपनी कटिमें बाँधे ॥३८४॥ क्षुरिकाको लम्बाईके आधे (मध्यभाग) पर जो विस्तारमान हो उससे क्षुरिकाके विभाग करे। वे छेदखण्ड (विभाग) क्रमसे ध्वज आदि आय कहलाते हैं । उनकी आठ संज्ञाएँ हैं—ध्वज, धूम्र, सिंह, श्वा, वृष, गर्दभ, गज और ध्वाडक्ष। ध्वज नामक आयमें शत्रुका नाश होता है ॥३८५॥ धूम्र आयमें घात, सिंह नामक आयमें जय, श्वा (कुत्ता) नामक आयमें रोग, वृष आयमें धनलाभ, गर्दभ आयमें अत्यन्त दुःखकी प्राप्ति, गज आयमें अत्यन्त प्रसन्नता और ध्वाडक्ष नामक आयमें धनका नाशा होता है। खङग और छुरीकए मापको अपने अङ्गलसे गिने ॥३८६—३८७॥ मापके अङ्गुलोंमेंसे ग्यारहसे अधिक हो तो ग्यारह घटा दे। फिर शेष अङ्गुलोंके क्रमश: फल इस प्रकार हैं ॥३८८॥ पुत्र—लाभ, शत्रुवध, स्त्रीलाभ, शुभगमन, अर्थहानि, अर्थवृद्धि, प्रीति, सिद्धि, जय और सुति ॥३८९॥
छुरी या तलवारमें यदि ध्वज अथवा वृष आय—विभागके पूर्वभाग में नष्ट (भङ्ग) हो, तथा सिंह और गज—आयके मध्यभागमें तथा कुक्कुर और काक—आयके अन्तिम भागमें एवं धूम्र और गर्दभ आयके अन्तिम भागमें एवं धूम्र और गर्दभ आयके अन्तिम भागमें नष्ट हो जाय तो शुभ नहीं होता है। अत: ऐसी छुरी या तलवारका परित्याग कर देना चाहिये; यह बात अर्थत: सिद्ध होती है ॥३९ १/२॥
(समावर्तन—)उत्तरायणमें जब गुरु और शुक्र दोनों उदित हो, चित्रा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ उत्तर भाद्रपद, पुनर्वसु, पुष्य, रेवती, श्रवण, अनुराधा, रोहिणी—ये नक्षत्र हो तथा रवि, सोम, बुध, गुरु और शुक्रवारमेंसे कोई वार हो तो इन्हीं रवि आदि पाँच ग्रहोकी राशि, लग्न और नवमांशमें, प्रतिपदा, पर्व, रिक्ता, अमावास्या, तथा सप्तामीसे तीन तिथि—इन सब तिथियोंको छोडकर अन्य तिथियोंमें गुरुकुलसे अध्ययन समाप्त करके घरको लौटनेवाले जितेन्द्रिय द्विजकुमारका समावर्तन—संस्कार मुण्डन—हवन आदि करना चाहिये ॥३९१—३९३ १/२॥
(विवाहकथन—) विप्रवर ! सब आश्रमोंमें यह गृहस्थाश्रम ही श्रेष्ठ है। उसमें भी जब सुशीला धर्मपत्नी प्राप्त हो तभी सुख होता है। स्त्रीको सुशीलताकी प्राप्ति तभी होती है, जब विवाहकालिक लग शुभ हो। इसलिये मैं साक्षात् ब्रह्माजीद्वाद कथित लग-शुद्धिको विचार करके कहता हूँ ॥ ३९४-३९५ है ॥
प्रथमत: कन्यादान करनेवालोंको चाहिये कि वे किसी शुभ दिनको अपनी अज्लिमें पान, फूल, फल और द्रव्य आदि लेकर ज्यौतिषशास्त्रके ज्ञाता समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, प्रसन्नचित्त तथा सुखपूर्वक बैठे हुए विद्वान् ब्राह्मणके समीप जाय और उन्हें देवताके समान मानकर भक्तिपूर्वक प्रणाम करके अपनी कन्याके विवाह-लग्नके विषयमें पूछे ॥ ३९६-३९७॥
(ज्यौतिषीको चाहिये कि उस समय लग्न और ग्रह स्पष्ट करके देखे-) यदि प्रश्नलग्रमें पापग्रह हो या लग्नसे सप्तम भावमें मंगल हो तो जिसके लिये प्रश्न किया गया है, उस कन्या और वरको ८ वर्षके भीतर ही घातक अरिष्ट प्राप्त होगा, ऐसा समझना चाहिये। यदि लगमें चन्द्रमा और उससे सप्तम भावमें मज़्ल हो तो ८ वर्षके भीतर ही उस कन्याके पतिको घातक कष्ट प्राप्त होगा-ऐसा समझे। यदि लग्से प्नम भावमें पापग्रह हो और वह नीचराशिमें पापग्रहसे देखा जाता हो तो वह कन्या कुलय स्वभाववाली अथवा मृतवत्सा होती है, इसमें संशय नहीं है ॥ ३९८-४००॥
यदि प्रश्रनलग्नसे ३, ५, ७, ११ और १० वें भावमें चन्द्रमा हो तथा उसपर गुरुकी दृष्टि हो तो समझना चाहिये कि उस कन्याको शीघ्र ही पतिकी प्राप्ति होगी ॥ ४०१ ॥
यदि प्रश्नलग्रमें तुला, वृष या कर्क राशि हो तथा वह शुक्र और चन्द्रमासे युक्त हो तो विवाहके विषयमें प्रश्न करनेपर वरके लिये कन्या (पत्नी) लाभ होता है अथवा सम राशि लग हो, उसमें समराशिका ही द्रेष्काण हो और सम राशिका नवमांश तथा उसपर चन्द्रमा और शुक्रकी दृष्टि हो तो वरको पत्नीकी प्राप्ति होती है ॥ ४०२-४०३ ॥
इसी प्रकार यदि प्रश्नलग्नमें पुरुषराशि और पुरुषराशिका नवमांश हो तथा उसपर पुरुषग्रह (रवि, मंगल और गुरु) की दृष्टि हो तो जिनके लिये प्रश्न किया गया है, उन कन्याओंको पतिकी प्राप्ति होती है ॥ ४०४ ॥
यदि प्रश्रसमयमें कृष्णपक्ष हो और चन्द्रमा सम राशिमें होकर लग्से छठे या आठवें भावमें पापग्रहसे देखा जाता हो तो (निकट भविष्यमें ) विवाह-सम्बन्ध नहीं हो पाता है ॥४०५॥
यदि प्रश्नकालमें शुभ निमित्त और शुभ शकुन देखने-सुननेमें आवें तो वर-कन्याके लिये शुभ होता है तथा यदि निमित्त एवं शकुत आदि अशुभ हों तो अशुभ फल होता है ॥ ४०६ ॥
( कन्या-वरण– ) पश्चाज़ (तिथि, वार, नक्षत्र,योग, करण) -से शुद्ध दिनमें यदि वर और कन्याके चन्द्रबल तथा तायाबल प्राप्त हों तो विवाहके लिये विहित नक्षत्र या उसके मुहूर्तमें वरको चाहिये कि अपने कुलके श्रेष्ठ जनोंके साथ
गीत, बाद्यकी ध्वनि और ब्राह्मणोंके आशीर्वचन (शान्ति-मन्त्रपाठ) आदिसे युक्त होकर विविध आभूषण, शुभ वस्त्र, फूल, फल, पान, अक्षत,चन्दन और सुगन्धादि लेकर कन्याके घरमें जाय और विनीत भावसे कन्याका वरण करे । (कन्याका वरण वरके बड़े भाई अथवा गुरुअनको करना चाहिये।) उसके बाद कन्याका पिता प्रसन्नचित्त
होकर अभीष्ट वरको कन्यादान करे ॥ ४०७–४०९॥
कन्याके पिताको चाहिये कि अपनी कन्यासे श्रेष्ठ, कुल, शील, बयस, रूप, धन और विद्यासे युक्त वरको वरके वयसूसे छोटी रूपवती अपनी कन्या दे। कन्यादानसे पूर्व सब गु्णोंकी आश्रयभूता,तीनों लोकोंमें सबसे अधिक सुन्दरी, दिव्य गन्ध,माला और वस्त्रसे सुशोभित, सम्पूर्ण शुभ लक्षणोंसे युक्त तथा सब आभूषणोंसे मणिडित, अमूल्य
मणिमालाओंसे दसों दिशाओंको प्रकाशित करती हुई, सहसों दिव्य सहेलियोंसे सुसेविता सर्वगुणसम्पत्न शची (इन्द्राणी )-देवीकी पूजा करके उनसे प्रार्थना करे-‘ हे देवि ! हे इन्द्राणि ! हे देवेन्द्रप्रियभामिनि ! आपको मेरा नमस्कार है। देवि! इस विवाहमें आप सौभाग्य, आरोग्य और पुत्र प्रदान करें ।’ इस प्रकार प्रार्थना करके पूजाके बाद विधानपूर्वक ऊपर कहे हुए गुणयुक्त वरके लिये अपनी कुमारी कन्याका दान करे ॥ ४१०-४१४॥
( कन्या-वरकी वर्षशुद्धि- ) कन्याके जन्मसमयसे सम वर्षोषें और वरके जन्मसमयसे विषम वर्षोमें होनेवाला विवाह उन दोनोंके प्रेम और प्रसन्नताकों बढ़ानेवाला होता है। इससे विपरीत (कन्याके विषम और वरके सम वर्षमें) विवाह वर-कन्या दोनोंके लिये घातक होता है ॥ ४१५ ॥
(विवाहवविहित मास- ) माघ, फागुन, वैशाख और ज्येप्ठ-ये चार मास विवाहमें श्रेष्ठ तथा कार्तिक और मार्गशीर्ष ये दो मास मध्यम हैं। अन्य मास निन्दित हैं ॥ ४१६
सूर्य जब आर्द्रा नक्षत्रमें प्रवेश करे तबसे दस नक्षत्रतक (अर्थात् आद्रासि स्वातीतकके नक्षत्रोंमें जबतक सूर्य रहें, तबतक) विवाह, देवताकी प्रतिष्ठा और उपनयन नहीं करने चाहिये । बृहस्पति और शुक्र जब अस्त हों, बाल अथवा वृद्ध हों तथा केवल बृहस्पति सिंहराशि या उसके नवमांशमें हों, उस समय भी ऊपर कहे हुए शुभ कार्य नहीं करने चाहिये ॥ ४१७-७१८ ॥
(गुरु तथा शुक्रके बाल्य और वृद्धत्व-) शुक्र जब पश्चिममें उदय होता है तो दस दिन और पूर्वमें उदय होता है तो तीन दिन तक बालक रहता है तथा जब पश्चिममें अस्त होनेको रहता है तो अस्तसे पाँच दिन पहले और पूर्वमें अस्त होनेसे पंद्रह दिन पहले वृद्ध हो जाता है। गुरु उदयके बाद पंद्रह दिन बालक और अस्तसे पहले पंद्रह दिन वृद्ध रहता है ॥ ४१९ ॥
तबतक भगवान् हषीकेश शयनावस्था में हों तबतक तथा भगवान्के उत्सव (उत्थान या जन्मदिन) -में भी अन्य मज़्लकार्य नहीं करने चाहिये ॥ ४२० ॥ पहले गर्भके पुत्र और कन्याके जन्ममास, जन्मनक्षत्र और जन्म-तिथि-वारमें भी विवाह नहीं करना चाहिये। आद्य गर्भकी कन्या और आदय गर्भके वरका परस्पर विवाह नहीं कराना चाहिये तथा वर-कन्यामें कोई एक हो ज्येष्ठ (आद्य गर्भका) हो तो ज्येष्ठ मासमें विवाह श्रेष्ठ है। यदि दोनों ज्येष्ठ हों तो ज्येप्ठ मासमें विवाह अनिष्टकारक कहा गया है ॥ ‘ ४२१-४२२ ॥
( विवाहमें वर्म्य– ) भूकम्पादि उत्पात तथा सर्वग्रास सूर्यग्रहण या चन्द्रग्हण हो तो उसके बाद सात दिनतकका समय शुभ नहीं है। यदि खण्डग्रहण हो तो उसके बाद तीन दिन अशुभ होते हैं। तीन दिनका स्पर्श करनेवाली (वृद्धि)
तिथि, क्षयतिथि तथा ग्रस्तास्त (ग्रहण लगे चन्द्र,सूर्यका अस्त) हो तो पूर्वके तीन दिन अच्छे नहीं माने जाते हैं। यदि ग्रहण लगे हुए सूर्य, चन्द्रका उदय हो तो बादके तीन दिन अशुभ होते हैं ।
संध्यासमयमें ग्रहण हो तो पहले और बादके भी तीन-तीन दिन अनिष्टकारक हैं तथा मध्य रात्रिमें ग्रहण हो तो सात दिन (तीन पहलेके और तीन बादके और एक ग्रहणवाला दिन) अशुभ होते हैं ॥४२३-४र४॥
मासके अन्तिम दिन, रिक्ता,अष्टमी, व्यतीपात और वैधृतियोग सम्पूर्ण तथा (विहित नक्षत्र- ) रेवती, रोहिणी, तीनों उत्तरा,अनुराधा, स्वाती, मृगशिरा, हस्त, मघा और मूल–ये ग्यारह नक्षत्र वेधरहित हों तो इन्हींमें स्त्रीका विवाह शुभ कहा गया है ॥ ४२६ ॥
विवाहमें बवरको सूर्यका और कन्याको बृहस्पतिका बल अवश्य प्राप्त होना चाहिये । यदि ये दोनों अनिष्टकारक हों तो यत्नपूर्वक इनकी पूजा करनी चाहिये ॥ ४२७ ॥
गोचर, बेध और अष्टकवर्ग-सम्बन्धी बल उत्तरोत्तर अधिक है* । इसलिये गोचरबल स्थूल (साधारण) माना जाता है। अर्थात् ग्रहोंका अष्टकवर्ग-बल ग्रहण करना चाहिये। प्रथम तो वर-कन्याके चन्द्रबल और ताराबल देखने चाहिये। उसके बाद पश्चात (तिथि, वार आदि) -के बल देखे । तिथिमें एक, वारमें दो, नक्षत्रमें तीन, योगमें चार और करणमें पाँच गुने बल होते हैं । इन सबकी अपेक्षा मुहूर्त बली होता है। मुदूर्तसे भी लग, लग्रसे भी होरा (राश्यर्ध ), होरासे ट्रेष्काण, द्रेष्काणसे नवमांश,नवमांशसे भी द्वादशांश तथा उससे भी त्रिंशांशरे बली होता है। इसलिये इन सबके बल देखने चाहिये ॥ ४२८–४३१॥
विवाहमें शुभग्रहसे युक्त या दृष्ट होनेपर सब राशि प्रशस्त हैं । चन्द्रमा, सूर्य, बुध, बृहस्पति तथा शुक्र आदि पाँच ग्रह जिस राशिके इष्ट हों, वह लग शुभप्रद होता है। यदि चार ग्रह भी बली हों तो भी उन्हें शुभप्रद ही समझना चाहिये ॥ ४३२-४३३ ॥
मुने ! जामित्र (लग्से सप्तम स्थान) शुद्ध (ग्रहवर्जित) हो तथा लग इक्तीस दोषोंसे रहित हो तो उसे बिवाहमें ग्रहण करना चाहिये। अब मैं उन इक्कीस दोषोंके नाम, स्वरूप और फलका संक्षेपसे वर्णन करता हूँ, सुनो-॥ ४३४ टू ॥
( विवाहके इक्कीस दोष– ) पशज़-शुद्धिका न होना, यह प्रथम दोष कहा गया है। उदयास्तकी शुद्धिका न होना २, उस दिन सूर्यकी संक्रान्तिका होना ३, पापग्रहका पड्वर्गमें रहना ४, लग्से छठे भावमें शुक्रकी स्थिति ५, अष्टममें मज्लका रहना ६, गण्डान्त होना ७, कर्तरीयोग ८, बारहवें, छठे और आठवें चन्द्रमाका होना तथा चन्द्रमाके साथ किसी अन्य ग्रहका होना ९, वर-कन्याकी जन्मणशिसे अष्टम राशि लग हो या दैनिक चन्द्रराशि हो १०, विषघटी ११, दुर्मुहूर्त १२, वार-दोष १३, खार्जूर १४, नक्षत्रैकचरण १५, ग्रहण और उत्पातके नक्षत्र १६, पापग्रहसे विद्ध नक्षत्र १७, पापसे युक्त नक्षत्र १८, पापग्रहका नवमांश १९, महापात २० और वैधृति २१-विवाहमें ये २१ दोष कहे गये हैं ॥’४३५–४३८ हर ॥
मुने ! तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण—इन पाँचोंका मेल ‘ पज्ञाज़’ कहलाता है। उसकी शुद्धि पश्चात शुद्धि कहलाती है। जिस दिन पश्चाज़के दोष हों, उस दिन विवाहलप्र बनाना निरर्थक है। इस प्रकारका लग यदि पाँच इष्ट ग्रहोंसे युक्त हो तो भी उसको विषभिश्रित दूधके समान त्याग देना चाहिये॥ ४३९-४४० ३॥ लग्न या उसके नवमांश अपने-अपने स्वामीसे युक्त या दृष्ट न हों अथवा परस्पर (लग्रेशसे नवमांश और नवमांशपतिसे लग्रेश) युक्त या दृष्ट न हों अथवा अपने स्वामीके शुभग्रह मित्रसेग युक्त या दृष्ट न हों तो वरके लिये घातक होते हैं*। इसी प्रकार लग्से सप्तम और उसके नवमांशमें भी ये दोनों यदि अपने-अपने स्वामीसे अथवा परस्पर युक्त या दृष्ट नहीं हों या अपने-अपने स्वामीके शुभ मित्रसे युक्त या दृष्ट न हों तो उस दशामें विवाह होनेपर वह वधूके लिये घातक है॥ ४४१-४४२ 9 ॥
सूर्यकी संक्रान्तिकि समयसे पूर्व और पश्चात् सोलह-सोलह घड़ी विवाह आदि शुभ कार्योंमें त्याज्य है। लग्न॒का षड्वर्ग (राशि, होण, द्रेष्काण,नवमांश, द्वादशांश तथा त्रिंशांश) शुभ हो तो विवाह, देवप्रतिष्ठा आदि कार्योंमें श्रेष्ठ माना गया है॥ ४४३-४४४ ॥
लगसे छठे स्थानमें शुक्र हो तो वह ‘ भूगुषष्ठ ` नामक दोष कहलाता है। उच्चस्थ और शुभ ग्रहसे युक्त होनेपर भी उस लग्रको सदा त्याग देना चाहिये। लग़॒से अष्टम स्थानमें मज़्ल हो तो यह ‘ भौम महादोष ‘ कहलाता है। यदि मज़ल उच्चमें हो और तीन शुभ ग्रह लगमें हों तो इस लग्का त्याग नहीं करना चाहिये (अर्थात् ऐसी स्थितिमें अष्टम मंगलका दोष नष्ट हो जाता है) ॥ ४४५-४४६, ॥
( गण्डान्त-दोष– ) पूर्णा (५, १०, १५) तिथियोंकि अन्त और नन्दा (१, ६, ११) तिथियोंकी आदिकी सन्धिमें दो घड़ी ` तिथिगण्डान्त-दोष ‘ कहलाता है। यह जन्म, यात्रा, उपनयन और ‘ विवाहादि ` शुभ कार्योमें घातक कहा गया है ॥ ‘४४७॥
कर्क लगके अन्त और सिंह लगके आदिकी सच्धिमें, वृश्चिक और धनुकी सन्धिमें तथा मीन और मेष लग़की सन्धिमें आधा घड़ी ‘ लग्रगण्डान्त ` कहलाता है। यह भी घातक होता है ॥ ४४८ ॥
आश्लेषाके अन्तका चतुर्थ चरण और मधघाका प्रथम चरण तथा ज्येष्ठाके अन्तको १६ घड़ी और मूलका प्रथम चरण एवं रेवती नक्षत्रके अन्तकी ग्यारह घड़ी और अश्विनीका प्रथम चरण—इस प्रकार इन दो-दो नक्षत्रोंकी सन्धिका काल ` नक्षत्रणण्डान्त ‘ कहलाता है। ये तीनों प्रकारके गण्डान्त महाक्रूर होते हैं ॥४४७–४४९ ३ ॥
(कर्तरीदोष–) लग़्से बारहवें मार्गों और द्वितीयमें वक्री दोनों पापग्रह हों तो लगमें आगे-पीछे दोनों ओरसे जानेके कारण यह ‘ कर्तरीदोष ‘ कहलाता है। इसमें विवाह होनेसे यह कर्तरीदोष वर-वधू दोनोंके गलेपर छुरी चलानेवाला (उनका अनिष्ट करनेवाला) होता है। ऐसे कर्तरीदोषसे युक्त लग्का परित्याग कर देना चाहिये ॥ ४५०-४५१॥
( लग़-दोष– ) यदि लग़से छठे, आठवें तथा बारहवेंमें चन्द्रमा हो तो यह ` लग्रदोष ‘ कहलाता है। ऐसा लग शुभग्रहों तथा अन्य सम्पूर्ण गुणोंसे युक्त होनेपर भी दोषयुक्त होता है। वह लग्न बृहस्पति और शुक्रसे युक्त हो तथा चन्द्रमा उच्च, नीच, मित्र या शत्रुराशिमें (कहीं भी) हो, तो भी यत्रपूर्वक त्याग देने योग्य है, क्योंकि यह सब गु्णोंसे युक्त होनेपर भी वर-वधूके लिये ` घातक ‘ कहा गया है ॥ ‘४५२-४५३ ॥
( सग्रहदोध– ) चन्द्रमा यदि किसी ग्रहसे युक्त हो तो “सग्रह’ नामक दोष होता है। इस दोषमें भी विवाह नहीं करना चाहिये। चन्द्रमा यदि सूर्यसे युक्त हो तो दरिद्रता, मज़लसे युक्त हो तो घात अथवा रोग, बुधसे युक्त हो तो अनपत्यता (संतान-हानि), गुरुसे युक्त हो तो दौर्भाग्य, शुक्रसे युक्त हो तो पति-पत्नीमें शत्रुता, शनिसे युक्त हो तो प्रब्नरज्या (घरका त्याग), राहुसे युक्त हो तो सर्वस्वहानि और केतुसे युक्त हो तो कष्ट और दरिद्रता होती है ॥४५४–४५७॥
( पापग्रहकी निन्दा और शुभग्रहोंकी प्रशंसा– ) मुने ! इस प्रकार सग्रहदोषमें चन्द्रमा यदि पापग्रहसे युक्त हो तो वर-वधू दोनोंके लिये घातक होता है यदि वह शुभग्रहोंसे युक्त हो तो उस स्थितिमें यदि उच्च या मित्रकी राशिमें चन्द्रमा हो तो लग्न दोषयुक्त रहनेपर भी वर-वधूके लिये कल्याणकारी होता है। परंतु चन्द्रमा स्वोच्चमें या स्वराशिमें अथवा मित्रको राशिमें रहनेपर भी यदि पापग्रहसे युक्त हो तो वर-वधू दोनोंके लिये घातक होता है॥ ४५८-४५९ है ॥
( अष्टराशि लग्दोष–) वर या वधूके जन्मलप्रसे अथवा उनकी जन्मराशिसे अष्टमराशि विवाह-लग्में पड़े तो यह दोष भी वर और वधूके लिये घातक होता है। वह राशि या वह लग शुभग्रहसे युक्त हो तो भी उस लगको, उस नवमांशसे युक्त लग्रको अथवा उसके स्वामीको यत्नपूर्वक त्याग देना चाहिये ॥ ४६०-४६१ ॥
( द्वादश राशिदोष ) वर-वधूके जन्म-लग्र या जन्मराशिसे द्वादश राशि यदि विवाह-लग्में पड़े तो वर-वधूके धनको हानि होती है । इसलिये उस लग्को, उसके नवमांशको और उसके स्वामीको भी त्याग देना चाहिये ॥ ४६२ १/२ ॥
( जन्मलग्न और जन्मराशिकी प्रशंसा– ) जन्म-राशि और जन्मलग्रका उदय विवाहमें शुभ होता है तथा दोनोंके उपचय (३, ६, १०, ११) स्थान यदि विवाह-लग्में हो तो अत्यन्त शुभप्रद होते हैं ॥ ४६३६ ॥
( विषघटी श्रुवाज्– ) अधिनीका शध्रुवाडदू, ५०, भरणीका २४, कृत्तिकाका ३०, ५४, मृगशिराका १३, आद्वाका २१, पुनर्वसुका,३०, पुष्यका २०, आश्लेषाका ३रे, मघाका ३०,पूर्वाफाल्गुनीका २०, उत्तराफाल्गुनीका १८, हस्तका, २१, चित्राका २०, स्वातीका १४, विशाखाका, १४, अनुराधाका १०, ज्येष्ठाका १४, मूलका ५६, पूर्वाषाढुका २४, उत्तराषाढ़का २०, श्रवणका १०, धनिष्ठाका १०, शतभिषाका १८, पूर्व भाद्रपदका १६, उत्तर भाद्रपदका र४ और रेवतीका ध्रुवाहू ३० है। इन अश्विनी आदि नक्षत्रोंकें अपने-अपने ध्रुवाह तुल्य घड़ीके बाद ४ घड़ीतक विषघटी होती है। विवाह आदि शुभ कार्योंमें विषघटिकाओंका त्याग करना चाहिये ॥ ४६४–४६८ ॥
रवि आदि वारोंमें जो मुहूर्त निन्दित कहा गया है, वह यदि अन्य लाख गु्णोंसे युक्त हो तो भी विवाह आदि शुभ कार्योंमें वर्जनीय ही है ॥ ४६९ ॥ रवि आदि दिनोंमें जो-जो वार-दोष कहे गये हैं, वे अन्य सब गुर्णोंसे युक्त हों तो भी शुभ कार्यमें वर्जनीय हैं ॥ ४७० ॥
नक्षत्रके जिस चरणमें पूर्वोक्त ` एकार्गल दोष ‘ हो, उस चरण (नवांश)-से युक्त जो लग्न हो उसमें यदि गुरु, शुक्रका योग हो तो भी विषयुक्त दूधके समान उसको त्याग देना चाहिये ॥ ४७१ ॥
ग्रहण तथा उत्पातसे दूषित नक्षत्रको तीन ऋतु (छ मास)-तक शुभ कार्यमे छोड़ देना चाहिए । जब चंद्रमा उस नक्षत्रको भोगकर छोड़ दे तो वह नक्षत्र जाली हुई लकड़ी के समान निष्फल हो जाता है अर्थात दोष-कारक नहीं रह जाता। शुभ कार्योमे ग्रहसे विद्ध और पापग्रहसे युक्त सम्पूर्ण नक्षत्रको मदिरामिश्रित पंचगव्यके समान त्याग देना चाहिये; परंतु यदि नक्षत्र शुभग्रहसे विद्ध हो तो उसका विद्ध चरणमात्र त्याज्य है, सम्पूर्ण नक्षत्र नहीं; किंतु पापग्रहसे विद्ध नक्षत्र शुभकार्यमें सम्पूर्ण रूपसे त्याग देने योग्य है ॥ ४७२–४७४॥
(विहित नवमांश– ) वृष, तुला, मिथुन,कन्या और धनुका उत्तरार्ध तथा इन राशियोंकि नवमांश विवाहलपग्रमें शुभप्रद हैं। किसी भी लग्में अन्तिम नवमांश यदि वर्गोत्तम हो तभी उसे शुभप्रद समझना चाहिये। अन्यथा विवाह-लग्रका अन्तिम नवमांश (२६ अंश ४० कलाके बाद) अशुभ होता है। यहाँ अन्य नवमांश नहीं ग्रहण करने चाहिये; क्योंकि वे ‘कुनवांश’ कहलाते हैं। लग्में कुनवांश हो तो अन्य सब गु्ोंसे युक्त होनेपर भी वह त्याज्य है। जिस दिन महापात (सुर्य-चन्द्रमाका क्रान्ति साम्य) हो, वह दिन भी शुभ कार्यमें छोड़ देने ग्रहण तथा उत्पातसे दूषित नक्षत्रको तीन ऋतु | योग्य है; क्योंकि वह अन्य सब गुणोंसे युक्त होनेपर (छः मास) -तक शुभ कार्यमें छोड़ देना चाहिये। जब चन्द्रमा उस नक्षत्रको भोगकर छोड़ दे तो वह नक्षत्र जली हुई लकड़ीके समान निष्फल हो जाता है अर्थात् दोष-कारक नहीं रह जाता। शुभ कार्योंमें ग्रहसे विद्ध और पापग्रहसे युक्त सम्पूर्ण नक्षत्रको मदिरामिश्रित पश्चगव्यके समान त्याग भी वर-वधूके लिये घातक होता है। इन दोषॉसे भिन्न विधुतू, नीहार (कुहरा) और वृष्टि आदि दोष, जिनका अभी वर्णन नहीं किया गया है, ‘स्वल्पदोष’ कहलाते हैं ॥ ४७५–४७८॥
(लघुदोष– ) विद्युत, नीहार, वृष्टि, प्रतिसूर्य (दो सूर्य-सा दीखना), परिवेष (घेरा), इन्द्रधनुष, घनगर्जन, लता, उपग्रहरे, पात, मासदग्धरं तिथि, दग्ध, अन्ध, बधिर तथा पंजू-इन राशियेंकि लग, राशियेंकि लग्न, विद्युत ( बिजली ), नीहारा ( कुहरा या पाला ), वृष्टि (वर्षा)–ये यदि असमयमें हों तभी दोष समझे जाते हैं। यदि समयपर हों (जैसे जाड़ेके दिनमें पाला पड़े, वर्षा ऋतुमें वर्षा हो तथा सघन मेघमें बिजली चमके, तो सब शुभ ही समझे जाते हैं॥४८१॥ यदि बृहस्पति, शुक्र अथवा बुध इनमेंसे एक भी केन्द्रमें हों तो इन सब दोषोंको नष्ट कर देते हैं। इसमें संशय नहीं है ॥ ४८२॥
(पश्चशलाका-वेध–) पाँच रेखाएँ पड़ी और पाँच रेखाएँ खड़ी खींचकर दो-दो रेखाएँ कोणोंमें खींचने (बनाने) -से पश्नशलाका-चक्र बनता हैं। इस चक्रके ईशान कोणवाली दूसरी रेखामें कृत्तिकाको लिखकर आगे प्रदक्षिण-क्रमसे रोहिणी आदि अभिजित्सहित सम्पूर्ण नक्षत्रिंका उल्लेख करे। जिस रेखामें ग्रह हो, उसी रेखाकी दूसरी ओरवाला नक्षत्र विद्धर समझा जाता है ॥ ४८३ ट् ॥
( लत्तादोष– ) सूर्य आदिरै ग्रह क्रमश: अपने आश्रित नक्षत्रसे आगे और पीछे १२, ४४, २, ७, ६, ५, ८ तथा ९ वें दैनिक नक्षत्रको लातों से दूषित करते हैं, इसलिये इसका नाम ‘ लत्तादोष’ है।
( पातदोष– ) सूर्य जिस नक्षत्रमें हों उससे आश्लेषा, मघा, स्वती, चित्रा, अनुगधा और श्रवणतककी जितनी संख्या हो, उतनी ही यदि अश्विनीसे दिन-नक्षत्रतक गिननेसे संख्या हो तो वह नक्षत्र पातदोषसे दुषित समझा जाता है॥ ४८४-४८५ १/२ ॥
( परिहार– ) सौराष्ट्र (काठियावाड़) और विद्युत् (बिजली), नीहार (कुहरा या पाला), शाल्वदेशमें लत्तादोष वर्जित है।
कलिंग (जगन्नाथपुरीसे कृष्णा नदीतकके भूभाग), वज्ग (बज़ाल), वाहिक (बलख) और कुरु (कुरुक्षेत्र देशमें पातदोष त्याज्य हैं; अन्य देशोंमें ये दोष त्याज्य नहीं हैं ॥४८६-४८७॥ मासदग्ध तिथि तथा दग्ध लग-ये मध्यदेश (प्रयागसे पश्चिम,कुरुक्षेत्रसे पूर्व, विन्ध्य और हिमालयके मध्य) में वर्जित हैं। अन्य देशोंमें ये दूषित नहीं हैं ॥ ४८८ ॥ पन्नु, अन्ध, काण, लग तथा मासोंमें जो शून्य राशियाँ कही गयी हैं, वे गौड़ (बज्जालसे भुवनेश्रस्तक) और मालव (मालवा) देशमें त्याज्य हैं। अन्य देशोंमें निन्दित नहीं हैं ॥४८९॥
(विशेष– ) अधिक दोषोंसे दुष्ट कालको तो ब्रह्माजी भी शुभ नहीं बना सकते हैं; इसलिये जिसमें थोड़ा दोष और अधिक गुण हों, ऐसा काल ग्रहण करना चाहिये ॥ ४९० ॥
(वेदी और मण्डप- ) इस प्रकार वर-वधूके लिये शुभप्रद उत्तम समयमें श्रेष्ठ लग़का निरीक्षण (खोज) करना चाहिये । तदनन्तर एक हाथ ऊँची, चार हाथ लंबी और चार हाथ चौड़ी उत्तर दिशामें नत (कुछ नीची) बेदी बनाकर सुन्दर चिकने चार खम्भोंका एक मण्डप तैयार करे, जिसमें चारों ओर सोपान (सीढ़ियाँ) बनायी गयी हों। मण्डप भी पूर्व-उत्तरमें निम्न हो। वहाँ चारों तरफ रा गड़े हों। वह मण्डप शुक आदि पक्षियोंके चित्रोंसे सुशोभित हो तथा बेदी नाना प्रकारके माज़लिक चित्रयुक्त कलशोंसे विचित्र शोभा धारण कर रही हो। भाँति-भाँतिके वन्दनवार तथा अनेक प्रकारके फूलॉंके श्रूज्ञारसे वह स्थान सजाया गया हो। ऐसे मण्डपके बीच बनी हुई वेदीपर, जहाँ ब्राह्मणलोग स्वस्तिवाचनपूर्वक आशीर्वाद देते हों, जो पुण्यशीला स्त्रियों तथा दिव्य समारोहों से अत्यन्त मनोरम जान पड़ती हो तथा नृत्य, वाद्य और माड़लिक गीतोंकी ध्वनिसे जो दृदयको आनन्द प्रदान कर रही हो, वर और वधूकों विवाहके लिये बिठावे ॥ ४९१–४९५॥
(वर-वधूकी कुण्डलीका मिलान– ) आठ प्रकारके भकूट, नक्षत्र, राशि, राशिस्वामी, योनि तथा वर्ण आदि सब गुण यदि ऋजु ( अनुकूल शुभ) हों तो ये पुत्र-पौत्रादिका सुख प्रदान करनेवाले होते हैं ॥ ४९६ ॥
वर और कन्या दोनोंकी राशि और नक्षत्र भिन्न हों तो उन दोनोंका विवाह उत्तम होता है। दोनोंकी राशि भिन्न और नक्षत्र एक हो तो उनका विवाह मध्यम होता है और यदि दोनोंका एक ही नक्षत्र,एक ही राशि हो तो उन दोनोंका विवाह प्राणसंकट उपस्थित करनेवाला होता है ॥ ४९७ न ॥
(स्त्रीदूर दोष– ) कन्याके नक्षत्रसे प्रथम नवक (नौ नक्षत्रों)-के भीतर वरका नक्षत्र हो तो यह ‘ स्त्रीदूर’ नामक दोष कहलाता है; जो अत्यन्त निन्दित है। द्वितीय नवक (१० से १८ तक) –के भीतर हो तो मध्यम कहा गया है। यदि तृतीय नवक (१९ से २७ तक) -के भीतर हो तो उन दोनोंका विवाह श्रेष्ठ कहां गया है ॥ ४९८ ई ॥
(गणविचार– ) पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाधाढ़, पूर्वभाद्रपद, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़, उत्तर भाद्रपद,रोहिणी, भरणी और आर्द्रा-ये नक्षत्र मनुष्यगण हैं। श्रवण, पुनर्वसु, हस्त, स्वाती, रेवती, अनुराधा,अश्विनी, पुष्य और मृगशिरा–ये देवगण हैं तथा मघा, चित्रा, विशाखा, कृत्तिका, ज्येष्ठा, धनिष्ठा, शतभिषा, मूल और आश्लेषा–ये नक्षत्र राक्षसगण हैं ॥४९९-५०१॥ यदि वर और कन्याके नक्षत्र किसी एक ही गणमें हों तो दोनोंमें परस्पर सब प्रकारसे प्रेम बढ़ता है। यदि एकका मनुष्यगण और दूसरेका देवगण हो तो दोनोंमें मध्यम प्रेम होता है तथा यदि एकका राक्षसगण और दूसरेका देवगण या मनुष्यगण हो तो वर-वधू दोनोंको मृत्युतुल्य क्लेश प्राप्त होता है ॥५०२॥
(राशिकूट– ) वर और कन्याकी राशियोंको परस्पर गिननेसे यदि वे छठी और आठवीं संख्यामें पड़ती हों तो दोनॉंके लिये घातक हैं । यदि पाँचवीं और नवीं संख्यामें हों तो संतानकी हानि होती है। यदि दूसरी और बारहवीं संख्यामें हों तो बर-वधू दोनों निर्धन होते हैं। इनसे भिन्न संख्यामें हों तो दोनोंमें परस्पर प्रेम होता है ॥ ५०३ ॥
(परिहार– ) द्विददादश (२, १२) और नवपश्म (९, ५) दोषमें यदि दोनोंकी राशियोंका एक ही स्वामी हो अथवा दोनोंके राशिस्वामियोंमें मित्रता हो तो विवाह शुभ कहा गया है। परंतु षडष्टक (६, ८)-में दोनोंके स्वामी एक होनेपर भी विवाह शुभदायक नहीं होता है ॥५०४॥
(योनिकूट–) १ अश्व, २ गज, ३ मेष, ४ सर्प, ५ सर्प, ६ श्वान, ७ मार्जार, ८ मेष, ९ मार्जार, १० मूषक, ११ मूषक, १२ गौ, १३ महिष, १४ व्याघ्र, १५ महिष, १६ व्याप्र, १७ मृग, १८ मृग,१९ श्वान, २० वानर, २६ नकुल, २२ नकुल, २३ बानर, २४ सिंह, २५ अध, २६ सिंह, २७ गौ तथा २८ गज-अये क्रमश: अध्विनीसे लेकर रेवतीतक (अभिजित्सहित) अद्वाईस नक्षत्रोंकी योनियाँ हैं ॥५०५-५०६॥
इनमें श्वान और मृगमें, नकुल और सर्पमें, मेष और वानरमें, सिंह और गजमें, गौ और व्याप्रमें, मूषक और मार्जारमें तथा महिष और अश्वमें परस्पर भारी शत्रुता होती है ॥५०७॥
(वर्णकूट– ) मीन, वृश्चिक और कर्कराशि ब्राह्मण वर्ण हैं, इनके बादवाले क्रमशः क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण है । (एक वर्णके वर और वधूमें तो विवाह स्वयंसिद्ध हैं ही) पुरुष-राशिके वर्णसे स्त्री-राशिका वर्ण हीन हो तो भी विवाह शुभ माना गया है। इससे विपरीत ( अर्थात् पुरुषराशिके वर्णसे स्त्रीरशिका वर्ण श्रेष्ठ) हो तो अशुभ समझना चाहिये ॥ ५०८ ॥
(नाडीविचार– ) चार चरणवाले नक्षत्र (अचिनी,भरणी, रोहिणी, आर्द, पुष्य, आश्लेषा, मधा, पूर्वा-पूर्वाषाढ़, श्रवण, शतभिषा, उत्तर भाद्रपद, रेवती–इन)-में उत्पन्न कन्याके लिये अश्विनीसे आरम्भ करके रेवतीतक तीन प्वॉपर क्रम-उत्क्रम से गिनकर नाड़ी समझे। तीन चरणवाले (कृत्तिका, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा, उत्तराषाढ़ और पूर्व भादरपद) नक्ष्रोमें उत्फा कन्याके लिये कृत्तिकासे लेकर भरणोतक क्रम-उत्क्रमरे से चार प्वॉपर गिनकर नाड़ीका ज्ञान प्राप्त करे तथा दो चरणॉंवाले (मृगशिरा, चित्रा, धनिष्ठा) नक्षत्रोमें उत्पन्न कन्याकी नाड़ी जाननेके लिये मृगशिरासे लेकर रोहिणीतक पाँच पवॉपर क्रम-उत्क्रमंसे गिने। यदि वर और बधू दोनोंके नक्षत्र एक पर्वपर पढ़ें तो वे उनके लिये घातक हैं और भिन्न पवॉपर पढ़ें तो उन्हें शुभ समझना चाहिये ॥ ५०९ ई ॥
( विवाहोंके भेद– ) ऊपर बताये हुए शुभ समयमें (१) प्राजापत्य, (२) ब्राह्म, (३) दैव और (४) आर्ष-ये चार प्रकारके विवाह करने चाहिये । ये ही चारों विवाह उपर्युक्त फल देनेवाले होते हैं। इससे अतिरिक्त जो गान्धर्व, आसुर, पैशाच तथा राक्षस विवाह हैं, वे तो सब समय समान ही फल देनेवाले होते हैं ॥५१०-५११॥
( अभिजित् और गोधूलि लग़न– ) सूर्योदय-कालमें जो लग रहता है, उससे चतुर्थ लग्रका नाम अभिजित् है और सातवाँ गोधूलि-लग़ कहलाता है। ये दोनों विवाहमें पुत्र-पौत्रकी वृद्धि करनेवाले होते हैं ॥५१२ ॥ पूर्व तथा कलिड् देशवासियोंके लिये गोधूलि-लग्र प्रधान है और अभिजित्-लग्न तो सब देशोंके लिये मुख्य कहा गया है, क्योंकि वह सब दोषोंका नाश करनेवाला है ॥ ५१३ ॥
( अभिजित्-प्रशंसा– ) सूर्यके मध्य आकाशमें जानेपर अभिजित् मुहूर्त होता है, वह समस्त दोषोंको नष्ट कर देता है, ठीक उसी तरह, जैसे त्रिपुरासुरको श्रीशिवजीने नष्ट किया था॥ ५१४ ॥
पुत्रका विवाह करनेके बाद छः मासोंके भीतर पुत्रीका विवाह नहीं करना चाहिये। एक पुत्र या पुत्रीका विवाह करनेके बाद दूसरे पुत्रका उपनयन भी नहीं करना चाहिये । इसी प्रकार एक मंगल कार्य करनेके बाद छः मासोंके भीतर दूसरा मंगल कार्य नहीं करना चाहिये। एक गर्भसे उत्पन्न दो कन्याओंका विवाह यदि छः मासके भीतर हो तो निश्चय ही तीन वर्षके भीतर उनमेंसे एक विधवा होती है ॥५१५-५१६ ॥ अपने पुत्रके साथ जिसकी पुत्रीका विवाह हो, फिर उसके पुत्रके साथ अपनी पुत्रीका विवाह करना ‘ प्रत्युद्वाह` कहलाता है। ऐसा कभी नहीं करना चाहिये तथा किसी एक ही वरको अपनी दो कन्याएँ नहीं देनी चाहिये। दो सहोदर वरोंको दो सहोदरा कन्याएँ नहीं देनी चाहिये। दो सहोदरोंका एक ही दिन (एक साथ) विवाह या मुण्डन नहीं करना चाहिये ॥ ५१७ ॥
(गण्डान्त-दोष– ) पूर्वकथित गण्डान्तमें यदि दिनमें बालकका जन्म हो तो वह पिताका, रात्रिमें जन्म हो तो माताका और संध्या (सायं या प्रात:) कालमें जन्म हो तो वह अपने शरीरके लिये घातक होता है। गण्डका यह परिणाम अन्यथा नहीं होता है। मूलमें उत्पन्न होनेवाली संतान पुत्र हो या कन्या, श्वशुरके लिये घातक होती है, किंतु मूलके चतुर्थ चरणमें जन्म लेनेवाला बालक श्वशुरका नाश नहीं करता है तथा आश्लेषाके प्रथम चरणमें जन्म लेनेवाला बालक भी पिताका या श्रशुरका विनाश करनेवाला नहीं होता है। ज्येष्ठके अन्तिम चरणमें उत्पन्न बालक ही श्रशुरके लिये घातक होता है, कन्या नहीं। किसी प्रकार पूर्वाषाढ़ या मूलमें उत्पन्न कन्या भी माता या पिताका नाश करनेवाली नहीं होती है। ज्येष्ठा नक्षत्रमें उत्पन्न कन्या अपने पतिके बड़े भाईके लिये और विशाखामें जन्म लेनेवाली कन्या अपने देवरके लिये घातक होती है ॥५१८–५२१॥
( बधू-प्रवेश– ) विवाहके दिनसे ६, ८, १० और ७वें दिनमें बधू-प्रवेश (पतिगृहमें प्रथम प्रवेश) हो तो वह सम्पत्तिकी वृद्धि करनेवाला होता है । द्वितीय वर्ष, जन्म-राशि, जन्म-लग और जन्म-दिनको छोड़कर अन्य समयमें सम्मुख शुक्र रहनेपर भी वैवाहिक यात्रा (वधू-प्रवेश) शुभ होती है ॥५२र-५२३॥
( देव-प्रतिष्ठा- ) उत्तरायणमें, बृहस्पति और शुक्र उदित हों तो चैत्रको छोड़कर माघ आदि पाँच मासोंके शुक्लपक्षमें और कृष्णपक्षमें भी आरम्भसे आठ दिनतक सब देवताओंकी स्थापनाशुभदायक होती है। जिस देवताकी जो तिथि है,११, १२, १३ तथा पूर्णिमा-इन तिथियोंमें सबदेवताओंकी स्थापना शुभ होती है। तीनों उत्तरा,पुनर्वसु, मृगशिरा, रेवती, हस्त, चित्रा, स्वाती, पुष्य, अश्विनी, रोहिणी, शतभिषा, श्रवण, अनुराधा और धनिष्ठा-इन नक्षत्रोंगें तथा मड़लवारको छोड़कर अन्य वारोंमें देव-प्रतिष्ठा करनी चाहिये। स्थापना करनेवाले (यजमान )-के लिये सूर्य, तारा और चन्द्रमा बलवान् हों, उस दिनके पूर्वाहममें, शुभ समय, शुभ लग और शुभ नवमांशमें तथा
यजमानकी जन्मराशिसे अष्टम राशिको छोड़कर अन्य लग्रोंमें देवताओंकी प्रतिष्ठा शुभदायक होती है ॥५२४-५२९॥
मेंष आदि सब राशियाँ शुभ ग्रहसे युक्त या दृष्ट हो तो देवस्थापनके लिये श्रेष्ठ समझी जाती हैं । प्रत्येक कार्यसें पञ्चाङ्ग तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण शुभ होने चाहिये और लग्नसे अष्टम स्थान भी शुभ ग्रहवर्जित होना आवश्यक है ॥५३०॥ १ लग्नमें चन्द्रमा, सूर्य, मङ्गल, राहु, केतु और शनि कर्ताके लिये घातक होते हैं । अन्य बुध, गुरु और शुक्र लग्नमें धन, धान्य और सब सुखोंको देनेवाले होते हैं । २ द्वितीय भावमें पापग्रह अनिष्ट फल देनेवाले और शुभग्रह धनकी वृद्धि करनेवाले होते हैं । ३ तृतीय भावमें शुभ और पाप सब ग्रह पुत्र—पौत्रादि सुखको बढानेवाले होते हैं । ४ चतुर्थ भावमें शुभग्रह शुभफत और पापग्रह पाप—फलको देते हैं । ५ पञ्चम भावमें पापग्रह कष्टदायक और शुभग्रह पुत्रादि सुख देनेवाले होते हैं । ६ षष्ठ भावमें शुभग्रह शत्रुको बढानेवाले और पापग्रह शत्रुके लिये घातक होते हैं । ७ सप्तम भावमें, पापग्रह रोगकारक और शुभग्रह और पापग्रह सभी कर्ता यजमान—के लिये घातक होते हैं । ९ नवम भावमें पापग्रह हो तो वे धर्मको नष्ट करनेवाले हैं और शुभग्रह शुभ फल देनेवाले होते हैं । १० दशम भावमें पापग्रह दुःखदायक और शुभग्रह सुयशकी वृद्धि करनेवाले होते हैं । ११ एकादश स्थानमें पाप और शुभ सब ग्रह सब प्रकारसे लाभकारक ही होते हैं । १२ लग्नसे द्वादश स्थानमें पाप या शुभ सभी ग्रह व्यय खर्च—को बढानेवाले होते हैं ॥५३१—५३६॥
( प्रतिष्ठामें अन्य विशेष बात—) प्रतिष्ठा करानेवाले पुरोहित या आचार्य—को अर्थज्ञान न हो तो यजमानका अनिष्ट होता है । मन्त्रोंका अशुभ उच्चारण हो तो ऋत्विजों यज्ञ करानेवालों—का और कर्म विधिहीन हो तो कर्ताकी स्त्रीका अनिष्ट होता है । इसलिये नारद ! देव—प्रतिष्ठाके समान दूसरा शत्रू भी नहीं है । यदि लग्नमें अधिक गुण हो और थोडे—से दोष हो तो उसमें देवताओंकी पतिष्ठा कर अलेनी चाहिये । इससे कर्ता यजमान—के अभीष्ट मनोरथकी सिद्धि होती है । मुने ! अब मैं संक्षेपसे ग्राम, मन्दिर तथा गृह आदिके निर्माणकी बात बताता हूँ ॥५३७—५३९॥
( गृहनिर्माणके विषयमें ज्ञातव्य बातें—) गृह आदि बनाना हो तो पहले गन्ध, वर्ण, रस तथा आकृतिके द्वारा क्षेत्र भूमि—की परीक्षा कर लेनी चाहिये । यदि उस स्थानकी मिट्टीमें मधु शहद—के समान गन्ध ओ तो ब्राह्मणोंके, पुष्पसदृश गन्ध हो तो क्षत्रियोंके, आम्ल खटाई—के समान गन्ध हो तो वैश्योंके और मांसकी—सी गन्ध हो तो वह स्थान शूद्रोंके बसनेयोग्य जानना चाहिये । वहाँकी मिट्टीका रंग श्वेतत हो तो ब्राह्मणोंके, लाल हो तो क्षत्रियोंके, पीत पीला हो तो वैश्योंके और कृष्ण काला हो तो वह शूद्रोंके निवासके योग्य है । यदि वहाँके मिट्टीका स्वाद मधुर हो तो ब्राह्मणोंके, कडुवा मिर्चके समान हो तो क्षत्रियोंके, तिक्त हो तो वैश्योंके और कषाय कसैला स्वाद हो तो उस स्थानको शूद्रोंके निवास करनेयोग्य समझना चाहिये ॥५४०—५४१॥ ईशान, पूर्व और उत्तर दिशामें प्लव नीची भूमि सबके लिये अत्यन्त वृद्धि देनेवाली होती है । अन्य दिशाओंमें प्लव नीची भूमि सबके लिये हानि करनेवाली होती है ॥५४२॥
( गृहभूमि—परीक्षा— ) जिस स्थानमें घर बनाना हो वहाँ अरत्नि कोहिनीसे कनिष्ठा अंगुलितक के बराबर । फिर उस उसी खोदी हुई मिट्टीसे भरे । यदि भरनेसे मिट्टी शेष बच जाय तो उस स्थानमें वास करनेसे समपत्तिकी वृद्धि होती है । यदि मिट्टी कम हो जाय तो वहाँ रहनेसे सम्पत्तिकी हानि होती है । यदि सारी मिट्टीसे वह कुण्ड भर जाय तो मध्यम फल समझना चाहिये ॥५४३॥ अथवा उसी प्रकार अरत्निके मापका कुण्ड बनाकर सायंकाल उसको जलसे पूरित कर दे और प्रात: काल देखे; यदि कुण्डमें जल अवशिष्ट हो तो उस स्थानमें वृद्धि होगी । यदि कीचड गीली मिट्टी ही बची हो तो मध्यम फल है और यदि कुण्डकी भूमिमें दरार पड गयी हो तॊ उस स्थानमें वास करनेसे हानि होगी ॥५४४॥
मुने ! इस प्रकार निवास करनेयोग्य स्थानकी भलीभाँति परीक्षा करके उक्त लक्षणयुक्त भूमिमें दिक्साधन भूमिमें वृत्त गोल रेखा बनावे । वृत्तके मध्य भागमें द्वादशाङ्गुल शङ्कु बारह विभाग या पर्वसे युक्त एक सीधी लकडी—की स्थापना करे और दिक्साधनविधिसे दिशाओंका ज्ञान करे । फिर कर्ताके नामके अनुसर षडवर्ग शुद्ध क्षेत्रफल वास्तु भूमिकी लम्बाई—चौडाईका गुणनफल ठीक करके अभीष्ट लम्बाई—चौडाईके बराबर दिशासाधित रेखानुसार चतुर्भुज बनावे । उस चतुर्भुज रेखामार्गपर सुन्दर प्राकार चहारदीवारी बनावे । लम्बाई और चौडाईमें पूर्व आदि चारों दिशाओंमें आठ—आठ द्वारके भाग होते हैं । प्रदक्षिणक्रमसे उनके निम्नाङ्कित फल हैं । जैसे पूर्वभागमें उत्तरसे दक्षिणतक १—हानि, २—निर्धनता, ३—धनलाभ, ४—राजसम्मान, ५—बहुत धन, ६—अति चोरी, ७—अति क्रोध तथा ८—भय—ये क्रमश: आठ द्वारोंके फल हैं । दक्षिण दिशामें क्रमश: १—मरण, २—बन्धन, ३—भय, ४—धनलाभ, ५—धनवृद्धि, ६—निर्भयता, ७—व्याधिभय तथा ८—निर्बलता—ये पूर्वसे पश्चिमतकके आठ द्वारोंके फल हैं । पश्चिम दिशामें क्रमशा: १—पुत्रहानि, २—शत्रुवृद्धि, ३—लक्ष्मीप्राप्ति, ४—धनालभ, ५—सौभाग्य, ६—अति दौर्भाग्य, ७—दु:ख तथा ८—शोक—ये दक्षिणसे उत्तरतकके आठ द्वारोंके फल हैं । इसी प्रकार उत्तर दिशामें पश्चिमसे पूर्वतक १—स्त्री—हानि, २—निर्बलता, ३—हानि, ४—धान्यलाभ, ५—धनागम, ६—सम्पत्ति—वृद्धि, ७—भय तथा ८—रोग—ये क्रमश: आठ द्वारोंके फल हैं ॥५४५—५५२॥
इसी तरह पूर्व आदि दिशाओंके गृहादिमें भी द्वार और उसके फल समझने चाहिये । द्वारका जितना विस्तार चौडाई हो, उससे दुगुनी ऊँची किवाडें बनाकर उन्हें घरमें चहारदीवारीके दक्षिण या पश्चिम भागमें लगावे ॥५५३॥ चहारदीवारीके भीतर जितनी भूमि हो, उसके इक्यासी पद समान खण्ड बनावे । उनके बीचके नौ खण्डोंमें ब्रह्माका स्थान समझे । यह गृहनिर्माणमें अत्यन्त निन्दित है । चहारदीवारीसे मिले हुए जो चारों ओरके ३२ भाग हैं, वे पिशाचांश कहलाते हैं । उनमें घर बनाना दुःख, शोक और भय देनेवाला होता है । शेष अंशों पदों—में घर बनाये जायँ तो पुत्र, पौत्र और धनकी वृद्धि करनेवाले होते हैं ॥५५५ . १ / २॥
वास्तुभृमिकी दिशा—विदिशाओंकी रेखा वास्तुकी शिरा कहलाती है। एवं ब्रह्मभाग, पिशाचभाग तथा शिराका जहाँ—जहाँ योग हो, वहाँ—वहाँ वास्तुकी मर्मसन्धि समझनी चाहिये । वह मर्मसन्धि गृहारम्भ तथा गृह—प्रवेशमें अनिष्टकारक समझी जाती है ॥५५७ . १ / २॥
(गृहारम्भमें प्रशस्त मास—) मार्गशीर्ष, फाल्गुन, वैशाख, माघ, श्रावण और कार्तिक—ये मास गृहारम्भमें पुत्र, आरोग्य और धन देनेवाले होते हैं ॥५५८ . १ / २॥
(दिशाओंमें वर्ग वर्ग और वर्गेश—) पूर्व आदि आठों दिशाओंमें क्रमश: अकारादि आठ वर्ग होते हैं । इन दिशावर्गोंके क्रमश: गरुड, मार्जार, सिंह, श्वान, सर्प, मूषक, गज और शशक (खरगोश)—ये योनियाँ होती हैं । इन योनि—वर्गोंमें अपने पाँचवें वर्गवाले परस्पर शत्रु होते हैं ॥५५९—५६०॥
(जिस ग्राममें या जिस दिशामें घर बनाना हो, वह साध्य तथा घर बनानेवाला साधक, कर्ता और भर्ता आदि कहलाता है । इसको ध्यानमें रखना चाहिये ।) साध्य (ग्राम)—की वर्ग—संख्याको लिखकर, उसके पीछे (बायें भागमें) साधककी वर्ग—संख्या लिये । उसमें आठका भाग देकर जो शेष बचे, वह साधकका धन होता है । इसके विपरीत विधिसे अर्थात् साधककी वर्ग—संख्याके बायें भागमें साध्यकी वर्ग—संख्या रखकर जो संख्या बने, उसमें आठसे भाग देकर शेष) साधकका ऋण होता है । इस प्रकार ऋणकी संख्या अल्प और धन—संख्या अधिक हो तो शुभ माने (अर्थात् उस ग्राम या उस दिशामें बनाया हुआ घर रहने योग्य है, ऐसा समझे) ॥५६१ (क—ख) ॥
इसी प्रकार साधकके नक्षत्र साध्यके नक्षत्रतक गिनकर जो संख्या हो उसको चारसे गुणा करके गुणनफलमें सातसे भाग दे तो शेष साधकका धन होता है ॥५६२॥
(वास्तुभूमि तथा घरके धन, ऋण, आय, नक्षत्र, वार और अंशके ज्ञानका साधन—) वास्तुभूमि या घरकी चौडाईको लम्बाईसे गुणा करनेपर गुणनफल ‘पद’ कहलाता है । उस (पद—को (६ स्थानोंसें
रखकर) क्रमश: ८, ३, ९, ८, ९, ६ से गुणा करे और गुणनफलमें क्रमश: १२, ८, ८, २७, ७, ९ से भाग दे । फिर जो शेष बचें, वे क्रमश: धन, ऋण, आय, नक्षत्र, वार तथा अंश होते हैं । धन अधिक हो तो वह घर शुभ होता है । यदि ऋण अधिक हो तो अशुभ होता है तथा विषम (१, ३, ५, ७) आय शुभ और सम (२, ४, ६, ८) आय अशुभ होता है । घरका जो नक्षत्र हो, वहाँसे अपने नामके नक्षत्रतक गिनकर जो संख्या हो, उसमें ९ से भाग दे । फिर यदि शेष (तारा) ३ बचे तो धनका नाश होता है । ५ बचे तो यशकी हानि होती है और ७ बचे तो गृहर्ताका ही मरण होता है । घरकी राशि और अपनी राशि गिननेपर परस्पर २, १२ हो तो धनहानि होती है: ९, ५ हो तो पुत्रकी हानि होती है और ६, ८ हो तो अनिष्ट होता है; अन्य संख्या हो तो समझना चाहिये
सूर्य और मङ्गलके वार तथा अंश हो तो उस घरमें अग्निभय होता है । अन्य वार—अंश हो तो सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंकी सिद्धि होती है ॥५६३—५६७॥
(वास्तुपुरुषकी स्थिति—) भादों आदि तीन—तीन मासोंमें क्रमश: पूर्व आदि दिशाओंकी ओर मस्तक करके बायीं करवटसे सोये हुए महासर्पस्वरूप ‘चर’ नामक वास्तुपुरुष प्रदक्षिणक्रमसे विचरण करते रहते हैं । जिस समय जिस दिशामें वास्तुपुरुषका मस्तक हो, उस समय उसी दिशामें घरका दरवाजा बनाना चाहिये । मुखसे विपरीत दिशामें घरका दरवाजा बनानेसे रोग, शोक और भय होते हैं । किंतु यदि घरमें चारों दिशाओंमें द्वार हो तो यह दोष नहीं होता है ॥५६८—५७०॥
गृहारम्भकालमें नींवके भीतर हाथभरके गड्ढेमें स्थापित करनेके लिये सोना, पवित्र स्थानकी रेणु (धूलि), धान्य और सेवारसहित ईंट घरके भीतर संग्रह करके रखे । घरकी जितनी लंबाई हो, उसके तीन अङ्गुल नीचे (वास्तुपुरुषके पुच्छभागकी ओर) कुक्षि रहती है । उसमें शङ्कुका न्यास करनेसे पुत्र आदिकी वृद्धि होती है ॥५७१—५७२॥
(शाङ्कुप्रमाण—) खदिर (खैर), अर्जन, शाल (शाखू), युगपत्र (कचनार) रक्तचन्दन, पलाश, रक्तशाल, विशाल आदि वृक्षोंसे किसीकि लकडीसे शङ्क बनता है । ब्राह्मणादि वर्णोंके लिये क्रमश: २४, २३, २० और १६ अङ्गुलके शङ्क होने चाहिये । उस शङ्कुके बराबर—बराबर तीन भाग करके ऊपरवाले भागमें चतुष्कोण, मध्यवाले भागमें अष्टकोण और नीचेवाले (तृतीय) भागमें बिना कोणका (गोलाकार) उसका स्वरूप होना उचित है । इस प्रकार उत्तम लक्षणोंसे युक्त कोमल और छेदरहितु शङ्क शुभ दिनमें बनावे। उसको षडवर्गद्वारा शुद्ध सूत्रसे सूत्रित भूमि (गृहक्षेत्र—में मृदु, ध्रुव क्षिप्रसंज्ञक नक्षत्रोंमें, अमावास्या और रिक्ताको छोडकर अन्य तिथियोंमें, रविवार, मड्गलवार तथा चर लग्नको छोडकर अन्य वारों और अन्य (स्थिर याया द्विस्वभाव) लग्नोंमें, जब पापग्रह लग्नमें न हो, अष्टम स्थान शुद्ध (ग्रहरहित) हो; शुभ राशि लग्न हो और उसमें शुभ नवमांश हो, उस लग्नमें शुभग्रहका संयोग या दृष्टि हो; ऐसे समय (सुलग्न)—में ब्राह्मणोंद्वारा पुण्याहवाचन कराते हुए माङ्गलिक वाद्य और सौभाग्यवती स्त्रियोंके मङ्गलगीत आदिके साथ मुहूर्त बतानेवाल देवज्ञ (ज्योतिषके विद्वान् ब्राह्मण) के पूजन (सत्कार)—पूर्वक कुक्षिस्थानमें शङ्कुखी स्थापना करे । लग्नसे केन्द्र और त्रिकोणमें शुभ ग्रह तथा ३, ६, ११ में पापग्रह और चन्द्रमा हो तो यह शुङ्कुस्थापन श्रेष्ठ है ।५७९ . १ / २॥
घरके छ: भे होते हैं—१—एकशाला, २—द्विशाला, ३—त्रिशाला, ४—चतुश्शाला, ५—सप्तशाला तथा ६—दाशशाला । इन छ्हों शालाओंमेंसे प्रत्येकके १६ भेद होते हैं । उन सब भेदोंके नाम क्रमश: इस प्रकार है—१—ध्रुव, २—धान्य ३—जय, ४—नन्द, ५—खर, ६—कान्त, ७—मनेरम, ८ सुमुख, ९ दुर्मुख, १० क्रूर, ११ शत्रुर, १२ स्वर्णद, १३ क्षय, १४ आक्रन्द, १५ विपुल और १६ वाँ विजय नामक गृह होता है । चार अक्षरोंके प्रस्तारके भेदसे क्रमश: इन गृहोकी गणना करनी चाहिये ॥५८२ . १ / २॥
(प्रस्तारभेद—) प्रथम ४ गुरु (ऽ) चिह्न लिखकर उनमें प्रथम गुरुके नीचे लघु (।) चिह्न लिखे । फिर आगे जैसा ऊपर हो उसी प्रकारके गुरु या लटु चिह्न लिखना चाहिये । फिर उसके नीचे (तीसरी पडक्तिमें) प्रथम गुरु चिह्नके नीचे लघु चिह्न लिखकर आगे (दाहिने भागमें) जैसे ऊपर गुरु या लघु हो वैसा ही चिह्न लिखे तथा पीछे (बायें भागमें) गुरु चिह्नसे पूरा करे । इसी प्रकार पुन:—पुन: तबतक लिखता जाय जबतक कि पंक्ति (प्रस्तार)—में सब चिह्न लघु न हो जाय । इस प्रकार चार दिशा होनेके कारण ४ अक्षरोंसे १६ भेद होते हैं । प्रत्येक भेदमें चारों चिह्नोंको प्रदक्षिणक्रमसे पूर्व आदि दिशा समझकर जहाँ—जहाँ लघु चिह्न पडे वहाँ—वहाँ घरका द्वार और अलिन्द (द्वारके आगेका भाग = चबूतरा) बनाना चाहिये । इस प्रकार पूर्वादि दिशाओंमें अलिन्दके भेदोंसे १६ प्रकारके घर होते हैं ॥५८४ . १ / २॥
वास्तुभूमिकी पूर्वदिशामें स्नानगृह, अग्निकोणमें पाकगृह (रसोईघर), दक्षिणमें शयनगृह, नैऋत्यकोणमें शस्त्रागार, पश्चिममें भोजनगृह, वायुकोणमें धन—धान्यादि रखनेका घर, उत्तरमें देवताओंका गृह और ईशानकोणमें जलका गृह (स्थान) बनाना चाहिये तथा आग्नेयकोणसे आरम्भ करके उक्त दो—दो घरोंके बीच क्रमश: मन्थन (दूध—दहीसे घृत निकालने—का, घृअ रखनेका, पैखानेका, विद्याभ्यासका, स्त्रीसहवासका, औषधका और श्रृङ्गरकी सामग्री रखनेका घर बनाना शुभ कहा गया है । अत: इन सब घरोंमें उन—उन सब वस्तुओंको रखना चाहिये ॥५८८ . १ / २॥
(आयोंके नाम और दिशा—) पूर्वादि आठ दिशाओंमें क्रमसे ध्वज, धूम्र, सिंह, श्वान, वृक्ष, खर (गदहा), गज और ध्वांक्ष (काक)—ये आठ आय होते हैं ॥५८९ . १ / २॥
(घरके समीप निन्द्य वृक्ष—) पाकर, गूलर, आम, नीम, बहेडा तथा काँटेवाले और दुग्धवाले सब वृक्ष, पीपल, कपित्थ (कैथ), अगस्त्य वृक्ष, सिन्धुवार (निर्गुण्डी) और इमली—ये सब वृक्ष घरके समीप निन्दित कहे गये हैं । विशेषत: घरके दक्षिण और पश्चिम—भागमें ये सब वृक्ष हो तो धन आदिका नाश करनेवाले होते हैं ॥५९९ . १ / २॥
(गृह—प्रमाण—) घरके स्तम्भ (खम्भे) घरके पैर होते हैं । इसलिये वे समसंख्या (४, ६, ८ आदि)—में होनेपर ही उत्तम कहे गये हैं; विषम संख्यामें नहीं । घरको न तो अधिक ऊँचा ही करना चाहिये, न अधिक नीचा ही । इसलिये अपनी इच्छा (निर्वाह)—के अनुसार भित्ति (दीवार) की ऊँचाई करनी चाहिये । घरके ऊपर जो घर (दूसरा मंजिल) बनाया जाता है, उसमें भी इस प्रकारका विचार करना चाहिये । घरोंकी ऊँचाईके प्रमाण आठ प्रकारके कहे गये हैं, जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं—१—पाञ्चाल, २—वैदेह, ३—कोरव, ४—कुजन्यक, ५—भागध, ६—शूरसेन, ७ गान्धार और ८ आवन्तिक । जहाँ घरकी ऊँचाई उसकी चौडाईसे सवागुनी अधिक होती है, वह भूतलसे ऊपरतकका पाञ्चालमान कहलाता है, फिर उसी ऊँचाईको उत्तरोत्तर सवागुनी बढानेसे वैदेह आदि सब मान होते हैं । इनमें पाञ्चालमान तो सर्वसाधारण जनोंके लिये शुभ है । ब्राह्मणोंके लिये आवन्तिकमान, क्षत्रियोंके लिये गान्धारमान तथा वैश्योंके लिये कोजन्यमान है । इस प्रकार ब्राह्मणादि वर्णोंके लिये कोजन्यमान है । इस प्रकार ब्राह्मणादि वर्णोंके लिये यथोत्तर गृहमान समझना चाहिये तथा दूसरे मंजिल और तीसरे मंजिलके मकानमें भी पानीका बहाव पहले बताये अनुसार ही बनाना चाहिये ॥५९२—५९८॥
(घरमें प्रशस्त आय—) ध्वज अथवा गज आयमें ऊँट और हाथीके रहनेके लिये घर बनवावे तथा अन्य सब पशुओंके घर भी उसी (ध्वज और गय) आयमें बनाने चाहिये । द्वार, शय्या, आसन, छाता और ध्वजा—इन सबोंके निर्माणके लिये सिंह, वृष अथवा ध्वज आय होने चाहिये ॥५९९ . १ / २॥
अब मैं नूतनगृहमें प्रवेशके लिये वास्तुपूजाकी विधि बताता हूँ—घरके मध्यभागमें तन्दुल (चावल)—पर पूर्वसे पश्चिमकी ओर एक—एक हाथ लम्बी दस रेखाएँ खींचे । फिर उत्तरसे दक्षिणकी ओर भी उतनी ही लम्बी—चौडी दस रेखाएँ बनावे । इस प्रकार उसमें बराबर—बराबर ८१ पद (कोष्ठ) होते हैं । उनमें आगे बताये जानेवाले ४५ देवताओंका यथोक्र स्थानमें नामोल्लेख करे । बत्तीस देवता बाहर (प्रान्तके कोष्ठोंमें) और तेरह देवता भीतर पूजनीय होते हैं । उस ४५ देवताओंके स्थान और नामका क्रमश: वर्णन करता हूँ । किनारेके बत्तीस कोष्ठोंमें ईशान कोणसे आरम्भ करके क्रमश: बत्तीस देवता पूज्य हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं—कृपीट य्नि (अग्नि) १, पर्जन्य २, जयन्त, ३, इन्द्र ४, सूर्य ५, सत्य ६, भृश ७, आकाश ८, वायु ९, पूषा १०, अनृत (वितथ) ११, गृहक्षत १२, यम १३, गन्धर्व १४, भृङ्गराज १५, मृग १६, पितर १७, दौवारिक १८, सुग्रीव १९, पुष्प—दन्त २०, वरुण २१, असुर २२, शेष २३, राजयक्ष्मा २४, रोग २५, अहि २६, मुख्य २७, भल्लाटक २८, सोम २९, सर्प ३०, अदिति ३१, और दिति ३२,—ये चारों किनारोंके देवता हैं । ईशान अग्नि, नैऋत्य और वायुकोणके देवोंके समीप क्रमश: आप ३३, सावित्र ३४, जय ३५, तथा रुद्र ३६ के पद हैं । ब्रह्माके चारों ओर पूर्व आदि आठों दिशाओंमें क्रमश: अर्यमा ३७, सविता ३८, विवस्वान् ३९, विबुधाधिप ४०, मित्र ४१, राजयक्ष्मा ४२, पृथ्वीधर ४३, आपवत्स ४४ हैं और मध्यके नव पदोंमें (४५) ब्रह्माजीको स्थापित करना चाहिये । इस प्रकार सब पदोंमें ये पैंतालीस देवता पूजनीय होते हैं । जैसे ईशान—कोणमें आप, आपवत्स, पर्जन्य, अग्नि उर दिति—ये पाँच देव एकपद होते हैं, उसी प्रकार अन्य कोणोंके पाँच—पाँच देवता भी एक—पदके भागी हैं । अन्य जो बाह्य—पडक्तिके (जयन्त, इन्द्र आदि) बीस देवता हैं, वे सब द्विपद दो—दो पदोंके भागी) हैं तथा ब्राह्मसे पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशामें जो अर्यमा, विवस्वान्, मित्र और पृथ्वीधर—ये चार देवता हैं, वे त्रिपद (तीन—तीन पदोंके भागी) हैं, अत: वास्तु—विधिके ज्ञाता विद्वान् पुरुषको चाहिये कि ब्रह्माजीसहित इन एकपद्, पुरुषको चाहिये कि ब्रह्माजीसहित इन एकपद्, द्विपद तथा त्रिपद देवताओंका वास्तुमन्त्रोंद्वारा दूर्वा, दही, अक्षत, फूल, चन्द्रन, धूप, दीप और नैवेद्यादिसे विधिवत् पूजन करे । अथवा ब्राह्ममन्त्रसे आवाहनादि षोडश (या पञ्च) उपचारोंद्वारा उन्हें दो श्वेत वस्त्र समर्पित करे ॥६००—६१३॥ नैवेद्यमें तीन प्रकारके (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य) अन्न माङ्गलिक गीत और वाद्यके साथ अर्पण करे । अन्तमें ताम्बूल (पान—सोपारी) अर्पण करके वास्तुपुरुषकी इस प्रकार प्रार्थना करे ॥६१४॥
वास्तुपुरुष नमस्तेऽस्तु भूशय्यानिरत प्रभो ।
मद्गृहं धनधान्यादिसमृद्धं कुरु सर्वदा ॥
‘भूमिशय्यापर शयन करनेवाले वास्तुपुरुष ! आपको मेंरा नमस्कार है । प्रभो ! आप मेंरे घरको धन—धान्य आदिसे सम्पन्न कीजिये ।’
इस प्रकार प्रार्थना करके देवताके समक्ष पूजा करानेवाले (पुरोहित)—को यशाशक्ति दक्षिणा दे तथा अपनी शक्तिके अनुसार ब्राह्मणोंको भोजन कराकर उन्हें भी दक्षिणा दे । जो मनुष्य सावधान होकर गृहारम्भ या गृहप्रवेशके समय इस विधिसे वास्तुपूजा करता है, वह आरोग्य, पुत्र, धन और धान्य प्राप्त करके सुखी होता है । जो मनुष्य वास्तुपूजा न करके नये घरमें प्रवेश करता है, वह नाना प्रकारके रोग, क्लेश और संकट प्राप्त करता है ॥६१५—६१८॥
जिसमें किंवाडें न लगी हो, जिसे ऊपरसे छत आदिके द्वारा छाया न गया हो तथा जिसके लिये (पूर्वोक्त रूपसे वास्तुपूजन करके) देवताओंको बलि (नैवेद्य) और ब्राह्मण आदिको भोजन न दिया गया हो, ऐसे नूतन गृहमें कभी प्रवेश न करे; क्योंकि वह विपत्तियोंकी खान (स्थान) होता है ॥६१९॥
(यात्रा—प्रकरण—) अब मैं जिस प्रकारसे यात्रा करनेपर वह राजा तथा अन्य जनोंके लिये अभीष्ट फलकी सिद्धि करानेवाली होती है, उस विधिका वर्णन करता हूँ । जिनके जन्म—समयका ठीक—ठीक ञान हैं, उन राजाओं तथा अन्य जनोंको उस विधिसे यात्रा करनेपर उत्तम फलकी प्राप्ति होती है । जिन मनुष्योंका जन्मसमय अज्ञात है, उनको तो घुणाक्षर न्यायसे ही कभी फलकी प्राप्ति जो जाती है, तथापि उनको भी प्रश्नलग्नसे तथा निमित्त और शकुन आदिद्वारा शुभाशुभ देखकर यात्रा करनेसे अभीष्ट फलका लाभ होता है ॥६२०—६२१॥
(यात्रामें निषिद्धि तिथियाँ—) षष्ठी, अष्टमी, द्वादशी, चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी, अमावास्या, पूर्णिमा और शुक्लपक्षकी प्रतिपद—इन तिथियोंमें यात्रा करनेसे दरिद्रता तथा अनिष्टकी प्राप्ति होती है ॥६२२॥
(विहित नक्षत्र—) अनुराधा, पुनर्वसु, मृगशिरा, हस्त, रेवती, अश्विनी, श्रवण, पुष्य और धनिष्ठा—इन नक्षत्रोंमें यदि अपने जन्म—नक्षत्रसे सातवीं, पाँचवीं और तीसरी तारा न हो तो यात्रा अभीष्ट फलको देनेवाली होती है ॥६२३॥
(दिशाशूल—) शनि और सोमवारके दिन पूर्व दिशाकी ओर न जाय, गुरुवारको दक्षिण न जाय, शुक्र और रविवारको पश्चिम न जाय तथा बुध और मङ्गलको उत्तर दिशाकी यात्रा न करे ॥६२४॥ ज्येष्ठा, पूर्वभाद्रपद, रोहिणी और उत्तराफाल्गुनी—ये नक्षत्र क्रमश: पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशामें शूल होते हैं ।
(सर्वदिग्गमन नक्षत्र—) अनुराधा, ह्स्त, पुष्य और अश्विनी—ये चार नक्षत्र सब दिशाओंकी यात्रामें प्रशस्त हैं ॥६२५॥
(दिग्द्वार—नक्षत्र—) कृत्तिकासे आरम्भ करके सात—सात नक्षत्रसमूह पूर्वादि दिशाओंमें रहते हैं तथा अग्निकोणसे वायुकोणतक परिघदण्ड रहता है; अत: इस प्रकार यात्रा करनी चाहिये, जिससे परिघदण्डका लङ्घन न हो ॥६२६॥
पूर्वके नक्षत्रोंमें अग्निकोणकी यात्रा करे । इसी प्रकार दक्षिणके नक्षत्रोंमें अग्निकोण तथा पश्चिम और उत्तरके नक्षत्रोंमें वायुकोणकी यात्रा कर सकते हैं ।
(दिशाओंकी राशियाँ—) पूर्व आदि चार दिशाओंमें मेंष आदि १२ राशियाँ पुन: (तीन आवृत्तिसे) आती हैं ॥६२७॥
(लालाटिकयोग—) जिस दिशामें यात्रा करनी हो, उस दिशाका स्वामी ललाटगत (सामने) हो तो यात्रा करनेवाला लौटकर नहीं आता है । पूर्व दिशामें यात्रा करनेवालेको लग्नमें यदि सूर्य हो तो वह ललाटगत माना जाता है । यदि शुक्र लग्नसे ग्यारहवें या बारहवें स्थानमें हो तो अग्निकोणमें यात्रा करनेसे, मड्गल दशम भावमॆं हो तो दक्षिणयात्रा करनेसे, राहु नवें और आठवें भावमें हो तो नर्सृत्य कोणकी यात्रासे, शनि सप्तम भावमें हो तो पश्चित—यात्रासे, चन्द्रमा पाँचवें और छवे भावमें हो तो वायुकोणकी यात्रासे, बुध चतुर्थ भावमें भावमें होतो उत्तरकी यात्रासे, गुरु तीसरे और दूसरे भावमें हो तो ईशानकोणकी यात्रा करनेसे ललाटगत होते हैं । जो मनुष्य जीवनई इच्छा रखता हो, वह इस ललायोगको त्यागकर यात्रा करे ॥६२८—६३२॥
लग्नमें वक्रगति ग्रह या उसके षडवर्ग (राशि—होरादि) हो तो यात्रा करनेवाले राजाओंकी पराजय होती है ॥६३३॥
जब जिस अयन में सूर्य और चन्द्रमा दोनों हो, उस समय उस दिशाकी यात्रा शुभ फल देनेवाली होती है । यदि दोनों भिन्न अयनमें हो तो जिस अयनमें सूर्य हो उधर दिनमें तथा जिस अयनमें चन्द्रमा हो उधर रात्रिमें यात्रा शुभ होती है । अन्यथा यात्रा करनेसे यात्रीकी पराजय होती है ॥६३४॥
(शुक्रदोष—) शुक्र अस्त हो तो यात्रामें हानि होती है । यदि वह सम्मुख हो तो यात्रा करनेसे पराजय होती है । सम्मुख शुक्रके दोषको कोई भी ग्रह नहीं हटा सकता है । किंतु वसिष्ठ, कश्यप, अत्रि, भरद्वाज और गौतम—इन पाँच गोत्रवालोंको सम्मुख शुक्रका दोष नहीं होता है । यदि एक ग्रामके भीतर ही यात्रा करनी हो या विवाहमें जाना हो या दुर्भिक्ष होनेपर अथवा राजओंमें युद्ध, होनेपर तथा राजा या ब्राह्मणोंका क्रोप होनेपर कहीं जाना पडे तो इन अवस्थाओंमें सम्मुख शुक्रका दोष नहीं होता है । शुक्र यदि नीच राशिमें या शत्रुराशिमें अथवा वक्रगति या पराजित हो तो यात्रा करनेवालोंकी पराजय होती है । यदि शुक्र अपनी उच्चराशि (मीन)—में हो तो यात्रामें विजय होती है ॥६३५—६३८॥
अपने जन्मलग्न या जन्मराशिसे अष्टम राशि या लग्नमें तथा शत्रुकी राशिसे छठी राशिमें या लग्नमें अथवा इन सबोंके स्वामी इस राशिमें हो, उस लग्न या राशिमें यात्रा करनेवालेकी मृत्यु होती है । परंतु यदि जन्मलग्नराशिपति और अष्टम राशिपतिमें परस्पर मैत्री हो तो उक्त अष्टमराशिजन्य दोष स्वयं नष्ट हो जाता है ॥६३९—६४०॥
द्विस्वभाव लग्न यदि पापग्रहसे युक्त या दृष्ट हो तो यात्रामें पराजय होती है तथा स्थिर राशि पापग्रहसे युक्त न हो तो वह यात्रालग्नमें अशुभ है । यदि स्थिर राशिलग्नमें शुभग्रहका योग या दृष्टि हो तो शुभ फल होता है ॥६४१॥
धनिष्ठा नक्षत्रके उत्तरार्धसे आरम्भ करके (रेवतीपर्यन्त) पाँच नक्षत्रोंमें गृहर्थ तृण—काष्ठोंका संग्रह, दक्षिणकी यात्रा, शय्या (तकिया, पलङ्ग आदि)—का बनाना, घरको छवाना आदि कार्य नहीं करने चाहिये ॥६४२॥
यदि यात्रालग्नमें जन्मलग्न, जन्मराशि या इन दोनोंके स्वामी हो अथवा जन्मलग्न या जन्मराशिसे ३, ६, ११, १० वीं राशि हो तो शत्रुओंका नाश होता है ॥६४३॥
यदि शीर्षोदय (मिथुन, सिंह, कन्या, तुला, कुम्भ) तथा दिग्द्वार (यात्राकी दिशा)—की राशि लग्नमें हो अथवा किसी भी लग्नमें शुभग्रहके वर्ग (राशि—होरादि) हो तो यात्रा करनेवाले राजाके शत्रुओंका नाश होता है ॥६४४॥
शत्रुके जन्मलग्न या जन्मराशिसे अष्टम राशि या उन दोनोंके स्वामी जिस राशिमें हो वह राशि यात्राललग्नमें हो तो शत्रुका नाश होता है ॥६४५॥
मीन लग्नमें या लग्नगत मीनके नवमांशमें यात्रा करनेसे मार्ग (रास्ता) टेढा हो जाता है । (अर्थात् बहुत घूमना पडता है ।) तथा कुम्भलग्न और लग्नगत कुम्भका नवमांश भी यात्रामें अत्यन्त निन्दित है ॥६४६॥
जलचर राशि (कर्क, मीन) या जलचर राशिका नवमांश लग्नमें हो तो नौकाद्वारा नदी—न्द आदि मार्गसे यात्रा शुभ होती है ॥६४६ . १ / २॥
(लग्नभावोंकी संज्ञा—) १—मूर्ति (तन), २—कोष (धन), ३—धन्वी (पराक्रम, भ्राता), ४—वाहन (सवारी, माता), ५—मन्त्र (विद्या, संतान), ६—शुत्र (रोगु, मामा), ७—मार्ग (यात्रा, पति—पत्नी), ८—आयु (मृत्यु), ९—मन (अन्त: करण, भाग्य), १०—व्यापार (व्यवसाय, पिता), ११—प्राप्ति (लाभ), १२—अप्राप्ति (व्यय)—ये क्रमसे लग्न आदि १२ स्थानोंकी संज्ञाएँ हैं ॥६४७—६४८॥
पापग्रह (शनि, रवि, मङ्गल, राहु तथा केतु—ये) तीसरे और ग्यारहवेंको छोडकर अन्य सब भावोंमें जानेसे भावफलको नष्ट कर देते हैं । तीसरे और ग्यारहवें भावमें जानेसे वे इन दोनों भावोंको पुष्ट करते हैं । सूर्य और मङ्गल ये दोनों दशम भावको भी नष्ट नहीं करते, अपितु दशम भावमें जानेसे उस भावफल (व्यापार, पिता, राज्य तथा कर्म)—को पुष्ट ही करते हैं और शुभग्रह (चन्द्र, बुध, गुरु तथा शक्र) जिस भावमें जाते हैं, उस भावफलको पुष्ट ही करते हैं; केवल षष्ठ (६) भावमें जानेसे उस भावफल (शत्रु और रोग)—को नष्ट करते हैं ॥६४९॥ शुभ ग्रहोमें शुक्र सप्तम भावको और चन्द्रमा लग्न एवं अष्टम (१, ८) को पुष्ट नहीं करते हैं । (अपितु नष्ट ही करते हैं।)
(आभिजित्—प्रशंसा—) अभिजित् मुहूर्त (दिनका मध्यकाल = १२ बजेसे १ घडी आगे और १ घडी पीछे) अभीष्ट फल सिद्ध करनेवाला योग है । यह दक्षिण दिशाकी यात्रा छोडाकर अन्य दिशाओंकी यात्रामें शुभ फल देता है । इस (अभिजित् मुहूर्त)—में पञ्चाङग (तिथि—वारादि) शुभ न हो तो भी यात्रामें वह उत्तम फल देवेवाला होता है ॥६५०—६५१॥
(यात्रा—योग—) लग्न और ग्रहोकी स्थितिसे नाना प्रकारके यात्रा—योग होते हैं । अब उन योगोंका वर्णन करता हूँ, क्योंकि राजाओं (क्षत्रियों)—को योगबलसे ही अभीष्ट सिद्धि प्राप्त होती है । ब्राह्मणोंको नक्षत्रबलसे तथा अन्य मनुष्योंको मुहूर्तबलसे इष्टसिद्धि होती है । तत्करोंको शकुनबलसे अपने अभीष्टकी प्राप्ति होती है ॥६५२ . १ / २॥ शुक्र, बुध और बृहस्पति—इन तीनमेंसे कोई भी यदि केन्द्र या त्रिकोणमें हो तो ‘योग’ कहलाता है । यदि उनमेंसे दो ग्रह केन्द्र या त्रिकोणमें हो तो ‘अधियोग’ कहलाता है तथा यदि तीनों लग्नसे केन्द्र (१, ४, ७, १०) या त्रिकोण (९, ५)—में हो तो योगधियोग कहलाता है ॥६५३ . १ / २॥ योगमें यात्रा करनेवालोंकी कल्याण होता है । अधियोगमें यात्रा करनेसे विजय प्राप्त होती है और योगधियोगमें यात्रा करनेवालेको कल्याण, विजय तथा सम्प्पत्तिका भी लाभ होता है ॥६५४ . १ / २॥ लग्नसे दसवें स्थामें चन्द्रमा, षष्ठ स्थानमें शनि और लग्नमें सूर्य हो तो इस समयमें यात्र करनेवाले राजाको विजय तथा शत्रुकी सम्पत्ति भी प्राप्त होती है ॥६५५ . १ / २॥ शुक्र, रवि, बुध, शनि और मङ्गल—ये पाँचों ग्रह क्रकसे लग्न चतुर्थ, सप्तम, तृतीय और षष्ठ भावमें हो तो यात्रा करनेवाले राजाके सम्मुख आये हुए शत्रुगण आगमें पडी हुई लाहकी भाँति नष्ट हो जाते हैं ॥६५६ . १ / २॥ बृहस्पति लग्नमें और अन्य ग्रह यदि दूसरे और ग्यारहवें भावमें हों तो इस योगमें यात्रा करनेवाले राजाके शुत्रओंकी सेना यमराजके घर पहुँच जाती है ॥६५७ . १ / २॥ यदि लग्नमें शुक्र, ग्यारहवेंमें रवि और चतुर्थ भावमें चन्द्रमा हो तो इस योगमें यात्रा करनेवाला राजा अपने शत्रुओंको उसी प्रकार नष्ट कर देता है, जैसे हाथियोंके झुंडको सिंह ॥६५८ . १ / २॥
अपने उच्च (मीन)—में स्थित शुक्र लग्नमें हो अथवा अपने उच्च (वृष)—का चन्द्रमा लाभ (११) भावमें स्थित हो तो यात्रा करनेवाला नरेश अपने शत्रुकी सेनाको उसी प्रकार नष्ट कर देता है, जैसे भगवान् श्रीकृष्णने पूतनाको नष्ट कर दिता है, जैसे भगवान् श्रीकृष्णने पूतनाको नष्ट किया था ६५९ . १ / २॥ यदि यात्राके समय शुभग्रह केन्द्रमें या त्रिकोणमें हों तथा पापग्रह तीसरे, छठे और ग्यारहवें स्थानमें हो तो यात्रा करनेवाले राजाके शत्रुकी लक्ष्मी अभिसारिकाकी भाँति उसके समीप आ जाता है ॥६६० . १ / २ गुरु, रवि और चन्द्रमा—ये क्रमश: लग्न, ६ और ८ में हो तो यात्रा करनेवाले राजाके सामने दुर्जनोंकी मैत्रीके समान शत्रुओंकी सेना नहीं ठहरती है ॥६६१ . १ / २॥ यदि लग्नसे ३, ६, ११ में पापग्रह हो और शुभ—ग्रह बलवान् होकर अपने उच्चादि स्थानमें (स्थित) हो तो शत्रुकी भूमि यात्रा करनेवाले राजाके हाथमें आ जाती है ॥६६२ . १ / २॥ अपने उच्च (कर्क)—में स्थित बृहस्पति यदि लग्नमें हो और चन्द्रमा ११ भावमें स्थित हो तो यात्रा करनेवाला नरेश अपने शत्रुको उसी प्रकार नष्ट कर देता है, जैसे त्रिपुरासुरको श्रीशिवजीने नष्ट किया था ॥६६३ . १ / २॥ शोर्षोदय (मिथुन, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, कुम्भ) राशिमें स्थित शुक्र यदि लग्नमें हो और गुरु ग्यारहवें स्थानमें हो तो यात्रा करनेवाला पुरुष तारकासुरको कार्तिकेयकी भाँति अपने शत्रुको नष्ट कर देता है ॥६६ . १ / २॥ गुरु लग्नमें और शुक्र किसी केन्द्र या त्रिकोणमें हों तो यात्री नरेश अपने शत्रुओंको वैसे ही भस्म कर देता है, जैसे वनको दावानल ॥६६५ . १ / २॥ यदि बुध लग्नमें और अन्य शुभग्रह किसी केन्द्रमें हो तथा नक्षत्र भी अनुकूल हो तो उसमें यात्र करनेवाला राजा अपने शत्रुओंको वैसे ही सीख लेता है, जैसे सूर्यकी किरणें ग्रीष्म—ऋतुमें क्षुद्र नदियोंको सोख लेती है ॥६६६ . १ / २॥ सम्पूर्ण शुभग्रह केन्द्र या त्रिकोणमें हों तथा सूर्य या चन्द्रमा ग्यारहवें भावमें स्थित हो तो यात्रा करनेवाला नरेश अन्धकारको सूर्यकी भाँति अपने शत्रुको नष्ट कर देता है ॥६६७ . १ / २॥
शुभग्रह केन्द्र या त्रिकोणमें हो तथा चन्द्रमा यदि वर्गोत्तम नवमांशमें हो तो यात्रा करनेसे राजा अपने शत्रुओंको उसी प्रकार सपरिवार नष्ट क्रता है , जैसे इन्द्र पर्वतोंको ॥६७१ . १ / २॥ बृहस्पति अथवा शुक्र अपने मित्रकी राशिमें होकर केन्द्र या त्रिकोणमें हों तो ऐसे समयमें यात्रा करनेवाला भूपाल सर्पोंको गरुडके समान अपने शत्रुओंको अवश्य नष्ट कर देता है ॥६७२ . १ / २॥ यदि एक भी शुभग्रह वर्गोत्तम नवमांशमें स्थित होकर केन्द्रमें हो त यात्रा करने – वाला नरेश पाप – समूहोंको गङ्गाजीके समान अपने शत्रुओंको क्षणभरमें नष्ट कर देता है ॥६७३ . १ / २॥ जो राजा शत्रुओंको जीतनेके लिये उपर्युक्त राजयोगोंमें यात्रा करता है , उसका कोपानल शत्रुओंकी स्त्रियोंके अश्रुजलसे शान्त होता है ॥६७४ . १ / २॥ आश्विन मासके शुक्लपक्षकी दशमी तिथि ‘ विजय ’ कहलाती हिअ । उसमें जो यात्रा करता है , उस अपने शत्रुओंपर विजय प्राप्त होती है अथवा शत्रुओंसे सन्धि ( मेंल ) हो जाती है । किसी भी दशामें उसकी पराजय नहीं होती है ॥६७५ १ / २॥
(मनोयज—प्रशंसा—) यात्रा आदि सभी कार्योंमें निमित्त और शकुन आदि (लग्न एवं ग्रहयोग)—की अपेक्षा भी मनोजय (मनको वशमें तथा प्रसन्न रखना) प्रबल है । इसलिये मनस्वी पुरुषोंके लिये यत्नपूर्वक फलसिद्धिमें मनोजय ही प्रधान कारण होता है ॥६७६ १ / २ ॥
(यात्रामें प्रतिबन्ध—) यदि घरमें उत्सव, उपनयन, विवाह, प्रतिष्ठा या सूतक उपस्थित हो तो जीवनकी इच्छा रखनेवालोंको बिना उत्सवको समाप्त किये यात्रा नहीं करनी चाहिये ॥६७७ १ / २ )
(यायामें अपशकुन—) यात्राके समय यदि परस्पर हो भैंसों या चूहोमें लडाई हो, स्त्रीसे कलह हो या स्त्रीका मासिक धर्म हुआ हो, स्त्रीसे कलह हो या स्त्रीका मासिक धर्म हुआ हो, वस्त्र आदि शरीरसे खिसककर गिर पडे, किसीपर क्रोध हो जाय या मुखसे दुर्वचन कहा गया हो तो उस दशामें राजाको यात्रा नहीं करनी चाहिये ॥३७८ १ / २ ॥
(दिशा, वार तथा नक्षत्र दोहद—) यदि राजा घृतमिश्रित अन्न खाकर पूर्व दिशाकी यात्रा करे, तिलचूर्ण मिलाया हुआ अन्न खाकर दक्षिण दिशाको जाय और घृतमिश्रित खीर खाकर उत्तर दिशाकी यात्रा करे तो निश्चिय ही वह शत्रुओंपर विजय पाता है । रविवारको सज्जिक (मिसिरी और मसाला मिला हुआ दही), सोमवारको खीर, मङ्गलवारको काँजी, बुधवारको दूध, गुरुवारको दही, शुक्रवारको दूध तथा शनिवारको तिल और भात खाकर यात्रा करे तो शत्रुओंको जीत लेता है । अश्विनीमें कुल्माष (उडदका एक भेद), भरणीमें तिल, कृत्तिकामें उडद, रोहिणीमें गायका दही, मृगशिरामें गायका घी, आर्द्रामें गायका दूध, आश्लेषामें खीर, मघामें नीलकण्ठका दर्शन, हस्तमें षाष्टिक्य (साठी धान्य)—के चावलका भात, चित्रामें प्रियङ्गु (कँगनी), स्वातीमें अपूप (मालपूआ), अनुराधामें फल (आम, केला आदि), उत्तराषाढमें शाल्य (अगहनी धानका चावल), अभिजित्में हविष्य, श्रवणमें कृशरात्र (खिचडी), धनिष्ठामें मूँग, शतभिषामें जौका आटा, उत्तरभाद्रपदमें खिचडी तथा रेवतीमें दही—भात खाकर राजा यदि हाथी, घोडे रथ या नरयान (पालकी)—पर बैठकर यात्रा करे तो वह शत्रुओंपर विजय पाता है और उसका अभीष्ट सिद्ध होता है ॥६७९—६८४॥
(यात्राविधि—) प्रज्वलित अग्निमें तिलोंसे हवन करके जिस दिशामें जाना हो, उस दिशाके स्वामीको उन्हींके समान रङ्गवाले वस्त्र, गन्ध तथा पुष्प आदि उपचार अर्पण करके उन दिक्पालोंके मन्त्रोंद्वारा विधिपूर्वक उनका पूजन करे। फिर अपने इष्टदेव और ब्राह्मणोंको प्रणाम करके ब्राह्मणोंसे आशीर्वाद लेकर राजाको यात्रा करनी चाहिये ॥६८५ १ / २ ॥
(दिक्पालोंके स्वरूपका ध्यान—) (१ पूर्व दिशाके स्वामी) देवराज इन्द्र शचीदेवीके साथ ऐरावतपर आरूढ हो बडी शोभा पा रहे हैं । उनके हाथमें वज्र है । उनकी कान्ति सुवर्ण—सदृश है तथा वे दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हैं । (२ अग्निकोणके अधीश्वर) अग्निदेवके सात हाथ, सात जिहवाएँ और छ: मुख हैं । वे भेडपर सवार हैं, उनकी कान्ति लाल है, वे स्वाहादेवीके प्रियतम हैं तथा स्त्रुक्—स्त्रुवा और नाना प्रकारके आयुध धारण करते हैं । (३ दक्षिण दिशाके स्वामी) यमराजका दण्ड ही अस्त्र है । उनकी आँखें लाल हैं और वे भैंसेपर आरूढ हैं । उनके शरीरका रङ्ग कुछ लाली लिये हुए साँवला है । वे ऊपरकी ओर मुँह किये हुए हैं तथा शुभस्वरूप हैं । (४ नैऋत्यकोणके अधिपति) निऋतिका वर्ण नील है। वे अपने हाथोंमें ढाल और तलवार लिये रहते हैं; मनुष्य ही उनका वाहन है । उनकी आँखें भयंकर तथा केश ऊपरकी ओर उठे हुए हैं । वे सामर्थ्यशाली हैं और उनकी गर्दन बहुत बडी है । (५ पश्चिम दिशाके स्वामी) वरुणकी अङ्गकान्ति पीली है । वे नागपाश धारण करते हैं । ग्राह उनका वाहन है । वे कालिकादेवीके प्राणनाथ हैं और रत्नमय आभूषणोंसे विभूषित हैं । (६ वायव्य कोणके अधिपति) वायुदेव काले रङ्गके मृगपर आरूढ हैं । अञ्जनीके पति हैं, वे समस्त प्राणियोंके प्राणस्वरूप हैं । उनकी दो भूजाएँ हैं और वे हाथमें दण्ड धारण करते हैं । इस प्रकार उनका ध्यान और पूजन करे । (७ उत्तर दिशाके स्वामी) कुबेर घोडेपर सवार हैं । उनकी दो भुजाएँ हैं । वे हाथमें कलश धारण करते हैं । उनकी अङ्गकान्ति सुवर्णके सदृश है । वे चित्रलेखादेवीके प्राणवल्लभ तथा यक्षों और गन्धर्वोंके राजा हैं । (८ ईशानकोणके स्वामी) गौरीपति भगवान् शङ्कर हाथमें पिनाक लिये वृषभपर आरूढ हैं । वे सबसे श्रेष्ठ देवता हैं । उनकी अङ्गकान्ति श्वेत है । मार्थपर चन्द्रमाका मुकुट सुशोभित होता है और सर्पमय यज्ञोपवीत धारण करते हैं । (इस प्रकार इन सब दिक्पालोंका ध्यान और पूजन करना चाहिये) ॥६९३ — ६९३ १ / २ ॥
(प्रस्थानविधि—) यदि किसी आवश्यक कार्यवश निश्चित यात्रा—लग्नमें राजा स्वयं न जा सके तो छत्र, ध्वजा, शस्त्र, अस्त्र या वाहनमेंसे किसी एक वस्तुको यात्राके निर्धारित समयमें घरसे निकालकर जिस दिशामें जाना हो, उसी दिशाकी ओर दूर रखा दे । अपने स्थानसे निर्गमस्थान (प्रस्थान रखनेकी जगह) २०० दण्ड (चार हाथकी लग्गी)—से दूर होना उचित है । अथवा चालीस या कम—से—कम बारह दण्डकी दूरी होनी आवश्यक है । राजा स्वयं प्रस्तुत होकर जाय तो किसीएक स्थानमें सात दिन न ठकरे । अन्य (राज—मन्त्री तथा साधारण) जन भी प्रस्थान करके एक स्थानमें छ: या पाँच दिन न ठहरे । यदि इससे अधिक ठहरना पडे तो उसके बाद दूसरा शुभ मुहूर्त और उत्तम लग्न विचारकर यात्रा करे ॥६९४ — ६९६ १ / २ ॥
असमयमें (पौषसे चैत्रपर्यन्त) बिजली चमके, मेंघकी गर्जना हो या वर्षा होने लगे तथा त्रिविध (दिव्य, आन्तरिक्ष और भौम) उत्पात होने लग जाय तो राजाको सात राततक अन्य स्थानोंकी यात्रा नहीं करनी चाहिये ॥६९७ १ / २ ॥
(शकुन—) यात्राकालमें रला नामक पक्षी, चूहा, सियारिन, कोआ तथा कबूतर—इनके शब्द वामभागमें सुनायी दें तो शुभ होता है । छ्छुंदर, पिंगला (उल्लू), पल्ली और गदहा—ये यात्राके समय वामभागमें हो तो श्रेष्ठ हैं । कोयला, तोता और भरदूल आदि पक्षी यदि दाहिने भागमें आ जायँ तो श्रेष्ठ हैं । काले रंगको छोडकर अन्य सब रंगोंके चौपाये यदि वाम भागमें दीख पडें तो श्रेष्ठ हैं तथा यात्रासमयमें कृकलास (गिरगिट) का दर्शन शुभ नहीं है ॥६९८—७००॥
यात्राकालमें सूअर, खरगोश, गोधा (गोह) और सर्पोंकी चर्चा शुभ होती है, किंतु किसी भूली हुई वस्तुको खोजनेके लिये जाना हो तो इनकी चर्चा अच्छी नहीं होती है । वानर और भालुओंकी चर्चाका विपरीत फल होता है ॥७०१॥
यात्रामें मोर, बकरा, नेवला, नीलकण्ठ और कबूतर दीख जायँ तो इनके दर्शनमात्रसे शुभ होता है; परंतु लौटकर अपने नगरमें आने या घरमें प्रवेश करनेके समय ये दर्शन दें तो सब अशुभ ही समझना चाहिये । यात्राकालमें रोदन शब्दरहित कोई शव (मुर्दा) सामने दीख पडे तो यात्राके उद्देश्यकी सिद्धि होती है । परंतु लौटकर घर आने तथा नवीन गृहमें प्रवेश करनेके समय यदि रोदन शब्दके साथ मुर्दा दीख पडे तो वह घातक होता है ॥ ७०२—७०३॥
(अपशकुन—) यात्राके समय पतित, नपुंसक, जटाधारी, पागल, औषध आदि खाकर वमन (उलटी) करनेवाला, शरीरमें तेल लगानेवाला, वसा, हड्डी, चर्म, अङ्गार (ज्वालारहित अग्नि), दीर्घ रोगी, गुड, कपास (रूई), नमक, प्रश्न (पूछने या टोकनेका शब्द), तृण, गिरगिट, बन्ध्या स्त्री, कुबडा, गेरुआ वस्त्रधारी, खुले केशवाला, भूखा तथा नंगा—ये सब सामने उपस्थित हो जायँ तो अभीष्ट—सिद्धि नहीं होती है ॥७०४—७०५॥
(शुभ शकुन—) प्रज्वलित अग्नि, सु्न्दर घोडा, राजसिंहासन, सुन्दरी स्त्री, चन्दन आदिकी सुगन्ध, फूल, अक्षत, छत्र, चामर, डोली या पालकी, राजा, खाद्य पदार्थ, ईख, फल, चिकनी मिट्टी, अन्न, शहद, घृत, दही, गोबर, चूना, धुला हुआ वस्त्र, शङ्ख, श्वेत बैल, ध्वजा, सौभाग्यवती स्त्री, भरा हुआ कलश, रत्न (हीरा, मोती आदि), भृङ्गार (गडुआ), गौ, ब्राह्मण, नगाडा, मृदङ्ग, दुन्दुभि, घण्टा तथा वीणा (बाँसुरी) आदि वाद्योंके शब्द, वेदमन्त्र एवं मङ्गल गीत आदिके शब्द—ये सब यात्राके समय यदि देखनेया सुननेमें आवें तो यात्रा करनेवाले लोगोंके सब कार्य सिद्ध करते हैं ॥७०६—७०९॥
(अपशकुन—परिहार—) यात्राके समय प्रथम बार अपशकुन हो तो खडा होकर इष्टदेवका स्मरण करके फिर चले । दूसरा अपशकुन हो तो ब्राह्मणोंकी पूजा (वस्त्र, द्रव्य आदिसे उनका सत्कार) करके चले । यदि तीसरी बारा अपशकुन हो जाय तो यात्रा स्थगित कर देनी चाहिये ॥७१०॥
(छींकके फल—)यात्राके समय सभी दिशाओंकी छींक निन्दित है । गौकी छींक घातक होती है, किंतु बालक, वृद्ध, रोगी या कफवाले मनुष्यकी छींक निष्फल होती है ॥७११॥
परस्त्रियोंका स्पर्श करनेवाला तथा ब्राह्मण और देवताके धनका अपहरण करनेवाला तथा अपने छोडे हुए हाथी और घोडेको बाँध लेनेवाला, शत्रु यदि सामने आ जाय तो राजा उसे अवश्य मार डाले; परंतु स्त्रियों तथा शस्त्रहीन मनुष्योंपर कदापि हाथ न उठावे ॥७१२॥
(गृह—प्रवेश—) नये घरमें प्रथम बार प्रवेश करना हो तो उत्तरायणके शुभ मुहूर्तमें करे । पहले दिन विधिपूर्वक वास्तु—पूजा और बलि (नैवेद्य) अर्पण करके गृहमें प्रवेश करना चाहिये ॥७१३॥
(गृह—प्रवेशमें विहित मास—) माघ, फाल्गुन, वैशाख और ज्येष्ठ—इन चार मासोंमें गृहप्रवेश श्रेष्ठ होता है । तथा अगहन और कार्तिक इन दो मासोंमें मध्यम होता है ।
(विहित नक्षत्र—) मृगशिरा, पुष्य, रेवती, शतभिषा, चित्रा, अनुराधा और स्थिर—संज्ञक (तीनों उत्तरा और रोहिणी) नक्षत्रोंमें बृहस्पति और शुक्र दोनों उदित हो तब रवि और मङ्गलको छोडकर अन्य वारोंमें रिक्ता (४, ९, १४) तथा अमावास्या छोडकर अन्य तिथियोंमें दिन या रात्रिके समय गृहप्रवेश शुभप्रद होता है । चन्द्रबल और ताराबलसहित उपद्रवरहित दिनके पूर्वाह्ण भागमें स्थिर राशिके नवमांशयुक्त स्थिर लग्नमें जब लग्नसे अष्टम स्थान शुद्ध (ग्रहरहित) हो, शुभग्रह त्रिकोण या केन्द्रमें हो, पापग्रह ३, ६, ११ भावोंमें हो और चन्द्रमा लग्न, १२, ८, ६ इनसे भिन्न स्थानोंमें हो, तब गृह—प्रवेश करनेवाले यजमानकी जन्मराशि, जन्मलग्न या इन दोनोंसे उपचय (३, ६, १०, ११ वीं) राशिके गृह—प्रवेश लग्नमें विद्यमान होनेपर सब प्रकारके सुख और सम्पत्तिकी वृद्धि होती है । अन्यथा इससे विपरीत समयमें गृह—प्रवेश किया जाय तो शोक और निर्धनता प्राप्त होती है ॥७१४—७१९॥
(प्रवेश—विधि—) जिस नूतन गृहमें प्रवेश करना, हो, उसको चित्र आदिसे सजाकर तथा पुष्प—तोरण आदिसे अलंकृत करके वेद—ध्वनि, शान्तिपाठ, सौभाग्यवती स्त्रियोंके माङ्गलिक गीत तथा वाद्य आदिके शब्दोंके साथ सूर्यको वाम भागमें रखकर जलसे भरे हुए कलशको आगे करके उसमें प्रवेश करना चाहिये ॥७२०॥
(वृष्टि—विचार—) वर्षा—प्रवेश (आर्द्रा नक्षत्रमें सूर्यके प्रवेश)—के समय यदि शुक्लपक्ष हो, चन्द्रमा जलचर राशिमें या लग्नसे केन्द्र (१, ४, ७, १०)—में स्थित होकर शुभग्रहसे देखे जाते हो तो आधिक वृष्टि होती है । यदि उस समय चन्द्रमापर पापग्रहकी दृष्टि हो तो दीर्घकालमें अल्पवृष्टि समझनी चाहिये । (इससे सिद्ध होता है कि यदि चन्द्रमापर पाप और शुभ दोनों ग्रहोकी दृष्टि हो तो मध्यम वृष्टि होती है ।) जिस प्रकार चन्द्रमासे फल कहा गया है, उसी प्रकार उस समय शुक्रसे भी समझना चाहिये । (अर्थात् सूर्यके आर्द्रा—प्रवेशके समय चन्द्रमा और शुक्र दोनोंकी स्थिति देखकर तारतम्यसे फल समझना चाहिये) ॥७२१—७२२॥
वर्षाकालमें आर्द्रासे स्वातीतक सूर्यके रहनेपर चन्द्रमा यदि शुक्रसे सप्तम स्थानमें अथवा शनिसे पञ्चम, नवम तथा सप्तम स्थानमें हो , उसपर शुभ ग्रहकी दृष्टि पडे तो उस समय अवश्य वर्षा होती है ॥७२३॥
यदि बुध और शुक्र समीपवर्ती (एक राशिमें स्थित) हो तो तत्काल वर्षा होती है । किंतु उन दोनों (बुध और शुक्र)—के बीचमें सूर्य हो तो वृष्टिका अभाव होता है ॥७२४॥
यदि मघा आदि पाँच नक्षत्रोंमें शुक्र पूर्व दिशामें उदित हो और स्वातीसे तीन नक्षत्रों (स्वाती, विशाखा, अनुराधा)—में शुक्र पश्चिम दिशामें उदित हो तो निश्चय ही वर्षा होती है । इससे विपरीत हो तो वर्षा नहीं समझनी चाहिये ॥७२५॥
यदि सूर्यके समीप (एक राशिके भीतर होकर) कोई ग्रह आगे या पीछे पडते हो तो वे वर्षा अवश्य करते हैं; किंतु उनकी गति वक्र न हुई हो तभी ऐसा होता है ॥७२६॥
दक्षिण गोल (तुलासे मीनतक)—में शुक्र यदि सूर्यसे वाम भागमें पडे तो वृष्टिकारक होता है । उदय या अस्तके समय यदि आर्द्रामें सूर्यका प्रवेश हो तो भी वर्षा होती है ॥७२७॥
यदि सूर्यका आर्द्रा—प्रवेश सन्ध्याके समय हो तो शस्य (धान)—की वृद्धि होती है । यदि रात्रिमें हो तो मनुष्योंको सब प्रकारकी सम्पत्ति प्राप्त होती है । यदि प्रवेशकालमें चन्द्रमा, गुरु, बुध एवं शुक्रसे आर्द्रा भेदित हो तो क्रमश: अल्पवृष्टि, धान्य—हानि, अनावृष्टि और धान्य—वृद्धि होती है; इसमें संशय नहीं है । यदि ये चारों चन्द्र, बुध, गुरु और शुक्र प्रवेश—लग्नसे केन्द्रमें पडते हो तो ईति (खेतीके टिड्डी आदि सब उपद्रव)—का नाश होता है ॥७२८—७२९॥
यदि सूर्य पूर्वाषाढ नक्षत्रमें प्रवेशके समय मेंघोंसे आच्छन्न हो तो आर्द्रासे मूलतक प्रतिदिन वर्षा होती है ॥७३०॥
यदि रेवतीमें सूर्यके प्रवेश करते समय वर्षा हो जाय तो उससे द्स नक्षत्र (रेवतीसे आश्लेषा)—तक वर्षा नहीं होती है । सिंह—प्रवेशमें अभिन्न हो एवं कन्या—प्रवेशमें भिन्न हो तो उत्तम वृष्टि होती है ॥७३१ १ / २ ॥ उत्तर भाद्रपद पूर्वधान्य, रेवती परधान्य तथा भरणी सर्वधान्य नक्षत्र है । अश्विनीको सर्वधान्योंका नाशक कहा गया है । वर्षाकाल (चातुर्मास्य)—में पश्चिम उदित हुए शुक्र यदि गुरुसे सप्तम राशिंएं निर्बल हो तो आर्द्रासे सात नक्षत्रतक प्रतिदिन अतिवृष्टि होती है । चन्द्रमण्डलमें परिवेष (घेरा) हो और उत्तर दिशामें बिजली दीख पडे या मेंढकोंके शब्द सुनायी पडें तो निश्चय ही वर्षा होती है । पश्चिम भागमें लटका हुआ मेंघ यदि आकाशके बीचमें होकर दक्षिण दिशामें जाय तो शीघ्र वर्षा होती है । बिलाव अपने नाखूनोंसे धरतीको खोदे, लोहे (तथा ताँबे और कांसी आदि)—में मल जमने लगे अथवा बहुत—से बालक मिलकर सडकोंपर पुल बाँधें तो ये वर्षाके सूचक चिह्न हैं ।
चींटीकी पङक्ति छिन्न—भिन्न हो जाय, आकाशमें बहुतेरे जुगुनू दीख पडें तथा सर्पोंका वृक्षपर चढना और प्रसन्न होना देखा जाय तो ये सब दुर्वृष्टि—सूचक हैं ।
उदय या अस्त—समयमें यदि सूर्य या चन्द्रमाका रंग बदला हुआ जान पडे या उनकी कान्ति मधुके समान दीख पडे तथा बडे जोरकी हवा चलने लगे तो अतिवृष्टि होती है ॥७३२—७३८ १ / २ ॥
(पृथ्वीके आधार कूर्मके अङ्ग—विभाग—) कूर्मदेवता पूर्वकी ओर मुख करके स्थित हैं, उनके नव अङ्गोंमें इस भारत भूमिके नौ विभाग करके प्रत्येक खण्डमें प्रदक्षिणक्रमसे विभिन्न मण्डलों (देशों)—को समझे । अन्तर्वेदी (मध्यभाग)—में पाञ्चालदेश स्थित है, वही कूर्मभगवान्का नाभिमण्डल है । मगध और लाट देश पूर्व दिशामें विद्यमान हैं, वे ही उनका मुखमण्डल हैं । स्त्री, कलिङग और किरात देश भुजा हैं । अवन्ती, द्रविड और भिल्लदेश उनका दाहिना पार्श्व हैं । गौड, कौंकण, शाल्व, आन्ध्र और पौण्ड देश—ये सब देश दोनों अगले पैर हैं । सिन्ध, काशी, महाराष्ट्र तथा सौराष्ट्र देश पुच्छ—भाग हैं । पुलिन्द,चीन, यवन और गुर्जर—ये सब देश दोनों पिछले पैर हैं । कुरु, काश्मीर, मद्र तथा मत्स्य—देश वाम पार्श्व हैं । खस (नेपाल) अङ्ग, वङ्ग, वाह्नीक और काम्बोज—ये दोनों हाथ हैं ॥७३९—७४४॥
इन नवों अङ्गोंमें क्रमश: कृत्तिका आदि तीन—तीन नक्षत्रोंका न्यास करे । जिस अङ्गके नक्षत्रमें पापग्रह रहते हैं, उस अङ्गके देशोंमें तबतक अशुभ फल होता है और जिस अङ्गके नक्षत्रोंमें शुभग्रह रहते हैं, उस अङ्गके देशोंमें शुभ फल होते हैं ॥७४५॥
(मूर्ति—प्रतिमा—विकार—) देवताओंकी प्रतिमा यदि नीचे गिर पडे, जले, बार—बार रोये, गावे, पसीनेसे तर हो जाय, हँसे, अग्नि, धुआँ, तेल, शोणित, दूध या जलका वमन करे, अधोमुख हो जाय, एक स्थानसे दूसरे स्थानमें चली जाय तथा इसी तरहकी अनेक अद्भुत बातें दीख पडें तो यह प्रतिमा—विकार कहलाता है । यह विकार अशुभ फलका सूचक होता है ।
(विविध विकार—) यदि आकाशमें गन्धर्वनगर (ग्रामके समान आकार), दिनमें ताराओंका दर्शन, उत्कापतन, काष्ठ, तृण और शोणितकी वर्षा, गन्धर्वोंका दर्शन, दिग्दाह, दिशाओंमें ‘धूम छा जाना, दिन या रात्रिमें भूकम्प होना, बिना आगके स्फुल्लिङ्ग (अङ्गार) दीखना, बिना लकडीके आगका जलना, रात्रिमें इन्द्रधनुष या परिवेष (घेरा) दीखना पर्वत या वृक्षादिके ऊपर उजला कोआ दिखायी देना तथा आगकी चिनगारियोंका प्रकट होना आदि बातें दिखायी देने लगें, गौ, हाथी और घोडोंके दो या तीन मस्तकवाला बच्चा पैदा हो, प्रात: काल एक साथ ही चारों दिशाओंमें अरूणोदय—सा प्रतीत हो, गाँवमें गीदडोंका दिनमें बास हो, धूम—केतुओंका दर्शन होने लगे तथा रात्रिमें कोओंका और दिनमें कबूतरोंका क्रन्दन हो तो ये भयंकर उत्पात हैं । वृक्षोंमें बिना समयके फूल या फल दीख पडें तो उस वृक्षको काट देना चाहिये और उसकी शान्ति कर लेनी चाहिये । इस प्रकारके और भी जो बडे—बडे उत्पात दृष्टिगोचर होते हैं, वे स्थान (देश या ग्राम)—का नाश करनेवाले होते हैं । कितने ही उत्पात घातक होते हैं; कितने ही शत्रुओंसे भय उपस्थित करते हैं । कितने ही उत्पातोंसे भय, यश, मृत्यु, हानि, कीर्ति, सुख—दु:ख और ऐश्वर्यकी भी प्राप्ति होती है । यदि वल्मीक (दीमककी मिट्टीके ढेर)—पर शाह्द दीख पडे तो धनको हानि होती है । द्विजश्रेष्ठ ! इस तरहके सभी उत्पतोंमें यत्नपूर्वक कल्पोक्त विधिसे शान्ति अवश्य कर लेनी चाहिये । नारदजी ! इस प्रकार संक्षेपसे मैने ज्यौतिषशास्त्रका वर्णन किया है । अब वेदके छहो अङ्गोंमें श्रेष्ठ छन्दा: शास्त्रका परिचय देता हूँ ॥७४६—७५८॥ (पूर्वभाग द्वितीय पाद अध्याय ५६)
अध्याय ५३ छन्दःशास्त्रका संक्षिप्त परिचय
सनन्दजी कह्ते हैं— नारद ! छन्द दो प्रकारके बताये जाते हैं—वैदिक१ और लौकिक३ मात्रा और वर्णक भेदसे वे लौकिक या वैदिक छन्द भी पुनः दो-दो प्रकारके हो जाते हैं (मात्रिक४ छन्द और वर्णिक५ छन्द) || १ || छन्द: शस्त्रके विदवनोंने मगण, यगण, रगण, सगण, तगण, जगण, भगण, और नगण, तथा गुरु एवं लघु—इन्हींको छन्दोंकी सिद्धिमें कारण बताया हैं || २ || जिसमें सभी अर्थात् तीनों अक्षर गुरु हो उसे मगण ( sss ) कहा गया है | जिसका आदि अक्षर लघु (और शेष दो अक्षर गुरु) हो, वह यगण ( Iss ) माना गया है | जिसका मध्यवर्ती अक्षर लघु हो, वह रगण ( s Is ) और जिसका अन्तिम अक्षर गुरु हो, वह सगण ( IIs ) है || ३ || जिसमें अन्तिम अक्षर लघु हो, वह तगण (ss I ) कहा गया है, जहा मध्य गुरु हो, वह जगन ( Is I ) और जिसमें आदि गुरु हो, वह भगन ( s II ) है | मुने ! जिसमें तीनो अक्षर लघु हो, वह नगन ( II I ) कहा गया है | तीन अक्षरोके समुदाय का नाम गण है || ४ || आर्या आदि छन्दोमें चार मात्रावाले पाच गण कहे गये हैं, जो चार लघुवाले गणसे युक्त हैं | यदि लघु अक्षरसे परे संयोग, विसर्ग और अनुस्वार हो तो वह लघुकी दीर्घताका बोधक होत है | इस छन्द:शास्त्रमें ‘ग’ का अर्थ गुरु या दीर्घ माना गया है और ‘ल’ का अर्थ लघु समझा जाता है पद्य या श्लोकके एक चौथाई भागको पाद कहते हैं | विच्छेद या विरामका नाम ‘यति’ है || ५-६ || नारद ! वृत (छन्द)-के तीन भेद माने गये हैं—सम वृत, अर्धसम वृत तथा विषम वृत | जिसके चारों चरणोंमें एवं दूसरे तथा चौथे चरणोंमें समान लक्षण हो, वह अर्धसम वृत है | जिसके चारों चरणोंमें एक-दुसरेसे भिन्न लक्षण होते हो, वह विषम वृत है || ८ || एक अक्षरके पादसे आरम्भ करके एक-एक अक्षर बढाते हुए जबतक छब्बीस अक्षरतकके पादवाले छन्दोंकी संज्ञा सुनो || ९-१० || उक्ता, अत्युक्ता, मध्या, प्रतिष्ठा, सुप्रतिष्ठा, गायत्री,उषिणक, अनुष्टुप्, बृहति, पङ्त्तिक,त्रिष्टुप्, जगति, अतिजगती, शक्वरी, अतिशक्वरी, अष्टि, अत्यष्टिधृति, विधृति (या अतिधृति), कृति, प्रकृति, आकृति, विकृति, संकृति, अतिकृति या अभिकृति तथा उत्कृति || ११-१३ || ये छन्दोंकी संज्ञाए हैं, प्रस्तारसे इनके अनेक भेद हैं | समपूर्ण गुरु अक्षरवाले पादमें प्रथम गुरुके नीचे लघु लिखना चाहिये, फिर दाहिनी ओरकी पङ्क्तिको ऊपरकी पङ्क्तिके समान भर दे | तात्पर्य यह कि शेष स्थानोंमें ऊपरके अनुसार गुरु-लघु आदि भरे | इस क्रियाको बराबर करता जाय | इसे करते हुए ऊनस्थान अर्थात् बायीं ओरके शेष स्थानमें गुरु ही लिखे | यह क्रिया तबतक करता रहे, जबतक कि सभी लघु अक्षरोंकी प्राप्ति न हो जाय | इसे ‘प्रस्तार’ कहा गया है || १४-१५ || (प्रस्तार नष्ट हो जानेपर यदि उसके किसी भेदका स्वरूप जानना हो तो उसे जाननेकी विधिको ‘नष्ट प्रत्यय’ कहते हैं |) यदि नष्ट अङ्क सम है तो उसके लिये एक लघु लिखे और उसका आधा भी यदि सम हो तो उसके लिये पुनः एक लघु लिखे | यदि नष्ट अङ्क विषम हो तो उसके लिये एक गुरु लिखे और उसमें एक जोडकर आधा करे | वह आधा भी यदि विषम हो तो उसके लिये भी गुरु ही लिखे | यह क्रिया तबतक करता रहे, जबतक अभिष्ट अक्षरोंका पाद प्राप्त न हो जाय | (प्रस्तारके किसी भेदक स्वरूप तो ज्ञात हो ; किन्तु संख्या ज्ञात न हो तो उसके जाननेकी विधिको ‘उद्दिष्ट’ कहते है) उद्दिष्टमें गुरु-लघु-बोधक जो चिह्न हो, उनमें पहले अक्षर पर एक लिखे और क्रमशः दूसरे अक्षरो दुने अङ्क लिखता जाय; फिर लघुके उपर जो अङ्क हो, उन्हे जोडकर उसमें एक और मिल दे तथा वही उद्दिष्ट स्वरुपकी संख्या बतावे | ऐसा पुराणवेत्ता विद्वानोका कथन है | ( अमुक छन्दके प्रस्तारमें एक गुरु वाले, तीन लघुवाले या तीन गुरुवाले भेद कितने हो सकते है; यह पृथक्-पृथक् जाननेकी जो प्रक्रिया है, उसे ‘एकद्वयादिलगक्रिया’ क्रिया कहते है ) छन्दके अक्षरोकी जो संख्या हो, उसमें एक अधिक जोडकर उतने हि एकाङ्क ऊपर-नीचे क्रमसे लिखे | उन एकाङ्कोको ऊपरकी अन्य पङ्क्ति में जोड़ दे; किन्तु अन्त्यके समीपवर्ती अंकको जोड़े और ऊपरके एक-एक अंकको त्याग दे | ऊपरके सर्व गुरुवाले पहले भेदसे नीचेतक गिने | इस रितीसे प्रथम भेद सर्वगुरु, दुसरा भेद एक गुरु और तीसरा भेद द्वीगुरु होता है | इसी तरह नीचेसे ऊपरकी ओर ध्यान देनेसे सबसे नीचेका सर्वलघु, उसके एक लघु, तीसरा भेद द्व्यिलघु इत्यादि होता है | इस प्रकार ‘एकद्व्यादिलगक्रिया’ जाननी चाहिये | लगक्रियाके अङ्कोकों जोड़ देनेसे उस छन्दके प्रस्तारकी पूरी संख्या ज्ञात हो जाती है | यही संख्यान प्रत्यय कहलाता है, अथवा उद्दिष्टपर दिये हुए अङ्कोको जोड़कर उसमें एकका योग कर दिया जाय तो वह भी प्रस्तारकी पूरी संख्याको प्रकट कर देता है | छन्दके प्रस्तारको अंकित करनेके लिये जो स्थानका नियमन किया जाता है, उसे अध्वयोग प्रत्यय कहते हैं | प्रस्तारकी पूरी संख्या है, उसे दूना करके एक घंटा देनेसे जो अङ्क आता है, उतने ही अंगुलका उसके प्रस्तारके लिये अध्वा या स्थान कहा गया है || १६-२० || मुने ! यह छन्दोको किंचित् लक्षण बताया गया है | प्रस्तारद्वारा प्रतिपादित होनेवाले उनके भेद-प्रभेदोंकी संख्या अनन्त है || २१ ||
अध्याय ५४ शुकदेवजीका मिथलागमन, राजाभवनमें युवतियोंद्धारा उनकी सेवा, राजा जनकके द्धारा शुकदेवजीका सत्यकार और शुकदेवजीके साथ उनका मोक्ष विषयक संवाद
श्रीसनन्दनजीने कहा- नारदजी ! एक दिन मोक्ष-धर्म ही विचार करते हुए शुकदेवजी पिता व्यासदेवके समीप गए और उन्हे प्रणाम करके बोले-’भगवान ! आप मोक्ष-धर्मोमें निपुण है, अतः मुझे ऐसे उपदेश दीजिए, जिससे मेंरे मनको परम शन्ति प्राप्त हो।’ मूने ! पुत्रकी यह बात सुनकर महर्षि व्यासने उनसे कहा-’वत्स ! नाना प्रकारके धर्मोका भी तत्व समझो और मोक्षशास्त्रका अध्ययन किया। जब व्यासजीने समझ लिया की मेंरा पुत्र ब्रहम्तेजसे सम्पन्न, शक्तिमान तथा मोक्षशास्त्रमें कुशल हो गया है, तब उन्होने कहा-’बेटा !अब तुम मिथिलानरेश जनकके समीप जाओ, राजा जनक तुम्हें मोक्षतत्व पूर्णरूपसे बतलाएंगे |’ पितके आदेशसे शुकदेव जी धर्म निष्ठ और मोक्ष के परम आश्रय के संबंध में प्रश्न करने के लिये मिथला पति राजा जनक के पास जाने लगे | जाते समय व्यासजीने फिर कहा- ‘वत्स ! जिस मार्ग में साधारण मानुष्य चलते हो, उसी से तुम यात्रा करना | मन में विस्मय अथवा अभिमान को स्थान न देना | अपनी योगशक्तिके प्रभावसे अन्तरिक्षमार्गद्वारा कदापि यात्रा न करना | सरल भावसे ही वहा जाना | मार्ग में सुख-सुविधा न देखना, विशेष व्यक्तियों या स्थान की खाज न करना; क्योकि वे आसक्ति बढ़ाने वाले होते है | ‘राजा जनक शिष्य और यजमान है’- ऐसा समझकर उनके सामने अहंकार न प्रकट करना | उनके वश में रहना | वे तुम्हारे संदेह का निवारण करेंगे | राजा जनक धर्म में निपुण तथा मोक्षशास्त्र में कुशल है | वे मेंरे शिष्य है, तो भी तुम्हारे लिए जो आज्ञा दे, उसका निस्संदेह होकर पालन करना |’
पिता के एसा कहने पर धर्मात्मा शुकदेव मुनि मिथला गए | यद्यपि समुद्रोंसहित सम्पूर्ण पृथ्वी को वे आकाशमार्ग से ही लाँघ सकते थे, तथापि पैदल ही गए | महामुनि शुक विदहनगरमें पहुंचे | पहले राजद्वार[ पर पहुंचते ही द्वारपालोंने उन्हे भीतर जाने से रोका; किन्तु इससे उनके मन में कोई गलनी नहीं हुई | नारदजी ! महायोगी शुक भूख-प्याससे रहित हो वहीं धूपमें जा बैठे और ध्यानमें स्थित हो गए | उन द्वारपालोंमेंसे एकको अपने व्यवहारपर बड़ा शोक हुआ | उसने देखा, शुकदेवजी दोपहरके सूरी के भाँति यहाँ स्थित हो रहे है, तब हाथ जोड़कर प्रणाम ‘किया और विधिपूर्वक उनका पूजन एवं सत्कार करके राजमहलकी दूसरी कक्षा में उनका प्रवेश कराया | वहां चैत्ररथ वनके समान एक विशाल उपवन था, जिसका संबंध अंतःपुरसे था | वह वन बड़ा रमणीय था | द्वारपालने शुकदेवजिकों सारा उपवन दिखाकर एक सुंदर आसनपर बिठाया तथा राजा जनक को इसकी सूचना दी | मुनिश्रेष्ठ ! राजा ने जब सुना की शुकदेवजी मेंरे पास आए है तो उनके हार्दिक भावको समझनेके उद्देश्यसे उनकी सेवाके लिए बहुत-सी युवतियोंकों नियुक्त किया | उन सबके वेश बड़े मनोहर थे | वे सब-की-सब तरुण और देखनेमें मन को प्रिय लगाने वाली थीं | उन्होने लाल रंगके महीन एवं रंगीन वस्त्र धारण कर रखे थे | उनके अंगों में तपाये हुए शुद्ध सुवर्णके आभूषण चमक रहे थे | वे बातचीतमें बड़ी चतुर तथा समस्त कलाओंमें कुशल थीं | उनकी संख्या पाचसे अधिक थी | उन सबने शुकदेवजीके लिए पाद्य, अर्घ्य आदि प्रस्तुत किए तथा देश और काल के अनुसार प्राओट हुआ उत्तम अन्न भोजन कराकर उन्हें तृप्त किया | नारदजी ! जब वे भोजन कर चुके तो उनमें से एक-एक युवतीने शुकदेवजिकों अपने साथ लेकर उन्हें वह अन्तःपुरका वन दिखलाया | फिर मनके भावोंको समझनेवाली वे सब युवतियाँ हँसती, गाती हुई उदारचित्तवाले शुकदेव मुनिकी परिचर्या करने लगीं | शुकदेवमुननिका अन्तःकारण परम शुद्ध था | वे क्रोध और इंद्रियोंकों जीत चुके था | वे क्रोध और इंद्रियों को जीत चुके थे तथा निरान्तर ध्यानमें ही स्थित रहते थे | उनके मनमें न हर्ष होता था , न क्रोध | संध्याका समय होने पर शुकदेव जी ने हाथ-पैर धोकर संध्योपासना की | फिर वे पवित्र आसान पर बैठे और उसी मोक्ष-धर्मके विषयमें विचारमें विचार करने लगे | रातके पहले पहारमें वे ध्यान लगाए बैठे रहे | दूसरे और तीसरे पहरमें भगवान शुकने न्यायपर्वक निद्राको स्वीकार किया | फिर प्रातःकाल ब्रह्मवेलामें ही उठकर उन्होने शौच-स्नान किया | तदन्तर स्त्रियोंसे घिरे होने पर भी परम बुद्धिमान शुक पुनः ध्यानमें ही लग गए | नारदजी ! इसी विधिसे उन्होने वह शेष दिन और सम्पूर्ण रात्रि राजकुलमें व्यतीत की |
द्विजश्रेष्ठ ! तदन्तर मंत्रियोंसहित राजा जनक पुरोहित तथा अन्तःपूरकी स्त्रियोंकों आगे करके मस्तकपर अर्घ्यपात्र लिए गुरपुत्र शुकदेवजी के समीप गए | उन्होने सम्पूर्ण रत्नोंसे विभूषित एक महान सिंहासन लेकर गुरुपुत्र शुकदेवजीको अर्पित किया | व्यासनंदन शुक जब उस आसानपर विराजमान हुए, तब राजा ने पहले उन्हें पाद्य अर्पण किया, उसके बाद अर्घ्यसहित गाय निवेदन की | महातेजस्वी द्विजोत्तम शुकने मंत्रोच्चारणपूर्वक की हुई उस पुजाको स्वीकार करके राजा का कुशल-मंगल पूछा | राजका हृदय और परिजन सभी उदार थे |म्वे भी गुरुपुत्र्से कुशल-समाचार बताकर उनकी आज्ञा ले भूमिपर बैठे | तत्पश्चात व्यासनन्दन शूकसे कुशल-मंगल पुछकर विधिज्ञ रजने प्रश्न किया-’ ब्राह्मन् ! किसिलिये अपका यहा शुभागमन हुअ है ?’
शुकदेवजी बोले– राजन् ! अपका कल्याण हो ! पिताजिने मुझसे कहा है की ‘मेंरे यजमान विदेहराज जनक मोक्ष-धर्मके तत्त्वको जाननेमें कुशल है | तुम उन्हीके पास जाओ | तुम्हारे हृदय प्रवृत्तिके विषयमें जो भी संदेह होग, उसक वे शीघ्र हि निवारन कर देङ्गे | इसमें संशय नहि है |’ अतः मैं पितजीकी आज्ञासे आपके समीप अपना हार्दिक संशय मिटानेके लिये यहाँ आया हूँ | आप धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ है | मुझे यथावत उपदेश देनेकी कृपा करें | ब्राह्मण का इस जगतमें क्या कर्तव्य है? तथा मोक्षका स्वरूप कैसा है? उसे ज्ञान या तपस्या किस साधन से प्राप्त करना चाहिए?
राजा जनकने कहा– ब्राह्मान् ! इस जगत में जन्म लेकर जीवनपर्यंत ब्राहमणका जो कर्तव्य है, वह बतलाता हूँ, सुनो- तात ! उपनयन-संसकारके पश्चात ब्राह्मण-बालकको वेदों के स्वाध्यायमें लग जाना चाहिए | वह तपस्या, गुरुसेवा और ब्रह्मचर्य-पालनमें संलग्न रहे | होम तथा श्राद्ध-तर्पणद्वारा देवताओं और पिटारोंके ऋणसे उक्त हो | किसीकी निंदा न करे | सम्पूर्ण वेदोंका नियमपूर्वक अध्ययन पूरा करके गुरुको दक्षिणा दे, फ्हिर उनकी आज्ञा लेकर द्विजबतक अपने घरको लौटे | समावर्तन-संसकारके पश्चात गुरुकुलसे लौटा हुआ ब्राह्मणकुमार विवाह करके अपनी ही पत्नीमें अनुराग रखतेहुए गृहस्थ-आश्रममें निवास करे | किसिके दोष ने देखे | न्यायपूर्वक वार्ताव करे | अग्नि की स्थापना करके प्रतिदिन आदरपूर्वक अग्निहोत्र करे | पुत्र और पौत्रोंकी उत्पत्ति हू जानेपर वानप्रस्थ-आश्रममें रहे और पहलेकी स्थापित अग्निका ही विधिपूर्वक आहुतीद्वारा पूजन करे | वानप्रस्थीकों भी अतिथि – सेवा में प्रेम रखना चाहिये | तदन्तर धर्मज्ञ पुरुष वेनमें न्यायपूवक सम्पूर्ण अग्नियोंकों (भावनाद्वारा) अपने भीतर ही लीन करके वीतराग हो ब्रम्हाचिन्तनपरायण संन्यास आश्रममें निवास करे और शीत, उष्ण आदि द्वन्द्वोको धैर्यपूर्वक सहन करे |
शुकदेवजीने पूछा— राजन् ! यदि किसीको ब्रहमचर्य-आश्रममें ही सनातन ज्ञान-विज्ञानकी प्राप्ति हो जाय और हृदयके राग-द्वेष आदि द्वन्द दुर हो गये हो तो भी उसके लिये क्या शेष तीन आश्रमोंमें निवास करना अत्यन्त आवश्यक है? इस संदेहके विषयमें मैं आपसे पुछ रहा हूँ | आप बताने की कृपा करें |
राजा जनकने कहा— ब्रामहन ! जैसे ज्ञान-विज्ञानके बिना मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती, उसी प्रकार सद्गुरुसे सम्बन्ध हुए बिना ज्ञानकी उपलब्धि भी नहीं होती | गुरु इस संसार-सागरसे पर उतरनेवाले है और उनका दिया हुआ ज्ञान नौकाके समान बतलाया गया है। लोककी धार्मिक मर्यादका उच्छेद न हो और कर्मानुष्ठानकी परम्पराका भी नाश न होने पावे, इसके लिए पहलेके विद्वान चारों आश्रमोंके धर्मोका पालन करते थे। इस प्रकार क्रमशः अनेक प्रकारके सत्कर्मोंका अनुष्ठान करते हुए शुभाशुभ कर्मोकी आसक्तिका त्याग हो जानेपर यही मोक्ष प्राप्त हो जाता है। अनेक जन्मोसे सत्कर्म करते-करते जब सम्पूर्ण इंद्रिया पवित्र हो जाती है, तब शुद्ध अंतःकरणवाला पुरुष प्रथम आश्रममें ही उतम मोक्षरूप ज्ञान प्राप्त कर लेता है। उसे पाकर जब ब्रह्मचर्य-आश्रममें ही तत्वका साक्षात्कार एवं मुक्ति सुलभ हो जाय तब परमात्मकों चाहनेवाले जीवन्मुक्त विद्वानके लिए शेष तीनों आश्रमों जनेकी क्या आवशयकता है। विद्वानको चाहिए की वह राजस और तामस दोषोका परित्याग कर दे और सात्विक मार्गका आश्रय लेकर बुद्धिके द्वारा आतमका दर्शन करे। जो सम्पूर्ण भूतोकों अपनेमें और अपनेको सम्पूर्ण भूतोमें स्तिथ देखता है, वह संसारमें रहकर भी उसके दोषोसे लिप्त नहीं होता और अक्षय पदको प्राप्त कर लेता है। तात ! इस विषय में राजा ययातिकी कही हुई गाथा सुनो-
जिसे मोक्ष-शास्त्रमें निपुण विद्वान द्वीज सदा धारण किए हुए है, अपने भीतर ही उस आत्मज्योतिका प्रकाश है, अन्यत्र नहीं। वह ज्योति सम्पूर्ण प्राणियोके भीतर समान रूपसे स्थित है। समाधीमें अपने चित्तकों भलीभाँति एकाग्र करनेवाला पुरुष उसको स्वयं देख सकता है। जिससे दूसरा कोई प्राणी नहीं डरता, जो स्वयं किसी दूसरे प्राणिसे भयभीत नहीं होता तथा जो इक्छा और द्वेषसे रहित हो गयाहै, वह ब्रह्मभावकों प्राप्त हो जाता है। जब मनुष्य मन वाणी और क्रियाद्वारा किसी भी प्राणीकी बुराई नहीं करता, उस समय वह ब्रह्मरूप हो जाता है। जब मोहमें डालनेवाली ईष्या, काम और लोभका त्याग करके पुरुष अपने आपको तपमें लगा देता है, उस समय उसे ब्रह्मानन्दका अनुभव होता है। जब सुनने और देखने योग्य विषयोमें तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके उपर मनुष्यका समानभाव हो जाय और सुख-दुख आदि द्वंद उसके चित्पर प्रभाव न डाल सके, तब वह ब्रहमको प्राप्त हो जाता है। जिस समय निंदा-स्तुति, लोहा-सोना, सुख-दुःख, सदा-गर्मी, अर्थ-अनर्थ, प्रिय-अप्रिय तथा जीवन-मरनमें समान दृष्टि हो जाती है, उस समय मनुष्य ब्र्हमभावकों प्राप्त हो जाता है। जैसे कछुआ अपने अंगोकों फेलाकर फिर समेंट लेता है, उसी प्रकार सन्यासीको मनके द्वारा इंद्रियोपर नियंत्रण रखना चाहिए। जिस प्रकार अंधकारसे व्याप्त हुआ घर दीपकके प्रकारसे स्पष्ट दिख पड़ता है, उसी तरह बुद्धिरूपी दीपकके सहायतासे आत्मका दर्शन हो सकता है। बुद्धिमनोमें श्रेष्ठ शुकदेवजी ! उपयुक्त सारी बाते मुझे आपमें दिखायी देती है। इनके अतिरिक्त जो कुछ भी जानने योग्य विषय है, उसे आप ठीक-ठीक जानते है। ब्रहम्ष्रे ! मै आपको अच्छी तरह जानता हू। आप अपने पिताजी की कृपासे और शिक्षाके विषयोसे परे हो गए है। उन्ही महामुनि गुरुदेवकी कृपासे मुझे भी यह दिव्य विज्ञान प्राप्त हुआ है, जिससे मै आपकी स्थितिकों पहचानता हू। आपका विज्ञान, आपकी गति और आपका ऐश्वर्य-ये सब अधिक है। किन्तु आपको इस बातका पता नहीं है। ब्राहम्न ! आपको ज्ञान हो चुका है और आपकी बुद्धि भी स्थिर है; साथ ही आपमें लोलुपता भी नहीं है; परंतु विशुद्ध निश्चयके बिना किसीकों परब्रहमकी प्राप्ति नहीं होती। आप सुख-दुःखमें कोई अंतर नहीं समझते ! आपके मनमें तनिक भी लोभ नहीं है। आपको न नाच देखनेकी उत्कंठा होती है, न गीत सुननेकी। आपका कही भी राग है ही नहीं। न तो बन्धुओके प्रति आपकी आसक्ति है, न भयदायक पदार्थोसे भय। महाभाग ! मै देखता हू-आपकी दृष्टिमें अपनी निन्दा और स्तुति एक-सी है। मै तथा दूसरे मनीषी विद्वान भी आपको अक्षय एवं अनामय पथ (मोक्षमार्ग)-पर स्तिथ मानते है। विप्रवर ! इस लोक मै ब्राह्मण होनेका जो फल है और मोक्षका जो स्वरूप है, उसीमें आपकी स्थिति है ।
सनन्द्नजी कहते है- नारद ! राजा जनककी यह बात सुनकर शुद्ध अन्तःकरणवाले शुकदेवजी एक दृढ़ निश्चयपर पहुँच गये और बुद्धिके द्वारा आत्माका साक्षात्कार करके उसीमें स्थित होकर कृतार्थ हो गये । उस समय उन्हे आनंद और परम शांतिका अनुभव हुआ । इसके बाद वे हिमालय पर्वतको लक्ष्य करके चुपचाप उत्तर दिशाकी और चल दिये और वह पहुचकर उन्होने अपने पिता व्यासजीकों देखा, जो पैल आदि शिष्योको वेदिकसंहिता पढ़ा रहे थे । सुध अन्तःकरणवाले शुकदेव अपनी दिव्य प्रभासे सूर्यके समान प्रकाशित हो रहर थे । उन्होने प्रसन्नचित होकर बड़े आदरसे पिताके चरणोंमें प्रणाम किया । तद्नंतर उदार-बुद्धि शुकने राजा जनकके साथ जो मोक्षसाधनविषयक संवाद हुआ था, वह सब अपने पिताको बताया । उसे सुनकर वेदोका विस्तार करनेवाला व्यासजीने हर्षोल्लासपूर्ण हृदयसे पुत्रकों चटीसे लगा लिया और अपने पास बिठाया । तत्पश्चात पैल आदि ब्राह्मण व्यासजीसे वेदोका अध्ययन करके उस शैलशिखरसे पृथ्वीपर आये और यज्ञ कराने तथा वेद पढ़ानेके कार्यमें संलग्न हो गये ।
अध्याय ५५ व्यासजीका शुकदेवको अनध्यायका कारण बताते हुय "प्रवह" आदि सात वायुओंका परिचय देना, सनत्कुमारका शुकको ज्ञान उपदेश
सनन्दजी कहते है– नारदजी ! जब पैल आदि ब्राह्मण पर्वतसे नीचे उतार आये, तब पुत्रसहित परम बुद्धिमान भगवान व्यास एकांतमें मौनभाव से ध्यान में बैठ गये | उस समय आकाशवाणीने पुत्रसहित व्यासजी को सांबोधित करके कहा- ‘वसिष्ठ-कुलमें उत्पन्न महर्षि व्यास ! इस समय वेद-ध्वनि क्यों नहीं हो रही है ? तुम अकेले कुछ चिंतन करते हुए-से चुपचाप ध्यान लगाए क्यों बैठे हो? इस समय वेदोच्चारण की ध्वनि से रहित होकर यह पर्वत सुशोभित नही हो रहा है | अतः भगवन ! अपने वेदज्ञ पुत्रके साथ परम प्रसन्नचित्त हो सदा वेदों का स्वाध्याय करो |’ आकाशवाणी उच्चारित यह वचन सुनकर व्यासजी ने अपने पुत्र शुकदेवजी साथ वेदोंकी आवृत्ती आरंभ कर दी | द्विजश्रेष्ठ ! वे दोनों पिता-पुत्र दीर्घकालतक वेदोंका पारायण करते रहे | इसी बीच में एक दिन समुद्री हवा से प्रेरित होकर बड़े जोरकी आँधी उठी | इसे अनध्यायका हेतु समझकर व्यासजीने पुत्रकों वेदोंके स्वाध्यायसे रोक दिया | तब उन्होने पितासे पूछा- ‘भगवन ! यह इतने जोरकी हवा क्यों उठी थी? वायुदेवकी यह सारी चेष्टा आप बताने की कृपा करे |’
शुकदेवजी की यह बात सुनकर व्यास जी अनध्यायके निमित्तस्वरूप वायुके विषयमें इस प्रकार बोले –’बेटा ! तुम्हें दिव्यदृष्टि उत्पन्न हुई है , तुमहारा मन स्वतः निर्मल है | तुम तमोगुण तथा रजोगुणसे दूर एवं सत्यमें प्रतिष्ठित हुए हो, अतः अपने हृदय में वेदोंका विचार करके स्वयं ही बुद्धिद्वारा अनध्यायके कारणरूप वायुके विषय में आलोचना करो | पृथ्वी और अन्तरिक्षमें जो वायु चलती है, उसके सात मार्ग है | जो धूम तथा गर्मीसे उत्पन्न बादल-समूहो और ओलोंको इधर-से-उधर ले जाता है ,वह प्रथम मार्गमें प्रवाहीत होनेवाला ‘प्रवह’ नामक प्रथम वायु है | जो आकाशमें रस की मात्राओं और बिजली आदिकी उत्पत्ति के लिए प्रकट होता है, वह महान तेजसे सम्पन्न द्वितीय वायु ‘आवह’ नामसे प्रसिद्ध है और बड़ी भारी आवाजके साथ बहता है | जो सदा सोम-सूर्य आदि ज्योतिर्मय ग्रहोका उदय एवं उद्भव करता है, मनीषी पुरुष शरीर के भीतर जिसे उड़ान कहते है, जो चारों समुद्रोसे जल ग्रहण करता है और उसे ऊपर उठाकर ‘जीमूतों’ को देता है तथा जीमूतोंको जल से संयक्त करके उन्हे ‘पर्जन्य’ के हवाले करता है, वह महान वायु ‘उद्वह’ कहलाता है | जिससे प्रेरित होकर अनेक प्रकारके नील महामेंघ घटा बाँधकर जल बरसाना आरंभ करते है तथा जो देवताओंके आकाशमार्ग से जानेवाले विमानोंकों स्वयं ही वहन करता है, वह पर्वतोका मान मर्दन करनेवाला चतुर्थ वायु ‘संवह’ नामसे प्रसिद्ध है | जो रुक्षभावसे वेगपूरवाक बहकर वृक्षोकों तोड़ता आओर फेंकता है तथा जिसके द्वारा संगठित हुए प्रलयकालीन मेंघ ‘बलाहक’ संज्ञा धारण करते है, जिसका संचरण भयानक उत्पात लानेवाला है तथा जो अपने साथ मेंघोंकी घटाए लिए चलता है, वह अत्यंत वेवाँ पंचम वायु ‘विवाह’ कहा गया है | जिसके आधारपर आकाशमें दिव्य जल प्रवहित होते हैं, जो आकाशगङ्गाके पवित्र जलको धारण करके स्थित है और जिसके द्वारा दूरसे ही प्रतिहत होकर सहस्त्रों किरणोंके उत्पतिस्थान सूर्यदेव एक ही किरणसे युक्त प्रतीत होते हैं, जिनसे यह पृथ्वी प्रकाशीत होती है तथा अमृतकी दिव्यनिधि चन्द्रमाका भी जिससे पोषण होता है, उस छठे वायूका नाम ‘परिवह’ है, वह सम्पूर्ण विजयशील तत्वोंमें श्रेष्ठ है | जो अन्तकालमें सम्पूर्ण प्राणियोंके प्राणोंको शरीरसे निकलता है, जिसके इस प्राणनिष्कासनरूप मार्गका मृतुयु तथा वैवस्वत यम अनुगमन मात्र करते है, सदा अध्यात्मचिन्तनमें लगी हुई शान्त बुद्धिके द्वारा भली-भाँति विचार या अनुसंधान करनेवाले ध्यानाभ्यापरायण पुरूषोंको जो अमृतत्व देनेमें समर्थ है, जिसमें स्थित होकर प्रजापति दक्षके दस हजार पुत्र बड़े वेगसे सम्पूर्ण दिशाओंके अन्तमें पहुँच गये तथा जिससे वृष्टिका जल तिरोहित होकर वर्षा बन्द हो जाती, वह सर्वश्रेष्ठ सप्तम वायु नामसे प्रसिध्द है उसका अतिक्रर्मण करना सबके लिये कठिन है | इस प्रकार ये सात मरुद्रण दितिके परम अभ्दुत पुत्र हैं | इनकी सर्वत्र गति है | ये सब जगह विचरते रहते हैं; किन्तु बड़े आश्चर्यकी बात है की उस वायुके वेगसे आज यह पर्वतोंमें श्रेष्ठ हिमालय भी काप उठा है | बेटा ! यह वायु भगवान विष्णुका नि: शवास है | जब कभी सहसा वह निश्वाश वेगसे निकाल पड़ता है, उस समय सारा जगत व्यथित हो उठता है | इसलिये ब्रांहवेता पुरुष प्रचण्ड वायु (आँधी) चलनेपर वेदका पाठ नहीं करते हैं | वेद भी भगवानका नि: श्वास ही है | उस समय वेद-पाठ करनेपर वायुसे वायुको क्षोभ प्राप्त होता है |
अनध्यायके विषयमें यह बात कहकर पराशरनन्दन भगवान व्यास अपने पुत्र शुकदेवसे बोले- ‘अब तुम वेद-पाठ करो | ‘यों कहकर वे आकाशगङ्गाके तटपर गये | जब व्यासजी स्नान करने चले गये, तब ब्रम्हावेताओंमें श्रेष्ठ शुकदेवजी वेदोंका स्वाध्याय करने लगे | वे वेद और वेदांगोंके पारङ्गत विद्वान थे | नारदजी ! व्यासपुत्र शुकदेवजी जब स्वाध्यायमें लगे हुए थे, उसी समय वहाँ भगवान सत्कुमार एकान्तमें उनके पास आये | व्यासनन्दन शुकने ब्रह्मपुत्र सनत्कुमार ब्रह्मवेत्ताओमें श्रेष्ठ सनत्कुमारजी ने शुकदेवजी से कहा –’महाभाग ! महातेजस्वी व्यासपुत्र ! क्या केआर रहे हो?’
शुकदेवजी बोले –ब्रह्मकुमार ! इस समय मैं वेदों के स्वाध्यायमें लगा हूँ | मेंरे किसी अज्ञात पुनि के फल से आपका दर्शन प्राप्त हुआ है | अतः महाभाग ! मैं आपसे किसी ऐसे तत्त्वके विषया में पूछना चाहता हूँ जो मोक्षरूपी पुरुषार्थका साधक हो | अतः आप कृपा पूर्वक बतवे, जिससे मुझे भी उसका ज्ञान हो |
सनत्कुमारने कहा – ब्रह्मन ! विद्या के समान कोई नेत्र नहीं है, सत्यके तुल्य कोई टपश्य नहीं है , राग के समान कोई दुःख नहीं है और त्याग के सदृश कोई सुख अहि है | पाप-कर्मसे दूर रहना, सदा पुण्यका संचय कराते रहना, साधु पुरुषों के बर्तावको अपनाना और उत्तम सदाचार पालन करना-यह सर्वोतम श्रेयका साधन है | जहाँ सुखका नाम भी नहीं है, ऐसे मानव-शरीरको पाकर जो विषयोंमें आसक्त होता है, वह मोहमें डूब जाता है | विषयोंका संयोग दु:खरूप है, वह कभी दु:खसे छुटकारा नहीं दिला सकता | आसक्त मनुष्यकी बुद्धि चंचल होती है और मोहजालका विस्तार करनेवाली होती है | जी उस मोहजालसे घिर जाता है, वह इस लोक और परलोकमें भी दु:खका ही भागी होता है | जो अपना कल्याण चाहता हो, उसे सभी उपायोंसे काम और क्रोधको काबूमें करना चाहिये, क्योंकी वे दोनों दोष मनुष्यको चाहिये कि तपको क्रोधसे, सम्पतिको डाहसे, विद्याको मन-अपमानसे और अपनेको प्रमादसे बचावे | क्रूरस्वभावका परित्याग सबसे बड़ा धर्म है | क्षमा सबसे महान बल है | आत्मज्ञान सर्वोतम ज्ञान है और सत्य ही सबसे बढ़कर हितका साधन है | सत्य बोलना सबसे श्रेष्ठ है, किन्तु हितकारक बात कहना सत्यसे भी बढ़कर है | जिससे प्राणियोंका अत्यन्त हित होता हो, उसीको मैं सत्य मानता हूँ | जो नये-नये कर्म आरम्भ करनेका संकल्प छोड़ चुका है, जिसके मनमें कोई कामना नहीं है, जो किसी वस्तुका संग्रह नहीं करता तथा जिसने सब कुछ त्याग दिया है, वही विद्वान है और वही पण्डित है | जो अपने वशमें कि हुई इंद्रियोंके द्वारा अनासक्त भावसे विषयोंका अनुभव करता है, जिसके अन्त:करणमें सदा शान्ति विराजित है, जो निर्विकार एवं एकाग्रचित है तथा जो आत्मीय कहलानेवाले सरीर और इंद्रियोंके साथ रहकर भी उनसे एकाकार न होकर विलग-सा हि रहता है, वह सब बंधनोंसे छूटकर शीघ्र ही परम कल्याण प्राप्त कर लेता है | जिसकी किसी भी प्राणिकी ओर दृष्टि नहीं जाती, किसीका स्पर्श तथा किसिसे बातचीत नहीं करता, उसे महान श्रेयकी प्राप्ति होती है | किसी भी जीवकी हिंसा न करे | सब प्राणियोंके साथ मित्रतापूर्ण बर्ताव करे | इस जन्म ( अथवा शरीर)- कों लेकर किसिके साथ वैरभाव न करे | जो आत्मतत्वका ज्ञाता तथा मनको वशमें रखनेवाला है, उसे चाहिए कि किसी भी वस्तुका संग्रह न करे | मनमें पूर्ण संतोष रखे | कामना तथा चपलताकों त्याग दे | इससे परम कल्याणकी सिद्धि होती है | जिनहोनें भागोंका परित्याग कर दिया है, वे कभी शोकमें, नहीं पड़ते इसलिए प्रत्येक मनुष्यको भोगासक्तिका त्याग करना चाहिए | जो किसीसे भी पराजित न होनेवाला परमात्माको जितना चाहता हो, उसे तपस्वी, जीतेन्द्रिय, मननशील, सयतचित्त तथा सम्पूर्ण विषयोमें अनासक्त होना चाहिए। जो ब्राह्मण त्रिगुणातमक विषयोमें आसक्त न होकर सदा एकांतवास करता है, वह बहुत शीघ्र सर्वोतम सुख ( मोक्ष ) प्राप्त कर लेता है। मूने ! जो मैथुन में सुख समझनेवाले प्राणियोके बीचमें रहकर भी ( स्त्रियोसे रहित ) अकेले रहने में आनंद मानता है, उसे ज्ञानानन्दसे तृप्त समझना चाहिए। जो ज्ञाननन्दसे पूर्णतः तृप्त है, वह शोकमें नहीं पड़ता । जीव सदा कर्मोके अधीन रेहता है, वह सुभ कर्मोसे देवता होता है, शुभ और अशुभ दोनोंके आचरणसे मनुष्ययोनिमें जन्म पता है तथा केवल अशुभ कर्मोसे पशु-पक्षी आदि नीच योनियोंमें जन्म पता है। उन-उन योनियोंमें जीवको सदा जरा-मृत्यु तथा नाना प्रकारके दुःखो-का शिकार होना पासता है। इस प्रकार संसारमें जन्म लेनवाला प्रत्येक प्राणी संतापकी आगमें पकाया जाता है ।
यहा विभिन्न वस्तुओके संग्रह-परिग्रहकी कोई अवयशकता नहीं है, क्योंकि संग्रहसे महान दोष प्रकट होता है । रेशमका कीड़ा अपने संग्रहके करण ही बंधन में पड़ता है । स्त्री, पुत्र आदि कुटुंबमें आसक्त रहनेवाले जीव उसी प्रकार कष्ट पते है, जैसे जंगलके बूढ़े हाथी तालाबके दलदलमें फसकेर दुःख भोगते है । जैसे महान जालमें फँसकर पानीके बाहर आए हुए मत्सय तड़पते है, उसी प्रकार स्नेह-जलमें फँसकर अत्यन्त कष्ट उठाते हुए इन प्राणियों और दृष्टिपात करो । कुटुंब, पुत्र, स्त्री, सरीर और द्रव्यका संग्रह, यह सब कुछ पराया है, सब अनीति है । यहा अपना क्या है ? केवल पुण्य और पाप । अर्थ (परमात्मा)–की प्राप्तिके लिए विद्या, कर्म, पवित्रता और अत्यन्त विस्तृत ज्ञानका सहारा लिया जाता है । जब अर्थकी सिद्धि परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है तो मनुष्य मुक्त हो जाता है । गाँवमें रहनेवाले मनुष्यकी विषयोके प्रति जो आसक्ति होती है, वह उसे बांधनेवाली रससीके समान है । पुण्यात्मा पुरुष उस रससिकों काटकर आगे परमार्थके पथपर बढ़ जाते है; परंतु पापी जीव उसे नहीं काट पाते । यह संसार एक नदीके समान है । रूप इसका किनारा, मन स्तोत्र स्पर्श द्वीप और रस ही प्रवाह है । गंध इस नदीका कीचड़, सबद जल और स्वर्गरूपी दुर्गमें घाट है । इस नदीको मनुष्य-शरीररूपी नौकाकी सहायतासे पार किया जा सकता है । क्षमा इसको खेनेवाले डांड और धर्म इसको स्थिर करनेवाला लंगर है । विषयशक्तिके त्यागरूपी शीघ्रगामी वायुद्वारा ही इस नदीको पार किया जा सकता है । इसलिए तुम कर्मोसे निवृत, सब प्रकारके बंधनोसे मुक्त, सर्वज्ञ, सर्वविजयी, सीध तथा भाव, अभावसे रहित हो जाओ । बहुत-से ज्ञानी पुरुष सयंम और तपस्याके बलसे नवीन बंधनोका उछेद करके नीति सुख देनेवाली अवाधसिद्धि (मुक्ति)–कों प्राप्त हो चुके है ।
अध्याय ५६ शुकदेवजीको सनत्कुमारका उपदेश
सनत्कुमारजी कहते है- शुकदेव ! शास्त्र शोकको दूर करनेवाला है । वह शांतिकारक तथा कल्याणमय है । अपने शोकका नाश करनेके लिये शास्त्रका श्रवण करनेसे उतम बुद्धि प्राप्त होई है । उनके मिलनेपर मनुष्य सुखी एवं अभ्युदशील होता है । शोकके हजारो और भयके सेंकड़ों स्थान है । वे प्रतिदिन मूढ़ मनुष्यपर ही अपना प्रभाव डालते है । विद्वान पुरुषपर ही अपना प्रभाव डालते है । विद्वान पुरुषपर उनका ज़ोर नहीं चलता । अल्प बुद्धिवाले मनुष्य ही अप्रिय वस्तुके संयोग और प्रिय वस्तुके वियोगसे मन-ही-मन दुःखी होता है । जो वस्तु भूतकालके गर्भमें छिप गयी ( नष्ट हो गयी), उसके गुणोका स्मरण नहीं करना चाहिए; क्योंकि जो आदरपूर्वक उसके गुणोका चिन्तन करता है, वह उसकी आसक्ति बन्धनसे मुक्त नहीं हो पता । जहाँ चितकी आसक्ति बढने लगे वही दोषदृष्टि करना चाहिए और उसे अनिष्टकों बढ़ानेवाला समझना चाहिए । ऐसा करनेपर उससे शीघ्र ही वैराग्य हो जाता है । जो बीटी बटके लिये शोक करता है, उसे धर्म, एथ आउट यशकी प्राप्ति नहीं होती । वह उसके अभावका दूर नहीं होता । सभी प्राणियोको उतम पदार्थोसे संयोग और वियोग प्राप्त हिये रहते है । किसी एकपेर ही यह शोकका अवसर नहीं आता । जो मनुष्य भूतकालमें मारे हुए किसी व्यक्ति अथवा नष्ट हुई किसी वस्तुके लिये निरंतर शोक करता है, वह एक दुःखसे दूसरे दुःखको प्राप्त होता है । इस प्रकार उसे दो अनर्थ भोगने पड़ते है । यदि कोई शारीरिक और मानसिक दुःख उपस्थित हो जाय तथा उसे दूर करनेमें कोई उपाय काम न दे सके, तो उसके लिये चिंता न करनी चाहिए । दुःख दूर करनेकी सबसे अछि दावा यही है की उसका बार-बार चिन्तन न किया जाय । चिन्तन करने से वह घटता नहीं, बल्कि और बढ़ता ही जाता है । इसलिए मानसिक दुःखको बुद्धिके विचरसे और शारीरिक कष्टको ओषध सेवनद्वारा नष्ट करना चाहिए | शास्त्रज्ञानके प्रभावसे ही ऐसा होना सम्भव है | दु:ख पड़नेपर बलकोंकी तरह रोना उचित नहीं है | रूप, यौवन, जीवन, धन-संग्रह, आरोग्य तथा प्रियजनोंका सहवास—ये सब अनित्य हैं | विद्वान पुरुषको इनमें आसक्त नहीं होना चाहिये | आये हुए संकटके लिये शोक करना उचित नहीं है | यदि उस संकटको टालनेका कोई उपाय दिखलायी दे तो शोक छोड़कर उसे ही करना चाहिये | इसमें संदेह नहीं कि जीवनमें सुखकी अपेक्षा दु:ख महान हैं, अतः उनसे अपने प्रिय आत्माका उद्धार करे | शारीरिक और मानसिक रोग सुदृढ़ धनुष धारण करनेवाले वीर पुरुषके छोड़े हुए तीखी धारवाले बाणोंकी तरह शरीरको पीड़ित करते हैं | तृष्णासे व्यथित, दु:खी एवं विवश होकर जीनेकी इच्छा रखनेवाले मनुष्यका नाशवान शरीर क्षण-क्षणमें विनाशको प्राप्त हो रहा है | जैसे नदियोंका प्रवाह आगेकी ओर ही बढ़ता जाता है, पीछेकी ओर नहीं लौटता, उसी प्रकार रात और दिन भी मनुष्योंकी आयुका अपहरण करते हुए एक-एक करके बीतते चले जा रहे हैं | यदि जीवके किये हुए कर्मोंका फल पराधीन न होता तो वह जो चाहता, उसकी वही कामना पूरी हो जाती | बड़े-बड़े संयमी, चतुर और बुद्धिमान मनुष्य भी अपने कर्मोंके फलसे वञ्चित होते देखे जाते हैं तथा गुणहीन, मूर्ख और नीच पुरुष भी किसिके आशीर्वाद बिना ही समस्त कामनाओंसे सम्पन्न दिखायी देते हैं | कोई-कोई मनुष्य त सदा प्राणियोंकी हिंसामें ही लगा रहता है और संसारको धोखा दिया करता है, किन्तु कहीं-कहीं ऐसा पुरुष भी सूखीं देखा जाता है | कितने ही ऐसे हैं, फिर भी उनके पास लक्ष्मी अपने-आप पहुँच जाती है और कुछ लोग बहुत-से कार्य करते हैं, फिर भी मनचाही वस्तु नहीं पाते | इनमें पुरुषका प्रारब्ध ही प्रधान है | देखो, वीर्य अन्यत्र पैदा होता है और अन्यत्र जाकर संतान उत्पन्न करता है | कभी टीपी वह योनिमें पहुँचकर गर्भ धारण करानेमें समर्थ होता है और कभी नहीं होता | कितने ही लोग पुत्र-पौत्रकी इच्छा रखकर उसकी सिद्धिके लिये यत्न करते रहते हैं, तो भी उनके संतान नहीं होती और कितने ही मनुष्य संतानको क्रोधमें भरा हुआ साँप समझकर सदा उससे डरते रहते हैं तो भी उनके यहाँ दीर्घजीवी पुत्र उत्पन्न हो जाता है, मानो वह स्वयं किसी प्रकार परलोकसे आकर प्रकट हो गया हो | कितने ही गर्भ ऐसे हैं, जो पुत्रकी अभिलाषा रखनेवाले दीन स्त्री-पुरुषोंद्वारा देवताओंकी पुजा और तपस्या करके प्राप्त किये जाते हैं और दस महीनेतक माताके उदरमें धरण किये जानेके बाद जन्म लेनेपर कुलाङ्गार निकल जाते हैं | उन्हीं माङ्गलिक कृत्योंसे प्राप्त हुए बहुत-से-ऐसे पुत्र हैं, जो जन्म लेनेके साथ ही पीताके संचित किये हुए अपार धन-धान्य और विपल भोगोंके अधिकारी होते हैं | (इन सबमें प्रारब्ध ही प्रधान है |)
जो सुख और दु:ख दोनोंकी चिन्ता छोड़ देता है, वह अविनाशी ब्रम्हाको प्राप्त होता है और परमानन्दका अनुभव करता है | धनके उपार्जनमें बड़ा कष्ट होता है, उसकी रक्षामें भी सुख नहीं है तथा उसके खर्च करनेमें भी क्लेश ही होता है, अत: धनको प्रत्येक दशामें दु:खदायक समझकर उसके नष्ट होनेपर चिन्ता नहीं करनी चाहिये | मनुष्य धनका संग्रह करते-करते पहलेकी अपेक्षा ऊँची स्थितिको प्राप्त करके भी कभी तृप्त नहीं होते, वे और अधिक धन क्मानेकी आशा लिये हुए ही मर जाते हैं (वे धनकी तृष्णामें नहीं पड़ते) | संग्रहका अन्त है विनाश, सांसारिक ऐश्वर्यकी उन्नतिका अन्त है उस ऐश्वर्यकी अवनति | संयोगका अन्त है वियोग और जीवनका अन्त है मरण | तृष्णाका कभी अन्त नहीं होता | संतोष ही परम सुख है | अतः पण्डितजन इस लोकमें संतोषको ही उतम धन कहते हैं | आयु निरन्तर बीती जा रही है | वह पलभर भी विश्राम नहीं लेती | अब अपना शरीर ही अनित्य है, तब इस संसारकी दूसरी किस वस्तुको नित्य समझा जाय | जो मनुष्य सब प्राणियोंके भीतर मनसे परे परमात्माकी स्थिति जानकार उन्हींका चिन्तन करते हैं, वे संसारयात्रा समाप्त होनेपर परमपदका साक्षात्कार करते हुए शोकके पार हो जाते हैं | जैसे वनमें नयी-नयी घासकी खोजमें विचरते हुए अतृप्त पशुको सहसा व्याघ्र आकर दबोच लेता है, उसी प्रकार भोगोंकी खोजमें लगे हुए अतृप्त मनुष्यको मृतुयु उठा ले जाती है | इसलिये इस दु:ख-से छुटकारा पानेका उपाय अवश्य सोचना चाहिए | जो शोक छोड़कर साधन आरम्भ करता है और किसी व्यसनमें आसक्त नहीं होता उसकी मुक्ति हो जाती है | धनी हो या निर्धन, सबको उपभोगकालमें ही शब्द, स्पर्श, रूप, रस और उत्तम गन्ध आदि विषयोंमें किञ्चित सुखका अनुभव होता है | उपभोगके पश्चात उनमें कुछ नहीं रहता | प्राणियोंको एक-दुसरेसे संयोग होनेके पहले कोई दु:ख नहीं होता | जब संयोगके बाद प्रियका वियोग होता है तभी सबको दु:ख हुआ करता है; अत: विवेकी पुरुषको अपने स्वरूपमें स्थित होकर कभी भी शोक नहीं करना चाहिए | धार्यके द्वारा शीश्न और उदरकी, नेत्रद्वारा हाथ और पैरकी, मनके द्वारा आँख और कानकी तथा सद्विद्दया द्वारा मन और वाणीकी रक्षा करनी चाहिए | पूजनीय तथा अन्य मनुष्योंमें आसक्ति हटाकर शांतभावसे विचरण करता है, वही सुखी और वही विद्वान है | जो अध्यात्म-विद्यामें अनुरक्त, निष्काम तथा भोगा-सक्तिसे दूर है और सदा अकेला ही विचरता रहता है, वह सुखी होता है | जब मनुष्य सुखको दु:ख और दु:खको सुख समझने लगता है, उस अवस्थामें बुद्धि, सुनीति और पुरुषार्थ भी उसकी रक्षा नहीं कर पाते | अत: मनुष्यको ज्ञानप्राप्तिके लिये स्वभावत: यत्न करना चाहिए; क्योंकि यत्न करनेवाला पुरुष कभी दु:खमें नहीं पड़ता |
सनन्दनजी कहते है—व्यासपुत्र शुकदेवसे ऐसा कहकर उनकी अनुमती ले महामुनि सनत्कुमरजी उनसे सादर पूजित हो वहाँसे चले गये | योगियोंमें श्रेष्ठ शुकदेवजी भी अपनी स्वरूपस्थितिको भलीभाँति जानकर ब्रम्हपदका अनुसंधान करनेके लिये उत्सुक हो पिताके पास गये | पीतासे मिलकर महामुनि शुकने उन्हें प्रणाम किया और उनकी परिक्रमा करके वे कैलासपर्वतको चले गये |
अध्याय ५७ श्रीशुकदेवजीकी ऊर्धव गति, श्र्वेतद्धीप तथा वैकुण्ठधाममें जाकर शुकदेवजीके द्धारा भगवान् विष्णुकी स्तुति, भगवानकी आज्ञासे शुकदेवजीका व्यासजीके पास आकर भागवतशास्त्र पढ़ना
सनन्दनजीने कहा– देवर्षे ! कैलाश-पर्वतपर जाकर सूर्यके उदय होनेपर विद्वान शुकदेव हाथ-पैरोको यथोचित रीतिसे रखकर विनितभावसे पूर्वकी ओर मुँह करके बेठे और योगमें लग गये । उस समय उन्होने सब प्रकारके सङ्गोसे रहित परमात्माका दर्शन किया । यों उस परमात्माका साक्षात्कार करके शुकदेवजी खूब खुलकर हँसे । फिर वे वायुके समान आकाशमें विचारणे लगे । उस समय उनका तेज उदयकालीन आरुणके समान प्रकाशित हो रहा था । वे मन और वायुके समान आगे बढ़ रहे थे । उस समय सबने अपनी शक्ति तथा रीति-नीतिके अनुसार उनका पूजन किया । देवताओने उनपर दिव्य पुष्पोकी वर्षा की । उन्हे इस प्रकार उपर उठते देख गन्धर्व, अप्सरा, महर्षि तथा सिद्धगन सब आश्चर्यसे चकित हो उठे । तत्पश्चात वे नित्य, निर्गुण एवं लिंगरहित ब्रहमपदमें स्थित ही गये । उस समय उनका तेज धूमरहित अग्रिके भाँति उद्दीप्त हो रहा था । आगे बढ़नेपर शुकदेवजीने परवातके दो अनुपम शिखर देखे जिनमें एक तो हिमालयके समान श्वेत तथा दूसरा मेंरुके समान पीतवर्ण था । एक रजतमय था और दूसरा सुवर्णमय। दोनों एक-दूसरेसे सटे हुए और सुंदर थे । नारद ! इनका विस्तार उपरकी और तथा अगल-बगलमें सौ-सौ योजनका था । शुकदेवजी दोनों शिखरोके बीचसे सहसा आगे निकाल गये । वह श्रेष्ठ पर्वत उनकी गति को रोक न सका । उस समय शुकदेवजी वायुलोकसे उपर अन्तरिक्षमें यात्रा करते हुए अपना प्रभाव दिखाकर सर्व-स्वरूप हो सम्पूर्ण लोकोमें विचरण करने लगे । परम योगवेता शुकदेवजी श्वेतद्वीपमें जा पँहुचे | वहाँ उन्होनें पहले भगवान श्रीनारायणदेवका प्रभाव देखा | तत्पश्चात जिन्हें वेदकी ऋचाएँ भी ढूँढती फिरती हैं, उन देवाधिदेव जनार्दनका साक्षात दर्शन किया | दर्शनके अनन्तर शुकदेवजीने भगवानकी स्तुति की| नारद ! उनकी स्तुतिसे प्रसन्न होकर भगवान बोले |
श्रीभगवानने कहा— योगीन्द्र ! मैं सम्पूर्ण देवताओंके लिये भी अदृश्य होकर रहता हूँ, फिर भी तुमने मेंरा दर्शन कर लिया है | ब्रम्हचारी शुक ! तुम सनत्कुमारजी के बताये हुए योगके द्वारा सिद्ध हो चुके हो | अतः वायुके मार्गमें स्थित होकर इच्छानुसार सम्पूर्ण लोकोंको देखो |
विप्रवर ! भगवान वासुदेवके ऐसा कहनेपर शुकदेवमुनि उन्हें प्रणाम करके अखिलविश्ववन्दित विष्णुधामको गये | नारद ! वैकुण्ठलोक विमानपर विचरनेवाले देवताओंसे सेवित है उसे विरजा नामवाली दिव्य नदीने चारों ओरसे घेर रखा है | उस दिव्य धामके प्रकाशित होनेसे ही ये सम्पूर्ण लोक प्रकाशित हो रहे हैं | वहाँ सुन्दर-सुन्दर बावड़ियाँ बनी हैं, जो कमलोंसे आच्छादित रहती हैं | उनके घाट मूँगेके बने हुए हैं, जिनमें सुवर्ण और रब जड़े हुए हैं | वे सब बावड़ियाँ निर्मल जलसे भरी रहती हैं | वहाँके द्वारपाल चार भुजाधारी होते हैं | नाना प्रकारके आभूषण उनकी शोभा बढ़ाते हैं | वे सभी विष्वक्सेनजीके अनुयायी एवं सिद्ध हैं | उनकी कुमुद आदि नामोंसे प्रसिद्धि है | शुकदेवजीको उनमेंसे किसीने नहीं रोका | वे बिना बाधा भीतर प्रवेश कर गये | वहाँ उन्होने सिद्ध-समुदायके द्वारा निरन्तर सेवित देवाधिदेव भगवान विष्णुका दर्शन किया | उनके चार भुजाएँ थीं वे शान्त एवं प्रसन्नमुख दिखायी देते थे | उनके श्रीअङ्गोपर रेशमी पीताम्बर शोभा पर रहा था | शङ्ख, चक्र, गदा और पद्य मूर्तिमान होकर भगवानकी सेवामें उपस्थित थे | उनके वृक्षस्थलमें भगवती लक्ष्मी विराज रही थीं और कोस्तुभमणिसे वे प्रकाशित हो रहे थे | उनके कटिभागमें करधनी, बायें कंधेपर यज्ञोपवीत, हाथोंमें कड़े तथा भुजाओंमें अङ्ग्द सुशोभित थे | माथेपर मण्डलाकार किरीट और चरणोंमें नृपुर शोभा दे रहे थे | भगवान मधुसूदनका दर्शन करके शुकदेवने भक्तिभावसे उनकी स्तुति की |
शुकदेवजी बोले—सम्पूर्ण लोकोंके एकमात्र साक्षी आप भगवान वसुदेवको नमस्कार है | सम्पूर्ण जगतके बीजस्वरूप, सर्वत्र परिपूर्ण एवं निश्चल आत्मरूप आपको नमस्कार है | वासुकि नागकी श्ययापर शयन करनेवाले श्वेतद्वीपनिवासी श्रीहरीको नमस्कार है | आप हंस, मत्स्य, वाराह तथा नरसिंहरूप धारण करनेवाले हैं | धुर्वके आराध्यदेव भी आप ही हैं | आप सांख्य और योग दोनोंके स्वामी हैं | आपको नमस्कार है | चारों सनकादी आपके ही अवतार हैं | आपने ही कच्छप और पृथुरूप धरण किया है | आत्मानन्द ही आपका स्वरूप है | आप ही नाभिपुत्र ऋषभदेवजीके रूपमें प्रकट हुए हैं | जगतकी सृष्टि, पालन और संहार करनेवाले आप ही हैं | आपको नमस्कार है | भृगुनन्दन परशुराम, रघुनन्दन श्रीराम, परात्पर श्रीकृष्ण, वेदव्यास, बुध्द तथा कल्कि भी आपके हि स्वरुप हैं | आपको नमस्कार है | कृष्ण, बलभद्र, प्रदयुम्र और अनिरुद्ध—इन चार व्युहोके रूपमें आप ही विराज रहे हैं | नर-नारायण, शिपिविष्ट तथा विष्णु नामसे प्रसिद्ध आपको नमस्कार है | सत्य ही आपका धाम है | आप धमरहित हैं | गरुड़ आपके स्वरूप हैं | आप स्वयंप्रकाश, ऋभु (देवता), उत्तम व्रतका पालन करनेके लिये विख्यात, उत्कृष्ट धामवाले और अजित हैं | आपको नमस्कार है | सम्पूर्ण विश्व आपका स्वरूप है | आप ही विश्वरूपमें प्रकट हैं | सृष्टि, पालन और संहार करनेवाले भी आप ही हैं | यज्ञ और उसके भोक्ता, स्थूल और सूक्ष्म तथा याचना करनेवाले वामनरूप आपको नमस्कार है | सूर्य और चन्द्रमा आपके नेत्र हैं | साहस, ओज और बल आपसे भिन्न नहीं हैं | आप यज्ञोंद्वारा यजन करने योग्य, साक्षी, अजन्मा तथा अनेक हाथ, पैर और मस्तकवाले हैं | आपको नमस्कार है | आप लक्ष्मीके स्वामी, उनके निवासस्थान तथा भक्तोंके अधीन रहनेवाले हैं | आप शारङ्ग नामक धनुष धारण करते हैं | आठ प्रकृतियोंके अधिपति, ब्रम्हा तथा अनन्त शक्तियोंसे सम्पन्न आप परमेंश्वरको नमस्कार है | बृहदारण्यक उपनिषदके द्वारा आपके तत्वका बोध होता है | आप इंद्रियोंके प्रेरक तथा जगत्स्त्रष्टा ब्रम्हा हैं | आपके नेत्र विकसित कमलके समान हैं | क्षेत्रज्ञके रुपमें आप ही प्रकाशित हो रहे हैं | आपको नमस्कार है | गोविन्द, जगत्कर्ता, जगन्नाथ, योगी, सत्य, सत्यप्रतिज्ञ, वैकुण्ठ और अच्युतरूप आपको नमस्कार है | अधोक्षज, धर्म, वामन, त्रिधातु, तेज:पुण्य धारण करनेवाले, विष्णु, अनन्त एवं कपिलरूप आपको नमस्कार है | आप ही विरिञ्चि नामसे प्रसिद्ध ब्रम्हाजी हैं | तीन शिखरोंवाला त्रिकुट पर्वत आपका ही स्वरूप है | ऋग्वेद, यजुर्वेद, और सामवेद आपके अभिन्न विग्रह हैं | एक सींगवाले शृंगी ऋषि भी आपकी ही विभूति हैं | आपका यश परम पवित्र है तथा सम्पूर्ण वेद-शास्त्र आपसे ही प्रकट हुए हैं | आपको नमस्कार है | आप वृषाकपि (धर्मको अविचल रूपसे स्थापित करनेवाले विष्णु, शिव और इन्द्र) हैं | सम्पूर्ण समृद्धियोंसे सम्पन्न तथा प्रभु सर्वशक्तिमान हैं | यह सम्पूर्ण विश्व आपकी ही रचना है | भुवर्लोक और स्वर्लोक आपके ही स्वरूप हैं | आप दैत्योंका नाश करनेवाले तथा निर्गुण रूप हैं | आपको नमस्कार है | आप निरंजन, नित्य, अव्यय और अक्षररूप हैं | शरनगतवत्सल ईश्वर ! आपको नमस्कार है | आप मेंरी रक्षा कीजिये |
इस प्रकार स्तुति करनेपर प्राणतजनोंपर दया करनेवाले शङ्ख, चक्र, और गदाधारी भगवान विष्णु शुकदेवजीसे इस प्रकार बोले |
श्रीभगवानने कहा— उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महाभाग व्यासपुत्र ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ | तुम्हें विद्या और भक्ति दोनों प्राप्त हो | तुम ज्ञानी और साक्षात मेंरे स्वरूप हो | ब्रामहण ! तुमने पहले श्येतद्वीपमें जो मेंरा स्वरूप देखा है, वह मैं ही हूँ | सम्पूर्ण विश्वकी रक्षाके लिए मैं वहाँ स्थित हूँ | मेंरा वही स्वरूप भिन्न-भिन्न अवतार धारण करनेके लिये जाता है | महाभाग ! मोक्षधर्मका निरन्तर चिन्तन करनेसे तुम सिद्ध हो गये हो | जैसे वायु तथा सूर्य आकाशमें विचरण करते हैं, उसी प्रकार तुम भी समस्त श्रेष्ठ लोकोमें भ्रमण कर सकते हो | तुम नित्य मुक्तस्वरूप हो | मैं ही सबको शरण देनेवाला हूँ | संसारमें मेंरे प्रति भक्ति अत्यन्त दुर्लभ है | उस भक्तिको प्राप्त कर लेनेपर और कुछ पाना शेष नहीं रहता | (वह तुमको प्राप्त हो गयी) बदरिकाश्रममेंनर- नारायण ऋषि कल्पान्त कालतकके लिये तपस्यमें स्थित हैं | उनकी व्रतका पालन करनेवाले तुम्हारे पिता व्यास भागवत-शस्त्रका सम्पादन करेंगे | अतः तुम पृथ्वीपर जाओ और उस शस्त्रका अध्ययन करो | इस समय वे गन्धमादन पर्वतपर तपस्या करते हैं |
नारदजी ! भगवानके ऐसा कहनेपर शुकदेवजीने उन चार भुजाधारी श्रीहरिको नमस्कार किया और वे पिताके समीप लौट गये | तदनन्तर शुकदेवको अपने निकट देख परम प्रतापी पराशरनन्दन भगवान व्यासका मन प्रसन्न हो गये | फिर भगवान नारायण और नरश्रेष्ठ नरको नमस्कार करके शुकदेवजीके साथ अपने आश्रमपर आये | मुनीश्वर नारद ! तुम्हारे मुखसे भगवान नारायणका आदेश पाकर उनहोने अनेक प्रकारके शुभ उपाख्यानोंसे युक्त दिव्य भागवतसंहिता बनायी, जो वेदके तुल्य माननीय तथा भगवभ्दकतिको बढ़ानेवाली है व्यासजीने वह संहिता अपने निवृतिपरायण पुत्र शुकदेवको पढ़ायी | व्यासनन्दन भगवान शुक यद्यपि आत्माराम हैं तथापि उन्होने भक्तोंको सदा प्रिय लगनेवाली उस संहिताका बड़े उत्साहसे अध्ययन किया | अनघ ! इस प्रकार ये मोक्षधर्म बतलाये गये, जो पाठकों और श्रोताओके हृदयमें भगवानकी भक्ति बढ़ानेवाले हैं |