- अध्याय – १ मंगलाचरण तथा अग्नि और वसिष्ठ के संवाद-रूप से अग्निपुराण का आरम्भ
- अध्याय – २ मत्स्यावतार की कथा
- अध्याय – ३ समुद्र-मन्थन, कुर्म तथा मोहिनी-अवतार की कथा
- अध्याय – ४ वराह, नृसिंह, वामन और परशुराम – अवतार की कथा
- अध्याय – ५ श्रीरामावतार-वर्णन के प्रसंग में रामायण-बालकाण्ड की संक्षिप्त कथा
- अध्याय – ६ अयोध्याकाण्ड की संक्षिप्त कथा
- अध्याय – ७ अरण्यकाण्ड की संक्षिप्त कथा
- अध्याय – ८ किष्किन्धाकाण्ड की संक्षिप्त कथा
- अध्याय – ९ सुन्दरकाण्ड की संक्षिप्त कथा
- अध्याय – १० युद्धकाण्ड की कथा
- अध्याय - ११ उत्तरकाण्ड की कथा
- अध्याय – १२ हरिवंश का वर्णन एवं श्रीकृष्णावतार की कथा
- अध्याय – १३ महाभारत की संक्षिप्त कथा
- अध्याय – १४ कौरव और पांडवों का युद्ध तथा उसका परिणाम
- अध्याय – १५ यदुकुल का संहार और पांडवों का स्वर्गगमन
- अध्याय – १६ बुद्ध और कल्कि-अवतारों की कथा
- अध्याय – १७ जगतकी सृष्टि का वर्णन
- अध्याय – १८ स्वायम्भुव मनु के वंश का वर्णन
- अध्याय – १९ कश्यप आदि के वंश का वर्णन
- अध्याय – २० सर्ग का वर्णन
- अध्याय – २१ विष्णु आदि देवताओं की सामान्य पूजा का विधान
- अध्याय – २२ पूजा के अधिकार की सिद्धि के लिये सामान्यत: स्नान-विधि
- अध्याय – २३ देवताओं तथा भगवान विष्णु की सामान्य पूजा-विधि
- अध्याय – २४ कुण्ड – निर्माण एवं अग्नि – स्थापन – सम्बन्धी कार्य आदि का वर्णन
- अध्याय – २५ वासुदेव, संकर्षण आदि के मंत्रो का निर्देश एक व्यूह से लेकर द्वादश व्यूह तक के व्यूहों का एवं पंचविंश और षडविंश व्यूहों का वर्णन
- अध्याय – २६ मुद्राओं के लक्षण
- अध्याय – २७ शिष्यों को दीक्षा देने की विधि का वर्णन
- अध्याय – २८ आचार्य के अभिषेक का विधान
- अध्याय – २९ मन्त्र-साधन-विधि, सर्वतोभद्रादि मण्डलों के लक्षण
- अध्याय- ३० भद्रमण्डल आदिकी पूजन-विधिका वर्णन
- अध्याय- ३१ अपामार्जन-विधान एवं कुशापामार्जन नामक स्तोत्रका वर्णन
- अध्याय- ३२ निर्वाणादि-दीक्षाकी सिद्धिके उद्देश्यसे सम्पादनीय संस्कारोका वर्णन
- अध्याय- ३३ पवित्रारोपण, भूतशुद्धि, योगपीठस्थ देवताओं तथा प्रधान देवताके पार्षद-आवरणदेवोंकी पूजा
- अध्याय – ३४ पावित्रारोपण के लिए पूजा-होमादि की विधि
- अध्याय – ३५ पवित्राधिवासन – विधि
- अध्याय – ३६ भगवान् विष्णु के लिये पवित्रारोपण की विधि
- अध्याय – ३७ संक्षेप से समस्त देवताओं के लिये साधारण पवित्रारोपण की विधि
- अध्याय – ३८ देवालय-निर्माण से प्राप्त होनेवाले फल आदि का वर्णन
- अध्याय – ३९ विष्णु आदि देवताओं की स्थापना के लिये भूपरिग्रह का विधान
- अध्याय – ४० वास्तुमंडलवर्ती देवताओं के स्थापन, पूजन, अर्घ्यदान तथा बलिदान आदि की विधि
- अध्याय – ४१ शिलान्यास की विधि
- अध्याय – ४२ प्रसाद –लक्षण – वर्णन
- अध्याय – ४३ मन्दिरके देवताकी स्थापना और भूतशान्ति आदिका कथन
- अध्याय – ४४ वासुदेव आदिकी प्रतिमाओंके लक्षण
- अध्याय – ४५ पिण्डिका आदिके लक्षण
- अध्याय -४६ शालग्राम-मूर्तियोके लक्षण
- अध्याय – ४७ शालग्राम-विग्रहोंकी पूजाका वर्णन
- अध्याय – ४८ चतुर्विशति-मूर्तिस्तोत्र एवं द्वादशाक्षर स्तोत्र
- अध्याय-४९ मत्स्यादि दशावतारोंकी प्रतिमाओंके लक्षणोंका वर्णन
- अध्याय – ५० चण्डी आदि देवी-देवताओंकी प्रतिमाओंके लक्षण
- List Item
अग्निपुराण
अध्याय – १ मंगलाचरण तथा अग्नि और वसिष्ठ के संवाद-रूप से अग्निपुराण का आरम्भ
श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम् ।
ब्रह्माणं वह्रिमिन्द्रादीन वासुदेवं नमाम्यहम् ।।
‘लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय, महादेवजी, ब्रह्म़ा, अग्नि, इन्द्र आदि देवताओं तथा भगवान वासुदेव को मैं नमस्कार करता हूँ’ ।।१।।
नैमिषारण्य की बात है । शौनक आदि ऋषि यज्ञोंद्वारा भगवान विष्णु का यजन कर रहे थे । उस समय वहाँ तीर्थयात्रा के प्रसंग से सूतजी पधारे । महर्षियों ने उनका स्वागत-सत्कार करके कहा ।।२।।
ऋषि बोले : सूतजी ! आप हमारी पूजा स्वीकार करके हमें वह सारसे भी सारभूत तत्त्व बतलाने की कृपा करें, जिसके जान लेनेमात्र से सर्वज्ञता प्राप्त होती है ।।३।।
सूतजी ने कहा : ऋषियों ! भगवान विष्णु ही सारसे भी सारतत्व हैं । वे सृष्टि और पालन आदि के कर्ता और सर्वत्र व्यापक हैं । ‘वह विष्णुस्वरूप ब्रह्म मैं ही हूँ’ – इसप्रकार उन्हें जान लेनेपर सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है ।
ब्रह्म के दो स्वरुप जानने के योग्य हैं –शब्दब्रह्म और परब्रह्म । दो विद्याएँ भी जानने के योग्य हैं – अपरा विद्या और परा विद्या । यह अथर्ववेद की श्रुतिका कथन है ।
एक समय की बात हैं, मैं, शुकदेवजी तथा पैल आदि ऋषि बदरिकाश्रम को गये और वहाँ व्यासजी को नमस्कार करके हमने प्रश्न किया । तब उन्होंने हमे सारतत्त्व का उपदेश देना आरम्भ किया ।। ४ – ६ ।।
व्यासजी बोले : सूत ! तुम शुक आदि के साथ सुनो । एक समय मुनियों के साथ मैंने महर्षि वसिष्ठजी से सारभूत परात्पर ब्रह्म के विषय में पूछा था । उस समय उन्होंने मुझे जैसा उपदेश दिया था, वही तुम्हें बतला रहा हूँ ।। ७ ।।
वसिष्ठजी ने कहा : व्यास ! सर्वान्तर्यामी ब्रह्म के दो स्वरुप हैं । मैं उन्हें बताता हूँ, सुनो ! पूर्वकाल में ऋषि-मुनि तथा देवताओं सहित मुझसे अग्निदेवने इस विषय में जैसा, जो कुछ भी कहा था, वही मैं (तुम्हें बता रहा हूँ) ।
अग्निपुराण सर्वोत्कृष्ट है । इसका एक-एक अक्षर ब्रह्मविद्या हैं, अतएव यह ‘परब्रह्मरूप’ है । ऋग्वेद आदि सम्पूर्ण वेद-शास्त्र अपरब्रह्मा है । परब्रह्मास्वरूप अग्निपुराण सम्पूर्ण देवताओं के लिये परम सुखद है ।
अग्निदेवद्वारा जिसका कथन हुआ है, वह आग्नेयपुराण वेदों के तुल्य सर्वमान्य हैं । यह पवित्र पुराण अपने पाठकों और श्रोताजनों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला हैं ।
भगवान विष्णु ही कालाग्रिरूप से विराजमान हैं । वे ही ज्योतिर्मय परात्पर परब्रह्म हैं । ज्ञानयोग तथा कर्मयोग द्वारा उन्हीं का पूजन होता है । एक दिन उन विष्णुस्वरुप अग्निदेव से मुनियोंसहित मैंने इसप्रकार प्रश्न किया ।।८ – ११।।
वसिष्ठजी ने पूछा : अग्निदेव ! संसारसागर से पार लगाने के लिये नौकारूप परमेश्वर ब्रह्म के स्वरुप का वर्णन कीजिये और सम्पूर्ण विद्याओं के सारभूत उस विद्या का उपदेश दीजिये, जिसे जानकर मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है ।।१२।।
अग्निदेव बोले : वशिष्ठ ! मैं ही विष्णु हूँ, मैं ही कालाग्निरुद्र कहलाता हूँ । मैं तुम्हें सम्पूर्ण विद्याओं की सारभूता विद्याका उपदेश देता हूँ, जिसे अग्निपुराण कहते है । वही सब विद्याओं का सार हैं, वह ब्रह्मस्वरूप हैं । सर्वमय एवं सर्वकारणभूत ब्रह्म उससे भिन्न नहीं हैं । उसमें सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर, वंशानुचरित आदि का तथा मत्स्यकूर्म आदि रूप धारण करनेवाले भगवान का वर्णन हैं ।
ब्रह्मन ! भगवान विष्णु की स्वरुपभूता दो विद्याएँ हैं – एक परा और दूसरी अपरा । ऋक, यजु:, साम और अथर्वनामक वेद, वेद के छहों अंग-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्यौतिष और छन्द:शास्त्र तथा मीमांसा, धर्मशास्त्र, पुराण, न्याय, वैद्यक (आयुर्वेद), गान्धर्व वेद (संगीत), धनुर्वेद और अर्थशास्त्र – यह सब अपरा विद्या है तथा परा विद्या वह हिन्, जिससे उस अदृश्य, अग्राह्य, गोत्ररहित, चरणरहित, नित्य, अविनाशी ब्रह्म का बोध हो । इस अग्निपुराण को परा विद्या समझो ।
पूर्वकाल में भगवान विष्णु ने मुझसे तथा ब्रह्माजी ने देवताओं से जिस प्रकार वर्णन किया था, उसीप्रकार मैं भी तुमसे मत्स्य आदि अवतार धारण करनेवाले जगत्कारणभूत परमेश्वर का प्रतिपादन करूँगा ।।१३ – १९।।
इसप्रकार व्यासद्वारा सूत के प्रति कहे गये आदि आग्नेय महापुराण में पहला अध्याय पूरा हुआ ।।१।
अध्याय – २ मत्स्यावतार की कथा
वशिष्ठजी ने कहा : अग्निदेव ! आप सृष्टि आदि के कारणभूत भगवान विष्णु के मत्स्य आदि अवतारों का वर्णन कीजिये । साथ ही ब्रह्मस्वरूप अग्निपुराण को भी सुनाइये, जिसे पूर्वकाल में आपने श्रीविष्णु भगवान के मुखसे सुना था ।।१।।
अग्निदेव बोले : वसिष्ठ ! सुनो, मैं श्रीहरि के मत्स्यावतार का वर्णन करता हूँ । अवतार-धारण का कार्य दुष्टों के विनाश और साधू-पुरुषों की रक्षा के लिये होता हैं ।
बीते हुए कल्प के अन्त में ‘ब्राह्म’ नामक नैमित्तिक प्रलय हुआ था ।
मुने ! उस समय ‘भू’ आदि लोक समुद्र के जलमें डूब गये थे । प्रलय के पहले की बात है । वैवस्वत मनु भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिये तपस्या कर रहे थे । एक दिन जब वे कृतमाला नदीमें जलसे पितरों का तर्पण कर रहे थे, उनकी अंजली के जलमें एक बहुत छोटा-सा मत्स्य आ गया । राजाने उसे जलमें फेंक देने का विचार किया ।
तब मत्स्य ने कहा – ‘महाराज ! मुझे जलमें न फेंको । यहाँ ग्राह आदि जल-जन्तुओं से मुझे भय हैं ।’
यह सुनकर मनुने उसे अपने कलश के जलमें डाल दिया । मत्स्य उसमें पड़ते ही बड़ा हो गया और पुन: मनुसे बोला – ‘राजन ! मुझे बड़ा स्थान दो ।’ उसकी यह बात सुनकर राजाने उसे एक बड़े जलपात्र (नाद या कुंडा आदि) में डाल दिया । उसमें भी बड़ा होकर मत्स्य राजा से बोला– ‘मनो ! मुझे कोई विस्तृत स्थान दो ।’ तब उन्होंने पुन: उसे सरोवर के जलमे डाला; किंतु वहाँ भी बढ़कर वह सरोवर के बराबर हो गया और बोला –‘मुझे इससे बड़ा स्थान दो ।’ तब मनुने उसे फिर समुद्रमें ही ले जाकर डाल दिया ।
वहाँ वह मत्स्य क्षणभर में एक लाख योजन बड़ा हो गया । उस अद्भुत मत्स्य को देखकर मनुको बडा विस्मय हुआ ।
वे बोले – ‘आप कौन हैं ? निश्चय ही आप भगवान श्रीविष्णु जान पड़ते हैं । नारायण ! आपको नमस्कार हैं । जनार्दन ! आप किसलिये अपनी मायासे मुझे मोहित कर रहे हैं ?’ ।।२ – १०।।
मनुके ऐसा कहनेपर सबके पालन में संलग्न रहनेवाले मत्स्यरूपधारी भगवान उनसे बोले – ‘राजन ! मैं दुष्टों का नाश और जगतकी रक्षा करने के लिये अवतीर्ण हुआ हूँ । आजसे सातवें दिन समुद्र सम्पूर्ण जगत को डूबा देंगा । उससमय तुम्हारे पास एक नौका उपस्थित होगी । तुम उसपर सब प्रकार के बीज आदि रखकर बैठ जाना । सप्तर्षि भी तुम्हारे साथ रहेंगे । जबतक ब्रम्हा की रात रहेगी, तबतक तुम उसी नावपर विचरते रहोगे । नाव आने के बाद मैं भी इसी रूपमें उपस्थित होऊँगा । उससमय तुम मेरे सींग में महासर्पमयी रस्सी से उस नाव को बाँध देना ।’ ऐसा कहकर भगवान मत्स्य अन्तर्धान हो गये और वैवस्वत मनु उनके बताये हुए समय की प्रतीक्षा करते हुए वहीँ रहने लगे ।
जब नियत समयपर समुद्र अपनी सीमा लाँघकर बढ़ने लगा, तब वे पुर्वोत्क नौका पर बैठ गये । उसी समय एक सींग धारण करनेवाले सुवर्णमय मत्स्यभगवान का प्रादुर्भाव हुआ । उनका विशाल शरीर दस लाख योजन लंबा था । उनके सींग में नाव बाँधकर वैवस्वत मनु ने उनके ‘मत्स्य’ नामक पुराण का श्रवण किया, जो सब पापों का नाश करनेवाला हैं ।
वैवस्वत मनु भगवान मत्स्य की नाना प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा स्तुति भी करते थे ।
प्रलय के अन्त में ब्रह्म़ाजी से वेद को हर लेनेवाले ‘हयग्रीव’ नामक दानव का वध करके भगवान ने वेद-मंत्र आदि की रक्षा की ।
तत्पस्च्यात वाराहकल्प आनेपर श्रीहरि ने कच्छपरूप धारण किया ।।११-१७।।
इसप्रकार अग्निदेवद्वारा कहे गये विद्यासार-स्वरुप आदि आग्रेय महापुराण में ‘मत्स्यावतार – वर्णन’ नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ।।२।।
अध्याय – ३ समुद्र-मन्थन, कर्म तथा मोहिनी-अवतार की कथा
अग्निदेव कहते हैं : वसिष्ठ !अब मैं कुर्मावतार का वर्णन करूँगा । यह सुननेपर सब पापों का नाश हो जाता है । पूर्वकाल की बात हैं, देवासुर-संग्राम में दैत्यों ने देवताओं को परास्त कर दिया । वे दुर्वासा के शाप से भी लक्ष्मी से रहित हो गये थे । तब सम्पूर्ण देवता क्षीरसागर में शयन करनेवाले भगवान विष्णु के पास जाकर बोले – ‘भगवन ! आप देवताओं की रक्षा कीजिये ।’ यह सुनकर श्रीहरि ने ब्रह्मा आदि देवताओं से कहा –‘देवगण ! तुम लोग क्षीरसमुद्र को मथने, अमृत प्राप्त करने और लक्ष्मी को पाने के लिये असुरों से संधि कर लो । कोई बड़ा काम या भारी प्रयोजन आ पड़नेपर शत्रुओं से भी संधि कर लेनी चाहिये । मैं तुम लोगों को अमृत का भागी बनाऊँगा और दैत्यों को उससे वंचित रखूँगा । मन्दराचल को मथानी और वासुकि नाग को नेती बनाकर आलस्यरहित हो मेरी सहायता से तुम लोग क्षीरसागर का मन्थन करो ।’
भगवान विष्णु के ऐसा कहनेपर देवता दैत्यों के साथ संधि करके क्षीरसमुद्र पर आये । फिर तो उन्होंने एक साथ मिलकर समुद्र-मन्थन आरम्भ किया । जिस ओर वासुकि नाग की पूँछ थी, उसी और देवता खड़े थे । दानव वासुकि नाग के नि:श्वास से क्षीण हो रहे थे और देवतोओं को भगवान अपनी कृपादृष्टि से परिपुष्ट कर रहे थे । समुद्र-मन्थन आरम्भ होनेपर कोई आधार न मिलने से मन्दराचल पर्वत समुद्र में डूब गया ।।१ – ७ ।।
तब भगवान विष्णु ने कूर्म (कछुए) का रूप धारण करके मन्दराचल को अपनी पीठपर रख लिया । फिर जब समुद्र मथा जाने लगा, तो उसके भीतर से हलाहल विष प्रकट हुआ । उसे भगवान शंकर ने अपने कंठ में धारण कर लिया । इससे कंठ में काला दाग पड़ जाने के कारण वे ‘नीलकंठ’ नाम से प्रसिद्ध हुए । तत्पश्चात समुद्र से वारुणीदेवी, पारिजात वृक्ष, कौस्तुभमणि, गौएँ तथा दिव्य अप्सराएँ प्रकट हुई । फिर लक्ष्मीदेवी का प्रादुर्भाव हुआ । वे भगवान विष्णु को प्राप्त हुई । सम्पूर्ण देवताओं ने उनका दर्शन और स्तवन किया । इससे वे लक्ष्मीवान हो गये ।
तदनन्तर भगवान विष्णु के अंशभूत धन्वन्तरि, जो आयुर्वेद के प्रवर्तक हैं, हाथ में अमृत से भरा हुआ कलश लिये प्रकट हुए । दैत्यों ने उनके हाथ से अमृत छीन लिया और उसमें से आधा देवताओं को देकर वे सब चलते बने । उनमें जम्भ आदि दैत्य प्रधान थे । उन्हें जाते देख भगवान विष्णु ने स्त्री का रूप धारण किया । उस रूपवती स्त्री को देखकर दैत्य मोहित हो गये और बोले – ‘सुमुखि ! तुम हमारी भार्या हो जाओ और यह अमृत लेकर हमें पिलाओ ।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर भगवान ने उनके हाथ से अमृत ले लिया और उसे देवताओं को पिला दिया । उस समय राहु चन्द्रमा का रूप धारण करके अमृत पीने लगा । तब सूर्य और चन्द्रमा ने उसके कपट-वेष को प्रकट कर दिया ।।८ – १४।।
यह देख भगवान श्रीहरि ने चक्र से उसका मस्तक काट डाला । उसका सिर अलग हो गया और भुजाओंसहित धड़ अलग रह गया । फिर भगवान को दया आयी और उन्होंने राहु को अमर बना दिया । तब ग्रहस्वरुप राहु ने भगवान श्रीहरि से कहा – ‘इन सूर्य और चन्द्रमा को मेरे द्वारा अनेकों बार ग्रहण लगेगा । उससमय संसार के लोग जो कुछ दान करें, वह सब अक्षय हो ।’ भगवान विष्णुने ‘तथास्तु’ कहकर सम्पूर्ण देवताओं के साथ राहु की बात का अनुमोदन किया । इसके बाद भगवान ने स्त्री रूप त्याग दिया; किंतु महादेवजी को भगवान के उस रूप का पुनर्दर्शन करने की इच्छा हुई । अत: उन्होंने अनुरोध किया – ‘भगवन ! आप अपने स्त्री रूप को मुझे दर्शन करावें ।’ महादेवजी की प्रार्थना से भगवान श्रीहरि ने उन्हें अपने स्त्री रूप का दर्शन कराया । वे भगवान की मायासे ऐसे मोहित हो गये कि पार्वतीजी को त्यागकर उस स्त्री के पीछे लग गये । उन्होंने नग्न और उन्मत्त होकर मोहिनी के केश पकड़ लिये । मोहिनी अपने केशों को छुड़ाकर वहाँ से चल दी । उसे जाती देख महादेवजी भी उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगे । उससमय पृथ्वीपर जहाँ-जहाँ भगवान शंकर का वीर्य गिरा, वहाँ-वहाँ शिवलिंगों का क्षेत्र एवं सुवर्ण की खानें हो गयीं । तत्पश्चात ‘यह माया हैं‘ – ऐसा जानकर भगवान शंकर अपने स्वरुप में स्थित हुए । तब भगवान श्रीहरि ने प्रकट होकर शिवजी से कहा – ‘रुद्र ! तुमने मेरी माया को जित लिया । पृथ्वीपर तुम्हारे सिवा दूसरा कोई ऐसा पुरुष नहीं हैं, जो मेरी इस माया को जीत सके ।’
भगवान के प्रयत्न से दैत्यों को अमृत नहीं मिल पाया; अत: देवताओं ने उन्हें युद्ध में मार गिराया । फिर देवता स्वर्ग में विराजमान हुए और दैत्यलोग पातल में रहने लगे । जो मनुष्य देवताओं की इस विजयगाथा का पाठ करता हैं, वह स्वर्गलोक में जाता है ।।१५ – २३।।
इसप्रकार विद्याओं के सारभूत आदि आग्नेय महापुराण में ‘कुर्मावतार –वर्णन’ नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ ।। ३ ।।
अध्याय – ४ वराह, नृसिंह, वामन और परशुराम – अवतार की कथा
अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! अब मैं वराहावतार की पापनाशिनी कथा का वर्णन करता हूँ । पूर्वकाल में ‘हिरण्याक्ष’ नामक दैत्य असुरों का राजा था । वह देवताओं को जीतकर स्वर्ग में रहने लगा । देवताओं ने भगवान विष्णु के पास जाकर उनकी स्तुति की । तब उन्होंने यज्ञवाराहरूप धारण किया और देवताओं के लिये कंटकरूप उस दानव को दैत्योंसहित मारकर धर्म एवं देवताओं आदि की रक्षा की ।
इसके बाद वे भगवान श्रीहरि अन्तर्धान हो गये ।
हिरण्याक्ष के एक भाई था, जो ‘हिरण्यकशिपु’ के नामसे प्रसिद्ध था । उसने देवताओं के यज्ञभाग अपने अधीन कर लिये और उन सबके अधिकार छीनकर वह स्वयं ही उनका उपभोग करने लगा । भगवान से नृसिंहरूप धारण करके उसके सहायक असुरोंसहित उस दैत्य का वध किया । तत्पश्चात सम्पूर्ण-देवताओं को अपने-अपने पदपर प्रतिष्ठित कर दिया । उससमय देवताओं ने उन नृसिंह का स्तवन किया ।
पूर्वकाल में देवता और असुरों में युद्ध हुआ । उस युद्ध में बलि आदि दैत्यों ने देवताओं को परास्त करके उन्हें स्वर्ग से निकाल दिया । तब वे श्रीहरि की शरण में गये । भगवान ने उन्हें अभयदान दिया और कश्यप तथा अदिति की स्तुति से प्रसन्न हो, वे अदिति के गर्भ से वामनरूप में प्रकट हुए ।उससमय दैत्यराज बलि गंगाद्वार में यज्ञ कर रहे थे । भगवान उनके यज्ञ में गये और वहाँ यजमान की स्तुतिका गान करने लगे ।।१ – ७।।
वामन के मुखसे वेदों का पाठ सुनकर राजा बलि उन्हें वर देने को उद्दत हो गये और शुक्राचार्य के मना करनेपर भी बोले – ‘ब्रह्मन ! आप की जो इच्छा हो, मुझसे माँगे । मैं आपको वह वस्तु अवश्य दूँगा ।’ वामन ने बलि से कहा – ‘मुझे अपने गुरु के लिये तीन पग भूमि की आवश्यकता हैं; वही दीजिये ।’ बलिने कहा – ‘अवश्य दूँगा ।’ तब संकल्प का जल हाथ में पड़ते ही भगवान वामन ‘अवामन’ हो गये । उन्होंने विराट रूप धारण कर लिया और भूर्लोक, भुवर्लोक एवं स्वर्गलोक को अपने तीन पगों से नाप लिया । श्रीहरि ने बलि को सुतललोक में भेज दिया और त्रिलोकी का राज्य इन्द्र को दे डाला । इन्द्र ने देवताओं के साथ श्रीहरि का स्तवन किया । वे तीनों लोकों के स्वामी होकर सुखसे रहने लगे ।
ब्रह्मन ! अब मैं परशुरामावतार का वर्णन करूँगा, सुनो ! देवता और ब्राह्मण आदि का पालन करनेवाले श्रीहरि ने जब देखा कि भूमण्डल के क्षत्रिय उद्धत स्वभाव के हो गये हैं, तो वे उन्हें मारकर पृथ्वीका भार उतारने और सर्वत्र शान्ति स्थापित करने के लिये जमदग्नि के अंशद्वारा रेणुका के गर्भ से अवतीर्ण हुए ।
भृगुनन्दन परशुराम शस्त्र-विद्या के पारंगत विद्वान् थे । उन दिनों कृतवीर्य का पुत्र राजा अर्जुन भगवान दत्तात्रेयजी की कृपा से हजार बाँहे पाकर समस्त भूमण्डल पर राज्य करता था । एक दिन वह वनमें शिकार खेलने के लिये गया ।।८ – १४।। वहाँ वह बहुत थक गया । उस समय जमदग्नि मुनिने उसे सेनासहित अपने आश्रम पर निमन्त्रित किया और कामधेनु के प्रभाव से सबको भोजन कराया । राजाने मुनि से कामधेनु को अपने लिए माँगा; किंतु उन्होंने देने से इनकार कर दिया । तब उसने बलपूर्वक उस धेनु को छीन लिया ।
यह समाचार पाकर परशुरामजी ने हैहयपूरी में जा उसके साथ युद्ध किया और अपने फरसे से उसका मस्तक काटकर रणभूमि में उसे मार गिराया । फिर वे कामधेनु को साथ लेकर अपने आश्रम पर लौट आये । एक दिन परशुरामजी जब वनमें गये हुए थे, कृतवीर्य के पुत्रों ने आकर अपने पिता के वैर का बदला लेने के लिये जमदग्नि मुनि को मार डाला । जब परशुरामजी लौटकर आये तो पिता को मारा गया देख उनके मन में बड़ा क्रोध हुआ । उन्होंने इक्कीस बार समस्त भूमण्डल के क्षत्रियों का संहार किया । फिर कुरुक्षेत्र में पाँच कुण्ड बनाकर वहीँ उन्होंने अपने पितरों का तर्पण किया और सारी पृथ्वी कश्यप-मुनि को दान देकर वे महेन्द्र पर्वतपर रहने लगे । इसप्रकार कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन तथा परशुराम अवतार की कथा सुनकर मनुष्य स्वर्गलोक में जाता है ।।१५ – २१।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘वराहम नुर्सिंह, वामन तथा परशुरामावतार की कथा का वर्णन’ नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ।।४।।
अध्याय – ५ श्रीरामावतार-वर्णन के प्रसंग में रामायण-बालकाण्ड की संक्षिप्त कथा
अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! अब मैं ठीक उसीप्रकार रामायण का वर्णन करूँगा, जैसे पूर्वकाल में नारदजी ने महर्षि वाल्मीकिजी को सुनाया था । इसका पाठ भीग और मोक्ष – दोनों को देनेवाला है ।।१।।
देवर्षि नारद कहते हैं – वाल्मीकिजी ! भगवान विष्णु के नाभिकमल से ब्रह्माजी उत्पन्न हुए हैं । ब्रह्माजी के पुत्र हैं मरीचि । मरीचि से कश्यप, कश्यप से सूर्य और सूर्य से वैवस्वतमनु का जन्म हुआ । उसके बाद वैवस्वतमनु से इक्ष्वाकु की उत्पत्ति हुई । इक्ष्वाकु के वंश में ककुत्स्थ नामक राजा हुए । ककुत्स्थ के रघु, रघु के अज और अज के पुत्र दशरथ हुए । उन राजा दशरथ से रावण आदि राक्षसों का वध करने के लिये साक्षात् भगवान विष्णु चार रूपों में प्रकट हुए । उनकी बड़ी रानी कौसल्या के गर्भ से श्रीरामचन्द्रजी का प्रादुर्भाव हुआ । कैकेयी से भरत और सुमित्रा से लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न का जन्म हुआ ।
महर्षि ऋष्यश्रृंग ने उन तीनों रानियों को यज्ञसिद्ध चरु दिये थे, जिन्हें खाने से उन चारों कुमारों का आविर्भाव हुआ ।
श्रीराम आदि सभी भाई अपने पिता के समान पराक्रमी थे । एक समय मुनिवर विश्वामित्र ने अपने यज्ञ में विघ्न डालनेवाले निशाचरों का नाश करने के लिये राजा दशरथ से प्रार्थना की (कि आप अपने पुत्र श्रीराम को मेरे साथ भेज दें) । तब राजाने मुनि के साथ श्रीराम और लक्ष्मण को भेज दिया । श्रीरामचन्द्रजी ने वहाँ जाकर मुनिसे अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा पायी और ताड़का नामवाली निशाचरी का वध किया । फिर उन बलवान वीर ने मारीच नामक राक्षस को मानवास्त्र से मोहित करके दूर फेंक दिया उअर यज्ञविघातक राक्षस सुबाहु को दल-बलसहित मार डाला । इसके बाद वे कुछ कालतक मुनि के सिद्धाश्रम में ही रहें । तत्पश्चात विश्वामित्र आदि महर्षियों के साथ लक्ष्मणसहित श्रीराम मिथिला-नरेश का धनुष-यज्ञ देखने के लिये गये ।।२ – ९।।
[अपनी माता अहल्या के उद्धार की वार्ता सुनकर संतुष्ट हुए] शतानन्दजी ने निमित्त-कारण बनकर श्रीराम से विश्वामित्र मुनिके प्रभाव का वर्णन किया । राजा जनक के अपने यज्ञ में मुनियोंसहित श्रीरामचन्द्रजी का पूजन किया । श्रीराम ने धनुष को चढ़ा दिया और उसे अनायास ही तोड़ डाला । तदनन्तर महाराज जनक ने अपनी अयोनिजा कन्या सीता को, जिसके विवाह के लिये पराक्रम ही शुल्क निश्चित किया गया था, श्रीरामचन्द्रजी को समर्पित किया । श्रीराम ने भी अपने पिता राजा दशरथ आदि गुरुजनों के मिथिला में पधारने पर सबके सामने सीता का विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया । उससमय लक्ष्मण ने भी मिथिलेश – कन्या उर्मिला को अपनी पत्नी बनाया ।
राजा जनक के छोटे भाई कुशध्वज थे । उनकी दो कन्याएँ थीं – श्रुतकीर्ति और माण्डवी । इनमे माण्डवी के साथ भरत ने और श्रुतकीर्ति के साथ शत्रुघ्न ने विवाह किया । तदनन्तर राजा जनक से भलीभाँति पूजित हो श्रीरामचन्द्रजी वसिष्ठ आदि महर्षियों के साथ वहाँ से प्रस्थान किया । मार्ग में जमदग्निनन्दन परशुराम को जीतकर वे अयोध्या पहुँचे ।
वहाँ जानेपर भरत और शत्रुघ्न अपने मामा राजा युधाजितकी राजधानी को चले गये ।।१०-१५।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘श्रीरामायण-कथा के अन्तर्गत बालकाण्ड में आये हुए विषय का वर्णन’ सम्बन्धी पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ५ ।।
अध्याय – ६ अयोध्याकाण्ड की संक्षिप्त कथा
नारदजी कहते हैं – भरत के ननिहाल चले जानेपर [लक्ष्मणसहित] श्रीरामचन्द्रजी ही पिता-माता आदि के सेवा-सत्कार में रहने लगे । एक दिन राजा दशरथ ने श्रीरामचन्द्रजी से कहा – ‘रघुनन्दन ! मेरी बात सुनो । तुम्हारे गुणोंपर अनुरक्त हो प्रजाजनों ने मन-ही-मन तुम्हें राज-सिंहासनपर अभिषिक्त कर दिया हैं – प्रजा की यह हार्दिक इच्छा है कि तुम युवराज बनो; अत: कल प्रात:काल मैं तुम्हें युवराजपद प्रदान कर दूँगा । आज रात में तुम सीता-सहित उत्तम व्रत का पालन करते हुए संयमपूर्वक रहो ।
राजा के आठ मन्त्रियों तथा वसिष्ठजी ने भी उनकी इस बात का अनुमोदन किया । उन आठ मन्त्रियों के नाम इसप्रकार है – दृष्टि, जयन्त, विजय, सिद्धार्थ, राज्यवर्धन, अशोक, धर्मपाल तथा सुमन्त्र । इनके अतिरिक्त वसिष्ठजी भी [मन्त्रणा देते थे] ।
पिता और मन्त्रियों की बातें सुनकर श्रीरघुनाथजी ने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी आज्ञा शिरोधार्य की और माता कौशल्या को यह शुभ समाचार बताकर देवताओं की पूजा करके वे संयम में स्थित हो गये । उधर महाराज दशरथ वसिष्ठ आदि मन्त्रियों को यह कहकर कि ‘आपलोग श्रीरामचन्द्र के राज्याभिषेक की सामग्री जुटाये’, कैकेयी के भवन में चले गये । कैकेयी के मन्थरा नामक एक दासी थी, जो बड़ी दुष्टा थी । उसने अयोध्या की सजावट होती देख, श्रीरामचंद्रजी के राज्याभिषेक की बात जानकर रानी कैकेयी से सारा हाल कह सुनाया । एक बार किसी अपराध के कारण श्रीरामचंद्रजी ने मन्थरा को उसके पैर पकडकर घसीटा था । उसी वैर के कारण वह सदा यही चाहती थी कि राम का वनवास हो जाय ।। १ – ८ ।।
मन्थरा बोली – कैकेयी ! तुम उठो, राम का राज्याभिषेक होने जा रहा है । यह तुम्हारे पुत्र के लिए, मेरे लिये और तुम्हारे लिये भी मृत्यु के समान भयंकर वृतान्त है – इसमें कोई संदेह नहीं है ।। ९ ।।
मन्थरा कुबड़ी थी । उसकी बात सुनकर रानी कैकेयी को प्रसन्नता हुई । उन्होंने कुब्जा को एक आभूषण उतारकर दिया और कहा –‘मेरे लिये तो जैसे राम हैं, वैसे ही मेरे पुत्र भरत भी हैं । मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं दिखायी देता, जिससे भरत को राज्य मिल सके ।’ मन्थरा ने उस हार को फेंक दिया और कुपित होकर कैकेयी से कहा ।। १०-११ ।।
मन्थरा बोली – ओ नादान ! तू भरत को, अपने को और मुझे भी राम से बचा । कल राम राजा होंगे । फिर राम के पुत्रों को राज्य मिलेगा ।
कैकेयी ! अब राजवंश भरत से दूर हो जायगा । [मैं भरत को राज्य दिलाने का एक उपाय बताती हूँ ।] पहले की बात है । देवासुर-संग्राम में शम्बरासूर ने देवताओं को मार भगाया था । तेरे स्वामी भी उस युद्ध गये थे । उससमय तूने अपनी विद्या से रात में स्वामी की रक्षा की थी । इसके लिये महाराज ने तुझे दो वर देने की प्रतिज्ञा की थी । इससमय उन्हीं दोनों वरों को उनसे माँग । एक वर के द्वारा राम का चौदह वर्षो के लिये वनवास और दुसरे के द्वारा भरत का युवराज-पद पर अभिषेक माँग ले । राजा इससमय वे दोनों वर दे देंगे ।। १२-१५ ।।
इसप्रकार मन्थरा के प्रोत्साहन देनेपर कैकेयी अनर्थ में ही अर्थ की सिद्धि देखने लगी और बोली –‘कुब्जे ! तूने बड़ा अच्छा उपाय बताया है । राजा मेरा मनोरथ अवश्य पूर्ण करेंगे ।’ ऐसा कहकर वह कोपभवन में चली गयी और पृथ्वीपर अचेत-सी होकर पड रही । उधर महाराज दशरथ ब्राह्मण आदि का पूजन करके जब कैकेयी के भवन में आये तो उसे रोष में भरी हुई देखा । तब राजाने पूछा – ‘सुन्दरी ! तुम्हारी ऐसी दशा क्यों हो रही हैं ? तुम्हे कोई रोग तो नही सता रहा है ? अथवा किसी भयसे व्याकुल तो नहीं हो ? बताओ, क्या चाहती हो ? मैं अभी तुम्हारी इच्छा पूर्ण करता हूँ । जिन श्रीराम के बिना मैं क्षणभर भी जीवित नही रह सकता, उन्हीं की शपथ खाकर कहता हूँ, तुम्हारा मनोरथ अवश्य पूर्ण करूँगा । सच-सच बताओ, क्या चाहती हो ?’
कैकेयी बोली – ‘राजन ! यदि आप मुझे कुछ देना चाहते हों, तो अपने सत्य की रक्षा के लिए पहले के दिये हुए दो वरदान देने की कृपा करें । मैं चाहती हूँ, राम चौदह वर्षों तक संयमपूर्वक वनमें निवास करें और इन सामग्रियों के द्वारा आज ही भरत का युवराज पदपर अभिषेक हो जाय ।
महाराज ! यदि ये दोनों वरदान आप मुझे नहीं देंगे तो मैं विष पीकर मर जाऊँगी ।’ यह सुनकर राजा दशरथ वज्र से आहत हुए की भाँती मूर्छित होकर भूमिपर गिर पड़े । फिर थोड़ी देर में चेत होनेपर उन्होंने कैकेयी से कहा ।। १६-२३।।
दशरथ बोले – पापपूर्ण विचार रखनेवाली कैकेयी ! तू समस्त संसार का अप्रिय करनेवाली है । अरी ! मैंने या राम ने तेरा क्या बिगाड़ा हैं, जो तू मुझसे ऐसी बात कहती है ? केवल तुझे प्रिय लगनेवाला यह कार्य करके मैं संसार में भलीभाँति निन्दित हो जाऊँगा । तू मेरी स्त्री नहीं, कालरात्रि है । मेरा पुत्र भरत ऐसा नहीं है । पापिनी ! मेरे पुत्र के चले जानेपर जब मैं मर जाऊँगा तो तू विधवा होकर राज्य करना ।। २५- २५.५ ।।
राजा दशरथ सत्य के बन्धन में बँधे थे । उन्होंने श्रीरामचंद्रजी को बुलाकर कहा – ‘बेटा ! कैकेयी ने मुझे ठग लिया । तुम मुझे कैद करके राज्य को अपने अधिकार में कर लो । अन्यथा तुम्हे वन में निवास करना होगा और कैकेयी का पुत्र भरत राजा बनेगा ।’ श्रीरामचंद्रजी ने पिता और कैकेयी को प्रणाम करके उनकी प्रदक्षिणा की और कौसल्या के चरणों में मस्तक झुकाकर उन्हें सांत्वना डी । फिर लक्ष्मण और पत्नी सीता को साथ ले, ब्राह्मणों, दीनों और अनाथों को दान देकर, सुमन्त्रसहित रथपर बैठकर वे नगर से बाहर निकले । उससमय माता-पिता आदि शोक से आतुर हो रहे थे । उस रात में श्रीरामचंद्रजी ने तमसा नदी के तटकर निवास किया । उनके साथ बहुत-से पुरवासी भी गये थे । उन सबको सोते छोडकर वे आगे बढ़ गये । प्रात:काल होनेपर जब श्रीरामचंद्रजी नहीं दिखायी दिये तो नगरनिवासी निराश होकर पुन: अयोध्या लौट आये । श्रीरामचंद्रजी के चले जाने से राजा दशरथ बहुत दु:खी हुए । वे रोते-रोते कैकेयी का महल छोडकर कौसल्या के भवन में चले आये । उससमय नगर के समस्त स्त्री-पुरुष और रनिवास की स्त्रियाँ फुट-फुटकर रो रही थी ।
श्रीरामचंद्रजी ने चीरवस्त्र धारण कर रखा था । वे रथपर बैठे-बैठे श्रींगवेरपुर जा पहुँचे । वहाँ निषादराज गुह ने उनका पूजन, स्वागत-सत्कार किया । श्रीरघुनाथजी ने इङ्गुदी-वृक्ष की जड़ के निकट विश्राम किया । लक्ष्मण और गुह दोनों रातभर जागकर पहरा देते रहे ।। २६-३३ ।।
प्रात:काल श्रीराम ने रथसहित सुमन्त्र को विदा कर दिया तथा स्वयं लक्ष्मण और सीता के साथ नाव से गंगा पार हो वे प्रयाग में गये । वहाँ उन्होंने महर्षि भरद्वाज को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा ले वहाँ से चित्रकूट पर्वत को प्रस्थान किया । चित्रकूट पहुँचकर उन्होंने वास्तुपुजा करने के अनन्तर (पर्णकुटी बनाकर) मन्दाकिनी के तटपर निवास किया । रघुनाथजी ने सीता को चित्रकूट पर्वत का रमणीय दृश्य दिखलाया । इसीसमय एक कौए ने सीताजी के कोमल श्रीअंग में नखों से प्रहार किया । यह देख श्रीराम ने उसके ऊपर सींक के अस्त्र का प्रयोग किया । जब वह कौआ देवताओं का आश्रय छोडकर श्रीरामचंद्रजी की शरण में आया, तब उन्होंने उसकी केवल एक आँख नष्ट करके उसे जीवित छोड़ दिया ।
श्रीरामचंद्रजी के वनगमन जे पश्चात छठे दिन की रात में राजा दशरथ ने कौसल्या से पहले की एक घटना सुनायी, जिसमें उनके द्वारा कुमारावस्था में सरयू के तटपर अनजान में यज्ञदत्त-पुत्र श्रवणकुमार के मारे जाने का वृतान्त था । “श्रवणकुमार पानी लेने के लिये आया था । उससमय उसके घड़े के भरने से जो शब्द हो रहा था, उसकी आहट पाकर मैंने उसे कोई जंगली जन्तु समझा और शब्दवेधी बाण से उसका वध कर डाला । यह समाचार पाकर उसके पिता और माता को बड़ा शोक हुआ । वे बारंबार विलाप करने लगे । उससमय श्रवणकुमार के पिताने मुझे शाप देंते हुए कहा – ‘राजन ! हम दोनों पति-पत्नी पुत्र के बिना शोकातुर होकर प्राणत्याग कर रहे हैं; तुम भी हमारी ही तरह पुत्रवियोग के शोक से मरोगे; [तुम्हारे पुत्र मरेंगे तो नहीं, किंतु] उससमय तुम्हारे पास कोई पुत्र मौजूद न होगा ।’
कौसल्ये ! आज उस शाप का मुझे स्मरण हो रहा है । जान पड़ता है, अब इसी शोक से मेरी मृत्यु होगी ।” इतनी कथा कहने के पश्च्यात राजाने ‘हां राम !’ कहकर स्वर्गलोक को प्रयाण किया । कौसल्या ने समझा, महाराज शोक से आतुर हैं; इससमय नींद आ गयी होगी । ऐसा विचार करके वे सो गयी । प्रात:काल जगानेवाले सूत, मागध और बन्दीजन सोते हुए महाराज को जगाने लगे; किंतु वे न जगे ।। ३४-४२ ।। तब उन्हें मारा हुआ जान रानी कौसल्या ‘हाय ! मैं मारी गयी’ कहकर पृथ्वीपर गिर पड़ी । फिर तो समस्त नर-नारी फुट-फुटकर रोने लगे ।
तत्पश्चात महर्षि वसिष्ठ ने राजा के शव को तैलभरी नौका में रखवाकर भरत को उनके ननिहाल से तत्काल बुलवाया । भरत और शत्रुघ्न अपने मामा के राजमहल से निकलकर सुमन्त्र आदि के साथ शीघ्र ही अयोध्यापुरी में आये । यहाँ का समाचार जानकर भरत को बड़ा दुःख हुआ । कैकेयी को शोक करती देख उसकी कठोर शब्दों में निंदा करते हुए बोले – ‘अरी ! तूने मेरे माथे कलंक का टिका लगा दिया – मेरे सिरपर अपयश का भारी बोझ लाद दिया ।’ फिर उन्होंने कौसल्या की प्रशंसा करके तैलपूर्ण नौका में रखे हुए पिता के शव का सरयूतट पर अंतेष्टि-संस्कार किया ।
तदनन्तर वसिष्ठ आदि गुरुजनों ने कहा – ‘भरत ! अब राज्य ग्रहण करो ।’ भरत बोले = ‘मैं तो श्रीरामचंद्रजी को ही राजा मानता हूँ । अब उन्हें यहाँ लाने के लिए वन में जाता हूँ ।’ ऐसा कहकर वे वहाँ से दल-बलसहित चल दिये और श्रुंगवेरपुर होते हुए प्रयाग पहुँचे । वहाँ महर्षि भरद्वाज ने उन सबको भोजन कराया । फिर भरद्वाज को नमस्कार करके वे प्रयाग से चले और चित्रकूट में श्रीराम एव, लक्ष्मण के समीप आ पहुँचे । वहाँ भरत ने श्रीराम से कहा – ‘रघुनाथजी ! हमारे पिता महाराज दशरथ स्वर्गवासी हो गये । मैं आप की आज्ञा का पालन करते हए वनमें जाऊँगा ।’ यह सुनकर श्रीराम ने पिता का तर्पण किया और भरत से कहा –‘तुम मेरी चरणपादुका लेकर अयोध्या लौट जाओ । मैं राज्य करने के लिए नहीं चलूँगा । पिता के सत्य की रक्षा के लिये चीर एवं जटा धारण करके वनमें ही रहूँगा ।’ श्रीराम के ऐसा कहनेपर सदल-बल भरत लौट गये और अयोध्या छोडकर नन्दीग्राम में रहने लगे । वहाँ भगवान की चरण-पादुकाओं की पूजा करते हुए वे राज्य का भलीभाँति पालन करने लगे ।। ४३-५१ ।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘रामायण-कथा के अन्तर्गत अयोध्याकाण्ड की कथा का वर्णन’ नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ।। ६ ।।
अध्याय – ७ अरण्यकाण्ड की संक्षिप्त कथा
नारदजी कहते हैं – मुने ! श्रीरामचंद्रजी ने महर्षि वशिष्ठ तथा माताओं को प्रणाम करके उन सबको भरत के साथ विदा कर दिया ।
तत्पस्च्यात महर्षी अत्रि तथा उनकी पत्नी अनसूया को, शरभंगमुनि को, सुतीक्ष्ण को तथा अगस्त्यजी के भ्राता अग्निजिहं मुनि को प्रणाम करते हुए श्रीरामचंद्रजी ने अगस्त्यमुनि के आश्रम पर जा उनके चरणों में मस्तक झुकाया और मुनि की कृपा से दिव्य धनुष एवं दिव्य खड्ग प्राप्त करके वे दण्डकारण्य में आये ।
वहाँ जनस्थान के भीतर पंचवटी नामक स्थान में गोदावरी के तटपर रहने लगे । एक दिन शूर्पन्खा नामवाली भयंकर राक्षसी राम, लक्ष्मण और सीता को खा जाने के लिये पंचवटी में आयी; किंतु श्रीरामचंद्रजी का अत्यंत मनोहर रूप देखकर वह काम के अधीन हो गयी और बोली।। १-४ ।।
शूर्पन्खा ने कहा – तुम कौन हो ? कहाँ से आये हो ? मेरी प्रार्थना से अब तुम मेरे पति हो जाओ । यदि मेरे साथ तुम्हारा सम्बन्ध होने में [ये दोनों सीता और लक्ष्मण बाधक हैं तो] मैं इन दोनों को अभी खाये लेती हूँ ।।५।। ऐसा कहकर वह उन्हें खा जाने को तैयार हो गयी । तब श्रीरामचंद्रजी के कहने से लक्ष्मण ने शूर्पन्खा की नाक और दोनों कान भी काट लिये । कटे हुए अंगों से रक्त की धारा बहाती हुई शूर्पन्खा अपने भाई खर के पास गयी और इस प्रकार बोली –‘खर ! मेरी नाक कट गयी । इस अपमान के बाद मैं जीवित नहीं रह सकती । अब तो मेरा जीवन तभी रह सकता हैं, जब कि तुम मुझे राम का, उनकी पत्नी सीता का तथा उनके छोटे भाई लक्ष्मण का गरम-गरम रक्त पिलाओ ।’
खर ने उसको ‘बहुत अच्छा’ कहकर शान्त किया और दूषण तथा त्रिशिरा के साथ चौदह हजार राक्षसों की सेना ले श्रीरामचंद्रजी पर चढाई की । श्रीराम ने भी उन सबका सामना किया और अपने बाणों से राक्षसों को बींधना आरम्भ किया । शत्रुओं की हाथी, घोड़े, रथ और पैदलसहित समस्त चतुरंगिणी सेना को उन्होंने यमलोक पहुँचा दिया तथा अपने साथ युद्ध करनेवाले भयंकर राक्षस खर, दूषण एवं त्रिशिरा को भी मौत के घाट उतार दिया ।
अब शूर्पन्खा लंका में गयी और रावण के सामने जा पृथ्वीपर गिर पड़ी । उसने क्रोध में भरकर रावण से कहा – ‘अरे ! तू राजा और रक्षक कहलाने योग्य नहीं हैं । खर अड्डी समस्त राक्षसों का संहार करनेवाले राम की पत्नी सीता को हर ले । मैं राम और लक्ष्मण का रक्त पीकर ही जीवित रहूँगी; अन्यथा नहीं’ ।।६-१२।।
शूर्पन्खा की बात सुनकर रावण ने कहा – ‘अच्छा, ऐसा ही होगा ।’ फिर उसने मारीच से कहा – ‘तुम स्वर्णमय विचित्र मृग का रूप धारण करके सीता के सामने जाओ और राम तथा लक्ष्मण को अपन पीछे आश्रम से दूर हटा ले जाओ । मैं सीता का हरण करूँगा । यदि मेरी बात न मानोगे, तो तुम्हारी मृत्यु निश्चित है ।’ मारीच ने रावण से कहा – ‘रावण ! धनुर्धर राम साक्षात् मृत्यु हैं ।’ फिर उसने मन-ही-मन सोचा – ‘यदि नहीं जाऊँगा तो रावण के हाथ से मरना होगा और जाऊँगा तो श्रीराम के हाथ से । इसप्रकार यदि मरना अनिवार्य है तो इसके लिये श्रीराम ही श्रेष्ठ हैं, रावण नहीं; [क्योंकि श्रीराम के हाथ से मृत्यु होनेपर मेरी मुक्ति हो जायगी] । ऐसा विचारकर वह मृगरुप धारण करके सीता के सामने बारंबार आने-जाने लगा । तब सीताजी की प्रेरणा से श्रीराम ने [दुरतक उसका पीछा करके] उसे अपने बाण से मार डाला । मरते समय उस मृग ने ‘हा सीते ! हा लक्ष्मण !’ कहकर पुकार लगायी । उस समय सीता के कहने से लक्ष्मण अपनी इच्छा के विरुद्ध श्रीरामचंद्रजी के पास गये । इसी बीच में रावण ने भी मौका पाकर सीता को हर लिया ।
मार्ग में जाते समय उसने ग्रुध्रराज जटायु का वध किया । जटायु ने भी उसके रथ को नष्ट कर डाला था । रथ न रहनेपर रावण ने सीता को कंधेपर बिठा लिया और उन्हें लंका में ले जाकर अशोकवाटिका में रखा । वहाँ सीता से बोला –‘तुम मेरी पटरानी बन जाओ ।’ फिर राक्षसियों की ओर देखकर कहा –‘निशाचरियों ! इसकी रखवाली करों’ ।।१३-१९ ।।
उधर श्रीरामचंद्रजी जब मारीच को मारकर लौटे, तो लक्ष्मण को आते देख बोले – ‘सुमित्रानंदन ! वह मृग तो मायामय था –वास्तव में वह एक राक्षसं था; किंतु तुम जो उस समय यहाँ आ गये, इससे जान पड़ता हैं, निश्चय ही कोई सीता को हर ले गया ।’ श्रीरामचंद्रजी आश्रम पर गये; किंतु वहाँ सीता नहीं दिखायी दीं । उससमय वे आर्त होकर शोक और विलाप करने लगे –‘हां प्रिये जानकी ! तू मुझे छोडकर कहाँ चली गयी?’ लक्ष्मण ने श्रीराम को सांत्वना दी । तब वे वनमें घूम-घूम सीता की खोज करने लगे । इसी समय इनकी जटायु से भेंट हुई । जटायु ने यह कहकर कि ‘सीता को रावण हर ले गया हैं’ प्राण त्याग दिया । तब श्रीरघुनाथजी ने अपने हाथ से जटायु का दाह-संस्कार किया । इसके बाद इन्होने कबन्ध का वध किया । कबन्ध ने शापमुक्त होनेपर श्रीरामचंद्रजी से कहा – ‘आप सुग्रीव से मिलिये’ ।।२०-२४।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘रामायण-कथा के अन्तर्गत अरण्यकाण्ड की कथा का वर्णन’ – विषयक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।७।।
अध्याय – ८ किष्किन्धाकाण्ड की संक्षिप्त कथा
नारदजी कहते हैं – श्रीरामचंद्रजी पम्पा सरोवर पर जाकर सीता के लिये शोक करने लगे । वहाँ वे शबरी से मिले । फिर हनुमानजी से उनकी भेंट हुई । हनुमानजी उन्हें सुग्रीव के पास ले गये और सुग्रीव के साथ उनकी मित्रता करायी । श्रीरामचंद्रजी ने सबके देखते-देखते ताडके सात वृक्षों को एक ही बाण से बींध डाला और दुन्दुभि नामक दानव के विशाल शरीर को पैर की ठोकर से दस योजन दूर फेंक दिया । इसके बाद सुग्रीव के शत्रु वाली को, जो भाई होते हुए भी उनके साथ वैर रखता था, मार डाला और किष्किन्धापूरी, वानरों का साम्राज्य, रूम एवं तारा – इन सबको ऋष्यमूक पर्वतपर वानरराज सुग्रीव के अधीन कर दिया । तदनन्तर किष्किन्धापूरी के स्वामी सुग्रीव ने कहा –‘श्रीराम ! आपको सीताजी की प्राप्ति जिस प्रकार भी हो सके, ऐसा उपाय मैं कर रहा हूँ ।’ यह सुनने के बाद श्रीरामचंद्रजी ने माल्यवान पर्वत के शिखर पर वर्षा के चार महीने व्यतीत किये और सुग्रीव किष्किन्धामें रहने लगे । चौमासे के बाद भी जब सुग्रीव दिखायी नहीं दिये, तब श्रीरामचंद्रजी की आज्ञा से लक्ष्मण ने किष्किन्धा में जाकर कहा – ‘सुग्रीव ! तुम श्रीरामचंद्रजी के पास चलो । अपनी प्रतिज्ञापर अटल रहो, नही तो वाली मरकर जिस मार्ग से गया है, वह मार्ग अभी बंद नहीं हुआ है । अतएव वाली के पथ का अनुसरण न करो ।’ सुग्रीव ने कहा – ‘सुमित्रानंदन ! विषयभोग में आसक्त हो जाने के कारण मुझे बीते हुए समय का भान न रहा । [अत: मेरे अपराध को क्षमा कीजिये] ‘ ।।१- ७।।
ऐसा कहकर वानरराज सुग्रीव श्रीरामचन्द्रजी के पास गये और उन्हें नमस्कार करके वोले – ‘भगवान ! मैंने सब वानरों को बुला लिया है । अब आपकी इच्छा के अनुसार सीताजी की खोज करने के लिये उन्हें भेजूँगा । वे पूर्वादि दिशाओं में जाकर एक महीने के बाद लौटेगा, उसे मैं मार डालूँगा ।’ यह सुनकर बहुत-से वानर पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशाओं के मार्गपर चल पड़े तथा वहाँ जनककुमारी सीताको न पाकर नियत समय के भीतर श्रीराम और सुग्रीव के पास लौट आये । हनुमानजी श्रीरामचंद्रजीकी दी हुई अँगूठी लेकर अन्य वानरों के साथ दक्षिण दिशा में जानकीजी की खोज कर रहे थे । वे लोग सुप्रभाकी गुफाके निकट विन्ध्यपर्वत पर एक ही एक माससे अधिक कालतक ढूंढते फिरे; किंतु उन्हें सीताजी का दर्शन नही हुआ । अन्तमें निराश होकर आपस में कहने लगे- ‘हम लोगों को व्यर्थ ही प्राण देने पड़ेंगे । धनी हैं वह जटायु, जिसने सीता के लिये रावण के द्वारा मारा जाकर युद्ध में प्राण त्याग दिया था’ ।।८-१३।।
उनकी ये बातें सम्पाति नामक गृध्र के कानों में पड़ी । वह वानरों के (प्राणत्याग की चर्चा से उनके) खाने की ताक में लगा था । किंतु जटायु की चर्चा सुनकर रुक गया और बोला – ‘वनरो ! जटायु मेरा भाई था । वह मेरे ही साथ सूर्यमंडल की ओर उड़ा चला जा रहा था । मैंने अपनी पाँखों की ओट में रखकर सूर्य की प्रखर किरणों के ताप से उसे बचाया । अत: वह तो सकुशल बच गया; किंतु मेरी पाँखे जल गयी, इसलिए मैं यही गिर पड़ा ।
आज श्रीरामचंद्रजी की वार्ता सुनने से फिर मेरे पंख निकल आये । अब मैं जानकी को देखता हूँ; वे लंका में अशोक-वाटिका के भीतर हैं । लवणसमुद्र के द्वीप में त्रिकुट पर्वतपर लंका बसी हुई है । यहाँ से वहाँ तक का समुद्र सौ योजन विस्तृत है । यह जानकर सब वानर श्रीराम और सुग्रीव के पास जायँ और उन्हें सब समाचार बता दें’ ।।१४-१७।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘रामायण-कथा के अन्तर्गत किष्किन्धाकाण्ड की कथा का वर्णन’ नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ८ ।।
अध्याय – ९ सुन्दरकाण्ड की संक्षिप्त कथा
नारदजी कहते हैं – सम्पाती की बात सुनकर हनुमान और अंगद आदि वानरों ने समुद्र की ओर देखा । फिर वे कहने लगे – ‘कौन समुद्र को लाँघकर समस्त वानरों को जीवन-दान देगा ? वानरों की जीवन-रक्षा और श्रीरामचंद्रजी के कार्य की प्रकृष्ट सिद्धि के लिये पवनकुमार हनुमानजी सौ योजन विस्तृत समुद्र को लाँघ गये । लाँघते समय अवलम्बन देने के लिये समुद्र से मैंनाक पर्वत उठा । हनुमानजी ने दृष्टिमात्र से उसका सत्कार किया । फिर [छायाग्राहिणी] सिंहीकाने सिर उठाया । [वह उन्हें अपना ग्रास बनाना चाहती थी, इसलिये] हनुमानजी ने उसे मार गिराया । समुद्र के पार जाकर उन्होंने लंकापुरी देखी । राक्षसों के घरों में खोज की; रावण के अंत:पुर में तथा कुम्भ, कुम्भकर्ण, विभीषण. इन्द्रजित तथा अन्य राक्षसों के गृहों में जा-जाकर तलाश की; मद्यपान के स्थानों आदि में भी चक्कर लगाया; किंतु कही भी सीता उनकी दृष्टि में नहीं पड़ीं । अब वे बड़ी चिंता में पड़े ।
अंतमे जब अशोकवाटिका की ओर गये तो वहाँ शिंशपा-वृक्ष के नीचे सीताजी उन्हें बैठी दिखायी दीं । वहाँ राक्षसियाँ उनकी रखवाली कर रही थी । हनुमानजी ने शिंशपा-वृक्षपर चढकर देखा । रावण सीताजी से कह रहा था – ‘तू मेरी स्त्री हो जा’; किंतु वे स्पष्ट शब्दों में ‘ना’ कर रही थीं । वहाँ बैठी हुई राक्षसियाँ भी यही कहती थीं – ‘तू रावण की स्त्री हो जा ।’ जब रावण चला गया तो हनुमानजी ने इसप्रकार कहना आरम्भ किया – ‘अयोध्या में दशरथ नामवाले एक राजा थे । उनके दो पुत्र राम और लक्ष्मण वनवास के लिये गये । वे दोनों भाई श्रेष्ठ पुरुष हैं । उनमें श्रीरामचंद्रजी की पत्नी जनककुमारी सीता तुम्हीं हो । रावण तुम्हें बलपूर्वक हर ले आया हैं । श्रीरामचंद्रजी इस समय वानरराज सुग्रीव के मित्र हो गये हैं । उन्होंने तुम्हारी खोज करने के लिये ही मुझे भेजा है । पहचान के लिये गुढ़ संदेश के साथ श्रीरामचंद्रजी ने अँगूठी दी है । उनकी दी हुई यह अँगूठी ले लो’ ।।१ – ९।।
सीताजी ने अँगूठी ले ली । उन्होंने वृक्षपर बैठे हुए हनुमानजी को देखा । फिर हनुमानजी वृक्ष से उतरकर उनके सामने आ बैठे, तब सीता ने उनसे कहा –‘यदि श्रीरघुनाथजी जीवित हैं तो वे मुझे यहाँ से ले क्यों नहीं जाते?’ इसप्रकार शंका करती हुई सीताजी से हनुमानजी ने इसप्रकार कहा –‘देवि सीते ! तुम यहाँ हो, यह बात श्रीरामचंद्रजी नहीं जानते । मुझसे यह समाचार जान लेने के पश्चात सेनासहित राक्षस रावण को मारकर वे तुम्हें अवश्य ले जायेंगे । तुम चिंता न करो । मुझे कोई अपनी पहचान दो ।’ तब सीताजी ने हनुमानजी को अपनी चूड़ामणि उतारकर दे दी और कहा –‘भैया ! अब ऐसा उपाय करो, जिससे श्रीरघुनाथजी शीघ्र आकर मुझे यहाँ से ले चलें । उन्हें कौए की आँख नष्ट कर देनेवाली घटना का स्मरण दिलाना; [आज यही रहो] कल सबेरे चले जान; तुम मेरा शोक दूर करनेवाले हो । तुम्हारे आने से मेरा दुःख बहुत कम हो गया है ।’ चूड़ामणि और काकवाली कथा को पहचान के रूप में लेकर हनुमानजी ने कहा – ‘कल्याणि ! तुम्हारे पतिदेव अब तुम्हें शीघ्र ही ले जायेंगे । अथवा यदि तुम्हें चलने की जल्दी हो, तो मेरी पीठपर बैठ जाओ । मैं आज ही तुम्हें श्रीराम और सुग्रीव के दर्शन कराऊँगा ।’ सीता बोलीं – ‘नहीं, श्रीरघुनाथजी ही आकर मुझे ले जायें’ ।।१०-१५।।
तदनन्तर हनुमानजी ने रावण से मिलने की युक्ति सोच निकाली । उन्होंने रक्षकों को मारकर उस वाटिका को उजाड़ डाला । फिर दाँत और नख आदि आयुधों से वहाँ आये हुए रावण के समस्त सेवकों को मारकर सात मंत्रिकुमारों तथा रावणपुत्र अक्षयकुमार को भी यमलोक पहुँचा दिया । तत्पश्चात इन्द्रजित ने आकर उन्हें नागपाश से बाँध लिया और उन वानरवीर को रावण के पास ले जाकर उससे मिलाया । उससमय रावण ने पूछा- ‘तू कौन हैं ? तब हनुमानजी ने रावण को उत्तर दिया- ‘मैं श्रीरामचंद्रजी का दूत हूँ । तुम श्रीसीताजी को श्रीरघुनाथजी की सेवामें लौटा दो; अन्यथा लंकानिवासी समस्त राक्षसों के साथ तुम्हें श्रीराम के बाणों से घायल होकर निश्चय ही मरना पड़ेगा ।’ यह सुनकर रावण हनुमानजी को मारने के लिये उद्यत हो गया; किंतु विभीषण ने उसे रोक दिया । तब रावण ने उनकी पूँछ में आग लगा दी । पूँछ जल उठी । यह देख पवनपुत्र हनुमानजी ने राक्षसों की पूरी लंका को जला डाला और सीताजी का पुन: दर्शन करके उन्हें प्रणाम किया । फिर समुद्र के पार आकर अंगद आदि से कहा –‘मैंने सीताजी का दर्शन कर लिया है ।’ तत्पश्चात अंगद आदि के साथ सुग्रीव के मधुवन में आकर, दधिमुख आदि रक्षकों को परास्त करके, मधुपान करने के अनन्तर वे सब लोग श्रीरामचंद्रजी के पास आये तो बोले- ‘सीताजी का दर्शन हो गया ।’ श्रीरामचंद्रजी ने भी अत्यंत प्रसन्न होकर हनुमानजी से पूछा ।।१६- २४ ।।
श्रीरामचंद्रजी बोले – कपिवर ! तुम्हें सीता का दर्शन कैसे हुआ? उसने मेरे लिये क्या संदेश दिया है? मैं विरह की आग में जल रहा हूँ । तुम सीता की अमृतमयी कथा सुनाकर मेरा संताप शांत करो ।।२५।।
नारदजी कहते हैं – यह सुनकर हनुमानजी ने रघुनाथजी से कहा –‘भगवन ! मैं समुद्र लाँघकर लंका में गया था । वहाँ सीताजी का दर्शन करके, लंकापूरी को जलाकर यहाँ आ रहा हूँ । यह सीताजी की दी हुई चूड़ामणि लीजिये । आप शोक न करें; रावण का वध करने के पश्चात निश्चय ही आपको सीताजी की प्राप्ति होगी ।’ श्रीरामचंद्रजी उस मणि को हाथ में लें, विरहसे व्याकुल होकर रोने लगे और बोले- ‘इस मणिको देखकर ऐसा जान पड़ता है, मानो मैंने सीता को ही देख लिया । अब मुझे सीता के पास ले चलो; मैं उसके बिना जीवित नहीं रह सकता ।’ उससमय सुग्रीव आदि ने श्रीरामचंद्रजी को समझा-बुझाकर शांत किया । तदनन्तर श्रीरघुनाथजी समुद्र के तटपर गये । वहाँ उनसे विभीषण आकर मिले । विभीषण के भाई दुरात्मा रावण ने उनका तिरस्कार किया था । विभीषण इतना ही कहा था कि ‘भैया ! आप सीताको श्रीरामचंद्रजी की सेवामें समर्पित कर दीजिये ।’ इसी अपराध के कारण उसें इन्हें ठुकरा दिया था । अब वे असहाय थे । श्रीरामचंद्रजी ने विभीषण को अपना मित्र बनाया और लंका के राजपदपर अभिषिक्त कर दिया । इसके बाद श्रीराम ने समुद्र से लंका जाने के लिए रास्ता माँगा । जब उसने मार्ग नहीं दिया तो उन्होंने बाणों से उसे बींध डाला । अब समुद्र भयभीत होकर श्रीरामचंद्रजी के पास आकर बोला – ‘भगवन ! नल के द्वारा मेरे ऊपर पुल बंधाकर आप लंका में जाइये । पूर्वकाल में आपहीने मुझे गहरा बनाया था ।’ यह सुनकर श्रीरामचंद्रजी ने नल के द्वारा वृक्ष और शिलाखंडों से एक पुल बंधवाया और उसीसे वे वानरोंसहित समुद्र के पार गये । वहाँ सुवेल पर्वतपर पड़ाव डालकर वहींसे उन्होंने लंकापुरी का निरिक्षण किया ।।२६-३३।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘रामायण-कथा के अन्तर्गत सुन्दरकाण्ड की कथा का वर्णन’ नामक नवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।९।।
अध्याय – १० युद्धकाण्ड की कथा
नारदजी कहते हैं – तदनन्तर श्रीरामचंद्रजी के आदेश से अंगद रावण के पास गये और बोले- ‘रावण ! तुम जनककुमारी सीताको ले जाकर शीघ्र ही श्रीरामचंद्रजी को सौंप दो । अन्यथा मारे जाओगे ।’ यह सुनकर रावण उन्हें मारने को तैयार हो गया । अंगद राक्षसों को मार-पीटकर लौट आये और श्रीरामचंद्रजी से बोले- ‘भगवन ! रावण केवल युद्ध करना चाहता है ।’ अंगद की बात सुनकर श्रीराम ने वानरों की सेना साथ ले युद्ध के लिये लंका में प्रवेश किया । हनुमान, मैंद, द्विविद, जाम्बवान, नल, नील, तार, अंगद, धूम्र, सुषेण, केसरी,गज, पनस, विनत, रम्भ, शरभ, महाबली कम्पन, गवाक्ष, दधिमुख, गवय और गन्धमादन – ये सब तो वहाँ आये ही, अन्य भी बहुत-से वानर आ पहुँचे । इन असंख्य वानरोंसहित [कपिराज] सुग्रीव भी युद्ध के लिये उपस्थित थे । फिर तो राक्षसों और वानरों में घमासान युद्ध छिड़ गया । राक्षस वानरों को बाण, शक्ति और गडा आदि के द्वारा मारने लगे और वानर नख, दाँत एवं शिला आदि के द्वारा राक्षसों का संहार करने लगे । राक्षसों की हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों से युक्त चतुरंगिणी सेना नष्ट-भ्रष्ट हो गयी । हनुमान ने पर्वतशिखर से अपने वैरी धूम्राक्ष का वध कर डाला । नील ने भी युद्ध के लिये सामने आये हुए अकम्पन और प्रहस्त को मौत के घाट उतार दिया ।।१-८।।
श्रीराम और लक्ष्मण यद्दपि इन्द्रजित के नागास्त्र से बंध गये थे, तथापि गरुड़ की दृष्टि पड़ते ही उससे मुक्त हो गये । तत्पश्चात उन दोनों भाइयों ने बाणों से राक्षसी सेना का संहार आरम्भ किया । श्रीराम ने रावण को यद्ध में अपने बाणों की मारसे जर्जरित कर डाला । इससे दु:खित होकर रावण ने कुम्भकर्ण को सोते से जगाया । जाग्नेप्र कुम्भकर्ण ने हजार घड़े मदिरा पीकर कितने ही भैंस आदि पशुओं का भक्षण किया । फिर रावण से कुम्भकर्ण बोला –‘सीता का हरण करके तुमने पाप किया है । तुम मेरे बड़े भाई हो, इसलिए तुम्हारे कहने से युद्ध करने जाता हूँ । मैं वानरोंसहित रामको मार डालूँगा’ ।।९-१२।।
ऐसा कहकर कुम्भकर्ण ने समस्त वानरों को कुचलना आरम्भ किया । एक बार उसने सुग्रीव को पकड़ लिया, तब सुग्रीव ने उसकी नाक और कान काट लिये । नाक और कान से रहित होकर वह वानरों का भक्षण करने लगा । यह देख श्रीरामचंद्रजी ने अपने बाणों से कुम्भकर्ण की दोनों भुजाएँ काट डाली । इसके बाद उसके दोनों पैर तथा मस्तक काटकर उसे पृथ्वीपर गिरा दिया । तदनन्तर कुम्भ, निकुम्भ, राक्षस, मकराक्ष, महोदर, महापार्श्व, मत्त, राक्षसश्रेष्ठ उन्मत, प्रघस, भासकर्ण, विरुपाक्ष, देवान्तक, नरान्तक, त्रिशिरा और अतिकाय युद्ध में कूद पड़े । तब इनको तथा और भी बहुत-से युद्धपरायण राक्षसों को श्रीराम, लक्ष्मण, विभीषण एवं वानरों ने पृथ्वीपर सुला दिया । तत्पश्च्यात इन्द्रजित (मेघनाद)-ने मायासे युद्ध करते हुए वरदान में प्राप्त हुए नागपाशद्वारा श्रीराम और लक्ष्मण को बाँध लिया । उससमय हनुमानजी के द्वारा लाये हुए पर्वतपर उगी हुई ‘विशल्या’ नाम की ओषधि से श्रीराम और लक्ष्मण के घाव अच्छे हुए ।। उनके शरीर से बाण निकाल दिये गये । हनुमानजी पर्वत को जहाँ से लाये थे, वहीँ उसे पुन: रख आये । इधर मेघनाद निकुम्भिलादेवी के मंदिर में होम आदि करने लगा । उस समय लक्ष्मण ने अपने बाणों से इन्द्र को भी परास्त कर देनेवाले उस वीर को युद्ध में मार गिराया । पुत्र की मृत्यु का समाचार पाकर रावण शोक से संतप्त हो उठा और सीता को मार डालने के लिये उद्यत हो उठा; किंतु अविन्ध्य के मना करनेसे वह मान गया और रथपर बैठकर सेनासहित युद्धभूमि में गया । तब इन्द्र के आदेश से मातलि ने आकर श्रीरघुनाथजी को भी देवराज इन्द्र के रथपर बिठाया ।।१३-२२।।
श्रीराम और रावण का युद्ध श्रीराम और रावण के युद्ध के ही समान था – उसकी कहीं भी दूसरी कोई उपमा नहीं था । रावण वानरोंपर प्रहार करता था और हनुमान आदि वानर रावणको चोट पहुँचाते थे । जैसे मेघ पानी बरसाता है, उसी प्रकार श्रीरघुनाथजीने रावण के ऊपर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा आरम्भ कर दी । उन्होंने रावण के रथ, ध्वज, अश्व, सारथि, धनुष, बाहू और मस्तक काट डाले । काटे हुए मस्तकों के स्थानपर दूसरे ने मस्तक उत्पन्न हो जाते थे । यह देखकर श्रीरामचंद्रजीने ब्रह्मास्त्र के द्वारा रावण का वक्ष:स्थल विदीर्ण करके उसे रणभूमि में गिरा दिया । उस समय [मरनेसे बचे हुए सब] राक्षसों के साथ रावण की अनाथा स्त्रियाँ विलाप करने लगी । तब श्रीरामचंद्रजी की आज्ञा से विभीषण ने उन सबको सान्त्वना दे, रावण के शव का दाह-संस्कार किया । तदनंतर श्रीरामचंद्रजी ने हनुमानजी के द्वारा सीताजी को बुलवाया । यद्यपि वे स्वरुप से ही नित्य शुद्ध थी, तो भी उन्होंने अग्नि में प्रवेश करके अपनी विशुद्धता का परिचय दिया । त्त्पश्च्यात रघुनाथजी ने उन्हें स्वीकार किया । इसके बाद इन्द्रादि देवताओं ने उनका स्तवन किया ।फिर ब्रम्हाजी तथा स्वर्गवासी महाराज दशरथ ने आकर स्तुति करते हुए कहा – ‘श्रीराम ! तुम राक्षसों का संहार करनेवाले साक्षात् श्रीविष्णु हो ।’ फिर श्रीराम के अनुरोध से इन्द्र ने अमृत बरसाकर मरे वानरों को जीवित कर दिया । समस्त देवता युद्ध देखकर, श्रीरामचंद्रजी के द्वारा पूजित हो, स्वर्गलोक में चले गये । श्रीरामचंद्रजी ने लंका का राज्य विभीषण को दे दिया और वानरों का विशेष सम्मान किया ।।२३-२९।।
फिर सबको साथ ले, सीतासहित पुष्पक विमानपर बैठकर श्रीराम जिस मार्ग से आये थे, उसीसे लौट चले । मार्ग में वे सीता को प्रसन्नचित्त होकर वनों और दुर्गम स्थानों को दिखाते जा रहे थे । प्रयाग में महर्षि भरद्वाज को प्रणाम करके वे अयोध्या के पास नन्दीग्राम में आये । वहाँ भरत ने उनके चरणों में प्रणाम किया । फिर वे अयोध्या में आकर वहीं रहने लगे । सबसे पहले उन्होंने महर्षि वसिष्ठ आदि को नमस्कार करके क्रमश: कौसल्या, कैकयी और सुमित्रा के चरणों में मस्तक झुकाया । फिर राज्य-ग्रहण करके ब्राह्मणों आदि का पूजन किया । अश्वमेघ-यज्ञ करके उन्होंने अपने आत्मस्वरूप श्रीवासुदेव का यजन किया, सब प्रकार के दान दिये और प्रजाजनों का पुत्रवत पालन करने लगे । उन्होंने धर्म और कामादिका भी सेवन किया तथा वे दुष्टों को सदा दण्ड देते रहे । उनके राज्यमें सब लोक धर्मपरायण थे तथा पृथ्वीपर सब प्रकार की खेती फली-फूली रहती थी । श्रीरघुनाथजी के शासनकाल में किसी की अकालमृत्यु भी नहीं होती थी ।।३०-३५।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘रामायण-कथा के अन्तर्गत युद्धकाण्ड की कथा का वर्णन’ नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।१०।।
अध्याय - ११ उत्तरकाण्ड की कथा
नारदजी कहते हैं – जब रघुनाथजी अयोध्या के राजसिंहासनपर आसीन हो गये, तब अगस्त्य आदि महर्षि उनका दर्शन करने के लिये गये, तब वहाँ उनका भलीभाँति स्वागत-सत्कार हुआ । तदनन्तर उन ऋषियों ने कहा – ‘भगवन ! आप धन्य हैं, जो लंका में विजयी हुए और इन्द्रजित-जैसे राक्षस को मार गिराया । [अब हम उनकी उत्पत्ति-कथा बतलाते हैं, सुनिये-]
ब्रह्माजी के पुत्र मुनिवर पुलस्त्य हुये और पुलस्त्य से महर्षि विश्रवा का जन्म हुआ । उनकी दो पत्नियाँ थीं – पुण्योत्कटा और कैकसी । उनमें पुण्योत्कटा जेष्ठ थी । उसके गर्भ से धनाध्यक्ष कुबेर का जन्म हुआ । कैकसी के गर्भ से पहले रावण का जन्म हुआ, जिसके दस मुख और बीस भुजाएँ थीं । रावण ने तपस्या की और ब्रह्माजी ने उसे वरदान दिया, जिससे उसने समस्त देवताओं को जीत लिया । कैकसी के दुसरे पुत्र का नाम कुम्भकर्ण सदा नींद में ही पड़ा रहता था; किंतु विभीषण बड़े धर्मात्मा हुए । इन तीनों की बहन शूर्पनखा हुई । रावण से मेघनाद का जन्म हुआ । उसने इंद्रको जीत लिया था, इसलिये ‘इन्द्रजित’ के नाम से उसकी प्रसिद्धि हुई । वह रावण से भी अधिक बलवान था । परंतु देवताओं आदि के कल्याण की इच्छा रखनेवाले आपने लक्ष्मण के द्वारा उसका वध करा दिया ।’ ऐसा कहकर वे अगस्त्य आदि ब्रह्मर्षि श्रीरघुनाथजी के द्वारा अभिनन्दित हो अपने–अपने आश्रम को चले गये । तदनन्तर देवताओं की प्रार्थना से प्रभावित श्रीरामचंद्रजी के आदेश से शत्रुघ्न से लवणासूर को मारकर एक पूरी बसायी, जो ‘मधुरा’ नामसे प्रसिद्ध हुई । तत्पश्चात भरत ने श्रीराम की आज्ञा पाकर–सिन्धु–तीर–निवासी शैलूष नामक बलोंन्मत्त गन्धर्व का तथा उसके तीन करोड़ वंशजों का अपने तीखे बाणों से संहार किया । फिर उस देश के [ गान्धार और मद्र } दो विभाग करके, उनमें अपने पुत्र तक्ष और पुष्कर को स्थापित कर दिया ।।१-९।।
इसके बाद भरत और शत्रुघ्न अयोध्या में चले आये और वहाँ श्रीरघुनाथजी की आराधना करते हुए रहने लगे । श्रीरामचंद्रजी ने दुष्ट पुरुषों का युद्ध में संहार किया और शिष्ट पुरुषों का दान आदि के द्वारा भलीभाँति पालन किया । उन्होंने लोकापवाद के भय से अपनी धर्मपत्नी सीता के वनमें छोड़ दिया था । वहाँ वाल्मीकि मुनि के आश्रम से उनके गर्भ से दो श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके नाम कुश और लव थे । उनके उत्तम चरित्रों को सुनकर श्रीरामचंद्रजी को भलीभाँति निश्चय हो गया कि ये मेरे पुत्र हैं । तत्पश्चात उन दोनों को कोसल के दो राज्योंपर अभिषिक्त करके, ‘मैं ब्रह्म हूँ’ इसकी भावनापूर्वक ध्यानयोग में स्थित होकर उन्होंने देवताओं की प्रार्थना से भाइयों और पुरवासियोंसहित अपने परमधाम में प्रवेश किया । अयोध्या में ग्यारह हजार वर्षोतक राज्य करके वे अनेक यज्ञों का अनुष्ठान कर चुके थे । उनके बाद सीता के पुत्र कोसल जनपद के राजा हुए ।। १०-१३।।
अग्निदेव कहते हैं – वशिष्ठजी ! देवर्षि नारद से यह कथा सुनकर महर्षि वाल्मीकि ने विस्तारपूर्वक रामायण नामक महाकाव्य की रचना की । जो इस प्रसंग को सुनता हैं, वह स्वर्गलोक को जाता हैं ।।१४।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘रामायण-कथा के अन्तर्गत उत्तरकाण्ड की कथा का वर्णन’ नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।११।।
अध्याय – १२ हरिवंश का वर्णन एवं श्रीकृष्णावतार की कथा
अग्निदेव कहते हैं – अब मैं हरिवंश का वर्णन करूँगा । श्रीविष्णु के नाभि-कमलसे ब्रह्माजी का प्रादुर्भाव हुआ । ब्रह्माजी से अत्रि, अत्रिसे सोम, सोमसे [बुध एवं बुधसे] पुरुरवा उत्पन्न हुए । पुरुरवासे आयु, आयुसे नहुष तथा नहुष से ययाति का जन्म हुआ । ययाति की पहली पत्नी देवयानी ने यदु और तुर्वसु नामक दो पुत्रों को जन्म दिया । उनकी दूसरी पत्नी शर्मिष्ठा के गर्भ से, जो वृषपर्वा की पुत्री थी, द्रुह्यु, अनु और पुरु – ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए । यदु के वंशमें ‘यादव’ नामसे प्रसिद्ध क्षत्रिय हुए । उन सबमें भगवान वासुदेव सर्वश्रेष्ठ थे । परम पुरुष भगवान विष्णु ही इस पृथ्वी का भार उतारने के लिये वसुदेव और देवकी के पुत्ररूप में प्रकट हुए थे । भगवान विष्णु की प्रेरणासे योग–निद्राने क्रमशः छ: गर्भ, जो पूर्वजन्म में हिरण्यकशिपु के पुत्र थे, देवकी के उद्र्में स्थापित किये । देवकी के उदरसे सातवें गर्भ के रुपमे बलभद्रजी [प्रकट हुए थे । ये देवकीसे रोहिणी के गर्भ से खींचकर लाये गये थे, इसलिये [संकर्षण तथा] रौहीणेय कहलाये । तदनन्तर श्रावण मासके कृष्ण पक्ष की अष्टमी को आधी रात के समय चार भुजाधारी भगवान श्रीहरि प्रकट हुए । उससमय देवकी और वसुदेव ने उनका स्तवन किया । फिर वे दो बाँहोंवाले नन्हें-से बालक बन गये । वसुदेव ने कंस के भयसे अपने शिशु को यशोदा की शय्यापर पहुँचा दिया और यशोदा की नवजात बालिका को देवकी की शय्यापर लाकर सुला दिया । बच्चे के रोने की आवाज सुनकर कंस आ पहुँचा और देवकी के मना करनेपर भी उनसे उस बालिका को उठाकर शिलापर पटक दिया । उसने आकाशवाणी से सुन रखा था कि देवकी के आठवे गर्भ से मेरी मृत्यु होगी । इसलिये उसने देवकी के उत्पन्न हुए सभी शिशुओं को मार डाला था ।।१-९।।
कंस के द्वारा शिलापर पटकी हुई वह बालिका आकाश में उड़ गयी और वहीँ से इसप्रकार बोली-‘कंस ! मुझे पटकने से तुम्हारा क्या लाभ हुआ? जिनके हाथ से तुम्हारा वध होगा वे देवताओं के सर्वस्वभूत भगवान तो इस पृथ्वी का भार उतारने के लिये अवतार ले चुके’ ।।१०-११।।
ऐसा कहकर वह चली गयी । उसीने देवताओं की प्रार्थना से शुम्भ आदि दैत्यों का वध किया । तब इन्द्र ने इसप्रकार स्तुति की – ‘जो आर्या, दुर्गा, वेदगर्भा, अम्बिका, भद्रकाली, भद्रा, क्षेम्या, क्षेमकरी तथा नैकबाहु आदि नामों से प्रसिद्ध हैं, उन जगदम्बा को मैं नमस्कार करता हूँ ।’ जो तीनों समय इन नामों का पाठ करता हैं, उसकी सब कामनाएँ पूर्ण होती हैं । उधर कंस भी (बालिका की बात सुनकर) नवजात शिशुओं का वध करने के लिये पूतना आदि को सब और भेजा । कंस आदिसे डरे हुए वासुदेव ने अपने दोनों पुत्रों की रक्षा के लिये उन्हें गोकुल में यशोदापति नंदजी को सौंप दिया था । वहाँ बलराम और श्रीकृष्ण – दोनों भाई गौओं तथा ग्वालबालों के साथ विचरा करते थे । यद्यपि वे सम्पूर्ण जगत के पालक थे, तो भी व्रज में गोपालक बनकर रहे । एक बार श्रीकृष्ण के ऊधम से तंग आकर मैया यशोदा ने उन्हें रस्सी से ऊखल में बाँध दिया । वे ऊखल घसीटते हुए दो अर्जुन-वृक्षों के बीचसे निकले । इससे वे दोनों वृक्ष टूटकर गिर पड़े । एक दिन श्रीकृष्ण एक छकड़े के नीचे सो रहे थे । वे माता का स्तनपान करने की इच्छासे अपने पैर फेंक-फेंककर रोने लगे । उनके पैर क हल्का-सा आघात लगते ही छकड़ा उलट गया ।।१२-१७।।
पूतना अपना स्तन पिलाकर श्रीकृष्ण को मारने के लिये उद्यत थी; किंतु श्रीकृष्ण ही उसका काम तमाम कर दिया । उन्होंने वृन्दावन में जाने के पश्च्यात कालियनाग को परास्त किया और उसे यमुना के कुण्ड से निकालकर समुद्र में भेज दिया । बलरामजी के साथ जा, गदेह का रूप धारण करनेवाले धेनुकासुर को मारकर, उन्होंने तालवान को क्षेमयुक्त स्थान बना दिया तथा वृषभरूपधारी अरिष्टासुर और अश्वरूपधारी केशी को मार डाला । फिर श्रीकृष्ण ने इन्द्र्याग के उत्सव को बंद कराया और उसके स्थान में गिरिराज गोवर्धन की पूजा प्रचलित की ।इससे कुपित हो इन्द्र ने जो वर्षा आरम्भ की, उसका निवारण श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को धारण करके किया । अन्त में महेंद्र ने आकर उनके चरणों में मस्तक झुकाया और उन्हें ‘गोविंद’ की पदवी दी । फिर अपने पुत्र अर्जुन को उन्हें सौंपा । इससे संतुष्ट होकर श्रीकृष्ण ने पुन: इन्द्र्याग का भी उत्सव कराया । तदनन्तर एक दिन वे दोनों भाई कंस का संदेश लेकर आये हुए अक्रूर के साथ रथपर बैठकर मथुरा चले गये । जाते समय श्रीकृष्ण में अनुराग रखनेवाली गोपियाँ, जिनके साथ वे भाँती-भाँती की मधुर लीलाएँ कर चुके थे, उन्हें बहुत देरतक निहारती रहीं । मार्ग में अक्रूर ने उनकी स्तुति की । मथुरा में एक रजक (धोबी) को, जो बहुत बढ़-बढकर बातें बना रहा था, मारकर श्रीकृष्ण ने उससे सारे वस्त्र ले लिये ।।१८-१९।।
एक माली के द्वारपर उन्होंने बलरामजी के साथ फुल की मालाएँ धारण की और माली को उत्तम वर दिया । कंस की दासी कुब्जाने उनके शरीर में चंद्रन का लेप कर दिया, इससे प्रसन्न होकर उन्होंने उसका कुबड़ापन दूर कर दिया- उसे सुडौल एवं सुन्दरी बना दिया । आगे जानेपर रंगशाला के द्वारपर खड़े हुए कुवलयापीड नामक मतवाले हाथी को मारा और रंगभूमि में प्रवेश करके श्रीकृष्ण ने मंचपर बैठे हुए कंस आदि राजाओं के समक्ष चाणूर नामक मल्ल के साथ [उसके ललकारने पर ] कुश्ती लड़ी और बलराम ने मुष्टिक नामवाले पहलवान के साथ दंगल शुरू किया । उन दोनों भाइयों ने चाणूर, मुष्टिक तथा अन्य पहलवानों को भी [बात-की-बातमें] मार गिराया । तत्पस्च्यात श्रीहरी ने मठुराधिपति कंस को मारकर उसके पिता उग्रसेन को यदुवंशियों का राजा बनाया । कंस के दो रानियाँ थी – अस्ति और प्राप्ति । वे दोनों जरासन्ध की पुत्रियाँ थीं । उनकी प्रेरणा से जरासन्ध ने मथुरापुरी पर घेरा डाल दिया और यदुवंशियों के साथ बाणों से युद्ध करने लगा । बलराम और श्रीकृष्ण जरासन्ध को परास्त करके मथुरा छोडकर गोमन्त पर्वतपर चले आये और द्वारका नगरी का निर्माण करके वहाँ यदुवंशियों के साथ रहने लगे । उन्होंने युद्ध में वासुदेव नाम धारण करनेवाले पौंड्रिक को भी मारा तथा भूमिपुत्र नरकासुर का वध करके उसके द्वारा हरकर लायी हुई देवता, गन्धर्व तथा यक्षों की कन्याओं के साथ विवाह किया । श्रीकृष्ण के सोलह हजार आठ रानियाँ थीं, उनमे रुक्मिणी आदि प्रधान थीं ।।२४-३१।।
इसके बाद नरकासुर का दमन करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण सत्यभामा के साथ गरुडपर आरूढ़ हो स्वर्गलोक में गये । वहाँ से इन्द्र को परास्त करके रत्नोंसहित मणिपर्वत तथा पारिजात वृक्ष उठा लाये और उन्हें सत्यभामा के भवन में स्थापित कर दिया । श्रीकृष्ण ने सांदीपनि मुनिसे अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा ग्रहण की थी । शिक्षा पाने के अनन्तर उन्होंने गुरुदक्षिणा के रूप में गुरु के मरे हुए बालक को लाकर दिया था । इसके लिये उन्हें ‘पंचजन’ नामक दैत्य को परास्त करके यमराज के लोकमें भी जाना पड़ा था । वहाँ यमराज ने उनकी बड़ी पूजा की थी । उन्होंने राजा मुचुकुन्द के द्वारा कालयवन का वध करवा दिया । उस समय मुचुकुन्द ने भी भगवान की पूजा की । भगवान श्रीकृष्ण वसुदेव, देवकी तथा भगवद्भक्त ब्राह्मणों का बड़ा आदर-सत्कार करते थे । बलभद्रजी के द्वारा रेवती के गर्भ से निशठ और उल्मुक नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए । श्रीकृष्ण द्वारा जाम्बवती के गर्भ से साम्ब का जन्म हुआ । इसीप्रकार अन्य रानियों से अन्यान्य पुत्र उत्पन्न हुए । रुक्मिणी के गर्भसे प्रद्दुम्न का जन्म हुआ था । वे अभी छ: दिन के थे, तभी शम्बरासूर उन्हें मायाबल से हर ले गया । उसने बालक को समुद्र में फेंक दिया । समुद्र में एक मत्स्य उसे निगल गया । उस मत्स्य को एक मल्लाह ने पकड़ा और शम्बरासूर को भेंट किया । फिर शम्बरासूर ने उस मत्स्य को मायावती के हवाले कर दिया । मायावती ने मत्स्य के पेट में अपने पति को देखकर बड़े आदरसे उसका पालन-पोषण किया । बड़े हो जानेपर मायावती ने प्रद्दुम्न से कहा- ‘नाथ ! मैं आपकी पत्नी रति हूँ और आप मेरे पति कामदेव हैं । पूर्वकाल में भगवान शंकर ने आपको अनन्ग (शरीररहित) कर दिया था । आपके न रहने से शम्बरासूर मुझे हर लाया है । मैंने उसकी पत्नी होना स्वीकार नहीं किया हैं । आप माया के ज्ञाता हैं, अत: शम्बरासूर का वध किया और अपनी भार्या मायावती के साथ वे श्रीकृष्ण के पास चले गये । उनके आगमन से श्रीकृष्ण और रुक्मिणी को बड़ी प्रसन्नता हुई । प्रद्दुम्न से उदारबुद्धि अनिरुद्ध का जन्म हुआ । बड़े होनेपर वे उषा के स्वामी हुए । राजा बलि के बाण नामक पुत्र था । उषा उसीकी पुत्री थी । उसका निवासस्थान शोणितपुर में था । बाण ने बड़ी भारी तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उसको अपना पुत्र मान लिया था । एक दिन शिवजी ने बलोन्मत्त बाणासुर की युद्धविषयक इच्छा से संतुष्ट होकर उससे कहा –‘बाण ! जिस दिन तुम्हारे महल का मयूरध्वज अपने-आप टूटकर गिर जाय, उस दिन यह समझना कि तुम्हें युद्ध प्राप्त होगा ।’ एक दिन कैलास पर्वतपर भगवती पार्वती भगवान शंकर के साथ क्रीडा कर रही थीं । उन्हें देखकर उषा के मनमें भी पति की अभिलाषा जाग्रत हुई । पार्वतीजी ने उसके मनोभाव को समझकर कहा – ‘वैशाख मास की द्वादशी तिथि को रात के समय स्वप्न में जिस पुरुष का तुम्हें दर्शन होगा, वही तुम्हारा पति होगा ।’ पार्वतीजी की यह बात सुनकर उषा बहुत प्रसन्न हुई । उक्त तिथि को जब वह अपने घरमें सो गयी, तो उसे वैसा ही स्वप्न दिखायी दिया । उषा की एक सखी चित्रलेखा थी । वह बाणासुर के मन्त्री कुम्भाण्ड की कन्या थी । उसके बनाये हुए चित्रपट से उषा ने अनिरुद्ध को पहचाना कि वे ही स्वप्नमें उससे मिले थे । उसने चित्रलेखा के ही द्वारा श्रीकृष्ण-पौत्र अनिरुद्ध को द्वारका से अपने यहाँ बुला मँगाया । अनिरुद्ध आये और उषा के साथ विहार करते हुए रहने लगे । इसीसमय मयूरध्वज के रक्षकों ने बाणासुर को ध्वज के गिरने की सुचना दी । फिर तो अनिरुद्ध और बाणासुर में भयंकर युद्ध हुआ ।।४०-४७।।
नारदजी के मुखसे अनिरुद्ध के शोणितपुर पहुंचने का समाचार सुनकर, भगवान श्रीकृष्ण प्रद्दुम्न और बलभद्र को साथ ले, गरूडपर बैठकर वहाँ गये और अग्नि एवं माहेश्वर ज्वर को जीतकर शंकर में परस्पर बाणों के आघात-प्रत्याघात से युक्त भीषण युद्ध होने लगा । नन्दी, गणेश और कार्तिकेय आदि प्रमुख वीरों को गरुड़ आदि ने तत्काल परास्त कर दिया । श्रीकृष्ण ने जृम्भणास्त्र का प्रयोग किया, जिससे भगवान शंकर जँभाई लेते हुए सो गये । इसी बिचमें श्रीकृष्ण ने बाणासुर की हजार भुजाएँ काट डालीं । जृम्भणास्त्र का प्रभाव कम होनेपर शिवजी ने बाणासुर के लिये अभयदान माँगा, तब श्रीकृष्ण ने दो भुजाओं के साथ बाणासुर को जीवित छोड़ दिया और शंकरजी से कहा ।।४८-५१।।
श्रीकृष्ण बोले – भगवन ! आपने जब बाणासुर को अभयदान दिया हैं, तो मैंने भी दे दिया । हम दोनों में कोई भेद नहीं है । जो भेद मानता हैं, वह नरक में पड़ता हैं ।।५२।।
श्रीकृष्ण उवाच – त्वया यदभवं दत्तं बाणस्यास्य मयापि तत ।
आवयोर्नास्ति भेदों वें भेदी नरकमाप्नुयात ।। (अग्नि. १२/५२)
अग्निदेव कहते हैं – तदनन्तर शिव आदि ने श्रीकृष्ण का पूजन किया । वे अनिरुद्ध और उषा आदि के साथ द्वारका में जाकर उग्रसेन आदि यादवों के साथ आनन्दपूर्वक रहने लगे ।।५३।।
अनिरुद्ध के वज्र नामक पुत्र हुआ । उसने मार्कण्डेय मुनि से सब विद्याओं का ज्ञान प्राप्त किया । बलभद्रजी ने प्रलम्बासूर को मारा, यमुना की धारा को खींचकर फेर दिया, द्विविद नामक वानर का संहार किया तथा अपने हलके अग्रभाग से हस्तिनापुर को गंगा में झुकाकर कौरवों के घमंड को चूर-चूर कर लिया । भगवान श्रीकृष्ण अनेक रूप धारण करके अपनी रुक्मिणी आदि रानियों के साथ विहार करते रहें । उन्होंने असंख्य पुत्रों को जन्म दिया ।[अन्तमें यादवों का उपसंहार करके वे परमधाम को पधारे । ] जो इस हरिवंश का पाठ करता है वह सम्पूर्ण कामनाएँ प्राप्त करके अन्तमें श्रीहरि के समीप जाता हैं ।।५४-५६।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘हरिवंश का वर्णन’ नामक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।१२।।
अध्याय – १३ महाभारत की संक्षिप्त कथा
अग्निदेव कहते है – अब मैं श्रीकृष्ण की महिमा को लक्षित करानेवाला महाभारत का उपाख्यान सुनाता हूँ, जिसमें श्रीहरिने पांडवों को निमित्त बनाकर इस पृथ्वी का भार उतारा था । भगवान विष्णु के नाभिकमल से ब्रह्माजी उत्पन्न हुए । ब्रह्माजी से अत्रि, अत्रिसे चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध और बुध से इलानन्दन पुरुरवा का जन्म हुआ । पुरुरवा से आयु, आयुसे राजा नहुष और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए । ययाति से पुरु हुए । पुरु के वंश में भरत और भरत के कुलमें राजा कुरु हुए । कुरु के वंश में शान्तनु का जन्म हुआ । शान्तनु से गंगानंदन भीष्म उत्पन्न हुए । उनके दो छोटे भाई और थे – चित्रागंद और विचित्रवीर्य । ये शान्तनु से सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न हुए थे । शान्तनु के स्वर्गलोक चले जानेपर भीष्म ने अविवाहित रहकर अपने भाई विचित्रवीर्य के राज्य का पालन किया । चित्रागंद बाल्यावस्था में ही चित्रागंद नामवाले गन्धर्व के द्वारा मारे गये । फिर भीष्म संगाम में विपक्षी को परास्त करके काशिराज की दो कन्याओं – अम्बिका और अम्बालिका को हर लाये । वे दोनों विचित्रवीर्य की भार्यायें हुई । कुछ काल के बाद राजा विचित्रवीर्य राजयक्ष्मा से ग्रस्त हो स्वर्गवासी हो गये । तब सत्यवती की अनुमति से व्यासजी के द्वारा अम्बिका के गर्भ से राजा धृतराष्ट्र और अम्बालिका के गर्भ से पांडू उत्पन्न हुए । धृतराष्ट्र ने गांधारी के गर्भ से सौ पुत्रों को जन्म दिया, जिन में दुर्योधन सबसे बड़ा था ।।१-८।।
राजा पांडू वनमें रहते थे । वे एक ऋषिके शापवश शतश्रंग मुनिके आश्रम के पास स्त्री– समागम के कारण मृत्यु को प्राप्त हुए । [पांडू शाप के ही कारण स्त्री–सम्भोग से दूर रहते थे,] इसलिए उनकी आज्ञा के अनुसार कुंती के गर्भ से धर्म के अंश से युधिष्ठिर का जन्म हुआ । वायु से भीम और इन्द्र से अर्जुन उत्पन्न हुए । पांडू की दूसरी पत्नी माद्री के गर्भ से अश्विनीकुमारों के अंश से नकुल–सहदेव का जन्म हुआ । [शापवश] एक दिन माद्री के साथ सम्भोग होने से पांडू की मृत्यु हो गयी और माद्री भी उनके साथ सती हो गयी । जब कुंती का विवाह नहीं हुआ था, उसी समय [सूर्य के अंश से ] उनके गर्भ से कर्ण का जन्म हुआ था । वह दुर्योधन के आश्रय में रहता था । दैवयोग से कौरवों और पांडवों में वैर की आग प्रज्वलित हो उठी । दुर्योधन बड़ी खोटी बुद्धि का मनुष्य था । उसने लाक्षा के बने हुए घर में पांडवों को रखकर आग लगाकर उन्हें जलाने का प्रयत्न किया; किंतु पाँचों पांडव अपनी माता के साथ उस जलते हुए घर से बाहर निकल गये । वहाँ से एकचक्रा नगरीमें जाकर वे मुनि के वेष में एक ब्राह्मण के घरमें निवास करने लगे । फिर बक नामक राक्षस का वध करके वे पांचाल-राज्य में, जहाँ द्रौपदी का स्वयंवर होनेवाला था, गये । वहाँ अर्जुन के बाहुबल से मत्स्यभेद होनेपर पाँचों पांडवों ने द्रौपदी को पत्नीरूप में प्राप्त किया । तत्पस्च्यात दुर्योधन आदि को उनके जीवित होने का पता चलनेपर उन्होंने कौरवों से अपना आधा राज्य भी प्राप्त कर लिया । अर्जुन ने अग्निदेव ने दिव्य गाण्डीव धनुष और उत्तम रथ प्राप्त किया था । उन्हें युद्ध में भगवान कृष्ण-जैसे सारथि मिले थे तथा उन्होंने आचार्य द्रोण से ब्रह्मास्त्र आदि दिव्य आयुध और कभी नष्ट न होनेवाले बाण प्राप्त किये थे । अभी पांडव सब प्रकार की विद्याओं में प्रवीण थे ।।९-१६।।
पांडूकुमार अर्जुन ने श्रीकृष्ण के साथ खाण्डव वन में इन्द्र के द्वारा की हुई वृष्टि का अपने बाणों की [छ्त्राकार] बांध से निवारण करते हुए अग्नि को तृप्त किया था । पांडवों ने सम्पूर्ण दिशोओं पर विजय पायी । युधिष्ठिर राज्य करने लगे । उन्होंने प्रचुर सुवर्णराशि से परिपूर्ण राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया । उनका यह वैभव दुर्योधन के लिये असह्य हो उठा । उसने अपने भाई दु:शासन और वैभवप्राप्त सुहृद कर्ण के कहने से शकुनिको साथ ले, ध्युत-सभा में जुए में प्रवृत्त होकर, युधिष्ठिर और उनके राज्य को कपट-ध्युत के द्वारा हँसते-हँसते जीत लिया । जुएमें परास्त होकर युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ वनमें चले गये । वहाँ उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार बारह वर्ष व्यतीत किये । वन में भी पहलेही की भाँती प्रतिदिन बहुसंख्यक ब्राह्मणों को भोजन कराते थे । [एक दिन उन्होंने] अठासी हजार द्विजोंसहित दुर्वासा को [श्रीकृष्ण-कृपासे] परितृप्त किया । वहाँ उनके साथ उनकी पत्नी द्रौपदी तथा पुरोहित धौम्यजी भी थे । बारहवाँ वर्ष बीतनेपर वे विराटनगर में गये । वहाँ युधिष्ठिर सबसे अपरिचित रहकर ‘कंक’ नामक ब्राह्मण के रूप में रहने लगे । भीमसेन रसोइया बने थे । अर्जुन ने अपना नाम ‘ब्रह्न्नला’ रखा था । पांडवपत्नी द्रौपदी रनिवास में सैरन्ध्री के रूप में रहने लगी । इसीप्रकार नकुल-सहदेव ने भी अपने नाम बदल लिये थे । भीमसेन ने रात्रिकाल में द्रौपदी का सतीत्व-हरण करने की इच्छा रखनेवाले कीचक को मार डाला । तत्पश्चात कौरव विराट की गौओं को हरकर ले जाने लगे, तब उन्हें अर्जन ने परास्त किया । उससमय कौरवों ने पांडवों को पहचान लिया । श्रीकृष्ण की बहिन सुभद्रा ने अर्जुनसे अभिमन्यु नामक पुत्र को उत्पन्न किया था । उसे राजा विराट ने अपनी कन्या उत्तरा ब्याह दी ।।१७-२५।।
धर्मराज युधिष्ठिर सात अक्षौहिणी सेना के स्वामी होकर कौरवों के साथ युद्ध करने को तैयार हुए । पहले भगवान श्रीकृष्ण परम क्रोधी दुर्योधन के पास दूर बनकर गये । उन्होंने ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी राजा दुर्योधन से कहा- ‘राजन ! तुम युधिष्ठिर को आधा राज्य दे दो या उन्हें पाँच तुम गाँव अर्पित कर दो; नहीं तो उनके साथ युद्ध करो ।’ श्रीकृष्ण की बात सुनकर दुर्योधन ने कहा – ‘मैं उन्हें सुई की नोक के बराबर भूमि भी नहीं दूँगा; हाँ, उनसे युद्ध अवश्य करूँगा ।’ ऐसा कहकर वह भगवान श्रीकृष्ण को बंदी बनाने के लिये उद्यत हो गया । उससमय राजसभा में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने परम दुर्धर्ष विश्वरूप का दर्शन कराकर दुर्योधन भयभीत कर दिया । फिर विदुर ने अपने घर ले जाकर भगवान का पूजन और सत्कार किया । तदनन्तर वे युधिष्ठिर के पास लौट गये और बोले – ‘महाराज ! आप दुर्योधन के साथ युद्ध कीजिये/ ।।२६-२९।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘आदिपर्व से आरम्भ करके [उद्योगपर्व-पर्यत] महाभारत कथा का संक्षिप्त वर्णन’ नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।१३।।
अध्याय – १४ कौरव और पांडवों का युद्ध तथा उसका परिणाम
अग्निदेव कहते हैं – युधिष्ठिर और दुर्योधन की सेनाएँ कुरुक्षेत्र के मैंदान में जा डटी । अपने विपक्ष में पितामह भीष्म तथा आचार्य द्रोण आदि गुरुजनों को देखकर अर्जुन युद्ध से विरत हो गये, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा – “पार्थ ! भीष्म आदि गुरुजन शोक के योग्य नहीं हैं । मनुष्यका शरीर विनाशशील हैं; किंतु आत्मा का कभी नाश नहीं होता । यह आत्मा ही परब्रह्म हैं । ’मैं ब्रह्म हूँ’ – इसप्रकार तुम उस आत्मा को समझो ।कार्य की सिद्धि और असिद्धि में समानभावसे रहकर कर्मयोग का आश्रय ले क्षात्रधर्म का पालन करो ।”
श्रीकृष्ण के ऐसा कहनेपर अर्जुन रथारूढ़ हो युद्ध में प्रवृत्त हुए । उन्होंने शंखध्वनि की । दुर्योधन की सेना में सबसे पहले पितामह भीष्म सेनापति हुए । पांडवों के सेनापति शिखण्डी थे । इन दोनों में भारी युद्ध छिड़ गया । भीष्मसहित कौरवपक्ष के यौद्धा उस युद्ध में पाण्डव – पक्ष के सैनिकों पर प्रहार करने लगे और शिखण्डी अआदी पांडव-पक्ष के वीर कौरव-सैनिकों को अपने बाणों का निशाना बनाने लगे । कौरव और पांडव-सेना का वह युद्ध, देवासुर-संग्राम के समान जान पड़ता था । आकाश में खड़े होकर देखनेवाले देवताओं को वह युद्ध बड़ा आनंददायक प्रतीत हो रहा था । भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पांडवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया ।।१-७।।
दसवें दिन अर्जुन ने वीरवर भीष्मपर बाणों की बड़ी भारी वृष्टि की ।इधर द्रुपद की प्रेरणा से शिखण्डी ने भी पानी बरसानेवाले मेघ की भांति भीष्मपर बाणों की झड़ी लगा डी । दोनों और के हाथीसवार, घुडसवार, रथी और पैदल एक-दुसरे के बाणों से मारे गये । भीष्म की मृत्यु उनकी इच्छा के अधीन थी । उन्होंने युद्ध का मार्ग दिखाकर वसु-देवता के कहनेपर वसुलोक में जाने की तैयारी की और बाणशय्यापर सो रहे । वे उत्तरायण की प्रतीक्षा में भगवान विष्णु का ध्यान और स्तवन करते हुए समय व्यतीत करने लगे । भीष्म के बाण-शय्यापर गिर जानेके बाद जब दुर्योधन शोक से व्याकुल हो उठा, तब आचार्य द्रोण ने सेनापतित्व का भार ग्रहण किया ।
उधर हर्ष मनाती हुई पांड्वो की सेना में धृष्टद्युम्न सेनापति हुए । उन दोनों में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ, जो यमलोक की आबादी को बढ़ानेवाला था । विराट और द्रुपद आदि राजा द्रोणरूपी समुद्र में डूब गये । हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिकों से युक्त दुर्योधन की विशाल वाहिनी धृष्टद्युम्न के हाथसे मारी जाने लगी । उससमय द्रोण काल के समान जान पड़ते थे । इतनेही में उनके कानों में यह आवाज आयी कि ‘अश्वत्थामा मारा गया’ । इतना सुनते ही आचार्य द्रोण ने अस्त्र-शस्त्र त्याग दिये । ऐसे समय में धृष्टद्युम्न के बाणों से आहात होकर वे पृथ्वीपर गिर पड़े ।।८-१४।।
द्रोण बड़े ही दुर्धर्ष थे । वे सम्पूर्ण क्षत्रियों का विनाश करके पांचवें दिन मारे गये । दुर्योधन पुन: शोक से आतुर हो उठा । उससमय कर्ण उसकी सेनाका कर्णधार हुआ । पांडव-सेना का आधिपत्य अर्जुन को मिला । कर्ण और अर्जुन में भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्रों की मार-काटसे युक्त महाभयानक युद्ध हुआ, जो देवासुर-संग्राम को भी मात करनेवाला था । कर्ण और अर्जुन के संग्राम में कर्ण ने अपने बाणों से शत्रु-पक्ष के बहुत-से वीरों का संहार कर डाला; किंतु दुसरे दिन अर्जुन ने उसे मार गिराया ।।१५-१७।।
तदनन्तर राजा शल्य कौरव-सेना के सेनापति हुए, किंतु वे युद्ध में आधे दिनतक ही टिक सके । दोपहर होते-होते राजा युधिष्ठिर ने उन्हें मार गिराया । दुर्योधन की प्राय: सारी सेना युद्ध में मारी गयी थी । अंततोगत्वा उसका भीमसेन के साथ युद्ध हुआ । उसने पांडव-पक्ष के पैदल आदि बहुत-से सैनिकों का वध करके भीमसेन पर धावा किया । उससमय गदा से प्रहार करते हुए दुर्योधन को भीमसेन ने मौत के घाट उतार दिया । दुर्योधन के अन्य छोटे भाई भी भीमसेन के ही हाथ से मारे गये थे । महाभारत-संग्राम के उस अठारहवें दिन रात्रिकाल में महाबली अश्वत्थामा ने पांडवों की सोयी हुई एक अक्षौहिणी सेना को सदा के लिये सुला दिया । उसने द्रौपदी के पाँचों पुत्रों, उसके पांचालदेशीय बन्धुओं तथा धृष्टद्युम्न को भी जीवित नहीं छोड़ा । द्रौपदी पुत्रहीन होकर रोने-बिलखने लगी । तब अर्जुन ने सींक के अस्त्र से अश्वत्थामा को परास्त करके उसके मस्तक की मणि निकाल ली । [उसे मारा जाता देख द्रौपदी ने ही अनुनय-वन्य करके उसके प्राण बचाये।] ।।१८-२२।।
इतनेपर भी दुष्ट अश्वत्थामा ने उत्तरा के गर्भ को नष्ट करने के लिये उसपर अस्त्र का प्रयोग किया । वह गर्भ उसके अस्त्र से प्राय: दग्ध हो गया था; किंतु भगवान श्रीकृष्ण ने उसको पुन: जीवन-दान दिया । उत्तरा का वही गर्भस्थ शिशु आगे चलकर राजा परीक्षित के नामसे विख्यात हुआ । कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा – ये तीन कौरवपक्षीय वीर उस संग्राम से जीवित बचे । दूसरी ओर पाँच पांडव, सात्यकि तथा भगवान श्रीकृष्ण – ये सात ही जीवित रह सके; दुसरे कोई नहीं बचे । उससमय सब ओर अनाथा स्त्रियों का आर्तनाद व्याप्त हो रहा था । भीमसेन आदि भाइयों के साथ जाकर युधिष्ठिर उन्हें सान्त्वना दी तथा रणभूमि में मारे गये सभी वीरों का दाह-संस्कार करके उनके लिये जलांजलि दे धन आदि का दान किया ।
तत्पस्च्यात कुरुक्षेत्र में शरशय्यापर आसीन शान्तनुनन्दन भीष्म के पास जाकर युधिष्ठिर ने उनसे समस्त शांतिदायक धर्म, राजधर्म (आपद्धर्म), मोक्षधर्म तथा दानधर्म की बातें सुनीं । फिर वे राजसिंहासन पर आसीन हुए । इसके बाद उन शत्रुमर्दन राजाने अश्वमेघ-यज्ञ करके उसमें ब्राह्मणों को बहुत धन दान दिया । तदनन्तर द्वारका से लौटे हुए अर्जुन के मुखसे मूसलकाण्ड के कारण प्राप्त हुए शाप से पारस्परिक युद्धद्वारा यादवों के संहार का समाचार सुनकर युधिष्ठिर ने परीक्षित को राजासनपर बिठाया और स्वयं भाइयों के साथ महाप्रस्थान कर स्वर्गलोक को चले गये ।।२३-२७।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘भीष्मपर्व से लेकर अन्ततक की महाभारत-कथा का संक्षेप से वर्णन’ नामक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।१४।।
अध्याय – १५ यदुकुल का संहार और पांडवों का स्वर्गगमन
अग्निदेव कहते हैं – ब्रह्मन ! जब युधिष्ठिर राजसिंहासनपर विराजमान हो गये, तब धृतराष्ट्र गृहस्थ-आश्रम से वानप्रस्थ-आश्रम में प्रविष्ट हो वनमें चल गये । [अथवा ऋषियों के एक आश्रम से दूसरे आश्रमों में होते हुए वे वन को गये । ] उनके साथ देवी गान्धारी और पृथा (कुन्ती) भी थीं । विदुरजी दावानल से दग्ध हो स्वर्ग सिधारे । इसप्रकार भगवान विष्णु ने पृथ्वी का भार उतारा और धर्म की स्थापना तथा अधर्म का नाश करने के लिये पांडवों को निमित्त बनाकर दानव-दैत्य आदि का संहार किया । तत्पस्च्यात भूमिका भार बढ़ानेवाला यादवकुल का भी ब्राह्मणों के शाप के बहाने मूसल के द्वारा संहार कर डाला । अनिरुद्ध के पुत्र वज्र को राजा के पदपर अभिषिक्त किया । तदनन्तर देवताओं के अनुरोध से प्रभासक्षेत्र में श्रीहरि स्वयं ही स्थूल शरीर की लीला का संवरण करके अपने धाम को पधारे ।।१-४ ।।
वे इन्द्रलोक और ब्रह्मलोक में स्वर्गवासी देवताओं द्वारा पूजित होते हैं । बलभद्र जी शेषनाग के स्वरुप थे; अत: उन्होंने पातालरूपी स्वर्ग का आश्रय लिया । अविनाशी भगवान श्रीहरि ध्यानी पुरुषों के ध्येय हैं । उनके अन्तर्धान हो जानेपर समुद्र ने उनके निजी निवासस्थान को छोडकर शेष द्वारकापुरी को अपने जलमें डूबा दिया । अर्जुन ने मरे हुए यादवों का दाह-संस्कार करके उनके लिये जलांजलि दी और धन आदि का दान किया । भगवान श्रीकृष्ण की रानियों को, जो पहले अप्सराएँ थी और अष्टावक्र के शाप से मानवीरूप में प्रकट हुई थीं, लेकर हस्तिनापुर को चले । मार्ग में डंडे लिए हुए ग्वालों ने अर्जुन का तिरस्कार करके उन सबकी छीन लिया । यह भी अष्टावक्र के शाप से ही सम्भव हुआ था । इससे अर्जुन के मन में बड़ा शोक हुआ । फिर महर्षि व्यास के सांत्वना देनेपर उन्हें यह निश्चय हुआ कि ‘भगवान श्रीकृष्ण के समीप रहने से ही मुझ में बल था ।’ हस्तिनापुर में आकर उन्होंने भाइयोंसहित राजा युधिष्ठिर से, जो उस समय प्रजावर्ग का पालन करते थे, यह सब समाचार निवेदन किया । वे बोले- ‘भैया ! वही धनुष हैं, वे ही बाण हैं, वही रथ है और वे ही घोड़े हैं; किंतु भगवान श्रीकृष्ण के बिना सब कुछ उसीप्रकार नष्ट हो गया. जैसे अश्रोत्रिय को दिया हुआ दान ।’ यह सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने राज्यपर परीक्षित को स्थापित कर दिया ।।५-११।।
इसके बाद बुद्धिमान राजा संसार की अनित्यता का विचार करके द्रौपदी तथा भाइयों को साथ ले महाप्रस्थान के पथपर अग्रसर हुए । मार्ग में वे श्रीहरि के अष्टोत्तरशत नामों का जप करते हुए यात्रा करते थे । उस महापथ में क्रमशः द्रौपदी, सहदेव, नकुल, अर्जुन और भीमसेन एक-एक करके गिर पड़े । इससे राजा शोकमग्न हो गये । तदनन्तर वे इन्द्र के द्वारा लाये हुए रथपर आरूढ़ हो [दिव्यरुपधारी ] भाइयोंसहित स्वर्ग को चले गये । वहाँ उन्होंने दुर्योधन आदि सभी धृतराष्ट्र पुत्रों को देखा । तदनन्तर [उनपर कृपा करने के लिये अपने धाम से पधारे हुए ] भगवान वासुदेव का भी दर्शन किया । इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई । यह मैंने तुम्हें महाभारत का प्रसंग सुनाया है । जो इसका पाठ करेगा, वह स्वर्गलोक में सम्मानित होगा ।।१२-१५।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘आश्रमवासिक पर्व से लेकर स्वर्गारोहण-पर्यन्त महाभारत-कथा का संक्षिप्त वर्णन’ नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।१५।।
अध्याय – १६ बुद्ध और कल्कि-अवतारों की कथा
बौद्ध-धर्मकी उतपत्तिके “कारण” है
अग्निदेव कहते हैं – अब मैं बुद्धावतारका वर्णन करूँगा, जो पढने और सुननेवालों के मनोरथ को सिद्ध करनेवाला है ।
पूर्वकाल में देवताओं और असुरों में घोर संग्राम हुआ । उसमें दैत्यों ने देवताओं को परास्त कर दिया । तब देवता लोग ‘त्राहि–त्राहि’ पुकारते हिये भगवान की शरण में गये ।
भगवान मायामोहमय रूप में आकर राजा शुद्धोदन के पुत्र हुए । उन्होंने दैत्योंको मोहित किया और उनसे विधिक धर्म का परित्याग करा दिया । वे बुद्ध के अनुयायी दैत्य ‘बौद्ध’ कहलाये ।
फिर उन्होंने दूसरे लोगों से वेद-धर्म का त्याग करवाया । इसके बाद माया-मोह ही ‘आर्हत’ रूपसे प्रकट हुआ । उसने दूसरे लोगों को भी ‘आर्हत’ बनाया । इसप्रकार उनके अनुयायी वेद–धर्म से वंचित होकर पाखण्डी बन गये । उन्होंने नरक में ले जानेवाले कर्म करना आरम्भ कर दिया ।वे सब–के–सब कलियुग के अन्तमें वर्णसंकर होंगे और नीच पुरुषों से दान लेंगे । इतना ही नहीं, वे लोग डाकू और दुराचारी भी होंगे । वाजसनेय (बृहदारन्यक) – मात्र ही ‘वेद’ कहलायेगा । वेद की दस–पाँच शाखाएँ ही प्रमाणबहुत मानी जायेंगी । धर्म का चोला पहने हुए सब लोग अधर्म में ही रूचि रखनेवाले होंगे । राजारूपधारी म्लेच्छ मनुष्यों का ही भक्षण करेंगे ।।१-७।।
तदनन्तर भगवान कल्कि प्रकट होंगे । वे श्रीविष्णुयशा के पुत्ररूप से अवतीर्ण हो याज्ञवल्क्य को अपना पुरोहित बनायेंगे । उन्हें अस्त्र-शस्त्र-विद्या का पूर्ण परिज्ञान होगा । वे हाथ में अस्त्र-शस्त्र लेकर म्लेच्छों का संहार कर डालेंगे तथा चारों वर्णों और समस्त आश्रमों में शास्त्रीय मर्यादा स्थापित करेंगे । समस्त प्रजा को धर्म के उत्तम मार्ग में लगायेंगे । उसके बाद श्रीहरि कल्किरूप का परित्याग करके अपने धाममें चले जायेंगे । फिर तो पूर्ववत सत्ययुग का साम्राज्य होगा ।
साधूश्रेष्ठ ! सभी वर्ण और आश्रम के लोग अपने-अपने धर्म में दृढ़तापूर्वक लग जायेंगे । इसप्रकार सम्पूर्ण कल्पों तथा मन्वन्तरों में श्रीहरि के अवतार होते हैं । उनमें से कुछ हो चुके हैं, कुछ आगे होनेवाले हैं; उन सबकी कोई नियत संख्या नहीं हैं । जो मनुष्य श्रीविष्णु के अंशावतार तथा पूर्णावतारसहित दस अवतारों के चरित्रों का पाठ अथवा श्रवण करता हैं, वह सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता हैं तथा निर्मलह्रदय होकर परिवारसहित स्वर्ग को जाता हैं । इसप्रकार अवतार लेकर श्रीहरि धर्म की व्यवस्था और अधर्म का निराकरण करते हैं । वे ही जगत की सृष्टि आदि के कारण हैं ।।८-१४।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘बुद्ध तथा कल्कि – इन दो अवतारों का वर्णन’ नामक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।१६।।
अध्याय – १७ जगतकी सृष्टि का वर्णन
अग्निदेव कहते हैं – ब्रह्मन ! अब मैं जगतकी सृष्टि आदि का, जो श्रीहरि की लीलामात्र है, वर्णन करूँगा; सुनो ।
श्रीहरि ही स्वर्ग आदि के रचयिता हैं । सृष्टि और प्रलय आदि उन्हीं के स्वरुप हैं । सृष्टि के आदिकारण भी वे ही हैं । वे ही निर्गुण हैं और वे ही सगुण हैं । सबसे पहले सत्स्वरूप अव्यक्त ब्रह्म ही था; उससमय न तो आकाश था और न रात-दिन आदि का ही विभाग था । तदनन्तर सृष्टि कालमें परमपुरुष श्रीविष्णु ने प्रकृति में प्रवेश करके उसे क्षुब्ध (विकृत) कर दिया । फिर प्रकृति से महत्तत्त्व और उससे अहंकार प्रकट हुआ । अहंकार तीन प्रकार का है – वैकारिक (सात्त्विक), तैजस (राजस) और भूतादिरूप तामस । तामस अहंकार से शब्द-तन्मात्रावाला आकाश उत्पन्न हुआ । आकाश से स्पर्श-तन्मात्रावाले वायु का प्रादुर्भाव हुआ । वायुसे रूप-तन्मात्रावाला अग्नितत्त्व प्रकट हुआ । अग्नि से रस-तन्मात्रावाले जल की उत्पत्ति हुई और जल से गन्ध-तन्मात्रावाली भूमिका प्रादुर्भाव हुआ । यह सब तामस अहंकार से होनेवाली सृष्टि है । इन्द्रियाँ तैजस अर्थात राजस अहंकार से प्रकट हुई है । दस इन्द्रियों के अधिष्ठाता दस देवता और ग्यारहवीं इन्द्रिय मन ( के भी अधिष्ठाता देवता) – ये वैकारिक अर्थात सात्त्विक अहंकार की सृष्टि हैं । तत्पस्च्यात नाना प्रकार की प्रजा को उत्पन्न करने की इच्छावाले भगवान स्वयम्भुने सबसे पहले जल की ही सृष्टि की और उसमें अपनी शक्ति (वीर्य) का आधान किया । जल को ‘नार’ कहा गया हैं; क्योंकि वह नर से उत्पन्न हुआ है । ‘नार’ (जल) ही पूर्वकाल में भगवान का ‘अयन’ (निवास-स्थान) था; इसलिए भगवान को ‘नारायण’ कहा गया है ।।१-७।।
स्वयम्भू श्रीहरि ने जो वीर्य स्थापित किया था, वह जलमे सुवर्णमय अंड के रूप में प्रकट हुआ । उसमें साक्षात स्वयम्भू भगवान ब्रह्माजी प्रकट हुए, ऐसा हमने सुना हैं । भगवान हिरण्यगर्भ ने एक वर्षतक उस अंड के भीतर निवास करके उसके दो भाग किये । एक का नाम ‘ध्युलोक] हुआ और दुसरे का ‘भूलोक’ । उन दोनों अंड-खंडों के बिचमें उन्होंने आकाश की सृष्टि की । जल के ऊपर तैरती हुई पृथ्वी को रखा और दसों दिशाओं के विभाग किये । फिर सृष्टि की इच्छावाले प्रजापति ने वहाँ काल, मन, वाणी, काम, क्रोध तथा रति आदि की तत्तरूप से सृष्टि की । उन्होंने आदि में विद्युत्, वज्र, मेघ, रोहित इन्द्रधनुष, पक्षियों तथा पर्जन्य का निर्माण किया । तत्पस्च्यात यज्ञ की सिद्धि के लिये मुखसे ऋक, यजु, और सामवेद को प्रकट किया । उनके द्वारा साध्यगणों ने देवताओं का यजन किया । फिर ब्रह्माजी ने अपनी भुजसे ऊँचे-नीचे (या छोटे-बड़े) भूतों को उत्पन्न किया, सनत्कुमार की उत्पत्ति की तथा क्रोध से प्रकट होनेवाले रुद को जन्म दिया । मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ – इन सात ब्रह्मपुत्रों को ब्रह्माजी ने निश्चय ही अपने मनसे प्रकट किया । साधुश्रेष्ठ ! ये तथा रुद्रगण प्रजावर्ग की सृष्टि करते हैं । ब्रह्माजी ने अपने शरीर के दो भाग किये । आधे भागसे वे पुरुष हुए और आधेसे स्त्री बन गये; फिर उस नारी के गर्भ से उन्होंने प्रजाओं की सृष्टि की । (ये ही स्वायम्भुव मनु तथा शतरूपा के नामसे प्रसिद्ध हुए । इनसे ही मानवीय सृष्टि हुई ।) ।।८-१७।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘जगतकी सृष्टि का वर्णन’ नाम सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।१७।।
अध्याय – १८ स्वायम्भुव मनु के वंश का वर्णन
अग्निदेव कहते हैं – मुने ! स्वायम्भुव मनुसे उनकी तपस्विनी भार्या शतरूपाने प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो पुत्र और एक सुन्दरी कन्या उत्पन्न की । वह कमनीया कन्या (देवहुति) कर्दम ऋषिकी भार्या हुई । राजा प्रियव्रत से सम्राट कुक्षि और विराट नामक सामर्थ्यशाली पुत्र उत्पन्न हुए । उत्तानपाद से सुरुचि के गर्भ से उत्तमनामक पुत्र उत्पन्न हुआ और सुनीति के गर्भ से ध्रुर्व का जन्म हुआ । हे मुने ! कुमार ध्रुव ने सुंदर कीर्ति बढ़ाने के लिये तीन हजार दिव्य वर्षोतक तप किया । उसपर प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उसे सप्तर्षियों के आगे स्थिर स्थान (ध्रुवपद) दिया । ध्रुव के इस अभ्युदय को देखकर शुक्राचार्य ने उनके सुयश का सूचक यह श्लोक पढ़ा – ‘अहो ! उस ध्रुव की तपस्या का कितना प्रभाव है, इसका शास्त्र-ज्ञान कितना अद्भुत हैं, जिसे आज सप्तर्षि भी आगे करके स्थित हैं ।’ उस ध्रुव से उनकी पत्नी शम्भु ने श्लिष्टि और भव्य नामक पुत्र उत्पन्न किये । श्लिष्टि से उसकी पत्नी सुच्छाया ने क्रमशः रिपु, रिपुंजय, पुष्य, वृकल और वृकतेजा – इन पाँच निष्पाप पुत्रों को अपने गर्भ में धारण किया । रिपु के वीर्य से बृहती ने चाक्षुष और सर्वतेजा को अपने गर्भ में स्थान दिया ।।१-७।।
चाक्षुष ने वीरण प्रजापति की कन्या पुष्करिणी के गर्भ से मनु को जन्म दिया । मनुसे नडवला के गर्भसे दस उत्तम पुत्र उत्पन्न हुए । [उनके नाम ये है – ] ऊरु, पुरु, शत्ध्युम्न, तपस्वी, सत्यवाक, कवि, अग्निष्टुत, अतिरात्र, सुधुम्न और अभिमन्यु । उरु के अंश से आग्रेयीने अंग, सुमना, स्वाति, क्रतु, अंगिरा और गय नामक महान तेजस्वी छ: पुत्र उत्पन्न किये । अंग से सुनीथा ने एक ही संतान वेन को जन्म दिया । वह प्रजाओं की रक्षा न करके सदा पाप में ही लगा रहता था । उसे मुनियों ने कुशों से मार डाला । तदनन्तर ऋषियों ने संतान के लिये वेन के दायें हाथ का मंथन किया । हाथ का मंथन होनेपर राजा पृथु प्रकट हुए । उन्हें देखकर मुनियों ने कहा – ‘ये महान तेजस्वी राजा अवश्य ही समस्त प्रजा को आनंदित करेंगे तथा महान यश प्राप्त करेंगे ।’ क्षत्रियवंश के पूर्वज वेन-कुमार राजा पृथु अपने तेजसे सबको दग्ध करते हुए से धनुष और कवच धारण किये हुए ही प्रकट हुए थे; वे सम्पूर्ण प्रजा की रक्षा करने लगे ।।८-१४।।
राजसूय-यज्ञ में दीक्षित होनेवाले नरेशों में वे सबसे पहले भूपाल थे । उनसे दो पुत्र उत्पन्न हुए । स्तुतिकर्म में निपुण अद्भुतकर्मा सूत और मागधों ने उनका स्तवन किया । वे प्रजाओं का रंजन करने के कारण ‘राजा’ नामसे विख्यात हुए । उन्होंने प्रजाओं की जीवन-रक्षा के निमित्त अन्न की उपज बढ़ाने के लिये गोरुपधारिणी पृथ्वी का दोहन किया । उससमय एक साथ ही देवता, मुनिवृन्द, गन्धर्व, अप्सरागण, पितर, दानव, सर्प, लता, पर्वत और मनुष्यों आदि के द्वारा अपने-अपने विभिन्न पात्रों में दुही जानेवाली पृथिवी ने सबको इच्छानुसार दूध दिया, जिससे सबने प्राण धारण किये । पृथु के जो दो धर्मज्ञ पुत्र उत्पन्न हुए, उनके नाम थे अन्तर्धि और पालित । अन्तर्धान (अन्तर्धि) – के अंश से उनकी शिखण्डीनि नामवाली पत्नी ने ‘हविर्धान’ को जन्म दिया । अग्निकुमारी धिषणा ने हविर्धान के अंश से छ: पुत्रों को उत्पन्न किया । उनके नाम ये हैं – प्राचीनबर्हिष , शुक्र, गय, कृष्ण, व्रज और अजिन । राजा प्राचीनबर्हिष प्राय: यज्ञ में ही लगे रहते थे, जिससे उस समय पृथिवीपर दूर-दुरतक पूर्वाग्र कुश फ़ैल गये थे । इससे वे ऐश्वर्यशाली राजा ‘प्राचीनबर्हिष’ नाम से विख्यात हुए । वे एक महान प्रजापति थे ।।१५-२१।।
प्राचीनबर्हिष से उनकी पत्नी समुद्र कन्या सवर्णा ने दस पुत्रों को अपने गर्भ में धारण किया । वे सभी ‘प्रचेता’ नामसे प्रसिद्ध हुए और सब-के-सब धनुर्वेद में पारंगत थे । वे एके समान धर्म का आचरण करते हुए समुद्र के जल में रहकर दस हजार वर्षोंतक महान तप में लगे रहें । अंतमे भगवान विष्णु से प्रजापति होने का वरदान पाकर वे संतुष्ट हो जल से बाहर निकले । उससमय प्राय: समस्त भूमंडल और आकाश बड़े-बड़े सघन वृक्षों से व्याप्त हो गया था । यह देख उन्होंने अपने मुख से प्रकट अग्नि और वायु के द्वारा सब वृक्षों को जला दिया । तब वृक्षों का यह संहार देख राजा सोम इन प्रचेताओं के पास जाकर बोले –
“आपलोग अपना कोप शान्त करें; ये वृक्षगण आपको एक ‘मारिषा’ नामवाली सुन्दरी कन्या अर्पण करेंगे । यह कन्या तपस्वी मुनि कंडू के अंश से प्रम्लोचा अप्सरा के गर्भ से [स्वेद-बिन्दु के रूप में] प्रकट हुई हैं । मैंने ही भविष्य की बातें जानकर इसे कन्यारूप में उत्पन्न कर पाला-पोसा हैं । इसके गर्भ से दक्ष उत्पन्न होंगे, जो प्रजा की वृद्धि करेंगे”” ।।२२-२७।।
प्रचेताओं ने उस कन्या को ग्रहण किया । तत्पस्च्यात उसके गर्भ से दक्ष उत्पन्न हुए । दक्ष ने चर, अचर, द्विपद और चतुष्पद आदि प्राणियों की मानसिक सृष्टि करके अंत में बहुत–सी स्त्रियों को उत्पन्न किया । उनमें से दस को तो उन्होंने धर्मराज के अर्पण किया और तेरह कन्याएँ अंगिरा को दीं । पूर्वकाल मानसिक संकल्प से सृष्टि होती थी । उसके बाद उन दक्ष–कन्याओं से मैथुनद्वारा देवता और नाग आदि प्रकट हुए । अब मैं धर्मराज से उनकी दस पत्नियों के गर्भ से जो संताने हुई, उस धर्मसर्ग का वर्णन करूँगा । विश्वा नामवाली पत्नी से विश्वेदेव प्रकट हुए । साध्याने साध्यों को जन्म दिया । मरुत्वतीसे मरुत्वान और वसु से वसुगण प्रकट हुए । भानुसे भानु और मुहुर्तासे मुहूर्त नामक पुत्र उत्पन्न हुए । धर्मराज के द्वारा लम्बा से घोष नामक पुत्र हुआ और यामि नामक पत्नी से नागविथी नामवाली कन्या उत्पन्न हुई । पृथिवीका सम्पूर्ण विषय भी मरुत्वतीसे ही प्रकट हुआ । संकल्पा के गर्भ से संकल्पों की सृष्टि हुई । चन्द्रमा से उनकी नक्षत्ररूपिणी पत्नियों के गर्भ से आठ पुत्र हुए ।।२८-३४।।
उनके नाम ये हैं – आप, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभास – ये आठ वसु हैं । आपके वैतंड्य, श्रम, शांत और मुनि नामक पुत्र हुए । ध्रुव का पुत्र लोकान्तकारी काल हुआ और सोमका पुत्र वर्चा हुआ । धर की पत्नी मनोहरा के गर्भ से द्रविण, हुतहव्यवह, शिशिर, प्राण और रमण उत्पन्न हुए । अनिल का पुत्र पुरोजव और अनल (अग्नि) – का अविज्ञात था । अग्नि का पुत्र कुमार हुआ, जो सरकंडों की ढेरीपर उत्पन्न हुआ । उसके पीछे शाख, विशाख और नैगमेय नामक पुत्र हुए । कुमार कृत्तिका के गर्भ से उत्पन्न होने के कारण ‘कार्तिकेय’ कहलाये तथा कृत्तिका के दुसरे पुत्र सनत्कुमार नामक यती हुए । प्रत्युष से देवल का जन्म हुआ और प्रभास से विश्वकर्मा का । ये विश्वकर्मा देवताओं के बढई थे और हजारों प्रकार की शिल्पकारी का काम करते थे । उनके ही निर्माण किये हुए शिल्प और भूषण आदि के सहारे आज भी मनुष्य अपनी जीविका चलाते है । सुरभीने कश्यपजी के अंश से ग्यारह रुद्रों को उत्पन्न किया तथा हे साधुश्रेष्ठ ! सतीने अपनी तपस्या एवं महादेवजी के अनुग्रह से सम्भावित होकर चार पुत्र उत्पन्न किये । उनके नाम हैं – अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, त्वष्टा और रुद्र । त्वष्टा के पुत्र महायशस्वी श्रीमान विश्वरूप हुए । हर, बहुरूप, त्र्यम्बक, अपराजित, वृषाकपि, शम्भु, कपर्दी, रैवत, मृगव्याध, सर्प और कपाली – ये ग्यारह रुद्र प्रधान हैं । यों तो सैकड़ों – लाखों रुद्र हैं, जिनसे यह चराचर जगत व्याप्त हैं ।।३५-४५।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘वैवस्वत मनु के वंश का वर्णन’ नामक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।१८।।
अध्याय – १९ कश्यप आदि के वंश का वर्णन
अग्निदेव बोले – हे मुने ! अब मैं आदिति आदि दक्ष- कन्याओं से उत्पन्न हुई कश्यपजी की सृष्टि का वर्णन करता हूँ – चाक्षुष मन्वन्तर में जो तुषित नामक बारह देवता थे, वे ही पुन: इस वैवस्वत मन्वन्तर में कश्यप के अंश से अदिति के गर्भ में आये थे । वे विष्णु, शक्र (इन्द्र), त्वष्टा, धाता, अर्यमा, पूषा, विवस्वान, सविता, मित्र, वरुण, भग और अंशु नामक बारह आदित्य हुए । अरिष्टनेमि की चार पत्नियों से सोलह संताने उत्पन्न हुई । विद्वान ब्रह्मपुत्र के [ उनकी दो पत्नियों से कपिला, लोहिता आदि के भेद से] चार प्रकार की विद्युत्स्वरुपा कन्याएँ उत्पन्न हुई । अंगिरा मुनिसे [उनकी दो पत्नियोंद्वारा] श्रेष्ठ ऋचाएँ हुई तथा कृशाश्व के भी [उनकी दो पत्नियों से ] देवताओं के दिव्य आयुध उत्पन्न हुए ।।१-४।।
जैसे आकाश में सूर्य के उदय और अस्तभाव बारंबार होते रहे हैं, उसीप्रकार देव्तालोग युग-युगमें (कल्प-कल्पमें) उत्पन्न [एवं विनष्ट] होते रहते हैं । कश्यपजी से उनकी पत्नी दिति के गर्भ से हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक पुत्र उत्पन्न हुए । फिर सिंहिका नामवाली एक कन्या भी हुई, जो विप्रचित्ति नामक दानव की पत्नी हुई । उसके गर्भ से राहु आदि की उत्पत्ति हुई, जो ‘सैंहिकेय’ नाम से विख्यात हुए । हिरण्यकशिपु के चार पुत्र हुए, जो अपने बाल-पराक्रम के कारण विख्यात थे । इनमें पहला ह्राद, दूसरा अनुह्राद और तीसरे प्रल्ह्राद हुए, जो महान विष्णुभक्त थे और चौथा संह्राद था । ह्राद का पुत्र ह्रद हुआ । संह्राद के पुत्र आयुष्यमान शिवि और वाष्कल थे । प्रल्ह्राद का पुत्र विरोचन हुआ और विरोचन से बलि का जन्म हुआ । हे महामुने ! बलि के सौ पुत्र हुए, जिनमें बाणासुर जेष्ठ था । पूर्वकल्प में इस बाणासुर ने भगवान उमापति को [भक्तिभाव से ] प्रसन्न कर उन परमेश्वर से यह वरदान प्राप्त किया था कि ‘मैं आपके पास ही विचरता रहूँगा ।’ हिरण्याक्ष के पाँच पुत्र थे – शम्बर, शकुनि, द्विमुर्धा, शंक्कू और आर्य । कश्यपजी की दूसरी पत्नी दनु के गर्भ से सौ दानवपुत्र उत्पन्न हुए ।।५-११।।
इनमें स्वर्भानु की कन्या सुप्रभा थी और पुलोमा दानव की पुत्री थी शची । उपदानव की कन्या हयशिरा थी और वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा । पुलोमा और कालका – ये दो वैश्वानर की कन्याएँ थीं । ये दोनों कश्यपजी की पत्नी हुई । इन दोनों के करोड़ों पुत्र थे । प्रल्ह्राद वंश में चार करोड़ ‘निवातकवच’ नामक दैत्य हुए । कश्यपजी की ताम्रा नामवाली पत्नी से छ: पुत्र हुए । इनके अतिरिक्त काकी, श्येनी, भासी, गृध्रिका और शुचिग्रीवा आदि भी कश्यपजी की भार्याएँ थीं, उनसे काक आदि पक्षी उत्पन्न हुए । ताम्रा के पुत्र घोड़े और ऊँट थे । विनता के अरुण और गरुड नामक दो पुत्र हुए । सुरसा से हजारों साँप उत्पन्न हुए और कद्रू के गर्भ से भी शेष, वासुकि और तक्षक आदि सहस्त्रों नाग हुए । क्रोधवशा के गर्भ से दंशनशील दाँतवाले सर्प प्रकट हुए । धरासे जल-पक्षी उत्पन्न हुए । सुरभि से गाय-भैंस आदि पशुओं की उत्पत्ति हुई । इरा के गर्भ से तृण आदि उत्पन्न हुए । खसा से यक्ष-राक्षस और मुनि के गर्भ से अप्सराएँ प्रकट हुई । इसी प्रकार अरिष्टा के गर्भ से गन्धर्व उत्पन्न हुए । इस तरह कश्यपजी से स्थावर–जंगम जगत की उत्पत्ति हुई ।।१२-१८।।
इन सबके असंख्य पुत्र हुए । देवताओं ने दैत्योंको युद्ध में जीत लिया । अपने पुत्रों के मारे जानेपर दिति ने कश्यपजी को सेवासे संतुष्ट किया । वह इन्द्र का संहार करनेवाले पुत्र को पाना चाहती थी; उसने कश्यपजी को अपना वह अभिमत वर प्राप्त कर लिया । जब वह गर्भवती और व्रतपालन में तटपर थी, उससमय एक दिन भोजन के बाद बिना पैर धोये ही सो गयी । तब इन्द्र ने यह छिद्र (त्रुटि या दोष) ढूंढकर उसके गर्भ में प्रविष्ट हो उस गर्भ के टुकड़े-टुकड़े कर दिये; (किंतु व्रत के प्रभाव से उनकी मृत्यु नहीं हुई ।) वे सभी अत्यंत तेजस्वी और इन्द्र के सहायक उनचास मरुत नामक देवता हुए । मुने ! यह सारा वृतान्त मैंने सुना दिया । श्रीहरि-स्वरुप ब्रह्माजी ने पृथु को नरलोक के राजपदपर अभिषिक्त करके क्रमशः दूसरों को भी राज्य दिये – उन्हें विभिन्न समूहों का राजा बनाया । अन्य सबके अधिपति (तथा परिगणित अधिपतियों के भी अधिपति) साक्षात श्रीहरि ही हैं ।।१९-२२।।
ब्राह्मणों और ओषधियों के राजा चन्द्रमा हुए । जल के स्वामी वरुण हुए । राजाओं के राजा कुबेर हुए । द्वादश सूर्यों (आदित्यों) – के अधीश्वर भगवान विष्णु थे । वसुओं के राजा पावक और मरुद्रणों के स्वामी इन्द्र हुए । प्रजापतियों के स्वामी दक्ष और दानवों के अधिपति प्रल्ह्राद हुए । पितरों के यमराज और भूत आदि के स्वामी सर्वसमर्थ भगवान शिव हुए तथा शैलों (पर्वतों)- के राजा हिमवान हुए और नदियों का स्वामी सागर हुआ । गन्धर्वों के चित्ररथ, नागों के वासुकि, सर्पों के तक्षक और पक्षियों के गरुड राजा हुए । श्रेष्ठ हाथियों का स्वामी ऐरावत हुआ और गौओं का अधिपति साँड । वनचर जीवों का स्वामी शेर हुआ और वनस्पतियों का प्लक्ष (पकड़ी) । घोड़ों का स्वामी उच्चै:श्रवा हुआ । सुधन्वा पूर्व दिशा का रक्षक हुआ । दक्षिण दिशामें शंखपद और पश्चिम में केतुमान रक्षक नियुक्त हुए । इसीप्रकार उत्तर दिशामें हिरण्यरोमक राजा हुआ । यह प्रतिसर्ग का वर्णन किया गया ।।२३-२९।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘प्रतिसर्गविषयक कश्यपवंश का वर्णन’ नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।१९।।
अध्याय – २० सर्ग का वर्णन
अग्निदेव कहते हैं – मुने ! (प्रकृतिसे) पहले महत्तत्त्व की सृष्टि हुई, इसे ब्राह्मसर्ग समझना चाहिये । दूसरी तन्मात्राओं की सृष्टि हुई, इसे भूतसर्ग कहा गया है । तीसरी वैकारिक सृष्टि हैं, इसे ऐन्द्रियकसर्ग कहते हैं । इस प्रकार यह बुद्धिपूर्वक प्रकट हुआ प्राकृतसर्ग तीन प्रकार का हैं । चौथे प्रकार की सृष्टि को ‘मुख्यसर्ग’ कहते हैं । ‘मुख्य’ नाम है – स्थावरों (वृक्ष-पर्वत आदि) – का । जो ‘तिर्यक्स्त्रोता’ कहा गया हैं, अर्थात जिससे पशु-पक्षियों की उत्पत्ति हुई है, वह तैर्यग्योन्य–सर्ग पाँचवाँ हैं । ऊर्ध्व स्त्रोताओं की सृष्टि को देव–सर्ग कहते हैं, यह छठा सर्ग है । इसके पश्चात अर्वाक्स्त्रोताओं की सृष्टि हुई – यही सातवाँ मानव–सर्ग हैं । आठवाँ अनुग्रह–सर्ग हैं, जो सात्त्विक और तामस भी है । ये अन्तवाले पाँच ‘वैकृतसर्ग’ है और आरम्भ के तीन ‘प्राकृतसर्ग’ कहे गये हैं । प्राकुत और वैकृत सर्ग तथा नवें प्रकारका कौमार–सर्ग– ये कुल नौ सर्ग ब्रह्माजी से प्रकट हुए, जो इस जगत के मूल कारण हैं । ख्याति आदि दक्ष-कन्याओं से भृगु आदि महर्षियों ने ब्याह किया । कुछ लोग नित्य, नैमित्तिक और प्राकृत- इस भेदसे तीन प्रकार की सृष्टि मानते हैं । जो प्रतिदिन होनेवाले अवांतर-प्रलय से प्रतिदिन जन्म लेते रहते हैं, वह ‘नित्यसर्ग’ कहा गया हैं ।।१-८।।
भृगु से उनकी पत्नी ख्यातिने धाता-विधाता नामक दो देवताओं को जन्म दिया तथा लक्ष्मी नाम की कन्या भी उत्पन्न की, जो भगवान विष्णु की पत्नी हुई । इन्द्र ने अपने अभ्युदय के लिये इन्हीं का स्तवन किया था । धाता और विधाता के क्रमशः प्राण और मृकंडु नामक दो पुत्र हुए । मृकंडुसे मार्कण्डेय का जन्म हुआ । उनसे वेद्शिरा उत्पन्न हुए । मरिचिके सम्भूति के गर्भ से पौर्णमास नामक पुत्र हुआ और अंगिरा के स्मृति के गर्भ से अनेक पुत्र तथा सिनीवाली, कुहू, राका और अनुमति नामक चार कन्याएँ हुई । अत्रि के अंश से अनसूयाने सोम, दुर्वासा और दत्तात्रेय नामक पुत्रों को जन्म दिया । इनमें दत्तात्रेय महान योगी थे । पुलस्त्य मुनिकी पत्नी प्रीति के गर्भ से दत्तोलि नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । पुलह से क्षमा के गर्भ से सहिष्णु एवं सर्वपादिक (कर्मपादिक) का जन्म हुआ । क्रतु के सन्नतिसे बालखिल्य नामक साथ हजार पुत्र उत्पन्न हुए, जो अँगूठे के पोरुओं के बराबर और महान तेजस्वी थे । वसिष्ठ से ऊर्जा के गर्भ से राजा, गात्र, ऊर्ध्वबाहु, सवन, अनघ, शुक्र और सुतपा – ये सात ऋषि प्रकट हुए ।।९-१५।।
स्वाहा एवं अग्निसे पावक, पवमान और शुचि नामक पुत्र हुए । इसीप्रकार अज से अग्निष्वात्त, बर्हिषद, अनग्रि एवं साग्रि पितर हुए । पितरों से स्वधा के गर्भ से मेना और वैधारिणी नामक दो कन्याएँ हुई । अधर्म की पत्नी हिंसा हुई; उन दोनों से अमृत नामक पुत्र और निकृति नामवाली कन्या की उत्पत्ति हुई । (इन दोनों ने परस्पर विवाह किया और) इनसे भय तथा नरक का जन्म हुआ । क्रमशः माया और वेदना इनकी पत्नियाँ हुई । इनमें से माया ने (भय के सम्पर्क से) समस्त प्राणियों के प्राण लेनेवाले मृत्यु को जन्म दिया और वेदना ने नरक के संयोग से दुःख नामक पुत्र उत्पन्न किया । इसके पश्चात मृत्यु से व्याधि, जरा, शोक, तृष्णा और क्रोध की उत्पत्ति हुई । ब्रह्माजी से एक रोता हुआ पुत्र हुआ, जो रुदन करने के कारण ‘रुद’ नामसे प्रसिद्ध हुआ । तथा हे द्विज ! उन पितामह (ब्रह्माजी)- ने उसे भव, शर्व, ईशान, पशुपति, भीम, उग्र और महादेव आदि नामों से पुकारा । रुद की पत्नी सती ने अपने पिता दक्ष पर कोप करने के कारण देहत्याग किया और हिमवान की कन्या-रूप में प्रकट होकर पुन: वे शंकरजी की ही धर्मपत्नी हुई । किसी समय नारदजी ने ऋषियों के प्रति विष्णु आदि देवताओं की पूजा का विधान बतलाया था । स्नानादि-पूर्वक की जानेवाली उन पूजाओं का विधिवत अनुष्ठान करके स्वायम्भुव मनु आदिने भोग और मोक्ष-दोनों प्राप्त किये थे ।।१६-२३।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘जगत-सृष्टि का वर्णन’ नामक वीसावाँ अध्याय पूरा हुआ ।।२०।।
अध्याय – २१ विष्णु आदि देवताओं की सामान्य पूजा का विधान
नारदजी बोले – अब मैं विष्णु आदि देवताओं की सामान्य पूजा का वर्णन करता हूँ तथा समस्त कामनाओं को देनेवाले पूजा-सम्बन्धी मंत्रो को भी बतलाता हूँ । भगवान विष्णु के पूजन में सर्वप्रथम परिवारसहित भगवान अच्युत को नमस्कार करके पूजन आरम्भ करे, इसीप्रकार पूजा-मंडप के द्वारदेश में क्रमश: दक्षिण-वाम भाग में धाता और विधाता का तथा गंगा और यमुना का भी पूजन करे । फिर शंकनिधि और पद्मनिधि – इन दो निधियों की, द्वारलक्ष्मी की, वास्तु-पुरुष की तथा आधारशक्ति, कूर्म, अनन्त, पृथिवी, धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य की पूजा करे । तदनन्तर अधर्म आदि का (अर्थात अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और अनैश्वर्य का ) पूजन करे तथा एक कमल की भावना करके उसके मूल, नाल, पद्म, केसर और कर्णिकाओं की पूजा करें ।
फिर ऋग्वेद आदि चारों वेदों की, सत्ययुग आदि युगों की, सत्त्व आदि गुणों की और सूर्य आदि के मंडल की पूजा करे । इसीप्रकार विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा आदि जो शक्तियाँ हैं, उनकी पूजा करे तथा प्रह्री, सत्या, ईशा, अनुग्रहा, निर्मलमूर्ति दुर्गा, सरस्वती, गण (गणेश), क्षेत्रपाल और वासुदेव (संकर्षण, प्रधुम्न, अनिरुद्ध) आदि का पूजन करे । इनके बाद ह्रदय, सिर, चुडा (शिखा), वर्म (कवच), नेत्र आदि अंगों की, फिर शंख, चक्र, गदा और पद्म नामक अस्त्रों की, श्रीवत्स, कौस्तुभ एवं वनमाला की तथा लक्ष्मी, पुष्टि, गरूड और गुरुदेव की पूजा करे । तत्पस्च्यात इन्द्र, अग्नि, यम, निऋति, जल (वरुण), वायु, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा और अनन्त – इन दिक्पालों की, इनके अस्त्रों की, कुमुद आदि आवरण–मंडल आदि में पूजा आदि करनेसे सिद्धि प्राप्त होती हैं ।।१-८।।
अब भगवान शिव की सामान्य पूजा बतायी जाती है – इसमें पहले नन्दी का पूजन करना चाहिये, फिर महाकाल का । तदनन्तर क्रमश: दुर्गा, युमना गण आदि का, वाणी, श्री, गुरु, वास्तुदेव, आधारशक्ति आदि और धर्म आदि का अर्चन करे । फिर वामा, जेष्ठा, रौद्री, काली, कलविकरिणी, बलविकरिणी, बलप्रमथिनी, सर्वभूतदमनी तथा कल्याणमयी मानोंन्मनी – इन नौ शक्तियों का क्रमसे पूजन करें । ‘हां हं हां शिवमूर्तये नम: ।’ – इस मंत्र से ह्र्दयादि अंग और ईशान आदि मुखसहित शिव की पूजा करे । ‘हाँ शिवाय हाँ ।’ इत्यादि से केवल शिव की अर्चना करे और ‘हां’ इत्यादि से ईशानादि (ईशान, वामदेव, सध्योजात, अघोर और तत्पुरुष – ये शिव के पाँच मुख हैं । हां ईशानाय नम: । हाँ वामदेवाय नम” । हूँ सध्योजाताय नम” । हैं अघोराय नम: । हौं तत्पुरुषाय नम: । – इन मन्त्रोंसे इन मुखों की पूजा करनी चाहिये। ) पाँच मुखों की आराधना करे । ‘ह्रीं गौर्ये नम: ।’ इससे गौरी का और ‘गं गणपतये नम: ।’ इस मंत्र से गणपति की, नाम-मन्त्रोंसे इन्द्र आदि दिक्पालों की, चंड की और ह्रदय, सिर आदि की भी पूजा करे ।।९-१२।।
अब क्रमश: सूर्य की पूजा के मंत्र बताये जाते हैं । इसमें नन्दी सर्वप्रथम पूजनीय हैं । फिर क्रमश: पिंगल, उच्चै:श्रवा और अरुण की पूजा करे । तत्पस्च्यात प्रभूत, विमल, सोम, दोनों संध्याकाल, परसुख और स्कंद आदि की मध्य में पूजा करे । इसके बाद दीप्ता, सूक्ष्मा, जया, भद्रा, विभूति, विमला, अमोघा, विद्युता तथा सर्वतोमुखी – इन नौ शक्तियों की पूजा होनी चाहिये । तत्पस्च्यात ‘ॐ ब्रह्मविष्णुशिवात्मकाय सौराय पीठाय नम” ।’ इस मन्त्र से सूर्य के आसन का स्पर्श और पूजन करे । फिर ‘ॐ खं खखोल्काय नम: ।’ इस मंत्रसे सूर्यदेव की मूर्ति की उद्भावना करके उसका अर्चन करे । तत्पस्च्यात ‘ॐ ह्रां ह्रीं स: सूर्याय नम: ।’ इस मन्त्र से सूर्यदेव की पूजा करे । इसके बाद ह्र्द्यादिका पूजन करे – ‘ॐ आं नम: ।’ इससे ह्रदय की ‘ॐ अर्काय नम: ।’ इससे सिर की पूजा करे । इसी प्रकार अग्नि, ईश और वायु में अधिष्ठित सूर्यदेव का भी पूजन करे । फिर ‘ॐ भूर्भव: स्व: ज्वालिन्यै शिखायै नम: ।’ इससे शिखा की, ‘ॐ हूँ कवचाय नम: ।’ इससे कवच की, ‘ॐ भां नेत्राभ्यां नम: ।’ इससे नेत्र की और ‘ॐ रम अर्कास्त्राय नम: ।’ इससे अस्त्र की पूजा करे । इसके बाद सूर्य की शक्ति रानी संज्ञा की तथा उनसे प्रकट हुई छायादेवीकी पूजा करे । फिर चन्द्रमा मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु – क्रमश: इन ग्रहों का और सूर्य के प्रचंड तेज का पूजन करे । अब संक्षेप से पूजन बतलाते हैं – देवता के आसन, मूर्ति, मूल, ह्रदय आदि अंग और परिचारक इनकी ही पूजा होती हैं ।।१३-१९।।
भगवान विष्णु के आसन का पूजन ‘ॐ श्रीं श्रीं श्रीधरो हरि: ह्रीं ।’ इस मंत्रसे करना चाहिये । इसी मंत्रसे भगवान विष्णु की मूर्ति का भी पूजन करे । यह सर्वमूर्तिमंत्र हैं । इसी को त्रैलोक्यमोहन मंत्र भी कहते हैं । भगवान के पूजन में ‘ॐ क्लीं हृषीकेशाय नम: ।’ ‘ॐ हूं विष्णवे नम: ।’ – इन मंत्रो का उपयोग करे । सम्पूर्ण दीर्घ स्वरों के द्वारा ह्रदय आदि की पूजा करे; जैसे – ‘ॐ आं ह्रदयाय नम: ।’ इससे ह्रदय की, ‘ॐ ऐं शिरसे नम: ।’ इससे सिर की, ‘ॐ ऊँ शिखायै नम: ।’ इससे शिखाकी, ‘ॐ एं कवचाय नम: ।’ इससे कवचकी, ‘ॐ ऐं नेत्राभ्यां नम: ।’ इससे नेत्रों की और ‘ॐ औं अस्त्राय नम: ।’ इससे अस्त्र की पूजा करे । पाँचवी अर्थात परिचारकों की पूजा संग्राम आदि में विजय आदि देनेवाली है । परिचारकों में चक्र, गदा, शंख, मुसल, खड्ग, शांर्गधनुष, पाश, अंकुश, श्रीवत्स, कौस्तुभ, वनमाला, “श्रीं’ इस बीज से युक्त श्री – महालक्ष्मी, गरुड, गुरुदेव और इन्द्रादि देवताओं का पूजन किया जाता हैं, । (इनके पूजनमें प्रणवसहित नाम के आदि अक्षर में अनुस्वार लगाकर चतुर्थी विभक्तियुक्त नाम के अंत में ‘नम:’ जोड़ना चाहिये । जैसे ‘ॐ चं चक्राय नम: ।’ ‘ॐ गं गदायै नम ।’ इत्यादि) सरस्वती के आसन की पूजा में ‘ॐ ऐं देव्यै सरस्वत्यै नम: ।’ इस मंत्र का उपयोग करे और उनकी मूर्ति के पूजन में ‘ ॐ ह्रीं देव्यै सरस्वत्यै नम: ।’ इस मंत्रसे काम ले । ह्रदय आदि के लिये पूर्ववत मंत्र हैं । सरस्वती के परिचारकों में लक्ष्मी, मेधा, कला, तुष्टि, पुष्टि, गौरी, प्रभा, मति, दुर्गा, गण, गुरु और क्षेत्रपाल की पूजा करे ।।२०-२४।।
तथा ‘ॐ गं गणपतये नम: ।’ – इस मंत्र से गणेश की, ‘ॐ ह्रीं गौर्ये नम: ।’ इस मंत्र से गौरी की, ‘ ॐ श्रीं श्रियै नम: ।’ इससे श्री की , ‘ॐ ह्रीं त्वरितायै नम: ।’ इस मंत्र से त्वरिता की , ‘ॐ ऐं क्लीं सौं त्रिपुरायै नम: ।’ इस मंत्र से त्रिपुरा की पूजा करे । इसप्रकार ‘त्रिपुरा’ शब्द भी चतुर्थी विभक्त्यन्त हो और अन्तमे ‘नम:’ शब्द का प्रयोग हो । जिन देवताओं के लिये कोई विशेष मंत्र नहीं बतलाया गया हैं, उनके नाम के आदि में प्रणव लगावे । नाम के आदि अक्षर में अनुस्वार लगाकर उसे बीज के रूपमें रखे तथा पूर्ववत नाम के अन्तमें चतुर्थी विभक्ति और ‘नम:’ शब्द जोड़ ले । पूजन और जप में प्राय: सभी मंत्र ‘ॐकार’ युक्त बताये गये हैं । अंत में तिल और घी आदि से होम करे । इसप्रकार ये देवता और मंत्र धर्म, काम, अर्थ और मोक्ष – चारों पुरुषार्थ देनेवाले हैं । जो पूजा के इन मन्त्रों का पाठ करेगा, वह समस्त भोगों का उपभोग कर अंत में देवलोक को प्राप्त होगा ।।२५-२७।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘विष्णु आदि देवताओं की सामान्य पूजा के विधान का वर्णन’ नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।२१।।
अध्याय – २२ पूजा के अधिकार की सिद्धि के लिये सामान्यत: स्नान-विधि
नारदजी बोले – विप्रवरो ! पूजन आदि क्रियाओं के लिये पहले स्नान-विधिका वर्णन करता हूँ । पहले नृसिंह-सम्बन्धी बीज या मंत्रसे मृत्तिका हाथ में लें ।
नृसिंह मंत्र इसप्रकार है –ॐ उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम् ।
नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम् ।।
उसे दो भागों में विभक्त कर एक भागके द्वारा (नाभिसे लेकर पैरोंतक लेपन करे, फिर दुसरे भागके द्वारा) अपने अन्य सब अंगों में लेपन कर मल-स्नान सम्पन्न करे । तदनन्तर शुद्ध स्नान के लिये जलमें डुबकी लगाकर आचमन करे । ‘नृसिंह’- मंत्रसे न्यास करके आत्मरक्षा करे । इसके बाद (तंत्रोक्त रीतिसे) विधि-स्नान करे – [सोमशम्भु की कर्मकाण्ड क्रमावली के अनुसार मिट्टी के एक भाग को नाभि से लेकर पैरोंतक लगावे और दुसरे भाग को शेष सारे शरीर में । इसके बाद दोनों हाथों से आँख, कान, नाक बंद करके जलमें डुबकी लगावे । फिर मन-ही-मन कालाग्रिके समान तेजस्वी अस्त्र का स्मरण करते हुए जलसे बाहर निकले । इसतरह मलस्नान एवं संध्योपासन सम्पन्न करके (तंत्रोक्त रीतिसे) विधि-स्नान करना चाहिये (द्रष्टव्य श्लोक- ९,१०, तथा ११) ।]
और प्राणायामादि पूर्वक ह्रदय में भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस अष्टाक्षर – मंत्रसे हाथ में मिट्टी लेकर उसके तीन भाग करे । फिर नृसिंह-मंत्र के जपपूर्वक (उन तीनों भागों से तीन बार) दिग्बन्ध [प्रत्येक दिशामें वहाँ के विघ्नकारक भूतों को भगाने की भावनासे उक्त मृत्तिका को बिखेरना ‘दिग्बन्ध’ कहलाता हैं । ] करें । इसके बाद ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।’ इस वासुदेव-मंत्र का जप करके संकल्पपूर्वक तीर्थ-जल का स्पर्श करे । फिर वेद आदि के मंत्रो से अपने शरीर का और आराध्यदेव की प्रतिमा या ध्यानकल्पित विग्रह का मार्जन करे । इसके बाद अघमर्षण-मंत्र का जपकर वस्त्र पहनकर आगे का कार्य करे ।
पहले अंगन्यास कर मार्जन-मन्त्रों से मार्जन करें । इसके बाद हाथमें जल लेकर नारायण-मंत्रसे प्राण-संयम करके जल को नासिकासे लगाकर सूँघे । फिर भगवान का ध्यान करते हुए जल का परित्याग कर दे । इसके बाद अर्घ्य देकर (‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।’ इस) द्वादशाक्षर-मंत्र का जप करें । फिर अन्य देवता आदि का भक्तिपूर्वक तर्पण करे । योगपीठ आदि के क्रम से दिक्पालतक के मन्त्रों और देवताओं का, ऋषियों का , पितरों का, मनुष्यों का तथा स्थावरपर्यंत सम्पूर्ण भूतों का तर्पण करके आचमन करें । फिर अंगन्यास करके अपने ह्रदय में मंर्त्रों का उपसंहार कर पूजन-मंदिर में प्रवेश करें । इसीप्रकार अन्य पूजाओं में भी मूल आदि मन्त्रोंसे स्नान-कार्य सम्पन्न करें ।।१-९।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘पूजा के लिये सामान्यत: स्नान-विधि का वर्णन’ नामक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।२२।।
अध्याय – २३ देवताओं तथा भगवान विष्णु की सामान्य पूजा-विधि
नारदजी बोले – ब्रह्मर्षियो ! अब मैं पूजा की विधि का वर्णन करुँगा,जिसका अनुष्ठान करके मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता हैं । हाथ-पैर धोकर, आसनपर बैठकर आचमन करे । फिर मौनभाव से रहकर सब ओर से अपनी रक्षा करे । (अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचा: सर्वोतोदिशम । सर्वेषामविरोधेन पुजाकर्म समरभें ।। इत्यादि मंत्रोद्वारा अथवा कवच आदि के मन्त्रों से रक्षा करे । दाहिने हाथ में रक्षा-सूत्र बाँधकर भी रक्षा की जाती है । इसका मंत्र है – येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल: । तेन त्वां प्रतिबंधामि रक्षे मा चल मा चल ।। )
पूर्व दिशाकी ओर मुँह करके स्वस्तिकासन या पद्मासन आदि कोई-सा आसन बाँधकर स्थिर बैठे और नाभिके मध्यभाग में स्थित धुएँ के समान वर्णवाले, प्रचंड वायुरूप ‘यं’ बीज का चिंतन करते हुए अपने शरीर से सम्पूर्ण पापों को भावनाद्वारा पृथक करे । फिर हृदय-कमल के मध्य में स्थित तेजकी राशिभूत ‘ क्षौं ‘ बीज का ध्यान करते हुए ऊपर, नीचे तथा अगल-बगल में फैली हुई आग्नि की प्रचण्ड ज्वालाओं से उस पाप को जला डाले । इसके बाद बुद्धिमान पुरुष आकाश में स्थित चन्द्रमा की आकृति के समान किसी शांत ज्योतिका ध्यान करे और उससे प्रवाहित होकर ह्रदय-कमल में व्याप्त होनेवाली सुधामय सलिल की धाराओं से, जो सुषुम्रा – योनि के मार्ग से शरीर की सब नादियों में फ़ैल रही है, अपने निष्पाप शरीर को आप्लावित करे । इसप्रकार शरीर की शुद्धि करके तत्वों का नाश करे फिर हस्तशुद्धि करे । इसके लिये पहले दोनों हाथों में अस्त्र एवं व्यापकमुद्रा करे और दाहिने अँगूठे से आरम्भ करके करतल और करपृष्ठतक न्यास करें ।।१-६।।
इसके बाद एक-एक अक्षर के क्रम से बारह अंगोवाले द्वादशाक्षर मूल-मंत्र का अपने देह में बारह मंत्र-वाक्योंद्वारा न्यास करे । ह्रदय, सिर, शिखा, कवच, अस्त्र, नेत्र, उदर, पीठ, बाहू, ऊरु. घुटना, पैर – ये शरीर के बारह स्थान हैं, इनमे ही द्वादशाक्षर के एक – एक वर्ण का न्यास करे । (यथा- ॐ ॐ नम: ह्रदये । ॐ नं नम: शिरसि । ॐ मों नम: शिखायाम । इत्यादि) । फिर मुद्रा समर्पणकर भगवान विष्णु का स्मरण करें और अष्टोत्तरशत (१०८) मंत्र का जप करके पूजन करे ।।७-८।।
बायें भाग में जलपात्र और दाहिने भाग में पूजा का सामान रखकर ‘अस्त्राय फट् ।’ इस मंत्र से उसको धो दें; इसके पश्च्यात गन्ध और पुष्प आदि से युक्त दो अर्घ्यपात्र रखे । फिर हाथ में जल लेकर ‘अस्त्राय फट् ।’ इस मंत्र से अभिमंत्रित कर योगपीठ को सींच दे । उसके मध्य भाग में सर्वव्यापी चेतन ज्योतिर्मय परमेश्वर श्रीहरि का ध्यान करके उस योगपीठपर पूर्व आदि दिशाओं के क्रम से धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, अग्नि आदि दिक्पाल तथा अधर्म आदि के विग्रह की स्थापना करे । उस पीठपर कच्छप, अनन्त, पद्म, सूर्य आदि मंडल और विमला आदि शक्तियों की कमल के केसर के रूप में और ग्रहों की कर्णिका में स्थापना करे । पहले अपने हृदय में ध्यान करे । फिर मंडल में आवाहन करके पूजन करे । (आवाहन के अनन्तर) क्रमश: अर्घ्य, पाद्य, आचमन, मधुपर्क, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य आदि को पुण्डरीकाक्ष – विद्या (ॐ नमो भगवते पुण्डरीकाषाय ।’ – इस मंत्र) – से अर्पण करे ।।९-१४।।
मंडल के पूर्व आदि द्वारों पर भगवान के विग्रह की सेवा में रहनेवाले पार्षदों की पूजा करे । पूर्व के दरवाजेपर गरुड़ की, दक्षिणद्वार पर चक्र की, उत्तरवाले द्वारपर गदा की और ईशान तथा अग्निकोण में शंख एवं धनुष की स्थापना करे । भगवान के बायें-दायें दो तूणीर, बायें भाग में तलवार और चर्म (ढाल), दाहिने भाग में लक्ष्मी और वाम भाग में पुष्टि देवी की स्थापना करे । भगवान के सामने वनमाला, श्रीवत्स और कौस्तुभ को स्थापित करे । मंडल के बाहर दिक्पालों की स्थापना करे । मंडल के भीतर और बाहर स्थापित किये हुए सभी देवताओं की उनके नाम-मन्त्रों से पूजा करे । सबके अंत में भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिये ।।१५-१७।।
अन्गोंसहित पृथक-पृथक बीज-मंत्रो से और सभी बीज-मन्त्रों को एक साथ पढकर भी भगवान का अर्चन करे । मंत्र-जप करके भगवान की परिक्रमा करे और स्तुति के पश्चात अर्घ्य-समर्पण कर ह्रदय में भगवान की स्थापना कर ले । फिर यह ध्यान करे कि ‘परब्रह्म भगवान विष्णु मैं ही हूँ’ (-इसप्रकार अभेदभाव से चिंतन करके पूजन करना चाहिये) । भगवान का आवाहन करते समय ‘आगच्छ’ (भगवन ! आइये ।) इसप्रकार पढना चाहिये और विसर्जन के समय ‘क्षमस्व’ (हमारी त्रुटियों को क्षमा कीजियेगा ।) – ऐसी योजना करनी चाहिये ।।१८-१९।।
इसप्रकार अष्टाक्षर आदि मन्त्रों से पूजा करके मनुष्य मोक्ष का भागी होता है । यह भगवान के एक विग्रह का पूजन बताया गया । अब नौ व्यूहों के पूजन की विधि सुनो ।।२०।।
दोनों अंगूठों और तर्जनी आदि में वासुदेव, बलभद्र आदि का न्यास करे । इसके बाद शरीर में अर्थात सिर, ललाट, मुख, हृदय, नाभि, गुह्यअंग, जानु और चरण आदि अंगों में न्यास करे । फिर मध्य में एवं पूर्व आदि दिशाओं में पूजन करे । इसप्रकार एक पीठपर एक व्यूह के क्रम से पूर्ववत नौ व्यूहों के लिये नौ पीठों की स्थापना करे । नौ कमलों में नौ मूर्तियों के द्वारा पूर्ववत नौ व्यूहों का पूजन करें । कमल के मध्यभाग में जो भगवान का स्थान हैं, उसमे वासुदेव की पूजा करे ।।२१-२३।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘सामान्य पूजा-विषयक वर्णन’ नामक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।२३।।
अध्याय – २४ कुण्ड – निर्माण एवं अग्नि – स्थापन – सम्बन्धी कार्य आदि का वर्णन
नारदजी कहते हैं – महर्षियो ! अब मैं अग्नि-सम्बन्धी कार्य का वर्णन करूँगा, जिससे मनुष्य सम्पूर्ण मनोवांछित वस्तुओं का भागी होता है । चौबीस अंगुल की चौकोर भूमिको सूतसे नापकर चिन्ह बना दे । फिर उस क्षेत्र को सब ओर से बराबर खोदे । दो अंगुल भूमि चारों ओर छोडकर खोदे हुए कुण्ड की मेखला बनावे । मेखलाएँ तीन होती हैं, जो ‘सत्त्व, रज और तम’ नामसे कही गयी है । उनका मुख पूर्व, अर्थात बाह्य दिशाकी ओर रहना चाहिये । मेखलाओं की अधिकतम ऊँचाई बारह अंगुल की रखे, अर्थात भीतर की ओर से पहली मेखलाकी ऊँचाई बारह अंगुल रहनी चाहिये । (उसके बाह्यभाग में दूसरी मेखलाकी ऊँचाई आठ अंगुल की और उसके भी बाह्यभाग तीसरी मेखलाकी ऊँचाई चार अंगुल की रहनी चाहिये ।) इसकी चौड़ाई क्रमश: आठ, दो और चार अंगुल की होती हैं ।।१-३।।
योनि सुन्दर बनायीं जाय । उसकी लंबाई दस अंगुल की हो । वह आगे-आगेकी ओर क्रमश: छ: चार और दो अंगुल ऊँची रहे अर्थात उसका पिछला भाग छ: अंगुल, उससे आगे का भाग चार अंगुल और उससे भी आगे का भाग दो अंगुल ऊँचा होना चाहिये । योनिका स्थान कुण्ड की पश्चिम दिशा का मध्यभाग है । उसे आगे की ओर क्रमश: नीची बनाना चाहिये । उसकी आक्रति पीपल के पत्ते की – सी होनी चाहिये । उसका कुछ भाग कुण्ड में प्रविष्ट रहना चाहिये । योनिका आयाम चार अंगुल का रहे और नाल पन्द्रह अंगुल बड़ा हो । योनिका मूलभाग तीन अंगुल और उससे आगेका भाग छ: अंगुल विस्तृत हो । यह एक हाथ लंबे-चौड़े कुण्ड का लक्षण कहा गया हैं । दो हाथ या तीन हाथ के कुण्ड में नियमानुसार सब वस्तुएँ तदनुरूप द्विगुण या त्रिगुण बढ़ जायेंगी ।।४-६।।
अब मैं एक या तीन मेखलावाले गोल और अर्धचंद्राकर आदि कुण्डों का वर्णन करता हूँ । बीचमें सूत रखकर उसे किसी कोण की सीमातक ले जाय; मध्यभाग से कोणतक ले जानेमें सामान्य दिशाओं की अपेक्षा वह सूत जितना बढ़ जाय, उसके आधे भाग को प्रत्येक दिशामें बढाकर स्थापित करे और मध्यस्थान से उन्हीं बिन्दुओंपर सुतको सब ओर घुमावे तो गोल आकर बन जायगा । कुंडार्ध से बढ़ा हुआ जो कोण भागार्ध हैं, उसे उत्तर दिशामें बढाये तथा उसी सीध ने पूर्व और पश्चिम दिशामें भी बाहर की ओर यत्नपूर्वक बढ़ाकर चिन्ह कर दे । फिर मध्यस्थान में सूत का एक सिरा रखकर दूसरा छोर पूर्व दिशावाले चिन्हपर रखे और उसे दक्षिण की ओर से घुमाते हुए पश्चिम दिशा के चिन्हतक ले जाय । इससे अर्धचंद्राकर चिन्ह बन जायगा । फिर उस क्षेत्र को खोद्नेपर सुंदर अर्धचन्द्र-कुण्ड तैयार हो जायगा ।।७-९।।
कमलकी आक्रुतिवाले गोल कुण्ड की मेखलापर दलाकार चिन्ह बनाये जाय । होमके लिए एक सुंदर स्त्रुक तैयार करे, जो अपने बाहुदंड के बराबर हो । उसके दण्ड का मूलभाग चतुरस्त्र हो । उसका माप सात या पाँच अंगुलका बताया गया हैं । उस चतुरस्त्र के तिहाई भागको खुदवाकर गर्त बनावे । उसके मध्यभाग में उत्तम शोभायमान वृत्त हो । उक्त गर्त को नीचे से ऊपर तक तथा अगल-बगल में बराबर खुदावे । बाहर का अर्धभाग छीलकर साफ़ करा दे (उसपर रंदा करा दे ) । चारों ओर चौथाई अंगुल, जो शेष के आधे का आधा भाग है, भीतर से भी छीलकर साफ़ करा दे । शेषार्धभागद्वारा उक्त खातकी सुंदर मेखला बनवावे । मेखला के भीतरी भाग में उस खात का कंठ तैयार करावे, जिसका सारा विस्तार मेखला की तीन चौथाई के बराबर हो । कंठ की चौड़ाई एक या डेढ़ अंगुल के मापकी हो । उक्त स्त्रुक के अग्रभाग में उसका मुख रहे, जिसका विस्तार चार या पाँच अंगुल का हो ।।१०-१४।।
मुख का मध्य भाग तीन या दो अंगुल का हो । उसे सुंदर एवं शोभायमान बनाया जाय । उसकी लंबाई भी चौड़ाई के ही बराबर हो । उस मुख का मध्य भाग नीचा और परम सुंदर होना चाहिये । स्त्रुक के कंठदेश में एक ऐसा छेद रहे, जिसमें कनिष्ठिका अंगूलि प्रविष्ट हो जाय । कुण्ड (अर्थात स्त्रुक के मुख) – का शेष भाग अपनी रूचि के अनुसार विचित्र शोभसे सम्पन्न किया जाय । स्त्रुक के अतिरिक्त एक स्त्रुवा भी आवश्यक हैं, जिसकी लंबाई दण्डसहित एक हाथ की हो । उसके डंडे को गोल बनाया जाय । उस गोल डंडे की मोटाई दो अंगुल की हो । उसे खूब सुंदर बनाना चाहिये । स्त्रुवा का मुख-भाग कैसा हो ? यह बताया जाता है । थोड़ी-सी कीचड़ में गाय अथवा बछड़े का पैर पड़नेपर जैसा पदचिन्ह ऊभर आता हैं, ठीक वैसा ही स्त्रुवा का मुख बनाया जाय, अर्थात उस मुखका मध्य भाग दो भागोंमे विभक्त रहे । उपर्युक्त अग्निकुण्ड को गोबरसे लीपकर उसके भीतर की भूमिपर बीचमें एक अंगुल मोटी एक रेखा खीचे, जो दक्षिण से उत्तर की ओर गयी हो । उस रेखा को ‘वज्र’ की संज्ञा डी गयी है । उस प्रथम उत्तराग्र रेखापर उसके दक्षिण और उत्तर पार्श्वमें पुन: तीन पूर्वाग्र रेखाएँ खींचे । इन दोनों रेखाओं के बीचमें पुन: तीन पूर्वाग्र रेखाएँ खींचे । इनमें पहली रेखा दक्षिण भागमें हो और शेष दो क्रमश: उसके उत्तरोत्तर भाग में खींची जायँ । मन्त्रज्ञ पुरुष इसप्रकार उल्लेखन (रेखाकरण) करके उस भूमिका अभ्युक्षण (सेचन) करे । फिर प्रणव के उच्चारणपूर्वक भावनाद्वारा एक विष्टर (आसन) – की कल्पना करके उसके ऊपर वैष्णवी शक्तिका आवाहन एवं स्थापन करे ।।१५-२०।।
देवी के स्वरुप का इस प्रकार ध्यान करे – ‘वे दिव्य रूपवाली हैं और दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित हैं।’ तत्पस्च्यात यह चिंतन करे कि ‘देवीको संतुष्ट करनेके लिये अग्निदेव के रूप में साक्षात श्रीहरि पधारे हैं ।’ साधक (उन दोनों का पूजन करके शुद्ध कांस्यादि-पात्रमे रखी और ऊपरसे शुद्ध कांस्यादि – पात्र में रखी और ऊपरसे शुद्ध कांस्यादि पात्रद्वारा ढकी हुई अग्नि को लाकर, क्रव्याद-अंश को अलग क्रेक, ईक्षणादि से शोधित उस ) अग्नि को कुण्ड के भीतर स्थापित करे । तत्पस्च्यात उस अग्निमें प्रादेशमात्र (अँगूठे से लेकर तर्जनी के अग्रभाग के बराबर की ) समिधाएँ देकर कुशोंद्वारा तीन बार परिसमुहन करे । फिर पूर्वादि सभी दिशाओं में कुशास्तरण करके अग्नि की उत्तर दिशामें पश्चिम से आरम्भ करके क्रमश: पूर्वादि दिशामें पात्रासादन करे – समिधा, कुशा, स्त्रुक, स्त्रुवा, आज्यस्थाली, चरुस्थाली तथा कुशच्छादित घी, (प्रणितामात्र, प्रोक्षणीपात्र) आदि वस्तुएँ रखे । इसके बाद प्रणिता को सामने रखकर उसे जलसे भर दे और कुशा से प्रणीता का जल लेकर प्रोक्षणीपात्रका प्रोक्षण करे । तदनन्तर उसे बायें हाथमें लेकर दाहिने हाथ में गृहीत प्रणीता के जल से भर दे । प्रणीता और हाथके बीचमें पवित्री का अंतर रहना चाहिये । प्रोक्षणी में गिराते समय प्रणीता के जल को भूमिपर नहीं गिरने देना चाहिये । प्रोक्षणी में अग्निदेव का ध्यान करके उसे कुण्ड की योनिके समीप अपने सामने रखे । फिर उस प्रोक्षणी के जलसे आसादित वस्तुओं को तीन बार सींचकर समिधाओ के बोझ को खोलकर उसके बंधन को सरकाकर सामने रखे । प्रणीतापात्र में पुष्प छोडकर उसमें भगवान विष्णु का ध्यान करके उसे अग्नि से उत्तर दिशामें कुश के ऊपर स्थापित कर दे ( और अग्नि तथा प्रणीता के मध्य भाग में प्रोक्षणीपात्र को कुशापर रख दे) ।।२१-२५।।
तदनन्तर आज्यस्थाली को घीसे भरकर अपने आगे रखे । फिर उसे आगपर चढ़कर सम्प्लवन एवं उत्पवन की क्रियाद्वारा घी का संस्कार करे । (उसकी विधि इसप्रकार है – ) प्रादेशमात्र लंबे दो कुश हाथ में ले । उनके अग्रभाग खंडित न हुए हों तथा उनके गर्भ में दूसरा कुश अंग्कुरित न हुआ हो । दोनों हाथों का उत्तान रखे और उनके अंगुष्ठ एवं कनिष्ठिका अँगुलिसे उन कुशों को पकड़े रहे । इस तरह उन कुशोंद्वारा घी को थोडा=थोडा उठाकर ऊपर की ओर तीन बार उछाले । प्रज्वलित तृण आदि लेकर घी को देखे और उसमें कोई अपद्रव्य (खराब वस्तु) हो तो उसे निकाल दे । इसके बाद तृण अग्नि में फेंककर उस घी को आगपर से उतार ले और सामने रखे । फिर स्त्रुक और स्त्रुवा के लेकर उनके द्वारा होम-सम्बन्धी कार्य करे । पहले जलसे उनको धो ले । फिर अग्निसे तपाकर सम्मार्जन कुशोंद्वारा उनका मार्जन करे । (उन कुशों के अग्रभागोद्वारा स्त्रुक-स्त्रुवा के भीतरी भाग का तथा मूल भाग से उनके बाह्यभाग का मार्जन करना चाहिये )। तत्पस्च्यात पुन: उन्हें जलसे धोकर आगसे तपावे और अपने दाहिने भाग में स्थापित कर दे । उसके बाद साधक प्रणव से ही अथवा देवता के नाम के आदिमें ‘प्रणव’ तथा अंत में ‘नम:’ पद लगाकर उसके उच्चारणपूर्वक होम करे ।।२६-२९।।
हवन से पहले अग्नि के गर्भाधान से लेकर सम्पूर्ण संस्कार अंग-व्यवस्था के अनुसार सम्पन्न करने चाहिये । मतान्तर के अनुसार नामांतव्रत, व्रतबंधान्तव्रत (यज्ञोपवीतांत), समावर्तनान्त अथवा यज्ञाधिकारांत संस्कार अंगानुसार करने चाहिये । साधक सर्वत्र प्रणव का उच्चारण करते हुए पूजनोपचार अर्पित करे और अपने वैभव के अनुसार प्रत्येक संस्कार के लिये अंग-संबंधी मंत्रोद्वारा होम करे । पहला गर्भाधान-संस्कार है, दूसरा पुंसवन, तीसरा सीमान्तोन्न्यन, चौथा जातकर्म, पाँचवाँ नामकरण, छठा चूडाकरण, सातवाँ व्रतबंध (यज्ञोपवित), आठवाँ वेदारम्भ, नवाँ समावर्तन तथा दसवाँ पत्नीसंयोग (विवाह) संस्कार है । जो यज्ञ के लिए अधिकार प्रदान करनेवाला है । क्रमश: एक-एक संस्कार-कर्म का चिंतन और तदनुरूप पूजन करते हुए ह्रदय आदि अंग-मंत्रोद्वारा पूजन प्रति कर्म के लिये आठ-आठ आहुतियाँ अर्पित करे ।।३०-३५।।
तदनन्तर साधक मूलमंत्रद्वारा स्त्रुवा से पूर्णाहुति दे । उससमय मंत्र के अंतमे ‘ वौषट’ पद लगाकर प्लुतस्वर से सुस्पष्ट मंत्रोच्चारण करना चाहिये । इस तरह वैष्णव-अग्नि का संस्कार करके उसपर विष्णु-देवता के निमित्त चरु पकावे । वेदिप्र भगवान विष्णु की स्थापना एवं आराधना करके मंत्रो का स्मरण करते हुए उनका पूजन करे । अंग और आवरण-देवताओं सहित इष्टदेव श्रीहरि को आसन आदि उपचार अर्पित करते हुए उत्तम रीतिसे उनकी पूजा करनी चाहिये । फिर गन्ध – पुष्पोंद्वारा अर्चना करके सुरश्रेष्ठ नारायणदेव का ध्यान करने के अनन्तर अग्नि में समिधा का आधान करे और अग्रिश्वर श्रीहरि के समीप ‘आघार’ संज्ञक दो घृताहुतियाँ दे । इनमें से एक को तो वायव्यकोण में दे और दूसरी को नैऋत्य कोण में । यही इनके लिये क्रम हैं । तत्पश्च्यात ‘आज्यभाग’ नामक दो आहुतियाँ क्रमशः दक्षिण और उत्तर दिशामें दे और उनमें अग्निदेव के दायें-बायें नेत्र की भावना करे । शेष सब आहुतियों को इन्हीं के बीच में देवताओं की पूजा की गयी है, उसी क्रम से उनके लिये आहुति देने का विधान है ।घी से इष्टदेव की मूर्ति को तृप्त करे । इष्टदेव-सम्बन्धी हवन-संख्या की अपेक्षा दशांश से अंग-देवताओं के लिये होम के । घृत आदि से, समिधाओं से अथवा घ्रुतात्क तिलों से सदा यजनीय देवताओं के लिये एक-एक सहस्त्र या एक-एक शत आहुतियाँ देनी चाहिये । इसप्रकार होमान्त-पूजन समाप्त करके स्नानादि से शुद्ध हुए शिष्यों को गुरु बुलाकर अपने आगे बिठावे । वे सभी शिष्य उपवासव्रत किये हों । उनमे पाश-बद्ध पशु की भावना करके उनका प्रोक्षण करे ।।३६-४२।।
तदनन्तर उन सब शिष्यों को भावनाद्वारा अपने आत्मासे संयुक्त करके अविद्या और कर्म के बन्धनों से आबद्ध हो लिंगशरीर का अनुवर्तन करनेवाले चैतन्य (जीव) का, जो लिंगशरीर के साथ बंधा हुआ है, ध्यानमार्ग से साक्षात्कार करके उसका सम्यक प्रोक्षण करने के पश्च्यात वायुबीज ( यं ) के द्वारा उसके शरीरका शोषण करे । इसके बाद अग्निबीज ( रं ) के चिंतन से अग्नि प्रकट करके यह भावना करे कि ‘ब्रह्मांड’ संज्ञक सारी सृष्टि दग्ध होकर भस्म की पर्वताकार राशि के समान स्थित हैं । तत्पश्च्यात भाव्नाद्वर ही जलबीज ( वं ) के चिंतन से अपार जलराशि प्रकट करके उस भस्मराशि को बहा दे और संसार अब वानिमात्र में ही शेष रह गया है – ऐसा स्मरण करे । तदनन्तर वहाँ ( लं ) बीजस्वरूपा भगवान की पार्थिवी शक्ति का न्यास करे । फिर ध्यानद्वारा देखे कि समस्त तन्मात्राओं से आवृत शुभ पार्थिव – तत्त्व विराजमान है । उससे एक अंड प्रकट हुआ है, जो उसी के आधारपर स्थित है और वही उसका उपादान भी है । उस अंड के भीतर प्रणवस्वरूपा मूर्ति का चिंतन करे ।।४३-४७।।
तदनन्तर अपने आत्मा में स्थित पूर्वसंस्कृत लिंगशरीर का उस पुरुष में संक्रमण करावे, अर्थात यह भावना करे कि वह पुरुष लिंगशरीर से युक्त है । उसके उस शरीर में सभी इन्द्रियों के आकार पृथक-पृथक अभिव्यक्त हैं तथा वह पुरुष क्रमशः बढ़ता और पुष्ट होता जा रहा है । फिर ध्यान में देखे कि वह अंड एक वर्षतक बढकर और पुष्ट होकर फुट गया है । उसके दो टुकड़े हो गये हैं । उसमें ऊपरवाला टुकड़ा द्युलोक है और नीचेवाला भूलोक । इन दोनों के बीच में प्रजापति पुरुष का प्रार्दुभाव हुआ है । इसप्रकार वहाँ उत्पन्न हुए प्रजपतिका ध्यान करके पुन: प्रणव से उन शिशुरुप प्रजापति का प्रोक्षण करे । फिर यथास्थान पूर्वोक्त न्यास करके उनके शरीर को मंत्रमय बना दे । उनके ऊपर विष्णुहस्त रखे और उन्हें वैष्णव माने । इस तरह एक अथवा बहुत-से लोगों के जन्म का ध्यानद्वारा प्रत्यक्ष करे (शिष्यों के भी नूतन दिव्य जन्म की भावना करे) । तदनन्तर मूलमंत्र से शिष्यों के दोनों हाथ पकडकर मंत्रोपदेष्टा गुरु नेत्रमंत्र (वौषट) के उच्चारणपूर्वक नूतन एवं छिद्ररहित वस्त्र से उनके नेत्रों को बाँध दे । फिर देवाधिदेव भगवान की यथोचित पूजा सम्पन्न करके तत्वज्ञ आचार्य हाथ में पुष्पांजलि धारण करनेवाले उन शिष्यों को अपने पास पूर्वाभिमुख बैठावे ।।४८-५३।।
इसप्रकार गुरुद्वारा दिव्य नूतन जन्म पाकर वे शिष्य भी श्रीहरि को पुष्पांजलि अर्पित करके पुष्प आदि उपचारों से उनका पूजन करें । तदनन्तर पुन: वासुदेव की अर्चना करके वे गुरु के चरणों का पूजन करें । दक्षिणारूप में उन्हें अपना सर्वस्व अथवा आधी सम्पत्ति समर्पित कर दें । इसके बाद गुरु शिष्यों को आवश्यक शिक्षा दें और वे (शिष्य) नाम- मंत्रोंद्वारा श्रीहरि का पूजन करें । फिर मंडल में विराजमान शंख, चक्र, गदा धारण करनेवाले भगवान विष्वक्सेन का यजन करें, जो द्वारपाल के रूप में अपनी तर्जनी अँगुली से लोगों को तर्जना देते हुए अनुचित क्रियासे रोक रहे हैं । इसके बाद श्रीहरि की प्रतिमा का विसर्जन करे । भगवान विष्णु का सारा निर्माल्य विष्वक्सेन को अर्पित कर दें ।
तदनन्तर प्रणीता के जलसे अपना और अग्निकुण्ड का अभिषेक करके वहाँ के अग्निदेव को अपने आत्मा में लीं कर लें । इसके पश्च्यात विष्वक्सेन का विसर्जन करे । ऐसा करने से भोग की इच्छा रखनेवाला साधक सम्पूर्ण मनोवांछित वस्तु को पा लेता है और मुमुक्ष पुरुष श्रीहरि में विलीन होता – सायुज्य मोक्ष प्राप्त करता हैं ।।५४—५८।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘कुण्डनिर्माण और अग्नि – स्थापनसम्बन्धी कार्य आदि का वर्णन’ विषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।२४।।
अध्याय – २५ वासुदेव, संकर्षण आदि के मंत्रो का निर्देश एक व्यूह से लेकर द्वादश व्यूह तक के व्यूहों का एवं पंचविंश और षडविंश व्यूहों का वर्णन
नारदजी कहते हैं– ऋषियों! अब मैं वासुदेव आदिके आराधनीय मन्त्रोंका लक्षण बता रहा हूँ।
वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्र और अनिरुद्ध-इन चार व्यूह-मूर्तियोंके नामके आदिमें ॐ, फिर क्रमश: ‘अ आ अं अ:” ये चार बीज तथा ‘नमो भगवते” पद जोड़ने चाहिये और अन्तमें ‘नमः’ पदकों जोड़ देना चाहिये। ऐसा करनेसे इनके पृथक-पृथक चार मन्त्र बन जाते हैं।*
इसके बाद नारायण-मन्त्र है, जिसका स्वरूप है- ‘ॐ नमो नारायणाय।’,
‘ॐ तत्सद ब्रह्मणे ॐ नम:।’- यह ब्रह्ममन्त्र है।
‘ॐ विष्णवे नम:।’- यह विष्णुमन्त्र है।
‘ॐ क्षौं ॐ नमो भगवते नरसिंहाय नम:।”-यह नरसिंहमन्त्र है।
‘ॐ भूर्नमो भगवते वराहाय।”-यह भगवान् वराहका मन्त्र है।
वे सभी मन्त्रराज हैं। उपर्युक्त नौ मन्त्रोंके वासुदेव आदि नौ नायक हैं, जो उपासकोंके वल्लभ (इष्टदेवता) हैं। इनकी अङ्ग-कान्ति क्रमशः जवाकुसुमके सदृश अरुण, हल्दीके समान पीली, नीली, श्यामल, लोहित, मेघ-सदृश, अग्नितुल्य तथा मधुके समान पिङ्गल है।
तन्त्रवेत्ता पुरुषोंको स्वरके बीजोंद्वारा क्रमशः पृथक्-पृथक् ‘हृदय’ आदि अङ्गोकी कल्पना करनी चाहिये। उन बीजोंके अन्तमें अङ्गोंके नाम रहने चाहिये-(यथा-‘ॐ आं हृदयाय नमः। ॐ ई शिरसे स्वाहा। ॐ ऊँ शिखावै वषट्।।’ इत्यादि) ॥ १-५ ॥
जिनके आदिमें व्यञ्जन अक्षर होते हैं, उनके लक्षण अन्य प्रकाएके हैं। दीर्घ स्वरोंके संयोगसे उनके भिन्न-भिन्न रूप होते हैं। उनके अन्तमें अङ्गोंके नाम होते हैं और उन अङ्ग-नामोंके अन्तमें ‘नमः’ आदि पद जुड़े होते हैं।(यथा”क्लां हृदयाय नमः। क्लीं शिरसे स्वाहा।।” इत्यादि।)
हृस्व स्वरोंसे युक्त बीजवाले अङ्ग ‘उपाङ्ग’ कहलाते हैं।
देवताके नाम-सम्बन्धी अक्षरोंको पृथक्-पृथक् करके, उनमेंसे प्रत्येकके अन्तमें बिन्द्वात्मक बीजका योग करके उनसे अङ्गन्यास करना भी उत्तम माना गया है। अथवा नामके आदि अक्षरकी दीर्घ स्वरों एवं हृस्व स्वरोंसे युक्त करके अङ्ग-उपाङ्गकी कल्पना करे और उनके द्वारा क्रमश: न्यास करे।
हृदय आदि अङ्गोंकी कल्पनाके लिये व्यञ्जनोंका यही क्रम हैं।
देवताके मन्त्रका जो अपना स्वर-बीज है, उसके अन्तमें उसका अपना नाम देकर अङ्ग-सम्बन्धी नामोंद्वारा पृथक-पृथक वाक्यरचना करके उससे युक्त हृदयादि द्वादश अङ्गोंकी कल्पना करे।
पाँचसे लेकर बारह अङ्गोतकके न्यास-वाक्यकी कल्पना करके सिद्धिके अनुरूप उनका जप करे।
हृदय, सिर, शिखा, कवच, नेत्र और अस्त्र-ये छ: अङ्ग हैं।
मूलमन्त्र के बीजोंका इन अङ्गोंमें न्यास करना चाहिये।
बारह अङ्ग ये हैं-(१) हृदय, (२) सिर, (३) शिखा, (४) हाथ, (५) नेत्र, (६) उदर, (७) पीठ, (८) बाहु (९) ऊरु, (१०) जानु (११) जङ्घा और (१२) पैर। इनमें क्रमश: न्यास करना चाहिये।
कं ट पं शं वैनतेयाय नम:।-यह गरुडसम्बन्धी बीजमन्त्र है।
खं ठं फं षं गदायै नम:।-यह गदा-मन्त्र है।
गं डं वं सं पुष्टयै नमः॥-यह पुष्टिदैवी-सम्बन्धी मन्त्र है।
घं ट भं हं श्रियै नम:।-यह श्रीमन्त्र है।
चं णं मं क्षं-यह पाञ्चजन्य (शङ्ख)-का मन्त्र है।
छं तं पं कौस्तुभाय नमः।।-यह कौस्तुभ-मन्त्र है।
जं खं वं सुदर्शनाय नमः । -यह सुदर्शनचक्रका मन्त्र है।
सं वं दं लं श्रीवत्साय नमः । -यह श्रीवत्स-मन्त्र है।
ॐ वं वनमालायै नमः ।।-यह वनमालाका मन्त्र है।
ॐ पं पद्मनाभाय नम:।-यह पद्म या पद्मनाभका मन्त्र है।
बीजरहित पदवाले मन्त्रोंका अङ्गन्यास उनके पदोंद्वारा ही करना चाहिये।
नामसंयुक्त जात्यन्त* पदोंद्वारा हृदय आदि पाँच अङ्गोमें पृथक्-पृथक् न्यास करे। पहले प्रणवका उच्चारण, फ़िर हृदय आदि पूर्वोक्त पाँचों अङ्गोके नाम, क्रम यह है। पहले प्रणव तथा हृदय-मन्त्रका उच्चारण करे। फ़िर पराय शिरसे स्वाहा बोलकर मस्तकका स्पर्श करे । तत्पश्चात् इष्टदेवका नाम लेकर शिखाको छूये। अर्थात् ‘वासुदेवाय शिखायै वषट्।।’- बोलकर शिखाका स्पर्श करे। इसके बाद ‘आत्मने कवचाय हुम्।”-बोलकर कवच-न्यास करे। पुनः देवताका नाम लेकर, अर्थात् ‘वासुदेवाय अस्त्राय फट्।”-बोलकर अस्त्र-न्यासकी क्रिया पूरी करे। आदिमें ‘ॐकारादि” जो नामात्मक पद है, उसके अन्तमें ‘नमः’ पद जोड़ दे और उस नामात्मक पदको चतुर्थ्यन्त करके बोले।
एक व्यूह से लेकर षड्रविंश व्यूहतकके लिये यह समान मन्त्र है । कनिष्ठा’से लेकर सभी अंगुलीयोंमें हाथके अग्रभागमें प्रकृतिका अपने शरीरमें ही पूजन करे।
‘पराय’ पदसे एकमात्र परम पुरुष परमात्माका बोध होता है। वही एक से दो ही जाता है, अर्थात् प्रकृति और पुरुष-दो व्यूहोंमें अभिव्यक्त होता है। ‘ॐ परायाग्न्यात्मने नम:।’- यह व्यापक-मन्त्र है।
वसु, अर्क (सूर्य) और अग्नि-ये त्रिव्यूहात्मक मूर्तियाँ हैं-इन तीनोंमें अग्निका न्यास करके हाथ और सम्पूर्ण शरीरमें व्यापक-न्यास करे।वायु और अर्कका क्रमशः दायें और बायें दोनों हाथोंकी औगुलियोंमें न्यास करे तथा हृदयमें मूर्तिमान् अग्निका चिन्तन करे। त्रिव्यूह-चिन्तनका यही क्रम है।
चतुर्व्युहमें चारों वेदोंका न्यास होता है। ऋग्वेदका सम्पूर्ण देह तथा हाथमें व्यापकन्यास करना चाहिये। अंगुलीयोंमें यजुर्वेदका, हथेलियोंमें अथर्ववेदका तथा हृदय और चरणोंमें शीर्षस्थानीय सामवेदका न्यास करे।
पश्चव्यूहमें पहले आकाशका पूर्ववत् शरीर और हाथमें व्यापक-न्यास करे। फिर अँगुलियोंमें भी आकाशका न्यास करके वायु, ज्योति, जल और पृथ्वीका क्रमशः मस्तक, हृदय, गुह्य और चरण-इन अङ्गोंमें न्यास करे।
आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी -इन पाँच तत्वोंको ‘पञ्चव्यूह’ कहा गया है।
मन, श्रवण, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका-इन छः इन्द्रियोंको षड्व्यूहकी संज्ञा दी गयी है।
मनका व्यापक-न्यास करके शेष पाँचका अङ्गुष्ठ आदिके क्रमसे पाँचों अंगुलीयोंमें तथा सिर, मुख, हृदय, गुह्य और चरण-इन पाँच अङ्गोंमें भी न्यास करे। यह ‘करणात्मक व्यूहका न्यास’ कहा गया है।
आदिमूर्ति जीव सर्वत्र व्यापक है।
भूलोक, भुवलोक, स्वलोक, महलोंक, जनलोक, तपोलोक और सत्यलोक-ये सात लोक ‘सतव्यूह’ कहे गये हैं। इनमेंसे प्रथम भूलोकका हाथ एवं सम्पूर्ण शरीरमें न्यास करे। भुवलोंक आदि पाँच लोकोका अङ्गुष्ठ आदिके क्रमसे पाँचों अंगुलीयोंमें तथा सातवें सत्यलोकका हथेलीमें न्यास करे।
इस प्रकार यह लोकात्मक सप्त व्यूह है, जिसका पूर्वोक्त क्रमसे शरीरमें न्यास किया जाता है।
अब यज्ञात्मक सप्तव्यूहका परिचय दिया जाता है।
सप्तयज्ञस्वरूप यज्ञपुरुष परमात्मदेव श्रीहरि सम्पूर्ण शरीर एवं सिर, ललाट, मुख, हृदय, गुह्य और चरणमें स्थित हैं, अर्थात् उन अङ्गोंमें उनका न्यास करना चाहिये। वे यज्ञ इस प्रकार हैं-अग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम-ये छ: यज्ञ तथा सातवे यज्ञात्मा-इन सात रूपोंको ‘यज्ञमय सतव्यूह’ कहा गया है॥ २१-२८१ ॥
बुद्धि, अहंकार, मन, शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये आठ तत्व अष्टव्यूहरूप हैं। इनमेंसे बुद्धितत्वका हाथ और शरीरमें व्यापक-न्यास करे। फिर उपर्युक्त आठों तत्वोंका क्रमश: नाभि, गुह्य देश और पैर-इन आठ अङ्गोंमें न्यास करना चाहिये। इन सबको ‘अष्टव्यूहात्मक पुरुष’ कहा गया है।
जीव, बुद्धि, अहंकार, मन, शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-गुण-इनका समुदाय ‘नवव्यूह’ है। इनमेंसे जीवका दोनों हाथोंके औगूठोंमें न्यास करे और शेष आठ तत्वोंका क्रमश: दाहिने हाथकी तर्जनी से लेकर बायें हाथकी तर्जनीतक आठ अंगुलियोंमें न्यास करे।
सम्पूर्ण देह, सिर, ललाट, मुख, हृदय, नाभि, गुह्य, जानु और पाद-इन नौ स्थानोंमें उपर्युक्त नौ तत्वोंका न्यास करके इन्द्रका पूर्ववत् व्यापक-न्यास किया जाय तो यही ‘दशव्यूहात्मक न्यास’ हो जाता है।॥ २१-३३ ॥
दोनों अन्गुष्ठोंमें, तलद्वयमें, तर्जनी आदि आठ अंगुलीयोंमें तथा सिर, ललाट, मुख, हृदय, नाभी, गुह्य (उपस्थ और गुदा), जानुद्वय और पादद्वय-इन ग्यारह अङ्गोमें ग्यारह इन्द्रियात्मक तत्त्वोंका जो न्यास किया जाता है, उसे एकादशव्युह न्यास’ कहा गया है। वे ग्यारह तत्व इस प्रकार हैं-मन, श्रवण, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, नासिका, वाक्, हाथ, पैर, गुदा और उपस्थ। मनका व्यापक-न्यास करे। अङ्गुष्ठद्वयमें श्रवणेन्द्रियका न्यास करके शेष त्वचा आदि आठ तत्त्वोंका तर्जनी आदि आठ औगुलियोंमें न्यास करना चाहिये। शेष जो ग्यारहवाँ तत्व (उपस्थ) है, उसका तलद्वयमें न्यास करे। मस्तक, ललाट, मुख, हृदय, नाभि, चरण, गुह्य, ऊरुद्वय, जङ्घा, गुल्फ और पैर-इन ग्यारह अङ्गोंमें भी पूर्वोक ग्यारह तत्वोंका क्रमशः न्यास करे।
विष्णु, मधुसूदन, त्रिविक्रम्, वामन, श्रीधर, हर्षीकेश, पद्दनाभ, दामोदर, केशव, नारायण, माधव और गोविन्द-यह ‘द्वादशात्मक व्यूह’ है। इनमेंसे विष्णुका तो व्यापक-न्यास करे और शेष भगवत्रामोंका अङ्गुष्ठ आदि दस अँगुलियों एवं करतलमें न्यास करके, फिर पादतल, दक्षिण पाद, दक्षिण जानु, दक्षिण कटि, सिर, शिखा, वक्ष, वाम कटि, मुख, वाम जानु और वाम पादादिमें भी न्यास करना चाहिये। यह द्वादशव्यूह हुआ।
अब पन्चविंश एवं षड्रविंश व्यूहका परिचय दिया जाता है।
पुरुष, बुद्धि, अहंकार, मन, चित्त, शब्द, स्पर्श, रस, रूप,, गन्ध, श्रोत, त्वचा, नेत्र, जिह्रा, नासिका, वाक्, हाथ, पैर, गुदा, उपस्थ, भूमि, जल, तेज, वायु और आकाश-ये पचीस तत्व हैं। इनमेंसे पुरुषका सर्वाङ्गमें व्यापक-न्यास करके, दसका अङ्गुष्ठ आदिमें न्यास करे। शेषका करतल, सिर, ललाट, मुख, हृदय, नाभि, गुह्य, ऊरु, जानु, पैर, उपस्थ, हृदय और मूर्धामें क्रमश: न्यास करे। इन्हींमें सर्वप्रथम परमपुरुष परमात्माको सम्मिलित करके उनका पूर्ववत् व्यापक-न्यास कर दिया जाय तो षडविंश व्युहका न्यास संपन्न हो जाता है।
विद्वान् पुरुषको चाहिये कि अष्टदल-कमलचक्रमें प्रकृतिका चिन्तन करके उसका पूजन करे। उस कमलके पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दलोंमें हृदय आदि चार अङ्गोका न्यास करे। अग्निकोण आदिके दलोंमें अस्त्र एवं वैनतेय (गरुड़) आदिको पूर्ववत् स्थापित करे। इसी तरह पूर्वादि दिशाओंमें इन्द्रादि दिक्पालोंका चिन्तन करे। इन सबके ध्यान-पूजनकी विधि एक-सी है।
(सूर्य, सोम और अग्निरूप) त्रिव्यूहमें अग्निका स्थान मध्यमें है। पूर्वादि दिशाओंके दलोंमें जिनका आवास है, उन देवताओंके साथ कमलकी कर्णिकामें नाभस (आकाशको भाँत व्यापक आत्मा) तथा मानस (अन्तरात्मा) विराजमान हैं ॥ ४०-४८ ॥
साधककी चाहिये कि वह सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धिके लिये तथा राज्यपर विजय पानेके लिये विश्वरूप (परमात्मा)-का यजन करे।
सम्पूर्ण व्यूहों, हृदय आदि पाँचों अङ्गों, गरुड आदि तथा इन्द्र आदि दिक्पालोंके साथ ही उन श्रीहरिकी पूजाका विधान है। ऐसा करनेवाला उपासक सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर सकता है।
अन्तमें विष्वक्सेनकी नाम-मन्त्रसे पूजा करे। नामके साथ ‘रौ’ बीज लगा ले, अर्थात् ‘रौं विष्वक्सेनाय नम:।’ बोलकर उनके लिये पूजनोपचार अर्पित करे।
अध्याय – २६ मुद्राओं के लक्षण
नारदजी कहते हैं – मुनिगण ! अब मैं मुद्राओं का लक्षण बताऊँगा । सांनिध्य (संनिधापिनी) [दोनों हाथों के अंगूठों को ऊपर करके मुट्ठी बाँधकर दोनों मुट्ठियों को परस्पर सटानेसे ‘संनिधापिनी मुद्रा’ होती है ।] आदि मुद्रा के प्रकार – भेद हैं । पहली मुद्रा अंजलि है, दूसरी वन्दनी है तीसरी ह्र्द्यानुगा है । बायें हाथ की मुट्ठी से दाहिने हाथ के अंगूठे को बाँध ले और बायें अंगुष्ठ को ऊपर उठाये रखे । सारांश यह है कि बायें और दाहिने – दोनों हाथों के अंगूठे ऊपर की ओर ही उठे रहें । यही ‘ह्र्द्यानुगा’ मुद्रा है । (इसीको कोई ‘संरोधिनी’ और कोई ‘निष्ठुरा’ कहते हैं) । व्युहार्चन में तिन मुद्राएँ साधारण हैं । अब आगे ये असाधारण (विशेष) मुद्राएँ बतायी जाती हैं । दोनों हाथों में अंगूठे से कनिष्ठातक कि तीन अँगुलियों को नवाकर कनिष्ठा आदि को क्रमश: मुक्त करने से आठ मुद्राएँ बनती हैं । ‘अ क च ट त प य श’ – ये जो आठ वर्ग हैं, उनके जो पूर्व बीज (अं कं चं टं इत्यादि) हैं, उनको ही सूचित करनेवाली उक्त आठ मुद्राएँ है – ऐसा निश्चय करे । फिर पाँचों अँगुलियों को ऊपर करके हाथ को सम्मुख करने से जो नवी मुद्रा बनती है, वह नवम बीज (क्षं) – के लिए हैं ।।१-४।।
दाहिने हाथ के ऊपर बायें हाथ को उतान रखकर उसे धीरे-धीरे नीचे को झुकाये । यह वराह कि मुद्रा मानी गयी है । ये क्रमश: अंगों कि मुद्राएँ हैं । बायीं मुट्ठी में बंधी हुई एक-एक अंगुली को क्रमश: मुक्त करे और पहले की मुक्त हुई अँगुली को फिर सिकोड़ ले । बायें हाथ में ऐसा करने के बाद दाहिने हाथ में भी यही क्रिया करे । बायीं मुट्ठी के अँगूठे को ऊपर उठाये रखे । ऐसा करने से मुद्राएँ सिद्ध होती है ।।५ – ७ ।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘मुद्रालक्षण-वर्णन’ नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।२६।।
अध्याय – २७ शिष्यों को दीक्षा देने की विधि का वर्णन
नारदजी कहते हैं – महर्षिगण ! अब मैं सब कुछ देनेवाली दीक्षा का वर्णन करूँगा । कमलाकर मण्डल में श्रीहरि का पूजन करे । दशमी तिथि को समस्त यज्ञ-सम्बन्धी द्रव्य का संग्रह एव, संस्कार (शुद्धि) करके रख ले । नरसिंह-बीज-मन्त्र (क्षौं) – से सौ बार उसे अभिमंत्रित करके, उस मन्त्र के अन्तमें ‘फट’ लगाकर बोले तथा राक्षसों का विनाश करने के उद्देश्य से सब ओर सरसों छींटे । फिर वहाँ सर्वस्वरूपा प्रासादरूपिणी शक्ति का न्यास करे । सर्वोषधियों का संग्रह करके बिखेरने के उपयोग में आनेवाली सरसों आदि वस्तुओं को शुभ पात्र में रखकर साधक वासुदेव-मन्त्र से उनका सौ बार अभिमन्त्रण करे । तदनन्तर वासुदेव से लेकर नारायणपर्यन्त पूर्वोक्त पाँच मूर्तियों (वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध तथा नारायण) – के मूल-मंत्रोद्वारा पंचगव्य तैयार करे और कुशाग्र से पंचगव्य छिड़ककर उस भूमिका प्रोक्षण करे । फिर वासुदेव-मन्त्र से उत्तान हाथ के द्वारा समस्त विकिर वस्तुओं को सब ओर बिखेरे । उससमय पूर्वाभिमुख खड़ा हो, मन-ही-मन भगवान् विष्णु का चिन्तन करते हुए तीन बार उन विकिर वस्तुओं को सब ओर छीटें । तत्पस्च्यात वर्धनीसहित कलशपर स्थापित भगवान् विष्णु का अंगसहित पूजन करे । अस्त्र-मन्त्र से वर्धनी को सौ बार अभिमंत्रित करके अवीछिन्न जलधारा से सींचते हुए उसे ईशानकोण कि ओर ले जाय । कलश को पीछे ले जाकर विकिरपर स्थापित करे । विकिर-द्रव्यों को कुशद्वारा एकत्र करके कुम्भेश और कर्करीका यजन करे ।।१-८।।
पंचरत्नयुक्त सवस्त्र वेदीपर श्रीहरि कि पूजा करे । अग्निमें भी उनकी अर्चना करके पूर्ववत मंत्रोद्वारा उनका संतर्पण करे । तत्पस्च्यात पुंडरिक मन्त्र ( ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा । य: स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचि: ।।) उखा (पात्रविशेष) – का प्रक्षालन करके उसके भीतर सुगन्धयुक्त घी पोत दे । इसके बाद साधक उसमे गाय का दूध भरकर वासुदेव-मन्त्र से उसका अवेक्षण करे और संकर्षण – मन्त्र से सुसंस्कृत किये गये दूध में घृताक्त चावल छोड़ दे । इसके बाद प्रद्युम्न-मन्त्र से करछुलद्वारा उस दूध और चावल का आलोडन करके धीरे-धीरे उसे उलाटे-पलाटे । जब खीर या चरु पक जाय, तब आचार्य अनिरुद्ध-मन्त्र पढकर उसे आगसे नीचे उतार दे । तदनन्तर उसपर जल छिड़के और घ्रुतालेपन करके हाथमें भस्म लेकर उसके द्वारा नारायण-मन्त्र से ललाट एवं पार्श्व-भागों में ऊर्ध्व-पुंड्र करे । इसप्रकार सुंदर संस्कारयुक्त चरु के चार भाग करके एक भाग इष्टदेव को अर्पित करे, दूसरा भाग कलश को चढ़ावे, तीसरे भाग से अग्नि में तीन बार आहुति दे और चौथे भाग को गुरु शिष्यों के साथ बैठकर खाय; इससे आत्मशुद्धि होती है । (दूसरे दिन एकादशी को) प्रात:काल ऐसे वृक्ष से दाँतन ले, जो दूधवाला हो । उस दाँतन को नारायण-मन्त्र से सात बार अभिमंत्रित कर लें । उसका दन्तशुद्धि के लिये उपयोग करके फिर उसे त्याग दे । अपने पातक का स्मरण करके पूर्व, अग्निकोण, उत्तर अथवा ईशानकोण की ओर मुँह करके अच्छी तरह स्नान करे । फिर ‘शुभ’ एवं ‘सिद्ध’ की भावना करके, अर्थात ‘मैं निष्पाप एवं शुद्ध होकर शुभ सिद्धि की ओर अग्रसर हुआ हूँ’ – ऐसा अनुभव करके आचमन-प्राणायाम के पश्च्यात मन्त्रोप्देष्टा गुरु भगवान् विष्णु से प्रार्थना करके उनकी परिक्रमा के पश्च्यात पूजागृह में प्रवेश करे ।।९-१७।।
प्रार्थना इसप्रकार करे – ‘देव ! संसार–सागर में मग्न पशुओं को पाश से छुटकारा दिलाने के लिये आप ही शरणदाता हैं । आप सदा अपने भक्तोंपर वात्सल्यभाव रखते हैं । देवदेव ! आज्ञा दीजिये, प्राकृत पाश–बन्धनों से बंधे हुए इन पशुओं को आज आपकी कृपासे मैं मुक्त करूँगा ।’ देवेश्वर श्रीहरि से इसप्रकार प्रार्थना करके पूजागृह में प्रविष्ट हो, गुरु पूर्ववत अग्नि आदि कि धारणाओंद्वारा शिष्यभूत समस्त पशुओं का शोधन करके संस्कार करने के पश्च्यात, उनका वासुदेवादि मूर्तियों से संयोग करे । शिष्यों के नेत्र बाँधकर उन्हें मूर्तियों की ओर देखने का आदेश दे । शिष्य उन मूर्तियों कि ओर पुष्पांजलि फेंके, तदनुसार गुरु उनका नाम निर्देश करें । पूर्ववत शिष्यों से क्रमश: मूर्तियोंका मन्त्ररहित पूजन करावे । जिस शिष्य के हाथ का फुल जिस मुर्तिपर गिरे, गुरु उस शिष्य का वही नाम रखे । कुमारी कन्या के हाथ से काता हुआ लाल रंग का सूत लेकर उसे छ: गुना करके बट दे । उस छ: गुने सूत कि लंबाई पैर के अँगूठे से लेकर शिखायतक की होनी चाहिये । फिर उसे भी मोडकर तिगुना कर ले । उक्त प्रकति देवी का चिन्तन करे, जिसमें सम्पूर्ण विश्व का लय होता हैं और जिससे ही समस्त जगतका प्रादुर्भाव हुआ करता हैं । उस सूत्र में प्राकृतिक पाशों को तत्त्व कि संख्या के अनुसार ग्रथित करे, अर्थात २४ गाँठे लगाकर उनको प्राकृतिक पाशों के प्रतीक समझे । फिर उस ग्रंथियुक्त सूत को प्याले में रखकर कुण्ड के पास स्थापित कर दे । तदनन्तर सभी तत्त्वों का चिन्तन करके गुरु उनका शिष्य के शरीर में न्यास करे । तत्त्वों का वह न्यास सृष्टि-क्रम के अनुसार प्रकतिसे लेकर पृथ्वीपर्यन्त होना चाहिये ।।१८-२६।।
तीन, पाँच, दस अथवा बारह जितने भी सूत्र-भेद सम्भव हों, उन सब सूत्र-भेदों के द्वारा बटे हुए उस सूत्र को ग्रथित करके देना चाहिये । तत्त्वचिंतक पुरुषों के लिये यही उचित है । ह्रदय से लेकर अस्त्रपर्यंत पाँच अंग-सम्बन्धी मन्त्र पढकर सम्पूर्ण भूतों को प्रकुतिक्रम से (अर्थात कार्य-तत्त्व का कारण-तत्त्व में लय के क्रम से) तन्मात्रास्वरुप में लीन करके उस मायामय सूत्र में और पशु (जीव ) – के शरीर में भी प्रकृति, लिंगशक्ति, कर्ता, बुद्धि तथा मनका उपसंहार करे । तदनन्तर पंचतन्मात्र, बुद्धि, कर्म और पंचमहाभूत – इन बारह रूपों में अभिव्यक्त द्वाद्शात्माका सूत्र और शिष्य के शरीर में चिन्तन करे । तत्पस्च्यात इच्छानुसार सृष्टि कि सम्पातविधि से हवन करके, सृष्टि-क्रम से एक-एक के लिये सौ-सौ आहुतियाँ देकर पूर्णाहुति करे । प्याले में रखे हुए ग्रथित सूत्र को ऊपर से ढककर उसे कुम्भेश को अर्पित करे । फिर यथोचित रीतिसे अधिवासन करके भक्त शिष्य को दीक्षा दे । करनी, कैंची, धूल या बालू, खड़िया मिट्टी और अन्य उपयोगी वस्तुओं का भी संग्रह करके उन सबको उसके वामभाग में स्थापित कर दे । फिर मूल-मन्त्र से उनका स्पर्श करके अधिवासित करे । तत्पस्च्यात श्रीहरि के स्मरणपूर्वक कुशोंपर भूतों के लिये बलि दे और कहे – ‘नमो भूतेभ्य: ।’ इसके बाद चंदोवों, कलशों और लड्डुओं से मण्डप को सुसज्जित करके मंडल के भीतर भगवान् विष्णु का पूजन करे । फिर अग्निको घी से तृप्त करके, शिष्यों को पास बुलाकर बद्धपद्मासन से बिठावे और दीक्षा दे । बारी-बारी से उन सबका प्रोक्षण करके विष्णुहस्त से उनके मस्तक का स्पर्श करे । प्रकृतिसे विकृतिपर्यन्त, अधिभूत और अधिदेवतसहित सम्पूर्ण सृष्टि को अध्यात्मिक करके अर्थात सबको अपने आत्मा में स्थित मानकर, ह्रदय में ही क्रमश: उसका संहार करे ।।२७-३६।।
इससे तन्मात्रस्वरुप हुई सारी सृष्टि जीवके समान हो जाती है । इसके बाद कुम्भेश्वर से प्रार्थना करके गुरु पूर्वोक्त सूत्र का संस्कार करने के अनन्तर अग्नि के समीप आ उसको अपने पास ही रख ले । फिर मूल मंत्रसे सृष्टिशके लिये सौ आहुतियाँ दे । इसके बाद उदासीनभाव से स्थित सृष्टिश को पूर्णाहुति अर्पित करके गुरु श्वेत रज (बालू) हाथमें लेकर उसे मूल-मंत्रसे सौ बार अभिमंत्रित करे । फिर उससे शिष्य के ह्रदयपर ताडन करे । उससमय वियोगवाची क्रियापदसे युक्त बीज-मंत्रों एवं क्रमश: पादादि इन्द्रियों से घटित वाक्य कि योजना करके अंतमे ‘हं फट’ का उच्चारण करे । (‘ॐ रां (नम: कर्मेनिद्रयाणि वियुन्क्ष्व हूँ फट; ॐ यं (नम:) भूतानि वियुन्क्ष्व हूँ फट ।’ इत्यादी ।) इसप्रकार पृथ्वी आदि तत्त्वों का वियोग कराकर आचार्य भावनाद्वारा उन्हें अग्निमें होम दे । इसतरह कार्य-तत्त्वों का कारण-तत्त्वों में होम अथवा लय करते हुए क्रमश: अखिल तत्त्वों के आश्रयभूत श्रीहरि में सबका लय कर दे । विद्वान् पुरुष इसी क्रम से सब तत्त्वों को श्रीहरि तक पहुँचाकर. उन सम्पूर्ण तत्त्वों के अधिष्ठान का स्मरण करे । उक्त रीतिसे ताडनद्वारा भूतों और इन्दिर्यो से वियोग कराकर शुद्ध हुए शिष्य को अपनावे और प्रक्रति से उसकी समता का सम्पादन करके पूर्वोक्त अग्निमें उसके उस प्राकृतभाव का भी हवन कर दे । फिर गर्भाधान, जातकर्म, भोग और लय का अनुष्ठान करके उस-उस कर्म के निमित्त वहाँ आठ-आठ बार शुद्धर्थ होम करे । तदनन्तर आचार्य पूर्णाहुतिद्वारा शुद्ध तत्त्व का उद्धार करके अव्याकृत प्रकृतिपर्यत सम्पूर्ण जगत का क्रमानुसार परम तत्त्व में लय क्र दे । उस परम तत्त्व को भी ज्ञानयोग से परमात्मा में विलीन करके बंधनमुक्त हुए जीव को अविनाशी परमात्मपद में प्रतिष्ठित करे । तत्पस्च्यात विद्वान् पुरुष यह अनुभव करे कि ‘शिष्य शुद्ध,बुद्ध, परमानन्द-संदोह में निमग्र एवं कृतकृत्य हो चूका है ।’ ऐसा चिन्तन करने के पश्चात गुरु पूर्णाहुति दे । इस प्रकार दीक्षा-कर्म कि समाप्ति होती है ।।३७-४७।।
अब मैं उन प्रयोग-सम्बन्धी मन्त्रों का वर्णन करता हूँ, जिनसे दीक्षा, होम और लय सम्पादित होते हैं । ‘ॐ यं भूतानि वियुन्क्ष्व हूं फट ।’ (अर्थात भूतों को मुझसे अलग करो ।) – इस मंत्रसे ताडन करनेका विधान है । इसके द्वारा भूतों से वियोजन (बिलगाव) होता है । यहाँ वियोजन को दो मन्त्र हैं । एक तो वही है, जिसका ऊपर वर्णन हुआ है और दूसरा इसप्रकार है – ‘ॐ यं भुतान्यापातयेऽहम ।’ (मैं भूतों को अपनेसे दूर गिराता हूँ ) । इस मंत्रसे ‘आपातन’ (वियोजन) करके पुन: दिव्य प्रकृति से यों संयोजन किया जाता है । उसके लिये मन्त्र सुनो – ‘ॐ यं भूतानि युन्क्ष्व ।’ अब होम मन्त्र का वर्णन करता हूँ । उसके बाद पूर्णाहुतिका मन्त्र बताउँगा । ‘ॐ भूतानि संहर स्वाहा ।’ यह होम-मन्त्र है और ‘ॐ अं ॐ नमो भगवते वासुदेवाय अं वौषट ।’ – यह पूर्णाहुति मन्त्र है । पूर्णाहुति के पश्च्यात त्त्त्वमें शिष्य को संयुक्त करे । विद्वान् पुरुष इसी तरह समस्त तत्त्वों का क्रमश: शोधन करे । तत्त्वों के अपने-अपने बीजके अन्तमें ‘नम:’ पद जोडकर ताडनादिपूर्वक तत्त्व-शुद्धि का सम्पादन करे ।।४८-५३।।
‘ॐ रां (नम:) कर्मेंद्रियाणि ।’, ‘ॐ दें (नम:) बुद्धीन्द्रियाणि ।’ – इन पदों के अंतमे ‘वियुन्क्ष्व हूं फट ।’ की संयोजना करे । पूर्वोक्त ‘यं’ बीज के समान ही इन उपर्युक्त बीजों से भी ताडन आदि का प्रयोग होता हैं । ‘ ॐ सुं गंधतन्मात्रे बिम्बं युन्क्ष्व हुं फट ।’, ‘ॐ सं पाहि हां ॐ स्वं स्वं युन्क्ष्व प्रकृत्या अं जं हुं गंधतन्मात्रे संहर स्वाहा ।’ – ये क्रमश: संयोजन और होम के मन्त्र है । तदनन्तर पूर्णाहुतिका विधान है । इसी प्रकार उत्तरवर्ती कर्मों में भी प्रयोग किया जाता है । ‘ॐ रां रसतन्मात्रे । ॐ तें रूपतन्मात्रे । ॐ वं स्पर्शतन्मात्रे । ॐ यं शब्दतन्मात्रे । ॐ मं नम: । ॐ सों अहंकारे । ॐ नं बुद्धौ । ॐ ॐ प्रकृतौ ।’ यह दीक्षायोग एकव्यूहात्मक मूर्तिके लिये संक्षेपसे बताया गया है । नवव्युहादिक मूर्तियों के विषय में भी ऐसा ही प्रयोग हैं । मनुष्य प्रकृति को दग्ध करके उसे निर्वाणस्वरुप परमात्मा में लीन कर दे । फिर भूतों की शुद्धि करके कर्मेन्द्रियों का शोधन करे ।।५४-५९।।
तत्पस्च्यात ज्ञानेन्द्रियों का, तन्मात्राओं का, मन, बुद्धि एवं अहंकार का तथा लिंगात्माका शोधन करके सबके अन्तमें पुन: प्रकृति की शुद्धि करे । ‘शुद्ध हुआ प्राकृत पुरुष ईश्वरीय धाम में प्रतिष्ठित हैं । उसने सम्पूर्ण भोगों का अनुभव कर लिया है और अब वह मुक्तिपद में स्थित है ।’ – इसप्रकार ध्यान करे और पूर्णाहुति दे । यह अधिकार-प्रदान करनेवाली दीक्षा हैं । पूर्वोक्त मन्त्र के अंगोद्वारा आराधना करके, तत्त्वसमूह को समभाव (प्रकृत्यवस्था) – में पहुँचाकर, क्रमश: इसी रीतिसे शोधन करके, अन्तर्मे साधक अपनेको सम्पूर्ण सिद्धियों से युक्त परमात्मरूप से स्थित अनुभव करते हुए पूर्णाहुति दे – यह साधकविषयक दीक्षा कही गयी है । यदि यज्ञोंपयोगी द्रव्यका सम्पादन (संग्रह) न हो सके, अथवा अपने में असमर्थता हो तो समस्त उपकरणोंसहित श्रेष्ठ गुरु पूर्ववत इष्टदेव का पूजन करके, तत्काल उन्हें अधिवासित करके, द्वादशी तिथि में शिष्य को दीक्षा दे दे । जो गुरुभक्त, विनयशील एवं समस्त शारीरिक सद्गुणों से सम्पन्न हो, ऐसा शिष्य यदि अधिक धनवान न हो तो वेदीपर इष्टदेव का पूजनमात्र करके दीक्षा ग्रहण करे । आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक, सम्पूर्ण अध्वा का सृष्टिक्रम से शिष्य के शरीर में चिन्तन करके, गुरु पहले बारी-बारीसे आठ आहुतियोंद्वारा एक-एक की तृप्ति करने के पश्च्यात, सृष्टिमान हो, वासुदेव आदि विग्रहों का उनके निज-निज मंत्रोद्वारा पूजन एवं हवन करे और हवन-पूजन के पश्चात अग्नि आदि का विसर्जन कर दे । तत्पस्च्यात पूर्वोक्त होमद्वारा संहारक्रम से तत्त्वों का शोधन करे ।।६०-६८।।
दीक्षाकर्म में पहले जिन सूत्रों में गाँठे बाँधी गयी थीं, उनकी वे गाँठे खोल, गुरु उन्हें शिष्य के शरीरसे लेकर, क्रमश: उन तत्त्वों का शोधन करे । प्राकृतिक अग्नि एवं आधिदैविक विष्णु में अशुद्ध-मिश्रित शुद्ध-तत्त्व को लीन करके पूर्णाहुतिद्वारा शिष्य को उस तत्त्व से संयुक्त करे । इसप्रकार शिष्य प्रकृतिभाव को प्राप्त होता हैं । तत्पस्च्यात गुरु उसके छुटकारा दिलावे । ऐसा करके वे शिशुस्वरूप उन शिष्यों को अधिकार में नियुक्त करे । तदनन्तर भावमें स्थित हुआ आचार्य भक्तिभावसे शरणमें आये हुए यतियों तथा निर्धन शिष्य को ‘शक्ति’ नामवाली दूसरी दीक्षा दे । वेदीपर भगवान् विष्णु की पूजा करके पुत्र (शिष्यविशेष) – को अपने पास बिठा ले । फिर शिष्य देवता के सम्मुख हो तिर्यग-दिशा कि ओर मुँह करके स्वयं बैठे । गुरु शिष्य के शरीर में अपने ही पर्वों से कल्पित सम्पूर्ण अध्वाका ध्यान करके आधिदैविक यजन के लिये प्रेरित करनेवाले इष्टदेवका भी ध्यानयोग के द्वारा चिन्तन करे । फिर पूर्ववत ताडन आदि के द्वारा क्रमश: सम्पूर्ण तत्त्वों का वेदिगत श्रीहरि में शोधन करे । ताडनद्वारा तत्त्वों का वियोजन करके उन्हें आत्मा में गृहीत करे और पुन: इष्टदेव के साथ उनका संयोजन एवं शोधन करके, स्वभावतः ग्रहण करने के अनन्तर ले आकर क्रमश: शुद्ध तत्त्व के साथ संयुक्त करे । सर्वत्र ध्यानयोग एवं उत्तान मुद्राद्वारा शोधन करे ।।६९-७७।।
सम्पूर्ण तत्त्वों की शुद्धि हो जानेपर जब प्रधान (प्रकुति) तथा परमेश्वर स्थित रह जायँ, तब पूर्वोक्त रीतिसे प्रकुति को दग्ध करके शुद्ध हुए शिष्यों को परमेश्वरपद में प्रतिष्ठित करे । श्रेष्ठ गुरु साधक को इस तरह सिद्धिमार्ग से ले चले । अधिकारारूढ गृहस्थ भी इसीप्रकार आलस्य छोडकर समस्त कर्मों का अनुष्ठान करे । जबतक राग (आसक्ति) का सर्वथा नाश न हो जाय, तबतक आत्म-शुद्धि का सम्पादन करता रहे । जब यह अनुभव हो जाय कि ‘मेरे ह्र्द्यका राग सर्वथा क्षीण हो गया है’, तब पापसे शुद्ध हुआ संयमशील पुरुष अपने पुत्र या शिष्य को अधिकार सौंपकर मायामय पाश को दग्ध करके संन्यास ले, आत्मनिष्ठ हो, देहपातकी प्रतीक्षा करता रहे । अपने सिद्धिसम्बन्धी किसी चिन्ह को दूसरोंपर व्यक्त न होने दे ।।७८-८१।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘सर्वदीक्षा-विधि-कथन’ नामक सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।२७।।
अध्याय – २८ आचार्य के अभिषेक का विधान
नारदजी कहते हैं – महर्षियों ! अब मैं आचार्य के अभिषेक का वर्णन करूँगा, जिसे पुत्र अथवा पुत्रोपम श्रद्धालु शिष्य सम्पादित कर सकता हैं । इस अभिषेक से साधक सिद्धिका भागी होता है और रोगी रोगसे मुक्त हो जाता है । राजाको राज्य और स्त्री को पुत्रकी प्राप्ति होती है । इससे अंत:करण के मलका नाश होता है । मिट्टी के बहुत-से घड़ों में उत्तम रत्न रखकर एक स्थानपर स्थापित करे । पहले एक घडा बीचमें रखे; फिर उसके चारों ओर घट स्थापित करे । इसतरह एक सहस्त्र या एक सौ आवृत्तिमें उन सबकी स्थापना करे । फिर मण्डप के भीतर कमलाकर मण्डल में पूर्व और ईशानकोण के मध्यभाग में पीठ या सिंहासनपर भगवान् विष्णु को स्थापित करके पुत्र एवं साधक आदि का सकलीकरण करे । तदनन्तर शिष्य या पुत्र भगवत्पूजनपूर्वक गुरुकी अर्चना करके उन कलशों के जलसे उनका अभिषेक करे । उससमय गीत-वाद्य का उत्सव होता रहे । फिर योगपीठ आदि गुरुको अर्पित कर दे और प्रार्थना करे – ‘गुरुदेव ! आप हम सब मनुष्यों को कृपापूर्वक अनुगृहित करें ।’ गुरु भी उनको समय-दीक्षा के अनुकूल आचार का उपदेश दे । इससे गुरु और साधक भी सम्पूर्ण मनोरथों के भागी होते हैं ।।१-५।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘आचार्य के अभिषेक की विधिका वर्णन’ नामक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।२८।।
अध्याय – २९ मन्त्र-साधन-विधि, सर्वतोभद्रादि मण्डलों के लक्षण
नारदजी कहते हैं – मुनिवरो ! साधक को चाहिये कि वह देव-मन्दिर आदिमें मन्त्र की साधना करे । घरके भीतर शुद्ध भूमिपर मंडल में परमेश्वर श्रीहरि का विशेष पूजन करके चौकोर क्षेत्र में मंडल आदि की रचना करे । दप सौ छप्पन कोष्ठों में ‘सर्वतोभद्र मंडल’ लिखे । (क्रम यह है कि पूर्व से पश्चिम की ओर तथा उत्तर से दक्षिण की ओर बराबर सत्रह रेखाएँ खींचे । ऐसा करनेसे दो सौ छप्पन कोष्ठ हो जायेंगे । उनमेंसे बीच के छत्तीस कोष्ठों को एक करके उनके द्वारा कमल बनावे, अथवा उसे कमलका क्षेत्र निश्चित करे । इस कमलक्षेत्र के बाहर चारों ओर की एक-एक पंक्ति को मिटाकर उसके द्वारा पीठ की कल्पना करे, अथवा उसे पीठ समझे । फिर पीठसे भी बाहर की दो-दो पंक्तियों का मार्जन करके, उनके द्वारा ‘वीथी’ की कल्पना करे । फिर चारों दिशाओं में द्वार-निर्माण करे । पूर्वोक्त पद्मक्षेत्र में सब ओर बाहर के बारहवें भाग को छोड़ दे और सर्व-मध्य-स्थानपर सूत्र रखकर, पद्म-निर्माण के लिये विभागपूर्वक समान अंतर रखते हुए, सूत घुमाकर, तीन वृत्त बनावे । इसतरह उस चौकोर क्षेत्र को वर्तुल (गोल) बना दे । इन तीनों में से प्रथम तो कर्णिका का क्षेत्र हैं, दूसरा केसर का क्षेत्र है और तीसरा दल-संधियों का क्षेत्र है । शेष चौथा अंश दलाग्रभाग का स्थान है । कोणसुर्त्रों को फैलाकर कोण से दिशा के मध्यभाग तक ले जाय तथा केसर के अग्रभाग में सूत रखकर दल-संधियों को चिन्हित करे ।।१-६।।
फिर सूत गिराकर अष्टदलों का निर्माण करे । दलों के मध्यगत अंतराल का जो मान हैं, उसे मध्य में रखकर उसमें दलाग्र को घुमावे । तदनन्तर उसके भी अग्रभाग को घुमावे । उनके अंतराल-मान को उनके पार्श्वभाग ने रखकर बाह्यक्रम से एक-एक दलमें दो-दो केसरों का उल्लेख करे । यह सामान्यत: कमलका चिन्ह हैं । अब द्वादशदल कमलका वर्णन किया जाता है । कर्णिकार्धमान से पूर्व दिशाकी ओर सूत रखकर क्रमशः सब ओर घुमावे । उसके पार्श्वभाग में भ्रमणयोग से छ: कुंडलियाँ होंगी और बारह मत्स्यचिन्ह बनेंगे । उनके द्वारा द्वादशदल कमल सम्पन्न होगा । पंचदल आदि की सिद्धि के लिये भी इसीप्रकार मत्स्यचिन्हों से कमल बनाकर, आकाशरेखा से बाहर जो पीठभाग हैं, वहाँ के कोष्ठों को मिटा दे । पीठभाग के चारों कोणों में तीन-तीन कोष्ठकों को उस पीठ के पायों के रूप में कल्पित करे । अवशिष्ट जो चारों दिशाओं में दो-दो जोड़े, अर्थात चार-चार कोष्ठक हैं, उन सबको मिटा दे । वे पीठ के पाटे हैं । पीठ के बाहर चारों दिशाओं की दो-दो पंक्तियों को वीथी (मार्ग)- के लिये सर्वथा लुप्त कर दे (मिटा दे); तदनन्तर चारों दिशाओं में चार द्वारों की कल्पना करे । (वीथी के बाहर जो दो पक्तियाँ शेष हैं, उनमें से भीतरवाली पंक्ति के मध्यवर्ती दो-दो कोष्ठ और बाहरवाली पंक्ति के मध्यवर्ती चार-चार कोष्ठों को एक करके द्वार बनाने चाहिये ।) ।।७-१४।।
द्वारों के पार्श्वभागों में विद्वान् पुरुष आठ शोभा स्थानों कीकल्पना करे और शोभा के पार्श्वभाग में उपशोभा-स्थान बनाये । उपशोभाओं की संख्या भी उतनी ही बतायी गयी है, जितनी कि शोभाओं की उपशोभाओं के समीप के स्थान ‘कोण’ कहे गये हैं । तदनन्तर चारों दिशोओं में दो-दो मध्यवर्ती कोष्ठकों का और उससे बाह्य पंक्ति के चार-चार मध्यवर्ती कोष्ठकों का द्वार के लिये चिन्तन करे । उन सबको एकत्र करके मिटा दे – इस तरह चार द्वार बन जाते हैं । द्वार के दोनों पार्श्वो में क्षेत्र की बाह्य-पंक्ति के एक-एक और भीतरी पंक्ति के तीन-तीन कोष्ठों को ‘शोभा’ बनाने के लिये मिटा दे । शोभा के पार्श्वभाग में उसके विपरीत करने से, अर्थात क्षेत्र की बाह्य-पंक्ति के तीन-तीन और भीतरी पंक्ति के एक-एक कोष्ठ को मिटाने से उपशोभा का निर्माण होता है । तत्पस्च्यात कोण के भीतर और बाहर के तीन-तीन कोष्ठों का भेद मिटाकर – एक करके चिन्तन करें ।।१५-१८।।
इसप्रकार सोलह-सोलह कोष्ठों से बननेवाले दो सौ छप्पन कोष्ठ्वाले मंडल का वर्णन हुआ । इसी तरह दूसरे मंडल भी बन सकते हैं ।
बारह-बारह कोष्ठों से (एक सौ चौवालीस) कोष्ठकों का जो मंडल बनता है, उसमें भी मध्यवर्ती छत्तीस पदों–का कमल होता हैं । इसमे वीथी नहीं होती’। एक पंक्ति पीठके लिये होती है। शेष दो पंक्तियोंद्वारा पूर्ववत् द्वार और शोभाकी कल्पना होती है।
एक हाथके मण्डलमें बारह अंगुलका कमल-क्षेत्र होता है।
दो हाथके मण्डलमें कमलका स्थान एक हाथ लंबा-चौड़ा होता है।
तदनुसार वृद्धि करके द्वार आदिके साथ मण्डल की रचना करे।
दो हाथ का पीठ-रहित चतुरस्नमण्डल हो तो उसमें चक्राकार कमल-का निर्माण करे। उसमें नौ अन्गुलोंका ‘पद्मार्ध’ कहा गया है। तीन अंगुलोंकी “नाभि’ मानी गयी है। आठ अङ्गुलोंके ‘अरे” बनावे और चार की “नेमि”। क्षेत्रके तीन भाग करके, फिर भीतर से प्रत्येक के दो भाग करे। भीतर के जो पाँच कोष्ठक हैं, उनको अरे या आरे बनानेके लिये आस्फालित (मार्जित) करके उनके ऊपर ‘अरे’ अङ्कित करे। वे अरे इन्दीवरके दलोंकीसी आकृतिवाले हों, अथवा मातुलिङ्ग (बिजौरा नीबू)-के आकारके हों या कमलदलके समान विस्तृत हों, अथवा अपनी इच्छाके अनुसार उनकी आकृति अङ्कित करे।
अरोंकी संधियोंके बीचमें सूत रखकर उसे बाहरकी नेमितक ले जाय और चारों ओर घुमावे। अरेके मूलभागकी उसके संधिस्थानमें सूत रखकर घुमावे तथा अरेके मध्यमें सूत्रस्थापन करके उस मध्यभागके सब और समभावसे सूतको घुमावे।। इस तरह घुमानेसे मातुलिङ्गके समान ‘अरे’ बन जायँगे॥ १९-२६ ॥
चौदह पदोंके क्षेत्रको सात भागोंमें बाँटकर पुनः दो-दो भागोंमें बाँट अथवा पूर्वसे पश्चिम तथा उत्तरसे दक्षिणकों और पंद्रह-पंद्रह समान रेखाएँ खींचे। ऐसा करनेसे एक सौ छियानबे कोष्ठक सिद्ध होंगे। वे जो कोष्ठक हैं, उनमेंसे बीच के चार कोष्ठोंद्वारा ‘भद्रमण्डल’ लिखे। उसके चारों ओर वीथीके लिये स्थान छोड़ दे। फिर सम्पूर्ण दिशाओंमें कमल लिखे। उन कमलोंके चारों ओर वीथीके लिये एक-एक कोष्ठका मार्जन दे। तत्पश्चात् मध्यके दो-दो कोष्ठ ग्रीवाभागके लिये विलुप्त कर दे। फिर बाहर के जो चार कोष्ठ हैं, उनमेंसे तीन-तीनकों सब और मिटा दे। बाहर का एक-एक कोष्ठ ग्रीवा के पार्श्वभाग में शेष रहने दे। उसे द्वारशोभाकी संज्ञा दी गयी है।
बाह्रा कोणोंमें सातको छोडकर भीतर-भीतरके तीन-तीन कोष्ठोंका मार्जन कर दे। इसे ‘नवनाल’ या ‘नवनाभ-मण्डल’ कहते हैं। उसकी नौ नाभियोंमें नवव्यूहस्वरूप श्रीहरिका पूजन करे।
पचीस व्यूहोंका जो मण्डल है, वह विश्वव्यापी है, अथवा सम्पूर्ण रूपोंमें व्यात है।बत्तीस हाथ अथवा कोष्ठवाले क्षेत्रको बत्तीससे ही बराबर-बराबर विभक्त कर दे; अर्थात् ऊपरसे नीचेको तैतीस रेखाएं खीचकर उनपर तैतीस आड़ी रेखाएँ खींचे। इससे एक हजार चौबीस कोष्ठक बनेंगे। उनमेंसे बीच के सोलह कोष्ठोंद्वारा ‘भद्रमण्डल” की रचना करे।
फिर चारों ओर की एक-एक पंक्ति छोड़ दे। तत्पश्चात् आठों दिशाओंमें सोलह कोष्ठकोंद्वारा आठ भद्रमण्डल लिखें। इसे ‘भद्राटक’ की संज्ञा दी गयी हैं। उसके बादकी भी एक पंक्ति मिटाकर पुन: पूर्ववत् सोलह भद्रमण्डल लिखे। तदनन्तर सब ओरकी एक-एक पंक्ति मिटाकर प्रत्येक दिशा में तीन-तीनके क्रमसे बारह द्वारोंकी रचना करे। बाहर के छ: कोष्ठ मिटाकर बीच के पार्श्वभागोंके चार मिटा दे। फिर भीतर के चार और बाहर के दो कोष्ठ ‘शोभा’ के लिये मिटावै। इसके बाद उपद्वारकी सिद्धिके लिये भीतर के तीन और बाहरके पाँच कोष्ठीका मार्जन करे। तत्पश्चात् पूर्ववत् ‘शोभा’की कल्पना करे।
कोणोंमें बाहरके सात और भीतरके तीन कोष्ठ मिटा दे। इस प्रकार जो पञ्चविंशतिका व्यूहमण्डल तैयार होता है, उसके भीतरकी कमलकर्णिकामें परब्रह्म परमात्माका यजन करे।
फिर पूर्वादि दिशाओंके कमलोंमें क्रमशः वासुदेव आदिका पूजन करे ।
तत्पश्चात् पुर्ववर्ती कमलपर भगवान् वराहका पूजन करके क्रमशः सम्पूर्ण (अर्थातूपचीस) व्यूहोंकी पूजा करे।
यह क्रम तबतक चलता रहे, जबतक छब्बीसवें तत्व-परमात्माका पूजन न सम्पन्न हो जाय।
इस विषयमें प्रचेताका मत यह है कि एक ही मण्डलमें इन सम्पूर्ण कथित व्यूहोंका क्रमश: पूजन-यज्ञ सम्पन्न होना चाहिये। परंतु ‘सत्य’ का कथन है कि मूर्तिभेदसे भगवान्के व्यक्तित्वमें भेद हो जाता है; अत: सबका पृथक्-पृथक् पूजन करना उचित है।
बयालीस कोष्ठवाले मण्डलकों आड़ी रेखाद्वारा क्रमश: विभक्त करे। पहले एक-एकके सात भाग करे; फिर प्रत्येकके तीन-तीन भाग और उसके भी दो-दो भाग करे। इस प्रकार एक हजार सात सौ चौंसठ कोष्ठक बनेंगे।
बीच के सोलह कोष्ठोंसे कमल बनावें। पार्श्वभागमें वीथीकी रचना करे। फिर आठ भद्र और वीथी बनावे। तदनन्तर सोलह दलके कमल और वीथीका निर्माण करे। तत्पश्चात् क्रमशः चौबीस दलके कमल, वीर्थी, बत्तीस दलके कमल, वीर्थी, चालीस दल के कमल और वीथी बनावै।
तदनन्तर शेष तीन पंक्तियोंसे द्वार, शोभा और उपशोभाएँ बनेंगी।
सम्पूर्ण दिशाओंके मध्यभागमें द्वारसिद्धिके लिये दो, चार और छ: कोष्ठकोंको मिटावे। उसके बाह्यभागमें शोभा तथा उपद्वारकी सिद्धिके लिये पाँच, तीन और एक कोष्ठ मिटावे।
द्वारोंके पार्श्वभागोंमें भीतरकी और क्रमश: छ: तथा चार कोष्ठ मिटावे और बीचके दो-दो कोष्ठ लुप्त कर दे। इस तरह छ: उपशोभाएँ बन जायगी। एकएक दिशा में चार-चार शोभाएँ और तीन-तीन द्वार होंगे।
कोणोंमें प्रत्येक पंक्ति के पाँच-पाँच कोष्ठ छोड़ दे। वे कोण होंगे। इस तरह रचना करनेपर सुन्दर अभीष्ठ मण्डलका निर्माण होता है
उनत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।
अध्याय- ३० भद्रमण्डल आदिकी पूजन-विधिका वर्णन
नारदजी कहते हैं-मुनिवरो! पूर्वोक्त भद्रमण्डलके मध्यवर्ती कमलमें अङ्गोंसहित ब्रह्मका पूजन करना चाहिये। पूर्ववर्ती कमलमें भगवान् पद्मनाभका, अग्निकोणवाले कमलमें प्रकृतिदेवीका तथा दक्षिण दिशाके कमलमें पुरुषकी पूजा करनी चाहिये। पुरुषके दक्षिण भागमें अग्निदेवताकी, नैऋत्यकोणमें निऋतिकी, पश्चिम दिशावाले कमलमें वरुणकी, वायव्यकोणमें वायुकी, उत्तर दिशाके कमलमें आदित्यकी तथा ईशानकोणवाले कमलमें ऋग्वेद एवं यजुर्वेदका पूजन करे। द्वितीय आवरणमें इन्द्र आदि दिक्पालोंका और षोडशदलवाले कमलमें क्रमशः सामवेद, अथर्ववेद, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, मन, श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, घ्रानेंद्रिय, भूर्लोक, भुवलोक तथा सोलहवेंमें स्वर्गलोकका पूजन करना चाहिये ॥ १-४।।
तदनन्तर तृतीय आवरणमें चौबीस दलवाले कमलमें क्रमश: महर्लोक, जनलोक, तपोलोक, सत्यलोक, अग्निष्टोम, अत्यग्रीष्टोम, उक्थ, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र, आप्तीर्याम, व्यष्टि मन, व्यष्टि बुद्धि, व्यष्टि अहंकार. शब्द. स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, जीव, समष्टि मन, समष्टि बुद्धि (महत्तत्व), समष्टि अहंकार तथा प्रकृति-इन चौबीसकी अर्चना करे।
इन सबका स्वरूप शब्दमान है-अर्थात् केवल इनका नाम लेकर इनके प्रति मस्तक झुका लेना चाहिये। इनकी पूजामें इनके स्वरूपका चिन्तन अनावश्यक है।
पचीसवें अध्यायमें कथित वासुदेवादि नौ मूर्तिं, दशविध प्राण, मन, बुद्धि, अहंकार, पायु और उपस्थ, श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, ध्राण, वाक् पाणी और पाद-इन बत्तीस वस्तुओंकी बत्तीस दलवाले कमलमें अर्चना करनी चाहिये। ये चौथे आवरणके देवता हैं। उक्त आवरणमें इनका साङ्ग एवं सपरिवार पूजन होना चाहिये ॥५-९॥
तदनन्तर बाह्य आवरणमें पायु और उपस्थकी पूजा करके बारह मासोंके बारह अधिपतियोंका तथा पुरुषोत्तम आदि छब्बीस तत्वोंका यजन करे। उनमें से जो मासाधिपति हैं, उनका चक्राब्जमें क्रमशः पूजन करना चाहिये। आठ, छ:, पाँच या चार प्रकृतियोंका भी पूजन वहीं करना चाहिये।
तदन्तर लिखित मण्डलमें विभिन्न रंगोंके चूर्ण डालनेका विधान है। कहाँ, किस रंगके चूर्णका उपयोग है, यह सुनो।
कमलकी कर्णिका पीले रंगकी होनी चाहिये। समस्त रेखाएँ बराबर और श्वेत रंगकी रहें। दो हाथके मण्डलमें रेखाएँ अँगूठेके बराबर मोटी होनी चाहिये। एक हाथके मण्डलमें उनकी मोटाई आधे अँगूठेके समान रखनी चाहिये। रेखाएँ श्वेत बनायी जायं। कमलकी श्वेत रंगसे और संधियोंको काले या श्याम (नीले) रंगसे रँगना चाहिये। केसर लाल-पीले रंगके हों। कोणगत कोष्ठोंको लाल रंगके चूर्णसे भरना चाहिये। इस प्रकार योगपीठको सभी तरहके रंगोंसे यथेष्ट विभूषित करना चाहिये। लता-वल्लरियों और पत्तों आदिसे वीथीकी शोभा बढ़ावे। पीठके द्वारको श्वेत रंगसे सजावे और शोभास्थानोंको लाल रंगके चूर्णसे भरे। उपशोभाओंको नीले रंगसे विभूषित करे। कोणोंके शड़ोंको श्वेत चित्रित करे। यह भद्र-मण्डलमें रंग भरनेकी बात बतायी गयी है।
अन्य मण्डलोंमें भी इसी तरह विविध रंगोंके चूर्ण भरने चाहिये।
त्रिकोण मण्डलको श्वेत, रक्त और कृष्ण रंगसे अलंकृत करे।
द्विकोण को लाल और पीलेसे रैंगे।
चक्राब्जमें जो नाभिस्थान है, उसे कृष्ण रंगके चूर्णसे विभूषित करे। चक्राब्जके अरोंको पीले और लालसे रैगे। नेमिकी नीले तथा लाल रंगसे सजावे और बाहरकी रेखाओंको श्वेत, श्याम, अरुण, काले एवं पीले रंगोंसे रंगे।
अगहनी चावल का पीसा हुआ चूर्ण आदि श्वेत रंगका काम करता है। कुसुम्भ आदिका चूर्ण लाल रंगकी पूर्ति करता है। पीला रंग हल्दीके चूर्णसे तैयार होता है। जले हुए चावलके चूर्णसे काले रंगकी आवश्यकता पूर्ण होती है। शमी-पत्र आदिसे श्याम रंगका काम लिया जाता है।
बीज-मन्त्रोंका एक लाख जप लाख बार जप करनेसे, अन्य मंत्रोंका उनके अक्षरोंके बराबर लाख बार जप करनेसे, विद्याओंको एक लक्ष जपनेसे, बुद्ध-विद्याओंको दस हजार बार जपनेसे, स्तोत्रोंका एक सहस्न बार पाठ करनेसे अथवा सभी मन्त्रोंको पहली बार एक लाख जप करनेसे उन मन्त्रोंकी तथा अपनी भी शुद्धि होती है।
दूसरी बार एक लाख जपनेसे मन्त्र क्षेत्रीकृत होता है।
बीज-मन्त्रोंका पहले जितना जप किया गया हो, उतना ही उनके लिये होमका भी विधान है।
अन्य मन्त्रादीके होमकी संख्या पूर्वजपके दशांशके तुल्य बतायी गयी है।
मन्त्रसे पुरश्चरण करना हो तो एक-एक मासका व्रत ले। पृथ्वी पर पहले बायाँ पैर रखे। किसीसे दान न ले। इस प्रकार दुगुना और तिगुना जप करनेसे ही मध्यम और उत्तम श्रेणी की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
अब मैं मन्त्रका ध्यान बताता हूँ जिससे मन्त्र-जपजनित फलकी प्राप्ति होती है। मन्त्रका स्थूलरूप शब्दमय है; इसे उसका बाह्य विग्रह माना गया है। मन्त्रका सूक्ष्मरूप ज्योतिर्मय है। यही उसका आन्तरिक रूप हैं। यह केवल चिन्तनमय है। जो चिन्तनसे भी रहित है, उसे “पर” कहा गया है।
वाराह, नरसिंह तथा शक्तिके स्थूल रूपकी ही प्रधानता है। वासुदेवका रूप चिन्तनरहित (अचिन्त्य) कहा गया हैं। १८-२७ ॥
अन्य देवताओंका चिन्तामय आन्तरिक रूप ही सदा ‘मुख्य’ माना गया है। ‘वैराज’ अर्थात् विराट्का स्वरूप ‘स्थूल” कहा गया है। लिङ्गमय स्वरूपको ‘सूक्ष्म’ जानना चाहिये। ईश्वरका जो स्वरूप बताया गया है, वह चिन्तारहित है।
बीज-मन्त्र हृदयकमलमें निवास करनेवाला, अविनाशी, चिन्मय, ज्योतिःस्वरूप और जीवात्मक है। उसकी आकृति कदम्ब-पुष्पके समान है-इस तरह ध्यान करना चाहिये।
जैसे घड़ेके भीतर रखे हुए दीपककी प्रभाका प्रसार अवरुद्ध हो जाता है; वह संहतभावसे अकेला ही स्थित रहता है; उसी प्रकार मन्त्रेश्वर हृदयमें विराजमान हैं। जैसे अनेक छिद्रवाले कलशमें जितने छेद होते हैं, उतनी ही दीपक की प्रभाकी किरणें बाहरकी ओर फैलती हैं, उसी तरह नाड़ियोंद्वारा प्रयोतिर्मय बीजमन्त्रकी रश्मियां आतोंको प्रकाशित करती हुई दैव-देहको अपनाकर स्थित हैं।
नाड़ियाँ हृदयसे प्रस्थित हो नेत्रैन्द्रियोंतक चली गयी हैं। उनमेंसे दो नाड़ियाँ अग्नीषोमात्मक हैं, जो नासिकाओंके अग्रभागमें स्थित हैं। मन्त्रका साधक सम्यक उद्धात-योगसे शरीरव्यापी प्राणवायुको जीतकर जप और ध्यानमें तत्पर रहे तो वह मन्त्रजनित फलका भागी होता है।
पञ्चभूततन्मात्राओंकी शुद्धि करके योगाभ्यास करनेवाला साधक यदि सकाम हो तो अणिमा आदि सिद्धियोंको पाता है और यदि विरक्त हो तो उन सिद्धियोंको लांधकर, चिन्मय स्वरुपसे स्थित हो, भूतमात्रसे तथा इन्द्रियरूपी ग्रहसे सर्वथा मुक्त हो जाता है ॥ २८-३६ ॥
अध्याय- ३१ अपामार्जन-विधान एवं कुशापामार्जन नामक स्तोत्रका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं–मुने! अब मैं अपनी तथा दूसरोंकी रक्षाका उपाय बताऊँगा। उसका नाम है-मार्जन ।
यह वह रक्षा है, जिसके द्वारा मानव दु:खसे छूट जाता है और सुखको प्राप्त कर लेता है। उन सच्चिदानन्दमय, परमार्थस्वरूप, सर्वान्तर्यामी, महात्मा, निराकार तथा सहरुत्रों आकारधारी व्यापक परमात्माको मेरा नमस्कार है। जो समस्त कल्मषोंसे रहित, परम शुद्ध तथा नित्य ध्यानयोग-रत है, उसे नमस्कार करके मैं प्रस्तुत रक्षाके विषयमें कहूँगा, जिससे मेरी वाणी सत्य हो।’
महामुने! मैं भगवान् वाराह, नरसिंह तथा वामनको भी नमस्कार करके रक्षाके विषयमें जो कुछ कहूँगा, मेरा वह कथन सिद्ध हो।’ मै भगवान् त्रिविक्रम, श्रीराम, वैकुण्ठ तथा नरको भी नमस्कार करके जो कहूँगा, वह मेरा वचन सत्य सिद्ध हो।
अपामार्जनविधानम्
वराह नरसिंहेश वामनेश त्रिविक्रम।
हयग्रीवेश सर्वेश हृषीकेश हराशुभम् ॥
अपराजित चक्राद्यैश्चतुर्भिः परमायुधैः ।
अखण्डितानुभावैस्त्वं सर्वदुष्टहरो भव ॥
हरामुकस्य दुरितं सर्व च कुशलं कुरु ।
मृत्युबन्धार्तिभयदं दुरिष्टस्य च यत्फलम्॥
भगवन वराह! नृसिंहेश्वर! वामनेश्वर! त्रिविक्रम! हयग्रीवेश, सर्वेश तथा हृषीकेश ! मेरा सारा अशुभ हर लीजिये। किसीसे भी पराजित न होनेवाले परमेश्वर! अपने अखण्डित प्रभावशाली चक्र आदि चारों आयुधोंसे समस्त दुष्टोंका संहार कर डालिये। प्रभो! आप अमुकके सम्पूर्ण पापोंको हर लीजिये और उसके लिये पूर्णतया कुशल–क्षेमका सम्पादन कीजिये। दोषयुक्त यज्ञ या पापके फलस्वरूप जो मृत्यु, बन्धन, रोग, पीड़ा या भय आदि प्राप्त होते हैं, उन सबकों मिटा दीजिये। ६-८ ॥
पराभिध्यानसहितैः प्रयुक्तं चाभिचारिकम्।
गरम्पर्शमहारोगप्रयोगं जरया जर ॥
ॐ नमो वासुदेवाय नमः कृष्णाय खड्-गिने।
नमः पुष्करनेत्राय केशवायादिचक्रिणे ॥
नम: कमलकिञ्जल्कपीतनिर्मलवाससे।
महाहवरिपुस्कन्धघृष्टचक्राय चक्रिणे ॥
दंष्टोद्धतक्षितिभृते त्रयीमूर्तिमते नमः ।
महायज्ञवराहाय शेषभोगाङ्कशायिने॥
तप्तहाटककेशान्तज्वलत्पावकलोचन ।
वज्राधिकनखस्पर्श दिव्यसिंह नमोऽस्तु ते॥
काश्यपायातिह्रस्वाय ऋग्यजुःसामभूषिणे ।
तुभ्यं वामनरूपायाक्रमते गां नमो नमः ॥
दूसरोंके अनिष्ट-चिन्तनमें संलग्र लोगोंद्वारा जो आभिचारिक कर्मका, विषमिश्चित अन्नपानका या महारोगका प्रयोग किया गया है, ठन सबको जरा-जीर्ण कर द्धानिये-नष्ट कर दीजिये।
ॐ भगवान् वासुदेवको नमस्कार है। खड्गधारी श्रीकृष्णको नमस्कार है। आदिचक्रधारी कमलनयन केशवको नमस्कार है। कमलपुष्पके केसरोंकी भाँति पीत-निर्मल वस्त्र धारण करनेवाले भगवान् पीताम्बरको प्रणाम हैं। जो महासमर में शत्रुओंके कंधोंसे घृष्ट होता है, ऐसे चक्रके चालक भगवान् चक्रपाणिको नमस्कार है। अपनी दंष्ट्रापर उठायी हुई पृथ्वीको धारण करनेवाले वेद-विग्रह एवं शेषशय्याशायी महान् यज्ञवराहको नमस्कार है। दिव्यसिंह! आपके केशान्त प्रतप्त-सुवर्णके समान कान्तिमान् हैं, नेत्र प्रज्वलित पावक के समान तेजस्वी हैं तथा आपके नखोंका स्पर्श वज्रसे भी अधिक तीक्षण है; आपको नमस्कार हैं। अत्यन्त लघुकाय तथा ऋग, यजु और साम तीनों वेदोंसे विभूषित आप कश्यपकुमार वामनको नमस्कार है। फिर विराट्-रूपसे पृथ्वीको लाँघ जानेवाले आप त्रिविक्रमको नमस्कार है। ९-१४।।
वराहाशेषदुष्टानि सर्वपापफलानि वै।
मर्द मर्द महादंष्ट्र मर्द मर्द च तत्फलम् ॥
नारसिंह करालास्य दन्तप्रान्तानलोज्ज्वल।
भञ्ज भञ्ज निनादेन दुष्टान् पश्यार्तिनाशन॥
ऋग्यजु:सामगर्भाभिर्वाग्भीर्वामनरूपधृक।
प्रशमं सर्वदुःखानि नयत्वस्य जनार्दन॥
ऐकाहिकं द्वयाहिकं च तथा त्रिदिवसं ज्वरम्।
चातुर्थिकं तथात्युग्रं तथैव सततं ज्वरम्॥
दोषोत्थं संनिपातोत्थं तथैवागन्तुकं ज्वरम्।
शमंनयाशु गोविन्द च्छिन्धि च्छिन्ध्यस्य वेदनाम्॥
वराहरूपधारी नारायण ! समस्त पापोंके फलरूपसे प्राप्त सम्पूर्ण दुष्ट रोगोंको कुचल दीजिये, कुचल दीजिये। बड़े-बड़े दाढ़ोंवाले महावराह! पापजनित फलको मसल डालिये, नष्ट कर दीजिये। विकटानन नृसिंह! आपका दन्त-प्रान्त अग्निके समान जाज्वल्यमान है। आर्तिनाशन! आक्रमणकारी दुष्टोंको देखिये और अपनी दहाड़से इन सबका नाश कीजिये, नाश कीजिये। वामनरूपधारी जनार्दन! ऋक्, यजुः एवं सामवेदके गूढ़ तत्त्वोंसे भरी वाणीद्वारा इस आर्तजनके समस्त दु:खोंका शमन कीजिये। गोविन्द! इसके त्रिदोषज, संनिपातज, आगन्तुक, एकाहिक, द्वयाहिक, त्र्याहिक तथा अत्यन्त उग्र चातुर्थिक ज्वरको एवं सतत बने रहनेवाले जवरको भी शीघ्र शान्त कीजिये। इसकी वेदनाकों मिटा दीजिये, मिटा दीजिये ॥
नेत्रदु:खं शिरोदु:खं दु:खं चोदरसम्भवम्।
अनिश्वासमतिश्वासं परितापं सवेपथुम्॥
गुदघ्राणाङ्-ध्रिरोगांश्च कुष्ठरोगांस्तथा क्षयम्।
कामलादींस्तथा रोगान् प्रमेहांश्चातिदारुणान्॥
भगन्दरातिसारांश्च मुखरोगांश्च वल्गुलीम्।
अश्मरीं मूत्रकृच्छ्रांश्च रोगानन्यांश्च दारुणान्॥
ये वातप्रभवा रोगा ये च पित्तसमुद्भवाः ।
कफ़ोद्भवाश्च ये केचिद् ये चान्ये सांनिष्पातिकाः ॥
आगन्तुकाश्च ये रोगा लूताविस्फोटकादयः।
ते सर्वे प्रशमं यान्तु वासुदेवस्य कीर्तनात्॥
विलयं यान्तु ते सर्वे विष्णोरुच्चारणेन च।
क्षयं गच्छन्तु चाशेषास्ते चक्राभिहता हरेः ॥
अच्युतानन्तगोविन्दनामोच्चारणभेषजात् ।
नश्यन्ति सकला रोगाः सत्यं सत्यं वदाम्यहम्॥
इस दुखियाके नेत्ररोग, शिरोरोग, उदररोग, श्वासावरोध, अतिश्वास, परिताप, कम्पन, गुदरोग, नासिका-रोग, पादरोग, कुष्ठरोग, क्षयरोग, कामला आदि रोग, अत्यन्त दारुण प्रमेह, भगंदर, अतिसार. मुखरोग, वल्गुली, अश्मरी, मूत्रकृच्छू तथा अन्य महाभयंकर रोगोंको भी दूर कीजिये। भगवान् वासुदेवके संकीर्तनमात्रसे जो भी वातज, पित्तज, कफज, संनिपातज, आगन्तुक तथा लूता, विस्फोट आदि रोग हैं, वे सभी अपमार्जित होकर शान्त हो जाय। वे सभी भगवान् विष्णुके नामोच्चारणके प्रभावसे विलुप्त हो जायँ। वे समस्त रोग श्रीहरिके चक्रसे प्रतिहत होकर क्षयको प्राप्त हों। ‘अच्युत’, ‘अनन्त’ एवं ‘गोविन्द”-इन नामोंके उच्चारणरूप औषधसे सम्पूर्ण रोग नष्ट हो जाते हैं, यह मैं सत्य-सत्य कहता हूं॥ २०-२६॥
स्थावरं जङ्गमं वापि कृत्रिमं चापि यद्विषम्।
दन्तोद्भवं नखभवमाकाशप्रभवं विषम॥
लूतादिप्रभवं यच्च विषमन्यत्तु दु:खदम्।
शमं नयतु तत्सर्वं वासुदेवस्य कीर्तनम्॥
ग्रहान् प्रेतग्रहांश्चापि तथा वै डाकिनीग्रहान्।
वेतालांश्च पिशाचांश्च गन्धर्वान् यक्षराक्षसान्॥
शकुनीपूतनाद्याम्श्च तथा वैनायकान् ग्रहान्।
मुखमण्डीं तथा क्रूरां रेवतीं वृद्भरेवतीम्॥
वृद्धिकाख्यान्ग्रहां श्र्चोग्रांस्तथा मातृग्रहानपि।
बालस्य विष्णोश्चरितं हन्तु बालग्रहानिमान्॥
वृद्धाश्च ये ग्रहाः केचिट ये च बालग्रहाः क्वचित्।
नरसिंहस्य ते दृष्टय़ा दग्धा ये चापि यौवने ॥
सटाकरालवदनो नारसिंहो महाबलः।
ग्रहानशेषान्निःशेषान् करोतु जगतो हितः ॥
नरसिंह महासिंह ज्वालामालोज्ज्वलानन।
ग्रहानशेषान् सर्वेश खाद खादाग्रिलोचन॥
स्थावर, जगंम, कृत्रिम, दन्तोद्भूत, नखोद्भूत, आकाशोद्भूत तथा लूतादिसे उत्पन्न एवं अन्य जो भी दु:खप्रद विष हों-भगवान् वासुदेवका संकीर्तन उनका प्रशमन करे। बालरूपधारी श्रीहरि के चरित्रका कीर्तन ग्रह, प्रेतग्रह, डाकिनीग्रह, वेताल, पिशाच, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, शकुनी-पूतना आदि ग्रह, विनायकग्रह, मुख-मण्डिका, क्रूर रेवती, वृद्धरेवती, वृद्धिका नामसे प्रसिद्ध उग्र ग्रह एवं मातृग्रह-इन सभी बालग्रहोंका नाश करे। भगवन्! आप नरसिंहके दृष्टिपातसे जो भी वृद्ध, बाल तथा युवा ग्रह हो, वे दग्ध हो जाय। जिनका मुख सटा-समूहसे विकराल प्रतीत होता है, वे लोकहितैषी महाबलमान् भगवान् नृसिहं समस्त बालग्रहोंको नि:शेष कर दें। महासिंह नरसिंह! ज्वालामालाओंसे आपका मुखमण्डल उज्वल हो रहा है। अग्निलोचन! सर्वेश्वर! समस्त ग्रहोंका भक्षण कीजिये, भक्षण कीजिये ॥ २७ -३४॥
ये रोगा ये महोत्पाता यद्विषं ये महाग्रहा: ।
यानि च क्रूरभूतानि ग्रहपीडाश्च दारुणाः ॥
शस्त्रक्षतेषु ये दोषा ज्वालागर्दभकादयः ।
तानि सर्वाणि सर्वात्मा परमात्मा जनार्दनः ॥
किंचिद्रूपं समास्थाय वासुदेवास्य नाशय ।
क्षिप्त्वा सुदर्शनं चक्रं ज्वालामालातिभीषणम् ॥
सर्वदुष्टोपशमनं कुरु देववराच्युत ।
सुदर्शन महाज्वाल च्छिन्धि च्छिन्धि महारव ॥
सर्वदुष्टानि रक्षांसि क्षयं यान्तु विभीषण ।
प्राच्यां प्रतीच्यां च दिशि दक्षिणोत्तरतस्तथा ॥
रक्षां करोतु सर्वात्मा नरसिंहः स्वगर्जितैः ।
दिवि भुव्यन्तरिक्षे च पृष्ठतः पार्श्वतोऽग्रतः ॥
रक्षां करोतु भगवान् बहुरूपी जनार्दनः।
यथा विष्णुर्जगत्सर्व सदेवासुरमानुषम् ॥
तेन सत्येन दुष्टानि शममस्य व्रजन्तु वै ।
वासुदेव! आप सर्वात्मा परमेश्वर जनार्दन हैं। इस व्यक्तिके जो भी रोग, महान् उत्पात, विष, महाग्रह, क्रूर भूत, दारुण ग्रहपीडा तथा ज्वालागर्दभक आदि शस्त्र-क्षत-जनित दोष हों, उन सबका कोई भी रूप धारण करके नाश करें। देवश्रेष्ठ अच्युत! ज्वालामालाओंसे अत्यन्त भीषण सुदर्शनचक्रको प्रेरित करके समस्त दुष्ट रोगोंका शमन कीजिये । महाभयंकर सुदर्शन ! तुम प्रचण्ड ज्वालाओंसे सुशोभित और महान् शब्द करनेवाले हो; अतः सम्पूर्ण दुष्ट राक्षसोका संहार करो, संहार करो। वे तुम्हारे प्रभावसे क्षयको प्राप्त हों। पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा में सर्वात्मा नृसिंह अपनी गर्जनासे रक्षा करें। स्वर्गलोकमें, भूलोकमें, अन्तरिक्षमें तथा आगे-पीछे अनेक रूपधारी भगवान् जनार्दन रक्षा करें। देवता, असुर और मनुष्योंसहित यः सम्पूर्ण जगत् भगवान् विष्णुका ही स्वरूप है, इस सत्यके प्रभाव से इसके दुष्ट रोग शान्त हों ॥ ३५- ४१ ॥
यथा विष्णौ स्मृते सद्यः संक्षयं यान्ति पातकाः ॥
सत्येन तेन सकलं दुष्टमस्य प्रशाम्यतु ।
यथा यज्ञेश्वरो विष्णुदेंवेष्वपि हि गीयते ॥
सत्येन तेन सकलं यन्मयोक्तं तथास्तु तत्।
शान्तिरस्तु शिवं चास्तु दुष्टमस्य प्रशाम्यतु॥
वासुदेवशरीरोत्थैः कुशैर्निणाशितं मया ।
अपामार्जतु गोविन्दो नरो नारायणस्तथा॥
तथास्तु सर्वदु:खानां प्रशमो वचनाद्धरः।
अपामार्जनकं शस्तं सर्वरोगादिवारणम् ॥
अहं हरि: कुशा विष्णुर्हता रोगा। मया तव ॥
श्रीविष्णुके स्मरणमात्रसे पापसमूह तत्काल नष्ट हो जाते हैं. इस सत्यके प्रभावसे इसके समस्त दूषित रोग शान्त हो जार्य। यज्ञेश्वर विष्णु देवताओंद्वारा प्रशंसित होते हैं; इस सत्यके प्रभावसे मेरा कथन सत्य हो। शान्ति हो, मंगल हो। इसका दुष्ट रोग शान्त हो। मैंने भगवान् वासुदेवके शरीरसे प्रादुर्भूत कुशोंसे इसके रोगोंको नष्ट किया है। नर-नारायण और गोविन्द-इसका अपामार्जन करें। श्रीहरिके वचनसे इसके सम्पूर्ण दु:खोंका शमन हो जाय। समस्त रोगादिके निवारणके लिये ‘अपामार्जन स्तोत्र’ प्रशस्त है। मैं श्रीहरि हूँ, कुशा विष्णु हैं। मैंने तुम्हारे रोगोंका नाश कर दिया है।॥ ४२-४७॥
अध्याय- ३२ निर्वाणादि-दीक्षाकी सिद्धिके उद्देश्यसे सम्पादनीय संस्कारोका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं–ब्रह्मन्! बुद्धिमान् पुरुष निर्वाणादि दीक्षाओंमें अड़तालीस संस्कार करावे। उन संस्कारोंका वर्णन सुनिये, जिनसे मनुष्य देवतुल्य हो जाता है।
सर्वप्रथम योनिमें गर्भाधान, तदनन्तर पुंसवन-संस्कार करे। फिर सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, चार ब्रह्मचर्यव्रत-वैष्णवी, पार्थी, भौतिकी और श्रौतिकी, गोदान, समावर्तन, सात पाकयज्ञ-अष्टका, अन्वष्टका पार्वणश्राद्ध, श्रावणी, आग्रहायणी, चैत्री एवं आश्वयुजी, सात हविर्यज्ञ-आधान, अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य, पशुबन्ध तथा सौत्रामणी, सात सोमसंस्थाएँ-यज्ञश्रेष्ठ अग्निष्टोम, अत्यग्रिष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र एवं आप्तोर्याम; सहस्रेश यज्ञ-हिरण्याङ्ध्रि, हिरण्याक्ष, हिरण्यमित्र, हिरण्यपाणि, हेमाक्ष, हेमाङ्ग, हेमसुत्र, हिरण्यास्य, हिरण्याङ्ग, हेमजिह्र, हिरण्यवान् और सब यज्ञोंका स्वामी अश्वमेधयज्ञ तथा आठ गुण-सर्वभूतदया, क्षमा, आर्जव, शौच, अनायास, मङ्गल, अकृपणता और अस्पृहा-ये संस्कार करे।
इष्टदेवके मूलमन्त्रसे सौ आहुतियाँ दे। सौर, शाक्त, वैष्णव तथा शैव-सभी दीक्षाओंमें ये समान माने गये हैं। इन संस्कारोंसे संस्कृत होकर मनुष्य भोग-मोक्षको प्राप्त करता है। वह सम्पूर्ण रोगादिसे मुक्त होकर देववत् हो जाता है।
मनुष्य अपने इष्टदेवताके जप, होम, पूजन तथा ध्यानसे इच्छित वस्तुको प्राप्त करता है। १-१३ ॥
बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ। ।। ३२ ।।
अध्याय- ३३ पवित्रारोपण, भूतशुद्धि, योगपीठस्थ देवताओं तथा प्रधान देवताके पार्षद-आवरणदेवोंकी पूजा
अग्निदेव कहते हैं–मुने! अब मैं पवित्रारोपर्णकी विधि बताऊँगा। वर्षमें एक बार किया गया पवित्रारोपण सम्पूर्ण वर्षभर की हुई श्रीहरिकी पूजाका फल देनेवाला है।
आषाढ़ -से लेकर कार्तिक -तकके बीचके कालमें ही ‘पवित्रारोपण’ किया जाता है।
प्रतिपदा धनद-तिथि है। द्वितीया आदि तिथियाँ क्रमश: लक्ष्मी आदि देवताओंकी हैं। यथा-लक्ष्मीकी द्वितीया, गौरीकी तृतीया, गणेशकी चतुर्थी, सरस्वती तथा नाग देवताओं- की पञ्चमी, स्वामी कार्तिकेयकी षष्ठी, सूर्यकी सप्तमी, मातृकाओंकीअष्टमी, दुर्गाकी नवमी, नागों (या यमराज)-की दशमी, ऋषियों तथा भगवान् विष्णुकी एकादशी, श्रीहरिकी द्वादशी, कामदेवकी त्रयोदशी, शिवकी चतुर्दशी तथा ब्रह्माकी पौर्णमासी एवं अमावस्या तिथि है। जो मनुष्य जिस देवताका भक्त है, उसके लिए वही तिथि पवित्र है ॥ १-३॥
पवित्रारोपण की विधि सब देवताओंके लिये समान हैं, केवल मन्त्र आदि प्रत्येक देवताके लिये पृथक्-पृथक् बोले।
पवित्रक बनानेके लिये सोने-चाँदी और ताँबेके तार तथा कपास आदिके सूत होने चाहिये’॥ ४॥
ब्राह्मणीके हाथका काता हुआ सूत सर्वोत्तम है। वह न मिले तो किसी भी सूतको उसका संस्कार करके उपयोग में लेना चाहिये।
सूतको तिगुना करके, उसे पुन: तिगुना करे और उसीसे, अर्थात् नौ तन्तुओंद्वारा पवित्रक बनाये।
एक सौ आठसे लेकर अधिक तन्तुओंद्वारा निर्मित पवित्रक उत्तम आदिकी श्रेणीमें गिना जाता है।
इष्ट दैवतासे इस प्रकार प्रार्थना करे-‘प्रभो! क्रियालोपजनित दोषको दूर करने के लिये आपने जो साधन बताया है, देव! वही मैं कर रहा हूँ।
जहाँ जैसा पवित्रक आवश्यक है, वहाँके लिये वैसा ही पवित्रक अर्पित होगा।
नाथ! आपकी कृपासे इस कार्यमें कोई विध्न-बाधा न आवे। अविनाशी परमेश्वर! आपकी जय ही’॥५-७॥
इस प्रकार प्रार्थना करके मनुष्य पहले इष्टदेवके मण्डल के लिये गायत्री-मन्त्रसे पवित्रक बाँधे। इष्टदेव नारायणके लिये गायत्री मन्त्र इस प्रकार है-
ॐ नमो नारायणाय विद्महे, वासुदेवाय धीमहि, तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्।
इष्टदेवताके नामके अनुरूप ही यह गायत्री है।
देव-प्रतिमाओंपर आर्पित करनेके लिये अनेक प्रकारका पवित्रक होता है। एक तो विग्रहकी नाभितक पहुँचता है, दूसरा जाँघोंतक और तीसरा घुटनोंतक पहुँचता है। एक चौथा प्रकार भी है, जो पैरोंतक लटकता है। यह पैरों तक लटकनेवाला पवित्रक “वनमाला’ कहा जाता है। वह एक हजार आठ तन्तुओंसे तैयार किया जाता है।
साधारण माला अपनी शक्तिके अनुसार बनायी जाती है। अथवा वह सोलह अंगुलसे दुगुनी बड़ी होनी चाहिये।
कर्णिका, केसर और दल आदिसे युक्त जो यन्त्र या चक्र आदि मण्डल है, उस मण्डलको जो नीचेसे ऊपरतक ढक ले, ऐसा पवित्रक उसके ऊपर चढ़ाना चाहिये।
एकचक्र और एकाब्ज आदि मण्डलमें, उस मण्डलका मान जितने हो, उतने मानवाला पवित्रक अर्पित करना चाहिये।
वेदीपर अपने सत्ताईस अङ्गुलके मापका पवित्रक अर्पित करें ।
आचार्योंके लिये, पिता-माता आदिके लिये तथा पुस्तकपर चढ़ानेके लिये जो पवित्रक बनावे, वह नाभितक ही लंबा होना चाहिये। उसमें बारह गाँठे लगी हों तथा उस पवित्रकपर गन्ध लगाया गया हो ।
ब्रह्मन्! वनमालामें दो-दो अङ्गुलकी दूरीपर क्रमश: एक सौ आठ गाँठे रहनी चाहिये।’ अथवा कनिष्ठ, मध्यम तथा उत्तम पवित्रकमें क्रमश: बारह, चौबीस तथा छत्तीस गाँठें रखनी चाहिये।
मन्द, मध्यम और उत्तम मालार्थी पुरुषोको अनामिका, मध्यमा और अगुष्ठसे ही पवित्रक-माला ग्रहण करनी चाहिये।बारह-बारह ही गाँठें रहनी चाहिये।
सूर्य, कलश तथा अग्नि आदिके लिये भी यथासम्भव विष्णु भगवानके तुल्य ही पवित्रक अर्पित करना उत्तम माना गया है।
पीठके लिये पीठकी लंबाईके अनुसार तथा कुण्डके लिये भी मेखलापर्यन्त लंबा पवित्रक होना चाहिये।
विष्णु-पार्षदोंके लिये यथाशक्ति सूत्र-ग्रन्थि देनी चाहिये। अथवा बिना ग्रन्थिके ही सत्रह सूत्र चढ़ावे और भद्र नामक पार्षदको त्रिसूत्र अर्पित करे॥ १३-१७।।
पवित्रकको रोचना, अगुरु–कर्पूर-मिश्रित हल्दी एवं कुकुमके रंगसे रंग देना चाहिये।
भक्त पुरुष एकादशीको स्नान, संध्या आदि करके पूजागृहमें जाकर भगवान् श्रीहरिका यजन करे। उनके समस्त परिवारकों बनि देकर उसकी अर्चना करे।
द्वारके अन्तमें ‘क्षं क्षेत्रपालाय नम:।‘-बोलकर क्षेत्रपालकी पूजा करे।
द्वारके ऊपर ‘श्रियै नम:।‘ कहकर श्रीदेवीकी पूजा करे।
द्वारके दक्षिण देशमें ‘धात्रे नम:।‘, ‘गङ्गायै नम:।‘-इन मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए ‘धाता’ तथा ‘गङ्गा’जीकी अर्चना करे और वाम देशमें “विधात्रे नमः ।।’, ‘यमुनायै नमः ।।’— बोलकर विधाता एवं यमुनाजीकी पूजा करे।
इसी तरह द्वारके दक्षिण-वाम देशमें क्रमशः ‘शङ्खनिधये नमः।।’ ‘पद्मनिधये नमः।‘ बोलकर शंखनिधि एवं पद्मनिधिकी पूजा करे। तदनन्तर ‘सारङ्गाय नमः‘ बोलकर विध्नकारी भूतोंकी दूर भगावे। फिर आसनपर बैठकर भूतशुद्धि करे॥ १८-२१॥
उसकी विधि यों हैं-
ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं गन्धतन्मात्रं संहरामि नमः ।
ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं रसतन्मात्रं संहरामि नमः ।
ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं रूपतन्मात्रं संहरामि नमः ।
ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं स्पर्शतन्मात्रं संहरामि नमः ।
ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं शब्दतन्मात्रं संहरामि नमः ।
इस प्रकार पाँच उद्घात-वाक्योंका उच्चारण करके गन्धतन्मात्रस्वरूप भूमिमण्डलको, वज्रचिह्नित सुवर्णमय चतुरस्र पीठकों तथा इन्द्रादि देवताओंको अपने युगल चरणोंमें स्थित देखते हुए उनका चिन्तन करे।
इस प्रकार शुद्ध हुए गन्धतन्मात्रको रसतन्मात्र में लीन करके उपासक इसी क्रमसे रसतन्मात्रका रूपतन्मात्रमें संहार करे।
ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं रसतन्मात्रं संहरामि नमः ।
ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं रूपतन्मात्रं संहरामि नमः ।
ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं स्पर्शतन्मात्रं संहरामि नमः ।
ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं शब्दतन्मात्रं संहरामि नमः ।
इन चार उद्धातवाक्योंका उच्चारण करके जानुसे लेकर नाभितकके भागको श्वेत कमलसे चिह्नित, शुक्लवर्ण एवं अर्धचन्द्राकार देखें।
ध्यानद्वारा यह चिन्तन करे कि “इस जलीय भागके देवता वरुण हैं।’ उक्त चार उद्धातोंके उच्चारणसे रसतन्मात्राकी शुद्धी होती है। इसके बाद इस रसतन्मात्राका रूपतन्मात्रा में लय कर दै॥ २२-३० ॥
ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं रूपतन्मात्रं संहरामि नमः ।
ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं स्पर्शतन्मात्रं संहरामि नमः ।
ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं शब्दतन्मात्रं संहरामि नमः ।
-इन तीन उद्घातवाक्योंका उच्चारण करके नाभिसे लेकर कण्ठतक के भागमें त्रिकोणाकार अग्निमण्डलका चिन्तन करे। ‘उसका रंग लाल है; वह स्वस्तिकाकार चिहृसे चिहित है। उसके अधिदेवता अग्नि हैं।” इस प्रकार ध्यान करके शुद्ध किये हुए रूपतन्मात्रको स्पर्शतन्मात्रमें लीन करे।
तत्पश्चात्
ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं स्पर्शतन्मात्रं संहरामि नमः ।
ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं शब्दतन्मात्रं संहरामि नमः ।
-इन दो उद्घातवाक्योंके उच्चारणपूर्वक कण्ठसे लेकर नासिकाके बीचके भागमें गोलाकार वायुमण्डलका चिन्तन करे – ‘उसका रंग धूमके समान है। वह निष्कलङ्क चन्द्रमासे चिह्नित है।’ इस तरह शुद्ध हुए स्पर्श-तन्मात्राका ध्यानद्वारा ही शब्दतन्मात्रमें लय कर दे।
इसके बाद
ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं शब्दतन्मात्रं संहरामि नमः ।
-इस एक उद्घातवाक्यसे शुद्ध स्फटिकके समान आकाशका नासिकासे लेकर शिखातक के भागमें चिन्तन करे। फिर उस शुद्ध हुए आकाशका उपसंहार करे।
तत्पश्चात् क्रमशः शोषण आदिके द्वारा देहकी शुद्धि करे। ध्यानमें यह देखे कि ‘यं‘ बीजरूप वायुके द्वारा पैरोंसे लेकर शिखातकका सम्पूर्ण शरीर सूख गया है।
फिर ‘रं‘ बीज द्वारा अग्निकी प्रकट करके देखें कि सारा शरीर अग्निकी ज्वालाओंमें आ गया और जलकर भस्म हो गया।
इसके बाद ‘वं‘ बीजका उच्चारण करके भावना करे कि ब्रह्मरन्ध्रसे अमृतका बिन्दु प्रकट हुआ है। उससे जो अमृतकी धारा प्रकट हुई है, उसने शरीरके उस भस्मको आप्लावित कर दिया है।
तदनन्तर “लं” बीजका उच्चारण करते हुए यह चिन्तन करे कि उस भस्मसे दिव्य देहका प्रादुर्भाव हो गया है।
इस प्रकार दिव्य देहकी उद्भावना करके करन्यास और अङ्गन्यास करे। इसके बाद मानस-यागका अनुष्ठान करे। हृदय-कमलमें मानसिक पुष्प आदि उपचारोंद्वारा मूल-मन्त्रसे अङ्गोसहित देवेश्वर भगवान् विष्णुका पूजन करे। वे भगवान् भोग और मोक्ष देनेवाले हैं।
भगवान् से मानसिक पूजा स्वीकार करनेके लिये इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये –
देव! देवेश्वर केशव! आपका स्वागत हैं। मेरे निकट पधारिये और यथार्थरूपसे भावनाद्वारा प्रस्तुत इस मानसिक पूजाको ग्रहण कीजिये।
योगपीठको धारण करनेवाली आधारशक्ति कूर्म, अनन्त तथा पृथ्वीका पीठके मध्यभागमें पूजन करना चाहिये।
तदनन्तर अग्निकोण आदि चारों कोणोंमें क्रमश: धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्यका पूजन करे।
पूर्व आदि मुख्य दिशाओंमें अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य तथा अनैश्वर्यकी अर्चना करे।
पीठके मध्य भागमें सत्वादि गुणोंका, कमलका, माया और अविद्या नामक तत्वोंका, कालतत्त्वका, सूर्यादि-मण्डलका तथा पक्षिराज गरुडका पूजन करे।
पीठके वायव्यकोणसे ईशानकोणतक गुरुपंक्तिकी पूजा करे। गण, सरस्वती, नारद, नलकूबर, गुरु, गुरुपादुका, परम गुरु और उनकी पादुकाकी पूजा ही गुरुपंक्तिकी पूजा है।
पूर्वसिद्ध और परसिद्ध शक्तियोंकी केसरोंमें पूजा करनी चाहिये।
पूर्वसिद्ध शक्तियाँ ये हैं-लक्ष्मी, सरस्वती, प्रीति, कीर्ति, शान्ति, कान्ति, पुष्टि तथा तुष्टि। इनकी क्रमशः पूर्व आदि दिशाओंमें पूजा की जानी चाहिये। इसी तरह इन्द्र आदि दस दिक्पालोंका भी उनकी दिशाओंमें पूजन आवश्यक है। इन सबके बीचमें श्रीहरि विराजमान हैं।
परसिद्धा शक्तियाँ-धृति, श्री, रति तथा कान्ति आदि हैं। मूल-मन्त्रसे भगवान् अच्युतकी स्थापना की जाती है। पूजाके प्रारम्भमें भगवान् से यों प्रार्थना करे-
हे भगवन्! आप मेरे सम्मुख हों। पूर्व दिशा में मेंरे समीप स्थित हों।
इस तरह प्रार्थना करके स्थापनाके पश्चातू अर्ध्य-पाद्य आदि निवेदन कर गन्ध आदि उपचारोंद्वारा मूल-मन्त्रसे भगवान् अच्युतकी अर्चना करे।
ॐ भीषय भीषय हृदयाय नमः ।
ॐ त्रासय त्रासाय शिरसे नमः ।
ॐ मर्दय मर्दय शिखायै नमः ।
ॐ रक्ष रक्ष नेत्रत्रयाय नमः ।
ॐ प्रध्वंसय प्रध्वंसय कवचाय नमः ।
ॐ हूं फट् अस्त्राय नमः ।
इस प्रकार अग्निकोण आादि दिशाओंमें क्रमसे मूलबीजद्वारा अङ्गोंका पूजन करे।
पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा में मूर्त्यात्मक आवरणकी अर्चना करे। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध-ये चार मूर्तियाँ हैं।
अग्निकोण आदि कोणोंमें क्रमश: श्री, रति, धृति और कान्तिकी पूजा करे। ये भी श्रीहरिकी मूर्तियाँ हैं। अग्नि आदि कोणोंमें क्रमशः शङ्क, चक्र, गदा और पद्यकी परिचर्या करे।
पूर्वादि दिशाओंमें शाङ्ग, मुशल, खड्ग तथा वनमालाकी अर्चना करे।
उसके बाह्यभागमें पूर्वादि दिशाओंमें क्रमशः इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋत्य, वरुण, वायु, कुवेर तथा ईशानकी पूजा करके नैऋत्य और पश्चिमके बीच में अनन्तकी तथा पूर्व और ईशानके बीचमें ब्रह्माजीकी अर्चना करे। इनके बाह्यभाग में वज्र आदि अस्त्रमय आवरणोंका पूजन करे। इनके भी बाह्यभागमें दिक्पालोंके वाहनरूप आवरण पूजनीय होते हैं।
पूर्वादिके क्रमसे ऐरावत, छाग, भैंसा, वानर, मत्स्य, मृग, शश, वृषभ, कूर्म और हंस-इनकी पूजा करनी चाहिये। इनके भी बाह्यभागमें पृश्रिगर्भ और कुमुद आदि द्वारपालोंकी पूजाकी विधि कही गयी है।
पूर्वसे लेकर उत्तरतक प्रत्येक द्वारपर दो-दो द्वारपालोंकी पूजा आवश्यक है।
तदनन्तर श्रीहरिको नमस्कार करके बाह्यभागमें बलि अर्पण करे। ‘ॐ विष्णुपार्षदेभ्यो नम:।‘ बोलकर बलिपीठपर उनके लिये बलि समर्पित करे॥५२-५७ ॥
ईशानकोणमें ‘ॐ विश्वाय विष्वक्सेनात्मने नम:।‘- इस मन्त्रसे विष्वक्सेनकी अर्चना करे।
इसके बाद भगवान् के दाहिने हाथमें रक्षासूत्र बाँधे। उस समय भगवान्से इस प्रकार कहे-
प्रभो! जो एक वर्षतक निरन्तर की हुई आपकी पूजाके सम्पूर्ण फलकी प्राप्तिमें हेतु है, वह पवित्रारोहण कर्म होनेवाला है, उसके लिये यह कौतुक धारण कीजिये।
ॐ नम:।
इसके बाद भगवान् के समीप उपवास आदिका नियम ग्रहण करे और इस प्रकार कहे-
मैं उपवासके साथ नियमपूर्वक रहकर इष्टदेवको संतुष्ट करूंगा। देवेश्वर! आजसे लेकर जबतक वैशेषिक-का दिन न आ जाय, तबतक काम, क्रोध आदि सारे दोष मेंरे पास किसी तरह भी न फटकने पावें।
ब्रती यजमान यदि उपवास करने में असमर्थ हो तो नत-व्रत (रातमें भोजन) किया करे।
हवन करके भगवान् की स्तुतिके बाद उनका विसर्जन करे।
भगवान् का नित्य-पूजन लक्ष्मीकी प्राप्ति करानेवाला है।
ॐ ह्रीं श्रीं श्रीधराय त्रैलोक्यमोहनाय नमः ।
-यह भगवान्की पूजाके लिये मन्त्र है ॥ ५८-६३ ॥
अध्याय – ३४ पावित्रारोपण के लिए पूजा-होमादि की विधि
अग्निदेव कहते हैं – मुनीश्वर ! निम्नांकित मन्त्र का उच्चारण करते हुए साधक यागमंडप में प्रवेश करे और सजावट से यज्ञ के स्थान की शोभा बढ़ावे (तथा निम्नांकित श्लोक पढकर भगवान् को नमस्कार करे ) – ‘वेंदों तथा ब्राह्मणों के हितकारी देवता अव्ययात्मा भगवान् श्रीधर को नमस्कार है ।’ ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद आपके स्वरुप हैं; शब्दमात्र आपके शरीर हैं; आप भगवान् विष्णुको नमस्कार हैं । (नमो ब्रह्मण्यदेवाय श्रीधरायाव्ययात्मने । ऋग्यजु:सामरुपाय शब्ददेहाय विष्णवे ।।) सायंकाल सर्वतोभद्रादि मंडल की रचना करके यजन-पूजन-सम्बन्धी द्रव्यों का संग्रह करे । हाथ-पैर धो ले । सब सामग्री को यथास्थान जँचाकर हाथ में अर्घ्य लेकर मनुष्य उसके जल से अपने मस्तक को सींचे । फिर द्वारदेश आदि में भी जल छिडके । तदनन्तर द्वारयाग (द्वारस्थ देवताओं का पूजन) आरम्भ करे । पहले तोरणेश्वरों की भलीभाँति पूजा करे । पूर्वादि दिशाओं के क्रम से अश्वत्थ, उदुम्बर, वट तथा पाकर – ये वृक्ष पूजनीय हैं । इनके सिवा पूर्व दिशामें ऋग्वेद, इंद्र तथा शोभनकी, दक्षिण में यजुर्वेद, यम तथा सुभद्र की, पश्चिम में सामवेद, वरुण तथा सुधन्वा की और उत्तर में अथर्ववेद, सोम एवं सुहोत्र की अर्चना करे ।।१-५।।
तोरण (फाटक) – के भीतर पताकाएँ फहरायी जायँ, दो-दो कलश स्थापित हों और कुमुद आदि दिग्गजों का पूजन हो । प्रत्यक दरवाजेपर दो-दो द्वारपालों की उनके नाम-मन्त्र से ही पूजा की जाय । पूर्व दिशामें पूर्ण और पुष्करका, दक्षिण दिशामें आनंद और नंदनका, पश्चिम में वीरसेन और सुषेण का तथा उत्तर दिशामें सम्भव और प्रभव नामक द्वारपालों का पूजन करना चाहिये । अस्त्र-मन्त्र (फट) के उच्चारणपूर्वक फुल बिखेरकर बिघ्नों का अपसारण करने के पश्च्यात मंडप के भीतर प्रवेश करे । भूतशुद्धि, न्यास और मुद्रा करके शिखा (वषट) के अन्तमें ‘फट’ जोड़कर उसका जप करते हुए सम्पूर्ण दिशाओं में सरसों छीटे । इसके बाद वासुदेव मन्त्र से गोमूत्र, संकर्षण मन्त्र से गोमय, प्रद्युम्न-मन्त्र से गोदुग्ध, अनिरुद्ध मन्त्र से दही और नारायण मन्त्र से घृत लेकर सबको घृतपात्र में एकत्र करे; अन्य वस्तुओं का भाग घीसे अधिक होना चाहिए । इन सबके मिलने से जो वस्तु तैयार होती है, उसे ‘पंचगव्य’ कहा गया है । पंचगव्य एक, दो या तीन बार अलग-अलग बनावे । इनमेंसे एक तो मंडप (तथा वहाँकी वस्तुओं) का प्रोक्षण करने के लिये हैं, दूसरा प्राशन के लिए और तीसरा स्नान के उपयोग में आता है । दस कलशों की स्थापना करके उनमें इन्द्रादि लोकपालों की पूजा करे । पूजन करके उन्हें श्रीहरि की आज्ञा सुनावे – ‘लोकपालगण ! आपको इस यज्ञ की रक्षा के लिये श्रीहरि की आज्ञा से यहाँ सदा स्थित रहना चाहिये’ ।।६-१२।।
याग-द्रव्य आदि की रक्षा की व्यवस्था करके विकिर (शारदातिलक (प्त्ल४ श्लोक १४-१५) में लाजा, चंदन, सरसों, भस्म, दुर्वांकुर तथा अक्षत को ‘विकिर’ कहा है । समस्त विघ्नसमूह का नाश करनेवाला है ) द्रव्यों को बिखेरे । सात बार अस्त्र-समबन्धी मूल-मन्त्र (अस्त्राय फट) – का जप करते हुए ही उक्त वस्तुओं को सब ओर बिखेरना चाहिये । फिर उसी तरह अस्त्र मन्त्र का जप करके कुश – कूर्च ले आवे । उन्हें ईशान कोण में रखकर उन्हीं के ऊपर कलश और वर्धनी को स्थापित करे । कलश में श्रीहरि का सांग पूजन करके वर्धनी में अस्त्र की अर्चना करे । वर्धनी की छिन्न धारासे यागमंडप को प्रदक्षिणाक्रम से सींचते हुए कलश को उसके उपयुक्त स्थानपर ले जाय और स्थिर आसनपर स्थापित करके उसकी पूजा करे । कलश के भीतर पंचरत्न डाले । उसके ऊपर वस्त्र लपेटे । फिर उसपर गंध आदि उपचारोंद्वारा श्रीहरि का पूजन करें । वर्धनी में भी सोने का टुकड़ा डाले । उसके बाद उसपर अस्त्र की पूजा करके, उसके वाम-भाग में पास ही, वास्तु-लक्ष्मी तथा ‘भुविनायक’ की अर्चना करे । संक्रांति आदि समय इसीप्रकार श्रीविष्णु के स्नान-अभिषेक की व्यवस्था करे । मंडप के कोणों और दिशाओं में कुल मिलकर आठ और मध्य में एक – इसप्रकार नौ पूर्ण कलशोको, जिनमे छिद्र न हों, स्थापित करके उनमे पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय तथा पंचगव्य डाले । पूर्व आदिके कलशों में उक्त वस्तुएँ डालनी चाहिये । अग्निकोण आदि के कलशों में उक्त वास्तुओं के अतिरिक्त पंचामृतयुक्त जल अधिक डालने का विधान है । पाद्य की अंगभूता चार वस्तुएँ हैं – दही, दूध, मधु और गरम जल ।।१३-१९।।
किन्हीं के मतमें कमल, श्यामाक (तिन्निका चावल), दूर्वादल और विष्णुकांता ओषधि – इन चार वस्तुओं से युक्त जल ‘पाद्य’ कहलाता हैं । इसी तरह अर्घ्य के भी आठ अंग कहे गए हैं । जौ, गंध, फल, अक्षत, कुश, सरसों, फुल और तिल – इन आठ द्रव्यों का अर्घ्य के लिये संग्रह करना चाहिये । जाती (जायफल), लवंग और कक्कोलयुक्त जल का आचमन देना चाहिये । इष्टदेव को मूलमंत्र से पंचामृतद्वारा स्नान करावे । बीचवाले कलश से भगवान् के मस्तकपर शुद्ध जल का छींटा दे । कलश से निकले हुए जल एवं कुर्चाग्र का स्पर्श करे । फिर शुद्ध जलसे पाद्य, अर्ध्य और आचमनीय निवेदन करे । तत्पस्च्यात वस्त्र से भगवान् के श्रीविग्रह को पोंछकर वस्त्र धारण करावे और वस्त्र के सहित उन्हें मंडल में ले जाय । वहाँ भलीभाँति पूजा करके प्राणायामपूर्वक कुण्ड आदि में होम करे । (हवन की विधि) दोनों हाथ धोकर कुण्ड में या वेदिपर तीन पूर्वाग्र रेखाएँ खींचे । (ये भी दाहिने से आरम्भ करके क्रमश: बाएं खींची जायँ ) ।।२०-२५।।
तत्पस्च्यात अर्घ्य के जलसे इन रेखाओं का प्रोक्षण करे और योनिमुद्रा दिखावे । अग्निका आत्मरूप से चिन्तन करके मनुष्य योनियुक्त कुण्ड में उसकी स्थापना करे । इसके बाद दर्भ, स्रुक, स्रुवा आदि के साथ पात्रासादन करे । बाहुमात्र की परिधियाँ, इध्मव्रश्चन, प्रणीतापात्र, प्रोक्षणीपात्र, आज्यस्थाली, घी, दो-दो सेर चावल तथा अधोमुख स्रुक और स्रुवा की जोड़ी । प्रणीता एवं प्रोक्षणी में पूर्वाग्र कुश रखे । प्रणीता को जलसे भरकर भगवान का ध्यान-पूजन करके उसको अग्नि के पश्चिम अपने आगे और आसादित द्रव्यों के मध्यमें रखे । प्रोक्षणी को जलसे भरकर पूजन के पश्च्यात दाहिने रखे । आगपर चरु को चढ़ाकर पकावे और अग्नि से दक्षिण दिशामें ब्रह्माजी की स्थापना करे । कुण्ड या वेदी के चारों ओर पुर्वादि दिशामें कुश (बर्हिष) बिछाकर परिधियों को स्थापित करे । तदनंतर गर्भाधानादि संस्कार के द्वारा अग्नि का वैष्णवीकरण करे । गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म एवं नामकरणादि – समवार्तनान्त संस्कार करके प्रत्येक कर्म के लिये आठ-आठ आहुतियाँ दे तथा स्रुवायुक्त स्रुक के द्वारा पूर्णाहुति प्रदान करे ।।२६-३३।।
कुण्ड के भीतर ऋतूस्राता लक्ष्मी का ध्यान करके हवन करे । कुण्ड के भीतर जो लक्ष्मी हैं, उन्हें ‘कुण्डलक्ष्मी’ कहा गया है । वे ही त्रिगुणात्मिका प्रकृति हैं । ‘वे सम्पूर्ण भूतों की तथा विद्या एवं मन्त्र-समुदाय की योनि हैं । परमात्मस्वरुप अग्निदेव मोक्ष के कारण एवं मुक्तिदाता हैं । पूर्व दिशाकी ओर कुण्डलक्ष्मी का सिर है, ईशान और अग्निकोण की ओर उसकी भुजाएँ हैं, वायव्य तथा नैऋत्यकोण में जंघाएँ हैं, उदर को ‘कुण्ड’ कहा है तथा योनि के स्थान में कुण्ड-योनि का विधान है । सत्त्व, रज और तम – ये तीन गुण ही तीन मेखलाएँ हैं ।’ पन्द्रह समिधाओं का होम करे । फिर वायु से लेकर अग्निकोण तक ‘आधार’ नामक दो आहुतियाँ दे । इसी तरह आग्नेय से ईशानन्ततक ‘आज्य-भाग’ नामक आहुतियों का हवन करे । आज्यस्थाली में से उत्तर, दक्षिण और मध्यभाग से घृत लेकर द्वादशान्त से, अर्थात मूल को बारह बार जप कर अग्नि में भी उन्हीं दिशाओं में उसकी आहुति दे और वहीँ उसका त्याग करे । इसके बाद ‘भू: स्वाहा’ इत्यादि रूप से व्याहृति-होम करे । कमल के मध्यभाग में संस्कारसम्पन्न अग्निदेव का ‘विष्णु’ रुपमे ध्यान करे । ‘वे सात जिव्हाओं से युक्त हैं, करोड़ों सूर्यो के समान उनकी प्रभा हैं, चंद्रोपम मुख है और सूर्य-सदृश देदीप्यमान नेत्र है ।’ इस तरह ध्यान करके उनके लिये एक सौ आठ आहुतियाँ दे । अथवा मूल-मन्त्र से उसकी आधी एवं आता आहुतियाँ दे । अंगों के लिये भी दस-दस आहुतियाँ दे ।।३४-४१।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘पवित्रारोपण –सम्बन्धी पूजा-होम-विधि का वर्णन’ विषयक चौतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।३४।।
अध्याय – ३५ पवित्राधिवासन – विधि
अग्निदेव कहते हैं – मुनीश्वर ! सम्पाताहुति से पवित्राओ का सेचन करके उनका अधिवासन करना चाहिये । नृसिंह-मन्त्र का जप करके उन्हें अभिमंत्रित करे और अस्त्रमन्त्र (अस्त्राय फट।) से उन्हें सुरक्षित रखे । पवित्राओं में वस्त्र लपेटे हुए ही उन्हें पात्र में रखकर अभिमंत्रित करना चाहिये । बिल्व आदि के सम्पर्क से युक्त जलद्वारा मंत्रोच्चारणपूर्वक उन सबका एक या दो बार प्रोक्षण करना चाहिये । गुरु को चाहिये कि कुम्भपात्र में पवित्राओं को रखकर उनकी रक्षा के उद्देश्य से उस पात्र से पूर्व-दिशामें संकर्षण मन्त्रद्वारा दंतकाष्ठ और आँवला, दक्षिण-दिशामें प्रद्युम्न मन्त्रद्वारा भस्म और तिल, पश्चिम-दिशा में अनिरुद्धमन्त्रद्वारा गोबर और मिटटी तथा उत्तर दिशामें नारायणमन्त्र द्वारा कुशोदक डाले । तदनंतर अग्निकोण में ह्र्द्यमंत्र से कुंकुम तथा रोचना, ईशानकोण में शिरोमंत्रद्वारा धुप, नैऋत्यकोण में शिखामन्त्रद्वारा दिव्य मुलपुष्प तथा वायव्यकोण में कवचमन्त्रद्वारा चन्दन, जल,अक्षत, दही और दूर्वा को दोने में रखकर छीटे । मंडप को त्रिसुत्र से आवेष्टित करके पुन: सब ओर सरसों बिखेरे ।।१-६।।
देवताओं की जिस क्रम से पूजा की गयी हो, उसी क्रम से , उनके लिये उनके अपने-अपने नाममंत्रो से गंधपवित्रक देना चाहिये । द्वारपाल आदि को नाममंत्रो से ही गंधपवित्रक आर्पित करे । इसी क्रमसे कुम्भ में भगवान् विष्णु को सम्बोधित करके पवित्रक दे – ‘हे देव ! यह आप भगवान् विष्णु के ही तेजसे उत्पन्न रमणीय तथा सर्वपातकनाशन पवित्रक है । यह सम्पूर्ण मनोरथों को देनेवाले हाँ, इसे मैं आपके अंगमे धारण कराता हूँ ।’ धूप-दीप आदि के द्वारा सम्यक पूजन करके मंद्पके द्वार के समीप जाय तथा गंध, पुष्प और अक्षतसे युक्त वह पवित्रक स्वयं को भी अर्पित करे । अपने को अर्पण करते समय इस प्रकार कहे – ‘यह पवित्रक भगवान् विष्णु का तेज है और बड़े-बड़े पातकों का नाश करनेवाला है; मैं धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि के लिये इसे अपने अंगमें धारण करता हूँ ।’ आसनपर भगवान् श्रीहरि के परिवार आदि को एवं गुरुको पवित्रक दे । गंध, पुष्प और अक्षत आदिसे भगवान् श्रीहरि की पूजा करके गंध-पुष्पादि से पूजित पवित्रक श्रीहरि को अर्पित करे । उससमय ‘विष्णुतेजोभवम’ इत्यादि मूलमंत्र का उच्चारण करे ।।७-१२।।
तदनंतर अग्निमें अधिष्ठातारूप से स्थित भगवान् विष्णु को पवित्रक अर्पित करके उन परमेश्वर से यों प्रार्थना करे – ‘केशव ! आपका श्रीविग्रह क्षीरसागर में महानाग (अनंत)- की शय्यापर शयन करनेवाला है । मैं प्रात:काल आप की पूजा करूँगा; आप मेरे समीप पधारिये ।’ इसके बाद इंद्र आदि दिक्पालों को बलि अर्पित करके श्रीविष्णु पार्षदों को भी बलि भेंट करे । इसके बाद भगवान् सम्मुख युगलवस्त्र-भूषित तथा रोचना, कर्पुर, केसर और गंध आदि के जलसे पूरित कलश को गंध-पुष्प आदि से विभूषित करके मूलमंत्र से उसकी पूजा करे । फिर मंडप से बाहर आकर पूर्व दिशामें लिये हुए मंडलत्रय में पंचगव्य, चरू और दन्तकाष्ठ का क्रमश: सेवन करे । रातमें पुराणश्रवण तथा स्तोत्रपाठ करते हुए जागरण करे । पर प्रेषक बबालकों, स्त्रियों तथा भोगिजनों के उपयोग में आनेवाले गंधपवित्रक को छोडकर शेषका तत्काल अधिवासन करे ।।१३-१८।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘पवित्राधिवासन-विधि का वर्णन’ नामक पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।३५।।
अध्याय – ३६ भगवान् विष्णु के लिये पवित्रारोपण की विधि
अग्निदेव कहते हैं – मुने ! परत:काल स्नान आदि करके, द्वारपालों का पूजन करने के पश्च्यात गुप्त स्थान में प्रवेश करके, पूर्वाधिवासित पवित्रक में से एक लेकर प्रसादरूप से धारण कर ले । शेष द्रव्य-वस्त्र, आभूषण, गंध एवं सम्पूर्ण निर्माल्य को हटाकर भगवान् को स्नान कराने के पश्च्यात उनकी पूजा करे । पंचामृत, कषाय एवं शुद्ध गंधोदक से नहलाकर भगवान् के निमित्त पहलेसे रखे हुए वस्त्र, गंध और पुष्प को उनकी सेवामें प्रस्तुत करे । अग्नि में नित्यहोम की भाँती हवन करके भगवान् की स्तुति-प्रार्थना करने के अनन्तर उनके चरणों में मस्तक नवावे । फिर अपने समस्त कर्म भगवान् को अर्पित करके उनकी नैमित्तिकी पूजा करे । द्वारपाल, विष्णु, कुम्भ और वर्धनी की प्रार्थना करे । ‘अतो देवो:’ इत्यादि मन्त्र से, अथवा मूलमंत्र से कलशपर श्रीहरि की स्तुति-प्रार्थना करे – ‘हे कृष्ण ! हे कृष्ण ! आपको नमस्कार है । इस पवित्रक को ग्रहण कीजिये । यह उपासक को पवित्र करने के लिये है और वर्षभर की हुई पूजा के सम्पूर्ण फल को देनेवाला है । नाथ ! पहले मुझसे जो दुष्कृत (पाप) बन गया हो, उसे नष्ट करके आप मुझे परम पवित्र बना दीजिये । देव ! सुरेश्वर ! आपकी कृपा से मैं शुद्ध हो जाऊँगा ।’
ह्रदय, सर आदि मंत्रोद्वारा पवित्रक का तथा अपना भी अभिषेक करके विष्णुकलश का भी प्रोक्षण करने के बाद भगवान् के समीप जाय । उनके रक्षाबंधन को हटाकर उन्हें पवित्रक अर्पण करे और कहे – ‘प्रभो ! मैंने जो ब्रह्मसूत्र तैयार किया है, इसे आप ग्रहण करे । यह कर्म की पूर्तिका साधक है; अत: इस पवित्ररोपण कर्म को आप इस तरह सम्पन्न करें, जिससे मुझे दोष का भागी न होना पड़े’ ।।१-९।।
द्वारपाल, योगपीठासन तथा मुख्य गुरुओं को पवित्रक चढ़ावे । इनमें कनिष्ठ श्रेणीका (नाभितकका) पवित्रक द्वारपालों को, माध्यम श्रेणीका (जाँघतक लटकनेवाला) पवित्रक योगपीठासन को और उत्तम (घुटनेतक का)पवित्रक गुरुजनों को दे । साक्षात भगवान् को मूल-मन्त्र से वनमाला (पैरोंतक लटकनेवाला पवित्रक) अर्पित करे । ‘नमो विश्वक्सेनाय’ मन्त्र बोलकर विश्वक्सेन को भी पवित्रक चढ़ावे । अग्निमें होम करके अग्निस्थ विश्वादि देवताओं को पवित्रक अर्पित करे । तदनंतर पूजन के पश्च्यात मूल-मन्त्र से प्रायश्चित्त के उद्देश्य से पूर्णाहुति देनी चाहिये । मणि या मुन्गों की मालाओं से अथवा मन्दार-पुष्प आदिसे अष्टोत्तरशत की गणना करनी चाहिये । अन्तमें भगवान् से उस प्रकार प्रार्थना करे –‘गरुडध्वज ! यह आपकी वार्षिक पूजा सफल हो । देव! जैसे वनमाला आपके वक्ष:स्थल में सदा शोभा पाती है, उसी तरह पवित्रक के इन तंतुओं को और इनके द्वारा की गयी पूजा को भी आप अपने ह्रदय में धारण करें । मैंने इच्छासे या अनिच्छा से नियमपूर्वक की जानेवाली पूजामें जो त्रुटियाँ की हैं, विघ्नवश विधि के पालन में जो न्यूनता हुई है, अथवा कर्मलोप का प्रसंग आया है, वह सब आपकी कृपा से पूर्ण हो जाय । मेरे द्वारा की हुई आपकी पूजा पूर्णत: सफल हो ‘ ।।१०-१५।।
इसप्रकार प्रार्थना और नमस्कार करके अपराधों के लिये क्षमा माँगकर पवित्रक को मस्तकपर चढ़ावे । फिर यथायोग्य बलि अर्पित करके दक्षिणाद्वारा वैष्णव गुरु को संतुष्ट करे । यथाशक्ति एक दिन या एक पक्षतक ब्राह्मणों को भोजन-वस्त्र आदि से संतोष प्रदान करे । स्नानकाल में पवित्रक को उतारकर पूजा करे । उत्सव के दिन किसी को आनेसे ण रोके और सबको अनिवार्यरूप से अन्न देकर अंतमे स्वयं भी भोजन करे । विसर्जन के दिन पूजन करके पवित्रकोण का विसर्जन करे और इसप्रकार प्रार्थना करे – ‘हे पवित्रक ! मेरी इस वार्षिक पूजा को विधिवत सम्पादित करके अब तुम मेरे द्वारा विसर्जित हो विष्णुलोक को पधारो ।’ उत्तर और ईशानकोण के बीच में विश्वक्सेना की पूजा करके उनके भी ब्राह्मण को दे दे । उस पवित्रक में जितने तन्तु कल्पित हुए है, उतने सहस्त्र युगोंतक उपासक विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है । साधक पवित्रारोपण से अपनी सौ पूर्व पीढ़ियों का उद्धार करके दस पहले और दस बाद की पीढ़ियों को विष्णुलोक में स्थापित करता और स्वयं भी मुक्ति प्राप्त कर लेता है ।।१६-२३।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘विष्णु-पवित्रारोपणविधि –निरूपण’ नामक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।३६।।
अध्याय – ३७ संक्षेप से समस्त देवताओं के लिये साधारण पवित्रारोपण की विधि
अग्निदेव कहते है – मुने ! अब संक्षेप से समस्त देवताओं के लिये पवित्रारोपण की विधि सुनो । पहले जो चिन्ह कहे गये हैं, उन्ही लक्षणों से युक्त पवित्रक देवताको अर्पित किया जाता है । उसके दो भेद होते हैं ‘स्वरस’ और ‘अनलग’ । पहले निम्रांकित रूपसे इष्टदेवता को निमंत्रण देना चाहिये – ‘जगत के कारणभूत ब्रह्मदेव ! आप परिवार सहित यहाँ पधारें । मैं आपको निमंत्रित करता हूँ । कल प्रात:काल आपकी सेवामें पवित्रक अर्पित करूँगा ।’ फिर दूसरे दिन पूजन के पश्च्यात निम्रांकित प्रार्थना करके पवित्रक भेंट करे – ‘संसार की सृष्टि करनेवाले आप विधाता को नमस्कार है । यह पवित्रक ग्रहण कीजिये । इसे अपनेको पवित्र करने के लिये आपकी सेवामें प्रस्तुत किया गया है । यह वर्षभर की पूजा का फल देनेवाला है ।’ ‘शिवदेव ! वेद्वेत्ताओं के पालक प्रभो ! आपको नमस्कार है । यह पवित्रक स्वीकार कीजिये ।
इसके द्वारा आपके लिये मणि, मूंगे और मंदार कुसुम आदि से प्रतिदिन एक वर्षतक की जानेवाली पूजा सम्पादित हो ।’ ‘पवित्रक ! मेरी इस वार्षिक पूजा का विधिवत सम्पादन करके मुझसे विदा लेकर अब तुम स्वर्गलोक को पधारो ।’ ‘सूर्यदेव ! आपको नमस्कार है; यह पवित्रक लीजिये । इसे पवित्रीकरण के उद्देश से आपकी सेवामें अर्पित किया गया है । यह एक वर्ष की पूजा का फल देनेवाला है ।’ ‘गणेशजी ! आपको नमस्कार है; यह पवित्रक स्वीकार कीजिये । इसे पवित्रीकरण के उद्देश्य से दिया गया है । यह वर्षभर की पूजा का फल देनेवाला है।’ ‘शक्तिदेवि ! आपको नमस्कार है; यह पवित्रक लीजिये । इसे पवित्रीकरण के उद्देश्यसे आपकी सेवा में भेंट किया गया है । यह वर्षभर की पूजा का फल देनेवाला है ‘ ।।१-९।।
‘पवित्रक का यह उत्तम सूत नारायणमय और अनिरुद्धमय है । धन-धान्य, आयु तथा आरोग्य को देनेवाला है, इसे मै आपकी सेवामें दे रहा हूँ । यह श्रेष्ठ सूत प्रद्युम्नमय और संकर्षणमय है, विद्या, संतति तथा सौभाग्य को देनेवाला है । इसे मै आपकी सेवामें अर्पित करता हूँ । यह वासुदेवमय सूत्र धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष को देनेवाला है । संसारसागर से पार लगाने का यह उत्तम साधन है, इसे आपके चरणों में चढ़ा रहा हूँ । यह विश्वरूपमय सूत्र सब कुछ देनेवाला और समस्त पापों का नाश करनेवाला है ; भूतकाल के पूर्वजों और भविष्य की भावी संतानों का उद्धार करनेवाला हैं, इसे आपकी सेवामें प्रस्तुत करता हूँ । कनिष्ठ, मध्यम, उत्तम एवं परमोत्तम – इन चार प्रकार के पवित्रकों को मंत्रोच्चारणपूर्वक क्रमश: दान करता हूँ ।।१०-१४।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘संक्षेपत: सर्वदेवसाधारण पवित्ररोपण ‘ नामक सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।३७।।
अध्याय – ३८ देवालय-निर्माण से प्राप्त होनेवाले फल आदि का वर्णन
अग्निदेव कहते हैं – मुनिवर वसिष्ठ ! भगवान् वासुदेव आदि विभिन्न देवताओं के निमित्त मंदिर का निर्माण कराने से जिस फल आदि की प्राप्ति होती हैं, अब मैं उसीका वर्णन करूँगा । जो देवता के लिये मंदिर-जलाशय आदिके निर्माण कराने की इच्छा करता हैं, उसका वह शुभ संकल्प ही उसके हजारों जन्मों के पापों का नाश कर देता हैं । जो मनसे भावनाद्वारा भी मंदिरका निर्माण करते हैं, उनमे सैकड़ों जन्मों के पापों का नाश हो जाता हैं । जो लोग भगवान् श्रीकृष्ण के लिये किसी दुसरे के द्वारा बनवाये जाते हुए मंदिर के निर्माण कार्य का अनुमोदन मात्र कर देते हैं, वे भी समस्त पापों से मुक्त हो उन अच्युतदेव के लोक (वैकुण्ठ अथवा गोलोकधाम को) प्राप्त होते हैं । भगवान् विष्णु के निमित्त मंदिर का निर्माण करके मनुष्य अपने भूतपूर्व तथा भविष्य में होनेवाले दस हजार कुलों को तत्काल विष्णुलोक में जाने का अधिकारी बना देता हैं । श्रीकृष्ण-मंदिर का निर्माण करनेवाले मनुष्य के पितर नरक के क्लेशों से तत्काल छुटकारा पा जाते हैं और दिव्य वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो बड़े हर्ष के साथ विष्णुधाम में निवास करते हैं । देवालय का निर्माण ब्रह्महत्या आदि पापों के पुंज का नाश करनेवाला हैं ।।१-५।।
यज्ञों से जिस फलकी प्राप्ति नहीं होती हैं, वह भी देवालय का निर्माण करानेमात्र से प्राप्त हो जाता है । देवालय का निर्माण करा देनेपर समस्त तीर्थों में स्नान करने का फल प्राप्त हो जाता हैं । देवता-ब्राह्मण आदि के लिये रणभूमि में मारे जानेवाले धर्मात्मा शूरवीरों को जिस फल आदि की प्राप्ति होती हैं, वाही देवालय के निर्माण से भी सुलभ होता हैं । कोई शठता (कंजूसी) के कारण धुल-मिट्टीसे भी देवालय बनवा दे तो वह उसे स्वर्ग या दिव्यलोक प्रदान करनेवाला होता हैं । एकायतन (एक ही देवविग्रह के लिये एक कमरेका ) मंदिर बनवानेवाले पुरुष को स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है । त्र्यायतन –मंदिर का निर्माता ब्रह्मलोक में निवास पाता है ।पंचायतन मंदिर का निर्माण करनेवाले को शिवलोक की प्राप्ति होती है और अष्टायतन मंदिर के निर्माण से श्रीहरि के सनिधिमें रहने का सौभाग्य प्राप्त होता है । जो षोडशायतन मंदिर का निर्माण कराता है, वह भोग और मोक्ष, दोनों पाता है । श्रीहरि के मंदिर की तीन श्रेणियाँ हैं – कनिष्ठ, माध्यम और श्रेष्ठ । इनका निर्माण कराने से क्रमश: स्वर्गलोक, विष्णुलोक तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है । धनि मनुष्य भगवान् विष्णु का उत्तम श्रेणी का मंदिर बनवाकर जिस फल को प्राप्त करता हैं, उसे ही निर्धन मनुष्य निम्नश्रेणी का मंदिर बनवाकर भी प्राप्त कर लेता हैं । धन-उपार्जनकर उसमें से थोडा-सा ही खर्च करके यदि मनुष्य देव-मंदिर बनवा ले तो बहुत अधिक पुण्य एव, भगवान् का वरदान प्राप्त करता हैं । एक लाख या एक हजार या एक सौ अथवा उसका आधा (५०) मुद्रा ही खर्च करके भगवान् विष्णु का मंदिर बनवानेवाला मनुष्य उस नित्य धाम को प्राप्त होता हैं, जहाँ साक्षात् गरुड की ध्वजा फहरानेवाले भगवान् विष्णु विराजमान होते हैं ।।६-१२।।
जो लोग बचपन में खेलते समय धूलि से भगवान् विष्णु का मंदिर बनाते हैं, वे भी उनके धाम को प्राप्त होते हैं । तीर्थमें, पवित्र स्थानमें, सिद्धक्षेत्रमें तथा किसी आश्रमपर जो भगवान् विष्णुका मंदिर बनवाते हैं, उन्हें अन्यत्र मंदिर बनाने का जो फल बताया गया हैं, उससे तीन गुना अधिक फल मिलता हैं । जो लोग भगवान् विष्णु के मंदिर को चुने से लिपाते और उसपर बन्धुक के फुल का चित्र बनाते हैं, वे अन्तमें भगवान् के धाम में पहुँच जाते हैं । भगवान् का जो मंदिर गिर गया हो, गिर रहा हो, अथवा आधा गिर चूका हो, उसका जो मनुष्य जीर्णोद्धार करता हैं, वह नवीन मंदिर बनवाने की अपेक्षा दूना पुण्यफल प्राप्त करता हैं । जो गिरे हुए विष्णु-मंदिर को पुन: बनवाता और गिरे हुए की रक्षा करता है, वह मनुष्य साक्षात भगवान् विष्णु का स्वरुप प्राप्त करता हैं । भगवान् के मंदिर की ईटे जबतक रहती हैं, तबतक उसका बनवालेवाला विष्णुलोक में कुलसहित प्रतिष्ठित होता है । इस संसार में और परलोक में वही पुण्यवान और पूजनीय हैं ।।१३-२०।।
जो भगवान् श्रीकृष्ण का मंदिर बनवाता हैं, वही पुण्यवान उत्पन्न हुआ है, उसीने अपने कुल की रक्षा की है । जो भगवान् विष्णु, शिव, सूर्य और देवी आदिका मंदिर बनवाता है, वाही इस लोकमें कीर्ति का भागी होता हैं । सदा धन की रक्षा में लगे रहनेवाले मुर्ख मनुष्य को बड़े कष्ट से कमाये हुए अधिक धन से क्या लाभ हुआ, यदि उससे श्रीकृष्ण का मंदिर ही नहीं बनवाता । जिसका धन पितरों, ब्राह्मणों और देवताओं के उपयोग में नहीं आ सका, उसके धनकी प्राप्ति व्यर्थ हुई । जैसे प्राणियों की मृत्यु निश्चित हैं, उसी प्रकार कमाये हुए धनका नाश भी निश्चित है । मूर्ख मनुष्य ही क्षणभंगुर जीवन और चचंल धन के मोह में बंधा रहता हैं । जब धन दान के लिये, प्राणियों के उपभोग के लिये, कीर्ति के लिये और धर्म के लिये काम में नहीं लाया जा सके तो उस धन का मालिक बनने में क्या लाभ हैं ? इसलिये प्रारब्ध से मिले अथवा पुरुषार्थसे, किसी भी उपाय से धनको प्राप्तकर उसे उत्तम ब्राह्मणों को दान दें, अथवा कोई स्थिर कीर्ति बनवावे । चूँकि दान और कीर्ति से भी बढ़कर मंदिर बनवाना हैं, इसलिये बुद्धिमान मनुष्य विष्णु आदि देवताओं का मंदिर आदि बनवावे । भक्तिमान श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा यदि भगवान् के मंदिर का निर्माण और उसमें भगवान् का प्रवेश (स्थापन आदि) हुआ तो यह समझना चाहिये कि उसने समस्त चराचर त्रिभुवन को रहनेके लिये भवन बनवा दिया । ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त जो कुछ भी भूत, वर्तमान, भविष्य, स्थूल, सूक्ष्म और इससे भिन्न है, वह सब भगवान् विष्णु से प्रकट हुआ है । उन देवाधिदेव सर्वव्यापक महात्मा विष्णु का मंदिर में स्थापन करके मनुष्य पुन:संसार में जन्म नहीं लेता (मुक्त हो जाता हैं) । जिसप्रकार विष्णु का मंदिर बनवाने में फल बताया गया हैं, उसीप्रकार अन्य देवताओं- शिव, ब्रह्मा, सूर्य, गणेश, दुर्गा और लक्ष्मी आदि का भी मंदिर बनवाने से होता हैं । मंदिर बनवाने से अधिक पुण्य देवताकी प्रतिमा बनवाने में हैं । देव-प्रतिमा की स्थापना-सम्बन्धी जो यज्ञ होता है, उसके फल का तो अंत ही नहीं हैं । कच्ची मिटटी की प्रतिमासे लकड़ी की प्रतिमा उत्तम है, उससे ईट की, उससे भी पत्थर की और उससे भी अधिक सुवर्ण आदि धातुओं की प्रतिमा का फल है । देवमंदिर का प्रारम्भ करने मात्र से सात जन्मों के किये हुए पाप का नाश हो जाता है तथा बनवानेवाला मनुष्य स्वर्गलोक का अधिकारी होता है, वह नरक में नहीं जाता । इतना ही नहीं, वह मनुष्य अपनी सौ पीढ़ी का उद्धार करके उसे विष्णुलोक में पहुंचा देता हैं । यमराज ने अपने दूतों से देवमंदिर बनानेवालों को लक्ष्य करके ऐसा कहा था ।।२१-३५।।
यम बोले – (देवालय और) देव-प्रतिमा का निर्माण तथा उसकी पूजा आदि करनेवाले मनुष्यों को तुमलोग नरक में न ले आना तथा जो देव-मन्दिर आदि नहीं बनवाते, उन्हें ख़ास तौरपर पकड़ लाना । जाओ ! तुमलोग संसार में विचरो और न्यायपूर्वक मेरी आज्ञाका पालन करो । संसार के कोई भी प्राणी कभी तुम्हारी आज्ञा नहीं टाल सकेंगे । केवल उन लोगों को तुम छोड़ देना जो कि जगत्पिता भगवान् अनंत की शरण में जा चुके हैं; क्योंकि उन लोगों की स्थिति यहाँ (यमलोक में) नहीं होती । संसार में जहाँ भी भगवान् में चित्त लगायें हुए, भगवान् की ही शरण में पड़े हुए भगवद्भक्त महात्मा सदा भगवान् विष्णु की पूजा करते हों, उन्हें दूरसे ही छोडकर तुम लोग चले जाना । जो स्थिर होते, सोते, चलते, उठते, गिरते, पड़ते या खड़े होते समय भगवान् श्रीकृष्ण का नाम-कीर्तन करते हैं, उन्हें दूरसे ही त्याग देना । जो नित्य-नैमित्तिक कर्मोंद्वारा भगवान् जनार्दन की पूजा करते हैं, उनकी ओर तुम लोग आँख उठाकर देखना भी नहीं; क्योंकि भगवान् का व्रत करनेवाले लोग भगवान् को ही प्राप्त होते हैं ।।३६-४१।।
जो लोग फुल, धूप, वस्त्र और अत्यंत प्रिय आभूषणोंद्वारा भगवान् की पूजा करते हैं, उनका स्पर्श न करना; क्योंकि वे मनुष्य भगवान् श्रीकृष्ण के धाम को पहुँच चुके हैं । जो भगवान् क मंदिर में लेप करते या बुहारी लगाते हैं, उनके पुत्रों को तथा उनके वंश को भी छोड़ देना । जिन्होंने भगवान् विष्णु का मंदिर बनवाया हो, उनके वंशमें सौ पिढीतक के मनुष्यों की ओर तुमलोग बुरे भावसे ण देखना । जो लकड़ी का पत्थर का अथवा मिटटी का ही देवालय भगवान् विष्णु के लिये बनवाता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है । प्रतिदिन यज्ञोंद्वारा भगवान् की आराधना करनेवाले को जो महान फल मिलता हैं, उसी फलको, जो विष्णु का मंदिर बनवाता है, वह भी प्राप्त करता हैं । जो भरवान अच्युत का मंदिर बनवाता है, वह अपनी बीती हुई सौ पीढ़ी के पितरों को तथा होनेवाले सौ पीढ़ी के वंशजों को भगवान् विष्णु के लोक को पहुँचा देता है । भगवान् विष्णु सप्तलोकमय हैं । उनका मंदिर जो बनवाता है, वह अपने कुल को तारता हिन्, उन्हें अक्षय लोकों की प्राप्ति कराता हैं और स्वयं भी अक्षय लोकों को प्राप्त होता है । मंदिर में ईट के समूह का जोड़ जितने वर्षोतक रहता हैं, उतने ही हजार वर्षोतक उस मंदिर के बनवानेवाले की स्वर्गलोक में स्थिति होती है । भगवान् की प्रतिमा बनानेवाला विष्णुलोक को प्राप्त होता है, उसकी स्थापना करनेवाला भगवान् में लीन हो जाता है और देवालय बनवाकर उसमें प्रतिमा की स्थापना करनेवाला सदा भगवान् के लोक में निवास पाता हैं ।। ४२-५० ।।
अग्निदेव बोले – यमराज के इसप्रकार आज्ञा देनेपर यमके दूत भगवान् विष्णु की स्थापना आदि करनेवालों को यमलोक में नहीं ले जाते । देवताओं की प्रतिष्ठा आदि की विधिक भगवान् हयग्रीव ने ब्रह्माजी से वर्णन किया था ।।५१।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘देवालय-निर्माण माहात्म्यदिका वर्णन’ नामक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।३८।।
अध्याय – ३९ विष्णु आदि देवताओं की स्थापना के लिये भूपरिग्रह का विधान
भगवान् हयग्रीव कहते हैं – ब्रह्मन ! अब मैं विष्णु आदि देवताओं की प्रतिष्ठा के विषय में कहूँगा, ध्यान देकर सुनिये । इस विषय में मेरे द्वारा वर्णित पंचरात्रों एवं सप्तरात्रों का ऋषियों ने मानवलोक में प्रचार किया है । वे संख्यामें पच्चीस हैं । (उनके नाम इसप्रकार हैं) – आदिहयशीर्षतन्त्र, त्रैलोक्यमोहनतन्त्र, वैभवतन्त्र, पुष्करतन्त्र, प्रह्रादतन्त्र, गार्ग्यतन्त्र, गालवतन्त्र, नारदीयतन्त्र, श्रीप्रश्नतन्त्र, शाण्डिल्यतन्त्र, ईश्वरतन्त्र, शौनकतन्त्र, वसिष्ठोक्त ज्ञानसागरतन्त्र, स्वायम्भुवतन्त्र, कापिलतन्त्र, ताक्षर्य (गारुड) तन्त्र, नारायणीयतन्त्र, आत्रेयतन्त्र, नारसिंहतन्त्र, आनंदतन्त्र, आरुणतन्त्र, बौधायनतन्त्र, अष्टांगतन्त्र और विश्वतन्त्र ।।१-५।।
इन तंत्रों के अनुसार मध्यदेश आदि में उत्पन्न द्विज देवविग्रहों की प्रतिष्ठा करे । कच्छदेश, कावेरीतटवर्ती देश, कोंकण, कामरूप, कलिंग, कांची, तथा काश्मीर देशमें उत्पन्न ब्राह्मण देव् प्रतिष्ठा आदि न करे । आकाश, वायु, तेज, जल एवं पृथ्वी – ये पंचमहाभूत पंचरात्र हैं । जो चेतनाशून्य एवं अज्ञानान्धकार से आच्छन्न हैं, वे पंचरात्र से रहित हैं । जो मनुष्य यह धारणा करता हैं कि ‘मैं पापमुक्त परब्रह्म विष्णु हूँ’ – वह देशिक होता है । वह समस्त बाह्य लक्षणों (वेश आदि) से हीन होनेपर भी तंत्रवेत्ता आचार्य माना गया हैं ।।६-८।।
देवताओं की नगराभिमुख स्थापना करनी चाहिये । नगरकी ओर उनका पृष्ठभाग नहीं होना चाहिये । कुरुक्षेत्र, गया आदि तीर्थस्थानों में अथवा नदी के समीप देवालय का निर्माण कराना चाहिये । ब्रह्मा का मंदिर नगर के मध्य में तथा इंद्र का पूर्व दिशामें उत्तम माना गया है । अग्निदेव तथा मातृकाओं का आग्नेयकोण में, भूतगण और यमराज का दक्षिण में, चंडिका, पितृगण एवं दैत्यादि का मंदिर नैऋत्यकोण में बनवाना चाहिये । वरुण का पश्चिम में, वायुदेव और नाग का वायव्यकोण में, यक्ष या कुबेर का उत्तर दिशामें, चंडीश – महेश का ईशानकोण में और विष्णुका मंदिर सभी ओर बनवाना श्रेष्ठ हैं । ज्ञानवान मनुष्य को पूर्ववर्ती देव-मंदिर को संकुचित करके अल्प, समान या विशाल मंदिर नहीं बनवाना चाहिये ।।९-१३।।
(किसी देव मंदिर के समीप मंदिर बनवानेपर) दोनों मंदिरों की ऊँचाई के बराबर दुगुनी सीमा छोड़कर नवीन देव-प्रासाद का निर्माण करावे । विद्वान् व्यकित दोनों मंदिरों को पीड़ित न करे ।
भूमिका शोधन करने के बाद भूमि-परिग्रह करे । तदनंतर प्राकारकी सीमातक माष, हरिद्राचुर्ण, खील, दधि और सक्तुसे भूतबलि प्रदान करे । फिर अष्टाक्षरमन्त्र पढ़कर आठों दिशाओं में सक्तु बिखेरते हुए कहे – ‘इस भूमिखंडपर जो राक्षस एवं पिशाच आदि निवास करते हों, वे सब यहांसे चले जाय । मैं यहाँपर श्रीहरि के लिये मंदिर का निर्माण करूँगा ।’ फिर भूमिको हलसे जुतवाकर गोचारण करावे । आठ परमाणु का ‘रथरेणु’ माना गया है । आठ रथरेणु का ‘त्रसरेणु’ माना जाता है । आठ त्रसरेणु का ‘बालाग्र’ तथा आता बालाग्र की ‘लिक्षा’ कही जाती है } आठ लिक्षा की ‘यूका’, आठ यूकाका ‘यवमध्यम’, आठ यव का ‘अंगुल’, चौबीस अंगुल का ‘कर’ और अट्ठाईस अंगुल का ‘पद्महस्त’ होता हैं ।।१४-२१।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में विष्णु आदि देवताओं की स्थापना के लिये ‘भूपरिग्रह का वर्णन’ नामक उन्तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।३९।।
अध्याय – ४० वास्तुमंडलवर्ती देवताओं के स्थापन, पूजन, अर्घ्यदान तथा बलिदान आदि की विधि
भगवान् हयग्रीव कहते हैं – ब्रह्मन ! पूर्वकाल में सम्पूर्ण भूत-प्राणियों के लिये भयंकर एक महाभूत था । देवताओं ने उसे भूमि में निहित कर दिया । उसीको ‘वास्तुपुरुष’ माना गया है । चतु:षष्टि पदों से युक्त क्षेत्र में अर्धकोण में स्थित ईश (या शिखी) को घृत एवं अक्षतों से तृप्त करे । फिर एक पद में स्थित पर्जन्य को कमल तथा जलसे, दो पदों में स्थित जयंत को पताकासे. दो कोष्ठों में स्थित महेंद्र को भी उसीसे, द्विपदस्थ रवि को सभी लाल रंग की वस्तुओं से संतुष्ट करे । दो पदों में स्थित सत्यको वितान (चंदोवों) से एवं एकपदस्थ भृश को घृत से, अग्निकोणवर्ती अर्धपद में स्थित व्योम (आकाश) को शाकुन नामक औषध के गुदे से, उसी कोण के दुसरे अर्धपद में स्थित अग्निदेव को स्रुक से , एकपदस्थ पूषा को लाजा (खील) से, द्विपदस्थ वितथ को स्वर्ण से, एकपदस्थ गृहक्षत को माखन से, एक पद में स्थित यमराज को उड़दमिश्रित भात से, द्विपदस्थ गंधर्व को गंध से, एकपदस्थ भृंग को शाकुनजिव्हा नामक ओषधि से , अर्धपद में स्थित मृग को नील वस्त्र से, अर्धकोष्ठ के निम्नभाग में विद्यमान पितृगण को कृशर (खिचड़ी) से, एकपद्स्थ दौवारिक को दंतकाष्ठ से एवं दो पदों में स्थित सुग्रीव को यव-निर्मित पदार्थ (हलुवा आदि) से परितृप्त करे ।।१-७।।
द्विपदस्थ पुष्पदन्त को कुश-समूहों से, दो पदों में स्थित वरुण को पद्म से, द्विपदस्थ असुर को सुरा से, एक पद में स्थित शेष को घृतमिश्रित जल से, अर्धपदस्थित पाप (या पापयक्ष्मा) को यवान्न से, अर्धपदस्थ रोग को मांड से, एकपदस्थित नाग को नागपुष्प से, द्विपदगत मुख्य को भक्ष्य पदार्थों से, एकपदस्थ भल्लाट को मूँग-भात से, एकपद संस्थित सोम को मधुयुक्त खीर से, दो पदों में अधिष्ठित ऋषि को शालूक से, एक पद में विद्यमान अदिति को लोपिका से एवं अर्धपद्स्थ दिति को पूरियोंद्वारा संतुष्ट करे । फिर ईशानस्थित ईश के निम्न भाग में अर्धपदस्थित ‘आप’ को दुग्ध से एवं उसके नीचे अर्धपद में अधिष्ठित आप-वत्स को दही से संतुष्ट करे । साथ ही पूर्ववर्ती कोष्ठ-चतुष्टय में मरीचि को लड्डू देकर तृप्त करे । ब्रह्मा के ऊर्ध्वभाग के कोणस्थित कोष्ठ में अर्धपद्स्थ सावित्र को रक्तपुष्प निवेदन करे । उसके निम्नवर्ती अर्ध कोष्ठक में स्थित सविता को कुशोदक प्रदान करे । चार पदों में स्थित विवस्वान को रक्तचंदन, नैऋत्यकोणवर्ती अर्धकोष्ठ में स्थित सुराधिप इंद्र को हरिद्रामिश्रित जल का अर्घ्य दे । उसीके अर्धभाग में कोणवर्ती कोष्ठक में स्थित इन्द्रजय को घृत का अर्घ्य दे । चतुष्पद में मित्र को गुड़युक्त पायस दे । वायव्यकोण के आधे कोष्ठक में प्रतिष्ठित रूद्र को पकायी हुई उड़द (या उसका बड़ा) एवं उसके अधोवर्ती अर्धकोष्ठ में स्थित यक्ष (या रुद्र्दास) को आर्द्रफल (अंगूर,सेव आदि) समर्पित करे । चतुष्पदवर्ती महीधर (या पृथ्वीधर) को उड़दमिश्रित अन्न एवं माष (उड़द) की बलि दे । मध्यवर्ती कोष्ठ-चतुष्टय में भगवान् ब्रम्हा के निमित्त तिल-तंडुल स्थापित करे । चरकी को उड़द और घृत से, स्कन्द को खिचड़ी तथा पुष्पमाला से, विदारी को लाल कमल से, कन्दर्प को एक पलके तोलवाले भात से, पूतना को पलपित्त से, जम्भक को उड़द एवं पुष्पमाला से, पापा या पापराक्षसी को पित्त, पुष्पमाला एवं अस्थियों से तथा पिलीपीत्स को भाँती-भाँती की माला के द्वारा संतुष्ट करे । तदनंतर ईशान आदि दिक्पालों को लाल उड़द की बलि दे । इन सबके अभाव में अक्षतों से सबकी पूजा करनी चाहिये । राक्षस, मातृका, गण, पिशाच, पितर एवं क्षेत्रपाल को भी इच्छानुसार (दही-अक्षत या दही-उड़द की) बलि प्रदान करनी चाहिये ।।८-२१।।
वास्तु-होम एवं बलि-प्रदान से इनकी तृप्ति किये बिना प्रासाद आदि का निर्माण नहीं करना चाहिये । ब्रह्मा के स्थान में श्रीहरि, श्रीलक्ष्मीजी तथा गणदेवता की पूजा करें । फिर भूमि, वास्तुपुरुष एवं वर्धनीयुक्त कलश का पूजन करे । कलश के मध्य में ब्रह्मा तथा दिक्पालों का यजन करे । फिर स्वस्तिवाचन एवं प्रणाम करके पूर्णाहुति दे । ब्रह्मन ! तदनंतर गृहपति हाथ में छिद्रयुक्त जलपात्र लेकर विधिपूर्वक दक्षिणावर्त मंडल बनाते हुए सुत्रमार्ग से जलधारा को घुमावे । फिर पूर्ववत उसी मार्ग से सात बीजों का वपन करे । उसी मार्गसे खात (गड्डे) का आरम्भ करे । तदनंतर मध्य में हाथभर चौड़ा एवं चार अंगुल नीचा गर्त खोद ले । उसको लीप-पोतकर पूजन प्रारम्भ करे । सर्वप्रथम चार भुजाधारी श्रीविष्णु भगवान् का ध्यान करके उन्हें कलश से अर्घ्य प्रदान करे । फिर छिद्रयुक्त जलपात्र (झारी) से गर्त को भरकर उसमें श्वेत पुष्प डाले । उस श्रेष्ठ दक्षिणावर्त गर्त को बीज एवं मृतिका से भर दे । इसप्रकार अर्घ्यदान का कार्य निष्पन्न करके आचार्य को गो-वस्त्रादि का दान करे । ज्यौतिषी और स्थपति (राजमिस्त्री) का यथोचित सत्कार करके विष्णुभक्त और सूर्य का पूजन करे । फिर भूमि को यत्नपूर्वक जलपर्यंत खुद्वावे । मनुष्य के बराबर की गहराई से नीचे यदि शल्य हो तो वह गृह के लिये दोषकारक नहीं होता हैं । अस्थि होनेपर घर की दीवार टूट जाती है और गृहपति को सुख नहीं प्राप्त होता है । खुदाई के समय जिस जीव जन्तु का नाम सुनायी दे जाय, वह शल्य उसी जीव के शरीर से उद्भूत जानना चाहिये ।।२२-३१।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘वास्तु-देवताओं के अर्घ्य-दान-विधान आदि का वर्णन’ नामक चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।४०।।
अध्याय – ४१ शिलान्यास की विधि
भगवान् हयग्रीव बोले – अब मैं शिलान्यासस्वरूपा पाद-प्रतिष्ठा का वर्णन करूँगा । पहले मंडप बनाना चाहिये; फिर उसमें चार कुण्ड बनावे । वे कुण्ड क्रमश: कुम्भन्यास (कलश की स्थापना), इष्टकान्यास (ईट या पत्थर की स्थापना), द्वार और खम्भे के शुभ आश्रय होंगे । कुण्ड का तीन चौथाई हिस्सा कंकड़ आदिसे भर दे और बराबर करके उसपर वास्तुदेवता का पूजन करे । नींव में डाली जानेवाली ईटे खूब पकी हों; बारह-बारह अंगुल की लम्बी हों तथा विस्तार के तिहाई भाग के बराबर, अर्थात चार अंगुल उनकी मोटाई होनी चाहिये । अगर पत्थर का मंदिर बनवाना हो तो ईट की जगह पत्थर ही नींव में डाला जायगा । एक-एक पत्थर एक-एक हाथ का लंबा होना चाहिये । ताँबे के नौ कलशों की, अन्यथा मिट्टीके बने नौ कलशों की स्थापना करे । जल, पंचकषाय (तन्त्र के अनुसार निम्नांकित पाँच वृक्षों का कषाय – जामुन, सेमर, खिरेंटी, मौलसिरी और बेर । यह कषाय वृक्ष की छाल को पानीमें भिगोकर निकाला जाता है और कलश में डालने एवं दुर्गापूजन आदिके काम आता है ।), सर्वोषधि और चंदनमिश्रित जलसे उन कलशों को पूर्ण करना चाहिये । इसीप्रकार सोना, धान आदिसे युक्त तथा गंध-चंदन आदि से भलीभाँति पूजित करके उन जलपूर्ण कलशोंद्वारा ‘आपो हि ष्ठा’ इत्यादि तीन ऋचाओं, ‘शं नो देविरभिष्टय’ आदि मन्त्रों ‘तरत्स मन्दी:’ इत्यादि मन्त्र एवं पावमानी ऋचाओं के तथा ‘उदुत्तमं वरुण’ ‘कया न:’ और ‘वरुणस्योत्तम्भनमसि’ इत्यादि मन्त्रों के पाठ्पुर्वक ‘हंस: शुचिषद’ इत्यादि मन्त्र तथा श्रीसूक्तका भी उच्चारण करते हुए बहुत सी शिलाओं अथवा ईटों का अभिषेक करे । फिर उन्हें नींव में स्थापित करके मंडप के भीतर एक शय्यापर पुर्वमंडल में भगवान् श्रीविष्णु का पूजन करे । अरणी-मंथनद्वारा अग्नि प्रकट करके द्वादशाक्षर मन्त्र से उसमें समिधाओं का हवन करना चाहिये ।।१-९।।
‘आधार’ और ‘आज्यभाग’ नामक आहुतियाँ प्रणवमन्त्र से ही करावे । फिर अष्टाक्षर मन्त्र से आठ आहुति देकर ॐ भू: स्वाहा, ॐ भुव: स्वाहा, ॐ स्व:स्वाहा – इसप्रकार तीन व्याहृतियों से क्रमश: लोकेश्वर अग्नि, सोमग्रह और भगवान् पुरुषोत्तम के निमित्त हवन करे । इसके बाद प्रायश्चितसंज्ञक हवन करके प्रणवयुक्त द्वादशाक्षर मन्त्र से उड़द, घी और तिल को एक साथ लेकर पूर्णाहुति हवन करना चाहिये । तत्पस्च्यात आचार्य पूर्वाभिमुख होकर आठ दिशाओं में स्थापित कलशों पर पृथक-पृथक पद्म आदि देवताओं का स्थापन पूजन करे । बीच में भी धरती लीपकर पत्थर की एक शिला और कलश स्थापित करे । इन नौ कलशों पर क्रमश: नीचे लिखे देवताओं की स्थापना करनी चाहिये ।।१०-१३।।
पद्म, महापद्म, मकर, कच्छप, कुमुद, आनन्द, पद्म और शंख – इनको आठ कलशों में और पद्मिनी को मध्यवर्ती कलशपर स्थापित करे ।।१४।।
इन कलशों को हिलावे-डुलावे नहीं ; उनके निकट पूर्व आदिके क्रमसे ईशानकोण तक एक-एक ईट रख दे । फिर उनपर उनकी देवता विमला आदि शक्तियों का न्यास करना चाहिये । बीच में ‘अनुग्रहा’ की स्थापना करे । इसके बाद इस प्रकार प्रार्थना करे – ‘मुनिवर अंगीरा की सुपुत्री इष्ट का देवी, तुम्हारा कोई अंग टुटा-फूटा या खराब नहीं हुआ हैं; तुम अपने सभी अंगों से पूर्ण हो । मेरा अभीष्ट पूर्ण करो । अब मैं प्रतिष्ठा करा रहा हूँ ।।१५-१७।।
उत्तम आचार्य इस मंत्रसे इश्थ्काओं की स्थापना करने के पश्च्यात एकाग्रचित्त होकर मध्यवाले स्थान में गर्भाधान करे । (उसकी विधि यों है ) – एक कलश के ऊपर देवेश्वर भगवान् नारायण तथा पद्मिनी (लक्ष्मी) देवी को स्थापित करके उनके पास मिटटी, फुल, धातु और रत्नों को रखे । इसके बाद लोहे आदिके बने हुए गर्भपात्र में, जिसका विस्तार बारह अंगुल और ऊँचाई चार अंगुल हो, अस्त्र की पूजा करे । फिर ताँबे के बने हुए कमल के आकारवाले एक पात्र में पृथ्वी का पूजन करे और इसप्रकार प्रार्थना करे – ‘सम्पूर्ण भूतों की ईश्वरी पृथ्वीदेवी ! तुम पर्वतों के आसन से सुशोभित हो; चारों ओर समुद्रों से घिरी हुई हो; एकांत में गर्भ धारण करो । वसिष्ठ्कन्या नंदा ! वसुओं और प्रजाओं के सहित तुम मुझे आनंदित करो । भार्गवपुत्री जया ! तुम प्रजाओं को विजय दिलानेवाली हो । (मुझे भी विजय दो ।) अंगीरा की पुत्री पूर्णा ! तुम मेरी कामनाएँ पूर्ण करो । महर्षि कश्यप की कन्या भद्रा ! तुम मेरी बुद्धि कल्याणमयी कर दो । सम्पूर्ण बीजों से युक्त और समस्त रत्नों एवं औषधों से सम्पन्न सुन्दरी जया देवी तथा वसिष्ठपुत्री नंदा देवी ! यहाँ आनंदपूर्वक रम जाओ । हे कश्यप की कन्या भद्रा ! तुम प्रजापति की पुत्री हो, चारों ओर फैली हुई हो, परम महान हो; साथ ही सुन्दरी और सुकांत हो, इस गृह में रमण करो । हे भार्गवी देवी ! तुम परम आश्चर्यमयी हो, गंध और माल्य आदिसे सुशोभित एवं पूजित हो; लोकों को ऐश्वर्य प्रदान करनेवाली देवि ! तुम इस गृह में रमण करो । इस देश के सम्राट, इस नगर के राजा और इस घर के मालिक के बाल-बच्चों को तथा मनुष्य आदि प्राणियों को आनंद देने के लिये पशु आदि सम्पदा की वृद्धि करो । इसप्रकार प्रार्थना करके वास्तु-कुण्ड को गोमूत्र से सींचना चाहिये ।।१८-२८।।
यह सब विधि पूर्ण करके कुण्ड में गर्भ को स्थापित करे । यह गर्भाधान रात में होना चाहिये । उससमय आचार्य को गौ-वस्त्र आदि दान करे तथा अन्य लोगों को भोजन दे । इसप्रकार गर्भपात्र रखकर और ईटों को भी रखकर उस कुण्ड को भर दे । तत्पस्च्यात मंदिर की ऊंचाई के अनुसार प्रधानदेवता के पीठ का निर्माण करे । ‘उत्तम पीठ’ बह हैं जो ऊंचाई में मंदिर के आधे विस्तार के बराबर हो । उत्तम पीठ की अपेक्षा एक चौथाई कम ऊँचाई होनेपर मध्यम पीठ कहलाता है और उत्तम पीठ की आधी ऊँचाई होनेपर ‘कनिष्ठ पीठ’ होता है । पीठ बंध के ऊपर पुन: वास्तुयाग (वास्तुदेवता का पूजन) करना चाहिये । केवल पाद-प्रतिष्ठा करनेवाला मनुष्य भी सब पापों से रहित होकर देवलोक में आनंद-भोग करता हैं ।।२९-३२।।
मैं देवमंदिर बनवा रहा हूँ, ऐसा जो मनसे चिन्तन भी करता है, उसका शारीरिक पाप उसी दिन नष्ट हो जाता है । फिर जो विधिपूर्वक मंदिर बनवाता है, उसके लिये तो कहना ही क्या हैं ? जो आठ ईटों का भी देवमंदिर बनवाता हैं, उसके फल की सम्पत्ति का भी कोई वर्णन नहीं कर सकता । इसीसे विशाल मंदिर बनवाने से मिलनेवाले महान फलका अनुमान कर लेना चाहिये ।।३३-३५।।
गाँव के बीचमें अथवा गाँव से पूर्वदिशा में यदि मंदिर बनवाया जाय तो उसका दरवाजा पश्चिम की ओर रखना चाहिये और सब कोणों में से किसी ओर बनवाना हो तो गाँव की ओर दरवाजा रखे । गाँव से दक्षिण. उत्तर या पश्चिमदिशा में मंदिर बने, तो उसका दरवाजा पूर्वदिशा की ओर रखना चाहिये ।।३६-३७।।
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘सर्वशिलाविन्यासविधान आदिका कथन’ नामक इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।४१।।
अध्याय – ४२ प्रसाद –लक्षण – वर्णन
भगवान् हयग्रीव कहते हैं–ब्रह्मन्! अब मैं सर्वसाधारण प्रासाद (देवालय)-का वर्णन करता हूँ, सुनो।
विद्वान् पुरुषको चाहिये कि जहाँ मन्दिरका निर्माण कराना हो, वहाँके चौकोर क्षेत्रके सोलह भाग करे। उसमें मध्यके चार भागोंद्वारा आयसहित गर्भ (मन्दिरके भीतरी भागकी रिक्त भूमि) निश्चित करे तथा शेष बारह भागोंकी दीवार उठाने के लियें नियत करे।
उक्त बारह भागोंमेंसे चार भागकी जितनी लंबाई है, उतनी ही ऊँचाई प्रासादकी दीवारोंकी होनी चाहिये। विद्वान् पुरुष दीवारोंकी ऊँचाईसे दुगुनी शिखरकी ऊँचाई रखे। शिखरके चौथे भागकी ऊँचाईके अनुसार मन्दिरकी परिक्रमाकी ऊँचाई रखे। उसी मानके अनुसार दोनों पार्श्व भागोंमें निकलनेका मार्ग (द्वार) बनाना चाहिये। वे द्वार एक–दूसरेके समान होने चाहिये। मन्दिरके सामनेके भूभागका विस्तार भी शिखरके समान ही करना चाहिये। जिस तरह उसकी शोभा हो सके, उसके अनुरूप उसका विस्तार शिखरसे दूना भी किया जा सकता है।
मन्दिरके आगेका सभामण्डप विस्तारमें मन्दिरके गर्भसूत्रसे दूना होना चाहिये। मन्दिरके पादस्तम्भ आदि भितिके बराबर ही लंबे बनाये जार्यं । वे मध्यवतीं स्तम्भोंसे विभूषित हों। अथवा मन्दिरके गर्भका जो मान है, वही उसके मुख–मण्डप (सभामण्डप या जगमोहन)-का भी रखे।
तत्पश्चात् इक्यासी पदों (स्थानों)-से युक्त वास्तु–मण्डपका आरम्भ करे । इनमें पहले द्वारन्याससे समीपवर्ती पदोंके भीतर स्थित होनेवाले देवताओंका पूजन करे। फिर परकोटेके निकटवर्ती एवं सबसे अन्तके पदोंमें स्थापित होनेवाले बतीस देवताओंकी पूजा करें ॥ ८ ॥ यह प्रासादका सर्वसाधारण लक्षण है।
अब प्रतिमाके मानके अनुसार दूसरे प्रासादका वर्णन सुनो ॥ ९ ॥
जितनी बड़ी प्रतिमा हो, उतनी ही बड़ी सुन्दर पिण्डी बनावे। पिण्डीके आधे मानसे गर्भका निर्माण करे और गर्भके ही मानके अनुसार भित्तियाँ उठावे। भीतोंकी लंबाईके अनुसार ही उनकी ऊँचाई रखे। विद्वान् पुरुष भीतरकी ऊँचाईसे दुगुनी शिखरकी ऊँचाई करावे । शिखरकी अपेक्षा चौथाई ऊँचाईमें मन्दिरकी परिक्रमा बनवावे तथा इसी ऊँचाईमें मन्दिरके आगेके मुख-मण्डपका भी निर्माण करावे ॥ १०-१२ ॥
गर्भके आठवें अंशके मापका रथकोंक निकलनेका मार्ग (द्वार) बनावे । अथवा परिधि के तृतीय भागके अनुसार वहाँ रथकों (छोटे-छोटे रथों)- की रचना करावे तथा उनके भी तृतीय भागके मापका उन रथोंके निकलनेके मार्ग (द्वार)-का निर्माण करावे। तीन रथकोंपर सदा तीन वामोंकी स्थापना करें ॥ १३-१४ ॥
शिखरके लिये चार सूत्रोंका निपातन करे। शुकनासाके ऊपरसे सूतको तिरछा गिरावे। शिखरके आधे भाग में सिंह की प्रतिमाका निर्माण करावे। शुकनासापर सूतको स्थिर करके उसे मध्य संधितक ले जाय ॥ १५–१६ ॥
इसी प्रकार दूसरे पार्श्वमें भी सूत्रपात करे।
शुकनासाके ऊपर वेदी हो और वेदीके ऊपर आमलसार नामक कण्ठसहित कलशका निर्माण कराया जाय। उसे विकराल न बनाया जाय। जहाँतक वेदीका मान है, उससे ऊपर ही कलशकी कल्पना होनी चाहिये।
मन्दिरके द्वारकी जितनी चौड़ाई हो, उससे दूनी उसकी उंचाई रखनी चाहिये। द्वारको बहुत ही सुन्दर और शोभासम्पन्न बनाना चाहिये। द्वारके ऊपरी भागमें सुंदर मङ्गलमय वस्तुओंके साथ गूलरकी दो शाखाएँ स्थापित करे (खुदवावे) ॥१७–१९॥
द्वारके चतुर्थाशमें चण्ड, प्रचण्ड, विश्वक्सेन और वत्सदण्ड–इन चार द्वारपालोंकी मूर्तियोंका निर्माण करावे ।
गूलरकी शाखाओंके अर्ध भागमें सुंदर रूपवाली लक्ष्मीदेवीके श्रीविग्रहको अङ्कित करे। उनके हाथ में कमल हो और दिग्गज कलशोंके जलद्वारा उन्हें नहला रहे हों।
मन्दिरके परकोटेकी ऊँचाई उसके चतुर्थाशके बराबर हो।
प्रासादके गोपुरकी ऊँचाई प्रासादसे एक चौथाई कम हो।
यदि देवताका विग्रह पाँच हाथका हो तो उसके लिये एक हाथ की पीठिका होनी चाहिये।
विष्णु–मन्दिरके सामने एक गरुडमण्डप तथा भौमादि धामका निर्माण कणवे।
भगवानके श्रीविग्रहके सब ओर आठों दिशाओंके उपरी भागमें भगवत्प्रतिमासे दुगुनी बड़ी अवतारोंकी मूर्तियाँ बनावे।
पूर्व दिशामें वराह, दक्षिणमें नृसिंह, पश्छिममें श्रीधर, उत्तरमें हयग्रीव, अग्निकोणमें परशुराम, नैऋत्यकोणमें श्रीराम, वायव्यकोणमें वामन तथा ईशानकोणमें वासुदेवकी मूर्तिका निर्माण करे।
प्रासाद–रचना आठ बारह आदि समसंख्यावाले स्तम्भोंद्वारा करनी चाहिये।
द्वारके अष्टम आदि अंश को छोड़कर जो वेध होता है, वह दोषकारक नहीं होता है।॥ २३–२६ ॥
बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४२ ॥
अध्याय – ४३ मन्दिरके देवताकी स्थापना और भूतशान्ति आदिका कथन
हयग्रीवजी कहते हैं–ब्रह्मन्! अब मैं मन्दिरमें स्थापित करनेयोग्य देवताओंका वर्णन करूंगा, आप सुनें।
५ मंदिरों से युक्त देवता की स्थिति
पञ्चयतन मन्दिरमें जो बीचका प्रधान मन्दिर हो, उसमें भगवान् वासुदेवको स्थापित करे। शेष चार मंदिरोंमेंसे अग्निकोणवाले मंदिरमें भगवान् वामनकी, नैऋत्यकोणमें नरसिंहकी, वायव्यकोणमें हयग्रीवकी और ईशानकोणमें वराह भगवान्की स्थापना करे।
अथवा ५ मंदिरों से युक्त देवता की स्थिति
यदि बीच में भगवान् नारायणकी स्थापना करे तो अग्निकोणमें दुर्गाकी, नैऋत्यकोणमें सूर्यकी, वायव्यकोणमें ब्रह्माकी और ईशानकोणमें लिङ्गमय शिवकी स्थापना करे। अथवा ईशानमें रुद्ररूपकी स्थापना करे।
अथवा९ मंदिरों से युक्त देवता की स्थिति
एक-एक आठ दिशाओंमें और एक बीचमें-इस प्रकार कुल नौ मन्दिर बनवावे। उनमेंसे बीचमें वासुदेवकी स्थापना करे और पूर्वादि दिशाओंमें परशुराम-राम आदि मुख्य मुख्य नौ अवतारोंकी तथा इन्द्र आदि लोकपालोंकी स्थापना करनी चाहिये।
अथवा ९ मंदिरों से युक्त देवता की स्थिति
कुल नौ धामोंमें पाँच मन्दिर मुख्य बनवावे। इनके मध्यमें भगवान् पुरुषोत्तमकी स्थापना करे॥ १–५ ॥ पूर्व दिशामें लक्ष्मी और कुबरकी दक्षिणमें मातृकागण, स्कन्द, गणेश और शिवकी, पश्छिममें सूर्य आदि नौ ग्रहोंकी तथा उत्तरमें मत्स्य आदि दस अवतारोंकों स्थापना करे। इसी प्रकार अग्निकोणमें चण्डीकी, नैऋत्यकोणमें अम्बिकाकी, वायव्यकोणमें सरस्वतीकी और ईशानकोणमें लक्ष्मीजीकी स्थापना करनी चाहिये। मध्यभागमें वासुदेव अथवा नारायण की स्थापना करे।
अथवा १३ मंदिरों से युक्त देवता की स्थिति
तेरह कमरोंवाले देवालयके मध्यभागमें विश्वरूप भगवान् विष्णुकी स्थापना करे। पूर्व आदि दिशाओंमें केशव आदि द्वादश विग्रहोंको स्थापित करे तथा इनसे अतिरिक्त गृहोंमें साक्षात् ये श्रीहरि ही विराजमान होते हैं।
भगवानकी प्रतिमा मिट्टी, लकड़ी, लोहा, रत्न, पत्थर, चन्दन और फूल-इन सात वस्तुओंकी बनी हुई सात प्रकारकी मानी जाती है।
फूल, मिट्टी तथा चन्दनकी बनी हुई प्रतिमाएँ बननेके बाद तुरंत पूजी जाती हैं। (अधिक कालके लिये नहीं होतीं) पूजन करनेपर ये समस्त कामनाओंको पूर्ण करतीं हैं।
अब मैं शैलमयी प्रतिमाका वर्णन करता हैं जहाँ प्रतिमा बनानेमें शिला (पत्थर)-का उपयोग किया जाता है। उत्तम तो यह है कि किसी पर्वतका पत्थर लाकर प्रतिमा बनवावे। पर्वतोंके अभाव में जमीनसे निकले हुए पत्थरका उपयोग करे। ब्राह्मण आदि चारों वर्णवालोंके लिये क्रमशः सफेद, लाल, पीला और काला पत्थर उत्तम माना गया है। यदि ब्राह्मण आदि वर्णवालोंको उनके वर्णके अनुकूल उत्तम शिला न मिले तो उसमें आवश्यक वर्णकी कमीकी पूर्ती करनेके लिये नरसिंह-मन्त्रसे हवन करना चाहिये। यदि शिलामें सफेद रेखा हो तों वह बहुत ही उत्तम है, अगर काली रेखा हो तो वह नरसिंह-मन्त्र से हवन करने पर उत्तम होती है।
यदि शिलासे काँसेके बने हुए घन्टीकी-सी आवाज निकलती हों और काटनेपर उससे चिनगारियाँ निकलती हों तो वह ‘पुंल्लिङ्ग’ है, ऐसा समझना चाहिये। यदि उपर्युक्त चिह्न उसमें कम दिखायी दें, तो उसे ‘स्त्रीलिङ्ग’ समझना चाहिये और पुँझिङ्ग–स्त्रीलिङ्ग-बोधक कोई रूप न होनेपर उसे ‘नपुंसक’ मानना चाहिये।
जिस शिलामें कोई मण्डलका चिह्न दिखायी दे, उसे सगर्भा समझकर त्याग देना चाहिये ॥ १२-१५ ॥
प्रतिमा बनानेके लिये वनमें जाकर वनयाग आरम्भ करना चाहिये। वहाँ कुण्ड खोदकर और उसे लीपकर मण्डपमें भगवान विष्णुका पूजन करना चाहिये तथा उन्हें बलि समर्पणकर कर्ममें उपयोगी टंक आदि शस्त्रोंकी भी पूजा करनी चाहिये। फिर हवन करनेके पश्चात् अगहनीके चावलके जलसे अस्त्र-मन्त्र (अस्त्राय फट्र)-के उच्चारणपूर्वक उस शिलाको सींचना चाहिये। नरसिंह-मन्त्रसे उसकी रक्षा करके मूल-मन्त्र (अं० नमो नारायणाय)-से पूजन करे।
फिर पूर्णाहुति-होम करके आचार्य भूतोंके लिये बलि समर्पित करें। वहाँ जो भी अव्यक्तरूपसे रहनेवाले जन्तु, यातुधान (राक्षस), गुह्मक और सिद्ध आदि हों अथवा और भी जो हों, उन सबका पूजन करके इस प्रकार क्षमा प्रार्थना करनी चाहिये। १६-११ ॥
‘भगवान् केशवकी आज्ञासे प्रतिमाके लिये हमलोगोंकी यह यात्रा हुई है। भगवान् विष्णुके लिये जो कार्य हो, वह आपलोगोंका भी कार्य है। अत: हमारे दिये हुए इस बलिदानसे आपलोग सर्वथा तृप्त हों और शीघ्र ही यह स्थान छोड़कर कुशलपूर्वक अन्यत्र चले जायें’॥२०-२१॥
इस प्रकार सावधान करनेपर वे जीव बड़े प्रसन्न होते हैं और सुखपूर्वक उस स्थानको छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं।
इसके बाद कारीगरोंके साथ यज्ञका चरु भक्षण करके रातमें सोते समय स्वप्र-मन्त्रका जप करे।
‘जो समस्त प्राणियोंके निवास-स्थान हैं, व्यापक हैं, सबको उत्पन्न करनेवाले हैं, स्वयं विश्वरूप हैं और सम्पूर्ण विश्व जिनका स्वरूप है, उन स्वप्रके अधिपति भगवान् श्रीहरिको नमस्कार है। देव! देवेश्वर! मैं आपके निकट सो रहा हूँ। मेरे मनमें जिन कायाँका संकल्प है, उन सबके सम्बन्धमें मुझसे कुछ कहिये” ॥ २२-२४॥
‘ॐ ॐ हूं फट् विष्णवे स्वाहा।’
इस प्रकार मन्न-जप स्रो जानेपर यदि अच्छा स्वप्र हो। तो सब शुभ होता है और यदि बुरा स्वप्र हुआ तो नरसिंह-मन्त्रसे हवन करनेपर शुभ होता है।
सबेरे उठकर अस्त्र-मन्त्रसे शिलापर अर्ध्य दे। फिर अस्त्रकी भी पूजा करे। कुदाल (फावड़े), टंक और शस्त्र आदिके मुखपर मधु और घी लगाकर पूजन करना चाहिये।
अपने-आपका विष्णुरूपसे चिन्तन करे। कारीगरको विश्वकर्मा माने और शस्त्रके भी विष्णुरूप होनेकी ही भावना करे। फिर शस्त्र कारीगरको दे और उसका मुख-पृष्ठ आदि उसे दिखा दे॥ २५-२७ ॥
कारीगर अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखे और हाथमें टंक लेकर उससे उस शिलाको चौकोर बनावे। फिर पिण्डी बनाने के लिये उसे कुछ छोटी करे। इसके बाद शिलाकी वस्त्रमें लपेटकर रथपर रखे और शिल्पशालामें लाकर पुन: उस शिलाका पूजन करे। इसके बाद कारीगर प्रतिमा बनावे ॥ २८-२९ ॥
अध्याय – ४४ वासुदेव आदिकी प्रतिमाओंके लक्षण
भगवान् हयग्रीव बोले–ब्रह्मन्! अब मै तुम्हें वासुदेव आदिकी प्रतिमाके लक्षण बताता हूँ, सुनो।
मन्दिरके उत्तर भागमें शिलाको पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख रखकर उसकी पूजा करे और उसे बलि अर्पित करके कारीगर
शिलाके बीचमें सूत लगाकर उसका नौ भाग करे। नवें भागको भी १२ भागोंमें विभाजित करने पर एक-एक भाग अपने अङ्कुलसे एक अंगुलका होता है। दो अंगुलका एक गोलक होता है, जिसे ‘कालनेत्र’ भी कहते हैं। १-३ ॥
उक्त नौ भागोंमेंसे एक भाग के तीन हिस्से करके उसमें पार्षिण-भागकी कल्पना करे। एक भाग घुटनेके लिये तथा एक भाग कण्ठके लिये निश्चित रखे। मुकुटकी एक बिता रखे। मुँहका भाग भी एक बिक्तेका ही होना चाहिये। इसी प्रकार एक वित्तेका कण्ठ और एक ही बिक्तेका हृदय भी रहे। नाभि और लिङ्गके बीच में एक बित्तेका अन्तर होना चाहिये। दोनों ऊरु दी बित्तेके हो। जंघा भी दो बिक्तेकी हो।
अब सूत्रोंका माप सुनों ॥ ४-६ ॥
दो सूत पैरमें और दो सूत जंघामें लगावे। घुटनोंमें दो सूत तथा दोनों ऊरुओंमें भी दो सूतका उपयोग करे। लिङ्ग में दूसरे दो सूत तथा कटिमें भी कमरबन्ध (करधन) बनानेके लिये दूसरे दो सूतोंका योग करे। नाभिमें भी दो सूत काममें लावे। इसी प्रकार हृदय और कण्ठमें दो सूतका उपयोग करे। ललाटमें दूसरे और मस्तकमें दूसरे दो सूतोंका उपयोग कोरे।
बुद्धिमान्कारीगरोंको मुकुटके ऊपर एक सूत करना चाहिये।
ब्रह्मन्! ऊपर सात ही सूत देने चाहिये। तीन कक्षाओंके अन्तरसे ही छः सूत्र दिलावे। फिर मध्यसूत्रको त्याग दे और केवल सूत्रोंको ही निवेदित करे॥७ -११ ॥
ललाट, नासिका और मुखका विस्तार चार अगुंलका होना चाहिये। गला और कनका भी चार-चार अंगुल विस्तार करना चाहिये। दोनों ओरकी हनु (ठोढ़ी) दो-दो चौड़ी हो और चिबुक (ठोढ़ीके बीचका भाग) भी दो अङ्कुलका हो। पूरा विस्तार छः अङ्कुलका होना चाहिये।
इसी प्रकार ललाट भी विस्तारमें आठ बताया गया है।
दोनों ओरके शंख दो-दो अंगुलके बनाये जाय और उनपर बाल भी हों।
कान और नेत्र के बीच में चार अंगुलका अन्तर रहना चाहिये। दो-दो अंगुलके कान एवं पृथुक बनावे। भौहोंके समान सूत्रके मापका कानका स्रोत कहा गया है।
बिंधा हुआ कान छ: अङ्कुलका हो और विना बिंधा हुआ चार अङ्कुलका। अथवा बिंधा हो या बिना बिंधा, सब चिबुकके समान छः अङ्गुलका होना चाहिये ॥ १२-१६॥
गन्धपात्र, आवर्त तथा शष्कुली (कानका पूरा घेरा) भी बनावे। एक अंगुलमें नीचेका ओष्ठ और आधे अंगुल काऊपरका ओठ बनावे।
नेत्रका विस्तार आधा अङ्कुल हो और मुखका विस्तार चार अंगुल हो। मुखकी चौड़ाई डेढ़ अंगुलकी होनी चाहिये। नाककी ऊँचाई एक अंगुल हो और ऊँचाईसे आगे केवल लंबाई दो अंगुलकी रहे। करवीर-कुसुमके समान उसकी आकृति होनी चाहिये। दोनों नेत्रोंके बीच चार अङ्गुलका अन्तर हो। दो अंगुल तो आँखके घेरेमें आ जाता है, सिर्फ दो अंगुल अन्तर रह जाता है। पूरे नेत्रका तीन भाग करके एक भागके बराबर तारा (काली पुतली) बनावे और पाँच भाग करके, एक भागके बराबर दृक्तारा (छोटी पुतली) बनावे। नेत्रका विस्तार दो अंगुलका हो और द्रोणी आधे अंगुलकी । उतना ही प्रमाण भौंहोंकी रेखाका हो। दोनों ओरकी भाँहें बराबर रहनी चाहिये। भौंहोंका मध्य दो अंगुलका और विस्तार चार अङ्गुलका होना चाहिये॥ १७-२२॥
भगवान् केशव आदिकी मूर्तियोंके मस्तकका पूरा घेरा छब्बीस अङ्गुलका होवे अथवा बत्तीस अङ्गुलका ।
नीचे ग्रीवा (गला) पाँच नेत्र (अर्थात् दस अद्भुल)-की हो और इसके तीन गुना अर्थात् तीस अङ्गल उसका वेष्टन (चारों ओरका घेरा) हों। नीचेसे ऊपर की ओर ग्रीवाका विस्तार आठ अङ्गुल हो। ग्रीवा और छाती के बीच का अन्तर ग्रीवाके तीन गुने विस्तारवाला होना चाहिये। दोनों ओरके कंधे आठ-आठ अङ्गुलके और सुन्दर अंस तीन-तीन अङ्गुलके हों। सात नेत्र (यानी चौदह अङ्गुल)-की दोनों बाहें और सोलह अङ्गुलकी प्रबाहुएँ हों (बाहु और प्रबाहु मिलकर पूरी बाँह समझी जाती है)।
बाहुओंकी चौड़ाई छ: अङ्गुलकी हो। प्रबाहुओंकी भी इनके समान ही होनी चाहिये।
बाहुदण्डका चारों ओरका घेरा कुछ ऊपरसे लेकर नौ कला अथवा सत्रह अङ्गुल समझना चाहिये। आधेपर बीचमें कूपर (कोहनी) है। कूर्परका घेरा सोलह अङ्गुलका होता है।
ब्रह्माजी! प्रबाहुके मध्यमें उसका विस्तार सोलह अङ्गुलका हो । हाथके अग्रभागका विस्तार बारह अङ्गुल हो और उसके बीच करतलका विस्तार छ: अङ्गुल कहा गया है। हाथकी चौड़ाई सात अङ्गुलकी करे। हाथके मध्यमा अङ्गुलीकी लंबाई पांच अङ्गुलकी हो और तर्जनी तथा अनामिकाकी लंबाई उससे आधा अङ्गुल कम अर्थात् ४॥ अङ्गुलकी करे।
कनिष्टिका और अँगूठेकी लंबाई चार अङ्गुलकी करे। अँगूठेमें दो पोरु बनावे और बाकी सभी अँगुलियोंमें तीन-तीन पोरु रखे। सभी अँगुलियोंके एक-एक पौरुके आधे भागके बराबर प्रत्येक अङ्गुलीके नखकी नाप समझनी चाहिये।
छातीकी जितनी माप हो, पेटकी उतनी ही रखे। एक अङ्गुलकी छेदवाली नाभि हो। नाभिसे लिङ्गके बीचका अन्तर एक बिता होना चाहिये॥ २३-३३॥
नाभि-मध्याङ्ग (उदर)-का घेरा बयालीस अङ्गुलका हो। दोनों स्तनोंके बीचका अन्तर एक वित्ता होना चाहिये। स्तनोंका अग्रभाग-चुचुक यवके बराबर बनावे। दोनों स्तनोंका घेरा दो पदोंके बराबर ही। छातीका घेरा चौंसठ अङ्गुलका बनावे॥ उसके नीचे और चारों और का घेरा ‘ वेष्टन” कहा गया है। इसी प्रकार कमरका घेरा चौवन अङ्गुलका होना चाहिये। ऊरुओंके मूलका विस्तार बारह-बारह अङ्गुलका हो। इसके ऊपर मध्यभाग का विस्तार विस्तार अधिक रखना चाहिय, मध्यभागसे निचेके अंगोंका क्रमशः कम होना चाहिये।। घुटनोंका विस्तार आठ अङ्गुलका करे और उसके नीचे जंघाका घेरा तीन गुंना, अर्थात् चौबीस अङ्गुलका हो; जंघाके मध्यका विस्तार सात अङ्गुलका होना चाहिये और उसका घेरा तीन गुना, अर्थात इक्कीस अङ्गुलका हो। जंघाके अग्रभागका विस्तार पाँच अङ्गुल और उसका घेरा तीन गुना-पंद्रह अङ्गुलका हों। चरण एक-एक बित्ते लंबे होने चाहिये। विस्तारसे उठे हुए पैर अर्थात् पैरोंकी ऊँचाई चार अङ्गुलकी हो। गुल्फ (घुट्टी)-से पहलेका हिस्सा भी चार अङ्गुलका ही हो ॥ ३४-४० ॥
दोनों पैरोंकी चौड़ाई छः अङ्गुलकी, गुह्मभाग तीन अङ्गुलका और उसका पंजा पाँच अङ्गुलका होना चाहिये। पैरोंमें प्रदेशिनी, अर्थात् अँगूठा चौड़ा होना उचित है। शेष अँगुलियोंके मध्यभागका विस्तार क्रमशः पहली अँगुलीके आठवें-आठवें भागके बराबर कम होना चाहिये। अँगूठेकी ऊँचाई सवा अङ्गुल बतायी गयी है। इसी प्रकार अंगूठेके नखका प्रमाण और अंगुलियोंसे दूना रखना चाहिये। दूसरी अंगुलीके नखका विस्तार आधा अंगुल तथा अन्य अंगुलियोंके नखोंका विस्तार क्रमश: जरा-जरा-सा कम कर देना चाहिये ॥ ४६-४३ ॥
दोनों अण्डकोष तीन-तीन अङ्गुल लंबे बनावे और लिङ्ग चार अङ्गुल लंबा करे। इसके ऊपरका भाग चार अङ्गुल रखे। अण्डकोषोंका पूरा घेरा छः-छः अङ्गुलका होना चाहिये।
इसके सिवा करनी चाहिये। यह लक्षण उद्देश्यमात्र (संक्षेपसे) बताया गया है।॥ ४४-४५ ॥
इसी प्रकार लोक में देखे जानेवाले अन्य लक्षणोंको भी दृष्टिमें रखकर प्रतिमामें उसका निर्माण करना चाहिये।
दाहिने हाथोंमेंसे ऊपरवाले हाथ में चक्र और नीचेवाले हाथ में पद्म धारण करावे। बायें हाथोंमेंसे ऊपरवाले हाथमें शंख और नीचेवाले हाथमें गदा बनावे। यह वासुदेव श्रीकृष्णका चिह्न है, अत: उन्हींकी प्रतिमामें रहना चाहिये। भगवानके निकट हाथमें कमल लिये हुए लक्ष्मी तथा वीणा धारण किये पुष्टि देवी की भी प्रतिमा बनावे । इनकी ऊँचाई (भगवद्वग्रहके) ऊरुओंके बराबर होनी चाहिये।
इनके अलावा प्रभामण्डलमें स्थित मालाधर और विद्याधरका विग्रह बनावे। प्रभा हस्ती आदिसे भूषित होती है। भगवानके चरणोंके नीचेका भाग अर्थातू पादपीठ कमलके आकारका बनावे । इस प्रकार देव-प्रतिमाओंमें उक्त लक्षणोंका समावेश करना चाहिये॥४६-४९ ॥
चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४४॥
अध्याय – ४५ पिण्डिका आदिके लक्षण
भगवान् हयग्रीव कहते हैं–ब्रह्मन्! अब मैं पिण्डिकाका लक्षण बता रहा हूँ।
पिण्डिका लंबाई प्रतिमाके समान ही होती है, परंतु उसकी ऊँचाई प्रतिमासे आधी होती है। पिण्डिकाको चौसठ कुटों (पदों या कोष्ठकों)-से युक्त करके नीचेकी दो पंक्ति छोड़ दे और उसके ऊपरका जो कोष्ठ है, उसे चारों ओर दोनों पाश्चमें भीतरकी ओर से मिटा दे। इसी तरह ऊपरकी दो पङ्कियोंको त्यागकर उसके नीचेका जो एक कोष्ठ (या एक पङ्कि) है, उसे भीतरकी ओरसे यत्नपूर्वक मिटा दे। दोनों पाश्चमें समान रूपसे यह क्रिया करे॥ १-३ ॥
दोनों पार्श्वोंके मध्यगत जो दो चौक हैं, उनका भी मार्जन कर दे। तदनन्तर उसे चार भागोंमें बाँटकर विद्वान् पुरुष ऊपरकी दो पङ्कियोंको मेखला माने। मेखलाभागकी जो मात्रा है, उसके आधे मानके अनुसार उसमें खात खुदावे । फिर दोनों पार्श्वभागोंमें समानरूपसे एक-एक भागकी त्यागकर बाहरकी और का एक पद नाली बनानेके लिये दे दे। विद्वान् पुरुष उसमें नाली बनवाये। फिर तीन भागमें जो एक भाग हैं, उसके आगे जल निकालनेका मार्ग रहे ॥ ४-६ ॥
नाना प्रकारके भेदसे यह शुभ पिण्डिका ‘भद्रा’ कही गयी है।
लक्ष्मी देवी की प्रतिमा ताल (हथेली)-के मापसे आठ तालकी बनायी जानी चाहिये। अन्य देवियोंकी प्रतिमा भी ऐसी ही हो।
दोनों भौहोंकी नासिकाकी अपेक्षा एक-एक जौ अधिक बनावे और नासिकाको उनकी अपेक्षा एक जौ कम। मुखकी गोलाई नेत्रगोलकसे बड़ी होनी चाहिये। वह ऊँचा और टेढ़ा-मेढ़ा न हो। आँखें बड़ी-बड़ी बनानी चाहिये। उनका माप सवा तीन जौके बराबर हो। नेत्रोंकी चौड़ाई उनकी लंबाईकी अपेक्षा आधी करे। मुखके एक कोनेसे लेकर दूसरे कोनेतककी जितनी लंबाई है, उसके बराबरके सूतसे नापकर कर्णपाश (कानका पूरा घेरा) बनावे । उसकी लंबाई उत्त सूतसे कुछ अधिक ही रखे। दोनों कंधोंको कुछ झुका हुआ और एक कलासे रहित बनावे । ग्रीवाकी लंबाई डेढ़ कला रखनी चाहिये। वह उतनी ही चौड़ाईसे भी सुशोभित हो। दोनों ऊरुओंका विस्तार ग्रीवाकी अपेक्षा एक नेत्र’ कम होगा। जानु (घुटने), पिण्डली, पैर, पीठ, नितम्ब तथा कटिभाग-इन सबकी यथायोग्य कल्पना करे॥ ७-११ ॥
हाथकी अँगुलियाँ बड़ी हों। वे परस्पर अवरुद्ध न हों। बड़ी अँगुलीकी अपेक्षा छोटी अँगुलियाँ सातवें अंशसे रहित हों।
जंधा, ऊरु और कटि-इनकी लंबाई क्रमशः एक-एक नैत्र कम हो।
शरीरके मध्यभागके आस-पासका अङ्ग गोल हो। दोनों कुच घने (परस्पर सटे हुए) और पीन (उभड़े हुए) हों। स्तनोंका माप हथेलीके बराबर हो। कटि उनकी अपेक्षा डेढ़ कला अधिक बड़ी हो। शेष चिह्न पूर्ववत् रहें।
लक्ष्मीजीके दाहिने हाथ में कमल और बायें हाथमें बिल्वफल हो।’ उनके पार्श्वभागमें हाथमें चवर लिये दो सुन्दरी स्त्रियाँ खड़ी हों”। सामने बड़ी नाकवाले गरुड़की स्थापना करे।
अब मैं चक्राङ्कित (शालग्राम) मूर्ति आदिका वर्णन करता हूँ॥ १२-१५ ॥
पैतालीसवां अध्याय पूरा हुआ ॥ ४५ ॥
अध्याय -४६ शालग्राम-मूर्तियोके लक्षण
भगवान् हयग्रीव कहते हैं–ब्रह्मन्! अब मैं शालग्रामगत भगवन्मूर्तियोंका वर्णन आरम्भ करता हूँ, जो भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली हैं।
जिस शालग्राम-शिलाके द्वारमें दो चक्र के चिह्न हों और जिसका वर्ण श्वेत हो, उसकी ‘वासुदेव’ संज्ञा है।
जिस उत्तम शिलाका रंग लाल हो और जिसमें दो चक्रके चिह्न संलग्र हों, उसे भगवान् ‘संकर्षण” का श्रीविग्रह जानना चाहिये।
जिसमें चक्रका सूक्ष्म चिह्न हो, अनेक छिद्र हो, नील वर्ण हो और आकृति बड़ी दिखायी देती हो, वह “प्रद्युम्न’की मूर्ति है।
जहाँ कमलका चिह्न हो, जिसकी आकृति गोल और रंग पीला’ हो तथा जिसमें दो-तीन रेखाएँ शोभा पा रही हों, यह ‘अनिरुद्ध”का श्रीअङ्ग है।
जिसकी कान्ति काली, नाभि उन्नत और जिसमें बड़े-बड़े छिद्र हों, उसे “नारायण” का स्वरूप समझना चाहिये।
जिसमें कमल और चक्रका चिह्न हो, पृष्ठभागमें छिद्र हो और जो बिन्दुसे युक्त हो, वह शालग्राम ‘परमेष्ठी’ नामसे प्रसिद्ध है।
जिसमें चक्रका स्थूल चिह्न हो, जिसकी कान्ति श्याम हो और मध्यमें गदा-जैसी रेखा हो, उस शालग्रामकी ‘विष्णु” संज्ञा है॥ १-४॥
नृसिंह-विग्रहमें चक्र का स्थूल चिह्न होता है। उसकी कान्ति कपिल वर्णकी होती है और उसमें
पाँच बिन्दु सुशोभित होते हैं।
वाराह-विग्रहमें शक्ति नामक अस्त्रका चिह्न होता है। उसमें दो चक्र होते हैं, जो परस्पर विषम (समानतासे रहित) हैं। उसकी कान्ति इन्द्रनील मणिके समान नीली होती है। वह तीन स्थूल रेखाओंसे चिह्नित एवं शुभ होता है।
जिसका पृष्ठभाग ऊँचा हो, जो गोलाकार आवर्तचिह्नसे युत एवं श्याम हो, उस शालग्रामकी ‘कूर्म’ (कच्छप) संज्ञा है”। ५-६ ॥
जो अंकुशकी-सी रेखासे सुशोभित, नीलवर्ण एवं बिन्दुयुक्त हो, उस शालग्राम-शिलाको ‘हयग्रीव’ कहते हैं।
जिसमें एक चक्र और कमलका चिह्न हो, जो मणिके समान प्रकाशमान तथा पुच्छाकार रेखासे शोभित हो, उस शालग्रामको ‘वैकुण्ठ’ समझना चाहिये।
जिसकी आकृति बड़ी हो, जिसमें तीन बिन्दु शोभा पाते हों, जो काँचके समान श्वेत तथा भरा-पूरा हो, वह शालग्रामशिला मत्स्यावतारधारी भगवानकी मूर्ति मानी जाती है।
जिसमें वनमालाका चिह्न और पाँच रेखाएँ हों, उस गोलाकार शालग्राम-शिलाको ‘ श्रीधर’ कहते हैं* ॥ ७-८ ॥
गोलाकार, अत्यन्त छोटी, नीली एवं बिन्दुयुक्त शालग्राम-शिलाकी ‘वामन’ संज्ञा है।
जिसकी कान्ति श्याम हो, दक्षिण भागमें हारकी रेखा और बायें भागमें बिन्दुका चिह्न हो, उस शालग्राम-शिलाको “त्रिविक्रम’ कहते हैं’।॥ ९॥
जिसमें सर्पके शरीरका चिह्न हो, अनेक प्रकारकी आभाएँ दीखती हों तथा जो अनेक मूर्तियोंसे मण्डित हो, वह शालग्राम-शिला ‘अनन्त'(शेषनाग) कही गयी है।
जो स्थूल हो, जिसके मध्यभागमें चक्रका चिह्न हो तथा अधोभागमें सूक्ष्म बिन्दु शोभा पा रहा हो, उस शालग्रामकी’दामोदर’ संज्ञा है।’
एक चक्रवाले शालग्रामको सुदर्शन कहते हैं, दो चक्र होनेसे उसकी ‘लक्ष्मीनारायण’ संज्ञा होती है। जिसमें तीन चक्र हो, वह शिला भगवान्’अच्युत’ अथवा ‘त्रिविक्रम’ है। चार चक्रोंसे युक्त शालग्रामको ‘जनार्दन’, पाँच चक्रवालेको ‘वासुदेव’, छः चक्रवालेको ‘प्रद्युम्र’ तथा सात चक्रवालेको ‘संकर्षण’ कहते हैं। आठ चक्रवाले शालग्रामकी ‘पुरुषोत्तम’ संज्ञा है। नौ चक्रवालेको ‘नवव्यूह’ कहते हैं। दस चक्रोंसे युक्त शिलाकी ‘दशावतार’ संज्ञा है। ग्यारह चक्रोंसे युक्त होनेपर उसे ‘अनिरुद्ध’, द्वादश चक्रोंसे चिह्नित होनेपर ‘द्वादशात्मा’ तथा इससे अधिक चक्रोंसे युक्त होनेपर उसे ‘अनन्त’ कहते हैं॥ १०-१३ ॥
छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ४६ ॥
अध्याय – ४७ शालग्राम-विग्रहोंकी पूजाका वर्णन
भगवान हयग्रीव कहते है – ब्राह्मण! अब मैं तुम्हारे सम्मुख पूर्वोक्त चक्राकिंत शालग्राम-विग्रहोंकी पूजाका वर्णन करता हूँ, जो सिद्धि प्रदान करने वाली है।
श्रीहरिकी पूजा तीन प्रकारकी होती है – काम्या, अकाम्या और अभयात्मिक ।
मत्स्य आदि पाँच विग्रहोंकी पूजा काम्या अथवा अभयात्मिक हो सकती है ।
पूर्वोक्त चक्रादिसे सुशोभित वराह, नृसिंह और वामन-इन तीनोंकी पूजा मुक्तिके लिये करनी चाहिये।
अब शालग्रामपूजनके विषयमें सुनो, जो तीन प्रकारकी होती है। इनमें निष्कला पूजा उत्तम, सकला पूजा कनिष्ठ और मूर्तिपूजाको मध्यम माना गया है।
चौकोर मण्डलमें स्थित कमलपर पूजाकी विधि इस प्रकार है-हृदयमें प्रणवका न्यास करते हुए षडङ्गन्यास करे। फिर करन्यास और व्यापक न्यास करके तीन मुद्राओंका प्रदर्शन करे । तत्पश्चात चक्रके बाह्राभागमें पूर्व दिशाकी ओर गुरुदेवका पूजन करे । पश्छिम दिशामें गणका, वायव्यकोणमें धाताका एवं नैऋत्यकोणमें विधाताका पूजन करे।
दक्षिण और उत्तर दिशा में क्रमश: कर्ता और हर्ताकी पूजा करे। इसी प्रकार ईशानकोणमें विष्वक्सेन और अग्निकोणमें क्षेत्रपालकी पूजा करे । फिर पुर्वादि दिशाओंमें ऋग्वेद आदि चारों वेदोंकी पूजा करके आधारशक्ति, अन्नत, पृथ्वी, योगपीठ, पद्म तथा सूर्य, चन्द्र और ब्रह्मात्मक अग्नि-इन तीनोंके मण्डलोंका यजन करे।
तदनन्तर द्वादशाक्षर मन्त्रसे आसनपर शिलाको स्थापना करके पूजन करे। फिर मूल मन्त्रके विभाग करके एवं सम्पूर्ण मन्त्रसे क्रमपूर्वक पूजन करे। फिर प्रणवसे पूजन करनेके पश्चात् तीन मुद्राओंका प्रदर्शन करे ॥ १-९ ॥
इस प्रकार यह शालग्रामकी प्रथम पूजा निष्कला कही जाती है।
पूर्ववत् षोडशदलकमलसे युक्त मण्डलको अङ्कित करे। उसमें शर्द्ध, चक्र, गदा और खड्ग-इन आयुधोंकी तथा गुरु आदिकी पहलेकी भाँति पूजा करे। पूर्व और उत्तर दिशाओंमें क्रमशः धनुष और बाणकी पूजा करे।
प्रणवमन्त्रसे आसन समर्पण करें और द्वादशाक्षर मन्त्रसे शिलाका न्यास करना चाहिये।अब तीसरे प्रकार की कनिष्ठ पूजाका वर्णन करता हूँ, सुनो।
अष्टदलकमल अङ्कित करके उसपर पहलेके समान गुरु आदिकी पूजा करे। फिर अष्टाक्षर मन्त्रसे आसन देकर उसीसे शिलाका न्यास करे॥ १०-१३ ई॥
सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४७ ॥
अध्याय – ४८ चतुर्विशति-मूर्तिस्तोत्र एवं द्वादशाक्षर स्तोत्र
श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैं–ब्रह्मन्! ओंकारस्वरूप केशव अपने हाथोंमें पद्म, शङ्क, चक्र और गदा धारण करनेवाले हैं”। नारायण शङ्क, पद्म, गदा और चक्र धारण करते हैं, मैं प्रदक्षिणापूर्वक उनके चरणोंमें नतमस्तक होता हूँ। माधव गदा, चक्र, शङ्क और पद्म धारण करनेवाले हैं, मैं उनको नमस्कार करता हूँ। गोविन्द अपने हाथोंमें क्रमश: चक्र, गदा, पद्म और शङ्ग धारण करनेवाले तथा बलशाली हैं। श्रीविष्णु गदा, पद्म, शङ्क एवं चक्र धारण करते हैं, वे मोक्ष देनेवाले हैं। मधुसूदन शंख, चक्र, पद्म और गदा धारण करते हैं। मैं उनके सामने भक्तिभावसे नतमस्तक होता हूँ। त्रिविक्रम क्रमश: पद्म, गदा, चक्र एवं शंख धारण करते हैं। भगवान् वामनके हाथोंमें शंख, चक्र, गदा एवं पद्म शोभा पाते हैं, वे सदा मेरी रक्षा करें ॥ १-४ ॥
श्रीधर कमल, चक्र, शाङ्गं धनुष एवं शङ्ख धारण करते हैं। वे सबको सद्रति प्रदान करनेवाले हैं। हृषीकेश गदा, चक्र, पद्म एवं शद्ध धारण करते हैं, वे हम सबकी रक्षा करें। वरदायक भगवान् पद्मनाभ शङ्क, पद्म, चक्र और गदा धारण करते हैं। दामोदरके हाथोंमें पद्म, शंख, गदा और चक्र शोभा पाते हैं, मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ। गदा, शङ्क, चक्र और पद्म धारण करनेवाले वासुदेवने ही सम्पूर्ण जगत्का विस्तार किया है। गदा, शङ्क, पद्म और चक्र धारण करनेवाले संकर्मण आपलोगोंकी रक्षा करे।
वाद (युद्ध)-कुशल भगवान् प्रद्युम्न चक्र, शङ्क, गदा और पद्म धारण करते हैं। अनिरुद्ध चक्र, गदा, शडु और पद्म धारण करनेवाले हैं, वे हमलोगोंकी रक्षा करें। सुरेश्वर पुरुषोत्तम चक्र, कमल, शङ्क और गदा धारण करते हैं, भगवान् अधोक्षज पद्म, गदा, शङ्ख और चक्र धारण करनेवाले हैं। वे आपलोगोंकी रक्षा करें। नृसिंहदेव चक्र, कमल, गदा और शंख धारण करने वाले है, मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। श्रीगदा, पद्म, चक्र और शंख धारण करनेवाले अच्युत आपलोगोंकी रक्षा करें। शङ्क, गदा, चक्र और पद्म धारण करनेवाले बालवटुरूपधारी वामन, पद्म, चक्र, शंख और गदा धारण करनेवाले जनार्दन, शङ्क, पद्म, चक्र और गदाधारी यज्ञस्वरूप श्रीहरि तथा शंख, गदा, पद्म एवं चक्र धारण करनेवाले श्रीकृष्ण मुझे भोग और मोक्ष देनेवाले हों।॥ ८-१२॥
आदिमूर्ति भगवान् वासुदेव हैं। उनसे संकर्षण प्रकट हुए। संकर्षणसे प्रद्युम्न और प्रद्युम्नसे अनिरुद्धका प्रादुर्भाव हुआ। इनमेंसे एक-एक क्रमश: केशव आदि मूर्तियोंके भेदसे तीन-तीन रूपोंमें अभिव्यक्त हुआ।
चौबीस-मूर्तियोंकी स्तुतिसे युक्त इस द्वादशाक्षर स्तोत्रका जो पाठ अथवा श्रवण करता है, वह निर्मल होकर सम्पूर्ण मनोरथोंको प्राप्त कर लेता है।॥ १३-१५॥
अध्याय-४९ मत्स्यादि दशावतारोंकी प्रतिमाओंके लक्षणोंका वर्णन
भगवान् हयग्रीव कहते हैं– ब्रह्मन्! अब मैं मत्स्य आदि दस अवतार-विग्रहोंका लक्षण बताता हूँ।
मत्स्यभगवानकी आकृति मत्स्यके समान और कूर्म भगवानकी प्रतिमा कूर्मके आकारकी होनी चाहिये।
पृथ्वीके उद्धारक भगवान् वराहको मनुष्याकार बनाना चाहिये, वे दाहिने हाथमें गदा और चक्र धारण करते हैं। उनके बायें हाथमें शंख और पद्म शोभा पाते हैं। अथवा पद्माके स्थानपर वाम भाग में पद्मा देवी सुशोभित होती हैं। लक्ष्मी उनके बायें कूर्पर (कोहनी)-का सहारा लिये रहती हैं। पृथ्वी तथा अनन्त चरणोंके अनुगत होते हैं।
भगवान् वराहकी स्थापनासे राज्यकी प्राप्ति होती हैं और मनुष्य भवसागरसे पार हो जाता है।
नरसिंहका मुँह खुला हुआ है। उन्होंने अपनी बायीं जाँघपर दानव हिरण्यकशिपुको दबा रखा है और उस दैत्यके वक्षकों विदीर्ण करते दिखायीं देते हैं। उनके गलेमें माला हैं और हाथोंमें चक्र एवं गदा प्रकाशित हो रहे हैं ॥ १-४ ॥
वामनका विग्रह छत्र एवं दण्डसे सुशोभित होता है अथवा उनका विग्रह चतुर्भुज बनाया जाय।
परशुरामके हाथोंमें धनुष और बाण होना चाहिये। वे खड्ग और फरसेसे भी शोभित होते हैं।
श्रीरामचन्द्रजीके श्रीविग्रहको धनुष, बाण, खडग और शंखसे सुशोभीत करना चाहिये। अथवा वे द्विभुज माने गये हैं।
बलरामजी गदा एवं हल धारण करनेवाले हैं, अथवा उन्हें भी चतुर्भुज बनाना चाहिये। उनके बायें भाग के ऊपरवाले हाथमें हल धारण करावे और नीचेवाले में सुन्दर शोभावाली शंख, दायें भागके ऊपरवाले हाथमें मुसल धारण करावे और नीचेवाले हाथमें शोभायमान सुदर्शन चक्र ॥५-७॥
बुद्धदेवकी प्रतिमाका लक्षण यों है। बुद्ध ऊँचे पद्ममय आसनपर बैठे हैं। उनके एक हाथमें वरद और दूसरेमें अभयकी मुद्रा हैं। वे शान्तस्वरूप हैं। उनके शरीर का रंग गोरा और कान लम्बे हैं। वे सुन्दर पीत वस्त्र से आवृत हैं।
कल्की भगवान् धनुष और तूणीरसे सुशोभित हैं। म्लेच्छोंके संहार में लगे हैं। वे ब्राह्मण हैं। अथवा उनकी आकृति इस प्रकार बनावे-वे घोड़ेकी पीठपर बैठे है और अपने चारों हाथोंमें खडग, शंख, चक्र और एवं गदा धारण करते हैं। ८-१ ॥
ब्रह्मन्! अब मैं तुम्हें वासुदेव आदि नौ मूर्तियोंके लक्षण बताता हूँ।
दाहिने भागके ऊपरवाले हाथमें उत्तम चक्र-यह वासुदेवकी मुख्य पहचान है। उनके एक पार्श्वमें ब्रह्मा और दूसरे भागमें महादेवजी सदा विराजमान रहते हैं। वासुदेवकी शेष बातें पूर्ववत् हैं। वे शङ्क अथवा वरदकी मुद्रा धारण करते हैं। उनका स्वरूप द्विभुज अथवा चतुर्भुज होता है।
बलरामके चार भुजाएँ हैं। वे दायें हाथमें हल और मुसल तथा बायें हाथमें गदा और पद्म धारण करते हैं।
प्रद्युम्न दायें हाथमें चक्र और शह्न तथा बायें हाथमें धनुष-बाण धारण करते हैं। अथवा द्विभुज प्रद्युमके एक हाथमें गदा और दूसरेमें धनुष है। वे प्रसन्नतापूर्वक इन अस्त्रोंको धारण करते हैं। या उनके एक हाथ में धनुष और दूसरेमें बाण है।
अनिरुद्ध और भगवान् नारायणका विग्रह चतुर्भुज होता है॥ १०-१३ ॥
ब्रह्माजी हंसपर आरूढ होते हैं। उनके चार मुख और चार भुजाएँ हैं। उदर-मण्डल विशाल है। लंबी दाढ़ी और सिरपर जटा-यही उनकी प्रतिमाका लक्षण है। वे दाहिने हाथोंमें अक्षसूत्र और सुव्रा एवं बायें हाथोंमें कुण्डिका और आज्यस्थाली धारण करते हैं। उनके वाम भागमें सरस्वती और दक्षिण भागमें सावित्री हैं।
विष्णुके आठ भुजाएँ हैं। वे गरुड़पर आरूढ़ हैं। उनके दाहिने हाथोंमें खड्ग, गदा, बाण और वरदकी मुद्रा है। बायें हाथोंमें धनुष, खेट, चक्र और शंख हैं। अथवा उनका विग्रह चतुर्भुज भी है।
नृसिंहके चार भुजाएँ हैं। उनकी दो भुजाओंमें शंख और चक्र हैं तथा दो भुजाओंसे वे महान् असुर हिरण्यकशिपूका वक्ष विर्दीन कर रहे है ।
वराहके चार भुजाएँ हैं। उन्होंने शेषनागको अपने करतलमें धारण कर रखा है। वे बायें हाथ से पृथ्वीको और वाम भागमें लक्ष्मीको धारण करते हैं। जब लक्ष्मी उनके साथ हों, तब पृथ्वीको उनके चरणोंमें संलग्र बनाना चाहिये।
त्रैलोक्यमोहनमूर्ति श्रीहरि गरुड़पर आरूढ़ हैं। उनके आठ भुजाएँ हैं। वे दाहिने हाथोंमें चक्र, शंख, मुसल और अंकुश धारण करते हैं। उनके बायें हाथोंमें शङ्क, शाङ्गधनुष, गदा और पाश शोभा पाते हैं। वाम भाग में कमल धारिणी कमला और दक्षिण भाग में वीणा धारिणी सरस्वतीकों प्रतिमाएँ बनानी चाहिये।
भगवान् विश्वरूपका विग्रह बीस भुजाओंसे सुशोभित है। वे दाहिने हाथोंमें क्रमश: चक्र, खड्ग, मुसल, अंकुश, पट्टिश, मुद्रर, पाश, शक्ति, शूल तथा बाण धारण करते हैं। बायें हाथोंमें शङ्क, शाङ्गधनुष, गदा, पाश, तोमर, हल, फरसा, दण्ड, छुरी और उत्तम ढाल लिये रहते हैं। उनके दाहिने भागमें चतुर्भुज ब्रह्मा तथा बायें भागमें त्रिनेत्रधारी महादेव विराजमान हैं।
जलशायी जलमें शयन करते हैं। इनकी मूर्ति शेषशाय्यापर सोयी हुई बनानी चाहिये। भगवती लक्ष्मी उनकी एक चरणकी सेवामें लगी हैं। विमला आदि शक्तियाँ उनकी स्तुति करती हैं। उन श्रीहरिके नाभिकमलपर चतुर्भुज ब्रह्मा विराज रहे हैं॥ १८-२४ ई॥
हरिहर-मूर्ति इस प्रकार बनानी चाहिये-वह दाहिने हाथमें शूल तथा ऋष्टि धारण करती है और बायें हाथमें गदा एवं चक्र। शरीरके दाहिने भागमें रुद्रके चिह्न हैं और बाम भागमें केशवके। दाहिने पार्श्वमें गौरी तथा वाम पार्श्वमें लक्ष्मी विराज रही हैं।
भगवान् हयग्रीवके चार हाथोंमें क्रमश: शङ्क, चक्र, गदा और वेद शोभा पाते हैं। उन्होंने अपना बायाँ पैर शेषनागपर और दाहिना पैर कच्छपकी पीठपर रख छोड़ा है।
दत्तात्रेयके दो बाँहें हैं। उनके वामाङ्कमें लक्ष्मी शोभा पाती है।
भगवानके पार्षद विष्वक्सेन अपने चार हार्थोर्मे क्रमशः चक्र, गदा, हल और शंख धारण करते हैं॥ २५-२८॥
उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४१ ॥
अध्याय – ५० चण्डी आदि देवी-देवताओंकी प्रतिमाओंके लक्षण
श्रीभगवान् बोले–चण्डी बीस भुजाओंसे विभूषित होती है। वह अपने दाहिने हाथोंमें शूल, खड्ग, शक्ति, चक्र, पाश, खेट, आयुध, अभय, डमरू और शक्ति धारण करती है। बायें हाथोंमें नागपाश, खेटक, कुठार, अंकुश, पाश, घण्टा, आयुध, गदा, दर्पण और मुद्रर लिये रहती है।
अथवा
चण्डीकी प्रतिमा दस भुजाओंसे युक्त होनी चाहिये। उसके चरणोंके नीचे कटे हुए मस्तकवाला महिष हो। उसका मस्तक अलग गिरा हुआ हो। वह हाथोंमें शस्त्र उठाये हो। उसकी ग्रीवासे एक पुरुष प्रकट हुआ हो, जो अत्यन्त कुपित हो। उसके हाथमें शूल हो, वह मुँहसे रक्त उगल रहा हो। उसके गलेकी माला, सिरके बाल और दोनों नेत्र लाल दिखायी देते हों। देवीका वाहन सिंह उसके रक्तका आस्वादन कर रहा हो। उस महिषासुरके गलेमें खूब कसकर पाश बाँधा गया हो। देवीका दाहिना पैर सिंहपर और बायाँ पैर नीचे महिषासुरके शरीरपर हो ॥ १-५ ॥
ये चण्डीदेवी त्रिनेत्रधारिणी हैं तथा शस्त्रोंसे सम्पन्न रहकर शत्रुओंका मर्दन करनेवाली हैं।
नवकमलात्मक पीठपर दुर्गाकी प्रतिमामें उनकी पूजा करनी चाहिये। पहले कमलके नौ दलोंमें तथा मध्यवर्तिनी कर्णिकामें इन्द्र आदि दिक्पालोंकी तथा नौ तत्वात्मिका शक्तियोंके साथ दुर्गाकी पूजा करे॥६३॥
दुर्गाजीकी एक प्रतिमा अठारह भुजाओंकी होती है। वह दाहिने भागके हाथोंमें मुण्ड, खेटक, दर्पण, तर्जनी, धनुष, ध्वज, डमरू, ढाल और पाश धारण करती है; तथा वाम भागकी भुजाओंमें शक्ति, मुदगर, शूल, वज्र, खडग, अंकुश, बाण, चक्र और शलाका लिये रहती है।
सोलह बाँहवाली दुर्गाकी प्रतिमा भी इन्हीं आयुधोंसे युक्त होती है।
अठारहमेंसे दो भुजाओं तथा डमरू और तर्जनी-इन दो आयुधोंको छोड़कर शेष सोलह हाथ उन पूर्वोक्त आयुधोंसे ही सम्पन्न होते हैं।
रुद्रचण्डा आदि नौ दुर्गाएँ इस प्रकार हैं-रूद्रचण्डा, प्रचण्डा, चण्डोग्रा, चण्डनायिका, चण्डा, चण्डवती, चण्डरूपा और अतिचण्डिका।
ये पूर्वादि आठ दिशाओंमें पूजित होती हैं तथा नवीं उग्रचण्डा मध्यभागमें स्थापित एवं पूजित होती हैं।
रुद्रचण्डा आदि आठ देवियोंकी अङ्गकान्ति क्रमश: गोरोचनाके सदृश पीली, अरुणवर्णा, काली, नीली, शुक्लवर्णा, धूम्रवर्णा, पीतवर्णा और श्वेतवर्णा है। ये सब-की-सब सिंहवाहिनी हैं।
महिषासुरके कण्ठसे प्रकट हुआ जो पुरुष है, वह शस्त्रधारी है और ये पूर्वोक्त देवियाँ अपनी मुट्ठी में उसका केश पकड़े रहती हैं॥ ७-१२॥
ये नौ दुर्गाएँ ‘आलीढ़ा’ आकृतिकी होनी चाहिये।
पुत्र-पौत्र आदिकी वृद्धिके लिये इनकी स्थापना (एवं पूजा) करनी उचित है।
गौरी ही चण्डिका आदि देवियोंके रूपमें पूजित होती हैं। वे ही हाथोंमें कुण्डी, अक्षमाला, गदा और अग्नि धारण करके ‘रम्भा’ कहलाती हैं। वे ही वनमें ‘सिद्धा” कही गयी हैं। सिद्धावस्थामें वे अग्निसे रहित होती हैं। ‘ललिता’ भी वे ही हैं। उनका परिचय इस प्रकार है-उनके एक बायें हाथ में गर्दनसहित मुण्ड है और दूसरेमें दर्पण। दाहिने हाथ में फलाञ्जलि है और उससे ऊपरके हाथ में सौभाग्यकी मुद्रा ॥ १३-१४ ॥
लक्ष्मीके दायें हाथ में कमल और बायें हाथ में श्रीफल होता है।
सरस्वतीके दो हाथोंमें पुस्तक और अक्षमाला शोभा पाती हैं और शेष दो हाथोंमें वे वीणा धारण करती हैं।
गङ्गाजीकी अङ्गकान्ति श्वेत है। वे मकरपर आरूढ़ हैं। उनके एक हाथमें कलश हैं और दूसरेमें कमल।
यमुना देवी कछुएपर आरूढ़ हैं। उनके दोनों हाथोंमें कलश है और वे श्यामवर्णा हैं। इसी रूपमें इनकी पूजा होती है।
तुम्बुरुकी प्रतिमा वीणासहित होनी चाहिये। उनकी अङ्गकान्ति श्वेत है।
शूलपाणि शंकर वृषभपर आरूढ हो मातृकाओंके आगेआगे चलते हैं।
ब्रह्माजीकी प्रिया सावित्री गौरवणाँ एवं चतुर्मुखी हैं। उनके दाहिने हाथोंमें अक्षमाला और स्रुक शोभा पाते हैं और बायें हाथोंमें वे कुण्ड एवं अक्षपात्र लिये रहती हैं। उनका वाहन हंस है।
शंकरप्रिया पार्वती वृषभपर आरूढ होती है। उनके दाहिने हाथोंमें धनुष-बाण और बायें हाथोंमें चक्र-धनुष शोभित होते हैं।
कौमारी शक्ति मोरपर आरूढ़ होती है। उसकी अङ्गकान्ति लाल है। उसके दो हाथ हैं और वह अपने हाथोंमें शक्ति धारण करती है।॥ १५-१९॥
लक्ष्मी (वैष्णवी शक्ति) अपने दायें हाथोंमें चक्र और शढ़ धारण करती हैं तथा बायें हाथोंमें गदा एवं कमल लिये रहती हैं।
वाराही शक्ति भैंसेपर आरूढ़ होती है। उसके हाथ दण्ड, शङ्क, चक्र और गदासे सुशोभित होते हैं।
ऐन्द्री शक्ति ऐरावत हाथीपर आरूढ़ होती है। उसके सहस्र नेत्र हैं तथा उसके हाथोंमें व्रज़ शोभा पाता है। ऐन्द्री देवी पूजित होनेपर सिद्धि प्रदान करनेवाली हैं।
चामुण्डाकी आँखें वृक्षके खोखलेकी भाँति गहरी होती हैं। उनका शरीर मांसरहित-कंकाल दिखायी देता है। उनके तीन नेत्र हैं। मांसहीन शरीर में अस्थिमात्र ही सार हैं। केश ऊपरकीं ओर उठे हुए हैं। पेट सटा हुआ है। वे हाथीका चमड़ा पहनती हैं। उनके बायें हाथोंमें कपाल और पट्टिश है तथा दायें हाथोंमें शूल और कटार। वे शवपर आरूढ़ होती और हड़ियोंके गहनोंसे अपने शरीरको विभूषित करती हैं॥ २०-२२ ई।
विनायक (गणेश)-की आकृति मनुष्यके समान है; किंतु उनका पेट बहुत बड़ा है। मुख हाथीके समान है और सँड़ लंबी है। वे यज्ञोपवीत धारण करते हैं। उनके मुखकी चौड़ाई सात कला है और सूंड़की लंबाई छत्तीस । उनकी नाड़ी (गर्दनके ऊपरकी हड़ी) बारह कला विस्तृत और गर्दन डेढ़ कला ऊँची होती है। उनके कण्ठ्भागाकी लंबाई छत्तीस अङ्गुल है और गुह्यभागकी घेरा डेढ़ अङ्कल। नाभि और ऊरुका विस्तार बारह अङ्गुल है। जाँघों और पैरोंका भी यही माप है। वे दाहिने हाथोंमें गजदन्त और फरसा धारण करते हैं तथा बायें हाथोंमें लडू एवं उत्पल लिये रहते हैं। २३ – २६ ॥
स्कन्द स्वामी मयूरपर आरूढ़ हैं। उनके उभय पार्श्वमें सुमुखी और विडालाक्षी मातृका तथा शाख और विशाख अनुज खड़े हैं। उनके दो भुजाएँ हैं। वे बालरूपधारी हैं। उनके दाहिने हाथ में शक्ति शोभा पाती है और बायें हाथमें कुक्कुट। उनके एक या छ: मुख बनाने चाहिये। गाँव में उनके अचार्यविग्रहकों छ: अथवा बारह भुजाओंसे युक्त बनाना चाहिये, परंतु वनमें यदि उनकी मूर्ति स्थापित करनी हो तो उसके दो ही भुजाएँ बनानी चाहिये।
कौमारी-शक्तिकी छहों दाहिनी भुजाओंमें शक्ति, बाण, पाश, खड्ग, गदा और तर्जनी (मुद्रा)-ये अस्त्र रहने चाहिये और छ: बायें हाथोंमें मोरपंख, धनुष, खेट, पताका, अभयमुद्रा तथा कुक्कुट होने चाहिये।
रुद्रचर्चिका देवी हाथीके चर्म धारण करती हैं। उनके मुख और एक पैर ऊपरकी ओर उठे हैं। वे बायें-दायें हाथोंमें क्रमशः कपाल, कर्तरी, शूल तथा पाश धारण करती हैं। वे ही देवी-‘अष्टभुजा’के रूपमें भी पूजित होती हैं॥ २७-३१ ॥
मुण्डमाला और डमरूसे युक्त होनेपर वे ही ‘रुद्रचामुण्डा’ कही गयी हैं। वे नृत्य करती हैं, इसलिये “नाटचेश्वरी’ कहलाती हैं। ये ही आसनपर बैठी हुई चतुर्मुखी ‘महालक्ष्मी’ (की तामसी मूर्ति) कही गयी हैं, जो अपने हाथोंमें पड़े हुए मनुष्यों, घोडों, भैसों और हाथियोंको खा रही हैं। ‘सिद्धचामुण्डा’ देवीके दस भुजाएँ और तीन नेत्र हैं। ये दाहिने भागके पाँच हाथोंमें शस्त्र, खड्ग तथा तीन डमरू धारण करती हैं और बायें भागके हाथोंमें घण्टा, खेटक, खटवांग, त्रिशूल, (और ढाल) लिये रहती हैं। ‘सिद्धयोगेश्वरी’ देवी सम्पूर्ण सिद्धि प्रदान करनेवाली हैं।
इन्हीं देवीकी स्वरूपभूता एक दूसरी शक्ति हैं, जिनकी अङ्गकान्ति अरुण है। ये अपने दो हाथोंमें पाश और अंकुश धारण करती हैं तथा ‘भैरवी” नामसे विख्यात हैं।
‘रूपविद्या देवी’ बारह भुजाओंसे युक्त कही गयी हैं। ये सब-की-सब श्मशानभूमिमें प्रकट होनेवाली तथा भयंकर हैं। इन आठों देवियोंको ‘अम्बाटक” कहते हैं॥ ३२-३६॥
‘क्षमादेवी’-शिवाओं (श्रृंगालियों)-से आवृत हैं। वे एक बूढ़ी स्त्रीके रूपमें स्थित हैं। उनके दो भुजाएँ हैं। मुँह खुला हुआ है। दाँत निकले हुए हैं तथा ये धरतीपर घुटनों और हाथका सहारा लेकर बैठी हैं। उनके द्वारा उपासकोंका कल्याण होता है।
यक्षिणियोंकी आँखें स्तब्ध (एकटक देखनेवाली) और बड़ी होती हैं।
शाकिनियाँ वक्रदृष्टिसे देखनेवाली होती हैं।
अप्सराएँ सदा ही अत्यन्त रमणीय एवं सुन्दर रूपवाली हुआ करती हैं। इनकी आँखें भूरी होती हैं॥ ३७-३८ ॥
भगवान् शंकरके द्वारपाल नन्दीश्वर एक हाथमें अक्षमाला और दूसरेमें त्रिशूल लिये रहते हैं।
महाकालके एक हाथमें तलवार, दूसरेमें कटा हुआ सिर, तीसरेमें शूल और चौथेमें खेट होना चाहिये।
भृङ्गीका शरीर कृश होता है। वे नृत्यकी मुद्रामें देखे जाते हैं। उनका मस्तक कूष्माण्डके समान स्थूल और गंजा होता है।
वीरभद्र आदि गण हाथी और गायके समान कान और मुखवाले होते हैं।
घण्टाकर्णके अठारह भुजाएँ होती हैं। वे पाप और रोगका विनाश करनेवाले हैं। वे बायें भागके आठ हाथोंमें वज्र, खड्ग, दण्ड, चक्र, बाण, मुसल, अंकुश और मुद्वर तथा दायें भागके आठ हाथोंमें तर्जनी, खेट, शक्ति, मुण्ड, पाश, धनुष, घण्टा और कुठार धारण करते हैं। शेष दो हाथोंमें त्रिशूल लिये रहते हैं। घण्टाकी मालासे अलंकृत देव घण्टाकर्ण विस्फोटक (फोड़े, फुंसी एवं चेचक आदि)-का निवारण करनेवाले हैं।॥ ३९-४३ ॥
पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५० ॥