- अध्याय –१५१ वर्ण और आश्रम के सामान्य धर्म, वर्णों तथा विलोमज जातियों के विशेष धर्म
- अध्याय –१५२ गृहस्थ की जीविका
- अध्याय –१५३ संस्कारों का वर्णन और ब्रह्मचारी के धर्म
- अध्याय –१५४ विवाहविषयक बातें
- अध्याय –१५५ आचार का वर्णन
- अध्याय –१५६ द्रव्य शुद्धि
- अध्याय-१५७ मरणाशौच तथा पिण्डदान एवम् दाह-संस्कारकालिक कर्त्वयका कथन
- अध्याय-१५८ गर्भस्राव आदि सम्बन्धी अशौच
- अध्याय –१५९ असंस्कृत आदि की शुद्धि
- अध्याय –१६० वानप्रस्थ-आश्रम
- अध्याय –१६१ संन्यासी के धर्म
- अध्याय –१६२ धर्मशास्त्र का उपदेश
- अध्याय-१६३ श्राद्धकल्पका वर्णन
- अध्याय-१६4
- अध्याय-१६५ विभिन्न धर्मोका वर्णन
- अध्याय-१६६ वर्णाश्रम-धर्म आदिका वर्णन
- अध्याय- १६७ ग्रहोंके अयुत-लक्ष-कोटि हवनोंका वर्णन
- अध्याय-१६८ महापातकोंका वर्णन
- अध्याय -१६९ ब्रह्महत्या आदि विविध पापोंके प्रायश्चित्त
- अध्याय-१७० विभिन्न प्रायश्चितोंका वर्णन
- अध्याय –१७१
- अध्याय –१७२ समस्त पापनाशक स्तोत्र
- अध्याय-१७३ अनेकविध प्रायश्चित्तोंका वर्णन
- अध्याय-१७४ प्रायश्चित्तोंका वर्णन
- अध्याय-१७५ व्रतके विषयमें अनेक ज्ञातव्य बातें
- अध्याय -१७६ प्रतिपदा तिथि के व्रत
- अध्याय –१७७ द्वितीया तिथि के व्रत
- अध्याय –१७८ तृतीया तिथि के व्रत
- अध्याय –१७९ चतुर्थी तिथि के व्रत
- अध्याय –१८० पंचमी तिथि के व्रत
- अध्याय –१८१ षष्ठी तिथि के व्रत
- अध्याय –१८२ सप्तमी तिथिके व्रत
- अध्याय –१८३ अष्टमी तिथि के व्रत
- अध्याय –१८4
- अध्याय –१८५ नवमी तिथि के व्रत
- अध्याय –१८६ दशमी तिथि के व्रत
- अध्याय –१८७ एकादशी तिथि के व्रत
- अध्याय –१८८ द्वादशी तिथि के व्रत
- अध्याय –१९१ त्रयोदशी तिथि के व्रत
- अध्याय –१90
- अध्याय –१91
- अध्याय –१९२ चतुर्दशी-सम्बन्धी व्रत
- अध्याय –१९३ शिवरात्रि – व्रत
- अध्याय –१९४ अशोक पूर्णिमा आदि व्रतों का वर्णन
- अध्याय –१९५ वार – सम्बन्धी व्रतों का वर्णन
- अध्याय –१९६ नक्षत्र-सम्बन्धी व्रत
- अध्याय –१९७ दिन-सम्बन्धी व्रत
- अध्याय –१९८ मास-सम्बन्धी व्रत
- अध्याय –१९९ ऋतू, वर्ष, मास, संक्रान्ति आदि विभिन्न व्रतों का वर्णन
- अध्याय –२०० दीपदान-व्रत की महिमा एवं विदर्भराजकुमारी ललिता का उपाख्यान
अग्निपुराण
अध्याय –१५१ वर्ण और आश्रम के सामान्य धर्म, वर्णों तथा विलोमज जातियों के विशेष धर्म
अग्निदेव कहते हैं – मनु आदि राजर्षि जिन धर्मो का अनुष्ठान करके भोग और मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं, उनका वरुण देवताने पुष्कर को उपदेश किया था और पुष्कर ने श्रीपरशुरामजी से उनका वर्णन किया था ||१||
पुष्कर ने कहा – परशुरामजी ! मैं वर्ण, आश्रम तथा इनसे भिन्न धर्मों का आपसे वर्णन करूँगा | वे धर्म सब कामनाओं को देनेवाले हैं | मनु आदि धर्मात्माओं ने भी उनका उपदेश किया है तथा वे भगवान् वासुदेव आदि को संतोष प्रदान करनेवाले हैं | भृगुश्रेष्ठ ! अहिंसा, सत्य-भाषण, दया, सम्पूर्ण प्राणियों पर अनुग्रह, तीर्थों का अनुसरण, दान, ब्रह्मचर्य, मत्सरता का अभाव, देवता, गुरु और ब्रह्मणों की सेवा, सब धर्मों का श्रवण, पितरों का पूजन, मनुष्यों के स्वामी श्रीभगवान में सदा भक्ति रखना, उत्तम शास्त्रों का अवलोकन करना, क्रूरता का अभाव, सहनशीलता तथा आस्तिकता (ईश्वर और परलोकपर विश्वास रखना) – ये वर्ण और आश्रम दोनों के लिये ‘सामान्य धर्म’ बताये गये हैं | जो इसके विपरीत हैं, वाही ‘अधर्म’ है | यज्ञ करना और कराना, दान देना, वेद पढ़ाने का कार्य करना, उत्तम प्रतिग्रह लेना तह स्वाध्याय करना – ये ब्राह्मण के कर्म हैं | दान देना, वेदों का अध्ययन करना और विधिपूर्वक यज्ञानुष्ठान करना – ये क्षत्रिय और वैश्य के सामान्य कर्म हैं | प्रजा का पालन करना और दुष्टों को दण्ड देना – ये क्षत्रिय के विशेष धर्म हैं | खेती, गोरक्षा और व्यापार – ये वैश्य के कर्म बताये गये हैं | ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य – इन द्विजों की सेवा तथा सब प्रकार की शिल्प-रचना- ये शुद्र के कर्म हैं ||२-९||
मौंजी बंधन (यज्ञोपवीत-संस्कार) होनेसे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य – बालक का द्वितीय जन्म होता हैं; इसलिये वे ‘द्विज’ कहलाते हैं | यदि अनुलोम-क्रम से वर्णों की उत्पत्ति हो तो माता के समान बालक की जाति मानी गयी है ||१०||
विलोम-क्रम से अर्थात शुद्र के वीर्य से उत्पन्न हुआ ब्राह्मणी का पुत्र ‘चाण्डाल’ कहलाता हैं, क्षत्रिय के वीर्य से उत्पन्न होनेवाला ब्राह्मणी का पुत्र ‘सूत’ कहा गया हैं और वैश्य के वीर्य से उत्पन्न होनेपर उसकी ‘वैदेहक’ संज्ञा होती है | क्षत्रिय जाति की स्त्री के पेट से शुद्र के द्वारा उत्पन्न हुआ विलोमज पुत्र ‘पुक्कस’ कहलाता हैं | वैश्य और शुद्र के वीर्यसे उत्पन्न होनेपर क्षत्रिया के पुत्र की क्रमश: ‘मागध’ और ‘अयोगव’संज्ञा होती है | वैश्य जाति की स्त्री के गर्भ से शुद्र एवं विलोमज जातियोंद्वारा उत्पन्न विलोमज संतानों के हजारों भेद हैं | इन सबका परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध समाना जातिवालों के साथ ही होना चाहिये; अपनेसे ऊँची और नीची जाति के लोगों के साथ नहीं ||११-१३||
वध के योग्य प्राणियों का वध करना- यह चाण्डाल का कर्म बताया गया हैं | स्रियों के उपयोंग में आनेवाली वस्तुओं के निर्माण से जीविका चलाना तथा स्त्रियों की रक्षा करना – यह ‘वैदेहक’ का कार्य हैं | सुतों का कार्य है – घोड़ों का सारथिपना,’पुक्कस’ व्याध-वृत्ति से रहते हैं तथा ‘मागध’ का कार्य हैं – स्तुति करना, प्रशंसा के गीत गाना| ‘अयोगव’ का कर्म है –रंगभूमि में उतरना और शिल्प के द्वारा जीविका चलाना | ‘चाण्डाल’ को गाँव के बाहर रहना और मुर्दे से उतारे हुए वस्त्र को धारण करना चाहिये | चाण्डाल को दूसरे वर्ण के लोगों का स्पर्श नहीं करना चाहिये | ब्राह्मणों तथा गौओं की रक्षा के लिये प्राण त्यागना अथवा स्त्रियों एवं बालकों की रक्षा के लिये देह-त्याग करना वर्ण-बाह्य चाण्डाल आदि जातियों की सिद्धि का (उनकी आध्यात्मिक उन्नति) – का कारण माना गया हैं | वर्णसंकर व्यक्तियों की जाति उनके पिता-माता तथा जातिसिद्ध कर्मों से जाननी चाहिये ||१४-१८||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘वर्णोंतर – धम्रों का वर्णन’ नामक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ||५५||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१५२ गृहस्थ की जीविका
पुष्कर कहते हैं – परशुरामजी ! ब्राह्मण अपने शास्त्रोक्त कर्म से ही जीविका चलावे; क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्र के धर्म से जीवन-निर्वाह न करे | आपत्तिकाल में क्षत्रिय और वैश्य की वृत्ति ग्रहण कर ले; किन्तु शुद्र-वृत्तिसे कभी गुजारा न करे | द्विज खेती, व्यापार, गोपालन तथा कुसीद (सूद लेना) – इन वृत्तियों का अनुष्ठान करे; परन्तु वह गोरस, गुड, नमक, लाक्षा और मांस न बेचे | किसान लोग धरती को कोड़ने-जोतने के द्वारा जो कीड़े और चींटी आदि की हत्या कर डालते हैं और सोहनी के द्वारा जो पौधों को नष्ट कर डालते हैं, उससे यज्ञ और देवपूजा करके मुक्त होते हैं ||१-३||
आठ बैलों का हल धर्मानुकुल माना गया हैं | जीविका चलानेवालों का हल छ: बैलों का, निर्दयी हत्यारों का हल चार बैलों का तथा धर्म का नाश करनेवाले मनुष्यों का हल दो बैलों का माना गया हैं | ब्राह्मण ऋत (खेत कट जानेपर बाल योंनना अथवा अनाज के एक-एक दाने को चुन-चुनकर लाना और उसीसे जीविका चलाना ’ऋत’ कहालाता है |) और अमृत से (बिना माँगे जो कुछ मिल जाय, वह ‘अमृत’ है |) अथवा मृत (माँगी हुई भीख को ‘मृत’ कहते हैं |) और प्रमृत से (खेती का नाम ‘प्रमृत’ है |) या सत्यानृत (व्यापार को ‘सत्यानृत’ कहते हैं |) वृत्ति से जीविका चलावे | श्वान-वृत्तिसे (नौकरी का नाम ‘श्वान-वृत्ति’ है |) कभी जीवन-निर्वाह न करे ||४-५||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘गृहस्थ-जीविका का वर्णन’ नामक छपन्नवाँ अध्याय पूरा हुआ ||५६||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१५३ संस्कारों का वर्णन और ब्रह्मचारी के धर्म
पुष्कर कहते हैं – परशुरामजी ! अब मैं आश्रमी पुरुषों के धर्म का वर्णन करूँगा; सुनो ! यह भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला हैं | स्त्रियों के ऋतूधर्म की सोलह रात्रियाँ होती हैं, उनमें पहले की तीन रातें निन्दित हैं | शेष रातों में जो युग्म अर्थात चौथी, छठी, आठवीं और दसवीं आदि रात्रियाँ हैं, उनमें ही पुत्र की इच्छा रखनेवाला पुरुष स्त्री- समागम करे | यह ‘गर्भाधान-संस्कार’ कहलाता हैं | ‘गर्भ’ रह गया – इस बातका स्पष्टरुप से ज्ञान हो जानेपर गर्भस्थ शिशु के हिलने-डुलनेसे पहले ही ‘पुंसवन-संस्कार’ होता हैं | तत्पश्यात छठे या आठवें मास में ‘सीमन्तोत्रयन’ किया जाता हैं | उस दिन पुल्लिंग नामवाले नक्षत्र का होना शुभ हैं | बालक का जन्म होनेपर नाल काटने के पहले ही विद्वान् पुरुषों को उसका ‘जातकर्म-संस्कार’ करना चाहिये | सूतक निवृत्त होनेपर ‘नामकरण-संस्कार’ का विधान हैं | ब्राह्मण के नाम के अन्तमें ‘शर्मा’ और क्षत्रिय के नाम के अंत में ‘वर्मा’ होना चाहिये | वैश्य और शुद्र के नामों के अंत में क्रमश: ‘गुप्त’ और ‘दास’ पदका होना उत्तम माना गया हैं | उक्त संस्कार के समय पत्नी स्वामी की गोद में पुत्रको दे और कहे –‘यह आपका पुत्र है’ ||१-५||
फिर कुलाचार के अनुरूप ‘चूडाकरण’ करे | ब्राह्मण बालक का ‘उपनयन-संस्कार’ गर्भ अथवा जन्म से आठवे वर्ष में होना चाहिये | गर्भ से ग्यारहवें वर्ष में क्षत्रिय बालक का तथा गर्भ से बारहवें वर्ष में वैश्य बालक का उपनयन करना चाहिये | ब्राह्मण बालक का उपनयन सोलहवें, क्षत्रिय बालक का बाईसवें और वैश्य बालक का चौबीसवें वर्ष से आगे नहीं जाना चाहिये | तीनों वर्णों के लिये क्रमश: मूँज, प्रत्यंच्या तथा वल्कलकी मेखला बतायी गयी है | इसप्रकार तीनों वर्णों के ब्रह्मचारियों के लिये क्रमश: मृग, व्याघ्र तथा बकरे के चर्म और पलाश, पीपल तथा बेल के दण्ड धारण करने योग्य बताये गये हैं | ब्राह्मण का दण्ड उसके केशतक, क्षत्रिय का ललाटतक और वैश्य का मुखतक लंबा होना चाहिये | इसप्रकार क्रमश: दण्डों की लंबाई बतायी गयी है | ये दण्ड टेढ़े – मेढ़े न हों | इनके छिलके मौजूद हों तथा ये आगमें जलाये न गये हों ||६-९||
उक्त तीनों वर्णों के लिये वस्त्र और यज्ञोपवीत क्रमश: कपास (रुई), रेशम तथा उनके होने चाहिये | ब्राह्मण ब्रह्मचारी भिक्षा माँगते समय वाक्य के आदि में ‘भवत’ शब्द का प्रयोग करे | [जैसे माताके पास जाकर कहे – ‘भवति भिक्षां में देहि मात: |’पूज्य माताजी ! मुझे भिक्षा दें | ] इसीप्रकार क्षत्रिय ब्रह्मचारी वाक्य के मध्य में तथा वैश्य ब्रह्मचारी वाक्य के अन्तमें ‘भवत’ शब्द का प्रयोग करें | (यथा –क्षत्रिय – भिक्षां भवति में देहि | वैश्य – भिक्षां में देहि भवति|) पहले वहीँ भिक्षा माँगे, जहाँ भिक्षा अवश्य प्राप्त होने की सम्भावना हो | स्त्रियों के अन्य सभी संस्कार बिना मन्त्र के होने चाहिये, केवल विवाह-संस्कार ही मंत्रोच्चारणपूर्वक होता हैं | गुरु को चाहिये कि वह शिष्य का उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार करके पहले शौचाचार, सदाचार, अग्निहोत्र तथा संध्योपासना की शिक्षा दे ||१०-१२||
जो पूर्वकी ओर मुँह करके भोजन करता हैं, वह आयुष्य भोगता हैं, दक्षिण की ओर मुँह करके खानेवाला यशका, पश्चिमाभिमुख होकर भोजन करनेवाला लक्ष्मी (धन) का तथा उत्तर की ओर मुँह करके अन्न ग्रहण करनेवाला पुरुष सत्यका उपभोग करता हैं | ब्रह्मचारी प्रतिदिन सायंकाल और प्रात:काल अग्निहोत्र करे | अपवित्र वस्तुका होम निषिद्ध हैं | होम के समय हाथ की अन्गुलियों को परस्पर सटाये रहे | मधु, मांस, मनुष्यों के साथ विवाद, गाना और नाचना आदि छोड़ दे | हिंसा, परायी निंदा तथा विशेषत: अश्लील चर्चा (गाली=गलौच आदि) का त्याग करे | दण्ड आदि धारण किये रहे } यदि वह टूट जाय तो जलमें उसका विसर्जन कर दे और नवीं दण्ड धारण करे | वेदों का अध्ययन पूरा करके गुरु को दक्षिणा देने के पश्चात व्रतांत-स्नान करे; अथवा नैष्ठिक ब्रह्मचारी होकर जीवनभर गुरुकुल में ही निवास करता रहे ||१३-१६||
इसीप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘ब्रह्मचर्याश्रम –वर्णन’ नामक का सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ||५७||
-ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१५४ विवाहविषयक बातें
पुष्कर कहते हैं – परशुरामजी ! ब्राह्मण अपनी कामना के अनुसार चारों वर्णों की कन्याओं से विवाह कर सकता हैं, क्षत्रिय तीनसे, वैश्य दो से तथा शुद्र एक ही स्त्री से विवाह का अधिकारी है | जो अपने समान वर्ण की न हो, ऐसी स्त्री के साथ किसी भी धार्मिक कृत्य का अनुष्ठान नहीं करना चाहिये | अपने समान वर्ण की कन्याओं से विवाह करते समय पतिको उनका हाथ पकड़ना चाहिये | यदि क्षत्रिय-कन्याका विवाह ब्राह्मण से होता हो तो वह ब्राह्मण के हाथ में हाथ न देकर उसके द्वारा पकडे हुए बाण का अग्रभाग अपने हाथ से पकडे | इसीप्रकार वैश्य-कन्या यदि ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय से ब्याही जाती हो तो वह वर के हाथ में रखा हुआ चाबुक पकडे और शुद्र-कन्या वस्त्र का छोर ग्रहण करे | एक ही बार कन्या का दान देना चाहिये | जो उसका अपहरण करता हैं, वह चोर के समान दण्ड पाने का अधिकारी हैं ||१-३||
जो सन्तान बेचने में आसक्त हो जाता हैं, उसका पापसे कभी उद्धार नहीं होता | कन्यादान, शाचियोग (शचीकी पूजा), विवाह और चतुर्थीकर्म – इन चार कर्मों का नाम ‘विवाह’ है | (मनोनीत) पति के लापता होने, मरने तथा संन्यासी, नपुंसक और पतित होनेपर- इन पाँच प्रकार की आपत्तियों के समय (वाग्दत्ता) स्त्रियों के लिये दूसरा पति करनेका विधान है | पति के मरनेपर देवर को कन्या देनी चाहिये | वह न हो तो किसी दूसरे को इच्छानुसार देनी चाहिये | वर अथवा कन्या का वरण करने के लिये तीनों पूर्वा, कृत्तिका, स्वाती, तीनों उत्तरा और रोहिणी – ये नक्षत्र सदा शुभ माने गये अहिं ||४-७||
परशुराम ! अपने समान गोत्र तथा समान प्रवर में उत्पन्न हुई कन्या का वरण न करे | पितासे ऊपर की सात पीढ़ियों के पहले तथा माता से पाँच पीढ़ियों के बाद की ही परम्परा में उसका जन्म होना चाहिये | उत्तम कुल तथा अच्छे स्वभाव के सदाचारी वर को घरपर बुलाकर उसे कन्या का दान देना “ब्राह्मविवाह’ कहलाता है | उससे उत्पन्न हुआ बालक उक्त कन्यादानजनित पुण्य के प्रभाव से अपने पूर्वजों का सदा के लिये उद्धार कर देता हैं | वर से एक गाय और एक बैल लेकर जो कन्यादान किया जाता हैं, उसे ‘आर्ष-विवाह’ कहते हैं | जब किसी के माँगनेपर उसे कन्या दी जाती है तो वह ‘प्राजापत्य-विवाह’ कहलाता हैं; इससे धर्म की सिद्धि होती है | कीमत लेकर कन्या देना ‘आसुर-विवाह’ हैं, यह नीच श्रेणी का कृत्य है | वर और कन्या जब स्वेच्छापूर्वक एक-दूसरे को स्वीकार करते हैं तो उसे ‘गान्धर्व-विवाह’ कहते हैं | युद्ध के द्वारा कन्या के हर लेने से ‘राक्षस-विवाह’ कहलाता है तथा कन्या को धोखा देकर उडा लें ‘पैशाच –विवाह ‘ माना गया हैं ||८-११||
विवाह के दिन कुम्हार की मिट्टी से शची की प्रतिमा बनाये और जलाशय के तटपर उसकी गाजे-बाजे के साथ पूजा कराकर कन्या को घर ले जाना चाहिये | आषाढ़ से कार्तिक तक, जब भगवान विष्णु शयन करते हो, विवाह नहीं करना चाहिये | पौष और चैत्रमास में भी विवाह निषिद्ध हैं | मंगल के दिन तथा रिक्ता एवं भद्रा तिथियों में भी विवाह मना है | जब बृहस्पति और शुक्र का अस्त हों, चंद्रमापर ग्रहण लगनेवाला हो, लग्नस्थान में सूर्य, शनैश्वर तथा मंगल हों और व्यतिपात दोष आ पड़ा हो तो उस समय भी विवाह नहीं करना चाहिये | मृगशिरा, मघा, स्वाती, हस्त, रोहिणी, तीनों उत्तरा, मूल, अनुराधा तथा रेवती – ये विवाह के नक्षत्र हैं ||१२-१५||
पुरुषवाची लग्न तथा उसका नवमांश शुभ होता है | लग्न से तीसरे, छठे, दसवें, ग्यारहवें तथा आठवें स्थान में सूर्य, शनैश्वर और बुध हों तो शुभ हैं | आठवें स्थान में मंगल का होना अशुभ है | शेष ग्रह सातवें, बारहवें तथा आठवें घरमें हों तो शुभकारक होते हैं | इनमें भी छठे स्थान का शुक्र उत्तम नहीं होता | चतुर्थी कर्म भी वैवाहिक नक्षत्र में ही करना चाहिये | उसमें लग्न तथा चौथे आदि स्थानों में ग्रह न रहें तो उत्तम है | पर्व का दिन छोडकर अन्य समय में ही स्त्री-समागम करे | इससे सती (या शची) देवी के आशीर्वाद से सदा प्रसन्नता प्राप्त होती हैं ||१६-१९||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१५५ आचार का वर्णन
पुष्कर कहते हैं – परशुरामजी ! प्रतिदिन प्रात:काल ब्राह्ममुहूर्त में उठकर श्रीविष्णु आदि देवताओं का स्मरण करे | दिनमें उत्तर की ओर मुख करके मल-मूत्र का त्याग करना चाहिये, रात में द्क्षिनाभिमुख होकर करना उचित है और दोनों संध्याओं में दिन की ही भाँती उत्तराभिमुख होकर मल-मूत्र का त्याग करना चाहिये | मार्ग आदि पर, जलमें तथा गली में भी कभी मलादि का त्याग न करे | सदा तिनकों से पृथ्वी को ढककर उसके ऊपर मल-त्याग करे | मिट्टी से हाथ-पैर आदि की भलीभाँति शुद्धि करके, कुल्ला करने के पश्चात दंतधावन करे | नित्य, नैमित्तिक, कामी, क्रियांग, मलकर्षण तथा क्रिया-स्नान – ये छ: प्रकार के स्नान बताये गये हैं | जो स्नान नहीं करता, उसके सब कर्म निष्फल होते हैं; इसलिये प्रतिदिन प्रात:काल स्नान करना चाहिये ||१-४||
कुएँ से निकाले हुए जलकी अपेक्षा भूमिपर स्थित जल पवित्र होता है | उससे पवित्र झरने का जल, उससे भी पवित्र सरोवर का जल तथा उससे भी पवित्र नदी का जल बताया जाता है | तीर्थ का जल उससे भी पवित्र होता है और गंगा का जल तो सबसे पवित्र माना गया है | पहले जलाशय में गोता लगाकर शरीरका मेल धो डाले | फिर आचमन करके जलसे मार्जन करे | ‘हिरण्यवर्णा:’ आदि तीन ऋचाएँ, ‘शं नो देवीरभिष्टये’ (यजु. ३६/१२) यह मन्त्र, ‘आपो हि ष्ठा’ (यजु, ३६/१४-१६) आदि तीन ऋचाएँ तथा ‘इदमाप:’ (यजु.६/१७) यह मन्त्र – इन सबसे मार्जन किया जाता हैं | तत्पश्चात जलाशय में डुबकी लगाकर जल के भीतर ही जप करे | उसमें अघमर्षण सूक्त अथवा ‘द्रुपदादिव’ (यजु.२०/२०) मन्त्र, या ‘युश्वते मन:’ (यजु.५/१४) आदि सूक्त अथवा ‘सहस्त्रशीर्षा’ (यजु, अ.३१) आदि पुरुष-सूक्त का जप करना चाहिये | विशेषत: गायत्री का जप करना उचित है | अघमर्षणसूक्त में भाववृत्त देवता और अघमर्षण ऋषि हैं | उसका छंद अनुष्टुप हैं | उसके द्वारा भाववृत्त (भक्तिपूर्वक वरण किये हुए) श्रीहरि का स्मरण होता है | तदनंतर वस्त्र बदलकर भीगी धोती निचोड़ने के पहले ही देवता और पितरों का तर्पण करे ||५-११||
फिर पुरुषसूक्त (यजु.अ.३१) के द्वारा जलांजलि दे | उसके बाद अग्निहोत्र करे | तत्पश्चात अपनी शक्ति के अनुसार दान देकर योगक्षेम की सिद्धि के लिये परमेश्वर की शरण जाय | आसन, शय्या, सवारी, स्त्री, सन्तान और कमण्डलु – ये वस्तुएँ अपनी ही हों, तभी अपने लिये शुद्ध मानी गयी है; दूसरों की उपर्युक्त वस्तुएँ अपने लिये शुद्ध नहीं होती | राह चलते समय यदि सामनेसे कोई ऐसा पुरुष आ जाय, जो भार से लदा हुआ कष्ट पा रहा हो, तो स्वयं हटकर उसे जाने के लिये मार्ग दे देना चाहिये | इसीप्रकार गर्भिणी स्त्री तथा गुरुजनों को भी मार्ग देना चाहिये ||१२-१४||
उदय और अस्त के समय सूर्य की ओर न देखे | जलमें भी उनके प्रतिबिम्ब की ओर दृष्टिपात न करे | नंगी स्त्री, कुआँ, हत्या के स्थान और पापियों को न देखे | कपास (रुई), हड्डी, भस्म तथा घृणित वस्तुओं को न लाँघे | दूसरे के अंत:पुर और खजानाघर में प्रवेश न करे | दूसरे के दूत का काम न करे | टूटी-फूटी नाव,वृक्ष और पर्वतपर न चढ़े | अर्थ, गृह और शास्त्रों के विषय में कौतुहल रखे | ढेला फोड़ने, तिनके तोड़ने और नख चबानेवाला मनुष्य नष्ट हो जाता है | मुख आदि अंगों को न बजावे | रात को दीपक लिये बिना कहीं न जाय | दरवाजे के सिवा और किसी मार्ग से घरमें प्रवेश न करे | मुँह का रंग न बिगाड़े | किसीकी बातचीत में बाधा न डाले तथा अपने वस्त्र को दुसरेके वस्त्र से न बदले |’कल्याण हो, कल्याण हो’ – यही बात मुँह से निकाले; कभी किसीके अनिष्ट होने की बात न कहे | पलाश के आसन को व्यवहार में न लावे | देवता आदिकी छाया से हटकर चले ||१५-२०||
दो पूज्य पुरुषों के बीच से होकर न निकले | जूठे मुँह रहकर तारा आदि की ओर दृष्टी न डाले | एक नदीमें जाकर दूसरी नदी का नाम न लें | दोनों हाथों से शरीर न खुज्लावे | किसी नदीपार पहुँचने के बाद देवता और पितरों का तर्पण किये बिना उसे पार न करे | जल में मल आदि न फेंके | नंगा होकर न नहाये | योगक्षेम के लिये परमात्मा की शरण में जाय | माला को पाने हाथ से न हटाये | गदहे आदि की धुलसे बचे | नीच पुरुषों को कष्ट में देखकर कभी उनका उपहास न करे | उनके साथ अनुपयुक्त स्थानपर निवास न करे | वैद्य, राजा और नदीसे हिन् देश में न रहे | जहाँ के स्वामी म्लेच्छ, स्त्री तथा बहुत-से मनुष्य हों, उस देशमें भी न निवास करे | रजस्वला आदि तथा पतितों के साथ बात न करे | सदा भगवान विष्णु का स्मरण करे | मुँह के ढके बिना न जोर से हँसे. न जँभाई ले और न छीकें ही ||२१-२५||
विद्वान पुरुष स्वामी के तथा अपने अपमान की बातको गुप्त रखे | इन्द्रियों के सर्वथा अनुकूल न चले-उन्हें अपने वशमें किये रहे | मल-मूत्र के वेग को न रोके | परशुरामजी ! छोटे-से भी रोग या शत्रु की उपेक्षा न करे | सड़क लाँघकर आने के बाद सदा आचमन करे | जल और अग्नि को धारण न करे | कल्याणमय पूज्य पुरुष के प्रति कभी हुँकार न करे | पैर को पैर से न दबावे | प्रत्यक्ष या परोक्ष में किसीकी निंदा न करे | वेद, शास्त्र, राजा, ऋषि और देवताकी निंदा करना छोड़ दे | स्त्रियों के प्रति ईर्ष्या न रखें तथा उनका कभी विश्वास भी न करे | धर्म का श्रवण तथा देवताओं से प्रेम करे | प्रतिदिन धर्म आदिका अनुष्ठान करे | जन्म-नक्षत्र के दिन चंद्रमा, ब्राह्मण तथा देवता आदि की पूजा करे | षष्ठी, अष्टमी और चतुर्दशी को तेल या उबटन न लगावे | घरसे दूर जाकर मल-मूत्र का त्याग करे | उत्तम पुरुषों के साथ कभी वैर-विरोध न करे ||२६-३१||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१५६ द्रव्य शुद्धि
पुष्कर कहते हैं – परशुरामजी ! अब द्रव्यों की शुद्धि बतलाऊँगा | मिट्टी का बर्तन पुन: पकानेसे शुद्ध होता है | किन्तु मल-मूत्र आदिसे स्पर्श हो जानेपर वह पुन: पकानेसे भी शुद्ध नहीं होता | सोने का पात्र यदि अपवित्र वस्तुओं से छू जाय तो जलसे धोनेपर पवित्र होता है | ताँबेका बर्तन खटाई और जलसे शुद्ध होता है | काँसे और लोहे का बर्तन राखसे मलनेपर पवित्र होता है | मोती आदिकी शुद्धि केवल जलसे धोनेपर ही हो जाती है | जलसे उत्पन्न शंक आदि के बने बर्तनों की, सब प्रकार के पत्थर के बने हुए पात्र की तथा साग, रस्सी, फल एवं मूल की और वाँस आदि के दलों से बनी हुई वस्तुओं की शुद्धि भी इसीप्रकार जलसे धोनेमान्त्र से हो जाती है | यज्ञकर्म में यज्ञपात्रों की शुद्धि केवल दाहिने हाथसे कुशद्वारा मार्जन करनेपर ही हो जाती है | घी या तेलसे चिकने हुए पात्रों की शुद्धि गरम जलसे होती है | घर की शुद्धि झाड़ने-बुहारने और लीपने से होती है | शोधन और प्रोक्षण करने (सींचने) से वस्त्र शुद्ध होता है | रेह की मिट्टी और जलसे उसका शोधन होता है | यदि बहुत से वस्त्रों की ढेरी ही किसी अस्पृश्य वस्तु से छू जाय तो उसपर जल छिडक देनेमात्र से उसकी शुद्धि मानी गयी है | काठ के बने हुए पात्रों की शुद्धि काटकर छिल देने से होती है ||१-५||
शय्या आदि संहत वस्तुओं के उच्छिष्ट आदि से दूषित होनेपर प्रोक्षण (सींचने) मात्र से उनकी शुद्धि होती है | घी-तेल आदि की शुद्धि दो कुश पत्रों से उत्पवन करने (उछालने) मात्र से हो जाती है | शय्या, आसन, सवारी, सूप, छकड़ा, पुआल और लकड़ी की शुद्धि भी सींचने से ही जाननी चाहिये | सींग और दाँत की बनी हुई वस्तुओं की शुद्धि पीली सरसों पीसकर लगानेसे होती है | नारियल और तूँबी आदि फलनिर्मित पात्रों की शुद्धि गोपुच्छ के बालोंद्वारा रगड़नेसे होती है | शंख आदि हड्डी के पात्रों की शुद्धि सींग के समान ही पीली सरसों के लेपसे होती है | गोंद, गुड, नमक,कुसुम्भ के फूल, ऊन और कपास की शुद्धि धुप में सुखानेसे होती है | नदीका जल सदा शुद्ध रहता है | बाजार में बेचने के लिये फैलायी हुई वस्तु भी शुद्ध मानी गयी है ||६-९||
गौ के मूँह को छोडकर अन्य सभी अंग शुद्ध हैं | घोड़े और बकरे के मूँह शुद्ध माने गये हैं | स्त्रियों का मुख सदा शुद्ध है | दूध दुहने के समय बछड़ों का, पेड़ से, फल गिराते समय पक्षियों का और शिकार खेलते समय कुत्तों का मूँह भी शुद्ध माना गया है | भोजन करने, थूकने, सोने, पानी पीने, नहाने, सड़कपर घुमने और वस्त्र पहनने के बाद अवश्य आचमन करना चाहिये | बिलाव घुमने-फिरने से ही शुद्ध होता है | रजस्वला स्त्री चौथे दिन शुद्ध होती है | ऋतूस्नाता स्त्री पाँचवें दिन देवता और पितरों के पुजनकार्य में सम्मिलित होने योग्य होती है | शौच के बाद पाँच बार गुदामें, दस बार बायें हाथमें, फिर सात बार दोनों हाथों में, एक बार लिंग में तथा पुन: दो-तीन बार हाथों में मिट्टी लगाकर धोना चाहिये | यह गृहस्थों के लिये शौच का विधान है | ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासियों के लिये गृहस्थ की अपेक्षा चौगुने शौच का विधान किया गया है ||१०-१४||
टसर के कपड़ों की शुद्धि बेल के फल के गुदे से होती है | अर्थात उसे पानी में घोलकर उसमें वस्त्रको डुबो दे और फिर साफ़ पानी से धो दे | तीसी एवं सं आदि के सुतसे बने हुए कपड़ों की शुद्धि के लिये अर्थात उनमें लगे हुए तेल आदि के दाग को छुड़ाने के लिये पीली सरसों के चूर्ण या उबटन से मिश्रित जल के द्वारा धोना चाहिये | मृगचर्म या मृग के रोमों से बने हुए आसन आदि की शुद्धि उसपर जल का छींटा देने मात्र से बतायी गयी है | फूलों और फलों की भी उनपर जल छिडकने मात्र से पूर्णत: शुद्धि हो जाती है ||१५-१६||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘द्रव्य-शुद्धि का वर्णन’ नामक साठवाँ अध्याय पूरा हुआ ||६०||
अध्याय-१५७ मरणाशौच तथा पिण्डदान एवम् दाह-संस्कारकालिक कर्त्वयका कथन
पुष्कर कहते हैं–अब मैं ‘प्रेतशुद्धि’ तथा ‘सूतिकाशुद्धि’का वर्णन करूँगा। सपिण्डोमें अर्थात् मूल पुरुषकी सातवी पीढीतककी संतानोंमें मरणार्शीच दस दिनतक रहता है। जननाशीच भी इतने ही दिनतक रहता है।
परशुरामजी! यह ब्राह्मणोंके लिये अशौचकी बात बतलायी गयी। क्षत्रिय बारह दिनोंमें, वैश्य पंद्रह दिनोंमें तथा शूद्र एक मासमें शुद्ध होता है। यहाँ उस शूद्रके लिये कहा गया है, जो अनुलोमज हो अर्थात् जिसका जन्म उच्च जातीय अथवा सजातीय पितासे हुआ हो।
स्वामी को अपने घर में जितने दिनका अशौच लगता है, सेवक को भीं उतने ही दिनोंका लगता है। क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रोंका भी जननाशौच दस दिनका ही होता है।॥ १-३ ॥
परशुरामजी ! ब्राह्मण, क्षत्रिथ, वैश्य तथा शूद्र इसी क्रमसे शुद्ध होते हैं। (किसी-किसीके मतमें) वैश्य तथा शूद्रके जननाशौचकी निवृत्ति पंद्रह दिनोंमें होती है।
यदि बालक दाँत निकलनेके पहले हीं मर जाय तो उसके जननाशीचकी सद्यःशुद्धि मानी गयी है। दाँत निकलनेके बाद अशौच होता है, यज्ञोपवीतके पहलेतक तीन पातका तथा उसके माद दस रात का अशौच बताया गया है।
तीन वर्षसे कमका शूद्र-बालक यदि मृत्युको प्राप्त हो तो पाँच दिनोंके बाद उसके अशौचकीं निवृत्ति होती है।
तीन वर्षके बाद मृत्यु होनेपर बारह दिन बाद शुद्धि होती है तथा छ: वर्ष व्यतीत होनेके पश्चात् उसके मरणका अशीच एक मासके बाद निवृत होता है।
कन्याओंमें जिनका मुण्डन नहीं हुआ है, उनके मरणाशौचकी शुद्धि एक रातमें होनेवाली मानी गयी है और जिनका मुण्डन हो चुका है, उनकी मृत्यु होनेपर उनके बन्धु-बान्धव तीन दिन बाद शुद्ध होते हैं॥ ४-८॥
जिन कन्याओंका विवाह हो चुका है, उनकी मृत्युका अशौच पितृकुलको नहीं प्राप्त होता।
जो स्त्रियाँ पिताके घर में संतानको जन्म देती हैं, उनके उस जननाशौचकी शुद्धि एक रातमें होती है। किंतु स्वयं सूतिका दस रातमें ही शुद्ध होती है, इसके पहले नहीं।
यदि विवाहित कन्या पिताके घरमें मृत्युको प्राप्त हो जाय तो उसके बन्धुबान्धव निश्चय ही तीन रातमें शुद्ध हो जाते हैं।
समान अशौचको पहले निवृत्त करना चाहिये और असमान अशौचकी बादमें। ऐसा ही धर्मराजका वचन है।
परदेशमें रहनेवाला पुरुष यदि अपने कुलमें किसीके जन्म या मरण होनेका समाचार सुने तो दस रातमें जितना समय शेष हो, उतने ही समय तक उसे अशौच लगता है। यदि दस दिन व्यतीत होनेपर उसे उक्त समाचारका ज्ञान हो, तो वह तीन राततक अशौचयुक्त रहता है तथा यदि एक वर्ष व्यतीत होनेके बाद उपर्युक्त बातोंकी जानकारी हो तो केवल स्नानमात्रसे शुद्धि हो जाती है।
नाना और आचार्यके मरनेपर। भी तीन राततक आशौच रहता है।॥ १-१४॥
परशुरामजी ! यदि स्त्रीका गर्भ गिर जाय तो जितने मासका गर्भ गिरा हो, उतनी रातें बीतनेपर उस स्त्रीकी शुद्धि होती है।
सपिण्ड ब्राह्मणकुलमें मरणाशौच होनेपर उस कुलके सभी लोग सामान्यरूपसे दस दिनमें शुद्ध हो जाते हैं। क्षत्रिय बारह दिनमें, वैश्य पंद्रह दिनमें और शूद्र एक मासमें शुद्ध होते हैं।
(प्रेत या पितरोंके श्राद्धमें उन्हें आसन देने से लेकर अर्ध्यदान तक के कर्म करके उनके पूजनके पश्चात् जब परिवेषण होता है, तब सपात्रक कर्ममें वहाँ ब्राह्मण भोजन कराया जाता है। ये ब्राह्मण पितरोंके प्रतिनिधि होते हैं। अपात्रक कर्ममें ब्राह्मणोंका प्रत्यक्ष भोजन नहीं होता तो भी पितर सूक्ष्मरूपसे उस अन्नको ग्रहण करते हैं। उनके भोजनके बाद वह स्थान उच्छिष्ट समझा जाता है:)
उस उच्छिष्टके निकट ही वेदी बनाकर, उसका संस्कार करके, उसके ऊपर कुश बिछाकर उन कुशोंपर ही पिण्ड निवेदन करे। उस समय एकाग्रचित हो, प्रेत अथवा पितरके नाम-गोत्रका उच्चारण करके ही उनके लिये पिण्ड अर्पित करें ॥ १५-१७॥
जब ब्राह्मण लोग भोजन कर लें और धनसे उनका सत्कार या पूजन कर दिया जाय, तब नाम-गोत्रके उच्चारणपूर्वक उनके लिये अक्षत-जल छोड़े जाये। तदनन्तर चार अंगुल चौड़ा, उतना ही गहरा तथा एक बित्तेका लंबा एक गट्ठा खोदा जाय।
परशुराम! वहाँ तीन ‘विकर्षु’ (सूखे कंडोके रखनेके स्थान) बनाये जाये और उनके समीप तीन जगह अग्नि प्रज्वलित की जाय। उनमें क्रमश: ‘सोमाय स्वाहा’, ‘वह्रये स्वाहा’ तथा *यमाय स्वाहा’ मन्त्र बोलकर सोम, अग्नि तथा यमके लिये संक्षेपसे चार-चार या तीन-तीन आहुयीयाँ दे। सभी वेदियोंपर सम्यग् विधिसे आहुति देनी चाहिये। फिर वहाँ पहलेकी ही भाँती पृथकू-पृथकू पिण्ड-दान करे ॥ १८-२१॥
अन्न, दही, मधु तथा उड़दसे पिण्डकी पूर्ति करनी चाहिये। यदि वर्षके भीतर अधिक मास हो जाय तो उसके लिये एक पिण्ड अधिक देना चाहियें। अथवा बारहों मासके सारे मासिक श्राद्ध द्वादशाहके दिन ही पूरे कर दिये जायँ। यदि वर्षके भीतर अधिक मासकी समभावना हो ती द्वादशाह श्राद्धके दिन ही उस अधिमासके निमित्त एक पिण्ड अधिक दे दिया जाय।
संवत्सर पूर्ण हो जानेपर श्राद्धको सामान्य श्राद्धकी हौ भौति सम्पादित करें ॥ २२-२४ ॥
सपिण्डीकरण श्राद्धमें प्रेतकों अलग पिण्ड़ तीन पिण्ड देकर बादमें उसीकी तीन पीढ़ियोंके पितरोंको तीन पिण्ड प्रदान करने चाहिये। इस तरह इन चारों पिण्डोंको बड़ी एकाग्रताके साथ अर्पित करना चाहिये। भृगुनन्दन! पिण्डोंका पूजन और दान करके ‘पृथिवी ते पात्रम्०’,’ये समाना:०’ इत्यादि मन्त्रोंके पाठपूर्वक यथोचित कार्य सम्पादन करते हुए प्रेत-पिण्डके तीन टुकड़ोंको क्रमश: पिता, पितामह और प्रपितामहके पिण्डोंमें जोड़ दे। इससे पहले इसी तरह प्रेतके अर्ध्यपात्रका पिता आदिके अर्ध्यपात्रोंमें मेलन करना चाहिये।
पिण्डमेलन और पात्रमेलनका यह कर्म पृथक्पृथक् करना उचित हैं। शूद्रका यह श्राद्धकर्म मन्त्ररहित करनेका विधान है।
स्त्रियोंका सपिण्डीकरण श्राद्ध भी उस समय इसी प्रकार (पूर्वोक्त रीतिसे) करना चाहियै ॥ २५-२८ ॥
पितरोंका श्राद्ध प्रतिवर्ष करना चाहिये; किंतु प्रेतके लिये सान्नोदक कुम्भदान एक वर्षतक करे।
वर्षाकालमें गङ्गाजीकी सिकताधाराकी सम्भव है गणना हो जाय, किन्तु अतीत पितरोंकी गणना कदापि सम्भव नहीं है।
काल निरन्तर गतिशील है, उसमें कभी स्थिरता नहीं आती; इसलिये कर्म अवश्य करे।
प्रेत पुरुष देवत्वको प्राप्त हुआ हो या यातनास्थानमें पड़ा हो, वह किये गए श्राद्धको वहाँ अवश्य पाटा है । इसलिये मनुष्य प्रेतके लिए अथवा अपने लिए शोक न करते हुए ही उपकार करे ।।२९-३१ ।।
जो लोग पर्वतसे कूदकर, आगमें जलकर, गलेमें फाँसी लगाकर या पानीमें डूबकर मरते है, ऐसे आत्मधाती और पतित मनुष्योंके मरनेका अशौच नहीं लगता है ।
जो बिजली गिरनेसे या युद्धमें अस्त्रोंके अघातसे मरते है, उनके लिए भी यही बात है ।
यति, व्रती, ब्रह्राचारी, राजा, कारीगर और यज्ञदीक्षित पुरुष तथा जो राजाकी आज्ञाका पालन करनेवाला है; ऐसे लोगोंको भी अशौच नहीं प्राप्त होता है ।
ये यदि प्रेतकी शवयात्रामें गये हो-तो भी स्नानमात्र कर ले। इतनेसे ही उनकी शुद्धि हो जाती है।
मैथुन करनेपर और जलते हुये शवका धुँआ लग जानेपर तत्काल स्नानका विधान है।
मरे हुए ब्राह्राणके शवको शुद्रद्वारा किसी तरह भी न उठावाया जाय। इसी तरह शुद्रके शवको भी ब्राह्राणद्वारा कदापि न उठवाये; क्योकी वैसा करनेपर दोनोंको ही दोष लगता है । अनाथ ब्राह्राणके शवको ढोकर अंत्येष्टिकर्मके लिये ले जानेपर मनुष्य स्वर्गलोकका भागी होता है ।।३२-३५।।
अनाथ प्रेतका दाह करनेके लिये काष्ठ या लकड़ी देनेवाला मानव संग्राममें विजय पाता है ।
अपने प्रेत बंधूको चितापर स्थापित एवं दग्धकर उस चिताकी अपसव्य परिक्रमा करके समस्त भाई-बंधू सवस्त्र स्नान करें और प्रेतके निमित्त तीन-तीन बार जलान्जली दे ।
घरके दरवाजेपर जाकर पत्थरपर पैर रखकर, अग्निमें अक्षत छोड़े तथा नीमकी पत्ती चबाकर घरके भीतर प्रवेश करें। वहाँ उस दिन सबसे अलग पृथ्वीपर चटाई आदि विछाकर सोवें । जिस घरका शव जलाया गया हो, उस घरके लोग उस दिन खरीदकर मँगाया हुआ या स्वतः प्राप्त हुआ आहार ग्रहण करें । दस दिनोंतक प्रतिदिन एक-एकके हिसाबसे पिण्डदान करें । दसवें दिन एक पिण्ड देकर बाल बनाकर मनुष्य शुद्ध होता है । दसवें दिन विद्वान पुरुष सरसों और तिलका अनुलेप लगाकर जलाशयमें गोता लगाये और स्नानके पश्चात दूसरा नूतन वस्त्र धारण करे ।
जिस बालकके दांत न निकले हों, उसके मरनेपर या गर्भस्राव होनेपर उसके लिये न तो दाह-संस्कार करे और ना जलान्जली दे ।
शवदाहके पश्चात चौथे दिन अस्थिसंचय करे । अस्थिसंचयके पश्चात् अंगस्पर्शका विधान है । ।।३६-४२।।
अध्याय-१५८ गर्भस्राव आदि सम्बन्धी अशौच
पुष्कर कहते हैं–अब मैं मनु आदि महर्षियोंके मतके अनुसार गर्भस्नाव-जनित अशौचका वर्णन करूंगा।
चौथे मासके स्राव तथा पाँचवें, छठे मासके गर्भपाततक यह नियम है कि जितने महीनेपर गर्भस्खलन हो, उतनी ही रात्रियोंके द्वारा अथवा तीन रात्रियोंके द्वारा स्त्रियोंकी शुद्धि होती हैं*।
सातवें माससे दस दिनका अशौच होता है। क्षत्रियके लिये चार रात्रि, वैश्य के लिये पाँच दिन तथा शूद्रके लिये आठ दिनतक अशौचका समय है।
सातवें माससे अधिक होनेपर सबके लिये बारह दिनोंकी अशुद्धि होती है। यह अशौच केवल स्त्रियोंके लिये कहा गया हैं। तात्पर्य यह कि माता ही इतने दिनोंतक अशुद्ध रहती है। पिताकी शुद्धि तो स्नानमात्रसे हो जाती है ॥ १-३॥
जो सपिण्ड पुरुष हैं, उन्हें छ: मासतक सद्य:-शौच (तत्काल-शुद्धि) रहता है। उनके लिये स्नान भी आवश्यक नहीं है। किंतु सातवें और आठवें मासके गर्भपातमें सपिण्ड पुरुषोंको भी त्रिरात्र अशौच लगता है।
जितने समयमें दाँत निकलते हैं, उतने मासतक यदि चालक की मृत्यु हो जाय तो सपिण्ड पुरुषोको तत्काल शुद्धि प्राप्त होती है।
चूड़ाकरणके पहले मृत्यु होनेपर उन्हें एक रातका अशौच लगता है।
यज्ञोपवीतके पूर्व बालकका देहावसान होनेपर सपिण्डोको तीन राततक अशौच प्राप्त होता है। इसके बाद मृत्यु होनेपर सपिण्ड पुरुषोको दस रातका अशौच लगता है।
दाँत निकलनेके पूर्व बालककी मृत्यु होनेपर माता-पिताको तीन रातका अशौच प्राप्त होता है। जिसका चूडाकरण न हुआ हो, उस बालककी मृत्यु होनेपर भी माता-पिताको उतने ही दिनोंका अशौच प्राप्त होता है।
तीन वर्षसे कमकी आयुमें ब्राह्मण-बालक की मृत्यु हो तो सपिण्डोंकी शुद्धि एक रातमें होती है ॥ ४-६ ॥
क्षत्रिय-बालकके मरनेपर उसके सपिण्डोकी शुद्धि दो दिनपर, वैश्य-बालकके मरनेसे उसके सपिण्डोंकी तीन दिनपर और शूद्ध-बालककी मृत्यु हो तो उसके सपिण्डोकी पाँच दिनपर शुद्धि होती है।
शूद्र बालक यदि विवाहके पहले मृत्युको प्राप्त हो तो उसे बारह दिनका अशौच लगता है।
जिस अवस्था में ब्राह्मणको तीन रातका अशौच देखा जाता है, उसीमें शूद्रके लिये बारह दिनका आशौच लगता है; क्षत्रिय के लिये छ: दिन और वैश्यके लिये नौ दिनोंका अशौच लगता है।
दो वर्षके बालकका अग्निद्वारा दाहसंस्कार नहीं होता। उसकी मृत्यु होनेपर उसे धरतीमें गाड़ देना चाहियें। उसके लिये बान्धवोंकी उदक-क्रिया (जलाङ्गलि-दान) नहीं करनी चाहिये। अथवा जिसका नामकरण हो गया हो या जिसके दाँत निकल आये हों, उसका दाह-संस्कार तथा उसके निमित्त जलान्जली-दान करना चाहिये।
उपनयनके पश्चात् बालककी मृत्यु हो तो दस दिनका अशौच लगता है।
जो प्रतिदिन अग्निहोत्र तथा तीनों वेदोंका स्वाध्याय करता है, ऐसा ब्राह्मण एक दिनमें ही शुद्ध हो जाता है। जो उससे हीन और हीनतर है, अर्थात् जो दो अथवा एक वेदका स्वाध्याय करनेवाला है, उसके लिये तीन एवं चार दिनमें शुद्ध होनेका विधान है।
जो अग्निहोत्रकर्मसे रहित है, वह पाँच दिनमें शुद्ध होता है। जो केवल ‘ब्राह्मण’ नामधारी है (वेदाध्ययन या अग्निहोत्र नहीं करता), वह दस दिनमें शुद्ध होता है।॥ ७-११॥
गुणवान् ब्राह्राण सात दिनपर शुद्ध होता है, गुणवान् क्षत्रिय नौ दिनमें, गुणवान् वैश्य दस दिनमें और गुणवान् शूद्र बीस दिनमें शुद्ध होता है।
साधारण ब्राह्राण दस दिनमें, साधारण क्षत्रिय बारह दिनमें, साधारण वैश्य पंद्रह दिनमें और साधारण शूद्र एक मासमें शुद्ध होता है।
गुणोंकी अधिकता होनेपर, यदि दस दिनका अशौच प्राप्त हो तो वह तीन ही दिनतक रहता है, तीन दिनोंतकका अशौच प्राप्त हो तो वह एक ही दिन रहता है तथा एक दिनका अशौच प्राप्त हो तो उसमें तत्काल ही शुद्धिका विधान है। इसी प्रकार सर्वत्र ऊहा कर लेनी चाहिये।
दास, छात्र, भृत्य और शिष्य-ये यदि अपने स्वामी अथवा गुरुके साथ रहते हों तो गुरु अथवा स्वामीकी मृत्यु होनेपर इन सबको स्वामी एवं गुरुके कुटुम्बीजनोंके समान ही पृथक्-पृथक् अशौच लगता है।
जिसका अग्निसे संयोग न हो अर्थात् जो अग्निहोत्र न करता हो, उसे सपिण्ड पुरुषोकी मृत्यु होनेके बाद ही तुरंत अशौच लगता है; परंतु जिसके द्वारा नित्य अग्निहोत्रका अनुष्ठान होता हो, उस पुरुषको किसी कुटुम्वी या जाति-बन्धुकी मृत्यु होनेपर जब उसका दाह-संस्कार सम्पन्न हो जाता है. उसके बाद अशौच प्राप्त होता है। १२-१६॥
सभी वर्णके लोगोंको अशौचका एक तिहाई समय बीत जानेपर शारीरिक स्पर्शका अधिकार प्राप्त हो जाता है। इस नियमके अनुसार ब्राह्मण आदि वर्ण क्रमश: तीन, चार, पाँच तथा दस दिनके अनन्तर स्पर्श करनेके योग्य हो जाते हैं।
ब्राह्राण आदि वर्णोका अस्थिसंचय क्रमश: चार, पाँच, सात तथा नौ दिनोंपर करना चाहिये। १७-१८ ॥
जिस कन्याका वाग्दान नहीं किया गया है (और चूडाकरण हो गया है), उसकी यदि | वाग्दानसे पूर्व मृत्यु हो जाय तो बन्धु-बान्धर्वोको एक दिनका अशौच लगता है। जिसका वाग्दान तो हो गया है, किंतु विवाह-संस्कार नहीं हुआ है, उस कन्याके मरनेपर तीन दिनका अशौच लगता है। यदि ब्याही हुई बहिन या पुत्री आदिकी मृत्यु हो तो दो दिन एक रातका अशीच लगता है।
कुमारी कन्याओंका वही गोत्र है, जो पिताका है। जिनका विवाह हो गया है, उन कन्याओंका गोत्र वह हैं, जो उनके पतिका है।
विवाह हो जानेपर कन्याकी मृत्यु हो तो उसके लिये जलाञ्जलि-दानका कर्तव्य पितापर भी लागू होता है; पति पर तो है ही। तात्पर्य यह कि विवाह होनेपर पिता और पति-दोनों कुलोंमें जलदानकी क्रिया प्राप्त होती हैं।
यदि दस दिनोंके बाद और चूड़ाकरणके पहले कन्याकी मृत्यु हो तो माता-पिताको तीन दिनका अशौच लगता है और सपिण्ड पुरुषोंकी तत्काल ही शुद्धि होती है।
चूड़ाकरणके बाद वाग्दानके पहलेतक उसकी मृत्यु होनेपर बन्धु-बान्धर्वोको एक दिनका अशौच लगता है।
वाग्दानके बाद विवाहके पहलेतक उन्हें तीन दिनका अशौच प्राप्त होता है। तत्पश्चात् उस कन्याके भतीजोंको दो दिन एक रातका अशौच लगता है, किंतु अन्य सपिण्ड पुरुषोंकी तत्काल शुद्धि हो जाती है।
ब्राह्राण सजातीय पुरुषोंके यहाँ जन्म-मरणमें सम्मिलित हो तो दस दिनमें शुद्ध होता है और क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रके यहाँ जन्म-मृत्युमें सम्मिलित होनेपर क्रमश: छ:, तीन तथा एक दिनमें शुद्ध होता है॥ ११-२३ ॥
यह जों आशौच-सम्बन्धी नियम निश्चित किया गया है, वह सपिण्ड पुरुषोंसे ही सम्बन्ध रखता है, ऐसा जानना चाहिये। अब जो औरस नहीं हैं, ऐसे पुत्र आदिके विषयमें बताऊँगा।
औरस-भिन्न क्षेत्रज, दत्तक आदि पुत्रोंके मरनेपर तथा जिसने अपनेको छोड़कर दूसरे पुरुषसे सम्बन्ध जोड़ लिया हो अथवा जो दूसरे पतिकी छोड़कर आयी हो और अपनी भार्या बनकर रहती रही हो, ऐसी स्त्रीके मरनेपर तीन रातमें अशौचकी निवृत्ति होती है।
स्वधर्मका त्याग करनेके कारण जिनका जन्म व्यर्थ हो गया हो, जो वर्णसंकर संतान हो अर्थातूनीचवर्णके पुरुष और उच्चवर्णकी स्त्रीसे जिसका जन्म हुआ हो, जो संन्यासी बनकर इधर-उधर घूमते-फिरते रहे हों और जो अशास्त्रीय विधि में विष-बन्धन आदिके द्वारा प्राणत्याग कर चुके हों, ऐसे लोगोंके निमित्त बान्धवोंकों जलांजलि-दान नहीं करना चाहिये: उनके लिये उदक-क्रिया निवृत्त हो जाती है।
एक हीं माताद्वारा दो पिताओंसे उत्पन्न जो दो भाई हों, उनके जन्ममें सपिण्ड पुरुषोंको एक दिनका अशौच लगता है और मरनेपर दो दिनका। यहाँतक सपिण्डोंका अशौच बताया गया।
अब ‘ समानोदक’का वता रहा हूँ॥ २४-२७ ॥
दाँत निकलनेसे पहले बालककी मृत्यु हो जाय, कोई सपिण्ड पुरुष देशान्तरमें रहकर मरा हो और उसका समाचार सुना जाय तथा किसी असपिण्ड पुरुषको मृत्यु हो जाय-तो इन सब अवस्थाओंमें (नियत अशौचका काल-विताकर) वस्त्रसहित जलमें डुबकी लगानेपर तत्काल ही शुद्धि हो जाती है।
मृत्यु तथा जन्मके अवसरपर सपिण्ड पुरुष दस दिनोंमें शुद्ध होते हैं, एक कुलके असपिण्ड पुरुष तीन रातमें शुद्ध होते हैं और एक गोत्रवाले पुरुष स्नान करने मात्रसे शुद्ध हो जाते हैं।
सातवीं पीढ़ीमें सपिण्डभावकी निवृत्ति हो जाती है और चौदहवीं पीढ़ीतक समानोदक सम्बन्ध भी समाप्त हो जाता है।
किसीके मत में जन्म और नामका स्मरण न रहनेपर अर्थात् हमारे कुल में अमुक पुरुष हुए थे, इस प्रकार जन्म और नाम दोनोंका ज्ञान न रहनेपर-समानोदकभाव निवृत्त हो जाता है। इसके बाद केवल गोत्रका सम्बन्ध रह जाता है।
जो दशाह ” बीतनेके पहले परदेशमें रहनेवाले किसी जाति-बन्धुकी मृत्युका समाचार सुन लेता है, उसे दशाह में जितने दिन शेष रहते हैं, उतने ही दिनका आशौच लगता है। दशाह बीत जाने पर उक्क समाचार सुने तो तीन रातका अशौच प्राप्त होता है। ॥२८-३२ ॥
वर्षं बीत जानेप उक्त समाचार ज्ञात हो तो जलका स्पर्श करके ही मनुष्य शुद्ध हो जाता है।
मामा, शिष्य, ऋत्विक तथा बांधवजनोंके मरनेपर एक दिन, एक रात और एक दिनका अशौच लगता है।
मित्र, दामाद, पुत्रीके पुत्र, भानजे, साले और सालेके पुत्र के मरनेपर स्नानमात्र करनेका विधान है।
नानी, आचार्य तथा नानाकी मृत्यु होनेपर तीन दिनका अशौच लगता है।
दुर्मिक्ष (अकाल) पड़ने पर, समूचे राष्ट्रके ऊपर संकट आनेपर, आपत्ति-विपत्ति पड़नेपर तत्काल शुद्धि कही गयी है।
यज्ञकर्ता, व्रतपरायण, ब्रह्मचारी, दाता तथा ब्रह्मवैताकी तत्काल ही शुद्धि होती है।
दान, यज्ञ, विवाह, युद्ध तथा देशव्यापी विप्लवके समय भी सद्य:शुद्धि ही बतायी गयी है।
महामारी आदि उपद्रवमें मरे हुएका अशौच भी तत्काल ही निवृत्त हो जाता है।
राजा, गौ तथा ब्राह्मणद्वारा मारे गये मनुष्योंकी और आत्मघाती पुरुषोंकी मृत्यु होनेपर भी तत्काल ही शुद्धि कही गयी है।॥ ३३-३७ ॥
जो असाध्य रोगसे युक्त एवं स्वाध्यायमें भी असमर्थ है, उसके लिये भी तत्काल शुद्धिका ही विधान हैं।
जिन महापापियोंके लिये अग्नि और जल में प्रवेश कर जाना प्रायश्चित बताया गया है । जो स्त्री अथवा पुरुष अपमान, क्रोध, स्नेह, तिरस्कार या भयके कारण गलेमें बन्धन (फाँसी) लगाकर किसी तरह प्राण त्याग देते हैं, उन्हें “आत्मघाती” कहते हैं। वह आत्मघाती मनुष्य एक लाख वर्षतक अपवित्र नरक में निवास करता है।
जो अत्यन्त वृद्ध है, जिसे शौचाशीचका भी ज्ञान नहीं रह गया है, वह यदि प्राण त्याग करता है तो उसका अशौच तीन दिन तक हीं रहता हैं। उसमें दूसरे दिन अस्थिसंचय, तीसरे दिन जलदान तथा चौथे दिन श्राद्ध करना चाहियें।
जो बिजली अथवा अग्निसे मरते हैं, उनके अशौचसे सपिण्ड पुरुषोंकी तीन दिनमें शुद्धि होती हैं।
जो स्त्रियाँ पाखण्डका आश्रय लेनेवाली तथा पतिघातिनी हैं, उनकी मृत्युपर अशौच नहीं लगता और न उन्हें जलांजलि पानेका ही अधिकार होता है।
पिता-माता आदिकी मृत्यु होनेका समाचार एक वर्ष बीत जानेपर भी प्राप्त हो तो सवस्त्र स्नान करके उपवास करे और विधिपूर्वक प्रेतकार्य (जलदान आदि) सम्पन्न करे l
जो कोई पुरुष जिस किसी तरह भी असपिण्ड शवकों उठाकर ले जाय, वह वस्त्रसहित स्नान करके अग्निका स्पर्श करे और घी खा ले, इससे उसकी शुद्धि हो जाती है। यदि उस कुटुम्बका वह अन्न खाता है तो दस दिनमें ही उसकी शुद्धि होती है। यदि मृतक के घरवालोंका अन्न न खाकर उनके घर में निवास भी न करे तो उसकी एक ही दिनमें शुद्धि हो जायगी।
जो द्विज अनाथ ब्राह्मणके शव को ढोते हैं, उन्हें पग-पग पर अश्वमेध यक्षका फल प्राप्त होता है और स्नान करनेमानसे उनकी शुद्धि हो जाती है।
शूद्रके शवका अनुगमन करनेवाला ब्राह्मण तीन दिनपर शुद्ध होता है।
मृतक व्यक्तिके बन्धु-बान्धवोंके साथ बैठकर शोक-प्रकाश या विलाप करनेवाला द्विज उस एक दिन और एक रातमें स्वेच्छासे दान और श्राद्ध आदिका त्याग करे।
यदि अपने घर पर किसी शूद्रा स्त्रीके बालक पैदा हो या शूद्रका मरण हो जाय तो तीन दिनपर घर के बर्तन-भाँड़े निकाल फेंके और सारी भूमि लीप दें, तब शुद्धि होती है।
सजातीय व्यक्तियोंके रहते हुए ब्राह्राणशवको शूद्रके द्वारा न उठवाये।
मुर्देको नहलाकर नूतन वस्त्रसे ढक दे और फूलोंसे उसका पूजन करके शमशानकी ओर ले जाय। ॥४४-५० ॥
मुर्देको नंगे शरीर न जलाये। कफनका कुछ हिस्सा फाड़कर श्मशानवासीको दे देना चाहिये। उस समय सगोत्र पुरुष शवको उठाकर चितापर चढ़ावे । जो अग्निहोत्री हो, उसे विधिपूर्वक तीन अग्नियों (आहवनीय, गार्हपत्य और दाक्षिणाग्नि) द्वारा दग्ध करना चाहिये।
जिसने अग्निकी स्थापना नहीं की हों, परंतु उपनयन संस्कारसे युक्त हो, उसका एक अग्नि (आहवनीय) द्वारा दाह करना चाहिये तथा अन्य साधारण मनुष्योंका दाह लौकिक अग्निसे करना चाहिये।*
‘अस्मात् त्वमभिजातोऽसि त्वदयं जायतां पुनः ॥
असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहा।”
इस मन्त्रकों पढ़कर पुत्र अपने पिताके शवके मुखमें अग्नि प्रदान करे। फिर प्रेत के नाम और गोत्रका उच्चारण करके बान्धवजन एक-एक बार जलदान करें। इसी प्रकार नाना तथा आचार्यके मरनेपर भी उनके उद्देश्यसे जलांजलिदान करना अनिवार्य है। परंतु मित्र, ब्याही हुई बेटी-बहन आदि, भानजे, श्वशुर तथा ऋत्विजके लिये भी जलदान करना अपनी इच्छापर निर्भर है।
पुत्र अपने पिताके लिये दस दिनोंतक प्रतिदिन ‘अपो नः शोशुचद् अयम्’ इत्यादि ” पढ़कर जलाङ्कालि दे।
ब्राह्मणको दस पिण्ड, क्षत्रियको बारह पिण्ड, वैश्यको पंद्रह पिण्ड और शुद्रको तीस पिण्ड देनेका विधान है।
पुत्र हो या पुत्री अथवा और कोई, वह पुत्रकी भाँति मृत व्यक्तिको पिण्ड दे।
शवका दाह-संस्कार करके जब घर लौटे तो मनको वशमें रखकर द्वारपर खड़ा हो दाँतसे नीमकी पत्तियाँ चबाये। फिर आचमन करके अग्नि, जल, गोबर और पीली सरसोंका स्पर्श करे। तत्पश्चात् पहले पत्थरपर पैर रखकर धीरेधीरे घरमें प्रवेश करे।
उस दिनसे बन्धु-बान्धर्वोको क्षार नमक नहीं खाना चाहिये, मांस त्याग दैना चाहिये। सबको भूमिपर शयन करना चाहिये। वे स्नान करके खरीदनेसे प्राप्त हुए अन्नको खाकर रहें।
जो प्रारम्भमें दाह-संस्कार करे, उसे दस दिनांतक सब कार्य करना चाहिये। अन्य अधिकारी पुरुषोंके अभावमें ब्रह्राचारी ही पिण्डदान और जलांजलि-दान करे। जैसे सपिण्डोंके लियें यह मरणाशौचकी प्राप्ति बतायी गयीं है, उसी प्रकार जन्मके समय भी पूर्ण शुद्धिकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको अशौचकी प्राप्ति होती है।
मरणाशौच तो सभी सपिण्ड पुरुषोंको समानरूपसे प्राप्त होता है; किंतु जननाशौचकी अस्पृश्यता विशेषत: मातापिताकी ही लगती है। इनमें भी माताकों ही जन्मका विशेष अशौच लगता है, वही स्पर्शके अधिकार से वचित होती है। पिता तो स्नान करनेमात्रसे शुद्ध (स्पर्श करने योग्य) हो जाता है।
पुत्रका जन्म होनेके दिन निश्चय ही श्राद्ध करना चाहिये। वह दिन श्राद्ध-दान तथा गों, सुवर्ण आदि और वस्त्रका दान करनेके लिये उपयुक्त माना गया है।
मरणका अशौच मरणके साथ और सूतकका सूतकके साथ निवृत्त होता है। दोनोंमें जो पहला अशौच हैं, उसीके साथ दूसरेकी भी शुद्धि होती है।
जन्माशौचमें मरणाशौच हों अथवा मरणाशौच में जन्माशौच हो जाय तो मरणाशौचके अधिकारमें जन्माशौचकी भी निवृत्त मानकर अपनी शुद्धिका कार्य करना चाहिये।
जन्माशौचके साथ मरणाशौचकी निवृत्ति नहीं होती। यदि एक समान दो अशौच हों (अर्थात् जन्म-सूतकमें जन्म-सूतक और मरणाशौचमें मरणाशौच पड़ जाय) तो प्रथम अशौचके साथ दूसरेको भी समाप्त कर देना चाहिये और यदि असमान अशौच हो (अर्थात् जन्माशौचमें मरणाशौच और मरणाशौचमें जन्माशौच हों) तो द्वितीय अशौचके साथ प्रथमको निवृत करना चाहिये – ऐसा धर्मराजका कथन है।
मरणाशौचके भीतर दूसरा मरणाशौच आनेपर वह पहले अशौचके साथ निवृत्त हो जाता है। गुरु अशौचसे लघु अशौच बाधित होता है, लघुसे गुरु अशौचका बाध नहीं होता। मृतक अथवा सूतकमें यदि अन्तिम रात्रिके मध्यभागमें दूसरा अशौच आ पड़े तो उस शेष समयमें ही उसकी भी निवृति हो जानेके कारण सभी सपिण्ड पुरुष शुद्ध हो जाते हैं। यदि रात्रिके अन्तिम भागमें दूसरा अशौच आवे तो दो दिन अधिक बीतनेपए अशौचकी निवृत्ति होती है तथा यदि अन्तिम रात्रि बिताकर अन्तिम दिनके प्रात:काल अशौचान्तर प्राप्त हो तो तीन दिन और अधिक बीतनेपर सपिण्डोंकी शुद्धि होती है। दोनों ही प्रकारके अशौचोंमें दस दिनोंतक उस कुलका अन्न नहीं खाया जाता है। अशौचमें दान आदिका भी अधिकार नहीं रहता। अशौचमें किसीके यहाँ भोजन करनेपर प्रायश्चित करना चाहिये। अनजानमें भोजन करनेपर पातक नहीं लगता, जान-बूझकर खानेवालेको एक दिनका अशौच प्राप्त होता है॥ ६२-६९॥
एक सौ अट्टावनवाँ अध्याय पूरा हुआ। १५८
अध्याय –१५९ असंस्कृत आदि की शुद्धि
पुष्कर कहते हैं – मृतक का दाह-संस्कार हुआ हो या नहीं, यदि श्रीहरिका स्मरण किया जाय तो उससे उसको स्वर्ग और मोक्ष – दोनों की प्राप्ति हो सकती है | मृतक की हड्डियों को गंगाजी के जलमें डालनेसे उस प्रेत (मृत-व्यक्ति) का अभ्युदय होता हैं | मनुष्य की हड्डी जबतक गंगाजी के जलमें स्थित रहती हैं तबतक उसका स्वर्गलोक में निवास होताहैन | आत्मत्यागी तथा पतित मनुष्यों के लिये यद्यपि पिण्डोदक – क्रिया का विधान नहीं हैं तथापि गंगाजी के जल में उनकी हड्डियों का डालना भी उनके लिये हितकारक ही है | उनके उद्देश्य से दिया हुआ अन्न और जल आकाश में लीन हो जाता है | पतित प्रेत के प्रति महान अनुग्रह करके उसके लिये ‘नारायण-बलि’ करनी चाहिये | इससे वह उस अनुग्रह का फल भोगता है | कमल के सदृश नेत्रवाले भगवान् नारायण अविनाशी हैं, अत: उन्हें जो कुछ अर्पण किया जाता है, उसका नाश नहीं होता | भगवान् जनार्दन जीव का पतन से त्राण (उद्धार) करते हैं, इसलिये वे ही दान के सर्वोत्तम पात्र हैं ||१-५||
निश्चय ही नीचे गिरनेवाले जीवों को भी भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले एकमात्र श्रीहरि ही हैं |
‘सम्पूर्ण जगतके लोग एक-न-एक दिन मरनेवाले हैं’ – यह विचारकर सदा अपने सच्चे सहाय्यक धर्म का अनुष्ठान करना चाहिये | पतिव्रता पत्नी को छोडकर दूसरा कोई बन्धु-बान्धव मरकर भी मरे हुए मनुष्य के साथ नहीं जा सकता; क्योंकि यमलोक का मार्ग सबके लिये अलग-अलग है | जीव कहीं भी क्यों न जाय, एकमात्र धर्म ही उसके साथ जाता हैं | जो काम कल करना है, उसे आज ही कर ले; जिसे दोपहर बाद करना है, उसे पहले ही पहर में कर ले; क्योंकि मृत्यु इस बात की प्रतीक्षा नहीं करती कि इसका कार्य पूरा हो गया हैं या नहीं ? मनुष्य खेत-बारी, बाजार-हाट तथा घर-द्वार में फँसा होता है, उसका मन अन्यत्र लगा होता हैं, इसी दशामें जैसे असावधान भेडको सहसा भेड़िया आकर उठा ले जाय, वैसे ही मृत्यु उसे लेकर चल देती है | काल के लिये न तो कोई प्रिय है, न द्वेश का पात्र ||६-१०||
आयुष्य तथा प्रारब्धकर्म क्षीण होनेपर वह हठात जीव को हर ले जाता है | जिसका काल नहीं आया है, वह सैकड़ों बाणों से घायल होनेपर वह कुश के अग्रभाग से ही छू जाय तो भी जीवित नहीं रहता | जो मृत्युसे ग्रस्त है, उसे औषध और मन्त्र आदि नहीं बचा सकते | जैसे बछड़ा गौओं के झुण्ड में भी अपनी माँ के पास पहुँच जाता है, उसी प्रकार पूर्वजन्म का किया हुआ कर्म जन्मान्तर में भी कर्ता को अवश्य ही प्राप्त होता है | इस जगत का आदि और अंत अव्यक्त है, केवल मध्य की अवस्था ही व्यक्त होती है | जैसे जीव के इस शरीर में कुमार तथा यौवन आदि अवस्थाएँ क्रमश: आती रहती है, उसीप्रकार मृत्यु के पश्चात उसे दूसरे शरीर की भी प्राप्ति होती है | जैसे मनुष्य (पुराने वस्र को त्यागकर) दूसरे नूतन वस्त्र को धारण करता हैं, उसीप्रकार जीव एक शरीर को छोड़कर दूसरे को ग्रहण करता है | देहधारी जीवात्मा सदा अवध्य है, वह कभी मरता नहीं; अत: मृत्यु के लिये शोक त्याग देना चाहिये ||११-१४||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘असंस्कृत आदि की शुद्धि का वर्णन’ नामक बासष्टवाँ अध्याय पूरा हुआ ||६२||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१६० वानप्रस्थ-आश्रम
पुष्कर कहते हैं – अब मैं वानप्रस्थ और संन्यासियों के धर्म का जैसा वर्णन करता हूँ, सुनो ! सिरपर जटा रखना, प्रतिदिन अग्निहोत्र करना, धरतीपर सोना और मृगचर्म धारण करना, वनमें रहना, फल, मूल, नीवार (तिन्नी) आदिसे जीवन-निर्वाह करना, कभी किसीसे कुछ भी दान न लेना, तीनों समय स्नान करना, ब्रह्मचर्यव्रत के पालन में तत्पर रहना तथा देवता और अतिथियों की पूजा करना – यह सब वानप्रस्थी का धर्म है |
ग्रहस्थ पुरुष को उचित है कि अपनी सन्तान की सन्तान देखकर वनका आश्रय ले और आयुका तृतीय भाग वनवास में ही बितावे | उस आश्रम में वह अकेला रहे या पत्नी के साथ भी रह सकता हैं | (परन्तु दोनों ब्रह्मचर्य का पालन करें |) गर्मी के दिनों में पंचाग्निसेवन करे | वर्षाकाल में खुले आकाश के नीचे रहे | हेमंत-ऋतू में रातभर भीगे कपड़े ओढकर रहे | अथवा जल में रहे | शक्ति रहते हुए वानप्रस्थीको इसीप्रकार यग तपस्या करनी चाहिये | वानप्रस्थ से फिर ग्रहस्थ-आश्रम में न लौटे | विपरीत या कुटिल गति का आश्रय न लेकर समाने की दिशा की ओर जाय अर्थात पीछे न लौटकर आगे बढ़ता रहे ||१-५||
इसीप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘वानप्रस्थाश्रम का वर्णन’ नामक त्रेशष्ठवाँ अध्याय पूरा हुआ ||६३||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१६१ संन्यासी के धर्म
पुष्कर कहते हैं – अब मैं ज्ञान और मोक्ष आदि का साक्षात्कार करानेवाले संन्यास-धर्म का वर्णन करूँगा | आयुके चौथे भागमें पहुँचकर, सब प्रकार के संग से दूर हो संन्यासी हो जाय | जिस दिन वैराग्य हो उसी दिन घर छोडकर चल दे – संन्यास ले ले | प्राजापत्य इष्टि (यज्ञ) करके सर्वस्व की दक्षिणा दे दे तथा आहवनीयादि अग्नियों को अपने-आपमें आरोपित करके ब्राह्मण घरसे निकल जाय | संन्यासी सदा अकेला ही विचरे | भोजन के लिये ही गाँव में जाय | शरीर के प्रति उपेक्षाभाव रखे | अन्न आदिका संग्रह न करे | मननशील रहे | ज्ञान-सम्पन्न होवे | कपाल (मिट्टी आदिका खप्पर) ही भोजनपात्र हो, वृक्ष की जद ही निवास-स्थान हो, लँगोटी के लिये मैला-कुचैला वस्त्र हो, साथमें कोई सहाय्यक न हो तथा सबके प्रति समता का भाव हो – यह जीवन्मुक्त पुरुष्का लक्षण हैं | न तो मरनेकी इच्छा करे, न जीने की – जीवन और मृत्यु में से किसी का अभिनंदन न करे ||१-५||
जैसे सेवक अपने स्वामीकी आज्ञा की प्रतीक्षा करता हैं, उसीप्रकार वः प्रारब्धवश प्राप्त होनेवाले काल (अन्तसमय) की प्रतीक्षा करता रहे | मार्गपर दृष्टिपात करके पाँव रखे अर्थात रास्ते में कोई कीड़ा-मकोड़ा, हड्डी, केश आदि तो नहीं हैं, यह भलीभाँति देखकर पैर रखे | पानीको क्प्देसे छानकर पीये | सत्यसे पवित्र की हुई वाणी बोले | मनसे दोष गुण का विचार करके कोई कार्य करे | लौकी, काठ, मिट्टी तथा बाँस – ये ही संन्यासी के पात्र है | जब गृहस्थ के घरसे धुआँ निकलना बंद हो गया हो, मुसल रख दिया गया हो, आग बुझ गयी हो, घरके सब लोग भोजन कर चुके हों और जुंठे शराव (मिट्टी के प्याले) फेंक दिये गये हों, ऐसे समय में संन्यासी प्रतिदिन भिक्षा के लिये जाय | भिक्षा पाँच प्रकार की मानी गयी है – मधुकरी (अनेक घरों से थोडा-थोडा अन्न माँग लाना), असंक्लपत (जिसके विषय में पहलेसे कोई संकल्प या निश्चय न हो ऐसी भिक्षा), प्राक्प्रणीत (पहलेसे तैयार रखी हुई भिक्षा), अयाचित (बिना माँगे जो अन्न प्राप्त हो जाय, वह) और तत्काल उपलब्ध (भोजन के समय स्वत:प्राप्त) | अथवा करपात्री होकर रहे – अर्थात हाथही में लेकर भोजन करे और हाथमे ही पानी पीये | दूसरे किसी पात्रका उपयोग न करे | पात्र से अपने हाथरूपी पात्र में भिक्षा लेकर उसका उपयोग करे | मनुष्यों की कर्मदोषसे प्राप्त होनेवाली यमयातना और नरकपात आदि गतिका चिन्तन करे ||६-१०||
जिस किसी भी आश्रम में स्थित रहकर मनुष्यको शुद्धभाव से आश्रमोचित धर्म का पालन करना चाहिये | सब भूतों में समान भाव रखे | केवल आश्रम-चिन्ह धारण कर लेना ही धर्म का हेतु नहीं हैं | (उस आश्रम के लिये विहित कर्तव्य का पालन करने से ही धर्म का अनुष्ठान होता है ) निर्मली का फल यद्यपि पानी में पड़नेपर उसे स्वच्छ बनानेवाला है, तथापि केवल उसका नाम लेनेमात्र से जल स्वच्छ नहीं हो जाता | इसीप्रकार आश्रम के लिंग धारणमात्र से लाभ नहीं होता, विहित धर्मका अनुष्ठान करना चाहिये | अज्ञानवश संसार-बंधन में बंधा हुआ द्विज लंगड़ा, लूला, अन्धा और बहरा क्यों न हो, यदि कुटिलता रहित संन्यासी हो जाय तो वह स्त और असत – सबसे मुक्त हो जाता है | संन्यासी दिन या रात में बिना जाने जिन जीवों की हिंसा करता है, उनके वधरूप पापसे शुद्ध होने के लिये वह स्नान करके छ: बार प्राणायाम करे | यह शरीररूपी गृह ह्द्दीरुपी खंभोंसे युक्त है, नाड़ीरूप रस्सियों से बंधा हुआ है, मांस तथा रक्त से लिपा हुआ एयर चमड़े से छाया गया है | यह मल और मूत्र से भरा हुआ होनेके कारण अत्यंत दुर्गन्धपूर्ण है | इसमें बुढापा तथा शोक व्याप्त है ||११-१६||
अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरीका अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (संग्रह न रखना ) – ये पाँच ‘यम’ है | शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर की आराधना – ये पाँच ‘नियम’ है | योगयुक्त संन्यासी के लिये इन सबका पालन आवश्यक है | पद्मासन आदि आसनों से उसको बैठना चाहिये ||१७-२०||
‘यह आत्मा परब्रह्म है; ब्रह्म- सत्य, ज्ञान और अनंत है; ब्रह्म विज्ञानमय तथा आनंदस्वरूप हैं; वह ब्रह्म तू है; वह ब्रह्म मैं हूँ; परब्रह्म परमात्मा प्रकाशस्वरूप है; वही आत्मा हैं, वासुदेव हैं, नित्यमुक्त हैं; वही ‘ॐ’ शब्दवाच्य सच्चीदानंदघन ब्रह्म है; देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, प्राण और अहंकार से रहित तथा जाग्रत, स्वप्न एवं सुषुप्ति आदिसे मुक्त जो तुरीय तत्त्व है, वही ब्रह्म है; वह नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वरुप हैं; सत्य, आनंदमय तथा अद्वैतरूप हैं; सर्वत्र व्यापक अविनाशी ज्योति:स्वरुप परब्रह्म ही श्रीहरि है और वह मैं हूँ; आदित्यमंडल में जो वह ज्योतिर्मय पुरुष हैं, वह अखंड प्रणववाच्य परमेश्वर मई हूँ’ इसप्रकार का सहज बोध ही ब्रह्म में स्थिति का सूचक है ||२५-२८||
जो सब प्रकार के आरम्भ का त्यागी है – अर्थात जो फलासक्ति एवं अहंकारपूर्वक किसी कर्म का आरम्भ नहीं करता – कर्तुत्वाभिमान से शून्य होता है, दुःख-सुख में समान रहता है, सबके प्रति क्षमाभाव रखनेवाला एवं सहनशील होता हैं, वह भावशुद्ध ज्ञानी मनुष्य ब्रह्माण्ड का भेदन करके साक्षात ब्रह्म हो जाता है | यति को चाहिये कि वह आषाढ़ की पूर्णिमा को चातुर्मास्यव्रत प्रारम्भ करे | फिर कार्तिक शुक्ला नवमी आदि तिथियों से विचरण करे | ऋतुओं की संधि के दिन मुंडन करावे | संन्यासियों के लिये ध्यान तथा प्राणायाम ही प्रायश्चित्त है ||२९-३१||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१६२ धर्मशास्त्र का उपदेश
पुष्कर कहते है – मनु, विष्णु, याज्ञवल्क्य, हारीत, अत्रि, यम, अंगिरा, वसिष्ठ, दक्ष, संवर्त, शातातप, पराशर, आपस्तम्ब, उशना, व्यास, कात्यायन, बृहस्पति, गौतम, शंख और लिखित – इन सबने धर्म का जैसा उपदेश किया है, वैसा ही मैं भी संक्षेप से कहूँगा, सुनो | यह धर्म भोग और मोक्ष देनेवाला है | वैदिक कर्म दो प्रकार का है – एक ‘प्रवृत्त’ और दूसरा ‘निवृत्त’ | कामनायुक्त कर्म को ‘प्रवृत्तकर्म’ कहते है | ज्ञानपूर्वक निष्कामभाव से जो कर्म किया जाता है, उसका नाम ‘निवृत्तकर्म’ है | वेदाभ्यास, तप, ज्ञान, इन्द्रियसंयम, अहिंसा तथा गुरुसेवा – ये परम उत्तम कर्म नि:श्रेयस ( मोक्षरूप कल्याण) के साधक है | इन सबमें भी आत्मज्ञान सबसे उत्तम बताया गया है ||१-५||
वह सम्पूर्ण विद्याओं में श्रेष्ठ है | उससे अमृतत्व की प्राप्ति होती है | सम्पूर्ण भूतों में आत्मा को और आत्मा में सम्पूर्ण भूतों को समानभाव से देखते हुए जो आत्मा का ही यजन ( आराधन) करता है, वह स्वाराज्य – अर्थात मोक्ष को प्राप्त होता है | आत्मज्ञान तथा शम (मनोनिग्रह) के लिये सदा यत्नशील रहना चाहिये | यह सामर्थ्य या अधिकार द्विजमात्र को – विशेषत: ब्राह्मण को प्राप्त है | जो वेद-शाश्त्र के अर्थ का तत्त्वज्ञ होकर जिस-किसी भी आश्रम में निवास करता है, वह इसी लोक में रहते हुए ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है | (यदि नया अन्न तैयार हो गया हो तो ) श्रावण मास की पूर्णिमा को अथवा श्रवणनक्षत्र से युक्त दिन को अथवा हस्तनक्षत्र से युक्त श्रावण शुक्ला पंचमी को अपनी शाखा के अनुकूल प्रचलित गृह्यसूत्र की विधि के अनुसार वेदों का नियमपूर्वक अध्ययन प्रारम्भ करे | यदि श्रावणमास में नयी फसल तैयार न हो तो जब वह तैयार हो जाय तभी भाद्रपदमास में श्रवणनक्षत्र युक्त दिन को वेदों का उपाकर्म करे | (और उस समयसे लेकर लगातार साढ़े चार मासतक वेदों का अध्ययन चालू रखें |) फिर पौषमास में रोहिणीनक्षत्र के दिन अथवा अष्ट का तिथि को नगर या गाँव के बाहर जल के समीप अपने गृह्योक्त विधानसे वेदाध्ययन का उत्सर्ग (त्याग) करे | ( यदि भाद्रपदमास में वेदाध्ययन प्रारम्भ किया गया हो तो माघ शुक्ला प्रतिपदा को उत्सर्जन करना चाहिये – ऐसा मनुका (४/९७) कथन है |) ||६-१०||
शिष्य, ऋत्विज, गुरु और बंधुजन – इनकी मृत्यु होनेपर तीन दिनतक अध्ययन बंद रखना चाहिये | उपाकर्म ( वेदाध्ययन का प्रारम्भ) और उत्सर्जन ( अध्ययन की समाप्ति) जिस दिन हो, उससे तीन दिनतक अध्ययन बंद रखना चाहिये | अपनी शाखा का अध्ययन करनेवाले विद्वान् की मृत्यु होनेपर भी तीन दिनों तक अनध्याय रखना उचित है | संध्याकाल में, मेघ की गर्जना होनेपर, आकाश में उत्पात-सूचक शब्द होनेपर, भूकम्प और उल्कापात होनेपर, मन्त्र-ब्राह्मणात्मक वेद की समाप्ति होनेपर तथा आरण्यक का अध्ययन करनेपर एक दिन और एक रात अध्ययन बंद रखना चाहिये | पूर्णिमा, चतुर्दशी, अष्टमी तथा चंद्रग्रहण-सूर्यग्रहण के दिन भी एक दिन भी एक दिन-रात का अनध्याय रखना उचित है | दो ऋतुओं की संधि में आयी हुई प्रतिपदा तिथिको तथा श्राद्ध-भिजन एवं श्राद्ध का प्रतिग्रह स्वीकार करनेपर भी एक दिन-रात अध्ययन बंद रखे | यदि स्वाध्याय करनेवालों के बीच में कोई पशु, मेढक, नेवला, कुत्ता, सर्प, बिलाव और चूहा आ जाय तो एक दिन-रात का अनध्याय होता है ||११-१४||
जब इन्द्रध्वज की पताका उतारी जाय, उस दिन तथा जब इन्द्रध्वज फहराया जाय, उस दिन भी पुरे दिन-रात का अनध्याय होना चाहिये | कुत्ता, सियार, गदहा, उल्लू, सामगान, बाँस तथा आर्त प्राणीका शब्द सुनायी देनेपर, अपवित्र वस्तु, मुर्दा, शुद्र, अन्त्यज, श्मशान और पतित मनुष्य – इनका सानिध्य होनेपर, अशुभ ताराओं में, बारंबार बिजली चमकने तथा बारंबार मेघ-गर्जना होनेपर तात्कालिक अनध्याय होता है | भोजन करके तथा गीले हाथ अध्ययन न करे | जल के भीतर, आधी रातके समय, अधिक आँधी चलनेपर भी अध्ययन बंद कर देना चाहिये | धुलकी वर्षा होनेपर, दिशाओं में दाह होनेपर, दोनों संध्याओं के समय कुहासा पड़नेपर, चोर या राजा आदिका भय प्राप्त होनेपर तत्काल स्वाध्याय बंद कर देना चाहिये | दौड़ते समय अध्ययन न करे | किसी प्राणीपर प्राणबाधा उपस्थित होनेपर और अपने घर किसी श्रेष्ठ पुरुष के पधारनेपर भी अनध्याय रखना उचित है | गदहा, ऊँट, रथ आदि सवारी, हाथी, घोडा, नौका तथा वृक्ष आदिपर चढनेके समय और ऊसर या मरुभूमि में स्थित होकर भी अध्ययन बंद रखना चाहिये | इन सैंतीस प्रकार के अन्ध्यायों को तात्कालिक (केवल उसी समय के लिये आवश्यक ) माना गया है ||१५-१८||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
अध्याय-१६३ श्राद्धकल्पका वर्णन
पुष्कर कहते हैं–परशुराम! अब मैं भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले श्राद्धकल्पका वर्णन करता हूँ, सावधान होकर श्रवण कीजिये।
श्राद्धकर्ता पुरुष मन और इन्द्रियोंको वशमें रखकर, पवित्र हो, श्राद्धसे एक दिन पहले ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे। उन ब्राह्मणोंको भी उसी समयसे मन, वाणी, शरीर तथा क्रियाद्वारा पूर्ण संयमशील रहना चाहिये।
श्राद्धके दिन अपराह्रकालमें आये हुए ब्राह्मणोंका स्वागतपूर्वक पूजन करे। स्वयं हाथमें कुशकी पवित्री धारण किये रहें। जब ब्राह्मणलोग आचमन कर लें, तब उन्हें आसन पर बिठाये। दैवकार्यमें अपनी शक्तिके अनुसार युग्म (दो, चार, छः आदि संख्यावाले) और श्राद्धमें अयुग्म (एक, तीन, पाँच आदि। संख्यावाले) ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे।
सब ओरसे घिरे हुए गोबर आदिसे लिपे-पुते पवित्र नीची हों, श्राद्ध करना चाहिये।
वैश्वदेव-श्राद्ध में दो ब्राह्मणोंको पूर्वाभिमुख बिठाये और पितृकार्यमें तीन ब्राह्मणोंको उत्तराभिमुख। अथवा दोनोंमें एक-एक ब्राह्मणको ही सम्मिलित करे।
मातामहोंके श्राद्धमें भी ऐसा ही करना चाहिये। अर्थात् दो वैश्वदेव- श्राद्धमें और तीन मातामहादि-श्राद्ध में अथवा उभय पक्षमें एक-हीं-एक ब्राह्मण रखें।
वैश्वदेव-श्राद्धके लिये ब्राह्मणका हाथ धुलानेके निमित्त उसके हाथ में जल दे और आसनके लिये कुश दे।
फिर ब्राह्मणसे पूछे-‘मैं विश्वेदेवोंका आवाहन करना चाहता हूँ।’ तब ब्राह्मण आज्ञा दें- आवाहन करो।”
इस प्रकार उनकी आज्ञा पाकर ‘विश्वेदेवास आगतo’ (यजु० ७ ॥ ३४) इत्यादि ऋचा पढ़कर विश्रेदेवोंका आवाहन करे।
तब ब्राह्मणके समीपकी भूमिपर जी बिखेरे। फिर पवित्रीयुक्त अध्यपात्रमें ‘शं नो देवी०’ (यजु० ३६। १२)-इस मन्त्रसे जल छोड़े।”यत्रोऽसि०’- इत्यादिसे जौ डाले। फिर बिना मन्त्रके ही गन्ध और पुष्प भी छोड़ दे। तत्पश्चात् ‘या दिव्या आप: ०’- इस मन्त्रसे अर्ध्यकी अभिमन्त्रित करके ब्राह्मणके हाथमें संकल्पपूर्वक अर्ध्य दे और कहे-‘अमुकश्राद्धे विश्चेदेवाः इदं वो हस्तार्घ्यं नमः। – यों कहकर वह अर्ध्यजल कुशयुक्त ब्राह्मणके हाथमें या कुशापर गिरा दे।
वैश्वदेव-काण्डके अनन्तर यज्ञोपवीत अपसव्य करके पिता आदि तीनों पितरोंके लिये तीन द्विगुणभुग्न कुशोंको उनके आसनके लिये आप्रदक्षिणक्रमसे दे। फिर पूर्ववत् ब्राह्मणोंकी आज्ञा लेकर *उशन्तस्त्वा०” (यजु० १९७०) इत्यादिमन्त्रसे पितरोंका आवाहन करके, ‘आयन्तु न:०’ (यजुo १९।५८) इत्यादिका जप करे। ‘अपहता असुरा रक्षासि वेदिषद:०’- (यजुe २ । २ । ८)’- यह मन्त्र पढ़कर सब ओर तिल बिखेरे।
वैश्वदेवश्राद्धमें जो कार्य जौसे किया जाता है, वही पितृ-श्राद्धमें तिलसे करना चाहिये।
अर्ध्य आदि पूर्ववत् करे। संस्रव (ब्राह्मणके हाथसे चूये हुए जल) पितृपात्रमें ग्रहण करके, भूमिपर दक्षिणाग्र कुश रखकर, उसके ऊपर उस पात्रको अधोमुख करके ढूलका दे और कहे-‘पितृभ्यः स्थानमसि।’ फिर उसके ऊपर अर्ध्यपात्र और पवित्र आदि रखकर गन्ध, पुष्प, धूप, दीप आदि पितरोंको निवेदित करे।
इसके बाद ‘अग्नौकरण’ कर्म करे। घीसे तर किया हुआ अन्न लेकर ब्राह्मणोंसे पूछे-‘अग्नौ करिष्ये।” (मैं अग्निमें इसकी आहुति दूँगा।) तब ब्राह्मण इसके लिये आज्ञा दें। इस प्रकार आज्ञा लेकर पितृ-यज्ञकी भाँति उस अन्नकी दो आहुति दे। [उस समय ये दो मन्त्र क्रमश: पढ़े-‘अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा नमः। सोमाय पितृमते स्वाहा नमः।।’ (यजुe २ ।। २९)] फिर होमशेष अन्नको एकाग्रचित्त होकर यथाप्राप्त पात्रोंमें-विशेषत: चाँदीके पात्रोंमें परोसे।
इस प्रकार अन्न परोसकर, “पृथिवी ते पात्र द्यौरपिधानं ब्राह्मणस्य मुखे०’ इत्यादि मन्त्र पढ़कर पात्रको अभिमन्त्रित करे। फिर ‘इदं विष्णु:০” (यजुo ५। १५) इत्यादि मन्त्रका उच्चारण करके अन्नमें ब्राह्मणके अँगूठेका स्पर्श कराये। तदनन्तर तीनों व्याहतियोंसहित गायत्री-मन्त्र तथा ‘मधुवाता०’ (यजु० १३। २७-२९) -इत्यादि तीन ऋचाओंका जप करे और ब्राह्मणोंसे कहें-‘आप सुखपूर्वक अन्न ग्रहण करें।”
फिर वे ब्राह्मण भी मौन होकर प्रसन्नतापूर्वक भोजन करें। (उस समय यजमान क्रोध और उतावली को त्याग दे और) जबतक ब्राह्मणलोग पूर्णतया तृप्त न हो जायें, तबतक पूछ-पूछकर प्रिय अन्न और हविष्य उन्हें परोसता रहे। उस समय पूर्वोक्त मन्त्रोंका तथा “पावमानी’ आदि ऋचाओंका जप या पाठ करते रहना चाहिये।
तत्पश्चात् अन्न लेकर ब्राह्मणोंसे पूछे’क्या आप पूर्ण तृप्त हो गये?’ ब्राह्मण कहें-‘हाँ हम तृत हो गये।” यजमान फिर पूछे ‘शेष अन्नका क्या किया जाय?’ब्राह्मण कहें-‘इष्टजनोंके साथ भोजन करो।” उनकी इस आज्ञाको ‘बहुत अच्छा’ कहकर स्वीकार करे। फिर हाथमें लियें हुए अन्नको ब्राह्मणोंके आगे उनकी जूठनके पास ही दक्षिणाग्र-कुश भूमिपर रखकर उन कुशोंपर तिल-जल छोड़कर रख दे। उस समय ‘अग्निदग्धाश्र्च ये० ‘ इत्यादि मन्त्रका पाठ करे।
फिर ब्राह्मणोंके हाथमें कुल्ला करनेके लिये एकएक बार जल दे। फिर पिण्डके लिये तैयार किया हुआ सारा अन्न लेकर, दक्षिणाभिमुख हो, पितृयज्ञकल्पके अनुसार तिलसहित पिण्डदान करे। इसी प्रकार मातामह आदिके लियें पिण्ड दे। फिर ब्राह्मणोंके आचमनार्थ जल दे। तदनन्तर ब्राह्मणोंसे स्वस्चिवाचन कराये और उनके हाथमें जल देकर उनसे प्रार्थनापूर्वक कहे-‘आपलोग’अक्षय्यमस्तु’ कहें।’ तब ब्राह्मण ‘अक्षयम अस्तु’ बोलें।
इसके बाद उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा देकर कहें’अब मैं स्वधा-वाचन कराऊँगा।” ब्राह्मण कहें’स्वधा-वाचन कराओं ।’
इस प्रकार उनकी आज्ञा पाकर “पितरों और मातामहादिके लिये आप यह स्वधा-वाचन करें’-ऐसा कहें। तब ब्राह्मण बोलें-‘अस्तु स्वधा।’ इसके अनन्तर पृथ्वीपर जल सींचे और ‘विश्वेदेवाः प्रीयन्ताम्।’-यों कहें। ब्राह्मण भी इस वाक्यको दुहरायें- ‘प्रीयन्तांविशेदेवा:’। तदनन्तर ब्राह्मणोंकी आज्ञासे श्राद्धकर्ता निम्नाङ्कित मन्त्रका जप करे— दातारो नोऽभिवर्धन्तां वेदाः संततिरेव च ।
श्रद्धा च नो मा व्यगमद् वहुदेयं च नोऽस्त्विति॥
‘मेरे दाता बढ़ें। वेद और संतति बढ़े। हमारी श्रद्धा कम न हों और हमारे पास दान के लियें बहूत घन हो
-यह कहकर ब्राह्मणोंसे नम्रतापूर्वक प्रियवचन बोहने और उन्हें प्रणाम करके विसर्जन करे-‘वाजे वाजे०’ (यजु० १। १८) इत्यादि ऋचाओंको पढ़कर प्रसन्नतापूर्वक पितरोंका विसर्जन करे।
पहले पितरोंका, फिर विश्वेदेवोंका विसर्जन करना चाहिये। पहले जिस अर्ध्यपात्र में संस्त्रवका जल डाला गया था, उस पितृ-पात्रकी उतान करके ब्राह्मणोंकों बिदा करना चाहिये। ग्रामकी सीमातक उनकी परिक्रमा करके लौटे और पितृसेवित श्राद्धान्नकों इष्ट्रजनोंके साथ भोजन करे।
उस रात्रिमें यजमान और ब्राह्मण-दोनोंकों ब्रह्मचारी ग्रहना चाहिये ॥ ६-२२ ॥
इसी प्रकार पुत्रजन्म और विवाहादि वृद्धिके अवसरोंपर प्रदक्षिणावृतिसे नान्दीमुख-पितरोंका यजन करे।
दही और बेर मिले हुए अन्नका पिण्ड दें और तिलसे किये जानेवाले सब कार्य जौसे करे।
एकोंदिष्टश्राद्ध बिना वैश्वदेवके होता हैं। उसमें एक ही अर्ध्यपात्र तथा एक ही पवित्रक दिया जाता है। इसमें आवाहन और अग्नौकरणकी क्रिया नहीं होती । सब कार्य जनेऊको अपसव्य रखकर किये जाते है । अक्षय्यमस्तु के स्थानमें उपतिष्ठताम। का प्रयोग करे । वाजे वाजे ० इस मन्त्रसे ब्राहमणलोग अभिरता: स्म: ।- ऐसा उत्तर दें। सपिण्डीकरण-श्राद्धमें पूर्वोक्त विधिसे अर्ध्यसिद्धिके लिये गन्ध, जल और तिलसे युक्त चार अर्ध्यपात्र तैयार करे । (इनमें तीन तो पितरोंके पात्र है और एक प्रेतका पात्र है) इनमें प्रेतके पात्रका जल पितरोंके पात्रोंमें डाले । उस समय “ये समाना ०”इत्यादि दो मन्त्रोंका उच्चारण करे। शेष क्रिया पूर्ववत करे। यह सपिण्डीकरण और एकोदिष्टश्राद्ध माताके लिये भी करना चाहिये।
जिसका सपिण्डीकरण श्राद्ध वर्ष पूर्णहोनेसे पहले हो जाता है, उसके लिये एक वर्षतक ब्राहमणको सान्नोदक कुम्भदान देते रहना चाहिये। फिर प्रत्येक वर्षमें एक बार क्षयाहतिथिको एकोदिष्ट करना उचित है। प्रथम एकोदिष्ट तो मरनेके बाद ग्यारहवें दिन किया जाता है । सभी श्राद्धोंमें पिण्डोंको गाय, बकरे अथवा लेनेकी इच्छावाले ब्राहमणको दे देना चाहिये। अथवा उन्हें अग्निमें या आगाध जलमें डाल देना चाहिये। जबतक ब्राह्मणलोग भोजन करके वहाँसे उठ न जाएँ, तबतक उच्छिष्ट स्थानपर झाड़ू न लगाये। श्राद्धमें हविष्यअन्नके दानसे एक मासतक और खीर देनेसे एक वर्षतक पितरोंकी तृप्ति बनी रहती है।
भ्रादपद कृष्णा त्रयोदशीको, विशेषतः मघा नक्षत्रका योग होनेपर जो कुछ पितरोंके निमित्त दिया जाता है, वह अक्षय होता है। एक चतुर्दर्शीको छोड़कर प्रतिपदासे अमावास्यातककी चौदह तिथियोंमें श्राद्धदान करनेवाला पुरुष क्रमशः इन चौदह फलोंको पाता है – रूपशीलयुक्त कन्या, बुद्धिमान तथा रूपवान दामाद, पशु, श्रेष्ठ पुत्र, द्युत-विजय, खेतीमें लाभ, व्यापारमें लाभ, दो ख्रुर और एक ख्रुरवाले पशु, ब्र्हमतेजसे संपन्न पुत्र, रजत, कुप्यक, जातियोंमें श्रेष्ठता और सम्पूर्ण मनोरथ।
जो लोग शस्त्रद्वारा मारे गये हो, उन्हींके लिये उस चतुर्दर्शी तिथियोंको श्राद्ध प्रदान किया जाता है ।
स्वर्ग, संतान, ओज, शौर्य, क्षेत्र, बल, पुत्र, श्रेष्ठता, सौभाग्य, समृद्धि, प्रधानता, शुभ, प्रवृत-चक्रता, वाणिज्य आदि, नीरोगता, यश, शोकाहीनता, परम गति, घन, विद्या, चिकित्सामें सफलता, कुय्प, गौ, बकरी, भेड़, अश्व तथा आयु – इन सत्ताईस प्रकारके काम्य पदार्थोंको क्रमशः वही पाता है, जो कृत्तिकासे लेकर भरणीपर्यन्त प्रत्येक नक्षत्रमें विधिपूर्वक श्राद्ध करता है तथा आस्तिक, श्रद्धालु एवं मद-मात्सर्य आदि दोषोंसे रहित होता है।
वसु, रूद्र और आदित्य-ये तीन प्रकारके पितर श्राद्धके देवता है । ये श्राद्धसे संतुष्ट किये जानेपर मनुष्योंके पितरोंका तृप्त करते है ।
जब पितर तृप्त होते है, तब वे मनुष्योंको आयु, प्रजा, धन, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सुख तथा राज्य प्रदान करते है ।
अध्याय-१६4
अध्याय-१६५ विभिन्न धर्मोका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं– वसिष्ठ! हृदय में जो सर्वसमर्थ परमात्मा दीपकके समान प्रकाशित होते हैं, मन, बुद्धि और स्मृतिसे अन्य समस्त विषयोंका अभाव करके उनका ध्यान करना चाहिये। उनका ध्यान करनेवाले ब्राह्मणकी ही श्राद्धके निमित्त दही, घी और दूध आदि गव्य पदार्थ प्रदान करे।
श्राद्धमें प्रियंगु, मसूर, बैगन और कोदोका भोजन न करावे।
जब पर्व-संधि के समय राहु सूर्यको ग्रसता है, उस समय ‘हस्तिच्छाया-योग’ होता है, जिसमें किये हुए श्राद्ध और दान आदि शुभकर्म अक्षय होते हैं।
जब चन्द्रमा मघा, हंस अथवा हस्त नक्षत्रपर स्थित हो, उसे ‘वैवस्वती तिथि’ कहते हैं। यह भी ‘हस्तिच्छाया-योग है।
बलिवैश्वदेवमें अग्निमें होम करनेसे बचा हुआ अन्न बलिवैश्वदेवके मण्डलमें न डाले। अग्निके अभावमें वह अन्न ब्राह्मणके दाहिने हाथमें रखें।
ब्राह्मण वेदोक्त कर्मसे तथा स्त्री व्यभिचारी पुरुषसे कभी दूषित नहीं होती। बलात्कारसे उपभोग की हुई और शत्रुके हाथमें पड़कर दूषित हुई स्त्रीका (ऋतुकाल-पर्यन्त) परित्याग करे। नारी ऋतु-दर्शन होनेपर शुद्ध हो जाती है।
जो सम्पूर्ण विश्वमें व्यास एक आत्माके व्यतिरेकसे विश्व में अभेदका दर्शन करता है, वहीं योगी, ब्रह्मके साथ एकीभावको प्राप्त, आत्मा में रमण करनेवाला और निष्पाप हैं।
कुछ लोग इन्द्रियोंके विषयोंसे संयोगको ही ‘योग’ कहते हैं। उन मूखोंने तो अधर्मको ही धर्म मानकर ग्रहण कर रखा है।
दूसरे लोग मन और आत्माके संयोगको ही ‘योग’ मानते हैं।
मनकों संसारके सब विषयोंसे हटाकर, क्षेत्रज्ञ परमात्मामें एकाकार करके योगी संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। यह उत्तम ‘योग’ है।
पाँच इन्द्रिय-रूपी कुटुम्बोंसे ‘ग्राम’ होता है। छठा मन उसका ‘मुखिया’ है। वह देवता, असुर और मनुष्योंसे नहीं जीता जा सकता। पाँचों इन्द्रियाँ बहिर्मुख हैं। उन्हें आभ्यन्तरमुखी बनाकर इन्द्रियोंको मनमें और मनको आत्मा में निरुद्ध करे। फिर समस्त भावनाओंसे शून्य क्षेत्रज्ञ आत्माको परब्रह्मा परमात्मामें लगावें। यही ज्ञान और ध्यान है। इसके विषयमें और जो कुछ भी कहा गया है, वह तो ग्रन्थका विस्तार-मात्र है ॥ १—१३ ॥
‘जो सब लोगोंके अनुभवमें नहीं है, वह है’-यों कहनेपर विरुद्ध (असंगत)-सा प्रतीत होता है और कहनेपर वह अन्य मनुष्योंके हृदयमें नहीं बैठता।
जिस प्रकार कुमारी स्त्री-सुखको स्वयं अनुभव करनेपर ही जान सकती हैं, उसी प्रकार वह ब्रह्म स्वत: अनुभव करनेयोग्य है।
योगरहित पुरुष उसे उसी प्रकार नहीं जानता, जैसे जन्मान्ध मनुष्य घड़ेको।
ब्राह्मणको संन्यास-ग्रहण करते देख सूर्य यह सोचकर अपने स्थानसे विचलित हो जाता हैं कि ‘यह मेरे मण्डलका भेदन करके परब्रह्मको प्राप्त होगा।”
उपवास, व्रत, स्नान, तीर्थ और तप-ये फलप्रद होते हैं, परंतु ये ब्राह्मणके द्वारा सम्पादित होनेपर सम्पन्न होते हैं और विहित फलकी प्राप्ति कराते हैं।
‘प्रणव’ परब्रह्म परमात्मा हैं, ‘प्राणायाम’ ही परम तप है और ‘सावित्री’ से बढ़कर कोई मन्त्र नहीं है। वह परम पावन माना गया है।
पहले क्रमश: सोम, गन्धर्व और अग्नि-ये तीन देवता समस्त स्त्रियोंका उपभोग करते हैं। फिर मनुष्य उनका उपभोग करते हैं। इससे स्त्रियाँ किसीसे दूषित नहीं होती हैं।
यदि असवर्ण पुरुष नारीकी योनिमें गर्भाधान करता है, तो जबतक नारी गर्भका प्रसव नहीं करती, तबतक अशुद्ध मानी जाती हैं। गर्भका प्रसव होनेके बाद रजोदर्शन होनेपर नारी शुद्ध हो जाती है।
श्रीहरिके ध्यानके समान पापियोंकी शुद्धि करनेवाला कोई प्रायश्चित नहीं है। चण्डालके यहाँ भोजन करके भी ध्यान करनेसे शुद्धि हो जाती है। जो ब्राह्मण ऐसी भावना करता है कि ‘आत्मा ‘ ध्याता’ है, मन ‘ध्यान’ है, विष्णु ‘ध्येय’ हैं, श्रीहरि उससे प्राप्त होनेवाले ‘फल’ हैं और अक्षयत्वकी प्रातिके लिये उसका ‘विसर्जन” है”, वह श्राद्धमें पङ्किपावनोंकी भी पवित्र करनेवाला है।
जो द्विज नैष्ठिक धर्ममें आरूढ़ होकर उससे च्युत हो जाता है, उस आत्मघाती के लिये मैं ऐसा कोई प्रायश्चित नहीं देखता, जिससे कि वह शुद्ध हो सके। जो अपनी पत्नी और पुत्रोंका (असहायावस्थामें) परित्याग करके संन्यास ग्रहण करते हैं, वे दूसरे जन्ममें ‘विदुर’-संज्ञक चण्डाल होते हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं हैं। तदनन्तर वह क्रमश: सौं वर्षतक गीध, बारह वर्षतक कुत्ता, बीस वर्षतक जलपक्षी और दस वर्षतक शूकरयोनिका भोग करता है। फिर वह पुष्प और फलोंसे रहित कैंटीला वृक्ष होता है और दावाग्निसे दग्ध होकर अपना अनुगमन करनेवालोंके साथ दूँठ होता है और इस अवस्थामें एक हजार वर्षतक चेतनारहित होकर पड़ा रहता है। एक हजार वर्ष बीतने के बाद वह ब्रह्मराक्षस होता है। तदनन्तर योगरूपी नौकाका आश्रय लेनेसे अथवा कुलके उत्सादनद्वारा उसे मोक्षकी प्राप्ति होती है।
इसलिये यौगका ही सेवन करे; क्योंकि पापोंसे छुटकारा दिलानेके लिये दूसरा कोई भी मार्ग नहीं है। १४-२८ ॥
अध्याय-१६६ वर्णाश्रम-धर्म आदिका वर्णन
पुष्कर कहते हैं– अब मैं श्रौत और स्मार्तधर्मका वर्णन करता हूँ। वह पाँच प्रकारका माना गया हैं।
वर्णमात्रका आश्रय लेकर जो अधिकार प्रवृत होता है, उसे ‘वर्ण-धर्म’ जानना चाहिये। जैसे कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-इन तीनों वर्णोंके लिये उपनयन-संस्कार आवश्यक है। यह ‘वर्ण-धर्म’ कहलाता है।
आश्रमका अवलम्बन लेकर जिस पदार्थका संविधान होता है, वह ‘आश्रम-धर्म’ कहा गया है। जैसे भिन्नपिण्डादिकका विधान होता है। जो विधि दोनोंके निमितसे प्रवर्तित होती है, उसको ‘नैमितिक’ मानना चाहिये । जैसे प्रायश्चितका विधान होता है॥ १-३६ ॥
राजन्! ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास्सी-इनसे सम्बन्धित धर्म *अनाश्रम-धर्म’ माना गया है।
दूसरे प्रकारसे भी धर्मके पाँच भेद होते हैं। षाड्गुण्य (संधि-विग्रह आदि)-के अभिधानमें जिसकी प्रवृत्ति होती है, वह ‘दृष्टार्थ” बतलाया गया हैं। उसके तीन भेद होते हैं। मन्त्र-यश-प्रभृति ‘अदृष्टार्थ’ हैं, ऐसा मनु आदि कहते हैं। इसके सिवा “उभयार्थक व्यवहार’ ‘दण्डधारण’ और ‘तुल्यार्थ-विकल्प’-ये भी यज्ञमूलक धर्मके अङ्ग कहे गये हैं।
वेदमें धर्मका जिस प्रकार प्रतिपादन किया गया है, स्मृतिमें भी वैसे ही है। कार्यके लिये स्मृति वेदोक्त धर्मका अनुवाद करती हैं-ऐसा मनु आदिका मत है। इसलिये स्मृतियोंमें उक्त धर्म वेदोक्त धर्मका गुणार्थ, परिसंख्या, विशेषतः अनुवाद. विशेष दृष्टार्थ अथवा फलार्थ है, यह राजर्षि मनुका सिद्धान्त है। ४-८ ई।
निम्नलिखित अड़तालीस संस्कारोंसे सम्पन्न मनुष्य ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है-(१) गर्भाधान, (२) पुंसवन, (३) सीमन्तोन्नयन, (४) जातकर्म, (५) नामकरण, (६) अन्नप्राशन, (७) चूडाकर्म, (८) उपनयन-संस्कार, (९-१२) चार वेदव्रत (वेदाध्ययन), (१३) स्नान (समावर्तन), (१४) सहधर्मिणी-संयोग (विवाह), (१५-१९) पञ्चयज्ञ-देवयज्ञ, पितृयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, भूतयज्ञ तधा ब्रह्मयज्ञ, (२० -२६) सात पाक-यज्ञसंस्था, (२७-३४) अष्टका-अष्टकासहित तीन पार्वण श्राद्ध, श्रावणी, आग्राहायाणी, चैत्री और आश्वयुजी, (३५-४१) सात हविर्यज्ञ-संस्था-अग्न्याधेय, अग्निहोत्र, दर्श-पौर्णमास, चातुर्मास्य, आग्रहायणेष्टि, निरूढपशुबन्ध एवं सौत्रामणि, (४२-४८) सात सोम-संस्था-अग्निष्टोम,अत्यग्नीष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आतोर्याम।
आठ आत्मगुण हैं-दया, क्षमा, अनसूया, अनायास, मांगलय, अकार्पन्य, अस्प्रिहा तथा शौच। जो इन गुणोंसे युक्त होता है, वह परमधाम (स्वर्ग)-को प्राप्त करता है। ९-१७ ई।
मार्गगमन, मैथुन, मल-मूत्रोत्सर्गं, दन्तधावन, स्नान और भोजन-इन छ: कार्योंको करते समय मौन धारण करना चाहिये।
दान की हुई वस्तुका पुनः दान, पृथक्पाक, धृतके साथ जल पीना. नख आदि काटना एवं बहुत गरम जल पीनाइन सात बातोंका परित्याग कर देना चाहिये।
स्नानके पश्चात् पुष्पचयन न करे; क्योंकि वे पुष्प देवताके चढ़ानेयोग्य नहीं माने गये हैं।
यदि कोई अन्यगोत्रीय असम्बन्धी पुरुष किसी मृतकका अग्नि-संस्कार करता है तो उसे दस दिन तक पिण्ड तथा उदक-दानका कार्य भी पूर्ण करना चाहिये।
जल, तृण, भस्म, द्वार एवं मार्ग-इनको बीचमें रखकर जानेसे पङ्गिदोष नहीं माना जाता।
भोजनके पूर्व अनामिका और अङ्गष्ठके संयोगसे पञ्चप्राणोंको आहुतियाँ देनी चाहिये ॥ १८-२२ ।।
एक सौ छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १६६ ॥
अध्याय- १६७ ग्रहोंके अयुत-लक्ष-कोटि हवनोंका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ! अब मैं शान्ति समृद्धि एवं विजय आदिकी प्रातिके निमित्त ग्रहयज्ञका पुनः वर्णन करता हूँ।
ग्रहयज्ञ ‘अयुतहोमात्मक’, ‘लक्षहोमात्मक’ और ‘कोटिहोमात्मक’ के भेदसे तीन प्रकारका होता है। अग्निकुण्डसे ईशानकोणमें निर्मित वेदिकापर मण्डल (अष्टदलपद्म) बनाकर उसमें ग्रहोंका आवाहन करे। उत्तर दिशामें गुरु, ईशानकोणमें बुध, पूर्वदलमें शुक्र, आग्नेयमें चन्द्रमा, दक्षिणमें भौम, मध्यभागमें सूर्य, पश्चिममें शनि, नैऋत्यमें राहु और वायव्यमें केतुको अङ्कित करे।
शिव, पार्वती, कार्तिकेय, विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, यम, काल और चित्रगुप्त-ये ‘अधिदेवता’ कहे गये हैं।
अग्नि, वरुण, भूमि, विष्णु, इन्द्र, शचीदेवी, प्रजापति, सर्प और ब्रह्मा-ये क्रमश: ‘प्रत्यधिदेवता’ हैं।”
गणेश, दुर्गा, वायु, आकाश तथा आश्विनीकुमार -ये ‘कर्म-सादगुण्य-देवता’ हैं। इन सबका वैदिक बीज-मन्त्रोंसे यजन करे।
आक, पलाश, खदिर, अपामार्ग, पीपल, गूलर, शमी, दूर्वा तथा कुशा— ये क्रमश: नवग्रहोंकी समिधाएँ हैं। इनको मधु, घृत एवं दधिसे संयुक्त करके शतसंख्यामें आठ बार होम करना चाहिये।
एक, आठ और चार कुम्भ पूर्ण करके पूर्णाहुति एवं वसुधारा दे। फिर ब्राह्मणोंको दक्षिणा दे। यजमानका चार कलशोंके जलसे मन्त्रोच्चारणपूर्वक अभिषेक कोरे। (अभिषेकके समय यों कहना चाहिये-) ‘ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर आदि देवता तुम्हारा अभिषेक करें। वासुदेव, जगन्नाथ, भगवान संकर्षण, प्रधुमन और अनिरुद्ध तुम्हें विजय प्रदान करें। देवराज इन्द्र, भगवान् अग्नि, यमराज, निऋति, वरुण, पवन, घनाध्यक्ष कुबेर, शिव, ब्रह्मा, शेषनाग एवं समस्त दिक्पाल सदा तुम्हारी रक्षा करें। कीर्ति, लक्ष्मी, धृति, मेधा, पुष्टि श्रद्धा, क्रिया, मति, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, तुष्टि और कान्ति-ये लोकजननी धर्मकी पत्नियाँ तुम्हारा अभिषेक करें। आदित्य, चन्द्रमा, भौम, बुध, बृहस्पति, शुक्र, सूर्यपुत्र शनि, राहु तथा केतु-ये ग्रह परितृप्त होकर तुम्हारा अभिषेक करें। देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, सर्प, ऋषि, मनु, गौएँ, देवमाताएँ देवाङ्गनाएँ वृक्ष, नाग, दैत्य, अप्सराओंके समूह, अस्त्रशस्त्र, राजा, वाहन, ओषधियाँ रत्न, कालविभाग, नदी-नद, समुद्र, पर्वत, तीर्थ और मेघ-ये सब सम्पूर्ण अभीष्ट कामनाओंकी सिद्धिके लिये तुम्हारा अभिषेक करें’॥ १-१७ ॥
तदनन्तर यजमान अलंकृत होकर सुवर्ण, गौ, अन्न और भूमि आदिका निम्नाङ्कित मन्त्रोंसे दान करे-‘कपिले रोहिणि! तुम समस्त देवताओंकी पूजनीया, तीर्थमयी तथा देवमयी हो; अत: मुझे शान्ति प्रदान करो। शङ्क! तुम पुण्यमय पदार्थोंमें पुण्यस्वरूप हो, मङ्गलोके भी मङ्गल हो, तुम मुझे शान्ति दो। धर्म! आप वृषरूपसे स्थित होकर जगत्को आनन्द प्रदान करते हैं। आप अष्टमूर्ति शिवके अधिष्ठान हैं, अतः मुझे शान्ति दीजियें ॥ १८-२१ ॥ ‘सुवर्ण! हिरण्यगर्भके गर्भमें तुम्हारी स्थिति है। तुम अग्निदेवके वीर्यसे उत्पन्न तथा अनन्त पुण्यफल वितरण करनेवाले हो, अत: मुझे शान्ति प्रदान करो’।
पीताम्बर-युगल भगवान् वासुदेवको अत्यन्त प्रिय है; अत: इसके प्रदानसे भगवान् श्रीहरि मुझे शान्ति दें । अश्व! तुम स्वरूपसे विष्णु हो, क्योंकि तुम अमृतके साथ उत्पन्न हुए हो। तुम सूर्व-चन्द्रका सदा संवहन करते हो; अत: मुझे शान्ति दो । पृथिवी ! तुम समग्ररूपमें धेनुरूपिणी हो। तुम कैशवके समान समस्त पापोंका सदा अपहरण करती हो। इसलिये मुझे शान्ति प्रदान करो’। लौह! हल और आयुध आदि कार्य सर्वदा तुम्हारे अधीन हैं, अत: मुझे शान्ति दो ॥ २२-२६।। ‘छाग! तुम यत्रोंके अङ्गरूप होकर स्थित हो। तुम अग्निदेवके नित्य वाहन हो; अतएव मुझे शान्तिसे संयुक्त करो’।
चौदहों भुवन गौओंके अङ्गोंमें अधिष्ठित हैं। इसलिये मेरा इहलोक और परलोकमें भी मङ्गल हो’ । जैसे केशव और शिवकी शय्या अशून्य हैं, उसी प्रकार शय्यादानके प्रभावसे जन्म-जन्ममें मेरी शय्या भी अशून्य रहे। जैसे सभी रत्नोंमें समस्त देवता प्रतिष्ठित हैं, उसी प्रकार वे देवता रत्नदानके उपलक्ष्यमें मुझे शान्ति प्रदान करें’। अन्य दान भूमिदानकी सोलहवीं कलाके समान भी नहीं हैं, इसलिये भूमिदानके प्रभावसे मेरे पाप शान्त हो जायें` ॥ २७-३१ ॥
दक्षिणायुक्तं अयुतहोमात्मक ग्रहयज्ञ युद्धर्मे विजय प्राप्त करानेवाला है। विवाह, उत्सव, यज्ञ, प्रतिष्ठादि कर्ममें इसका प्रयोग होता है।
लक्षहोमात्मक और कोटिहोमात्मक-ये दोनों ग्रहयज्ञ सम्पूर्ण कामनाओंकी प्राप्ति करानेवाले हैं।
अयुतहोमात्मक यज्ञके लिये गृहदेशमें यज्ञमण्डपका निर्माण करके उसमें हाथभर गहरा मेखलायोनीयुक्त कुण्ड बनावे और चार ऋत्विजोंका वरण करे अथवा स्वयं अकेला सम्पूर्ण कार्य करे।
लक्षहोमात्मक यज्ञमें पूर्वकी अपेक्षा सभी दसगुना होता है। इसमें चार हाथ या दो हाथ प्रमाणका कुण्ड बनाये। इसमें तार्क्ष्यका पूजन विशेष होता है। (तार्क्ष्य-पूजनका मन्त्र यह है-) ‘तार्क्ष्य! सामध्वनि तुम्हारा शरीर है। तुम श्रीहरिके वाहन हो। विष-रोगको सदा दूर करनेवाले हो। अतएव मुझे शान्ति प्रदान करो’॥ ३२-३५ ई॥
तदनन्तर कलशोंको पूर्ववतू अभिमन्नित करके लक्षहोमका अनुष्ठान करे। फिर ‘वसुधारा’ देकर शय्या एवं आभूषण आदिका दान करे। लक्षहोममें दस या आठ ऋत्विज होने चाहिये। दक्षिणायुक्त लक्षहोमसे साधक पुत्र, अन्न, राज्य, विजय, भोग एवं मोक्ष आदि प्राप्त करता हैं।
कोटि-होमात्मक ग्रहयज्ञ पूर्वोक्त फलोंके अतिरिक्त शत्रुओंका विनाश करनेवाला है। इसके लिये चार हाथ या आठ हाथ गहरा कुण्ड बनाये और बारह ऋत्विजोंका वरण करे। पटपए पच्चीस या सोलह तथा द्वारपर चार कलशोंकी स्थापना करे । कोटीहोम करनेवाला सम्पूर्ण कामनाओंसे संयुक्त होकर विष्णुलोकको प्राप्त होता है ।
ग्रह-मन्त्र, वैष्णव-मन्त्र, गायत्री मन्त्र, आग्नेय-मन्त्र, शैव-मन्त्र एवं प्रसिद्ध वैदिक मन्त्रोंसे हवन करे।
तिल, यव, घृत और धान्यका हवन करनेवाना अश्वमेधयज्ञके फलकीं प्राप्त करता हैं।
विद्वेषण आदि अभिचार-कर्मोमें त्रिकोण कुण्ड विहित है। इनमें रक्तवस्त्रधारी और उन्मुक्तकेश मन्त्रसाधकको शत्रुके विनाशका चिन्तन करते हुए, बाँयें हाथसे श्येन पक्षीकी लक्ष अस्थियोंसे युक्त समिधाओंका हवन करना चाहिये।
(हवनका मन्त्र इस प्रकार है-)
‘दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु यो द्वेष्टि हूं फट्।”
फिर छुरेसे शत्रुकी प्रतिमाको काट डाले और पिष्टमय शत्रुका अग्निमें हवन करे। इस प्रकार जो आत्याचारी शत्रुके विनाशके लिये यज्ञ करता है, वह स्वर्गलोककी प्राप्त करता हैं ॥ ३६-४४ ॥
एक सौ सड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १६७॥
अध्याय-१६८ महापातकोंका वर्णन
पुष्कर कहते हैं– जो मनुष्य पापोंका प्रायश्चित न करें, राजा उन्हें दण्ड दे। मनुष्यको अपने पार्पोका इच्छासे अथवा अनिच्छासे भी प्रायश्चित्त करना चाहिये।
उन्मत, क्रोधी और दु:खसे आतुर मनुष्यका अन्न कभी भोजन नहीं करना चाहिये।
जिस अन्नका महापातकी ने स्पर्श कर लिया हो, जो रजस्वला स्त्रीद्वारा छूआ गया हो, उस अनका भी परित्याग कर देना चाहिये।
ज्यौतिषी, गणिका, अधिक मुनाफा करनेवाले ब्राह्मण और क्षत्रिय, गायक, अभिशप्त, नपुसंक, घरमें उपपतिको रखनेवाली स्त्री, धोबी, नृशंस, भाट, जुआरी, तपका आड़म्बर करनेवाले, चोर, जल्लाद, कुण्डगोलक, स्त्रियोंद्वारा पराजित, वेदोंका विक्रय करनेवाला, नट, जुलाहे, कृतध्न, लोहार, निषाद, रंगरेज, ढोंगी सन्यासी, कुलटा स्त्री, तेली, आरूढ़-पतित और शत्रुके अन्नका सदैव परित्याग करे।
इसी प्रकार ब्राह्मणके बिना बुलाये ब्राह्मणका अन्न भोजन न करे। शूद्रको तो निमन्त्रित होनेपर भी ब्राह्मणके अन्नका भोजन नहीं करना चाहिये। इनमेंसे बिना जाने किसी का अन्न खाने पर तीन दिन तक उपवास करे। जान-बूझकर खा लेने पर ‘कृच्छव्रत’ करे।
वीर्य, मल, मूत्र तथा श्वपाक चाण्डालका अन्न ख़ाकर ‘चान्द्रायणव्रत’ करे।
मृत व्यक्ति के उद्देश्यसे प्रदत्त, गायका सूंघा हुआ, शूद्र अथवा कुत्तेंके द्वारा उच्छिष्ट किया हुआ तथा पतितका अन्न भक्षण करके ‘तप्तकृच्छु’ करे।
किसीके यहाँ सूतक होनेपर जो उसका अन्न खाता है, वह भी अशुद्ध हो जाता है। इसलिये अशौचयुक्त मनुष्यका अन्न भक्षण करनेपर, कृच्छव्रत करे।
जिस कुएँमें पाँच नखोंवाला पशु मरा पड़ा हो, जो एक बार अपवित्र वस्तुसे युक्त हो चुका हो, उसका जल पीनेपर श्रेष्ठ ब्राहणको तीन दिनतक उपवास रखना चाहिये।
शूद्रको सभी प्रायश्चित एक चौथाई, वैश्यकी दो चौथाई और क्षत्रियकों तीन चौथाई करने चाहिये।
ग्रामसूकर, गर्दभ, उष्ट्र, श्रृंगाल, वानर और काक-इनके मल-मूत्रका भक्षण करनेपर ब्राह्मण ‘चान्द्रायण– व्रत’ करे।
सूखा मांस, मृतक व्यक्तिके उद्देश्यसे दिया हुआ अन्न, करक तथा कच्चा मांस खानेवाले जीव, शूकर, उष्ट्र, श्रृंगाल, वानर, काक, गौ, मनुष्य, अश्व, गर्दभ, छत्ता शाक, मुर्गों और हाथीका मांस खानेपर ‘तप्तकृच्छ्”से शुद्धि होती है।
ब्रह्मचारी अमाश्राद्धमें भोजन, मधुपान अथवा लहसुन और गाजरका भक्षण करनेपर ‘प्राजापत्यकृच्छू’ से पवित्र होता है।
अपने लिये पकाया हुआ मांस, पेलुगव्य (अण्डकोषका मांस). पेयूष (व्यायी हुई गी आदि पशुओंका सात दिनके अंदरका दूध), श्लेष्मातक (बहुवार), मिट्टी एवं दूषित खिचड़ी, लप्सी, खीर, पूआ और पूरी, यज्ञ-सम्बन्धी संस्कार-रहित मांस, देवताके निमित रखा हुआ अन्न और हवि-इनका भक्षण करने पर ‘चान्द्रावण-व्रत’ करनेसे शुद्धि होती है।
गाय, भैंस और बकरीके दूधके सिवा अन्य पशुओंके दुग्धका परित्याग करना चाहिये। इनके भी व्यानेके दस दिन के अंदर का दूध काममें नहीं लेना चाहिये।
अग्निहोत्रकी प्रज्वलित अग्निमें हवन करनेवाला ब्राहमण यदि स्वेच्छापूर्वक जौ और गेहूसे तैयार की हुई वस्तुओं, दूधके विकारों, वागषाडगवचक्र आदि तथा तैल-धी आदि चिकने पदार्थोंसे संस्कृत बासी अन्नको खा ले तो उसे एक मासतक ‘चान्द्रायणव्रत’ करना चाहिये; क्योंकि वह दोष वीरह्त्याके समान माना जाता है ॥ १-२३ ॥
ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी, गुरुतल्पगमन-ये ‘महापातक’ कहें गये हैं। इन पापोंके करनेवाले मनुष्योंका संसर्ग भी ‘महापातक’ माना गया है।
झूठको बढ़ावा देना, राजाके समीप किसीकी चुगली करना, गुरुपर झूठा दोषारोपण-ये ‘ब्रह्महत्या”के समान हैं।
अध्ययन किये हुए वेदका विस्मरण, वेदनिन्दा, झुठी गवाही, सुहृद्का वध, निन्दित अन्न एवं घृतका भक्षण-ये छ: पाप सुरापानके समान माने गये हैं।
धरोहरका अपहरण, मनुष्य, धोड़े, चांदी, भूमि और हीरे आदि रत्नोंकी चोरी सुवर्णकी चोरीके समान मानी गयी है।
सगोत्रा स्त्री, कुमारी कन्या, चाण्डाली, मित्रपत्नी और पुत्रवधू-इनमें वीर्यपात करना ‘गुरुपत्नीगमन’ के समान माना गया है।
गोवध, अयोग्य व्यक्ति से यज्ञ कराना, परस्त्रीगमन, अपनेको बेचना तथा गुरु, माता, पिता, पुत्र, स्वाध्या एवं अग्निका परित्याग परिवेत्ता अथवा परिविति होना-इन दोनोंमेंसे किसीको कन्यादान करना और इनका यज्ञ कराना, कन्याको दूषित करना, ब्याजसे जीविका-निर्वाह, व्रतभंग, सरोवर, उद्यान, स्त्री एवं पुत्रको बेचना, समयपर यज्ञोपवीत ग्रहण न करना, बान्धवोंका त्याग, वेतन लेकर अध्यापन कार्य करना, वेतनभोगी, गुरुसे पढ़ना, न बेचनेयोग्य वस्तुकों बेचना, सुवर्ण अदिकी खानका काम करना, विशालयन्त्र चलाना, लता, गुल्म आदि ओषधियोंका नाश, स्त्रियोंके द्वारा जीविका उपार्जित करना, नित्य-नैमित्तिक कर्मका उल्लङ्कन, लकड़ीके लिये हरे-भरे वृक्षको काटना, अनेक स्त्रियोंका संग्रह, स्त्री-निंदकोंका संसर्ग, केवल अपने स्वार्थके लिये सम्पूर्ण-कर्मोका आरम्भ करना, निन्दित अन्नका भोजन, अग्निहोत्रका परित्याग, देवता, ऋषि और पितरोंका ऋण न चुकाना, असत् शास्त्रोंको पढ़ना, दु:शीलपरायण होना, व्यसनमें आशक्ति, धान्य, धातु और पशुओंकी चोरी, मद्यपान करनेवाली नारीसे समागम, स्त्री, शूद्र, वैश्य अथवा क्षत्रियका वध करना एवं नास्तिकता-ये सब ‘उपपातक’ हैं।
ब्राह्मणको प्रहार करके रोगी बनाना, लहसुन और मद्य आदिको सूंघना, भिक्षासे निर्वाह करना, गुदामैथुन-ये सब ‘जाति-भ्रशकर पातक’ बतलाये गये हैं।
गर्दभ, घोड़ा, ऊँट, मृग, हाथी, भेड़, बकरी, मछली, सर्प और नेवला-इनमेंसे किसीका वध ‘संकरीकरण’ कहलाता है।
निन्दित मनुष्योंसे धनग्रहण, वाणिज्यवृत्ति, शूद्रकी सेवा एवं असत्यभामण-में ‘अपात्रीकरण पातक” माने जाते हैं।
काष्ठ और पुष्पकी चोरी तथा धैर्यका परित्याग-ये ‘मलिनीकरण पातक” कहलाते हैं। २४-४० ॥
एक सौ अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ। १६८
अध्याय -१६९ ब्रह्महत्या आदि विविध पापोंके प्रायश्चित्त
पुष्कर कहते हैं– अब मैं आपको इन सब पापोंकी प्रायश्चित बतलाता हूँ।
ब्रह्महत्या करनेवाला अपनी शुद्धिके लिये भिक्षाका अन्न भोजन करते हुए एवं मृतक के सिरकी ध्वजा धारण करके, वनमें कुटी बनाकर, बारह वर्षतक निवास करे। अथवा नीचे मुख करके धधकती हुई आगमें तीन बार गिरे। अथवा अश्वमेधयज्ञ या स्वर्गपर विजय प्राप्त करानेवाले गोमेध यज्ञका अनुष्ठान करे। अथवा किसी एक वेदका पाठ करता हुआ सौ योजनतक जाय या अपना सर्वस्व वेदवेत्ता ब्राह्मणको दान कर दे। महापातकी मनुष्य इन व्रतोंसे अपना पाप नष्ट कर डालते हैं।॥ १-४॥
गोवध करनेवाला एवं उपपातकी एक मासतक यवपान करके रहे। वह सिरका मुण्डन कराकर उस गौंका चर्म ओढ़े हुए गोशालामें निवास करे। दिनके चतुर्थ प्रहरमें लवणहीन अन्नका नियमित भोजन करे। फिर दो महीनोंतक इन्द्रियोंको वश में करके नित्य गोमूत्रसे स्नान करे। दिनमें गौओंके पीछे-पीछे चले और खड़े होकर उनके खुरोंसे उड़ती हुई धूलिका पान करे। व्रतका पूर्णरूपसे अनुष्ठान करके एक बैलके साथ दस गौओंका दान करे। यदि इतना न दें सके तो वेदवेत्ता ब्राह्मणोंकों अपना सर्वस्व-दान कर दें।
यदि रोकनेसे गौ मर जाय तो एक चौथाई प्रायश्चित, बाँधनेके कारण मर जाय तो आधा प्रायश्चित, जोतनेके कारण मर जाय तो तीन पाद प्रायश्चित और मारनेपर मर जाय तो पूरा प्रायश्चित करना चाहिये।
वन, दुर्गम स्थान, ऊबड़-खाबड़ भूमि और भयप्रद स्थानमें गौकी मृत्यु हो जाय तो चौथाई प्रायश्चितका विधान है।
आभूषणके लिये गलेमें घण्टा बाँधनेसे गौकी मृत्यु हो तो आधा प्रायश्चित करे।
दमन करने, बाँधने, रोकने. गाड़ीमें जोतने, खूंटे, रस्सी अथवा फंदेमें बाँधनेपर यदि गौकी मृत्यु हो जाय तो तीन चरण प्रायश्चित्त करे।
यदि गौका सींग अथवा हड़ी टूट जाय या पूँछ कट जाय तो जबतक गौ स्वस्थ न हो जाय, तबतक जौकी लप्सी खाकर रहे और गोमती विद्याका जप करे, गौकी स्तुति एवं गोमतीका स्मरण करे।
यदि बहुत-से मनुष्योंके द्वारा एक गौ मारी जाय तो वे सब लोग अलग-अलग गोहत्याका एक-एक पाद प्रायश्चित करें।
उपकार करते हुए यदि गौ मर जाय तो पाप नहीं लगता है ॥५-१४ ॥
उपपातक करनेवालोंको भी इसी व्रतका आचरण करना चाहिये।
“अवकीर्णों’ को अपनी शुद्धिके लिये चान्द्रायण-व्रत करना चाहिये अथवा अवकीर्णी रातके समय चौराहेपर जाकर पाकयज्ञके विधानसे निऋतिके लद्देश्यसे काले गदहेका पूजन करे। तदनन्तर वह बुद्धिमान् ब्रह्मचारी अग्नि-संचयन करके अन्तमें समासिचंन्तु मरुतः’- इस ऋचासे चन्द्रमा, इन्द्र, वृहस्पति और अग्निके उद्देश्यसे घृतकी आहुति दे। अथवा गर्दभका चर्म धारण करके एक वर्षतक पृथ्वीपर विचरण करे॥ १५-१७ ॥
अज्ञानसे भ्रूण-हत्या करनेपर ब्रह्महत्याका प्रायश्चित करे।
मोहवश सुरापान करनेवाला द्विज अग्निके समान जलती हुई सुराका पान करे। अथवा तपाकर अग्निके समान रंगवाले गोमूत्र या जलका पान करे।
सुवर्णकी चोरी करनेवाला ब्राह्मण राजाके पास जाकर अपने चौर्य-कर्मके विषयमें बतलाता हुआ कहे-‘आप मुझे दण्ड दीजिये।” तब राजा मूसल लेकर अपने-आप आये हुए उस ब्राह्मणको एक बार मारे। इस प्रकार वध होनेसे अथवा तपस्या करनेसे सुवर्णकी चोरी करनेवाले ब्राह्मणकी शुद्धि होती है।
गुरुपत्नी-गमन करनेवाला स्वयं अपने लिङ्ग और अण्डकोषको काटकर उसे अंजलिमें ले, मरनेतक नैऋत्यकोण की ओर चलता जाय। अथवा इन्द्रियोंको संयम में रखकर तीन मासप्तक ‘चान्द्रायण’ नत करे।
जान-बूझकर कोई-सा भी जाति-भ्रशकर पातक करके “सांतपनकृच्छू” और अज्ञानवश हो जानेपर’प्राजापत्यकृच्छ’ करे।
संकरीकरण अथवा अपात्रीकरण पातक करनेपर एक मासतक चान्द्रायणव्रत करनेसे शुद्धि होती है।
मलिनीकरण पातक होनेपर तीन दिनातक तप्तयावकका पान करे।
क्षत्रियका वध करनेपर ब्रह्महत्याका चौथाई प्रायश्चित विहित हैं। वैश्य का वध करने पर अष्टमांश, सदाचारी शूद्रका वध करनेपर षोडशांश प्रायश्चित करे।
बिल्ली, नेवला, नीलकण्ठ, मेढक, कुत्ता, गोह, उलूक, काक अथवा चारोंमेंसे किसी वर्णकी स्त्रीकी हत्या होनेपर शूद्रहत्याका प्रायश्चित्त करे।
स्त्रीकी अज्ञानवश हत्या करके भी शूद्रह्त्याका प्रायश्चित करे।
सर्पादिका वध होनेपर “नन्तव्रत’ और अस्थिहिन जीवोंकी ह्त्या होनेपर प्राणायाम करे ॥ १८-२८ ॥
दूसरे के घरसे अल्पमूल्यवाली वस्तुकी चोरी करके ‘सांतपनकृच्छू’ करे। व्रतके पूर्ण होनेपर शुद्धि होती है।
भक्ष्य और भोज्य वस्तु, यान, शय्या, आसन, पुष्प, मूल और फलोंकी चोरीमें पञ्चगव्यके पानसे शुद्धि होती है।
तृण, काष्ठ, वृक्ष, सूखें अनाज, गुड़, वस्त्र, चर्म और मांसकी चोरी करनेपर तीन दिनतक भोजनका परित्याग करे।
मणि, मोती, मूंगा, ताँबा, चाँदी, लोहा, काँसा अथवा पत्थरकी चोरी करनेवाला बारह दिनतक अन्नका कणमात्र खाकर रहे ।
कपास, रेशम, ऊन तथा दो खुरवाले बैल आदि, एक खुरवाले घोड़े आदि पशु, पक्षी, सुगन्धित द्रव्य, औषध अथवा रस्सी चुरानेवाला तीन दिनतक दूध पीकर रहे ॥ २९-३३ ॥
मित्रपत्नी, पुत्रवधु, कुमारी और चाण्डालीमें वीर्यपात करके गुरुपत्नी-गमनका प्रायश्चित करे।
फुफेरी बहन, मौसेरी बहन और सगी ममेरी बहनसे गमन करनेवाला चान्द्रायण-व्रत करें।
मनुष्येतर योनिमें, राजस्वाला स्त्रीमें, योनिके सिवा अन्य स्थानमें अथवा जलमें वीर्यपात करनेवाला मनुष्य ‘कृच्छूसांतपन-व्रत’ करे।
पुरुष अथवा स्त्रीके साथ बैलगाड़ीपर, जलमें या दिनके समय मैथुन करके ब्राह्मण वस्त्रोंसहित स्नान करे।
चाण्डाल और अन्त्यज जातिकी स्त्रियोंसे अज्ञानवश समागम करके, उनका अन्न खाकर या उनका प्रतिग्रह स्वीकार करके ब्राह्मण पतित हो ज़ाता है। जान-बूझकर ऐसा करनेसे वह उन्हींके समान हो जाता है।
व्यभिचारिणी स्त्रीका पति उसे एक घरमें बंद करके रखे और परस्त्रीगामी पुरुषके लिए जो प्रायश्चित विहित है, वह उससे करावे। यदि वह स्त्री अपने समान जातिवाले पुरुषके द्वारा पुनः दूषित हो तो उसकी शुद्धि कृच्छू’ और ‘चान्द्रायण-व्रत’ गयी है।
जो ब्राह्मण एक रात वृषलीका सेवन करता है, वह तीन वर्षतक नित्य भिक्षानका भोजन और गायत्री-जप करनेपर शुद्ध होता है ॥ ३४-४१ ॥
एक सौ उनहतरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १६९ ॥
अध्याय-१७० विभिन्न प्रायश्चितोंका वर्णन
पुष्कर कहते हैं– अब मैं महापातकियोंका संसर्ग करनेवाले मनुष्योंके लिये प्रायश्चित बतलाता हूँ। पतितके साथ एक सवारीमें चलने, एक आसनपर बैठने, एक साथ भोजन करनेसे मनुष्य एक वर्षके बाद पतित होता है, परंतु उनको यज्ञ कराने, पढ़ाने एवं उनसे यौन-सम्बन्ध स्थापित करनेवाला तो तत्काल ही पतित हो जाता है।
जो मनुष्य जिस पतितका संसर्ग करता है, वह उसके संसर्गजनित दोषकी शुद्धिके लिये, उस पतितके लिये विहित प्रायश्चित करें।
पतित के सपिण्ड़ और बान्धवोंको एक साथ निन्दित दिनमें, संध्याके समय, जाति-भाई, ऋत्विक और गुरुजनोंके निकट, पतित पुरुषकी जीवितावस्थामें ही उसकी उदक-क्रिया करनी चाहिये। तदनन्तर जलसे भरे हुए घड़ेकों दासीद्वारा लातसे फेंकवा दे और पतितके सपिण्ड एवं बान्धव एक दिन-रात अशौच मानें। उसके बाद वे पतितके साथ सम्भाषण न करें और धनमें उसे ज्येष्ठांस भी न दें। पतितका छोटा भाई गुणोंमें श्रेष्ठ होनेके कारण ज्येष्ठांशका अधिकारी होता हैं। यदि पतित बादमें प्रायश्चित कर लें, तो उसके सपिण्ड और बान्धव उसके साथ पवित्र जलाशयमें स्नान करके जलसे भरे हुए नवीन कुम्भको जलमें फेंके। पतित स्त्रियोंके सम्बन्धमें भी यही कार्य करे, परंतु उसकी अन्न, वस्त्र और घरके समीप रहने का स्थान देना चाहिये ॥ १-७ ॥
जिन ब्राह्मणोंको समयपर विधिके अनुसार गायत्रीका उपदेश प्राप्त नहीं हुआ है, उनसे तीन प्राजापत्य कराकर उनका विधिवत् उपनयनसंस्कार करावे। निषिद्ध कर्मोका आचरण करनेसे जिन ब्राह्मणोंका परित्याग कर दिया गया हो, उनके लियें भी इसी प्रायश्चितका उपदेश करे।
ब्राहमण संयतिचित्त होकर तीन सहस्त्र गायत्रीका जप करके गोशालामें एक मासतक दूध पीकर निन्दित प्रतिग्रहके पापसे छूट जाता है।
संस्कारहीन मनुष्योंका यज्ञ कराकर, गुरुजनोंके सिवा दूसरोंका अन्येष्टिकर्म, अभिचारकर्म अथवा अहीन यज्ञ कराकर ब्राह्मण तीन प्राजापत्य-व्रत करनेपर शुद्ध होता है।
जों द्विज शरणागतका परित्याग करता है और अनधिकारीको वेदका उपदेश करता हैं, वह एक वर्षतक नियमित आहार करके उस पाससे मुक्त होता हैं। ८-१२ ॥
कुता, सियार, गर्दभ, बिल्ली, नेवला, मनुष्य, घोड़ा, ऊँट और सूअरके द्वारा काटे जानेपर प्राणायाम करनेसे शुद्धि होती है।
स्नातकके व्रतका लोप और नित्यकर्मका उल्लंधन होनेपर निराहार रहना चाहिये। यदि ब्राह्मणके लिये हूं कार और अपनेसे श्रेष्ठके लिये ‘तू ‘ का प्रयोग हो जाये, तो स्नान करके दिनके शेष भागमें उपवास रखें और अभिवादन करके उन्हें प्रसन्न करें।
ब्रह्राणपर प्रहार करनेके लिये डंडा उठानेपर “प्राजापत्य-व्रत’ करे। यदि डंडेसे प्रहार कर दिया हो तो ‘अतिकृच्छ्र’ और यदि प्रहारसे ‘अतिकृच्छूव्रत’ करे।
जिसके घरमें अनजानमें चाण्डाल आकर टिक गया हो तो भलीभाँती जाननेपर यथासमय उसका प्रायश्चित करें।
‘चान्द्रायण’ अथवा पराकव्रत करनेसे द्विजोंकी शुद्धि होती है। शूद्रोंकी शुद्धि ‘प्राजापत्य-व्रत’ से हो जाती है, शेष कर्म उन्हें द्विजोंकी भाँत करने चाहिये।
घरमें जो गुड़, कुसुम्भ, लवण एवं धान्य आदि पदार्थ हो, उन्हें द्वारपर एकत्रित करके अग्निदेवको समर्पित करे। मिट्टीके पात्रोंका त्याग कर देना चाहिये। शेष द्रव्योंकी शास्त्रीय विधिके अनुसार द्रव्यशुद्धि विहित हैं ॥ १३-१११ ॥
चाण्डालके स्पर्शसे दूषित एक कूएँका जल पीनेवाले जो ब्राह्मण हैं, वे उपवास अथवा पञ्चगव्यके पानसे शुद्ध हो जाते हैं।
जो द्विज इच्छानुसार चाण्डालका स्पर्श करके भोजन कर लेता है, उसे ‘चान्द्रायण’ अथवा ‘तप्तकृच्छु’ करना चाहिये।
चाण्डाल आदि घृणित जातियोंके स्पर्शसे जिनके पात्र अपवित्र हो गये हैं, वे द्विज (उन पात्रोंमें भोजन एवं पान करके) “षड्रात्रव्रत’ करनेसे शुद्ध होते हैं।
अन्यजका उच्छिष्ट खाकर द्विज ‘चान्द्रायणव्रत’ करे और शूद्र ‘त्रिरात्र-व्रत’ करे।
जो द्विज चाण्डालोंके कूएँ या पात्रका जल बिना जाने पी लेता है, वह ‘सांतपनकृच्छ’ करे एवं शूद्र ऐसा करनेपर एक दिन उपवास करे।
जो द्विज चाण्डालका स्पर्श करके जल पी लेता है, उसे ‘त्रिरात्र-व्रत’ करना चाहिये और ऐसा करनेवाले शूद्रोंको एक दिनका उपवास करना चाहिये ॥ २०-२५ ॥
ब्राह्मण यदि उच्छिष्ठ, कुत्ता अथवा शूद्रका स्पर्श कर दे. तो एक रात उपवास करके पञ्चगव्य पीनेसे शुद्ध होता है। वैश्य अथवा क्षत्रियेका स्पर्श होनेपर स्नान और नक्तव्रत करे।
मार्गमें चलता हुआ ब्राह्मण यदि वन अथवा जलरहित प्रदेशमें पक्कान्न हाथमें लिये मल-मूत्रका त्याग कर देता है, तो उस द्रव्यकी अलग न रखकर अपने अङ्कमें रखे हुए ही आचमन आदिसे पवित्र होकर अन्नका प्रोक्षण करके उसे सूर्य एवं अग्निकी प्रदर्शित करे॥ २६-२९॥
जो प्रवासी मनुष्य म्लेच्छों, चोरोंके निवासभूत देश अथवा वनमें भोजन कर लेते हैं, अब मैं वर्णक्रमसे उनकी भक्ष्याभक्ष्यविषयक शुद्धिका उपाय बतलाता हूँ। ऐसा करनेवाले ब्राह्मणको अपने गाँवमें आकर ‘पूर्णकृच्छू’ क्षत्रियको तीन चरण और वैश्यको आधा व्रत करके पुन: अपना संस्कार कराना चाहिये। एक चौथाई व्रत करके दान देनेसे शूद्रकी भी शुद्धि होती है। ३०-३२ ॥
यदि किसी स्त्रीका समान वर्णवाली रजस्वला स्त्रीसे स्पर्श हो जाय तो वह उसी दिन स्नान करके शुद्ध हो जाती हैं, इसमें कोई संशय नहीं है।
अपनेसे निकृष्ट जातिवाली रजस्वलाका स्पर्श करके रजस्वाला स्त्री तबतक भोजन नहीं करना चाहिये, जबतक कि वह शुद्ध नहीं हो जाती। उसकी शुद्धि चौथे दिनके शुद्ध स्नानसे ही होती है।
यदि कोई द्विज मूत्रत्याग करके मार्गमें चलता हुआ भूलकर जल पी ले, तो वह एक दिन-रात उपवास रखकर पञ्चगव्यके पानसे शुद्ध होता है। जो मूत्र त्याग करनेके पश्चात् आचमनादि शौच न करके मोहवश भोजन कर लेता हैं, वह तीन दिनतक यवपान करनेसे शुद्ध होता है
जो ब्राह्राण संन्यास आदिकी दीक्षा लेकर गृहस्थाश्रमका परित्याग कर चुके हों और पुन: संन्यासाश्रमसे गृहस्थाश्रममें लौटना चाहते हों, अब मैं उनकी शुद्धिके विषयमें कहता हूँ। उनसे तीन ‘प्रजापत्य’ अथवा ‘चान्द्रायण-व्रत’ कराने चाहिये। फिर उनके जातकर्म आदि संस्कार पुन: कराने चाहिये ॥ ३७-३८।।
जिसके मुखसे जूते या किसी अपवित्र वस्तुका स्पर्श हो जाय, उसकी मिट्टी और गोवरके लेपन तथा पञ्चगव्यके पानसे शुद्धि होती है।
नीलकी खेती, विक्रय और नीलें वस्त्र आदिका धारण-ये ब्राह्मण का पतन करनेवाले हैं। इन दोषोंसे युक्त ब्राह्मणकी तीन “प्राजापत्यव्रत’ करनेसे शुद्धि होती है।
यदि रजस्वला स्त्रीकी अन्त्यज या चाण्डाल छू जाय तो ‘त्रिरात्र-व्रत’ करनेसे चौथे दिन उसकी शुद्धि होती है।
चाण्डाल, श्वपाक, मज्जा, सूतिका स्त्री, शव और शवका स्पर्श करनेवाले मनुष्यको छुनेपर तत्काल स्नान करनेसे शुद्धि होती है।
मनुष्यकी अस्थिका स्पर्श होनेपर तेल लगाकर स्नान करनेसे ब्राह्मण विशुद्ध हो जाता है। गलीके कीचड़के छीटे लग जानेपर नाभिके निचेका भाग मिट्टी और जलसे धोकर स्नान करनेसे शुद्धि होती है।
वमन अथवा विरेचनके बाद स्नान करके घृतका प्राशन करनेसे शुद्धि होती है।
स्नानके बाद क्षौरकर्म करनेवाला और ग्रहणके समय भोजन करनेवाला ‘प्राजापत्यव्रत’ करनेसे शुद्ध होता है।
पंक्तिदूषक मनुष्योंके साथ पङ्तिमें बैठकर भोजन करनेवाला, कुत्ते अथवा कीटसे दंशित मनुष्य पञ्चगव्यके पानसे शुद्धि (पूर्णिमा)-को उपवास रखे। फिर पञ्चगव्यपान करके हविष्यान्नका भोजन करे। यह ‘ब्रह्मकूर्च- व्रत’ होता हैं। इस व्रतकी एक मासमें दो बार करनेसे मनुष्प समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य घन, पुष्टि, स्वर्ग एवं पापनाशकी कामनासे देवताओंका आराधन और कृच्छूव्रत करता हैं, वह सब कुछ प्राप्त कर लेता हैं। १-१७॥
अध्याय –१७१
अध्याय –१७२ समस्त पापनाशक स्तोत्र
पुष्कर कहते है – जब मनुष्यों का चित्त परस्त्रीगमन, परस्वापहरण एवं जीवहिंसा आदि पापों में प्रवृत्त होता हैं, तो स्तुति करनेसे उसका प्रायश्चित होता है | (उससमय निम्नलिखित प्रकारसे भगवान् श्रीविष्णु की स्तुति करे ) “सर्वव्यापी विष्णु को सदा नमस्कार है | श्रीहरि विष्णुको नमस्कार है | मैं अपने चित्तमें स्थित सर्वव्यापी, अहंकारशून्य श्रीहरि को नमस्कार करता हूँ | मैं अपने मानस में विराजमान अव्यक्त, अनंत और अपराजित परमेश्वर को नमस्कार करता हूँ | सबके पूजनीय, जन्म और मरण से रहित, प्रभावशाली श्रीविष्णु को नमस्कार है, विष्णु मेरी बुद्धि में विराजमान हैं, विष्णु मेरे अहंकार में प्रतिष्ठित हैं और विष्णु मुझमें भी स्थित हैं | वे श्रीविष्णु ही चराचर प्राणियों के कर्मों के रूपमें स्थित हैं, उनके चिन्तन से मेरे पाप का विनाश हो | जो ध्यान करनेपर पापों का हरण करते हैं और भावना करनेसे स्वप्न में दर्शन देते हैं, इंद्र के अनुज, शरणागतजनों का दुःख दूर करनेवाले उन पापापहारी श्रीविष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ | मैं इस निराधार जगत में अज्ञानान्धकार में डूबते हुए को हाथका सहारा देनेवाले परात्परस्वरुप श्रीविष्णु के सम्मुख प्रणत होता हूँ | सर्वेश्वरेश्वर प्रभो ! कमलनयन परमात्मन ! हृषिकेश ! आपको नमस्कार है | इन्द्रियों के स्वामी श्रीविष्णो ! आपको नमस्कार हैं | नृसिंह ! अनंतस्वरुप गोविन्द ! समस्त भूत-प्राणियों की सृष्टि करनेवाले केशव ! मेरे द्वारा जो दुर्वचन कहा गया हो अथवा पापपूर्ण चिन्तन किया गया हो, मेरे उस पाप का प्रशमन कीजिये; आपको नमस्कार हैं | केशव ! अपने मन के वशमें होकर मैंने जो न करनेयोग्य अत्यंत उग पापपूर्ण चिन्तन किया है, उसे शांत कीजिये | परमार्थपरायण ब्राह्मणप्रिय गोविन्द ! अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होनेवाले जगन्नाथ ! जगतका भरण-पोषण करनेवाले देवेश्वर ! मेरे पापका विनाश कीजिये | मैंने मध्यान्ह, अपरान्ह, सायंकाल एवं रात्रि के समय, जानते हुए अथवा अनजाने, शरीर, मन एवं वाणी के द्वारा जो पाप किया हो, ‘पुण्डरीकाक्ष’, ‘हृषिकेश’, ‘माधव’ – आपके इन तीन नामों के उच्चारण से मेरे वे सब पाप क्षीण हो जायँ | कमलनयन लक्ष्मीपते ! इन्द्रियों के स्वामी माधव ! आज आप मेरे शरीर एवं वाणीद्वारा किये हुए पापों का हनन कीजिये | आज मैंने खाते, सोते, खड़े, चलते अथवा जागते हुए मन, वाणी और शरीर से जो भी नीच योनि एवं नरक की प्राप्ति करानेवाला सूक्ष्म अथवा स्थूल पाप किया हो, भगवान् वासुदेव के नामोच्चारण से वे सब विनष्ट हो जायँ | जो परब्रम्ह, परमधाम और परम पवित्र हैं, उन श्रीविष्णु के संकीर्तन से मेरे पाप लुप्त हो जायँ | जिसको प्राप्त होकर ज्ञानीजन पुन: लौटकर नहीं आते, जो गंध, स्पर्श आदि तन्मात्राओं से रहित हैं; श्रीविष्णु का वह परमपद मेरे पापों का शमन करे ||१-१८||
विष्णवे विष्णवे नित्यं विष्णवे विष्णवे नम: |
नमामि विष्णुं चित्तस्थमहंकारगतिं हरिम ||
चित्तस्थमीशमव्यक्तमनन्तमपराजितं |
विष्णुमीडयमशेषेण अनादिनिधनं विभुम ||
विष्णुक्षितगतो यन्मे विष्णुर्बुद्धिगतक्ष यत |
यव्वार्हकारगो विष्णुर्यद्विष्णुर्मयि संस्थित: ||
करोति कर्मभूतोऽसौ स्थावरस्य चरस्य च |
तत पापं नाशमायातु तस्मिन्नेव हिं चिन्तिते ||
ध्यातो हरति यत पापं स्वप्ने दृष्ट्स्तु भवनात |
तमुपेंद्रमहं विष्णुं प्रणतार्तीहरं हरिम ||
जगत्यस्मीन्निराधारे मज्जमाने तमस्बध: |
हस्तावलम्बनं विष्णुं प्रणमामि परात्परम ||
सर्वेश्वरेश्वर विभो परमात्मनंधोक्षज |
हृषिकेश हृषिकेश हृषिकेश नमोऽस्तु ते ||
नृसिंहानन्त गोविन्द भूतभावन केशव |
दुरक्त दुष्कृतं ध्यातं शमयाधं नमोऽस्तु ते ||
यन्मया चिन्तितं दुष्टं स्वचित्तवशवर्तिना |
अकार्य मह्रदत्पुग्रं वच्छमं नय केशव ||
ब्रह्मण्यदेव गोविन्द परमार्थपरायण |
जगन्नाथ जगद्धात: पापं प्रशमयाच्युत ||
यथापरान्हे सायान्हे मध्यान्हे च तथा निशि |
कायेन मनसा वाचा कृतं पापमजानता ||
जानता च हृषिकेश पुण्डरीकाक्ष माधव |
नामत्र्योच्चारणत: पापं यातु मम क्षयम ||
शरीरं में हृषिकेश पुण्डरीकाक्ष माधव |
पापं प्रशमयाद्य त्वं वाक्कृतं मम माधव ||
यद भुज्जन यत स्वपस्तिष्ठन गच्छन जाग्रद यदास्थित: |
कृतवान पापमध्यान्ह कायेन मनसा गिरा ||
यत स्वल्पमपि यत स्थूलं कुयोनिनरकावहम |
तद यातु प्रशमं सर्व वासुदेवानुकीर्तनात ||
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं च यत |
तस्मिन प्रकिर्तिते विष्णौ यत पापं तत प्रणश्यतु ||
यत प्राप्य न निवर्तन्ते गंधस्पर्शादिवर्जितम |
सूर्यस्तत पदं विष्णोस्तत सर्व शमषत्वयम ||
जो मनुष्य पापोंका विनाश करनेवाले इस स्तोत्र का पठन अथवा श्रवण करता हैं, वह शरीर, मन और वाणीजनित समस्त पापों से छुट जाता हैं एवं समस्त पापग्रहों से मुक्त होकर श्रीविष्णु के परमपद को प्राप्त होता है | इसीलिए किसी भी पाप के हो जानेपर इस स्तोत्र का जप करे | यह स्तोत्र पापसमूहों के प्रायश्चित्त के समान हैं | कृच्छ आदि व्रत करनेवाले के लिए भी यह श्रेष्ठ है | स्त्रोत-जप और व्रतरूप प्रायश्चित्त से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं | इसलिये भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिये इनका अनुष्ठान करना चाहिये ||१९-२१||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘समस्तपापनाशक स्तोत्रका वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||६६||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय-१७३ अनेकविध प्रायश्चित्तोंका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ! अब में ब्रह्माके द्वारा वर्णित पापोंका नाश करनेवाले प्रायश्चित बतलाता हूँ।
जिससे प्राणोंका शरीरसे वियोग हो जाय, उस कार्यको ‘हनन’ कहते हैं।
जो राग, द्वेष अथवा प्रमादवश दूसरेके द्वारा या स्वयं ब्राह्राणका वध करता हैं, वह ‘ब्रह्मघाती’ होता है।
यदि एक कार्यमें तत्पर बहुत-से शस्त्रधारी मनुष्योंमें कोई एक ब्राह्मणका वध करता है, तो वे सब-के-सब ‘घातक’ माने जाते हैं।
ब्राह्मण किसीके द्वारा निन्दित होनेपर, मारा जानेपर या बन्धनसे पीडीत होंने पर जिसके उद्देश्य से प्रागोंका परित्याग कर देता है, उसे ‘ब्रह्महत्यारा’ माना गया है।
औषधोंपचार आदि उपकार करनेपर किसीकी मृत्यु हो जाय तो उसे पाप नहीं होता।
पुत्र, शिष्य अथवा पत्नीको दण्ड देनेपर उनकी मृत्यु हो जाय, उस दशा में भी दोष नहीं होता। जिन पापोंसे मुक्त होने का उपाय नहीं बतलाया गया है, देश, काल, अवस्था, शकि और पाप का विचार करके यत्नपूर्वक प्रायश्चितकी व्यवस्था देनी चाहिये।
गौ अथवा ब्राह्राणके लिये तत्काल अपने प्राणोंका परित्याग कर दे, अथवा अग्निमें अपने शरीरकी आहुति दे डालें तो मनुष्य ब्रह्महत्याके पापसे मुक्त हो जाता है।
ब्रह्महत्यारा मृतकके सिरका कपाल और ध्वज लेकर भिक्षान्नका भोजन करता हुआ ‘मैंने ब्राह्मणका वध किया है’-इस प्रकार अपने पापकर्मको प्रकाशित करे। वह बारह वर्षतक नियमित भोजन करके शुद्ध होता है। अथवा शुद्धिके लिये प्रयत्न करनेवाला ब्रह्मघाती मनुष्य छ: वर्षोंमें ही पवित्र हो जाता है।
अज्ञानवश पापकर्म करनेवालोंकी अपेक्षा जान-बूझकर पाप करनेवाले के लिये दुगुना प्रायश्चित विहित है।
ब्राह्राणके वधमें प्रवृत होनेपर तीन वर्षतक प्रायश्चित्त करे। ब्रह्मघाती क्षत्रियको दुगुना तथा वैश्य एवं शूद्रको छ:गुना प्रायश्चित करना चाहिये। अन्य पापोंका ब्राह्राणको सम्पूर्ण, क्षत्रियेको तीन चरण, वैश्यको आधा और शूद्र, वृद्ध, स्त्री, बालक एवं रोगीकों एक चरण प्रायश्चित करना चाहिये ॥ १-११ ॥
क्षत्रियका वध क्ररनेपर ब्रह्महत्याका एकपाद, वैश्य का वध करने पर आष्टमांश और सदाचारपरायण शूद्रका वध करनेपर षोड़शांश प्रायश्चित माना गया है।
सदाचारिणी स्त्रीकी हत्या करके शूदहत्याका प्रायश्चित करे।
गोहत्यारा संयतचित्त होकर एक मासतक गोशालामें शयन करे, गौओंका अनुगमन करे और पञ्चगव्य पीकर रहे। फिर गोदान करनेसे वह शुद्ध हो जाता है। ‘कृच्छू’ अथवा ‘अतिकृच्छू’ कोई भी व्रत हो, क्षत्रियोंकी उसके तीन चरणोंका अनुष्ठान करना चाहिये।
अत्यन्त बूढ़ी, अत्यंत कृश, बहूत छोटी उम्रवाली अथवा रोगिणी स्त्रीकी हत्या करके द्विज पूर्वोक्त विधिके अनुसार ब्रह्महत्याका आधा प्रायश्चित्त करे। फिर ब्राह्मणोंको भोजन करायें और यथाशक्ति तिल एवं सुवर्णका दान करे।
मुक्के या थप्पड़के प्रहारसे सींग तोड़नेसे और लाठी आदिसे मारनेपर यदि गौ मर जाय तो उसे ‘गोवध’ कहा जाता है।
मारने, बाँधने, गाड़ी आदिमें जोतने, रोकने अथवा रस्सीका फंदा लगानेसे गौकी मृत्यु हो जाय तो तीन चरण प्रायश्चित करे।
काठसे गोवध करनेवाला ‘सांतपनव्रत’, ढेलेसे मारनेवाला ‘प्रजापत्य’, पत्थरसे हत्या करनेवाला ‘तप्तकृच्छू’ और शस्त्रसे वध करनेवाला अतिकृच्छ करे।
बिल्ली, गोह, नेवला, मेढक, कुत्ता अथवा पक्षीकी हत्या करके तीन दिन दूध पीकर रहे; अथवा ‘प्रजापत्य’ या ‘चान्द्रायण’ व्रत करे॥ १२-१९ ॥
गुप्त पाप होनेपर गुप्त और प्रकट पाप होनेपर प्रकट प्रायश्चित करें। समस्त पापोंके विनाशके लिये सौ प्राणायाम करे।
कटहल, द्राक्षा, महुआ, खजूर, ताड़, ईख और मुनक्केका रस तथा टंकमाध्वीक, मैंरेय और नारियलका रस-ये मादक होते हुए भी मद्य नहीं हैं। पैटी ही मुख्य सुरा मानी गयी है। ये सब मदिराएँ द्विजोंके लिये निषिद्ध हैं।
सुरापान करनेवाला खौलता हुआ जल पीकर शुद्ध होता है। अथवा सुरापान के पापसे मुक्त होनेके लिये एक वर्षतक जटा एवं ध्वजा धारण किये हुए वनमें निवास करे। नित्य रात्रिके समय एक वार चावलके कण या तिलकी ख़लीका भोजन करे।
अज्ञानवश मल-मूत्र अथवा मदिरासे छूये हुए पदार्थका भक्षण करके ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-तीनों वणोंके लोग पुन: संस्कारके योग्य हो जाते हैं।
सुरापात्रमें रखा हुआ जल पीकर सात दिन व्रत करे। चाण्डालका जल पीकर छ: दिन उपवास रखें तथा चाण्डालोंके कुएँ अथवा पात्रका पानी पीकर सांतपन-व्रत करें। अन्यजका जल पीकर द्विज तीन रात उपवास रखकर पञ्चगव्य का पान करें।
नवीन जल्न या जलके साथ मत्स्य, कण्टक, शम्बूक, शङ्ख, सीप और कौड़ी पीनेपर पञ्चगव्यका आचमन करनेसे शुद्धि होती है।
शवयुक्त कूपका जल पीनेपर मनुष्य ‘त्रिरात्रव्रत’ करनेसे शुद्ध होता है।
चाण्डालका अन्न खाकर ‘चान्द्रायणव्रत” करे ।
आपत्कालमें शूद्रके घर भोजन करनेपर पश्चातापसे शुद्धि हो जाती है। शूद्रके पानमें भोजन करनेवाला ब्राह्मण उपवास करके पञ्चगव्य पीनेसे शुद्ध होता है।
कन्दुपक्क (भूजा), स्नेहपक्क (घी-तैलमें पके पदार्थ), घी-तैल, दही, सत्तू, गुड़, दूध और रस आदि-ये वस्तुएँ शूद्रके घरसे ली जाने पर भी निन्दित नहीं हैं।
विना स्नान किये भोजन करनेवाला एक दिन उपवास रखकर दिनभर जप करनेसे पवित्र होता है।
मूत्र-त्याग करके अशौच अवस्थामें भोजन करनेपर त्रिरात्रव्रतसे शुद्धि होती है।
केश एवं कीटसे युक्त, जान-बूझकर पैरसे छुआ हुआ, भ्रूणधातीका देखा हुआ, सजस्वला स्त्रीका छूआ हुआ, कौए आदि पक्षियोंका जूठा किया हुआ, कुतेका स्पर्श किया हुआ अथवा गौका सूंघा हुआ अन्न खाकर तीन दिन उपवास करे।
वीर्य, मल या मूत्रका भक्षण करने पर ‘प्राजापत्य-व्रत’ करे।
नवश्राद्धमें ‘चान्द्रायण’ मासिक श्राद्धमें पराकव्रत, त्रिपाक्षिक श्राद्धमें ‘अतिकृच्छू’, षाणमासिक श्राद्धमें ‘प्रजापत्य’ व्रत करे। पहले और दूसरे दोनों दिन वार्षिक श्राद्ध हो तो दुसरे वार्षिक श्राद्धमेंएक दिनका उपवास करे।
निषिद्ध वस्तुका भक्षण करनेपर उपवास करके प्रायश्चित करे।
भूतृण (छत्राक), लहसुन और शिग्रुकू (श्वेत मरिच) खा लेनेपर ‘एकपाद प्राजापत्य” करे।
अभोज्यान्न, शूद्रका अन्न, स्त्री एवं शूद्रका उच्छिष्ट या अभक्ष्य मांसका भक्षण करके सात दिन केवल दूध पीकर रहे।
जो ब्रह्मचारी, संन्यासी अथवा व्रतस्थ द्विज मधु, मांस या जननाशौच एवं मरणाशौचका अन्न भोजन कर लेता है, वह ‘प्राजापत्य-कृच्छू’ करे॥ २०-३९।
अन्यायपूर्वक दूसरेका धन हड़प लेनेको ‘चोरी’ कहते हैं।
सुवर्णकी चोरी करनेवाला राजाके द्वारा मूसलसे मारे जानेपर शुद्ध होता है।
सुवर्णकी चोरी करनेवाला, सुरापान करनेवाला, ब्रह्राधाती और गुरुपत्नीगामी बारह वर्षतक भूमिपर शयन और जटा धारण करे। वह एक समय केवल पते और फल-मूलका भोजन करनेसे शुद्ध होता है।
चोरी अथवा सुरापान करके एक वर्षतक ‘प्राजापत्य-व्रत’ करे।
मणि, मोती, मूंगा, ताँवा, चाँदी, लोहा, काँसा और पत्थरकी चोरी करनेवाला बारह दिन चावल के कण ख़ाकर रहें।
तालाबका अपहरण करनेपर ‘चान्द्रायण-व्रत’ से शुद्धि मानी गयी हैं।
भक्ष्य एवं भोज्य पदार्थ, सवारी, शय्या, आसन, पुष्प, मूल अथवा फलकी चोरी करनेवाला पञ्चगव्य पीकर शुद्ध होता है।
तृण, काष्ठ, वृक्ष, सूखा अन्न, गुड़, वस्त्र, चर्म या मांस चुरानेवाला तीन दिन निराहार रहे।
सौतेली माँ बहन, गुरुपुत्री, गुरुपत्नी और अपनी पुत्रीसे समागम करनेवाला ‘गुरुपत्नीगामी’ माना गया है।
गुरुपत्नीगमन करनेपर अपने पापकी धोषणा करके जलते हुए लोहेकी शय्यापर तप्त-लौहमयी स्त्रीका आलिंगन करके प्राणत्याग करनेसे शुद्ध होता है। अथवा गुरुपत्नीगामी तीन मासतक’चान्द्रायण-व्रत’ करे। पतित स्त्रियोंके लिये भी इसी प्रायश्चितका विधान करे। पुरुषको परस्त्रीगमन करेनपर जो प्रायश्चित बतलाया गया है, वहीं उनसे करावे । कुमारी कन्या, चाण्डाली, पुत्री और अपने सपिण्ड तथा पुत्रकी पत्नीमें वीर्यसेचन करनेवालेको प्राणत्याग कर देना चाहिये। द्विज एक रात शुद्राका सेवन करके जो पाप संचित करता है, वह तीन वर्षतक नित्य गायत्री-जप एवं भिक्षान्नका भोजन करनेसे नष्ट होता है।
चाची, भाभी, चाण्डाली, पुक्कसी, पुत्रवधू, बहन, सखी, मौसी, बुआ, निक्षिता (धरोहरके रूपमें रखी हुई) शरणागत, मामी, सगोत्रा बहिन, दूसरेको चाहनेवाली स्त्री, शिष्यपत्नी अथवा गुरुपत्नीसे गमन करके, ‘चान्द्रायण-व्रत’ करे ॥ ४०-५४ ॥
एक सौ तिहतरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७३ ॥
अध्याय-१७४ प्रायश्चित्तोंका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं– देव-मन्दिरके पूजन आदिका लोप करनेपर प्रायश्चित करना चाहिये। पूजाका लोप करनेपर एक सौ आठ बार जप करे और दुगुनी पूजाकी व्यवस्था करके पञ्चोंपनिषद मन्त्रोंसे पूजन एवं ब्राह्मण-भोजन कराये।
होमका नियम भङ्ग होनेपर होम, स्नान और पूजन करे। होमद्रव्यको चूहे आदि खा लें या वह कीटयुक्त हो जाय, तो उतना अंश छोड़कर तथा शेष द्रव्यका जलसे प्रोक्षण करके देवताओंका पूजन करे।
भले ही अङ्कुरमात्र अर्पण करे, परंतु छिन्न-भिन्न द्रव्यका बहिष्कार कर दे।
अस्पृश्य मनुष्योंका स्पर्श हो जानेपर पूजा-द्रव्यको दूसरे पात्रमें रख दे।
पूजा के समय मन्त्र अथवा द्रव्यकी त्रुटि होनेपर दैव एवं मानुष विध्नोंका विनाश करनेवाले गणपतिके बीज-मन्त्रका जप करके पुनः पूजन करे।
देव-मन्दिरका कलश नष्ट हो जानेपर सौ बार मन्त्र-जप करे।
देवमूर्तिके हाथसे गिरने एवं नष्ट हो जाने पर उपवासपूर्वक अग्निमें सौ आहुतियाँ देनेसे शुभ होता है। जिस पुरुषके मनमें पाप करनेपर पश्चाताप होता हैं, उसके लिये श्रीहरिका स्मरण ही परम प्रायश्चित है।
चान्द्रायण, पराक एवं प्राजापत्य-व्रत पापसमूहोंका विनाश करनेवाले हैं।
सूर्य, शिव, शक्ति और विष्णुके मन्त्रका जप भी पापोंका प्रशमन करता है।
गायत्री, प्रणव, पापप्रणाशनस्तोंत्र एवं मन्त्रका जप पापोंका अन्त करनेवाला हैं।
सूर्य, शिव, शक्ति और विष्णुके ‘क’ से प्रारम्भ होनेवाले, ‘रा” बीजसे संयुक्त, रादि आदि और रान्त मन्त्र करोड़गुना फल देनेवाले हैं। इनके सिवा ‘ॐ क्लीं” से प्रारम्भ होनेवाले चतुर्थ्यन्त एवं अन्तमें “नमः” संयुक्त मन्त्र सम्पूर्ण कामनाओंको सिद्ध करनेवाले हैं।
नृसिंह भगवानके द्वादशाक्षर एवं अष्टाक्षर मन्त्रका जप पापसमूहोंका विनाश करता है।
अग्निपुराणका पठन एवं श्रवण करनेसे भी मनुष्य समस्त पापसमूहोंसे छूट जाता है। इस पुराणमें अग्निदेवका माहात्म्य भी वर्णित है।
परमात्मा श्रीविष्णु ही मुखस्वरूप अग्निदेव हैं, जिनका सम्पूर्ण वेदोंमें गान किया गया है। भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले उन परमेश्वरका प्रवृति और निवृति-मार्गसे भी पूजन किया जाता है।
अग्निरूपमें स्थित श्रीविष्णुके उद्देश्यसे हवन, जप, ध्यान, पूजन, स्तवन एवं नमस्कार शरीरसम्बन्धी सभी पापोंका विध्वंस करनेवाला है।
दस प्रकार के स्वर्णदान, बारह प्रकारके धान्यदान, तुलापुरुष आदि सोलह महादान एवं सर्वश्रेष्ठ अन्नदान-ये सब महापापोंका अपहरण करनेवाले हैं।
तिथि, वार, नक्षत्र, संक्रान्ति, योग, मन्वन्तरारम्भ आदिके समय सूर्य, शिव, शक्ति तथा विष्णुके प्रशमन करते हैं।
गङ्गा, गया, प्रयाग, अयोध्या, उज्जैन, कुरुक्षेत्र, पुष्कर, नैमिषारण्य, पुरुषोत्तमक्षेत्र, शालग्राम, प्रभासक्षेत्र आदि तीर्थ पापसमूहोंकी विनष्ट करते हैं।
‘मैं परम प्रकाशस्वरूप बल हूँ-इस प्रकारकी धारणा भी पापोंका विनाश करनेवाली है।
ब्रह्मपुराण, अग्निपुराण, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, भगवानके अवतार, समस्त देवताओकी प्रतिमा-प्रतिष्ठा एवं पूजन, ज्यौतिष, पुराण, स्मृतियाँ, तप, व्रत, अर्थशास्त्र, सृष्टिके आदितत्त्व, आयुर्वेद, धनुर्वेद, शिक्षा, छन्दः-शास्त्र, व्याकरण, निरुक्त, कोष, कल्प, न्याय, मीमांसा-शास्त्र एवं अन्य सब कुछ भी भगवान् श्रीविष्णुकी विभूतियाँ हैं। वे श्रीहरि एक होते हुए भी सगुण-निर्गुण दो रूपोंमें विभक्त एवं सम्पूर्ण संसारमें संनिहित हैं। जो ऐसा जानता है, श्रीहरि-स्वरूप उन महापुरुषका दर्शन करनेसे दूसरोंके पाप विनष्ट हो जाते हैं।
भगवान् श्रीहरि ही अष्टादश विद्यारूप, सूक्ष्म, स्थूल, सच्चित्त-स्वरूप, अविनाशी परब्रह्म एवं निष्पाप विष्णु हैं। १-२४ ॥
एक सौ चौहतरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७४ ॥
अध्याय-१७५ व्रतके विषयमें अनेक ज्ञातव्य बातें
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठजी! अब मैं तिथि, वार्, नक्षत्र, दिवस, मास, ऋतु, वर्षं तथा सूर्व-संक्रान्तिके अवसरपर होनेवाले स्त्री-पुरुषसम्बन्धी व्रत आदिका क्रमशः वर्णन करूंगा, ध्यान देकर सुनिये- ॥ १॥
शास्त्रोक्त नियमकों ही ‘व्रत’ कहते हैं, वहीं ‘तप’ माना गया है। ‘दम’ (इन्द्रियसयम) और “शम’ (मनोनिग्रह) आदि विशेष नियम भी व्रतके ही अङ्ग हैं।
व्रत करनेवाले पुरुषको शारीरिक संताप सहन करना पड़ता हैं, इसलिये व्रतकों ‘ तप’ नाम दिया गया हैं। इसी प्रकार व्रतमें इन्द्रियसमुदायका नियमन (संयम) करना होता है, इसलिये उसे ‘नियम’ भी कहते हैं।
जो ब्राह्मण या द्विज (क्षत्रिय-वैश्य) अग्निहोत्री नहीं हैं, उनके लिये व्रत, उपवास, नियम तथा नाना प्रकार के दानोंसे कल्याणकी प्राप्ति बतायी गयी है ॥ २-४ ॥
उक्त व्रत-उपवास आदिके पालनसे प्रसन्न होकर देवता एवं भगवान् भोग तथा मोक्ष प्रदान करते हैं।
पापोंसे उपावृत (निवृत) होकर सब प्रकारके भोगोंका त्याग करते हुए जो सद्गुणोंके साथ वास करता है, उसीको ‘उपवास’ समझना चाहिये।
उपवास करनेवाले पुरुषको काँसेके बर्तन, मांस, मसूर, चना, कोदो, साग, मधु, पराये अन्न तथा स्त्री-सम्भोगका त्याग करना चाहिये।
उपवासकालमें फूल, अलंकार, सुन्दर वस्त्र, धुप, सुगन्ध, अंगराग, दांत धोनेके लिये मज्जन तथा दाँतौन-इन सब वस्तुओंका सेवन अच्छा नहीं माना गया है।
प्रात:काल जलसे मुँह धो, कुल्ला करके, पञ्चगव्य लेकर व्रत प्रारम्भ कर देना चाहिये ॥ ५-९ ॥
अनेक बार जल पीने, पान खाने, दिनमें सोने तथा मैथुन करनेसे उपवास (व्रत) दुषित हो जाता है।
क्षमा, सत्य, दया, दान, शौच, इन्द्रियसंयम, देवपूजा, अग्निहोत्र, संतोष तथा चोरीका अभाव-ये दस नियम सामान्यत: सम्पूर्ण व्रतोंमें आवश्यक माने गये हैं।
ब्रतमें पवित्र ऋचाओंको जपे और अपनी शक्तिके अनुसार हवन करे। व्रती पुरुष प्रतिदिन स्नान तथा परिमित भोजन करे। गुरु, देवता तथा ब्राह्मणोंका पूजन किया करे। क्षार, शहद, नमक, शराब और मांसको त्याग दे। तिल-मुंग आदिके अतिरिक्त धान्य भी त्याज्य हैं। धान्य (अन्न)-में उड़द, कोदो, चीना, देवधान्य, शमीधान्य, गुड़, शितधान्य, पय तथा मूली-ये क्षारगण माने गये हैं। व्रतमें इनका त्याग कर देना चाहिये।
धान, साठींका चावल, मूँग, मटर, तिल, जौ, साँवाँ, तिन्नीकी चावल और गेहूँ आदि अन्न व्रतमें उपयोगी हैं।
कुम्हड़ा, लौकी, बैंगन, पालक तथा पूतिकाको त्याग दे।
चरु, भिक्षामें प्राप्त अन्न, सत्तूके दाने, साग, दही, घी, दूध, साँवाँ, अगहनीका चावल, तिन्त्रीका चावल, जौका हलुवा तथा मूल-तण्डुल-ये ‘हविष्य’ माने गये हैं। इन्हें व्रतमें, नक्तत्रतमें तथा अग्निहोंनमें भी उपयोगी बताया गया है।
मांस, मदिरा आदि अपवित्र वस्तुओंकों छोड़कर सभी उत्तम वस्तुएँ व्रतमें हितकर हैं।॥ १०-१७ ॥
‘प्रजापत्यव्रत’का अनुष्ठान करनेवाला द्विज तीन दिन केवल प्रात:काल और तीन दिन केवल संध्याकालमें भोजन करे। फिर तीन दिन केवल बिना माँगे जो कुछ मिल जाय, उसीका दिनमें एक समय भोजन करे; उसके बाद तीन दिनोंतक उपवास करके रहे। (इस प्रकार यह बारह दिनोंका व्रत है।) इसी प्रकार ‘अतिकृच्छुव्रत’का अनुष्ठान करनेवाला द्विज पूर्ववतू तीन दिन प्रातःकाल, तीन दिन सायंकाल और तीन दिनोंतक बिना माँगे प्राप्त हुए अन्नका एक-एक ग्रास भोजन करे तथा अन्तिम दिनोंमें उपवास करे।
गायका मूत्र, गोवर, दूध, दही, घी तथा कुशका जल-इन सबको मिलाकर प्रथम दिन पीये। फिर दूसरे दिन उपवास करे-यह ‘सांतपनकृच्छू’ नामक व्रत है। उपर्युक्त द्रव्योंका पृथक्-पृथक् एक-एक दिनके क्रमसे छ: दिनोंतक सेवन करके सातवें दिन उपवास करें-इस प्रकार यह एक सप्ताहका व्रत महासांतपन-कृच्छु कहलाता हैं, जों पापोंका नाश करनेवाला हैं।
लगातार बारह दिनोंके उपवाससे संपन्न होनेवाला व्रतको “पराक’ कहते हैं। यह सब पापोंका नाश करनेवाला है। इससे तिगुने अर्थात् छतीस दिनोंतक उपवास करनेपर यही व्रत ‘महापराक’ कहलाता हैं।
पूर्णिमाको पंद्रह ग्रास भोजन करके प्रतिदिन एक-एक ग्रास घटाता रहे; अमात्रास्याको उपवास करे तथा प्रतिपदाको एक ग्रास भोजन आरम्भ करके नित्य एक-एक ग्रास बढ़ाता रहे, इसे ‘चान्द्रायण’ कहते हैं। इसके विपरीतक्रमसे भी यह व्रत किया जाता है। (जैसे शुक्ल प्रतिपदाको एक ग्रास भोजन करे; फिर एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए पूर्णिमाको पंद्रह ग्रास भोजन करे। तत्पश्चात् कृष्ण प्रतिपदासे एक-एक ग्रास घटाकर अमावास्याको उपवास करें.) ॥ १८-१३ ॥
कपिला गायका मूत्र एक पल, गोबर अंगूठेके आधे हिस्सेके बराबर. दूध सात पल, दही दो पल, घी एक पल तथा कुशका जल एक पल एक में मिला दें। इनका मित्रण करते समय गायत्री-मन्त्रसे गोमूत्र डाले।”गन्धद्वारां दुराधषf०’ (श्रीसूक्त) इस मन्त्रसे गोबर मिलाये।’आप्यायस्व०’ (यजु० १२ ॥ ११२) इस मन्त्रसे दूध डाल दे। “दधि क्राव्णो०’ (यजु४० २३ ।। ३२) इस मन्त्रसे दहीं मिलाये । ‘तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि०’ (यजु० १२। १) इस मन्त्रसे घी डाले तथा ‘देवस्य०’ (यजु० २० ॥ ३) इस मन्त्रसे कुशोदक मिलाये। इस प्रकार जो वस्तु तैयार होती है, उसका नाम ‘ब्रह्राकूर्च’ है।
ब्रह्राकूर्च तैयार होनेपर दिनभर भूखा रहकर सायंकालमें अधमर्षण-मन्त्र अथवा प्रणवके साथ ‘आपो हि ष्ठा०” (यजु० ११।५०) इत्यादि ऋचाओंका जप करके उसे पी डाले। ऐसा करनेवाला सब पापोंसे मुक्त हो विष्णुलोकमें जाता है।
दिनभर उपवास करके केवल सायंकालमें भोजन करनेवाला दिनके आठ भागोंमेंसे केवल छठे भागमें आहार ग्रहण करनेवाला संन्यासी, मांसत्यागी, अश्वमेधमज्ञ करनेवाला तथा सत्यवादी पुरुष स्वर्गको जाते हैं।
अग्न्याधान, प्रतिष्ठा, यज्ञ, दान, व्रत, देवव्रत, वृषोत्सर्ग, चूडाकरण, मेखलाबन्ध (यज्ञोपवीत), विवाह आदि माङ्गलिक कार्य तथा अभिषेक-ये सब कार्य मलमास में नहीं करने चाहिये ॥ २४-३० ॥
अमावायासे अमावास्यातकका समय ‘चान्द्रमत’ कहलाता है।
तीस दिनोंका ‘सावन मास माना गया है।
संक्रान्तिसे संक्रान्तिकालतक ‘सौरमास’ कहलाता है
क्रमसे सम्पूर्ण नक्षत्रोंके परिवर्तनसे ‘नाक्षत्रमास’ होता है।
विवाह आदिमें ‘सौरमास’, यज्ञ आदिमें ‘सावन मास’ और वार्षिक श्राद्ध तथा पितृकार्यमें ‘चान्द्रमास’ उत्तम माना गया है।
आषाढ़की पूर्णिमाके बाद जो पाँचवाँ पक्ष आता है, उसमें पितरोंका श्राद्ध अवश्य करना चाहिये। उस समय सूर्य कन्याराशिपर गये हैं या नहीं, इसका विचार श्राद्धके लिये अनावश्यक है।॥ ३१-३३ ॥
मासिक तथा वार्षिक व्रतमें जब कोई तिथि दो दिनकी हो जाय तो उसमें दूसरे दिनवाली तिथि उत्तम जाननी चाहिये और पहली को मलिन।
‘नक्षत्रव्रत’में उसी नक्षत्रको उपवास करना चाहिये, जिसमें सूर्य अस्त होते हो।
‘दिवसव्रत’ में दिनन्यापिनीं तथा ‘नक्तव्रत’में रात्रिव्यापिनी तिथियाँ पुण्य एवं शुभ मानी गयी हैं।
द्वितीयाके साथ तृतीयाका, चतुर्थी-पश्चमीका, षष्टिके साथ सप्तमीका, अष्टमी-नवमीका, एकादशीके साथ द्वादशीका, चतुर्दशीके साथ पूर्णिमाका तथा अमावास्याके साथ प्रतिपदाका वेध उत्तम हैं। इसी प्रकार षष्ठी-सप्तमी आदिमें भी समझना चाहिये। इन तिथियोंका मेल महान् फल देनेवाला है। इसके विपरीत, अर्थात प्रतिपदासे द्वितीयाका, तृतीयासे चतुर्थी आदिका जो युग्मभाव हैं, वह बड़ा भयानक होता है, वह पहलेके किये हुए समस्त पुण्यको नष्ट कर देता है।॥ ३४-३७ ॥
राजा, मन्त्री तथा व्रतधारी पुरुषोंके लिये विवाहमें, उपद्रव आदिमें, दुर्गम स्थानोंमें, संकटके समय तथा युद्धके अवसरपर तत्काल शुद्धि बतायीं गयी हैं।
जिसने दीर्घकालमें समाप्त होनेवाले व्रतकी आरम्भ किया है, वह स्त्री यदि बीच में रजस्वला हो जाय तो वह रज़ उसके ब्रतमें बाधक नहीं होता।
गर्भवती स्त्री, प्रसव-गृहमें पड़ी हुई स्त्री अथवा रजस्वला कन्या जब अशुद्ध होकर व्रत करनेयोग्य न रह जाय तो सदा दूसरेसे उस शुभ कार्यका सम्पादन कराये।
यदि क्रोधसे, प्रमादसे अथवा लोभसे व्रत-भंग हो जाय तो तीन दिनोंतक भोजन न करे अथवा मुँड़ मुँड़ा ले। यदि व्रत करनेमें असमर्थता हो तो पत्नी या पुत्रसे उस व्रतको करावे ।
आरम्भ किये हुए व्रतका पालन जननाशौच तथा मरणाशौचमें भी करना चाहिये। केवल पूजनका कार्य बंद कर देना चाहिये।
यदि व्रती पुरुष उपवासके कारण मूर्चिछत हो जाय तो गुरु दूध पिलाकर या और किसी उत्तम उपायसे उसे होशमें लाये।
जल, फल, मूल, दूध, हविष्य (घी), ब्राह्मणकी इच्छापूर्ति, गुरुका वचन तथा औषध-यें आठ व्रतके नाशक नहीं है ॥३८-४३ ॥
(व्रती मनुष्य व्रतके स्वामी देवतासे इस प्रकार प्रार्थना करें-)
“व्रतपतें! मैं कीर्ति, संतान विद्या आदि, सौभाग्य, आरोग्य, अभिवृद्धि, निर्मलता तथा भोग एवं मोक्षके लिये इस व्रतका अनुष्ठान करता हूँ। यह श्रेष्ठ व्रत मैंने आपके समक्ष ग्रहण किया है।
जगत्पतें! आपके प्रसादसे इसमें निर्विघ्न सिद्धि प्राप्त हो। संतोके पालक! इस श्रेष्ठ व्रतको ग्रहण करनेके पश्चात् यदि इसकी पूर्ति हुए बिना ही मेरी मृत्यु हो जाय तो भी आपके प्रसन्न होनेसे वह अवश्य ही पूर्ण हो जाय। केशव! आप व्रतस्वरूप हैं, संसारकी उत्पति के स्थान एवं जगतको कल्याण प्रदान करनेवाले हैं; मैं सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धिके लिये इस मण्डलमें आपका आवाहन करता हूँ। आप मेरे समीप उपस्थित हों। मन द्वारा प्रस्तुत किये हुये पञ्चगव्य, पञ्चामृत तथा उत्तम जलके द्वारा मैं भक्तिपूर्वक आपको स्नान कराता हूँ। आप मेंरे पापोंके नाशक हों। अर्ध्यपते! गन्ध, पुष्प और जलसे युक्त उत्तम अर्ध्य एवं पाद्य ग्रहण कीजिये, आचमन कीजिये तथा मुझे सदा अर्घ (सम्मान) पानेके योग्य बनाइये। वस्त्रपतें! ब्रतोंके स्वामी ! यह पवित्र वस्त्र ग्रहण कीजिये और मुझे सदा सुन्दर वस्त्र एवं आभूषणों आदिसे आच्छादित किये रहिये। गन्धस्वरूप परमात्मन्! यह परम निर्मल उत्तम सुगन्धसे युक्त चन्दन लीजिये तथा मुझे पापकी दुर्गन्धसे रहित और पुण्यकी सुगन्धसे युक्त कीजिये। भगवन्! यह पुष्प लीजिये और मुझे सदा फल-फूल आदिसे परिपूर्ण बनाइये। यह फूलकी निर्मल सुगन्ध आयु तथा आरोग्यकी वृद्धि करनेवाली हो। संतोंके स्वामी! गुग्गुल और घी मिलाये हुए इस दशाङ्ग धूपको ग्रहण कीजिये। धूपद्वारा पूजित परमेश्वर! आप मुझे उत्तम धूपकी सुगन्धसे सम्पन्न कीजिये। दीपस्वरूप देव! सबको प्रकाशित करनेवाले इस प्रकाशपूर्ण दीपको, जिसकी शिखा ऊपरकों और उठ रही हैं, ग्रहण कीजियें और मुझे भी प्रकाशयुक्त एवं ऊर्ध्वगति (उन्नतिशील एवं ऊपरके लोकोंमें जानेवाला) बनाइये। अन्न आदि उत्तम वस्तुओंके अधीश्वर! इस अन्न आदि नैवेद्यको ग्रहण कीजिये और मुझे ऐसा बनाईये जिससे मैं अन्न आदि वैभवसे सम्पन्न, अन्नदाता एवं सर्वस्वदान करनेवाला हो सकूं। प्रभो! व्रतके द्वारा आराध्य देव! मैंने मन्त्र, विधि तथा भक्तिके बिना ही जो आपका पूजन किया है, वह आपकी कृपासे परिपूर्ण-सफल हो जाय। आप मुझे धर्म, धन, सौभाग्य, गुण, संतति, कीर्तिं, विद्या, आयु, स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करें। व्रतपते ! प्रभो! आप इस समय मेंरे द्वारा की हुई इस पूजा को स्वीकार करके पुन: यहाँ पधारने और वरदान देनेके लिये अपने स्थानको जाये’ ॥ ४४-५८॥
सब प्रकारके व्रतोंमें व्रतधारी पुरुषको उचित है कि वह स्नान करके ब्रत-सम्बन्धी देवताकों स्वर्णमयी प्रतिमाका यथाशक्ति पूजन करे तथा रातको भूमिपर सोये। व्रतके अन्तमें जप, होम और दान सामान्य कर्तव्य है। साथ ही अपनी शक्तिके अनुसार चौबीस, बारह, पाँच, तीन अथवा एक ब्राह्राणकी एवं गुरुजनोंकी पूजाकरके उन्हें भोजन करावे और यथाशक्ति सबको पृथक्- पृथक् गौ, सुवर्ण आदि. खड़ाऊँ, जूता, जलपात्र, अन्नपात्र, मृत्तिका, छत्र, आसन, शय्या, दो वस्त्र और कलश आदि वस्तुएँ दक्षिणामें दे।
इस प्रकार यहाँ ‘व्रत’की परिभाषा बतायी गयी है।॥ ५९-६२ ॥
एक सौ पचहतरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७५ ॥
अध्याय -१७६ प्रतिपदा तिथि के व्रत
अग्निदेव कहते हैं – अब मैं आपसे प्रतिपद आदि तिथियों के व्रतों का वर्णन करूँगा, जो सम्पूर्ण मनोरथों को देनेवाले हैं | कार्तिक, आश्विन और चैत्र मास में कृष्णपक्ष की प्रतिपद ब्रहमाजी की तिथि है | पूर्णिमा को उपवास करके प्रतिपद को ब्रह्माजी का पूजन करे | पूजा ‘ॐ तत्सदब्रह्मणे नम: |’ – इस मंत्रसे अथवा गायत्री-मंत्रसे करनी चाहिये | यह व्रत एक वर्षतक करे | ब्रह्माजी के सुवर्णमय विग्रह का पूजन करे, जिसके दाहिने हाथों में स्फटिकाक्ष की माला और स्त्रुवा हो तथा बाये हाथों में स्त्रुक एवं कमण्डलु हो | साथ ही लंबी दाढ़ी और सिरपर जटा भी हो | यथाशक्ति दूध चढ़ावे और मनमें यह उद्देश्य रखे कि ‘ब्रह्माजी मुझपर प्रसन्न हो |’ यों करनेवाला मनुष्य निष्पाप होकर स्वर्ग में उत्तम भोग भोगता हैं और पृथ्वीपर धनवान ब्राह्मण के रूपमें जन्म होता है ||१-४||
अब ‘धन्यव्रत’ का वर्णन करता हूँ | इसका अनुष्ठान करने से अधन्य भी धन्य हो जाता है | पहले मार्गशीर्ष मास की प्रतिपद को उपवास करके रातमें ‘अग्नये नम: |’ – इस मंत्रसे होम और अग्नि की पूजा करे | इसीप्रकार एक वर्षतक प्रत्येक मास की प्रतिपद को अग्निकी आराधना करने से मनुष्य सब सुखों का भागी होता है |
प्रत्येक प्रतिपदाको एकभुक्त (दिन में एक समय भोजन करके) रहे | सालभर में व्रत की समाप्ति होनेपर ब्राह्मण कपिला गौ दान करे | ऐसा करनेवाला मनुष्य ‘वैश्वानर’ पदको प्राप्त होता है | यह ‘शिखिव्रत’ कहलाता हैं ||५-७||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘प्रतिपद-व्रतों का वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१७७ द्वितीया तिथि के व्रत
अग्निदेव कहते हैं – अब मैं द्वितीया के व्रतों का वर्णन करूँगा, जो भोग और मोक्ष आदि देनेवाले है | प्रत्येक मास की द्वितीया को फुल खाकर रहे और दोनों अश्विनीकुमार नामक देवताओं की पूजा करे | एक वर्षतक इस व्रतके अनुष्ठान से सुंदर स्वरुप एवं सौभाग्य की प्राप्ति होती है और अन्तमें व्रती पुरुष स्वर्गलोक का भागी होता है | कार्तिक में शुक्ल पक्ष की द्वितीया को यम की पूजा करे | फिर एक वर्षतक प्रत्येक शुक्ल-द्वितीया को उपवासपूर्वक व्रत रखे | ऐसा करनेवाला पुरुष स्वर्ग में जाता है, नरक में नहीं पड़ता ||१-२||
अब ‘अशून्य–शयन’ नामक व्रत बतलाता हूँ, जो स्त्रियों को अवैधव्य (सदा सुहाग) और पुरुषों को पत्नी-सुख आदि देनेवाला है | श्रावण मासके कृष्णपक्ष की द्वितीया को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिये | (इस व्रत में भगवान् से इसप्रकार प्रार्थना की जाती हैं ) – ‘वक्ष:स्थल में श्रीवत्स चिन्ह धारण करनेवाले श्रीकांत ! आप लक्ष्मीजी के धाम और स्वामी हैं; अविनाशी एवं सनातन परमेश्वर हैं | आपकी कृपासे धर्म, अर्थ और काम प्रदान करनेवाला मेरा गार्हस्थ्य-आश्रम नष्ट न हो | मेरे घरके अग्निहोत्र की आग कभी न बुझे, गृहदेवता कभी अदृश्य न हों | मेरे पितर नाश से बचे रहें और मुझसे दाम्पत्य-भेद न हो | जैसे आप कभी लक्ष्मीजी से विलग नहीं होते, उसीप्रकार मेरा भी पत्नी के साथ का सम्बन्ध कभी टूटने या छूटने न पावे |वरदानी प्रभो ! जैसे आपको शय्या कभी लक्ष्मीजी से सूनी नहीं होती, मधुसुदन ! उसी प्रकार मेरी शय्या भी पत्नीसे सूनी न हो |’ इसप्रकार व्रत आरम्भ करके एक वर्षतक प्रतिमास की द्वितीया को श्रीलक्ष्मी और विष्णु का विधिवत पूजन के | शय्या और फलका दान भी करे | साथ ही प्रत्येक मॉस में उसी तिथिको चंद्रमा के लिये मंत्रोच्चारणपूर्वक अर्घ्य दे | ‘भगवान् चन्द्रदेव ! आप गगन-प्रांगण के दीपक हैं | क्षीरसागर के मंथन से आपका अविर्भाव हुआ हैं | आप अपनी प्रभासे सम्पूर्ण दिग्मंगल को प्रकाशित करते हैं | भगवती लक्ष्मी के छोटे भाई ! आपको नमस्कार है | तत्पश्चात ‘ॐ श्रं श्रीधराय नम: |’ – इस मंत्रसे सोमस्वरूप श्रीहरि का पूजन करे | ‘घं टं हं सं श्रियै नम: |’ – आईएनएस मंत्रसे लक्ष्मीजी की तथा ‘दशरूपमहात्मने नम: |’ – इस मंत्रसे श्रीविष्णु की पूजा करे | रातमें घी से हवन करके ब्राह्मण को शय्या-दान करे | उसके साथ दीप, अन्नसे भरे हुए पात्र, छाता, जूता, आसन, जलसे भरा कलश, श्रीहरि प्रतिमा तथा पात्र भी ब्राह्मण को दे | जो इसप्रकार उक्त व्रत का पालन करता हैं, वह भोग और मोक्ष का भागी होता हैं ||३-१२||
अब ‘कान्तिव्रत’ का वर्णन करता हूँ | इसका प्रारम्भ कार्तिक शुक्ला द्वितीया को करना चाहिये | दिनमें उपवास और रात में भोजन करे | इसमें बलराम तथा भगवान् श्रीकृष्ण का पूजन करें | एक वर्षतक ऐसा करनेसे व्रती पुरुष कान्ति, आयु और आरोग्य आदि प्राप्त करता है ||१३-१४||
अब मैं ‘विष्णुव्रत’ का वर्णन करूँगा, जो मनोवांछित फलको देनेवाला हैं | पौष मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया से आरम्भ करके लगातार चार दिनोंतक इस व्रतका अनुष्ठान किया जाता है | पहले दिन सरसों-मिश्रित जलसे स्नान का विधान हैं | दूसरे दिन काले तिल मिलाये हुए जलसे स्नान बताया गया है | तीसरे दिन वचा या वच नामक औषधि से युक्त जलके स्वर तथा चौथे दिन सर्वोषधि मिश्रित जल के द्वारा स्नान करना चाहिये | मुर (कपूर-कचरी), वचा (वच), कुष्ठ (कुठ), शैलेय (शिलाजीत या भूरिछरीला), दो प्रकार की हल्दी (गाँठ हल्दी और दारुहल्दी), कचूर, चम्पा और मोथा – यह ‘सर्वोषधि समुदाय कहा गया है | पहले दिन ‘श्रीकृष्णाय नम: |’, दूसरे दिन ‘अच्युताय नम: |’, तीसरे दिन ‘अनन्ताय नम: |’ और चौथे दिन ‘हृषीकेशाय नम: |’ इस नाम मन्त्र से क्रमशः भगवान् के चरण, नाभि, नेत्र एवं मस्तकपर पुष्प समर्पित करते हुए पूजन करना चाहिये | प्रतिदिन प्रदोषकाल में चंद्रमा को अर्घ्य देना चाहिये | पहले दिन के अर्घ्य में ‘शशिने नम: |’, दुसरे दिनके अर्घ्य में ‘चन्द्राय नम: |’, तीसरे दिन ‘शशान्गाय नम: |’ और चौथे दिन ‘इन्द्वे नम: |’ का उच्चारण करना चाहिये | रातमें जबतक चन्द्रमा दिखायी देते हों, तभीतक मनुष्य को भोजन कर लेना चाहिये | व्रती छ: मास या एक सालतक इस व्रतका पालन करके सम्पूर्ण मनोवांछित फलको प्राप्त कर लेता हैं | पूर्वकाल में राजाओं ने, स्रियों और देवता आदिने भी इस व्रतका अनुष्ठान किया था ||१५-२०||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘द्वितीया-सम्बन्धी व्रत का वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१७८ तृतीया तिथि के व्रत
अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! अब मैं आपके सम्मुख तृतीया तिथि को किये जानेवाले व्रतों का वर्णन करूँगा, जो भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं | ललितातृतीया को किये जानेवाले मुलगौरी सम्बन्धी (सौभाग्यशयन) व्रत को सुनिये ||१||
चैत्र के शुक्लपक्ष की तृतीया को ही पार्वती का भगवान् शिव के साथ विवाह हुआ था | इसलिये इस दिन तिलमिश्रित जलसे स्नान करके पार्वतीसहित भगवान् शंकर की स्वर्णाभूषण और फल आदिसे पूजा करनी चाहिये ||२||
‘नमोऽस्तु पाटलायै’ (पाटला देवी को नमस्कार) – यह कहकर पार्वतीदेवी और भगवान् शंकर के चरणों का पूजन करे | ‘शिवाय नम:‘ और ‘जयायै नम:’ (जयाको नमस्कार) – यों कहकर गौरी देवी की अर्चना करे | ‘त्रिपुरघ्याय रुद्राय नम:’ (त्रिपुरविनाशक रुद्रदेव को नमस्कार) – तथा ‘भवान्यै नम:’ (भवानी को नमस्कार) – यह कहकर क्रमशः शिव-पार्वती की दोनों जंघाओं का और ‘रुद्रायेश्वराय नम:’ (सबके ईश्वर रुद्रदेव को नमस्कार है ) एवं ‘विजयायै नम:’ )विजयाको नमस्कार) यह कहकर क्रमशः शंकर और पार्वती के घुटनों का पूजन करे | ‘ईशायै नम:’ (सर्वेश्वरी को नमस्कार) यह कहकर देवी के और ‘शंकराय नम:’ – ऐसा कहकर शंकर के कटिभाग की पूजा करे | ‘सर्वात्मने नम:’ )सर्वात्मा शिवको नमस्कार कहकर पूजा का उपसंहार करे ||३-११||
शिव की पूजा के लिए ये पुष्प क्रमशः चैत्रादि मासों में ग्रहण करनेयोग्य बताये गये हैं – मल्लिका, अशोक, कमल, कुंद, तगर, मालती, कदम्ब, कनेर, नीले रंगका सदाबहार, अम्लान (आँ बोली), कुंकुम और सेंधुवार ||१२-१३||
उमा-महेश्वर का पूजन करके उनके सम्मुख अष्ट सौभाग्य द्रव्य रख दे | घृतमिश्रित निष्पाव (एक द्विदल), कुसुम्भ (केसर), दुग्ध, जीवक (एक ओषधिविशेष), दुर्वा, ईख, नमक और कुस्तुम्बुरु (धनियाँ) – ये अष्ट सौभाग्य द्रव्य हैं | चैत्रमास में पहाड़ों के शिखरों का (गंगा आदिका) जलपान करके रुद्रदेव और पार्वतीदेवी के आगे शयन करे | प्रात:काल स्नान करके गौरी-शंकर का पूजन कर ब्राह्मण-दम्पतीकी अर्चना करे और वह अष्ट सौभाग्य द्रव्य ‘ललिता प्रीयतां मम |’ (ललिता मुझपर प्रसन्न हों) – ऐसा कहकर ब्राह्मण को दे ||१४-१६||
व्रत करनेवाले को चैत्रादि मासों में व्रत के दिन क्रमशः यह आहार करना चाहिए – चैत्र में श्रुंगजल (झरने का जल), वैशाख में गोबर, जेष्ठ में मन्दार (आक) का पुष्प, आषाढ़ में बिल्वपत्र, श्रावण में कुशजल, भाद्रपद में दही, आश्विन में दुग्ध, कार्तिक में घृतमिश्रित दधि, मार्गशीर्ष में गोमूत्र, पौष में घृत, माघ में काले तिल और फाल्गुन में पंचगव्य | ललिता, विजया, भद्रा, भवानी, कुमुदा, शिवा, वासुदेवी, गौरी, मंगला, कमला और सती – चैत्रादि मासों में सौभाग्याष्टक के दान के समय उपर्युक्त नामों का ‘प्रीयातां मम’ से संयुक्त करके उच्चारण करे | व्रत के पूर्ण होनेपर किसी एक फल का सदा के लिए त्याग कर दे तथा गुरुदेव को तकियों से युक्त शय्या, उमा-महेश्वर की स्वर्णनिर्मित प्रतिमा एवं गौसहित वृषभका दान करे | गुरु और ब्राह्मण दम्पतिका वस्त्र आदिसे सत्कार करके साधक भोग और मोक्ष दोनों को प्राप्त कर लेता हैं | इस ‘सौभाग्यशयन’ नामक व्रत के अनुष्ठान से मनुष्य सौभाग्य, आरोग्य, रूप और दीर्घायु प्राप्त करता है ||१७-२१||
यह व्रत भाद्रपद, वैशाख और मार्गशीर्ष के शुक्लपक्ष की तृतीया को भी किया जा सकता है | इसमें ‘ललितायै नम:’ इसप्रकार कहकर पार्वती को पूजन करे | तदनन्तर व्रत की समाप्ति के समय प्रत्येक पक्ष में ब्राह्मण दम्पति की पूजा करनी चाहिये | उनकी चौबीस वस्त्र आदिसे अर्चना करके मनुष्य भोग और मोक्ष दोनों को प्राप्त कर लेता हैं | सौभाग्यशयन’ की यह दूसरी विधि बतायी गयी | अब मैं ‘सौभाग्यव्रत’ के विषय में कहता हूँ | फाल्गुन आदि मासों में शुक्लपक्ष की तृतीया को व्रत करनेवाला नमक का परित्याग करे | व्रत समाप्त होनेपर ब्राह्मण दम्पति का पूजन करके ‘भवानी प्रीयताम |’ कहकर शय्या और सम्पूर्ण सामग्रियों से युक्त गृह का दान करे | यह ‘सौभाग्य तृतीया’ व्रत कहा गया, जो पार्वती आदि के लोकों को प्रदान करनेवाला हैं | इसीप्रकार माघ, भाद्र्पर और वैशाख की तृतीया को व्रत करना चाहिये ||२२-२६||
चैत्र में ‘दमनक-तृतीया’ का व्रत करके पार्वती की ‘दमनक; नामक पुष्पों से पूजन करनी चाहिये | मार्गशीर्ष में ‘आत्म-तृतीया’ का व्रत किया जाता हैं | इसमें पार्वती का पूजन करके ब्राह्मण को इच्छानुसार भोजन करावे | मार्गशीर्ष की तृतीया से आरम्भ करके, क्रमशः पौष आदि मासों में उपर्युक्त व्रत का अनुष्ठान करके निम्नलिखित नामों को ‘प्रीयताम’ से संयुक्त करके, कहे – गौरी, काली, उमा, भद्रा, दुर्गा, कान्ति, सरस्वती, वैष्णवी, लक्ष्मी, प्रकृति, शिवा और नारायणी | इसप्रकार व्रत करनेवाला सौभाग्य और स्वर्ग को प्राप्त करता है ||२७-२८||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘तृतीया के व्रतों का वर्णन’ नामक पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१७९ चतुर्थी तिथि के व्रत
अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! अब मैं आपके सम्मुख भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले चतुर्थी सम्बन्धी व्रतों का वर्णन करता हूँ | माघ के शुक्लपक्ष की चतुर्थी को उपवास करके गणेश का पूजन करे | तदनंतर पंचमी को तिलका भोजन करे | ऐसा करनेसे मनुष्य बहुत वर्षोतक विघ्नरहित होकर सुखी रहता हैं | ‘गं स्वाहा |’ – यह मूलमंत्र हैं | ‘गां नम: |’ आदि से हरदयादिका न्यास करे ||१-२||
गां ह्रदयाय नम: | गीं शिरसे स्वाहा | गूं शिखायै वषट | गै नेत्रत्रयाय वौषट | गौ कवचाय हुम् | ग:अस्त्राय फट |
‘आगच्छोल्काय’ कहकर गणेशका आवाहन और ‘गच्छोल्काय’ कहकर विसर्जन करे | इसप्रकार आदिमें गकारयुक्त और अंत में ‘उल्का’ शब्दयुक्त मन्त्र से उनके आवाहनादि कार्य करे | ग्न्धादि उपचारों एवं लड्डूओं आदिद्वारा गणपति का पूजन करे ||३||
तदनन्तर निम्नलिखित गणेश गायत्रीका जप करे –
ॐ महोल्काय विद्महे वक्रतुण्डायधीमहि |
तन्नो दन्ती प्रचोदयात ||
भाद्रपद के शुक्लपक्ष की चतुर्थी को व्रत करनेवाला शिवलोक को प्राप्त करता हैं | ‘अंगारक-चतुर्थी’ (मंगलवारसे युक्त चतुर्थी) को गणेश का पूजन करके मनुष्य सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को प्राप्त कर लेता हैं | फाल्गुन की चतुर्थी को रात्री में ही भोजन करे | यह ‘अविघ्ना चतुर्थी’ का नामसे प्रसिद्ध है | चैत्र मास की चतुर्थी को ‘दमनक’ नामक पुष्पों से गणेश का पूजन करके मनुष्य सुख-भोग प्राप्त करता है ||४-६||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘चतुर्थी के व्रतों का कथन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
अध्याय –१८० पंचमी तिथि के व्रत
अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! अब मैं आरोग्य, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवाले पंचमी-व्रत का वर्णन करता हूँ | श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक के शुक्लपक्ष की पंचमी को वासुकि, तक्षक, कालिय, मणिभद्र, ऐरावत, धृतराष्ट्र, कर्कोटक और धनंजय नामक नागों का पूजन करना चाहिये ||१-२||
ये सभी नाग अभय, आयु, विद्या, यश और लक्ष्मी प्रदान करनेवाले हैं ||३||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘पंचमी के व्रतों का वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१८१ षष्ठी तिथि के व्रत
अग्निदेव कहते हैं – अब मैं षष्ठी सम्बन्धी व्रतों को कहता हूँ | कार्तिक के कृष्णपक्ष की षष्ठी को फलमात्र का भोजन करके कार्तिकेय लिये अर्घ्यदान करना चाहिये | इससे मनुष्य भोग और मोक्ष प्राप्त करता हैं | इसे ‘स्कन्दषष्ठी – व्रत’ कहते हैं |भाद्रपद के कृष्णपक्ष की षष्ठी तिथि में ‘अक्षयषष्ठी व्रत’ करना चाहिये | इसे मार्गशीर्ष में भी करना चाहिये | इस अक्षयषष्ठी के दिन किसी भी एक वर्ष निराहार रहनेसे मानव भोग और मोक्ष प्राप्त कर लेता हैं ||१-२||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘षष्ठी के व्रतों का वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१८२ सप्तमी तिथिके व्रत
अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! अब मैं सप्तमी तिथि के व्रत कहूँगा | यह सबको भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है | माघ मासके शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथिको (अष्टदल अथवा द्वादशदल) कमल का निर्माण करके उसमें भगवान् सूर्यका पूजन करना चाहिये | इससे मनुष्य शोकरहित हो जाता है ||१||
भाद्रपद मास में शुक्लपक्ष की सप्तमी को भगवान् आदित्य का पूजन करनेसे समस्त अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति होती है | पौषमास में शुक्लपक्ष की सप्तमी को निराहार रहकर सुर्यदेवका पूजन करनेसे सारे पापों का विनाश होता है ||२||
माघ के कृष्णपक्ष में ‘सर्वाप्ति-सप्तमी’ का व्रत करना चाहिये | इससे सभी अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति होती है | फाल्गुन के कृष्णपक्ष में ‘नन्द-सप्तमी’ का व्रत करना चाहिये | मार्गशीर्ष के शुक्लपक्ष में ‘अपराजिता सप्तमी’ को भगवान् सूर्य का पूजन और व्रत करना चाहिये | एक वर्षतक मार्गशीर्ष के शुक्लपक्ष का ‘पुत्रीया सप्तमी’ व्रत स्रियों को पुत्र प्रदान करनेवाला है ||३-४||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘सप्तमी के व्रतों का वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१८३ अष्टमी तिथि के व्रत
अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! अब मैं अष्टमी को किये जानेवाले व्रतों का वर्णन करूँगा | उनमें पहला रोहिणी नक्षत्रयुक्त अष्टमी का व्रत है | भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की रोहिणी नक्षत्र से युक्त अष्टमी तिथिको ही अर्धरात्रि के समय भगवान् श्रीकृष्ण का प्राकट्य हुआ था, इसलिये इसी अष्टमी को उनकी जयंती मनायी जाती है | इस तिथिको उपवास करनेसे मनुष्य सात जन्मों के किये हुए पापों से मुक्त हो जाता हैं ||१-२||
अतएव भाद्रपद के कृष्णपक्ष की रोहिणी नक्षत्रयुक्त अष्टमी को उपवास रखकर भगवान श्रीकृष्ण का पूजन करना चाहिये | यह भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला हैं ||३||
पूजनकी विधि इसप्रकार है –
आवाहन-मन्त्र और नमस्कार
आवाहयाम्यहं कृष्णं बलभद्रं च देवकीम |
वसुदेवं यशोदां गा: पूजयामि नमोऽस्तु ते ||
योगाय योगपतये योगेसहाय नमो नम: |
योगादिसम्भवायैव गोविन्दाय नमो नम: ||
‘मैं श्रीकृष्ण, बलभद्र, देवकी, वसुदेव, य्शोदादेवी और गौओं का आवाहन एवं पूजन करता हूँ; आप सबको नमस्कार है | योगके आदिकारण, उत्पत्तिस्थान श्रीगोविंद के लिये बारंबार नमस्कार है’ ||४-५||
तदनंतर भगवान् श्रीकृष्ण को स्नान कराये और इस मंत्रसे उन्हें अर्घ्यदान करे –
यज्ञेश्वराय यज्ञाय यज्ञानां पतये नम: ||
यज्ञादिसम्भवायैव गोविन्दाय नमो नम : |
‘यज्ञेश्वर, यज्ञस्वरूप, यज्ञों के अधिपति एवं यज्ञ के आदि कारण श्रीगोविंद को बारंबार नमस्कार है |’
पुष्प-धुप गृहाण देव पुष्पाणि सुगन्धिनि प्रियाणि ते ||
सर्वकामप्रदो देव भव में देववंदित |
धूपधूपित धूपं त्वं धुपितैस्त्वं गृहाण में ||
सुगन्धिधुपगन्धाढयं कुरु मां सर्वदा हरे |
‘देव ! आपके प्रिय ये सुगन्धयुक्त पुष्प ग्रहण कीजिये | देवताओंद्वारा पूजित भगवन ! मेरी सारी कामनाएँ सिद्ध कीजिये | आप धूप से सदा धूपित हैं, मेरे द्वारा अर्पित धूप-दान से आप धूप की सुगन्ध ग्रहण कीजिये | श्रीहरे ! मुझे सदा सुगन्धित पुष्पों, धूप एवं गंधसे सम्पन्न कीजिये |’
दीप-दान
दीपदीप्त महादीपं दीपदीप्तिद सर्वदा ||
मया दत्तं गृहाण त्वं कुरु चोर्ध्वगतिं च माम |
विश्वाय विश्वपतये विश्वेशाय नमो नम: ||
विश्वादिसम्भवायैव गोविन्दाय निवेदितम |
‘प्रभो ! आप सर्वदा समान देदीप्यमान एवं दीप को दीप्ति प्रदान करनेवाले हैं | मेरे द्वारा दिया गया यह महादीप ग्रहण कीजिये और मुझे भी (दीप के समान) ऊर्ध्वगति से युक्त कीजिये | विश्वरूप, विश्वपति, विश्वेश्वर, श्रीकृष्ण के लिये नमस्कार है, नमस्कार है | विश्वके आदिकारण श्रीगोविन्द को मैं यह दीप निवेदन करता हूँ | ‘
शयन – मन्त्र
धर्माय धर्मपतये धर्मेशाय नमो नम: ||
धर्मादिसम्भवायैव गोविन्द शयनं कुरु |
सर्वाय सर्वपतये सर्वेशाय नमो नम : ||
सर्वादिसम्भवायैव गोविन्दाय नमो नम: |
‘धर्मस्वरूप, धर्म के अधिपति, धर्मेश्वर एवं धर्म के आदिस्थान श्रीवासुदेव को नमस्कार है | गोविन्द ! अब शाप शयन कीजिये | सर्वरूप, सबके अधिपति, सर्वेश्वर, सबके आदिकारण श्रीगोविंद को बारंबार नमस्कार हैं |’
तदनन्तर रोहिणीसहित चन्द्रमाको निम्नालिखित मन्त्र पढ़कर अर्घ्यदान दे –
क्षीरोदार्णवसम्भुत अत्रिनेत्रसमुद्धव ||
गृहाणार्घ्य शशाक्केदं रोहिण्या सहितो मम ||
‘क्षीरसमुद्र से प्रकट एवं अत्रि के नेत्र से उद्भूत तेज:स्वरुप शशांक ! रोहिणी के साथ मेरा अर्घ्य स्वीकार कीजिये |’
फिर भगवद्विग्रह को वेदिकापर स्थापित करे और चंद्रमासहित रोहिणी का पूजन करे | तदनंतर अर्धरात्रि के समय वसुदेव, देवकी, नन्द-यशोदा और बलराम का गुड़ और घृतमिश्रित दुग्ध- धारासे अभिषेक करे ||६-१५||
तत्पश्च्यात व्रत करनेवाला मनुष्य ब्राह्मणों को भोजन करावे और दक्षिणा में उन्हें वस्त्र और सुवर्ण आदि दे | जन्माष्टमी का व्रत करनेवाला पुत्रयुक्त होकर विष्णुलोक का भागी होता है | जो मनुष्य पुत्रप्राप्ति की इच्छासे प्रतिवर्ष इस व्रत का अनुष्ठान करता है, वह ‘पुम’ नामक नरक के भय से मुक्त हो जाता है | (सकाम व्रत करनेवाला भगवान् गोविन्द से प्रार्थना करे ) ‘प्रभो ! मुझे धन, पुत्र, आयु, आरोग्य और संतति दीजिये | गोविन्द ! मुझे धर्म, काम, सौभाग्य, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान कीजिये’ ||१६-१८||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘अष्टमी के व्रतों का वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१८4
अध्याय –१८५ नवमी तिथि के व्रत
अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! अब मैं भोग और मोक्ष आदि की सिद्धि प्रदान करनेवाले नवमी-सम्बन्धी व्रतों का वर्णन करता हूँ | आश्विन के शुक्लपक्ष में ‘गौरी-नवमी’ का व्रत करके देवी का पूजन करना चाहिये | इस नवमी को ‘पिष्टका-नवमी’ होती है | उसका व्रत करनेवाले मनुष्य को देवी का पूजन करके पिष्टान्न का भोजन करना चाहिये | आश्विन के शुक्लपक्ष की जिस नवमी को अष्टमी और मूलनक्षत्र का योग हो एवं सूर्य कन्या-राशिपर स्थित हों, उसे ‘महानवमी’ कहा गया हैं | वह सदा पापों का विनाश करनेवाली हैं | इस दिन नवदुर्गाओं को नौ स्थानों में अथवा एक स्थान में स्थित करके उनका पूजन करना चाहिये | मध्य में अष्टादशभुजा महालक्ष्मी एवं दोनों पार्श्व-भागों में शेष दुर्गाओं का पूजन करना चाहिये | अंजन और डमरू के साथ निम्नलिखित क्रमसे नवदुर्गाओं की स्थापना करनी चाहिये –
रुद्र्चंडा, प्रचंडा, चंडोग्रा, चंड़नायिका, चंडा, चंडवती, पूज्या, चंडरूपा और अतिचंडीका |
इन सबके मध्यभाग में अष्टादशभुजा उग्रचंडा महिषमर्दिनी दुर्गा का पूजन करना चाहिये | ‘ॐ दुर्गे दुर्गे रक्षसि स्वाहा |’ – यह दशाक्षर मन्त्र हैं ||१-६||
जो मनुष्य इस विधिसे पूर्वोक्त दशाक्षर मन्त्र का जप करता हैं, वह किसीसे भी बाधा नहीं प्राप्त करता | भगवती दुर्गा अपने वाम करों में कपाल, खेटक, घंटा, दर्पण, तर्जनी-मुद्रा, धनुष, ध्वजा, डमरू और पाश एवं दक्षिण करों में शक्ति, मुद्गर, त्रिशूल, वज्र, खड्ग, भाला, अंकुश, चक्र तथा शलाका लिये हुए हैं | उनके इन आयुधों की भी अर्चना करे ||७-१०||
फिर ‘कालि कालि’ आदि मंत्रका जप करके खड़ग से पशु का वध करे | पशुबलि का मन्त्र – ‘कालि कालि वज्रेश्वरी लोहदंडायै नम: |’ बलि पशुका रुधिर और मांस, ‘पूतनाय नम: |’ कहकर नैऋत्यकोण में, ‘पापराक्षस्यै नम: |’ कहकर वायव्यकोण में, ‘चरक्यै नम: |’ कहकर ईशानकोण में एवं ‘विदारिकायै नम: |’ कहकर अग्निकोण में उनके उद्देश्य से समर्पित करे | राजा उसके सम्मुख स्नान करे और स्कन्द एवं विशाख के निमित्त पिष्टनिर्मित शत्रु की बलि दे | रात्रि में ब्राह्मी आदि शक्तियों का पूजन करे –
जयन्ती, मंगला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, शिवा, क्षमा, धात्री, स्वाहा और स्वधा – इन नामों से प्रसिद्ध जगदम्बिके ! तुम्हें मेरा नमस्कार हो |’ आदि मन्त्रोंसे देवी की स्तुति करे और देवी को पंचामृत से स्नान कराके उनकी विविध उपचारों से पूजा करे | देवी के उद्देश्य से किया हुआ ध्वजदान, रथयात्रा एवं बलिदान-कर्म अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति करानेवाला हैं ||११-१५||
अध्याय –१८६ दशमी तिथि के व्रत
अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! अब मैं दशमी-सम्बन्धी व्रत के विषय में कहता हूँ, जो धर्म-कामादि की सिद्धि करनेवाला है | दशमी को एक समय भोजन करे और व्रत के समाप्त होनेपर दस गौओं और स्वर्णमयी प्रतिमाओं का दान करे | ऐसा करनेसे मनुष्य ब्राह्मण आदि चारों वर्णों का अधिपति होता है ||१||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘नवमी और दशमी के विविधव्रतों का वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ || ७७ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१८७ एकादशी तिथि के व्रत
अग्निदेव कहते है – वसिष्ठ ! अब मैं भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले एकादशी-व्रत का वर्णन करूँगा | व्रत करनेवाला दशमी को मांस और मैथुन का परित्याग कर दे एवं भजन भी नियमित करे | दोनों पक्षों की एकादशी को भोजन न करे ||१||
द्वादशी – विद्धा एकादशी में स्वयं श्रीहरि स्थित होते हैं, इसलिये द्वादशी – विद्धा एकादशी के व्रत का त्रयोदशी को पारण करनेसे मनुष्य सौ यज्ञों का पुण्यफल प्राप्त करता हैं | जिस दिन के पूर्वभाग में एकादशी क्लामात्र अविशिष्ट हो और शेषभाग में द्वादशी व्याप्त हो, उस दिन एकादशी का व्रत करके त्रयोदशी में पारण करनेसे सौ यज्ञों का पुण्य प्राप्त होता है | दशमी- विद्धा एकादशी को कभी उपवास नहीं करना चाहिये; क्योंकि वह नरक की प्राप्ति करानेवाली है |
एकादशी को निराहार रहकर, दुसरे दिन यह कहकर भोजन करे – ‘पुण्डरीकाक्ष ! मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ | अच्युत ! अब मैं भोजन करूँगा |’ शुक्लपक्ष की एकादशी को जब पुष्यनक्षत्र का योग हो, उस दिन उपवास करना चाहिये | वह अक्षयफल प्रदान करनेवाली है और ‘पापनाशिनी’ कही जाती है | श्रवणनक्षत्र से युक्त द्वादशी विद्धा एकादशी ‘विजया’ नामसे प्रसिद्ध है और भक्तों को विजय देनेवाली है | फाल्गुन मास में पुष्यनक्षत्र से युक्त एकादशी को भी सत्पुरुषों ने ‘विजया’ कहा है | वह गुणों में कई करोड़गुना अधिक मानी जाती है | एकादशी को सबका उपकार करनेवाली विष्णुपूजा अवश्य करनी चाहिये | इससे मनुष्य इस लोक में धन और पुत्रों से युक्त हो (मृत्यु के पश्चात) विष्णुलोक में पूजित होता है ||२-९||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘एकादशी व्रतों का वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ || ७८ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१८८ द्वादशी तिथि के व्रत
अग्निदेव कहते हैं – मुनिश्रेष्ठ ! अब मैं भोग एवं मोक्षप्रद द्वादशी-सम्बन्धी व्रत कहता हूँ | द्वादशी तिथि को मनुष्य रात्रि को एक समय भोजन करे और किसीसे कुछ नहीं माँगे | उपवास करके भी भिक्षा-ग्रहण करनेवाले मनुष्यका द्वादशीव्रत सफल नहीं हो सकता | चैत्र मास के शुक्लपक्ष की द्वादशी तिथि को ‘मदनद्वादशी’ का व्रत करनेवाला भोग और मोक्ष की इच्छा से कामदेव रूप श्रीहरि का अर्चन करे | माघ के शुक्लपक्ष की द्वादशी को ‘भीमद्वादशी’ का व्रत करना चाहिये और ‘नमो नारायणाय |’ मन्त्र से श्रीविष्णु का पूजन करना चाहिये | ऐसा करनेवाला मनुष्य सब कुछ प्राप्त कर लेता है | फाल्गुन के शुक्लपक्ष में ‘गोविन्दद्वादशी’ का व्रत करनेवाले को श्रीहरि का पूजन करना चाहिये | मार्गशीर्ष के शुक्लपक्ष की द्वादशी को श्रीकृष्ण का पूजन करके जो मनुष्य लवण का दान करता हैं, वह सम्पूर्ण रसों के दान का फल प्राप्त करता हैं | भाद्रपद में ‘गोवत्सद्वादशी’ का व्रत करनेवाला गोवत्स का पूजन करे | माघ मास के व्यतीत हो जानेपर फाल्गुन कृष्णपक्ष की द्वादशी, जो श्रवणनक्षत्र से संयूक्त हो, उसे ‘तिलद्वादशी’ कहा गया है | इस दिन तिलों से ही स्नान और होम करना चाहिये तथा तिल के लड्डुओं का भोग लगाना चाहिये | मंदिर में तिल के तेल से युक्त दीपक समर्पित करना चाहिये तथा पितरों को तिलांजलि देनी चाहिये | ब्राह्मणों को तिलदान करे | होम और उपवास में ही ‘तिलद्वादशी’ का फल प्राप्त होता है | ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय |’ मन्त्र से श्रीविष्णु की पूजा करनी चाहिये | उपर्युक्त विधिसे छ: बार ‘तिलद्वादशी’ का व्रत करनेवाला कुलसहित स्वर्ग को प्राप्त करता है | फाल्गुन के शुक्लपक्ष में ‘मनोरथद्वादशी’ का व्रत करनेवाला श्रीहरि का पूजन करे | इसी दिन ‘नामद्वादशी’ का व्रत करनेवाला ‘केशव’ आदि नामों से श्रीहरि का एक वर्षतक पूजन करे | वह मनुष्य मृत्यु के पश्च्यात स्वर्ग में ही जाता है | वह कभी नरकगामी नहीं हो सकता | फाल्गुन के शुक्लपक्ष में ‘सुमतिद्वादशी’ का व्रत करके विष्णु का पूजन करे | भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में ‘अनंतद्वादशी’ का व्रत करे | माघ के शुक्लपक्ष में आश्लेषा अथवा मूलनक्षत्र से युक्त ‘तिलद्वादशी’ करनेवाला मनुष्य ‘कृष्णाय नम: |’ मन्त्र से श्रीकृष्ण का पूजन करे और तिलों का होम करे | फाल्गुन के शुक्लपक्ष में ‘सुगतिद्वादशी’ का व्रत करनेवाला ‘जय कृष्ण नमस्तुभ्यम’ मन्त्र से एक वर्षतक श्रीकृष्ण की पूजा करे | ऐसा करनेसे मनुष्य भोग और मोक्ष-दोनों प्राप्त कर लेता है | पौष के शुक्लपक्ष की द्वादशी को ‘सम्प्राप्ति–द्वादशी’ का व्रत करे ||१-१४||
श्रवण–द्वादशी–व्रत का वर्णन
अग्निदेव कहते हैं – अब मैं भाद्रपदमास के शुक्लपक्ष में किये जानेवाले ‘श्रवणद्वादशी’ व्रत के विषय में कहता हूँ | यह श्रवण नक्षत्र से संयुक्त होनेपर श्रेष्ठ मानी जाती है एवं उपवास करनेपर महान फल प्रदान करनेवाली हैं | श्रवण-द्वादशी के दिन नदियों के संगमपर स्नान करनेसे विशेष फल प्राप्त होता है तथा बुधवार और श्रवणनक्षत्र से युक्त द्वादशी दान आदि कर्मों में महान फलदायिनी होती है ||१५-१६||
त्रयोदशी के निषिद्ध होनेपर भी इस व्रत का पारण त्रयोदशी को करना चाहिये –
संकल्प मन्त्र
द्वादश्यां च निराहारो वामनं पूजयाम्यहम ||
उदकुम्भे स्वर्णमयं त्रयोदश्यां तु पारणम |
‘मैं द्वादशी को निराहार रहकर जलपूर्ण कलशपर स्थित स्वर्णनिर्मित वामन-मूर्ति का पूजन करता हूँ एवं मैं व्रतका पारण त्रयोदशी को करूँगा |’
आवाहन मन्त्र
आवाहयाम्यहं विष्णुं वामनं शंखचक्रिणम ||
सितवस्त्रयुगच्छन्ने घटे सच्छत्रपादुके |
‘मैं दो श्वेतवस्त्रों से अच्छादित एवं छत्र-पादुकाओं से युक्त कलशपर शंख-चक्रधारी वामनावतार विष्णु का आवाहन करता हूँ |’
स्नानार्पण मन्त्र
स्नापयापि जलै: शुद्धैर्विष्णुं पंचामृतादिभि: ||
छत्रदंडधरं विष्णुं वामनाय नमो नम: |
‘मैं छत्र एवं दंड से विभूषित सर्वव्यापी श्रीविष्णु को पंचामृत आदि एवं विशुद्ध जल का स्नान समर्पित करता हूँ | भगवान् वामन को नमस्कार है |’
अर्घ्यदान मन्त्र
अर्घ्य ददामि देवेश अर्घ्यार्हाध्यै: सदार्चित: ||
भुक्तिमुक्तिप्रजाकीर्तिसर्वेश्वर्ययुतं कुरु |
‘देवेश्वर ! आप अर्घ्य के अधिकारी पुरुषों तथा दुसरे लोगोंद्वारा भी सदैव पूजित हैं | मैं आपको अर्घ्यदान करता हूँ | मुझे भोग, मोक्ष, सन्तान, यश और सभी प्रकार के ऐश्वर्यों से युक्त कीजिये |’
फिर ‘वामनाय नम:’ इस मन्त्र से गंधद्रव्य समर्पित करे और इसी मन्त्रद्वारा श्रीहरि के उद्देश्य से एक सौ आठ आहुतियाँ दे ||१७-२२||
‘ॐ नमो वासुदेवाय |’ मन्त्र से श्रीहरि के शिरोभाग की अर्चना करे | ‘श्रीधराय नम: |’ से मुखका, ‘कृष्णाय नम: |’ से कंठ-देशका, ‘श्रीपतये नम: |’ कहकर वक्ष:स्थल का, ‘सर्वास्त्रधारिणे नम: |’ कहकर दोनों भुजाओं का, व्यापकाय नम: |’ से नाभि और ‘वामनाय नम: |’ बोलकर कटिप्रदेश का पूजन करे | ‘त्रैलोक्यजननाय नम: |’ मन्त्र से भगवान् वामन के उपस्थकी, ‘सर्वाधिपतये नम: |’ से दोनों जंघाओं की एवं ‘सर्वात्मने नम: |’ कहकर श्रीविष्णु के चरणों की पूजा करे ||२३- २५||
तदनंतर वामन भगवान् को घृतसिद्ध नैवेद्य और दही-भात से परिपूर्ण कुम्भ समर्पित करे | रात्रि में जागरण करके प्रात:काल संगम में स्नान करे | फिर गंध-पुष्पादि से भगवान् का पूजन करके निम्नांकित मंत्रसे पुष्पांजलि समर्पित करे –
नमो नमस्ते गोविन्द बुधश्रवणसंज्ञित ||
अघौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव |
प्रीयतां देवदेवेश मम नित्यं जनार्दन ||
‘बुध एवं श्रवणसंज्ञक गोविन्द ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है | मेरे पापसमूह का विनाश करके समस्त सौख्य प्रदान कीजिये | देवदेवेश्वर जनार्दन ! आप मेरी इस पुष्पांजलि से नित्य प्रसन्न हों’ || २६-२८ ||
तत्पश्च्यात सम्पूर्ण पूजन-द्रव्य इस मन्त्र से किसी विद्वान ब्राह्मण को दे –
वामनो बुद्धि दो दाता द्र्व्यस्थो वामन: स्वयम |
वामन: प्रतिग्रह्याति वामनो में ददाति च ||
द्रव्यस्थों वामनो नित्यं वामनाय नमो नम: |
‘भगवान् वामन ने मुझे दान की बुद्धि प्रदान की है | वे ही दाता हैं | देय-द्रव्य में भी स्वयं वामन स्थित है | वामन भगवान् ही इसे ग्रहण कर रहे हैं और वामन ही मुझे प्रदान करते हैं | भगवान् वामन नित्य सभी द्रव्यों में स्थित हैं | उन श्रीवामनावतार विष्णु को नमस्कार हैं, नमस्कार हैं |’
इसप्रकार ब्राह्मण को दक्षिणासहित पूजन-द्रव्य देकर ब्राह्मणों को भोजन कराके स्वयं भोजन करे || २९-३०||
अखंडद्वादशी व्रतका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं – अब मैं ‘अखंडद्वादशी’ व्रत के विषय में कहता हूँ, जो समस्त व्रतों की सम्पूर्णता का सम्पादन करनेवाली है | मार्गशीर्ष के शुक्लपक्ष की द्वादशी को उपवास करके भगवान् श्रीविष्णु का पूजन करे | व्रत करनेवाला मनुष्य पंचगव्य-मिश्रित जलसे स्नान करे और उसीका पारण करे | इस द्वादशी को ब्राह्मण को जौ और धान से भरा हुआ पात्र दान दे | भगवान् श्रीविष्णु के सम्मुख इसप्रकार प्रार्थना करे – ‘भगवन ! सात जन्मों में मेरे द्वारा जो व्रत खंडित हुआ हो, आपकी कृपासे वह मेरे लिए अखंड फलदायक हो जाय | पुरषोत्तम ! जैसे आप इस अखंड चराचर विश्व के रूपमें स्थित हैं, उसीप्रकार मेरे किये हुए समस्त व्रत अखंड हो जायँ |’ इसप्रकार (मार्गशीर्ष से आरम्भ करके फाल्गुनतक) प्रत्येक मासमें करना चाहिये | इस व्रत को चार महिनेतक करनेका विधान है | चैत्र से आषाढ़पर्यन्त यह व्रत करनेपर सत्तू से भरा हुआ पात्र दान करे | श्रावण से प्रारम्भ करके इस व्रत को कार्तिक में समाप्त करना चाहिये | उपर्युक्त विधिसे ‘अखंडद्वादशी’ का व्रत करनेपर सात जन्मों के खंडित व्रतों को यह सफल बना देता हैं | इसके करनेसे मनुष्य दीर्घ आयु, आरोग्य, सौभाग्य, राज्य और विविध भोग आदि प्राप्त करता है || ३१-३६ ||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘द्वादशी, श्रवण-द्वादशी, अखंड-द्वादशी व्रतों का वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१९१ त्रयोदशी तिथि के व्रत
अग्निदेव कहते हैं – अब मैं त्रयोदशी तिथि के व्रत कहता हूँ, जो सब कुछ देनेवाले हैं | पहले मैं ‘अनंगत्रयोदशी’ के विषय में बतलाता हूँ | पूर्वकाल में अनंग (कामदेव)- ने इसका व्रत किया था | मार्गशीर्ष शुक्ला त्रयोदशी को कामदेवस्वरुप ‘हर’ की पूजा करे | रात्रि में मधु का भोजन करे तथा तिल और अक्षत-मिश्रित घृत का होम करे | पौष में ‘योगेश्वर’ का पूजन एवं होम करके चन्दन प्राशन करे | माघ में ‘महेश्वर’ की अर्चना करके मौत्किक (रास्ना नामक पौधे के) जल का आहार करे | इससे मनुष्य स्वर्गलोक को प्राप्त करता है | व्रत करनेवाला फाल्गुन में ‘वीरभद्र’ का पूजन करके कक्कोल का प्राशन करे | चैत्र में ‘सुरूप’ नामक शिव की अर्चना करके कर्पुर का आहार करनेवाला मनुष्य सौभाग्ययुक्त होता है | वैशाख में ‘महारूप’ की पूजा करके जायफल का भोजन करे | व्रत करनेवाला मनुष्य जेष्ठ मास में ‘प्रद्युम्न’ का पूजन करे और लौंग चबाकर रहे | आषाढ़ में ‘उमापति’ की अर्चना करके तिलमिश्रित जल का पान करे | श्रावण में ‘शूलपाणि’ का पूजन करके सुगन्धित जल का पान करे | भाद्रपद में अगुरु का प्राशन करे और ‘सद्योजात’ का पूजन करे | अश्विन में ‘त्रिदशाधिप शंकर’ के पूजनपूर्वक स्वर्णजल का पान करे | व्रती पुरुष कार्तिक में ‘विश्वेश्वर’ की अर्चना के अनन्तर लवण का भक्षण करे | इसप्रकार वर्ष के समाप्त होनेपर स्वर्णनिर्मित शिवलिंग को आम के पत्तों और वस्त्र से ढककर ब्राह्मण को सत्कारपूर्वक दान दे | साथ ही गौ, शय्या, छत्र, कलश, पादुका तथा रसपूर्ण पात्र भी दे ||१-९||
चैत्र के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी को सिंदूर और काजलसे अशोकवृक्ष को अंकित करके उसके नीचे रति और प्रीति (कामकी पत्नियों) से युक्त कामदेव का स्मरण करे | इसप्रकार कामनायुक्त साधक एक वर्षतक कामदेवका पूजन करे | यह ‘कामत्रयोदशी व्रत’ कहलाता है ||१०-११||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘त्रयोदशी के व्रतका वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ || ८०||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१90
अध्याय –१91
अध्याय –१९२ चतुर्दशी-सम्बन्धी व्रत
अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! अब मैं चतुर्दशी तिथि को किये जानेवाले व्रत का वर्णन करूँगा | वह व्रत भोग और मोक्ष देनेवाला है | कार्तिक की चतुर्दशी को निराहार रहकर भगवान् शिव का पूजन करे और वहीसे आरम्भ करके प्रत्येक मास की शिव–चतुर्दशी को व्रत और शिवपूजन का क्रम चलाते हुए एक वर्षतक इस नियम को निभावे | ऐसा करनेवाला पुरुष भोग, धन और दीर्घायु से सम्पन्न होता है ||१||
मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष में अष्टमी, तृतीया, द्वादशी अथवा चतुर्दशी को मौन धारण करके फलाहारपर रहे और देवताका पूजन करे तथा कुछ फलों का सदा के लिये त्याग करके उन्हीं का दान करे | इसप्रकार ‘फलचतुर्दशी’ का व्रत करनेवाला पुरुष शुक्ल और कृष्ण – दोनों पक्षों की चतुर्दशी एवं अष्टमी को उपवासपूर्वक भगवान् शिव की पूजा करे | इस विधि से दोनों पक्षों की चतुर्दशी का व्रत करनेवाला मनुष्य स्वर्गलोक का भागी होता है | कृष्णपक्ष की अष्टमी तथा चतुर्दशी को नक्तव्रत (केवल रात में भोजन) करनेसे साधक इहलोक में अभीष्ट भोग तथा परलोक में शुभ गति पाता है | कार्तिक की कृष्णा चतुर्दशी को स्नान करके ध्वज के आकारवाले बॉस के डंडोपर देवराज इन्द्रकी आराधना करनेसे मनुष्य सुखी होता है ||२-६||
तदनंतर प्रत्येक मासकी शुक्ल चतुर्दशी को श्रीहरि के कुशमय विग्रह का निर्माण करके उसे जलसे भरे पात्र के ऊपर प्ध्रावे और उसका पूजन करे | उस दिन अगहनी धान के एक सेर चावल के आटे का पुआ बनवा ले | उसमें से आधा ब्राह्मण को दे दे और आधा अपने उपयोग में लावे ||७-८||
नदियों के तटपर इस व्रत और पूजन का आयोजन करके वहीँ श्रीहरि के ‘अनंतव्रत’ की कथा का भी श्रवण या कीर्तन करना चाहिये | उस समय चतुर्दश ग्रंथियों से युक्त अनंतसूत्र का निर्माण करके अनंत की भावना से ही उसका पूजन करे | फिर निम्नांकित मन्त्र से अभिमंत्रित करके उसे अपने हाथ या कंठ में बाँध ले | मन्त्र इस प्रकार है –
अनंतसंसारमहासमुद्रे मग्नान समभ्युद्धर वासुदेव ||
अनंतरुपे विनियोजयस्व ह्यनन्तरूपाय नमो नमस्ते |
“हे वासुदेव ! संसाररूपी अपार पारावार में डूबे हुए हम-जैसे प्राणियों का आप उद्धार करें | आपके स्वरुप का कहीं अंत नहीं है | आप हमें अपने उसी अनंत’ स्वरूप में मिला लें | आप अनंतरूप परमेश्वर को बारंबार नमस्कार है |” इसप्रकार अनंतव्रत का अनुष्ठान करनेवाला मनुष्य परमानंद का भागी होता है ||९-१०||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘अनेक प्रकार के चतुर्दशी-व्रतों का वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१९३ शिवरात्रि – व्रत
अग्निदेव कहते है – वसिष्ठ ! अब मैं भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले ‘शिवरात्रि-व्रत’ का वर्णन करता हूँ; एकाग्रचित्त से उसका श्रवण करो | फाल्गुन के कृष्ण-पक्ष की चतुर्दशी को मनुष्य कामनासहित उपवास करे | व्रत करनेवाला रात्रि को जागरण करे और यह कहे – मैं चतुर्दशी को भोजनका परित्याग करके शिवरात्रि का व्रत करता हूँ | मैं व्रतयुक्त होकर रात्रि-जागरण के द्वारा शिव का पूजन करता हूँ | मैं भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले शंकर का आवाहन करता हूँ | शिव ! आप नरक-समुद्र से पार करानेवाली नौका के समान हैं; आपको नमस्कार है | आप प्रजा और राज्यादि प्रदान करनेवाले, मंगलमय एवं शान्तस्वरूप हैं; आपको नमस्कार है | आप सौभाग्य, आरोग्य, विद्या, धन और स्वर्ग-मार्ग की प्राप्ति करानेवाले है | मुझे धर्म दीजिये, धन दीजिये और कामभोगादि प्रदान कीजिये | मुझे गुण, कीर्ति और सुख से सम्पन्न कीजिये तथा स्वर्ग और मोक्ष प्रदान कीजिये |’ इस शिवरात्रि – व्रत के प्रभाव से पापात्मा सुंदरसेन व्याध ने भी पुण्य प्राप्त किया ||१-६||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘शिवरात्रि-व्रत का वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ || |
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१९४ अशोक पूर्णिमा आदि व्रतों का वर्णन
अग्निदेव कहते है – अब मैं ‘अशोकपूर्णिमा’ के विषय में कहता हूँ | फाल्गुन के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को भगवान् वराह और भूदेवी का पूजन करे | एक वर्ष ऐसा करनेसे मनुष्य भोग और मोक्ष दोनों को प्राप्त कर लेता है | कार्तिक की पूर्णिमा को वृषोत्सर्ग करके रात्रिव्रत का अनुष्ठान करे | इससे मनुष्य शिवलोक को प्राप्त होता है | यह उत्तम व्रत ‘वृषोत्सर्गव्रत’ के नामसे प्रसिद्ध है | आश्विन के पितृपक्ष की अमावस्या को पितरों के उद्देश्य से जो कुछ दिया जाता है, वह अक्षय होता है | मनुष्य किसी वर्ष इस अमावस्या को उपवासपूर्वक पितरों का पूजन करके पापरहित होकर स्वर्ग को प्राप्त कर लेता है | माघ मास की अमावस्या को उपवासपूर्वक पितरोंका पूजन करके पापरहित होकर स्वर्ग को प्राप्त कर लेता है | माघ मास की अमावस्या को (सावित्रीसहित) ब्रह्मा का पूजन करके मनुष्य सम्पूर्ण अभीष्ट कामनाओं का प्राप्त कर लेता है | अब मैं ‘वटसावित्री’ सम्बन्धी अमावस्या के विषय में कहता हूँ, जो पुण्यमयी एवं भोग और मोक्ष की प्राप्ति करानेवाली है | व्रत करनेवाली नारी (त्रयोदशी से , अमावस्यातक) ‘त्रिरात्रव्रत’ करे और जेष्ठ की अमावस्या को वटवृक्ष के मूलभाग में महासती सावित्री का सप्तधान्य से पूजन करे |
जब रात्रि कुछ शेष हो, उसी समय वटके कंठसूत्र लपेटकर कुंडकुमादि से उसका पूजन करे | प्रभातकाल में वटके समीप नृत्य करे और गीत गाये | ‘नम: सावित्र्यै सत्यवते |’ (सत्यवान-सावित्री को नमस्कार है ) ऐसा कहकर सत्यवान-सावित्री को नमस्कार करे और उनको समर्पित किया हुआ नैवेद्य ब्राह्मण को दे | फिर अपने घर आकर ब्राह्मणों को भोजन कराके स्वयं भी भोजन करे | ‘सावित्रीदेवी प्रीयताम |’ (सावित्रीदेवी प्रसन्न हो) ऐसा कहकर व्रत का विसर्जन करे | इससे नारी सौभाग्य आदि को प्राप्त करती है ||१-८||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘तिथि-व्रत का वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१९५ वार – सम्बन्धी व्रतों का वर्णन
अग्निदेव कहते है – वसिष्ठ ! अब मैं भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले वार-सम्बन्धी व्रतों का वर्णन करता हूँ | जब रविवार को हस्त अथवा पुनर्वसु नक्षत्र का योग हो, तब पवित्र सर्वोषधिमिश्रित जलसे स्नान करना चाहिये | इसप्रकार रविवार को श्राद्ध करनेवाला सात जन्मों में रोग से पीड़ित नहीं होता | संक्रांति के दिन यदि रविवार हो, तो उसे पवित्र ‘आदित्य-हृदय’ माना गया है | उस दिन अथवा हस्तनक्षत्रयुक्त रविवार को एक वर्षतक नक्तव्रत करके मनुष्य सब कुछ पा लेता है | चित्रानक्षत्रयुक्त सोमवार के सात व्रत करके मनुष्य सुख प्राप्त करता है | स्वाती नक्षत्र से युक्त मंगलवार का व्रत आरम्भ करे | इसप्रकार मंगलवार के सात नक्तव्रत करके मनुष्य दुःख-बाधाओं से छुटकारा पाता है | बुध-सम्बन्धी व्रत में विशाखा नक्षत्रयुक्त बुधवार को ग्रहण करे | उससे आरम्भ करके बुधवार के सात नक्तव्रत करनेवाला बुधग्रहजनित पीड़ा से मुक्त हो जाता है | अनुराधानक्षत्रयुक्त गुरूवार से आरम्भ करके सात नक्तव्रत करनेवाला ब्रहस्पति-ग्रह की पीडासे, जेष्ठानक्षत्रयुक्त शुक्रवार को व्रत ग्रहण करके सात नक्तव्रत करनेवाला शुक्रग्रह की पीडासे और मूलनक्षत्रयुक्त शनिवार से आरम्भ करके सात नक्तव्रत करनेवाला शनिग्रह की पीड़ा से निवृत्त हो जाता है ||१-५||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में वार-सम्बन्धी व्रतों का वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१९६ नक्षत्र-सम्बन्धी व्रत
अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! अब मैं नक्षत्र सम्बन्धी व्रतों का वर्णन करता हूँ | नक्षत्र-विशेष में पूजन करनेपर श्रीहरि अभीष्ट मनोरथ की पूर्ति करते हैं | सर्वप्रथम नक्षत्र-पुरुष श्रीहरि का चैत्र मास में पूजन करे | मूल नक्षत्र में श्रीहरि के चरण-कमलों की और रोहिणी नक्षत्र में उनकी जंगाओं की अर्चना करे | अश्विनी नक्षत्र के प्राप्त होनेपर जानुयुग्मका, पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढा में इनकी दोनों ऊरुओं का, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी में उपस्थका, कृत्तिका नक्षत्र में कटिप्रदेश का, पूर्वाभाद्रपदा और उत्तराभाद्रपदा में पार्श्वभाग का, रेवती नक्षत्र में कुक्षिदेश का, अनुराधा में स्तनयुगल का, धनिष्ठा में पृष्ठभाग का, विशाखा में दोनों भुजाओं का एवं पुनर्वसु नक्षत्र में अँगुलियों का पूजन करे | आश्लेषा में नखों का पूजन करके जेष्ठा में कंठका यजन करे | श्रवण नक्षत्र में सर्वव्यापी श्रीहरि के कर्णद्वय का और पुष्य नक्षत्र में वदन-मंडल का पूजन करे | स्वाति नक्षत्र में उनके दाँतोके अग्रभाग की, शतभिषा नक्षत्र में मुख की अर्चना करे | मघा नक्षत्र में नासिका की, मृगशिरा नक्षत्र में नेत्रों की, चित्रा नक्षत्र में ललाट की एवं आर्दा नक्षत्र में केशसमूह की पूजा करे | वर्ष के समाप्त होनेपर गुड़ से परिपूर्ण कलशपर श्रीहरि की स्वर्णमयी मुर्तिकी पूजा करके ब्राह्मण को दक्षिणासहित शय्या, गौ और धनादिका दान दे ||१-७||
सबके पूजनीय नक्षत्रपुरुष श्रीविष्णु शिव से अभिन्न है, इसलिये शाम्भवायनीय (शिव-सम्बन्धी) व्रत करनेवाले को कृत्तिका नक्षत्र सम्बन्धी कार्तिक मास में और मृगशिरा नक्षत्र सम्बन्धी मार्गशीर्ष मास में केशव आदि नामों एवं ‘अच्युताय नम: |’ आदि मंत्रोद्वारा श्रीहरि का पूजन करना चाहिये –
संकल्प मन्त्र
कार्तिके कृत्तिकाभेऽह्री मासनक्षत्रगं हरिम |
शाम्भवायनीयव्रतकं करिष्ये भुक्तिमुक्तिदम ||
‘मैं कार्तिक मासकी कृत्तिका नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा तिथि को मास एवं नक्षत्र में स्थित श्रीहरि का पूजन करूँगा तथा भोग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाले शाम्भवायनीय व्रतका अनुष्ठान करूँगा |’
आवाहन–मंत्र
केशवादिमहामुर्तिमच्युतं सर्वदायकम |
आवाहयाम्यहं देवमायुरारोग्यवृद्धिदम ||
‘जो केशव आदि महामुर्तियों के रूप में स्थित है और आयु एवं आरोग्य की वृद्धि करनेवाले हैं, मैं उन सर्वप्रद भगवान् अच्युत का आवाहन करता हूँ |’
व्रतकर्ता कार्तिक से माघतक चार मासों में सदा अन्न-दान करे | फाल्गुन से जेष्ठ्तक खिचड़ी का और आषाढ़ से आश्विनतक खीर का दान करे | भगवान् श्रीहरि एवं ब्राह्मणों को रात्रि के समय नैवेद्य समर्पित करे | पंचगव्य के जलसे स्नान एवं उसका आचमन करनेसे मनुष्य पवित्र हो जाता है | मूर्ति के विसर्जन के पूर्व भगवान् को समर्पित किये हुए समस्त पदार्थो को ; नैवेद्य’ कहा जाता है, परन्तु जगदीश्वर श्रीहरि के विसर्जन के अनन्तर वह तत्काल ही ‘निर्माल्य’ हो जाता है | तो प्रार्थना करे – ‘अच्युत ! आपको नमस्कार हैं, नमस्कार है | मेरे पापों का विनाश हो और पुण्यों की वृद्धि हो | मेरे ऐश्वर्य और धनादि सदा अक्षय हों एवं मेरी संतान-परम्परा कभी उच्छिन्न न हो | परात्परस्वरुप ! अप्रमेय परमेश्वर ! जिसप्रकार आप परसे भी परे एवं ब्रह्मभाव में स्थित होकर अपनी मर्यादा से कभी च्युत नहीं होते हैं, उसी प्रकार आप मेरे मनोवांछित कार्य को सिद्ध कीजिये | पापापहारी भगवन ! मेरे द्वारा किये गये पापों का अपहरण कीजिये | अच्युत ! अनंत ! गोविन्द ! अप्रमेयस्वरुप पुरुषोत्तम ! मुझपर प्रसन्न होइये और मेरे मनोभिलवित पदार्थ को अक्षय कीजिये |’ इस प्रकार सात वर्षोतक श्रीहरि का पूजन करके मनुष्य भोग और मोक्ष को सिद्ध कर लेता है ||८-१७||
अब मैं नक्षत्र सम्बन्धी व्रतों के प्रकरण में अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति करानेवाले ‘अनंतव्रत’ का वर्णन करूँगा | मार्गशीर्ष मास में जब मृगशिरा नक्षत्र प्राप्त हो, तब गोमूत्र का प्राशन करके श्रीहरि का यजन करे | वे भगवान् अनंत समस्त कामनाओं का अनंत फल प्रदान करते है |
इतना ही नहीं, वे पुनर्जन्म में भी व्रतकर्ता को अनंत पुण्यफल से संयुक्त करते हैं | यह महाव्रत अनंत पुण्य का संचय करनेवाला है | यह अभिलाषित वस्तु की प्राप्ति कराके उसे अक्षय बनाता है | भगवान् अनंत के चरणकमल आदि का पूजन करके रात्रि के समय तेलरहित भोजन करे | भगवान् अनंत के उद्देश्य से मार्गशीर्ष से फाल्गुन तक घृत का, चैत्र से आषाढ़तक अघहनी के चावल का और श्रावण से कार्तिकतक दुग्ध का हवन करे | इस ‘अनंत’ व्रत के प्रभाव से ही युवनाश्व को मान्धाता पुत्ररूप में प्राप्त हुए थे ||१८-२३||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘नक्षत्र-व्रतों का वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ || ८५ ||
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अध्याय –१९७ दिन-सम्बन्धी व्रत
अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! अब मैं दिवस सम्बन्धी व्रतों का वर्णन करता हूँ | सबसे पहले ‘धेनुव्रत’ के विषय में बतलाता हूँ | जो मनुष्य विपुल स्वर्णराशि के साथ उभयमुखी गौ का दान करता है और एक दिनतक पयोव्रतका आचरण करता है, वह परमपद को प्राप्त होता है | स्वर्णमय कल्पवृक्ष का दान देकर तीन दिनतक ‘पयोव्रत’ करनेवाला ब्रह्मपद को प्राप्त कर लेता है | इसे ‘कल्पवृक्ष व्रत’ कहा गया है | बीस पल से अधिक स्वर्ण की पृथ्वी का निर्माण कराके दान दे और एक दिन पयोव्रत का अनुष्ठान करे | केवल दिनमें व्रत रखने से मनुष्य रुद्रलोक को प्राप्त होता है | जो प्रत्येक पक्ष की तीन रात्रियों में ‘एकभुक्त व्रत’ रखता है, वह दिन में निराहार रहकर ‘त्रिरात्रव्रत’ करनेवाला मनुष्य विपुल धन प्राप्त करता है | प्रत्येक मास में तीन एकभुक्त नक्तव्रत करनेवाला गणपति के सायुज्य को प्राप्त होता है | जो भगवान् जनार्दन के उद्देश्य से ‘त्रिरात्रव्रत’का अनुष्ठान करता है, वह अपने सौ कुलों के साथ भगवान् श्रीहरि के वैकुण्ठधाम को जाता है | व्रतानुरागी मनुष्य मार्गशीर्ष के शुक्लपक्ष की नवमी से विधिपूर्वक त्रिरात्रव्रत प्रारम्भ करे | ‘नमो भगवते वासुदेवाय’ मन्त्र का सहस्त्र अथवा सौ बार जप करे | अष्टमी को एकभुक्त (दिन में एक बार भोजन करना) व्रत और नवमी, दशमी, एकादशी को उपवास करे | द्वादशी को भगवान् श्रीविष्णु का पूजन करे | यह व्रत कार्तिक में करना चाहिये | व्रत की समाप्तिपर ब्राह्मणों को भोजन कराके, उन्हें वस्त्र, शय्या, आसन, छत्र, यज्ञोपवीत और पात्र दान करे | देते समय ब्राह्मणों से यह प्रार्थना करे – ‘इस दुष्कर व्रत के अनुष्ठान में मेरे द्वारा जो त्रुटि हुई हो, आप लोगों की आज्ञासे वह परिपूर्ण हो जाय |’ यह ‘त्रिरात्रव्रत’ करनेवाला इस लोक में भोगों का उपभोग करके मृत्यु के पश्च्यात भगवान् श्रीविष्णु के सानिध्य को प्राप्त करता है ||१-११||
अब मैं भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले कार्तिकव्रत के विषय में कहता हूँ | दशमी को पंचगव्य का प्राशन करके एकादशी को उपवास करे | इस व्रत के पालन में कार्तिक के शुक्लपक्ष की द्वादशी को श्रीविष्णु का पूजन करनेवाला मनुष्य विमानचारी देवता होता है | चैत्र में त्रिरातव्रत करके केवल रात्रि के समय भोजन करनेवाला एवं व्रत की समाप्ति में पाँच बकरियों का दान देनेवाला सुखी होता है | कार्तिक के शुक्लपक्ष की षष्ठी से आरंभ करके तीन दिनतक केवल दुग्ध पीकर रहे | फिर तीन दिनतक उपवास करे | इसे ‘माहेन्द्रकृच्छ’ कहा जाता है | कार्तिक के शुक्लपक्ष की एकादशी को आरम्भ करके ‘पंचरात्रव्रत’करे | प्रथम दिन दुग्धपान करे, दूसरे दिन दधिका आहार करे, फिर तीन दिन उपवास करे | यह अर्थप्रद ‘भास्करकृच्छ’ कहलाता है | शुक्लपक्ष की पंचमी से आरंभ करके छ: दिनतक क्रमश: यवकी लापसी, शाक, दधि, दुग्ध, घृत और जल – इन वस्तुओं का आहार करे | इसे ‘सांतपनकृच्छ’ कहा गया है ||१२-१६||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘दिवस-सम्बन्धी व्रतका वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –१९८ मास-सम्बन्धी व्रत
अग्निदेव कहते हैं – मुनिश्रेष्ठ ! अब मैं मास-व्रतों का वर्णन करूँगा, जो भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं | आषाढ़ से प्रारम्भ होनेवाले चातुर्मास्य में अभ्यंग (मालिश और उबटन) – का त्याग करे | इससे मनुष्य उत्तम बुद्धि प्राप्त करता है | वैशाख में पुष्परेणुतक का परित्याग करके गोदान करनेवाला राज्य प्राप्त करता है | एक मास उपवास रखकर गोदान करनेवाला इस भौमव्रत के प्रभाव से श्रीहरिस्वरुप हो जाता है | आषाढ़ से प्रारम्भ होनेवाले चातुर्मास्य में नियमपूर्वक प्रात:स्नान करनेवाला विष्णुलोक को जाता है | माघ अथवा चैत्र मासकी तृतीया को गुड़-धेनु का दान दे, इसे ‘गुड़व्रत’ कहा गया है | इस महान व्रत का अनुष्ठान करनेवाला शिवस्वरूप हो जाता है | मार्गशीर्ष आदि मासों में ‘नक्तव्रत’ (रात्रि में एक बार भोजन) करनेवाला विष्णुलोक का अधिकारी होता है | ‘एकभुक्त व्रत’ का पालन करनेवाला उसीप्रकार पृथक रूपसे द्वादशीव्रत का भी पालन करे | ‘फलव्रत’ करनेवाला चातुर्मास्य में फलों का त्याग करके उनका दान करे ||१-५||
श्रावण से प्रारम्भ होनेवाले चातुर्मास्य में व्रतों के अनुष्ठान से व्रतकर्ता सब कुछ प्राप्त कर लेता हैं | चातुर्मास्य-व्रतों का इसप्रकार विधान करे – आषाढ़ के शुक्लपक्ष की एकादशी को उपवास रखे | प्राय: आषाढ़ में प्राप्त होनेवाली कर्क-संक्रांति में श्रीहरि का पूजन करे और कहे – ‘भगवन ! मैंने आपके सम्मुख यह व्रत ग्रहण किया है | केशव ! आपकी प्रसन्नता से इसकी निर्विघ्न सिद्धि हो | देवाधिदेव जनार्दन ! यदि इस व्रतके ग्रहण के अनन्तर इसकी अपूर्णता में ही मेरी मृत्यु हो जाय, तो आपके कृपा-प्रसद्से यह व्रत सम्पूर्ण हो |’ व्रत करनेवाला द्विज मांस आदि निषिद्ध वस्तुओं और तेलका त्याग करके श्रीहरि का यजन करे | एक दिन के अंतर से उपवास रखकर त्रिरात्रव्रत करनेवाला विष्णुलोक को प्राप्त होता है | ‘चान्द्रायण व्रत’ करनेवाला विष्णुलोक का और ‘मौनव्रत’ करनेवाला मोक्ष का अधिकारी होता है | ‘प्राजापत्य व्रत’ करनेवाला स्वर्गलोक को जाता है | सत्तू और यव का भक्षण करके, दुग्ध आदि का आहार करके, अथवा पंचगव्य एवं जल पीकर कृच्छव्रतों का अनुष्ठान करनेवाला स्वर्ग को प्राप्त होता है | शाक, मूल और फलके आहारपूर्वक कृच्छव्रत करनेवाला मनुष्य वैकुण्ठ को जाता है | मांस और रसका परित्याग करके जौ का भोजन करनेवाला श्रीहरि के सान्निध्य को प्राप्त करता है ||६-१२||
अब मैं ‘कौमुदव्रत’ का वर्णन करूँगा | आश्विन के शुक्लपक्ष की एकादशी को उपवास रखे | द्वादशी को श्रीविष्णु के अंगों में चंदनादि का अनुलेपन करके कमल और उत्पल आदि पुष्पों से उनका पूजन करे | तदनन्तर तिल-तैल से परिपूर्ण दीपक और घृतसिद्ध पक्वान्न का नैवेद्य समर्पित करे | श्रीविष्णु को मालतीपुष्पों की माला भी निवेदन करे | ‘ॐ नमो वासुदेवाय’ – इस मंत्रसे व्रतका विसर्जन करे | इसप्रकार ‘कौमुदव्रत’ का अनुष्ठान करनेवाला धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – चारों पुरुषार्थो को हस्तगत कर लेता है | मासोपवास व्रत करनेवाला श्रीविष्णु का पूजन करके सब कुछ प्राप्त कर लेता हैं ||१३-१६||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘मास-सम्बन्धी व्रतका वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
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अध्याय –१९९ ऋतू, वर्ष, मास, संक्रान्ति आदि विभिन्न व्रतों का वर्णन
अग्निदेव कहते है – वसिष्ठ ! अब मैं आपके सम्मुख ऋतू-सम्बन्धी व्रतों का वर्णन करता हूँ, जो भोग और मोक्ष को सुलभ करनेवाले हैं | जो वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर ऋतू में इंधन का दान करता है, एवं व्रतांत में घृत-धेनु का दान करता है, वह ‘अग्निव्रत’ का पालन करनेवाला मनुष्य दुसरे जन्म में ब्राह्मण होता है | जो एक मासतक संध्या के समय मौन रहकर मासांत में ब्राह्मण को घृतकुम्भ, टिल, घंटा और वस्त्र देता है, वह ‘सारस्वतव्रत’ करनेवाला मनुष्य सुख का उपभोग करता है | एक वर्षतक पंचामृत से स्नान करके गोदान करनेवाला राजा होता है ||१-३||
चैत्र की एकादशी को नक्तभुक्तव्रत करके चैत्र के समाप्त होनेपर विष्णुभक्त ब्राह्मण को स्वर्णमयी विष्णु-प्रतिमा का दान करे | इस विष्णु-सम्बन्धी उत्तम व्रत का पालन करनेवाला विष्णुपद को प्राप्त करता है | (एक वर्षतक) खीर का भोजन करके गोयुग्म का दान करनेवाला इस ‘देविव्रत’ के पालन के प्रभाव से श्रीसंपन्न होता है | जो (जो एक वर्षतक) पितृदेवों को समर्पित करके भोजन करता है, वह राज्य प्राप्त करता है | ये वर्ष-सम्बन्धी व्रत कहे गये | अब मैं संक्रान्ति-सम्बन्धी व्रतों का वर्णन करता हूँ | मनुष्य संक्रान्ति की रात्रि को जागरण करनेसे स्वर्गलोक को प्राप्त होता है | जब संक्रान्ति अमावस्या तिथि में हो तो शिव और सूर्य का पूजन करनेसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है | उत्तरायण–सम्बन्धिनी मकर–संक्रान्ति में प्रात:काल स्नान करके भगवान् श्रीकेशव की अर्चना करनी चाहिये | उद्यापन में बत्तीस पल स्वर्ण का दान देकर वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है | विषुव आदि योगों में भगवान् श्रीहरि को घृतमिश्रित दुग्ध आदि से स्नान कराके मनुष्य सब कुछ प्राप्त कर लेता है ||४-८||
स्त्रियों के लिये ‘उमव्रत’ लक्ष्मी प्रदान करनेवाला है | उन्हें तृतीया और अष्टमी तिथि को गौरीशंकर की पूजा करनी चाहिये | इसप्रकार शिव–पार्वती की अर्चना करके नारी अखंड सौभाग्य प्राप्त करती है और उसे कभी पति का वियोग नहीं होता |‘मूलव्रत’ एवं ‘उमेशव्रत’ करकेवाली तथा सूर्य में भक्ति रखनेवाली स्री दुसरे जन्ममें अवश्य पुरुषत्व प्राप्त करती है ||९-११||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘विभिन्न व्रतोंका वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
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अध्याय –२०० दीपदान-व्रत की महिमा एवं विदर्भराजकुमारी ललिता का उपाख्यान
अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! अब मैं भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले ‘दीपदान-व्रत का वर्णन करता हूँ | जो मनुष्य देवमंदिर अथवा ब्राह्मण के गृह में एक वर्षतक दीपदान करता है, वह सब कुछ प्राप्त कर लेता हैं | चार्तुमास्य में दीपदान करनेवाला विष्णुलोक को और कार्तिक में दीपदान करनेवाला स्वर्गलोक को प्राप्त होता है | दीपदान से बढकर न कोई व्रत है, न था और न होगा ही | दीपदान से आयु और नेत्रज्योति की प्राप्ति होती है | दीपदान से धन और पुत्रादिकी भी प्राप्ति होती है | दीपदान करनेवाला सौभाग्ययुक्त होकर स्वर्गलोक में देवताओंद्वारा पूजित होता है | विदर्भराजकुमारी ललिता दीपदान के पुण्य से ही राजा चारुधर्मा की पत्नी हुई और उसकी सौ रानियों में प्रमुख हुई | उस साध्वी ने एक बार विष्णुमन्दिर में सहस्त्र दीपों का दान किया | इसपर उसकी सपत्नियों ने उससे दीपदान का माहात्म्य पूछा | उनके पूछनेपर उसने इसप्रकार कहा ||१-५||
ललिता बोली – पहले की बात है, सौविरराज के यहाँ मैलेय नामक पुरोहित थे | उन्होंने देविका नदी के तटपर भगवान् श्रीविष्णु का मंदिर बनवाया | कार्तिक मासमें उन्होंने दीपदान किया | बिलाव के डरसे भागती हुई एक चुहियाने अकस्मात अपने मुख के अग्रभाग से उस दीपक की बत्ती को बढ़ा दिया | बत्ती के बढ़ने से वह बुझता हुआ दीपक प्रज्वलित हो उठा | मृत्युके पश्चात वही चुहिया राजकुमारी हुई और राजा चारुधर्मा की सौ रानियों में पटरानी हुई | इसप्रकार मेरे द्वारा बिना सोचे-समझे जो विष्णुमन्दिर के दीपक की वर्तिका बढ़ा दी गयी, उसी पुण्यका मैं फल भोग रही हूँ | इसीसे मुझे अपने पूर्वजन्म का स्मरण भी है | इसलिये मैं सदा दीपदान किया करती हूँ | एकादशी को दीपदान करनेवाला स्वर्गलोक में विमानपर आरूढ़ होकर प्रमुदित होता है | मंदिर का दीपक हरन करनेवाला गूँगा अथवा मुर्ख हो जाता है | वह निश्चय ही, ‘अन्धतामिस्र’ नामक नरक में गिरता हैं, जिसे पार करना दुष्कर है | वहाँ रुदन करते हुए मनुष्यों से यमदूत कहता है – “अरे ! अब यहाँ विलाप क्यों करते हो ? यहाँ विलाप करनेसे क्या लाभ है ? पहले तुमलोगों ने प्रमादवश सहस्त्रो जन्मों के बाद प्राप्त होनेवाले मनुष्य-जन्म की उपेक्षा की थी | वहाँ तो अत्यंत मोहयुक्त चित्तसे तुमने भोगों के पीछे दौड़ लगायी | पहले तो विषयों का आस्वादन करके खूब हँसे थे, अब यहाँ क्यों रो रहे हो ? तुमने पहले ही यह क्यों नहीं सोचा कि किये हुए कुकर्मो का फल भोगना पड़ता है | पहले जो परनारी का कुचमर्दन तुम्हें प्रीतिकर प्रतीत होता था, वही अब तुम्हारे दुःख का कारण हुआ है | मुहूर्तभर का विषयों का आस्वादन अनेक करोड़ वर्षोतक दुःख देनेवाला होता है | तुमने परस्त्री का अपहरण करके जो कुकर्म किया, वह मैंने बतलाया | अब ‘हा ! मात:’ कहकर विलाप क्यों करते ही ? भगवान् श्रीहरि के नाम का जिव्हासे उच्चारण करने में कौन-सा बड़ा भार है ? बत्ती और तेल अल्प मूल्यकी वस्तुएं है और अग्नि तो वैसे ही सदा सुलभ है | इसपर भी तुमने दीपदान न करके विष्णु मंदिर के दीपक का हरन किया, वही तुम्हारे लिये दुःखदायी हो रहा है | विलाप करने से क्या लाभ ? अब तो जो यातना मिल रही है, उसे सहन करो” ||६-१८||
अग्निदेव कहते हैं – ललिता की सौतें उसके द्वारा कहे हुए इस उपाख्यान को सुनकर दीपदान के प्रभाव से स्वर्ग को प्राप्त हो गयीं | इसलिये दीपदान सभी व्रतों से विशेष फलदायक है ||१९||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘दीपदान की महिमाका वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
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