- अध्याय – ३५१ सुबन्त-सिद्ध रूप
- अध्याय - ३५२ स्त्रीलिङ्ग शब्दोके सिद्ध रूप
- अध्याय - ३५३ नपुंसकलिङ्ग शब्दोके सिद्ध रूप
- अध्याय – ३५४ कारक प्रकरण
- अध्याय – ३५५ समास-निरूपण
- अध्याय – ३५६ त्रिविध तद्वित-प्रत्यय
- अध्याय – ३५७ उणादिसिद्ध शब्दरूपोंका दिग्दर्शन
- अध्याय – ३५८ तिङ् विभक्त्यन्त सिद्ध रूपों का वर्णन
- अध्याय – ३५९ कृदन्त शब्दोंके सिद्ध रूप
- अध्याय – ३६० स्वर्ग-पाताल आदि वर्ग
- अध्याय – ३६१ अव्यय-वर्ग
- अध्याय – ३६२ नानार्थ-वर्ग
- अध्याय – ३६३ भूमि, वनौषधि आदि वर्गः
- अध्याय – ३६४ मनुष्य-वर्ग
- अध्याय – ३६५ ब्रह्म-वर्गं
- अध्याय – ३६६ क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-वर्ग
- अध्याय – ३६७ सामान्य नाम-लिङ्ग
- अध्याय – ३६८ नित्य, नैमितिक और प्राकृत प्रलयका वर्णन
- अध्याय – ३६९ आत्यन्तिक प्रलय एवं गर्भकी उत्पत्तिका वर्णन
- अध्याय – ३७० शरीरके अवयव
- अध्याय – ३७१ प्राणियोकी मृत्यु, नरक तथा पापमूलक जन्मका वर्णन
- अध्याय – ३७२ यम और नियमोंकी व्याख्या; प्रणवकी महिमा तथा भगवत्पूजनका माहात्म्य
- अध्याय – ३७३ आसन, प्राणायाम और प्रत्याहारका वर्णन
- अध्याय – ३७४ ध्यान
- अध्याय – ३७५ धारणा
- अध्याय – ३७६ समाधि
- अध्याय – ३७७ श्रवण एवं मननरूप ज्ञान
- अध्याय – ३७८ निदिध्यासनरूप ज्ञान
- अध्याय – ३७९ भगवत्स्वरूपका वर्णन तथा ब्रह्मभावकी प्रामिका उपाय
- अध्याय – ३८० जड़भरत और सौवीर-नरेश का संवाद-अद्वैत ब्रह्मविज्ञानका वर्णन
- अध्याय – ३८१ गीता-सार
- अध्याय – ३८२ यमगीता
- अध्याय – ३८३ अग्निपुराणका माहात्म्य
अग्निपुराण
अध्याय – ३५१ सुबन्त-सिद्ध रूप
स्कन्द कहते हैं–कात्यायन! अब मैं तुम्हारे सम्मुख विभक्ति-सिद्ध रूपोंका वर्णन करता हूँ।
विभक्तियाँ दो हैं-“सुप‘ और ‘तिङ्‘। ‘सुप विभक्तियाँ सात हैं।
सु औ जस्-यह प्रथमा विभक्ति है।
अम् औट शस्-यह द्वितीया,’
टा भ्याम् भिस्-यह तृतीया,
डे भ्याम् भ्यस् यह चतुर्थी,
डसि भ्याम् भ्यस्-यह पश्चमी,
डस् ओस् आम्‘-यह षष्ठी तथा
डि ओस् सुप्“-यह सप्तमी विभक्ति है।
ये सातों विभक्तियाँ प्रातिपदिक संज्ञावाले शब्दोंसे परे प्रयुक्त होती है ||१-३||
‘प्रातिपदिक’ दो प्रकारका होता है-“अजन्त’ और “हलन्त”। इनमेंसे प्रत्येक पुँल्लङ्ग, स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्गके भेदसे तीन-तीन प्रकारका है।
उन पुंल्लिङ्ग आदि शब्दोंके नायकोंका* यहाँ दिग्दर्शन कराया जाता है। जो शब्द नहीं कहे गये हैं(किंतु जिनके रूप इन्हींके समान होते हैं) उन्हींके ये ‘वृक्ष‘ आदि शब्द सामथर्यत: नायक हैं।
‘वृक्ष‘ शब्द पेड़का वाचक है। यह अकारान्त पुंलिङ्ग है। इसके सात विभक्तियोंमें तथा सम्बोधनमें एकवचन, द्विवचन और बहुवचनके भेदसे कुल मिलाकर चौबीस रूप होते हैं। उन सबको यहाँ उद्धृत किया जाता है।। इसी प्रकार राम, देव, इन्द्र, वरुण, भव आदि शब्दोंके रूप जानने चाहिये। ‘देव’ आदि शब्दोंके तृतीयाके एकवचनमें ‘देवेन” तथा षष्ठीके बहुवचनमें ‘देवानाम्’ इत्यादि रूप होते हैं। वहाँ ‘न’ के स्थानमें ‘ण’ नहीं होता। रेफ और षकारके बाद जो ‘न’ हो, उसीके स्थानमें ‘ण’ होता है।अकारान्त शब्दोंमें जो सर्वनाम हैं, उनके रूपोंमें कुछ भिन्नता होती है। उस भिन्नताका परिचय देनेके लिये सर्वनामका ‘प्रथम’ या ‘नायक’ जो ‘सर्व’ शब्द है, उसके रूप यहाँ दिये जाते हैं, उसी तरह अन्य सर्वनामोंके भी रूप होंगे। यथा-
यहाँ रेखाङ्कित रूपोंपर दृष्टिपात कीजिये। साधारण अकारान्त शब्दोंकी अपेक्षा सर्वनाम शब्दोंके रूपोंमें भिन्नता के पाँच ही स्थल हैं। इसके बाद ‘पूर्व’ शब्द आता है। यह सर्वनाम होनेपर भी अन्य सर्वनामोंसे कुछ विलक्षण रूप रखता है।
पूर्व, पर, अवर, दक्षिण, उत्तर, अपर, अधर-ये व्यवस्था और असंज्ञामें सर्वनाम हैं। “स्व” तथा “अन्तर” शब्द भी अर्थ-विशेष में ही सर्वनाम हैं। अत: उससे भिन्न अर्थमें वे असर्वनामवत् रूप धारण करते हैं।
प्रथमाके बहुवचनमें तथा पश्चमी-सप्तमीके एकवचनमें पूर्वादि शब्दोंके रूप सर्वनामवत् होते हैं, किंतु विकल्पसे। अत: पक्षान्तरमें उनके असर्वनामवत् रूप भी होते ही हैं-जैसे पूर्वे पूर्वा, परे पराः, इत्यादि। पूर्वस्मात् पूर्वात्। पूर्वस्मिन्पूर्वे इत्यादि।
प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय-ये शब्द सर्वनाम नहीं हैं, तथापि ‘प्रथम’ शब्दके प्रथमा बहुवचनमें-प्रथमे प्रथमा:-यह रूप होता है। “चरम’ आदि शब्दोंके लिये भी यही बात है। ‘द्वितीय’ तथा ‘तृतीय’ शब्द चतुर्थी, सर्वनामवत् रूप धारण करते हैं। यथा-द्वितीयस्मै द्वितीयाय। तृतीयस्मै तृतीयाय-इत्यादि शेष रूप वृक्षवत् होते हैं।अब आकारान्त शब्दका एक रूप उपस्थित करते हैं- खड्गपा:-खड्ग पातीति खड़गपा: अर्थात् ‘खड़ग-रक्षक’। इसका रूप यों समझना चाहिये-इसी तरह विश्वपा (विश्वपालक), गोपा (गोरक्षक), कीलालपा (जल पीनेवाला), शङ्खध्मा (शङ्ख बजानेवाला) आदि शब्दोके रूप होंगे।
(अब हुस्व इकारान्त “वह्रि” शब्दका रूप प्रस्तुत करते हैं-)
इकारान्त शब्दमें “सखि‘ और ‘पति‘ शब्दोंके रूप कुछ भिन्नता रखते हैं। जैसे-१-सखा, सखायौ, सखायः। २-सखायम्, सखायौ, सखीन्। तृतीयाके एकवचनमें-सख्या, चतुर्थीके एकवचनमें सख्ये, पश्चमी और षष्ठीके एकवचनमें सख्यु: तथा सतमीके एकवचनमें सख्यौ रूप होते हैं। शेष सभी रूप ‘ वह्रि” शब्दके समान हैं।
‘पति’ शब्दके प्रथमा और द्वितीया विभक्तियोंमें वह्रिवत् रूप होते हैं, शेष विभक्तियोंमें वह ‘सखि” शब्दके समान रूप रखता है।
‘अहर्पतिः‘ का अर्थ है सूर्य। यहाँ ‘पति‘ शब्द समासमें आबद्ध है। समासमें उसका रूप वह्रितुल्य हीं होता है।
(अब उकारान्त शब्दका रूप प्रस्तुत करते हैं।) पहले पुंल्लिङ्ग ‘पटु’ शब्दके रूप दिये जाते हैं। पटुका अर्थ है-कुशल-निपुण।इसी तरह भानु, शम्भु विष्णु आदि शब्दोंके रूप जानने चाहिये।
(अब दीर्घ ईकारान्त शब्दका रूप प्रस्तुत करते हैं।) दीर्घ ईकारान्त ‘ग्रामणी’ शब्द है। इसका अर्थ है गाँवका मुखिया। इसका रूप इस प्रकार है-
१- ग्रामणीः, ग्रामण्यौ, ग्रामण्यः॥ २-ग्रामणीम्, ग्रामण्यौ, ग्रामण्यः। ३-ग्रामण्या, ग्रामणीभ्याम्, ग्रामणीभिः । ४-ग्रामण्ये, ग्रामणीभ्याम २, ग्रामणीभ्यः२ ।। ५-ग्रामण्यः२ || ६-ग्रामण्योः २॥ बहुवचन-ग्रामण्याम्।। ७-ग्रामण्याम्, ग्रामणीषु॥ इसी तरह ‘प्रधी’ आदि शब्दोंके रूप जानने चाहिये।
(अब दीर्घ ऊकारान्त शब्दका रूप प्रस्तुत करते हैं।) दीर्घ ऊकारान्त “दृन्भू शब्द है। इसका अर्थ है-राजा, वज्र, सूर्य, सर्प और चक्र।
इसका रूप-दृन्भूः, दृन्भ्वौ, दृन्भ्वः इत्यादि।’खलपूः‘- खलिहान या भूमिको शुद्ध-स्वच्छ करनेवाला। इसके रूप खलपू, खलप्वौ, खलप्वः इत्यादि।
‘मित्रभू:’-मित्रसे उत्पन्न। इसका रूप हैमित्रभूः, मित्रभुवौ, मित्रभुवः इत्यादि । ‘स्वभू’ का अर्थ है-स्वयम्भूः-स्वत: प्रकट होनेवाला। इसके रूप-स्वभू, स्वभुवौ, स्वभुवः इत्यादि है II४-६II’सुश्री:’का अर्थ है-सुन्दर शोभासे सम्पन्न। इसके रूप हैं-सुश्री:, सुश्रियी, सुश्रियः इत्यादि। ‘सुधी:” का अर्थ है-उत्तम बुद्धिसे युक्त विद्वान्। इसके रूप हैं-सुधी, सुधियौ, सुधियः इत्यादि।
(अब ऋकारान्त शब्दका रूप प्रस्तुत करते हैं।) अब ऋकारान्त पुँल्लङ्ग ‘पितृ’ तथा ‘भ्रातृ’ शब्दोंके रूप दिये जाते हैं-“पिता’ का अर्थ हैबाप और ‘भ्राता’ का अर्थ है-भाई। “पितृ’ शब्दके सब रूप इस प्रकार हैं-
१-पिता, पितरौ, पितरः ॥ २-पितरम्, पितरौ, पितॄन्।। ३-पित्रा, पितृभ्याम्, पितृभ्यः ।। ४-पित्रे, पितृभ्याम्, पितृभ्यः ।। ५-पितुः, पितृभ्याम्, पितृभ्यः ।। ६-पितुः, पित्रोः, पितॄणाम्। ७-पितरि, पित्रोः, पितृषु । सम्बो०-है पितः, हे पितरौ, हे पितरः । इसी तरह ‘भ्रातृ‘ और ‘जामातृ” शब्दोंके भी रूप होते हैं।
‘नृ‘ शब्द नरका वाचक है। इसके रूप ना, नरौ, नरः इत्यादि ‘पितृ’ शब्दवत् के तरह होते हैं। केवल षष्ठीके बहुवचनमें दो रूप होते हैं-नृणाम नृणाम्।
‘कर्तु‘ शब्दका अर्थ है करनेवाला। यह ‘तृजन्त’ शब्द है। इसके दो विभक्तियोंमें रूप इस प्रकार हैं-कर्ता, कर्तारी, कर्तार:। कर्तारम, कर्तारी, कर्नून्। शेष “पितृ” शब्दकी भाति है ।
‘क्रोष्टु’ शब्द सियारका वाचक है। क्रोष्टु विकल्पसे ‘क्रोष्ट्र‘ शब्दके रूपमें प्रयुक्त होता है। उस दशामें इसका रूप “कर्तृ” शब्दकी भाति होता है। “क्रोष्टु” के रूपमें ही यदि इसके रूप लिये जार्य तो ‘पटु’ शब्दकी तरह लेने चाहिये।’नप्तृ‘ शब्द नाती का वाचक है। इसके रूप “कर्तृ” शब्दकी भाति होते हैं।
(अब ऐकारान्त शब्दका रूप प्रस्तुत करते हैं।) ‘सुरै‘ शब्दका अर्थ उत्तम धनवान् है। “रे” शब्दका अर्थ है-धन। ये ऐकारान्त मुँलिङ्ग हैं। इन दोनोंके रूप एक-से होते हैं-
१-सुराः, सुरायौ, सुरायः।। २-सुरायम्, सुरायौ, सुरायः ।३-सुराया, सुराभ्याम, सुराभि: इत्यादि। “रै’- राः, रायौ, रायः इत्यादि । हलादि विभक्तियोंर्मे “र” की जगह ‘रा’ हो जाता हैं।
(अब ओकारान्त शब्दका रूप प्रस्तुत करते हैं।) ओकारान्त “गो” शब्दपर विचार कीजिये। “गो” का अर्थ है-बैल। इसके रूप-गौः, गावौ, गाव: । गाम, गावी, गाः इत्यादि हैं।
(अब औकारान्त शब्दका रूप प्रस्तुत करते हैं।) औकारान्त पुँल्लङ्ग-‘ द्यौ‘ का अर्थ है-आकाश और “ग्लौ” का अर्थ है-चन्द्रमा। इनके रूप-द्यौ:, द्यावौ, द्याव: इत्यादि। ग्लौ, ग्लावी, गलाव: इत्यादि हैं। ये पुंल्लिङ्गमें ‘स्वरान्त नायक’ शब्द बताये गये ॥ ७ ॥
(अब हलन्त पुलिङ्ग शब्दोका परिचय कराया जाता है-)
सुवाक् (श्रेष्ठ वक्ता), सुत्वक् (सुन्दर त्वचावाला), पृषत् (जलबिन्दु), सम्राट् (चक्रवर्ती नरेश), जन्मभाक् (जन्म ग्रहण करनेवाला), सुराट् (श्रेष्ठ राजा), अयम् (यह), मरुत् (वायु), भवन् (होता हुआ), दीव्यन् (क्रीडा करता हुआ), भवान् (आप), मधवान् (इन्द्र), पिबन् (पीता हुआ), भगवान् (समग्र ऐश्वर्यसे सम्पन्न), अघवान् (पापयुक्त), अर्वा (अश्व), वह्रिमान् (अग्नियुक्त), सर्ववित् (सर्वज्ञ), सुपृत् (भलीभाँत पालन करनेवाला), सुसीमा (उत्तम सीमावाला), कुण्डी (कुण्डधारी शिव), राजा, श्र्वा (कुत्ता), युवा (तरुण), मघवा (इन्द्र), पूषा (सूर्य), सुकर्मा (उत्तम कर्म करनेवाला), यज्वा (यज्ञकर्ता), सुवर्मा (उत्तम कवचधारी), सुधर्मा (उत्तम। धर्मवाला), अर्यमा (सूर्य), वृत्रहा (इन्द्र), पन्थाः (मार्ग), सुककुप् (स्वच्छ दिशावाला समय), आष्ट (आठ), पञ्च (पाँच), प्रशान् (पूर्णतः शान्त), सुत्वा, “प्राङ्क प्राऔं प्राञ्चः’ तथा प्रत्यङ् इत्यादि। सुद्यो: (शोभन आकाशवाला काल), सुभ्राट् (विशेष शोभाशाली), सुपू: (सुन्दर नगरीवाला देश), चन्द्रमा, सुवचाः, श्रेयान् विद्वान्, उशना (शुक्राचार्य), पेचिवान् (पूर्वकालमें जिसने पाचन किया हो), अनड्वान्-गाडी खींचनेवाला बैल, गोधुकू (गायको दुहनेवाला), मित्रध्रुकू (मित्रद्रोही), मुक्र (विवेकशून्य), तथा लिट् (चाटनेवाला),- ये सभी हलन्त पुंलिङ्गके ‘नायक’ (आदर्श या प्रमुख शब्द) हैं*॥ ८-११६॥
अब हलन्त स्त्रीलिङ्गमें नायकस्वरूप शब्दोंकी उपस्थित किया जा रहा है–
जाया (स्त्री), जरा (वृद्धावस्था), बाला (नूतन अवस्थाकी स्त्री), एडका (भेड़), वृद्धा (बूढी), क्षत्रिया (क्षत्रिय जातिकी स्त्री), बहुराजा (जहाँ बहुतसे राजा निवास करते हों, वह नगरी), बहुदा (अधिक देनेवाली), मा (लक्ष्मी), अथवा बहुदामा (अधिक दाम-रजु या दीतिवाली), बालिका (लड़की), माया (भगवान्की शक्ति या प्रकृति), कौमुदगन्धा (कुमुदकी-सी सुगन्धवाली), सर्वा (सब), पूर्वा (पूर्व दिशा या पहिली), अन्या (दूसरी), द्वितीया (दूसरी), तृतीया (तीसरी), बुद्धिः (मति), स्त्री (औरत), श्री (लक्ष्मी), नदी, सुधी (उत्तम। बुद्धिवाली), भवन्ती (होती हुई), दीव्यन्ती (क्रीड़ा करती हुई), भाती, भान्ती (शोभमाना), यान्ती (जाती हुई), मृण्वती (सुनती हुई), तुदती, तुदन्ती (व्यथित करती हुई), कत्रीं (करनेवाली), कुर्वती (करती हुई), मही (पृथ्वी), रुन्धती (अवरोध करती हुई), क्रीडन्ती (खेलती हुई), दान्ती, (दाँतकी बनी हुई वस्तु), पालयन्ती (पालती हुई), सुवाणी (उत्तम वाणी), गौरी (पार्वती), पुत्रवती (पुत्रवाली), नौ: (नाव), वधूः (स्त्री), देवता, भूः (पृथ्वी), तिरुनः (तीन), द्वे (दो), कति वर्षाभूः (वर्षाकालमें उत्पन्न होनेवाली मेढ़की), स्वसा (बहिन), माता (माँ), अवरा (लघु), गौ: (गाय), द्यौ: (स्वर्ग), वाकू (वाणी), त्वक्र (चमड्रा), प्राची (पूर्व दिशा), अवाची (दक्षिण दिशा), तिरची (टेढ़ी या मादा पशु-पक्षी), उदीची (उत्तर दिशा), शरद् (ऋतुविशेषः), विद्युत् (बिजली), सरित् (नदी), योषित् (स्त्री), अग्निवित् (अग्निको जाननेवाली), सस्यदा (अन्न देनेवाली) अथवा सम्पद (सम्पत्ति), दृषत् (शिला), या (जो), एषा (यह), सा (वह), वेदवित् (वेदज्ञा), संविद् (ज्ञानशक्ति), बही (बहुत), राज्ञी (रानी), त्वया, मया (युष्मद्-अस्मद् शब्दोंके तीनों लिङ्गोंमें समान रूप होते हैं, ये तृतीयाके एक वचनके रूप हैं)। सीमा (अवधि), पश्च आदि (संख्यावाचक नान्त शब्द), राका (पूर्णिमा), धू: (बोझ), पू: (नगरी), दिशा (दिक्), गिरा (गीः), चतस्रः (चार), विदुषी (पण्डिता), का (कौन), इयम् (यह), दिक् (दिशा), दृक् (नेत्र), तादृक् (तादृशी) तथा’असौं’-ये सभी हलन्त स्त्रीलिङ्ग के नायक शब्द हैं*।
अब हलन्त नपुंसकलिङ्गके नायक शब्द बताये जा रहे हैं ॥१२–१९॥
(सर्वप्रथम स्वरान्त नपुंसकलिङ्ग शब्दोंके प्रारम्भिक सिद्ध रूप दिये जाते हैं-) “कुण्डम्” यह अकारान्त नपुंसकलिङ्ग ‘कुण्ड‘ शब्दका प्रथमान्त एकवचनरूप है। इसके प्रथम दो विभक्तियोंमें क्रमश: एकवचन, द्विवचन और बहुवचनके रूप इस प्रकर जानने चाहिये-कुण्डम्, कुण्डे, कुण्डानि | तृतीया आदि शेष विभक्तियोके रूप पुँल्लिङ्गवत् जानने चाहिये। यथा-कुण्डेन, कुण्डाभ्याम्, कुण्डैः इत्यादि। सम्बोधनमें-हे कुण्ड, हे कुण्डे, हे कुण्डानि। ‘कुण्डम्‘ का अर्थ है-पानीसे भरा हुआ गहरा गड्ढा। यह नदी और तालाब आदिमें होता है। मिट्टीके बड़े और गहरे पात्रविशेषको भी ‘कुण्ड‘ कहते हैं। इसीको ध्यानमें रखकर कुण्डभर दूध देनेवाली गायको ‘कुण्डोघ्नी‘ कहते हैं।
‘सर्वम्“-यह ‘सर्व’ शब्दका एकवचनान्त रूप है, इसका अर्थ हैं सम्पूर्ण या सब। इसके प्रथमा और द्वितीया विभक्तियोंमें नपुंसकलिङ्गसम्बन्धी रूप इस प्रकार होते हैं-सर्वम्, सर्वे, सर्वाणि। शेष पुँल्लङ्गवत्।
‘सोमपम्-सोम पान करनेवाला कुल । इसके भी प्रथम दो विभक्तियोंमें सोमपम्, सोमपे, सोमपानि इत्यादि रूप होगे। शेष पुँल्लङ्ग रामवत्।
“दधि‘ और ‘वारि‘ शब्द क्रमशः दही और जलके वाचक हैं। ये नित्य नपुंसकलिङ्ग हैं। अत: इनके सम्पूर्ण रूप यहाँ उद्धत किये जाते हैं।
प्रo, द्विo विभक्तियोंमें-दधि दधिनी दधीनि। तृ०-दध्ना, दधिभ्याम्, दधिभिः। च०-दध्ने दधिभ्याम् दधिभ्यः । पं0-दध्न: दधिभ्याम् दधिभ्यः । ष0-दध्नः, दध्नोः, दध्नाम्॥ स०-दध्नि-दधनि, दध्नोः, दधिषु॥
“वारि” शब्दके सातों विभक्तियोंके रूप इस प्रकार जानने चाहिये-
१,२-वारि, वारिणी वारीणि। ३-वारिणा वारिभ्याम् वारिभि:। ४-वारिणे वारिभ्याम् वारिभ्य:। ५—वारिण: वारिभ्याम् वारिभ्यः ।। ६-वारिणः वारिणोः वारीणाम्॥७-वारिणि, वारिणोः, वारिषु।।
‘खलपु‘ का अर्थ है-खलिहानको स्वच्छ करनेवाला साधन, ‘खुरपा‘ आदि। इसके रूप विशेष्यके अनुसार स्त्रीलिङ्ग और पुंल्लिङ्गमें भी होते हैं। यहाँ नपुंसकलिङ्गमें इसके रूप उद्धृत किये जाते हैं।
१,२-खलपु खलपुनी खलपूनि । ३-खलप्वा-खलपुना, खलपूभ्याम्, खलपूभिः । ४-खलग्वे-खलपुने खलपूभ्याम् खलपूभ्यः इत्यादि।
‘मधु‘ शब्द शहद और मदिराका वाचक है। इसके रूप इस प्रकार जानने चाहिये-
१,२-मधु मधुनी मधूनि। ३-मधुना मधुभ्याम् मधुभिः ।। ४-मधुने मधुभ्याम् मधुभ्यः ।। ५-मधुनः मधुभ्याम् मधुभ्यः । ६-मधुनः मधुनोः मधूनाम्।। ७-मधुनि मधुनोः मधुषु । सं० हे मधो-हे मधु हे मधुनी हे मभूनि!।
‘त्रपु‘ शब्द राँगाका वाचक है। इसके प्रथम दो विभक्तियोंके रूप इस प्रकार हैं-त्रपु त्रपुणी, त्रपूणि। शेष मधुवत्।
‘कर्तृ” (करनेवाला), ‘भर्तृ‘ (भरण-पोषण करनेवाला), |’अतिभर्तृ‘ (भर्ताको भी अतिक्रमण करनेवाला कुल)-इन तीनों शब्दोंके प्रथमा और द्वितीया विभक्तियोंमें रूप क्रमश: इस प्रकार हैं- कर्तृ कर्तृणी कर्तृणि ॥ भर्तृ भर्तृणी भर्तृणि । अतिभर्तृ। अतिभर्तृणी अतिभर्तृण। तृतीया आदि विभक्तियोंमें जो अजादि प्रत्यय हैं, उनमें दो-दो रूप होंगे। यथा-कर्त्रा, कर्तृणा । भर्त्रा, भर्तृणा॥ अतिभर्त्रा, अतिभर्तृणा इत्यादि।
‘पयस‘ शब्द जलका वाचक है। इसके रूप इस प्रकार हैं-१,२-पयः पयसी पयासि। तृतीया आदिमें पयसा पयोभ्याम पयोभिः इत्यादि।
‘पुरस‘ शब्द सकरान्त अव्यय है। इसका अर्थ हैं-पहले या आगे । अव्यय शब्दोंका कोई रूप नहीं चलता; क्योंकि “अव्यय’का यह लक्षण हैं- ॥ २० ॥
सदृशं म्रिषु लिङ्गेषु सर्वासु च विभक्तिषु।
वचनेषु च सर्वेषु यन्न व्येति तदव्ययम्॥
प्राक् (पूर्व), प्रत्यक् (अंदर या पश्चिम), |तिर्यक् (तिरछी दिशाकी ओर चलनेवाले | पशु-पक्षी आदि), उदक् (उत्तर)-इन शब्दोंके प्रथम दो विभक्तियोंमें रूप इस प्रकार जानने चाहिये।
प्राक् प्राची प्राञ्चि। प्रत्यक् प्रतीची प्रत्यञ्चि। तिर्यक् तिरश्र्ची तिर्यञ्चि । उदक् उदीची उदञ्चि इत्यादि।
ये गत्यर्थक ‘अञ्च’ के रूप हैं, पूजा-अर्थमें प्रयुक्त ‘अञ्च’के-प्राङ् प्राञ्ची प्राञ्चि। प्रत्यङ् प्रत्यञ्ची प्रत्यञ्चि। उदङ् उदञ्ची उदञ्चि। तिर्यङ् तिर्यञ्ची तिर्यञ्चि। इत्यादि रूप होते हैं।
‘जगत्‘ शब्द संसारका वाचक है: इसके रूप हैं-जगत् जगती जगन्ति इत्यादि।
‘जाग्रत्” शब्दका अर्थ है-सजग रहनेवाला। इसके रूप हैं-जाग्रत् जाग्रती जाग्रन्ति, जाग्रति इत्यादि।
‘शकृत्‘ शब्द मला या विष्ठाका वाचक है। इसके रूप शकृत्, शकृती, शकृन्ति, शाकानि इत्यादि। तृतीया आदि में शक्रा, शकृता इत्यादि |
जिस कुल में बहुत अच्छी सम्पति है, उसको ‘सुसम्पत्‘ कहते हैं। सुसम्पत् के प्रथम दो विभक्तियोंमें इस प्रकार रूप होते हैं-सुसम्पत्, सुसम्पद, सुसम्पदी, सुसम्पन्ति, इत्यादि।
सुन्दर दण्डियोंसे युक मन्दिर या आयतनकों ‘सुदण्डि‘ कहते हैं। ‘सुदण्डिन्‘ शब्दके रूप इस प्रकार जानने चाहिये-सुदण्डि सुदणिडनी सुदण्डीनि। शेष रूप पुंलिङ्गवत् होते हैं।
‘इह‘ शब्द अव्यय है।
‘अहन्। शब्द दिनका वाचक है। इसके प्रथम दो विभक्तियोंमें रूप इस प्रकार जानने चाहिये-अह: अहनी, अह्री, अहानि।
‘किम्‘ प्रश्नवाचक सर्वनाम है। इसके रूप तीनों लिङ्गोंमें होते हैं। नपुंसकलिङ्गमें प्रथमा और द्वितीया विभक्तियोंमें ‘किम् के कानि-ये रूप होते हैं। शेष रूप पुंलिङ्ग ‘सर्व’ शब्दके समान होते हैं।
‘इदम्’ का अर्थ है –यह | इसके नपुंसकलिङ्गमें – इदम् इमे इमानि -ये रूप होते हैं। तृतीया आदि विभक्तियोंमें पुंलिङ्गवत् रूप जानने चाहिये॥२१॥
‘ष्‘ शब्द संख्या छ: का वाचक और बहुवचनान्त है। इसके तीनों लिङ्गोंमें समान रूप होते हैं।१,२-षट् ३-षडभि: ४,५-षडभ्य: ६-षण्णाम्। ७-षट्सु।
‘सर्पिष्‘ शब्द “घी” का वाचक है। इसके रूप इस प्रकार जानने चाहिये –सर्पिः सर्पिषी सर्पीषि। सर्पिषा सर्पिभ्र्याम् सर्पिर्भि: इत्यादि।
‘श्रेयस्‘ शब्द कल्याणका वाचक है। उसके रूप-श्रेयः श्रेयसी श्रेयांसि इत्यादि हैं। तृतीया आदिमें “पयस्” शब्द के समान इसके रूप जानने चाहिये।
संख्या चारका वाचक ‘चतुर्‘ शब्द नित्य बहुवचनान्त है | नपुंसकलिङ्गमें इसके रूप इस प्रकार हैं-
१,२-चत्वारि। ३-चतुर्भि: । ४,५-चतुर्भ्यः।। ६-चतुर्णाम्॥७-चतुर्षु॥
‘अदस्‘ शब्द ‘यह‘, ‘वह‘ का वाचक सर्वनाम है। नपुंसक में प्रथम दो विभक्तियोंमें इसके रूप-‘अद: अमू अमूनि‘ होते हैं। शेष रूप पुँल्लङ्गवत् जानने चाहिये। इनसे भिन्न जो दूसरेदूसरे शब्द हैं, उनके रूप भी इन पूर्वकथित शब्दोंके ही समान हैं। इन शब्दोंकी ‘प्रातिपदिक‘ संज्ञा कही गयीं है।
प्रातिपदिक से परे प्रथमा आदि विभक्तियाँ होती हैं।
जो धातु, प्रत्यय और प्रत्ययान्तसे रहित अर्थवान् शब्द है। उसीको “प्रातिपदिक“ कहते हैं।
प्रातिपदिक से प्रातिपदिकार्थ, लिङ्गमात्राधिक्य और वचनमात्रका बोंध करानेके लिये प्रथमा * विभक्ति होती है ॥ २२-२३॥
सम्बोधनमें तथा उक्त कर्म और कर्तामें भी प्रथमा विभक्तिका प्रयोग होता है।
जो किया जाता है, उसकी ‘कर्म‘ संज्ञा है। कर्ममें द्वितीया’ विभक्ति होती है।
जिसकी सहायतासे कर्म किया जाता है, उसको ‘करण‘ कहते हैं ।
जो कार्य करता है, उसे ‘कर्ता‘ कहते हैं।
तिङ् कृत् तद्धित प्रत्ययों और समाससे अनुक्त कर्तामें और करणमें भी तृतीया विभक्ति होती है। किसी भी कारकके रहते हुए कर्तामें भी तृतीया होती है। यथा–
व्रजं नेतव्या गाव: कृष्णेन।
सम्प्रदानमें चतुर्थी’ विभक्ति होती है। जिसको कुछ देनेकी इच्छा हो, उसे ‘सम्प्रदान‘ कहा गया है।
जिससे कोई पृथक होता हो, जिससे कुछ लेता या ग्रहण करता हो तथा जिससे भयकी प्राप्ति होती हो, उसकी ‘अपादान‘ संज्ञा होती है। अपादानमें पश्चमी’ विभक्ति होती है।
जहाँ स्व-स्वामिभाव या जन्यजनकभाव आदि सम्बन्धका बोध होता हो, वहाँ षष्ठी विभक्तिका प्रयोग होता है।
जो आधार हो, उसकी ‘अधिकरण’ संज्ञा होती है। ‘अधिकरण’में सप्तमी’ विभक्तिका प्रयोग होता है।
जहाँ एकार्थ विवक्षित हो, वहाँ एकवचन और जहाँ द्वित्व विवक्षित हो, वहाँ द्विवचनका प्रयोग करना चाहिये। बहुत्वकी विवक्षा होनेपर बहुवचनका प्रयोग होता है।
अब शब्दोंके सिद्ध रूप बताता- वृक्ष, सूर्यः, अम्बुवाहः, अर्कः, हे रवे! हे द्विजातय: ||२४-२९||
विप्रौ, गजान्, महेन्द्रेण, यमाभ्याम्, अनिलैः, कृतम्, रामाय, मुनिवर्याभ्याम्, केभ्यः, धर्मात्, हरौ, रतिः, शराभ्याम्, पुस्तकेभ्यः, अर्थस्य, ईश्वरयोः, गतिः, बालानाम्, सज्जने, प्रीतिः, हंसयोः, कमलेषु, बालकोंकी सजनमें प्रीति होतीं है और हसके जोड़ेकी कमलोंमें-यह इकतीसवें श्लोकके उत्तरार्धका वाक्यार्थ हैं ॥ ३०-३१ ॥
इसी प्रकार ‘काम’, ‘महेश’ आदि शब्द ‘वृक्ष’ शब्दके समान जानने चाहिये।
‘सर्वे”, “विश्र्वे”-इन दोनोंका अर्थ हैं-सब। ये प्रथमा विभक्तिके बहुवचनान्तरूप हैं। सर्वस्मै, सर्वस्मात् ये-‘सर्व‘ शब्दके क्रमश: चतुर्थी और पश्चमी विभक्तिके एकवचनान्त रूप हैं।
कतरो मत: – दोमेंसें कौन अभिमत हैं ?
यहाँ ‘कतर‘ शब्दका प्रथमामें एकवचनान्त सिद्ध रूप दिया गया है। “कतर” शब्द सर्वनाम है और ‘सर्व‘ शब्दकी भाँति उसका रूप चलता है।
सर्वेषाम्, स्वं च, विश्वस्मिन् -इन शब्दोंके शेष रूप ‘सर्व’ शब्दके समान हैं। इसी प्रकार उभय, कतर, कतम और अन्यतर आदि शब्दों के रूप होते हैं।
पूर्वे, पूर्वा:-ये ‘पूर्व” शब्दके प्रथमान्त बहुवचन रूप हैं। प्रथमान्त बहुवचनमें पूर्वादि शब्दोंको विकल्पसे सर्वनाम माना जाता है। सर्वनाम-पक्षमें ‘पूर्वे‘ और सर्वनामाभव-पक्षमें ‘पूर्वा:‘ रूपकी सिद्धि होती है।
पूर्वस्मै, ‘पूर्वस्मात् सुसमागतः“-पूर्वसे आया।
यहाँ ‘पूर्व‘ शब्दका पचंमी विभक्तिमें एकवचनान्त रूप प्रयुक्त हुआ है।
‘पूर्व बुद्धिश्च पूर्वस्मिन्’-पुर्वमें बुद्धि।
यहाँ ‘पूर्व‘ शब्दका सप्तमीके एक वचनमें रूपद्धय प्रयुक्त हुआ है।
‘पूर्व‘ आदि नौ शब्दोंसे पचंमी और सप्तमीके एकवचनमें ‘डसि और ड़ि‘ के स्थानोंमें ‘स्मात्‘ और ‘स्मिन्‘ आदेश विकल्पसे होते हैं। उनके होनेपर पूर्वस्मात् और पूर्वस्मिन् रूप बनते हैं और न होनेपर ‘राम‘ शब्दकी भौंत ‘पूर्वात्‘ और ‘पूर्वे‘ रूप होते हैं। शेष रूप सर्ववत् जानने चाहिये।
इसी प्रकार पर, अवर, दक्षिण, उत्तर, अन्तर, अपर, अधर और नेम शब्दोंके भी रूप जानने चाहिये।
प्रथमे, प्रथमा:-ये ‘प्रथम‘ शब्दके बहुवचनान्त रूप हैं। इनके शेष रूप ‘अर्क‘ शब्दके समान जानने चाहिये। इसी तरह ‘चरम‘ शब्द ‘तयप‘ प्रत्ययान्त शब्दोंके भी रूप होते हैं। यहाँ अन्तर इतना ही है कि “चरम‘ और ‘कतिपय‘ आदि शब्दोंके शेष रूप “प्रथम” शब्दके समान होंगे और ‘नेम‘ आदि शब्दोंके शेष रूप सर्ववत् होंगे।
जिसके अन्तमें ‘तीय” लगा है, उन ‘द्वितीय’ और ‘तृतीय’ शब्दोंके चतुर्थी, पश्चमी और सतमी विभक्तियोंमें एकवचनान्त रूप विकल्पसे सर्ववत् होते हैं। जैसे-(चतुर्थी) द्वितीयस्मै, द्वितीयाय। (पश्चमी) द्वितीयस्मात्, द्वितीयात्। (सप्तमी) द्वितीयस्मिन्, द्वितीये। इसी प्रकार ‘तृतीय’ शब्दके भी रूप होंगे। इन दोनों शब्दोंके शेष रूप ‘अर्क” शब्दके समान होते हैं॥३२-३६॥
अब “सोमपा‘ शब्दके सिद्ध रूप क्रमश: दिये जाते हैं१-सोमपाः, सोमपौ, सोमपाः।। २-सोमपाम्, सोमपौ, सोमपः।। ३-सोमपा, सोमपाभ्याम्, सोमपाभिः ।। ४-सोमपे, सोमपाभ्याम्, सोमपाभ्यः । ५-सोमपः, सोमपाभ्याम्, सोमपाभ्यः॥ ६-सोमपः, सोमपोः, सोमपाम्।। ७-सोमपि, सोमपौः, सोमपासु॥
“सोमपा‘ शब्दके समान ही “कीलालपा‘ आदि शब्दोंके रूप होंगे। अब कवि, अग्नि, अरि, हरि, सात्यकि, रवि, वह्नि-इन शब्दोंके कतिपय सिद्ध रूप उद्धृत किये जाते हैं।
कवि:, अग्निः, अरयः, हे कवे!, कविम्, अग्नि, हरीन्, सात्यकिना, रविभ्याम्, रविभिः,
“देहि वह्रये य: समागतः–जो आया है उसे वह्रिन को समर्पित कर दो।
वह्रेय, अग्नेः, अग्न्योः, अग्नीनाम्, कवौ, कव्यो:, कविषु ॥३७-४० ॥
इसी प्रकार सुसृति, अभ्रान्ति, सुकीर्ति और सुधृति आदि शब्दों के रूप जानने चाहिये | यहां इन सबका प्रथमाका एकवचनान्त रूप दिया गया है। यथा-सुसूतिः, अभ्रान्तिः, सुकीर्तिः, सुधृतिः ।
अब ‘सखि‘ शब्दके रूप दिये जाते हैं-१- सखा, सखायौ, सखाय: ।
हे सखे! सत्पतिं व्रज। “हे सखे” यह सखि शब्दका सम्बोधनमें एकवचनान्त रूप है।
२-सखायम, सखायी, सखीन्। ३-सख्या आगतः -(मित्र के साथ आया) ॥ ४-सख्ये दद (मित्रको दो) ।। ५-सख्युः ।। ६-सख्युः, सख्योः, सखीनाम्॥७- सख्यौ, सख्योः, सखिषु । शेष रूप ‘कवि” शब्दके समान जानने चाहिये।
पत्या, पत्ये, पत्युः, पत्युः, पत्योः, पत्यौ । ‘पति‘ शब्दके शेष रूप ‘अग्नि‘ शब्दके समान जानने चाहिये।
अब “द्वि‘ शब्दके पुँल्लङ्ग रूप दिये जाते हैं, यह नित्य द्विवचनान्त है। १, २-द्वौ। ३, ४, ५-द्वाभ्याम्। ६, ७-द्वयो:। यह दो संख्याका वाचक हैं ॥४१-४३॥
अव संख्या तीनके वाचक नित्य बहुवचनान्त पुंलिङ्ग ‘त्रि‘ शब्दके रूप दिये जाते हैं-१-त्रय:। २-त्रीन्॥ ३-त्रिभिः॥ ४, ५-त्रिभ्यः ॥ ६-त्रयाणाम्। ७-त्रिपु।-ये क्रमश: सात विभक्तियोंके रूप हैं।
अब ‘कति‘ शब्दके रूप दिये जाते हैं-१-कति। २-कति। शेष रूप ‘कवि‘ शब्दके समान होते हैं। यह नित्य बहुवचनान्त शब्द है।
अब ‘नेता“के अर्थमें प्रयुक्त होनेवाले ‘नी‘ शब्दके रूप उद्धृत किये जाते हैं-१-नी:, नियौ, नियः। सम्बोधन-हे नीः, हे नियौ, हे नियः ।। २-नियम्, नियौ, नियः ।। ३-निया, नीभ्याम्, नीभिः ॥ ४-निये, नीभ्याम्, नीभ्यः ।। ५-नियः, नीभ्याम्, नीभ्यः । ६-नियः, नियोः, नियाम्॥ ७-नियि*, नियोः नीषु ॥
इसी तरह “सुधी:‘ सुश्रीः आदि शब्दोंके रूप जानने चाहिये।
ग्रामणी: पूजयेद्धरिम् –गांव का मुखिया श्रीहरि का पूजन करे।
“ग्रामणी’ शब्दके रूप इस प्रकार हैं-१-ग्रामणीः, ग्रामण्यौ, ग्रामण्यः ।। २-ग्रामण्यम्, ग्रामण्यो, ग्रामण्यः। ३-ग्रामण्या, ग्रामणीभ्याम्, ग्रामणीभिः । ४-ग्रामण्ये, ग्रामणीभ्याम्, ग्रामणीभ्यः ।। ५-ग्रामण्यः, ग्रामणीभ्याम्, ग्रामणीभ्यः ।। ६-ग्रामण्यः, ग्रामण्योः, ग्रामण्याम्। ७-ग्रामण्याम्, ग्रामण्योः, ग्रामणीषु ।
इसी तरह ‘सेनानी‘ आदि शब्दोंके रूप जानने चाहिये। ‘सुभू‘ शब्दके रूप-सुभू:, सुभुवौ इत्यादि हैं।
‘स्वयम्भू‘ शब्दके रूप-१-स्वयम्भुः, स्वयम्भुवौ, स्वयम्भुवः ।। २-स्वयम्भुवम्, स्वयम्भुवौ, स्वयम्भुवः । ३-स्वयम्भुवा। सप्तमीके एकवचनमें ‘स्वयम्भुवि‘। शेष ‘सुभू‘ शब्दके समान।
इसी तरह ‘प्रतिभू आदि शब्दोंके रूप जानने चाहिये।
‘खलपू‘ शब्दके रूप-खलपू:, खलप्वौ, खल्पवः । खलण्वम् इत्यादि हैं। सप्तमीके एकवचनमें ‘खलप्वि“-यह रूप होता है। इसी प्रकार”शरपू‘ आदि शब्दोंके रूप जानने चाहिये।
‘क्रोष्टु‘ शब्दके क्रमश: पाँच रूप इस प्रकार होते हैं- क्रोष्टा, क्रोष्टारौ, क्रोष्टारः। क्रोष्टारम, क्रोष्टारौ। द्वितीयाके बहुवचनमें ‘क्रोष्टुन्“-यह रूप बनता है। तृतीया आदिके स्वरादि प्रत्ययोंमें दो-दो रूप चलते हैं। एक ‘क्रोष्टु‘ शब्दके, दूसरे ‘क्रोष्ट्र‘ शब्दके। यथा-क्रोष्टुना, कोष्टा, क्रोष्टवे क्रोष्टे, क्रोष्टो: क्रोष्टुः इत्यादि। षष्ठीके बहुवचनमें ‘क्रोष्टूनाम्-यह एक ही रूप होता है। सतमीके एकवचनमें क्रष्टौ, क्रोष्टरि-ये रूप होते हैं।
हलादि विभक्तियोंमें क्रोष्टुके रूप ‘शम्भु‘ आदि शब्दोंके समान होते हैं।
‘पितृ‘ शब्दके रूप१-पिता, पितरौ, पितरः । सम्बोधनमे- हे पितः! हे पितरौ! हे पितर:! २-पितरम्, पितरौ, पितृन्। ३-पित्रा, पितृभ्याम्, पितृभिः।। ४-पित्रे, पितृभ्याम्, पितृभ्यः।। ५-पितुः, पितृभ्याम्, पितृभ्यः ।। ६-पितुः, पित्रोः, पितॄणाम्। ७-पितरि, पित्रोः, पितृषु॥ ४४-५०॥
इसी प्रकार ‘भ्रातृ” और ‘जामातृ” आदि शब्दोंके रूप जानने चाहिये-१-भ्राता, भ्रातरौ, भ्रातरः । `जामाता, जामातरौ, जामातरः इत्यादि ।
‘नृ‘ शब्दके रूप ‘पितृ‘ शब्दके समान होते हैं। केवल षष्ठीके बहुवचनमें उसके नृणाम्, नृणाम् – ये दो रूप होते हैं।
‘कर्तृ” शब्दके प्रारम्भिक पाँच रूप इस प्रकार होते हैं-कर्ता, कर्तारौ, कर्तारः । कर्तारम, कर्तारौ। द्वितीयाके बहुवचनमें कर्तृन्, षष्ठीके बहुवचनमें कर्तृणाम् और सतमीके एकवचनमें कर्तरि रूप होते हैं। शेष रूप ‘पितृ‘ शब्दके समान जानने चाहिये।
इसी तरह उद्रातृ, स्वसृ और नप्तृ आदि शब्दोंके रूप होते हैं। उद्राता‘ उद्रातारौ उद्रातार:। स्वसा, स्वसारौ, स्वसारः॥ नप्ता, नप्तारौ, नप्तारः इत्यादि। शेष रूप ‘कर्तृ” शब्दके समान होते हैं।
‘स्वसृ ‘ शब्दका द्वितीयाके बहुवचनमें ‘ स्वसृ:‘ रूप होता है।
‘सुरै’ शब्दके रूप इस प्रकार हैं-सुराः, सुरायौ, सुराय: इत्यादि। षष्ठीके बहुवचनमें सुरायाम् और सतमीके एकवचनमें सुरायि रूप होते हैं।
‘गो‘ शब्दके रूप इस प्रकार होते हैं। १-गौ:‘, गावौ, गावः। २-गाम्, गावौ, गाः। ३-गवा गोभ्याम्, गोभिः इत्यादि । षष्ठी-गोः, गावोः, गवाम्। सप्तमी-गवि, गावोः, गोषु।
इसी प्रकार “द्यौ‘ तथा ‘ग्लौ‘ शब्दोंके रूप जानने चाहिये। ये स्वरान्त शब्द पुंल्लिङ्गमें नायक (प्रधान) हैं॥ ५१-५३ ॥
अब हलन्त पुंलिङ्ग शब्दोंके सिद्ध रूप बताये जाते हैं।
‘सुवाच् शब्दके रूप यों जानने चाहिये-१-सुवाक्‘, सुवाग्, सुवाचौ, सुवाचः । २-सुवाचम्, सुवाचौ, सुवाचः ॥ ३-सुवाचा, सुवाग्भ्याम्, सुवाग्भिः । इत्यादि । (सप्त० बहुवचनमें-) सुवाक्षु।
इसी तरह ‘दिश‘ आदि शब्दोंके रूप होते हैं।
प्राश्र्च शब्दके रूप-१-|| प्राङ्, प्राञ्चौ, प्राञ्चः । । २-भोः प्राञ्चं व्रज (हे भाई! तुम प्राचीन महापुरुषोके पथपर चलो) । यहाँ ‘प्राञ्चम्‘ यह द्वितीया विभक्तिका एकवचनान्त रूप है। ३-प्राचा, प्राग्भ्याम्, प्राग्भिः । षष्ठीके बहुवचनमें ‘प्राचाम् रूप होता है। सप्तमीके एकवचनमें प्राचि द्विवचन में प्राचौ: और बहुवचनमें ‘प्राक्षु“। पूजार्थक “प्राञ्च‘ शब्दके सप्तमीके बहुवचनमें ‘प्राङ्यु ‘प्राङ्क्षु‘।
इसी प्रकार उदञ्च, सम्यञ्च और प्रत्यञ्च शब्दोंके भी रूप होते हैं। यथा–‘उदङ्, उदञ्चौ उदञ्चः इत्यादि। स्त्रीलिङ्गमें उदीची ॥सम्यङ् सम्यञ्चौ, सम्यञ्चः। स्त्रीलिङ्गमें समीची ” । प्रत्यङ् प्रत्यञ्चौ, प्रत्यञ्चः। स्त्रीलिङ्गमें प्रतीची |
इन सभी शब्दों के शस् आदि विभक्कियोंमें इस तरह रूप जानने चाहिये –उदीच: उदीचा । समीच:, समीचा । प्रतीच:, प्रतीचा इत्यादि। तिर्यङ्‘ तिरञ्चः। “सध्र्यङ्” सध्रीचः । विश्वद्भयङ् विश्वद्रीचः इत्यादि रूप भी पूर्ववत् बनते हैं।
“अमुम् अञ्चति“-इस विग्रहमें अमुमुयङ्‘, अदमुयङ् अदद्रयङ्-ये तीन रूप प्रथमा विभक्तिके एकवचनमें होते हैं। प्रथमाके बहुवचनमें ‘आद्राञ्चः‘ रूप होता हैं और द्वितीयाके बहुवचनमें अमुमुईच: तथा अमुद्रीच:-ये रूप होते हैं। ‘भ्याम्‘ विभक्ति में पूर्ववत् अदद्रयग्भ्याम् रूप की सिद्धि होती है।
‘तत्वतृष्‘ शब्दके रूप इस प्रकार होते हैं-१-तत्त्वतृट‘-तत्त्वतृड्, तत्त्वतृषौ, तत्त्वतृषः इत्यादि। तृतीया आदिके द्विवचनमें तत्वतृड्भ्याम्
तत्वतृड्भ्यां समागतः-‘वह तत्वज्ञानकी पिपासावाले दो व्यक्तियोंके साथ आया।
सप्तमी के एकवचनमें तत्त्वतृषि और बहुवचनमें तत्वतृटसु-ये रूप होते हैं।
इसी तरह “काष्ठतड्‘ आदि रूप होते हैं। यथा-काष्ठतट, काष्ठतड्, काष्ठतक्षौ, काष्ठतक्षः इत्यादि।
‘भिषज्” शब्दके रूप ‘भिषक्“, भिषग्–भिषजौ, भिषजः इत्यादि होते हैं। तृतीयाके द्विवचनमें ‘भिषग्भ्याम्‘ और सप्तमीके एकवचनमें ‘भिषजि‘ रूप होते हैं।
इसी प्रकार ‘जन्मभाक्” आदि भी जानने चाहिये। यथा-जन्मभाक्, जन्मभाग्, जन्मभाजौ, जन्मभाजः इत्यादि।
“मरुत्” शब्दके रूप इस प्रकार जाने-मरुत्, मरुद् मरुतौ मरुतः। मरुद्भ्याम् मरुति इत्यादि।
इसी प्रकार ‘शत्रुजित्‘ आदि शब्दों के भी रूप होते है |
पुजनीय व्यक्तिके लिये प्रयुक्त होने वाले भवत् शब्द के रूप इस प्रकार है – भवान् भवन्तौ भवन्त: इत्यादि |
षष्ठीके बहुवचनमें ‘भवताम्‘-यह रूप होता है।
‘भू‘ धातुसे बननेवाले ‘शतृ” प्रत्ययान्त ‘भवन्।’ शब्दके रूप इस प्रकार होते हैं-भवन्‘, भवन्ती भवन्तः इत्यादि । स्त्रीलिङ्गमें “भवन्ती ” रूप होता है।
‘महत्‘ शब्दके रूप-महान्‘, महान्तौ, महान्तः। महती, इत्यादि।
‘भगवत्‘ आदि शब्दोंके रूप ‘भवत् शब्दकी तरह-भगवान्‘ भगवन्तौ भगवन्तः इत्यादि होते हैं।
इसी प्रकार ‘मघवत्‘ शब्दके रूप जानने चाहिये। यथा-मघवान्, मघवन्तौ मघवन्तः इत्यादि ।
‘अग्निचित्‘ शब्दके रूप-अग्निचित्–द्, अग्निचितौ, अग्निचितः इत्यादि होते हैं। सप्तमीके एकवचनमें ‘अग्निचिति‘ और बहुवचनमें ‘अग्निचित्सु“-ये रूप होते हैं।
इसी प्रकार अन्यान्य ‘तत्त्ववित्। “वेदवित् ” तथा ‘सर्ववित्“‘शब्दोंके रूप होते हैं॥५४-६१॥
‘राजन्‘ शब्दके सिद्ध रूप इस प्रकार जानने चाहिये। यथा-१-राजा, राजानौ, राजान: । २- राजानम् राजानौ राज्ञः। ३-राज्ञा राजभ्याम् राजभिः इत्यादि। सप्तमीके एकवचनमें ‘राज्ञि‘ और “राजनि“-ये दो रूप होते हैं। सम्बोधनमें- हे राजन्! इत्यादि।
‘यज्वन्‘ शब्दके-यज्वा, यज्वानौ यज्वान: इत्यादि रूप होते हैं।
‘करिन्‘ और ‘दण्डिन्‘ इत्यादि इन्नन्त शब्दोके रूप इस प्रकार होते हैं-
करी, करिणौ, करिण:। दण्डी, दण्डिनौ, दण्डिनः इत्यादि।
‘पथिन्। शब्दके सिद्ध रूप यों हैं-१-पन्था: पन्थानौ पन्थानः। २-पन्थानम् पन्थानौ पथः ।। ३-पथा पथिभ्याम् पथिभिःइत्यादि। सप्तमीके एकवचनमें “पथि‘ रूप होता है।
इसी प्रकार ‘मथिन्‘ शब्दका भी रूप जानना चाहिये। यथा-मन्था: मन्थानौ, मन्थान:, इत्यादि। ऋभुक्षाः, ऋभुक्षाणौ, ऋभुक्षाणाः-इत्यादि । पथ्यादिर्मे पथिन्, मथिन् तथा ऋभुक्षन्-ये तीन शब्द आते हैं।
पाँच संख्याका वाचक “पञ्चन्‘ शब्द नित्य बहुवचनान्त है। उसके रूप इस प्रकार है —१-२ पञ्च, ३-पञ्चभि:, ४-५ पञ्चभय:, ६-पञ्चानाम्, ७-पञ्चसु।।
‘प्रतान्‘ शब्दके रूप-प्रतान्, प्रतानौ, प्रतान:, इत्यादि हैं। तृतीया आदिके द्विवचनमें ‘प्रतान्भ्यां‘ रूप होता है। सम्बोधनमें “हे प्रतान्!’।
‘सुशर्मन्‘ शब्दके रूप-सुशर्मा सुशर्माणौ, सुशर्माणः ।।-इत्यादि हैं। शस्, डसि, डस्-इन विभक्तियोंमें ‘सुशर्मणः‘ रूप होता है।
अप् शब्द नित्यबहुवचनान्त और स्त्रीलिङ्ग है। इसके रूप यों जानने चाहिये-१-आप: २-अप: ३-अद्भि: ४-५ अद्भय: ६- अपाम् ७–अप्सु।
‘प्रशाम्‘ शब्दके रूप प्रशान्‘, प्रशामौ, प्रशाम: इत्यादि हैं। सप्तमीके एकवचनमे ‘प्रशामि‘ रूप होता है।
“किम्” शब्दके रूप-१-कः‘, कौ, के। २-कम, कौ, कान् ३-केन, काभ्याम्, कैः-इत्यादि॥ सप्तमी बहुवचनमॆ-केषु॥ शेष रूप सर्ववत् होते हैं।
‘इदम्‘ शब्दके रूप इस प्रकार हैं-१-अयम्, इमौ, इमे। २-इमम्, इमौ, इमान्। इमान्नय– (अर्थात् इन्हें ले जाओ) ३अनेन, आभ्याम्, एभिः ।। ४-अस्मै, आभ्याम्, एभ्यः ।। ५-अस्मात्, आभ्याम्, एभ्यः ॥ ६-अस्य, अनयोः, एषाम्।। ७-अस्मिन्, अनयोः, एषु।।
‘चतुर्‘ शब्द नित्य बहुवचनान्त है। पुंल्लिङ्गमें इसके रूप यों होते हैं-१-चत्वार:‘, २-चतुरः। ३-चतुर्भि। `४-५-चतुभर्य:॥ ६-चतुर्णाम्।। ७-चतुर्षु ।
जिसकी वाणी अच्छी हो, वह पुरुष श्रेष्ठ माना जाता हैं। उसे ‘सुगी:‘ कहते हैं। यह प्रथमाका एकवचन है। ‘सुगिर्‘ शब्दका सप्तमीके एकवचनमें ‘सुगिरि‘ रूप होता है।
‘सुदिव्‘ शब्दके रूप इस प्रकार हैं-१-सुद्यौ:‘, सुदिवौ, सुदिवः इत्यादि। तृतीया आदिके द्विवचनमें ‘सुधुभ्याम्‘ रूप होता है।
“विश्‘ शब्दके रूप-विट्रविड‘, विशौ, विश:। विडभ्याम् इत्यादि होते हैं। सतमी के बहुवचनमें ‘विटसु” रूप होता है।
‘यादृश् शब्दके रूप इस प्रकार हैं-यादृक्–ग्‘, यादृशौ, यादृशः। यादृशा, यादूग्भ्याम् इत्यादि।
‘षष्’ शब्द नित्य बहुवचनान्त है। इसके रूप यों हैं- १-२-षट‘-षड्। ३षड्भि: ।। ४-५-षड्भ्यः ।। ६-षण्णाम्॥ ७-षट्सु॥
‘सुवचास्‘ शब्दके रूप इस प्रकार हैं-१-सुवचा:‘, सुवचसौ, सुवचसः।। २-सुवचसम्, सुवचसौ, सुवचसः ।। ३-सुवचसा, सुवचोभ्याम्, सुवचोभिःइत्यादि। सम्बोधनमॆ-हे सुवचः!
“उशनस्‘ शब्दके रूप यों हैं-१-उशना‘, उशनसौ उशनसः । हे उशनः इत्यादि । सप्समीके एकवचनमें “उशनसि‘ रूप होता है।
‘पुरुदंशस्‘ और ‘अनेहस्‘ शब्दोंके रूप भी इसी प्रकार होते हैं। यथा-१-पुरुदंशा“, पुरुदंशसौ, पुरुदंशसः। अनेहा‘*, अनेहसौ, अनेहसः इत्यादि।
‘विद्वस्‘ शब्दके रूप यों जानने चाहिये-विद्वान् ‘विद्वांसौ, विद्वांस:, हे विद्वन् इत्यादि। ‘विद्वांस उत्तमा:’ (विद्वान् पुरुष उत्तम होते हैं)। चतुर्थी विभक्तिके एकवचनमें ‘विदुषे‘ रूप होता है। ‘विदुये नमः‘ (विद्वान् को नमस्कार है)। द्विवचन में विद्वद्भयाम् और सप्तमी के बहुवचन में ‘विद्वत्सु रूप होते हैं। ‘स विद्वत्सु बभूविवान्‘ (वह विद्वानोंमें प्रकट हुआ।)
‘बभूविवस्‘ शब्दके रूप इस प्रकार जानने चाहिये-बभूविवान् बभूविवांसौ, बभूविवांसः-इत्यादि।
इसी प्रकार ‘पेचिवान्‘, पेचिवांसौ, पेचिवांसः। श्रेयान्‘ श्रेयांसी, श्रेयांस:-इत्यादि रूप जानने चाहिये। श्रेयस् शब्द के द्वीतीया के बहुवचन मे श्रेयसः रूप होता है।
अब ‘अदस्‘ शब्दके पुलिङ्ग में रूप बताते हैं-१-असौ‘, अमू, अमी। २-अमुम्, अमू, अमून्॥ ३-अमुना, अमूभ्याम्, अमीभिः । ४-अमुष्मै, अमूभ्याम्, अमीभ्यः ।। ५-अमुष्मात्, अमूभ्याम्, अमीभ्यः ।। ६-अमुष्य, अमुयोः, अमीषाम्।। ७-अमुष्मिन्, अमुयोः, अमीषु।
‘गोधुभिरागत:’ (वह गाय दुहनेवालोंके साथ आया)।
‘गोदुह्‘ शब्दके रूप इस प्रकार हैं-गोधुर्क्‘-ग्, गोदुहौ, गोदुहः । गोधुक्षु इत्यादि ।
इसी प्रकार, “दुह्‘ आदि अन्य शब्दोंसे रूप जानने चाहिये।
‘मित्रद्रुह्‘ शब्दके रूप इस प्रकार जानने चाहिये-मित्रध्रुक्–ग्, मित्रध्रुट्ड्, मित्रद्रुहौ, मित्रद्रुहः। मित्रद्रुहा, मित्रध्रुग्भ्याम्, मित्रध्रुड्भ्याम्, मित्रध्रुग्भिः, मित्रध्रुड्भिः इत्यादि ।
इसी प्रकार ‘चित्रदुह् आदि शब्दोंके भी रूप जानने चाहिये।
‘स्वलिह्‘ शब्दके रूप यों होते हैं- स्वलिट्–स्वलिड्, स्वलिहौ, स्वलिहः । स्वलिहा, स्वलिड़भ्याम् इत्यादि। सप्तमीके एकवचनमें ‘स्वलिहि‘ रूप होता है।
‘अनुडुह् शब्दके रूप यों हैं-१-अनड्वान्, अनड्वाहौ, अनड्वाहः ॥ २-अनड्वाहम्, अनड्वाहौ, अनुडुह:, ३-अनडुहा, अनडुद्धयाम्, अनडुद्धिः। सप्तमीके बहुवचनमें “अनडुत्सु” (सम्बोधनमें ‘हे अनड्वन्“) ।
अजन्त और हलन्त शब्द पुंल्लिङ्ग में बताये गये। अब स्त्रीलिङ्ग में बताये जाते हैं।॥ ६२-७३॥
तीन साँ इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ। ३५१ ॥
अध्याय - ३५२ स्त्रीलिङ्ग शब्दोके सिद्ध रूप
भगवान् स्कन्द कहते हैं-आकारान्त स्त्रीलिङ्ग रमा शब्द के रूप इस प्रकार होते है रमा, रमे, रमाः
रमाः शुभाः –रमाएं शुभ स्वरुपा है
रमाम्, रमे, रमाः ३-रमया, रमाभ्याम्, रमाभि:
रमाभि: कृतमव्ययम् – रमाओं ने अव्यय (अक्षय) पुण्य किया है
४- रमायै, रमाभ्याम्, रमाया:
रमयो: शुभम् –दो रामाओं का शुभ
रमाणाम्, रमायाम्, रमासु
इसी प्रकार ‘कला‘ आदि शब्दोंके रूप होते हैं। आकारान्त ‘जरा‘ शब्दके कुछ रूप भिन्न होते हैं- जरा में जरसौ–जरे, जरसः-जराः, जरसम्-जराम्, जरासु
अब सर्वा शब्द के रूप कहते है -१-सर्वा, सर्वे, सर्वा: २-सर्वाम् सर्वे सर्वा: ३-सर्वया ४- सर्वस्यै
‘सर्वस्यै देहि‘ (सबको दो) ।
५-सर्वस्याः ६-सर्वस्याः, सर्वयोः, शेष रूप ‘रमा” शब्दके समान होते हैं।
स्त्रीलिङ्ग नित्य द्विवचनान्त द्वि-शब्दके रूप हैं-द्वे द्वे
त्रि शब्द के रूप ये है -१-२-तिस्त्रः, तिसृणाम् ।
‘बुद्धि” शब्दके रूप इस प्रकार हैं-बुद्धिः, बुद्धया, बुद्धये-बुद्धयै, बुद्धे: ।
‘मति‘ शब्दके सम्बोधनके एकवचनमें ‘हे मते“-यह रूप होता है।
‘मुनीनाम्‘ और शेष रूप ‘कवि‘ शब्दके समान होते हैं।
‘नदी‘ शब्दके रूप इस प्रकार होते हैं-नदी, नद्यौ, नदीम्, नदी:, नद्या, नदीभिः, नद्ये, नद्याम्, नदीषु इसी प्रकार ‘कुमारी‘ और’जृम्भणी‘ शब्दके रूप होते हैं।
‘श्री‘ शब्दके रूप भिन्न होते है – श्री:, श्रियौ, श्रियः, श्रिया, श्रियै-श्रिये ।
‘स्त्री‘ शब्दके रूप अधोलिखित हैं- स्त्रीम्-स्नियम्, स्त्रीः- स्त्रीयः, स्त्रिया, स्त्रियै, स्त्रियाः, स्त्रीणाम्, स्त्रियाम् । स्त्रीलिङ्ग ‘ग्रामणी‘ शब्दका सप्तमीके एकवचनमें ‘ग्रामण्याम‘ और ‘धेनु‘ शब्दका चतुर्थीके एकवचनमें ‘धेन्वै, धेनवे‘ रूप होते है ||१-७||
‘जम्बु” शब्दके रूप ये हैं-जम्बु:, जम्ब्वौ, जम्बू:, जम्बूनाम्,
‘जम्बूनां फलं पिब‘ (जामुनके फलोंका रस पीयो)।
‘वर्षाभू‘ आदि शब्दके कतिपय रूप ये हैं- वर्षाभ्वौ, पुनभ्वौ, मातृ: , गौ:, नौ: ।
‘वाच्‘ शब्दके रूप ये हैं-वाक्–वाग्, वाचा, वाग्भिः, वाक्षु ।
पुष्पहारवाचक ‘स्त्रज्‘ शब्दके रूप ये हैं-स्त्रग्भ्याम् , स्त्रजि, स्त्रजो: ।
लतावाचक ‘वीरुध्‘ शब्दके रूप ये हैं- वीरूदभ्याम् , वीरुत्सु , ।
स्त्रीलिङ्गमें प्रथमाके एकवचनमें उकारानुबन्ध ‘भवत्‘ शब्दका ‘भवती‘ और ऋकारानुबन्ध ‘भवत्‘ शब्दका ‘भवन्ती” रूप होता है ।
स्त्रीलिङ्ग ‘दीव्यत्‘ शब्दका प्रथमाके एकवचनमें ‘दीव्यन्ती‘ रूप होता है।
स्त्रीलिङ्गमें ‘भात्‘ शब्दके भी प्रथमाके एकवचनमें भाती–भान्ती-ये दो रूप होते हैं।
स्त्रीलिङ्ग ‘तुदत्‘ शब्दके भी प्रथमाके एकवचनमें तुदती–तुदन्ती-ये दो रूप होते हैं*। स्त्रीलिङ्गमें प्रथमा के एकवचन में रुदत् शब्द का रुदती, रून्धत् शब्द का रून्धती, गुह्रत् शब्द का गुह्रती और ‘चोरयत्‘ शब्दका चोरयन्ती रूप होता है।
‘दृषद्‘ शब्दके रूप ये हैं- दृषद्, दृषद्भ्याम्, दृषदि
विशेष-विदुषी ।
प्रथमाके एकवचनमें ‘कृति‘ शब्दका ‘कृति:‘ रूप होता है।
‘समिध्’ शब्दके रूप ये हैं-समित्–समिद्, समिद्भ्याम्, समिधि ।
‘सीमन्‘ शब्दके रूप इस प्रकार हैं-सीमा, सीम्नि–सीमनि
तृ०, च० एवं पं० के द्विवचनमें “दामनी‘ शब्दका दामनीभ्याम्,
‘ककुभू‘ शब्दका ककुब्भ्याम् रूप होता है।
‘का‘-‘किम्‘ शब्द प्र०-ए० इयम्, आभ्याम्
‘इदम्‘ शब्दके सप्तमीके बहुवचनमें ‘आसु‘ रूप होता है।
‘गिर्‘ शब्दके रूप ये हैं- गीर्भ्याम्, गिरा, गीर्षु ।
प्रथमाके एकवचन में सुभू: और सुपु: रूप सिद्ध होते हैं।
‘पुर्‘ शब्दका तृतीयाके एकवचनमें ‘पुरा‘ और सतमीके एकवचनमें ‘पुरि‘ रूप होता है।
‘दिव्‘ शब्दके रूप ये हैं-द्यौ:, द्युभ्याम्, दिवि, द्युषु।
तादृश्या, तादृशी -ये ‘तादृशी” शब्दके रूप हैं।
‘दिश्‘ शब्दके रूप दिक्–दिग्, दिशौ दिशः इत्यादि हैं।
यादृश्याम्, यादृशी -ये ‘यादृशी” शब्दके रूप हैं।
सुवचोभ्याम्, सुवचस्सु -ये ‘सुवचस्‘ शब्दके रूप हैं।
स्त्रीलिङ्गमें ‘अदस‘ शब्दके कतिपय रूप ये हैं –असौ, अमू, अमूम्, अमू:, अमूभिः, अमुया, अमुयोः
तीन साँ बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३५२ ॥
अध्याय - ३५३ नपुंसकलिङ्ग शब्दोके सिद्ध रूप
भगवान स्कन्द कहते हैं-नपुंसकलिङ्गमें ‘किम्‘ शब्दके ये रूप होते हैं- १-किम्, के, कानि। २-किम्, के, कानि। शेष रूप पुँलिङ्गवत् हैं।
जलम्, सर्वम्, पूर्व, पर, अवर, दक्षिण, उत्तर, अपर, अधर, स्व और अन्तर-इन सब शब्दोंके रूप इसी प्रकार होते है।
सोमपम्, सोमपानि -ये ‘सोमप‘ शब्दके रूप हैं।
‘ग्रामणी‘ शब्दके नपुंसकलिङ्गमें इस प्रकार रूप होते हैं- ग्रामणि, ग्रामणिनी, ग्रामणीनि ।
इसी प्रकार ‘वारि‘ शब्दके रूप होते हैं- वारि, वारिणी, वारीणि, वारीणाम्, वारिणि ।
शुचिये–शुचिने और मृदुने–मृदवे – ये क्रमसे “शुचि‘ और ‘मृदु‘ शब्दके रूप हैं।
त्रपु, त्रपुणी, त्रपूणाम् -ये ‘त्रपु‘ शब्दके कतिपय रूप हैं।
खलपुनि तथा ‘खलप्वि‘- ये दोनों नपुंसक ‘खलपू‘ शब्दके सप्तमी, एकवचनके रूप हैं।
कर्त्रा–कर्तृणा, कर्तृणे–कर्त्रे – ये ‘कर्तृ” शब्दके रूप हैं।
अतिरि, अतिरिणी – ये’अतिरि” शब्दके रूप हैं।
अभिनि, अभिनिनी – ये ‘अभिनि‘ शब्दके रूप हैं।
सुवचांसि यह ‘सुवचस्‘ शब्दका रूप है।
सुवाक्षु यह ‘सुवाच्‘ शब्दका रूप है।
‘यत्” शब्दके ये दो यत्–यद् रूप और ‘तत्” शब्दके “तत्–तद् हैं
‘कर्म” शब्दके कर्माणि, ‘इदम्‘ शब्दके इदम्, इमे, इमानि -ये रूप हैं।
ईदृक्–ईदृग्-यह ‘ईदृश्” शब्दका रूप है।
अद:, अमुनी, अमूनि, अमुना, अमीषु -‘अदस्‘ शब्दके ये रूप भी पूर्ववत् सिद्ध होते हैं।
यहाँ ‘अजन्त‘ और ‘हलन्त‘ शब्दोंका दिग्दर्शनमात्र कराया गया है।
‘युष्मद‘ और ‘अस्मद‘ शब्दके रूप इस प्रकार होते हैं–
अहम्, आवाम्, वयम्, माम्, आवाम्, अम्मान्, मया, आवाभ्याम्, अस्माभिः, महाम्, अस्मभ्यम्, मत्, आवाभ्याम्, अस्मत्, मम्, आवयोः, अस्माकम्, अस्मासु -ये ‘अस्मद‘ शब्दके रूप हैं।
त्वम्, युवाम्, यूयम्, त्वाम्, युवाम्, युष्मान्, त्वया, युष्माभिः, तुभ्यम्, युवाभ्याम्, युष्मभ्यम्, त्वत्, युवाभ्याम्, युष्मत्, तव, युवयोः, युष्माकम्, त्वयि, युष्मासु -ये ‘युष्मद‘ शब्दके रूप हैं। ||१-९||
तीन साँ तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३५३ ॥
अध्याय – ३५४ कारक प्रकरण
भगवान स्कन्द कहते हैं– अब मैं विभक्त्यर्थोंसे युक्त “कारक” का वर्णन करूंगा’।
“ग्रामोऽस्ति”-ग्राम है -यहाँ प्रातिपदिकार्थमात्र में प्रथमा विभक्ति हुई है । विभक्त्यर्थमें प्रथमा होनेका विधान पहले कहा जा चुका है ।
“हे महार्क”– इस वाक्यमें जो “महार्क” शब्द है, उसमें सम्बोधनमें प्रथमा विभक्ति हुई है। सम्बोधनमें प्रथमाका विधान पहले आ चुका है ।
“इह नौमि विष्णु श्रिया सह” – मैं यहाँ लक्ष्मीसहित भगवान् विष्णुका स्तवन करता हूँ । इस वाक्यमें “विष्णु” शब्दकी कर्म-संज्ञा हुई है ।
“द्वितीया कर्मणि स्मृता”-इस पूर्वकथित नियमके अनुसार कर्ममें द्वितीया हुई है ।
“श्रिया सह”– यहाँ “श्री” शब्दमें “सह” का योग होनेसे तृतीया हुई है ।
सहार्थक और सदृशार्थक शब्दोंका योग होनेपर तृतीया विभक्ति होती है, यह सर्वसम्मत मत है । क्रियामें जिसकी स्वतन्त्रता विवक्षित हो, वह ‘कर्ता’ या ‘स्वतन्त्र कर्ता’ कहलाता है । जो उसका प्रयोजक हो, वह “प्रयोजक कर्ता” और “हेतुकर्ता” भी कहलाता है । जहाँ कर्म ही कर्ताके रूपमें विवक्षित हो, वह “कर्मकर्ता” कहलाता है । इनके सिवा “अभिहित” और “अनभिहित”-ये दो कर्ता और होते हैं । “अभिहित” उत्तम और “अनभिहित”अधम माना गया है ।
स्वतन्त्रकर्ताका उदाहरण- कृतिनः तां विद्यां समुपासते । (विद्वान् पुरुष उस विद्याकी उपासना करते हैं) यहाँ विद्याकी उपासनामें विद्वानोंकी स्वतन्त्रता विवक्षित है, इसलिये वे ‘स्वतन्त्रकर्ता’ हैं ।
हेतुकर्ताका उदाहरण- चैत्री मैत्रं हितं लम्भयते । (चैत्र मैत्रकों हितकी प्राप्ति कराता हैं ।)
मैत्रो हितं लभते तं चैत्रः प्रेरयति इति चैत्रो मैत्रं हित लभप्यते । (मैत्र हितकों प्राप्त करता है और चैत्र उसे प्रेरणा देता है । अत: यह कहा जाता है कि “चैत्र” मैत्रकी हितकी प्राप्ति कराता है ।)- यहाँ “चैत्र” प्रयोजककर्ता या हेतुकर्ता हैं ।
कर्मकर्ताका उदाहरण- प्राकृतधी: स्वयं भिद्यते । (गवार बुद्धिवाला मनुष्य स्वयं ही फूट जाता है ।), तरुः स्वयं छिद्यते । (वृक्ष स्वयं कट जाता है) । यहाँ फोड़नेवाले और काटनेवाले कर्ताओंके व्यपार को विवक्षाका विषय नहीं बनाया गया । जहाँ कार्यके अतिशय सौकर्यकों प्रकट करनेके लिये कर्तृव्यापार अविवक्षित हो, वहाँ कर्म आदि अन्य कारक भी कर्ता-जैसे हो जाते हैं और तदनुसार ही क्रिया होती है । इस दृष्टिसे यहाँ “प्राकृतधी:” और “तरुः” पद कर्मकर्ताके रूपमें प्रयुक्त हैं ।
अभिहित कर्ताका उदाहरण — रामो गच्छति । (राम जाता है।) यहाँ “कर्ता” अर्थमें तिद्धन्तका प्रयोग हैं, इसलिये कर्ता उक्त हुआ । जहाँ कर्ममें प्रत्यय हो, वहाँ “कर्म” उक्त और “कर्ता” अनुक्त या अनभिहित हो जाता है ।
अनभिहित कर्ताका उदाहरण — गुरुणा शिष्ये धर्म व्याख्यायते । (गुरुद्वारा शिष्यके निमित धर्मकी व्याख्या की जाती है ।) यहाँ कर्ममें प्रत्यय होनेसे “धर्म” की जगह “धर्म:” हो गया; क्योंकि उक्त कर्ममें प्रथमा विभक्ति होने का नियम है । अनभिहित कर्तामें पहले कथित नियमके अनुसार तृतीया विभक्ति होती है, इसीलिये “गुरुणा” पदमें तृतीया विभक्ति प्रयुक्त हुई है ।
इस तरह पाँच प्रकारके कर्ता बताये गये ।
अब सात प्रकारके कर्मका वर्णन सुनो ॥ १-४॥
१-ईप्सितकर्म, २-अनीप्सितकर्म, ३-ईप्सितानीप्सित–कर्म, ४-अकथितकर्म, ५-कर्तृकर्म, ६-अभिहितकर्म तथा ७–अनभिहितकर्म ।
ईप्सितकर्मका उदाहरण- यतिः इरिं श्रद्दधाति । (विरत साधु या संन्यासी हरिमें श्रद्धा रखता है ।) यहाँ कर्ता यतिकों हरि अभीष्ट हैं, इसलिये वे “ईप्सितकर्म” हैं । अतएव हरिमें द्वितीया विभक्तिका प्रयोग हुआ है ।
अनीप्सितकर्मकका उदाहरण – अहिं लङ्कयते भूशम् । (उससे सर्पको बहुधा लघवाता है।) यहाँ “अहिं” यह ‘अनीप्सितकर्म’ हैं । लाँघनेवाला सर्पको लाँघना नहीं चाहता । वह किसीके हठ या प्रेरणासे सर्पलङ्गनमें प्रवृत्त होता है ।
ईप्सिप्तानीप्सिप्तकर्मका उदाहरण – दुग्ध संभक्षयन् रज: भक्षयेत् । (मनुष्य दूध पीता हुआा धूल भी पी जाता है।) यहाँ दुग्ध “ईप्सितकर्म” है और धूल “अनीप्सितकर्म” ।
अकथितकर्म — जहाँ अपादान आदि विशेष नामोंसे कारक को व्यक्त करना अभीष्ट न हो, वहाँ वह कारक “कर्मसंज्ञक” हो जाता है । यथा-गोपाल: गां पय: दोग्धि । (ग्वाला गायसे दूध दुहता है ।) यहाँ “गाय” अपादान है, तथापि अपादान के रूपमें कथित न होने से अकथित हो गया और उसमें पञ्चमी विभक्ति न होकर द्वितीया विभक्ति हुई ।
कर्तृकर्म-जहाँ प्रयोजक कर्ताका प्रयोग होता है, जहाँ प्रयोज्क कर्ता कर्म के रूपमें परिणत हो जाता है । यथा- गुरुः शिष्यं ग्रामं गमयेत् । (गुरु शिष्यको गाँव भेजें।)। शिष्यो ग्रामं गच्छेत् तं गुरुः प्रेरयेत् इति गुरुः शिष्यं ग्रामं गमयेत् । (शिष्य गाँवको जाय, इसके लिये गुरु उसे प्रेरित करे, इस अर्थमें गुरु शिष्यको गाँव भेजें, यह वाक्य है ।) यहाँ गुरु “प्रयोजक कर्ता” है, और शिष्य प्रयोज्य कर्ता या “कर्मभूत कर्ता” है ।
अभिहितकर्म- श्रियै हरे: पूजा क्रियते । (लक्ष्मीकी प्रातिके लिये श्रीहरिकी पूजा की जाती है ।) यहाँ कर्ममें प्रत्यय होनेसे पूजा “उक्त कर्म” हैं, इसीकों “अभिहितकर्म” कहते हैं, अतएव इसमें प्रथमा विभक्ति हुई ।
अनभिहितकर्म – जहाँ कर्तामें प्रत्यय होता है, वहाँ कर्म अनभिहित हो जाता है, अतएव उसमें द्वितीया विभक्ति होतीं है । उदाहरणके लिये यह वाक्य है- हरे: सर्वदं स्तोत्रं कुर्यात् (श्रीहरिकी सर्वमनोरथदायिनी स्तुति करे ।)
करण दो प्रकारका बताया गया हैं १-बाह्य और २-आभ्यन्तर । तृतीया करणे भवेत् ।– इस पूर्वोक्त नियम के अनुसार करण में तृतीया होती है ।
आभ्यन्तर करणका उदाहरण देते हैं – चक्षुषा रूपं गृह्णाति । (नेत्रसे रूपको ग्रहण करता है ।) यहाँ नेत्र “आभ्यन्तर करण” हैं, अत: इसमें तृतीया विभक्ति हुई ।
“बाह्य करण” का उदाहरण है – दात्रेण ताल्लुनेत् । (हँसुआसे उसको काटे ।) यहाँ दात्र “बाह्य करण” है । अत: उसमें तृतीया हुई है ।
सम्प्रदान तीन प्रकारका बताया गया है- प्रेरक, अनुमन्तृक और अनिराकर्तृक । जो दानके लिये प्रेरित करता हो, वह “प्रेरक” है । जो प्राप्त हुई किसी वस्तुके लिये अनुमति या अनुमोदनमात्र करता है, वह “अनुमन्तृक” है । जो न प्रेरक है, न अनुमन्तृक है, अपितु किसीकी दी हुई वस्तुको स्वीकार कर लेता है, उसका निराकरण नहीं करता, वह “अनिराकर्तृक सम्प्रदान” है ।
सम्प्रदाने चतुर्थी ।-इस पूर्वोत नियमके अनुसार सम्प्रदानमें चतुर्थी विभक्ति होती है । तीनों सम्प्रदानोंके क्रमश: उदाहरण दिये जाते हैं –
१- नरो ब्राह्मणाय गां ददाति । (मनुष्य ब्राह्मणकों गाय देता है।) यहाँ ब्राह्मण “प्रेरक सम्प्रदान” होनेके कारण उसमें चतुर्थी विभक्ति हुई है । ब्राह्मणलोग प्राय: यजमानको गोदान के लिये प्रेरित करते रहते हैं, अत: उन्हें “प्रेरक सम्प्रदान” की संज्ञा दी गयी है।
२-नरो नृपतये दासं ददाति । (मनुष्य राजाको दास अर्पित करता है ।) यहाँ राजाने दास अर्पणके लिये कोई प्रेरणा नहीं दी है । केवल प्राप्त हुए दासको ग्रहण करके उसका अनुमोदनमात्र किया है, इसलिये वह “अनुमन्तृक सम्प्रदान” है; अतएव नृपतये में चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त हुई है ।
३- सजन: भर्त्रे पुष्पाणि दद्यात् । (सज्जन पुरुष स्वामीको पुष्प दे)-यहाँ स्वामीने पुष्पदानकी मनाही न करके उसकी अङ्गीकारमात्र कर लिया है, इसलिये भर्तृ शब्द “अनिराकर्तृक सम्प्रदान” है । सम्प्रदान होनेके कारण ही उसमें चतुर्थी विभक्ति हुई है ।
अपादान दो प्रकारका होता है-“चल” और “अचल”। कोई भी अपादान क्यों न हों, अपादाने पश्चमी स्यात् । -इस पूर्वकथित नियमके अनुसार उसमें पश्चमी विभक्ति होती है।
धावत: अश्वात् पतितः । (दौड़ते हुए घोड़ेसे गिरा)-यहाँ दौड़ता हुआ घोड़ा चल अपादान है । अत: धावत: अश्वात् में पञ्चमी विभक्ति हुई है ।
स वैष्णवः ग्रामादायाति । (वह वैष्णव गाँव से आता है)- यहाँ ग्राम शब्द अचल अपादान’ है, अत: उसमें पञ्चमी विभक्ति हुई है ॥५-११॥
अधिकरण चार प्रकार के होते हैं-अभिव्यापक, औपश्लेषिक, वैषयिक और सामीप्यक । जो तत्व किसी वस्तुमें व्यापक हो, वह आधारभूत वस्तु अभिव्यापक अधिकरण है । यथा- दध्नि घृतम् । (दहीमें घी है) । तिलेषु तैल देवार्थम । (तिलमें तेल है, जो देवता के उपयोग में आता है ।) यहाँ घी दही में और तैल तिलमें व्याप्त है । अत: इनके आधारभूत दही और तिल अभिव्यापक अधिकरण हैं ।
आधारो योऽधिकरणं विभक्तिस्तत्र सप्तमी । – इस पूर्वोक्त नियमके अनुसार अधिकरणमें सप्तमी विभक्ति होती है । प्रस्तुत उदाहरणमें दध्नि और तिलेषु -इन पदोंमें इसी नियमसे सतमी विभक्ति हुई है ।
अब औपश्लेषिक अधिकरण बताया जाता है- कपिगृह तिछेद वृक्षेच तिछेत् । (बंदर घरके ऊपर स्थित होता है और वृक्षपर भी स्थित होता है ।) कपिके आधारभूत जो गृह और वृक्ष हैं, उनपर वह सटकर बैठता है । इसीलिये वह औपश्लेषिक अधिकरण माना गया है । अधिकरण होनेसे ही गृहे और वृक्षे -इन पदोंमें सप्तमी विभक्ति प्रयुक्त हुई है ।
अब वैषयिक अधिकरण बताते हैं-विषयभूत अधिकरणको वैषयिक कहते हैं । यथा- जले मत्स्य: ।, वने सिंह: । (जलमें मछली, वनमें सिंह ।) यहाँ जल और वन विषय हैं और मत्स्य तथा सिंह विषयी । अत: विषयभूत अधिकरणमें सप्तमी विभक्ति हुई ।
अब सामीप्यक अधिकरण बताते हैं – गङ्गायां घोषों वसति । (गङ्गामें गोशाला बसती है ।) यहाँ गङ्गा का अर्थ है – गङ्गाके समीप । अत: सामीप्यक अधिकरण होनेके कारण गङ्गामें सप्तमी विभक्ति हुई । ऐसे वाक्य औपचारिक माने जाते हैं । जहाँ मुख्यार्थ बाधित होनेसे उसके सम्बन्धसे युक्त अर्थान्तरकी प्रतीति होती है, वहाँ लक्षणा होती है । गौर्वाहिक: इत्यादि स्थलोंमें गो शब्दका मुख्यार्थ बाधित होता है, अत: वह स्वसदृशको लक्षित कराता है । इस तरहके वाक्यप्रयोगको औपचारिंक कहते हैं ।
अनभिहित कर्ता में तृतीया अथवा षष्ठी विभक्ति होती है । यथा – विष्णुः सम्पूज्यते लोकै:। (लोगोंद्वारा
विष्णु पूजे जाते हैं।) यहाँ कर्ममें प्रत्यय हुआ है । अत: कर्म उक्त है और कर्ता अनुप्त । इसलिये अनुक्त कर्ता लोक शब्द में तृतीया विभक्ति हुई है ।
तेन गन्तव्यम्, तस्य गन्तव्यम् (उसको जाना चाहिये) यहाँ उपर्युक्त नियमके अनुसार तृतीया और षष्ठी-दोनोंका प्रयोग हुआ है । षष्ठीका प्रयोग कृदन्तके योगमें ही होता है । अभिहित कर्ता और कर्ममें प्रथमा विभक्ति होती है । इसीलिये विष्णु: में प्रथमा विभक्ति हुई है । भक्तः हरिं प्रणमेत् । (भक्त भगवान्को प्रणाम करें ।) यहाँ अभिहित कर्ता भक्त में प्रथमा विभक्ति हुई है और अनुक्त कर्म हरि में द्वितीया विभक्ति । हेतु में तृतीया विभक्ति होती है । यथा-अन्नेन वसेत् । (अन्नके हेतु कहीं भी निवास करे ।) यहाँ हेतुभूत अन्नमें तृतीया विभक्ति हुई है । तादर्थ्य में चतुर्थी विभक्ति कही गयी है । यथा- वृक्षाय जलम् वृक्षके लिये पानी । यहाँ वृक्ष शब्दमें तादर्थ्यप्रयुक्त चतुर्थी विभक्ति हुई हैं । परि, उप, आड. आदिके योगमें पश्चमी विभक्ति होती है । यथा- परिग्रामात् पुरा बलवत् वृष्टोऽयं देव: । (गाँवसे कुछ दूर हटकर दैवने पूर्वकालमें बड़े जोरकी वर्षा की थी ।)-इस वाक्य में परि के साथ योग होनेके कारण ग्राम शब्दमें पश्चमी विभक्ति हुई है । दिग्वाचक शब्द, अन्यार्थक शब्द तथा ऋते आदि शब्दोंके योगमें भी पश्चमी विभक्ति होती है ।
यथा-पूर्वो ग्रामात् । ऋते विष्णोः । न मुक्तिः इतरा हरेः ।
पृथक् और विना आदिके योगमें तृतीया एवं पश्चमी विभक्ति होती है-जैसे पृथग् ग्रामात् । यहाँ पृथक् शब्दके योगमें ग्राम शब्दसे पश्चमी और पृथग् विहारेण-यहाँ पृथक् शब्दके योगमें विहार शब्दसे तृतीया विभक्ति हुई ।
इसी प्रकार विना शब्दके योगमें भी जानना चाहिये । विना श्रिया – यहाँ विना के योगमें श्री शब्दसे द्वितीया, विना श्रिया-यहाँ विना के योगमें श्री शब्दसे तृतीया और विना श्रियः-यहाँ विना के योगमें श्री शब्दसे पश्चमी विभक्ति हुई है ।
कर्मप्रवचनीयसंज्ञक शब्दोंके योग में द्वितीया विभक्ति होती हैं -जैसे अन्वर्जुनं योद्धार: -योद्धा अर्जुनके संनिकट प्रदेशमें हैं ।-यहाँ अनु कर्मप्रवचनीय-संज्ञक है-इसके योगमें अर्जुन शब्दमें द्वितीया विभक्ति हुई ।
इसी प्रकार अभित:, परित: आदिके योगमें भी द्वितीया होती है । यथा अभितो ग्राममीरितम् । -गाँवके सब तरफ कह दिया है । यहाँ अभितः शब्दके योगमें ग्राम शब्दमें द्वितीया विभक्ति हुई है ।
नमः, स्वाहा, स्वधा, स्वस्ति एवं वषट् आदि शब्दोंके योगमें चतुर्थी विभक्ति होती है-जैसे नमो देवाय-(देवको नमस्कार है)-यहाँ नम: के योगमें देव शब्दमें चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त हुई है । इसी प्रकार ते स्वस्ति-तुम्हारा कल्याण हो, यहाँ स्वस्ति के योगमें युष्मद् शब्दसे चतुर्थी विभक्ति हुई (युष्मद शब्दको चतुर्थीके एकवचनमें वैकल्पिक ‘ते’ आदेश हुआ है)। तुमुन्प्रत्ययार्थक भाववाची शब्दसे चतुर्थी विभक्ति होती है-जैसे पाकाय याति और पक्तये याति-पकानेके लिये जाता है ।’ यहाँ पाक और पति शब्द ‘तुमर्थक भाववाची हैं । इन दोनोंसे चतुर्थी विभक्ति हुई ।
सहार्थ शब्दके योगमें हेतु-अर्थ और कुत्सित अङ्गवाचकमें तृतीया विभक्ति होती है । सहार्थयोगमें तृतीया विशेषणवाचक से होती है । जैसे पिताऽगात् सह पुत्रेण -पिता पुत्रके साथ चले गये । यहाँ सह शब्दके योग में विशेषणवाचक पुत्र शब्दसे तृतीया विभक्ति हुई ।
इसी प्रकार गदया हरि: (भगवान् हरि गदाके सहित रहते है)-यहाँ सहार्थक शब्दके न रहने पर भी सहार्थ हैं, इसलिये विशेषणवाचक गदा शब्दसे तृतीया विभक्ति हुई ।
अक्ष्णा काणः-आँखसे काना है । यहाँ कुत्सितअङ्गवाचक अक्षि शब्द है । उससे तृतीया विभक्ति हुई ।
अर्थेन निवसेद् भूत्य:। – भूत्य धनके कारणसे रहता है । यहाँ हेतु अर्थ है धन ।
तद्वाचक अर्थ शब्दसे तृतीया विभक्ति हुई । कालवाचक और भाव अर्थमें सप्तमी विभक्ति होती है । अर्थात् जिसकी क्रियासे अन्य क्रिया लक्षित होती है, तद्वाचक शब्दसे सप्तमी विभक्ति होती है । जैसे- विष्णौ नते भवेन्मुक्तिः –भगवान् विष्णुको नमस्कार करनेपर मुक्ति मिलती है, यहाँ श्रीविष्णुकी नमस्कारक्रियासे मुक्ति-भवनरूपा क्रिया लक्षित होती है, अतः विष्णु शब्दसे सप्तमी विभक्ति हुई ।
इसी प्रकार वसन्ते स गतो हरिम्-वह वसन्त ऋतुमें हरिके पास गया ।यहाँ वसन्त कालवाचक है, उससे सप्तमी हुई । (स्वामी, ईश, पति, साक्षी, सूत और दायाद आदि शब्दोंके योगमें षष्ठी एवं सप्तमी विभक्तियाँ होती हैं-)जैसे-नृणां स्वामी, नृषु स्वामी– मनुष्योंका स्वामी,—यहाँ स्वामी शब्दके यौगमें नृ शब्दसे षष्ठी एवं सप्तमी विभक्तियाँ हुई ।
इसी प्रकार नृणामीशः“- नरोंके ईश-यहाँ ईश शब्दके योगमें ‘नृ शब्दसे, तथा सतां पति:-सज्जनोंका पति– यहाँ सत् शब्दसे षष्ठी विभक्ति हुई ।
ऐसे ही नृणां साक्षी, नृषु साक्षी-मनुष्योंका साक्षी’- यहाँ नृ शब्दसे षष्ठी एवं सतमी विभक्तियाँ हुई ।
गोषु नाथो गवां पतिः– गौओंका स्वामी है, यहाँ नाथ और पति शब्दोंके योगमें गो शब्दसे षष्ठी और सप्तमी विभक्तियाँ हुई ।
गोषु सूतो गवां सूतः-गौओंमें उत्पन्न है’-यहाँ सूत शब्दके योगमें गो शब्दसे षष्ठी एवं सप्तमी विभक्ति हुई ।
इह राज्ञां दायादकोऽस्तु ।-यहाँ राजाओंका दायाद हो । यहाँ दायाद शब्दके योगमें राजन् शब्दमें षष्ठी विभक्ति हुई है ।
हेतुवाचकसे हेतु शब्दके प्रयोग होनेपर षष्ठी विभक्ति होती है । जैसे-अन्नस्य हेतोर्वसति-अन्नके कारण वास करता है ।’-यहाँ वास में अन्न हेतु शब्दका भी प्रयोग हुआ है, अतः अन्न शब्दसे षष्ठी विभक्ति हुई । स्मरणार्थक धातुके प्रयोगमें उसके कर्ममें षष्ठी विभक्ति होती है । जैसे-मातुः स्मरति । -माताको स्मरण करता है । यहाँ स्मरति के योगमें मातृ शब्दसे षष्ठी विभक्ति हुई । कृत्प्रत्ययके योगमें कर्ता एवं कर्ममें षष्ठी विभक्ति होती है । जैसे- अपां भेत्ता-जलको भेदन करनेवाला । यहाँ- भेतृ शब्द कृत् प्रत्ययान्त’ है । उसके
योगमें-कर्मभूत अप् शब्दसे षष्ठी विभक्ति हुई । इसी प्रकार तव कृति:-तुम्हारी कृति है”-यहाँ कृति शब्द कृत्प्रत्ययान्त है । उसके योगमें कर्तृभूत ‘युष्मद् शब्दसे षष्ठी विभक्ति हुई (युष्मद डस्-तव)-निष्ठा आदि अर्थात् क्त–क्तवतु, शतृ–शानच्, उ, उक, क्त, तुमुन्, खलर्थक, तृन्, शानच्, चानश आदिके योगमें षष्ठी विभक्ति नहीं होती (यथा “ग्रामं गतः’ इत्यादि) ॥ १२-२६॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें ‘कारक-निलपण’ नामक तीन साँ चाँवनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३५४॥
अध्याय – ३५५ समास-निरूपण
भगवान् कार्त्तिकेय कहते हैं–कात्यायन ! मैं छ:* प्रकारके समास बताऊँगा । फिर अवान्तर- भेदोंसे समास के अट्ठाईस भेद हो जाते हैं । समास नित्य और अनित्य के भेदसे दो प्रकारका है तथा लुक् और अलुक् के भेदसे भी उसके दो प्रकार और हो जाते हैं । कुम्भकार और हेमकार नित्य समास हैं । (क्योंकि विग्रह-वाक्यद्वारा ये शब्द जातिविशेषका बोध नहीं करा सकते।)
राज्ञः+पुमान् – राजपुमान्’-यह षष्ठी-तत्पुरुष| समास स्वपदविग्रह होनेके कारण अनित्य है ।
कष्टश्रित: (कष्टं+श्रित:)-इसमें लुक समास है; क्योंकि कष्ट पदके अन्तमें स्थित द्वितीया विभक्तिका लुक् (लोप) हो जाता है ।
कण्ठेकालः आदि अलुक् समास हैं, क्योंकि इसमें कण्ठशब्दोत्तरवर्तिनी सप्तमी विभक्तिका लुक् नहीं होता ।
तत्पुरुष-समास आठ प्रकारका होता है । प्रथमान्त आदि शब्द सुबन्तके साथ समस्त होते हैं । पूर्वकाय: इस तत्पुरुषसमासमें जब पूर्व कायस्य-ऐसा विग्रह किया जाता है, तब यह प्रथमा–तत्पुरुष समास कहा जाता है । इसी प्रकार अपरकायः—कायस्य अपरम्, इस विग्रहमें और उत्तरकायः—कायस्योत्तरम्-इस विग्रह में भी प्रथमा-तत्पुरुष समास कहा जाता है। ऐसे ही अर्द्धकणा इसमें अर्द्धम् कणाया:-ऐसा विग्रह होनेसे प्रथमा-तत्पुरुष समास होता है एवं भिक्षातुर्यम्-इसमें तुर्य भिक्षायाः-ऐसा विग्रह होनेसे तुर्यभिक्षा और पक्षान्तरमें भिक्षातुर्यम — ऐसा षष्ठी-तत्पुरुष होता है । ऐसे ही आपन्नजीविकः यह द्वितीया-तत्पुरुष समास है । इसका विग्रह इस प्रकार होता है-आपन्नो जीविकाम् । पक्षान्तरमें जीविकापत्र: ऐसा रूप होता है । इसी प्रकार माधवाश्रितः-यह द्वितीया-समास है, इसका विग्रह माधवम् आश्रितः-इस प्रकार है । वर्षभोग्यः -यह द्वितीया-तत्पुरुष समास हैं इसका विग्रह है वर्ष भौग्य:।
धान्यार्थ: यह तृतीया-समास है । इसका विग्रह धान्येन अर्थ: इस प्रकार है ।
विष्णुबलि: यहाँ विष्णवे बलिः-इस विग्रह में चतुर्थी-तत्पुरुष समास होता है ।
वृकभीति: यह पश्चमी-तत्पुरुष है । इसका विग्रह वृकाद भीति:-इस प्रकार है ।
राजपुमान्-यहाँ राज्ञः पुमान्-इस विग्रहमें षष्ठी-तत्पुरुष समास होता है ।
इसी प्रकार वृक्षस्य फलम—वृक्षफलम्—यहाँ षष्टी-तत्पुरुष समास है ।
अक्षशौण्ड: (झूतक्रीडामें निपुण) इसमें सप्तमी-तत्पुरुष समास है ।
अहितः-जो हितकारी न हो, वह-इसमें नज्ञ समास है । ॥ १-७ ॥
कर्मधारय समास सात पकार का होता है ।
१-विशेषणपूर्वपद । इसका उदाहरण है-नीलोत्पल ।
२-विशेष्योत्तरविशेषणपद-इसका उदाहरण हैं-वैयाकरणखसूचि: (कुछ पूछनेपर आकाशकी ओर देखनेवाला वैयाकरण)।
३-विशेषणोभयपद – जिसमें दोनों पद विशेषणरूप ही हों । जैसे-शीतोष्ण (ठड़ागरम)।
४-उपमानपूर्वपद। इसका उदाहरण हैं-शङ्कपाण्डुर: (शड़के समान सफेद)।
५-उपमानोत्तरपद-इसका उदाहरण है-पुरुषव्याघ्रः (पुरुषो व्याघ्र इव) ।
६-सम्भावनापूर्वपद-उदाहरण-गुणवृद्धिः (गुण इति वृद्धिः स्यात् । अर्थात गुण शब्द बोलने से व्रिद्धिकी सम्भावना होती है)। तात्पर्य यह है कि वृद्धि हो-यह कहनेकी आवश्यकता हो तो ‘गुण’ शब्दका ही उच्चारण करना चाहिये।
७-अवधारणपूर्वपद [जहाँ पूर्वपदमें ‘अवधारण’ (निश्चय) सूचक शब्दका प्रयोग हो, वह]। जैसे- सुहुदेव सुबन्धुक: (सुहृद् ही सुबन्धु है) । ॥ ८-११ ॥
बहुव्रीहिसमास भी सात प्रकारका ही होता है । १-द्विपद, २-बहुपद, ३-संख्योत्तरपद, ४-संख्योभयपद, ५-सहपूर्वपद, ६–व्यतिहारलक्षणार्थ तथा ७- दिग्लक्षणार्थ ।
द्विपद बहुव्रीहि में दो ही पदोंका समास होता है। यथा-आरूढ़ भवनों नरः (आरूढ़ भवन येन सः-इस विग्रहके अनुसार जो भवनपर आरूढ हो गया हो, उस मनुष्यका बोध कराता है।)
बहुपद बहुव्रीहि में दो से अधिक पद समास में आबद्ध होते हैं । इसका उदाहरण है-अयम् अर्चिताशेषपूर्वः (अर्चिता अशेषाः पूर्वा यस्य सोऽयम् अर्चिताशेषपूर्वः ।) अर्थात् जिसके सारे पूर्वज पूजित हुए हों, वह अर्चिताशेषपूर्व है । इसमें अर्चित, अशेष तथा पूर्व-ये तीनों पद समासमें आबद्ध हैं । ऐसा समास बहुपद कहा गया है ।
संख्योत्तरपद का उदाहरण है –एते विप्रा उपदशाः-ये ब्राह्मण लगभग दस हैं’ । इसमें दस संख्या उत्तरपदके रूपमें प्रयुक्त है । द्वित्राः द्रोकत्रयः इत्यादि संख्योभयपद के उदाहरण हैं ।
सहपूर्वपद का उदाहरण-समूलोद्धृतकः तरुः (सह मूलेन उदधृतं कं शिखा यस्य सः। अर्थात् जड़सहित उखड़ गयी है शिखा जिसकी, वह वृक्ष)-यहाँ पूर्वपदके स्थानमें सह (स)-का प्रयोग हुआ है ।
व्यतिहारलक्षणका उदाहरण हैं-केशाकेशि, नखानखि युद्धम (आपसमें झोंटा-झुटौअल, परस्पर नखोंसे बकोटा-बकोटीपूर्वक कलह) ॥ १२-१४॥
दिग्लक्षणार्थका उदाहरण—उत्तरपूर्वा (उत्तर और पूर्वके अन्तरालकी दिशा)।
द्विगु समास दो प्रकार का बताया गया है । 1- एकवद्धाव तथा अनेकधा स्थितिकी लेकर ये भेद किये गये हैं । संख्या पूर्वपदवाला समास द्विगु है । इसे कर्मधारयका ही एक भेदविशेष स्वीकार क्रिया गया है ।
एकवद्धाव का उदाहरण है – द्विश्र्ङ्गम् (दो सींगोंका समाहार) । पञ्चमूली भी इसीका
उदाहरण है ।
अनेकधा या अनेकवद्धाव का उदाहरण हैं-सप्तर्षयः इत्यादि । पञ्च ब्राह्मणाः में समास नहीं होगा; क्योकी यहाँ संज्ञा नहीं है ॥ १५॥
द्वन्द्व समास भी दी ही प्रकारका होता है १-इतरेतरयोगी तथा २-समाहारवान् ।
प्रथमका उदाहरण है-रुद्रविष्णू (रुद्रश्च विष्णुश्च-रुद्र तथा विष्णु) । यहाँ इतरेतर-योग हैं ।
समाहारका उदाहरण है-भेरीपटहम् (भेरी च पटहश्च, अनयो: समाहार:-अर्थात् भेरी और पटहका समाहार)।
यहाँ तुर्याङ्ग होनेसे इनका एकवद्धाव होता है ।
अव्ययीभाव समास भी दो तरहका होता है-१- नामपूर्वपद और २-(‘यथा” आदि) अव्ययपूर्वपद ।
प्रथमका उदाहरण है-शाकस्य मात्रा-शाकप्रति । यहाँ शाक पूर्वपद है और मात्रार्थक प्रति अव्यय उत्तरपद ।
दूसरेका उदाहरण उपकुमारम्–उपरथ्यम् इत्यादि हैं ।
समासको प्राय: चार प्रकारोंमें विभक्त किया जाता है-१- उत्तरपदार्थकी प्रधानतासे युक्त (तत्पुरुष), २-उभयपदार्थ–प्रधान द्वन्द्व समास, ३-पूर्वपदार्थप्रधान ‘अव्ययीभाव‘ तथा ४—अन्य अथवा बाह्यपदार्थ–प्रधान ‘बहुव्रीहि‘ ॥१६-१९ ॥
तीन सौ पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३५५ ॥
अध्याय – ३५६ त्रिविध तद्वित-प्रत्यय
कुमार स्कन्ध कहते हैं–कात्यायन! अब त्रिविध तद्धित का वर्णन करुंगा । तद्धित के तीन भेद हैं –सामान्यावृत्ति तद्धित, अव्यय तद्धित तथा भाववाचक तद्धित ।
सामान्यावृति तद्धित इस प्रकार है-
अंस शब्दसे लच् प्रत्यय होने पर अंसल: बनता है; इसका अर्थ है –बलवान् ।
वत्स शब्दसे लच् प्रत्यय होनेपर वत्सलः रूप होता है, इसका अर्थ स्नेहवान् है ।
फेन शब्दसे इलच् प्रत्यय होनेपर फेनिलम् रूप होता है, इसका अर्थ है-फेनयुक्त जल ।
लोमादि गण से श प्रत्यय होता है, -इस नियमके अनुसार श प्रत्यय होनेपर लोमशः प्रयोग बनता है । पामादि शब्दोंसे न होता है-इस नियमके अनुसार पाम शब्दसे न होनेपर पामनः बनता है ।
अङ्गात् कल्याणे ।-इस वार्तिकके अनुसार कल्याण अर्थमें अङ्ग शब्दसे न होनेपर लक्ष्मणः ये रूप बनते हैं । वैकल्पिक मतुप होनेपर तो पामवान् आदि रूप होंगे । जिसे खुजली हुई हो, वह पामन या पामवान् हैं ।
इसी तरह पिच्छादि शब्दोंसे इलच् होता है – इस नियम के अनुसार इलच् होने पर पिच्छिल:, पिच्छवान्; उरसिल:, उरस्वान इत्यादि रूप होते है । पिच्छिल: का अर्थ है पंखवान् होता है । मार्गका विशेषण होनेपर यह फिसलनयुक्तका बोधक होता है-यथा पिच्छिलः पन्थाः । उरस्वान् का अर्थ मनस्वी समझना चाहिये ।
ण प्रत्यय करनेपर प्रज्ञा शब्दसे प्राज्ञः, श्रद्धा शब्दसे श्राद्ध: और अर्चा शब्दसे आर्च: रूप बनते हैं । वाक्यमें प्रयोग- प्राज्ञी व्याकरणे । स्त्रीलिङ्गमें प्राज्ञा रूप होगा ।
ण प्रत्यय होने से अणन्तत्वप्रयुक्त डीप् प्रत्यय यहाँ नहीं होगा । यद्यपि प्रकर्षेण जानातीति प्रज्ञः स एव प्रज्ञावान् । प्रज्ञ एव प्राज्ञः । – इस प्रकार भी प्राज्ञः की सिद्धि तो होती है, तथापि इससे स्त्रीलिङ्गमें प्राज्ञी रूप बनेगा, प्राज्ञा नहीं ।
वृति शब्दसे भी ण प्रत्यय होता है-वार्त: । वार्ता, विद्या इत्यादि ।
ऊँचे दाँत हैं इसके-इस अर्थमें दन्त शब्दसे उरच् प्रत्यय होनेपर दन्तुः-यह रूप होता है ।
दन्त उन्नत उरच। -इस सूत्रसे उक्त अर्थमें दन्तुरः इस पदकी सिद्धि होती है ।
मधु शब्दसे र प्रत्यय होनेपर मधुरम, सुषि शब्दसे र प्रत्यय होनेपर सुथिरम्, केश शब्दसे व प्रत्यय होनेपर केशव:, हिरणय
तथा मणि शब्दोंसे व प्रत्यय होनेपर हिरणयवमणि व:— ये प्रयोग सिद्ध होते हैं ।
रजस् शब्दसे वलच् प्रत्यय होनेपर रजस्वलम् पदकी सिद्धि होती है ।
धन, कर तथा हस्त -इन शब्दोंसे हस्ती- ये पद सिद्ध होते हैं ।
धन शब्दसे ठन् प्रत्यय होनेपर धनिकं कुलम् या धनिकः पुरुषः-ये प्रयोग सिद्ध होते हैं।
पयस् तथा माया शब्दों से विनि प्रत्यय होने पर पयस्वी तथा मायावी-ये रूप बनते हैं ।
ऊर्णा शब्दसे मत्वर्थीय युस प्रत्यय होनेपर ऊर्णायुः पदकी सिद्धि बतायी गयी है ।
वाच् शब्दसे ग्मिनि प्रत्यय होनेपर वाग्मी तथा आलच् प्रत्यय होनेपर वाचालः-ये रूप बनते हैं ।
उसी वाच् से आटच् प्रत्यय होनेपर वाचाट: रूप बनता हैं ।
फल तथा अह शब्दोंसे इनच् प्रत्यय होनेपर क्रमश: फलिन:, बहिंणः-ये रूप बनते हैं ।
वृन्द शब्दसे आरकन् प्रत्यय होनेपर वृन्दारक:’- इस पदकी सिद्धि होती हैं ॥ ४-५ ॥
शीतं न सहते, हिम न सहते-इस विग्रहमें शीत तथा हिम शब्दोंसे आलुच् प्रत्यय करनेपर शीतालु तथा हिमालु रूप बनते हैं ।
वात शब्दसे उलच् प्रत्यय होनेपर वातुलः रूप बनता है ।
अपत्य अर्थमें अण् प्रत्यय होता है ।
वसिष्ठस्यापत्यं पुमान् वासिष्ठः ।, कुरोरपत्यं पुमान् कौरवः । (वसिष्ठकी संतान वासिष्ठ काहलाती है तथा कुरुकी संतति कौरव)-
वहाँ उसका निवास है’-इस अर्थमें सप्तम्यन्त समर्थ शब्दसे अण् प्रत्यय होता है । यथा मथुरायां वासोऽस्येति माथुर:। (मथुरामें निवास है इसका, इसलिये यह माथुर है ।) सोऽस्य वासः । -वह इसका वासस्थान है, इस अर्थमें भी प्रथमान्त समर्थ से अण् प्रत्यय होता है ।
उसको जानता और उसे पढ़ता है-इस अर्थमें द्वितीयान्त समर्थ पदसे अण् प्रत्यय होता है । चान्द्र व्याकरणमधीते तद् वेद वा इति चान्द्रः।
क्रमादि शब्दोसे वुन् प्रत्यय होता है । क्रमं वेत्ति इति क्रमकः-जो क्रमपाठको जानता है, वह क्रमक हैं ।
इसी तरह पदक:, शिक्षक:, मीमांसकः इत्यादि पद बनते हैं ।
कोशम् अधीते वेद वा । -जो कोशको जानता या पढ़ता है, वह कौशक हैं ।
धान्यानां भवने क्षेत्रे खत्र । -इस सूत्रके अनुसार धान्योंकी उत्पतिके आधारभूत क्षेत्रके अर्थमें षष्ठयन्त समर्थ धान्यवाचक शब्दसे खञ् प्रत्यय होता है । इसके अनुसार प्रियंगोर्भवनं क्षेत्रं प्रैयंगवीनम्–प्रियंगु (कैंगनी )की उत्पतिके आधारभूत क्षेत्रका बोध करानेके लिये खञ् प्रत्यय होनेपर प्रैयंगवीनम् यह पद बनता है । इसका अर्थ है-प्रियंगु (कैगनी) की उपज देनेवाला खेत ।
इसी तरह मुंग, कोदो आदि की उत्पत्ति के उपयुक्त खेत को मौद्रीन तथा कौद्रवीण कहते हैं ।
यहाँ मुदग शब्दसे खञ् प्रत्यय होनेपर मौद्रिन शब्द और कौंद्रव शब्द से खञ् प्रत्यय होने पर कौद्रवीण शब्दकी सिद्धि होती है ।
विदेहस्यापत्यम् (विदेहका पुत्र)-इस अर्थमें विदेह शब्दसे अण् प्रत्यय होनेपर वैदेहः पदकी सिद्धि होती है । अकारान्त शब्दसे अपत्य अर्थमें अण् का बाधक इ प्रत्यय होता है । आदि स्वरकी वृद्धि तथा अन्तिम स्वरका लोप । यथा – दक्षस्यापत्यं-दाक्षिः, दशरश्चास्यापत्यं– दाशरथि:। इत्यादि पद बनते हैं ।
नडादिभ्यः फक् । -इस सूत्रके नियमानुसार नड-आदि शब्दोंसे फक् प्रत्यय होता है । फ के स्थानमें आयन होता है । अतएव नडस्य गोत्रापत्यं नाडायन; चरस्य गोत्रापत्यं चारायणः । इत्यादि प्रयोग सिद्ध होते हैं ।
इसी तरह अश्वस्य गोत्रापत्यम् से आश्वायनः होता है । इसमें अश्वादिभ्यः फञ् । – इस सूत्रके अनुसार फन्’ प्रत्यय होता है ।
(गोत्रे कुञ्जादिभ्यः फञ् ४। १। १८) यह भी फञ् -विधायक सूत्र है । ब्रध्न, शङ्क, शकट आदि शब्द कुञ्जादिके अन्तर्गत हैं, अतएव ‘शाङ्खायनः’, ‘शाकटायनः’ आदि प्रयोग सिद्ध होते हैं।)
गर्गादिभ्यो यञ् – इस सूत्रके अनुसार गर्ग, वत्स आदि शब्दोंसे गोत्रापत्यार्थक यञ् प्रत्यय होनेपर गार्ग्य:, वात्स्य: इत्यादि रूप बनते हैं ।
स्त्रीभ्यो ढक् । – के नियमानुसार स्त्रीप्रत्ययान्त शब्दोंसे अपत्य अर्थमें ढक् प्रत्यय होता है । फिर उसके स्थानमें एय होता है । जैसे विनताया: पुत्र: (विनताका पुत्र) वैनतेय कहलाता है ।
सुमित्रा आदि शब्द बाह्रादिगण में पठित हैं, अत: उनसे अपत्यार्थमें इञ् प्रत्यय होता है । अतएव सौमित्रेयः न होकर सौमित्रिः रूप बनता है ।
चटका शब्दसे चटकाया ऐरक् । -इस सूत्रके विधानानुसार ऐरक् प्रत्यय होनेपर चटकाया अपत्यं पुमान् (चटकाका नर पुत्र) चाटकैर कहलाता है ।
गोधा शब्दसे ढक् का विधान है । गोधाया ढक् । अत: गोधाका अपत्य गोधेर कहलात है ।
आरगुदीचाम् । के नियमानुसार आरक प्रत्यय होनेपर गौधार: रूप बनता है । ऐसा वैयाकरणोंने बताया है । ९-११ ॥
क्षत्र शब्दसे घ प्रत्यय होनेपर घ के स्थानमें इय होनेके कारण क्षत्रिय शब्द सिद्ध होता है ।
क्षत्राद ध:।-जाति बोधक घ प्रत्यय होनेपर ही क्षत्रियः रूप बनता है । अपत्यार्थमें तो इञ् होकर क्षत्रस्यापत्यं पुमान् क्षात्रिः-यही रूप बनेगा ।
कुलात् खः । के अनुसार कुल शब्दसे ख प्रत्यय और ख के स्थानमें ईन आदेश होनेपर कुलीनः-इस पदकी सिद्धि होती है ।
कुर्वादिभ्यो ण्यः । के अनुसार अपत्यार्थमें कुरु शब्दसे ण्य प्रत्यय होनेपर आदिवृद्धिपूर्वक गुण-वान्तादेश होकर कौरव्यः इत्यादि प्रयोग बनते हैं ।
शरीरावयवाद यत् । के नियमानुसार शरीरावयववाचक शब्दोसे यत् प्रत्यय होनेपर मूर्धन्य तथा मुख्य आदि शब्द सिद्ध होते हैं ।
सुगन्धिः-शोभनो गन्धो यस्य सः- इस लौकिक विग्रहमें बहुव्रीहि समास करनेके पश्चात् गन्धस्येदुत्पूतिसुसुरभिभ्यः । (५ ॥ ४। १३५)-इस सूत्रके अनुसार अन्तमें इ हो जानेसे सुगन्धिः-इस शब्दरूपकी सिद्धि होती है । ॥ १२ ॥
तदस्य संजातं तारकादिभ्य इतच् । (५। २। ३६)-तारक आदि गणसे इतच् प्रत्यय होता है, इस नियमके अनुसार तारका: संजाता अस्य (तारे उग आये हैं, इसके) इस अर्थमें तारका शब्दसे इतच् प्रत्यय होनेपर तारकितं नभ: इत्यादि प्रयोग सिद्ध होते हैं ।
कुण्डमिव ऊधो यस्या: सा (कुण्डाके समान है ।थन जिसका, वह)-इस लौकिक विग्रहमें बहुब्रीहि समास होनेपर ऊधसो ऽनङ् । (५ ॥ ४। १३१)-इस सूत्रके अनुसार ऊधोऽन्त बहुब्रीहिसे स्त्रीलिङ्गमें अनङ् होता है । इस प्रकार अनङ् होनेपर बहुव्रीहेरूधसो डीष । (४।१। २५)-इस सूत्रसे डीष प्रत्यय होता है । तत्पश्चात् अन्यान्य प्रक्रियात्मक कार्य होनेके बाद कुण्डोध्नी पदकी सिद्धि होती है ।
पुष्पं धनुर्यस्य स पुष्पधन्वा (कामदेवः), सुष्ठु धनुर्यस्य स सुधन्वा (श्रेष्ठ धनुष धारण करनेवाला योद्धा)-इन दोनों बहुब्रीहिपदोंमें धनुषश्च । (५ । ४ । १३२)-इस सूत्रसे अनङ् होता है । तत्पश्चात् सुबादि कार्य होनेपर पुष्पधन्वा तथा सुधन्वा-ये दोनों पद सिद्ध होते हैं। ॥ १३ ॥
वित्तेन वित्तः इति विक्ताचुञ्चुः । -जो धनवैभवके द्वारा प्रसिद्ध हो, वह वित्तचुश्चु है । शब्दशास्त्रमें जिसकी प्रसिद्धि है, वह शब्दचुश्चु कहलाता है । ये दोनों शब्द चुश्चुप् प्रत्यय होनेपर निष्पन्न होते हैं । इसी अर्थमें चणप् प्रत्यय भी होता है । यथा- केशचणा: । जो अपने केशोंसे विदित है, वह केशचण: कहा गया हैं ।
(इन प्रत्ययोंका विधान ‘तेन वित्तश्यश्चुप्चणपौ । (५। २ ॥ २६) -इस सूत्रके अनुसार होता है । पटु शब्दसे प्रशस्त अर्थमें रूप प्रत्यय होनेपर पटुरूपः पद बनता है । प्रशस्तः पटुः-पटरूपः । जो प्रशस्त पटु है, वह पटुरूप कहा जाता है । यह रूप प्रत्यय सुबन्त और तिड़न्त-दोनों प्रकार के शब्दोंसे होता है ।
तिड़न्त शब्दसे इस प्रकार होता है – प्रशस्तं पचति इति पचतिरूपम् । पचतिरूपम् का अर्थ है-अच्छी तरह पकाता है ।
अतिशयार्थ-धोतनके लिये तमप्, इष्ठन् , तरप् और ईयसुन्-ये प्रत्यय होते हैं । इनमेंसे तरप् और ईयसुन्-ये दोनों दो में से एककी श्रेष्ठताका प्रतिपादन करते हैं और तमप् तथा इष्ठन्-ये दोनों बहुतोंमेंसे एककी श्रेष्ठता बताते हैं ।
पाणिनिने इसके लिये दो सूत्रोंका उल्लेख किया हैं-अतिशायने तमबिष्ठनौ । (५ । ३ ।। ५५) तथा द्विवचनविभज्योत्तरपदे तरबीयसुनौ । (५ ॥ ३ ॥ ५७) ।
इसके सिवा, यदि किसी द्रव्य का प्रकर्ष न बताना हो तो तरप्, तमप् प्रत्ययोंसे परे आम् हो जाता है । यह आम्, किम् शब्द, एदन्त शब्द, तिड़न्त पद तथा अव्यय पदसे भी होते हैं । इन सब नियमोंके अनुसार अयम् अनयोरतिशयेन पटुः । (यह इन दोनोंमें अधिक पटु है)-इस अर्थको बतानेके लिये पटु शब्दसे ईयसुन् प्रत्यय करनेपर विभक्तिकार्यपूर्वक पटीयान् रूप होता है । अक्ष शब्दसे तरप् प्रत्यय होनेपर अक्षतर और पटु आदि शब्दोंसे उक्त प्रत्यय होनेपर पटुतरः आदि रूप बनते हैं ।
तिङन्तसे तरप् प्रत्यय करके अन्त में आम् करने पर पचतितराम रूप बनता है । तमप् और आम् प्रत्यय होनेपर अटतितमाम् इत्यादि उदाहरण उपलब्ध होते हैं ॥१४-१५॥
किंचित् न्यूनता तथा असमाप्तिका भाव प्रकट करने के लिये सुबन्त और तिङन्त शब्दोसे कल्पप्, देश्य तथा देशीयर् प्रत्यय होते हैं । ईषदसमाप्तौ कल्पब्देश्यदेशीयर: (५ ॥ ३॥ ६७)-इस सूत्रके अनुसार मृदु शब्दसे कल्पप् प्रत्यय होनेपर मृदुकल्पः प्रयोग बनता है । इसका अर्थ हुआ- कुछ कम मृदु या कोमल ।
ईषदूनः इन्द्रः– इन्द्रकल्पः । ईषदूनः अर्क:–अर्ककल्प: । इत्यादि उदाहरण इसी तरह जाननेयोग्य हैं ।
ईषदून: राजा – इस अर्थमें राजन् शब्दसे देशीयर् प्रत्यय करनेपर राजदेशीय: तथा देश्य प्रत्यय करने पर राजदेश्यः-ये रूप बनते हैं । इसी तरह पटु शब्दसे जातीय प्रत्यय करनेपर पटुजातीय: पद बनता है । इसका अर्थ है-पटुप्रकार-पटुके प्रकारका ।
थल् प्रत्यय प्रकारमात्रका बोधक है, किंतु जातीयर् प्रत्यय प्रकारवान् का बोध कराता है । [इसका विधायक पा० सू० है-“प्रकारवचने जातीयम्।”५ ॥ ३ ॥ ६९]
प्रमाणे द्वयसज् दघ्नञ् मात्रचः । (५।। २ । ३७)- इस सूत्र के अनुसार जल आदि का प्रमाण बताने के लिये सुबन्त शब्दों से द्वयसच्, दध्नच् तथा मात्रच् प्रत्यय होते हैं ।
इस नियमसे मात्रच् प्रत्यय होनेपर जानुमात्रम् पद बनता है । इसका अर्थ है-घुटनेतक (पानी है) । ऊरु शब्दसे द्वयसच् प्रत्यय करनेपर ऊरुद्वयसम् तथा दध्नच् प्रत्यय करनेपर ऊरुदध्रम् -ये प्रयोग बनते हैं । ॥ १६-१७ ॥
संख्याया अवयवे तयप् । -इस सूत्रके अनुसार पञ्चावयवा यस्य तत् (पाँच अवयव हैं, जिसके वह) इस अर्थमें पञ्चन् शब्दसे तयप् प्रत्यय करनेपर पञ्चतयम्-यह रूप बनता है ।
द्वारं रक्षति, द्वारे नियुक्तो वा दौवारिकः-जो द्वारकी रक्षा करता है, अथवा द्वारपर रक्षाके लिये नियुक्त है, वह दौवारिक है ।
रक्षति । अथवा तत्र नियुक्त: । इस सूत्रसे यहाँ ठक् प्रत्यय हुआ है । ठ के स्थानमें इक आदेश हो जाता है तथा द्वारादीनां च ।-इस सूत्रसे ऐच् का आगम होता है । फिर विभक्तिकार्य होनेपर दौवारिक: इस पदकी सिद्धि होती है ।
इस प्रकार ठक् प्रत्यय होनेपर दौवारिक शब्दकी सिद्धि बतायी गयी है । यहाँतक तद्धितकी सामान्यवृति कही गयी ।
अब अव्ययसंज्ञक तद्धित का निरूपण किया जाता है । १८ ॥
यस्मादिति यतः, तस्मादिति ततः -यहाँ पश्चम्यास्तसिल् । इस सूत्रके अनुसार तसिल् प्रत्यय होता है । इकार और लकारकी इत्संज्ञा होकर उनका लोप हो जाता है । तसिल् प्रत्यय विभक्तिसंज्ञक होनेके कारण त्यदादीनाम: । के नियमानुसार अकारान्तादेश हो जाता है । अतः यत् की जगह य और तत् की जगह त होनेसे यत:, ततः-ये स्प बनते हैं ।
तसिलादयः प्राक् पाशपः । -इस परिगणनाके अनुसार यत:’, ततः आदि शब्द अव्यय माने गये हैं ।
तसिल् आदिमें त्रल् प्रत्यय भी आता है । इसका विधायक पाणिनिसूत्र है—सप्तम्यास्त्रल् ।
यस्मिन्निति यत्र, तस्मिन्निति तत्र-इस लौकिक विग्रहमें त्रल् प्रत्यय होनेपर यस्मिन् त्र, तस्मिन् त्र ।
इस अवस्थामें कृत्तद्धितसमासाश्च (१।२।। ४६) से प्रातिपदिक संज्ञा, सुपो धातुप्रातिपदिकयोः। (२। ४ ।। ७१) सूत्रसे विभक्तिका लोप और त्यदादीनाम: । (७। २। १०२) सूत्रसे अकारान्तादेश होनेपर यत्र, तत्र-इन पदोंकी सिद्धि बतायी गयी है ।
अस्मिन् काले-इस लौकिक विग्रहमें अधुना । (५। ३। १७) सूत्रसे अधुना प्रत्यय होने अस्मिन् अधुना इस अवस्थामें विभक्तिलोप, इदम् के स्थानमें इश अनुबन्धलोप तथा यस्येति च । (६।। ४ ।। १४८) से इकारलोप होनेपर अधुना की सिद्धि हुई । इसी अर्थमें दानीम् प्रत्यय होनेपर इदम् के स्थानमें इ होकर इदानीम् रूप बनता है ।
सर्वस्मिन् काले-इस विग्रहमें सर्वेकान्यकिंयत्तदः काले दा (५ ॥ ३ ॥ १५) – इस सूत्रसे दा प्रत्यय होनेपर सर्वदा रूप बनता है ।
तस्मिन् काले-तर्हि, कस्मिन् काले-कर्हि – यहाँ तत् और किम् शब्दों से काल अर्थमें अनद्यतने हिंलन्यतरस्याम् । (५ । ३ ।। २१)-इस सूत्रसे हिंल् प्रत्यय हुआ । फिर पूर्ववत् प्रातिपदिकावयव विभक्तिका लोप होकर त्यदादीनाम: । (७।। २ ।। १०२)-इस सूत्रसे तत् के स्थानपर त और किम्: क: । (७ ॥ २। १०३) सूत्रसे किम् के स्थानमें क होनेपर तहिं और कहिं-इन पदोंकी सिद्धि कहीं गयी है ।
अस्मिन्-इस विग्रह में त्रल् प्रत्ययकी प्राप्ति हुई, किन्तु उसे बाधित करके इदमो ह:। (५ ॥ ३ ॥ ११)-इस सूत्र से हः प्रत्यय हो गया । फिर इदम् के स्थानमें इकार होनेपर इह रूपकी सिद्धि हुई । १९-२० ॥
येन प्रकारेण यथा, केन प्रकारेण कथम्— इन स्थलोंपर प्रकारवचने थाल् । (५ ॥ ३ ॥ २३) के अनुसार थाल् प्रत्यय होनेपर यथा, तथा आदि रूप होते हैं ।
किम् शब्दसे किमश्च । (५ ॥ ३ ॥ २५) के अनुसार थम् प्रत्यय होता है । अत: कथम् इस रूपकी सिद्धि होती है ।
जो शब्द दिशाके अर्थमें रूढ़ होते हैं, ऐसे दिशा, देश और काल अर्थमें प्रयुक्त शब्दोंसे स्वार्थमें अस्ताति प्रत्यय होता है । श्लोकमें पूर्वस्याम् यह सप्तमी विभक्तिका, पूर्वस्या: यह पञ्चमी विभक्तिका तथा पूर्वा यह प्रथमा विभक्तिका प्रतिरूप है । अर्थात् उक्त शब्द यदि सप्तम्यन्त, पञ्चम्यन्त और प्रथमान्त हों, तभी उनसे अस्ताति प्रत्यय होता है।
पूर्व, अधर और अवर शब्दोंके स्थानमें क्रमश: पुर, अध और अव आदेश होते हैं ।
अस्ताति के स्थानमें असि प्रत्ययका भी विधान होता है । इन निर्दिष्ट नियमोंके अनुसार पूर्वस्यां दिशि, पूर्वस्याः दिशः, पूर्वा वा दिक्-इन लौकिक विग्रहोंमें पुर:, पुरस्तात्-ये रूप होते हैं ।
उसी प्रकार अध:, अधस्तात्-अव:, अवस्तात्-इत्यादि रूप जानने चाहिये।
इनके वाक्यप्रयोग पुरस्तात् संचरेद्, पुरस्ताद गच्छेत् इत्यादि रूपमें होते हैं ।
समाने अहनि-इस अर्थमें सद्यः-इस शब्दका प्रयोग होता है । समान शब्द का स और अहनि के स्थानमें द्यस् निपातित होकर सद्यः-इस पदकी सिद्धि होती है ।
पूर्वस्मिन् वर्ष परुत् -पूर्वतरवर्षे परारि इति (पूर्व वर्षमें-इस अर्थको बतानेके लिये परुत् शब्दका प्रयोग होता है तथा पूर्वसे पूर्व वर्षमें-इस अर्थका बोध करानेके लिये परारि शब्दका प्रयोग होता है ।)
पहलेमें पूर्व शब्दके स्थानमें पर आदेश होता है और उससे उत् प्रत्यय किया जाता है । दूसरेमें आरि प्रत्यय होता है और पूर्व के स्थानमें पर आदेश ।
अस्मिन् संवत्सरे (इस वर्षमें) इस अर्थका बोध करानेके लिये ऐषम: पदका प्रयोग होता है । इसमें इदम् शब्दके स्थानमें इकार आदेश और उससे परे समसण् प्रत्ययका निपातन होता है । अकार-णकारकी इत्संज्ञा हो जानेपर इ+समः-इस अवस्थामें आदिवृद्धि और सकारके स्थानमें मूर्धन्यादेश होनेपर ऐषम: रूपकी सिद्धि होती है ।
परस्मिन्नहनि (दूसरे दिन)-के अर्थमें पर शब्दसे एद्यवि प्रत्यय करनेपर परेद्यवि-यह रूप होता है ।
अस्मिन्नहनि (आजके दिन) इस अर्थमें इदम् शब्दसे द्य प्रत्यय होता है और इदम् के स्थानमें अ हो जाता है । इस प्रकार अद्य -यह रूप बनता है ।
पूर्वस्मिन् दिने (पहले दिन)-इस अर्थमें पूर्व शब्दसे एद्युस प्रत्यय होता है तो पूर्वेद्यु: यह रूप बनता है ।
इसी प्रकार परस्मिन् दिने- परेद्युः, अन्यस्मिन् दिने-अन्येद्युः इत्यादि प्रयोग जानने चाहिये ।
दक्षिणस्यां दिशि वसेत् । (दक्षिण दिशा में निवास करें ।)-इस अर्थमें दक्षिणा और दक्षिणाहि-ये रूप बनते हैं । पहलेमें दक्षिणादाच् (५।।३।। ३६)-इस सूत्रसे आच् प्रत्यय होता है और दूसरेमें आहि च दूरे । (५ ॥ ३ ॥ ३७)-इस सूत्रसे आहि प्रत्यय किया गया है । दक्षिणाहि वसेत् का अर्थ हुआ-दक्षिण दिशामें दूर निवास करे । दक्षिणोत्तराभ्यामतसुच् । (५ ॥ ३ ॥ २८) तथा उत्तराधरदक्षिणादातिः । (५ || ३ || ३४)- इन सूत्रोंकि अनुसार दक्षिणतः, दक्षिणात्, उत्तरतः, उत्तरात्-ये दो रूप भी बनते हैं ।
उत्तरस्यां दिशि वसेत् (उत्तर दिशामें निवास करे)-इस अर्थमें उत्तराच्च । (५ ॥ ३ ॥ ३८)-इस सूत्रके उत्तरा तथा उत्तराहि-ये दोनों रूप सिद्ध होते हैं ।
अस्ताति प्रत्ययके विषयभूत ऊर्ध्व शब्दसे रिल् और रिष्टातिल् प्रत्यय होते हैं तथा ऊर्ध्व के स्थान में उप आदेश हो जाता है । इस प्रकार उपरि वसेत्, उपरिष्टाद् भवेत् इत्यादि प्रयोग सिद्ध होते हैं ।
उत्तर शब्दसे एनप् प्रत्यय होनेपर उत्तरेण होता है ।
पूर्वोक्त दक्षिणा शब्दकी सिद्धि आच् प्रत्यय होनेसे होती हैं इसका निर्देश पहले किया जा चुका है ।
आहि प्रत्यय होने पर दक्षिणाहि पद बनता है-यह भी कहा जा चुका है । दक्षिणाहि वसेत् इसका अर्थ भी दिया जा चुका है ।
संख्याया विधार्थेधा । (५॥ ३ ॥ ४२)- इस सूत्रके अनुसार संख्यावाची शब्दोंसे धा प्रत्यय करनेपर द्विधा, त्रिधा, चतुर्धा, पञ्चधा इत्यादि रूप होते हैं ।
द्विधा का अर्थ है- दो प्रकार का । एक शब्दसे प्रकार अर्थमें पूर्वोक्त नियमानुसार जो धा प्रत्यय होता है, उसके स्थानमें ध्यमुञ् हो जाता है । उञ् की इत्संज्ञा हो जाती है । ध्यम् शेष रह जाता है । यथा-ऐकध्यम्, एकधा (द्रष्टव्य पा० सू• ५|| ३ ॥ ४४)।
ऐकध्यं कुरु त्वम् इस वाक्यका अर्थ है- तुम एक ही प्रकारसे कर्म करो । इसी प्रकार द्वि और त्रि शब्दसे धा के स्थानमें धमुञ् होता है ।
विकल्पसे । धमु होनेपर द्वैधम्, त्रैधम् रूप होते हैं और धमुञ् न होनेपर द्विधा, त्रिधा । द्वि, त्रि शब्दोंसे सम्बद्ध धा के स्थानमें एधाच् भी होता है । यथा-द्वेधा,त्रेधा । ये सभी प्रयोग सुष्ठुतर हैं ॥ २१-२७ ॥ यहाँतक निपातसंज्ञक तद्धित (अथवा अव्ययतद्धित) प्रत्यय बताये गये ।
अब भाववाचक तद्वितका वर्णन किया जाता है ।–
तस्य भावस्त्वतलौ । (५ ॥ ११॥ ११९)-इस सूत्रके अनुसार भावबोधक प्रत्यय दो हैं-त्व और तल् ।
प्रकृतिजन्य बोधमें जो प्रकार होता है, उसे भाव कहते हैं । पटु शब्दसे पटोभावः-इस अर्थमें त्व प्रत्यय होनेपर पटुत्वम रूप होता है
और तल् प्रत्यय होनेपर ‘पटुता’ ।। पृथोर्भावः (पृथुका भाव)-इस अर्थमें पृथ्वादिभ्य इमनिज्वा । (५ ॥ १॥ १२२)-इस सूत्रसे वैकल्पिक इमनिच् प्रत्यय होनेपर प्रथिमा-यह रूप बनता हैं। प्रथिमा का अर्थ है— मोटापन । सुखस्य भावः कर्म वा (सुखका भाव या कर्म)-इस अर्थमें गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च । (५।। १ ।। १२४)-इस सूत्रके अनुसार ष्यञ् प्रत्यय होनेपर सौख्यम् -इस पदकी सिद्धि कही गयी है । स्तेनस्य भाव: कर्म वा (स्तेनचोरका भाव या कर्म)-इस अर्थमें स्तेन शब्दसे यत् प्रत्यय और न-इस समुदायका लोप हो जाता है। (द्रष्टव्य-पा० सू० ५ ।। १ ।। १२५) । इस प्रकार स्तेय शब्दकी सिद्धि होती है ।
इसी प्रकार सख्युर्भावः कर्म वा (सखाका भाव या कर्म)-इस अर्थमें य प्रत्यय होनेपर सख्यम् इस पदकी सिद्धि कहीं गयी है । यहाँ ‘सख्युर्य:।’ (५ ॥ १ ॥ १२६)-इस सूत्रसे य प्रत्यय होता है । कपेर्भावः कर्म वा-इस अर्थमें कपिज्ञात्योर्ढक् । (५ ॥ १॥ १२७)-इस सूत्रसे ढक् प्रत्यय होनेपर कापेयम् पदकी सिद्धि होती है ।
सेना एव सैन्यम्-यहाँ चतुर्वर्णादीनां स्वार्थ उपसंख्यानम्- इस वार्तिकके अनुसार स्वार्थमें व्यय् प्रत्यय होता हैं । शास्त्रीयात् पथः अनपेतम् (शास्त्रीय पथसे जो भ्रष्ट नहीं हुआ है, वह)-इस अर्थमें धर्मपथ्यर्थन्यायादनपेते । (४। ४। ९२)-इस सूत्र के अनुसार पथिन् शब्दसे यत् प्रत्यय होनेपर पथ्यम्-यह रूप होता है ।
अश्वस्य भाव: कर्म वा आश्वम्-यहाँ अश्व शब्दसे अञ् प्रत्यय हुआ है । (‘उट्रस्य भावः कर्म वा औट्रम-यहाँ भी ‘आज’ प्रत्यय हुआ है।) कुमारस्य भावः कर्म वा कौमारम्-इसमें भी कुमार शब्दसे आञ् प्रत्यय हुआ ।
यूनोर्भाव: कर्म वा यौवनम्-यहाँ भी पूर्ववत् युवन् शब्दसे अञ् प्रत्यय हुआ है । इन सबमें अञ् प्रत्यय विधायक सूत्र है— प्राणभृज्जातिवयोवचनोद्रत्रादिभ्योऽञ् (५।। १ ।। १२९)। आचार्य शब्दसे कन् प्रत्यय होनेपर आचार्यकम्-यह रूप बनता है। इसी तरह अन्य भी बहुत-से तद्धित प्रत्यय होते हैं, (उन्हें अन्य ग्रन्थोंसे जानना चाहिये) ॥२८-३० ॥
अध्याय – ३५७ उणादिसिद्ध शब्दरूपोंका दिग्दर्शन
कुमार स्कन्द कहते हैं– कात्यायन ! अब ‘उणादि” प्रत्यय बताये जाते हैं, जो धातुसे परे होते हैं। ‘कृवापाजिमिस्वदिसाध्यशूभ्य उण।’ (१)-इस सूत्रके अनुसार ‘कृ‘ आदि धातुओंसे ‘ उण्‘ प्रत्यय होता है। ‘करोतीति कारुः।” (जो शिल्पकर्म करता है, वह ‘कारु‘ कहलाता है। लोकभाषामें उसे ‘शिल्पी‘ या ‘कारीगर‘ कहते हैं)।
‘कृ‘ धातुसे ‘उण्‘ प्रत्यय होनेपर अनुबन्धलोप, वृद्धि तथा विभक्तिकार्य किये जाते हैं। इससे ‘कारु:‘- इस पदकी सिद्धि होती हैं।
‘जि‘ धातुसे ‘उण्‘ होनेपर ‘जायु‘ रूप बनता है ‘जायु:‘ का अर्थ है-औषध। इसकी व्युत्पति इस प्रकार समझनी चाहिये-‘जयति रोगान् इति जायु:‘।
‘मि‘ धातुसे वही (उण्) प्रत्यय करनेपर “मायुः“-यह पद सिद्ध होता है। ‘मायु:‘का अर्थ है-‘पित’। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है-“मिनोति‘-प्रक्षिपति देहे ऊष्माणम् इति मायु:।‘
इसी प्रकार ‘स्वदते–रोचते इति स्वादुः।‘, ‘साध्नोति परकार्यमिति साधुः।‘ इत्यादि प्रयोग सिद्ध होते हैं।
गोमायु, आयुः-इत्यादि प्रयोग भी इसी तरह सिद्ध होते हैं। ‘गोमायु‘का अर्थ है-गीदड़ तथा ‘आयुः‘ शब्द आयुर्वेदके लिये भी प्रयुक्त होता है।
‘उणादयो बहुलम्।‘- (३।।३। १) इस सूत्रके अनुसार “उण्‘ आदि बाहुल्येन होते हैं। कहीं होते हैं. कहीं नहीं होते। ‘आयुः‘, ‘स्वादुः‘ तथा “हेतु‘ आदि शब्द भी उणादिसिद्ध हैं।
“किंशारु‘ नाम हैं-धान्यके शूकका। “किं श्रृणातीति किंशारू:‘। यहाँ “किं‘ पूर्वक ‘श्रृ‘ धातुसे ‘ञ्झुण’ होता है। ‘अ‘ तथा ‘ण अनुबन्ध हैं। किंश्रृ+उ । वृद्धि होकर ‘किंशारु:’ बनता है।
‘कृकवाकुः‘ का अर्थ है-मुर्गा या मोर। ‘कृकेन गलेन वत्तीति कृकवाकु:।‘कृके वच: कश्च‘-इस उणादिसूत्रसे ‘ ञ्झुण’ प्रत्यय होने पर -इस अवस्था में अनुबन्धलोप चकारको ककार और ‘अत उपधायाः ।‘ (पा० सू० ७ ॥ २ ॥ ११६) से वृद्धि होती है।
‘भरति विभर्तिं वा भरुः।‘ ‘भृ‘ धातु से ‘उ‘ प्रत्यय, गुण; विभक्तिकार्य-भरू: । इसका अर्थ है-भर्ता (स्वामी)।
मरु:-जलहीन देश। मृ+उ गुणादेश, विभक्तिकार्य-मरुः ।
शी+उ–शयुः । इसका अर्थ है-सोया पड़ा रहनेवाला अजगर।
त्सर+उ–त्सरु:– अर्थात् खड्गकी मूठ।
‘स्वर्यन्ते प्राणा अनेन‘ इस लौकिक विग्रहमें ‘उ‘ प्रत्यय होता है। फिर गुण होकर ‘स्वरू:” पद बनता है। ‘स्वरू‘ का अर्थ है-वज्र।
त्रप्+उ–त्रपु । ‘त्रपु” नाम है शीशेका।
फल्ग+उ–फल्गुः-सारहीन।
अभिकाङ्क्षार्थक “गृध्‘ धातुसे ‘सुसुधागृधिभ्यः क्रन्‘, (१९२)-इस सूत्रके अनुसार ‘क्रन्‘ प्रत्यय होनेपर गृध्+क्रन्, ककार-नकारकी इत्संज्ञा गृध्रः‘ अर्थात् गीध पक्षी।
मदि+किरच्–मन्दिरम्। तिमि+किरच्–तिमिरम्। ‘मन्दिर‘ का अर्थ गृह तथा “तिमिर‘ का अर्थ अन्धकार है।
‘सलिकल्यनिमहिभड़िभण्डिशण्डिपिण्डितुण्डिकुकिभूभ्य इलच्।’ (५७)-इस उणादि सूत्रके अनुसार गत्यर्थक ‘षल्‘ धातुसे ‘इलच्‘ प्रत्यय करनेपर ‘सलिलम्‘ यह रूप बनता है। “सलति गच्छति निम्नमिति सलिलम्‘-यह इसकी व्युत्पति है। ‘सलिल‘ शब्द वारि-जलका वाचक है।
(इसी प्रकार उत सूत्रसे ही कलिलम, अनिल:, महिला-पृषोदरादित्वात्महेला-इत्यादि शब्द निष्पन्न होते हैं।)
भण्डि+इलच्–भण्डिलम्। इसका अर्थ है-कल्याण। ‘भण्डिल‘ शब्द दूतके अर्थमें भी आता है।
ज्ञानार्थक ‘विद्‘ धातुसे औणादिक ‘क्वसु प्रत्यय होनेपर विद्+क्वसु-इस अवस्थामें ‘लशक्वतद्धिते।‘ (१।।३।। ८) से ककारकी इत्संज्ञा तथा ‘उपदेशेऽजनुनासिक इत्।‘ (१।।३।२) से उकारकी इत्संज्ञा होती है; तत्पश्चात् विभक्ति-कार्य करनेपर ‘विद्वान्‘-यह रूप बनता है। ‘विद्वान् का अर्थ है-बुध या पण्डित।
‘शेरतेऽस्मिन् राजयलानि इति शिविरम्।“-इस व्युत्पत्तिके अनुसार ‘शीङ्‘ धातु से ‘किरच्’ प्रत्यय ‘शीङ्‘ से “वुक्‘ का आगम तथा ‘शी‘ के दीर्घ ईकार के स्थान में ह्रस्व आदेश होने पर शिविर शब्दकी सिद्धि होती है। ‘शिविर” कहते हैं सेनाकी छावनीको। अग्निपुराणके अनुसार गुप्त निवासस्थानको ‘शिविर” कहते हैं॥ १-५ ॥
‘अव्‘ धातुसे ‘सितनिगमिमसि।।’ (७२) इत्यादि सूत्रके अनुसार “तुङ् प्रत्यय होनेपर वकारके स्थानमें “ऊठ‘ होकर गुण होनेसे ‘ओतु‘ शब्दकी सिद्धि होती है। ‘ओतु‘ कहते हैं-बिलावको। अभिधानमात्रसे उणादि प्रत्यय होते हैं।
‘कृ‘ धातुसे ‘न‘ प्रत्यय करनेपर गुण होता है और नकारका णकारादेश हो जानेपर ‘कर्ण‘ शब्दकी सिद्धि होती है। “कर्ण“का अर्थ है-कान अथवा कन्यावस्थामें कुन्तीसे उत्पन्न सूर्यपुत्र कर्ण।
‘वस्‘ धातुसे ‘तुन्‘ प्रत्यय, आगार अर्थमें उसका ‘णित्व‘ होकर वृद्धि होनेसे ‘वास्तु‘ शब्द बनता है। ‘वास्तु” का अर्थ हैं-गृहभूमि।
‘जीव‘ शब्दसे ‘आतृकन्‘ प्रत्यय और वृद्धि होकर ‘जैवातृक‘ शब्दकी सिद्धि होती है। ‘जैवातृक‘ का अर्थ है-चन्द्रमा।
‘अनः शकट वहति।“-इस लौकिक विग्रहमें ‘वह’ धातुसे ‘क्विप्‘ प्रत्यय, ‘अनस् के सकारका डकार आदेश तथा ‘वह‘ के वकारका सम्प्रसारण होनेपर ‘अनडुह्‘ शब्द बनता है, उसके सुबन्तमें अनड्वान्, अनड्वाहौ इत्यादि रूप होते हैं।
‘जीव्‘ धातुसे ‘जीवेरातु:“। (८२)- इस सूत्रके अनुसार ‘आतु‘ प्रत्यय करनेपर’जीवातु‘ शब्दकी सिद्धि होती है। ‘जीवातु‘ नाम है संजीवन औषधका।
प्रापणार्थक “वह्‘ धातुसे ‘वहिश्रिश्रुयुद्रुग्लाहात्वरिभ्यो नित् ।‘ (५०१)- इस सूत्रके अनुसार ‘नित्‘ प्रत्यय करनेपर विभक्तिकार्यके पश्चात् ‘विह्रि:‘-इस रूपकी सिद्धि होती है। (इसी प्रकार श्रेणि:, श्रोणिः, योनिः, द्रोणिः, गाल्लानिः, हानिः, तूर्णः बाहुलकात्म्लानिःइत्यादि पदोंकी सिद्धि होती है।)
‘ह‘ धातुसे ‘इनच्’ प्रत्यय होनेपर और अनुबन्ध भूत चकार का लोप कर देनेपर “ह+इन‘, गुण तथा विभक्तिकार्य-हरिण:-इस रूपकी सिद्धि होती है। ‘श्यास्त्याह्रञ्विभ्य इनच्।‘ (२१३)-इस औणादिक सूत्रसे यहाँ ‘इनच्‘ प्रत्यय हुआ है। ‘हरिण” कहते हैं-मृगको। यह शब्द कामी तथा पात्रविशेषके लिये भी प्रयुक्त होता है।
‘अण्डन् कृष्सृभूवृञ: ।’ (१३४)-इस सूत्रके अनुसार ‘कृ‘ आदि धातुओंसे ‘अण्डन्‘ प्रत्यय करनेपर क्रमश:- करण्डः, सरण्डः, भरण्डः, वरण्डः-ये रूप सिद्ध होते हैं। ‘करण्ड‘ शब्द भाजन और भाण्डका वाचक है। मेदिनीकोशके अनुसार यह शहदके छतेके लिये भी प्रयुक्त होता है।’सरण्ड‘ शब्द चौपायेका वाचक है। कुछ विद्वान् ‘सरण्ड‘ का अर्थ पक्षी मानते हैं।
‘बाहुलकात् तृ प्लवनतरणयोः ।‘ इस धातुसे भी ‘अण्डन्‘ प्रत्यय होकर ‘तरण्ड” पदकी सिद्धि होती है। “तरण्ड” शब्द काठके बेड़ेके लिये प्रयुक्त होता है। कुछ लोग मछली फैसानेके लिये बनायी गयी बंसीके डोरेको भी ‘तरण्ड‘ कहते हैं।
‘वरण्ड‘ शब्द सामवेदके लिये प्रयुक्त होता है। कुछ लोग ‘साम‘ और ‘यजुष्-दो वेदोंके लिये इसका प्रयोग मानते हैं। कुछ लोगोंके मत में ‘वरण्ड‘ शब्द मुखसम्बन्धी रोगका वाचक है।
स्फायितञ्चिवञ्चि० (१७८) ।।’ इत्यादि सूत्रसे वृद्धयर्थक ‘स्फ़ायि‘ धातुसे ‘रक्‘ प्रत्यय होनेपर “स्फार” पदकी सिद्धि होती है। “स्फार’ शब्दका अर्थ होता है-प्रभूत अर्थात् अधिक।’मेदिनीकोश’ के अनुसार “स्फार’ शब्द विकट अर्थमें आता है और करक या करवा आदि पात्रके भरते समय पानीमें जो बुलबुले उठते हैं, उनका वाचक भी ‘स्फार’ शब्द है।
‘शुसिचिमीनां दीर्घश्च (१९३)।’ इस सूत्रसे ‘क्रन्‘ प्रत्यय और पूर्व हस्वस्वरके स्थानमें दीर्घं कर देनेपर क्रमशः शूरः, सीरं, चीरं, मीरः – ये प्रयोग बनते हैं। ‘चीर‘ शब्द गायके थन, वस्त्रविशेष तथा वल्कलके अर्थमें प्रयुक्त होता है।
‘भी‘ धातुसे ‘भियः क्रुकन्-(१९९) इस सूत्रसे ‘क्रुकन्‘ प्रत्यय करनेपर ‘भीरुकः“-इस पदकी सिद्धि होती है। इसके पर्यायवाची शब्द हैं ‘भीरु‘ और ‘कातर‘।
‘उच समवाये‘-इस धातुसे ‘रन्‘ प्रत्यय करनेपर ‘उग्रः‘ पदकी सिद्धि होती है।’उग्र:‘ का अर्थ है-प्रचण्ड।’
वहियूभ्यां णित्।‘-इस सूत्रके अनुसार ‘णित् असच्‘ प्रत्यय करनेपर ‘वाहसः‘, ‘यावसः‘-ये दो रूप सिद्ध होते हैं। ‘वाहम:‘ का अर्थ है-अजगर और ‘यावसः‘ का अर्थ है-तृणसमूह।
‘वर्तमाने पृषद्वृहन् महद्जगच्छत्रिवच्च।‘- इस सूत्रके अनुसार ‘गम्‘ धातुसे ‘अत्‘ प्रत्ययका निपातन हुआ। ‘गम्‘ के स्थानमें ‘जग्‘ आदेश हुआ। इस प्रकार ‘जगत्‘ शब्दकी सिद्धि हुई। ‘जगत्‘ का अर्थ है—भूलोक।
‘ऋतन्यञ्जइवन्यञ्ज्यर्षि०‘ इत्यादि (४५०) सूत्रके अनुसार ‘कृश‘ धातुसे ‘आनुक्‘ प्रत्यय करनेपर ‘कृशानु‘-इस पदकी सिद्धि होती है। ‘कृशानु‘का अर्थ है-अग्नि।
द्योतते इति ज्योतिः । “द्युतेरिसिन्नादेशश्च जः।।’ (२७५)-इस सूत्र के अनुसार द्युत् धातु से इसिन्
प्रत्यय द्यकारक जकारादेश तथा गुण होनेपर ‘ज्योति:” इस पदकी सिद्धि होती है। “ज्योति: ” का अर्थ है-अग्नि और सूर्य।
‘अर्च‘ धातुसे ‘कृदाधारार्चिकलिभ्य:।‘ (३२७)-इस सूत्रके अनुसार ‘क‘ प्रत्यय होनेपर ‘अर्क: ‘ पदकी सिद्धि होती है। ‘अर्क एवं अर्ककः‘ । स्वार्थे कः । ‘अर्कः‘ पद सूर्यका वाचक है। ‘कृगृशूवृश्चतिभ्यः ष्वरच्॥‘ (२८६)-इस सूत्रके अनुसार वरणार्थक’वृ‘ धातुसे तथा याचनार्थक “चते‘ धातुसे “ष्वरच्‘ प्रत्यय करनेपर क्रमशः ‘वर्वरः‘, ‘चत्वरम्‘-इन दो पदोंकी सिद्धि होती है। “वर्वर‘ का अर्थ है-प्राकृत जन अथवा कुटिल मनुष्य।
‘हसिमृग्रिण्वाऽमिदमिलूपूधूर्विभ्यस्तन्॥’ (३७३) -इस सूत्रके अनुसार हिंसार्थक ‘धूर्वि‘ धातुसे ‘तन्‘ प्रत्यय करनेपर ‘धूर्त:‘-इस पदकी सिद्धि होती है। ‘धूर्त‘ शब्दका अर्थ है-शठ। “चत्वरम्‘ का अर्थ है-चौराहा।’लित्वरचत्वरधीवर‘ निपातन हुआ है। ‘चीवरम्‘ का अर्थ है-चिथड़ा अथवा भिक्षुकका वस्त्र।
स्नेहनार्थक “ञ्इमिदा‘ अथवा ‘मिद्‘ धातुसे ‘अमिचिमिदिशसिभ्यः कत्रः ।।’ (६१३)-इस सूत्रके अनुसार ‘कत्र‘ प्रत्यय हुआ। ककारका इत्यसंज्ञालोप हुआ-“मिद+त्र=मित्र। विभक्ति-कार्यं करनेपर *मित्रः’-इस पदकी सिद्धि हुई। “मित्र’ का अर्थ है-सूर्य। नपुंसकलिङ्गमें इसका अर्थ-सुहृद् होता है।
‘कुवोहृस्वश्च।” इस सूत्रके अनुसार ‘पुनातीति” इस लौकिक विग्रहमें ‘पू‘ धातुसे ‘कत्र‘ प्रत्यय और दीर्घके स्थानमें ह्रस्व होनेपर ‘पुत्र‘ शब्दकी सिद्धि होती है। “पुत्र‘ का अर्थ है-बेटा।
‘सुव: कित्।‘ (३२८)- इस सूत्रके अनुसार प्राणिप्रसवार्थक ‘षूङ्‘ धातुसे ‘नु‘ प्रत्यय होता है और वह ‘कित्‘ माना जाता है। धातुके आदि षकारको सकारादेश हो जाता है। इस प्रकार “सूनु‘ शब्दकी सिद्धि होती है। विभक्तिकार्य होनेपर ‘सूनु‘ पद बनता है। ‘विश्वकोश’ के अनुसार इसका अर्थ पुत्र और सूर्य है।
‘नप्तृनेष्ट्रत्वष्ट्रहोतृ०‘ (२६०) इत्यादि सूत्रके अनुसार “पितृ‘ शब्द निपातित होता है। ‘पातीति पिता‘। ‘पा‘ धातुसे ‘तृच्‘ होकर आकारके स्थानमें इकार हो जाता है। पिता, पितरौ, पितर: इत्यादि इसके रूप हैं। जन्मदाता या बापको ‘पिता’ कहते हैं।
विस्तारार्थक ‘तन्‘ धातुसे ‘वुतनिभ्यां दीर्घश्च।‘ -इस सूत्रके अनुसार “तन्‘ प्रत्यय तथा हृस्वके स्थानमें दीर्घ होनेपर ‘तात‘ शब्दकी सिद्धि होती है। यहाँ अनुनासिक लोप हुआ है। ‘तात‘ शब्द कृपापात्र तथा पिताके लिये प्रयुक्त होता है।
कुत्सितशब्दार्थक ‘पर्द‘ धातुसे ‘काकु‘ प्रत्यय होता है और वह “नित्‘ माना जाता है। धातुके रेफका सम्प्रसारण और अकारका लोप हो जाता है। जैसा कि सूत्र है-“पर्देर्नित् सम्प्रसारणमल्लोपश्च।” (३६७) ‘काकु‘ प्रत्ययके आदि ककारका “लशक्वतद्धिते।” (१ ॥ ३ ॥ ८)- इस सूत्रसे लोप हो जाता है। इस प्रक्रियासे “पृदाकु‘ शब्दकी सिद्धि होती है।
पर्दतेकुत्सितं ‘शब्द करोति इति पृदाकु:।‘ इसका अर्थ है-सर्प, बिच्छू या व्याघ्र। ‘हसिमृग्रिण्वाऽमिदमिलूपूभूर्विभ्यस्तन्।‘ (३७३) इस सूत्रके द्वारा ‘गृ” धातुसे ‘तन्‘ प्रत्यय और गुणादेश करनेपर ‘गर्त‘ शब्दकी सिद्धि होती है। यह ‘अवट‘ अर्थात् गडढेका वाचक है।
‘ भृमृशितृ०‘ इत्यादि (७) सूत्रके अनुसार ‘भृ‘ धातुसे ‘अतच्‘ प्रत्यय तथा गुणादेश करनेपर “भरत” शब्द निष्पन्न होता है। जों भरण-पोषण करे, वह “भरत” है।
‘नमतीति नट:“-इस व्युत्पतिके अनुसार ‘जनिदाच्युसृवृमदि०‘ इत्यादि (५५४) सूत्रके द्वारा’नम‘ धातुसे’डट‘ प्रत्यय करनेपर’टि‘ लोप होनेके पश्चात् ‘नट‘ शब्द बनता है। इसका अर्थ है-वेषधारी अभिनेता।
ये थोड़े-से उणादि ग़त्यय यहाँ प्रदर्शित किये गये। इनके अतिरिक्त भी बहुत-से उणादि प्रत्यय होते हैं। ६-१२॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें ‘उणादिसिद्ध रूपोंका वर्णन” नामक तीन सौ सतावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३५७ ॥
अध्याय – ३५८ तिङ् विभक्त्यन्त सिद्ध रूपों का वर्णन
कुमार कार्तिकेय कहते हैं–कात्यायन ! अब में “तिङ् विभक्ति’ तथा ‘आदेश’का संक्षेपसे वर्णन करूंगा।
तिङ्-प्रत्यय भाव, कर्म और कर्ता-तीनोंमें प्रयुक्त होते हैं। सकर्मक तथा अकर्मक धातुसे कर्तामें आत्मनेपद तथा परस्मैपद-दोनों पदोंके ‘तिङ्ग्रत्यय’ होते हैं।
(सकर्मकसे कर्ता और कर्ममें तथा अकर्मक से भाव और कर्ता में वे ‘तिङ्’प्रत्यय हुआ करते हैं-यह विवेक कर्तव्य है)
” तिङ् देश‘ सकर्मक धातुसे कर्म तथा कर्तामें बताये गये हैं।
वर्तमानकालकी क्रियाके बोधके लिये धातुसे ‘लट् लकारका विधान कहा गया है।
विधि, निमन्त्रण, आमन्त्रण, अधीष्ठ (सत्कारपूर्वक व्यापार) सम्प्रश्न तथा प्रार्थना आदि अर्थका प्रतिपादन अभीष्ट हो तो धातुसे ‘लिङ्‘ लकार होता है।
“विधि‘ आदि अर्थोमें तथा आशीर्वादमें भी लोट् लकार का प्रयोग होता है |
अनद्यतन भूतकालका बोध करानेके लिये ‘लङ्‘ लकार प्रयुक्त होता है।
सामान्य भूतकालमें ‘लुङ्, परोक्षभूतमें “लिट्र‘अनद्यतन भविष्यमें ‘लुट् आशीर्वादमें ‘लिङ् शेष अर्थमें अर्थात् सामान्य भविष्यत् अर्थक बोधके लिये धातुसे ‘लृट् लकार होता है
–क्रियार्था क्रिया हो तो भी, न हो तो भी। हेतुहेतुमद्भाव आदि ‘लिङ्‘का निमित्त होता है; उसके होने पर भविष्यत् अर्थ का बोध कराने के लिये धातु से ‘ लृङ् ‘ लकार होता है-क्रियाकी अतिपत्ति (असिद्धि) गम्यमान हो, तब। ‘तङ् प्रत्यय तथा “शानच्‘, ‘कानच्-इनकी आत्मनेपद संज्ञा होती है।
‘तिङ् विभक्तियाँ अठारह हैं। इनमें पूर्वकी नौ विभक्तियाँ ‘परस्मैपद” कही जाती हैं। वे प्रथमपुरुष आदिके भेदसे तीन भागोंमें बँटी हैं। ‘तिप् तस् अन्ति‘-ये तीन प्रथमपुरुष हैं। ‘सिप्,थस्, थ‘-ये तीन मध्यमपुरुष हैं। तथा ‘मिप्, वस्,मस्-ये उत्तमपुरुष कहे गये हैं॥ १-५ ॥
‘त, आताम्, झ‘-ये आत्मनेपदके प्रथमपुरुषसम्बन्धी प्रत्यय हैं। ‘थास्, आथाम्, ध्वम्“-ये मध्यमपुरुष हैं। ‘इ, वहि, महिङ्‘- ये उत्तमपुरुष हैं। आत्मनेपदके नौ प्रत्यय ‘तङ्‘ कहलाते हैं और दोनों पदोंके प्रत्यय ‘तिङ्‘ शब्दसे समझे जाते हैं।
क्रियावाची ‘भू‘, वा आदि धातु कहे गये हैं। भू, एध्, पच्, नन्द्, ध्वंस्, स्त्रंस्, पद्, अद्, शीङ्, क्रीड, हु, हा, धा, दिव्, स्वप्, नह्, षूज्, तुद्, मृश, मुच, रुध्, भुज, त्यज, तन, मन और कृ-ये सब धातु शप् आदि विकरण होनेपर क्रियार्थबोधक होते हैं।
‘क्रीड, वृङ्, ग्रह, चुर, पा, नी तथा अचि‘—ये तथा उपर्युक्त धातु ‘नायक‘ (प्रधान) हैं। इन्हींके समान अन्य धातुओंके भी रूप होते हैं।
‘भू धातुसे क्रमशः ‘तिङ्‘ प्रत्यय होनेपर ‘ भवति, भवतः, भवन्ति“-इत्यादि रूप होते हैं। इनका वाक्यमें प्रयोग इस प्रकार समझना चाहिये-‘स भवति। तौ भवतः । ते भवन्ति । त्वं भवसि। युवां भवथः । यूर्य भवथ। अहं भवामि। आवां भवावः। वयं भवाम:।‘ ये ‘भू‘ धातुके ‘लट् लकारमें परस्मैपदी रूप हैं।
‘भू‘ धातुका अर्थ है-‘होना’।
‘एध्‘ धातु ‘वृद्धि‘ अर्थमें प्रयुक्त होता है। यह आत्मनेपदी धातु है। इसका ‘लट्‘ लकारमें प्रथमपुरुपके एकवचनमें “एधते‘ रूप बनता है। वाक्यमें प्रयोग ‘एधते कुलम्।‘ (कुलकी वृद्धि होती है)-इस प्रकार होता है।’लट् लकारमें ‘एध्‘ धातुके शेष रूप इस प्रकार होते हैं-“द्वे एधेते“। (दो बढ़ते हैं)। यह द्विवचनका रूप है। बहुवचनमें ‘एधन्ते” रूप होता है। इस प्रकार प्रथमपुरुषके एकवचन, द्विवचन और बहुवचनान्त रूप बताये गये।
अब मध्यम और उत्तम पुरुषोंके रूप प्रस्तुत किये जाते हैं–
“एधसे” यह मध्यमपुरुषका एकवचनान्त रूप हैं। वाक्यमें इसका प्रयोग इस प्रकार हो सकता है-“त्वं हि मेधया एधसे।‘ (निश्चय ही तुम बुद्धिसे बढ़ते हो।) “एघेये, एधध्वे‘ ये दोनों मध्यमपुरुषके क्रमश: द्विवचनान्त और बहुवचनान्त रूप हैं। ‘एधे, एधावहे, एधामहे‘-ये उत्तमपुरुषमें क्रमश: एकवचन, द्विवचन और बहुवचनान्त रूप हैं। वाक्यमें प्रयोग-‘अहं धिया एधे।” (मैं बुद्धिसे बढ़ता हूँ।) ‘आवां मेधया एधावहे।‘ (हम दोनों मेधासे बढ़ते हैं।) ‘वयं हरेर्भकत्या एधामहे।” (हम श्रीहरिकी भक्तिसे बढ़ते हैं।)
‘पाक‘ अर्थमें ‘पच्‘ धातुका प्रयोग होता है। उसके ‘पचति‘ इत्यादि रूप पूर्ववत् (‘भू’ धातुके समान) होते हैं।
‘भू‘ धातुसे भावमें और ‘अनु+भू‘ धातुसे कर्म में यक् प्रत्यय होनेपर क्रमशः भूयते और ‘अनुभूयते‘ रूप होते हैं।
भावमें प्रत्यय होनेपर क्रिया केवल एकवचनान्त हीं होती है और सभी क्रिया सबके लिये प्रयुक्त होती है। यथा-‘त्वया मया अन्यैश्च भूयते।“
जहाँ कर्ममें प्रत्यय होता है, वहाँ कर्म उक्त होनेके कारण उसमें प्रथमा विभक्ति होती है और तदनुसार सभी पुरुषों तथा सभी वचनोंमें क्रियाके रुप प्रयोग में लाये जाते हैं। यथा-‘असौ अनुभूयते। तौ अनुभूयेते। ते अनुभूयन्ते। त्वम् अनुभूयसे। युवाम् अनुभूयेथे। यूयम् अनुभूयध्वे। अहम् अनुभूये। आवाम् अनुभूयावहे। वयम् अनुभूयामहे‘ ॥६-१३॥
अर्थविशेषको लेकर धातुसे ‘णिच्‘, ‘सन्‘, ‘यङ्‘ तथा ‘यड्लुक्” होते हैं। इन्हें क्रमसे ‘ण्यन्त‘, ‘सन्नन्त‘, ‘यडन्त‘ और ‘यङ्लुगन्त‘ कहते हैं।
जहाँ किसी क्रियाके कर्ताका कोई प्रेरक या प्रयोजक कर्ता होता है, वहाँ प्रयोजक कर्ताकी ‘हेतु‘ संज्ञा होती है और प्रयोज्य कर्ता ‘कर्म‘ बन जाता है। प्रयोजक के व्यापार प्रेषण आदि वाच्य होने पर भू धातु के लट् लकार भावयति इत्यादि रूप होते हैं। उदाहरणके लिये-‘ईश्वरो भवति, तं यज्ञदत्तो ध्यानादिना प्रेरयति इत्यस्मिन्नर्थे यज्ञदत्त ईश्वरं भावयति इति प्रयोगो भवति‘ (ईश्वर होता है और यज्ञदत उसकी ध्यानादिके द्वारा प्रेरित करता है-इस अर्थकी व्यक्त करनेके लिये ‘यज्ञदत ईश्वरं भावयति” यह प्रयोग बनता है) ।”
जहाँ कोई धातु इच्छाक्रियाका कर्म बनता है तथा इच्छाक्रियाका कर्ता ही उस धातुका भी कर्ता होता है, वहाँ उस धातुसे इच्छाकी अभिव्यक्तिके लिये ‘सन्‘ प्रत्यय होता है। ‘भू‘ धातुके सन्नन्तमें ‘बुभूषति‘ इत्यादि रूप होते हैं। यथा-‘भवितुम इच्छति बुभूषति।” (होना चाहता है।) वक्ता चाहे तो “बुभूषति‘ कहे अथवा ‘भवितुम् इच्छति‘- इस वाक्यका प्रयोग करे।
यह स्मरणीय है कि “सन् और “यङ्‘ प्रत्यय परे रहनेपर धातुका द्वित्व हो जाता है। शेष कार्य व्याकरणकी प्रक्रियाके अनुसार होते हैं।
जहाँ क्रियाका समभिहार हो, अर्थात् पुनः-पुनः या अतिशयरूपसे क्रियाका होना बताया जाय, वहाँ उत्त अभिप्रायका द्योतन या प्रकाशन करनेके लिये धातुसे ‘यङ्‘ प्रत्यय होता हैं।
‘यङ्‘ और ‘यङ्लुगन्त‘ में धातुका द्वित्व होनेपर पूर्वभागके, जिसे ‘अभ्यास‘ कहते हैं, ‘इक्” का ‘गुण’ हो जाता है।
‘भू‘ धातुके ‘यडन्त‘ में ‘बोभूयते‘ इत्यादि रूप होते हैं। ‘पुनः पुनः अतिशयेन वा भवति“-इस अर्थमें ‘बोभूयते” क्रियाका प्रयोग होता है। यथा-‘वाद्य बोभूयते।‘ (वाद्यवादन बार-बार या अधिक मात्रा में होता है)।’यङ्लुगन्त‘ में ‘भू धातुके ‘बोभोति‘ इत्यादि रूप होते हैं। अर्थ वहीं है, जो ‘यडन्त” क्रियाका होता है।
‘यड़न्त” में आत्मनेपदीय प्रत्यय होते हैं और “यङ्लुगन्त‘ में परस्मैपदीय॥ १४॥
आदि प्रत्यय होनेपर उस शब्दकी ‘धातु‘ संज्ञा होती है और उसके धातुके ही समान रूप चलते हैं। ऐसे प्रकरणकी ‘नामधातु‘ कहते हैं। जो इच्छाका कर्म हो और इच्छा करनेवालेका सम्बन्धी हो, ऐसे ‘सुबन्त‘ से इच्छा-अर्थमें विकल्पसे ‘क्यच्‘ प्रत्यय होता है। ‘आत्मनः पुत्रम् इच्छति।” (अपने लिये पुत्र चाहता है)-इस अर्थमें ‘पुत्रम्‘ इस “सुबन्त” पदसे ‘क्यच्‘ प्रत्यय हुआ। अनुबन्धलोप होनेपर ‘पुत्र अम् य‘ हुआ। ‘सनाद्यन्ता धातवः ।।’ (३।१।। ३२) से धातुसंज्ञा होकर ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः ॥’ (२।४।। ७०) से ‘अम्‘ का लोप हो गया। पुत्र-य-इस स्थितिमें ‘क्यचि च।” (७।।४।३३)-इस सूत्रके अनुसार ‘अकार के स्थानमें ‘ईकार’ हो गया। इस प्रकार “पुत्रीय‘ से तिप्, शप् आदि कार्य होनेपर पुत्रीयति इत्यादि रूप होते हैं।
इसी अर्थमें ‘काम्यच्‘ प्रत्यय भी होता है और ‘पुत्र‘ शब्दसे ‘काम्यच् प्रत्यय होनेपर ‘पुत्रकाम्यति” इत्यादि रूप होते हैं। ‘पटत् भवति इति पटपटायते।‘ यहाँ ‘अव्यक्तानुकरणादद्वयजवरार्धादनितौ डाच्।‘ (५।।४।।५७)- इस सूत्रके अनुसार ‘भू‘ के योगमें ‘डाच्‘ प्रत्यय होनेपर ‘पटत् डा‘ इस स्थितिमें ‘डाचि विवक्षिते द्वे बहुलम्।‘ इस वार्तिकसे द्वित्व होकर “नित्यमाम्रेडितं डाचि।” इस वार्तिकसे पररूप हुआ तो टिलोपके अनन्तर ‘पटपटा+भू-यह अवस्था प्राप्त हुई।
इसके बाद ‘लोहितादिडाज्भ्यः क्यष।” (३।१। १३)-इस सूत्रसे ‘भवति” इस अर्थमें “क्यष‘ प्रत्यय हुआ तो ‘पटपटा–क्यष‘ बना।
फ़िर अनुबन्धलोप, धातु संज्ञा तथा धातु संबन्धि कार्य होनेसे ‘पटपटायते“-यह रूप सिद्ध हुआ। इसका अर्थ है कि “पटपट‘ की आवाज होती है।
“घट करोति।“-इस अर्थमें ‘तत्करोति तदाचष्टे” के अनुसार ‘घटयति” रूप बनता है।
‘सन्नन्त‘ से “णिच् प्रत्यय किया जाय तो ‘भू धातुके सन्नन्त रूप ‘बुभूषति‘ की जगह ‘बुभूषयति” रूप बनेगा। प्रयोग-‘गुरुः शिष्यं बुभूषयति‘॥ १५॥
‘भू‘ धातुके ‘विधिलिङ् लकारमें क्रमश: ये रूप होते हैं-‘भवेत्, भवेताम्, भवेयुः। भवेः, भवेतम्, भवेत। भवेयम्, भवेव, भवेम‘।
‘एध‘ धातुके ‘विधिलिङ्‘ में इस प्रकार रूप बनते हैं एधेत, एधेयाताम्, एधेरन्। एधेथा:, एधेयाथाम्, एथेध्वम्।एधेय, एधेवहि, एधेमहि।” वाक्यप्रयोग— ‘ते मनसा एथेरन्‘ (वे मनसे बढ़ें-उन्नति करें)। ‘त्वं श्रिया एधेथा:।” (तुम लक्ष्मीके द्वारा बढो इत्यादि) ।
‘भू‘ धातुके ‘लोट् लकारमें ये रूप होते हैं-‘ भवतु, भवतात्, भवताम्, भवन्तु॥ भव–भवतात्, भवतम्, भवत। भवानि, भवाव, भवाम।’
‘एध्‘ धातुके ‘लोट्‘ लकारमें ये रूप जानने चाहिये-‘एधताम्, एधेताम्, एधन्ताम्। एधस्व, एधेथाम्, एधध्वम्। एधै, एधावहै, एधामहै।
पच् धातुके भी आत्मने पद में ऐसे ही रूप होते हैं। यथा उत्तमपुरुषमें -‘पचै, पचावहै, पचामहै।”
अभि पूर्वक नदि धातु का लङ् लकार मे प्रथमपुरुष के एकवचनमें ‘अभ्यनन्दत्“-यह रूप होता है।
‘पच्‘ धातुके “लङ् लकारमें-‘अपचत्, अपचताम्, अपचन्‘ इत्यादि रूप होते हैं।
‘भू‘ धातुके ‘ लङ् लकारमें ‘अभवत्, अभवताम्, अभवन्‘ इत्यादि रूप होते हैं।
‘पच्‘ धातुके ‘ लङ् लकारके उत्तमपुरुषमें-‘अपचम्, अपचाव, अपचाम‘-ये रूप होते हैं।
‘एध्‘ धातुके ‘ लङ् ‘ लकारमॆ-ऐधत, ऐधेताम्, ऐधन्त। ऐधथाः, ऐधेथाम्, ऐधष्वम्। ऐधे, ऐधावहि, ऐधामहि-ये रूप होते हैं।
‘भू’ धातुके ‘ लुङ् ‘ लकारमें अभूत्, अभूताम्, अभूवन्। अभू:, अभूतम्, अभूत। अभूवम्, अभूव, अभूम‘-‘ये रूप होते हैं।
“एध्‘ धातुके “लुङ् लकारमें ऐधिष्ट, ऐधिषाताम्, एधिषत्,एधिष्ठा:, एधिषाथाम्, एधिध्वम् | एधिषि, ऐधिष्वहि, ऐधिष्महि‘-ये रूप जानने चाहिये। वाक्यप्रयोग—’नरौं ऐधिषाताम्‘ (दो मनुष्य बढे)।
“भू‘ धातुके ‘परोक्षलिट्‘ में ‘बभूव, बभूवतुः, बभूवुः। बभूविथ, बभूवथुः, बभूव। बभूव, बभूविव, बभूविम।’ -ये रूप होते हैं।
‘पच्‘ धातु के आत्मने पदी लिट् लकार में प्रथम पुरुष के रूप इस प्रकार हैं-“पेचे, पेचाते, पेचिरे।
‘एध्‘ धातुके ‘लिट् लकारमें इस प्रकार रूप समझने चाहिये-‘एधाञ्चक्रे, एधाञ्चक्राते, एधाञ्चक्रिरे। एधाञ्चकृषे, एधाञ्चक्राथे, एधाञ्चकृध्वे॥ एधाञ्चक्रे, एधाञ्चकृवहे, एधाञ्चकृमहे।।’
‘पच्‘ धातुके ‘परोक्षलिट्‘ में प्रथमपुरुषके रूप बताये गये हैं। मध्यम और उत्तम पुरुषके रूप इस प्रकार होते हैं-“पेचिषे, पेचाथे पेचिध्वे। पेचे, पेचिवहे, पेचिमहे।
‘भू‘ धातुके “अनद्यतन भविष्य लुट्‘ लकारमें इस प्रकार रूप जानने चाहिये-‘भविता, भवितारौ, ‘भवितारः । भवितासि, भवितास्थः, भवितास्थ। भवितास्मि, भवितास्वः, भवितास्मः ॥’ वाक्यप्रयोग-‘हरादयो भवितारः।‘ (हर आदि होंगे।) ‘वयं भवितास्म:।‘ (हम होंगे।)
‘पच्‘ धातुके ‘लुट् लकारमें ‘परस्मैपदीय‘ रूप इस प्रकार हैं-“पक्ता, पक्तारौ, पक्तार:, पक्तासि। (शेष भूधातुकी तरह)। वाक्य प्रयोग-‘त्वं शुभौदनं पक्तासि।” (तुम अच्छा भात राँघोगे।)
“पच् धातुके ‘लुट् लकारमें ‘आत्मनेपदीय‘ रूप इस प्रकार हैं-प्रथमपुरुषमें तो ‘परस्मैपदीय” रूपके समान ही होते हैं, मध्यम और उत्तम पुरुषमें’ पक्तासे, पक्तासाथे, पक्ताध्वे। पक्ताहे, पक्तास्वहे, पक्तास्महे।‘ वाक्यप्रयोग-‘अहं पक्ताहे।” (मैं पकाऊँगा।) “वयं हरेश्चरूं पक्तास्महे।” (हम श्रीहरिके लिये चरु पकावेंगे या तैयार करेंगे।)
‘आशीलिंङ् में ‘भू‘ धातुके रूप इस प्रकार जानने चाहिये’ भूयात्, भूयास्ताम्, भूयासुः । भूयाः, भूयास्तम्, भूयास्त। भूयासम्, भूयास्व, भूयास्म। वाक्यप्रयोग “सुख भूयात्।” (सुख हो।) “हरिशङ्करौ भूयास्ताम्।” (विष्णु और शिव हों।) “ते भूयासु:।” (वे हों।) ‘त्वं भूयाः।” (तुम होओ।) “युवाम् ईश्वरौ भूयास्तम्।” (तुम दोनों ईश्वर-ऐश्वर्यशाली होओं।) “यूयं भूयास्त।” (तुम सब होओ।) “अहं भूयासम्।” (मैं होऊँ।) ‘वयं सर्वदा भूयास्म।
‘यक्ष‘ धातुके आत्मनेपदीय आशिष–लिङ् में इस प्रकार रूप होते हैं-“यक्षीष्ठ, यक्षीयास्ताम्, यक्षीरन्। यक्षीष्ठा:, यक्षीयास्थाम्, यक्षीध्वम्। यक्षीय, यक्षीवहि, यक्षीमहि ।
इसी प्रकार “एध्‘ धातुके ‘आशीलिङ् ‘में ये रूप जानने चाहिये-‘एधिषीष्ट, एधिषीयास्ताम्, एधिषीरन्। एधिषीष्ठाः, एधिषीयास्थाम्, एधिषीध्वम्। एधिषीय, एधिषीवहि, एधिषीमहि।
‘यक्ष‘ धातुके “लृङ्‘ लकारमें ये रूप होते हैं ‘अयक्ष्यत, अयक्ष्येताम्, अयक्ष्यन्त । अयक्ष्यथा:, अयक्ष्येथाम्, अयक्ष्यध्वम्। अयक्ष्ये, अयक्ष्यावहि, अयक्ष्यामहि।
‘एध्‘ धातुके ‘लृङ्‘ लकारके रूप इस प्रकार हैं-“ऐधिष्यत, ऐधिष्येताम्, ऐधिष्यन्त। ऐधिष्यथाः, ऐधिष्येथाम्, ऐधिष्यध्वम्। ऐधिष्ये, ऐधिष्यावहि, ऐधिष्यामहि।” वाक्य प्रयोग-काचिद् बाधा नाभविष्यच्चेद् वयम् अरेः ऐधिष्यामहि॥ (यदि कोई बाधा न पड़े तो हम अवश्य शत्रुसे बढ़ जायें।)।
‘भू धातुके”लृट् लकारमें ‘भविष्यति, भविष्यत:, भविष्यन्ति“-इत्यादि रूप होते हैं।
“एध्‘ धातुके”लृट् लकारमें-“एधिष्यते, एधिष्येते, एधिष्यन्ते। एधिष्यसे, एधिष्येथे, एधिष्यध्वे। एधिष्ये, एधिष्यावहे, एधिष्यामहे।’ ये रूप होते है
इसी प्रकार ‘णिजन्त‘ वि-पूर्वक ‘भू‘ धातुके “लृट् लकारमें-“विभावयिष्यति, विभावयिष्यत:, विभावयिष्यन्ति‘ इत्यादि रूप होते हैं।
‘यङ्लुगन्त‘ ‘भू‘ धातुके “लृट् लकारमें ‘बोभविष्यति” इत्यादि रूप होते हैं।
‘नामधातु में घटं करोति, पट करोति इत्यादि अर्थ में जिनके घटयति पटयति इत्यादि रूप कह आये हैं,
उन्होंके “विधिलिङ्‘ में ‘घटयेत्, पटयेत्” इत्यादि रूप होते हैं।
इसी तरह ‘पुत्रीयति‘ और ‘पुत्रकाम्यति” इत्यादि नामधातु-सम्बन्धिनी क्रियाओंके रूपोंकी ऊहा कर लेनी चाहिये ॥ ३० ॥
तीन सौ अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३५८ ॥
अध्याय – ३५९ कृदन्त शब्दोंके सिद्ध रूप
कुमार कार्तिकेय कहते हैं–कात्यायन ! यह जानना चाहिये कि ‘कृत्‘ प्रत्यय भाव, कर्म तथा कर्ता-तीनोंमें होते हैं।
वे इस प्रकार हैं- ‘अच्‘, ‘अप्‘, ‘ल्युट्‘, ‘क्तिन्‘, भावार्थक ‘घञ्‘ करणार्थक ‘ घञ्,’, ‘युच्‘, ‘अ‘ तथा ‘तव्य” आदि।
‘अच्‘ प्रत्यय होनेपर ‘विनी+अच्‘ (गुण, अयादेश और विभक्तिकार्य)=विनयः। (ऋदोरप्) उत्कृ+अप्–उत्करः । प्रकृ+अप्–प्रकरः । दिव+अच्–देवः। भद्र+अच्–भद्रः । श्रीकृ+अप् श्रीकर:।’ इत्यादि रूप होते हैं।
“ल्युट् प्रत्यय होनेपर शुभ+ल्युट् (लकार, टकारकी इत्संज्ञा, लघूपध गुण) ‘युवोरनाकौ।‘ (७।१।१) से अनादेश=’शोभनम्-इस रूपकी सिद्धि होती है।
‘वृध्‘ धातुसे “तिन्‘ प्रत्यय करनेपर ‘वृध्+ति’
(ककारकी इत्संज्ञा, तकारका धकारादेश, पूर्व धकारका जश्त्वेन दकार और विभक्तिकार्य)= ‘वृद्धिः‘ । स्तु+क्तिन्-“स्तुतिः‘ । मन्+क्तिन्= ‘मतिः“-ये पद सिद्ध होते हैं।
‘भू‘ धातुसे ‘ घञ् ‘ प्रत्यय होनेपर् भू+घञ् =’ भावः‘-यह पद बनता है।
णिजन्त ‘कृ‘ धातुसे ‘ ण्यासश्रन्थो युच्।‘ (३।।३।। १०७)-इस सूत्रके अनुसार ‘युच् प्रत्यय करनेपर कारि+यु (णिलोप, अनादेश)= ‘कारणा।’ ‘भावि+युच्= ‘भावना‘ इत्यादि पद सिद्ध होते हैं।
प्रत्ययान्त धातुसे स्त्रीलिङ्गमें ‘अ‘ प्रत्यय होता हैं। उसके होनेपर ‘चिकित्स+अ, चिकीर्ष+अ– चिकित्सा, चिकीर्षा‘ इत्यादि पद सिद्ध होते हैं।
धातुसे ‘तव्य‘ और ‘अनीय‘ प्रत्यय भी होते हैं। कृ+तव्य–कर्तव्यम्। कृ+अनीय=करणीयम् -इत्यादि पर्दोकी सिद्धि होती हैं।
“अचो यत्।‘ (३।१।१७) सूत्रके। अनुसार ‘अजन्त‘ धातुसे ‘यत् प्रत्यय होता है। उसके होनेपर दा+यत् (‘ईद्यति।’ सूत्रसे ‘आ’ के स्थानमें ‘ईकारादेश’, गुण और विभक्तिकार्य)- देयम्। ध्यै+यत् (‘आदेच उपदेशेऽशिति ।।’ से ‘ऐ’ के स्थानमें आ, ‘ईद्यक्ति’ से ‘आ’ के स्थान में ‘ई’ (विभक्तिकार्य) –ध्येयम्-ये पद सिद्ध होते हैं।
‘ऋहलोर्ण्यत्‘ (३।१। १२४)-इस सूत्रके अनुसार ण्यत् प्रत्यय होनेपर कृ+ण्यत् (‘चुटू’ १ ॥ ३। ७१) सूत्रसे णकारकी तथा ‘हलन्त्यम्।‘ (१।।३।। ३) सूत्रसे तकारकी इत्संज्ञा। ‘अचोऽञ्णिति।‘ (७।। २ । ११५) से ‘वृद्धि’ तथा विभक्तिकार्य)= ‘कार्यम्-यह पद सिद्ध होता है।
यहाँतक ‘कृत्यसंज्ञक‘ प्रत्यय कहे गये हैं। १–४ ॥
‘क्त‘ आदि प्रत्यय कर्तामें होते हैं-यह जाननेयोग्य बात हैं। वें कहीं-कहीं भाव और कर्ममें भी होतें हैं। कर्तामें ‘गम्‘ धातुसे ‘क्त‘ प्रत्यय होनेपर ‘गत: “-यह रूप बनता है। प्रयोग में ‘म ग्राम गत: स प्रामें गतः ।’ इत्यादि वाक्य होते हैं। इस वाक्यका अर्थ हैं-वह गाँवकों गया।
कर्ममें ‘क्त‘ प्रत्ययका उदाहरण है-“त्वया गुरुः आश्लिष्टः।’ (तुमने गुरुका आलिङ्गन किया।) यहाँ कर्ममें प्रत्यय होनेसे कर्मभूत ‘गुरु‘ उक्त हो गया। अत: उसमें प्रथमा विभक्ति हुई।
‘त्वम्‘ यह कर्ता अनुक्त हो गया। अत: उसमें तृतीया विभक्ति हुई। ‘आश्लिष्+क्त‘ (ककारकी इत्संज्ञा, ‘त‘ के स्थानमें “ष्टुत्व‘ के नियमसे ‘टकार’ हुआ। तदनन्तर विभक्तिकार्य करनेपर)=’ आश्लिष्ट:‘ पद सिद्ध हुआ।
वर्तमानार्थबोधक ‘लट् लकारमें धातुसे ‘शतृ‘ और ‘शानच्‘ प्रत्यय भी होते हैं। परस्मैपदमें ‘शतृ‘ और आत्मनेपदमें ‘शानच्‘ होता है। ‘भू” धातुसे ‘ शतृ प्रत्यय करनेपर भवन् और एध् धातु से शानच् प्रत्यय करनेपर ‘एधमानः“-ये पद सिद्ध होते हैं।
सम्पूर्ण धातुओंसे ‘ण्वुल्‘ और ‘तृच्‘ प्रत्यय होते हैं। ‘भू‘ धातुसे कर्ता अर्थमें ‘ण्वुल्‘ करनेपर ‘भावकः‘ और ‘तृच्‘ प्रत्यय करनेपर ‘भविता‘-ये पद सिद्ध होते हैं।
‘भू” धातुसे “क्विप् प्रत्यय भी हुआ करता है। ‘स्वयम्+भू+क्विप्–स्वयम्भूः‘– इस पदकी सिद्धि होती है।
भूतार्थ-बोधके लिये ‘लिट्‘लकारमें धातुसे ‘क्वसु‘ और ‘कानच् प्रत्यय होते हैं। परस्मैपदमें ‘क्वसु‘ और आत्मनेपदमें ‘कानच्‘ होता है।
‘भू धातुसे ‘क्वसु करनेपर ‘बभूविवान् और ‘पच् धातुसे ‘क्वसु प्रत्यय करनेपर “पेचिवान्– ये पद सिद्ध होते हैं। इन शब्दोंकी व्युत्पति इस प्रकार हैं-‘स बभूव इति वभूविवान्।‘ (वह हुआ था।) ‘स पपाच इति पेचिवान्।‘ (उसने पकाया था।}
आत्मनेपदीय पच् धातु से कानच् प्रत्यय करने पर ‘पेचान:” पद बनता है।
श्रद्+धा“-इस धातुसे “लिट् लकारमें ‘कानच् प्रत्यय करने पर ‘श्रद्दधानः“- यह पद सिद्ध होता हैं। ‘स पेचे इति पेचानः । स अहथे इति श्रद्दधानः‘। ‘
कर्मण्यण से ‘अण‘ प्रत्यय करनेपर ‘कुम्भकारः” आदि पद सिद्ध होते हैं।भूत और वर्तमान अर्थ में भी उणादि प्रत्यय होते हैं। ‘ववौ वाति इति वा वायु:।‘ वा+उण (युगागम एवं विभक्तिकार्य)=वायु। ‘प+उण=पायु:।’ ‘कृ+ उण=कारू: इत्यादि पद सिद्ध् होते है | बहुलं छन्दसि इस नियम के अनुसार सभी कृत् प्रत्यय वेदमें बाहुल्येन उपलब्ध होते हैं। वहाँ कहीं प्रवृति, कहीं अप्रवृति, कहीं वैकल्पिक विधान और कही कुछ और ही विधि दृष्टिगोचर होती है।॥
अध्याय – ३६० स्वर्ग-पाताल आदि वर्ग
अग्निदेव कहते हैं-कात्यायन ! स्वर्ग आदिके नाम और लिङ्ग जिनके स्वरूप हैं, उन शुद्ध स्वरूप श्रीहरिका मैं वर्णन करता हूँ-
स्व: [अव्यय], स्वर्ग, नाक, त्रिदिव [पुँलङ्ग], द्यो, दिव्—ये दो स्त्रीलिङ्ग और त्रिविष्टप [नपुंसक]—। ये सब ‘स्वर्गलोक‘ के नाम हैं।
देव, वृन्दारक और लेख-ये (पुलिङ्ग शब्द) देवताओंके नाम हैं।
रुद्र आदि शब्द गणदेवता के वाचक हैं।
विधाधर, अप्सरा, यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, किन्नर, पिशाच, गुह्मक, सिद्ध और भूत-ये सब ‘देवयोनि‘ के अन्तर्गत हैं।
देवद्विट्, असुर और दैत्य-ये असुरोंके नाम हैं।
सुगत और तथागत-ये बुद्धके नाम हैं। ब्रह्मा, आत्मभू और सुरज्येष्ठ-ये ब्रह्माजीके नाम हैं।
विष्णु, नारायण और हरि-ये भगवान् विष्णुके नाम हैं।
रेवतीश, हली और राम-ये बलभद्रजीके नाम हैं।
काम, स्मर और पश्चशर-ये कामदेवके नाम हैं।
लक्ष्मी, पद्मालया और पद्मा-ये लक्ष्मीजीके नाम हैं।
शर्व, सर्वेश्वर और शिव-ये भगवान् शंकरके नाम हैं।
कपर्द और जटाजूट – शङ्करजी की बँधी हुई जटाके दो नाम हैं।
पिनाक और अजगव – शङ्करजी के धनुषके भी दो नाम हैं-।
प्रमथ -शिवजीके पार्षद कहलाते हैं।
मृडानी, चण्डिका और अम्बिका-ये पार्वतीजीके नाम हैं।
द्वैमातुर और गजास्य (गजानन)-ये गणेशजीके नाम हैं।
सेनानी, अग्निभू और गुह-ये स्वामी कार्तिकेयजीके नाम हैं।
आखण्डल, शुनासीर, सुत्रामा और दिवस्पति-ये इन्द्रके नाम हैं।
पुलोमजा, शची और इन्द्राणी-ये इन्द्रकी प्रियतमा शची देवीके नाम हैं।
वैजयन्त – इन्द्रके महलका नाम हैं।
जयन्त और पाकशासनि – इन्द्रके पुत्रका नाम हैं।
ऐरावत, अभ्रमातङ्ग, ऐरावण और अभ्रमुवल्लभ – हाथीके नाम हैं।
ह्रादिनी (स्त्रीलिङ्ग), पुंलिङ्ग और नपुंसकलिङ्गमें प्रयुक्त होनेवाला व्रज, कुलिश (नपुंसक), भिदुर (नपुंसक) और पचि (पुलिङ्ग)-ये सब इन्द्रके व्रजके नाम हैं।
व्योम–यान (नपुं०) तथा विमान (पुंलि० नपु०)-ये आकाशमें विचरनेवाले देववाहनोंके नाम हैं।
पीयूष, अमृत और सुधा – ये अमृतके नाम हैं। (इनमें सुधा तो स्त्रीलिङ्ग और शेष दोनों नाम नपुंसकलिङ्ग हैं।)
‘सुधर्मा‘- देवताओंकी सभा कहलाती है।
स्वर्गगङ्गा, सुरदीर्धिका- ये देवताओंकी गङ्गा नदी के नाम है।
हाहा, हूहू आदि गन्धर्वोके नाम हैं।
अग्नि, वह्रि, धनंजय, जातवेदा, कृष्णवर्त्मा, आश्रयाश, पावक, हिरण्यरेता:, सप्तार्चि, शुक्ल, आशुशुक्षणि, शुचि और अपित-ये अग्निके नाम हैं ।
और्व, वाडव और वडवानल-ये समुद्रके भीतर जलनेवाली आगके नाम हैं।
ज्वाल, कील, अर्चिष्, हेति और शिखा– ये पाँच आगकी ज्वालाके नाम हैं-। इनमें पहले दो शब्द स्त्रीलिङ्ग और पुंल्लिङ्ग दोनोंमें प्रयुक्त होते हैं। अर्चिष् नपुंसकलिङ्ग है तथा हेति और शिखा स्त्रीलिङ्ग शब्द हैं।
स्फुलिङ्ग और अग्निकण – ये दो आगकी चिनगारीके नाम हैं- । इनमें पहला तीनों लिङ्गोंमें और दूसरा केवल मुँलिङ्ग में प्रयुक्त होता है।
धर्मराज, परेतराट्, काल, अन्तक, दण्डधर और श्राद्धदेव-ये यमराजके नाम हैं।
राक्षस, कौणप, अश्रप, क्रव्याद, यातुधान और नैऋति – ये राक्षसोंके नाम हैं।
प्रचेता, वरुण और पाशी – ये वरुणके नाम हैं।
श्चशन, स्पर्शन, अनिल, सदागति, मातरिश्चा, प्राण, मरुत् और समीरण-ये वायुके नाम हैं।
जव, रंहस् और तरस्– ये वेगके नाम हैं। (इनमें पहला पुलिङ्ग और शेष दोनों शब्द नपुंसकलिङ्ग हैं।)
लघु, क्षिप्र, अर, द्रुत, सत्वर, चपल, तूर्ण, अविलम्बित और आशु– ये शीघ्रताके अर्थमें प्रयुक्त होते हैं। (क्रियाविशेषण होनेपर इन सबका नपुंसकलिङ्ग एवं एकवचनमें प्रयोग होता है।)
सतत, अनारत, अश्रान्त, संतत, अविरत, अनिश, नित्य, अनवरत और अजस्र-ये निरन्तर के नाम हैं।
अतिशय, भर, अतिवेल, भृश, अत्यर्थ, अतिमात्र, उद्गाढ, निर्भर, तीव्र, एकान्त, नितान्त, गाढ, बाढ़ और दृढ़-ये अतिशय (अधिकमात्रा)-के नाम हैं।
गुह्यकेश, यक्षराज, राजराज और धनाधिप-ये कुबेरके नाम हैं।
किंनर, किम्पुरुष, तुरंगवदन और मयु – ये किंनरोंके नाम हैं।
निधि और शेवधि – ये दोनों पुंल्लिङ्ग शब्द निधिके नाम हैं।
व्योम, अभ्र, पुष्कर, अम्बर, द्यो, दिव्, अन्तरिक्ष और ख – ये आकाश के नाम हैं। (इनमें द्यो और दिव् शब्द स्त्रीलिङ्गमें प्रयुक्त होते हैं और शेष सब नपुंसकलिङ्गमें।)।
काष्ठा, आशा, ककुभ् और दिशा – ये दिशा-अर्थके बोधक हैं।
अभ्यन्तर और अन्तराल शब्द मध्य के नाम हैं।
चक्रवाल – गोलाकार के नाम हैं।
मण्डल – समुदायके नाम हैं।
तडित्वान्, वारिद, मेघ, स्तनयित्नु और बलाहक – ये मेघके पर्याय नाम हैं। १-२१।
कादम्बिनी और मेघमाला – ये बादलोंकी घटाका नाम है
स्तनित और गर्जित-ये (नपुंसकलिङ्ग) शब्द मेघगर्जनाके वाचक हैं।
शम्पा, शतह्रदा, ह्रादिनी, ऐरावती, क्षणप्रभा, तडित्, सौदामिनी (सौदामनी), विद्युत्, चञ्चला और चपला-ये बिजलीके पर्याय नाम हैं।
स्फूर्जथु और वज्र-निघषि-ये दो बिजलीकी गड़गड़ाहटके नाम हैं।
वृष्टिघात और अवग्रह – ये वर्षाकी रुकावटके नाम हैं।
धारा–सम्पात और आसार-वे दो मुसलाधार वृष्टिके नाम हैं।
शीकर – ये जलके छींटों या फुहारोंके नाम हैं।
करका – ये वर्षाके साथ गिरनेवाले ओलोंका नाम है।
दुर्दिन – ये जब मेंघोंकी घटासे दिन छिप जाय तो उसे कहते हैं।
अन्तर्धा, व्यवधा, पुँल्लङ्गमें प्रयुक्त होनेवाला अन्तर्धि तथा (नपुंसकलिङ्ग) अपवारण, अपिधान, तिरोधान, पिधान और आच्छादन-ये आठ अन्तर्धान (अदृश्य होने)-के नाम हैं।
अब्ज, जैवात्रिक, सोम, गलौ: मृगाङ्क, कलानिधि, विधु तथा कुमुद-बन्धु- ये चन्द्रमाके नाम हैं। बिम्ब और मण्डल –ये चन्द्रमा और सूर्यके मण्डलका नाम है । इनमें बिम्ब शब्दका पुँल्लङ्ग और नपुंसकलिङ्गमें तथा मण्डल-शब्दका तीनों लिङ्गोंमें प्रयोग होता है।
कला – चन्द्रमाके सोलहवें भागको कहते हैं।
भित्त, शकल और खण्ड-ये टुकड़ेके वाचक हैं।
चन्द्रिका, कौमुदी और ज्योत्स्ना – ये चाँदनीके नाम है ।
प्रसाद और प्रसन्नता-ये निर्मलता और हर्षके बोधक हैं।
लक्षण, लक्ष्म और चिह्न-ये चिह्नके नाम है ।
शोभा, कान्ति, द्युति और छवि-ये शोभाके नाम हैं।
सुषमा – उत्तम शोभाको कहते हैं।
तुषार, तुहिन, हिम, अवश्याय, नीहार, प्रालेय, शिशिर, हिम- ये पालेके वाचक हैं।
नक्षत्र, ऋक्ष, भ, तारा, तारका और उडु-ये नक्षत्रके पर्याय हैं। इनमें उडु शब्द विकल्पसे स्त्रीलिङ्ग और नपुंसक होता है।
गुरु, जीव और आङ्गिरस-ये बृहस्पतिके नाम है ।
उशना, भार्गव और कवि-ये शुक्राचार्यके नाम है ।
विधुतुद, तम और राहु-ये तीन राहुके नाम हैं।
लग्न – राशियोंके उदयको कहते हैं।
चित्रशिखण्डी – मरीचि, अत्रि आदि* सप्त-ऋषि के नाम हैं।
हरिदश्र्व, ब्रध्न, पूषा, द्युमणि, मिहिर और रवि-ये सूर्यके नाम हैं।
परिवेष, परिधि, उपसूर्यक और मण्डल-ये उत्पात आदिके समय दिखायी देनेवाले सूर्यमण्डलके घेरेका बोध करानेवाले हैं।
किरण, उस्न, मयूख, अंशु, गभस्ति, घृणि, धूष्णि, भानु, कर, मरीचि और दीप्धिति-ये ग्यारह सूर्यकी किरणोंके नाम हैं। इनमें मरीचि शब्द स्त्रीलिङ्ग और पुँल्लिङ्ग दोनोंमें प्रयुक्त होता है तथा दीप्धिति शब्दका प्रयोग केवल स्त्रीलिङ्गमें होता है।
प्रभा, रुक्, रुचि, त्विट्, भा, आभा, छबि, द्युति, दीप्ति, रोचिष् और शोचिष्-ये प्रभाके नाम हैं। इनमें रोचिष् और शोचिष्-ये दो शब्द केवल नपुंसकलिङ्गमें प्रयुक्त होते हैं (शेष सभी स्त्रीलिङ्ग हैं)।
प्रकाश, द्योत और आतप-ये तीन धूप या घामके नाम हैं।
कोष्ण, कवोष्ण, मन्दोष्ण और कटुष्ण – ये थोडी गरमीका बोध करानेवाले हैं। यद्यपि स्वरूपसे ये नपुंसकलिङ्ग हैं, तथापि जय थोड़ी गरमी रखनेवाली किसी वस्तुके विशेषण होते हैं तो विशेष्यके अनुसार इनका तीनों लिङ्गोंमें प्रयोग होता है।
तिग्म, तीक्ष्ण और खर-ये अधिक गर्मीके वाचक हैं। ये भी पूर्ववत् गुणबोधक होनेपर नपुंसकमें और गुणवान् के विशेषण होनेपर विशेष्यके अनुसार तीनों लिङ्गोंमें प्रयुक्त होते हैं।
दिष्ट, अनेहा और काल-ये समयके पर्याय हैं।
घस्र, दिन और अहन्-ये दिनके नाम हैं।
सायं शब्द सायंकालका नाम हैं।
संध्या तथा पितृप्रसू-ये दो संध्याके नाम हैं।
प्रत्यूष, अहर्मुख, कल्य, उषस् और प्रत्यूषस्-ये प्रभातकालके वाचक हैं।
प्राह्र – दिनके प्रथम भागके नाम हैं।
अपराह्र – दिन के अन्तिम भागके नाम हैं।
मध्याह्र – दिन के मध्यभागके नाम हैं।
प्राह्र, अपराह्र, मध्याह्र -इन तीनोंका समुदाय त्रिसंध्य कहलाता है।
शर्वरी, यामी (यामिनी) और तमी-ये रात्रिके वाचक हैं।
तमिस्ना – अंधेरी रातके नाम हैं।
ज्यौत्स्नी – चाँदनी रात्रिके नाम हैं।
आगामी और वर्तमान-इन दो दिनोंसहित बीचकी रात्रिका बोध करानेके लिये पक्षिणी शब्दका प्रयोग किया जाता है।
अर्धरात्र और निशीथ – आधी रातके नाम हैं।
प्रदोष और रजनीमुख – रात्रिके प्रारम्भ समय का नाम हैं।
प्रतिपदा और पूर्णिमा या अमावास्याके बीच में जो संधिका समय है उसे पर्वसंधि कहते हैं।
पूर्णिमा और अमावास्याको पक्षान्त कहा जाता है।
पौर्णमासी तथा पूर्णिमा – पूर्णिमाके नाम हैं ।
अनुमति पूर्णिमा – यदि पूर्णिमाको चन्द्रोदयके समय प्रतिपद्का योग लग जानेसे एक कलासे हीन चन्द्रमाका उदय हो। तो उस पूर्णिमाकी ‘अनुमति’ संज्ञा है
राका पूर्णिमा – यदि पूर्णिमाको चन्द्रोदयके समय प्रतिपद्का योग लग जानेसे पूर्ण चन्द्रमाके उदय लेनेपर उसे ‘राका’ कहते हैं।
अमावस्या, अमावास्या, दर्श और सूर्येन्दुसंगम – ये चार अमावास्याके नाम हैं।
सिनीवाली अमावस्या – यदि सबेरे चतुर्दशीका योग होनेसे अमावास्यके प्रातःकाल चन्द्रमाका दर्शन हो जाय तो उस अमावास्याको ‘सिनीवाली’ कहते हैं।
कुहू अमावस्या – चन्द्रोदयकालमें अमावस्याका योग हो जानेसे यदि चन्द्रमाको कला बिलकुल न दिखायी दे तो वह अमा ‘कुहू’ कहलाती है।॥ २२-४० ॥
संवर्त, प्रलय, कल्प, क्षय और कल्पान्त – ये पाँच प्रलयके नाम हैं।
कलुष, वृजिन, एनस्, अध्, अंहस्, दुरित और दुकृष्त – पाप के नाम हैं।
पुण्य, श्रेयस्, सुकृत और वृष – ये धर्म के नाम है। धर्म शब्दका प्रयोग मुँलिङ्ग और नपुंसक दोनोंमें होता है। (इनमें आरम्भके तीन नपुंसक और वृष शब्द पुंल्लिङ्ग है।)
मुत्, प्रीति, प्रमद, हर्ष, प्रमोद, आमोद, सम्मद, आनन्दथु, आनन्द, शर्म्म, शात और सुख – ये सुख एवं हर्षके नाम हैं।
स्व:श्रेयस, शिव, भद्र, कल्याण, मङ्गल, शुभ, भावुक, भविक, भव्य, कुशल और क्षेम– ये कल्याण-अर्थका बोध करानेवाने हैं। ये सभी शब्द केवल स्त्रीलिङ्गमें नहीं प्रयुक्त होते।
दैव, दिष्ट, भागधेय, भाग्य, नियति और विधि – ये भाग्यके नाम हैं। इनमें नियति-शब्द स्त्रीलिङ्ग है (और विधि पुँल्लङ्ग तथा आरम्भके चार शब्द नपुंसकलिङ्ग हैं)।
क्षेत्रज्ञ, आत्मा और पुरुष – ये आत्माके पर्याय हैं।
प्रधान और प्रकृति – ये प्रकृति या मायाके दो नाम हैं। इनमें प्रकृति स्त्रीलिङ्ग है और प्रधान नपुंसकलिङ्ग।
हेतु, कारण और बीज – ये कारणके वाचक हैं। इनमें पहला पुंलिङ्ग और शेष दो शब्द नपुंसकलिङ्ग हैं।
निदान और आदिकारण – ये कार्यकी उत्पत्तिमें प्रधान हेतुके दो नाम हैं।
चित्त, चेतस, हृदय, स्वान्त, हृत् मानस और मनस्- ये चित्तके पर्याय हैं।
बुद्धि, मनीषा, धिषणा, धी, प्रज्ञा, शेमुषी, मति, प्रेक्षा, उपलब्धि, चित्, संवित्, प्रतिपत्,
ज्ञप्ति और चेतना- ये बुद्धिके वाचक शब्द हैं।
मेधा – धारणाशक्तिसे युक्त बुद्धिको “मेधा” कहते हैं
संकल्प – मानसिक व्यापार का नाम संकल्प है।
संख्या – ये विचारके नाम हैं।
विचारणा – ये विचिकित्सा नाम हैं।
चर्चा – ये संशय संदेह के नाम हैं।
अध्याहार, तर्क और ऊह – ये तर्क-वितर्क के नाम हैं।
निश्चय – निश्चित विचारकों निर्णय को निश्चय कहते हैं।
नास्तिकता – ‘ईश्वर और परलोक नहीं है’-ऐसे विचारको मिथ्या-दृष्टि और नास्तिकता कहते हैं।
भ्रान्ति, मिथ्यामति और भ्रम-ये तीन भ्रमात्मक ज्ञानके वाचक हैं।
अङ्गीकार, अभ्युपगम, प्रतिश्रव और समाधि- ये स्वीकार अर्थका बोध करानेवाले हैं।
ज्ञान – मोक्षविषयक बुद्धिकों ज्ञान कहते हैं।
विज्ञान – शिल्प एवं शस्त्रके कार्यबोधको विज्ञान कहते हैं।
मुक्ति, कैवल्य, निर्वाण, श्रेयस्, निःश्रेयस, अमृत, मोक्ष और अपवर्ग-ये मोक्षके वाचक शब्द हैं।
अज्ञान, अविद्या और अहमति-ये तीन अज्ञानके पर्याय हैं। इनमें पहला नपुंसक और शेष दो शब्द स्त्रीलिङ्ग हैं।
परिमल – एक-दूसरेकी रगड़से प्रकट हुई मनोहारिणी गन्धके अर्थमें ‘परिमल” शब्दका प्रयोग होता है। वही गन्ध जब अत्यन्त मनोहर हो तों उसे ‘आमोद” कहते हैं।
सुरभि – घ्राणेन्द्रियको तृप्त करनेवाली उत्तम गन्धका नाम ‘सुरभि’ है।
शुभ्र, शुक्ल, शुचि, श्वेत, विशद, श्येत, पाण्डर, अवदात, सित, गौर, वलक्ष, धवल और अर्जुन-ये श्वेत वर्णके वाचक हैं।
हरिण, पाण्डुर और पाण्डु – कुछ पीलापन लिये हुए सफेदीको हरिण, पाण्डुर और पाण्डु कहते हैं। यह रंग भी बहुत हलका हो तो उसे धूसर कहते हैं।
नील, असित, श्याम, काल, श्यामल और मेचक-ये कृष्णवर्ण (काले रंग) के बोधक हैं।
पीत, गौर तथा हरिद्राभ-ये पीले रंगके वाचक हैं।
पालाश, हरित तथा हरित्-ये हरे रंगके वाचक हैं।
रोहित, लोहित और रक्त-ये लाल रंगका बोध करानेवाले हैं।
शोण – रक्त कमलके समान जिसकी शोभा हो, उसे ‘शोण” कहते हैं।
अरुण – जिसकी लालिमा जान न पड़ती हो, उस हलकी लालीका नाम ‘अरुण’ है।
पाटल – सफेदी लिये हुए लाली अर्थात् गुलाबी रंगको ‘पाटल’ कहते हैं।
श्याव और कपिश – जिसमें काले और पीले-दोनों रंग मिले हों वह ‘श्याव’ और ‘कपिश’ कहलाता है।
धूम्र तथा धूमल – जहाँ कालेके साथ लाल रंगका मेल हो, उसे धूम्र तथा धूमल कहते हैं।
कडार, कपिल, पिङ्ग, पिशङ्ग, कद्रु तथा पिङ्गल-ये भूरे रंगके वाचक हैं।
चित्र, किर्मीर, कल्माष, शबल, एत और कर्बुर-ये चितकबरे रंगका बोध करानेवाले हैं॥ ४१-५६३ ॥
व्याहार, उक्ति तथा लपित-ये वचनके समानार्थक शब्द हैं।
अपभ्रंश तथा अपशब्द – व्याकरणके नियमोंसे च्युत-अशुद्ध शब्दको ‘अपभ्रंश’ तथा ‘अपशब्द’ कहते हैं।
वाक्य – सुबन्त पदोंका समुदाय, तिङन्त पदोका समूह, सुबन्त और तिङन्त-दोनों पदोका समुदाय अथवा कारकसे अन्वित क्रियाका बोध करानेवाला पदसमूह इत्यादि-ये सभी ‘वाक्य’ कहलाते हैं।
इतिहास तथा पुरावृत – पूर्वकालमें बीती हुई सच्ची घटनाओंका वर्णन करनेवाले ग्रन्थ को इतिहास तथा पुरावृत कहते हैं।
पुराण – सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित- इन पाँच लक्षणोंसे युक्त व्यासादि मुनियोंके ग्रन्थका नाम ‘पुराण’ है।
आख्यायिका – सच्ची घटनाको लेकर लिखी हुई पुस्तक ‘आख्यायिका’ कहलाती है।
कथा – कल्पित प्रबन्धको ‘कथा’ कहते हैं।
समाहार तथा संग्रह – संग्रह के वाचक शब्द हैं।
पहेली और प्रवह्रिका – अबूझ पहेली के नाम हैं।
समस्या और समासार्था – पूर्ण करनेके लिये दी हुई संक्षित पदावलीका नाम ‘समस्या’ और ‘समासाथ’ है।
स्मृति और धर्मसंहिता – वेदार्थक स्मरणपूर्वक लिखे हुए धर्मशास्त्रको ‘स्मृति’ और ‘धर्मसंहिता’ कहते हैं।
आख्या, आह्रा और अभिधान – ये नामके वाचक हैं।
वार्ता और वृतान्त- दोनों समानार्थक शब्द हैं।
हूति, आकारणा और आह्रान-ये पुकारनेके अर्थमें आते हैं।
उपन्यास और वाङ्मुख – वाणीके आरम्भ को ‘उपन्यास’ और ‘वाङ्मुख” कहते हैं।
विवाद और व्यवहार मुकदमेबाजीका नाम है।
प्रतिवाक्य और उत्तरये दोनों समानार्थक शब्द हैं।
उपोद्धांत और उदाहार-ये भूमिकाके नाम हैं।
मिथ्याभिशंसन, अभिशाप – झूठा कलङ्क लगानेकों मिथ्याभिशंसन और अभिशाप कहते हैं।
सुयश – यश और कीर्तिके नाम हैं।
प्रश्न, पृच्छा और अनुयोग-इनका पूछनेके अर्थमें प्रयोग होता है।
आम्रेडित – एक ही शब्दके दो-तीन बार उच्चारण करनेकी ‘आप्रेडित” कहते हैं।
कुत्सा, निन्दा और गर्हण – परायी निन्दाके अर्थमें कुत्सा, निन्दा और गहण शब्दका प्रयोग होता है।
आभाषण और आलाप – साधारण बातचीतको आभाषण और आलाप कहते हैं।
प्रलाप – पागलोंकी तरह कहे हुए असम्बद्ध या निरर्थक वचनका नाम प्रलाप है।
अनुलाप – बारंबार किये जाने वाले वार्तालाप को अनुलाप कहते हैं।
विलाप और परिदेवन – शोकयुक्त उद्गारका नाम विलाप और परिदेवन है।
विप्रलाप और विरोधोक्ति – परस्पर विरुद्ध बातचीतको विप्रलाप और विरोधोक्ति कहते हैं।
संलाप – दो व्यक्तियोंके पारस्परिक वार्तालापका नाम संलाप है।
सुप्रलाप और सुवचन-ये उत्तम वाणीके वाचक हैं।
अपलाप तथा निह्रव – सत्यको छिपाने के लिये जिस वाणी का प्रयोग किया जाता है, उसे अपलाप तथा निह्रव कहते हैं।
उशती – अमङ्गलमयीं वाणीका नाम उशती है।
संगत और हृदयंगम – हृदयमें बैठनेवालों युक्तियुक्त बात को संगत और हृदयंगम कहते हैं।
सान्त्व – अत्यन्त मधुर वाणीमें जो सान्त्वना दी जाती है, उसे सान्त्व कहते हैं।
आबद्ध और निरर्थक – जिन बातोंका परस्पर कोई सम्बन्ध न हो, वे आबद्ध और निरर्थक कहलाती हैं।
निष्ठुर और परुष शब्द कठोर वाणीके बोधक हैं।
अश्लील और ग्राम्य शब्द गंदी बातोंके बोधक हैं।
सूनृत – प्रिय लगनेवाली वाणीको सूनृत कहते हैं।
सत्य, तथ्य, ऋत और सम्यकू-ये यथार्थ वचनका बोध करानेवाले हैं।
नाद, निस्वान, निस्वन, आरव, आराव, संराव और विराव-ये अव्यक्त शब्दके वाचक हैं।
मर्मर – कपड़ों और पत्तोंसे जो आवाज होती है, उसे मर्मर कहते हैं।
शिज्ञ्जीत – आभूषणोंकी ध्वनिका नाम शिज्ञ्जीत है।
निक्वण और क्वाण – वीणाके स्वरको निक्वण और क्वाण कहते हैं
वाशित – पक्षियोंके कलरवका नाम वाशित है।
कोलाहल और कलकल – एक समूहकी आवाजको कोलाहल और कलकल कहते हैं।
गीत और गान-ये दोनों समान अर्थके बोधक हैं।
प्रतिश्रुत् और प्रतिध्वान-ये प्रतिध्वनिके वाचक हैं। इनमें पहला स्त्रीलिङ्ग (और दूसरा नपुंसकलिङ्ग) है।
वीणाके कण्ठसे निषाद आदि स्वर प्रकट होते हैं। ५७-६९ ॥
कल, काकली, मन्द्र, तार – मधुर एवं अस्फुट ध्वनिको ‘कल’ कहते हैं और सूक्ष्म कलका नाम काकली है। गम्भीर स्वरको ‘मन्द्र” तथा बहुत ऊँची आवाजको ‘तार’ कहते हैं। कल, मन्द्र और तार-इन तीनों शब्दोंका तीनों ही लिङ्गोंमें प्रयोग होता है।
एकताल – गाने और बजानेकी मिली हुई लयको एकताल कहते हैं।
वीणा, वल्लकी और विपज्ञची – वीणाके नाम हैं- ।
परिवादिनी – सात तारोंसे बजनेवाली वीणाका (जिसे हिंदीमें सतार या सितार कहते हैं) परिचादिनी नाम है।
तत, आनद्ध, सुषिर और घन – इनमें वीणा आदि बाजेको तत, ढोल और मृदङ्ग आदिको आनद्ध, बाँसुरी आदिको सुषिर और काँसकी झाँझ आदिको घन कहते हैं।
वाद्य, वादित्र और आतोद्य – तत, आनद्ध, सुषिर और घन इन चारों प्रकार के बाजोंका नाम वाद्य, वादित्र और आतोद्य है।
मृदङ्ग और मुरज – ढोलके नाम हैं। उसके तीन भेद हैं-अङ्कय, आलिङ्गय और ऊर्ध्व।
यश:पटह और ढक्का – सुयशका ढिंढोरा पीटनेके लिये जो डंका होता है, उसे यश:पटह और ढाका कहते हैं।
आनक और दुन्दुभि – भेरीके अर्थमें आनक और दुन्दुभि शब्दोंका प्रयोग होता है। आनक और पटह-ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं।
झझरी (झाँझ) और डिण्ड़िम (द्धिढोरा) आदि बाजोंके भेद हैं। मर्दल और पणव-ये दोनों समानार्थक हैं (इन्हें भी एक प्रकाएका बाजा ही समझना चाहिये) ।
ताल – जिससे गाने-बजानेकी क्रिया और कालका विवेक हो, उस गतिका नाम ‘ताल’ है।
लय – गीत और वाद्य आदिका समान अवस्थामें होना ‘लय’ कहलाता है।
ताण्डव, नाटय, लास्य और नर्तन-ये सब ‘नृत्य”के वाचक हैं।
नृत्य, गान और वाद्य-इन तीनोंको ‘तौर्यत्रिक’ एवं ‘नाटय’ कहते हैं।
भट्टारक, देवी और देव – नाटकमें राजाको भट्टारक और देव कहा जाता है तथा उनके साथ जिसका अभिषेक हुआ हो, उस महारानीको देवी कहते हैं।
घृङ्गार, वीर, करुण, अद्धत, हास्य, भयानक, बीभत्स तथा रौद्र-ये आठ रस हैं।
भृङ्गार, शुचि और उज्ज्वल – इनमें श्रृंङ्गार-रसके तीन नाम हैं।
उत्साहवर्धन और वीर– वीर-रसके दो नाम हैं।
करुणका बोध करानेवाले सात शब्द हैं-कारुण्य, करुणा, घृणा, कृपा, दया, अनुकम्पा तथा अनुक्रोश।
हस, हास और हास्य-ये हास्यरसके वाचक हैं।
बीभत्स और विकृत शब्द बीभत्स-रसके वाचक हैं। हास्यरस औरबीभत्स-रस ये दोनों शब्द तीनों लिङ्गोंमें प्रयुक्त होते हैं।
अद्भुतका बोध करानेवाले चार शब्द हैं-विस्मय, अद्भुत, आश्चर्य और चित्र।
भैरव, दारुण, भीष्म, घोर, भीम, भयानक, भयंकर और प्रतिभय-ये भयानक अर्थका बोध करानेवाले हैं।
रौद्रका पर्याय है उग्र।
विस्मय,अद्भुत, आश्चर्य,चित्र, भैरव, दारुण, भीष्म, घोर, भीम, भयानक, भयंकर, प्रतिभय, रौद्र, उग्र –ये अद्भुत आदि चौदह शब्द तीनों लिङ्गोंमें प्रयुक्त होते है।
दर, त्रास, भौति, भी, साध्वस और भय-ये भयके वाचक हैं।
भाव – रति आदि मानसिक विकारोंको भाव कहते हैं।
अनुभाव – भावकों व्यक्त करनेवाले रोमाञ्च आदि कार्योका नाम अनुभाव है।
गर्व, अभिमान और अहंकार – ये घमंडके नाम हैं।
मान और चित्तसमुन्नति – ‘मेरे समान दूसरा कोई नहीं है’ ऐसी भावनाको मान और चित्तसमुन्नति कहते हैं।
अनादर, परिभव, परिभाव और तिरस्क्रिया-ये अपमानके वाचक हैं।
व्रीडा, लज्जा, त्रपा और ह्री-ये लाजका बोध करानेवाले हैं।
अभिध्यान – दूसरे के धनको लेनेकी इच्छाका नाम अभिध्यान है।
कौतूहल, कौतुक, कुतुक और कुतूहल-ये चार कौतुकके पर्याय हैं।
विलास, विव्वोक, विभ्रम, ललित, हेला और लीला-ये भृङ्गार के वाचक हैं।
हाव – भावसे प्रकट होने वाली स्त्रियों की चेष्टाएं हाव कहलाती हैं।
द्रव, केलि, परिहास, क्रीड़ा, लीला तथा कूर्दन-ये खेल-कूद और हँसी-परिहासके वाचक हैं।
आच्छुरितक – दूसरोंपर आक्षेप करते हुए जो उनकी हँसी उड़ायी जाती है, उसका नाम ‘आच्छुरितक’ है।
स्मित – मन्द मुस्कानको “स्मित’ कहते हैं। ७०-८५ ॥
अधोभुवन और पाताल – नीचेके लोकका नाम है।
छिद्र, श्वभ्र, वपा और सुषि – ये छिद्रके वाचक हैं।
गर्त और अवट – पृथ्वीके भीतर जो छेद (खंदक आदि) होता है, उसे गर्त और अवट कहते हैं।
तमिस्र, तिमिर और तम – ये अन्धकारके वाचक हैं।
सर्प, पृदाकु, भुजग, दन्दशूक और बिलेशय – ये साँपोंके नाम हैं।
विष, क्ष्वेड और गरल – ये जहरका बोध करानेवाले हैं।
निरय् और दुर्गति-ये नरक के नाम हैं। इनमें दुर्गति शब्द स्त्रीलिङ्ग है।
पयस्, कीलाल, अमृत, उदक, भुवन और वन-ये जलके पर्याय हैं।
भङ्ग, तरंग, ऊर्मि, कल्लोल और उल्लोल – ये लहरके नाम हैं।
पृषत्, बिन्दु और पृषत – ये जलकी बूंदोंके नाम हैं।
कूल, रोध और तीर – ये तटके वाचक हैं।
जलसे तुरंतके बाहर हुए किनारेको ‘पुलिन’ कहते हैं।
जम्बाल, पङ्क और कर्दम-ये कीचड़के नाम हैं।
तालाब या नदी आदिके भर जाने पर जो अधिक जल बहने लगता है, उसे ‘जलोच्छास’ और ‘परीवाह’ कहते हैं।
सूखी हुई नदी आदिके भीतर जो गहरे गढ़ेमें बचा हुआ जल रहता है, उसका नाम ‘कूपक’ और ‘विदारक’ है।
नदी पार करनेके लिये जो उतराई या खेवा दिया जाता है, उसे आतर एवं तरपण्य कहते हैं।
काठकी बनी हुई बाल्टी या जल रखनेके पात्रका नाम द्रोणी है (इससे नावका पानी बाहर निकालते हैं)।
मैले जलको ‘कलुष’ और ‘आविल’ कहते हैं।
साफ पानीको ‘अच्छ’ और ‘प्रसन्न’ कहते हैं।
गहरे जलको ‘गम्भीर’ और “अगाध” कहते हैं।
दाश और कैवर्त-ये मल्लाहके नाम हैं।
शम्यूक और जलशुक्ति-ये सीपके वाचक हैं।
सौगन्धिक और कहार-ये शेत कमलके वाचक हैं।
नील कमलको इन्दीवर कहते हैं।
उत्पल और कुवलय-ये कमल और कुमुद आदिके साधारण नाम हैं।
श्वेत उत्पलको कुमुद और कैरव कहते हैं।
कुमुदकी जड़का नाम शालूक (सेरुकी) है।
पद्म, तामरस और कग्य्ज-ये कमलके पर्याय हैं।
नील उत्पलका नाम कुवलय और रक्त उत्पलका नाम कोकनद बताया गया है।
पद्मकंद अर्थात् कमलकी जड़का नाम करहाट और शिफाकंद है।
कमलके केसरकों किग्य्जल्क और केसर कहते हैं। ये दोनों शब्द स्त्रीलिङ्गके सिवा अन्य लिङ्गोंमें प्रयुक्त होते हैं।
स्त्रीलिङ्ग खनिशब्द और आकर-ये खानके वाचक हैं।
बड़े-बड़े पर्वतोंके आसपास जो छोटे-छोटे पर्वत होते हैं, उन्हें पाद और प्रत्यन्तपर्वत कहते हैं।
पर्वतके निकटकी नीची भूमि (तराई)- को उपत्यका तथा पहाड़के ऊपरकी जमीनको अधित्यका कहते हैं।
इस प्रकार मैंने स्वर्ग और पाताल आदि वगाँका वर्णन किया।
अब अनेक अर्थवाले शब्दोंकी श्रवण कीजिये ॥८६-९५ ॥
अध्याय – ३६१ अव्यय-वर्ग
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठजी !
‘आङ्‘ अव्यय à ईषत् (स्वल्प), अभिव्याप्ति तथा मर्यादा (सीमा) अर्थमें प्रयुक्त होता है। साथ ही धातुसे उसका संयोग होनेपर जो विभिन्न अर्थ प्रकाशित होते हैं, उन सभी अथॉमें उसका प्रयोग समझना चाहिये।
‘आ‘ अव्यय àप्रगृह्मसंज्ञक है। इसका वाक्य और स्मरण अर्थमें प्रयोग होता है।
‘आ:‘ अव्यय à कोप और पीड़ाका भाव द्योतित करनेके लिये प्रयुक्त होता है।
‘कु‘ अव्यय àपाप, कुत्सा (घृणा) और ईषत्। अर्थमें आता है।
“धिक्” अव्यय à फटकार और निन्दाके अर्थमें आता है।
‘च‘ अव्यय àका प्रयोग समुच्चय, समाहार अर्थमें होता है।
अन्वाचय अव्यय à आशीर्वाद अर्थमें आता है।
इतरेतरयोग अव्यय à क्षेम अर्थमें आता है।
‘स्वस्ति‘ अव्यय à पुण्य अर्थमें आता है।
‘अति‘ अव्यय à अधिकता एवं उनgनके अर्थमें आता है।
‘स्वित्‘ अव्यय à प्रश्र और वितर्कका भाव व्यक्त करने में
‘तु‘ अव्यय à भेद और निश्चयके अर्थमें प्रयुक्त होता है।
‘सकृत् अव्यय à का एक ही साथ और एक बारके अर्थमें
‘आरात् अव्यय àका दूर और समीपके अर्थमें प्रयोग होता है।
‘पश्चात्‘ अव्यय à पश्चिम दिशा और पीछे के अर्थमें
‘उत‘ अव्यय à शब्द ‘अपि’के अर्थ (समुच्चय और प्रश्र)-में एवं विकल्प अर्थमें आता है।
‘शश्वत्‘ अव्यय à पुन: और सदाके अर्थमें
‘साक्षात्‘ अव्यय à प्रत्यक्ष एवं तुल्यके अर्थमें प्रयुक्त होता है।
‘बत‘ अव्यय à का प्रयोग खेद, दया, संतोष, विस्मय और सम्बोधनका भाव व्यक्त करने में होता है।
‘हन्त‘ अव्यय à पद हर्ष, अनुकम्पा, वाक्यके आरम्भ और विषादके अर्थमें आता है।
‘प्रति‘ अव्यय à का प्रतिनिधि, वीप्सा एवं लक्षण आदिके अर्थमें प्रयोग किया जाता हैं।
‘इति‘ अव्यय à शब्द हेतु प्रकरण, प्रकाश आदि और समाप्तिके अर्थमें प्रयुक्त होता है।
‘पुरस्तात्‘ अव्यय à पद पूर्व दिशा, प्रथम और पुरा (पूर्वकाल)-के अर्थमें आता है।
‘अग्रत:‘ अव्यय à (आगे)-के अर्थमें भी इसका प्रयोग होता है।
‘यावत्‘ और ‘ तावत्‘ अव्यय àपद समग्र, अवधि (सीमा), माप और अवधारणके अर्थमें आते हैं।
‘ अथो‘ एवं ‘अथ‘ अव्यय à शब्दका प्रयोग मङ्गल, अनन्तर, आरम्भ, प्रश्र और समग्रताके अर्थमें होता है।
‘वृथा‘ अव्यय à शब्द निरर्थक और अविधि अर्थका द्योतक है।
‘नाना‘ अव्यय à शब्द अनेक और उभय अर्थमें आता है।
‘नु‘ अव्यय à प्रश्र और विकल्पमें
‘अनु‘ अव्यय à पश्चात् एवं सादृश्यके अर्थमें प्रयुक्त होता है।
‘ननु‘ अव्यय à शब्द प्रश्र, निश्चय, अनुज्ञा, अनुनय और सम्बोधनमें
“अपि‘ अव्यय à शब्द निन्दा, समुच्चय, प्रश्न, शङ्का तथा सम्भावनामें प्रयुक्त होता है।
‘वा‘ अव्यय à शब्द उपमा और विकल्पमें
‘सामि” अव्यय à पद आधे एवं निन्दाके अर्थमें आता है।
‘आमा‘ अव्यय à शब्द साथ एवं समीपका
‘कम्‘ अव्यय à जल और मस्तकका बोध करानेवाला है।
‘एवम् अव्यय à पद इव और इत्थंके अर्थमें
‘नूनम् अव्यय à तर्क तथा वस्तुके निश्चय करनेमें प्रयुक्त होता है।
‘जोषम् अव्यय àका अर्थ है मौन और सुख।
‘किम्‘ अव्यय à प्रश्र और निन्दाके अर्थमें आता है।
‘नाम‘ अव्यय à पद प्राकाश्य (प्रकाशित होने), सम्भावना, क्रोध, स्वीकार तथा निन्दा अर्थमें प्रयुक्त होता है।
“अलम्‘ अव्यय à शब्द भूषण, पयांति, सामथ्र्य तथा निवारणका वाचक है।
‘हुम् अव्यय à वितर्क और प्रश्न अर्थमें
‘समया‘ अव्यय à निकट और मध्यके अर्थमें आता है।
‘पुनर्‘ अव्यय à प्रथमको छोड़कर द्वितीय, तृतीय आदि जितनी बार कोई कार्य हो, उन सबके लिये प्रयुक्त होता है। साथ ही भेद-अर्थमें भी इसका प्रयोग देखा जाता है।
‘निर्‘ अव्यय à निश्चय और निषेधके अर्थमें आता है।
‘पुरा‘ अव्यय à शब्द बहुत पहलेकी बीती हुई तथा निकट भविष्यमें आनेवाली बातको व्यक्त करनेके लिये प्रयुक्त होता है।
‘उररी“, ‘ऊरी‘, ‘ऊररी‘-ये तीन अव्यय à विस्तार और अङ्गीकारके अर्थमें आते हैं।
‘स्वर् अव्यय à स्वर्ग और परलोकका वाचक हैं।
‘किल ‘ अव्यय àका प्रयोग वार्ता और सम्भावनाके अर्थमें आता है।
खलु अव्यय à मना करने, वाक्यकी सजाने तथा जिज्ञासाके अवसर पर प्रयोग होता है। ‘अभितस्‘ अव्यय à समीप, दोनों ओर, शीघ्र, सम्पूर्ण तथा सम्मुख अर्थका बोध कराता है। ‘प्रादुस्‘ अव्यय à शब्द नाम अव्यय के अर्थमें तथा व्यक्त या प्रकट होनेमें प्रयुक्त होता है।
‘मिथस्‘ अव्यय à शब्द परस्पर तथा एकान्तका वाचक है।
‘तिरस्‘ अव्यय à शब्द अन्तर्धान होने तथा तिरछे चलनेके अर्थमें आता हैं।
“हा‘ अव्यय à पद विषाद, शोक और पीड़ाको व्यक्त करनेवाला है।
‘अहह‘ अथवा ‘अहहा‘ अव्यय à अद्भुत एवं खेदके अर्थमें तथा हेतु और निश्चय अर्थमें प्रयुक्त होता है॥ १-१८ ॥
चिराय, चिररात्राय और चिरस्य इत्यादि* अव्यय à चिरकालके बोधक हैं।
मुहुः, पुन:-पुनः, शश्वत्, अभीक्ष्ण और असकृत्-ये सभी अव्यय àसमान अर्थके वाचक हैं-इन सबका बारंबारके अर्थमें प्रयोग होता है।
स्नाक्, झटिति, अग्य्जसा, अह्राय, सपदि, द्राक् और मङ्क्षु अव्यय àये सभी शीघ्रताके अर्थमें आते हैं।
बलवत् और सुष्ठु -ये दोनों अव्यय à शब्द अतिशय तथा शोभन अर्थके वाचक हैं।
किमुत, किम् और किम्भूत अव्यय à-ये विकल्पका बोध करानेवाले हैं।
तु, हि, च, स्म, ह, वै अव्यय à पादपूर्तिके लिये प्रयुक्त होते हैं।
अति अव्यय àका प्रयोग पूजनके अर्थमें भी आता है।
दिवा अव्यय à शब्द दिनका वाचक है
दोषा और नक्तम् अव्यय àशब्द रात्रिके अर्थमें आते हैं।
साचि और तिरस् अव्यय àपद तिर्यक् (तिरछे) अर्थमें प्रयुक्त होते हैं।
प्याट्, पाट्, अङ्ग, हे, है, भो:-ये सभी अव्यय à शब्द सम्बोधनके अर्थमें आते हैं।
समया, निकषा और हिरुक्-ये तीनों अव्यय à समीप अर्थके वाचक हैं।
सहसा अव्यय à अतर्कित अर्थमें आता है। (अर्थात् जिसके बारेमें कोई सम्भावना न हो, ऐसी वस्तु जब एकाएक सामने उपस्थित होती हैं तो उसे सहसा उपस्थित हुई कहते हैं। ऐसे ही स्थलोंमें सहसाका प्रयोग होता है।)
पुर:, पुरत: और अग्रत: -ये अव्यय à सामने के अर्थमें आते हैं।
स्वाहा अव्यय àपद देवताओंकों हविष्य अर्पण करनेके अर्थमें आता है।
‘श्रौषट्‘ और ‘वौषट् अव्यय à’का भी देवताओंकों हविष्य अर्पण करनेके अर्थमें आता है।
‘वषट्‘ अव्यय à शब्द इन्द्रका
स्वधा अव्यय à शब्द पितरोंका भाग अर्पण करनेके लिये प्रयुक्त होता है।
किंचित्, ईषत् और मनाक्-ये अव्यय à अल्प अर्थके वाचक हैं।
प्रेत्य और अमुत्र-ये दोनों अव्यय àजन्मान्तरके अर्थमें आते हैं।
यथा और तथा अव्यय àसमताके
अहो और हो-ये अव्यय à आश्चर्यके बोधक हैं।
तूष्णीम् और तूष्णीकम् अव्यय àपद मौन अर्थमें,
सद्य: और सपदि अव्यय àशब्द तत्काल अर्थमें,
दिष्टया और समुपजोषम्-ये अव्यय àआनन्द अर्थमें
अन्तरा अव्यय à शब्द भीतर के अर्थमें आता है।
अन्तरेण अव्यय àपद भी मध्य अर्थका वाचक हैं।
प्रसह्य अव्यय à शब्द हठका बोध करानेवाला है।
साम्प्रतम् और स्थाने अव्यय à शब्द उचितके अर्थमें
‘अभीक्ष्णम्’ और शश्वत् अव्यय àपद सर्वदा-निरन्तरके अर्थमें प्रयुक्त होते हैं।
नहि, अ, नो और न-ये अव्यय à आभाव अर्थके बोधक हैं।
मास्म, मा और आलम् – अव्यय àइनका निषेधके अर्थमें प्रयोग होता है।
चेत् और यदि अव्यय àपद दूसरा पद उपस्थित करनेके लिये प्रयुक्त होते हैं
अद्धा और अज़साये दोनों अव्यय à पद वास्तवके अर्थमें आते हैं।
प्रादुस् और आविर- अव्यय àइनका अर्थ है प्रकट होना।
ओम्, एवम् और परमम्- अव्यय àये शब्द स्वीकृति या अनुमति देनेके अर्थमें प्रयुक्त होते हैं।
समन्तत:, परित:, सर्वत: और विष्वक्- अव्यय àइनका अर्थ है चारों ओर।
‘कामम्” अव्यय à शब्द अकाम अनुमतिके अर्थमें आता है।
‘अस्तु” अव्यय à पद असूया (दोषदृष्टि) तथा स्वीकृतिका भाव सूचित करनेवाला है।
ननु अव्यय àकिसी बातके विरोधमें कुछ कहना हो तो वहाँ ‘ननु’ का प्रयोग होता है।
‘कच्चित्’ अव्यय àशब्द किसीकी अभीष्ट वस्तुकी जिज्ञासाके लिये प्रश्र करनेके अवसरपर प्रयुक्त होता है।
नि:षमम् और दु:षमम्-ये दोनों अव्यय àपद निन्द्य अर्थका बोध कराते हैं।
यथास्वम् और यथायथम् अव्यय à पद यथायोग्य अर्थके वाचक हैं।
मृषा एवं मिथ्या अव्यय àशब्द असत्यके
यथातथम् अव्यय à पद सत्यके अर्थमें आता है।
एवम्, तु, पुनः, वै और वा-ये अव्यय à निश्चय अर्थके वाचक हैं।
‘प्राक’ अव्यय àशब्द बीती बात का बोध करानेवाला है।
नूनम् और अवश्यम्-ये दो अव्यय à निश्चयके अर्थमें प्रयुक्त होते हैं।
‘संवत्’ अव्यय àशब्द वर्षका,
‘अर्वाक्’ अव्यय àशब्द पश्चात् कालका,
आम् और एवम् अव्यय àशब्द हामी भरनेका
स्वयम् अव्यय à पद अपनेसे-इस अर्थका बोध करानेवाला है।
‘नीचैस् अव्यय à अल्प अर्थमें,
“उच्चैस् अव्यय à महान् अर्थमें,
‘प्रायस्’ अव्यय à बाहुल्य अर्थमें
‘शनैस्’ अव्यय àमन्द अर्थमें आता है।
‘सना’ अव्यय àशब्द नित्य का
बहिस् अव्यय à शब्द ब्रह्मा का
स्म अव्यय àशब्द भूतकालका,
‘अस्तम्’ अव्यय à शब्द अदृश्य होनेका,
‘अस्ति’ अव्यय àशब्द सत्ताका,
‘ऊ’ अव्यय à क्रोधभरी उक्तिका
‘अपि’ अव्यय à शब्द प्रश्र तथा अनुनयका बोधक है।
‘उम्’ अव्यय àतर्कका,
‘उषा’ अव्यय à रात्रिके अन्तका,
‘नमस्’ अव्यय àप्रणामका,
‘अङ्ग’ अव्यय àपुन-अर्थका,
‘दुष्ठु’ अव्यय àनिन्दाका
‘सुष्ठु” अव्यय àशब्द प्रशंसाका वाचक है।
‘सायम्’ अव्यय àशब्द संध्याकालका,
‘प्रगे’ और ‘प्रातर’ अव्यय àशब्द प्रभातकालका,
‘निकषा” अव्यय à पद समीपका,
‘ऐषम:’ अव्यय à शब्द वर्तमान वर्षका,
‘परुत्’ अव्यय àशब्द गतवर्षका
‘परारि’ अव्यय à शब्द उसके भी पहलेके गतवर्षका बोध करानेवाला है।
‘अद्य’ अव्यय à’आजके दिन” के अर्थमें का प्रयोग देखा जाता है।
पूर्व, उत्तर, अपर, अधर, अन्य, अन्यतर और इतर अव्यय àशब्दसे ‘पूर्वेऽहि’ (पहले दिन) आदिके’ अर्थमें ‘पूर्वेद्यु:’ आदि अव्ययपद निष्पन्न होते हैं।
‘उभयद्यु:” और “उभयेद्यु:’-ये ‘दोनों अव्यय àदिन के अर्थमें आते हैं।
‘परेद्यवि’ अव्यय à’परस्मिन्नहनि’ (दूसरे दिन)-के अर्थमें का प्रयोग होता है।
‘ह्मसू’ अव्यय à बीते हुए दिनके अर्थमें,
‘वसू’ अव्यय à आगामी दिनके अर्थमें
‘परश्वस’ अव्यय à शब्द उसके बाद आनेवाले दिनके अर्थमें प्रयुक्त होता है।
“तदा’ ‘तदानीम्’ अव्यय àशब्द ‘तस्मिन् काले’ (उस समय)-के अर्थमें आते हैं।
‘युगपत्” और ‘एकदा’ अव्यय àका अर्थ हैं-एक ही के अर्थमें आते हैं।
र्सवदा और सदा अव्यय àहमेशा के अर्थ मे आता है |
एतर्हि, सम्प्रति, इदानीम्, अधुना तथा साम्प्रतम् अव्यय à इन पदों का प्रयोग इस समय के अर्थमें होता है।॥ १९-३८॥
तीन साँ एकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३६१ ॥
अध्याय – ३६२ नानार्थ-वर्ग
अग्निदेव कहते हैं–
‘नाक’ शब्द आकाश और स्वर्गके अर्थमें
‘लोक’ शब्द संसार, जन-समुदायके अर्थमें आता है।
‘श्लोक’ शब्द अनुष्टुप् छन्द और सुयश अर्थमें
‘सायक’ शब्द बाण और तलवारके अर्थमें प्रयुक्त होता है।
आनक, पटह और भेरी-ये एक दूसरे के पर्याय हैं।
‘कलङ्क’ शब्द चिह्न तथा अपवादका वाचक है।’क’ शब्द यदि पुंलिङ्गमें हो तो वायु, ब्रह्मा और सूर्यका तथा नपुंसक में हो तो मस्तक और जलका बोधक होता है।
‘पुलाक’ शब्द कदन, संक्षेप तथा भातके पिण्ड अर्थमें आता है।
‘कौशिक’ शब्द इन्द्र, गुग्गुल, उल्लू तथा साँप पकड़नेवाले पुरुषोंके अर्थमें प्रयुक्त होता है।
‘शालावृक’ शब्द बंदरों और कुत्तोंके अर्थमें प्रयुक्त होता है।
‘मान’ शब्द मापके साधनका नाम है।
‘सर्ग’ शब्द स्वभाव, त्याग, निश्चय, अध्ययन और सृष्टिके अर्थमें उपलब्ध होता है।
‘योग’ शब्द कवचधारण, साम आदि उपायोंके प्रयोग, ध्यान, संगति (संयोग) और युक्ति अर्थका बोधक होता है।
‘भोग’ शब्द सुख और स्त्री (वेश्या या दासी) आदिको उपभोगके बदले दिये जानेवाले धनका वाचक है।
‘अब्ज’ शब्द शह्न और चन्द्रमाके अर्थमें भी आता है।
“करट’ शब्द हाथीके कपोल और कौवेका वाचक है।
‘शिपिविष्ट’ शब्द बुरे चमड़ेवाले (कोढ़ी) मनुष्यका बोध करानेवाला है।
‘रिष्ट’ शब्द क्षेम, अशुभ तथा अभावके अर्थमें आता है।
‘अरिष्ट’ शब्द शुभ और अशुभ दोनों अर्थोंका वाचक है।
‘व्युष्टि’ शब्द प्रभातकाल और समृद्धिके अर्थमें
‘दृष्टि’ शब्द ज्ञान, नेत्र और दर्शनके अर्थमें आता है।
‘निष्ठा”का अर्थ है-निष्पत्ति (सिद्धि), नाश और अन्त
‘काष्ठा”का उत्कर्ष, स्थिति तथा दिशा अर्थमें प्रयोग होता है।
‘इडा” और ‘इला’ शब्द गौ तथा पृथ्वीके वाचक हैं।
‘प्रगाढ़” शब्द अत्यन्त एवं कठिनाईका बोध करानेवाला है।
‘वाढम्’ पद अत्यन्त और प्रतिज्ञाके अर्थमें आता है।
‘दृढ’ शब्द समर्थ एवं स्थूलका वाचक है तथा इसका तीनों लिङ्गोंमें प्रयोग होता है।
‘व्यूढ़’ का अर्थ है-विन्यस्त (सिलसिलेवार रखा हुआ या व्यूहके आकारमें खड़ा किया हुआ) तथा संहत (संगठित) ।
‘कृष्ण’ शब्द व्यास, अर्जुन तथा भगवान् विष्णुके अर्थमें आता है।
‘पण’ शब्द जुआ आदिमें दाँवपर लगाये हुए द्रव्य, कीमत और धनके अर्थमें भी प्रयुक्त होता है।
‘गुण’ शब्द धनुषकी प्रत्यश्चाका, द्रव्योंका आश्रय लेकर रहनेवाले रूप-रस आदि गुणोंका, सत्व, रज और तमका, शुक्ल, नील आदि वणाँका तथा संधि-विग्रह आदि छ: प्रकारकी नीतियोंका बोध करानेवाला है।
“ग्रामणी’ शब्द श्रेष्ठ (मुखिया) तथा गाँवके स्वामीका वाचक है।
‘घृणा’ शब्द जुगुप्सा और दया-दोनों अर्थोंमें आता है।
‘तृष्णा का अर्थ है-इच्छा और प्यास।
‘विपणि’ शब्द बाजार या बनियेके दूकानके अर्थमें आता है।
‘तीक्ष्ण” शब्द नपुंसकलिङ्गमें प्रयुक्त होनेपर विष, युद्ध तथा लोहेका वाचक होता है और प्रखर या प्रचण्डके अर्थमें उसका तीनों लिङ्गोंमें प्रयोग होता है।
‘प्रमाण’ शब्द कारण, सीमा, शास्त्र, इयता (निश्चित माप) तथा प्रामाणिक पुरुषके अर्थमें आता है।
‘करुण’ शब्द क्षेत्र और गात्रका
‘ईरिण” शब्द शून्य (निर्जन) एवं ऊसर भूमिका वाचक है।॥ १-१२॥
‘यन्ता’ पद हाथीवान और सारथिका वाचक है।
‘हेति’ शब्दका प्रयोग आगकी जचालाके अर्थमें होता है।
‘श्रुत” शब्द शास्त्र एवं अवधारण (निश्चय)-का
‘कृत” शब्द सत्ययुग और पर्यात अर्थका बोधक है।
‘प्रतीत’ शब्द विख्यात तथा दृष्टके अर्थमें
‘अभिजात’ शब्द कुलीन एवं विद्वान्के अर्थमें आता है।
‘विविक्त’ शब्द पवित्र और एकान्त का
मूर्च्छित शब्द मूढ (संज्ञाशून्य) और फैले हुए या उन्नतिको प्राप्त हुएका बोध करानेवाला है।
‘अर्थ’ शब्द अभिधेय (शब्दसे निकलनेवाले तात्पर्य), धन, वस्तु, प्रयोजन और निवृत्तिका वाचक है।
‘तीर्थ’ शब्द निदान (उपाय), आगम (शास्त्र), महर्षियोंद्वारा सेवित जल तथा गुरुके अर्थमें प्रयुक्त होता हैं।
‘ककुद्’ शब्द स्त्रीलिङ्गके सिवा अन्य लिङ्गोमें प्रयुक्त होता है। यह प्रधानता, राजचिह्न तथा बैलके अङ्गविशेषका बोध करानेवाला है।
‘संविद’ शब्द स्त्रीलिङ्ग है। इसका ज्ञान, सम्भाषण, क्रियाके नियम, युद्ध और नाम अर्थमें प्रयोग होता है।
‘उपनिषद्’ शब्द धर्म और रहस्यके अर्थमें
‘शरद् शब्द ऋतु और वर्षके अर्थमें आता है।
“पद” शब्द व्यवसाय (निश्चय), रक्षा, स्थान, चिह्न, चरण और वस्तुका वाचक है।
‘स्वादु’ शब्द प्रिय एवं मधुर अर्थका
‘मृदु’ शब्द तीखेपन से रहित एवं कोमल अर्थका बोध करानेवाला है। ‘स्वादु’ और ‘मृदु’-दोनों शब्द तीनों ही लिङ्गोंमें प्रयुक्त होते हैं।
‘सत्’ शब्द सत्य, साधु विद्यमान, प्रशस्त तथा पूज्य अर्थमें उपलब्ध होता है।
‘विधि’ शब्द विधान और दैवका वाचक हैं।
“प्रणिधि” शब्द याचना और चर (दूत)-के अर्थमें आता है।
‘वधू’ शब्द जाया, पतोहू तथा स्त्रीका बोधक है।
‘सुधा’ शब्द अमृत, चूना तथा शहदके अर्थमें आता है।
‘श्रद्धा’ शब्द आदर, विश्वास एवं आकाङ्क्षाके अर्थमें प्रयुक्त होता है।
‘समुन्नद्ध’ शब्द अपनेको पण्डित माननेवाले और घमंडीके अर्थमें आता है।
‘ब्रह्मबन्धु’ शब्दका प्रयोग ब्राह्मणकी अवज्ञामें प्रयुक्त होता है।
‘भानु’ शब्द किरण और सूर्य-दोनों अर्थोंमें प्रयुक्त होता है।
‘ग्रावन् शब्दका अभिप्राय पहाड़ और पत्थर-दोनोंसे है।
‘पृथग्जन” शब्द मूर्ख और नीचके अर्थमें आता है।
‘शिखरिन्। शब्दका अर्थ वृक्ष और पर्वत
‘तनु’ शब्दका अर्थ शरीर और त्वचा (छाल) है।
‘आत्मन्’ शब्द यत्न, धृति, बुद्धि, स्वभाव, ब्रह्म और शरीरके अर्थमें भी आता है।
‘उत्थान’ शब्द पुरुषार्थ और तन्त्रके
व्युत्थान् शब्द विरोध में खडे होने के अर्थ का बोधक है।
‘निर्यातन’ शब्द वैरका बदला लेने, दान देने तथा धरोहर लौटानेके अर्थमें भी आता है।
‘व्यसन” शब्द विपति, अध:पतन तथा काम क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले दोषोंका बोध करानेवाला है।
‘ काम ‘ शब्द शिकार, जुआ, दिनमें सोना, दूसरोंकी निन्दा नाचना, गाना, बाजा बजाना तथा व्यर्थ घूमनायह कामसे उत्पन्न होनेवाले दस दोषों का समुदाय है।
‘ क्रोध ’शब्द चुगली, दुस्साहस, द्रोह, ईष्र्या, दोषदर्शन,अर्थदूषण, वाणीकी कठोरता तथा दण्डकी कठोरता यह क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले आठ दोषोंका समूह है।
‘कौपीन’ शब्द नहीं करनेयोग्य खोटे कर्म तथा गुप्तस्थानका वाचक है।
‘मैथुन’ शब्द संगति तथा रतिके अर्थमें आता है।
‘प्रधान’ कहते हैं परमार्थबुद्धिको
‘प्रज्ञान’ शब्द बुद्धि एवं चिह्न (पहचान)-का वाचक है।
“क्रन्दन’ शब्द रोने और पुकारनेके अर्थमें आता है।
‘वर्ष्मन्’ शब्द देह और परिमाण का बोधक हैं।
‘आराधन” शब्द साधन प्राप्ति तथा संतुष्ट करनेके अर्थमें प्रयुक्त होता है।
‘रत्न’ शब्दका स्वजातिमें श्रेष्ठ पुरुषके लिये भी प्रयोग होता है
‘लक्ष्मन्’ शब्द चिह्न एवं प्रधानका बोध करानेवाला है।
‘कलाप” शब्द आभूषण, मोरपंख, तरकस और संगठित के अर्थ मे भी उपलब्ध होता है।
‘तल्प’ शब्द शय्या, अट्टालिका तथा स्त्रीरूप अर्थका बोधक है।
“डिम्भ’ शब्द शिशु और मूर्खके अर्थमें प्रयुक्त होता है।
‘स्तम्भ’ शब्द खंभे तथा जड़वत् निश्चेष्ट होनेके अर्थमें आता है।
“सभा” शब्द समिति तथा सदस्योंका भी वाचक है।॥ १३-२९ ॥
‘रश्मि’ शब्द किरण तथा रस्सीका वाचक है।
‘धर्म’ शब्दका प्रयोग पुण्य और यमराज आदिके लिये होता है।
‘ ललाम’ शब्द पूँछ, पुण्ड्र (तिलक), धोडा, आभूषण श्रेष्ठता अथॉमें आता है।
‘प्रत्यय’ शब्द अधीन, शपथ, ज्ञान, विश्वास तथा हेतुके अर्थमें प्रयुक्त होता है।
‘समय’ शब्दका अर्थ है-शपथ, आचार, काल, सिद्धान्त और संविद् (करार)।
‘अत्यय’ अतिक्रमण (उल्हन) और कठिनाई अर्थमें
‘सत्य’ शब्द शपथ और सत्यभाषणके अर्थमें आता है।
‘वीर्य’ शब्द बल और प्रभावका
‘रूप्य’ शब्द परमसुन्दर रूपका वाचक है।
‘दुरोदर” शब्द पुंलिङ्ग होनेपर जुआ खेलनेवाले पुरुष और जुएमें लगाये जानेवाले दाँवका बोध करानेवाला होता है तथा नपुंसकलिङ्ग होनेपर जुएके अर्थमें आता है।
कान्तार शब्द बहुत बडे जङ्गल और दुर्गम मार्गका वाचक है तथा पुँल्लङ्ग और नपुंसकदोनों लिङ्गोंमें उसका प्रयोग होता है।
‘ हरि’ शब्द यम, वायु, इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य, विष्णु और सिंह आदि अनेकों अथाँका वाचक है।
‘दर’ शब्द स्त्रीलिङ्गको छोड़कर अन्य दो लिङ्गोमें प्रयुक्त होता है। उसका अर्थ है-भय और खंदक।
‘जठर” शब्द उदर एवं कठिन अर्थका बोधक हैं।
‘उदार’ शब्द दाता और महान् पुरुषके अर्थमें आता है।
‘इतर” शब्द अन्य और नीचका वाचक है।
‘मौलि’ शब्दके तीन अर्थ हैं-चूड़ा, किरीट और बँधे हुए केश।
‘बलि’ शब्द कर (टैक्स या लगान) तथा उपहार (भेंट आदि)-के अर्थमें प्रयोग आता है।
‘बल’ शब्द सेना और स्थिरता आदिका बोधक हैं।
‘नीवी’ शब्द स्त्रीके कटिवस्त्रके बन्धनरूप अर्थमें तथा परिपण (पूँजी, मूलधन अथवा बंधक रखने)-के अर्थमें आता है।
‘वृष’ शब्द शुक्रल (अधिक वीर्यवान्), चूहा, श्रेष्ठ पुरुष, पुण्य (धर्म) तथा बैलके अर्थमें प्रयुक्त होता है।
‘आकर्ष’ शब्द पासा तथा चौसर की बिछाँतके अर्थमें आता है।
‘अक्ष’ शब्द नपुंसकलिङ्ग होनेपर इन्द्रियके अर्थमें आता है तथा मुँलिङ्ग होनेपर पासा, कर्ष (सोलह मासेका एक माप), गाड़ीके पहिये, व्यवहार (आय-व्ययकी चिन्ता) और बहेड़ेके वृक्षके अर्थमें उपलब्ध होता है।
‘उष्णीष’ शब्द किरीट आदिके अर्थमें प्रयुक्त होता है।
स्त्रीलिङ्ग ‘कर्पू’ शब्द कुल्या अर्थात् छोटी नदीका वाचक है।
‘अध्यक्ष’ शब्द प्रत्यक्ष (द्रष्टा) और अधिकारीके अर्थमें आता है।
“विभावसु’ शब्द सूर्य और अग्निका वाचक है।
‘रस’ शब्द विष, वीर्य, गुण, राग, द्रव तथा भृङ्गार आदि रसोंका बोध करानेवाला है।
‘वर्चस’ शब्द तेज और पुरीष (मल)-का
‘आगस्’ शब्द पाप और अपराधका वाचक है।
‘छन्दस’ शब्द पद्य और इच्छाके तथा
‘साधीयस्’ शब्द साधु (उत्तम) और बाढ़ (निश्चय या हामी भरने)-के अर्थमें आता है।
‘व्यूह’ शब्द समूहका वाचक है।
“अहि” शब्द वृत्रासुरके अर्थमें भी आता है।
‘तमोपह’ शब्द अग्रि, चन्द्रमा एवं सूर्यका बोध करानेवाला है।॥ ३०-४१॥
तीन साँ बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३६२ ॥
अध्याय – ३६३ भूमि, वनौषधि आदि वर्गः
अग्निदेव कहते हैं–अब मैं भूमि, पुर,पर्वत, वनौषधि तथा सिंह आदि वर्गोका वर्णन करुँगा।
भू, अनन्ता, क्षमा, धात्री, क्ष्मा, कु तथा धरिनी-ये भूमिके नाम हैं।
मृत् और मृतिकाये मिट्टीका बोध करानेवाले है।
अच्छी मिट्टीको मृत्स्ना और मृत्सा कहते हैं।
जगत्, त्रिविष्टप, लोक, भुवन और जगती-ये सब समानार्थ हैं। (अर्थात् ये सभी संसारके पर्यायवाची शब्द हैं।)
अयन, वर्त्म (वर्त्मन्), मार्ग, अध्व (अध्वन्), पन्था (पथिन्) पदवी, सृति, सरणि, पद्धति, पद्या, वर्तनी और एकपदी-ये मार्गके वाचक हैं (इनमेंसे पद्या और एकपदी शब्द पगडंडीके अर्थमें आते हैं।)
पू: (स्त्रीलिङ्ग ‘पुर्’ शब्द), पुरी, नगरी, पत्तन, पुष्टभेदन, स्थानीय और निगम-ये सात नगरके नाम हैं। मूल नगर (राजधानी)-से भिन्न जो पुर होता है, उसे शाखानगर कहते हैं।
वेश्याओंके निवास स्थान का नाम वेश और वेश्याजन,समाश्रय है।
आपण, शब्द निषद्या (बाजार, हाट, दूकान)- के अर्थमें आता है।
विपणि और पण्यावीथिकाये दो बाजार की गलीके नाम हैं।
रथ्या, प्रतोली और विशिखा-ये शब्द गली तथा नगरके मुख्यमार्गका बोध करानेवाले हैं।
खाईसे निकालकर जमा किये हुए मिट्टीके ढेरको चय और वप्र कहते हैं। वप्र शब्दका केवल स्त्रीलिङ्गमें प्रयोग नहीं होता।
प्राकार, वरण, शाल और प्राचीर – ये नगरके चारों ओर बने हुए घेरे (चहारदिवारी)- के नाम हैं।
भित्ति और कुडय-ये दीवारके वाचक हैं। इनमें ‘भिक्ति’ शब्द स्त्रीलिङ्ग है।
एडूक ऐसी दिवार को कहते है, जिसके भीतर हडुी लगायी गयी हो।
वास और कुटी पर्यायवाचक हैं। इनमें कुटी शब्द स्त्रीलिङ्ग है तथा कुट शब्दके रूपमें इसका पुंलिङ्गमें भी प्रयोग है। इसी प्रकार शाला और सभा पर्यायवाचक हैं।
चार शालाओंसे युक्त गृहको संजवन कहते हैं। मुनियोंकी कुटीका नाम पर्णशाला और उटज है। उटज शब्दका प्रयोग पुँल्लङ्ग और नपुंसकलिङ्ग-दोनोंमें होता है। चैत्य और आयतन-ये दोनों शब्द समान अर्थ और समान लिङ्गवाले हैं। (ये यज्ञस्थान, वृक्ष तथा मन्दिरके अर्थमें आते हैं।) वाजिशाला और मन्दुरा-ये घोड़ोंके रहनेकी जगहके नाम हैं। साधारण धनियोंकेि महलके नाम हम्र्य आदि हैं तथा देवताओं और राजाओंके महलकी प्रासाद (मन्दिर) कहते हैं। द्वार, द्वार और प्रतीहार-ये दरवाजेके नाम हैं। आँगन आदि में बैठनेके लिये | बने हुए चबूतरेको वितर्दि एवं वेदिका कहते हैं।
कबूतरों (तथा अन्य पक्षियों)-के रहने के लिये बने हुय स्थान को कपोतपालिका और विटङ्क
कहते हैं। “विटङ्क’ शब्द पुंलिङ्ग और नपुंसक दोनों लिङ्गोंमें प्रयुक्त होता है।
कपाट और अवर-वे दोनों समान लिङ्ग और समान अर्थमें आते हैं। इनका अर्थ है-किंवाड़।
नि:श्रेणि और अधिरोहणी-ये सीढ़ीके नाम हैं।
सम्मार्जनी और शोधनी-ये दोनों शब्द झाडूके अर्थमें आते हैं।
संकर तथा अवकर झाडूसे फेंकी जानेवाली धूलके नाम हैं।
अद्रि, गोत्र, गिरि और ग्रावाये पर्वतके
गहन, कानन और वन-ये जंगलके बोधक हैं।
कृत्रिम (लगाये हुए) वन अर्थात् वृक्ष-समूहको आराम तथा उपवन कहते हैं। यहीं कृत्रिम वन, जो केवल राजासहित अन्त:पुरकी रानियोंकि उपभोगमें आता है, ‘प्रमदवन’ कहलाता है।
वीथी, आलि, आवलि, पङ्कि, श्रेणी, लेखा और राजि-ये सभी शब्द पङ्कि (कतार)-के अर्थमें आते हैं।
जिसमें फूल लगकर फल लगते हों, उस वृक्षका नाम ‘वानस्पत्य’ होता है
जिसमें बिना फूलके ही फल लगते हैं, उस गूलर (आदि) वृक्षको ‘वनस्पति’ कहते है || -85 ||
फलोंके पकनेपर जिनके पेड़ सूख जाते हैं, उन धान-जौ आदि अनाजोंकों ‘ ओषधि” कहा जाता है।
पलाशी, द्रु, द्रुम और अगम-ये सभी शब्द वृक्षके अर्थमें आते हैं।
स्थाणु, ध्रुव तथा शक्डु-ये तीन ढूँट वृक्षके नाम हैं। इनमें स्थाणु शब्द वैकल्पिक पुंलिङ्ग है। अर्थात् उसका प्रयोग पुंलिङ्ग, नपुंसकलिङ्ग-दोनोंमें होता है।
प्रफुल्ल, उत्फुल्ल और संस्फुट-ये फूलसे भरे हुए वृक्षके लिये प्रयुक्त होते हैं।
पलाश, छदन और पर्ण – ये पत्तेके नाम हैं।
इध्म, एधस् और समिध-ये समिधा (यज्ञकाष्ठ)-के वाचक हैं। इनमें समिध शब्द स्त्रीलिङ्ग है।
बोधिद्रुम और चलदल-ये पीपलके नाम हैं।
दधित्थ, ग्राही, मन्मथ, दधिफल, पुष्पफल और दन्तशठ-ये कपित्थ (कैथ) नामक वृक्षका बोध करानेवाले हैं।
हेमदुग्ध शब्द उदुम्बर (गूलर)-के
द्विपत्रक शब्द केविदार (कचनार)- के अर्थमें आता है।
सप्तपर्ण और विशालत्वक् –ये छितवनके नाम हैं।
कृतमाल, सुवर्णक, आरेवत, व्याधिघात, सम्पाक और चतुरङ्गुल् -ये सभी शब्द सोनालु अथवा धनबहेड़ाके वाचक हैं।
दन्तशठ – शब्द जम्बीर (जमीरी नीबू)-के अर्थमें आता है।
तिक्तशाक-शब्द वरुण (या वरण)-का वाचक है।
पुंनाग, पुरुष, तुङ्ग, केसर तथा देववल्लभ-ये नागकेसरके नाम हैं।
पारिभद्र, निम्बतरु, मन्दार और पारिजात-ये बकायनके नाम हैं।
वघ्यजुल और चित्रकृत-ये तिनिश-नामक वृक्षके वाचक हैं।
पीतन और कपोतन-ये आम्राप्तक (अमड़ा)-के अर्थमें आते हैं।
गुडपुष्प और मधुद्रुम – ये मधूक (महुआ)-के नाम हैं।
पीलु अर्थात् देशी अखरोटको गुडफल और स्रसी कहते हैं।
नादेयी और अम्बुबेतस्-ये पानीमें पैदा हुए बेंतके नाम हैं।
शिग्र, तीक्ष्णगन्धक, काक्षीर और मोचक – ये शोभाग्य्ज्न अर्थात् सहिजनके नाम हैं।
लाल फूलवाले सहिजनकी मधुशिग्रु कहते हैं।
अष्टि और फेनिल-ये दोनों समान लिङ्ग वाले शब्द रीठेके अर्थमें आते हैं।
गालव, शाबर, लोध्र, तिरीट, तिल्व और मार्जन- ये लोधके वाचक हैं।
शेलु, श्लेष्मातक, शीत, उद्दाल और बहुवारक-ये लसोड़के नाम हैं।
वैकङ्कत, श्रुवावृक्ष, ग्रन्थिल और व्याघ्रपाल-ये वृक्षविशेषके वाचक हैं। (यह वृक्ष विभिन्न स्थानोंपर टैंटी, कठेर और कंटाई आदि नामों से प्रसिद्ध है।)
तिन्दुक, स्फूर्जक और काल (या कालस्कन्ध)- ये तेंदू वृक्षके वाचक हैं।
नादेयी और भूमिजम्बुक-ये नागरङ्ग अर्थात् नारंगीके नाम हैं।
पीलुक शब्द काकतिन्दुक अर्थात् कुचिलाके अर्थमें भी आता है।
पाटलि, मोक्ष और मुष्कक-ये मोरवा या पाडलके नाम हैं।
क्रमुक और पट्टिका-ये पठानी लोधके वाचक हैं।
कुम्भी, कैडर्य और कट्फलये कायफलका बोध करानेवाले हैं।
वीरवृक्ष, अरुष्कर, अग्निमुखी और भल्लातकी-ये शब्द भिलावा नामक वृक्षके वाचक हैं।
सर्जक, आसन, जीव और पीतसाल-ये विजयसारके नाम हैं।
सर्ज और अश्वकर्ण-ये साल वृक्षके वाचक हैं।
वीरद्रु (वीर-तरु), इन्द्रद्रु, ककुभ और अर्जुन-ये अर्जुन नामक वृक्षके पर्याय हैं।
इडगुदी तपस्वियोंका वृक्ष है; इसीलिये इसे तापस-तरु भी कहते हैं। (कहीं-कहीं यह ‘इंगुवा’ तथा गोंदी वृक्षके नामसे भी प्रसिद्ध है।)
मोचा और शाल्मलि-ये सेमलके नाम हैं।
चिरबिल्व, नक्तमाल, करग्य्ज् और करग्य्ज्क-ये ‘कंजा” नामक वृक्षके अर्थमें आते हैं। (‘करग्य्ज्क’ शब्द भूङ्गराज या भंगरइयाका भी वाचक है।)
प्रकीर्य और पूतिकरज-ये कंटीले करग्य्जकके वाचक हैं। मर्कटी तथा अङ्गार-वल्लरी-ये करग्य्जकके ही भेद हैं।
रोही, रोहितक, प्लीहशत्रु और दाडिमपुष्पक-ये रोहेड़ाके नाम हैं।
गायत्री, बालतनय, खदिर और दन्तधावन-ये खैरा नामक वृक्षके वाचक हैं।
अरिमेद और विट्खदिर-ये दुर्गन्धित खैराके
कदर-यह श्वेत खैराका नाम है।
पग्चाङ्गुल, वर्धमान, चग्य्चु और गन्धर्वहस्तक-ये एरण्ड (रेड़)- के अर्थमें आते हैं।
पिण्डीतक और मरुवक-ये मदन (मैनफल) नामक वृक्षके बोधक हैं।
पीतदारु दारु, देवदारु और पूतिकाष्ठ-ये देवदारुके नाम हैं।
श्यामा, महिलाह्रया, लता, गोवन्दिनी, गुन्दा, प्रियंडगु, फलिनी और फली-ये प्रियंगु (कैगनी या टाँगुन)-के वाचक हैं।
मण्डूकपर्ण, पत्रोर्ण, नट, कुट्वडग्, टुण्तुक, श्योनाक, शुकनास, ऋक्ष, दीर्धवृन्त और कुटन्नट-ये शोणक (सोनापाठा)-का बोध करानेवाले हैं।
पीतद्रु और सरल-ये सरल वृक्षके नाम हैं।
निचुल, अम्बुज और इञ्चल (या हिजल) – ये स्थलवेतस् अथवा समुद्र-फलके वाचक हैं।
काकोदुम्बरिका और फल्गु-ये कटुम्बरी या कठुमरेके बोधक हैं।
अरिष्ट, पिचुमर्दक और सर्वतोभद्र-ये निम्ब-वृक्षके वाचक हैं।
शिरीष और कपीतन-ये सिरस वृक्षके अर्थमें आते हैं।
वकुल और वञ्जुल-ये मौलिश्रीके नाम हैं। (बञ्जुल शब्द अशोक आदिके अर्थमें आता हैं।)
पिच्छिला, अगरु और शिंशपा-ये शीशमके अर्थमें आते हैं।
जया, जयन्ती और तकारी-ये जैत वृक्षके नाम हैं।
कणिका, गणिकारिका, श्रीपर्ण और अग्निमन्थ – ये अरणिके वाचक हैं। (किसीके मत में जयासे लेकर अग्निमन्थतक सभी शब्द अरणिके ही पर्याय हैं।)
वत्सक और गिरिमल्लिका-ये कुटज वृक्षके अर्थमें आते हैं।
कालस्कन्ध, तमाल और तापिच्छ-ये तमालके नाम हैं।
तण्डुलीय और अल्पमारिष-ये चौंराईके बोधक हैं।
सिन्धुवार और निर्गुण्डी-ये सेंदुवारिके नाम हैं। वही सेंदुवारि यदि जंगलमें पैदा हुई हो तो उसे आस्फीता (आस्फोटा या आस्फोता ) कहते हैं। [किसी-किसीके मत में वनमल्लिका (वन-वेला) – का नाम आस्फोटा या आस्फीता है।]
गणिका, यूथिका और अम्बष्ठा-ये जूहीके अर्थमें आते हैं।
सप्तला और नवमालिका-ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं।
अतिमुक्त और पुण्डूक-ये माधवी लताके नाम हैं।
कुमारी, तरणि और सहा-ये घीकुंआरिके वाचक हैं।
लाल घीकुंआरिको कुरबक और पीली घीकुंआरिको कुरण्टक कहते हैं।
नीलझिण्टी और बाणा-ये दोनों शब्द नीली कटसरैयाके वाचक हैं। इनका पुंल्लिङ्ग और स्त्रीलिङ्ग-दोनों लिङ्गोंमें प्रयोग होता है।
झिण्टी और सैरीयकये सामान्य कटसरैयाके वाचक हैं। वही लाल हो तो कुरबक और पीली हो तो सहचरी कहलाती है। यह शब्द स्त्रीलिङ्ग और पुंलिङ्ग -दोनोंमें प्रयुक्त होता है।
धूस्तूर (या धतूर), कितव और धूर्त-ये धतूरके नाम हैं।
रुचक और मातुलुडग – ये बीजपूर या बिजौरा नीबूके वाचक हैं।
समीरण, मरुवक, प्रस्थपुष्प और फणिज्जक-ये मरुआ वृक्षके नाम हैं।
कुटेरक और पर्णास-ये तुलसी वृक्षके पर्याय हैं।
आस्फीत, वसुक और अर्क-ये आक (मदार)-के नाम हैं।
शिवमल्ली और पाशुपती-ये अगस्त्य वृक्ष अथवा बृहत् मौलसिरीके वाचक हैं।
वृन्दा (वन्दा), वृक्षादनीजीवन्तिका और वृक्षरुहा-ये पेड़पर पैदा हुई लताके नाम हैं।
गुडूची, तन्त्रिका, अमृता, सोमवल्ली और मधुपर्णी-ये गुरुचिके वाचक हैं।
मूर्वा, मोरटी, मधूलिका, मधुश्रेणी, गोकर्णी तथा पीलुपणों-ये मूर्वा नामवाली लताके नाम हैं।
पाठा, अम्बष्ठा, विद्धकर्णी, प्राचीना और वनतिक्तिक-ये पाठ नामसे प्रसिद्ध लताके वाचक हैं।
कटु, कटम्भरा, चक्राङ्गी और शकुलादनी-ये कुटकीके नाम हैं।
आत्मगुप्ता, प्रावृषायी, कपिकच्छु और मर्कटी-ये केवाँछुके वाचक हैं।
अपामार्ग, शैखरिक, प्रत्यक्पर्णी तथा मयूरक-ये अपामार्ग (चिचिड़ा)-का बोध करानेवाले हैं।
फञ्जिका (या हञ्जिका), ब्राह्मणी और भार्गी-ये ब्रह्मनेटि के वाचक हैं।
द्रवन्ती, शम्बरी तथा वृषा-ये आखुपर्णी या मूसाकनीके बोधक है |
मण्डूकपर्णी, भण्डारी, समङ्ग और कालमेषिका-ये मजीठ के नाम हैं।
रोदनी, कच्छुरा, अनन्ता, समुद्रान्ता और दुरालभा-ये यवासा एवं कचूरके वाचक हैं।
पृश्रिपर्णी, पृथक्पर्णी, कलशि, धावनि और गुहा-ये पिठवन के नाम हैं।
निर्दिग्धिका,स्पृशी, व्याघ्री, क्षुद्रा और दुःस्पर्शा-ये भटकर्टया (या भजकटया)-के अर्थमें आते हैं।
अवल्गुज, सोमराजी, सुवल्लि, सोमवल्लिका, कालमेषी, कृष्णफला, वाकुची और पूतिफली-ये वकुचीके वाचक हैं।
कणा, उष्णा और उपकुल्या-ये पिप्पलीके बोधक हैं।
श्रेयसी और गजपिप्पली-ये गज़पिप्पलीके वाचक हैं।
चव्य और चविका-ये चव्य अथवा वचाके नाम हैं।
काकचिञ्ची, गुञ्जा और कृष्णला-ये तीन गुञ्जा (धुंघुची)-के अर्थमें आते हैं।
विश्वा, विषा और प्रतिविषा-ये ‘आतीस”के बोधक हैं।
वनश्रुङ्गाट और गोक्षुर-ये गोखुरू के वाचक हैं।
नारायणी और शतमूली-ये शतावरीका बोध करानेवाले हैं।
कालेयक, हरिद्रव, दार्वी, पचम्पचा और दारु-ये दारुहल्दीके नाम हैं।
जिसकी जड़ सफेद हो, ऐसी वचा (बच)-का नाम हैमवती है। वचा, उग्रगन्धा, षड्ग्रन्था, गोलोमी और शतपर्विका-ये बचके अर्थमें आते हैं।
आस्फोता और गिरिकर्णी-ये दो शब्द विष्णुक्रान्ता या अपराजिताके नाम हैं।
सिंहास्य, वासक और वृष-ये अडुसे के अर्थमें आते हैं।
मिशी, मधुरिका और छत्रा-ये वनसौफ के वाचक हैं।
कोकिलाक्ष, इक्षुर और क्षुर-ये तालमखाना के नाम हैं।
विडंग और कृमिध्न-ये वायविडंगके वाचक हैं।
वज्रद्रु, स्नुक्, स्नुही और सुधा-ये सेहुँड़ के अर्थमें आते हैं।
मृद्वीका, गोस्तनी और द्राक्षा-ये दाख या मुनक्काके नाम हैं।
वला तथा वाटयालक-ये वरियार के वाचक हैं।
काला और मसूरविदला-ये श्यामलता या श्यामत्रिधाराके अर्थमें आते हैं।
त्रिपुटा, त्रिवृत्ता और त्रिवृत्त-ये शुक्ल त्रिधाराके वाचक हैं।
मधुक, क्लीतक, यष्टिमधुका और मधुयष्टिका-ये जेठी मधुके नाम हैं।
विदारी, क्षीरशुक्ला, इक्षुगन्धा, क्रोष्ट्री और यासिता-ये भूमिकूष्माण्डके बोधक हैं।
गोपी, श्यामा, शारिवा, अनन्ता तथा उत्पल शारिवा—ये श्यामालाता अथवा गौरीसरके वाचक हैं।
मोचा, रम्भा और कदली-ये केलेके नाम हैं।
भण्टाकी और दुष्प्रधर्षिणी-ये भाँटेके अर्थमें आते हैं।
स्थिरा, ध्रुवा और सालपर्ण-ये सरिवनके नाम हैं।
श्रृङ्गी, ऋषभ और वृष-ये काकड़ासिंगीके वाचक हैं। (यह अष्टवर्गकी प्रसिद्ध ओषधि है)
गाडेग्रुकी और नागबला-ये बलाके भेद हैं। इन्हें हिंदीमें गुलसकरी और गंगेरन भी कहते हैं।
मुषली और तालमूलिका-ये मूसलीके नाम हैं।
ज्योत्स्नी, पटोलिका और जाली-ये तरोईके अर्थमें आते हैं।
अजश्रृङ्गी और विषाणी-ये ‘मेडासिंगी’के वाचक हैं।
लाङ्गलिकी और अग्निशिखा-ये करियारीका बोध करानेवाले हैं।
ताम्बूली तथा नागवन्नी-ये ताम्बूल या पानके नाम हैं।
हरेणु, रेणिका और कौन्ती-ये रेणुका नामक गन्धद्रव्यके वाचक हैं।
ह्रीबेरी और दिव्यनागर-ये नेत्रबाला और सुगन्धवाला के नाम है
कालानुसार्य, वृद्ध, अश्मपुष्प, शीतशिव और शैलेय-ये शिलाजीतके वाचक हैं।
तालपर्णी, दैत्या, गन्ध, कुटी और मुरा-ये मुरा नामक सुगन्धित द्रव्यका बोध करानेवाले हैं।
ग्रन्थिपर्ण, शुक और बर्हि (या बर्ह)-ये गठिवनके अर्थमें आते हैं।
बला, त्रिपुटा और त्रुटि-ये छोटी इलायचीके वाचक हैं।
शिवा और तामलकी-ये भुई आमलाके अर्थमें आते हैं।
हनु और हद्दविलासिनी-ये नखी नामक गन्धद्रव्यके बोधक हैं।
कुटन्नट, दाशपुर, वानेय और परिपेलव-ये मोथाके नाम हैं।
तपस्विनी तथा जटामांसी-ये जटामाँसीके अर्थमें आते हैं।
पृक्का (या स्पृक्का), देवी, लता और लघु या (लशू)-ये ‘असवरग के वाचक हैं।
कर्चुरक और द्राविड़क-ये कर्चूरके नाम हैं।
गन्धमूली और शठी शब्द भी कचूरके ही अर्थमें आते हैं।
ऋक्षगन्धा, छगलान्त्रा, आवेगी तथा वृद्धदारक-ये विधाराके नाम हैं।
तुण्डिकेरी, रक्तफला, बिम्बिका और पीलुपर्णी- ये कन्दूरीके वाचक हैं।
चाङ्गरी, चुक्रिका और अम्बष्ठा-ये अम्ललोड़िका (अम्लिलोना)-के बोधक हैं।
स्वर्णक्षीरी और हिमावती-ये मकोयके नाम हैं।
सहस्रवेधी, चुक्र, अम्लवेतस और शतवेधी-ये अम्लबेंत के अर्थमें आते हैं।
जीवन्ती, जीवनी और जीवा-ये जीवन्तीके नाम हैं।
भूमिनिम्ब और किरातक-ये चिरातिक्त या चिरायता के वाचक हैं।
कूर्चशीर्ष और मधुरक-ये अष्टवर्गान्तक ‘जीवक’ नामक ओषधिके बोधक हैं।
चन्द्र और कपिवृक-ये समानार्थक शब्द हैं। (चन्द्रशब्द कर्पूर और काम्पिल्य आदि अर्थोंमें आता है।)
ददुध्न और एडगज-ये चकवड़ नामक वृक्षके वाचक हैं।
वर्षाभू और शोथहारिणी-ये गदहपुर्नाके अर्थमें आते हैं।
कुनन्दती, निकुम्भस्त्रा, यमानी और वार्षिका-ये लताविशेषके वाचक हैं।
लशुन, गृञ्जन, अरिष्ट, महाकंद और रसोन-ये लहसुनके नाम हैं।
वाराही, वरदा (या वदरा) तथा गृष्टि-ये वराहीकंदके वाचक हैं।
काकमाची और वायसी-ये समानार्थ शब्द हैं।
शतपुष्पा, सितच्छत्रा, अतिच्छत्रा, मधुरामिसि, अवाकपुष्पी और कारवी-ये सौंफ के नाम हैं।
सरणा, प्रसारिणी, कटम्भरा और भद्रवला-ये कुब्जप्रसारिणी नामक ओषधिके वाचक हैं।
कर्वुर और शटी-ये भी कचूरकेअर्थमें आते हैं।
पटोल, कुलक, तिक्तक और पटु-ये परवलके नाम हैं।
कारवेल्ल और कटिल्लक-ये करैलाके अर्थमें आते हैं।
कूष्माण्डक और कर्कारु-ये कोहड़ाके वाचक हैं।
उर्वारु और कर्कटी-ये दोनों स्त्रीलिङ्ग शब्द ककड़ीके वाचक हैं।
इक्ष्वाकु तथा कटुतुम्बी-ये कड़वी लौकी के बोधक हैं।
विशाला और इन्द्रवारूणी-ये इन्द्रायन (लुंबी) नामक लताके नाम हैं।
अर्शोघ्न, सूरण और कंद-ये सूरन या ओलके वाचक हैं।
मुस्तक और कुरुविन्द-ये दोनों शब्द भी मोथाके अर्थमें आते हैं।
त्वक्सार, कर्मार, वेणु, मस्कर और तेजन-ये वंश (बाँस)-के वाचक हैं।
छत्रा, अतिच्छत्र और पालध्न-ये पानीमें पैदा होनेवाले तृणविशेषके बोधक हैं। मालातृणक और भूस्तृण-ये भी तृणविशेषके ही नाम हैं।
ताड़के वृक्षका नाम ताल और तृणराज है।
धोण्टा, क्रमुक तथा पूग-ये सुपारीके अर्थमें आते हैं।
शार्दूल और द्वीषी-ये व्याघ्र (बाघ)-के वाचक हैं।
हर्यक्ष, केशरी (केसरी) तथा हरि-ये सिंहके नाम हैं।
कोल, पोत्री और वराह-ये सूअरके
कोफ, ईहामृग और वृक –ये भेड़ियेके अर्थमें आते हैं।
लूता, ऊर्णनाभि, तन्तुवाय और मर्कट-ये मकड़ीके नाम हैं।
वृश्चिक और शूककीट –ये बिच्छूके वाचक हैं। (‘शूककीट’ शब्द ऊन आदि चाटनेवाले कीड़ेके अर्थमें भी आता है।)
सारङ्ग और स्तोक-ये समान लिङ्गमें प्रयुक्त होनेवाले शब्द पपीहाके वाचक हैं।
कृकवाकु तथा ताम्रचूड-ये कुक्कुट (मुर्ग)-के नाम हैं।
पिक और कोकिला-ये कोयलके बोधक हैं।
करट और अरिष्ट-काक (कौए)-के अर्थमें आते हैं।
वक और कह्र-बगुलेके नाम हैं।
कोक, चक्र और चक्रवाक-ये चकवाके
कादम्ब और कलहंस-ये मधुरभाषी हंस या बत्तकके वाचक हैं।
पतङ्गिका और पुतिका-ये मधुका छाता लगानेवाली छोटी मक्खियोके नाम हैं और सरधा तथा मधुमक्षिका-ये बड़ी मधुमक्खीके अर्थमें आते हैं। (इसीको सरैंगवा माछी भी कहते हैं।)
द्विरेफ, पुष्पलिह्, भृङ्ग, षट्पद, भ्रमर और अलि-ये भ्रमर (भौंरे)-के नाम हैं।
केकी तथा शिखी-मोरके नाम हैं।
मोरकी वाणीको ‘केका’ कहते हैं।
शकुन्ति, शकुनि और द्विज-ये पक्षीके पर्याय हैं।
पक्षति-शब्द और पक्षमूल-ये पंखके वाचक हैं।
चञ्चु और तोटि-ये चोंचके अर्थमें आते हैं। इन दोनोंका स्त्रीलिङ्गमें ही प्रयोग होता है।
उड्रीन और संडीन-ये पक्षियोंके उड़नेके विभिन्न प्रकारोंके नाम हैं।
कुलाय और नीड शब्द घोंसलेके अर्थमें आते हैं।
पेषी (या पेशी), कोष और अण्ड – ये अण्डेके नाम हैं। इनमें प्रथम दो शब्द केवल पुंल्लिङ्ग में प्रयुक्त होते हैं।
पृथुक, शावक, शिशु, पोत, पाक, अर्भक और डिम्भ-ये शिशुमात्रके बोधक हैं।
संदोह, व्यूहक और गण, स्तोम, ओघ, निकर, व्रात, निकुरम्ब, कदम्बक, संघात, संचय, वृन्द, पुञ्ज्, राशि और कूट-ये सभी शब्द ‘समूह” अर्थके वाचक हैं॥ ७१-७८॥
तीन सौ तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥
अध्याय – ३६४ मनुष्य-वर्ग
अग्निदेव कहते हैं–अब मैं नाम-निर्देशपूर्वक मनुष्यवर्ग, ब्राह्मण-वर्ग, क्षत्रिय-वर्ग, वैश्य-वर्ग और शूद्ववर्गका क्रमशः वर्णन करूंगा।
ना, नर, पञ्चन और मर्त्य-ये मनुष्य एवं पुरुषके वाचक हैं।
स्त्रीको योषित्, योषा, अबला और वधू कहते हैं।
जो अपने अभीष्ट कामी पुरुषके साथ समागमकी इच्छासे किसी नियत संकेत-स्थानपर जाती है, उसे अभिसारिका कहते हैं।
कुलटा, पुंश्चली और असती-ये व्यभिचारिणी स्त्रीके नाम हैं।
नग्निका और कोटवी शब्द नंगी स्त्रीका बोध करानेवाले हैं। (रजोधर्म होनेके पूर्व अवस्थावाली कन्याको भी ‘नग्निका’ कहते हैं।)
अर्धवृद्धा (अधबुढ) स्त्रीको (जो गेरुआँ वस्त्र धारण करनेवाली और पति-विहीना हो) कात्यायनी कहते हैं।
दूसरेके घरमें रहकर (स्वाधीन वृत्तिसे केश-प्रसाधन आदि कलाके द्वारा) जीवन-निर्वाह करनेवाली स्त्रीका नाम सैरन्ध्री है।
अन्त:पुरकी वह दासी, जो अभी बूढ़ी न हुई हो-जिसके सिरके बाल सफेद न हुए हों, असिवनी कहलाती है।
रजस्वला स्त्रीकी मलिनी कहते हैं।
वारस्त्री, गणिका और वेश्या-यें रंड़ियोंके नाम हैं।
भाइयोंकी स्त्रियाँ परस्पर याता कहलाती हैं।
पतिकी बहनको ननान्दा कहते हैं।
सात पीढ़ीके अंदरके मनुष्य सपिण्ड और सनाभि कहे जाते हैं।
समानोदर्य, सौदर्य, सगर्भ और सहज-ये समानार्थक शब्द सगे भाईका बोध करानेवाले हैं। सगोत्र, बान्धव, ज्ञाति, बन्धु, स्व तथा स्वजन-ये भी समान अर्थके बोधक हैं।
दम्पती, जम्पती, भार्यापती, जायापती-ये पति-पत्नीके वाचक हैं।
गर्भाशय, जरायु, उल्व और कलल-ये चार शब्द गर्भकों लपेटनेवाली झिल्लीके नाम हैं। कलल – शब्द पुलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग –दोनों मे आता है। (यह शुक्र और शोणितके संयोगसे बने हुए गर्भाशयके मांस-पिण्डका भी वाचक है।)
गर्भ और भ्रूण-ये दोनों शब्द गर्भस्थ बालकके लिये प्रयुक्त होते हैं।
क्लीब, शण्ड (षण्ढ) और नपुंसक-ये पर्यायवाची शब्द हैं।
डिम्भ-शब्द उतान सौनेवाले नवजात शिशुओंके अर्थमें आता हैं।
बालककों माणवक कहते हैं।
लंबे पेटवाले पुरुष के अर्थ में पिचणडील् और बृहत्कुक्षि शब्दोंका प्रयोग होता है।
जिसकी नाक कुछ झुकी हुई हो,उसको अवभ्रट कहते हैं।
जिसका कोई अङ्ग कम या विकृत हो वह विकलाङ्ग और पोगण्ड कहलाता है।
आरोग्य और अनामय-ये नीरोगताके वाचक हैं।
बहरेको एड और वधिर
कुबड़ेको कुब्ज और गडुल कहते हैं।
रोग आदिके कारण जिसका हाथ खराब हो जाय, उसको तथा लूले मनुष्यको कुनि (या कुणि) कहा जाता है।
क्षय, शोष और यक्ष्मा-ये राजयक्ष्मा (थाइसिस, टीबी या तपेदिक)-के नाम हैं।
प्रतिश्याय और पीनस-ये जुकामके अर्थमें आते हैं।
स्त्रीलिङ्ग-क्षुत्, पुंचिङ्ग-क्षव और नपुंसकक्षुत शब्द छींकके अर्थमें प्रयुक्त होते हैं।
कास और क्षवथु-ये खाँसीके नाम हैं। इनका प्रयोग पुंलिङ्गमें होता है।
शोथ, श्वयथु और शोफ-ये सूजनके अर्थमें आते हैं।
पादस्फोट और विपादिकाये बिवाईके नाम हैं।
किलास और सिध्म-ये सेहुएँ को कहते हैं।
कच्छू, पाम, पामा और विचर्चिका-ये खुजलीके वाचक हैं।
कोठ और मण्डलक उस कोढ़को कहते हैं, जिसमें गोलाकार चकत्ते पड़ जाते हैं।
सफेद कोढ़को कुष्ठ और श्वित्र कहते हैं।
दुर्नामक और अर्शस-ये बवासीरके नाम हैं।
मल-मूत्रके निरोधको अनाह और विबन्ध कहते हैं।
ग्रहणी और प्रवाहिका-ये संग्रहणी रोगके नाम हैं।
बीज, वीर्य, इन्द्रिय और शुक्र-ये वीर्यके पर्याय हैं।
पलल, क्रव्य और आमिष-ये मांसके अर्थमें आते हैं।
बुका और अग्रमांस-ये छातीके मांस (हुत्पिण्ड)-का बोध करानेवाले हैं। (‘बुका’ शब्द केवल हृदयका भी वाचक है।)
हृदय और हृत्-ये मनके पर्याय हैं।
मेदस्, वपा और वसा-ये मैदाके नाम हैं।
गलेके पीछेकी नाड़ीको मन्या कहते हैं।
नाड़ी, धमनि और शिरा-ये नाड़ीके वाचक हैं।
तिलक और कलोम-ये शरीर में रहनेवाले काले तिलके अर्थमें आते हैं।
मस्तिष्क दिमागको
दूषिका आँखोंकी कीचड़को कहते हैं।
अन्त्र और पुरीतत् –ये आँतके अर्थमें आते हैं।
गुल्म और प्लीहा-बरवट (तिल्ली)-को कहते हैं। प्लीहा ‘प्लीहन्’ शब्दका पुँल्लङ्गरूप है।
अङ्ग-प्रत्यङ्गकी संधियोंके बन्धनको स्नायु और वस्त्रसा कहते हैं।
कालखण्ड और यकृत्-जिगर या कलेजेके नाम हैं।
कर्पर और कपाल शब्द ललाटके वाचक हैं। ‘कपाल” शब्द पुंत्रिज्ञ और नपुंसकलिङ्ग-दोनोंमें आता है।
कोकस, कुल्य और अस्थि-ये हडडीके नाम हैं।
रक्त-मांससे रहित शरीरकी हडडीको कङ्काल कहते हैं।
पीठकी हडडी (मेरुदण्ड)-का नाम कशेरुका है।
‘करोटि” शब्द स्त्रीलिङ्ग है और यह मस्तककी हडडी (खोपड़ी)-के अर्थमें आता है।
पसली की हडडी को पर्शुका कहते हैं।
अङ्ग, प्रतीक, अवयव, शरीर, वर्ष्म तथा विग्रह-ये शरीरके पर्याय हैं।
कट और श्रोणिफलक-ये चूतड़के अर्थमें आते हैं। ‘कट’ शब्द पुंलिङ्ग है।
कटि, श्रोणि और ककुद्मती-ये कमरका बोध करानेवाले हैं। (किन्हीं-किन्हींके मत में उपर्युक्त पाँचों ही शब्द पर्यायवाची हैं।)
स्त्रीकी कमरके पिछले भाग को नितम्ब और अगले भाग को जधनकहते हैं।’जघन’ शब्द नपुंसकलिङ्ग है।
नितम्बके ऊपर जो दो गडढे-से होते हैं, उन्हें कूपक एवं ककुन्दर कहते हैं। ‘ककुन्दर’ शब्द केवल नपुंसकलिङ्ग है।
कटिके मांस-पिण्डका नाम स्फिच् और कटिप्रोथ है। ‘स्फिच्’ शब्दका प्रयोग स्त्रीलिङ्गमें होता है।
नीचे बताये जानेवाले भग और लिङ्गदोनोंकी उपस्थ कहा जाता है। भग और योनि-ये स्त्री-चिहके बोधक पर्यायवाची शब्द हैं।
शिश्र, मेढ़, मेहन और शेफसू-ये पुरुषचिह्न (लिङ्ग)-के वाचक हैं।
पिचण्ड, कुक्षि, जठर, उदर और तुन्द-ये पेटके अर्थमें आते हैं।
कुच और स्तन पर्यायवाची शब्द हैं। कुचोंके अग्रभागका नाम चूचुक है।
नपुंसकलिङ्ग क्रोड तथा भुजान्तर शब्द गोदीके वाचक हैं।
स्कन्ध, भुजशिरस् और अंस-ये कंधेके अर्थमें आते हैं।’अंस’ शब्द पुंल्लिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग है।
कंधेकी संधियों अर्थात् हँसलीकी हडडीको जत्रु कहते हैं।
पुनर्भव, कररुह, नख और नखर-ये नखोंके नाम हैं। इनमें ‘नखर’ और “नख’ शब्द स्त्रीलिङ्ग के सिवा अन्य दो लिङ्गोंमें प्रयुक्त होते हैं।
अँगूठेसे लेकर तर्जनीतक फैलाये हुए हाथको प्रादेश, अँगूठेसे मध्यमातकको ताल और अनामिकातक फैलाये हुए हाथको गोकर्ण कहते हैं। इसी प्रकार औगूठेसे कनिष्ठिका अँगुलीतक फैले हुए हाथका नाम वितस्ति (बालिस्त या बिता) है। इसकी लंबाई बारह अंगुलकी होती है।
जब हाथकी सभी अँगुलियाँ फैली हों, तब उसे चपेट, तल और प्रहस्त कहते हैं। मुट्ठी
बँधे हुए हाथका नाम रत्नि है। (कोहनीसे लेकर मुट्टी बैंधे हुए हाथतकके मापको भी ‘रत्नि’ कहते हैं।) कोहनीसे कनिष्ठा अँगुलीतककी लंबाईका नाम अरत्नि है।
शंखके समान आकारवाली ग्रीवाका नाम कम्बुग्रीवा और त्रिरेखा है।
गलेकी घाँटीकी अवटु घाटा और कृकाटिका कहते हैं।
ओठसे नीचेके हिस्सेका नाम चिबुक है।
गण्ड और गल्ल – गालके वाचक हैं।
गालोंके निचले भागको हनु कहते हैं।
नेत्रोंके दोनों प्रान्तोंको अपाङ्ग कहा जाता है। उन्हें दिखानेकी चेष्टाको कटाक्ष कहा जाता है।
चिकुर, कुन्तल और वाल-ये केशके वाचक हैं।
प्रतिकर्म और प्रसाधन शब्द सँवारने और शृङ्गार करनेके अर्थमें आते हैं।
आकल्प, वेश और नेपथ्य-ये शब्द प्रत्यक्ष नाटक आदिके खेलमें भिन्न-भिन्न वैष धारण करने के अर्थमें आते हैं।
मस्तक पर धारण किये जानेवाले रत्नका नाम चूडामणि और शिरोरत्न है।
हारके बीच-बीच में पिरोये हुए रत्नको तरल कहते हैं।
कर्णिका और तालपत्र-ये कानके आभूषणके नाम हैं।
लम्बन और ललन्तिका गलेमें नीचेतक लटकनेवाले हारको कहते हैं।
मञ्जीर और नृपुर-ये पैरके आभूषण हैं।
किङ्किणी और क्षुद्रघण्टिका धुंधुरूके नाम हैं।
दैर्ध्य, आयाम और आनाह-ये वस्त्र आदिकी लंबाईके बोधक हैं।
परिणाह और विशालता-ये चौड़ाई (पनहा या अर्ज) के अर्थमें आते हैं।
पुराने वस्त्रकी पटच्चर कहते हैं।
संख्यान और उत्तरीय-ये चादर या दुपट्टेके अर्थमें आते हैं।
फूल आदिसे बालोंका भृङ्गार करने या कपोल आदिपर पत्रभङ्ग आदि बनानेकी रचना को परिस्पन्द कहते हैं।
प्रत्येक उपचारकी पूर्णताका नाम आभोग है।
ढक्कनदार पेटीको समुद्गक और सम्पुटक कहते हैं।
प्रतिग्राह और पतद्ग्रह-ये पीकदानके नाम हैं॥ १-२९ ॥
तीन सौ चौंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३६४॥
अध्याय – ३६५ ब्रह्म-वर्गं
अग्निदेव कहते हैं–
वंश, अन्ववाय, गोत्र, कुल, अभिजन और अन्वय-ये वंशके नाम हैं।
मन्त्रकी व्याख्या करनेवाले ब्राह्मणकी आचार्य कहते हैं।
जिसने यज्ञमें व्रतकी दीक्षा ग्रहण की हो, वह आदेष्टा, यष्टा और यजमान कहलाता है।
समझ-बूझकर आरम्भ करनेका नाम उपक्रम है।
एक गुरुके यहाँ साथ-साथ विद्या पढ़नेवाले छात्र परस्पर सतीथ्र्य और एकगुरु कहलाते हैं।
सभ्य, सामाजिक, सभासद और सभास्तार-ये यज्ञके सदस्योंके नाम हैं।
ऋत्विक् और याजक-ये यज्ञ करानेवाले ऋत्विजोंके वाचक हैं।
यजुर्वेदके ज्ञाता ऋत्विज्रको अध्वर्यु,
सामवेदके जाननेवालेको उद्गाता
ऋग्वेदके ज्ञाताको होता कहते हैं।
चषाल और यूपकटक-ये यज्ञीय स्तम्भपर लगाये जानेवाले काठके छल्लेके नाम हैं।
स्थण्डिल और चत्वर-ये दोनों शब्द समान लिङ्ग और समान अर्थके बोधक हैं।
खौलाये हुए दूधमें दही मिला देनेसे जो हवनके योग्य वस्तु तैयार होती है, उसे आमिक्षा कहते हैं।
दही मिलाये हुए घीका नाम पृषदाज्य है।
परमान्न और पायस-ये खीरके वाचक हैं।
जो पशु यज्ञमें अभिमन्त्रित करके मारा गया हो, उसको उपाकृत कहते हैं।
परम्पराक, शमन और प्रोक्षण-ये शब्द यज्ञीय पशुका वध करनेके अर्थमें आते हैं।
पूजा, नमस्या, अपचिति, सपर्य्या, अर्चा और अर्हणा-ये समानार्थक शब्द हैं।
वरिवस्या, शुश्रुषा, परिचर्या और उपासनाये सेवाके नाम हैं।
नियम और व्रत-ये एकदूसरेके पर्यायवाची शब्द हैं। इनमें ‘व्रत’ शब्द पुंल्लिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग-दोनोंमें प्रयुक्त होता है।
उपवास आदिके रूप में किये जानेवाले व्रतका नाम पुण्यक है।
जिसका प्रथम या प्रधानरूपसे विधान किया गया हो, उसे ‘मुख्यकल्प’ कहते हैं और उसकी अपेक्षा अधम या आप्रधानरूपसे जिसकी विधि हो, उसका नाम अनुकल्प है।
कल्पके अर्थमें विधि और क्रम-इन शब्दोंका प्रयोग समझना चाहिये।
वस्तुका पृथक्-पृथक् ज्ञान (अथवा जड़-चेतन या द्रष्टा-दृश्यके पार्थक्यका निश्चय) विवेक कहलाता है।
(श्रावणीपूर्णिमा आदिके दिन) संस्कारपूर्वक वेदका स्वाध्याय आरम्भ करना उपकरण या उपाकर्म कहलाता है।
भिक्षु, परिव्राट्, कर्मन्दी, पाराशरी तथा मस्करी- संन्यासीके पर्यायवाची शब्द हैं।
जिनकी वाणी सदा सत्य होती है, वे ऋषि और सत्यवचा कहलाते हैं।
जिसने वेदाध्ययन और ब्रह्मचर्यके व्रतको विधिवत् समाप्त कर लिया है, किंतु अभी दूसरे आश्रमको स्वीकार नहीं किया है, उसको स्नातक कहते हैं।
जिन्होंने अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर ली है, वे ‘यती’ और ‘यति’ कहलाते हैं।
शरीर-साध्य नित्यकर्मका नाम यम है
जो कर्म अनित्य एवं कभी-कभी आवश्यकतानुसार किये जानेयोग्य होता है, वह (जप, उपवास आदि) नियम कहलाता है।
ब्रह्मभूय, ब्रह्मत्व और ब्रह्मसायुज्य-ये ब्रह्मभावकी प्रातिके नाम हैं॥ १-११॥
तीन सौ पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३६५ ॥
अध्याय – ३६६ क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-वर्ग
अग्निदेव कहते हैं–
मूर्धाभिषिक्त, राजन्य बाहुज, क्षत्रिय और विराट्-ये क्षत्रियके वाचक हैं।
जिस राजाके सामने सभी सामन्त-नरेश मस्तक झुकाते हैं, उसे अधीश्वर कहते हैं।
जिसका समुद्रपर्यन्त समूची भूमिपर अधिकार हो, उस सम्राट्का नाम चक्रवर्ती और सार्वभौम है
दूसरे राजाओंको (जो छोटे-छोटे मण्डलोंके शासक हैं, उन्हें) मण्डलेश्वर कहते हैं।
मन्त्रीके तीन नाम हैं-मन्त्री, धीसचिव और अमात्य।
महामात्र और प्रधान—ये सामान्य मन्त्रियोंके वाचक हैं।
व्यवहारके द्रष्टा अर्थात् मामले-मुकदमेमें फैसला देनेवालेको प्राङ्-विवाक और अक्षदर्शक कहते हैं।
सुवर्णकी रक्षा जिसके अधिकारमें ही वह भौरिक और कनकाध्यक्ष कहलाता है।
अध्यक्ष और अधिकृत-ये अधिकारीके वाचक हैं। इन दोनोंका समान लिङ्ग है।
जिसे अन्त:पुर की रक्षाका अधिकार सौंपा गया हो,उसका नाम अन्तर्वशिक है।
सौविदल्ल, कग्य्चुकी, स्थापत्य और सौविद-ये रनिवास की रक्षामें नियुक्त सिपाहियोंके नाम हैं।
अन्त:पुरमें रहनेवाले नपुंसकोंको पण्ढ़ और वर्षवर कहते हैं।
सेवक, अर्थी और अनुजीवी-ये सेवा करनेवालेके अर्थमें आते हैं।
अपने राज्यकी सीमा पर रहनेवाला राजा शत्रु होता है और शत्रुकी राज्य-सीमापर रहनेवाला नरेश अपना मित्र होता है। शत्रु और मित्र दोनोंकी राज्यसीमाओंके बाद जिसका राज्य हो, वह (न शत्रु, न मित्र) उदासीन होता है।
विजिगीषु राजाके पृष्ठभागमें रहनेवाले राजाको पार्ष्णीग्राह कहते हैं।
चर, स्पश और प्रणिधिये गुप्तचरके नाम हैं।
भविष्यकालको आयति कहते हैं।
तत्काल और तदात्व-ये वर्तमान कालके वाचक हैं।
भावी कर्मफलको उदक कहते हैं।
आग लगने या पानीकी बाढ़ आदिके कारण होनेवाले भयकी अदृष्टभय कहते हैं।
अपने या शत्रुके राज्यमें रहनेवाले सैनिकों या चोरों आदिके कारण जो संकट उपस्थित होता है, उसका नाम दृष्टभय है।
भरे हुए घड़ेको भद्रकुम्भ और पूर्णकुम्भ कहते हैं।
सोनेके गडुए या झारीका नाम शृङ्गार और कनकालुका है।
मतवाले हाथीको प्रभिन्न, गर्जित और मत कहते हैं।
हाथीकी सूंड़से निकलनेवाले जलकणको वमथु और करशीकर कहते हैं।
सृणि और अङ्कुश- ये दो हाथीकी हाँकनेके काममें लाये लोहेके काँटेका बोध कराते हैं। इनमें सृणि तो स्त्रीलिङ्ग और अङ्कुश पुँल्लङ्ग एवं नपुंसकलिङ्ग है।
परिस्तोम और कुथ हाथीकी गद्दी और झूलके वाचक हैं।
स्त्रियोंके बैठनेयोग्य पर्देवाली गाड़ीको कर्णीरथ और प्रवहण कहते हैं।
दोला और प्रेङ्खा-ये झूला अथवा डोलीके नाम हैं। इनका स्त्रीलिङ्गमें प्रयोग होता है।
आधोरण, हस्तिपक, हस्त्यारोह और निषादी-ये हाथीवानके अर्थमें आते हैं।
लड़नेवाले सिपाहियोंको भट और योद्धा कहते हैं।
कग्य्चुक और वारण-ये कवच (बख्तर)- के नाम हैं। इनका प्रयोग स्त्रीलिङ्गके सिवा अन्य लिङ्गोंमें होता है।
शीर्षण्य और शिरस्त्र-ये सिरपर रखे जानेवाले टोपके नाम हैं।
तनुत्र, वर्म और दंशन-ये भी कवचके अर्थमें आते हैं।
आमुक्त, प्रतिमुक्त, पिनद्ध और अपिनद्ध-ये पहने हुए कवचके वाचक हैं।
सेनाकी मोर्चाबंदीका नाम व्यूह और बल-विन्यास है।
चक्र और अनीक-ये नपुंसकलिङ्ग शब्द सेनाके वाचक हैं।
जिस सेनामें एक हाथी, एक रथ, तीन घोड़े और पाँच पैदल हों, उसे पत्ति कहते हैं।
पत्तिके समस्त अङ्गोंको लगातार सात बार तीन गुना करते जाय तो उत्तरोतर उसके ये नाम होंगे-सेनामुख, गुल्म, गण, वाहिनी, पृतना, चमू और अनीकिनी।
हाथी आदि सभी अङ्गोसे युक्त दस अनीकिनी सेनाको अक्षौहिणी’ कहते हैं।
धनुष, कोदण्ड और इष्वास-ये धनुषके नाम हैं।
धनुषके दोनों कोणोंको कोटि और अटनी कहते हैं। उसके मध्य भागका नाम नस्तक (या लस्तक) है।
प्रत्यांचाको मौर्वी, ज्या, शिञ्जिनी और गुण कहते है
पृषत्क, बाण, विशिख, अजिह्राग, खग और आशुग-ये वाचक पर्याय शब्द हैं।॥ १-१६॥
तूण, उपासङ्ग, तूणीर, निषङ्ग और इषुधि-ये तरकसके नाम हैं। इनमें इषुधि शब्द पुंलिङ्ग और स्त्रीलिङ्ग दोनों लिङ्गोंमें आता है।
असि, ऋष्टि, निस्त्रिंश, करवाल और कृपाण-ये तलवारके वाचक हैं।
तलवारकी मुष्टिको सरु कहते हैं।
ईली और करपालिका (करवालिका)-ये गुप्तीके नाम हैं।
कुठार और सुधिति (या स्वधिति)-ये कुल्हाड़ी के अर्थमें आते हैं। इनमें कुठार शब्दका प्रयोग पुँल्लङ्ग और नपुंसकलिङ्ग-दोनोंमें होता है।
छुरीको क्षुरिका और असिपुत्रिका कहते हैं।
प्रास और कुन्त भालेके नाम हैं।
सर्वला और तोमर गांड़ासेके अर्थमें आते हैं। तोमर शब्द पुंलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग-दोनोंमें प्रयुक्त होता है। (यह बाण-विशेषका भी बोधक है)।
जो प्रात:काल मङ्गल-गान करके राजा को जगाते हैं, उन्हें वैतालिक और बोधकर कहते हैं।
स्तुति करनेवालोंका नाम मागध और वन्दी है।
जो शपथ लेकर संग्रामसे पीछे पैर नहीं हटाते, उन योद्धाओंको संशप्तक कहते हैं।
पताका और वैजयन्ती-ये पताकाके नाम हैं।
केतन और ध्वज-ये ध्वजाके वाचक हैं और इनका प्रयोग नपुंसकलिङ्ग तथा पुंलिङ्गमें भी होता है।
‘मैं पहले’मैं पहले’ ऐसा कहते हुए जो योद्धाओंकी युद्ध आदिमें प्रवृत्ति होती है, उसे अहम्पूर्विका कहते हैं। इसका प्रयोग स्त्रीलिङ्गमें होता है।
‘मैं समर्थ हूँ” ऐसा कहकर जो परस्पर अहंकार प्रकट किया जाता हैं, उसका नाम अहमहमिका है।
शक्ति, पराक्रम, प्राण, शौर्य, स्थान (स्थामन्) सहस् और बल-ये सभी शब्द बलके वाचक हैं।
मूर्च्छाके तीन नाम हैं- मूर्च्छा, कश्मल और मोह।
विपक्षीकी अच्छी तरह रगड़ने या कष्ट पहुँचानेको अवमर्द तथा पीडन कहते हैं।
शत्रुको धर दबानेका नाम अभ्यवस्कन्दन तथा अभ्यासादन हैं।
जीतको विजय और जय कहते हैं।
निर्वासन, संज्ञपन, मारण और प्रातिघातन-ये मारनेके नाम हैं।
पञ्चता और कालधर्म-ये मृत्युके अर्थमें आते हैं। दिष्टान्त, प्रलय और अत्यय-इनका भी वही अर्थ है॥१७-२२ ॥
विश, भूमिस्पृश् और वैश्य-ये शब्द वैश्यजातिका बोध करानेवाले हैं।
वृत्ति, वर्तन और जीवन-ये जीविकाके वाचक हैं।
कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य-ये वैश्यकीं जीविकावृत्तियाँ हैं।
ब्याज (सूद)-से चलायी जानेवाली जीविकाका नाम कुसीद-वृति है।
ब्याजके लिये धन देनेकी उद्धार और अर्थप्रयोग कहते हैं।
अनाज की बालका नाम ‘कणिश’ है।
जौ आदिके तीखे अग्रभागकी किशारु तथा सस्यशूक कहते हैं।
तृण आदिके गुच्छका नाम स्तम्ब है।
धान्य, ब्रीहि और स्तम्बकरि-ये अनाजके वाचक हैं।
अनाज के डंठलोंसे होनेवाले भूसेको कडंगर और बुष कहते हैं।
शमीधान्य अर्थात् फली या छीमीसे निकलनेवाले अनाजके अंदर उड़द, चना और मटर आदिकी गणना है तथा शूकधान्यमें जौ आदिको कहते है। तृणधान्य अर्थात् तीनाको नीवार कहते हैं।
सूपका नाम है-शूर्प और प्रस्फोटन।
सन या वस्त्रके बने हुए झोले अथवा थैलेको स्यूत और प्रसेव कहते हैं।
कण्डोल और पिट टोकरीके नाम हैं। इन दोनोंका एक ही लिङ्ग है।
कट और किलिञ्जक चटाईके नाम हैं। इन दोनोंका एक ही लिङ्ग है।
रसवती, पाकस्थान और महानस-ये रसोईघर के अर्थमें आते हैं।
रसोईके अध्यक्षका नाम पौरोगव है।
रसोई बनानेवालेको सूपकार, बल्लव, आरालिक, आन्धसिक, सूद, औदनिक तथा गुण कहते हैं।
अम्बरीष तथा भ्राष्ट शब्द भाड़के वाचक हैं।
कर्करी, आलु तथा गलन्तिका-ये कठौतेके नाम हैं।
बड़े घड़े या माटको आलिञ्जर एवं मणिक कहते हैं।
काले जीरेका नाम सुषवी है।
आरनाल और कुल्माष-ये कांजीके नाम हैं।
वाह्रीक, हिडगु तथा रामठ-ये हींग के अर्थमें आते हैं।
निशा, हरिद्रा और पीता-ये हल्दीके वाचक हैं।
खाँड़को मत्स्यण्डि तथा फाणित कहते हैं।
दूधके विकार अर्थात् खोवा या मावाका नाम कूर्चिका और क्षीरविकृति है।
स्निग्ध, मसृण और चिक्कण-ये तीनों शब्द चिकनेके अर्थमें आते हैं।
पृथुक और चिपिटक-ये चिउड़ाके वाचक हैं।
भूने हुए जौको धाना कहते हैं। यह स्त्रीलिङ्ग शब्द हैं।
जेमन, लेह (लेप) और आहार-ये भोजनका बोध करानेवाले हैं।
माहेयी, सौरभी और गौ-ये गायके पर्याव हैं।
कंधेपर जुआ ढोनेवाले बैलको युग्य और प्रासङ्गध
गाड़ी खींचनेवालेको शाकट कहते हैं।
बहुत दिनोंकी व्यायी हुई गायका नाम वष्कयणी (बकेना)
थोड़े दिनोंकी व्यायी हुईका नाम धेनु है।
साँड़से लगी हुई गौको संधिनी कहते हैं।
गर्भ गिरानेवाली गायकी ‘वेहद्’ संज्ञा है ॥ २३-३३॥
पण्याजीव तथा आपणिक व्यापारीके अर्थमें आते हैं।
न्यास और उपनिधि-ये धरोहरके वाचक हैं। ये दोनों शब्द मुँलिङ्ग हैं।
बेचनेका नाम है विपण और विक्रय।
संख्यावाचक शब्द एकसे लेकर’दश’ शब्दके श्रवण होनेतक (अर्थातू एकसे अष्टादशतक) केवल संख्येय द्रव्यका बोध करानेके लिये प्रयुक्त होते हैं, अत: उनका तीनों लिङ्गोंमें प्रयोग होता है। जैसे-एक: पट:, एका स्त्री, एकं पुष्पम् इत्यादिः परंतु ‘पञ्चन्’से ‘दशन्’ शब्दतकके रूप तीनों लिङ्गोंमें समान होते हैं। यथा-दश स्त्रियः, दश पुरुषाः, दश पुष्पाणि इत्यादि। इसी प्रकार अष्टादशतक समझना चाहिये।
संख्यामात्रका बोध करानेके लिये इन शब्दोंका प्रयोग नहीं होता; अतएव ‘विप्राणां शतम’ इत्यादिके समान ‘विप्राणां दश’ यह प्रयोग नहीं हो सकता। विंशति आदि सभी संख्यावाची शब्द संख्या और संख्येय दोनों अथॉमें आते हैं तथा वे नित्य एक वचनान्त माने जाते हैं। (यथा संख्येयमें-विंशगतिः पटाः । संख्यामान्नमे-विंशतिः पटानाम् इत्यादि। परंतु इनकी एकवचनान्तता केवल संख्येय अर्थमें ही मानी गयी है।)
संख्यामात्रमें ये द्विवचन और बहुवचन भी होते हैं (यथा दो बीस, तीन बीस आदिके अर्थमेंद्वै विंशती, ब्रयो विंशतिय:-इत्यादि) ।
ऊनविंशतिसे लेकर नवनवतितक सभी संख्याशब्द स्त्रीलिङ्ग हैं (अतएव “विंशत्या पुरुपै:’ इत्यादि प्रयोग होते हैं)।
‘पङ्कि’से लेकर शत, सहस्र आदि शब्द क्रमश: दसगुने अधिक हैं (यथा पङ्गि (१०), शतम् (१००), सहस्रम् (१०००), अयुतम्। (१००००) इत्यादि) ।
मान तीन प्रकारके होते हैं-तुलामान, अंगुलीमान और प्रस्थमान।
पाँच गुंजे (रक्ती)-का एक माषक (माशा) होता हैं ll सोलह माषकका एक अक्ष होता है, इसीको कर्ष भी कहते हैं। कर्ष पुंलिङ्ग भी है और नपुंसकलिङ्ग भी। चार कर्षका एक पल होता है।
एक अक्ष सोनेको ‘सुवर्ण’ और बिस्त कहते हैं तथा एक पल सुवर्णका नाम ‘कुरुबिस्त’ है।
सौ पलकी एक ‘तुला’ होती है, यह स्त्रीलिङ्ग शब्द है। बीस तुलाको ‘भार’ कहते हैं।
चाँदीके रुपयेका नाम कार्षापण और कार्षिक है।
ताँबेके पैसेको ‘पण’ कहते हैं।
द्रव्य, वित्त, स्वापतेय, रिक्थ, ऋक्थ, धन और वसु-ये धनके वाचक हैं।
स्त्रीलिङ्ग रीति शब्द और मुँलिङ्ग आरकूटये पीतलके अर्थमें प्रयुक्त होते हैं।
ताँबाका नाम ताम्रक, शुल्ब तथा औदुम्बर है।
तीक्ष्ण, कालायस और आयस-ये लोहेके अर्थमें आते हैं।
क्षार और काँच-ये काँचके नाम हैं।
चपल, रस, सूत और पारद-ये पाराके वाचक हैं।
भैंसेके सींगका नाम गरल (या गवल) है।
त्रपु, सीसक और पिच्चट-ये सीसाके अर्थमें प्रयुक्त होते हैं।
‘ हिण्डीर, अब्धिकफ तथा फेन-ये समुद्रफेनके वाचक हैं।
मधूच्छिष्ट और सिक्थक-ये मोमके नाम हैं।
रंग और वंग-रौगाके,
पिचु और तूल-रुईके
कूलटी (कुनटी) और मन:शिलामैनसिलके नाम हैं।
यवक्षार और पाक्य पर्यायवाची शब्द हैं।
त्वक्क्षीरा और वंशलोचना –वंशलोचनके वाचक हैं॥ ३७-४२ ॥
वृषल, जघन्यज और शूद्र-ये शूद्रजातिके नाम हैं।
चाण्डाल एवं अन्त्यज जातियाँ वर्णसंकर कहलाती हैं।
शिल्पकर्मके ज्ञाताको कारु और शिल्पी कहते हैं (इनमें बढ़ई थवई आदि सभी आ जाते हैं।)
समान जातिके शिल्पियोंके एकत्रित हुए समुदायको श्रेणि कहते हैं। यह स्त्रीलिङ्ग और पुंल्लिङ्ग दोनोंमें प्रयुक्त होता है।
चित्र बनानेवालेको रङ्गाजीव और चित्रकार कहते हैं।
त्वष्टा, तक्षा और वर्धकि-ये बढ़ईके नाम हैं।
नाडिन्धम और स्वर्णकार-ये सुनारके वाचक हैं।
नाई (हजाम) का नाम है नापित तथा अन्तावसायी।
बकरी बेचनेवाले गडरियेका नाम जाबाल और अजाजीव है।
देवाजीव और देवल-ये देवपूजासे जीविका चलानेवालेके अर्थमें आते हैं।
अपनी स्त्रियोंके साथ नाटक दिखाकर जीवन-निर्वाह करनेवाले नटको जायाजीव और शैलूष कहते हैं।
रोजाना मजदूरी लेकर गुजर करनेवाले मजूरेका नाम भूतक और भूतिभुक् है।
विवर्ण, पामर, नीच, प्राकृत, पृथग्जन, विहीन, अपसद और जाल्म – ये नीचके वाचक हैं।
दासको भूत्य, दासेर और चेटक भी कहते हैं।
पटु, पेशल और दक्ष-ये चतुरके अर्थमें आते हैं।
मृगयु और लुब्धक-ये व्याधके नाम हैं।
चाण्डालको चाण्डाल और दिवाकीर्ति कहते हैं।
पुताई आदिके काममें पुस्त शब्दका प्रयोग होता है।
पञ्चलिका और पुत्रिका ये पुतली या गुडियाके नाम हैं।
वर्कर शब्द जवान पशुमात्रके अर्थमें आता है (साथ ही वह बकरेका भी वाचक है) ।
गहना रखनेके डब्बेको या कपड़े रखनेकी पेटीको मञ्जुषा, पेटक तथा पेडा कहते हैं।
तुल्य और साधारण-ये समान अर्थके वाचक हैं। इनका सामान्यत: तीनों लिङ्गोंमें प्रयोग होता है।
प्रतिमा और प्रतिकृति-ये पत्थर आदिकी मूर्तिके वाचक हैं।
इस प्रकार ब्राह्मण आदि वर्गीका वर्णन किया गया ॥ ४३-४९ ॥
तीन सौ छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३६६ ॥
अध्याय – ३६७ सामान्य नाम-लिङ्ग
अग्निदेव कहते हैं–मुनिवर! अब मैं सामान्यतः नामलिङ्गोंका वर्णन करूंगा (इस प्रकरणमें आये हुए शब्द प्राय: ऐसे होंगे, जो अपने विशेष्यके अनुसार तीनों लिङ्गोंमें प्रयुक्त हो सकते हैं), आप उन्हें ध्यान देकर सुनें।
सुकृति, पुण्यवान् और धन्य-ये शब्द पुण्यात्मा और सौभाग्यशाली पुरुषके लिये आते हैं।
जिनकी अभिलाषा, आशय या अभिप्राय महान् हो, उन्हें महेच्छ और महाशय कहते हैं।
(जिनके हृदय शुद्ध, सरल, कोमल, दयालु एवं भावुक हों, वे हृदयालु, सहृदय और सुहृदय कहलाते हैं।)
प्रवीण, निपुण, अभिज्ञ, विज्ञ, निष्णात और शिक्षित-सुयोग्य एवं कुशलके अर्थमें आते हैं।
वदान्य, स्थूललक्ष, दानशौण्ड और बहुप्रद-ये अधिक दान करनेवालेके वाचक हैं।
कृती, कृतज्ञ और कुशल-ये भी प्रवीण, चतुर एवं दक्षके ही अर्थमें आते हैं।
आसक्त, उद्युत और उत्सुक-ये उद्योगी एवं कार्यपरायण पुरुषके लिये प्रयुक्त होते हैं।
अधिक धनवानको इभ्य और आढय कहते हैं।
परिवृढ, अधिभू, नायक और अधिप-ये स्वामीके वाचक हैं।
लक्ष्मीवान्, लक्ष्मण तथा श्रील-ये शोभा और श्रीसे सम्पन्न पुरुषके अर्थमें आते हैं।
स्वतन्त्र, स्वैरी और अपावृत शब्द स्वाधीन अर्थके बोधक हैं।
खलपू और बहुकर-खलिहान या मैदान साफ करनेवाले पुरुषके अर्थमें आते हैं।
दीर्घसूत्र और चिरक्रिय-ये आलसी तथा बहुत विलम्बसे काम पूरा करनेवाले पुरुषके बोधक हैं।
बिना विचारे काम करनेवालेको जाल्म और असमीक्ष्यकारी कहते हैं।
जो कार्य करनेमें ढीला हो, वह कुण्ठ कहलाता है।
कर्मशूर और कर्मठ-ये उत्साहपूर्वक कर्म करनेवाले के वाचक हैं।
खानेवालेको भक्षक, घस्मर और अद्मर कहते हैं।
लोलुप, गर्धन और गृध्नु-ये लोभीके पर्याय हैं।
विनीत और प्रश्रित-ये विनययुक्त पुरुषका बोध करानेवाले हैं।
धृष्णु और वियात-ये धृष्टके लिये प्रयुक्त होते हैं।
प्रतिभाशाली पुरुष के अर्थमें निभृत और प्रगल्भ शब्दका प्रयोग होता है।
भीरुक और भीरु-डरपोकके,
बन्दारु और अभिवादक प्रणाम करनेवालेके,
भूष्णु भविष्णु और भविता होनेवालेके
ज्ञाता, विदुर और विन्दुक-ये जानकारके वाचक हैं।
मत्त, शौण्ड, उत्कट और क्षीब-ये मतवाले के अर्थमें आते हैं (क्षीब शब्द नान्त भी होता है, इसके क्षीबा, क्षीबाणी, क्षीबाण: इत्यादि रूप होते हैं)।
चण्ड और अत्यन्त कोपन-ये अधिक क्रोध करनेवाले पुरुषके बोधक हैं।
देवताओं का अनुसरण करनेवालेको देवद्रयङ्
सब ओर जानेवालेको विष्वग्द्रयङ् कहते हैं।
इसी प्रकार साथ चलनेवाला सध्र्यङ्
तिरछा चलनेवाला तिर्यङ् कहलाता है।
वाचोयुक्ति पटु, वाग्मी और वावदूक-ये कुशल वक्ताके अर्थमें प्रयुक्त होते हैं।
बहुत अनाप-शनाप बकनेवालेको जल्पाक, वाचाल, वाचाट और बहुगर्ह्रावाक् कहते हैं।
अपध्वस्त और धिक्कृत-ये धिक्कारे हुए पुरुषके वाचक हैं।
कीलित और संयत शब्द बद्ध (बँधे हुए)-का बोध करानेवाले हैं॥ १-१० ॥
रवण और शब्दन-ये आवाज करनेवालेके अर्थमें आते हैं।
(नाटक आदिके आरम्भमें जो मङ्गलके लिये आशीर्वादयुक्त स्तुतिका पाठ किया जाता है, उसका नाम नान्दी है।) नान्दीपाठ करनेवालेको नान्दीवादी और नान्दीकर कहते हैं।
व्यसनार्त और उपरक्त-ये पीड़ितके अर्थमें आते हैं।
विहस्त और व्याकुल-ये शोकाकुल पुरुषका बोध करानेवाले हैं।
नृशंस, क्रूर, घातक और पाप-ये दूसरोंसे द्रोह करनेवाले निर्दय मनुष्यके वाचक हैं।
ठगको धूर्त और वञ्चक कहते हैं।
वैदेह (वैधेय) और वालिश-ये मूर्खके वाचक हैं।
कृपण और क्षुद्र-ये कदर्य (कंजूस)-के अर्थमें प्रयुक्त होते हैं।
मार्गण, याचक और अर्थी-ये याचना करनेवालेके अर्थमें आते हैं।
अहंकारीको अहंकारवान् और अहंयु
शुभके भागीको शुभान्वित और शुभंयु कहते हैं।
कान्त, मनोरम और रुच्य-ये सुन्दर अर्थके वाचक हैं।
हृद्य, अभीष्ट और अभीप्सित-ये प्रियके समानार्थक शब्द हैं।
असार, फल्गु तथा शून्य-ये निस्सार अर्थका बोध करानेवाले हैं।
मुख्य, वर्य, वरेण्यक, श्रेयान्, श्रेष्ठ और पुष्कल-ये श्रेष्ठके वाचक हैं। प्राग्र्य, अग्रय, अग्रीय तथा अग्रिय शब्द भी इसी अर्थमें आते हैं।
वड़, उरु और विपुल-ये विशाल अर्थके बोधक हैं।
पीन, पीवन्, स्थूल और पीवर-ये स्थूल या मोटे अर्थका बोध करानेवाले हैं।
स्तोक, अल्प, क्षुल्लक, सूक्ष्म, श्लक्ष्ण, दभ्र, कृश, तनु, मात्रा, त्रुटि, लव और कण-ये स्वल्प या सूक्ष्म अर्थके वाचक हैं।
भूयिष्ठ, पुरुह और पुरु-ये अधिक अर्थके बोधक हैं।
अखण्ड, पूर्ण और सकल-ये समग्रके वाचक हैं।
उपकण्ठ, अन्तिक, अभित:, संनिधि और अभ्याश-ये समीपके अर्थमें आते हैं।
अत्यन्त निकटको नेदिष्ठ कहते हैं।
बहुत दूरके अर्थमें दविष्ठ शब्दका प्रयोग होता है।
वृत्त, निस्तल और वर्तुल-ये गोलाकारके वाचक हैं।
उच्च, प्रांशु, उन्नत और उदग्र-ये ऊँचाके अर्थमें आते हैं।
ध्रुव, नित्य और सनातन-ये नित्य अर्थके बोधक हैं।
आविद्ध, कुटिल, भुग्न, वेल्लीत और वक्र-ये टेढ़ेका बोध करानेवाले हैं।
चञ्चल और तरल-ये चपलके अर्थमें आते हैं।
कठोर, जरठ और दृढ़-ये समानार्थक शब्द हैं।
प्रत्यग्र, अभिनव, नव्य, नवीन, नूतन और नव-ये नयेके अर्थमें आते हैं।
एकतान और अनन्यवृत्ति-ये एकाग्रचित्तवाले पुरुषके बोधक हैं।
उच्चण्ड और अविलम्बित-ये फुर्तीके वाचक हैं।
उच्चावच और नैकभेद-ये अनेक प्रकार के अर्थमें आते हैं।
सम्बाध और कलित-ये संकीर्ण एवं गहनके बोधक हैं।
तिमित, स्तिमित और क्लिन्न-ये आर्द्र या भीगे हुएके अर्थमें आते हैं।
अभियोग और अभिग्रह-ये दूसरेपर किये हुए दोषारोपणके नाम हैं।
स्फ़ाति शब्द वृद्धिके
प्रथा शब्द ख्यातिके अर्थमें आता है।
समाहार और समुच्चय-ये समूहके वाचक हैं।
अपहार और अपचय-ये ह्रासका बोध करानेवाले हैं।
विहार और परिक्रम-ये घूमनेके अर्थमें आते हैं।
प्रत्याहार और उपादान-ये इन्द्रियोंकी विषयोंसे हटानेके अर्थमें प्रयुक्त होते हैं।
निर्हार तथा अभ्यवकर्षण-ये शरीरमें धैसे हुए शस्त्रादिको युक्तिपूर्वक निकालनेके अर्थमें आते हैं।
विध्न, अन्तराय और प्रत्यूह-ये विघ्नका बोध करानेवाले हैं।
आस्या, आसना और स्थिति-ये बैठनेकीं क्रियाके बोधक हैं।
संनिधि और संनिकर्ष-ये समीप रहने के अर्थमें प्रयुक्त होते हैं।
किलेमें प्रवेश करनेकी क्रियाको संक्रम और दुर्गसंचर कहते हैं।
उपलम्भ और अनुभव-ये अनुभूतिके नाम हैं।
प्रत्यादेश और निराकृति-ये दूसरे के मतका खण्डन करनेके अर्थमें आते हैं।
परिरम्भ, परिष्वङ्ग, संश्लेष और उपगूहन-ये आलिङ्गनके अर्थमें प्रयुक्त होते हैं।
पक्ष और हेतु आदिके द्वारा निश्चित होनेवाले ज्ञानका नाम अनुमा या अनुमान है।
बिना हथियारकी लड़ाई तथा भयभीत होनेपर किये हुए शब्दका नाम डिम्ब, भ्रमर (या डमर) तथा विप्लव है।
शब्दके द्वारा जो परोक्ष अर्थका ज्ञान होता है, उसे शाब्दज्ञान कहते हैं।
समानता देखकर जो उसके तुल्यवस्तुका बोध होता है, उसका नाम उपमान है।
जहाँ कोई कार्य देखकर कारणका निश्चय किया जाय, अर्थात् अमुक कारणके बिना यह कार्य नहीं हो सकता-इस प्रकार विचार करके जो दूसरी वस्तु अर्थात् कारणका ज्ञान प्राप्त किया जाय, उसे अर्थापति कहते हैं।
प्रतियोगीका ग्रहण न होनेपर जो ऐसा कहा जाता है कि ‘अमुक वस्तु पृथ्वीपर नहीं है, उसका नाम अभाव है।
इस प्रकार मनुष्योंका ज्ञान बढ़ानेके लिये मैंने नाम और लिङ्ग-स्वरूप श्रीहरिका वर्णन किया है॥ ११-२८॥
तीन सौ सड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३६७ ॥
अध्याय – ३६८ नित्य, नैमितिक और प्राकृत प्रलयका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं–मुनिवर!’प्रलय’ चार प्रकारका होता है-नित्य, नैमितिक, प्राकृत और आत्यन्तिक।
जगत् में उत्पन्न हुए प्राणियोंकी जो सदा ही मृत्यु होती रहती है, उसका नाम ‘नित्य प्रलय‘ है। एक हजार चतुर्युग बीतनेपर जब ब्रह्माजीका दिन समाप्त होता है, उस समय जों सृष्टिका लय होता है, वह ‘ब्राह्य लय‘के नामसे प्रसिद्ध है। इसीकों ‘नैमितिक प्रलय‘ भी कहते हैं। पाँचों भूतोंका प्रकृतिमें लीन होना ‘प्राकृत प्रलय‘ कहलाता हैं तथा ज्ञान हो जाने पर जब आत्मा परमात्माके स्वरूपमें स्थित होता है, उस अवस्थाका नाम ‘आत्यन्तिक प्रलय‘ है।
कल्पके अन्तमें जो नैमितिक प्रलय होता है, इसके स्वरूपका मैं आपसे वर्णन करता हूँ।
जब चारों युग एक हजार बार व्यतीत हो जाते हैं, उस समय यह भूमण्डल प्राय: क्षीण हो जाता है, तब सौ वर्षोंतक यहाँ बड़ी भयंकर अनावृष्टि होती है। उससे भूतलके सम्पूर्ण जीव-जन्तुओंका विनाश हो जाता है। तदनन्तर जगत् के स्वामी भगवान् विष्णु सूर्यकी सात किरणोंमें स्थित होकर पृथ्वी, पाताल और समुद्र आदिका सारा जल पी जाते हैं। इससे सर्वत्र जल सूख जाता है। तत्पश्चात् भगवान् की इच्छासे जलका आहार करके पुष्ट हुई वे ही सातों किरणें सात सूर्यके रूपमें प्रकट होती हैं। वे सातों सूर्य पातालसहित समस्त त्रिलोकीको जलाने लगते हैं।’ उस समय यह पृथ्वी कछुएकी पीठके समान दिखायी देती है। फिर भगवान् शेषके श्वासोंसे ‘कालाग्नि रुद्र’का प्रादुर्भाव होता है और वे नीचे के समस्त पातालोंको भस्म कर डालते हैं। पातालके पश्चात् भगवान् विष्णु भूलोकको,फिर भुवलोंकको तथा सबके अन्तमें स्वर्गलोकको भी दग्ध कर देते हैं। उस समय समस्त त्रिभुवन जलते हुए भाड़-सा प्रतीत होता है। तदनन्तर भुवलोक और स्वर्ग-इन दो लोकोंके निवासी अधिक ताप से संतत होकर ‘महर्लोक’में चले जाते हैं तथा महर्लोकसे जनलोक में जाकर स्थित होते हैं।
शेषरूपी भगवान् विष्णुके मुखोच्छवाससे प्रकट हुए कालाग्निरुद्र जब सम्पूर्ण जगत् को जला डालते हैं, तब आकाशमें नाना प्रकारके रूपवाले बादल उमड़ आते हैं, उनके साथ बिजलीकी गड़गड़ाहट भी होती है। वे बादल लगातार सौ वर्षोंतक वर्षा करके बढ़ी हुई आगको शान्त कर देते हैं। जब सप्तर्षियोंके स्थानतक पानी पहुँच जाता है, तब विष्णुके मुखसे निकली हुई साँससे सौ वर्षोंतक प्रचण्ड वायु चलती रहती है, जो उन बादलोंको नष्ट कर डालती है।
फिर ब्रह्मरूपधारी भगवान् उस वायुको पीकर एकार्णवके जलमें शयन करते हैं। उस समय सिद्ध और महर्षिगण जलमें स्थित होकर भगवान्की स्तुति करते हैं और भगवान् मधुसूदन अपने वासुदेव संज्ञक आत्माका चिन्तन करते हुए, अपनी ही दिव्य मायामयी योगनिद्राका आश्रय ले एक कल्पतक सोते रहते हैं। तदनन्तर जागनेपर वे ब्रह्माके रूप में स्थित होकर पुन: जगत् की सृष्टि करते हैं।
इस प्रकार जब ब्रह्माजीके दो परार्द्धकी आयु समाप्त हो जाती है, तब यह सारा स्थूल प्रपञ्च प्रकृतिमें लीन हो जाता है। १-१५ ॥
इकाई-दहाईके क्रमसे एकके बाद दसगुने स्थान नियत करके यदि गुणा करते चले जायँ तो अठारहवें स्थानतक पहुँचनेपर जो संख्या बनती है, उसे ‘पराद्ध’ कहते हैं*। परार्द्धका दूना समय व्यतीत हो जाने पर ‘प्राकृत प्रलय’ होता है।
उस समय वर्षाके एकदम बंद हो जाने और सब ओर प्रचण्ड अग्नि प्रज्वलित होनेके कारण सब कुछ भम्म हो जाता है। महत्तत्व से लेकर विशेषपर्यन्त सभी विकारों (कार्यों)-का नाश हो जाता है। भगवान् के संकल्पसे होनेवाले उस प्राकृत प्रलयके प्राप्त होनेपर जल पहले पृथ्वीके गन्ध आदि गुणको ग्रस लेता है-अपनेमें लीन कर लेता है। तब गन्धहीन पृथ्वीका प्रलय हो जाता है-उस समय जलमें घुल-मिलकर वह जलरूप हो जाती हैं। उसके बाद रसमय जलकी स्थिति रहती है। फिर तेजस्तत्व जलके गुण रसको पी जाता है। इससे जलका लय हो जाता है। जलके लीन हो जाने पर अग्नितत्व प्रज्वलित होता रहता है। तत्पश्चात्तेजके प्रकाशमय गुण रूपको वायुतत्व ग्रस लेता है। इस प्रकार तेजके शान्त हों जाने पर अत्यन्त प्रबल एवं प्रचण्ड वायु बड़े वेगसे चलने लगती है। फिर वायुके गुण स्पर्शको आकाश अपने में लीन कर लेता है । गुण के साथ ही वायु का नाश होनेपर केवल नीरव आकाशमात्र रह जाता है।
तदनन्तर भूतादि (तामस अहंकार) आकाशके गुण शब्दको ग्रस लेता है तथा तैजस अहंकार इन्द्रियोंको अपने में लीन कर लेता है। इसके बाद महत्तत्व अभिमान स्वरूप भूतादि एवं तैजस अहंकारको ग्रस लेता है। इस तरह पृथ्वी जल में लीन होती है, जल तेजमें समा जाता है, तेजका वायुमें, वायुका आकाशमें और आकाशका अहंकारमें लय होता है। फिर अहंकार महत्तत्वमें प्रवेश कर जाता है। उस महत्तत्वको भी प्रकृति ग्रस लेती है।
ब्रह्मन्! उस प्रकृतिके दो स्वरूप हैं ‘व्यक्त’ और ‘अव्यक्त’। इनमें व्यक्त प्रकृतिका अव्यक्त प्रकृतिमें लय होता है। एक, अविनाशी और शुद्धस्वरूप जो पुरुष हैं, वह भी परमात्माका ही अंश है, अतः अन्तमें प्रकृति और पुरुष-ये दोनों परमात्मा में लीन हो जाते हैं। परमात्मा सत्स्वरूप ज्ञेय और ज्ञानमय है। वह आत्मा (बुद्धि आदि)-से सर्वथा परे है। वही सबका ईश्वर-‘सर्वेश्वर’ कहलाता है। उसमें नाम और जाति आदिकी कल्पनाएँ नहीं हैं। ॥ १६-२७ ॥
तीन सौ अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३६८ ॥
अध्याय – ३६९ आत्यन्तिक प्रलय एवं गर्भकी उत्पत्तिका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठजी ! अब मैं’आत्यन्तिक प्रलय’का वर्णन करूंगा।
जब जगत् के आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक संतापोंकी जानकर मनुष्यको अपनेसे भी वैराग्य हो जाता है, उस समय उसे ज्ञान होता है और ज्ञानसे इस सृष्टिका आत्यन्तिक प्रलय होता है | (यही जीवात्माका मोक्ष है)।
आध्यात्मिक संताप ‘शारीरिक’ और ‘मानसिक’ भेदसे दो प्रकारका होता है।
ब्रह्मन्! शारीरिक तापके भी अनेकों भेद हैं, उन्हें श्रवण कीजिये।
वसिष्ठजी! जीव भोगदेहका परित्याग करके अपने कर्मोके अनुसार पुनः गर्भमें आता है। एक “आतिवाहिक’ संज्ञक शरीर होता है, वह केवल मनुष्योंको मृत्युकाल उपस्थित होनेपर प्राप्त होता है।
विप्रवर! यमराजके दूत मनुष्यके उस आतिवाहिक शरीरको यमलोकके मार्गसे ले जाते हैं। मुने। दूसरे प्राणियोंको न तो आतिवाहिक शरीर मिलता है और न वे यमलोक के मार्गसे ही ले जाये जाते हैं। तदनन्तर यमलोकमें गया हुआ जीव कभी स्वर्गमें और कभी नरकमें जाता है। जैसे रहट नामक यन्त्रमें लगे हुए घड़े कभी पानीमें डूबते हैं और कभी ऊपर आते हैं, उसी तरह जीवको कभी स्वर्ग और कभी नरक में चकर लगाना पड़ता है।
ब्रह्मन्! यह लोक कर्मभूमि है और परलोक फल भूमि। यमराज जीवको उसके कर्मानुसार भिन्न-भिन्न योनियों तथा नरकोंमें डाला करते हैं। यमराज ही जीवोंद्वारा नरकोंको परिपूर्ण बनाये रखते हैं। यमराजको ही इनका नियामक समझना चाहिये।
जीव वायुरूप होकर गर्भमें प्रवेश करते हैं। यमदूत जब मनुष्यको यमराजके पास ले जाते हैं, तब वे उसकी ओर देखते हैं। (उसके कर्मोपर विचार करते हैं-) यदि कोई धर्मात्मा होता है तो उसकी पूजा करते हैं और यदि पापी होता है तो अपने घरपर उसे दण्ड देते हैं।
चित्रगुप्त उसके शुभ और अशुभ कर्मोंका विवेचन करते हैं। धर्मके ज्ञाता वसिष्ठजी! जबतक बन्धु-बान्धवोंका अशौच निवृत्त नहीं होता, तबतक जीव आतिवाहिक शरीरमें ही रहकर दिये हुए पिण्डोंको भोजनके रूपमें अपने साथ ले जाता है। तत्पश्चात् प्रेतलोकमें पहुँचकर प्रेतदेह (आतिवाहिक शरीर)-का त्याग करता है और दूसरा शरीर (भोगदेह) पाकर वहाँ भूख-प्याससे युक्त हो निवास करता है।
उस समय उसे वही भोजनके लिये मिलता है, जो श्राद्धके रूपमें उसके निमित कच्चा अन्न दिया गया होता है। प्रेतके निमित्त पिण्डदान किये बिना उसको आतिवाहिक शरीरसे छुटकारा नहीं मिलता, वह उसी शरीरमें रहकर केवल पिण्डोंका भोजन करता है।
सपिण्डीकरण श्राद्ध करनेपर एक वर्षके पश्चात् वह प्रेतदेहको छोड़कर भोगदेहको प्राप्त होता है।
‘भोगदेह’ दो प्रकारके बताये गये हैं शुभ और अशुभ।
भोगदेहके द्वारा कर्मजनित बन्धनोंको भोगनेके पश्चात् जीव मर्त्यलोकमें गिरा दिया जाता है। उस समय उसके त्यागे हुए भोगदेहको निशाचर खा जाते है। ब्रह्मन्! यदि जीव भोगदेहके द्वारा पहले पुण्यके फलस्वरूप स्वर्गका सुख भोग लेता है और पाप भोगना शेष रह जाता है तो वह पापियोंके अनुरूप दूसरा भोगशरीर धारण करता है। परंतु जो पहले पापका फल भोगकर पीछे स्वर्गका सुख भोगता है, वह भोग समाप्त होनेपर स्वर्गसे भ्रष्ट होकर पवित्र आचार-विचारवाले धनवानोंके घरमें जन्म लेता है।
वसिष्ठजी ! यदि जीव पुण्यके रहते हुए पहले पाप भोगता है तो उसका भोग समाप्त होनेपर वह पुण्यभोगके लिये उत्तम (देवोचित) शरीर धारण करता है। जब कर्मका भोग थोड़ा-सा ही शेष रह जाता है तो जीवको नरकसे भी छुटकारा मिल जाता है। नरकसे निकला हुआ जीव पशु-पक्षी आदि तिर्यग्योनिमें ही जन्म लेता है; इसमें तनिक भी संदेह नहीं है
(मानवयोनिके) गर्भमें प्रविष्ट हुआ जीव पहले महीनेमें कलल (रज-वीर्यकेमित्रित बिन्दु)- के रूपमें रहता है, दूसरे महीनेमें वह घनीभूत होता है (कठोर मांसपिण्डका रूप धारण करता——-
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मनुष्य अधिक वातवाला होता है-उसमें वातकी प्रधानता होती है। जिसके असमयमें ही बाल सफेद हो जार्य, जो क्रोधी, महाबुद्धिमान् और युद्धको पसंद करनेवाला हो, जिसे सपनेमें प्रकाशमान वस्तुएँ अधिक दिखायी देती हों, उसे पित्तप्रधान प्रकृतिका मनुष्य समझना चाहिये।
जिसकी मैत्री, उत्साह और अङ्ग सभी स्थिर हों, जो धन आदिसे सम्पन्न हो तथा जिसे स्वप्नमें जल एवं श्वेत पदार्थोंका अधिक दर्शन होता हो, उस मनुष्यमें कफकी प्रधानता है।
प्राणियोंके शरीर में रस जीवन देनेवाला होता है, रक्त लेपनका कार्य करता है तथा मांस मेहन एवं स्नेहन क्रियाका प्रयोजक है। हडडी और मजाका काम है शरीर को धारण करना। वीर्यकी वृद्धि शरीरको पूर्ण बनानेवाली होती है। ओज शुक्र एवं वीर्यका उत्पादक है, वही जीवकी स्थिति और प्राणकी रक्षा करनेवाला है। ओज शुक्रकी अपेक्षा भी अधिक सार वस्तु है। वह हृदयके समीप रहता है और उसका रंग कुछकुछ पीला होता है।
दोनों जंघे (ये समस्त पैरके उपलक्षण हैं), दोनों भुजाएँ उदर और मस्तकये छ: अङ्ग बताये गये हैं।
त्वचाके छ: स्तर हैं। एक तो वही है, जो बाहर दिखायी देती है। दूसरी वह है, जो रक्त धारण करती है। तीसरी किलास (धातुविशेष) और चौथी कुण्ड (धातुविशेष)- को धारण करनेवाली है। पाँचवीं त्वचा इन्द्रियोंका स्थान है और छठी प्राणोंको धारण करनेवाली मानी गयी है।
कला भी सात प्रकारकी है-पहली मांस धारण करनेवाली, दूसरी रक्तधारिणी, तीसरी जिगर एवं प्लीहाको आश्रय देनेवाली, चौथी मेदा और अस्थि धारण करनेवाली, पाँचवीं मज्जा, श्लेष्मा और पुरीषको धारण करनेवाली, जो पकाशयमें स्थित रहती है, छठी पित्त धारण करनेवाली और सातवीं शुक्र धारण करनेवाली है। वह शुक्राशय में स्थित रहती है
तीन सौ उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३६९ ॥
अध्याय – ३७० शरीरके अवयव
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठजी! कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका-ये ज्ञानेन्द्रियाँ हैं।
आकाश सभी भूतोंमें व्यापक है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये क्रमश: आकाश आदि पाँच भूतोंके गुण हैं।
गुदा, उपस्थ (लिङ्ग या योनि), हाथ, पैर और वाणी-ये ‘कर्मेन्द्रिय’ कहे गये हैं।
मलत्याग, विषयजनित आनन्दका अनुभव, ग्रहण, चलन तथा वार्तालाप-ये क्रमश: उपर्युक्त इन्द्रियोंके कार्य हैं।
पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच इन्द्रियोंके विषय, पाँच महाभूत मन, बुद्धि, आत्मा (महत्तत्व), अव्यक्त (मूल प्रकृति)-ये चौबीस तत्व हैं।
इन सबसे परे है- पुरुष। वह इनसे संयुक्त भी रहता है और पृथक् भी; जैसे मछली और जल-ये दोनों एक साथ संयुक्त भी रहते हैं और पृथक् भी।
रजोगुण, तमोगुण और सत्वगुण-ये अव्यक्तके आश्रित हैं। अन्त:करणकी उपाधिसे युक्त पुरुष ‘जीव’ कहलाता है, वही निरुपाधिक स्वरूपसे ‘परब्रह्म’ कहा गया है, जो सबका कारण है। जो मनुष्य इस परम पुरुषको जान लेता है, वह परमपदको प्राप्त होता है।
इस शरीरके भीतर सात ‘आशय’ माने गये हैं – पहला रूधिराशय. दुसरा श्लेष्माशय, तीसरा आमाशय, चौथा पित्ताशय, पाँचवाँ पक्काशय, छठा वाताशय और सातवाँ मूत्राशय। स्त्रियोंके इन सात के अतिरिक एक आठवाँ आशय भी होता हैं, जिसे ‘गर्भाशय’ कहते हैं।
अग्निसे पित्त और पित्तसे पक्काशय होता है।
ऋतुकालमें स्त्रीकी योनि कुछ फैल जाती है। उसमें स्थापित किया हुआ वीर्य गर्भाशयतक पहुँच जाता है। गर्भाशय कमलके आकारका होता है। वही अपनेमें रज और वीर्यकों धारण करता है।
वीर्यसे शरीर और समयानुसार उसमें केश प्रकट होते हैं।
ऋतुकालमें भी यदि योनि वात, पित्त और कफसे आवृत हो तो उसमें विकास (फैलाव) नहीं आता। (ऐसी दशा में वह गर्भ-धारणके योग्य नहीं रहती।)
महाभाग ! बुक्कसे पुक्कस, प्लीहा, यकृत्, कोष्ठाङ्ग, हृदय, व्रण तथा तण्डक होते हैं। ये सभी आशयमें निबद्ध हैं।
प्राणियोंके पकाये जानेवाले रसके सारसे प्लीहा और यकृत् होते हैं।
धर्मके ज्ञाता वसिष्ठजी! रक्तके फेनसे पुक्कसकी उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार रक, पित्त तथा तण्डक भी उत्पन्न होते हैं।
मेदा और रतके प्रसारसे बुक्काकी उत्पति होती है।
रक्त और मांसके प्रसारसे देहधारियोंकी आँतें बनती हैं। पुरुषकी आँतोंका परिमाण साढ़े तीन व्याम बताया जाता है और वेदवेत्ता पुरुष स्त्रियोंकी आँते तीन व्याम लंबी बतलाते हैं।
रक्त और वायुके संयोगसे कामका उदय होता है।
कफके प्रसारसे हृदय प्रकट होता है। उसका आकार कमलके समान है। उसका मुख नीचेकी ओर होता है तथा उसके मध्यका जो आकाश है, उसमें जीव स्थित रहता है। चेतनतासे सम्बन्ध रखनेवाले सभी भावोंकी स्थिति वही है। हृदयके वामभागमें प्लीहा और दक्षिणभागमें यकृत् है तथा इसी प्रकार हृदयकमलके दक्षिणभागमें कलोम (फुफ्फुस)-की भी स्थिति बतायी गयी है।
इस शरीर में कफ और रक्त को प्रवाहित करनेवाले जोजो स्रोत हैं, उनके भूतानुमानसे इन्द्रियोंकी उत्पति होती है।
नेत्रमण्डल का जो श्वेतभाग है, वह कफसे उत्पन्न होता है। उसका प्राकटय पिताके वीर्यसे माना गया है तथा नेत्रोंका जो कृष्ण-भाग है, वह माताके रज एवं वातके अंशसे प्रकट होता है।
त्वचामण्डलकी उत्पति पित्तसे होती है। इसे माता और पिता-दोनोंके अंशसे उत्पन्न समझना चाहिये।
मांस, रक्त और कफसे जिह्वाका निर्माण होता है।
मेदा, रक्त, कफ और मांससे अण्डकोषकी उत्पत्ति होती है।
प्राणके दस आश्रय जानने चाहिये-मूर्द्धा, हृदय, नाभि, कण्ठ, जिह्वा, शुक्र, रक्त, गुद, वस्ति (मूत्राशय) और गुल्फ (पाँवकी गाँठ या घुट्टी)
‘कण्डरा’ (नसे) सोलह बतायी गयी हैं। दो हाथ में दो पैरमें, चार पीठमें, चार गलेमें तथा चार पैरसे लेकर सिरतक समूचे शरीरमें हैं। इसी प्रकार ‘जाल’ भी सोलह बताये गये हैं।
मांसजाल, स्नायुजाल, शिराजाल और अस्थिजाल-ये चारों पृथक्-पृथक् दोनों कलाइयों और पैरकी दोनों गाँठोंमें परस्पर आबद्ध हैं।
इस शरीरमें छः कूर्च माने गये हैं। मनीषी पुरुषोंने दोनों हाथ, दोनों पैर, गला और लिङ्ग-इन्हींमें उनका स्थान बताया है।
पृष्ठके मध्यभागमें जो मेरुदण्ड है, उसके निकट चार मांसमयी डोरियाँ हैं तथा उतनी ही पेशियाँ भी हैं, जो उन्हें बाँधे रखती हैं।
सात सीरणियाँ हैं। इनमेंसे पाँच तो मस्तकके आश्रित हैं और एक-एक मेढ़ (लिङ्ग) तथा जिह्वामें है।
हड़ियाँ अठारह हजार हैं।
सूक्ष्म और स्थूल-दोनों मिलाकर चौसठ दाँत हैं।
बीस नख हैं। इनके अतिरिक्त हाथ और पैरोंकी शलाकाएँ हैं, जिनके चार स्थान हैं।
अँगुलियोंमें साठ, एड़ियोंमें दो, गुल्फोंमें चार, अरत्नियोंमें चार और जंघोंमें भी चार ही हड़ियाँ हैं। घुटनोंमें दो, गालोंमें दो, ऊरुओंमें दो तथा फलकोंके मूलभागमें भी दो ही हड़ियाँ हैं। इन्द्रियोंके स्थानों तथा श्रोणिफलकमें भी इसी प्रकार दो-दो हड़ियाँ बतायी गयी हैं। भगमें भी थोड़ी-सी हड़ियाँ हैं। पीठमें पैंतालीस और गलेमें भी पैंतालीस हैं। गलेकी हसली, ठोड़ी तथा उसकी जड़में दो-दो अस्थियाँ हैं। ललाट, नेत्र, कपोल, नासिका, चरण, पसली, तालु तथा अर्बुद-इन सबमें सूक्ष्मरूपसे बहतर हड़ियाँ हैं। मस्तकमें दो शडख और चार कपाल हैं तथा छातीमें सत्रह हड़ियाँ हैं।
संधियाँ दो सौ दस बतायी गयी हैं। इनमेंसे शाखाओंमें अड़सठ तथा उनसठ हैं और अन्तरामें तिरासी संधियाँ बतायी गयी हैं।
स्नायुकी संख्या नौ सौ है, जिनमेंसे अन्तराधिमें दो सौ तीस हैं, सत्तर ऊध्र्वगामी हैं और शाखाओंमें छ: सौ स्नायु हैं।
पेशियाँ पाँच सौ बतलायी गयी हैं। इनमें चालीस तो ऊध्र्वगामिनी हैं, चार सौ शाखाओंमें हैं और साठ अन्तराधि में हैं।
स्त्रियोंकी मांसपेशियाँ पुरुषोंकी अपेक्षा सताईस अधिक हैं। इनमें दस दोनों स्तनोंमें, तेरह योनिमें तथा चार गर्भाशय में स्थित हैं।
देहधारियोंके शरीर में तीस हजार नौ तथा छप्पन हजार नाड़ियाँ हैं। जैसे छोटी-छोटी नालियाँ क्यारियोंमें पानी बहाकर ले जाती हैं, उसी प्रकार वे नाड़ियाँ सम्पूर्ण शरीरमें रसको प्रवाहित करती हैं। क्लेद और लेप आदि उन्हींके कार्य हैं।
महामुने! इस देहमें बहत्तर करोड़ छिद्र या रोमकूप हैं तथा मजा, मैदा, वसा, मूत्र, पित, श्लेष्मा, मल, रक्त और रस-इनकी क्रमश: ‘अञ्जलियाँ’ मानी गयी हैं। इनमेंसे पूर्वपूर्व अञ्जलीकी अपेक्षा उत्तरोत्तर सभी अञ्जलियाँ मात्रामें डेढ़-गुनी अधिक हैं। एक अञ्जलिमें आधी वीर्यकी और आधी ओजकी है।
विद्वानोंने स्त्रियोंके रजकी चार अञ्जलियाँ बतायी हैं।
यह शरीर मल और दोष आदिका पिण्ड है, ऐसा समझकर अपने अन्त:करणमें इसके प्रति होनेवाली आसफिका त्याग करना चाहिये ॥ १-४३ ॥
तीन सौं सतारवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३७० ॥
अध्याय – ३७१ प्राणियोकी मृत्यु, नरक तथा पापमूलक जन्मका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं-मुने! मैं यमराजके मार्गकी पहले चर्चा कर चुका हूँ, इस समय मनुष्योंकी मृत्युके विषयमें कुछ निवेदन करूंगा। शरीरमें जब वातका वेग बढ़ जाता है तो उसकी प्रेरणासे ऊष्मा अर्थात् पित्तका भी प्रकोप हो जाता है। वह पित्त सारे शरीरको रोककर सम्पूर्ण दोषोंको आवृत कर लेता है तथा प्राणोंके स्थान और मर्मोका उच्छेद कर डालता है। फिर शीतसे वायुका प्रकोप होता है और वायु अपने निकलनेके लिये छिद्र ढूँढ़ने लगती है। दो नेत्र, दो कान, दो नासिका और एक ऊपरका ब्रह्मरन्ध्र-ये सात छिद्र हैं तथा आठवाँ छिद्र मुख है। शुभ कार्य करनेवाले मनुष्योंके प्राण प्राय: इन्हीं सात मार्गोंसे निकलते हैं। नीचे भी दो छिद्र हैं-गुदा और उपस्थ। पापियोंके प्राण इन्हीं छिद्रोंसे बाहर होते हैं, परंतु योगीके प्राण मस्तकका भेदन करके निकलते है और जीव इच्छानुसार लोकों में जाता है।
अन्तकाल आनेपर प्राण अपानमें स्थित होता है।
तमके द्वारा ज्ञान आवृत हो जाता है, मर्मस्थान आच्छादित हो जाते हैं। उस समय जीव वायुके द्वारा बाधित हो नाभिस्थानसे विचलित कर दिया जाता है; अत: वह आठ अङ्गोंवाली प्राणोंकी वृत्तियोंको लेकर शरीरसे बाहर हो जाता है।
देहसे निकलते, अन्यत्र जन्म लेते अथवा नाना प्रकार की योनियोंमें प्रवेश करते समय जीवकों सिद्ध पुरुष और देवता ही अपनी दिव्यदृष्टिसे देखते हैं।
मृत्युके बाद जीव तुरंत ही आतिवाहिक शरीर धारण करता है। उसके त्यागे हुए शरीरसे आकाश, वायु और तेज-ये ऊपरके तीन तत्वोंमें मिल जाते हैं तथा जल और पृथ्वीके अंश नीचेके तत्वोंसे एकीभूत हो जाते हैं। यही पुरुषका “पश्चत्वको प्राप्त होना’ माना गया है।
मरे हुए जीवको यमदूत शीघ्र ही आतिवाहिक शरीरमें पहुँचाते हैं।
यमलोकका मार्ग अत्यन्त भयंकर और छियासी हजार योजन लंबा है। उसपर ले जाया जानेवाला जीव अपने बन्धु-बान्धवोंके दिये हुए अन्न-जलका उपभोग करता है।
यमराजसे मिलनेके पश्चात् उनके आदेशसे चित्रगुप्त जिन भयंकर नरकोंको बतलाते हैं, उन्होंकी वह जीव प्राप्त होता है। यदि वह धर्मात्मा होता है, तो उत्तम मागाँसे स्वर्गलोक को जाता है। १-१२ ॥
अब पापी जीव जिन नरकों और उनकी यातनाओंका उपभोग करते हैं, उनका वर्णन करता हूँ।
इस पृथ्वीके नीचे नरककी अट्ठाईस ही श्रेणियाँ हैं।
सातवें तलके अन्तमें घोर अन्धकारके भीतर उनकी स्थिति है। नरक की पहली कोटि ‘घोरा”के नामसे प्रसिद्ध है। उसके नीचे ‘सुधोरा’की स्थिति हैं। तीसरी ‘अतिघोरा’, चौथी ‘महाघोरा’ और पाँचवीं ‘घोररूपा” नामकी कोटि हैं। छठीका का नाम तरलतारा, सातवी का नाम भयानका है आठवी भयोत्कटा, नौवी कालरात्री, दसवी महाचण्डा, ग्यारहवी चण्डा, बारहवी कोलाहल, तेरहवी प्रचण्डा, चौदहवी पधा, पंद्रहवी नरकनायिका, सोलहवी पधावती, सत्रहवी भीषणा अठारहवी भीमा, उन्नीसवा करालिका, बीसवाँ विकराला, इक्कीसवाँ महाव्रजा, बाईसवी त्रिकोणा, तेईसवी पग्य्चकोणिका, चौवीसवा सुर्दीर्धा, पचिसवा ‘वर्तुला’, छब्बीसवीं ‘सप्तभूमा’ सताईसवीं ‘सुभूमिका” और अट्ठाईसवीं ‘दीप्तमाया’ है। इस प्रकार ये अट्टाईस कोटियाँ पापियोको दुःख देनेवाली हैं॥ १३-१८ ॥
नरकोंकी अट्ठाईस कोटियोंके पाँच-पाँच नायक हैं (तथा पाँच उनके भी नायक हैं)। वे ‘रौरव’ आदिके नामसे प्रसिद्ध हैं। उन सबकी संख्या एक सौ पैंतालीस है-तामिस्र, अन्धतामिस्र, महारौरव, रौरव, असिपत्रवन, लोहभार, कालसूत्रनरक, महानरक, संजीवन, महावीचि, तपन, सम्प्रतापन, संधात, काकोल, कुडमल, पूतमृत्युक, लोहशडकु, ऋजीष, प्रधान, शाल्मली वृक्ष और वैतरणी नदी चाहिये। ये बड़े भयंकर दिखायी देते हैं। पापी पुरुष इनमेंसे एक-एक में तथा अनेकमें भी डाले जाते हैं।
यातना देनेवाले यमदूतोंमें किसीका मुख बिलावके समान होता है तो किसीका उल्लूके समान, कोई गीदड़के समान मुखवाले हैं तो कोई गृध्र आदिके समान।
वे मनुष्यको तेलके कड़ाहेमें डालकर उसके नीचे आग जला देते हैं। किन्हीको भाड़में, किन्हीको ताँबे या तपाये हुए लोहेके बर्तनोंमें तथा बहुतोंको आगकी चिनगारियोंमें डाल देते हैं। कितनोंको वे शूलीपर चढ़ा देते हैं। बहुत-से पापियोंको नरकमें डालकर उनके टुकड़े-टुकड़े किये जाते हैं। कितने ही कोड़ोंसे पीटे जाते हैं और कितनोंको तपाये हुए लोहेके गोले खिलाये जाते हैं। बहुत-से यमदूत उनको धूलि, विष्ठा, रक्त और कफ आदि भोजन कराते तथा तपायी हुई मदिरा पिलाते हैं। बहुत-से जीवोंको वे आरेसे चीर डालते हैं। कुछ लोगोंको कोल्हूमें पेरते हैं। कितनोंको कौंवे आदि नोच-नोचकर खाते हैं। किन्हीं-किन्हींके ऊपर गरम तेल छिड़का जाता है तथा कितने ही जीवोंके मस्तक के अनेकों टुकड़े किये जाते हैं।
उस समय पापी जीव ‘अरे बाप रे” कहकर चिल्लाते हैं और हाहाकार मचाते हुए अपने पापकर्मोकी निन्दा करते हैं। इस प्रकार बड़े-बड़े पातकोंके फलस्वरूप भयंकर एवं निन्दित नरकोंका कष्ट भोगकर कर्म क्षीण होनेके पश्चात् वे महापापी जीव पुनः इस मत्र्यलोकमें जन्म लेते हैं॥ १९-२९ ॥
ब्रह्महत्यारा पुरुष मृग, कुत्ते, सूअर और ऊँटोंकी योनिमें जाता है।
मदिरा पीनेवाला गदहे, चाणडाल तथा म्लेच्छोंमें जन्म पाता है।
सोना चुरानेवाले कीड़े-मकोड़े और पतिंगे होते हैं तथा
गुरुपत्नीसे गमन करनेवाला मनुष्य तृण एवं लताओंमें जन्म ग्रहण करता है।
ब्रह्महत्यारा राजयक्ष्माका रोगी होता है,
शराबीके दाँत काले हो जाते हैं,
सोना चुरानेवालेका नख खराब होता है तथा
गुरुपत्नीगामीके चमड़े दूषित होते हैं (अर्थात् वह कोढ़ी हो जाता है)।
जो जिस पापसे सम्पर्क रखता है, वह उसीका कोई चिह्न लेकर जन्म ग्रहण करता है।
अन्न चुरानेवाला मायावी होता है।
वाणी (कविता आदि)-की चोरी करनेवाला गुंगा होता है।
धान्यका अपहरण करनेवाला जब जन्म ग्रहण करता है, तब उसका कोई अङ्ग अधिक होता है,
चुगुलखोरकी नासिकासे बदबू आती है,
तेल चुरानेवाला पुरुष तेल पीनेवाला कीड़ा होता है तथा
जो इधरकी बातें उधर लगाया करता है, उसके मुँहसे दुर्गन्ध आती है।
दूसरोंकी स्त्री तथा ब्राह्मणके धनका अपहरण करनेवाला पुरुष निर्जन वनमें ब्रह्मराक्षस होता है।
रत्न चुरानेवाला नीच जाति में जन्म लेता है।
उत्तम गन्धकी चोरी करनेवाला छछूदर होता है।
शाक-पात चुरानेवाला मुर्गा तथा
अनाजकी चोरी करनेवाला चूहा होता है।
पशुका अपहरण करनेवाला बकरा,
दूध चुरानेवाला कौवा,
सवारीकी चोरी करनेवाला ऊँट तथा
फल चुराकर खानेवाला बन्दर होता है।
शहदकी चोरी करनेवाला डाँस,
फल चुरानेवाला गृध्र तथा
घरका सामान हड़प लेनेवाला गृहकाक होता है।
वस्त्र हड़पनेवाला कोढ़ी,
चोरी-चोरी रसका स्वाद लेनेवाला कुत्ता और
नमक चुरानेवाला झींगुर होता है॥ ३०-३७ ॥
यह ‘आधिदैविक ताप‘ का वर्णन किया गया है। शस्त्र आदिसे कटकी प्राप्ति होना ‘आधिभौतिक ताप” है तथा ग्रह, अग्नि और देवता आदिसे जो कष्ट होता है, वह “आधिदैविक ताप’ बतलाया गया है।
इस प्रकार यह संसार तीन प्रकारके दु:खोंसे भरा हुआ है। मनुष्यकी चाहिये कि ज्ञानयोगसे, कठोर व्रतोसे, दान आदि पुण्योंसे तथा विष्णुकी पूजा आदिसे इस दु:खमय संसारका निवारण करे
तीन सौ इकहतरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३७१ ॥
अध्याय – ३७२ यम और नियमोंकी व्याख्या; प्रणवकी महिमा तथा भगवत्पूजनका माहात्म्य
अग्निदेव कहते हैं–मुने! अब मैं ‘अष्टाङ्गयोग’का वर्णन करूंगा, जो जगत् के त्रिविध तापसे छुटकारा दिलानेका साधन है।
ब्रह्मको प्रकाशित करनेवाला ज्ञान भी ‘योग’ से ही सुलभ होता है। एकचित होना-चितको एक जगह स्थापित करना ‘योग’ है। चित्तवृत्तियोंके निरोधको भी ‘योग’ कहते हैं। जीवात्मा एवं परमात्मामें ही अन्त:करणकी वृत्तियोंको स्थापित करना उत्तम ‘योग’ है।
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पाँच ‘यम’ हैं।
ब्रह्मन्! ‘नियम’ भी पाँच ही हैं, जो भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। उनके नाम ये हैं-शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वराराधन (ईश्वरप्रणिधान) ।
किसी भी प्राणीको कष्ट न पहुँचाना ‘अहिंसा’ है। ‘अहिंसा’ सबसे उत्तम धर्म है। जैसे राह चलनेवाले अन्य सभी प्राणियोंके पदचिह्न हाथोंके चरणचिह्नमें समा जाते हैं, उसी प्रकार धर्मके सभी साधन ‘अहिंसा’ में गतार्थ माने जाते हैं।
‘हिंसा”के दस भेद हैं-किसीको उद्वेगमें डालना, संताप देना, रोगी बनाना, शरीरसे रक्त निकालना, चुगली खाना, किसीके हितमें अत्यन्त बाधा पहुँचाना, उसके छिपे हुए रहस्यका उदघाटन करना, दुसरेको सुखसे वन्चित करना, अकारण कैद करना और प्राणदण्ड देना।
जो बात दूसरे प्राणियोंके लिये अत्यन्त हितकर है, वह ‘सत्य’ है। ‘सत्य’का यही लक्षण है-सत्य बोले, किंतु प्रिय बोले, अप्रिय सत्य कभी न बोले। इसी प्रकार प्रिय असत्य भी मुँहसे न निकाले; यह सनातन धर्म है।
‘ब्रह्मचर्य’ कहते हैं-‘मैथुनके त्यागको’। ‘मैथुन” आठ प्रकार का होता है- स्त्रीका स्मरण, उसकी चर्चा, उसके साथ क्रीडा, उसकी ओर देखना, उससे लुक-छिपकर बातें करना, उसे पानेका संकल्प, उसके लिये उद्योग तथा क्रियानिवृत्ति (स्त्रीसे साक्षात् समागम)-ये मैथुनके आठ अङ्ग हैं-ऐसा मनीषी पुरुषोंका कथन है। ‘ब्रह्मचर्य’ ही सम्पूर्ण शुभ कर्मोकी सिद्धिका मूल है; उसके बिना सारी क्रिया निष्फल हो जाती है। वसिष्ठ, चन्द्रमा, शुक्र, देवताओंके आचार्य बृहस्पति तथा पितामह ब्रह्माजी-ये तपोवृद्ध और वयोवृद्ध होते हुए भी स्त्रियोंके मोहमें फैस गये। गौड़ी, पैटी और माध्वी-ये तीन प्रकारकी सुरा जाननी चाहिये। इनके बाद चौथी सुरा ‘स्त्री” है, जिसने सारे जगत् को मोहित कर रखा है। मदिराको तो पीनेपर ही मनुष्य मतवाला होता है, परंतु युवती स्त्रीकी देखते ही उन्मत्त हो उठता है। नारी देखनेमात्रसे ही मनमें उन्माद करती है, इसलिये उसके ऊपर दृष्टि न डाले।
मन, वाणी और शरीरद्वारा चोरी से सर्वथा बचे रहना ‘अस्तेय” कहलाता है। यदि मनुष्य बलपूर्वक दूसरेकी किसी भी वस्तुका अपहरण करता है, तो उसे अवश्य तिर्यग्योनिमें जन्म लेना पड़ता है। यही दशा उसकी भी होती हैं, जो हवन किये बिना ही (बलिवैश्वदेवके द्वारा देवता आदिका भाग अर्पण किये बिना ही) हविष्य (भोज्यपदार्थ)- का भोजन कर लेता है।
कौपीन, अपने शरीरकों ढकनेवाला वस्त्र, शीतका कष्ट-निवारण करनेवाली कन्था (गुदड़ी) और खड़ाऊँ-इतनी ही वस्तुएँ साथ रखे। इनके सिवा और किसी वस्तुका संग्रह न करे-(यही अपरिग्रह है) ।
शरीरकी रक्षाके साधनभूत वस्त्र आदिका संग्रह किया जा सकता है। धर्मके अनुष्ठानमें लगे हुए शरीरकी यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये ॥ १-१६ ॥
“शौच” दो प्रकारका बताया गया है-“बाह्य’ और ‘आभ्यन्तर’।
मिट्टी और जलसे ‘बाह्मशुद्धि” होती है और भावकी शुद्धिको ‘आभ्यन्तर शुद्धि” कहते हैं। दोनों ही प्रकारसे जो शुद्ध है, वही शुद्ध है, दूसरा नहीं।
प्रारब्धके अनुसार जैसे-तैसे जो कुछ भी प्राप्त हो जाय, उसीमें हर्ष मानना ‘संतोष’ कहलाता हैं।
मन और इन्द्रियोंकी एकाग्रताकी ‘तप’ कहते हैं। मन और इन्द्रियोंपर विजय पाना सम धर्मोसे श्रेष्ठ धर्म कहलाता है।
‘तप’ तीन प्रकारका होता है-वाचिक, मानसिक और शारीरिक।
मन्त्रजप आदि ‘वाचिक”, आसक्तिका त्याग ‘मानसिक” और देवपूजन आदि ‘शारीरिक” तप हैं। यह तीनों प्रकारका ताप सब कुछ देनेवाला है।
वेद प्रणवसे ही आरम्भ होते हैं, अत: प्रणव में सम्पूर्ण वेदोंकी स्थिति है। वाणीका जितना भी विषय हैं, सब प्रणव है, इसलिये प्रणवका अभ्यास करना चाहिये (यह स्वाध्यायके अन्तर्गत है) ।
‘प्रणव’ अर्थात्’ ओंकार’ में अकार, उकार तथा अर्धमात्राविशिष्ट मकार है। तीन मात्राएँ तीनों वेद, भूः आदि तीन लोक, तीन गुण, जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति-ये तीन अवस्थाएँ तथा ब्रह्मा, विष्णु और शिव-ये तीनों देवता प्रणवरूप हैं।
ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र, स्कन्द, देवी और महेश्वर तथा प्रद्युम्न, श्री और वासुदेव-ये सब क्रमशः ॐकारके ही स्वरूप हैं।
ॐकार मात्रासे रहित अथवा अनन्त मात्राओंसे युक्त है। वह द्वैतकी निवृत्ति करनेवाला तथा शिवस्वरूप है। ऐसे ॐकारको जिसने जान लिया, वही मुनि है, दूसरा नहीं।
प्रणवकी चतुर्थीमात्रा (जो अर्धमात्राके नामसे प्रसिद्ध है) ‘गान्धारी’ कहलाती है। वह प्रयुक्त होनेपर मूर्द्धामें लक्षित होती है। वही ‘तुरीय’ नामसे प्रसिद्ध परब्रह्म है। वह ज्योतिर्मय है। जैसे घड़ेके भीतर रखा हुआ दीपक वहाँ प्रकाश करता है, वैसे ही मूर्द्धामें स्थित परब्रह्म भी भीतर अपनी ज्ञानमयी ज्योति छिटकाये रहता है।
मनुष्यकी चाहिये कि मनसे ह्रदयकमलमें स्थित आत्मा या ब्रह्मका ध्यान करे और जिह्वासे सदा प्रणव का जप करता रहे। (यही ‘ईश्वरप्रणिधान” है।) ‘प्रणव’ धनुष है, ‘जीवात्मा’ बाण है तथा ‘ब्रह्म’ उसका लक्ष्य कहा जाता है। सावधान होकर उस लक्ष्यका भेदन करना चाहिये और बाणके समान उसमें तन्मय हो जाना चाहिये। यह एकाक्षर (प्रणव) ही ब्रह्म है, यह एकाक्षर हीं परम तत्व है, इस एकाक्षर ब्रह्मकों जानकर जों जिस वस्तुकी इच्छा करता है, उसको उसीकी प्राप्ति हो जाती है।
ॐ प्रणवका देवी गायत्री छन्द है, अन्तर्यामी ऋषि हैं, परमात्मा देवता हैं तथा भोग और मोक्षकी सिद्धिके लिये इसका विनियोग किया जाता है।
ॐके अङ्ग-न्यासकी विधि इस प्रकार हैं-‘ ॐ भूः अग्न्यात्मने हृदयाय नमः॥‘- इस मन्त्रसे हृदयका स्पर्श करे। ‘ॐ भुवः प्राजापत्यात्मने शिरसे स्वाहा।‘ ऐसा कहकर मस्तकका स्पर्श करे। ‘ॐ स्व: सर्वात्मने शिखायै वषट्।“-इस मन्त्रसे शिखाका स्पर्श करे। अब कवच बताया जाता है-‘ॐ भूर्भुवः स्वः सत्यात्मने कवचाय हुम्।‘ इस मन्त्रसे दाहिने हाथकी अँगुलियोंद्वारा बायीं भुजा के मूलभाग का और बायें हाथकी अँगुलियोंसे दाहिनी बाँहके मूलभागका एक ही साथ स्पर्श करे। तत्पश्चात् पुनः ‘ॐ भूर्भुवः स्वः सत्यात्मने अस्त्राय फट्।।‘ कहकर चुटकी बजाये। इस प्रकार अङ्गन्यास करके भोग और मोक्षकी सिद्धिके लिये भगवान् विष्णुका पूजन, उनके नामोंका जप तथा उनके उद्देश्यसे तिल और घी आदिका हवन करे; इससे मनुष्यकी समस्त कामनाएँ पूर्ण होती हैं। (यही ईश्वरपूजन है; इसका निष्कामभावसे ही अनुष्ठान करना उत्तम है )
जो मनुष्य प्रतिदिन बारह हजार प्रणव का जप करता है, उसको बारह महीनेमें परब्रह्मका ज्ञान हो जाता है। एक करोड़ जप करनेसे अणिमा आदि सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, एक लाखके जपसे सरस्वती आदिकी कृपा होती है।
विष्णुका यजन तीन प्रकारका होता है- वैदिक, तान्त्रिक और मिश्र। तीनोंमेंसे जो अभीष्ट हो, उसी एक विधिका आश्रय लेकर श्रीहरिकी पूजा करनी चाहिये | जो मनुष्य दण्डकी भाँति पृथ्वीपर पड़कर भगवान् को साष्टाङ्ग प्रणाम करता है, उसे जिस उत्तम गतिकी प्राप्ति होती है, वह सैकड़ों यज्ञोंके द्वारा दुर्लभ है।
जिसकी आराध्यदेवमें पराभक्ति है और जैसी देवतामें है, वैसी ही गुरुके प्रति भी है, उसी महात्माको इन कहे हुए विषयोंका यथार्थ ज्ञान होता है॥ १७-३६ ॥
तीन सौ बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३७२ ॥
अध्याय – ३७३ आसन, प्राणायाम और प्रत्याहारका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं-मुने! पद्मासन आदि नाना प्रकारके ‘आसन’ बताये गये हैं। उनमेंसे कोई भी आसन बाँधकर परमात्माका चिन्तन करना चाहिये। पहले किसी पवित्र स्थान में अपने बैठनेके लिये स्थिर आसन बिछावे, जो न अधिक ऊँचा हो और न अधिक नीचा। सबसे नीचे कुशका आसन हो, उसके ऊपर मृगचर्म और मृगचर्मके ऊपर वस्त्र बिछाया गया हो। उस आसनपर बैठकर मन और इन्द्रियोंकी चेष्टाओंको रोकते हुए चितको एकाग्र ‘करे तथा अन्त:करणकी शुद्धिके लिये योगाभ्यासमें संलग्न हो जाय।
उस समय शरीर, मस्तक और गलेको अविचलभावसे एक सीधमें रखते हुए स्थिर बैठे। केवल अपनी नासिकाके अग्रभागकी देखे; अन्य दिशाओंकी ओर दृष्टिपात न करे। दोनों पैरोंकी एड़ियोंसे अण्डकोष और लिङ्गकी रक्षा करते हुए दोनों ऊरुओं (जाँघों)-के ऊपर भुजाओंको यत्नपूर्वक तिरछी करके रखे तथा बायें हाथकी हथेलीपर दाहिने हाथके पृष्ठभागको स्थापित करे और मुँहको कुछ ऊँचा करके सामने की ओर स्थिर रखें। इस प्रकार बैठकर प्राणायाम करना चाहिये ॥ १-५ ॥
अपने शरीरके भीतर रहनेवाली वायुको ‘प्राण’ कहते हैं। उसे रोकनेका नाम है-‘आयाम”। अतः ‘प्राणायाम’ का अर्थ हुआ-‘प्राणवायुको रोकना’। उसकी विधि इस प्रकार है-अपनी औगुलीसे नासिकाके एक छिद्रको दबाकर दूसरे छिद्रसे उदरस्थित वायुको बाहर निकाले। ‘रेचन’ अर्थात् बाहर निकालनेके कारण इस क्रियाको “रेचक’ कहते हैं। तत्पश्चात् चमड़ेकी धौंकनीके समान शरीरको बाहरी वायुसे भोरे। भर जानेपर कुछ कालतक स्थिरभावसे बैठा रहे। बाहरसे वायुकी पूर्ति करनेके कारण इस क्रियाका नाम ‘पूरक’ है। वायु भर जानेके पश्चात् जब साधक न तो भीतरी वायुको छोड़ता है और न बाहरी वायुको ग्रहण ही करता है, अपितु भरे हुए घड़ेकी भाँति अविचल-भावसे स्थिर रहता है, उस समय कुम्भवत् स्थिर होनेके कारण उसकी वह चेष्टा ‘कुम्भक’ कहलाती है।
बारह मात्रा (पल)-का एक ‘उद्धात’ होता है। इतनी देरतक वायुको रोकना कनिष्ठ श्रेणीका प्राणायाम हैं। दो उद्धात अर्थात चौबीस मात्रातक किया जानेवाला कुम्भक मध्यम श्रेणीका माना गया है तथा तीन उद्धात यानी छत्तीस मात्रातकका कुम्भक उत्तम श्रेणीका प्राणायाम है।
जिससे शरीर से पसीने निकलने लगें, कैंपकैंपी छा जाय तथा अभिघात लगने लगे, वह प्राणायाम अत्यन्त उत्तम है।
प्राणायामकी भूमिकाओंमेंसे जिसपर भलीभाँति अधिकार न हो जाय, उनपर सहसा आरोहण न करे, अर्थात् क्रमश: अभ्यास बढ़ाते हुए उत्तरोत्तर भूमिकाओंमें आरूढ़ होने का यत्न करे।
प्राण को जीत लेनेपर हिचकी और साँस आदिके रोग दूर हो जाते हैं तथा मल-मूत्रादिके दोष भी धीरे-धीरे कम हो जाते हैं। नीरोग होना, तेज चलना, मनमें उत्साह होना, स्वरमें माधुर्य आना, बल बढ़ना, शरीरवर्णमें स्वच्छताका आना तथा सब प्रकार के दोषोंका नाश हो जाना-ये प्राणायाम से होनेवाले लाभ हैं।
प्राणायाम दो तरह के होते हैं – आगर्भ” और ‘सगर्भ’।
जप और ध्यानके बिना जों प्राणायाम किया जाता है, उसका नाम ‘अगर्भ” है तथा जप और ध्यानके साथ किये जानेवाले प्राणायामकों ‘सगर्भ” कहते हैं।
इन्द्रियोंपर विजय पानेके लिये सगर्भ प्राणायाम हीं उत्तम होता है; उसीका अभ्यास करना चाहिये। ज्ञान और वैराग्यसे युक्त होकर प्राणायामके अभ्याससे इन्द्रियोंको जीत लेनेपर सबपर विजय प्राप्त हो जातीं हैं।
जिसे ‘स्वर्ग’ और ‘नरक’ कहते हैं, वह सब इन्द्रियाँ ही हैं। वे ही वशमें होनेपर स्वर्गमें पहुँचाती हैं और स्वतन्त्र छोड़ देनेपर नरक में ले जाती हैं। शरीरको ‘रथ’ कहते हैं, इन्द्रियाँ ही उसके ‘घोड़े’ हैं, मनकों ‘सारथि’ कहा गया है और प्राणायामकों ‘चाबुक’ माना गया है। ज्ञान और वैराग्यकी बागडोरमें बँधे हुए मनरूपी घोड़ेकी प्राणायामसे आबद्ध करके जब अच्छी तरह काबूमें कर लिया जाता है तो वह धीरे-धीरे स्थिर हो जाता हैं।
जो मनुष्य सौ वर्षोंसे कुछ अधिक कालतक प्रतिमास कुशके अग्रभाग से जलकी एक बुन्द लेकर उसे पीकर रह जाता है, उसकी वह तपस्या और प्राणायाम-दोनों बराबर हैं।
विषयोंके समुद्रमें प्रवेश करके वहाँ फैसी हुई इन्द्रियोंको जो आहूत करके, अर्थात् लौटाकर अपने अधीन करता है, उसके इस प्रयत्नको “प्रत्याहार’ कहते हैं।
जैसे जलमें डूबा हुआ मनुष्य उससे निकलनेका प्रयत्न करता है, उसी प्रकार संसारसमुद्रमें डूबे हुए अपने-आपको स्वयं ही निकालनेका प्रयत्न करें। भोगरूपी नदी का वेग अत्यन्त बढ़ जाने पर उससे बचनेके लिये अत्यन्त सुदृढ़ ज्ञानरूपी वृक्षका आश्रय लेना चाहिये ॥ ६-२१ ॥
तीन सौ तिहत्तर आध्याय पूरा हुआ ॥ ३७३ ॥
अध्याय – ३७४ ध्यान
अग्निदेव कहते हैं-मुने! ‘ध्यै–चिन्तायाम्“- यह धातु है। अर्थात् ‘ध्यै” धातुका प्रयोग चिन्तनके अर्थमें होता है । अतः स्थिरचित्तसे भगवान् विष्णुका बारंबार चिन्तन करना ‘ध्यान’ कहलाता है।
समस्त उपाधियोंसे मुक्त मनसहित आत्माका ब्रह्मविचारमें परायण होना भी ध्यान ही है । ध्येयरूप आधार में स्थित एवं सजातीय प्रतीतियोंसे युक्त चित्तकों जो विजातीय प्रतीतियोंसे रहित प्रतीति होती है, उसकी भी ‘ध्यान’ कहते हैं।
जिस किसी प्रदेशमें भी ध्येय वस्तुके चिन्तनमें एकाग्र हुए चितको प्रतीतिके साथ जो अभेद-भावना होती है, ठसका नाम भी ‘ध्यान’ है।
इस प्रकार ध्यानपरायण होकर जो अपने शरीरका परित्याग करता है, वह अपने कुल, स्वजन और मित्रोंका उद्धार करके स्वयं भगवत्स्वरूप हो जाता है।
इस तरह जो प्रतिदिन एक या आधे मुहूर्ततक भी श्रद्धापूर्वक श्रीहरिका ध्यान करता है, वह भी जिस गतिकी प्राप्त करता है, उसे सम्पूर्ण महायज्ञोंके द्वारा भी कोई नहीं पा सकता ॥ १-६ ॥
तत्त्ववेत्ता योगीको चाहिये कि वह ध्याता, ध्यान, ध्येय तथा ध्यानका प्रयोजन-इन चार वस्तुओंका ज्ञान प्राप्त करके योग का अभ्यास करे।
योगाभ्याससे मोक्ष तथा आठ प्रकारके महान् ऐश्वयाँ (अणिमा आदि सिद्धियों)-की प्राप्ति होती है। जो ज्ञान-वैराग्यसे सम्पन्न, श्रद्धालु, क्षमाशील, विष्णुभक्त तथा ध्यानमें सदा उत्साह रखनेवाला हो, ऐसा पुरुष ही ‘ध्याता’ माना गया है।
‘व्यत और अव्यत, जो कुछ प्रतीत होता है, सब परम ब्रह्म परमात्माका ही स्वरूप है”-इस प्रकार विष्णुका चिन्तन करना ‘ध्यान’ कहलाता है।
सर्वज्ञ परमात्मा श्रीहरिको सम्पूर्ण कलाओंसे युक्त तथा निष्कल जानना चाहिये। अणिमादि ऐश्वयाँकी प्राप्ति तथा मोक्ष-ये ध्यान के प्रयोजन हैं।
भगवान् विष्णु ही कर्मोके फलकी प्राप्ति करानेवाले हैं, अत: उन परमेश्वरका ध्यान करना चाहिये। वे ही ध्येय हैं।
चलते-फिरते, खड़े होते, सोते-जागते, आँख खोलते और आँख मींचते समय भी, शुद्ध या अशुद्ध अवस्थामें भी निरन्तर परमेश्वरका ध्यान करना चाहिये ॥ ७-११ ॥
अपने देहरूपी मन्दिरके भीतर मनमें स्थित हृदयकमलरूपी पीठके मध्यभागमें भगवान् केशवकी स्थापना करके ध्यानयोगके द्वारा उनका पूजन करे।
ध्यानयज्ञ श्रेष्ठ, शुद्ध और सब दोषोंसे रहित है। उसके द्वारा भगवान् का यजन करके मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है। बाह्मशुद्धिसे युक्त यज्ञोंद्वारा भी इस फलकी प्राप्ति नहीं हो सकती।
हिंसा आदि दोषोंसे मुक्त होनेके कारण ध्यान अन्त:करणकी शुद्धिका प्रमुख साधन और चित्तको वश में करनेवाला है। इसलिये ध्यानयज्ञ सबसे श्रेष्ठ और मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाला है, अत: अशुद्ध एवं अनित्य बाह्य साधन यज्ञ आदि कर्मोका त्याग करके योगका ही विशेषरूपसे अभ्यास करे।
पहले विकारयुक्त, अव्यक्त तथा भोग्य-भोगसे युक्त तीनों गुणोंका क्रमश: अपने हृदयमें ध्यान करे। तमोगुणको रजोगुणसे आच्छादित करके रजोगुणको सत्वगुणसे आच्छादित करे। इसके बाद पहले कृष्ण, फिर रक्त, तत्पश्चात् श्वेतवर्णवाले तीनों मण्डलोंका क्रमश: ध्यान करे।
इस प्रकार जो गुणोंका ध्यान बताया गया, वह “अशुद्ध ध्येय‘ है। उसका त्याग करके ‘शुद्ध ध्येय‘का चिन्तन करे।
पुरुष (आत्मा) सत्त्वोपाधिक गुणोंसे अतीत चौबीस तत्वोंसे परे पचीसवाँ तत्व है, यह ‘शुद्ध ध्येय‘ है।
पुरुषके ऊपर उन्हींकी नाभिसे प्रकट हुआ एक दिव्य कमल स्थित है, जो प्रभुका ऐश्वर्य ही जान पड़ता है। उसका विस्तार बारह अंगुल है। वह शुद्ध, विकसित तथा श्वेत वर्णका है। उसका मृणाल आठ अंगुलका है। उस कमलके आठ पत्तोंकी अणिमा आदि आठ ऐश्वर्य जानना चाहिये। उसकी कर्णिकाका केसर ‘ज्ञान‘ तथा नाल “उत्तम वैराग्य‘ है। “विष्णुधर्म‘ ही उसकी जड़ है। इस प्रकार कमलका चिन्तन करे
धर्मं, ज्ञान, वैराग्य एवं कल्याणमय ऐश्वर्य–स्वरूप उस श्रेष्ठ कमलको, जो भगवान् का आसन है, जानकर मनुष्य अपने सब दु:खोंसे छुटकारा पा जाता है। उस कमलकर्णिकाके मध्यभागमें ओङ्कारमय ईश्वरका ध्यान करे। उनकी आकृति शुद्ध दीपशिखाके समान देदीप्यमान एवं अँगूठेके बराबर है। वे अत्यन्त निर्मल हैं। कदम्बपुष्पके समान उनका गोलाकार स्वरूप ताराकी भाँति स्थित है। अथवा कमलके ऊपर प्रकृति और पुरुषसे भी अतीत परमेश्वर विराजमान हैं, ऐसा ध्यान करे तथा परम अक्षर ओंकारका निरन्तर जप करता रहे।
साधकको अपने मनको स्थिर करनेके लिये पहले स्थूलका ध्यान करना चाहिये। फिर क्रमश: मनके स्थिर हो जानेपर उसे सूक्ष्म तत्वके चिन्तनमें लगाना चाहिये॥१२–२६ई॥
(अब कमल आदिका ध्यान दूसरे प्रकारसे बतलाया जाता है-) नाभि–मूलमें स्थित जो कमलकी नाल है, उसका विस्तार दस अंगुल है। नालके ऊपर अष्टदल कमल है, जो बारह अंगुल विस्तृत है। उसकी कर्णिकाके केसरमें सूर्य, सोम तथा अग्नि–तीन देवताओंका मण्डल है। अग्निमण्डलके भीतर शर्द्ध, चक्र, गदा एवं पद्म धारण करनेवाले चतुर्भुज विष्णु अथवा आठ भुजाओंसे युक्त भगवान् श्रीहरि विराजमान हैं।
अष्टभुज भगवान् के हाथोंमें शंख–चक्रादिके अतिरिक्त शाङ्गीधनुष, अक्षमाला, पाश तथा अङ्कुश शोभा पाते हैं। उनके श्रीविग्रहका वर्ण श्वेत एवं सुवर्णके समान उद्दीप्त है। वक्ष:स्थलमें श्रीवत्सक चिह्न और कौस्तुभमणि शोभा पा रहे हैं। गलेमें वनमाला और सोनेका हार है। कानोंमें मकराकार कुण्डल जगमगा रहे हैं। मस्तकपर रत्नमय उज्जवल किरीट सुशोभित हैं। श्रीअङ्गोंपर पीताम्बर शोभा पाता है। वे सब प्रकारके आभूषणोंसे अलंकृत हैं। उनका आकार बहुत बड़ा अथवा एक बिक्तेका है। जैसी इच्छा हो, वैसी ही छोटी या बड़ी आकृतिका ध्यान करना चाहिये।
ध्यानके समय ऐसी भावना करे कि ‘मैं ज्योतिर्मय ब्रह्म हूँ–मैं ही नित्यमुक्त प्रणवरूप वासुदेवसंज्ञक परमात्मा हूँ।‘ ध्यानसे थक जानेपर मन्त्रका जप करे और जपसे थकनेपर ध्यान करे। इस प्रकार जो जप और ध्यान आदि में लगा रहता है, उसके ऊपर भगवान् विष्णु शीघ्र ही प्रसन्न होते हैं। दूसरे–दूसरे यज्ञ जपयज्ञकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं हो सकते। जप करनेवाले पुरुषके पास आधि, व्याधि और ग्रह नहीं फटकने पाते। जप करनेसे भोग, मोक्ष तथा मृत्यु–विजयरूप फलकी प्राप्ति होती है।॥ २७–३५ ॥
तीन सौ चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३७४॥
अध्याय – ३७५ धारणा
अग्निदेव कहते हैं–मुने! ध्येय वस्तुमें जो मनकी स्थिति होती है, उसे ‘धारणा’ कहते हैं। ध्यानकी ही भाँति उसके भी दो भेद हैं-‘साकार’ और ‘निराकार’।
भगवान् के ध्यानमें जो मनको लगाया जाता है, उसे क्रमश: “मूर्त’ और ‘अमूर्त’ धारणा कहते हैं। इस धारणासे भगवान् की प्राप्ति होती है। जो बाहरका लक्ष्य हैं, उससे मन जबतक विचलित नहीं होता, तबतक किसी भी प्रदेशमें मनकी स्थितिकी ‘धारणा’ कहते हैं।
देहके भीतर नियत समयतक जो मनको रोके रखा जाता है और वह अपने लक्ष्य से विचलित नहीं होता, यही अवस्था ‘धारणा’ कहलाती है।
बारह आयामको ‘धारणा’ होती है, बारह ‘धारणा’ का ” ध्यान’ होता है तथा बारह ध्यानपर्यन्त जो मनकी एकाग्रता है, उसे ‘समाधि’ कहते हैं।
जिसका मन धारणाके अभ्यासमें लगा हुआ है, उसी अवस्थामें यदि उसके प्राणोंका परित्याग ही जाय तो वह पुरुष अपने इकीस पीढ़ीका उद्धार करके अत्यन्त उत्कृष्ट स्वर्गपदको प्राप्त होता है।
योगियोंके जिस-जिस अङ्ग में व्याधिकी सम्भावना हो, उस-उस अङ्गको बुद्धिसे व्याप्त करके तत्त्वोंकी धारणा करनी चाहिये।
द्विजोत्तम! आग्नेयी, वारुणी, ऐशानी और अमृतात्मिका-ये विष्णुकी चार प्रकार की धारणा करनी चाहिये।
उस समय अग्नियुक्त शिखामन्त्रका, जिसके अन्तमें ‘फट्’ शब्दका प्रयोग होता हैं, जप करना उचित हैं।
नाड़ियोंके द्वारा विकट, दिव्य एवं शुभ शूलाग्रका वेधन करे।
पैरके औगूठेसे लेकर कपोलतक किरणोंका समूह व्याप्त है और वह बड़ी तेजीके साथ ऊपर-नीचे तथा इधर-उधर फैल रहा है, ऐसी भावना करे।
महामुने! श्रेष्ठ साधकको तबतक रश्मि-मण्डलका चिन्तन करते रहना चाहिये, जबतक कि वह अपने सम्पूर्ण शरीरको उसके भीतर भस्म होता न देखें।तदनन्तर उस धारणाका उपसंहार करे।
इसके द्वारा द्विजगण शीत और श्लेष्मा आदि रोग तथा अपने पापोंका विनाश करते हैं (यह “आग्नेयी धारणा” है )
तत्पश्चात् धीरभावसे विचार करते हुए मस्तक और कण्ठके अधोमुख होनेका चिन्तन करे। उस समय साधकका चित्त नष्ट नहीं होता। वह पुनः अपने अन्त:करणद्वारा ध्यानमें लग जाय और ऐसी धारणा करे कि जलके अनन्त कण प्रकट होकर एक-दूसरेसे मिलकर हिमराशिको उत्पन्न करते हैं और उससे इस पृथ्वीपर जलकी धाराएँ प्रवाहित होकर सम्पूर्ण विश्वको आप्लावित कर रही हैं। इस प्रकार उस हिमस्पर्शसे शीतल अमृतस्वरूप जलके द्वारा क्षोभवश ब्रह्मरन्ध्रसे लेकर मूलाधारपर्यन्त सम्पूर्ण चक्र-मण्डलकी आप्लावित करके सुषुम्णा करे।
भूख-प्यास आदिके क्रमसे प्राप्त होनेवाले क्लेशोंसे अत्यन्त पीड़ित होकर अपनी तुष्टिके लिये इस ‘वारुणी धारणा’ का चिन्तन करना चाहिये तथा उस समय आलस्य छोड़कर विष्णुमन्त्रका जप करना भी उचित है। यह ‘वारुणी धारणा बतलाई गी है |
अब एशानी धारणा का वर्णन सुनिये ॥११-१५ ॥
प्राण और अपानका क्षय होनेपर हृदयाकाश में ब्रह्ममय कमलके ऊपर विराजमान भगवान् विष्णुके प्रसाद (अनुग्रह)-का तबतक चिन्तन करता रहे, जबतक कि सारी चिन्ताका नाश न हो जाय। तत्पश्चात् व्यापक ईश्वररूपसे स्थित होकर परम शान्त, निरञ्जन, निराभास एवं अर्द्धचन्द्रस्वरूप सम्पूर्ण महाभावका जप और चिन्तन करे।
जबतक गुरुके मुखसे जीवात्माको ब्रह्मका ही अंश (या साक्षात् ब्रह्मरूप) नहीं जान लिया जाता, तबतक यह सम्पूर्ण चराचर जगत् असत्य होनेपर भी सत्यवत् प्रतीत होता है। उस परम तत्वका साक्षात्कार हो जानेपर ब्रह्मासे लेकर यह सारा चराचर जगत्, प्रमाता, मान औरमेय (ध्याता, ध्यान और ध्येय)- सब कुछ ध्यानगत हदय-कमलमें लीन हो जाता है।
जप, होम और पूजन आदिकी माताकी दी हुई मिठाईकी भाँति मधुर एवं लाभकर जानकर विष्णुमन्त्रके द्वारा उसका श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करे।
अब मैं ‘अमृतमयी धारणा’ बतला रहा हूँ-
मस्तककी नाड़ीके केन्द्रस्थानमें पूर्ण चन्द्रमाके समान आकारवाले कमलका ध्यान करे तथा प्रयत्नपूर्वक यह भावना करे कि आकाश में दस हजार चन्द्रमा के समान प्रकाशमान एक पूर्ण चन्द्रमण्डल उदित हुआ है, जो कल्याणमय कल्लोलोंसे परिपूर्ण है।’ ऐसा ही ध्यान अपने हृदय-कमलमें भी करे और उसके मध्यभागमें अपने शरीरको स्थित देखे | धारणा आदिके द्वारा साधक के सभी क्लेश दूर हो जाते हैं॥ १६-२२॥
तीन सौ पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३७५॥
अध्याय – ३७६ समाधि
अग्निदेव कहते हैं–जो चैतन्यस्वरूपसे युक्त और प्रशान्त समुद्रकी भांति स्थिर हो, जिसमें आत्माके सिवा अन्य किसी वस्तुकी प्रतीति न होती हो, उस ध्यानकी ‘समाधि” कहते हैं।
जो ध्यानके समय अपने चितको ध्येय में लगाकर वायुहीन प्रदेशमें जलती हुई अग्निशिखाकी भाँत अविचल एवं स्थिरभावसे बैठा रहता है, वह योगी ‘समाधिस्थ’ कहा गया है।
जो न सुनता है, न सूंघता है, न देखता है, न रसास्वादन करता है, न स्पर्शका अनुभव करता है, न मनमें संकल्प उठने देता है, न अभिमान करता है और न बुद्धिसे दूसरी किसी वस्तुको जानता ही है, केवल काष्ठकी भाँति अविचलभावसे ध्यानमें स्थित रहता है, ऐसे ईश्वरचिन्तनपरायण पुरुषकों ‘समाधिस्थ’ कहते हैं।
जैसे वायुरहित स्थानमें रखा हुआ दीपक कम्पित नहीं होता, यही उस समाधिस्थ योगीके लिये उपमा मानी गयी है।
जो अपने आत्मस्वरूप श्रीविष्णुके ध्यानमें संलग्न रहता है, उसके सामने अनेक दिव्य विध्न उपस्थित होते हैं। वे सिद्धिकी सूचना देनेवाले हैं।
साधक ऊपरसे नीचे गिराया जाता है, उसके कानमें पीड़ा होती है, अनेक प्रकारके धातुओंके दर्शन होते हैं तथा उसे अपने शरीरमें बड़ी वेदनाका अनुभव होता है। देवतालोग उस योगीके पास आकर उससे दिव्य भोग स्वीकार करनेकी प्रार्थना करते हैं, राजा पृथ्वीका राज्य देनेकी बात कहते और बड़े-बड़े धनाध्यक्ष धनका लोभ दिखाते हैं। वेद आदि सम्पूर्ण शास्त्र स्वयं ही (बिना पढ़े) उसकी बुद्धिमें स्फुरित हो जाते हैं। उसके द्वारा मनोनुकूल छन्द और सुन्दर विषयसे युक्त उत्तम काव्यकी रचना होने लगती है। दिव्य रसायन, दिव्य ओषधियाँ तथा सम्पूर्ण शिल्प और कलाएँ उसे प्राप्त हो जाती हैं। इतना ही नहीं, देवेश्वरोंकी कन्याएँ और प्रतिभा आदि सद्गुण भी उसके पास बिना बुलाये जाते हैं, किंतु जो इन सबको तिनकेके समान निस्सार मानकर त्याग देता है, उसीपर भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं। १-१० ॥
अणिमा आदि गुणमयी विभूतियोंसे युक्त योगी पुरुषको उचित है कि वह शिष्यको ज्ञान दे। इच्छानुसार भोगों का उपभोग करके लययोगकी रीतिसे शरीर का परित्याग करे और विज्ञानानन्दमय ब्रह्म एवं ईश्वररूप अपने आत्मामें स्थित हो जाय।
जैसे मलिन दर्पण शरीरका प्रतिबिम्ब ग्रहण करनेमें असमर्थ होनेके कारण शरीरका ज्ञान करानेकी क्षमता नहीं रखता, उसी प्रकार जिसका अन्त:करण परिपक (वासनाशून्य) नहीं है, वह आत्मज्ञान प्राप्त करनेमें असमर्थ है।
देह सब प्रकारके रोगों और दु:खोंका आश्रय है; इसलिये देहाभिमानी जीव अपने शरीरमें वेदनाका अनुभव करता है। परंतु जो पुरुष योगयुक्त है, उसे योगके ही प्रभावसे किसी भी क्लेशका अनुभव नहीं होता।
जैसे एक ही आकाश घट आदि भिन्नभिन्न उपाधियोंमें पृथक्-पृथक्-सा प्रतीत होता है और एक ही सूर्य अनेक जलपात्रोंमें अनेक-सा जान पड़ता है, उसी प्रकार आत्मा एक होता हुआ भी अनेक शरीरोंमें स्थित होनेके कारण अनेकवत् प्रतीत होता है।
आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी-ये पाँचों भूत ब्रह्मके ही स्वरूप हैं। ये सम्पूर्ण लोक आत्मा ही है; आत्मासे ही चराचर जगत् की अभिव्यक्ति होती है।
जैसे कुम्हार मिट्टी, डंडा और चाकके संयोगसे घड़ा बनाता है, अथवा जिस प्रकार घर बनानेवाला मनुष्य तृण, मिट्टी और काठसे घर तैयार करता है, उसी प्रकार जीवात्मा इन्द्रियोंको साथ ले, कार्य-करणसंघातको एकचित करके भिन्न-भिन्न योनियोंमें अपनेको उत्पन्न करता है।
कर्मसे, दोष और मोहसे तथा स्वेच्छासे ही जीव बन्धनमें पड़ता है और ज्ञानसे ही उसकी मुक्ति होती है।
योगी पुरुष धर्मानुष्ठान करनेसे कभी रोगका भागी नहीं होता।
जैसे बत्ती, तैलपात्र और तैल-इन तीनोंके संयोगसे ही दीपककी स्थिति है-इनमेंसे एकके अभाव में भी दीपक रह नहीं सकता, उसी प्रकार योग और धर्मके बिना विकार (रोग)-की प्राप्ति देखी जाती हैं और इस प्रकार अकालमें ही प्राणोंका क्षय हो जाता है ॥ ११-१९ ॥
हमारे हृदयके भीतर जो दीपक की भाँति प्रकाशमान आत्मा है, उसकी अनन्त किरणें फैली हुई हैं, जो श्वेत, कृष्ण, पिङ्गल, नील, कपिल, पीत और रक्त वर्णकी हैं। उनमेंसे एक किरण ऐसी है, जो सूर्यमण्डलको भेदकर सीधे ऊपरको चली गयी है और ब्रह्मलोकको भी लाँघ गयी है; उसीके मार्गसे योगी पुरुष परमगतिको प्राप्त होता है। उसके सिवा और भी सैकड़ों किरणें ऊपरकी और स्थित हैं। उनके द्वारा मनुष्य भिन्न-भिन्न देवताओंके निवासभूत लोकोंमें जाता है।
जो एक ही रंगकी बहुत-सी किरणें नीचेकी ओर स्थित हैं, उनकी कान्ति बड़ी कोमल है। उन्होंके द्वारा जीव इस लोकमें कर्मभोगके लिये आता है।
समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ मन, कर्मेन्द्रियाँ, अहंकार, बुद्धि, पृथिवी आदि पाँच भूत तथा अव्यक्त प्रकृति-ये ‘क्षेत्र’ कहलाते हैं और आत्मा ही इस क्षेत्रका ज्ञान रखनेवाला ‘क्षेत्रज्ञ’ कहलाता है। वही सम्पूर्ण भूतोंका ईश्वर है।
सत्, असत् तथा सदसत्-सब उसीके स्वरूप हैं।
व्यक्त प्रकृतिसे समष्टि बुद्धि (महत्तत्व)-की उत्पत्ति होती है, उससे अहंकार उत्पन्न होता है, अहंकारसे आकाश आदि पाँच भूत उत्पन्न होते हैं, जो उत्तरोत्तर एकाधिक गुणोंवाले हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये क्रमश: उन पाँचों भूतोंके गुण हैं। इनमेंसे जो भूत जिसके आश्रयमें है, वह उसीमें लीन होता है।
सत्व, रज और तम-ये अव्यक्त प्रकृतिके ही गुण हैं। जीव रजोगुण और तमोगुणसे आविष्ट हो चक्रकी भाँति घूमता रहता है।
जो सबका ‘आदि” होता हुआ स्वयं ‘अनादि” है, वही परमपुरुष परमात्मा है। मन और इन्द्रियोंसे जिसका ग्रहण होता है, वह ‘विकार’ (विकृत होनेवाला प्राकृत तत्व) कहलाता है।
जिससे वेद, पुराण, विद्या, उपनिषद्, श्लोक, सूत्र, भाष्य तथा अन्य वाङ्मयकी अभिव्यक्ति हुई है, वही’परमात्मा’ है।
पितृयानमार्गकी उपवीथीसे लेकर अगस्त्य ताराके बीचका जो मार्ग है, उससे संतानकी कामनावाले अग्निहोत्री लोग स्वर्गमें जाते हैं।
जो भलीभाँति दानमें तत्पर तथा आठ गुणोंसे युक्त होते हैं, वे भी उसी भाँति यात्रा करते हैं।
अठासी हजार गृहस्थ मुनि हैं, जो सब धर्मोंके प्रवर्तक हैं, वे ही पुनरावृत्तिके बीज (कारण) माने गये हैं। वे सप्तर्षियों तथा नागवीथीके बीच के मार्गसे देवलोकमें गये हैं। उतने ही (अर्थात् अठासी हजार) मुनि और भी हैं, जो सब प्रकारके आरामोंसे रहित हैं। वे तपस्या, ब्रह्मचर्य, आसक्ति, त्याग तथा मेधाशक्तिके प्रभावसे कल्पपर्यन्त भिन्नभिन्न दिव्यलोकोंमें निवास करते हैं। २०-३५ ॥
वेदोंका निरन्तर स्वाध्याय, निष्काम यज्ञ, ब्रह्मचर्य, तप, इन्द्रिय-संयम, श्रद्धा, उपवास तथा सत्य-भाषण-ये आत्मज्ञानके हेतु हैं।
समस्त द्विजातियोंको उचित है कि वे सत्वगुणका आश्रय लेकर आत्मतत्त्वक श्रवण, मनन, निदिध्यासन एवं साक्षात्कार करें। जो इसे इस प्रकार जानते हैं, जो वानप्रस्थ आश्रमका आश्रय ले चुके हैं और परम श्रद्धासे युक्त हो सत्यकी उपासना करते हैं, वे क्रमशः अग्नि, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण, देवलोक, सूर्यमण्डल तथा विद्युत् के अभिमानी देवताओंके लोकोंमें जाते हैं।
तदनन्तर मानस पुरुष वहाँ आकर उन्हें साथ ले जा, ब्रह्मलोकका निवासी बना देता है; उनकी इस लोकमें पुनरावृत्ति नहीं होती।
जो लोग यज्ञ, तप और दान से स्वर्गलोकपर अधिकार प्राप्त करते हैं, वे क्रमशः धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष, दक्षिणायन, पितृलोक तथा चन्द्रमाके अभिमानी देवताओंके लोकोंमें जाते हैं और फिर आकाश, वायु एवं जलके मार्गसे होते हुए इस पृथ्वीपर लौट आते हैं।
इस प्रकार वे इस लोकमें जन्म लेते और मृत्युके बाद पुनः उसी मार्गसे यात्रा करते हैं।
जो जीवात्माके इन दोनों मार्गोको नहीं जानता, वह साँप, पतंग अथवा कीड़ामकोड़ा होता है।
हृदयाकाशमें दीपककी भाँति प्रकाशमान ब्रह्मका ध्यान करनेसे जीव अमृतस्वरूप हो जाता है।
जो न्यायसे धनका उपार्जन करनेवाला, तत्त्वज्ञानमें स्थित, अतिथि-प्रेमी, श्राद्धकर्ता तथा सत्यवादी है, वह गृहस्थ भी मुक्त हो जाता है ॥ ३६-४४ ॥
तीन सौ छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३७६ ॥
अध्याय – ३७७ श्रवण एवं मननरूप ज्ञान
अग्निदेव कहते हैं–अब मैं संसाररूप अज्ञानजनित बन्धनसे छुटकारा पानेके लिये’ब्रह्मज्ञान’का वर्णन करता हूँ। ‘यह आत्मा परब्रह्म है और वह ब्रह्म मैं ही हूँ।’ ऐसा निश्चय हो जानेपर मनुष्य मुक्त हो जाता है। घट आदि वस्तुओंकी भाँति यह देह दृश्य होनेके कारण आत्मा नहीं है; क्योंकि सो जानेपर अथवा मृत्यु हो जानेपर यह बात निश्चितरूपसे समझमें आ जाती है कि ‘देहसे आत्मा भिन्न है’। यदि देह ही आत्मा होता तो सोने या मरनेके बाद भी पूर्ववत् व्यवहार करता; (आत्माके) ‘अविकारी’ आदि विशेषणोंके समान विशेषणसे युक्त निर्विकाररूपमें प्रतीत होता।
नेत्र आदि इन्द्रियाँ भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि वे ‘करण’ हैं। यही हाल मन और बुद्धिका भी है। वे भी दीपककी भाँति प्रकाशके ‘करण’ हैं, अत: आत्मा नहीं हो सकते। ‘प्राण’ भी आत्मा नहीं है; क्योंकि सुषुप्तावस्थामें उसपर जडताका प्रभाव रहता है।
जाग्रत् और स्वप्नावस्थामें प्राणके साथ चैतन्य मिला-सा रहता है, इसलिये उसका पृथक बोध नहीं होता; परंतु सुषुप्तावस्थामें प्राण विज्ञानरहित है-यह बात स्पष्टरूपसे जानी जाती है।
अतएव आत्मा इन्द्रिय आदि रूप नहीं है। इन्द्रिय आदि आत्माके करणमात्र हैं। अहंकार भी आत्मा नहीं है; क्योंकि देहकी भाँति वह भी आत्मासे पृथक उपलब्ध होता है। पूर्वोक्त देह आदिसे भिन्न यह आत्मा सबके हृदयमें अन्तयांमीरूपसे स्थित है। यह रातमें जलते हुए दीपककी भाँति सबका द्रष्टा और भोक्ता है॥ १-७ ॥
समाधिके आरम्भकालमें मुनिको इस प्रकार चिन्तन करना चाहिये-‘ब्रह्मसे आकाश, आकाशसे वायु, वायुसे अग्नि, अग्रिसे जल, जलसे पृथ्वी तथा पृथ्वीसे सूक्ष्म शरीर प्रकट हुआ है।”
अपञ्चीकृत भूतोंसे पञ्चीकृत भूतोंकी उत्पति हुई है।
फिर स्थूल शरीरका ध्यान करके ब्रह्ममें उसके लय होनेकी भावना करे।
पञ्चीकृत भूत तथा उनके कार्योंको ‘विराट्’ कहते हैं।
आत्माका वह स्थूल शरीर अज्ञानसे कलिपत है। इन्द्रियोंके द्वारा जो ज्ञान होता है, उसे धीर पुरुष ‘जाग्रत्-अवस्था’ मानते हैं। जाग्रत् के अभिमानी आत्माका नाम ‘विश्व’ है। ये (इन्द्रिय-विज्ञान, जाग्रत्-अवस्था और उसके अभिमानी देवता) तीनों प्रणवकी प्रथम मात्रा “अकारस्वरूप’ हैं ।
अपञ्चीकृत भूत और उनके कार्यको ‘लिङ्ग’ कहा गया है।
सत्रह तत्त्वों (दस इन्द्रिय, पञ्चतन्मात्रा तथा मन और बुद्धि)-से युक्त जो आत्माका सूक्ष्म शरीर है, जिसे “हिरण्यगर्भ” नाम दिया गया है, उसीको ‘लिङ्ग’ कहते हैं।
जाग्रत्-अवस्थाके संस्कारसे उत्पन्न विषयोंकी प्रतीतिको ‘स्वप्न’ कहा गया है। उसका अभिमानी आत्मा ‘तैजस’ नामसे प्रसिद्ध है। वह जाग्रत् के प्रपञ्चसे पृथक् तथा प्रणवकी दूसरी मात्रा ‘उकाररूप’ है।
स्थूल और सूक्ष्मदोनों शरीरोंका एक ही कारण है-‘आत्मा’।
आभासयुक्त ज्ञानको ‘अध्याह्रत ज्ञान’ कहते हैं। इन अवस्थाओंका साक्षी ‘ब्रह्म’ न सत् है, न असत् और न सदसत्रूप ही है। वह न तो अवयवयुक्त है और न अवयवसे रहित, न भिन्न है न अभिन्न, भिन्नाभिन्नरूप भी नहीं है। वह सर्वथा अनिर्वचनीय है। इस बन्धनभूत संसारकी सृष्टि करनेवाला भी वही है।
ब्रह्म एक है और केवल ज्ञानसे प्राप्त होता है; कर्मोद्वारा उसकी उपलब्धि नहीं हो सकती ॥ ८-१७ ॥
जब बाह्यज्ञानके साधनभूत इन्द्रियोंका सर्वथा लय हो जाता है, केवल बुद्धिकी ही स्थिति रहती है, उस अवस्थाको ‘सुषुप्ति’ कहते हैं। ‘बुद्धि” और ‘सुषुप्ति’ दोनोंके अभिमानी आत्माका नाम ‘प्राज्ञ’ है। ये तीनों ‘मकार’ एवं प्रणवरूप माने गये हैं। यह प्राज्ञ ही अकार, उकार और मकारस्वरूप है।
‘अहम्” पदका लक्ष्यार्थभूत चित्स्वरूप आत्मा इन जाग्रत् और स्वप्न आदि अवस्थाओंका साक्षी है। उसमें अज्ञान और उसके कार्यभूत संसारादिक बन्धन नहीं हैं।
मैं नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सत्य, आनन्द एवं अद्वैतस्वरूप ब्रह्म हूँ। मैं ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। सर्वथा मुक्त परमेश्वर हूँ। मैं ही ज्ञान एवं समाधिरूप ब्रह्म हूँ। बन्धनका नाश करनेवाला भी मैं ही हूँ। चिरन्तन, आनन्दमय, सत्य, ज्ञान और अनन्त आदि नामोंसे लक्षित परब्रह्म मैं ही हूँ।
‘यह आत्मा परब्रह्म है, वह ब्रह्म तुम हो’-इस प्रकार गुरुद्वारा बोध कराये जानेपर जीव यह अनुभव करता है कि मैं इस देहसे विलक्षण परब्रह्म हूँ। वह जो सूर्यमण्डलमें प्रकाशमय पुरुष है, वह मैं ही हूँ। मैं ही ॐकार तथा अखण्ड परमेश्वर हूँ। इस प्रकार ब्रह्मको जाननेवाला पुरुष इस असार संसारसे मुक होकर ब्रह्मरूप हो जाता है॥ १८-२४॥
तीन सौ सतहतरवाँ अध्याय पूरा हुआ। ॥ ३७७ ॥
अध्याय – ३७८ निदिध्यासनरूप ज्ञान
अग्निदेव कहते हैं–ब्रह्मन्! मैं पृथ्वी, जल और अग्निसे रहित स्वप्रकाशमय परब्रह्म हूँ। मैं वायु और आकाश से विलक्षण ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं कारण और कार्यसे भिन्न ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं विराट्स्वरूप (स्थूल ब्रह्माण्ड)-से पृथक ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं जाग्रत्-अवस्थासे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं ‘विश्व’ रूपसे विलक्षण ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं आकार अक्षरसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं वाक्, पाणि और चरणसे हीन ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं पायु (गुदा) और उपस्थ (लिङ्ग या योनि)-से रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं कान, त्वचा और नेत्रसे हीन ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं रस और रूपसे शून्य ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं सब प्रकारकी गन्धोंसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं जिह्वा और नासिकासे शून्य ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं स्पर्श और शब्दसे हीन ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं मन और बुद्धिसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं चित और अहंकारसे वर्जित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं प्राण और अपान से पृथक् ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं व्यान और उदानसे विलग ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं समान नामक वायुसे भिन्न ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं जरा और मृत्युसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं शोक और मोहकी पहुँच से दूर ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं क्षुधा और पिपासासे शून्य ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं शब्दोत्पति आदिसे वर्जित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं हिरण्यगर्भसे विलक्षण ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं स्वप्नावस्थासे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं तैजस आदिसे पृथक् ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं अपकार आदिसे हीन ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं समाज्ञानसे शून्य ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं अध्याहारसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं सत्वादि गुणोंसे विलक्षण ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं सदसद्धावसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं सब अवयवोंसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं भेदाभेदसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं सुषुमावस्थासे शून्य ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं प्राज्ञ-भावसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं मकारादिसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं मान और मेयसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं मिति (माप) और माता (माप करनेवाले)-से भिन्न ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ।मैं साक्षित्व आदिसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं कार्य-कारणसे भिन्न ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, प्राण और अहंकाररहित तथा जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति आदिसे मुक्त तुरीय ब्रह्म हूँ। मैं नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सत्य, आनन्द और अद्वैतरूप ब्रह्म हूँ। मैं विज्ञानयुक्त ब्रह्म हूँ। मैं सर्वथा मुक्त और प्रणवरूप हूँ। मैं ज्योतिर्मय परब्रह्म हूं और मोक्ष देनेवाला समाधिरूप परमात्मा भी मैं ही हूँ॥ १-२३ ॥
तीन सौ अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३७८ ॥
अध्याय – ३७९ भगवत्स्वरूपका वर्णन तथा ब्रह्मभावकी प्रामिका उपाय
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठजी! धर्मात्मा पुरुष यज्ञके द्वारा देवताओंको, तपस्याद्वारा विराट्के पदको, कर्मके संन्यास द्वारा ब्रह्मापदको, वैराग्यसे प्रकृतिमें लयको और ज्ञानसे कैवल्यपद (मोक्ष)- को प्राप्त होता है-इस प्रकार ये पाँच गतियाँ मानी गयी हैं।
प्रसन्नता, संताप और विषाद आदिसे निवृत होना ‘वैराग्य’ है।
जो कर्म किये जा चुके हैं तथा जो अभी नहीं किये गये हैं, उन सब (की आसक्ति, फलेच्छा और संकल्प) का परित्याग “संन्यास’ कहलाता है।
ऐसा हो जानेपर अव्यक्तसे लेकर विशेषपर्यन्त सभी पदार्थोंके प्रति अपने मनमें कोई विकार नहीं रह जाता।
जड और चेतनकी भिन्नताका ज्ञान (विवेक) होनेसे ही ‘परमार्थज्ञान’की प्राप्ति बतलायी जाती है।
परमात्मा सबके आधार हैं; वे ही परमेश्वर हैं।
वेदों और वेदान्तों (उपनिषदों) में ‘विष्णु’ नामसे उनका यशोगान किया जाता है। वे यज्ञोंके स्वामी हैं। प्रवृतिमार्गसे चलनेवाले लोग यज्ञपुरुषके रूपमें उनका यजन करते हैं तथा निवृतिमार्गके पथिक ज्ञानयोगके द्वारा उन ज्ञानस्वरूप परमात्माका साक्षात्कार करते हैं।
हृस्व, दीर्घ और प्लुत आदि वचन उन पुरुषोत्तमके ही स्वरूप हैं॥ १-६॥
महामुने! उनकी प्रातिके दो हेतु बताये गये हैं-“ज्ञान” और ‘कर्म’।
“ज्ञान’ दो प्रकारका हैं- आगमजन्य” और ‘विवेकजन्य’ ।
शब्दब्रह्म (वेदादि शास्त्र और प्रणव) का बोध ” आगमजन्य’ है तथा परब्रह्मका ज्ञान ‘विवेकजन्य” ज्ञान है।
‘ब्रह्म’ दो प्रकारसे जाननेयोग्य है-‘शब्दब्रह्म’ और ‘परब्रह्म”।
वेदादि विद्याको ‘शब्दब्रह्म’ या ‘अपरब्रह्म’ कहते हैं और सत्स्वरूप अक्षरतत्व ‘परब्रह्म’ कहलाता है। यह परब्रह्म ही ‘भगवत्’ शब्दका मुख्य वाच्यार्थ है।
पूजा (सम्मान) आदि अन्य अर्थोमें जो उसका प्रयोग होता है, वह औपचारिक (गौण) है।
महामुने! ‘भगवत्’ शब्दमें जो ‘भकार’ है, उसके दो अर्थ हैं-पोषण करनेवाला और सबका आधार तथा ‘गकार’का अर्थ है-नेता (कर्मफलकी प्राप्ति करानेवाला), गमयिता (प्रेरक) और स्रष्टा (सृष्टि करनेवाला)। सम्पूर्णं ऐश्वर्य, पराक्रम (अथवा धर्मी), यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य-इन छ:का नाम ‘भग’ है। विष्णुमें सम्पूर्ण भूत निवास करते हैं। वे भगवान् सबके धारक तथा ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव-इन तीन रूपोंमें विराजमान हैं। अत: श्रीहरिमें ही ‘भगवान् पद मुख्यवृत्तिसे विद्यमान है, अन्य किसीके लिये तो उसका उपचार (गौणवृति)-से ही प्रयोग होता है।
जो सम्पूर्ण प्राणियोंके उत्पत्ति-विनाश, आवागमन तथा विद्या-अविद्याको जानता है, वही ‘भगवान् कहलानेयोग्य है।
त्याग करनेयोग्य दुर्गुण आदिको छोड़कर सम्पूर्ण ज्ञान, शक्ति, परम ऐश्वर्य, वीर्य तथा समग्र तेज-ये ‘भगवत्” शब्दके वाच्यार्थ हैं। ७-१४ ॥
पूर्वकालमें राजा केशिध्वजने खाण्डिक्य जनकसे इस प्रकार उपदेश दिया था-‘अनात्मामें जो आत्मबुद्धि होती हैं, अपने स्वरूपकी भावना होती है, वहीं अविद्याजनित संसारबन्धनका कारण है। इस अज्ञानकी ‘अहंता’ और “ममता’- दो रूपोंमें स्थिति है।
देहाभिमानी जीव मोहान्धकारसे आच्छादित हो, कुत्सित बुद्धिके कारण इस पाञ्चभौतिक शरीरमें यह दृढ़ भावना कर लेता है कि ‘मैं ही यह देह हूँ।’ इसी प्रकार इस शरीरसे उत्पन्न किये हुए पुत्र-पौत्र आदिमें ‘ये मेरे हैं’-ऐसी निश्चित धारणा बना लेता है।
विद्वान् पुरुष अनात्मभूत शरीरमें समभाव रखता है-उसके प्रति वह राग-द्वेषके वशीभूत नहीं होता।
मनुष्य अपने शरीरको भलाईके लिये ही सारे कार्य करता है, किंतु जब पुरुषसे शरीर भिन्न है, तो वह सारा कर्म केवल बन्धनका ही कारण होता है। वास्तव में तो आत्मा निर्वाणमय (शान्त), ज्ञानमय तथा निर्मल हैं।
दु:खानुभवरूप जो धर्म है, वह प्रकृतिका है, आत्माका नहीं, जैसे जल स्वयं तो अग्निसे असङ्ग है, किंतु तापजनित खलखलाहट आदिके शब्द होते हैं। महामुने! इसी प्रकार आत्मा भी प्रकृतिके सङ्ग से अहंता-ममता आदि दोष स्वीकार करके प्राकृत धर्मोको ग्रहण करता है, वास्तव में तो वह उनसे सर्वथा भिन्न और अविनाशी हैं।
विषयोंमें आसत हुआ मन बन्धनका कारण होता है और वही जब विषयोंसे निवृत हो जाता है तो ज्ञान-प्राप्तिमें सहायक होता है। अत: मनकी विषयोंसे हटाकर ब्रह्मस्वरूप श्रीहरिका स्मरण करना चाहिये।
मुने! जैसे चुम्बक पत्थर लोहेको अपनी ओर खींच लेता है, उसी प्रकार जो ब्रह्मका ध्यान करता है, उसे वह ब्रह्म अपनी ही शक्ति से अपने स्वरूपमें मिला लेता हैं।
अपने प्रयत्नकी अपेक्षासे जो मनकी विशिष्ट गति होती है, उसका ब्रह्म से संयोग होना ही ‘योग’ कहलाता है।
जो पुरुष स्थिरभावसे समाधिमें स्थित होता है, वह परब्रह्मको प्राप्त होता है॥ १५-२५ ॥
” अतः यम, नियम, प्रत्याहार, प्राणजय, प्राणायाम, इन्द्रियोंको विषयोंकी ओरसे हटाने तथा उन्हें अपने वश में करने आदि उपायोंके द्वारा चितको किसी शुभ आश्रयमें स्थापित करे।
‘ब्रह्म’ ही चित्तका शुभ आश्रय है।
वह “मूर्त’ और ‘अमूर्त’ रूपसे दो प्रकारका है। सनक-सनन्दन आदि मुनि ब्रह्मभावनासे युक्त हैं तथा देवताओंसे लेकर स्थावर-जङ्गम-पर्यन्त सम्पूर्ण प्राणी कर्म-भावनासे युक्त हैं। हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा) आदिमें ब्रह्मभावना और कर्मभावना दोनों ही हैं। इस तरह यह तीन प्रकार की भावना बतायी गयी है। ‘सम्पूर्ण विश्व ब्रह्म है’-इस भावसे ब्रह्मकी उपासना की जाती है।
जहाँ सब भेद शान्त हो जाते हैं, जो सत्तामात्र और वाणीका अगोचर है तथा जिसे स्वसंवेद्य (स्वयं ही अनुभव करनेयोग्य) माना गया है, वही ‘ब्रह्मज्ञान’ है। वही रूपहीन विष्णुका उत्कृष्ट स्वरूप है, जो अजन्मा और अविनाशी है।
अमूर्तरूपका ध्यान पहले कठिन होता है, अत: मूर्त आदिका ही चिन्तन करे। ऐसा करनेवाला मनुष्य भगवद्धावको प्राप्त हो परमात्माके साथ एकीभूत-अभिन्न हो जाता है। भेदकी प्रतीति तो अज्ञानसे ही होती है’॥ २६-३२॥
तीन सौ उन्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ। ॥ ३७९ ॥
अध्याय – ३८० जड़भरत और सौवीर-नरेश का संवाद-अद्वैत ब्रह्मविज्ञानका वर्णन
अब में उस “अद्वैत ब्रह्मविज्ञान’ का वर्णन करूंगा, जिसे भरतने (सौवीरराजकी) बतलाया था। प्राचीनकालकी बात है, राजा भरत शालग्रामक्षेत्रमें रहकर भगवान् वासुदेवकी पूजा आदि करते हुए तपस्या कर रहे थे। उनकी एक मृगके प्रति आसक्ति हो गयी थी, इसलिये अन्तकालमें उसीका स्मरण करते हुए प्राण त्यागनेके कारण उन्हें मृग होना पड़ा। मृगयोनिमें भी वे ‘जातिस्मर’ हुएउन्हें पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण रहा। अत: उस मृगशरीरका परित्याग करके वे स्वयं ही योगबलसे एक ब्राह्मणके रूपमें प्रकट हुए। उन्हें अद्वैत ब्रह्मका पूर्ण बोध था। वे साक्षात् ब्रह्मस्वरूप थे, तो भी लोकमें जड़वत् (ज्ञानशून्य मूककी भाँत) व्यवहार करते थे। उन्हें हृष्ट-पुट देखकर सौवीरनरेशके सेवकने बेगारमें लगानेके योग्य समझा (और राजाकी पालकी ढोनेमें नियुक्त कर दिया)। सेवक के कहनेसे वे सौवीरराजकी पालकी ढोने लगे। यद्यपि वे ज्ञानी थे, तथापि बेगारमें पकड़ जाने पर अपने प्रारब्धभोगका क्षय करने के लिये राजाका भार वहन करने लगे; परंतु उनकी गति मन्द थी। वे पालकी में पीछे की ओर लगे थे तथा उनके सिवा दूसरे जितने कहार थे, वे सब-के- सब तेज चल रहे थे। राजाने देखा, ‘अन्य कहार शीघ्रगामीं हैं तथा तीव्रगति से चल रहे हैं। यह जो नया आया है, इसकी गति बहुत मन्द है।” तबवे बोले ॥ १-५ ॥
राजाने कहा-अरे! क्या तू थक गया? अभी तो तूने थोड़ी ही दूरतक मेरी पालकी ढोयी है। क्या परिश्रम नहीं सहा जाता? क्या तू मोटा-ताजा नहीं है? देखनेमें तो खूब मुस्टंड जान पड़ता है॥६॥ ब्राह्मणने कहा-राजन्! न मैं मोटा हूँ न मैंने तुम्हारी पालकी ढोयी है, न मुझे थकावट आयी है, न परिश्रम करना पड़ा है और न मुझपर तुम्हारा कुछ भार ही है। पृथ्वीपर दोनों पैर हैं, पैरोंपर जङ्काएँ हैं, जङ्गाओंके ऊपर ऊरु और ऊरुओंके ऊपर उदर (पेट) है। उदरके ऊपर वक्ष:स्थल, भुजाएँ और कंधे हैं तथा कंधोंके ऊपर यह पालकी रखीं गयी है। फिर मेरे ऊपर यहाँ कौन-सा भार है? इस पालकीपर तुम्हारा कहा जानेवाला यह शरीर रखा हुआ है। वास्तव में तुम वहाँ (पालकीमें) हो और मैं यहाँ (पृथ्वी) पर हूँ-ऐसा जो कहा जाता है, वह सब मिथ्या है। सौवीरनरेश! मैं तुम तथा अन्य जितने भी जीव हैं, सबका भार पश्चभूतोंके द्वारा ही ढोया जा रहा है। ये पश्चभूत भी गुणोंके प्रवाहमें पड़कर चल रहे हैं। पृथ्वीनाथ! सत्व आदि गुण कर्मोंके अधीन हैं तथा कर्म अविद्याके द्वारा संचित हैं, जो सम्पूर्ण जीवोंमें वर्तमान हैं। आत्मा तो शुद्ध, अक्षर (अविनाशी), शान्त, निर्गुण और प्रकृतिसे परे है। सम्पूर्ण प्राणियोंमें एक ही आत्मा है। उसकी न तो कभी वृद्धि होती है और न ह्रास ही होता है। राजन्! जब उसकी वृद्धि नहीं होती और ह्रास भी नहीं होता तो तुमने किस युक्तिसे व्यङ्गापूर्वक यह प्रश्न किया है कि ‘क्या तू मोटा-ताजा नहीं है?” यदि पृथ्वी, पैर, जङ्गा, ऊरु, कटि और उदर आदि आधारों एवं कंधोंपर रखी हुई यह पालकी में लिये भारस्वरूप हो सकती है तो यह आपत्ति तुम्हारे लिये भी समान ही हैं, अर्थात् तुम्हारे लिये भी यह भाररूप कही जा सकती है तथा इस युक्ति से अन्य सभी जन्तुओंने भी केवल पालकी ही नहीं उठा रखी है, पर्वत, पेड़, घर और पृथ्वी आदिका भार भी अपने ऊपर ले रखा है। नरेश! सोचो तो सही, जब प्रकृतिजन्य साधनोंसे पुरुष सर्वथा भिन्न है तो कौन-सा महान् भार मुझे सहन करना पड़ता है? जिस द्रव्यसे यह पालकी बनी है, उसीसे मेंरे, तुम्हारे तथा इन सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरोंका निर्माण हुआ है; इन सबकी समान द्रव्योंसे पुष्टि हुई है॥ ७-१८॥ -यह सुनकर राजा पालकीसे उतर पड़े और ब्राह्मणके चरण पकड़कर क्षमा माँगते हुए बोले’भगवन्! अब पालकी छोड़कर मुझपर कृपा कीजिये। मैं आपके मुखसे कुछ सुनना चाहता हूँ, मुझे उपदेश दीजिये। साथ ही यह भी बताइये कि आप कौन हैं? और किस निमित्त अथवा किस कारणसे यहाँ आपका आगमन हुआ है?’॥ १९॥ ब्राह्मणने कहा-राजन्! सुनों-“मैं अमुक हूँ”-यह बात नहीं कही जा सकती। (तथा तुमने जो आनेका कारण पूछा है, उसके सम्बन्धमें मुझे इतना ही कहना है कि) कहीं भी आने-जानेकी क्रिया कर्मफल का उपयोग करनेके लिये ही होती है। सुख-दु:खके उपभोग ही भिन्न-भिन्न देश (अथवा शरीर) आदिकीं प्राप्ति करानेवाले हैं तथा
धर्माधर्मजनित सुख-दु:खोंको भोगनेके लिये ही जीव नाना प्रकार के देश (अथवा शरीर) आदिकी प्राप्त होता है।॥ २०-२१ ॥ राजाने कहा-ब्रह्मन्! ‘जो है” (अर्थात् जो आत्मा सत्स्वरूपसे विराजमान है तथा कर्ताभोक्तारूपमें प्रतीत हो रहा है) उसे ‘मैं हूँ’-यों कहकर क्यों नहीं बताया जा सकता? द्विजश्वर! आत्माके लिये ‘अहम’ शब्दका प्रयोग तो दोषावह नहीं जान पड़ता ॥ २२ ॥ ब्राह्मणने कहा-राजन्! आत्माके लिये ‘अहम्’ शब्दका प्रयोग दोषावह नहीं है, तुम्हारा यह कथन बिलकुल ठीक है, परंतु अनात्मामें आत्मत्वका बोध करानेवाला ‘अहम्’ शब्द तो दोषावह है ही। अथवा जहाँ कोई भी शब्द भ्रमपूर्ण अर्थको लक्षित कराता हो, वहाँ उसका प्रयोग दोषयुक्त ही है। जब सम्पूर्ण शरीरमें एक ही आत्माकी स्थिति है, तो ‘कौन तुम और कौन मैं हूँ।’ ये सब बातें व्यर्थ हैं। राजन्! ‘तुम राजा हो, यह पालकी है, हमलोग इसे ढोनेवाले कहार हैं, ये आगे चलनेवाले सिपाही हैं तथा यह लोक तुम्हारे अधिकारमें है”-यह जी कहा जाता है, यह सत्य नहीं है। वृक्षसे लकड़ी होती है और लकड़ीसे यह पालकी बनी है, जिसके ऊपर तुम बैठे हुए हो। सौवीरनरेश! बोली तो, इसका ‘वृक्ष’ और ‘लकड़ी’ नाम क्या हो गया? कोई भी चेतन मनुष्य यह नहीं कहता कि ‘महाराज’ वृक्ष अथवा लकड़ीपर चढ़े हुए हैं।’ सब तुम्हें पालकीपर ही सवार बतलाते हैं। (किंतु पालकी क्या है?) नृपश्रेष्ठ! रचनाकलाके द्वारा एक विशेष आकारमें परिणत हुई लकड़ियोंका समूह ही तो पालकी है। यदि तुम इसे कोई भिन्न वस्तु मानते हो तो इसमेंसे लकड़ियोंकी अलग करके ‘पालकी” नामकी कोई चीज दूँढो तो सही।
‘यह पुरुष, यह स्त्री, यह गौ, यह घोड़ा, यह हाथी, यह पक्षी और यह वृक्ष है”-इस प्रकार कर्मजनित भिन्न-भिन्न शरीरोंमें लोगोंने नाना प्रकार के नामोंका आरोप कर लिया है।
इन संज्ञाओंको लोककल्पित ही समझना चाहिये।
जिह्वा ‘अहम (मैं)-का उच्चारण करती है, दाँत, होठ, तालु और कण्ठ आदि भी उसका उच्चारण करते हैं, किंतु ये ‘अहम’ (मैं) पदके वाच्यार्थ नहीं है; क्योंकि ये सब-के-सब शब्दोच्चारणके साधनमात्र हैं।
किन कारणों या उक्तियोंसे जिह्वा कहती है कि ‘वाणी ही ‘अहम’ (मैं) हूँ।” यद्यपि जिह्वा यह कहती हैं, तथापि “यदि मैं वाणी नहीं हूँ” ऐसा कहा जाय तो यह कदापि मिथ्या नहीं है।
राजन्! मस्तक और गुदा आदिके रूपमें जो शरीर है, वह पुरुष (आत्मा)-से सर्वथा भिन्न है, ऐसी दशा में मैं किस अवयव के लिये ‘अहम’ संज्ञाका प्रयोग करुँ ?
भूपालशिरोमणे! यदि मुझ (आत्मा)-से भिन्न कोई भी अपनी पृथक् सत्ता रखता हो तो ‘यह मैं हूँ’, ‘यह दूसरा है’-ऐसी बात भी कही जा सकती है।
वास्तव में पर्वत, पशु तथा वृक्ष आदिका भेद सत्य नहीं है। शरीरदृष्टिसे ये जितने भी भेद प्रतीत हो रहे हैं, सब-के-सब कर्मजन्य हैं।
संसार में जिसे ‘राजा’ या ‘राजसेवक’ कहते हैं, वह तथा और भी इस तरहकी जितनी संज्ञाएँ हैं, वे कोई भी निर्विकार सत्य नहीं हैं।
भूपाल! तुम सम्पूर्ण लोकके राजा हो, अपने पिताके पुत्र हो, शत्रुके लिये शत्रु हो, धर्मपत्नीके पति हो और पुत्र के पिता हो-इतने नामोंके होते हुए मैं तुम्हें क्या कहकर पुकारूं ?
पृथ्वीनाथ ! क्या यह मस्तक तुम हो ? किंतु जैसे मस्तक तुम्हारा है, वैसे ही उदर भी तो है ? (फिर उदर क्यों नहीं हो?) तो क्या इन पैर आदि अङ्गोंमेंसे तुम कोई हो? नहीं, तो ये सब तुम्हारे क्या हैं?
महाराज ! इन समस्त अवयवोसे तुम पृथक् हो, अत: इनसे अलग होकर ही अच्छी तरह विचार करो कि ‘वास्तवमें मैं कौन हूँ’॥ २३-३७६ ॥
यह सुनकर राजाने उन भगवत्स्वरूप अवधूत ब्राह्मणसे कहा ॥ ३८ ॥
राजा बोले-ब्रह्मन्! मैं आत्मकल्याणके लिये उद्यत होकर महर्षि कपिलके पास कुछ पूछनेके लिये जा रहा था। आप भी मेरे लिये इस पृथ्वीपर महर्षि कपिलके ही अंश हैं, अत: आप ही मुझे ज्ञान दें। जिससे ज्ञानरूपी महासागरकी प्राप्ति होकर परम कल्याणकी सिद्धि हो, वह उपाय मुझे बताइयै ॥ ३९-४० ॥
ब्राह्मणने कहा-राजन्! तुम फिर कल्याणका ही उपाय पूछने लगे।’परमार्थ क्या है?” यह नहीं पूछते। ‘परमार्थ” ही सब प्रकारके कल्याणोंका स्वरूप है।
मनुष्य देवताओंकी आराधना करके धन-सम्पतिकी इच्छा करता है, पुत्र और राज्य पाना चाहता है; किंतु सौवीरनरेश! तुम्हीं बताओ, क्या यही उसका श्रेय है ? (इसीसे उसका कल्याण होगा?)
विवेकी पुरुषकी दृष्टिमें तो परमात्माकी प्राप्ति ही श्रेय है; यज्ञादिकी क्रिया तथा द्रव्यकी सिद्धिकों वह श्रेय नहीं मानता।
परमात्मा और आत्माका संयोग-उनके एकत्वका बोध ही ‘परमार्थ’ माना गया है। परमात्मा एक अर्थात् अद्वितीय है। वह सर्वत्र समानरूपसे व्यापक, शुद्ध, निर्गुण, प्रकृतिसे परे, जन्म-वृद्धि ज्ञानस्वरूप, गुण-जाति आदिके संसर्गसे रहित एवं विभु है।
अब मैं तुम्हें निदाघ और ऋतु (ऋभु)-का संवाद सुनाता हूँ, ध्यान देकर सुनो
ऋतु ब्रह्माजीके पुत्र और ज्ञानी थे।
पुलस्त्यनन्दन निदाघने उनकी शिष्यता ग्रहण की। ऋतुसे विद्या पढ़ लेनेके पश्चात् निदाघ देविका नदीके तटपर एक नगरमें जाकर रहने लगे।
ऋतुने अपने शिष्य के निवासस्थानका पता लगा लिया था।
हजार दिव्य वर्ष बीतनेके पश्चात् एक दिन ऋतु निदाघको देखनेके लिये गये। उस समय निदाघ बलिवैश्वदेवके अनन्तर अन्न-भोजन करके अपने शिष्यसे कह रहे थे-‘भोजनके बाद मुझे तृप्ति हुई है, क्योंकि भोजन ही अक्षय-तृप्ति प्रदान करनेवाला है।” (यह कहकर वे तत्काल आये हुए अतिथिसेभी तृतिके विषयमें पूछने लगे) ॥ ४१-४८॥
तब ऋतुने कहा-ब्राह्मण! जिसको भूख लगी होती है, उसीको भोजनके पश्चात् तृप्ति होती है। मुझे तो कभी भूख ही नहीं लगी, फिर मेरी तृप्तिके विषयमें क्यों पूछते हो? भूख और प्यास देहके धर्म हैं। मुझ आत्माका ये कभी स्पर्श नहीं करते। तुमने पूछा है, इसलिये कहता हूँ। मुझे सदा ही तृप्ति बनी रहती है।
पुरुष (आत्मा) आकाशकी भाँति सर्वत्र व्याप्त है और मैं वह प्रत्यगात्मा ही हूं; अतः तुमने जो मुझसे यः पूछा कि ‘आप कहाँसे आते हैं?” यह प्रश्न कैसे सार्थक हो सकता है? मैं न कहीं जाता हूँ न आता हूँ और न किसी एक स्थानमें रहता हूँ। न तुम मुझसे भिन्न हो, न मैं तुमसे अलग हूँ।
जैसे मिट्टीका घर मिट्टीसे लीपनेपर सुदृढ़ होता है, उसी प्रकार यह पार्थिव देह ही पार्थिव अन्नके परमाणुओंसे पुष्ट होता है।
ब्रह्मन्! मैं तुम्हारा आचार्य ऋतु हूँ और तुम्हें ज्ञान देने के लिये यहाँ आया हूँ, अब जाऊँगा। तुम्हें परमार्थतत्वका उपदेश कर दिया।
इस प्रकार तुम इस सम्पूर्ण जगत्को एकमात्र वासुदेवसंज्ञक परमात्माका ही स्वरूप समझो; इसमें भेदका सर्वथा अभाव हैं ॥ ४९-५५ ॥
तत्पश्चात् एक हजार वर्ष व्यतीत होनेपर ऋतु पुनः उस नगरमें गये।
वहाँ जाकर उन्होंने देखा’ निदाघ नगरके पास एकान्त स्थानमें खड़े हैं।’ तब वे उनसे बोले-‘भैया! इस एकान्त स्थान में क्यों खड़े हो?” ॥ ५६ ॥
निदाघने कहा-ब्रह्मन्! मार्गमें मनुष्योंकी बहुत बड़ी भीड़ खड़ी है; क्योंकि ये नरेश इस समय इस रमणीय नगर में प्रवेश करना चाहते हैं, इसीलिये मैं यहाँ ठहर गया हूँ॥ ५७॥
ऋतुने पूछा-द्विजश्रेष्ठ! तुम यहाँकी सब बातें जानते हो; बताओं। इनमें कौन नरेश हैं और कौन दूसरे लोग हैं? ॥ ५८॥
निदाघने कहा-ब्राह्मन्! जो इस पर्वतशिखरके समान खड़े हुए मतवाले गजराजपर चढ़े हैं, वही ये नरेश हैं तथा जो उन्हें चारों ओर से घेरकर खड़े हैं, वे ही दूसरे लोग हैं। यह नीचेवाला जीव हाथी है और ऊपर बैठे हुए सजन महाराज हैं॥ ५९ ॥
ऋतुने कहा-‘मुझे समझाकर बताओ, इनमें कौन राजा है और कौन हाथीं?”
निदाघ। बोले’अच्छा, बतलाता हूँ।’ यह कहकर निदाघ ऋतुके ऊपर चढ़ गये और बोले-‘अब दृष्टान्त देखकर तुम वाहनको समझ लो। मैं तुम्हारे ऊपर राजाके समान बैठा हूँ और तुम मेरे नीचे हाथीके समान खड़े हो।’
तब ऋतुने निदाघसे कहा-‘मैं कौन हूँ और तुम्हें क्या कहूँ?” इतना सुनते ही निदाघ उतरकर उनके चरणोंमें पड़ गये और बोले’निश्चय ही आप मेरे गुरुजी महाराज हैं, क्योंकि दूसरे किसीका हृदय ऐसा नहीं है, जो निरन्तर अद्वैत-संस्कारसे सुसंस्कृत रहता हो।”
ऋतुने निदाघसे कहा-‘मैं तुम्हें ब्रह्मका बोध करानेके लिये आया था और परमार्थ-सारभूत अद्वैततत्वका दर्शन तुम्हें करा दिया” ॥ ६०-६४ ॥
ब्राह्मण (जड़भरत) कहते हैं-राजन्! निदाघ उस उपदेशके प्रभावसे अद्वैतपरायण हो गये। अब वे सम्पूर्ण प्राणियोंकों अपनेसे अभिन्न देखने लगे। उन्होंने ज्ञानसे मोक्ष प्राप्त किया था, उसी प्रकार तुम भी प्राप्त करोगे। तुम, मैं तथा यह सम्पूर्ण जगत्-सब एकमात्र व्यापक विष्णुका ही स्वरूप है। जैसे एक ही आकाश नीले-पीले आदि भेदोंसे अनेक-सा दिखायी देता है, उसी प्रकार भ्रान्तदृष्टिवाले पुरुषोंको एक ही आत्मा भिन्न भिन्न रूपोंमें दिखायी देता है।॥ ६५-६७॥
अग्निदेव कहते हैं-वसिष्ठजी! इस सारभूत ज्ञानके प्रभावसे सौवीरनरेश भव-बन्धनसे मुक्त हो गये। ज्ञानस्वरूप ब्रह्म ही इस अज्ञानमय संसारवृक्षका शत्रु हैं, इसका निरन्तर चिन्तन करते रहिये॥ ६८॥
अध्याय – ३८१ गीता-सार
अब मैं गीताका सार बतलाऊँगा, जो समस्त गीताका उत्तम-से-उत्तम अंश है।
पूर्वकालमें भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनको उसका उपदेश दिया था। वह भोग तथा मोक्ष-दोनोंकों देनेवाला हैं ॥ १ ॥
श्रीभगवान् ने कहा-अर्जुन! जिसका प्राण चला गया है अथवा जिसका प्राण अभी नहीं गया है, ऐसे मरे हुए अथवा जीवित किसी भी देहधारीके लिये शोक करना उचित नहीं है; क्योकी आत्मा अजन्मा, अजर, अमर और अभेध हैं, इसलिये शोक आदिको छोड़ देना चाहिये।
विषयोंका चिन्तन करनेवाले पुरुषकी उनमें आसक्ति हो जाती है; आसक्ति से काम, कामसे क्रोध और क्रोधसे अत्यन्त मोह होता है। मोहसे स्मरणशक्तिका ह्रास और उससे बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिके नाशसे उसका सर्वनाश हो जाता है।
सत्पुरुषोंका सङ्ग करनेसे बुरे सङ्ग छूट जाते हैं-। फिर मनुष्य अन्य सब कामनाओंका त्याग करके केवल मोक्षकी कामना रखता है। कामनाओंके त्यागसे मनुष्यकी आत्मा अर्थात् अपने स्वरूपमें स्थिति होती हैं, उस समय वह ‘स्थिरप्रज्ञ” कहलाता है।
सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये जो रात्रि है, अर्थात् समस्त जीव जिसकी ओरसे बेखबर होकर सो रहे हैं, उस परमात्माके स्वरूपमें भगवत्प्राप्त संयमी पुरुष जागता रहता है तथा जिस क्षणभङ्गुर सांसारिक सुखमें सब भूतप्राणी जागते हैं, अर्थात् जो विषय-भोग उनके सामने दिनके समान प्रकट हैं, वह ज्ञानी मुनिके लिये रात्रिके ही समान हैं।
जो अपने-आपमें ही संतुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं है। इस संसारमें उस आत्माराम पुरुषको न तो कुछ करनेसे प्रयोजन है और न न करने से ही।
हे महाबाहो! जो गुण-विभाग और कर्म-विभागके तत्वको जानता है, वह यह समझकर कि सम्पूर्ण गुण गुणोंमें ही बरत रहे हैं, कहीं आसक्त नहीं होता।
अर्जुन! तुम ज्ञानरूपी नौकाका सहारा लेनेसे निश्चय ही सम्पूर्ण पापोंको तर जाओगे। ज्ञानरूपी अग्नि सब कर्मोको जलाकर भस्म कर डालतीं है। जो सब कर्मोको परमात्मामें अर्पण करके आसक्ति छोड़कर कर्म करता है, वह पापसे लिप्त नहीं होता-ठीक उसी तरह जैसे कमलका पत्ता पानीसे लिप्त नहीं होता।
जिसका अन्त:करण योगयुक्त हैं-परमानन्दमय परमात्मामें स्थित है तथा जो सर्वत्र समान दृष्टि रखनेवाला है, वह योगी आत्माको सम्पूर्ण भूतोंमें तथा सम्पूर्ण भूतोंको आत्मामें देखता है।
योगभ्रष्ट पुरुष शुद्ध आचार-विचारवाले श्रीमानों -के घरमें जन्म लेता है।
तात! कल्याणमय शुभ कर्मोका अनुष्ठान करनेवाला पुरुष कभी दुर्गतिको नहीं प्राप्त होता। २-११ ॥
‘मेरी यह त्रिगुणमयी माया अलौकिक है; इसका पार पाना बहुत कठिन है। जो केवल मेरी शरण लेते हैं, वे ही इस मायाको लाँघ पाते हैं।
भरतश्रेष्ठ! आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी-ये चार प्रकारके मनुष्य मेरा भजन करते हैं। इनमेंसे ज्ञानी तो मुझसे एकीभूत होकर स्थित रहता है। अविनाशी परम-तत्व ‘ब्रह्म’ है, स्वभाव अर्थात् जीवात्माको ‘अध्यात्म’ कहते हैं, भूतोंकी उत्पति और वृद्धि करनेवाले विसर्गका नाम “कर्म’ है, विनाशशील पदार्थ ‘अधिभूत’ है तथा पुरुष ‘अधिदैवत” है।
देहधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! इस देहके भीतर मैं वासुदेव ही ‘अधियज्ञ’ हूँ। अन्तकालमें मेरा स्मरण करनेवाला पुरुष मेरे स्वरूपको प्राप्त होता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।
मनुष्य अन्तकालमें जिस-जिस भावक स्मरण करते हुए अपने देहका परित्याग करता है, उसीको वह प्राप्त होता है।
मृत्युके समय जो प्राणोंको भौंहोंके मध्यमें स्थापित करके ‘ओम’- इस एकाक्षर ब्रह्मका उच्चारण करते हुए देहत्याग करता है, वह मुझ परमेश्वरको ही प्राप्त करता है।
ब्रह्माजीसे लेकर तुच्छ कीटतक जो कुछ दिखायी देता है, सब मेरी ही विभूतियाँ हैं। जितने भी श्रीसम्पन्न और शक्तिशाली प्राणी हैं, सब मेरे अंश हैं।
‘मैं अकेला ही सम्पूर्ण विश्वके रूपमें स्थित हूँ’-ऐसा जानकर मनुष्य मुक्त हो जाता है” ॥ १२-१९॥
‘यह शरीर ‘क्षेत्र’ हैं, जो इसे जानता है,उसको ‘क्षेत्रज्ञ’ कहा गया है। ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ को जो यथार्थरूपसे जानना है, वही मेरे मतमें ‘ज्ञान’ है।
पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त, दस इन्द्रियाँ एक मन, पाँच इन्द्रियोके विषय, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल शरीर, चेतना और धृति-यह विकारोंसहित ‘क्षेत्र’ है, जिसे यहाँ संक्षेपसे बतलाया गया है।
अभिमानशून्यता, दम्भका अभाव, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरुसेवा, बाहर-भीतरकी शुद्धि, अन्त:करणकी स्थिरता, मन, इन्द्रिय एवं शरीरका निग्रह, विषयभोगोंमें आसक्तिका अभाव, अहंकारका न होना, जन्म, मृत्यु, जरा तथा रोग आदिमें दुःखरूप दोषका बारंबार विचार करना, पुत्र, स्त्री और गृह आदिमें आसक्ति और ममताका अभाव, प्रिय और अप्रियकी प्राप्तिमें सदा ही समानचित रहना, मुझ परमेश्वरमें अनन्य-भावसे अविचल भक्तिका होना, पवित्र एवं एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव, विषयी मनुष्योंके समुदायमें प्रेमका अभाव, अध्यात्म-ज्ञानमे स्थिति तथा तत्त्व-ज्ञानस्वरूप परमेश्वर का निरन्तर दर्शन-यह सब ‘ज्ञान” कहा गया है और जो इसके विपरीत है, वह ‘अज्ञान’ है” ॥२०-२७ ॥
‘अब जो ‘ज्ञेय’ अर्थात् जानने के योग्य हैं, उसका वर्णन करुंगा, जिसको जानकर मनुष्य अमृत-स्वरूप परमात्माको प्राप्त होता है।
‘ज्ञेय तत्व’ अनादि है और ‘परब्रह्म’के नामसे प्रसिद्ध है। उसे न ‘सत्’ कहा जा सकता है, न ‘असत्”। उसके सब ओर हाथ-पैर हैं, सब ओर नेत्र, सिर और मुख हैं तथा सब ओर कान हैं।
वह संसारमें सबको व्याप्त करके स्थित है। सब इन्द्रियोंसे रहित होकर भी समस्त इन्द्रियोंके विषयोंकी जाननेवाला है। सबका धारण-पोषण करनेवाला होकर भी आसक्तिरहित है तथा गुणोंका भोक्ता होकर भी ‘निर्गुण’ है।
वह परमेश्वर सम्पूर्ण प्राणियोंके बाहर और भीतर विद्यमान है। ‘चर’ और ‘अचर’ सब उसीके स्वरूप हैं।
सूक्ष्म होनेके कारण वह ‘अविज्ञेय’ है। वही निकट है और वही दूर। यद्यपि वह विभागरहित है, तथापि सम्पूर्ण भूतोंमें विभक्त पृथक्-पृथक् स्थित हुआ-सा प्रतीत होता है।
उसे विष्णुरूपसे सब प्राणियोंका पोषक, रुद्ररूपसे सबका संहारक और ब्रह्माके रूपसे सबको उत्पन्न करनेवाला जानना चाहिये।
वह सूर्य आदि ज्योतियोंकी भी ज्योति है। उसकी स्थिति अज्ञानमय अन्धकारसे परे बतलायी जाती है। वह परमात्मा ज्ञानस्वरूप, जानने के योग्य, तत्वज्ञानसे प्राप्त होनेवाला और सबके हृदयमें स्थित है ॥ २८-३३॥
“उस परमात्माको कितने ही मनुष्य सूक्ष्मबुद्धिसे ध्यानके द्वारा अपने अन्त:करणमें देखते हैं। दूसरे लोग सांख्ययोगके द्वारा तथा कुछ अन्य मनुष्य कर्मयोगके द्वारा देखते हैं। इनके अतिरिक जो मन्द बुद्धिवाले साधारण मनुष्य हैं, वे स्वयं इस प्रकार न जानते हुय भी दूसरे ज्ञानी पुरुषोंसे सुनकर ही उपासना करते हैं। वे सुनकर उपासनामें लगनेवाले पुरुष भी मृत्युरूप संसार-सागरसे निश्चय ही पार हो जाते हैं।
सत्वगुणसे ज्ञान, रजोगुणसे लोभ तथा तमोगुणसे प्रमाद, मोह और अज्ञान उत्पन्न होते हैं। गुण ही गुणोंमें बर्तते हैं – ऐसा समझकर जो स्थिर रहता है, अपनी स्थितिसे विचलित नहीं होता,
जो मान-अपमानमें तथा मित्र और शत्रुपक्षमें भी समानभाव रखता है, जिसने कर्तृत्वके अभिमानको त्याग दिया है, वह ‘निर्गुण’ कहलाता है।
जिसकी जड़ ऊपरकी ओर और ‘शाखा’ नीचेकी ओर हैं, उस संसाररूपी अश्वत्थ वृक्षकी अनादि प्रवाहरूपसे ‘अविनाशी’ कहते हैं। वेद उसके पते हैं। जो उस वृक्षको मूलसहित यथार्थरूपसे जानता है, वही वेदके तात्पर्यको जाननेवाला है।
इस संसार में प्राणियोंकी सृष्टि दो प्रकारकी है-एक ‘दैवी’- देवताओंके-से स्वभाववाली और दूसरी ‘आसुरी’- असुरोंके-से स्वभाववाली। अत: मनुष्योंके अहिंसा आदि सद्गुण और क्षमा ‘दैवी सम्पत्ति’ है। ‘आसुरी सम्पति से जिसकी उत्पति हुई है, उसमें न शौच होता है, न सदाचार। क्रोध, लोभ और काम-ये नरक देनेवाले हैं, अत: इन तीनोंको त्याग देना चाहिये।
सत्व आदि गुणोंके भेदसे यज्ञ, तप और दान तीन प्रकार के माने गये हैं। ‘सात्त्विक” अन्न आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य और सुखकी वृद्धि करनेवाला है। तीखा और रूखा अन्न ‘राजस’ है। वह दु:ख, शोक और रोग उत्पन्न करनेवाला है। अपवित्र, जूठा, दुर्गन्धयुक्त और नीरस आदि अन्न ‘तामस” माना गया है।
‘यज्ञ करना कर्तव्य हैं”- यह समझकर निष्कामभावसे विधिपूर्वक किया जानेवाला यज्ञ ‘सात्विक’ है। फलकी इच्छासे किया हुआ यज्ञ ‘राजस’ और दम्भके लिये किया जानेवाला यज्ञ ‘तामस’ है।
श्रद्धा और मन्त्र आदिसे युक्त एवं विधि-प्रतिपादित जो देवता आदिकी पूजा तथा अहिंसा आदि तप है, उन्हें ‘शारीरिक तप’ कहते हैं। अब वाणीसे किये जानेवाले तपको बताया जाता है। जिससे किसीको उद्वेग न हो-ऐसा सत्य वचन, स्वाध्याय और जप-यह ‘वाङ्मय तप’ है। चित्तशुद्धि, मौन और मनोनिग्रह-ये ‘मानस तप” हैं।
कामनारहित तप ‘सात्विक’, फल आदिके लिये किया जानेवाला तप ‘राजस’ तथा दूसरोंको पीड़ा देनेके लिये किया हुआ तप ‘तामस’ कहलाता है।
उत्तम देश, काल और पात्रमें दिया हुआ दान ‘सात्विक’ है, प्रत्युपकारके लिये दिया जानेवाला दान ‘राजस’ है तथा अयोग्य देश, काल आदिमें अनादरपूर्वक दिया हुआ दान ‘तामस” कहा गया है।
‘ॐ’, ‘तत्’, और ‘सत्’—ये परब्रह्म परमात्माके तीन प्रकार के नाम बताये गये हैं।
यज्ञ-दान आदि कर्म मनुष्योंको भोग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं।
जिन्होंने कामनाओंका त्याग नहीं किया है, उन सकामी पुरुषोके कर्मका बुरा, भला और मिला हुआ-तीन प्रकारका फल होता है। यह फल मृत्युके पश्चात् प्राप्त होता है।
संन्यासी -के कर्मोंका कभी कोई फल नहीं होता।
मोहवश जो कर्मोका त्याग किया जाता है, वह ‘तामस” है,
शरीरको कष्ट पहुँचने के भयसे किया हुआ त्याग ‘राजस’ है तथा
कामनाके त्यागसे सम्पन्न होनेवाला त्याग “सात्विक’ कहलाता है।
अधिष्ठान, कर्ता, भिन्न-भिन्न करण, नाना प्रकारकी अलग-अलग चेष्टाएँ तथा दैव-ये पाँच ही कर्मके कारण हैं।
सब भूतोंमें एक परमात्माका ज्ञान ‘सात्विक’ भेदज्ञान ‘राजस’ और अतात्विक ज्ञान ‘तामस’ है।
निष्काम भावसे किया हुआ कर्म ‘सात्विक’, कामना के लिये किया जानेवाला ‘राजस’ तथा मोहवश किया हुआ कर्म ‘तामस’ है।
कार्यकी सिद्धि और असिद्धिमें सम रहनेवाला कर्ता सात्विक, हर्ष और शोक करनेवाला ‘राजस’ तथा शठ और आलसी कर्ता ‘तामस’ कहलाता है।
कार्य-अकार्यके तत्वको समझनेवाली बुद्धि ‘सात्विकी’, उसे ठीक-ठीक न जाननेवाली बुद्धि ‘राजसी’ तथा विपरीत धारणा रखनेवाली बुद्धि ‘तामसी’ मानी गयी है।
मन को धारण करनेवाली धृती सात्विक, प्रीतिकी कामनावाली धूति ‘राजसी’ तथा शोक आदिको धारण करनेवाली धृति ‘तामसी’ है।
जिसका परिणाम सुखद हो, वह सत्त्वसे उत्पन्न होनेवाला ‘सात्विक सुख’ है। जो आरम्भमें सुखद प्रतीत होनेपर भी परिणाममें दु:खद हो वह ‘राजस सुख’ है तथा जो आदि और अन्तमें भी दु:ख- ही-दु:ख है, वह आपाततः प्रतीत होनेवाला सुख ‘तामस” कहा गया है।
जिससे सब भूतोंकी उत्पति हुई है और जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है, उस विष्णुको अपने-अपने स्वाभाविक कर्मद्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त कर लेता है।
जो सब अवस्थाओंमें और सर्वदा मन, वाणी एवं कर्मके द्वारा ब्रह्मासे लेकर तुच्छ कीटपर्यन्त संपूर्ण जगत् को भगवान् विष्णुका स्वरूप समझता है, वह भगवान् में भक्ति रखनेवाला भागवत पुरुष सिद्धिको प्राप्त होता है”‘ ॥ ३४-५८ ॥
तीन सौ इक्यासीवाँ अध्याय ॥ ३८१ ॥
अध्याय – ३८२ यमगीता
अग्निदेव कहते हैं-ब्रह्मन्! अब मैं ‘यमगीता’का वर्णन करूंगा, जो यमराजके द्वारा नचिकेताके प्रति कही गयी थी। यह पढ़ने और सुननेवालोंको भोग प्रदान करती है तथा मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले सत्पुरुषोंको मोक्ष देनेवाली है।॥ १ ॥
यमराजने कहा–अहो ! कितने आश्चर्यकी बात है कि मनुष्य अत्यन्त मोहके कारण स्वयं अस्थिरचित्त होकर आसन, शय्या, वाहन, परिधान तथा गृह आदि भोगोंको सुस्थिर मानकर प्राप्त करना चाहता है। कपिलजीने कहा है-‘ भोगोंमें आसक्तिका अभाव तथा सदा ही आत्मतत्वका चिन्तन-यह मनुष्योंके परमकल्याणका उपाय है।
‘सर्वत्र समतापूर्ण दृष्टि तथा ममता और आसक्तिका न होना-यह मनुष्योंके परमकल्याणका साधन है”-यह आचार्य पश्चशिखका उद्गार है।
गर्भसे लेकर जन्म और बाल्य आदि वय तथा अवस्थाओंके स्वरूपको ठीक-ठीक समझना ही मनुष्योंके परमकल्याणका हेतु है’-यह गङ्गा-विष्णुका गान है।
‘आध्यात्मिक आधिदैविक और आधिभौतिक दु:ख आदिअन्तवाले हैं, अर्थात् ये उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं, अत: इन्हें क्षणिक समझकर धैर्यपूर्वक सहन करना चाहिये,- विचलित नहीं होना चाहिये-इस प्रकार उन दु:खोंका प्रतिकार ही मनुष्योंके लिये परामकल्याणका साधन है’-यह महाराज जनकका मत है।
‘जीवात्मा और परमात्मा वस्तुत: अभिन्न (एक) हैं; इनमें जो भेदकी प्रतीति होती है, उसका निवारण करना ही परमकल्याणका हेतु “-यह ब्रह्माजीका सिद्धान्त है।
जैगीषव्यका कहना है कि ‘ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदमें प्रतिपादित जो कर्म हैं, उन्हें कर्तव्य समझकर अनासक्तभावसे करना श्रेयका साधन है।
सब प्रकारकी विधित्सा (कर्मारम्भकी आकाङ्क्षा)- का परित्याग आत्माके सुखका साधन है; यही मनुष्योंके लिये परम श्रेय है’-यह देवलका मत बताया गया है।
कामनाओंके त्यागसे विज्ञान, सुख, ब्रह्म एवं परमपदकी प्राप्ति होती हैं। कामना रखनेवालोंको ज्ञान नहीं होता”-यह सनकादिकोंका सिद्धान्त है ॥ २-१०॥
‘दूसरे लोग कहते हैं कि प्रवृति और निवृति-दोनों प्रकारके कर्म करने चाहिये। परंतु वास्तव में नैष्कर्म्य ही ब्रह्म है; वही भगवान् विष्णुका स्वरूप है-यही श्रेयका भी श्रेय है।
जिस पुरुषको ज्ञानकी प्राप्ति हो जाती है, वह संतोंमें श्रेष्ठ है; वह अविनाशी परब्रह्म विष्णुसे कभी भेदकों नहीं प्राप्त होता।
ज्ञान, विज्ञान, आस्तिकता, सौभाग्य तथा उत्तम रूप तपस्यासे उपलब्ध होते हैं। इतना ही नहीं, मनुष्य अपने मनसे जो-जो वस्तु पाना चाहता है, वह सब तपस्यासे प्राप्त हो जाती है।
विष्णुके समान कोई ध्येय नहीं है, निराहार रहनेसे बढ़कर कोई तपस्या नहीं है, आरोग्यके समान कोई बहुमूल्य वस्तु नहीं है और गङ्गाजीके तुल्य दूसरी कोई नदी नहीं है। जगदगुरु भगवान् विष्णुको छोड़कर दूसरा कोई बान्धव नहीं है।*
नीचे-ऊपर, आगे, देह, इन्द्रिय, मन तथा मुख-सबमें और सर्वत्र भगवान् श्रीहरि विराजमान हैं।’ इस प्रकार करता है, वह साक्षात् श्रीहरिके स्वरूपमें मिल जाता है।
वह जो सर्वत्र व्यापक ब्रह्म है, जिससे सबकी उत्पति हुई हैं, जो सर्वस्वरूप है तथा यह सब कुछ जिसका संस्थान है, जो इन्द्रियोंसे ग्राह्य नहीं है, जिसका किसी नाम आदिके द्वारा निर्देश नहीं किया जा सकता, जो सुप्रतिष्ठित एवं सबसे परे है, उस परापर ब्रह्मके रूप में साक्षात भगवान् विष्णु ही सबके हृदय में विराजमान हैं।
वे यज्ञके स्वामी तथा यज्ञस्वरूप हैं; उन्हें कोई तो परब्रह्मरूपसे प्राप्त करना चाहते हैं, कोई विष्णुरूपसे, कोई शिवरूपसे, कोई ब्रह्मा और ईश्वररूपसे, कोई इन्द्रादि नामोंसे तथा कोई सूर्य, चन्द्रमा और कालरूपसे उन्हें पाना चाहते हैं।
ब्रह्मासे लेकर कीटतक सारे जगत् को विष्णुका ही स्वरूप कहते हैं। वे भगवान् विष्णु परब्रह्म परमात्मा हैं, जिनके पास पहुँच जानेपर फिर वहाँसे इस संसारमें नहीं लौटना पड़ता।
सुवर्ण-दान आदि बड़े-बड़े दान तथा पुण्य-तीर्थोंमें स्नान करनेसे, ध्यान लगाने से, व्रत करनेसे, पूजासे और धर्मकी बातें सुनने-से उनकी प्राप्ति होती है’॥ ११-२० ॥
‘आत्माको ‘रथी’ समझो और शरीरको ‘रथ’। बुद्धिको ‘सारथि’ जानो और मनको ‘लगाम’। विवेकी पुरुष इन्द्रियोंको ‘घोड़े’ कहते हैं और विषयोंको उनके “मार्ग’ तथा शरीर, हैं। जो बुद्धिरूप सारथि अविवेकी होता है, जो अपने मनरूपी लगामकों कसकर नहीं रखता, वह उत्तम पदको नहीं प्राप्त होता, संसाररूपी गर्तमें गिरता है। परंतु जो विवेकी होता है और मनको काबूमें रखता है, वह उस परमपदको प्राप्त होता है, जिससे वह फिर जन्म नहीं लेता।
जो मनुष्य विवेकयुक्त बुद्धिरूप सारथिसे सम्पन्न और मनरूपी लगामको काबूमें रखनेवाला होता है, वही संसाररूपी मार्गको पार करता है, जहाँ विष्णुका परमपद है।
इन्द्रियोंकी अपेक्षा उनके विषय पर हैं, विषयोंसे परे मन है, मनसे परे बुद्धि है, बुद्धिसे परे महान् आत्मा है, महत्तत्वसे परे अव्यक्त है और अव्यक्तसे परे पुरुष है। पुरुषसे परे कुछ भी नहीं है, वही सीमा है, वही परमगति है।
सम्पूर्ण भूतोंमें छिपा हुआ यह आत्मा प्रकाशमें नहीं आता। सूक्ष्मदर्शी पुरुष अपनी तीव्र एवं सूक्ष्म बुद्धिसे ही उसे देख पाते हैं। विद्वान् पुरुष वाणीको मनमें और मनको विज्ञानमयी बुद्धिमें लीन करे। इसी प्रकार बुद्धिको महत्तत्वमें और महत्तत्वको शान्त आत्मामें लीन करे’॥२१-२९ ॥
” यम-नियमादि साधनोंसे ब्रह्म और आत्माकी एकताको जानकर मनुष्य सत्स्वरूप ब्रह्म ही हो जाता है।
अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरीका अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (संग्रह न करना)-ये पाँच ‘यम’ कहलाते हैं। ‘नियम’ भी पाँच ही हैं-शौच (बाहर-भीतरकी पवित्रता), संतोष, उत्तम तप, स्वाध्याय और ईश्वरपूजा।
‘आसन” बैठनेकी प्रक्रियाका नाम है, उसके ‘पद्मासन’ आदि कई भेद हैं। प्राणवायुको जीतना ‘प्राणायाम’ है। इन्द्रियोंका निग्रह ‘प्रत्याहार’ कहलाता है।
ब्रह्मन्! एक शुभ विषयमें जो चित्तको स्थिरतापूर्वक स्थापित करना होता है,उसे बुद्धिमान् पुरुष ‘धारणा’ कहते हैं। एक ही विषयमें बारंबार धारणा करनेका नाम ‘ध्यान’ है।’मैं ब्रह्म हूँ’-इस प्रकारके अनुभवमें स्थिति होनेको ‘समाधि’ कहते हैं। जैसे घड़ा फूट जानेपर घटाकाश महाकाशसे अभिन्न (एक) हो जाता है, उसी प्रकार मुक्त जीव ब्रह्म के साथ एकीभावको प्राप्त होता है—वह सत्स्वरूप ब्रह्म ही हो जाता है। ज्ञानसे ही जीव अपनेको ब्रह्म मानता है, अन्यथा नहीं। अज्ञान और उसके कार्योसे मुक्त होनेपर जीव अजर-अमर हो जाता है”॥ ३०-३६॥
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ! यह मैंने ‘यमगीता’ बतलायी है। इसे पढ़नेवालोंको यह भोग और मोक्ष प्रदान करती है। वेदान्तके अनुसार सर्वत्र ब्रह्मबुद्धिका होना ‘आत्यन्तिक लय” कहलाता हैं।॥ ३७ ॥
तीन सौ बयासीवाँ अध्याय ॥ ३८२ ॥
अध्याय – ३८३ अग्निपुराणका माहात्म्य
अग्निदेव कहते हैं–ब्रह्मन्! ‘अग्निपुराण’ ब्रह्मस्वरूप है, मैंने तुमसे इसका वर्णन किया।
इसमें कही संक्षेप से और कही विस्तारके साथ “परा’ और “अपरा’-इन दो विद्याओंका प्रतिपादन किया गया है।
यह महापुराण है।
ऋकृ, यजु:, साम और अथर्व-नामक वेदविद्या, विष्णु-महिमा, संसार-सृष्टि, छन्द, शिक्षा, व्याकरण, निघण्टु (कोष), ज्यौतिष, निरुक्तः, धर्मशास्त्र आदि, मीमांस, विस्तृत न्यायशास्त्र, आयुर्वेद, पुराण-विधा, धनुर्वेद, गंधर्ववेद, अर्थशास्त्र, वेदान्त और महान् (परमेश्वर) श्रीहरि-यह सब ‘अपरा विद्या’ है तथा परम अक्षर तत्व ‘परा विद्या’ है। (इस पुराणमें इन दोनों विद्याओंका विषय वर्णित है।)
“यह सब कुछ विष्णु ही है’-ऐसा जिसका भाव हो, उसे कलियुग बाधा नहीं पहुँचाता।
बड़े-बड़े यज्ञोंका अनुष्ठान और पितरोंका श्राद्ध न करके भी यदि मनुष्य भक्तिपूर्वक श्रीकृष्णका पूजन करे तो वह पापका भागी नहीं होता।
विष्णु सबके कारण हैं। उनका निरन्तर ध्यान करनेवाला पुरुष कभी कष्टमें नहीं पड़ता।
यदि परतन्त्रता आदि दोषोसे प्रभावित होकर तथा विषयोंके प्रति चित्त आकृष्ट हो जानेके कारण मनुष्य पाप-कर्म कर बैठे तो भी गोविन्दका ध्यान करके वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। दूसरी-दूसरी बहुत-सी बातें बनानेसे क्या लाभ?
“ध्यान” वही है, जिसमें गोविन्दका चिन्तन होता हो, “कथा” वही हैं, जिसमें केशवका कीर्तन हो रहा हों और ‘कर्म” वही है, जो श्रीकृष्णकी प्रसन्नताके लिये किया जाय।
वसिष्ठजी! जिस परमोत्कृष्ट परमार्थतत्त्वका उपदेश न तो पिता पुत्रको और न गुरु शिष्यको कर सकता है, वही इस अग्निपुराणके रूपमें मैंने आपके प्रति किया हैं।
द्विजश्वर! संसार में भटकनेवाले पुरुषको स्त्री, पुत्र और धन-वैभव मिल सकते हैं तथा अन्य अनेकों सुहृदोंकी भी प्राप्ति हो सकती है, परंतु ऐसा उपदेश नहीं मिल सकता।
स्त्री, पुत्र, मित्र, खेती-बारी और बन्धुबान्धवोंसे क्या लेना है? यह उपदेश ही सबसे बड़ा बन्धु है; क्योंकि यह संसारसे मुक्ति दिलानेवाला है।॥ १-११ ॥
प्राणियोंकी सृष्टि दो प्रकारकी है-‘दैवी’ और ‘आसुरी’। जो भगवान् विष्णुकी भक्तिमें लगा हुआ है, वह ‘दैवी सृष्टि”के अन्तर्गत हैं तथा जो भगवानसे विमुख है, वह “आसुरी सृष्टि’का मनुष्य हैं-असुर है।
यह अग्निपुराण, जिसका मैंने तुम्हें उपदेश किया है, परम पवित्र, आरोग्य एवं धनका साधक, दुःस्वप्नका नाश करनेवाला, मनुष्योंको सुख और आनन्द देनेवाला तथा भवबन्धनसे मोक्ष दिलानेवाला है।
जिनके घरोंमें हस्तलिखित अग्निपुराणकी पोथी मौजूद होगी, वहाँ उपद्रवोंका जोर नहीं चल सकता।
जो मनुष्य प्रतिदिन अग्निपुराण-श्रवण करते हैं, उन्हें तीर्थसेवन, गोदान, यज्ञ तथा उपवास आदिकी क्या आवश्यकता है?
जो प्रतिदिन एक प्रस्थ तिल और एक माशा सुवर्ण दान करता है तथा जो अग्निपुराणका एक ही श्लोक सुनता है, उन दोनोंका फल समान है। श्लोक सुनानेवाला पुरुष तिल और सुवर्ण-दानका फल पा जाता है। इसके एक अध्यायका पाठ गोदानसे बढ़कर है।
इस पुराणको सुननेकी इच्छामात्र करनेसे दिन-रातका किया हुआ पाप नष्ट हो जाता है। वृद्धपुष्करतीर्थमें सौ कपिला गौओंका दान करने से जो फल मिलता है, वही अग्निपुराणका पाठ करनेसे मिल जाता है।
‘प्रवृति’ और ‘निवृति’रूप धर्म तथा “परा’ और ‘अपरा’ नामवाली दोनों विद्याएँ इस ‘अग्निपुराण’ नामक शास्त्रकी समानता नहीं कर सकतीं।
वसिष्ठजी! प्रतिदिन अग्निपुराणका पाठ अथवा श्रवण करनेवाला भक्त-मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है।
जिस घरमें अग्निपुराणकी पुस्तक रहेगी, वहाँ विध्न-बाधाओं, अनर्थों तथा चोरों आदिका भय नहीं होगा। जहाँ अग्निपुराण रहेगा, उस घर में गर्भपातका भय न होगा, बालकोंकी ग्रह नहीं सतायेगा तथा पिशाच आदिका भय भी निवृत्त हो जायगा।
इस पुराणका श्रवण करनेवाला ब्राह्मण वेदवेत्ता होता है, क्षत्रिय पृथ्वीका राजा होता है, वैश्य धन पाता है, शूद्र नीरोग रहता है।
जो भगवान् विष्णुमें मन लगाकर सर्वत्र समानदृष्टि रखते हुए ब्रह्मस्वरूप अग्निपुराणका प्रतिदिन पाठ या श्रवण करता है, उसके दिव्य, आन्तरिक्ष और भौम आदि सारे उपद्रव नष्ट हो जाते हैं।
इस पुस्तकके पढ़ने-सुनने और पूजन करनेवाले पुरुषके और भी जो कुछ पाप होते हैं, उन सबको भगवान् केशव नष्ट कर देते हैं।
जो मनुष्य हेमन्त-ऋतुमें गन्ध और पुष्प आदिसे पूजा करके श्रीअग्निपुराणका श्रवण करता है, उसे अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता है।
शिशिर-ऋतुमें इसके श्रवणसे पुण्डरीकका तथा वसन्त-ऋतुपें अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता हैं।
गर्मीमें वाजपेयका, वर्षामें राजसूयका तथा शरद-ऋतुर्मे इस पुराणका पाठ और श्रवण करनेसे एक हजार गोदान करने का फल प्राप्त होता है।
वसिष्ठजीं! जो भगवान् विष्णुके सम्मुख बैठकर भक्तिपूर्वक अग्निपुराणका पाठ करता है, वह मानो ज्ञानयज्ञके द्वारा श्रीकेशवका पूजन करता है।
जिसके घरमें हस्तलिखित अग्निपुराणकी पुस्तक पूजित होती है, उसे सदा ही विजय प्राप्त होती है तथा भोग और मोक्ष-दोनों ही उसके हाथ में रहते हैं-यह बात पूर्वकालमें कालाग्निस्वरूप श्रीहरिने स्वयं ही मुझसे बतायी थी।
आग्नेय पुराण ब्रह्मविद्या एवं अद्वैतज्ञान रूप है। १२-३१ ॥
वसिष्ठजी कहते हैं–व्यास! यह अग्निपुराण ‘परा-अपरा’-दोनों विद्याओंका स्वरूप है। इसे विष्णुने ब्रह्मासे तथा अग्निदेवने समस्त देवताओं और मुनियोंके साथ बैठे हुए मुझसे जिस रूपमें सुनाया, उसी रूपमें मैंने तुम्हारे सामने इसका वर्णन किया है।
अग्निदेवके द्वारा वर्णित यह ‘आग्नेय पुराण’ वेदके तुल्य माननीय है तथा यह सभी विषयोंका ज्ञान करानेवाला है।
व्यास! जों इसका पाठ या श्रवण करेगा, जो इसे स्वयं लिखेगा या दूसरोंसे लिखायेगा, शिष्योंको पढ़ायेगा या सुनायेगा अथवा इस पुस्तकका पूजन या धारण करेगा, वह सब पापोंसे मुक्त एवं पूर्णमनोरथ होकर स्वर्गलोकमें जायगा।
जो इस उत्तम पुराणको लिखाकर ब्राह्मणोंकों दान देता है, वह ब्रह्मलोकमें जाता है तथा अपने कुलकी सौ पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है।
जो एक श्लोकका भी पाठ करता है, उसका पाप-पङ्कसे छुटकारा हो जाता है। इसलिये व्यास! इस सर्वदर्शनसंग्रहरूप पुराणको तुम्हें श्रवणकी इच्छा रखनेवाले शुकादि मुनियोंके साथ अपने शिष्योंको सदा सुनाते रहना चाहिये।
अग्निपुराणका पठन और चिन्तन अत्यन्त शुभ तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। जिन्होंने इस पुराणका गान किया है, उन अग्निदेवको नमस्कार है ॥ ३२-३८॥
व्यासजी कहते हैं–सूत! पूर्वकालमें वसिष्ठजीके मुखसे सुना हुआ यह अग्निपुराण मैंने तुम्हें सुनाया है। ‘परा’ और ‘अपरा’ विद्या इसका स्वरूप है। यह परम पद प्रदान करनेवाला है। आग्नेय पुराण परम दुर्लभ है, भाग्यवान् पुरुषोको ही यह प्राप्त होता है।
‘ब्रह्म’ या ‘ वेद स्वरूप” इस अग्निपुराणका चिन्तन करनेवाले पुरुष श्रीहरिको प्राप्त होते हैं। इसके चिन्तनसे विद्यार्थियोंकों विद्या और राज्य की इच्छा रखनेवालोंकों राज्य की प्राप्ति होती है। जिन्हें पुत्र नहीं है, उन्हें पुत्र मिलता है तथा जो लोग निराश्रय हैं, उन्हें आश्रय प्राप्त होता है। सौभाग्य चाहनेवाले सौभायकों तथा मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले मनुष्य मोक्षको पाते हैं। इसे लिखने और लिखानेवाले लोग पापरहित होकर लक्ष्मीकी प्राप्त होते हैं।
सूत! तुम शुक और पैल आदिके साथ अग्निपुराणका चिन्तन करो, इससे तुम्हें भोग और मोक्षदोनोंकी प्राप्ति होगी-इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। तुम भी अपने शिष्यों और भक्तोंको यह पुराण सुनाओ ॥ ३९-४४ ॥
सूतजी कहते हैं-शौनक आदि मुनिवरो! मैंने श्रीव्यासजीकी कृपासे श्रद्धापूर्वक अग्निपुराणका श्रवण किया है। यह अग्निपुराण ब्रह्मस्वरूप है। आप सब लोग श्रद्धायुक्त होकर इस नैमिषारण्यमें भगवान् श्रीहरिका यजन करते हुए निवास करते हैं, अत: (आपको सर्वोत्तम अधिकारी समझकर) मैंने आपसे इस पुराणका वर्णन किया है।
‘अग्निदेव’ इस पुराणके वक्ता हैं, अतएव यह ‘आग्नेय पुराण’ कहलाता है। इसे वेदोंके तुल्य माना गया है। यह ‘ब्रह्म’ और ‘विद्या’-दोनोंसे युक्त है। भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला श्रेष्ठ साधन है। इससे बढ़कर सर्वोत्तम सार, इससे उत्तम सुहृद, इससे श्रेष्ठ ग्रन्थ तथा इससे उत्कृष्ट कोई गति नहीं है। इस पुराणसे बढ़कर शास्त्र नहीं है, इससे उत्तम श्रुति नहीं है, इससे श्रेष्ठ ज्ञान नहीं है तथा इससे उत्कृष्ट कोई स्मृति नहीं है। इससे श्रेष्ठ आगम, इससे श्रेष्ठ विद्या, इससे श्रेष्ठ सिद्धान्त और इससे श्रेष्ठ मङ्गल नहीं है। इससे बढ़कर वेदान्त भी नहीं है। यह पुराण सर्वोत्कृष्ट है।
इस पृथ्वीपर अग्निपुराणसे बढ़कर श्रेष्ठ और दुर्लभ वस्तु कोई नहीं है।॥ ४५-५१ ॥
इस अग्निपुराणमें सब विद्याओंका प्रदर्शन (परिचय) कराया गया है। भगवानके मत्स्य आदि संपूर्ण अवतार, गीता और रामायण का भी इसमें वर्णन है। ‘हरिवंश” और ‘महाभारत’का भी परिचय है।
नौ प्रकारकी सृष्टिका भी दिग्दर्शन कराया गया है। वैष्णव-आगमका भी गान किया गया है। देवताओंकी स्थापनाके साथ ही दीक्षा तथा पूजाका भी उल्लेख हुआ है।
पवित्रारोहण आदिकी विधि, प्रतिमाके लक्षण आदि तथा मन्दिरके लक्षण आदिका वर्णन है। साथ ही भोग और मोक्ष देनेवाले मन्त्रोंका भी उल्लेख हैं।
शैवआगम और उसके प्रयोजन, शाक्त-आगम, सूर्यसम्बन्धी आगम, मण्डल, वास्तु और भाँतिभाँतिके मन्त्रोंका वर्णन हैं।
प्रतिसर्गका भी परिचय कराया गया है।
ब्रह्माण्ड-मण्डल तथा भुवनकोषका भी वर्णन है।
द्वीप, वर्ष आदि और नदियोंका भी उल्लेख है। गङ्गा तथा प्रयाग आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन किया गया है।
ज्योतिश्चक्र (नक्षत्र-मण्डल), ज्यौतिष आदि विद्या तथा युद्धजयार्णवका भी निरूपण है।
मन्वन्तर आदिका वर्णन तथा वर्ण और आश्रम आदिके धर्मोका प्रतिपादन किया गया है। साथ ही अशौच, द्रव्यशुद्धि तथा प्रायश्चितका भी ज्ञान कराया गया है।
राजधर्म, दानधर्म, भाँति-भाँतिके व्रत, व्यवहार, शान्ति तथा ऋग्वेद आदिके विधानका भी वर्णन है।
सूर्यवंश, सोमवंश, धनुर्वेद, वैद्यक, गान्धर्व वेद, अर्थशास्त्र, मीमांसा, न्यायविस्तार, पुराण-संख्या, पुराण-माहात्म्य, छन्द, व्याकरण, अलंकार, निघण्टु, शिक्षा और कल्प आदिका भी इसमें निरूपण किया गया है।॥ ५२-६१ ॥
नैमित्तिक, प्राकृतिक और आत्यन्तिक लयका वर्णन है।
वेदान्त, ब्रह्मज्ञान और अष्टाङ्गयोगका निरूपण है।
स्तोत्र, पुराण-महिमा और अष्टादश विद्याओंका प्रतिपादन है।
ऋग्वेद आदि अपरा विद्या, परा विद्या तथा परम अक्षरतत्वका भी निरूपण है। इतना ही नहीं, इसमें ब्रह्म के सप्रपञ्च (सविशेष) और निष्प्रपञ्च (निर्विशेष) रूपका वर्णन किया गया है।
यह पुराण पंद्रह हजार श्लोकोंका है। देवलोकमें इसका विस्तार एक अरब श्लोकोंमें है। देवता सदा इस पुराणका पाठ करते हैं। सम्पूर्ण लोकोंका हित करनेके लिये अग्निदेवने इसका संक्षेपसे वर्णन किया है।
शौनकादि मुनियो! आप इस सम्पूर्ण पुराणको ब्रह्ममय ही समझें। जो इसे सुनता या सुनाता, पढ़ता या पढ़ाता, लिखता या लिखवाता तथा इसका पूजन और कीर्तन करता है, वह परम शुद्ध हो सम्पूर्ण मनोरथोको प्राप्त करके कुलसहित स्वर्गको जाता है॥ ६२-६६ ॥
राजाकी चाहिये कि संयमशील होकर पुराणके वक्ताका पूजन करे। गौ, भूमि तथा सुवर्ण आदिका दान दे, वस्त्र और आभूषण आदिसे तृप्त करते हुए वक्ताका पूजन करके मनुष्य पुराण-श्रवणका पूरा-पूरा फल पाता है।
पुराण-श्रवणके पश्चात् निश्चय ही ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये। जो इस पुस्तकके लिये शरयन्त्र (पेटी), सूत, पत्र (पने), काठकी पट्टी, उसे बाँधनेकी रस्सी तथा वैटन-वस्त्र आदि दान करता है, वह स्वर्गलोकको जाता है।
जो अग्निपुराणकी पुस्तकका दान करता है, वह ब्रह्मलोकमें जाता है। जिसके घरमें यह पुस्तक रहती है, उसके यहाँ उत्पातका भय नहीं रहता। वह भोग और मोक्षको प्राप्त होता है। मुनियो! आपलोग इस स्मरण रखें ॥ ६७-७१ ॥
व्यासजी कहते हैं-तत्पश्चात् सूतजी मुनियोंसे पूजित हो वहाँसे चले गये और शौनक आदि महात्मा भगवान् श्रीहरिको प्राप्त हुए ॥७२॥