- अध्याय 98 शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
- अध्याय 99 भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
- अध्याय 100 श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
- अध्याय 101 देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
- अध्याय 102 श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
- अध्याय 103 अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
- अध्याय 104 यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
- अध्याय 105 शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
- अध्याय 106 शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
- अध्याय 107 सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
- अध्याय 108 सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
- अध्याय 109 तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
- अध्याय 110 राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
- अध्याय 111 चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
- अध्याय 112 राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
- अध्याय 113 राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
- अध्याय 114 पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
- अध्याय 115 तेजः पुरके राजा सत्यवान्की जन्मकथा - सत्यवान्का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
- अध्याय 116 शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
- अध्याय 117 शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
- अध्याय 118 देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
- अध्याय 119 हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
- अध्याय 120 अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
- अध्याय 121 राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
- अध्याय 122 युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
- अध्याय 123 वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
- अध्याय 124 गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
- अध्याय 125 सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
- अध्याय 126 सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
- अध्याय 127 युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजितका वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
- अध्याय 128 शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
- अध्याय 129 शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
- अध्याय 130 वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
- अध्याय 131 सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
- अध्याय 132 वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
- अध्याय 133 श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
- अध्याय 134 भगवान्के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
- अध्याय 135 भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
- अध्याय 136 नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्की विशेष आराधनाका वर्णन
- अध्याय 137 मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
- अध्याय 138 दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
- अध्याय 139 अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
- अध्याय 140 भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
- अध्याय 141 वैशाख माहात्म्य
- अध्याय 142 वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
- अध्याय 143 वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
- अध्याय 144 यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
- अध्याय 145 तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
- अध्याय 146 वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
- अध्याय 147 भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
पद्यपुराण-4-ब्रह्म-खण्ड
अध्याय 98 शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥
ऋषि बोले- महाभाग सूतजी हमने आपके मुखसे समूचे स्वर्गखण्डको मनोहर कथा सुनी आयुष्मन् ! अब हमलोगोंको श्रीरामचन्द्रजीका चरित्र सुनाइये।
सूतजीने कहा- महर्षिगण। एक समय मुनिवर वात्स्यायनने पृथ्वीको धारण करनेवाले नागराज भगवान् अनन्त से इस परम निर्मल कथाके विषयमें प्रश्न किया।
श्रीवात्स्यायन बोले भगवन् शेषनाग। मैंने आपके मुखसे संसारको सृष्टि और प्रलय आदिके विषयकी सब बातें सुन भूगोल, खगोल, ग्रह तारे और नक्षत्र आदिकी गतिका निर्णय महत्तत्त्व आदिकी सृष्टियोंके तत्त्वका पृथक् पृथक् निरूपण तथा सूर्यवंशी राजाओंके अद्भुत चरित्रका भी मैंने श्रवण किया है। इसी प्रसंग आपने भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी कथाका भी वर्णन किया है, जो अनेकों महापापोंको दूर करनेवाली है। परन्तु उन भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके अश्वमेध यज्ञकी कथा संक्षेपसे ही सुननेको मिली, अतः अब मैं उसे आपके द्वारा विस्तार के साथ सुनना चाहता हूँ। यह वही कथा है जो कहने, सुनने तथा स्मरण करनेसे बड़े-बड़े पातकोंको भी नष्ट कर डालती है। इतना ही नहीं, वह मनोवांछित वस्तुको देनेवाली तथा भक्तोंके चित्तको प्रसन्न करनेवाली है।
भगवान् शेषने कहा— ब्रह्मन् ! आप ब्राह्मणकुलमें श्रेष्ठ एवं धन्यवादके पात्र हैं; क्योंकिआपको ऐसी बुद्धि प्राप्त हुई है, जो श्रीरामचन्द्रजीके युगल चरणारविन्दोंका मकरन्द पान करनेके लिये लोलुप रहती है। सभी ऋषि महर्षि साधु पुरुषोंके समागमको श्रेष्ठ बतलाते हैं; इसका कारण यही है कि सत्संग होनेपर श्रीरघुनाथजीकी उस कथाके लिये अवसर मिलता है, जो समस्त पापोंका नाश करनेवाली है। देवता और असुर प्रणाम करते समय अपने मुकुटकी मणियोंसे जिनके चरणोंकी आरती उतारते हैं, उन्हीं भगवान् श्रीरामका स्मरण कराकर आपने मुझपर बहुत बड़ा अनुग्रह किया है। जहाँ ब्रह्मा आदि देवता भी मोहित होकर कुछ नहीं जान पाते, उसी श्रीरघुनाथ,कथारूपी महासागरकी थाह लगानेके लिये मेरे जैसे मशक-समान तुच्छ जीवकी कितनी शक्ति है। तथापि मैं अपनी शक्तिके अनुसार आपसे श्रीराम – कथाका वर्णन करूँगा; क्योंकि अत्यन्त विस्तृत आकाशमें भी पक्षी अपनी गमन-शक्तिके अनुसार उड़ते हैं। श्रीरघुनाथजीका चरित्र करोड़ों श्लोकोंमें वर्णित है। जिनकी जैसी बुद्धि होती है, वे वैसा ही उसका वर्णन करते हैं। जैसे अग्निके सम्पर्कसे सोना शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार श्रीरघुनाथजीकी उत्तम कीर्ति मेरी बुद्धिको भी निर्मल बना देगी।
सूतजी कहते हैं- महर्षियो ! मुनिवर वात्स्यायनसे यों कहकर भगवान् शेषने ध्यानस्थ हो अपनी आँखें बंद कर लीं और ज्ञानदृष्टिके द्वारा उस लोकोत्तर कल्याणमयी कथाका अवलोकन किया। फिर तो अत्यन्त हर्षके कारण उनके शरीरमें रोमांच हो आया और वे गद्गदवाणीसे युक्त होकर दशरथ नन्दन श्रीरघुनाथजीकी विशद कथाका वर्णन करने लगे ।
भगवान् शेष बोले- वात्स्यायनजी! देवता और दानवोंको दुःख देनेवाले लंकापति रावणके मारेजानेपर इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओंको बड़ा सुख मिला। वे आनन्दमग्न होकर दासकी भाँति भगवान्के चरणोंमें पड़ गये और उनकी स्तुति करने लगे।
तत्पश्चात् श्रीरामचन्द्रजी धर्मात्मा विभीषणको लंकाके राज्यपर स्थापित करके सीताके साथ पुष्पक विमानपर आरूढ़ हुए उनके साथ लक्ष्मण, सुग्रीव और हनुमान् आदि भी विमानपर जा बैठे। उस समय भगवान् के विरहके भयसे विभीषण के मनमें भी साथ जानेकी उत्कण्ठा हुई और उन्होंने अपने मन्त्रियोंके साथ श्रीरघुनाथजीका अनुसरण किया। इसके बाद लंका और अशोक वाटिकापर दृष्टि डालते हुए भगवान् श्रीराम तुरंत ही अयोध्यापुरीकी ओर प्रस्थित हुए। साथ ही ब्रह्मा आदि देवता भी अपने-अपने विमानोंपर बैठकर यात्रा करने लगे। उस समय भगवान् श्रीराम कानोंको सुख पहुँचानेवाली देव-दुन्दुभियोंकी मधुर ध्वनि सुनते तथा मार्गमें सीताजीको अनेकों आश्रमोंसे युक्त तीर्थों, मुनियों, मुनिपुत्रों तथा पतिव्रता मुनिपत्नियोंका दर्शन कराते हुए चल रहे थे। परम बुद्धिमान् श्रीरघुनाथजीने पहले लक्ष्मणके साथ जिन जिन स्थानों पर निवास किया था, वे सभी सीताजीको दिखाये। इस प्रकार उन्हें मार्गके स्थानोंका दर्शन कराते हुए श्रीरामचन्द्रजीने अपनी पुरी अयोध्याको देखा; फिर उसके निकट नन्दिग्रामपर दृष्टिपात किया, जहाँ भाईके वियोगजनित अनेकों दुःखमय चिह्नोंको धारण करके धर्मका पालन करते हुए राजा भरत निवास कर रहे थे। उन दिनों वे जमीनमें गड्ढा खोदकर उसीमें सोया करते थे। ब्रह्मचर्यके पालनपूर्वक मस्तकपर जटा और शरीरमें वल्कल वस्त्र धारण किये रहते थे। उनका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया था। वे निरन्तर श्रीरामचन्द्रजीकी चर्चा करते हुए दुःखसे आतुर रहते थे। अन्नके नामपर तो वे जौ भी नहीं ग्रहण करते थे तथा पानी भी बारंबार नहीं पीते थे।
जब सूर्यदेवका उदय होता, तब वे उन्हें प्रणाम करके कहते-‘जगत्को नेत्र प्रदान करनेवाले भगवान् सूर्य! आप देवताओंके स्वामी हैं; मेरे महान् पापको हर लीजिये [हाय! मुझसे बढ़कर पापी कौन होगा ] मेरेही कारण जगत्पूज्य श्रीरामचन्द्रजीको भी वनमें जाना पड़ा। सुकुमार शरीरवाली सीतासे सेवित होकर वे इस समय वनमें रहते हैं। अहो ! जो सीता फूलकी शय्यापर पुष्पोंकी डंठलके स्पर्शसे भी व्याकुल हो उठती थीं और जो कभी सूर्यकी धूपमें घरसे बाहर नहीं निकलीं, वे ही पतिव्रता जनककिशोरी आज मेरे कारण जंगलोंमें भटक रही हैं! जिनके ऊपर कभी राजाओंकी भी दृष्टि नहीं पड़ी थी, उन्हीं सीताको आज किरातलोग प्रत्यक्ष देखते हैं। जो यहाँ मीठे-मीठे पकवानोंको भोजनके लिये आग्रह करनेपर भी नहीं खाना चाहती थीं, वे जानकी आज जंगली फलोंके लिये स्वयं याचना करती होंगी।’ इस प्रकार श्रीरामके प्रति भक्ति रखनेवाले महाराज भरत प्रतिदिन प्रातः काल सूर्योपस्थानके पश्चात् उपर्युक्त बातें कहा करते थे। उनके दुःख-सुखमें समान रूपसे हाथ बँटानेवालेशास्त्रचतुर, नीतिज्ञ और विद्वान् मन्त्री जब भरतजीको सान्त्वना देते हुए कुछ कहते तब वे उन्हें इस प्रकार उत्तर देते थे— ‘अमात्यगण ! मुझ भाग्यहीनसे आपलोग क्यों बातचीत करते हैं? मैं संसारके सब लोगों से अधम हूँ; क्योंकि मेरे ही कारण मेरे बड़े भाई श्रीराम आज वनमें जाकर कष्ट उठा रहे हैं। मुझ अभागेके लिये अपने पापोंके प्रायश्चित्त करनेका यह अवसर प्राप्त हुआ है, अतः मैं श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंका निरन्तर आदरपूर्वक स्मरण करते हुए अपने दोषोंका मार्जन करूँगा। इस जगत् में माता सुमित्रा भी धन्य हैं ! वे ही अपने पतिसे प्रेम करनेवाली तथा वीर पुत्रकी जननी हैं, जिनके पुत्र लक्ष्मण सदा श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंकी सेवामें रहते हैं।’ इस प्रकार भ्रातृवत्सल भरत जहाँ रहकर उच्चस्वरसे विलाप किया करते थे, उस नन्दिग्रामको भगवान् श्रीरामने देखा ।
अध्याय 99 भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
शेषजी कहते हैं—मुने! नन्दिग्रामपर दृष्टि पड़ते ही श्रीरघुनाथजीका चित्त भरतको देखनेकी उत्कण्ठासे
विह्वल हो गया। उन्हें धर्मात्माओं में अग्रगण्य भाई भरतकी बारंबार याद आने लगी। तब वे महाबली वायुनन्दन हनुमानजीसे बोले- “वीर! तुम मेरे भाईके पास जाओ। उनका शरीर मेरे वियोगसे क्षीण होकर छड़ीके समान दुबला-पतला हो गया है और वे उसे किसी प्रकार हठपूर्वक धारण किये हुए हैं। जो वल्कल पहनते हैं, मस्तकपर जटा धारण करते हैं, जिनकी दृष्टिमें परायी स्त्री माता और सुवर्ण मिट्टीके ढेलेके समान है तथा जो प्रजाजनोंको अपने पुत्रोंकी भाँति स्नेह-दृष्टिसे देखते हैं, वे मेरे धर्मज्ञ भ्राता भरत दुःखी हैं। उनका शरीर मेरे वियोगजनित दुःखरूप अग्निकी ज्वालामें दग्ध हो रहा है; अतः इस समय तुम तुरंत जाकर मेरे आगमनके संदेशरूपी जलकी वर्षासे उन्हें शान्त करो। उन्हें यह समाचार सुनाओ कि ‘सीता, लक्ष्मण, सुग्रीव आदि कपीश्वरों तथा विभीषणसहित राक्षसोंको साथ से तुम्हारे भाई श्रीराम पुष्पक विमानपर बैठकर सुखपूर्वकआ पहुँचे हैं।’ इससे मेरा आगमन जानकर मेरे छोटे भाई भरत शीघ्र ही प्रसन्न हो जायँगे।”
परम बुद्धिमान् श्रीरघुवीरके ये वचन सुनकर हनुमान्जी उनकी आज्ञाका पालन करते हुए भरतजीके निवास-स्थान नन्दिग्रामको गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा, भरतजी बूढ़े मन्त्रियोंके साथ बैठे हैं और अपने पूज्य भ्राताके वियोगसे अत्यन्त दुर्बल हो गये हैं। उस समय उनका मन श्रीरघुनाथजीके चरणारविन्दोंके मकरन्दमें डूबा हुआ था और वे अपने वृद्ध मन्त्रियोंसे उन्हींकी कथा – वार्ता कह रहे थे। वे ऐसे जान पड़ते थे मानो धर्मके मूर्तिमान् स्वरूप हों अथवा विधाताने मानो सम्पूर्ण सत्त्वगुणको एकत्रित करके उसीके द्वारा उनका निर्माण किया हो। भरतजीको इस रूपमें देखकर हनुमान्जीने उन्हें प्रणाम किया तथा भरतजी भी उन्हें देखते ही तुरंत हाथ जोड़कर खड़े हो गये और बोले ‘आइये, आपका स्वागत है; श्रीरामचन्द्रजीकी कुशल कहिये।’ वे इस प्रकार कह ही रहे थे कि इतनेमें उनकी दाहिनी बाँह फड़क उठी। हृदयसे शोक निकलकहा- ‘लक्ष्मणसहित श्रीरामचन्द्रजी इस ग्रामके निकट आ गये हैं।’ श्रीरघुनाथजीके आगमनके संदेशने भरतके शरीरपर मानो अमृत छिड़क दिया, वे हर्षमें भरकर बोले- ‘श्रीरामका संदेश लानेवाले हनुमान्जी ! मेरे पास ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे यह प्रिय समाचार सुनानेके बदलेमें मैं आपको दे सकूँ; इस उपकारके कारण मैं जीवनभर आपका दास बना रहूँगा।’ महर्षि वसिष्ठ तथा वृद्ध मन्त्री भी अत्यन्त हर्षमें भरकर अर्घ्य हाथमें लिये हनुमान्जीके दिखाये हुए मार्गसे श्रीरामचन्द्रजीके पास चल दिये। भरतजीकी दृष्टि दूरसे आते हुए परम मनोरम भगवान् श्रीरामपर पड़ी। वे पुष्पक विमानके मध्यभागमें सीता और लक्ष्मणके साथ बैठे थे।
श्रीरामचन्द्रजीने भी जटा, वल्कल और कौपीन धारण किये हुए भरतको पैदल ही आते देखा; साथ ही उनकी दृष्टि उन मन्त्रियोंपर भी पड़ी, जिन्होंने भाईके वेषके समान ही वेष धारण कर रखा था। उनकेमस्तकपर भी जटा थी तथा वे भी निरन्तर तपस्यासे क्लेश उठानेके कारण अत्यन्त दुर्बल हो गये थे। राजा भरतको इस अवस्थामें देखकर श्रीरघुनाथजीको बड़ी चिन्ता हुई, वे कहने लगे-‘अहो! राजाओंके भी राजा महाबुद्धिमान् महाराज दशरथका यह पुत्र आज जटा और वल्कल आदि तपस्वीका वेष धारण किये पैदल ही मेरे पास आ रहा है। मित्रो! मैं वनमें गया था; किन्तु मुझे भी ऐसा दुःख नहीं उठाना पड़ा, जैसा कि मेरे वियोगके कारण इस भरतको भोगना पड़ रहा है। अहो! देखो तो सही, प्राणोंसे भी बढ़कर प्यारा और हितैषी मेरा भाई भरत मुझे निकट आया सुनकर हर्षमें भरे हुए वृद्ध मन्त्रियों तथा महर्षि वसिष्ठजीको साथ लेकर मुझसे मिलनेके लिये आ रहा है।’ इस प्रकार भगवान् श्रीराम आकाशमें स्थित पुष्पक विमानसे उपर्युक्त बातें कह रहे थे और विभीषण, हनुमान् तथा लक्ष्मण उनके प्रति आदरका भाव प्रकट कर रहे थे। निकट आनेपर भगवान्का हृदय विरहसे कातर हो उठा और वे ‘भैया! भैया भरत! तुम कहाँ हो’ इस प्रकार कहते तथा बारंबार ‘भाई! भाई!! भाई!!!’ की रटलगाते हुए तुरंत ही विमानसे उतर पड़े। सहायकोंसहित श्रीरामचन्द्रजीको भूमिपर उतरे देख भरतजी हर्षके आँसू बहाते हुए उनके सामने दण्डकी भाँति धरतीपर पड़ गये। श्रीरघुनाथजीने भी उन्हें दण्डकी भाँति पृथ्वीपर पड़ा देख हर्षपूर्ण दृष्टिसे देखते हुए अपनी दोनों भुजाओंसे उठाकर छातीसे लगा लिया। आरम्भमें श्रीरामचन्द्रजीके बारंबार उठानेपर भी भरतजी उठे नहीं, अपितु अपने दोनों हाथोंसे भगवान्के चरण पकड़कर फूट-फूटकर रोते रहे।
भरतजीने कहा – महाबाहु भगवान् श्रीराम मेँ दुष्ट, दुराचारी और पापी हूँ; मुझपर कृपा कीजिये आप दयाके सागर हैं, अपनी दयासे ही मुझे अनुगृहीत कीजिये। भगवन्! जिन्हें सीताजीके कोमल हाथोंका स्पर्श भी कठोर जान पड़ता था, आपके उन्हीं चरणोंको मेरे कारण वनमें भटकना पड़ा!
यों कहकर भरतजीने दीनभावसे आँसू बहाते हुए बारंबार श्रीरघुनाथजीके चरणोंका आलिंगन किया और हर्षसे विह्वल होकर उनके सामने हाथ जोड़े खड़े हो गये ।करुणासागर श्रीरघुनाथजीने अपने छोटे भाईको गले लगाकर प्रधान मन्त्रियोंको भी प्रणाम किया तथा सबसे आदरपूर्वक कुशल- समाचार पूछा। इसके बाद भाई भरतके साथ वे पुष्पक विमानपर जा बैठे। वहाँ भरतजीने अपनी भ्रातृ-पत्नी पतिव्रता सीताजीको देखा, जो अत्रिकी भार्या अनसूया तथा अगस्त्यकी पत्नी लोपामुद्राकी भाँति जान पड़ती थीं। पतिव्रता जनक किशोरीका दर्शन करके भरतजीने उन्हें सम्मानपूर्वक प्रणाम किया और कहा—’माँ! मैं महामूर्ख हूँ; मेरे द्वारा जो अपराध हो गया है, उसे क्षमा करना; क्योंकि आप जैसी पतिव्रताएँ सबका भला करनेवाली ही होती हैं।’ परम सौभाग्यवती जनक-किशोरीने भी अपने देवर भरतकी ओर आदरपूर्ण दृष्टि डालकर उन्हें आशीर्वाद दिया तथा उनका कुशल-मंगल पूछा। उस श्रेष्ठ विमानपर आरूढ़ होकर सब-के-सब आकाशमें आ गये; फिर एक ही क्षणमें श्रीरामचन्द्रजीने देखा कि पिताकी राजधानी अयोध्या अब बिलकुल अपने निकट है।
अध्याय 100 श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
शेषजी कहते हैं- अपनी राजधानीको देखकर भगवान् श्रीरामचन्द्रजीको बड़ी प्रसन्नता हुई। इधर भरतने अपने मित्र एवं सचिव सुमुखको नागरिक उत्सवका प्रबन्ध करनेके लिये नगरके भीतर भेजा। भरतजी बोले-नगरके सब लोग शीघ्र ही श्रीरघुनाथजीके आगमनका उत्सव आरम्भ करें। घर घरमें सजावट की जाय, सड़कें झाड़-बुहारकर साफ की जायें और उनपर चन्दन-मिश्रित जलका छिड़काव करके उनके ऊपर फूल बिछा दिये जायें। हर एक घरके आँगनमें नाना प्रकारकी ध्वजाएँ फहरायी जायँ, प्रकाशका प्रबन्ध हो और सर्वतोभद्र आदि चित्र अंकित किये जायें। श्रीरामका आगमन सुनकर हर्षमें भरे हुए लोग मेरे कथनानुसार नगरकी शोभा बढ़ानेवाली भाँति भौतिकी रचना करें।शेषजी कहते हैं— भरतजीके ये वचन सुनकर मन्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ सुमुखने अयोध्यापुरीको अनेक प्रकारकी सजावट एवं तोरणोंसे सुशोभित करनेके लिये उसके भीतर प्रवेश किया। नगरमें जाकर उसने सब लोगों में श्रीरामके आगमन- महोत्सवकी घोषणा करा दी। लोगोंने जब सुना कि श्रीरघुनाथजी अयोध्यापुरीके निकट आ गये हैं, तब उन्हें बड़ा हर्ष हुआ; क्योंकि वे पहले भगवान्के विरहसे दुःखी हो अपने सुखभोगका परित्याग कर चुके थे। वैदिक ज्ञानसे सम्पन्न पवित्र ब्राह्मण हाथोंमें कुश लिये धोती और चादरसे सुसज्जित हो श्रीरामचन्द्रजीके पास गये। जिन्होंने संग्राम भूमिमें अनेकों वीरोंपर विजय पायी थी, वे धनुष-बाण धारण करनेवाले श्रेष्ठ और सूरमा क्षत्रिय भी उनके समीप गये। धन-धान्यसे समृद्ध वैश्य भी सुन्दर वस्त्र पहनकरमहाराज श्रीरामके निकट उपस्थित हुए। उस समय उनके हाथ सोनेकी मुद्राओंसे सुशोभित हो रहे थे तथा शुद्र, जो ब्राह्मणोंके भक्त, अपने जातीय आचारमें हपूर्वक स्थित और धर्म-कर्मका फलन करनेवाले। अपुरी स्वामी श्रीरामचन्द्रजीके पास गये। व्यवसायी लोग जो अपने-अपने कर्ममें स्थित थे, वे सब भी भेंट देनेके लिये अपनी-अपनी वस्तु लेकर महाराज श्रीरामके समीप गये। इस प्रकार राजा भरतका संदेश पाकर आनन्दकी बागे दुबे हुए पुरवासीनाना प्रकारके कौतुकर्मि प्रवृत्त होकर अपने महाराजके विकट आये। तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजीने भी अपने-अपने विमानपर बैठे हुए सम्पूर्ण देवताओंसे घिरकर मनोहर रचनासे सुशोभित अयोध्यापुरीमें प्रवेश किया। आकाशमार्गसे विचरण करनेवाले वानर भी उछलते-कूदते हुए श्रीरघुनाथजीके पीछे-पीछे उस उत्तम नगरमें गये। उस समय उन सबकी पृथक् पृथक् शोभा हो रही थी। कुछ दूर जाकर श्रीरामचन्द्रजी पुष्पक विमानसे उतर गये और शीघ्र ही श्रीसीताके साथ पालकीपर सवार हुए; उस समय वे अपने सहायक परिवारद्वारा चारों ओरसे घिरे हुए थे। जोर-जोरसे बजाये जाते हुए वीणा, पणव और भेरी आदि बाजोंके द्वारा उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। सूत, मागध और वन्दीजन उनकी स्तुति कर रहे थे; सब लोग कहते थे ‘ रघुनन्दन। आपकी जय हो, सूर्यकुलभूषण श्रीराम! आपकी जय हो, देव ! दशरथ नन्दन ! आपकी जय हो, जगत्के स्वामी श्रीरघुनाथजी! आपकी जय हो।’ इस प्रकार हर्षमें भरे पुरवासियोंकी कल्याणमयी बातें भगवान्को सुनायी दे रही थीं। उनके दर्शनसे सब लोगोंके शरीरमें रोमांच हो आया था, जिससे वे बड़ी शोभा पा रहे थे। क्रमशः आगे बढ़कर भगवान्को सवारी गली और चौराहोंसे सुशोभित नगरके प्रधान मार्गपर जा पहुँची, जहाँ चन्दन-मिश्रित जलका छिड़काव हुआ था और सुन्दर फूल तथा पल्लव बिछे थे। उस समय नगरकी कुछ स्त्रियाँ खिड़कीके सामने की छज्जोंका सहारा लेकर भगवान्की मनोहर छवि निहारती हुई आपसमें कहने लगींपुरवासिनी स्त्रियाँ बोलीं-सखियो ! वनवासिनी भीलोंकी कन्याएँ भी धन्य हो गयीं, जिन्होंने अपने नीलकमलके समान लोचनोंद्वारा श्रीरामचन्द्रजीके मुखारविन्दका मकरन्द पान किया है। अपने सौभाग्यसे इन कन्याओंने महान् अभ्युदय प्राप्त किया है। अरी! वीरोचित तेजसे युक्त श्रीरघुनाथजीके मुखकी ओर तो देखो, जो कमलकी सुषमाको लज्जित करनेवाले सुन्दर नेत्रोंसे सुशोभित हो रहा है; उसे देखकर धन्य हो जाओगी। अहो ! ब्रह्मा आदि देवता भी जिनका दर्शन नहीं कर पाते, वे ही आज हमारी आँखोंके सामने हैं। अवश्य ही हमलोग अत्यन्त बड़भागिनी हैं। देखो, इनके मुखपर कैसी सुन्दर मुसकान है, मस्तकपर किरीट शोभा पा रहा है; ये लाल-लाल ओठ बन्धूक पुष्पकी अरुण प्रभाको अपनी शोभासे तिरस्कृत कर रहे हैं तथा इनकी ऊँची नासिका मनोहर जान पड़ती है। इस प्रकार अधिक प्रेमके कारण उपर्युक्त बातें कहनेवाली अवधपुरीकी रमणियाँ भगवान्के दर्शनकर प्रसन्न होने लगीं। तदनन्तर जिनका प्रेम बहुत बढ़ा हुआ था, उन पुरवासी मनुष्योंको अपने दृष्टिपातसे संतुष्टकरके सम्पूर्ण जगत्को मर्यादाका पाठ पढ़नेवाले श्रीरघुनाथजीने माताके भवनमें जानेका विचार किया। वे राजाओंके राजा तथा अच्छी नीतिका पालन करनेवाले थे अतः पालकीपर बैठे हुए ही सबसे पहले अपनी माता कैकेयीके घरमें गये। कैकेयी लज्जाके भारसे दबी हुई थी, अतः श्रीरामचन्द्रजीको सामने देखकर भी वह कुछ न बोली। बारंबार गहरी चिन्तामें डूबने लगी। सूर्यवंशकी पताका फहरानेवाले श्रीरामने माताको लज्जित देखकर उसे विनययुक्त वचनोंद्वारा सान्त्वना देते हुए कहा।
श्रीराम बोले- माँ! मैंने वनमें जाकर तुम्हारी आज्ञाका पूर्णरूपसे पालन किया है। अब बताओ, तुम्हारी आज्ञासे इस समय कौन-सा कार्य करूँ ? श्रीरामकी यह बात सुनकर भी कैकेयी अपने मुँहको ऊपर न उठा सकी, वह धीरे-धीरे बोली “बेटा राम ! तुम निष्पाप हो। अब तुम अपने महलमें जाओ।’ माताका यह वचन सुनकर कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजीने भी उन्हें नमस्कार किया और वहाँसे सुमित्राके भवनमें गये। सुमित्राका हृदय बड़ा उदार था, उन्होंने अपने पुत्र लक्ष्मणसहित श्रीरामचन्द्रजीको उपस्थित देख आशीर्वाद देते हुए कहा- ‘बेटा! तुम चिरजीवी हो।’ श्रीरामचन्द्रजीने भी माता सुमित्राके चरणोंमें प्रणाम करके बारंबार प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा- ‘माँ ! लक्ष्मण जैसे पुत्ररत्नको जन्म देनेके कारण तुम रत्नगर्भा हो; बुद्धिमान् लक्ष्मणने जिस प्रकार हमारी सेवा की है, जिस तरह इन्होंने मेरे कष्टोंका निवारण किया है वैसा कार्य और किसीने कभी नहीं किया। रावणने सीताको हर लिया। उसके बाद मैंने पुनः जो इन्हें प्राप्त किया है, वह सब तुम लक्ष्मणका ही पराक्रम समझो।’ याँ कहकर तथा सुमित्राके दिये हुए आशीर्वादको शिरोधार्य करके वे देवताओंके साथ अपनी माता कौसल्याके महलमे गये। माताको अपने दर्शनके लिये उत्कण्ठित तथा हर्षमग्न देख भगवान् श्रीराम तुरंत ही पालकीसे उतर पड़े और निकट पहुँचकर उन्होंने माताके चरणोंको पकड़ लिया। माता कौसल्याका हृदय बेटेका मुँह देखनेके लियेउत्कण्ठासे विह्वल हो रहा था; उन्होंने अपने रामको बारंबार छातीसे लगाया और बहुत प्रसन्न हुई। उनके
शरीरमें रोमांच हो आया, वाणी गद्गद हो गयी और नेत्रोंसे आनन्दके आँसू प्रवाहित होकर चरणोंको भिगोने लगे। विनयशील श्रीरघुनाथजीने देखा कि ‘माता अत्यन्त दुर्बल हो गयी है। मुझे देखकर ही इन्हें कुछ-कुछ हर्ष हुआ है।’ उनकी इस अवस्थापर दृष्टिपात करके उन्होंने कहा ।
श्रीराम बोले- मैंने बहुत दिनोंतक तुम्हारे चरणोंकी सेवा नहीं की है, निश्चय ही मैं बड़ा भाग्यहीन हूँ; तुम मेरे इस अपराधको क्षमा करना। जो पुत्र अपने माता-पिताकी सेवाके लिये उत्सुक नहीं रहते, उन्हें रज-वीर्यसे उत्पन्न हुआ कीड़ा ही समझना चाहिये क्या करूँ, पिताजीकी आज्ञा में दण्डकारण्यमें चला गया था। वहाँसे रावण सीताको हरकर लंका में ले गया था; किन्तु तुम्हारी कृपासे उस राक्षसराजको मारकर मैंने पुनः इन्हें प्राप्त किया है। ये पतिव्रता सीता भी तुम्हारे चरणोंमें पड़ी हैं, इनका चित्त सदा तुम्हारे इन चरणोंमें ही लगा रहता है।श्रीरामचन्द्रजीकी बात सुनकर माता कौसल्याने अपने पैरोंपर पड़ी हुई पतिव्रता बहू सीताको आशीर्वाद देते हुए कहा – ‘ मानिनी सीते! तुम चिरकालतक अपने पतिकी जीवन संगिनी बनी रहो। मेरी पवित्र स्वभाव वाली बहू! तुम दो पुत्रोंकी जननी होकर अपने इस कुलको पवित्र करो। बेटी ! दुःख-सुखमें पतिका साथ देनेवाली तुम्हारी जैसी पतिव्रता स्त्रियाँ तीनों लोकोंमें कहीं भी दुःखकी भागिनी नहीं होतीं – यह सर्वथा सत्य है। विदेहकुमारी! तुमने महात्मा रामके चरणकमलोंका अनुसरण करके अपने ही द्वारा अपने कुलको पवित्र कर दिया।’ सुन्दर नेत्रोंवाली श्रीरघुनाथपत्नी सीतासे यों कहकर माता कौसल्या चुप हो गयीं। हर्षके कारण पुनः उनका सर्वांग पुलकित हो गया ।
तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजीके भाई भरतने उन्हें पिताजीका दिया हुआ अपना महान् राज्य निवेदन कर दिया। इससे मन्त्रियोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने मन्त्रके जाननेवाले ज्योतिषियोंको बुलाकर राज्याभिषेकका मुहूर्त पूछा और उद्योग करके उनके बताये हुए उत्तम नक्षत्रसे युक्त अच्छे दिनको शुभ मुहूर्तमेंबड़े हर्षके साथ राजा श्रीरामचन्द्रजीका अभिषेक कराया। सुन्दर व्याघ्रचर्मके ऊपर सातों द्वीपोंसे युक्त पृथ्वीका नकशा बनाकर राजाधिराज महाराज श्रीराम उसपर विराजमान हुए। उसी दिनसे साधु पुरुषोंके हृदयमें आनन्द छा गया। सभी स्त्रियाँ पतिके प्रति भक्ति रखती हुई पतिव्रत धर्मके पालनमें संलग्न हो गयीं। संसारके मनुष्य कभी मनसे भी पापका आचरण नहीं करते थे। देवता, दैत्य, नाग, यक्ष, असुर तथा बड़े बड़े सर्प- ये सभी न्यायमार्गपर स्थित होकर श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञाको शिरोधार्य करने लगे। सभी परोपकारमें लगे रहते थे। सबको अपने धर्मके अनुष्ठानमें ही सुख और संतोषकी प्राप्ति होती थी। विद्यासे ही सबका विनोद होता था। दिन-रात शुभ कर्मोंपर ही सबकी दृष्टि रहती थी। श्रीरामके राज्यमें चोरोंकी तो कहीं चर्चा ही नहीं थी। जोरसे चलनेवाली हवा भी राह चलते हुए पथिकोंके सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्त्रको भी नहीं उड़ाती थी। कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजीका स्वभाव बड़ा दयालु था। वे याचकोंके लिये कुबेर थे।
अध्याय 101 देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
शेषजी कहते हैं- मुने जब श्रीरामचन्द्रजीका राज्याभिषेक हो गया तो राक्षसराज रावणके वधसे प्रसन्नचित्त हुए देवताओंने प्रणाम करके उनका इस प्रकार स्तवन किया।
देवता बोले- देवताओंकी पीड़ा दूर करनेवाले दशरथ नन्दन श्रीराम! आपकी जय हो आपके द्वारा जो राक्षसराजका विनाश हुआ है, उस अद्भुत कथाका समस्त कविजन उत्कण्ठापूर्वक वर्णन करेंगे। भुवनेश्वर। प्रलयकालमें आप सम्पूर्ण लोकोंकी परम्पराको लीलापूर्वक ग्रस लेते हैं। प्रभो! आप जन्म और जरा आदिके दुःखोंसे सदा मुक्त हैं। प्रबल शक्तिसम्पन्न परमात्मन्! आपकी जय हो, आप हमारा उद्धार कीजिये, उद्धार कीजिये। धार्मिक पुरुषोंके कुलरूपीसमुद्रमें प्रकट होनेवाले अजर-अमर और अच्युत परमेश्वर ! आपकी जय हो । भगवन्! आप देवताओंसे श्रेष्ठ हैं। आपका नाम लेकर अनेकों प्राणी पवित्र हो गये; फिर जिन्होंने श्रेष्ठ द्विज-वंशमें जन्म ग्रहण करके उत्तम मानव-शरीरको प्राप्त किया है, उनका उद्धार होना कौन बड़ी बात है ? शिव और ब्रह्माजी भी जिनको मस्तक झुकाते हैं, जो पवित्र यव आदिके चिह्नोंसे सुशोभित तथा मनोवांछित कामना एवं समृद्धि देनेवाले हैं, उन आपके चरणोंका हम निरन्तर अपने हृदयमें चिन्तन करते रहें, यही हमारी अभिलाषा है। आप कामदेवकी भी शोभाको तिरस्कृत करनेवाली मनोहर कान्ति धारण करते हैं। परमपावन दयामय! यदि आप इस भूमण्डलको अभयदान न दें तो देवता कैसे सुखी हो सकते हैं?नाथ! जब-जब दानवी शक्तियाँ हमें दुःख देने लगें तब-तब आप इस पृथ्वीपर अवतार ग्रहण करें। विभो ! यद्यपि आप सबसे श्रेष्ठ, अपने भक्तोंद्वारा पूजित, अजन्मा तथा अविकारी हैं तथापि अपनी मायाका आश्रय लेकर भिन्न-भिन्न रूपमें प्रकट होते हैं। आपके सुन्दर चरित्र ( पवित्र लीलाएँ) मरनेवाले प्राणियोंके लिये अमृतके समान दिव्य जीवन प्रदान करनेवाले हैं। उनके श्रवणमात्रसे समस्त पापोंका नाश हो जाता है। आपने अपनी इन लीलाओंसे समस्त भूमण्डलको व्याप्त कर रखा है तथा गुणोंका गान करनेवाले देवताओंद्वारा भी आपकी स्तुति की गयी है। जो सबके आदि हैं, परन्तु जिनका आदि कोई नहीं है, जो अजर (तरुण) – रूप धारण करनेवाले हैं, जिनके गलेमें हार और मस्तकपर किरीट शोभा पाता है, जो कामदेवकी भी कान्तिको लज्जित करनेवाले हैं, साक्षात् भगवान् शिव जिनके चरणकमलोंकी सेवामें लगे रहते हैं तथा जिन्होंने अपने शत्रु रावणका बलपूर्वक वध किया है, वे श्रीरघुनाथजी सदा ही विजयी हों।
ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवताओंने इस प्रकार स्तुतिकरके विनीत भावसे श्रीरघुनाथजीको बारंबार प्र किया। महायशस्वी श्रीरामचन्द्रजी देवताओंकी स्तुतिसे बहुत सन्तुष्ट हुए और उन्हें मस्तक झुकाकर चरणोंमें पड़े देख बोले।
श्रीरामने कहा- देवताओ! तुमलोग मुझसे कोई ऐसा वर माँगो जो तुम्हें अत्यन्त दुर्लभ हो तथा जिसे अबतक किसी देवता, दानव, यक्ष और राक्षसने नहीं प्राप्त किया हो।
देवता बोले-स्वामिन्! आपने हमलोगोंके इस शत्रु दशाननका जो वध किया है, उसीसे हमें सब उत्तम वरदान प्राप्त हो गया। अब हम यही चाहते हैं कि जब-जब कोई असुर हमलोगोंको क्लेश पहुँचाने तब-तब आप इसी तरह हमारे उस शत्रुका नाश किया करें।
वीरवर भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने ‘बहुत अच्छा’ कहकर देवताओंकी प्रार्थना स्वीकार की और फिर इस प्रकार कहा।
श्रीराम बोले- देवताओ! तुम सब लोग आदरपूर्वक मेरा वचन सुनो, तुमलोगोंने मेरे गुणोंको ग्रथित करके जो यह अद्भुत स्तोत्र बनाया है इसका जो मनुष्य प्रातः काल तथा रात्रिमें एक बार प्रतिदिन पाठ करेगा, उसको कभी अपने शत्रुओंसे पराजित होनेका भयंकर कष्ट नहीं भोगना पड़ेगा। उसके घरमें दरिद्रताका प्रवेश नहीं होगा तथा उसे रोग नहीं सतायेंगे। इतना ही नहीं, इसके पाठ मनुष्योंके उल्लासपूर्ण हृदयमें मेरे युगल चरणोंकी गाढ़ भक्तिका उदय होगा।
यह कहकर नरदेवशिरोमणि श्रीरघुनाथजी चुप हो गये तथा सम्पूर्ण देवता अत्यन्त प्रसन्न होकर | अपने-अपने लोकको चले गये। इधर लोकनाथ श्रीरामचन्द्रजी अपने विद्वान् भाइयोंका पिताकी भाँति पालन करते हुए प्रजाको अपने पुत्रके समान मानकर सबका लालन-पालन करने लगे। उनके शासनकाल जगत्के मनुष्योंकी कभी अकाल मृत्यु नहीं होती थी। . किसीके घरमें रोग आदिका प्रकोप नहीं होता था। नकभी इति दिखायी देती और न शत्रुसे ही कोई भय थ होता। वृक्षाम सदा फल लगे रहते और पृथ्वीपर – अधिक मात्रामें अनाजकी उपज होती थी। स्त्रियोंका व जीवन पुत्र- पात्र आदि परिवारसे सनाथ रहता था। उन्हें उ निरन्तर अपने प्रियतमका संयोगजनित सुख मिलते रहनेके कारण विरहका क्लेश नहीं भोगना पड़ता था । सब लोग सदा श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंकी कथा सुननेके लिये उत्सुक रहते थे। उनकी वाणी कभी परायी निन्दामें नहीं प्रवृत्त होती थी। उनके मनमें भी कभी पापका संकल्प नहीं होता था। सीतापति श्रीरामके मुखकी ओर निहारते समय लोगोंकी आँखें स्थिर हो जात- वे एकटक नेत्रोंसे उन्हें देखते रह जाते थे। सबका हृदय निरन्तर करुणासे भरा रहता था। सदा इष्ट (यज्ञ-यागादि) और आपूर्त (कुएँ खुदवाने, बगीचे लगवाने आदि) के अनुष्ठान करनेवाले लोगोंके द्वारा उस राज्यकी जड़ और मजबूत होती थी। समूचे राष्ट्रमें सदा हरी-भरी खेती लहराती रहती थी। जहाँ सुगमतापूर्वक यात्रा की जा सके, ऐसे क्षेत्रोंसे वह देश भरा हुआ था। उस राज्यका देश सुन्दर और प्रजा उत्तम थी। सब लोग स्वस्थ रहते थे। गौएँ अधिक थीं और घास पातका अच्छा सुभीता था। स्थान-स्थानपर देव मन्दिरोंकी श्रेणियाँ रामराज्यकी शोभा बढ़ाती थीं। उस राज्यमें सभी गाँव भरे-पूरे और धन-सम्पत्तिसे सुशोभित थे। वाटिकाओंमें सुन्दर-सुन्दर फूल शोभा पाते और वृक्षोंमें स्वादिष्ट फल लगते थे। कमलोंसे भरे हुए तालाब वहाँकी भूमिका सौन्दर्य बढ़ा रहे थे।
रामराज्यमें केवल नदी ही सदम्भा (उत्तम जलवाली) थी, वहाँकी जनता कहीं भी सदम्भा (दम्भ या पाखण्डसे युक्त) नहीं दिखायी देती थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णोंके कुल (समुदाय) ही कुलीन (उत्तम कुलमै उत्पन्न) थे, उनके धन नहीं कुलीन थे (अर्थात् उनके धनका कुत्सित मार्गमें लय-उपयोग नहीं होताथा)। उस राज्यकी स्त्रियोंमें ही विभ्रम (हाव-भाव या विलास ) था; विद्वानोंमें कहीं विभ्रम (भ्रान्ति या भूल) – का नाम भी नहीं था। वहाँकी नदियाँ ही कुटिल मार्गसे | जाती थीं, प्रजा नहीं; अर्थात् प्रजामें कुटिलताका सर्वथा अभाव था। श्रीरामके राज्यमें केवल कृष्णपक्षकी रात्रि ही तम (अन्धकार) – से युक्त थी, मनुष्योंमें तम (अज्ञान या दुःख) नहीं था। वहाँकी स्त्रियोंमें ही रजका संयोग देखा जाता था, धर्म-प्रधान मनुष्योंमें नहीं; अर्थात् मनुष्योंमें धर्मकी अधिकता होनेके कारण सत्त्वगुणका ही उद्रेक होता था [ रजोगुणका नहीं ] । धनसे वहाँके मनुष्य ही अनन्ध थे (मदान्ध होनेसे बचे थे); उनका भोजन अनन्ध (अन्नरहित) नहीं था। उस राज्यमें केवल रथ ही ‘अनय’ (लोहरहित) था; राजकर्मचारियोंमें ‘अनय’ (अन्याय) का भाव नहीं था। फरसे, फावड़े, चँवर तथा छत्रोंमें ही दण्ड (डंडा) देखा जाता था; अन्यत्र कहीं भी क्रोध या बन्धन-जनित दण्ड देखनेमें नहीं आता था। जलोंमें ही जड़ता (या जलत्व) – की बात सुनी जाती थी; मनुष्यों में नहीं। स्त्रीके मध्यभाग (कटि) में ही दुर्बलता (पतलापन) थी; अन्यत्र नहीं। वहाँ ओषधियोंमें ही कुष्ठ (कूट या कूठ नामक दवा) – का योग देखा जाता था, मनुष्योंमें कुष्ठ (कोढ़) का नाम भी नहीं था। रत्नोंमें ही वेध (छिद्र) होता था, मूर्तियोंके हाथोंमें ही शूल (त्रिशूल) रहता था, प्रजाके शरीरमें वेध या शूलका रोग नहीं था। रसानुभूतिके समय सात्त्विक भावके कारण ही शरीरमें कम्प होता था; भयके कारण कहीं किसीको कँपकँपी होती हो ऐसी बात नहीं देखी जाती थी। राम राज्यमें केवल हाथी ही मतवाले होते थे, मनुष्योंमें कोई मतवाला नहीं था तरंगें जलाशयोंमें ही उठती थीं, किसीके मनमें नहीं; क्योंकि सबका मन स्थिर था। दान (मद) का त्याग केवल हाथियोंमें ही दृष्टिगोचर होता था; राजाओंमें नहीं। काँटे ही तीखे होते थे, मनुष्योंका स्वभाव नहीं। केवल बार्णोका ही गुणोंसे वियोग होता थामनुष्योंका नहीं दृढ़ बन्धोक्ति (सुश्लिष्ट प्रबन्धरचना या कमलबन्ध आदि श्लोकोंकी रचना) केवल पुस्तकोंमें ही उपलब्ध होती थी; लोकमें कोई सुदृढ़ बन्धनमें बाँधा या कैद किया गया हो-ऐसी बात नहीं सुनी जाती थी।प्रजाको सदा ही श्रीरामचन्द्रजीसे लाड़-प्यार प्राप्त होता था। अपने द्वारा लालित प्रजाका निरन्तर लालन-पालन करते हुए वे उस सम्पूर्ण देशकी रक्षा करते थे।
अध्याय 102 श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
शेषजी कहते हैं- एक बार एक नीचके मुखसे श्रीसीताजीके अपमानकी बात सुनकर धोबीके आक्षेपपूर्ण वचनसे प्रभावित होकर श्रीरघुनाथजीने अपनी पत्नीका परित्याग कर दिया। इसके बाद वे सीतासे रहित एकमात्र पृथ्वीका, जो उनके आदेश से ही सुरक्षित थी, धर्मानुसार पालन करने लगे। एक दिन महामति श्रीरामचन्द्रजी राजसभामें बैठे हुए थे, इसी समय मुनियोंमें श्रेष्ठ अगस्त्य ऋषि जो बहुत बड़े महात्मा थे, वहाँ पधारे समुद्रको सोख लेनेवाले उन अद्भुत महर्षिको आया देख महाराज श्रीरामचन्द्रजी अर्घ्य लिये सम्पूर्ण सभासदों तथा गुरु वसिष्ठके साथउठकर खड़े हो गये। फिर स्वागत-सत्कारके द्वारा उन्हें सम्मानित करके भगवान्ने उनकी कुशल पूछी और जब वे सुखपूर्वक आसनपर बैठकर विश्राम कर चुके तो श्रीरघुनन्दनने उनसे वार्तालाप आरम्भ किया।
श्रीरामने कहा- महाभाग कुम्भज! आपका स्वागत है। तपोनिधे! निश्चय ही आज आपके दर्शनसे हम सब लोग कुटुम्बसहित पवित्र हो गये। इस भूमण्डलपर कहीं कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है जो आपकी तपस्या में विघ्न डाल सके। आपकी सहधर्मिणी लोपामुद्रा भी बड़ी सौभाग्यशालिनी हैं, जिनके पातिव्रत्य धर्मके प्रभावसे सब कुछ शुभ ही होता है। मुनीश्वर ! आप धर्मके साक्षात् विग्रह और करुणाके सागर हैं। लोभ तो आपको छू भी नहीं गया है। बताइये, मैं आपका कौन-सा कार्य करूँ? महामुने! यद्यपि आपकी तपस्याके प्रभावसे ही सब कुछ सिद्ध हो जाता है, आपके संकल्पमात्र से ही बहुत कुछ हो सकता है; तथापि मुझपर कृपा करके ही मेरे लिये कोई सेवा बतलाइये।
शेषजी कहते हैं- मुने! राजाओंके भी राजा परम बुद्धिमान् जगद्गुरु श्रीरामचन्द्रजीके ऐसा कहनेपर महर्षि अगस्त्यजी अत्यन्त विनययुक्त वाणीमें बोले । अगस्त्यजीने कहा—स्वामिन्! आपका दर्शन देवताओंके लिये भी दुर्लभ है; यही सोचकर मैं यहाँ आया हूँ। राजाधिराज ! मुझे अपने दर्शनके लिये ही आया हुआ समझिये कृपानिधे! आपने रावण नामक असुरका, जो समस्त लोकोंके लिये कण्टकरूप था, वध कर डाला – यह बहुत अच्छा हुआ। अब देवगणसुखी और विभीषण राजा हुए यह बड़े सौभाग्यको बात है। श्रीराम ! आज आपका दर्शन पाकर मेरे मनका खाली खजाना भर गया। मेरे सारे पाप नष्ट हो गये।
यों कहकर महर्षि कुम्भन चुप हो गये भगवान्के दर्शनजनित आह्यदसे उनका चित्त विह्वल हो रहा था। उस समय श्रीरघुनाथजीने उन ज्ञान-विशारद मुनिसे पुनः इस प्रकार प्रश्न किया-‘मुने मैं आपसे कुछ बातें पूछ रहा हूँ, आप उन्हें विस्तारपूर्वक बतलायें। देवताओंको पीड़ा देनेवाला वह रावण, जिसे मैंने मारा है, कौन था? तथा उस दुरात्माका भाई कुम्भकर्ण भी कौन था ? उसकी जाति-उसके बन्धुबान्धव कौन थे ? सर्वज्ञ! आप इन सब बातोंको विस्तारके साथ जानते है. अतः मुझे सब बताइये। भगवान्की ये बातें सुनकर तपोनिधि कुम्भज ऋषिने इन सबका उत्तर देना आरम्भ किया- “राजन्। सम्पूर्ण जगत्को सृष्टि करनेवाले जो ब्रह्माजी हैं, उनके पुत्र महर्षि पुलस्त्य हुए। पुलस्त्यजीसे मुनिवर विश्रवाका जन्म हुआ, जो वेदविद्यामें अत्यन्त प्रयोग थे। उनकी दो पलियाँ थीं, जो बड़ी पतिव्रता) और सदाचारिणी थीं। उनमेंसे एकका नाम मन्दाकिनी था और दूसरी कैकसी नामसे प्रसिद्ध थी पहली स्त्री मन्दाकिनीके गर्भसे कुबेरका जन्म हुआ, जो लोकपालके पदको प्राप्त हुए हैं। उन्होंने भगवान् शंकरके प्रसादसे लंकापुरीको अपना निवास स्थान बनाया था। कैकसी विद्युन्माली नामक दैत्यकी पुत्री थी, उसके गर्भसे रावण, कुम्भकर्ण तथा पुण्यात्मा विभीषण- ये तीन महाबली पुत्र उत्पन्न हुए महामते। इनमें रावण और कुम्भकर्णकी बुद्धि अधर्ममें निपुण हुई; क्योंकि ये दोनों जिस गर्भसे उत्पन्न हुए थे, उसकी स्थापना मध्यकालमें हुई थी।
एक समयकी बात है, कुबेर परम शोभायमान पुष्पक विमानपर आरूढ़ हो माता पिताका दर्शन करनेके लिये उनके आश्रम में गये। वहाँ जाकर वे अधिक कालतक माता-पिताके चरणों पड़े रहे। उस समय उनका हृदय हर्षसे विहल हो रहा था और सम्पूर्ण रोमांच हो आया था। वे बोले-‘माता और पिताजी! आजका दिन मेरे लिये बहुत ही सुन्दर तथामहान् सौभाग्यजनक फलको प्रकट करनेवाला है;
क्योंकि इस समय मुझे आपके इन युगल चरणोंका दर्शन मिला है जो अत्यन्त पुण्य प्रदान करनेवाला है।’ इस प्रकार स्तुतियुक्त पदोंसे माता-पिताका स्तवन करके कुबेर पुनः अपने भवनको लौट गये। रावण बड़ा बुद्धिमान् था, उसने कुबेरको देखकर अपनी मातासे पूछा- ‘माँ! ये कौन हैं, जो मेरे पिताजीके चरणोंकी सेवा करके फिर लौट गये हैं? इनका विमान तो वायुके समान वेगवान् है। इन्हें किस तपस्यासे ऐसा विमान प्राप्त हुआ है ?”
शेषजी कहते हैं— मुने! रावणका वचन सुनकर उसकी माता रोषसे विकल हो उठी और कुछ आँखें टेढ़ी करके अनमनी होकर बेटेसे बोली-‘अरे! मेरी बात सुन, इसमें बहुत शिक्षा भरी हुई है। जिनके विषयमें तू पूछ रहा है, वे मेरी सौतकी कोखके रत्न-कुबेर यहाँ उपस्थित हुए थे; जिन्होंने अपनी माताके विमल वंशको अपने जन्मसे और भी उज्ज्वल बना दिया है। परन्तु तू तो मेरे गर्भका कीड़ा है, केवल अपना पेट भरनेमें ही लगा हुआ है। कुबेरने तपस्यासे भगवान् शंकरको सन्तुष्ट करके लंकाका निवास, मनके समान वेगशाली विमानतथा राज्य और सम्पत्तियाँ प्राप्त की हैं। संसारमें वही माता धन्य, सौभाग्यवती तथा महान् अभ्युदयसे सुशोभित होनेवाली है, जिसके पुत्रने अपने गुणोंसे महापुरुषोंका पद प्राप्त कर लिया हो।’ रावण दुरात्माओंमें सबसे श्रेष्ठ था, उसने अपनी माताके क्रोधपूर्ण वचन सुनकर तपस्या करनेका निश्चय किया और उससे कहा।
रावण बोला- माँ! कीड़ेकी-सी हस्ती रखने वाला वह कुबेर क्या चीज है? उसकी थोड़ी-सी तपस्या किस गिनतीमें है? लंकाकी क्या बिसात है? तथा बहुत थोड़े सेवकोंवाला उसका राज्य भी किस कामका है? यदि मैं अन्न, जल, निद्रा और क्रीड़ाका सर्वदा परित्याग करके ब्रह्माजीको सन्तुष्ट करनेवाली दुष्कर तपस्याके द्वारा सम्पूर्ण लोकोंको अपने वशमें न कर लूँ तो मुझे पितृलोकके विनाशका पाप लगे।
तत्पश्चात् कुम्भकर्ण और विभीषणने भी तपस्याका निश्चय किया। फिर रावण अपने भाइयोंको साथ लेकर पर्वतीय वनमें चला गया। वहाँ उसने सूर्यकी ओर ऊपर दृष्टि लगाये एक पैरसे खड़ा होकर दस हजार वर्षोंतक घोर तपस्या की। कुम्भकर्णने भी बड़ा कठोर तप किया।विभीषण तो धर्मात्मा थे; अतः उन्होंने उत्तम तपस्याका अनुष्ठान किया। तदनन्तर देवाधिदेव भगवान् ब्रह्माजीने प्रसन्न होकर रावणको बहुत बड़ा राज्य दिया और उसका स्वरूप तीनों लोकोंमें प्रकाशमान एवं सुन्दर बना दिया, जो देवता और दानव दोनोंसे सेवित था। कुबेरकी बुद्धि सदा धर्ममें ही लगी रहती थी। रावणने वर पानेके अनन्तर अपने भाई कुबेरको बहुत सताया। उनका विमान छीन लिया तथा उनकी लंकानगरीपर भी हठात् अधिकार जमा लिया। उसने समस्त लोकोंको सन्ताप पहुँचाया। देवता स्वर्गसे भाग गये। उस निशाचरने ब्राह्मण वंशका भी विनाश किया और मुनियोंकी तो वह जड़ ही काटता फिरता था। तब उसके अत्याचारसे अत्यन्त दुःखी होकर इन्द्र आदि समस्त देवता ब्रह्माजीके पास गये तथा दण्डवत् प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे। जब सबने आदरपूर्वक प्रिय वचनद्वारा उनका स्तवन किया तो भगवान् ब्रह्माने प्रसन्न होकर कहा – ‘देवगण! मैं तुम्हारा कौन-सा कार्य करूँ ?’ तब देवताओंने ब्रह्माजीसे अपना अभिप्राय निवेदन किया रावणसे प्राप्त होनेवाले अपने कष्ट और पराजयका वर्णन किया। उनकी बातें सुनकर ब्रह्माजीने क्षणभर विचार किया, फिर देवताओंको साथ लेकर वे कैलास पर्वतपर गये। उस पर्वतके पास पहुँचकर इन्द्र आदि देवता वहाँको विचित्रता देखकर मुग्ध हो गये और खड़े होकर उन्होंने शंकरजीकी इस प्रकार स्तुति की- भगवन्! आप भव (उत्पादक), सर्व (संहारक) तथा नीलग्रीव (कण्डमें नील चिह्न धारण करनेवाले) आदि नामसे प्रसिद्ध हैं, आपको नमस्कार है। स्थूल और सूक्ष्मरूप धारण करनेवाले आपको प्रणाम है तथा अनेकों रूपोंमें प्रतीत होनेवाले आपको नमस्कार है।”
सब देवताओंके मुखसे यह स्तुतियुक्त वाणी सुनकर भगवान् शंकरने नन्दीसे कहा-‘देवताओंको मेरे पास बुला लाओ।’ आज्ञा पाकर नन्दीने उसी समय देवताओंको बुलाया। अन्तःपुरमें पहुँचकर उन्होंने आश्चर्यचकित दृष्टिसे भगवान्का दर्शन किया। देवताओंके साथ प्रणाम करके ब्रह्माजी शिवजीके सामनेबड़े हो गये और उन देवदेवेश्वरसे बोले ‘शरणागतवत्सल महादेव! आप देवताओंकी अवस्था पर दृष्टि डालिये और इनके ऊपर कृपा कीजिये। दुष्ट राक्षस रावणका वध करनेके लिये जो उद्योग हो सके, क कीजिये। ब्रह्माजीके दैन्य और शोकसे वचन सुनकर शंकरजी भी देवताओंके साथ भगवान् श्रीविष्णुक स्थानपर आये। वहाँ देवता नाग किन्नर और मुनि सबने मिलकर भगवान्की स्तुति की-देवताओंक स्वामी माधव! आपकी जय हो, भक्तजनोंका दुःख दूर करनेवाले परमेश्वर! आपकी जय हो, महादेव! हमपर कृपा कीजिये और अपने इन सेवकॉपर दृष्टि डालिये।’
रुद्र आदि सम्पूर्ण देवताओंने जब इस प्रकार उब्ब-स्वरसे स्तवन किया तो उनके वचन सुनकर देवाधिदेव श्रीविष्णुने देवसमुदायके दुःखपर अच्छी तरह विचार किया। तत्पश्चात् वे मेघके समान गम्भीर वाणीसे उनका शोक करते हुए बाल ब्रह्म स्द्र और इन्द्र आदि देवताओ! मैं आपलोगों के हितकी बात बता रहा है, सुनिये रावणके द्वारा जो आपको भय प्राप्त हुआ है, उसे मैं जानता अब अवतार धारण करके में उस भयका नाश |करूँगा भूमण्डलमें एक अयोध्या नामकी पूरी है, जो बड़े-बड़े दान और यज्ञ आदि शुभ कर्मोंका अनुष्ठान करनेवाले सूर्यवंशी राजाओंद्वारा सुरक्षित है; वह अपनी रजतमयी भूमिसे सुशोभित हो रही है। उस पुरीमें दशरथ नामसे प्रसिद्ध एक राजा हैं जो इस समय दसों दिशाओंको जीतकर पृथ्वीके राज्यका पालन कर रहे हैं। यद्यपि वे राज्यलक्ष्मीसे सम्पन्न और शक्तिशाली हैं, तथापि अभीतक उन्हें कोई सन्तान नहीं है। महान बलशाली राजा दशरथ पुत्र प्राप्तिको इच्छासे वन्दनीय ऋयभृंगमुनिको प्रार्थनापूर्वक बुलावेंगे और उनके आचार्यत्वमें विधिपूर्वक पुत्रेष्टि यज्ञका अनुष्ठान करेंगे। तदनन्तर मैं आपलोगों के हितके लिये राजाकी तीन रानियोंके गर्भसे चार स्वरूपोंमें प्रकट होऊंगा राजा भी पूर्व जन्ममें तपस्या करके मुझसे इस बातके लिये प्रार्थना कर चुके हैं। मेरे चारों स्वरूप क्रमशः, राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्नके नामसे प्रसिद्ध होंगे। उस समय मैं रावणका बल, वाहन और जड़-मूलसहित संहार कर डालूँगा। आपलोग भी अपने-अपने अंशसे भालू और वानरके रूपमें प्रकट होकर पृथ्वीपर सर्वत्र विचरते रहिये।
इस प्रकार आकाशवाणी करके भगवान् मौन हो गये। उनका वचन सुनकर सब देवताओंका चित्त प्रसन्न हो गया। परम मेधावी देवाधिदेव भगवान्ने जैसा कहा था, उसीके अनुसार देवताओंने कार्य किया। उन्होंने अपने-अपने अंशसे ऋक्ष और वानरका रूप धारण करके समूची पृथ्वीको भर दिया। महाराज देवताओंका दुःख दूर करनेवाले जो महान् देव श्रीविष्णु कहलाते हैं, वे आप ही हैं। आप ही मानवशरीरधारी भगवान् हैं। महामते ! ये भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न आपहीके अंश हैं। आपने देवताओंको पीड़ा देनेवाले दशाननका वध किया है। उस दैत्यकी ब्रह्म राक्षस जाति थी, उसीका आपके द्वारा वध हुआ है। नरश्रेष्ठ! आप जगत्के उत्पत्ति-स्थान और सम्पूर्ण विश्वके आत्मा हैं। आपके राजा होनेसे देवता, असुर और मनुष्योंसहित समस्त संसारको सुख प्राप्त हुआ है पापके स्पर्शसे रहित श्रीरघुनाथजी! आपने जो कुछ पूछा है, वह सब मैंने बतला दिया।”
अध्याय 103 अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
श्रीराम बोले- विप्रवर! इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न हुए किसी पुरुषके मुखसे कभी ब्राह्मणोंने कटुवचनतक नहीं सुना था [ किन्तु मैंने उनको हत्या कर डाली। ] वर्ण और आश्रमके भेदसे भिन्न-भिन्न धर्मोके मूल हैं वेद और वेदोंके मूल हैं ब्राह्मण ब्राह्मणवंश ही वेदोंकी सम्पूर्ण शाखाओंको धारण करनेवाला एकमात्र वृक्ष है। ऐसे ब्राह्मण कुलका मेरे द्वारा संहार हुआ है; ऐसी अवस्थामें में क्या करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो ?
अगस्त्यजीने कहा- राजन्! आप अन्तर्यामी आत्मा एवं प्रकृति से परे साक्षात् परमेश्वर हैं। आप ही इस जगत्के कर्ता, पालक और संहारक हैं। साक्षात् गुणातीत परमात्मा होते हुए भी आपने स्वेच्छासे सगुणस्वरूप धारण किया है। शराबी, ब्रह्महत्यारा, सोना चुरानेवाला तथा महापापी (गुरुस्त्रीगामी) ये सभी आपके नामका उच्चारण करनेमात्र से तत्काल पवित्र हो जाते हैं।” महामते। ये जनककिशोरी भगवती सीता महाविद्या हैं; जिनके स्मरणमात्रसे मनुष्य मुक्त होकर सद्गति प्राप्त कर लेंगे। लोगोंपर अनुग्रह करनेवाले महावीर श्रीराम जो राजा अश्वमेधयज्ञका अनुष्ठान करता है, वह सब पापके पार हो जाता है। राजा मनु, सगर, मरुत्त और नहुषनन्दन ययाति- ये आपके सभी पूर्वज यज्ञ करके परमपदको प्राप्त हुए हैं महाराज! आप सर्वथा समर्थ हैं, अतः आप भी यज्ञ करिये। परम सौभाग्यशाली श्रीरघुनाथजीने महर्षि अगस्त्यजीकी बात सुनकर यज्ञ करनेका ही विचार किया और उसकी विधि पूछी।
श्रीराम बोले- महर्षे! अश्वमेधयज्ञमें कैसा अश्व होना चाहिये? उसके पूजनकी विधि क्या है? किस प्रकार उसका अनुष्ठान किया जा सकता है तथा उसके लिये किन-किन शत्रुओंको जीतनेकीआवश्यकता है? अगस्त्यजीने कहा- रघुनन्दन! जिसका ग गंगाजल के समान उज्ज्वल तथा शरीर सुन्दर हो, जिसका कान श्याम, मुँह लाल और पूँछ पीले रंगकी हो जो देखने में भी अच्छा जान पड़े वह उत्तम लक्षणोंसे लक्षित अश्व ही अश्वमेधमें ग्राह्य बतलाया गया है। वैशासकी पूर्णिमाको अश्वकी विधिवत् पूजा करके एक ऐसा पत्र लिखे जिसमें अपने नाम और बलका उल्लेख हो, वह पत्र घोड़ेके ललाटमें बाँधकर उसे स्वछन्द विचरनेके लिये छोड़ देना चाहिये तथा बहुत से रक्षकोंको तैनात करके उसकी सब ओरसे प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये। यज्ञका घोड़ा जहाँ-जहाँ जाय, उन सब स्थानोंपर रक्षकको भी जाना चाहिये जो कोई राजा अपने बल या पराक्रमके घमंडमें आकर उस घोड़ेको जबरदस्ती बाँध ले, उससे लड़-भिड़कर उस अश्वको बलपूर्वक छीन लाना रक्षकका कर्तव्य है। जबतक अश्व लौटकर न आ जाय, तबतक यज्ञ कर्त्ताको उत्तम विधि एवं नियमोंका पालन करते हुए राजधानीमें ही रहना चाहिये। वह ब्रह्मचर्यका पालन करे और मृगका सींग हाथमें धारण किये रहे। यज्ञ-सम्बन्धी व्रतका पालन करनेके साथ ही एक वर्षतक दीनों, अंधों और दुःखियोंको धन आदि देकर सन्तुष्ट करते रहना चाहिये। महाराज! बहुत-सा अन्न और धन दान करना उचित है। याचक जिस-जिस वस्तुके लिये याचना करे, बुद्धिमान् दाताको उसे वही वही वस्तु देनी चाहिये। इस प्रकारका कार्य करते हुए यजमानका यज्ञ जब भलीभाँति पूर्ण हो जाता है, तो वह सब पापका नाश कर डालता है। शत्रुओंका नाश करनेवाले रघुनाथजी! आप यह सब कुछ करने, सब नियमोंको पालने तथा अश्वका विधिवत् पूजन करनेमें समर्थ है; अतः इस यज्ञके द्वाराअपनी विशद कीर्तिका विस्तार करके दूसरे मनुष्योंको भी पवित्र कीजिये।
श्रीरामचन्द्रजीने कहा – विप्रवर! आप इस समय मेरी अश्वशालाका निरीक्षण कीजिये और देखिये, उसमें ऐसे उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न घोड़े हैं या नहीं। भगवान्की बात सुनकर दयालु महर्षि उठकर खड़े हो गये और यज्ञके योग्य उत्तम घोड़ोंको देखनेके लिये चल दिये। श्रीरामचन्द्रजीके साथ अश्वशालामें जाकर उन्होंने देखा, वहाँ चित्र-विचित्र शरीरवाले अनेकों प्रकारके अश्व थे, जो मनके समान वेगवान् और अत्यन्त बलवान् प्रतीत होते थे। उसमें ऊपर बताये हुए रंगके एक-दो नहीं, सैकड़ों घोड़े थे, जिनकी पूँछ पीली और मुख लाल थे। साथ ही वे सभी तरह के शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न दिखायी देते थे। उन्हें देखकर अगस्त्यजी बोले-‘ रघुनन्दन आपके यहाँ अश्वमेध के योग्य बहुत-से सुन्दर घोड़े हैं; अतः आप विस्तारके साथ उस यज्ञका अनुष्ठान कीजिये। महाराज श्रीराम ! आप महान् सौभाग्यशाली हैं। देवता और असुर-सभी आपके चरणोंपर मस्तक झुकाते हैं; अतः आपको इस यज्ञकाअनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। मुनिके इस वचनसे उन्होंने यज्ञके सभी मनोहर सम्भार एकत्रित किये। तत्पश्चात् महाराज श्रीराम मुनियोंके साथ सरयू तटपर आये और सोनेके हलोंसे चार योजन लंबी-चौड़ी बहुत बड़ी भूमिको जोता। इसके बाद उन पुरुषोत्तमने यज्ञके लिये अनेकों मण्डप बनवाये और योनि एवं मेखलासे युक्त कुण्डका विधिवत् निर्माण करके उसे अनेकों रत्नोंसे सुसज्जित एवं सब प्रकारकी शोभासे सम्पन्न बनाया। महान् तपस्वी एवं परम सौभाग्यशाली मुनिवर वसिष्ठने सब कार्य वेदशास्त्रकी विधिके अनुसार सम्पन्न कराया। उन्होंने अपने शिष्योंको महर्षियोंके आश्रमोंपर भेजकर कहलाया कि श्रीरघुनाथजी अश्वमेधयज्ञका अनुष्ठान करनेके लिये उद्यत हुए हैं; अतः आप सब लोग उसमें पधारें। इस प्रकार आमन्त्रित होकर वे सभी तपस्वी महर्षि भगवान् श्रीरामके दर्शनके लिये अत्यन्त उत्कण्ठित होकर वहाँ आये। नारद, असित, पर्वत, कपिलमुनि, जातूकर्ण्य, अंगिरा, आष्टिषेण, अत्रि, गौतम, हारीत, याज्ञवल्क्य तथा संवर्त आदि महात्मा भी भगवान् श्रीरामके अश्वमेध यज्ञमेंआये। श्रीरघुनाथजीने बड़े आनन्दके साथ उठकर उनका स्वागत किया और उन्हें प्रणाम करके अर्घ्य तथा आसन आदि देकर उन सबकी विधिवत् पूजा की। फिर गौ और सुवर्ण निवेदन करके वे बोले ‘महर्षियो! मेरे बड़े भाग्य हैं, जो आपके दर्शन हुए।”
शेषजी कहते हैं— ब्रह्मन् ! इस प्रकार जब वहाँ बड़े-बड़े ऋषियोंका समुदाय एकत्रित हुआ तो उनमें वर्ण और आश्रमके अनुकूल धर्मविषयक चर्चा होने लगी।
वात्स्यायनजीने पूछा-भगवन्! वहाँ धर्मके सम्बन्धमें क्या-क्या बातें हुई? कौन-सी अद्भुत बात बतायी गयी? उन महात्माओंने सब लोगोंपर दया करके किस विषयका वर्णन किया ?
शेषजीने कहा- मुने! महापुरुषोंमें श्रेष्ठ दशरथनन्दन भगवान् श्रीरामने सब मुनियोंको एकत्रित देखकर उनसे समस्त वर्णों और आश्रमोंके धर्म पूछे। श्रीरघुनाथजीके पूछने पर उन महर्षियोंने जिन-जिन महान् गुणकारी धर्मोका वर्णन किया, उन सबको मैं विधिपूर्वक बतलाऊँगा, आप ध्यान देकर सुनें।ऋषि बोले- ब्राह्मणको सदा यज्ञ करना और वेद पढ़ाना आदि कार्य करना चाहिये। वह ब्रह्मचर्य आश्रममें वेदोंका अध्ययन पूर्ण करके इच्छा हो तो विरक्त हो जाय और यदि ऐसी इच्छा न हो तो गृहस्थ आश्रममें प्रवेश करे। नीच पुरुषोंकी सेवासे जीविका चलाना ब्राह्मणके लिये सदा त्याज्य है। वह आपत्ति में पढ़नेपर भी कभी सेवा वृत्तिसे जीवन-निर्वाह न करे। सन्तान प्राप्तिकी इच्छासे ऋतुकालमें अपनी पत्नीके साथ समागम करना उचित माना गया है। दिनमें स्त्रीके साथ सम्पर्क करना पुरुषोंकी आयुको नष्ट करनेवाल है। श्राद्धका दिन और सभी पर्व स्त्री- समागमके लिये निषिद्ध हैं, अतः बुद्धिमान् पुरुषोंको इनका त्याग करना चाहिये। जो मोहवश उक्त समयमें भी स्त्रीके साथ सम्पर्क करता है; वह उत्तम धर्मसे भ्रष्ट हो जाता है। जो पुरुष केवल ऋतुकालमें स्त्रीके साथ समागम करता हैं तथा अपनी ही पत्नीमें अनुराग रखता है [परायी स्त्रीकी ओर कुदृष्टि नहीं डालता], उस उत्तम गृहस्थको इस जगत् सदा ब्रह्मचारी ही समझना चाहिये। स्त्रीके रजस्वला होनेसे लेकर सोलह रात्रियाँ ऋतु कहलाती हैं, उनमें पहली चार रातें निन्दित हैं; [अतः उनमें स्त्रीका स्पर्श नहीं करना चाहिये] शेष बारह रातोंमेंसे जो सम संख्यावाली अर्थात् छठीं और आठवीं आदि रातें हैं, उनमें स्त्री-समागम करनेसे पुत्रकी उत्पत्ति होती है तथा विषम संख्यावाली अर्थात् पांचवीं सातवीं आदि रात्रियों कन्याको उत्पत्ति करानेवाली हैं। जिस दिन चन्द्रमा अपने लिये दूषित हों, उस दिनको छोड़कर तथा मघा और मूलनक्षत्रका भी परित्याग करके विशेषतः पुल्लिंग नामवाले आदि नक्षत्रोंमें शुद्ध भावसे पत्नीके साथ समागम करे; इससे चारों पुरुषागोंक साधक शुद्ध एवं सदाचारी पुत्रका जन्म होता है।
थोड़ी-सी भी कीमत लेकर कन्याको बेचनेवाला पुरुष पापी माना गया है। ब्राह्मणके लिये व्यापार, सेवा वेदाध्ययनका त्याग, निन्दित विवाह और कर्मका लोप-ये दोष कुलको नीचे गिरानेवालेहैँ।’ गृहस्थाश्रममें रहनेवाले पुरुषको अन्न, जल, दूध, मूल अथवा फल आदिके द्वारा अतिथिका सत्कार करना चाहिये। आया हुआ अतिथि सत्कार न पाकर जिसके घरसे निराश लौट जाता है, वह गृहस्थ जीवनभरके कमाये हुए पुण्यसे क्षणभरमें वंचित हो जाता है। गृहस्थको उचित है कि वह बलिवैश्वदेव कर्मके द्वारा देवताओं, पितरों तथा मनुष्योंको उनका भाग देकर शेष अन्नका भोजन करे, वही उसके लिये अमृत है। जो केवल अपना पेट भरनेवाला है-जो अपने ही लिये भोजन बनाता और खाता है, वह पापका ही भोजन करता है। तेलमें षष्ठी और अष्टमीको तथा मांसमें सदा ही पापका निवास है। चतुर्दशीको क्षौर कर्म तथा अमावास्याको स्त्री-समागमका त्याग करना चाहिये। 3 रजस्वला- अवस्थामें स्त्रीके सम्पर्कसे दूर रहे। पत्नीके साथ भोजन न करे। एक वस्त्र पहनकर तथा चटाईके आसनपर बैठकर भोजन करना निषिद्ध है। अपनेमें तेजकी इच्छा रखनेवाले श्रेष्ठ पुरुषको भोजन करती हुई स्त्रीकी ओर नहीं देखना चाहिये। मुँहसे आगको न फूँके, नंगी स्त्रीकी ओर दृष्टि न डाले। बछड़ेको दूध पिलाती हुई गौको न छेड़े। दूसरेको इन्द्र-धनुष न दिखावे । रातमेंदही खाना सर्वथा निषिद्ध है। आगमें अपने पैर न सेंके, उसमें कोई अपवित्र वस्तु न डाले। किसी भी जीवकी हिंसा तथा दोनों सन्ध्याओंके समय भोजन न करे। रात्रिको खूब पेट भरके भोजन करना उचित नहीं है। पुरुषको नाचने, गाने और बजानेमें आसक्ति नहीं रखनी चाहिये। काँसेके बर्तनमें पैर धुलाना निषिद्ध है। दूसरेके पहने हुए कपड़े और जूते न धारण करे। फूटे अथवा दूसरेके जूठे किये हुए बर्तनमें भोजन न करे, भीगे पैर न सोये। हाथ और मुँहके जूठे रहते हुए कहीं न जाय। सोते-सोते न खाय। उच्छिष्ट अवस्थामें मस्तकका स्पर्श न करे। दूसरोंके गुप्त भेद न खोले। इस प्रकार गृहस्थ धर्मका समय पूरा करके वानप्रस्थ आश्रममें प्रवेश करे। उस समय इच्छा हो तो वैराग्यपूर्वक स्त्रीके साथ रहे अथवा स्त्रीको साथ न रखकर उसे पुत्रोंके अधीन सौंप दे। वानप्रस्थ – धर्मका पूर्ण पालन करनेके पश्चात् विरक्त हो जाय-संन्यास ले ले।
वात्स्यायनजी ! उस समय महर्षियोंने उपर्युक्त प्रकारसे अनेकों धर्मोका वर्णन किया तथा सम्पूर्ण जगत्के महान् हितैषी भगवान् श्रीरामने उन सबको ध्यानपूर्वक सुना।
अध्याय 104 यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
शेषजी कहते हैं— मुने! इस प्रकार भगवान् श्रीराम ऋषियोंके मुखसे कुछ कालतक धर्मकी व्याख्या सुनते रहे; इतनेमें वसन्तका समय उपस्थित हुआ जब कि महापुरुषोंके यज्ञ आदि शुभ कर्मोंका प्रारम्भ होता है। वह समय आया देख बुद्धिमान् महर्षि वसिष्ठने सम्पूर्ण जगत्के सम्राट् श्रीरामचन्द्रजीसे यथोचित वाणोमें कहा- ‘महाबाहु रघुनाथजी अब आपके लिये वहसमय आ गया है. जब कि यज्ञके लिये निश्चित किये हुए अश्वकी भलीभाँति पूजा करके उसे पृथ्वीपर भ्रमण करनेके लिये छोड़ा जाय। इसके लिये सामग्री एकत्रित हो, अच्छे-अच्छे ब्राह्मण बुलाये जायें तथा स्वयं आप ही उन ब्राह्मणोंकी यथोचित पूजा करें। दीनों, अंधों और दुःखियोंका विधिवत् सत्कार करके उन्हें रहनेको स्थान दें और उनके मनमें जिस वस्तुके पानेकी इच्छा हो, वहीउन्हें दान करें। आप सुवर्णमयी सीताके साथ यज्ञकी दीक्षा लेकर उसके नियमोंका पालन करें-पृथ्वीपर सोवें, ब्रह्मचारी रहें तथा धन सम्बन्धी भोगोंका परित्याग करें। आपके कटिभागमें मेखला सुशोभित हो, आप हरिणका सींग, मृगचर्म तथा दण्ड धारण करें तथा सब प्रकारके सामान और द्रव्य एकत्रित करके यज्ञका आरम्भ करें।’
महर्षि वसिष्ठके ये उत्तम और यथार्थ वचन सुनकर परम बुद्धिमान् श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मणसे अभिप्राययुक्त बात कही।
श्रीराम बोले- लक्ष्मण! मेरी बात सुनो और सुनकर तुरंत उसका पालन करो। जाओ, प्रयत्न करके अश्वमेध यज्ञके लिये उपयोगी अश्व ले आओ।
शेषजी कहते हैं— श्रीरामचन्द्रजीके वचन सुनकर शत्रुविजयी लक्ष्मणने सेनापतिसे कहा-‘वीर! मैं तुम्हें एक अत्यन्त प्रिय वचन सुना रहा हूँ, सुनो; श्रीरघुनाथजीकी आज्ञाके अनुसार शीघ्र ही हाथी, घोड़े, रथ तथा पैदलसे युक्त चतुरंगिणी सेना तैयार करो, जो कालकी सेनाका भी विनाश करनेमें समर्थ हो।’ महात्मा लक्ष्मणका यह कथन सुनकर कालजित् नामवाले सेनापतिने सेनाको सुसज्जित किया। उस समय लक्ष्मणके आदेशानुसार सजकर आये हुए अश्वमेधयज्ञके अश्वकी बड़ी शोभा हुई एक श्रेष्ठ पुरुषने उसकी बागडोर पकड़ रखी थी। दस ध्रुवक ( चिह्न विशेष) उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। अपने छोटे-छोटे रोएँके कारण भी वह बड़ा सुन्दर जान पड़ता था। उसके गलेमें घुंघुरू पहनाये गये थे, जो एक-दूसरे से मिले नहीं थे विस्तृत कण्ठ-कोश मणि सुशोभित थी। मुखको कान्ति भी बड़ी विशद थी और उसके दोनों कान छोटे-छोटे तथा काले थे। घासके ग्राससे उसका मुँह बड़ा सुहावना जान पड़ता था और चमकीले रत्नोंसे उसको सजाया गया था। इस प्रकार सज-धजकर मोतियोंकी मालाओंसे सुशोभित हो वह अश्व बाहर निकला। उसके ऊपर श्वेत छत्र तना हुआ था। दोनों ओरसे दो सफेद चँवर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। सारांशयह कि उस अश्वका सारा शरीर ही नाना प्रकारके शोभासाधनों से सम्पन्न था। जिस प्रकार देवतालोग सेवाके योग्य श्रीहरिकी सब ओरसे सेवा करते हैं। उसी प्रकार बहुत-से सैनिक उस घोड़ेके आगे-पीछे और बीचमें रहकर उसकी रक्षा कर रहे थे।
तदनन्तर सेनापति कालजित्ने अपनी विशाल सेनाको कूच करनेकी आज्ञा दी। आज्ञा पाकर जन | समुदायसे भरी हुई वह विशाल बाहिनी छनोंसे सूर्यको ओटमें करके अपनी छावनीसे निकली। उस सेनाके सभी श्रेष्ठ वीर श्रीरघुनाथजीके यज्ञके लिये सुसज्जित हो गर्जते तथा युद्धके लिये उत्साह प्रकट करते हुए बड़े हर्षमें भरकर चले। सभी सैनिक हाथोंमें धनुष, पाश और खड्ग धारण किये सैनिक शिक्षाके अनुसार स्फुट गति से चलते हुए बड़ी तेजीके साथ महाराज श्रीरामके पास उपस्थित हुए। वह घोड़ा भी आकाशमें उछलता तथा पृथ्वीको अपनी टापसे खोदता हुआ धीरे-धीरे यज्ञ-चिह्नसे युक्त मण्डपके पास पहुँचा। घोड़ेको आया देख श्रीरामचन्द्रजीने महर्षि वसिष्ठको समयोचित कार्य करानेके लिये प्रेरित किया। महर्षि वसिष्टने श्रीरामचन्द्रजीको स्वर्णमयी पत्नीके साथ बुलाकर अनुष्ठान आरम्भ कराया। उस यहमें वेद-शास्त्रोंका विवेचन करनेवाले बुद्धिमान् महर्षि वसिष्ठ, जो श्रीरघुनाथजीके वंशके आदि गुरु थे, आचार्य हुए। तपोनिधि अगस्त्यजीने ब्रह्माका [कृताकृतावेक्षणरूप) कार्य सँभाला। वाल्मीकि मुनि अध्वर्यु बनाये गये और कण्व द्वारपाल उस यज्ञ मण्डपके आठ द्वार थे जो तोरण आदिसे सुसज्जित होनेके कारण बहुत सुन्दर दिखायी देते थे। वात्स्यायनजी! उनमें से प्रत्येक द्वारपर दो-दो मन्त्रवेता ब्राह्मण बिठाये गये थे। पूर्व द्वारपर मुनिश्रेष्ठ देवल और असित थे। दक्षिण द्वारपर तपस्याके भंडार महात्मा कश्यप और अत्रि विराजमान थे। पश्चिम द्वारपर श्रेष्ठ महर्षि जातूकर्ण्य और जाजलिको उपस्थिति थी तथा उत्तर द्वारपर द्वित और एकत नामके दो तपस्वी मुनि विराज रहे थे।
ब्रह्मन्। इस प्रकार द्वारकी विधि पूर्ण करके महर्षिवसिष्ठने उस यज्ञसम्बन्धी श्रेष्ठ अश्वका विधिवत् पूजन आरम्भ किया। फिर सुन्दर वस्त्र और आभूषणोंसे सुशोभित सुवासिनी स्त्रियोंने वहाँ आकर हल्दी, अक्षत और चन्दन आदिके द्वारा उस पूजित अश्वका पुनः पूजन किया तथा अगुरुका धूप देकर उसकी आरती उतारी। इस तरह पूजा करनेके पश्चात् महर्षि वसिष्ठने अश्वके उज्ज्वल ललाटपर, जो चन्दनसे चर्चित, कुंकुम आदि गन्धोंसे युक्त तथा सब प्रकारकी शोभाओंसे सम्पन्न था, एक चमचमाता हुआ पत्र बाँध दिया जो तपाये हुए सुवर्णका बना था उस पत्रपर महर्षिने दशरथनन्दन श्रीरघुनाथजीके बढ़े हुए बल और प्रतापका इस प्रकार उल्लेख किया-‘सूर्यवंशकी पताका फहरानेवाले महाराज दशरथ बहुत बड़े धनुर्धर हो गये हैं। वे धनुषकी दीक्षा देनेवाले गुरुओंके भी गुरु थे, उन्हींके पुत्र महाभाग श्रीरामचन्द्रजी इस समय रघुवंशके स्वामी हैं। वे सब सूरमाओंके शिरोमणि तथा बड़े-बड़े वीरोंके बल-सम्बन्धी अभिमानको चूर्ण करनेवाले हैं। महाराज श्रीरामचन्द्र ब्राह्मणोंकी बतायी हुई विधिके अनुसार अश्वमेध यज्ञ प्रारम्भ कर रहे हैं। उन्होंने ही यह यज्ञ-सम्बन्धी अश्व, जो समस्त अश्वोंमें श्रेष्ठ तथा सभी वाहनोंगे प्रधान है, पृथ्वीपर भ्रमण करनेके लिये छोड़ा है। श्रीरामके ही भाई शत्रुघ्न, जिन्होंने लवणासुरका विनाश किया है, इस अश्वके रक्षक हैं। उनके साथ हाथी, घोड़े और पैदलोंकी विशाल सेना भी है। जिन राजाओंको अपने बलके घमंड में आकर ऐसा अभिमान होता हो कि हमलोग ही सबसे बढ़कर शूर, धनुर्धर तथा प्रचण्ड बलवान् हैं, वे ही रत्नकी मालाओंसे विभूषित इस यज्ञ सम्बन्धी अश्वको पकड़ने का साहस करें। वीर शत्रुघ्न उनके हाथसे इस अश्वको हठात् छुड़ा लेंगे।’
इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजीकी भुजाओंके पराक्रमसे शोभा पानेवाले उनके प्रखर प्रतापका परिचय देते हुए महामुनि वसिष्ठजीने और भी अनेकों बातें लिखीं। इसके बाद अश्वको, जो शोभाका भंडार तथा वायुके समान बल और वेगसे युक्त था, छोड़ दिया। उसकी भू-लोक तथा पातालमें समानरूपसे तीव्र गति थी। तदनन्तर शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीने शत्रुघ्नको आज्ञा दी – ‘सुमित्रानन्दन ! यह अश्व अपनी इच्छाके अनुसार विचरनेवाला है, तुम इसकी रक्षा के लिये पीछे-पीछे जाओ जो योद्धा संग्राममै तुम्हारा सामना करनेके लिये आयें, उन्हींको तुम अपने पराक्रमसे रोकना। इस विशाल भू-मण्डलमें विचरते हुए अश्वकी तुम अपने वीरोचित गुणोंसे रक्षा करना। जो सोये हों, गिर गये हों, जिनके वस्त्र खुल गये हों और जो अत्यन्त भयभीत होकर चरणोंमें पड़े हों, उनको न मारना साथ ही जो अपने पराक्रमकी झूठी प्रशंसा नहीं करते, उन पुण्यात्माओंपर भी हाथ न उठाना। शत्रुघ्न ! यदि तुम रथपर रहो और तुम्हारे विपक्षी रथहीन हो जायँ तो उन्हें न मारना। यदि पुण्य चाहो तो जो शरणागत होकर कहें कि ‘हम आपहीके हैं,’ उनका भी तुम्हें वध नहीं करना चाहिये। जो योद्धा उन्मत्त, मतवाले, सोये हुए, भागे हुए, भयसे आतुर हुए तथा ‘मैं आपका ही हूँ’ ऐसा कहनेवाले मनुष्यको मारता है, वह नीच गतिको प्राप्त होता है। कभी पराये धन और परायी स्त्रीकी ओर चित्त न ले जाना। नीचोंका संग न करना, सभी अच्छे गुणोंको अपनाये रहना, बड़े-बूढ़ोंके ऊपर पहले प्रहार न करना,पूजनीय पुरुषोंकी पूजाका उल्लंघन न हो, इसके लिये सचेष्ट रहना तथा कभी दयाभावका परित्याग न करना । गौ, ब्राह्मण तथा धर्मपरायण वैष्णवको नमस्कार करना। इन्हें मस्तक झुकाकर मनुष्य जहाँ कहीं जाता है, वहीं उसे सफलता प्राप्त होती है।
‘महाबाहो ! भगवान् श्रीविष्णु सबके ईश्वर, साक्षी तथा सर्वत्र व्यापक स्वरूप धारण करनेवाले हैं। जो उनके भक्त हैं, वे भी उन्होंके रूपमें सर्वत्र विचरते हैं। जो लोग सम्पूर्ण भूतोंके हृदयमें स्थित रहनेवाले महाविष्णुका स्मरण करते हैं, उन्हें साक्षात् महाविष्णुके समान ही समझना चाहिये। जिनके लिये कोई अपना या पराया नहीं है तथा जो अपने साथ शत्रुता रखनेवालेको भी मित्र ही मानते हैं, वे वैष्णव एक ही क्षणमें पापीको पवित्र कर देते हैं। जिन्हें भागवत प्रिय है तथा जो ब्राह्मणोंसे प्रेम करते हैं, वे वैकुण्ठलोकसे इस संसारको पवित्र करनेके लिये यहाँ आये हैं। जिनके मुखमें भगवान्का नाम, हृदयमें सनातन श्रीविष्णुका ध्यान तथा उदरमें उन्हींका प्रसाद है, वे यदि जातिके चाण्डाल हों तो भी वैष्णव ही हैं। जिन्हें वेद ही अत्यन्त प्रिय हैं संसारके सुख नहीं, तथा जो निरन्तर अपने धर्मका पालन करतेरहते हैं, उनसे भेंट होनेपर तुम उनके सामने मस्तक झुकाना । जिनकी दृष्टिमें शिव और विष्णुमें तथा ब्रह्मा और शिवमें भी कोई भेद नहीं है, उनके चरणोंकी पवित्र धूलि मेँ अपने शीश चढ़ाता हूँ, वह समस्त पापका विनाश करनेवाली है।* गौरी, गंगा तथा महालक्ष्मी-इन तीनोंमें जो भेद नहीं समझते, उन सभी मनुष्योंको स्वर्गलोकसे भूमिपर आये हुए देवता समझना चाहिये। जो अपनी शक्तिके अनुसार भगवान्की प्रसन्नताके लिये शरणागतोंकी रक्षा तथा बड़े-बड़े दान किया करता है, उसे वैष्णवोंमें सर्वश्रेष्ठ समझो। जिनका नाम महान् पापकी राशिको तत्काल भस्म कर देता है, उन भगवान्के युगल-चरणोंमें जिसकी भक्ति है, वही वैष्णव है। जिनकी इन्द्रियाँ वशमें हैं और मन भगवान्के चिन्तनमें लगा रहता है, उनको नमस्कार करके मनुष्य अपने जन्मसे लेकर मृत्युतकके सम्पूर्ण जीवनको पवित्र बना लेता है। परायी स्त्रियोंको तलवारकी धार समझकर यदि तुम उनका परित्याग करोगे तो संसारमें तुम्हें सुयशसे सुशोभित ऐश्वर्यकी प्राप्ति होगी। इस प्रकार मेरे आदेशका पालन करते हुए तुम उत्तम योगके द्वारा प्राप्त होनेवाले परम धामको पा सकते हो, जिसकी सभी महात्माओंने प्रशंसा की है।’
अध्याय 105 शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
शेषजी कहते हैं- मुने! शत्रुघ्नको इस प्रकार आदेश देकर भगवान् श्रीरामने अन्य योद्धाओंकी ओर देखते हुए पुनः मधुर वाणीमें कहा- ‘वीरो मेरे भाई शत्रुघ्न घोड़ेकी रक्षाके लिये जा रहे हैं, तुमलोगोंमॅसे कौन वीर इनके आदेशका पालन करते हुए पीछेकी ओरसे इनकी रक्षा करनेके लिये जायगा ? जो अपने मर्मभेदी अस्त्र-शस्त्रोद्वारा सामने आये हुए सब वीरोंको जीतने तथा भूमण्डलमें अपने सुयशको फैलानेमें समर्थ हो,वह मेरे हाथपर रखा हुआ यह बीड़ा उठा ले ।’ श्रीरघुनाथजीके ऐसा कहनेपर भरतकुमार पुष्कलने आगे बढ़कर उनके करकमलसे वह बीड़ा उठा लिया और कहा – ‘स्वामिन्! मैं जाता हूँ; मैं ही कवच आदिके द्वारा सब ओरसे सुरक्षित हो तलवार आदि शस्त्र तथा धनुष-बाण धारण करके अपने चाचा शत्रुघ्नके पृष्ठभागकी रक्षा करूँगा। इस समय आपका प्रताप ही समूची पृथ्वीपर विजय प्राप्त करेगा; ये सब लोग तोकेवल निमित्तमात्र हैं। यदि देवता, असुर और मनुष्यसहित सारी त्रिलोकी युद्धके लिये उपस्थित हो जाय तो उसे भी मैं आपकी कृपासे रोकने में समर्थ हो सकता है: ये सब बातें कहनेकी आवश्यकता नहीं है, मेरा पराक्रम देखकर प्रभुको स्वयं ही सब कुछ ज्ञात हो जायगा।’
ऐसा कहते हुए भरतकुमारकी बातें सुनकर भगवान् श्रीरामने उनकी प्रशंसा की तथा ‘साधु साधु’ कहकर उनके कथनका अनुमोदन किया। इसके बाद वानरवीरोंमें प्रधान हनुमान्जी आदि सब लोगों से कहा- ‘महावीर हनुमान् ! मेरी बात ध्यान देकर सुनो, मैंने तुम्हारे ही प्रसादसे यह अकण्टक राज्य पाया है। हमलोगोंने मनुष्य होकर भी जो समुद्रको पार किया तथा सीताके साथ जो मेरा मिलाप हुआ; यह सब कुछ मैं तुम्हारे ही बलका प्रभाव समझता हूँ। मेरी आज्ञासे तुम भी सेनाके रक्षक होकर जाओ। मेरे भाई शत्रुघ्नकी मेरी ही भाँति तुम्हें रक्षा करनी चाहिये। महामते। जहाँ जहाँ भाई शत्रुघ्नको बुद्धि विचलित हो वहाँ-वहाँ तुम इन्हें समझा-बुझाकर कर्तव्यका ज्ञान कराना।’
परमबुद्धिमान् श्रीरामचन्द्रजीका यह श्रेष्ठ वचन सुनकर हनुमानजीने उनको आज्ञा शिरोधार्य की और जानेके लिये तैयार होकर प्रणाम किया। तब महाराजने जाम्बवान्को भी साथ जानेका आदेश दिया और कहा- ‘अंगद, गवय, मयन्द, दधिमुख, वानरराज सुग्रीव, शतबलि, अक्षिक, नील, नल, मनोवेग तथा अधिगन्ता आदि सभी वानर सेनाके साथ जानेको तैयार हो जायें। सब लोग रथों तथा सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित अच्छे-अच्छे घोड़ोंपर सवार हो बख्तर और टोपसे सज-धजकर शीघ्र यहाँसे यात्रा करें।”
शेषजी कहते हैं- तत्पश्चात् बल और पराक्रमसे शोभा पानेवाले श्रीरामचन्द्रजीने अपने उत्तम मन्त्री सुमन्त्रको बुलाकर कहा—’ मन्त्रिवर! बताओ, इस कार्यमें और किन-किन लोगोंको नियुक्त करना चाहिये ? कौन-कौन मनुष्य अश्वकी रक्षा करनेमें समर्थ हैं?’ उनका प्रश्न सुनकर सुमन्त्र बोले— ‘श्रीरघुनाथजी ! सुनिये आपके यहाँ सम्पूर्ण शस्त्र और अबके जानमेंनिपुण, महान् विद्वान् धनुर्धर तथा अच्छी प्रकार बाणोंका सन्धान करनेवाले अनेकों वीर उपस्थित हैं। उनके नाम ये है-प्रतापाय, नीलरत्न, लक्ष्मीनिधि, रिपुताप, उग्राश्व और शस्त्रवित्-ये सभी बढ़े-चढ़े राजा चतुरंगिणी सेनाके साथ कवच आदिसे सुसज्जित होकर जायें और आपके घोड़ेकी रक्षा करते हुए शत्रुघ्नजीको आज्ञा शिरोधार्य करें।’ मन्त्रीकी यह बात सुनकर श्रीरामचन्द्रजीको बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने उनके बताये हुए सभी योद्धाओंको जानेके लिये आदेश दिया। श्रीरघुनाथजीकी आज्ञा पाकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई, क्योंकि ये बहुत दिनोंसे युद्धकी इच्छा रखते थे और रणमें उन्मत्त होकर लड़नेवाले थे। श्रीसीतापतिकी प्रेरणासे वे सभी राजा कवच आदिसे सुसज्जित हो अस्त्र-शस्त्र लेकर शत्रुघ्नके निवासस्थानपर गये।
तदनन्तर ऋषिकी आज्ञा पाकर श्रीरामचन्द्रजीने आचार्य आदि सभी ऋत्विज महर्षियोंको शास्त्रोक्त उत्तम दक्षिणाएँ देकर उनका विधिवत् पूजन किया। उस समय श्रीरघुनाथजीके यज्ञमें सब ओर यही बात सुनायी देती थी देते जाओ, देते जाओ, खूब धन लुटाओ, किसीसे ‘नहीं’ मत करो, साथ ही समस्त भोग- सामग्रियोंसे युक्त अन्नका दान करो, अन्नका दान करो।’ इस प्रकार वह यज्ञ चल रहा था। उसमें दक्षिणा पाये हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी भरमार थी वहाँ सभी तरहके शुभ कर्मोका अनुष्ठान हो रहा था। इधर श्रीरामचन्द्रजीके छोटे भाई शत्रुघ्न अपनी माताके पास जा उन्हें प्रणाम करके बोले-‘कल्याणमयी माँ मैं घोड़ेकी रक्षाके लिये जा रहा हूँ, मुझे आज्ञा दो। तुम्हारी कृपासे शत्रुओंको जीतकर विजयकी शोभासे सम्पन्न हो अन्य महाराजाओं तथा घोड़ेको साथ लेकर लौट आऊँगा।’
माता बोली बेटा! जाओ, महावीर! तुम्हारा मार्ग मंगलमय हो, सुमते ! तुम अपने समस्त शत्रुओंको जीतकर फिर यहाँ लौट आओ तुम्हारा भतोजा पुष्कल धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ है, उसकी रक्षा करना। बेटा! तुम पुष्कलके साथ सकुशल लौटकर आओगे, तभी मुझे अधिक प्रसन्नता होगी।
अपनी माताकी ऐसी बात सुनकर शत्रुघ्नने उत्तर दिया माँ मैं अपने शरीरकी भाँति पुष्कलकी रक्षाकरूँगा तथा जैसा मेरा नाम है उसके अनुसार शत्रुओंका नाश करके प्रसन्नतापूर्वक लौटूंगा। तुम्हारे इन युगल चरणोंका स्मरण करके मैं कल्याणका ही भागी होऊँगा।’ ऐसा कहकर वीर शत्रुघ्न वहाँसे चल दिये तथा यज्ञ मण्डपसे छोड़ा हुआ वह यज्ञका अश्व अस्त्र-शस्त्रोंकी विद्यामें प्रवीण सम्पूर्ण योद्धाओंद्वारा चारों ओरसे घिरकर सबसे पहले पूर्व दिशाको ओर गया। उसका वेग वायुके समान था। जब वे चलनेको उद्यत हुए तो उनकी दाहिनी बाँह फड़क उठी और उन्हें कल्याण तथा विजयकी सूचना देने लगी। उधर पुष्कल अपने सुन्दर एवं समृद्धिशाली महलमें गये और वहाँ अपनी पतिव्रता पत्नीसे मिले, जो स्वामीके दर्शनके लिये उत्कण्ठित थी और उन्हें देखकर हर्षमें भर गयी थी उससे मिलकर पुष्कलने कहा भद्रे मैं चाचा शत्रुघ्नका पृष्ठपोषक होकर रथपर सवार हो यज्ञके घोड़ेकी रक्षाके लिये जा रहा है इस कार्यके लिये मुझे श्रीरघुनाथजीकी आज्ञा मिल चुकी है। तुम यहाँ रहकर मेरी समस्त माताओंकासत्कार करना तथा चरण दबाना आदि सभी प्रकारकी सेवाएं करना। उनके प्रत्येक कार्यमें उनकी का पालन करनेमें आदर एवं उत्साहके साथ प्रवृत्त होना। यहाँ लोपामुद्रा आदि जितनी पतिव्रता देवियों आयी हुई हैं, वे सभी अपने तपोबलसे सुशोभित एवं कल्याणमयी हैं; तुम्हारे द्वारा उनमें से किसीका अपमान न हो इसके लिये सदा सावधान रहना।’ जाय
शोषजी कहते हैं- पुष्कल जब इस प्रकार उपदेश दे चुके तो उनकी पतिव्रता पत्नी कान्तिमतीने पतिकी ओर प्रेमपूर्ण दृष्टिसे देखा तथा अत्यन्त विश्वस्त होकर मन्द मन्द मुसकराती हुई वह गद्गद वाणीमें बोली- ‘नाथ! संग्राममें आपकी सर्वत्र विजय हो, आपको चाचा शत्रुघ्नजीकी आज्ञाका सर्वथा पालन करना चाहिये तथा जिस प्रकार भी घोड़ेकी रक्षा हो उसके लिये सचेष्ट रहना चाहिये। स्वामिन्! आप शत्रुओंपर विजय प्राप्त करके अपने श्रेष्ठ कुलकी शोभा बढ़ाइये। महाबाहो ! जाइये, इस यात्रामें आपका कल्याण हो। यह है आपका धनुष, जो उत्तम गुण (सुदृढ़ प्रत्यंचा) से सुशोभित है; इसे शीघ्र ही हाथमें लीजिये, इसकी टंकार सुनकर आपके शत्रुओंका दल भयसे व्याकुल हो उठेगा। वीर! ये आपके दोनों तरकश हैं; इन्हें बाँध लीजिये, जिससे युद्धमें आपको सुख मिले। इसमें वैरियोंको टुकड़े – टुकड़े कर डालनेवाले अनेक बाण भरे हैं। प्राणनाथ ! र कामदेवके समान सुन्दर अपने शरीरपर यह सुदृढ़ कवच धारण कीजिये, जो विद्युत्को प्रभाके समान अपने महान् प्रकाशसे अन्धकारको दूर किये देता है। प्रियतम अपने मस्तकपर यह शिरस्त्राण (मुकुट) भी पहन लीजिये, जो मनको लुभानेवाला है। साथ ही मणियों और रत्नोंसे विभूषित ये दो उज्ज्वल कुण्डल हैं, इन्हें कानोंमें धारण कीजिये।’ पुष्कलने कहा – प्रिये! तुम जैसा कहती हो, वह सब मैं करूँगा। वीरपत्नी कान्तिमती ! तुम्हारी इच्छाके
अनुसार मेरी उत्तम कीर्तिका विस्तार होगा।
ऐसा कहकर पराक्रमी वीर पुष्कलने कान्तिमतीके दिये हुए कवच, सुन्दर मुकुट, धनुष और विशालतरकश – इन सभी वस्तुओंको ले लिया। उन सबको धारण करके वे वीरोचित शोभासे सम्पन्न दिखायी देने लगे। उस समय सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञानमें प्रवीण, उत्तम योद्धा पुष्कलकी शोभा बहुत बढ़ गयी। पतिव्रता कान्तिमतीने अस्त्र-शस्त्रोंसे शोभायमान अपने पतिको वीरमालासे विभूषित किया तथा कुंकुम, अगुरु, कस्तूरी और चन्दन आदिसे उनकी पूजा करके अनेकों फूलोंके हार पहनाये, जो घुटनेतक लटककर पुष्कलकी कान्ति बढ़ा रहे थे। पूजनके पश्चात् उस सतीने बारम्बार पतिकी आरती उतारी। उसके बाद पुष्कल बोले-‘भामिनि अब मैं तुम्हारे सामने ही यात्रा करता हूँ।’ पत्नीसे ऐसा कहकर वे सुन्दर रथपर आरूढ़ हुए और अपने पिता भरत तथा स्नेहविला माता माण्डवीका दर्शन करनेके लिये गये। वहाँ जाकर उन्होंने बड़ी प्रसन्नताके साथ पिता और माताके चरणोंमें मस्तक झुकाया। फिर पिता और माताकी आज्ञा लेकर वे पुलकित शरीरसे शत्रुघ्नकी सेनामें गये, जो बड़े-बड़े वीरोंसे सुशोभित थी।
तदनन्तर शत्रुघ्न श्रीरघुनाथजीके महायज्ञ सम्बन्धी घोड़ेको आगे करके अनेकों रथियों, पैदल चलनेवालेशूरवीरों, अच्छे-अच्छे घोड़ों और सवारोंसे घिरकर बड़ी प्रसन्नताके साथ आगे बढ़े। वे घोड़े के साथ-साथ पांचाल, कुरु, उत्तरकुरु और दशार्ण आदि देशोंमें, जो सम्पत्तिमें बहुत बढ़े- चढ़े थे, भ्रमण करते रहे। शत्रुघ्नजी सब प्रकारकी शोभासे सम्पन्न थे। उन्हें उन सभी देशोंमें श्रीरामचन्द्रजीके सम्पूर्ण सुयशकी कथा सुनायी पढ़ती थी, लोग कहते थे श्री रावण नामक असुरको मारकर अपने भक्तजनोंकी रक्षा की है, अब पुनः अश्वमेध आदि पवित्र कार्योंका अनुष्ठान आरम्भ करके भगवान् श्रीराम त्रिभुवनमें अपने सुयशका विस्तार करते हुए सम्पूर्ण लोकोंकी भयसे रक्षा करेंगे।’ इस तरह भगवान्का यशोगान करनेवाले लोगोंपर सन्तुष्ट होकर पुरुषश्रेष्ठ शत्रुघ्नजी उन्हें पुरस्कार के रूपमें सुन्दर हार, नाना प्रकारके रत्न और बहुमूल्य वस्त्र देते थे। श्रीरघुनाथजीके एक सचिव थे, जिनका नाम था सुमति। वे सम्पूर्ण विद्याओंमें प्रवीण और तेजस्वी थे वे भी शत्रुघ्नजीके अनुगामी होकर आये थे महाधीर शत्रुघ्न उनके साथ अनेकों गाँवों और जनपदोंमें गये, किन्तु श्रीरघुनाथजीके प्रतापसे कोई भी उस घोड़ेका अपहरण न कर सका। भिन्न-भिन्न देशोंके जो बहुत से राजे-महाराजे थे, वे यद्यपि महान् बलसे विभूषित तथा चतुरंगिणी सेनासे सम्पन्न थे, तथापि मोती और मणियाँसहित बहुत-सी सम्पत्ति साथ से मोड़ेकी रक्षामें आये हुए शत्रुघ्नजीके चरणोंमें गिर जाते और बारम्बार कहने लगते थे— ‘रघुनन्दन ! यह राज्य तथा पुत्र, पशु और बान्धवोंसहित सारा धन भगवान् श्रीरामका ही है, हमारा इसमें कुछ भी नहीं है।’ उनकी ऐसी बातें सुनकर विपक्षी वीरोंका हनन करनेवाले शत्रुघ्नजी वहाँ अपनी आज्ञा घोषित कर देते और उन्हें साथ ले आगेके मार्गपर बढ़ जाते थे। ब्रह्मन् इस प्रकार क्रमशः आगे-आगे बढ़ते हुए शत्रुघ्नजी घोड़के साथ अहिच्छवा नगरीके पास जा पहुँचे, जो नाना प्रकारके मनुष्योंसे भरी हुई थी। उसमें ब्राह्मणों तथा अन्यान्य द्विजोंका निवास था। अनेकों प्रकारके ने रत्नोंसे वह पुरी सजायी गयी थी सोने और स्फटिकमणिके बने हुए महल तथा गोपुर (फाटक) उस नगरीकी शोभा बढ़ा रहे थे । वहाँके मनुष्य सब प्रकारके भोग भोगनेवाले तथा सदाचारसे सुशोभित थे। वहाँ बाण सन्धान करनेमें चतुर वीर हाथोंमें धनुष लिये उस पुरीके श्रेष्ठ राजा सुमदको प्रसन्न किया करते थे। शत्रुघ्नने दूरसे ही उस नगरीको देखा उसके पास ही एक उद्यान था, जो उस नगरमें सबसे श्रेष्ठ और शोभायमान दिखायी देता था। तमाल और ताल आदिके वृक्ष उसकी सुषमाको और भी बढ़ा रहे थे। यज्ञका घोड़ा उस उपवनके बीचमें घुस गया तथा उसके पीछे-पीछे वीर शत्रुघ्न भी, जिनके चरण कमलोंकी सेवामें अनेकों धनुर्धर क्षत्रिय मौजूद थे, उसमें जा पहुँचे वहाँ जानेपर उन्हें एक देव मन्दिर दिखायी दिया, जिसकी रचना अद्भुत थी। वह कैलास शिखरके समान ऊँचा तथा शोभासे सम्पन्न था। देवताओंके लिये भी वह सेव्य जान पड़ता था। उस सुन्दर देवालयको देखकर श्रीरघुनाथजीके भाई शत्रुघ्नने अपने सुमति नामक मन्त्रीसे, जो अच्छे वक्ता थे, पूछा। मन्त्री सब बातोंके जानकार थे, उन्होंने शत्रुघ्नका प्रश्न सुनकर कहा-‘वीरवर एकाग्रचित्त होकर सुनो, मैं सब बातोंका यथावत् वर्णन करता हूँ, इसे तुम कामाक्षा देवीका उत्तम स्थान समझो। यह जगत्को एकमात्र कल्याण प्रदान करनेवाला है। पूर्वकालमें अहिच्छत्रा नगरीके स्वामी राजा सुमदकी प्रार्थनासे भगवती कामाक्षा यहाँ विराजमान हुई, जो भक्तका दुःख दूर करती हुई उनकी समस्त कामनाओंको पूर्ण करती हैं। वीरशिरोमणि शत्रुघ्न तुम इन्हें प्रणाम करो।’ मन्त्रीके वचन सुनकर शत्रुओंको ताप देनेवाले नरश्रेष्ठ शत्रुघ्नने भगवती कामाक्षाको प्रणाम किया और उनके प्रकट होनेके सम्बन्धकी सब बातें पूछ मन्त्रिवर! अहिच्छत्राके स्वामी राजा सुमद कौन हैं?
शत्रुघ्न बोले- मन्त्रिवर बताओ, यह क्या है? किस देवताका मन्दिर है? किस देवताका यहाँ पूजन होता है तथा वे देवता किस हेतुसे यहाँ विराजमान हैं ?
कौन-सी तपस्या की है, जिसके प्रभावसे ये सम्पूर्णलोकोंकी जननी कामाक्षा देवी सन्तुष्ट होकर यहाँ विराज रही है?’
सुमतिने कहा – हेमकूट नामसे प्रसिद्ध एक पवित्र पर्वत है, जो सम्पूर्ण देवताओंसे सुशोभित रहा करता है। वहाँ ऋषि-मुनियोंसे सेवित विमल नामका एक तीर्थ है। वहीं राजा सुमदने तपस्या की थी। उनके राज्यको सीमापर रहनेवाले सम्पूर्ण सामन्त नरेशोंने जो वास्तवमें शत्रु थे, एक साथ मिलकर उनके राज्यपर चढ़ाई की। उस युद्धमें उनके पिता, माता तथा प्रजावाकि लोग भी शत्रुओंके हाथसे मारे गये। तब सर्वथा असहाय होकर राजा सुमद तपस्याके लिये उपयोगी विमलतीर्थमें गये और वहाँ तीन वर्षतक एक पैरसे खड़े हो मन-ही-मन जगदम्बाका ध्यान करते रहे। उस समय उनकी आँखें नासिकाके अग्रभागपर जमी रहती थीं। इसके बाद तीन वर्षोंतक उन्होंने सूखे पत्ते चबाकर अत्यन्त उग्र तपस्या की, जिसका अनुष्ठान दूसरेके लिये अत्यन्त कठिन था। तत्पश्चात् पुनः तीन वर्षोंतक उन्होंने और भी कठोर नियम धारण किये जाड़े के दिनोंमें वे पानी में डूबे रहते, गर्मी में पंचाग्निका सेवन करते तथा वर्षाकालमें बादलोंकी ओर मुँह किये मैदानमें खड़े रहते थे। तदनन्तर पुनः तीन वर्षोंतक वे धीर राजा अपने हृदयान्तर्वती प्राणवायुको रोककर केवल भवानीके ध्यानमें संलग्न रहे। उस समय उन्हें जगदम्बाके सिवा दूसरा कुछ दिखलायी नहीं देता था। इस प्रकार जब बारहवाँ वर्ष व्यतीत हो गया, तो उनकी भारी तपस्या देखकर इन्द्रने मन-ही मन उसपर विचार किया और भयके कारण वे उनसे डाह करने लगे। उन्होंने अधाराओंके साथ कामदेवको जो ब्रह्मा और इन्द्रको भी परास्त करनेके लिये उद्यत रहता था, परिवारसहित बुलाकर इस प्रकार आज्ञा दी – ‘सखे कामदेव तुम सबका मन मोहनेवाले हो जाओ, मेरा एक प्रिय कार्य करो, जैसे भी हो सके राजा सुमदकी तपस्यामें विघ्न डालो।’
कामदेवने कहा- देवराज! मुझ सेवकके रहते हुए आप चिन्ता न कीजिये, आर्य! मैं अभी सुमदकेपास जाता हूँ। आप देवताओंकी रक्षा कीजिये ।
ऐसा कहकर कामदेव अपने सखा वसन्त तथा अप्सराओंके समूहको साथ लेकर हेमकूट पर्वतपर गया। वसन्तने जाते ही वहाँके सारे वृक्षोंको फल और फूलोंसे सुशोभित कर दिया। उनकी डालियोंपर कोयल कूकने तथा भ्रमर गुंजार करने लगे। दक्षिण दिशा की ओरसे ठंडी-ठंडी हवा चलने लगी। जिसमें कृतमाला नदीके तीरपर खिले हुए लवंग-कुसुमकी सुगन्ध आ रही थी। इस प्रकार जब समूचे वनमें वसन्तकी शोभा छा गयी, तो अप्सराओंमें श्रेष्ठ रम्भा अपनी सखियोंसे मिरकर सुमदके पास गयी। रम्भाका स्वर किन्नरोंके समान मनोहर था वह मृदंग और पणव आदि नाना प्रकारके बाजे बजाने में भी निपुण थी। राजाके समीप पहुँचकर उसने गाना आरम्भ कर दिया। महाराज सुमदने जब वह मधुर गान सुना, वसन्तकी मनोहारिणी छटा देखी तथा मनको लुभानेवाली कोयलकी मीठी तान सुनी तो चारों ओर दृष्टि दौड़ायी, फिर सारा रहस्य उनकी समझमें आ गया। राजाको ध्यानसे जगा देख फूलोंका धनुष धारण करनेवाले कामदेवने बड़ी फुर्ती दिखायी। उसने उनके पीछेकी ओर खड़ा होकर तत्काल अपना धनुष चढ़ा लिया। इतनेहीमें एक अप्सरा अपने नेत्रपल्लवको नचाती हुई राजाके दोनों चरण दबाने लगी। दूसरी सामने खड़ी होकर कटाक्षपात करने लगी तथा तीसरी शरीरकी श्रृंगारजनित चेष्टाएँ (तरह तरहके हाव भाव) प्रदर्शित करने लगी। इस प्रकार अप्सराओंसे घिरकर जितेन्द्रियोंके शिरोमणि बुद्धिमान् राजा सुमद यो चिन्ता करने लगे- ‘ये सुन्दरी अप्सराएँ मेरी तपस्या में विघ्न डालनेके लिये यहाँ आयी हैं। इन्हें इन्द्रने भेजा है। ये सब की सब उनकी आज्ञाके अनुसार ही कार्य करेंगी।’
इस प्रकार चिन्तासे आकुल होकर धीरचित्त, मेधावी तथा वीर राजा सुमदने अपने हृदयमें अच्छी तरह विचार किया। इसके बाद वे देवांगनाओंसे बोले- ‘देवियो! आपलोग मेरे हृदय मन्दिरमें विराजमान जगदम्बाकी स्वरूप हैं। आपलोगोंने जिस स्वर्गीय सुखकी चर्चा की है, वह अत्यन्त तुच्छ और अनिश्चितहै। मैं भक्ति भावसे जिनकी आराधनामें लगा हूँ, वे मेरी स्वामिनी जगदम्बा मुझे उत्तम वरदान देंगी। जिनकी कृपासे सत्यलोकको पाकर ब्रह्माजी महान् बने हैं, वे ही मुझे सब कुछ देंगी; क्योंकि वे भक्तोंका दुःख दूर करनेवाली हैं। भगवतीकी कृपाके सामने नन्दन-वन अथवा सुवर्णमण्डित मेरुगिरि क्या हैं? और वह सुधा भी किस गिनती में है, जो थोड़े-से पुण्यके द्वारा प्राप्त होनेवाली और दानवोंको दुःखमें डालनेवाली है ?’
राजाका यह वचन सुनकर कामदेवने उनपर अनेकों बाणोंका प्रहार किया; किन्तु वह उनकी कुछ भी हानि न कर सका। वे सुन्दरी अप्सराएँ अपने कुटिल कटाक्ष, नूपुरोंकी झनकार, आलिंगन तथा चितवन आदिके द्वारा उनके मनको मोहमें न डाल सकीं। अन्तमें निराश होकर जैसे आयी थीं, वैसे ही लौट गयीं और इन्द्रसे बोलीं- ‘राजा सुमदकी बुद्धि स्थिर है, उनपर हमारा जादू नहीं चल सकता।’ अपने प्रयत्नके व्यर्थ होनेकी बात सुनकर इन्द्र डर गये। इधर जगदम्बाने महाराज सुमदको जितेन्द्रिय तथा अपने चरण-कमलोंके ध्यानमें दृढ़तापूर्वक स्थित देख उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उनकीकान्ति करोड़ों सूर्योके समान थी। वे अपनी चार भुजाओं में धनुष, बाण, अंकुश और पाश धारण किये हुए थीं। माताका दर्शन पाकर बुद्धिमान् राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने बारम्बार मस्तक झुकाकर भक्तिभावनासे प्रकट हुई माता दुर्गाको प्रणाम किया। ये बारम्बार राजाके शरीरपर अपने कोमल हाथ फेरती हुई हँस रही थीं। महामति राजा सुमदके शरीरमें रोमांच हो आया। उनके अन्तःकरणकी वृत्ति भक्ति भावसे उत्कण्ठित हो गयी और वे गद्गद स्वरसे माताकी इस प्रकार स्तुति करने लगे-‘देवि! आपकी जय हो महादेवि ! भक्त जन सदा आपकी ही सेवा करते हैं। ब्रह्मा और इन्द्र आदि समस्त देवता आपके युगल चरणोंकी आराधनामें लगे रहते हैं। आप पापके स्पर्शसे रहित हैं। आपहीके प्रतापसे अग्निदेव प्राणियोंके भीतर और बाहर स्थित होकर सारे जगत्का कल्याण करते हैं। महादेवि ! देवता और असुर-सभी आपके चरणोंमें नतमस्तक होते हैं। आप ही विद्या तथा आप ही भगवान् विष्णुकी महामाया हैं। एकमात्र आप ही इस जगत्को पवित्र करनेवाली हैं। आप ही अपनी शक्तिसे इस संसारकी सृष्टि और पालन करती हैं। जगत्के जीवोंको मोहमें डालनेवाली भी आप ही हैं। सब देवता आपहीसे सिद्धि पाकर सुखी होते हैं। मातः ! आप दयाकी स्वामिनी, सबकी वन्दनीया तथा भक्तोंपर स्नेह रखनेवाली हैं। मेरा पालन कीजिये। मैं आपके चरण-कमलोंका सेवक हूँ। मेरी रक्षा कीजिये।’
सुमतिने कहा – इस प्रकार की हुई स्तुतिसे सन्तुष्ट होकर जगन्माता कामाक्षा अपने भक्त सुमदसे, जिनका शरीर तपस्याके कारण दुर्बल हो रहा था, बोलीं- ‘बेटा! कोई उत्तम वर माँगो’ माताका यह वचन सुनकर राजा सुमदको बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने अपना खोया हुआ अकण्टक राज्य, जगन्माता भवानीके चरणोंमें अविचल भक्ति तथा अन्तमें संसारसागरसे पार उतारनेवाली मुक्तिका वरदान माँगा । कामाक्षाने कहा – सुमद! तुम सर्वत्र अकण्टक राज्य प्राप्त करो और शत्रुओंके द्वारा तुम्हारी कभीपराजय न हो। जिस समय महायशस्वी श्रीरघुनाथजी रावणको मारकर सब सामग्रियोंसे सुशोभित अश्वमेधयका अनुष्ठान करेंगे, उस समय शत्रुओंका दमन करनेवाले उनके महावीर भ्राता शत्रुघ्न वीर आदिसे घिरकर घोड़ेकी रक्षा करते हुए यहाँ आयेंगे। तुम उन्हें अपना राज्य, समृद्धि और धन आदि सब कुछ सौंपकर उनके साथ पृथ्वीपर भ्रमण करोगे तथा अन्तमें ब्रह्मा, इन्द्र और शिव आदिसे सेवित भगवान् श्रीरामको प्रणाम करके ऐसी मुक्ति प्राप्त करोगे, जो यम-नियमोंका साधन करनेवाले योगियोंके लिये भी दुर्लभ है।
ऐसा कहकर देवता और असुरोंसे अभिवन्दित कामाक्षा देवी वहाँसे अन्तर्धान हो गयीं तथा सुमद भी अपने शत्रुओंको मारकर अहिच्छत्रा नगरीके राजा हुए। वही ये इस नगरीके स्वामी राजा सुमद हैं। यद्यपि ये सब प्रकार से समर्थ तथा बल और वाहनोंसे सम्पन्न हैं। तथापि तुम्हारे यज्ञ सम्बन्धी घोड़ेको नहीं पकड़ेंगे: क्योंकि महामायाने इस बातके लिये इनको भलीभाँति शिक्षा दी है।
शेषजी कहते हैं-सुमतिके मुखसे राजा सुमदका यह वृत्तान्त सुनकर महान् यशस्वी, बुद्धिमान् और बलवान् शत्रुघ्नजी बड़े प्रसन्न हुए तथा ‘साधु-साधु’ कहकर उन्होंने अपना हर्ष प्रकट किया। उधर अहिच्छत्रा के स्वामी अपने सेवकगणोंसे घिरकर सुखपूर्वक राजसभामै विराजमान थे। वेदवेत्ता ब्राह्मण तथा धन-धान्यसे सम्पन्न वैश्य भी उनके पास बैठे थे; इससे उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। इसी समय किसीने आकर राजासे कहा – ‘स्वामिन्! न जाने किसका घोड़ा नगरके पास आया है, जिसके ललाटमें पत्र बँधा हुआ है।’ यह सुनकर राजाने तुरंत ही एक अच्छे सेवकको भेजा और कहा- ‘जाकर पता लगाओ, किस राजाका घोड़ा मेरे नगरके निकट आया है।’ सेवकने जाकर सब बातका पता लगाया और महान् क्षत्रियोंसे सेवित राजा सुमदके पास आ आरम्भसे ही सारा वृत्तान्त कह सुनाया ‘श्रीरघुनाथजीका थोड़ा है’ यह सुनकर बुद्धिमान् राजाको चिरकालकी पुरानी बातका स्मरण हो आयाऔर उन्होंने सब लोगोंको आज्ञा दी’ धन-धान्यसे सम्पन्न जो मेरे आत्मीय जन हैं, वे सब लोग अपने अपने घरोंपर तोरण आदि मांगलिक वस्तुओंकी रचना करें।’ इन सब बातोंके लिये आज्ञा देकर स्वयं राजा सुमद अपने पुत्र-पौत्र और रानी आदि समस्त परिवारको साथ लेकर शत्रुघ्नके पास गये। शत्रुघ्नने पुष्कल आदि योद्धाओं तथा मन्त्रियोंके साथ देखा, वीर राजा सुमद आ रहे हैं। राजाने आकर बड़ी प्रसन्नताके साथ शत्रुघ्नको प्रणाम किया और कहा- ‘प्रभो! आज मैं धन्य और कृतार्थ हो गया। आपने यहाँ दर्शन देकर मेरा बड़ा सत्कार किया। मैं चिरकालसे इस अश्वके आगमनकी प्रतीक्षा कर रहा था। माता कामाक्षा देवीने पूर्वकालमें जिस बात के लिये मुझसे कहा था, वह आज और इस समय पूरी हुई है। श्रीरामके छोटे भाई महाराज शत्रुघ्नजी ! अब चलकर मेरी नगरीको देखिये, यहाँके मनुष्योंको कृतार्थ कीजिये तथा मेरे समस्त कुलको पवित्र बनाइये। ऐसा कहकर राजाने चन्द्रमाके समान कान्तिवाले श्वेत गजराजपर शत्रुघ्न और महावीर पुष्कलको चढ़ाया तथा पीछे स्वयं भी सवार हुए। फिर महाराज सुमदकी आज्ञासे भेरी और पणव आदि बाजे बजने लगे, वीणा आदिकी मधुर ध्वनि होने लगी तथा इन समस्त वाद्योंकी तुमुल ध्वनि चारों ओर व्याप्त हो गयी। धीरे-धीरे नगरमें आकर सब लोगोंने शत्रुघ्नजीका अभिनन्दन किया- उनकी वृद्धिके लिये शुभकामनाप्रकट की तथा वे वीरोंसे सुशोभित हो अपने अश्वरत्नको साथ लिये राज-मन्दिरमें उतरे। उस समय सारा राजभवन तोरण आदिसे सजाया गया था तथा स्वयं राजा सुमद शत्रुघ्नजीको आगे करके चल रहे थे । महलमें पहुँचकर उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक अर्घ्य आदिके द्वारा शत्रुघ्नजीका पूजन किया और अपना सब कुछ भगवान् श्रीरामकी सेवामें अर्पण कर दिया।
अध्याय 106 शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
शेषजी कहते हैं- तदनन्तर नरश्रेष्ठ राजा सुमदने श्रीरघुनाथजीकी उत्तम कथा सुननेके लिये उत्सुक होकर स्वागत सत्कारसे सन्तुष्ट हुए शत्रुघ्नजीसे वार्तालाप आरम्भ किया।
सुमद बोले- महामते ! सम्पूर्ण लोकोंके शिरोमणि भक्तोंकी रक्षाके लिये अवतार ग्रहण करनेवाले तथा मुझपर निरन्तर अनुग्रह रखनेवाले भगवान् श्रीराम अयोध्यामें सुखपूर्वक तो विराज रहे हैंन? ये सब लोग धन्य हैं, जो सदा आनन्दमग्न होकर अपने नेत्र पुटोंके द्वारा श्रीरघुनाथजीके मुखारविन्दका मकरन्द पान करते रहे हैं। नरश्रेष्ठ! अब मेरी कुल परम्परा तथा राज्य-भूमि आदि सब वस्तुएँ पूर्ण सफल हो गयीं। दयासे द्रवित होनेवाली माता कामाक्षा देवीने पूर्वकालमें मुझपर बड़ी कृपा की थी ।
राजाओंमें श्रेष्ठ वीर सुमदके ऐसा कहनेपर शत्रुघ्नने श्रीरघुनाथजीके गुणोंको प्रकट करनेवाली सब कथाएँकह सुनायीं। वे तीन रात्रितक वहाँ ठहरे रहे। इसके बाद उन्होंने राजाके साथ वहाँसे जानेका विचार किया। उनका अभिप्राय जानकर सुमदने शीघ्र ही अपने पुत्रको राज्यपर अभिषिक्त कर दिया तथा उन महाबुद्धिमान् नरेशने शत्रुघ्नके सेवकोंको बहुत से वस्त्र, रत्न और नाना प्रकारके धन दिये। तत्पश्चात् शत्रुघ्नने धनुष धारण किये हुए राजा सुमदको साथ लेकर अपने बहु मन्त्रियों, पैदल योद्धाओं, हाथियों और अच्छे घोड़े जुते हुए अनेकों रथोंके साथ वहाँसे यात्रा आरम्भ की। श्रीरघुनाथजीके प्रतापका आश्रय लेकर वे हँसते-हँसते मार्ग तय करने लगे। पयोष्णी नदीके तीरपर पहुँचकर उन्होंने अपनी चाल तेज कर दी तथा शत्रुओंपर प्रहार करनेवाले समस्त योद्धा भी पीछे-पीछे उनका साथ देने लगे। वे तपस्वी ऋषियोंके भाँति-भाँतिके आश्रम देखते तथा वहाँ श्रीरघुनाथजीके गुणगान सुनते हुए यात्रा कर रहे थे। उस समय उन्हें चारों ओर मुनियोंकी यह कल्याणमयी वाणी सुनायी पड़ती थी- ‘यह यज्ञका अश्व चला जा रहा है, जो श्रीहरिके अंशावतार श्रीशत्रुघ्नजीके द्वारा सब ओरसे सुरक्षित है। भगवान्का अनुसरण करनेवाले वानर तथा भगवद्भक्त भी उसकी रक्षा कर रहे हैं।’ जिनकी चित्तवृत्तियाँ भक्तिसे निरन्तर प्रभावित रहती हैं, उन महर्षियोंकी पूर्वोक्त बातें सुनकर शत्रुघ्नजीको बड़ा सन्तोष हुआ। आगे जाकर उन्होंने एक विशुद्ध आश्रम देखा, जो निरन्तर होनेवाली वेदोंकी ध्वनिसे उसको श्रवण करनेवाले मनुष्योंका सारा अमंगल नष्ट किये देता था वहाँका सम्पूर्ण आकाश अग्निहोत्रके समय दी जानेवाली आहुतिके भूमसे पवित्र हो गया था। श्रेष्ठ मुनियोंके द्वारा स्थापित किये हुए अनेकों यज्ञसम्बन्धी यूप उस आश्रमको सुशोभित कर रहे थे। यहाँ सिंह भी पालन करनेयोग्य गौओंकी रक्षा करते थे। चूहे अपने रहनेके लिये बिल नहीं खोदते थे; क्योंकि वहाँ उन्हें बिल्लियोंसे भय नहीं था। साँप सदा मोरों और नेवलोंके साथ खेलते रहते थे। हाथी और सिंह एक-दूसरेके मित्र होकर उस आश्रमपर निवास करते थे। मृग वहाँ प्रेमपूर्वक चरते रहते थे, उन्हेंकिसीसे भय नहीं था। गौओंके थन घड़ोंके समान
दिखायी देते थे। उनका विग्रह नन्दिनीकी भाँति सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला था और वे अपने खुरोंसे उठी हुई धूलके द्वारा वहाँकी भूमिको पवित्र करती थीं। हाथोंमें समिधा धारण करनेवाले श्रेष्ठ मुनिवरोंने वहाँकी भूमिको धार्मिक क्रियाओंका अनुष्ठान करनेके योग्य बना रखा था। उस आश्रमको देखकर शत्रुघ्नजीने सब बातोंको जाननेवाले श्रीराममन्त्री सुमतिसे पूछा ।
शत्रुघ्नजी बोले- सुमते ! यह सामने किस मुनिका आश्रम शोभा पा रहा है? यहाँ सब जन्तु आपसका वैरभाव छोड़कर एक ही साथ निवास करते हैं तथा यह मुनियोंकी मण्डलीसे भी भरा-पूरा दिखायी देता है। मैं मुनिकी वार्ता सुनूँगा तथा उनका वृत्तान्त श्रवण करके अपनेको पवित्र करूंगा।
महात्मा शत्रुघ्नके ये उत्तम वचन सुनकर परम मेधावी श्रीरघुनाथजीके मन्त्री सुमतिने कहा ‘सुमित्रानन्दन ! इसे महर्षि च्यवनका आश्रम समझो। यह बड़े-बड़े तपस्वियोंसे सुशोभित तथा वैरशून्य जन्तुओंसे भरा हुआ है। मुनियोंकी पत्नियाँ भी यहाँनिवास करती हैं। महामुनि च्यवन वे ही हैं, जिन्होंने मनुपुत्र शर्यातिके महान् यज्ञमें इन्द्रका मान भंग किया और अश्विनीकुमारोंको यहका भाग दिया था।
शत्रुघ्नने पूछा – मन्त्रिवर! महर्षि च्यवनने कब अश्विनीकुमारोंको देवताओंकी पंक्तिमें बिठाकर उन्हें यज्ञका भाग अर्पण किया था? तथा देवराज इन्द्रने उस महान् यज्ञमें क्या किया था ?
सुमतिने कहा – सुमित्रानन्दन ब्रह्माजीके वंशमें – महर्षि भृगु बड़े विख्यात महात्मा हुए हैं। एक दिन सन्ध्याके समय समिधा लानेके लिये वे आश्रमसे दूर चले गये थे। उसी समय दमन नामका एक महाबली राक्षस उनके यज्ञका नाश करनेके लिये आया और उच्च स्वरसे अत्यन्त भयंकर वचन बोला- ‘कहाँ है वह अधम मुनि और कहाँ है उसकी पापरहित पत्नी ?’ वह रोषमें भरकर जब बारम्बार इस प्रकार कहने लगा तो अग्निदेवताने अपने ऊपर राक्षससे भय उपस्थित जानकर मुनिकी पत्नीको उसे दिखा दिया। वह सती साध्वी नारी गर्भवती थी। राक्षसने उसे पकड़ लिया। बेचारी अबला कुररीकी भाँति विलाप करने लगी ‘महर्षि भृगु ! रक्षा करो, पतिदेव! बचाओ, प्राणनाथ ! तपोनिधे !! मेरी रक्षा करो।’ इस प्रकार वह आर्तभावसे पुकार रही थी, तथापि राक्षस उसे लेकर आश्रमसे बाहर चला गया और दुष्टताभरी बातोंसे महात्मा भृगुकी उस पतिव्रता पत्नीको अपमानित करने लगा। उस समय महान् भयसे त्रस्त होकर वह गर्भ मुनिपत्नीके पेटसे गिर गया। उस नवजात शिशुके नेत्र प्रज्वलित हो रहे थे, मानो सतीके शरीरसे अग्निदेव ही प्रकट हुए हो। उसने राक्षसकी ओर देखकर कहा-‘ओ दुष्ट ! अब तू यहाँसे न जा, अभी जलकर भस्म हो जा। सतीका स्पर्श करनेके कारण तेरा कल्याण न होगा।’ बालकके इतना कहते ही वह राक्षस गिर पड़ा और तुरंत जलकर राखका ढेर हो गया। तब माता अपने बच्चे को गोदमें लेकर उदास मनसे आश्रमपर आयी। महर्षि भृगुको जब मालूम हुआ कि यह सब अग्निदेवकी ही करतूत है तो वे क्रोधसे व्याकुल हो उठे और शाप देते हुए बोले- शत्रुको घरका भेद बतानेवालेदुष्टात्मा ! तू सर्वभक्षी हो जा (पवित्र, अपवित्र – सभी वस्तुओंका आहार कर)।’ यह शाप सुनकर अग्निदेवको बड़ा दुःख हुआ, उन्होंने मुनिके चरण पकड़ लिये और कहा प्रभो! तुम दयाके सागर हो। महामते। मुझपर अनुग्रह करो। धार्मिकशिरोमणे! मैंने झूठ बोलने के भयसे उस राक्षसको आपकी पत्नीका पता बता दिया था, इसलिये मुझपर कृपा करो।’
अग्निकी प्रार्थना सुनकर तपस्वी मुनि दयासे द्रवित हो गये और उनपर अनुग्रह करते हुए इस प्रकार बोले- ‘अग्ने तुम सर्वभक्षी होकर भी पवित्र ही रहोगे।’ तत्पश्चात् परम मंगलमय विप्रवर भृगुने स्नान आदिसे पवित्र हो हाथमें कुश लेकर गर्भसे गिरे हुए अपने पुत्रका जातकर्म आदि संस्कार किया। उस समय सम्पूर्ण तपस्वियोंने गर्भसे च्युत होनेके कारण उस बालकका नाम च्यवन रख दिया। भृगुकुमार च्यवन शुक्लपक्षको प्रतिपदाके चन्द्रमाकी भाँति धीरे-धीरे बढ़ने लगे। कुछ बड़े हो जानेपर वे तपस्या करनेके लिये जगत्को पवित्र करनेवाली नर्मदा नदीके तटपर गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने दस हजार वर्षोंतक तपस्या कीउनके दोनों कंधोंपर दीमकोंने मिट्टीकी ढेरी जमा कर दी और उसपर दो पलाशके वृक्ष उग आये। हरिण उत्सुकतापूर्वक वहाँ आते और मुनिके शरीरमें अपनी देह रगड़कर खुजली मिटाते थे; किन्तु उनको इन सब बातोंका कुछ स्थिर रहते थे। भी ज्ञान नहीं रहता था। वे अविचलभावसे एक समयकी बात है। मनुके पुत्र राजा शर्याति तीर्थयात्राके लिये तैयार होकर परिवारसहित नर्मदाके तटपर गये, उनके साथ बहुत बड़ी सेना थी। महानदी नर्मदामें स्नान करके उन्होंने देवता और पितरोंका तर्पण किया तथा भगवान् श्रीविष्णुकी प्रसन्नताके लिये ब्राह्मणोंको नाना प्रकारके दान दिये। राजाके एक कन्या थी, जो तपाये हुए सोनेके आभूषण पहनकर बड़ी सुन्दरी दिखायी देती थी। वह अपनी सखियोंके साथ वनमें इधर-उधर विचरने लगी। वहाँ उसने महान् वृक्षोंसे सुशोभित वल्मीक (मिट्टीका ढेर) देखा, जिसके भीतर एक ऐसा तेज दीख पड़ा, जो निमेष और उन्मेषसे रहित था (उसमें खुलने-मिचनेकी क्रिया नहीं होती थी)। राजकन्या कौतूहलवश उसके पास गयी और शलाकाओंसे दबाकर उसे फोड़ डाला। फूटनेपर उससे खून निकलने लगा। यह देखकर राजकुमारीको बड़ा खेद हुआ और वह दुःखसे कातर हो गयी। अपराधसे दबी होनेके कारण उसने माता और पिताको इस दुर्घटनाका हाल नहीं बताया। वह भयसे आतुर होकर स्वयं ही अपने लिये शोक करने लगी। उस समय पृथ्वी काँपने लगी, आकाशसे उल्कापात होने लगा, सारी दिशाएँ धूमिल हो गयीं तथा सूर्यके चारों ओर घेरा पड़गया। राजाके कितने ही घोड़े नष्ट हो गये, बहुतेरे हाथी मर गये, धन और रत्नका नाश हो गया तथा उनके साथ आये हुए लोगोंमें परस्पर कलह होने लगा।
वह उत्पात देखकर राजा डर गये, उनका मन कुछ उद्विग्न हो गया। वे सब लोगोंसे पूछने लगे ‘किसीने मुनिका अपराध तो नहीं किया है?’ परम्परासे उन्हें अपनी पुत्रीकी करतूत मालूम हो गयी और वे अत्यन्त दुःखी होकर सेना और सवारियोंसहित मुनिके पास गये। भारी तपस्यामें लगे हुए तपोनिधि च्यवन मुनिको देखकर राजाने स्तुतिके द्वारा उन्हें प्रसन्न किया और कहा – ‘मुनिवर दया कीजिये।’ तब महातपस्वी मुनिश्रेष्ठ च्यवनने सन्तुष्ट होकर कहा – ‘महाराज ! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि यह सारा उत्पात तुम्हारी पुत्रीका ही किया हुआ है। तुम्हारी कन्याने मेरी आँखें फोड़ डाली हैं, इनसे बहुत खून गिरा है, इस बातको जानते हुए भी उसने तुमसे नहीं बताया है; इसलिये अब तुम शास्त्रीय विधिके अनुसार मुझे उस कन्याका दान कर दो, तब सारे उत्पातोंकी शान्ति हो जायगी।’ यह सुनकर राजाको बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने उत्तम कुल, नयी अवस्था, सुन्दर रूप, अच्छे स्वभाव तथा शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न अपनी प्यारी पुत्री उन अंधे महर्षिको ब्याह दी। राजाने कमलके समान नेत्रोंवाली उस कन्याका जब दान कर दिया तो मुनिके क्रोधसे प्रकट हुए सारे उत्पात तत्काल शान्त हो गये। इस प्रकार तपोनिधि मुनिवर च्यवनको अपनी कन्या देकर राजा शर्याति फिर अपनी राजधानीको लौट आये। पुत्रीपर दया आनेके कारण वे बहुत दुःखी थे।
अध्याय 107 सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
सुमतिने कहा— सुमित्रानन्दन। राजा शर्यातिके चले जानेके पश्चात् महर्षि च्यवन पत्नीरूपमें प्राप्त हुई उनकी कन्याके साथ अपने आश्रमपर रहने लगे। उसको पाकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई थी। योगाभ्यासमें प्रवृत्तहोनेके कारण उनके सारे पाप धुल गये थे। वह कन्या अपने श्रेष्ठ पतिकी भगवद्बुद्धिसे सेवा करने लगी। यद्यपि वे नेत्रोंसे हीन थे और बुढ़ापाके कारण उनकी शारीरिक शक्ति जवाब दे चुकी थी, तथापि वह उन्हेंअपने अभीष्ट पूर्ण करनेवाले कुलदेवताके समान समझकर उनकी शुश्रूषा करती थी। जैसे शची इन्द्रकी सेवामें तत्पर होकर प्रसन्नता प्राप्त करती हैं, उसी प्रकार उस सुन्दरी सतीको अपने प्रियतम पतिकी सेवामें बड़ा आनन्द आता था। पति भी साधारण नहीं, तपस्याके भण्डार थे और उनका आशय (मनोभाव) बहुत ही गम्भीर था, तो भी वह उनकी प्रत्येक चेष्टाको जानती – हर एक अभिप्रायको समझती हुई शुश्रूषामें संलग्न रहती थी वह सुन्दर शरीरवाली राजकुमारी सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न और कुशांगी थी, तो भी फल, मूल और जलका आहार करती हुई अपने स्वामीके चरणोंकी सेवा करती थी। सदा पतिको आज्ञा पालन करनेके लिये तैयार रहती और उन्होंके पूजन (आदर-सत्कार)- में समय बिताती थी सम्पूर्ण प्राणियोंका हित साधन करनेमें उसका अनुराग था । वह काम, दम्भ, द्वेष, लोभ, भय और मदका परित्याग करके सावधानीके साथ उद्यत रहकर सर्वदा च्यवन मुनिको सन्तुष्ट रखनेका यत्न करती थी। महाराज ! इस प्रकार वाणी, शरीर और क्रियाके द्वारा मुनिकी सेवा करती हुई उस राजकुमारीने एक हजार वर्ष व्यतीत कर दिये तथा अपनी कामनाको मनमें ही रखा [ मुनिपर कभी प्रकट नहीं किया]
एक समयकी बात है, मुनिके आश्रमपर देववैद्य अश्विनीकुमार पधारे। सुकन्याने स्वागतके द्वारा उनका सम्मान करके उन दोनोंका पूजन (आतिथ्य सत्कार) किया। शर्यातिकुमारी सुकन्याके किये हुए पूजन तथा अर्घ्यपाद्य आदिसे उन सुन्दर शरीरवाले अश्विनी कुमारोंके मनमें प्रसन्नता हुई। उन्होंने स्नेहवश उस सुन्दरीसे कहा- ‘देवि! तुम कोई वर माँगो’ उन दोनों देववैद्योंको सन्तुष्ट देख बुद्धिमती नारियोंमें श्रेष्ठ राजकुमारी सुकन्याने उनसे वर माँगनेका विचार किया। अपने पतिके अभिप्रायको लक्ष्य करके उसने कहा ‘देवताओ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मेरे पतिको नेत्र प्रदान कीजिये।’ सुकन्याका यह मनोहर वचन सुनकर तथा उसके सतीत्वको देखकर उन श्रेष्ठ वैद्योंने कहा- ‘यदि तुम्हारे पति यज्ञमें हमलोगोंको देवोचितभाग अर्पण कर सकें तो हम इनके नेत्रोंमें स्पष्टरूपसे देखनेकी शक्ति पैदा कर सकते हैं।’ च्यवनने भी उन तेजस्वी देवताओंको यज्ञमें भाग देनेके लिये हामी भर दी। तब वे दोनों अश्विनीकुमार अत्यन्त प्रसन्न होकर महान् तपस्वी च्यवनसे बोले- ‘मुने ! सिद्धोंद्वारा तैयार किये हुए इस कुण्डमें आप गोता लगावें।’ ऐसा कहकर उन्होंने च्यवन मुनिको, जिनका शरीर वृद्धावस्थाका ग्रास बन चुका था तथा जिनकी नस-नाड़ियाँ साफ दिखायी दे रही थीं, उस कुण्डमें प्रवेश कराया और स्वयं भी उसमें गोता लगाया। तत्पश्चात् उस कुण्डमेंसे तीन पुरुष प्रकट हुए जो अत्यन्त सुन्दर और नारियोंका मन मोहनेवाले थे। उनका रूप एक ही समान था सोनेके हार, कुण्डल तथा सुन्दर वस्त्र – तीनोंके शरीरपर शोभा पा रहे थे। सुन्दर शरीरवाली सुकन्या उन तीनोंको अत्यन्त रूपवान् और सूर्यके समान तेजस्वी देखकर अपने पतिको पहचान न सकी। तब वह साध्वी दोनों अश्विनीकुमारोंकी शरणमें गयी। सुकन्याके पातिव्रत्यसे सन्तुष्ट होकर उन्होंने उसके पतिको दिखा दिया और ऋषिसे विदा ले वे दोनों विमानपर बैठकर स्वर्गकोचले गये। अब उन्हें इस बातकी आशा हो गयी थी कि जब मुनि यज्ञ करेंगे तो उसमें हमलोगोंको भी अवश्य भाग देंगे।
तदनन्तर किसी समय राजा शर्यातिके मनमें यह इच्छा हुई कि मैं यज्ञद्वारा देवताओंका पूजन करूँ। उस समय उन्होंने महर्षि च्यवनको बुलानेके लिये अपने कई सेवक भेजे। उनके बुलानेपर महातपस्वी विप्रवर च्यवन वहाँ गये। साथमें उनकी धर्मपत्नी सुकन्या भी थी, जो मुनियोंके समान आचार-विचारका पालन करनेमें पक्की हो गयी थी। जब पत्नीके साथ वे महर्षि राजभवनमें पधारे, तब महायशस्वी राजा शर्यातिने देखा कि मेरी कन्याके पास एक सूर्यके समान तेजस्वी पुरुष खड़ा है। सुकन्याने पिताके चरणोंमें प्रणाम किया, किन्तु शर्यातिने उसे आशीर्वाद नहीं दिया। वे कुछ अप्रसन्न से होकर
पुत्रीसे बोले-‘अरी तूने यह क्या किया? अपने पति महर्षि च्यवनको, जो सब लोगोंके बन्दनीय हैं, धोखा तो नहीं दे दिया? क्या तूने उन्हें बूढ़ा और अप्रिय जानकर छोड़ दिया और अब तू इस राह चलते जार पुरुषकी सेवा कर रही है? तेरा जन्म तो श्रेष्ठ पुरुषोंके कुलमेंहुआ है, फिर ऐसी उलटी बुद्धि तुझे कैसे प्राप्त हुई ? ऐसा करके तू तो अपने पिता तथा पति — दोनोंके कुलको नरकमें ले जा रही है?’ पिताके ऐसा कहनेपर पवित्र मुसकानवाली सुकन्या किंचित् मुसकराकर बोली- ‘पिताजी! ये जार पुरुष नहीं- आपके जामाता भृगुनन्दन महर्षि च्यवन ही हैं।’ इसके बाद उसने पतिकी नयी अवस्था और सौन्दर्य – प्राप्तिका सारा समाचार पितासे कह सुनाया। सुनकर राजा शर्यातिको बड़ा विस्मय हुआ और उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर पुत्रीको छातीसे लगा लिया। इसके बाद च्यवनने राजासे सोमयागका अनुष्ठान कराया और सोमपानके अधिकारी न होनेपर भी दोनों अश्विनीकुमारोंके लिये उन्होंने सोमका भाग निश्चित किया। महर्षि तपोबलसे सम्पन्न थे, अतः उन्होंने अपने तेजसे अश्विनीकुमारोंको सोमरसका पान कराया। अश्विनीकुमार वैद्य होनेके कारण पंक्तिपावन देवताओंमें नहीं गिने जाते थे- उन्हें देवता अपनी पंक्तिमें नहीं बिठाते थे; परन्तु उस दिन ब्राह्मणश्रेष्ठ च्यवनने उन्हें देवपंक्ति में बैठनेका अधिकारी बनाया। यह देखकर इन्द्रको क्रोध आ गया और वे हाथमें वज्र लेकर उन्हें मारनेको तैयार हो गये। वज्रधारी इन्द्रको अपना वध करनेके लिये उद्यत देख बुद्धिमान् महर्षि च्यवनने एक बार हुंकार किया और उनकी भुजाओंको स्तम्भित कर दिया। उस समय सब लोगोंने देखा, इन्द्रकी भुजाएँ जडवत् हो गयी हैं।
बाहें स्तम्भित हो जानेपर इन्द्रकी आँखें खुलीं और उन्होंने मुनिकी स्तुति करते हुए कहा – ‘स्वामिन्! आप अश्विनीकुमारोंको यज्ञका भाग अर्पण कीजिये, मैं रोकता। तात! एक बार मैंने जो अपराध किया है, उसको क्षमा कीजिये।’ उनके ऐसा कहनेपर दयासागर महर्षिने तुरंत क्रोध त्याग दिया और इन्द्रकी भुजाएँ भी तत्काल बन्धनमुक्त हो गयीं उनकी जडता दूर हो गयी। यह देखकर सब लोगोंका हृदय र विस्मयपूर्ण कौतूहलसे भर गया। वे ब्राह्मणोंके बलकी, जो देवता आदिके लिये भी दुर्लभ है, सराहना करने में लगे। तदनन्तर शत्रुओंको ताप देनेवाले महाराज शर्यातिनेब्राह्मणोंको बहुत सा धन दिया और यज्ञके अन्तमें अवभृथस्नान किया।
सुमित्रानन्दन। तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने कह सुनाया। महर्षि च्यवन तपस्या और योगवलसे सम्पन्न हैं। इन तपोमूर्ति महात्माको प्रणाम करके तुम विजयका आशीर्वाद ग्रहण करो और श्रीरामचन्द्रजीके मनोहर यज्ञमें इन्हें पत्नीसहित पधारनेके लिये प्रार्थना करो।
शेषजी कहते हैं- शत्रुघ्न और सुमतिमें इस प्रकार वार्तालाप हो रहा था, इतनेहीमें यज्ञका घोड़ा आश्रमके पास जा पहुँचा और उस महान् आश्रम में घूम-घूमकर मुखके अग्रभागसे दूबके अंकुर चरने लगा। इसी बीचमें शत्रुघ्न भी च्यवन मुनिके शोभायमान आश्रमपर पहुँच गये। वहाँ जाकर उन्होंने सुकन्याके पास बैठे हुए महर्षि च्यवनका दर्शन किया, जो तपस्याके मूर्तिमान् स्वरूप से जान पड़ते थे। सुमित्राकुमारने अपनानाम बतलाते हुए मुनिके चरणोंमें प्रणाम किया और कहा – ‘मुने! मैं श्रीरघुनाथजीका भाई और इस अश्वका रक्षक शत्रुघ्न हूँ। अपने महान् पापकी शान्तिके लिये आपको नमस्कार करता हूँ।’ यह वचन सुनकर मुनिवर च्यवनने कहा—’नरश्रेष्ठ शत्रुघ्न ! तुम्हारा कल्याण हो । इस यज्ञरूपी अश्वका पालन करनेसे संसारमें तुम्हारे महान् यशका विस्तार होगा।’ शत्रुघ्नसे ऐसा कहकर महर्षिने आश्रमवासी ब्राह्मणोंसे कहा- ‘ब्रह्मर्षियो ! यह आश्चर्यकी बात देखो, जिनके नामोंके स्मरण और कीर्तन आदि मनुष्यके समस्त पापका नाश कर देते हैं, वे भगवान् श्रीराम भी यज्ञ करनेवाले हैं। महान् पातकी और परस्त्री लम्पट पुरुष भी जिनका नाम स्मरण करके आनन्दपूर्वक परमगतिको प्राप्त होते हैं।” जिनके चरणकमलोंकी धूलि पड़नेसे पत्थरकी मूर्ति बनी हुई अहल्या तत्क्षण मनोहर रूप धारण करके महर्षि गौतमकी धर्मपत्नी हो गयी। रणक्षेत्रमें जिनके मनोहारी रूपका दर्शन करके दैत्योंने उन्हींके निर्विकार स्वरूपको प्राप्त कर लिया तथा योगीजन समाधिमें जिनका ध्यान करके योगारूढ अवस्थाको पहुँच गये और संसारके भयसे छुटकारा पाकर परमपदको प्राप्त हो गये, वे ही श्रीरघुनाथजी यज्ञ कर रहे हैं – यह कैसी अद्भुत बात है! मेरा धन्य भाग, जो अब श्रीरामचन्द्रजीके उस सुन्दर मुखकी झाँकी करूँगा, जिसके नेत्रोंका प्रान्तभाग मेघके जलकी समानता करता है। जिसकी नासिका मनोहर और भौंहें सुन्दर हैं तथा जो विनयसे कुछ झुका हुआ है। जिह्वा वही उत्तम है जो श्रीरघुनाथजीके नामोंका आदरके साथ कीर्तन करती है। जो इसके विपरीत आचरण करती है, वह तो साँपकी जीभके समान है। आज मुझे अपनी तपस्याका पवित्र फल प्राप्त हो गया। अब मेरे सारे मनोरथ पूरे हो गये; क्योंकि ब्रह्मादि देवताओंको भी जिसका दर्शन दुर्लभ है, भगवान् श्रीरामके उसी मुखको मैं इन नेत्रोंसे निहारूँगा। उनके चरणोंकी रजसे अपनेशरीरको पवित्र करूँगा तथा उनकी अत्यन्त विचित्र वार्ताओंका वर्णन करके अपनी रसनाको पावन बनाऊँगा।’ इस प्रकारकी बातें करते-करते श्रीरामके चरणोंका स्मरण होनेसे महर्षिका प्रेम-भाव जाग्रत् हो उठा। उनकी वाणी गद्गद हो गयी और नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बह चली। वे मुनियोंके सामने ही अश्रुपूर्ण कण्ठसे पुकारने लगे- ‘हे श्रीरामचन्द्र ! हे रघुनाथ ! हे धर्ममूर्ते! हे भक्तोंपर दया करनेवाले परमेश्वर ! इस संसारसे मेरा उद्धार कीजिये।’ इतना कहते-कहते महर्षि ध्यानमग्न हो गये, उन्हें अपने परायेका ज्ञान न रहा। उस समय शत्रुघ्नने मुनिसे कहा- ‘स्वामिन्! आप हमारे श्रेष्ठ यज्ञको अपने चरणोंकी धूलिसे पवित्र कीजिये सब लोगोंके द्वारा एकमात्र पूजित होनेवाले महाबाहु श्रीरघुनाथजीका भी बड़ा सौभाग्य है कि वे आप जैसे महात्माके अन्तःकरणमें निवास करते हैं।’ शत्रुघ्नके ऐसा कहनेपर मुनिवर च्यवन आनन्दमग्न हो गये और अपने सम्पूर्ण अग्नियोंको साथ ले परिवारसहित वहाँसे चल दिये। उन्हें पैदल जाते देख और श्रीरामचन्द्रजीका भक्त जान हनुमान्जीने शत्रुघ्नसे विनयपूर्वक कहा ‘स्वामिन्! यदि आप कहें तो महापुरुषोंमें श्रेष्ठ इन राम भक्त महर्षिको मैं ही अपनी पुरीमें पहुँचा दूँ।’ वानर वीरके ये उत्तम वचन सुनकर शत्रुघ्नने उन्हें आज्ञा दी – ‘हनुमान्जी ! जाइये, मुनिको पहुँचा आइये।’ तब हनुमानजीने मुनिको कुटुम्बसहित अपनी पीठपर बिठा लिया और सर्वत्र विचरनेवाले वायुकी भाँति उन्हें शीघ्र ही अयोध्या पहुँचा दिया। मुनिको आया देख, श्रीरामबहुत प्रसन्न हुए और प्रेमसे विह्वल होकर उन्होंने उनके लिये अर्घ्यपाद्य आदि अर्पण किया। तत्पश्चात् वे बोले- ‘मुनिश्रेष्ठ! इस समय आपका दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया। आपने सब सामग्रियोंसहित मेरे यज्ञको पवित्र कर दिया।’
भगवान्का यह वचन सुनकर मुनिवर च्यवन बहुत सन्तुष्ट हुए। प्रेमोद्रेकके कारण उनके शरीर में रोमांच हो आया। वे बोले-‘प्रभो! आप ब्राह्मणोंपर प्रेम रखनेवाले और धर्ममार्गके रक्षक हैं; अतः आपके द्वारा ब्राह्मणका सम्मान होना उचित ही है।’
अध्याय 108 सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
शेषजी कहते हैं—मुने! महर्षि च्यवनके अचिन्तनीय तपोबलको देखकर शत्रुघ्नने विश्व- वन्दित ब्राह्मबलकी बड़ी प्रशंसा की। वे मन-ही-मन कहने लगे- ‘कहाँ तो विशुद्ध अन्तःकरणवाले मुनियोंको स्वतः प्राप्त होनेवाली महान् भोगोंकी सिद्धि और कहाँतपोबलसे हीन मनुष्योंकी भोगेच्छा !’ इस प्रकार सोचते हुए शत्रुघ्नने च्यवन मुनिके आश्रमपर थोड़ी देरतक ठहरकर जल पीया और सुख एवं आरामका अनुभव किया। उनका घोड़ा पुण्यसलिला पयोष्णी नदीका जल पीकर आगेके मार्गपर चल पड़ा। सैनिकोंने जब उसेआश्रमसे निकलते देखा, तो वे भी उसके पीछे-पीछे चल दिये। कुछ लोग हाथीपर थे और कुछ लोग रथोंपर कुछ घोड़ोंपर सवार थे और कुछ लोग पैदल ही जा रहे थे। शत्रुघ्नने भी मन्त्रिवर सुमतिके साथ घोड़ोंसे सुशोभित होनेवाले रथपर बैठकर बड़ी शीघ्रताके साथ यज्ञसम्बन्धी अश्वका अनुसरण किया। वह घोड़ा आगे बढ़ता हुआ राजा विमलके रत्नातट नामक नगरमें जा पहुँचा। राजाने जब अपने सेवकके मुँह से सुना कि श्रीरघुनाथजीका श्रेष्ठ अश्व सम्पूर्ण योद्धाओंके साथ अपने नगरके निकट आया है, तो वे शत्रुघ्नके पास गये और उन्हें प्रणाम करके अपना रत्न, कोष, धन और सारा राज्य सौंपते हुए सामने खड़े होकर बोले- मैं कौन-सा कार्य करूँ – मेरे लिये क्या आज्ञा होती है?’ शत्रुघ्नने भी उन्हें अपने चरणोंमें नतमस्तक देख दोनों भुजाओंसे उठाकर छातीसे लगा लिया। इसके बाद राजा विमल भी पुत्रको राज्य देकर अनेकों धनुर्धर योद्धाओं सहित शत्रुघ्नजीके साथ गये। सबके मन और कानोंको प्रिय लगनेवाले श्रीरामचन्द्रजीका मधुर नाम सुनकर प्रायः सभी राजा उस यज्ञसम्बन्धी घोड़ेको प्रणाम करते औरबहुमूल्य रत्न एवं धन भेंट देते थे। इस प्रकार अश्वके मार्गपर जाते हुए शत्रुघ्नने एक बहुत ऊँचा पर्वत देखा । उसे देखकर उनका मन आश्चर्यचकित हो गया; अतः वे मन्त्री सुमतिसे बोले-‘मन्त्रिवर! यह कौन-सा पर्वत है, जो मेरे मनको विस्मयमें डाल रहा है। इसके बड़े-बड़े शिखर चाँदीके समान चमक रहे हैं। मार्गमें इस पर्वतकी बड़ी शोभा हो रही है मुझे तो यह बड़ा अद्भुत जान पड़ता है। क्या यहाँ देवताओंका निवासस्थान है या यह उनकी क्रीडास्थली है? यह पर्वत अपनी सब प्रकारकी शोभासे मेरे मनको मोहे लेता है।’
शत्रुघ्नजीका यह प्रश्न सुनकर मन्त्री सुमति, जिनका थित सदा श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें लगा रहता था, बोले- राजन् ! हमलोगोंके सामने यह नीलपर्वत शोभा पा रहा है। इसके चारों ओर फैले हुए बड़े-बड़े शिखर स्फटिक आदि मणियोंके समूह हैं; अतएव वे बड़े मनोहर प्रतीत होते हैं पापी और परस्त्री लम्पट मनुष्य इस पर्वतको नहीं देख पाते। जो नीच मनुष्य भगवान् श्रीविष्णुके गुणोंपर विश्वास या आदर नहीं करते, सत्पुरुषोंद्वारा आचरणमें लाये हुए श्रौत और स्मार्त धर्मोंको नहीं मानते तथा सदा अपने बौद्धिक तर्कके आधारपर ही विचार करते हैं, उन्हें भी इस पर्वतका दर्शन नहीं होता। नील और लाहकी बिक्री करनेवाले मनुष्य, घी आदि बेचनेवाला ब्राह्मण तथा शराबी मनुष्य भी इसके दर्शनसे वंचित रहते हैं जो पिता अपनी रूपवती कन्याका किसी कुलीन वरके साथ ब्याह नहीं करता, बल्कि पापसे मोहित होकर धनके लोभसे उसको बेच देता है, उसे भी इसका दर्शन नहीं होता। जो मनुष्य उत्तम कुल और शीलसे युक्त सती साध्वी स्त्रीको कलंकित करता है तथा भाई बन्धुओंको न देकर स्वयं ही मीठे पकवान उड़ाता है, जो ब्राह्मणका धन हड़प लेनेके लिये जालसाजी करता है, रसोईमें भेद करता है तथा जो दूषित विचार रखनेके कारण केवल अपने लिये खिचड़ी या खीर बनाता है, वह भी इस पर्वतको नहीं देख पाता। महाराज ! जो मध्याह्नकालमें भूखसे पीड़ित होकर आये हुए अतिथियोंका अपमान करते हैं, दूसरोंके साथविश्वासघात करते रहते हैं तथा जो श्रीरघुनाथजीके भजनसे विमुख होते हैं, उन्हें भी इस पर्वतका दर्शन नहीं होता। यह श्रेष्ठ पर्वत बड़ा ही पवित्र है, पुरुषोत्तमका निवासस्थान होनेसे इसकी शोभा और भी बढ़ गयी है। अपने दर्शनसे यह मनोहर शैल हम सब लोगोंको पवित्र कर रहा है। देवताओंके मुकुटोंसे जिनके चरणोंकी पूजा होती है— जहाँ देवता अपने मुकुटमण्डित मस्तक झुकाया करते हैं, पुण्यात्मा पुरुष ही जिनका दर्शन पानेके अधिकारी हैं, वे पुण्य-प्रदाता भगवान् पुरुषोत्तम इस पर्वतपर विराजमान हैं। वेदकी श्रुतियाँ ‘नेति नेति’ कहकर निषेधकी अवधिरूपसे जिनको जानती हैं, इन्द्रादि देवता भी जिनके चरणोंकी रज ढूँढ़ा करते हैं फिर भी उन्हें सुगमतासे प्राप्त नहीं होती तथा विद्वान् पुरुष वेदान्त आदिके महावाक्योंद्वारा जिनका बोध प्राप्त करते हैं, वे ही श्रीमान् पुरुषोत्तम इस महान् पर्वतपर विराज रहे हैं। जो इस नीलगिरिपर चढ़कर भगवान्को नमस्कार करता और पुण्यकर्म आदिके द्वारा उनकी पूजा करके उनका प्रसाद ग्रहण करता है, वह साक्षात् भगवान् चतुर्भुजका स्वरूप हो जाता है।
महाराज! इस विषयमें जानकार लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं, उसको सुनो राजा रत्नग्रीवको अपने परिवारके साथ ही जो ‘चार भुजा’ आदि भगवान्का सारूप्य प्राप्त हुआ था, उसीका इस उपाख्यानमें वर्णन है। ऐसा सौभाग्य देवता और दानवोंके लिये भी दुर्लभ है। यह आश्चर्यपूर्ण वृत्तान्त इस प्रकार है-तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध जो कांची नामकी नगरी है, वह पूर्वकालमें बड़ी सम्पन्न अवस्थामें थी, वहाँ बहुत अधिक मनुष्योंकी आबादी थी। सेना और सवारी सभी दृष्टियोंसे कांची बड़ी समृद्धिशालिनी पुरी थी। वहाँ ब्राह्मणोचित छ कमोंमें निरन्तर लगे रहनेवाले श्रेष्ठ ब्राह्मण निवास करते थे, जो सब प्राणियोंके हितमें संलग्न और श्रीरामचन्द्रजीके भजनके लिये सदा उत्कण्ठित रहनेवाले थे वहाँकै क्षत्रिय युद्धमें लोहा लेनेवाले थे। वे संग्राममें कभी पीछे पैर नहीं हटाते थे। परायी स्त्री, पराये धन और परद्रोहसे वे सदा दूररहनेवाले थे। वैश्य भी ब्याज, खेती और व्यापार आदि शुभ से जीविका चलाते हुए निरन्तर श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंमें अनुराग रखते थे। शूद्र जातिके मनुष्य रात-दिन अपने शरीरसे ब्राह्मणोंकी सेवा करते और जिसे ‘राम-राम’ की रट लगाये रहते थे। वहाँ नीच श्रेणीके मनुष्यों में भी कोई ऐसा नहीं था, जो मनसे भी पाप करता हो। उस नगरीमें दान, दया, दम और सत्य- ये सदा विराजमान रहते थे। कोई भी मनुष्य ऐसी बात नहीं बोलता था, जो दूसरोंको कष्ट पहुँचानेवाली हो। वहाँके लोग न तो पराये धनका लोभ रखते और न कभी पाप ही करते थे। इस प्रकार राजा रत्नग्रीव प्रजाका पालन करते थे। वे लोभसे रहित होकर केवल प्रजाकी आपके छठे अंशको ‘कर’ के रूपमें ग्रहण करते थे, इससे अधिक कुछ नहीं लेते थे। इस तरह धर्मपूर्वक प्रजाका पालन और सब प्रकारके भोगोंका उपभोग करते हुए राजाके अनेकों वर्ष व्यतीत हो गये। एक दिन उन्होंने अपनी धर्मपत्नी विशालाक्षीसे, जो पातिव्रत्य धर्मका पालन करनेवाली पतिव्रता थी, कहा- ‘प्रिये! अब अपने पुत्र प्रजाकी रक्षाका भार सँभालनेवाले हो गये। भगवान् महाविष्णुके प्रसादसे मेरे पास किसी बातकी कमी नहीं है। अब मेरे मनमें केवल एक ही अभिलाषा रह गयी है, वह यह कि मैंने आजतक किसी परम कल्याणमय उत्तम तीर्थका सेवन नहीं किया। जो मनुष्य जन्मभर अपना पेट ही भरता रहता है, भगवान्की पूजा नहीं करता वह बैल माना गया है, इसलिये कल्याणी! मैं राज्यका भार पुत्रको सौंपकर अब कुटुम्बसहित तीर्थयात्राके लिये चलना चाहता हूँ।’ ऐसा निश्चय करके उन्होंने सन्ध्याकालमें भगवान्का ध्यान किया और आधी रातको सोते समय स्वप्नमें एक श्रेष्ठ तपस्वी ब्राह्मणको देखा। फिर सबेरे उठकर उन्होंने सन्ध्या आदि नित्यकर्म पूरे किये और सभामें जाकर मन्त्रीजनोंके साथ वे सुखपूर्वक विराजमान हुए इतने में ही उन्हें एक दुर्बल शरीरवाले तपस्वी ब्राह्मण दिखायी दिये, जो जटा, वल्कल और कौपीन धारण किये हुए थे। उनके हाथमें एक छड़ी थी तथा अनेकोंतौथोंके सेवनसे उनका शरीर पवित्र हो गया था। महाबाहु राजा रत्नग्रीवने उन्हें देख मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और प्रसन्नचित्त होकर अर्घ्य, पाद्य आदि निवेदन किया। जब ब्राह्मण सुखपूर्वक आसनपर बैठकर विश्राम कर चुके तो राजाने उनका परिचय जानकर इस प्रकार प्रश्न किया- ‘स्वामिन्! आज आपके दर्शनसे मेरे शरीरका समस्त पाप निवृत्त हो गया। वास्तवमें महात्मा पुरुष दीन दुःखियोंको रक्षाके लिये ही उनके घर जाते हैं। ब्रह्मन् अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ; इसलिये मुझे एक बात बताइये। कौन-सा देवता अथवा कौन ऐसा तीर्थ है जो गर्भवासके कष्टसे बचाने में समर्थ हो सकता है? आपलोग समाधि और ध्यानमें तत्पर रहनेवाले हैं; अतः सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ हैं।’
ब्राह्मणने कहा- महाराज! आपने तीर्थ सेवनके विषयमें जिज्ञासा करते हुए जो यह प्रश्न किया है कि किस देवताकी कृपासे गर्भवासके कष्टका निवारण हो सकता है? सो उसके विषयमें बता रहा हूँ, सुनिये – ‘भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी ही सेवा करनी चाहिये; क्योंकि वे ही संसाररूपी रोगका नाश करनेवाले हैं। वे ही भगवान् पुरुषोत्तमके नामसे प्रसिद्ध हैं, उन्होंकी पूजा करनी चाहिये। मैंने सब पापोंका क्षय करनेवाली अनेकों पुरियों और नदियोंका दर्शन किया है- अयोध्या, सरयू, तापी, हरिद्वार, अवन्ती, विमला, कांची, समुद्रगामिनी नर्मदा, गोकर्ण और करोड़ों हत्याओंका विनाश करनेवाला हाटकतीर्थ – इन सबका दर्शन पापको दूर करनेवाला है। मल्लिका नामसे प्रसिद्ध महान् पर्वत मनुष्यों को दर्शनमात्रसे मोक्ष देनेवाला है तथा वह पातकोंका भी नाश करनेवाला तीर्थ है,
उसका भी मैंने दर्शन किया है। देवता और असुर दोनों जिसका सेवन करते हैं, उस द्वारवती (द्वारकापुरी) तीर्थका भी मैंने दर्शन किया है। वहीं कल्याणमयी गोमती नामकी नदी बहती है, जिसका जल साक्षात् ब्रह्मस्वरूप है। उसमें शयन करना (डूबना) लय कहलाता है और मृत्युको प्राप्त होना मोक्ष ऐसा श्रुतिका वचन है। उस पुरीमें निवास करनेवाले मनुष्योंपरकलियुग कभी अपना प्रभाव नहीं डाल पाता। जहाँके पत्थर भी चक्रसे चिह्नित होते हैं, मनुष्य तो चक्रका चिह्न धारण करते ही हैं; वहाँके पशु-पक्षी और कीट पतंग आदि सबके शरीर चक्र अंकित होते हैं। उस पुरी सम्पूर्ण जगत्के एकमात्र रक्षक भगवान त्रिविक्रम निवास करते हैं। मुझे बड़े पुण्यके प्रभावसे उस द्वारकापुरीका दर्शन हुआ है। साथ ही जो सब प्रकारकी हत्याओंका दोष दूर करनेवाला है तथा जहाँ महान् पातकोंका नाश करनेवाला स्यमन्तपंचक नामक तीर्थ है, उस कुरुक्षेत्रका भी मैंने दर्शन किया है। इसके सिया, मैंने वाराणसीपुरीको भी देखा है, जिसे भगवान् विश्वनाथने अपना निवासस्थान बनाया है। जहाँ भगवान् शंकर मुमूर्षु प्राणियोंको तारक ब्रह्मके नामसे प्रसिद्ध ‘राम’ मन्त्रका उपदेश देते हैं। जिसमें मरे हुए कीट, पतंग, भृंग, पशु-पक्षी आदि तथा असुर-योनिके प्राणी भी अपने-अपने कर्मोके भोग और सीमित सुखका परित्याग करके दुःख-सुखसे परे हो कैलासको प्राप्त हो जाते हैं तथा जहाँ मणिकर्णिकातीर्थ और उत्तरवाहिनी गंगा हैं, जो पापियोंका भी संसारबन्धन काट देती हैं। राजन्। इस प्रकार मैंने अनेकों तीर्थोंका दर्शन किया है; परन्तु नीलगिरिपर भगवान् पुरुषोत्तमके समीप जो महान् आश्चर्यकी घटना देखी है वह अन्यत्र कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं हुई है।
पर्वतश्रेष्ठ नीलगिरिपर जो वृत्तान्त घटित हुआ था, उसे सुनिये इसपर श्रद्धा और विश्वास करनेवाले पुरुष सनातन ब्रह्मको प्राप्त होते हैं। मैं सब तीर्थों में भ्रमण करता हुआ नीलगिरिपर गया, जिसका आँगन सदा गंगासागरके जलसे धुलता रहता है वहाँ पर्वतके शिखरपर मुझे कुछ ऐसे भील दिखायी दिये, जिनकी चार भुजाएँ थीं और वे धनुष धारण किये हुए थे। वे फल मूलका आहार करके वहाँ जीवन निर्वाह करते थे, उस समय उन्हें देखकर मेरे मनमें यह महान् सन्देह खड़ा हुआ कि ये धनुष-बाण धारण करनेवाले जंगली मनुष्य चतुर्भुज कैसे हो गये? वैकुण्ठलोकमें निवास करनेवाले जितेन्द्रिय पुरुषोंका जैसा स्वरूप शास्त्रोंमें देखा जाता हैतथा जो ब्रह्मा आदिके लिये भी दुर्लभ है, ऐसा स्वरूप इन्हें कैसे प्राप्त हो गया ? भगवान् विष्णुके निकट रहनेवाले उनके पार्षदोंके हाथ, जिस प्रकार शंख, चक्र, गदा, शार्ङ्गधनुष तथा कमलसे सुशोभित होते हैं तथा उनके शरीरपर जैसे वनमाला शोभा पाती है, उसी • प्रकार ये भील भी क्यों दिखायी दे रहे हैं? इस प्रकार सन्देहमें पड़ जानेपर मैंने उनसे पूछा- ‘सज्जनो ! आपलोग कौन हैं? और यह चतुर्भुज स्वरूप आपको कैसे प्राप्त हुआ है?’ मेरा प्रश्न सुनकर वे लोग बहुत हँसे और कहने लगे ये महाशय ब्राह्मण होकर भी यहाँके पिण्ड दानकी अद्भुत महिमा नहीं जानते। ‘ यह सुनकर मैंने कहा- ‘कैसा पिण्ड और किसको दिया जाता है? चतुर्भुज शरीर धारण करनेवाले महात्माओ । मुझे इसका रहस्य बताओ।’ मेरी बात सुनकर उन महात्माओंने, जिस तरह उन्हें चतुर्भुज स्वरूपकी प्राप्ति हुई थी, वह सारा वृत्तान्त कह सुनाया।
किरात बोले- ब्राह्मण! हमलोगोंका वृत्तान्त सुनो; हमारा एक बालक प्रतिदिन जामुन आदि वृक्षोंके फल खाता और अन्य बालकोंके साथ विचरा करता था। एक दिन घूमता- घामता वह यहाँ आया और शिशुओंके साथ ही इस पर्वतके मनोहर शिखरपर चढ़ गया। ऊपर जाकर उसने देखा, एक अद्भुत देवमन्दिर है, उसकी दीवार सोनेकी बनी हुई है। जिसमें गारुत्मत आदि नाना प्रकारकी मणियाँ जड़ी हुई है। वह अपनी कान्तिसे सूर्यकी भाँति अन्धकारका नाश कर रहा है। उसे देखकर बालकको बड़ा विस्मय हुआ और उसने मन ही मन सोचा- ‘यह क्या है, किसका घर है ? जरा चलकर देखूं तो सही, यह महात्माओंका कैसा स्थान है?’ ऐसा विचारकर वह बड़भागी बालक मन्दिरके भीतर घुस गया। वहाँ जाकर उसने देवाधिदेव पुरुषोत्तमका दर्शन किया, जिनके चरणोंमें देवता और असुर सभी मस्तक झुकाते हैं। जिनका श्रीविग्रह किरीट, हार, केयूर और ग्रैवेयक (कण्ठा) आदिसे सुशोभित रहता है। जो कानोंमें अत्यन्त उज्ज्वल और मनोहर कुण्डल धारण करते हैं। जिनके युगल चरणकमलोंपरतुलसीको सुगन्धसे मतवाले हुए भँवरे महराया करते हैं। शंख, चक्र, गदा और कमल आदि परिकर दिव्य शरीर धारण करके जिनके चरणोंकी आराधना करते हैं तथा नारद आदि देवर्षि जिनके श्रीविग्रहकी सेवामें लगे रहते हैं, ऐसे भगवान्की उस बालकने झाँकी की। वहाँ भगवान् की उपासनामें लगे हुए देवताओंमेंसे कुछ • लोग गाते थे, कुछ नाच रहे थे और कुछ लोग अद्भुत रूपसे अट्टहास कर रहे थे। वे सभी विश्ववन्दित भगवान्को रिझाने में ही लगे हुए थे। भगवान्को देखकर हमारा बालक उनके निकट चला गया। देवताओंने अच्छी तरह पूजा करके श्रीरमावल्लभ भगवान्को भूप और नैवेद्य अर्पण किया तथा आदरपूर्वक उनकी आरती करके भगवत् कृपाका अनुभव करते हुए वे सब लोग अपने-अपने स्थानको चले गये। उस बालकके सौभाग्यवश वहाँ भगवान्को भोग लगाया हुआ भात (महाप्रसाद) गिरा हुआ था, जो मनुष्योंके लिये अलभ्य और देवताओंके लिये भी दुर्लभ है; वही उसे मिल गया। उसको खाकर बालकने भगवान्के श्रीविग्रहका दर्शन किया। इससे उसे चतुर्भुज रूपकी प्राप्ति हो गयीऔर वह अत्यन्त सुन्दर दिखायी देने लगा। चार भुजा आदि भगवत्सारूप्यको प्राप्त हो शंख, चक्र आदि धारण किये जब वह बालक घर आया तो हमलोगोंने बारम्बार उसकी ओर देखकर पूछा ‘तुम्हारा यह अद्भुत स्वरूप कैसे हो गया?’ तब बालक अपने आश्चर्ययुक्त वृत्तान्तका वर्णन करने लगा- ‘मैं नीलगिरिके शिखरपर गया था, वहाँ मैंने देवाधिदेव भगवान्का दर्शन किया है, वहीं भगवान्को भोग लगाया हुआ मनोहर प्रसाद भी मुझे मिल गया। था, जिसके भक्षण करनेमात्रसे इस समय मेरा ऐसा चतुर्भुज स्वरूप हो गया है। मैं स्वयं ही अपने इसपरिवर्तनपर विस्मय – विमुग्ध हो रहा हूँ।’ बालककी बात सुनकर हम सब लोगोंको बड़ा आश्चर्य हुआ और हमने भी इन परम दुर्लभ भगवान्का दर्शन किया; साथ ही सब प्रकारके स्वादसे परिपूर्ण जो अन्न आदिका प्रसाद मिला, उसको भी खाया। उसके खाते ही भगवान्की कृपासे हम सब लोग चार भुजाधारी हो गये। साधु श्रेष्ठ! तुम भी जाकर भगवान्का दर्शन करो, वहाँ अन्नका प्रसाद ग्रहण करके तुम भी चतुर्भुज हो जाओगे। विप्रवर! तुमने हमलोगोंसे जो बात पूछी और जिसको कहनेके लिये हमें आज्ञा दी थी, वह सब वृत्तान्त हमलोगोंने कह सुनाया l
अध्याय 109 तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
ब्राह्मण कहते हैं— राजन् ! भीलोंके ये अद्भुत वचन सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, साथ ही मैं बहुत प्रसन्न भी हुआ। पहले गंगा सागर संगममें स्नान करके मैंने अपने शरीरको पवित्र किया। फिर मणियों और माणिक्योंसे चित्रित नीलाचलके शिखरपर चढ़ गया। महाराज! वहाँ जाकर मैंने देवता आदिसे वन्दित भगवान्का दर्शन किया और उन्हें प्रणाम करके कृतार्थ हो गया। भगवान्का प्रसाद ग्रहण करनेसे मुझे शंख, चक्र आदि चिह्नोंसे सुशोभित चतुर्भुज स्वरूपकी प्राप्ति हुई। पुरुषोत्तमके दर्शनसे पुनः मुझको गर्भमें नहीं प्रवेश करना पड़ेगा। राजन् ! तुम भी शीघ्र ही नीलाचलको जाओ और गर्भवासके दुःखसे छूटकर अपने आत्माको कृतार्थ करो।
उन परम बुद्धिमान् श्रेष्ठ ब्राह्मणके वचन सुनकर राजा रत्नग्रीवका सारा शरीर पुलकित हो गया और उन्होंने मुनिसे तीर्थयात्राकी विधि पूछी।
ब्राह्मणने कहा- राजन् ! तीर्थयात्राकी उत्तम विधिका वर्णन आरम्भ करता हूँ, सुनो इससे देव दानववन्दित भगवान्की प्राप्ति हो जाती है। मनुष्यकेशरीरमें झुर्रियाँ पड़ गयी हों, सिरके बाल पक गये हों अथवा वह अभी नौजवान हो, आयी हुई मौतको कोई नहीं टाल सकता; ऐसा समझकर भगवान्की शरणमें जाना चाहिये। भगवान्के कीर्तन, श्रवण-वन्दन तथा पूजनमें ही अपना मन लगाना चाहिये। स्त्री, पुत्रादि, अन्य संसारी वस्तुओंमें नहीं, यह सारा प्रपंच नाशवान्, क्षणभर रहनेवाला तथा अत्यन्त दुःख देनेवाला है, परन्तु भगवान् जन्म, मृत्यु और जरा- तीनों ही अवस्थाओंसे परे हैं, वे भक्ति-देवीके प्राणवल्लभ और अच्युत (अविनाशी) हैं- ऐसा विचारकर भगवान्का भजन करना उचित है। मनुष्य काम, क्रोध, भय, द्वेष, लोभ और दम्भसे अथवा जिस किसी प्रकारसे भी यदि भगवान्का भजन करे तो उसे दुःख नहीं भोगना पड़ता। भगवान्का ज्ञान होता है पापरहित साधुसंग करनेसे; साधु वे ही हैं जिनकी कृपासे मनुष्य संसारके दुःखसे छुटकारा पा जाते हैं। महाराज! काम और लोभसे रहित तथा वीतराग साधु पुरुष जिस विषयका उपदेश देते हैं, वह संसार-बन्धनकी निवृत्ति करनेवाला होता है। तीर्थोंमें श्रीरामचन्द्रजीके भजनमेंलगे हुए साधु पुरुष मिलते हैं, जिनका दर्शन मनुष्योंकी पापराशिको भस्म करनेके लिये अग्निका काम देता है; इसलिये संसारबन्धनसे डरे हुए मनुष्योंको पवित्र जलवाले तीर्थोंमें, जो सदा साधु-महात्माओंके सहवाससे सुशोभित रहते हैं, अवश्य जाना चाहिये।
नृपश्रेष्ठ! यदि तीर्थोंका विधिपूर्वक दर्शन किया जाय तो वे पापका नाश कर देते हैं, अब तीर्थसेवनकी विधिका श्रवण करो। पहले स्त्री, पुत्रादि कुटुम्बको मिथ्या समझकर उसकी ओरसे अपने मनमें वैराग्य उत्पन्न करे और मन-ही-मन भगवान्का स्मरण करता रहे। तदनन्तर ‘राम-राम’ की रट लगाते हुए तीर्थयात्रा आरम्भ करे, एक कोस जानेके पश्चात् वहाँ तीर्थ (पवित्र जलाशय) आदिमें स्नान करके क्षौर करा डाले। यात्राकी विधि जाननेवाले पुरुषके लिये ऐसा करना नितान्त आवश्यक है। तीर्थोकी ओर जाते हुए मनुष्यों के पाप उसके बालोंपर ही स्थित रहते हैं, अतः उनका मुण्डन अवश्य करावे। उसके बाद बिना गाँठका डंडा, कमण्डलु और मृगचर्म धारण करे तथा लोभका त्याग करके तीर्थोपयोगी वेष बना ले। विधिपूर्वक यात्रा करनेवाले मनुष्योंको विशेषरूपसे फलकी प्राप्ति होती है, इसलिये पूर्ण प्रयत्न करके तीर्थयात्राकी विधिका पालन करे। जिसके दोनों हाथ, दोनों पैर तथा मन अपने वशमें होते हैं तथा जिसके भीतर विद्या, तपस्या और कीर्ति रहती है, वही तीर्थके वास्तविक फलका भागी होता है।’ ‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण भक्तवत्सल गोपते । शरण्य भगवन् विष्णो मां पाहि बहुसंसृतेः (1925) जिसे इस मन्त्रका पाठ तथा मनसे भगवान्का स्मरण करते हुए पैदल ही तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये; तभी वह महान् अभ्युदयका साधक होता है। जो मनुष्य सवारीसे यात्रा करता है उसका फल सवारी ढोनेवाले प्राणीके साथ बराबर-बराबर बँट जाता है। जूता पहनकर जानेवालेको चौथाई फल मिलता है और बैलगाड़ी परजानेवाले पुरुषको गोहत्या आदिका पाप लगता है। जो अनिच्छासे भी तीर्थयात्रा करता है, उसे उसका आधा फल मिल जाता है तथा पापक्षय भी होता ही है; किन्तु विधिके साथ तीर्थदर्शन करनेसे विशेष फलकी प्राप्ति होती है [ यह ऊपर बताया जा चुका है]। इस प्रकार मैंने थोड़ेहीमें यह तीर्थकी विधि बतायी है, इसका विस्तार नहीं किया है। इस विधिका आश्रय लेकर तुम पुरुषोत्तमका दर्शन करनेके लिये जाओ। महाराज! भगवान् प्रसन्न होकर तुम्हें अपनी भक्ति प्रदान करेंगे, जिससे एक ही क्षणमें तुम्हारे संसार बन्धनका नाश हो जायगा। नरश्रेष्ठ! तीर्थयात्राकी यह विधि सम्पूर्ण पातकोंका नाश करनेवाली है, जो इसे सुनता है वह अपने सारे भयंकर पापोंसे छुटकारा पा जाता है।
सुमति कहते हैं- सुमित्रानन्दन ! ब्राह्मणकी यह बात सुनकर राजा रत्नग्रीवने उनके चरणोंमें प्रणाम किया। उस समय पुरुषोत्तमतीर्थके दर्शनकी उत्कण्ठासे उनका चित्त विह्वल हो रहा था। राजाके मन्त्री मन्त्रज्ञोंमें श्रेष्ठ और अच्छे स्वभावके थे। राजाने समस्त पुरवासियोंको तीर्थयात्राकी इच्छासे साथ ले जानेका विचार करते हुए अपने मन्त्रीको आज्ञा दी – ‘अमात्य ! तुम नगरके सब लोगोंको मेरा यह आदेश सुना दो कि सबको भगवान् पुरुषोत्तमके चरणारविन्दोंका दर्शन करनेके लिये चलना है। मेरे नगरमें जो श्रेष्ठ मनुष्य निवास करते हैं तथा जो लोग मेरी आज्ञाका पालन करनेवाले हैं वे सब मेरे साथ ही यहाँसे निकलें। उन पुत्रोंसे तथा सदा अनीतिमें लगे रहनेवाले बन्धु बान्धवोंसे क्या लेना है, जिन्होंने आजतक अपने नेत्रोंसे पुण्यदायक पुरुषोत्तमका दर्शन नहीं किया? जिनके पुत्र और पौत्र भगवान्की शरणमें नहीं गये, उनकी ये सन्ताने सूकरोंके झुंडके समान हैं। मेरी प्रजाओ जो भगवान् अपना नाम लेनेमात्र से सबको पवित्र कर देनेकी शक्ति रखते हैं, उनके चरणोंमें शीघ्र मस्तक झुकाओ।’राजाका यह मनोहर वचन भगवान्के गुणोंसे गुँथा हुआ था। इसे सुनकर सत्यनामवाले प्रधान मन्त्रीको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने हाथीपर बैठकर विंढोरा पीटते हुए सारे नगरमें घोषणा करा दी तीर्थयात्राकी इच्छासे महाराजने जो आज्ञा दी थी उसके अनुसार सब प्रजाको यह आदेश दिया- ‘पुरवासियो आप सब लोग महाराजके साथ तुरंत नीलगिरिको चलें और सब पापके हरनेवाले पुरुषोत्तम भगवान्का दर्शन करें। ऐसा करके आपलोग समस्त संसार समुद्रको अपने लिये गायकी खुरके समान बना लें। साथ ही सब लोग अपने-अपने शरीरको शंख, चक्र आदि चिह्नोंसे विभूषित करें।’ इस प्रकार प्रधान सचिवने, जो श्रीरघुनाथजीके चरणोंका ध्यान करनेके कारण अपने शोक सन्तापको दूर कर चुके थे, राजा रत्नग्रीवके अद्भुत आदेशकी सर्वत्र घोषणा करा दी। उसे सुनकर सारी प्रजा आनन्द-रसमें निमग्न हो गयी। सबने पुरुषोत्तमका दर्शन करके अपना उद्धार करनेका निश्चय किया। पुरवासी ब्राह्मण सुन्दर वेष धारण करके राजाको आशीर्वाद और वरदान देते हुए शिष्योंके साथ नगरसे बाहर निकले, क्षत्रियवीर धनुष धारण करके चले और वैश्य नाना प्रकारकी उपयोगी वस्तुएँ लिये आगे बढ़े। शूद्र भी संसार सागरसे उद्धार पानेकी बात सोचकर पुलकित हो रहे थे धोबी, चमार, शहद बेचनेवाले, किरात, मकान बनानेवाले कारीगर, दर्जी, पान बेचनेवाले, तबला बजानेवाले, नाटकसे जीविका निभानेवाले नट आदि, तेली, बजाज, पुराणकी कथा सुनानेवाले सूत मागध तथा वन्दी – ये सभी हर्षमें भरकर राजधानीसे बाहर निकले। वैद्य वृत्तिसे जीविका चलानेवाले चिकित्सक तथा भोजन बनाने और स्वादिष्ट रसोंका ज्ञान रखनेवाले रसोइये भी महाराजकी प्रशंसा करते हुए पुरीसे बाहर निकले। राजा रत्नग्रीवने भी प्रातःकाल सन्ध्योपासन आदि करके शुद्ध अन्तःकरणवाले ब्राह्मण देवताको, जो तपस्वियोंमें श्रेष्ठ थे, अपने पास बुलाया और उनकी आज्ञा लेकर वे नगरसे बाहर निकले आगे-आगे राजा थे और पीछे-पीछे पुरवासी मनुष्य। उस समय वे ताराओंसे घिरे हुएचन्द्रमाकी भाँति शोभा पा रहे थे। एक कोस जानेके बाद उन्होंने विधिके अनुसार मुण्डन कराया और दण्ड, कमण्डलु तथा सुन्दर मृग चर्म धारण किये। इस प्रकार वे महायशस्वी राजा उत्तम वेषसे युक्त होकर भगवान्के ध्यानमें तत्पर हो गये और उन्होंने अपने मनको काम क्रोधादि दोषोंसे रहित बना लिया। उस समय भिन्न भिन्न बाजोंको बजानेवाले लोग बारंबार दुन्दुभि, भेरी, आनक, पणव, शंख और वीणा आदिकी ध्वनि फैला रहे थे। सभी यात्री यही कहते हुए आगे बढ़ रहे थे कि ‘समस्त दुःखोंको दूर करनेवाले देवेश्वर! आपकी जय हो, पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध परमेश्वर ! मुझे अपने स्वरूपका दर्शन कराइये।’
तदनन्तर जब महाराज रत्नग्रीव सब लोगोंके साथ यात्राके लिये चल दिये तो मार्गमें उन्हें अनेकों स्थानोंपर महान् सौभाग्यशाली वैष्णवोंके द्वारा किया जानेवाला श्रीकृष्णका कीर्तन सुनायी पड़ा। जगह-जगह गोविन्दका गुणगान हो रहा था – ‘भक्तोंको शरण देनेवाले पुरुषोत्तम ! लक्ष्मीपते! आपकी जय हो।’ कांचीनरेश यात्राके पथमें अनेकों अभ्युदयकारी तीर्थोंका सेवन और दर्शन करते तथा तपस्वी ब्राह्मणके मुखसे उनकी महिमा भी सुनते जाते थे। भगवान् विष्णुसे सम्बन्ध रखनेवाली अनेकों प्रकारकी विचित्र बातें सुननेसे राजाका भलीभाँति मनोरंजन होता था और वे मार्गके बीच-बीचमें अपने गायकोंद्वारा महाविष्णुकी महिमाका गान कराया करते थे। महाराज रत्नग्रीव बड़े बुद्धिमान् और जितेन्द्रिय थे, वे स्थान-स्थानपर दीनों, अंधों, दुःखियों तथा पंगुओंको उनकी इच्छाके अनुकूल दान देते रहते थे। साथ आये हुए सब लोगोंके सहित अनेकों तीर्थोंमें स्नान करके वे अपनेको निर्मल एवं भव्य बना रहे थे और भगवान्का ध्यान करते हुए आगे बढ़ रहे थे। जाते-जाते महाराजने अपने सामने एक ऐसी नदी देखी जो सब पापको दूर करनेवाली थी। उसके भीतरके पत्थर (शालग्राम) चक्रके चिह्नसे अंकित थे। वह मुनियोंके हृदयकी भाँति स्वच्छ दिखायी देती थी। उस नदीके किनारे अनेकों महर्षियोंके समुदाय कई पंक्तियोंमें बैठकर उसेसुशोभित कर रहे थे। उस सरिताका दर्शन करके महाराजने धर्मके ज्ञाता तपस्वी ब्राह्मणसे उसका परिचय पूछा क्योंकि वे अनेकों तीथोक विशेष महिमाके ज्ञानमें बड़े-बड़े थे राजने प्रश्न किया- ‘स्वामिन् । महर्षि समुदायके द्वारा सेवित यह पवित्र नदी कौन है? जो अपने दर्शनसे मेरे चित्तमें अत्यन्त आह्लाद उत्पन्न कर रही है।’ बुद्धिमान् महाराजका यह वचन सुनकर विद्वान् ब्राह्मणने उस तीर्थका अद्भुत माहात्म्य बतलाना आरम्भ किया।
ब्राह्मणने कहा- राजन्! यह गण्डकी नदी है [ इसे शालग्रामी और नारायणी भी कहते हैं], देवता और असुर सभी इसका सेवन करते हैं। इसके पावन जलकी उत्ताल तरंगें राशि राशि पातकोंको भी भस्म कर डालती हैं। यह अपने दर्शनसे मानसिक, स्पर्शसे कर्मजनित तथा जलका पान करनेसे वाणीद्वारा होनेवाले पापके समुदायको दग्ध करती है। पूर्वकालमें प्रजापति ब्रह्माजीने सब प्रजाको विशेष पापमें लिप्त देखकर अपने गण्डस्थल (गाल) के जलकी बूँदोंसे इस पापनाशिनी नदीको उत्पन्न किया। जो उत्तम लहरोंसे सुशोभित इस पुण्यसलिला नदीके जलका स्पर्श करते हैं, वे मनुष्य पापी हों तो भी पुनः माताके गर्भ में प्रवेश नहीं करते। इसके भीतरसे जो चक्रके चिह्नोंद्वारा अलंकृत पत्थर प्रकट होते हैं, वे साक्षात् भगवान्के ही विग्रह हैं- भगवान् ही उनके रूपमें प्रादुर्भूत होते हैं। जो मनुष्य प्रतिदिन चक्रके चिह्नसे युक्त शालग्रामशिलाका पूजन करता है वह फिर कभी माताके उदरमें प्रवेश नहीं करता। जो बुद्धिमान् श्रेष्ठ शालग्रामशिलाका पूजन करता है, उसको दम्भ और लोभसे रहित एवं सदाचारी होना चाहिये। परायी स्त्री और पराये धनसे मुँह मोड़कर यत्नपूर्वक चक्रांकित शालग्रामका पूजन करना चाहिये। द्वारकामें लिया हुआ चक्रका चिह्न और गण्डकी नदीसे उत्पन्न हुई शालग्रामकी शिला ये दोनों मनुष्योंके सौ जन्मोंके पाप भी एक ही क्षणमें हर लेते हैं हजारों पापका आचरण करनेवाला मनुष्य क्यों न हो, शालग्रामशिलाका चरणामृत पीकर तत्काल पवित्र होसकता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा वेदोक्त मार्गपर स्थित रहनेवाला शुद्र गृहस्थ भी शालग्रामकी पूजा करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है। परन्तु स्त्रीको कभी शालग्रामशिलाका पूजन नहीं करना चाहिये। विधवा हो या सुहागिन, यदि वह स्वर्गलोक एवं आत्मकल्याणकी इच्छा रखती है तो शालग्रामशिलाका स्पर्श न करे। यदि मोह उसका स्पर्श करती है तो अपने किये हुए पुण्य समूहका त्याग करके तुरंत नरकमें पड़ती है। कोई कितना ही पापाचारी और ब्रह्महत्यारा क्यों न हो, शालग्रामशिलाको स्नान कराया हुआ जल (भगवान्का चरणामृत) पी लेनेपर परमगतिको प्राप्त होता है भगवान्को निवेदित तुलसी, चन्दन, जल, शंख, घण्टा, चक्र, शालग्रामशिला, ताम्रपात्र, श्रीविष्णुका नाम तथा उनका चरणामृत – ये सभी वस्तुएँ पावन हैं। उपर्युक्त नौ वस्तुओंके साथ भगवान्का चरणामृत पापराशिको दग्ध करनेवाला है। ऐसा सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थको जाननेवाले शान्तचित्त महर्षियोंका कथन है। राजन्! समस्त तीर्थोंमें स्नान करनेसे तथा सब प्रकारके यहाँद्वारा भगवान्का पूजन करनेसे जो अद्भुत पुण्य होता है, वह भगवान्के चरणामृतकी एक-एक बूँदमें प्राप्त होता है।
[चार, छः, आठ आदि] समसंख्यामें शालग्राम मूर्तियोंकी पूजा करनी चाहिये परन्तु समसंख्यामें दो लग्रामोंकी पूजा उचित नहीं है। इसी प्रकार विषमसंख्या भी शालग्राममूर्तियोंकी पूजा होती है, किन्तु विषममें तीन शालग्रामोंकी नहीं। द्वारकाका चक्र तथा गण्डकी नदीके शालग्राम-इन दोनोंका जहाँ समागम हो, वहाँ समुद्रगामिनी गंगाकी उपस्थिति मानी जाती है। यदि शालग्रामशिलाएँ रुखी हों तो वे पुरुषोंको आयु, लक्ष्मी और उत्तम कोर्तिसे वंचित कर देती है; अतः जो चिकनी हों, जिनका रूप मनोहर हो, उन्हींका पूजन करना चाहिये। वे लक्ष्मी प्रदान करती हैं। पुरुषको आयुकी इच्छा हो या धनको, यदि वह शालग्राम शिलाका पूजन करता है तो उसकी ऐहलौकिक और | पारलौकिक सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। राजन्। मनुष्य बड़ा भाग्यवान् होता है, उसीके प्राणान्तकेसमय जिह्वापर भगवान्का पवित्र नाम आता है और उसीकी छातीपर तथा आसपास शालग्रामशिला मौजूद रहती है। प्राणोंके निकलते समय अपने विश्वास या भावनामें ही यदि शालग्रामशिलाकी स्फुरणा हो जाय तो उस जीवकी निस्सन्देह मुक्ति हो जाती है। पूर्वकालमें भगवान्ने बुद्धिमान् राजा अम्बरीषसे कहा था कि ‘ब्राह्मण, संन्यासी तथा चिकनी शालग्रामशिला ये तीन इस भूमण्डलपर मेरे स्वरूप हैं। पापियोंका पाप नाश करनेके लिये मैंने ही ये स्वरूप धारण किये हैं।’ जो अपने किसी प्रिय व्यक्तिको शालग्रामकी पूजा करनेका आदेश देता है वह स्वयं तो कृतार्थ होता ही है, अपने पूर्वजोंको भी शीघ्र ही वैकुण्ठमें पहुँचा देता है।
इस विषयमें काम-क्रोधसे रहित वीतराग महर्षिगण एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं। पूर्व कालकी बात है, धर्मशून्य मगधदेशमें एक पुल्कस जातिका मनुष्य रहता था, जो लोगों में शबरके नामसे प्रसिद्ध था। सदा अनेकों जीव-जन्तुओंकी हत्या करना और दूसरोंका धन लूटना, यही उसका काम था। राग द्वेष और काम-क्रोधादि दोष सर्वदा उसमें भरे रहते थे। एक दिन वह व्याध समस्त प्राणियोंको भय पहुँचाता हुआ घूम रहा था, उसके मनपर मोह छाया हुआ था; इसलिये वह इस बातको नहीं जानता था कि उसका काल समीप आ पहुँचा है। यमराजके भयंकर दूत हाथोंमें मुद्गर और पाश लिये वहाँ पहुँचे। उनके ताँबे जैसे लाल-लाल केश, बड़े-बड़े नख तथा लंबी लंबी दाढ़े थीं। वे सभी काले कलूटे दिखायी देते थे तथा हाथोंमें लोहेकी साँकल लिये हुए थे। उन्हें देखते ही प्राणियोंको मूर्च्छा आ जाती थी। वहाँ पहुँचकर ये कहने लगे-‘सम्पूर्ण जीवको भय पहुँचानेवाले इस पापीको बाँध लो।’ तदनन्तर सब यमदूत उसे लोहेके पाशसे बाँधकर बोले-‘दुष्ट। दुरात्मा! तूने कभी मनसे शुभकर्म नहीं किये; इसलिये हम तुझे रौरव नरकमें डालेंगे। जन्मसे लेकर अबतक तूने कभी भगवान्की सेवा नहीं की। समस्त पापको को दूर करनेवाले श्रीनारायणदेवका कभी स्मरण नहीं किया; अतः धर्मराजकी आज्ञासे हम तुझेबारंबार पीटते हुए लोहशंकु कुम्भीपाक अथवा अतिरौरव नरकमें ले जायँगे।’ ऐसा कहकर यमदूत ज्यों ही उसे ले जानेको उद्यत हुए त्यों ही महाविष्णुके चरणकमलोंकी सेवा करनेवाले एक भक्त महात्मा वहाँ आ पहुँचे। उन वैष्णव महात्माने देखा कि यमदूत पाश, मुद्गर और दण्ड आदि कठोर आयुध धारण किये हुए हैं तथा पुल्कसको लोहेकी साँकलोंसे बाँधकर ले जानेको उद्यत हैं। भगवद्भक्त महात्मा बड़े दयालु थे। उस समय पुल्कसकी अवस्था देखकर उनके हृदयमें अत्यन्त करुणा भर आयी और उन्होंने मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया यह पुल्कस मेरे समीप रहकर अत्यन्त कठोर यातनाको प्राप्त न हो, इसलिये मैं अभी यमदूतोंसे इसको छुटकारा दिलाता हूँ।’ ऐसा सोचकर वे कृपालु मुनीश्वर हाथमें शालग्रामशिला लेकर पुल्कसके निकट गये और भगवान् शालग्रामका पवित्र चरणामृत, जिसमें तुलसीदल भी मिला हुआ था, उसके मुखमें डाल दिया। फिर उसके कानमें उन्होंने रामनामका जप किया, मस्तकपर तुलसी रखी और छातीपर महाविष्णुकी शालग्रामशिला रखकर कहा-‘ यातना देनेवाले यमदूत यहाँसे चलेजायँ । शालग्रामशिलाका स्पर्श इस पुल्कसके महान् पातकको भस्म कर डाले।’ वैष्णव महात्माके इतना कहते ही भगवान् विष्णुके पार्षद, जिनका स्वरूप बड़ा अद्भुत था, उस पुल्कसके निकट आ पहुँचे शालग्रामकी शिलाके स्पर्शसे उसके सारे पाप नष्ट हो गये थे। वे पार्षद पीताम्बर धारण किये शंख, चक्र, गदा और पद्मसे सुशोभित हो रहे थे। उन्होंने आते ही उस दुःसह लोहपाशसे पुल्कसको मुक्त कर दिया। उस महापापीको छुटकारा दिलानेके बाद वे यमदूतोंसे बोले- ‘तुमलोग किसकी आज्ञाका पालन करनेवाले हो, जो इस प्रकार अधर्म कर रहे हो? यह पुल्कस तो वैष्णव है, इसने पूजनीय देह धारण कर रखा है, फिर किसलिये तुमने इसे बन्धनमें डाला था ?’ उनकी बात सुनकर यमदूत बोले- ‘यह पापी है, हमलोग धर्मराजकी आज्ञासे इसे ले जानेको उद्यत हुए हैं, इसने कभी मनसे भी किसी प्राणीका उपकार नहीं किया है। इसने जीवहिंसा जैसे बड़े-बड़े पाप किये हैं। तीर्थ यात्रियोंको तो इसने अनेकों बार लूटा है। यह सदा परायी स्त्रियोंका सतीत्व) नष्ट करनेमें ही लगा रहता था। सभी तरहके पाप इसने किये हैं अतः हमलोग इस पापीको ले जानेके उद्देश्यसे ही यहाँ उपस्थित हुए हैं आपलोगोंने सहसा आकर क्यों इसे बन्धनसे मुक्त कर दिया ?’
विष्णुदूत बोले- यमदूतो! ब्रह्महत्या आदिका पाप हो या करोड़ों प्राणियोंके वध करनेका, शालग्राम शिलाका स्पर्श सबको क्षणभरमें जला डालता है। जिसके कानोंमें अकस्मात् भी रामनाम पड़ जाता है, उसके सारे पापको वह उसी प्रकार भस्म कर डालता है,जैसे आगकी चिनगारी रूईको। जिसके मस्तकपर तुलसी, छातीपर शालग्रामकी मनोहर शिला तथा मुख या कानमें रामनाम हो वह तत्काल मुक्त हो जाता है। इस पुल्कसके मस्तकपर भी पहलेसे ही तुलसी रखी हुई है, इसकी छातीपर शालग्रामकी शिला है तथा अभी तुरंत ही इसको श्रीरामका नाम भी सुनाया गया है; अतः इसके पापोंका समूह दग्ध हो गया और अब इसका शरीर पवित्र हो चुका है। तुमलोगोंको शालग्रामशिलाकी महिमाका ठीक ठीक ज्ञान नहीं है; यह दर्शन, स्पर्श अथवा पूजन करनेपर तत्काल ही सारे पापको हर लेती है।
इतना कहकर भगवान् विष्णुके पार्षद चुप हो गये। यमदूतोंने लौटकर यह अद्भुत घटना धर्मराजसे कह सुनायी तथा श्रीरघुनाथजी के भजनमें लगे रहनेवाले वे वैष्णव महात्मा भी यह सोचकर कि ‘यह यमराजके पाशसे मुक्त हो गया और अब परमपदको प्राप्त होगा’ बहुत प्रसन्न हुए। इसी समय देवलोकसे बड़ा ही मनोहर, अत्यन्त अद्भुत और उज्ज्वल विमान आया तथा वह पुल्कस उसपर आरूढ हो बड़े-बड़े पुण्यवानोंद्वारा सेवित स्वर्गलोकको चला गया। वहाँ प्रचुर भोगोंका उपभोग करके वह फिर इस पृथ्वीपर आया और काशीपुरीके भीतर एक शुद्ध ब्राह्मणवंशमें जन्म लेकर उसने विश्वनाथजीकी आराधना की एवं अन्तमें परमपदको प्राप्त कर लिया। वह पुल्कस पापी था तो भी साधु-संगके प्रभावसे शालग्रामशिलाका स्पर्श पाकर यमदूतोंकी भयंकर पीड़ासे मुक्त हो परमपदको पा गया। राजन् ! यह मैंने तुम्हें शालग्रामशिलाके पूजनकी महिमा बतलायी है, इसका श्रवण करके मनुष्य सब पापोंसे छूट जाता और भोग तथा मोक्षको प्राप्त होता है।
अध्याय 110 राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
सुमति कहते हैं – सुमित्रानन्दन। गण्डकी नदीका यह अनुपम माहात्म्य सुनकर राजा रत्नग्रीवने अपनेको 1 कृताथ माना। उन्होंने उस तीर्थ स्नान करके अपने समस्त पितरोंका तर्पण किया। इससे उनको बड़ा हर्ष हुआ। फिर शालग्रामशिलाकी पूजाके उद्देश्यसे उन्होंने गण्डकी नदीसे चौबीस शिलाएँ ग्रहण की और चन्दन आदि उपचार चढ़ाकर बड़े प्रेमसे उनकी पूजा की। तत्पश्चात् वहाँ दीनों और अंधोंको विशेष दान देकर राजाने पुरुषोत्तममन्दिरको जानेके लिये प्रस्थान किया। इस प्रकार क्रमशः यात्रा करते हुए वे उस तीर्थमें पहुँचे, जहाँ गंगा और समुद्रका संगम हुआ है वहाँ जाकर उन्होंने ब्राह्मणोंसे प्रसन्नतापूर्वक पूछा—’स्वामिन्! बताइये, नीलाचल यहाँसे कितनी दूर है? जहाँ साक्षात् भगवान् पुरुषोत्तम निवास करते हैं तथा देवता और असुर भी जिनके सामने मस्तक नवाते हैं।’
उस समय तपस्वी ब्राह्मणको बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने राजासे बड़े आदरके साथ कहा- ‘राजन् ! नीलपर्वतका विश्ववन्दित स्थान है तो यही; किन्तु न जाने वह हमें दिखायी क्यों नहीं देता।’ वे बारंबार इस बातको दुहराने लगे कि ‘नीलाचलका वह स्थान, जो महान् पुण्यफल प्रदान करनेवाला है तथा जहाँ भगवान् पुरुषोत्तमका निवास है, यही है। उसका दर्शन क्यों नहीं होता? यह बात समझमें नहीं आती। इसी स्थानपर मैंने स्नान किया था, यहीं मुझे वे भील दिखायी दिये थे और इसी मार्गसे मैं पर्वतके ऊपर चढ़ा था।’ यह बात सुनकर राजाके मनमें बड़ी व्यथा हुई, वे कहने लगे- ‘विप्रवर मुझे पुरुषोत्तमका दर्शन कैसे होगा ? तथा वह नीलपर्वत कैसे दिखायी देगा ? मुझे इसका कोई उपाय बताइये।’ तब तपस्वी ब्राह्मणने विस्मित होकर कहा—’ राजन् ! हमलोग गंगासागर-संगममें स्नान करके यहाँ तबतक ठहरे रहें जबतक कि नीलाचलका दर्शन न हो जाय। भगवान् पुरुषोत्तम पापहारी कहलातेहैं। वे भक्तवत्सल नाम धारण करते हैं; अतः हमलोगों पर शीघ्र ही कृपा करेंगे। वे देवाधिदेवोंके भी शिरोमणि हैं. अपने भक्तौका कभी परित्याग नहीं करते। अबतक उन्होंने अनेकों भक्तोंकी रक्षा की है, इसलिये महामते ! तुम उन्हींका गुणगान करो।’ ब्राह्मणकी बात सुनकर राजाने व्यथित चित्तसे गंगासागर संगममें स्नान किया। इसके बाद उन्होंने उपवासका व्रत लिया। ‘जब भगवान् पुरुषोत्तम दर्शन देनेकी कृपा करेंगे तभी उनकी पूजा करके भोजन करूँगा, अन्यथा निराहार ही रहेंगा।’ ऐसा नियम करके वे गंगासागरके तटपर बैठ गये और भगवान्का गुणगान करते हुए उपवासव्रतका पालन करने लगे।
राजा बोले- प्रभो! आप दीनोंपर दया करनेवाले हैं; आपकी जय हो। भक्तोंका दुःख दूर करनेवाले पुरुषोत्तम! आपका नाम मंगलमय है, आपकी जय हो। भक्तजनोंकी पीड़ाका नाश करनेके लिये ही आपने सगुण विग्रह धारण किया है, आप दुष्टोंका विनाश करनेवाले हैं; आपकी जय हो! जय हो !! आपके भक्त प्रह्लादको उसके पिता दैत्यराजने बड़ी व्यथा पहुँचायी शूलीपर चढ़ाया, फाँसी दी पानीमें डुबोया, आगमें जलाया और पर्वतसे नीचे गिराया; किन्तु आपने नृसिंहरूप धारण करके प्रह्लादको तत्काल संकटसे बचा लिया उसका पिता देखता ही रह गया। मतवाले गजराजका पैर ग्राहके मुखमें पड़ा था और वह अत्यन्त दुःखी हो रहा था उसकी दशा देख आपके हृदय में करुणा भर आयी और आप उसे बचानेके लिये शीघ्र ही गरुड़पर सवार हुए किन्तु आगे चलकर आपने पक्षिराज गरुड़को भी छोड़ दिया और हाथमें चक्र लिये बड़े वेगसे दौड़े। उस समय अधिक वेगके कारण आपकी वनमाला जोर-जोर से हिल रही थी और पीताम्बरका छोर आकाशमें फहरा रहा था। आपने | तत्काल पहुँचकर गजराजको ग्राहके चंगुलसे छुड़ायाऔर ग्राहको मौत के घाट उतार दिया। जहाँ-जहाँ आपके सेवकोंपर संकट आता है वहीं-वहीं आप देह धारण करके अपने भक्तोंकी रक्षा करते हैं। आपकी लीलाएँ मनको मोहने तथा पापको हर लेनेवाली हैं। उन्होंके द्वारा आप भक्तोंका पालन करते हैं। भक्तवल्लभ ! आप दीनोंके नाथ हैं, देवताओंके मुकुटमें जड़े हुए हीरे आपके चरणोंका स्पर्श करते हैं। प्रभो आप करोड़ों पापको भस्म करनेवाले हैं। मुझे अपने चरण कमलौका दर्शन दीजिये यदि मैं पापी हूँ तो भी आपके मानसमें आपको प्रिय लगनेवाले इस पुरुषोत्तमक्षेत्रमें आया हूँ; अतः अब मुझे दर्शन दीजिये देव-दानववन्दित परमेश्वर ! हम आपके ही हैं। आप पाप – राशिका नाश करनेवाले हैं। आपकी यह महिमा मुझे भूली नहीं है। सबके दुःखोंको दूर करनेवाले दयामय! जो लोग आपके पवित्र नामका कीर्तन करते हैं, वे पाप समुद्रसे तर जाते हैं। यदि संतोंके मुखसे सुनी हुई मेरी यह बात सच्ची है तो आप मुझे प्राप्त होइये – मुझे दर्शन देकर कृतार्थ कीजिये।
सुमति कहते हैं- इस प्रकार राजा रत्नग्रीव रात-दिन भगवान्का गुणगान करते रहे। उन्होंने क्षणभरके लिये भी न तो कभी विश्राम किया, न नींद ली और न कोई सुख ही उठाया। वे चलते-फिरते, ठहरते, गीत गाते तथा वार्तालाप करते समय भी निरन्तर यही कहते कि- ‘पुरुषोत्तम ! कृपानाथ! आप मुझे अपने स्वरूपकी झाँकी कराइये।’ इस तरह गंगासागर के तटपर रहते हुए राजाके पाँच दिन व्यतीत हो गये। तब दयासागर श्रीगोपालने कृपापूर्वक विचार किया कि ‘यह राजा मेरी महिमाका गान करनेके कारण सर्वथा पापरहित हो गया है; अतः अब इसे मेरे देव-दानववन्दित प्रियतम विग्रहका दर्शन होना चाहिये।’ ऐसा सोचकर भगवान्का हृदय करुणासे भर गया और वे संन्यासीका वेष धारण करके राजाके समीप गये। तपस्वी ब्राह्मणने देखा, भगवान् अपने भक्तपर कृपा करनेके लिये हाथमें त्रिदण्ड ले यतिका वेष बनाये यहाँ उपस्थित हुए हैं। नृपश्रेष्ठ रत्नग्रीवने ‘ॐ नमो नारायणाय’ कहकरसंन्यासी बाबाको नमस्कार किया और अर्घ्य, पाद्य तथा आसन आदि निवेदन करके उनका विधिवत् पूजन किया। इसके बाद वे बोले-‘महात्मन्! आज मेरे सौभाग्यकी कोई तुलना नहीं है; क्योंकि आज आप जैसे साधु पुरुषने कृपापूर्वक मुझे दर्शन दिया है। मैं समझता हूँ, इसके बाद अब भगवान् गोविन्द भी मुझे अपना दर्शन देंगे।’ यह सुनकर संन्यासी बाबाने कहा
‘राजन्! मेरी बात सुनो, मैं अपनी ज्ञानशक्तिसे भूत, भविष्य और वर्तमान- तीनों कालकी बात जानता हूँ, इसलिये जो कुछ भी कहूँ, उसे एकाग्रचित्त होकर सुनना, कल दोपहरके समय भगवान् तुम्हें दर्शन देंगे, वही दर्शन, जो ब्रह्माजीके लिये भी दुर्लभ है, तुम्हें सुलभ होगा। तुम अपने पाँच आत्मीय जनोंके साथ – परमपदको प्राप्त होओगे। तुम, तुम्हारे मन्त्री, तुम्हारी रानी, ये तपस्वी ब्राह्मण तथा तुम्हारे नगरमें रहनेवाला करम्ब नामका साधु, जो जातिका तन्तुवाय- कपड़ा बुननेवाला जुलाहा है— इन सबके साथ तुम पर्वत श्रेष्ठ नीलगिरिपर जा सकोगे। वह पर्वत देवताओंद्वारा पूजित तथा ब्रह्मा और इन्द्रद्वारा अभिवन्दित है।’ यह कहकर संन्यासी बाबा अन्तर्धान हो गये, अब वे कहीं दिखायी नहीं देते थे। उनकी बात सुनकर राजाको बड़ा हर्ष हुआ। साथ ही विस्मय भी उन्होंने तपस्वी ब्राह्मणसे पूछा- स्वामिन्! वे संन्यासी कौन थे, जो यहाँ आकर मुझसे बात कर गये हैं, इस समय वे फिर दिखायी नहीं देते, कहाँ चले गये? उन्होंने मेरे चित्तको बड़ा हर्ष प्रदान किया है।
तपस्वी ब्राह्मणने कहा- राजन् ! वे समस्त पापका नाश करनेवाले भगवान् पुरुषोत्तम ही थे, जो तुम्हारे महान् प्रेमसे आकृष्ट होकर यहाँ आये थे। कल दोपहरके समय महान् पर्वत नीलगिरि तुम्हारे सामने प्रकट होगा, तुम उसपर चढ़कर भगवान्का दर्शन करके कृतार्थ हो जाओगे।
ब्राह्मणका यह वचन अमृत-राशिके समान सुखदायी प्रतीत हुआ; उसने राजाके हृदयकी सारी चिन्ताओंका नाश कर दिया। उस समय कांची नरेशकोजो आनन्द मिला, उसका ब्रह्माजी भी अनुभव नहीं कर सकते। दुन्दुभी बजने लगी तथा वीणा, पणव और गोमुख आदि बाजे भी बज उठे। महाराज रत्नग्रीवके मनमें उस समय बड़ा उल्लास छा गया था। वे प्रतिक्षण भगवान्का गुणगान करते हुए, बचते खड़े होते हँसते बोलते और बात करते थे। उन्हें सब सन्तापका नाश करनेवाले घनीभूत आनन्दकी प्राप्ति हुई थी। तदनन्तर सारा दिन भगवान्के कोन और स्मरणमें बिताकर राजा रत्नग्रीव रातमें गंगाजीके तटपर, जो महान् फल प्रदान करनेवाला हूँ सो रहे सपने में उन्होंने देखा, ‘मेरा स्वरूप चतुर्भुज हो गया है। मैं शंख, चक्र, गदा, पद्म और धनुष धारण किये हुए हूँ तथा भगवान् पुरुषोत्तमके सामने रुद्र आदि देवताओंके साथ नृत्य कर रहा हूँ।’
उन्हें यह भी दिखायी दिया कि शंख, चक्र, गदा और पद्म आदि आयुध तथा विष्वक्सेन आदि पार्षदगण परम सुन्दर दिव्य स्वरूपसे प्रकट हो सदा श्रीलक्ष्मीपतिकी उपासनामें संलग्न रहते हैं। यह सब देखकर उन्हें अद्भुत हर्ष और आश्चर्य हुआ। अपनी मनोवांछित कामना पूर्ण करनेवाले भगवान् पुरुषोत्तमका दर्शन पाकरमहाबुद्धिमान् राजाने अपनेको उनका कृपापात्र माना। स्वप्नमें ये सारी बातें देखकर जब वे प्रातः काल नींद से उठे तो तपस्वी ब्राह्मणको बुलाकर उन्होंने अपने देखे हुए सपनेका सारा समाचार उनसे कह सुनाया। उसे सुनकर बुद्धिमान् ब्राह्मणको बड़ा विस्मय हुआ, उन्होंने कहा-‘राजन् तुमने जिन भगवान् पुरुषोत्तमका दर्शन किया है, वे तुम्हें अपना शंख, चक्र आदि चिह्नोंसे विभूषित स्वरूप प्रदान करना चाहते हैं।’ यह सुनकर महामना रत्नग्रीवने दीन दुःखियाँको उनकी इच्छा के अनुसार दान दिलाया। फिर गंगासागर संगममें स्नान करके देवताओं और पितरोंका तर्पण किया तथा भगवान्के गुणका गान करते हुए वे उनके दर्शनकी प्रतीक्षा करने लगे। तदनन्तर जब दोपहरका समय हुआ तो आकाशमें बारंबार दुन्दुभियाँ बजने लगीं देवताओंके 1 हाथसे बजाये जानेके कारण उनसे बड़े जोरकी आवाज होती थी। सहसा राजाके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा हुई देवता कहने लगे-‘नृपश्रेष्ठ! तुम धन्य हो ! नीलाचलका प्रत्यक्ष दर्शन करो।’ देवताओंकी कही हुई यह बात ज्यों ही राजाके कानोंमें पड़ी, त्यों ही नीलगिरिके नामसे प्रसिद्ध वह महान् पर्वत उनकी आँखोंके समक्ष प्रकट हो गया। करोड़ों सूर्योके समान उसका प्रकाश छा रहा था। चारों ओरसे सोने और चाँदीके शिखर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। राजा सोचने लगे – क्या यह अग्नि प्रज्वलित हो रहा है या दूसरे सूर्यका उदय हुआ है? अथवा स्थिर कान्ति धारण करनेवाला विद्युतपुंज ही सहसा सामने प्रकट हो गया है?”
तपस्वी ब्राह्मणने अत्यन्त शोभासम्पन्न नीलगिरिको देखकर राजासे कहा-‘महाराज! यही वह परम पवित्र महान् पर्वत है।’ यह सुनकर नृपश्रेष्ठ रत्नग्रीवने मस्तक झुकाकर उसे प्रणाम किया और कहा-‘मैं धन्य और कृतकृत्य हो गया क्योंकि इस समय मुझे नीलाचलका प्रत्यक्ष दर्शन हो रहा है। राजमन्त्री, रानी और करम्ब नामका जुलाहा ये भी नीलाचलका दर्शन पाकर बड़े प्रसन्न हुए। नरश्रेष्ठ! उपर्युक्त पाँचों व्यक्तियोंनेविजय नामक मुहूर्तमें नीलगिरिपर चढ़ना आरम्भ प्र किया। उस समय उन्हें देवताओंद्वारा बजायी हुई महान् दुन्दुभियोंकी ध्वनि सुनायी दे रही थी। पर्वतके ऊपरी 3 शिखरपर, जो विचित्र वृक्षोंसे सुशोभित हो रहा था, र उन्होंने एक सुवर्णजटित परम सुन्दर देवालय देखा। जहाँ प्रतिदिन ब्रह्माजी आकर भगवान्की पूजा करते हैं तथा श्रीहरिको सन्तोष देनेवाला नैवेद्य भोग लगाते हैं वह अद्भुत एवं उज्ज्वल देवालय देखकर राजा सबके साथ उसके भीतर प्रविष्ट हुए। वहाँ एक सोनेका सिंहासन था, जो बहुमूल्य मणियोंसे जटित होनेके कारण अत्यन्त विचित्र दिखायी दे रहा था। उसके ऊपर भगवान् चतुर्भुज रूपसे विराजमान थे। उनकी झाँकी बड़ी मनोहर दिखायी देती थी। चण्ड, प्रचण्ड और विजय आदि पार्षद उनकी सेवामें खड़े थे नृपश्रेष्ठ रत्नग्रीवने अपनी रानी और सेवकोंसहित भगवान्को प्रणाम किया।प्रणामके पश्चात् वेदोक्त मन्त्रोंद्वारा उन्हें विधिवत् स्नान कराया और प्रसन्नचित्तसे अर्घ्य, पाद्य आदि उपचार अर्पण किये। इसके बाद भगवान्के श्रीविग्रहमें चन्दन लगाकर उन्हें वस्त्र निवेदन किया तथा धूप-आरती करके सब प्रकारके स्वादसे युक्त मनोहर नैवेद्य भोग लगाया। अन्तमें पुनः प्रणाम करके तापस ब्राह्मणके साथ वे भगवान्की स्तुति करने लगे। उसमें उन्होंने अपनी बुद्धिके अनुसार श्रीहरिके गुण-समुदायसे ग्रथित स्तोत्रोंका संग्रह सुनाया था।
राजा बोले- भगवन्! एकमात्र आप ही पुरुष ( अन्तर्यामी) हैं। आप ही प्रकृतिसे परे साक्षात् भगवान् हैं। आप कार्य और कारणसे भिन्न तथा महत्तत्त्व आदिसे पूजित हैं सृष्टि रचनाएँ कुशल ब्रह्माजी आपहीके नाभि कमलसे उत्पन्न हुए हैं तथा संहारकारी स्द्रका आविर्भाव भी आपहीके नेत्रोंसे हुआ है। आपकी ही आज्ञासे ब्रह्माजी इस संसारकी सृष्टि करते हैं । पुराणपुरुष! आदिकालका जो स्थावर जंगमरूप जगत् दिखायी देता है, वह सब आपसे ही उत्पन्न हुआ है। आप ही इसमें चेतनाशक्ति डालकर इस संसारको चेतन बनाते हैं। जगदीश्वर! वास्तवमें आपका जन्म तो कभी होता ही नहीं है; अतएव आपका अन्त भी नहीं है। प्रभो! आपमें वृद्धि, क्षय और परिणाम- इन तीनों विकारोंका सर्वथा अभाव है, तथापि आप भक्तोंकी रक्षा और धर्मकी स्थापनाके लिये अपने अनुरूप गुणोंसे युक्त दिव्य जन्म-कर्म स्वीकार करते हैं। आपने मत्स्यावतार धारण करके शंखासुरको मारा और वेदोंकी रक्षा की। ब्रह्मन् ! आप महापुरुष (पुरुषोत्तम) और सबके पूर्वज हैं। महाविष्णो! शेष भी आपकी महिमाको नहीं जानते भगवती वाणी भी आपको समझ नहीं पाती. फिर मेरे-जैसे अन्यान्य अज्ञानी जीव कैसे आपकी स्तुति करनेमें समर्थ हो सकते हैं?’इस प्रकार स्तुति करके राजाने भगवान् के चरणोंमें मस्तक नवाकर पुनः प्रणाम किया। उस समय उनका स्वर गद्गद हो रहा था। समस्त अंगोंमें रोमांच हो आया था। उनकी इस स्तुतिसे भगवान् पुरुषोत्तम बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने राजासे सत्य और सार्थक वचन कहा।
श्रीभगवान् बोले- राजन् ! तुम्हारे द्वारा की हुई इस स्तुतिसे मुझे बड़ा हर्ष हुआ है। महाराज तुम यह जान लो कि मैं प्रकृतिसे परे रहनेवाला परमात्मा हूँ। 1 अब तुम शीघ्र ही मेरा नैवेद्य (प्रसाद) ग्रहण करो । इससे परम मनोहर चतुर्भुज रूपको प्राप्त होकर परमपदको जाओगे। जो मनुष्य तुम्हारे किये हुए इस स्तोत्ररत्नसे मेरी स्तुति करेगा; उसे भी मैं अपना उत्तम दर्शन दूँगा, जो भोग और मोक्ष- दोनों प्रदान करनेवाला है।
भगवान्के कहे हुए इस वचनको सुनकर राजाने अपनी सेवामें रहनेवाले चारों स्वजनोंके साथ नैवेद्य भक्षण किया। तदनन्तर क्षुद्रघण्टिकाओं से सुशोभित सुन्दर विमान उपस्थित हुआ उस समय धर्मात्मा राजा रत्नग्रीवने, जो भगवान्के कृपापात्र हो चुके थे, श्रीपुरुषोत्तमदेवका दर्शन करके उनके चरणोंमें प्रणाम किया तथा उनकी आज्ञा ले अपनी रानीके साथ विमानपर जा बैठे। फिर भगवान्के देखते-देखते अद्भुत वैकुण्ठलोकमें चले गये। राजाके मन्त्री भी धर्मपरायण तथा धर्मवेत्ताओंमें सबसे श्रेष्ठ थे अतः वे भी विमानपर बैठकर उनके साथ ही गये। सम्पूर्ण तीथोंमें स्नान करनेवाले तपस्वी ब्राह्मण भी चतुर्भुज – स्वरूपको प्राप्त होकर वैकुण्ठको चले गये। इसी प्रकार करम्वने भी भगवान्के गुणोंका गायन करनेके पुण्यसे उनका दर्शन पाया और सम्पूर्ण देवताओंके लिये दुर्लभ भगवद्-धामको प्रस्थान किया। सभी एक ही साथ परम अद्भुत विष्णुलोककी ओर प्रस्थित हुए। सबके चार-चार भुजाएँथीं। सबके हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पा रहे थे। सभी मेघके समान श्यामसुन्दर और विशुद्ध स्वभाववाले थे। सबके हाथ कमलोंकी भाँति सुशोभित थे। हार, केयूर और कड़ोंसे सभीके अंग विभूषित थे। इस प्रकार उन सब लोगोंने वैकुण्ठधामकी यात्रा की। साथमें आये हुए प्रजावर्गके लोगोंने विमानोंकी पंक्तियाँ देखीं तथा दुन्दुभीकी ध्वनिको भी श्रवण किया। उस समय एक ब्राह्मण भी वहाँ गये थे, जो भगवान्के चरणारविन्दोंमें बड़ा प्रेम रखनेवाले थे। उनके चित्तपर भगवद्विरहका इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि वे चतुर्भुज-स्वरूप हो गये। यह अद्भुत बात देखकर सब लोग ब्राह्मणके महान् सौभाग्यकी सराहना करने लगे और गंगासागर संगममें स्नान करके कांचीनगरीमें लौट आये। सब लोग कहते थे कि ‘उत्तम बुद्धिवाले महाराज रत्नग्रीवका अहोभाग्य है, जो वे इसी शरीरसे श्रीविष्णुके परमधामको चले गये।’
[ सुमति कहते हैं- ] राजन् ! यही वह नीलगिरि है, जिसका भगवान् पुरुषोत्तमने आदर बढ़ाया है। इसका दर्शन करनेमात्रसे मनुष्य परमपद – वैकुण्ठधामको प्राप्त हो जाते हैं। जो सौभाग्यशाली पुरुष नीलगिरिके इस माहात्म्यको सुनता है तथा जो दूसरे लोगोंको सुनाता है, वे दोनों ही परमधामको प्राप्त होते हैं। इसका श्रवण और स्मरण करनेमात्रसे बुरे सपने नष्ट हो जाते हैं तथा अन्तमें भगवान् पुरुषोत्तम इस संसारसे उद्धार कर देते हैं। ये नीलाचलनिवासी पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्रके ही स्वरूप हैं तथा देवी सीता साक्षात् महालक्ष्मी हैं। ये दोनों दम्पत्ति ही समस्त कारणोंके भी कारण हैं। भगवान् श्रीराम अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करके सम्पूर्ण लोकोंको पवित्र कर देंगे। उनका नाम ब्रह्महत्या के प्रायश्चित्तमें भी जपनेके लिये बताया गयाहै । [ रामनाम लेनेसे ब्रह्महत्या जैसे पातक भी दूर हो जाते हैं।] सुमित्रानन्दन! इस समय तुम्हारा यज्ञ सम्बन्धी घोड़ा पर्वतश्रेष्ठ नीलगिरिके निकट जा पहुँचा है। महामते ! तुम भी वहाँ चलकर भगवान् पुरुषोत्तमको नमस्कार करो। वहाँ जानेसे हम सब लोग निष्पाप होकर अन्तमें परमपदको प्राप्त होंगे; क्योंकि भगवान्के प्रसादसे अबतक अनेक मनुष्य भवसागरके पार हो चुके हैं।सुमति भगवान्की महिमाका वर्णन कर रहे थे; इतने हमें वह अश्व पृथ्वीको अपनी टापोंसे खोदता हुआ वायुके समान वेगसे चलकर नीलाचलपर पहुँच गया। तब राजा शत्रुघ्न भी उसके पीछे-पीछे जाकर नीलगिरिपर पहुँचे और गंगासागर-संगममें स्नान करके पुरुषोत्तमका दर्शन करनेके लिये गये। निकट जाकर उन्होंने देव दानववन्दित भगवान्को प्रणाम किया और उनकी स्तुति करके अपनेको कृतार्थ माना ।
अध्याय 111 चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
शेषजी कहते हैं- मुने! तदनन्तर वह घोड़ा नीलाचलपर थोड़ी देर ठहरकर घास चरता हुआ आगे बढ़ गया। उसका वेग मनके समान तीव्र था। श्रेष्ठ वीर शत्रुघ्न, राजा लक्ष्मीनिधि भयंकर वाहन वाले राजकुमार पुष्कल तथा राजा प्रतापाग्रय- ये सभी उसकी रक्षा कर रहे थे। कई करोड़ वीरोंसे सुरक्षित वह यज्ञसम्बन्धी अश्व क्रमशः आगे बढ़ता हुआ राजा सुबाहुद्वारा परिपालित चक्रांका नगरीके पास जा पहुँचा। उस समय राजाका पुत्र दमन शिकार खेल रहा था। उसकी दृष्टि उस घोड़ेपर पड़ी, जो चन्दन आदिसे चर्चित तथा मस्तकमें सुवर्णमय पत्रसे शोभायमान था। राजकुमार दमनने उस पत्रको बाँचा, सुन्दर अक्षरोंमें लिखा होनेके कारण उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। पत्रका अभिप्राय समझकर वह बोला-‘अहो! भूमण्डलपर मेरे पिताजीके जोते-जी यह इतना बड़ा अहंकार कैसा ? जिसने यह घमण्ड दिखाया है उसे मेरे धनुषसे छूटे हुए बाण इस उद्दण्डताका फल चखायेंगे। आज मेरे तीखे बाण शत्रुघ्नके समस्त शरीरको घायल करके उन्हें लहूलुहान कर देंगे, जिससे वे फूले हुए पलाशको भाँति दिखायी देंगे। आज सभी श्रेष्ठ योद्धा मेरी भुजाओंका महान् बल देखें! मैं अपने धनुर्दण्डसे करोड़ों बार्णोंकी वर्षा करूँगा।’
राजकुमार दमनने ऐसा कहकर घोड़ेको तो अपनेनगरमें भेज दिया और स्वयं हर्ष तथा उत्साहमें भरकर सेनापतिसे कहा- ‘महामते! शत्रुओंका सामना करनेके लिये मेरी सेना तैयार कर दो।’ इस प्रकार सेनाको सुसज्जित करके वह शीघ्र ही युद्ध क्षेत्रमें सामने जाकर डट गया। उस समय उसका स्वरूप बड़ा उग्र दिखायी देता था। इसी बीचमें घोड़ेके पीछे चलनेवाले योद्धा भी वहाँ आ पहुँचे और अत्यन्त व्याकुल होकर बारम्बार एक-दूसरेसे पूछने लगे- ‘महाराजका वह यज्ञसम्बन्धी अश्व, जो भालपत्रसे चिह्नित था, कहाँ चला गया ?’ इतनेहीमें शत्रुओंको ताप देनेवाले राजा प्रतापाग्रयने देखा, सामने ही कोई सेना तैयार होकर खड़ी है, जो वीरोचित शब्दोंका उच्चारण करती हुई गर्जना कर रही है। प्रतापाग्रयके सिपाहियोंने उनसे कहा-‘महाराज जान पड़ता है, यही राजा घोड़ा ले गया है; अन्यथा यह वीर अपने सैनिकोंके साथ हमारे सामने क्यों खड़ा होता ?’ यह सुनकर प्रतापाग्रयने अपना एक सेवक भेजा। उसने जाकर पूछा- ‘महाराज श्रीरामचन्द्रजीका अश्व कहाँ है ? कौन ले गया है ? क्यों ले गया है? क्या वह भगवान् श्रीरामचन्द्रजीको नहीं जानता ?’
राजकुमार दमन बड़ा बलवान् था, वह सेवकका ऐसा वचन सुनकर बोला- ‘अरे! भालपत्र आदि चिह्नोंसे अलंकृत उस यज्ञसम्बन्धी अश्वको मैं ले गया हूँ। उसकी सेवामें जो शूरवीर हों, वे आवें और मुझेजीतकर बलपूर्वक हाँसे घोड़ेको छुड़ा ले जायें।” राजकुमारका वचन सुनकर सेवकको बड़ा रोष हुआ, र तथापि वह हँसता हुआ वहाँसे लौट गया और राजाके पास जाकर उसने दमनकी कही हुई सारी बातें ज्यों की त्यों सुना दीं। उसे सुनते ही महाबली प्रतापाग्रयकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं और वे चार घोड़ोंसे सुशोभित सुवर्णमय रथ पर सवार हो बड़े- बड़े वीरोंको साथ ले राजकुमारसे युद्ध करनेके लिये चले। उनकी सहायतामें बहुत बड़ी सेना थी। आगे बढ़कर वे धनुषपर टंकार देने लगे। उस समय रोषपूर्ण नेत्रोंवाले राजा प्रतापाग्रयके पीछे-पीछे बहुत-से घुड़सवार और हाथीसवार भी गये। निकट जाकर प्रतापाग्रयने युद्धके लिये उद्यत राजकुमारको सम्बोधित करके कहा ‘कुमार! तू तो अभी बालक है। क्या तूने ही हमारे श्रेष्ठ घोड़ेको बाँध रखा है? अरे! समस्त वीरशिरोमणि जिनके चरणोंकी सेवा करते हैं, उन महाराज श्रीरामचन्द्रजीको तू नहीं जानता? दैत्यराज रावण भी जिनके अद्भुत प्रतापको नहीं सह सका, उन्हींके घोड़ेको ले जाकर तूने अपने नगर में पहुँचा दिया है जान ले, मैं तेरे सामने आया हुआ काल हूँ, तेरा घोर शत्रु हूँ। छोकरे ! तू अब तुरंत चला जा और घोड़ेको छोड़ दे, फिर जाकर बालकोंकी भाँति खेल-कूदमें जो बहला ।’
दमनका हृदय बड़ा विशाल था, वह प्रतापाग्रयकी ऐसी बातें सुनकर मुसकराया और उनकी सेनाको तिनकेके समान समझता हुआ बोला- ‘महाराज ! मैंने बलपूर्वक आपके घोड़ेको बाँधा और अपने नगरमें पहुँचा दिया है, अब जीते जी उसे लौटा नहीं सकता। आप बड़े बलवान् हैं तो युद्ध कीजिये। आपने जो यह कहा- ‘तू अभी बालक है, इसलिये जाकर खेल कूदमें जी बहला’ उसके लिये इतना ही कहना है कि अब आप बुद्धके मुहानेपर ही मेरा खेल देखिये।’
इतना कहकर सुबाहुकुमारने अपने धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ायी और राजा प्रतापाग्रयकी छातीको लक्ष्य करके सौ बाणोंका संधान किया। परन्तु राजा प्रतापाग्रथने अपने हाथकी फुर्ती दिखाते हुए उन सभीबाणोंके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। यह देखकर राजकुमार दमनको बड़ा क्रोध हुआ और वह बाणकी वर्षा करने लगा। तदनन्तर दमनने अपने धनुषपर तीन सौ बाणोंका संधान किया और उन्हें शत्रुपर चलाया। उन्होंने प्रतापाग्रयकी छाती छेद डाली और रक्तमें नहाकर वे उसी भाँति नीचे गिरे, जैसे श्रीरामचन्द्रजीकी भक्तिसे विमुख हुए पुरुषोंका पतन हो जाता है। इसके बाद राजकुमारने शंखध्वनिके साथ गर्जना की। उसका पराक्रम देखकर प्रतापाग्रय क्रोधसे जल उठे और बोले- ‘वीर! अब तू मेरा अद्भुत पराक्रम देख।’ यों कहकर उन्होंने तुरंत तीखे बाणोंकी बौछार आरम्भ कर दी। वे बाण घोड़े और पैदल-सबके ऊपर पड़ते दिखायी देने लगे। उस समय राजकुमार दमनने प्रतापाग्रयकी बाण वर्षाको रोककर कहा-‘आर्य! यदि आप शूरवीर हैं तो मेरी एक ही मार सह लीजिये। मैं अभिमानपूर्वक प्रतिज्ञा करके एक बात कहता हूँ, इसे सुनिये – वीरवर! यदि मैं इस बाणके द्वारा आपको रथसे नीचे न गिरा दूँ तो जो लोग युक्तिवाद कुशल होनेके कारण मतवाले होकर वेदोंकी निन्दा करते हैं, उनका वह नरकमें डुबोनेवाला पाप मुझे ही लगे।’ यह कहकर उसने कालके समान भयंकर, आगकी ज्वालाओंसे व्याप्त एवं अत्यन्त तीक्ष्ण बाण तरकशसे निकालकर अपने धनुषपर चढ़ाया। वह कालाग्निके समान देदीप्यमान हो रहा था। राजकुमारने अपने शत्रुके हृदयको निशाना बनाया और बाग छोड़ दिया। वह बड़े वेगसे शत्रुकी ओर चला। प्रतापाग्रयने जब देखा कि शत्रुका बाण मुझे गिरानेके लिये आ रहा है, तो उन्होंने उसे काट | डालने के लिये कई तीखे बाण अपने धनुषपर चढ़ाये । किन्तु राजकुमारका बाण प्रतापाप्रधके सब बाणको बीचसे काटता हुआ उनके धैर्ययुक्त हृदयतक पहुँच ही गया। हृदयपर चोट करके वह उसके भीतर घुस गया। राजा प्रतापाग्रय उसकी चोट खाकर पृथ्वीपर गिर पड़े। उन्हें मूच्छित चेतनाहीन एवं रथकी बैठकसे धरतीपर गिरा देख सारथिने उठाकर रथपर बिठाया और युद्धभूमिसे बाहर ले गया। उस समय राजाकी सेनामेंबड़ा हाहाकार मचा। समस्त योद्धा भागकर वहाँ पहुँचे जहाँ करोड़ों वीरोंसे घिरे हुए शत्रुघ्नजी मौजूद थे। प्रतापाग्रयको परास्त करके राजकुमार दमनने विजय पायी और अब वह शत्रुघ्नकी प्रतीक्षा – करने लगा।
उधर शत्रुघ्नको जब यह हाल मालूम हुआ तो 2 वे क्रोधमें भरकर दाँतोंसे दाँत पीसते हुए बारंबार सैनिकोंसे पूछने लगे- ‘कौन मेरा घोड़ा ले गया है? किसने शूर – शिरोमणि राजा प्रतापाग्रयको परास्त किया है?’ तब सेवकोंने कहा- ‘राजा बटुके पुत्र दमनने 1 प्रतापायको पराजित किया है और वे ही यज्ञका घोड़ा ले गये हैं।’ यह सुनकर शत्रुघ्न बड़े वेगसे चलकर युद्धभूमिमें आये वहीं उन्होंने देखा, कितने ही हाथियोंके गण्डस्थल विदीर्ण हो गये हैं, घोड़े अपने सवारॉसहित 6 घायल होकर मरे पड़े हैं। यह सब देखकर शत्रुघ्नके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये; वे अपने योद्धाओंसे बोले ‘यहाँ मेरी सेनामें सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंका ज्ञान रखनेवाला कौन ऐसा वीर है, जो राजकुमार दमनको परास्त कर सकेगा ?” शत्रुघ्नका यह वचन सुनकर शत्रुवीरोंका नाश करनेवाले पुष्कलके हृदयमें दमनको जीवनेका उत्साह हुआ और उन्होंने इस प्रकार कहा – ‘स्वामिन्! कहाँ यह छोटा सा राजकुमार दमन और कहाँ आपका असीम बल! महामते! मैं अभी जा रहा हूँ, आपके प्रतापसे दमनको परास्त करूँगा। युद्धके लिये मुझ सेवकके उद्यत रहते हुए कौन घोड़ा ले जायगा ? श्रीरघुनाथजीका प्रताप ही सारा कार्य सिद्ध करेगा। स्वामिन्! मेरी प्रतिज्ञा सुनिये; इससे आपको प्रसन्नता होगी। यदि मैं दमनको परास्त न करूँ तो श्रीरामचन्द्रजीके चरणारविन्दोंके रसास्वादनसे विलग (श्रीरामचरणचिन्तनसे दूर) रहनेवाले पुरुषोंको जो पाप लगता है, वही मुझे भी लगे। यदि मैं दमनपर विजय न पाऊँ तो जो पुत्र माताके चरणोंसे पृथक् दूसरा कोई तीर्थ मानकर उसके साथ विरोध करता है, उसको लगनेवाला पाप मुझे भी लगे।’
पुष्कलकी यह प्रतिज्ञा सुनकर शत्रुघ्नजीके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने उन्हें युद्धमें जानेकी आज्ञादे दी। आज्ञा पाकर पुष्कल बहुत बड़ी सेनाके साथ उस स्थानपर गये, जहाँ वीरवंशमें उत्पन्न राजकुमार दमन मौजूद था युद्धक्षेत्र पुष्कलको आया जान वीराग्रगण्य दमन भी अपनी सेनासे घिरा हुआ आगे बढ़ा। दोनोंका एक-दूसरेसे सामना हुआ। अपने-अपने रथपर बैठे हुए दोनों वीर बड़ी शोभा पा रहे थे, उस समय पुष्कलने महाबली राजकुमारसे कहा-‘दमन! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि मैं तुम्हारे साथ युद्ध करनेके लिये प्रतिज्ञा करके आया हूँ, मेरा नाम पुष्कल है. मैं भरतजीका पुत्र है तुम्हें अपने शस्त्रोंसे परास्त करूँगा। महामते! तुम भी हर तरहसे तैयार हो जाओ।’ पुष्कलकी उपर्युक्त बात सुनकर उसने हँसते-हँसते उत्तर दिया- ‘भरतनन्दन! मुझे राजा सुबाहुका पुत्र समझो, मेरा नाम दमन है पिताके प्रति भक्ति रखनेके कारण मेरे सारे पाप दूर हो गये हैं, महाराज शत्रुघ्नका घोड़ा ले जानेवाला मैं ही हूँ। विजय तो दैवके अधीन है, दैव जिसे देगा-जिसे अपनी कृपासे अलंकृत करेगा, उसे ही विजय मिलेगी। परन्तु तुम बुद्धके मुहानेपर डटे रहकर मेरा पराक्रम देखो।’
यों कहकर दमनने धनुष चढ़ाया और उसे कानतक खींचकर शत्रुओंके प्राण लेनेवाले तीखे बाणको छोड़ना आरम्भ किया। उन बाणोंने आकाशमण्डलको ढक लिया और उनकी छायासे सूर्यदेवकी किरणोंका प्रकाश भी रुक गया। राजकुमारके चलाये हुए उन बाणकी चोट खाकर कितने ही मनुष्य, रथ, हाथी और घोड़े धरतीपर लोटते दिखायी देने लगे। शत्रुवीरोंका नाश करनेवाले पुष्कलने उसका वह पराक्रम देखा तथा आचमन करके एक बाण हाथमें लिया और उसे अग्निदेव मन्यसे विधिपूर्वक अभिमन्त्रित करके अपने धनुषपर रखा। तदनन्तर भलीभाँति खींचकर उसे शत्रुओंके ऊपर छोड़ दिया। धनुषसे छूटते ही उस बाणसे युद्धके मुरनेपर भयंकर आग प्रकट हुई। वह अपनी ज्वालाओंसे आकाशको चाटती हुई प्रलयाग्निके समान प्रज्वलित हो उठी। फिर तो दमनकी सेना रणभूमिमें दग्ध होने लगी, उसके ऊपर त्रास छा गया और वह आगकी लपटोंसे पीड़ित होकर भाग चली।राजकुमार दमनके छोड़े हुए सभी बाण अग्निकी ज्वालाओंमें झुलसकर सब ओरसे नष्ट हो गये। अपनी सेना दग्ध होती देख दमन क्रोधसे भर गया। वह सभी अस्त्र-शस्त्रोंका विद्वान् था; इसलिये उसने वह आग बुझानेके लिये वरुणास्त्र हाथमें लिया और शत्रुपर छोड़ दिया। उसके छोड़े हुए वरुणास्त्रने रथ और घोड़े आदिसे भरी हुई पुष्कलकी सेनाको जलसे आप्लावित कर दिया। शत्रुओंके रथ और हाथी पानीमें डूबते दिखायी देने लगे तथा अपने पक्षके योद्धाओंको शान्ति मिली। पुष्कलने देखा, मेरी सेना जलराशिसे पीड़ित होकर काँपती, क्षुब्ध होती और नष्ट होती जा रही है तथा मेरा आग्नेयास्त्र शत्रुके वरुणास्त्रसे शान्त हो गया है। तब अत्यन्त क्रोधके कारण उसकी आँखें लाल हो गयीं और उसने वायव्यास्त्रसे अभिमन्त्रित करके एक बहुत बड़ा बाण अपने धनुषपर रखा । तदनन्तर वायव्यास्त्रकी प्रेरणासे बड़े जोरकी हवा उठी और उसने अपने वेगसे वहाँ घिरी हुई मेघोंकी घटाको छिन्न-भिन्न कर दिया। राजकुमार दमनने अपने सैनिकोंको वायुसे पराजित होते देख अपने धनुषपर पर्वतास्त्रका संधान किया। फिर तो शत्रुयोद्धाओंके मस्तकपर पर्वतोंकी वर्षा होने लगी। उन पर्वतोंने वायुकी गतिको रोक दिया।अब हवा कहीं भी नहीं जा पाती थी। यह देख पुष्कलने अपने धनुषपर वज्रास्त्रका प्रयोग किया। तब वज्रके आघातसे वे सभी पर्वत क्षणभरमें तिलके समान टुकड़े टुकड़े हो गये। साथ ही वह वज्र उच्चस्वरसे गर्जना करता हुआ राजकुमार दमनकी छातीपर बड़े वेगसे गिरा। छातीके बिंध जानेके कारण राजकुमारको गहरी चोट पहुँची, इससे उस बलवान् वीरको बड़ी व्यथा हुई। उसका हृदय व्याकुल हो उठा और वह मूर्च्छित हो गया। दमनका सारथि युद्धनीतिमें निपुण था । वह राजकुमारको मूच्छित देखकर उसे रणभूमिसे एक कोस दूर हटा ले गया। फिर तो उसके योद्धा अदृश्य हो गये – इधर-उधर भाग खड़े हुए और राजधानीमें जाकर उन्होंने राजकुमारके मूच्छित होनेका समाचार कह सुनाया। पुष्कल धर्मके ज्ञाता थे; उन्होंने संग्राम भूमिमें इस प्रकार विजय पाकर श्रीरघुनाथजीके वचनोंका स्मरण करते हुए फिर किसीपर प्रहार नहीं किया। तदनन्तर दुन्दुभि बज उठी, जोर-जोरसे जय-जयकार होने लगा। सब ओरसे साधुवादके मनोहर वचन सुनायी देने लगे। पुष्कलको विजयी देखकर शत्रुघ्न बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने सुमति आदि मन्त्रियोंसे घिरकर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की।
अध्याय 112 राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
शेषजी कहते हैं— मुने! उधर राजा सुबाहुने जब देखा कि मेरे सैनिक रक्तमें डूबे हुए आ रहे हैं तो उनका शोक शान्त-सा करते हुए उन्होंने अपने पुत्रकी करतूत पूछी। राजाका प्रश्न सुनकर उनके सेवकोंने, जो खूनसे लथपथ हो रहे थे तथा जिन्होंने रक्तसे भीगे हुए वस्त्र धारण कर रखा था, इस प्रकार उत्तर दिया- ‘राजन् ! आपके पुत्रने स्वर्णमय पत्र आदिके चिह्नोंसे अलंकृत यज्ञसम्बन्धी अश्वको जब आते देखा तो वीरताके गर्वसे शत्रुघ्नको तिनकेके समान समझकर उनकी कुछ भी परवा न करके उसे पकड़वा लिया। इतनेहीमें घोड़ेके पीछे चलनेवाला रक्षक थोड़ी-सी सेनाके साथ वहाँ आपहुँचा। उसके साथ राजकुमारका बड़ा भारी युद्ध हुआ, जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। आपके पुत्र दमन अपने बाणोंसे उस अश्व-रक्षकको मूर्च्छित करके ज्यों ही स्थिर हुए त्यों ही शत्रुघ्न भी अपनी सेनाओंसे घिरे हुए उपस्थित हो गये । तदनन्तर दोनों दलोंमें बड़ा भयंकर युद्ध छिड़ा, उसमें सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंका प्रयोग होने लगा। उस युद्धमें आपके महाबली पुत्रने अनेकों बार विजय पायी है, किन्तु इस समय शत्रुघ्नके भतीजेने वज्रास्त्र छोड़कर आपके वीर पुत्रको रणभूमिमें मूच्छित कर दिया है।’
सेवकोंकी यह बात सुनकर राजा सुबाहु राजधानीसेनिकलकर उस स्थानको चले, जहाँ उनके पुत्रको पीड़ा पहुँचानेवाले शत्रुघ्न मौजूद थे।
राजा सुबाहुको सुवर्णभूषित रथपर सवार हो नगरसे निकलते देख समस्त शत्रुओंपर प्रहार करनेवाली शत्रुघ्नकी सेना युद्धके लिये तैयार हो गयी। राजा सुबाहुके भाईका नाम था सुकेतु, वे गदायुद्धमें प्रवीण थे। वे भी अपने रथपर सवार होकर युद्धके लिये आये राजाका पुत्र चित्रांग सब प्रकारकी युद्धकलामें निपुण था। वह भी रथारूढ़ होकर शीघ्र ही शत्रुघ्नकी मतवाली सेनापर चढ़ आया। उसके छोटे भाईका नाम था विचित्र वह विचित्र प्रकारसे संग्राम करनेमें कुशल था। अपने भाईका दुःख सुनकर उसके मनमें बड़ी व्यथा हो रही थी, इसलिये वह भी सोनेके रथपर सवार हो युद्धके लिये उपस्थित हुआ । इनके सिवा और भी अनेकों धनुर्धर वीर, जो सभी अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता थे, राजाकी आज्ञा पाकर वीरोंसे भरी हुई संग्रामभूमिमें गये। राजा सुबाहुने बड़े रोषमें भरकर युद्धक्षेत्रमें पदार्पण किया और वहाँ अपने पुत्रको बाणोंसे पीड़ित एवं मूच्छित देखा। अपने प्यारे पुत्र दमनको रथकी बैठकमें मूर्च्छित होकर पड़ा देख राजाको बड़ा दुःख हुआ और वे पल्लवोंसे उसके ऊपर हवा करने लगे। उन्होंने कुमारके शरीरपर जलका छींटा दिया और अपने कोमल हाथसे उसका स्पर्श किया। इससे महान् अस्त्रवेत्ता वीरवर दमनको धीरे-धीरे चेत हो आया। होशमें आते ही दमनउठ बैठा और बोला- ‘मेरा धनुष कहाँ है? और पुष्कल यहाँसे कहाँ चला गया ? मुझसे भिड़कर मेरे बाणके आघातसे पीड़ित होकर वह युद्ध छोड़कर कहाँ भाग गया ?’ पुत्रके ये वचन सुनकर राजा सुबाहु बड़े प्रसन्न हुए और उसे छातीसे लगा लिया। पिताको उपस्थित देख दमनने लज्जासे गर्दन झुका ली। उसका सारा शरीर अस्त्रोंकी मारसे घायल हो गया था, तो भी उसने बड़ी भक्तिके साथ पिताके चरणोंमें मस्तक रखकर प्रणाम किया। बेटेको पुनः रथपर बिठाकर युद्धकर्ममें कुशल राजा सुबाहुने सेनापतिसे कहा – ‘इस युद्धमें तुम अपनी सेनाको क्रौंच – व्यूहके रूपमें खड़ी करो; उस व्यूहको जीतना शत्रुके लिये अत्यन्त कठिन है। उसीका आश्रय लेकर मैं राजा शत्रुघ्नकी सेनापर विजय प्राप्त करूँगा।’ महाराज सुबाहुकी बात सुनकर सेनापतिने अपने सैनिकोंका क्रौंच नामक सुन्दर व्यूह बनाया उसमें मुखके स्थानपर सुकेतु और कण्ठकी जगह चित्रांग खड़े हुए। पंखोंके स्थानपर दोनों राजकुमार दमन और विचित्र थे। स्वयं राजा सुबाहु व्यूहके पुच्छ भागमें स्थित हुए। मध्यभागमें उनकी विशाल सेना थी, जो रथ, गज, अश्व और पैदल-इन चारों अंगोंसे शोभा पा रही थी। इस प्रकार विचित्र क्रौंच – व्यूहकी रचना करके सेनाध्यक्षने राजासे निवेदन किया- ‘महाराज ! व्यूह सम्पन्न हो गया।’
अध्याय 113 राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
शेषजी कहते हैं—मुनिवर। राजा सुब्बाको सेनाका आकार बड़ा भयंकर दिखायी देता था, वह मेघोंकी घटाके समान जान पड़ती थी। उसे देखकर शत्रुघ्नने अपने मन्त्री सुमतिसे गम्भीर वाणीमें कहा- ‘मन्त्रिवर! मेरा घोड़ा किसके नगरमें जा पहुँचा है? यह सेना तो समुद्रकी लहरोंके समान दिखायी पड़ती है।’
सुमतिने कहा- राजन् ! यहाँसे पास ही चक्रांका नामवाली सुन्दर नगरी विराजमान है। उसके भीतर ऐसेमनुष्य निवास करते हैं, जो भगवान् विष्णुकी भक्तिसे पापरहित हो गये हैं। ये धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ राजा सुबाहु उसी नगरीके स्वामी हैं। इस समय ये अपने पुत्र-पौत्रोंके साथ तुम्हारे सामने विराजमान हैं। ये नरेश सदा अपनी ही स्त्रीके प्रति अनुराग रखते हैं। परायी स्त्रियोंपर कभी दृष्टि नहीं डालते। इनके कानोंमें सदा विष्णुकी ही कथा गूँजती है। अन्य विषयोंका प्रतिपादन करनेवाली कथा – वार्ता ये कभी नहीं सुनते। प्रजाकी आयके छठे भागसे अधिक दूसरेका धन कभी नहीं ग्रहण करते। येधर्मात्मा हैं और विष्णु-बुद्धिसे ब्राह्मणोंकी पूजा करते हैं। सदा भगवान्की सेवामें लगे रहते और भगवान् विष्णुके चरणारविन्दोंका मकरन्द पान करनेके लिये भ्रमरकी भाँति लोलुप बने रहते हैं। परधर्मसे विमुख हो सदा स्वधर्मका ही सेवन करते हैं। वीरोंमें कहीं भी इनके बलकी समानता नहीं है। इस समय अपने पुत्रका युद्धके मैदानमें गिरना सुनकर ये क्रोध और शोकसे व्याकुल होकर युद्धके लिये उपस्थित हुए हैं।
मन्त्रीकी बात सुनकर शत्रुघ्नने अपने श्रेष्ठ योद्धाओंसे कहा—’वीरो राजा सुबाहुके सैनिकोंने आज क्रौंच व्यूहका निर्माण किया है। इसके मुख और पक्षभागमें प्रधान-प्रधान योद्धा खड़े हुए हैं। तुमलोगों में कौन ऐसा शस्त्रवेत्ता है, जो उन वीरोंका भेदन करेगा ? जिसमें व्यूहका भेदन करनेकी शक्ति हो, जो वीरोंपर विजय पानेके लिये उद्यत हो, वह मेरे हाथसे पानका बीड़ा उठा ले।’ उस समय वीर लक्ष्मीनिधिने क्रौंच व्यूहको तोड़नेकी प्रतिज्ञा करके बीड़ा उठा लिया। पुष्कलने उनके पीछे सहायताके लिये जानेका विचार किया। तदनन्तर शत्रुघ्नकी आज्ञासे रिपुताप, नीलरत्न, उग्रास्य और वीरमर्दन- ये सब लोग क्रौंच-व्यूहका भेदन करनेके लिये लक्ष्मीनिधिके साथ गये।
व्यूहके मुख-भागमें सुकेतु खड़े थे, उनसे लक्ष्मीनिधिने कहा—’मैं राजा जनकका पुत्र हूँ, मेरा नाम लक्ष्मीनिधि है; मैं कहता हूँ, समस्त दानवकुलका विनाश करनेवाले भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके यज्ञसम्बन्धी अश्वको छोड़ दो, नहीं तो मेरे बाणोंसे घायल होकर तुम्हें यमराजके लोक जाना पड़ेगा।’ वीराग्रगण्य लक्ष्मीनिधिके ऐसा कहनेपर महाबली सुकेतुने बड़े वेगसे अपना धनुष चढ़ाया और तुरंत ही रण- क्षेत्रमें बाणोंकी झड़ी लगा दी। यह देख लक्ष्मीनिधिने भी अपने धनुषकी प्रत्यंचा चढ़ायी और सुकेतुके बाण समूहको वेगपूर्वक नष्ट करके उनकी छातीमेंछः तीखे बाण मारे। उनके प्रहारसे सुकेतुकी छाती छिद गयी। इससे क्रोधमें भरकर उन्होंने बीस तीखे बाणोंसे लक्ष्मीनिधिको मारा। तब लक्ष्मीनिधिने अपने धनुषपर अनेकों सुदृढ़ एवं तेज धारवाले बाण चढ़ाये। उनमेंसे चार सायकोंद्वारा उन्होंने सुकेतुके घोड़ोंको मार डाला, एकसे उनकी भयंकर ध्वजाको हँसते-हँसते काट गिराया, एक बाणसे सारथिका मस्तक धड़से अलग करके पृथ्वीपर डाल दिया, एकके द्वारा उन्होंने रोषमें भरकर प्रत्यंचासहित सुकेतुके धनुषको काट डाला तथा एक बाणसे उनकी छातीमें बड़े वेगसे प्रहार किया। लक्ष्मीनिधिके इस अद्भुत कर्मको देखकर समस्त वीरोंको बड़ा विस्मय हुआ ।
धनुष, रथ, घोड़े और सारथिके नष्ट हो जानेपर सुकेतु बहुत बड़ी गदा हाथमें लेकर युद्धके लिये आगे बढ़े। गदायुद्धमें कुशल शत्रुको विशाल गदा लिये आते देख लक्ष्मीनिधि भी लोहेकी बनी हुई भारी गदा लेकर रथसे उतर पड़े और गदायुद्धमें प्रवीण वे दोनों वीर एक दूसरेको जीतनेके लिये अत्यन्त क्रोधपूर्वक युद्ध करने लगे। उस समय लक्ष्मीनिधिने कुपित होकर गदा ऊपर उठायी और सुकेतुकी छातीपर गहरी चोट पहुँचाने के लिये वे बड़े वेगसे उनकी ओर झपटे; किन्तु महाबली सुकेतुने उनकी चलायी हुई गदाको अपने हाथमें पकड़ लिया और पुनः वही गदा उनकी छातीमें दे मारी। अपनी गदाको शत्रुके हाथमें गयी देख राजा लक्ष्मीनिधिने बाहु युद्धके द्वारा लड़नेका विचार किया। फिर तो दोनों एक दूसरेसे गुथ गये, पैरमें पैर, हाथमें हाथ और छातीमें छाती सटाकर बड़े वेग से युद्ध करने लगे। इस प्रकार एक दूसरेका वध करनेकी इच्छासे परस्पर भिड़े हुए वे दोनों वीर आपसके बलसे आक्रान्त होकर मूच्छित हो गये, यह देखकर हजारों योद्धा विस्मय-विमुग्ध हो उन दोनोंकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे- ‘राजा लक्ष्मीनिधि धन्य हैं! तथा महाराज सुबाहुके बलवान् भ्राता सुकेतु भी धन्य हैं!!’
अध्याय 114 पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
शेषजी कहते हैं- मुने। राजकुमार चित्रांग क्रौंच व्यूहके कण्ठभागमें रथपर विराजमान था। अनेकों वीरोंसे घिरे हुए होनेके कारण उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। वाराहावतारधारी भगवान् विष्णुने जिस प्रकार समुद्रमें प्रवेश किया था, उसी प्रकार उसने भी शत्रुघ्नको सेनामें प्रवेश किया। उसका धनुष अत्यन्त सुदृढ़ और मेघ गर्जनाके समान टंकार करनेवाला था। चित्रांगने उसे खींचकर चढ़ाया और करोड़ों शत्रुओंको भस्म करनेवाले तीखे बाणोंका प्रहार आरम्भ किया। उन बाणोंसे समस्त शरीर छिन्न-भिन्न हो जानेके कारण बहुत से योद्धा धराशायी हो गये। इस प्रकार घोर संग्राम आरम्भ हो जानेपर पुष्कल भी युद्धके लिये गये। चित्रांग और पुष्कल दोनों एक-दूसरेसे भिड़ गये। उस समय उन दोनोंका स्वरूप बड़ा हो मनोहर दिखायी देता था। पुष्कलने सुन्दर भ्रामकास्त्रका प्रयोग करके चित्रांगके दिव्य रथको आकाशमें घुमाना आरम्भ किया। यह एक अद्भुत-सी बात हुई। एक मुहूर्ततक आकाशमें चक्कर लगानेके बाद घोड़ोंसहित वह रथ बड़े कष्टसे स्थिर हुआ और युद्धभूमिमें आकर ठहरा। उस समय चित्रांगने कहा- ‘पुष्कल तुमने बड़ा उत्तम पराक्रम दिखाया श्रेष्ठ योद्धा संग्राममें ऐसे कर्मोंकी बड़ी सराहना करते हैं। तुम घोड़ोंसहित मेरे रथको आकाशमें घुमाते रह गये। किन्तु अब मेरा भी पराक्रम देखो, जिसकी शूरवीर प्रशंसा करते हैं।’ ऐसा कहकर चित्रांगने युद्धमें बड़े भयंकर अस्त्रका प्रयोग किया। उस बाणसे आवद्ध होकर पुष्कलका रथ आकाशमें पक्षीकी भाँति घोड़े और सारथिसहित चक्कर लगाने लगा। पुत्रका यह पराक्रम देखकर राजा सुबाहुको बड़ा विस्मय हुआ।
शत्रुवीरोंका दमन करनेवाले पुष्कल जब किसी तरह धरतीपर आकर ठहरे तो उन्होंने घोड़े और सारथिसहित चित्रांगके रथको अपने बाणोंसे नष्ट कर दिया। जब वह रथ टूट गया तो चीर चित्रांग पुनः दूसरेरथपर सवार हुआ परन्तु पुष्कलने लगे हाथ उसे भी अपने बाणोंसे नष्ट कर डाला। इस प्रकार उस युद्धके मैदानमें वीर पुष्कलने राजकुमार चित्रांगके दस रथ चौपट कर दिये। तब चित्रांग एक विचित्र रथपर सवार होकर पुष्कलके साथ युद्ध करनेके लिये बड़े वेग से आया। उसने क्रोधमें भरकर पाँच भल्ल हाथमें लिये और महातेजस्वी भरतपुत्रके मस्तकको उनका निशाना बनाया। उन भल्लोंकी चोट खाकर पुष्कल क्रोधसे जल उठे और धनुषपर बाणका सन्धान करके चित्रांगको मार डालनेकी प्रतिज्ञा करते हुए बोले-‘चित्रांग! यदि इस बाणसे मैं तुम्हारे प्राण न ले लूँ तो शील और सदाचारसे शोभा पानेवाली सती नारीको कलंकित करनेसे यमराजके वशमें पड़े हुए पापी मनुष्योंको जिस लोककी प्राप्ति होती है, वही मुझे भी मिले ! मेरी यह प्रतिज्ञा सत्य हो ।’ पुष्कलका यह उत्तम वचन सुनकर शत्रुपक्ष के वीरोंका नाश करनेवाला बुद्धिमान् वीर चित्रांग हंसकर बोला-‘शूरशिरोमणे प्राणियोंकी मृत्यु सदा और सर्वत्र ही हो सकती है; अतः मुझे अपने मरनेका दुःख नहीं है; किन्तु तुम मेरे वधके लिये जो बाण छोड़ोगे, उसे मैं यदि काट न डालूँ तो उस अवस्थामें मेरी प्रतिज्ञा सुनो-जो मनुष्य तीर्थ-यात्राकी इच्छा रखनेवाले पुरुषका मानसिक उत्साह नष्ट करता है, उसको लगनेवाला पाप मुझे भी लगे क्योंकि उस दशामें मैं प्रतिज्ञा-भंगका अपराधी समझा जाऊँगा।’ इतना कहकर चित्रांग चुप हो गया। उसने अपने धनुषको सँभाला।
पुष्कल बोले- ‘यदि मैंने निष्कपट भावसे श्रीरामचन्द्रजीके युगल चरणोंकी उपासना की हो तो मेरी बात सच्ची हो जाय। यदि मैं अपनी स्त्रीके सिवा दूसरी किसी स्वीका मनमें भी विचार न करता हो तो इस सत्यके प्रभावसे युद्धमें मेरा वचन सत्य हो। यह कहकर पुष्कलने तुरंत ही अपने धनुषपर एक बाण चढ़ाया, जो कालाग्निके समान तेजस्वी तथा बोकेमस्तकका उच्छेद करनेवाला था। उस बाणको उन्होंने चित्रांगके ऊपर छोड़ दिया। वह बाण छूटता देख बलवान् राजकुमारने भी धनुषपर कालाग्निके समान एक तीक्ष्ण बाण रखा और उससे अपने वधके लिये आते हुए पुष्कलके बाणको काट डाला। उस समय बाणके कट जानेपर पुष्कलकी सेनामें भारी हाहाकार मचा। कटे हुए बाणका पिछला आधा भाग धरतीपर गिर पड़ा, किन्तु पूर्वार्ध भाग, जिसमें बाणका फल (नॉक) जुड़ा हुआ था, आगे बढ़ा। उसने एक ही क्षणमें कमलकी नालके समान चित्रांगका गला काट डाला। राजकुमारका सुन्दर मस्तक किरीट और कुण्डलसहित पृथ्वीपर गिर पड़ा और आकाशसे गिरे हुए चन्द्रमाकी भाँति शोभा पाने लगा। भरतकुमार वीरवर पुष्कलने राजकुमार चित्रांगको भूमिपर पड़ा देख उस क्रौंच व्यूहके भीतर प्रवेश किया, जो समस्त बोरोंसे सुशोभित हो रहा था।
तदनन्तर अपने पुत्र चित्रांगको प्राणहीन होकर धरतीपर पड़ा देख राजा सुबाहु पुत्रशोकसे अत्यन्त दुःखी होकर विलाप करने लगे। उस समय राजकुमार विचित्र और दमन अपने-अपने रथपर बैठकर आये और पिताके चरणोंमें प्रणाम करके समयोचित वचन बोले- ‘राजन्! हमलोगोंके जीते जी आपके हृदयमें दुःख क्यों हो रहा है वीर पुरुषोंको तो बुद्धमें मृत्यु अत्यन्त अभीष्ट होती है। यह चित्रांग धन्य है, जो वीरभूमिमें शोभा पा रहा है। महामते! आप शोक छोड़िये, दुःखसे इतने आतुर क्यों हो रहे हैं? मान्यवर! हम दोनोंको युद्धके लिये आज्ञा दीजिये और स्वयं भी युद्धमें मन लगाइये।’ अपनी वीरतापर गर्व करनेवाले दोनों पुत्रोंका यह वचन सुनकर महाराजने शोक छोड़ दिया और युद्धके लिये निश्चय किया। साथ ही संग्राममें उन्मत्त होकर लड़नेवाले वे दोनों भाई विचित्र और दमन भी अपने समान योद्धाकी अभिलाषा करते हुए असंख्य सैनिकोंसे भरी हुई शत्रुकी सेनायें घुस गये। दमनने रिपुतापके और विचित्रने नीलरत्नके साथ लोहा लिया। वे दोनों वीर रणभूमिमें उत्साहपूर्वक युद्ध करने लगे। स्वयं राजासुबाहु सुवर्णजटित रथपर सवार हो करोड़ों वीरोंसे घिरे हुए शत्रुध्नके साथ युद्ध करनेके लिये चले सुबाहुको पुत्रवधके कारण रोषमें भरकर युद्धके लिये आते और सैनिकोंका नाश करते देखकर शत्रुघ्नके पार्श्वभागकी रक्षा करनेवाले हनुमान्जी उनकी ओर दौड़े। नख ही उनके आयुध थे और वे युद्धमें मेषको भाँति विकट गर्जना कर रहे थे। उस समय सुबाहुने दस बाणोंसे हनुमान्जीकी छातीमें बड़े वेगसे चोट की। परन्तु हनुमानजी बड़े भयंकर वीर थे। उन्होंने सुबाहुके छोड़े हुए सभी बाण अपने हाथसे पकड़ लिये और उन्हें तिल-तिल करके तोड़ डाला। वे महान् बलवान् तो थे ही राजाके रथको अपनी पूँछमें लपेटकर वेगपूर्वक खींच ले चले। उन्हें रथ लेकर जाते देख नृपश्रेष्ठ सुबाहु आकाशमें ही खड़े हो गये और तीखी नोंकवाले सायकोंसे उनकी पूँछ, मुख, हृदय, बाहु और चरणोंमें बारम्बार चोट पहुँचाने लगे तब कपिवर हनुमानजीको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने वेगसे उछलकर उत्तम योद्धाओंसे सुशोभित राजा सुबकी छातीमें लात मारी। राजा उनके चरण-प्रहारसे मूच्छित होकर धरतीपर गिर पड़े और मुखसे गरम-गरम रक्त वमन करने लगे। उस समय वे जोर-जोरसे साँस लेते हुए काँप रहे थे। मूर्च्छावस्थामें ही राजाने एक स्वप्न देखा-‘अयोध्यापुरीमें सरयूके तटपर भगवान् श्रीरामचन्द्रजी यज्ञ मण्डपके भीतर विराजमान है। यज्ञ करानेवालोंमें श्रेष्ठ अनेक ब्राह्मण उन्हें घेरकर बैठे हुए हैं। ब्रह्मा आदि देवता और करोड़ों ब्रह्माण्डके प्राणी हाथ जोड़े खड़े हैं तथा बारम्बार भगवान्की स्तुति कर रहे है भगवान् श्रीरामका विग्रह श्याम रंगका है, उनके नेत्र सुन्दर हैं। उन्होंने अपने हाथमें मृगका सींग धारण कर रखा है। नारद आदि देवर्षिगण हाथोंसे वीणा बजाते हुए उनका सुयश गान कर रहे हैं। चारों वेद मूर्तिमान् होकर रघुनाथजीकी उपासना करते हैं। संसारमें जो कुछ भी सुन्दर वस्तुएँ हैं, उन सबके दाता पूर्ण ब्रह्म भगवान् श्रीराम ही हैं।’
इस प्रकार स्वप्न देखते-देखते वे जाग उठे, उन्हें चेत हो आया। फिर तो वे शत्रुघ्नजीके चरणोंकी ओरपैदल ही चल दिये। धर्मज्ञ महाराजने युद्धके लिये उद्यत हुए सुकेतु, विचित्र और दमनको बुलाकर लड़ने से रोका और कहा- ” अब शीघ्र ही युद्ध बंद करो, दमन! यह बहुत बड़ा अन्याय हुआ, जो तुमने भगवान् श्रीरामके तेजस्वी अश्वको पकड़ लिया। ये इ श्रीरामचन्द्रजी कार्य और कारणसे परे साक्षात् परब्रह्म हैं, चराचर जगत्के स्वामी हैं, मानव शरीर धारण करनेपर भी वे वास्तवमें मनुष्य नहीं हैं। इन्हें इस रूपमें जान लेना ही ब्रह्मज्ञान है। इस तत्त्वको मैं अभी समझ पाया हूँ। मेरे पापहीन पुत्रो ! पूर्वकालमें असितांगमुनिके शापसे मेरा ज्ञानरूपी धन नष्ट हो गया था। [ वह प्रसंग मैं सुना रहा हूँ-] प्राचीन समयकी बात है, मैं तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छासे तीर्थयात्राके लिये निकला था। उस यात्रामें मुझे अनेकों धर्मज्ञ ऋषि महर्षियोंके दर्शन हुए। एक दिन ज्ञान प्राप्तिको इच्छासे मैं असितांगमुनिकी सेवामें गया। उस समय उन ब्रह्मर्षिने मेरे ऊपर कृपा करके इस प्रकार उपदेश देना आरम्भ किया- ‘वे जो अयोध्यापुरीके स्वामी महाराज श्रीरामचन्द्रजी हैं, उन्हींका नाम परब्रह्म है तथा जो उनकी धर्मपत्नी जनककिशोरी भगवती सीता हैं, वे भगवान्की साक्षात् चिन्मयी शक्ति मानी गयी हैं। दुस्तर एवं अपार संसार सागरसे पार जानेकी इच्छा रखनेवाले योगीजन यम-नियम आदि साधनोंके द्वारा साक्षात् श्रीरघुनाथजीको ही उपासना करते हैं। वे ही ध्वजामें गरुड़का चिह्न धारण करनेवाले भगवान् नारायण हैं। स्मरण करनेमात्रसे ही वे बड़े-बड़े पापको हर लेते हैं। जो विद्वान् उनकी उपासना करेगा, वह इस संसार समुद्रसे तर जायगा।’ मुनिकी बात सुनकर मैंने उनका ‘उपहास करते हुए कहा- ‘राम कौन बड़े शक्तिशाली हैं। ये तो एक साधारण मनुष्य हैं। इसी प्रकार हर्ष और शोकमें डूबी हुई ये जानकीदेवी भी क्या चीज हैं? जो अजन्मा है, उसका जन्म कैसा? तथा जो अकर्ता है, उसके लिये संसारमें आनेका क्या प्रयोजन है? मुने! मुझे तो आप उस तत्त्वत्का उपदेश दीजिये, जो जन्म, दुःख और जरावस्थासे परे हो।’ मेरे ऐसा कहनेपर उन विद्वान् मुनीश्वरने मुझे शाप दे दिया। वे बोले-ओनीच! तू श्रीरघुनाथजीके स्वरूपको नहीं जानता तो भी मेरे कथनका प्रतिवाद कर रहा है, इन भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी निन्दा करता है और ये साधारण मनुष्य हैं’ ऐसा कहकर उनका उपहास कर रहा है; इसलिये तु तत्त्वज्ञान शून्य होकर केवल पेट पालने तू लगा रहेगा।’ यह सुनकर मैंने महर्षिके चरण पकड़ लिये और अपने प्रति उनके हृदयमें दयाका संचार किया। वे करुणाके सागर थे, मेरी प्रार्थनासे पिघल गये और बोले—’ राजन्! जब तुम श्रीरघुनाथजीके हमें विघ्न डालोगे और हनुमानजी वेगपूर्वक तुम्हारे ऊपर चरण-प्रहार करेंगे, उसी समय तुम्हें भगवान् श्रीरामके स्वरूपका ज्ञान होगा; अन्यथा अपनी बुद्धिसे तुम उन्हें नहीं जान सकोगे।’ मुनिवर असितांगने पहले ही जो बात बतायी थी, उसका इस समय मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। अतः अब मेरे महावली सैनिक रघुनाथजीके शोभायमान अश्वको ले आवें। उसके साथ ही मैं बहुत सा धन-वस्त्र तथा यह राज्य भी भगवान्को अर्पण कर दूँगा वह यज्ञ अत्यन्त पुण्य प्रदान करनेवाला है। उसमें श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन करके मैं कृतार्थ हो जाऊँगा, इसलिये घोड़ेसहित अपना सर्वस्व समर्पण कर देना ही मुझे अच्छा जान पड़ता है।”
उत्तम रीति से युद्ध करनेवाले सुपुत्रोंने पिताको बात सुनकर बड़ा हर्ष प्रकट किया। वे महाराज सुबाहुको श्रीरघुनाथजीके दर्शनके लिये उत्कण्ठित देखकर उनसे बोले-‘राजन् हमलोग आपके चरणोंके सिवा और कुछ नहीं जानते, अतः आपके हृदयमें जो शुभ संकल्प प्रकट हुआ है, वह शीघ्र ही पूर्ण होना चाहिये सफेद चैवरसे सुशोभित रत्न और माला आदिकी शोभासे सम्पन्न तथा चन्दन आदिके द्वारा चर्चित यह यज्ञसम्बन्धी अश्व शत्रुघ्नजीके पास ले जाइये। आपकी आज्ञाके अनुसार उपयोग होनेमें ही इस राज्यकी सार्थकता है। स्वामिन् प्रचुर समृद्धियोंसे भरे हुए कोष, हाथी घोड़े, वस्त्र, रत्न, मोती तथा मूँगे आदि द्रव्य लाखोंकी संख्या है। इनके सिवा और भी जो-जो महान् अभ्युदयकी वस्तुएँ हैं, उन सबकोश्रीरामचन्द्रजीकी सेवामें समर्पित कीजिये। महामते ! हम सभी पुत्र आपके किंकर हैं, हमें भी भगवान्की सेवामें अर्पण कीजिये।’
ये वचन सुनकर महाराज सुबाहुको बड़ा हर्ष हुआ। वे आज्ञा-पालनके लिये उद्यत हुए अपने वीर पुत्रोंसे इस प्रकार बोले- ‘तुम सब लोग हाथोंमें हथियार ले नाना प्रकारके रथोंसे घिरकर कवच आदिसे सुसज्जित हो घोड़ेको यहाँ ले आओ। तत्पश्चात् मैं राजा शत्रुघ्नके पास चलूँगा।’
शेषजी कहते हैं – राजा सुबाहुके वचन सुनकर विचित्र, दमन, सुकेतु तथा अन्यान्य शूरवीर उनकी आज्ञाका पालन करनेके लिये उद्यत हो नगरमें गये। और उस मनोहर अश्वको, जो सफेद चँवरसे संयुक्त और स्वर्णपत्र आदिसे अलंकृत था, राजाके सामने ले आये। रत्नमाला आदिसे विभूषित और मनके समान वेगवान् उस अश्वमेध यज्ञके घोड़ेको लाया गया देख बुद्धिमान् राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे अपने पुत्र-पौत्रोंके साथ परम धार्मिक शत्रुघ्नजीके समीप पैदल ही चले। उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि ‘यह धन नश्वर है, जो लोगइसमें आसक्त होते हैं; उन्हें यह दुःख ही देता है।’ यही सोचकर वे विनाशकी ओर जानेवाले धनका सदुपयोग करनेके लिये वहाँसे चले। निकट जाकर उन्होंने देखा- शत्रुघ्नी श्वेतबसे सुशोभित है तथा मन्त्री सुमतिसे भगवान् श्रीरामको कथावार्ता पूछ रहे हैं। भयकी बात तो उन्हें छू भी नहीं सकी थी। वे वीरोचित शोभासे उद्दीप्त हो रहे थे।
उनका दर्शन करके पुत्रसहित राजा सुबाहुने शत्रुघ्नजीके चरणोंमें प्रणाम किया और अत्यन्त हर्षमें भरकर कहा-‘मैं धन्य हो गया।’ उस समय उनका मन एकमात्र श्रीरघुनाथजीके चिन्तनमें लगा हुआ था। शत्रुघ्नने देखा ये उद्भट राजा सुबाहु मेरे प्रेमी होकर मिलने आये हैं, तो वे आसनसे उठ खड़े हुए और सबके साथ बाँहें पसारकर मिले। विपक्षी वीरोंका नाश करनेवाले राजा सुबाहुने शत्रुघ्नजीका भलीभाँति पूजन करके अत्यन्त हर्ष प्राप्त किया और गद्गद स्वरसे कहा- ‘करुणानिधे आज मैं पुत्र, कुटुम्ब और वाहनसहित धन्य हो गया; क्योंकि इस समय मुझे करोड़ों राजाओंद्वारा अभिवन्दित आपके चरणोंका दर्शन हो रहा है। मेरा पुत्र दमन अभी नादान है, इसीलिये इसने इस श्रेष्ठ अश्वको पकड़ लिया है; आप इसके अनीतिपूर्ण बर्तावको क्षमा कीजिये। जो सम्पूर्ण देवताओंके भी देवता हैं तथा जो लीलासे ही इस जगत्की सृष्टि, पालन और संहार करनेवाले हैं, उन रघुवंशशिरोमणि श्रीरामचन्द्रजीको यह नहीं जानता, इसीसे इसके द्वारा यह अपराध हो गया है। हमारे इस राज्यका प्रत्येक अंग समृद्धिशाली है। सेना और सवारियोंकी संख्या भी बहुत बढ़ी चढ़ी है। ये सब श्रीरामकी सेवामें समर्पित हैं। ये मेरे पुत्र और हम भी आपहीके हैं। हम सब लोगोंके स्वामी भगवान् श्रीराम ही हैं। हम आपकी प्रत्येक आज्ञाका पालन करेंगे। मेरी दी हुई ये सभी वस्तुएँ स्वीकार करके इन्हें सफल बनाइये। मेरे पास कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जो ग्रहण करनेके योग्य न हो। श्रीरामजीके चरणारविन्दोंके मधुकर हनुमानजी कहाँ हैं? उन्होंकी कृपासे मैं राजाधिराज भगवान् रामका दर्शनकरूँगा। साधुओंका संग हो जानेपर इस पृथ्वीपर क्या क्या नहीं मिल जाता ! मैं महामूढ़ था; किन्तु संतके प्रसादसे ही आज मेरा ब्रह्मशापसे उद्धार हुआ है। अब मैं पद्मपत्रके समान विशाल लोचनोंवाले महाराज श्रीरघुनाथजीका दर्शन करके इस लोकमें जन्म लेनेका सम्पूर्ण एवं दुर्लभ फल प्राप्त करूँगा। मेरी आयुका बहुत बड़ा भाग श्रीरामके वियोगमें ही बीत गया। अब थोड़ी-सी ही आयु शेष रह गयी है; इसमें मैं श्रीरघुनाथजीका कैसे दर्शन करूँगा ? मुझे यज्ञकर्म में कुशल श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन कराइये, जिनके चरणोंकी धूलिसे पवित्र होकर शिला भी मुनिपत्नी हो गयी तथा युद्धमें जिनके मुखारविन्दका अवलोकन करके अनेकों वीर परमपदको प्राप्त हो गये। जो लोग आदरपूर्वक श्रीरघुनाथजीके नाम लेते हैं, वे उसी परम धामको प्राप्त होते हैं, जिसका योगी लोग चिन्तन किया करते हैं। अयोध्याके लोग धन्य हैं, जो अपने नेत्र- पुटोंके द्वारा श्रीरामके मुखकमलका मकरन्द पान करके सुख पाते और महान् अभ्युदयको प्राप्त होते हैं।’
शत्रुघ्नने कहा- राजन् ! आप ऐसा क्यों कहते हैं? आप वृद्ध होनेके नाते मेरे पूज्य हैं। आपका यह सारा राज्य राजकुमार दमनके अधिकारमें रहना चाहिये। क्षत्रियोंका कर्तव्य ही ऐसा है, जो युद्धका अवसर उपस्थित कर देता है। सम्पूर्ण राज्य और यह धन -सब मेरी आज्ञासे लौटा ले जाइये। महीपते! जिस प्रकारश्रीरघुनाथजी मेरे लिये मन-वाणीद्वारा सदा ही पूज्य हैं, उसी प्रकार आप भी पूजनीय होंगे। इस घोड़ेके पीछे चलनेके लिये आप भी तैयार हो जाइये।
परम बुद्धिमान् शत्रुघ्नजीका कथन सुनकर सुबाहुने अपने पुत्रको राज्यपर अभिषिक्त कर दिया। उस समय शत्रुघ्नजीने उनकी बड़ी सराहना की। तदनन्तर वे महारथियोंसे घिरकर रणभूमिमें गये और पुष्कलके हाथसे मरे हुए अपने पुत्रका विधिपूर्वक दाह-संस्कार करके कुछ देरतक शोकमें डूबे रहे; उनका वह शोक साधारण लोगोंकी ही दृष्टिमें था। वास्तवमें तो वे महारथी नरेश तत्त्वज्ञानी थे; अतः श्रीरघुनाथजी निरन्तर स्मरण करते हुए उन्होंने ज्ञानके द्वारा अपना समस्त शोक दूर कर दिया। फिर अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित होकर रथपर बैठे और विशाल सेनाके साथ महारथियोंको आगे करके शत्रुघ्नके पास आये। राजा शत्रुघ्नने सुबाहुको सम्पूर्ण सेनाके साथ उपस्थित देख घोड़ेकी रक्षाके लिये जानेका विचार किया। सुबाहुके यहाँसे छूटनेपर वह भालपत्रसे चिह्नित अश्व भारतवर्षकी वामावर्त परिक्रमा करता हुआ पूर्वदिशाके अनेकों देशोंमें गया। उन सभी देशोंमें बड़े बड़े शूरवीरोंद्वारा पूजित भूपाल उस अश्वको प्रणाम करते थे। कोई भी उसे पकड़ता नहीं था। कोई विचित्र विचित्र वस्त्र, कोई अपना महान् राज्य तथा कोई धन वैभव या और कोई वस्तु भेंटके लिये लाकर अश्वसहित शत्रुघ्नको प्रणाम करते थे ।
अध्याय 115 तेजः पुरके राजा सत्यवान्की जन्मकथा - सत्यवान्का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
शेषजी कहते हैं— मुनिवर सुवर्णपत्रसे शोभा पानेवाला यह यज्ञसम्बन्धी अश्व पूर्वोक्त देशोंमें भ्रमण करता हुआ तेजः पुरमें गया, जहाँके राजा सत्यवान् सत्यधर्मका आश्रय लेकर प्रजाका पालन करते थे। तदनन्तर शत्रुके नगरका विध्वंस करनेवाले श्रीरघुनाथजीके भाई शत्रुघ्नजी करोड़ों वीरोंसे घिरकर घोड़ेके पीछे-पीछे उस राजाके नगरसे होकर निकले। वह नगर बड़ा रमणीय था। चित्र-विचित्र प्राकार उसकीशोभा बढ़ा रहे थे हजारों देव मन्दिरोंके कारण वह सब ओरसे शोभायमान दिखायी देता था भगवान् शंकरके मस्तकपर निवास करनेवाली महादेवी भगवती भागीरथी व प्रवाहित हो रही थीं। उनके तटपर ऋषि महर्षियोंका समुदाय निवास करता था। तेजः पुरमें रहनेवाले प्रत्येक ब्राह्मणके घरमें जो अग्निहोत्रका धुआँ उठता था, वह पापमें डूबे हुए बड़े-बड़े पातकियोंको भी पवित्र कर देता था। उस नगरको देखकर शत्रुघ्नने सुमतिसे पूछा’मन्त्रिवर! यह सामने दिखायी देनेवाला नगर किसका है, जो धर्मपूर्वक पालित होनेके कारण मेरे मनको अपार आनन्द प्रदान करता है?” सुमतिने कहा – स्वामिन्! यहाँके राजा भगवान् विष्णुके भक्त हैं। आप सावधान होकर उनकी कल्याणमयी कथाओंको सुनें। उनका श्रवण करनेसे मनुष्य ब्रह्महत्या जैसे पापसे भी मुक्त हो जाता है। इस नगरके राजाका नाम है सत्यवान् । वे श्रीरामचन्द्रजीके चरणारविन्दोंका रस पान करनेके लिये भ्रमर एवं जीवन्मुक्त हैं। उन्हें यज्ञ और उसके अंगोंका पूर्ण ज्ञान है। वे महान् कर्मठ और प्रजाजनोंके रक्षक हैं। पूर्वकालमें यहाँ ऋतम्भर नामके एक राजा हो गये हैं। उन्हें कोई सन्तान नहीं थी। उनके कई स्त्रियाँ थीं, परन्तु उनमें से किसीके गर्भसे भी राजाको पुत्रकी प्राप्ति नहीं हुई। एक दिन दैववश उनके यहाँ जाबालि नामक मुनि पधारे। राजाने कुशल प्रश्नके पश्चात् उनसे पुत्र उत्पन्न होनेका उपाय पूछा।
ऋतम्भरने कहा— स्वामिन्! मैं सन्तानहीन हूँ; मुझे कोई ऐसा उपाय बताइये, जो पुत्र उत्पन्न होने में सहायक हो। जिसका प्रयोग करनेसे मेरी वंश-परम्पराकी रक्षा करनेवाला एक श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हो ।
राजाकी यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ जाबालिने कहा—“राजन्! सन्तान-प्राप्तिकी इच्छावाले मनुष्यके लिये तीन प्रकारके उपाय बताये गये हैं- भगवान् विष्णुकी, गौकी अथवा भगवान् शिवकी कृपा; अतः तुम देवस्वरूपा गौकी पूजा करो; क्योंकि उसकी पूँछ, मुँह, सॉंग तथा पृष्ठभागमें भी देवताओंका निवास है। जो प्रतिदिन अपने घरपर घास आदिके द्वारा गौकी पूजा करता है, उसपर देवता और पितर सदा सन्तुष्ट रहते हैं। जो उत्तम व्रतका पालन करनेवाला मनुष्य प्रतिदिननियमपूर्वक गौको भोजन देता है, उसके सभी मनोरथ उस सत्य धर्मका अनुष्ठान करनेके कारण पूर्ण हो जाते हैं। यदि घरमें प्यासी हुई गाय बँधी रहे, रजस्वला कन्या अविवाहित हो तथा देवताके विग्रहपर दूसरे दिनका चढ़ाया हुआ निर्माल्य पड़ा रहे तो ये सभी दोष पहलेके किये हुए पुण्यको नष्ट कर डालते हैं। जो मनुष्य घास चरती हुई गौको रोकता है, उसके पूर्वज पितर पतनोन्मुख होकर काँप उठते हैं। जो मूढबुद्धि मानव गौको लाठीसे मारता है, उसे हाथसे हीन होकर यमराजके नगरमें जाना पड़ता है। * जो गौके शरीरसे डाँस और मच्छरोंको हटाता है, उसके पूर्वज कृतार्थ होकर अधिक प्रसन्नताके कारण नाच उठते हैं और कहते हैं-‘हमारा यह वंशज बड़ा भाग्यवान् है, अपनी गो-सेवाके द्वारा यह हमें तार देगा।’
“इस विषयमें जानकार लोग एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, जो धर्मराजके नगरमें राजा जनकके सामने अद्भुत रूपसे घटित हुआ था। एक समयकी बात है, राजा जनकने योगके द्वारा अपने शरीरका परित्याग कर दिया। उस समय उनके पास एक विमान आया, जो क्षुद्र घण्टिकाओंसे शोभा पा रहा था। राजा दिव्य-देहसे विमानपर आरूढ़ होकर चल दिये और उनके त्यागे हुए शरीरको सेवकगण उठा ले गये राजा जनक धर्मराजको संयमनीपुरीके निकटवर्ती मार्गसे जा रहे थे। उस समय करोड़ों नरकोंमें जो पापाचारी जीव यातना भोग रहे थे, वे जनकले शरीरको वायुका स्पर्श पाकर सुखी हो गये। परन्तु जब वे उस स्थानसे आगे निकले तो पापपीड़ित प्राणी उन्हें जाते देख भयभीत होकर जोर-जोर से चीत्कार करने लगे। वे नहीं चाहते थे कि राजा जनकसे वियोग हो। उन्होंने करुणाजनक वाणीमें कहा – ‘पुण्यात्मन् ! यहाँसे न जाओ। तुम्हारेशरीरको छूकर चलनेवाली वायुका स्पर्श पाकर हम यातनापीड़ित प्राणियों को बड़ा सुख मिल रहा है।’
“राजा बड़े धर्मात्मा थे, उन दुःखी जीवोंकी पुकार सुनकर उनके हृदयमें करुणा भर आयी। वे सोचने लगे- ‘यदि मेरे रहनेसे इन प्राणियोंको सुख होता है, तो अब मैं इसी नगरमें निवास करूँगा; यही मेरे लिये मनोहर स्वर्ग है।’ ऐसा विचार करके राजा जनक दुःखी प्राणियोंको सुख पहुँचानेके लिये वहीं नरकके दरवाजेपर ही ठहर गये। उस समय उनका हृदय दयासे परिपूर्ण हो रहा था। इतनेहीमें नरकके उस दुःखदायी द्वारपर नाना प्रकार पातकके करनेवाले प्राणियोंको कठोर यातना देते हुए स्वयं धर्मराज उपस्थित हुए। उन्होंने देखा, महान् पुण्यात्मा तथा दयालु राजा जनक विमानपर आरूढ़ हो नरकके दरवाजेपर खड़े हैं। उन्हें देखकर प्रेतराज हँस पड़े और बोले ‘राजन्! तुम तो समस्त धर्मात्माओंके शिरोमणि हो, भला तुम यहाँ कैसे आये ? यह स्थान तो प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले पापाचारी एवं दुष्टात्मा जीवोंके लिये है। यहाँ तुम्हारे समान पुण्यात्मा पुरुष नहीं आते। यहाँ उन्हीं मनुष्योंका आगमन होता है, जो अन्य प्राणियोंसे द्रोह करते, दूसरोंपर कलंक लगाते तथा औरोंका धन लूट-खसोटकर जीविका चलाते हैं जो अपनी सेवामें लगी हुई धर्म-परायणा पत्नीको बिना किसी अपराधके त्याग देता है, उसको भी यहाँ आना पड़ता है। जो धनके लालच में फँसकर मित्रके साथ धोखा करता है, वह मनुष्य यहाँ आकर मेरे हाथसे भयंकर यातना प्राप्त करता है जो मूढचित्त मानव दम्भ, द्वेष अथवा 1 उपहासवश मन, वाणी एवं क्रियाद्वारा कभी भगवान् श्रीरामका स्मरण नहीं करता, उसे बाँधकर मैं नरकोंमें डाल देता हूँ और अच्छी तरह पकाता हूँ। जिन्होंने नरकके कष्टका निवारण करनेवाले रमानाथभगवान् श्रीविष्णुका स्मरण किया है, वे मेरे स्थानको छोड़कर बहुत शीघ्र वैकुण्ठधामको प्राप्त होते हैं। मनुष्योंके शरीरमें तभीतक पाप ठहर पाता है, जबतक कि वे अपनी जिह्वासे श्रीराम नामका उच्चारण नहीं करते। * महामते ! जो बड़े-बड़े पापोंका आचरण करनेवाले हैं, उन्हीं लोगोंको मेरे दूत यहाँ ले आते हैं! तुम्हारे जैसे पुण्यात्माओंकी ओर तो वे देख ही नहीं सकते; अतः महाराज! यहाँसे जाओ और अनेक प्रकारके दिव्य भोगोंका उपभोग करो। इस श्रेष्ठ विमानपर आरूढ़ होकर अपने उपार्जित किये हुए पुण्यको भोगो।’
जनकने कहा – ‘नाथ ! मुझे इन दुःखी जीर्वोपर दया आती है, अत: इन्हें छोड़कर मैं नहीं जा सकता। मेरे शरीरकी वायुका स्पर्श पाकर इन लोगोंको सुख मिल रहा है। धर्मराज ! यदि आप नरकमें पड़े हुए इन सभी प्राणियोंको छोड़ दें, तो मैं पुण्यात्माओंके निवासस्थान स्वर्गको सुखपूर्वक जा सकता हूँ।’
धर्मराज बोले- ‘राजन् ! [ यह जो तुम्हारे सामने खड़ा है] इस पापीने अपने मित्रकी पत्नीके साथ, जो इसके ऊपर पूर्ण विश्वास करती थी, बलात्कार किया है; इसलिये मैंने इसे लोहशंकु नामक नरकमें डालकर दस हजार वर्षोंतक पकाया है। इसके पश्चात् इसे सूअरकी योनिमें डालकर अन्तमें मनुष्यके शरीरमें उत्पन्न करना है। मनुष्य योनिमें यह नपुंसक होगा। इस दूसरे पापीने अनेकों बार बलपूर्वक परायी स्त्रियोंका आलिंगन किया है; इसलिये यह सौ वर्षोंतक रौरव नरकमें पकाया जायगा और यह जो पापी खड़ा है, यह बड़ी नीच बुद्धिका है। इसने दूसरोंका धन चुराकर स्वयं भोगा है; इसलिये इसके दोनों हाथ काटकर मैं इसे पूयशोणित नामक नरकमें पकाऊँगा। इसने सायंकालके समयभूख पोहित हो घरपर आये हुए अतिथिका वचनद्वारा भी स्वागत-सत्कार नहीं किया है; अतः इसे अन्धकारसे भरे हुए तामिस्र नामक नरकमें गिराना उचित है। यहाँ भ्रमरोंसे पीड़ित होकर यह सौ वर्षोंतक यातना भोगे। यह पापी उच्च स्वरसे दूसरोंकी निन्दा करते हुए कभी लज्जित नहीं हुआ है तथा उसने भी कान लगा लगाकर अनेकों बार दूसरोंकी निन्दा सुनी है; अतः ये ोनों पापी अन्धकूपमें पड़कर दुःख-पर-दुःख उठा रहे हैं। यह जो अत्यन्त उद्विग्न दिखायी दे रहा है, मित्रोंसे द्रोह करनेवाला है, इसीलिये इसे रौरव नरकमें पकाया जाता है। नरश्रेष्ठ! इन सभी पापियोंको इनके पापका भोग कराकर छुटकारा दूंगा। अतः तुम उत्तम लोकोंमें जाओ क्योंकि तुमने पुण्य राशिका उपार्जन किया है।
जनकने पूछा- ‘ धर्मराज इन दुःखी जीवोंका नरकसे उद्धार कैसे होगा? आप वह उपाय बतावें, जिसका अनुष्ठान करनेसे इन्हें सुख मिले।
धर्मराज बोले-‘महाराज। इन्होंने कभी भगवान् विष्णुकी आराधना नहीं की, उनकी कथा नहीं सुनी, फिर इन पापियोंको नरकसे छुटकारा कैसे मिल सकता है! इन्होंने बड़े-बड़े पाप किये हैं तो भी यदि तुम इन्हें छुड़ाना चाहते हो तो अपना पुण्य अर्पण करो। कौन सा पुण्य ? सो मैं बतलाता हूँ। एक दिन प्रातः काल उठकर तुमने शुद्ध चित्तसे श्रीरघुनाथजीका ध्यान किया था, जिनका नाम महान पापका भी नाश करनेवाला है। नरश्रेष्ठ! उस दिन तुमने जो अकस्मात् ‘राम राम’ का उच्चारण किया था, उसीका पुण्य इन पापियोंको दे डालो; जिससे इनका नरकसे उद्धार हो जाय।’
जाबालि कहते हैं— महाराज ! बुद्धिमान् धर्मराजके उपर्युक्त वचन सुनकर राजा जनकने अपने जीवनभरका कमाया हुआ पुण्य उन पापियोंको दे डाला। उनके संकल्प करते ही नरकमें पड़े हुए जीव तत्क्षण वहाँसे मुक्त हो गये और दिव्य शरीर धारण करके जनकसे बोले ‘राजन्! आपकी कृपासे हमलोग एक ही क्षणमें इस दुःखदायी नरकसे छुटकारा पा गये, अब हम परमधामको जा रहे हैं।’ राजा जनक सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करनेवाले थे; उन्होंने नरकसे निकले हुए प्राणियोंका सूर्यके समान तेजस्वी रूप देखकर मन-ही मन बड़े सन्तोषका अनुभव किया। ये सभी प्राणी दयासागर महाराज जनककी प्रशंसा करते हुए दिव्य लोकको चले गये। नरकस्थ प्राणियोंके चले जानेपर राजा जनकने सम्पूर्ण धर्मनोंमें श्रेष्ठ यमराजसे प्रश्न किया।
राजाने कहा- धर्मराज! आपने कहा था कि पाप करनेवाले मनुष्य ही आपके स्थानपर आते हैं, धार्मिक चर्चा में लगे रहनेवाले जीवोंका यहाँ आगमन नहीं होता। ऐसी दशामें मेरा यहाँ किस पापके कारण आना हुआ है? आप धर्मात्मा हैं; इसलिये मेरे पापका समस्त कारण आरम्भसे ही बतावें।
धर्मराज बोले- राजन्! तुम्हारा पुण्य बहुत बड़ा है इस पृथ्वीपर तुम्हारे समान पुण्य किसीका नहीं है। तुम श्रीरघुनाथजीके युगलचरणारविन्दोंका मकरन्द पान करनेवाले भ्रमर हो। तुम्हारी कीर्तिमयी गंगा मलसे भरे हुए समस्त पापियोंको पवित्र कर देती है। वह अत्यन्त आनन्द प्रदान करनेवाली और दुष्टोंको तारनेवाली है। तथापि तुम्हारा एक छोटा-सा पाप भी है, जिसके कारण तुम पुण्यसे भरे होनेपर भी संयमनीपुरीके पास आये हो। एक समयकी बात है- एक गाय कहीं चर रही थी, तुमने पहुँचकर उसके चरनेमें रुकावट डाल दी। उसी पापका यह फल है कि तुम्हें नरकका दरवाजा देखना पड़ा है। इस समय तुम उससे छुटकारा पा गये तथा तुम्हारा पुण्य पहलेसे बहुत बढ़ गया; अतः अपने पुण्यद्वारा उपार्जित नाना प्रकारके उत्तम भोगोंका उपभोग करो। श्रीरघुनाथजी करुणाके सागर हैं। उन्होंने इन दुःखी जीवोंका दुःख दूर करनेके लिये ही संगमनीके इस महामार्गमै तुम जैसे वैष्णवको भेज दिया है। सुव्रत ! यदि तुम इस मार्गसे नहीं आते तो इन बेचारोंका नरकसे उद्धार कैसे होता ! महामते ! दूसरोंके दुःखसे दुःखी होनेवाले तुम्हारे जैसे दया-धाम महात्मा आर्त प्राणियोंका दुःख दूर करते ही है। जाबालि कहते हैं- ऐसा कहते हुए यमराजको प्रणाम करके राजा जनक परमधामको चले गये।इसलिये नृपश्रेष्ठ! तुम गौकी पूजा करो; वह सन्तुष्ट होनेपर तुम्हें शीघ्र ही धर्मपरायण पुत्र देगी।
सुमति कहते हैं— सुमित्रानन्दन। जाबालिके मुँहसे धेनु-पूजाकी बात सुनकर राजा आतम्भले आदरपूर्वक पूजामुने गौकी किस प्रकार यत्नपूर्वक पूजा करनी चाहिये? पूजा करनेसे वह मनुष्यको कैसा बना देती है?’ तब जाबालिने विधिके अनुसार धेनु-पूजाका इस प्रकार वर्णन किया- ‘राजन्! गो-सेवाका व्रत लेनेवाला पुरुष प्रतिदिन गौको चरानेके लिये जंगलमें जाय गायको यव खिलाकर उसके गोवरमें जो यव आ जायँ, उनका संग्रह करे। पुत्रकी इच्छा रखनेवाले पुरुषके लिये उन्हीं यवको भक्षण करनेका विधान है। जब गौ जल पीये तभी उसको भी पवित्र जल पीना चाहिये। जब वह ऊँचे स्थानमें रहे तो उसको उससे नीचे स्थानमें रहना चाहिये, प्रतिदिन गौके शरीरसे डाँस और मच्छरोंको हटावे और स्वयं ही उसके खानेके लिये घास ले आवे। इस प्रकार सेवामें लगे रहनेपर गौ तुम्हें धर्मपरायण पुत्र प्रदान करेगी।’
जाबालि मुनिकी यह बात सुनकर राजा ऋतम्भरने श्रीरघुनाथजीका स्मरण किया और शुद्धचित्त होकर व्रतका पालन आरम्भ किया। वे पहले बताये अनुसार धेनुकी रक्षा करते हुए उसे घरानेके लिये प्रतिदिन महान् वनमें जाया करते थे। श्रीरामचन्द्रजीके नामका स्मरण करना और सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें लगे रहना यही उनका प्रतिदिनका कार्य था। उनकी सेवासे सन्तुष्ट होकर सुरभिने कहा- ‘राजन्! तुम अपने हार्दिक अभिप्रायके अनुसार मुझसे कोई कर माँगो, जो तुम्हारे मनको प्रिय लगे।’ तब राजा बोले- ‘देखि मुझे ऐसा पुत्र दो, जो परम सुन्दर, श्रीरघुनाथजीका भक्त, पिताका सेवक तथा अपने धर्मका पालन करनेवाला हो’ पुत्रकी इच्छा रखनेवाले राजाको मनोवांछित वरदान देकर दयामयी देवी कामधेनु वहाँसे अन्तर्धान हो गयीं। समय आनेपर राजाको पुत्रकी प्राप्ति हुई, जो परम वैष्णव श्रीरामचन्द्रजीका सेवक हुआ। पिताने उसका नाम सत्यवान् रखा। सत्यवान् बड़े ही पितृभक्त और इन्द्रकेसमान पराक्रमी हुए। उनको पुत्रके रूपमें पाकर राजा ऋतम्भरको बड़ी प्रसन्नता हुई। अपने पुत्रको धार्मिक जानकर राजा हर्षमें मग्न रहते थे। वे राज्यका भार सत्यवानको ही सौंप स्वयं तपस्याके लिये बनमें चले गये। वहाँ भक्तिपूर्ण हृदयसे भगवान् हृषीकेशकी आराधना करके वे निष्पाप हो गये और शरीरसहित भगवद्धामको प्राप्त हुए।
शत्रुघ्नजी ऋतम्भरके चले जानेपर राजा सत्यवान्ने भी अपने धर्मके अनुष्ठानसे लोकनाथ श्रीरघुनाथजीको सन्तुष्ट किया। भगवान् रमानाथने प्रसन्न होकर सत्यवान्को अपने चरणकमलोंमें अविचल भक्ति प्रदान की, जो यज्ञ करनेवाले पुरुषोंके लिये करोड़ों पुण्योंके द्वारा भी दुर्लभ है। वे प्रतिदिन सुस्थिर चित्तसे सम्पूर्ण लोकको पवित्र करनेवाली श्रीरघुनाथजीकी कथाका आयोजन करते हैं। उनके हृदयमें सबके प्रति दया भरी हुई है। जो लोग रमानाथ श्रीरघुनाथजीका पूजन नहीं करते, उनको वे इतना कठोर दण्ड देते हैं, जो यमराजके लिये भी भयंकर है। आठ वर्षके बाद अस्सी वर्षकी अवस्था होनेतक सभी मनुष्योंसे वे एकादशीका व्रत कराया करते हैं। तुलसीकी सेवा उन्हें बड़ी प्रिय है। लक्ष्मीपतिके चरणकमलोंमें चढ़ी हुई उत्तम माला उनके गलेसे कभी दूर नहीं होती है [अपनी भक्तिके कारण) वे ऋषियोंके भी पूजनीय हो गये हैं, फिर औरोंके लिये क्यों न होंगे। श्रीरघुनाथजीके स्मरणसे तथा उनके प्रति प्रेम करनेसे राजा सत्यवान् के सारे पाप धुल गये हैं. सम्पूर्ण अमंगल नष्ट हो गये हैं। ये श्रीरामचन्द्रजीके अद्भुत अश्वको पहचानकर यहाँ आयेंगे और तुम्हें अपना यह अकण्टक राज्य समर्पित करेंगे। राजन् ! जिसके विषयमें तुमने पूछा था, वह उत्तम प्रसंग मैंने तुमको सुना दिया।
शेषजी कहते हैं-तदनन्तर नाना प्रकारके आश्च युक्त यह यज्ञसम्बन्धी अश्व राजा सत्यवान्के नगरमें प्रविष्ट हुआ उसे देखकर वहाँको सारी जनताने राजाके पास जा निवेदन किया-‘महाराज! भगवान् श्रीरामका अश्व इस नगरके मध्यसे होकर आ रहा है। शत्रुघ्न उसके रक्षक हैं।’ ‘राम’ यह दो अक्षरोंकाअत्यन्त मनोरम नाम सुनकर सत्यवान्के हृदयमें बड़ी प्रसन्नता हुई। उनकी वाणी गद्गद हो गयी। वे कहने लगे- ‘जिन भगवान् श्रीरामको मैं सदा अपने हृदयमें धारण करता हूँ, मनमें चिन्तन करता हूँ, उन्हींका अश्व शत्रुघ्नजीके साथ मेरे नगरमें आया है। उसके पास श्रीरामके चरणोंकी सेवा करनेवाले हनुमान्जी भी होंगे, जो कभी भी श्रीरघुनाथजीको अपने मनसे नहीं बिसारते। जहाँ शत्रुघ्न हैं, जहाँ वायुनन्दन हनुमान्जी हैं तथा जहाँ श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंकी सेवामें रहनेवाले अन्य लोग मौजूद हैं, वहीं मैं भी जाता हूँ।’ उन्होंने मन्त्रीको आज्ञा दी – ‘तुम समूचे राज्यका बहुमूल्य धन लेकर शीघ्र ही मेरे साथ आओ। मैं श्रीरघुनाथजीके श्रेष्ठ अश्वकी रक्षा अथवा श्रीरामचरणोंकी सुदुर्लभ सेवा करनेके लिये जाऊँगा।’ यह कहकर वे सैनिकोंके साथशत्रुघ्नके पास चल दिये। इतनेहीमें श्रीरामके छोटे भाई शत्रुघ्न भी राजधानीमें आ पहुँचे। राजा सत्यवान् मन्त्रियोंके साथ उनके पास आये और चरणोंमें पड़कर उन्हें अपना समृद्धिशाली राज्य अर्पण कर दिया। शत्रुघ्नने राजा सत्यवान्को श्रीरामभक्त जानकर उनका विशाल राज्य उन्हींके पुत्रको, जिसका नाम रुक्म था, दे दिया। सत्यवान् हनुमानजीसे मिलनेके पश्चात् श्रीरामसेवक सुबाहुसे मिले तथा और भी जितने राम भक्त वहाँ पधारे थे, उन सबको हृदयसे लगाकर उन्होंने अपने-आपको कृतार्थ माना। फिर शत्रुघ्नजीके साथ होकर वे मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। इतनेहीमें वीर पुरुषोंद्वारा सुरक्षित वह अश्व दूर निकल गया; अतः शूरवीरोंसे घिरे हुए शत्रुघ्नजी भी राजा सत्यवान्को साथ लेकर वहाँसे चल दिये।
अध्याय 116 शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
शेषजी कहते हैं- मुनिवर रथियोंमें श्रेष्ठ शत्रुघ्न आदि बहुसंख्यक राजे-महाराजे करोड़ों रथोंके साथ चले जा रहे थे, इसी समय उस मार्गपर सहसा अत्यन्त भयंकर अन्धकार छा गया; जिसमें बुद्धिमान् पुरुषोंको भी अपने या परायेकी पहचान नहीं हो पाती थी। तदनन्तर पातालनिवासी विद्युन्माली नामक राक्षस निशाचरोंके समुदायसे घिरा हुआ वहाँ आया। वह रावणका हितैषी सुहृद् था। उसने घोड़ेको चुरा लिया। फिर तो दो ही घड़ीके पश्चात् वह सारा अन्धकार नष्ट हो गया। आकाश स्वच्छ दिखायी देने लगा। शत्रुघ्न आदि वीरोंने एक-दूसरेसे पूछा- ‘घोड़ा कहाँ है?’ उस अश्वराजके विषयमें परस्पर पूछ-ताछ करते हुए वे सब लोग कहने लगे-‘अश्वमेधका अश्व कहाँ है? किस दुर्बुद्धिने उसका अपहरण किया है?’ वे इस प्रकार कह ही रहे थे कि राक्षसराज विद्युन्माली अपने समस्त योद्धाओंके साथ दिखायी दिया। उसके योद्धा रथपर विराजमान हो अपने शौर्य से शोभा पा रहे थे। विद्युन्माली स्वयं एक श्रेष्ठ विमानपर बैठा था और प्रधान प्रधान राक्षस उसेचारों ओरसे घेरकर खड़े थे। उन राक्षसोंके मुख दूषित एवं विकराल थे, दाढ़े लम्बी थीं और आकृति बड़ी भयानक थी। वे ऐसे दिखायी दे रहे थे, मानो शत्रुघ्नकी सेनाको निगल जानेके लिये तैयार हों। तब सैनिकोंने राजाओंमें श्रेष्ठ शत्रुघ्नसे निवेदन किया- ‘राजन् ! एक राक्षसने घोड़ेको पकड़ लिया है, अब आपको जैसा उचित जान पड़े वैसा कीजिये।’ उनकी बात सुनकर शत्रुघ्न अत्यन्त रोषमें भर गये और बोले— ‘कौन ऐसा पराक्रमी राक्षस है, जिसने मेरे घोड़ेको पकड़ रखा है ?” फिर वे मन्त्रीसे बोले-‘मन्त्रिवर! बताओ, इस राक्षससे लोहा लेनेके लिये किन-किन वीरोंको नियुक्त करना चाहिये, जो उसका वध करनेके लिये उत्साह रखनेवाले, अत्यन्त शूर, महान् शस्त्र धारण करनेवाले तथा प्रधान अस्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हों।’
सुमतिने कहा- हमारी सेनामें कुमार पुष्कल महान् वीर, अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता और शत्रुओंको ताप देनेवाले हैं; अतः ये ही विजयके लिये उद्यत हो युद्धमें उस राक्षसको जीतनेके लिये जायें। इनके सिवालक्ष्मीनिधि, हनुमान्जी तथा अन्य योद्धा भी युद्ध के लिये प्रस्थित हों। वीरोंमें अग्रगण्य अमात्य सुमतिके ऐसा कहनेपर शत्रुघ्नने संग्रामकुशल वीर योद्धाओंसे कहा- ‘सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंमें प्रवीण पुष्कल आदि जो-जो वीर यहाँ उपस्थित हैं, वे राक्षसको मारनेके विषयमें मेरे सामने कोई प्रतिज्ञा करें।’
पुष्कल बोले- राजन् ! मेरी प्रतिज्ञा सुनिये, मैं अपने पराक्रमके भरोसे सब लोगोंके सुनते हुए यह अद्भुत प्रतिज्ञा कर रहा हूँ। यदि मैं अपने धनुषसे छूटे हुए बाणोंकी तीखी धारसे उस दैत्यको मूर्च्छित न कर दूँ – मुखपर बाल छितराये यदि वह धरतीपर न पड़ जाय, यदि उसके महाबली सैनिक मेरे बाणोंसे छिन्न भिन्न होकर धराशायी न हो जायँ तथा यदि मैं अपनी बात सच्ची करके न दिखा सकूँ तो मुझे वही पाप लगे, जो विष्णु और शिवमें तथा शिव और शक्तिमें भेद-दृष्टि रखनेवालेको लगता है। श्रीरघुना चरणकमलोंमें मेरी निश्चल भक्ति है, वही मेरी कही हुई सब बातें सत्य करेगी।
पुष्कलकी प्रतिज्ञा सुनकर युद्धकुशल हनुमान्जीने श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंका स्मरण करते हुए यह कल्याणमय वचन कहा – ‘योगीजन अपने हृदयमें नित्य निरन्तर जिनका ध्यान किया करते हैं, देवता और असुर भी अपना मुकुटमण्डित मस्तक झुकाकर जिनके चरणों में प्रणाम करते हैं तथा बड़े-बड़े लोकेश्वर जिनकी पूजा करते हैं, वे अयोध्याके अधिनायक भगवान् श्रीरामचन्द्रजी मेरे स्वामी हैं। मैं उनका स्मरण करके जो कुछ कहता हूँ, वह सब सत्य होगा। राजन्! अपनी इच्छाके अनुसार चलनेवाले विमानपर बैठा हुआ यह दुर्बल एवं तुच्छ दैत्य किस गिनती में है। शीघ्र आज्ञा दीजिये, मैं अकेला ही इसे मार गिराऊँगा राजा श्रीरघुनाथजी तथा महारानी जनककिशोरीकी कृपासे इस पृथ्वीपर कोई ऐसा कार्य नहीं है, जो मेरे लिये कभी भी असाध्य हो। यदि मेरी कही हुई यह बात झूठी हो तो मैं तत्काल श्रीरामचन्द्रजीकी भक्तिसे दूर हो जाऊँ यदि मैं अपनी बात झूठी कर दूँ, तो मुझे वही पाप लगे, जोकाममोहित शूद्रको मोहवश ब्राह्मणी के साथ समागम करनेसे लगता है। जिसको सूँघनेसे मनुष्य नरकमें पड़ता है, जिसका स्पर्श करनेसे रौरव नरककी यातना भोगनी पड़ती है, उस मदिराका जो पुरुष जिलाके स्वाद के वशीभूत होकर लोलुपतावश पान करता है, उसको जो पाप होता है वह मुझे ही लगे, यदि मैं श्रीरामजीकी कृपाके बलसे अपनी प्रतिज्ञाको सत्य न कर सकूँ तो निश्चय ही उपर्युक्त पापका भागी होऊँ।’
उनके ऐसा कहनेपर दूसरे दूसरे महावीर योद्धाओंने आवेशमें आकर अपने-अपने पराक्रमसे शोभा पानेवाली बड़ी-बड़ी प्रतिज्ञाएँ कीं। उस समय शत्रुघ्नने भी उन युद्धविशारद वीरोंको साधुवाद देकर उनकी प्रशंसा की और सबके देखते-देखते प्रतिज्ञा करते हुए कहा ‘वीरो! अब मैं तुमलोगोंके सामने अपनी प्रतिज्ञा बता रहा हूँ। यदि मैं उसके मस्तकको अपने सायकौसे काटकर, छिन्न-भिन्न करके धड़ और विमानसे नीचे पृथ्वीपर न गिरा दूँ। तो आज निश्चय ही मुझे वह पाप लगे, जो झूठी गवाही देने, सुवर्ण चुराने और ब्राह्मणकी निन्दा करनेसे लगता है।’
शत्रुघ्नके ये वचन सुनकर वीर-पूजित योद्धा कहने लगे श्रीरघुनाथजीके अनुज आप धन्य हैं। आपके सिवा दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है। यह दुष्ट राक्षस क्या चीज है। इसका तुच्छ बल किस गिनती में है! महामते आप एक ही क्षणमें इसका नाश कर डालेंगे।’ ऐसा कहकर वे महावीर योद्धा अस्त्र शस्त्रोंसे सुसज्जित हो गये और अपनी प्रतिज्ञा पूरी करनेके लिये युद्धके मैदानमें उस राक्षसकी ओर प्रसन्नतापूर्वक चले वह इच्छानुसार चलनेवाले विमानपर बैठा था। पुष्कल आदि वीरोंको उपस्थित देख उस राक्षसने कहा- ‘अरे! राम कहाँ है? मेरे सखा रावणको मारकर वह कहाँ चला गया है? आज उसको और उसके भाईको भी मारकर उन दोनोंके कण्ठसे निकलती हुई रक्तकी धाराका पान करूँगा और इस प्रकार रावण वधका बदला चुकाऊँगा।’
पुष्कलने कहा- दुर्बुद्धि निशाचर! क्यों इतनीशेखी बघार रहा है? अच्छे योद्धा संग्राममें डींग नहीं हाँकते, अपने अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करके पराक्रम दिखाते हैं। जिन्होंने सुहृद्, सेना और सवारियोंसहित रावणका संहार किया है, उन भगवान् श्रीरामके अश्वको लेकर तू कहाँ जा सकता है? शेषजी कहते हैं- युद्धमें उन्मत्त होकर लड़नेवाले वीर पुष्कलको ऐसी बातें करते देख राक्षसराज विद्युन्मालीने उनको छातीको लक्ष्य करके बड़े वेग से शक्तिका प्रहार किया। उसे आती देख पुष्कलने तेज धारवाले तीखे बाणोंसे उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले तथा अपने धनुषपर बहुत-से बाणोंका सन्धान किया, जो बड़े ही तीक्ष्ण और मनके समान वेगशाली थे। वे बाण राक्षसकी छातीमें लगकर तुरंत ही रक्तकी धारा बहाने लगे; पुष्कलके बाणप्रहारसे राक्षसपर मोह छा गया, उसके मस्तिष्क में चक्कर आने लगा तथा वह अचेत होकर अपने कामग विमानसे धरतीपर गिर पड़ा। विद्युन्मालीका छोटा भाई उग्रदंष्ट्र वहाँ मौजूद था। उसने अपने बड़े भाईको जब गिरते देखा तो उसे पकड़ लिया और पुनः विमानके भीतर ही पहुँचा दिया; क्योंकि विमानके बाहर उसे शत्रुकी ओरसे अनिष्ट प्राप्त होने की आशंका थी। उसने बलवानोंमें श्रेष्ठ पुष्कलसे बड़े रोषके साथ कहा-‘दुर्मते मेरे भाईको गिराकर अब तू कहाँ जायगा।’ पुष्कलके नेत्र भी क्रोधसे लाल हो उठे थे। उष्ट्र उपर्युक्त बातें कह ही रहा था कि उन्होंने दस बाणोंसे उस दुष्टकी छाती में वेगपूर्वक प्रहार किया। उनकी चोटसे व्यथित होकर दैत्यने एक जलता हुआ त्रिशूल हाथमें लिया, जिससे अग्निकी तीन शिखाएँ उठ रही थीं महावीर पुष्कलके हृदयमें वह भयंकर त्रिशूल लगा और वे गहरी मूर्च्छाको प्राप्त हो रथपर गिर पड़े। पुष्कलको मूच्छित जानकर पवननन्दन हनुमानजी मन-ही-मन क्रोधसे अस्थिर हो उठे और उस राक्षससे बोले-‘दुर्बुद्धे । मैं युद्धके लिये उपस्थित हूँ, मेरे रहते तू कहाँ जा सकता है? तू घोड़ेका चोर है और सामने आ गया है, अतः मैं लातोंसे मारकर तेरे प्राण ले लूँगा।’ ऐसा कहकर हनुमानजी आकाशमें स्थित हो गये औरविमानपर बैठे हुए शत्रुपक्षके योद्धा महान् दैत्योंको नखोंसे विदीर्ण करके मौत के घाट उतारने लगे। किन्होंको पूँछसे मार डाला, किन्हींको पैरोंसे कुचल डाला तथा कितनोंको उन्होंने दोनों हाथोंसे चीर डाला। जहाँ जहाँ वह विमान जाता था, वहाँ वहीं वायुनन्दन हनुमानजी इच्छानुसार रूप धारण करके प्रहार करते हुए ही दिखायी देते थे। इस प्रकार जब विमानपर बैठे हुए बड़े-बड़े योद्धा व्याकुल हो गये तब दैत्यराज उम्रदंष्ट्रने हनुमानजीपर आक्रमण किया। उस दुर्बुद्धिने प्रज्वलित अग्निके समान कान्ति धारण करनेवाले अत्यन्त तीखे त्रिशुलसे उनके ऊपर प्रहार किया; परन्तु महावली हनुमानजीने अपने पास आये हुए उस त्रिशूलको अपने मुँहमें ले लिया। यद्यपि वह सारा का सारा लोहेका बना हुआ था, तथापि उसे दाँतोंसे चबाकर उन्होंने चूर्ण कर डाला तथा उस दैत्यको कई तमाचे जड़ दिये। उनके थप्पड़ोंकी मार खाकर राक्षसको बड़ी पीड़ा हुई और उसने सम्पूर्ण लोकोंमें भय उत्पन्न करनेवाली मायाका प्रयोग किया। उस समय चारों ओर घोर अन्धकार छा गया, जिसमें कोई भी दिखायी नहीं देता था। इतने बड़े जनसमुदायमें यहाँ अपना या पराया कोई भी किसीको पहचान नहीं पाता था। चारों ओर नंगे, कुरूप, उग्र एवं भयंकर दैत्य दिखायी देते थे। उनके बाल बिखरे हुए थे और मुख विकराल प्रतीत होते थे। उस समय सब लोग व्याकुल हो गये, सबको एक-दूसरेसे भय होने लगा। सभी यह समझकर कि कोई महान् उत्पात आया हुआ है, वहाँसे भागने लगे तब महायशस्वी शत्रुघ्नजी रथपर बैठकर वहाँ आये और भगवान् श्रीरामका स्मरण करके उन्होंने अपने धनुषपर बाणका सन्धान किया। वे बड़े पराक्रमी थे। उन्होंने मोहनास्त्र के द्वारा राक्षसी मायाका नाश कर दिया और आकाशमें उस असुरको लक्ष्य करके बाणोंकी बौछार आरम्भ कर दी। उस समय सारी दिशाएँ प्रकाशमय हो गयीं, सूर्यके चारों ओर पड़ा हुआ घेरा निवृत्त हो गया। सुवर्णमय पंखसे शोभा पानेवाले लाखों बाण उस राक्षसके विमानपर पड़ने लगे। कुछ ही देरमें वह विमान टूटकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। वह इतनाऊँचा दिखायी देता था, मानो अमरावतीपुरीका एक भाग ही टूटकर भूतलके एक स्थानमें पड़ा हो। तब उस दैत्यको बड़ा क्रोध हुआ और उसने अपने धनुषपर अनेकों बाणोंका सन्धान किया तथा रामभ्राता शत्रुघ्नको उन बाणोंका निशाना बनाकर बड़ी विकट गर्जना की। शत्रुघ्न बड़े शक्तिशाली थे, उन्होंने अपने धनुषपर वायव्यास्त्रका प्रयोग किया, जो राक्षसोंको कँपा देनेवाला था। उस अस्त्रकी मार खाकर व्योमचारी भूत-बेताल मस्तक वाल छितराये आकाशसे पृथ्वीपर गिरते दिखायी देने लगे। रामभ्राता शत्रुघ्नके उस अस्त्रको देखकर राक्षसकुमारने अपने धनुषपर पाशुपतास्त्रका प्रयोग किया। समस्त वीरोंका विनाश करनेवाले उस अबको चारों ओर फैलते देखकर उसका निवारण करनेके लिये शत्रुघ्नने नारायण नामक अस्त्र छोड़ा। नारायणास्त्रने एक ही क्षणमें शत्रुपक्षके सभी अस्त्रोंकोशान्त कर दिया। निशाचरोंके छोड़े हुए सभी बाण विलीन हो गये। तब विद्युन्मालीने क्रोधमें भरकर शत्रुघ्नको मारनेके लिये एक तीक्ष्ण एवं भयंकर त्रिशूल हाथमें लिया। उसे शूल हाथमें लिये आते देख शत्रुघ्नने अर्धचन्द्राकार बाणसे उसकी भुजा काट डाली। फिर कुण्डलोंसहित उसके मस्तकको भी धड़से अलग कर दिया। भाईका मस्तक कट गया, यह देखकर प्रतापी उग्रदंष्ट्रने शूरवीरोंद्वारा सेवित शत्रुघ्नको मुक्केसे मारना आरम्भ किया। किन्तु शत्रुघ्नने क्षुरप्र नामक सायकसे उसका भी मस्तक उड़ा दिया। तदनन्तर मरनेसे बचे हुए सभी राक्षस अनाथ हो गये; इसलिये उन्होंने शत्रुघ्नके चरणोंमें पड़कर वह यज्ञका घोड़ा उन्हें अर्पण कर दिया। फिर तो विजयके उपलक्ष्यमें वीणा झंकृत होने लगी; सब ओर शंख बज उठे तथा शूरवीरोंका मनोहर विजयनाद सुनायी देने लगा।
अध्याय 117 शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
शेषजी कहते हैं-राक्षसोंद्वारा अपहरण किये हुए घोड़ेको पाकर पुष्कलसहित राजा शत्रुघ्नको बड़ा हर्ष हुआ। दुर्जय दैत्य विद्युन्मालीके मारे जानेपर समस्त देवता निर्भय हो गये। उन्हें बड़ा सुख मिला। तदनन्तर शत्रुघ्नने उस उत्तम अश्वको छोड़ा। फिर तो वह उत्तर- दिशामें भ्रमण करने लगा। सब प्रकारके अस्त्र शस्त्रोंमें प्रवीण श्रेष्ठ रथी, घुड़सवार और पैदल सिपाही/ उसकी रक्षामें नियुक्त थे। घूमता घामता वह नर्मदाके तटपर जा पहुँचा, जहाँ बहुत से ऋषि महर्षि निवास करते हैं। नर्मदाका जल ऐसा जान पड़ता था, मानो पानीके व्याजसे नील रत्नोंका रस ही दिखायी दे रहा हो वहाँ तटपर उन्होंने एक पुरानी पर्णशाला देखी, जो पलाशके पत्तोंसे बनी हुई थी और नर्मदाकी लहरें उसे अपने जलसे सोच रही थीं शत्रुजी सम्पूर्ण धर्म अर्थ, कर्म और कर्तव्यके ज्ञानमें निपुण थे; उन्होंने सर्वज्ञ एवं नीतिकुशल मन्त्री सुमतिसे पूछा- ‘मन्त्रिवरबताओ, यह पवित्र आश्रम किसका है?’
सुमतिने कहा- महाराज ! यहाँ एक श्रेष्ठ मुनि रहते हैं, जो सम्पूर्ण शास्त्रोंके विद्वान् हैं; इनका दर्शन करके हमलोगोंके समस्त पाप धुल जायँगे। इसलिये तुम इन्हें प्रणाम करके इन्हींसे पूछो। ये तुम्हें सब कुछ बता देंगे। इनका नाम आरण्यक है, ये श्रीरघुनाथजीके चरणोंके सेवक हैं तथा उनके चरणकमलोंके मकरन्दका आस्वादन करनेके लिये सदा लोलुप बने रहते हैं। इन्होंने बड़ी उग्र तपस्या की है और ये समस्त शास्त्रोंके मर्मज्ञ हैं।
सुमतिका यह धर्मयुक्त वचन सुनकर शत्रुघ्नजी थोड़े-से सेवकोंको साथ ले मुनिका दर्शन करनेके लिये गये। पास जा उन सभी वीरोंने विनीतभावसे मस्तक झुकाकर तापसोंमें श्रेष्ठ आरण्यक मुनिको नमस्कार किया। मुनिने उन सब लोगोंसे पूछा ‘आपलोग कहाँ एकत्रित हुए हैं तथा कैसे यहाँ पधारे हैं? ये सब बातें स्पष्टरूपसे बताइये।’सुमतिने कहा- मुझे ये सब लोग रघुकुल नरेशके अश्वकी रक्षा कर रहे हैं। वे इस समय सब सामग्रियोंसे युक्त अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करनेवाले हैं।
आरण्यक बोले-सब सामग्रियोंको एकत्रित करके भाँति-भाँतिके सुन्दर यज्ञोंका अनुष्ठान करने से क्या लाभ? वे तो अत्यन्त अल्प पुण्य प्रदान करनेवाले हैं तथा उनसे क्षणभंगुर फलकी ही प्राप्ति होती है। स्थिर ऐश्वर्यपदको देनेवाले तो एकमात्र रमानाथ भगवान् श्रीरघुवीर ही हैं। जो लोग उन भगवान्को छोड़कर दूसरेकी पूजा करते हैं, वे मूर्ख हैं। जो मनुष्योंके स्मरण करनेमात्रसे पहाड़ जैसे पापका भी नाश कर डालते हैं, उन भगवान्को छोड़कर मूढ़ मनुष्य योग याग और व्रत आदिके द्वारा क्लेश उठाते हैं। सकाम पुरुष अथवा निष्काम योगी भी जिनका अपने हृदय चिन्तन करते हैं तथा जो मनुष्योंको मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं, वे भगवान्श्रीराम स्मरण करनेमात्रसे सारे पापको दूर कर देते हैं। पूर्वकालकी बात है, मैं तत्त्वज्ञानको इच्छासे ज्ञानी गुरुका अनुसन्धान करता हुआ बहुत से तीर्थोंमें भ्रमण करता रहा; किन्तु किसीने मुझे भी तत्त्वका उपदेश नहीं दिया। उसी समय एक दिन भाग्यवश मुझे लोमश मुनि मिल गये। वे स्वर्गलोक तीर्थयात्राके लिये आये थे। उन महर्षिको प्रणाम करके मैंने पूछा-‘स्वामिन्! मैं इस अद्भुत और दुर्लभ मनुष्य-शरीरको पाकर भयंकर भव-सागरके पार जाना चाहता हूँ, ऐसी दशामें मुझे क्या करना चाहिये ?’ मेरी यह बात सुनकर वे मुनिश्रेष्ठ बोले- ‘विप्रवर! एकाग्रचित्त होकर पूर्ण श्रद्धाके साथ सुनो, संसार-समुद्रसे तरनेके लिये दान, तीर्थ, व्रत, नियम, यम, योग तथा यज्ञ आदि अनेकों साधन हैं। ये सभी स्वर्ग प्रदान करनेवाले हैं; किन्तु महाभाग ! मैं तुमसे एक परम गोपनीय तत्त्वका वर्णन करता हूँ, जो सब पापका नाश करनेवाला और संसार सागरसे पार उतारनेवाला है। नास्तिक और श्रद्धाहीन पुरुषको इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। निन्दक तथा भक्तिसे द्वेष रखनेवाले पुरुषके लिये भी इस तत्त्वका उपदेश करना मना है। जो काम और क्रोधसे रहित हो, जिसका चित्त शान्त हो तथा जो भगवान् श्रीरामका भक्त हो उसीके सामने इस गूढ़ तत्त्वका वर्णन करना चाहिये। यह समस्त दुःखोंका नाश करनेवाला सर्वोत्तम साधन है। श्रीरामसे बड़ा कोई देवता नहीं, श्रीरामसे बढ़कर कोई व्रत नहीं, श्रीरामसे बड़ा कोई योग नहीं तथा श्रीरामसे बढ़कर कोई यज्ञ नहीं है। श्रीरामका स्मरण, जप और पूजन करके मनुष्य परम पदको प्राप्त होता है। उसे इस लोक और परलोककी उत्तम समृद्धि मिलती है। श्रीरघुनाथजी सम्पूर्ण कामनाओं और फलोंके दाता हैं। मनके द्वारा स्मरण और ध्यान करनेपर वे अपनी उत्तम भक्ति प्रदान करते हैं, जो संसार-समुद्रसे वारनेवाली है चाण्डाल भीश्रीरामका स्मरण करके परमगतिको प्राप्त कर लेता है। फिर तुम्हारे जैसे वेद-शास्त्रपरायण पुरुषोंके लिये तो कहना ही क्या है? यह सम्पूर्ण वेद और शास्त्रोंका रहस्य है, जिसे मैंने तुमपर प्रकट कर दिया। अब जैसा तुम्हारा विचार हो, वैसा ही करो। एक ही देवता हैं श्रीराम, एक ही व्रत है—उनका पूजन, एक ही मन्त्र है— उनका नाम, तथा एक ही शास्त्र है-उनकी स्तुति अतः तुम सब प्रकारसे परममनोहर श्रीरामचन्द्रजीका भजन करो; इससे तुम्हारे लिये यह महान् संसार सागर गायके खुरके समान तुच्छ हो जायगा ।”
महर्षि लोमशका वचन सुनकर मैंने पुनः प्रश्न किया- ‘मुनिवर मनुष्योंको भगवान् श्रीरामका ध्यान और पूजन कैसे करना चाहिये ?’ यह सुनकर उन्होंने स्वयं श्रीरामका ध्यान करते हुए मुझे सब बातें बतायीं- ‘साधकको इस प्रकार ध्यान करना चाहिये; रमणीय अयोध्या नगरी परम चित्र-विचित्र मण्डपोंसे शोभा पा रही है। उसके भीतर एक कल्पवृक्ष है, जिसके मूलभागमें परम मनोहर सिंहासन विराजमान है। वह सिंहासन बहुमूल्य मरकतमणि, सुवर्ण तथा नीलमणि आदिसे सुशोभित है और अपनी कान्तिसे गहन अन्धकारका नाश कर रहा है। वह सब प्रकारकी मनोभिलषित समृद्धियोंको देनेवाला है। उसके ऊपर भक्तोंका मन मोहनेवाले श्रीरघुनाथजी बैठे हुए हैं। उनका दिव्य विग्रह दूर्वादलके समान श्याम है, जो देवराज इन्द्रके द्वारा पूजित होता है। भगवान्का सुन्दर मुख अपनी शोभासे राकाके पूर्ण चन्द्रकी कमनीय कान्तिको भी तिरस्कृत कर रहा है। उनका तेजस्वी ललाटअष्टमीके अर्धचन्द्रकी सुषमा धारण करता है। मस्तकपर काले-काले घुँघराले केश शोभा पा रहे हैं। मुकुटकी मणियोंसे उनका मुखमण्डल उद्भासित हो रहा है। कानोंमें पहने हुए मकराकार कुण्डल अपने सौन्दर्यसे भगवान्की शोभा बढ़ा रहे हैं। मूँगेके समान सुन्दर कान्ति धारण करनेवाले लाल-लाल ओठ बड़े मनोहर जान पड़ते हैं। चन्द्रमाकी किरणोंसे होड़ लगानेवाली दन्तपंक्तियों तथा जपा- पुष्पके समान रंगवाली जिह्वाके कारण उनके श्रीमुखका सौन्दर्य और भी बढ़ गया है। शंखके आकारवाला कमनीय कण्ठ, जिसमें ऋक् आदि चारों वेद तथा सम्पूर्ण शास्त्र निवास करते हैं, उनके श्रीविग्रहको सुशोभित कर रहा है। श्रीरघुनाथजी सिंहके समान ऊँचे और मांसल कंधेवाले हैं। वे केयूर एवं कड़ोंसे विभूषित विशाल भुजाएँ धारण किये हुए हैं। उनकी दोनों बाँहें अंगूठीमें जड़े हुए हीरेकी शोभासे देदीप्यमान और घुटनोंतक लंबी हैं। विस्तृत वक्षःस्थल लक्ष्मीके निवाससे शोभा पा रहा है। श्रीवत्स आदि चिह्नोंसे अंकित होनेके कारण भगवान् अत्यन्त मनोहर जान पड़ते हैं। महान् उदर, गहरी नाभि तथा सुन्दर कटिभाग उनकी शोभा बढ़ाते हैं। रत्नोंकी बनी हुई करधनीके कारण श्री अंगोंकी सुषमा बहुत बढ़ गयी है। निर्मल ऊरु और सुन्दर घुटने भी सौन्दर्यवृद्धिमें सहायक हो रहे हैं। भगवान्के चरण, जिनका योगीलोग ध्यान करते हैं, बड़े कोमल हैं। उनके तलवेमें वज्र, अंकुश और यव आदिकी उत्तम रेखाएँ हैं। उन युगल चरणोंसे श्रीरघुनाथजीके विग्रहकी बड़ी शोभा हो रही है। “इस प्रकार ध्यान और स्मरण करके तुम संसारसागरसे तर जाओगे। जो मनुष्य प्रतिदिन चन्दन आदि सामग्रियोंसे इच्छानुसार श्रीरामचन्द्रजीका पूजन करता है, उसे इहलोक और परलोककी उत्तम समृद्धि प्राप्त होती है, तुमने श्रीरामके ध्यानका प्रकार पूछा था। सो मैंने तुम्हें बता दिया। इसके अनुसार ध्यान करके भवसागरके पार हो जाओ।’
आरण्यकने कहा- मुनिश्रेष्ठ मैं आपसे पुनः कुछ प्रश्न करता हूँ, मुझे उनका उत्तर दीजिये। महामते ! गुरुजन अपने सेवकपर कृपा करके उन्हें सब बातें बता देते हैं। महाभाग ! आप प्रतिदिन जिनका ध्यान करते हैं वे श्रीराम कौन हैं तथा उनके चरित्र कौन-कौन से हैं? यह बतानेकी कृपा कीजिये। द्विजश्रेष्ठ ! श्रीरामने किसलिये अवतार लिया था ? वे क्यों मनुष्य शरीरमें प्रकट हुए थे? आप मेरा सन्देह निवारण करनेके लिये सब बातोंको शीघ्र बताइये।
मुनिके परम कल्याणमय वचन सुनकर महर्षि लोमशने श्रीरामचन्द्रजीके अदभूत चरित्रका वर्णन किया। वे बोले-‘ योगेश्वरोंके ईश्वर भगवान्ने सम्पूर्ण लोकोंको दुःखी जानकर संसारमें अपनी कीर्ति फैलानेका विचार किया। ऐसा करनेका उद्देश्य यह था कि जगत्के मनुष्य मेरी कीर्तिका गान करके घोर संसारसे तर जायँगे। यह समझकर भौंका मन लुभानेवाले दयासागर भगवान्ने चार विग्रहोंमें अवतार धारण किया। साथ ही उनकीह्लादिनी शक्ति लक्ष्मी भी अवतीर्ण हुई। पूर्वकालमें त्रेतायुग आनेपर सूर्यवंशमें श्रीरघुनाथजीका पूर्णावतार हुआ। उनकी श्रीरामके नामसे प्रसिद्धि हुई। श्रीरामके नेत्र कमलके समान शोभायमान थे। लक्ष्मण सदा उनके साथ रहते थे। धीरे-धीरे उन्होंने यौवनमें प्रवेश किया। तत्पश्चात् पिताकी आज्ञासे दोनों भाई- श्रीराम और लक्ष्मण महर्षि विश्वामित्रके अनुगामी हुए। राजा दशरथने यज्ञकी रक्षाके लिये अपने दोनों कुमारोंको विश्वामित्रके अर्पण कर दिया था। वे दोनों भाई जितेन्द्रिय, धनुर्धर और वीर थे। मार्गमें जाते समय उन्हें भयंकर वनके भीतर ताड़का नामकी राक्षसी मिली। उसने उनके रास्तेमें विघ्न डाला। तब महर्षि विश्वामित्रकी आज्ञासे रघुकुलभूषण श्रीरामचन्द्रजीने ताड़काको परलोक भेज दिया। गौतम-पत्नी अहल्या, जो इन्द्रके साथ सम्पर्क करनेके कारण पत्थर हो गयी थी, श्रीरामके चरणस्पर्शसे पुनः अपने स्वरूपको प्राप्त हो गयी। विश्वामित्रका यज्ञ प्रारम्भ होनेपर श्रीरघुनाथजीने अपने श्रेष्ठ बाणोंसे मारीचको घायल किया और सुबाहुको मार डाला। तदनन्तर राजा जनकके भवनमें रखे हुए शंकरजीके धनुषको तोड़ा। उस समय श्रीरामचन्द्रजीकी अवस्था पंद्रह वर्षकी थी। उन्होंने छः वर्षकी अवस्थावाली मिथिलेशकुमारी सीताको, जो परम सुन्दरी और अयोनिजा थी, वैवाहिक विधिके अनुसार ग्रहण किया। इसके बाद श्रीरामचन्द्रजी बारह वर्षोंतक सीताके साथ रहे। सत्ताईसवें वर्षकी उम्रमें उन्हें युवराज बनानेकी तैयारी हुई। इसी बीचमें रानी कैकेयीने राजा दशरथसे दो वर माँगे। उनमेंसे एकके द्वारा उन्होंने यह इच्छा प्रकट की कि श्रीराम मस्तकपर जटा धारण करके चौदह वर्षोंतक वनमें रहें।’ तथा दूसरे वरके द्वारा यह माँगा कि ‘मेरे पुत्र भरत युवराज बनाये जायँ’, राजा दशरथने श्रीरामको वनवास दे दिया। श्रीरामचन्द्रजी तीन रात्रितक केवल जल पीकर रहे, चौथे दिन उन्होंने फलाहार किया और पाँचवें दिन चित्रकूटपर पहुँचकर अपने लिये रहनेका स्थान बनाया। [इस प्रकार वहाँ बारह वर्ष बीत गये।] तदनन्तर तेरहवें वर्षके आरम्भ में वे पंचवटीमें जाकर रहने लगे। महामुने! वहाँ श्रीरामने [लक्ष्मणके द्वारा] शूर्पणखा नामकी राक्षसीको [उसकी नाक कटाकर] कुरूप बना दिया। तत्पश्चात् वे जानकीके साथ वनमें विचरण करने लगे। इसी बीचमें अपने पापका फल उदय होनेपर दस मस्तकोंवाला राक्षसराज रावण सीताको हर ले जानेके लिये वहाँ आया और माघ कृष्ण अष्टमीको वृन्द नामक मुहूर्तमें, जब कि श्रीराम और लक्ष्मण आश्रमपर नहीं थे, उन्हें हर ले गया। उसके द्वारा अपहरण होनेपर देवी सीता कुररीकी भाँति विलाप करने लगीं- ‘हा राम ! हा राम ! मुझे राक्षस हरकर लिये जा रहा है, मेरी रक्षा करो, रक्षा करो।’ रावण कामके अधीन होकर जनककिशोरी सीताको लिये जा रहा था। इतनेहीमें पक्षिराज जटायु वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने राक्षसराज रायके साथ युद्ध किया, किन्तु स्वयं ही उसके हाथसे मारे जाकर धरतीपर गिर पड़े। इसके बाद दसवें महीने में मार्गशीर्ष शुक्ल नवमीके दिन सम्पातिने वानरोंको इस बातकी सूचना दी कि ‘सीता देवी रावणके भवनमें निवास कर रही हैं।’ “फिर एकादशीको हनुमानजी महेन्द्र पर्वतसे
उछलकर सौ योजन चौड़ा समुद्र लाँघ गये। उस रातमेंवे लंकापुरीके भीतर सीताकी खोज करते रहे। रात्रिके अन्तिम भागमें हनुमान्जीको सीताका दर्शन हुआ। द्वादशीके दिन वे शिंशपा नामक वृक्षपर बैठे रहे। उसी दिन रातमें जानकीजीको विश्वास दिलानेके लिये उन्होंने श्रीरामचन्द्रजीको कथा सुनायी। फिर त्रयोदशीको अक्ष आदिके साथ उनका युद्ध हुआ। चतुर्दशीके दिन इन्द्रजित्ने आकर ब्रह्मास्त्रसे उन्हें बाँध लिया। इसके बाद उनकी पूँछमें आग लगा दी गयी और उसी आगके द्वारा उन्होंने लंकापुरीको जला डाला। पूर्णिमाको ये पुनः महेन्द्र पर्वतपर आ गये। फिर मार्गशीर्ष कृष्णपक्षको प्रतिपदासे लेकर पाँच दिन उन्होंने मार्गमै बिताये। छठे दिन मधुवनमें पहुँचकर उसका विध्वंस किया और सप्तमीको श्रीरामचन्द्रजीके पास पहुँचकर सीताजीका दिया हुआ चिह्न उन्हें अर्पण किया तथा वहाँका सारा समाचार कह सुनाया। तत्पश्चात् अष्टमीको उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र और विजय नामक मुहूर्तमें दोपहरके समय श्रीरघुनाथजीका लंकाके लिये प्रस्थान हुआ। श्रीरामचन्द्रजी यह प्रतिज्ञा करके कि ‘मैं समुद्रको लाँघकर राक्षसराज रावणका वध करूँगा’, दक्षिण दिशाकी ओर चले। उस समय सुग्रीव उनके सहायक हुए। सात दिनोंके बाद समुद्रके तटपर पहुँचकर उन्होंने सेनाको ठहराया। पौषशुक्ल प्रतिपदासे लेकर तृतीयातक श्रीरघुनाथजी सेनासहित समुद्र तटपर टिके रहे। चतुर्थीको विभीषण आकर उनसे मिले। फिर पंचमीको समुद्र पार करनेके विषयमें विचार हुआ। इसके बाद श्रीरामने चार दिनोंतक अनशन किया। फिर समुद्रसे वर मिला और उसने पार जानेका उपाय भी दिखा दिया। तदनन्तर दशमीको सेतु बाँधनेका कार्य आरम्भ होकर त्रयोदशीको समाप्त हुआ। चतुर्दशीको श्रीरामने सुवेल पर्वतपर अपनी सेनाको ठहराया। पूर्णिमासे द्वितीयातक तीन दिनोंमें सारी सेना समुद्रके पार हुई। समुद्र पार करके लक्ष्मणसहित श्रीरामने वानरराजकीसाथ से सीके लिये लंकापुरीको चारों ओर मेलिया कृतीयादशमीपर्यत आठ दिनोतक सेनाका घेरा पड़ा रहा। एकादशीके दिन शुक और आग सेनामें घुस आये थे पौषकृष्ण द्वादशीको शार्दूलके द्वारा वानर सेनाकी गणना हुई। साथ ही उसने प्रधान प्रधान वानरोंकी शक्तिका भी वर्णन किया। सेनाकी संख्या जानकर रावण त्रयोदशीसे शत्रुसेनाकी अमावास्यापर्यन्त तीन दिनोंतक लंकापुरीमें अपने सैनिकोंको युद्धके लिये उत्साहित किया। माघशुक्ल प्रतिपदाको अंगद दूत बनकर रावणके दरबार में गये। उधर रावणने के द्वारा सौताको, उनके पतिके कटे हुए मस्तक आदिका दर्शन कराया। माघकी द्वितीयासे लेकर अष्टमीपर्यन्त सात दिनोंतक राक्षसों और वानरोंमें घमासान युद्ध होता रहा। माघशुक्ल नवमीको रात्रिके इन्द्रजित्ने युद्ध श्रीराम और लक्ष्मणको नाग पाशसे बाँध लिया। इससे प्रधान प्रधान वानर जब सब ओरसे व्याकुल और उत्साहहीन हो गये तो दशमीको नाग पाशका नाश करनेके लिये वायुदेवने श्रीरामचन्द्रजीके कानमें गरुड़के मन्त्रका जप और उनके स्वरूपका ध्यान बता दिया। ऐसा करनेसे एकादशीको गरुड़जीका आगमन हुआ। फिर द्वादशीको श्रीरामचन्द्रजीके हाथसे धूम्राक्षका वध हुआ । त्रयोदशीको भी उन्हींके द्वारा कम्पन नामका राक्षस युद्धमें मारा गया। माघशुक्ल चतुर्दशी कृष्णपक्षको प्रतिपदातक तीन दिनमें नीलके द्वारा प्रहस्तका वध हुआ। माघ कृष्ण द्वितीयासे चतुर्थीपर्यन्त तीन दिनोंतक तुमुल युद्ध करके श्रीरामने रावणको रणभूमिसे भगा दिया। पंचमीसे अष्टमीतक चार दिनोंमें रावणने कुम्भकर्णको जगाया और जागनेपर उसने आहार ग्रहण किया। फिर नवमीसे चतुर्दशीपर्यन्त छः दिनोंतक युद्ध करके श्रीरामने कुम्भकर्णका वध किया। उसने बहुत-से वानरोंको भक्षण कर लिया था। अमावास्याके दिन कुम्भकर्णकी मृत्युके शोकसे रावणने युद्धको बंद रखा। उसने अपनी सेना पीछे हटा ली फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदासे चतुर्थीतक चार दिनोंके भीतर बिसतन्तु आदि पाँच राक्षस मारे गये। पंचमी से सप्तमीतकके युद्धमेंअतिकायका वध हुआ। अष्टमीसे द्वादशीतक पाँच दिनोंमें निकुम्भ और कुम्भ मौतके घाट उतारे गये। उसके बाद तीन दिनोंमें मकराक्षका वध हुआ। फाल्गुन कृष्ण द्वितीयाके दिन इन्द्रजित्ने लक्ष्मणपर विजय पायी फिर तृतीयासे सप्तमीतक पाँच दिन लक्ष्मणके लिये दवा आदिके प्रबन्धमें व्यग्र रहनेके कारण श्रीरामने युद्धको बंद रखा। तदनन्तर त्रयोदशीपर्यन्त पाँच दिनोंतक युद्ध करके लक्ष्मणने विख्यात बलशाली इन्द्रजितुको युद्धमें मार डाला चतुर्दशीको दशग्रीव रावणने यज्ञकी दीक्षा ली और युद्धको स्थगित रखा। फिर अमावास्याके दिन वह युद्धके लिये प्रस्थित हुआ। चैत्र शुक्ल प्रतिपदासे लेकर पंचमीतक रावण युद्ध करता रहा; उसमें पाँच दिनोंके भीतर बहुत-से राक्षसोंका विनाश हुआ। षष्ठीसे अष्टमीतक महापार्श्व आदि राक्षस मारे गये। चैत्र शुक्ल नवमीके दिन लक्ष्मणजीको शक्ति लगी। तब श्रीरामने क्रोधमें भरकर दशशीशको मार भगाया। फिर अंजना नन्दन हनुमान्जी लक्ष्मणकी चिकित्सा के लिये द्रोण पर्वत उठा लाये। दशमीके दिन श्रीरामचन्द्रजीने भयंकर युद्ध किया, जिसमें असंख्य राक्षसोंका संहार हुआ। एकादशीके दिन इन्द्रके भेजे हुए मातलि नामक सारथि श्रीरामचन्द्रजीके लिये रथ ले आये और उसे युद्धक्षेत्रमें भक्तिपूर्वक उन्होंने श्रीरघुनाथजीको अर्पण किया। तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी चैत्र शुक्ल द्वादशीसे कृष्णपक्षको चतुर्दशीतक अठारह दिन रोषपूर्वक युद्ध करते रहे। अन्ततोगत्वा उस द्वैरथयुद्धमें रामने रावणका वध किया। उस तुमुल संग्राममें श्रीरघुनाथजीने ही विजय प्राप्त की। माघ शुक्ल द्वितीयासे लेकर चैत्र कृष्ण चतुर्दशीतक सतासी दिन होते हैं, इनके भीतर केवल पंद्रह दिन युद्ध बंद रहा। शेष बहत्तर दिनोंतक संग्राम चलता रहा। रावण आदि राक्षसोंका दाहसंस्कार अमावास्याके दिन हुआ वैशाख शुक्ल प्रतिपदाको श्रीरामचन्द्रजी युद्धभूमिमें ही ठहरे रहे। द्वितीयाको लंकाके राज्यपर विभीषणका अभिषेक किया गया। तृतीयाको सीताजीकी अग्निपरीक्षा हुई और देवताओंसे वर मिला। इस प्रकार लक्ष्मणके बड़े भाई श्रीरामने लंकापति रावणको थोड़े ही दिनोंमेंमारकर परमपवित्र जनककिशोरी सीताको ग्रहण किया, जिन्हें राक्षसने बहुत कष्ट पहुँचाया था। जानकीजीको पाकर श्रीरामचन्द्रजीको बड़ी प्रसन्नता हुई और वे लंकासे लौटे। वैशाख शुक्ल चतुर्थीको पुष्पकविमानपर आरूढ़ होकर वे आकाशमार्गसे पुनः अयोध्यापुरीकी ओर चले। वैशाख शुक्ल पंचमीको भगवान् श्रीराम अपने दल-बलके साथ भरद्वाजमुनिके आश्रमपर आये और चौदहवाँ वर्ष पूर्ण होनेपर पष्ठीको नन्दिग्राम में जाकर भरतसे मिले। फिर सप्तमीको अयोध्यापुरीमें श्रीरघुनाथजीका राज्याभिषेक हुआ मिथिलेशकुमारी सीताको अधिक दिनोंतक रामसे अलग होकर रावणके यहाँ रहना पड़ा था। बयालिस वर्षकी उम्र में श्रीरामचन्द्रजीने राज्य ग्रहण किया, उस समय सीताकी अवस्था तैंतीस वर्षकी थी। रावणका संहार करनेवाले भगवान् श्रीराम चौदह वर्षोंके बाद पुनः अपनी पुरी अयोध्यामें प्रविष्ट होकर बड़े प्रसन्न हुए। तत्पश्चात् वे भाइयोंके साथ राज्यकार्य देखने लगे। श्रीरघुनाथजीके राज्य करते समय ही अगस्त्यजी, जो एक अच्छे वक्ता हैं तथा जिनकी उत्पत्ति कुम्भसे हुई है, उनके पास पधारेंगे। उनके कहनेसे श्रीरघुनाथजी अश्वमेधयज्ञका अनुष्ठान करेंगे। सुव्रत! भगवान्का यह यज्ञसम्बन्धी अश्व तुम्हारे आश्रमपर आवेगा तथा उसकी रक्षा करनेवाले योद्धा भी बड़े हर्ष के साथ तुम्हारे आश्रमपर पधारेंगे। उनके सामने तुम श्रीरामचन्द्रजीकी मनोहर कथा सुनाओगे तथा उन्हीं लोगोंके साथ अयोध्यापुरीको भी जाओगे। द्विजश्रेष्ठ ! अयोध्यामें कमलनयन श्रीरामका दर्शन करके तुम तत्काल ही संसारसागरसे पार हो जाओगे।’
मुनिश्रेष्ठ लोमश सर्वज्ञ हैं उन्होंने मुझसे उपर्युक्त बातें कहकर पूछा—’आरण्यक! तुम्हें अपने कल्याणके लिये और क्या पूछना है?’ तब मैंने उनसे कहा- ‘मह आपकी कृपासे मुझे भगवान् श्रीरामके अद्भुत चरित्रका पूर्ण ज्ञान हो गया। अब आपहीकेप्रसादसे में उनके चरणकमलोंको भी प्राप्त करूँगा ऐसा कहकर मैंने मुनीश्वरको प्रणाम किया। तत्पश्चात् वे चले गये। उन्हींकी कृपासे मुझे श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंकी पूजन विधि भी प्राप्त हुई है। तबसे मैं सदा ही श्रीरामके चरणोंका चिन्तन करता हूँ तथा आलस्य छोड़कर बारम्बार उन्हींके चरित्रका गान करता रहता हूँ। उनके गुणोंका गान मेरे चित्तको लुभाये रहता है। मैं उसके द्वारा दूसरे लोगोंको भी पवित्र किया करता हूँ तथा मुनिके वचनोंका बारम्बार स्मरण करके भगवत् दर्शनकी उत्कण्ठासे पुलकित हो उठता हूँ। इस पृथ्वीपर | मैं धन्य हूँ; कृतकृत्य हूँ और परम सौभाग्यशाली हूँ; क्योंकि मेरे हृदय में श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंको देखनेकी जो अभिलाषा है, वह निश्चय ही पूर्ण होगी। अतः सब प्रकारसे परम मनोहर श्रीरामचन्द्रजीका ही भजन करना चाहिये। संसार समुद्र के पार जानेकी इच्छासे सब लोगोंको श्रीरघुनाथजीकी ही वन्दना करनी चाहिये।”अच्छा, अब तुमलोग बताओ, किसलिये यहाँ आये। हो? कौन धर्मात्मा राजा अश्वमेध नामक महान् यज्ञका अनुष्ठान कर रहा है? ये सब बातें यहाँ बतलाकर की रक्षाके लिये जाओ और श्रीरघुनाथजीके चरणोंका निरन्तर स्मरण करते रहो।
आरण्यक मुनिके ये वचन सुनकर सब लोगोंको बड़ा विस्मय हुआ। वे श्रीरघुनाथजीका स्मरण करते हुए उनसे बोले –’ब्रह्मर्षिवर! इस समय आपका दर्शन पाकर हम सब लोग पवित्र हो गये; क्योंकि आप श्रीरामचन्द्रजीकी कथा सुनाकर यहाँ सब लोगोंको पवित्र करते रहते हैं। आपने हमलोगोंसे जो कुछ पूछा है वह सब हम बता रहे हैं। आप हमारे यथार्थ बचनको श्रवण करें। महर्षि अगस्त्यजीके कहनेसे भगवान् श्रीराम ही सब सामग्री एकत्रित करके अश्वमेधयज्ञका अनुष्ठान कर रहे हैं। उन्हींका यज्ञसम्बन्धी अश्व यहाँ आया है और उसीकी रक्षा करते हुए हम सब लोग भी अश्वके साथ ही आपके आश्रमपर आ पहुँचे हैं महामते। यही हमारा वृतान्त है; आप इसे हृदयंगम करें।’
रसायनके समान मनको प्रिय लगनेवाला यह उत्तम वचन सुनकर राम भक्त ब्राह्मण आरण्यक मुनिको बड़ा हर्ष हुआ। वे कहने लगे-‘आज मेरे मनोरथरूपी वृक्षमें फल आ गया, वह उत्तम शोभासे सम्पन्न हो गया। मेरी माताने जिसके लिये मुझे उत्पन्न किया था, वह शुभ उद्देश्य आज पूरा हो गया। आजतक हविष्यके द्वारा मैंने जो हवन किया है, उस अग्निहोत्रका फल आज मुझे मिल गया; क्योंकि अब मैं श्रीरामचन्द्रजीके युगल-चरणारविन्दोंका दर्शन करूँगा। अहा! जिनका मैं प्रतिदिन अपने हृदयमें ध्यान करता था, वे मनोहर रूपधारी अयोध्यानाथ भगवान् श्रीराम निश्चय ही मेरे नेत्रोंके समक्ष होकर दर्शन देंगे। हनुमानजी मुझे हृदयसे लगाकर मेरी कुशल पूछेंगे। वे संतोक शिरोमणि हैं: मेरी भक्ति देखकर उन्हें बड़ा सन्तोष होगा।’ आरण्यक मुनिके ये वचन | सुनकर कपिश्रेष्ठ हनुमानजीने उनके दोनों चरण पकड़ लिये और कहा- ‘ब्रह्मषें! मैं ही हनुमान् हूँ, स्वामिन् में आपका सेवक है और आपके सामनेखड़ा हूँ। मुनीश्वर मुझे श्रीरघुनाथजीके दासकी चरण भूति समझिये हनुमानजी श्रीरामभत होनेके कारण अत्यन्त शोभा पा रहे थे। उनकी उपर्युक्त बातें सुनकर आरण्यक मुनिको बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने हनुमानजीको हृदयसे लगा लिया। दोनोंके हृदयसे प्रेमकी धारा फूटकर वह रही थी दोनों ही आनन्दसुधामें निमन होकर शिथिल एवं चित्रलिखित से प्रतीत हो रहे थे। श्रीरघुनाथजी के चरणकमलों के प्रेम दोनोंका हो मानस भरा हुआ था। अतः दोनों ही बैठकर आपसमें भगवान्की मनोहारिणी कथाएँ कहने लगे। मुनिश्रेष्ठ आरण्यक श्रीरामके चरणोंका ध्यान कर रहे थे। हनुमानजीने उनसे यह मनोहर वचन कहा- ‘महर्षे! ये श्रीरघुनाथजीके भ्राता महावीर शत्रुघ्न आपको प्रणाम कर रहे हैं। ये उद्भट वीरोंसे सेवित भरतकुमार पुष्कल भी आपके चरणोंमें शीश झुकाते हैं तथा इधरकी ओर जो ये महान् बली और अनेक गुणोंसे विभूषित सज्जन खड़े हैं, इन्हें श्रीरघुनाथजीके मन्त्री समझिये अत्यन्त भयंकर योद्धा महायशस्वी राजा सुबाहु भी आपको प्रणाम करते हैं। ये श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंका मकरन्द पान करनेवाले मधुकर हैं। ये राजा सुमद हैं, जिन्हें पार्वतीजी श्रीरघुनाथजीके चरणोंकी भक्ति प्रदान की है, जिससे ये संसार-समुद्र के पार हो चुके हैं ये भी आपके चरणोंमें नमस्कार करते हैं। जिन्होंने अपने सेवकके मुखसे श्रीरामचन्द्रजीके अश्वको आया हुआ सुनकर अपना सारा राज्य ही भगवान्को समर्पण कर दिया है, वे राजा सत्यवान् भी पृथ्वीपर माथा टेककर आपके चरणोंमें प्रणाम करते हैं।’
हनुमानजी के ये वचन सुनकर आरण्यक मुनिने बड़े आदरके साथ सबको हृदयसे लगाया और फल-मूल आदिके द्वारा सबका स्वागत-सत्कार किया। फिर शत्रुघ्न आदि सब लोगोंने बड़ी प्रसन्नताके साथ महर्षिके आश्रमपर निवास किया। प्रातः काल नर्मदामें नित्यकर्म करके वे महान् उद्योगी सैनिक आगे जानेको उद्यत हुए शत्रुघ्नने आरण्यक मुनिको पालकीपर बिठाकर अपने सेवकोंद्वारा उन्हें श्रीरघुनाथजीकी निवासभूत अयोध्यापुरीको पहुँचवा दिया। सूर्यवंशी राजाओंने जिसे अपना निवासस्थान बनाया था, उस अवधपुरीको दूरसे ही देखकर आरण्यक मुनि सवारीसे उतर पड़े और श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनकी इसे पैदल ही चलने लगे। जनसमुदायसे शोभा पानेवाली उस रमणीय नगरीमें पहुँचकर उनके मनमें श्रीरामको देखनेके लिये हजार हजार अभिलाषाएँ उत्पन्न हुई। थोड़ी ही देरमें वहाँ यज्ञमण्डपसे सुशोभित सरयूके पावन तटपर उन्हें श्रीरामचन्द्रजीकी झाँकी हुई। भगवान्का श्रीविग्रह दूर्वादलके समान श्यामसुन्दर दिखायी देता था। उनके नेत्र खिले हुए कमलके समान शोभा पा रहे थे। वे अपने कटिभागमें मृगश्रृंग धारण किये हुए थे व्यास आदि महर्षि उन्हें घेरकर विराजमान थे और बहुत से शूरवीर उनकी सेवामें उपस्थित थे उनके दोनों पार्श्वभागों में भरत और सुमित्रानन्दन लक्ष्मण खड़े थे तथा श्रीरघुनाथजी दीनजनोंको मुँहमांगा दान दे रहे थे।
भगवान्का दर्शन करके आरण्यक मुनिने अपनेको कृतार्थ माना। वे कहने लगे- ‘आज मेरे नेत्र सफल हो। गये, क्योंकि ये श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन कर रहे हैं। मैंने जो सम्पूर्ण शास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त किया था, वह आज सार्थक हो गया; क्योंकि श्रीरामचन्द्रजीकी महिमाको जानकर इस समय मैं अयोध्यापुरीमें आ पहुँचा हूँ।’ इस प्रकार हर्षमें भरकर उन्होंने बहुत-सी बातें कहीं। श्रीरघुनाथजीके चरणोंका दर्शन करके उनके समस्त शरीरमें रोमांच हो आया था। इस अवस्थामें वे रमानाथ भगवान् श्रीरामके समीप गये, जो दूसरोंके लिये अगम्य हैं तथा विचारपरायण योगेश्वरोंसे भी जो बहुत दूर हैं। भगवान्के निकट पहुँचकर वे बोल उठे-‘अहा आज मैं धन्य हो गया; क्योंकि श्रीरघुनाथजीके चरण मेरे नेत्रोंके समक्ष विराजमान हैं। अब मैं श्रीरामचन्द्रजीको देखकर इनसे वार्तालाप करके अपनी वाणीको पवित्र बनाऊँगा।’श्रीरामचन्द्रजी भी अपने तेजसे जाज्वल्यमान तपोमूर्ति विप्रवर आरण्यक मुनिको आया देख उनके स्वागत के लिये उठकर खड़े हो गये। वे बड़ी देरतक उनके चरणोंमें मस्तक झुकाये रहे। देवता और असुर अपनी मुकुट -मणियोंसे जिनके युगल-चरणोंकी आरती उतारते हैं, वे ही प्रभु श्रीरघुनाथजी मुनिके पैरोंपर पड़कर कहने लगे- ‘ब्राह्मणदेव! आज आपने मेरे शरीरको पवित्र कर दिया।’ ब्राह्मणों में श्रेष्ठ महातपस्वी आरण्यक मुनिने राजाओंके शिरोमणि श्रीरामचन्द्रजीको चरणोंमें पड़ा देख उनका हाथ पकड़कर उठाया और अपने प्रियतम प्रभुको छातीसे लगा लिया। कौसल्यानन्दन श्रीरामने ब्राह्मणको मणिनिर्मित ऊँचे आसनपर बिठाया और स्वयं ही जल लेकर उनके दोनों पैर धोये। फिर चरणोदक लेकर भगवान्ने उसे अपने मस्तकपर चढ़ाया और कहा – ‘आज मैं अपने कुटुम्ब और सेवकोंसहित पवित्र हो गया।’ तत्पश्चात् देवाधिदेवाँसे सेवित श्रीरघुनाथजीने मुनिके ललाटमें चन्दन लगाया और उन्हें दूध देनेवाली गौ दान की। फिर मनोहर वचनोंमें कहा—’स्वामिन्! मैं अश्वमेधयज्ञ कर रहा हूँ। आपके चरण यहाँ आ गये, इससे अब यह यज्ञ पूर्ण हो जायगा। मेरे अश्वमेधयज्ञको आपने चरणोंसे पवित्र कर दिया।’ राजाधिराजोंसे सेवित श्रीरघुनाथजीके ये वचन सुनकर आरण्यक मुनिने हँसते हुए मधुर वाणीमें कहा – ‘स्वामिन्! आप ब्राह्मणोंके हितैषी और इस पृथ्वीके रक्षक हैं; अतः यह वचन आपहीके योग्य है। महाराज! वेदोंके पारगामी ब्राह्मण आपके ही विग्रह हैं। यदि आप ब्राह्मणोंकी पूजा आदि कर्तव्य कर्मोंका आचरण करेंगे तो अन्य सब राजा भी ब्राह्मणोंका आदर करेंगे। शास्त्रोंके ज्ञानसे रहित मूढ़ मनुष्य भी यदि आपके नामका स्मरण करता है तो वह सम्पूर्ण पापोंके महासागरको पार करके परम पदको प्राप्त होता है। सभीबेटों और इतिहासोंका यह स्पष्ट सिद्धान्त है कि राम नामका जो स्मरण किया जाता है, वह पापोंसे उद्धार करनेवाला है। श्रीरघुनाथजी ब्रह्महत्या जैसे पाप भी तभीतक गर्जना करते हैं, जबतक आपके नामोंका स्पष्टरूपसे उच्चारण नहीं किया जाता। महाराज ! आपके नामोंकी गर्जना सुनकर महापातकरूपी गजराज कहीं छिपनेके लिये स्थान ढूँढ़ते हुए भाग खड़े होते हैं। श्रीराम आपकी कथा सुनकर सब लोग पवित्र हो जायेंगे। पूर्वकालमें जब कि सत्ययुग चल रहा था, मैंने गंगातीरपर निवास करनेवाले पुराणवेत्ता ऋषियोंके मुखसे यह बात सुनी थी ‘महान् पाप करनेके कारण कातर हृदयवाले पुरुषोंको तभीतक पापका भय बना रहता है जबतक वे अपनी जिह्वासे परम मनोहर राम नामका उच्चारण नहीं करते। 2 अतः श्रीरामचन्द्रजी! इस समय मैं धन्य हो गया। आपके दर्शनसे मेरे संसार-बन्धनका नाश सुलभ हो गया।’
मुनिके ऐसा कहनेपर श्रीरघुनाथजीने उनका पूजन किया। उस समय सभी महर्षि उन्हें साधुवाद देने लगे। इसी बीचमें वहाँ जो अत्यन्त आश्चर्यजनक घटना घटी, उसे मैं बतला रहा हूँ। मुनिश्रेष्ठ वात्स्यायन ! तुम श्रीरामके भजनमें तत्पर रहनेवाले हो; मेरी बातोंको ध्यान देकर सुनो। आरण्यक मुनिको ध्यानमें श्रीरघुनाथजीका जैसा स्वरूप दिखायी देता था; उसी रूपमें महाराज श्रीरामचन्द्रजीको प्रत्यक्ष देखकर उन्हें अत्यन्त हर्ष हुआ ये वहाँ बैठे हुए महर्षियोंसे बोले- ‘मुनीश्वरो ! आपलोग मेरे मनोहर वचन सुनें भला इस भूमण्डलमें मेरे-जैसा सौभाग्यशाली मनुष्य कौन होगा? श्रीरामचन्द्रजीने मुझे नमस्कार करके अपने श्रीमुखसे मेरा स्वागत एवं कुशल- समाचार पूछा है। अतः आज मेरी समानता करनेवाला न कोई है न हुआ है और न होगा।श्रुतियाँ भी जिनके चरणकमलोंकी रजको सदा ही ढूँढ़ा करती हैं, उन्हीं भगवान्ने आज मेरे चरणोंका जल पीकर अपनेको पवित्र माना है!’
ऐसा कहते-कहते उनका ब्रह्मरन्ध्र फूट गया तथा उससे जो तेज निकला वह श्रीरघुनाथजीमें समा गया। इस प्रकार सरयूके तटवर्ती यज्ञ मण्डपमें सब लोगोंके देखते-देखते आरण्यक मुनिको सायुज्यमुक्ति प्राप्त हुई, जो योगियोंके लिये भी दुर्लभ है। उस समय आकाशमें तूर्य और वीणा आदि बाजे बजने लगे। भगवान्के आगे फूलोंकी वर्षा हुई। दर्शकोंके लिये यह विचित्र एवं अद्भुत घटना थी। मुनियोंने भी यह दृश्य देखकर मुनीश्वर आरण्यककी प्रशंसा करते हुए कहा- ‘ये मुनिश्रेष्ठ कृतार्थ हो गये ! क्योंकि श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल गये हैं।’
अध्याय 118 देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
वात्स्यायन बोले- फणीश्वर जो भक्तको पौड़ा दूर करनेके लिये नाना प्रकारको कोर्ति किया करते हैं. उन syaruaat कथा सुननेसे मुझे तृप्ति नहीं होती- अधिकाधिक सुननेको इच्छा बढ़ती जाती है। वेदोको धारण करनेवाले आरण्यक मुनि धन्य थे, जिन्होंने श्रीरघुनाथजीका दर्शन करके उनके सामने हो अपने नश्वर शरीरका परित्याग किया था। शेषजी! अब यह बताइये कि महाराजका वह यज्ञसम्बन्धी अश्व यहाँसे किस ओर गया, किसने उसे पकड़ा तथा वहाँ रमानाथ श्रीरघुनाथजोको कोर्तिका किस प्रकार विस्तार हुआ ?
शेषजीने कहा- ब्रह्मयें। आपका प्रश्न बड़ा सुन्दर है। आप औरघुनाथजीके सुने हुए गुणोंको भी नहीं सुने हुएके समान मानकर उनके प्रति अपना लोभ प्रकट करते हैं और बारम्बार उन्हें पूछते हैं। अच्छा, अब आगेकी कथा सुनिये। बहुतेरे सैनिकोंसे घिरा हुआ वह घोड़ा आरण्यक मुनिके आश्रम से बाहर निकला और नर्मदाके मनोहर तटपर भ्रमण करता हुआ देवनिर्मित देवपुर नामक नगर में जा पहुँचा जहाँ मनुष्योंके घरोंको दीवारें स्फटिक मणिकी बनी हुई थीं तथा वे गृह अपनी ऊँचाईके कारण हाथियोंसे भरे हुए विन्ध्याचल पर्वतका उपहास करते थे वहाँकी प्रजाके घर भी चाँदीके बने हुए दिखायी देते थे तथा उनके गोपुर नाना प्रकारके माणिक्योंद्वारा बने हुए थे जिनमें भाँति-भाँतिको विचित्र मणियाँ जड़ी हुई थीं। उस नगरमें महाराज वीरमणि राज्य करते थे, जी धर्मात्माओं में अग्रगण्य थे। उनका विशाल राज्य सब प्रकारके भोगोंसे सम्पन्न था। राजाके पुत्रका नाम था रुक्मांगद वह महान् शूरवीर और बलवान् था। एक दिन वह सुन्दर शरीरवाली रमणियों के साथ विहार करनेके लिये वनमें गया और वहाँ प्रसन्नचित्त होकर मधुर वाणीमें मनोहर गान करता हुआ विचरने लगा। इसी समय परम बुद्धिमान् राजाधिराजश्रीरामचन्द्रजीका वह शोभाशाली अश्व उस वनमें आ पहुँचा। उसके ललाटमें स्वर्णपत्र बँधा हुआ था। शरीरका रंग गंगाजल के समान स्वच्छ था। परन्तु केसर और कुंकुमसे चर्चित होनेके कारण कुछ पीला दिखायी देता था। वह अपनी तीव्र गतिसे वायुके वेगको भी तिरस्कृत कर रहा था। उसका स्वरूप अत्यन्त कौतूहलसे भरा हुआ था उसे देखकर राजकुमारकी स्त्रियोंने कहा—’प्रियतम! स्वर्णपत्रसे शोभा पानेवाला यह महान् अश्व किसका है? यह देखनेमें बड़ा सुन्दर है। आप इसे बलपूर्वक पकड़ लें।’
राजकुमारके नेत्र लीलायुक्त चितवनके कारण बड़े सुन्दर जान पड़ते थे। उसने स्त्रियोंकी बातें सुनकर खेल-सा करते हुए एक ही हाथसे घोड़ेको पकड़ लिया। उसके भालपत्रपर स्पष्ट अक्षर लिखे हुए थे। राजकुमार उसे बाँचकर हँसा और उस महिला मण्डलमें इस प्रकार बोला-‘अहो! शौर्य और सम्पत्तिमें मेरे पिता महाराज वीरमणिकी समानता करनेवाला इस पृथ्वीपर दूसरा कोई नहीं है, तथापि उनके जीते जी ये राजा रामचन्द्र इतना अहंकार कैसे धारण करते हैं? पिनाकधारी भगवान् शंकर जिनकी सदा रक्षा करते रहते हैं तथा देवता, दानव और यक्ष- अपने मणिमय मुकुटद्वारा जिनके चरणोंकी बन्दना किया करते हैं, वे महाबली मेरे पिताजी ही इस घोड़ेके द्वारा अश्वमेध यज्ञ करें। इस समय यह घुड़सालमें जाय और मेरे सैनिक इसे ले जाकर वहाँ बाँध दें।’ इस प्रकार उस घोड़ेको पकड़कर राजा वीरमणिका ज्येष्ठ पुत्र रुक्मांगद अपनी पत्नियोंके साथ नगरमें आया। उस समय उसके मनमें बड़ा उत्साह भरा हुआ था। उसने पितासे जाकर कहा-‘मैं रघुकुलके स्वामी श्रीरामचन्द्रका घोड़ा ले आया हूँ। यह इच्छानुसार चलनेवाला अद्भुत अश्व अश्वमेधयज्ञके लिये छोड़ा गया था। रामके भाई शत्रुघ्न अपनी विशाल सेनाके साथ – इसकी रक्षाके लिये आये हैं।’ महाराज वीरमणि बड़ेबुद्धिमान् थे। पुत्रकी बात सुनकर उन्होंने उसके कार्यकी प्रशंसा नहीं की। सोचा कि ‘यह घोड़ा लेकर चुपकेसे चला आया है। इसका यह कार्य तो चोरके समान है।’ अद्भुत कर्म करनेवाले भगवान् शंकर राजाके इष्टदेव थे। उनसे राजाने सारा हाल कह सुनाया।
भगवान् शिवने कहा- राजन् ! तुम्हारे पुत्रने बड़ा अद्भुत काम किया है। यह परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीरामचन्द्रके महान् अश्वको हर लाया है, जिनका मैं अपने हृदयमें ध्यान करता हूँ, जिह्वा से जिनके नामका उच्चारण करता हूँ, उन्हीं श्रीरामके यज्ञ सम्बन्धी अश्वका तुम्हारे पुत्रने अपहरण किया है। परन्तु इस युद्धक्षेत्रमें एक बहुत बड़ा लाभ यह होगा कि हमलोग भक्तोंद्वारा सेवित श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंका दर्शन कर सकेंगे। परन्तु अब हमें अश्वकी रक्षा के लिये महान् प्रयत्न करना होगा। इतनेपर भी मुझे संदेह है कि शत्रुघ्नके सैनिक मेरे द्वारा रक्षा किये जानेपर भी इसे बलपूर्वक पकड़ ले जायेंगे। इसलिये महाराज [मैं तो यही सलाह दूंगा कि] तुम विनीत होकर जाओ और राज्यसहित इस सुन्दर अश्वको भगवान्की सेवामें अर्पण करके उनके चरणोंका दर्शन करो।
वीरमणि बोले- भगवन्! क्षत्रियोंका यह धर्म है। कि वे अपने प्रतापकी रक्षा करें, अतः हर एक मानी पुरुषके लिये अपने प्रतापकी रक्षा करना कर्तव्य है; इसके लिये उसे अपनी शक्तिभर पराक्रम करना चाहिये। आवश्यकता हो तो शरीरको भी होम देना चाहिये। सहसा किसीकी शरणमें जानेसे शत्रु उपहास करते हैं। वे कहते हैं-‘यह कायर है, राजाओंमें अधम है. शुद्र है। इस नौचने भयसे विल होकर अनार्यपुरुषोंकी भाँति शत्रुके चरणोंमें मस्तक झुकाया है। अतः अब युद्धका अवसर उपस्थित हो गया है। इस समय जैसा उचित हो, वही आप करें। कर्तव्यका विचार करके आपको अपने इस भक्तकी रक्षा करनी चाहिये ।
शेषजी कहते हैं-राजाकी बात सुनकर भगवान् चन्द्रमौलि अपनी मेघके समान गम्भीर वाणीसे उनका मन लुभाते हुए हँसकर बोले- ‘राजन् ! यदि तैंतीसकरोड़ देवता भी आ जायें तो भी किसमें इतनी शक्ति है जो मेरे द्वारा रक्षित रहनेपर तुमसे घोड़ा ले सके। यदि साक्षात् भगवान् यहाँ आकर अपने स्वरूपकी झाँकी करायेंगे तो मैं उनके कोमल चरणोंमें मस्तक झुकाऊँगा; क्योंकि सेवकका स्वामीके साथ युद्ध करना बहुत बड़ा अन्याय बताया गया है। शेष जितने वीर हैं, वे मेरे लिये तिनकेके समान हैं- कुछ भी नहीं कर सकते। अतः राजेन्द्र ! तुम युद्ध करो, मैं तुम्हारा रक्षक हूँ। मेरे रहते कौन ऐसा वीर है जो बलपूर्वक घोड़ा ले जा सके? यदि त्रिलोकी भी संगठित होकर आ जाय तो मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती।’
इधर श्रीरघुनाथजीके जितने सैनिक थे, वे अश्वका मार्ग ढूँढ़ रहे थे। इतने ही में महाराज शत्रुघ्न भी अपनी विशाल सेनाके साथ आ पहुँचे। आते ही उन्होंने सभी सेवकोंसे प्रश्न किया-‘कहाँ है मेरा अश्व ? स्वर्णपत्रसे सुशोभित वह यज्ञसम्बन्धी घोड़ा इस समय दिखायी क्यों नहीं देता ?’ उनकी बात सुनकर अश्वके पीछे चलनेवाले सेवकोंने कहा- नाथ! उस मनके समान तीव्रगामी अश्वको इस जंगलमें किसीने हर लिया। हमें भी वह कहीं दिखायी नहीं देता।’ सेवकोंके वचन सुनकर राजा शत्रुघ्नने सुमतिसे पूछा-‘मन्त्रिवर! यहाँ कौन राजा निवास करता है? हमें अश्वकी प्राप्ति कैसे होगी? जिसने आज हमारे अश्वका अपहरण किया है, उस राजाके पास कितनी सेना है?’ इस प्रकार शकुनी मन्त्रीकेसाथ परामर्श कर रहे थे इतनेहीमें देवर्षि नारद युद्ध देखनेके लिये उत्सुक होकर वहाँ आये। शत्रुघ्नने उन्हें स्वागत-सत्कारसे सन्तुष्ट किया। वे बातचीत करनेमें बड़े चतुर थे; अतः अपनी वाणीसे नारदजीको प्रसन्न करते हुए बोले- ‘महामते! बताइये, मेरा अश्व कहाँ है? उसका कुछ पता नहीं चलता। मेरे कार्यकुशल अनुसार भी उसके मार्गका अनुसन्धान नहीं कर पाते।’
नारदजी वीणा बजाते और श्रीराम कथाका बारम्बार गान करते हुए बोले-‘राजन् यहाँ देवपुर नामका नगर है उसमें वीरमणि नामसे विख्यात एक बहुत बड़े राजा रहते हैं। उनका पुत्र इस वनमें आया था, उसीनेअश्वको पकड़ लिया है। आज उस राजाके साथ तुमलोगोंका बड़ा भयंकर युद्ध होगा। उसमें बड़े-बड़े बलवान् और शूरवीर मारे जायेंगे। इसलिये तुम पूरी तैयारीके साथ यहाँ स्थिरतापूर्वक खड़े रहो तथा सेनाका ऐसा व्यूह बनाओ जिसमें शत्रुके सैनिकका प्रवेश करना अत्यन्त कठिन हो। श्रेष्ठ राजा वीरमणिसे युद्ध करते समय तुम्हें बड़ी कठिनाइयोंका सामना करना पड़ेगा; तथापि अन्तमें विजय तुम्हारी ही होगी। भला, सम्पूर्ण जगत्में कौन ऐसा वीर है, जो भगवान् श्रीरामको पराजित कर सके।’ ऐसा कहकर नारदजी वहाँसे अन्तर्धान हो गये और देवता तथा दानवोंके समान उन दोनों पक्षोंका भयंकर युद्ध देखनेके लिये आकाशमें ठहर गये।
उधर शूरशिरोमणि राजा वीरमणिने रिपुवार नामक सेनापतिको बुलाया और उसे अपने नगरमें ढिंढोरा पिटवानेका आदेश दिया। सेनापतिने राजाकी आज्ञाका पालन किया। प्रत्येक घर, गली और सड़कपर डंकेकी आवाज सुनायी देने लगी। लोगोंको जो घोषणा सुनायी गयी, वह इस प्रकार थी राजधानीमें जो-जो वीर उपस्थित हैं, वे सभी शत्रुघ्नपर चढ़ाई करें। जो लोगवीरता के अभिमानमें आकर राजाज्ञाका उल्लंघन करेंगे, वे महाराजके पुत्र या भाई ही क्यों न हों, वधके योग्य समझे जायेंगे। फिरसे डंका बजाकर उपर्युक्त घोषणा दुहराई जाती है-सभी वीर सुन लें और सुनकर शीघ्र ही अपने कर्तव्यका पालन करें। विलम्ब नहीं होना चाहिये।” नरश्रेष्ठ वीरमणिके सैनिक श्रेष्ठ योद्धा थे। उन्होंने यह घोषणा अपने कानों सुनी और कवच आदिसे सुसजित होकर वे महाराजके पास गये। उनकी दृष्टिमें युद्ध एक महान् उत्सवके समान था; उसका अवसर पाकर उनका हृदय हर्ष और उत्साहसे भर गया था। राजकुमार रुक्मांगद भी अपने मनके समान वेगशाली रथपर सवार होकर आये। उनके छोटे भाई शुभांगद भी अपने सुन्दर शरीरपर बहुमूल्य रत्नमय कवच धारण करके रणोत्सवमें सम्मिलित होनेके लिये प्रस्थित हुए। महाराजके भाईका नाम था वीरसिंह ये सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंकी विद्यामें प्रवीण थे। राजाज्ञाके अनुसार वे भी दरबारमें गये; क्योंकि महाराजका शासन कोई लाँघ नहीं सकता था। राजाका भानजा बलमित्र भी उपस्थित हुआ तथा सेनापति रिपुकारने भी चतुरंगिणी सेना तैयार करके महाराजको इसकी सूचना दी।
तदनन्तर राजा वीरमणि सब प्रकारके अस्त्र शस्त्रोंसे भरे हुए अपने श्रेष्ठ रथपर सवार हुए। वह रथ बहुत ऊँचा था और उसके ऊँचे-ऊँचे पहिये मणियोंके बने हुए थे चारों ओर भैरियाँ बज उठीं। उनके बजानेवाले बहुत अच्छे थे। भेरी बजते ही राजाकी सेना संग्रामके लिये प्रस्थित हुई। सर्वत्र कोलाहल छा गया। महाराज वीरमणि युद्धके उत्साहसे युक्त होकर रणक्षेत्रकी ओर गये। राजकी सेना आ पहुँची। शस्त्र-संचालनमें चतुर रथियोंके द्वारा समूची सेनामें महान् कोलाहल छा रहा है, यह देखकर शत्रुघ्नने सुमति से कहा- ‘मन्त्रिवर! मेरे अश्वको पकड़नेवाले बलवान् राजा वीरमणि मुझसे युद्ध करनेके लिये विशाल चतुरंगी सेनाके साथ आ गये अब किस तरह युद्ध आरम्भ करना चाहिये। कौन-कौन महाबली योद्धा इस समय युद्ध करेंगे? उन सबको आदेश दो; जिससे इस संग्राममें हमें मनोवांछित विजय प्राप्त हो।’सुमतिने कहा- स्वामिन्! वीर पुष्कल श्रेष्ठ अस्त्रोंक ज्ञाता है; इस समय ये ही युद्ध करें। नीलरत्न आदि दूसरे योद्धा भी संग्राममें कुशल है; अतः वे भी लड़ सकते हैं। आपको तो भगवान् शंकर अथवा राजा मणिके साथ ही युद्ध करना चाहिये। वे राजा बड़े बलवान् और पराक्रमी हैं; उन्हें द्वन्द्वयुद्धके द्वारा जीतना चाहिये। इस उपायसे काम लेनेपर आपकी विजय होगी। इसके बाद आपको जैसा जैचे, वैसा ही कीजिये: क्योंकि आप तो स्वयं ही परम बुद्धिमान् हैं।
मन्त्रीकी यह बात सुनकर शत्रुवीरोंका दमन करनेवाले शत्रुघ्नने युद्धके लिये निश्चय किया और श्रेष्ठ योद्धाओंको लड़नेकी आज्ञा दी। संग्रामके लिये उनकी आज्ञा सुनकर युद्धकुशल वीर अत्यन्त उत्साहसे भर गये और शत्रुसैनिकोंके साथ बुद्ध करनेके लिये चले वे हाथोंमें धनुष धारण किये युद्धके मैदानमें दिखायी दिये और बाणोंकी बौछार करके बहुतेरे विपक्षी योद्धाओंको विदीर्ण करने लगे। उनके द्वारा अपने सैनिकका संहार सुनकर मणिमय स्थपर बैठा हुआ बलवान् राजकुमार रुक्मांगद उनका सामना करनेके लिये आगे बढ़ा। उसने अपने अनेकों वाणोंकी मारसे शत्रुपक्षके हजारों वीरोंको उद्विग्न कर दिया। उनमें हाहाकार मच गया। राजकुमार बलवान् था; उसने बल, यश और सम्पत्तिमें अपनी समानता रखनेवाले शत्रुघ्न तथा भरतकुमार पुष्कलको युद्धके लिये ललकारा – ‘वीररत्न! मुझसे युद्ध करनेके लिये आओ। इन करोड़ों मनुष्योंको डराने या मारनेसे क्या लाभ? मेरे साथ घोर संग्राम करके विजय प्राप्त करो।’
स्वमांगद के ऐसा कहनेपर बलवान् वीर पुष्कल हँस पड़े। उन्होंने अपने तीखे बाणोंसे राजकुमारकी छातीमें बड़े वेगसे प्रहार किया। राजकुमार शत्रुके इस पराक्रमको नहीं सह सका। उसने अपने महान् धनुषपर बाणका सन्धान किया और दस सायकोंसे वीर पुष्फलको छातीको बींध डाला। दोनों ही युद्धमें एक दूसरेपर कुपित थे। दोनोंहीके हृदयमें विजयकी अभिलाषा थी। रुक्मांगदने पुष्कलसे कहा-‘वीरअब तुम बलपूर्वक किया हुआ मेरा पराक्रम देखो। सम्हलकर बैठ जाओ, मैं तुम्हारे रथको आकाश उड़ाता हूँ।’ ऐसा कहकर उसने मन्त्र पढ़ा और पुष्कलके रथपर भ्रामकास्त्रका प्रयोग किया। उस बाणसे आहत होकर पुष्कलका रथ चक्कर काटता हुआ एक योजन दूर जा पड़ा। सारथिने बड़ी कठिनाईसे रथको रोका तो भी वह पृथ्वीपर ही चक्कर लगाता रहा। किसी तरह पूर्वस्थानपर रथको ले जाकर उत्तम अस्त्रोंके ज्ञाता पुष्कलने कहा- ‘राजकुमार। तुम्हारे जैसे वीर पृथ्वीपर रहनेके योग्य नहीं हैं। तुम्हें तो इन्द्रकी सभायें रहना चाहिये; इसलिये अब देवलोकको ही चले जाओ।’ ऐसा कहकर उन्होंने आकाशमें उड़ा देनेवाले महान् अस्त्रका प्रयोग किया। उस बाणकी चोटसे रुक्मांगदका रथ सीधे आकाशमें उड़ चला और समस्त लोकोंको लाँघता हुआ सूर्यमण्डलतक जा पहुँचा। वहाँकी प्रचण्ड ज्वालासे राजकुमारका रथ घोड़े और सारथिसहित दग्ध हो गया तथा वह स्वयं भी सूर्यकी किरणोंसे झुलस जानेके कारण बहुत दुःखी हो गया। अन्तमें वह दग्ध होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। उस समय युद्ध के अग्रभागमें महान् हाहाकार मचा राजा वीरमणि अपने पुत्रको मूच्छित देखकर क्रोधमें भर गये और रणभूमिके मध्यभागमें खड़े हुए पुष्कलकी ओर चले। इधर कपिवर हनुमानजीने जब देखा कि समुद्रके समान विशाल सेनाके भीतर स्थित हुए राजा वीरमणि भरतकुमार पुष्कलको ललकार रहे हैं तब वे उनकी ओर दौड़े। उन्हें आते देख पुष्कलने कहा- ‘महाकपे आप क्यों युद्धभूमिमें लड़नेके लिये आ रहे हैं? राजा वीरमणिकी यह सेना है ही कितनी मैं तो इसे बहुत थोड़ी – अत्यन्त तुच्छ समझता हूँ। जिस प्रकार आपने भगवान् श्रीरामकी कृपासे राक्षस-सेनारूपी समुद्रको पार किया था, उसी प्रकार में भी श्रीरघुनाथजीका स्मरण करके इस दुस्तर संकटके पार हो जाऊँगा। जो लोग दुस्तर अवस्थामें पड़कर श्रीरघुनाथजीका स्मरण करते हैं, उनका दुःखरूपी समुद्र सूख जाता है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है; इसलिये महावीर। आप चाचा शत्रुघ्न केपास जाइये। मैं अभी एक क्षणमें राजा वीरमणिको जीतकर आ रहा हूँ।’
हनुमान्जी बोले- बेटा! राजा वीरमणिसे भिड़नेका साहस न करो ये दानी, शरणागतकी रक्षामें कुशल, बलवान् और शौर्यसे शोभा पानेवाले हैं। तुम अभी बालक हो और राजा वृद्ध ये सम्पूर्ण अस्ववेत्ताओंगे श्रेष्ठ हैं। इन्होंने युद्धमें अनेकों शूरवीरोंको परास्त किया है तुम्हें मालूम होना चाहिये कि भगवान् सदाशिव इनके रक्षक हैं और सदा इनके पास रहते हैं। वे राजाकी भक्तिके वशीभूत होकर इनके नगरमें पार्वतीसहित निवास करते हैं।
पुष्कलने कहा- कपिश्रेष्ठ माना कि राजाने भगवान् शंकरको भक्तिसे वशमें करके अपने नगरमें स्थापित कर रखा है; परन्तु भगवान् शंकर स्वयं जिनकी आराधना करके सर्वोत्कृष्ट स्थानको प्राप्त हुए हैं, वे श्रीरघुनाथजी मेरा हृदय छोड़कर कहीं नहीं जाते। जहाँ श्रीरघुनाथजी हैं, वहीं सम्पूर्ण चराचर जगत् है; अतः मैं राजा वीरमणिको युद्धमें जीत लूंगा।
धीरतापूर्वक कही हुई पुष्कलकी ऐसी वाणी सुनकर हनुमानजी राजाके छोटे भाई वीरसिंहसे युद्ध करनेके लिये चले गये। पुष्कल द्वैरथ-युद्धमें कुशल थे और सुवर्णजटित रथपर विराजमान थे। वे राजाको ललकारते देख उनका सामना करनेके लिये गये। उन्हें आया देखकर राजा वीरमणिने कहा- ‘बालक! मेरे सामने न आओ, मैं इस समय क्रोधमें भरा हूँ; युद्धमें मेरा क्रोध और भी बढ़ जाता है; यदि प्राण बचानेकी इच्छा हो तो लौट जाओ मेरे साथ युद्ध मत करो।’ राजाका यह वचन सुनकर पुष्कलने कहा- ‘राजन् ! आप युद्धके मुहानेपर सँभलकर खड़े होइये। मैं श्रीरामका भक्त हूँ; मुझे कोई युद्धमें जीत नहीं सकता, चाहे वह इन्द्र पदका ही अधिकारी क्यों न हो।’ पुष्कलका ऐसा वचन सुनकर राजाओंमें अग्रगण्य वीरमणि उन्हें निरा बालक समझकर हँसने लगे, तत्पश्चात् उन्होंने अपना क्रोध प्रकट किया। राजाको कुपित जानकर रणोन्मत्त वीर भरतकुमारने उनकी छातीमें बीस तीखे बाणोंका प्रहार किया। उन बाणकोआते देख राजाने अत्यन्त कुपित होकर अपने तीक्ष्ण सायकोंसे उनके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। वाणका का जाता देख वीरोंका विनाश करनेवाले भरतकुमारके हृदयमें बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने तीन बाणोंसे राजाके ललाटको बाँध डाला। उन बाणोंकी चोटसे राजाको बड़ी व्यथा हुई। वे प्रचण्ड क्रोधमें भर गये और वीर पुष्कलकी छातीमें उन्होंने नौ बाण मारे तब तो पुष्कलका क्रोध भी बढ़ा। उन्होंने तीखे पर्ववाले सी बाण मारकर तुरंत ही राजाको घायल कर दिया। उन बाणोंके प्रहारसे राजाका कवच, किरीट, शिरस्त्राण तथा रथ- सभी छिन्न-भिन्न हो गये। तब वीरमणि दूसरे रथपर सवार होकर भरतकुमारके सामने आये और बोले—’ श्रीरामचन्द्रजीके चरण-कमलोंमें भ्रमरके समान अनुराग रखनेवाले वीर पुष्कल! तुम धन्य हो !’ ऐसा कहकर अस्त्र-विद्यामें कुशल राजाने उनपर असंख्य बाणका प्रहार किया। वहाँ पृथ्वीपर और दिशाओंमें उनके बाणोंके सिवा दूसरा कुछ नहीं दिखायी देता था। अपनी सेनाका यह संहार देखकर रथियोंमें अग्रगण्य पुष्कलने भी शत्रुपक्षके योद्धाओंका विनाश आरम्भ किया। हाथियोंके मस्तक विदीर्ण होने लगे, उनके मोती बिखर-बिखरकर गिरने लगे। उस समय क्रोधमै भरे हुए पुष्कलने राजा वीरमणिको सम्बोधित करके शंख बजाकर निर्भयतापूर्वक कहा- ‘राजन्! आप वृद्ध होनेके कारण मेरे मान्य हैं, तथापि इस समय युद्धमें मेरा महान् पराक्रम देखिये बोरवर! यदि तीन बाणोंसे मैं आपको मूच्छित न कर दूँ तो जो महापापी मनुष्य पापहारिणी गंगाजीके तटपर जाकर भी उनकी निन्दा करके उनके जलमें डुबकी नहीं लगाता, उसको लगनेवाला पाप मुझे ही लगे।’
यह कहकर पुष्कलने राजाके महान् वक्षःस्थलको, जो किवाड़ोंके समान विस्तृत था निशाना बनाया और एक अग्निके समान तेजस्वी एवं तीक्ष्ण बाण छोड़ा। किन्तु राजाने अपने बाणसे पुष्कलके उस बाणके दो टुकड़े कर डाले। उनमेंसे एक टुकड़ा तो भूमण्डलको प्रकाशित करता हुआ पृथ्वीपर गिर पड़ा और दूसराराजाके रथपर गिरा। तब पुष्कलने अपना मातृ भक्तिजनित पुण्य अर्पण करके दूसरा बाण चलाया; किन्तु राजाने अपने महान् बाणसे उसको भी काट दिया। इससे पुष्कलके मनमें बड़ा खेद हुआ। वे सोचने लगे-‘अब क्या करना चाहिये ?’ इतनेहीमें उन्हें एक उपाय सूझ गया। वे श्रेष्ठ अस्त्रोंके ज्ञाता तो थे ही, अपनी पीड़ा दूरकरनेवाले श्रीरघुनाथजीका उन्होंने मन-ही-मन स्मरण किया और तीसरा बाण छोड़ दिया। वह बाण सर्पके समान विषैला और सूर्यके समान प्रज्वलित था। उसने राजाकी छातीमें चोट पहुँचाकर उन्हें मूच्छित कर दिया। राजाके मूच्छित होते ही उनकी सारी सेना हाहाकार मचाती हुई भाग चली और पुष्कल विजयी हुए ।
अध्याय 119 हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
शेषजी कहते हैं—मुने! हनुमानजीने वीरसिंहके पास जाकर कहा-‘वीरवर! ठहरो, कहाँ जाते हो? मैं एक ही क्षणमें तुम्हें परास्त करूंगा।’ वानरके मुखसे ऐसी बढ़ी चढ़ी बात सुनकर वीरसिंह क्रोधमें भर गये और मेघके समान गम्भीर ध्वनि करनेवाले धनुषको खींचकर तीक्ष्ण बाणोंकी वर्षा करने लगे। उस समय रणभूमिमें उनकी ऐसी शोभा हो रही थी मानो आषाड़के महीनेमें धारावाहिक वृष्टि करनेवाला मनोहर मेघ शोभा पा रहा हो। उन तीखे बाणोंको अपने शरीरपर लगते देख हनुमानजीने वज्रके समान मुक्का वीरसिंहकी छाती में मारा। मुष्टिका प्रहार होते ही वे मूर्च्छित होकर धरतीपर गिर पड़े। अपने चाचाको मूच्छित देख राजकुमार शुभांगद वहाँ आ पहुँचा। रुक्मांगदकी भी मूर्च्छा दूर हो चुकी थी; अतः वह भी युद्ध क्षेत्रमें आ धमका। वे दोनों भाई भयंकर संग्राम करते हुए हनुमान्जीके पास गये। उन दोनों वीरोंको समरभूमिमें आया देख हनुमानजीने उन्हें रथ और धनुषसहित अपनी पूँछमें लपेट लिया और पृथ्वीपर बड़े वेगसे पटका। इससे वे दोनों राजकुमार तत्काल मूर्च्छित हो गये। इसी प्रकार वलमित्र भी सुमदके साथ बहुत देरतक युद्ध करके अन्तमें मूच्छाको प्राप्त हुए। तदनन्तर अपने आत्मीय जनोंको मूर्च्छित देख भक्तोंको पीड़ा दूर करनेवाले भगवान् महेश्वर स्वयं होउस विशाल सेनामें शत्रुघ्नके सैनिकोंके साथ युद्ध करनेके लिये गये। उनका उद्देश्य था भक्तोंकी रक्षा करना। वे पूर्वकालमें जैसे त्रिपुरसे युद्ध करनेके लिये गये थे, उसी प्रकार वहाँ भी अपने पार्षदों और प्रमथ गणसहित पृथ्वीतलको कँपाते हुए जा पहुँचे। महाबली शत्रुघ्नने जब देखा कि सर्वदेवशिरोमणि साक्षात् महेश्वर पधारे हैं, तब वे भी उनका सामना करनेके लिये रणभूमिमें गये। शत्रुघ्नको आया देख पिनाकधारी रुद्रने वीरभद्रसे कहा- ‘तुम मेरे भक्तको पीड़ा देनेवाले पुष्कलसे युद्ध करो।’ फिर नन्दीको उन्होंने महाबली हनुमान्से लड़नेके लिये भेजा । तदनन्तर कुशध्वजके पास प्रचण्डको, सुबाहुके पास भृंगीको और सुमदके पास चण्ड नामक अपने गणको भेजकर युद्धके लिये आदेश दिया। महारुद्रके प्रधान गण वीरभद्रको आया देख पुष्कल अत्यन्त उत्साहपूर्वक उनसे युद्ध करनेको आगे बढ़े। उन्होंने पाँच बाणोंसे वीरभद्रको घायल किया। उनके बाणोंसे क्षत-विक्षत होकर वीरभद्रने त्रिशूल हाथमें लिया; किन्तु महाबली पुष्कलने एक ही क्षणमें उस त्रिशूलको काटकर विकट गर्जना की। अपने त्रिशूलको कटा देख रुद्रके अनुगामी महाबली वीरभद्रको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने महारथी पुष्कलके रथको तोड़ डाला। वीरभद्रके वेगसे चकनाचूर हुए रथको त्याग कर महाबली पुष्कल पैदल हो गयेऔर वीरभदको मुक्केसे मारने लगे। फिर दोनोंने एक दूसरेपर मुष्टिकाप्रहार आरम्भ किया। दोनों ही परस्पर विजयके अभिलाषी और एक-दूसरेके प्राण लेनेको उतारू थे। इस प्रकार रात-दिन लगातार युद्ध करते उन्हें चार दिन व्यतीत हो गये। पाँचवें दिन पुष्कलको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने वीरभद्रका गला पकड़कर उन्हें पृथ्वीपर दे मारा। उनके प्रहारसे महाबली वीरभद्रको बड़ी पीड़ा हुई। फिर उन्होंने भी पुष्कलके पैर पकड़कर उन्हें बारम्बार घुमाया और पृथ्वीपर पछाड़कर मार डाला। महाबली वीरभद्रने पुष्कलके मस्तकको, जिसमें कुण्डल जगमगा रहे थे, त्रिशूलसे काट दिया। इसके बाद वे जोर-जोरसे गर्जना करने लगे। यह देखकर सभी लोग थर्रा उठे। रणभूमिमें जो युद्ध कुशल वीर थे, उन्होंने वीरभद्रके द्वारा पुष्कलके मारे जानेका समाचार शत्रुघ्नसे कहा ।
पुष्कलके का वृत्तान्त सुनकर महावीर शत्रुघ्नको बड़ा दुःख हुआ। वे शोकसे काँप उठे। उन्हें दुःखी जानकर भगवान् शंकरने कहा- ‘रे शत्रुघ्न ! तू युद्धमें शोक न कर वीर पुष्कल धन्य है, जिसने महाप्रलयकारी वीरभद्रके साथ पाँच दिनोंतक युद्ध किया। ये वीरभद्र वे ही हैं, जिन्होंने मेरे अपमान करनेवाले दशको क्षणभर में मार डाला था; अतः महाबलवान् राजेन्द्र ! तू शोक त्याग दे और युद्ध कर। शत्रुघ्नने शोक छोड़ दिया। उन्हें शंकरके प्रति बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने चढ़ाये हुए धनुषको हाथमें लेकर महेश्वरपर बाणोंका प्रहार आरम्भ किया। उधरसे शंकरने भी बाण छोड़े। दोनोंके बाण आकाशमें छा गये बाग- युद्धमें दोनोंकी क्षमता देखकर सब लोगोंको यह विश्वास हो गया कि अब सबको मोहमें डालनेवाला लोक-संहारकारी प्रलयकाल आ पहुँचा। दर्शक कहने लगे-‘ये तीनों लोकोंकी उत्पत्ति और प्रलय करनेवाले रुद्र हैं, तो वे भी महाराज श्रीरामचन्द्रके छोटे भाई हैं। न जाने क्या होगा। इस भूतलपर किसकी विजय होगी ?’
इस प्रकार शत्रुघ्न और शिवमें ग्यारह दिनोंतक परस्पर बुद्ध होता रहा। बारहवें दिन राजा शत्रुघ्नने क्रोधमें भरकर महादेवजीका वध करनेके लिये ब्रह्मास्त्रका प्रयोगकिया, किन्तु महादेवजी उस महान् अस्त्रको हँसते हम भी गये। इससे शत्रुघ्नको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे सोचने लगे—’अब क्या करना चाहिये?” वे इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि देवाधिदेवोंके शिरोमणि भगवान् शिवने शत्रुघ्नकी छाती में एक अग्नि के समान तेजस्वी बाण भोंक दिया। उससे मूच्छित होकर शत्रुघ्न रणभूमिमें गिर पड़े। उस समय योद्धाओंसे भरी हुई उनकी सारी सेनामें हाहाकार मच गया। शत्रुघ्नको बाणोंसे पीड़ित एवं मूर्च्छित होकर गिरा देख हनुमानजीने पुष्कलके शरीरको रथपर सुला दिया और सेवकोंको उनको रक्षामें तैनात करके वे स्वयं संहारकारी शिवसे युद्ध करनेके लिये आये हनुमानजी श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करके अपने पक्षके योद्धाओंका हर्ष बढ़ाते हुए रोषके मारे अपनी पूँछको जोर-जोरसे हिला रहे थे। युद्धके मुहानेपर रुद्रके समीप पहुँचकर महावीर हनुमानजी देवाधिदेव महादेवजीका वध करनेकी इच्छासे बोले- ‘रुद्र ! तुम राम भक्तका वध करनेके लिये उद्यत होकर धर्मके प्रतिकूल आचरण कर रहे हो इसलिये मैं तुम्हें दण्ड देना चाहता हूँ। मैंने पूर्वकालमें वैदिक ऋषियोंके मुँहसे अनेकों बार सुना है कि पिनाकधारी रुद्र सदा ही श्रीरघुनाथजीके चरणोंका स्मरण करते रहते हैं; किन्तु वे सभी बातें आज झूठी साबित हुईं। क्योंकि तुमने राम भक्त शत्रुघ्न के साथ युद्ध किया है।’ हनुमान्जीके ऐसा कहनेपर महेश्वर बोले-‘कपिश्रेष्ठ! तुम वीरोंमें प्रधान और धन्य हो। तुमने जो कुछ कहा है, वह सत्य है। देव-दानववन्दित ये भगवान् श्रीरामचन्द्रजी वास्तवमें मेरे स्वामी हैं। किन्तु मेरा भक्त वीरमणि उनके अश्वको ले आया है और उस अश्वके रक्षक शत्रुघ्न, जो शत्रुवीरोंका दमन करनेवाले हैं, इसके ऊपर चढ़ आये हैं। इस अवस्थामें में वीरमणिको भक्तिके वशीभूत होकर उसकी रक्षाके लिये आया हूँ क्योंकि भक्त अपना ही स्वरूप होता है। अतः जिस किसी तरह भी सम्भव हो, उसको रक्षा करनी चाहिये यही मर्यादा है।”
चण्डीपति भगवान् शंकरके ऐसा कहनेपर हनुमानजी बहुत कुपित हुए और उन्होंने एक बड़ी शिलालेकर उसे उनके रथपर दे मारा। शिलाका आघात पाकर महादेवजीका रथ घोड़े सारथि ध्वजा और पताकासहित चूर-चूर हो गया। शिवजीको रथहीन देखकर नन्दी दौड़े हुए आये और बोले—’ भगवन्! मेरी पीठपर सवार हो जाइये।’ भूतनाथको वृषभपर आरूढ़ देख हनुमान्जीका क्रोध और भी बढ़ गया। उन्होंने शालका वृक्ष उखाड़कर बड़े वेगसे उनकी छातीपर प्रहार किया। उसकी चोट खाकर भगवान् भूतनाथने एक तीखा शूल हाथमें लिया, जिसकी तीन शिखाएँ थीं तथा जो अग्निको ज्यालाकी भाँति जाज्वल्यमान हो रहा था। अग्नितुल्य तेजस्वी उस महान् शूलको अपनी ओर आते देख हनुमानजीने वेगपूर्वक हाथसे पकड़ लिया और उसे क्षणभर में तिल-तिल करके तोड़ डाला। कपिश्रेष्ठ हनुमान्ने जब वेगके साथ त्रिशूलके टुकड़े-टुकड़े कर डाले, तब भगवान् शिवने तुरंत ही शक्ति हाथमें ली, जो सब की सब लोहेकी बनी हुई थी। शिवजीकी चलायी हुई वह शक्ति बुद्धिमान् हनुमान्जीकी छातीमें आ लगी। इससे वे कपिश्रेष्ठ क्षणभर बड़े विकल रहे। फिर एक ही क्षणमें उस पीड़ाको सहकर उन्होंने एक भयंकर वृक्ष उखाड़ लिया और बड़े-बड़े नागसे विभूषित महादेवजीकी छातीमें प्रहार किया। वीरवर हनुमान्जीकी मार खाकर शिवजीके शरीरमें लिपटे हुए नाग थर्रा उठे और वे उन्हें छोड़कर इधर-उधर होते हुए बड़े वेग से पातालमें घुस गये। इसके बाद शिवजीने उनके ऊपर मूसल चलाया, किन्तु वे उसका वार बचा गये। उस समय रामसेवक हनुमानजीको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने हाथपर पर्वत लेकर उसे शिवजीकी छातीपर दे मारा। तदनन्तर, उनके ऊपर दूसरी-दूसरी शिलाओं, वृक्षों और पर्वतोंकी वृष्टि आरम्भ कर दी। वे भगवान् भूतनाथको अपनी पूँछमें लपेटकर मारने लगे। इससे नन्दीको बड़ा भय हुआ। उन्होंने एक-एक क्षणमें प्रहार करके शिवजीको अत्यन्त व्याकुल कर दिया। तब वे वानरराज हनुमानजी से बोले- ‘रघुनाथजीकी सेवामें रहनेवाले भक्तप्रवर तुम धन्य हो आज तुमने महान् पराक्रम कर दिखाया।इससे मुझे बड़ा सन्तोष हुआ है। महान् वेगशाली वीर। मैं दान यज्ञ या थोड़ी-सी तपस्यासे सुलभ नहीं है। अतः मुझसे कोई वर मांगो।’
भगवान् शिव सन्तुष्ट होकर जब ऐसी बात कहने लगे, तब हनुमानजीने हँसकर निर्भय वाणीमें कहा ‘महेश्वर! श्रीरघुनाथजीके प्रसादसे मुझे सब कुछ प्राप्त है; तथापि आप मेरे युद्धसे सन्तुष्ट हैं, इसलिये मैं आपसे यह वर माँगता हूँ। हमारे पक्षके ये वीर पुष्कल युद्धमें मारे जाकर पृथ्वीपर पड़े हैं, श्रीरामचन्द्रजीके छोटे भाई शत्रुघ्न भी रणमें मूच्छित हो गये हैं तथा दूसरे भी बहुत से बोर बाणोंकी भारसे क्षत-विक्षत एवं मूर्च्छित होकर धरतीपर गिरे हुए हैं। इन सबकी आप अपने गणों के साथ रहकर रक्षा करें। इनके शरीरका खण्ड-खण्ड न हो, इस बातकी चेष्टा करें। मैं अभी द्रोणगिरिको लाने जा रहा हूँ, उसपर मरे हुए प्राणियोंको जिलानेवाली ओषधियाँ रहती हैं।’ यह सुनकर शंकरजीने कहा ‘बहुत अच्छा, जाओ।’ उनकी स्वीकृति पाकर हनुमान्जी सम्पूर्ण द्वीपोंको लाँघते हुए क्षीरसागरके तटपर गये । इधर भगवान् शिव अपने गणोंके साथ रहकर पुष्कल आदिकी रक्षा करने लगे हनुमानजी द्रोण नामक महान् पर्वतपर पहुँचकर जब उसे लानेको उद्यत हुए, तब वह काँपने लगा। उस पर्वतको काँपते देख उसकी रक्षा करनेवाले देवताओंने कहा- ‘छोड़ दो इसे, किसलिये यहाँ आये हो? क्यों इसे ले जाना चाहते हो ?’ उनकी बात सुनकर महायशस्वी हनुमानजी बोले-‘देवताओ। राजा वीरमणिके नगरमें जो संग्राम हो रहा है, उसमें रुद्रके द्वारा हमारे पक्षके बहुत से योद्धा मारे गये हैं। उन्हींको जीवित करनेके लिये मैं यह द्रोण पर्वत ले जाऊँगा जो लोग अपने बल और पराक्रमके घमंड में आकर इसे रोकेंगे, उन्हें एक ही क्षणमै मैं यमराजके घर भेज दूंगा। अतः तुमलोग मुझे समूचा द्रोण पर्वत अथवा वह औषध दे दो, जिससे मैं रणभूमिमें मरे हुए वीरोंको जीवन दान कर सकूँ।’ पवनकुमारके ये वचन सुनकर सबने उन्हें प्रणाम किया और संजीवनी नामक औषधि उन्हें दे दी। हनुमान्जी औषध लेकर युद्धक्षेत्रमें आयेउन्हें आया देख समस्त वैरी भी साधु-साधु कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे तथा सबने उन्हें एक अद्भुत शक्तिशाली वीर माना हनुमानजी बड़ी प्रसन्नताके साथ मरे हुए वीर पुष्कलके पास आये और महापुरुषोंके भी आदरणीय मन्त्रिवर सुमतिको बुलाकर बोले-‘आज मैं बुद्धमें मरे हुए सम्पूर्ण वीरोंको जिलाऊँगा।’
ऐसा कहकर उन्होंने पुष्कलके विशाल वक्षःस्थल पर औषध रखा और उनके सिरको धड़से जोड़कर यह कल्याणमय वचन कहा- ‘यदि मैं मन, वाणी और क्रियाके द्वारा श्रीरघुनाथजीको ही अपना स्वामी समझता हूँ तो इस दवासे पुष्कल शीघ्र ही जीवित हो जायें।’ इस बातको ज्यों ही उन्होंने मुँहसे निकाला त्यों ही बीरशिरोमणि पुष्कल उठकर खड़े हो गये और रणभूमिमें रोषके मारे दाँत कटकटाने लगे। वे बोले ‘मुझे युद्धमें मूर्च्छित करके वीरभद्र कहाँ चले गये? मैं अभी उन्हें मार गिराता हूँ कहाँ है मेरा उत्तम धनुष !’ उन्हें ऐसा कहते देख कपिराज हनुमानजीने कहा
‘वीरवर! तुम्हें वीरभद्रने मार डाला था। श्रीरघुनाथजीके प्रसादसे पुनः नया जीवन प्राप्त हुआ है। शत्रुघ्न भी मूर्च्छित हो गये हैं। चलो, उनके पास चलें।’ यौ कहकर वे युद्धके मुहानेपर पहुँचे, जहाँ भगवान् श्रीशिवके बाणोंसे पीड़ित होकर शत्रुघ्नजी केवल साँस ले रहे थे। साँस आनेपर हनुमान्जीने उनकी छातीपर दवा रख दी और कहा भैया शत्रुघ्न तुम तो महाबलवान् और पराक्रमी हो, रणभूमिमें मूच्छित होकर कैसे पड़े हो ? यदि मैंने प्रयत्नपूर्वक आजन्म ब्रह्मचर्य व्रतका पालन किया है तो वीर शत्रुघ्न क्षणभरमें जीवित हो उठे।’ इतना कहते ही वे क्षणमात्रमें जीवित हो बोल उठे-‘शिव कहाँ हैं, शिव कहाँ हैं? वे रणभूमि छोड़कर कहाँ चले गये ?’
पिनाकधारी रुदने युद्धमें अनेकों वीरोंका सफाया कर डाला था, किन्तु महात्मा हनुमान्जीने उन सबको जीवित कर दिया। तब वे सभी वीर कवच आदिसे सुसज्जित हो अपने-अपने रथपर बैठकर रोषपूर्ण हृदयसे शत्रुओंकी ओर चले। अबकी बार राजा वीरमणि स्वयं ही शत्रुघ्नका सामना करनेके लिये गये। उन्हें देखकरशत्रुघ्नको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने राजाके ऊपर आग्नेयास्त्रका प्रयोग किया, जिससे उनकी सेना दग्ध होने लगी। शत्रुके छोड़े हुए उस महान् दाहक अस्त्रको देखकर राजाके क्रोधकी सीमा न रही। उन्होंने वारुणास्त्रका प्रयोग किया। वारुणास्त्रद्वारा अपनी सेनाको शीतके कष्टसे पीड़ित देख महाबली शत्रुघ्नने उसपर वायव्यास्त्रका प्रहार किया। इससे बड़े जोरोंकी हवा चलने लगी। वायुके वेगसे मेघोंकी घिरी हुई घटा छिन्न-भिन्न हो गयी। वे चारों ओर फैलकर विलीन हो गये। अब शत्रुघ्नके सैनिक सुखी दिखायी देने लगे। उधर महाराज वीरमणिने जब देखा कि मेरी सेना आँधीसे कष्ट पा रही है, तब उन्होंने अपने धनुषपर शत्रुओंका संहार करनेवाले पर्वतास्त्रका प्रयोग किया। पर्वतोंके द्वारा वायुकी गति रुक गयी। अब वह युद्धक्षेत्रमें फैल नहीं पाती थी। यह देख शत्रुघ्नने वज्रास्त्रका सन्धान किया। वज्रास्त्रकी मार पड़नेपर समस्त पर्वत तिल तिल करके चूर्ण हो गये। शत्रुवीरोंके अंग विदीर्ण होने लगे। खून से लथपथ होनेके कारण उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। उस समय युद्धका अद्भुत दृश्य था। राजा वीरमणिका क्रोध सीमाको पार कर गया। उन्होंने अपने धनुषपर ब्रह्मास्त्रका सन्धान किया, जो वैरियोंको दग्ध करनेवाला अद्भुत अस्त्र था। ब्रह्मास्त्र उनके हाथसे छूटकर शत्रुकी ओर चला। तबतक शत्रुघ्नने भी मोहनास्त्र छोड़ा। मोहनास्त्रने एक ही क्षणमें ब्रह्मास्त्र के दो टुकड़े कर डाले तथा राजाकी छातीमें चोट करके उन्हें तुरंत मूच्छित कर दिया। तब शिवजीको बड़ा क्रोध हुआ और वे रथपर बैठकर राजाके पास आये। उस समय शत्रुघ्न सहसा उनसे युद्धके लिये आगे बढ़ आये और अपने धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ाकर युद्ध करने लगे। उन दोनोंमें बड़ा भयंकर संग्राम छिड़ा, जो वैरियोंको विदीर्ण करनेवाला था। । नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंका प्रयोग होनेके कारण । सारी दिशाएँ उद्दीप्त हो उठी थीं। शिवके साथ युद्ध करते-करते शत्रुघ्न अत्यन्त व्याकुल हो गये । । तब हनुमान्जीके उपदेशसे उन्होंने अपने स्वामी र श्रीरघुनाथजीका स्मरण किया-‘हा नाथ! हा भाई! येअत्यन्त भयंकर शिव धनुष उठाकर मेरे प्राण लेनेपर उतारू हो गये हैं; आप युद्धमें मेरी रक्षा कीजिये। राम! आपका नाम लेकर अनेकों दुःखी जीव दुःख सागरके पार हो चुके हैं। कृपानिधे! मुझ दुखियाको भी ह उबारिये ।’ शत्रुघ्नने ज्यों ही उपर्युक्त बात मुँहसे निकाली, त्यों ही नीलकमल दलके समान श्यामसुन्दर कमलनयन भगवान् श्रीराम मृगका श्रृंग हाथमें लिये उ यज्ञदीक्षित पुरुषके वेषमें वहाँ आ पहुँचे समरभूमिमें उन्हें देखकर शत्रुघ्नको बड़ा विस्मय हुआ ।
प्रणतजनोंका क्लेश दूर करनेवाले अपने भाई श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन पाकर शत्रुघ्न सभी दुःखोंसे मुक्त हो गये। हनुमानजी भी श्रीरघुनाथजीको देखकर सहसा उनके चरणोंमें गिर पड़े। उस समय उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और वे भक्तकी रक्षाके लिये आये हुए भगवान्से बोले-‘स्वामिन्! अपने भक्तोंका सब प्रकार से पालन करना आपके लिये सर्वथा योग्य ही है। हम धन्य हैं, जो इस समय श्रीचरणोंका दर्शन पा रहे हैं। श्रीरघुनन्दन ! अब आपकी कृपासे हमलोग क्षणभरमें ही शत्रुओंपर विजय पा जायँगे।’ इसी समय योगियोंकेध्यानगोचर श्रीरामचन्द्रजीको आया जान श्रीमहादेवजी भी आगे बढ़े और उनके चरणोंमें प्रणाम करके शरणागतभयहारी प्रभुसे बोले-“भगवन्! एकमात्र आप ही साक्षात् अन्तर्यामी पुरुष हैं, आप ही प्रकृतिसे पर परब्रह्म कहलाते हैं। जो अपनी अंश- कलासे इस विश्वकी सृष्टि, रक्षा और संहार करते हैं, वे परमात्मा आप ही हैं। आप सृष्टिके समय विधाता, पालनके समय स्वयंप्रकाश राम और प्रलयके समय शर्व नामसे प्रसिद्ध साक्षात् मेरे स्वरूप हैं। मैंने अपने भक्तका उपकार करनेके लिये आपके कार्यमें बाधा डालनेवाला आयोजन किया है। कृपालो! मेरे इस अपराधको क्षमा कीजिये। क्या करूँ, मैंने अपने सत्यकी रक्षाके लिये ही यह सब कुछ किया है। आपके प्रभावको जानकर भी भक्तकी रक्षाके लिये यहाँ आया हूँ। पूर्वकालकी बात है, इस राजाने क्षिप्रा नदीमें स्नान करके उज्जयिनीके महाकाल मन्दिरमें बड़ी अद्भुत तपस्या की थी। इससे प्रसन्न होकर मैंने कहा—’महाराज! वर माँगो।’ इसने अद्भुत राज्य माँगा।’ मैंने कहा- ‘देवपुरमें तुम्हारा राज्य होगा और जबतक वहाँ श्रीरामचन्द्रजीके यज्ञसम्बन्धी अश्वका आगमन होगा, तबतक मैं भी तुम्हारी रक्षाके लिये उस स्थानपर निवास करूँगा।’ इस प्रकार मैंने इसे वरदान दे दिया था। उसी सत्यसे मैं इस समय बँधा हूँ। अब यह राजा अपने पुत्र, पशु और बान्धवसहित यज्ञका घोड़ा आपको समर्पित करके आपके ही चरणोंकी सेवा करेगा।”
श्रीरामने कहा- भगवन्! देवताओंका तो यह धर्म ही है कि वे अपने भक्तोंका पालन करें। आपने जो इस समय अपने भक्तकी रक्षा की है, यह आपके द्वारा बहुत उत्तम कार्य हुआ है। मेरे हृदयमें शिव हैं और शिवके हृदयमें मैं हूँ। हम दोनोंमें भेद नहीं है। जो मूर्ख हैं, जिनकी बुद्धि दूषित है; वे ही भेददृष्टि रखते हैं। हम दोनों एकरूप हैं। जो हमलोगोंमें भेदबुद्धि करते हैं, वे मनुष्य हजार कल्पतक कुम्भीपाकमें पकाये जाते हैं। महादेवजी! जो सदा आपके भक्त रहे हैं, वे धर्मात्मा पुरुष मेरे भी भक्त हैं तथा जो मेरे भक्त हैं, वे भी बड़ीभक्तिसे आपके चरणोंमें मस्तक झुकाते हैं। * शेषजी कहते हैं— श्रीरघुनाथजीका ऐसा वचन सुनकर भगवान् शिवने मूर्च्छित पड़े हुए राजा वीरमणिको अपने हाथके स्पर्श आदिसे जीवित किया । इसी प्रकार उनके दूसरे पुत्रोंको भी, जो बाणोंसे पीड़ित होकर अचेत अवस्थामें पड़े थे, जिलाया। भगवान् भूतनाथने राजाको तैयार करके पुत्र-पौत्रोंसहित उन्हें श्रीरघुनाथजीके चरणों में गिराया । वात्स्यायनजी ! धन्य हैं राजा वीरमणि, जिन्होंने श्रीरघुनाथजीका दर्शन किया। जो लाखों योगियोंके लिये उनकी योगनिष्ठाके द्वारा भी दुर्लभ हैं, उन्हीं भगवान् श्रीरामको प्रणाम करके समस्त राज-परिवारके लोग कृतार्थ हो गये – उनका शरीर धारण करना सफल हो गया। इतना ही नहीं, वे ब्रह्मादि देवताओंके भी पूजनीय बन गये। शत्रुघ्न, हनुमान् और पुष्कल आदि उद्भट योद्धा जिनकी स्तुति करते हैं, उन श्रीरामचन्द्रजीको राजा वीरमणिने शिवजीकी प्रेरणासे वह उत्तम अश्व दे दिया;साथ ही पुत्र, पशु और बान्धवोंसहित अपना सारा राज्य भी समर्पण कर दिया। तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी समस्त शत्रुओं तथा सेवकोंसे अभिवन्दित होकर मणिमय रथपर बैठे-बैठे ही अन्तर्धान हो गये। मुने! विश्ववन्दित श्रीरामको तुम मनुष्य न समझो। जलमें, थलमें, सब जगह तथा सबके भीतर सदा वे ही स्थित रहते हैं। भगवान् शंकरने भी अपनी प्रतिज्ञा पूरी करके सेवक राजासे विदा ली और कहा – ‘राजन्! श्रीरामचन्द्रजीका आश्रय ही संसारमें सबसे दुर्लभ वस्तु है, अत: तुम श्रीरघुनाथजीकी ही शरणमें रहो।’ यों कहकर प्रलय और उत्पत्तिके कर्ता-धर्ता भगवान् शिव स्वयं भी अदृश्य हो समस्त पार्षदोंके साथ कैलासको चले गये। इसके बाद राजा वीरमणि श्रीरामके चरणकमलोंका ध्यान करते हुए स्वयं भी अपनी सेना लेकर महाबली शत्रुघ्नके साथ-साथ गये। जो श्रेष्ठ मनुष्य श्रीरामचन्द्रजीके इस चरित्रका श्रवण करेंगे, उन्हें कभी सांसारिक दुःख नहीं होगा।
अध्याय 120 अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
शेषजी कहते हैं— द्विजश्रेष्ठ! तदनन्तर बंधे हुए चँवरसे सुशोभित वह यज्ञसम्बन्धी अश्व हजारों योद्धाओंसे सुरक्षित होकर भारतवर्षके अन्तमें स्थित हेमकूट पर्वतपर गया, जो चारों ओरसे दस हजार योजन लंबा चौड़ा है। उसके सुन्दर शिखर सोने-चाँदी आदि धातुओंके हैं। वहाँ एक विशाल उद्यान है, जो बहुत ही सुन्दर और भाँत भाँतिके वृक्षोंसे सुशोभित है। घोड़ा उसमें प्रवेश कर गया। वहाँ जानेपर उस अश्वके सम्बन्धमें सहसा एक आश्चर्यजनक घटना हुई; उसे बतलाता हूँ, सुनिये – अकस्मात् उसका सारा शरीर अकड़ गया, वह हिल-डुल नहीं पाता था। मार्गमेंखड़ा खड़ा वह हेमकूट पर्वतकी ही भाँति अविचल प्रतीत होने लगा। अश्वके रक्षकोंने शत्रुघ्नके पास जाकर पुकार मचायी – ‘स्वामिन्! हम नहीं जानते घोड़ेको क्या हो गया। अकस्मात् उसका सम्पूर्ण शरीर स्तब्ध हो गया है। इस बातपर विचार कर जो कुछ करना उचित जान पड़े, कीजिये।’ यह सुनकर राजा शत्रुघ्नको बड़ा विस्मय हुआ। वे अपने समस्त सैनिकोंके साथ अश्वके निकट गये। पुष्कलने अपनी बाँहसे पकड़कर उसके दोनों चरणोंको धरतीसे ऊपर उठानेका प्रयत्न किया। परन्तु वे अपने स्थानसे हिल भी न सके। तब शत्रुघ्नने सुमतिसे पूछा – ‘मन्त्रिवर! घोड़ेको क्या हुआ है, जो इसकासारा शरीर अकड़ गया? अब यहाँ क्या उपाय करना चाहिये, जिससे इसमें चलनेकी शक्ति आ जाय ?’ सुमतिने कहा- स्वामिन्! किन्हीं ऐसे ऋषि मुनिकी खोज करनी चाहिये, जो सब बातोंको जाननेमें कुशल हो। मैं तो लोकमें होनेवाले प्रत्यक्ष विषयोंको ही जानता हूँ परोक्षमें मेरी गति नहीं है।
शेषजी कहते हैं— सुमतिकी यह बात सुनकर धर्मके ज्ञाता शत्रुघ्नने अपने सेवकोंद्वारा ऋषिकी खोज करायी। एक सेवक वहाँसे एक योजन दूर पूर्व दिशाकी ओर गया। वहाँ उसे एक बहुत बड़ा आश्रम दिखायी दिया, जहाँके पशु और मनुष्य- सभी परस्पर और भावसे रहित थे। गंगाजी में स्नान करनेके कारण उनके समस्त पाप दूर हो गये थे तथा वे सब-के सब बड़े मनोहर दिखायी देते थे वह शौनक मुनिका मनोहर आश्रम था। उसका पता लगाकर सेवक लौट आया और विस्मित होकर उसने राजा शत्रुघ्नसे उस आश्रमका समाचार निवेदन किया। सेवककी बात सुनकर अनुचरोंसहित शत्रुघ्नको बड़ा हर्ष हुआ और वे हनुमान् तथा पुष्कल आदिके साथ ऋषिके आश्रमपर गये। वहाँ जाकर उन्होंने मुनिके पापहारी चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। बलवानोंमें श्रेष्ठ राजा शत्रुघ्नको आया जान शौनक मुनिने अर्घ्य, पाद्य आदि देकर उनका स्वागत किया। उनके दर्शनसे मुनिको बड़ी प्रसन्नता हुई। शत्रुघ्नजी सुखपूर्वक बैठकर जब विश्राम कर चुके तो मुनीश्वरने पूछा- ‘राजन्! तुम किसलिये भ्रमण कर रहे हो? तुम्हारी यह यात्रा तो बड़ी दूरकी जान पड़ती है।’ मुनिकी यह बात सुनकर राजा शत्रुघ्नका शरीर हर्षसे पुलकित हो उठा। वे अपना परिचय देते हुए गद्गद वाणीमें बोले-‘महर्षे! मेरा अश्व अकस्मात् एक फूलोंसे सुशोभित उद्यानमें चला गया। उसके भीतर एक किनारेपर पहुँचते ही तत्काल उसका शरीर अकड़ गया। इसके कारण हमलोग अपार दुःखके समुद्रमें डूब रहे हैं; आप नौका बनकर हमें बचाइये। हमारे बड़े भाग्य थे, जो दैवात् आपका दर्शन हुआ। घोड़ेकी इस अवस्थाका प्रधान कारण क्या है? यह बताने की कृपा कीजिये।’शत्रुघ्नके इस प्रकार पूछनेपर परम बुद्धिमान् मुनिश्रेष्ठ शौनकने थोड़ी देरतक ध्यान किया। फिर एक ही क्षणमें सारा रहस्य समझमें आ गया। उनकी आँखें आश्चर्यसे खिल उठीं तथा वे दुःख और संशय में पड़े हुए राजा शत्रुघ्नसे बोले- राजन्! मैं अश्वके गात्र स्तम्भका कारण बताता हूँ, सुनो। गौड़ देशके सुरम्य प्रदेशमें, कावेरीके तटपर सात्त्विक नामका एक ब्राह्मण बड़ी भारी तपस्या कर रहा था। वह एक दिन जल पीता, दूसरे दिन हवा पीकर रहता और तीसरे दिन कुछ भी नहीं खाता था। इस प्रकार तीन-तीन दिनका व्रत लेकर वह समय व्यतीत करता था। उसका यह व्रत चल ही रहा था कि सबका विनाश करनेवाले कालने उसे अपने दाढ़ोंमें ले लिया। उस महान् व्रतधारी तपस्वीकी मृत्यु हो गयी। तत्पश्चात् वह सात्त्विक नामका ब्राह्मण सब प्रकारके रत्नोंसे विभूषित तथा सब तरहकी शोभासे सम्पन्न विमानपर बैठकर मेरुगिरिके शिखरपर गया। वहाँ जम्बू नामकी नदी बहती थी, जिसके किनारे तप और ध्यानमें संलग्न रहनेवाले ऋषि महर्षि निवास करते थे। वह ब्राह्मण वहीं आनन्दमग्न होकर अपनी इच्छाके अनुसार अप्सराओंके साथ विहार करने लगा। अभिमान और मदसे उन्मत्त होकर उसने वहाँ रहनेवाले ऋषियोंके प्रतिकूल बर्ताव किया। इससे रुष्ट होकर उन ऋषियोंने शाप दिया “जा, तू राक्षस हो जा; तेरा मुख विकृत हो जाय।’ यह शाप सुनकर ब्राह्मणको बड़ा दुःख हुआ और उसने उन विद्वान् एवं तपस्वी ब्राह्मणोंसे कहा- ‘ब्रह्मर्षियो ! आप सब लोग दयालु हैं; मुझपर कृपा कीजिये।’ तब उन्होंने उसपर अनुग्रह करते हुए कहा-‘जिस समय तुम श्रीरामचन्द्रजीके अश्वको अपने वेगसे स्तब्ध कर दोगे, उस समय तुम्हें श्रीरामकी कथा सुननेका अवसर मिलेगा। उसके बाद इस भयंकर शापसे तुम्हारी मुक्ति हो जायगी। मुनियोंके कथनानुसार उसने यहाँ राक्षस होकर श्रीरघुनाथजीके अश्वको स्तम्भित किया है; अतः तुम कीर्तनके द्वारा घोड़ेको उसके चंगुलसेछुड़ाओ।’
मुनिका यह कथन सुनकर शत्रुवीरोंका दमनकरनेवाले शत्रुघ्नके मनमे बड़ा विस्मय हुआ वे शौनकसे बोले-‘कर्मकी बात बड़ी गहन है, जिससे सात्त्विक नामधारी ब्राह्मण अपने महान् कर्मसे स्वर्गमें पहुँचकर भी पुनः राक्षसभावको प्राप्त हो गया। स्वामिन् आप कर्मोंक अनुसार जैसी गति होती है, उसका वर्णन कीजिये। जिस कर्मके परिणामसे जैसे नरककी प्राप्ति होती है, उसे बताइये।’
शौनकने कहा- रघुकुलश्रेष्ठ। तुम धन्य हो, जो तुम्हारी बुद्धि सदा ऐसी बातोंको जानने और सुननेमें लगी रहती है। इसमें संदेह नहीं कि तुम इस विषयको भलीभाँति जानते हो; तो भी लोगोंके हिसके लिये मुझसे पूछ रहे हो। महाराज! कर्मोके स्वरूप विचित्र हैं तथा उनकी गति भी नाना प्रकारकी है; मैं उसका वर्णन करता हूँ, सुनो। इस विषयका श्रवण करने से मनुष्यको मोक्षको प्राप्ति हो सकती है।
जो दुष्ट बुद्धिवाला पुरुष पराये धन, परायी संतान और परायी स्त्रीको भोग-बुद्धिसे बलात् अपने अधिकारमें कर लेता है, उसको महाबली यमदूत काल पाशमें बाँधकर तामिस्र नामक नरकमें गिराते हैं और जबतक एक हजार वर्ष पूरे नहीं हो जाते, तबतक उसीमें रखते हैं। यमराजके प्रचण्ड दूत वहाँ उस पापीको खूब पीटते हैं। इस प्रकार पाप भोगके द्वारा भलीभाँति क्लेश उठाकर अन्तमें वह सूअरकी योनिमें जन्म लेता है और उसमें भी महान् दुःख भोगनेके पश्चात् वह फिर मनुष्यकी योनिमें जाता है; परन्तु वहाँ भी अपने पूर्वजन्मके कलंकको सूचित करनेवाला कोई रोग आदिका चिह्न धारण किये रहता है जो केवल दूसरे प्राणियोंसे द्रोह करके ही अपने कुटुम्बका पोषण करता है, वह पापपरायण पुरुष अन्धतामिस्र नरकमें पड़ता है। जो लोग यहाँ दूसरे प्राणियोंका वध करते हैं, ये रौरव नरकमें गिराये जाते हैं तथा रुरु नामक पक्षी रोषमें भरकर उनका शरीर नोचते हैं। जो अपने पेटके लिये दूसरे जीवोंका वध करता है, उसे यमराजकी आज्ञासे महारौरव नामक नरकमें डाला जाता है। जो पापी अपने पिता और ब्राह्मणसे द्वेष करता है, वह महान् दुःखमय कालसूत्रनरकमें, जिसका विस्तार दस हजार योजन है, पड़ता है। जो गौओंसे द्रोह करता है, उसे यमराजके किंकर नरकमें डालकर पकाते हैं; वह भी थोड़े समयतक नहीं, गौओंके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने ही हजार वर्षोंतक। जो इस पृथ्वीका राजा होकर दण्ड न देनेयोग्य पुरुषको दण्ड देता है तथा लोभवश (अन्यायपूर्वक ) ब्राह्मणको भी शारीरिक दण्ड देता है, उसे सूअरके समान मुँहवाले दुष्ट यमदूत पीड़ा देते हैं। तत्पश्चात् वह शेष पापोंसे छुटकारा पानेके लिये दुष्ट योनियोंमें जन्म ग्रहण करता है। जो मनुष्य मोहवश ब्राह्मणों तथा गौओंके थोड़े-से भी द्रव्य, धन अथवा जीविकाको लेते या लूटते हैं, वे परलोकमें जानेपर अन्धकूप नामक नरकमें गिराये जाते हैं। वहाँ उनको महान् कष्ट भोगना पड़ता है। जो जीभके लिये आतुर हो लोलुपतावश स्वयं ही मधुर अन्न लेकर खा जाता है, देवताओं तथा सुइदोंको नहीं देता, वह निश्चय ही ‘कृमिभोजन’ नामक नरकमें पड़ता है जो मनुष्य सुवर्ण आदिका अपहरण अथवा ब्राह्मणके धनकी चोरी करता है, वह अत्यन्त दुःखदायक ‘संदेश’ नामक नरकमें गिरता है।
जो मूढ बुद्धिवाला पुरुष केवल अपने शरीरका पोषण करता है, दूसरेको नहीं जानता, वह तपाये हुए तेलसे पूर्ण अत्यन्त भयंकर कुम्भीपाक नरकमें डाला जाता है। जो पुरुष मोहवश अगम्या स्त्रीको भार्याबुद्धिसे भोगना चाहता है, उसे यमराजके दूत उसी स्त्रीकी लोहमयी तपायी हुई प्रतिमाके साथ आलिंगन करवाते हैं। जो अपने बलसे उन्मत्त होकर बलपूर्वक वेदकी मर्यादाका लोप करते हैं, वे वैतरणी नदीमें डूबकर मांस और रक भोजन करते हैं। जो द्विज होकर शूद्रकी स्त्रीको अपनी भार्या बनाकर उसके साथ गृहस्थी चलाता है, वह निश्चय ही ‘प्योद’ नामक नरकमें गिरता है। वहाँ उसे बहुत दुःख भोगना पड़ता है। जो धूर्त लोगोंको धोखेमें डालनेके लिये दम्भका आश्रय लेते हैं, वे मूढ वैशस नामक नरकमै डाले जाते हैं और वहाँ उनपर यमराजकी मार पड़ती है। जो मूढ सवर्णा (समान गोत्रवाली) स्त्रीकी योनिमें वीर्यपात करते हैं, उन्हें वीर्यकी नहरमेंडाला जाता है और वे वीर्य पीकर ही रहते हैं। जो लोग चोर, आग लगानेवाले, दुष्ट, जहर देनेवाले और गाँवोंको लूटनेवाले हैं, वे महापातकी जीव ‘सारमेयादन’ नरकमें गिराये जाते हैं। जो पापराशिका संचय करनेवाला पुरुष झूठी गवाही देता या बलपूर्वक दूसरोंका धन छीन लेता है, वह पापी ‘अवीचि’ नामक नरकमें नीचे सिर करके डाल दिया जाता है। उसमें महान् दुःख भोगनेके पश्चात् वह पुनः अत्यन्त पापमयी योनिमें जन्म लेता है। जो मूढ सुरापान करता है, उसे धर्मराजके दूत गरम-गरम लोहेका रस पिलाते हैं। जो अपनी विद्या और आचारके घमंडमें आकर गुरुजनोंका अनादर करता है, वह मनुष्य मृत्युके पश्चात् ‘क्षार’ रकमें नीचे मुँह करके गिराया जाता है। जो लोग धर्मसे बहिष्कृत होकर विश्वासघात करते हैं, उन्हें अत्यन्त यातनापूर्ण ‘शूलप्रोत’ नरकमें डाला जाता है। जो चुगली करके सब लोगोंको अपने वचनसे उद्वेगमें डाला करता है, वह ‘दंदशूक’ नामक नरकमें पड़कर दंदशूकों (सर्पों) द्वारा डँसा जाता है। राजन्। इस प्रकार पापियोंके लिये अनेकों नरक हैं: पाप करके वे उन्होंमें जाते और अत्यन्त भयंकर यातना भोगते हैं। जिन्होंने श्रीरामचन्द्रजीकी कथा नहीं सुनी है तथा दूसरोंका उपकार नहीं किया है, उनको नरकके भीतर सब तरहके दुःख भोगने पड़ते हैं। इस लोकमें भी जिसको अधिक सुख प्राप्त है, उसके लिये वह स्वर्ग कहलाता है तथा जो रोगी और दुःखी हैं, वे नरकमें ही हैं। दान-पुण्यमें लगे रहने, तीर्थ आदिका सेवन
करने, श्रीरघुनाथजीकी लीलाओंको सुनने अथवा तपस्या
करनेसे पापका नाश होता है। हरिकीर्तनरूपी नदी हीमनुष्योंके लिये सब उपायोंसे श्रेष्ठ है। वह पापियोंके सारे पाप पंकको धो डालती है। इस विषय में कोई अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। * जो भगवान्का अपमान करता है, उसे गंगा भी पवित्र नहीं कर सकती। पवित्र से पवित्र तीर्थ भी उसे पावन बनानेकी शक्ति नहीं रखते। जो ज्ञानहीन होनेके कारण भगवान्के लीला कीर्तनका उपहास करता है, उसको कल्पके अन्ततक भी नरकसे छुटकारा नहीं मिलता। राजन्! अब तुम जाओ और घोड़ेको संकटसे छुड़ानेके लिये सेवकोंसहित भगवान्का चरित्र सुनाओ, जिससे अश्वमें पुनः चलने-फिरनेकी शक्ति आ जाय।
शेषजी कहते हैं-शौनकजीकी उपर्युक्त बात सुनकर शत्रुघ्नको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे मुनिको प्रणाम और परिक्रमा करके सेवकोंसहित चले गये। वहाँ जाकर हनुमान्जीने घोड़ेके पास श्रीरघुनाथजीके चरित्रका वर्णन किया, जो बड़ी-से-बड़ी दुर्गतिका नाश करनेवाला है। अन्तमें उन्होंने कहा- ‘देव! आप श्रीरामचन्द्रजीके कीर्तनके पुण्यसे अपने विमानपर सवार होइये और स्वेच्छानुसार अपने लोकमें विचरण कीजिये। इस कुत्सित योनिसे अब आपका छुटकारा हो जाय।’ यह वाक्य सुनकर देवताने कहा- ‘राजन् ! मैं श्रीरामचन्द्रजीका कीर्तन सुननेसे पवित्र हो गया। महामते! अब मैं अपने लोकको जा रहा हूँ; आप मुझे आज्ञा दीजिये।’ यह कहकर देवता विमानपर बैठे हुए स्वर्ग चले गये। उस समय यह दृश्य देखकर शत्रुघ्न और उनके सेवकोंको बड़ा विस्मय हुआ। तदनन्तर वह अश्व गात्र-स्तम्भसे मुक्त होकर पक्षियोंसे भरे हुए उस उद्यानमें सब ओर भ्रमण करने लगा ।
अध्याय 121 राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
शेषजी कहते हैं- उस श्रेष्ठ अश्वको अनेकों राजाओंसे भरे हुए भारतवर्षमें लीलापूर्वक भ्रमण करते सात महीने व्यतीत हो गये। उसने हिमालयके निकट बहुत से देशों में विचरण किया, किन्तु श्रीरामचन्द्रजीके बलका स्मरण करके कोई उसे पकड़ न सका। अंग, बंग और कलिंग देशके राजाओंने तो उस अश्वका भलीभाँति स्तवन किया। वहाँसे आगे बढ़नेपर वह राजा सुरथके मनोहर नगरमें पहुँचा, जो अदितिका कुण्डल गिरनेके कारण कुण्डलके ही नामसे प्रसिद्ध था। वहाँके लोग कभी धर्मका उल्लंघन नहीं करते थे। वहाँकी जनता प्रतिदिन प्रेमपूर्वक श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण किया करती थी। उस नगरके मनुष्य नित्यप्रति अश्वत्थ और तुलसीकी पूजा करते थे। वे सब-के सब श्रीरघुनाथजीके सेवक थे। पापसे कोसों दूर रहते थे वहाँकै सुन्दर देवालयोंमें श्रीरघुनाथजीकी प्रतिमा शोभा पाती थी तथा कपटरहित शुद्ध चित्तवाले नगर निवासी प्रतिदिन वहाँ जाकर भगवान्की पूजा करते थे। उनकी जिह्वापर केवल भगवान्का नाम शोभा पाता था, झगड़े-फसादकी चर्चा नहीं। उनके हृदयमें भगवान्का ही ध्यान होता; कामना या फलकी स्मृति नहीं होती थी। वहाँके सभी देहधारी पवित्र थे। श्रीरामचन्द्रजीकी कथा-वार्तासे ही उनका मनवहलाव होता था। वे सब प्रकारके दुर्व्यसनोंसे रहित थे अत: कभी भी जुआ नहीं खेलते थे। उस नगरमें धर्मात्मा, सत्यवादी एवं महाबली राजा सुरथ निवास करते थे, जिनका चित्त श्रीरघुनाथजीके चरणोंका स्मरण करके सदा आनन्दमग्न रहा करता था। वे भगवद् प्रेममें मस्त रहते थे। राम भक्त राजा सुरथकी महिमाका मैं क्या वर्णन करूँ ? उनके समस्त गुण भूमण्डलमें विस्तृत होकर सबके पापोंका परिमार्जन कर रहे हैं।
एक समय राजाके कुछ सेवक टहल रहे थे। उन्होंने देखा, चन्दनसे चर्चित अश्वमेधका अश्व आ रहा है। निकटसे देखनेपर उन्हें मालूम हुआ कि यह नेत्र औरमनको मोहनेवाला अश्व श्रीरामचन्द्रजीका छोड़ा हुआ है। यह जानकर वे बड़े प्रसन्न हुए और उत्सुक भावसे राजसभामें जा वहाँ बैठे हुए महाराजको सूचना देते हुए बोले-‘स्वामिन्! अयोध्या नगरीके स्वामी जो श्रीरघुनाथजी हैं. उनका छोड़ा हुआ अश्वमेधयोग्य अश्व सर्वत्र भ्रमण कर रहा है। वह अनुचरोंसहित आपके नगरके निकट आ पहुँचा है। महाराज ! वह अश्व अत्यन्त मनोहर है, आप उसे पकड़ें।’
सुरथ बोले- हम सेवकोंसहित धन्य हैं; क्योंकि हमें श्रीरामचन्द्रजीके मुखचन्द्रका दर्शन होगा। करोड़ों योद्धाओंसे घिरे हुए उस अश्वको आज मैं कहूँगा और तभी छोड़ेंगा जब श्रीरघुनाथजी चिरकालसे अपना चिन्तन करनेवाले मुझे भक्तपर कृपा करनेके लिये स्वयं यहाँ पदार्पण करें।
शेषजी कहते हैं—ऐसा कहकर राजाने सेवकोंको आज्ञा दी ‘जाओ, अश्वको बलपूर्वक पकड़ लाओ। सामने पड़ जानेपर उसे कदापि न छोड़ना मुझे ऐसा विश्वास है कि इससे अपना महान् लाभ होगा। ब्रह्मा और इन्द्रके लिये भी जिनका दर्शन दुर्लभ है, उन्हीं श्रीरामचरणोंकी झाँकी हमारे लिये सुलभ होगी। वही स्वजन, पुत्र, बान्धव, पशु अथवा वाहन धन्य है, जिससे श्रीरामचन्द्रजीकी प्राप्ति सम्भव हो; अतः जो स्वर्णपत्रसे शोभा पा रहा है, इच्छानुसार वेगसे चलता है तथा देखनेमें अत्यन्त मनोरम जान पड़ता है, उस यज्ञसम्बन्धी अश्वको पकड़कर घुड़सालमें बाँध दो।’ महाराजके ऐसा कहनेपर सेवकोंने जाकर श्रीरामचन्द्रजीके सुन्दर अश्वको पकड़ लिया और दरबारमें लाकर उन्हें अर्पण कर दिया। वात्स्यायनजी! आप एकाग्रचित्त होकर सुनें। राजा सुरथके राज्यमें कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं था, जो परायी स्वीसे अनुराग रखता हो। दूसरोंके धन लेनेवाले तथा कामलम्पट पुरुषका वहाँ सर्वथा अभाव था। जिससे श्रीरघुनाथजीका कीर्तन करनेकेसिवा दूसरी कोई अनुचित बात किसीके मुँहसे नहीं निकलती थी। वहाँ सभी एकपत्नीव्रतका पालन करनेवाले थे दूसरोंपर झूठा कलंक लगानेवाला और वेदविरुद्ध पथपर चलनेवाला उस राज्यमें एक भी मनुष्य नहीं था। राजाके सभी सैनिक प्रतिदिन श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करते रहते थे उनके देशमें पापिष्ठ नहीं थे. किसीके मनमें भी पापका विचार नहीं उठता था । भगवान् का ध्यान करनेसे सबके समस्त पाप नष्ट हो गये थे। सभी आनन्दमग्न रहते थे।
उस देशके राजा जब इस प्रकार धर्मपरायण हो गये तो उनके राज्यमें रहनेवाले सभी मनुष्य मरनेके बाद शान्ति प्राप्त करने लगे। सुरथके नगरमें यमदूतोंका प्रवेश नहीं होने पाता था। जब ऐसी अवस्था हो गयी, तो एक दिन यमराज मुनिका रूप धारण करके राजाके पास गये। उनके शरीरपर वल्कल वस्त्र और मस्तकपर जटा शोभा पा रही थी। राजसभामें पहुँचकर वे भगवद्भक्क महाराज सुरवसे मिले। उनके मस्तकपर तुलसी और जिह्वापर भगवान्का उत्तम नाम था। वे अपने सैनिकोंको धर्म-कर्मकी बात सुना रहे थे। राजाने भी मुनिको देखा;वे तपस्या के साक्षात् विग्रह से जान पड़ते थे। उन्होंने मुनिके चरणोंमें प्रणाम करके उन्हें अर्घ्य, पाच आदि निवेदन किया। तत्पश्चात् जब वे सुखपूर्वक आसनपर विराजमान हो विश्राम कर चुके, तब राजाओं में अग्रगण्य सुरथने उनसे कहा- ‘मुनिवर ! आज मेरा जीवन धन्य है! आज मेरा घर धन्य हो गया !! आप मुझे श्रीरघुनाथजीकी उत्तम कथाएँ सुनाइये जिन्हें सुननेवाले मनुष्योंका पद-पदपर पाप नाश होता है।’ राजाका ऐसा वचन सुनकर मुनि अपने दाँत दिखाते हुए जोर-जोर से हँसने और ताली पीटने लगे। राजाने पूछा- ‘मुने! आपके हँसनेका क्या कारण है? कृपा करके बताइये, जिससे मनको सुख मिले।’ तब मुनि बोले- ‘राजन् ! बुद्धि लगाकर मेरी बात सुनो, मैं तुम्हें अपने हँसनेका उत्तम कारण बताता हूँ। तुमने अभी कहा है कि ‘मेरे सामने भगवान्की कीर्तिका वर्णन कीजिये।’ मगर मैं पूछता हूँ-भगवान् हैं कौन? वे किसके हैं और उनकी कीर्ति क्या है? संसारके सभी मनुष्य अपने कर्मो के अधीन हैं। कर्मसे ही स्वर्ग मिलता है, कर्मसे ही नरकमें जाना पड़ता है तथा कर्मसे ही पुत्र, पौत्र आदि सभी वस्तुओंकी प्राप्ति होती है। इन्द्रने सौ यह करके स्वर्गका उत्कृष्ट स्थान प्राप्त किया तथा ब्रह्माजीको भी कर्मसे ही सत्य नामक अद्भुत लोक उपलब्ध हुआ। कर्मसे बहुतोंको सिद्धि प्राप्त हुई है। मरुत् आदि कर्मसे ही लोकेश्वर पदको प्राप्त हुए हैं; इसलिये तुम भी यज्ञ-कर्मोंमें लगो, देवताओंका पूजन करो। इससे सम्पूर्ण भूमण्डलमें तुम्हारी उज्ज्वल कीर्तिका विस्तार होगा।’ राजा सुरथका मन एकमात्र श्रीरघुनाथजीमें लगा हुआ था; अतः मुनिके उपर्युक्त वचन सुनकर उनका हृदय क्रोधसे क्षुब्ध हो उठा और वे कर्मविशारद ब्राह्मण देवतासे इस प्रकार बोले- ‘ब्राह्मणाधम ! यहाँ नश्वर फल देनेवाले कर्मकी बात न करो। तुम लोकमें निन्दाके पात्र हो, इसलिये मेरे नगर और प्रान्तसे बाहर चले जाओ [इन्द्र और ब्रह्माका दृष्टान्त क्या दे रहे हो ?] इन्द्र शीघ्र ही अपने पदसे भ्रष्ट होंगे, किन्तु श्रीरामचन्द्रजीकी सेवा करनेवाले मनुष्य कभी नीचे नहीं गिरेंगे। ध्रुव,प्रह्लाद और विभीषणको देखो तथा अन्य रामभक्तोंपर भी दृष्टिपात करो; वे कभी अपनी स्थितिसे भ्रष्ट नहीं होते। जो दुष्ट श्रीरामकी निन्दा करते हैं, उन्हें यमराजके दूत कालपाशसे बांधकर लोहेके मुद्गरोंसे पोटते हैं। तुम ब्राह्मण हो, इसलिये तुम्हें शारीरिक दण्ड नहीं दे सकता। मेरे सामनेसे जाओ, चले जाओ; नहीं तो तुम्हारी ताड़ना करूँगा।’ महाराज सुरथके ऐसा कहनेपर उनके सेवक मुनिको हाथसे पकड़कर निकाल देनेको उद्यत हुए। तब यमराजने अपना विश्ववन्दित रूप धारण करके राजासे कहा-‘ श्रीरामभक्त! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, माँगो । सुव्रत ! मैंने बहुत-सी बातें बनाकर तुम्हें प्रलोभनमें डालनेका प्रयत्न किया, किन्तु तुम श्रीरामचन्द्रजीकी सेवासे विचलित नहीं हुए। क्यों न हो, तुमने साधु पुरुषका सेवन – महात्माओंका सत्संग किया है।’ यमराजको संतुष्ट देखकर राजा सुरथने कहा- ‘धर्मराज ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो यह उत्तम वर प्रदान कीजिये – जबतक मुझे श्रीराम न मिलें, तबतक मेरी मृत्यु न हो। आपसे मुझे कभी भय न हो।’ तब यमराजने कहा- ‘राजन् ! तुम्हारा यह कार्य सिद्ध होगा। श्रीरघुनाथजी तुम्हारे सब मनोरथ पूर्ण करेंगे।’ यो कहकर धर्मराजने हरिभक्तिपरायण राजाकी प्रशंसा की और वहाँसे अदृश्य होकर वे अपने लोकको चले गये।
तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजीको सेवामें लगे रहनेवाले धर्मात्मा राजाने अत्यन्त हर्षमें भरकर अपने सेवकोंसे कहा- ‘मैंने महाराज श्रीरामचन्द्रजीके अश्वको पकड़ा है; इसलिये तुम सब लोग युद्धके लिये तैयार हो जाओ। मैं जानता हूँ, तुमने युद्ध कलामें पूरी प्रवीणता प्राप्त की है।’ महाराजकी ऐसी आज्ञा पाकर उनके सभी महाबली योद्धा थोड़ी ही देरमें तैयार हो गये और शीघ्रतापूर्वक दरबारके सामने उपस्थित हुए। राजाके दस वीर पुत्र थे, जिनके नाम थे चम्पक, मोहक, रिपुंजय, दुर्वार, प्रतापी, बलमोदक, हर्यक्ष, सहदेव, भूरिदेव तथा असुतापन। ये सभी अत्यन्त उत्साहपूर्वक तैयार हो युद्धक्षेत्रमें जानेकी इच्छा प्रकट करने लगे। इधर शत्रुघ्नने शीघ्रताके साथ आकर अपनेसेवकोंसे पूछा- ‘यहसम्बन्धी अश्व कहाँ है?’ ये बोले-‘महाराज हमलोग पहचानते तो नहीं, परन्तु कुछ योद्धा आये थे, जो हमें हटाकर घोड़ेको साथ ले इस नगरमें गये हैं।’ उनकी बात सुनकर शत्रुघ्नने सुमतिसे कहा- ‘मन्त्रिवर! यह किसका नगर है ? कौन इसका स्वामी है, जिसने मेरे अश्वका अपहरण किया है?’ मन्त्री बोले- ‘राजन्! यह परम मनोहर नगर कुण्डलपुरके नामसे प्रसिद्ध है। इसमें महाबली धर्मात्मा राजा सुरथ निवास करते हैं। वे सदा धर्ममें लगे रहते हैं। श्रीरामचन्द्रजीके युगल चरणोंके उपासक हैं। श्रीहनुमानजी की भाँति ये भी मन, वाणी और क्रियाद्वारा भगवान्की सेवामें ही तत्पर रहते हैं।’
शत्रुघ्न बोले- यदि इन्होंने ही श्रीरघुनाथजीके अश्वका अपहरण किया हो तो इनके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये ?
सुमतिने कहा- महाराज ! राजा सुरथके पास कोई बातचीत करनेमें कुशल दूत भेजना चाहिये।
यह सुनकर शत्रुघ्नने अंगदसे विनययुक्त वचन कहा-‘बालिकुमार! यहाँसे पास ही जो राजा सुरथका विशाल नगर है, वहाँ दूत बनकर जाओ और राजासे कहो कि आपने जानकर या अनजानमें यदि श्रीरामचन्द्रजीके अश्वको पकड़ लिया हो तो उसे लौटा दें अथवा वीरोंसे भरे हुए युद्धक्षेत्र पधारें।’ अंगदने ‘बहुत अच्छा’ कहकर शत्रुघ्नकी आज्ञा स्वीकार की और राजसभामें गये। वहाँ उन्होंने राजा सुरथको देखा, जो वीरोंके समूहसे घिरे हुए थे। उनके मस्तकपर तुलसीको मंजरी थी और जिह्वासे श्रीरामचन्द्रजीका नाम लेते हुए वे अपने सेवकोंको उन्हींकी कथा सुना रहे थे। राजा भी मनोहर शरीरधारी वानरको देखकर समझ गये कि ये शत्रुघ्नके दूत हैं; तथापि बालिकुमारसे इस बोले-‘वानरराज। बताओ, तुम किसलिये और प्रकार कैसे यहाँ आये हो! तुम्हारे आनेका सारा कारण जानकर मैं उसके अनुसार कार्य करूँगा।’ यह सुनकर वानरराज अंगद मन-ही-मन बहुत विस्मित श्रीरामचन्द्रजीकी उपासनामें लगे रहनेवाले उन नरेशसेखोले–’नृपश्रेष्ठ! मुझे बालिपुत्र अंगद समझो। श्रीशत्रुघ्नजीने मुझे दूत बनाकर तुम्हारे निकट भेजा है।
इस समय तुम्हारे कुछ सेवकोंने आकर मेरे यज्ञ सम्बन्धी घोड़ेको पकड़ लिया है। अज्ञानवश उनके द्वारा सहसा यह बहुत बड़ा अन्याय हो गया है; अब तुम प्रसन्नतापूर्वक श्रीशत्रुघ्नजीके पास चलो और उनके चरणोंमें पड़कर अपने राज्य और पुत्रोंसहित वह अश्व शीघ्र ही समर्पित कर दो। अन्यथा श्रीशत्रुघ्नके बाणोंसे घायल होकर पृथ्वीतलकी शोभा बढ़ाते हुए सदाके लिये सो जाओगे तुम्हें अपना मस्तक कटा देना होगा।’ अंगदके मुखसे इस तरहकी बातें सुनकर राजा सुरथने उत्तर दिया- ‘कपिश्रेष्ठ! तुम सब कुछ ठीक ही कह रहे हो, तुम्हारा कहना मिथ्या नहीं है; परंतु मैं शत्रुघ्न आदिके भयसे उस अश्वको नहीं छोड़ सकता। यदि भगवान् श्रीराम स्वयं ही आकर मुझे दर्शन दें तो मैं उनके चरणोंमें प्रणाम करके पुत्रसहित अपना राज्य, कुटुम्ब, धन, धान्य तथा प्रचुर सेना सब कुछ समर्पण कर दूंगा। क्षत्रियोंका धर्म ही ऐसा है कि उन्हें स्वामीसे भी विरोध करना पड़ता है। उसमें भी यह धार्मिक युद्ध है।मैं केवल श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनकी इच्छासे ही युद्ध 1 कर रहा हूँ। यदि श्रीरघुनाथजी मेरे घरपर नहीं पधारेंगे तो मैं इस समय शत्रुघ्न आदि सभी प्रधान वीरोंको क्षणभरमें जीतकर कैद कर लूँगा ।’
अंगद बोले- राजन्! जिन्होंने मान्धाताके शत्रु लवण नामक दैत्यको खेलमें ही मार डाला था, जिनके द्वारा संग्राममें कितने ही बलवान् वैरी परास्त हुए हैं तथा जिन्होंने इच्छानुसार चलनेवाले विमानपर बैठे हुए विद्युन्माली नामक राक्षसका वध किया है, उन्हीं वीरशिरोमणि श्रीशत्रुघ्नको तुम कैद करोगे! मुझे तो ऐसा जान पड़ता है, तुम्हारी बुद्धि मारी गयी है। श्रेष्ठ अस्त्रोंका ज्ञाता महाबली पुष्कल, जिसने युद्धमें रुद्रके प्रधान गण वीरभद्रके छक्के छुड़ा दिये थे, श्रीशत्रुघ्नका भतीजा है। श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंका चिन्तन करनेवाले हनुमान्जी भी सदा उनके निकट ही रहते हैं। तुमने हनुमान्जीके अनेकों पराक्रम सुने होंगे। उन्होंने त्रिकूट पर्वतसहित समूची लंकापुरीको क्षणभरमें फूँक डाला और दुष्ट बुद्धिवाले राक्षसराज रावणके पुत्र अक्षकुमारको मौतके घाट उतार दिया। अपने सैनिकोंकी जीवन-रक्षाके लिये वे देवताओंसहित द्रोण पर्वतको अपनी पूँछके अग्रभागमें लपेटकर कई बार लाये हैं। हनुमान्जीका चरित्रबल कैसा है, इस बातको श्रीरघुनाथजी ही जानते हैं; इसीलिये अपने प्रिय सेवक इन पवनकुमारको वे मनसे तनिक भी नहीं बिसारते। वानरराज सुग्रीव आदि वीर, जो सारी पृथ्वीको ग्रस लेनेकी शक्ति रखते हैं, राजा शत्रुघ्नका रुख जोहते हुए उनकी सेवा करते हैं। कुशध्वज, नीलरत्न, महान् अस्त्रवेत्ता रिपुताप, प्रतापाग्रय, सुबाहु, विमल, सुमद और श्रीरामभक्त सत्यवादी राजा वीरमणि-ये तथा अन्य भूपाल श्रीशत्रुघ्नकी सेवामें रहते हैं। इन वीरोंके समुद्रमें एक मच्छरके समान तुम्हारी क्या हस्ती है। इन बातोंको भलीभाँति समझकर चलो। शत्रुघ्नजी बड़े दयालु हैं; उन्हें पुत्रोंसहित अश्व समर्पित करके तुम कमलनयन श्रीरामचन्द्रजीके पास जाना। वहीं उनका दर्शन करके अपने शरीर और जन्म दोनोंको सफल बना सकते हो।शेषजी कहते हैं- इस प्रकार अनेक तरहकी बातें करते हुए दूतसे राजाने कहा- ‘यदि मैं मन, वाणी और क्रियाद्वारा श्रीरामका ही भजन करता हूँ, तो वे मुझे शीघ्र दर्शन देंगे, अन्यथा श्रीरामभक्त हनुमान् आदि वीर मुझे बलपूर्वक बाँध लें और घोड़ेको छीन ले जायँ ।दूत ! तुम जाओ, राजा शत्रुघ्नसे मेरी कही हुई बातें सुना दो। अच्छे-अच्छे योद्धा तैयार हों, मैं अभी युद्धके लिये चलता हूँ।’ यह सुनकर वीर अंगद मुसकराते हुए वहाँसे चल दिये। वहाँ पहुँचकर राजा सुरथकी कही हुई बातें उन्होंने ज्यों-की-त्यों कह सुनायीं l
अध्याय 122 युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
शेषजी कहते हैं-अंगदके मुखसे सुरथका सन्देश सुनकर युद्धकी कलामें निपुणता रखनेवाले समस्त योद्धा संग्रामके लिये तैयार हो गये। सभी वीर उत्साहसे भरे थे, सब-के-सब रण 1- कर्ममें कुशल थे। वे नाना प्रकारके स्वरोंमें ऐसी गर्जनाएँ करते थे, जिन्हें सुनकर कायरोंको भय होता था। इसी समय राजा सुरथ अपने पुत्रों और सैनिकोंके साथ युद्धक्षेत्रमें आये। जैसे समुद्र प्रलयकालमें पृथ्वीको जलसे आप्लावित कर देता है, उसी प्रकार वे हाथी, रथ, घोड़े और पैदल योद्धाओंको साथ ले सारी पृथ्वीको आच्छादित करते हुए दिखायी दिये। उनकी सेनामें शंखनाद और विजय गर्जनाका कोलाहल छा रहा था। इस प्रकार राजा सुरथको युद्धके लिये उद्यत देख शत्रुघ्नने सुमतिसे कहा- ‘महामते ! ये राजा अपनी विशाल सेनासे घिरकर आ पहुँचे; अब हमलोगोंका जो कर्तव्य हो उसे बताओ।’
सुमतिने कहा- अब यहाँ सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंका ज्ञान रखनेवाले पुष्कल आदि युद्ध विशारद वीरोंको अधिक संख्यामें उपस्थित होकर शत्रुओंसे लोहा लेना चाहिये। वायुनन्दन हनुमानजी महान् शौर्यसे सम्पन्न हैं; अतः ये ही राजा सुरथके साथ युद्ध करें।
शेषजी कहते हैं-प्रधान मन्त्री सुमति इस प्रकारकी बातें बता ही रहे थे कि सुरथके उद्धत राजकुमार रणभूमिमें पहुँचकर अपनी धनुषकी टंकारकरने लगे। उन्हें देखकर पुष्कल आदि महाबली योद्धा धनुष लिये अपने-अपने रथोंपर बैठकर आगे बढ़े। उत्तम अस्त्रोंके ज्ञाता वीर पुष्कल चम्पकके साथ भिड़ गये और महावीरजीसे सुरक्षित होकर द्वैरथ-युद्धकी रीतिसे लड़ने लगे। जनककुमार लक्ष्मीनिधिने कुशध्वजको साथ लेकर मोहकका सामना किया। रिपुंजयके साथ विमल, दुर्वारके साथ सुबाहु, प्रतापीके साथ प्रतापाग्रय, बलमोदसे अंगद, हर्यक्षसे नीलरत्न, सहदेवसे सत्यवान्, भूरिदेवसे महाबली राजा वीरमणि और असुतापके साथ उग्राश्व युद्ध करने लगे। ये सभी युद्ध कर्ममें कुशल, सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंमें प्रवीण तथा बुद्धिविशारद थे; अतः सबने घोर द्वन्द्वयुद्ध किया। वात्स्यायनजी ! इस प्रकार घमासान युद्ध छिड़ जाने पर सुरथके पुत्रोंद्वारा शत्रुघ्नकी सेनाका भारी संहार हुआ। युद्ध आरम्भ होनेके पहले पुष्कलने चम्पकसे कहा ‘राजकुमार! तुम्हारा क्या नाम है? तुम धन्य हो, जो मेरे साथ युद्ध करनेके लिये आ पहुँचे।’
चम्पकने कहा – वीरवर! यहाँ नाम और कुलसे – युद्ध नहीं होगा; तथापि मैं तुम्हें अपने नाम और बलका परिचय देता हूँ। श्रीरघुनाथजी ही मेरी माता तथा वे ही मेरे पिता हैं, श्रीराम ही मेरे बन्धु और श्रीराम ही मेरे स्वजन हैं। मेरा नाम रामदास है, मैं सदा श्रीरामचन्द्रजीकी ही सेवामें रहता हूँ। भक्तोंपर कृपा करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी ही मुझे इस युद्धसे पार लगायेंगे। अब लौकिक दृष्टिसे अपना परिचय देताहूँ-में राजा सुरथका पुत्र हू, मेरी माताका नाम वीरवती है। [अपने नामका उच्चारण निषिद्ध है, इसलिये मैं उसे संकेतसे बता रहा हूँ मेरे नामका एक वृक्ष होता है, जो वसन्त ऋतु खिलकर अपने आस-पासके सभी प्रदेशोंको शोभासम्पन्न बना देता है। यद्यपि उसका पुष्प रसका भण्डार होता है; तथापि मधुसे मोहित भ्रमर उसका परित्याग कर देते हैं-उससे दूर ही रहते हैं। वह फूल जिस नामसे पुकारा जाता है, उसे ही मेरा भी मनोहर नाम समझो। अच्छा, अब तुम इस संग्राममें अपने बार्णोद्वारा युद्ध करो; मुझे कोई भी जीत नहीं सकता। मैं अभी अपना अद्भुत पराक्रम दिखाता हूँ।
चम्पककी बात सुनकर पुष्कलका चित्त सन्तुष्ट हो गया। अब वे उसके ऊपर करोड़ों बार्णोंकी वर्षा करने लगे। तब चम्पकने भी कुपित होकर अपने धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ायी और शत्रु समुदायको विदीर्ण करनेवाले तीखे बाणों को छोड़ना आरम्भ किया। किन्तु महावीर पुष्कलने उसके उन बाणको काट डाला। यह देख चम्पकने पुष्कलकी छाती में प्रहार करनेके 21 लिये सौ बाणोंका सन्धान किया; किन्तु पुष्कलने तुरंत ही उनके भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले तथा अत्यन्त कोपमें भरकर बाणोंकी बौछार आरम्भ कर दी। बाणोंकी वह वर्षा अपने ऊपर आती देख चम्पकने ‘साधु-साधु’ कहकर पुष्कलकी प्रशंसा करते हुए उन्हें अच्छी तरह घायल किया। पुष्कल सब शस्त्रोंके ज्ञाता थे। उन्होंने चम्पकको महापराक्रमी जानकर अपने धनुषपर ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया। उधर चम्पक भी कुछ कम नहीं था, उसने भी सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंकी विद्वत्ता प्राप्त की थी। पुष्कलके छोड़े हुए अस्त्रको देखकर उसे शान्त करनेके लिये उसने भी ब्रह्मास्त्रका ही प्रयोग किया। दोनों अस्त्रोंके तेज जब एकत्रित हुए, तो लोगोंने समझा अब प्रलय हो जायगा। किन्तु जब शत्रुका अस्त्र अपने अस्वसे मिलकर एक हो गया तो चम्पकने पुनः उसे शान्त कर दिया।
चम्पकका वह अद्भुत कर्म देखकर पुष्कलने ‘खड़ा रह, खड़ा रह’ कहते हुए उसपर असंख्य बार्णोका प्रहारकिया। किन्तु महामना चम्पकने पुष्कलके छोड़े हुए बाणोंकी परवा न करके उनके प्रति भयंकर बाण रामास्त्रका प्रयोग किया। पुष्कल उसे काटनेका विचार कर रहे थे कि उस बाणने आकर उन्हें बाँध लिया। इस प्रकार वीरवर चम्पकने पुष्कलको बाँधकर अपने रथपर बिठा लिया। उनके बाँधे जानेपर सेनामें महान् हाहाकार मचा। समस्त योद्धा भागकर शत्रुघ्नके पास चले गये। उन्हें भागते देख शत्रुघ्नने हनुमानजीसे पूछा- ‘मेरी सेना तो बहुतेरे वीरोंसे अलंकृत है; फिर किस बोरने उसे भगाया है।’ तब हनुमानजीने कहा
‘राजन्! शत्रुवीरोंका दमन करनेवाला वीरवर चम्पक पुष्कलको बाँधकर लिये जा रहा है। उनकी ऐसी बात सुनकर शत्रुघ्न क्रोधसे जल उठे और पवनकुमारसे बोले- ‘आप शीघ्र ही पुष्कलको राजकुमारके बन्धनसे छुड़ाइये।’ यह सुनकर हनुमानजीने कहा- ‘बहुत अच्छा।’ फिर वे पुष्कलको चम्पककी कैदसे मुक्त करनेके लिये चल दिये। हनुमानजीको उन्हें छुड़ानेके लिये आते देख चम्पकको बड़ा क्रोध हुआ और उसने उनके ऊपर सैकड़ों-हजारों बाणोंका प्रहार किया। परन्तु उन्होंने शत्रुके छोड़े हुए समस्त सायकोंको चूर्ण कर डाला और एक शाल हाथमें लेकर राजकुमारपर दे मारा। चम्पक भी बड़ा बलवान् था। उसने हनुमान्जीके चलाये हुए शालको तिल-तिल करके काट डाला। तब हनुमानजीने उसके ऊपर बहुत-सी शिलाएँ फेंकी; परन्तु उन सबको भी उसने क्षणभरमें चूर्ण कर दिया। यह देख हनुमान्जीके हृदयमें बहुत क्रोध हुआ। वे यह सोचकर कि यह राजकुमार बहुत पराक्रमी है; उसके पास आये और उसे हाथसे पकड़कर आकाशमै उड़ गये। अब चम्पक आकाशमें ही खड़ा होकर हनुमानजीसे युद्ध करने लगा। उसने बाहुयुद्ध करके कपिश्रेष्ठ हनुमानजीको बहुत चोट पहुँचायी। उसका बल देखकर हनुमान्जीने हँसते-हँसते पुनः उसका एक पैर पकड़ लिया और उसे सौ बार घुमाकर हाथीके हौदेपर पटक दिया। वहाँसे धरतीपर गिरकर वह बलवान् राजकुमार मूर्च्छित हो गया। उस समय चम्पकके अनुगामी सैनिकहाहाकर करके चीख उठे और हनुमानजीने चम्पकके पाशमें बँधे हुए पुष्कलको छुड़ा लिया।
चम्पकको पृथ्वीपर पड़ा देख बलवान् राजा सुरथ पुत्रके दुःखसे व्याकुल हो उठे और रथपर सवार हो हनुमान्जीके पास गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने कहा- ‘कपिश्रेष्ठ! तुम धन्य हो ! तुम्हारा बल और पराक्रम महान् हैं; जिसके द्वारा राक्षसोंकी पुरी लंका में तुमने श्रीरघुनाथजीके बड़े-बड़े कार्य सिद्ध किये हैं निस्सन्देह तुम श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंके सेवक और भक्त हो। तुम्हारी वीरताके लिये क्या कहना है। तुमने मेरे बलवान् पुत्र चम्पकको रणभूमिमें गिरा दिया है। कपीश्वर! अब तुम सावधान हो जाओ। मैं इस समय तुम्हें बाँधकर अपने नगरमें ले जाऊँगा। मैंने बिलकुल सत्य कहा है।’
हनुमान्जीने कहा- राजन्! तुम श्रीरघुनाथजीके चरणोंका चिन्तन करनेवाले हो और मैं भी उन्हींका सेवक है। यदि मुझे बाँध लोगे तो मेरे प्रभु बलपूर्वक तुम्हारे हाथसे छुटकारा दिलायेंगे। वीर! तुम्हारे मनमें जो बात है, उसे पूर्ण करो। अपनी प्रतिज्ञा सत्य करो। वेद कहते हैं, जो श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करता है, उसे कभी दुःख नहीं होता।
शेषजी कहते हैं— उनके ऐसा कहनेपर राजा सुरथने पवनकुमारकी बड़ी प्रशंसा की और सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए भयंकर बाणोंद्वारा उन्हें अच्छी तरह घायल किया। वे बाण हनुमान्जीके शरीरसे रक्त निकाल रहे थे तो भी उन्होंने उनकी परवा न की और राजाके धनुषको अपने दोनों हाथोंसे पकड़कर तोड़ डाला। हनुमान्जीके द्वारा अपने धनुषको प्रत्यंचासहित टूटा हुआ देख राजाने दूसरा धनुष हाथमें लिया। किन्तु पवनकुमारने उसे भी छीनकर क्रोधपूर्वक तोड़ डाला। इस प्रकार उन्होंने राजाके अस्सी धनुष खण्डित कर दिये तथा क्षण-क्षणपर महान् रोषमें भरकर वे बारम्बार गर्जना करते थे। तब राजाके क्रोधकी सीमा न रही। उन्होंने भयंकर शक्ति हाथमें ली। उस शक्तिसे आहत होकर हनुमानजी गिर पड़े, किन्तु थोड़ी ही देरमें उठकर खड़े होगये। फिर अत्यन्त क्रोधमें भर उन्होंने राजाका रथ पकड़ लिया और उसे लेकर बड़े वेग से आकाशये उड़ गये। ऊपर जाकर बहुत दूरसे उन्होंने रथको छोड़ दिया और वह रथ धरतीपर गिरकर क्षणभरमें चकनाचूर हो गया। राजा दूसरे रथपर जा चढ़े और बड़े वेग से हनुमान्जीका सामना करनेके लिये आये। किन्तु क्रोधमें भरे हुए पवनकुमारने तुरंत ही उस रथको भी चौपट कर डाला। इस प्रकार उन्होंने राजाके उनचास रथ नष्ट कर दिये। उनका यह पराक्रम देखकर राजाके सैनिकों तथा स्वयं राजाको भी बड़ा विस्मय हुआ। वे कुपित होकर बोले— ‘वायुनन्दन ! तुम धन्य हो। कोई भी पराक्रमी ऐसा कर्म न तो कर सकता है और न करेगा। अब तुम एक क्षणके लिये ठहर जाओ, जबतक कि मैं अपने धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ा रहा हूँ। तुम वायुदेवताके सुपुत्र श्रीरघुनाथजीके चरण कमलोंके चंचरीक हो [अतः मेरी बात मान लो ] ।’ ऐसा कहकर रोषमें भरे हुए राजा सुरथने अपने धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ायी और भयंकर बाणमें पाशुपत अस्त्रका सन्धान किया। लोगोंने देखा हनुमान्जी पाशुपत अस्त्रसे बँध गये। किन्तु दूसरे ही क्षण उन्होंने मन-ही-मन भगवान् श्रीरामका स्मरण करके उस बन्धनको तोड़ डाला और सहसा मुक्त होकर वे राजासे युद्ध करने लगे। सुरथने जब उन्हें बन्धन से मुक्त देखा तो महाबलवान् मानकर ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया। परन्तु महावीर पवनकुमार उस अस्त्रको हँसते हँसते निगल गये। यह देख राजाने श्रीरघुनाथजीका स्मरण किया। उनका स्मरण करके उन्होंने अपने धनुषपर रामास्त्रका प्रयोग किया और हनुमान्जीसे कहा- ‘कपिश्रेष्ठ अब तुम बँध गये। हनुमानजी बोले- राजन्। क्या करूँ, तुमने मेरे स्वामीके असबसे ही मुझे बाँधा है, किसी दूसरे प्राकृत अस्त्रसे नहीं; अत: मैं उसका आदर करता हूँ। अब तुम मुझे अपने नगरमें ले चलो। मेरे प्रभु दयाके सागर हैं; वे स्वयं ही आकर मुझे छुड़ायेंगे।’ हनुमान्जीके बाँधे जानेपर पुष्कल कुपित होराजके सामने आये उन्हें आते देख राजाने आठ बाणोंसे बींध डाला। यह देख बलवान् पुष्कलने राजापर कई हजार बाणोंका प्रहार किया। दोनों एक दूसरेपर मन्त्र-पाठपूर्वक दिव्यास्त्रोंका प्रयोग करते और दोनों ही करनेवाले अस्त्रोंका प्रयोग करके एक-दूसरे के चलाये हुए अस्त्रोंका निवारण करते थे। इस प्रकार उन दोनोंमें बड़ा घमासान युद्ध हुआ, जो वीरोंके रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। तब राजाको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने एक नाराचका प्रयोग किया। पुष्कल उसको काटना ही चाहते थे कि वह नाराच उनकी छातीमें आ लगा। वे महान् तेजस्वी थे, तो भी उसका आघात न सह सके, उन्हें मूर्च्छा आ गयी!
पुष्कलके गिर जानेपर शत्रुओंको ताप देनेवाले शत्रुघ्नको बड़ा क्रोध हुआ। वे रथपर बैठकर राजा सुरथके पास गये और उनसे कहने लगे- ‘राजन् ! तुमने यह बड़ा भारी पराक्रम कर दिखाया, जो पवनकुमार हनुमानजीको बाँध लिया। अभी ठहरो, मेरे वोरोंको रणभूमिमें गिराकर तुम कहाँ जा रहे हो। अब मेरे सायकोंकी मार सहन करो।’ शत्रुघ्नका यह वीरोचित भाषण सुनकर बलवान् राजा सुरथ मन-ही मन श्रीरामचन्द्रजीके मनोहर चरणकमलोंका चिन्तन करते हुए बोले- ‘वीरवर! मैंने तुम्हारे पक्षके प्रधान वीर हनुमान् आदिको रणमें गिरा दिया अब तुम्हें भी समरांगणमें सुलाऊँगा। श्रीरघुनाथजीका स्मरण करो, जो यहाँ आकर तुम्हारी रक्षा करेंगे; अन्यथा मेरे सामने युद्धमें आकर जीवनकी रक्षा असम्भव है।’ ऐसा कहकर राजा सुरथने शत्रुघ्नको हजारों बाणोंसे घायल किया। उन्हें बाण समूहों की बौछार करते देख शत्रुघ्नने आग्नेयास्त्रका प्रयोग किया। वे शत्रुके बाणको दग्ध करना चाहते थे शत्रुघ्नके छोड़े हुए उस अस्त्रको राजा सुरथने वारुणास्त्र के द्वारा बुझा दिया और करोड़ों बाणोंसे उन्हें घायल किया। तब शत्रुघ्नने अपने धनुषपर मोहन नामक महान् अस्त्रका सन्धान किया। वह अद्भुत अस्त्र समस्त वीरोंको मोहित करके उन्हें निद्रामें निमग्न कर देनेवाला था। उसे देख राजाने भगवान्का स्मरण करतेहुए कहा- ‘मैं श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करके ही मोहित रहता हूँ, दूसरी कोई वस्तु मुझे मोहनेवाली नहीं जान पड़ती। माया भी मुझसे भय खाती है।’ वीर राजाके ऐसा कहनेपर भी शत्रुघ्नने वह महान् अस्त्र उनके ऊपर छोड़ ही दिया। किन्तु राजा सुरथके बाणसे कटकर वह रणभूमिमें गिर पड़ा। तदनन्तर सुरथने अपने धनुषपर एक प्रज्वलित बाण चढ़ाया और शत्रुघ्नको लक्ष्य करके छोड़ दिया। शत्रुघ्नने अपने पास पहुँचनेसे पहले उसे मार्ग ही काट दिया, तो भी उसका फलवाला अग्रिम भाग उनकी छातीमें धँस गया। उस बाणके आघातसे मूच्छित होकर शत्रुघ्न रथपर गिर पड़े; फिर तो सारी सेना हाहाकार करती हुई भाग चली। संग्राममें रामभक्त सुरथको विजय हुई। उनके दस पुत्रोंने भी अपने साथ लड़नेवाले दस वीरोंको मूच्छित कर दिया था। वे रणभूमिमें ही कहीं पड़े हुए थे।
तदनन्तर सुग्रीवने जब देखा कि सारी सेना भाग गयी और स्वामी भी मूच्छित होकर पड़े हैं, तो वे स्वयं ही राजा सुरथसे युद्ध करनेके लिये गये और बोले- ‘राजन्! तुम हमारे पक्षके सब लोगोंको मूर्च्छित करके कहाँ चले जा रहे हो? आओ और शीघ्र ही मेरे साथ युद्ध करो।’ यों कहकर उन्होंने डालियाँसहित एक विशाल वृक्ष उखाड़ लिया और | उसे बलपूर्वक राजाके मस्तकपर दे मारा। उसकी चोट खाकर महाबली नरेशने एक बार सुग्रीवकी ओर देखा और फिर अपने धनुषपर तीखे बाणोंका सन्धान करके अत्यन्त बल तथा पौरुषका परिचय देते हुए रोषमें भरकर उनकी छाती प्रहार किया किन्तु सुग्रीवने हँसते-हँसते उनके चलाये हुए सभी बाणोंको नष्ट कर दिया। इसके बाद वे राजा सुरथको अपने नखोंसे विदीर्ण करते हुए पर्वतों, शिखरों, वृक्षों तथा हाथियोंको फेंक-फेंककर उन्हें चोट पहुँचाने लगे। तब सुरथने अपने भयंकर रामास्वसे सुग्रीवको भी तुरंत ही बाँध लिया। बन्धनमें पड़ जानेपर कपिराज सुग्रीवको यह विश्वास हो गया कि राजा सुरथ वास्तवमें श्रीरामचन्द्रजीके सच्चे सेवक हैं।
इस प्रकार महाराज सुरथने विजय प्राप्त की। वेशत्रुपक्षके सभी प्रधान वीरोंको रथपर बिठाकर अपने नगरमें ले गये। वहाँ जाकर वे राज-सभामें बैठे और बँधे हुए हनुमान्जीसे बोले-‘पवनकुमार! अब तुम भक्तोंकी रक्षा करनेवाले परमदयालु श्रीरघुनाथजीका स्मरण करो, जिससे सन्तुष्ट होकर वे तुम्हें तत्काल इस बन्धन से मुक्त कर दें।’ उनका कथन सुनकर हनुमानजीने अपनेसहित समस्त वीरोंको बँधा देख रघुकुलमें अवतीर्ण, कमलके समान नेत्रोंवाले, परमदयालु सीतापति श्रीरामचन्द्रजीका सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे स्मरण किया। वे मन-ही-मन कहने लगे- ‘हा नाथ ! हा पुरुषोत्तम !! हा दयालु सीतापते !!! [आप कहाँ हैं ? मेरी दशापर दृष्टिपात करें] प्रभो! आपका मुख स्वभावसे ही शोभासम्पन्न है, उसपर भी सुन्दर कुण्डलोंके कारण तो उसकी सुषमा और भी बढ़ गयी है। आप भक्तोंकी पीड़ाका नाश करनेवाले हैं। मनोहर रूप धारण करते हैं। दयामय! मुझे इस बन्धनसे शीघ्र मुक्त कीजिये; देर न लगाइये । आपने गजराज आदि भक्तोंको संकटसे बचाया है, दानव वंशरूपी अग्निकी ज्वालामें जलते हुए देवताओंकी रक्षा की है तथा दानवोंको मारकर उनकी पत्नियोंके मस्तककी केश-राशिको भी बन्धनसे मुक्त किया है [ वे विधवा होनेके कारण कभी केश नहीं बाँधतीं]; करुणानिधे! अब मेरी भी सुध लीजिये। नाथ! बड़े-बड़े सम्राट् भी आपके चरणोंका पूजन करते हैं, इस समय आप यज्ञकर्ममें लगेहैं, मुनीश्वरोंके साथ धर्मका विचार कर रहे हैं और यहाँ मैं सुरथके द्वारा गाढ बन्धनमें बाँधा गया हूँ। महापुरुष! देव। शीघ्र आकर मुझे छुटकारा दीजिये। प्रभो! सम्पूर्ण देवेश्वर भी आपके चरण कमलोंकी अर्चना करते हैं। यदि इतने स्मरणके बाद भी आप हमलोगोंको इस बन्धन से मुक्त नहीं करेंगे तो संसार खुश हो होकर आपकी हँसी उड़ायेगा; इसलिये अब आप विलम्ब न कीजिये, हमें शीघ्र छुड़ाइये।’ *
जगत्के स्वामी कृपानिधान श्रीरघुवीरजीने हनुमान्जीकी प्रार्थना सुनी और अपने भक्तको बन्धनसे मुक्त करनेके लिये वे तीव्रगामी पुष्पक विमानपर चढ़कर तुरंत चल दिये। हनुमान्जीने देखा, भगवान् आ गये। उनके पीछे लक्ष्मण और भरत हैं तथा साथमें मुनियोंका समुदाय शोभा पा रहा है। अपने स्वामीको आया देख हनुमान्जीने सुरथसे कहा- ‘राजन्! देखो, भगवान् दया करके अपने भक्तको छुड़ानेके लिये आ गये। पूर्वकालमें जिस प्रकार इन्होंने स्मरण करनेमात्र से पहुँचकर अनेक भक्तोंको संकटसे मुक्त किया है, उसी प्रकार आज बन्धनमें पड़े हुए मुझको भी छुड़ानेके लिये मेरे प्रभु आ पहुँचे।’
श्रीरामचन्द्रजी एक ही क्षणमें यहाँ आ पहुँचे, यह देखकर राजा सुरथ प्रेममग्न हो गये और उन्होंने भगवान्को सैकड़ों बार प्रणाम किया। श्रीरामने भी चतुर्भुज रूप धारणकर अपने भक्त सुरथको भुजाओंमेंकसकर छातीसे लगा लिया और आनन्दके आँसुओंसे उनका मस्तक भिगोते हुए कहा- ‘राजन्! तुम धन्य हो । आज तुमने बड़ा भारी पराक्रम कर दिखाया। कपिराज हनुमान् सबसे बढ़कर बलवान् हैं, किन्तु इनको भी तुमने बाँध लिया।’ यह कहकर श्रीरघुनाथजीने वानरश्रेष्ठ हनुमान्को बन्धनसे मुक्त किया तथा जितने योद्धा मूच्छित पड़े थे, उन सबपर अपनी दयादृष्टि डालकर उन्हें जीवित कर दिया। असुरोंका विनाश करनेवाले श्रीरामकी दृष्टि पड़ते ही वे सब मूर्च्छा त्यागकर उठ खड़े हुए और मनोहर रूपधारी श्रीरघुनाथजीकी झाँकी करके उनके चरणोंमें पड़ गये। भगवान्ने उनसे कुशल पूछी तो वे सुखी होकर बोले-‘भगवन् ! आपकी कृपासे सब कुशल है।’ राजा सुरथने सेवकपर कृपा करनेके लिये आये हुए श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन करके उन्हें प्रसन्नतापूर्वक अपना सारा राज्य समर्पित कर दिया और कहा-‘रघुनन्दन ! मैंने आपके साथ अन्याय किया है, उसे क्षमा कीजिये।’
श्रीराम बोले- राजन् ! क्षत्रियोंका यह धर्म ही है। उन्हें स्वामीके साथ भी युद्ध करना पड़ता है। तुमने संग्राममें समस्त वीरोंको सन्तुष्ट करके बड़ा उत्तम कार्य किया । भगवान्के ऐसा कहनेपर राजा सुरथने अपने पुत्रोंके साथ उनका पूजन किया। तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी तीन दिनतक वहाँ ठहरे रहे। चौथे दिन राजाकी अनुमति लेकर वे इच्छानुसार चलनेवाले पुष्पक विमानद्वारा वहाँसे चले गये। उनका दर्शन करके सबको बड़ा विस्मय हुआ और सब लोग उनकी मनोहारिणी कथाएँ कहने सुनने लगे। इसके बाद महाबली राजा सुरथने चम्पकको 1 अपने नगरके राज्यपर स्थापित कर दिया और स्वयं शत्रुघ्नके साथ जानेका विचार किया। शत्रुघ्नने अपना अश्व पाकर भेरी बजवायी तथा सब ओर नाना प्रकारके शंखोंकी ध्वनि करायी। तत्पश्चात् उन्होंने यज्ञसम्बन्धी अश्वको आगे जानेके लिये छोड़ा और स्वयं राजा सुरथके साथ अनेकों देशोंमें भ्रमण करते रहे, किन्तु कहीं किसी भी बलवान्ने घोड़ेको नहीं पकड़ा।
अध्याय 123 वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
शेषजी कहते हैं- एक दिन प्रातः काल वह अश्व गंगाके किनारे महर्षि वाल्मीकिके श्रेष्ठ आश्रमपर जा पहुँचा, जहाँ अनेकों ऋषि-मुनि निवास करते थे और अग्निहोत्रका धुंआ उठ रहा था। जानकीजीके पुत्र लव अन्य मुनिकुमारोंके साथ प्रातः कालीन हवन कर्म करनेके उद्देश्यसे उसके योग्य समिधाएँ लानेके लियेवनमें गये थे। वहाँ सुवर्णपत्रसे चिह्नित उस यज्ञ सम्बन्धी अश्वको उन्होंने देखा, जो कुंकुम, अगुरु और कस्तूरीकी दिव्य गन्धसे सुवासित था । उसे देखकर उनके मनमें कौतूहल पैदा हुआ और वे मुनिकुमारोंसे बोले- ‘यह मनके समान शीघ्रगामी अश्व किसका है, जो दैवात् मेरे आश्रमपर आ पहुँचा है? तुम सब लोगमेरे साथ चलकर इसे देखो, डरना नहीं।’ यह कहकर लव तुरंत ही घोड़ेके समीप गये रघुकुलमें उत्पन्न कुमार लव कंधेपर धनुष-बाण धारण किये उस घोड़ेके समीप ऐसे सुशोभित हुए मानो दुर्जय वीर जयन्त दिखायी दे रहा हो। घोड़ेके ललाटमें जो पत्र बँधा था, उसमें सुस्पष्ट वर्णमालाओंद्वारा कुछ पंक्तियाँ लिखी थीं; जिनसे उसकी बड़ी शोभा हो रही थी लवने पहुँचकर मुनि-पुत्रोंके साथ वह पत्र पढ़ा। पढ़ते ही उन्हें क्रोध आ गया और वे हाथमें धनुष लेकर ऋषिकुमारोंसे बोले, उस समय रोषके कारण उनकी वाणी स्पष्ट नहीं निकल पाती थी। उन्होंने कहा- ‘अरे! इस क्षत्रियकी धृष्टता तो देखो, जो इस घोड़ेके भालपत्रपर इसने अपने प्रताप और बलका उल्लेख किया है। राम क्या हैं, शत्रुघ्नकी क्या हस्ती है? क्या ये ही लोग क्षत्रियके कुलमें उत्पन्न हुए हैं? हमलोग श्रेष्ठ क्षत्रिय नहीं हैं?’ इस प्रकारकी बहुत-सी बातें कहकर लवने उस घोड़ेको पकड़ लिया और समस्त राजाओंको तिनकेके समान समझकर हाथमें धनुष-बाण से वे युद्धके लिये तैयार हो गये। मुनिपुत्रोंने देखा कि लव घोड़ेका अपहरण करना चाहते हैं, तो वे उनसे बोले – ‘कुमार! हम तुम्हें हितकी बात बता रहे हैं, सुनो, अयोध्याके राजा श्रीराम बड़े बलवान् और पराक्रमी हैं। अपने बलका घमंड रखनेवाले इन्द्र भी उनका घोड़ा नहीं छू सकते [ फिर दूसरेकी तो बात ही क्या है ? ]; अतः तुम इस अश्वको न पकड़ो।’
यह सुनकर लवने कहा- ‘तुमलोग ब्राह्मण बालक हो; क्षत्रियोंका बल क्या जानो। क्षत्रिय अपने पराक्रमके लिये प्रसिद्ध होते हैं, किन्तु ब्राह्मणलोग केवल भोजनमें ही पटु हुआ करते हैं। इसलिये तुमलोग घर जाकर माताका परोसा हुआ पक्वान्न उड़ाओ!’ लवके ऐसा कहनेपर मुनिकुमार चुप हो रहे और उनका पराक्रम देखनेके लिये दूर जाकर खड़े हो गये। तदनन्तर राजा शत्रुघ्नके सेवक यहाँ आये और घोड़ेको बँधा देखकरसबसे बोले-‘अहो किसने इस घोड़ेको यहाँ बाँध रखा है? किसके ऊपर आज यमराज कुपित हुए हैं ? लवने तुरंत उत्तर दिया- ‘मैंने इस उत्तम अश्वको बाँध रखा है, जो इसे छुड़ाने आयेगा, उसके ऊपर मेरे बड़े भाई कुश शीघ्र ही क्रोध करेंगे। यमराज भी आ जायें तो क्या कर लेंगे? हमारे बाणोंकी बौछारसे सन्तुष्ट होकर स्वयं ही माथा टेक देंगे और तुरंत अपनी राह लेंगे।’
लवकी बात सुनकर सेवकोंने आपसमें कहा ‘यह बेचारा बालक है [ इसकी बातपर ध्यान नहीं देना चाहिये]। तत्पश्चात् वे बँधे हुए घोड़ेको खोलनेके लिये आगे बढ़े। यह देख लवने दोनों हाथोंमें धनुष धारणकर शत्रुघ्नके सेवकोंपर क्षुरप्रका प्रहार आरम्भ किया। इससे उनकी भुजाएँ कट गय और वे शोकसे व्याकुल होकर शत्रुघ्नके पास गये । पूछनेपर सबने लवके द्वारा अपनी बाँहें काटी जानेका समाचार कह सुनाया।
अध्याय 124 गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
वात्स्यायनजी बोले- भगवन्! पहले आप बता चुके हैं कि श्रीरामचन्द्रजीने एक धोबीके निन्दा करनेपर सीताको अकेली वनमें छोड़ दिया; फिर कहाँ उनके पुत्र हुए, कहाँ उन्हें धनुष-धारणकी क्षमता प्राप्त हुई तथा कहाँ उन्होंने अस्त्रविद्याकी शिक्षा पायी जिससे वे श्रीरामचन्द्रजीके अश्वका अपहरण कर सके ?
शेषजीने कहा- मुने! श्रीरामचन्द्रजी धर्मपूर्वक सारी पृथ्वीका पालन करते हुए अपनी धर्मपत्नी महारानी सीता और भाइयोंके साथ अयोध्याका राज्य करने लगे। इसी बीचमें सीताजीने गर्भ धारण किया। धीरे-धीरे पाँच महीने बीत गये। एक दिन श्रीरामने सीताजी से पूछा- देवि! इस समय तुम्हारे मनमें किस बातकी अभिलाषा है, बताओ मैं उसे पूर्ण करूँगा।”
सीताजीने कहा- प्राणनाथ! आपकी कृपासे मैंने सभी उत्तम भोग भोगे हैं और भविष्यमें भी भोगती रहूँगी। इस समय मेरे मनमें किसी विषयकी इच्छा शेषनहीं है। जिस स्त्रीको आप जैसे स्वामी मिलें, जिनके चरणोंकी देवता भी स्तुति करते हैं; उसको सभी कुछ प्राप्त है, कुछ भी बाकी नहीं है। फिर भी यदि आप आग्रहपूर्वक मुझसे मेरे मनकी अभिलाषा पूछ रहे हैं तो मैं आपके सामने सच्ची बात कहती हूँ नाथ बहुत दिन हुए, मैंने लोपामुद्रा आदि पतिव्रताओंके दर्शन नहीं किये। मेरा मन इस समय उन्हींको देखनेके लिये उत्कण्ठित है। वे सब तपस्याकी भंडार हैं, मैं वहाँ जाकर वस्त्र आदिसे उनकी पूजा करूँगी और उन्हें चमकीले रत्न तथा आभूषण भेंट दूंगी यही मेरा मनोरथ है। प्रियतम इसे पूर्ण कीजिये।
इस प्रकार सीताजीके मनोहर वचन सुनकर श्रीरामचन्द्रजीको बड़ी प्रसन्नता हुई और वे अपनी प्रियतमासे बोले-‘जनककिशोरी! तुम धन्य हो ! कल प्रातः काल जाना और उन तपस्विनी स्त्रियोंका दर्शन करके कृतार्थ होना।’ श्रीरामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर सीताजीको बड़ा हर्ष हुआ। वे सोचने लगीं, कल प्रातःकाल मुझे तपस्विनी देवियोंके दर्शन होंगे। तदनन्तर उस रातमें श्रीरामचन्द्रजीके भेजे हुए गुप्तचर नगरमें गये, उन्हें भेजनेका उद्देश्य यह था कि वे लोग घर घर जाकर महाराजकी कीर्ति सुनें और देखें [जिससे उनके प्रति लोगोंके मनमें क्या भाव हैं, इसका पता लग सके] वे दूत आधी रातके समय चुपकेसे गये। उन्हें प्रतिदिन श्रीरामचन्द्रजीकी मनोहर कथाएँ सुननेको मिलती थीं उस दिन वे एक धनाढ्यके विशाल भवनमें प्रविष्ट हुए और थोड़ी देरतक वहाँ रुककर श्रीरामचन्द्रजीके सुयशका श्रवण करने लगे। वहाँ सुन्दर नेत्रोंवाली कोई युवती बड़े हर्षमें भरकर अपने नन्हे से शिशुको दूध पिला रही थी। उसने बालकको लक्ष्य करके बड़ी मनोहर बात कही- ‘बेटा! तू जी भरकर मेरा मीठा दूध पी ले, पीछे यह तेरे लिये दुर्लभ हो जायगा। नीलकमल दलके समान श्याम वर्णवालेश्रीरामचन्द्रजी इस अयोध्यापुरीके स्वामी हैं; उनके नगर में निवास करनेवाले लोगोंका फिर इस संसारमें जन्म नहीं होगा। जन्म न होनेपर यहाँ दूध पीनेका अवसर कैसे मिलेगा। इसलिये मेरे लाल! तू इस दुर्लभ दूधका बारम्बार पान कर ले। जो लोग श्रीरामका भजन, ध्यान और कीर्तन करेंगे, उन्हें भी कभी माताका दूध सुलभ न होगा।’ इस तरह श्रीरामचन्द्रजीके यशरूपी अमृतसे भरे हुए वचन सुनकर वे गुप्तचर बहुत प्रसन्न हुए और दूसरे किसी भाग्यशाली पुरुषके घरमें गये । वे पृथक-पृथक विभिन्न परोंमें जाकर श्रीरामके यशका श्रवण करते थे। एक घरकी बात हैं, एक गुप्तचर श्रीरघुनाथजीका यश सुननेकी इच्छासे वहाँ आया और क्षणभर रुका रहा। उस घरकी एक सुन्दरी नारी, जिसके नेत्र बड़े मनोहर थे, पलंगपर बैठे हुए कामदेवके समान सुन्दर अपने पतिको ओर देखकर बोली- ‘नाथ! आप मुझे ऐसे लगते हैं, मानो साक्षात् श्रीरघुनाथजी हो।’ प्रियतमाके ये मनोहर वचन सुनकर उसके पतिने कहा- ‘प्रिये। मेरी बात सुनो, तुम साध्वी हो; अत: तुमने जो कुछ कहा है, वह मनको बहुत ही प्रिय लगनेवाला है। पतिव्रताओंके योग्यही यह बात है। सती नारीके लिये उसका पति श्रीरघुनाथजीका ही स्वरूप है परन्तु कहाँ मेरे जैसा मन्दभाग्य और कहीं महाभाग्यशाली श्रीराम कहीं कीकी सी हस्ती रखनेवाला मेँ एक तुच्छ जीव और कहाँ ब्रह्मादि देवताओंसे भी पूजित परमात्मा श्रीराम कहाँ जुगनू । और कहाँ सूर्य ? कहाँ पामर पतिंगा और कहाँ गरुड़ कहाँ बुरे रास्तेसे बहनेवाला गलियोंका गँदला पानी और कहाँ भगवती भागीरथीका पावन जल। इसी प्रकार कहीं मैं और कहाँ भगवान् श्रीराम, जिनके चरणोंकी धूलि पड़ने से शिलामयी अहल्या क्षणभरमै भुवन मोहन सौन्दर्यसे युक्त युवती बन गयी!’
इसी समय दूसरा गुप्तचर दूसरेके घरमें कुछ और ही बातें सुन रहा था वहाँ कोई कामिनी पलंगपर बैठकर वीणा बजाती हुई अपने पतिके साथ श्रीरामचन्द्रजीको कोर्तिका गान कर रही थी- ‘स्वामिन्! हमलोग धन्य हैं, जिनके नगरके स्वामी साक्षात् भगवान् श्रीराम हैं, जो अपनी प्रजाको पुत्रोंकी भाँति पालते और उसके योगक्षेमकी व्यवस्था करते हैं। उन्होंने बड़े-बड़े दुष्कर कर्म किये हैं, जो दूसरोंके लियेअसाध्य हैं। उदाहरणके लिये- ‘उन्होंने समुद्रको वशमें 1 किया और उसपर पुल बाँधा फिर वानरोंसे लंकापुरीका विध्वंस कराया और अपने शत्रु रावणको मारकर वे जानकीजीको यहाँ ले आये। इस प्रकार श्रीरामने महापुरुषोंके आचारका पालन किया है।’ पत्नीके ये मधुर वचन सुनकर पति मुसकराये और उससे इस प्रकार बोले- ‘मुग्धे रावणको मारना और समुद्रका दमन आदि जितने कार्य हैं, वे श्रीरामचन्द्रजीके लिये कोई महान् कर्म नहीं हैं। महान् परमेश्वर ही ब्रह्मा आदिकी प्रार्थनासे लीलापूर्वक इस पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए हैं और बड़े-बड़े पापोंका नाश करनेवाले उत्तम चरित्रका विस्तार करते हैं। कौसल्याका आनन्द बढ़ानेवाले श्रीरामको तुम मनुष्य न समझो वे ही इस जगत्की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं। केवल लीला करनेके लिये ही उन्होंने मनुष्य-विग्रह धारण किया है। हमलोग धन्य हैं, जो प्रतिदिन श्रीरामके मुख कमलका दर्शन करते हैं, जो ब्रह्मादि देवोंके लिये भी दुर्लभ है। हमें यह सौभाग्य प्राप्त है, इसलिये हम बड़े पुण्यात्मा हैं।’ गुप्तचरने दरवाजेपर खड़े होकर इस प्रकारकी बहुत-सी बातें सुनीं।इसके सिवा, एक अन्य गुप्तचर अपने सामने धोबीका घर देखकर वहीं महाराज श्रीरामका यश सुननेकी इच्छासे गया। किन्तु उस घरका स्वामी धोबी क्रोधमें भरा था। उसकी पत्नी दूसरेके घरमें दिनका अधिक समय व्यतीत करके आयी थी उसने आँखें लाल-लाल करके पत्नीको धिक्कारा और उसे लात मारकर कहा-‘निकल जा मेरे घरसे; जिसके यहाँ सारा दिन बिताया है, उसीके घर चली जा तू दुष्टा है, पतिकी आज्ञाका उल्लंघन करनेवाली है; इसलिये मैं तुझे नहीं रखूँगा।’ उस समय उसकी माताने कहा ‘बेटा! बहू घरमें आ गयी है, इस बेचारीका त्याग मत करो। यह सर्वथा निरपराध है इसने कोई कुकर्म नहीं किया है।’ धोबी क्रोधमें तो था ही, उसने माताको जवाब दिया- ‘मैं राम जैसा नहीं हूँ, जो दूसरेके घरमें रही हुई प्यारी पत्नीको फिरसे ग्रहण कर लूँ। वे राजा हैं; जो कुछ भी करेंगे, सब न्याययुक्त ही माना जायगा। मैं तो दूसरेके परमें निवास करनेवाली भार्याको कदापि नहीं ग्रहण कर सकता।’ धोबीकी बात सुनकर गुप्तचरको बड़ा क्रोध हुआ और उसने तलवार हाथमें लेकर उसे मार डालनेका विचार किया। परन्तु सहसा उसे श्रीरामचन्द्रजीके आदेशका स्मरण हो आया। उन्होंने आज्ञा दी थी, ‘मेरी किसी भी प्रजाको प्राणदण्ड न देना।’ इस बातको समझकर उसने अपना क्रोध शान्त कर लिया। उस समय रजककी बातें सुनकर उसे बहुत दुःख हुआ था, वह कुपित हो बारम्बार उच्छ्वास खींचता हुआ उस स्थानपर गया, जहाँ उसके साथी अन्य गुप्तचर मौजूद थे। वे सब आपसमें मिले और सबने एक-दूसरेको अपना सुना हुआ श्रीरामचन्द्रजीका विश्ववन्दित चरित्र सुनाया। अन्तमें उस धोबीकी बात सुनकर उन्होंने आपसमें सलाह की और यह निश्चय किया कि दुष्टोंकी कही हुई बातें श्रीरघुनाथजीसे नहीं कहनी चाहिये। ऐसा विचार करके वे घरपर जाकर सो रहे उन्होंने अपनी बुद्धिसे यह स्थिर किया था कि कल प्रातःकाल महाराजसे यह समाचार कहा जायगा।
शेषजी कहते हैं— श्रीरघुनाथजीने प्रातः कालनित्यकर्म से निवृत्त होकर वेदवेता ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक सुवर्णदानसे संतुष्ट किया। उसके बाद वे राजसभामें गये। श्रीरामचन्द्रजी सारी प्रजाका पुत्रकी भाँति पालन करते थे। अतः सब लोग उनको प्रणाम करनेके लिये वहाँ गये। लक्ष्मणने राजाके मस्तकपर छत्र लगाया और भरत शत्रुघ्नने दो चँवर धारण किये। वसिष्ठ आदि महर्षि तथा सुमन्त्र आदि न्यायकर्ता मन्त्री भी वहाँ उपस्थित हो भगवान्की उपासना करने लगे।
इसी समय वे गुप्तचर अच्छी तरह सज-धजकर सभामें बैठे हुए महाराजको नमस्कार करनेके लिये आये। उत्तम बुद्धिवाले महाराज श्रीरामने [सभा विसर्जन के पश्चात्] उन सभी गुप्तचरों को एकान्तमें बुलाकर पूछा-‘तुमलोग सच सच बताओ। नगरके लोग मेरे विषयमें क्या कहते हैं? मेरी धर्मपत्नीके विषयमें उनकी कैसी धारणा है ? तथा मेरे मन्त्रियोंका बर्ताव वे लोग कैसा बतलाते हैं?’
गुप्तचर बोले नाथ! आपको कीर्ति इस भूमण्डलके सब लोगोंको पवित्र कर रही है। हमलोगों ने घर-घरमें प्रत्येक पुरुष और स्त्रीके मुखसे आपके यशकाबखान सुना है। राजा सगर आदि आपके अनेकानेक पूर्वज अपने मनोरथको सिद्ध करके कृतार्थ हो चुके हैं; किन्तु उनकी भी ऐसी कीर्ति नहीं छायी थी, जैसी इस समय आपकी है। आप जैसे स्वामीको पाकर सारी प्रजा कृतार्थ हो रही है। उन्हें न तो अकाल मृत्युका कष्ट है और न रोग आदिका भय। आपकी विस्तृत कीर्ति सुनकर ब्रह्मादि देवताओंको बड़ी लज्जा होती है [ क्योंकि आपके सुयशसे उनका यश फीका पड़ गया है]। इस प्रकार आपकी कीर्ति सर्वत्र फैलकर इस समय जगत्के सब लोगोंको पावन बना रही हैं। महाराज ! हम सभी गुप्तचर धन्य हैं कि क्षण-क्षणमें आपके मनोहर मुखका अवलोकन करते हैं।
उन गुप्तचरोंके मुखसे इस तरहकी बातें सुनकर श्रीरघुनाथजीने अन्तमें एक दूसरे दूतपर दृष्टि डाली; उसके मुखकी आभा कुछ और ढंगकी हो रही थी। उन्होंने पूछा- ‘महामते ! तुम सच सच बताओ। लोगोंके मुखसे जो कुछ जैसा भी सुना हो, वह ज्यों-का-त्यों सुना दो; अन्यथा तुम्हें पाप लगेगा।’
गुप्तचरने कहा – स्वामिन्! राक्षसोंके वध आदिसे सम्बन्ध रखनेवाली आपकी सभी कथाओंका सर्वत्र गान हो रहा है-केवल एक बातको छोड़कर। आपकी धर्मपत्नीने जो राक्षसके घरमें कुछ कालतक निवास किया था, उसके सम्बन्धमें लोगोंका अच्छा भाव नहीं है। गत आधी रातकी बात है-एक धोबीने अपनी पत्नीको, जो दिनमें कुछ देरतक दूसरेके घरमें रहकर आयी थी, धिक्कारा और मारा। यह देखकर उसकी माता बोली-‘बेटा! यह बेचारी निरपराध है, इसे क्यों मारते हो ? तुम्हारी स्त्री है, रख लो; निन्दा न करो, मेरी बात मानो।’ तब धोबी कहने लगा-‘मैं राजा राम नहीं हूँ कि इसे रख लूँ। उन्होंने राक्षसके घरमें रही सीताको फिरसे ग्रहण कर लिया, मैं ऐसा नहीं कर सकता। राजा समर्थ होता है, उसका किया हुआ सारा काम न्याययुक्त ही माना जाता है। दूसरे लोग पुण्यात्मा हों, तो भी उनका कार्य अन्याययुक्त ही समझ लिया जाता है।’ उसने बारंबार इस बातको दुहराया कि ‘मैं राजा राम नहीं हूँ।’उस समय मुझे बड़ा क्रोध हुआ, किन्तु सहसा आपका आदेश स्मरण हो आया [ इसलिये मैं उसे दण्ड न दे सका]; अब यदि आप आज्ञा दें तो मैं उसे मार गिराऊँ। यह बात न कहनेयोग्य और न्यायके विपरीत थी, तो भी मैंने आपके आग्रहसे कह डाली है। अब इस विषयमें महाराज ही निर्णायक हैं; जो उचित कर्तव्य हो, उसका विचार करें।
गुप्तचरका यह वाक्य, जिसका एक-एक अक्षर महाभयानक वज्रके समान मर्मपर आघात करनेवाला था, सुनकर श्रीरामचन्द्रजी बारम्बार उच्छ्वास खींचते हुए उन सब दूतोंसे बोले-‘अब तुमलोग जाओ और भरतको मेरे पास भेज दो।’ वे दूत दुःखी होकर तुरंत ही भरतजीके भवनमें गये और वहाँ उन्होंने श्रीरामचन्द्रजीका संदेश कह सुनाया। श्रीरघुनाथजीका संदेश सुनकर बुद्धिमान् भरतजी बड़ी उतावलीके साथ राजसभामें गये और वहाँ द्वारपालसे बोले-‘मेरे भ्राता कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजी कहाँ हैं?’ द्वारपालने एक रत्ननिर्मित मनोहर गृहकी ओर संकेत किया। भरतजी वहाँ जा पहुँचे। श्रीरामचन्द्रजीको विकल देखकर उनके मनमेंबड़ा भय हुआ। उन्होंने महाराजसे कहा- ‘स्वामिन्! सुखसे आराधनाके योग्य आपका यह सुन्दर मुख इस समय नीचेकी ओर क्यों झुका हुआ है? यह आँसुओं से भींगा कैसे दिखायी दे रहा है? मुझे इसका पूरा-पूरा यथार्थ कारण बताइये और आज्ञा दीजिये, मैं क्या करूँ ?’ भाई भरतने जब गद्गद वाणीसे इस प्रकार कहा, तब धर्मात्मा श्रीरामचन्द्रजी बोले- ‘प्रिय बन्धु ! इस पृथ्वीपर उन्हीं मनुष्योंका जीवन उत्तम है, जिनके सुयशका विस्तार हो रहा हो। अपकीर्तिके मारे हुए मनुष्योंका जीवन तो मरे हुएके ही समान है। आज सम्पूर्ण संसारमें विस्तृत मेरी कीर्तिमयी गंगा कलुषित हो गयी। इस नगरमें रहनेवाले एक धोबीने आज जानकीजीके सम्बन्धको लेकर कुछ निन्दाकी बात कह डाली है; इसलिये भाई ! बताओ, अब मैं क्या करूँ? क्या आज अपने शरीरको त्याग दूँ या अपनी धर्मपत्नी जानकीका ही परित्याग कर दूँ? दोनोंके लिये मुझे क्या करना चाहिये, इस बातको ठीक-ठीक बताओ ।’
भरतजीने पूछा- आर्य! कौन है यह धोबी तथा इसने कौन-सी निन्दाकी बात कही है? तब श्रीरामचन्द्रजीने धोबीके मुँहसे निकली हुई सारी बातें, जो दूतके द्वारा सुनी थीं, महात्मा भरतसे कह सुनायीं। उन्हें सुनकर भरतने दुःख और शोकमें पड़े हुए भाई श्रीरामसे कहा- ‘वीरोंद्वारा सुपूजित जानकीदेवी लंकामें अग्नि परीक्षाद्वारा शुद्ध प्रमाणित हो चुकी हैं। ब्रह्माजीने भी इन्हें शुद्ध बतलाया है तथा पूज्य पिता स्वर्गीय महाराज दशरथजीने भी इस बातका समर्थन किया है। यह सब होते हुए भी केवल एक धोबीके कहनेसे विश्ववन्दित सीताका परित्याग कैसे किया जा सकता है? ब्रह्मादि देवताओंने भी आपकी कीर्तिका गान किया है, वह इस समय सारे जगत्को पवित्र कर रही है। ऐसी पावन कीर्ति आज केवल एक धोबीके कहने से कलुषित या कलंकित कैसे हो जायगी ? भला, आप अपने इस कल्याणमय विग्रहका परित्याग क्यों करना चाहते हैं। आप ही हमारे दुःखोंको दूर करनेवाले हैं। आपके बिना तो हम सब लोग आज ही मर जायँगे ।महान् अभ्युदयसे शोभा पानेवाली सीताजी तो आपके बिना क्षणभर भी जीवित नहीं रह सकतीं। इसलिये मेरा अनुरोध तो यही है कि आप पतिव्रता श्रीसीताके साथ रहकर इस विशाल राज्य लक्ष्मीकी रक्षा कीजिये।’
भरतके ये वचन सुनकर वक्ताओंमें श्रेष्ठ, परम धार्मिक श्रीरघुनाथजी इस प्रकार बोले-‘भाई ! तुम जो कुछ कह रहे हो, वह धर्मसम्मत और युक्तियुक्त है।परन्तु इस समय मैं जो बात कह रहा हूँ, उसीको मेरी आज्ञा मानकर करो। मैं जानता हूँ मेरी सीता अग्निद्वारा शुद्ध, पवित्र और लोकपूजित है, तथापि मैं लोकापवादके कारण आज उसका त्याग करता हूँ। इसलिये तुम जनककिशोरीको वनमें ले जाकर छोड़ आओ।’ श्रीरामका यह आदेश सुनते ही भरतजी मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े।
अध्याय 125 सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
वात्स्यायनजीने पूछा- स्वामिन्! जिनकी उत्तम कीर्ति सम्पूर्ण जगत्को पवित्र करनेवाली है, उन्हीं जानकीदेवीके प्रति उस धोबीने निन्दायुक्त वचन क्यों
कहे? इसका रहस्य बतलाइये।
शेषजीने कहा- मिथिला नामकी महापुरीमें महाराज जनक राज्य करते थे। उनका नाम था सौरध्वज। एक बार वे यज्ञके लिये पृथ्वी जोत रहे थे। उस समय चौड़ेमुँहवाली वाली सीता (फालके धँसनेसेबनी हुई गहरी रेखा) – के द्वारा एक कुमारी कन्याकाप्रादुर्भाव हुआ, जो रतिसे भी बढ़कर सुन्दर थी। इससे राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने भुवनमोहिनी शोभासे सम्पन्न उस कन्याका नाम सीता रख दिया। परम सुन्दरी सीता एक दिन सखियोंके साथ उद्यानमें खेल रही थीं। वहाँ उन्हें शुक पक्षीका एक जोड़ा दिखायी दिया,
जो बड़ा मनोरम था। वे दोनों पक्षी एक पर्वतकी चोटीपर बैठकर इस प्रकार बोल रहे थे- ‘पृथ्वीपर श्रीराम नामसे प्रसिद्ध एक बड़े सुन्दर राजा होंगे। उनकी महारानी सीताके नामसे विख्यात होंगी। श्रीरामचन्द्रजीबड़े बुद्धिमान् और बलवान् होंगे तथा समस्त राजाओंको अपने वशमें रखते हुए सीताके साथ ग्यारह हजार वर्षोंतक राज्य करेंगे। धन्य हैं वे जानकीदेवी और धन्य हैं श्रीराम, जो एक-दूसरेको प्राप्त होकर इस पृथ्वीपर आनन्दपूर्वक विहार करेंगे।’
तोते के उस जोड़ेको ऐसी बातें करते देख सीताने सोचा कि ‘ये दोनों मेरे ही जीवनकी मनोहर कथा कह रहे हैं इन्हें पकड़कर सभी बातें पूछूं।’ ऐसा विचार कर उन्होंने अपनी सखियोंसे कहा, ‘यह पक्षियोंका जोड़ा बहुत सुन्दर है, तुमलोग चुपकेसे जाकर इसे पकड़ लाओ।’ सखियाँ उस पर्वतपर गयीं और दोनों सुन्दर पक्षियोंको पकड़ लायीं। लाकर उन्होंने सीताको अर्पण कर दिया। सीता उन पक्षियोंसे बोलीं- तुम दोनों बड़े सुन्दर हो; देखो, डरना नहीं। बताओ, तुम कौन हों और कहाँसे आये हो? राम कौन हैं? और सीता कौन हैं? तुम्हें उनकी जानकारी कैसे हुई? इस सारी बातोंको जल्दी-जल्दी बताओ। मेरी ओरसे तुम्हें भय नहीं होना चाहिये।’ सीताके इस प्रकार पूछनेपर दोनों पक्षी सब बातें बताने लगे-‘देवि! वाल्मीकि नामसे प्रसिद्ध एक बहुत बड़े महर्षि हैं, जो धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ माने जाते हैं। हम दोनों उन्होंके आश्रम में रहते हैं। महर्षिने रामायण नामका एक ग्रन्थ बनाया है, जो सदा ही मनको प्रिय जान पड़ता है। उन्होंने शिष्योंको उस रामायणका अध्ययन कराया है तथा प्रतिदिन वे सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें संलग्न रहकर उस रामायणके पद्योंका चिन्तन किया करते हैं। रामायणका कलेवर बहुत बड़ा है। हमलोगोंने उसे पूरा-पूरा सुना है। बारम्बार उसका गान और पाठ सुननेसे हमें भी उसका अभ्यास हो गया है। राम और जानकी कौन हैं, इस बातको हम बताते हैं तथा इसकी भी सूचना देते हैं कि श्रीरामके साथ क्रीडा करनेवाली जानकीके विषयमें क्या-क्या बातें होनेवाली हैं; तुम ध्यान देकर सुनो। ‘महर्षि ऋष्यश्रृंगके द्वारा कराये हुए पुत्रेष्टि यह प्रभावसे भगवान् विष्णु राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न- ये चार शरीर धारण करके प्रकट होंगे। देवांगनाएँ भी उनकी उत्तम कथाका गान करेंगी।श्रीमान् राम महर्षि विश्वामित्रके साथ भाई लक्ष्मणसहित हाथमें धनुष लिये मिथिला पधारेंगे। उस समय वहाँ एक ऐसे धनुषको, जिसका धारण करना दूसरोंके लिये कठिन है, देखकर वे उसे तोड़ डालेंगे और अत्यन्त मनोहर रूपवाली जनककिशोरी सीताको अपनी धर्मपत्नीके रूपमें ग्रहण करेंगे। फिर उन्हींके साथ श्रीरामचन्द्रजी अपने विशाल साम्राज्यका पालन करेंगे।’ ये तथा और भी बहुत-सी बातें वहाँ रहते समय हमारे सुनने में आयी हैं सुन्दरी हमने तुम्हें सब कुछ बता दिया। अब हम जाना चाहते हैं, हमें छोड़ दो। ‘
कानोंको अत्यन्त मधुर प्रतीत होनेवाली पक्षियोंकी ये बातें सुनकर सीताने उन्हें मनमें धारण किया और पुनः उन दोनोंसे इस प्रकार पूछा- ‘राम कहाँ होंगे ? किसके पुत्र हैं और कैसे वे दूलह-वेषमें आकर जानकीको ग्रहण करेंगे? तथा मनुष्यावतारमें उनका श्रीविग्रह कैसा होगा?’ उनके प्रश्न सुनकर शुकी मन ही मन जान गयी कि ये ही सीता हैं। उन्हें पहचानकर वह सामने आ उनके चरणोंपर गिर पड़ी और बोली-‘ श्रीरामचन्द्रजीका मुख कमलकी कलीके समान सुन्दर होगा। नेत्र बड़े-बड़े तथा खिले हुए पंकजकी शोभाको धारण करनेवाले होंगे। नासिका ऊँची, पतली और मनोहारिणी होगी। दोनों भौंहें सुन्दर ढंगसे परस्पर मिली होनेके कारण मनोहर प्रतीत होंगी। भुजाएँ घुटनोंतक लटकी हुई एवं मनको लुभानेवाली होंगी। गला शंखके समान सुशोभित और छोटा होगा वक्ष:स्थल उत्तम, चौड़ा एवं शोभासम्पन्न होगा। उसमें श्रीवत्सका चिह्न होगा। सुन्दर जाँघों और कटिभागकी शोभासे युक्त उनके दोनों घुटने अत्यन्त निर्मल होंगे, जिनकी भक्तजन आराधना करेंगे। श्रीरघुनाथजीके चरणारविन्द भी परम शोभायुक्त होंगे और समस्त भक्तजन उनकी सेवामें सदा संलग्न रहेंगे। श्रीरामचन्द्रजी ऐसा ही मनोहर रूप धारण करनेवाले हैं। मैं उनका क्या वर्णन कर सकती हूँ। जिसके सौ मुख हैं, वह भी उनके गुणका बखान नहीं कर सकता। फिर हमारे जैसे पक्षीकी क्या बिसात है। परम सुन्दर रूप धारण करनेवाली लावण्यमयी लक्ष्मी भी जिनकी झाँकीकरके मोहित हो गयी, उन्हें देखकर पृथ्वीपर दूसरी कौन स्त्री है, जो मोहित न हो। उनका बल और पराक्रम महान् है। वे अत्यन्त मोहक रूप धारण करनेवाले हैं। मैं श्रीरामका कहाँतक वर्णन करूँ। वे सब प्रकारके ऐश्वर्यमय गुणोंसे युक्त हैं। परम मनोहर रूप धारण करनेवाली वे जानकीदेवी धन्य हैं, जो श्रीरघुनाथजीके साथ हजारों वर्षोंतक प्रसन्नतापूर्वक विहार करेंगी। परन्तु सुन्दरी! तुम कौन हो ? तुम्हारा नाम क्या है, जो इतनी चतुरता और आदरके साथ श्रीरामचन्द्रजीके गुणोंका कीर्तन सुननेके लिये प्रश्न कर रही हो।’
पक्षियोंकी ये बातें सुनकर जनककुमारी सीता अपने जन्मकी ललित एवं मनोहर चर्चा करती हुई बोलीं- ‘जिसे तुमलोग जानकी कह रहे हो, वह जनककी पुत्री मैं ही हूँ। मेरे मनको लुभानेवाले श्रीराम जब यहाँ आकर मुझे स्वीकार करेंगे, तभी मैं तुम दोनोंको छोड़ेंगी, अन्यथा नहीं; क्योंकि तुमने अपने वचनोंसे मेरे मनमें लोभ उत्पन्न कर दिया है। अब तुम इच्छानुसार खेल करते हुए मेरे घरमें सुखसे रहो और मीठे-मीठे पदार्थ भोजन करो।’ यह सुनकर सुग्गीने जानकीसे कहा – ‘साध्वी! हम वनके पक्षी हैं, पेड़ोंपर रहते हैं और सर्वत्र विचरा करते हैं। हमें तुम्हारे घरमें सुख नहीं मिलेगा। मैं गर्भिणी हूँ, अपने स्थानपर जाकर बच्चे पैदा करूँगी। उसके बाद फिर तुम्हारे यहाँ आ जाऊँगी।’ उसके ऐसा कहनेपर भी सीताने उसे न छोड़ा। तब उसके पतिने विनीत वाणीमें उत्कण्ठित होकर कहा-‘सीता! मेरी सुन्दरी भार्याको छोड़ दो। इसे क्यों रख रही हो। शोभने। यह गर्भिणी है, सदा मेरे मनमें बसी रहती है। जब यह बच्चोंको जन्म दे लेगी, तब इसे लेकर फिर तुम्हारे पास आ जाऊँगा।’ तोतेके ऐसा कहनेपर जानकीने कहा- ‘महामते ! तुम आरामसे जा सकते हो, मगर तुम्हारी यह भार्या मेरा प्रिय करनेवाली है। मैं इसे अपने पास बड़े सुखसे रखूँगी।’
यह सुनकर पक्षी दुःखी हो गया। उसने करुणायुक्त वाणीमें कहा-‘ योगीलोग जो बात कहते हैं, वह सत्य ही है- किसीसे कुछ न कहे, मौन होकर रहे, नहीं तोउन्मत्त प्राणी अपने वचनरूपी दोषके कारण ही बन्धनमें पड़ता है। यदि हम इस पर्वतके ऊपर बैठकर 7 वार्तालाप न करते होते तो हमारे लिये यह बन्धन कैसे 1 प्राप्त होता। इसलिये मौन ही रहना चाहिये।’ इतना कहकर पक्षी पुनः बोला- ‘सुन्दरी! मैं अपनी इस भार्याके बिना जीवित नहीं रह सकता, इसलिये इसे छोड़ दो। सीता! तुम बड़ी अच्छी हो [मेरी प्रार्थना मान लो]।’ इस तरह नाना प्रकारकी बातें कहकर उसने समझाया, किन्तु सीताने उसकी पत्नीको नहीं छोड़ा, तब उसकी भार्याने क्रोध और दुःखसे आकुल होकर जानकीको शाप दिया- ‘अरी! जिस प्रकार तू मुझे इस समय अपने पतिसे विलग कर रही है, वैसे ही तुझे स्वयं भी गर्भिणीकी अवस्थामें श्रीरामसे अलग होना पड़ेगा।’ यों कहकर पति वियोगके शोकसे उसके प्राण निकल गये। उसने श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण तथा पुनः-पुनः राम-नामका उच्चारण करते हुए प्राण त्याग किया था, इसलिये उसे ले जानेके लिये एक सुन्दर विमान आया और वह पक्षिणी उसपर बैठकर भगवान् के धामको चली गयी।
भार्याकी मृत्यु हो जानेपर पक्षी शोकसे आतुर होकर बोला- ‘मैं मनुष्योंसे भरी हुई श्रीरामकी नगरी अयोध्यामें जन्म लूँगा तथा मेरे ही वाक्यसे उद्वेगमें पड़कर इसे पतिके वियोगका भारी दुःख उठाना पड़ेगा।’ यह कहकर वह चला गया। क्रोध और सीताजीका अपमान करनेके कारण उसका धोबीकी योनिमें जन्म हुआ। जो बड़े लोगोंकी बुराई करते हुए क्रोधपूर्वक अपने प्राणोंका परित्याग करता है, वह द्विजोंमें श्रेष्ठ ही क्यों न हो, मरनेके बाद नीच योनिमें उत्पन्न होता है। यही बात उस तोतेके लिये भी हुई। उस धोबीके कथनसे ही सीताजी निन्दित हुईं और उन्हें पतिसे वियुक्त होना पड़ा। धोबीके रूपमें उत्पन्न हुए उस तोतेका शाप ही सीताका पतिसे विछोह करानेमें कारण हुआ और इसीसे वे वनमें गयीं। विप्रवर। विदेहनन्दिनी सीताके सम्बन्धमें तुमने जो बात पूछी थी वह कह दी। अब फिर आगेका वृत्तान्त कहता हूँ, सुनो।
अध्याय 126 सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
शेषजी कहते हैं- मुने! भरतको मूर्च्छित देख श्रीरघुनाथजीको बड़ा दुःख हुआ, उन्होंने द्वारपालसे कहा- ‘शत्रुघ्नको शीघ्र मेरे पास बुला लाओ।’ आज्ञा पाकर वह क्षणभर में शत्रुघ्नको बुला लाया। आते ही उन्होंने भरतको अचेत और श्रीरघुनाथजीको दुःखी देखा; इससे उन्हें भी बड़ा दुःख हुआ और वे श्रीरामचन्द्रजीको प्रणाम करके बोले- ‘आर्य! यह कैसा दारुण दृश्य है?’ तब श्रीरामने धोबीके मुखसे निकला हुआ वह लोकनिन्दित वचन कह सुनाया तथा जानकीको त्यागनेका विचार भी प्रकट किया।
शत्रुघ्नने कहा – स्वामिन्! आप जानकीजीके प्रति यह कैसी कठोर बात कह रहे हैं! भगवान् सूर्यका उदय सारे संसारको प्रकाश पहुँचानेके लिये होता है; किन्तु उल्लुओंको वे पसंद नहीं आते, इससे जगत्की क्या हानि होती है ? इसलिये आप भी सीताको स्वीकार करें, उनका त्याग न करें; क्योंकि वे सती साध्वी स्त्री हैं। आप कृपा करके मेरी यह बात मान लीजिये।
महात्मा शत्रुघ्नकी यह बात सुनकर श्रीरामचन्द्रजी बारम्बार वही (सीताके त्यागकी) बात दुहराने लगे, जो एक बार भरतसे कह चुके थे। भाईकी वह कठोर बात सुनते ही शत्रुघ्न दुःखके अगाध जलमें डूब गये और जड़से कटे हुए वृक्षकी भाँति मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। भाई शत्रुघ्नको भी अचेत होकर गिरा देख श्रीरामचन्द्रजीको बहुत दुःख हुआ और वे द्वारपालसे बोले-‘जाओ, लक्ष्मणको मेरे पास बुला लाओ।’ द्वारपालने लक्ष्मणजीके महलमें जाकर उनसे इस प्रकार निवेदन किया-‘स्वामिन्! श्रीरघुनाथजी आपको याद कर रहे हैं।’ श्रीरामका आदेश सुनकर वे शीघ्र उनके पास गये। वहाँ भरत और शत्रुघ्नको मूच्छित तथा श्रीरामचन्द्रजीको दुःखसे व्याकुल देखकर लक्ष्मण भी दुःखी हो गये। वे श्रीरघुनाथजीसे बोले- ‘राजन् ! यहमूर्च्छा आदिका दारुण दृश्य कैसे दिखायी दे रहा है? इसका सब कारण मुझे शीघ्र बताइये।’
उनके ऐसा कहनेपर महाराज श्रीरामने लक्ष्मणको वह सारा दुःखमय वृत्तान्त आरम्भसे ही कह सुनाया। सीताके परित्यागसे सम्बन्ध रखनेवाली बात सुनकर वे बारम्बार उच्छ्वास खींचते हुए सन्न हो गये। उन्हें कुछ भी उत्तर देते न देख श्रीरामचन्द्रजी शोकसे पीड़ित होकर बोले—’मैं अपयशसे कलंकित हो इस पृथ्वीपर रहकर क्या करूँगा। मेरे बुद्धिमान् भ्राता सदा मेरी आज्ञाका पालन करते थे, किन्तु इस समय दुर्भाग्यवश वे भी मेरे प्रतिकूल बातें करते हैं। कहाँ जाऊँ? कैसे करूँ ? पृथ्वीके सभी राजा मेरी हँसी उड़ायेंगे।’ श्रीरामको ऐसी बातें करते देख लक्ष्मणने आँसू रोककर व्यथित स्वरमें कहा-‘स्वामिन्! विषाद न कीजिये। मैं अभी उस धोबीको बुलाकर पूछता हूँ, संसारकी सभी स्त्रियोंमें श्रेष्ठ जानकीजीकी निन्दा उसने कैसे की है? आपके राज्यमें किसी छोटे-से-छोटे मनुष्यको भी बलपूर्वक कष्ट नहीं पहुँचाया जाता। अतः उसके मनमें जिस तरह प्रतीति हो, जैसे वह संतुष्ट रहे, वैसा ही उसके साथ बर्ताव कीजिये [परंतु एक बार उससे पूछना आवश्यक है]। जनककुमारी सीता मनसे अथवा वाणीसे भी आपके सिवा दूसरेको नहीं जानतीं; अतः उन्हें तो आप स्वीकार ही करें, उनका त्याग न करें। मेरे ऊपर कृपा करके मेरी बात मानें।’
ऐसा कहते हुए लक्ष्मणसे श्रीरामने शोकातुर होकर कहा- ‘भाई मैं जानता हूँ सीता निष्पाप है; तो भी लोकापवादके कारण उसका त्याग करूँगा। लोकापवादसे निन्दित हो जानेपर मैं अपने शरीरको भी त्याग सकता हूँ; फिर घर, पुत्र, मित्र तथा उत्तम वैभव आदि दूसरी दूसरी वस्तुओंकी तो बात ही क्या है इस समय धोबीको बुलाकर पूछनेकी आवश्यकता नहीं है। समय आनेपर सब कुछ अपने-आप हो जायगा लोगोंके चितमेंसीताके प्रति स्वयं ही प्रतीति हो जायगी। जैसे कच्चा घाव चिकित्साके योग्य नहीं होता, समयानुसार जब वह पक जाता है तभी दवासे नष्ट होता है, उसी प्रकार समयसे ही इस कलंकका मार्जन होगा। इस समय मेरी आज्ञाका उल्लंघन न करो। पतिव्रता सीताको जंगलमें छोड़ आओ।’ यह आदेश सुनकर लक्ष्मण एक क्षणतक शोकाकुल हो दुःखमें डूबे रहे, फिर मन-ही-मन विचार किया-‘परशुरामजीने पिताकी आज्ञासे अपनी माताका भी वध कर डाला था; इससे जान पड़ता है, गुरुजनोंकी आज्ञा उचित हो या अनुचित, उसका कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिये। अतः श्रीरामचन्द्रजीका प्रिय करनेके लिये मुझे सीताका त्याग करना ही पड़ेगा।’
यह सोचकर लक्ष्मण अपने भाई श्रीरघुनाथजीसे बोले- ‘सुव्रत ! गुरुजनोंके कहनेसे नहीं करनेयोग्य कार्य भी कर लेना चाहिये, किन्तु उनकी आज्ञाका उल्लंघन कदापि उचित नहीं है। इसलिये आप जो कुछ कहते हैं, उस आदेशका मैं पालन करूँगा।’ लक्ष्मणके मुखसे ऐसी बात सुनकर श्रीरघुनाथजीने उनसे कहा – ‘ बहुत अच्छा; बहुत अच्छा; महामते ! तुमने मेरेचित्तको संतुष्ट कर दिया। अभी-अभी रातमें जानकीने तापसी स्त्रियोंके दर्शनकी इच्छा प्रकट की थी, इसीलिये रथपर बिठाकर जंगलमें छोड़ आओ।’ फिर सुमन्त्रको बुलाकर उन्होंने कहा- ‘मेरा रथ अच्छे अच्छे घोड़ों और वस्त्रोंसे सजाकर तैयार करो।” श्रीरघुनाथजीका आदेश सुनकर वे उनका उत्तम रथ तैयार करके ले आये। रथको आया देख भ्रातृभक्त लक्ष्मण उसपर सवार हुए और जानकीजीके महलकी ओर चले। अन्तःपुरमें पहुँचकर वे मिथिलेशकुमारी सीतासे बोले—‘माता जानकी! श्रीरघुनाथजीने मुझे आपके महलमें भेजा है। आप तापसी स्त्रियोंके दर्शनके लिये वनमें चलिये।’
जानकी बोलीं- श्रीरघुनाथजीके चरणोंका चिन्तन करनेवाली यह महारानी मैथिली आज धन्य हो गयी, जिसका मनोरथ पूर्ण करनेके लिये स्वामीने लक्ष्मणको भेजा है! आज मैं वनमें रहनेवाली सुन्दरी तपस्विनियोंको, जो पतिको ही देवता मानती हैं, मस्तक झुकाऊँगी और वस्त्र आदि अर्पण करके उनकी पूजा करूँगी।
ऐसा कहकर उन्होंने सुन्दर-सुन्दर वस्त्र, बहुमूल्य आभूषण, नाना प्रकारके रत्न, उज्ज्वल मोती, कपूर आदि सुगन्धित पदार्थ तथा चन्दन आदि सहस्रों प्रकारकी विचित्र वस्तुएँ साथ ले लीं। ये सारी चीजें दासियोंके हाथों उठवाकर वे लक्ष्मणकी ओर चलीं। अभी घरका चौकठ भी नहीं लाँघने पायी थीं कि लड़खड़ाकर गिर पड़ीं। यह एक अपशकुन था; परन्तु वनमें जानेकी उत्कण्ठाके कारण सीताजीने इसपर विचार नहीं किया। वे अपना प्रिय कार्य करनेवाले देवरसे बोलीं- ‘वत्स! कहाँ वह रथ है, जिसपर मुझे ले चलोगे ?’ लक्ष्मणने सुवर्णमय रथकी ओर संकेत किया और जानकीजीके साथ उसपर बैठकर सुमन्त्रसे बोले- ‘चलाओ घोड़ोंको।’ इसी समय सीताका दाहिना नेत्र फड़क उठा, जो भावी दुःखकी सूचना देनेवाला था। साथ ही पुण्यमय पक्षी विपरीत दिशासे होकर जाने लगे। यह सब देखकर जानकीने देवरसे कहा- ‘वत्स! मैं तोतपस्विनियोंके दर्शनकी इच्छासे यात्रा करना चाहती हूँ,फिर ये दुःख देनेवाले अपशकुन कैसे हो रहे हैं! श्रीरामका, भरतका तथा तुम्हारे छोटे भाई शत्रुघ्नका कल्याण हो, उनकी प्रजामें सर्वत्र शान्ति रहे, कहीं कोई विप्लव या उपद्रव न हो।’
जानकीजीको ऐसी बातें करते देख लक्ष्मण कुछ बोल न सके, आँसुओंसे उनका गला भर आया। इसी प्रकार आगे जाकर सीताजीने फिर देखा, बहुत-से मृग बायीं ओरसे घूमकर निकले जा रहे हैं। वे भारी दुःखकी सूचना देनेवाले थे। उन्हें देखकर जानकीजी कहने लगीं- ‘आज ये मृग जो मेरी बायीं ओरसे निकल रहे हैं, सो ठीक ही है श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंको छोड़कर अन्यत्र जानेवाली सीताके लिये ऐसा होना उचित ही है। नारियोंका सबसे बड़ा धर्म है अपने स्वामीके चरणोंका पूजन, उसीको छोड़कर मैं अन्यत्र जा रही हूँ: अतः मेरे लिये जो दण्ड मिले उचित ही है।’ इस प्रकार मार्गमें पारमार्थिक विचार करती हुई देवी जानकीने गंगाजीको देखा, जिनके तटपर मुनियोंका समुदाय निवास करता है। जिनके जलकर्णीका स्पर्श होते ही राशि राशिमहापातक पलायन कर जाते हैं— उन्हें वहाँ चारों ओर अपने रहनेयोग्य कोई स्थान नहीं दिखायी देता । गंगा किनारे पहुँचकर लक्ष्मणजीने रथपर बैठी हुई सीताजी से आँसू बहाते हुए कहा- ‘भाभी चलो, लहरोंसे भरी हुई गंगाको पार करो।’ सीताजी देवरकी बात सुनकर तुरंत रथसे उतर गयीं।
तदनन्तर नावसे गंगाके पार होकर लक्ष्मणजी जानकीजीको साथ लिये वनमें चले वे श्रीरामचन्द्रजीकी
आज्ञाका पालन करनेमें कुशल थे; अतः सीताको अत्यन्त भयंकर एवं दुःखदायी जंगलमें ले गये – जहाँ बबूल, खैरा और धव आदिके महाभयानक वृक्ष थे, जो दावानलसे दग्ध होनेके कारण सूख गये थे ऐसा जंगल देखकर सीता भयके कारण बहुत चिन्तित हुई काँटोंसे उनके कोमल चरणोंमें घाव हो गये। वे लक्ष्मणसे बोलीं- ‘वीरवर! यहाँ अच्छे-अच्छे ऋषि-मुनियोंके रहनेयोग्य आश्रम मुझे नहीं दिखायी देते, जो नेत्रोंको सुख प्रदान करनेवाले हैं तथा महर्षियोंकी तपस्विनी स्त्रियोंके भी दर्शन नहीं होते। यहाँ तो केवल भयंकर पक्षी, सूखे वृक्ष और दावानलसे सब ओर जलता हुआयह वन ही दृष्टिगोचर हो रहा है। इसके सिवा, मैं तुमको भी किसी भारी दुःखसे आतुर देखती हूँ तुम्हारी आँखें आँसुओंसे भरी हैं, इनसे व्याकुलताके भाव प्रकट होते हैं; और मुझे भी पग-पगपर हजारों अपशकुन दिखायी देते हैं। सच बताओ, क्या बात है ?”
सीताजीके इतना कहने पर भी लक्ष्मणजीके मुखसे कोई भी बात नहीं निकली, वे चुपचाप उनकी ओर देखते हुए खड़े रहे। तब जानकीजीने बारम्बार प्रश्न करके उनसे उत्तर देनेके लिये बड़ा आग्रह किया। उनके आग्रहपूर्वक पूछने पर लक्ष्मणजीका गला भर आया। उन्होंने शोक प्रकट करते हुए सीताजीको उनके परित्यागकी बात बतायी। मुनिवर ! वह वज्रके तुल्य कठोर वचन सुनकर सीताजी जड़से कटी हुई लताकी भाँति पृथ्वीपर गिर र पड़ीं। विदेहकुमारीको पृथ्वीपर पड़ी देख लक्ष्मणजीने पल्लवोंसे हवा करके उन्हें सचेत किया। होशमें आनेपर जानकीजीने कहा- “देवर! मुझसे परिहास न करो। मैंने कोई पाप नहीं किया है, फिर श्रीरघुनाथजी मुझे कैसे छोड़ देंगे। वे परम बुद्धिमान् और महापुरुष हैं, मेरा त्याग कैसे कर सकते हैं। वे जानते हैं मैं निष्पाप हूँ फिर भी एक धोबीके कहने से मुझे छोड़ देंगे? [ऐसी आशा नहीं है।]” इतना कहते-कहते वे फिर बेहोश हो गर्यो। इस बार उन्हें मूर्च्छित देख लक्ष्मणजी फूट-फूटकर रोने लगे। जब पुनः उनको चेत हुआ, तब लक्ष्मणजीको दुःखसे आतुर और रुद्धकण्ठ देखकर वे बहुत दुःखी हुईं और बोलीं- “सुमित्रानन्दन ! जाओ, तुम धर्मके स्वरूप और यशके सागर श्रीरामचन्द्रजीसे तपोनिधि वसिष्ठ मुनिके सामने ही मेरी एक बात पूछना—’नाथ ! यह जानते हुए भी कि सीता निष्पाप है, जो आपने मुझे त्याग दिया है, यह बर्ताव आपके कुलके अनुरूप हुआ है या शास्त्र ज्ञानका फल है? मैं सदा आपके चरणोंमें ही अनुराग रखती हूँ; तो भी जो आपके द्वारा मेरा त्याग हुआ है, इसमें आपका कोई दोष नहीं है। यह सब मेरे भाग्य दोषसे हुआ है, इसमें मेरा प्रारब्ध ही कारण है। वीरवर! आपका सदा और सर्वत्र कल्याण हो। मैं इस वनमें आपका ही स्मरण करती हुई प्राण धारण करूँगी। मन, वाणी और क्रियाके द्वारा एकमात्र आप ही मेरे सर्वोत्तम आराध्यदेव हैं। रघुनन्दन !आपके सिवा और सब कुछ मैंने अपने मनसे तुच्छ | समझा है। महेश्वर ! प्रत्येक जन्ममें आप ही मेरे पति ? हाँ और मैं आपके ही चरणोंके विन्तनसे अपने अनेकों पापका नाश कर आपकी सती साध्वी पत्नी बनी रहूँ-यही मेरी प्रार्थना है।’
“लक्ष्मण! मेरी सासुओंसे भी यह संदेश कहना— “माताओं अनेकों जन्तुओंसे भरे हुए इस घोर जंगलमें मैं आप सब लोगोंके चरणोंका स्मरण करती हूँ। मैं गर्भवती हूँ, तो भी महात्मा रामने मुझे इस वनमें त्याग दिया है।’ ‘सौमित्रे! अब तुम मेरी बात सुनो श्रीरघुनाथजीका कल्याण हो। मैं अभी प्राण त्याग देती, किन्तु विवश हूँ; अपने गर्भमें श्रीरामचन्द्रजीके तेजकी रक्षा कर रही हूँ। तुम जो उनके वचनोंको पूर्ण करते हो, सो ठीक ही है। इससे तुम्हारा कल्याण होगा। तुम श्रीरामके चरणकमलोंके सेवक और उनके अधीन हो, अतः तुम्हें ऐसा ही करना उचित है। अच्छा, अब श्रीरामचन्द्रजीके समीप जाओ; तुम्हारे मार्ग मंगलमय हों मुझपर कृपा करके कभी-कभी मेरी याद करते रहना।”
इतना कहकर सीताजी लक्ष्मणजी के सामने ही अचेत हो पृथ्वीपर गिर पड़ीं। उन्हें मूच्छितदेख लक्ष्मणजी पुनः दुःखमें डूब गये और वस्त्रके अग्रभागसे पंखा झलने लगे। जब होशमें आर्थी, तब उन्हें प्रणाम करके वे बोले-‘देवि! अब मैं श्रीरामके पास जाता हूँ, वहाँ जाकर मैं आपका सब संदेश कहूँगा आपके समीप ही महर्षि वाल्मीकिका बहुत बड़ा आश्रम है।’ यों कहकर लक्ष्मणने उनकी परिक्रमा की और दुःखमग्न हो आँसू बहाते हुए वे महाराज श्रीरामके पास चल दिये जानकीजीने जाते हुए देवरकी ओर विस्मित दृष्टिसे देखा। वे सोचने लगीं महाभाग लक्ष्मण मेरे देवर हैं, शायद परिहास करते हो भला श्रीरघुनाथजी अपने प्राणोंसे भी अधिक प्रिय मुझ पापरहित पत्नीको कैसे त्याग सकते हैं।’ यही विचार करती हुई वे निर्निमेष नेत्रोंसे उनकी ओर देखती रहीं; किन्तु जब वे गंगाके उस पार चले गये, तब उन्हें सर्वथा विश्वास हो गया कि सचमुच ही में त्याग दी गयी। अब मेरे प्राण बचेंगे या नहीं, इस संशयमें पड़कर वे पृथ्वीपर गिर पड़ीं और तत्काल उन्हें मुच्छनि आ दवाया।
उस समय हंस अपने पंखोंसे जल लाकर सोनके शरीरपर सब ओरसे छिड़कने लगे फूलोंकी सुगन्धलिये मन्द मन्द वायु चलने लगी तथा हाथी भी अपनी सूँड़ोंमें जल लिये सब ओरसे वहाँ आकर खड़े हो गये, मानो धूलिसे भरे हुए सीताके शरीरको धोनेके लिये आये हों। इसी समय सती सीता होशमें आयीं और बारम्बार राम-रामकी रट लगाती हुई बड़े दुःखसे विलाप करने लगीं- ‘ हा राम ! हा दीनबन्धो !! हा करुणानिधे !!! बिना अपराधके ही क्यों मुझे इस वनमें त्याग रहे हो।’ इस प्रकारकी बहुत सी बातें कहती हुई वे बार-बार विलाप करती और इधर-उधर देखती हुई रह-रहकर मूच्छित हो जाती थीं। उस समय भगवान् वाल्मीकि शिष्योंके साथ वनमें गये थे। वहाँ उन्हें करुणाजनक स्वरमें विलाप और रोदन सुनायी पड़ा। वे शिष्योंसे बोले-‘वनके भीतर जाकर देखो तो सही, इस महाघोर जंगलमें कौन रो रहा है? उसका स्वर दुःखसे पूर्ण जान पड़ता है।’ मुनिके भेजनेसे वे उस स्थानपर गये, जहाँ जानकी राम रामकी पुकार मचाती हुई आँसुओंमें डूब रही थीं। उन्हें देखकर वे शिष्य उत्कण्ठावश वाल्मीकि मुनिके पास लौट गये। उनकी बातें सुनकर मुनि स्वयं ही उस स्थानपर गये। पतिव्रता जानकीने देखा एक महर्षिआ रहे हैं, जो तपस्याके पुंज जान पड़ते हैं। उन्हें देख सीताजीने हाथ जोड़कर कहा-व्रतके सागर और वेदोंके साक्षात् स्वरूप महर्षिको नमस्कार है।’ उनके
यों कहनेपर महर्षिने आशीर्वादके द्वारा उन्हें प्रसन्न करते हुए कहा- ‘बेटी! तुम अपने पतिके साथ चिरकालतक जीवित रहो तुम्हें दो सुन्दर पुत्र प्राप्त हों। बताओ, तुम कौन हो ? इस भयंकर वनमें क्यों आयी हो तथा क्यों ऐसी हो रही हो? सब कुछ बताओ, जिससे मैं तुम्हारे दुःखका कारण जान सकूँ।’ तब श्रीरघुनाथजीकी पत्नी सीताजी एक दीर्घ निःश्वास ले काँपती हुई करुणामयी वाणीमें बोलीं- ‘महर्षे! मुझे श्रीरघुनाथजीकी सेविका समझिये। मैं बिना अपराधके ही त्याग दी गयी हूँ। इसका कारण क्या है, यह मैं बिलकुल नहीं जानती। श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञासे लक्ष्मण मुझे यहाँ छोड़ गये है।’
वाल्मीकिजी बोले- विदेशकुमारी मुझे अपने पिताका गुरु समझो, मेरा नाम वाल्मीकि है। अब तुम दुःख न करो, मेरे आश्रमपर आओ। पतिव्रते तुम यहीजानो कि दूसरे स्थान पर बना हुआ मेरे पिताका ही यह घर है।
सती सीताका मुख शोकके आँसुओंसे भीगा था। मुनिका सात्वनापूर्ण वचन सुनकर उन्हें कुछ सुख मिला। उनके नेत्रोंमें इस समय भी दुःखके आँसू छलक रहे थे। वाल्मीकिजी उन्हें आश्वासन देकर तापसी स्त्रियोंसे भरे हुए अपने पवित्र आश्रमपर ले गये। सीता महर्षिके पीछे-पीछे गयीं और वे मुनिसमुदायसे भरे हुए अपने आश्रमपर पहुँचकर तापसियोंसे बोले-‘अपने आश्रमपर जानकी आयी हैं [उनका स्वागत करो]। महामना सीताने सब तपस्विनियोंको प्रणाम किया और उन्होंने भी प्रसन्न होकर उन्हें छातीसे लगाया। तपोनिधि वाल्मीकिने अपने शिष्योंसे कहा- ‘तुम जानकीके लिये एक सुन्दर पर्णशाला तैयार करो।’ आज्ञा पाकर उन्होंने पत्तों और लकड़ियोंके द्वारा एक सुन्दर कुटी निर्माण की। पतिव्रता जानकी उसीमें निवास करने लगीं। वे वाल्मीकि मुनिको टहल बजाती हुई फलाहार करके रहती थीं तथा मन और वाणीसे निरन्तर राम- मन्त्रकाआप करती हुई दिन व्यतीत करती थीं, समय आनेपर हमने दो सुन्दर पुत्रको जन्म दिया, जो आकृति पाताल श्रीरामचन्द्रजीके समान तथा अश्विनीकुमारोंकी भाँति मनोहर थे। जानकीके पुत्र होनेका समाचार सुनकर मुनिको बड़ी प्रसन्नता हुई ये मन्त्रवेशाओं में श्रेष्ठ थे, अतः उन बालकोंके जातकर्म आदि संस्कार उन्होंने ही सम्पन्न किये। महर्षि वाल्मीकिने उन बालकोंके संस्कार-सम्बन्धी सभी कर्म कुश और उनके लवों (टुकड़ों) द्वारा ही किये थे; अतः उन्होंके नामपर उन दोनोंका नाम क्रमशः कुश और लव रखा। जिस समय उन शुद्धात्मा महर्षिने पुत्रोंका मंगल कार्य सम्पन्न किया, उस समय सीताजीका हृदय आनन्दसे भर गया। उनके मुख और नेत्र प्रसन्नतासे खिल उठे। उसी दिन लवणासुरको मारकर जी भी अपने थोड़े-से सैनिकोंके साथ वाल्मीकि मुनिके सुन्दर आश्रमपर रात्रिमें आये थे। उस समय वाल्मीकिजीने । उन्हें सिखा दिया था कि ‘तुम श्रीरघुनाथजीको जानकीके पुत्र होनेकी बात न बताना, मैं ही उनके सामने सारा | वृतान्त कहूंगा।’ जानकीके वे दोनों पुत्र वहाँ बढ़ने लगे। उनका |रूप बड़ा ही मनोहर था। सीता उन्हें कन्द, मूल और फल खिलाकर पुष्ट करने लगीं। वे दोनों परम सुन्दर और अपनी रूप-माधुरीसे उन्मत्त बना देनेवाले थे। शुक्लपक्षको प्रतिपदाके चन्द्रमाकी भाँति मनको मोहनेवाले दोनों कुमारोंका समयानुसार उपनयन संस्कार हुआ, इससे उनकी मनोहरता और भी बढ़ गयी। महर्षि वाल्मीकिने उपनयनके पश्चात् उन्हें अंगों सहित वेद और रहस्योंसहित धनुर्वेदका अध्ययन कराया। उसके बाद स्वरचित रामायणकाव्य भी पढ़ाया। उन्होंने भी उन बालकोंको सुवर्णभूषित धनुष प्रदान किये, जो अभेद्य और श्रेष्ठ थे। जिनकी प्रत्यंचा बहुत ही उत्तम थी तथा जो शत्रु समुदायके लिये अत्यन्त भयंकर थे। धनुषके साथ ही बाणोंसे भरे दो अक्षय तरकश, दो खड्ग तथा बहुत सी अभेद्य ढालें भी उन्होंने जानकीकुमारोंको अर्पण किये। धनुर्वेदके पारगामी होकर वे दोनों बालक धनुष धारण किये बड़ी प्रसन्नताके साथ आश्रम में विचरा करते थे। उस समय सुन्दर अश्विनीकुमारोंकी भाँति उनकी बड़ी शोभा होती थी। जानकीजी ढाल-तलवार धारण किये अपने दोनों सुन्दर कुमारोंको देख देखकरबहुत प्रसन्न रहा करती थीं। वात्स्यायनजी! यह मैंने आपको जानकीके पुत्रजन्मका प्रसंग सुनाया है। अबअश्वकी रक्षा करनेवाले वीरोंकी भुजाओंके काटे जानेके पश्चात् जो घटना हुई, उसका वर्णन सुनिये।
अध्याय 127 युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजितका वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
शेषजी कहते हैं— मुनिवर ! अपने वीरोंकी भुजाएँ कटी देख शत्रुघ्नजीको बड़ा क्रोध हुआ। वे रोषके मारे दाँतोंसे ओठ चबाते हुए बोले- ‘योद्धाओ ! किस वीरने तुम्हारी भुजाएँ काटी हैं? आज मैं उसकी बाँहें काट डालूँगा; देवताओंद्वारा सुरक्षित होनेपर भी वह छुटकारा नहीं पा सकता।’ शत्रुघ्नजीके इस प्रकार कहनेपर वे योद्धा विस्मित और अत्यन्त दुःखी होकर बोले- ‘राजन्! एक बालकने जिसका स्वरूप श्रीरामचन्द्रजीसे बिलकुल मिलता-जुलता है, हमारी यह दुर्दशा की है।’ बालकने घोड़ेको पकड़ रखा है, यह सुनकर शत्रुघ्नजीकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं और उन्होंने युद्धके लिये उत्सुक होकर कालजित् नामक सेनाध्यक्षको आदेश दिया- ‘सेनापते! मेरी आज्ञासे सम्पूर्ण सेनाका व्यूह बना लो इस समय अत्यन्त बलवान् और पराक्रमी शत्रुपर चढ़ाई करनी है। यह घोड़ा पकड़नेवाला वीर कोई साधारण बालक नहीं है। निश्चय ही उसके रूपमें साक्षात् इन्द्र होंगे।’ आज्ञा पाकर सेनापतिने चतुरंगिणी सेनाको दुर्भेद्य व्यूहके रूपमें सुसज्जित किया। सेनाको सजी देख शत्रुघ्नजीने उसे उस स्थानपर कूच करनेकी आज्ञा दी, जहाँ अश्वका अपहरण करनेवाला बालक खड़ा था। तब वह चतुरंगिणी सेना आगे बढ़ी सेनापतिने श्रीरामके समान रूपवाले उस बालकको देखा और कहा- ‘कुमार! यह पराक्रमसे शोभा पानेवाले श्रीरामचन्द्रजीका श्रेष्ठ अश्व है, इसे छोड़ दो। तुम्हारी आकृति श्रीरामचन्द्रजीसे बहुत मिलती-जुलती है, इसलिये तुम्हें देखकर मेरे हृदयमें दया आती है। यदि मेरी बात नहीं मानोगे तो तुम्हारे जीवनकी रक्षा नहीं हो सकती।’शत्रुघ्नजीके योद्धाकी यह बात सुनकर कुमार लव किंचित् मुसकराये और कुछ रोषमें आकर यह अद्भुत वचन बोले- “जाओ, तुम्हें छोड़ देता हूँ, श्रीरामचन्द्रजीसे इस घोड़ेके पकड़े जानेका समाचार कहो। वीर! तुम्हारे इस नीतियुक्त वचनको सुनकर मैं तुमसे भय नहीं खाता। तुम्हारे जैसे करोड़ों योद्धा आ जायें, तो भी मेरी दृष्टिमें यहाँ उनकी कोई गिनती नहीं है। मैं अपनी माताके चरणोंकी कृपासे उन सबको रूईकी ढेरीके तुल्य मानता हूँ, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। तुम्हारी माताने जो तुम्हारा नाम ‘कालजित्’ रखा है, उसे सफल बनाओ। मैं तुम्हारा काल हूँ, मुझे जीत लेनेपर ही तुम अपना नाम सार्थक कर सकोगे।”कालजित्ने कहा – बालक! तुम्हारा जन्म किस हुआ है? तुम किस नामसे प्रसिद्ध हो ? मुझे तुम्हारे कुल, शाल, नाम और अवस्थाका कुछ भी पता नहीं है। इसके सिवा, मैं रथपर बैठा है और तुम पैदल हो । ऐसी दशामें मैं तुम्हें अधर्मपूर्वक कैसे परास्त करूँ ? लव बोले- कुल, शील, नाम और अवस्थासे क्या लेना है? मैं लव हूँ और लवमात्रमें ही समस्त शत्रु योद्धाओंको जीत लूंगा [मुझे पैदल जानकर संकोच मत [मो] लो, तुम्हें भी अभी पैदल किये देता हूँ।
ऐसा कहकर बलवान् लवने धनुषपर प्रत्यंचा चाची तथा पहले अपने गुरु वाल्मीकिका, फिर माता जानकीका स्मरण करके तीखे बाणोंको छोड़ना आरम्भ किया, जो तत्काल ही शत्रुके प्राण लेनेवाले थे। तब कालजित्ने भी कुपित होकर अपना धनुष चढ़ाया तथा अपने युद्ध कौशलका परिचय देते हुए बड़े वेग से तयपर बाणोंका प्रहार किया किन्तु कुशके छोटे भाईने क्षणभरमें उन सभी बाणोंको काटकर एक एकके सौ-सौ टुकड़े कर दिये और आठ बाण मारकर सेनापतिको भी रथहीन कर दिया। रथके नष्ट हो जानेपर वे अपने सैनिकोंद्वारा लाये हुए हाथीपर सवार हुए। वह हाथी बड़ा ही वेगशाली और मदसे उन्मत्त था । उसके मस्तकसे मदकी सात धाराएँ फूटकर वह रही थीं। कालजितुको हाथीपर बैठे देख सम्पूर्ण शत्रुओंपर विजय पानेवाले वीर लवने हँसकर उन्हें दस बाणोंसे बींध डाला। लवका पराक्रम देख कालजितके मनमें बड़ा विस्मय हुआ और उन्होंने एक तीक्ष्ण एवं भयंकर परिघका प्रहार किया, जो शत्रुके प्राणोंका अपहरण करनेवाला था। किन्तु लवने तुरंत ही उसे काट गिराया। फिर उसी क्षण तलवार से हाथीकी सूँड़ काट डाली और उसके दाँतोंपर पैर रखकर वे तुरंत उसके मस्तकपर चढ़ गये। वहाँ सेनापतिके मुकुटके सी और कवचके हजार टुकड़े करके उनके मस्तकका बाल खींचकर उन्हें धरतीपर दिया दिया। फिर तो सेनापतिको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने लवका वध करनेके लिये तलवार हाथमें ली। उन्हें तलवार लेकर आते देख लवने उनकीदाहिनी भुजाको बीचसे काट डाला। कटा हुआ हाथ तलवारसहित पृथ्वीपर जा पड़ा। खड्गधारी हाथको कटा देख सेनापतिने क्रोधमें भरकर बायें हाथसे लवपर गदा मारनेकी तैयारी की। इतनेहीमें लवने अपने तीखे
वाणोंसे उनकी उस बाँहको भी भुजबंदसहित काट गिराया। तदनन्तर कालाग्निके समान प्रज्वलित खड्ग हाथमें लेकर उन्होंने सेनापतिके मुकुटमण्डित मस्तकको भी धड़से अलग कर दिया।
सेनाध्यक्षके मारे जानेपर सेनामै महान् हाहाकार मचा। सारे सैनिक क्रोधमें भरकर लवका वध करनेके लिये क्षणभरमै आगे बढ़ आये, परन्तु लवने अपने बाणोंकी मारसे उन सबको पीछे खदेड़ दिया। कितने ही छिन्न-भिन्न होकर वहीं देर हो गये और कितने ही रणभूमि छोड़कर भाग गये। इस प्रकार सम्पूर्ण योद्धाओंको पीछे हटाकर लव बड़ी प्रसन्नताके साथ सेनामें जा घुसे किन्होंकी बाँहें, किन्हीं के पैर, किन्हींके कान, किन्हींको नाक तथा किन्हींके कवच और कुण्डल कट गये। इस प्रकार सेनापतिके मारे जानेपर सैनिकोंका भयंकर संहार हुआ। युद्धमें आये हुए प्रायः सभी वीरमारे गये, कोई भी जीवित न बचा। इस प्रकार लवने शत्रु समुदायको परास्त करके युद्धमें विजय पायी तथा दूसरे योद्धाओंके आनेकी आशंकासे वे खड़े होकर प्रतीक्षा करने लगे। कोई-कोई योद्धा भाग्यवश उस युद्धसे बच गये। उन्होंने ही शत्रुघ्नके पास जाकर रण भूमिका सारा समाचार सुनाया। बालकके हाथसे कालजितकी मृत्यु तथा उसके विचित्र रण कौशलका वृत्तान्त सुनकर शत्रुघ्नको बड़ा विस्मय हुआ । वे बोले- ‘वीरो! तुमलोग छल तो नहीं कर रहे हो ? तुम्हारा चित्त विकल तो नहीं है? कालजित्का मरण कैसे हुआ? वे तो यमराजके लिये भी दुर्धर्ष थे ? उन्हें एक बालक कैसे परास्त कर सकता है?” शत्रुघ्नकी बात सुनकर खून से लथपथ हुए उन योद्धाओंने कहा ‘राजन्! हम छल या खेल नहीं कर रहे हैं; आप विश्वास कीजिये। कालजित्की मृत्यु सत्य है और वह लवके हाथसे ही हुई है। उसका युद्ध कौशल अनुपम है। उस बालकने सारी सेनाको मथ डाला। इसके बाद अब जो कुछ करना हो, खूब सोच-विचारकर करें। जिन्हें युद्धके लिये भेजना हो, वे सभी श्रेष्ठ पुरुष होने चाहिये।’ उन वीरोंका कथन सुनकर शत्रुघ्नने श्रेष्ठ बुद्धिवाले मन्त्री सुमतिसे युद्धके विषयमें पूछा ‘मन्त्रिवर! क्या तुम जानते हो कि किस बालकने मेरे अश्वका अपहरण किया है? उसने मेरी सारी सेनाका, जो समुद्रके समान विशाल थी, विनाश कर डाला है।’
सुमतिने कहा- स्वामिन्! यह यह मुनिश्रेष्ठ वाल्मीकिका महान् आश्रम है, क्षत्रियोंका यहाँ निवास नहीं है। सम्भव है इन्द्र हों और अमर्षमें आकर उन्होंने घोड़ेका अपहरण किया हो अथवा भगवान् शंकर ही बालक-वेषमें आये हों अन्यथा दूसरा कौन ऐसा है, जो तुम्हारे अश्वका अपहरण कर सके। मेरा तो ऐसा विचार है कि अब तुम्हीं वीर योद्धाओं तथा सम्पूर्ण राजाओंसे घिरे हुए वहाँ जाओ और विशाल सेना भी अपने साथ ले लो। तुम शत्रुका उच्छेद करनेवाले हो, अतः वहाँ जाकर उस वीरको जीते जी बाँध लो। मैं उसे ले जाकर कौतुक देखनेकी इच्छा रखनेवाले श्रीरघुनाथजीको दिखाऊँगा।मन्त्रीका यह वचन सुनकर शत्रुघ्नने सम्पूर्ण कूच वीरोंको आज्ञा दी- ‘तुमलोग भारी सेनाके साथ चलो, मैं भी पीछेसे आता हूँ।’ आज्ञा पाकर सैनिकोंने किया। वीरोंसे भरी हुई उस विशाल सेनाको आते देख लव सिंहके समान उठकर खड़े हो गये। उन्होंने समस्त योद्धाओंको मृगोंके समान तुच्छ समझा। वे सैनिक उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये। उस समय उन्होंने घेरा डालनेवाले समस्त सैनिकको प्रज्वलित अग्निकी भाँति भस्म करना आरम्भ किया। किन्हींको तलवारके घाट उतारा, किन्हींको बाणोंसे मार परलोक पहुँचाया तथा किन्हींको प्रास, कुन्त, पट्टिश और परिध आदि शस्त्रोंका निशाना बनाया। इस प्रकार महात्मा लवने सभी घेरोंको तोड़ डाला। सातों घेरोंसे मुक्त होनेपर कुशके छोटे भाई लव शरद् ऋतुमें मेथोंके आवरण से उन्मुक्त हुए चन्द्रमाकी भाँति शोभा पाने लगे। उनके बाणोंसे पीड़ित होकर अनेकों वीर धराशायी हो गये। सारी सेना भाग चली। यह देख वीरवर पुष्कल युद्धके लिये आगे बढ़े। उनके नेत्र क्रोधसे भरे थे और वे ‘खड़ा रह, खड़ा रह’ कहकर लबको ललकार रहे थे। निकट आनेपर पुष्कलने लवसे कहा- ‘वीर! मैं तुम्हें उत्तम घोड़ोंसे सुशोभित एक रथ प्रदान करता हूँ, उसपर बैठ जाओ। इस समय तुम पैदल हो; ऐसी दशामें मैं तुम्हारे साथ युद्ध कैसे कर सकता हूँ इसलिये पहले रथपर बैठो, फिर तुम्हारे साथ लोहा लूँगा।”
यह सुनकर लवने पुष्कलसे कहा- ‘वीर! यदि मैं तुम्हारे दिये हुए रथापर बैठकर युद्ध करूंगा, तो मुझे पाप ही लगेगा और विजय मिलनेमें भी सन्देह रहेगा। हमलोग दान लेनेवाले ब्राह्मण नहीं हैं, अपितु स्वयं ही प्रतिदिन दान आदि शुभकर्म करनेवाले क्षत्रिय हैं [तुम मेरे पैदल होनेकी चिन्ता न करो]। मैं अभी क्रोध भरकर तुम्हारा रथ तोड़ डालता हूँ, फिर तुम भी पैदल ही हो जाओगे। उसके बाद युद्ध करना।’ लवका यह धर्म और धैर्यसे युक्त वचन सुनकर पुष्कलका चित्त बहुत देरतक विस्मयमें पड़ा रहा। तत्पश्चात् उन्होंने धनुष चढ़ाया। उन्हें धनुष उठाते देख लवने कुपित होकर बाणमारा और पुष्कलके हाथका धनुष काट डाला। फिर जब वे दूसरे धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ाने लगे तबतक उस उद्धत एवं बलवान् वीरने हँसते-हँसते उनके रथको भी तोड़ दिया। महात्मा लवके द्वारा अपने धनुषको छिन्न-भिन्न हुआ देख पुष्कल क्रोधमें भर गये और उस महाबली वीरके साथ बड़े वेगसे युद्ध करने लगे। लवने लवमात्रमें तरकशसे तीर निकाला, जो विषैले साँपकी भाँति जहरीला था। उसने वह तेजस्वी बाण क्रोधपूर्वक छोड़ा। धनुषसे छूटते ही वह पुष्कलकी छातीमें धँसगया और वह महावीरशिरोमणि मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। पुष्कलको मूर्च्छित होकर गिरा देख पवन कुमारने उठा लिया और श्रीरघुनाथजीके भ्राता शत्रुघ्नको अर्पित कर दिया। उन्हें अचेत देख शत्रुघ्नका चित्त शोकसे विह्वल हो गया। उन्होंने क्रोधमें भरकर हनुमानजीको लवका वध करनेकी आज्ञा दी। हनुमान्जी भी कुपित होकर महाबली लवको युद्धमें परास्त करनेके लिये बड़े वेगसे गये और उनके मस्तकको लक्ष्य करके उन्होंने वृक्षका प्रहार किया। वृक्षको अपने ऊपर आते देख लवने अपने बाणोंसे उसको सौ टुकड़े कर डाले। तब हनुमानजीने बड़ी-बड़ी शिलाएँ उखाड़कर बड़े वेगसे लवके मस्तकपर फेंकीं। शिलाओंका आघात पाकर उन्होंने अपना धनुष ऊपरको उठाया और बाणोंकी वर्षासे शिलाओंको चूर्ण कर दिया। फिर तो हनुमान्जीके क्रोधकी सीमा न रही; उन्होंने बलवान् लवको पूँछमें लपेट लिया। यह देख लवने अपनी माता जानकीका स्मरण किया और हनुमान्जीकी पूँछपर मुक्केसे मारा। इससे उनको बड़ी व्यथा हुई और उन्होंने लवको बन्धनसे मुक्त कर दिया। पूँछसे छूटनेपर उस बलवान् वीरने हनुमानजीपर बार्णोकी बौछार आरम्भ कर दी; जिससे उनके समस्त शरीरमें बड़ी पीड़ा होने लगी। उन्होंने लवकी बाणवर्षाको अपने लिये अत्यन्त दुःसह समझा और समस्त वीरोंके देखते-देखते वे मूर्च्छित होकर रणभूमिमें गिर पड़े। फिर लव अन्य सब राजाओंको मारने लगे। वे बाण छोड़नेमें बड़े निपुण थे ।
अध्याय 128 शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
शेषजी कहते हैं- मुने! वायुनन्दन हनुमान्जीके श्री मूच्छित होनेका समाचार सुनकर शत्रुघ्नको बड़ा शोक हुआ। अब वे स्वयं सुवर्णमय रथपर विराजमान हुए और श्रेष्ठ वीरोंको साथ ले युद्धके लिये उस स्थानपर गये, जहाँ विचित्र रणकुशल वीरवर लव मौजूद थे। उन्हें देखकर शत्रुघ्नने मन ही मन विचार किया कि’श्रीरामचन्द्रजीके सदृश स्वरूप धारण करनेवाला यह बालक कौन है ? इसका नीलकमल दलके समान श्याम शरीर कितना मनोहर है! हो न हो, यह विदेहकुमारी सीताका ही पुत्र है ।’ भीतर-ही-भीतर ऐसा सोचकर वे बालकसे बोले-‘वत्स! तुम कौन हो, जो रणभूमिमें हमारे योद्धाओंको गिरा रहे हो ? तुम्हारेमाता-पिता कौन हैं? तुम बड़े सौभाग्यशाली हो; क्योंकि इस युद्धमें तुमने विजय पायी है महाबली वीर! तुम्हारा लोक प्रसिद्ध नाम क्या है? मैं जानना चाहता हूँ।’ शत्रुघ्नके इस प्रकार पूछनेपर वीर बालक लवने उत्तर दिया- ‘वीरवर! मेरे नामसे, पितासे, कुलसे तथा अवस्थासे तुम्हें क्या काम है? यदि तुम स्वयं बलवान् हो तो समरमें मेरे साथ युद्ध करो, यदि शक्ति हो तो बलपूर्वक अपना घोड़ा छुड़ा ले जाओ।’ ऐसा कहकर उस उद्भट वीरने अनेकों बाणोंका सन्धान करके शत्रुघ्नकी छाती, मस्तक और भुजाओंपर प्रहार किया। तब राजा शत्रुघ्नने भी अत्यन्त कोपमें भरकर अपना धनुष चढ़ाया और बालकको त्रास-सा देते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीमें टंकार की। बलवानोंमें श्रेष्ठ तो वे थे ही, असंख्य बाणकी वर्षा करने लगे। परन्तु बालक लवने उनके सभी सायकोंको बलपूर्वक काट दिया। तत्पश्चात् लवके छोड़े हुए करोड़ों बाणों से वहाँकी सारी पृथ्वी आच्छादित हो गयी।
इतने बाणोंका प्रहार देखकर शत्रुघ्न दंग रह गये। फिर उन्होंने लवके लाखों वाणोंको काट गिराया। अपने समस्त सायकोंको कटा देख कुशके छोटे भाई लवने राजा शत्रुघ्न धनुषको वेगपूर्वक काट डाला। वे दूसरा धनुष लेकर ज्यों ही बाण छोड़नेको उद्यत होते हैं, त्यों ही लवने तीक्ष्ण सायकोंसे उनके रथको भी खण्डित कर दिया। रथ, घोड़े, सारथि और धनुषके कट जानेपर वे दूसरे रथपर सवार हुए और बलपूर्वक लवका सामना करनेके लिये चले। उस समय शत्रुघ्नने अत्यन्त कोपमें भरकर लवके ऊपर दस तीखे बाण छोड़े जो प्रागोंका संहार करनेवाले थे। परन्तु लवने तीखी गाँठवाले बार्णोंसे उनके टुकड़े टुकड़े करके एक अर्धचन्द्राकार बाणसे शत्रुघ्नको छातीमें प्रहार किया, उससे उनकी छातीमें गहरी चोट पहुँची और उन्हें बड़ी भयंकर पीड़ा हुई। वे हाथमें धनुष लिये ही रथकी बैठकमें गिर पड़े।
शत्रुघ्नको मूच्छित देख सुरथ आदि राजा युद्धमें विजय प्राप्तिके लिये उद्यत हो लवपर टूट पड़े किसीने क्षुरप्र और मुशल चलाये तो कोई अत्यन्त भयानकबाद्वारा ही प्रहार करने लगे। किसीने प्रास, किसीने कुन्त और किसीने फरसोंसे ही काम लिया। सारांश यह कि राजालोग सब ओरसे लवपर प्रहार करने लगे। वीरशिरोमणि लवने देखा कि ये क्षत्रिय अधर्मपूर्वक युद्ध करनेको तैयार हैं तो उन्होंने दस-दस बाणोंसे सबको घायल कर दिया। लवकी बाणवर्षासे आहत होकर कितने ही क्रोधी राजा रणभूमिसे पलायन कर गये और कितने ही युद्धक्षेत्रमें ही मूर्च्छित होकर गिर पड़े। इतनेहीमें राजा शत्रुघ्नकी मूर्च्छा दूर हुई और वे महावीर लवसे बलपूर्वक युद्ध करनेके लिये आगे बढ़े तथा सामने आकर बोले- ‘वीर! तुम धन्य हो ! देखनेमें ही बालक-जैसे जान पड़ते हो, [वास्तवमे तुम्हारी वीरता अद्भुत है।] अब मेरा पराक्रम देखो: मैं अभी तुम्हें युद्धमें गिराता हूँ।’ ऐसा कहकर शत्रुघ्नने एक बाग हाथमें लिया, जिसके द्वारा लवणासुरका वध हुआ था तथा जो यमराजके मुखकी भाँति भयंकर था। उस तीखे बाणको धनुषपर चढ़ाकर शत्रुघ्नने लवकी छातीको विदीर्ण करनेका विचार किया। वह बाण धनुषसे छूटते ही दसों दिशाओंको प्रकाशित करता हुआ प्रज्वलित हो उठा। उसे देखकर लवको अपने बलिष्ठ भ्राता कुशकी याद आयी, जो वैरियोंको मार गिरानेवाले थे। वे सोचने लगे, यदि इस समय मेरे बलवान् भाई वीरवर कुश होते तो मुझे शत्रुघ्नके अधीन न होना पड़ता तथा मुझपर यह दारुण भय न आता। इस प्रकार विचारते हुए महात्मा लवकी छातीमें वह महान् बाण आ लगा। जो कालाग्निके समान भयंकर था। उसकी चोट खाकर वीर लव मूच्छित हो गये।
बलवान् वैरियोंको विदीर्ण करनेवाले लवको मूर्च्छित देख महाबली शत्रुघ्नने युद्धमें विजय प्राप्त की। वे शिरस्त्राण आदिसे अलंकृत बालक लवको, जो स्वरूपसे श्रीरामचन्द्रजीकी समानता करता था, रथपर बिठाकर वहाँसे जानेका विचार करने लगे। अपने मित्रको शत्रुके चंगुलमें फँसा देख आश्रमवासी ब्राह्मण बालकोंको बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने तुरंत जाकर लवकी माता सीतासे सब समाचार कह सुनाया-‘माँजानकी! तुम्हारे पुत्र लवने किसी बड़े राजा महाराजाके घोड़ेको जबरदस्ती पकड़ लिया है। राजाके पास सेना भी है तथा उनका मान-सम्मान भी बहुत है। घोड़ा पकड़नेके बाद लवका राजाकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध हुआ। किन्तु सीता मैया! तुम्हारे वीर पुत्रने सब योद्धाओंको मार गिराया। उसके बाद वे लोग फिर लड़ने आये। परन्तु उसमें भी तुम्हारे सुन्दर पुत्रकी ही जीत हुई। उसने राजाको बेहोश कर दिया और युद्धमें विजय पायी । तदनन्तर कुछ ही देरके बाद उस भयंकर राजाकी मूर्च्छा दूर हो गयी और उसने क्रोधमें भरकर तुम्हारे पुत्रको रणभूमिमें मूर्च्छित करके गिरा दिया है।’
सीता बोलीं- हाय ! राजा बड़ा निर्दयी है, वह बालकके साथ क्यों युद्ध करता है? अधर्मके कारण उसकी बुद्धि दूषित हो गयी है, तभी उसने मेरे बच्चेको धराशायी किया है। बालको! बताओ, उस राजाने मेरे पुत्रको कैसे युद्धमें गिराया है तथा अब वह कहाँ जायगा ?
पतिव्रता जानकी बालकोंसे इस प्रकारकी बातें कह रही थीं, इतनेहीमें वीरवर कुश भी महर्षियोंके साथ आश्रमपर आ पहुँचे। उन्होंने देखा, माता जानकीअत्यन्त व्याकुल हैं तथा उनके नेत्रोंसे आँसू बह रहे हैं। तब वे अपनी जननीसे बोले-‘माँ मुझ पुत्रके रहते हुए तुमपर कैसा दुःख आ पड़ा ? शत्रुओंका मर्दन करनेवाला मेरा भाई लव कहाँ है? वह बलवान् वीर दिखायी क्यों नहीं देता ? कहाँ घूमने चला गया ? मेरी माँ तुम रोती क्यों हो? बताओ न लव कहाँ है?”
जानकीने कहा- बेटा! किसी राजाने लवको पकड़ लिया है। वह अपने घोड़ेकी रक्षा के लिये यहाँ आया था। सुना है, मेरे बच्चेने उसके यज्ञसम्बन्धी अश्वको पकड़कर बाँध लिया था। लव बलवान् है, उसे अकेले ही अनेकों शत्रुओंसे लड़ना पड़ा है। फिर भी उसने बहुत से अश्व-रक्षकोंको परास्त किया है। परन्तु अन्तमें उस राजाने लवको युद्धमें मूच्छित करके बाँध लिया है, यह बात इन बालकोंने बतायी है, जो उसके साथ ही गये थे। यही सुनकर मुझे दुःख हुआ है। वत्स! तुम समयपर आ गये। जाओ और उस श्रेष्ठ राजाके हाथसे लवको बलपूर्वक छुड़ा लाओ।
कुश बोले- माँ ! तुम जान लो कि लव अब उस राजाके बन्धनसे मुक्त हो गया। मैं अभी जाकर राजाको सेना और सवारियोंसहित अपने बाणोंका निशाना बनाता हूँ। यदि कोई अमर देवता या साक्षात् रुद्र आ गये हो तो भी अपने तीखे बाणोंकी मारसे उन्हें व्यथित करके मैं लवको छुड़ा लूँगा। माता! तुम रोओ मत; वीर पुरुषोंका संग्राममें मूच्छित होना उनके यशका कारण होता है। युद्धसे भागना ही उनके लिये कलंककी बात है।
शेषजी कहते हैं- मुने! कुशके इस वचनसे शुभलक्षणा सीताको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने पुत्रको सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्र दिये और विजयके लिये आशीर्वाद देकर कहा- ‘बेटा! युद्धक्षेत्रमें जाकर मूच्छित हुए लवको बन्धनसे छुड़ाओ।’ माताकी यह आज्ञा पाकर कुशने कवच और कुण्डल धारण किये तथा जननीके चरणोंमें प्रणाम करके बड़े वेग से रणकी ओर प्रस्थान किया। वे वेगपूर्वक युद्धके लिये संग्रामभूमिमें उपस्थित हुए, वहाँ पहुँचते ही उनकी दृष्टिलवके ऊपर पड़ी, जिन्हें शत्रुओंने मूच्छित करके गिराया था [वे रथपर बँधे पड़े थे और उनकी मूर्च्छा दूर हो चुकी थी]। अपने महाबली भ्राता कुशको आया देख लव युद्धभूमिमें चमक उठे; मानो वायुका सहयोग पाकर अग्नि प्रज्वलित हो उठी हो। वे रथसे अपनेको छुड़ाकर युद्धके लिये निकल पड़े। फिर तो कुशने रणभूमिमें खड़े हुए समस्त वीरोंको पूर्व दिशाकी ओरसे मारना आरम्भ किया और लवने कोपमें भरकर सबको पश्चिम ओरसे पीटना शुरू किया। एक ओर कुशके बाणोंसे व्यथित और दूसरी ओर लवके सायकोंसे पीड़ित हो सेनाके समस्त योद्धा उत्ताल तरंगोंसे युक्त समुद्रकी भँवरके समान क्षुब्ध हो गये। सारी सेना इधर-उधर भाग चली।
सबके ऊपर आतंक छा रहा था। कोई भी बलवान् रणभूमिमें कहीं भी खड़ा होकर युद्ध करना नहीं चाहता था । इसी समय शत्रुओंको ताप देनेवाले राजा शत्रुघ्न लवके समान ही प्रतीत होनेवाले वीरवर कुशसे युद्ध करनेके लिये आगे बढ़े। समीप पहुँचकर उन्होंने पूछा – ‘महावीर ! तुम कौन हो? आकार-प्रकारसे तोतुम अपने भाई लवके ही समान जान पड़ते हो। तुम्हारा बल भी महान् है। बताओ तुम्हारा नाम क्या है? तुम्हारी माता कहाँ है? और पिता कौन हैं?”
कुशने कहा- राजन् ! पातिव्रत्य धर्मका पालन करनेवाली केवल माता सीताने हमें जन्म दिया है। हम दोनों भाई महर्षि वाल्मीकिके चरणोंका पूजन करते हुए इस वनमें रहते हैं और माताकी सेवा किया करते हैं। हम दोनोंने सब प्रकारकी विद्याओंमें प्रवीणता प्राप्त की है। मेरा नाम कुश है और इसका नाम लव । अब तुम अपना परिचय दो, कौन हो ? युद्धकी श्लाघा रखनेवाले वीर जान पड़ते हो यह सुन्दर अश्व तुमने किसलिये छोड़ रखा है? भूपाल यदि वास्तवमें वीर हो तो मेरे साथ युद्ध करो मैं अभी इस बुद्धके मुहाने पर तुम्हारा वध कर डालूंगा।
शत्रुघ्नको जब यह मालूम हुआ कि यह श्रीरामचन्द्रजीके वीर्यसे उत्पन्न सीताका पुत्र है, तो उनके चित्तमें बड़ा विस्मय हुआ [किन्तु उस बालकने उन्हें युद्धके लिये ललकारा था; इसलिये] उन्होंने क्रोधमें भरकर धनुष उठा लिया। उन्हें धनुष लेते देख कुशको भी क्रोध हो आया और उसने अपने मुद्द एवं उत्तम धनुषको खींचा। फिर तो कुश और शत्रुघ्नके धनुषसे लाखों वाण छूटने लगे। उनसे वहाँका सारा प्रदेश व्याप्त हो गया। यह एक अद्भुत बात थी। उस समय उद्भट वीर कुशने शत्रुघ्नपर नारायणास्त्रका प्रयोग किया किन्तु वह अस्त्र उन्हें पीड़ा देनेमें समर्थ न हो सका। यह देख कुशके क्रोधकी सीमा न रही। वे महान् बल और पराक्रमसे सम्पन्न राजा शत्रुघ्नसे बोले-‘राजन् मैं जानता हूँ, तुम संग्राममें जीतनेवाले महान् वीर हो; क्योंकि मेरे इस भयंकर अस्त्र नारायणास्वने भी तुम्हें तनिक बाधा नहीं पहुँचायी; तथापि आज इसी समय में अपने तीन बाणोंसे तुम्हें गिरा दूँगा। यदि ऐसा न करूँ तो मेरी प्रतिज्ञा सुनो, जो करोड़ों पुण्योंसे भी दुर्लभ मनुष्य शरीरको पाकर मोहवश उसका आदर नहीं करता [ भगवद्भजन आदिके द्वारा उसको सफल नहीं बनाता ] उस पुरुषको लगनेवाला पातक मुझे भी लगे। अच्छा,अब तुम सावधान हो जाओ में तत्काल हो तुम्हें पृथ्वीपर गिराता हूँ।’ ऐसा कहकर कुशने अपने धनुषपर एक बाण चढ़ाया, जो कालाग्निके समान भयंकर था। उन्होंने शत्रुके अत्यन्त कठोर एवं विशाल वक्षःस्थलको लक्ष्य करके छोड़ दिया। कुशको उस बाणका सन्धान करते देख शत्रुघ्न कोपमें भर गये तथा श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करके उन्होंने तुरंत ही उसे काट डाला। बाणके कटनेसे कुशका क्रोध और भी भड़क उठा तथा उन्होंने धनुषपर दूसरा बाण चढ़ाया। उस बाणके द्वारा वे शत्रुघ्नकी छाती छेद डालनेका विचार कर ही रहे थे कि शत्रुघ्नने उसको भी काट गिराया। तब तो कुशको और भी क्रोध हुआ। अब उन्होंने अपनी माताके चरणोंका स्मरण करके धनुषपर तीसरा उत्तम बाण रखा। शत्रुघ्नने उसको भी शीघ्र ही काट डालनेके विचारसे बाण हाथमें लिया; किन्तु उसे छोड़ने के पहले ही वे कुशके बाणसे घायल होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। शत्रुघ्नके गिरनेपर सेनामें बड़ा भारी हाहाकार मचा। उस समय अपनी भुजाओंके बलपर गर्व रखनेवाले वीरवर कुशकी विजय हुई।
शेषजी कहते हैं- मुने! राजाओंमें श्रेष्ठ सुरथने जब शत्रुघ्नको गिरा देखा तो वे अत्यन्त अद्भुत मणिमय रथपर बैठकर युद्धके लिये गये। वे महान् वीरोंके शिरोमणि थे। कुशके पास पहुँचकर उन्होंने अनेकों बाण छोड़े और समरभूमिमें कुशको व्यथित कर दिया। तब कुशने भी दस बाण मारकर सुरथको रथहीन कर दिया और प्रत्यंचा चढ़ाये हुए उनके सुदृढ़ धनुषको भी वेगपूर्वक काट डाला। जब एक किसी दिव्य अस्त्रका प्रयोग करता, तो दूसरा उसके बदले में संहारास्त्रका उपयोग करता था और जब दूसरा किसी अस्त्रको फेंकता तो पहला भी वैसा ही अस्त्र चलाकर तुरंत उसका बदला चुकाता था। इस प्रकार उन दोनोंमें घोर घमासान युद्ध हुआ, जो वीरोंके रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। कुशने सोचा, अब मुझे क्या करना चाहिये? कर्तव्यका निश्चय करके उन्होंने एक तीक्ष्ण एवं भयंकर सायक हाथमें लिया। छूटते ही वह कालाग्निके समान प्रज्वलित हो उठा। उसे आते देख सुरथने ज्यों ही काटनेका विचारकिया, त्यों ही वह महाबाण तुरंत उनकी छातीमें आ लगा सुरथ मूर्च्छित होकर रथपर गिर पड़े। यह देख सारथि उन्हें रणभूमिसे बाहर ले गया।
सुरथके गिर जानेपर कुश विजयी हुए यह देख पवनकुमार हनुमानजीने सहसा एक विशाल शालका वृक्ष उखाड़ लिया। महान् बलवान् तो वे थे ही, कुशकी छातीको लक्ष्य बनाकर उनसे युद्ध करनेके लिये गये। निकट जाकर उन्होंने कुशकी छातीपर वह शालवृक्ष दे मारा। उसकी चोट खाकर वीर कुशने संहारास्त्र उठाया। उनका छोड़ा हुआ संहारास्त्र दुर्जय (अमोघ) था। उसे देखकर हनुमान्जी मन-ही-मन भक्तोंका विघ्न नष्ट करनेवाले श्रीरामचन्द्रजीका ध्यान करने लगे। इतनेहीमें उनकी छातीपर उस अस्त्रकी करारी चोट पड़ी। वह बड़ी व्यथा पहुँचानेवाला अस्त्र था। उसके लगते ही हनुमानजीको मूर्च्छा आ गयी। तत्पश्चात् उस रणक्षेत्रमें कुशके चलाये हुए हजारों बाणोंकी मार खाकर सारी सेनाके पाँव उखड़ गये समूची चतुरंगिणी सेना भाग चली।
उस समय वानरराज सुग्रीव उस विशाल वाहिनीके संरक्षक हुए। वे अनेकों वृक्ष उखाड़कर उद्भट वीर कुशकी ओर दौड़े। परन्तु कुशने हँसते-हँसते खेलमें ही वे सारे वृक्ष काट गिराये। तब सुग्रीवने एक भयंकर पर्वत उठाकर कुशके मस्तकको उसका निशाना बनाया। उस पर्वतको आते देख कुशने शीघ्र ही अनेकों वाणोंका प्रहार करके उसे चूर्ण कर डाला। वह पर्वत महारुद्रके शरीरमें लगानेयोग्य भस्म-सा बन गया। बालकका यह महान् पराक्रम देखकर सुग्रीवको बड़ा अमर्ष हुआ और उन्होंने कुशको मारनेके लिये रोषपूर्वक एक वृक्ष हाथमें लिया। इतनेहीमें लवके बड़े भाई वीरवर कुशने वारुणास्त्रका प्रयोग किया और सुग्रीवको वरुण-पाशसे दृढतापूर्वक बाँध लिया बलशाली कुशके द्वारा कोमल पाशोंसे बाँधे जानेपर सुग्रीव रणभूमिमें गिर पड़े। सुग्रीवको गिरा देख सभी योद्धा इधर-उधर भाग गये। महावीरशिरोमणि कुशने विजय पायी। इसी समय लवने भी पुष्कल, अंगद, प्रतापाद्र्ध, वीरमणि तथा अन्यराजाओंको जीतकर रणमें विजय पायी। फिर दोनों भाई बड़े हर्षमें भरकर एक-दूसरेसे मिले।
लखने कहा- भैया! आपकी कृपासे में युद्धरूपी समुद्रके पार हुआ। अब हमलोग इस रणकी स्मृतिके लिये कोई सुन्दर चिह्न तलाश करने चलें।’ ऐसा कहकर लव अपने भाई कुशके साथ पहले राजा शत्रुघ्नके निकट गये। वहाँ कुशने उनकी सुवर्णमण्डित मनोहर मुकुटमणि ले ली। फिर वीरवर लवने पुष्कलका सुन्दर किरीट उतार लिया। इसके बाद दोनों भाइयोंने उनके बहुमूल्य भुजबंद तथा हथियारोंको भी हथिया लिया। तदनन्तर हनुमान् और सुग्रीवके पास जाकर उन दोनोंको बाँधा। फिर लवने अपने भाईसे कहा-‘भैया मैं इन दोनोंको अपने आश्रम में ले चलूँगा। वहाँ मुनियोंके बालक इनसे खेलेंगे और मेरा भी मनोरंजन होगा।’ इस तरहकी बातें करते हुए उन दोनों महाबली वानरोंको पकड़कर ये आश्रमकी ओर चले और माताको कुटीपर जा पहुँचे। अपने दोनों मनोहर बालकोंको आया देख माता जानकीको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने बड़े स्नेहके साथ उन्हें छाती से लगाया किन्तु जब उनके लाये हुए दोनों वानरोंपर उनकी दृष्टि पड़ीतो उन्होंने और बनावको सहसा पहचान लिया। अब वे उन्हें छोड़ देनेकी आज्ञा देती हुई यह श्रेष्ठ वचन बोलीं- ‘पुत्रो ! ये दोनों वानर बड़े वीर और महाबलवान् है इन्हें छोड़ दो ये कीर हनुमान्जी हैं, जिन्होंने रावणकी पुरी लंकाको भस्म किया था; तथा ये भी वानर और भालुओंके राजा सुग्रीव हैं। इन दोनोंको तुमने किसलिये पकड़ा है? अथवा क्यों इनके साथ अनादरपूर्ण बर्ताव किया है?’
पुत्रोंने कहा -‘माँ! एक राम नामसे प्रसिद्ध बलवान् राजा हैं, जो महाराज दशरथके पुत्र हैं। उन्होंने एक सुन्दर घोड़ा छोड़ रखा है, जिसके ललाटपर सोनेका पत्र बँधा है। उसमें यह लिखा है कि ‘जो सच्चे क्षत्रिय हों, वे इस घोड़ेको पकड़े; अन्यथा मेरे सामने मस्तक झुकावें।’ उस राजाकी ढिठाई देखकर मैंने घोड़ेको पकड़ लिया। सारी सेनाको हमलोगोंने युद्धमें मार गिराया है। यह राजा शत्रुघ्नका मुकुट है तथा यह दूसरे वीर महात्मा पुष्कलका किरीट है।
सीताने कहा- पुत्रो तुम दोनोंने बड़ा अन्याय ! किया। श्रीरामचन्द्रजीका छोड़ा हुआ महान् अश्व तुमनेपकड़ा, अनेकों वीरोंको मार गिराया और इन कपीश्वरोंको भी बाँध लिया – यह सब अच्छा नहीं हुआ। वीरो ! तुम नहीं जानते, वह तुम्हारे पिताका ही घोड़ा है [ श्रीराम तुम्हारे पिता हैं], उन्होंने अश्वमेध यज्ञके लिये उस अश्वको छोड़ रखा था। इन दोनों वानर वीरोंको छोड़ दो तथा उस श्रेष्ठ अश्वको भी खोल दो ।
माताकी बात सुनकर उन बलवान् बालकोंने कहा—’माँ! हमलोगोंने क्षत्रिय धर्मके अनुसार उस बलवान् राजाको परास्त किया है। क्षात्रधर्मके अनुसार युद्ध करनेवालोंको अन्यायका भागी नहीं होना पड़ता । आजके पहले जब हमलोग पढ़ रहे थे, उस समय महर्षि वाल्मीकिजीने भी हमसे ऐसा ही कहा था ‘क्षात्रधर्मके अनुसार पुत्र पितासे, भाई भाईसे और शिष्य गुरुसे भी युद्ध कर सकता है, इससे पाप नहीं होता।’ तुम्हारी आज्ञासे हमलोग अभी उस उत्तम अश्वकोलौटाये देते हैं; तथा इन वानरोंको भी छोड़ देंगे। तुमने जो कुछ कहा है, सबका हम पालन करेंगे।’
मातासे ऐसा कहकर वे दोनों वीर पुनः रणभूमिमें गये और वहाँ उन दोनों कपीश्वरों तथा उस अश्वमेध योग्य अश्वको भी छोड़ आये। अपने पुत्रोंके द्वारा सेनाका मारा जाना सुनकर सीतादेवीने मन-ही-मन श्रीरामचन्द्रजीका ध्यान किया और सबके साक्षी भगवान् सूर्यकी ओर देखा। वे कहने लगीं- ‘यदि मैं मन, वाणी तथा क्रियाद्वारा केवल श्रीरघुनाथजीका ही भजन करती हूँ, दूसरे किसीको कभी मनमें भी नहीं लाती तो ये राजा शत्रुघ्न जीवित हो जायँ तथा इनकी वह विशाल सेना भी जो मेरे पुत्रोंके द्वारा बलपूर्वक नष्ट की गयी है, मेरे सत्यके प्रभावसे जी उठे।’ पतिव्रता जानकीने ज्यों ही यह वचन मुँहसे निकाला, त्यों ही वह सारी सेना, जो संग्राम भूमिमें नष्ट हुई थी, जीवित हो गयी।
अध्याय 129 शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
शेषजी कहते हैं- मुने ! रणभूमिमें पड़े हुए वीर शत्रुघ्नने क्षणभरमें मूर्च्छा त्याग दी तथा अन्यान्य बलवान् वीर भी जो मूर्च्छामें पड़े थे, जीवित हो गये। शत्रुघ्नने देखा अश्वमेधका श्रेष्ठ अश्व सामने खड़ा है, मेरे मस्तकका मुकुट गायब है तथा मरी हुई सेना भी जी उठी है। यह सब देखकर उनके मनमें बड़ा आश्चर्य हुआ और वे मूच्छसि जगे हुए बुद्धिमानों में श्रेष्ठ सुमतिसे बोले – ‘मन्त्रिवर! इस बालकने कृपा करके यज्ञ पूर्ण करनेके लिये यह घोड़ा दे दिया है। अब हमलोग जल्दी ही श्रीरघुनाथजीके पास चलें। वे घोड़ेके आनेकी प्रतीक्षा करते होंगे।’ यों कहकर वे अपने रथपर जा बैठे और घोड़ेको साथ लेकर वेगपूर्वक उस आश्रमसे दूर चले गये। भेरी और शंखकी आवाज बंद थी। उनके पीछे-पीछे विशाल चतुरंगिणी सेना चली जा रही थी। तरंग-मालाओंसे सुशोभित गंगा नदीको पार करके उन्होंने अपने राज्यमें प्रवेश किया, जो आत्मीयजनोंके निवाससे शोभा पारहा था। शत्रुघ्न मणिमय रथपर बैठे महान् कोदण्ड धारण किये हुए जा रहे थे। उनके साथ भरतकुमार पुष्कल और राजा सुरथ भी थे। चलते-चलते क्रमशः वे अपनी नगरी अयोध्यामें पहुँचे, जो सूर्यवंशी क्षत्रियोंसे सुशोभित थी। वहाँ अनेकों ऊँची-ऊँची पताकाएँ फहराकर उस नगरकी शोभा बढ़ा रही थीं। दुर्गके कारण उसकी सुषमा और भी बढ़ गयी थी। श्रीरामचन्द्रजीने जब सुना कि महात्मा शत्रुघ्न और वीर पुष्कलके साथ अश्व आ पहुँचा तो उन्हें बड़ा हर्ष हुआ और बलवानोंमें श्रेष्ठ भाई लक्ष्मणको उन्होंने शत्रुघ्नके पास भेजा। लक्ष्मण सेनाके साथ जाकर प्रवाससे आये हुए भाई शत्रुघ्नसे बड़ी प्रसन्नताके साथ मिले। शत्रुघ्नका शरीर अनेकों घावोंसे सुशोभित था। उन्होंने कुशल पूछी और तरह तरहकी बातें कीं। उनसे मिलकर शत्रुघ्नको बड़ी प्रसन्नता हुई। महामना लक्ष्मणने भाई शत्रुघ्नके साथ अपने रथपर बैठकर विशाल सेनासहित नगरमें प्रवेशकिया; जहाँ तीनों लोकोंको पवित्र करनेवाली पुण्यसलिला सरयू श्रीरघुनाथजीकी चरण-रजसे पवित्र होकर शरत्कालीन चन्द्रमाके समान स्वच्छ जलसे शोभा पा रही हैं। श्रीरघुनाथजी शत्रुघ्नको पुष्कलके साथ आते देख अपने आनन्दोल्लासको रोक न सके। वे अपने अश्वरक्षक बन्धुसे मिलनेके लिये ज्यों ही खड़े हुए, त्यों ही भ्रातृभक्त शत्रुघ्न उनके चरणोंमें पड़
गये। घावके चिह्नोंसे सुशोभित अपने विनयशील भाईको पैरोंपर पड़ा देख श्रीरामचन्द्रजीने उन्हें प्रेमपूर्वक उठाकर भुजाओंमें कस लिया और उनके मस्तकपर हर्षके आँसू गिराते हुए परमानन्दमें निमग्न हो गये। उस समय उन्हें जितनी प्रसन्नता हुई, वह वाणीसे परे है-उसका वर्णन नहीं हो सकता। तत्पश्चात् पुष्कलने विनयसे विह्वल होकर भगवान्के चरणोंमें प्रणाम किया। उन्हें अपने चरणों में पड़ा देख श्रीरघुनाथजीने गोदमें उठा लिया और कसकर छातीसे लगाया। इसी प्रकार हनुमान्, सुग्रीव, अंगद, लक्ष्मीनिधि, प्रतापाग्र्य, सुबाहु, सुमद, विमल, नीलरत्न, सत्यवान्, वीरमणि, श्रीरामभक्त सुरथ तथा अन्य बड़भागी स्नेहियों और चरणोंमें पड़े हुए-राजाओंको श्रीरघुनाथजीने अपने हृदयसे लगाया। सुमति भी भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले श्रीरघुनाथजीका गाढ़ आलिंगन करके प्रसन्नतापूर्वक उनके सामने खड़े हो गये। तब वक्ताओंमें श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी समीप आये हुए अपने मन्त्रीकी ओर देख अत्यन्त हर्षमें भरकर बोले- ‘मन्त्रिवर! बताओ, ये कौन-कौन-से राजा हैं? तथा ये सब लोग यहाँ कैसे पधारे हैं? अपना अश्व कहाँ-कहाँ गया, किसने किसने उसे पकड़ा तथा मेरे महान् बलशाली बन्धुने किस प्रकार उसको छुड़ाया ?”
सुमतिने कहा- भगवन्! आप सर्वज्ञ हैं, भला आपके सामने आज मैं इन सब बातोंका वर्णन कैसे करूँ। आप सबके द्रष्टा हैं, सब कुछ जानते हैं, तो भी लौकिक रीतिका आश्रय लेकर मुझसे पूछ रहे हैं। तथापि मैं सदाकी भाँति आपकी आज्ञा शिरोधार्य करके कहता हूँ, सुनिये – ‘स्वामिन्! आप समस्त राजाओंके शिरोमणि हैं। आपकी कृपासे आपके अश्वने, जो भालपत्रके कारण बड़ी शोभा पा रहा था, इस पृथ्वीपर सर्वत्र भ्रमण किया है । प्रायः कोई राजा ऐसा नहीं निकला, जिसने अपने मान और बलके घमंडमें आकर अश्वको पकड़ा हो। सबने अपना-अपना राज्य समर्पण करके आपके चरणोंमें मस्तक झुकाया। भला, विजयकी अभिलाषा रखनेवाला कौन ऐसा राजा होगा, जो राक्षसराज रावणके प्राण हन्ता श्रीरघुनाथजीके श्रेष्ठ अश्वको पकड़ सके ? प्रभो! आपका मनोहर अश्व सर्वत्र घूमता हुआ अहिच्छत्रा नगरीमें पहुँचा। वहाँके राजा सुमदने जब सुना कि श्रीरामचन्द्रजीका अश्व आया है, तो उन्होंने सेना और पुत्रोंके साथ आकर अपना सारा अकण्टक राज्य आपकी सेवामें समर्पित कर दिया। ये हैं राजा सुमद, जो बड़े-बड़े राजा-प्रभुओंके सेव्य आपके चरणोंमें प्रणाम करते हैं। इनके हृदयमें बहुत दिनोंसे आपके दर्शनकी अभिलाषा थी। आज अपनी कृपादृष्टि से इन्हें अनुगृहीत कीजिये। अहिच्छत्रा नगरीसे आगे बढ़नेपर वह अश्व राजा सुबाहुके नगरमें गया, जो सब प्रकारके बलसे सम्पन्न हैं। वहीं राजकुमार दमनने उस श्रेष्ठ अश्वको पकड़ लिया। फिर तो युद्ध छिड़ा औरपुष्कलने सुबाहु पुत्रको मूच्छित करके विजय प्राप्त की। तब महाराज सुबाहु भी क्रोधमें भरकर रणभूमिमें आये और पवनकुमार हनुमानजीसे बलपूर्वक युद्ध करने लगे। उनका ज्ञान शापसे विलुप्त हो गया था। हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे उनका शाप दूर हुआ और वे अपने खोये हुए ज्ञानको पाकर अपना सब कुछ आपकी सेवामें अर्पण करके अश्वके रक्षक बन गये । ये ऊँचे डील-डौलवाले राजा सुबाहु हैं, जो आपको नमस्कार करते हैं। ये युद्धकी कलामें बड़े निपुण हैं। आप अपनी दया दृष्टिसे देखकर इनके ऊपर स्नेहकी वर्षा कीजिये । तदनन्तर अपना यज्ञसम्बन्धी अश्व देवपुरमें गया, जो भगवान् शिवका निवासस्थान होनेके कारण अत्यन्त शोभा पा रहा था। वहाँका हाल तो आप जानते ही हैं, क्योंकि स्वयं आपने पदार्पण किया था। तत्पश्चात् विद्युन्माली दैत्यका वध किया गया। उसके बाद राजा सत्यवान् हमलोगों से मिले। महामते ! वहाँसे आगे जानेपर कुण्डलनगरमें राजा सुरथके साथ जो युद्ध हुआ, उसका हाल भी आपको मालूम ही है। कुण्डलनगरसे छूटनेपर अपना घोड़ा सब ओर बेखटके विचरता रहा। किसीने भी अपने पराक्रम और बलके घमण्डमें आकर उसे पकड़नेका नाम नहीं लिया। नरश्रेष्ठ! तदनन्तर लौटते समय जब आपका मनोरम अश्व महर्षि वाल्मीकिके रमणीय आश्रमपर पहुँचा, तो वहाँ जो कौतुक हुआ,उसको ध्यान देकर सुनिये। वहाँ एक सोलह वर्षका बालक आया, जो रूप-रंगमें हू-बहू आपहीके समान था। वह बलवानों में श्रेष्ठ था। उसने भालपत्रसे चिह्नित अश्वको देखा और उसे पकड़ लिया। वहाँ सेनापति कालजित्ने उसके साथ घोर युद्ध किया । किन्तु उस वीर बालकने अपनी तीखी तलवारसे सेनापतिका काम तमाम कर दिया। फिर उस वीरशिरोमणिने पुष्कल आदि अनेकों बलवानोंको युद्धमें मार गिराया और शत्रुघ्नको मूच्छित किया। तब राजा शत्रुघ्नने अपने हृदयमें महान् दुःखका अनुभव करके क्रोध किया और बलवानोंमें श्रेष्ठ उस वीरको मूच्छित कर दिया । शत्रुघ्नके द्वारा ज्यों ही वह मूच्छित हुआ, त्यों ही उसीके आकारका एक दूसरा बालक वहाँ आ पहुँचा। फिर तो उसने और इसने भी एक-दूसरेका सहारा पाकर आपकी सारी सेनाका संहार कर डाला। मूर्च्छामें पड़े हुए सभी वीरोंके अस्त्र और आभूषण उतार लिये। फिर सुग्रीव और हनुमान् — इन दो वानरोंको उन्होंने पकड़कर बाँधा और इन्हें वे अपने आश्रमपर ले गये । पुनः कृपा करके उन्होंने स्वयं ही यह यज्ञका महान् अश्व लौटा दिया और मरी हुई समस्त सेनाको जीवन दान दिया। तत्पश्चात् घोड़ा लेकर हमलोग आपके समीप आ गये। इतनी ही बातें मुझे ज्ञात हैं, जिन्हें मैंने आपके सामने प्रकट कर दिया।
अध्याय 130 वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
शेषजी कहते हैं—मुने! सुमतिने जो वाल्मीकि मुनिके आश्रमपर रहनेवाले दो बालकोंकी चर्चा की, उसे सुनकर श्रीरामचन्द्रजी समझ गये वे दोनों मेरे ही पुत्र हैं तो भी उन्होंने अपने यज्ञमें पधारे हुए महर्षि वाल्मीकिसे पूछा- मुनिवर! आपके आश्रमपर मेरे समान रूप धारण करनेवाले दो महाबली बालक कौन हैं? वहाँकिसलिये रहते हैं? सुननेमें आया है, वे धनुर्विद्यामें बड़े प्रवीण हैं। अमात्यके मुखसे उनका वर्णन सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है! वे कैसे बालक हैं, जिन्होंने खेल-खेलमें ही शत्रुघ्नको भी मूच्छित कर दिया और हनुमान्जीको भी बाँध लिया था ? महर्षे! कृपा करके उन बालकोंका सारा चरित्र सुनाइये ।वाल्मीकिने कहा- प्रभो! आप अन्तर्यामी हैं; मनुष्योंके सम्बन्धकी हर एक बातका ज्ञान आपको क्यों न होगा ? तथापि आपके सन्तोषके लिये मैं कह रहा हूँ। जिस समय आपने जनककिशोरी सीताको बिना किसी अपराधके वनमें त्याग दिया, उस समय वह गर्भवती थी और बारम्बार विलाप करती हुई घोर वनमें भटक रही थी। परमपवित्र जनककिशोरीको दुःखसे आतुर होकर कुररीकी भाँति रोती-बिलखती देख मैं उसे अपने आश्रमपर ले गया। मुनियोंके बालकोंने उसके रहनेके लिये एक बड़ी सुन्दर पर्णशाला तैयार कर दी। उसीमें उसके दो पुत्र उत्पन्न हुए। जो अपनी कान्तिसे दसों दिशाओंको प्रकाशित कर रहे थे। उनमेंसे एकका नाम मैंने कुश रख दिया और दूसरेका लव। वे दोनों बालक शुक्लपक्षके चन्द्रमाकी भाँति वहाँ प्रतिदिन बढ़ने लगे। समय समयपर उनके उपनयन आदि जो-जो आवश्यक संस्कार थे, उनको भी मैंने सम्पन्न किया तथा उन्हें अंगसहित सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन कराया। इसके सिवा आयुर्वेद, धनुर्वेद और शस्त्रविद्या आदि सभी शास्त्रोंकी उनके रहस्योंसहित शिक्षा दी। इस प्रकार सम्पूर्ण शास्त्रोंका ज्ञान कराकर मैंने उनके मस्तकपर हाथ रखा। वे दोनों संगीतमें भी बड़े प्रवीण हुए। उन्हें देखकर सब लोगोंको विस्मय होने लगा। षडज, मध्यम, गान्धार आदि स्वरोंकी विद्यामें उन्होंने बड़ी कुशलता प्राप्त की। उनकी ऐसी योग्यता देखकर मैं प्रतिदिन उनसे परम मनोहर रामायण काव्यका गान कराया करता हूँ। भविष्य ज्ञानकी शक्ति होनेके कारण इस रामायणको मैंने पहलेसे बना रखा था। मृदंग, पणव, यन्त्र और वीणा आदि बाजे बजानेमें भी वे दोनों बालक बड़े चतुर हैं। वन-वनमें घूमकर रामायण गाते हुए मृग और पक्षियोंको भी मोहित कर लेते वे हैं। श्रीराम उन बालकोंके गीतका माधुर्य अद्भुत है। एक दिन उनका संगीत सुननेके लिये वरुणदेवता उन दोनों बालकोको विभावरी पुरोमें ले गये। उनकी अवस्था, उनका रूप सभी मनोहर हैं ये गान विद्यारूपी समुद्रके पारगामी है। लोकपाल वरुणके आदेशसे उन्होंने मधुरस्वरमैआपके परम सुन्दर, मृदु एवं पवित्र चरित्रका गान किया। वरुणने दूसरे दूसरे गायकों तथा अपने समस्त परिवारके साथ सुना। मित्र देवता भी उनके साथ थे। रघुनन्दन! आपका चरित्र सुधासे भी अधिक सरस एवं स्वादिष्ट है। उसे सुनते-सुनते मित्र और वरुणकी तृप्ति नहीं हुई।
तत्पश्चात् मैं भी उत्तम वरुणलोकमें गया। वहाँ वरुणने प्रेमसे द्रवीभूत होकर मेरी पूजा की। वे उन दोनों बालकोंके गाने-बजानेकी विद्या, अवस्था और गुणोंसे बहुत प्रसन्न थे। उस समय उन्होंने सीताके सम्बन्धमै [आपसे कहनेके लिये मुझसे इस प्रकार बातचीत की-सीता पतिव्रताओंमें अग्रगण्य हैं। वे शील, रूप और अवस्था – सभी सद्गुणोंसे सम्पन्न हैं। उन्होंने वीर पुत्रको जन्म दिया है। ये बड़ी सौभाग्यशालिनी हैं; कदापि त्याग करनेके योग्य नहीं हैं। उनका चरित्र सदासे ही पवित्र है-इस बातके हम सभी देवता साक्षी हैं। जो लोग सीताजीके चरणोंका चिन्तन करते हैं, उन्हें तत्काल सिद्धि प्राप्त होती है। सीताके संकल्पमात्र से ही संसारको सृष्टि, स्थिति और लय आदि कार्य होते हैं। ईश्वरीय व्यापार भी उन्हींसे सम्पन्न होते हैं। सीता ही मृत्यु और अमृत हैं। वे ही ताप देती और वे ही वर्षा करती हैं। श्रीरघुनाथजी आपकी जानकी ही स्वर्ग, मोक्ष, तप और दान हैं। ब्रह्मा, शिव तथा हम सभी लोकपालको वे ही उत्पन्न करती हैं। आप सम्पूर्ण जगत्के पिता और सीता सबकी माता हैं। आप सर्व हैं, साक्षात् भगवान् हैं; अतः आप भी इस बातको जानते हैं कि सीता नित्य शुद्ध हैं। ये आपको प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय हैं; इसलिये जनककिशोरी सीताको शुद्ध एवं अपनी प्रिया जानकर आप सदा उनका आदर करें। प्रभो! आपका या सीताका किसी शापके कारण पराभव नहीं हो सकता-मुनिश्रेष्ठ वाल्मीकिजी ! मेरी ये सभी बातें आप साक्षात् महाराज श्रीरामचन्द्रजीसे कहियेगा।”
इस प्रकार सीताको स्वीकार करने के सम्बन्धमे वरुणने मुझसे अपना विचार प्रकट किया था। इसी तरह अन्य सब लोकपालोंने भी अपनी-अपनी सम्मति दी है।देवता, असुर और गन्धर्व – सबने कौतूहलवश आपके पुत्रोंके मुखसे रामायणका गान सुना है। सुनकर सभी प्रसन्न हो हुए हैं। उन्होंने आपके पुत्रोंकी बड़ी प्रशंसा की है। उन दोनों बालकोंने अपने रूप, गान, अवस्था और गुणोंके द्वारा तीनों लोकोंको मोह लिया है। लोकपालाने आशीर्वादरूपसे जो कुछ दिया उसे आपके पुत्रोंने स्वीकार किया। उन्होंने ऋषियों तथा 1 अन्य लोकोंसे भी बढ़कर कीर्ति पायी है। पुण्यश्लोक (पवित्र यशवाले) पुरुषोंके शिरोमणि श्रीरघुनाथजी! आप त्रिलोकीनाथ होकर भी इस समय गृहस्थ धर्मकी तीता कर रहे हैं; अतः विद्या, शील एवं सद्गुणोंसे विभूषित अपने दोनों पुत्रोंको उनकी मातासहित ग्रहण कीजिये। सीताने ही आपकी मरी हुई सेनाको जिलाकर उसे प्राण दान दिया है-इससे सब लोगोंको उनकी शुद्धिका विश्वास हो गया है [ यह लोगोंकी प्रतीतिके लिये प्रत्यक्ष प्रमाण है] यह प्रसंग पतित पुरुषोंको भी पावन बनानेवाला है। मानद! सीताकी शुद्धिके विषय में न तो आपसे कोई बात छिपी है. न हमलोगोंसे और न देवताओंसे ही। केवल साधारण लोगोंको कुछ भ्रम हो गया था, किन्तु उपर्युक्त घटनासे वह भी अवश्य दूर हो गया।
शेषजी कहते हैं- मुने! भगवान् श्रीराम यद्यपि सर्वज्ञ हैं, तो भी जब वाल्मीकिजीने उन्हें इस प्रकार समझाया, तो वे उनकी स्तुति और नमस्कार करके लक्ष्मणसे बोले-‘तात! तुम सुमित्रसहित रथपर बैठकर धर्मचारिणी सीताको पुत्रोंसहित ले आनेके लिये अभी जाओ। वहाँ मेरे तथा मुनिके इन वचनोंको सुनाना और सीताको समझा-बुझाकर शीघ्र ही अयोध्यापुरीमें ले आना।’ लक्ष्मणने कहा प्रभो। मैं अभी जाऊँगा, यदि आप सब लोगोंका प्रिय संदेश सुनकर महारानी सीताजी यहाँ पधारेंगी तो समझेंगा, मेरी यात्रा सफल हो गयी। श्रीरामचन्द्रजीसे ऐसा कहकर लक्ष्मण उनकी आज्ञासे रथपर बैठे और मुनिके एक शिष्य तथा सुमित्रको साथ लेकर आश्रमको गये। रास्तेमें यह सोचते जाते थे कि ‘भगवती सीताको किस प्रकार प्रसन्न करनाशाहिये?’ ऐसा विचार करनेसे उनके हृदयमें कभी हर्ष होता था और कभी संकोच। वे दोनों भावोंके बीचकी स्थिति में थे। इसी अवस्थामें सीताके आश्रमपर पहुँचे, जो उनके श्रमको दूर करनेवाला था। वहाँ लक्ष्मण रथसे उतरकर सीताके समीप गये और आँखोंमें आँसू “भरकर आयें पूजनीये!! भगवति !! कल्याणमयी!’ इत्यादि सम्बोधनोंका बारम्बार उच्चारण करते हुए उनके चरणोंमें गिर पड़े। भगवती सीताने वात्सल्य प्रेमसे विह्वल होकर लक्ष्मणको उठाया और इस प्रकार पूछा—’सौम्य ! मुनिजनोंको ही प्रिय लगनेवाले इस वनमें तुम कैसे आये ? बताओ, माता कौसल्याके गर्भरूपी शुक्तिसे जो मौक्तिकके समान प्रकट हुए हैं, वे मेरे आराध्यदेव श्रीरघुनाथजी तो कुशलसे हैं न? देवर! उन्होंने अकीर्तिसे डरकर तुम्हें मेरे परित्यागका कार्य सौंपा था। यदि इससे भी संसारमें उनकी निर्मल ‘कीर्तिका विस्तार हो सके तो मुझे संतोष ही होगा। मैं ने अपने प्राण देकर भी पतिदेवके सुयशको स्थिर रखना चाहती हूँ। उन्होंने मुझे त्याग दिया है तो भी मैंने उनका थोड़ी देरके लिये भी कभी त्याग नहीं किया है [निरन्तर उन्होंका चिन्तन करती रहती हूँ। मेरे ऊपर सदा कृपा रखनेवाली माता कौसल्याको तो कोई कष्ट नहीं है? वे कुशलसे हैं न? भरत आदि भाई भी तो सकुशल हैं न? तथा महाभागा सुमित्रा, जो मुझे अपने प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय मानती हैं, कैसी हैं? उनकी कुशल बताओ।’
इस प्रकार सीताने जब बारम्बार सबकी कुशल पूछी तो लक्ष्मणने कहा- ‘देवि! महाराज कुशलसे हैं और आपकी भी कुशलता पूछ रहे हैं। माता कौसल्या, सुमित्रा तथा राजभवनकी अन्य सभी देवियोंने प्रेमपूर्वक आशीर्वाद देते हुए आपकी कुशल पूछी है। भरत और शत्रुघ्नने कुशल प्रश्नके साथ ही आपके श्रीचरणों में प्रणाम कहलाया है, जिसे मैं सेवामें निवेदन करता है। गुरुओं तथा समस्त गुरुपत्नियोंने भी आशीर्वाद दिया है, साथ ही कुशल-मंगल भी पूछा है। महाराज श्रीराम आपको बुला रहे हैं। हमारे स्वामीने कुछ रोते-रोते आपके प्रति जो सन्देश दिया है, उसे सुनिये। वक्ताकेहृदयमें जो बात रहती है, वह उसकी वाणीमें निस्सन्देह व्यक्त हो जाती है [ओरघुनाथजीने कहा है-] ‘सतीशिरोमणि सीते। लोग मुझे ही सबके ईश्वरका भी ईश्वर कहते हैं; किन्तु मैं कहता हूँ, जगत्में जो कुछ हो रहा है, इसका स्वतन्त्र कारण अदृष्ट (प्रारब्ध) ही है। जो सबका ईश्वर है, वह भी प्रत्येक कार्यमें अदृष्टका ही अनुसरण करता है। मेरे धनुष तोड़ने में, कैकेयीकी बुद्धि भ्रष्ट होनेमें, पिताकी मृत्युमें, मेरे वन जानेमें, वहाँ तुम्हारा हरण होनेमें, समुद्रके पार जानेमें, राक्षसराज रावणके मारनेमें, प्रत्येक युद्धके अवसरपर वानर, भालू और राक्षसोंकी सहायता मिलनेमें तुम्हारी प्राप्तिमें, मेरी प्रतिज्ञाके पूर्ण होनेमें, पुनः अपने बन्धुओंके साथ संयोग होनेमें, राज्यकी प्राप्तिमें तथा फिर मुझसे मेरी प्रियाका वियोग होनेमें एकमात्र अदृष्ट ही अनिवार्य कारण है। देवि! आज वही अदृष्ट फिर हम दोनों का संयोग करानेके लिये प्रसन्न हो रहा है। ज्ञानीलोग भी अदृष्टका ही अनुसरण करते हैं। उस अदृष्टका भोगसे ही क्षय होता है; अतः तुमने वनमें रहकर उसका भोग पूरा कर लिया है। सीते! तुम्हारे प्रति जो मेरा अकृत्रिम स्नेह है, वह निरन्तर बढ़ता रहता है, आज वही स्नेह निन्दा करनेवाले लोगोंकी उपेक्षा करके तुम्हें आदरपूर्वक बुला रहा है। दोषकी आशंका मात्रसे भी स्नेहकी निर्मलता नष्ट हो जाती है; इसलिये विद्वानोंको [दोषके मार्जनद्वारा] स्नेहको शुद्ध करके ही उसका आस्वादन करना चाहिये। कल्याणी ! [ तुम्हें वनमें भेजकर] मैंने तुम्हारे प्रति अपने स्नेहकी शुद्धि ही की है; अत: तुम्हें इस विषय में कुछ अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये [मैंने तुम्हारा त्याग किया है-ऐसा नहीं मानना चाहिये] शिष्ट पुरुषोंके मार्गका अनुसरण करके मैंने निन्दा करनेवाले लोगोंकी भी रक्षा ही की है। देवि! हम दोनोंकी जो निन्दा की गयी है. इससे हमारी तो प्रत्येक अवस्थामें शुद्धि ही होगी किन्तु ये मूर्खलोग जो महापुरुषोंके चरित्रको लेकर निन्दा करते हैं; इससे वे स्वयं ही नष्ट हो जायेंगे हम दोनोंकी कीर्ति उज्वल है, हम दोनोंका स्नेह रस उज्ज्वल है, हमलोगोंके वंशउज्ज्वल हैं तथा हमारे सम्पूर्ण कर्म भी उज्ज्वल हैं। इस पृथ्वीपर जो हम दोनोंकी कीर्तिका गान करनेवाले पुरुष हैं, वे भी उज्ज्वल रहेंगे। जो हम दोनोंके प्रति भक्ति रखते हैं, वे संसार सागरसे पार हो जायेंगे।’ इस प्रकार आपके गुणोंसे प्रसन्न होकर श्रीरघुनाथजीने यह संदेश दिया है; अतः अब आप अपने पतिदेवके चरणकमलोंका दर्शन करनेके लिये अपने मनको उनके प्रति सदय बनाइये महारानी आपके दोनों कुमार हाथीपर बैठकर आगे-आगे चलें, आप शिविकामें आरूढ़ होकर मध्यमें रहे और मैं आपके पीछे-पीछे चलूँ इस तरह आप अपनी पुरी अयोध्या में पधारें। वहाँ चलकर जब आप अपने प्रियतम श्रीरामसे मिलेंगी, उस समय यज्ञशालामें सब ओरसे आयी हुई सम्पूर्ण राज महिलाओंको, समस्त ऋषि पत्नियोंको तथा माता कौसल्याको भी बड़ा आनन्द होगा। नाना प्रकारके बाजे बजेंगे, मंगलगान होंगे तथा अन्य ऐसे ही समारोहोंके द्वारा आज आपके शुभागमनका महान् उत्सव मनाया जायगा।’
शेषजी कहते हैं—मुने! यह सन्देश सुनकर महारानी सीताने कहा- ‘लक्ष्मण में धर्म, अर्थ और कामसे शून्य हूँ। भला मेरे द्वारा महाराजका कौन-सा कार्य सिद्ध होगा? पाणिग्रहणके समय जो उनका मनोहर रूप मेरे हृदयमें बस गया, वह कभी अलग नहीं होता। ये दोनों कुमार उन्हींके तेजसे प्रकट हुए हैं। ये वंशके अंकुर और महान् वीर हैं। इन्होंने धनुर्विद्यामें विशिष्ट योग्यता प्राप्त की है। इन्हें पिता के समीप ले जाकर बलपूर्वक इनका लालन-पालन करना। मैं तो अब यहीं रहकर तपस्याके द्वारा अपनी इच्छाके अनुसार श्रीरघुनाथजीकी आराधना करूँगी। महाभाग ! तुम वहाँ जाकर सभी पूज्यजनोंके चरणोंमें मेरा प्रणाम कहना और सबसे कुशल बताकर मेरी ओरसे भी सबकी कुशल पूछना।’
इसके बाद सीताने अपने दोनों बालकोंको आदेश दिया – ‘पुत्रो अब तुम अपने पिताके पास जाओ। उनकी सेवा-शुश्रूषा करना। वे तुम दोनोंको अपना पदप्रदान करेंगे।’ कुमार कुश और लव नहीं चाहते थे कि हम माताके चरणोंसे अलग हों; फिर भी उनकी आज्ञा मानकर वे लक्ष्मणके साथ गये। वहाँ पहुँचनेपर भी वे वाल्मीकिजीके ही चरणोंके निकट गये। लक्ष्मणने भी बालकोंके साथ जाकर पहले महर्षिको ही प्रणाम किया। फिर वाल्मीकि, लक्ष्मण तथा वे दोनों कुमार सब एक साथ मिलकर चले और श्रीरामचन्द्रजीको सभामें स्थित जान उनके दर्शनके लिये उत्कण्ठित हो वहीं गये। लक्ष्मणने श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें प्रणाम करके सीताके साथ जो कुछ बातचीत हुई थी, वह सब उनसे कह सुनायी। उस समय परम बुद्धिमान् लक्ष्मण हर्ष और शोक दोनों भावोंमें मग्न हो रहे थे।
श्रीरामचन्द्रजीने कहा- सखे एक बार फिर वहाँ जाओ और महान् प्रयत्न करके सीताको शीघ्र यहाँ ले आओ। तुम्हारा कल्याण हो। मेरी ये बातें जानकीसे कहना’ देवि! क्या वनमें तपस्या करके तुमने मेरे सिवा कोई दूसरी गति प्राप्त करनेका विचार किया है? अथवा मेरे अतिरिक्त और कोई गति सुनी या देखी है जो मेरे बुलानेपर भी नहीं आ रही हो? तुम अपनी हीइच्छाके कारण यहाँसे मुनियोंको प्रिय लगनेवाले वनमें गयी थीं। वहाँ तुमने मुनिपत्नियोंका पूजन किया और मुनियोंके भी दर्शन किये; अब तो तुम्हारी इच्छा पूरी हुई। अब क्यों नहीं आतीं ? जानकी स्त्री कहीं भी क्यों न जाय, पति ही उसके लिये एकमात्र गति है। वह गुणहीन होनेपर भी पत्नीके लिये गुणोंका सागर है। फिर यदि वह मनके अनुकूल हुआ तब तो उसकी मान्यताके विषयमें कहना ही क्या है। उत्तम कुलकी स्त्रियाँ जो जो कार्य करती हैं, वह सब पतिको सन्तुष्ट करनेके लिये ही होता है। परन्तु मैं तो तुमपर पहलेसे ही विशेष सन्तुष्ट हूँ और इस समय वह सन्तोष और भी बढ़ गया है। त्याग, जप, तप, दान, व्रत, तीर्थ और दया आदि सभी साधन मेरे प्रसन्न होनेपर ही सफल होते हैं मेरे सन्तुष्ट होनेपर सम्पूर्ण देवता सन्तुष्ट हो जाते हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।’
लक्ष्मणने कहा- भगवन्! सीताको ले आनेके उद्देश्यसे प्रसन्न होकर आपने जो जो बातें कही हैं, वह सब मैं उन्हें विनयपूर्वक सुनाऊँगा।
ऐसा कहकर लक्ष्मणने श्रीरघुनाथजीके चरणों में प्रणाम किया और अत्यन्त वेगशाली रथपर सवार हो वे तुरंत सीताके आश्रमपर चल दिये। तदनन्तर वाल्मीकिजीने श्रीरामचन्द्रजीके दोनों पुत्रोंकी ओर, जो परम शोभायमान और अत्यन्त तेजस्वी थे, देखा तथा किंचित् मुसकराकर कहा- ‘वत्स! तुम दोनों वीणा बजाते हुए मधुर स्वरसे श्रीरामचन्द्रजीके अद्भुत चरित्रका गान करो।’ महर्षिके इस प्रकार आज्ञा देनेपर उन बड़भागी बालकोंने महान् पुण्यदायक श्रीरामचरित्रका गान किया, जो सुन्दर वाक्यों और उत्तम पदोंमें चित्रित हुआ था, जिसमें धर्मकी साक्षात् विधि, पातिव्रत्यके उपदेश महान् भ्रातृ-स्नेह तथा उत्तम गुरुभक्तिका वर्णन है। जहाँ स्वामी और सेवककी नीति मूर्तिमान् दिखायी देती है तथा जिसमें साक्षात् श्रीरघुनाथजीके हाथसे पापाचारियोंको दण्ड मिलनेका वर्णन है। बालकोंके उस गानसे सारा जगत् मुग्ध हो गया। स्वर्गके देवता भी विस्मयमें -पड़ गये किन्नर भी वह गान सुनकर मूच्छितहो गये। श्रीराम आदि सभी राजा नेत्रोंसे आनन्दके आँस बहाने लगे। वे गीतके पंचम स्वरका आलाप सुनकर ऐसे मोहित हुए कि हिल-डुल नहीं सकते थे; चित्र लिखित से जान पड़ते थे।
तत्पश्चात् महर्षि वाल्मीकिने कुश और लवसे कृपापूर्वक कहा- ‘वत्स! तुमलोग नीतिके विद्वानोंमें श्रेष्ठ हो, अपने पिताको पहचानो [ये श्रीरघुनाथजी तुम्हारे पिता हैं; इनके प्रति पुत्रोचित बर्ताव करो]। ‘ मुनिका यह वचन सुनकर दोनों बालक विनीतभावसे पिताके चरणोंमें लग गये। माताकी भक्तिके कारण उन दोनोंके हृदय अत्यन्त निर्मल हो गये थे। श्रीरामचन्द्रजीने अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने दोनों बालकोंको छातीसे लगा लिया। उस समय उन्होंने ऐसा माना कि मेरा धर्म ही इन दोनों पुत्रोंके रूपमें मूर्तिमान् होकर उपस्थित हुआ है। वात्स्यायनजी सभामें बैठे हुए लोगोंने भी श्रीरामचन्द्रजीके पुत्रोंका मनोहर मुख देखकर जानकीजीकी पतिभक्तिको सत्य माना।
शेषजीके मुखसे इतनी कथा सुनकर वात्स्यायनको सम्पूर्ण धर्मोसे युक्त रामायणके विषयमें कुछ सुननेकी इच्छा हुई: अतएव उन्होंने पूछा-‘स्वामिन् । महर्षिवाल्मीकिने इस रामायण नामक महान् काव्यकी रचना किस समय की, किस कारणसे की तथा इसके भीतर किन-किन बातोंका वर्णन है ?”
शेषजीने कहा- एक समयकी बात है वाल्मीकिजी महान बनके भीतर गये, जहाँ ताल, तमाल और खिले हुए पलाशके वृक्ष शोभा पा रहे थे। कोयलकी मीठी तान और भ्रमरोंकी गुंजारसे गूँजते रहनेके कारण वह वन्यप्रदेश सब ओरसे रमणीय जान पड़ता था। कितने ही मनोहर पक्षी वहाँ बसेरा ले रहे थे। महर्षि जहाँ खड़े थे, उसके पास ही दो सुन्दर क्रौंचपक्षी कामयाणसे पीड़ित हो रमण कर रहे थे। दोनों में परस्पर स्नेह था और दोनों एक-दूसरेके सम्पर्क में रहकर अत्यन्त हर्षका अनुभव करते थे। इसी समय एक व्याध वहाँ आया और उस निर्दयीने उन पक्षियोंमेंसे एकको जो बड़ा सुन्दर था, बाणसे मार गिराया। यह देख मुनिको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने सरिताका पावन जल हाथमें लेकर क्रौंचकी हत्या करनेवाले उस निषादको शाप दिया ओ निषाद तुझे कभी भी शाश्वत शान्ति नहीं मिलेगी क्योंकि तूने इन क्रौंच पक्षियोंमेंसे एककी, जो कामसे मोहित हो रहा था,[बिना किसी अपराधके] हत्या कर डाली है।” यह वाक्य छन्दोबद्ध श्लोकके रूपमें निकला; इसे सुनकर मुनिके शिष्योंने प्रसन्न होकर कहा- ‘स्वामिन्! आपने शाप देनेके लिये जिस वाक्यका प्रयोग किया है उसमें सरस्वती देवीने श्लोकका विस्तार किया है। मुनिश्रेष्ठ! यह वाक्य अत्यन्त मनोहर श्लोक बन गया हूँ।’ उस समय ब्रह्मर्षि वाल्मीकिजीके मनमें भी बड़ी प्रसन्नता हुई। उसी अवसरपर ब्रह्माजीने आकर वाल्मीकिजी से कहा- ‘मुनीश्वर ! तुम धन्य हो। आज सरस्वती तुम्हारे मुखमें स्थित होकर श्लोकरूपमें प्रकट हुई है। इसलिये अब तुम मधुर अक्षरोंमें सुन्दर रामायणकी रचना करो। मुखसे निकलनेवाली वही वाणी धन्य है, जो श्रीरामनामसे युक्त हो। इसके सिया, अन्य जितनी बातें हैं, सब कामको कथाएँ हैं, ये मनुष्योंके लिये केवल सूतक (अपवित्रता ) उत्पन्न करती हैं। अत: तुम श्रीरामचन्द्रजीके लोकप्रसिद्ध चरित्रको लेकर काव्य रचना करो, जिससे पद पदपर पापियोंके पापका निवारण होगा।’ इतना कहकर ब्रह्माजी सम्पूर्ण देवताओंके साथ अन्तर्धान हो गये।तदनन्तर एक दिन वाल्मीकिजी नदीके मनोहर तटपर ध्यान लगा रहे थे। उस समय उनके हृदयमें सुन्दर रूपधारी श्रीरामचन्द्रजी प्रकट हुए। नील पद्म दलके समान श्याम विग्रहवाले कमलनयन श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन पाकर मुनिने उनके भूत, वर्तमान और भविष्य – तीनों कालके चरित्रोंका साक्षात्कार किया। फिर तो उन्हें बड़ा आनन्द मिला और उन्होंने मनोहर पदों तथा नाना प्रकारके छन्दोंमें रामायणकी रचना की। उसमें अत्यन्त मनोरम छः काण्ड हैं— बाल, आरण्यक, किष्किन्धा, सुन्दर, युद्ध तथा उत्तर महामते। जो इन काण्डोंको सुनता है, वह मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। बालकाण्डमें – राजा दशरथने प्रसन्नतापूर्वक पुत्रेष्टि यज्ञ करके चार पुत्र प्राप्त किये, जो साक्षात् सनातन ब्रह्म श्रीहरिके अवतार थे। फिर श्रीराम चन्द्रजीका विश्वामित्रके यज्ञमें जाना, वहाँसे मिथिलामें जाकर सीतासे विवाह करना, मार्गमें परशुरामजी से मिलते हुए अयोध्यापुरीमें आना, वहाँ युवराजपदपर अभिषेक होने की तैयारी, फिरमाता कैकेयीके कहनेसे वनमें जाना, गंगापार करके चित्रकूट पर्वतपर पहुँचना तथा वहाँ सीता और लक्ष्मणके साथ निवास करना इत्यादि प्रसंगोंका वर्णन है। इसके अतिरिक्त न्यायके अनुसार चलनेवाले भरतने जब अपने भाई श्रीरामके वनमें जानेका समाचार सुना तो वे भी उन्हें लौटानेके लिये चित्रकूट पर्वतपर गये, किन्तु उन्हें जब न लौटा सके तो स्वयं भी उन्होंने अयोध्यासे बाहर नन्दिग्राममें वास किया। ये सब बातें भी बालकाण्डके ही अन्तर्गत हैं। इसके बाद आरण्यककाण्डमें आये हुए विषयोंका वर्णन सुनिये। सीता और लक्ष्मणसहित श्रीरामका भिन्न भिन्न मुनियोंके आश्रमोंमें निवास करना, वहाँ-वहाँके स्थान आदिका वर्णन, शूर्पणखाकी नाकका काटा जाना, खर और दूषणका विनाश, मायामय मृगके रूपमें आये हुए मारीचका मारा जाना, राक्षस रावणके द्वारा राम- पत्नी सीताका हरण, श्रीरामका विरहाकुल होकर वनमें भटकना और मानवोचित लीलाएँ करना, फिर कबन्धसे भेंट होना, पम्पासरोवरपर जाना और श्रीहनुमान्जीसे मिलाप होना—ये सभी कथाएँ आरण्यककाण्डके नामसे प्रसिद्ध हैं। तदनन्तर श्रीरामद्वारा सप्त ताल-वृक्षोंका भेदन, बालिका अद्भुत वध, सुग्रीवको राज्यदान, लक्ष्मणके द्वारा सुग्रीवको कर्तव्य पालनका सन्देश देना, सुग्रीवका नगरसे निकलना, सैन्यसंग्रह, सीताकी खोजके लिये वानरोंका भेजा जाना। वानरोंकी सम्पातीसे भेंट, हनुमान्जीके द्वारासमुद्र-लंघन और दूसरे तटपर उनका सब प्रसंग किष्किन्धाकाण्डके अन्तर्गत हैं। यह काण्ड अद्भुत है। अब सुन्दरकाण्डका वर्णन सुनिये, जहाँ श्रीरामचन्द्रजीकी अद्भुत कथाका उल्लेख है। हनुमान्जीका सीताकी खोजके लिये लंकाके प्रत्येक घरमें घूमना तथा वहाँके विचित्र-विचित्र दृश्योंका देखना, फिर सीताका दर्शन, उनके साथ बातचीत तथा वनका विध्वंस, कुपित हुए राक्षसोंके द्वारा हनुमान्जीका बन्धन, हनुमान्जीके द्वारा लंकाका दाह, फिर समुद्रके इस पार आकर उनका वानरोंसे मिलना। श्रीरामचन्द्रजीको सीताकी दी हुई पहचान अर्पण करना, सेनाका लंकाके लिये प्रस्थान, समुद्रमें पुल बाँधना तथा सेनामें शुक और सारणका आना- ये सब विषय सुन्दरकाण्डमें हैं। इस प्रकार सुन्दरकाण्डका परिचय दिया गया। युद्धकाण्डमें युद्ध और सीताकी प्राप्तिका वर्णन है। उत्तरकाण्डमें श्रीरामका ऋषियोंके साथ संवाद तथा यज्ञका आरम्भ आदि है। उसमें श्रीरामचन्द्रजीकी अनेकों कथाओंका वर्णन है, जो श्रोताओंके पापको नाश करनेवाली हैं। इस प्रकार मैंने छः काण्डोंका वर्णन किया। ये ब्रह्महत्याके पापको भी दूर करनेवाले हैं। उनकी कथाएँ बड़ी मनोहर हैं। मैंने यहाँ संक्षेपसे ही इनका परिचय दिया है। जो छः काण्डोंसे चिह्नित और चौबीस हजार श्लोकोंसे युक्त है, उसी वाल्मीकिनिर्मित ग्रन्थको रामायण नाम दिया गया है।
अध्याय 131 सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
शेषजी कहते हैं—मुने! तदनन्तर लक्ष्मणने आकर पुनः जानकीके चरणोंमें प्रणाम किया। विनयशील लक्ष्मणको आया देख पुनः अपने बुलाये जानेकी बात सुनकर सीताने कहा-‘सुमित्रानन्दन ! मुझे श्रीरामचन्द्रजीने महान् वनमें त्याग दिया है, अतः अब मैं कैसे चल सकती हूँ? यहाँ महर्षि वाल्मीकिके आश्रमपर रहूंगी और निरन्तर श्रीरामका स्मरण किया करूँगी। उनकी बात सुनकर लक्ष्मणने कहा’माताजी! आप पतिव्रता हैं, श्रीरघुनाथजी बारम्बार आपको बुला रहे हैं। पतिव्रता स्त्री अपने पतिके अपराधको मनमें नहीं लाती; इसलिये इस उत्तम रथपर बैठिये और मेरे साथ चलनेकी कृपा कीजिये।’ पतिको ही देवता माननेवाली जानकीने लक्ष्मणकी ये सब बातें सुनकर आश्रमकी सम्पूर्ण तपस्विनी स्त्रियों तथा वेदवेत्ता मुनियोंको प्रणाम किया और मन-ही-मन श्रीरामका स्मरण करती हुई वे रथपर बैठकर अयोध्यापुरीकी ओरचलीं। उस समय उन्होंने बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण धारण किये थे। क्रमशः नगरीमें पहुँचकर वे सरयू नदी के तटपर गर्यो, जहाँ स्वयं श्रीरघुनाथजी विराजमान थे। पातिव्रत्य में तत्पर रहनेवाली सुन्दरी सीता वहाँ जाकर रथसे उतर गर्यो और लक्ष्मणके साथ श्रीरामचन्द्रजीके समीप पहुँचकर उनके चरणोंमें लग गयीं।
प्रेमविडला जानकीको आयी देख श्रीरामचन्द्रजी बोले- ‘साध्वि ! इस समय तुम्हारे साथ मैं यज्ञकी समाप्ति करूँगा।”
तत्पश्चात् सीता महर्षि वाल्मीकि तथा अन्यान्य ब्रह्मर्षियोंको नमस्कार करके माताओंके चरणोंमें प्रणाम करनेके लिये उत्कण्ठापूर्वक उनके पास गयीं वीर पुत्रोंको जन्म देनेवाली अपनी प्यारी बहू जानकीको आती देख कौसल्याको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने सीताको बहुत आशीर्वाद दिया। कैकेयीने भी विदेहनन्दिनीको अपने चरणोंमें प्रणाम करती देखकर आशीर्वाद देते हुए कहा- ‘बेटी! तुम अपने पति और पुत्रोंके साथ ‘चिरकालतक जीवित रहो।’ इसी प्रकार सुमित्राने भी पुत्रवती जानकीको अपने पैरपर पड़ी देख उत्तमआशीर्वाद प्रदान किया। श्रीरामचन्द्रजीकी प्यारी पत्नी सती-साध्वी सीता सबको प्रणाम करके बहुत प्रसन्न हुई श्रीरघुनाथजीकी धर्मपत्नीको उपस्थित देख महर्षि कुम्भजने सोनेकी सीताको हटा दिया और उसकी जगह उन्होंको बिठाया। उस समय यज्ञमण्डपमें सीताके साथ बैठे हुए श्रीरामचन्द्रजीकी बड़ी शोभा हुई। फिर उत्तम समय आनेपर श्रीरघुनाथजीने यज्ञका कार्य आरम्भ किया। उन्होंने उत्तम बुद्धिवाले वसिष्ठसे पूछा- ‘स्वामिन्! अब इस श्रेष्ठ यज्ञमें कौन-सा आवश्यक कर्तव्य बाकी रह गया है?” रामकी बात सुनकर महाबुद्धिमान् गुरुदेवने कहा- ‘अब आपको ब्राह्मणोंकी सन्तोषजनक पूजा करनी चाहिये। वह सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने महर्षि कुम्भजको पूज्य मानकर सबसे पहले उन्हींका पूजन किया। रत्न और सुवर्णोंके अनेकों भार, मनुष्यों से भरे हुए कई देश तथा अत्यन्त प्रीतिदायक वस्तुएँ दक्षिणा देकर उन्होंने पत्नीसहित अगस्त्य मुनिका सत्कार किया। फिर उत्तम रत्न आदिके द्वारा पत्नीसहित महर्षि च्यवनका पूजन किया। इसी प्रकार अन्यान्य महर्षियों तथा सम्पूर्ण तपस्वी ऋत्विजोंकाभी उन्होंने अनेकों भार सुवर्ण और रत्न आदिके द्वारा सत्कार किया। उस यज्ञमें श्रीरामने ब्राह्मणोंको बहुत दक्षिणा दी। दोनों अंधों और दुःखियाँको भी नाना प्रकारके दान दिये। विचित्र-विचित्र वस्त्र तथा मधुर भोजन वितीर्ण किये भगवान्ने शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार ऐसा दान किया, जो सबको सन्तोष देनेवाला था उन्हें सबको दान देते देख महर्षि कुम्भजको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने अश्वको नहलानेके निमित्त अमृतके समान जल मँगानेके लिये चौंसठ राजाओंको उनकी रानियोंसहित बुलाया। श्रीरामचन्द्रजी सब प्रकारके अलंकारोंसे सुशोभित सीताजी के साथ सोनेके घड़ेमें जल से आनेके लिये गये उनके पीछे माण्डवीके साथ भरत, उर्मिलाके साथ लक्ष्मण, श्रुतिकीर्तिके साथ शत्रुघ्न, कान्तिमतीके साथ पुष्कल, कोमलाके साथ लक्ष्मीनिधि, महामूर्तिके साथ विभीषण, सुमनोहारीके साथ सुरथ तथा मोहनाके साथ सुग्रीव भी चले। इसी प्रकार और कई राजाओंको वसिष्ठ ऋषिने भेजा। उन्होंने स्वयं भी शीतल एवं पवित्र जलसे भरी हुई सरयूमें जाकर वेदमन्त्रके द्वारा उसके जलको अभिमन्त्रित किया। वे बोले-‘हे जल तुम सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षा करनेवाले श्रीरामचन्द्रजीके यज्ञके लिये निश्चित किये हुए इस अश्वको पवित्र करो।”
मुनिके अभिमन्त्रित किये हुए उस जलको राम आदि सभी राजा ब्राह्मणोंद्वारा सुसंस्कृत यज्ञ मण्डपमें ले आये उस निर्मल जलसे दूधके समान स्वेत अश्वको नहलाकर महर्षि कुम्भवने मन्त्रद्वारा रामके हाथसे उसे अभिमन्त्रित कराया। श्रीरामचन्द्रजी अश्वको लक्ष्य करके बोले – ‘महावाह ! ब्राह्मणोंसे भरे हुए इस यज्ञ मण्डपमें तुम मुझे पवित्र करो’ ऐसा कहकर श्रीरामने सीताके साथ उस अश्वका स्पर्श किया। उस समय सम्पूर्ण ब्राह्मणोंको कौतूहलवश यह बड़ी विचित्र बात मालूम पड़ी। वे आपसमें कहने लगे-‘अहो ! जिनके नामका स्मरण करनेसे मनुष्य बड़े-बड़े पापोंसे छुटकारा पा जाते हैं, वे ही श्रीरामचन्द्रजी यह क्या कह रहे हैं [ क्या अश्व इन्हें पवित्र करेगा ?] ।’ यज्ञ मण्डपमेंश्रीरामके हाथका स्पर्श होते ही उस अश्वने पशु शरीरका परित्याग करके तुरंत दिव्यरूप धारण कर लिया। घोड़ेका शरीर छोड़कर दिव्यरूपधारी मनुष्यके रूपमें प्रकट हुए उस अश्वको देखकर यज्ञमें आये हुए सब लोगोंको बड़ा विस्मय हुआ । यद्यपि श्रीरामचन्द्रजी स्वयं सब कुछ जानते थे, तो भी सब लोगोंको इस रहस्यका ज्ञान करानेके लिये उन्होंने पूछा- ‘दिव्य शरीर धारण करनेवाले पुरुष! तुम कौन हो? अश्व योनिमें क्यों पड़े थे तथा इस समय क्या करना चाहते हो? ये सब बातें बताओ।’
रामकी बात सुनकर दिव्यरूपधारी पुरुषने कहा ‘भगवन्! आप बाहर और भीतर सर्वत्र व्याप्त हैं; अतः आपसे कोई बात छिपी नहीं है। फिर भी यदि पूछ रहे हैं तो मैं आपसे सब कुछ ठीक-ठीक बता रहा हूँ। पूर्वजन्ममें मैं एक परम धर्मात्मा ब्राह्मण था, किन्तु मुझसे एक अपराध हो गया। महाबाहो ! एक दिन मैं पापहारिणी सरयूके तटपर गया और वहाँ स्नान, पितरोंका तर्पण तथा विधिपूर्वक दान करके वेदोक रीतिसे आपका ध्यान करने लगा। महाराज! उस समय मेरे पासबहुत-से मनुष्य आये और उन सबको ठगनेके लिये मैंने कई प्रकारका दम्भ प्रकट किया। इसी समय महातेजस्वी महर्षि दुर्वासा अपनी इच्छाके अनुसार पृथ्वीपर विचरते हुए वहाँ आये और सामने खड़े होकर मुझ दम्भीको देखने लगे। मैंने मौन धारण कर रखा था; न तो उठकर उन्हें अर्घ्य दिया और न उनके कोई स्वागतपूर्ण वचन ही मुँहसे निकाला। मैं उन्मत्त हो रहा था। महामति दुर्वासाका स्वभाव तो यों ही तीक्ष्ण है, मुझे दम्भ करते देख वे और भी प्रचण्ड क्रोधके वशीभूत हो गये तथा शाप देते हुए बोले ‘तापसाधम ! यदि तू सरयूके तटपर ऐसा घोर दम्भ कर रहा है तो पशु-योनिको प्राप्त हो जा।’ मुनिके दिये हुए शापको सुनकर मुझे बड़ा दुःख हुआ और मैंने उनके चरण पकड़ लिये। रघुनन्दन। तब मुनिने मुझपर महान् अनुग्रह किया। वे बोले – ‘तापस। तू श्रीरामचन्द्रजीके अश्वमेध यज्ञका अश्व बनेगा; फिर भगवान् के हाथका स्पर्श होनेसे तू दम्भहीन, दिव्य एवं मनोहर रूप धारण कर परमपदको प्राप्त हो जायगा।’ महर्षिका दिया हुआ यह शाप भी मेरे लिये अनुग्रह बन गया। राम ! अनेकों जन्मोंके पश्चात् देवता आदिके लिये भी जिसकी प्राप्ति होनी कठिन है, वही आपकी अंगुलियोंका अत्यन्त दुर्लभ स्पर्श आज मुझे प्राप्त हुआ है। महाराज ! अब आज्ञा दीजिये, मैं आपकी कृपासे महत् पदको प्राप्त हो रहा हूँ। जहाँ न शोक हैं, न जरा; न मृत्यु है, न कालका विलास-उस स्थानको जाता हूँ। राजन् ! यह सब आपका ही प्रसाद है।’ यह कहकर उसने श्रीरघुनाथजीको परिक्रमा की और श्रेष्ठ विमानपर बैठकर भगवान्के चरणोंकी कृपासे वह उनके सनातन धामको चला गया। उस दिव्य पुरुषकी बातें सुनकर अन्य साधारण लोगोंको भी श्रीरामचन्द्रजीकी महिमाका ज्ञान हुआ और ये सब-के-सब परस्पर आनन्दमग्न होकर बड़े विस्मयमें पढ़े। महाबुद्धिमान् वात्स्यायनजी सुनिये दम्भपूर्वक स्मरण करनेपर भी भगवान् श्रीहरि मोक्ष प्रदान करते हैं, फिर यदि दम्भ छोड़कर उनका भजन किया जाय तब तो कहना ही क्या है? जैसे भी हो, श्रीरामचन्द्रजीका निरन्तरस्मरण करना चाहिये; जिससे उस परमपदकी प्राप्ति होती है, जो देवता आदिके लिये भी दुर्लभ है। अश्वकी मुक्तिरूप विचित्र व्यापार देखकर मुनियोंने अपने को भी कृतार्थ समझा; क्योंकि वे स्वयं भी श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंके दर्शन और करस्पर्शसे पवित्र हो रहे थे। तदनन्तर मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजी जो सम्पूर्ण देवताओंका मनोभाव समझनेमें निपुण थे, बोले- ‘ रघुनन्दन ! आप देवताओंको कर्पूर भेंट कीजिये, जिससे वे स्वयं प्रत्यक्ष प्रकट होकर हविष्य ग्रहण करेंगे।’ यह सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने देवताओंकी प्रसन्नताके लिये शीघ्र ही बहुत सुन्दर कर्पूर अर्पण किया। इससे महर्षि वसिष्ठके हृदयमें बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने अद्भुतरूपधारी देवताओंका आवाहन किया। मुनिके आवाहन करनेपर एक ही क्षणमै सम्पूर्ण देवता अपने-अपने परिवारसहित वहाँ आ पहुँचे।
शेषजी कहते हैं- मुने। उस यज्ञमें दी जानेवाली हवि श्रीरामचन्द्रजीकी दृष्टि पड़नेसे अत्यन्त पवित्र हो गयी थी। देवताओंसहित इन्द्र उसका आस्वादन करने लगे, उन्हें तृप्ति नहीं होती थी- अधिकाधिक लेनेकी इच्छा बनी रहती थी। नारायण महादेव, ब्रह्मा, वरुण, कुबेर तथा अन्य लोकपाल सब-के-सब तृप्त हो अपना-अपना भाग लेकर अपने धामको चले गये। होताका कार्य करनेवाले जो प्रधान प्रधान ऋषि थे, उन सबको भगवान्ने चारों दिशाओंमें राज्य दिया तथा उन्होंने भी सन्तुष्ट होकर श्रीरघुनाथजीको उत्तम आशीर्वाद दिये। तत्पश्चात् वसिष्ठजीने पूर्णाहुति करके कहा ‘सौभाग्यवती स्त्रियाँ आकर यज्ञकी पूर्ति करनेवाले महाराजकी संवर्द्धना (अभ्युदय-कामना) करें।’ उनकी बात सुनकर स्त्रियाँ उठीं और बड़े-बड़े राजाओं द्वारा पूजित श्रीरामचन्द्रजीके ऊपर, जो अपने सौन्दर्यसे कामदेवको भी परास्त कर रहे थे, अत्यन्त हर्षके साथ लाजा (खील) की वर्षा करने लगीं। इसके बाद महर्षिने श्रीरामचन्द्रजीको अवभृथ (यज्ञान्त) स्नानके लिये प्रेरित किया। तब श्रीरघुनाथजी आत्मीयजनोंके साथ सरयूके उत्तम तटपर गये। उस समय जो लोगसीतापतिके मुखचन्द्रका अवलोकन करते, वे एकटक दृष्टिसे देखते ही रह जाते थे; उनकी आँखें स्थिर हो जाती थीं जिनके हृदय चिरन्तन कालसे भगवान्के दर्शनकी लालसा लगी हुई थी, वे लोग महाराज श्रीरामको सीताके साथ सरयूकी ओर जाते देखकर आनन्दमें मग्न हो गये। अनेकों नट और गन्धर्व उज्ज्वल यशका गान करते हुए सर्वलोक-नमस्कृत महाराजके पीछे-पीछे गये नदीका मार्ग झुंड के झुंड स्त्री-पुरुषोंसे भरा था। उसीसे चलकर वे शीतल एवं पवित्र जलसे परिपूर्ण सरयू नदीके समीप पहुँचे, वहाँ पहुँचकर कमलनयन श्रीरामने सीताके साथ सरयूके पावन जलमें प्रवेश किया। तत्पश्चात् भगवान् के चरणोंकी धूलिसे पवित्र हुए उस विश्ववन्दित जलमें सम्पूर्ण राजा तथा साधारण जन-समुदायके लोग भी उतरे। धर्मात्मा श्रीरामचन्द्रजी सरयूके पावन जलप्रवाहमें सीताके साथ चिरकालतक क्रीड़ा करके बाहर निकले। फिर उन्होंने धौत वस्त्र धारण किया, किरीट और कुण्डल पहने तथा केयूर और कंकणकी शोभाको भी अपनाया। इस प्रकार वस्त्र और आभूषणोंसे विभूषित होकर करोड़ों कन्दर्पोकी सुषमा धारण करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी अत्यन्त सुशोभित हुए। उस समय कितने ही राजे-महाराजे उनको स्तुति करने लगे। महामना श्रीरघुनाथजीने सरयूके पावन तटपर उत्तम वर्णसे सुशोभित वजयूपकी स्थापना करके अपनी भुजाओंके बलसे तीनों लोकोंकी अद्भुत सम्पत्ति प्राप्त की, जो दूसरे नरेशोंके लिये सर्वथा दुर्लभ है। इस तरह भगवान् श्रीरामने जनकनन्दिनी सीताके साथ तीनअश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान किया तथा त्रिभुवनमें अत्यन्त दुर्लभ और अनुपम कीर्ति प्राप्त की ।
वात्स्यायनजी! आपने जो श्रीरामचन्द्रजीकी उत्तम कथाके विषयमें प्रश्न किया था, उसका उपर्युक्त प्रकारसे वर्णन किया गया। अश्वमेध यज्ञका वृत्तान्त मैंने विस्तारके साथ कहा है; अब आप और क्या पूछना चाहते हैं? जो मनुष्य भगवान्के प्रति भक्ति रखते हुए श्रीरामचन्द्रजीके इस उत्तम यज्ञका श्रवण करता हैं, वह ब्रह्महत्या-जैसे पापको भी क्षणभरमें पार करके सनातन ब्रह्मको प्राप्त होता है। इस कथाके सुननेसे पुत्रहीन पुरुषको पुत्रोंकी प्राप्ति होती है, धनहीनको धन मिलता है, रोगी रोगसे और कैदमें पड़ा हुआ मनुष्य बन्धनसे छुटकारा पा जाता है। जिनकी कथा सुननेसे दुष्ट चाण्डाल भी परम पदको प्राप्त होता है, उन्हीं श्रीरामचन्द्रजीकी भक्तिमें यदि श्रेष्ठ ब्राह्मण प्रवृत्त हो तो उसके लिये क्या कहना ? महाभाग श्रीरामका स्मरण करके पापी भी उस परम पद या परम स्वर्गको प्राप्त होते हैं, जो इन्द्र आदि देवताओंके लिये भी दुर्लभ है । संसारमें वे ही मनुष्य धन्य हैं, जो श्रीरघुनाथजीका स्मरण करते हैं! वे लोग क्षणभरमें इस संसार-समुद्रको पार करके अक्षय सुखको प्राप्त होते हैं। इस अश्वमेधकी कथाको सुनकर वाचकको दो गौ प्रदान करे तथा वस्त्र, अलंकार और भोजन आदिके द्वारा उसका तथा उसकी पत्नीका सत्कार करे। यह कथा ब्रह्महत्याकी राशिका विनाश करनेवाली है। जो लोग इसका श्रवण करते हैं, वे देवदुर्लभ परम पदको प्राप्त होते हैं।
अध्याय 132 वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
ऋषियोंने कहा- सूतजी महाराज हमने आपके मुखसे रामाश्वमेधकी कथा अच्छी तरह सुन ली; अब परमात्मा श्रीकृष्णके माहात्म्यका वर्णन कीजिये। सूतजी बोले- महर्षियो। जिनका हृदय भगवान् शंकरके प्रेममें दूना रहता है, वे पार्वती देवी एक दिनअपने पतिको प्रेमपूर्वक नमस्कार करके इस प्रकार बोलीं- ‘प्रभो! वृन्दावनका माहात्म्य अथवा अद्भुत रहस्य क्या है, उसे मैं सुनना चाहती हूँ?”
महादेवजीने कहा—देवि! मैं यह बता चुका हूँ कि वृन्दावन ही भगवान्का सबसे प्रियतम धाम है।वह गुह्यसे भी गुह्य, उत्तम-से-उत्तम और दुर्लभसे भी दुर्लभ है। तीनों लोकोंमें अत्यन्त गुप्तस्थान है। बड़े बड़े देवेश्वर भी उसकी पूजा करते हैं। ब्रह्मा आदि भी उसमें रहनेकी इच्छा करते हैं। वहाँ देवता और सिद्धोंका निवास है। योगीन्द्र और मुनीन्द्र आदि भी सदा उसके ध्यानमें तत्पर रहते हैं। श्रीवृन्दावन बहुत ही सुन्दर और पूर्णानन्दमय रसका आश्रय है। वहाँकी भूमि चिन्तामणि है और जल रससे भरा हुआ अमृत है। वहाँके पेड़ कल्पवृक्ष हैं, जिनके नीचे झुंड-की झुंड कामधेनु गौएँ निवास करती हैं वहाँकी प्रत्येक स्वी लक्ष्मी और हरेक पुरुष विष्णु हैं; क्योंकि वे लक्ष्मी और विष्णुके दशांशसे प्रकट हुए हैं। उस वृन्दावनमें सदा श्याम तेज विराजमान रहता है, जिसकी नित्य-निरन्तर किशोरावस्था (पंद्रह वर्षकी उम्र) बनी रहती है। वह आनन्दका मूर्तिमान् विग्रह है। उसमें संगीत, नृत्य और वार्तालाप आदिकी अद्भुत योग्यता है। उसके मुखपर सदा मन्द मुसकानकी छटा छायी रहती है। जिनका अन्तःकरण शुद्ध है, जो प्रेमसे परिपूर्ण हैं, ऐसे वैष्णवजन ही उस वनका आश्रय लेते हैं। वह वन पूर्ण ब्रह्मानन्दमें निमग्न है। वहाँ ब्रह्मकेही स्वरूपकी स्फुरणा होती है। वास्तवमें वह वन ब्रह्मानन्दमय ही है। वहाँ प्रतिदिन पूर्ण चन्द्रमाका उदय होता है। सूर्यदेव अपनी मन्द रश्मियोंके द्वारा उस वनकी सेवा करते हैं। वहाँ दुःखका नाम भी नहीं है। उसमें जाते ही सारे दुःखोंका नाश हो जाता है। वह जरा और मृत्युसे रहित स्थान है। वहाँ क्रोध और मत्सरताका प्रवेश नहीं है। भेद और अहंकारकी भी वहाँ पहुँच नहीं होती। वह पूर्ण आनन्दमय अमृत-र – रससे भरा हुआ अखण्ड प्रेमसुखका समुद्र है, तीनों गुणोंसे परे है और महान प्रेमधाम है वहाँ प्रेमकी पूर्णरूपसे अभिव्यक्ति हुई है। जिस वृन्दावनके वृक्ष आदिने भी पुलकित होकर प्रेमजनित आनन्दके आँसू बरसाये हैं; वहाँके चेतन वैष्णवोंकी स्थितिके सम्बन्धमें क्या कहा जा सकता है?
भगवान् श्रीकृष्णकी चरण-रजका स्पर्श होनेके कारण वृन्दावन इस भूतलपर नित्य धामके नामसे प्रसिद्ध है। वह सहस्रदल कमलका केन्द्रस्थान है। उसके स्पर्शमात्रसे यह पृथ्वी तीनों लोकोंमें धन्य समझी जाती है। भूमण्डलमें वृन्दावन गुझसे भी गुह्यतम, रमणीय, अविनाशी तथा परमानन्दसे परिपूर्ण स्थान है। वह गोविन्दका अक्षयधाम है। उसे भगवान्के स्वरूपसे भिन्न नहीं समझना चाहिये। वह अखण्ड ब्रह्मानन्दका आश्रय है। जहाँकी भूलिका स्पर्श होनेमात्र से मोक्ष हो जाता है, उस वृन्दावनके माहात्म्यका किस प्रकार वर्णन किया जा सकता है। इसलिये देवि! तुम सम्पूर्ण चित्तसे अपने हृदयके भीतर उस वृन्दावनका चिन्तन करो तथा उसकी विहारस्थलियोंमें किशोरविग्रह श्रीकृष्णचन्द्रका ध्यान करती रहो। पहले बता आये हैं कि वृन्दावन सहस्रदल-कमलका केन्द्रस्थान है। कलिन्द-कन्या यमुना उस कमल-कर्णिकाकी प्रदक्षिणा किया करती हैं। उनका जल अनायास ही मुक्ति प्रदान करनेवाला और गहरा है। यह अपनी सुगन्धसे मनुष्यों का मन मोह लेता है। उस जलमें आनन्ददायिनी सुधासे मिश्रित घनीभूत मकरन्द (रस) की प्रतिष्ठा है। पद्म और उत्पल आदि नाना प्रकारके पुष्पोंसे यमुनाका स्वच्छ सलिल अनेक रंगका दिखायी देता है। अपनी चंचल तरंगोंके कारणवह जल अत्यन्त मनोहर एवं रमणीय प्रतीत होता है। पार्वतीजीने पूछा- दयानिधे। भगवान् श्रीकृष्णका आश्चर्यमय सौन्दर्य और श्रीविग्रह कैसा है, मैं उसे सुनना चाहती हूँ कृपया बतलाइये।
महादेवजीने कहा- देवि! परम सुन्दर वृन्दावनके मध्यभागमें एक मनोहर भवनके भीतर अत्यन्त उज्ज्वल योगपीठ है। उसके ऊपर माणिक्यका बना हुआ सुन्दर सिंहासन है, सिंहासनके ऊपर अष्टदल कमल है, जिसकी कर्णिका अर्थात् मध्यभागमें सुखदायी आसन लगा हुआ है; वही भगवान् श्रीकृष्णका उत्तम स्थान है। उसकी महिमाका क्या वर्णन किया जाय? वहीं भगवान् गोविन्द विराजमान होते हैं। वैष्णववृन्द उनकी सेवामें लगा रहता है। भगवान्का व्रज, उनकी अवस्था और उनका रूपये सभी दिव्य हैं। श्रीकृष्ण ही वृन्दावनके अधीश्वर हैं, वे ही व्रजके राजा हैं। उनमें सदा षड्विध ऐश्वर्य विद्यमान रहते हैं वे व्रजको बालक-बालिकाओंके एकमात्र प्राण-वल्लभ हैं और किशोरावस्थाको पार करके यौवनमें पदार्पण कर रहे हैं। उनका शरीर अद्भुत है, वे सबके आदि कारण हैं, किन्तु उनका आदि कोई भी नहीं है। वे नन्दगोपके प्रिय पुत्ररूपसे प्रकट हुए हैं; परन्तु वास्तवमें अजन्मा एवं नित्य ब्रह्म हैं, जिन्हें वेदकी श्रुतियाँ सदा ही खोजती रहती हैं। उन्होंने गोपीजनोंका चित्रा चुरा लिया है। वे ही परमधाम हैं। उनका स्वरूप सबसे उत्कृष्ट है। उनका श्रीविग्रह दो भुजाओंसे सुशोभित है। वे गोकुलके अधिपति हैं। ऐसे गोपीनन्दन श्रीकृष्णका इस प्रकार ध्यान करना चाहिये भगवान्की कान्ति अत्यन्त सुन्दर और अवस्था नूतन है। वे बड़े स्वच्छ दिखायी देते हैं। उनके शरीरकी आभा श्याम रंगकी है, जिसके कारण उनकी झाँकी बड़ी मनोहर जान पड़ती है। उनका विग्रह नूतन मेघ मालाके समान अत्यन्त स्निग्ध है। वे कानोंमें मनोहर कुण्डल धारण किये हुए हैं। उनकी कान्ति खिले हुए नील कमलके समान जान पड़ती है। उनका स्पर्श सुखद है। वे सबको सुख पहुँचानेवाले हैं। वे अपनी साँवली छटासे मनको मोहे लेते हैं। उनके केश बहुत ही चिकने, करले और चराते हैं। उनसे सब प्रकारकी सुगन्ध निकलती रहती है। केशोंके ऊपर ललाटके दक्षिण भागमें श्याम रंगकी चूड़ाके कारण वे अत्यन्त मनोहर जान पड़ते हैं। नाना रंगके आभूषण धारण करनेसे उनकी दीप्ति बड़ी उज्ज्वल दिखायी देती है। सुन्दर मोरपंख उनके मस्तककी शोभा बढ़ाता है। उनकी सज-धज बड़ी सुन्दर है। ये कभी से मन्दारपुष्पोंसे सुशोभित गोपुच्छके आकारको बनी हुई चूड़ा (चोटी) धारण करते हैं, कभी मोरपंखके मुकुटसे अलंकृत होते हैं और कभी अनेकों मणि माणिक्योंके बने हुए सुन्दर किरीटोंसे विभूषित होते हैं। चंचल अलकावली उनके मस्तककी शोभा बढ़ाती है। उनका मनोहर मुख करोड़ चन्द्रमाओंके समान कान्तिमान् है। ललाटमें कस्तूरीका तिलक है, साथ ही सुन्दर गोरोचनकी बिंदी भी शोभा दे रही है। उनका शरीर इन्दीवरके समान स्निग्ध और नेत्र कमल-दलकी भाँति | विशाल हैं। वे कुछ-कुछ भौहें नचाते हुए मन्द मुसकानके साथ तिरछी चितवनसे देखा करते हैं। उनकी नासिकाका अग्रभाग रमणीय सौन्दर्यसे युक्त है, जिसके कारण वे अत्यन्त मनोहर जान पड़ते हैं। उन्होंने नासाग्रभागमें गजमोती धारण करके उसकी कान्तिसे त्रिभुवनका मन मोह लिया है। उनका नीचेका ओठ सिन्दूरके समान लाल और चिकना है, जिससे उनकी मनोहरता और भी बढ़ गयी है। वे अपने कानोंमें नाना प्रकारके वर्णोंसे सुशोभित सुवर्णनिर्मित मकराकृत कुण्डल पहने हुए हैं। उन कुण्डलोंकी किरण पड़नेसे उनका सुन्दर कपोल दर्पणके समान शोभा पा रहा है। वे कानोंमें पहने हुए कमल, मन्दारपुष्प और मकराकार कुण्डलसे विभूषित हैं। उनके वक्षःस्थलपर कौस्तुभमणि और श्रीवत्सचिह्न शोभा पा रहे हैं। गलेमें मोतियोंका हार चमक रहा है। उनके विभिन्न अंगोंमें दिव्य माणिक्य तथा मनोहर सुवर्गमिश्रित आभूषण सुशोभित है। हाथोंमें कड़े भुजाओंमें बाजूबन्द तथा कमरमें करधनी शोभा दे रही है सुन्दर मंजीरको सुषमासे चरणोंकी श्री बहुत बढ़ गयी है, जिससे भगवान्का श्रीविग्रह अत्यन्तशोभायमान दिखायी दे रहा है। श्रीअंगोंमें कर्पूर, अगुरु, कस्तूरी और चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्य शोभा पा रहे हैं। गोरोचन आदिसे मिश्रित दिव्य अंगरागोंद्वारा विचित्र पत्र- भंगी (रंग-बिरंगे चित्र ) आदिकी रचना की गयी है। कटिसे लेकर पैरोंके अग्रभागतक चिकने पीताम्बरसे शोभायमान है। भगवान्का नाभि कमल गम्भीर है, उसके नीचेकी रोमावलियोंतक माला लटक रही है। उनके दोनों घुटने सुन्दर गोलाकार हैं तथा कमलोंकी शोभा धारण करनेवाले चरण बड़े मनोहर जान पड़ते हैं। हाथ और पैरोंके तलुवे ध्वज, वज्र, अंकुश और कमलके चिनसे सुशोभित हैं तथा उनके ऊपर नखरूपी चन्द्रमाको किरणावलियोंका प्रकाश पड़ रहा है। सनक सनन्दन आदि योगीश्वर अपने हृदयमें भगवानके इसी स्वरूपको झाँकी करते हैं। उनकी त्रिभंगी छवि है। उनके श्री अंग इतने सुन्दर, इतने मनोहर हैं, मानो सृष्टिकी समस्त निर्माण सामग्रीका सार निकालकर बनाये गये हों। जिस समय वे गर्दन मोड़कर खड़े होते हैं, उस समय उनका सौन्दर्य इतना बढ़ जाता है कि उसके सामने अनन्तकोटि कामदेव लज्जित होने लगते हैं। बायें कंधेपर झुका हुआ उनका सुन्दर कपोल बड़ा भला मालूम होता है। उनके सुवर्णमय कुण्डल जगमगाते रहते हैं। वे तिरछी चितवन और मंद मुसकानसे सुशोभित होनेवाले करोड़ों कामदेवोंसे भी अधिक सुन्दर हैं सिकोड़े हुए ओठपर वंशी रखकर बजाते हैं और उसकी मीठी तानसे त्रिभुवनको मोहित करते हुए सबको प्रेम सुधाके समुद्र निमग्न कर रहे हैं। पार्वतीजीने कहा- देवदेवेश्वर आपके उपदेशसे
यह हुआ कि गोविन्द नामसे प्रसिद्ध भगवान् श्रीकृष्ण ही इस जगत्के परम कारण हैं। वे ही परमपद हैं, वृन्दावनके अधीश्वर हैं तथा नित्य परमात्माहैं। प्रभो! अब मैं यह सुनना चाहती हूँ कि श्रीकृष्णका गूढ रहस्य, माहात्म्य और सुन्दर ऐश्वर्य क्या है; आप उसका वर्णन कीजिये।
महादेवजीने कहा- देवि ! जिनके चन्द्र-तुल्य चरण- नखोंकी किरणोंके माहात्म्यका भी अन्त नहीं है, उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णकी महिमाके सम्बन्धमें मैं कुछ बातें बता रहा हूँ, तुम आनन्दपूर्वक श्रवण करो। सृष्टि, पालन और संहारकी शक्तिसे युक्त, जो ब्रह्मा आदि देवता हैं, वे सब श्रीकृष्णके ही वैभव हैं। उनके रूपका जो करोड़वाँ अंश है, उसके भी करोड़ अंश करनेपर एक-एक अंश कलासे असंख्य कामदेवौकी उत्पत्ति होती है, जो इस ब्रह्माण्डके भीतर व्याप्त होकर जगत्के जोवाँको मोहनें डालते रहते हैं। भगवान्के श्रीविग्रहकी शोभामयी कान्तिके कोटि-कोटि अंशसे चन्द्रमाका आविर्भाव हुआ है श्रीकृष्णके प्रकाशके करोड़वें अंशसे जो किरणें निकलती हैं, वे ही अनेकों सूर्यके रूपमें प्रकट होती हैं। उनके साक्षात् श्रीअंगसे जो रश्मियाँ प्रकट होती हैं, वे परमानन्दमय रसामृतसे परिपूर्ण हैं, परम आनन्द और परम चैतन्य ही उनका स्वरूप है। उन्हींसे इस विश्वके ज्योतिर्मय जीव जीवन धारण करते हैं, जो भगवान्के ही कोटि-कोटि अंश हैं। उनके युगल चरणारविन्दोंके नखरूपी चन्द्रकान्तमणिसे निकलनेवाली प्रभाको ही सबका कारण बताया गया है। वह कारण तत्व वेदोंके लिये भी दुर्गम्य है। विश्वको विमुग्ध करनेवाले जो नाना प्रकारके सौरभ (सुगन्ध) हैं, वे सब भगवद्विग्रहकी दिव्य सुगन्ध के अनन्तकोटि अंशमात्र हैं। भगवान्के स्पर्शसे ही पुष्पगन्ध आदि नाना सौरभोंका प्रादुर्भाव होता है। श्रीकृष्णकी प्रियतमा- उनकी प्राणवल्लभा श्रीराधा हैं, वे ही आद्या प्रकृति कही गयी है।
अध्याय 133 श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
पार्वती बोलीं- दयानिधे। श्रीकृष्णके जो पार्षद हैं, उनका वर्णन सुननेकी इच्छा हो रही है अतः बतलाइये।
भगवान् महादेवजीने कहा- देवि भगवान् श्रीकृष्ण श्रीराधाके साथ सुवर्णमय सिंहासनपर विराजमान हैं। उनका रूप और लावण्य वैसा ही है, जैसा कि पहले बताया गया है। वे दिव्य वस्त्र, दिव्य आभूषण और दिव्य हारसे विभूषित हैं। उनकी त्रिभंगी छवि बड़ी मनोहर जान पड़ती है। उनका स्वरूप अत्यन्त स्निग्ध है। वे गोपियोंकी आँखोंके तारे हैं। उपर्युक्त सिंहासनसे पृथक् एक योगपीठ है। वह भी सोनेके सिंहासनसे आवृत है। उसके ऊपर ललिता आदि प्रधान प्रधान सखियाँ, जो श्रीकृष्णको बहुत ही प्रिय हैं, विराजमान होती हैं। उनका प्रत्येक अंग भगवन्मिलनकी उत्कण्ठा तथा रसावेशसे युक्त होता है। ये ललिता आदि सखियाँ प्रकृतिकी अंशभूता हैं। श्रीराधिका हो इनकी मूलप्रकृति हैं। श्रीराधा और श्रीकृष्ण पश्चिमाभिमुख विराजमान हैं, उनकी पश्चिम दिशामें ललितादेवी विद्यमान हैं, वायव्यकोणमें श्यामला नामवाली सखी हैं। उत्तरमें श्रीमती धन्या हैं ईशानकोणमें श्रीहरिप्रियाजी विराज रही हैं। पूर्वमें विशाखा, अग्निकोणमें शैव्या, दक्षिणमें पद्मा तथा नैर्ऋत्यकोणमें भद्रा हैं। इसी क्रमसे ये आठों सखियाँ योगपीठपर विराजमान हैं। योगपीठकी कर्णिकामें परमसुन्दरी चन्द्रावलीकी स्थिति है वे भी श्रीकृष्णकी प्रिया है। उपर्युक्त आठ सखियाँ श्रीकृष्णको प्रिय लगनेवाली परमपवित्र आठ प्रधान प्रकृतियाँ हैं। वृन्दावनकी अधीश्वरी श्रीराधा तथा चन्द्रावली दोनों ही भगवान्की प्रियतमा हैं। इन दोनोंके आगे चलनेवाली हजारों गोपकन्याएँ हैं, जो गुण, लावण्य और सौन्दर्यमें एक समान हैं। उन सबके नेत्र विस्मयकारी गुणोंसे युक्त हैं। ये बड़ी मनोहर हैं। उनका वेष मनको मुग्ध कर लेनेवाला है। वे सभी किशोर अवस्था (पंद्रह वर्षकीउम्र) वाली हैं। उन सबकी कान्ति उज्ज्वल है। वे सब की सब श्याममय अमृतरसमें निमग्न रहती हैं। उनके हृदयमें श्रीकृष्णके ही भाव स्फुरित होते हैं। वे अपने कमलवत् क्षेत्रोंके द्वारा पूजित श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंमें अपना-अपना चित्त समर्पित कर चुकी हैं।
श्रीराधा और चन्द्रावलीके दक्षिण भागमें श्रुति कन्याएँ रहती हैं [वेदको बुतियाँ ही इन कन्याओंके रूपमें प्रकट हुई हैं] इनकी संख्या सहस्र अयुत (एक करोड़ है। इनकी मनोहर आकृति संसारको मोहित कर लेनेवाली है। इनके हृदयमें केवल श्रीकृष्णकी लालसा है। ये नाना प्रकारके मधुर स्वर और आलाप आदिके द्वारा त्रिभुवनको मुग्ध करनेकी शक्ति रखती हैं तथा प्रेमसे विह्वल होकर श्रीकृष्णके गूढ़ रहस्योंका गूढ़ गान किया करती हैं। इसी प्रकार श्रीराधा आदिके वामभागमें दिव्यवेषधारिणी देवकन्याएँ रहती हैं, जो रसातिरेकके कारण अत्यन्त उज्ज्वल प्रतीत होती हैं। वे भाँति भौतिकी प्रणयचातुरीमें निपुण तथा दिव्य – भावसे परिपूर्ण हैं। उनका सौन्दर्य चरम सीमाको पहुँचा हुआ है। वे कटाक्षपूर्ण चितवनके कारण अत्यन्त मनोहर जान पड़ती हैं। उनके मनमें श्रीकृष्ण के प्रति तनिक भी संकोच नहीं है; उनके अंगोंका स्पर्श प्राप्त करनेके लिये सदा उत्कण्ठित रहती हैं। उनका हृदय निरन्तर श्रीकृष्णके ही चिन्तनमें मग्न रहता है। वे भगवान्की और मंद-मंद मुसकाती हुई तिरछी चितवनसे निहारा करती हैं।
तदनन्तर मन्दिरके बाहर गोपगण स्थित होते हैं, वे भगवान्के प्रिय सखा हैं, उन सबके वेष, अवस्था, बल, पौरुष, गुण, कर्म तथा वस्त्राभूषण आदि एक समान हैं। वे एक समान स्वरसे गाते हुए वेणु बजाया करते हैं। मन्दिरके पश्चिम द्वारपर श्रीदामा, उत्तरमें वसुदामा, पूर्वमें सुदामा तथा दक्षिण द्वारपर किंकिणीका निवास है। उस स्थानसे पृथक् एक सुवर्णमय मन्दिरके भीतर सुवर्णवदीबनी हुई है। उसके ऊपर सोनेके आभूषणोंसे विभूषित सुवर्णपीठ है, जिसके ऊपर अंशुभद्र आदि हजारों ग्वालबाल विराजते हैं। वे सब-के-सब एक समान सींग, वीणा, वेणु, बेंतकी छड़ी, किशोरावस्था, मनोहर वेष, सुन्दर आकार तथा मधुर स्वर धारण करते हैं। वे भगवान्के गुणोंका चिन्तन करते हुए उनका गान करते हैं तथा भगवत् प्रेममय रससे विह्वल रहते हैं। ध्यानमें स्थिर होनेके कारण वे चित्र लिखित से जान पड़ते हैं। उनका रूप आश्चर्यजनक सौन्दर्यसे युक्त होता है। वे सदा आनन्दके आँसू बहाया करते हैं। उनके सम्पूर्ण अंगोंमें रोमांच छाया रहता है तथा वे योगीश्वरोंकी भाँति सदा विस्मयविमुग्ध रहते हैं। अपने धनोंसे दूध बहानेवाली असंख्य गौएँ उन्हें घेरे रहती हैं वहाँसे बाहरके भागमें एक सोनेकी चहारदीवारी है, जो करोड़ों सूर्योंके समान देदीप्यमान दिखायी देती है। उसके चारों ओर बड़े-बड़े उद्यान हैं, जिनकी मनोहर सुगन्ध सब ओर फैली रहती है। जो मन और इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए सदा पवित्र
भावसे श्रीकृष्णचरित्रका भक्तिपूर्वक पाठ या श्रवण करता है, उसे भगवान् श्रीकृष्णकी प्राप्ति होती है। पार्वतीजीने पूछा भगवन्। अत्यन्त मोहक रूप धारण करनेवाले श्रीकृष्णने गोपियोंके साथ किन किन विशेषताओंके कारण क्रौड़ा की, इस रहस्यका मुझसे वर्णन कीजिये।
महादेवजीने कहा-देवि ! एक समयकी बात है, मुनिश्रेष्ठ नारद यह जानकर कि श्रीकृष्णका प्राकट्य हो चुका है, वीणा बजाते हुए नन्दजीके गोकुलमें पहुँचे। वहाँ जाकर उन्होंने देखा महायोगमायाके स्वामी सर्वव्यापी भगवान् अच्युत बालकका स्वाँग धारण किये नन्दजीके घरमें कोमल बिछौनोंसे युक्त सोनेके पलंगपर सो रहे हैं और गोपकन्याएँ बड़ी प्रसन्नताके साथ निरन्तर उनकी ओर निहार रही हैं। भगवान्का श्रीविग्रह अत्यन्त सुकुमार था। उनके काले-काले घुँघराले बाल सब ओर बिखरे हुए थे। किंचित्-किंचित् मुसकराहटके कारण उनके दो एक दाँत दिखायी दे जाते थे। वे अपनी प्रभासेसमूचे घरके भीतरी भागमें प्रकाश फैला रहे थे। नग्न शिशुके रूपमें भगवान्की झाँकी करके नारदजीको बढ़ा हर्ष हुआ। वे भगवान्के प्रिय भक्त तो थे ही, गोपति नन्दजीसे बातचीत करके सब बातें बताने लगे, ‘नन्दरायजी भगवान्के भक्तोंका जीवन अत्यन्त दुर्लभ होता है। आपके इस बालकका प्रभाव अनुपम है, इसे कोई नहीं जानता। शिव और ब्रह्मा आदि देवता भी इसके प्रति सनातन प्रेम चाहते हैं। इस बालकका चरित्र सबको हर्ष प्रदान करनेवाला होगा। भगवद्भक्त पुरुष इस बालककी लीलाओंका श्रवण, गायन और अभिनन्दन करते हैं। आपके पुत्रका प्रभाव अचिन्त्य है जिनका इसके प्रति हार्दिक प्रेम होगा, वे संसार समुद्रसे तर जायेंगे। उन्हें इस जगत्की कोई बाधा नहीं सतायेगी; अतः नन्दजी ! आप भी इस बालकके प्रति निरन्तर अनन्य भावसे प्रेम कीजिये।’
यों कहकर मुनिश्रेष्ठ नारदजी नन्दके घरसे निकले। नन्दने भी भगवद्बुद्धिसे उनका पूजन किया और प्रणाम करके उन्हें विदा दी। तदनन्तर वे महाभागवत मुनि मन ही मन सोचने लगे, ‘जब भगवान्का अवतार होहो चुका है, तो उनकी परम प्रियतमा भगवती भी अवश्य अवतीर्ण हुई होंगी। वे भगवान्की क्रीड़ाके लिये गोपी रूप धारण करके निश्चय ही प्रकट हुई होंगी, इसमें तनिक भी सन्देहकी बात नहीं है; इसलिये अब मैं व्रजवासियोंके घर-घरमें घूमकर उनका पता लगाऊँगा।’ ऐसा विचारकर मुनिवर नारदजी व्रजवासियोंके घरोंमें अतिथिरूपसे जाने और उनके द्वारा विष्णु बुद्धिसे पूजित होने लगे। नन्द कुमार श्रीकृष्णमें समस्त गोप-गोपियोंका प्रगाढ़ प्रेम देखकर नारदजीने उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया।
तदनन्तर बुद्धिमान् नारदजी किसी श्रेष्ठ गोपके विशाल भवनमें गये। वह नन्दके सखा महात्मा भानुका घर था। वहाँ जानेपर भानुने नारदजीका विधिवत् सत्कार किया। तत्पश्चात् महामना नारदजीने पूछा ‘साधो! तुम अपनी धर्मनिष्ठताके लिये इस भूमण्डलपर विख्यात हो, बताओ, क्या तुम्हें कोई योग्य पुत्र अथवा उत्तम लक्षणोंवाली कन्या है?’ मुनिके ऐसा कहनेपर भानुने अपने पुत्रको लाकर दिखाया। उसे देखकर नारदजीने कहा- ‘तुम्हारा यह पुत्र बलराम और श्रीकृष्णकाश्रेष्ठ सखा होगा तथा आलस्यरहित होकर सदा उन दोनोंके साथ विहार करेगा।’
भानुने कहा- मुनिवर। मेरे एक पुत्री भी है जो इस बालककी छोटी बहिन है, कृपया उसपर भी दृष्टिपात कीजिये।
यह सुनकर नारदजीके मनमें बड़ा कौतूहल हुआ। उन्होंने घरके भीतर प्रवेश करके देखा, भानुकी कन्या धरतीपर लोट रही है। नारदजीने उसे अपनी गोदमें टटा लिया। उस समय उनका चित्त अत्यधिक स्नेहके कारण विह्वल हो रहा था। महामुनि नारद भगवत्प्रेमके साक्षात् स्वरूप हैं। बालरूप श्रीकृष्णको देखकर उनकी जो अवस्था हुई थी, वही इस कन्याको भी देखकर हुई। उनका मन मुग्ध हो गया। वे एकमात्र रसके आश्रयभूत परमानन्दके समुद्रमें डूब गये चार पड़ीतक नारदजी पत्थरकी ति निश्चेष्ट बैठे रहे। उसके बाद उन्हें हुआ। फिर मुनीश्वरने धीरे-धीरे अपने दोनों नेत्र खोले और महान् आश्चर्यमें मग्न होकर वे चुपचाप स्थित हो गये। तत्पश्चात् वे महाबुद्धिमान् महर्षि मन-ही-मन इस प्रकार सोचने लगे-‘मैं सदा स्वच्छन्द विचरनेवाला हूँ, मैंने सभी लोकोंमें भ्रमण किया है, परन्तु रूपमें इस बालिकाकी समानता करनेवाली स्त्री कहीं नहीं देखी है। महामायास्वरूपिणी गिरिराज कुमारी भगवती उमाको भी देखा है, किन्तु वे भी इस बालिकाकी शोभाको कदापि नहीं पा सकतीं। लक्ष्मी, सरस्वती, कान्ति तथा विद्या आदि सुन्दरी स्त्रियाँ तो कभी इसके सौन्दर्यकी छायाका भी स्पर्श करती नहीं दिखायी देतीं; अतः मुझमें इसके तत्त्वको समझनेकी किसी प्रकार शक्ति नहीं है। यह भगवान्को प्रियतमा है, इसे प्रायः दूसरे लोग भी नहीं जानते। इसके दर्शनमात्र से ही श्रीकृष्णके चरणकमलोंमें मेरे प्रेमकी जैसी वृद्धि हुई है, वैसी आजके पहले कभी भी नहीं हुई थी; अतः अब मैं एकान्तमें इस देवीकी स्तुति करूँगा इसका रूप श्रीकृष्णको अत्यन्त आनन्द प्रदान करनेवाला होगा।’ ऐसा विचारकर मुनिने गोप- प्रवर भानुको कहाँ भेज दिया और स्वयं एकान्तमें उस दिव्य रूपधारिणीबालिकाकी स्तुति करने लगे-‘देवि! तुम महायोगमयी था, जिससे तुम मेरे हो, मायाको अधीश्वरी हो। तुम्हारा तेज:पुंज महान् है। तुम्हारे दिव्यांग मनको अत्यन्त मोहित करनेवाले हैं। तुम महान् माधुर्यकी वर्षा करनेवाली हो। तुम्हारा हृदय अत्यन्त अद्भुत रसानुभूति-जनित आनन्दसे शिथिल रहता है। मेरा कोई महान् सौभाग्य नेत्रोंके समक्ष प्रकट हुई हो। देवि! तुम्हारी दृष्टि सदा आन्तरिक सुखमें निमग्न दिखायी देती है। तुम भीतर ही भीतर किसी महान् आनन्दसे परितृप्त जान पड़ती हो। तुम्हारा यह प्रसन्न, मधुर एवं शान्त मुखमण्डल तुम्हारे अन्तःकरणमें किसी परम आश्चर्यमय आनन्दके उद्रेककी सूचना दे रहा है। सृष्टि, स्थिति और संहार — तुम्हारे ही स्वरूप हैं, तुम्हीं इनका अधिष्ठान हो। तुम्हीं विशुद्ध सत्त्वमयी हो तथा तुम्हीं पराविद्यारूपिणी उत्तम शक्ति हो। तुम्हारा वैभव आश्चर्यमय है। ब्रह्मा और रुद्र आदिके लिये भी तुम्हारे तत्त्वका बोध होना कठिन है। बड़े-बड़े योगीश्वरोंके ध्यानमें भी तुम कभी नहीं आतीं। तुम्हीं सबकी अधीश्वरी हो। इच्छा-शक्ति ज्ञान शक्ति और क्रिया-शक्ति- ये सब तुम्हारे अंशमात्र हैं ऐसी हीमेरी धारणा है- मेरी बुद्धिमें यही बात आती है। मायासे बालकरूप धारण करनेवाले परमेश्वर महाविष्णुकी जो मायामयी अचिन्त्य विभूतियाँ हैं, वे सब तुम्हारी अंशभूता है तुम आनन्दरूपिणी शक्ति और सबकी ईश्वरी हो इसमें तनिक भी संदेहकी बात नहीं है। निश्चय ही भगवान् श्रीकृष्ण वृन्दावनमें तुम्हारे ही साथ क्रीडा करते हैं कुमारावस्थायें भी तुम अपने रूपसे विश्वको मोहित करनेकी शक्ति रखती हो। तुम्हारा जो स्वरूप भगवान् श्रीकृष्णको परम प्रिय है, मैं उसका दर्शन करना चाहता हूँ। महेश्वरि! मैं तुम्हारी शरणमें आया हूँ, चरणोंमें पड़ा हूँ; मुझपर दया करके इस समय अपना वह मनोहर रूप प्रकट करो, जिसे देखकर नन्दनन्दन श्रीकृष्ण भी मोहित हो जायेंगे।’
यों कहकर देवर्षि नारदजी श्रीकृष्णका ध्यान करते हुए इस प्रकार उनके गुणोंका गान करने लगे ‘भक्तोंके चित्त चुरानेवाले श्रीकृष्ण तुम्हारी जय हो, वृन्दावनके प्रेमी गोविन्द ! तुम्हारी जय हो। बाँकी भौंहोंके कारण अत्यन्त सुन्दर, वंशी बजानेमें व्यग्र, मोरपंखका मुकुट धारण करनेवाले गोपीमोहन तुम्हारी जय हो, जय हो। अपने श्री अंगोंमें कुंकुम लगाकर रत्नमय आभूषण धारण करनेवाले नन्दनन्दन! तुम्हारी जय हो, जय हो। अपने किशोरस्वरूपसे प्रेमीजनोंका मन मोहनेवाले जगदीश्वर ! वह दिन कब आयेगा, जब कि मैं तुम्हारी ही कृपासे तुम्हें अभिनव तरुणावस्थाके कारण अंग-अंग मनोहरण शोभा धारण करनेवाली इस दिव्यरूपा बालिकाके साथ देखूंगा।’
नारदजी जब इस प्रकार कीर्तन कर रहे थे, उसी समय वह बालिका क्षणभरमें अत्यन्त मनोहर दिव्यरूप धारण करके पुनः उनके सामने प्रकट हुई। वह रूप चौदह वर्षकी अवस्थाके अनुरूप और सौन्दर्यकी चरम सीमाको पहुँचा हुआ था। तत्काल ही उसीके समान अवस्थावाली दूसरी व्रज बालाएँ भी दिव्य वस्त्र, आभूषण और मालाओंसे सुसज्जित हो वहाँ आ पहुँचीं तथा भानुकुमारीको सब ओरसे घेरकर खड़ी हो गयीं मुनीश्वर नारदजीकी स्तवन- शक्तिने जवाब दे दिया। वेआश्चर्यसे मोहित हो गये, तब उन व्रज-बालाओंने कृपापूर्वक अपनी सखीका चरणोदक लेकर मुनिके ऊपर छींटा दिया। इस प्रकार जब वे होशमें आये तो बालिकाओंने कहा- मुनिश्रेष्ठ! तुम बड़े भाग्यशाली हो, महान् योगेश्वरोंके भी ईश्वर हो। तुम्हींने पराभक्तिके साथ सर्वेश्वर भगवान् श्रीहरिकी आराधना की है। भक्तोंकी इच्छा पूर्ण करनेवाले भगवान्की उपासना वास्तवमें तुम्हारे ही द्वारा हुई है। यही कारण है कि ब्रह्मा और रुद्र आदि देवता, सिद्ध, मुनीश्वर तथा अन्य भगवद्भक्तोंके लिये भी जिसे देखना और जानना कठिन है, वही अपनी अद्भुतअवस्था और रूपसे सबको मोहित करनेवाली यह श्रीकृष्णकी प्रियतमा हमारी सखी आज तुम्हारे समक्ष प्रकट हुई है। निश्चय ही यह तुम्हारे किसी अचिन्त्य सौभाग्यका प्रभाव है। ब्रह्मर्षे! धैर्य धारण करके शीघ्र ही उठो, खड़े हो जाओ और इस देवीकी प्रदक्षिणा करो; इसके चरणोंमें बारम्बार मस्तक झुका लो। फिर समय नहीं मिलेगा, यह अभी इसी क्षण अन्तर्धान हो जायगी। अब इसके साथ तुम्हारी बातचीत किसी तरह नहीं हो सकेगी।’
व्रज-बालाओंका वित्त स्नेहसे विह्वल हो रहा था। उनकी बातें सुनकर नारदजी नाना प्रकारके वेष विन्याससे शोभा पानेवाली उस दिव्य बालाके चरणोंमें दो मुहूर्ततक पड़े रहे। तदनन्तर उन्होंने भानुको बुलाकर उस सर्वशोभा सम्पन्न कन्याके सम्बन्धमें इस प्रकार कहा – ‘गोपश्रेष्ठ ! तुम्हारी इस कन्याका स्वरूप और स्वभाव दिव्य है। देवता भी इसे अपने वशमें नहीं कर सकते। जो घर इसके चरण-चिह्नोंसे विभूषित होगा, वहाँ भगवान् नारायण सम्पूर्ण देवताओंके साथ निवास करेंगे और भगवती लक्ष्मी भी सब प्रकारकी सिद्धियोंके साथ वहाँ मौजूद रहेंगी। अब तुम सम्पूर्ण आभूषणोंसे विभूषित इस सुन्दरी कन्याको परा देवीकी भाँति समझकर इसकी अपने घरमें यत्नपूर्वक रक्षा करो।’
ऐसा कहकर भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ नारदजीने मन ही मन उस देवीको प्रणाम किया और उसीके स्वरूपका चिन्तन करते हुए वे गहन वनके भीतर चले गये।
अध्याय 134 भगवान्के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
श्रीमहादेवजीने कहा- देवि! महर्षि वेदव्यासने विष्णुभक्त महाराज अम्बरीषसे जिस रहस्यका वर्णन किया था, वही मैं तुम्हें भी बतला रहा हूँ। एक समयकी बात है, राजा अम्बरीष बदरिकाश्रममें गये। वहाँ परम जितेन्द्रिय महर्षि वेदव्यास विराजमान थे। राजाने विष्णु-धर्मको जाननेको इच्छासे महर्षिको प्रणाम करकेउनका स्तवन करते हुए कहा – भगवन्! आप विषयोंसे विरक्त हैं। मैं आपको बारम्बार नमस्कार करता हूँ। प्रभो ! जो परमपद, उद्वेगशून्य- शान्त है, जो सच्चिदानन्द स्वरूप और परब्रह्मके नामसे प्रसिद्ध है, जिसे ‘परम आकाश’ कहा गया है, जो इस भौतिक जड आकाशसे सर्वथा विलक्षण है, जहाँ किसी रोग-व्याधिका प्रवेशनहीं है तथा जिसका साक्षात्कार करके मुनिगण भवसागरसे पार हो जाते हैं, उस अव्यक्त परमात्मामें मेरे मनकी नित्य स्थिति कैसे हो?’
वेदव्यासजी बोले – राजन् तुमने अत्यन्त गोपनीय प्रश्न किया है, जिस आत्मानन्दके विषयमें मैंने अपने पुत्र शुकदेवको भी कुछ नहीं बतलाया था, वही आज तुमको बता रहा हूँ क्योंकि तुम भगवान्के प्रिय भक्त हो । पूर्वकालमें यह सारा विश्व-ब्रह्माण्ड जिसके रूपमें स्थित रहकर अव्यक्त और अविकारी स्वरूपसे प्रतिष्ठित था, उसी परमेश्वरके रहस्यका वर्णन किया जाता है, सुनो-प्राचीन समयमें मैंने फल, मूल, पत्र, जल, वायुका आहार करके कई हजार वर्षोंतक भारी तपस्या की। इससे भगवान् मुझपर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने ध्यानमें लगे रहनेवाले मुझ भक्तसे कहा- ‘महामते। तुम कौन-सा कार्य करना अथवा किस विषयको जानना चाहते हो? मैं प्रसन्न हूँ, तुम मुझसे कोई वर माँगो संसारका बन्धन तभीतक रहता है, जबतक कि मेरा साक्षात्कार नहीं हो जाता; यह मैं तुमसे सच्ची बात बता रहा हूँ।’ यह सुनकर मेरे शरीरमें रोमांचहो आया मैंने श्रीकृष्णसे कहा- ‘मधुसूदन में आपहीके तत्त्वका यथार्थरूपसे साक्षात्कार करना चाहता हूँ। नाथ! जो इस जगत्का पालक और प्रकाशक है; उपनिषदोंमें जिसे सत्यस्वरूप परब्रह्म बतलाया गया है; आपका वही अद्भुत रूप मेरे समक्ष प्रकट हो—यही मेरी प्रार्थना है।’
श्रीभगवान्ने कहा – महर्षे [मेरे विषयमें लोगोंकी – भिन्न-भिन्न धारणाएँ हैं कोई मुझे प्रकृति’ कहते हैं, कोई पुरुष । कोई ईश्वर मानते हैं, कोई धर्म किन्हीं किन्होंके मतों में सर्वथा भयरहित मोक्षस्वरूप हूँ। कोई भाव (सत्तास्वरूप) मानते हैं और कोई-कोई कल्याणमय सदाशिव बतलाते हैं। इसी प्रकार दूसरे लोग मुझे वेदान्तप्रतिपादित अद्वितीय सनातन ब्रह्म मानते हैं। किन्तु वास्तवमें जो सत्तास्वरूप और निर्विकार है, सत् चित् और आनन्द ही जिसका विग्रह है तथा वेदोंमें जिसका रहस्य छिपा हुआ है, अपना वह पारमार्थिक स्वरूप आज तुम्हारे सामने प्रकट करता हूँ, देखो।
राजन् ! भगवान्के इतना कहते ही मुझे एक बालकका दर्शन हुआ, जिसके शरीरकी कान्ति नीलमेघके समान श्याम थी। वह गोपकन्याओं और ग्वाल-बालोंसे घिरकर हँस रहा था। वे भगवान् श्यामसुन्दर थे, जो पीत वस्त्र धारण किये कदम्बकी जड़पर बैठे हुए थे। उनकी झाँकी अदभुत थी। उनके साथ ही नूतन पल्लवोंसे अलंकृत ‘वृन्दावन’ नामवाला वन भी दृष्टिगोचर हुआ। इसके बाद मैंने नील कमलकी आभा धारण करनेवाली कलिन्दकन्या यमुनाके दर्शन किये। फिर गोवर्धनपर्वतपर दृष्टि पड़ी, जिसे श्रीकृष्ण तथा बलरामने इन्द्रका घमंड चूर्ण करनेके लिये अपने हाथोंपर उठाया था। वह पर्वत गौओं तथा गोपोंको बहुत सुख देनेवाला है। गोपाल श्रीकृष्ण अबलाओंके साथ बैठकर बड़ी प्रसन्नताके साथ वेणु बजा रहे थे, उनके शरीरपर सब प्रकारके आभूषण शोभा पा रहे थे। उनका दर्शन करके मुझे बड़ा हर्ष हुआ। तब वृन्दावनमें विचरनेवाले भगवान्ने स्वयं मुझसे कहा – ‘मुने! तुमने जो इस दिव्य सनातनरूपका दर्शन किया है, यही मेरा निष्कल, निष्क्रिय, शान्त और सच्चिदानन्दमय पूर्ण विग्रह है। इस कमललोचनस्वरूपसे बढ़कर दूसरा कोई उत्कृष्ट तत्त्व नहीं है। वेद इसी स्वरूपका वर्णन करते हैं। यही कारणोंका भी कारण है। यही सत्य, परमानन्दस्वरूप, चिदानन्दघन, सनातन और शिवतत्त्व है तुम मेरी इस मथुरापुरीको नित्य समझो यह वृन्दावन, यह यमुना, ये गोपकन्याएँ तथा ग्वाल-बाल सभी नित्य हैं। यहाँ जो मेरा अवतार हुआ है, यह भी नित्य है। इसमें संशय न करना। राधा मेरी सदाकी प्रियतमा हैं। मैं सर्वज्ञ, परात्पर, सर्वकाम, सर्वेश्वर तथा सर्वानन्दमय परमेश्वर हूँ। मुझमें ही यह सारा विश्व, जो मायाका विलासमात्र है, प्रतीत हो रहा है।’
तब मैंने जगत्के कारणोंके भी कारण भगवान् कहा ‘नाथ! ये गोपियाँ और ग्वाल कौन हैं? तथा यह वृक्ष कैसा है?’ तब वे बड़े प्रेमसे बोले-‘मुने। गोपियोंको श्रुतियाँ समझो तथा देवकन्याएँ भी इनके रूपमें प्रकट हुई हैं। तपस्यामें लगे हुए मुमुक्षु मुनि ही इन ग्वाल बालोंके रूपमें दिखायी दे रहे हैं। ये सभी मेरे आनन्दमय विग्रह हैं। यह कदम्ब कल्पवृक्ष है, जो परमानन्दमय श्रीकृष्णका एकमात्र आश्रय बना हुआ है तथा यह पर्वतभी अनादिकाल से मेरा भक्त है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। अहो! कितने आश्चर्यकी बात है कि दूषित चित्तवाले मनुष्य मेरी इस उत्कृष्ट, सनातन एवं मनोरम पुरीको, जिसकी देवराज इन्द्र, नागराज अनन्त तथा बड़े-बड़े मुनीश्वर भी स्तुति करते हैं, नहीं जानते। यद्यपि काशी आदि अनेकों मोक्षदायिनी पुरियाँ विद्यमान हैं, तथापि उन सबमें मथुरापुरी हो धन्य है; क्योंकि यह अपने क्षेत्रमें जन्म, उपनयन, मृत्यु और दाह-संस्कार- इन चारों ही कारणों से मनुष्योंको मोक्ष प्रदान करती है। जब तप आदि साधनोंके द्वारा मनुष्योंके अन्तःकरण शुद्ध एवं शुभसंकल्पसे युद्ध हो जाते हैं और वे निरन्तर ध्यानरूपी धनका संग्रह करने लगते हैं, तभी उन्हें मधुराकी प्राप्ति होती है मथुरावासी धन्य हैं, वे देवताओंके भी माननीय हैं, उनको महिमाको गणना नहीं हो सकती। मथुरावासियोंके जो दोष हैं; वे नष्ट हो जाते हैं; उनमें जन्म लेने और मरनेका दोष नहीं देखा जाता। जो निरन्तर मथुरापुरीका चिन्तन करते हैं, वे निर्धन होनेपर भी धन्य हैं; क्योंकि मथुरामें भगवान् भूतेश्वरका निवास है, जो पापियोंको भी मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। देवताओंमें श्रेष्ठ भगवान् भूतेश्वर मुझको सदा ही प्रिय है; क्योंकि वे मेरी प्रसन्नताके लिये कभी भी मथुरापुरीका परित्याग नहीं करते। जो भगवान् भूतेश्वरको नमस्कार, उनका पूजन अथवा स्मरण नहीं करता, वह मनुष्य दुराचारी है। जो मेरे परम भक्त शिवका पूजन नहीं करता, उस पापीको किसी तरह मेरी भक्ति नहीं प्राप्त होती । ध्रुवने बालक होनेपर भी जहाँ मेरी आराधना करके उस परम विशुद्ध स्थानको प्राप्त किया, जो उसके बाप-दादोंको भी नहीं नसीब हुआ था; वह मेरी मथुरापुरी देवताओंके लिये भी दुर्लभ है। वहाँ जाकर मनुष्य यदि लँगड़ा या अंधा होकर भी प्राणोंका परित्याग करे तो उसकी भी मुक्ति हो जाती है। महामना वेदव्यास! तुम इस विषयमें कभी सन्देह न करना। यह उपनिषदोंका रहस्य है, जिसे मैंने तुम्हारे सामने प्रकाशित किया है।’
जो मनुष्य पवित्र होकर भगवान्के श्रीमुखसे कहे हुए इस अध्यायका भक्तिपूर्वक पाठ या श्रवण करता है, उसे भी सनातन मोक्षको प्राप्ति होती है।
अध्याय 135 भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
महादेवजी कहते हैं— देवि! एक समयकी बात है, भगवान् श्रीकृष्ण द्वारकासे मथुरामें आये और वहाँसे यमुना पार करके नन्दके व्रजमें गये। वहाँ उन्होंने अपने पिता नन्दजी तथा यशोदा मैयाको प्रणाम करके उन्हें भलीभाँति सान्त्वना दी, फिर पिता-माताने भी उन्हें छाती से लगाया। इसके बाद वे बड़े-बड़े गोपसे मिले। उन सबको आश्वासन दिया तथा बहुत से वस्त्र और आभूषण आदि भेंटमें देकर वहाँ रहनेवाले सब लोगोंको सन्तुष्ट किया ।
तत्पश्चात् पावन वृक्षोंसे भरे हुए यमुनाके रमणीय तटपर गोपांगनाओंके साथ श्रीकृष्णने तीन राततक वहाँ सुखपूर्वक निवास किया। उस समय उस स्थानपर अपने पुत्रों और स्त्रियाँसहित नन्दगोप आदि सब लोग, यहाँतक कि पशु, पक्षी और मृग आदि भी भगवान् वासुदेवकी कृपासे दिव्य रूप धारण कर विमानपर आरूढ़ हुए और परम धाम- वैकुण्ठलोकको चले गये। इस प्रकार नन्दके व्रजमें निवास करनेवाले सब लोगोंको अपना निरामय पद प्रदान करके भगवान् श्रीकृष्ण देवियों और देवताओंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए शोभा सम्पन्न द्वारकापुरीमें आये।
वहाँ वसुदेव, उग्रसेन, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और अक्रूर आदि यादव प्रतिदिन उनकी पूजा करते थे तथा वे विश्वरूपधारी भगवान् दिव्य रत्नोंद्वारा बने लतागृहों में पारिजात-पुष्प बिछाये हुए मृदुल पलंगोंपर शयन करके अपनी सोलह हजार आठ रानियोंके साथ विहार किया करते थे। इस प्रकार सम्पूर्ण देवताओंका हित और समस्त भूभारका नाश करनेके लिये भगवान् यदुवंशमें अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने सभी राक्षसोंका संहार करके पृथ्वीके महान् भारको दूर किया तथा नन्दकेव्रज और द्वारकापुरीमें निवास करनेवाले समस्त चराचर प्राणियोंको भवबन्धनसे मुक्त करके उन्हें योगियोंके ध्येयभूत परम सनातन धाममें स्थापित कर दिया।
तदनन्तर वे स्वयं भी अपने परम धामको पधारे। पार्वतीने कहा- भगवन्! वैष्णवोंका जो यथार्थ धर्म है, जिसका अनुष्ठान करके सब मनुष्य भवसागर से पार हो जाते हैं, उसका मुझसे वर्णन कीजिये।
महादेवजीने कहा- देवि ! प्रथम वैष्णवोंकी द्वादश प्रकारकी शुद्धि बतायी जाती है। भगवान्के मन्दिरको लीपना, भगवान्की प्रतिमाके पीछे-पीछे जाना तथा भक्तिपूर्वक उनकी प्रदक्षिणा करना-ये तीन कर्म चरणोंकी शुद्धि करनेवाले हैं। भगवान्की पूजाके लिये भक्तिभावके साथ पत्र और पुष्पोंका संग्रह करना यह हाथोंकी शुद्धिका उपाय है। यह शुद्धि सब प्रकारकी शुद्धियोंसे बढ़कर है। भक्तिपूर्वक भगवान् श्रीकृष्णके नाम और गुणोंका कीर्तन वाणीकी शुद्धिका उपाय बताया गया है। उनकी कथाका श्रवण और उत्सवका दर्शन-ये दो कार्य क्रमशः कानों और नेत्रोंकी शुद्धि करनेवाले कहे गये हैं। मस्तकपर भगवान्का चरणोदक, निर्माल्य तथा माला धारण करना-ये भगवान्के चरणोंमें पड़े हुए पुरुषके लिये सिरको शुद्धिके साधन हैं। भगवान्के निर्माल्यभूत पुष्प आदिको सूँघना अन्तःशुद्धि तथा घ्राणशुद्धिका उपाय माना गया है। श्रीकृष्णके युगल चरणोंपर चढ़ा हुआ पत्र-पुष्प आदि संसारमें एकमात्र पावन है, वह सभी अंगोंको शुद्ध कर देता है।
भगवान की पूजा पाँच प्रकारकी बतायी गयी है; उन पाँचों भेदोंको सुनो-अभिगमन, उपादान, योग, स्वाध्याय और इज्या—ये ही पूजाके पाँच प्रकार हैं: अब तुम्हें इनका क्रमशः परिचय दे रहा हूँ। देवताके स्थानकोझाड़-बुहारकर साफ करना, उसे लीपना तथा पहलेके चढ़े हुए निर्माल्यको दूर हटाना – ‘अभिगमन’ कहलाता है। पूजाके लिये चन्दन और पुष्पादिके संग्रहका नाम ‘उपादान’ है। अपने साथ अपने इष्टदेवकी आत्मभावना करना अर्थात् मेरा इष्टदेव मुझसे भिन्न नहीं है, वह मेरा ही आत्मा है; इस तरहकी भावनाको दृढ़ करना ‘योग’ कहा गया है। इष्टदेवके मन्त्रका अर्थानुसन्धानपूर्वक जप करना ‘स्वाध्याय’ है। सूक्त और स्तोत्र आदिका पाठ, भगवान्का कीर्तन तथा भगवत्तत्त्व आदिका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रोंका अभ्यास भी ‘स्वाध्याय’ कहलाता है। अपने आराध्यदेवकी यथार्थ विधिसे पूजा करनेका नाम ‘इज्या’ है। सुव्रते! यह पाँच प्रकारकी पूजा मैंने तुम्हें बतायी। यह क्रमशः साष्टि, सामीप्य, सालोक्य, सायुज्य और सारूप्य नामक मुक्ति प्रदान करनेवाली है।
अब प्रसंगवश शालग्राम शिलाकी पूजाके सम्बन्धर्मे कुछ निवेदन करूँगा। चार भुजाधारी भगवान् विष्णुके दाहिनी एवं ऊर्ध्वभुजाके क्रमसे अस्त्रविशेष ग्रहण करनेपर केशव आदि नाम होते हैं अर्थात् दाहिनी ओरका ऊपरका हाथ, दाहिनी ओरका नीचेका हाथ, बार्थी ओरका ऊपरका हाथ और बायीं ओरका नीचेका हाथ इस क्रमसे चारों हाथोंमें शंख, चक्र आदि आयुधों को क्रम वा व्यतिक्रमपूर्वक धारण करनेपर भगवान्की भिन्न-भिन्न संज्ञाएँ होती हैं। उन्हीं संज्ञाओंका निर्देश करते हुए यहाँ भगवान्का पूजन बतलाया जाता है। उपर्युक्त क्रमसे चारों हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करनेवाले विष्णुका नाम ‘केशव’ है। पद्म, गदा, चक्र और शंखके क्रमसे शस्त्र धारण करनेपर उन्हें ‘नारायण’ कहते हैं। क्रमशः चक्र, शंख, पद्म और गदा ग्रहण करनेसे वे ‘माधव’ कहलाते हैं। गदा, पद्म, शंख और चक्र – इस क्रमसे आयुध धारण करनेवाले भगवान्का नाम ‘गोविन्द’ है। पद्म, शंख, चक्र और गदाधारी विष्णुरूप भगवान्को प्रणाम है। शंख, पद्म, गदा और चक्र धारण करनेवाले मधुसूदन-विग्रहको नमस्कार है। गदा, चक्र, शंख और पद्मसे युक्तत्रिविक्रमको तथा चक्र, गदा, पद्म और शंखधारी वामनमूर्तिको प्रणाम है। चक्र, पद्म, शंख और गदा धारण करनेवाले श्रीधररूपको नमस्कार है। चक्र, गदा, शंख तथा पद्मधारी हृषीकेश! आपको प्रणाम है। पद्म, शंख, गदा और चक्र ग्रहण करनेवाले पद्मनाभविग्रहको नमस्कार है। शंख, गदा, चक्र और पद्मधारी दामोदर! आपको मेरा प्रणाम है। शंख, कमल, चक्र तथा गदा धारण करनेवाले संकर्षणको नमस्कार है। चक्र, शंख गदा तथा पद्मसे युक्त भगवान् वासुदेव! आपको प्रणाम है। शंख, चक्र, गदा और कमल आदिके द्वारा प्रद्युम्नमूर्ति धारण करनेवाले भगवान्को नमस्कार है। गदा, शंख, कमल तथा चक्रधारी अनिरुद्धको प्रणाम है। पद्म, शंख, गदा और चक्रसे चिलित पुरुषोत्तमरूपको नमस्कार है। गदा, शंख, चक्र और पद्म ग्रहण करनेवाले अधोक्षजको प्रणाम है। पद्म, गदा, शंख और चक्र धारण करनेवाले नृसिंह भगवान्को नमस्कार है। पद्म, चक्र, शंख और गदा लेनेवाले अच्युतस्वरूपको प्रणाम है। गदा, पद्म, चक्र और शंखधारी श्रीकृष्णविग्रहको नमस्कार है।
जिस शालग्राम शिलामें द्वार स्थानपर परस्पर सटे हुए दो चक्र हों, जो शुक्लवर्णकी रेखासे अंकित और शोभासम्पन्न दिखायी देती हो, उसे भगवान् श्रीगदाधरका स्वरूप समझना चाहिये। संकर्षणमूर्तिमें दो सटे हुए चक्र होते हैं, लाल रेखा होती है और उसका पूर्वभाग कुछ मोटा होता है। प्रद्युम्नके स्वरूपमें कुछ-कुछ पीलापन होता है और उसमें चक्रका चिह्न सूक्ष्म रहता है। अनिरुद्धकी मूर्ति गोल होती है और उसके भीतरी भागमें गहरा एवं चौड़ा छेद होता है; इसके सिवा, वह द्वारभागमें नीलवर्ण और तीन रेखाओंसे युक्त भी होती है भगवान् नारायण श्यामवर्णके होते हैं, उनके मध्यभागमै गदाके आकारकी रेखा होती है और उनका नाभि-कमल बहुत ऊँचा होता है। भगवान् नृसिंहकी मूर्ति चक्रका स्थूल चिह्न रहता है, उनका वर्ण कपिल होता है तथा वे तीन या पाँच विन्दुओंसे युक्त होते हैं। ब्रह्मचारीके लिये उन्हींका पूजन विहित है। वे भोंकी रक्षा करनेवाले हैं। जिस शालग्राम शिलामें दो चक्रकेचिह्न विषमभावसे स्थित हों, तीन लिंग हों तथा तीन रेखाएँ दिखायी देती हों; वह वाराहभगवान्का स्वरूप हैं, उसका वर्ण नील तथा आकार स्थूल होता है। भगवान् वाराह भी सबकी रक्षा करनेवाले हैं। कच्छपकी मूर्ति श्यामवर्णकी होती है। उसका आकार पानीकी भँवरके समान गोल होता है। उसमें यत्र-तत्र विन्दुओंके चिह्न देखे जाते हैं तथा उसका पृष्ठभाग श्वेत रंगका होता है। श्रीधरको मूर्तिमें पाँच रेखाएँ होती हैं, वनमालीके स्वरूपमें गदाका चिह्न होता है। गोल आकृति, मध्यभागमें चक्रका चिन तथा नीलवर्ण, यह वामनमूर्तिकी पहचान है। जिसमें नाना प्रकारको अनेकों मूर्तियों तथा सर्प शरीरके चिह्न होते हैं, वह भगवान् अनन्तकी प्रतिमा है। दामोदरकी मूर्ति स्थूलकाय एवं नीलवर्णकी होती है। उसके मध्यभागमें चक्रका चिह्न होता है। भगवान् दामोदर नील चिह्नसे युक्त होकर संकर्षणके द्वारा जगत्की रक्षा करते हैं। जिसका वर्ण लाल है, तथा जो लम्बी-लम्बी रेखा, छिद्र, एक चक्र और कमल आदिसे युक्त एवं स्थूल है, उस शालग्रामको ब्रह्माकी मूर्ति समझनी चाहिये। जिसमें वृहत् छिद्र, स्थूल चक्रका चिह्न और कृष्ण वर्ण हो, वह श्रीकृष्णका स्वरूप है। वह विन्दुयुक्त और विन्दुशून्य दोनों ही प्रकारका देखा जाता है। हयग्रीव मूर्ति अंकुशके समान आकारवाली और पाँच रेखाओंसे युक्त होती है। भगवान् वैकुण्ठ कौस्तुभमणि धारण किये रहते हैं। उनकी मूर्ति बड़ी निर्मल दिखायी देती। है। वह एक चक्रसे चिह्नित और श्याम वर्णकी होती है। मत्स्य भगवान्की मूर्ति बृहत् कमलके आकार की होती है। उसका रंग श्वेत होता है तथा उसमें हारकी रेखा देखी जाती है। जिस शालग्रामका वर्ण श्याम हो, जिसके दक्षिण भागमें एक रेखा दिखायी देती हो तथा जो तीन चक्रोंके चिह्नसे युक्त हो, वह भगवान् श्रीरामचन्द्रजीका स्वरूप है, वे भगवान् सबकी रक्षा करनेवाले हैं। द्वारकापुरीमें स्थित शालग्रामस्वरूप भगवान् गदाधरको नमस्कार है, उनका दर्शन बड़ा ही उत्तम है। वे भगवान् गदाधर एक चक्रसे चिह्नित देखे जाते हैं। लक्ष्मीनारायण दो चक्रोंसे, त्रिविक्रम तीनसे,चतुर्व्यूह बारसे, वासुदेव पाँचसे, प्रद्युम्न छ: से, संकर्षण सातसे, पुरुषोत्तम आठसे, नवव्यूह नवसे, दशावतार दससे, अनिरुद्ध ग्यारहसे और द्वादशात्मा बारह चक्रोंसे युक्त होकर जगत्की रक्षा करते हैं। इससे अधिक चक्र-चिह्न धारण करनेवाले भगवान्का नाम अनन्त है। दण्ड, कमण्डलु और अक्षमाला धारण करनेवाले चतुर्मुख ब्रह्मा तथा पाँच मुख और दस भुजाओंसे सुशोभित वृषध्वज महादेवजी अपने आयुधसहित शालग्राम शिलामें स्थित रहते हैं। गौरी, चण्डी, सरस्वती और महालक्ष्मी आदि माताएँ हाथमें कमल धारण करनेवाले सूर्यदेव, हाथीके समान कंधेवाले गजानन गणेश, छः मुखोंवाले स्वामी कार्तिकेय तथा और भी बहुत से देवगण शालग्राम प्रतिमामें मौजूद रहते हैं, अतः मन्दिरमें शालग्राम शिलाकी स्थापना अथवा पूजा करनेपर ये उपर्युक्त देवता भी स्थापित और पूजित होते हैं। जो पुरुष ऐसा करता है, उसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष आदिकी प्राप्ति होती है।
गण्डकी अर्थात् नारायणी नदीके एक प्रदेशमें शालग्रामस्थल नामका एक महत्त्वपूर्ण स्थान है; वहाँसे निकलनेवाले पत्थरको शालग्राम कहते हैं। शालग्राम शिलाके स्पर्शमात्र से करोड़ों जन्मोंके पापका नाश हो जाता है। फिर यदि उसका पूजन किया जाय, तब तो उसके फलके विषयमें कहना ही क्या है वह भगवान्के समीप पहुँचानेवाला है। बहुत जन्मोंके पुण्यसे यदि कभी गोष्पदके चिनसे युक्त श्रीकृष्ण-शिला प्राप्त हो जाय तो उसीके पूजनसे मनुष्यके पुनर्जन्मकी समाप्ति हो जाती है। पहले शालग्राम शिलाको परीक्षा करनी चाहिये यदि वह काली और चिकनी हो तो उत्तम है। यदि उसकी कालिमा कुछ कम हो तो वह मध्यम श्रेणीकी मानी गयी है और यदि उसमें दूसरे किसी रंगका सम्मिश्रण हो तो वह मिश्रित फल प्रदान करनेवाली होती है जैसे सदा काठके भीतर छिपी हुई आग मन्थन करनेसे प्रकट होती है, उसी प्रकार भगवान् विष्णु सर्वत्र व्याप्त होनेपर भी शालग्राम शिलामें विशेषरूपसे अभिव्यक होते हैं। जो प्रतिदिन द्वारकाकी शिला – गोमतीचक्रसे युक्त बारहशालग्राममूर्तियोंका पूजन करता है, वह वैकुण्ठलोकमें प्रतिष्ठित होता है जो मनुष्य शालग्राम शिलाके भीतर गुफाका दर्शन करता है, उसके पितर तृप्त होकर कल्पके अन्ततक स्वर्गमें निवास करते हैं। जहाँ द्वारकापुरीकी शिला अर्थात् गोमतीचक्र रहता है, वह स्थान वैकुण्ठलोक माना जाता है; वहाँ मृत्युको प्राप्त हुआ मनुष्य विष्णुधाममें जाता है। जो शालग्राम शिलाकी कीमत लगाता है, जो बेचता है, जो विक्रयका अनुमोदन करता है तथा जो उसकी परीक्षा करके मूल्यका समर्थन करता है, वे सब नरकमें पड़ते हैं। इसलिये देवि ! शालग्राम शिला और गोमतीचक्रकी खरीद-बिक्री छोड़ देनी चाहिये। शालग्राम-स्थलसे प्रकट हुए भगवान् शालग्राम और द्वारकासे प्रकट हुए गोमतीचक्र- इन दोनों देवताओंका जहाँ समागम होता है, वहाँ मोक्ष मिलनेमें तनिक भी सन्देह नहीं है। द्वारकासे प्रकट हुए गोमतीचक्रसे युक्त, अनेकों चक्रोंसे चिह्नित तथा चकासन-शिलाके समान आकारवाले भगवान् शालग्राम साक्षात् चित्स्वरूप निरंजन परमात्मा ही हैं। ओंकाररूप तथा नित्यानन्दस्वरूप शालग्रामको नमस्कार है। महाभाग शालग्राम ! मैं आपका अनुग्रह चाहता हूँ। प्रभो! मैं ऋणसे ग्रस्त हूँ, मुझ भक्तपर अनुग्रह कीजिये।
अब मैं प्रसन्नतापूर्वक तिलककी विधिका वर्णन करता हूँ। ललाटमें केशव, कण्ठमें श्रीपुरुषोत्तम, नाभिमें नारायणदेव, हृदयमें वैकुण्ठ, बायीं पसलीमें दामोदर, दाहिनी पसलीमें त्रिविक्रम, मस्तकपर इषीकेश, पीठमें पद्मनाभ, कानोंमें गंगा-यमुना तथा दोनों भुजाओंमें श्रीकृष्ण और हरिका निवास समझना चाहिये। उपर्युक्त स्थानों में तिलक करनेसे ये बारह देवता संतुष्ट होते हैं। तिलक करते समय इन बारह नामोंका उच्चारण करना चाहिये। जो ऐसा करता है, वह सब पापोंसे शुद्ध होकर विष्णुलोकको जाता है। भगवान्के चरणोदकको पीना चाहिये और पुत्र, मित्र तथा स्त्री आदि समस्त परिवारके शरीरपर उसे छिड़कना चाहिये। श्रीविष्णुका चरणोदकयदि पी लिया जाय तो वह करोड़ों जन्मोंके पापका नाश करनेवाला होता है। भगवान के मन्दिरमें खड़ाऊँ या सवारीपर चढ़कर जाना, भगवत् सम्बन्धी उत्सवोंका सेवन न करना, भगवान् के सामने जाकर प्रणाम न करना, उच्छिष्ट या अपवित्र अवस्थामें भगवान्की वन्दना करना एक हाथसे प्रणाम करना, भगवान् के सामने ही एक स्थानपर खड़े-खड़े प्रदक्षिणा करना, भगवान् के आगे पाँव फैलाना, पलंगपर बैठना, सोना, खाना, झूठ बोलना, जोर-जोर से चिल्लाना, परस्पर बात करना, रोना, झगड़ा करना, किसीको दण्ड देना, अपने बलके घमंड में आकर किसीपर अनुग्रह करना, स्त्रियोंके प्रति कठोर बात कहना, कम्बल ओढ़ना, दूसरेकी निन्दा, परायी स्तुति गाली बकना, अधोवायुका त्याग (अपशब्द) करना, शक्ति रहते हुए गौण उपचारोंसे पूजा करना-मुख्य उपचारोंका प्रबन्ध न करना, भगवान्को भोग लगाये बिना ही भोजन करना, सामयिक फल आदिको भगवान्की सेवामें अर्पण न करना, उपयोगमें लानेसे बचे हुए भोजनको भगवान्के लिये निवेदन करना, भोजनका नाम लेकर दूसरेकी निन्दा तथा प्रशंसा करना, गुरुके समीप मौन रहना, आत्म-प्रशंसा करना तथा देवताओंको कोसना-ये विष्णुके प्रति बत्तीस अपराध बताये गये हैं मधुसूदन! मुझसे प्रतिदिन हजारों अपराध होते रहते हैं; किन्तु मैं आपका ही सेवक हूँ, ऐसा समझकर मुझे उनके लिये क्षमा करें।’ इस मन्त्रका उच्चारण करके भगवान्के सामने पृथ्वीपर दण्डकी भाँति पड़कर साष्टांग प्रणाम करना चाहिये। ऐसा करनेसे भगवान् श्रीहरि सदा हजारों अपराध क्षमा करते हैं। द्विजातियोंके लिये सबेरे और शाम-दो ही समय भोजन करना वेदविहित है। गोल लौकी, लहसुन, ताड़का फल और भाँटा – इन्हें वैष्णव पुरुषोंको नहीं खाना चाहिये। वैष्णवके लिये बड़, पीपल, मदार, कुम्भी, तिन्दुक, कोविदार (कचनार) और कदम्बकेपत्ते में भोजन करना निषिद्ध है। जला हुआ तथा भगवान्को अर्पण न किया हुआ अन्न, जम्बीर और बिजौरा नीबू, शाक तथा खाली नमक भी वैष्णवको नहीं खाना चाहिये। यदि दैवात् कभी खा ले तो भगवन्नामका स्मरण करना चाहिये। हेमन्त ऋतु में उत्पन्न होनेवाला सफेद धान जो सड़ा हुआ न हो, मूँग, तिल, यव, केराव, कंगनी, नीवार (तीना), शाक, हिलमोचिका ( हिलसा), कालशाक, बथुवा, मूली, दूसरे दूसरे मूल-शाक, सेंधा और साँभर नमक, गायका दही, गायका घी, बिना माखन निकाला हुआ गायका दूध, कटहल, आम, हर्रे, पिप्पली, जीरा, नारंगी, इमली, केला, लवली (हरफा रेवरी), आँवलेका फल, गुड़के सिवा ईंखके रससे तैयार होनेवाली अन्य सभी वस्तुएँ तथा बिना तेलके पकाया हुआ अन्न इन सभी खाद्य पदार्थोंको मुनिलोग हविष्यान्न कहते हैं। जो मनुष्य तुलसीके पत्र और पुष्प आदिसे युक्त माला धारण करता है, उसको भी विष्णु ही समझना चाहिये। आँवलेका वृक्ष लगाकर मनुष्य विष्णुके समान जाता है। आँवलेके चारों ओर साढ़े तीन सौ हाथकीभूमिको कुरुक्षेत्र जानना चाहिये। तुलसीकी लकड़ीके रुद्राक्षके समान दाने बनाकर उनके द्वारा तैयार की हुई माला कण्ठमें धारण करके भगवान्का पूजन आरम्भ करना चाहिये। भगवान्को चढ़ायी हुई तुलसीकी माला मस्तकपर धारण करे तथा भगवान्को अर्पण किये हुए चन्दनके द्वारा अपने अंगोंपर भगवान्का नाम लिखे। यदि तुलसीके काष्ठकी बनी हुई मालाओंसे अलंकृत होकर मनुष्य देवताओं और पितरोंके पूजनादि कार्य करे तो वह कोटिगुना फल देनेवाला होता है। जो मनुष्य तुलसीके काष्ठकी बनी हुई माला भगवान् विष्णुको अर्पित करके पुनः प्रसादरूपसे उसको भक्तिपूर्वक धारण करता है, उसके पातक नष्ट हो जाते हैं। पाद्य आदि उपचारोंसे तुलसीकी पूजा करके इस मन्त्रका उच्चारण करे- जो दर्शन करनेपर सारे पापसमुदायका नाश कर देती है, स्पर्श करनेपर शरीरको पवित्र बनाती है, प्रणाम करनेपर रोगोंका निवारण करती है, जलसे सींचनेपर यमराजको भी भय पहुँचाती है, आरोपित करनेपर भगवान् श्रीकृष्णके समीप ले जाती है और भगवान्के चरणोंमें चढ़ानेपर मोक्षरूपी फल प्रदान करती है, उस तुलसी देवीको नमस्कार है। *
अध्याय 136 नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्की विशेष आराधनाका वर्णन
पार्वतीजीने पूछा- कृपानिधे! विषयरूपी ग्राहोंसे भरे हुए भयंकर कलियुगके आनेपर संसारके सभी मनुष्य पुत्र, स्त्री और धन आदिकी चिन्तासे व्याकुल रहेंगे, ऐसी दशामें उनके उद्धारका क्या उपाय है? यह बताने की कृपा कीजिये ।
महादेवजीने कहा- देवि! कलियुग केवल हरिनाम ही संसारसमुद्रसे पार लगानेवाला है। जो लोग प्रतिदिन ‘हरे राम हरे कृष्ण’ आदि प्रभुके मंगलमय नामोंका उच्चारण करते हैं, उन्हें कलियुग बाधा नहींपहुँचाता, अतः बीच-बीचमें जो आवश्यक कर्म प्राप्त हाँ, उन्हें करते-करते भगवान्के नामका भी स्मरण करते रहना चाहिये। जो बारम्बार ‘कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण की रट लगाता रहता है तथा मेरे और तुम्हारे नामका भी व्यतिक्रमपूर्वक अर्थात् गौरीशंकर आदि कहकर जप किया करता है, वह भी जैसे आग रूईकी ढेरीको जला डालती है उसी प्रकार अपनी पाप राशिको ‘भस्म करके उससे मुक्त हो जाता है। जय अथवा श्रीशब्दपूर्वक जो तुम्हारा, मेरा या श्रीकृष्णका मंगलमय नाम है, उसकाजप करनेसे मनुष्य पापमुक्त हो जाता है दिन, रात और सन्ध्या-सभी समय नाम स्मरण करना चाहिये। दिन-रात हरि नामका जप करनेवाला पुरुष श्रीकृष्णका प्रत्यक्ष दर्शन पाता है। अपवित्र हो या पवित्र, सब समय, निरन्तर भगवन्नामका स्मरण करनेसे वह क्षणभरमै भव-बन्धनसे छुटकारा पा जाता है। भगवान्का नाम नाना प्रकारके अपराधोंसे युक्त मनुष्यका पाप भी हर लेता है। कलियुगमें यज्ञ, व्रत, तप और दान कोई भी कर्म सब अंगोंसे पूर्ण नहीं उतरता; केवल गंगाका स्नान और हरि नामका कीर्तन-ये ही दो साधन विघ्न-बाधाओंसे रहित हैं। कल्याणी! हत्याजनित हजारों भयंकर पाप तथा दूसरे दूसरे पातक भी भगवान् के गोविन्द नामका उच्चारण करनेसे नष्ट हो जाते हैं। मनुष्य अपवित्र हो या पवित्र अथवा किसी भी दशमें क्यों न स्थित हो, जो पुण्डरीकाक्ष (कमल नयन) भगवान् विष्णुका स्मरण करता है, वह बाहर और भीतर सब ओरसे पवित्र हो जाता है। केवल भगवन्नामोंके स्मरणसे तथा भगवान्के चरणोंका चिन्तन करनेसे शुद्धि होती है। सोने, चाँदी, भिगोये हुए आटे अथवा पुष्प मालाके द्वारा भगवान्के चरणोंकी आकृति बनाकर उसे चक्र आदि चिह्नोंसे अंकित कर ले, उसके बाद पूजन आरम्भ करे। पूजनके समय भगवच्चरणोंका इस प्रकार ध्यान करे-भगवान् अपने दाहिने पैर के अंगूठेकी जहमें प्रणतजनोंके संसार बन्धनका उच्छेद करनेके लिये चक्रका चिह्न धारण करते हैं। मध्यमा अँगुलीके मध्यभागमें अच्युतने अत्यन्त सुन्दर कमलका चिह्न धारण कर रखा है; उसका उद्देश्य है- ध्यान करनेवाले भक्तोंके चितरूपी भ्रमरको लुभाना। कमलके नीचे वे ध्वजका चिह्न धारण करते हैं, जो मानो समस्त अनर्थोको परास्त करके फहरानेवाली विजय ध्वजा है। कनिष्ठिका अँगुलीकी जड़में वज्रका चिह्न है, जो भक्तोंकी पापराशिको विदीर्ण करनेवाला है। पैरके पार्श्व भागमेंबीचको और अंकुशका चिह्न है, जो भलो चित हाथीका दमन करनेवाला है। श्रीहरि अपने अंगुष्ठके पर्वमें भोग-सम्पत्तिके प्रतीकभूत यवका चिह्न धारण करते हैं तथा मूल-भागमें गदाकी रेखा है, जो समस्त देहधारियोंके पापरूपी पर्वतको चूर्ण कर डालनेवाली है। इतना ही नहीं, वे अजन्मा भगवान् सम्पूर्ण विद्याओंको प्रकाशित करनेके लिये भी पद्म आदि चिह्नको धारण करते हैं। दाहिने पैरमें जो-जो चिह्न हैं, उन्हीं उन्हीं चिह्नोंको करुणानिधान प्रभु अपने बायें पैरमें भी धारण करते हैं; इसलिये गोविन्दके माहात्म्यका, जो आनन्दमय रसके कारण अत्यन्त मनोरम जान पड़ता है, सदा श्रवण और कीर्तन करना चाहिये। ऐसा करनेवाले मनुष्यकी मुक्ति होने में तनिक भी सन्देह नहीं है।
अब मैं प्रत्येक मासका वह कृत्य बतला रहा हूँ, जो भगवान् विष्णुको प्रसन्न करनेवाला है। जेष्ठके महीनेमें पूर्णिमा तिथिको स्नान आदिसे पवित्र होकर यत्नपूर्वक श्रीहरिका स्नानोत्सव मनाना चाहिये, इससे दिन, पक्ष, मास, ऋतु और वर्षभरके पाप नष्ट हो जाते हैं। कोटि-कोटि सहस्र जो पातक और उपपातक होते हैं, उन सबका नाश हो जाता है। स्नानके समय कलशमें जल लेकर भगवान्के मस्तकपर धीरे-धीरे गिराना चाहिये और पुरुषसूक्तके मन्त्रों तथा पावमानी ऋचाओंका क्रमशः पाठ करते रहना चाहिये। नारियल युक्त जल, तालफलसे युक्त जल, रत्नमिश्रित जल, चन्दनमिश्रित जल तथा पुष्पयुक्त जल-इन पाँच उपचारोंसे स्नान कराकर अपने वैभव विस्तारके अनुसार भगवान्की आराधना करे। तत्पश्चात् ‘घं घण्टायै नम:’ इस मन्त्रको पढ़कर घण्टा बजावे और इस प्रकार प्रार्थना करे–’अपनी ऊँची आवाज पतितोंकी पातकराशिका निवारण करनेवाली घण्टे ! घोर संसारसागरमें पड़े हुए मुझ पापीकी रक्षा करो।’ जो श्रोत्रिय विद्वान् ब्राह्मण पवित्रभावसे इस प्रकार भगवान्कीआराधना करता है, वह सब पापसि मुक्त होकर विष्णुलोक जाता है। आषाढ़ शुक्ल द्वितीयाको भगवान्की सवारी निकालकर रथयात्रा सम्बन्धी उत्सव करना चाहिये। आषाढ़ शुक्ल एकादशीको भगवान्के शयनका उत्सव मनाना चाहिये। फिर श्रावणके महीनेमें श्रावणीकी विधिका पालन करना उचित है। भाद्रपद कृष्ण अष्टमीको भगवान् श्रीकृष्ण के जन्मका दिन है, उस दिन व्रत रखना चाहिये। तत्पश्चात् आश्विनके महीने में सोये हुए भगवान्के करवट बदलनेका उत्सव मनाना उचित है। उसके बाद समयानुसार श्रीहरिके शयनसे उठनेका उत्सव करे, अन्यथा वह मनुष्य विष्णुका द्रोह करनेवाला माना जाता है। आश्विनके शुक्लपक्षमें भगवती महामायाका भी पूजन करना कर्तव्य है। उस समय विष्णुरूपा भगवतीकी सोने या चाँदीकी प्रतिमा बना लेनी चाहिये। हिंसा और द्वेषका परित्याग करना चाहिये क्योंकि विष्णुकी पूजा करनेवाला पुरुष धर्मात्मा होता है [और हिंसा, द्वेष आदि महान् अधर्म हैं ] । कार्तिक पुण्यमास है; उसमें इच्छानुसार पुण्य करे । भगवान् दामोदरके लिये प्रतिदिन किसी ऊँचे स्थानपर दीपदान करना उचित है। दीपक चार अंगुलका चौड़ा हो और उसमें सात बत्तियाँ जलायी जायें। फिर पक्षके अन्तमें अमावास्याको सुन्दर दीपावलीका उत्सव मनाया जाय। मार्गशीर्षके शुक्लपक्षमें षष्ठी तिथिको सफेद वस्त्रोंके द्वारा भगवान् जगदीशकी और विशेषतः ब्रह्माजीकी पूजा करे। पौष मासमें भगवान्का पुष्पमिश्रित जलसे अभिषेक तथा तरल चन्दन वर्जित है। मकरसंक्रान्तिके दिन तथा मापके महीने में अधिवासित तण्डुलका भगवान्के लिये नैवेद्य लगावे और ‘ॐ विष्णवे नमः’ इस मन्त्रका उच्चारण करे। फिर ब्राह्मणोंको देवाधिदेव भगवान् के सामने बिठाकर भक्तिपूर्वक भोजन करावे तथा उन भगवद्भक्त द्विजोंकी भगवदबुद्धिसे पूजा करे। एक भगवद्भक्त पुरुषके भोजन करा देनेपर करोड़ों मनुष्योंके भोजन करानेका फल होता है। यदि पूजामें किसी अंगकी कमी रह गयी हो तो वह ब्राह्मण भोजनकरानेसे अवश्य पूर्ण हो जाती है। माघके शुक्लपक्षमें वसन्त पंचमीको भगवान् केशवको नहलाकर आमके पल्लव तथा भाँति-भाँतिके सुगन्धित चूर्ण आदिके द्वारा विधिपूर्वक उनकी पूजा करे। तत्पश्चात् ‘जय कृष्ण’ कहकर भगवान्का स्मरण करते हुए उन्हें एक मनोहर उपवनमें प्रदक्षिणभावसे ले जाय और वहाँ दोलोत्सव मनावे। उक्त उपवनको प्रज्वलित दीपकोंके द्वारा प्रकाशित किया जाय। उसमें ऐसे-ऐसे वृक्ष हों, जो सभी ऋतुओंमें फूलोंसे भरे रहें। फल-फूलोंसे सुशोभित नाना प्रकारके वृक्ष, पुष्पनिर्मित चंदोवे, जलसे भरे हुए घट, आमकी छोटी-बड़ी शाखाएँ तथा छत्र और चँवर आदि वस्तुएँ उस वनकी शोभा बढ़ा रही हों। कलियुगमें विशेषरूपसे दोलोत्सवका विधान है। फाल्गुनकी चतुर्दशीको आठवें पहरमें अथवा पूर्णिमा या प्रतिपदाकी सन्धिमें भगवान्की भक्तिपूर्वक विधिवत् पूजा करे। उस समय श्वेत, लाल, गौर तथा पीले-इन चार प्रकारके चूर्णोंका उपयोग करे, उनमें कर्पूर आदि सुगन्धित पदार्थ मिले होने चाहिये। हल्दीका रंग मिला देनेसे उन चूर्णोंके रंग तथा रूप और भी मनोहर हो जाते हैं। इनके सिवा, अन्य प्रकारके रंग-रूपवाले चूर्णोद्वारा भी परमेश्वरको प्रसन्न करे। एकादशीसे लेकर पंचमीतक इस उत्सवको पूरा करे अथवा पाँच या तीन दिनतक दोलोत्सव करना उचित है। यदि मनुष्य एक बार भी झूलेमें झूलते हुए दक्षिणाभिमुख श्रीकृष्णका दर्शन कर लें तो वे पापराशिसे मुक्त हो जाते हैं; इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
महाभागे ! जो मनुष्य वैशाख मासमें जलसे भरे हुए सोने, चाँदी, ताँबे अथवा मिट्टीके पात्रमें श्रीशालग्रामको या भगवान्की प्रतिमाको पधराकर जलमें ही उसका पूजन करता है, उसके पुण्यकी गणना नहीं हो सकती। ‘दमन’ (दौना) नामक पुष्पका आरोपण करके उसे श्रीविष्णुको अर्पित करना चाहिये। वैशाख, श्रावण अथवा भाद्रपद मासमें ‘दमनार्पण’ करना उचित है। पूर्वी हवा चलनेपर ही दमनार्पण आदि कर्म होते हैं; उस समय विधिपूर्वक भगवान्का पूजनकरना चाहिये; अन्यथा सब कुछ निष्फल हो जाता है। वैशाखकी तृतीयाको विशेषतः जलमें अथवा मण्डल, मण्डप या बहुत बड़े वनमें यह कार्य सम्पन्न करना चाहिये। वैशाख मासमें प्रतिदिन भगवान्के अंगको सुगन्धित चन्दन आदि लगाकर परिपुष्ट करे। प्रयत्नपूर्वक ऐसा कार्य करे, जो भगवान्के कृश शरीरके लिये पुष्टिकारक जान पड़े। चन्दन, अगुरु, ह्रीवेर, कालागरु, कुंकुम, रोचना, जटामांसी और मुरा-ये विष्णुके उपयोगमें आनेवाले आठ गन्ध माने गये हैं। उन सुगन्धित पदार्थोंका भगवान् विष्णुके अंगोंपर लेप करे । तुलसीके काष्ठको चन्दनकी भाँति घिसकर उसमें कर्पूर और अगरु मिला दे अथवा केसर ही मिलावे तो वह भगवान्के लिये ‘हरिचन्दन’ हो जाता है। जो मनुष्य यात्राके समय भक्तिपूर्वक श्रीकृष्णका दर्शन करते हैं, उनकी पुनरावृत्ति नहीं होती। जो लोग सुगन्धमिश्रित जलसे भगवान्को नहलाते हैं; उनके लिये भी यही फल है अथवा वैशाख मासमें भगवान्को फूलोंके भीतर रखना चाहिये । वृन्दावनमें जाकर तरह- तरहके फल जुटावे और भगवान्को भोग लगाकर किसी सुयोग्य भगवद्भक्तको सब खिला दे ।नारियलका फल अर्पण करे अथवा उसे फोड़कर उसकी गरी निकाल कर दे। बेरका फल निवेदन करे। कटहलका कोया निकालकर भोग लगावे तथा दहीयुक्त अन्नको घीसे तर करके भगवान्के आगे रखे। कहाँतक कहा जाय? जो-जो वस्तु अपनेको विशेष प्रिय हो, वह सब भगवान्को अर्पण करे। नैवेद्य और वस्त्र आदि भगवान्को अर्पण करें। पुनः उसे स्वयं उपयोगमें न लावे। विष्णुके उद्देश्यसे दी हुई वस्तु विशेषतः उनके भक्तोंको ही देनी चाहिये। महेश्वरि ! इस प्रकार संक्षेपसे ही मैंने तुम्हारे सामने ये कुछ बातें बतायी हैं। जिन शास्त्रोंमें श्रीकृष्णके रूप और गुणोंका वर्णन है, उन्हें समझनेकी शक्ति हो जाय तो और कोई शास्त्र पढ़नेकी कुछ भी आवश्यकता नहीं है। भगवान्के प्रेम, भाव, रस, भक्ति, विलास, नाम तथा हारोंमें यदि मन लग गया तो कामिनियोंसे क्या लेना है ? अतः व्रज-बालकोंके स्वामी श्रीकृष्णको, उनके क्रीडा-निकेतन वृन्दावनको, व्रजभूमिको तथा यमुना-जलको मन लगाकर भजो । यदि इस शरीरमें त्रिभुवनके स्वामी भगवान् गोविन्दके चरणारविन्दोंकी धूलि लिपटी हो तो इसमें अगरु और चन्दन आदि लगाना व्यर्थ है।
अध्याय 137 मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
सूतजी कहते हैं— महर्षियो। एक समयकी बात हैं, देवाधिदेव जगद्गुरु भगवान् सदाशिव यमुनाजीके तटपर बैठे हुए थे। उस समय नारदजीने उनके चरणोंमें प्रणाम करके कहा-‘देवदेव महादेव! आप सर्वज्ञ, जगदीश्वर, भगवद्धर्मका तत्त्व जाननेवाले तथा श्रीकृष्ण मन्त्रका ज्ञान रखनेवालोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। देवेश्वर ! यदि मैं सुननेका अधिकारी हो तो कृपा करके मुझे वह मन्त्र बताइये, जो एक बारके उच्चारण मात्रसे मनुष्योंको उत्तम फल प्रदान करता है।
शिवजी बोले- महाभाग ! तुमने यह बहुत उत्तम प्रश्न किया है। क्यों न हो, तुम सम्पूर्ण जगत्के हितैषी जो ठहरे। मैं तुम्हें मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश दे रहा हूँ। यद्यपि वह बहुत ही गोपनीय है तो भी मैं तुमसे उसका वर्णन करूँगा। कृष्णके दो मन्त्र अत्यन्त उत्तमहैं, उन दोनोंको तुम्हें बताता हूँ; मन्त्र-चिन्तामणि, युगल, द्वय और पंचपदी-ये इन दोनों मन्त्रोंके पर्यायवाची नाम हैं। इनमें पहले मन्त्रका प्रथम पद हैं- गोपीजन’, द्वितीय पद है—’वल्लभ’, तृतीय पद है-‘चरणान्’, चतुर्थ पद है—’शरणम्’ तथा पंचम पद हैं- ‘प्रपद्ये।’ इस प्रकार यह (‘गोपीजनवल्ल भचरणान् शरणं प्रपद्ये) मन्त्र पाँच पदका है। इसका नाम मन्त्र- चिन्तामणि है। इस महामन्त्रमें सोलह अक्षर हैं। दूसरे मन्त्रका स्वरूप इस प्रकार है- ‘नमो गोपीजन’ इतना कहकर पुनः ‘वल्लभाभ्याम्’ का उच्चारण करना चाहिये। तात्पर्य यह कि ‘नमो गोपीजनवल्लभाभ्याम्’ के रूपमें यह दो पदका मन्त्र हैं, जो दस अक्षरोंका बताया गया है। जो मनुष्य श्रद्धा या अश्रद्धासे एक बार भी इस पंचपदीका जप कर लेता है, उसे निश्चय ही श्रीकृष्णके प्यारे भक्तोंका सान्निध्य प्राप्त होता है इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। इस मन्त्रको सिद्ध करनेके लिये न तो पुरश्चरणकी अपेक्षा पड़ती है और न न्यास विधानका क्रम ही अपेक्षित है। देश-कालका भी कोई नियम नहीं है। अरि और मित्र आदिके शोधनकी भी आवश्यकता नहीं है। मुनीश्वर ! ब्राह्मणसे लेकर चाण्डालतक सभी मनुष्य इस मन्त्रके अधिकारी हैं। स्त्रियाँ, शूद्र आदि, जड़, मूक, अन्ध, पंगु, हूण, किरात, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, यवन, कंक एवं खश आदि पापयोनिके दम्भी, अहंकारी, पापी, चुगलखोर, गोवती, हत्यारे महापातकी, उपपातकी, ज्ञान-वैराग्यहीन, श्रवण आदि साधनोंसे रहित तथा अन्य जितने भी निकृष्ट श्रेणीके लोग हैं, उन सबका इस मन्त्रमें अधिकार है। मुनिश्रेष्ठ ! यदि सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्णमें उनकी भक्ति है तो वे सब के-सब अधिकारी हैं, अन्यथा नहीं; इसलिये भगवान्में भक्ति न रखनेवाले कृतघ्न, मानी, श्रद्धाहीन और नास्तिकको इस मन्त्रका उपदेश नहीं देना चाहिये। जो सुनना न चाहता हो अथवा जिसके हृदयमें गुरुके प्रति सेवाका भाव न हो उसे भी यह मन्त्र नहीं बताना चाहिये। जो श्रीकृष्णका अनन्य भक्त हो, जिसमें दम्भ और लोभका अभाव हो तथा जो काम और क्रोधसेसर्वथा मुक्त हो, उसे यत्नपूर्वक इस मन्त्रका उपदेश देना चाहिये। इस मन्त्रका ऋषि मैं ही हूँ। बल्लवी वल्लभ श्रीकृष्ण इसके देवता हैं तथा प्रियासहित भगवान् गोविन्दके दास्यभावकी प्राप्तिके लिये इसका विनियोग किया जाता है। यह मन्त्र एक बारके ही उच्चारणसे कृतकृत्यता प्रदान करनेवाला है।
द्विजश्रेष्ठ ! अब मैं इस मन्त्रका ध्यान बतलाता हूँ। वृन्दावनके भीतर कल्पवृक्ष मूला रत्नमय सिंहासनके ऊपर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी प्रिया श्रीराधिकाजीके साथ विराजमान हैं। श्रीराधिकाजी उनके वामभागमें बैठी हुई हैं। भगवान्का श्रीविग्रह मेघके समान श्याम है। उसके ऊपर पीताम्बर शोभा पा रहा है। उनके दो भुजाएँ हैं। गलेमें वनमाला पड़ी हुई है। मस्तकपर मोरपंखका मुकुट शोभा दे रहा है। मुख मण्डल करोड़ों चन्द्रमाओंकी भाँति कान्तिमान् है। वे अपने चंचल नेत्रोंको इधर-उधर घुमा रहे हैं। उनके कानोंमें कनेर पुष्पके आभूषण सुशोभित हैं। ललाटमें दोनों ओर चन्दन तथा बीचमें कुंकुम-विन्दुसे तिलक लगाया गया है, जो मण्डलाकार जान पड़ता है। दोनों कुण्डलोंकी प्रभासे वे प्रातः कालीन सूर्यके समान तेजस्वी दिखायी दे रहे हैं। उनके कपोल दर्पणकी भाँति स्वच्छ हैं, जो पसीनेकी छोटी-छोटी बूँदोंके कारण बड़े शोभायमान प्रतीत होते हैं। उनके नेत्र प्रियाके मुखपर लगे हुए हैं। उन्होंने लीलावश अपनी भाँहें ऊँची कर ली हैं। ऊँची नासिकाके अग्रभागमें मोतीकी बुलाक चमक रही है। पके हुए कुँदरूके समान लाल ओठ दाँतोंका प्रकाश पड़नेसे अधिक सुन्दर दिखायी देते हैं। केयूर, अंगद, अच्छे-अच्छे रल तथा मुँदरियोंसे भुजाओं और हाथोंकी शोभा बहुत बढ़ गयी है। वे बायें हाथमें मुरली तथा दाहिनेमें कमल लिये हुए हैं। करधनीकी प्रभासे शरीरका मध्यभाग जगमगा रहा है नूपुरोंसे चरण सुशोभित हो रहे हैं। भगवान् क्रीड़ा-रसके आवेश चंचल प्रतीत होते हैं। उनके नेत्र भी चपल हो रहे हैं। वे अपनी प्रियाको बारंबार हँसाते हुए स्वयं भी उनके साथ हँस रहे हैं। इस प्रकार श्रीराधाके साथ श्रीकृष्णका चिन्तन करना चाहिये।तदनन्तर श्रीराधाकी सखियोंका ध्यान करे। उनकी अवस्था और गुण श्रीराधाजीके ही समान हैं। वे चँवर और पंखी आदि लेकर अपनी स्वामिनीकी सेवामें लगी हुई हैं।
नारदजी! श्रीकृष्णप्रिया राधा अपनी चैतन्य आदि अन्तरंग विभूतियोंसे इस प्रपंचका गोपन संरक्षण करती हैं; इसलिये उन्हें ‘गोपी’ कहते हैं। वे श्रीकृष्णकी आराधनामें तन्मय होनेके कारण ‘राधिका’ कहलाती हैं। श्रीकृष्णमयी होनेसे ही वे परादेवता हैं। पूर्णत: लक्ष्मीस्वरूपा हैं। श्रीकृष्णके आह्लादका मूर्तिमान् स्वरूप होनेके कारण मनीषीजन उन्हें ‘ह्लादिनी शक्ति’ कहते हैं। श्रीराधा साक्षात् महालक्ष्मी हैं और भगवान् श्रीकृष्ण साक्षात् नारायण हैं। मुनिश्रेष्ठ! इनमें थोड़ा-सा भी भेद नहीं है। श्रीराधा दुर्गा हैं तो श्रीकृष्ण रुद्र। वे सावित्री हैं तो ये साक्षात् ब्रह्मा हैं। अधिक क्या कहा जाय, उन दोनोंके बिना किसी भी वस्तुकी सत्ता नहीं है। जड़-चेतनमय सारा संसार श्रीराधा कृष्णका ही स्वरूप है। इस प्रकार सबको उन्हीं दोनोंकी विभूति समझो। मैं नाम ले-लेकर गिनाने लगूँ तो सौ करोड़ वर्षोंमें भी उस विभूतिका वर्णन नहीं कर सकता। तीनों लोकोंमें पृथ्वी सबसे श्रेष्ठ मानी गयी है। उसमें भी जम्बूद्वीप सब द्वीपोंसे श्रेष्ठ है। जम्बूद्वीपमें भी भारतवर्ष और भारतवर्ष मेंभी मथुरापुरी श्रेष्ठ है। मथुरामें भी वृन्दावन, वृन्दावनमें भी गोपियोंका समुदाय, उस समुदायमें भी श्रीराधाकी सखियोंका वर्ग तथा उसमें भी स्वयं श्रीराधिका सर्वश्रेष्ठ हैं। श्रीकृष्णके अत्यधिक निकट होनेके कारण श्रीराधाका महत्त्व सबकी अपेक्षा अधिक है। पृथ्वी आदिकी उत्तरोत्तर श्रेष्ठताका इसके सिवा दूसरा कोई कारण नहीं है। वही ये श्रीराधिका हैं, जो ‘गोपी’ कही गयी हैं; इनकी सखियाँ ही ‘गोपीजन’ कहलाती हैं। इन सखियोंके समुदायके दो ही प्रियतम हैं, दो ही उनके प्राणोंके स्वामी हैं- श्रीराधा और श्रीकृष्ण। उन दोनोंके चरण ही इस जगत्में शरण देनेवाले हैं। मैं अत्यन्त दुःखी जीव हूँ, अतः उन्हींका आश्रय लेता हूँ-उन्हींकी शरणमें पड़ा हूँ। शरणमें जानेवाला मैं जो कुछ भी हूँ तथा मेरी कहलानेवाली जो कोई भी वस्तु है, वह सब श्रीराधा और श्रीकृष्णको ही समर्पित है— सब कुछ उन्हींके लिये है, उन्हींकी भोग्य वस्तु है। मैं और मेरा कुछ भी नहीं है। विप्रवर! इस प्रकार मैंने थोड़ेमें ‘गोपीजनवल्लभचरणान् शरणं प्रपद्ये’ इस मन्त्रके अर्थका वर्णन किया है। युगलार्थ, न्यास, प्रपत्ति, शरणागति तथा आत्मसमर्पण – ये पाँच पर्याय बतलाये गये हैं। साधकको रात-दिन आलस्य छोड़कर यहाँ बताये हुए विषयका चिन्तन करना चाहिये।
अध्याय 138 दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
शिवजी कहते हैं – नारद! अब मैं दीक्षाकी यथार्थ विधिका वर्णन करता हूँ, ध्यान देकर सुनो। इस विधिका अनुष्ठान न करके केवल श्रवण मात्रसे भी मनुष्य भव-बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। विद्वान् पुरुष इस बात को समझ ले कि साधारण कीटसे लेकर ब्रह्मजीतक यह सम्पूर्ण जगत् नश्वर है; इसमें आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक- इन तीन प्रकारके दुःखोंका ही अनुभव होता है । यहाँके जितने सुख हैं, ये सभी अनित्य हैं अतः उन्हें भी दुःखौकी हो श्रेणीमें रखें। फिर विरक्त होकर उनसे अलग हो जाय और संसारबन्धनसे छूटने के लिये उपायोंका विचार करे साथ ही सर्वोत्तम सुखकी प्राप्तिके साधनोंको भी सोचे तथा पूर्ण शान्त बना रहे। नाना प्रकारके कर्मोंका ठीक ठीक सम्पादन बहुत कठिन है, ऐसा समझकर परम बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह अत्यन्त चिन्तित होकर श्रीगुरुदेवकी सरणमें जाय जो शान्त हों, जिनमें मात्सर्यका नितान्त अभाव हो, जो श्रीकृष्णके अनन्य भत हो, जिनके मनमें श्रीकृष्ण-प्राप्तिके सिवा दूसरी कोई कामना न हो, जो भगवत्कृपाके सिवा दूसरे किसी साधनका भरोसा न करते हों, जिनमें क्रोध और लोभ लेशमात्र भी न हो, जो श्रीकृष्णरसके तत्त्व और श्रीकृष्णमन्त्रकी जानकारी रखनेवालों में श्रेष्ठ हो, जिन्होंने श्रीकृष्णमन्त्रका ही आश्रय लिया हो, जो सदा मन्त्रके प्रति श्रद्धा-भक्ति रखते हों, सर्वदा पवित्र रहते हों, प्रतिदिन सद्धर्मका उपदेश देते और लोगोंको सदाचारमें प्रवृत्त करते हों, ऐसे कृपालु एवं विरक्त महात्मा ही गुरु कहलाते हैं। शिष्य भी ऐसा होना चाहिये, जिसमें प्रायः उपर्युक्त गुण मौजूद हो इसके सिवा उसे गुरुचरणोंकीसेवाके लिये इच्छुक, गुरुका नितान्त भक्त तथा मुमुक्षु होना चाहिये। जिसमें ऐसी योग्यता हो, वही शिष्य कहलाता है। प्रेमपूर्ण हृदयसे भगवान् श्रीकृष्णकी साक्षात् सेवाका जो अवसर मिलता है, उसीको वेद वेदांगका ज्ञान रखनेवाले विद्वानोंने मोक्ष कहा है।
शिष्यको चाहिये कि वह गुरुके चरणोंकी शरणमें जाकर उनसे अपना वृत्तान्त निवेदन करे तथा गुरुको उचित है कि वे अत्यन्त प्रसन्न होकर बारम्बार समझाते हुए शिष्यके सन्देहोंका निराकरण करें, तत्पश्चात् उसे मन्त्रका उपदेश दें। चन्दन या मिट्टी लेकर शिष्यकी बायीं और दाहिनी भुजाओंके मूल-भागमें क्रमशः शंख और चक्रका चिह्न अंकित करें। फिर ललाट आदिमें विधिपूर्वक ऊर्ध्वपुण्ड्र लगायें। तदनन्तर पहले बताये हुए दोनों मन्त्रोंका शिष्यके दाहिने कानमें उपदेश करें तथा क्रमशः उन मन्त्रोंका अर्थ भी उसे अच्छी तरह समझा दें। फिर यत्नपूर्वक उसका कोई नूतन नाम रखें, जिसके अन्तमें ‘दास’ शब्द जुड़ा हो। इसके बाद विद्वान् शिष्य प्रेमपूर्वक वैष्णवोंको भोजन कराये तथा अत्यन्त भक्तिके साथ वस्त्र और आभूषण आदिके द्वारा श्रीगुरुका पूजन करे। इतना ही नहीं, अपने शरीरको भी गुरुकी सेवामें समर्पित कर दे।
नारद! अब मैं तुम्हें शरणागत पुरुषोंके धर्म बताना चाहता हूँ, जिनका आश्रय लेकर कलियुगके मनुष्य भगवान्के धाममें पहुँच जायँगे। ऊपर बताये अनुसार गुरुसे मन्त्रका उपदेश पाकर गुरुभक्त शिष्य प्रतिदिन गुरुकी सेवामें संलग्न हो अपने ऊपर उनकी पूर्ण कृपा समझे। तदनन्तर सत्पुरुषोंके, उनमें भी विशेषतः शरणागतोंके धर्म सीखे और वैष्णवोंको अपना इष्टदेवसमझकर सदा उन्हें संतुष्ट रखे। शरणागत शिष्यको कभी इहलोक और परलोककी चिन्ता नहीं करनी चाहिये; क्योंकि इहलोकके जितने भी सुख भोग हैं, वे पूर्वजन्ममें किये हुए कमके अनुसार प्राप्त होते हैं। [अतः जितना प्रारब्धमें होगा, उतना अपने-आप मिल जायगा ] और जो परलोकका सुख है, उसे तो भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही पूर्ण करेंगे। अतः मनुष्यको इहलोक और परलोकके सुखोंके लिये किये जानेवाले प्रयत्नका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। सब प्रकारके उपायोंका परित्याग करके अपनेको श्रीकृष्णका सेवक समझकर निरन्तर उन्हींकी आराधनामें संलग्न रहना चाहिये। जैसे पतिव्रता स्त्री चिरकालसे परदेश गये हुए अपने पतिके लिये सदा दीन बनी रहती है प्रियतममें अनुराग रखती हुई केवल उसीसे मिलनेकी आकांक्षा रखती है, निरन्तर उसीके गुणोंका चिन्तन, गायन और श्रवण करती है, उसी प्रकार शरणागत भक्तको भी सदा श्रीकृष्णके गुण तथा लीला आदिका स्मरण, कीर्तन और श्रवण करते रहना चाहिये। परन्तु यह सब किसी दूसरे फलका साधन बनाकर कदापि नहीं करना चाहिये। जैसे पतिव्रता कामिनी चिरकालके बाद परदेशसे लौटे हुए पतिको एकान्तमें पाकर उसे छातीसे लगाती तथा नेत्रोंसे उसकी रूप-सुधाका पान करती है, साथ ही वह अधिक प्रसन्नताके साथ उसकी सेवामें लग जाती है, उसी प्रकार अर्चाविग्रह (स्वयं प्रकट हुई मूर्ति) के रूपमें अवतीर्ण हुए भगवान्के साथ रहकर भक्तको निरन्तर उनकी परिचर्या में लगे रहना चाहिये। वह सदा अनन्य भावसे भगवान्की शरणमै रहे। भगवान्की आराधना के सिवा दूसरे किसी साधनका न तो आश्रय ले और न दूसरे साधनकी इच्छा करे। भगवान्के सिवा अन्य किसी वस्तुसे प्रयोजन न रखे कभी किसीकी निन्दा न करे न तो दूसरेका जूठा खाय और न दूसरेका प्रसाद ही ग्रहण करे। भगवान् और वैष्णवोंकी निन्दा कभी न सुने। यदि कहीं निन्दा होती होतो कान बंद करके वहाँसे अन्यत्र चला जाय। विप्रवर नारद! मेरा तो ऐसा विचार है कि शरणागत भक्तको मृत्युपर्यन्त चातकी वृत्तिका आश्रय लेकर युगल मन्त्रके अर्थका विचार करते हुए रहना चाहिये। जैसे चातक सरोवर, समुद्र और नदी आदिको छोड़कर केवल मेघसे पानीकी याचना करता है अथवा प्यासा ही मर जाता है, उसी प्रकार प्रयत्नपूर्वक भगवत्प्राप्तिके साधनोंपर विचार करना चाहिये। अपने इष्टदेव श्रीराधा और श्रीकृष्णसे इस बातकी याचना करनी चाहिये कि वे उसे आश्रय प्रदान करें। सदा अपने इष्टदेवके, उनके भक्तोंके और विशेषतः गुरुके अनुकूल रहना चाहिये । प्रतिकूलताका सर्वथा परित्याग कर देना चाहिये। मैं एक बार शरणमें जाकर अनुभवपूर्वक कहता हूँ-श्रीराधा और श्रीकृष्ण दोनोंके गुण परम कल्याणमय हैं; मेरी बातपर विचार करके शरणागत पुरुष उनपर विश्वास करे कि ये दोनों इष्टदेव निश्चय ही मेरा उद्धार करेंगे। फिर विनीत भावसे प्रार्थना करते हुए कहे- ‘नाथ! आप ही दोनों पुत्र, मित्र और गृह आदिकी ममतासे पूर्ण इस संसारसागरसे मेरी रक्षा करनेवाले हैं। आप ही शरणागतोंका भय दूर करते हैं। मैं जैसा भी हूँ, इस लोक और परलोकमें मेरा जो कुछ भी है, वह सब आज मैंने आप दोनोंके चरणोंमें समर्पित कर दिया। मैं अपराधोंका घर हूँ। मैंने सब साधन छोड़ रखे हैं; अब मुझे कोई सहारा देनेवाला नहीं है, इसलिये नाथ! अब आप ही दोनों मेरे आश्रय हैं। राधिकाकान्त ! मैं मन, वाणी और कर्मसे आपका हूँ। कृष्णप्रिया राधे ! मैं आपका ही हूँ, आप ही दोनों मेरी गति हैं। मैं आपकी शरण में पड़ा हूँ। आप दोनों करुणाके भंडार – दयाके सागर हैं; मुझपर कृपा करें। मैं दुष्ट हूँ, अपराधी हूँ; तो भी कृपा करके मुझे अपना दास्यभाव प्रदान करें।’ मुनिश्रेष्ठ! जो भक्त शीघ्र ही दास्यभावकी प्राप्ति चाहता हो, उसे भगवान्के चरणकमलोंका चिन्तन करते हुए प्रतिदिन उपर्युक्त प्रार्थना करनी चाहिये ।’यहाँतक मैंने शरणागतोंके बाह्य धर्मोका संक्षेपसे वर्णन किया है। अब उनके अत्यन्त उत्कृष्ट आन्तरिक धर्मका परिचय दिया जाता है। अन्तरंग तको यत्नपूर्वक कृष्णप्रिया श्रीराधाके सखीभावका आश्रय लेकर निरन्तर उन दोनोंकी सेवा करनी चाहिये तथा आलस्यको अपने पास फटकने नहीं देना चाहिये। मन्त्र और उसके अंगोंका पहले वर्णन किया जा चुका है। उसके अधिकारी, अधिकारियोंके धर्म तथा उन्हें मिलनेवाले फलका भी प्रतिपादन किया गया है। नारद! तुम भी इस साधनाका अनुष्ठान करो; तुम्हें श्रीराधा और श्रीकृष्णके दास्य भावकी प्राप्ति अवश्य होगी इसमें कोई संदेह नहीं है जो एक बार भी शरणमें जा ‘मैं आपका हूँ’ ऐसा कहकर याचना करता है, उसे भगवान् अवश्य ही अपना दासत्व प्रदान करते हैं। मेरे मनमें इसके लिये अन्यथा विचार करनेकी गुंजाइश नहीं है। मुनिवर। यह मैंने तुमसे शरणागत भक्तके आन्तरिक धर्मका वर्णन किया है। यह गुह्यसे भी बढ़कर अत्यन्त गुह्यतम विषय है, इसलिये इसे प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिये-सर्वत्र प्रकाशित नहीं करना चाहिये।
इस प्रसंग में मैं तुम्हें अत्यन्त अद्भुत रहस्यकी बात बतलाता हूँ, जिसे मैंने साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णके मुखसे सुना था। पूर्वकालकी बात हैं, मैं कैलाश पर्वतके शिखरपर एक सघन वनमें रहता था और यहाँ भगवान् श्रीनारायणका ध्यान करते हुए उनके श्रेष्ठ मन्त्रका जप करता था। इससे संतुष्ट होकर भगवान् मेरे सामने प्रकट हुए और बोले-‘वर माँगो’ उनके य कहनेपर मैंने आँखें खोलकर देखा, भगवान् अपनी प्रिया श्रीलक्ष्मीजीके साथ गरुड़पर विराजमान थे। मैंने बारम्बारप्रणाम करके लक्ष्मीपतिसे कहा-‘कृपासिन्धो! आपका जो रूप परम आनन्ददायक, सम्पूर्ण आनन्दोंका आश्रय, नित्य, मनोहर मूर्तिधारी, सबसे श्रेष्ठ निर्गुण, निष्क्रिय और शान्त है, जिसे विद्वान् पुरुष ब्रह्म कहते हैं, उसको मैं अपने नेत्रोंसे देखना चाहता हूँ।’ यह सुनकर भगवान् कमलापतिने मुझ शरणागत भक्त से कहा – ‘महादेव! तुम्हारे मनमें मेरे जिस रूपको देखनेकी इच्छा है, उसका अभी दर्शन करोगे। यमुनाके पश्चिम तटपर मेरा लीला-धाम वृन्दावन है वहीं चले जाओ।’ यों कहकर वे जगदीश्वर अपनी प्रियाके साथ अन्तर्धान हो गये। तब मैं भी यमुनाके सुन्दर तटपर चला आया। वहाँ मुझे सम्पूर्ण देवेश्वरोंके भी ईश्वर श्रीकृष्णका दर्शन हुआ, जो किशोरावस्थासे युक्त, कमनीय गोपवेष धारण किये,अपनी प्रियाके कंधेपर बायाँ हाथ रखकर खड़े थे। उनकी वह की बड़ी मनोहर जान पड़ती थी। चारों ओरसे गोषियोंका समुदाय था और बीचमें भगवान् खड़े होकर श्रीराधिकाजीको हँसाते हुए स्वयं ही हँस रहे थे। उनका श्रीविग्रह सजल मेघके समान श्यामवर्ण तथा कल्याणमय गुणका धाम था। श्रीकृष्ण मुझे देखकर हँसे उनकी वाणीमें अमृत भरा था। वे मुझसे बोले- ‘रुद्र। तुम्हारा मनोरथ जानकर आज मैंने तुम्हें दर्शन दिया। इस समय मेरे जिस अलौकिक रूपको तुम देख रहे हो, यह निर्मल प्रेमका पुंज है। इसके रूपमें सत्, चित् और आनन्द ही मूर्तिमान् हुए हैं। उपनिषदोंके समूह मेरे इसी स्वरूपको निराकार, निर्गुण, व्यापक, निष्क्रिय और परात्पर बतलाते हैं। मेरे दिव्य गुणोंका अन्त नहीं है तथा उन गुणोंको कोई सिद्ध नहीं कर सकता; इसीलिये वेदान्त शास्त्र मुझ ईश्वरको निर्गुण बतलाता है। महेश्वर! मेरा यह रूप चर्मचक्षुओंसे नहीं देखा जा सकता; अतः सम्पूर्ण वेद मुझे अरूप-निराकार कहते हैं। मैं अपने चैतन्यअंशसे सर्वत्र व्यापक हूँ। इससे विद्वान् लोग मुझे ‘ब्रह्म’ के नाम से पुकारते हैं। मैं इस प्रपंचका कर्ता नहीं हूँ इसलिये शास्त्र मुझे निष्क्रिय बताते हैं। शिव! मेरे अंश ही मायामय गुणोंके द्वारा सृष्टि आदि कार्य करते हैं। मैं स्वयं कुछ भी नहीं करता। महादेव! मैं तो इन गोपियोंके प्रेममें विल होकर न तो दूसरी कोई क्रिया जानता हूँ और न मुझे अपने आपका ही भान रहता है। ये मेरी प्रिया श्रीराधिका हैं; इन्हें परा देवता समझो। मैं इनके प्रेमके वशीभूत होकर सदा इन्होंके साथ विचरण करता है। इनके पीछे और अगल-बगलमें जो लाखों सखियाँ हैं, ये सब की सब नित्य हैं। जैसे मेरा विग्रह नित्य है, वैसे ही इनका भी है। मेरे सखा, पिता, गोप, गौएँ तथा वृन्दावन – ये सब नित्य हैं। इन सबका स्वरूप चिदानन्दरसमय ही है। मेरे इस वृन्दावनका नाम आनन्दकन्द समझो। इसमें प्रवेश करने मात्रसे मनुष्यको पुनः संसारमें जन्म नहीं लेना पड़ता। मैं वृन्दावन छोड़कर कहीं नहीं जाता। अपनी इस प्रियाके साथ सदा यहीं निवास करता हूँ । रुद्र! तुम्हारे मनमें जिस-जिस बातको जाननेकी इच्छा थी, वह सब मैंने बता दिया। बोलो, इस समय मुझसे और क्या सुनना चाहते हो ?’
मुनिश्रेष्ठ नारद! तब मैंने भगवान्से कहा ‘प्रभो। आपके इस स्वरूपको प्राप्ति कैसे हो सकती है ? इसका उपाय मुझे बताइये।’ भगवान्ने कहा ‘रुद्र! तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है; किन्तु यह विषय अत्यन्त रहस्यका है, इसलिये इसे यत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिये। देवेश्वर ! जो दूसरे उपायका भरोसा छोड़कर एक बार हम दोनोंकी शरणमें आ जाता है और गोपीभावसे मेरी उपासना करता है, वही मुझे पा सकता है जो एक बार हम दोनोंकी शरणमें आ जाता है अथवा अकेली मेरी इस प्रियाको ही अनन्यभावसे उपासना करता है, वह मुझे अवश्य प्राप्त होता है। जो एक बार भी शरणमें आकर ‘मैं आपका ऐसा कह देता है, वह साधनके बिना भी मुझे प्राप्त कर लेता है—इसमें संशय नहीं है। * इसलियेसर्वथा प्रयत्न करके मेरी प्रियाकी शरण ग्रहण करनी चाहिये। रुद्र मेरी प्रियाका आश्रय लेकर तुम भी मुझे अपने वशमें कर सकते हो। यह बड़े रहस्यकी बात है, जिसे मैंने तुम्हें बता दिया है। तुम्हें यत्नपूर्वक इसे छिपाये रखना चाहिये। अब तुम भी मेरी प्रियतमा श्रीराधाकी शरण लो और मेरे युगल मन्त्रका जप करते हुए सदा मेरे इस धाममें निवास करो।’
यह कहकर दयानिधान श्रीकृष्ण मेरे दाहिने कानमें पूर्वोक्त युगल मन्त्रका उपदेश देकर मेरे देखते-देखते वहीं अपने गणोंसहित अन्तर्धान हो गये। तबसे मैं भी निरन्तर यहीं रहता हूँ। नारद! इस प्रकार मैंने तुम्हारे पूछे हुए विषयका सांगोपांग वर्णन कर दिया।
सूतजी कहते हैं— शौनकजी ! पूर्वकालमें भगवान् शंकरने साक्षात् श्रीकृष्णके मुखसे इस रहस्यका ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने नारदजीसे कहा और नारदजीने मुझे इसका उपदेश दिया था [ वही आज मैंने यहाँ आपको सुनाया है। ] आपको भी उचित है कि इस परमअद्भुत रहस्यको सदा गोपनीय रखें- इसे हर एकके सामने प्रकट न करें।
शौनकने कहा- गुरुदेव ! आपकी कृपासे आज कृतकृत्य हो गया; क्योंकि आपने मेरे सामने यह मैं रहस्योंका भी रहस्य प्रकाशित किया है।
सूतजी कहते हैं – ब्रह्मन्! आप भी अहर्निश युगल मन्त्रका जप करते हुए इन धर्मोका पालन कीजिये। थोड़े ही दिनोंमें आपको भगवान्के दास्यभावकी प्राप्ति हो जायगी। मैं भी यमुनाके तटपर भगवान् गोपीनाथके नित्य धाम वृन्दावनमें जा रहा हूँ। महादेवजीके मुखसे निकला हुआ यह उत्तम चरित्र परम पवित्र है, इसमें महान् अनुभव भरा हुआ है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इसका श्रवण करते हैं, वे अवश्य ही भगवान्के परमपदको प्राप्त होते हैं। यह स्वर्ग तथा मोक्षकी प्राप्तिका भी कारण और समस्त पापका नाशक है। जो लोग सदा भगवान् विष्णुकी सेवामें तत्पर रहकर इसका भक्तिपूर्वक पाठ करते हैं, उन्हें विष्णुलोकसे कभी किसी तरह भी पुन: इस संसारमें नहीं आना पड़ता।
अध्याय 139 अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
ऋषियोंने कहा- महाभाग ! हमलोगोंने आपके मुखसे भगवान् श्रीकृष्णका अत्यन्त अद्भुत चरित्र सुना है और इससे हमें पूरा संतोष हुआ है। अहो भगवान् श्रीकृष्णका माहात्म्य भक्तोंको सद्गति प्रदान करनेवाला है, उससे किसको तृप्ति हो सकती है। अतः हम पुनः श्रीकृष्णका चरित्र सुनना चाहते हैं।
सूतजी बोले- द्विजवरो! आपने बहुत उत्तम प्रश्न किया, यह जगत्को तारनेवाला है। आपलोग स्वयं तो कृतार्थ ही हैं क्योंकि श्रीकृष्णके भक्तोंका मनोरथ सदा पूर्ण रहता है। श्रीकृष्णका पावन चरित्र साधु पुरुषोंको अत्यन्त हर्ष प्रदान करनेवाला है। अब मैं इस विषयमें एक अत्यन्त अद्भुत उपाख्यान सुनाता हूँ। एक समयकी बात है, भगवान्के प्रिय भक्त देवर्षि नारदशी सब लोकोंमें घूमते हुए मथुरामें गये और वहाँ राज अम्बरीषसे मिले, जिनका चिन श्रीकृष्णकी आराधनामेंलगा हुआ था। मुनिश्रेष्ठ नारदके पधारनेपर साधु राजा अम्बरीषने उनका सत्कार किया और प्रसन्नचित्त होकर श्रद्धाके साथ आपलोगोंकी ही भाँति प्रश्न किया- ‘मुने! वेदोंके वक्ता विद्वान् पुरुष जिन्हें परम ब्रह्म कहते हैं, वे स्वयं भगवान् कमलनयन नारायण ही हैं जो सबसे परे हैं, जिनकी कोई मूर्ति न होनेपर भी जो मूर्तिमान् स्वरूप धारण करते हैं, जो सबके ईश्वर, व्यक्त और अव्यक्तस्वरूप हैं, सनातन हैं, समस्त भूत जिनके स्वरूप हैं, जिनका चित्तद्वारा चिन्तन नहीं किया जा सकता, ऐसे भगवान् श्रीहरिका ध्यान किस प्रकार हो सकता है? जिनमें यह सारा विश्व ओतप्रोत है, जो अव्यक्त, एक, पर (उत्कृष्ट) और परमात्मा के नामसे प्रसिद्ध हैं, जिनसे इस जगत्का जन्म, पालन और संहार होता है, जिन्होंने ब्रह्माजीको उत्पन्न करके उन्हें अपने ही भीतर स्थित वेदोंका ज्ञान दिया, जो समस्त पुरुषार्थोंको देनेवाले हैं, योगीजनोंको भी जिनके तत्त्वका बड़ी कठिनाईसे बोध होता है, उनकी आराधना कैसे की जा सकती है ? कृपया यह बात बताइये। जिसने श्रीगोविन्दकी आराधना नहीं की, वह निर्भय पदको नहीं प्राप्त कर सकता। इतना ही नहीं, उसे तप, यज्ञ और दानका भी उत्तम फल नहीं मिलता। जिसने श्रीगोविन्दके चरणारविन्दोंका रसास्वादन नहीं किया, उसे मनोवांछित फलकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? भगवान्की आराधना समस्त पापको दूर करनेवाली है, उसे छोड़कर मैं मनुष्योंके लिये दूसरा कोई प्रायश्चित्त नहीं देखता। जिनके भ्रूभंग मात्रसे समस्त सिद्धियोंकी प्राप्ति सुनी जाती है, उन क्लेशहारी केशवकी आराधना कैसे होती है? स्त्रियाँ भी किस प्रकारसे उनकी उपासना कर सकती हैं? ये सब बातें संसारकी भलाईके लिये आप मुझे बताइये। भगवान् भक्तिके प्रेमी हैं। सब लोग उनकी आराधनाकिस प्रकार कर सकते हैं? नारदजी! आप वैष्णव हैं, भगवान् के प्रिय भक्त हैं, परमार्थतत्त्वके ज्ञाता तथा ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हैं; इसलिये मैं आपसे ही यह बात पूछता भगवान् श्रीकृष्णके विषयमें किया हुआ प्रश्न वक्ता, श्रोता और प्रश्नकर्ता – इन तीनों पुरुषोंको पवित्र करता है; ठीक उसी तरह, जैसे उनके चरणोंका जल श्रीगंगाजीके रूपमें प्रवाहित होकर तीनों लोकोंको पावन बनाता है। देहधारियोंका यह देह क्षणभंगुर है, इसमें मनुष्य-शरीरका मिलना बड़ा दुर्लभ है, उसमें भी भगवान्के प्रेमी भक्तोंका दर्शन तो मैं और भी दुर्लभ समझता हूँ। इस संसारमें यदि क्षणभरके लिये भी सत्संग मिल जाय तो वह मनुष्योंके लिये निधिका काम देता है; क्योंकि उससे चारों पुरुषार्थ प्राप्त हो जाते हैं। भगवन्! आपकी यात्रा सम्पूर्ण प्राणियोंका मंगल करनेके लिये होती है। जैसे माता-पिताका प्रत्येक विधान बालकोंके हितके लिये ही होता है, उसी प्रकार भगवान्के पथपर चलनेवाले संत-महात्माओंकी हर एक क्रिया जगत्के जीवोंका कल्याण करनेके लिये ही होती है। देवताओंका चरित्र प्राणियोंके लिये कभी दुःखका कारण होता है और कभी सुखका; किन्तु आप जैसे भगवत्परायण साधु पुरुषोंका प्रत्येक कार्य जीवोंके सुखका ही साधक होता है। जो देवताओंकी जैसी सेवा करते हैं, देवता भी उन्हें उसी प्रकार सुख पहुँचानेकी चेष्टा करते हैं। जैसे छाया सदा शरीरके साथ ही रहती है, उसी प्रकार देवता भी कर्मोंके साथ रहते हैं—जैसा कर्म होता है, वैसी ही सहायता उनसे प्राप्त होती है, किन्तु साधु पुरुष स्वभावसे ही दीनोंपर दया करनेवाले होते हैं। इसलिये भगवन्! मुझे वैष्णव-धर्मो का उपदेश कीजिये, जिससे वेदोंके स्वाध्यायका फल प्राप्त होता है।नारदजीने कहा- राजन्! तुमने बहुत उत्तम प्रश्न किया है। तुम भगवान् श्रीविष्णुके भक्त हो और एकमात्र लक्ष्मीपतिका सेवन ही परमधर्म है-इस बातको जानते हो जिन विष्णुकी आराधना करनेपर समस्त विश्वकी आराधना हो जाती है तथा जिन सर्वदेवमय श्रीहरिके संतुष्ट होनेपर सारा जगत् संतुष्ट हो जाता है, जिनके स्मरण मात्रसे महापातकोंकी सेना तत्काल थर्रा उठती है, वे भगवान् श्रीनारायण ही सेवनके योग्य हैं। राजन् ! सब ओर मृत्युसे घिरा हुआ कौन ऐसा मनुष्य होगा, जो अपनी इन्द्रियोंके सकुशल रहते हुए श्रीमुकुन्दके चरणारविन्दोंका सेवन न करे। भगवान् तो ऋषियों और देवताओंके भी आराध्यदेव हैं। भगवानके नाम और लीलाओंका श्रवण, उनका निरन्तर पाठ, श्रीहरिके स्वरूपका ध्यान, उनका आदर तथा उनकी भक्तिका अनुमोदन – ये सब मनुष्यको तत्काल पवित्र कर देते हैं। वीर भगवान् उत्तम धर्मस्वरूप हैं, वे विश्व द्रोहियोंको भी पावन बना देते हैं। कारण कार्य आदिके भी जो कारण हैं, भगवान् उनके भी कारण हैं; किन्तु उनका कोई कारण नहीं है। वे योगी हैं। जगत्के जीव उन्हींके स्वरूप हैं। सम्पूर्ण जगत् ही उनका रूप है। श्रीहरि अणु, बृहत् कृश, स्थूल, निर्गुण, गुणवान् महान् अजन्मा तथा जन्म-मृत्युसे परे हैं उनका सदा ही ध्यान करना चाहिये। सत्पुरुषोंके संगसे कीर्तन करनेयोग्य भगवान् श्रीकृष्णकी निर्मल कथाएँ सुननेको मिलती हैं, जो आत्मा, मन तथा कानोंको अत्यन्त सरस एवं मधुर जान पड़ती हैं। भगवान् भावसे- हृदयके प्रगाढ़ प्रेमसे प्राप्त होते हैं, इस बातको तुम स्वयं भीजानते हो; तथापि तुम्हारे गौरवका खयाल करके संसारके हितके लिये मैं भी कुछ निवेदन करूँगा। जिसे परब्रह्म कहते हैं, जो पुरुषसे परे और सर्वोत्कृष्ट है तथा जिसकी मायासे ही इस सम्पूर्ण जगत्की सत्ता प्रतीत होती है, वह तत्त्व भगवान् अच्युत ही हैं। वे भक्तिपूर्वक पूजित होनेपर सभी मनोवांछित वस्तुएँ प्रदान करते हैं। राजन्! जो मनुष्य मन, वाणी और क्रियासे भगवान्की आराधनामें लगे हैं, उनके व्रत नियम बतलाया हूँ, इससे तुम्हें प्रसन्नता होगी। अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना) तथा निष्कपटभावसे रहना-ये भगवान्की प्रसन्नताके लिये मानसिक व्रत कहे गये हैं। नरेश्वर । दिनमें एक बार भोजन करना, रात्रिमें उपवास करना और बिना माँगे जो अपने-आप प्राप्त हो जाय उसी अन्नका उपयोग करना – यह पुरुषोंके लिये कायिक व्रत बताया गया है। वेदोंका स्वाध्याय, श्रीविष्णुके नाम एवं लीलाओंका कीर्तन तथा सत्यभाषण करना एवं चुगली न करना यह वाणीसे सम्पन्न होनेवाला व्रत कहा गया है। चक्रधारी भगवान् विष्णुके नामोंका सदा और सर्वत्र कीर्तन करना चाहिये। वे नित्य शुद्धि करनेवाले हैं; अतः उनके कीर्तनमें कभी अपवित्रता आती ही नहीं। वर्ण और आश्रम -सम्बन्धी आचारोंका विधिवत् पालन करनेवाले पुरुषके द्वारा परम पुरुष श्रीविष्णुकी सम्यक् आराधना होती है। यह मार्ग भगवान्को संतुष्ट करनेवाला है। स्त्रियाँ मन, वाणी और शरीरके संयमरूप व्रतों तथा हितकारी आचरणोंके द्वारा अपने पतिरूपी दयानिधान वासुदेवकी उपासना करती हैं। शूद्रोंके लिये द्विजाति तथा स्त्रियोंके लिये पति ही श्रीकृष्णचन्द्रकेस्वरूप हैं; अतः उनको शास्त्रोक्त मार्गसे इन्हींका पूजन करना चाहिये। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- इन तीन वर्णोंके लोग ही वेदोक्त मार्गसे भगवान्की आराधना करें। स्त्री और शूद्र आदि केवल नाम-जप या नाम कीर्तनके द्वारा ही भगवदाराधनके अधिकारी हैं। भगवान् लक्ष्मीपति केवल पूजन, यजन तथा व्रतॉसे ही नहीं संतुष्ट होते। वे भक्ति चाहते हैं; क्योंकि उन्हें ‘भक्तिप्रिय’ कहा गया है। पतिव्रता स्त्रियोंका तो पति ही देवता है। उन्हें पतिमें ही श्रीविष्णुके समान भक्ति रखनी चाहिये तथा मन, वाणी, शरीर और क्रियाओंद्वारा पतिकी ही पूजा करनी चाहिये। अपने पतिका प्रिय करनेमें लगी हुई स्त्रियोंके लिये पति सेवा ही विष्णुकी उत्तम आराधना है। यह सनातन श्रुतिका आदेश है। विद्वान् पुरुष अग्निमें हविष्यके द्वारा, जलमें पुष्पोंके द्वारा, हृदयमें ध्यानके द्वारा तथा सूर्यमण्डलमें जपके द्वारा प्रतिदिन श्रीहरिकी पूजा करते हैं।
अहिंसा पहला, इन्द्रिय- संयम दूसरा, जीवॉपर दया करना तीसरा, क्षमा चौथा, शम पाँचवाँ दम छठा, ध्यान सातवाँ और सत्य आठवाँ पुष्प है। इन पुष्पके द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण संतुष्ट होते हैं। नृपश्रेष्ठ! अन्य पुष्प तो पूजाके बाह्य अंग हैं, भगवान् उपर्युक्त पुष्पोंसे ही प्रसन्न होते हैं; क्योंकि वे भक्तिके प्रेमी हैं। जल वरुण देवताका [प्रिय] पुष्प है, घी, दूध और दही- चन्द्रमाके पुष्प हैं, अन्न आदि प्रजापतिके, धूप-दीप अग्निका और फल-पुष्पादि वनस्पतिका पुष्प है। कुश-मूलादि पृथ्वीका, गन्ध और चन्दन वायुका तथा श्रद्धा विष्णुका पुष्प है। बाजा विष्णुपद (विष्णु-प्राप्तिका साधन) माना गया है। इन आठ पुष्पोंसे पूजित होनेपर भगवान् विष्णु तत्काल प्रसन्न होते हैं। सूर्य, अग्नि, ब्राह्मण, गौ, वैष्णव, हृदयाकाश, वायु, जल, पृथ्वी, आत्मा और सम्पूर्णप्राणी-ये भगवान्की पूजाके स्थान हैं। सूर्यमें त्रयीविद्या (ऋक्, यजु, साम) के द्वारा और अग्निमें हविष्यको आहुतिके द्वारा भगवान्की पूजा करनी चाहिये । श्रेष्ठ ब्राह्मणमें आवभगतके द्वारा, गौओंमें घास और जल आदिके द्वारा, वैष्णवमें बन्धुजनोचित आदरके द्वारा तथा हृदयाकाशमें ध्याननिष्ठाके द्वारा श्रीहरिकी आराधना करनी उचित है। वायुमें मुख्य प्राण-बुद्धिके द्वारा, जलमें जलसहित पुष्पादि द्रव्योंके द्वारा, पृथ्वी अर्थात् वेदी या मृन्मयी मूर्ति मन्त्रपाठपूर्वक हार्दिक श्रद्धाके साथ समस्त भोग-समर्पणके द्वारा, आत्मामें अभेद बुद्धिसे क्षेत्रज्ञके चिन्तनद्वारा तथा सम्पूर्ण भूतोंमें भगवान्को व्यापक मानकर उनके प्रति समतापूर्ण भावके द्वारा श्रीहरिका पूजन करना चाहिये। इन सभी स्थानोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्मसे सुशोभित भगवान्के चतुर्भुज एवं शान्त रूपका ध्यान करते हुए एकाग्रचित्त होकर आराधन करना उचित है। ब्राह्मणोंके पूजनसे भगवान् की भी पूजा हो जाती है। तथा ब्राह्मणोंके फटकारे जानेपर भगवान् भी तिरस्कृत होते हैं। वेद और धर्मशास्त्र जिनके आधारपर टिके हुए हैं, वे ब्राह्मण भगवान् विष्णुके ही स्वरूप हैं; उनका नामोच्चारण करनेसे मनुष्य पवित्र हो जाते हैं। राजन् ! संसारमें धर्मसे ही सब प्रकारके शुभ फलोंकी प्राप्ति होती है और धर्मका ज्ञान वेद तथा धर्मशास्त्रसे होता है। उन दोनोंके भी आधार इस पृथ्वीपर ब्राह्मण ही हैं; अतः उनकी पूजा करनेसे जगदीश्वर ही पूजित होते हैं। देवाधिदेव विष्णु यज्ञ और दानोंसे, उग्र तपस्यासे, योगके अभ्याससे तथा सम्यक् पूजनसे भी उतने प्रसन्न नहीं होते, जितना ब्राह्मणोंको संतुष्ट करनेसे होते हैं। वेदोंके जाननेवाले ब्रह्माजी भी ब्राह्मणोंके भक्त हैं। ब्राह्मण देवता हैं, इस बातके वे ही प्रवर्तक हैं। वे ब्राह्मणोंको देवता मानते हैं; अतःब्राह्मणोंके संतुष्ट होनेपर ही उन्हें भी संतोष होता है। मातृकुल और पितृकुल- दोनों कुलोंके पूर्वज चिरकालसे नरकमें डूबे हों तो भी जब उनका वंशधर पुत्र श्रीहरिकी पूजा आरम्भ करता है, उसी समय वे स्वर्गमें चले जाते हैं। जिनका चित्त विश्वरूप वासुदेवमें आसक्त नहीं हुआ, उनके जीवनसे तथा पशुओंकी भाँति आहार-विहार आदि चेष्टाओंसे क्या लाभ । ” राजन्! अब मैं विष्णुका ध्यान बतलाता हूँ, जो अबतक किसीने देखा न होगा, वह नित्य, निर्मल एवं मोक्ष प्रदान करनेवाला ध्यान तुम सुनो। जैसे वायुहीन स्थानमें रखा हुआ दीपक स्थिरभावसे अग्निमय स्वरूप धारण करके प्रज्वलित होता रहता है और घरके समूचे अन्धकारका नाश करता है, उसी प्रकार ध्यानस्थ आत्मा सब प्रकारके दोषोंसे रहित, निरामय, निष्काम, निश्चल तथा वैर और मैत्रीसे शून्य हो जाता है। श्रीकृष्णका ध्यान करनेवाला पुरुष शोक, दुःख, भय, द्वेष, लोभ, मोह तथा भ्रम आदिसे और इन्द्रियोंके विषयोंसे भी मुक्त हो जाता है जैसे दीपक जलते रहनेसे तेलको सोख लेता है, उसी प्रकार ध्यान करनेसे कर्मका भी क्षय हो जाता है।
मानद! भगवान् शंकर आदिने ध्यान दो प्रकारका बतलाया है- निर्गुण और सगुण । उनमेंसे प्रथम अर्थात् निर्गुण ध्यानका वर्णन सुनो। जो लोग योग-शास्त्रोक्त यम-नियमादि साधनोंके द्वारा परमात्म-साक्षात्कारका प्रयत्न कर रहे हैं, वे ही सदा ध्यानपरायण होकर केवल ज्ञानदृष्टिसे परमात्माका दर्शन करते हैं। परमात्मा हाथ और पैरसे रहित है, तो भी वह सब कुछ ग्रहण करता और सर्वत्र जाता है। मुखके बिना ही भोजन करता और नाकके बिना ही पता है उसके कान नहीं हैं, तथापि वह सब कुछ सुनता है। वह सबका साक्षी और इस जगत्का स्वामी है। रूपहीन होकर भी रूपसे सम्बद्ध हो पाँचों इन्द्रियोंके वशीभूत हुआ-सा प्रतीत होता है। वह समस्त लोकोंका प्राण है, सम्पूर्ण चराचरजगत्के प्राणी उसकी पूजा करते हैं। बिना जीभके ही वह सब कुछ वेद-शास्त्रोंके अनुकूल बोलता है। उसके त्वचा नहीं है, तथापि वह शीत-उष्ण आदि सब प्रकारके स्पर्शका अनुभव करता है। सत्ता और आनन्द उसके स्वरूप हैं। वह जितेन्द्रिय, एकरूप, आश्रयविहीन, निर्गुण, ममतारहित, व्यापक, सगुण, निर्मल, ओजस्वी, सबको वशमें करनेवाला, सब कुछ देनेवाला और सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ है। वह सर्वत्र व्यापक एवं सर्वमय है। इस प्रकार जो अनन्य बुद्धिसे उस सर्वमय ब्रह्मका ध्यान करता है, वह निराकार एवं अमृततुल्य परम पदको प्राप्त होता है।
महामते ! अब मैं द्वितीय अर्थात् सगुण ध्यानका वर्णन करता हूँ, इसे सुनो। इस ध्यानका विषय भगवान्का मूर्त किंवा साकार रूप है। वह निरामय रोग-व्याधिसे रहित है, उसका दूसरा कोई आलम्ब आधार नहीं है [ वह स्वयं ही सबका आधार है] राजन् ! जिनकी वासनासे यह सारा ब्रह्माण्ड वासित है— जिनके संकल्पमें इस जगत्का वास है, वे भगवान् श्रीहरि इस विश्वको वासित करनेके कारण ही वासुदेव कहलाते हैं। उनका श्रीविग्रह वर्षा ऋतुके सजल मेघके समान श्याम है, उनकी प्रभा सूर्यके तेजको भी लज्जित करती है। उनके दाहिने भागके एक हाथमें बहुमूल्य मणियोंसे चित्रित शंख शोभा पा रहा है और दूसरेमें बड़े-बड़े असुरोंका संहार करनेवाली कौमोदकी गदा विराजमान है। उन जगदीश्वरके बायें हाथमें पद्म और चक्र सुशोभित हो रहे हैं। इस प्रकार उनके चार भुजाएँ हैं। वे सम्पूर्ण देवताओंके स्वामी हैं। ‘शार्ङ्ग’ नामक धनुष धारण करनेके कारण उन्हें शार्ङ्ग भी कहते हैं। वे लक्ष्मीके स्वामी हैं। [ उनकी झाँकी बड़ी सुन्दर है-] शंखके समान मनोहर ग्रीवा, सुन्दर गोलाकार मुखमण्डल तथा पद्म पत्रके समान बड़ी-बड़ी आँखें [ सभी आकर्षक हैं]। कुन्द-जैसे चमकते हुए दाँतोंसे भगवान्हृषीकेशकी बड़ी शोभा हो रही है। राजन् ! श्रीहरि निद्राके ऊपर शासन करनेवाले हैं, उनका नीचेका ओठ मूँगेकी तरह लाल है। नाभिसे कमल प्रकट होनेके कारण उन्हें पद्मनाभ कहते हैं। अत्यन्त तेजस्वी किरीटके कारण बड़ी शोभा पा रहे हैं। श्रीवत्सके चिह्नने उनकी छविको और बढ़ा दिया है। श्रीकेशवका वक्षःस्थल कौस्तुभमणिसे अलंकृत है। वे जनार्दन सूर्यके समान तेजस्वी कुण्डलोंद्वारा अत्यन्त देदीप्यमान हो रहे हैं। केयूर, हार, कड़े, कटिसूत्र, करधनी तथा अँगूठियोंसे उनके श्रीअंग विभूषित हैं, जिससे उनकी शोभा बहुत बढ़गयी है। भगवान् तपाये हुए सुवर्णके रंगका पीताम्बर पहने हुए हैं और गरुड़की पीठपर विराजमान हैं। वे भक्तोंकी पापराशिको दूर करनेवाले हैं। इस प्रकार श्रीहरिके सगुण स्वरूपका ध्यान करना चाहिये ।
राजन्! इस प्रकार मैंने तुम्हें दो तरहका ध्यान बतलाया है। इसका अभ्यास करके मनुष्य मन, वाणी तथा शरीरद्वारा होनेवाले सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। वह जिस-जिस फलको प्राप्त करना चाहता है, वह सब उसे निश्चितरूपसे मिल जाता है, देवता भी उसका आदर करते हैं तथा अन्तमें वह विष्णुलोकको प्राप्त होता है।
अध्याय 140 भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
अम्बरीष बोले- मुनिश्रेष्ठ! आपने बड़ी अच्छी बात बतायी, इसके लिये आपको धन्यवाद है। आप सम्पूर्ण लोकोंपर अनुग्रह करनेवाले हैं। आपने भगवान् विष्णुके सगुण एवं निर्गुण ध्यानका वर्णन किया; अब आप भक्तिका लक्षण बतलाइये। साधुओंपर कृपा करनेवाले महर्षे! मुझे यह समझाइये कि किस मनुष्यको कब, कहाँ, कैसी और किस प्रकार भक्ति करनी चाहिये।
सूतजी कहते हैं-राजाओंमें श्रेष्ठ महाराज अम्बरीषके ये वचन सुनकर देवर्षि नारदजीको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे उनसे बोले- राजन्! सुनो-भगवान्की भक्ति समस्त पापका नाश करनेवाली है, मैं तुमसे उस भक्तिका भलीभाँति वर्णन करता हूँ। भक्ति अनेकों प्रकारकी बतायी गयी है— मानसी, वाचिकी, कायिकी, लौकिकी, वैदिकी तथा आध्यात्मिकी ध्यान, धारणा, बुद्धि तथा वेदार्थके चिन्तनद्वारा जो विष्णुको प्रसन्न करनेवाली भक्ति की जाती है, उसे ‘मानसी’ भक्ति कहते हैं। दिन-रात अविश्रान्त भावसे वेदमन्त्रोंके उच्चारण, जप तथा आरण्यक आदिके पाठद्वारा जो भगवान्की प्रसन्नताका सम्पादन किया जाता है, उसकानाम ‘वाचिकी’ भक्ति है। व्रत, उपवास और नियमोंके पालन तथा पाँचों इन्द्रियोंके संयमद्वारा की जानेवाली आराधना [ शरीरसे साध्य होनेके कारण] ‘कायिकी’ भक्ति कही गयी है; यह सब प्रकारकी सिद्धियोंका सम्पादन करनेवाली है। पाद्य, अर्घ्य आदि उपचार, नृत्य, वाद्य, गीत, जागरण तथा पूजन आदिके द्वारा जो भगवान्की सेवा की जाती है, उसे ‘लौकिकी’ भक्ति कहते हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके जप, संहिताओंके अध्ययन आदि तथा हविष्यकी आहुति – यज्ञ-यागादिके द्वारा की जानेवाली उपासनाका नाम ‘वैदिकी’ भक्ति है। विज्ञ पुरुषोंने अमावास्या, पूर्णिमा तथा विषुव (तुला और मेषकी संक्रान्ति) आदिके दिन जो याग करनेका आदेश दिया है, वह वैदिकी भक्तिका साधक है। अब मैं योगजन्य आध्यात्मिकी भक्तिका भी वर्णन करता हूँ, सुनो। योगज भक्तिका साधक सदा अपनी इन्द्रियोंको संयममें रखकर प्राणायामपूर्वक ध्यान किया करता है। विषयोंसे अलग रहता है। वह ध्यानमें देखता है भगवान्का मुख अनन्त तेजसे उद्दीप्त हो रहा है, उनकी कटिके ऊपरी भागतक लटका हुआ यज्ञोपवीत शोभा पा रहा है। उनका शुक्ल वर्ण है, चार भुजाएँ हैं।उनके हाथोंमें वरद एवं अभयकी मुद्राएँ हैं। वे पीत वस्त्र धारण किये हुए हैं तथा उनके नेत्र अत्यन्त सुन्दर हैं। वे तसे परिपूर्ण दिखायी देते हैं। राजन् इस प्रकार योगयुक्त अपने हृदयमें परमेश्वरका ध्यान करता है। पुरुष जैसे प्रज्वलित अग्नि काष्ठको भस्म कर डालती है, उसी प्रकार भगवान्की भक्ति मनुष्यके पापको तत्काल दग्ध कर देती है। भगवान् श्रीविष्णुकी भक्ति साक्षात् सुधाका रस है, सम्पूर्ण रसोका एकमात्र सार है। इस पृथ्वीपर मनुष्य जबतक उस भक्तिका श्रवण नहीं करता उसका आश्रय नहीं लेता, तभीतक उसे सैकड़ों बार जन्म, मृत्यु और जराके आघातसे होनेवाले नाना प्रकारके दैहिक दुःख प्राप्त होते हैं। यदि महान् प्रभावशाली भगवान् अनन्तका कीर्तन और स्मरण किया जाय तो वे समस्त पापोंका नाश कर देते हैं, ठीक उसी तरह जैसे वायु मेघका तथा सूर्यदेव अन्धकारका विनाश कर डालते हैं। राजन्! देवपूजा, यज्ञ, तीर्थ-स्नान, व्रतानुष्ठान, तपस्या और नाना प्रकारके कर्मोंसे भी अन्तःकरणकी वैसी शुद्धि नहीं होती, जैसी भगवान् अनन्तका ध्यान करनेसे होती है। नरनाथ! जिनमें पवित्र यशवाले तथा अपने भक्तोंको भक्ति प्रदान करनेवाले विशुद्धस्वरूप भगवान् श्रीविष्णुका कीर्तन होता है, वे ही कथाएँ शुद्ध हैं तथा वे ही यथार्थ, वे ही लाभ पहुँचानेवाली और वे ही हरिभक्तोंके कहने-सुननेयोग्य होती हैं। भूमण्डलके राज्यका भार सँभालनेवाले धीरचित्त महाराज अम्बरीष! तुम धन्य हो; क्योंकि तुम्हारा हृदय पुरुषोत्तमके ध्यानमें एकतान हो रहा है तथा सौभाग्यलक्ष्मीसे सुशोभित होनेवाली तुम्हारी नैष्ठिक बुद्धि श्रीकृष्णचन्द्रकी पुण्यमयी लीलाओंके श्रवणमें प्रवृत्त हो रही है। भूपते ! भक्तोंको वरदान देनेवाले अविनाशी भगवान् श्रीविष्णुकी भक्तिपूर्वक आराधना किये बिना अहंकारवश अपनेको ही बड़ा माननेवाले पुरुषका कल्याण कैसे होगा। भगवान् मायाके जन्मदाता हैं, उनपर मायाका प्रभाव नहीं पड़ता। साधु पुरुष उन्हेंभक्तिके द्वारा ही प्राप्त करते हैं, इस बातको तुम भी जानते हो राजन् धर्मका कोई भी तत्त्व ऐसा नहीं है, जो तुम्हें ज्ञात न हो। फिर भी जिनके चरण ही तीर्थ हैं, उन भगवानको चर्चाका प्रसंग उठाकर जो तुम उनकी सरस कथाको मुझसे विस्तारके साथ पूछ रहे हो उसमें यही कारण है कि तुम वैष्णवोंका गौरव बढ़ाना चाहते हो मुझ जैसे लोगोंको आदर दे रहे हो। साधु-संत जो एक-दूसरेसे मिलनेपर अधिक श्रद्धाके साथ भगवान् अनन्तके कल्याणमय गुणका कीर्तन और श्रवण करते हैं, इससे बढ़कर परम संतोषकी बात तथा समुचित पुण्य मुझे और किसी कार्यमें नहीं दिखायी देता। ब्राह्मण, गौ, सत्य, श्रद्धा, यज्ञ, तपस्या, श्रुति, स्मृति, दया, दीक्षा और संतोष ये सब श्रीहरिके स्वरूप हैं। सूर्य, चन्द्रमा, वायु, पृथ्वी, जल, आकाश, दिशाएँ, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा सम्पूर्ण प्राणी उस परमेश्वरके ही स्वरूप हैं। इस चराचर जगत्को उत्पन्न करनेकी शक्ति रखनेवाले वे विश्वरूप भगवान् स्वयं ही ब्राह्मणके शरीरमें प्रवेश करके सदा उन्हें खिलाया जानेवाला अन्न भोजन करते हैं; इसलिये जिनकी चरण-रेणु तीर्थके समान है, भगवान् अनन्त ही जिनके आधार हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके आत्मा तथा पुण्यमयी लक्ष्मीके सर्वस्व हैं, उन ब्राह्मणोंका आदरपूर्वक पूजन करो। जो विद्वान् ब्राह्मणको विष्णुबुद्धिसे देखता है, वही सच्चा वैष्णव है तथा वही अपने धर्ममें भलीभाँति स्थित माना जाता है। तुमने भक्तिके लक्षण सुननेके लिये प्रार्थना की थी, सो सब मैंने तुम्हें सुना दिया। अब गंगा स्नान करनेके लिये जा रहा हूँ।
“यह वैशाखका महीना उपस्थित है, जो भगवान् लक्ष्मीपतिको अत्यन्त प्रिय है। इसकी भी आज शुक्ल सप्तमी है; इसमें गंगाका स्नान अत्यन्त दुर्लभ है। पूर्वकालमें राजा जह्नुने वैशाख शुक्ल सप्तमीको क्रोधमें आकर गंगाजीको पी लिया था और फिर अपने दाहिने कानके छिद्रसे उन्हें बाहर निकाला था अतः जनुकीकन्या होनेके कारण गंगाको ‘जाहनवी’ कहते हैं। इस तिथिको स्नान करके जो आकाशकी मेखलाभूत गंगा देवीका उत्तम विधानके साथ पूजन करता है, वह मनुष्य धन्य एवं पुण्यात्मा है। जो वैशाख शुक्ल सप्तमीको विधिपूर्वक गंगामें देवताओं और पितरोंका तर्पण करता है, उसे गंगादेवी कृपा दृष्टिसे देखती हैं तथा वह स्नानके पश्चात् सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। वैशाखके समान कोई मास नहीं है तथा गंगाके सदृश दूसरी कोई नदी नहीं है। इन दोनोंका संयोग दुर्लभ है। भगवान्की भक्तिसे ही ऐसा सुयोग प्राप्त होता है। गंगाजीका प्रादुर्भाव भगवान् श्रीविष्णुके चरणोंसे हुआ है। वे ब्रह्मलोकसे आकर भगवान् शंकरके जटा जूटमें निवास करती हैं। गंगा समस्त दुःखौका नाश करनेवाली हैं। वे अपने तीन स्रोतोंसे निरन्तर प्रवाहित होकर तीनों लोकोंको पवित्र करती रहती हैं। उन्हें स्वर्गपर चढ़नेके लिये सीढ़ी माना गया है वे सदा आनन्द देनेवाली, नाना प्रकारके पापको हरनेवाली, संकटसे तारनेवाली, भक्तजनोंके अन्तःकरणमें दिव्य प्रकाश फैलानेकी लीलासे सुशोभित होनेवाली, सगरके पुत्रोंको मोक्ष प्रदान करनेवाली, धर्म-मार्गमें लगानेवाली तथा तीन मार्गोसे प्रवाहित होनेवाली हैं। गंगादेवी तीनों लोकोंका श्रृंगार हैं। वे अपने दर्शन, स्पर्श, नान कीर्तन, ध्यान और सेवनसे हजारों पवित्र तथा अपवित्र पुरुषोंको पावन बनाती रहती हैं जो लोग दूर रहकर भी तीनों समय ‘गंगा, गंगा, गंगा’ इस प्रकार उच्चारण करते हैं, उनके तीन जन्मोंका पाप गंगाजी नष्ट कर देती हैं। जो मनुष्य हजार योजन दूरसे भी गंगाका स्मरण करता है, वह पापी होनेपर भी उत्तम गतिको प्राप्त होता है।
“राजन् वैशाख शुक्ल सप्तमीको गंगाजीका दर्शन विशेष दुर्लभ है। भगवान् श्रीविष्णु और ब्राह्मणोंकी कृपासे ही उस दिन उनकी प्राप्ति होती है। माधव (वैशाख) के समान महीना और माधव (विष्णु) – के समान कोई देवता नहीं है; क्योंकि पापके समुद्रमें डूबतेहुए मनुष्यके लिये माधव ही जहाजका काम देते हैं। माधव मासमें जो भक्तिपूर्वक दान, जप, हवन और स्नान आदि शुभकर्म किये जाते हैं, उनका पुण्य अक्षय तथा सौ करोड़गुना अधिक होता है। जिस प्रकार देवताओंमें विश्वात्मा भगवान् नारायणदेव श्रेष्ठ हैं. जैसे जप करनेयोग्य मन्त्रोंमें गायत्री सबसे उत्कृष्ट है, उसी प्रकार नदियोंगे गंगाजीका स्थान सबसे ऊँचा है। जैसे सम्पूर्ण स्त्रियोंमें पार्वती, तपनेवालोंमें सूर्य, लाभों में आरोग्यलाभ, मनुष्योंमें ब्राह्मण, पुण्योंमें परोपकार, विद्याओंमें वेद, मन्त्रोंमें प्रणव, ध्यानोंमें आत्मचिन्तन, तपस्याओंमें सत्य और स्वधर्म पालन, शुद्धियोंमें आत्मशुद्धि, दानोंमें अभयदान तथा गुणोंमें लोभका त्याग ही सबसे प्रधान माना गया है, उसी प्रकार सब मासोंमें वैशाख मास अत्यन्त श्रेष्ठ है। पापका अन्त वैशाख मासमें प्रातः स्नान करनेसे होता है। अन्धकारका अन्त सूर्यके उदयसे तथा पुण्योंका अन्त दूसरोंकी बुराई और चुगली करनेसे होता है। राजन् कार्तिक मासमें जब सूर्य तुलाराशिपर स्थित हों, उस समय जो स्नान-दान आदि पुण्यकार्य किया जाता है, उसका पुण्य परार्धगुना अधिक होता है। माघ मासमें जब मकरराशिपर सूर्य हों तो कार्तिककी अपेक्षा भी हजारगुना उत्तम फल होता है और वैशाख मासमें मेषकी संक्रान्ति होनेपर मायसे भी सौगुना अधिक पुण्य होता है। वे ही मनुष्य पुण्यात्मा और धन्य हैं, जो वैशाख मासमें प्रात:काल स्नान करके विधि-विधानसे भगवान् लक्ष्मीपतिकी पूजा करते हैं। वैशाख मासमें सबेरेका स्नान, यज्ञ, दान, उपवास, हविष्य-भक्षण तथा ब्रह्मचर्य का पालन-ये महान् पातकोंका नाश करनेवाले हैं। राजन्। कलियुगमें वैशाखकी महिमा गुप्त नहीं रहने पायेगी क्योंकि उस समय वैशाखस्नानका माहात्म्य अश्वमेध यज्ञके अनुष्ठानसे भी बढ़कर है कलियुगमें परमपावन अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान नहीं हो सकता। उस समय वैशाख मासका स्नान ही अश्वमेध यज्ञके समान विहित है। कलियुग के अधिकांश मनुष्य पापीहोंगे। उनकी बुद्धि पापमें ही आसक्त होगी; अतः वे अश्वमेधके पुण्यको, जो स्वर्ग और मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाला है, नहीं जान सकेंगे। उस समयके लोग अपनेपापोंके कारण नरकमें पड़ेंगे। अतएव कलियुगके लिये अश्वमेधका प्रचार कम कर दिया गया [ और उसके स्थानपर वैशाख मासके स्नानका विधान किया गया ] ।
अध्याय 141 वैशाख माहात्म्य
सूतजी कहते हैं – महात्मा नारदके ये वचन सुनकर राजर्षि अम्बरीषने विस्मित होकर कहा ‘महामुने! आप मार्गशीर्ष (अगहन) आदि पवित्र मनको छोड़कर वैशाख मासकी हो इतनी प्रशंसा क्यों करते हैं? उसीको सब मासोंमें श्रेष्ठ क्यों बतलाते हैं? यदि माधव मास सबसे श्रेष्ठ और भगवान् लक्ष्मीपतिको अधिक प्रिय है तो उस समय स्नान करनेकी क्या विधि है ? वैशाख मासमें किस वस्तुका दान, कौन-सी तपस्या तथा किस देवताका पूजन करना चाहिये? कृपानिधे! उस समय किये जानेवाले पुण्यकर्मका आप मुझे उपदेश कीजिये। सद्गुरुके मुखसे उपदेशकी प्राप्ति दुर्लभ होती हैं। उत्तम देश और कालका मिलना भी बड़ा कठिन होता है। राज्य प्राप्ति आदि दूसरे कोई भी भाव हमारे हृदयको इतनी शीतलता नहीं प्रदान करते, जितनी कि आपका यह समागम ।
नारदजीने कहा- राजन्! सुनो, मैं संसारके हितके लिये तुमसे माधव मासकी विधिका वर्णन करता हूँ। जैसा कि पूर्वकालमें ब्रह्माजीने बतलाया था। पहले तो जीवका भारतवर्षमें जन्म होना ही दुर्लभ है, उससे भी अधिक दुर्लभ है- वहाँ मनुष्यकी योनिमें जन्म । मनुष्य होनेपर भी अपने-अपने धर्मके पालनमें प्रवृत्ति होनी तो और भी कठिन है उससे भी अत्यन्त दुर्लभ है- भगवान् वासुदेवमें भक्ति और उसके होनेपर भी माधव मासमें स्नान आदिका सुयोग मिलना तो और भी कठिन है। माधव मास माधव (लक्ष्मीपति) को बहुत प्रिय है। माधव (वैशाख) मासको पाकर जो विधिपूर्वक स्नान, दान तथा जप आदिका अनुष्ठान करते हैं, वे ही मनुष्य धन्य एवं कृतकृत्य हैं। उनके दर्शन मात्रसे पापियोंके भी पाप दूर हो जाते हैं और वे भगवद्भावसे भावित होकरधर्माचरणके अभिलाषी बन जाते हैं। वैशाख मासके जो एकादशीसे लेकर पूर्णिमातक अन्तिम पाँच दिन हैं, वे समूचे महीने के समान महत्त्व रखते हैं। राजेन्द्र जिन लोगोंने वैशाख मासमें भाँति-भाँतिके उपचारोंद्वारा मधु दैत्यके मारनेवाले भगवान् लक्ष्मीपतिका पूजन कर लिया, उन्होंने अपने जन्मका फल पा लिया। भला कौन-सी ऐसी अत्यन्त दुर्लभ वस्तु है जो वैशाखके स्नान तथा विधिपूर्वक भगवान् के पूजनसे नहीं प्राप्त होती जिन्होंने दान, होम, जप, तीर्थ में प्राणत्याग तथा सम्पूर्ण पापका नाश करनेवाले भगवान् श्रीनारायणका ध्यान नहीं किया, उन मनुष्योंका जन्म इस संसारमें व्यर्थ ही समझना चाहिये। जो धनके रहते हुए भी कंजूसी करता है, दान आदि किये बिना ही मर जाता है, उसका धन व्यर्थ है।
राजन् ! उत्तम कुलमें जन्म, अच्छी मृत्यु श्रेष्ठ भोग, सुख, सदा दान करनेमें अधिक प्रसन्नता, उदारता तथा उत्तम धैर्य- ये सब कुछ भगवान् श्रीविष्णुकी कृपासे ही प्राप्त होते हैं। महात्मा नारायणके अनुग्रहसे ही मनोवांछित सिद्धियाँ मिलती हैं जो कार्तिकमें, माघमें तथा माधवको प्रिय लगनेवाले वैशाख मासमें स्नान करके मधुहन्ता लक्ष्मीपति दामोदरकी विशेष विधिके साथ भक्तिपूर्वक पूजा करता है और अपनी शक्तिके अनुसार दान देता है, वह मनुष्य इस लोकका सुख भोगकर अन्तमें श्रीहरिके पदको प्राप्त होता है। भूप जैसे सूर्योदय होनेपर अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार वैशाख मासमें प्रातः स्नान करनेसे अनेक जन्मोंकी उपार्जित पापराशि नष्ट हो जाती है। यह बात ब्रह्माजीने मुझे बतायी थी। भगवान् श्रीविष्णुने माधव मासकी महिमाका विशेष प्रचार किया है अतः इस महीनेकेआनेपर मनुष्योंको पवित्र करनेवाले पुण्यजलसे परिपूर्ण गंगातीर्थ, नर्मदातीर्थ, यमुनातीर्थ अथवा सरस्वतीतीर्थमें सूर्योदयके पहले स्नान करके भगवान् मुकुन्दकी पूजा करनी चाहिये। इससे तपस्याका फल भोगनेके पश्चात् अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति होती है। भगवान् श्रीनारायण अनामय-रोग-व्याधिसे रहित हैं, उन गोविन्ददेवकी आराधना करके तुम भगवान्का पद प्राप्त कर लोगे। राजन्! देवाधिदेव लक्ष्मीपति पापका नाश करनेवाले हैं, उन्हें नमस्कार करके चैत्रकी पूर्णिमाको इस व्रतका आरम्भ करना चाहिये। व्रत लेनेवाला पुरुष यम नियमोंका पालन करे, शक्तिके अनुसार कुछ दान दे, हविष्यान्न भोजन करे, भूमिपर सोये, ब्रह्मचर्यव्रतमें दृढतापूर्वक स्थित रहे तथा हृदयमें भगवान् श्रीनारायणका ध्यान करते हुए कृच्छ्र आदि तपस्याओंके द्वारा शरीरको सुखाये। इस प्रकार नियमसे रहकर जब वैशाखकी पूर्णिमा आये, उस दिन मधु तथा तिल आदिका दान करे, श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको भक्तिपूर्वक भोजन कराये, उन्हें दक्षिणासहित धेनुदान दे तथा वैशाख स्नानके व्रतमें जो कुछ त्रुटि हुई हो उसकी पूर्णताके लिये ब्राह्मणोंसे प्रार्थना करे। भूपाल! जिस प्रकार लक्ष्मीजी जगदीश्वर माधवकी प्रिया हैं, उसी प्रकार माधव मास भी मधुसूदनको बहुत प्रिय है। इस तरह उपर्युक्त नियमोंके पालनपूर्वक बारह वर्षोंतक वैशाख स्नान करके अन्तमें मधुसूदनकी प्रसन्नताके लिये अपनी शक्तिके अनुसार व्रतका उद्यापन करे। अम्बरीष ! पूर्वकालमें ब्रह्माजीके मुखसे मैंने जो कुछ सुना था, वह सब वैशाख मासका माहात्म्य तुम्हें बता दिया। अम्बरीषने पूछा- मुने! स्नानमें परिश्रम तो बहुत थोड़ा है, फिर भी उससे अत्यन्त दुर्लभ फलकी प्राप्ति होती है-मुझे इसपर विश्वास क्यों नहीं होता? मुझे मोह क्यों हो रहा है?
नारदजीने कहा- राजन्! तुम्हारा संदेह ठीक है। थोड़े-से परिश्रमके द्वारा महान् फलकी प्राप्तिअसम्भव-सी बात है; तथापि इसपर विश्वास करो, क्योंकि यह ब्रह्माजीकी बतायी हुई बात है। धर्मकी गति सूक्ष्म होती है उसे समझने में बड़े बड़े पुरुषोंको भी कठिनाई होती है। श्रीहरिकी शक्ति अचिन्त्य है, उनकी कृतिमें विद्वानोंको भी मोह हो जाता है। विश्वामित्र आदि क्षत्रिय थे, किन्तु धर्मका अधिक अनुष्ठान करनेके कारण वे ब्राह्मणत्वको प्राप्त हो गये; अतः धर्मकी गति अत्यन्त सूक्ष्म है। भूपाल! तुमने सुना होगा, अजामिल अपनी धर्मपत्नीका परित्याग करके सदा पापके मार्गपर ही चलता था। तथापि मृत्युके समय उसने केवल पुत्रके स्नेहवश ‘नारायण’ कहकर पुकारा- पुत्रका चिन्तन करके ‘नारायण’ का नाम लिया किन्तु इतनेसे ही उसको अत्यन्त दुर्लभ पदकी प्राप्ति हुई। जैसे अनिच्छापूर्वक भी यदि आगका स्पर्श किया जाय तो वह शरीरको जलाती ही है, उसी प्रकार किसी दूसरे निमित्तसे भी यदि श्रीगोविन्दका नामोच्चारण किया जाय तो वह पापराशिको भस्म कर डालता है।” जीव विचित्र हैं, जीवोंकी भावनाएँ विचित्र हैं, कर्म विचित्र है तथा कर्मोंकी शक्तियाँ भी विचित्र हैं। शास्त्रमें जिसका महान् फल बताया गया हो, वही कर्म महान् है [फिर वह अल्प परिश्रम – साध्य हो या अधिक परिश्रम-साध्य]। छोटी सी वस्तुसे भी बड़ी से बड़ी वस्तुका नाश होता देखा – जाता है। जरा सी चिनगारीसे बोझ के बोझ तिनके स्वाहा हो जाते हैं जो श्रीकृष्णके भक्त हैं, उनके अनजानमें किये हुए हजारों हत्याओंसे युक्त भयंकर पातक तथा चोरी आदि पाप भी नष्ट हो जाते हैं। वीर जिसके हृदयमें भगवान् श्रीविष्णुकी भक्ति है वह विद्वान् पुरुष यदि थोड़ा-सा भी पुण्य कार्य करता है तो वह अक्षय फल देनेवाला होता है। अतः माधव मासमें माधवकी भक्तिपूर्वक आराधना करके मनुष्य अपनी मनोवांछित कामनाओंको प्राप्त कर लेता है-इस विषयमें संदेह नहीं करना चाहिये। शास्त्रोक्त विधिसे किया जानेवाला छोटे-से-छोटा कर्म क्यों न हो, उसकेद्वारा बड़े-से-बड़े पापका भी क्षय हो जाता तथा उत्तम कर्मकी वृद्धि होने लगती है। राजन् ! भाव तथा भक्ति दोनोंकी अधिकतासे फलमें अधिकता होती है। धर्मकी गति सूक्ष्म है, वह कई प्रकारोंसे जानी जाती है। महाराज ! जो भावसे हीन है-जिसके हृदयमें उत्तम भाव एवं भगवान्की भक्ति नहीं है, वह अच्छे देश और कालमें जा-जाकर जीवनभर पवित्र गंगा-जलसे नहाता और दान देता रहे तो भी कभी शुद्ध नहीं हो सकता ऐसा मेरा विचार है। अतः अपने हृदय कमलमें शुद्ध भावकी स्थापना करके वैशाख मासमें प्रातः स्नान करनेवाला जो विशुद्धचित्त पुरुष भक्तिपूर्वक भगवान् लक्ष्मीपतिकी पूजा करता है, उसके पुण्यका वर्णन करनेकी शक्ति मुझमें नहीं है। अतः भूपाल ! तुम वैशाख मासके फलके विषयमें विश्वास करो। छोटा-साशुभ कर्म भी सैकड़ों पापकर्मोंका नाश करनेवाला होता है। जैसे हरिनामके भयसे राशि राशि पाप नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार सूर्यके मेषराशिपर स्थित होनेके समय प्रातः स्नान करनेसे तथा तीर्थमें भगवान्की स्तुति करनेसे भी समस्त पापका नाश हो जाता है। * जिस प्रकार गरुड़के तेजसे साँप भाग जाते हैं, उसी तरह प्रातः काल वैशाख स्नान करनेसे पाप पलायन कर जाते हैं—यह निश्चित बात है। जो मनुष्य मेषराशिके सूर्यमें गंगा या नर्मदाके जलमें नहाकर एक, दो या तीनों समय भक्ति भावके साथ पाप-प्रशमन नामक स्तोत्रका पाठ करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर परम पदको प्राप्त होता है। अम्बरीष ! इस प्रकार मैंने थोड़ेमें यह वैशाख स्नानका सारा माहात्म्य सुना दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो ?’
अध्याय 142 वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
अम्बरीषने कहा- मुने! जिसके चिन्तन मात्र से पापराशिका लय हो जाता है, उस पाप प्रशमन नामक स्तोत्रको मैं भी सुनना चाहता हूँ। आज मैं धन्य हूँ, अनुगृहीत हूँ आपने मुझे उस शुभ विधिका श्रवण कराया, जिसके सुनने मात्रसे पापोंका क्षय हो जाता है। वैशाख मासमें जो भगवान् केशवके कल्याणमय नामोंका कीर्तन किया जाता है, उसीको मैं संसारमें सबसे बड़ा पुण्य, पवित्र, मनोरम तथा एकमात्र सुकृतसे ही सुलभ होनेवाला शुभ कर्म मानता हूँ। अहो! जो लोग माधव मासमें भगवान् मधुसूदनके नामोंका स्मरण करते हैं, वे धन्य हैं। अतः यदि आप उचित समझें तो मुझे पुनः माधव मासकी ही पवित्र कथा सुनायें।
सूतजी कहते हैं-राजाओंगे श्रेष्ठ हरिभक्त अम्बरीषका वचन सुनकर नारद मुनिको बड़ी प्रसन्नता हुई। यद्यपि वे वैशाख स्नानके लिये जानेको उत्कण्ठित थे, तथापि सत्संगमें आनन्द आनेके कारण रुक गयेऔर राजासे बोले ।
नारदजीने कहा – महीपाल ! मुझे ऐसा जान पड़ता है कि यदि दो व्यक्तियोंमें परस्पर भगवत्कथा सम्बन्धी सरस वार्तालाप छिड़ जाय तो वह अत्यन्त विशुद्ध – अन्तःकरणको शुद्ध करनेवाला होता है। आज तुम्हारे साथ जो माधव मासके माहात्म्यकी चर्चा चल रही है, यह वैशाख – स्नानकी अपेक्षा भी अधिक पुण्य प्रदान करनेवाली है; क्योंकि माधव मासके देवता भगवान् श्रीविष्णु हैं [अतः उसका कीर्तन भगवान्का ही कीर्तन है ]। जिसका जीवन धर्मके लिये और धर्म भगवान्की प्रसन्नताके लिये है तथा जो रातों-दिन पुण्योपार्जनमें ही लगा रहता है, उसीको इस पृथ्वीपर मैं वैष्णव मानता हूँ। राजन् ! अब मैं वैशाख स्नानसे होनेवाले पुण्य-फलका संक्षेपसे वर्णन करता हूँ; विस्तारके साथ सारा वर्णन तो मेरे पिता- ब्रह्माजी भी नहीं कर सकते। वैशाखमें डुबकी लगाने मात्रसे समस्तपाप छूट जाते हैं। पूर्वकालकी बात है, कोई मुनीश्वर तीर्थयात्रा के प्रसंगसे सर्वत्र घूम रहे थे। उनका नाम था मुनिशर्मा। वे बड़े धर्मात्मा, सत्यवादी, पवित्र तथा शम, दम एवं शान्तिधर्मसे युक्त थे वे प्रतिदिन पितरोंका तर्पण और श्रद्ध करते थे उन्हें वेदों और स्मृतियोंके विधानका सम्यक् ज्ञान था। वे मधुर वाणी बोलते और भगवान्का पूजन करते रहते थे। वैष्णवोंके संसर्गमें ही उनका समय व्यतीत होता था। वे तीनों कालोंके ज्ञाता, मुनि, दयालु, अत्यन्त तेजस्वी, तत्त्वज्ञानी और ब्राह्मण-भक्त थे। वैशाखका महीना था, मुनिशर्मा स्नानके लिये नर्मदाके किनारे जा रहे थे। उसी समय उन्होंने अपने सामने पाँच पुरुषोंको देखा, जो भारी दुर्गतिमें फँसे हुए थे। वे अभी-अभी एक-दूसरेसे मिले थे। उनके शरीरका रंग काला था। वे एक बरगद की छायामें बैठे थे और पापोंके कारण उद्विग्न होकर चारों ओर दृष्टिपात कर रहे थे उन्हें देखकर द्विजवर मुनिशर्मा बड़े विस्मयमें पड़े और सोचने लगे- इस भयानक वनमें ये मनुष्य कहाँसे आये ? इनकी चेष्टा बड़ी दयनीय है, किन्तु इनका आकार बड़ा भयंकर दिखायी देता है। ये पापभागी चोर तो नहीं हैं? विप्रवर मुनिशर्माकी बुद्धि बड़ी स्थिर थी, वे ज्यों ही इस प्रकार विचार करने लगे, उसी समय उपर्युक्त पाँचों पुरुष उनके पास आये और हाथ जोड़कर मुनिशर्मासे बोले ।
पंच पुरुषोंने कहा- विप्रवर! हमें आप कल्याणमय पुरुषोत्तम जान पड़ते हैं। हम दुःखी जीव हैं। अपना दुःख विचारकर आपको बताना चाहते हैं। द्विजराज ! आप कृपा करके हमारी कष्ट कथा सुनें। दैववश जिनके पाप प्रकट हो गये हैं, उन दीन-दुःखी प्राणियोंके आधार आप जैसे संत-महात्मा ही हैं। साधु पुरुष अपनी दृष्टिमात्रसे पीड़ितोंकी पीड़ाएँ हर लेते हैं [अब उनमेंसे एकने सबका परिचय देना आरम्भ किया-] मैं पंचाल देशका क्षत्रिय हूँ, मेरा नाम नरवाहन है। मैंने मार्गमें मोहवश बाणद्वारा एक ब्राह्मणकी हत्या कर डाली। मुझसे ब्रह्म हत्याका पाप हो गया है। इसलिये शिखा, सूत्र और तिलकसे रहितहोकर इस पृथ्वीपर घूमता हूँ और सबसे कहता फिरता हूँ कि ‘मैं ब्रह्महत्यारा हूँ।’ मुझ महापापी ब्रह्मघातीको आप कृपाकी भिक्षा दें। इस दशामें पड़े पड़े मुझे एक वर्ष बीत गया। मैं पापसे जल रहा हूँ। मेरा चित्त शोकसे व्याकुल है तथा ये जो सामने दिखायी देते हैं, इनका नाम चन्द्रशर्मा है ये जातिके ब्राह्मण हैं। इन्होंने मोहसे मलिन होकर गुरुका वध किया है। ये मगध देशके निवासी हैं। इनके स्वजनोंने इनका परित्याग कर दिया है। ये भी घूमते-घामते दैवात् यहाँ आ पहुँचे हैं। इनके भी न शिखा है न सूत्र । ब्राह्मणका कोई भी चिन इनके शरीरमें नहीं रह गया है। इनके सिवा जो ये तीसरे व्यक्ति हैं, इनका नाम देवशर्मा है। स्वामिन्! ये भी बड़े कष्टमें हैं। ये भी जातिके ब्राह्मण हैं, किन्तु मोहवश वेश्याकी आसक्तिमें फँसकर शराबी हो गये थे। इन्होंने भी पूछनेपर अपना सारा हाल सच-सच कह सुनाया है। अपने प्रथम पापाचारको याद करके इनके हृदयमें बड़ा संताप होता है। ये सदा मनस्तापसे पीड़ित रहते हैं। इनको इनकी स्त्रीने, बन्धु-बान्धवोंने तथा गाँवके सब लोगोंने वहाँसे निकाल दिया है। ये अपने उसी पापके साथ भ्रमण करते हुए यहाँ आवे हैं। ये चौथे महाशय जातिके वैश्य हैं। इनका नाम विधुर है ये गुरुपत्नीके साथ समागम करनेवाले हैं। इनकी माता मिथिलामें जाकर वेश्या हो गयी थी। इन्होंने मोहवश तीन महीनोंतक उसीका उपभोग किया है। परन्तु जब असली बातका पता लगा है तो बहुत दुःखी होकर पृथ्वीपर विचरते हुए ये भी यहाँ आ पहुँचे हैं। हममेंसे थे जो पाँचवें दिखायी दे रहे हैं, ये भी वैश्य ही हैं। इनका नाम नन्द है। ये पापियोंका संसर्ग करनेवाले महापापी हैं। इन्होंने प्रतिदिन धनके लालचमें पड़कर बहुत चोरी की है। पातकोंसे आक्रान्त हो जानेपर इन्हें स्वजनोंने त्याग दिया है। तब ये स्वयं भी खिन्न होकर देवात् यहाँ आ पहुँचे हैं। इस प्रकार हम पाँचों महापापी एक स्थानपर जुट गये हैं। हम सब-के-सब दुःखाँसे घिरे हुए हैं। अनेकों तीर्थों में घूम आये, मगर हमारा घोर पातक नहीं मिटता आपको तेजसे उद्दीप्त देखकर हमलोगोंका मनप्रसन्न हो गया है। आप जैसे साधु पुरुषके पुण्यमय दर्शनसे हमारे पातकोंके अन्त होनेकी सूचना मिल रही है। स्वामिन्! कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे हमलोगोंके पापका नाश हो जाय। प्रभो! आप वेदार्थके ज्ञाता और परम दयालु जान पड़ते हैं; आपसे हमें अपने उद्धारको बड़ी आशा है। मुनिशर्माने कहा- तुमलोगोंने अज्ञानवश पाप किया, किन्तु इसके लिये तुम्हारे हृदय में अनुताप है तथा तुम सब-के-सब सत्य बोल रहे हो; इस कारण तुम्हारे ऊपर अनुग्रह करना मेरा कर्तव्य है। मैं अपनी भुजा ऊपर उठाकर कहता हूँ, मेरी सत्य बातें सुनो। पूर्वकालमें जब मुनियोंका समुदाय एकत्रित हुआ था, उस समय मैंने महर्षि अंगिराके मुखसे जो कुछ सुना था, वही वेद-शास्त्रोंमें भी देखा वह सबके लिये विश्वास करनेयोग्य है मेरी आराधनासे संतुष्ट हुए स्वयं भगवान् विष्णुने भी पहले ऐसी ही बात बतायी थी। वह इस प्रकार है। भोजनसे बढ़कर दूसरा कोई तृप्तिका साधन नहीं है। पितासे बढ़कर कोई गुरु नहीं है। ब्राह्मणोंसे उत्तम दूसरा कोई पात्र नहीं है तथा भगवान् विष्णुसे श्रेष्ठ दूसरा कोई देवता नहीं है। गंगाकी समानता करनेवाला कोई तीर्थ, गोदानकी तुलना करनेवाला कोई दान, गायत्रीके समान जप, एकादशीके तुल्य व्रत, भार्याके सदृश मित्र, दयाके समान धर्म तथा स्वतन्त्रताके समान सुख नहीं है। गार्हस्थ्यसे बढ़कर आश्रम और सत्यसे बढ़कर सदाचार नहीं है। इसी प्रकार संतोषके समान सुख तथा वैशाख मासके समान महान् पापका अपहरण करनेवाला दूसरा कोई मास नहीं है। वैशाख मास भगवान् मधुसूदनको बहुत ही प्रिय है। गंगा आदि तीर्थोंमें तो वैशाख स्नानका सुयोग अत्यन्त दुर्लभ है। उस समय गंगा, यमुना तथा नर्मदाकी प्राप्ति कठिन होती है। जो शुद्ध हृदयवाला मनुष्य भगवान् के भजनमें तत्पर हो पूरे वैशाखभर प्रात:काल गंगास्नान करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर परम गतिको प्राप्त होता है। इसलिये पुण्यके सारभूत इस वैशाख मासमें तुम सभी पातकी मेरे साथ नर्मदा तटपर चलो और उसमें गोतेलगाओ। नर्मदा के जलका मुनिलोग भी सेवन करते हैं, वह समस्त पापके भयका नाश करनेवाला है। मुनिके यों कहनेपर वे सब पापी उनके साथ अद्भुत पुण्य प्रदान करनेवाली नर्मदाकी प्रशंसा करते हुए उसके तटपर गये किनारे पहुँचकर ब्राह्मणश्रेष्ठ मुनिशर्माका चित्त प्रसन्न हो गया। उन्होंने वेदोक्त विधिके अनुसार नर्मदाके जलमें प्रातः स्नान किया। उपर्युक्त पाँचों पापियोंने भी ब्राह्मणके कहनेसे ज्यों ही नर्मदामें डुबकी लगायी, त्यों ही उनके शरीरका रंग बदल गया; वे तत्काल सुवर्णके समान कान्तिमान् हो गये। फिर मुनिशर्माने सब लोगोंके सामने उन्हें पाप प्रशमन नामक स्तोत्र सुनाया।
भूपाल ! अब तुम पाप-प्रशमन नामक स्तोत्र सुनो। इसका भक्तिपूर्वक श्रवण करके भी मनुष्य पापराशिसे मुक्त हो जाता है। इसके चिन्तन मात्रसे बहुतेरे पापी शुद्ध हो चुके हैं। इसके सिवा और भी बहुत-से मनुष्य इस स्तोत्रका सहारा लेकर अज्ञानजनित पापसे मुक्त हो गये हैं। जब मनुष्योंका चित्त परायी स्त्री, पराये धन तथा जीव-हिंसा आदिकी ओर जाय तो इस प्रायश्चित्तरूपा स्तुतिकी शरण लेनी चाहिये। यह स्तुति इस प्रकार है
विष्णवे विष्णवे नित्यं विष्णवे विष्णवे नमः ।
नमामि विष्णुं चित्तस्थमहङ्कारगतं हरिम् ॥
चित्तस्थमीशमव्यक्तमनन्तमपराजितम्
विष्णुमीड्यमशेषाणामनादिनिधनं हरिम् ॥
सम्पूर्ण विश्वमें व्यापक भगवान् श्रीविष्णुको सर्वदा नमस्कार है। विष्णुको बारम्बार प्रणाम है। मैं अपने चितमें विराजमान विष्णुको नमस्कार करता हूँ। अपने अहंकारमें व्याप्त श्रीहरिको मस्तक झुकाता है। श्रीविष्णु चित्तमें विराजमान ईश्वर (मन और इन्द्रियोंके शासक), अव्यक्त, अनन्त, अपराजित, सबके द्वारा स्तवन करनेयोग्य तथा आदि-अन्तसे रहित हैं; ऐसे श्रीहरिको मैं नित्य निरन्तर प्रणाम करता हूँ।
विष्णुश्चित्तगतो यन्मे विष्णुर्बुद्धिगतश्च यत् ।
योऽहङ्कारगतो विष्णु विष्णुर्मयि संस्थितः ॥
करोति कर्तृभूतोऽसौ स्थावरस्य चरस्य च।
तत्पापं नाशमायाति तस्मिन् विष्णा विचिन्तिते ॥
जो विष्णु मेरे चित्तमें विराजमान हैं, जो विष्णु मेरी बुद्धिमें स्थित हैं, जो विष्णु मेरे अहंकार में व्याप्त हैं तथा जो विष्णु सदा मेरे स्वरूपमें स्थित हैं, वे ही कर्ता होकर सब कुछ करते हैं। उन विष्णुभगवान्का चिन्तन करनेपर चराचर प्राणियोंका सारा पाप नष्ट हो जाता है।
ध्यातो हरति यः पापं स्वप्ने दृष्टश्च पापिनाम् ।
तमुपेन्द्रमहं विष्णुं नमामि प्रणतप्रियम् ॥
जो ध्यान करने और स्वप्नमें दीख जानेपर भी पापियोंके पाप हर लेते हैं तथा चरणों में पड़े हुए शरणागत भक्त जिन्हें अत्यन्त प्रिय हैं, उन वामनरूपधारी भगवान् श्रीविष्णुको नमस्कार करता हूँ।
जगत्यस्मिन्निरालम्बे हाजमक्षरमव्ययम् ।
हस्तावलम्बनं स्तोत्रं विष्णुं वन्दे सनातनम् ॥
जो अजन्मा, अक्षर और अविनाशी हैं तथा इस अवलम्बशून्य संसारमें हाथका सहारा देनेवाले हैं, स्तोत्रद्वारा जिनकी स्तुति की जाती है, उन सनातन श्रीविष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ।
सर्वेश्वरेश्वर विभो परमात्मन्नधोक्षज
इषीकेश हृषीकेश हृषीकेश नमोऽस्तु ते ॥
हे सर्वेश्वर हे ईश्वर! हे व्यापक परमात्मन् !
हे अधोक्षज हे इन्द्रियोंका शासन करनेवाले अन्तर्यामी
हृषीकेश! आपको बारम्बार नमस्कार है।
नृसिंहानन्त गोविन्द भूतभावन केशव ।
दुरुक्तं दुष्कृतं ध्यातं शमवाशु जनार्दन
हे नृसिंह हे अनन्त हे गोविन्द ! हे भूतभावन! हे केशव ! हे जनार्दन! मेरे दुर्वचन, दुष्कर्म और दुश्चिन्तनको शीघ्र नष्ट कीजिये।
चिन्तितं दुष्टं स्वचित्तवशवर्तिना ।
आकर्णय महाबाहो तच्छमं नय केशव ॥
यन्मया महाबाहो ! मेरी प्रार्थना सुनिये अपने चित्तके वशमें होकर मैंने जो कुछ बुरा चिन्तन किया हो, उसको शान्त कर दीजिये।
ब्रह्मण्यदेव गोविन्द परमार्थपरायण।
जगन्नाथ जगद्धातः पापं शमय मेऽच्युत ॥
ब्राह्मणोंका हित साधन करनेवाले देवता गोविन्द !परमार्थमें तत्पर रहनेवाले जगन्नाथ! जगत्को धारण करनेवाले अच्युत मेरे पापोंका नाश कीजिये।
यच्चापराह्ने सायाह्ने मध्याहने च तथा निशि ।
कायेन मनसा वाचा कृतं पापमजानता ॥
जानता च हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव ।
नामत्रयोच्चारणतः सर्वं यातु मम क्षयम् ॥
मैंने पूर्वाह्न, सायाह्न, मध्याहन तथा रात्रिके समय शरीर, मन और वाणीके द्वारा, जानकर या अनजानमें जो कुछ पाप किया हो, वह सब ‘हृषीकेश, पुण्डरीकाक्ष और माधव’ – इन तीन नामोंके उच्चारणसे नष्ट हो जाय।
शारीरं मे हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष मानसम् ।
पापं प्रशममायातु वाक्कृतं मम इषीकेश
आपके नामोच्चारणसे मेरा शारीरिक पाप नष्ट हो जाय, पुण्डरीकाक्ष ! आपके स्मरणसे मेरा मानस पाप शान्त हो जाय तथा माधव! आपके नाम माधव कीर्तनसे मेरे वाचिक पापका नाश हो जाय।
यद् भुञ्जानः पिबंस्तिष्ठन् स्वपञ्जाग्रद् यदा स्थितः ।
च अकार्ष पापमर्थार्थं कायेन मनसा गिरा ।
महदस्य यत्पापं दुर्योनिनरकावहम् ।
तत्सर्व विलयं यातु वासुदेवस्य कीर्तनात् ॥
मैंने खाते, पीते, खड़े होते, सोते जागते तथा ठहरते समय मन, वाणी और शरीरसे, स्वार्थ या धनके लिये जो कुत्सित योनियों और नरकोंकी प्राप्ति करानेवाला महान् या थोड़ा पाप किया है, वह सब भगवान् वासुदेवका नामोच्चारण करनेसे नष्ट हो जाय
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं च यत्।
अस्मिन् संकीर्तिते विष्णौ यत् पापं तत् प्रणश्यतु ॥
जिसे परब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र कहते हैं. वह तत्व भगवान् विष्णु ही है; इन श्रीविष्णुभगवान्का कीर्तन करनेसे मेरे जो भी पाप हों, वे नष्ट हो जायँ l
यत्प्राप्य न निवर्तन्ते गन्धस्पर्शविवर्जितम्
सूरयस्तत्पदं विष्णोस्तत्सर्वं मे भवत्वलम् ॥
जो गन्ध और स्पर्शसे रहित है, ज्ञानी पुरुष ज पाकर पुन: इस संसार नहीं लौटते, वह श्रीविष्णुका ही परमपद है। वह सब मुझे पूर्णरूपसे प्राप्त हो जाय ।
पापप्रशमनं स्तोत्रं यः पठेच्छृणुयान्नरः
शारीरैर्मानसैर्वाचा कृतैः पापैः प्रमुच्यते ॥
मुक्तः पापग्रहादिभ्यो याति विष्णोः परं पदम् ।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन स्तोत्रं सर्वाघनाशनम् ॥
प्रायश्चित्तमघौघानां पठितव्यं नरोत्तमैः ।
यह ‘पाप-प्रशमन’ नामक स्तोत्र है। जो मनुष्य इसे पढ़ता और सुनता है, वह शरीर, मन और वाणीद्वारा किये हुए पापोंसे मुक्त हो जाता है। इतना ही नहीं, वह पापग्रह आदिके भयसे भी मुक्त होकर विष्णुके परमपदको प्राप्त होता है। यह स्तोत्र सब पापोंका नाशक तथापापराशिका प्रायश्चित्त है; इसलिये श्रेष्ठ मनुष्योंको पूर्ण प्रयत्न करके इस स्तोत्रका पाठ करना चाहिये ।
राजन्! इस स्तोत्रके श्रवणमात्रसे पूर्वजन्म तथा इस जन्मके किये हुए पाप भी तत्काल नष्ट हो जाते हैं। यह स्तोत्र पापरूपी वृक्षके लिये कुठार और पापमय ईंधनके लिये दावानल है। पापराशिरूपी अन्धकारसमूहका नाश करनेके लिये यह स्तोत्र सूर्यके समान है। मैंने सम्पूर्ण जगत्पर अनुग्रह करनेके लिये इसे तुम्हारे सामने प्रकाशित किया है। इसके पुण्यमय माहात्म्यका वर्णन करनेमें स्वयं श्रीहरि भी समर्थ नहीं हैं।
अध्याय 143 वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
अम्बरीषने पूछा- मुने! वैशाख मासके व्रतका क्या विधान है? इसमें किस तपस्याका अनुष्ठान करना पड़ता है? क्या दान होता है? कैसे स्नान किया जाता है और किस प्रकार भगवान् केशवकी पूजा जाती है? ब्रह्मर्षे! आप श्रीहरिके प्रिय भक्त तथा सर्वज्ञ हैं; अतः कृपा करके मुझे ये सब बातें बताइये।
नारदजीने कहा- साधुश्रेष्ठ ! सुनो- वैशाख मासमें जब सूर्य मेषराशिपर चले जायें तो किसी बड़ी नदीमें, नदीरूप तीर्थमें, नदमें, सरोवरमें, झरनेमें, देवकुण्डमें, स्वतः प्राप्त हुए किसी भी जलाशयमें, बावड़ीमें अथवा कुएँ आदिपर जाकर नियमपूर्वक भगवान् श्रीविष्णुका स्मरण करते हुए स्नान करना चाहिये। स्नानके पहले निम्नांकित श्लोकका उच्चारण करना चाहिये
यथा ते माधवो मासो वल्लभो मधुसूदन ।
प्रातः स्नानेन मे तस्मिन् फलदः पापहा भव ॥
(89। 11) ‘मधुसूदन माधव (वैशाख) मास आपको विशेष प्रिय है, इसलिये इसमें प्रातः स्नान करनेसे आप शास्त्रोक्त फलके देनेवाले हों और मेरे पापका नाश कर दें।’इस प्रकार कहकर मौनभावसे उस तीर्थके किनारे अपने दोनों पैर धो ले; फिर भगवान् नारायणका स्मरण करते हुए विधिपूर्वक स्नान करे। स्नानकी विधि इस प्रकार है-विद्वान् पुरुषको मूल मन्त्र पढ़कर तीर्थकी कल्पना कर लेनी चाहिये । ‘ॐ नमो नारायणाय’ यह मन्त्र ही मूल मन्त्र कहा गया है। पहले हाथमें कुश लेकर विधिपूर्वक आचमन करे तथा मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए बाहर-भीतरसे पवित्र रहे। फिर चार हाथका चौकोर मण्डल बनाकर उसमें निम्नांकित मन्त्रोंद्वारा भगवती श्रीगंगाजीका आवाहन करे।
विष्णुपादप्रसूतासि वैष्णवी विष्णुदेवता ॥
त्राहि नस्त्वेनसस्तस्मादाजन्ममरणान्तिकात् ।
तिस्रः कोट्योऽर्धकोटी च तीर्थानां वायुरब्रवीत् ॥
दिवि भुव्यन्तरिक्षे च तानि ते सन्ति जाह्नवि नन्दिनीति
च ते नाम देवेषु नलिनीति च ॥
दक्षा पृथ्वी वियद्गङ्गा विश्वकाया शिवामृता ।
विद्याधरी महादेवी लोकप्रसादिनी ॥
क्षेमङ्करी जाह्नवी च शान्ता शान्तिप्रदायिनी तथा
(89 । 15-19 ) ‘गंगे! तुम भगवान् श्रीविष्णुके चरणोंसे प्रकट हुईहो। श्रीविष्णु ही तुम्हारे देवता हैं; इसीलिये तुम्हें वैष्णवी कहते हैं। देवि! तुम जन्मसे लेकर मृत्युतक समस्त पापोंसे मेरी रक्षा करो। स्वर्ग, पृथ्वी और अन्तरिक्षमें कुल साढ़े तीन करोड़ तीर्थ है ऐसा बायु देवताका कथन है। माता जानवी वे सभी तीर्थ तुम्हारे अंदर मौजूद हैं। देवलोकमें तुम्हारा नाम नन्दिनी और नलिनी है। इनके सिवा दक्षा, पृथ्वी, विदगंगा, विश्वकाया, शिवा, अमृता, विद्याधरी, महादेवी, लोकप्रसादिनी क्षेमंकरी, जाह्नवी, शान्ता और शान्तिप्रदायिनी आदि तुम्हारे अनेकों नाम हैं।’
स्नान के समय इन पवित्र नामोंका कीर्तन करना चाहिये; इससे त्रिपथगामिनी भगवती गंगा उपस्थित हो जाती हैं। सात बार उपर्युक्त नामोंका जप करके संपुटके आकारमें दोनों हाथोंको जोड़कर उनमें जल ले और चार छः या सात बार मस्तकपर डाले इस प्रकार स्नान करके पूर्ववत् मृत्तिकाको भी विधिवत् अभिमन्त्रित करे और उसे शरीरमें लगाकर नहा ले। मृत्तिकाको अभिमन्त्रित करनेका मन्त्र इस प्रकार है
अश्वकान्ते रथकान्ते विष्णुकान्ते वसुन्धरे।
मृत्तिके हर मे पापं यन्मया दुष्कृतं कृतम् ॥
उदधृतासि कृष्योन वराहेण शतबाहुना
नमस्ते सर्वलोकानां प्रभवारणि सुव्रते ॥
(89 । 22-23) वसुन्धरे! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं। भगवान् श्रीविष्णुने भी वामन अवतार धारण करके तुम्हें एक पैरसे नापा था। मृत्तिके मैंने जो बुरे कर्म किये हों, मेरे उस सब पापको तुम हर लो। देवि सैकड़ों भुजाओंवाले भगवान् श्रीविष्णुने वराहका रूप धारण करके तुम्हें जलसे बाहर निकाला था। तुम सम्पूर्ण लोकोंकी उत्पत्तिके लिये अरणीके समान हो अर्थात् जैसे अरणी-काष्टसे आग प्रकट होती है, उसी प्रकार तुमसे सम्पूर्ण लोक उत्पन्न होते हैं। सुव्रते। तुम्हें मेरा नमस्कार है।”
इस प्रकार स्नान करनेके पश्चात् विधिपूर्वक आचमन करके जलसे बाहर निकले और दो शुद्ध श्वेतवस्त्र – धोती चादर धारण करे। तदनन्तर त्रिलोकीको तृप्त करनेके लिये तर्पण करे। सबसे पहले श्रीब्रह्माका तर्पण करे; फिर श्रीविष्णु, श्रीरुद्र और प्रजापतिका। तत्पश्चात् ‘देवता, यक्ष, नाग, गन्धर्व, अप्सरा, असुरगण, क्रूर सर्प, गरुड, वृक्ष, जीव-जन्तु, पक्षी, विद्याधर, मेघ, आकाशचारी जीव, निराधार जीव, पापी जीव तथा धर्मपरायण जीवोंको तृप्त करनेके लिये मैं उन्हें जल अर्पण करता हूँ।’ यह कहकर उन सबको जलांजलि दे । देवताओंका तर्पण करते समय यज्ञोपवीतको बायें कंधेपर डाले रहे। तत्पश्चात् उसे गलेमें मालाकी भाँति कर ले और दिव्य मनुष्यों, ऋषिपुत्रों तथा ऋषियोंका भक्तिपूर्वक तर्पण करे। सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार-ये दिव्य मनुष्य हैं। कपिल, आसुरि, बोद्ध तथा पंचशिखये प्रधान ऋषिपुत्र हैं। ‘ये सभी मेरे दिये हुए जलसे तृप्त हों’ ऐसा कहकर इन्हें जल दे। इसी प्रकार मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता, वसिष्ठ, नारद तथा अन्यान्य देवर्षियों एवं ब्रह्मर्षियोंका अक्षतसहित जलके द्वारा तर्पण करे।
इस प्रकार ऋषि तर्पण करनेके पश्चात् यज्ञोपवीतको दायें कंधेपर करके बायें घुटनेको पृथ्वीपर टेककर बैठे फिरत, सौम्य हविष्मान् उष्मर कव्यवाट् अनल, बर्हिषद्, पिता-पितामह आदि तथा मातामह आदि सब लोगोंका विधिवत् तर्पण करके निम्नांकित मन्त्रका उच्चारण करे
ये बान्धवा बान्धवा ये येऽन्यजन्मनि बान्धवाः ।
ते तृप्तिमखिलायान्तु येऽप्यस्मत्तोयकाङ्क्षिणः ॥
(89 । 35)
‘जो लोग मेरे बान्धव न हों, जो मेरे बान्धव हों तथा जो दूसरे किसी जन्ममें मेरे बान्धव रहे हों, वे सब मेरे दिये हुए जलसे तृप्त हों। उनके सिवा और भी जो कोई प्राणी मुझसे जलकी अभिलाषा रखते हों,
वे भी तृप्ति लाभ करें।’ यों कहकर उनकी तृप्तिके उद्देश्यसे जल गिराना चाहिये। तत्पश्चात् विधिपूर्वक आचमन करके अपने आगे कमलकी आकृति बनावे और सूर्यदेवके नामोंकाउच्चारण करते हुए अक्षत, फूल, लाल चन्दन और जलके द्वारा उन्हें यत्नपूर्वक अर्घ्य दे अर्घ्यदानका मन्त्र इस प्रकार है
नमस्ते विश्वरूपाय नमस्ते ब्रह्मरूपिणे ।
सहस्वरमये नित्यं नमस्ते सर्वतेजसे।
नमस्ते रुद्रवपुषे नमस्ते भक्तवत्सल ॥
नमस्ते सर्वलोकानां सुप्तानामुपबोधन
सुकृतं दुष्कृतं चैव सर्वं पश्यसि सर्वदा।
सत्यदेव नमस्तेऽस्तु प्रसीद मम भास्कर ॥
दिवाकर नमस्तेऽस्तु प्रभाकर नमोऽस्तु ते।
पद्मनाभ नमस्तेऽस्तु कुण्डलाङ्गदभूषित
(89 । 37-41) ‘भगवान् सूर्य ! आप विश्वरूप और ब्रह्मस्वरूप हैं। इन दोनों रूपोंमें आपको नमस्कार है। आप सहस्रों किरणोंसे सुशोभित और सबके तेजरूप हैं, आपको सदा नमस्कार है। भक्तवत्सल! रुद्ररूपधारी आप परमेश्वरको बारम्बार नमस्कार है। कुण्डल और अंगद आदि आभूषणोंसे विभूषित पद्मनाभ! आपको नमस्कार है। भगवन्! आप सोये हुए सम्पूर्ण लोकोंको जगानेवाले हैं, आपको मेरा प्रणाम है। आप सदा सबके पाप पुण्यको देखा करते हैं। सत्यदेव ! आपको नमस्कार है। भास्कर ! मुझपर प्रसन्न होइये। दिवाकर! आपको नमस्कार है। प्रभाकर! आपको नमस्कार है।’
इस प्रकार सूर्यदेवको नमस्कार करके सात बार उनकी प्रदक्षिणा करे फिर द्विज, गी और सुवर्णका स्पर्श करके अपने घरमें जाय। वहाँ आश्रमवासी अतिथियोंका सत्कार तथा भगवान्की प्रतिमाका पूजन करे। राजन्! घरमें पहले भक्तिपूर्वक जितेन्द्रियभावसे भगवान् गोविन्दकी विधिवत् पूजा करनी चाहिये। विशेषतः वैशाखके महीने में जो श्रीमधुसूदनका पूजन करता है, उसके द्वारा पूरे एक वर्षतक श्रीमाधवकी पूजा सम्पन्न हो जाती है। वैशाख मास आनेपर जब सूर्यदेव मेषराशिपर स्थित हों तो श्रीकेशवकी प्रसन्नताके लिये उनके व्रतोंका संचय करना चाहिये। अपने अभीष्टकी सिद्धिके लिये अन्न, जल, शक्कर, धेनु तथा तिलकी धेनुआदिका दान करना चाहिये; इस कार्यमें धनकी कंजूसी उचित नहीं है। जो समूचे वैशाखभर प्रतिदिन सबेरे स्नान करता, जितेन्द्रियभावसे रहता, भगवान्के नाम जपता और हविष्य भोजन करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है।
जो वैशाख मासमें आलस्य त्यागकर एकभुक्त (चौबीस घंटेमें एक बार भोजन), नक्तव्रत (केवल रातमें एक बार भोजन) अथवा अयाचितव्रत (बिना माँगे मिले हुए अन्नका एक समय भोजन) करता है, वह अपनी सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको प्राप्त कर लेता है। वैशाख मासमें प्रतिदिन दो बार गाँवसे बाहर नदीके जलमें स्नान करना, हविष्य खाकर रहना, ब्रह्मचर्यका पालन करना, पृथ्वीपर सोना, नियमपूर्वक रहना, व्रत, दान, जप, होम और भगवान् मधुसूदनकी पूजा करना – ये नियम हजारों जन्मोंके भयंकर पापको भी हर लेते हैं। जैसे भगवान् माधव ध्यान करनेपर सारे पाप नष्ट कर देते हैं, उसी प्रकार नियमपूर्वक किया हुआ माधव मासका स्नान भी समस्त पापको दूर कर देता है। प्रतिदिन तीर्थ-स्नान, तिलोंद्वारा पितरोंका तर्पण, धर्मघट आदिका दान और श्रीमधुसूदनका पूजन – ये भगवान्को संतोष प्रदान करनेवाले हैं; वैशाख मासमें इनका पालन अवश्य करना चाहिये। वैशाखमें तिल, जल, सुवर्ण, अन्न, शक्कर, वस्त्र, गौ, जूता, छाता, कमल या शंख तथा घड़े-इन वस्तुओंका ब्राह्मणोंको दान करे। तीनों सन्ध्याओंके समय एकाग्रचित्त हो विमलस्वरूपा साक्षात् भगवती लक्ष्मीके साथ परमेश्वर श्रीविष्णुका भक्तिपूर्वक पूजन करना चाहिये। सामयिक फूलों और फलोंसे भक्तिपूर्वक श्रीहरिका पूजन करनेके पश्चात् यथाशक्ति ब्राह्मणोंकी भी पूजा करनी चाहिये। पाखण्डियोंसे वार्तालाप नहीं करना चाहिये। जो फूलोंद्वारा विधिवत् अर्चन करके श्रीमधुसूदनकी आराधना करता है; वह सब पापोंसे मुक्त हो परम पदको प्राप्त होता है !
श्रीनारदजी कहते हैं-राजेन्द्र ! सुनो, मैं संक्षेपसे माधवके पूजनकी विधि बतला रहा हूँ। महाराज! जिनका कहीं अन्त नहीं है, जो अनन्त औरअपार हैं, उन भगवान् अनन्तकी पूजा-विधिका अन्त नहीं है। श्रीविष्णुका पूजन तीन प्रकारका होता है वैदिक, तान्त्रिक तथा मिश्र तीनोंके ही बताये हुए विधानसे श्रीहरिका पूजन करना चाहिये। वैदिक और मिश्र पूजनकी विधि ब्राह्मण आदि तीन वर्णोंके ही लिये बतायी गयी है, किन्तु तान्त्रिक पूजन विष्णुभक्त शूद्रके लिये भी विहित है। साधक पुरुषको उचित है कि शास्त्रोक्त विधिका ज्ञान प्राप्त करके एकाग्रचित्त हो ब्रह्मचर्य पालन करते हुए श्रीविष्णुका विधिवत् पूजन करे। भगवान्की प्रतिमा आठ प्रकारकी मानी गयी है- शिलामयी, धातुमयी, लोहेकी बनी हुई, लीपने योग्य मिट्टीकी बनी हुई, चित्रमयी, बालूकी बनायी हुई, मनोमयी तथा मणिमयी। इन प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा (स्थापना) दो प्रकारकी होती है-एक चल प्रतिष्ठा और दूसरी अचल प्रतिष्ठा ।
राजन् भक्त पुरुषको चाहिये कि वह जो कुछ भी सामग्री प्राप्त हो, उसीसे भक्तिभावके साथ पूजन करे। प्रतिमा पूजनमें स्नान और अलंकार ही अभीष्ट हैं अर्थात् भगवद्विग्रहको स्नान कराकर पुष्प आदिसे श्रृंगार कर देना ही प्रधान सेवा है। श्रीकृष्णमें भक्ति रखनेवाला मनुष्य यदि केवल जल भी भगवान्को अर्पण करे तो वह उनकी दृष्टिमें श्रेष्ठ है; फिर गन्ध, धूप, पुष्प, दीप और अन्न आदिका नैवेद्य अर्पण करनेपर तो कहना ही क्या है। पवित्रतापूर्वक पूजनकी सारी सामग्री एकत्रित करके पूर्वा कुशौका आसन बिछाकर उसपर बैठे; पूजन करनेवालेका मुख उत्तर दिशाकी और या प्रतिमाके सामने हो। फिर पाद्य, अर्घ्य, स्नान तथा अर्हण आदि उपचारोंकी व्यवस्था करे। उसके बाद कर्णिका और केसरसे सुशोभित अष्टदल कमल बनावे और उसके ऊपर श्रीहरिके लिये आसन रखे। तदनन्तर चन्दन, उशीर (खस) कपूर, केसर तथा अरगजासे सुवासित जलके द्वारा मन्त्रपाठपूर्वक श्रीहरिको स्नान कराये वैभव हो तो प्रतिदिन इस तरहकी व्यवस्था करनी चाहिये। ‘स्वर्णधर्म’ नामक अनुवाक, महापुरुष-विद्या, ‘सहस्रशीर्षा’ आदि पुरुषसूक्त तथा सामवेदोक्त नीराजनाआदि मन्त्रद्वारा श्रीहरिको स्नान कराये। तत्पश्चात् विष्णुभक्त पुरुष वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, हार, गन्ध तथा अनुलेपनके द्वारा प्रेमपूर्वक भगवान्का यथायोग्य शृंगार करे। पुजारीको उचित है कि वह श्रद्धापूर्वक पाद्य, आचमनीय, गन्ध, पुष्प, अक्षत तथा धूप आदि उपहार अर्पण करे। उसके बाद गुड़, खीर, घी, पूड़ी, मालपुआ लड्डू, दूध और दही आदि नाना प्रकारके नैवेद्य निवेदन करे। पर्वके अवसरोंपर अंगराग लगाना, दर्पण दिखाना, दन्तधावन कराना, अभिषेक करना, अन्न आदिके बने हुए पदार्थ भोग लगाना, कीर्तन करते हुए नृत्य करना और गीत गाना आदि सेवाएँ भी करनी चाहिये। सम्भव हो तो प्रतिदिन ऐसी ही व्यवस्था रखनी चाहिये।
पूजनके पश्चात् इस प्रकार ध्यान करे- भगवान् श्रीविष्णुका श्रीविग्रह श्यामवर्ण एवं तपाये हुए जाम्बूनद नामक सुवर्णके समान तेजस्वी है भगवान्के शंख, चक्र, गदा और पद्मसे सुशोभित चार भुजाएँ हैं; उनकी आकृति शान्त है, उनका वस्त्र कमलके केसरके समान पीले रंगका है; वे मस्तकपर किरीट, दोनों हाथोंमें कड़े, गलेमें यज्ञोपवीत तथा अँगुलियोंमें अँगूठी धारण किये हुए हैं; उनके वक्ष:स्थलमें श्रीवत्सका चिह्न है, कौस्तुभमणि उनकी शोभा बढ़ाता है तथा वे वनमाला धारण किये हुए हैं।
इस प्रकार ध्यान करते हुए पूजन समाप्त करके धीमें डुबोयी हुई समिधाओं तथा हविष्यद्वारा अग्निमें हवन करे। ‘आज्यभाग’ तथा ‘आघार’ नामक आहुतियाँ देनेके पश्चात् घृतपूर्ण हविष्यका होम करे। तदनन्तर पुनः भगवान्का पूजन करके उन्हें प्रणाम करे और पार्षदोंको नैवेद्य अर्पण करे। उसके बाद मुख-शुद्धिके लिये सुगन्धित द्रव्योंसे युक्त ताम्बूल निवेदन करना चाहिये। फिर छोटे-बड़े पौराणिक तथा अर्वाचीन स्तोत्रोंद्वारा भगवान्की स्तुति करके ‘भगवन्! प्रसीद’ (भगवन्! प्रसन्न होइये) यों कहकर प्रतिदिन दण्डवत् प्रणाम करे। अपना मस्तक भगवान्के चरणोंमें रखकर “दोनों भुजाओंको फैलाकर परस्पर मिला दे और इस -प्रकार कहे- ‘परमेश्वर। मैं मृत्युरूपी ग्रह तथा समुद्रसेभयभीत होकर आपकी शरणमें आया हूँ; आप मेरी रक्षा कीजिये ।’
‘ तदनन्तर भगवान्को अर्पण की हुई प्रसाद-माला आदिको आदरपूर्वक सिरपर चढ़ाये तथा यदि मूर्ति विसर्जन करनेयोग्य हो तो उसका विसर्जन भी करे। ईश्वरीय ज्योतिको आत्म-ज्योतिमें स्थापित कर ले। प्रतिमा आदिमें जहाँ भगवान्का चरण हो, वहीं श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहिये तथा मनमें यह विश्वास रखना चाहिये कि ‘जो सम्पूर्ण भूतोंमें तथा मेरे आत्मामें भी रम रहे हैं, वे ही सर्वात्मा परमेश्वर इस मूर्तिमें विराजमान
इस प्रकार वैदिक तथा तान्त्रिक क्रियायोगके मार्गसे जो भगवान्की पूजा करता है, वह सब ओरसे अभीष्ट सिद्धिको प्राप्त होता है। श्रीविष्णु प्रतिमाकी स्थापना करके उसके लिये सुदृढ़ मन्दिर बनवाना चाहिये तथा पूजाकर्मकी सुव्यवस्थाके लिये सुन्दर फुलवाड़ी भी लगवानी चाहिये। बड़े-बड़े पर्वोंपर तथा प्रतिदिन पूजाकार्यका भलीभाँति निर्वाह होता रहे, इसके लिये भगवान् के नामसे खेत, बाजार, कसबा और गाँव आदि भी लगा देने चाहिये। यों करनेसे मनुष्य भगवान्के सायुज्यको प्राप्त होता है। भगवद्विग्रहकी स्थापना करनेसे सार्वभौम (सम्राट्) के पदको, मन्दिर बनवानेसे तीनों लोकोंके राज्यको पूजा आदिकी व्यवस्था करनेसे ब्रह्मलोकको तथा इन तीनों कार्योंके अनुष्ठानसे मनुष्य भगवत्सायुज्यको प्राप्त कर लेता है। केवल अश्वमेध यज्ञकरनेसे किसीको भक्तियोगकी प्राप्ति नहीं होती; भक्तियोगको तो वही प्राप्त करता है, जो पूर्वोक्त रीतिसे प्रतिदिन श्रीहरिकी पूजा करता है।
राजन् ! वही शरीर शुभ-कल्याणका साधक है, जो भगवान् श्रीकृष्णको साष्टांग प्रणाम करनेके कारण धूलि – धूसरित हो रहा है; नेत्र भी वे ही अत्यन्त सुन्दर और तपः शक्तिसे सम्पन्न हैं, जिनके द्वारा श्रीहरिका दर्शन होता है; वही बुद्धि निर्मल और चन्द्रमा तथा शंखके समान उज्ज्वल है, जो सदा श्रीलक्ष्मीपतिके चिन्तनमें संलग्न रहती है तथा वही जिह्वा मधुरभाषिणी हैं, जो बारम्बार भगवान् नारायणका स्तवन किया करती है। *
स्त्री और शूद्रोंको भी मूलमन्त्रके द्वारा श्रीहरिका पूजन करना चाहिये तथा अन्यान्य वैष्णवजनोंको भी गुरुकी बतायी हुई पद्धतिसे श्रद्धापूर्वक भगवान्की पूजा करनी उचित है। राजन् ! यह सब प्रसंग मैंने तुम्हें बता दिया। श्रीमाधवका पूजन परम पावन है। विशेषतः वैशाख मासमें तुम इस प्रकार पूजन अवश्य करना
सूतजी कहते हैं – महर्षिगण ! इस प्रकार पत्नी सहित मन्त्रवेत्ता महाराज अम्बरीषको उपदेश दे, उनसे पूजित हो, विदा लेकर देवर्षि नारदजी वैशाख मासमें गंगा स्नान करनेके लिये चले गये। लोकमें जिनका पावन सुयश फैला हुआ था, उन राजा अम्बरीषने भी मुनिकी बतायी हुई वैशाख मासकी विधिका पुण्य बुद्धिसे पत्नीसहित पालन किया।
अध्याय 144 यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
ऋषियोंने कहा- सूतजी ! इस विषयको पुनः विस्तार के साथ कहिये। आपके उत्तम वचनामृतोंका पान करते-करते हमें तृप्ति नहीं होती है। सूतजी बोले- महर्षियो इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं, जिसमें एक ब्राह्मण औरमहात्मा धर्मराजके संवादका वर्णन है। ब्राह्मणने पूछा— धर्मराज ! धर्म और अधर्मके निर्णयमें आप सबके लिये प्रमाणस्वरूप हैं; अतः बताइये, मनुष्य किस कर्मसे नरकमें पड़ते हैं? तथा किस कर्मके अनुष्ठानसे वे स्वर्गमें जाते हैं? कृपा करकेइन सब बातोंका वर्णन कीजिये।
यमराज बोले- ब्रह्मन् । जो मनुष्य मन, वाणी तथा क्रियाद्वारा धर्मसे विमुख और श्रीविष्णुभक्तिसे रहित हैं; जो ब्रह्मा, शिव तथा विष्णुको भेदबुद्धिसे देखते हैं; जिनके हृदयमें विष्णु-विद्यासे विरक्ति है; जो दूसरोंके खेत, जीविका, घर, प्रीति तथा आशाका उच्छेद करते हैं, वे नरकोंमें जाते हैं। जो मूर्ख जीविकाका भोगनेवाले ब्राह्मणोंको भोजनकी इच्छासे दरवाजेपर आते देख उनकी परीक्षा करने लगता है- उन्हें तुरंत भोजन नहीं देता, उसे नरकका अतिथि समझना चाहिये। जो मूढ़ अनाथ, वैष्णव, दीन, रोगातुर तथा वृद्ध मनुष्यपर दया नहीं करता तथा जो पहले कोई नियम लेकर पीछे अजितेन्द्रियताके कारण उसे छोड़ देता है, वह निश्चय ही नरकका पात्र है।
जो सब पापोंको हरनेवाले, दिव्यस्वरूप, व्यापक, विजयी, सनातन, अजन्मा, चतुर्भुज, अच्युत, विष्णुरूप, दिव्य पुरुष श्रीनारायणदेवका पूजन, ध्यान और स्मरण करते हैं, वे श्रीहरिके परम धामको प्राप्त होते हैं- यह सनातन श्रुति है। भगवान् दामोदरके गुणोंका कीर्तन ही मंगलमय है, वही धनका उपार्जन है तथा वही इस जीवनका फल है। अमिततेजस्वी देवाधिदेव श्रीविष्णुके कीर्तनसे सब पाप उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं, जैसे दिन निकलनेपर अन्धकार। जो प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक भगवान् श्रीविष्णुकी यशोगाथाका गान करते और सदा स्वाध्यायमें लगे रहते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। विप्रवर !भगवान् वासुदेवके नाम-जपमें लगे हुए मनुष्य पहले के पापी रहे हों, तो भी भयानक यमदूत उनके पास नहीं फटकने पाते। द्विजश्रेष्ठ! हरिकीर्तनको छोड़कर दूसरा कोई ऐसा साधन मैं नहीं देखता, जो जीवोंके सम्पूर्ण पापका नाश करनेवाला प्रायश्चित्त हो । ll 1 ll
जो माँगनेपर प्रसन्न होते हैं, देकर प्रिय वचन बोलते हैं तथा जिन्होंने दानके फलका परित्याग कर दिया है, वे मनुष्य स्वर्गमें जाते हैं। जो दिनमें सोना छोड़ देते हैं, सब कुछ सहन करते हैं, पर्वके अवसरपर लोगोंको आश्रय देते हैं, अपनेसे द्वेष रखनेवालोंके प्रति भी कभी द्वेषवश अहितकारक वचन मुँहसे नहीं निकालते अपितु सबके गुणोंका ही बखान करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गमें जाते हैं। जो परायी स्त्रियोंकी ओरसे उदासीन होते हैं और सत्त्वगुणमें स्थित होकर मन, वाणी अथवा क्रियाद्वारा कभी उनमें रमण नहीं करते, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं।
जिस-किसी कुलमें उत्पन्न होकर भी जो दयालु, यशस्वी, उपकारी और सदाचारी होते हैं, वे मनुष्य स्वर्गमें जाते हैं। जो व्रतको क्रोधसे, लक्ष्मीको डाहसे, विद्याको मान और अपमानसे, आत्माको प्रमादसे, बुद्धिको लोभसे, मनको कामसे तथा धर्मको कुसंगसे बचाये रखते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। विप्र जो शुक्ल और कृष्णपक्षमें भी एकादशीको विधिपूर्वक उपवास करते हैं, वे मानव स्वर्गमें जाते हैं। समस्त बालकोंका पालन करनेके लिये जैसे माता बनायी गयी है तथा रोगियोंकी रक्षाके लिये जैसे औषधकी रचना हुई है, उसीप्रकार सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षाके निमित्त एकादशी तिथिका निर्माण हुआ है। एकादशीके व्रतके समान पापसे रक्षा करनेवाला दूसरा कोई साधन नहीं है। अतः एकादशीको विधिपूर्वक उपवास करनेसे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं।
अखिल विश्वके नायक भगवान् श्रीनारायणमें जिनकी भक्ति है, वे सत्यसे हीन और रजोगुणसे युक्त होनेपर भी अनन्त पुण्यशाली हैं तथा अन्तमें वे वैकुण्ठधाममें पधारते हैं। जो वेतसी, यमुना, सीता (गंगा) तथा पुण्यसलिला गोदावरीका सेवन और सदाचारका पालन करते हैं; जिनकी स्नान और दानमें सदा प्रवृत्ति है, वे मनुष्य कभी नरकके मार्गका दर्शन नहीं करते। जो कल्याणदायिनी नर्मदा नदीमें गोते लगाते तथा उसके दर्शनसे प्रसन्न होते हैं, वे पापरहित हो महादेवजीके लोकमें जाते और चिरकालतक वहाँ आनन्द भोगते हैं। जो मनुष्य चर्मण्वती (चम्बल) नदीमें स्नान करके शौचसंतोषादि नियमोंका पालन करते हुए उसके तटपर – विशेषतः व्यासाश्रममें तीन रात निवास करते हैं, वे स्वर्गलोकके अधिकारी माने गये हैं। जो गंगाजीके जलमें अथवा प्रयाग, केदारखण्ड, पुष्कर, व्यासाश्रम या प्रभासक्षेत्रमें मृत्युको प्राप्त होते हैं, वे विष्णुलोकमें जाते हैं। जिनकी द्वारका या कुरुक्षेत्रमें मृत्यु हुई है अथवा जो योगाभ्याससे मृत्युको प्राप्त हुए हैं अथवा मृत्युकालमें जिनके मुखसे ‘हरि’ इन दो अक्षरोंका उच्चारण हुआ है, वे सभी भगवान् श्रीहरिके प्रिय हैं।
विप्र ! जो द्वारकापुरीमें तीन रात भी ठहर जाता है, वह अपनी ग्यारह इन्द्रियोंद्वारा किये हुए सारे पापको नष्ट करके स्वर्गमें जाता है-ऐसी वहाँकी मर्यादा है। वैष्णवव्रत (एकादशी)-के पालनसे होनेवाला धर्म तथा यज्ञादिके अनुष्ठानसे उत्पन्न होनेवाला धर्म-इन दोनोंकोविधाताने तराजूपर रखकर तोला था, उस समय इनमेंसे पहलेका ही पलड़ा भारी रहा। ब्रह्मन् ! जो एकादशीका सेवन करते हैं तथा जो ‘अच्युत-अच्युत’ कहकर भगवन्नामका कीर्तन करते हैं, उनपर मेरा शासन नहीं चलता। मैं तो स्वयं ही उनसे बहुत डरता हूँ।
जो मनुष्य प्रत्येक मासमें एक दिन – अमावास्याको श्राद्धके नियमका पालन करते हैं और ऐसा करनेके कारण जिनके पितर सदा तृप्त रहते हैं, वे धन्य हैं। वे स्वर्गगामी होते हैं। भोजन तैयार होनेपर जो आदरपूर्वक उसे दूसरोंको परोसते हैं और भोजन देते समय जिनके चेहरेके रंगमें परिवर्तन नहीं होता, वे शिष्ट पुरुष स्वर्गलोकमें जाते हैं। जो मर्त्यलोकके भीतर भगवान् श्रीनर-नारायणके आवासस्थान बदरिकाश्रममें और नन्दा (सरस्वती) के तटपर तीन रात निवास करते हैं, वे धन्यवादके पात्र और भगवान् श्रीविष्णुके प्रिय हैं। ब्रह्मन् ! जो भगवान् पुरुषोत्तमके समीप (जगन्नाथपुरीमें) छः मासतक निवास कर चुके हैं, वे अच्युतस्वरूप हैं और दर्शनमात्रसे समस्त पापको हर लेनेवाले हैं।
जो अनेक जन्मोंमें उपार्जित पुण्यके प्रभावसे काशीपुरीमें जाकर मणिकर्णिकाके जलमें गोते लगाते और श्रीविश्वनाथजीके चरणोंमें मस्तक झुकाते हैं, वे भी इस लोकमें आनेपर मेरे वन्दनीय होते हैं। जो श्रीहरिकी पूजा करके पृथ्वीपर कुश और तिल बिछाकर चारों ओर तिल बिखेरते और लोहा तथा दूध देनेवाली गौ दान करके विधिपूर्वक मृत्युको प्राप्त होते वे मनुष्य स्वर्गमें जाते हैं। जो पुत्रोंको उत्पन्न करके उन्हें पिता-पितामहोंके पदपर बिठाकर ममता और अहंकारसे रहित होकर मरते हैं, वे भी स्वर्गलोकके अधिकारी होते हैं। जो चोरीडकैतीसे दूर रहकर सदा अपने ही धनसे संतुष्ट रहते हैं अथवा अपने भाग्यपर ही निर्भर रहकर जीविका चलाते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। जो स्वागत करते हुए शुद्ध पीड़ारहित मधुर तथा पापरहित वाणीका प्रयोग करते हैं, वे लोग स्वर्गमें जाते हैं। जो दान धर्ममें प्रवृत्त तथा धर्ममार्गके अनुयायी पुरुषोंका उत्साह बढ़ाते हैं, वे चिरकालतक स्वर्गमें आनन्द भोगते हैं। जो हेमन्त ऋतु (शीतकाल ) – में सूखी लकड़ी, गर्मीमें शीतल जल तथा वर्षामें आश्रय प्रदान करता है, वह स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है। जो नित्य नैमित्तिक आदि समस्त पुण्यकालोंमेंभक्तिपूर्वक श्राद्ध करता है, वह निश्चय ही देवलोकका भागी होता है। दरिद्रका दान, सामर्थ्यशालीकी क्षमा, नौजवानोंकी तपस्या, ज्ञानियोंका मौन, सुख भोगनेके योग्य पुरुषोंकी सुखेच्छा-निवृत्ति तथा सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया—ये सद्गुण स्वर्गमें ले जाते हैं।
ध्यानयुक्त तप भवसागरसे तारनेवाला है और पापको पतनका कारण बताया गया है; यह बिलकुल सत्य है, इसमें संदेहकी गुंजाइश नहीं है । ब्रह्मन् ! स्वर्गकी राहपर ले जानेवाले समस्त साधनोंका मैंने यहाँ संक्षेपसे वर्णन किया है; अब तुम और क्या सुनना हो ?
अध्याय 145 तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
ब्राह्मणने पूछा- धर्मराज! वैशाख मासमें प्रातः काल स्नान करके एकाग्रचित्त हुआ पुरुष भगवान् माधवका पूजन किस प्रकार करे ? आप इसकी विधिका वर्णन करें।
धर्मराजने कहा – ब्रह्मन् ! पत्तोंकी जितनी जातियाँ हैं, उन सबमें तुलसी भगवान् श्रीविष्णुको अधिक प्रिय है। पुष्कर आदि जितने तीर्थ हैं, गंगा आदि जितनी नदियाँ हैं तथा वासुदेव आदि जो-जो देवता हैं, वे सभी तुलसीदलमें निवास करते हैं। अतः तुलसी सर्वदा और सब समय भगवान् श्रीविष्णुको प्रिय है। कमल और मालतीका फूल छोड़कर तुलसीका पत्ता ग्रहण करे और उसके द्वारा भक्तिपूर्वक माधवकी पूजा करे। उसके पुण्यफलका पूरा-पूरा वर्णन करनेमें शेष भी समर्थ नहीं हैं। जो बिना स्नान किये ही देवकार्य या पितृकार्यके लिये तुलसीका पत्ता तोड़ता है, उसका सारा कर्म निष्फल हो जाता है तथा वह पंचगव्य पान करनेसेशुद्ध होता है। जैसे हर्रे बहुतेरे रोगोंको तत्काल हर लेती है, उसी प्रकार तुलसी दरिद्रता और दुःखभोग आदिसे सम्बन्ध रखनेवाले अधिक-से-अधिक पापको भी शीघ्र ही दूर कर देती है। तुलसी काले रंगके पत्तोंवाली हो या हरे रंगकी, उसके द्वारा श्रीमधुसूदनकी पूजा करनेसे प्रत्येक मनुष्य- विशेषतः भगवान्का भक्त नरसे नारायण हो जाता है। जो पूरे वैशाखभर तीनों सन्ध्याओंके समय तुलसीदलसे मधुहन्ता श्रीहरिका पूजन करता है, उसका पुन: इस संसारमें जन्म नहीं होता। फूल और पत्तोंके न मिलनेपर अन्न आदिके द्वारा – धान, गेहूँ, चावल अथवा जौके द्वारा भी सदा श्रीहरिका पूजन करे। तत्पश्चात् सर्वदेवमय भगवान् विष्णुकी प्रदक्षिणा करे। इसके बाद देवताओं, मनुष्यों, पितरों तथा चराचर जगत्का तर्पण करना चाहिये। पीपलको जल देनेसे दरिद्रता, कालकर्णी (एक तरहका रोग), दुःस्वप्न, दुश्चिन्ता तथा सम्पूर्ण दु:ख नष्टहो जाते हैं। जो बुद्धिमान् पीपलके पेड़की पूजा करता है उसने अपने पितरीका तृप्त कर दिया, भगवान् विष्णुको आराधना कर ली तथा सम्पूर्ण ग्रहोंका भी पूजन कर लिया । अष्टांगयोगका साधन, स्नान करके पीपलके वृक्षका सिंचन तथा श्रीगोविन्दका पूजन करनेसे मनुष्य कभी दुर्गतिको नहीं प्राप्त होता जो । सब कुछ करनेमें असमर्थ हो, वह स्त्री या पुरुष यदि पूर्वोक्त नियमोंसे युक्त होकर वैशाखकी त्रयोदशी, चतुर्दशी और पूर्णिमा – तीनों दिन भक्तिसे विधिपूर्वक प्रातः स्नान करे तो सब पातकोंसे मुक्त होकर अक्षय स्वर्गका उपभोग करता है जो वैशाख मासमें प्रसन्नताके साथ भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंको भोजन कराता है तथा तीन राततक प्रातः काल एक बार भी स्नान करके संयम और शौचका पालन करते हुए श्वेत या काले तिलोंको मधु मिलाकर बारह ब्राह्मणोंको दान देता है और उन्होंके द्वारा स्वस्तिवाचन कराता है तथा ‘मुझपर धर्मराज प्रसन्न हों’ इस उद्देश्यसे देवताओं और पितरोंका तर्पण करता है, उसके जीवनभरके किये हुए पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। जो वैशाखकी पूर्णिमाको मणिक (मटका), जलके घड़े, पकवान तथा सुवर्णमय दक्षिणा दान करता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है।
इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास कहा जाता है, जिसमें एक ब्राह्मणका महान् वनके भीतर प्रेतोंके साथ संवाद हुआ था। मध्यदेशमें एक धनशर्मा नामक ब्राह्मण रहता था; उसमें पापका लेशमात्र भी नहीं था । एक दिन वह कुश आदिके लिये वनमें गया। वहाँ उसने एक अद्भुत बात देखी। उसे तीन महाप्रेत दिखायी दिये, जो बड़े ही दुष्ट और भयंकर थे। धनशर्मा उन्हें देखकर डर गया। उन प्रेतोंके केश ऊपरको उठे हुए थे। लाल-लाल आँखें काले-काले दाँत और सूखा हुआ उनका पेट था। धनशर्माने पूछा- तुमलोग कौन हो ? यहनारकी अवस्था तुम्हें कैसे प्राप्त हुई? मैं भयसे आतुर और दुःखी हूँ, दयाका पात्र हूँ; मेरी रक्षा करो। मैं भगवान् विष्णुका दास मेरी रक्षा करनेसे भगवान् तुमलोगोंका भी कल्याण करेंगे। भगवान् विष्णु ब्राह्मणोंके हितैषी हैं, मुझपर दया करनेसे वे तुम्हारे ऊपर संतुष्ट होंगे। श्रीविष्णुका अलसीके पुष्पके समान श्याम वर्ण है, वे पीताम्बरधारी हैं, उनका नाम श्रवण करने मात्रसे सब पापका क्षय हो जाता है। भगवान् आदि और अन्तसे रहित, शंख, चक्र एवं गदा धारण करनेवाले, अविनाशी, कमलके समान नेत्रोंवाले तथा प्रेतोंको मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं।
यमराज कहते हैं- ब्रह्मन् ! भगवान् विष्णुका नाम सुननेमात्र से वे पिशाच संतुष्ट हो गये। उनका भाव पवित्र हो गया। वे दया और उदारताके वशीभूत हो गये। ब्राह्मणके कहे हुए वचनसे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई थी। उसके पूछनेपर वे प्रेत इस प्रकार बोले ।
प्रेतोंने कहा- विप्र! तुम्हारे दर्शनमात्रसे तथा भगवान् श्रीहरिका नाम सुननेसे हम इस समय दूसरे ही भावको प्राप्त हो गये-हमारा भाव बदल गया, हम दयालु हो गये। वैष्णव पुरुषका समागम निश्चय ही पापको दूर भगाता, कल्याणसे संयोग कराता तथा शीघ्र ही यशका विस्तार करता है। अब हमलोगोंका परिचय सुनो। यह पहला ‘कृतघ्न’ नामका प्रेत है, इस दूसरेका नाम ‘विदैवत’ है तथा तीसरा मैं हूँ, मेरा नाम ‘अवैशाख’ हैं, मैं तीनोंमें अधिक पापी हूँ। इस प्रथम पापीने सदा ही कृतघ्नता की है; अतः इसके कर्मके अनुसार ही इसका ‘कृतघ्न’ नाम पड़ा है। ब्रह्मन् ! यह पूर्वजन्ममें ‘सुदास’ नामक द्रोही मनुष्य था, सदा कृतघ्नता किया करता था, उसी पापसे यह इस अवस्थाको पहुँचा है। अत्यन्त पापी, धूर्त तथा गुरु और स्वामीका अहित करनेवाले मनुष्यके लिये भी पापोंसेछूटने का उपाय है; परन्तु कृतघ्नके लिये कोई प्रायश्चित्त नहीं है।
इस दूसरे पापीने देवताओंका पूजन किये बिना ही सदा अन्न भोजन किया है, इसने गुरु और ब्राह्मणोंको कभी दान नहीं दिया है; इसीलिये इसका नाम ‘विदैवत’ हुआ है। यह पूर्वजन्ममें ‘हरिवीर’ नामसे विख्यात राजा था। दस हजार गाँवोंपर इसका अधिकार था। यह रोप, अहंकार तथा नास्तिकताके कारण गुरुजनोंकी आज्ञाका उल्लंघन करनेमें तत्पर रहता था। प्रतिदिन पंच महायज्ञोंका अनुष्ठान किये बिना ही खाता और ब्राह्मणोंकी निन्दा किया करता था। उसी पापकर्मके कारण यह बड़े बड़े नरकोंका कष्ट भोगकर इस समय ‘विदैवत’ नामक प्रेत हुआ है।
‘अवैशाख’ नामक तीसरा प्रेत मैं हूँ। मैं पूर्वजन्ममें ब्राह्मण था मध्यदेशमें मेरा जन्म हुआ था। मेरा नाम भी गौतम था और गोत्र भी मैं ‘वासपुर’ गाँवमें निवास करता था। मैंने वैशाख मासमें भगवान् माधवकी प्रसन्नताके उद्देश्यसे कभी स्नान नहीं किया। दान और हवन भी नहीं किया। विशेषतः वैशाख माससे सम्बन्ध रखनेवाला कोई कर्म नहीं किया। वैशाखमें भगवान् मधुसूदनका पूजन नहीं किया तथा विद्वान् पुरुषोंको दान आदिसे संतुष्ट नहीं किया। वैशाख मासकी एक भी पूर्णिमाको, जो पूर्ण फल प्रदान करनेवाली है, मैंने स्नान, दान, शुभकर्म, पूजा तथा पुण्यके द्वारा उसके व्रतका पालन नहीं किया। इससे मेरा सारा वैदिक कर्म निष्फल हो गया। मैं ‘अवैशाख’ नामक प्रेत होकर सब ओर विचरता हूँ।
हम तीनोंके प्रेतयोनिमें पड़नेका जो कारण है, वह सब मैंने तुम्हें बता दिया। अब तुम हमलोगोंका पापसे उद्धार करो; क्योंकि तुम वित्र हो ब्रहान् पुण्यात्मा साधु पुरुष तीर्थोंसे भी बढ़कर हैं। वे शरणमें आये हुए महान् पापियोंको भी नरकसे तार देते हैं। जो मनुष्य सदागंगा आदि सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान करता है तथा जो केवल साधु पुरुषोंका संग करता है, उनमें साधु-संग करनेवाला पुरुष ही श्रेष्ठ है। अत: तुम मेरा उद्धार करो अथवा मेरा एक पुत्र है, जो धनशर्मा नामसे विख्यात है; स्वामिन्! तुम उसीके पास जाकर ये सब बातें समझाओ। हमारे लिये इतना परिश्रम करो। जो दूसरोंका कार्य उपस्थित होनेपर उसके लिये उद्योग करता है, उसे उसका पूरा फल मिलता है। यह यज्ञ, दान और शुभकमोंसे भी अधिक फलका भागी होता है।
यमराज कहते हैं— ब्रह्मन् ! उस प्रेतका वचन सुनकर धनशर्माको बड़ा दुःख हुआ। उसने यह जान लिया कि ये मेरे पिता हैं, जो नरकमें पड़े हुए हैं। तब वह सर्वथा अपनी निन्दा करते हुए बोला।
धनशमने कहा- स्वामिन्! मैं ही गौतमका आपका पुत्र धनशर्मा हूँ। मैं आपके किसी काम न आया, मेरा जन्म निरर्थक है। जो पुत्र आलस्य छोड़कर अपने पिताका उद्धार नहीं करता, वह अपनेको पवित्र नहीं कर पाता। जो इस लोक और परलोकमें भी सुखका संतान-विस्तार कर सके, वही संतान या तनय माना गया है। इस लोकमें धर्मकी दृष्टिसे पुरुषके दो ही गुरु हैं-पिता और माता। इनमें भी पिता ही श्रेष्ठ है; क्योंकि सर्वत्र बीजकी ही प्रधानता देखी जाती है। पिताजी! क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ? कैसे आपकी गति होगी? मैं धर्मका तत्त्व नहीं जानता, केवल आपकी आज्ञाका पालन करूँगा।
प्रेत बोला- बेटा! घर जाओ और यमुनामें विधिपूर्वक स्नान करो। आजसे पाँचवें दिन वैशाखकी पूर्णिमा आनेवाली है, जो सब प्रकारकी उत्तम गति प्रदान करनेवाली तथा देवता और पितरोंके पूजनके लिये उपयुक्त है। उस दिन पितरोंके निमित्त भक्तिपूर्वक तिलमिश्रित जल, जलका घड़ा, अन्न और फल दान करना चाहिये। उस दिन जो श्राद्ध किया जाता है, वहपितरोंको हजार वर्षोंतक आनन्द प्रदान करनेवाला होता है। जो वैशाखकी पूर्णिमाको विधिपूर्वक स्नान करके दस ब्राह्मणोंको खीर भोजन कराता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो धर्मराजकी प्रसन्नताके लिये जलसे भरे हुए सात घड़े दान करता है, वह अपनी सात पीढ़ियोंको तार देता है। बेटा! त्रयोदशी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमाको भक्तिपरायण होकर स्नान, जप, दान, होम और श्रीमाधवका पूजन करो और उससे जो फल हो, वह हमलोगोंको समर्पित कर दो। ये दोनों प्रेत भी मेरे परिचित हो गये हैं; अतः इनको इसी अवस्थामें छोड़कर मैं स्वर्गमें नहीं जा सकता। इन दोनोंके पापका भी अन्त आ गया है।
यमराज कहते हैं – ब्रह्मन् ! ‘बहुत अच्छा’ कहकर वह श्रेष्ठ ब्राह्मण अपने घर गया और वहाँ जाकर उसने सब कुछ उसी तरह किया। वह प्रसन्नतापूर्वक परम भक्तिके साथ वैशाख स्नान और दान करने लगा। वैशाखकी पूर्णिमा आनेपर उसने आनन्दपूर्वक भक्तिसे स्नान किया और बहुत-से दान करके उन सबको पृथक्-पृथक् पुण्य प्रदान किया। उस पवित्र दानके संयोगसे वे सब आनन्दमग्न हो विमानपर बैठकर तत्क्षण ही स्वर्गको चले गये।
ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ धनशर्मा भी श्रुति, स्मृति और पुराणोंका ज्ञाता था। वह चिरकालतक उत्तम भोग भोगकर अन्तमें ब्रह्मलोकको प्राप्त हुआ। अतः यह वैशाखकी पूर्णिमा परम पुण्यमयी और समस्त विश्वको पवित्र करनेवाली है। इसका माहात्म्य बहुत बड़ा है, अतएव मैंने संक्षेपसे तुम्हें इसका महत्त्व बतला दिया है।जो वैशाख मासमें प्रात:काल स्नान करके नियमोंके पालनसे विशुद्धचित्त हो भगवान् मधुसूदनकी पूजा करते हैं, वे ही पुरुष धन्य हैं, वे ही पुण्यात्मा हैं तथा वे ही संसारमें पुरुषार्थके भागी हैं। जो मनुष्य वैशाख मासमें सबेरे स्नान करके सम्पूर्ण यम-नियमोंसे युक्त हो भगवान् लक्ष्मीपतिकी आराधना करता है, वह निश्चय ही अपने पापका नाश कर डालता है। जो प्रातः काल उठकर श्रीविष्णुकी पूजाके लिये गंगाजीके जलमें डुबकी लगाते हैं, उन्हीं पुरुषोंने समयका सदुपयोग किया है, वे ही मनुष्योंमें धन्य तथा पापरहित हैं। वैशाख मासमें प्रातः काल नियमयुक्त हो मनुष्य जब तीर्थमें स्नान करनेके लिये पैर बढ़ाता है, उस समय श्रीमाधवके स्मरण और नामकीर्तनसे उसका एक-एक पग अश्वमेध यज्ञके समान पुण्य देनेवाला होता हैं। श्रीहरिके प्रियतम वैशाख मासके व्रतका यदि पालन किया जाय तो यह मेरुपर्वतके समान बड़े उग्र पापको भी जलाकर भस्म कर डालता है। विप्रवर! तुमपर अनुग्रह होनेके कारण मैंने यह प्रसंग संक्षेपसे तुम्हें बता दिया है। जो मेरे कहे हुए इस इतिहासको भक्तिपूर्वक सुनेगा, वह भी सब पापोंसे मुक्त हो जायगा तथा उसे मेरे लोक- यमलोकमें नहीं आना पड़ेगा। वैशाख मासके व्रतका विधिपूर्वक पालन करनेसे अनेकों बारके किये हुए ब्रह्महत्यादि पाप भी नष्ट हो जाते हैं—यह निश्चित बात है। वह पुरुष अपने तीस पीढ़ी पहलेके पूर्वजों और तीस पीढ़ी बादकी संतानोंको भी तार देता है; क्योंकि अनायास ही नाना प्रकारके कर्म करनेवाले भगवान् श्रीहरिको वैशाख मास बहुत ही प्रिय है; अतएव वह सब मासोंमें श्रेष्ठ है।
अध्याय 146 वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
यमराज कहते हैं— ब्रह्मन् ! पूर्वकालको बात है, महीरथ नामसे विख्यात एक राजा थे। उन्हें अपने पूर्वजन्मके पुण्योंके फलस्वरूप प्रचुर ऐश्वर्य और सम्पत्ति प्राप्त हुई थी परन्तु राजा राज्यलक्ष्मीका सारा भार मन्त्रीपर रखकर स्वयं विषयभोगमें आसक्त हो रहे थे।वे न प्रजाकी ओर दृष्टि डालते थे न धनकी ओर । धर्म और अर्थका काम भी कभी नहीं देखते थे। उनकी वाणी तथा उनका मन कामिनियोंकी क्रीड़ामें ही आसक्त था। राजाके पुरोहितका नाम कश्यप था; जब राजाको विषयोंमें रमते हुए बहुत दिन व्यतीत हो गये, तबपुरोहितने मनमें विचार किया- ‘जो गुरु मोहवश राजाको अधर्मसे नहीं रोकता, वह भी उसके पापका भागी होता है; यदि समझानेपर भी राजा अपने पुरोहितके वचनोंकी अवहेलना करता है तो पुरोहित निर्दोष हो जाता है। उस दशामें राजा ही सारे दोषोंका भागी होता है।’ यह सोचकर उन्होंने राजासे धर्मानुकूल वचन कहा।
कश्यप बोले- राजन्! मैं तुम्हारा गुरु हूँ, अतः धर्म और अर्धसे युक्त मेरे वचनोंको सुनो। राजाके लिये यही सबसे बड़ा धर्म है कि वह गुरुकी आज्ञामें रहे। गुरुकी आज्ञाका आंशिक पालन भी राजाओंकी आयु, लक्ष्मी तथा सौख्यको बढ़ानेवाला है। तुमने दानके द्वारा कभी ब्राह्मणोंको तृप्त नहीं किया; भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना नहीं की; कोई व्रत, तपस्या तथा तीर्थ भी नहीं किया। महाराज! कितने खेदकी बात है कि तुमने कामके अधीन होकर कभी भगवान्के नामका स्मरण नहीं किया। अबलाओंकी संगतिमें पड़कर विद्वानोंकी संगति नहीं की। जिसका मन स्त्रियोंने हर लिया, उसे अपनी विद्या, तपस्या, त्याग, नीति तथा विवेकशील चित्तसे क्या लाभ हुआ।’ एकमात्र धर्म ही सबसे महान् और श्रेष्ठ है, जो मृत्युके बाद भी साथ जाता है। शरीरके उपभोगमें आनेवाली अन्य जितनी वस्तुएँ हैं, वे सब यहाँ नष्ट हो जाती हैं। धर्मकी सहायता से ही मनुष्य दुर्गतिसे पार होता है। राजेन्द्र ! क्या तुम नहीं जानते, मनुष्योंके जीवनका विलास जलकी उत्ताल तरंगोंके समान चंचल एवं अनित्य है। जिनके लिये विनय ही पगड़ी और मुकुट हैं, सत्य और धर्म ही कुण्डल हैं तथा त्याग ही कंगन हैं, उन्हें जड आभूषणोंकी क्या आवश्यकताहै। मनुष्यके निर्जीव शरीरको ढेले और काठके समान पृथ्वीपर फेंक, उसके बन्धुबान्धव मुँह फेरकर चल देते हैं; केवल धर्म ही उसके पीछे-पीछे जाता है। सब कुछ जा रहा है, आयु प्रतिदिन क्षीण हो रही है तथा यह जीवन भी लुप्त होता जा रहा है; ऐसी अवस्थायें भी तुम उठकर भागते क्यों नहीं? स्त्री पुत्र आदि कुटुम्ब, शरीर तथा द्रव्य-संग्रह- ये सब पराये हैं, अनित्य हैं; किन्तु पुण्य और पाप अपने हैं। जब एक दिन सब कुछ छोड़कर तुम्हें विवशतापूर्वक जाना ही है तो तुम अनर्थमें फँसकर अपने धर्मका अनुष्ठान क्यों नहीं करते? मरनेके बाद उस दुर्गम पथपर अकेले कैसे जा सकोगे, जहाँ न ठहरनेके लिये स्थान, न खानेयोग्य अन्न, न पानी, न राहखर्च और न राह बतानेवाला कोई गुरु ही है । यहाँसे प्रस्थान करनेके बाद तुम्हारे पीछे कुछ भी नहीं जायगा, केवल पाप और पुण्य जाते समय तुम्हारे पीछे-पीछे जायँगे। ll 2 ll
अतः अब तुम आलस्य छोड़कर वेदों तथा स्मृतियोंमें बताये हुए देश और कुलके अनुरूप हितकारक कर्मका अनुष्ठान करो, धर्ममूलक सदाचारका सेवन करो। अर्थ और काम भी यदि धर्मसे रहित हों तो उनका परित्याग कर देना चाहिये। दिन-रात इन्द्रिय-विजयरूपी योगका अनुष्ठान करना चाहिये; क्योंकि जितेन्द्रिय राजा ही प्रजाको अपने वशमें रख सकता है। लक्ष्मी अत्यन्त प्रगल्भ रमणीके कटाक्षके समान चंचल होती है, विनयरूपी गुण धारण करनेसे ही वह राजाओंके पास दीर्घकालतक ठहरती है जो अत्यन्त कामी और घमंडी हैं, जिनका सारा कार्य बिना विचारे ही होता है, उन मूढचेता राजाओंकी सम्पत्ति उनकी आयुके साथ ही नष्ट हो जाती है। व्यसन और मृत्यु – इनमें व्यसनको हीकष्टदायक बताया गया है। व्यसनमें पड़े हुए राजाकी अधोगति होती है और जो व्यसनसे दूर रहता है, वह स्वर्गलोकमें जाता है। व्यसन और दुःख विशेषतः कामसे ही उत्पन्न होते हैं; अतः कामका परित्याग करो। पापोंमें फँस जानेपर वैभव एवं भोग स्थिर नहीं रहते; वे शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। चलते, रुकते, जागते और सोते समय भी जिसका चित्त विचारमें संलग्न नहीं रहता वह जीते-जी भी मरे हुएके ही तुल्य है। विद्वान् पुरुष विषय चिन्ता छोड़कर समतापूर्ण, स्थिर एवं व्यावहारिक युक्तिसे परमार्थका साधन करते हैं। जीवका चित्त बालककी भाँति चपल होता है; अतः उससे बलपूर्वक काम लेना चाहिये। राजन् धर्मके तत्त्वदर्शी वृद्ध पुरुषोंकी बुद्धिका सहारा ले पराबुद्धिके द्वारा अपने कुपथगामी चित्तको वशमें करना चाहिये। लौकिक धर्म, मित्र, भाई-बन्धु, हाथ-पैरोंका चलाना, देशान्तरमें जाना, शरीरसे क्लेश उठाना तथा तीर्थके लिये यत्न करना आदि कोई भी परमपदकी प्राप्तिमें सहायता नहीं कर सकते; केवल परमात्मामें मन लगाकर उनका नाम-जप करनेसे ही उस पदकी प्राप्ति होती है।
इसलिये राजन् विद्वान् पुरुषको उचित है कि वह विषयोंमें प्रवृत्त हुए चित्तको रोकनेके लिये यत्न करे। यत्नसे वह अवश्य ही वशमें हो जाता है। यदि मनुष्य मोहमें पड़ जाय – स्वयं विचार करनेमें असमर्थ हो जाय तो उसे विद्वान् सुहृदोंके पास जाकर प्रश्न करना चाहिये। वे पूछनेपर यथोचित कर्तव्यका उपदेश देते हैं। कल्याणकी इच्छा रखनेवालेको हर एक उपायसे काम और क्रोधका निग्रह करना चाहिये; क्योंकि वे दोनों कल्याणका विधात करनेके लिये उद्यत रहते हैं। राजन्। काम बड़ा बलवान् है; वह शरीरके भीतर रहनेवाला महान् शत्रु है श्रेयकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषको उसके अधीन नहीं होना चाहिये। अतः विधिपूर्वक पालन किया हुआ धर्म ही सबसे श्रेष्ठ है इसलिये तुम धैर्य धारण करके धर्मका ही आचरण करो। यह श्वासबड़ा चंचल है, जीवन उसीके अधीन है। ऐसी स्थितिमें भी कौन मनुष्य धर्मके आचरणमें विलम्ब करेगा। राजन् जो वृद्धावस्थाको प्राप्त हो चुका है, उसका चित्त भी इन निषिद्ध विषयोंकी ओरसे नहीं हटता; हाय! यह कितने शोककी बात है। पृथ्वीनाथ इस कामके मोहमें पड़कर तुम्हारी सारी उम्र व्यर्थ बीत गयी, अब भी तो अपने हित साधनमें लगो। राजन्! तुम्हारे लिये सर्वोत्तम हितकी बात कहता है क्योंकि मैं तुम्हारा पुरोहित और तुम्हारे भले-बुरे कर्मोंका भागी हूँ। मुनीश्वरोंने ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी, गुरुपत्नीगमन आदि महापातक बताये हैं; उनमें से मनुष्योंद्वारा मन, वाणी और शरीरसे भी किये हुए जो पाप हैं, उन्हें वैशाख मास नष्ट कर देता है। जैसे सूर्य अन्धकारका नाश करता है, उसी प्रकार वैशाख मास पापरूपी महान् अन्धकारको सर्वथा नष्ट कर डालता है इसलिये तुम विधिपूर्वक वैशाख – व्रतका पालन करो। राजन्! मनुष्य वैशाख मासकी विधिके अनुष्ठानद्वारा होनेवाले पुण्यके प्रभावसे जन्मभरके किये हुए घोर पापोंका परित्याग करके परमधामको प्राप्त होता है। इसलिये महाराज। तुम भी इस वैशाख मासमें प्रातः स्नान करके विधिपूर्वक भगवान् मधुसूदनकी पूजा करो जिस प्रकार कूटने छाँटनेकी क्रियासे चावलकी भूसी छूट जाती है, माँजनेसे ताँबेकी कालिख मिट जाती है, उसी प्रकार शुभ कर्मका अनुष्ठान करनेसे पुरुषके अन्तःकरणका मल धुल जाता है।
राजाने कहा- सौम्य स्वभाववाले गुरुदेव! आपने मुझे वह अमृत पिलाया, जिसका आविर्भाव समुद्रसे नहीं हुआ है। आपका वचन संसाररूपी रोगका निवारण तथा दुर्व्यसनोंसे मुक्त करनेवाला द्रव्यभिन्न औषध है। आपने कृपा करके मुझे आज इस औषधका पान कराया है। विप्रवर। सत्पुरुषोंका समागम मनुष्योंको हर्ष प्रदान करनेवाली, उनके पापको दूर भगानेवाली तथा जरा मृत्युका अपहरण करनेवाली संजीवनी बूटी है। इस पृथ्वीपर जो-जो मनोरथ दुर्लभमाने गये हैं, वे सब यहाँ साधु पुरुषोंके संगसे प्राप्त हो जाते हैं। जो पापका अपहरण करनेवाली सत्संगकी गंगा स्नान कर चुका है, उसे दान, तीर्थसेवन, तपस्या तथा यज्ञ करनेकी क्या आवश्यकता है। प्रभो ! आजके पहले मेरे मनमें जो-जो भाव उठते थे, वे सब केवल काम सुखके प्रति लोभ उत्पन्न करनेवाले थे; परन्तु आज आपके दर्शनसे तथा वचन सुनने से उनमें विपरीत भाव आ गया। मूर्ख मनुष्य एक जन्मके सुखके लिये हजारों जन्मोंका सुख नष्ट करता है और विद्वान् पुरुष एक जन्मसे हजारों जन्म बना लेते हैं। हाय हाय! कितने खेदकी बात है कि मुझ मूर्खने अपने मनको सदा कामजनित रसके आस्वादन-सुखमें ही फँसाये रखनेके कारण कभी कुछ भी आत्म कल्याणका कार्य नहीं किया। अहो! मेरे मनका कैसा मोह है, जिससे मैंने स्त्रियोंके फेरमें पड़कर अपने आत्माको घोर विपत्तिमें डाल दिया, जिसका भविष्य अत्यन्त दुःखमय है तथा जिससे पार पाना बहुत कठिन है। भगवन्! आपने स्वतः संतुष्ट होकर अपनी वाणीसे आज मुझे मेरी स्थितिका बोध करा दिया। अब उपदेश देकर मेरा उद्धार कीजिये। पूर्वजन्ममें मैंने कोई पुण्य किया था, जिससे आपने मुझे बोध कराया है विशेषत: आपके चरणोंकी धूलिसे आज मैं पवित्र हो गया। वक्ताओंमें श्रेष्ठ! अब आप मुझे वैशाख मासकी विधि बताइये ।
कश्यपजी बोले – राजन् ! बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह बिना पूछे अथवा अन्यायपूर्वक पूछनेपर किसीको उपदेश न दे। लोकमें जानते हुए भी जड़वत् अनजानकी भाँति आचरण करे। परन्तु विद्वानों, शिष्यों, पुत्रों तथा श्रद्धालु पुरुषोंको उनके हितकी बात कृपापूर्वक बिना पूछे भी बतानी चाहिये। राजन्! इस समय तुम्हारा मन धर्ममें स्थित हुआ है, अतः तुम्हेंवैशाख स्नानके उत्तम व्रतका पालन कराऊँगा। तदनन्तर पुरोहित कश्यपने राजा महीरथसे वैशाख मासमें स्नान, दान और पूजन कराया। शास्त्रमें वैशाख स्नानकी जैसी विधि उन्होंने देखी थी, उसका पूरा-पूरा पालन कराया। राजा महीरथने भी गुरुकी प्रेरणा से उस समय विधिपूर्वक सब नियमोंका पालन किया तथा माधव मासका जो-जो विधान उन्होंने बताया, यह सब आदरपूर्वक सुना। उन नृपश्रेष्ठने प्रातःकाल स्नान करके भक्ति भावके साथ पाद्य और अर्घ्य आदि देकर श्रीहरिका पूजन किया तथा नैवेद्य भोग लगाया।
यमराज कहते हैं- ब्रह्मन्। तत्पश्चात् राजाके ऊपर कालकी दृष्टि पड़ी। अधिक मात्रामें रतिका सेवन करने से उन्हें क्षयका रोग हो गया था, जिससे उनका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया; अन्ततोगत्वा उनकी मृत्युहो गयी। उस समय मेरे तथा भगवान् विष्णुके दूत भी उन्हें लेने पहुँचे। विष्णुदूतोंने ‘ये राजा धर्मात्मा हैं’ यो कहकर मेरे सेवकोंको डाँटा और स्वयं राजाको विमानपर बिठाकर वे वैकुण्ठलोकमें ले गये। वैशाख मासमें प्रातःकाल स्नान करनेसे राजाका पातक नष्ट हो चुका था। भगवान् विष्णुके दूत अत्यन्त चतुर होते हैं; वे भगवान्की आज्ञाके अनुसार राजा महीरथको नरक मार्गके निकटसे ले चले। जाते-जाते राजाने नरकमें पकाये जानेके कारण घोर चीत्कार करनेवाले नारकीय जीवोंका आर्तनाद सुना। कड़ाहमें डालकर औंटाये जानेवाले पापियोंका क्रन्दन बड़ा भयंकर था। सुनकर राजाको बड़ा विस्मय हुआ। वे अत्यन्त दुःखी होकर दूतोंसे बोले- जीवोंके कराहनेकी यह भयंकर आवाज क्यों सुनायी दे रही है? इसमें क्या कारण है? आपलोग सब बातें बताने की कृपा करें।’
विष्णुदूत बोले- जिन प्राणियोंने धर्मकी मर्यादाका परित्याग किया है, जो पापाचारी एवं पुण्यहीन हैं, वे तामिस्र आदि भयंकर नरकोंमें डाले गये हैं। पापी मनुष्य प्राण त्यागके पश्चात् यमलोकके मार्गमें आकर भयानक दुःख भोगते हैं। यमराजके भयंकर दूत उन्हें इधर-उधर घसीटते हैं और वे अन्धकारमें गिर पड़ते हैं। उन्हें आगमें जलाया जाता है। उनके शरीरमें काँटे चुभाये जाते हैं उनको आरीसे चीरा जाता है तथा वे भूख-प्यास से पीड़ित रहते हैं। पीब और रक्तकी दुर्गन्धके कारण उन्हें बार-बार मूर्च्छा आ जाती है। कहीं वे खौलते हुए तेलमै आँटाये जाते हैं। कहीं उनपर मूसलोंकी मार पड़ती है और कहीं तपाये हुए लोहेकी शिलाओंपर डालकर उन्हें पकाया जाता है। कहीं वमन, कहीं पीव और कहीं रक उन्हें खानेको मिलता है। मुदाँकी दुर्गन्धसे भरे हुए करोड़ों नरक हैं, जहाँ ‘शरपत्र’ वन है, ‘शिलापात’ के स्थान हैं (जहाँ पापी शिलाओंपर पटके जाते हैं) तथा वहाँकी समतल भूमि भी आगसे तपी होती है। इसके सिवा गरम लोहेके, खौलते हुएतेलके, मेदाके, तपे हुए स्तम्भके तथा कूट- शाल्मलि नामके भी नरक हैं। छूरे, काँटे, कील और उग्र ज्वालाके कारण क्षोभ एवं भय उत्पन्न करनेवाले बहुत-से नरक हैं। कहीं तपी हुई वैतरणी नदी है। कहीं पीवसे भरे हुए अनेकों कुण्ड हैं। इन सबमें पृथक् पृथक् पापियोंको डाला जाता है। कुछ नरक ऐसे हैं, जो जंगलके रूपमें हैं; वहाँके पत्ते तलवारकी धारके समान तीखे हैं। इसीसे उन्हें ‘असिपत्रवन’ कहते हैं: वहाँ प्रवेश करते ही नर-नारियोंके शरीर कटने और छिलने लगते हैं। कितने ही नरक घोर अन्धकार तथा आगकी लपटोंके कारण अत्यन्त दारुण प्रतीत होते हैं। इनमें बार-बार यातना भोगनेके कारण पापी जीव नाना प्रकारके स्वरोंमें रोते और विलाप करते हैं। राजन्! इस प्रकार ये शास्त्र विरुद्ध कर्म करनेवाले पापी जीव कराहते हुए नरकयातनाका कष्ट भोग रहे हैं। उन्हींका यह क्रन्दन हो रहा है। सभी प्राणियोंको अपने पूर्वकृत कर्मोंका भोग भोगना पड़ता है। परायी स्त्रियोंका संग प्रसन्नताके लिये किया जाता है, किन्तु वास्तवमें वह दुःख ही देनेवाला होता है दो घड़ीतक किया हुआ विषय-सुखका आस्वादन अनेक कल्पोंतक दुःख देनेवाला होता है। राजेन्द्र ! तुमने वैशाख मासमें प्रातः स्नान किया है, उसकी विधिका पालन करनेसे तुम्हारा शरीर पावन बन गया है। उससे छूकर बहनेवाली वायुका स्पर्श पाकर ये क्षणभरके लिये सुखी हो गये हैं। तुम्हारे तेजसे इन्हें बड़ी तृप्ति मिल रही है। इसीसे अब ये नरकवर्ती जीव कराहना छोड़कर चुप हो गये हैं। पुण्यवानोंका नाम भी यदि सुना या उच्चारण किया जाय तो वह सुखका साधक होता है तथा उसे छूकर चलनेवाली वायु भी शरीरमें लगनेपर बड़ा सुख देती है।”
यमराज कहते हैं- करुणाके सागर राजा महीरथ अद्भुत कर्म करनेवाले भगवान् श्रीविष्णु के दूतोंकी उपर्युक्त बात सुनकर द्रवित हो उठे। निश्चय ही साधु पुरुषोंका हृदय मक्खनके समान होता है जैसे नवनीतआगकी आँच पाकर पिघल जाता है, उसी प्रकार साधु पुरुषोंका हृदय भी दूसरोंके संतापसे संतप्त होकर द्रवित हो उठता है। उस समय राजाने दूतोंसे कहा। राजा बोले- इन्हें देखकर मुझे बड़ी व्यथा हो रही है। मैं इन व्यथित प्राणियोंको छोड़कर जाना नहीं चाहता। मेरी समझमें सबसे बड़ा पापी वही है, जो समर्थ होते हुए भी वेदनाग्रस्त जीवोंका शोक दूर न कर सके। यदि मेरे शरीरको छूकर बहनेवाली वायुके स्पर्शसे वे जीव सुखी हुए हैं तो आपलोग मुझे उसी स्थानपर ले चलिये; क्योंकि जो चन्दनवृक्षकी भाँति दूसरोंके ताप दूर करके उन्हें आह्लादित करते हैं तथा जो परोपकारके लिये स्वयं कष्ट उठाते हैं, वे ही पुण्यात्मा हैं संसारमें वे ही संत हैं, जो दूसरोंके दुःखोंका नाश करते हैं तथा पीड़ित जीवोंकी पीड़ा दूर करनेके लिये जिन्होंने अपने प्राणोंको तिनकेके समान निछावर कर दिया है जो मनुष्य सदा दूसरोंकी भलाई के लिये उद्यत रहते हैं, उन्होंने ही इस पृथ्वीको धारण कर रखा है। जहाँ सदा अपने मनको ही सुख मिलता है, वह स्वर्ग भी नरकके ही समान है; अतः साधु पुरुष सदा दूसरोंके मुखसे ही सुखी होते हैं। यहाँ नरकमें गिरना अच्छा, प्राणोंसे वियोग हो जाना भी अच्छा; किन्तु पीड़ित जीवोंकी पीड़ा दूर किये बिना एक क्षण भी सुख भोगना अच्छा नहीं है।”
दूत बोले- राजन् ! पापी पुरुष अपने कर्मोंका ही फल भोगते हुए भयंकर नरकमें पकाये जाते हैं। जिन्होंने दान, होम अथवा पुण्यतीर्थमें स्नान नहीं किया है; मनुष्योंका उपकार तथा कोई उत्तम पुण्य नहीं किया है; यज्ञ, तपस्या और प्रसन्नतापूर्वक भगवन्नामोंका जप नहींकिया है, वे ही परलोकमें आनेपर घोर नरकोंमें पकाये जाते हैं। जिनका शील-स्वभाव दूषित है, जो दुराचारी, व्यवहारमें निन्दित, दूसरोंकी बुराई करनेवाले एवं पापी हैं, वे ही नरकोंमें पड़ते हैं। जो पापी अपने मर्मभेदी वचनोंसे दूसरोंका हृदय विदीर्ण कर डालते हैं तथा जो परायी स्त्रियोंके साथ विहार करते हैं, वे नरकोंमें पकाये जाते हैं। महाभाग भूपाल! आओ, अब भगवान्के धामको चलें। तुम पुण्यवान् हो, अतः अब तुम्हारा यहाँ ठहरना उचित नहीं है।
राजाने कहा— विष्णुदूतगण ! यदि मैं पुण्यात्मा हूँ तो इस महाभयंकर यातनामार्गमें कैसे लाया गया ? मैंने कौन-सा पाप किया है तथा किस पुण्यके प्रभावसे मैं विष्णुधामको जाऊँगा ? आपलोग मेरे इस संशयका निवारण करें।
दूत बोले- राजन् ! तुम्हारा मन कामके अधीन हो रहा था; इसलिये तुमने कोई पुण्य, यज्ञानुष्ठान अथवा यज्ञावशिष्ट अन्नका भोजन नहीं किया है। इसीलिये तुम्हें इस मार्गसे लाया गया है। किन्तु लगातार तीन वर्षोंतक तुमने अपने गुरुकी प्रेरणासे वैशाख मासमें विधिपूर्वक प्रातः स्नान किया है तथा महापापों और अतिपापोंकी राशिका विनाश करनेवाले भक्तवत्सल, विश्वेश्वर भगवान् मधुसूदनकी भक्तिपूर्वक पूजा की है। यह सब पुण्योंका सार है। केवल इस एक ही पुण्यसे तुम देवताओंद्वारा पूजित होकर श्रीविष्णुधामको ले जाये जा रहे हो। नरेश्वर ! जैसे एक ही चिनगारी पड़ जानेसे तिनकोंकी राशि भस्म हो जाती है, उसी प्रकार वैशाखमें प्रातः स्नान करनेसे पापराशिका विनाश हो जाता है। जो वैशाखमें शास्त्रोक्त नियमोंसे युक्त होकर स्नान करता है, वह हरिभक्त पुरुष अतिपापों के समूहसे छुटकारा पाकर विष्णुपदको प्राप्त होता है।
यमराज कहते हैं- ब्रह्मन् ! तब दयासागर राजाने उन जीवोंके शोकसे पीड़ित हो भगवान् श्रीविष्णुके दूतोंसे विनयपूर्वक कहा-‘साधु पुरुष प्राप्त हुए ऐश्वर्यका, गुणोंका तथा पुण्यका यही फल मानते हैं कि इनके द्वारा कष्टमें पड़े हुए जीवोंकी रक्षा की जाय। यदि मेरा कुछ पुण्य है तो उसीके प्रभावसे ये नरकमें पड़े हुए जीव निष्पाप होकर स्वर्गको चले जायें और मैं इनकी जगह नरकमें निवास करूँगा।’ राजाके ऐसे वचन सुनकर श्रीविष्णुके मनोहर दूत उनके सत्य और उदारता पर विचार करते हुए इस प्रकार बोले ‘राजन्! इस दयारूप धर्मके अनुष्ठानसे तुम्हारे संचित धर्मकी विशेष वृद्धि हुई है। तुमने वैशाख मासमें जो स्नान, दान, जप, होम, तप तथा देवपूजन आदि कर्म किये हैं, वे अक्षय फल देनेवाले हो गये। जो वैशाख मासमें स्नान-दान करके भगवान्का पूजन करता है, वह सब कामनाओंको प्राप्त होकर श्रीविष्णुधामको जाता है। एक ओर तप, दान और यज्ञ आदिकी शुभ क्रियाएँ और एक ओर विधिपूर्वक आचरणमें लाया हुआ वैशाख मासका व्रत हो तो यह वैशाख मास ही महान् है। राजन्। वैशाख मासके एक दिनका भी जो पुण्य है, वह तुम्हारे लिये सब दानोंसे बढ़कर है। दयाके समान धर्म, दयाके समान तप, दयाके समान दान और दयाके समान कोई मित्र नहीं है। पुण्यका दान करनेवाला मनुष्य सदा लाखगुना पुण्य प्राप्त करता है विशेषतः तुम्हारी दयाके कारण धर्मकी अधिक वृद्धि हुई है। जो मनुष्य दुःखित प्राणियोंका दुःखसे उद्धार करता है, वही संसारमें पुण्यात्मा है उसे भगवान् नारायणके अंशसे उत्पन्नसमझना चाहिये। वीर वैशाख मासकी पूर्णिमाको तीर्थमें जाकर जो तुमने सब पापोंका नाश करनेवाला स्नान-दान आदि पुण्य किया है, उसे विधिवत् भगवान् श्रीहरिको साक्षी बनाकर तीन बार प्रतिज्ञा करके इन पापियोंके लिये दान कर दो, जिससे ये नरकसे निकलकर स्वर्गको चले जायें। हमारा तो ऐसा विश्वास है कि पीड़ित जन्तुओंको शान्ति प्रदान करनेसे जो आनन्द मिलता है, उसे मनुष्य स्वर्ग और मोक्षमें भी नहीं पा सकता। सौम्य तुम्हारी बुद्धि दया एवं दानमें दृढ़ है, इसे देखकर हमलोगोंको भी उत्साह होता है। राजन्। यदि तुम्हें अच्छा जान पड़े तो अब बिना विलम्ब किये इन्हें वह पुण्य प्रदान करो, जो नरकयातनाके दुःखको दग्ध करनेवाला है।’
विष्णुदूतोंके दो कहनेपर दयालु राजा महीरथने भगवान् गदाधरको साक्षी बनाकर तीन बार प्रतिज्ञापूर्वक संकल्प करके उन पापियोंके लिये अपना पुण्य अर्पण किया। वैशाख मासके एक दिनके ही पुण्यका दान करनेपर वे सभी जीव यम यातनाके दुःखसे मुक्त हो गये। फिर अत्यन्त हर्षमें भरकर वे श्रेष्ठ विमानपर आरूढ़ हुए और राजाकी प्रशंसा करते हुए उन्हें प्रणाम करके स्वर्गको चले गये। इस दानसे राजाको विशेष पुण्यकी प्राप्ति हुई। मुनियों और देवताओंका समुदाय उनकी स्तुति करने लगा तथा वे जगदीश्वर श्रीविष्णुके पार्षदद्वारा अभिवन्दित होकर उस परमपदको प्राप्त हुए, जो बड़े-बड़े योगियोंके लिये भी दुर्लभ है।
द्विजश्रेष्ठ यह वैशाख मास और पूर्णिमाका कुछ माहात्म्य यहाँ थोड़ेमें बतलाया गया। यह धन, यश, आयु तथा परम कल्याण प्रदान करनेवाला है। इतना ही नहीं, इससे स्वर्ग तथा लक्ष्मीकी भी प्राप्ति होती है। यहप्रशंसनीय माहात्म्य अन्तःकरणको शुद्ध करनेवाला और पापोंको धो डालनेवाला है। माधव मासका यह माहात्म्य भगवान् माधवको अत्यन्त प्रिय है। राजा महीरथका चरित्र और हम दोनोंका मनोरम संवाद सुनने, पढ़ने तथा विधिपूर्वक अनुमोदन करनेसे मनुष्यको भगवान्की भक्ति प्राप्त होती है, जिससे समस्त क्लेशोंका नाश हो जाता है।
सूतजी कहते हैं- धर्मराजकी यह बात सुनकरवह ब्राह्मण उन्हें प्रणाम करके चला गया। उसने भूतलपर प्रतिवर्ष स्वयं तो वैशाख स्नानकी विधिका पालन किया ही, दूसरोंसे भी कराया। यह ब्राह्मण और यमका संवाद मैंने आपलोगोंसे वैशाख मासके पुण्यमय स्नानके प्रसंगमें सुनाया है। जो एकचित्त होकर वैशाख मासके माहात्म्यका श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होता है।
अध्याय 147 भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
ऋषि बोले- महाप्राज्ञ सूतजी! आपका हृदय अत्यन्त करुणापूर्ण है; आपने कृपा करके ही पापनाशक वैशाख माहात्म्यका वर्णन किया है। अब इस समय हम भक्तगणोंके प्रिय परमात्मा श्रीकृष्णका ध्यान सुनना चाहते हैं, जो भवसागरसे तारनेवाला है।
सूतजीने कहा- मुनियो ! वृन्दावनमें विचरनेवाले जगदात्मा श्रीकृष्णके, जो गौओं, ग्वालों और गोपियोंके प्राण हैं, ध्यानका वर्णन आप सब लोग सुनें द्विजवरो! एक समय महर्षि गौतमने देवर्षि नारदजीसे यही बात पूछी थी। नारदजीने उनसे जिस पापनाशक ध्यानका वर्णन किया था, वही मैं आपलोगोंको बताता हूँ।
नारदजी कहते हैं
सुमनप्रकरसौरभोद्गलितमाध्यिकाद्युल्लस
सुशाखिनवपल्लवप्रकरनप्रशोभायुतम्
प्रफुल्लनवमञ्जरीललितवल्लरीवेष्टितं
स्मरेत सततं शिवं सितमतिः सुवृन्दावनम् ।।
ध्यान करनेवाले मनुष्यको सदा शुद्धचित्त होकर पहले उस परम कल्याणमय सुन्दर वृन्दावनका चिन्तन | करना चाहिये, जो फूलोंके समुदाय, मनोहर सुगन्ध और बहते हुए मकरन्द आदिसे सुशोभित सुन्दर-सुन्दर वृक्षोंके नूतन पल्लवोंसे झुका हुआ शोभा पा रहा है। तथा खिली हुई नवल मंजरियों और ललित लताओंसे आवृत है।
प्रवालनवपल्लवं मरकतच्छदं मौक्तिक
प्रभाप्रकरकोरकं कमलरागनानाफलम् ।
स्थविष्ठमखिलर्तुभिः सततसेवितं कामदं
तदन्तरपि कृपकाङ्घ्रिपमुदञ्चितं चिन्तयेत् ॥
उस वनके भीतर भी एक कल्पवृक्षका चिन्तन करे, जो बहुत ही मोटा और ऊँचा है, जिसके नये-नये पल्लव मूँगेके समान लाल हैं, पत्ते मरकत मणिके सदृश नीले हैं, कलिकाएँ मोतीके प्रभा-पुंजकी भाँति शोभा पा रही हैं और नाना प्रकारके फल पद्मराग मणिके समान जान पड़ते हैं। समस्त ऋतुएँ सदा ही उस वृक्षकी सेवामें रहती हैं तथा वह सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है।
उदितभानुवद्भासुरा सुहेमशिखराचले
मधोऽस्य कनकस्थलीममृतशीकरासारिणः ।
प्रदीप्तमणिकुट्टिमां कुसुमरेणुपुञ्जोज्ज्वलां
स्मरेत्पुनरतन्द्रितो विगतषट्तरङ्गां बुधः ॥
फिर आलस्यरहित हो विद्वान् पुरुष धारावाहिकरूपसे अमृतकी बूँदें बरसानेवाले उस कल्पवृक्षके नीचे सुवर्णमयी वेदीकी भावना करे, जो मेरु गिरिपर उगे हुए सूर्यकी भाँति प्रभासे उद्भासित हो रही है, जिसका फर्श जगमगाती हुई मणियोंसे बना है, जो फूलोंके पराग- पुंजसे कुछ धवल वर्णकी हो गयी है तथा जहाँ क्षुधा-पिपासा, शोक-मोह और जरा-मृत्यु- ये छ: ऊर्मियाँ नहीं पहुँचने पातीं।
तद्रत्नकुट्टिमनिविष्टमहिष्ठयोग पीठे
ऽष्टपत्रमरुणं कमलं विचिन्त्य ।
उद्यद्विरोचनसरोचिरमुष्य मध्ये
संचिन्तयेत् सुखनिविष्टमथो मुकुन्दम् ॥
उस रत्नमय फर्शपर रखे हुए एक विशाल योगपीठके ऊपर लाल रंगके अष्टदल कमलका चिन्तन करके उसके मध्यभागमें सुखपूर्वक बैठे हुए भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान करे, जो अपनी दिव्य प्रभासे उदयकालीन सूर्यदेवकी भाँति देदीप्यमान हो रहे हैं।
सुत्रामहेतिदलिताञ्जनमेधपुञ्ज
प्रत्यग्रनीलजलजन्मसमानभासम्
सुस्निग्धनीलघनकुञ्चितकेशजालं
राजन्मनोज्ञशितिकण्ठशिखण्डचूडम्
भगवान् के श्रीविग्रहकी आभा इन्द्रके वज्रसे विदीर्ण हुए कज्जलगिरि, मेघोंकी घटा तथा नूतन नील कमलके समान श्याम रंगकी है; श्याम मेघके सदृश काले-काले घुँघराले केश-कलाप बड़े ही चिकने हैं तथा उनके मस्तकपर मनोहर मोर पंखका मुकुट शोभा पा रहा है।
रोलम्बलालितसुरद्रुमसूनसम्प
द्युक्तं समुत्कचनवोत्पलकर्णपूरम्
लोलालिभिः स्फुरितभालतलप्रदीप्त
गोरोचनातिलकमुज्ज्वलचिल्लिचापम्
कल्पवृक्षके फूलोंसे, जिनपर भौरे मँडरा रहे हैं, भगवान्का शृंगार हुआ है। उन्होंने कानोंमें खिले हुए नवीन कमलके कुण्डल धारण कर रखे हैं; जिनपर चंचल भ्रमर उड़ रहे हैं। उनके ललाटमें चमकीले गोरोचनका तिलक चमक रहा है तथा धनुषाकार भौंहें बड़ी सुन्दर प्रतीत हो रही हैं।
आपूर्णशारदगताङ्कशशाङ्कबिम्ब
कान्ताननं कमलपत्रविशालनेत्रम् ।
रत्नस्फुरन्मकरकुण्डलरश्मिदीप्त
गण्डस्थलीमुकुरमुन्नतचारुनासम्
भगवान्का मुख शरत्पूर्णिमाके कलंकहीन चन्द्रमण्डलकी भाँति कान्तिमान् है, बड़े-बड़े नेत्र कमलदलके समान सुन्दर जान पड़ते हैं, दर्पणके सदृश स्वच्छ कपोल रत्नोंके कारण चमकते हुए मकराकृत कुण्डलोंकी किरणोंसे देदीप्यमान हो रहे हैं तथा ऊँची नासिका बड़ी मनोहर जान पड़ती है।
सिन्दूरसुन्दरतराधरमिन्दुकुन्द
मन्दारमन्दहसितद्युतिदीपिताशम्
वन्यप्रवालकुसुमप्रचयावक्लृप्त
ग्रैवेयकोज्ज्वलमनोहरकम्बुकण्ठम्
सिन्दूरके समान परम सुन्दर लाल-लाल ओठ हैं; चन्द्रमा, कुन्द और मन्दार पुष्पकी-सी मन्द मुसकानकी छटासे सामनेकी दिशा प्रकाशित हो रही है तथा वनके कोमल पल्लवों और फूलोंके समूहद्वारा बनाये हुए हारसे शंखसदृश मनोहर ग्रीवा बड़ी सुन्दर जान पड़ती है।
मत्तभ्रमद्भ्रमरघुष्टविलम्बमान
संतानकप्रसवदामपरिष्कृतांसम्
हारावलीभगणराजितपीवरोरो
व्यमस्थलीलसितकौस्तुभभानुमन्तम्
मँडराते हुए मतवाले भौंरोंसे निनादित एवं घुटनोंतक लटकी हुई पारिजात पुष्पोंकी मालासे दोनों कंधे शोभा पा रहे हैं। पीन और विशाल वक्षःस्थलरूपी आकाश हाररूपी नक्षत्रोंसे सुशोभित है तथा उसमें कौस्तुभमणि रूपी सूर्य भासमान हो रहा है।
श्रीवत्सलक्षणसुलक्षितमुन्नतांस
माजानुपीनपरिवृत्तसुजातबाहुम्
आबन्धुरोदरमुदारगभीरनाभिं
भृङ्गाङ्गनानिकरमञ्जुलरोमराजिम्
भगवान् के वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न बड़ा सुन्दर दिखायी देता है, उनके कंधे ऊँचे हैं, गोल-गोल सुन्दर भुजाएँ घुटनोंतक लंबी एवं मोटी हैं, उदरका भाग बड़ा मनोहर है, नाभि विस्तृत और गहरी है तथा त्रिवलीकी रोमपंक्ति भँवरोंकी पंक्तिके समान शोभा पा रही है।
नानामणिप्रघटिताङ्गदकङ्कणोर्मि
ग्रैवेयकारसननूपुरतुन्दबन्धम्
दिव्याङ्गरागपरिपिञ्जरिताङ्गयष्टि
मापीतवस्त्र परिवीतनितम्बबिम्बम्
नाना प्रकारकी मणियोंके बने हुए भुजबंद, कड़े, अंगूठियाँ, हार, करधनी, नूपुर और पेटी आदि आभूषण भगवान्के श्रीविग्रहपर शोभा पा रहे हैं; उनके समस्त अंग दिव्य अंगरागोंसे अनुरंजित हैं तथा कटिभाग कुछ हलके रंगके पीताम्बरसे ढका हुआ है।
चारूरुजानुमनुवृत्तमनोज्ञज
कान्तोन्नतप्रपदनिन्दितकूर्मकान्तिम्
माणिक्यदर्पणलसन्नखराजिराज
द्रक्तांगुलिच्छदनसुन्दरपादपद्मम्
दोनों जाँघें और घुटने सुन्दर हैं; पिंडलियोंका भाग गोलाकार एवं मनोहर है; पादाग्रभाग परम कान्तिमान् तथा ऊँचा है और अपनी शोभासे कछुएके पृष्ठभागकी कान्तिको मलिन कर रहा है तथा दोनों चरणकमल माणिक्य तथा दर्पणके समान स्वच्छ नखपंक्तियोंसे सुशोभित लाल-लाल अंगुलिदलोंके कारण बड़े सुन्दर जान पड़ते हैं।
मत्स्याङ्कुशारिदरकेतुयवाब्जवनैः
संलक्षितारुणकराङ्घ्रितलाभिरामम्
लावण्यसारसमुदायविनिर्मिताङ्गं
सौन्दर्यनिन्दित मनोभवदेहकान्तिम्
मत्स्य, अंकुश, चक्र, शंख, पताका, जौ, कमल और वज्र आदि चिह्नोंसे चिह्नित लाल-लाल हथेलियों तथा तलवोंसे भगवान् बड़े मनोहर प्रतीत हो रहे हैं। उनका श्रीअंग लावण्यके सार-संग्रहसे निर्मित जान पड़ता है तथा उनके सौन्दर्यके सामने कामदेवके शरीरकी कान्ति फीकी पड़ जाती है।
आस्यारविन्दपरिपूरितवेणुरन्ध्र
लोलत्कराङ्गुलिसमीरितदिव्यरागैः
शश्वद्भवैः कृतनिविष्टसमस्तजन्तु
सन्तानसंनतिमनन्तसुखाम्बुराशिम्
भगवान् अपने मुखारविन्दसे मुरली बजा रहे हैं; उस समय मुरलीके छिद्रोंपर उनकी अँगुलियों के फिरनेसे निरन्तर दिव्य रागोंकी सृष्टि हो रही है, जिनसे प्रभावित हो समस्त जीव-जन्तु जहाँ के तहाँ बैठकर भगवान्की और मस्तक टेक रहे हैं। भगवान् गोविन्द अनन्त आनन्दके समुद्र हैं।
गोभिर्मुखाम्बुजविलीनविलोचनाभि
रूधो भरस्खलितमन्थरमन्दगाभिः
दन्ताग्रदष्टपरिशिष्टतृणाङ्कुराभि
रालम्बिवालधिलताभिरथाभिवीतम्
थनोंके भारसे लड़खड़ाती हुई मन्द मन्द गतिसे चलनेवाली गौएँ दाँतोंके अग्रभागमें चलानेसे बचे हुए तिनकोंके अंकुर लिये, पूँछ लटकाये भगवान्के मुखकमलमें आँखें गड़ाये उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़ी हैं।
सम्प्रस्तुतस्तनविभूषणपूर्णनिश्च
लास्याद् दृढक्षरितफेनिलदुग्धमुग्धैः
वेणुप्रवर्तितमनोहरमन्दगीत
दत्तोच्चकर्णयुगलैरपि वर्णकैश्च ॥
गौओंके साथ ही छोटे-छोटे बछड़े भी भगवान्को सब ओरसे घेरे हुए हैं और मुरलीसे मन्दस्वरमें जो मनोहर संगीतकी धारा बह रही है, उसे वे कान लगाकर सुन रहे हैं, जिसके कारण उनके दोनों कान खड़े हो गये हैं। गौओंके टपकते हुए थनोंके आभूषणरूप दूधसे भरे हुए उनके मुख स्थिर हैं, जिनसे फेनयुक्त दूध वह रहा है; इससे वे बछड़े बड़े मनोहर प्रतीत हो रहे हैं।
गोपैः समानगुणशीलवयोविलास
वेशश्च मूच्छितकलस्वनवेणुवीणैः
मन्दोच्चतारपटुगानपरैर्विलोल
दोवल्लरीललितलास्यविधानदक्षैः
भगवान् के ही समान गुण, शील, अवस्था, विलास तथा वेश-भूषावाले गोप भी, जो अपनी चंचल भुजाओंको सुन्दर ढंगसे नचानेमें चतुर हैं, वंशी और वीणाकी मधुर ध्वनिका विस्तार करके मन्द, उच्च और तारस्वरमें कुशलतापूर्वक गान करते हुए भगवान्को सब ओरसे घेरकर खड़े हैं।
जङ्घान्तपीवरकटीरतटीनिबद्ध
• ब्यालोलकिङ्किणिघटारणितैरटद्भिः
मुग्धैस्तरशुनखकल्पितकान्तभूयै
व्यक्तमजुवचनैः पृथुकैः परीतम् ॥
छोटे-छोटे ग्वाल-बाल भी भगवान्के चारों ओर घूम रहे हैं: जाँघसे ऊपर उनके मोटे कटिभागमें करधनी पहनायी गयी है, जिसकी क्षुद्रघण्टिकाओंकी मधुर झनकार सुनायी पड़ती है। वे भोले-भाले बालक बघनखोंके सुन्दर आभूषण पहने हुए हैं। उनकीमीठी-मीठी तोतली वाणी साफ समझमें नहीं आती। भगवान्के प्रति दृढ़ अनुराग रखनेवाली सुन्दरी गोपांगनाएँ भी उन्हें प्रेमपूर्ण दृष्टिसे निहारती हुई सब ओरसे घेरकर खड़ी हैं। गोपी, गोप और पशुओंके घेरेसे बाहर भगवान्के सामनेकी ओर ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र आदि देवताओंका समुदाय खड़ा होकर स्तुति कर रहा है।
तद्वद् दक्षिणतो मुनिनिकरं दृढधर्मवाञ्छया समाम्नायपरम् ।
योगीन्द्रानथ पृष्ठे मुमुक्षमाणान् समाधिना तु सनकाद्यान् ॥
इसी प्रकार उपर्युक्त घेरेसे बाहर भगवान्के दक्षिण भागमें सुदृढ़ धर्मकी अभिलाषासे वेदाभ्यासपरायण मुनियोंका समुदाय उपस्थित है तथा पृष्ठभागकी ओर समाधिके द्वारा मुक्तिकी इच्छा रखनेवाले सनकादि योगीश्वर खड़े हैं।
सव्ये सकान्तानथ यक्षसिद्धान्
गन्धर्वविद्याधरचारणांश्च
सकिन्नरानप्सरसश्च मुख्याः
कामार्थिनीर्नर्तन गीतवाद्यैः
वाम भागमें अपनी स्त्रियोंसहित यक्ष, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर, चारण और किन्नर खड़े हैं। साथ ही भगवत्प्रेमकी इच्छा रखनेवाली मुख्य-मुख्य अप्सराएँ भी मौजूद हैं। ये सब लोग नाचने गाने तथा बजानेके द्वारा भगवान्की सेवा कर रहे हैं।
शङ्खेन्दुकुन्दधवलं सकलागमज्ञं
सौदामनीततिपिशङ्गजटाकलापम्
तत्पादपङ्कजगताममलां च भक्तिं
वाञ्छन्तमुज्झिततरान्यसमस्तसङ्गम्
नानाविधश्रुतिगणान्वितसप्तराग
ग्रामत्रयीगतमनोहरमूर्च्छनाभिः
सम्प्रीणयन्तमुदिताभिरपि
प्रभक्तया संचिन्तयेन्नभसि
मां द्रुहिणप्रसूतम् ॥
तत्पश्चात् आकाशमें स्थित मुझ ब्रह्मपुत्र देवर्षि नारदका चिन्तन करना चाहिये। नारदजीके शरीरका वर्ण शंख, चन्द्रमा तथा कुन्दके समान गौर है; वे सम्पूर्ण आगमोंके ज्ञाता हैं, उनकी जटाएँ बिजलीकी पंक्तियोंके समान पीली और चमकीली हैं, वे भगवान्के चरणकमलोंकी निर्मल भक्तिके इच्छुक हैं तथा अन्य सब ओरकी आसक्तियोंका सर्वथा परित्याग कर चुके हैं और संगीतसम्बन्धी नाना प्रकारकी श्रुतियोंसे युक्त सात स्वरों और त्रिविध ग्रामोंकी मनोहर मूर्च्छनाओंको अभिव्यंजित करके अत्यन्त भक्तिके साथ भगवान्को प्रसन्न कर रहे हैं।
इति ध्यात्वाऽऽत्मानं पविशदधीनंन्दतनयं
नरो बौद्धैर्वार्धप्रभृतिभिरनिन्द्योपहृतिभिः ।
बजेद् भूयो भक्त्या स्ववपुषि बहिष्टैश्च विभव
रिति प्रोक्तं सर्वं यदभिलषितं भूसुरवराः ॥
इस प्रकार प्रखर एवं निर्मल बुद्धिवाला पुरुष अपने आत्मस्वरूप भगवान् नन्दनन्दनका ध्यान करके मानसिक अयं आदि उत्तम उपहारोंसे अपने शरीरके भीतर ही भक्तिपूर्वक उनका पूजन करे तथा बाह्य उपचारोंसे भी उनकी आराधना करे ब्राह्मणो आपलोगोंकी जैसी अभिलाषा थी, उसके अनुसार भगवान्का यह सम्पूर्ण ध्यान मैंने बता दिया।
सूतजी कहते हैं महर्षिगण जो इस कथाको सुनाता है, वह भगवान्के समान हो जाता है। विप्रो ! यह गुह्यसे भी गुह्य प्रसंग कल्याणमय ज्ञान प्रदान करनेवाला है। जो इसे पढ़ता अथवा सुनता है, वह परम पदको प्राप्त होता है।