Shree Naval Kishori

श्रीमद्भागवत महापुराण पञ्चम स्कंध

अध्याय 1 प्रियव्रत चरित्र

राजा परीक्षितने पूछा- मुने। महाराज प्रियव्रत तो बड़े भगवद्भक्त और आत्माराम थे। उनकी गृहस्थाश्रममें कैसे रुचि हुई, जिसमें फँसने के कारण मनुष्यको अपने स्वरूपकी विस्मृति होती है और वह कर्मबन्धनमें बंध जाता है ? ॥ 1 ॥ विप्रवर ! निश्चय ही ऐसे निःसङ्ग महापुरुषोंका इस प्रकार गृहस्थाश्रममें अभिनिवेश होना उचित नहीं है॥ 2 ॥ इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं कि जिनका चित्त पुण्यकीर्ति श्रीहरिके चरणोंकी शीतल छायाका आश्रय लेकर शान्त हो गया है, उन महापुरुषोंकी कुटुम्बादिमें कभी आसक्ति नहीं हो सकती ॥ 3 ॥ ब्रह्मन् ! मुझे इस बातका बड़ा सन्देह है कि महाराज प्रियव्रतने स्त्री, घर और पुत्रादिमें आसक्त रहकर भी किस प्रकार सिद्धि प्राप्त कर ली और क्योंकर उनकी भगवान् श्रीकृष्णमें अविचल भक्ति हुई 4 ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा- राजन्! तुम्हारा कथन बहुत ठीक है। जिनका चित्त पवित्रकीर्ति श्रीहरिके परम मधुर चरणकमल-मकरन्दके रसमें सराबोर हो गया है, वे किसी विघ्न-बाधाके कारण रुकावट आ जानेपर भी भगवद्भक्त परमहंसोंके प्रिय श्रीवासुदेव भगवान्‌के कथाश्रवणरूपी परम कल्याणमय मार्गको प्रायः छोड़ते नहीं ॥ 5 ॥ राजन् ! राजकुमार प्रियव्रत बड़े भगवद्भक्त थे, श्रीनारदजीके चरणोंकी सेवा करनेसे उन्हें सहजमें ही परमार्थतत्त्वका बोध हो गया था। वे ब्रह्मसत्रकी दीक्षा- निरन्तर ब्रह्माभ्यासमें जीवन बितानेका नियम लेनेवाले ही थे कि उसी समय उनके पिता स्वायम्भुव मनुने उन्हें पृथ्वी पालनके लिये शास्त्रमें बताये हुए सभी श्रेष्ठ गुणोंसे पूर्णतया सम्पन्न देख राज्यशासनके लिये आज्ञा दी। किन्तु प्रियव्रत अखण्ड समाधियोगके द्वारा अपनी सारी इन्द्रियों और क्रियाओंको भगवान् वासुदेवके चरणोंमें ही समर्पण कर चुके थे। अतः पिताकी आज्ञा किसी प्रकार उल्लङ्घन करनेयोग्य न होनेपर भी, यह सोचकर कि राज्याधिकार पाकर मेरा आत्मस्वरूप स्त्री-पुत्रादि असत् प्रपञ्चसे आच्छादित हो जायगा — राज्य और कुटुम्बकीचितामें फँसकर में परमार्थतत्वको प्रायः भूल जाऊँगा, उन्होंने उसे स्वीकार न किया ॥ 6 ॥

आदिदेव स्वयम्भू भगवान् ब्रह्माजीको निरन्तर इस गुणमय प्रपञ्चकी वृद्धिका ही विचार रहता है। वे सारे संसारके जीवोंका अभिप्राय जानते रहते हैं। जब उन्होंने प्रियजतकी ऐसी प्रवृत्ति | देखी तब वे मूर्तिमान् चारों वेद और मरीचि आदि पाटोको साथ लिये अपने लोकसे उतरे ॥ 7 ॥ आकाशमें जहाँ-तहाँ विमानोंपर चढ़े हुए इन्द्रादि प्रधान प्रधान देवताओंने उनका पूजन किया तथा मार्गमें टोलियाँ बाँधकर आये हुए सिद्ध, गन्धर्व, साध्य, चारण और मुनिजनने स्तवन किया। इस प्रकार जगह-जगह आदर-सम्मान पाते वे साक्षात् नक्षत्रनाथ चन्द्रमाके समान गन्धमादनकी पाटीको प्रकाशित करते हुए प्रियव्रत के | पास पहुँचे ॥ 8 ॥ प्रियव्रतको आत्मविद्याका उपदेश देनेके लिये वहाँ नारदजी भी आये हुए थे। ब्रह्माजीके वहाँ पहुँचनेपर उनके वाहन हंसको देखकर देवर्षि नारद जान गये कि हमारे पिता भगवान् ब्रह्माजी पधारे हैं, अतः वे स्वायम्भुव मनु और प्रियव्रत के सहित तुरंत खड़े हो गये और सबने उनको हाथ जोड़कर प्रणाम किया ॥ 9 ॥ परीक्षित् नारदजीने उनकी अनेक प्रकारसे पूजा की और सुमधुर वचनोंमें उनके गुण और अवतारकी उत्कृष्टताका वर्णन किया तब आदिपुरुष भगवान् ब्रह्माजीने प्रियव्रतकी ओर मन्द मुसकानयुक्त यादृष्टिसे देखते हुए इस प्रकार कहा ।। 10 ॥

श्रीब्रह्माजीने कहा- बेटा में तुमसे सत्य सिद्धानको बात कहता हूँ ध्यान देकर सुनो तुम्हे अप्रमेय श्रीहरिके प्रति किसी प्रकारको दोषदृष्टि नहीं रखनी चाहिये। तुम्हीं क्या हम, महादेवजी, तुम्हारे पिता स्वायम्भुव मनु और तुम्हारे गुरु ये महर्षि नारद भी विवश होकर उन्हींको आशाका पालन करते हैं ॥ 11 ॥ उनके विधानको कोई भी देहधारी न तो तप, विद्या, | योगबल या बुद्धिबलसे, न अर्थ या धर्मको शक्तिसे और न स्वयं या किसी दूसरेकी सहायतासे ही टाल सकता है12 प्रियवर! उसी अव्यक्त ईश्वरके दिये हुए शरीरको सब जीव जन्म, मरण, शोक, मोह, भय और सुख-दुखका भोग करने तथा कर्म करनेके लिये सदा धारण करते हैं।.13 ॥वत्स ! जिस प्रकार रस्सीसे नथा हुआ पशु मनुष्योंका बोझ ढोता है. उसी प्रकार परमात्माकी वेदवाणीरूप बड़ी रस्सीमें सत्त्वादि गुण, सात्त्विक आदि कर्म और उनके ब्राह्मणादि वाक्योंकी मजबूत डोरीसे जकड़े हुए हम सब लोग उन्हींके इच्छानुसार कर्ममें लगे रहते हैं और उसके द्वारा उनकी पूजा करते रहते हैं। ॥ 14 ॥ हमारे गुण और कर्मोके अनुसार प्रभुने हमें जिस योनिमें डाल दिया है उसीको स्वीकार करके, वे जैसी व्यवस्था करते हैं उसीके अनुसार हम सुख या दुःख भोगते रहते हैं। हमें उनकी इच्छाका उसी प्रकार अनुसरण करना पड़ता है, जैसे किसी अंधेको आँखवाले पुरुषका ।। 15 ।।

मुक्त पुरुष भी प्रारब्धका भोग करता हुआ भगवान्‌की | इच्छाके अनुसार अपने शरीरको धारण करता ही है; ठीक वैसे ही जैसे मनुष्यकी निद्रा टूट जानेपर भी स्वप्नमें अनुभव किये हुए पदार्थोंका स्मरण होता है। इस अवस्थामें भी उसको अभिमान नहीं होता और विषय-वासनाके जिन संस्कारोंके कारण दूसरा जन्म होता है, उन्हें वह स्वीकार नहीं करता ॥ 16 ॥ जो पुरुष इन्द्रियोंके वशीभूत है, वह वन-वनमें विचरण करता रहे तो भी उसे जन्म-मरणका भय बना ही रहता है; क्योंकि बिना जीते हुए मन और इन्द्रियरूपी उसके छः शत्रु कभी उसका पीछा नहीं | छोड़ते जो बुद्धिमान पुरुष इन्द्रियोको जीतकर अपनी आत्मामें ही रमण करता है, उसका गृहस्थाश्रम भी क्या बिगाड़ सकता है ? ।। 17 ।। जिसे इन छः शत्रुओंको जीतनेकी इच्छा हो, वह पहले घरमें रहकर ही उनका अत्यन्त निरोध करते हुए उन्हें वशमें करनेका प्रयत्न करे। किलेमें सुरक्षित रहकर लड़नेवाला राजा अपने प्रबल शत्रुओंको भी जीत लेता है। फिर जब इन शत्रुओंका बल अत्यन्त क्षीण हो जाय, तब विद्वान् पुरुष इच्छानुसार विचर सकता है ॥ 18 ॥ तुम यद्यपि श्रीकमलनाभ भगवान् के चरणकमलकी कलीरूप किलेके आश्रित रहकर इन छहों शत्रुओंको जीत चुके हो, तो भी पहले उन पुराणपुरुषके दिये हुए भोगोंको भोगो; इसके बाद निःसङ्ग होकर अपने आत्मस्वरूपमें स्थित हो जाना ।। 19 ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब त्रिलोकीके गुरु श्रीब्रह्माजीने इस प्रकार कहा, तो परमभागवत प्रियव्रतने छोटे होनेके कारण नम्रतासे सिर झुका लिया और जो आज्ञा’ ऐसा कहकर बड़े आदरपूर्वक उनका आदेश शिरोधार्य किया ।। 20 ।। तब स्वायम्भुव मनुने प्रसन्न होकर भगवान् ब्रह्माजीकी विधिवत् पूजा की। इसके पश्चात् वे मन और वाणीके अविषय, अपने आश्रय तथा सर्वव्यवहारातीत परब्रह्मका चिन्तन करतेहुए अपने लोकको चले गये। इस समय प्रियव्रत और नारदजी सरल भावसे उनकी ओर देख रहे थे ।। 21 ।।

मनुजीने इस प्रकार ब्रह्माजीकी कृपासे अपना मनोरथ पूर्ण हो जानेपर देवर्षि नारदकी आज्ञासे प्रियव्रतको सम्पूर्ण भूमण्डली रक्षाका भार सौंप दिया और स्वयं विषयरूपी विषैले जलसे भरे गृहस्थाश्रमरूपी दुस्तर जलाशयकी भोगेच्छासे निवृत्त हो गये || 22 || अब पृथ्वीपति महाराज प्रियव्रत भगवान्‌की इच्छास राज्यशासनके कार्यमें नियुक्त हुए। जो सम्पूर्ण जगत्‌को बसे छुड़ाने में अत्यन्त समर्थ हैं, उन आदिपुरुष श्रीभगवानके चरणयुगलका निरन्तर ध्यान करते रहने से यद्यपि उनके रागादि सभी मल नष्ट हो चुके थे और उनका हृदय भी अत्यन्त शुद्ध था, तथापि बड़ोंका मान रखनेके लिये वे पृथ्वीका शासन करने | लगे ॥ 23 ॥ तदनन्तर उन्होंने प्रजापति विश्वकर्माकी पुत्र बर्हिष्मतीसे विवाह किया। उससे उनके दस पुत्र हुए। वे स्व उन्होंके समान शीलवान्, गुणी, कर्मनिष्ट, रूपवान् और पराक्रमी थे। उनसे छोटी ऊर्जस्वती नामकी एक कन्या भी हुई ॥ 24 ॥ पुत्रोंके नाम आग्नीध, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, महावीर, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, सवन, मेधातिथि, वीतिहोत्र और कवि थे। ये सब नाम अग्निके भी हैं ।। 25 ।। इनमें कवि, महावीर और सवन-वे तीन नैष्ठिक ब्रह्मचारी हुए। इन्होंने बाल्यावस्थासे आत्मविद्याका अभ्यास करते हुए अन्तमें संन्यासाश्रम ही स्वीकार किया ॥ 26 ॥ इन निवृत्तिपरायण महर्षियोंने संन्यासाश्रममें ही रहते हुए समस्त जीवोंके अधिष्ठान और भवबन्धनसे डरे हुए लोगोको आश्रय देनेवाले भगवान् वासुदेवके परम सुन्दर चरणारविन्दोंका निरन्तर | चिन्तन किया। उससे प्राप्त हुए अखण्ड एवं श्रेष्ठ भक्तियोगसे उनका अन्तःकरण सर्वथा शुद्ध हो गया और उसमें श्रीभगवान्‌का आविर्भाव हुआ। तब देहादि उपाधिकी निवृत्ति हो जानेसे उनकी आत्माकी सम्पूर्ण जीवोंके आत्मभूत प्रत्यगात्मामें एकीभावसे स्थिति हो गयी || 27 ॥ महाराज प्रियव्रतको दूसरी भार्यासे उत्तम्, तामस और रैवत- ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए, जो अपने नामवाले मन्वन्तरोंके अधिपति हुए ॥ 28 ॥

इस प्रकार कवि आदि तीन पुत्रोंके निवृत्तिपरायण हो जानेपर राजा प्रियव्रतने ग्यारह अर्बुद वर्षोंतक पृथ्वीका शासन किया। जिस समय वे अपनी अखण्ड पुरुषार्थमयी और वीर्यशालिनी भुजाओंसे धनुषकी डोरी खींचकर टङ्कार करते थे, उस समय डरके मारे सभी धर्मद्रोही न जाने कहाँ छिप जाते थे। प्राणप्रिया बर्हिष्मतीके दिन-दिन बढ़नेवाले आमोद-प्रमोद और अभ्युत्थानादि क्रीडाओंके कारण तथा उसके स्त्रीजनोचितहाव-भाव, लज्जासे सङ्कुचित मन्दहास्ययुक्त चितवन और मनको भानेवाले विनोद आदिसे महामना प्रियव्रत विवेकहीन व्यक्तिकी गति आर्थविस्तृत से होकर सब भोगोंको भोगने लगे। किन्तु वास्तवमें ये उनमें आसक्त नहीं थे ।। 29 ।।

एक बार इन्होंने जब यह देखा कि भगवान् सूर्य सुमेरुकी परिक्रमा करते हुए लोकालोकपर्यन्त पृथ्वीके जितने भागको आलोकित करते हैं, उसमेंसे आधा ही प्रकाशमें रहता है और आधे में अन्धकार छाया रहता है, तो उन्होंने इसे पसंद नहीं किया। तब उन्होंने यह संकल्प लेकर कि ‘मैं रातको भी दिन बना दूंगा;’ सूर्यके समान ही वेगवान एक ज्योतिर्मय स्थर चढ़कर द्वितीय सूर्यकी ही भाँत उनके पीछे-पीछे पृथ्वीकी सात परिक्रमाएँ कर डालीं। भगवान्‌की उपासना से इनका अलौकिक प्रभाव बहुत बढ़ गया था ।। 30 ।। उस समय इनके रथके पहियोंसे जो लोकें बनीं, वे ही सात समुद्र हुए: उनसे पृथ्वीमें सात द्वीप हो गये ॥ 31 ॥ उनके नाम क्रमशः जम्बू, प्रक्ष, शल्मलि, कुश, क्रोड, शाक और पुष्कर द्वीप है। इनमेसे पहले-पहलेकी अपेक्षा आगे-आगेके द्वीपका परिमाण दूना है और ये समुद्रके बाहरी भागमें पृथ्वी के चारों ओर फैले हुए हैं ॥ 32 ॥ सात समुद्र क्रमशः खारे जल, ईखके रस, मदिरा, घी, दूध, मट्टे और मीठे जलसे भरे हुए है। ये सातों द्वीपको खाइयोंके समान हैं और परिमाणमें अपने भीतरवाले द्वीपके बराबर हैं। इनमेंसे एक-एक क्रमशः अलग-अलग सातों द्वीपोंको बाहरसे घेरकर स्थित हैं। * बर्हिष्मतीपति महाराज प्रियव्रतने अपने अनुगत पुत्र आग्नीध इध्मजिह्न, यज्ञवाह, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, मेधातिथि और वीतिहोत्रमेंसे क्रमशः एक-एकको उक्त जम्बू आदि द्वीपोंमेंसे एक-एकका राजा बनाया ॥ 33 ॥ उन्होंने अपनी कन्या ऊर्जस्वतीका विवाह शुक्राचार्यजीसे किया; उसीसे शुक्रकन्या देवयानीका जन्म हुआ || 34 ॥ राजन् ! जिन्होंने भगवच्चरणारविन्दोंकी रजके प्रभावसे शरीरके भूख-प्यास, शोक-मोह और जरा-मृत्यु – इन छः गुणोंको अथवा मनके सहित छ इन्द्रियोंको जीत लिया है, उन भगवद्भक्तोका ऐसा पुरुषार्थ होना कोई आर्यको बात नहीं है क्योंकि वर्णवहिष्कृत चाण्डाल आदि नीच योनिका पुरुष भी भगवान्‌के नामका केवल एक बार उच्चारण करनेसे तत्काल संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है ॥ 35 इस प्रकार अतुलनीय बल-पराक्रमसे युक्त महाराज प्रियव्रत एक बार, अपनेको देवर्षि नारदके चरणोंकी शरणमें जाकर भी पुनःदैववश प्राप्त हुए प्रपञ्चमें फँस जानेसे अशान्त-सा देख, मन-ही मन विरक्त होकर इस प्रकार कहने लगे || 36 || ‘ओह ! बड़ा बुरा हुआ ! मेरी विषयलोलुप इन्द्रियोंने मुझे इस अविद्याजनित विषम विषयरूप अन्धकूपमें गिरा दिया। बस, ! बस ! बहुत हो लिया। हाय! मैं तो स्त्रीका क्रीडामृग ही बन गया! उसने मुझे बंदरकी भाँति नचाया! मुझे धिक्कार है! धिक्कार है!’ इस प्रकार उन्होंने अपनेको बहुत कुछ बुरा-भला कहा ।। 37 ।। परमाराध्य श्रीहरिकी | कृपासे उनकी विवेकवृत्ति जाग्रत हो गयी। उन्होंने यह सारी पृथ्वी यथायोग्य अपने अनुगत पुत्रोंको बाँट दी और जिसके साथ उन्होंने तरह-तरहके भोग भोगे थे, उस अपनी राजरानीको साम्राज्यलक्ष्मीके सहित मृतदेहके समान छोड़ दिया तथा हृदयमें वैराग्य धारणकर भगवान्‌की लीलाओंका चिन्तन करते हुए उसके प्रभावसे श्रीनारदजीके बतलाये हुए मार्गका पुनः अनुसरण करने लगे ॥ 38 ॥ महाराज प्रियव्रतके विषयमें निम्नलिखित लोकोक्ति प्रसिद्ध ‘राजा प्रियव्रतने जो कर्म किये, उन्हें सर्वशक्तिमान् ईश्वरके सिवा और कौन कर सकता है ? उन्होंने रात्रिके अन्धकारको मिटानेका प्रयत्न करते हुए अपने रथके पहियोंसे बनी हुई लीकोंसे ही सात समुद्र बना दिये || 39 ॥ प्राणियोंके सुभीतेके लिये (जिससे उनमें परस्पर झगड़ा न हो) द्वीपोंके द्वारा पृथ्वीके विभाग किये और प्रत्येक द्वीपमें अलग-अलग नदी, पर्वत और वन आदिसे उसकी सीमा निश्चित कर दी ॥ 40 ॥ वे भगवद्भक्त नारदादिके प्रेमी भक्त थे। उन्होंने पाताललोकके, देवलोकके, मर्त्यलोकके तथा कर्म और योगकी शक्तिसे प्राप्त हुए ऐश्वर्यको भी नरकतुल्य समझा था’ ॥ 41 ॥

अध्याय 2 आग्नीध्र-चरित्र

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—पिता प्रियव्रतके इस प्रकार तपस्यामें संलग्न हो जानेपर राजा आग्नीध उनकी आज्ञाका अनुसरण करते हुए जम्बूद्वीपकी प्रजाका धर्मानुसार पुत्रवत् | पालन करने लगे ॥ 1 ॥ एक बार वे पितृलोककी कामनासे सत्पुत्रप्राप्तिके लिये पूजाकी सब सामग्री जुटाकर सुरसुन्दरियोंके क्रीडास्थल मन्दराचलकी एक घाटीमें गये और तपस्यामें तत्पर होकर एकाग्र चित्तसे प्रजापतियों के पति श्रीब्रह्माजीकी आराधना करने लगे ॥ 2 ॥ आदिदेव भगवान् ब्रह्माजीने उनकी अभिलाषा जान ली। अतः अपनी सभाकी गायिका पूर्वचित्ति नामकी अप्सराको उनके पास भेज दिया ॥ 3 ॥ आनीजीके आश्रम के पास एक अति रमणीय उपवन था। वह अप्सरा उसीमें विचरने लगी। उस उपवनमें तरह-तरहके सघन तरुवरोंकी शाखाओंपर स्वर्णलताएँ फैली हुई थीं उनपर बैठे हुए मयूरादि कई प्रकारके स्थलचारी पक्षियों जोड़े सुमधुर बोली बोल रहे थे। उनकी पड्जादि स्वरयुक्त ध्वनि सुनकर सचेत हुए जलकुक्कुट, कारण्डव एवं कलहंस आदि जलपक्षी भाँति-भाँति कूजने लगते थे। इससे वहकि कमलवनसे सुशोभित निर्मल सरोवर गूंजने लगते थे ll 4 ll

पूर्वचितिकी विलासपूर्ण सुललित गतिबिधि और पाद विन्यासकी शैलीसे पद-पदपर उसके चरणनूपुरोंको झनकार हो उठती थी उसकी मनोहर ध्वनि सुनकर राजकुमार आश्रीधने समाधियोगद्वारा मैदे हुए अपने कमल-कलीके समान सुन्दर नेत्रोंको कुछ-कुछ खोलकर देखा तो पास ही उन्हें वह अप्सरा दिखायी दी। वह भ्रमरीके समान एक एक फूलके पास जाकर उसे सूँघती थी तथा देवता और मनुष्योंके मन और नयनोंको आहृादित करनेवाली अपनी विलासपूर्ण गति, क्रीडा-चापल्य, ला एवं विनययुक्त चितवन, सुमधुर वाणी तथा मनोहर अङ्गावयवोंसे पुरुषोंके हृदयमें कामदेवके प्रवेशके लिये द्वार-सा बना देती थी। जब वह हँस-हंसकर बोलने लगती, तब ऐसा प्रतीत होता मानो उसके मुझसे अमृतमय मादक मधु झर रहा है। उसके निःश्वासके गन्धसे मदान्ध होकर और उसके मुख कमलको घेर लेते, तब वह उनसे बचने के लिये जल्दी-जल्दी पैर उठाकर चलती तो उसके कुचकलश, वेणी और करधनी हिलनेसे बड़े ही सुहावने लगते। यह सब देखनेसे भगवान् कामदेवको आग्नीधके हृदयमें प्रवेश करनेका अवसर मिल गया और वे उनके अधीन होकर उसे प्रसन्न करनेके लिये पागलकी भाँति इस प्रकार कहने लगे – ।। 5-6 ।।

‘मुनिवर्य तुम कौन हो, इस पर्वतपर तुम क्या करना ! चाहते हो ? तुम परमपुरुष श्रीनारायणकी कोई माया तो नहीं हो ? [ भौहोकी ओर संकेत करके] सखे! तुमने ये बिना डोरीके दो धनुष क्यों धारण कर रखे हैं? क्या इनसे तुम्हारा कोई अपना प्रयोजन है अथवा इस संसाररण्यमे मुझ जैसे मतवाले मृगोंका शिकार करना चाहते हो ! ॥ 7 ॥|[कटाक्षोंको लक्ष्य करके-] तुम्हारे ये दो बाण तो बड़े सुन्दर और पैने हैं। अहो। इनके कमलदलके पंख है, देखनेमें बड़े शान्त हैं और हैं भी पंखहीन* । यहाँ वनमें विचरते हुए तुम इन्हें किसपर छोड़ना चाहते हो ? यहाँ तुम्हारा कोई सामना करनेवाला नहीं दिखायी देता। तुम्हारा यह पराक्रम हम जैसे जडबुद्धियोंक लिये कल्याणकारी हो ॥ 8 ॥ [ भौरोंकी ओर देखकर-1 भगवन् ! तुम्हारे चारों ओर जो ये शिष्यगण अध्ययन कर रहे हैं. वे तो निरन्तर रहस्ययुक्त सामगान करते हुए मानो भगवान्की स्तुति कर रहे हैं और ऋषिगण जैसे वेदकी शाखाओंका अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार ये सब तुम्हारी चोटीसे झड़े हुए पुष्पोंका सेवन कर रहे हैं ।। 9 ।। [ नूपुरोंके शब्दकी ओर संकेत करके] ब्रह्मन् ! तुम्हारे चरणरूप पिंजड़ोंमें जो तीतर बन्द हैं, उनका शब्द तो सुनायी देता है; परन्तु रूप देखनेमें नहीं आता। [कर धनीसहित पीली साड़ीमें अङ्गकी कान्तिकी उत्प्रेक्षा कर] तुम्हारे नितम्बोंपर यह कदम्ब कुसुमोंकी-सी आभा कहाँसे आ गयी ? इनके ऊपर तो अंगारोंका मण्डल-सा भी दिखायी देता है। किन्तु | तुम्हारा वल्कल-वस्त्र कहाँ है ? || 10 || [कुङ्कुममण्डित कुचोको ओर लक्ष्य करके – ] द्विजवर ! तुम्हारे इन दोनों सुन्दर सींगोंमें क्या भरा हुआ है ? अवश्य ही इनमें बड़े अमूल्य रत्न भरे हैं, इसीसे तो तुम्हारा मध्यभाग इतना कृश होनेपर भी तुम इनका बोझ | ढो रहे हो। यहाँ जाकर तो मेरी दृष्टि भी मानो अटक गयी है। और सुभग! इन सींगोंपर तुमने यह लाल-लाल लेप-सा क्या लगा रखा है ? इसकी गन्धसे तो मेरा सारा आश्रम महक उठा है। ॥ 11 ॥ मित्रवर! मुझे तो तुम अपना देश दिखा दो, जहाँके निवासी अपने वक्षःस्थलपर ऐसे अद्भुत अवयव धारण करते हैं. जिन्होंने हमारे जैसे प्राणियोंके चित्तोंको क्षुब्ध कर दिया है तथा मुखमें विचित्र हाव-भाव, सरसभाषण और अधरामृत जैसी अनूठी वस्तुएँ रखते हैं ॥ 12 ॥

“प्रियवर! तुम्हारा भोजन क्या है, जिसके खानेसे तुम्हारे मुखसे हवन सामग्रीकी-सी सुगन्ध फैल रही है ? मालूम होता है. तुम कोई विष्णुभगवान्‌की कला ही हो, इसीलिये तुम्हारे कानोमें कभी पलक न मारनेवाले मकरके आकारके दो कुण्डल तुम्हारा मुख एक सुन्दर सरोवरके समान है। उसमें तुम्हारे चञ्चल नेत्र भयसे काँपती हुई दो मछलियोंके समान, दन्तपंक्ति हंसोके समान और घुँघराली अलकावली भौरोंके समान शोभायमान है ॥ 13 ॥ तुम जब अपने करकमलोंसे थपकी मारकर इस गेंदको उछालते हो, तब यह दिशा-विदिशाओंमें जाती हुई मेरे नेत्रोंको तो चञ्चल कर ही देती है, साथ-साथ मेरे मनमें भी खलबली पैदाकर देती है। तुम्हारा बाँका खुल गया है, तुम इसे नहीं ? अरे, यह धूर्त वायु कैसा दुष्ट है जो बार-बार तुम्हारे नीवी वस्त्रको उड़ा देता है ॥ 14 ॥ तपोधन। तपस्वियोंके तपको भ्रष्ट करनेवाला यह अनूप रूप तुमने किस तपके प्रभावसे पाया है ? मित्र! आओ, कुछ दिन मेरे साथ रहकर तपस्या करो। अथवा, कहीं विश्वविस्तारकी इच्छासे ब्रह्माजीने ही तो मुझपर कृपा नहीं की है ॥ 15 ॥ सचमुच, तुम ब्रह्माजीकी ही प्यारी देन हो; अब मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता। तुममें तो मेरे मन और नयन ऐसे उलझ गये हैं कि अन्यत्र जाना ही नहीं चाहते। सुन्दर सींगोंवाली ! तुम्हारा जहाँ मन हो, मुझे भी वहीं ले चलो; मैं तो तुम्हारा अनुचर हूँ और तुम्हारी ये मङ्गलमयी सखियाँ भी हमारे ही साथ रहें’ ॥ 16 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन् आनीध देवताओंके समान बुद्धिमान् और स्त्रियों को प्रसन्न करनेमें बड़े कुशल थे। उन्होंने इसी प्रकारकी रतियातुर्यमयी मीठी-मीठी बातोसे उस अप्सराको प्रसन्न कर लिया ॥ 17 ॥ वीर समाजमें अग्रगण्य आग्नीधकी बुद्धि, शील, रूप, अवस्था, लक्ष्मी और उदारतासे आकर्षित होकर वह उन जम्बूद्वीपाधिपतिके साथ कई हजार वर्षोंतक पृथ्वी और स्वर्गके भोग भोगती रही ॥ 18 ॥ तदनन्तर नृपवर आग्नीधने उसके गर्भसे नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्मय, कुरु, भद्राश्व और केतुमाल नामके नौ पुत्र उत्पन्न किये ।। 19 ।।

इस प्रकार नौ वर्षमें प्रतिवर्ष एकके क्रमसे नौ पुत्र उत्पन्न कर पूर्वचिति उन्हें राजभवनमें ही छोड़कर फिर ब्रह्माजीकी सेवामें उपस्थित हो गयी ॥ 20 ॥ ये आशीधके पुत्र माताके अनुग्रहसे स्वभावसे ही सुडौल और सबल शरीरवाले थे। आग्नीधने जम्बूद्वीपके विभाग करके उन्हींके समान नामवाले नौ वर्ष (भूखण्ड) बनाये और उन्हें एक-एक पुत्रको सौंप दिया। तब वे सब अपने-अपने वर्षका राज्य भोगने लगे ॥ 21 ॥ महाराज आग्नीध्र दिन-दिन भोगोंको भोगते रहनेपर भी उनसे अतुम ही रहे। वे उस अप्सराको ही परम पुरुषार्थ समझते थे। इसलिये उन्होंने वैदिक कर्मकि द्वारा उसी लोकको प्राप्त किया, जहाँ पितृगण अपने सुकृतोंके अनुसार तरह-तरहके भोगोंमें मस्त रहते है॥ 22 ॥ पिताके परलोक सिधारनेपर नाभि आदि नौ भाइयोंने मेरुकी मेरुदेवी, प्रतिरूपा, उग्रदंष्ट्री, लता, रम्या, श्यामा, नारी, भद्रा और देववीति नामकी नौ कन्याओंसे विवाह किया ॥ 23 ॥

अध्याय 3 राजा नाभिका चरित्र

श्रीशुकदेवजी कहते हैं— राजन् ! आग्नीधके पुत्र नाभिके कोई सन्तान न थी, इसलिये उन्होंने अपनी भार्या मेरुदेवीके सहित पुत्रकी कामनासे एकाग्रतापूर्वक भगवान् यज्ञपुरुषका यजन किया ॥1॥ यद्यपि सुन्दर अङ्गोंवाले श्रीभगवान् द्रव्य, देश, काल, मन्त्र, ऋत्विज, दक्षिणा और विधि – इन यज्ञके साधनोंसे सहजमें नहीं मिलते, तथापि वे भक्तोंपर तो कृपा करते ही हैं। इसलिये जब महाराज नाभिने श्रद्धापूर्वक विशुद्धभावसे उनकी अराधना की, तब उनका चित्त अपने भक्तका अभीष्ट कार्य करनेके लिये उत्सुक हो गया। यद्यपि उनका स्वरूप सर्वथा स्वतन्त्र है, तथापि उन्होंने प्रवर्ग्यकर्मका अनुष्ठान होते समय उसे मन | और नयनोंको आनन्द देनेवाले अवयवोंसे युक्त अति सुन्दर हृदयाकार्यक मूर्तिमें प्रकट किया ||2|| उनके श्रीअङ्गमें रेशमी पीताम्बर था, वक्षःस्थलपर सुमनोहर श्रीवत्सचिह्न सुशोभित था; भुजाओं में शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म तथा गलेमें वनमाला और कौस्तुभमणिकी शोभा थी। सम्पूर्ण शरीर अङ्ग-प्रत्यङ्गकी कान्तिको बढ़ानेवाले किरणजालमण्डित मणिमय मुकुट, कुण्डल, कङ्कण, करधनी, हार, बाजूबंद और नूपुर आदि आभूषणोंसे विभूषित था । ऐसे परम तेजस्वी चतुर्भुजमूर्ति पुरुषविशेषको प्रकट हुआ देख ऋत्विज्, सदस्य और यजमान आदि सभी लोग ऐसे आह्लादित हुए जैसे निर्धन पुरुष अपार धनराशि पाकर फूला नहीं समाता। फिर सभीने सिर झुकाकर अत्यन्त आदरपूर्वक प्रभुकी अर्घ्यद्वारा पूजा की और ऋत्विजोंने उनकी स्तुति की ॥ 3 ॥

‘ऋत्विजोंने कहा— पूज्यतम ! हम आपके अनुगत भक्त हैं, आप हमारे पुनः पुनः पूजनीय हैं। किन्तु हम आपकी पूजा करना क्या जाने ? हम तो बार-बार आपको नमस्कार करते हैं— इतना ही हमें महापुरुषोंने सिखाया है। आप प्रकृति और पुरुषसे भी परे हैं। फिर प्राकृत गुणोंके कार्यभूत इस प्रपञ्चमें बुद्धि फँस जानेसे आपके गुण-गान में सर्वथा असमर्थ ऐसा कौन पुरुष है जो प्राकृत नाम, रूप एवं आकृतिके द्वारा आपके स्वरूपका निरूपण कर सके ? आप साक्षात् परमेश्वर हैं ||4|| आपके परम मङ्गलमय गुण सम्पूर्ण जनताके दुःखोंका दमन करनेवाले है। यदि कोई उन्हें वर्णन करनेका साहस भी करेगा, तो | केवल उनके एक देशका ही वर्णन कर सकेगा ||5|| किन्तु प्रभो ! यदि आपके भक्त प्रेम गद्गद वाणी से स्तुति करते हुए सामान्य जल, विशुद्ध पल्लव, तुलसी और दूबके अङ्कुर आदि सामग्रीसे ही आपकी पूजा करते हैं, तो भी आप सब प्रकार सन्तुष्ट हो जाते है ॥6॥

हमें तो अनुरागके सिवा इस द्रव्य-कालादि अनेकों अङ्गोवाले यज्ञसे भी आपका कोई प्रयोजन नहीं दिखलायी देता ||7|| क्योंकि आपके स्वतः ही क्षण-क्षणमें जो सम्पूर्ण पुरुषार्थोका फलस्वरूप | परमानन्द स्वभावतः ही निरन्तर प्रादूर्भूत होता रहता है, आप साक्षात् | उसके स्वरूप ही हैं। इस प्रकार यद्यपि आपको इन यज्ञादिसेकोई प्रयोजन नहीं है, तथापि अनेक प्रकारकी कामनाओंकी सिद्धि चाहनेवाले हमलोगोंके लिये तो मनोरथसिद्धिका पर्याप्त साधन यही होना चाहिये ॥ 8 ॥ आप ब्रह्मादि परम पुरुषोंको अपेक्षा भी परम श्रेष्ठ हैं। हम तो यह भी नहीं जानते कि हमारा परम कल्याण किसमें है, और न हमसे आपकी यथोचित पूजा ही बनी है; तथापि जिस प्रकार तत्त्वज्ञ पुरुष बिना बुलाये भी केवल करुणावश अज्ञानी पुरुषोंके पास चले जाते हैं, उसी प्रकार आप भी हमें मोक्षसंज्ञक अपना परमपद और हमारी अभीष्ट वस्तुएँ प्रदान करनेके लिये अन्य साधारण यज्ञदर्शकों के समान यहाँ प्रकट हुए हैं ।। 9 ॥ पूज्यतम । हमें सबसे बड़ा वर तो आपने यही दे दिया कि ब्रह्मादि समस्त वरदायकोंमें श्रेष्ठ होकर भी आप राजर्षि नाभिकी इस यज्ञशालामें साक्षात् हमारे नेत्रोंके सामने प्रकट हो गये! अब हम और वर क्या माँगें ? ॥ 10 ॥

प्रभो! आपके गुणगणोंका गान परम मङ्गलमय है। जिन्होंने वैराग्यसे प्रज्वलित हुई ज्ञानानिके द्वारा अपने अन्तःकरणके राग-द्वेषादि सम्पूर्ण मलोको जला डाला है, अतएव जिनका स्वभाव आपके ही समान शान्त है, वे आत्माराम मुनिगण भी निरन्तर आपके गुणोंका गान ही किया करते हैं ॥ 11 ॥ अतः हम आपसे यही वर माँगते है कि गिरने, ठोकर खाने, छींकने अथवा जंभाई लेने और सङ्कटादिके समय एवं ज्वर और मरणादिकी अवस्थाओं में आपका स्मरण न हो सकनेपर भी किसी प्रकार आपके सकलकलिमलविनाशक ‘भक्तवत्सल’, ‘दीनबन्धु’ आदि गुणद्योतक नामोंका हम उच्चारण कर सके ।। 12 ।।

इसके सिवा, कहनेयोग्य न होनेपर भी एक प्रार्थना और है। आप साक्षात् परमेश्वर हैं, स्वर्ग-अपवर्ग आदि ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे आप न दे सकें। तथापि जैसे कोई कंगाल किसी धन लुटानेवाले परम उदार पुरुषके पास पहुँचकर भी उससे भूसा ही माँगे, उसी प्रकार हमारे यजमान ये राजर्षि नाभि सन्तानको ही परम पुरुषार्थ मानकर आपके ही समान पुत्र पानेके लिये आपकी आराधना कर रहे हैं।। 13 ।। यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। | आपकी मायाका पार कोई नहीं पा सकता और न वह किसीके वशमें ही आ सकती है। जिन लोगोंने महापुरुषोंके चरणोंका आश्रय नहीं लिया, उनमें ऐसा कौन है जो उसके वशमें नहीं होता, उसकी बुद्धिपर उसका परदा नहीं पड़ जाता और विषयरूप विषका वेग उसके स्वभावको दूषित नहीं कर देता ? || 14 || देवदेव ! आप भक्तोंके बड़े-बड़े काम कर देते हैं। हम मन्दमतियोंने कामनावश इस तुच्छ कार्यके लिये आपका आवाहन किया, यह आपका अनादर ही है। किन्तु आप समदर्शी हैं, अतः हम अज्ञानियोंकी इस धृष्टताको आप क्षमा करें ।। 15 ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन् ! वर्षाधिपति नाभिकेपूज्य ऋत्विजोंने प्रभुके चरणोंकी वन्दना करके जब पूर्वोक्त स्तोत्रसे स्तुति की, तब देवश्रेष्ठ श्रीहरिने करुणावश इस प्रकार कहा ।। 16 ।।

श्रीभगवान् ने कहा – ऋषियो ! बड़े असमंजसकी बात
है। आप सब सत्यवादी महात्मा हैं, आपने मुझसे यह बड़ा दुर्लभ वर माँगा है कि राजर्षि नाभिके मेरे समान पुत्र हो। मुनियो ! मेरे समान तो मैं ही हूँ, क्योंकि मैं अद्वितीय हूँ। तो भी ब्राह्मणोंका वचन मिथ्या नहीं होना चाहिये, द्विजकुल मेरा ही तो मुख है ॥ 17 ॥ इसलिये मैं स्वयं ही अपनी अंशकलासे आग्नीधनन्दन नाभिके यहाँ अवतार लूँगा, क्योंकि अपने समान मुझे कोई और दिखायी नहीं देता ॥ 18 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- महारानी मेरुदेवीके सुनते हुए उसके पतिसे इस प्रकार कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये ॥ 19 ॥ विष्णुदत्त परीक्षित् ! उस यज्ञमें महर्षियोंद्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जानेपर श्रीभगवान् महाराज नाभिका प्रिय करनेके लिये उनके रनिवासमें महारानी मेरुदेवीके गर्भसे दिगम्बर संन्यासी और ऊर्ध्वरेता मुनियोंका धर्म प्रकट करनेके लिये | शुद्धसत्त्वमय विग्रहसे प्रकट हुए ॥ 20 ॥

अध्याय 4 ऋषभदेवजीका राज्यशासन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- राजन् ! नाभिनन्दनके अंग | जन्मसे ही भगवान् विष्णुके वज्र-अङ्कुश आदि चिह्नोंसे युक्त थे; समता, शान्ति, वैराग्य और ऐश्वर्य आदि महाविभूतियोंके कारण | उनका प्रभाव दिनोंदिन बढ़ता जाता था। यह देखकर मन्त्री आदि प्रकृतिवर्ग, प्रजा, ब्राह्मण और देवताओंकी यह उत्कट | अभिलाषा होने लगी कि ये ही पृथ्वीका शासन करें ॥ 1 ॥ उनके सुन्दर और सुडौल शरीर, विपुल कीर्ति, तेज, बल, ऐश्वर्य, यश, पराक्रम और शूरवीरता आदि गुणोंके कारण महाराज नाभिने उनका नाम ‘ऋषभ’ (श्रेष्ठ) रखा ॥ 2 ॥

एक बार भगवान् इन्द्रने ईर्ष्यावश उनके राज्यमें वर्षा नहीं की। तब योगेश्वर भगवान् ऋषभने इन्द्रकी मूर्खतापर हँसते हुए अपनी योगमायाके प्रभावसे अपने वर्ष अजनाभखण्डमें खूब जल बरसाया || 3 || महाराज नाभि अपनी इच्छाके अनुसार श्रेष्ठ पुत्र पाकर अत्यन्त आनन्दमन हो गये और अपनी हीइच्छासे मनुष्य शरीर धारण करनेवाले पुराणपुरुष श्रीहरिका सप्रेम लालन करते हुए, उन्हींके लीलाविलाससे मुग्ध होकर ‘वत्स । तात ।’ ऐसा गद्गदवाणी से कहते हुए बड़ा सुख मानने लगे ॥ 4 ॥

जब उन्होंने देखा कि मन्त्रिमण्डल, नागरिक और राष्ट्रकी जनता ऋषभदेवसे बहुत प्रेम करती है, तो उन्होंने उन्हें धर्ममर्यादाकी रक्षाके लिये राज्याभिषिक्त करके ब्राह्मणोंकी देख-रेखमें छोड़ दिया। आप अपनी पत्नी मेरुदेवीके सहित बदरिकाश्रमको चले गये। यहाँ अहिंसावृत्तिसे, जिससे किसीको उद्वेग न हो ऐसी कौशलपूर्ण, तपस्या और समाधियोगके द्वारा भगवान् वासुदेवके नर-नारायणरूपकी आराधना करते हुए समय आनेपर उन्हींके स्वरूपमें लीन हो गये ।। 5 ।।

पाण्डुनन्दन ! राजा नाभिके विषयमें यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है राजर्षि नाभिके उदार कर्मोका आचरण दूसरा कौन पुरुष कर सकता है— जिनके शुद्ध कर्मोंसे सन्तुष्ट होकर साक्षात् श्रीहरि उनके पुत्र हो गये थे || 6 || महाराज नाभिके समान ब्राह्मणभक्त भी कौन हो सकता है— जिनकी दक्षिणादिसे सन्तुष्ट हुए ब्राह्मणोंने अपने मन्त्रबलसे उन्हें यज्ञशालामें साक्षात् श्रीविष्णुभगवान्‌के दर्शन करा दिये ll 7 ll

भगवान् ऋषभदेवने अपने देश अजनाभखण्डको कर्मभूमि मानकर लोकसंग्रहके लिये कुछ काल गुरुकुलमें वास किया। गुरुदेवको यथोचित दक्षिणा देकर गृहस्थ में प्रवेश करनेके लिये उनकी आज्ञा ली। फिर लोगोंको गृहस्थधर्मकी शिक्षा देनेके लिये देवराज इन्द्रकी दी हुई उनकी कन्या जयन्तीसे विवाह किया तथा श्रौतस्मार्त दोनों प्रकारके शास्त्रोपदिष्ट कर्मोंका आचरण करते हुए उसके गर्भ से अपने ही समान गुणवाले सौ पुत्र उत्पन्न किये ॥ 8 ॥ उनमें महायोगी भरतजी सबसे बड़े और सबसे अधिक गुणवान् थे । उन्होंके नामसे लोग इस अजनाभखण्डको ‘भारतवर्ष’ कहने लगे ॥ 9 ॥ उनसे छोटे कुशावर्त, इलावर्त, ब्रह्मावर्त, मलय, केतु, भद्रसेन इन्द्रस्पृक्, विदर्भ और कीकट—ये नौ राजकुमार शेष नब्बे भाइयोंसे बड़े एवं श्रेष्ठ थे ।। 10 उनसे छोटे कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन- ये नो राजकुमार भागवतधर्मका प्रचार करनेवाले बड़े भगवद्भक्त थे। भगवानकी महिमासे महिमान्वित और परम शान्तिसे पूर्ण इनका पवित्र चरित हम नारद-वसुदेवसंवादके प्रसङ्गसे आगे (एकादश स्कन्धमे) कहेंगे ।। 11-12 ॥ इनसे छोटे जयन्तीके इक्यासी पुत्र पिताकी आज्ञाका पालन करनेवाले, अति विनीत, महान् वेदज्ञऔर निरन्तर यज्ञ करनेवाले थे। वे पुण्यकर्मोंका अनुष्ठान करनेसे शुद्ध होकर ब्राह्मण हो गये थे ।। 13 ।।

भगवान् ऋषभदेव, यद्यपि परम स्वतन्त्र होनेके कारण स्वयं सर्वदा ही सब प्रकारकी अनर्थपरम्परासे | रहित, केवल आनन्दानुभवस्वरूप और साक्षात् ईश्वर ही थे, तो भी अज्ञानियोंके समान कर्म करते हुए उन्होंने | कालके अनुसार प्राप्त धर्मका आचरण करके उसका तत्त्व न जाननेवाले लोगोंको उसकी शिक्षा दी। साथ ही सम, शान्त, सुहृद् और कारुणिक रहकर धर्म, अर्थ, यश, सन्तान, भोग-सुख और मोक्षका संग्रह करते हुए गृहस्थाश्रममें लोगोंको नियमित किया ॥ 14 ॥ महापुरुष जैसा जैसा आचरण करते हैं, दूसरे लोग उसीका अनुकरण करने लगते हैं ॥ 15 ॥ यद्यपि वे सभी धर्मोक | साररूप वेदके गूढ रहस्यको जानते थे, तो भी ब्राह्मणोंकी बतलायी हुई विधिसे साम-दानादि नीतिके अनुसार ही जनताका पालन करते थे ॥ 16 ॥ उन्होंने शास्त्र और ब्राह्मणोंके उपदेशानुसार भिन्न-भिन्न देवताओंके उद्देश्यसे द्रव्य, देश, काल, आयु, श्रद्धा और ऋत्विज् आदिसे सुसम्पन्न सभी प्रकारके सौ-सौ यज्ञ किये ॥ 17 ॥ भगवान् ऋषभदेवके शासनकालमें इस देशका कोई भी पुरुष अपने लिये किसीसे भी अपने प्रभुके प्रति दिन-दिन बढ़नेवाले अनुरागके सिवा और किसी वस्तुकी कभी इच्छा नहीं करता था। यही नहीं, आकाशकुसुमादि अविद्यमान वस्तुकी भाँति कोई किसीकी वस्तुकी ओर दृष्टिपात भी नहीं करता था ॥ 18 ॥ एक बार भगवान् ऋषभदेव घूमते-घूमते ब्रह्मावर्त देशमें पहुँचे। वहाँ बड़े-बड़े ब्रह्मर्षियोंकी सभामें उन्होंने प्रजाके सामने ही अपने समाहितचित्त तथा विनय और प्रेमके भारसे सुसंयत पुत्रोंको शिक्षा देनेके लिये इस प्रकार कहा ।। 19 ।।

अध्याय 5 ऋषभजीका अपने पुत्रोंको उपदेश देना

श्रीऋषभदेवजीने कहा- पुत्रो। इस मर्त्यलोकमें यह मनुष्य शरीर दुःखमय विषयभोग प्राप्त करनेके लिये हो नहीं है। ये भोग तो विष्ठाभोजी सूकर कूकरादिको भी मिलते ही हैं। इस शरीरसे दिव्य तप ही करना चाहिये, जिससे अन्तःकरण शुद्ध हो; क्योंकि इसीसे अनन्त ब्रह्मानन्दकी प्राप्ति होती है ॥ 1 ॥ शास्त्रोंने महापुरुषों की सेवाको मुक्तिका और स्त्रीसंगी कामियोंके सङ्गको नरकका द्वार बताया है। महापुरुष वे ही हैं जो समानचित्त, परमशान्त, क्रोधहीन, सबके हितचिन्तक और सदाचार सम्पन्न हो ॥ 2 ॥ अथवा मुझ परमात्माके प्रेमका ही जो एकमात्र पुरुषार्थ मानते हों, केवल विषयोंकी ही चर्चा करनेवाले लोगोंमें तथा स्त्री, और धन आदि सामग्रियोंसे सम्पन्न घरोंमें जिनकी अरुचि हो और जो लौकिक कार्योंमें केवल शरीरनिर्वाहके लिये ही प्रवृत्त होते. हो ॥ 3 ॥ मनुष्य अवश्य प्रमादवश कुकर्म करने लगता है, उसकी वह प्रवृत्ति इन्द्रियोको तृप्त करनेके लिये ही होती है। मैं इसे अच्छा नहीं समझता, क्योंकि इसीके कारण आत्माको यह असत् और दुःखदायक शरीर प्राप्त होता है ॥ 4 ॥ जबतक जीवको आत्मतत्त्वको जिज्ञासा नहीं होतो, तभीतक अज्ञानवश देहादिके द्वारा उसका स्वरूप छिपा रहता है। जबतक यह लौकिक वैदिक कर्मोंमें फँसा रहता है, तबतक मनमें कर्मकी वासनाएँ भी बनी ही रहती हैं और इन्हींसे देह-बन्धनको प्राप्ति होती है ॥ 5 ॥ इस प्रकार अविद्याके द्वारा आत्मस्वरूपके ढक जानेसे कर्मवासनाओंके वशीभूत हुआ वित्त मनुष्यको फिर कमोंमें ही प्रवृत्त करता है। अतः जबतक उसको मुझ वासुदेव प्रीति नहीं होती, तबतक वह देहबन्धनसे छूट नहीं सकता ॥ 6 ॥ स्वार्थमें पागल जीव जबतक विवेकदृष्टिका आश्रय लेकर इन्द्रियोंकी चेष्टाओंको मिथ्या नहीं देखता, तबतक आत्मस्वरूपको स्मृति खो बैठने कारण वह अज्ञानवश विषयप्रधान गृह आदिमें आसक्त रहता है और तरह-तरहके फ्रेश उठाता रहता है ॥ 7 ॥स्त्री और पुरुष इन दोनोंका जो परस्पर दाम्पत्य-भाव है, इसीको पण्डितजन उनके हृदयकी दूसरी स्थूल एवं दुर्भेद्य ग्रन्थि कहते हैं। देहाभिमानरूपी एक-एक सूक्ष्म ग्रन्थि तो उनमें अलग-अलग पहलेसे ही है। इसीके कारण जीवको देहेन्द्रियादिके अतिरिक्त घर, खेत, पुत्र, स्वजन और धन आदिमें भी ‘मैं’ और ‘मेरे ‘पनका मोह हो जाता है ॥ 8 ॥ जिस समय कर्मवासनाओंके कारण पड़ी हुई इसकी यह दृढ़ हृदय ग्रन्थि ढीली हो जाती है, उसी समय यह दाम्पत्यभावसे निवृत्त हो जाता है और संसारके हेतुभूत अहङ्कारको त्यागकर सब प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त हो परमपद प्राप्त कर लेता है ॥ 9 ॥ पुत्रो ! संसारसागरसे पार होनेमें कुशल तथा धैर्य, उद्यम एवं सत्त्वगुणविशिष्ट पुरुषको चाहिये कि सबके आत्मा और गुरुस्वरूप मुझ भगवान् ‌में भक्तिभाव रखनेसे, मेरे परायण रहनेसे, तृष्णाके त्यागसे, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंके सहनेसे ‘जीवको सभी योनियोंमें दुःख ही उठाना पड़ता है’ इस विचारसे, तत्त्वजिज्ञासासे, तपसे, सकाम कर्मके त्यागसे, मेरे ही लिये कर्म करनेसे, मेरी कथाओंका नित्यप्रति श्रवण करनेसे, मेरे भक्तोंके सङ्ग और मेरे गुणोंके कीर्तनसे, वैरत्यागसे, समतासे, शान्तिसे और शरीर तथा घर आदिमें मैं-मेरेपनके भावको त्यागनेकी इच्छासे, अध्यात्मशास्त्र के अनुशीलनसे, एकान्त सेवनसे, प्राण, इन्द्रिय और मनके संयमसे, शास्त्र और सत्पुरुषोंके वचनमें यथार्थ बुद्धि रखनेसे, पूर्ण ब्रह्मचर्यसे, कर्तव्यकमोंमें निरन्तर सावधान रहनेसे, वाणीके संयमसे, सर्वत्र मेरी ही सत्ता देखनेसे, अनुभवज्ञानसहित तत्त्वविचारसे और योगसाधनसे अहङ्काररूप अपने लिङ्गशरीरको लीन | दे ।। 10 – 13 मनुष्यको चाहिये कि वह सावधान रहकर अविद्यासे प्राप्त इस हृदयग्रन्थिरूप बन्धनको शास्त्रोक्त रीतिसे इन साधनोंके द्वारा भलीभाँति काट डाले, | क्योंकि यही कर्मसंस्कारोके रहनेका स्थान है। तदनन्तर | साधनका भी परित्याग कर दे ।। 14 ।।जिसको मेरे लोककी इच्छा हो अथवा जो मेरे अनुग्रहकी प्राप्तिको ही परम पुरुषार्थ मानता हो—वह राजा हो तो अपनी अबोध प्रजाको, गुरु अपने शिष्योंको और पिता अपने पुत्रोंको | ऐसी ही शिक्षा दे। अज्ञानके कारण यदि वे उस शिक्षाके अनुसार न चलकर कर्मको ही परम पुरुषार्थ मानते रहें, तो भी उनपर | क्रोध न करके उन्हें समझा-बुझाकर कर्ममें प्रवृत्त न होने दे। उन्हें विषयासक्तियुक्त काम्यकर्मोंमें लगाना तो ऐसा ही है, जैसे किसी अंधे मनुष्यको जान-बूझकर गढ़में ढकेल देना। इससे भला, किस पुरुषार्थकी सिद्धि हो सकती है ।। 15 ।। अपना सच्चा कल्याण किस बातमें है, इसको लोग नहीं जानते; इसीसे वे तरह-तरहकी भोग-कामनाओंमें फँसकर तुच्छ क्षणिक सुखके लिये आपसमें वैर ठान लेते हैं और निरन्तर विषयभोगोंके लिये ही प्रयत्न करते रहते हैं। वे मूर्ख इस बातपर कुछ भी विचार नहीं करते कि इस वैर-विरोधके कारण नरक आदि अनन्त घोर दुःखोंकी प्राप्ति होगी ।। 16 ।। गढ़में गिरनेके लिये उलटे रास्तेसे जाते हुए मनुष्यको जैसे आँखवाला पुरुष उधर नहीं जाने देता, वैसे ही अज्ञानी मनुष्यको अविद्यामें फँसकर दुःखोंकी ओर जाते | देखकर कौन ऐसा दयालु और ज्ञानी पुरुष होगा, जो जान बूझकर भी उसे उसी राहपर जाने दे या जानेके लिये प्रेरणा करे ॥ 17 ॥ जो अपने प्रिय सम्बन्धीको भगवद्भक्तिका उपदेश | देकर मृत्युकी फाँसीसे नहीं छुड़ाता, वह गुरु गुरु नहीं है, स्वजन स्वजन नहीं है, पिता पिता नहीं है, माता माता नहीं है, इष्टदेव इष्टदेव नहीं है और पति पति नहीं है ॥ 18 ॥

मेरे इस अवतार शरीरका रहस्य साधारण जनोंके लिये बुद्धिगम्य नहीं है। शुद्ध सत्त्व ही मेरा हृदय है और उसीमें धर्मकी स्थिति है, मैंने अधर्मको अपनेसे बहुत दूर पीछे की ओर ढकेल दिया है, इसीसे सत्पुरुष मुझे ‘ऋषभ’ कहते हैं ॥ 19 ॥ तुम सब मेरे उस शुद्ध सत्त्वमय हृदयसे उत्पन्न हुए हो, इसलिये मत्सर छोड़कर अपने बड़े भाई भरतकी सेवा करो। उसकी सेवा करना मेरी ही सेवा करना है और यही तुम्हारा प्रजापालन भी | है || 20 || अन्य सब भूतोंकी अपेक्षा वृक्ष अत्यन्त श्रेष्ठ हैं, उनसे चलनेवाले जीव श्रेष्ठ हैं और उनमें भी कीटादिकी अपेक्षा ज्ञानयुक्त पशु आदि श्रेष्ठ हैं। पशुओंसे मनुष्य, मनुष्योंसे प्रमथगण, प्रमथोंसे गन्धर्व, गन्धर्वोंसे सिद्ध और सिद्धोंसे देवताओंके अनुयायी किन्नरादि श्रेष्ठ हैं ॥ 21 ॥उनसे असुर, असुरोंसे देवता और देवताओंसे भी इन्द्र श्रेष्ठ हैं। इन्द्रसे भी ब्रह्माजीके पुत्र दक्षादि प्रजापति श्रेष्ठ हैं, ब्रह्माजीक पुत्रोंमें रुद्र सबसे श्रेष्ठ हैं। वे ब्रह्माजीसे उत्पन्न हुए हैं, इसलिये ब्रह्माजी उनसे श्रेष्ठ हैं। वे भी मुझसे उत्पन्न हैं और मेरी उपासना करते हैं, इसलिये मैं उनसे भी श्रेष्ठ हूँ। परन्तु ब्राह्मण मुझसे भी श्रेष्ठ हैं, क्योंकि मैं उन्हें पूज्य मानता हूँ ॥ 22 ॥

[सभामें उपस्थित ब्राह्मणोंको लक्ष्य करके] विप्रगण ! दूसरे किसी भी प्राणीको मैं ब्राह्मणोंके समान भी नहीं समझता, फिर उनसे अधिक तो मान ही कैसे सकता हूँ। लोग श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणोंके मुखमें जो अन्त्रादि आहुति डालते हैं, उसे मैं जैसी प्रसन्नतासे ग्रहण करता हूँ वैसे अग्रिहोत्रमें होम की हुई सामग्रीको स्वीकार नहीं करता ॥ 23 ॥ जिन्होंने इस लोक में अध्ययनादिके द्वारा मेरी वेदरूपा अति सुन्दर और पुरातन | मूर्तिको धारण कर रखा है तथा जो परम पवित्र सत्त्वगुण, राम, दम, सत्य, दया, तप, तितिक्षा और ज्ञानादि आठ गुणोंसे सम्पन्न हैं—उन ब्राह्मणोंसे बढ़कर और कौन हो सकता है॥ 24 ॥ मैं ब्रह्मादिसे भी श्रेष्ठ और अनन्त हूँ तथा स्वर्ग-मोक्ष आदि देनेकी भी सामर्थ्य रखता हूँ; किन्तु मेरे अकिंचन भक्त ऐसे निःस्पृह होते हैं कि वे मुझसे भी कभी कुछ नहीं चाहते; फिर राज्यादि अन्य वस्तुओंकी तो वे इच्छा ही कैसे कर सकते हैं ? ॥ 25 ॥

पुत्रो ! तुम सम्पूर्ण चराचर भूतोंको मेरा ही शरीर समझकर शुद्ध बुद्धिसे पद-पदपर उनकी सेवा करो, यही मेरी सच्ची पूजा है ॥ 26 ॥ मन, वचन, दृष्टि तथा अन्य इन्द्रियोंकी चेष्टाओंका साक्षात् फल मेरा इस प्रकारका पूजन ही है। इसके बिना मनुष्य | अपनेको महामोहमय कालपाशसे छुड़ा नहीं सकता ॥ 27 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन् ! ऋषभदेवजीके पुत्र यद्यपि स्वयं ही सब प्रकार सुशिक्षित थे, तो भी लोगोको शिक्षा | देनेके उद्देश्यसे महाप्रभावशाली परम सुहृद् भगवान् ऋषभ उन्हें इस प्रकार उपदेश दिया। ऋषभदेवजीके सौ पुत्रोंमें भरत सबसे बड़े थे। वे भगवान्के परम भक्त और भगवद्भक्तोंके परायण थे। ऋषभदेवजीने पृथ्वीका पालन करनेके लिये उन्हें राजगद्दीपर बैठा दिया और स्वयं उपशमशील निवृत्तिपरायण महामुनियोंके भक्ति, ज्ञान और वैराग्यरूप परमहंसोचित धर्मोकी शिक्षा देनेके लिये बिलकुल विरक्त हो गये। केवल शरीरमात्रका परिग्रह रखा और सब कुछ घरपर रहते ही छोड़ दिया। अब वे वस्त्रोंका भी त्याग करके सर्वथा दिगम्बर हो गये। उस समय उनके बाल बिखरे हुए थे। उन्मत्तका-सा वेष था। इस स्थितिमें वे आहवनीय (अग्निहोत्रकी) अग्नियोंको अपनेमें ही लीन करकेसंन्यासी हो गये और ब्रह्मावर्त देशसे बाहर निकल गये ॥ 28 ॥ वे सर्वथा मौन हो गये थे, कोई बात करना चाहता तो बोलते नहीं थे। जड, अंधे, बहरे, गूँगे, पिशाच और पागलोंकी-सी चेष्टा करते हुए वे अवधूत बने जहाँ-तहाँ विचरने लगे ॥ 29 ॥ कभी नगरों और गाँधी चले जाते तो कभी खानों, किसानी बस्तियों बगीचे पहाड़ी गाँव सेनाकी छानियों गोशालाओं, अहीरोंकी बस्तियों और यात्रियोंके टिकनेके स्थानोंमें रहते। कभी पहाड़ो जंगलों और आश्रम आदिमें विचरते। वे किसी भी रास्तेसे निकलते तो जिस प्रकार वनमें विचरनेवाले हाथीको मक्खियाँ सताती है, उसी प्रकार मूर्ख और दुष्टलोग उनके पीछे हो जाते और उन्हें तंग करते। कोई धमकी देते, कोई भारते, कोई पेशाब कर देते, कोई थूक देते, कोई ढेला मारते, कोई विष्ठा और धूल फेंकते, कोई अधोवायु छोड़ते और कोई खोटी-खरी सुनाकर उनका तिरस्कार करते। किन्तु वे इन सब बातोंपर जरा भी ध्यान नहीं देते। | इसका कारण यह था कि भ्रमसे सत्य कहे जानेवाले इस मिथ्या शरीरमें उनकी अहंता-ममता तनिक भी नहीं थी। वे कार्य कारणरूप सम्पूर्ण प्रपक्ष साक्षी होकर अपने परमात्मस्वरूपमें ही स्थित थे, इसलिये अखण्ड चित्तवृत्तिसे अकेले ही पृथ्वीपर विचरते रहते थे ॥ 30 ॥ यद्यपि उनके हाथ, पैर, छाती, लम्बी लम्बी बाँहे, कंधे, गले और मुख आदि अङ्गोंकी बनावट बड़ी ही सुकुमार थी; उनका स्वभावसे ही सुन्दर मुख स्वाभाविक मधुर मुस्कानसे और भी मनोहर जान पड़ता था; नेत्र नवीन कमलदलके समान बड़े ही सुहावने, विशाल एवं कुछ लाली लिये हुए थे उनकी पुतलिया शीतल एवं संतापहारिणी थीं। उन नेत्रोंके कारण वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे। कपोल, कान और नासिका छोटे-बड़े न होकर समान एवं सुन्दर थे तथा उनके अस्फुट हास्ययुक्त मनोहर मुखारविन्दको शोभाको देखकर पुरनारियों के चित्तमें कामदेवका सञ्चार हो जाता था; तथापि उनके मुखके आगे जो भूरे रंगकी लम्बी-लम्बी पराली लटे लटकी रहती थीं, उनके महान् भार और अवधूतोंके समान धूलिधूसरित देहके कारण वे ग्रहग्रस्त मनुष्यके समान जान पड़ते थे ।। 31 ।।

जब भगवान ऋषभदेवने देखा कि यह जनता योगसाधनमे विनरूप है और इससे बचनेका उपाय बीभत्सवृत्तिसे रहना ही है, तब उन्होंने अजगरवृत्ति धारण कर ली। वे लेटे-ही-लेटे खाने-पीने, चबाने और मल-मूत्र त्याग करने लगे। वे अपने त्यागे हुए मलमें लोट-लोटकर शरीरको उससे सान लेते ।। 32 ।। (किन्तु) उनके मलमें दुर्गन्ध नहीं थी, बड़ी सुगन्ध थी। और वायु | उस सुगन्धको लेकर उनके चारों ओर दस योजनतक सारे देशकोसुगन्धित कर देती थी ॥ 33 ॥ इसी प्रकार गौ, मृग और काकादिको वृत्तियों को स्वीकार कर वे उन्हींके समान कभी चलते हुए, कभी खड़े-खड़े, कभी बैठे हुए और कभी लेटे-लेटे ही खाने-पीने और मल-मूत्रका त्याग करने लगते थे ॥ 34 ॥ परीक्षित् ! परमहंसोंको त्यागके आदर्शकी शिक्षा देनेके लिये इस प्रकार मोक्षपति भगवान् ऋषभदेवने कई तरहकी योगचर्याओंका आचरण किया। वे निरन्तर सर्वश्रेष्ठ महान् आनन्दका अनुभव करते रहते थे। उनकी दृष्टिमें निरुपाधिकरूपसे सम्पूर्ण प्राणियोंके आत्मा अपने आत्मस्वरूप भगवान् वासुदेवसे किसी प्रकारका भेद नहीं था। इसलिये उनके सभी पुरुषार्थ पूर्ण हो चुके थे। उनके पास आकाशगमन, मनोजवित्व (मनकी गतिके समान ही शरीरका भी इच्छा करते ही सर्वत्र पहुँच जाना), अन्तर्धान, परकायप्रवेश (दूसरेके शरीर में प्रवेश करना), दूरकी बातें सुन लेना और दूरके दृश्य देख लेना आदि सब प्रकारकी सिद्धियाँ अपने-आप ही सेवा करनेको आय | परन्तु उन्होंने उनका मनसे आदर या ग्रहण नहीं किया ॥ 35 ॥

अध्याय 6 ऋषभदेवजीका देहत्याग

राजा परीक्षितने पूछा-भगवन्! योगरूप वायुसे प्रज्वलित हुई ज्ञानाग्निसे जिनके रागादि कर्मबीज दग्ध हो गये। हैं— उन आत्माराम मुनियोंको दैववश यदि स्वयं ही अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त हो जायँ, तो वे उनके राग-द्वेषादि क्लेशोंका कारण तो किसी प्रकार हो नहीं सकतीं। फिर भगवान् ऋषभने उन्हें स्वीकार क्यों नहीं किया ? ॥ 1 ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा- तुम्हारा कहना ठीक है; किन्तु संसारमें जैसे चालाक व्याध अपने पकड़े हुए मृगका विश्वास नहीं करते, उसी प्रकार बुद्धिमान् लोग इस चञ्चल चित्तका भरोसा नहीं करते ॥ 2 ॥ ऐसा ही कहा भी है- ‘इस चञ्चल चित्तसे कभी मैत्री नहीं करनी चाहिये। इसमें विश्वास करनेसे ही मोहिनीरूपमें फँसकर महादेवजीका चिरकालका सञ्चित तप क्षीण हो गया था ॥ 3 ॥ जैसे व्यभिचारिणी स्त्री जार पुरुषोंको अवकाश देकर उनके द्वारा अपनेमें विश्वास रखनेवाले पतिका वध करा देती है-उसी प्रकार जो योगी मनपर विश्वास करते हैं, उनका मन काम और उसके साथी क्रोधादि शत्रुओंको आक्रमण करनेका अवसर देकर उन्हें नष्ट-भ्रष्ट कर देता है 4 ॥काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और भय आदि शत्रुओंका तथा कर्म-बन्धनका मूल तो यह मन ही है; इसपर कोई भी बुद्धिमान् कैसे विश्वास कर सकता है ? ॥ 5 ॥

इसीसे भगवान् ऋषभदेव यद्यपि इन्द्रादि सभी | लोकपालोंके भी भूषणस्वरूप थे, तो भी वे जड पुरुषोंकी भांति अवधूतोंके से विविध वेष, भाषा और आचरणसे अपने ईश्वरीय प्रभावको छिपाये रहते थे। अन्तमें उन्होंने योगियोंको | देहत्यागकी विधि सिखानेके लिये अपना शरीर छोड़ना चाहा। वे अपने अन्तःकरणमें अभेदरूपसे स्थित परमात्माको अभिन्नरूपसे देखते हुए वासनाओंकी अनुवृत्तिसे छूटकर | लिङ्गदेहके अभिमानसे भी मुक्त होकर उपराम हो गये ॥ 6 ॥ | इस प्रकार लिङ्गदेहके अभिमानसे मुक्त भगवान् ऋषभदेवजीका शरीर योगमायाकी वासनासे केवल अभिमानाभासके आश्रय ही इस पृथ्वीतलपर विचरता रहा। वह दैववश कोङ्क, वेङ्क और दक्षिण आदि कुटक कर्णाटकके देशोंमें गया और मुँहमें पत्थरका टुकड़ा डाले तथा बाल बिखेरे उन्मत्तके समान दिगम्बररूपसे कुटकाचलके वनमें घूमने लगा ॥ 7 ॥ इसी समय झंझावातसे झकझोरे हुए बाँसोंके घर्षणसे प्रबल दावाग्नि धधक उठी और उसने सारे वनको अपनी लाल-लाल लपटोंमें लेकर ऋषभदेवजीके सहित भस्म कर दिया ॥ 8 ॥

राजन् ! जिस समय कलियुगमें अधर्मकी वृद्धि होगी, उस समय कोङ्क, वेङ्क और कुटक देशका मन्दमति राजा अर्हत् वहाँके लोगोंसे ऋषभदेवजीके आश्रमातीत आचरणका वृत्तान्त सुनकर तथा स्वयं उसे ग्रहणकर लोगोंके पूर्वसञ्चित पापफलरूप होनहारके वशीभूत हो भयरहित स्वधर्म-पथका परित्याग करके अपनी बुद्धिसे अनुचित और पाखण्डपूर्ण कुमार्गका प्रचार करेगा ॥ 9 ॥ उससे कलियुगमें देवमायासे मोहित अनेकों अधम मनुष्य अपने शास्त्रविहित शौच और आचारको छोड़ बैठेंगे। अधर्मबहुल कलियुगके प्रभावसे बुद्धिहीन हो जानेके कारण वे स्नान न करना, आचमन न करना, अशुद्ध रहना, केश नुचवाना आदि ईश्वरका तिरस्कार करनेवाले पाखण्डधर्मोको मनमाने ढंगसे स्वीकार करेंगे और प्रायः वेद, ब्राह्मण एवं भगवान् यज्ञपुरुषकी निन्दा करने लगेंगे ॥ 10 ॥ वे अपनी इस नवीन अवैदिक स्वेच्छाकृत प्रवृत्तिमें अन्धपरम्परासे विश्वासकरके मतवाले रहनेके कारण स्वयं ही घोर नरकमें गिरेंगे ।। 11 ।।

भगवान्का यह अवतार रजोगुणसे भरे हुए लोगोंको | मोक्षमार्गकी शिक्षा देनेके लिये ही हुआ था ।। 12 ।। इसके गुणोंका वर्णन करते हुए लोग इन वाक्योंको कहा करते हैं ‘अहो ! सात समुद्रोंवाली पृथ्वीके समस्त द्वीप और वर्षोंमें यह भारतवर्ष बड़ी ही पूण्यभूमि है, क्योंकि यहाँके लोग श्रीहरिके मङ्गलमय अवतार चरित्रोंका गान करते हैं ।। 13 ।। अहो ! महाराज प्रियव्रतका वंश बड़ा ही उज्ज्वल एवं सुयशपूर्ण है, जिसमें पुराणपुरुष श्री आदिनारायणने ऋषभावतार लेकर मोक्षकी प्राप्ति करानेवाले पारमहंस्य धर्मका आचरण किया ।। 14 । अहो ! इन जन्मरहित भगवान् ऋषभदेवके मार्गपर कोई दूसरा योगी मनसे भी कैसे चल सकता है। क्योंकि योगीलोग जिन योगसिद्धियोंके लिये लालायित होकर निरन्तर प्रयत्न करते रहते हैं, उन्हें इन्होंने अपने-आप प्राप्त होनेपर भी असत् समझकर त्याग दिया था ॥ 15 ॥

राजन् ! इस प्रकार सम्पूर्ण वेद, लोक, देवता, ब्राह्मण और गौओंके परमगुरु भगवान् ऋषभदेवका यह विशुद्ध चरित्र मैंने तुम्हें सुनाया। यह मनुष्योंके समस्त पापोंको हरनेवाला है। जो मनुष्य इस परम मङ्गलमय पवित्र चरित्रको एकाग्रचित्तसे श्रद्धापूर्वक निरन्तर सुनते या सुनाते हैं, उन दोनोंकी ही भगवान् वासुदेवमें अनन्य भक्ति हो जाती है ॥ 16 ॥ तरह-तरहके पापोंसे पूर्ण, सांसारिक तापोंसे अत्यन्त तपे हुए अपने अन्तःकरणको पण्डितजन इस भक्ति-सरितामें ही नित्य-निरन्तर नहलाते रहते हैं। इससे उन्हें जो परम शान्ति मिलती है, वह इतनी आनन्दमयी होती है कि फिर वे लोग उसके सामने, अपने ही आप प्राप्त हुए मोक्षरूप परम पुरुषार्थका भी आदर नहीं करते। भगवान्‌के निजजन हो जानेसे ही उनके समस्त पुरुषार्थ सिद्ध हो जाते हैं ।। 17 ।।

राजन् ! भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं पाण्डवलोगों के और यदुवंशियोंके रक्षक, गुरु, इष्टदेव, सुहृद् और कुलपति थे; यहाँतक कि वे कभी-कभी आज्ञाकारी | सेवक भी बन जाते थे। इसी प्रकार भगवान् दूसरेभक्तोंके भी अनेकों कार्य कर सकते हैं और उन्हें मुक्ति भी दे देते हैं, परन्तु मुक्तिसे भी बढ़कर जो भक्तियोग है, उसे सहजमे नहीं देते ॥ 18 ॥

निरन्तर विषय-भोगोंकी अभिलाषा करनेके कारण अपने वास्तवित श्रेयसे चिरकालतक बेसुध हुए लोगोंको जिन्होंन करुणावश निर्भय आत्मलोकका उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनुभव होनेवाले आत्मस्वरूपकी प्राप्तिसे सब प्रकारकी तृष्णाओंसे | मुक्त थे, उन भगवान् ऋषभदेवको नमस्कार है ।। 19 ।।

अध्याय 7 भरत चरित्र

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन्! महाराज भरत बड़े ही भगवद्भक्त थे। भगवान् ऋषभदेवने अपने संकल्पमात्रसे उन्हें पृथ्वीकी रक्षा करनेके लिये नियुक्त कर दिया। उन्होंने उनकी आज्ञामें स्थित रहकर विश्वरूपको कन्या पञ्चजनीसे विवाह किया ।। 1 ।। जिस प्रकार तामस अहङ्कारसे शब्दादि पाँच भूततन्मात्र उत्पन्न होते हैं— उसी प्रकार पजनी गर्भ उनके सुमति राष्ट्रभू सुदर्शन, आवरण और धूमकेतु नामक पाँच पुत्र हुए जो था उन्होंके समान थे। इस वर्षको, जिसका नाम पहले अजनाभवर्ष था, राजा भरतके समयसे ही ‘भारतवर्ष’ कहते हैं ।। 2-3 ।।

महाराज भरत बहुज्ञ थे। वे अपने-अपने कर्मों में लगी हुई प्रजाका अपने बाप-दादोंके समान स्वधर्ममें स्थित रहते हुए अत्यन्त वात्सल्यभावसे पालन करने लगे ॥4॥ उन्होंने होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा – इन चार ऋत्विजों द्वारा कराये जानेवाले प्रकृति और विकृति* दोनों प्रकारके अग्रिहोत्र, दर्श, पूर्णमास चातुर्मास्य, पशु और सोम आदि छोटे-बड़े ऋतुओं (यज्ञों) से यथासमय श्रद्धापूर्वक यज्ञ और क्रतुरूप श्रीभगवान्का यजन किया ।। 5 ।। इस प्रकार अङ्ग और क्रियाओंके सहित भिन्न-भिन्न योंके अनुष्ठानके समयजब अध्वर्युगण आहुति देनेके लिये हवि हाथमें लेते, तो यजमान | भरत उस यज्ञकर्मसे होनेवाले पुण्यरूप फलको यज्ञपुरुष भगवान् वासुदेवके अर्पण कर देते थे। वस्तुतः वे परब्रह्म ही इन्द्रादि समस्त देवताओंके प्रकाशक, मन्त्रोंके वास्तविक प्रतिपाद्य तथा उन देवताओंके भी नियामक होनेसे मुख्य कर्ता एवं प्रधान देव हैं। इस प्रकार अपनी भगवदर्पण बुद्धिरूप कुशलतासे हृदयके राग द्वेषादि मलोंका मार्जन करते हुए वे सूर्यादि सभी यज्ञभोक्ता देवताओंका भगवान्के नेत्रादि अवयवोंके रूपमें चिन्तन करते थे ॥ 6 ॥ इस तरह कर्मकी शुद्धिसे उनका अन्तःकरण शुद्ध हो गया। तब उन्हें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान, हृदयाकाशमें ही अभिव्यक्त होनेवाले, ब्रह्मस्वरूप एवं महापुरुषोंके लक्षणोंसे उपलक्षित भगवान् वासुदेवमें- जो श्रीवत्स, कौस्तुभ, वनमाला, चक्र, शङ्ख और गदा आदिसे सुशोभित तथा नारदादि निजजनोंके हृदयों में चित्रके समान निश्चलभावसे स्थित रहते हैं— दिन-दिन वेग पूर्वक बढ़नेवाली उत्कृष्ट भक्ति प्राप्त हुई || 7 | इस प्रकार एक करोड़ वर्ष निकल जानेपर उन्होंने राज्यभोगका प्रारब्ध क्षीण हुआ जानकर अपनी भोगी हुई | वंशपरम्परागत सम्पत्तिको यथायोग्य पुत्रोंमें बाँट दिया। फिर अपने सर्वसम्पत्तिसम्पन्न राजमहलसे निकलकर वे पुलहाश्रम (हरिहरक्षेत्र) में चले आये ॥ 8 ॥ इस पुलहाश्रममें रहनेवाले भक्तोंपर भगवान्का बड़ा ही वात्सल्य है। वे आज भी उनसे उनके इष्टरूपमें मिलते रहते हैं ॥ 9 ॥ वहाँ चक्रनदी (गण्डकी) नामकी प्रसिद्ध सरिता चक्राकार शालग्राम शिलाओंसे, जिनके ऊपर-नीचे दोनों ओर नाभिके समान चिह्न होते हैं, सब ओरसे ऋषियोंके आश्रमोंको पवित्र करती रहती है ॥ 10 ॥

उस पुलहाश्रमके उपवनमें एकान्त स्थानमें अकेले ही रहकर वे अनेक प्रकारके पत्र, पुष्प, तुलसीदल, जल और कन्द-मूल फलादि उपहारोंसे भगवान्‌की आराधना करने लगे। इससे उनका अन्तःकरण समस्त विषयाभिलाषाओंसे निवृत्त होकर शान्त हो गया और उन्हें परम आनन्द प्राप्त हुआ ॥ 11 ॥ इस प्रकार जब वे नियमपूर्वक भगवान्की परिचर्या करने लगे, तब उससे प्रेमका वेग बढ़ता गया जिससे उनका हृदय द्रवीभूत होकर शान्त हो गया, | आनन्दके प्रबल वेगसे शरीरमें रोमाञ्च होने लगा तथा उत्कण्ठाके कारण नेत्रोंमें प्रेमके आँसू उमड़ आये, जिससे उनकी दृष्टि रुक गयी। अन्तमें जब अपने प्रियतमके अरुण चरणारविन्दोके ध्यानसे भक्तियोगका आविर्भाव हुआ, तब परमानन्दसे सराबोर हृदयरूप गम्भीर सरोवरमें बुद्धिके डूब जानेसे उन्हें उस नियमपूर्वक की जानेवाली भगवत्पूजाका भी स्मरण न रहा ।। 12 ।। इस प्रकार वे भगवत्सेवाके नियममें ही तत्पर रहते थे, शरीरपर कृष्णमृगचर्म धारण करते थे तथा त्रिकालस्नानकेकारण भीगते रहने से उनके केश भूरी-भूरी घुँघराली लटोंमें परिणत | हो गये थे, जिनसे वे बड़े ही सुहावने लगते थे। वे उदित हुए सूर्यमण्डलमें सूर्यसम्बन्धिनी ऋचाओं द्वारा ज्योतिर्मय परमपुरुष भगवान् नारायणकी आराधना करते और इस प्रकार कहते ॥ 13 ॥ ‘भगवान् सूर्यका कर्मफलदायक तेज प्रकृतिसे परे है। उसीने सङ्कल्पद्वारा इस जगत्की उत्पत्ति की है। फिर वही अन्तर्यामीरूपसे इसमें प्रविष्ट होकर अपनी चित्-शक्तिद्वारा विषयलोलुप जीवोंकी रक्षा करता है। हम उसी बुद्धिप्रवर्त्तक | तेजकी शरण लेते हैं ll14 ll

अध्याय 8 भरतजीका मृगके मोहमें फँसकर मृग-योनिमें जन्म लेना

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- एक बार भरतजी गण्डकीमें स्नान कर नित्यनैमित्तिक तथा शौचादि अन्य आवश्यक कृत्योंसे निवृत्त हो गयका जप करते हुए तीन मुहूर्तत नदीको धाराके पास बैठे रहे । 1 ॥ राजन् ! इसी समय एक हरिनी प्याससे व्याकुल हो जल पीनेके लिये अकेली ही उस नदीके तौरपर आयी || 2 || अभी वह जल पी ही रही थी कि पास ही गरजते हुए सिंहकी लोकभयङ्कर दहाड़ सुनायी पड़ी 3 ॥ हरिनजाति तो स्वभावसे ही डरपोक होती है। वह पहले ही चौकन्नी होकर इधर-उधर देखती जाती थी। अब ज्यों ही उसके कानमें वह भीषण शब्द पड़ा कि सिंहके डरके मारे उसका कलेजा धड़कने लगा और नेत्र कातर हो गये। प्यास अभी बुझी न थी, किन्तु अब तो प्राणोंपर आ बनी थी इसलिये उसने
भयवश एकाकी नदी पार करनेके लिये छलाँग मारी ll 4 ll उसके पेटमें गर्भ था, अतः उछलते समय अत्यन्त भयके कारण उसका गर्भ अपने स्थानसे हटकर योनिद्वारसे निकलकर नदीके प्रवाहमें गिर गया ॥ 5 ॥ वह कृष्णमृगपत्त्री अकस्मात् गर्भके गिर जाने, लम्बी छलांग मारने तथा सिंहसे डरी होने के कारण बहुत पीड़ित हो गयी थी। अब अपने झुंडसे भी उसका बिछोह हो गया, इसलिये वह किसी गुफामें जा पड़ी और वहीं मर गयी ।। 6 ।।राजर्षि भरतने देखा कि बेचारा हरिनीका बच्चा अपने बन्धुओंसे बिछुड़कर नदीके प्रवाहमें बह रहा है। इससे उन्हें उसपर बड़ी दया आयी और वे आत्मीयके समान उस मातृहीन | बच्चेको अपने आश्रमपर ले आये ॥ 7 ॥ उस मृगछौनेके प्रति भरतजीकी ममता उत्तरोत्तर बढ़ती ही गयी। वे नित्य उसके खाने-पीनेका प्रबन्ध करने, व्याघ्रादिसे बचाने, लाड़ लड़ाने और पुचकारने आदिकी चिन्तामें ही डूबे रहने लगे। कुछ ही दिनों में उनके यम, नियम और भगवत्पूजा आदि आवश्यक कृत्य एक-एक करके छूटने लगे और अन्तमें सभी छूट गये ॥ 8 ॥ | उन्हें ऐसा विचार रहने लगा- ‘अहो! कैसे खेदकी बात है ! | इस बेचारे दीन मृगछौनेको कालचक्रके वेगने अपने झुंड, सुहद् और बन्धुओंसे दूर करके मेरी शरणमें पहुँचा दिया है। यह मुझे ही अपना माता-पिता, भाई-बन्धु और यूथके साथी-सङ्गी समझता है। इसे मेरे सिवा और किसीका पता नहीं है और मुझमें | इसका विश्वास भी बहुत है। मैं भी शरणागतको उपेक्षा करनेमें जो दोष हैं, उन्हें जानता हूँ। इसलिये मुझे अब अपने इस आश्रितका सब प्रकारकी दोषबुद्धि छोड़कर अच्छी तरह पालन पोषण और प्यार-दुलार करना चाहिये ॥ 9 ॥ निश्चय ही शान्त स्वभाव और दीनोंकी रक्षा करनेवाले परोपकारी सज्जन ऐसे शरणागतकी रक्षाके लिये अपने बड़े-से-बड़े स्वार्थकी भी परवा नहीं करते’ ॥ 10 ॥

इस प्रकार उस हरिनके बच्चेमें आसक्ति बढ़ जानेसे बैठते, सोते, टहलते, ठहरते और भोजन करते समय भी उनका चित्त उसके स्नेहपाशमें बँधा रहता था ॥ 11 ॥ जब उन्हें कुश, पुष्प, समिधा, पत्र और फल मूलादि लाने होते तो भेड़ियों और कुत्तोंके भयसे उसे वे साथ लेकर ही वनमें जाते ॥ 12 ॥ मार्गमें जहाँ-तहाँ कोमल घास आदिको देखकर मुग्धभावसे वह हरिणशावक अटक जाता तो वे अत्यन्त प्रेमपूर्ण हृदयसे दयावश उसे अपने कधेपर चढ़ा लेते। इसी प्रकार कभी गोदमें लेकर और कभी छातीसे लगाकर उसका दुलार करनेमें भी उन्हें बड़ा सुख मिलता ॥ 13 ॥ नित्य-नैमित्तिक कर्मोंको करते समय भी राजराजेश्वर भरत बीच-बीचमें उठ-उठकर उस मृगबालकको देखते और जब उसपर उनकी दृष्टि पड़ती, तभी उनके चित्तको शान्ति मिलती। उस समय उसके लिये मङ्गलकामना करते हुए वे कहने लगते–’बेटा! तेरा सर्वत्र | कल्याण हो’ ॥ 14कभी यदि वह दिखायी न देता तो जिसका धन लुट गया हो, उस दीन मनुष्यके समान उनका चित्त अत्यन्त उद्विग्न हो जाता और फिर वे उस हरिनीके बच्चेके विरहसे व्याकुल एवं | सन्तप्त हो करुणावश अत्यन्त उत्कण्ठित एवं मोहाविष्ट हो जाते तथा शोकमग्र होकर इस प्रकार कहने लगते ॥ 15 ॥ अहो ! क्या कहा जाय ? क्या वह मातृहीन दीन मृगशावक दुष्ट बहेलियेकोसी बुद्धिवाले मुझे पुण्यहीन अनार्यका विश्वास करके और मुझे अपना मानकर मेरे किये हुए अपराधोंको सत्पुरुषोंके समान भूलकर फिर लौट आयेगा ? ॥ 16 ॥ क्या मैं उसे फिर इस आश्रमके उपवन में भगवान्की कृपासे सुरक्षित रहकर निर्वित्र हरी हरी दूब चरते देखूंगा ? ।। 17 ।। ऐसा न हो कि कोई भेड़िया, कुत्ता, गोल बाँधकर विचरनेवाले सूकरादि अथवा अकेले घूमनेवाले व्याघ्रादि ही उसे खा जायँ ॥ 18 ॥ अरे सम्पूर्ण जगत्‌की कुशलके लिये प्रकट होनेवाले | वेदत्रयीरूप भगवान् सूर्य अस्त होना चाहते हैं किन्तु अभीतक वह मृगीकी धरोहर लौटकर नहीं आयी ! ॥ 19 ॥ क्या वह हरिणराजकुमार मुझ पुण्यहीनके पास आकर अपनी भाँति-भाँति की मृगशावकोचित मनोहर एवं दर्शनीय क्रीडाओंसे अपने स्वजनोंका शोक दूर करते हुए मुझे आनन्दित करेगा ? ॥ 20 ॥ अहो ! जब कभी मैं प्रणयकोपसे खेलमें झूठ-मूठ समाधिके बहाने आँखें मूंदकर बैठ जाता, तब वह चकित चित्तसे मेरे पास आकर जलबिन्दुके समान कोमल और नन्हें-नन्हें सींगोंकी नोकसे किस प्रकार मेरे अङ्गोको खुजलाने लगता था ॥ 21 ॥ मैं कभी कुशोंपर हवन सामग्री रख देता और वह उन्हें दाँतोंसे खींचकर अपवित्र कर देता तो मेरे डाँटने-डपटनेपर वह अत्यन्त भयभीत होकर उसी समय सारी उछल-कूद छोड़ देता और ऋषिकुमारके समान अपनी समस्त इन्द्रियोंको रोककर चुपचाप बैठ जाता था’ ॥ 22 ॥

[फिर पृथ्वीपर उस मृगशक्क्के खुरके चिह्न देखकर कहने लगते] ‘अहो। इस तपस्विनी धरतीने ऐसा कौन-सा तप किया है जो उस अतिविनीत कृष्णसार किशोरके छोटे-छोटे सुन्दर सुखकारी और सुकोमल खुरोवाले चरणोंके चिह्नोंसे मुझे, जो मैं अपना मृगधन लुट | जानेसे अत्यन्त व्याकुल और दीन हो रहा हूँ, उस द्रव्यकी प्राप्तिका मार्ग दिखा रही है और स्वयं अपने शरीरको भी | सर्वत्र उन पदचिह्नोंसे विभूषित कर स्वर्ग और अपवर्गके इच्छुक द्विजोंके लिये यज्ञस्थल बना रही है ॥ 23 ॥(चन्द्रमामें मृगका-सा श्याम चिह्न देख उसे अपना ही मृग मानकर कहने लगते—) ‘अहो जिसकी माता सिंहके भयसे मर गयी थी, आज वही मृगशिशु अपने आश्रम से बिछुड़ गया है। अतः उसे अनाथ देखकर क्या ये दीनवत्सल भगवान् नक्षत्रनाथ दयावश उसकी रक्षा कर रहे हैं ?॥ 24 ॥ [ फिर उसकी शीतल किरोसे आादित होकर कहने लगते] ‘अथवा अपने पुत्रोंके वियोगरूप दावानलको विषम ज्वालासे हृदयकमल दग्ध हो जानेके कारण मैंने एक मृगबालकका सहारा लिया था। अब उसके चले जानेसे फिर मेरा हृदय जलने लगा है; इसलिये ये अपनी शीतल शान्त खेहपूर्ण और वनलिलरूपा अमृतमयी किरणो से मुझे शान्त कर रहे हैं ।। 25 ।।

राजन् ! इस प्रकार जिनका पूरा होना सर्वथा असम्भव था, उन विविध मनोरथोंसे भरतका चित्त व्याकुल रहने लगा। अपने मृगशानकके रूपमें प्रतीत होनेवाले प्रारब्धकर्मके कारण तपस्वी भरतजी भगवदाराधनरूप कर्म एवं योगानुष्ठानसे च्युत हो गये। नहीं तो, जिन्होंने मोक्षमार्गमे साक्षात् विघ्नरूप समझकर अपने ही हृदयसे उत्पन्न दुस्त्यज पुत्रादिको भी त्याग दिया था. उन्होंकी अन्यजातीय हरिणशिशुमें ऐसी आसक्ति कैसे हो सकती थी। इस | प्रकार राजर्षि भरत विघ्नोंके वशीभूत होकर योगसाधनसे भ्रष्ट हो गये और उस मृगछौने के पालन-पोषण और लाड़-प्यारमें ही लगे रहकर आत्मस्वरूपको भूल गये। इसी समय जिसका टलना अत्यन्त कठिन है, वह प्रबल वेगशाली कराल काल, चूहेके बिलमें जैसे सर्प घुस आये, उसी प्रकार उनके सिरपर चढ़ आया ॥ 26 ॥ उस समय भी वह हरिणशावक उनके पास बैठा पुत्रके समान शोकातुर हो रहा था। वे उसे इस स्थितिमें देख रहे थे और उनका चित्त उसीमें लग रहा था। इस प्रकारकी आसक्तिमे हो मृगके साथ उनका शरीर भी छूट गया। तदनन्तर उन्हें अन्तकालकी भावनाके अनुसार अन्य साधारण पुरुषोंके समान मृगशरीर हो मिला। किन्तु उनकी साधना पूरी थी, इससे उनकी पूर्वजन्मकी स्मृति नष्ट नहीं हुई ॥ 27 ॥ उस योनिमें भी पूर्वजन्मको भगवदाराधनाके प्रभावसे अपने मृगरूप होनेका कारण जानकर वे अत्यन्त पश्चात्ताप करते हुए कहने लगे ॥ 28 ॥ ‘अहो ! बड़े की बात है, मैं शील महानुभावोके मार्ग पतित हो गया। मैंने तो धैर्यपूर्वक सब प्रकारकी आसक्ति छोड़कर एकान्त और पवित्र वनका आश्रय लिया था। वहाँ रहकर जिस चित्तको मैंने सर्वभूतात्मा श्रीवासुदेवमे, निरन्तर उन्होंके गुरोका मनन और सङ्कीर्तन करके तथा प्रत्येक पलको उन्होंकी आराधना और स्मरणादिसे सफल करके, स्थिरभावसे पूर्णतया लगा दिया था, मुझ अज्ञानीका वही मन अकस्मात् एक नन्हे-से हरिण शिशुके पीछे अपने लक्ष्यसे च्युत हो गया !’ ॥ 29 ॥इस प्रकार मृग बने हुए राजर्षि भरतके हृदयमें जो वैराग्य भावना जाग्रत हुई, उसे छिपाये रखकर उन्होंने अपनी माता मृगीको त्याग दिया और अपनी जन्मभूमि कालञ्जर पर्वतसे वे फिर शान्तस्वभाव मुनियोंके प्रिय उसी शालग्रामतीर्थमें, जो भगवान्का क्षेत्र है, पुलस्त्य और पुलह ऋषिके आश्रमपर चले आये ॥ 30 ॥ वहाँ रहकर भी वे कालकी ही प्रतीक्षा करने लगे। आसक्तिसे उन्हें बड़ा भय लगने लगा था। बस, अकेले रहकर वे सूखे पत्ते, घास और झाड़ियोंद्वारा निर्वाह करते मृगयोनिकी प्राप्ति करानेवाले प्रारब्धके क्षयकी बाट देखते रहे। अन्तमें उन्होंने अपने शरीरका आधा भाग गण्डकीके जलमें | डुबाये रखकर उस मृगशरीरको छोड़ दिया ॥ 31 ॥

अध्याय 9 भरतजीका ब्राह्मणकुलमें जन्म

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजम दम, तप, स्वाध्याय, वेदाध्ययन, त्याग (अतिथि आदिको अन देना), सन्तोष, तितिक्षा, विनय, विद्या (कर्मविद्या), अनसूया (दूसरोंके गुण दोष न ढूंढ़ना) आमशन (आपके क और भोक्तृत्वका ज्ञान) एवं आनन्द (धर्मपालनजनित सुख) सभी गुणोंसे सम्पन्न एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे। उनकी बड़ी स्त्रीसे उन्होंके समान विद्या, शील, आचार, रूप और उदारता आदि गुणोंवाले नौ पुत्र हुए तथा छोटी पत्नीसे एक ही साथ एक पुत्र और एक कन्याका जन्म हुआ ॥ 1 ॥ इन दोनोंमें जो पुरुष था वह परम भागवत राजर्षिशिरोमणि भरत ही थे। वे मृगशरीरका परित्याग करके अन्तिम जन्ममें ब्राह्मण हुए थे ऐसा महापुरुषोंका कथन है॥ 2 ॥ इस जन्ममें भी भगवान्‌की कृपासे अपनी पूर्व जन्मपरम्पराका स्मरण रहनेके कारण, वे इस आशङ्कासे कि कहीं फिर कोई विघ्न उपस्थित न हो जाय, अपने स्वजनोंके सङ्गसे भी बहुत डरते थे। हर समय जिनका श्रवण, स्मरण और गुणकीर्तन सब प्रकार के कर्मबन्धनको काट देता है, श्रीभगवान्के उन युगल चरणकमलोंको ही हृदयमें धारण किये रहते तथा | दूसरोंकी दृष्टिमें अपनेको पागल, मूर्ख, अंधे और बहरेके समान दिखाते ॥ 3 ॥ पिताका तो उनमें भी वैसा ही स्नेह था। इसलियेब्राह्मणदेवताने अपने पागल पुत्रके भी स् समावर्तनपर्यन्त विवाह पूर्वक सभी संस्कार करनेके विचारसे उनका उपनयनसंस्कार किया। यद्यपि वे चाहते नहीं थे तो भी ‘पिताका कर्तव्य है कि पुत्रको शिक्षा दें इस शास्त्रविधिके अनुसार उन्होंने इन्हें शौच आचमन आदि | आवश्यक कर्मोकी शिक्षा दी ॥ 4 ॥ किन्तु भरतजी तो | पिताके सामने ही उनके उपदेशके विरुद्ध आचरण करने | लगते थे। पिता चाहते थे कि वर्षाकालमें इसे वेदाध्ययन आरम्भ करा दूँ। किन्तु वसन्त और ग्रीष्मऋतुके चैत्र, बैस, ज्येष्ठ और आषाढ़ चार महीनौतक पढ़ाने वैशाख, | रहनेपर भी वे इन्हें व्याहति और शिरोमन्त्रप्रणवके सहित त्रिपदा गायत्री भी अच्छी तरह याद न करा सके ॥ 5 ॥

ऐसा होनेपर भी अपने इस पुत्रमें उनका आत्माके समान अनुराग था इसलिये उसकी प्रवृत्ति न होनेपर भी वे ‘पुत्रको अच्छी तरह शिक्षा देनी चाहिये इस अनुचित आपसे उसे शौच, वेदाध्ययन, व्रत, नियम तथा गुरु और अग्रिकी सेवा आदि ब्रह्मचर्याश्रमके आवश्यक नियमोंकी शिक्षा देते ही रहे। किन्तु अभी पुत्रको सुशिक्षित देखनेका उनका मनोरथ पूरा न हो पाया था और स्वयं भी भगवद्भजनरूप अपने मुख्य कर्तव्यसे असावधान रहकर | केवल घरके धंधोंमें ही व्यस्त थे कि सदा सजग रहनेवाले कालभगवान्ने आक्रमण करके उनका अन्त कर दिया || 6 || तब उनकी छोटी भार्या अपने गर्भसे उत्पन्न हुए दोनों बालक अपनी सौतको सौंपकर स्वयं सती होकर पतिलोकको चली गयी ॥ 7 ॥

भरतजीके भाई कर्मकाण्डको सबसे श्रेष्ठ समझते थे। वे ब्रह्मज्ञानरूप पराविद्यासे सर्वथा अनभिज्ञ थे। इसलिये उन्हें भरतजीका प्रभाव भी ज्ञात नहीं था, वे उन्हें निरा मूर्ख समझते थे अतः पिताके परलोक सिधारनेपर उन्होंने उन्हें पढ़ाने लिखानेका आग्रह छोड़ दिया ॥ 8 ॥ भरतजीको मानापमानका कोई विचार न था। जब साधारण नर पशु उन्हें पागल, मूर्ख अथवा बहरा कहकर | पुकारते तब वे भी उसीके अनुरूप भाषण करने लगते। कोई भी उनसे कुछ भी काम कराना चाहते, तो वे उनकी इनके अनुसार कर देते। बेगारके रूपमें, मजदूरीके रूपये, माँगनेपर अथवा बिना माँगे जो भी थोड़ा-बहुतअच्छा या बुरा अन्न उन्हें मिल जाता, उसीको जीभका जरा भी स्वाद न देखते हुए खा लेते। अन्य किसी कारण से उत्पन्न न होनेवाला स्वतः सिद्ध केवल ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मज्ञान उन्हें प्राप्त हो गया था, इसलिये शीतोष्ण, मानापमान आदि द्वन्द्वोंसे होनेवाले सुख-दुःखादिमें उन्हें देहाभिमानकी स्फूर्ति नहीं होती थी ॥ 9 ॥ वे सर्दी, गरमी, वर्षा और आंधीके समय साँड़के समान नंगे पड़े रहते थे। उनके सभी अङ्गहृष्ट-पुष्ट एवं गठे हुए थे। वे पृथ्वीपर ही पड़े रहते थे, कभी तेल उबटन आदि नहीं लगाते थे और | कभी खान ही करते थे, इससे उनके शरीरपर मैल जम गयी थी। उनका ब्रह्मतेज धूलिसे ढके हुए मूल्यवान् मणिके समान छिप गया था। वे अपनी कमरमे एक मैला-कुचैला कपड़ा लपेटे रहते थे। उनका यज्ञोपवीत भी बहुत ही मैला हो गया था। इसलिये अज्ञानी जनता ‘यह कोई द्विज है’, ‘कोई अधम ब्राह्मण है’ ऐसा कहकर उनका तिरस्कार कर दिया करती थी, किन्तु वे इसका कोई विचार न करके स्वच्छन्द विचरते थे ॥ 10 ॥ दूसरोंकी मजदूरी करके पेट पालते देख जब उन्हें उनके भाइयोंने खेतकी क्यारियाँ ठीक करनेमें लगा दिया तब वे उस कार्यको भी करने लगे। परन्तु उन्हें इस बातका कुछ भी ध्यान न था कि उन क्यारियोंकी भूमि समतल है या ऊँची-नीची, अथवा वह छोटी है या बड़ी। उनके भाई उन्हें चावलकी कनी, खली, भूसी, धुने हुए उड़द अथवा बरतनोंमें लगी हुई जले अन्नको खुरचन—जो कुछ भी दे देते, उसीको वे अमृतके समान खा लेते थे ॥ 11 ॥

किसी समय डाकुओंके सरदारने, जिसके सामन्त शूद्र जातिके थे, पुत्रकी कामनासे भद्रकालीको मनुष्यकी बलि देनेका संकल्प किया ॥ 12 ॥ उसने जो पुरुष पशु बलि देनेके लिये पकड़ मँगाया था, वह दैववश उसके फंदेसे निकलकर भाग गया। उसे ढूँढ़नेके लिये उसके सेवक चारों ओर दौड़े; किन्तु अँधेरी रातमें आधी रातके समय कहीं उसका पता न लगा। इसी समय दैवयोगसे अकस्मात् उनकी दृष्टि इन आङ्गिरसगोत्रीय ब्राह्मणकुमारपर पड़ी, जो वीरासनसे बैठे हुए मृग-वराहादि जीवोंसे खेतोंकी रखवाली कर रहे थे ।। 13 ।। उन्होंने देखा कि यह पशु तो बड़े अच्छे लक्षणोंवाला है, इससे हमारे स्वामीका कार्य अवश्य सिद्ध हो जायगा। यह सोचकर उनका मुख आनन्दसे खिल उठा और वे उन्हें रस्सियोंसे बाँधकर चण्डिकाके मन्दिरमें ले आये ।। 14 ।।

तदनन्तर उन चोरोंने अपनी पद्धतिके अनुसार विधिपूर्वक उनको अभिषेक एवं स्नान कराकर कोरे वस्त्र पहनाये तथा नाना प्रकारके आभूषण, चन्दन, माला और तिलक आदिसे विभूषित कर अच्छी तरह भोजन कराया। फिर धूप, दीप, माला, खील,पते अङ्कर और फल आदि उपहार सामग्री सहित दिनक विधिसे गान स्तुति और मृद एवं बोल आदिका महान शब्द करते उस पुरुष पशुको भद्रकालीके सामने नीचा सिर करके बैठा | दिया ॥ 15 ॥ इसके पश्चात् दस्युराज के पुरोहित बने हुए लुटेरेने उस नर- पशुके रुधिरसे देवीको तृप्त करने के लिये देवी अभिमन्त्रित एक तोक्ष्ण खड्ग उठाया ।। 16 ।।

चोर स्वभावसे तो रजोगुणी-तमोगुणी थे ही. धनके मद उनका चित्त और भी उन्मत्त हो गया था। हिंसामे भी उनको स्वाभाविक रुचि थी। इस समय तो वे भगवान् ‌के अंशस्वरूप ब्राह्मणकुलका तिरस्कार करके स्वच्छन्दता कुमार्गको ओर ब थे आपतिकालमे भी जिस हिंसाका अनुमोदन किया गया है 1 उसमें भी ब्राह्मण वधका सर्वथा निषेध है, तो भी वे साक्षात् ब्रह्मभावको प्राप्त हुए वैरहीन तथा समस्त प्राणियों के सुहृद एक ब्रह्मर्षिकुमारको बलि देना चाहते थे। यह भयङ्कर कुकर्म देखकर देवो भद्रकालीके शरीरमें अति दुःसह ब्रह्मतेजसे दाह होने लगा और वे एकाएक मूर्तिको फोड़कर प्रकट हो गयीं ॥ 17 ॥ अत्यन्त असहनशीलता और क्रोधके कारण उनको भी बड़ी हुई थी तथा कराल दाढ़ों और चढ़ी हुई लाल आँखोंके कारण उनका चेहरा बड़ा भयानक जान पड़ता था। उनके उस विकराल वेषको देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो वे इस संसारका संहार कर डालेंगी। उन्होंने क्रोधसे तड़ककर बड़ा भीषण अट्टहास किया और उछलकर उस अभिमन्त्रित खड्गसे ही उन सारे पापियोंके सिर उड़ा दिये और अपने गणोंके सहित उनके गलेसे बहता हुआ गरम-गरम रुधिररूप आसव पोकर अति उन्मत्त हो ऊँचे स्वरसे गाती और नाचती हुई उन सिरोको ही गेंद बनाकर खेलने लगीं ॥ 18 ॥ सच है, महापुरुषोंके प्रति किया हुआ अत्याचाररूप अपराध इसी प्रकार ज्यों-का-त्यो अपने ही ऊपर पड़ता है ॥ 19 ॥ परीक्षित्! जिनको | देहाभिमानरूप सुदृढ़ हृदयग्रन्थि छूट गयी है, जो समस्त प्राणियों के सुहृद एवं आत्मा तथा वैरहीन हैं, साक्षात् भगवान् ही भद्रकाली आदि भिन्न-भिन्न रूप धारण करके अपने कभी न चूकनेवाले कालचक्ररूप श्रेष्ठ शस्त्रसे जिनकी रक्षा करते हैं और जिन्होंने भगवान्के निर्भय चरणकमलोका आश्रय ले रखा है-उन भगवद्भक्त परमहंसोंके लिये अपना सिर कटनेका अवसर आनेपर भी किसी प्रकार व्याकुल न होना-यह कोई बड़े आश्चर्यकी बात नहीं है ॥ 20 ॥

अध्याय 10 जडभरत और राजा रहूगणकी भेंट

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन्। एक बार सिन्धुसौवीर | देशका स्वामी राजा हूगण पालकीपर चढ़कर जा रहा था। जब वह इक्षुमती नदीके किनारे पहुंचा तब उसकी पालकी उठानेवाले कहारोंके जमादारको एक कहारकी आवश्यकता पड़ी। कहारकी खोज करते समय दैववश उसे ये ब्राह्मणदेवता मिल गये। इन्हें देखकर उसने सोचा, ‘यह मनुष्य हृष्ट-पुष्ट, जवान और गठीले अङ्गोवाला है। इसलिये यह तो बैल या गधेके समान अच्छी तरह बोझा ढो सकता है।’ यह सोचकर उसने बेगारमें पकड़े हुए अन्य कहारोंके साथ इन्हें भी बलात् पकड़कर पालकीमें जोड़ दिया। महात्मा भरतजी यद्यपि किसी प्रकार इस कार्यके योग्य नहीं थे, तो भी वे बिना कुछ बोले चुपचाप पालकीको उठा ले चले ॥ 1 ॥

वे द्विजवर, कोई जीव पैरोंतले दब न जाय–इस डरसे आगेकी एक बाण पृथ्वी देखकर चलते थे इसलिये दूसरे कहारोंके साथ उनकी चालका मेल नहीं खाता था अतः जब पालकी टेढ़ी-सीधी होने लगी, तब यह देखकर राजा रहूगणने पालकी उठानेवालोंसे कहा- ‘अरे कहारो। अच्छी तरह चलो, पालकीको इस प्रकार ऊँची-नीची करके क्यों चलते हो ?’ ॥ 2 ॥

तब अपने स्वामीका यह आक्षेपयुक्त वचन सुनकर कहारोंको डर लगा कि कहीं राजा उन्हें दण्ड न दें। इसलिये उन्होंने राजासे इस प्रकार निवेदन किया || 3 || ‘महाराज यह हमारा प्रमाद नहीं है, हम आपकी नियममर्यादाके अनुसार ठीक-ठीक ही पालकी ले चल रहे हैं। यह एक नया कहार अभी-अभी पालकीमें लगाया गया है, तो भी यह जल्दी-जल्दी नहीं चलता। हमलोग इसके साथ पालकी नहीं ले जा सकते’ ॥ 4 ॥

कहारोंके ये दीन वचन सुनकर राजा रहूगणने सोचा, ‘संसर्गसें उत्पन्न होनेवाला दोष एक व्यक्तिमें होनेपर भी उससे सम्बन्ध रखनेवाले सभी पुरुषोंमें आ सकता है। इसलिये यदि इसका प्रतीकार न किया गया तो धीरे-धीरे ये सभी कहार अपनी चाल बिगाड़ लेंगे।’ ऐसा सोचकर राजा रहूगणको कुछ क्रोध हो आया। यद्यपि उसने महापुरुषोंका सेवन किया था, तथापि क्षत्रियस्वभाववश बलात् उसकी बुद्धि रजोगुणसे व्याप्त हो गयी और वह उन द्विजश्रेष्ठ से, जिनका ब्रह्मतेज भस्मसे ढके हुए अग्रिके समान प्रकट नहीं था, इस प्रकार व्यङ्गसे भरे वचन कहने लगा- ॥5॥ ‘अरे भैया । बड़े दुःखकी बात है, अवश्य ही तुम बहुत थक गये हो। ज्ञात होता है, तुम्हारे इन स्वाधिने तुम्हें तनिक भी सहारा नहींलगाया। इतनी दूर तुम अकेले ही बड़ी देरसे पालको ढोते चले | आ रहे हो। शरीर भी तो विशेष मोटा-ताजा और ह | कट्टा नहीं है, और मित्र ! बुढ़ापेने अलग तुम्हें दबा रखा है।’ इस प्रकार बहुत ताना मारनेपर भी वे पहले की ही भाँति चुपचाप | पालकी उठाये चलते रहे। उन्होंने इसका कुछ भी बुरा न माना क्योंकि उनकी दृष्टि तो पचभूत इन्द्रिय और अन्तःकरणका सङ्गात यह अपना अन्तिम शरीर अविद्याका ही कार्य था। वह विविध अङ्गोंसे युक्त दिखायी देनेपर भी वस्तुतः था ही नहीं इसलिये उसमें उनका मैं मेरेपनका मिथ्या अध्यास सर्वान हो गया था और वे ब्रह्मरूप हो गये थे ॥ 6 ॥

(किन्तु) पालकी अब भी सीधी चालसे नहीं चल रहीं। | है यह देखकर राजा रक्षगण क्रोधसे आग-बबूला हो गया और कहने लगा, ‘अरे! यह क्या ? क्या तू जीता ही मर गया है ? तू मेरा निरादर करके (मेरी) आज्ञाका उल्लङ्घन कर रहा है ! मालूम होता है, तू सर्वथा प्रमादी है। अरे! जैसे दण्डपाणि यमराज तू जन-समुदायको उसके अपराधों के लिये दण्ड देते हैं, उसी प्रकार मैं भी अभी तेरा इलाज किये देता हूँ। तब तेरे होश ठिकाने आ जायेंगे’ ॥ 7 ॥

रहूगणको राजा होनेका अभिमान था. इसलिये वह इसी | प्रकार बहुत-सी अनाप-शनाप बातें बोल गया। वह अपनेको बड़ा पण्डित समझता था, अतः रज-तमयुक्त अभिमानके वशीभूत होकर उसने भगवान् के अनन्य प्रीतिपात्र भक्तका भरतजीका तिरस्कार कर डाला। योगेश्वरोकी विचित्र कहनी-करनीका तो उसे कुछ पता ही न था। उसकी ऐसी कच्ची बुद्धि देखकर वे सम्पूर्ण प्राणियोंके सुहृद् एवं आत्मा ब्रह्मभूत ब्राह्मणदेवता मुसकराये और बिना किसी प्रकारका अभिमान किये | इस प्रकार कहने लगे ॥ 8 ॥

जडभरतने कहा- राजन्! तुमने जो कुछ कहा यथार्थ है। उसमें कोई उलाहना नहीं है। यदि भार नामकी कोई वस्तु है तो ढोनेवालेके लिये है, यदि कोई मार्ग है तो वह चलनेवालेके लिये है। मोटापन भी उसीका है, यह सब शरीर लिये कहा जाता है, आत्माके लिये नहीं। ज्ञानीजन ऐसी बात नहीं करते 9 स्थूलता, कृशता, अधि, व्याधि, भूख प्यास, भर कलह, इच्छा, बुढ़ापा, निद्रा, प्रेम, क्रोध, अभिमान और | शोक- ये सब धर्म देहाभिमानको लेकर उत्पन्न होनेवाले जीवमे रहते हैं, मुझमे इनका भी नहीं है ॥ 10 ॥ राजन् ! तुमने जीने-मरनेकी बात कही–सो जितने भी विकारी पदार्थ है. उन | सभीमें नियमितरूपसे ये दोनों बाते देखी जाती है; क्योंकि वेसभी आदि-अन्तवाले हैं। यशस्वी नरेश जहाँ स्वामी सेवकभाव स्थिर हो, वहीं आज्ञापालनादिका नियम भी लागू हो सकता है ।। 11 । ‘तुम राजा हो और मैं प्रजा हूँ’ इस प्रकारकी भेदबुद्धिके लिये मुझे व्यवहारके सिवा और कहीं तनिक भी अवकाश नहीं दिखायी देता परमार्थदृष्टिसे देखा जाय तो किसे स्वामी कहें और किसे सेवक ? फिर भी राजन्। तुम्हें यदि स्वामित्वका अभिमान है तो कहो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ ।। 12 ।। वीरवर ! मैं मत्त, उन्मत्त और जड़के समान अपनी ही स्थितिमें रहता हूँ। मेरा इलाज करके तुम्हें क्या हाथ लगेगा ? यदि मैं वास्तवमे जड और प्रमादी ही है, तो भी मुझे शिक्षा देना पिसे हुएको पीसने के समान व्यर्थ ही होगा ॥ 13 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् । मुनिवर जडभरत यथार्थ तत्त्वका उपदेश करते हुए इतना उत्तर देकर मौन हो गये । उनका देहात्मबुद्धिका हेतुभूत अज्ञान निवृत्त हो चुका था, इसलिये वे परम शान्त हो गये थे। अतः इतना कहकर भोगद्वारा प्रारब्धक्षय करनेके लिये वे फिर पहलेके ही समान उस पालकीको कन्धेपर लेकर चलने लगे ।। 14 ।। सिन्धु सौवीरनरेश रहूगण भी अपनी उत्तम श्रद्धाके कारण तत्व जिज्ञासाका पूरा अधिकारी था। जब उसने उन द्विजश्रेष्ठके अनेकों योग-ग्रन्थोंसे समर्थित और हृदयकी ग्रन्थिका छेदन करनेवाले ये वाक्य सुने, तब वह तत्काल पालकीसे उतर पड़ा। उसका राजमद सर्वथा दूर हो गया और वह उनके चरणोंमें सिर रखकर अपना अपराध क्षमा कराते हुए इस प्रकार कहने लगा ।। 15 ।। ‘देव! आपने द्विजोका चिह्न यज्ञोपवीत धारण कर रखा है, बतलाइये इस प्रकार प्रच्छन्नभावसे विचरनेवाले आप कौन हैं ? क्या आप दत्तात्रेय आदि अवधूतोंमेंसे कोई हैं ? आप किसके पुत्र हैं, आपका कहाँ जन्म हुआ है और यहाँ कैसे आपका पदार्पण हुआ है? यदि आप हमारा कल्याण करने पधारे हैं, तो क्या आप साक्षात् सत्त्वमूर्ति भगवान् कपिलजी ही तो नहीं है ? ।। 16 ।। मुझे इन्द्रके वज्रका कोई डर नहीं है, न मैं | महादेवजीके त्रिशूलसे डरता हूँ और न यमराजके दण्डसे। मुझे अग्नि, सूर्य, चन्द्र, वायु और कुबेरके अस्त्र-शस्त्रोंका भी कोई भय नहीं है; परन्तु मैं ब्राह्मणकुलके अपमानसे बहुत ही डरता हूँ ॥ 17 ॥ अतः कृपया बतलाइये, इस प्रकार अपने विज्ञान और को छिपाकर मूर्खोकी भाँति विचरनेवाले आप कौन है? विषयोंसे तो आप सर्वथा अनासक्त जान पड़ते हैं। मुझे आपकी कोई थाह नहीं मिल रही है। साथ आपके योगयुक्त को | बुद्धिद्वारा आलोचना करनेपर भी मेरा सन्देह दूर नहीं होता ॥ 18 ॥मैं आत्मज्ञानी मुनियोंके परम गुरु और साक्षात् श्रीहरिकी ज्ञानशक्तिके अवतार योगेश्वर भगवान् कपिलसे यह पूछनेक लिये जा रहा था कि इस लोकमें एकमात्र शरण लेनेयोग्य कौन है ।। 19 ।। क्या आप वे कपिलमुनि ही है, जो लोकोंकी दशा देखनेके लिये इस प्रकार अपना रूप छिपाकर विचर रहे हैं? भला, घरमें आसक्त रहनेवाला विवेकहीन पुरुष योगेश्वरोंकी गति कैसे जान सकता है ? ॥ 20 ॥

मैंने बुद्धादिकमोंमें अपनेको भ्रम होते देखा है, इसलिये मेरा अनुमान है कि बोझा ढोने और मार्गमें चलनेसे आपको भी अवश्य ही होता होगा। मुझे तो व्यवहार-मार्ग भी सत्य ही जान पड़ता है; क्योंकि मिथ्या घड़ेसे जल लाना आदि कार्य नहीं होता ॥ 21 ॥ ( देहादिके धर्मोका आत्मापर कोई प्रभाव ही नहीं | होता, ऐसी बात भी नहीं है) चूल्हेपर रखी हुई बटलोई जब अप्रिसे तपने लगती है, तब उसका जल भी खौलने लगता है। और फिर उस जलसे चावलका भीतरी भाग भी पक जाता है। इसी प्रकार अपनी उपाधिके धर्मोका अनुवर्तन करनेके कारण देह, इन्द्रिय, प्राण और मनकी सन्निधि आत्माको भी उनके धर्म श्रमादिका अनुभव होता ही है ॥ 22 ॥ आपने जो दण्डादिकी व्यर्थता बतायी, सो राजा तो प्रजाका शासन और पालन करनेके लिये नियुक्त किया हुआ उसका दास ही है। उसका उन्मत्तादिको दण्ड देना पिसे हुएको पीसनेके समान व्यर्थ नहीं हो सकता; क्योंकि अपने धर्मका आचरण करना भगवान्‌की सेवा ही है, उसे करनेवाला व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण पापराशिको नष्ट कर देता है ॥ 23 ॥

‘दीनबन्धो! राजत्वके अभिमानसे उन्मत्त होकर मैंने आप जैसे परम साधुकी अवज्ञा की है। अब आप ऐसी कृपादृष्टि कीजिये, जिससे इस साधु-अवज्ञारूप अपराधसे मैं मुक्त हो जाऊँ ।। 24 ।। आप देहाभिमानशून्य और विश्वबन्धु श्रीहरिके अनन्य भक्त हैं; इसलिये सबमें समान दृष्टि होनेसे इस मानापमानके कारण आपमें कोई विकार नहीं हो सकता तथापि एक महापुरुषका अपमान करनेके कारण मेरे जैसा पुरुष साक्षात् त्रिशूलपाणि महादेवजीके समान प्रभावशाली होनेपर भी, अपने अपराधसे अवश्य थोड़े ही कालमें नष्ट हो जायगा ।। 25 ।।

अध्याय 11 राजा रहूगणको भरतजीका उपदेश

जडभरतने कहा- राजन्। तुम अज्ञानी होनेपर भी पण्डितोंके समान ऊपर-ऊपरकी तर्क-वितर्कयुक्त बात कह रहे हो। इसलिये श्रेष्ठ ज्ञानियोंमें तुम्हारी गणना नहीं हो सकती। तत्त्वज्ञानी पुरुष इस अविचारसिद्ध स्वामी सेवक आदि व्यवहारको तत्त्वविचारके समय सत्यरूपसे स्वीकार नहीं करते ॥ 1 ॥ लौकिक व्यवहारके समान ही वैदिक व्यवहार भी सत्य नहीं है, क्योंकि वेदवाक्य भी अधिकतर गृहस्थजनोचित यज्ञविधिके विस्तारमें ही व्यस्त हैं, राग द्वेषादि दोषोंसे रहित विशुद्ध तत्त्वज्ञानकी पूरी-पूरी अभिव्यक्ति प्रायः उनमें भी नहीं हुई है ॥ 2 ॥ जिसे गृहस्थोचित यज्ञादि कर्मोंसे प्राप्त होनेवाला स्वर्गादि सुख स्वप्रके समान हेय नहीं जान पड़ता, उसे तत्त्वज्ञान कराने में साक्षात् उपनिषद्-वाक्य भी समर्थ नहीं है ॥ 3 ॥ जबतक मनुष्यका मन सत्त्व, रज अथवा तमोगुणके वशीभूत रहता है, तबतक वह बिना किसी अङ्कुशके उसकी ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियोंसे शुभाशुभ कर्म कराता रहता है ॥ 4 ॥ यह मन वासनामय, विषयासक्त, गुणोंसे प्रेरित, विकारी और भूत एवं इन्द्रियरूप सोलह कलाओंमें मुख्य है। यही भिन्न-भिन्न नामोंसे देवता और मनुष्यादिरूप धारण करके शरीररूप उपाधियोंके भेदसे जीवकी उत्तमता और अधमताका कारण होता है ॥ 5 ॥ यह मायामय मन संसारचक्रमे छलनेवाला है, यही अपनी देहके अभिमानी जीवसे मिलकर उसे कालक्रमसे प्राप्त हुए सुख-दुःख और इनसे व्यतिरिक्त मोहरूप अवश्यम्भावी फलोकी अभिव्यक्ति करता है ॥ 6 ॥ जबतक यह मन रहता है, तभीतक जाग्रत् और स्वप्नावस्थाका व्यवहार | प्रकाशित होकर जीवका दृश्य बनता है। इसलिये | पण्डितजन मनको ही त्रिगुणमय अधम संसारका और गुणातीत परमोत्कृष्ट मोक्षपदका कारण बताते हैं ॥ 7 ॥विषयासक्त मन जीवको संसार-सङ्कटमें डाल देता है, विषवहीन होनेपर वही उसे शान्तिमय मोक्षपद प्राप्त करा देता है। जिस | प्रकार पीसे भीगी हुई बलीको खानेवाले दीपकसे तो धुवाल शिखा निकलती रहती है और जब घी समाप्त हो जाता है तब वह अपने कारण अग्नितत्त्वमें लीन हो जाता है उसी प्रकार विषय और कर्मोंसे आसक्त हुआ मन तरह-तरहकी वृत्तियोंका आश्रय | लिये रहता है और इनसे मुक्त होनेपर वह अपने तत्वमें लीन हो जाता है ॥ 8 ॥

वीरवर । पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक अहङ्कार—ये ग्यारह मनकी वृत्तियाँ है तथा पाँच प्रकारके कर्म, पाँच तन्मात्र और एक शरीर—ये ग्यारह उनके आधारभूत विषय कहे जाते हैं।। 9 ॥ गन्ध, रूप, स्पर्श, रस और शब्द-ये पाँच ज्ञानेन्द्रियोंके विषय हैं, मलत्याग, सम्भोग, गमन, भाषण और लेना-देना आदि व्यापार-ये पाँच कर्मेन्द्रियोंके विषय हैं तथा शरीरको ‘यह मेरा है’ इस प्रकार स्वीकार करना अहङ्कारका विषय है। कुछ लोग अहङ्कारको | मनकी बारहवीं वृत्ति और उसके आश्रय शरीरको बारहवाँ विषय मानते हैं ॥ 10 ये मनकी ग्यारह वृत्तियाँ द्रव्य (विषय), | स्वभाव, आशय (संस्कार), कर्म और कालके द्वारा सैकड़ों, हजारों और करोड़ों भेदोंमें परिणत हो जाती है किन्तु इनकी सत्ता क्षेत्रज्ञ आत्माकी सत्तासे ही है, स्वतः या परस्पर मिलकर नहीं है ॥ 11 ऐसा होनेपर भी मनसे क्षेत्रज्ञका कोई सम्बन्ध नहीं है। यह तो जीवको ही मायानिर्मित उपाधि है। यह प्रायः संसारबन्धनमें डालनेवाले अविशुद्ध कम हो प्रवृत रहता है। इसकी उपर्युक्त वृत्तियाँ प्रवाहरूपसे नित्य हो रहती है, और स्वप्रके समय वे प्रकट हो जाती है और सुषुप्तिमें छिप जाती हैं। इन दोनों ही अवस्थाओंमें क्षेत्रज्ञ, जो विशुद्ध चिन्मात्र है, मनकी इन वृत्तियोको साक्षीरूपसे देखता रहता है।। 12॥

यह क्षेत्र परमात्मा सर्वव्यापक जगत्‌का आदि कारण, परिपूर्ण, अपरोक्ष स्वयंप्रकाश, अजमा, ब्रह्मादिका भी नियन्ता और अपने अधीन रहनेवाली मायाके द्वारा सबके अन्तःकरणोंमें रहकर जोनोको प्रेरित करनेवाला समस्त भूतोंका आश्रयरूप भगवान् वासुदेव है ॥ 13 ॥ जिस प्रकार वायु सम्पूर्ण स्थावरजङ्गम] प्राणियो प्राणरूपसे प्रविष्ट होकर उन्हें प्रेरित करती है, उसी वह परमेश्वर भगवान् वासुदेव सर्वसाक्षी प्रकार | आत्मस्वरूपसे इस सम्पूर्ण पणे ओतप्रोत है ॥ 14 ॥राजन् ! जबतक मनुष्य ज्ञानोदयकें द्वारा इस मायाका तिरस्कार कर, सबकी आसक्ति छोड़कर तथा काम क्रोधादि छः शत्रुओंको जीतकर आत्मतत्त्वको नहीं जान लेता और जबतक वह आत्माके उपाधिरूप मनको संसार दुःखका क्षेत्र नहीं समझता, तबतक वह इस लोकमें यों ही भटकता रहता है, क्योंकि यह चित्त उसके शोक, मोह, रोग, राग, लोभ और वैर आदिके संस्कार तथा ममताकी वृद्धि करता रहता है । 15-16 ॥ यह मन ही तुम्हारा बड़ा बलवान् शत्रु है। तुम्हारे उपेक्षा करनेसे इसकी शक्ति और भी बढ़ गयी है। यह यद्यपि स्वयं तो सर्वथा मिथ्या है, तथापि इसने तुम्हारे आत्मस्वरूपको आच्छादित कर रखा है। इसलिये तुम सावधान होकर श्रीगुरु और हरिके चरणोंकी उपासनाके अस्त्रसे इसे मार डालो || 17 ॥

अध्याय 12 रहूगणका प्रश्न और भरतजीका समाधान

राजा रहूगणने कहा- भगवन्। मै आपको नमस्कार करता हूँ। आपने जगत्का उद्धार करनेके लिये ही यह देह धारण की है। योगेश्वर! अपने परमानन्दमय स्वरूपका अनुभव करके आप इस स्थूलशरीरसे उदासीन हो गये हैं तथा एक जड ब्राह्मणके वेषसे अपने नित्यज्ञानमय स्वरूपको जनसाधारणकी दृष्टिसे ओझल किये हुए मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ 1 ॥ ब्रह्मन् ! जिस प्रकार ज्वरसे पीड़ित रोगीके लिये मीठी ओषधि और धूपसे तपे हुए पुरुषके लिये शीतल जल अमृततुल्य होता है, उसी प्रकार मेरे लिये, जिसकी विवेकबुद्धिको देहाभिमानरूप विषैले सर्पने इस लिया है, आपके वचन अमृतमय औषधिके समान हैं ॥ 2 ॥ देव मैं आपसे अपने संशयोंकी निवृत्ति तो पीछे कराऊँगा। पहले तो इस समय आपने जो अध्यात्म योगमय उपदेश दिया है, उसीको सरल करके समझाइये, उसे समझनेकी मुझे बड़ी उत्कण्ठा है ॥ 3 ॥योगेश्वर। आपने जो यह कहा कि भार उठानेकी क्रिया तथा उससे जो श्रमरूप फल होता है, वे दोनों ही प्रत्यक्ष होनेपर भी केवल व्यवहारमूलके ही है, वास्तवमें सत्य नहीं है— तत्वविचारके सामने कुछ भी नहीं | ठहरते—सो इस विषयमें मेरा मन चक्कर खा रहा है, आपके इस कथनका मर्म मेरी समझमें नहीं आ रहा है ॥ 4 ॥

जडभरतने कहा- पृथ्वीपते ! यह देह पृथ्वीका विकार है, पाषाणादिसे इसका क्या भेद है? जब यह किसी कारणसे पृथ्वीपर चलने लगता है, तब इसके भारवाही आदि नाम पड़ जाते हैं। इसके दो चरण हैं; उनके ऊपर क्रमशः टखने, पिंडली, घुटने, जाँध, कमर कमर, वक्ष स्थल, गर्दन और कंधे आदि अङ्ग हैं ॥ 5 ॥ केोके ऊपर लकड़ीकी पालकी रखी हुई है। उसमें भी सौवीरराज नामका एक पार्थिव विकार ही है, जिसमें आत्मबुद्धिरूप अभिमान करनेसे तुम ‘मैं सिन्धु देशका राजा हूँ’ इस प्रबल मदसे अंधे हो रहे हो ॥ 6 ॥ किन्तु इसीसे तुम्हारी कोई श्रेष्ठता सिद्ध नहीं होती, वास्तवमें तो तुम बड़े क्रूर और भ्रष्ट ही हो तुमने इन बेचारे दीन दुखिया कहारोंको बेगारमें पकड़कर पालकीमें जोत रखा है और फिर महापुरुषों की सभामें बढ़-चढ़कर बातें बनाते हो कि मैं लोकोंकी रक्षा करनेवाला हूँ। यह तुम्हें शोभा नहीं देता ॥ 7 ॥ हम देखते | हैं कि सम्पूर्ण चराचर भूत सर्वदा पृथ्वीसे ही उत्पन्न होते हैं और पृथ्वीमें ही लीन होते हैं; अतः उनके क्रियाभेदके | कारण जो अलग-अलग नाम पड़ गये हैं- बताओ तो, उनके सिवा व्यवहारका और क्या मूल है ? ll 8 ll

इस प्रकार ‘पृथ्वी’ शब्दका व्यवहार भी मिथ्या ही है; वास्तविक नहीं है; क्योंकि यह अपने उपादानकारण सूक्ष्म परमाणुओंमें लीन हो जाती है। और जिनके मिलनेसे पृथ्वीरूप कार्यकी सिद्धि होती है, वे परमाणु अविद्यावश मनसे ही कल्पना किये हुए हैं। वास्तवमें उनकी भी सत्ता नहीं है॥ 9 ॥ इसी प्रकार और भी जो कुछ पतला-मोटा, छोटा-बड़ा, कार्य-कारण तथा चेतन और अचेतन आदि गुणोंसे युक्त द्वैत-प्रपक्ष है उसे भी द्रव्य, स्वभाव, आशय, काल और कर्म आदि नामोंवाली | भगवान्की मायाका ही कार्य समझो 10 ॥विशुद्ध परमार्थरूप, अद्वितीय तथा भीतर-बाहरके भेदसे | रहित परिपूर्ण ज्ञान ही सत्य वस्तु है। वह सर्वान्तर्वर्ती और सर्वथा निर्विकार है। उसीका नाम ‘भगवान्’ है और उसीको पण्डितजन ‘वासुदेव’ कहते हैं ॥ 11 ॥ रहूगण ! महापुरुषोंके चरणोंकी धूलिसे अपनेको नहलाये बिना केवल तप, यज्ञादि वैदिक कर्म, अन्नादिके दान, अतिथिसेवा, दीनसेवा आदि गृहस्थोचित धर्मानुष्ठान, वेदाध्ययन अथवा जल, अग्नि या सूर्यकी उपासना आदि किसी भी साधनसे यह परमात्मज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता ॥ 12 ॥ इसका कारण यह है कि महापुरुषोंक समाजमें सदा पवित्रकीर्ति श्रीहरिके गुणोंकी चर्चा होती रहती है, जिससे विषयवार्ता तो पास ही नहीं फटकने पाती। और जब भगवत्कथाका नित्यप्रति सेवन किया जाता है, तब वह मोक्षाकाङ्क्षी पुरुषकी शुद्ध बुद्धिको भगवान् वासुदेवमें लगा देती है ll 13 ll

पूर्वजन्ममें मैं भरत नामका राजा था। ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकारके विषयोंसे विरक्त होकर भगवान्की आराधनामें ही लगा रहता था; तो भी एक मृगमें आसक्ति हो जानेसे मुझे परमार्थसे भ्रष्ट होकर अगले जन्ममें मृग बनना पड़ा ।। 14 ।। किन्तु भगवान् श्रीकृष्णकी आराधनाके प्रभावसे उस मृगयोनिमें भी मेरी पूर्वजन्मकी स्मृति लुप्त नहीं हुई। इसीसे अब मैं जनसंसर्गसे डरकर सर्वदा असङ्गभावसे गुप्तरूपसे ही विचरता रहता हूँ ॥ 15 ॥ सारांश यह है कि विरक्त महापुरुषोंके सत्सङ्गसे प्राप्त ज्ञानरूप खड्गके द्वारा मनुष्यको इस लोकमें ही अपने मोहबन्धनको काट डालना चाहिये। फिर श्रीहरिकी लीलाओंके कथन और श्रवणसे भगवत्स्मृति बनी रहनेके कारण वह सुगमतासे ही संसारमार्गको पार करके भगवान्‌को प्राप्त कर | सकता है ।। 16 ।।

अध्याय 13 भवाटवीका वर्णन और रहूगणका संशयनाश

जडभरतने कहा- राजन् ! यह जीवसमूह सुखरूप धनमें आसक्त देश-देशान्तरमे घूम-फिरकर व्यापार करनेवाले व्यापारियोंके दलके समान है। इसे मायाने दुस्तर प्रवृत्तिमार्गमें लगा दिया है; इसलिये इसकी दृष्टि सात्त्विक, राजस, तामस भेदसे नाना प्रकारके कर्मोंपर ही जाती है। उन कर्ममे भटकता भटकता यह संसाररूप जंगलमें पहुँच जाता है। वहाँ इसे तनिक भी शान्ति नहीं मिलती ॥ 1 ॥ महाराज ! उस जंगलमें छः डाकू हैं। इस वणिक् समाजका नायक बड़ा दुष्ट है। उसके नेतृत्वमें जब यह वहाँ पहुँचता है, तब ये लुटेरे बलात् इसका सब मालमत्ता लूट लेते हैं। तथा भेड़िये जिस प्रकार भेड़ोंके झुंडमें घुसकर उन्हें खींच ले जाते हैं, उसी प्रकार इसके साथ रहनेवाले गीदड़ ही इसे असावधान देखकर इसके धनको इधर-उधर खींचने लगते हैं ॥ 2 ॥ वह जंगल बहुत सी लता, घास और झाड़-झंखाड़के कारण बहुत दुर्गम हो रहा है। उसमें तीव्र डाँस और मच्छर इसे चैन नहीं लेने देते। वहाँ इसे कभी तो गन्धर्वनगर दीखने लगता है और कभी-कभी चमचमाता हुआ अति चञ्चल अगिया बेताल आँखोंके सामने आ जाता है ॥ 3 ॥ यह वणिक-समुदाय इस कामे निवासस्थान, जल और धनादि आसक्त होकर इधर-उधर भटकता रहता है। कभी बवंडरसे उठी हुई धूलके द्वारा जब सारी दिशाएँ धूमादि-सी हो जाती है और इसकी सोमे भी धूल भर जाती है, तो इसे दिशाओंका ज्ञान भी नहीं रहता ॥ 4 ॥ कभी इसे दिखायी न देनेवाले झीगुरोका कर्णकटु शब्द सुनायी देता है, कभी उल्लुओंकी बोलीसे इसका चिन व्यथित हो जाता है। कभी | इसे भूख सताने लगती है तो यह निन्दनीय वृक्षोंका ही सहारा टटोलने लगता है और कभी प्याससे व्याकुल होकर मृगतृष्णाको ओर दौड़ लगा है ॥5॥ कभी जल नदियोंकी ओर जाता है, कभी अन्न न मिलनेपर आपस में एक-दूसरेसे भोजनप्राप्तिकी इच्छा करता है, कभी दावानलमें घुसकर अप्रिसे झुलस जाता है और कभी यक्षलोग इसके प्राण खींचने लगते हैं तो यह खित्र होने लगता है ॥ 6 ॥ कभी अपनेसे अधिक बलवानलोग इसका धन छीन लेते हैं, तो यह दुःखी होकर शोक और मोहसे अचेत हो जाता है। और कभी गन्धर्वनगरमे पहुँचकर घड़ीभरके लिये सब दुःख भूलकर खुशी मनाने लगता है ॥ 7 ॥कभी पर्वतोंपर चढ़ना चाहता है तो कांटे और कंकड़ोंद्वारा | पैर चलनी हो जानेसे उदास हो जाता है। कुटुम्ब बहुत बढ़ जाता है और उदरपूर्तिका साधन नहीं होता तो भूखकी ज्वालासे सन्तप्त होकर अपने ही बन्धुबान्धवोंपर खीझने लगता है ।। 8 ।। कभी अजगर सर्पका ग्रास बनकर वनमें फेंके हुए मुर्देके समान पड़ा रहता है। उस समय इसे कोई सुध-बुध नहीं रहती। कभी दूसरे विषैले जन्तु इसे काटने लगते हैं तो उनके विषके प्रभावसे अंधा होकर किसी अँधे कुरैमें गिर पड़ता है और घोर दुःखमय अन्धकारमें बेहोश पड़ा रहता है ॥ 9 ॥ कभी मधु खोजने लगता है तो मक्खियाँ इसके नाक में दम कर देती हैं और इसका सारा अभिमान नष्ट हो जाता है। यदि किसी प्रकार अनेकों कठिनाइयोंका सामना करके वह मिल भी गया तो बलात् दूसरे लोग उसे छीन लेते हैं ॥ 10 ॥ कभी शीत, घाम, आँधी और वर्षासे अपनी रक्षा करनेमें असमर्थ हो जाता है। कभी आपसमें थोड़ा-बहुत व्यापार करता है, तो धनके लोभसे दूसरोंको धोखा देकर उनसे वैर ठान लेता है ।। 11 ।। कभी-कभी उस संसारवनमें इसका धन नष्ट हो जाता है तो इसके पास शय्या, आसन, रहनेके लिये | स्थान और सैर-सपाटेके लिये सवारी आदि भी नहीं रहते। तब दूसरोंसे वाचना करता है; माँगनेपर भी दूसरे से जब उसे अभिलषित वस्तु नहीं मिलती, तब परायी वस्तुओंपर अनुचित दृष्टि रखनेके कारण इसे बड़ा तिरस्कार सहना है। पड़ता है ॥ 12 ॥

इस प्रकार व्यावहारिक सम्बन्धके कारण एक-दूसरेसे द्वेषभाव बढ़ जानेपर भी वह वणिक्समूह आपसमें विवाहादि सम्बन्ध स्थापित करता है और फिर इस मार्गमें तरह-तरहके कष्ट और धनक्षय आदि सङ्कटोंको भोगते भोगते मृतकवत् हो जाता है ॥ 13 ॥ साथियोंमेसे जो-जो मरते जाते हैं, उन्हें जहाँ-का-तहाँ छोड़कर नवीन उत्पन्न हुको साथ लिये यह बनिजारोंका समूह बराबर आगे ही बढ़ता रहता है। वीरवर उनमें से कोई भी प्राणी न तो आजतक वापस लौटा है और न किसीने इस सङ्कटपूर्ण मार्गको पार करके परमानन्दमय योगकी ही शरण | ली है ।। 14 ।। जिन्होंने बड़े-बड़े दिक्पालोंको जीत लिया है, वे धीर-वीर पुरुष भी पृथ्वीमें ‘यह मेरी है’ ऐसा अभिमान करके आपसमें वैर ठानकर संग्रामभूमिमें जूझ जाते हैं। तो भी उन्हें भगवान् विष्णुका वह अविनाशी पद नहीं मिलता, जो वैरहीन परमहंसोको प्राप्त होता है ।। 15 ।।इस भवाटवीमें भटकनेवाला यह बनिजारीका दल | कभी किसी लताकी डालियोंका आश्रय लेता है और उसपर रहनेवाले मधुरभाषी पक्षियोंके मोहमें फँस जाता है। कभी सिहोंके समूहसे भय मानकर बगुला, केक और | गिद्धोंसे प्रीति करता है ।। 16 ।। जब उनसे धोखा उठाता है, तब हंसोंकी पंक्तिमें प्रवेश करना चाहता है; किन्तु उसे उनका आचार नहीं सुहाता, इसलिये वानरोंमें मिलकर उनके जातिस्वभावके अनुसार दाम्पत्य सुखमें रत रहकर |विषयभोगोसे इन्द्रियोंको तृप्त करता रहता है और एक | दूसरेका मुख देखते-देखते अपनी आयुकी अवधिको भूल जाता है ॥ 17 ॥ वहाँ वृक्षोंमें क्रीड़ा करता हुआ पुत्र और | स्त्रीके स्नेहपाशमें बँध जाता है। इसमें मैथुनकी वासना इतनी बढ़ जाती है कि तरह-तरहके दुर्व्यवहारोंसे दीन होनेपर भी यह विवश होकर अपने बन्धनको तोड़नेका साहस नहीं कर सकता। कभी असावधानीसे पर्वतकी गुफामें गिरने लगता है तो उसमें रहनेवाले हाथीसे डरकर किसी लताके सहारे लटका रहता है ।। 18 ।। शत्रुदमन ! यदि किसी प्रकार इसे उस आपत्तिसे छुटकारा मिल जाता है, तो यह फिर अपने गोलमें मिल जाता है। जो मनुष्य मायाकी प्रेरणा से एक बार इस मार्गमें पहुँच जाता है, उसे भटकते-भटकते अन्ततक अपने परम पुरुषार्थका पता नहीं लगता ॥ 19 ॥ रहूगण ! तुम भी इसी मार्गमें भटक रहे हो, इसलिये अब प्रजाको दण्ड देनेका कार्य छोड़कर समस्त प्राणियोंके सुहृद् हो जाओ और विषयोंमें अनासक्त | होकर भगवत्-सेवासे तीक्ष्ण किया हुआ ज्ञानरूप खड्ग लेकर इस मार्गको पार कर लो ॥ 20 ॥

राजा रहूगणने कहा- अहो! समस्त योनियों में यह मनुष्य जन्म ही श्रेष्ठ है। अन्यान्य लोकोंमें प्राप्त होनेवाले देवादि उत्कृष्ट जन्मोंसे भी क्या लाभ है, जहाँ भगवान् इषीकेशके पवित्र यशसे शुद्ध अन्त करणवाले आप-जैसे महात्माओंका अधिकाधिक समागम नहीं मिलता ॥ 21 ॥ आपके चरणकमलोंकी रजका सेवन करनेसे जिनके सारे पाप ताप नष्ट हो गये हैं, उन | महानुभावोंको भगवान्की विशुद्ध भक्ति प्राप्त होना कोई विचित्र बात नहीं है। मेरा तो आपके दो पड़ोके सत्सङ्ग ही सारा कुतर्कमूलक अज्ञान नष्ट हो गया है ।। 22 ॥ब्रह्मज्ञानियोंमें जो वयोवृद्ध हो, उन्हें नमस्कार है; जो शिशु हों, उन्हें नमस्कार है; जो युवा हों, उन्हें नमस्कार है और जो क्रीडारत बालक हों, उन्हें भी नमस्कार है। जो ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण अवधूतयेषसे पृथ्वीपर विचरते हैं, उनसे हम जैसे ऐश्वर्योन्मत्त राजाओंका कल्याण हो ।। 23 ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-उत्तरानन्दन। इस प्रकार उन परम प्रभावशाली ब्रह्मर्षिपुत्रने अपना अपमान करनेवाले सिन्धुनरेश रहूगणको भी अत्यन्त करुणाश | आत्मतत्त्वत्का उपदेश दिया। तब राजा रहूगणने दीनभावसे उनके चरणोंकी वन्दना की। फिर वे परिपूर्ण समुद्रके समान शान्तचित और उपरतेन्द्रिय होकर पृथ्वीपर विचरने लगे ।। 24 ।। उनके सत्सङ्गसे परमात्मतत्त्वका ज्ञान पाकर सौवीरपति रहूगणने भी अन्तःकरणमें अविद्यावश आरोपित | देहात्मबुद्धिको त्याग दिया। राजन्! जो लोग भगवदाश्रित अनन्य भक्तोंकी शरण ले लेते हैं, उनका ऐसा ही प्रभाव होता है—उनके पास अविद्या ठहर नहीं सकती ।। 25 ।।

राजा परीक्षितने कहा- महाभागवत मुनिश्रेष्ठ ! आप परम विद्वान् हैं। आपने रूपकादिके द्वारा अप्रत्यक्षरूपसे जोकि जिस संसाररूप मार्गका वर्णन किया है, उस विषयकी | कल्पना विवेकी पुरुषोंकी बुद्धिने की है; वह अल्पबुद्धिवाले पुरुषोंकी समझमें सुगमतासे नहीं आ सकता। अतः मेरी प्रार्थना है कि इस दुर्बोध विषयको रूपकका स्पष्टीकरण करनेवाले शब्दोंसे खोलकर समझाइये ॥ 26 ॥

अध्याय 14 भवाटवीका स्पष्टीकरण

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन्! देहाभिमानी जीवोंके द्वारा सत्त्वादि गुणोंके भेदसे शुभ, अशुभ और मिश्र – तीन प्रकारके कर्म होते रहते हैं। उन कर्मो के द्वारा ही निर्मित नाना प्रकारके शरीरोंके साथ होनेवाला जो संयोग-वियोगादिरूप अनादि संसार जीवको प्राप्त होता है, | उसके अनुभवके छः द्वार हैं— मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ । | उनसे विवश होकर यह जीवसूह मार्ग भूलकर भयङ्करवनमें भटकते हुए धनके लोभी बनिजारोंके समान परमसमर्थ भगवान् विष्णुके अश्रित रहनेवाली मायाकी प्रेरणासे बीहड़ बनके समान दुर्गम मार्गमें पड़कर संसार-वनमें जा पहुँचता है। यह वन श्मशानके समान अत्यन्त अशुभ है। इसमें भटकते अपने शरीरसे किये हुए कमौका फल भोगना पड़ता है। यहाँ | अनेको वियोंके कारण उसे अपने व्यापार में सफलता भी नहीं मिलती तो भी यह उसके श्रमको शान्त करनेवाले श्रीहरि एवं गुरुदेव के चरणारविन्द मकरन्द-मधुके रसिक भक्त-भ्रमरोके मार्गका अनुसरण नहीं करता। इस संसार वनमें मनसहित छः इन्द्रियाँ ही अपने कर्मोंकी दृष्टिसे डाकुओंके समान हैं ॥ 1 ॥ पुरुष बहुत-सा कष्ट उठाकर जो धन कमाता है, उसका उपयोग धर्ममें होना चाहिये यही धर्म यदि साक्षात् भगवान् परमपुरुषकी आराधना के रूपमें होता है तो उसे परलोकमें निःश्रेयसका हेतु बतलाया गया है। किन्तु जिस मनुष्यका बुद्धिरूप सारथि विवेकहीन होता है और मन वशमें नहीं होता, उसके उस धर्मोपयोगी धनको ये मनसहित छः इन्द्रियाँ देखना, स्पर्श करना, सुनना, स्वाद लेना, सूचना, सङ्कल्प-विकल्प करना और निश्चय करना इन वृतियोंके द्वारा गृहस्थोचित विषयभोगों में फँसाकर उसी प्रकार लूट लेती हैं, जिस प्रकार बेईमान मुखियाका अनुगमन करनेवाले एवं असावधान बनिजारोंके दलका धन चोर डाकू लूट ले जाते हैं॥ 2 ॥ ये ही नहीं, उस संसार बनमें रहनेवाले उसके कुटुम्बी भी — जो नामसे तो स्त्री-पुत्रादि कहे जाते हैं, किन्तु कर्म जिनके साक्षात् भेड़ियों और गोदड़ों के समान होते हैं- उस अर्थलोलुप कुटुम्बीके धनको उसकी इच्छा न रहनेपर भी उसके देखते-देखते इस प्रकार छीन ले जाते हैं, जैसे भेड़िये गड़रियोंसे सुरक्षित भेड़ोंको उठा ले जाते हैं॥ 3 ॥ जिस प्रकार यदि किसी खेतके बीजोंको अग्निद्वारा जला न दिया गया हो, तो प्रतिवर्ष | जोतनेपर भी खेतीका समय आनेपर वह फिर झाड़-झंखाड़, लता और तृण आदिसे गहन हो जाता है—उसी प्रकार यह गृहस्थाश्रम भी कर्मभूमि है, इसमें भी कमका सर्वथा उच्छेद कभी नहीं होता, क्योंकि यह घर कामनाओंकी पिटारी है ll 4 ll

उस गृहस्थाश्रममें आसक्त हुए व्यक्तिके धनरूप बाहरी | प्राणोंको डांस और मच्छरोंके समान नीच पुरुषोंसे तथा टिड्डी, पक्षी, चोर और चूहे आदिसे क्षति पहुँचती रहती है। कभी इस मार्गमें भटकते-भटकते यह अविद्या, कामना और कमसे कलुषित हुए अपने चित्तसे दृष्टिदोषके कारण इस मर्त्यलोकको, जो गन्धर्वनगर के समान असत् है, सत्य समझने लगता है ॥ 5 ॥ फिर खान-पान और स्त्री-प्रसङ्गादि व्यसनोंमें फँसकर मृगतृष्णाकेसमान मिथ्या विषयोंकी ओर दौड़ने लगता है॥ 6 ॥ कभी बुद्धिके रजोगुणसे प्रभावित होनेपर सारे अनथकी जड़ अग्रिके मलरूप सोने को ही सुखका साधन समझकर उसे पानेके लिये लालायित हो इस प्रकार दौड़-धूप करने लगता है, जैसे वनमें जागे ठिठुरता हुआ पुरुष अधिके लिये व्याकुल होकर उल्मुक पिशाचकी (अगिया बेतालको) ओर उसे आग समझकर दौड़े ॥ 7 ॥ कभी इस शरीरको जीवित रखनेवाले घर, अन्न-जल और धन आदिमें अभिनिवेश करके इस संसाररण्य में इधर-उधर दौड़-धूप करता रहता है ॥ 8 ॥ कभी बवंडरके समान आंखोंमें धूल झोंक देनेवाली स्त्री गोदमे बैठा लेती है, तो तत्काल रागान्ध-सा होकर सत्पुरुषोंकी मर्यादाका भी विचार नहीं करता। उस समय नेत्रोंमें रजोगुणकी धूल भर जानेसे बुद्धि ऐसी मलिन हो जाती है कि अपने कर्मोंकि साक्षी दिशाओंके | देवताओंको भी भुला देता है ॥ 9 ॥ कभी अपने आप ही एकाध बार विषयोंका मिथ्यात्व जान लेनेपर भी अनादिकालसे देहमें आत्मबुद्धि रहनेसे विवेक-बुद्धि नष्ट हो जानेके कारण उन मस्मरीचिकातुल्य विषयोंकी ओर ही फिर दौड़ने लगता है ॥ 10 ॥ कभी प्रत्यक्ष शब्द करनेवाले उल्लूके समान शत्रुओंकी और परोक्षरूपसे बोलनेवाले झाँगुरोंके समान राजाको अति कठोर एवं दिलको दहला देनेवाली डरावनी डॉटइसे इसके कान और मनको बड़ी व्यथा होती है ।। 11 ।।

पूर्वपुण्य क्षीण हो जानेपर यह जीवित ही मुर्देके समान हो जाता है; और जो कारस्कर एवं काकतुण्ड आदि जहरीले फलोंवाले पापवृक्षों, इसी प्रकारको दूषित लताओं और विषैले कुओंके समान हैं तथा जिनका धन इस लोक और परलोक दोनोंके ही काममें नहीं आता और जो जीते हुए भी मुर्देके समान हैं—उन कृपण पुरुषोंका आश्रय लेता है ॥ 12 ॥ कभी असत् पुरुषोंके सङ्गसे बुद्धि बिगड़ जानेके कारण सूखी नदीमें गिरकर दुःखी होनेके समान इस लोक और परलोकमें दुःख देनेवाले पाखण्डमें फँस जाता है ।। 13 ।। जब दूसरोंको सतानेसे उसे अत्र भी नहीं मिलता, तब वह अपने सगे पिता-पुत्रोंको अथवा पिता या पुत्र आदिका एक तिनका भी जिनके पास देखता है, उनको फाड़ खानेके लिये तैयार हो जाता है। 14 ।। कभी दावानलके समान प्रिय विषयोंसे शून्य एवं परिणाममें दुःखमय घरमें पहुंचता है, तो वहाँ इष्टजनोंके वियोगादिसे उसके शोककी आग भड़क उठती है; उससे सन्तप्त होकर वह बहुत ही खिन्न होने लगता है ॥ 15 ॥ कभी कालके समान भयङ्करराजकुलरूप राक्षस इसके परम प्रिय धन-रूप प्राणोंको हर लेता है, तो यह मरे हुएके समान निर्जीव हो जाता है ॥ 16 ॥ कभी मनोरथके पदार्थोंक समान अत्यन्त असत् पिता-पितामह आदि सम्बन्धोंको सत्य समझकर उनके सहवाससे स्वप्रके समान है क्षणिक सुखका अनुभव करता है ॥ 17 ॥ गृहस्थाश्रमके लिये जिस कर्मविधिका महान् विस्तार किया गया है, उसका अनुष्ठान किसी पर्वतकी कड़ी चढ़ाईके समान ही है। लोगोंको उस ओर प्रवृत्त देखकर उनकी देखा-देखी जब यह भी उसे पूरा करनेका प्रयत्न करता है, तब तरह-तरहकी कठिनाइयों से क्रेशित होकर काँटे और कंकड़ोंसे भरी भूमिमें पहुँचे हुए व्यक्तिके समान दुखी हो जाता है ।। 18 ।। कभी पेटकी असह्य ज्वालासे अधीर होकर अपने कुटुम्बपर ही बिगड़ने लगता है ।। 19 । फिर जब निद्रारूप अजगरके चंगुल में फँस जाता है, तब अज्ञानरूप घोर अन्धकारमें डूबकर सूने वनमें फेंके हुए मुर्देके समान सोया पड़ा रहता है। उस समय इसे किसी बातकी सुधि नहीं रहती ॥ 20 ॥

कभी दुर्जनरूप काटनेवाले जीव इतना कट तिरस्कार करते हैं कि इसके गर्वरूप दाँत, जिनसे यह दूसरोंको काटता था, टूट जाते हैं। तब इसे अशान्तिके कारण नींद भी नहीं आती तथा मर्मवेदनाके कारण क्षण-क्षणमें विवेक शक्ति क्षीण होते रहनेसे अन्तमें अंधेकी भाँति यह नरकरूप अंधे कुएँमें जा गिरता है ॥ 21 ॥ कभी विषयसुखरूप मधुकणोंको ढूंढते ढूँढते जब यह लुक-छिपकर परस्त्री या परधनको उड़ाना चाहता है, तब उनके स्वामी या राजाके हाथसे मारा जाकर ऐसे नरकमें जा गिरता है जिसका ओर-छोर नहीं है ।। 22 । इसीसे ऐसा कहते हैं कि प्रवृत्तिमार्गमे रहकर किये हुए लौकिक और वैदिक दोनों ही प्रकारके कर्म जीवको संसारकी ही प्राप्ति करानेवाले हैं ॥ 23 ॥ यदि किसी प्रकार राजा आदिके बन्धन से छूट भी गया, तो अन्यायसे अपहरण किये हुए उन स्त्री और धनको देवदत्त नामका कोई दूसरा व्यक्ति छीन लेता है और उससे विष्णुमित्र नामका कोई तीसरा व्यक्ति झटक लेता है। इस प्रकार वे भोग एक पुरुषसे दूसरे पुरुषके पास जाते रहते हैं, एक स्थानपर नहीं ठहरते ॥ 24 ॥ कभी-कभी शीत और वायु आदि अनेकों आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दुःखक स्थितियोंके निवारण करनेमें समर्थ न होनेसे यह अपार चिन्ताओंके कारण उदास हो जाता है ।। 25 ।। कभी परस्पर लेन-देनका व्यवहार करते समय किसी दूसरेका थोड़ा-सादमड़ीभर अथवा इससे भी कम धन चुरा लेता है तो इस बेईमानीक कारण उससे वैर टन जाता है ।। 26 ।।

राजन्। इस मार्ग पूर्वोक्त विघ्नोंके अतिरिक्त सुख-दु:ख, राग-द्वेष, भय, अभिमान, प्रमाद, उत्पाद, शेक, मोह, लोभ, मात्सर्य, ईर्ष्या, अपमान, सुधा पिपासा, आधि-व्याधि, जन्म, जरा और मृत्यु आदि और भी अनेकों विघ्न है ॥ 27 ॥ (इस विनबहुल मार्गमें इस प्रकार भटकता हुआ यह जीव) किसी समय देवमाया रूपिणी के बाहुपाश पड़कर विवेकहीन हो जाता है। तब उसीके लिये विहारभवन आदि बनवानेकी चिन्तामें |ग्रस्त रहता है तथा उसीके आश्रित रहनेवाले पुत्र, पुत्री और अन्यान्य स्त्रियोंके मीठे-मीठे बोल, चितवन और चेष्टाओंमें आसक्त होकर, उन्हींमें चित फँस जानेसे वह इन्द्रियोंका दास अपार अन्धकारमय नरकोंमें गिरता है ।। 28 ।।

कालचक्र साक्षात् भगवान् विष्णुका आयुध है। वह परमाणुसे लेकर द्विपरार्धपर्यन्त घरी आदि युक्त है। वह निरन्तर सावधान रहकर घूमता रहता है, जल्दी-जल्दी बदलनेवाली बाल्य, यौवन आदि अवस्थाएँ ही उसका वेग हैं। उसके द्वारा वह ब्रह्मासे लेकर क्षुद्रातिक्षुद्र तृणपर्यन्त सभी भूतोंका निरन्तर संहार करता रहता है। कोई भी उसकी गतिमें बाधा नहीं डाल सकता। उससे भय मानकर भी जिनका यह कालचक्र निज आयुध है, उन साक्षात् भगवान् यज्ञपुरुषकी आराधना छोड़कर यह मन्दमति मनुष्य पाखण्डियों के चक्कर में पड़कर उनके कंक, गिद्ध, बगुला और बटेरके समान अर्थशास्त्र- बहिष्कृत देवताओंका आश्रय लेता है-जिनका केवल वेदबाह्य अप्रामाणिक आगमोंने ही उल्लेख किया है ।। 29 ।। ये पाखण्डी तो स्वयं ही धोखेमें है; जब यह भी उनकी ठगाईमें आकर दुःखी होता है, तब ब्राह्मणोंकी शरण लेता है। किन्तु उपनयन संस्कारके अनन्तर श्रौतस्मार्तकमोंसे भगवान् यज्ञपुरुषकी आराधना करना आदि जो उनका शास्त्रोक्त आचार है, वह इसे अच्छा नहीं लगता, इसलिये | वेदोक्त आचारके अनुकूल अपनेमें शुद्धि न होने के कारण यह कर्म-शून्य शूद्रकुल प्रवेश करता है, जिसका भाव | वानरोंके समान केवल कुटुम्बपोषण और स्त्रीसेवन करना ही है ।। 30 ।। वहाँ बिना रोक-टोक स्वच्छन्द विहारकरनेसे इसकी बुद्धि अत्यन्त दीन हो जाती है और एक-दूसरे का मुख देखना आदि विषय-भोगोंमें फँसकर इसे अपने मृत्युकालका भी स्मरण नहीं होता ।। 31 ।। वृक्षोंके समान जिनका लौकिक सुख ही फल है उन घरोंमें ही सुख मानकर वानरोंकी भाँति स्त्री-पुत्रादिमें आसक्त होकर यह अपना सारा समय मैथुनादि विषय-भोगोंमें ही बिता देता है ।। 32 ।।

इस प्रकार प्रवृत्तिमार्गमें पड़कर सुख-दुःख भोगता हुआ यह जीव रोगरूपी गिरि-गुहामे फँसकर उसमें रहनेवाले मृत्युरूप हाथीसे डरता रहता है ।। 33 ।। कभी-कभी शीत, वायु आदि | अनेक प्रकारके अधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दुःखोकी निवृत्ति करनेमें जब असफल हो जाता है, तब उस है समय अपार विषयोंकी चिन्तासे यह खिन्न हो उठता है ।। 34 ।। कभी आपस में क्रय-विक्रय आदि व्यापार करनेपर बहुत कंजूसी करनेसे इसे थोड़ा-सा धन हाथ लग जाता है ॥ 35 ॥ कभी धन नष्ट हो जानेसे जब इसके पास सोने, बैठने और खाने आदिको भी कोई सामग्री नहीं रहती, तब अपने अभीष्ट भोग न मिलनेसे यह उन्हें चोरी आदि बुरे उपायोंसे पानेका निश्चय करता है। इससे इसे जहाँ-तहाँ दूसरोंके हाथसे बहुत अपमानित होना पड़ता है ।। 36 । इस प्रकार धनकी आसक्तिसे परस्पर वैरभाव बढ़ जानेपर भी यह अपनी पूर्ववासनाओंसे विवश होकर आपसमें विवाहादि सम्बन्ध करता और छोड़ता रहता है ।। 37 ।। इस संसारमार्गमें चलनेवाला यह जीव अनेक प्रकारके फ्रेश और विघ्न-बाधाओंसे बाधित होनेपर भी मार्गमें जिसपर जहाँ आपत्ति आती है, अथवा जो कोई मर जाता है; उसे जहाँ-का-तहाँ छोड़ | देता है; तथा नये जन्मे हुओंको साथ लगाता है, कभी किसीके लिये शोक करता है, किसीका दुःख देखकर मूर्च्छित हो जाता है. किसीके वियोग होने की आशङ्कासे भयभीत हो उठता है, किसीसे झगड़ने लगता है, कोई आपत्ति आती है तो रोने चिल्लाने लगता है, कहीं कोई मनके अनुकूल बात हो गयी तो प्रसन्नताके मारे फूला नहीं समाता, कभी गाने लगता है और कभी उन्होंके लिये बंधने में भी नहीं हिचकता साधुजन इसके पास कभी नहीं आते, यह साधुसङ्गसे सदा बञ्चित रहता है। इस प्रकार यह निरन्तर आगे ही बढ़ रहा है जहाँसे इसकी यात्र आरम्भ हुई है और जिसे इस मार्गको अन्तिम अवधि कहते है, उस परमात्माके पास यह अभीतक नहीं लौटा है ॥ 38 ॥ परमात्मातक तो योगशास्त्री भी गति नहीं है, जिन्होंने सब प्रकारके दण्ड (शासन) का त्याग कर दिया है, वे निवृति संयतात्मा मुनिजन ही उसे प्राप्त कर पाते हैं ।। 39 । जोदिग्गजों को जीतनेवाले और बड़े-बड़े दशोंका अनुष्ठान करनेवाले राजर्षि है उनको भी वहां गति नहीं है। शत्रुओका सामना करके केवल प्राणपरित्याग ही करते हैं तथा जिसमें यह मेरी है, ऐसा अभिमान करके वैर ठाना था उस पृथ्वीमे ही अपना शरीर छोड़कर स्वयं परलोकको चले जाते है। इस संसारसे वे भी पार नहीं होते ।। 40 ।। अपने पुण्यकर्मरूप लताका आश्रय लेकर यदि किसी प्रकार यह जीव इन आपत्तियोंसे अथवा नरकसे छुटकारा पा भी जाता है, तो फिर इसी प्रकार संसारमार्गमें भटकता हुआ इस जनसमुदायमें मिल जाता है। यही दशा स्वर्गादि ऊर्ध्वलोकोंमें जानेवालोंकी भी है ॥ 41 ॥

राजन्। राजर्षि भरतके विषयमें पण्डितजन ऐसा कहते है जैसे गरुडजीको होड़ कोई मक्खी नहीं कर सकती, उसी | प्रकार राजर्षि महात्मा भरतके मार्गका कोई अन्य राजा मनसे भी | अनुसरण नहीं कर सकता ।। 42 ।। उन्होंने पुण्यकीर्ति श्रीहरिमें अनुरक्त होकर अति मनोरम स्त्री, पुत्र, मित्र और राज्यादिको युवावस्थामें ही विष्ठाके समान त्याग दिया था; दूसरोंके लिये तो इन्हें त्यागना बहुत ही कठिन है ।। 43 । उन्होंने अति दुस्त्यज पृथ्वी, पुत्र, स्वजन, सम्पत्ति और खोकी तथा जिसके लिये बड़े-बड़े देवता भी लालायित रहते हैं किन्तु जो स्वयं उनकी दयादृष्टिके लिये उनपर दृष्टिपात करती रहती थी उस लक्ष्मीकी भी, लेशमात्र इच्छा नहीं की। यह सब उनके लिये उचित ही था, क्योंकि जिन महानुभावोंका चित भगवान् मधुसूदनकी सेवामें अनुरक्त हो गया है, उनकी दृष्टि मोक्षपद भी अत्यन्त तुच्छ है ।। 44 । उन्होंने मृगशरीर छोड़ने की इच्छा होनेपर उच्चस्वरसे कहा था कि धर्मकी रक्षा करनेवाले, धर्मानुष्ठानमें निपुण, योगगम्य, सांख्यके प्रतिपाद्य, प्रकृतिके अधीश्वर यज्ञमूर्ति सर्वान्तर्यामी श्रीहरिको नमस्कार है।’ ।। 45 ।।

राजन्। राजा भरतके पवित्र गुण और कर्मोंको भक्तजन भी प्रशंसा करते हैं। उनका यह चरित्र बड़ा कल्याणकारी, आयु और धनकी वृद्धि करनेवाला, लोकमें सुयश बढ़ानेवाला और अन्तमें स्वर्ग तथा मोक्षकी प्राप्ति करानेवाला है जो पुरुष इसे | सुनता या सुनाता है और इसका अभिनन्दन करता है, उसकी सारी कामनाएँ स्वयं ही पूर्ण हो जाती है, दूसरोंसे उसे कुछ भी नहीं माँगना पड़ता ।। 46 ।।

अध्याय 15 भरतके वंशका वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन् ! भरतजीका पुत्र सुमति था, यह पहले कहा जा चुका है। उसने ऋषभदेवजीके मार्गका अनुसरण किया। इसीलिये कलियुगमें बहुत से पाखण्डी अनार्य पुरुष अपनी दृष्ट बुद्धिसे वेदविरुद्ध कल्पना करके उसे देवता मानेंगे ॥ 1 ॥ उसकी पत्नी वृद्धसेनासे देवताजित् नामक पुत्र हुआ ॥ 2 ॥ देवताजितके असुरीके गर्भसे देवद्युत, देवद्युनके धेनुमतीसे परमेष्ठी और उसके सुवर्चला से प्रत नामका पुत्र हुआ ॥ 3 ॥ इसने अन्य पुरुषोंको आत्मविद्याका उपदेशकर स्वयं शुद्धचित्त होकर परमपुरुष श्रीनारायणका साक्षात् अनुभव किया था ॥ 4 ॥ प्रतीहको भार्या सुवर्चलाके गर्भ से प्रतिहर्ता, प्रस्तोता और उद्गाता नामके तीन पुत्र हुए। ये यज्ञादि कर्मोंमें बहुत निपुण थे इनमें प्रतिहर्ताकी भार्या स्तुति थी। उसके गर्भसे अज और भूमा नामके दो पुत्र हुए ॥ 5 ॥ भूमाके ऋषिकुल्यासे उद्गीथ, उसके देवकुल्यासे प्रस्ताव और प्रस्तावके नियुत्साके गर्भसे विभु नामका पुत्र हुआ। विभुके रतिके उदरसे पृथुषेण, पृथुषेणके आकृति नक्त और नके | द्रुतिके गर्भ से उदारकीर्ति राजर्षिप्रवर गयका जन्म हुआ। ये जगत्की रक्षाके लिये सत्त्वगुणको स्वीकार करनेवाले साक्षात् भगवान् विष्णुके अंश माने जाते थे। संयमादि अनेकों गुणोंके कारण इनकी महापुरुषोंमें गणना की जाती है ।। 6 ।। महाराज गयने प्रजाके पालन, पोषण, रञ्जन, लाड़-चाव और शासनादि करके तथा तरह-तरहके यज्ञोंका अनुष्ठान करके निष्कामभावसे केवल भगवत्प्रीतिके लिये अपने धर्मोका आचरण किया। इससे उनके सभी कर्म सर्वश्रेष्ठ परमपुरुष परमात्मा श्रीहरिके अर्पित होकर परमार्थरूप बन गये थे। इससे तथा ब्रह्मवेत्ता महापुरुषोंके चरणोंकी सेवासे उन्हें भक्तियोगकी प्राप्ति हुई। तब निरन्तर भगवचिन्तन करके उन्होंने अपना चित्त । शुद्ध किया और देहादि अनात्म-वस्तुओंसे अहंभाव | हटाकर वे अपने आत्माको ब्रह्मरूप अनुभव करने लगे।यह सब होनेपर भी वे निरभिमान होकर पृथ्वीका पालन करते रहे ॥ 7 ॥

परीक्षित्! प्राचीन इतिहासको जाननेवाले महात्माओंने राजर्षि गयके विषयमें यह गाथा कही है ॥ 8 ॥ ‘अहो ! अपने कर्मोंसे महाराज गयकी बराबरी और कौन राजा कर सकता है ? वे साक्षात् भगवान्‌की कला ही थे। उन्हें छोड़कर और कौन इस प्रकार यज्ञोंका विधिवत् अनुष्ठान करनेवाला, मनस्वी, बहुज्ञ, धर्मकी रक्षा करनेवाला, लक्ष्मीका प्रियपात्र, साधुसमाजका शिरोमणि और सत्पुरुषोंका सच्चा सेवक हो सकता है ?’ ।। 9 ।। सत्यसङ्कल्पवाली परम साध्वी श्रद्धा, मैत्री और दया आदि दक्षकन्याओंने गङ्गा आदि नदियोंके सहित बड़ी प्रसन्नतासे उनका अभिषेक किया था तथा उनकी इच्छा न होनेपर भी वसुन्धराने, गौ जिस प्रकार बछड़ेके खेहसे पिन्हाकर दूध देती है, उसी प्रकार उनके गुणोंपर रीझकर प्रजाको धन- रत्नादि सभी अभीष्ट पदार्थ दिये थे ॥ 10 ॥ उन्हें कोई कामना न थी, तब भी वेदोक्त कर्मनि उनको सब प्रकारके भोग दिये, राजाओंने युद्धस्थलमें उनके बाणोंसे सत्कृत होकर नाना प्रकारकी भेंटें दीं तथा ब्राह्मणोंने दक्षिणादि धर्मसे सन्तुष्ट होकर उन्हें परलोकमें मिलनेवाले अपने धर्मफलका छठा अंश दिया ॥ 11 ॥ उनके यज्ञमें बहुत अधिक सोमपान करनेसे इन्द्र उन्मत हो गये थे, तथा | उनके अत्यन्त श्रद्धा तथा विशुद्ध और निश्चल भक्तिभाव से समर्पित किये हुए यज्ञफलको भगवान् यज्ञपुरुष साक्षात् प्रकट होकर ग्रहण किया था ।। 12 ।। जिनके तृप्त होनेसे ब्रह्माजीसे लेकर देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी, वृक्ष एवं तृणपर्यन्त सभी जीव तत्काल तृप्त हो जाते हैं- वे विश्वात्मा श्रीहरि नित्यतृप्त होकर भी राजर्षि गयके यज्ञमें तृप्त हो गये थे। इसलिये उनकी बराबरी कोई दूसरा व्यक्ति कैसे कर सकता है ? 13 ।। महाराज गयके गयन्तीके गर्भ से चित्ररथ, सुगति और अवरोधन नामक तीन पुत्र हुए। उनमें चित्ररथकी पत्नी ऊर्णासे सम्राट्का जन्म हुआ ॥ 14 ॥ सम्राट्केउत्कलासे मरीचि और मरीचिके बिन्दुमतीसे बिन्दुमान् नामक पुत्र हुआ। उसके सरघासे मधु, मधुके सुमनासे वीरव्रत और वीरव्रतके भोजासे मन्धु और प्रयन्धु नामके दो पुत्र हुए उनमेंसे मन्थुके सत्याके गर्भसे भौवन, भौवनके दूषणाके उदरसे त्वष्टा, त्वष्टाके विरोचनासे विरज और विरजके विषूची नामकी भार्यासे शतजित् आदि सौ पुत्र | और एक कन्याका जन्म हुआ ॥ 15 ॥ विरजके विषयमें यह श्लोक प्रसिद्ध है- ‘जिस प्रकार भगवान् विष्णु देवताओंकी शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार इस | प्रियव्रत-वंशको इसमें सबसे पीछे उत्पन्न हुए राजा विरजने । अपने सुयशसे विभूषित किया था’ ॥ 16 ॥

अध्याय 16 भुवनकोशका वर्णन

राजा परीक्षितने कहा- मुनिवर ! जहाँतक | सूर्यका प्रकाश है और जहाँतक तारागणके सहित चन्द्रदेव दीख पड़ते हैं, वहाँतक आपने भूमण्डलका विस्तार बतलाया है ॥ 1 ॥ उसमें भी आपने बतलाया कि महाराज प्रियव्रतके रथके पहियोंकी सात लीकोंसे सात समुद्र बन गये थे, जिनके कारण इस भूमण्डलमें सात द्वीपोंका विभाग हुआ। अतः भगवन् ! अब मैं | इन सबका परिमाण और लक्षणोंके सहित पूरा विवरण जानना चाहता हूँ ॥ 2 ॥ क्योंकि जो मन भगवान्‌के इस गुणमय स्थूल विग्रहमें लग सकता है, उसीका उनके वासुदेवसंज्ञक स्वयंप्रकाश निर्गुण ब्रह्मरूप सूक्ष्मतम स्वरूपमें भी लगना सम्भव है। अतः गुरुवर ! इस विषयका विशदरूपसे वर्णन करनेकी | कृपा कीजिये ॥ 3 ॥

श्रीशुकदेवजी बोले – महाराज ! भगवान्‌की मायाके गुणोंका इतना विस्तार है कि यदि कोई पुरुष | देवताओंके समान आयु पा ले, तो भी मन या वाणीसेइसका अन्त नहीं पा सकता। इसलिये हम नाम, रूप, परिमाण और लक्षणोंके द्वारा मुख्य-मुख्य बातोंको लेकर ही इस भूमण्डलकी विशेषताओंका वर्णन करेंगे ॥ 4 ॥ यह जम्बूद्वीप-जिसमें हम रहते है. भूमण्डलरूप कमलके स्थानीय जो सात द्वीप है, उनमें सबसे भीतरका कोश है। इसका विस्तार एक लाख योजन है और यह कमलपत्रके समान गोलाकार है ॥ 5॥ इसमें नौ-नौ हजार योजन विस्तारवाले नौ वर्ष है, जो इनकी सीमाओंका विभाग करनेवाले आठ पर्वतोंसे बैटे हुए हैं ।। 6 ।। इनके बीचों-बीच इलावृत नामका दस वर्ष है, जिसके मध्य में कुलपर्वतोंका राजा मेरुपर्वत है। वह मानो भूमण्डलरूप कमलकी कर्णिका ही है। वह ऊपरसे नीचेतक सारा का सारा सुवर्णमय है और एक लाख योजन ऊँचा है। उसका विस्तार शिखरपर बत्तीस हजार और तलैटीमें सोलह हजार योजन है तथा सोलह हजार योजन ही वह भूमिके भीतर घुसा हुआ है अर्थात् भूमिके बाहर उसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन है ।। 7 । इलावृतवर्षके उत्तरमें क्रमशः नील, श्वेत और शुङ्गवान् नामके तीन पर्वत है जो रम्यक, हिरण्मय और कुरु नामके वर्षोंकी सोमा बांधते हैं। वे पूर्वसे पश्चिमतक खारे पानी के समुद्रतक फैले हुए हैं। उनमेंसे प्रत्येककी चौड़ाई दो हजार योजन है तथा लम्बाई में | पहलेकी अपेक्षा पिछला क्रमशः दशमांशसे कुछ अधिक कम है, चौड़ाई और ऊंचाई तो सभीकी समान है ॥ 8 ॥

इसी प्रकार इतके दक्षिणकी ओर एकके बाद एक निषेध, हेमकूट और हिमालय नामके तीन पर्वत है। नीलादि पर्वतोंके समान ये भी पूर्व-पश्चिम की ओर फैले हुए हैं और दस-दस हजार योजन ऊँचे हैं। इनसे क्रमशः हरिवर्ष, किम्पुरुष और भारतवर्षको सीमाओंका विभाग होता है ॥। 9 ॥ | इलावृतके पूर्व और पश्चिमकी ओर उत्तरमे नील पर्वत और दक्षिण में निषध पर्वततक फैले हुए गन्धमादन और माल्यवान् नामके दो पर्वत है। इनकी चौड़ाई दो-दो हजार योजन है और ये भद्राश्व एवं केतुमाल नामक दो वर्षोंकी सीमा निश्चित करते हैं ॥ 10 ॥ इनके सिवा मन्दर, मेरुमन्दर, सुपार्श्व और कुमुद-ये चार दस-दस हजार योजन ऊँचे और उतने ही चौड़े पर्वत मेरु पर्वतकी आधारभूता थूनियोंके समान बने हुए हैं ॥ 11 ॥ इन चारोंके ऊपर इनकी ध्वजाओंके समान क्रमशः आम, जामुन, कदम्ब और बड़के चार पेड़ है। इनमेंसे प्रत्येकग्यारह सौ योजन ऊंचा है और इतना ही इनकी ओ विस्तार है। इनकी मोटाई सौ-सौ योजन है 12 भरतश्रेष्ठ । इन पर्वतीपर चार सरोवर भी हैं जो दूध, मधु, ईसके रस और मीठे जलसे भरे हुए हैं। इनका सेवन करनेवाले वक्ष- किनरादि उपदेवीको स्वभाव है योगसिद्धियाँ प्राप्त है ॥ 13 ॥ इनपर क्रमशः नन्दन चै वैभाजक और सर्वतोभद्र नामके चार दिव्य उपवन भी हैं ॥ 14 ॥ इनमें प्रधान प्रधान देवगण अनेको सुरसुन्दरियोंके नायक बनकर साथ-साथ विहार करते हैं। उस समय गन्धर्वादि उपदेवगण इनकी महिमाका बन किया करते हैं ।। 15॥

मन्दराचलको गोदमें जो ग्यारह सौ योजन ऊँचा देवताओंका आम्रवृक्ष है, उससे गिरिशिरके समान बड़े बड़े और अमृतके समान स्वादिष्ट फल गिरते हैं॥ 16 ॥ वे जब फटते हैं, तब उनसे बड़ा सुगन्धित और मोटा लाल-लाल रस बहने लगता है। वहीं अरुणोदा नामकी नदीमें परिणत हो जाता है। यह नदी मन्दराचलके शिखरसे गिरकर अपने जलसे इलावृत वर्षके पूर्वी भागको सींचती है ॥ 17 ॥ श्रीपार्वतीजीकी अनुचरी यक्षपत्रियाँ इस जलका सेवन करती है। इससे उनके असे ऐसी सुगन्ध निकलती है कि उन्हें स्पर्श करके बहनेवाली वायु उनके चारों ओर दस-दस योजनतक सारे देशको सुगन्धसे भर देती है ।। 18 ।। इसी प्रकार जामुनके वृक्षसे हाथोंके समान बड़े-बड़े प्रायः बिना गुठलीके फल गिरते हैं। बहुत ऊँचेसे गिरनेके कारण वे फट जाते हैं। उनके रससे जम्बू नामकी नदी प्रकट होती है, जो मेरुमन्दर पर्वतके दस हजार योजन ऊँचे शिखरसे गिरकर इलावृतके दक्षिण भू | भागको सोचती है ।। 19 ।। उस नदीके दोनों किनारोकी | मिट्टी उस रससे भीगकर जब वायु और सूर्यके संयोग से सूख जाती है, तब वही देवलोकको विभूषित करनेवाला जाम्बूनद नामका सोना बन जाती है | 20 | इसे देवता और गन्धर्वादि अपनी तरुणी स्त्रियोंके सहित मुकुट, कङ्कण और करधनी आदि आभूषणोंके रूपमें धारण करते है ll 21 ll

सुपार्श्व पर्वतपर जो विशाल कदम्बवृक्ष है, उसके पाँच कोटरोंसे मधुकी पांच धाराएँ निकलती है; उनकीमोटाई पाँच पुरसे जितनी है। ये सुपार्श्वके शिखरसे गिरकर इलावृतवर्षके पश्चिमी भागको अपनी सुगन्धसे सुवासित करती हैं ॥ 22 ॥ जो लोग इनका मधुपान करते हैं, उनके मुखसे निकली हुई वायु अपने चारों ओर सौ-सौ योजनतक इसकी महक फैला देती है ll 23 ll

इसी प्रकार कुमुद पर्वतपर जो शतवल्श नामका वटवृक्ष है, उसकी जटाओंसे नीचेकी ओर बहनेवाले अनेक नद निकलते हैं, वे सब इच्छानुसार भोग देनेवाले हैं। उनसे दूध, दही, मधु, घृत, गुड़, अन्न, वस्त्र, शय्या, आसन और आभूषण आदि सभी पदार्थ मिल सकते हैं। ये सब कुमुदके शिखरसे गिरकर इलावृतके उत्तरी भागको सींचते हैं ॥ 24 ॥ इनके दिये हुए पदार्थोंका उपभोग करनेसे वहाँकी प्रजाकी त्वचामें झुर्रियाँ पड़ जाना, बाल पक जाना, थकान होना, शरीरमें पसीना आना तथा दुर्गन्ध निकलना, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, सर्दी गरमीकी पीड़ा, शरीरका कान्तिहीन हो जाना तथा अङ्गका टूटना आदि कष्ट कभी नहीं सताते और उन्हें जीवनपर्यन्त पूरा-पूरा सुख प्राप्त होता है ।। 25 ।।

राजन् ! कमलकी कर्णिकाके चारों ओर जैसे केसर होता है— उसी प्रकार मेरुके मूलदेशमें उसके चारों ओर कुरङ्ग, कुरा, कुसुम्भ, वैकङ्क, त्रिकूट, शिशिर, पतङ्ग, रुचक, निषध, शिनीवास, कपिल, शङ्ख, वैदूर्य, जारुधि, हंस, ऋषभ, नाग, कालंजर और नारद आदि बीस पर्वत और हैं ॥ 26 ॥ इनके सिवा मेरुके पूर्वकी ओर जठर और देवकूट नामके दो पर्वत हैं, जो अठारह अठारह हजार योजन लंबे तथा दो-दो हजार योजन चौड़े और ऊँचे हैं। इसी प्रकार पश्चिमकी ओर पवन और पारियात्र, दक्षिणकी ओर कैलास और करवीर तथा उत्तरकी ओर त्रिशृङ्ग और मकर नामके पर्वत हैं। इन आठ पहाड़ोंसे चारों ओर घिरा हुआ सुवर्णगिरि मेरु अग्रिके समान जगमगाता रहता है ॥ 27 ॥ कहते हैं, मेरुके शिखरपर बीचोंबीच भगवान् ब्रह्माजीकी सुवर्णमयी पुरी है—जो आकारमें समचौरस तथा करोड़ योजन विस्तारवाली है ॥ 28 ॥ उसके नीचे पूर्वादि आठ दिशा और उपदिशाओंमें उनके अधिपति इन्द्रादि आठ लोकपालोंकी आठ पुरियाँ हैं। वे अपने-अपने स्वामीके अनुरूप उन्हीं उन्हीं दिशाओंमें हैं तथा परिमाणमें ब्रह्माजीकी पुरीसे चौथाई हैं ।। 29 ।।

अध्याय 17 गङ्गाजीका विवरण

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन्! जब राजा बलिको पालामे साक्षात् यज्ञमूर्ति भगवान् विष्णु त्रिलोकीको नापनेके लिये अपना पैर फैलाया, तब उनके बायें पैर के अंगूठेके नखसे ब्रह्माण्डकटाहका ऊपरका भाग फट गया। उस छिद्रमें होकर जो ब्रह्माण्डसे बाहरके जलकी धारा आयो, वह उस चरणकमलको धोनेसे उसमें लगी हुई केसरके मिलनेसे लाल हो गयी। उस निर्मल धाराका स्पर्श होते ही संसारके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, किन्तु वह सर्वथा निर्मल ही रहती है। पहले किसी और नामसे न पुकारकर उसे ‘भगवत्पदी’ ही कहते थे। वह धारा हजारों युग बीतनेपर स्वर्गके शिरोभागमें स्थित लोकमे उतरी, जिसे ‘विष्णुपद’ भी कहते हैं॥ 1 ॥ वीरव्रत परीक्षित्! उस ध्रुवलोकमे उत्तानपादके पुत्र परम भागवत ध्रुवजी रहते हैं। वे नित्यप्रति बढ़ते हुए भक्तिभावसे ‘यह हमारे कुलदेवताकर चरणोदक है’ ऐसा मानकर आज भी उस जलको बड़े आदरसे सिरपर चढ़ाते हैं। उस समय प्रेमावेशके कारण उनका हृदय अत्यन्त गद्रद हो जाता है, उत्कण्ठावश बरबस मुँदे हुए दोनों | नयन-कमलोंसे निर्मल आँसुओंकी धारा बहने लगती है। और शरीरमें रोमाञ्च हो आता है॥ 2 ॥

इसके पश्चात् आत्मनिष्ठ सप्तर्षिगण उनका प्रभाव जाननेके कारण ‘यही तपस्याकी आत्यन्तिक सिद्धि है’ ऐसा मानकर उसे आज भी इस प्रकार आदरपूर्वक अपने जटाजूटपर वैसे ही धारण करते हैं, जैसे मुमुक्षुजन प्राप्त हुई मुक्तिको। यों ये बड़े ही निष्काम हैं, सर्वात्मा भगवान् वासुदेवकी निश्चल भक्तिको ही अपना परम धन मानकर इन्होंने अन्य सभी कामनाओंको त्याग दिया है, यहाँतक कि आत्मज्ञानको भी ये उसके सामने कोई चीज नहीं समझते 3 । वहाँसे गाजी करोड़ों विमानोंसे घिरे हुए आकाशमें होकर उतरती हैं और चन्द्रमण्डलको आप्लावित करती मेरुके शिखरपर ब्रह्मपुरीमे गिरती है ll 4 ll वहाँ ये सीता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्रा नामसे चार धाराओं में विभक्त हो जाती हैं तथा अलग-अलग चारों दिशाओंमें बहती हुई अन्तमें नद-नदियोंके अधीश्वर समुद्रमें गिर जाती हैं ॥ 5 ॥इनमें सीता ब्रह्मपुरीसे गिरकर केसराचलोंके सर्वोच्च शिखरोंमें होकर नीचे की ओर बहती गन्धमादन के शिखरोंपर गिरती है और भद्राश्ववर्षको प्लावित कर पूर्वकी ओर खारे समुद्रमे मिल जाती है ।। 6 ।। इसी प्रकार चक्षु माल्यवान् के शिखरपर पहुंचकर वहाँसे बेरोक-टोक केतुमालवर्षमें बहती पश्चिमकी ओर क्षारसमुद्रमें जा मिलती है ॥ 7 ॥ भद्रा मेरुपर्वतके शिखरसे उत्तरकी ओर गिरती है तथा एक पर्वतसे दूसरे पर्वतपर जाती अन्तमें शृङ्गवान्के शिखरसे गिरकर उत्तरकुरु देशमें होकर उत्तरकी ओर बहती हुई समुद्रमे मिल जाती है ॥ 8 ॥ अलकनन्दा ब्रह्मपुरीसे दक्षिणकी ओर गिरकर अनेकों गिरि-शिखरोंको लाँघती हेमकूट पर्वतपर पहुँचती है, वहाँसे अत्यन्त तीन वेगसे हिमालय के शिखरोंको चीरती हुई भारतवर्ष में आती है और फिर दक्षिणकी ओर समुद्रमें जा मिलती है। इसमें स्नान करनेके लिये आनेवाले पुरुषी को पद-पदपर अश्वमेध और राजसूय आदि यज्ञोंका फल भी दुर्लभ नहीं है ॥ 9 ॥ प्रत्येक वर्ष में मेरु आदि पर्वतोंसे निकली हुई और भी सैकड़ों नद-नदियाँ है॥ 10 ॥

इन सब वर्षो भारतवर्ष ही कर्मभूमि है। शेष आठ वर्ष तो स्वर्गवासी पुरुषोंके स्वर्गभोगसे बचे हुए पुण्यों को भोगनेके स्थान हैं। इसलिये इन्हें भूलोकके स्वर्ग भी कहते हैं ॥ 11 ॥ वहाँके देवतुल्य मनुष्योंकी मानवी गणनाके अनुसार दस हजार वर्षकी आयु होती है। उनमें दस हजार हाथियोंका बल होता है तथा उनके वज्रसदृश मुद्द शरीरमें जो शक्ति, यौवन और उल्लास होते हैं उनके कारण वे बहुत समयतक मैथुन आदि विषय भोगते रहते हैं। अन्तमें जब भोग समाप्त होनेपर उनकी आयुका केवल एक वर्ष रह जाता है, तब उनकी स्त्रियाँ गर्भ धारण करती है। इस प्रकार वहाँ सर्वदा त्रेतायुगके समान समय बना रहता है ।। 12 ।। वहाँ ऐसे आश्रम, भवन और वर्ष, पर्वतोकी घाटियाँ हैं जिनके सुन्दर वन-उपवन सभी ऋतुओंके फूलोंके गुच्छे फल और नूतन पल्लवोंकी शोभाके भारसे झुकी हुई डालियों और लताओंवाले वृक्षोंसे सुशोभित है; वहाँ निर्मल जलसे भरे हुए ऐसे जलाशय भी है; जिनमे तरह-तरहके नूतन कमल खिले रहते हैं और उन कमलोंकी सुगन्धसे प्रमुदित होकरराजहंस, जलमुर्ग, कारण्डव, सारस और चकवा आदि पक्षी तरह-तरहकी बोली बोलते तथा विभिन्न जातिके मतवाले और मधुर-मधुर गुंजार करते रहते हैं। इन आश्रमों, भवनों, घाटियों तथा जलाशयों में वहाँकै देवेश्वर- गण परम सुन्दरी देवाङ्गना अंक साथ उनके कामोन्मादसूचक हास-विलास और लीला कटाक्षोंसे मन और नेत्रोंके आकृष्ट हो जानेके कारण जलक्रीडादि नाना प्रकारके खेल करते हुए स्वच्छन्द विहार करते हैं तथा उनके प्रधान प्रधान अनुचरगण अनेक प्रकारकी सामग्रियोंसे उनका आदर-सत्कार करते रहते हैं ।। 13 ।।

इन नवों वर्षो में परमपुरुष भगवान् नारायण वहाँके पुरुषोंपर अनुग्रह करनेके लिये इस समय भी अपनी विभिन्न मूर्तियोंसे विराजमान रहते हैं ॥ 14 ॥ इलावृतवर्षमें एकमात्र भगवान् शङ्कर पुरुष हैं। श्रीपार्वतीजीके शापको जाननेवाला कोई दूसरा पुरुष वहाँ प्रवेश नहीं करता; क्योंकि वहाँ जो जाता है, वही स्त्रीरूप हो जाता है। इस प्रसङ्गका हम आगे (नवम स्कन्धमें) वर्णन करेंगे ॥ 15 ॥ वहाँ पार्वती एवं उनकी अरबों-खरबों दासियोंसे | सेवित भगवान् शङ्कर परम पुरुष परमात्माकी वासुदेव, प्रद्युम्र, अनिरुद्ध और सङ्कर्षणसंज्ञक चतुर्व्यूह मूर्तियोंमेंसे अपनी कारणरूपा सङ्कर्षण नामकी तमः प्रधान चौथी मूर्तिका ध्यानस्थित मनोमय विग्रहके रूपमें चिन्तन करते हैं और इस मन्त्रका उच्चारण करते हुए इस प्रकार स्तुति करते हैं* ll 16 ll

भगवान् शङ्कर कहते हैं— ‘ॐ जिनसे सभी गुणोंकी अभिव्यक्ति होती है, उन अनन्त और अव्यक्तमूर्ति ओङ्कारस्वरूप परमपुरुष श्रीभगवान्को नमस्कार है। ‘भजनीय प्रभो। आपके चरणकमल भक्तोंको आश्रय देनेवाले हैं तथा आप स्वयं सम्पूर्ण ऐश्वयक परम आश्रय हैं। भक्तोंके सामने आप अपना भूतभावन स्वरूप पूर्णतया प्रकट कर देते हैं तथा उन्हें संसारबन्धनसे भी मुक्त कर देते हैं, किन्तु अभक्तोंको उस बन्धनमें डालते रहते हैं। आप ही सर्वेश्वर हैं, मैं आपका भजन करता हूँ ।। 17-18 ॥ प्रभो । हमलोग क्रोधके आवेगको नहीं जीत सके हैं तथा हमारी दृष्टि तत्काल पापसे लिप्त हो जाती है। परन्तु आप तो संसारका नियमन करनेके लिये निरन्तर साक्षीरूपसे उसके सारे व्यापारोंको देखते रहते हैं। तथापि हमारी तरफ आपकी दृष्टिपर उन मायिक विषयों तथा चित्तकी वृत्तियोंका नाममात्रको भी प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसी स्थितिमें अपने मनको वशमें करनेकी इच्छावाला कौन पुरुष आपका आदर न करेगा ? ।। 19 ।। आप जिन पुरुषोंको मधु-आसवादि पानके कारण अरुणनयन और मतवाले जान । पढ़ते हैं, वे मायाके वशीभूत होकर ही ऐसा मिथ्या दर्शन करते हैंतथा आपके चरणस्पर्शसे ही चित्त चञ्चल हो जानेके कारण नागपत्त्रियाँ लज्जावश आपकी पूजा करनेमें असमर्थ हो जाती हैं ॥ 20 ॥ वेदमन्त्र आपको जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और लयका कारण बताते हैं; परन्तु आप स्वयं इन तीनों विकारोंसे रहित हैं; इसलिये आपको ‘अनन्त’ कहते हैं। आपके सहस्र मस्तकोंपर यह भूमण्डल सरसोंके दानेके समान रखा हुआ है, आपको तो यह भी नहीं मालूम होता कि वह कहाँ स्थित है ॥ 21 ॥ जिनसे उत्पन्न हुआ मैं अहङ्काररूप अपने त्रिगुणमय तेजसे देवता, इन्द्रिय और भूतोंकी रचना करता हूँ—वे विज्ञानके आश्रय भगवान् ब्रह्माजी भी आपके ही महत्तत्त्वसंज्ञक प्रथम गुणमय स्वरूप हैं ॥ 22 ॥ महात्मन् ! महत्तत्त्व, अहङ्कार इन्द्रियाभिमानी देवता, इन्द्रियाँ और पञ्चभूत आदि हम सभी डोरीमें बँधे हुए पक्षीके समान आपकी क्रियाशक्तिके वशीभूत रहकर आपकी ही कृपासे इस जगत्की रचना करते हैं ॥ 23 ॥ सत्त्वादि गुणोंकी सृष्टि | मोहित हुआ यह जीव आपकी ही रची हुई तथा कर्म-बन्धनमें बाँधनेवाली मायाको तो कदाचित् जान भी लेता है, किन्तु उससे मुक्त होनेका उपाय उसे सुगमतासे नहीं मालूम होता । इस जगत्की उत्पत्ति और प्रलय भी आपके ही रूप हैं। | ऐसे आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ’ ॥ 24 ॥

अध्याय 18 भिन्न-भिन्न वर्षोंका वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन्! भद्राश्ववर्षमें धर्मपुत्र भद्रश्रवा और उनके मुख्य-मुख्य सेवक भगवान् वासुदेवकी हयग्रीवसंज्ञक धर्ममयी प्रिय मूर्तिको अत्यन्त समाधिनिष्ठाके द्वारा हृदयमें स्थापित कर इस मन्त्रका जप करते हुए इस प्रकार स्तुति करते हैं ॥ 1 ॥

भद्रश्रवा और उनके सेवक कहते हैं- ‘चित्तको विशुद्ध करनेवाले ओङ्कारस्वरूप भगवान् धर्मको नमस्कार है’ ॥ 2 ॥अभी बड़ी विचित्र है, जिसके कारण यही सम्पूर्ण लोकका संहार करनेवाले कालको देखकर भी नहीं देखता और तुच्छ विषयोंका सेवन करनेके लिये पापमय विचारोंकी उपेड़-बुन लगा हुआ अपने ही हाथों अपने पुत्र और पिता जलाकर भी स्वयं जीते रहने की इच्छा करता है ॥ 3॥ विद्वान् लोग जगत्‌को नश्वर बताते हैं और सूक्ष्मदर्शी आत्मज्ञानी ऐसा ही देखते भी है; तो भी जन्मरहित प्रभो। आपकी मायासे लोग मोहित हो जाते हैं। आप अनादि है तथा आपके कृत्य बड़े विस्मयजनक है, मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ 4 ॥ परमात्मन्। आप अकर्ता और मायाके आवरण रहित है तो भी जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय ये आपके ही कर्म माने गये है। सो ठीक ही है, इसमें कोई की बात नहीं है। क्योंकि सर्वात्मरूपसे आप ही सम्पूर्ण कार्योंकि कारण है और अपने शुद्धस्वरूपमें इस कार्य कारणभावसे सर्वथा अतीत है ॥ 5 ॥ आपका विग्रह मनुष्य और घोड़ेका संयुक्त रूप है। प्रलयकालमें जब तमः प्रधान दैत्यगण वेदों को चुरा ले गये थे, तब ब्रह्माजी के प्रार्थना करनेपर आपने उन्हें रसातलसे लाकर दिया। ऐसे अमोघ लीला करनेवाले सत्यसङ्कल्प आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ 6 ॥

हरिवर्षखण्ड में भगवान् नृसिंहरूपसे रहते हैं। उन्होंने यह रूप जिस कारणसे धारण किया था, उसका आगे (सप्तम स्वशमें) वर्णन किया जायगा। भगवान्‌ के उस प्रिय रूपकी महाभागवत प्रह्लादजी उस वर्षक अन्य पुरुषोंके सहित निष्काम एवं अनन्य भक्तिभावसे उपासना करते हैं। ये | प्रह्लादजी महापुरुषोचित गुणोंसे सम्पन्न हैं तथा इन्होंने अपने शील और आचरण से दैत्य और दानवोंके कुलको पवित्र कर दिया है। वे इस मन्त्र तथा स्तोत्रका जप-पाठ करते है 7 ॥ — ‘ओङ्कारस्वरूप भगवान् श्रीनृसिंहदेवको नमस्कार है। आप अनि आदि जोंके भी तेज है, आपको नमस्कार है। हे व हे वष्ट्र। आप हमारे समीप प्रकट होइये, प्रकट होइये हमारी कर्म-वासनाओंको जला डालिये, जला डालिये हमारे अज्ञानरूप अन्धकारको नष्ट कीजिये, नष्ट कीजिये ॐ स्वाहा। हमारे अन्तःकरणमे अभवदान देते हुए 1 प्रकाशित होइये। ॐ श्रौम्’ ॥ 8 ॥ ‘नाथ विश्वका कल्याण हो, बुद्धि शुद्ध हो, सब प्राणियोंमें परस्पर सद्भावना हो, सभी एक-दूसरेका हितचिन्तन करें, हमारा मन शुभ मार्गमें प्रवृत्त हो और हम सबकी बुद्धि निष्कामभावसे भगवान् श्रीहरिमें प्रवेश करे ।॥ 9 ॥प्रभो! घर, स्त्री, पुत्र, धन और भाई- हमारी आसक्ति न हो; यदि हो तो केवल भगवान के प्रेमी भक्तोही जो संयमी पुरुष केवल शरीरनिर्वाह योग्य अादि स रहता है, उसे जितना शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है, जैसी इन्द्रियलोलुप पुरुषको नहीं होती ॥ 10 ॥ उन भ सङ्गसे भगवान् के तीर्थतुल्य पवित्र चरित्र सुननेको मिलते हैं, जो उनकी असाधारण शक्ति एवं प्रभावके सूचक होते हैं। उनका बार-बार सेवन करनेवालोंके कानोंके रास्ते से भगवान् हृदयमें प्रवेश कर जाते हैं और उनके सभी प्रकारके दैहिक और मानसिक मलोको नष्ट कर देते हैं। फिर भला उन भगवद्भक्तोका सङ्ग कौन न करना चाहेगा ? ।। 11 ।। जिस पुरुषकी भगवान्‌में निष्काम भक्ति है, उसके हृदयमें समस्त |देवता धर्म-ज्ञानादि सम्पूर्ण सद्गुणों के सहित सदा निवास करते हैं। किन्तु जो भगवान्का भक्त नहीं है, उसमें महापुरुषों के वे गुण आ ही कहाँसे सकते हैं? वह तो तरह तरहके सङ्कल्प करके निरन्तर तुच्छ बाहरी विषयोंकी ओर ही दौड़ता रहता है ॥ 12 ॥ जैसे मछलियोंको जल अत्यन्त प्रिय- उनके जीवनका आधार होता है, उसी प्रकार साक्षात् श्रीहरि ही समस्त देहधारियोंके प्रियतम आत्मा है। उन्हें त्यागकर यदि कोई महत्त्वाभिमानी पुरुष घरमें आसक्त रहता है तो उस दशामें स्त्री-पुरुषोंका बड़प्पन केवल आयुको लेकर ही माना जाता है; गुणकी दृष्टिसे नहीं ॥ 13 ॥ अतः असुरगण । तुम तृष्णा, राग, विषाद, क्रोध, अभिमान, इच्छा, भय, दीनता और मानसिक सन्तापके मूल तथा जन्म-मरणरूप संसारचक्रका वहन करनेवाले गृह आदिको त्यागकर भगवान् नृसिंहके निर्भय चरणकमलोंका आश्रय लो ॥ 14 ॥

केतुमालवर्षमें लक्ष्मीजीका तथा संवत्सर नामक प्रजापतिके पुत्र और पुत्रियोंका प्रिय करनेके लिये भगवान् कामदेवरूपसे निवास करते हैं। उन रात्रिकी अभिमानी देवतारूप कन्याओं और दिवसाभिमानी देवतारूप पुत्रोंकी संख्या मनुष्यकी सौ वर्षकी आयुके दिन और रातके बराबर अर्थात् छत्तीस-छत्तीस हजार वर्ष है और वे ही उस वर्ष के अधिपति हैं। वे कन्याएँ परमपुरुष श्रीनारायणके श्रेष्ठ अस्त्र सुदर्शनचक्रके तेजसे डर जाती है; इसलिये प्रत्येक वर्षके अन्तमें उनके गर्भ नष्ट होकर गिर जाते हैं ।। 15 ।। भगवान् अपने सुललित गति-विलाससे सुशोभित मधुर-मधुर मन्द मुसकानसे मनोहर लीलापूर्ण चारु चितवनसे कुछ उझके हुए सुन्दर भूमण्डलकी छबीली छटाके द्वारा वदनारविन्दका राशि राशि सौन्दर्य उँडेलकर सौन्दर्यदेवी श्रीलक्ष्मीको अत्यन्त आनन्दित करते और स्वयं भी आनन्दित होते रहते हैं ।। 16 ।।श्रीलक्ष्मीजी परम समाधियोगके द्वारा भगवान्के उस मायामय स्वरूपकी रात्रि के समय प्रजापति संवत्सरकी कल्याओसहित और दिनमें उनके पतियोंके सहित आराधना और वे इस मन्त्रका जप करती हुई भगवान्‌की स्तुति करती है ॥ 17 ॥ ‘जो इन्द्रियोंके नियन्ता और सम्पूर्ण श्रेष्ठ वस्तुओंके आकर हैं, क्रियाशक्ति, ज्ञानशक्ति | और सङ्कल्प-अध्यवसाय आदि चित्तके धर्मों तथा उनके विषयोंके अधीश्वर हैं, ग्यारह इन्द्रिय और पाँच विषय – इन सोलह कलाओंसे युक्त है, वेदोक्त कमसे | प्राप्त होते हैं तथा अन्नमय, अमृतमय और सर्वमय है उन मानसिक, ऐन्द्रियक एवं शारीरिक बलस्वरूप परम सुन्दर भगवान् कामदेवको ‘ॐ ह्रां ह्रीं हूं’इन बीजमन्त्रोंके सहित सब ओरसे नमस्कार है’ ।। 18 ।।

‘भगवन्! आप इन्द्रियोंके अधीश्वर हैं। स्त्रियाँ तरह-तरहके कठोर व्रतोंसे आपकी ही आराधना करके अन्य लौकिक पतियोंकी इच्छा किया करती है। किन्तु वे उनके प्रिय पुत्र, धन और आयुकी रक्षा नहीं कर सकते, क्योंकि वे स्वयं ही परतन्त्र है ॥ 19 ॥ सच्चा पति (रक्षा | करनेवाला या ईश्वर) वही है, जो स्वयं सर्वधा निर्भय हो और दूसरे भयभीत लोगोंकी सब प्रकारसे रक्षा कर सके। ऐसे पति एकमात्र आप ही है; यदि एकसे अधिक ईश्वर माने जायें, तो उन्हें एक-दूसरेसे भय होनेकी सम्भावना है। अतएव आप अपनी प्राप्तिसे बढ़कर और किसी लाभको नहीं मानते ॥ 20 ॥ भगवन्! जो स्त्री आपके चरणकमलोंका पूजन ही चाहती है, और किसी वस्तुकी इच्छा नहीं करती उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं; किन्तु जो किसी एक कामनाको लेकर आपकी उपासना करती है, उसे आप केवल वही वस्तु देते हैं और जब भोग समर होनेपर वह नष्ट हो जाती है तो उसके लिये उसे सन्तार होना पड़ता है 21 ॥ अजित मुझे पानेके लिये इन्द्रिय-सुखके अभिलाषो ब्रह्मा और रुद्र आदि समस्त | सुरासुरगण घोर तपस्या करते रहते हैं, किन्तु आपके चरणकमलोका आश्रय लेनेवाले भक्तके सिवा मुझे कोई पा नहीं सकता, क्योंकि मेरा मन तो आपमें ही लगा रहता है ।। 22 ।। अच्युत । आप अपने जिस वन्दनीय करकमलको भक्तोंके मस्तकपर रखते हैं, उसे मेरे सिरपर भी रखिये। वरेण्य आप मुझे केवल श्रीरूप अपने वक्ष स्थलमें ही धारण करते हैं; सो आप सर्वसमर्थ है, आप अपनी मायासे जो लीलाएँ करते हैं, उनका रहस्य कौन जान सकता है ? ॥ 23 ॥रम्यकवर्षमें भगवान्ने वहाँके अधिपति मनुको पूर्वकालमें अपना परम प्रिय मत्स्यरूप दिखाया था। मनुजी इस समय भी भगवान्‌ के उसी रूपको बड़े भक्तिभावसे उपासना करते हैं और इस मन्त्रका जप करते हुए स्तुति करते है— सत्त्वप्रधान मुख्य प्राण सूत्रात्मा तथा मनोबल, इन्द्रियबल और शरीरबल ओङ्कारपदके अर्थ सर्वश्रेष्ठ भगवान् महामत्स्यको बार-बार नमस्कार है’ ॥ 24-25 ॥

प्रभो। नट जिस प्रकार कठपुतलियोंको नचाता है, | उसी प्रकार आप ब्राह्मणादि नामोंकी डोरीसे सम्पूर्ण विश्वको अपने अधीन करके नचा रहे हैं। अतः आप ही सबके प्रेरक है आपको ब्रह्मादि लोकपालगण भी नहीं देख सकते; तथापि आप समस्त प्राणियोंके भीतर प्राणरूपसे और बाहर वायुरूपसे निरन्तर सञ्चार करते रहते हैं वेद ही आपका | महान् शब्द है ।। 26 ।। एक बार इन्द्रादि इन्द्रियाभिमानी देवताओंको प्राणस्वरूप आपसे डाह हुआ। तब आपके अलग हो जानेपर वे अलग-अलग अथवा आपसमें मिलकर भी मनुष्य, पशु, स्थावर-जङ्गम आदि जितने शरीर दिखायी देते हैं उनमें से किसीकी बहुत यत्न करनेपर भी रक्षा नहीं कर सके ॥ 27 ॥ अजन्मा प्रभो! आपने मेरे सहित समस्त औषध और लताओंकी आश्रयरूपा इस पृथ्वीको लेकर बड़ी-बड़ी उत्ताल तरोंसे युक्त प्रलयकालीन समुद्रमें बड़े उत्साहसे विहार किया था। आप संसारके समस्त प्राणसमुदायके नियन्ता है; मेरा आपको नमस्कार है ।। 28 ।।

हिरण्मयवर्षमें भगवान् कच्छपरूप धारण करके रहते हैं वहाँकै निवासियोंके सहित पितुराज अर्यमा भगवान्की उस प्रियतम मूर्तिकी उपासना करते हैं और इस मन्त्रको निरन्तर जपते हुए स्तुति करते हैं ।। 29 ।। ‘जो सम्पूर्ण सत्त्वगुणसे युक्त हैं, जलमें विचरते रहनेके कारण जिनके स्थानका कोई निश्चय नहीं है तथा जो कालकी मर्यादाके बाहर हैं, उन ओङ्कारस्वरूप सर्वव्यापक सर्वाधार भगवान् कच्छपको बार-बार नमस्कार है’ ll 30 ll

भगवन्। अनेक रूपोंमें प्रतीत होनेवाला यह दृश्यप्रपञ्च यद्यपि मिथ्या हो निश्चय होता है, इसलिये इसकी वस्तुतः कोई संख्या नहीं है; तथापि यह मायासे प्रकाशित होनेवाला आपका ही रूप है। ऐसे अनिर्वचनीयरूप आपको मेरा नमस्कार है ॥ 31 ॥एकमात्र आप ही जरायुज, स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जङ्गम, स्थावर, देवता, ऋषि, पितृगण, भूत, इन्द्रिय, स्वर्ग, आकाश, पृथ्वी, पर्वत, नदी, समुद्र, द्वीप, ग्रह और तारा आदि विभिन्न नामोंसे प्रसिद्ध है ॥ 32 ॥ आप असंख्य नाम, रूप और आकृतियोंसे युक्त हैं; कपिलादि विद्वानोंने जो आपमें चौबीस तत्त्वोंकी संख्या निश्चित की है-वह जिस तत्त्वदृष्टिका उदय होनेपर निवृत्त हो जाती है, वह भी वस्तुतः आपका ही स्वरूप है। ऐसे सांख्यसिद्धान्तस्वरूप आपको मेरा नमस्कार है’ ॥ 33 ॥

उत्तर कुरुवर्षमें भगवान् यज्ञपुरुष वराहमूर्ति धारण | करके विराजमान हैं। वहाँ के निवासियोंके सहित साक्षात् पृथ्वीदेवी उनकी अविचल भक्तिभावसे उपासना करती और इस परमोत्कृष्ट मन्त्रका जप करती हुई स्तुति करती हैं ॥ 34 ॥ – ‘जिनका तत्त्व मन्त्रोंसे जाना जाता है, जो यज्ञ और क्रतुरूप हैं तथा बड़े-बड़े यज्ञ जिनके अङ्ग हैं—उन ओङ्कारस्वरूप शुक्लकर्ममय त्रियुगमूर्ति पुरुषोत्तम भगवान् वराहको बार-बार नमस्कार है’ ।। 35 ॥

ऋत्विजगण जिस प्रकार अरणिरूप काष्ठखण्डोंमें छिपी हुई अग्निको मन्थनद्वारा प्रकट करते हैं, उसी प्रकार कर्मासक्ति एवं कर्मफलकी कामनासे छिपे हुए जिनके रूपको देखनेकी इच्छासे परमप्रवीण पण्डितजन अपने विवेकयुक्त मनरूप मन्थनकाष्ठसे शरीर एवं इन्द्रियादिको बिलो डालते हैं। इस प्रकार मन्थन करनेपर अपने स्वरूपको प्रकट करनेवाले आपको नमस्कार है ।। 36 । विचार तथा यम-नियमादि योगाङ्गोंके साधनसे जिनकी बुद्धि निश्चयात्मिका हो गयी है—वे महापुरुष द्रव्य (विषय), क्रिया (इन्द्रियोंके व्यापार), हेतु (इन्द्रियाधिष्ठाता देवता), अयन (शरीर), ईश, काल और कर्ता (अहङ्कार) आदि मायाके कार्योंको देखकर जिनके वास्तविक स्वरूपका निश्चय करते हैं ऐसे मायिक आकृतियोंसे रहित आपको बार-बार नमस्कार है ॥ 37 ॥ जिस प्रकार लोहा जड होनेपर भी चुम्बककी सन्निधिमात्रसे चलने-फिरने लगता है, उसी प्रकार जिन सर्वसाक्षीकी इच्छामात्रसे—जो अपने लिये नहीं, बल्कि समस्त प्राणियोंके लिये होती है-प्रकृति अपने गुणोंके द्वारा जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करती रहती है; ऐसे | सम्पूर्ण गुणों एवं कर्मोके साक्षी आपको नमस्कार है ॥ 38 ॥आप जगत्के कारणभूत आदिसूकर हैं। जिस प्रकार एक हाथी दूसरे हाथीको पछाड़ देता है, उसी प्रकार गजराजके समान क्रीडा करते हुए आप युद्धमें अपने प्रतिद्वन्द्वी हिरण्याक्ष दैत्यको दलित करके मुझे अपनी दाढ़ोंकी नोकपर रखकर रसातलसे प्रलयपयोधिके बाहर निकले थे। मैं आप सर्वशक्तिमान् प्रभुको बार-बार नमस्कार करती हूँ’ ॥ 39 ॥

अध्याय 19 किम्पुरुष और भारतवर्षका वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन्! किम्पुरुषवर्षमें श्रीलक्ष्मणजीके बड़े भाई, आदिपुरुष, सीताहृदयाभिराम भगवान् श्रीरामके चरणोंकी सन्निधिके रसिक परम भागवत श्रीहनुमानजी अन्य किन्नरोंके सहित अविचल भक्तिभावसे उनकी उपासना करते हैं ॥ 1 ॥ वहाँ अन्य गन्धर्वकि सहित आष्र्ष्टिषेण उनके स्वामी भगवान् रामकी परम कल्याणमयी गुणगाथा गाते रहते हैं। श्रीहनुमान्जी उसे सुनते हैं और स्वयं भी इस मन्त्रका जप करते हुए इस प्रकार उनकी स्तुति करते हैं ।॥ 2 ॥ ‘हम ॐकारस्वरूप पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीरामको नमस्कार करते हैं। आपमें सत्पुरुषोंके लक्षण, शील और आचरण विद्यमान हैं; आप बड़े ही संयतचित्त, लोकाराधनतत्पर, साधुताकी परीक्षाके लिये कसौटीके समान और अत्यन्त ब्राह्मणभक्त हैं। ऐसे महापुरुष महाराज रामको हमारा पुनः पुनः प्रणाम है’ ॥ 3 ॥

‘भगवन्! आप विशुद्ध बोधस्वरूप, अद्वितीय, अपने स्वरूपके प्रकाशसे गुणोंके कार्यरूप जाग्रदादि सम्पूर्ण अवस्थाओंका निरास करनेवाले, सर्वान्तरात्मा, परम शान्त, शुद्ध बुद्धिसे ग्रहण किये जानेयोग्य, नाम-रूपसे रहित और अहङ्कारशून्य है; मैं आपकी शरणमें हूँ ॥ 4 ॥ प्रभो ! आपका | मनुष्यावतार केवल राक्षसोंके वधके लिये ही नहीं है, इसका मुख्य उद्देश्य तो मनुष्योंको शिक्षा देना है! अन्यथा, अपने स्वरूपमें ही रमण करनेवाले साक्षात् जगदात्मा जगदीश्वरको | सीताजीके वियोग में इतना दुःख कैसे हो सकता था ॥ 5॥आप धीर पुरुषोंके आत्मा * और प्रियतम भगवान् वासुदेव हैं; त्रिलोकीकी किसी भी वस्तुमें आपकी आसक्ति नहीं है। आप न तो सीताजीके लिये मोहको ही प्राप्त हो सकते हैं और न लक्ष्मणजीका त्याग ही कर सकते हैं। ॥ 6 ॥ आपके ये व्यापार केवल लोकशिक्षाके लिये ही हैं। लक्ष्मणाग्रज ! उत्तम कुलमें जन्म, सुन्दरता, वाक्चातुरी, बुद्धि और श्रेष्ठ योनि-इनमेंसे कोई भी गुण आपकी प्रसन्नताका कारण नहीं हो सकता, यह बात दिखानेके लिये ही आपने इन सब गुणोंसे रहित हम वनवासी वानरोंसे मित्रता की है ॥ 7 ॥ देवता, असुर, वानर अथवा मनुष्य -कोई भी हो, उसे सब प्रकारसे श्रीरामरूप आपका ही भजन करना चाहिये; क्योंकि आप नररूपमें साक्षात् श्रीहरि ही हैं और थोड़े कियेको भी बहुत अधिक मानते हैं। आप ऐसे आश्रितवत्सल हैं कि जब स्वयं दिव्यधामको सिधारे थे, तब समस्त उत्तरकोसल वासियोंको भी अपने साथ ही ले गये थे’ ॥ 8 ॥

भारतवर्ष में भी भगवान् दयावश नर-नारायणरूप धारण करके संयमशील पुरुषोंपर अनुग्रह करनेके लिये अव्यक्तरूपसे कल्पके अन्ततक तप करते रहते हैं। उनकी यह तपस्या ऐसी है कि जिससे धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, शान्ति और उपरतिको उत्तरोत्तर वृद्धि होकर अन्तमें | आत्मस्वरूपकी उपलब्धि हो सकती ॥ 9 ॥ वहाँ भगवान् नारदजी स्वयं श्रीभगवान्‌के ही कहे हुए सांख्य और योगशास्त्र के सहित भगवन्महिमाको प्रकट करनेवाले पाञ्चरात्रदर्शनका सावर्णि मुनिको उपदेश करनेके लिये भारतवर्षकी वर्णाश्रमधर्मावलम्बिनी प्रजाके सहित अत्यन्त भक्तिभावसे भगवान् श्रीनर-नारायणकी उपासना करते और इस मन्त्रका जप तथा स्तोत्रको गाकर उनकी स्तुति करते हैं ॥ 10 – ‘ओङ्कारस्वरूप, अहङ्कारसे रहित, निर्धनोंके धन, शान्तस्वभाव ऋषिप्रवर भगवान् नर-नारायणको नमस्कार है। वे परमहंसोंके परम गुरु और आत्मारामोंके अधीश्वर हैं, | उन्हें बार-बार नमस्कार है ॥ 11 ॥ यह गाते हैं’जो विश्वकी उत्पत्ति आदिमें उनके कर्त्ता होकर भी कर्तृत्वके अभिमानसे नहीं बँधते, शरीरमें रहते हुए भी उसके धर्म भूख-प्यास आदिके वशीभूत नहीं होते तथा द्रष्टा होनेपर भी जिनकी दृष्टि दृश्यके गुण-दोषोंसे दूषित नहीं होती—उन असङ्ग एवं विशुद्ध साक्षिस्वरूप भगवान् नर-नारायणको नमस्कार है ॥ 12 ॥ योगेश्वर ! हिरण्यगर्भ भगवान् ब्रह्माजीने योगसाधनकी सबसे बड़ी कुशलता यही बतलायी है कि मनुष्य अन्तकालमें देहाभिमानको छोड़कर भक्तिपूर्वक आपके प्राकृत गुणरहित स्वरूपमें अपना मन लगावे ।। 13 ।। लौकिक और पारलौकिक भोगोंके लालची मूढ पुरुष जैसे पुत्र, स्त्री और धनकी चिन्ता करके मौतसे डरते हैं—उसी | प्रकार यदि विद्वान्‌को भी इस निन्दनीय शरीरके छूटनेका भय ही बना रहा, तो उसका ज्ञानप्राप्तिके लिये किया। हुआ सारा प्रयत्न केवल श्रम ही है ॥ 14 ॥ अतः अधोक्षज ! आप हमें अपना स्वाभाविक प्रेमरूप भक्तियोग प्रदान कीजिये, जिससे कि प्रभो ! इस निन्दनीय शरीरमें आपकी मायाके कारण बद्धमूल हुई | दुर्भेद्य अहंता-ममताको हम तुरन्त काट डालें ॥। 15 ।।

राजन् ! इस भारतवर्षमें भी बहुत-से पर्वत और नदियाँ हैं—जैसे मलय, मङ्गलप्रस्थ, मैनाक, त्रिकूट, ऋषभ, कूटक, कोल्लक, सह्य, देवगिरि, ऋष्यमूक, श्रीशैल, वेङ्कट, महेन्द्र, वारिधार, विन्ध्य, शुक्तिमान्, ऋक्षगिरि, पारियात्र, द्रोण, चित्रकूट, गोवर्धन, रैवतक, ककुभ, नील, गोकामुख, इन्द्रकील और कामगिरि आदि। इसी प्रकार और भी सैकड़ों-हजारों पर्वत हैं। उनके तटप्रान्तोंसे निकलनेवाले नद और नदियाँ भी अगणित हैं ॥ 16 ॥ ये नदियाँ अपने नामोंसेही जीवको पवित्र कर देती हैं और भारतीय प्रजा इन्होंक जलमें स्नानादि करती हैं ॥ 17 ॥ उनमेंसे मुख्य-मुख्य नदियाँ ये हैं-चन्द्रवसा, ताम्रपर्णी, अवटोदा, कृतमाला, वैहायसी, कावेरी, वेणी, पयस्विनी, शर्करावर्ता, तुङ्गभद्रा, कृष्णा, वेण्या, भीमरथी, गोदावरी, निर्विन्ध्या, पयोष्णी, तापी, रेवा, सुरसा, नर्मदा, चर्मण्वती, सिन्धु, अन्ध और शोण नामके नद, महानदी, वेदस्मृति, ऋषिकुल्या, त्रिसामा, कौशिकी, मन्दाकिनी, यमुना, सरस्वती, दृषद्वती, गोमती, सरयू, रोधस्वती, सप्तवती, सुषोमा, शतद्रु, चन्द्रभागा, मरुद्वृधा, वितस्ता, असिक्री और विश्वा || 18 || इस वर्षमें जन्म लेनेवाले पुरुषोंको ही अपने किये हुए सात्त्विक, राजस और तामस कर्मोंक अनुसार क्रमशः नाना प्रकारकी दिव्य, मानुष और नारकी योनियाँ प्राप्त होती हैं; क्योंकि कर्मानुसार सब जीवोंको सभी योनियाँ प्राप्त हो सकती हैं। इसी वर्षमें अपने-अपने वर्णके लिये नियत किये हुए धर्मोका विधिवत् अनुष्ठान करनेसे मोक्षतककी प्राप्ति हो सकती है ॥ 19 ॥ परीक्षित् ! सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा, रागादि दोषोंसे रहित, अनिर्वचनीय, निराधार परमात्मा भगवान् वासुदेवमें अनन्य एवं अहैतुक भक्तिभाव ही यह मोक्षपद है। यह भक्तिभाव तभी प्राप्त होता है, जब अनेक प्रकारकी गतियोंको प्रकट करनेवाली अविद्यारूप हृदयकी ग्रन्थि कट जानेपर भगवान्‌के प्रेमीभक्तोंका सङ्ग मिलता है ॥ 20 ॥

देवता भी भारतवर्षमें उत्पन्न हुए मनुष्योंकी इस प्रकार महिमा गाते हैं- ‘अहा ! जिन जीवोंने भारतवर्षमें भगवान्की सेवाके योग्य मनुष्य जन्म प्राप्त किया है, उन्होंने ऐसा क्या पुण्य किया है ? अथवा इनपर स्वयं श्रीहरि ही प्रसन्न हो गये हैं ? इस परम सौभाग्यके लिये तो निरन्तर हम भी तरसते रहते हैं ॥ 21 ॥हमें बड़े कठोर यज्ञ, तप, व्रत और दानादि करके जो यह तुच्छ स्वर्गका अधिकार प्राप्त हुआ है— इससे क्या लाभ है ? यहाँ तो इन्द्रियोंके भोगोंकी अधिकताके कारण स्मृतिशक्ति छन जाती है, अतः कभी श्रीनारायण के चरणकमलोंकी स्मृति होती ही नहीं ।। 22 ।। यह स्वर्ग तो क्या -जहाँके निवासियोंकी एक-एक कल्पकी आयु होती है किन्तु जहाँसे फिर संसारचक्रमें लौटना पड़ता है, उन ब्रह्मलोकादिकी अपेक्षा भी भारतभूमिमें थोड़ी | आयुवाले होकर जन्म लेना अच्छा है; क्योंकि यहाँ धीर पुरुष एक क्षणमें ही अपने इस मर्त्यशरीरसे किये हुए सम्पूर्ण कर्म श्रीभगवान्को अर्पण करके उनका अभयपद प्राप्त कर सकता है ।। 23 ।

‘जहाँ भगवत्कथाकी अमृतमयी सरिता नहीं बहती, | जहाँ उसके उद्गमस्थान भगवद्भक्त साधुजन निवास नहीं करते और जहाँ नृत्य-गीतादिके साथ बड़े समारोहसे भगवान् यज्ञपुरुषकी पूजा-अर्चा नहीं की जाती वह चाहे ब्रह्मलोक ही क्यों न हो, उसका सेवन नहीं करना चाहिये ।। 24 ।। जिन जीवोंने इस भारतवर्षमे ज्ञान (विवेकबुद्धि) तदनुकूल कर्म तथा उस कर्मके उपयोगी द्रव्यादि सामग्रीसे सम्पन्न मनुष्य जन्म पाया है, वे यदि आवागमनके चक्रसे निकलनेका प्रयत्न नहीं करते, तो व्याधकी फाँसीसे छूटकर भी फलादिके लोभसे उसी वृक्षपर विहार करनेवाले वनवासी पक्षियोंके समान फिर बन्धनमें पड़ जाते हैं ॥ 25 ॥

‘अहो! इन भारतवासियोंका कैसा सौभाग्य है। जब ये यज्ञमें भिन्न-भिन्न देवताओंके उद्देश्यसे अलग-अलग भाग रखकर विधि, मन्त्र और द्रव्यादिके योगसे श्रद्धापूर्वक उन्हें हवि प्रदान करते हैं, तब इस प्रकार इन्द्रादि भिन्न-भिन्न नामोंसे पुकारे जानेपर सम्पूर्ण कामनाओंके पूर्ण करनेवाले स्वयं पूर्णकाम श्रीहरि ही प्रसन्न होकर उस हविको ग्रहण करते हैं ।। 26 । यह ठीक है कि भगवान् सकाम पुरुषोंके माँगनेपर उन्हें अभीष्ट पदार्थ देते हैं, किन्तु यह भगवान्का वास्तविक दान नहीं है; क्योंकि उन वस्तुओंको पा लेनेपर भी मनुष्य के मनमें पुनः कामनाएँ होती ही रहती हैं। इसके विपरीत जो उनका निष्कामभावसे भजन करते हैं, उन्हें तो वे साक्षात् अपने चरणकमल ही दे देते है- जो अन्य | समस्त इच्छाओंको समाप्त कर देनेवाले हैं ॥ 27 ॥अतः अबतक स्वर्गसुख भोग लेनेके बाद हमारे पूर्वकृत यज्ञ, प्रवचन और शुभ कर्मोंसे यदि कुछ भी पुण्य बचा हो, तो उसके प्रभावसे हमें इस भारतवर्षमें भगवान्‌की स्मृतिसे युक्त मनुष्य जन्म मिले; क्योंकि श्रीहरि अपना भजन करनेवालेका सब प्रकारसे कल्याण करते हैं’ ॥ 28 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं— राजन् ! राजा सगरके पुत्रोंने अपने यज्ञके घोड़ेको ढूँढ़ते हुए इस पृथ्वीको चारों ओरसे खोदा था। उससे जम्बूद्वीपके अन्तर्गत ही आठ उपद्वीप और बन गये, ऐसा कुछ लोगोंका कथन है ॥ 29 ॥ वे स्वर्णप्रस्थ, चन्द्रशुक्ल, आवर्तन, रमणक, मन्दरहरिण, पाञ्चजन्य, सिंहल और लंका हैं ॥ 30 ॥ भरतश्रेष्ठ ! इस प्रकार जैसा मैंने गुरुमुखसे सुना था, ठीक वैसा ही तुम्हें यह जम्बूद्वीपके वर्षोंका विभाग सुना दिया ।। 31 ।।

अध्याय 20 अन्य छः द्वीपों तथा लोकालोकपर्वतका वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन्। अन्य परिमाण लक्षण और स्थितिके अनुसार प्रक्षादि अन्य द्वीपोंक वर्षविभागका वर्णन किया जाता है ॥ 1 ॥ जिस प्रकार मेरु पर्वत जम्बूद्वीपसे घिरा हुआ है, उसी प्रकार जम्बूद्वीप भी अपने ही | समान परिमाण और विस्तारवाले खारे जलके समुद्रसे परिवेष्टित है। फिर खाई जिस प्रकार बाहर के उपवनसे घिरी रहती है, उसी प्रकार क्षारसमुद्र भी अपनेसे दूने विस्तारवाले प्रक्षद्वीपसे घिरा हुआ है। जम्बूद्वीपमें जितना बड़ा जामुनका पेड़ है, उतने ही ‘विस्तारवाला यहाँ सुवर्णमय प्रक्ष (पाकर) का वृक्ष है। उसीके कारण इसका नाम लक्षद्वीप हुआ है। यहाँ सात जिह्वाओंवाले अग्निदेव विराजते हैं। इस द्वीपके अधिपति प्रियव्रतपुत्र महाराज इध्मजिह थे। उन्होंने इसको सात वर्षोंमें विभक्त किया और उन्हें उन वर्षोंके समान ही नामवाले अपने पुत्रोंको सौप दिया तथा स्वयं अध्यात्मयोगका आश्रय लेकर उपरत हो गये॥ 2 ॥ इन वर्षोंक नाम शिव, यवस, सुभद्र, शान्त, क्षेम, अमृत और अभय हैं। इनमें भी सात पर्वत और सात नदियाँ ही प्रसिद्ध है ll 3 llवहाँ मणिकूट, वज्रकूट, इन्द्रसेन, ज्योतिष्मान्, सुपर्ण, हिरण्यष्ठीव और मेघमाल – ये सात मर्यादापर्वत हैं तथा अरुणा, नृम्णा, आङ्गिरसी, सावित्री, सुप्रभाता, ऋतम्भरा और सत्यम्भरा- ये सात महानदियाँ हैं। वहाँ हंस, पतङ्ग, ऊर्ध्वायन और सत्याङ्ग नामके चार वर्ण हैं। उक्त नदियोंके जलमें स्नान करनेसे इनके रजोगुण तमोगुण क्षीण होते रहते हैं। इनकी आयु एक हजार वर्षकी होती है। इनके शरीरोंमें देवताओंकी भाँति थकावट, पसीना आदि नहीं होता और सन्तानोत्पत्ति भी उन्होंके समान होती है। ये त्रयीविद्याके द्वारा तीनों वेदोंमें वर्णन किये हुए स्वर्गके द्वारभूत आत्मस्वरूप भगवान् सूर्यकी उपासना करते हैं ॥ 4 ॥ वे कहते हैं कि ‘जो सत्य (अनुष्ठानयोग्य धर्म) और ऋत (प्रतीत होनेवाले धर्म), वेद और शुभाशुभ फलके अधिष्ठाता है—उन पुराणपुरुष विष्णुस्वरूप भगवान् सूर्यकी हम शरणमें जाते हैं ॥ 5 ॥ प्रक्ष आदि पाँच द्वीपोंमें सभी मनुष्योंको जन्मसे ही आयु, इन्द्रिय, मनोबल, इन्द्रियबल, शारीरिक बल, बुद्धि और पराक्रम समानरूपसे सिद्ध रहते हैं ॥ 6 ॥

प्रक्षद्वीप अपने ही समान विस्तारवाले इक्षुरसके समुद्रसे घिरा हुआ है। उसके आगे उससे दुगुने परिमाणवाला शाल्मलीद्वीप है, जो उतने ही विस्तारवाले मदिराके सागरसे घिरा है ॥ 7 ॥ प्रक्षद्वीपके पाकरके पेड़के बराबर उसमें शाल्मली (सेमर) का वृक्ष है। कहते हैं, यही वृक्ष अपने वेदमय पंखोंसे भगवान्की स्तुति करनेवाले पक्षिराज भगवान् गरुडका निवासस्थान है तथा यही इस द्वीपके नामकरणका भी हेतु है ॥ 8 ॥ इस द्वीपके अधिपति प्रियव्रतपुत्र महाराज यज्ञबाहु थे। उन्होंने इसके सुरोचन, सौमनस्य, रमणक, देववर्ष, पारिभद्र, आप्यायन और अविज्ञात नामसे सात विभाग किये और इन्हें इन्हीं नामवाले अपने पुत्रोंको सौंप दिया ।। 9 ।। इनमें भी सात वर्षपर्वत और सात ही नदियाँ प्रसिद्ध हैं। पर्वतोंके नाम स्वरस, शतशृङ्ग, वामदेव, कुन्द, मुकुन्द, पुष्पवर्ष और सहस्रश्रुति हैं तथा नदियाँ अनुमति, सिनीवाली, सरस्वती, कुहू, रजनी, नन्दा और राका हैं ॥ 10 ॥ इन वर्षोंमें रहनेवाले श्रुतधर, वीर्यधर, वसुन्धर और इषन्धर नामके चार वर्ण वेदमय आत्मस्वरूप भगवान् चन्द्रमाकी वेदमन्त्रोंसे उपासना करते हैं ।। 11 ।। (और कहते हैं—) ‘जो कृष्णपक्ष और शुक्लपक्षमें अपनी किरणोंसे विभाग करके देवता, पितर और सम्पूर्ण प्राणियोंको अन्न देते हैं, वे चन्द्रदेव हमारे राजा (रञ्जन करनेवाले) हों ॥। 12 ।।इसी प्रकार मंदिराके समुद्रसे आगे उससे दूने परिमाणवाला कुशद्वीप है। पूर्वोक्त द्वीपोंके समान यह भी | अपने ही समान विस्तारवाले घृतके समुद्रसे घिरा हुआ है। इसमें भगवान्का रचा हुआ एक कुशोका झाड़ है, उसीसे इस द्वीपका नाम निश्चित हुआ है। वह दूसरे अग्निदेवके समान अपनी कोमल शिखाओंकी कान्तिसे समस्त दिशाओंको प्रकाशित करता रहता है ॥ 13 ॥ राजन् । इस द्वीपके अधिपति प्रियव्रतपुत्र महाराज हिरण्यरेता थे। उन्होंने इसके सात विभाग करके उनमेंसे एक-एक अपने सात पुत्र वसु, वसुदान, दृढ़रुचि, नाभिगुप्त, स्तुत्यव्रत, विविक्त और वामदेवको दे दिया और स्वयं तप करने चले गये ।। 14 । उनकी सीमाओंको निश्चय करनेवाले सात पर्वत हैं और सात ही नदियाँ हैं। पर्वतोंके नाम चक्र. चतुःशृङ्ग, कपिल, चित्रकूट, देवानीक, ऊर्ध्वरोमा और द्रविण हैं। नदियोंके नाम हैं—रसकुल्या, मधुकुल्या, मित्रविन्दा, श्रुतविन्दा, देवगर्भा, घृतच्युता और मन्त्रमाला ॥ 15 ॥ इनके जलमें स्नान करके कुशद्वीपवासी कुशल, कोविद, अभियुक्त और कुलक वर्णके पुरुष अग्निस्वरूप भगवान् हरिका यज्ञादि कर्म कौशलके द्वारा पूजन करते हैं ॥ 16 ॥ (तथा इस प्रकार स्तुति करते हैं -) ‘अग्ने ! आप परब्रह्मको साक्षात् हवि पहुँचानेवाले हैं; अतः भगवान्‌के अङ्गभूत देवताओंके यजनद्वारा आप उन परमपुरुषका ही यजन करें’ ॥ 17 ॥

राजन् ! फिर घृतसमुद्रसे आगे उससे द्विगुण पूर्वकालमे परिमाणवाला क्रौञ्चद्वीप है। जिस प्रकार कुशद्वीप घृतसमुद्रसे घिरा हुआ है, उसी प्रकार यह अपने ही समान विस्तारवाले दूधके समुद्रसे घिरा हुआ है। यहाँ क्रौञ्च नामका एक बहुत बड़ा पर्वत है, उसीके कारण इसका नाम क्रौञ्चद्वीप हुआ है ॥ 18 ॥ | श्रीस्वामिकार्तिकेयजीके शस्त्रप्रहारसे इसका कटिप्रदेश और लता- निकुञ्जदि क्षत-विक्षत हो गये थे, किन्तु | क्षीरसमुद्रसे सींचा जाकर और वरुणदेवसे सुरक्षित होकर यह फिर निर्भय हो गया ।। 19 । इस द्वीपके अधिपति प्रियव्रतपुत्र महाराज घृतपृष्ठ थे। वे बड़े ज्ञानी थे। उन्होंने इसको सात वर्षोंमें विभक्त कर उनमें उन्हींके समान नामवाले अपने सात उत्तराधिकारी पुत्रोंको नियुक्त कियाऔर स्वयं सम्पूर्ण जीवोंके अन्तरात्मा, परम मङ्गलमय कीर्तिशाली भगवान् श्रीहरिके पावन पादारविन्दोंकी शरण ली || 20 || महाराज पृष्ठ के आम, मधुर, मेघपृष्ठ, सुधामा, भ्राजिष्ठ, लोहितार्ण और वनस्पति- ये सात पुत्र थे। उनके वर्षोंमें भी सात वर्षपर्वत और सात ही नदियाँ कही जाती हैं। पर्वतोंके नाम शुक्र, वर्धमान, भोजन, उपबर्हिण, नन्द, नन्दन और सर्वतोभद्र हैं तथा नदियोंके नाम हैं- अभया, अमृतौया, आर्यका तीर्थवती, वृत्तिरूपवती, पवित्रवती और ।। 21 ।। इनके पवित्र और निर्मल जलका सेवन करनेवाले वहाँके पुरुष, ऋषभ, द्रविण और देवक नामक चार वर्णवाले निवासी जलसे भरी हुई अञ्जलिके द्वारा आपोदेवता (जलके देवता) को उपासना करते हैं ॥ 22 ॥ (और कहते हैं—) ‘हे जलके देवता! तुम्हें परमात्मासे सामर्थ्य प्राप्त है। तुम भूः भुवः और स्वः- तीनों लोकोको पवित्र करते हो; क्योंकि स्वरूपसे ही पापका नाश करनेवाले हो। हम अपने शरीरसे तुम्हारा स्पर्श करते हैं, तुम हमारे अङ्गोको पवित्र | करो’ ।। 23 ।।

इसी प्रकार क्षीरसमुद्रसे आगे उसके चारों ओर बत्तीस लाख योजन विस्तारवाला शाकद्वीप है, जो अपने ही समान परिमाणवाले मट्ठेके समुद्रसे घिरा हुआ है। इसमें शाक नामका एक बहुत बड़ा वृक्ष है, वही इस क्षेत्रके नामका कारण है। उसकी अत्यन्त | मनोहर सुगन्धसे सारा द्वीप महकता रहता है ।। 24 ।। | मेधातिथि नामक उसके अधिपति भी राजा प्रियव्रतके ही पुत्र थे। उन्होंने भी अपने द्वीपको सात वर्षो विभक्त किया और उनमें उन्होंके समान नामवाले अपने पुत्र पुरोजव, मनोजव, पवमान, धूम्रानीक, चित्ररेफ, बहुरूप और विश्वधारको अधिपतिरूपसे नियुक्त कर स्वयं भगवान् अनन्तमें दत्तचित्त हो तपोवनको चले गये ।। 25 ।। इन वर्षोंमें भी सात मर्यादापर्वत और सात नदियाँ ही हैं पर्वतोंके नाम ईशान, उरुशृङ्ग. बलभद्र, शतकेसर, सहस्त्रस्रोत, देवपाल और महानस हैं तथा नदियाँ अनघा, आयुर्दा, उभयस्पृष्टि, अपराजिता, पञ्चपदी, सहस्रस्तुति और निजधृति है ॥ 26 ॥उस वर्षके ऋतव्रत, सत्यव्रत, दानवत और अनुवत नामक पुरुष प्राणायामद्वारा अपने रजोगुण तमोगुणको क्षीण कर महान् समाधिके द्वारा वायुरूप श्रीहरिकी आराधना करते हैं ॥ 27 ॥ (और इस प्रकार उनकी स्तुति करते हैं -) ‘जो प्राणादि वृत्तिरूप अपनी ध्वजाओंके सहित प्राणियोंके भीतर प्रवेश करके उनका पालन करते हैं तथा सम्पूर्ण | दृश्य जगत् जिनके अधीन है, वे साक्षात् अन्तर्यामी वायु भगवान् हमारी रक्षा करें ॥ 28 ॥

इसी तरह मट्ठेके समुद्रसे आगे उसके चारों ओर उससे दुगुने विस्तारवाला पुष्करद्वीप है। वह चारों ओरसे अपने ही समान विस्तारवाले मीठे जलके समुद्रसे घिरा है। वहाँ अग्रिकी शिखाके समान देदीप्यमान लाखों स्वर्णमय पंखड़ियोंवाला एक बहुत बड़ा पुष्कर (कमल) है, जो ब्रह्माजीका आसन माना जाता है ।। 29 ।। उस द्वीपके बीचोंबीच उसके पूर्वीय और पश्चिमीय विभागोंकी मर्यादा निश्चित करनेवाला मानसोत्तर नामका एक ही पर्वत है। यह दस हजार योजन ऊँचा और उतना ही लम्बा है। इसके ऊपर चारों दिशाओंमें इन्द्रादि लोकपालोंकी चार पुरियाँ हैं इनपर मेरुपर्वतके चारों ओर घूमनेवाले सूर्यके रथका संवत्सररूप पहिया देवताओंके दिन और रात अर्थात् उत्तरायण और दक्षिणायनके क्रमसे सर्वदा घूमा करता है ॥ 30 ॥ उस द्वीपका अधिपति प्रियव्रतपुत्र वीतिहोत्र भी अपने पुत्र रमणक और धातकको दोनों वर्षोंका अधिपति बनाकर स्वयं अपने बड़े भाइयोंके समान भगवत्सेवामें ही तत्पर रहने लगा था ॥ 31 ॥ वहाँके निवासी ब्रह्मारूप भगवान् हरिकी ब्रह्मसालोक्यादिकी प्राप्ति करानेवाले कर्मोंसे आराधना करते हुए इस प्रकार स्तुति करते हैं- ॥ 32 ॥ जो साक्षात् कर्मफलरूप हैं और एक परमेश्वरमें ही जिनकी पूर्ण स्थिति है तथा जिनकी सब लोग पूजा करते हैं, ब्रह्मज्ञानके साधनरूप उन अद्वितीय और शान्तस्वरूप ब्रह्ममूर्ति भगवान्‌को मेरा नमस्कार है’ ॥ 33 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन्! इसके आगे लोकालोक नामका पर्वत है। यह पृथ्वीके सब ओर सूर्य आदिके द्वारा प्रकाशित और अप्रकाशित प्रदेशोंके बीचमें उनका विभाग करनेके लिये स्थित है 34 ॥ मेरुसे लेकर मानसोत्तर पर्वततक जितना अन्तर है, उतनी हीभूमि शुद्धोदक समुद्रके उस ओर है। उसके आगे सुवर्णमयी भूमि है, जो दर्पणके समान स्वच्छ है। इसमें | गिरी हुई कोई वस्तु फिर नहीं मिलती, इसलिये वहाँ देवताओंके अतिरिक्त और कोई प्राणी नहीं रहता ॥ 35 ॥ लोकालोकपर्वत सूर्य आदिसे प्रकाशित और अप्रकाशित भूभागों के बीचमें है, इससे इसका यह नाम पड़ा है || 36 || इसे परमात्माने त्रिलोकीके बाहर उसके चारों ओर सीमाके रूपमें स्थापित किया है। यह इतना ऊँचा और लम्बा है कि इसके एक ओरसे तीनों लोकोंको प्रकाशित करनेवाली सूर्यसे लेकर ध्रुवपर्यन्त समस्त ज्योतिर्मण्डलकी किरणें दूसरी ओर नहीं जा सकतीं ।। 37 ।।

विद्वानोंने प्रमाण, लक्षण और स्थितिके अनुसार सम्पूर्ण लोकोंका इतना ही विस्तार बतलाया है। यह समस्त भूगोल पचास करोड़ योजन है। इसका चौथाई भाग (अर्थात् साढ़े बारह करोड़ योजन विस्तारवाला) यह लोकालोकपर्वत है ॥ 38 ॥ इसके ऊपर चारों दिशाओंमें समस्त संसारके गुरु स्वयम्भू श्रीब्रह्माजीने सम्पूर्ण लोकोंकी स्थितिके लिये ऋषभ, पुष्करचूड, वामन और अपराजित नामके चार गजराज नियुक्त किये हैं ॥ 39 ॥ इन दिग्गजोंको और अपने अंशस्वरूप इन्द्रादि लोकपालोंकी विविध शक्तियोंकी वृद्धि तथा समस्त लोकोंके कल्याणके लिये परम ऐश्वर्यके अधिपति सर्वान्तर्यामी परम पुरुष श्रीहरि अपने विश्वक्सेन आदि पार्षदोंके सहित इस पर्वतपर सब ओर विराजते हैं। वे अपने विशुद्ध सत्त्व ( श्रीविग्रह) को जो धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य आदि आठ महासिद्धियोंसे सम्पन्न हैं धारण किये हुए हैं। उनके करकमलोंमें शङ्ख-चक्रादि आयुध सुशोभित हैं ।। 40 ।। इस प्रकार अपनी योगमायासे रचे हुए विविध लोकोंकी व्यवस्थाको सुरक्षित रखनेके लिये वे | इसी लीलामय रूपसे कल्पके अन्ततक वहाँ सब ओर रहते हैं ।। 41 ।। लोकालोकके अन्तर्वर्ती भूभागका जितना विस्तार है, उसीसे उसके दूसरी ओरके अलोक प्रदेशके परिमाणकी भी व्याख्या समझ लेनी चाहिये। उसके आगे तो केवल योगेश्वरोंकी ही ठीक-ठीक गति हो सकती है ॥ 42 ॥राजन् ! स्वर्ग और पृथ्वीके बीचमें जो ब्रह्माण्डका केन्द्र है, वही सूर्यकी स्थिति है। सूर्य और ब्रह्माण्डगोलकके बीचमें सब ओरसे पच्चीस करोड़ योजनका अन्तर है ॥ 43 ॥ सूर्य इस मृत अर्थात् मरे हुए (अचेतन) अण्डमें वैराजरूपसे विराजते हैं, इसीसे इनका | नाम ‘मार्त्तण्ड’ हुआ है। ये हिरण्यमय (ज्योतिर्मय) ब्रह्माण्डसे प्रकट हुए हैं, इसलिये इन्हें ‘हिरण्यगर्भ’ भी कहते हैं ॥ 44 ॥ सूर्यके द्वारा ही दिशा, आकाश, द्युलोक (अन्तरिक्षलोक), भूर्लोक, स्वर्ग और मोक्षके प्रदेश, नरक और रसातल तथा अन्य समस्त भागोंका विभाग होता है ॥ 45 ॥ सूर्य ही देवता, तिर्यक्, मनुष्य, सरीसृप और लता-वृक्षादि समस्त जीवसमूहोंके आत्मा और | नेत्रेन्द्रियके अधिष्ठाता हैं ॥ 46 ॥

अध्याय 21 सूर्यके रथ और उसकी गतिका वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन्। परिमाण और लक्षणोंके सहित इस भूमण्डलका कुल इतना ही विस्तार है, सो हमने तुम्हें बता दिया ॥ 1 ॥ इसीके अनुसार विद्वान्लोग द्युलोकका भी परिमाण बताते हैं। जिस प्रकार चना मटर | आदिके दो दलोंमेंसे एकका स्वरूप जान लेनेसे दूसरेका भी जाना जा सकता है, उसी प्रकार भूर्लोकके परिमाणसे ही द्युलोकका भी परिमाण जान लेना चाहिये। इन दोनों के बीचमें अन्तरिक्षलोक है। यह इन दोनोंका सन्धिस्थान है ॥ 2 ॥ | इसके मध्यभागमें स्थित ग्रह और नक्षत्रोंके अधिपति भगवान् सूर्य अपने ताप और प्रकाशसे तीनों लोकोंको तपाते | और प्रकाशित करते रहते हैं। वे उत्तरायण, दक्षिणायन और विषुवत् नामवाली क्रमशः मन्द, शीघ्र और समान गतियोंसे चलते हुए समयानुसार मकरादि राशियोंमें ऊँचे-नीचे और समान स्थानों में जाकर दिन रातको बड़ा, छोटा या समान करते हैं || 3 || जब सूर्यभगवान् मेष या तुला राशिपर आतेहैं, तब दिन-रात समान हो जाते हैं; जब वृषादि पाँच राशियोंमें चलते हैं, तब प्रतिमास रात्रियोंमें एक-एक घड़ी कम होती जाती है और उसी हिसाबसे दिन बढ़ते जाते | हैं ॥ 4 ॥ जब वृश्चिकादि पाँच राशियोंमें चलते हैं, तब दिन और रात्रियोंमें इसके विपरीत परिवर्तन होता है ॥ 5 ॥ इस प्रकार दक्षिणायन आरम्भ होनेतक दिन बढ़ते रहते हैं और उत्तरायण लगनेतक रात्रियाँ ॥ 6 ॥

इस प्रकार पण्डितजन मानसोत्तर पर्वतपर सूर्यको परिक्रमाका मार्ग नौ करोड़, इक्यावन लाख योजन बताते हैं। उस पर्वतपर मेरुके पूर्व की ओर इन्द्रकी देवधानी, दक्षिणमें यमराजकी धनी पश्चिममे वरुणकी निम्लोचनी और उत्तरमें चन्द्रगाकी विभावरी नामको पुरियां हैं। इन पुरियो मेरुके चारों और समय-समयपर सूर्योदय, मध्याह्न, सायङ्काल और अर्धरात्रि होते रहते हैं; इन्हींके कारण सम्पूर्ण जीवोकी प्रवृत्ति या निवृत्ति होती है ॥ 7 ॥ राजन्। जो लोग सुमेरुपर रहते हैं उन्हें तो सूर्यदेव सदा मध्यकालीन रहकर ही पाते रहते हैं। वे अपनी गतिके अनुसार अश्विनी आदि नक्षत्रोंकी ओर जाते हुए यद्यपि मेरुको बायीं ओर रखकर चलते हैं तो भी सारे ज्योतिर्मण्डलको घुमानेवाली निरन्तर दायीं ओर बहती हुई प्रवह वायुद्वारा घुमा दिये जानेसे वे उसे दायीं ओर रखकर चलते जान पड़ते हैं ॥ 8 ॥ जिस पुरीने सूर्यभगवान‌का उदय होता है, उसके ठीक दूसरी ओरकी पुरी ने अस्त होते मालूम होंगे और जहाँ वे लोगोंको पसीने-पसीने करके तपा रहे होंगे, उसके ठीक सामने की ओर आधी रात होनेके कारण वे उन्हें निद्रावश किये होंगे। जिन लोगोंको मध्याह्नके समय वे स्पष्ट दीस रहे होंगे, वे ही जब सूर्य सौम्यदिशामें पहुँच जाये तब उनका दर्शन नहीं कर सकेंगे ॥ 9 ॥

सूर्यदेव जब इन्द्रकी पुरोसे यमराजको पुरीको चलते हैं, तब पंद्रह घड़ीमें वे सवा दो करोड़ और साढ़े बारह लाख योजनसे कुछ पचीस हजार योजन- अधिक चलते हैं ॥ 10 ॥ फिर इसी क्रमसे वे वरुण और चन्द्रमाकी पुरियोको पार करके पुनः इन्द्रकी पुरीमें पहुँचते हैं। इस प्रकार चन्द्रमा आदि अन्य ग्रह भी ज्योतिश्चक्रमें अन्य नक्षत्रोंके साथ-साथ उदित और अस्त होते रहते हैं ॥ 11 ॥ इस प्रकार भगवान् सूर्यका वेदमय रथ एक मुहूर्तमें चौतीस लाख आठ सौ योजन के हिसाब से चलता हुआ इन चारों पुरियोंमें घूमता रहता है ॥ 12 ॥इसका संवत्सर नामका एक चक्र (पहिया) बतलाया जाता है। उसमें मासरूप बारह अरे हैं, ऋतुरूप छः नेमियाँ (हाल) हैं, तीन चौमासेरूप तीन नाभि (आँवन) हैं। इस रथकी धुरीका एक सिरा मेरुपर्वतकी चोटीपर है और दूसरा मानसोत्तर पर्वतपर। इसमें लगा हुआ यह पहिया कोल्हूके पहियेके समान घूमता हुआ मानसोत्तर पर्वतके ऊपर चक्कर लगाता है ॥ 13 ॥ इस धुरीमें- जिसका मूल भाग जुड़ा हुआ है, ऐसी एक धुरी और है। वह लंबाईमें इससे चौथाई है। उसका ऊपरी भाग तैलयन्तके धुरेके समान ध्रुवलोकसे लगा हुआ है ।। 14 ।।

इस रथ में बैठनेका स्थान छत्तीस लाख योजन लंबा और नौ लाख योजन चौड़ा है। इसका जूआ भी छत्तीस लाख योजन ही लंबा है। उसमें अरुण नामके सारथिने | गायत्री आदि छन्दोंके से नामवाले सात घोड़े जोत रखे हैं, वे ही इस रथपर बैठे हुए भगवान् सूर्यको ले चलते हैं ॥ 15 ॥ सूर्यदेवके आगे उन्हींकी ओर मुँह करके बैठे हुए अरुण उनके सारथिका कार्य करते हैं ॥ 16 ॥ भगवान् सूर्यके आगे अँगूठेके पोरुएके बराबर आकारवाले वालखिल्यादि साठ हजार ऋषि स्वस्तिवाचनके लिये नियुक्त हैं। वे उनकी स्तुति करते रहते हैं ।। 17 ।। इनके अतिरिक्त ऋषि, गन्धर्व, अप्सरा, नाग, यक्ष, राक्षस और देवता भी – जो कुल मिलाकर चौदह हैं, किन्तु जोड़ेसे रहनेके कारण सात गण कहे जाते हैं—प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न नामोंवाले होकर अपने भिन्न-भिन्न कर्मोंसे प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न नाम धारण करनेवाले आत्मस्वरूप भगवान् सूर्यकी दो-दो मिलकर उपासना करते | हैं ॥ 18 ॥ इस प्रकार भगवान् सूर्य भूमण्डलके नौ करोड़, इक्यावन लाख योजन लंबे घेरेमेंसे प्रत्येक क्षणमें दो हजार दो योजनकी दूरी पार कर लेते हैं ॥ 19 ॥

अध्याय 22 भिन्न-भिन्न ग्रहों की स्थिति और गतिका वर्णन

राजा परीक्षित्ने पूछा- भगवन्। आपने जो कहा कि यद्यपि भगवान् सूर्य राशियोंकी ओर जाते समय मेरु और ध्रुवको दायीं ओर रखकर चलते मालूम होते हैं, किन्तु वस्तुतः उनकी गति दक्षिणावर्त नहीं होती इस विषयको हम किस प्रकार समझें ? ॥ 1 ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा- राजन् जैसे कुम्हारके घूमते हुए चाकपर बैठकर उसके साथ घूमती हुई चींटी आदिकी अपनी गति उससे भिन्न ही है क्योंकि वह भिन्न-भिन्न समयमें उस चक्रके भिन्न-भिन्न स्थानोंमें देखी जाती है—उसी प्रकार नक्षत्र और राशियोंसे उपलक्षित कालचक्रमें पड़कर ध्रुव और | मेरुको दायें रखकर घूमनेवाले सूर्य आदि ग्रहोंकी गति वास्तवमे उससे भिन्न ही है; क्योंकि वे कालभेदसे भिन्न-भिन्न राशि और नक्षत्रोंमें देख पड़ते हैं 2 ॥ वेद और विद्वान् लोग भी जिनकी गतिको जाननेके लिये उत्सुक रहते हैं, वे साक्षात् आदिपुरुष भगवान् नारायण ही लोकोंके कल्याण और कर्मोकी शुद्धिके लिये अपने वेदमय विग्रह कालको बारह मासोंमें विभक्त कर वसन्तादि ऋतुओंमें उनके यथायोग्य गुणका विधान करते हैं ।। 3 ।। इस लोकमें वर्णाश्रमधर्मका अनुसरण करनेवाले पुरुष वेदत्रयीद्वारा प्रतिपादित छोटे-बड़े कर्मोंसे इन्द्रादि देवताओंके रूपये और योगके साधनों से अन्तर्यामीरूपमें उनकी श्रद्धापूर्वक आराधना करके सुगमतासे ही परम पद प्राप्त कर सकते हैं ॥ 4 ॥ भगवान् सूर्य सम्पूर्ण लोकोंके आत्मा हैं। वे पृथ्वी और लोकके मध्यमे स्थित आकाशमण्डलके भीतर कालचक्रमे स्थित होकर बारह मासोंको भोगते हैं, जो संवत्सरके अवयव हैं और मेष आदि राशियोंके नामसे प्रसिद्ध हैं। इनमेंसे प्रत्येक मास चन्द्रमान शुक्र और कृष्ण दो पक्षका पितृमानसे एक रात और एक दिनका तथा सौरमानसे सवा दो नक्षत्रका बताया जाता है। जितने कालमें सूर्यदेव इस संवत्सरका छठा भाग भोगते हैं, | उसका वह अवयव ‘ऋतु’ कहा जाता है ॥ 5 ॥ आकाशमें भगवान् सूर्यका जितना मार्ग है, उसका आधा वे जितने समय में पार कर लेते हैं, उसे एक ‘अयन’ कहते है ॥ 6 ॥ तथा जितने समयमें वे अपनी मन्द, तीव्र और समान गतिसे स्वर्ग और | पृथ्वीमण्डलके सहित पूरे आकाशका चक्कर लगा जाते हैं, उसेअवान्तर भेदसे संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर अथवा वत्सर कहते हैं ॥ 7 ॥

इसी प्रकार सूर्यकी किरणोंसे एक लाख योजन ऊपर चन्द्रमा है। उसकी चाल बहुत तेज है, इसलिये वह सब नक्षत्रोंसे आगे रहता है। यह सूर्यके एक वर्षके मार्गको एक मासमें, एक मासके मार्गको सवा दो दिनोंमें और एक पक्षके मार्गको एक ही दिनमें तै कर लेता है ॥ 8 ॥ यह कृष्णपक्षमें | क्षीण होती हुई कलाओंसे पितृगणके और शुक्लपक्षमें बढ़ती हुई कलाओंसे देवताओंके दिन रातका विभाग करता है तथा तीस-तीस मुहूर्तों में एक-एक नक्षत्रको पार करता है। अन्नमय और अमृतमय होनेके कारण यही समस्त जीवोंका प्राण और जीवन है ।। 9 ।। ये जो सोलह कलाओंसे युक्त मनोमय, अन्नमय, अमृतमय पुरुषस्वरूप भगवान् चन्द्रमा हैं—ये ही देवता, पितर, मनुष्य, भूत, पशु, पक्षी, सरीसृप और वृक्षादि समस्त प्राणियोंके प्राणोंका पोषण करते हैं; इसलिये इन्हें ‘सर्वमय’ कहते हैं ।। 10 ।।

चन्द्रमासे तीन लाख योजन ऊपर अभिजित्के सहित अट्ठाईस नक्षत्र हैं। भगवान्‌ने इन्हें कालचक्रमे नियुक्त कर रखा है, अतः ये मेरुको दायीं ओर रखकर घूमते रहते हैं ॥ 11 ॥ इनसे दो लाख योजन ऊपर शुक्र दिखायी देता है। यह सूर्यकी शीघ्र, मन्द और समान गतियोंके अनुसार उन्हींके समान कभी आगे, कभी पीछे और कभी साथ-साथ रहकर चलता है। यह वर्षा करने वाला ग्रह है, इसलिये लोकोंको प्रायः सर्वदा ही अनु कूल रहता है। इसकी गतिसे ऐसा अनुमान होता है कि यह वर्षा रोकनेवाले ग्रहोंको शान्त कर देता है ॥ 12 ॥

शुक्रकी गति के साथ-साथ बुधकी भी व्याख्या हो गयी-शुक्रके अनुसार ही बुधकी गति भी समझ लेनी | चाहिये। यह चन्द्रमाका पुत्र शुक्रसे दो लाख योजन ऊपर है। यह प्रायः मङ्गलकारी ही है; किन्तु जब सूर्यकी गतिका उल्लङ्घन करके चलता है, तब बहुत अधिक आँधी, बादल और सूखेके भयकी सूचना देता है ।। 13 ।। इससे दो लाख योजन ऊपर मङ्गल है। वह यदि वक्रगतिसे न चले तो, एक-एक राशिको तीन-तीन | पक्षमें भोगता हुआ बारहों राशियोंको पार करता है। यह अशुभ ग्रह है और प्रायः अमङ्गलका सूचक है ।। 14 ।।इसके ऊपर दो लाख योजनकी दूरीपर भगवान् बृहस्पतिजी हैं। ये यदि वक्रगतिसे न चलें, तो एक-एक राशिको एक-एक वर्षमें भोगते हैं। ये प्रायः ब्राह्मणकुलके लिये अनुकूल रहते हैं ।। 15 ।।

बृहस्पतिसे दो लाख योजन ऊपर शनैश्चर दिखायी देते हैं। ये तीस-तीस महीनेतक एक-एक राशिमें रहते हैं। अतः इन्हें सब राशियोंको पार करनेमें तीस वर्ष लग जाते हैं। ये प्रायः सभीके लिये अशान्तिकारक हैं ।। 16 ।। इनके ऊपर ग्यारह लाख योजनकी दूरीपर कश्यपादि सप्तर्षि दिखायी देते हैं। ये सब लोकोंकी मङ्गल-कामना करते हुए भगवान् विष्णुके परम पद ध्रुवलोककी प्रदक्षिणा किया करते हैं ll 17 ll

अध्याय 23 शिशुमारचक्रका वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन् ! सप्तर्षियोंसे तेरह | लाख योजन ऊपर ध्रुवलोक है। इसे भगवान् विष्णुका परम पद कहते हैं। यहाँ उत्तानपादके पुत्र परम भगवद्भक्त ध्रुवजी विराजमान हैं। अग्नि, इन्द्र, प्रजापति कश्यप और धर्म-ये सब एक साथ अत्यन्त आदरपूर्वक इनकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं। अब भी कल्पपर्यन्त रहनेवाले लोक इन्हींके आधार स्थित हैं। इनका इस लोकका प्रभाव हम पहले (चौथे स्कन्धमें) वर्णन कर चुके हैं ॥ 1 ॥ सदा जागते रहनेवाले हैं अव्यक्तगति भगवान् कालके द्वारा जो ग्रह-नक्षत्रादि ज्योतिर्गण निरन्तर घुमाये जाते हैं, भगवान्ने ध्रुवलोकको ही | उन सबके आधारस्तम्भरूपसे नियुक्त किया है। अतः यह एक ही स्थानमें रहकर सदा प्रकाशित होता है ॥ 2 ॥

जिस प्रकार दायँ चलानेके समय अनाजको खूदनेवाले पशु छोटी, बड़ी और मध्यम रस्सीमें बँधकर क्रमशः निकट, दूर और मध्यमें रहकर खंभेके चारों ओर मण्डल बाँधकर घूमतेरहते हैं, उसी प्रकार सारे नक्षत्र और ग्रहगण बाहर-भीतरके क्रमसे इस कालचक्रमें नियुक्त होकर ध्रुवलोकका ही आश्रय लेकर वायुकी प्रेरणासे कल्पके अन्ततक घूमते रहते है। जिस प्रकार मेघ और बाज आदि पक्षी अपने कर्मोंकी सहायतासे वायुके अधीन रहकर आकाशमें उड़ते रहते है, उसी प्रकार ये ज्योतिर्गण भी प्रकृति और पुरुषके संयोगवश अपने-अपने कर्मोंक अनुसार चक्कर काटते रहते हैं, पृथ्वीपर नहीं गिरते ॥ 3 ॥

कोई-कोई पुरुष भगवान्‌की योगमायाके आधारपर स्थित इस ज्योतिचक्रका शिशुम्हार (स) के रूपमें वर्णन करते हैं॥ 4 ॥ यह शिशुमार कुण्डली मारे हुए है और इसका मुख नीचे की ओर है इसकी पूंछके सिरेपर ध्रुव स्थित है। पूछके मध्यभागमें प्रजापति, अग्नि, इन्द्र और धर्म है की जहमें धाता और विधाता हैं। इसके कटिप्रदेशमें सप्तर्षि हैं। यह शिशुमार दाहिनी ओरको सिकुड़कर कुण्डली मारे हुए है। ऐसी स्थिति में अभिजित्से लेकर पुनर्वसुपर्यन्त जो उत्तरायणके चौदह नक्षत्र हैं, वे इसके दाहिने भागमें हैं और पुष्यसे लेकर उत्तराषाढ़ापर्यन्त जो दक्षिणायनके चौदह नक्षत्र हैं, वे बायें भागमें हैं। लोकमें भी जब शिशुमार कुण्डलाकार होता है, तब उसके दोनों ओरके अोकी संख्या समान रहती है, उसी प्रकार यहाँ नक्षत्र संख्या में भी समानता है। इसकी पीठमें अजवीथी (मूल, पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा नामके तीन नक्षत्रका समूह) है और उदरमे आकाशगङ्गा है ॥ 5 ॥ राजन्! इसके दाहिने और बायें कटितटोंमें पुनर्वसु और पुष्य नक्षत्र है, पीछेके दाहिने और बायें चरणोंमें आर्द्रा और आश्लेषा नक्षत्र हैं तथा दाहिने और बायें नथुनोंमें क्रमशः अभिजित् और उत्तराषाढ़ा हैं। इसी प्रकार दाहिने और बायें नेत्रोंमें श्रवण और पूर्वाषाढ़ा एवं दाहिने और बायें कानोंमें धनिष्ठा और मूल नक्षत्र है। मया आदि दक्षिणायनके आठ नक्षत्र बायीं पसलियोंमें और विपरीत क्रमसे मृगशिरा आदि उत्तरायणके आठ नक्षत्र दाहिनी पसलियोंमें हैं। शतभिषा और ज्येष्ठा—ये दो नक्षत्र क्रमशः दाहिने और बायें कंधोंकी जगह है ॥ 6 ॥ इसकी ऊपरकी बूथनीमें अगस्त्य, नीचेकी ठोड़ीमें नक्षत्ररूप यम, मुखोंमें मङ्गल, लिङ्गप्रदेशमें शनि, ककुद बृहस्पति, छातीमें सूर्य, हृदयमें नारायण, मनमें चन्द्रमा, नाभिमें शुक्र, स्तनोंमें अश्विनीकुमार, प्राण और अपानमें बुध, गलेमें राहु, | समस्त अङ्गोंमें केतु और रोमोमें सम्पूर्ण तारागण स्थित है ॥ 7 ॥राजन् ! यह भगवान् विष्णुका सर्वदेवमय स्वरूप है। इसका नित्यप्रति सायङ्कालके समय पवित्र और मौन होकर दर्शन करते हुए चिन्तन करना चाहिये तथा इस मन्त्रका जप करते हुए भगवान्‌की स्तुति करनी चाहिये – ‘सम्पूर्ण ज्योतिर्गणोंके आश्रय, कालचक्र स्वरूप, सर्वदेवाधिपति परमपुरुष परमात्माका हम नमस्कारपूर्वक ध्यान करते हैं’ ॥ 8 ॥ ग्रह, नक्षत्र और ताराओंके रूपमें भगवान्‌का आधिदैविकरूप प्रकाशित हो रहा है; वह तीनों समय उपर्युक्त मन्त्रका जप करनेवाले पुरुषोंके पाप नष्ट कर देता है। जो पुरुष प्रातः, मध्याह्न और सायं-तीनों काल उनके इस आधिदैविक स्वरूपका नित्यप्रति चिन्तन और वन्दन करता है, उसके उस समय किये हुए पाप तुरन्त नष्ट हो जाते हैं ॥ 9 ॥

अध्याय 24 राहु आदिकी स्थिति, अतलादि नीचेके लोकोंका वर्ण

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित् कुछ | लोगोंका कथन है कि सूर्यसे दस हजार योजन नीचे राहु नक्षत्रोंके समान घूमता है। इसने भगवान्‌की कृपासे ही देवत्व और ग्रहत्व प्राप्त किया है, स्वयं यह सिंहिकापुत्र असुराधम होनेके कारण किसी प्रकार इस पदके योग्य नहीं है। इसके जन्म और कमौका हम आगे वर्णन करेंगे ॥ 1 ॥ सूर्यका जो यह अत्यन्त तपता हुआ मण्डल है, उसका विस्तार दस हजार योजन बतलाया जाता है। इसी प्रकार चन्द्रमण्डलका विस्तार बारह हजार योजन है और राहुका तेरह हजार योजन। अमृतपानके समय राहु | देवताके वेषमें सूर्य और चन्द्रमाके बीचमें आकर बैठ गया। था, उस समय सूर्य और चन्द्रमाने इसका भेद खोल दिया था; उस वैरको याद करके यह अमावास्या और पूर्णिमाके दिन उनपर आक्रमण करता है ॥ 2 ॥ यह देखकर भगवान् सूर्य और चन्द्रमाकी रक्षा के लिये उन दोनोंके पास अपने प्रिय आयुध सुदर्शन चक्रको नियुक्त कर दिया है। वह निरन्तर घूमता रहता है, इसलिये राहु उसके असह्य तेजसे उद्विग्न और चकितचित्त होकर मुहूर्तमात्र उनके सामने | टिककर फिर सहसा लौट आता है। उसके उतनी देर उनके सामने ठहरनेको ही लोग ‘ग्रहण’ कहते हैं॥ 3 ॥राहुसे दस हजार योजन नीचे सिद्ध, चारण और विद्याधर आदिके स्थान हैं ॥ 4 ॥ उनके नीचे जहाँतक वायुकी गति है। और बादल दिखायी देते हैं, अन्तरिक्ष लोक है। यह यक्ष, राक्षस, पिशाच, प्रेत और भूतोंका विहारस्थल है ॥ 5 ॥ उससे नीचे सौ योजनकी दूरीपर यह पृथ्वी है। जहाँतक हंस, गिद्ध, बाज और गरुड़ आदि प्रधान प्रधान पक्षी उड़ सकते हैं, वहींतक इसकी सीमा है ॥ 6 ॥ पृथ्वीके विस्तार और स्थिति आदिका वर्णन तो हो ही चुका है। इसके भी नीचे अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल नामके सात भू-विवर (भूगर्भस्थित बिल या लोक) हैं। ये एकके नीचे एक दस-दस हजार योजनकी दूरीपर स्थित हैं और इनमेंसे प्रत्येककी लंबाई-चौड़ाई भी दस-दस हजार योजन ही है ॥ 7 ॥ ये भूमिके बिल भी एक प्रकारके स्वर्ग ही हैं। इनमें स्वर्गसे भी अधिक विषयभोग, ऐश्वर्य, आनन्द, सन्तान सुख और धन-सम्पत्ति है । यहाँके वैभवपूर्ण भवन, उद्यान और क्रीडास्थलोंमें दैत्य, दानव और नाग तरह-तरहकी मायामयी क्रीडाएँ करते हुए निवास करते हैं। वे सब गार्हस्थ्यधर्मका पालन करनेवाले हैं। उनके स्त्री, पुत्र, बन्धु, बान्धव और सेवकलोग उनसे बड़ा प्रेम रखते हैं और सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं। उनके भोगोंमें बाधा डालनेकी इन्द्रादिमें भी सामर्थ्य नहीं है ॥ 8 ॥ महाराज ! इन बिलोंमें मायावी मयदानवकी बनायी हुई अनेकों पुरियाँ शोभासे जगमगा रही हैं, जो अनेक जातिकी सुन्दर-सुन्दर श्रेष्ठ मणियोंसे रचे हुए चित्र-विचित्र भवन, परकोटे, नगरद्वार, सभाभवन, मन्दिर, बड़े-बड़े आँगन और गृहोंसे सुशोभित हैं; तथा जिनकी कृत्रिम भूमियों (फर्शो) पर नाग और असुरोंके जोड़े एवं कबूतर, तोता और मैना आदि पक्षी किलोल करते रहते हैं, ऐसे पातालाधिपतियोंके भव्य भवन उन पुरियोंकी शोभा बढ़ाते हैं ॥ 9 ॥ वहाँके बगीचे भी अपनी शोभासे देवलोकके उद्यानोंकी शोभाको मात करते हैं। उनमें अनेकों वृक्ष है, जिनकी सुन्दर डालियाँ फल-फूलोंके गुच्छों और कोमल कोंपलोंके भारसे झुकी रहती हैं तथा जिन्हें । तरह-तरहकी लताओंने अपने अङ्गपाशसे बाँध रखा है। वहाँ | जो निर्मल जलसे भरे हुए अनेकों जलाशय हैं, उनमें विविध विहंगों के जोड़े विलास करते रहते हैं। इन वृक्षों और जलाशयोंकी सुषमासे वे उद्यान बड़ी शोभा पा रहे हैं। उन जलाशयोंमें रहनेवाली मछलियाँ जब खिलवाड़ करती हुईउछलती हैं, तब उनका जल हिल उठता है। साथ ही जलके ऊपर उगे हुए कमल, कुमुद, कुवलय, कहार, नीलकमल, लालकमल और शतपत्र कमल आदिके समुदाय भी हिलने लगते हैं। इन कमलोके वनोंमें रहनेवाले पक्षी अविराम क्रीडा-कौतुक करते हुए भाँति-भाँतिकी बड़ी मीठी बोली बोलते रहते हैं, जिसे सुनकर मन और इन्द्रियोंको बड़ा ही आह्लाद होता है। उस समय समस्त इन्द्रियोंमें उत्सव सा छा जाता है ॥ 10 ॥ वहाँ सूर्यका प्रकाश नहीं जाता, इसलिये दिन-रात आदि कालविभागका भी कोई खटका नहीं देखा जाता ॥ 11 ॥ वहाँके सम्पूर्ण अन्धकारको बड़े-बड़े नागोंके मस्तकोंकी मणियाँ ही दूर करती हैं ॥ 12 ॥ इन लोकोंके निवासी जन ओषधि, रस, रसायन, अन्न, पान और स्नानादिका सेवन करते हैं, वे सभी पदार्थ दिव्य होते हैं, इन दिव्य वस्तुओंके सेवनसे उन्हें मानसिक या शारीरिक रोग नहीं होते। तथा झुर्रियाँ पड़ जाना, बाल पक जाना, बुढ़ापा आ जाना, देहका कान्तिहीन हो जाना, शरीरमेंसे दुर्गन्ध आना, पसीना चूना, थकावट अथवा शिथिलता आना तथा आयुके साथ शरीरकी अवस्थाओंका बदलना – ये कोई विकार नहीं होते। वे सदा सुन्दर, स्वस्थ, जवान और शक्तिसम्पन्न रहते हैं ।। 13 ।। उन पुण्यपुरुषोंकी भगवान्‌के तेजरूप सुदर्शन चक्रके सिवा और किसी साधनसे मृत्यु नहीं हो | सकती ॥ 14 ॥ सुदर्शन चक्रके तो आते ही भयके कारण असुररमणियोंका गर्भाव और गर्भपात हो जाता है।। 15 ।। अतल लोकमें मयदानवका पुत्र असुर बल रहता है। उसने छियानवे प्रकारकी माया रची है। उनमेंसे कोई-कोई आज भी मायावी पुरुषोंमें पायी जाती हैं। उसने एक बार जंभाई ली थी, उस | समय उसके मुखसे स्वैरिणी (केवल अपने वर्णके पुरुषोंसे रमण करनेवाली), कामिनी (अन्य वर्णोंकि पुरुषोंसे भी समागम करनेवाली) और पुंश्चली (अत्यन्त चञ्चल स्वभाववाली) – तीन प्रकारकी स्त्रियाँ उत्पन्न हुई। ये उस लोकमें रहनेवाले पुरुषोंको हाटक नामका रस पिलाकर सम्भोग करनेमें समर्थ बना लेती हैं। और फिर उनके साथ अपनी हाव-भावमयी चितवन, प्रेममयी मुसकान, प्रेमालाप और आलिङ्गनादिके द्वारा यथेष्ट रमण करती हैं। उस हाटक-रसको पीकर मनुष्य मदान्ध-सा हो जाता है और अपनेको दस हजार हाथियोंके समान बलवान् समझकर ‘मैं ईश्वर हूँ, मैं सिद्ध हूँ, इस प्रकार बढ़-बढ़कर बातें करने लगता है ॥ 16 ॥

उसके नीचे वितल लोकमें भगवान् हाटकेश्वर नामक महादेवजी अपने पार्षद भूतगणों के सहित रहते हैं। वे प्रजापतिको सृष्टिकी वृद्धिके लिये भवानी के साथ विहार करते रहते हैं। उनदोनोंके तेजसे वहाँ हाटकी नामकी एक श्रेष्ठ नदी निकली है। उसके जलको वायुसे प्रज्वलित अग्नि बड़े उत्साहसे | पीता है। वह जो हाटक नामका सोना थूकता है, उससे बने हुए आभूषणोंको दैत्यराजोंके अन्तः पुरोंमें स्त्री-पुरुष सभी धारण करते हैं ॥ 17 ॥

वितलके नीचे सुतल लोक है। उसमें महायशस्वी पवित्रकीर्ति विरोचनपुत्र बलि रहते हैं। भगवान्ने इन्द्रका | प्रिय करनेके लिये अदितिके गर्भसे वटु वामनरूपमें अवतीर्ण होकर उनसे तीनों लोक छीन लिये थे। फिर भगवान् की कृपासे ही उनका इस लोकमें प्रवेश हुआ। यहाँ उन्हें जैसी उत्कृष्ट सम्पत्ति मिली हुई है, वैसी इन्द्रादिके पास भी नहीं है। अतः वे उन्हीं पूज्यतम प्रभुकी अपने धर्माचरणद्वारा आराधना करते हुए यहाँ आज भी निर्भयतापूर्वक रहते हैं ॥ 18 ॥ राजन् ! सम्पूर्ण जीवोंके नियन्ता एवं आत्मस्वरूप परमात्मा भगवान् वासुदेव-जैसे पूज्यतम, पवित्रतम पात्रके आनेपर उन्हें परम श्रद्धा और आदरके साथ स्थिर चित्तसे दिये हुए भूमिदानका यही कोई मुख्य फल नहीं है कि बलिको | सुतल लोकका ऐश्वर्य प्राप्त हो गया। यह ऐश्वर्य तो अनित्य है। किन्तु वह भूमिदान तो साक्षात् मोक्षका ही द्वार है ॥ 19 ॥ भगवान्‌का तो छींकने, गिरने और फिसलनेके समय विवश होकर एक बार नाम लेनेसे भी मनुष्य सहसा कर्म-बन्धनको काट देता है, जब कि मुमुक्षुलोग इस कर्मबन्धनको योगसाधन आदि अन्य अनेकों उपायोंका आश्रय लेनेपर बड़े कष्टसे कहीं काट पाते हैं ॥ 20 ॥ अतएव अपने संयमी भक्त और ज्ञानियोंको स्वस्वरूप प्रदान करनेवाले और समस्त प्राणियोंके आत्मा श्रीभगवान्‌को आत्मभावसे किये हुए भूमिदानका यह फल नहीं हो सकता ॥ 21 ॥ भगवान्ने यदि बलिको उसके सर्वस्वदानके बदले अपनी विस्मृति करानेवाला यह मायामय भोग और ऐश्वर्य ही दिया तो उन्होंने उसपर यह कोई अनुग्रह नहीं किया ॥ 22 ॥ जिस समय कोई और उपाय न देखकर भगवान्ने याचनाके छलसे उसका त्रिलोकीका राज्य छीन लिया और उसके पास केवल उसका शरीरमात्र ही शेष रहने दिया, तब वरुणके पाशोंमें बाँधकर पर्वतकी गुफामें | डाल दिये जानेपर उसने कहा था ॥ 23 ॥ खेद है, यहऐश्वर्यशाली इन्द्र विद्वान होकर भी अपना सच्चा स्वार्थ सिद्ध करने कुशल नहीं है। इसने सम्मति लेनेके लिये अनन्यभावसे बृहस्पतिजोको अपना मन्त्री बनाया; फिर भी उनकी अवहेलना करके इसने श्रीविष्णुभगवान् उनका दान मांगकर उनके द्वारा मुझसे अपने लिये ये भोग ही माँगे। ये तीन लोक तो केवल एक मन्वन्तरतक ही रहते हैं, जो अनन्त कालका एक अवयवमात्र है। भगवान् के कैर्यके आगे भला, इन तुच्छ भोगोंका क्या मूल्य है ।। 24 ।। हमारे पितामह प्रह्लादजीने भगवान्‌के हाथों अपने पिता हिरण्यकशिपुके मारे जानेपर प्रभुको सेवाका ही वर मांगा था। भगवान् देना भी चाहते थे, तो भी उनसे दूर करनेवाला समझकर उन्होंने अपने पिताका निष्कण्टक राज्य लेना स्वीकार नहीं किया ॥ 25 वे बड़े महानुभाव थे। मुझपर तो न भगवान् की कृपा ही है और न मेरी वासनाएँ ही शान्त हुई हैं, फिर मेरे जैसा कौन पुरुष उनके पास पहुँचने का साहस कर सकता है ? ॥ 26 ॥ राजन् ! इस बलिका चरित हम आगे (अष्टम स्कन्धमें) विस्तारसे कहेंगे। अपने भक्तोंके प्रति भगवान्‌का हृदय दयासे भरा रहता है। इसीसे अखिल जगत्के परम पूजनीय गुरु भगवान् नारायण हाथमें गदा लिये सुतल लोकमें राजा बलिके द्वारपर सदा उपस्थित रहते हैं। एक बार जब दिग्विजय करता हुआ घमंडी रावण वहाँ पहुंचा, तब उसे भगवान्ने अपने पैरके अंगूठेकी ठोकरसे ही लाखों योजन दूर फेंक दिया था ॥ 27 ॥

सुतललोकसे नीचे तत्पतल है। वहाँ त्रिपुराधिपति दानवराज मय रहता है। पहले तीनों लोकोंको शान्ति प्रदान करनेके लिये भगवान् शङ्करने उसके तीनों पर भस्म कर दिये थे। फिर उन्हींकी कृपासे उसे यह स्थान मिला। वह मायावियोंका परम गुरु है और महादेवजीके द्वारा सुरक्षित हैं, इसलिये उसे सुदर्शन चक्रसे भी कोई भय नहीं है। वहाँके निवासी उसका बहुत आदर करते हैं 28 ॥

उसके नीचे महातलमे कसे उत्पन्न हुए अनेक सिरोवाले सर्पोका क्रोधवश नामक एक समुदाय रहता है। उनमें कुहक, तक्षक, कालिय और सुषेण आदि प्रधान हैं। उनके बड़े-बड़े फन हैं। वे सदा भगवान्के वाहन पक्षिराज गरुडजीसे डरते रहते हैं; तो भी कभी-कभी अपने स्त्री, पुत्र, मित्र और कुटुम्बके सहसे प्रमत्त होकर विहार करने लगते है ।। 29 ।।

उसके नीचे रसातलमें पणि नामके दैत्य और दानव रहते हैं। | ये निवातकवच, कालेय और हिरण्यपुरवासी भी कहलाते हैं। इनका देवताओंसे विरोध है ये जन्मसे ही बड़े बलवान् औरमहान् साहसी होते हैं। किन्तु जिनका प्रभाव सम्पूर्ण लोकोंमें फैला हुआ है, उन श्रीहरिके तेजसे बलाभिमान चूर्ण हो जानेके कारण ये सर्पोंक समान लुक-छिपकर रहते हैं तथा इन्द्रकी दूती सरमाके कहे हुए मन्त्रवर्णरूप * | वाक्यके कारण सर्वदा इन्द्रसे डरते रहते हैं ॥ 30 ॥

रसातलके नीचे पाताल है। वहाँ शङ्ख, कुलिक, महाशङ्ख, श्वेत, धनञ्जय, धृतराष्ट्र, शङ्खचूड़, कम्बल, अश्वतर और देवदत्त आदि बड़े क्रोधी और बड़े-बड़े फनोंवाले नाग रहते हैं। इनमें वासुकि प्रधान हैं। उनमें से किसीके पाँच, किसीके सात, किसीके दस, किसीके सौ और किसीके हजार सिर हैं। उनके फनोंकी दमकती हुई मणियाँ अपने प्रकाशसे पाताललोकका सारा अन्धकार नष्ट कर देती हैं ॥ 31 ॥

अध्याय 25 श्रीसङ्कर्षणदेवका विवरण और स्तुति

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन् ! पाताललोकके नीचे तीस हजार योजनकी दूरीपर अनन्त नामसे विख्यात भगवान्‌की तामसी नित्य कला है। यह अहंकाररूपा होनेसे द्रष्टा और दृश्यको खींचकर एक कर देती है, | इसलिये पाञ्चरात्र आगमके अनुयायी भक्तजन इसे ‘सङ्कर्षण’ कहते हैं ॥ 1 ॥ इन भगवान् अनन्तके एक हजार मस्तक हैं। उनमेंसे एकपर रखा हुआ यह सारा भूमण्डल सरसोंके दानेके समान दिखायी देता है ॥ 2 ॥ प्रलयकाल उपस्थित होनेपर जब इन्हें इस विश्वका उपसंहार करनेकी इच्छा होती है, तब इनकी क्रोधवशघूमती हुई मनोहर ध्रुकुटियोंके मध्यभागसे सङ्घर्षण नामक रुद्र प्रकट होते हैं। उनकी व्यूहसंख्या ग्यारह है। वे सभी तीन नेत्रोंवाले होते हैं और हाथमें तीन नोकोंवाले शूल लिये रहते हैं ॥ 3 ॥ भगवान् सङ्कर्षणके चरणकमलोंके गोल-गोल स्वच्छ और अरुणवर्ण नख मणियोंकी पङ्क्तिके समान देदीप्यमान हैं। जब अन्य प्रधान प्रधान भक्तोंके सहित अनेको नागराज अनन्य भक्तिभावसे उन्हें प्रणाम करते हैं, तब उन्हें उन नखमणियोंमें अपने कुण्डल कान्तिमण्डित कमनीय कपोलोंवाले मनोहर मुखारविन्दोंकी मनमोहिनी झाँकी होती है और उनका मन आनन्दसे भर जाता है ॥4॥ अनेकों नागराजोंकी कन्याएँ विविध कामनाओंसे उनके अङ्गमण्डलपर चाँदीके खम्भोंके समान सुशोभित उनकी वलयविलसित लंबी-लंबी श्वेतवर्ण सुन्दर भुजाओंपर अरगजा, चन्दन और कुङ्कुमपङ्कका लेप करती । उस समय अङ्गस्पर्शसे मथित हुए उनके हृदयमें कामका सञ्चार हो जाता है। तब वे उनके मदविह्वल सकरुण अरुण नयनकमलोंसे सुशोभित तथा प्रेममदसे मुदित मुखारविन्दकी ओर मधुर मनोहर मुसकानके साथ | सलज्ज भावसे निहारने लगती हैं ॥ 5 ॥ वे अनन्त गुणोंके सागर आदिदेव भगवान् अनन्त अपने अमर्ष (असहनशीलता) और रोषके वेगको रोके हुए वहाँ समस्त लोकोंके कल्याणके लिये विराजमान हैं ॥ 6 ॥

देवता, असुर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर और मुनिगण भगवान् अनन्तका ध्यान किया करते हैं। उनके नेत्र निरन्तर प्रेममदसे मुदित, चञ्चल और विह्वल रहते हैं। वे सुललित वचनामृतसे अपने पार्षद और देवयूथपोंको सन्तुष्ट करते रहते हैं। उनके अङ्गपर नीलाम्बर और कानों में केवल एक कुण्डल जगमगाता रहता है तथा उनका सुभग और सुन्दर हाथ हलकी मूठपर रखा रहता है। वे उदारलीलामय भगवान् सङ्कर्षण गलेमें वैजयन्ती माला धारण किये रहते है, जो साक्षात् इन्द्रके हाथी ऐरावतके गलेमें पड़ी हुई सुवर्णकी श्रृङ्खलाके समान जान पड़ती है। जिसकी कान्ति कभी फीकी नहीं पड़ती, ऐसी नवीन तुलसीकी गन्ध और मधुर मकरन्दसे उन्मत्त हुए भौरे निरन्तर मधुर गुंजार | करके उसकी शोभा बढ़ाते रहते हैं ॥ 7 ॥परीक्षित्! इस प्रकार भगवान् अनन्त माहात्म्य श्रवण और ध्यान करनेसे मुमुक्षुओंके हृदयमें आविर्भूत होकर उनकी अनादिकालीन कर्मवासनाओंसे ग्रथित सत्त्व, रज और तमोगुणात्मक अविद्यामयी हृदय ग्रन्थिको तत्काल काट डालते हैं। उनके गुणोंका एक बार ब्रह्माजीके पुत्र भगवान् नारदने तुम्बुरु गन्धर्वके साथ ब्रह्माजीकी सभामें इस प्रकार गान किया था ॥ 8 ॥

जिनकी दृष्टि पड़नेसे ही जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके हेतुभूत सत्त्वादि प्राकृत गुण अपने-अपने कार्यमें समर्थ होते हैं, जिनका स्वरूप ध्रुव (अनन्त) और अकृत (अनादि) है तथा जो अकेले होते हुए ही इस नानात्मक प्रपञ्चको अपनेमें धारण किये हुए हैं l

उन भगवान् सङ्कर्षणके तत्त्वको कोई कैसे जान सकता है ॥ 9 ॥ जिनमें यह कार्य-कारणरूप सारा प्रपञ्च भास रहा है तथा अपने निजजनोंका चित्त आकर्षित करनेके लिये की हुई जिनकी वीरतापूर्ण लीलाको परम पराक्रमी सिंहने आदर्श मानकर अपनाया है, उन उदारवीर्य सङ्कर्षण भगवान्ने हमपर बड़ी कृपा करके यह विशुद्ध सत्त्वमय स्वरूप धारण किया है ॥ 10 ॥ जिनके सुने सुनाये नामका कोई पीड़ित अथवा पतित पुरुष अकस्मात् अथवा हँसीमें भी उच्चारण कर लेता है तो वह पुरुष दूसरे मनुष्योंके भी सारे पापोंको तत्काल नष्ट कर देता है-ऐसे शेषभगवान्‌को छोड़कर मुमुक्षु पुरुष और किसका आश्रय ले सकता है ? ॥ 11 ॥ यह पर्वत, नदी और समुद्रादिसे पूर्ण सम्पूर्ण भूमण्डल उन सहस्रशीर्षा भगवान्‌के एक मस्तकपर एक रजःकणके समान रखा हुआ है। वे अनन्त हैं, इसलिये उनके पराक्रमका कोई परिमाण नहीं है। किसीके हजार जीभे हों, तो भी उन सर्वव्यापक भगवान्के पराक्रमोंकी गणना करनेका साहस वह कैसे कर सकता है ? ॥ 12 ॥ वास्तवमें उनके वीर्य, अतिशय गुण और प्रभाव असीम हैं। ऐसे प्रभावशाली भगवान् अनन्त रसातलके मूलमें अपनी ही महिमामें स्थित स्वतन्त्र हैं और सम्पूर्ण लोकोंकी स्थितिके लिये लीलासे ही | पृथ्वीको धारण किये हुए हैं ॥ 13 ॥राजन् ! भोगोंकी कामनावाले पुरुषोंकी अपने कर्मो के अनुसार प्राप्त होनेवाली भगवान्‌की रची हुई ये ही गतियाँ हैं। इन्हें जिस प्रकार मैंने गुरुमुखसे सुना था, उसी प्रकार तुम्हें सुना दिया ॥ 14 ॥ मनुष्यको प्रवृत्तिरूप धर्मके परिणाममें प्राप्त होनेवाली जो परस्पर विलक्षण ऊँची-नीची गतियाँ हैं, वे इतनी ही हैं; इन्हें तुम्हारे प्रश्नके अनुसार मैंने | सुना दिया। अब बताओ, और क्या सुनाऊँ ? ॥ 15 ॥

अध्याय 26 नरकोंकी विभिन्न गतियोंका वर्णन

राजा परीक्षितने पूछा- महर्षे! लोगोंको जो ये ऊँची-नीची गतियाँ प्राप्त होती हैं, उनमें इतनी विभिन्नता क्यों है ? ।। 1 ।।

श्रीशुकदेवजीने कहा- राजन् ! कर्म करनेवाले पुरुष सालिक, राजस और तामस—तीन प्रकारके होते हैं तथा उनकी श्रद्धाओं में भी भेद रहता है। इस प्रकार स्वभाव और श्रद्धाके भेदसे उनके कर्मोकी गतियाँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं और न्यूनाधिकरूपमें ये सभी गतियाँ सभी कर्ताओंको प्राप्त होती हैं ||2 || इसी प्रकार निषिद्ध कर्मरूप पाप करनेवालोंको भी उनकी श्रद्धाकी असमानताके कारण, समान फल नहीं मिलता। अतः अनादि अविद्याके वशीभूत होकर कामनापूर्वक किये हुए उन निषिद्ध कर्मकि परिणाममें जो हजारों तरहकी नारकी गतियाँ होती हैं, उनका विस्तारसे वर्णन करेंगे || 3 ||

राजा परीक्षितने पूछा-भगवन्! आप जिनका वर्णन करना चाहते हैं, वे नरक इसी पृथ्वीके कोई देशविशेष हैं अथवा त्रिलोकीसे बाहर या इसीके भीतर किसी जगह हैं ? ॥ 4 ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा- राजन् वे त्रिलोकीके भीतर ही हैं तथा दक्षिणकी ओर पृथ्वीसे नीचे जलके ऊपर स्थित हैं। इसी दिशामें अनिष्वात्त आदि पितृगण रहते हैं, वे अत्यन्त एकाग्रतापूर्वक अपने वंशधरोंके लिये मङ्गलकामना किया करते है ॥ 5 ॥ उस नरकलोकमें सूर्यके पुत्र पितृराज भगवान् यम अपने सेवकोंके सहित रहते हैं तथा भगवान्की आज्ञाकाउल्लङ्घन न करते हुए, अपने दूतोंद्वारा वहाँ लाये हुए मृत प्राणियों को उनके दुष्कर्मो के अनुसार पापका फल दण्ड देते है ॥ 6 ॥ परीक्षित्! कोई-कोई लोग नरकोको संख्या इक्कीस बताते है। अब हम नाम, रूप और लक्षणोंके अनुसार उनका क्रमशः वर्णन करते हैं। उनके नाम ये हैं-तामिस्र, अन्धतामिस्र, रौरव, महारौरव, कुम्भीपाक, कालसूत्र, असिपत्रवन, करमुख, अन्धकूप, कृमिभोजन, सन्देश, तप्तसूर्मि, वज्रकण्टकशाल्मली, वैतरणी, पयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीचि और अयःपान। इनके सिवा क्षारकर्दम, रक्षोगणभोजन, शूलप्रोत दन्दशूक, अवटनिरोधन, पर्यावर्तन और सूचीमुल ये सात और मिलाकर कुल अाईस नरक तरह-तरह की यातनाओको भोगनेके स्थान हैं ॥ 7 ॥

जो पुरुष दूसरोंके धन, सन्तान अथवा स्त्रियोंका हरण करता है, उसे अत्यन्त भयानक यमदूत कालपाशमे बाँधकर बलात् तामिस्र नरकमें गिरा देते हैं। उस अन्धकारमय नरकमें उसे अन्न-जल न देना, डंडे लगाना और भय दिखलाना आदि अनेक प्रकारके उपायोंसे पीड़ित किया जाता है। इससे अत्यन्त दुखी होकर वह एकाएक मूर्च्छित हो जाता है ॥ 8 ॥ इसी प्रकार जो पुरुष किसी दूसरेको घोर देकर उसको खी आदिको भोगता है, वह अन्धतामिल नरकमें पड़ता है। वहाँकी यातनाओं में पड़कर वह, जड़से कटे हुए वृक्षके समान, वेदनाके मारे सारी सुध-बुध खो बैठता है और उसे कुछ भी नहीं सूझ पड़ता। इसीसे इस नरकको अन्धतामिस्र | कहते हैं ।। 9 ।।

जो पुरुष इस लोक ‘यह शरीर ही मैं हूँ और ये स्त्रीधनादि मेरे हैं’ ऐसी बुद्धिसे दूसरे प्राणियोंसे द्रोह करके निरन्तर अपने कुटुम्बके ही पालन-पोषणमें लगा रहता है, वह अपना शरीर छोड़नेपर अपने पापके कारण स्वयं ही रौरव नरकमे गिरता है। 10 । इस लोकमे उसने जिन जीवोको जिस प्रकार कष्ट पहुंचाया होता है परलोकमे यमयातनाका समय आनेपर वे जीव ‘रुरु’ होकर उसे उसी प्रकार कष्ट पहुँचाते हैं। इसीलिये इस नरकका नाम ‘रौरव’है। ‘रुरु’ सर्पसे भी अधिक क्रूर स्वभाववाले एक जीवका नाम है | 11 | ऐसा ही महारौरव नरक है। इसमें वह व्यक्ति जाता है, जो और किसीकी परवा न कर केवल अपने ही शरीरका पालन-पोषण करता है। वहाँ कच्चा मांस खानेवाले रुरु इसे मांसके लोभसे काटते हैं ।। 12 ।।

जो क्रूर मनुष्य इस लोकमें अपना पेट पालनेके लिये जीवित पशु या पक्षियों को रधिता है, उस हृदयहीन राक्षसोंसे भी गये-बीते पुरुषको यमदूत कुम्भीनक ले जाकर सौते हुए तैलमें रांधते हैं ॥ 13 ॥ जो मनुष्य इस लोकमें माता-पिता, ब्राह्मण और वेदसे विरोध करता है, उसे यमदूत कालसूत्र नरकमें ले जाते हैं। इसका घेरा दस हजार योजन है। इसकी भूमि ताँबेकी है। इसमें जो तपा हुआ मैदान है, वह ऊपरसे सूर्य |और नीचेसे अग्रिके दाहसे जलता रहता है। वहाँ पहुँचाया हुआ पापी जीव भूख-प्यास से व्याकुल हो जाता है और उसका शरीर बाहर-भीतरसे जलने लगता है। उसकी बेचैनी यहाँतक बढ़ती है कि वह कभी बैठता है, कभी लेटता है, कभी छटपटाने लगता है, कभी खड़ा होता है और कभी इधर-उधर दौड़ने लगता है। इस प्रकार उस नर पशुके शरीरमें जितने रोम होते हैं, उतने ही | हजार वर्षतक उसकी यह दुर्गति होती रहती है ।। 14 ।।

जो पुरुष किसी प्रकारकी आपत्ति न आनेपर भी अपने वैदिक मार्गको छोड़कर अन्य पाण्डपूर्ण धर्मोका आश्रय लेता है, उसे यमदूत असिपत्रवन नरकमें ले जाकर कोड़ोंसे पीटते हैं। जब मारसे बचनेके लिये वह इधर-उधर दौड़ने लगता है, तब उसके सारे अङ्ग ताल तलवारके समान पैने पत्तोंसे, जिनमें दोनों ओर धारे होती हैं, ट्रक-ट्रक होने लगते हैं तब वह अत्यन्त वेदनासे ‘हाय, मैं मरा।’ इस प्रकार चिल्लाता हुआ पद-पदपर मूर्च्छित होकर गिरने लगता है। अपने धर्मको छोड़कर पाखण्डमार्गमें चलनेसे उसे इस प्रकार अपने कुकर्मका फल भोगना पड़ता है ।। 15 ।।

इस लोक जो पुरुष राजा या राजकर्मचारी होकर किसी निरपराध मनुष्यको दण्ड देता है अथवा ब्राह्मणको शरीरदण्ड देता है, वह महापापी मारकर सूकरमुख नरकगे गिरता है। यहाँ जब महाबली यमदूत उसके अङ्गोंको कुचलते हैं, तब वह कोल्हूमें पेरे जाते हुए गन्नोंके समान पीड़ित होकर, जिस प्रकार इस लोकमे उसके द्वारा सताये हुए निरपराध प्राणी रोते-चिल्लाते थे, उसी प्रकार कभी आर्त स्वरसे चिल्लाता और । कभी मूर्च्छित हो जाता है।। 16 ।।जो पुरुष इस लोकमें खटमल आदि जीवोंकी हिंसा करता है, वह उनसे द्रोह करनेके कारण अन्धकूप नरकमें गिरता है। क्योंकि स्वयं भगवान् ही रक्तपानादि उनकी वृति बना दी है और उन्हें उसके कारण दूसरोंको कष्ट पहुँचनेका ज्ञान भी नहीं है; किन्तु मनुष्यकी वृत्ति भगवान् विधिनिषेधपूर्वक बनायी है और उसे दूसरोंके का ज्ञान भी है। वहाँ वे पशु, मृग, पक्षी, साँप आदि रेंगनेवाले जन्तु, मच्छर, जूँ, खटमल और मक्खी आदि जीव जिनसे उसने द्रोह किया था उसे सब ओरसे काटते हैं। इससे उसकी निद्रा और शान्ति भङ्ग हो जाती है और स्थान न मिलनेपर भी वह बेचैनीके कारण उस घोर अन्धकारमें इस प्रकार भटकता है रहता है जैसे रोगग्रस्त शरीरमें जीव छटपटाया करता है ॥ 17 ॥

जो मनुष्य इस लोकमें बिना पञ्चमहायज्ञ किये तथा जो कुछ मिले, उसे बिना किसी दूसरेको दिये स्वयं ही खा लेता है, उसे कौएके समान कहा गया है। यह परलोकमें कुमिभोजन नामक निकृष्ट नरकमें गिरता है। वहाँ एक लाख योजन लंबा-चौड़ा एक कोड़ों का कुण्ड है उसीमें उसे भी कोड़ा बनकर रहना पड़ता है। और जबतक अपने पापोंका प्रायश्चित न करनेवाले उस पापीके-बिना दिये और बिना हवन किये खानेके—दोषका अच्छी तरह शोधन नहीं हो जाता, तबतक वह उसीमें पड़ा पड़ा कष्ट भोगता रहता है। वहाँ कीड़े उसे नोचते हैं और वह कोडको खाता है ॥ 18 ॥ राजन् ! इस लोकमें जो व्यक्ति चोरी या बरजोरीसे ब्राह्मणके अथवा आपत्तिका समय न होनेपर भी किसी दूसरे पुरुषके सुवर्ण और रत्नादिका हरण करता है, उसे मरनेपर यमदूत सन्देश नामक नरक में ले जाकर तपाये हुए लोहेके गोलोंसे दागते हैं और सैड़सीसे उसकी खाल नोचते हैं ।। 19 ।। इस लोकमें यदि कोई पुरुष अगम्या स्त्रीके साथ सम्भोग करता है अथवा कोई स्त्री अगम्य पुरुषसे व्यभिचार करती है, तो यमदूत उसे तप्तसूर्मि नामक नरक में ले जाकर कोड़ोंसे पीटते हैं तथा पुरुषको तपाये हुए लोहेकी स्त्री-मूर्तिसे और स्त्रीको तपायी हुई पुरुष प्रतिमासे आलिङ्गन कराते है॥ 20 ॥ जो पुरुष इस लोकमें | पशु आदि सभीके साथ व्यभिचार करता है, उसे मृत्युके बाद यमदूत वज्रकण्टकशाल्मली नरकमे गिराते है और वज्रके समान कठोर काँटोवाले सेमरके वृक्षपर चढ़ाकर फिर नीचे की ओर खींचते हैं ।। 21 ।।

जो राजा या राजपुरुष इस लोकमें श्रेष्ठ कुलमें जन्म पाकर भी धर्मकी मर्यादाका उच्छेद करते हैं, वे उस मर्यादातिक्रमणके । कारण मरनेपर वैतरणी नदीमें पटके जाते हैं। यह नदी नरकोंकी| खाईके समान है, उसमें मल, मूत्र, पीन, रात, केश, नख, हड्डी, चर्बी, मांस और मज्जा आदि गदी चीजें भरी हुई है। वहाँ गिरनेपर उन्हें इधर-उधर जल जीव नोचते हैं। किन्तु इससे उनका शरीर नहीं छूटता, पापके कारण प्राण उसे वहन किये रहते हैं और वे उस दुर्गतिको अपनी करनीका फल समझकर मन-ही-मन सन्तार होते रहते हैं ॥ 22 ॥ जो लोग शौच और आचारके नियमोंका परित्याग कर तथा को तिलाञ्जलि देकर इस लोकमें शुद्राओंके साथ सम्बन्ध गरि | पशुओंके समान आचरण करते हैं, वे भी मरनेके बाद पीच, विष्ठा, मूत्र, कफ और मलसे भरे हुए पयोद नामक समुद्रमे गिरकर उन अत्यन्त घृणित वस्तुओंको ही खाते हैं ॥ 23 ॥ इस लोकमे जो ब्राह्मणादि उच्च वर्णके लोग कुत्ते या गधे पालते और शिकार आदिमें लगे रहते हैं तथा शास्त्र के विपरीत पशुओंका वध करते हैं, मरनेके पश्चात् वे प्राणरोध नरकमें डाले जाते हैं और वहाँ यमदूत उन्हें लक्ष्य बनाकर बाणोंसे बींधते हैं ॥ 24 ॥

जो पाखण्डीलोग पाखण्डपूर्ण यज्ञोंमें पशुओंका व करते हैं, उन्हें परलोकमे वैशस (विशसन) नरकमे डालकर वहाँकै अधिकारी बहुत पीड़ा देकर काटते हैं।। 25 ।। जो द्विज कामातुर होकर अपनी सवर्णा भार्याको वीर्यपान कराता है, उस पापीको मरनेके बाद यमदूत वीर्यकी नदी (लाभक्ष नामक नरक) में डालकर वीर्य पिलाते हैं । 26 ॥ जो कोई चोर अथवा राजा या राजपुरुष इस लोकमें किसीके घरमें आग लगा देते हैं, किसीको विष दे देते हैं अथवा गाँवों या व्यापारियोंकी टोलियोको लूट लेते हैं, उन्हें मरनेके पश्चात् सारमेयादन नामक नरकमें की-सी दादोवाले सात सौ बीस यमदूत कुत्ते बनकर बड़े वेगसे काटने लगते हैं ॥ 27 ॥ है। इस लोकमें जो पुरुष किसीकी गवाही देनेमें, व्यापारमें अथवा दानके समय किसी भी तरह झूठ बोलता है, वह मरनेपर आधारशून्य अवीचिमान् नरकमें पड़ता है। वहाँ उसे सौ योजन ऊँचे पहाड़के शिखरसे नीचेको सिर करके गिराया जाता है। उस नरककी पत्थरकी भूमि जलके समान जान पड़ती है। इसीलिये इसका नाम अवीचिमान् है वहाँ गिराये जानेसे उसके शरीरके टुकड़े-टुकड़े हो जानेपर भी प्राण नहीं निकलते, । इसलिये इसे बार-बार ऊपर ले जाकर पटका जाता है ।। 28 ।।जो ब्राह्मण या ब्राह्मणी अथवा व्रतमें स्थित और कोई भी प्रमादवश मद्यपान करता है तथा जो क्षत्रिय या वैश्य सोमपान* करता है, उन्हें यमदूत अयः पान नामके नरकमें ले जाते हैं और उनकी छातीपर पैर रखकर उनके मुँहमें आगसे गलाया हुआ लोहा | डालते हैं ॥ 29 ॥ जो पुरुष इस लोकमें निम्र श्रेणीका होकर भी | अपनेको बड़ा माननेके कारण जन्म, तप, विद्या, आचार, वर्ण या आश्रममें अपने से बड़ोंका विशेष सत्कार नहीं करता, वह जीता हुआ भी मरेके ही समान है। उसे मरनेपर क्षारकर्दम नामके नरकमें नीचेको सिर करके गिराया जाता है और वहाँ उसे अनन्त पीड़ाएँ भोगनी पड़ती हैं ॥ 30 ॥

जो पुरुष इस लोकमें नरमेधादिके द्वारा भैरव, यक्ष, राक्षस आदिका यजन करते हैं और जो स्त्रियाँ पशुओंके समान पुरुषोंको खा जाती हैं, उन्हें वे पशुओंकी तरह मारे हुए पुरुष यमलोकमें राक्षस होकर तरह-तरह की यातनाएँ देते हैं और रक्षोगण भोजन नामक नरकमें कसाइयोंके समान कुल्हाड़ीसे काट-काटकर उसका लोहू पीते हैं। तथा जिस प्रकार वे मांसभोजी पुरुष इस लोकमें उनका मांस भक्षण करके आनन्दित होते थे, उसी प्रकार वे भी उनका रक्तपान करते और आनन्दित होकर नाचते-गाते हैं ॥ 31 ॥ इस लोकमें जो लोग वन या गाँवके निरपराध जीवोंको–जो सभी अपने प्राणोंको रखना चाहते हैं – तरह तरहके उपायोंसे फुसलाकर अपने पास बुला लेते हैं और फिर उन्हें काँटेसे बेधकर या रस्सीसे बाँधकर खिलवाड़ करते हुए | तरह-तरहकी पीड़ाएँ देते हैं, उन्हें भी मरनेके पश्चात् यमयातनाओंके समय शूलप्रोत नामक नरकमें शूलोंसे बेधा जाता है। उस समय जब उन्हें भूख-प्यास सताती है और कङ्क, बटेर | आदि तीखी चोंचोंवाले नरकके भयानक पक्षी नोचने लगते हैं, तब अपने किये हुए सारे पाप याद आ जाते हैं ॥ 32 ॥

राजन् इस लोकमें जो सर्पोंके समान उग्रस्वभाव पुरुष दूसरे जीवोंको पीड़ा पहुँचाते हैं, वे मरनेपर दन्दशूक नामके नरकमें गिरते हैं। वहाँ पाँच-पाँच, सात-सात मुँहवाले सर्प उनके समीप आकर उन्हें चूहोंकी तरह निगल जाते हैं ॥ 33 ॥ जो व्यक्ति यहाँ दूसरे प्राणियोंको अँधेरी खत्तियों, कोठों या गुफाओंमें डाल देते हैं, उन्हें परलोकमें यमदूत वैसे ही स्थानोंमें डालकर विषैली आगके धूएँमें घोंटते हैं। इसीलिये इस नरकको अवटनिरोधन कहते हैं ॥ 34 ॥ जो गृहस्थ अपने घर आये अतिथि-अभ्यागतोंकी ओर बार-बार क्रोधमें भरकर ऐसी कुटिल दृष्टिसे देखता है मानों उन्हें भस्म कर देगा, वह जब नरकमें जाता है, तब उस पापदृष्टिके नेत्रोंको गिद्ध, कङ्क, काक और बटेर आदि वज्रकी-सी कठोर चोंचोंवाले पक्षी बलात् निकाल | लेते हैं। इस नरकको पर्यावर्तन कहते हैं ॥ 35 ॥इस लोकमें जो व्यक्ति अपनेको बड़ा धनवान् समझकर अभिमान सबको रेढ़ी नजरसे देखता है और सभीपर सन्देह रखता है, धनके व्यय और नाशकी चिन्तासे जिसके हृदय और मुँह सूखे रहते हैं, अतः तनिक भी चैन न मानकर जो यक्षके समान धनकी रक्षाये ही लगा रहता है तथा पैसा पैदा करने, बढ़ाने और बचाने में जो तरह-तरहके पाप करता रहता है, वह नराधम मरनेपर सूचीमुख सकसे गिरता है। यहाँ उस अर्थशिच पापात्माके सारे अङ्गको यमराजके दूत दर्जियोंके समान सूई-धागेसे सीते हैं ।। 36 ।।

राजन्। यमलोकमें इसी प्रकारके सैकड़ों-हजारों नरक है। उनमें जिनका यहाँ उल्लेख हुआ है और जिनके विषयमें कुछ नहीं कहा गया, उन सभीमें सब अधर्मपरायण जीव अपने कर्मो के अनुसार बारी-बारीसे जाते हैं। इसी प्रकार धर्मात्मा पुरुष स्वर्गादिमें जाते हैं। | इस प्रकार नरक और स्वर्गके भोगसे जब इनके अधिकांश पाप और | पुण्य क्षीण हो जाते हैं, तब बाकी बचे हुए पुण्यपापरूप कर्मोंको लेकर ये फिर इसी लोकमें जन्म लेनेके लिये लौट आते हैं॥ 37 ॥

इन धर्म और अधर्म दोनोंसे विलक्षण जो निवृत्ति मार्ग है, उसका तो पहले (द्वितीय स्कन्धमें) ही वर्णन हो चुका है। पुराणोंमें जिसका चौदह भुवनके रूपमें वर्णन किया गया है, वह ब्रह्माण्डकोश इतना ही है। यह साक्षात् परम पुरुष श्रीनारायणका अपनी मायाके | गुणोंसे युक्त अत्यन्त स्थूल स्वरूप है। इसका वर्णन मैंने तुम्हें सुना दिया। परमात्मा भगवान्‌का उपनिषदोंमें वर्णित निर्गुण स्वरूप यद्यपि मन-बुद्धिकी पहुँचके बाहर है तो भी जो पुरुष इस स्थूल रूपका वर्णन आदरपूर्वक पढ़ता, सुनता या सुनाता है, उसकी बुद्धि श्रद्धा और | भक्तिके कारण शुद्ध हो जाती है और वह उस सूक्ष्म रूपका भी | अनुभव कर सकता है ।। 38 ।।

यतिको चाहिये कि भगवान्के स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकारके रूपोंका श्रवण करके पहले स्थूल रूपमें चित्तको स्थिर करे, फिर धीरे-धीरे वहाँसे हटाकर उसे सूक्ष्ममें लगा दे ॥ 39 ॥ परीक्षित् मैंने तुमसे पृथ्वी, उसके अन्तर्गत द्वीप, वर्ष, नदी, पर्वत, आकाश, समुद्र, पाताल, दिशा, नरक, ज्योतिर्गण और लोकोंको स्थितिका वर्णन किया। यही भगवान्‌का अति अद्भुत स्थूल रूप है, जो समस्त | जीवसमुदायका आश्रय है ll 40 ll