Shree Naval Kishori

अग्निपुराण

अध्याय – ५१ सूर्यादि ग्रहों तथा दिक्पाल आदि देवताओंकी प्रतिमाओंके लक्षणोंका वर्णन

श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैंब्रह्मन्! सात अश्वोंसे जुते हुए एक पहियेवाले रथपर विराजमानसूर्यदेवकी प्रतिमाको स्थापित करना चाहिये ।

भगवान् सूर्य अपने दोनों हाथोंमें दो कमल धारण करते हैं। उनके दाहिने भागमें दावात और कलम लिये दण्ड़ी खड़े हैं और वाम भागमें पिङ्गल हाथमें दण्ड लिये द्वारपर विद्यमान हैं। ये दोनों सूर्यदेवके पार्षद हैं।

भगवान् सूर्यदेवके उभय पार्श्वमें बालव्यजन (चवर) लिये ‘राज्ञी’ तथा ‘निष्प्रभा’ खड़ी हैं।

अथवा

घोड़ेपर चढ़े हुए एकमात्र सुर्यकी ही प्रतिमा बनानी चाहिये। समस्त दिक्पाल हाथोंमें वरद मुद्रा, दो-दो कमल तथा शस्त्र लिये क्रमशः पूर्वादि दिशाओंमें स्थित दिखाये जाने चाहिये ॥ १-३ ॥

बारह दलोंका एक कमल-चक्र बनावे । उसमें सूर्य, अर्यमा * आदि नामवाले बारह आदित्योंका क्रमश: बारह दलोंमें स्थापन करे। यह स्थापना वरुण-दिशा एवं वायव्यकोणसे आरम्भ करके नैऋत्यकोणके अन्ततक के दलोंमें होनी चाहिये।

उक्त आदित्यगण चार-चार हाथ वाले हों और उन हाथोंमें मुदूर, शूल, चक्र एवं कमल धारण किये हों। अग्निकोणसे लेकर नैऋत्यतक, नैऋत्यसे वायव्यतक, वायव्यसे ईशानतक और वहाँसे अग्निकोणतक के दलोंमें उक्त आदित्योंकी स्थिति जाननी चाह्रियै ॥ ४॥

बारह आदित्योंके नाम इस प्रकार हैं-वरुण, सूर्य, सहस्त्रांशु, धाता, तपन, सविता, गभस्तिक, रवि, पर्जन्य, त्वष्टा, मित्र और विष्णु।

ये मेष आदि बारह राशियोंमें स्थित होकर जगत् को ताप एवं प्रकाश देते हैं।

ये वरुण आदि आदित्य क्रमश: मार्गशीर्ष मास (या वृश्चिक राशि)-से लेकर कार्तिक मास (या तुलाराशि)-तकके मासों (एवं राशियों)-में स्थित होकर अपना कार्य सम्पन्न करते हैं। इनकी अङ्गकान्ति क्रमश: काली, लाल, कुछ–कुछ लाल, पीली, पाण्डुवर्ण, श्वेत, कपिलवर्ण, पीतवर्ण, तोतेके समान हरी, धवलवर्ण, धूम्रवर्ण और नीली है।

इनकी शक्तियाँ द्वादशदल कमलके केसरोंके अग्रभागमें स्थित होती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-इडा, सुषुम्ना, विश्वार्चि, इन्दु प्रमर्दिनी (प्रवर्द्धिनी), प्रहर्षिणी, महाकाली, कपिला, नीलाम्बर, वनान्तस्था और अमृताख्या। वरुण आदिकी जो अङ्गकान्ति है, वही इन शक्तियोंकी भी है। केसरोंके अग्रभागोंमें इनकी स्थापना करे।

सूर्यदेवका तेज प्रचण्ड और मुख विशाल है। उनके दो भुजाएँ हैं। वे अपने हाथोंमें कमल और खड्ग धारण करते हैं। ५-१० ॥

चन्द्रमा कुण्डिका तथा जपमाला धारण करते हैं।

मङ्गलके हाथोंमें शक्ति और अक्षमाला शोभित होती हैं।

बुध के हाथोंमें धनुष और अक्षमाला शोभा पाते हैं।

बृहस्पति कुण्डिका और अक्षमालाधारी हैं।

शुक्रका भी कुण्डिका और अक्षमालाधारी हैं।

शनि किङ्गिणी-सूत्र धारण करते हैं।

राहु अर्धचन्द्रधारी है तथा केतुके हाथमें खङ्ग और दीपक शोभा पाते हैं।

अनन्त, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शङ्क और कुलिक आदि सभी मुख्य नागगण सूत्रधारी होते हैं। फन ही इनके मुख हैं। ये सब-के-सब महान् प्रभापुञ्जसे उद्भसित होते हैं।

इन्द्र वज्रधारी हैं। ये हाथीपर आरूढ होते हैं।

अग्निका वाहन बकरा है। अग्निदेव शक्ति धारण करते हैं।

यम दण्डधारी हैं और भैंसेपर आरूढ़ होते हैं।

निऋति खड्गधारी हैं और मनुष्य उनका वाहन है।

वरुण मकरपर आरूढ़ हैं और पाश धारण करते हैं।

वायुदेव वज्रधारी हैं और मृग उनका वाहन हैं।

कुबेर भेड़पर चढ़ते और गदा धारण करते हैं। ईशान जटाधारी हैं और वृषभ उनका वाहन हैं।

समस्त लोकपाल द्विभुज हैं।

विश्वकर्मा अक्षसूत्र धारण करते हैं।

हनुमानजीके हाथमें वज्र है। उन्होंने अपने दोनों पैरोंसे एक असुरको दबा रखा है।

किंनर-मूर्तियाँ हाथमें वीणा लिये हों और विद्याधर माला धारण किये आकाशमें स्थित दिखाये जाय।

पिशाचोंके शरीर दुर्बल-कङ्कालमात्र हों।

वेतालोंके मुख विकराल हों।

क्षेत्रपाल शूलधारी बनाये जाय।

प्रेतोंके पेट लंबे और शरीर कृश हों।॥ १६-१८॥

 

इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५१ ॥

अध्याय – ५२ चौंसठ योगिनी आदिकी प्रतिमाओंके लक्षण

श्रीभगवान् बोलेब्रह्मन्! अब मैं चौंसठ यौगिनियोंका वर्णन करुँगा। इनका स्थान क्रमशः पूर्वदिशासे लेकर ईशानपर्यन्त है।

इनके नाम इस प्रकार हैं- १. अक्षोभ्या, २. रूक्षकर्णी, ३. राक्षसी, ४. क्षपणा, ५. क्षमा, ६. पिङ्गाक्षी, ७. अक्षया, ८. क्षेमा, ९. इला, १०. नीलालया, ११. लोला, १२. रक्ता (या लत्ता), १३. बलाकेशी, १४. लालसा, १५ विमला, १६. दुर्गा (अथवा हुताशा), १७. विशालाक्षी, १८. ह्रींकारा (या हुंकारा), १९. वडवामुखी, २०. महाक्रूरा, २१. क्रोधना, २२. भयंकरी, २३. महानना, २४. सर्वज्ञा, २५. तरला, २६. तारा, २७. ऋग्वेदा, २८, हयानना, २९. सारा, ३०. रससंग्राही (अथवा सुसंग्राही या रुद्रसंग्राही), ३१. शबरा (या शम्वरा), ३२. तालजङ्गिका, ३३. रक्ताक्षी, ३४. सुप्रसिद्धा, ३५. विद्युजिह्मा, ३६. करङ्गिणी, ३७. मेघनाद, ३८. प्रचण्डा, ३९. उग्रा, ४०. कालकर्णी, ४१. वरप्रदा, ४२. चण्डा (अथवा चन्द्रा), ४३. चण्डवती (या चन्द्रावली), ४४. प्रपञ्ज्ञा, ४५. प्रलयान्तिका, ४६. शिशुवक्त्रा, ४७. पिशाची, ४८. पिशितासवलोलुपा, ४९. धमनी, ५०, तपनी, ५१. रागिणी (अथवा वामनी), ५२. विकृतानना, ५३, वायुवेगा, ५४. बृहत्कुक्षि, ५५. विकृता, ५६. विश्वरूपिका, ५७. यमजिह्म, ५८. जयन्ती, ५९. दुर्जया, ६०. जयन्तिका (अथवा यमान्तिका), ६१. विडाली, ६२. रेवती, ६३. पूतना तथा ६४. विजयान्तिकः ॥ १-८ ॥

योगिनियाँ आठ अथवा चार हाथोसे युक्त होती हैं। इच्छानुसार शस्त्र धारण करती हैं तथा उपासकोंको सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्रदान करनेवाली हैं।

भैरवके बारह हाथ हैं। उनके मुखमें ऊँचे दाँत हैं तथा वें सिरपर जटा एवं चन्द्रमा धारण करते हैं। उन्होंने एक ओरके पाँच हाथोंमें क्रमश: खड्ग, अंकुश, कुठार, बाण तथा जगतको अभय प्रदान करनेवाली मुद्रा धारण कर रखी है। उनके दूसरी ओरके पाँच हाथ धनुष, त्रिशूल, खट्वाङ्ग, पाशकाद्ध एवं वरकी मुद्रासे सुशोभित हैं। शेष दो हाथोंमें उन्होंने गजचर्म ले रखा है। हाथीका चमड़ा ही उनका वस्त्र है और वे सर्पमय आभूषणोंसे विभूषित हैं। प्रेतपर आसन लगाये मातृकाओंके मध्यभाग में विराजमान हैं। इस रूप में उनकी प्रतिमा बनाकर उसकी पूजा करनी चाहिये। भैरवके एक या पाँच मुख बनाने चाहिये। ९-११ ॥

पूर्व दिशासे लेकर अग्निकोणतक विलोमक्रम से प्रत्येक दिशा में भैरवकी स्थापित करके क्रमशः उनका पूजन करे।

बीज-मन्त्रको आठ दीर्घ स्वरोंमेंसे एक-एकके द्वारा भेदित एवं अनुस्वारयुक्त करके उस-उस दिशाके भैरवके साथ संयुक्त करे और उन सबके अन्तमें ‘नम:’ पदको जोड़े।

यथा-ॐ ह्रां भैरवाय नमःप्राच्याम्।।

ॐ ह्रीं भैरवाय नमः—ऐशान्याम्।

ॐ ह्रूं भैरवाय नमः-उदीच्याम्।

ॐ ह्रें भैरवाय नमः-वायव्ये ।

ॐ ह्रैं भैरवाय नमः-प्रतीच्याम्।

ॐ ह्रों भैरवाय नमः-नैऋत्याम्।

ॐ ह्रौं भैरवाय नमः-अवाच्याम्॥

ॐ ह्रः भैरवाय नमःआग्रेय्याम।

इस प्रकार इन मन्त्रोंद्वारा क्रमश: उन दिशाओंमें भैरवका पूजन करे। इन्हींमेंसे छ: बीजमन्त्रोंद्वारा षडङ्गन्यास एवं उन अङ्गोंका पूजन भी करना चाहिये’ ॥१२॥

उनका ध्यान इस प्रकार है-भैरवजी मन्दिर अथवा मण्डल के आग्नेयदल (अग्निकोणस्थ दल)- में विराजमान सुवर्णमयी रसनासे युक्त, नाद, विन्दु एवं इन्दुसे सुशोभित तथा मातृकाधिपतिके अङ्गसे प्रकाशित हैं। (ऐसे भगवान् भैरवका मैं भजन करता हूँ।)

वीरभद्र वृषभपर आरूढ़ हैं। वे मातृकाओंके मण्डलमें विराजमान और चार भुजाधारी हैं।

गौरी दो भुजाओंसे युक्त और त्रिनेत्रधारिणी हैं। उनके एक हाथमें शूल और दूसरेमें दर्पण है।

ललितादेवी कमलपर विराजमान हैं। उनके चार भुजाएँ हैं। वे अपने हाथोंमें त्रिशूल, कमण्डलु, कुण्डी और वरदानकी मुद्रा धारण करती हैं।

स्कन्दकी अनुचरी मातृकागणोंके हाथोंमें दर्पण और शलाका होनी चाहिये ॥ १३-१५ ॥

चण्ड़िका देवीके दस हाथ हैं। वे अपने दाहिने हाथोंमें बाण, खड्ग, शूल, चक्र और शक्ति धारण करती हैं और बायें हाथोंमें नागपाश, ढाल, अंकुश, कुठार तथा धनुष लिये रहती हैं। वे सिंहपर सवार हैं और उनके सामने शूलसे मारे गये महिषासुरका शव है॥ १६-१७ ॥

 

बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ। ५२॥

अध्याय – ५३ लिङ्ग आदिका लक्षण

श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैंकमलोद्धव! अब मैं लिङ्ग आदिका लक्षण बताता हूँ, सुनो।

लंबाईके लंबाईके आधेमें आठसे भाग देकर आठ भागोंमेंसे तीन भागको त्याग दे और शेष पाँच भागोंसे चौकोर विष्कम्भका निर्माण कराये। फिर लम्बाईके छ: भाग करके उन सबको एक, दो और तीनके क्रमसे अलग-अलग रखें। इनमें पहला भाग ब्रह्माका, दूसरा विष्णुका और तीसरा शिवका है। उन भागोंमें यह “वर्द्धमान” भाग कहा जाता है।

चकौर मण्डलमें कोणसूत्रके आधे मापको लेकर उसे सभी कोणोंमें चिहित करे। ऐसा करनेसे आठ कोणोंका “वैष्णवभाग” सिद्ध होता है, इसमें संशय नहीं है।

तदनन्तर उसे षोडश कोण और फिर बत्तीस कोणोंसे युक्त करे॥ १-४॥

तत्पश्चात चौसठ कोणोंसे युक्त करके वहां गोल रेखा बनावे ।

तदनन्तर श्रेष्ठ आचार्य लिङ्ग के शिरोभागका कर्तन करे। इसके बाद लिङ्गके विस्तारकीं आठ भागोंमें विभाजित करे। फिर उनमेंसे एक भाग के चौथे अंशको छोड़ देनेपर छत्राकार सिरका निर्माण होता हैं। जिसकी लंबाई-चौड़ाई तीन भागोंमें समान हो, वह समभागवाला लिङ्ग सम्पूर्ण मनोवान्छित फ़लोंको देनेवाला है।

देवपूजित लिङ्गमें लंबाईके चौथे भागसे विष्कम्भ बनता है।

अब तुम सभी लिङ्गाँके लक्षण सुनो ॥५-८ ॥

विद्वान् पुरुष सोलह अङ्गुलवाले लिङ्गके मध्यवर्ती सुत्रको, जो ब्रह्मा और रुद्रभागके निकटस्थ  है, लेकर उसे छ: भागोंमें विभाजित करे।

वैयमन-सूत्रोंद्वारा निश्चित जो वह माप है, उसे “अन्तर’ कहते हैं।

जो सबसे उत्तरवर्ती लिङ्ग है, उसे आठ जौ बड़ा बनाना चाहिये; शेष लिङ्गोंको एक–एक जौ छोटा कर दैना चाहिये। उपर्युक्त लिङ्गके निचले भागको तीन हिस्सोंमें विभक्त करके ऊपरके एक भागको छोड़ दे। शेष दो भागोंको आठ हिस्सोंमें विभक्त करके ऊपरके तीन भागोंको त्याग दे। पाँचवें भाग के ऊपर से घूमती हुई एक लंबी रेखा बनावे और एक भागको छोड़कर बीचमें उन दो रेखाओंका संगम करावे। यह लिङ्गोका साधारण लक्षण बताया गया,

अब पिण्डिकाका सर्वसाधारण लक्षण बताता हूँ, मुझसे सुनी। ९-१३॥

ब्रह्मभागमें प्रवेश तथा लिङ्गकी ऊँचाई जानकर विद्वान पुरुष ब्रह्माशिलाकी स्थापना करे और उस शिलाके ऊपर ही उत्तम रीति से कर्मका सम्पादन करे।

पिण्डिकाकी ऊँचाईको जानकर उसका विभाजन करे। दो भागकी ऊँचाईकी पीठ समझे। चौड़ाईमें वह लिङ्गके समान ही हो। पीठके मध्यभाग में खात (गढ़) करके उसे तीन भागोंमें विभाजित करे। अपने मानके आधे त्रिभागसे ‘बाहुल्य’ की कल्पना करे।

बाहुल्यके तृतीय भागसे मेखला बनावे और मेखलाके ही तुल्य खात (गट्टा) तैयार करे। उसे क्रमश: निम्न (नीचे झुका हुआ) रखे। मैखलाके सोलहवें अंशसे खात निर्माण करे और उसीके मापके अनुसार उस पीठकी उचाई, जिसे विकारांग कहते है, करावे।

प्रस्तरका एक भाग भूमिमें प्रविष्ट हो, भागसे पिण्डिका बने, तीन भागोंसे कण्ठका निर्माण कराया जाय और एक भागसे पट्टिका एक वनायी जाय। दो भागसे ऊपर का पट्ट बने, एक भागसे शेष-पट्टिका तैयार करायी जाय। कण्ठपर्यन्त एक-एक भाग प्रविष्ट हो। तत्पश्चात् पुनः एक भागसे निर्गम (जन निकालनेका मार्ग) बनाया जाय। यह शेष-पट्टिका तक रहे।

प्रणाल (नाली)- के तृतीय भागसे निर्गम बनना चाहिये। तृतीय भागके मूलमें अङ्गुलीके अग्रभागके बराबर विस्तृत खात बनावे, जो तृतीय भागसे आधे विस्तारका ही। वह खात उत्तरकी ओर जाय। यह पिण्डिकासहित साधारण लिङ्गका वर्णन किया गया ॥ २० -२३ ॥

 

तिरपनवाँ अध्याय पूर्णा हुआ।॥ ५३॥

अध्याय – ५४ लिङ्ग-मान एवं व्यक्ताव्यक्त लक्षण आदिका वर्णन

श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैं ब्रह्मन्! अब मैं दूसरे प्रकारसे लिङ्ग आदिका वर्णन करता हूँ, सुनो:-

लवण तथा घृतसे निर्मित शिवलिङ्ग बुद्धिको बढ़ानेवाला होता है।

वस्त्रमय लिङ्ग ऐश्वर्यदायक होता है। उसे तात्कालिक लिङ्ग माना गया है।

मृत्तिकासे बनाया हुआ शिवलिङ्ग दो प्रकारका होता है-पक्व तथा अपक्व। अपक्वसे  पक्व श्रेष्ठ माना गया है।

उसकी अपेक्षा काष्ठका बना हुआ शिवलिङ्ग अधिक पवित्र एवं पुण्यदायक है।

काष्ठमय लिङ्ग से प्रस्तरका लिङ्ग श्रेष्ठ है।

प्रस्तरसे मोतीका लिङ्ग श्रेष्ठ है।

मोतीसे सुवर्णका बना हुआ ‘लौह लिङ्ग’ उत्तम माना गया है।

चाँदी, ताँबे, पीतल, रत्न तथा रस (पारद)-का बना हुआ शिवलिङ्ग भोग-मोक्ष देनेवाला एवं श्रेष्ठ है।

रस (पारद आदि)-के लिङ्गको राँगा, लोहा (सुवर्ण, ताँबा) आदि तथा रत्नके भीतर आबद्ध करके स्थापित करे।

सिद्ध आदिके द्वारा स्थापित स्वयम्भूलिङ्ग आदिके लिये माप आदि करना अभीष्ट नहीं है।

बाणलिङ्ग (नर्मदेश्वर)-के लिये भी यही बात है। (अर्थात् उसके लिये भी ‘वह इतने अंगूलका हो”-इस तरहका मान आदि आवश्यक नहीं है।)

वैसे शिवलिङ्गोंके लिये अपनी इच्छाके के अनुसार पीठ और प्रसादका निर्माण करा लेना चाहिए ।

सूर्यमंडलस्थ शिवलिंगको दर्पणमें प्रतिबिम्बित करके उसका पूजन करना चाहिये।

वैसे तो भगवान् शंकर सर्वत्र ही पूजनीय हैं, किंतु शिवलिङ्ग में उनके अर्चनकी पूर्णता होती है।

प्रस्तरका शिवलिङ्ग एक हाथसे अधिक ऊँचा होना चाहिये।

काठमय लिङ्ग का मान भी ऐसा ही है।

चल शिवलिङ्गका स्वरूप अङ्गुल-मानके अनुसार निश्चित करना चाहिये

स्थिर लिङ्गका द्वारमान, गर्भमान एवं हस्तमानके अनुसार।

गृहमें पूजित होनेवाले चललिंग एक अंगुलसे लेकर पंद्रह अंगुलतक हो सकता है। ६-८ ॥

द्वारमानसे लिङ्ग के तीन भेद हैं। इनमेंसे प्रत्येकके गर्भमानके अनुसार नौ-नौ भेद होते हैं। (इस तरह कुल सत्ताईस हुए। इनके अतिरिक्त) करमानसे नौ लिङ्ग और हैं। इनकी देवालयमें पूजा करनी चाहिये।

इस प्रकार सबको एकमें जोड़नेसे छत्तीस लिङ्ग जानने चाहिये। ये ज्येष्ठमानके अनुसार हैं।

मध्यममानसे और अधम (कनिष्ठ)- मानसे भी छत्तीस-छतीस शिवलिङ्ग हैं-ऐसा जानना चाहिये।

इस प्रकार समस्त लिङ्गोंको एकत्र करनेसे एक सौ आठ शिवलिङ्ग हो सकते हैं।

 एकसे लेकर पाँच चल शिवलिङ्ग ‘कनिष्ठ’ कहलाता है।

छ: से लेकर दस अंगुलतकका चल लिङ्ग’मध्यम’ कहा गया है तथा ग्यारहसे लेकर पंद्रह चल शिवलिङ्ग ‘ज्येष्ठ’ जानने योग्य है।

महामूल्यवान् रत्नोंका बना हुआ शिवलिङ्ग छः अङ्कुलका, अन्य रत्नोंसे निर्मित शिवलिङ्ग नौ अंगूलका, सुवर्णभारका बना हुआ बारह अङ्कुलका तथा शेष वस्तुओंसे निर्मित शिवलिङ्ग पंद्रह अहुलका होना चाहिये॥ ९-१३ ॥

लिङ्ग-शिलाके सोलह अंश करके उसके ऊपरी चार अंशोंमेंसे पार्श्ववर्ती दो भाग निकाल दे। फिर बत्तीस अंश करके उसके दोनों कोणवर्ती सोलह अंशोंको लुप्त कर दे। फिर उसमें चार अंश मिलानेसे “कण्ठ’ होता है। तात्पर्य यह कि बीस अंशका कण्ठ होता है और उभय पार्श्ववर्ती ३x४-१२ अंशोको मिटानेसे ज्येष्ठ चल लिङ्ग बनता है।

प्रासादकी ऊँचाईके मानको सोलह अंशोंमें विभक्त करके उसमेंसे चार, छ: और आठ अंशोंद्वारा क्रमश: हीन, मध्यम और ज्येष्ठ द्वार निर्मित होता है। द्वारकी ऊँचाईमेंसे एक चौथाई कम कर दिया जाय तो वह लिङ्गकी ऊँचाईका मान है।

लिङ्गशिलाके गर्भके आधे भागतककी ऊँचाईका शिवलिङ्ग ‘अधम’ (कनिष्ठ) होता है और तीन भूतांश (३४५=) पंद्रह अंशोंके बराबरकी ऊँचाईका शिवलिंग ज्येष्ठ कहा गया है। इन दोनोंके बीच में बराबरकी ऊँचाईपर सात जगह सूत्रपात (सूतद्वारा रेखा) करे। इस तरह नौ सूत (सूत्रनिर्मित रेखाचिह्न) होंगे। इन नौ सूतोंमेंसे पाँच सूतोंकी ऊँचाईके मापका शिवलिंग मध्यम  होगा। लिङ्गोंकी लंबाई (या ऊँचाई) उत्तरोत्तर दो-दो अंशके अन्तरसे होगी। इस तरह लिङ्गोंकी दीर्घता बढ़ती जायगी और नौ लिङ्ग निर्मित हॉर्गे ॥१४-१८॥

यदि हाथके मापसे नौ लिङ्ग बनाये जाय तो पहला लिङ्ग एक हाथका होगा, फिर दूसरेके मापमें पहलेसे एक हाथ बढ़ जायगा, इस प्रकार जबतक नौ हाथकी लंबाई पूरी न हो जाय तबतक शिला या काष्ठकी मापमें एक-एक हाथ बढ़ाते रहेंगे।

ऊपर जो हीन, मध्यम और उत्तमतीन प्रकारके लिङ्ग बताये गये हैं, उनमेंसे प्रत्येकके तीन-तीन भेद हैं। बुद्धिमान् पुरुष एकएक लिङ्गमें विभागपूर्वक तीन–तीन लिङ्गका निर्माण करावें । छ: और नौ अंगुलके शिवलिङ्गोंमें भी तीन-तीन लिङ्ग-निर्माण करावे।

स्थिर लिङ्ग द्वारमान, गर्भमान तथा हस्तमान-इन तीन दीर्घ प्रमाणों (मापों)-के अनुसार बनाना चाहिये।

उक्त तीन मापोंके अनुसार ही उसकी तीन संज्ञाएँ हैं-भगेश, जलेश तथा देवेश।

विष्कम्भ (विस्तार)–के अनुसार लिङ्गके चार रूप लक्षित करे। दीर्घप्रमाणके अनुसार सम्पादित होनेवाले तीन रूपोमें निर्दिष्ट लिङ्गको शुभ आय आदिसे युक्त करके निर्मित करावे। उन त्रिविध लिङ्गोंकी लंबाई चार या आठ-आठ हाथकी हो-यह अभीष्ट है। वे क्रमश: त्रितत्वरूप अथवा त्रिगुणरूप हैं।

जो लिङ्ग जितने हाथका हो, उसका अङ्गुल बनाकर आय-संख्या (८), स्वर-संख्या (७), भूत-संख्या (५) तथा अनि-संख्या (३)-से पृथक्-पृथकू भाग दे। जो शेष बचे उसके अनुसार शुभाशुभ फलकी जाने॥१९-२४॥।

ध्वजादि आयोंमेंसे ध्वज, सिंह, हस्ती और  वृषभ-ये श्रेष्ठ हैं। अन्य चार आय अशुभ हैं। (सात संख्यासे भाग देनेपर जो शेष बचे, उसके अनुसार स्वरका निश्चय करे।)

स्वरोंमें षड्ज, गान्धार तथा पश्चम शुभदायक हैं। [पाँचसे भाग देनेपर जो शेष बचे, उसके अनुसार पृथ्वी आदि भूतोंका निश्चय करे।]

भूतोंमें पृथ्वी ही शुभ है। [तीनसे भाग देनेपर जो शेष रहे, तदनुसार अग्नि जाने।]

अग्नियोंमें आहवनीय अग्नि ही शुभ है।

उक्त लिंगकी लंबाईको आधा करके उसमें आठसे भाग देनेपर यदि शेष सातसे अधिक हों। तो वह लिङ्ग ‘आढय’ कहा जाता है। यदि पाँचसे अधिक शेष रहे तो वह “अनाढय” हैं। यदि छ: अंशसे अधिक शेष हो तो वह लिङ्ग ‘देवेज्य” है और यदि तीन अंश से अधिक शेष हो तो उस लिङ्ग को ‘अर्कतुल्य” माना जाता है। ये चारों ही प्रकारके लिङ्ग चतुष्कोण होते हैं।

पाँचवाँ’वर्धमान’ संज्ञक लिङ्ग है, उसमें व्याससे नाह बढ़ा हुआ होता है। व्यासके समान नाह एवं व्याससे बढ़ा हुआ नाह-इस प्रकार इन लिङ्गोके दो भेद हो जाते हैं।

विश्वकर्म-शास्त्रके अनुसार इन सबके बहुत-से भेद बताये जायँगे।

आढय आदि लिङ्गोंकी स्थूलता आदिके कारण तीन भेद और होते है। उनमे एक-एक यवकी वृद्धि करनेसे वे सब आठ प्रकार के लिङ्ग होते हैं। फिर हस्तमानसे ‘जिन’ संज्ञक लिङ्ग के भी तीन भेद होंगे। उसको सर्वसम लिङ्गमें जोड़ लिया जायगा। २५-२१ ॥

अनाढय, देवार्चित तथा अर्कतुल्यमें भी पाँचपाँच भेद होनेसे ये पच्चीस होंगे। ये सब एक जिन और भक्त-भेदोसे पचहत्तर हो जायँगे। सबका आकलन करनेसे पंद्रह हजार चार सौ शिवलिङ्ग हो सकते हैं।*

इसी तरह आठ अंगूलके विस्तारवाला लिङ्ग भी एक अंगुल मान, हस्तमान एवं गर्भमानके अनुसार नौ भेदोंसे युक्त है।

इन सबके कोण तथा अर्द्धकोणस्थ सूत्रोंद्वारा कोणोंका छेदन (विभाजन) करे। लिङ्गके मध्यभागके विस्तारको ही प्रत्येक विभागका विस्तार मानकर, तदनुसार मध्य, ऊर्ध्व और अध:-इन विभागोंकी स्थापना करे।

मध्यम विभागसे ऊपर का अष्टकोण या षोडश कोणवाला विभाग शिवका अंश है। पाद या मूलभागसे जानुपर्यन्त लिङ्गका अधोभाग है, यह ब्रह्माका अंश है तथा जानुसे नाभिपर्यन्त लिङ्गका मध्यम भाग है, जो भगवान् विष्णुका अंश है। ३० -३३ ॥

मूर्धान्तभाग भूतभागेश्वरका है। व्यक्त-अव्यक्त सभी लिङ्गोंके लिये ऐसी ही बात है।

जिस शिवलिङ्गमें पाँच लिङ्गकी व्यवस्था है, वहाँ शिरोभाग गोलाकार होना चाहिये-ऐसा बताया जाता है। वह गोलाई छत्राकार हो, मुर्गीके अंडेके समान हो; नवोदित चन्द्रके सदृश हो या पुरुषके आकारकी हो।

इस प्रकार एकएक के चार भेद होते हैं। कामनाओंके भेदसे इनके फलमें भी भेद होता है, यह बताऊँगा।

लिङ्गके मस्तक–भागका विस्तार जितने अङ्कुलका हो, उतनी संख्या में आठ से भाग दे। इस प्रकार मस्तकको आठ भागोंमें विभत करके आदिके जो चार भाग हैं, उनका विस्तार और ऊँचाईके अनुसार ग्रहण करे।

एक भागको छौंट देनेसे ‘पुण्डरीक’ नामक लिङ्ग होता है, दो भागोंको लुप्त कर देनेसे ‘विशाल’ संज्ञक लिङ्ग होता है, तीन भागोंका उच्छेद कर देने पर उसकी ‘ श्रीवत्स’ संज्ञा होती है तथा चार भागोंके लोपसे उस लिङ्गको ‘शत्रुकारक’ कहा गया है।

शिरोभाग सब ओरसे सम ही तों श्रेष्ठ माना गया है। देवपूज्य लिङ्ग में मस्तक-भाग कुक्कुटके अण्डकी भाँती गोल होना चाहिये ॥ ३४-३८ ॥

चतुर्भागात्मक लिङ्गमेंसे ऊपरका दो भाग मिटा देनेसे ‘त्रपुष’ नामक लिङ्ग होता है। यह (त्रपुष) अनाढधसंज्ञक शिवलिङ्गका सिर माना गया है।

अब अर्द्ध-चन्द्राकार सिरके विषयमें सुनो-

शिवलिङ्गके प्रान्तभागमें एक अंशके चार अंश करके एक अंशको त्याग दिया जाय तो वह ‘अमृताक्ष” नाम धारण करता है। दूसरे, तीसरे और चौथे अंशका लोप करनेपर क्रमश: उन शिवलिङ्गोकी ‘पूर्णेन्दु’, ‘बालेन्दु’ तथा ‘कुमुद’ संज्ञा होती है। ये क्रमश: चतुर्मुख, त्रिमुख और एकमुख होते हैं। इन तीनोंको ‘मुखलिङ्ग’ भी कहते हैं।

अब मुखलिङ्गके विषयमें सुनो-

पूजाभागाकी त्रिविध कल्पना करनी चाहिये- मूर्तिपूजा, अग्निपूजा तथा पदपूजा।

पूर्ववत् द्वादशांशका त्याग करके छ: भागोंद्वारा छ: स्थानोंकी अभिव्यक्ति करे। सिरको ऊँचा करना चाहिये तथा ललाट, नासिका, मुख, चिबुक तथा ग्रीवाभागको भी स्पष्टतया व्यक्त करे।

चार भागों (या अंशों)-द्वारा दोनों भुजाओं तथा नेत्रोंको प्रकट करे।

प्रतिमाके प्रमाणके अनुसार मुकुलाकार हाथ बनाकर विस्तारके अष्टमांशसे चारों मुखोंका निर्माण करे। प्रत्येक मुख सब ओरसे सम होना चाहिये। यह मैंने चतुर्मुखलिङ्गके विषयमें बताया है;

अब त्रिमुखलिङ्गके विषयमें बताया जाता है, सुनो– ॥ ३९-४४ ॥

त्रिमुखलिङ्गमें चतुर्मुखकी अपेक्षा कान और पैर अधिक रहेंगे। ललाट आदि अङ्गोंका पूर्ववत् ही निर्देश करे।

चार अंशोंसे दो भुजाओंका सुपुष्ट हो। विस्तारके अष्टमांशसे तीनों मुखोंका विनिर्गम (प्राकट्य) हो।

[अब एकमुखलिङ्गकै विषयमें सुनो-]

एकमुख पूर्व दिशा में बनाना चाहिये, उसके नेत्रोंमें सौम्यभाव रहे।  उसके ललाट, नासिका, मुख और ग्रीवामें विवर्तन (विशेष उभाड़) हो। बाहु विस्तारके पञ्चमांशसे पूर्वोक्त अंगोंका निर्माण होना चाहिये। एकमुखलिङ्गको बाहुरहित बनाना चाहिये। एकमुखलिङ्गमें विस्तारके छठे अंशसे मुखका निर्गमन हितकर कहा गया है। मुखयुक्त जितने भी लिङ्ग हैं, उन सबका शिरोभाग  त्रपुषाकार या कुक्कुटाण्डके समान गोलाकार होना चाहिये ॥ ४५-४८॥

चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ। ५४॥

अध्याय – ५५ पिण्डिकाका लक्षण

श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैं ब्रह्मन्! अब मैं प्रतिमाओंकी पिण्डिकाका लक्षण बता रहा हूँ।

पिण्ड़िका लंबाईमें तो प्रतिमाके बराबर होनी चाहिये और चौड़ाईमें उससे आधी। उसकी ऊँचाई भी प्रतिमाकी लंबाईसे आधीं हो और उस अर्द्धभागके बराबर ही वह सुविस्तृत हो। अथवा उसका विस्तार लंबाईके तृतीयांशके तुल्य हो। उसके एक तिहाई भागको लेकर मेखला बनावे। पानी बहने के लिये जो खात या गर्त हो, उसका माप भी मेखलाके ही तुल्य रहे। वह खात उत्तर दिशाकी ओर कुछ नीचा होना चाहिये। पिण्डिकाके विस्तारके एक चौथाई भागसे जलके निकलनेका मार्ग (प्रणाल) बनाना चाहिये। मूल भागमें उसका विस्तार मूलके ही बराबर हो, परंतु आगे जाकर वह आधा हो जाय। पिण्डिकाके आधे भाग के बराबर वह जलमार्ग हो। उसकी लंबाई प्रतिमाकी लंबाईके तुल्य ही बतायी गयी है। अथवा प्रतिमा ही उसकी लंबाईके तुल्य हों। इस बातकों अच्छी तरह समझकर उसका सूत्रपात करे ॥ १-५ ॥

प्रतिमाकी ऊँचाई पूर्ववत् सोलह भागकी संख्याके अनुसार करे। छः और दो अर्थात् आठ भागोंको नीचेके आधे अङ्गमें गतार्थ करे। इससे उपरके तीन भागको लेकर कण्ठका निर्माण करे। शेष भागोंको एक-एक करके प्रतिष्ठा, निर्गम तथा पट्टिका आदिमें विभाजित करे। यह सामान्य प्रतिमाओंमें पिपिड़काका लक्षण बताया गया है।

प्रासादके द्वारके दैर्ध्य-विस्तारके अनुसार प्रतिमा-गृहका भी द्वार कहा गया है। प्रतिमाओंमें हाथी और व्याल (सर्प या व्याघ्र आदि)-की मूर्तियोसे युक्त तत्तत्–देवताविषयक शोभाकी रचना करे I

श्रीहरिकी पिण्डिका भी सदा यथोचित शोभासे सम्पन्न बनायीं जानी चाहियें। सभी देवताओंकों प्रतिमाओंके लिये वही मान बताया जाता है, जो विष्णु-प्रतिमाके लिये कहा गया है तथा सम्पूर्ण देवियोंके लिये भी वही मान बताया जाता है, जो लक्ष्मीजीकी प्रतिमाके लिये कहा गया है।

 

पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ। ५५ ॥

अध्याय – ५६ प्रतिष्ठाके अङ्गभूत मण्डपनिर्माण, तोरण-स्तम्भ, कलश एवं ध्वजके स्थापना तथा दस दिक्पाल-यागका वर्णन

श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैंब्रह्मन्! मैं प्रतिष्ठाके पाँच अङ्गोका वर्णन करूँगा।

प्रतिमा पुरुष का प्रतीक है तो पिण्डिका प्रकृतिका, अथवा प्रतिमा नारायणका स्वरूप है तो पिण्ड़िका लक्ष्मीका। उन दोनोंके यौगकों ‘प्रतिष्ठा” कहते हैं। इसलिये इच्छानुरूप फल चाहनेवाले मनुष्योंद्वारा इष्टदेवताकी प्रतिष्ठा (स्थापना) -की जाती है।

आचार्यकों चाहियें कि वह मन्दिरके सामने गर्भसूत्रको निकालकर आठ, सोलह अथवा बीस हाथका मण्डप तैयार करे। इनमें आठ हाथका मण्डप ‘निम्न”, सोलह हाथका ‘मध्यम’ और बीस हाथ का ‘उत्तम” माना गया है।

मण्ड़प में देवताके स्नानके लियें, कलश-स्थापनके लिये तथा याग-सम्बन्धी द्रव्योंकी रखनेके लिये आधा स्थान सुरक्षित कर ले। फिर मण्डपके आधे या तिहाई भागमें सुन्दर वेदी बनावे । उसे बड़े-बड़े कलशों, छोटे-छोटे घड़ों और चंदोवे आदिसे विभूषित करे। पञ्चगव्यसे मण्डपके भीतरके स्थानोंका प्रोक्षण करके वहाँ सब सामग्री रखे। तत्पश्चात् गुरु वस्त्र एवं माला आदिसे अलंकृत हो, भगवान् विष्णुका ध्यान करके उनका पूजन करे ॥ १-५ ॥

अंगूठी आदि भूषणों तथा प्रार्थना आदिसे मूर्तिपालक विद्वानोंका सत्कार करके कुण्ड-कुण्डपर उन्हें बिठावे। वे वेदोंके पारंगत हों। चौकोर, अर्धचन्द्र, गोलाकार अथवा कमल-सदृश आकारवाले कुंडोंपर उन विद्वानोंको विराजमान करना चाहिये।

पूर्व आदि दिशाओं में तोरण (द्वार)-के लिये पीपल, गूलर, वट और प्लक्षके वृक्षके काष्ठका उपयोग करना चाहिये।

पूर्व दिशाका द्वार ‘सुशोभन” नामसे प्रसिद्ध है। दक्षिण दिशाका द्वार ‘सुभद्र’ कहा गया है, पश्चिमका द्वार ‘सुकर्मा’ और उत्तरका ‘सुहोत्र’ नामसे प्रसिद्ध है। ये सभी तोरण-स्तम्भ पाँच हाथ ऊँचे होने चाहिये।

इनकी स्थापना करके ‘स्योना” पृथिवि नो-‘ (शु० यजु० ३६ ।। १३) इस मन्त्रसे पूजन करे। तोरण-स्तम्भके मूलभागमें मङ्गल अङ्कर (आम्र-पल्लव, यवाङ्कर आदि)-से युक्त कलश स्थापित करे॥६-९॥

तोरणस्तम्भके ऊपरी भागमें सुदर्शनचक्रकी स्थापना करे। इसके अतिरिक्त विद्वान् पुरुषोंको वहाँ पाँच हाथका ध्वज स्थापित करना चाहिये। उस ध्वजकी चौड़ाई सोलह अङ्गलकी हो।

सुरश्रेष्ठ! उस ध्वजका दण्ड सात हाथ ऊँचा होना चाहिये । अरुणवर्ण, अग्निवर्ण (धूम्रवर्णी), कृष्ण, शुक्ल, पीत, रक्त तथा श्वेत-ये वर्ण क्रमश: पूर्वादि दिशाओंमें ध्वजमें होना चाहिये।   

कुमुद, कुमुदाक्ष, पुण्डरीक, वामन, शंखकुकर्ण, सर्वनेत्र, सुमुख और सुप्रतिष्ठित-ये क्रमश: पूर्वआदि ध्वजोंके पूजनीय देवता हैं। इनमें करोड़ों दिव्य गुण विद्यमान हैं।

कलश ऐसे पके हुए हों कि सुपक्व विम्बफलके समान लाल दिखायी देते हों। वे एक-एक आढ़क जलसे पूर्णत: भरे हों। उनकी संख्या एक सौ अट्टाईस हो। उनकी स्थापना ऐसे समय करनी चाहिये, जब कि ‘कालदण्ड’ नामक योग न हो उन सभी कलशोंमें सुवर्ण डाला गया हो। उनके कण्ठभागमें वस्त्र लपेटे गये हों। वे जलपूर्ण कलश तोरणसे बाहर स्थापित किये जायें ॥ १०-१५ ॥

वेदीके पूर्व आदि दिशाओं तथा कोणोंमें भी कलश स्थापित करने चाहिये। पहले पूर्वादि चारों दिशाओंमें चार कलश स्थापित करे। उस समय ‘आजिघ्रकलशम्’ आदि मन्त्रका पाठ करना चाहिये। उन कलशोंमें पूर्वादि दिशाओंके क्रमसे इन्द्र आदि दिक्पालोंका आवाहनपूर्वक पूजन करे। इन्द्रका आवाहन करते समय इस प्रकार कहे-ऐरावत हाथीपर बैठे और हाथ में वज्र धारण किये देवराज इन्द्र! यहाँ आइये और अन्य देवताओंके साथ मेरे पूर्व द्वारकी रक्षा कीजिये। देवताओं सहित आपको नमस्कार है।

इस तरह आवाहन करके विद्वान् पुरुष ‘त्रातारमिन्द्रम‘- इत्यादि मन्त्रसे उनकी अर्चना एवं आराधना करे॥ १६-१८ ॥

इसके बाद निम्नाकिंतरूपसे अग्निदेवका आवाहन करे- बकरेपर आरूढ़ शक्तिधारी एवं बलशाली अग्निदेव- आइये और देवताओंके साथ अग्निकोणकी रक्षा कीजिये। यह पूजा ग्रहण कीजिये। आपको नमस्कार है।

तदनन्तर ‘अग्निर्मूद्धां‘ इत्यादिसे अथवा “अग्नये नम:‘-इस मन्त्र से अग्निकी पूजा करे।

यमराजका आवाहन-महिषपर आरूढ़, दण्डधारी, महाबली सूर्यपुत्र यम! आप यहाँ पधारिये और दक्षिण द्वारकी रक्षा कीजिये। आपको नमस्कार है।

इस प्रकार आवाहन करके ‘वैवस्वतं सङ्गमनम्०‘ इत्यादि मन्त्रसे यमराजकी पूजा करे।

निऋतिका आवाहन- बल और वाहनसे सम्पन्न खड्गधारी निऋति! आइये। आपके लिये यह अर्ध्य है, यह पाद्य है। आप नैऋत्य दिशाकी रक्षा कीजिये।

इस तरह आवाहन करके ‘एष ते निऋते’ इत्यादिसे मनुष्य अर्ध्य आदि उपचारोंद्वारा निऋतिकी पूजा करे॥१९-२२ई ॥

वरुणका आवाहन- मकरपर आरूढ पाशधारी महाबली वरुणदेव! आइये और पश्चिम द्वारकी रक्षा कीजिये। आपको नमस्कार हैं।

इस प्रकार आवाहन करके, उरुं हि राजा वरुण: इत्यादि मन्त्रोंद्वारा आचार्य वरुणदेवताका आर्ध्य आदिसे पूजन करे।

वायुदेवताका आवाहन-अपने वाहन पर आरूढ़ ध्वजधारी महाबली वायुदेव! आइये और देवताओं तथा मरुदगणोंके साथ वायव्यकोण की रक्षा कीजिये। आपको नमस्कार है।

वात आवातु० इत्यादि वैदिक मन्त्रसे अथवा नमो वायवेo इस मन्त्रसे वायुकी पूजा करे॥ २३-२५ ॥

सोमका आवाहन- बल और वाहनसे सम्पन्न गदाधारी सोम! आप यहाँ पधारिये और उत्तर द्वारकी रक्षा कीजिये। कुबेरसहित आपको नमस्कार है।

इस प्रकार आवाहन करके, ‘सोमं राजानम्‘ इत्यादिसे अथवा ‘सोमाय नमः ‘ इस मन्त्रसे सोमकी पूजा करे।

ईशानका आवाहन- वृषभपर आरूढ़ महाबलशाली शूलधारी ईशान! पधारिये और यज्ञमण्डपकी ईशानदिशाका संरक्षण कीजिये। आपको नमस्कार है।

इस प्रकार आवाहन करके ‘ईशानमस्य०‘ इत्यादिसे अथवा ‘ईशानाय नम:‘ इस मन्त्रसे ईशानदेवताका पूजन करे।

ब्रह्माका आवाहन-‘हाथके अग्रभागमें स्रुक और स्रुवा लेकर हंसपर आरूढ़ हुए अजन्मा ब्रह्माजी ! आइये और लोकसहित यज्ञमण्डपकी ऊर्ध्व- दिशाकी रक्षा कीजिये। आपको नमस्कार है।

इस प्रकार आवाहन करके “हिरणयगर्भ:” इत्यादिसे अथवा “नमस्ते ब्रह्मणे‘ इस मन्त्रसे ब्रह्माजीकी पूजा करे॥२६-३० ॥

अनन्तका आवाहन- ‘कच्छपकी पीठपर विराजमान, नागगणोंके अधिपति, चक्रधारी अनन्त! आइये और नीचेकी दिशाकी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। अनन्तेश्वर! आपको नमस्कार है।

इस प्रकार आवाहन करके ‘नमोऽस्तु सर्पभ्यः‘  इत्यादिसे अथवा ‘अनन्ताय नमः ‘ इस मन्त्रसे भगवान् अनन्तकी पूजा करे॥ ३१-३२॥

 

छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५६ ॥

अध्याय – ५७ कलशाधिवासकी विधिका वर्णन

श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैंब्रह्मन्! प्रतिष्ठाके लिये अथवा देवपूजनके लिये जिस भूमिको ग्रहण करे, वहाँ नारसिंह-मन्त्रका पाठ करते हुए छिटे तथा पञ्चगव्यसे उस भूमिका प्रोक्षण करे।

रत्नयुक्त कलशपर अङ्ग-देवताओंसहित श्रीहरिका पूजन करके, वहाँ अस्त्र-मन्त्रसे एक सौ आठ करकों (कमण्डलुओं)-का पूजन करे। अविच्छिन्न धारासे वेदीका सेचन करके वहाँ व्रीहि (धान, जौ आदि)-को संस्कारपूर्वक बिखेरे तथा कलशको प्रदक्षिणाक्रमसे घुमाकर उस बिखेरे हुए अन्नके ऊपर स्थापित करे।

वस्त्रवेष्टित कलशपर पुनः भगवान् विष्णु और लक्ष्मीकी पूजा करे। तत्पश्चात् ‘योगे योगे ‘ इत्यादि मन्त्रसे मण्डलमें शय्या स्थापित करे। स्नान-मण्डपमें कुशके ऊपर शय्या और शय्याके ऊपर तूलिका (रूईभरा गद्दा)विछाकर, दिशाओं और विदिशाओं विधापतियों (भगवान् विष्णुके ही विभिन्न विग्रहों)-का पूजन करे। पूर्वादि दिशाओंमें क्रमश: विष्णु, मधुसूदन, त्रिविक्रम और वामनका तथा अग्नि आदि कोणोंमें क्रमश: श्रीधर, हृषीकेश, पद्मनाभ एवं दामोदरका पूजन करे। दामोदरका पूजन ईशानकोणमें होना चाहिये ॥ १-६ ॥

इस तरह पूजन करनेके पश्चात् स्नानमण्डपके भीतर ईशानकोणमें स्थित तथा वेदीसे विभूषित चार कलशोंमें स्नानोपयोगी सब द्रव्योंको लाकर डाले। उन कलशोंको चारों दिशाओंमें विराजमान कर दे। भगवानके अभिषेकके लिये संचित किये गये वे कलश बड़े आदरके साथ रखने योग्य हैं।

पूर्व दिशाके कलशमें बड़, गूलर, पीपल, चम्पा, डाले। दक्षिणके कलशमें कमल, रोचना, दूर्वा, कुशकी मुटठी, जातीपुष्प, कुन्द, श्वेतचन्दन, रक्तचन्दन, सरसों, तगर और अक्षत डाले। पश्चिमके कलशमें सोना, चाँदी, समुद्रगामिनी नदीके दोनों तटोंकी मिट्टी, विशेषत: गङ्गाकी मृत्तिका, गोबर, जौ, अगहनी धानका चावल और तिल छोड़े॥ उतरके कलशमें विष्णुपर्णी (भुई आँवला), शालपर्णी (सरिवन), भृगराज (भैगौरैया), शतावरी, सहदेवी (सहदेइया), बच, सिंही (कटेरी या अडूसा), बला (खरेटी), व्याघ्री (कटेहरी) और लक्ष्मणा-इन ओषधियोंको छोड़े। ईशानकोष्णवर्ती अन्य कलशमें माङ्गलिक वस्तुएँ छोड़े। अग्निकोणस्थ दूसरे कलशमें बॉबी आदि सात स्थानोंकी मिट्टी छोड़े। नैऋत्यकोणवर्ती अन्य कलशमें गंगाजीकी बालू और जल डाले तथा वायव्यकोणवर्ती अन्य कलश में सूकर, वृषभ और गजराजके दाँत एवं सींगोंद्वारा कोड़ी हुई मिट्टी, कमलकी जड़के पासकी मिट्टी तथा इतर कलशमें कुशके मूल भागकी मृत्तिका डाले। इसी तरह किसी कलशमें तीर्थ और पर्वतोंकी मृत्तिकाओंसे युक्त जल डाले, किसीमें नागकेसरके फूल और केसर छोड़े, किसी कलशमें चन्दन, अगुरु और कपूरसे पूरित जल भरे और उसमें वैदूर्य, विद्रुम, मुता, स्फटिक तथा वज़ (हीरा)- ये पाँच रत्न डाले ॥ १३-१८॥

इन सबको एक कलशमें डालकर उसीके ऊपर इष्ट-देवताकी स्थापना करे। अन्य कलशमें नदी, नद और तालाबोंके जलसे युक्त जल छोड़े।

इक्यासी पदवाले वास्तुमण्डलमें अन्यान्य कलशोंकी स्थापना करे। वे कलश गन्धोदक आदिसे पूर्ण हों। उन सबको श्रीसूक्तसे अभिमन्त्रित करे। जौ, सरसों, गन्ध, कुशाग्र, अक्षत, तिल, फल और पुष्प-इन सबको अर्ध्यके लिये पात्रविशेषमें संचित करके पूर्व दिशाकी ओर रख दे। कमल, श्यामलता, दूर्वादल, विष्णुक्रान्ता और कुश-इन सबको पाद्य-निवेदनके लिये दक्षिण भाग में स्थापित करे। मधुपर्क पश्चिम दिशा में रखे। कडूोल, लवङ्ग और सुन्दर जायफल-इन सबको आचमनके उपयोगके लिये उत्तर दिशा में रखें। अग्निकोणमें दूर्वा और अक्षतसे युक्त एक पात्र नीराजना (आरतीं उतारने)-के लिये रखें । वायव्यकोणमें उद्वर्तनपात्र तथा ईशानकोणमें गन्धपिष्टसे युक्त पात्र रखे। कलशमें सुरमांसी (जटामांसी), आँवला, सहदेइया तथा हल्दी आदि छोड़े। नीराजनाके लिये अड़सठ दीपोंकी स्थापना करे। शंख तथा धातुनिर्मित चक्र, श्रीवत्स, वज्र एवं कमलपुष्प आदि रंग-बिरंगे पुष्प सुवर्ण आदिके पात्रमें सज्जित करके रखें ॥ १९-२६ ॥

सतावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५७ ॥

अध्याय – ५८ भगवद्विग्रहको स्नान और शयन करानेकी विधि

श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैंब्रह्मन्! आचार्य ईशानकोणमें एक होमकुण्ड तैयार करे और उसमें वैष्णव-अग्निकी स्थापना करे। तदनन्तर गायत्री-मन्त्रसे एक सौ आठ आहुतियाँ देकर सम्पात-विधिसे कलशोंका प्रोक्षण करे।

तदन्तर मूर्तिपालक विद्वानों तथा शिल्पियोंसहित यजमान बाजे-गाजेके साथ कारुशाला (कारीगरकी कर्मशाला)-में जाय। वहाँ प्रतिमावर्ती इष्टदेवताके दाहिने हाथमें कौतुक-सूत्र (कङ्कण आदि) बाँधे।

उसे बाँधते समय विष्णवे शिपिविष्टाय नमः। – इस मन्त्रका पाठ करें। उस समय आचार्यके हाथमें भी ऊनी सूत, सरसों और रेशमी वस्त्रसे कौतुक बाँध देना चाहिये।

मण्डलमें सवस्त्र प्रतिमाकी स्थापना और पूजा करके उसकी स्तुति करते हुए कहे- विश्वकर्माकी बनायी हुई देवेश्चरि। प्रतिमे! तुम्हें नमस्कार है। सम्पूर्ण जगतको प्रभावित करनेवाली जगदम्ब! तुम्हें मेरा बारंबार प्रणाम है। ईश्वरि! मैं तुममें निरामय नारायणदेवका पूजन करता हूँ। तुम शिल्पसम्बन्धी दोषोंसे रहित हो, अतः मेंरे लिये सदा समृद्धिशालिनी बनी रही ॥ १-५ ॥

इस तरह प्रार्थना करके प्रतिमाकी स्नान मण्डपमें ले जाय। शिल्पीकों यथेष्ट द्रव्य देकर संतुष्ट करे। गुरुको गोदान दे। ‘चित्रं देवाना०‘ इत्यादि मन्त्रसे प्रतिमाका नेत्रोन्मीलन करे।

अग्निर्ज्योति:‘ इत्यादि मन्त्रसे दृष्टिसंचार करे।

फिर भद्रपीठपर प्रतिमाको स्थापित करे। तत्पश्चात् आचार्य श्वेत पुष्प, घी, सरसों, दूर्वादल तथा कुशाग्र इष्टदेवके सिरपर चढ़ावे ॥ ६-८ ॥

इसके बाद मधु वाता० इत्यादि मन्त्रसे गुरु प्रतिमाके नेत्रोंमें अञ्जन करे। उस समय हिरणयगर्भ: इत्यादि तथा इमं मे वरुण‘ (यजु० २१। ) इत्यादि मन्त्रोंका कीर्तन करे।

तत्पश्चात् पुनः धृतवती  ऋचाका पाठ करते हुए धृतका अभ्यङ्ग लगावे। इसके बाद मसूरके बेसनसे उबटनका काम लेकर अतो देवा: इत्यादि मन्त्रका कीर्तन करें। फिर सप्त ते अग्ने० इत्यादि मन्त्र बोलकर गुरु गर्म जलसे प्रतिमाका प्रक्षालन करे।

तदनन्तर द्रुपदादिव० इत्यादि मन्त्रसे अनुलेपन और अपो हि ष्ठा० इत्यादिसे अभिषेक करे। अभिषेकके पश्चात् नदी एवं तीर्थके जलसे स्नान कराकर ‘पावमानी‘ ऋचा (शु० यजु० ३९-४३)-का पाठ करते हुए, रत्नस्पर्शसे युक्त जलद्वारा स्नान करावे। समुद्र गच्छ स्वाहा० इत्यादि मन्त्र पढ़कर तीर्थकी मृत्तिका और कलशके जलसे स्नान करावे।

शं नो देवी: इत्यादि तथा गायत्री-मन्त्रसे गरम जलके द्वारा इष्टदेवकी प्रतिमाकों नहलावे। ९-१३ ॥

हिरण्यगर्भ:o इत्यादि मन्त्रसे पाँच प्रकारकी मृत्तिकाओं द्वारा परमेश्वरको स्नान करावै। इसके बाद इमं मे गंगे यमुने० इत्यादि मन्त्रसे बालुकामिश्रित जलके द्वारा तथा तद विष्णोः० इत्यादि मन्त्रसे बाँवीकी मिट्टी मिले हुए जलसे पूर्ण घटके द्वारा भगवानको स्नान करावे । या ओषधी😮 इत्यादि मन्त्र से ओषधिमिश्रित जलके द्वारा, यज्ञा यज्ञा० इत्यादि मन्त्रसे आँवले आदि कसैले पदाथोंसे मिश्रित जलके द्वारा, पय: पृथिव्याम० इत्यादि मन्त्रसे पञ्चगव्योंद्वारा तथा या: फलिनी: o इत्यादि मन्त्रसे फलमिश्रित जलके द्वारा भगवानको नहलावे। विश्वतश्चक्षुः० इत्यादि मन्त्रसे उत्तरवर्ती कलशद्वारा, सोमं राजानम्० इस मन्त्रसे पूर्ववर्ती कलशद्वारा, विष्णो रराटमसि० इत्यादि मन्त्रसे दक्षिणवर्ती कलशद्वारा तथा हसः शुचिषद० इत्यादि मन्त्रसे पश्चिमवर्ती कलशद्वारा भगवानको उद्वर्तन-स्नान करावे॥१४-१७ ॥

मूर्द्धान दिवो० इत्यादि मन्त्रसे आँवले मिले हुए जलके द्वारा, मा नस्तोके० इत्यादि मन्त्रसे जटामांसीमिश्रित जलके द्वारा, गन्धद्वाराम० इत्यादि मन्त्रसे गन्धमिश्रित जलके द्वारा तथा इदमाप: इत्यादि मन्त्रसे इक्यासी पदोंवाले वास्तुमण्डलमें रखे गये कलशोंद्वारा भगवानको नहलावे । इस प्रकार स्नानके पश्चात् भगवानको सम्बोधित करके कहे-

भगवन्! समस्त लोकोंपर अनुग्रह करनेवाले सर्वव्यापी वासुदेव! आइये, आइये, इस यज्ञभागको ग्रहण कीजिये। आपको नमस्कार हैं।

इस प्रकार देवेश्वरका आवाहन करके उनके हाथमें बँधा हुआ। मङ्गलसूत्र खोल दे। उसे खोलते समय मुञ्चमि त्वा० इस मन्त्रका पाठ करे। इसी मन्त्र से आचार्यका भी कौतुकसूत्र खोल दे। तदनन्तर हिरण्मयेन० इत्यादि मन्त्रसे पाद्य और अतो देवा😮 (ऋक्० १।१३।।६) इत्यादि मन्त्रसे अर्ध्य दे। फिर मधु वाताः० इत्यादि मन्त्रसे मधुपर्क देकर मयि गृह्रामि० इत्यादि मन्त्रसे आचमन करावे।

तत्पश्चात् विद्वान् पुरुष अक्षन्नमीमदन्त० इत्यादि मन्त्र पढ़कर भगवानके श्रीअङ्गोंपर दूर्वा एवं अक्षत बिखेरे ॥ १८-२२ ॥

काण्डात० इत्यादि मन्त्रसे निर्मञ्छन करे। गन्धवती० इत्यादिसे गन्ध अर्पित करे। उनयामि० इस मन्त्रसे फूल-माला और इदं विष्णुः० इत्यादि मन्त्रसे पवित्रक अर्पित करे। वृहस्पतेo इत्यादि मन्त्रसे एक जोड़ा वस्त्र चढावे। वेदाहमेतम्० इत्यादिसे उत्तरीय अर्पित करे। महाव्रतेन० इस मन्त्रसे फूल और औषध-इन सबको चढ़ावे । तदनन्तर धूरसि० इस मन्त्रसे धूप दे। विभ्राट् सूक्तसे अञ्जन अर्पित करे। युञ्जति० इत्यादि मन्त्रसे तिलक लगावे तथा दीर्धात्वायo (अथर्व० २ ॥ ४ ॥ १) इस मन्त्रसे फूलमाला चढ़ावे। इन्द्र क्षत्रमभि० (अथर्व० ७।।४। २) इत्यादि मन्त्रसे छत्र, विराट् मन्त्रसे दर्पण, विकर्ण मन्त्रसे चँवर तथा रथन्तर साम-मन्त्रसे आभूषण निवेदित करे।। २३-२६॥

वायुदेवता-सम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा व्यजन मुञ्चमि त्वा (ऋक १० ॥ १६१ ॥ १) इस मन्त्र से फूल तथा वेदादि (प्रणव)-युक्त पुरुषसूक्तके मन्त्रोंद्वारा श्रीहरिकी स्तुति करे। ये सारी वस्तुएँ पिण्डिका आदिपर तथा शिव आदि देवताओंपर इसी प्रकार चढ़ावे।

भगवानको उठाते समय सौंपर्ण सूक्तका पाठ करे। प्रभो! उठिये ऐसा कहकर भगवानको उठावे और मण्डपमें शय्यापर ले जाय। उस समय शकुनि सूक्तका पाठ करे। ब्रह्मरथ एवं पालकी आदिके द्वारा भगवानको शय्यापर ले जाना चाहिये। अतो देवा: (ऋकू० १।२२।१६) इस सूक्तसे तथा श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च (यजु० ३१।२२)-से प्रतिमा एवं पिण्डिकाको शय्यापर पधरावे ।

तदनन्तर भगवान् विष्णुके लिये निष्कली-करणकी क्रिया सम्पादित करे ॥ २७ -३० ॥

सिंह, वृषभ, हाथी, व्यजन, कलश, वैजयन्ती (पताका), भेरी तथा दीपक—ये आठ मङ्गलसूचक वस्तुएँ हैं। इन सब वस्तुओंको अश्वसूतका पाठ करते हुए भगवानको दिखावे।

त्रिपात् इत्यादि मन्त्रसे भगवानके चरण-प्रान्तमें उखा (पात्रविशेष), उसका ढक्कन, अम्बिका (कड़ाही), दर्विका (करछुल), पात्र, ओखली, मूसल, सिल, झाडू, भोजन-पात्र तथा घर के अन्य सामान रखें। उनके सिरकी ओर वस्त्र और रत्नसे युक्त एक कलश स्थापित करे, जो खाँड और खाद्य-पदार्थमें भरा हुआ हो। उस घटकी “निद्रा” संज्ञा होती है। इस प्रकार भगवानके शयनकी विधि बतायी गयीं है॥ ३१-३४ ॥

अध्याय – ५९ अधिवास-विधिका वर्णन

श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैंब्रह्मन्! श्रीहरिका सांनिध्याकरण ‘अधिवासन” कहलात है। साधक यह चिन्तन करे कि “मैं अथवा मेरा आत्मा सर्वज्ञ सर्वव्यापी पुरुषोत्तमरूप है।’ इस प्रकार भावना करके आत्माकी ‘ॐ’ इस नामके द्वारा प्रतिपादित होनेवाले परमात्माके साथ एकता करे। तदनन्तर चैतन्याभिमानिनी जीव-शक्तिकों पृथक् करके आत्माके साथ उसकी एकता करे। ऐसा करके स्वात्मरूप सर्वव्यापी परमेश्वर में उसे जोड़ दे। तत्पश्चात् प्राणवायुद्वारा (‘ल’ बीजात्मक) पृथ्वीको अग्निबीज (रं)-के चिन्तनद्वारा प्रकट हुई अग्निमें जला दे, अर्थात् यह भावना करे कि पृथ्वीका अग्निमें लय हो गया। फिर वायुमें अग्निको विलीन करे और आकाशमें वायुका लय कर दे। अधिभूत, अधिदैव तथा अध्यात्म-वैभवके साथ समस्त भूतोंको तन्मात्राओंमें विलीन करके विद्वान पुरुष आकाशमें उन सबका क्रमशः संहार करे। इसके बाद आकाशका मनमें, मनका अहंकारमें, अहंकारका महतत्वमें और महतत्वका अव्याकृत प्रकृतिमें लय करे॥ १-५॥

अव्याकृत प्रकृति (अथवा माया)-को ज्ञानस्वरूप परमात्मामें विलीन करे। उन्हीं परमात्माको ‘वासुदेव’ कहा गया है। उन शब्दस्वरूप भगवान् वासुदेवने सृष्टिकी इच्छासे उस अव्याकृत मायाका आश्रय ले स्पर्शसंज्ञक संकर्षणकी प्रकट किया। संकर्षण ने मायाको क्षुब्ध करके तेजोरूप प्रधुम्नकी सृष्टी की। प्रद्युम्नने रसस्वरूप अनिरुद्धको और अनिरुद्धने गन्धस्वरूप ब्रह्माको जन्म दिया, ब्रह्माने सबसे पहले जलकी सृष्टि की। उस जलमें उन्होंने पाँच भूतोंसे युक्त हिरणमय अण्डकी उत्पन्न किया। उस अण्डमें जीव-शक्तिका संचार हुआ।

यह वही जीव-शक्ति है, जिसका आत्मामें पहले उपसंहार बताया गया है। जीव के साथ प्राणका संयोग होनेपर वह ‘वृत्तिमान्’ कहलाता है। व्याहतिसंज्ञक जीव प्राणोंमें स्थित होकर आध्यात्मिक  पुरुष’ कहा गया है। उससे प्राणयुक्त बुद्धि उत्पन्न हुई, जो आठ वृत्तिवाली बतायी गयी है। उस बुद्धिसे अहंकारका और अहंकारसे मनका प्रादुर्भाव हुआ। मनसे संकल्पादियुक्त पाँच विषय प्रकट हुए, जिनके नाम इस प्रकार हैं-शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध ॥ ६-१२ ॥

इन सबने ज्ञानशक्ति से सम्पन्न पाँच इन्द्रियोंकी प्रकट किया, जिनके नाम हैं-त्वक, श्रोत्र, घ्राण, नेत्र और जिह्वा। इन सबको ‘ज्ञानेन्द्रिय’ कहा गया है। दो पैर, गुदा, दो हाथ, वाक और उपस्थ-ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं।

अब पञ्चभूतोंके नाम सुनो । आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी-ये पाँच भूत हैं। इनके ही द्वारा सबका आधारभूत स्थूल शरीर उत्पन्न होता है। इन तत्वोंके वाचक जो उत्तम बीज-मन्त्र हैं, उनका न्यासके लिये यहाँ वर्णन किया जाता हैं। ‘मं’ यह बीज जीवस्वरूप (अथवा जीवतत्त्वका वाचक) है। वह सम्पूर्ण शरीरमें व्यापक है-इस भावनाके साथ उक्त बीजका सम्पूर्ण देहमें व्यापक-न्यास करना चाहियें। ‘भं’ यह प्राणतत्वका प्रतीक है। यह जीवकी उपाधि में स्थित हैं, अत: इसका वही न्यास करना चाहिये | विद्वान पुरुष बुद्धितत्वके बोधक बकार अथवा ‘बं’ बीजका हृदय में न्यास करें। फकार (फं) अहंकारका स्वरूप है, अत: उसका भी हृदयमें ही न्यास करे। संकल्पके कारणभूत मनस्तत्वरूप पकार (पं)-का भी वहीं न्यास करे||१३-१८ ॥

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शब्दतन्मात्रतत्त्वके बोधक नकार (नं)-का मस्तकमें और स्पर्शरूप धकार (ध)-का मुखप्रदेशमें न्यास करे। रूपतत्वके वाचक दकार (द)-का नेत्रप्रान्तमें और रसतन्मात्रा के बोधक थकार (थ)- का वस्तिदेश (मूत्राशय)-में न्यास करे। गन्धतन्मात्र स्वरूप तकार (त)-का पिण्डलियोंमें न्यास करे। णकार (ण)-का दोनों कानोंमें न्यास करके ढकार (ढं)-का त्वचा में न्यास करे। डकार (ड़)-का दोनों नेत्रोंमें, ठकार (ठ)-का रसनामें, टकार (ट)-का नासिका में और ञकार (ञ)-का वागिन्द्रियमें न्यास करे। विद्वान् पुरुष पाणितत्वरूप झकार (झ)-का दोनों हाथोंमें न्यास करके, जकार (ज)-का दोनों पैरोंमें, ‘छ’ का पायुमें और ‘च’ का उपस्थमें न्यास करे। डकार (ङ) पृथ्वीतत्वका प्रतीक है। उसका युगल चरणोंमें न्यास करे। घकार (घ)-का वस्तिमें और तेजस्तत्वरूप (गं)-का हृदयमें न्यास करे। खकार (ख) वायुतत्वका प्रतीक है। उसका नासिका में न्यास करे। ककार (क) आकाशतत्वरूप है। विद्वान् पुरुष उसका सदा ही मस्तकमें न्यास करें II १९-२४ II

हृदय-कमलमें सूर्य-देवता-सम्बन्धी ‘य’ बीजका न्यास करके, हृदयसे निकली हुई जो बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं, उनमें षोडश कलाओंसे युक्त सकार (सं) का न्यास करे। उसके मध्यभाग में मन्त्रज्ञ पुरुष बिन्दुस्वरूप वह्रिमण्डलका चिन्तन करे।

सुरश्रेष्ठ ! उसमें प्रणवसहित हकार (ह)-का न्यास करे।

१. ॐ आं नमः परमेष्ठधात्मने।

२. ॐ आं नमः पुरुषात्मने।

३. ॐ वां नमो नित्यात्मने।

४. ॐ नां नमो विश्वात्मने।

५- ॐ वं नमः सर्वात्मने।

ये पाँच शक्तियाँ बतायी गयी हैं।

‘स्नानकर्म” में प्रथमा शक्तिकी योजना करनी चाहिये। ‘आसनकर्म” में द्वितीया, ‘शयन’ में तृतीया, ‘यानकर्म’ में चतुर्थी और ‘अर्चनाकाल”में पञ्चमी शक्तिका प्रयोग करना चाहिये-ये पाँच उपनिषद् हैं। इनके मध्यमें मन्त्रमय श्रीहरिका ध्यान करके क्षकार (क्ष)-का न्यास करे॥२६-३१ ॥

तदनन्तर जिस मूर्तिकी स्थापना की जाती है, उसके मूल-मन्त्रका न्यास करना चाहिये। (भगवान् विष्णुकी स्थापनामें) ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’-यह मूल-मन्त्र है। मस्तक, नासिका, ललाट, भुख, कण्ठ, हृदय, दो भुजा, दो पिण्डली और दो चरणोंमें क्रमश: उक्त मूल-मन्त्रके एकएक अक्षरका न्यास करना चाहिये। तत्पश्चात् केशवका मस्तकमें न्यास करे। नारायणका मुखमें, माधवका ग्रीवामें और गोविन्दका दोनों भुजाओंमें न्यास करके विष्णुका हृदयमें न्यास करे। पृष्ठभागमें मधुसूदनक, जठरमें वामनका और कटिमें त्रिविक्रमका न्यास करके जंघा (पिण्डली)-में श्रीधरका न्यास करे। दक्षिण भागमें हृषीकेशका, गुल्फमें पद्मनाभका और दोनों चरणोंमें दमादोरका न्यास करनेके पश्चात् हृदयादि षडङ्गन्यास करे॥ ३२-३६ ॥

सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ ब्रह्माजी! यह आदिमूर्तिके लिये न्यासका साधारण क्रम बताया गया है। अथवा जिस देवताकी स्थापना का आरम्भ हो, उसीके मूल-मन्त्रसे मूर्तिके सजीवकरणकी क्रिया होनी चाहिये। जिस मूर्तिका जो नाम हो, उसके आदि अक्षरका बारह स्वरोंसे भेदन करके अङ्गोंकी कल्पना करनी चाहिये।

देवेश्वर! हृदय आदि अङ्गोका तथा द्वादश अक्षरवाले मूल-मन्त्रका एवं तत्वोंका जैसे देवताके विग्रहमें न्यास करें वैसे ही अपने शरीरमें भी करे।

तत्पश्चात् चक्राकार पद्ममण्डलमें भगवान् विष्णुका गन्ध आदिसे पूजन करे। पूर्ववत् शरीर और वस्त्राभूषणोंसहित भगवानके आसनका ध्यान करे। ऊपरी भाग में बारह अरोंसे युक्त सुदर्शनचक्र का चिन्तन करे। वह चक्र तीन नाभि और दो नेमियोंसे युक्त है। साथ ही बारह स्वरोंसे सम्पन्न है। इस प्रकार चक्र का चिन्तन करनेके पश्चात् विद्वान् पुरुष पृष्ठदेशमें प्रकृति आदिका निवेश करे। फिर अरोंके अग्रभागमें बारह सूर्योका पूजन करे। तदनन्तर वहाँ सोलह कलाओं से युक्त सोमका ध्यान करे। चक्रकी नाभिमें तीन वसन (वस्त्र या वासस्थान)-का चिन्तन करे। तत्पश्चात् श्रेष्ठ आचार्य पद्मके भीतर द्वादशदल-पद्माका चिन्तन करे। ३७-४४ ॥

उस पद्ममें पुरुष-शक्तिका ध्यान करके उसकी पूजा करे। फिर प्रतिमामें श्रीहरिका न्यास करके गुरु वहाँ श्रीहरि तथा अन्य देवताओंका पूजन करे। गन्ध, पुष्प आदि उपचारोंसे अङ्ग और आवरणोंसहित इष्टदेवताका भलीभाँती पूजन करना चाहिये। द्वादशाक्षर-मन्त्रके एक-एक अक्षरकी बीजरूपमें परिवर्तित करके उनके द्वारा केशव आदि भगवद्वग्रहोंकी क्रमश: पूजा करे। द्वादश अरोंसे युक्त मण्डलमें लोकपाल आदिकी भी क्रमसे अर्चना करे। तदनन्तर, द्विज गन्ध, पुष्प आदि उपचारोंद्वारा पुरुषसूक्तसे प्रतिमाकी पूजा करे और श्रीसूक्तसे पिण्डिकाकी। इसके बाद जनन आदिके क्रमसे वैष्णव-अग्निकी प्रकट करे। तदनन्तर विष्णुदेवता-सम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा अग्निमें आहुति देकर विद्वान् पुरुष शान्ति-जल तैयार करे और उसे प्रतिमाके मस्तकपर छिड़कर अग्निका प्रणयन करे।

विद्वान् पुरुषको चाहिये कि ‘अग्नि दूतम्०’ इत्यादि मन्त्रसे दक्षिण-कुण्डमें अग्नि-प्रणयन करे। पूर्वकुण्डमें ‘अग्निमग्निमू०’ इत्यादि मन्त्रसे और उत्तर-कुण्डमें ‘अग्निमग्नि हवीमभि:०’ इत्यादि मन्त्रसे अग्निका प्रणयन करे। अग्निप्रणयन-कालमें ‘त्वमग्ने* द्युभि:०’ इत्यादि मन्त्रका पाठ किया जाता है॥ ४५-५१ ॥

प्रत्येक कुण्डमें प्रणवके उच्चारणपूर्वक पलाशकी एक हजार आठ समिधाओंका तथा जौ आदिका भी होम करे।

व्याहति-मन्त्रसे घृतमिश्रित तिलोंका और मूलमन्त्रसे घीका हवन करे।

तत्पश्चात् मधुरत्रय (घी, शहद और चीनी)-से शान्ति-होम करे। द्वादशाक्षर-मन्त्रसे दोनों पैर, नाभि, हृदय और मस्तकका स्पर्श करे। घी, दही और दूधकी आहुति देकर मस्तकका स्पर्श करे। तत्पश्चात् मस्तक, नाभि और चरणोंका स्पर्श करके क्रमश: गङ्गा, यमुना, गोदावरी और सरस्वती-इन चार नदियोंकी स्थापना करे। विष्णु-गायत्रीसे अग्निको प्रजवलित करे और गायत्री-मन्नसे उस अग्निमें चरु पकावे। गायत्रीसे ही होम और बलि दे। तदनन्तर ब्राह्मणोंको भोजन करावे॥ ५२-५६॥

मासाधिपति बारह आदित्योंकी तुष्टीके लिए आचार्यको सुवर्ण और गौकी दक्षिणा दे। दिक्पालोको बलि देकर रातमें जागरण करे। उस समय वेदपाठ और गीत, कीर्तन आदि करता रहे। इस प्रकार अधिवासन-कर्मका सम्पादन करनेपर मनुष्य सम्पूर्ण फलोंका भागी होता है।॥ ५७-५९ ॥

उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५६ ॥

अध्याय – ६० वासुदेव आदि देवताओंके स्थापनकी साधारण विधि

श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैं ब्रह्मन्! पिण्डिकाकी स्थापनाके लिए विद्वान पुरुष मन्दिरके गर्भगृहको सात भागों में विभक्त करे और ब्रह्राभागमें प्रतिमाको स्थापित करे। देव, मनुष्य और पिशाच- भागोंमें कदापि उसकी स्थापना नहीं करनी चाहिये ।

ब्रह्मन्! ब्रह्मभागका कुछ अंश छोड़कर तथा देवभाग और मनुष्य-भागोंमेंसे कुछ अंश लेकर, उस भूमिमें यत्नपूर्वक पिण्डिका स्थापित करनी चाहिये। नपुंसक शिलामें रत्नन्यास करे। नृसिंहमन्त्रसे हवन करके उसीसे रत्नन्यास भी करे।

ब्रीहि, रत्न, लोह आदि धातु और चन्दन आदि पदार्थोंको पूर्वादि दिशाओं तथा मध्यमें बने हुए नौ कुण्डोंमें अपनी रुचिके अनुसार छोड़े।

तदन्तर इंद्र आदिके मन्त्रोंसे पूर्वादि दिशाओंके गर्तको गुग्गुलसे आवृत करके, रत्नन्यासकी विधि सम्पन्न करनेके पश्चात् गुरु शलाकासहित कुश– समूहों और सहदेव नामक औषधके द्वारा प्रतिमाको अच्छी तरह मले और झाड़-पोंछ करे। बाहर-भीतरसे संस्कार (सफाई) करके पञ्चगव्यद्वारा उसकी शुद्धि करे। इसके बाद कुशोदक, नदीके जल एवं तीर्थ-जलसे उस प्रतिमाका प्रोक्षण करे ।। १-७ ।।

 होमके लिये बालूद्वारा एक वेदी बनावे, जो सब ओरसे डेढ़ हाथकी लंबी-चौड़ी हों। वह वेदी चौकोर एवं सुन्दर शोभासे सम्पन्न हो। आठ दिशाओं में यथास्थान कलशोंकों भी स्थापित करे। उन पूर्वादि कलशोंको आठ प्रकारके रंगोंसे सुसज्जित करे। तत्पश्चात् अग्नि ले आकर वेदीपर उसकी स्थापना करे और कुशकण्डिकाद्वारा संस्कार करके उस अग्निमें ‘त्वमग्ने द्युभि:०’ (यजु० ११ । १७) इत्यादिसे तथा गायत्रि-मन्त्रसे समिधाओंका हवन करें। अष्टाक्षर-मन्त्रसे अष्टोत्तरशत घीकी आहुति दे, पूर्णाहुति प्रदान करे। तत्पश्चात् मूलमन्त्र से सौ बार अभिमन्त्रित किये गयें शान्तिजलकों अभिषेक करें। अभिषेक-कालमें ‘श्रीश्र्च ते लक्ष्मीक्षू०’ इत्यादि ऋचाका पाठ करता रहे । ‘उतिष्ठ ब्रह्मणस्पते०’ इस मन्त्रसे प्रतिमाको उठाकर ब्रह्मरथपर रखे और ‘तद’ विष्णोः०’ इत्यादि मन्त्रसे उक्त रथद्वारा उसे मन्दिर की ओर ले जाय। वहाँ श्रीहरिकों उस प्रतिमाकों शिविका (पालकी)-में पधराकर नगर आदिमें घुमावे और गीत, वाद्य एवं वेदमन्त्रोंकी ध्वनिके साथ उसे पुन: लाकर मन्दिरके द्वारपर विराजमान करे॥ ८-१३ ॥

इसके बाद गुरु सुवासिनी स्त्रियों और ब्राह्मणोंद्वारा आठ मंगल-कलशोंके जलसे श्रीहरीको स्नान करावे तथा गन्ध आदि उपचारोंसे मूल-मन्त्रद्वारा पूजन करनेके पश्चातू ‘अतो देवा:०’ (ऋकू० १ || २२|| १६) इत्यादि मन्त्रसे वस्त्र आदि अष्टाङ्ग अर्ध्य निवेदन करे। फिर स्थिर लग्नमें पिण्डिकापर ‘देवस्य त्वाo’ इत्यादि मन्त्रसे इष्टदेवताके उस अर्चा-विग्रहको स्थापित कर दे। स्थापनाके पश्चात् इस प्रकार कहें-

सच्चिदानन्दस्वरूप निविक्रम ! आपने तीन पगोंद्वारा समूची त्रिलोकीको आक्रान्त कर लिया था। आपको नमस्कार है।”

इस तरह पिण्डिकापर प्रतिमाको स्थापित करके विद्वान पुरुष उसे स्थिर करे। प्रतिमा-स्थिरीकरणके समय ‘ध्रुवाद्यौ:’०’ इत्यादि तथा “विश्वतश्चक्षुः’०’ (यजुo १७ ॥ ११) इत्यादि मन्त्रोंका पाठ करे। पञ्चगव्यसे स्नान कराकर गन्धोदक से प्रतिमाका प्रक्षालन करे और सकलीकरण करनेके पश्चात् श्रीहरिका। साङ्गोपान साधारण पूजन करे॥१४-१७ ई॥

उस समय इस प्रकार ध्यान करे-‘आकाश भगवान् विष्णुका विग्रह है और पृथिवीं उसकी पीठिका (सिंहासन) है।” तदनन्तर तैजस परमाणुओंसे भगवानके श्रीविग्रह की कल्पना करे और कहे’मै पच्चीस तत्वोंमें व्यापक जीवका आवाहन करूंगा।।’ || १८-१९ ॥

‘वह जीव चैतन्यमय, परमानन्दस्वरूप तथा जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति-इन तीनों अवस्थाओंसे रहित है; देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, प्राण तथा अहंकारसे शून्य है। वह ब्रह्मा आदिसे लेकर कीटपर्यन्त समस्त जगत् में व्याप्त और सबके हृदयोंमें विराजमान हैं। परमें श्वर! आप ही जीव चैतन्य हैं, आप हृदय प्रतिमा-बिम्ब में आकर स्थिर होइये। आप इस प्रतिमा-बिम्बकों इसके बाहर और भीतर स्थित होकर सजीव कीजिये। अङ्गुष्ठमात्र पुरुष (परमात्मा जीवरूपसे) सम्पूर्ण देहोंपाधियोंमें स्थित हैं। वे ही ज़्योति: स्वरूप, ज्ञानस्वरूप, एकमात्र अद्वितीय परब्रह्म हैं।” इस प्रकार सजीवीकरण करके प्रणवद्वारा भगवानको जगावे। फिर भगवानके हृदयका स्पर्श करके पुरुषसूक्तका जप करे। इसे ‘सांनिध्यकरण’ नामक कर्म कहा गया है। इसके लिये भगवानका ध्यान करते हुए निम्नाङ्गित गुह्म-मन्त्रका जप करे- ॥ २०-२४॥

‘प्रभो! आप देवताओंके स्वामी हैं, संतोषवैभव-रूप हैं। आपको नमस्कार हैं। ज्ञान और विज्ञान आपके रूप हैं, ब्रह्मतेज आपका अनुगामी है। आपका स्वरूप गुणातीत है। आप अन्तर्यामी पुरुष एवं परमात्मा हैं, अक्षय पुराणपुरुष हैं, आपको नमस्कार हैं। विष्णों! आप यहाँ संनिहित होइये। आपका जो परमतत्व है, जो ज्ञानमय शरीर है, वह सब एकत्र हो, इस अचांविग्रह में जाग उठे।” इस प्रकार परमात्मा प्रीहरिका सांनिध्यकरण करके ब्रह्रा आदि परिवारोंकी उनके नामसे स्थापना करे। उनके जो आयुध आदि हैं, उनकी भी मुद्रासहित स्थापना करे।

यात्रा-सम्बन्धी उत्सव तथा वार्षिक आदि उत्सवकी भी योजना करके और उन उत्सवोंका दर्शनकर श्रीहरिको अपने संनिहित जानना चाहिये।

भगवानको नमस्कार, स्तोत्र आदिके द्वारा उनकी स्तुति तथा उनके अष्टाक्षर आदि मन्त्रका जप करते समय भी भगवानको अपने निकट उपस्थित जानना चाहिये। २५-२१।

तदनन्तर आचार्य मन्दिरसे निकलाकर द्वारवर्ती द्वारपाल चण्ड और प्रचण्डका पूजन करे। फिर मण्डपमें आकर गरुड़की स्थापना एवं पूजा करे। प्रत्येक दिशामें दिक्कपालों तथा अन्य देवताओंका स्थापन-पूजन करके गुरु विष्वक्सेनकी स्थापना तथा शड़, चक्र आदिकी पूजा करे। सम्पूर्ण पार्षदों और भूतोंको बलि अर्पित करे।

आचार्यको दक्षिणारूपसे ग्राम, वस्त्र एवं सुवर्णं आदिका दान दे। यज्ञोपयोगी द्रव्य आदि आचार्यको अर्पित करे। आचार्यसे आधी दक्षिणा ऋत्विजोंको दे। इसके बाद अन्य ब्राह्मणोंको भी दक्षिणा दे और भोजन करावे। वहाँ आनेवाले किसी भी ब्राह्मणको रोके नहीं, सबका सत्कार करे। तदनन्तर गुरु यजमानको फल दे ॥ ३०-३४ ॥

भागवदविग्रहकी स्थापना करनेवाला पुरुष अपने साथ सम्पूर्ण कुलको भगवान् विष्णुके समीप ले जाता है। सभी देवताओंके लिये यह साधारण विधि है; किंतु उनके मूल-मन्त्र पृथक्-पृथक् होते हैं। शेष सब कार्य समान हैं ॥ ३५-३६ ॥

अध्याय – ६१ अवभृथस्नान, द्वारप्रतिष्ठा और ध्वजारोपण आदिकी विधिका वर्णन

श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैं ब्रह्मन्! अब मैं अवभृथस्नानका वर्णन करता हूँ। “विष्णोर्न क* वीर्याणि०’ इत्यादि मन्त्र से हवन करे। इक्यासी पदवाले वास्तुमण्डलमें कलश स्थापित करके उनके जलसे श्रीहरिको स्नान करावे। स्नानके पश्चात् गन्ध, पुष्प आदिसे भगवानकी पूजा करे और बलि अर्पित करके गुरुका पूजन करे।

अब मैं द्वारप्रतिष्ठाका वर्णन करूंगा।

गुरु द्वारके निम्नभागमें सुवर्ण रखे और आठ कलशोंके साथ वहाँ दो गूलरकी शाखाओंको स्थापित करे। फिर गन्ध आदि उपचारों और वैदिक आदि मन्त्रोंसे सम्यक पूजन करके कुंडोंमें स्थापित  अग्निमें समिधा, घी और तिल आदिकी आहुति दे। तत्पश्चात् शय्या आदिका दान देकर नीचे आधारशक्तिकी स्थापना करे॥ १-४॥

दोनों शाखाओंके मूलभागमें चण्ड और प्रचण्ड नामक देवताओंकी स्थापना करे। उदुम्बर-शाखाओंके ऊपरी भागमें देववृन्दपूजित लक्ष्मीदेवी की स्थापना करके श्रीसूक्तसे उनका यथोचित पूजन करे। तत्पश्चात् ब्रह्माजीका पूजन करके आचार्य आदिको श्रीफल (नारियल) आदिकी दक्षिणा दे। प्रतिष्ठाद्वारा सिद्ध द्वारपर आचार्य श्रीहरिकी स्थापना करे। मन्दिरकी प्रतिष्ठा ‘हृत्प्रतिष्ठा०’ इत्यादि मन्त्रसे की जाती है।

उसका वर्णन सुनो।

वेदीके पहले गर्भगृहके शिरोभागमें, जहाँ शुकनासाकी समाप्ति होती है, उस स्थानपर सोने अथवा चाँदीके बने हुए श्वेत निर्मल कलशकी स्थापना करे। उसमें आठ प्रकारके रत्न, ओषधि, धातु, बीज और लोह (सुवर्ण) छोड़ दे। उस सुन्दर कलशके कंठभागमें वस्त्र लपेटकर उसमें जल भर दे और मण्डलमें उसका अधिवासन करें। उसमें पल्लव डाल दे। तत्पश्चात् नृसिंह-मन्त्रसे अग्निमें घीकी धारा गिराते हुए होम करे। नारायणतत्त्वसे प्राणन्यास करे ॥५-१०॥

सुरेश्वर! प्रासादके उस कलशका वैराजरूपमें चिन्तन कोरे। तत्पश्चात् विद्वानपुरुष सम्पूर्ण प्रासादका ही पुरुषकी भाँती चिन्तन करे। तदनन्तर नीचे सुवर्ण देकर तत्त्वभूत कलशकी स्थापना कोरे। गुरु आदिकी दक्षिणा दे और ब्राह्मण आदिकों भोजन करावे। तत्पश्चात् वेदीके चारों ओर सूत या माला लपेटे। उसके ऊपर कण्ठभागमें सब ओर सूत अथवा बन्दनवार बाँधे और उसके भी ऊपर ‘विमलामलसार” नामक पुष्पहार या बन्दनवार मन्दिरके चारों ओर बाँधे। उसके ऊपर ‘वृकल’ तथा उसके भी ऊपर आदि सुदर्शनचक्र बनावे। वहीं भगवान् वासुदेवकी ग्रहगुप्त मूर्ति निवेदित करे। अथवा पहले कलश और उसके ऊपर उत्तम सुदर्शनचक्रकी योजना करे।

ब्रह्मन्! वेदीके चारों ओर आठ विन्धेश्वरोंकी स्थापना करनी चाहिये। अथवा चार दिशाओंमें चार ही विध्नेश्वर स्थापित किये जाने चाहिये।

अब गरुडध्वजारोपणकी विधि बताता हूँ, जिसके होनेसे भूत आदि नष्ट हो जाते हैं॥ ११-१६॥

प्रासाद-बिम्बके द्रव्योंमें जितने परमाणु होते हैं, उतने सहस्र वर्षोंतक मन्दिर-निर्माता पुरुष विष्णुलोकमें निवास करता है। निष्पाप ब्रह्माजी! जब वायुसे ध्वज फहराता है और कलश, वेदी तथा प्रासादबिम्बके कण्ठको आवेष्टित कर लेता है, तब प्रासादकर्ताको ध्वजारोपणकी अपेक्षा भी कोटिगुना अधिक फल प्राप्त होता है, ऐसा समझना चाहिये।

पताकाको प्रकृति जानो और दण्डको पुरुष। साथ ही मुझसे यह भी समझ लो कि प्रासाद (मन्दिर) भगवान् वासुदेवकी मूर्ति है। मन्दिर भगवानको धारण करता है, यही उसमें धरणीतत्व है, ऐसा जानों।

मन्दिरके भीतर जो शून्य अवकाश है, वही उसमें आकाशतत्व है। उसमें जो तेज या प्रकाश है, वही अग्नितत्व है और उसके भीतर जो हवाका स्पर्श होता है, वही उसमें वायुतत्व है।॥ १७-२० ॥

पाषाण आदिमें ही जो जल है, वह पार्थिव जल है। उसमें पृथ्वीका गुण गन्ध विद्यमान है। प्रतिध्वनिसे जो शब्द प्रकट होता है, वही वहाँका शब्द हैं। छूनेमें कठोरता आदिका जो अनुभव होता है, वही वहाँका स्पर्श है। शुक्ल आदि वर्ण रूप है। आह्रादका अनुभव करानेवाला रस ही वहाँ रस है। धूप आदिकी गन्ध ही वहाँकी गन्ध है। भेरी आदि में जो नाद प्रकट होता है, वही मानो वागिन्द्रियका कार्य है। इसलिये वहीं वागिन्द्रियकी स्थिति है। शुकनासा में नासिकाकी स्थिति है। दो भद्रात्मक भुजाएँ कही गयी हैं। शिखरपर जो अण्ड-सा बना रहता है, वही मस्तक कहा गया है और कलशको केश बताया गया है। प्रासादका कण्ठभाग ही उसका कण्ठ जानना चाहियें। वेदीकी कंधा कहा गया है। दो नालियाँ गुदा और उपस्थ बतायी गयी हैं। मन्दिरपर जो चूना फैग गया है, उसीको त्वचा नाम दिया गया है। द्वार उसका मुँह है और प्रतिमाको मन्दिरका जीवात्मा कहा गया है। पिण्डिकाको जीवकी शक्ति समझो और उसकी आकृतिकी प्रकृति ॥ २१-२५॥

निश्चलता उसका गर्भ हैं और भगवान् केशव उसके अधिष्ठाता। इस प्रकार ये भगवान् विष्णु ही साक्षात् मन्दिररूपसे खड़े हैं। भगवान् शिव उसकी जघा हैं, ब्रह्मा स्कन्धभागमें स्थित हैं और ऊर्ध्वभागमें स्वयं विष्णु विराजमान हैं। इस प्रकार स्थित हुए प्रासादकी ध्वजरूपसे जो प्रतिष्ठा की गयी है, उसको मुझसे सुनो।

शस्त्रादिचिन्हीत ध्वजका आरोपण करके देवताओंने दैत्योंको जीता है। अण्डके ऊपर कलश रखकर उसके ऊपर ध्वज की स्थापना करे। ध्वजका मान बिम्बके मानका आधा भाग है। ध्वजदण्डकी लंबाईके एक तिहाई भागसे चक्र का निर्माण कराना चाहिये।

वह चक्र आठ या बारह अरोंका हो और उसके मध्यभागमें भगवान् नृसिंह अथवा गरुडकी मूर्ति हो। ध्वज-दण्ड टूटा-फूटा या छेदवाला न हो। प्रासादकी जो चौड़ाई है, उसीको दण्डकी लंबाईका मान कहा गया है। अथवा शिखरके आधे या एक तिहाई भागसे उसकी लंबाईका अनुमान करना चाहिये। अथवा द्वारकी लंबाईसे दुगुना बड़ा दण्ड बनाना चाहिये। उस ध्वज-दण्डको देवमन्दिर पर ईशान या वायव्यकोणकी ओर स्थापित करना चाहिये। २६-३२।

उसकी पताका रेशमी आदि वस्त्रोंसे विचित्र शोभायुक बनावे । अथवा उसे एक रंगकी ही बनावे। यदि उसे घण्ट, चवर अथवा छोटी-छोटी घंटियोंसे विभूषित करे तो वह पापोंका नाश करनेवाली होती है। दण्डके अग्रभागसे लेकर भूमितक लंबा जो एक वस्त्र है, उसे ‘महाध्वज” कहा गया है। वह सम्पूर्ण मनोरथोंको देनेवाला है। जो उससे एक चौथाई छोटा हो, वह ध्वज पूजित होनेपर सर्वमनोरथोका पूरक होता है। ध्वजके आधे मानवाले वस्त्रसे बने हुए झंडेको ‘पताका’ कहते हैं अथवा पताकाका कोई माप नहीं होता। ध्वजका विस्तार बीस अंगूलके बराबर होना चाहिये। चक्र, दण्ड़ और ध्वज – इन सबका अधिवासनकी विधिसे देवताकी ही भाँति सकलीकरण करके मण्डप-स्नान (मण्डपमें नहलानेकी क्रिया) आदि सब कार्य करे।

‘नेत्रोन्मीलन”को छोड़कर पूर्वोक्त सब कर्मोंका अनुष्ठान करे। आचार्यको चाहिये कि वह इन सबको विधिवत् शय्यापर स्थापित करके इनका अधिवासन करे।। ३३-३७॥

तदनन्तर विद्वान् पुरुष ‘सहरुत्रशीर्घ०” (यजु० अ० ३१) इत्यादि सूक्तका ध्वजाङ्गित चक्रमें न्यास करे तथा सुदर्शन-मन्त्र एवं ‘मनस्तत्त्व’का न्यास करे। यह “मन” रूपसे उस चक्र का ही ‘सजीवीकरण” कहा गया है।

सुरश्रेष्ठ! बारह अरोंमें क्रमश: केशव आदि मूर्तियोंका न्यास करना चाहिये। गुरु चक्रकी नाभि, कमल एवं प्रतिनेमियोंमें तत्वोंका न्यास करे। कमलमें नृसिंह अथवा विश्वरूपका निवेश करे। दण्ड़में जीवसहित सम्पूर्ण सूत्रात्माका न्यास करे। ध्वजमें श्रीहरिका ध्यान करते हुए निष्कल परमात्माका निवेश करे। उनकी बलाबलारूप व्यापिनी शक्तिका ध्वजके रूप में ध्यान करे। मण्डपमें उसकी स्थापना और पूजा करके कुण्डोंमें हवन करे। कलशमें सोनेका टुकड़ा और पञ्चरत्न डालकर अस्त्र-मन्त्रसे चक्रकी स्थापना करे। तदनन्तर स्वर्णचक्र को नीचेसे पारद्वारा सम्प्लावित करके नेत्रपटसे आच्छादित करे। तदनन्तर चक्र का निवेश करे और उसके भीतर श्रीहरिका स्मरण करे॥३८-४४ ॥

‘ॐ क्षौं नृसिंहाय नम:।’-इस मन्त्र से श्रीहरिकी स्थापना और पूजा करे। तदनन्तर बन्धु-बान्धवोंसहित यजमान ध्वज लेकर दही-भातसे युक्त पात्रमें ध्वजका अग्रभाग डाले। आदिमें (ॐ) और अन्तमें ‘फट्र’ लगाकर ‘ॐ फट्।’ इस मन्त्रसे ध्वजका पूजन करे। तत्पश्चात् उस पात्रको सिरपर रखकर नारायणका बारम्बार स्मरण करते हुये वाद्योंकी ध्वनि और मङ्गलपाठके साथ परिक्रमा करे। तदनन्तर अष्टाक्षर-मन्त्र से ध्वजदण्डकी स्थापना करे। विद्वान् पुरुष ‘मुञ्चामि त्वा’ (ऋक्० १८ ॥ १६१। १) इस सूक्तके द्वारा ध्वजको फहरावे। द्विजकी चाहिये कि वह आचार्यको पात्र, ध्वज और हाथी आदि दान करे। यह ध्वजारोपणकी साधारण विधि बतायी गयीं है।॥ ४५-४९ ॥

जिस देवताका जो चिह्न है, उससे युक्त ध्वजको उसी देवताके मन्त्रसे स्थिरतापूर्वक स्थापित करे। मनुष्य ध्वज-दानके पुण्यसे स्वर्गलोकमें जाता है तथा वह पृथ्वीपर बलवान् राजा होता है॥ ५०॥

अध्याय – ६२ लक्ष्मी आदि देवियोंकी प्रतिष्ठाकी सामान्य विधि

श्रीभगवान् कहते हैं अब मैं सामूहिक रूपसे देवता आदिकी प्रतिष्ठाका तुमसे वर्णन करता हूँ। पहले लक्ष्मीकी, फिर अन्य देवियोंके समुदायकी स्थापनाका वर्णन करूंगा। पूर्ववर्ती अध्यायोंमें जैसा बताया गया है, उसके अनुसार मण्डप-अभिषेक आदि सारा कार्य करे। तत्पश्चात् भद्रपीठपर लक्ष्मीकी स्थापना करके आठ दिशाओंमें आठ कलश स्थापित करे। देवी की प्रतिमाका घीसे अभ्यञ्जन करके मूल-मन्त्रद्वारा पञ्चगव्यसे उसको स्नान करावे। फिर’हिरण्यवर्णाहरिणीमo’ इत्यादि मन्त्रसे लक्ष्मीजीके दोनों नेत्रोंका उन्मीलन करे। ‘तां म आ वह०’ इत्यादि मन्त्र पढ़कर देवीके लिये मधु घी और चीनी अर्पित करे। तत्पश्चात्’अश्वपूर्वाम्०’ इत्यादि मन्त्रसे पूर्ववर्ती कलश के जलद्वारा श्रीदेवीका अभिषेक करे। ‘कां सोऽस्मिताम०’ इस मन्त्रको पढ़कर दक्षिण कलशसे ‘चन्द्रा प्रभासामo” इत्यादि मन्त्रका उच्चारण करके पश्चिम कलश से तथा “आदित्यवर्णेo*’ इत्यादि मन्त्र बोलकर उत्तरवर्ती कलश से देवीका अभिषेक करें ॥ १-५ ॥

‘उपैतु माम्०’ इत्यादि मन्त्रका उच्चारण करके आग्नेय कोणके कलशसे, ‘क्षुपिपासामलाम- इत्यादि मन्त्र बोलकर नैऋत्यकोणके कलशसे ‘गन्धद्वारां दुराधषमि०’ इत्यादि मन्त्रको पढ़कर वायव्यकोणके कलशसे तथा ‘मनस: काममाकूतिम्—’ इत्यादि मन्त्र कहकर ईशानकोणवर्ती कलशसे लक्ष्मीदेवीका अभिषेक करे। “कर्दमेन प्रजा भूताo’ इत्यादि मन्त्रसे सुवर्णमय कलशके जलसे देवीके मस्तकका अभिषेक करे। तदनन्तर ‘आपः सृजन्तु०’ इत्यादि मन्त्रसे इक्यासी कलशोंद्वारा श्रीदेवीकी प्रतिमा की स्नान करावे ॥ ६-७ ॥

तत्पश्चात् (श्री-प्रतिमाको शुद्ध वस्त्रसे पोछकर समर्पित करनेके बाद) ‘आद्रा पुष्करिणीम्०’इस मन्त्रसे गन्ध अर्पित करे। ‘आद्रायः करिणीम०’ आदिसे पुष्प और माला चढ़ाकर पूजा करे। इसके बाद ‘तां म आ वह जातवेदो०’ इत्यादि मन्त्रसे और ‘आनन्द०’ इत्यादि श्लोकसे अखिल उपचार अर्पित करे ॥ ८ ॥

‘आयन्ती० ” आदि मन्त्रसे श्री-प्रतिमाकों शय्यापर शयन करावे। फिर श्रीसूक्तसे संनिधीकरण करे और लक्ष्मी (श्री) बीज (श्रों)-से चित्- शक्तिका विन्यास करके पुन: अर्चना करे। इसके बाद श्रीसूतसे मण्डपस्थ कुण्डोंमें कमलों अथवा करवीर-पुष्पोंका हवन करे। होमसंख्या एक हजार या एक सौ होनी चाहिये। गृहोपकरण आदि समस्त पूजन-सामग्री आदित: श्रीसूक्तके मन्त्रोंसे ही समर्पित करे। फिर पूर्ववत् पूर्णरूपसे प्रासाद-संस्कार सम्पन्न करके माता लक्ष्मीके लिये पिण्डिका-निर्माण करे। तदनन्तर उस पिण्डिकापर लक्ष्मीकी प्रतिष्ठा करके श्रीसूक्तसे संनिधीकरण करते हुए, पूर्ववत् उसकी प्रत्येक ऋचाका जप करे॥ ९-१२ ॥

मूल-मन्त्रसे चित्-शक्तिको जाग्रत् करके पुन: संनिधीकरण करे। तदनन्तर आचार्य और ब्रह्मा तथा अन्य ऋत्विज ब्राह्मणोंको भूमि, सुवर्ण, वस्त्र, गौ एवं अनादिका दान करे। इस प्रकार सभी देवियोंकी स्थापना करके मनुष्य राज्य और स्वर्ग आदिका भागी होता है॥ १३-१४ ॥

अध्याय – ६३ विष्णु आदि देवताओंकी प्रतिष्ठाकी सामान्य विधि तथा पुस्तक-लेखन-विधि

श्रीभगवान् कहते हैं इस प्रकार विनतानन्दन गरुड, सुदर्शनचक्र, ब्रह्मा और भगवान् नृसिंहकी प्रतिष्ठा भी उनके अपने-अपने मन्त्रसे श्रीविष्णुकी  ही भाँति करनी चाहिये; इसका श्रवण करो ॥

ॐ सुदर्शन महाचक्र शान्त दुष्टभयंकर, छिन्धिच्छिन्धि भिन्धि भिन्धि विदारय विदारय परमन्त्रान् ग्रस ग्रस भक्षय भक्षय भूतांस्त्रासय त्रासय हूं फट् सुदर्शनाय नम:।’

इस मन्त्रसे चक्र का पूजन करके वीर पुरुष युद्धक्षेत्र में शत्रुओंकी विदीर्ण कर डालता है॥ २-३॥

‘ॐ क्षौं नरसिंह उग्ररूप ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल स्वाहा।” यह नरसिंहभगवानका मन्त्र है। अब मैं तुमको पाताल-नृसिंह-मन्त्रका उपदेश करता हूँ- ॥ ४-५ ॥

क्षौं नमो भगवते नरसिंहाय प्रदीप्तसूर्यकोटिसहस्त्रसमतेजसे वज्रनखदंष्टायुधाय स्फुटविकटविकीर्णकेसरसटाप्रक्षुभितमहार्णवाम्भोदुन्दूभिनिर्धोषाय सर्वमन्त्रोत्तारणाय एह्येहि भगवन्नरसिंहपुरुष परापर ब्रह्म सत्येन स्फुर स्फुर विजूम्भ विजूम्भ आक्रम आक्रम गर्जं गर्जं मुञ्च मुञ्च सिंहनादं विदारय विदारय विद्रावय विद्रावयाऽऽविशाऽऽविश सर्वमन्त्ररूपाणि मन्त्रजातीश्च हुन हन च्छिन्दच्छिन्द संक्षिप संक्षिप दर दर दारय दारय स्फुट स्फुट स्फोटय स्फोटय ज्वालामालासंघातमय सर्वतोऽनन्तज्वालावज्राशनिचक्रेण सर्वपातालानुत्सादयोत्सादय सर्वतोऽनन्तज्चालावज्रशरपञ्जरेण सर्वपातालान्यरिवारय परिवारय सर्वपातालासुरवासिनां हृदयान्याकर्षयाऽऽकर्घय शीघ्र दह दह पच पच मथ मथ शोषय शोषय निकृन्तय निकृन्तय तावद्यावन्मे वशमागताः पातालेभ्यः ( फट्सुरेभ्यः फणमन्त्ररूपेभ्यः फणमन्त्रजातिभ्यः फट् संशयान्मां भगवन्नरसिंहरूप विष्णो सर्वापदभ्यः ) सर्वमन्त्ररूपेभ्यो रक्ष रक्ष हुं फणनमो नमस्ते ॥ ६ ॥

यह श्रीहरिस्वरूपिणी नृसिंह-विद्या है, जो अनर्थसिद्धि प्रदान करनेवाली है।

त्रैलोक्यमोहन श्रीविष्णुकी त्रैलोक्यमोहन मन्त्रसमूहसे प्रतिष्ठा करे। उनके द्विभुज विग्रहके वाम हस्तमें गदा और दक्षिण हस्तमें अभयमुद्रा होनी चाहिये। यदि चतुर्भुज रूपकी प्रतिष्ठा की जाय, तो दक्षिणोर्ध्व हस्तमें चक्र और वामोर्ध्वमें पाञ्चजन्य शंख होना चाहिये। उनके साथ श्री एवं पुष्टि, अथवा बलराम, सुभद्राकी भी स्थापना करनी चाहिये। श्रीविष्णु, वामन, वैकुण्ठ, हयग्रीव और अनिरुद्धकी प्रासादमें, घरमें अथवा मण्डपमें स्थापना करनी चाहिये। मत्स्यादि अवतारोंकी जल-शय्यापर स्थापित करके शयन करावे। संकर्षण, विश्वरूप, रुद्रमूर्तिलिङ्ग, अर्धनारीश्वर, हरिहर, मातृकागण, भैरव, सूर्य, ग्रह, विनायक तथा इन्द्र आदिके द्वारा सेवनीया गौरी, चित्रजा एवं ‘बलाबला” विद्याकी भी उसी प्रकार स्थापना करनी चाहिये ॥ ७-१२ ॥

अब मैं ग्रन्थकी प्रतिष्ठा और उसकी लेखनविधिका वर्णन करता हूँ। आचार्य स्वस्तिकमण्डलमें शरयन्त्र के आसन पर स्थित लेख्य, लिखित पुस्तक, विद्या एवं श्रीहरिका यजन करे। फिर यजमान, गुरु, विद्या एवं भगवान् विष्णु और लिपिक (लेखक) पुरुषकी अर्चना करे। तदनन्तर पूर्वाभिमुख होकर पद्मिनीका ध्यान करे और चाँदीकी दावातमें रखी हुई स्याही तथा सोनेकी कलमसे देवनागरी अक्षरोंमें पाँच श्लोक लिखें। फिर ब्राह्मणोंको यथाशक्ति भोजन करावे और अपनी सामर्थ्यके अनुसार दक्षिणा दे। आचार्य, विद्या और श्रीविष्णुका पूजन करके लेखक पुराण आदिका लेखन प्रारम्भ करे। पूर्ववत् मण्डल आदिके द्वारा ईशानकोणमें भद्रपीठपर दर्पणके ऊपर पुस्तक रखकर पहलेकी ही भाँति कलशोंसे सेचन करे। फिर यजमान नेत्रोन्मीलन करके शय्यापर उस पुस्तकका स्थापन करे। तत्पश्चात् पुस्तकपर पुरुषसूक्त तथा वेद आदिका न्यास करे॥ १३-१८॥

तदनन्तर प्राण-प्रतिष्ठा, पूजन एवं चरुहोम करके, पूजनके पक्षात् दक्षिणासे आचार्य आदिका सत्कार करके ब्राह्मण-भोजन करावे। उस ग्रन्थको रथ या हाथीपर रखकर जनसमाजके साथ नगरमें घुमावे। अन्तमें गृह या देवालयमें उसे स्थापित करके उसकी पूजा करे। ग्रन्थकी वस्त्रसे आवेष्टित करके पाठके आदि-अन्तमें उसका पूजन करे। पुस्तकवाचक विश्वशान्तिका संकल्प करके एक अध्यायका पाठ करे। फिर गुरु कुम्भजलसे यजमान आदिका अभिषेक करे। ब्राह्मणको पुस्तकदान करनेसे अनन्त फलकी प्राप्ति होती हैं। गोदान, भूमि-दान और विद्यादान-ये तीन अतिदान कहे गये हैं। ये क्रमश: दोहन, वपन और पाठमात्र करनेपर नरकसे उद्धार कर देते हैं। मसीलिखित पत्र-संचयका दान विद्यादान का फल देता हैं और उन पत्रोंकी एवं अक्षरोंकी जितनी संख्या होती हैं, दाता पुरुष उतने ही हजार वर्षोंतक विष्णुलोकमें पूजित होता है। पञ्चरात्र, पुराण और महाभारतका दान करनेवाला मनुष्य विलीन हो जाता है। ॥ १९-२६ ॥

तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ६३ ॥

अध्याय – ६४ कुआँ, बावड़ी और पोखरे आदिकी प्रतिष्ठाकी विधि

श्रीभगवान् कहते हैं ब्रह्मन्! अब मैं कूप, वापी और तागड़की प्रतिष्ठाकी विधिका वर्णन करता हूँ, उसे सुनो।

भगवान् श्रीहरि ही जलरूपसे देवश्रेष्ठ सोम और वरूण हुए हैं। सम्पूर्ण विश्व अग्नीषोममय है। जलरूप नारायण उसके कारण हैं। मनुष्य वरुणकी स्वर्ण, रौप्य या रत्नमयी प्रतिमाका निर्माण करावे। वरुणदेव द्विभुज, हंसारूढ़ और नदी एवं नालोंसे युक्त हैं। उनके दक्षिणहस्तमें अभयमुद्रा और वाम-हस्तमें नागपाश सुशोभित होता हैं। यज्ञमण्डपके मध्यभागमें कुण्डसे सुशोभित वेदिका होनी चाहिये तथा उसके तोरण (पूर्व-द्वार)-पर कमण्डलुसहित वरुण-कलशकी स्थापना करनी चाहिये। इसी तरह भद्रक (दक्षिणद्वार), अर्द्धचन्द्र (पश्चिम-द्वार) तथा स्वस्तिक (उत्तर-द्वार)-पर भी वरुणकलशोंकी स्थापना आवश्यक हैं। कुण्ड़में अग्निका आधान करके। पूर्णाहुति प्रदान करे॥ १-५ ॥

‘ये ते शतं वरुण’ आदि मन्त्रसे स्नानपीठपर। वरुणकी स्थापना करे। तत्पश्चात् आचार्य मूल-मन्त्रका उच्चारण करके, वरुण देवताकी प्रतिमाको वहीं पधराकर, उसमें घृतका अभ्यङ्ग करे। फिर ‘शं नो देवी०’ (अथर्व० ং।। ৭। ২; স্থাৎ অস্ত্ৰণ | ३६।१२) इत्यादि मन्त्रसे उसका प्रक्षालन करके। ‘शुद्धबालः० सर्वशुद्धवालो०’ (शु० यजु० | २४।३) आदिसे पवित्र जलद्वारा उसे स्नान करावे । तदनन्तर स्नानपीठकी पूर्वादि दिशाओंमें आठ कलशोंका अधिवासन (स्थापन) करे। इनमेंसे पूर्ववर्ती कलशमें समुद्रके जल, आग्नेयकोणवर्ती कुम्भमें गङ्गाजल, दक्षिणके कलशमें वर्षाके जल, नैऋत्यकोणवाले कुम्भमें क्षरनेके जल, पश्छिमवाले कलशमें नदीका जल, वायव्यकोणमें नदके जल, उत्तर-कुम्भमें औद्भीज्ज (सौते)-के जल एवं ईशानवर्ती कलशमें तीर्थके जलको भरे। उपर्युक्त विविध जल न मिलने पर सब कलशोंमें नदीके ही जलको डाले । उक्त सभी कलशोको ‘यासां राजा०’ (अथर्व० १ ॥ ३३ ॥ २) आदि मन्त्रसे अभिमन्त्रित करे। विद्वान् पुरोहित वरुणदेवका ‘सुमित्रिया०’ (शु० यजु० ३५। १२) आदि मन्त्रसे मार्जन और निर्मञ्छन करके, ‘चित्रं देवानां’ (शु• यजुe १३॥ ४६) तथा ‘तच्चक्षुर्देवहितं०’ (शु० यजुo ३६ ।। २४)-इन मन्त्रोंसे मधुरत्रय (शहद. घी और चीनी) द्वारा वरुणदेवके नेत्रोंका उन्मीलन करे। फिर वरुणाकी उस सुवर्णमयी प्रतिमामें ज्योतिका पूजन करे एवं आचार्यकी गोदान दे॥६–१० ई ॥ तदनन्तर’समुद्राज्येष्ठाः ०” (ऋक्.०७ ।। ४९ । १) आदि मन्त्रके द्वारा वरुणदेवताका पूर्व-कलशके जलसे अभिषेक करे। ‘समुद्र गच्छ०’ (यजु० ६। २१) इत्यादि मन्त्रके द्वारा अग्निकोणवर्ती कलश के गङ्गाजलसे, ‘सोमो धेनु०’ (शु० यजु० ३४। २१) इत्यादि मन्त्रके द्वारा दक्षिण-कलशके वर्षांजलसे, ‘देवीरापो०” (शु• यजु० ६।।२७) इत्यादि मन्त्रके द्वारा नैऋत्यकोणवर्ती कलशके निर्झर-जलसे,’पञ्च नद्यः।o” (शुo यजुo ३४।। ११) आदि मन्त्रके द्वारा पश्चिम-कलशके नदी-जलसे, ‘उद्भिदभ्य:०’ इत्यादि मन्त्रके द्वारा उत्तरवर्ती कलश के उद्भिज्ज-जलसे और पावमानी ऋचाके द्वारा ईशानकोणवाले कलशके तीर्थ-जलसे वरुणका अभिषेक करे। फिर यजमान मौन रहकर ‘आपो हि ष्ठा०” (शु० यजुo ११।५०) मन्त्रके द्वारा पञ्चगव्यसे, ‘हिरण्यवर्णा०’ (श्रीसूक्त)-के द्वारा स्वर्ण-जलसे, ‘आपो अस्मान्’ (शु० यजु० ४। २) मन्त्रके द्वारा वर्षाजलसे, व्याहतियोंका उच्चारण करके कूप-जलसे तथा ‘आपो देवी:०’ (गु० यजु० १२ ॥ ३५) मन्त्रके द्वारा तड़ाग-जल एवं तोरणवर्ती वरुण-कलशके जलसे वरुणदेवकी स्नान करावे। ‘वरुणस्योत्तम्भनमसि०’ (शु० यजुo ४ ।। ३६) मन्त्रके द्वारा पर्वतीय जल (अर्थात् झरनेके पानी)-से भरे हुए इक्यासी कलशोंद्वारा उसकी स्नान करावे। फिर “त्वं नो अगने वरुणस्य” (शु० यजु० २१।। ३) इत्यादि मन्त्रसे अर्ध्य प्रदान करे। व्याहतियोंका उच्चारण करके मधुपर्क, “बृहस्पते अति यदर्यो०’ (शु० यजुe .. २६ । ३) मन्त्रसे वस्त्र, ‘इमं मे वरुणः ०” (शु० यजुo २१। १) इस मन्त्रसे पवित्रक और प्रणवसे उत्तरीय समर्पित करें ॥ ११-१६ ॥

वारुणसूक्तसे वरुणदेवताको पुष्प, चंवर, दर्पण, छत्र और पताका निवेदन करे। मूल-मन्त्रसे ‘उतिष्ठ’ ऐसा कहकर उत्थापन करे। उस रात्रिको अधिवासन करे। “वरुणं वाo ” इस मन्त्रसे संधिकरण करके वरुणसूक्तसे उनका पूजन करे। फिर मूल-मन्त्रसे सजीवीकरण करके चन्दन आदिद्वारा पूजन करे। मण्डलमें पूर्ववत् अर्चना कर ले। अग्निकुण्डमें समिधाओंका हवन करे। वैदिक मन्त्रोंसे गंगा आदि चारों गौओका दोहन करे। तदनन्तर सम्पूर्ण दिशाओंमें यवनिर्मित चरुकी स्थापना करके होम करे। चरुको व्याहृति, गायत्री या मूल-मन्त्रसे अभिमन्त्रित करके, सूर्य, प्रजापति, दिव, अन्तक-निग्रह, पृथ्वी, देहधृति, स्वधृति, रति, रमती, उग्र, भीम, रौद्र, विष्णु, वरुण, धाता, रायस्पोष, महेन्द्र, अग्नि, यम, निऋति, वरुण, वायु, कुबेर, ईश, अनन्त, ब्रह्मा, राजा जलेश्वर (वरुण)-इन नार्मोका चतुर्ध्यन्तरूप बोलकर, अन्तमें स्वाहा लगाकर बलि समर्पित करे। ‘इदं विष्णु०’ (शु० यजु०५। १५) और ‘तद विप्रासो०’ (शु०ि यजुe ३४ ।। ४४)-इन मन्त्रोंसे आहुति दे। ‘सोमो धेनुम्.०” (शु० यजुe.३४।। २१) मन्त्रसे छः आहुतियाँ देकर ‘इमं मे वरुणः ०” (शुe, यजु० २१।१) मन्त्रसे एक आहुति दे।’आपो हि ष्ठा०’ (शुक्ल यज़ु० ११।५०-५२) आदि तीन ऋचाओंसे तथा ‘इमा रुद्रo’ इत्यादि मन्त्रसे भी आहुतियाँ दे॥१७-२५॥

फिर दसों दिशाओंमें बलि समर्पित करे और गन्ध-पुष्प आदिसे पूजन करे। तत्पश्चात् विद्वान् पुरुष प्रतिमाको उठाकर मण्डलमें स्थापित करे तथा गन्ध-पुष्प आदि एवं स्वर्ण-पुष्प आदिके द्वारा क्रमश: उसका पूजन करे। तदनन्तर श्रेष्ठ आचार्य आठों दिशाओंमें दो बित्ते प्रमाणके जलाशय और आठ बालुकामयी सुरम्य वेदियोंका निर्माण करे । ‘वरुणस्य०” (यजु० ४ ।। ३६) इस मन्त्रसे घृत एवं यवनिर्मित चारुकी पृथक्-पृथक् एक सौ आठ आहुतियाँ देकर शान्ति-जल ले आवें और उस जलसे वरुणदेवके सिर पर अभिषेक करके सजीवीकरण करे। वरुणदेव अपनी धर्मपत्नी गौरीदेवीके साथ विराजमान नदी-नदोंसे घिरे हुए हैं-इस प्रकार उनका ध्यान करे। ‘ॐ वरुणाय नम:।’ मन्त्रसे पूजन करके सांनिध्यकरण करे। तत्पश्चातू वरुणदेवकी उठाकर गजराजके पृष्ठदेश आदि सवारियोंपर मङ्गल-द्रव्योंसहित स्थापित करके नगर में भ्रमण करावे। इसके बाद उस वरुणमूर्तिको ‘आपो हि ष्ठा०’ आदि मन्त्रका उच्चारण करके त्रिमधुयुक्त कलश-जलमें रखे और कलशसहित वरुणको जलाशयके मध्यभागमें सुरक्षितरूपसे स्थापित कर दे॥२६-३१ ॥

इसके बाद यजमान स्नान करके वरुणका ध्यान करे। फिर ब्रह्माण्ड-संक्षिका सृष्टिको अग्निबीज (रं)-से दग्ध करके उसकी भस्मराशिको जलसे प्लावित करनेकी भावना करे। ‘समस्त लोक जलमय हो गया है’-ऐसी भावना करके उस जलमें जलेश्वर वरुणका ध्यान करे। इस प्रकार जलके मध्यभाग में वरुणदेवताका चिन्तन करके वहाँ यूपकी स्थापना करे। यूप। चतुष्कोण, आष्टकोण या गोलाकार हो तो उत्तम माना गया है। उसकी लंबाई दस हाथकी होनी चाहिये। उसमें उपास्यदेवताका परिचायक चिह्न हो । उसका निर्माण किसी यज्ञसम्बन्धी वृक्षके काष्ठसे हुआ हो। ऐसा ही यूप कूपके लिये उपयोगी होता है। उसके मूलभागमें हेममय फलका न्यास करे। वापी में पंद्रह हाथका, पुष्करिणीमें बीस हाथका और पोखरेमें पचीस हाथका यूपकाष्ठ जलके भीतर निवेशित करे। यज्ञमण्डपके प्राङ्गणमें ‘यूप ब्रह्म०’ आदि मन्त्रसे यूपकी स्थापना करके उसको वस्त्रोंसे आवेष्टित करे तथा यूपके ऊपर पताका लगावे। उसका गन्ध आदिसे पूजन करके जगतके लिये शान्तिकर्म करे। आचार्यको भूमि, गौ, सुवर्ण तथा जलपात्र आदि दक्षिणा में दे। अन्य ब्राह्मणोंको भी दक्षिणा दे और समागत जनोंकी भोजन कराये।

आब्रह्मस्तम्बपर्यन्त ये केचित्सलिलार्थिन:। ते तृप्तिमुपगच्छन्तु तडागस्थेन वारिणा॥

‘ब्रह्मासे लेकर तृण-पर्यन्त जो भी जलपिपासु हैं, वे इस तडागमें स्थित जलके द्वारा तृप्तिको प्राप्त हों।’-ऐसा कहकर जलका उत्सर्ग करे और जलाशयमे पञ्चगव्य डाले ॥ ३२-४० ॥

तदनन्तर ‘आपो हि ष्ठा      ” इत्यादि तीन ऋचाओंसे ब्राह्मणोंद्वारा सम्पादित शान्ति-जल तथा पवित्र तीर्थजलका निक्षेप करे एवं ब्राह्मणोंको गोवंशका दान करे। सर्वसाधारणके लिये बैरोक-टोक अन्न-वितरण का प्रबन्ध करावे। जो मनुष्य एक लाख अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान करता है तथा जो एक बार भी जलाशयकी प्रतिष्ठा करता है, उसका पुण्य उन यज्ञोंकी अपेक्षा हजारों गुना अधिक है। वह स्वर्गलोक को प्राप्त होकर विमानमें प्रमुदित होता है और नरकको कभी नहीं प्राप्त होता है। ४१-४३ ॥

जलाशयसे गौ आदि पशु जल पीते हैं इससे कर्ता पापमुक्त हो जाता है मनुष्य जलदानसे सम्पूर्ण दानोंका फल प्राप्त करके स्वर्गलोक को जाता है।॥ ४४॥

 

चौंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ६४॥

अध्याय – ६५ सभा-स्थापन और एकशालादि भवनके निर्माण आदिकी विधि, गृहप्रवेशका क्रम तथा गोमातासे अभ्युदयके लिये प्रार्थना

श्रीभगवान् बोले अब मैं सभा (देवमन्दिर) आदिकी स्थापनाका विषय बताऊँगा तथा इन सबकी प्रवृत्तिके विषयमें भी कुछ कहूँगा। भूमिकी परीक्षा करके वहाँ वास्तुदेवताका पूजन करे। अपनी इच्छाके अनुसार देव-सभा (मन्दिर)-का निर्माण करके अपनी ही रुचिके अनुकूल देवताओंकी स्थापना करे। नगरके चौराहेपर अथवा ग्राम आदिमें सभाका निर्माण करावे, सूने स्थानमें नहीं।  देव-सभाका निर्माण एवं स्थापना करनेवाला पुरुष निर्मल (पापरहित) होकर, अपने समस्त कुलका उद्धार करके स्वर्गलोकमें आनन्दका अनुभव करता है। इस विधिसे भगवान् श्रीहरिके सतमहले मन्दिरका निर्माण करना चाहिये। ठीक उसी तरह, जैसे राजाओंके प्रासाद बनाये जाते हैं। अन्य देवताओंके लिये भी यही बात है। पूर्वादि दिशाओंके क्रमसे जो ध्वज आदि आय होते हैं, उनमेंसे कोण-दिशाओं में स्थित आयोंकों त्याग देना चाहिये। चार, तीन, दो अथवा एकशालाका गृह बनावे। जहाँ व्यय (ऋण) अधिक हों, ऐसे “पद” पर घर न बनावे, क्योंकि वह व्ययरूपी दोंपिकी उत्पन्न करनेवाला होता है। अधिक “आय’ होनेपर भी पीड़ाकी सम्भावना रहती है, अत: आय-व्ययको समभावसे संतुलित करके रखे ॥ १-५६ ॥

घरकी लम्बाई और चौडाई जितने हाथकी हों, उन्हें परस्पर गुणित करनेसे जो संख्या होती है, उसे ‘करराशि” कहा गया है; उसे गर्गाचार्यकी बतायी हुई ज्योतिष-विद्यामें प्रवीण गुरु (पुरोहित) आठगुना करे। फिर सातसे भाग देनेपर शेषके अनुसार ‘बार’का निश्चय होता है और आठसे भाग देनेपर जो शेष होता है, वह “व्यय’ माना गया है। अथवा विद्वान् पुरुष करराशिमें सातसे गुणा करे। फिर उस गुणनफलमें आठसे भाग देकर शेषके अनुसार ध्वजादि आयोंकी कल्पना करे।

१. ध्वज, २. धूम्र, ३. सिंह, ४. धान, ५. वृषभ, ६. खर (गधा), ७. गज (हार्थी) और ८. धवाङ्क्ष (काक)-ये क्रमशः आठ आय कहे गये हैं, जो पूर्वादि दिशाओंमें प्रकट होते हैं-इस प्रकार इनकी कल्पना करनी चाहिये ॥ ६-९ ॥

तीन शालाओंसे युक्त गृहके अनेक भेदोंमेंसे तीन प्रारम्भिक भेद उत्तम माने गये हैं।’ उत्तर-पूर्व दिशा में इसका निर्माण वर्जित है। दक्षिण दिशा में अन्यगृहसे युक्त दो शालाओंवाला भवन सदा श्रेष्ठ माना जाता हैं। दक्षिण दिशा में अनेक या एक शालावाला गृह भी उत्तम है। दक्षिण-पश्चिममें भी एक शालावाला गृह श्रेष्ठ होता है। एक शालावाले गृहके जो प्रथम (ध्रुव और धान्य नामक) दो भेद हैं, वे उत्तम हैं। इस प्रकार गृहके सोलह भेदोंमेंसे अधिकांश (अर्थात् १०) उत्तम हैं और शेष (छ:, अर्थात् पाँचवाँ नवाँ दसवाँ ग्यारहवाँ तेरहवाँ और चौदहवाँ भेद)। भयावह हैं। चार शाला (या द्वार)-वाला गृह सदा उत्तम है, वह सभी दोषोंसे रहित है। देवताके लिये एक मंजिलसे लेकर सात मंजिलतकका मन्दिर बनावे, जो द्वार-वेधादि दोष तथा पुराने सामानसे रहित हो। उसे सदा मानव-समुदायके लिये कथित कर्म एवं प्रतिष्ठा-विधिके अनुसार स्थापित करे ॥ १०-१३ ॥

गृहप्रवेश करनेवाले गृहस्थ पुरुषको चाहिये कि वह आलस्य छोड़कर प्रात:काल सर्वोषधिमिश्रित जलसे स्नान करके, पवित्र हो, दैवज्ञ ब्राह्मणोंकी पूजा करके उन्हें मधुर अन्न (मीठे पकवान) भोज़न करावे। फिर उन ब्राह्मणोंसे स्वस्तित्वाचन कराकर गायके पीठपर हाथ रखें हुए, पूर्ण कलश आदिसे सुशोभित तोरणयुक्त गृहमें प्रवेश करे। घरमें जाकर एकाग्रचित हो, गौके सम्मुख हाथ जोड़ यह पुष्टिकारक मन्त्र पढ़े- ‘ॐ श्रीवसिष्ठजीके द्वारा लालित-पालित नन्दे! धन और संतान देकर मेंरा आनन्द बढ़ाओं। प्रजाकों विजय दिलानेवाली भागवनन्दिनि जये! तुम मुझे धन और सम्पतिसे आनन्दित करो। अङ्गिराकी पुत्री पूर्ण! तुम मेरे मनोरथको पूर्ण करो-मुझे पूर्णकाम बना दो। काश्यपकुमारी भद्रे! तुम मेरी बुद्धिको कल्याणमयी बना दो। सबको आनन्द प्रदान करनेवाली वसिष्ठनन्दिनी नन्दे! तुम समस्त बीजों और ओषधियोंसे युक्त तथा सम्पूर्ण रत्नौषधियोंसे सम्पन्न होकर इस सुन्दर घरमें सदा आनन्दपूर्वक रहो’॥१४-१९ ॥

‘कश्यप प्रजापतिकी पुत्री देवि भद्रे! तुम सर्वथा सुन्दर हो, महती महत्तासे युक्त हो, सौभाग्यशालिनी एवं उत्तम व्रतका पालन करनेवाली हो; मेरे घरमें आनन्दपूर्वक निवास करो। देवि भार्गवि जये! सर्वश्रेष्ठ आचार्य-चरणोंने तुम्हारा पूजन किया है, तुम चन्दन और पुष्पमालासे अलंकृत हो तथा संसारके समस्त ऐश्वर्योको देनेवाली हो। तुम मेंरे घरमें आनन्दपूर्वक विहरो। अङ्गिरामुनिकी पुत्री पूणें! तुम अव्यक्त एवं अव्याकृत हो; इष्टके देवि! तुम मुझे अभीष्ट वस्तु प्रदान करो। मैं तुम्हारी इस घरमें प्रतिष्ठा चाहता हूँ। देवि! तुम देशके स्वामी (राजा), ग्राम या नगरके स्वामी तथा गृहस्वामीपर भी अनुग्रह करनेवाली हो। मेरे घरमें जन, धन, हाथी, घोड़े तथा गाय-भैंस आदि पशुओंकी वृद्धि करनेवाली बनी’॥ २०-२३ ॥

पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ६५ ॥

अध्याय – ६६ देवता-सामान्य-प्रतिष्ठा

श्रीभगवान् कहते हैं अब मैं देव-समुदायकी प्रतिष्ठाका वर्णन करुँगा। यह भगवान् वासुदेवकी प्रतिष्ठाकी भाँति ही होती है।

आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य, विश्वदेव, अश्विनीकुमार, ऋषि तथा अन्य देवगण-ये देवसमुदाय हैं।

इनकी स्थापनाके विषयमें जो विशेषता है, वह बतलाता हूँ।

जिस देवताका जो नाम है, उसका आदि अक्षर ग्रहण करके उसे मात्राओंद्वारा भेदन करे, अर्थात उसमें स्वरमात्रा लगावे। फिर दीर्घ स्वरोंसे युक्त उन बीजोद्वारा अङ्गन्यास कोरे। उस प्रथम अक्षरको बिन्दु और प्रणवसे संयुक्त करके ‘बीज’ माने। समस्त देवताओंका मूल-मन्त्रके द्वारा ही पूजन एवं स्थापन करे।

इसके सिवा मैं नियम, व्रत, कृच्छू, मठ, सेतु, गृह, मासोपवास और द्वादशीव्रत आदिकी स्थापनाके विषयमें भी कहूँगा। १-४ ई।

पहले शिला, पूर्णकुम्भ और कांस्यपात्र लाकर रखे। साधक ब्रह्मकूर्चको लाकर ‘तद् विष्णोः परमम् (शु० यजु० ६। ५) मन्त्रके द्वारा कपिला गौके दुग्धसे यवमय चरु श्रपित करे। प्रणवके द्वारा उसमें घृत डालकर दर्वी (कलछी)-से संघटित करे। इस प्रकार चरुको सिद्ध करके उतार ले। फिर श्रीविष्णुका पूजन करके हवन करे। व्याहति और गायत्रीसे युक्त “तद्विप्रासो०’  (शु० यजु० ३४ ।। ४४) आदि मन्त्रसे चरु-होम करे ।। “विश्वतश्चक्षुः ०” (शु० यजु० १७॥ १९) आदि वैदिक मन्त्रोंसे भूमि, अग्नि, सूर्य, प्रजापति, अन्तरिक्ष, द्यौ, ब्रह्मा, पृथ्वी, कुबैर तथा राजा सोमको चतुर्ध्यन्त एवं ‘स्वाहा’ संयुक्त करके इनके उद्देश्यसे आहुतियाँ प्रदान करे। इन्द्र आदि देवताओंको इन्द्र आदिसे सम्बन्धित मन्त्रोंद्वारा आहुति दे। इस प्रकार चरुभागोंका हवन करके आदरपूर्वक दिग्बलि समर्पित करे॥५-१० ॥

फिर एक सौ आठ पलाश-समिधाओंका हवन करके पुरुषसूक्तसे घृत-होम करे। ‘इरावती धेनुमती०’ (शु• यजुतः ५ । १६) मन्त्रसे तिलाष्टकका होम करके ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव-इन देवताओंके पार्षदों, ग्रहों तथा लोकपालोंके लिये पुनः आहुति दे। पर्वत, नदी, समुद्र-इन सबके उद्देश्यसे आहुतियोंका हवन करके, तीन महाव्याह्रातियोंका उच्चारण करके, स्रुवाके द्वारा तीन पूर्णाहुति दे।

पितामह!’ वौषट्’ संयुक्त वैष्णव मन्त्रसे पञ्चगव्य तथा चरुका प्राशन करके आचार्यको सुवर्णयुक्त तिलपात्र, वस्त्र एवं अलंकृत गौ दक्षिणा दे। विद्वान् पुरुष ‘भगवान् विष्णुः प्रीयताम्’-ऐसा कहकर व्रतका विसर्जन करें ॥ ११-१५ ॥

मैं मासोपवास आदि व्रतोंकी दूसरी विधि भी कहता हूँ। पहले देवाधिदेव श्रीहरिको यज्ञसे सन्तुष्ट करे। तिल, तण्डुल, नीवार, श्यामाक अथवा यवके द्वारा वैष्णव चरु श्रपित करे। उसको घृतसे संयुक्त करके उतारकर मूर्ति-मन्त्रोंसे हृवन करे । तदनन्तर मासाधिपति विष्णु आदि देवताओंके उद्देश्यसे पुन: होम करे॥ १६-१८॥

ॐ श्रीविष्णवे स्वाहा। ॐ विष्णवे विभूषणाय स्वाहा। ॐ विष्णवे शिपिविष्टाय स्वाहा। ॐ नरसिंहाय स्वाहा। ॐ पुरुषोत्तमाय स्वाहा। -आदि मन्त्रोंसे घृतप्लुत अश्वत्थवृक्षकी बारह समिधाओंका हवन करे।

“विष्णो रराटमसिo” (शु० यजु० ५ ॥ २१) मन्त्रके द्वारा भी बारह आहुतियाँ दे। फिर ‘इदं विष्णु०’ (शु० यजु० ५।१५) ‘इरावती०’ (शु• यजु०५॥१६) मन्त्रसे चरुकी बारह आहुतियाँ प्रदान करे। “तद्विप्रासो०’ (शुe, यजुe ३४ ।। ४४) आदि मन्त्रसे घृताहुति समर्पित करे। फिर शेष होम करके तीन पूर्णाहुति दे।।’मुञ्जते’ (शु० यजुश्७ ५ ।। १४) आदि अनुवाकका जप करके मन्त्रके आदिमें स्वकर्तृक मन्त्रोच्चारणके पश्चात् पीपलके पते आदिके पात्र में रखकर चरुका प्राशन करे॥१९-२२ ॥

तदन्तर मासाधिपतियोंके उद्देश्यसे बारह ब्राहमणोंको भोजनकरावे । आचार्य उनमे तेरहवाँ   होना चाहिये। उनको मधुर जलसे पूर्ण तेरह कलश, उत्तम छत्र, पादुका, श्रेष्ठ वस्त्र, सुवर्ण तथा माला प्रदान करे। व्रतपूर्तिके लिये सभी वस्तुएँ तेरह-तेरह होनी चाहिये। ‘गौएँ प्रसन्न हों। वे हर्षित होकर चरें।’-ऐसा कहकर पौसला, उद्यान, मठ तथा सेतु आदिके समीप गोपथ (गोचरभूमि) छोड़कर दस हाथ ऊँचा यूप निवेशित करे। गृहस्थ घरमें होम तथा अन्य कार्य विधिवत् करके, पूर्वोक्त विधिके अनुसार गृहमें प्रवेश करे । इन सभी कार्योंमें जनसाधारणके लिये अनिवारित अन्न-सत्र खुलवा दे। विद्वान् पुरुष ब्राह्मणोंको यथाशक्ति दक्षिणा दे॥ २३-२८॥

जो मनुष्य उद्यानका निर्माण कराता है, वह चिरकालतक नन्दनकाननमें निवास करता है। मठ-प्रदानसे स्वर्गलोक एवं इन्द्रलोककी प्राप्ति होती हैं। प्रपादान करनेवाला वरुणलोकमें तथा पुलका निर्माण करनेवाला देवलोक में निवास करता है। ईंटका सेतु बनवानेवाला भी स्वर्गको प्राप्त होता हैं। गोपथ-निर्माण से गोलोककीं प्राप्ति होती है। नियमों और व्रतों को पालन करनेवाला विष्णुके सारूप्यको अधिगत करता है।

कृच्छूद्रत करनेवाला सम्पूर्ण पापोंका नाश कर देता है।

गृहदान करके दाता प्रलयकालपर्यन्त स्वर्गमें निवास करता है।

गृहस्थ-मनुष्योंको शिव आदि देवताओंकी समुदाय प्रतिष्ठा करनी चाहिये ॥ २९-३२ ॥

 

छाछठवाँ अभ्याय पूरा हुआ ॥ ६६ ॥

अध्याय – ६७ जीणोद्धार-विधि

श्रीभगवान् कहते हैं ब्रह्मन्! अब मैं जीर्णोद्धारकी विधि बतलाता हूँ। आचार्य मूर्तिको विभूषित करके स्नान करावे। अत्यन्त जीर्ण, अङ्गहीन, भग्न तथा शिलामात्रावशिष्ट (विशेष चिह्नसे रहित) प्रतिमाका परित्याग करे। उसके स्थानपर पूर्ववत् देवगृहमें नवीन स्थिर-मूर्तिका न्यास करे। आचार्य वहाँपर (भूतशुद्धि-प्रकरणमें उत्त) संहारविधिसे सम्पूर्ण तत्वोंका संहार करे। गुरु नृसिंह-मन्त्रकी सहस्र आहुतियाँ देकर मूर्तिको उखाड़ दे। फिर दारुमयी मूर्तिको अग्निमें जला दे, प्रस्तरनिर्मित विसर्जित प्रतिमाको जलमें फेंक दे धातुमयी या रत्नमयी मूर्ति हो तो उसे समुद्रकी अगाध जलराशिमें विसर्जित कर दे। जीर्णाङ्ग प्रतिमाको यानपर आरूढ कर वस्त्र आदिसे आच्छादित करके, गाजे-बाजेके साथ ले जाय और जलमें छोड़ दे। फिर आचार्यको दक्षिणा दे। उसी दिन पूर्व प्रतिमाके प्रमाण तथा द्रव्यके अनुसार उसी प्रमाणकी मूर्ति स्थापित करे।

इसी प्रकार कूप, वापी और तड़ाग आदिका जीर्णोद्धार करनेसे भी महान् फलकी प्राप्ति होती है ॥ १-६ ॥

अध्याय – ६८ उत्सव-विधिका कथन

श्रीभगवान् कहते हैं अब मैं उत्सवकी विधिका वर्णन करता हूँ। देवस्थापन होनेके पश्चात् उसी वर्षमें एकरात्र, त्रिरात्र या अष्टरात्र उत्सव मनावे; क्योंकि उत्सवके बिना देवप्रतिष्ठा निष्फल होती है। अयन या विषुव-संक्रान्तिके समय शयनोपवन या देवगृहमें अथवा कर्ताके जिस प्रकार अनुकूल हो, भगवानकी नगरयात्रा करावै। उस समय मङ्गलाङ्कुरोंका रोपण, नृत्यगीत तथा गाजे-बाजेका प्रबन्ध करे। अङ्कुरोंके रोपणके लिये शराव (परई) या हैंडिया श्रेष्ठ मानी गयी हैं। यव, शालि, तिल, मुद्ग, गोधूम, श्वेत सर्षप, कुलत्थ, माष और निष्पावको प्रक्षालित करके वपन करे। प्रदीपोंके साथ रात्रिमें नगरभ्रमण करते हुए इन्द्रादि दिक्पालों, कुमुद आदि दिग्गजों तथा सम्पूर्ण भूत-प्राणियोंके उद्देश्यसे पूर्वादि दिशाओंमें बलि-प्रदान करे। जो मनुष्य देवबिम्बका वहन करते हुए देवयात्राका अनुगमन करते हैं, उनकों पद-पदपर अश्वमेध यज्ञके फलकों प्राप्ति होती है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है ། ༣- |

आचार्य पहले दिन देवमन्दिर में आकर देवताकी सूचित करे—’भगवन्! देवश्रेष्ठ! आपको कल तीर्थयात्रा करनी है। सर्वज्ञ! आप उसका आरम्भ करनेकी आज्ञा देनेमें सदा समर्थ हैं।’ देवताके सम्मुख इस प्रकार निवेदन करके उत्सव-कार्यका आरम्भ करे। चार स्तम्भोंसे युक्त मङ्गलाइकुरोंकी घटिकासे समन्वित तथा विभूषित वेदिकाके समीप जाय। उसके मध्यभाग में स्वस्तिक पर प्रतिमाका न्यास करे। काम्य अर्थको लिखकर चित्रोंमें स्थापित करके अधिवासन करे॥७-१० ॥

फिर विद्वान् पुरुष वैष्णवोंके साथ मूल-मन्त्रसे देवमूर्तिके अङ्गोंमें घृतका लेपन करे तथा सारी रात घृतधारासे अभिषेक करे। देवताको दर्पण दिखलाकर, आरती, गीत, वाद्य आदिके साथ मङ्गलकृत्य करे, व्यञ्जन डुलावे एवं पूजन करे॥ फिर दीप, गन्ध तथा पुष्पादिसे यजन करे। हरिद्रा, कपूर, केसर और श्वेत-चन्दन-चूर्णको देवमूर्ति तथा भक्तोंके सिरपर छोड़नेसे समस्त   तीर्थोंके फलकी प्राप्ति होती है। आचार्य यात्राके लिये नियत देवमूर्तीकी रथपर स्थापना और अर्चना करके छत्र-चंवर तथा शड़नाद आदिके साथ राष्ट्रका पालन करनेवाली नदीके तटपर ले जाय || ११-१४ ॥

नदीमें नहलानेसे पूर्व वहाँ तटपर वेदीका निर्माण करे। फिर मूर्तिको यानसे उतारकर उसे

वेदिकापर विन्यस्त करे। वहाँ चरु निर्मित करके उसकी आहुति देनेके पश्चात् पायसका होम करे। फिर वरुणदेवतासम्बन्धी मन्त्रोंसे तीर्थोंका आवाहन करे। ‘आपो हि ष्ठा०’ आदि मन्त्रोंसे उनको अर्ध्य प्रदान करके पूजन करे। देवमूर्तिको लेकर जलमें अधमर्षण करके ब्राहमणों और महाजनोंके साथ स्नान करे। स्नानके पश्चात् मूर्तिको ले आकर वेदिकापर रखे। उस दिन देवताका वहाँ पूजन करके देवप्रासादमें ले जाय। आचार्य अग्निमें स्थित देवका पूजन करे। यह उत्सव भोग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाला है | १५-१९ ॥

अध्याय – ६९ स्नपनोत्सवके विस्तारका वर्णन

अग्निदेव कहते हैंब्रह्मन्! अब मैं स्नपनोत्सवका विस्तारपूर्वक वर्णन करता हूँ। प्रसादके सम्मुख मण्डपके नीचे मण्डलमें कलशोंका न्यास करे। प्रारम्भकालमें तथा सम्पूर्ण कर्मोंको करते समय भगवान् श्रीहरिका ध्यान, पूजन और हवन करे। पूर्णाहुतिके साथ हजार या सौ आहुतियाँ दे। फिर स्नान-द्रव्योंको लाकर कलशोंका विन्यास करे। कण्ठसूत्रयुक्त कुम्भोंका अधिवासन करके मण्डलमें रखें ॥ १-३ ॥

चौकोर मण्डलका निर्माण करके उसे ग्यारह रेखाओंद्वारा विभाजित कर दे। फिर पार्श्वभागकी  एक रेखा मिटा दे। इस तरह उस मण्डलमें चारों दिशाओंमें नौ-नौ कोष्ठकोंकी स्थापना करके उनको पूर्व आदिके क्रमसे शालिचूर्ण आदिसे पूरित करे। फिर विद्वान् मनुष्य कुम्भमुद्राकी रचना करके पूर्वादि दिशाओंमें स्थित नवकमें कलश लाकर रखे। पुण्डरीकाक्ष-मन्त्रसे उनमें दर्भ डाले। सर्वरत्नसमन्वित जलपूर्ण कुम्भको मध्यमें विन्यस्त करे। शेष आठ कुम्भोंमें क्रमश: यव, व्रीहि, तिल, नीवार, श्यामाक, कुलत्थ, मुद्ग और श्वेत सर्षप डालकर आठ दिशाओंमें स्थापित करे। पूर्वदिशावर्ती नवक में घृतपूर्ण कुम्भ रखे। इसमें पलाश, अश्वत्थ, वट, बिल्व, उदुम्बर, प्लक्ष, जम्बू, शमी तथा कपित्थ वृक्षकी छालका क्वाथ डाले। आग्नेयकोणवर्ती नवकमें मधुपूर्ण घटका न्यास करे। इस कलशमें गोश्रृङ्ग, पर्वत, गङ्गाजल, गजशाला, तीर्थ, खेत और खलिहानइन आठ स्थलोंकी मृतिका छोड़े॥ ४-१० ॥

दक्षिणदिशावर्ती नवकमें तिल-तैलसे परिपूर्ण घट स्थापित करे। उसमें क्रमश: नारंगी, जम्बीरी नीबू, खजूर, मृतिका, नारिकेल, सुपारी, अनार और पनस (कटहल)-का फल डाल दें। नैऋत्यकोणगत नवकमें क्षीरपूर्ण कलश रखे। उसमें कुकुम, नागपुष्प, चम्पक, मालती, मल्लिका,  पुंनाग, करवीर एवं कमल-कुसुमोंको प्रक्षिप्त करे। पश्चिमीय नवकमें नारिकेल-जलसे पूर्ण कलशमें नदी, समुद्र, सरोवर, कूप, वर्षा, हिम, निर्झर तथा देवनदीका जल छोड़े। वायव्यकोणवर्ती नवकमें कदलीजलपूरित कुम्भ रखे। उसमें सहदेवी, कुमारी, सिंही, व्याध्री, अमृता, विष्णुपर्णी, दूर्वा, वच-इन दिव्य औषधियोंको प्रक्षिप्त करे। पूर्वादि उत्तरवर्ती नवकमें दधिकलशका विन्यास करे। उसमें क्रमश: पत्र, इलायची, तज, कूट, सुगन्धवाला, चन्दनद्वय, लता, कस्तुरी, कृष्णागुरु तथा सिद्ध द्रव्य डाल दे। ईशानस्थ नवकमें शान्तिजलसे पूर्ण कुम्भ रखे। उसमें क्रमश: शुभ्र रजत, लौह, त्रपु, कांस्य, सीसक तथा रत्न डाले। प्रतिमाको घृतका अभ्यङ्ग तथा उद्वर्तन करके मूल-मन्त्रसे स्नान करावे। फिर उसका गन्धादिके द्वारा पूजन करे। अग्निमें होम करके पूर्णाहुति दे। सम्पूर्ण भूतोंको बलि प्रदान करे। ब्राह्मणोंको दक्षिणापूर्वक भोजन करावे। देवता और मुनि तथा बहुत-से भूपाल भी भगवद्विग्रह का अभिषेक करके ईश्चरत्वकों प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार एक हजार आठ कलशोंसे स्नपनोत्सवका अनुष्ठान करे। इससे मनुष्य सब कुछ प्राप्त करता है। यज्ञके अवभूथ-स्नानमें भी पूर्णस्नान सम्पन्न हो जाता है। पार्वती तथा लक्ष्मीके विवाह आदि में भी स्नपनोत्सव किया जाता है।॥ ११-२३ ॥

अध्याय – ७० वृक्षोंकी प्रतिष्ठाकी विधि

श्रीभगवान् कहते हैं-ब्रह्मन्! अब मैं वृक्षप्रतिष्ठाका वर्णन करता हूँ, जो भोग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाली है। वृक्षोंको सर्वोषधिजलसे लिप्त, सुगन्धित चूर्णसे विभूषित तथा मालाओंसे अलंकृत करके वस्त्रोंसे आवेष्टित करे। सभी वृक्षोंका सुवर्णमयी सूचीसे कर्णवेधन तथा सुवर्णमय शलाकासे अञ्जन करे। वैदिकापर सात फल रखें। प्रत्येक वृक्षका अधिवासन करे तथा कुम्भ समर्पित करे। फिर इन्द्र आदि दिक्पालोंके उद्देश्यसे बलिप्रदान करे। वृक्षके अधिवासनके समय ऋग्वेद, यजुर्वेद या सामवेदके मन्त्रोंसे अथवा वरुणदेवतासम्बन्धी तथा मत्तभैरव-सम्बन्धी मन्त्रोंसे होम करे। श्रेष्ठ ब्राह्मण वृक्षवेदीपर स्थित कलशोंद्वारा वृक्षों और यजमानको स्नान करावें। यजमान अलंकृत होकर ब्राह्मणोंको गो, भूमि, आभूषण तथा वस्त्रादिकी दक्षिणा दे तथा चार दिनतक क्षीरयुक्त भोजन करावे। इस कर्ममें तिल, घृत तथा पलाशसमिधाओंसे हवन करना चाहिये। आचार्यकी दुगुनी दक्षिणा दे। मण्डप आदिका पूर्ववत् निर्माण करे। वृक्ष तथा उद्यानकी प्रतिष्ठासे पापोंका नाश होकर परम सिद्धिकी प्राप्ति होती है। अब सूर्य, शिव, गणपति, शक्ति तथा श्रीहरिके परिवारकी प्रतिष्ठाकी विधि सुनिये, जो भगवान् महेश्वरने कार्तिकेयको बतलायी थी ॥ १-९ ॥

अध्याय – ७१ गणपतिपूजनकी विधि

भगवान महेश्वरने कहा-कार्तिकेय ! मैं विघ्नोंके विनाशके लिये विधि बतलाता हूँ, जो सम्पूर्ण अभीष्ट अर्थोंको सिद्ध करनेवाली है।

‘गणंजयाय स्वाहा०’-हृदय,

‘एकदंष्ट्राय हुं फट्”-सिर,

“अचलकर्णिने नमो नम:।’-शिखा

“गजवक्त्राय नमो नमः ।’-कवच,

‘महोदराय चण्डाय नम:।’-नेत्र

‘सुदण्डहस्ताय हुं फट्।’-अस्त्र है।

इन मन्त्रोंद्वारा अङ्गन्यास करे। गण, गुरु, गुरु-पादुका, शक्ति, अनन्त और धर्म-इनका मुख्य कमल-मण्डलके ऊर्ध्व तथा निम्न दलोंमें पूजन करे एवं कमलकर्णिकामें बीजकी अर्चना करे। तीव्रा, ज्वालिनी, नन्दा, भोगदा, कामरूपिणि, उग्रा, तेजोवती, सत्या एवं विध्ननाशिनी – इन नौ पीठशक्तियोंकी भी पूजा करे। फिर चन्दनके चूर्णका आसन समर्पित करे। ‘यं’ शोषकवायु, ‘रं’ अग्नि, ‘लं’ प्लव (पृथिवी) तथा ‘वं” अमृतका बीज माना गया है। ‘ॐ लम्बोदराय विद्महे महोदराय धीमहि तनी दन्ती प्रचोदयात्।”-यह गणेश-गायत्रीमन्त्र है। गणपति, गणाधिप, गणेश, गणनायक, गणक्रीड, वक्रतुंड, एकदंष्ट, महोदर, गजवक्त्र, लम्बोदर्, विकट, विघ्ननाशन, धूम्रवर्णं तथा इन्द्र आदि दिक्पाल-इन सबका गणपतिकी पूजामें अङ्गरूपसे पूजन करे॥ १-८॥

अध्याय – ७२ स्नान, संध्या और तर्पणकी विधिका वर्णन

भगवान् महेश्वर कहते हैंस्कन्द! अब मैं नित्य-नैमितिक आदि स्नान, संध्या और प्रतिष्ठासहित पूजाका वर्णन करूंगा।

किसी तालाब या पोखरेसे अस्त्रमन्त्र (फष्ट्र)-के उच्चारणपूर्वक आठ अङ्गुल गहरी मिट्टी खोदकर निकाले। उसे सम्पूर्णरूपसे ले आकर उसी मन्त्रद्वारा उसका पूजन करे। इसके बाद शिरोमन्त्र (स्वाहा)-से उस मृत्तिकाको जलाशयके तटपर रखकर अस्त्रमन्त्रसे उसका शोधन करे। फिर शिखामन्त्र (वषट्र)-के उच्चारणपूर्वक उसमेंसे तृण आदिको निकालकर, कवच-मन्त्र (हुम)-से उस मृत्तिकाके तीन भाग करे। प्रथम भागकी जलमिश्रित मिट्टीको नाभिसे लेकर पैरतकके अङ्गोंमें लगावे। तत्पश्चात् उसे धोकर, अस्त्र-मन्त्रद्वारा अभिमन्त्रित हुई दूसरे भागकी दीप्तिमती मृत्तिकाद्वारा शेष सम्पूर्ण शरीरको अनुलिप्त करके, दोनों हाथोंसे कान-नाक आदि इन्द्रियोंके छिद्रोंको बंद कर, साँस रोक मन-ही- मन कालाग्निके समान तेजोमय अस्त्रका चिन्तन करते हुए पानीमें डुबकी लगाकर स्नान करे। यह मल (शारीरिक मैल)-को दूर करनेवाला स्नान कहलाता है। इसे इस प्रकार करके जलके भीतर से निकल आवे और संध्या करके विधिस्नान करे॥ १-५६ ॥

हृदय-मन्त्र (नमः)-के उच्चारणपूर्वक अंकुशमुद्राद्वारा सरस्वती आदि तीर्थोंमेंसे किसी एक तीर्थका भावनाद्वारा आकर्षण करके, फिर संहारमुद्राद्वारा उसे अपने समीपवर्ती जलाशय में स्थापित करे। तदनन्तर शेष (तीसरे भागकी) मिट्टी लेकर नाभितक जलके भीतर प्रवेश करे और उत्तराभिमुख हो, बायीं हथेलीपर उसके तीन भाग करे। दक्षिणभागकी मिट्टीको अङ्गन्याससम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा (अर्थात् ॐ हृदयाय नमः, शिरसे स्वाहा, शिखायै वषट्र, कवचाय हुम, नेत्रयाय वौषट तथा अस्त्राय फट्र-इन छ: मन्त्रोंद्वारा) एक बार अभिमन्त्रित करे। पूर्वभागकी मिट्टीको ‘अस्त्राय फट्-इस मन्त्रका सात बार जप करके अभिमन्त्रित करे तथा उत्तरभागकी मिट्टीका ‘ॐ नम: शिवाय’-इस मन्त्रका दस बार जप करके अभिमन्त्रण करे। इस तरह पूर्वोत्त मृत्तिकाके तीन भागोंका क्रमश: अभिमन्त्रण करना चाहिये। तत्पश्चात् पहले उन मृत्तिकाओंमेंसे थोड़ाथोड़ा-सा भाग लेकर सम्पूर्ण दिशाओंमें छोड़े। छोड़ते समय “अस्वाय हुँ फट्।’ का जप करता रहे। इसके बाद ‘ॐ नम: शिवाय।’- इस शिव-मन्त्रका तथा ‘ॐ सोमाय स्वाहा।’ इस सोम-मन्त्रका जप करके जलमें अपनी भुजाओंको घुमाकर उसे शिवतीर्थस्वरूप बना दे तथा पूर्वोक्त अङ्गन्याससम्बन्धी मन्त्रोंका जप करते हुए उसे मस्तकसे लेकर पैरतकके सारे अङ्गोंमें लगावे ॥ ६-९ ॥

तदनन्तर अङ्गन्यास-सम्बन्धी चार मन्त्रोंका पाठ करते हुए दाहिनेसे आरम्भ करके बायेंतकके हदय, सिर, शिखा और दोनों भुजाओंका स्पर्श करे तथा नाक, कान आदि सारे छिद्रोंको बंद करके सम्मुखीकरण-मुद्राद्वारा भगवान् शिव, विष्णु अथवा गङ्गाजीका स्मरण करते हुए जलमें गोता लगावे। ‘ॐ हृदयाय नमः ।’ शिरसे स्वाहा।’ “शिखायै वषट्।।’ ‘कवचाय हुम्’ ‘नेत्रव्रयाय वौषद।” तथा ‘अस्त्राय फट्।”-इन षडङ्गसम्बन्धी मन्त्रोंका उच्चारण करके, जलमें स्थित कुम्भमुद्राद्वारा अभिषेक करे। फिर रक्षाके लिये पूर्वादि दिशाओंमें जल छोड़े। सुगन्ध और आँवला आदि राजोचित उपचार से स्नान करे। स्नानके पश्चातू जलसे बाहर निकलकर संहारिणी-मुद्राद्वारा उस तीर्थका उपसंहार करे। इसके बाद विधिविधानसे शुद्ध, संहितामन्त्रसे अभिमन्त्रित तथा निवृत्ति आदिके द्वारा शोधित भस्मसे स्नान करे।  

‘ॐ अस्त्राय हूं फट्।’-इस मन्त्रका उच्चारण करके, सिरसे पैरतक भस्मद्वारा मलस्नान करके फिर विधिपूर्वक शुद्ध स्नान करे। ईशान, तत्पुरुष, अघोर, गुह्मक या वामदेव तथा सद्योजातसम्बन्धी मन्त्रोद्वारा क्रमशः मस्तक, मुख, हृदय, गुह्माङ्ग तथा शरीरके अन्य अवयवोंमें उद्वर्तन (अनुलेप) लगाना चाहिये। तीनों संध्याओंके समय, निशीथकालमें, वर्षाके पहले और पीछे,  सोकर, खाकर, पानी पीकर तथा अन्य आवश्यक कार्य करके आग्नेय स्नान करना चाहिये।

स्त्री, नपुंसक, शूद्र, बिल्ली, शव और चूहे का स्पर्श हो जानेपर भी आग्नेय स्नानका विधान है।

चुल्लूभर पवित्र जल पी ले, यही ‘आग्नेय-स्नान” है।

सूर्यकी किरणोंके दिखायी देते समय यदि आकाशसे जलकी वर्षा हो रही हो तो पूर्वाभिमुख हो, दोनों भुजाएँ ऊपर उठाकर, ईशान-मन्त्रका उच्चारण करते हुए, सात पग चलकर उस वर्षाके जलसे स्नान करे। यह ‘माहेन्द्र-स्नान’ कहलाता है।

गौओंके समूहके मध्यभागमें स्थित हो उनकी खुरोंसे खुदकर ऊपरको उड़ी हुई धूलसे इष्टदेवसम्बन्धी मूलमन्त्रका जप करते हुए अथवा कवचमन्त्र (हुम्)-का जप करते हुए जो स्नान किया जाता है, उसे ‘पावनस्नान’ कहते हैं। १५-२० ई॥

सद्योजात आदि मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक जो जलसे अभिषेक किया जाता है, उसे ‘मन्त्रस्नान” कहते हैं।

इसी प्रकार वरुणदेवता और अग्निदेवता सम्बन्धी मन्त्रोंसे भी यह स्नान-कर्म सम्पन्न किया जाता है। मन-ही-मन मूल-मन्त्रका उच्चारण करके प्राणायामपूर्वक मानसिक स्नान करना चाहिये। इसका सर्वत्र विधान है।

विष्णुदेवता आदिसे सम्बन्ध रखनेवाले कायाँमें उन-उन देवताओंके मन्त्रोंसे ही स्नान करावे ॥ २१-२३ ॥

कार्तिकेय ! अब मैं विभिन्न मन्त्रोंद्वारा संध्याविधिका सम्यग् वर्णन करुँगा।

भलीभाँति देख— भालकर ब्रह्मतीर्थसे तीन बार जलका मन्त्रपाठपूर्वक आचमन करे। आचमन-कालमें आत्मतत्व, विद्यातत्व और शिवतत्व-इन शब्दोंके अन्तमें ‘नम:’ सहित स्वाहा शब्द जोड़कर मन्त्रपाठ करना चाहिये । यथा ” ॐ आत्मतत्त्वाय नमः स्वाहा।।’ * ॐ विद्यातत्त्चाय नमः स्वाह्वा’ ‘ॐ शिवतत्त्वाय नमः स्वाहा।”-इन मन्त्रोंसे आचमन करनेके पश्चात् मुख, नासिका, नेत्र और कानोंका स्पर्श करे। फिर प्राणायामद्वारा सकलीकरणकी क्रिया सम्पन्न करके स्थिरतापूर्वक बैठ जाय। इसके बाद मन्त्र-साधक पुरुष मन-ही-मन तीन बार शिवसंहिताकी आवृत्ति करे और आचमन एवं अङ्गन्यास करके प्रात:काल ब्राह्मी संध्याका इस प्रकार ध्यान करे- ॥ २४-२६ ॥

संध्यादेवी प्रात:काल ब्रह्मशक्तिके रूपमें उपस्थित हैं। हंसपर आरूढ हो कमलके आसनपर विराजमान हैं। उनकी अङ्गकान्ति लाल है। वे चार मुख और चार भुजाएँ धारण करती हैं। उनके दाहिने हाथोंमें कमल और स्फटिकाक्षकी माला तथा बाएं हाथोंमें दण्ड एवं कमण्डलु शोभा पाते हैं।

मध्याह्वकालमें वैष्णवी शक्ति के रूप में संध्याका ध्यान करे। वे गरुड़की पीठपर बिछे हुए कमलके आसनपर विराजमान हैं। उनकी अङ्गकान्ति श्वेत है। वे अपने बायें हाथोंमें शंख और चक्र धारण करती हैं तथा दायें हाथोंमें गदा एवं अभयकी मुद्रासे सुशोभित हैं।

सायंकालमें संध्यादेवीका रुद्रशक्तिके रूपमें ध्यान करे। वे वृषभकी पीठपर बिछे हुए कमलके आसनपर बैठी हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वे मस्तकपर अर्धचन्द्रके मुकुटसे विभूषित हैं। दाहिने हाथोंमें त्रिशूल और रुद्राक्ष धारण करती हैं और बायें हाथोंमें अभय एवं शक्किसे सुशोभित हैं।

ये संध्याएँ कर्मोकी साक्षिणी हैं। अपने-आपको उनकी प्रभासे अनुगत समझे। इन तीनके अतिरिक्त एक चौथी संध्या है, जो केवल ज्ञानीके लिये है। उसका आधी रातके आरम्भमें बोधात्मक साक्षात्कार होता है ॥ २७-३० ॥

ये तीन संध्याएँ क्रमश: हृदय, बिन्दु और ब्रह्मरन्ध्रमें स्थित हैं। चौथी संध्याका कोई रूप नहीं है। वह परमशिवमें विराजमान है; क्योंकि वह शिव सबसे परे हैं, इसलिये इसे ‘परमा संध्या’ कहते हैं।

तर्जनी औगुलीके मूलभागमें पितरोंका, कनिष्ठाके मूलभागमें प्रजापतिका, अंगुष्ठके मूलभागमें ब्रह्माका और हाथके अग्रभागमें देवताओंका तीर्थ है। दाहिने हाथकी हथेलीमें अग्निका, बायीं हथेलीमें सोमका तथा अँगुलियोंके सभी पवाँ एवं संधियोंमें ऋषियोंका तीर्थ है। संध्याके ध्यानके पश्चातू शिव-सम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा तीर्थ (जलाशय)-को शिवस्वरूप बनाकर ‘आपो हि ष्ठा’ इत्यादि संहिता-मन्त्रोंद्वारा उसके जलसे मार्जन करे। बायें हाथ पर तीर्थके जलको गिराकर उसे रोके रहे और दाहिने हाथ से मन्त्रपाठपूर्वक क्रमशः सिरका सेचन करना ‘मार्जन’ कहलाता है ॥ ३१-३५॥

इसके बाद अघमर्षण करे। दाहिने हाथके दोनेमें रखे हुए बोधरूप शिवमय जलको नासिकाके समीप ले जाकर बायीं-इडा नाड़ीद्वारा साँसको खींचकर रोके और भीतरसे काले रंग के पापपुरुषको दाहिनी-पिङ्गला नाडीद्वारा बाहर निकालकर उस जलमें स्थापित करे। फिर उस पापयुक्त जलको हथेलीद्वारा वज्रमयी शिलाकी भावना करके उसपर दे मारे। इससे अधमर्षणकर्म सम्पन्न होता है। तदनन्तर कुश, पुष्प, अक्षत और जलसे युक्त अर्ध्याञ्जलि लेकर, उसे ‘ॐ नमः शिवाय स्वाहा।’-इस मन्त्रसे भगवान् शिवको समर्पित करे और यथाशक्ति गायत्रीमन्त्रका जप करे

अब मैं तर्पण की विधिका वर्णन करूंगा। देवताओंके लिये देवतीर्थसे उनके नाममन्त्रके उच्चारणपूर्वक तर्पण करे। ‘ॐ हूं शिवाय स्वाहा।’ ऐसा कहकर शिवका तर्पण करे। इसी प्रकार अन्य देवताओंको भी उनके स्वाहायुक्त नाम लेकर जलसे तृप्त करना चाहिये। ‘ॐ हां हृदयाय नमः। ॐ हीं शिरसे स्वाहा। ॐ हूं शिखायै वषट्। ॐ हैं कवचाय हुम्। ॐ हाँ नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ ह: अस्त्राय फट्।”-इन वाक्योंको क्रमशः पढ़कर ह्रदय, सिर, शिखा, कवच, नेत्र एवं अस्त्र-विषयक न्यास करना चाहिये। आठ देवगणोंको उनके नामके अन्तमें ‘नमः’ पद जोड़कर तर्पणार्थ जल अर्पित करना चाहिये। यथा-‘ॐ हां आदित्येभ्यो नमः ।। ॐ हां वसुभ्यो नमः ।। ॐ हां रुद्रेभ्यो नमः ।। ॐ हां विश्वेभ्यो देवेभ्यो नमः।। ॐ हां मरुद्भ्यो नमः ।। ॐ हां भृगुभ्यो नमः।। ॐ हां अङ्गिरोभ्यो नमः ।’ तत्पश्चात् जनेऊको कण्ठमें मालाकी भाँति धारण करके ऋषियोंका तर्पण करे॥३९-४१ ॥

‘ॐ हां अत्रये नमः ॥ ॐ हां वसिष्ठाय नमः । ॐ हां पुलस्तये नमः ।। ॐ हां क्रतवे नमः।। ॐ हां भरद्वाजाय नमः। ॐ हां विश्वामित्राय नमः। ॐ हां प्रचेतसे नमः। ॐ हां मरीचये नम:।’- इन मन्त्रोंको पढ़ते हुए अत्रि आदि ऋषियोंको (ऋषितीर्थसे) एक-एक अञ्जलि जल दे। तत्पश्चात् सनकादि मुनियोंको (दो-दो अञ्जलि) जल देते हुए निम्नाङ्कित मन्त्रवाक्य पढ़े-‘ॐ हां सनकाय वषट् ॥ ॐ हां सनन्दनाय वषट्।। ॐ हां सनातनाय वषट्॥ ॐ हां सनत्कुमाराय वषट्।। ॐ हां कपिलाय वषट् ॥ ॐ हां पञ्चशिखाय वषट् ।। ॐ हां ऋभवे वषट्।”-इन मन्त्रोंद्वारा जुड़े हाथोंकी कनिष्ठिकाओंके मूलभागसे जलाञ्जलि देनी चाहिये ॥ ४२-४४॥

ॐ हां सर्वेभ्यो भूतेभ्यो वषट्’-इस मन्त्रसे वषट्स्वरूप भूतगणोंका तर्पण करे । तत्पश्चात् यज्ञोपवीतको दाहिने कंधेपर करके दुहरे मुड़े हुए कुशके मूल और अग्रभागसे तिलसहित जलकी तीन-तीन अञ्जलियाँ दिव्य पितरोंके लिये अर्पित करे। ‘ॐ हां कव्यवाहनाय स्वधा। ॐ हां अनलाय स्वधा। ॐ हां सोमाय स्वधा। ॐ हां यमाय स्वधा।। ॐ हां अर्यमाणे स्वधा ।। ॐ हां अग्निष्वात्तेभ्यः स्वधा ।। ॐ हां बर्हिषदभ्य: स्वधा। ॐ हां आज्यपेभ्यः स्वधा ।। ॐ हां सोमपेभ्यः स्वधा।”-इत्यादि मन्त्रोंका उच्चारण कर विशिष्ट देवताओंकी भाँती दिव्य पितरोंको जलाञ्जलिसे   तृप्त करना चाहिये ॥ ४५-४६ ॥

‘ॐ हां ईशानाय पित्रे स्वधा।” कहकर पिताको, ‘ॐ हां पितामहाय स्वधा।” कहकर पितामहको तथा “ॐ हाँ शान्तप्रपितामहाय स्वधा।” कहकर प्रपितामहको भी तृप्त करे। इसी प्रकार समस्त प्रेत-पितरोंका तर्पण करे। यथा-‘ॐ हां पितृभ्यः स्वधा ॥ ॐ हां पितामहेभ्यः स्वधा ॥ ॐ हां प्रपितामहेभ्यः स्वधा।। ॐ हां वृद्धप्रपितामहेभ्यः स्वधा॥ ॐ हां मातृभ्यः स्वधा । ॐ हां मातामहेभ्यः स्वधा।। ॐ हां प्रमातामहेभ्यः स्वधा। ॐ हां वृद्धप्रमातामहेभ्यः स्वधा। ॐ हां सर्वेभ्यः पितृभ्यः स्वधा।। ॐ हां सर्वेभ्यः ज्ञातिभ्यः स्वाधा ॥ ॐ हां सर्वाचार्यभ्यः स्वधा।। ॐ हां दिग्भ्यः स्वधा। ॐ हां दिक्पतिभ्यः स्वधा। ॐ हां सिद्धेभ्यः स्वधा ।। ॐ हां मातृभ्यः स्वधा।। ॐ हां ग्रहेभ्यः स्वधा ।। ॐ हां रक्षोभ्यः स्वधा।।’-इन वाक्योंको पढ़ते हुए क्रमशः पितरो, पितामहों, वृद्धप्रपितामहों, माताओं, मातामहों, प्रमातामहो, वृद्धप्रमातामहीं, सभी पितरो, सभी ज्ञातिजनों, सभी आर्चार्यो, सभी दिशाओं, दिक्पतियों, सिद्धों, मातृकाओं, ग्रहों और राक्षसोंको जलाञ्जलि दे॥ ४७-५१ ॥

अध्याय – ७३ सूर्यदेवकी पूजा-विधिका वर्णन

महादेवजी कहते हैंस्कन्द! अब में करन्यास और अङ्गन्यासपूर्वक सूर्यदेवताके पूजनकी विधि बताऊँगा।

‘मैं तेजोमय सूर्य हूँ’-ऐसा चिन्तन करके अर्ध्य-पूजन करे। लाल रंगके चन्दन या रोलीसे मिश्रित जालको ललाटके निकटतक ले जाकर उसके द्वारा अर्ध्यपात्रको पूर्ण करे। उसका गन्धादिसे पूजन करके सूर्यके अङ्गोंद्वारा रक्षावगुण्ठन करे। तत्पश्चात् जलसे पूजा-सामग्रीका प्रोक्षण करके पूर्वाभिमुख हो सूर्यदेवकी पूजा करे। ‘ॐ आां हृदयाय नम:।’ इस प्रकार आदि में स्वर-बीज़ लगाकर सिर आदि अन्य सब अङ्गोंमें भी न्यास करे। पूजा-गृहके द्वारदेशमें दक्षिणकी और ‘दण्डी’ का और वामभागमें ‘पिङ्गल” का पूजन करे। ईशानकोंणमें ‘ग गणपतये नम:।’ इस मन्त्रसे ‘गणेश’ की और अग्निकोणमें गुरुकी पूजा करे। पीठके मध्यभाग में कमलाकार आसनका चिन्तन एवं पूजन करे। पीठके अग्नि आदि चारों कोणोंमें क्रमश: विमल, सार, आराध्य तथा परम सुखकी और मध्यभागमें प्रभूतासनकी पूजा करे। उपर्युक प्रभूत आदि चारोंके वर्ण क्रमश: श्वेत, लाल, पीले और नीले हैं तथा उनकी आकृति सिंह के समान है। इन सबकी पूजा करनी चाहिये ॥ १-५ ॥

पीठस्थ कमलके भीतर ‘रां दीप्तायै नम:।” इस मन्त्रद्वारा दीप्ताकी, ‘री सूक्ष्मायै नम:।’ इस मन्त्रसे सूक्ष्माकी, ‘रूं जयायै नम:।’ इससे जयाकी, ‘रें भद्रायै नम:।’ इससे भद्राकी, “रें विभूतये नम:।’ इससे विभूतिकी, ‘रों विमलायै नम:।’ इससे विमलाकी, “रौं अमोघायै नम:।’ इससे अमोधाकी तथा ‘रं विद्युतायै नम:।’ इससे विद्युताकी पूर्व आदि आठों दिशाओंमें पूजा करे और मध्यभागमें ‘र: सर्वतोमुख्यै नम:।’ इस मन्त्रसे नवीं पीठशक्ति सर्वतोमुखीकी आराधना करे । तत्पश्चात् ‘ॐ ब्रह्मविष्णुशिवात्मकाय सौराय योगपीठात्मने नम:।’ इस मन्त्रके द्वारा सूर्यदेवके आसन (पीठ)- का पूजन करे। तदनन्तर ‘खखोल्काय नम:।’ इस षडक्षर मन्त्र के आरम्भमें ‘ॐ हं ख” जोड़कर नौ अक्षरोंसे युक्त (‘ॐ ह ख खखोल्काय नम:।’-इस) मन्त्रद्वारा सूर्यदेवके विग्रहका आवाहन करे। इस प्रकार आवाहन करके भगवान् सूर्यकी पूजा करनी चाहिये ॥ ६-७ ई॥

अञ्जलीमें लिए हुए जलको ललाटके निकटतक ले जाकर रक्त वर्णवाले सूर्यदेवका ध्यान करके उन्हें भावनाद्वारा अपने सामने स्थापित करे। फिर ‘ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः।।’ ऐसा कहकर उक्त जलसे सूर्यदेवको अर्ध्य दे। इसके बाद ‘बिम्बमुद्रा” दिखाते हुए आवाहन आदि उपचार अर्पित करे। तदनन्तर सूर्यदेवकी प्रीतिके लिये गन्ध (चन्दनरोली) आदि समर्पित करे। तत्पश्चात् ‘पद्ममुद्रा’ एवं बिम्बमुद्रा दिखाकर अग्नि आदि कोणोंमें ह्रदय आदि अङ्गोंकी पूजा करे। अग्निकोणमें ‘ॐ आं हृदयाय नमः ।’ इस मन्त्रसे हृदयकों, नैऋत्यकोण में ‘ॐ भूः अर्काय शिरसे स्वाहा।’ इससे सिरकी, वायव्यकोणमें * ॐ भुवः सुरेशाय शिखायै वषट्।।’ इससे शिखाकी, ईशानकोण में ‘ॐ स्व: कवचाय हुम्।” इससे कवचकी, इष्टदेव और उपासक के बीच में ‘ॐ हां नेत्रत्रयाय वौषट्।’ से नेत्रकी तथा देवताके पश्चिमभाग में ‘वः अस्त्राय फट्।” इस मन्त्रसे अस्त्रकी पूजा करे। इसके बाद पूर्वादि दिशाओंमें मुद्राओंका प्रदर्शन करे॥ ८-११६ ॥

हृदय, सिर, शिखा और कवच-इनके लिये पूर्वादि दिशाओंमें धेनुमुद्राका प्रदर्शन करे। नेत्रोंके लिये गोश्रृंगकी मुद्रा दिखाये। अस्त्र के लिये त्रासनीमुद्राकी योजना करे। तत्पश्चात्ग्रहोंको नमस्कार और उनका पूजन करे। ‘ॐ सों सोमाय नम:।’ इस मन्त्रसे पूर्वमें चन्द्रमाकी, ‘ॐ बुं बुधाय नम:।’ इस मन्त्रसे दक्षिणमें बुधकी, ‘ॐ बृ बृहस्पतये नमः” इस मन्त्रसे पश्चिममें बृहस्पतिकी और ‘ॐ भं भार्गवाय नम:।’ इस मन्त्रसे उत्तरमें शुक्रकी पूजा करे। इस तरह पूर्वादि दिशाओंमें चन्द्रमा आदि ग्रहोंकी पूजा करके, अग्नि आदि कोणोंमें शेष ग्रहोंका पूजन करे। यथा-‘ॐ भाँ भौमाय नम:।’ इस मन्त्रसे अग्निकोणमें मङ्गलकी, ‘ॐ शां शनै:श्राय नमः ।’ इस मन्त्र से नैऋत्यकोणमें शनैश्र्चरकी, ‘ॐ रां राहवे नमः’ इस मन्त्रसे वायव्यकोणमें राहुकी तथा ‘ॐ कें केतवे नम:।” इस मन्त्रसे ईशानकोणमें केतुकी गन्ध आदि उपचारोंसे पूजा करे। खखोल्की (भगवान् सूर्य)-के साथ इन सब ग्रहोंका पूजन करना चाहिये। १२-१४॥

मूलमन्त्रका’ जप करके, अर्ध्यपात्रमें जल लेकर सूर्यको, समर्पित करनेके पश्चात् उनकी स्तुति करे। इस तरह स्तुतिके पश्चात् सामने मुँह किये खड़े हुए सूर्यदेवको नमस्कार करके कहे’ -प्रभो! मेरे अपराधों और त्रुटियोंको आप क्षमा करें।” इसके बाद ‘अस्त्राय फट्।’ इस मन्त्रसे अणुसंहारका समाहरण करके ‘शिव! सूर्य! (कल्याणमय सूर्यदेव!)”-ऐसा कहते हुए संहारिणीशक्ति या मुद्राके द्वारा सूर्यदेवके उपसंह्रत तेजकी अपने हृदय-कमलमें स्थापित कर दे तथा सूर्यदेवका निर्माल्य उनके पार्षद चण्डको अर्पित कर दे। इस प्रकार जगदीश्वर सूर्यका पूजन करके उनके जप, ध्यान और होम करनेसे साधकका सारा मनोरथ सिद्ध होता है। १५-१७ ॥

अध्याय – ७४ शिवपूजाकी विधि

महादेवजी कहते हैंस्कन्द! अब मैं शिव पूजाकी विधि बताऊँगा। आचमन (एवं स्नान आदि) करके प्रणवका जप करते हुए सूर्यदेवको अर्ध्य दे। फिर पूजा-मण्डपके द्वारको ‘फट्’ इस मन्त्रद्वारा जलसे सींचकर आदिमें “हां” बीज सहित नन्दी* आदि द्वारपालोंका पूजन करे। द्वारपर उदुम्बर वृक्षकी स्थापना या भावना करके उसके उपरी भागमें गणपति, सरस्वती और लक्ष्मीजीकी पूजा करे। उस वृक्षकी दाहिनी शाखापर या द्वारके दक्षिण भागमें नन्दी और गङ्गाका पूजन करे तथा वाम शाखापर या द्वारके वाम भागमें महाकाल एवं यमुनाजीकी पूजा करनी चाहिये। तत्पश्चात् अपनी दिव्य दृष्टि डालकर दिव्य विघ्नोंका उत्सारण (निवारण) करे। उनके ऊपर या उनके उद्देश्यसे फूल फेंके और यह भावना करे कि ‘आकाशचारी सारे विध्न दूर हो गये।” साथ ही, दाहिने पैरकी एड़ीसे तीन बार भूमिपर आघात करे और इस क्रियाद्वारा भूतलवर्ती समस्त विध्नोंके निवारणकी भावना करे ।

146

तत्पश्चात् यज्ञमण्डपकौ देहलीको लांधे। वाम शाखाका आश्रय लेकर भीतर प्रवेश करें। दाहिने पैरसे मण्डपके भीतर प्रविष्ट हो उदुम्बरवृक्षमें अस्त्रका न्यास करे तथा मण्डपके मध्य भागमें पीठकी आधारभूमिमें ‘ॐ हां वास्त्वधिपतये ब्रह्मणे नम:।’ इस मन्त्रसे वास्तुदेवताकी पूजा करे ॥ १-५॥

निरिक्षण आदि शास्त्रोंद्वारा शुद्ध किये हुए गडुओंको हाथमें लेकर, भावनाद्वारा भगवान शिवसे आज्ञा प्राप्त करके साधक मौन हो गङ्गा आदि नदीके तटपर जाय। वहाँ अपने शरीरकों पवित्र करके गायत्री-मन्त्रका जप करते हुए वस्त्रसे छाने हुए जलके द्वारा जलाशयमें उन गडुओंको भरे, अथवा हृदय-बीज (नम:)-का उच्चारण करके जल भरे। तत्पश्चात् पूजा के लिये गन्ध, अक्षत, पुष्प आदि सब द्रव्योंको अपने पास एकत्र करके भूतशुद्धि आदि कर्म करे। फिर उत्तराभिमुख हो आराध्यदेवके दाहिने भागमें-शरीरके विभिन्न अंगोंमें मातृकान्यास करके, संहार-मुद्राद्वारा अर्ध्यके लिये जल लेकर मन्त्रोच्चारणपूर्वक मस्तकसे लगावे और उसे देवतापर अर्पित करनेके लिये अपने पास रख ले। इसके बाद भोग्य कर्मोके उपभोग के लिये पाणिकच्छपिका (कूर्ममुद्रा)-का प्रदर्शन करके द्वादश दलोंसे युक्त हृदयकमलमें अपने आत्माका चिन्तन करे ॥ ६-१० ॥

तदनन्तर शरीरमें शून्यका चिन्तन करते हुए पाँच भूतोंका क्रमशः शोधन करे। पैरोंके दोनों अँगूठोंको पहले बाहर और भीतरसे छिद्रमय | (शून्यरूप) देखे। फिर कुण्डलिनी-शक्तिको मूलाधारसे उठाकर हृदयकमलसे संयुक्त करके इस प्रकार चिन्तन करे-‘हृदयरन्ध्र में स्थित अग्नितुल्य तेजस्वी ‘हूँ’ बीजमें कुण्डलिनी-शक्ति विराज रही हैं।” उस समय चिन्तन करनेवाला साधक प्राणवायुका अवरोध (कुम्भक) करके उसका रेचक (नि:सारण) करनेके पश्चात्, ‘हूं फट’ के उच्चारणपूर्वक क्रमशः उत्तरोत्तर चक्रोंका भेदन करता हुआ उस कुण्डलिनीको हृदय, कण्ठ, तालु, भ्रूमध्य एवं ब्रह्मरन्ध्रमें ले जाकर स्थापित करे। इन ग्रन्थियोंका भेदन करके कुण्डलिनीके साथ हृदयकमलसे ब्रह्मरन्ध्रमें आये ‘हूं। बीजस्वरूप जीवको वहीं मस्तकमें (मस्तकवर्ती ब्रह्मरन्ध्रमें या सहस्रारचक्र में) स्थापित कर दे। हृदयस्थित ‘हूं’ बीजसे सम्पुटित हुए उस जीवमें पूरक प्राणायामद्वारा चैतन्यभाव जाग्रतू किया गया है। शिखाके ऊपर ‘हूं’ का न्यास करके शुद्ध बिन्दुस्वरूप जीवका चिन्तन करे। फिर कुम्भकप्राणायाम करके उस एकमात्र चैतन्य-गुणसे युक्त। जीवकी शिवके साथ संयुक कर दे॥११-१५॥

इस तरह शिवमें लीन होकर साधक सबीज रेचक प्राणायामाद्वारा शरीरगत भूतोंका शोधन करे। अपने शरीर में पैरसे लेकर बिन्दु-पर्यन्त सभी तत्त्वोंका विलोम-क्रमसे चिन्तन करे। बिन्दुरूप जीवको बिन्द्वन्त लीन करके पृथ्वी और वायुका एक-दूसरेमें लय करे। साथ ही अग्नि एवं जलका भी परस्पर विलय करे। इस प्रकार दोदो विरोधी भूतोंका परस्पर शोधन (लय) करना चाहिये। आकाशका किसीसे विरोध नहीं है; इस भूतशुद्धिका विशेष विवरण सुनोभूमण्डलका स्वरूप चतुष्कोण है। उसका रंग सुवर्णके समान पीला है। वह कठोर होनेके साथ ही वज्रके चिह्नसे तथा “हां” इस आत्मीय बीज (भूबीज)- से युक्त है। उसमें ‘निवृत्ति’ नामक कला है। (शरीरमें पैरसे लेकर घुटनेतक भूमण्डलकी स्थिति है ) इसी तरह पैरसे लेकर मस्तक-पर्यन्त क्रमशः पाँचों भूतोंका चिन्तन करना चाहिये । इस प्रकार पाँच गुणोंसे युक्त वायुभूत भूमण्डलका चिन्तन करे ॥ १६-१९ ॥

जलका स्वरूप अर्धचन्द्राकार है। वह द्रवस्वरूप है, चन्द्रमण्डलमय है। उसकी कान्ति या वर्ण उज्ज्वल है। वह दो कमलोंसे चिहित है। ‘ह्रीं’ इस बीजसे युक्त है। ‘प्रतिष्ठा’ नामक कलाके स्वरूपको प्राप्त है। वह वामदेव तथा तत्पुरुषमन्त्रोंसे संयुक्त जलतत्व चार गुणोंसे युक्त है। उसे इस प्रकार (घुटनेसे नाभितक जलका) चिन्तन करते हुए उस जल-तत्वका बह्रिरूपमें लीन करके शोधन करे ।

अग्निमण्डल त्रिकोणाकार है। उसका वर्ण लाल है। (नाभिसे हृदय तक उसकी स्थिति है) वह स्वस्तिकके चिह्नसे युक्त है। उसमें ‘हूं’ बीज अङ्कित है। वह विद्याकलास्वरूप है। उसका अघोर मन्त्र है तथा वह तीन गुणोंसे युक्त एवं जलभूत है-इस प्रकार चिन्तन करते हुए अग्नितत्वका शोधन करे।

वायुमण्डल षट्कोणाकार है। (शरीरमें हृदयसे लेकर भौंहोंके मध्य भागतिक उसकी स्थिति है।) वह छ: बिन्दुओंसे चिह्नित है। उसका रंग काला है। वह “हैं’ बीज एवं सद्योजात-मन्त्रसे युक्त और शान्तिकला-स्वरूप है। उसमें दो गुण हैं तथा वह पृथ्वीभूत है। इस प्रकार चिन्तन करते हुए वायुतत्वाका शोधन करे॥ २०-२४ ॥

आकाशका स्वरूप व्योमाकार, नाद-विन्दुमय, गोलाकार, बिन्दु और शक्तिसे विभूषित तथा शुद्ध स्फटिक मणिके समान निर्मल है। (शरीर में भ्रूमध्यसे लेकर ब्रह्मरन्ध्रप्तक उसकी स्थिति है।) वह ‘हौं फट्’ इस बीजसे युक्त है। शान्त्यतीतकलामय’ है। एक गुणसे युक्त तथा परम विशुद्ध है। इस प्रकार चिन्तन करते हुए आकाश-तत्त्वका शोधन करे। तदनन्तर अमृतवर्षी मूलमन्त्रसे सवको परिपुष्ट करे। तत्पश्चात् आधारशक्ति, कूर्म, अनन्त (पृथ्वी)-की पूजा करे। फिर पीठ (चौकी)-के अग्निकोणवाले पायेमें धर्मकी, नैऋत्य कोणवाले पायेमें ज्ञानकी, वायव्यकोणमें वैराग्यकी और ऐशान्यकोणमें ऐश्वर्यकी पूजा करनी चाहिये। इसके बाद पीठकी पूर्वादि दिशाओंमें क्रमशः अधर्म, अज्ञान. अवैराग्य और अनैश्वर्यकी पूजा करनी चाहिये। इसके बाद पीठके मध्यभागमें कमलकी पूजा करे। इस प्रकार मन-ही-मन इस पीठवर्ती कमलमय आसनका ध्यान करके उसपर देवमूर्ति सच्चिदानन्दघन भगवान् शिवका आवाहन करे। उस शिवमूर्तिमें शिवस्वरूप आत्माको देखे और फिर आसन, पादुकद्वय तथा नौ पीठशक्ति-इन बारहोंका ध्यान करे। फिर शक्किमन्त्रके अन्तमें ‘वौषट्। लगाकर उसके उच्चारणपूर्वक पूर्वोक्त आत्ममूर्तिको दिव्य अमृतसे आप्लावित करके उसमें सकलीकरण करे। हृदयसे लेकर हस्त-पर्यन्त अङ्गोंमें तथाकनिष्ठिका आदि अँगुलियोंमें। हृदय (नम:) मन्त्रोंका जो न्यास हैं, इसीकी “सकलीकरण’ माना गया है। २५-३० ॥

तत्पश्चात् ‘हूँ फट्-इस मन्त्रसे प्राकारकी भावनाद्वारा आत्मरक्षाकी व्यवस्था करके उसके बाहर, नीचे और ऊपर भी भावनात्मक शक्तिजालका विस्तार करे। इसके बाद महामुद्राका’ प्रदर्शन करे। तत्पश्चात् पूरक प्राणायामके द्वारा अपने हृदय-कमलमें विराजमान शिवका ध्यान करके भावमय पुष्पोंद्वारा उनके पैरसे लेकर सिरतकके अङ्गोंमें पूजन करे। वे भावमय पुष्प आनन्दामृतमय मकरन्दसे परिपूर्ण होने चाहिये। फिर शिवमन्त्रोंद्वारा नाभिकुण्डमें स्थित शिवस्वरूप अग्निको तृप्त करे। वही शिवानल ललाटमें बिन्दुरूपसे स्थित है; उसका विग्रह मङ्गलमय है-इस प्रकार चिन्तन करे॥ ३१-३३॥

स्वर्ण, रजत एवं ताम्रपात्रोंमेंसे किसी एक पात्रकी अर्ध्यके लिये लेकर उसे अस्त्र बीज (फट)-के उच्चारणपूर्वक जलसे धोये। फिर बिन्दुरूप शिवसे प्रकट होनेवाले अमृतकी भावनासे युक्त जल एवं अक्षत आदिके द्वारा हृदय-मन्त्र (नम:)-के उच्चारणपूर्वक उसे भर दे। फिर हृदय, सिर, शिखा, कवच, नेत्र और अस्व-इन छः अङ्गोंद्वारा (अथवा इनके बीज-मन्त्रोंद्वारा) उस अर्ध्यपात्रका पूजन करके उसे देवता-सम्बन्धी मूलमन्त्रसे अभिमन्त्रित करे। फिर अस्त्र-मन्त्र (फद)-से उसकी रक्षा करके कवच-बीज (हुम)- के द्वारा उसे अवगुण्ठित कर दे। इस प्रकार अष्टांग अर्ध्यकी रचना करके, धेनुमुद्राके द्वारा उसका अमृतीकरण करके उस जलको सब ओर सींचे। अपने मस्तकपर भी उस जलकी बूंदोंसे अभिषेक करे। वहाँ रखी हुई पूजा-सामग्रीका भी अस्त्रबीजके उच्चारणपूर्वक उक्त जलसे प्रोक्षण को। तदनन्तर हृदयबीजसे अभिमन्त्रित करके “हुम’ बीजसे पिण्डों (अथवा मत्स्यमुद्रा’)-द्वारा उसे आवेष्टित या आच्छादित करें ॥ ३४-३७ ॥

इसके बाद अमृता’ (धेनुमुद्रा)-के लिये धेनुमुद्राका प्रदर्शन करके अपने आसनपर पुष्प अर्पित करे (अथवा देवताके निज आसनपर पुष्प चढ़ावे) । तत्पश्चात् पूजक अपने मस्तकमें तिलक लगाकर मूलमन्त्रके द्वारा आराध्यदेवको पुष्प अर्पित करे। स्नान, देवपूजन, होम, भोजन, यज्ञानुष्ठान, योग, साधन तथा आवश्यक जपके समय धीरबुद्धि साधककी सदा मौन रहना चाहिये।

प्रणवका नाद-पर्यन्त उच्चारण करके मन्त्रका शोधन करे। फिर उत्तम संस्कारयुक्त देवपूजा आरम्भ करे। मूलगायत्री (अथवा रुद्रगायत्री)-से अर्ध्य-पूजन करके रखे और वह सामान्य अर्ध्य देवताको अर्पित करें ॥ ३८-४० ॥

ब्रह्मपञ्चकः (पञ्चगव्य और कुशोदकसे बना हुआ ब्रह्मकूर्च) तैयार करके पूजित शिवलिङ्ग से पुष्प-निर्माल्य ले ईशानकोणकी ओर ‘चणडाय नमः”। कहकर चण्डको समर्पित करे। तत्पश्चात् उक्त ब्रह्मपञ्चकसे पिण्डिका (पिण्डी या अर्घा) और शिवलिङ्गको नहलाकर ‘फट्’-का उच्चारण करके उन्हें जलसे नहलाये। फिर ‘नमो नम:’ के उच्चारणपूर्वक पूर्वोत अर्ध्यपात्रके जलसे उस लिङ्गका अभिषेक करे। यह लिङ्ग-शोधनका प्रकार बताया गया है॥ ४१-४२ ॥

आत्मा (शरीर और मन), द्रव्य (पूजनसामग्री), मन्त्र तथा लिङ्गकी शुद्धि हो जानेपर सब देवताओंका पूजन करे।

वायव्यकोणमें ‘ॐ हां गणपतये नम:।’ कहकर गणेशजीकी पूजा करे और ईशानकोणमें ‘ॐ हां गुरुभ्यो नम:।’ कहकर गुरु, परम गुरु, परात्पर गुरु तथा परमेष्टी गुरु– गुरुपंतिकी पूजा करे॥४३॥

तत्पश्चात् कूर्मरूपी शिलापर स्थित अङ्कुर– सदृश आधारशक्तिका तथा ब्रह्मशिलापर आरूढ़ शिवके आसनभूत अनन्तदेवका ‘ॐ हां अनन्तासनाय नम:।’ मन्त्रद्वारा पूजन करे।

शिवके सिंहासनके रूपमें जो मंच या चौकी है, उसके चार पाये हैं, जो विचित्र सिंहकीसी आकृतिसे सुशोभित होते हैं। वे सिंह मण्डलाकारमें स्थित रहकर अपने आगेवालेके पृष्ठभागको ही देखते हैं तथा सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुगइन चार युगोंके प्रतीक हैं।

तत्पश्चात् भगवान् शिवकी आसन-पादुकाकी पूजा करे। तदनन्तर धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्यकी पूजा करे। वे अग्नि आदि चारों कोणोंमें स्थित हैं। उनके वर्ण क्रमश: कपूर, कुकुम, सुवर्ण और काजलके समान हैं। इनका चारों पायोंपर क्रमशः पूजन करे। इसके बाद (ॐ हां अधश्छदनाय नमोऽधः”, ॐ ह्रां ऊर्ध्वच्छादनाय नम उर्ध्वें। ॐ हां पद्मासनाय नमः । -ऐसा कहकर) आसनपर विराजमान अष्टदल कमलके नीचेऊपरके दलोंकी, सम्पूर्ण कमलकी तथा ‘ॐ हां कर्णिकायै नम:।’ के द्वारा कर्णिकाके मध्यभागकी पूजा करे। उस कमलके पूर्व आदि आठ दलोंमें तथा मध्यभागमें नौ पीठ-शक्तियोंकी पूजा करनी चाहिये। वे शक्तियाँ चँवर लेकर खड़ी हैं। उनके हाथ वरद एवं अभयकी मुद्राओंसे सुशोभित है ।। ४४-४६ ।।

उनके नाम इस प्रकार हैं- वामा, ज्येष्ठा, रौद्री, काली, कलविकारिणी’, बलविकारिणी, बलप्रमथिनी, सर्वभूतदमनी तथा मनोन्मनी-इन सबका क्रमशः पूजन करना चाहिये।

वामा आदि आठ शक्तियोंका कमलके पूर्व आदि आठ दलोंमें तथा नवीं मनोन्मनीका कमलके केसर-भागमें क्रमश: पूजन किया जाता है। यथा-‘ॐ हां वामायै नमः।।’ इत्यादि। तदनन्तर पृथ्वी आदि अष्ट मूर्तियों एवं विशुद्ध विद्यादेहका चिन्तन एवं पूजन करे। (यथा-पूर्वमें ‘ॐ सूर्यमूर्तये नम:।’ अग्निकोणमें ‘ॐ चन्द्रमूर्तये नम:।’ दक्षिणमें ‘ॐ पृथ्वीमूर्तये नम:।’ नैऋत्यकोणमें ‘ॐ जलमूर्तये नमः ।’ पश्चिममें ‘ॐ वह्निमूर्तये नमः ।।’ वायव्यकोणमें ‘ॐ वायुमूर्तये नम:।’ उत्तरमें ‘ॐ आकाशमूर्तये नम:।’ और ईशानकोणमें ‘ॐ यजमानमूर्तये नमः॥’) तत्पश्चात शुद्ध विद्याकी और तत्वव्यापक आसनकी पूजा करनी चाहिये। उस सिंहासनपर कर्पूर-गौर, सर्वव्यापी एवं पाँच मुखोंसे सुशोभित भगवान् महादेवको प्रतिष्ठित करे। उनके दस भुजाएँ हैं। वे अपने मस्तकपर अर्धचन्द्र धारण करते हैं। उनके दाहिने हाथोंमें शक्ति, ऋष्टि, शूल, खट्राङ्ग और वरद-मुद्रा हैं तथा अपने बायें हाथोंमें वे डमरू, बिजौरा नीबू, सर्प, अक्षसूत्र और नील कमल धारण करते है ।। ४८-५१ ।।

आसनके मध्यमें विराजमान भगवान् शिवकी वह दिव्य मूर्ति बतीस लक्षणोंसे सम्पन्न है, ऐसा चिन्तन करके स्वयं-प्रकाश शिवका स्मरण करते हुए ‘ॐ हां हां हां शिवमूर्तये नम:।’ कहकर उसे नमस्कार करे। ब्रह्मा आदि कारणोंके त्यागपूर्वक मन्त्रको शिवमें प्रतिष्ठित करे। फिर यह चिन्तन करे कि ललाटके मध्यभाग में विराजमान तथा तारापति चन्द्रमाके समान प्रकाशमान बिन्दुरूप परमशिव हृदयादि छः अङ्गोसे संयुक्त हो पुष्पाञ्जलिमें उतर आये हैं। ऐसा ध्यान करके उन्हें प्रत्यक्ष पूजनीय मूर्तिमें स्थापित कर दे। इसके बाद ‘ॐ हां हौं शिवाय नम:।”-यह मन्त्र बोलकर मनही-मन आवाहनी”-मुद्राद्वारा मूर्तिमें भगवान् शिवका आवाहन करे। फिर स्थापनी-मुद्राद्वारा वहाँ उनकी समीपमें विराजमान करके संनिरोधनी-मुद्राद्वारा’ उन्हें उस मूर्तिमें अवरुद्ध करे। तत्पश्चात् ‘निष्ठुरायै कालकल्यायै (कालकान्त्यै अथवा कालकान्तायै) फट॥’ का उच्चारण करके खङ्गमुद्रासे भय दिखाते हुए विध्नोंको मार भगावे। इसके बाद लिङ्ग-मुद्राका’ प्रदर्शन करके नमस्कार करें ॥५२-५६ ॥

इसके बाद ‘नमः’ बोलकर अवगुण्ठन करे।

आवाहनका अर्थ है सादर सम्मुखीकरणइष्टदेवकों अपने सामने उपस्थित करना।

देवताको अर्चाविग्रह में बिठाना ही उसकी स्थापना है।

प्रभो! मैं आपका हूँ‘-ऐसा कहकर भगवानसे निकटतम सम्बन्ध स्थापित करना हीसंनिधानयासंनिधापनकहलाता है।

जबतक पूजनसम्बन्धी कर्मकाण्ड चालू रहे, तबतक भगवानकी समीपताको अक्षुण्ण रखना हीनिरोधहै

अभक्तोंके समक्ष जी शिवतत्वका अप्रकाशन या संगोपन किया जाता है, उसीका नामअवगुण्ठनहै।

तदनन्तर सकलीकरण करके हृदयाय नमः‘, शिरसे स्वाहा, शिखायै वषट, कवचाय हुम‘, ‘नेत्राभ्यां वौषट्‘, ‘अस्त्राय फट्इन : मन्त्रोंद्वारा हृदयादि अङ्गोंकी अङ्गीके साथ एकता स्थापित करेयहीअमृतीकरणहै।

चैतन्यशक्ति भगवान् शंकरका हृदय है, आठ प्रकारका ऐश्वर्य उनका सिर है, वशित्व उनकी शिखा है तथा अभेद्य तेज भगवान् महेश्वरका कवच है। उनका दु:सह प्रताप ही समस्त विध्नोंका निवारण करनेवाला अस्त्र है। हृदय आदिकी पूर्वमें रखकर क्रमशः “नमः’, ‘स्वधा’, ‘स्वाहा’ और ‘वौषट्’ का क्रमशः उच्चारण करके पाद्य आदि निवेदन करे॥५७-६१॥

पाद्यको आराध्यदेवके युगल चरणारविन्दोंमें, आचमनको मुखारविन्दमें तथा अर्ध्य, दूर्वा, पुष्प और अक्षतको इष्टदेवके मस्तकपर चढ़ाना चाहिये।

इस प्रकार दस संस्कारोंसे परमेश्वर शिवका संस्कार करके गन्ध-पुष्प आदि पञ्च-उपचारोंसे विधिपूर्वक उनकी पूजा करे। पहले जलसे देवविग्रहका अभ्युक्षण (अभिषेक) करके राईलोन आदिसे उबटन और मार्जन करना चाहिये। तत्पश्चात् अर्ध्यजलकी बूंदों और पुष्प आदिसे अभिषेक करके गडुओंमें रखे हुए जलके द्वारा धीरे-धीरे भगवानको नहलावे।

दूध, दही, घी, मधु और शक्कर आदिको क्रमशः ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव और सद्योजात-इन पाँच* मन्त्रोंद्वारा अभिमन्त्रित करके उनके द्वारा बारी-बारीसे स्नान करावे । उनको परस्पर मिलाकर पञ्चामृत बना ले और उससे भगवानको नहलावे। इससे भोग और मोक्षकी प्राप्ति होती है।

पूर्वोक्त दूध-दही आदिमें जल और धूप मिलाकर उन सबके द्वारा इष्ट देवता-सम्बन्धी मूल-मन्त्रके उच्चारणपूर्वक भगवान् शिवकी स्नान करावे ॥ ६२-६६ ॥

तदनन्तर जौंके आटे से चिकनाई मिटाकर इच्छानुसार शीतल जलसे स्नान करावे। अपनी शक्तिके अनुसार चन्दन, केसर आदिसे युक्त जलद्वारा स्नान कराकर शुद्ध वस्त्रसे इष्टदेवके श्रीविग्रहको अच्छी तरह पोंछे। उसके बाद अर्ध्य निवेदन करे।

देवताके ऊपर हाथ घुमावे।

शिवलिङ्गके मस्तकभागको कभी पुष्पसे शून्य रखे।

तत्पश्चात् अन्यान्य उपचार समर्पित करे। (स्नानके पश्चात् देवविग्रहको वस्त्र और यज्ञोपवीत धारण कराकर) चन्दन-रोली आदिका अनुलेप करे। फिर शिव-सम्बन्धी मन्त्र बोलकर पुष्प अर्पण करते हुए पूजन करे। धूपके पात्रका अस्त्रमन्त्र (फट्)-से प्रोक्षण करके शिव-मन्त्रसे धूपद्वारा पूजन करे। फिर अस्त्र-मन्त्रद्वारा पूजित घण्टा बजाते हुए गुग्गुलका धूप जलावे। फिर ‘शिवाय नम:।’ बोलकर अमृतके समान सुस्वादु जलसे भगवानको आचमन करावे। इसके बाद आरती उतारकर पुन: पूर्ववत् आचमन करावे। फिर प्रणाम करके देवताकी आज्ञा ले भोगाङ्गोकी पूजा करे॥६७-७१॥

अग्निकोणमें चन्द्रमाके समान उज्ज्वल हृदयका, ईशानकोणमें सुवर्णके समान कान्तिवाले सिरका, नैऋत्यकोणमें लाल रंगकी शिखाका तथा वायव्यकोणमें काले रंगके कवचका पूजन करे। फिर अग्निवर्ण नेत्र और कृष्ण-पिङ्गल अस्त्रका पूजन करके चतुर्मुख ब्रह्मा और चतुर्भुज विष्णु आदि देवताओंको कमलके दलोंमें स्थित मानकर इन सबकी पूजा करे। पूर्व आदि दिशाओंमें दाढ़ोंके समान विकराल, वज्रतुल्य अस्त्रका भी पूजन करे॥ ७२-७३ ॥

मूल स्थानमें ‘ॐ हां हूं शिवाय नमः।” बोलकर पूजन करे। ‘ॐ हां हृदयाय नमः, हीं शिरसे स्वाहा।’ बोलकर हृदय और सिरकी पूजा करे। “हूं शिखायै वषट्।’ बोलकर शिखाकी, “हैं कवचाय हुम्।” कहकर कवचकी तथा ‘ह: अस्त्राय फट्।” बोलकर अस्त्रकी पूजा करे।

इसके बाद परिवारसहित भगवान् शिवको क्रमशः पाध, आचमन, अर्ध्य, गन्ध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेध, आचमनीय, करोद्वर्तन, ताम्बुल, मुखवास, (इलायची आदि) तथा दर्पण अर्पण करे।

तदनन्तर देवाधिदेवके मस्तकपर दूर्वा, अक्षत और पवित्रक चढ़ाकर हृदय (नम:)-से अभिमन्त्रित मूलमन्त्रका एक सौ आठ बार जप करे।

तत्पश्चात् कवचसे आवेष्टित एवं अस्त्रके द्वारा सुरक्षित अक्षत-कुश, पुष्प तथा उद्भव नामक मुद्रासे भगवान् शिवसे इस प्रकार प्रार्थना करें- ॥७४-७७ ॥

‘प्रभो! गुह्मसे भी अति गुह्य वस्तुकी आप रक्षा करनेवाले हैं। आप मेरे किये हुए इस जपको ग्रहण करें, जिससे आपके रहते हुए आपकी कृपासे। मुझे सिद्धि प्राप्त हो” ॥७८॥

भोगकी इच्छा रखनेवाला उपासक उपर्युक्त श्लोक पढ़कर, मूल मन्त्रके दाहिने हाथ से अर्ध्य-जल ले भगवानके वरकी मुद्रासे युक्त हाथमें अर्ध्य निवेदन करे। फिर इस प्रकार प्रार्थना करे-“देवा! शंकर! हम कन्याणस्वरूप आपके चरणोंकी शरणमें आये हैं। अत: सदा हम जो कुछ भी शुभाशुभ कर्म करते आ रहे हैं, उन सबको आप नष्ट कर दीजिये -निकाल फेंकिये। हूँ क्षः। शिव ही दाता हैं, शिव ही भोक्ता हैं, शिव ही यह सम्पूर्ण जगत् हैं, शिवकी सर्वत्र जय हो। जो शिव हैं, वही मै हूं’ ॥ ७९-८१ ॥

इन दो श्लोकोंको पढ़कर अपना किया हुआ जप आराध्यदेवको समर्पित कर दे। तत्पश्चात् जपे हुए शिव-मन्त्रका दशांश भी जपे (यह हवनकी पूर्तिके लिये आवश्यक है।) फिर अर्घ्य देकर भगवानकी स्तुति करे। अन्तमें अष्टमूर्तिधारी आराध्यदेव शिवकी परिक्रमा करके उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम करे। नमस्कार और शिव-ध्यान करके चिन्नमें अथवा अग्नि आदिमें भगवान् शिवके उद्देश्यसे यजनपूजन करना चाहिये॥ ८२-८४॥

अध्याय – ७५ शिवपूजाके अङ्गभूत होमकी विधि

भगवान् महेश्वर कहते हैंस्कन्द! पूजनके पश्चात् अपने शरीरको वस्त्र आदिसे आवृत करके हाथ में अर्ध्यपात्र लिये उपासक अग्निशालामें जाय और दिव्यदृष्टि से यज्ञके समस्त उपकरणोंकी कल्पना (संग्रह) करे।

उत्तराभिमुख हो कुण्डको देखे। कुशोंद्वारा उसका प्रोक्षण एवं ताडन (मार्जन) करे। ताड़न तो अस्त्र-मन्त्र (फट्)-से करे; किंतु उसका अभ्युक्षण कवच-मन्त्र (हुम्)-से करना चाहिये। खड्गसे कुण्डका खात उद्धार, पूरण और समता करे। कवच (हुम) -से उसका अभिषेक तथा शरमन्त्र (फट्)-से भूमिको कूटनेका कार्य कोर।

सम्मार्जन, उपलेपन, कलात्मक रूपकी कल्पना, त्रिसूत्री-परिधान तथा अर्चन भी सदा कवच-मन्त्रसे ही करना चाहिये।

कुण्डके उत्तरमें तीन रेखा करे। एक रेखा ऐसी खींचे, जो पूर्वाभिमुखी हो और ऊपरसे नीचेकी ओर गयी हो। कुश अथवा त्रिशूलसे रेखा करनी चाहिये। अथवा उन सभी रेखाओंमें उलट-फेर भी किया जा सकता है। १-५ ॥

अस्त्र-मन्त्र (फद)-का उच्चारण करके वज्रीकरणकी क्रिया करे। ‘नम:’ का उच्चारण करके कुशोंद्वारा चतुष्पथका न्यास करे। कवचमन्त्र (हुम्) बोलकर अक्षपात्रका और हृदय– मन्त्र (नम:)-से विष्टरका स्थापन करे। ‘वागीश्वयै नमः ।’ ‘ईशाय नमः’-ऐसा बोलकर वागीश्वरी देवी तथा ईशका आवाहन एवं पूजन करे। इसके बाद अच्छे स्थानसे शुद्धपात्रमें रखी हुई अग्निको ले आवे। उसमेंसे ‘क्रव्यादमग्निं प्रहिणोमि दूरमू०’ (शु० यजु० ३५ ॥ १९) इत्यादि मन्त्रके उच्चारणपूर्वक क्रव्यादके अंशभूत अग्निकणको निकाल दे। फिर निरीक्षण आदिसे शोधित औदर्य, ऐन्दव तथा भौत-इन त्रिविध अग्नियोंको एकत्र करके, ‘ॐ हूं वह्निचैतन्याय नम:।’ का उच्चारण करके अग्निबीज (रं)-के साथ स्थापित करे॥ ६-८ ॥

संहिता-मन्त्रसे अभिमन्त्रित धेनुमुद्राके प्रदर्शनपूर्वक अमृतीकरणकी क्रियासे संस्कृत, अस्त्र-मन्त्रसे सुरक्षित तथा कवच-मन्त्रसे अवगुण्ठित एवं पूजित अग्निको कुण्डके ऊपर प्रदक्षिणाक्रमसे तीन बार घुमाकर, ‘यह भगवान् शिवका बीज है’-ऐसा चिन्तन करके ध्यान करे कि ‘वागीश्वरदेवने इस बीजको वागीश्वरीके गर्भमें स्थापित किया है।” इस ध्यानके साथ मन्त्रसाधक दोनों घुटने पृथ्वीपर टेककर नमस्कारपूर्वक उस अग्निको अपने सम्मुख कुण्डमें स्थापित कर दे। तत्पश्चात् जिसके भीतर बीजस्वरूप अग्निका आधान हो गया है, उस कुण्डके नाभिदेशमें कुशोंद्वारा परिसमूहन करे। परिधान-सम्भार, शुद्धि, आचमन एवं नमस्कारपूर्वक गर्भाग्निका पूजन करके उस गर्भज अग्निकी रक्षाके लिये अस्त्र मन्त्रसे भावना द्वारा ही वागीश्वरीदेवीके पाणीपल्लवमें   कङ्कण (या रक्षासूत्र) बाँधे। ९-१३ ॥

सद्योजात-मन्त्रसे गर्भाधानके उद्देश्यसे अग्निका पूजन करके हृदय-मन्त्रसे तीन आहुतियाँ दे। फिर भावनाद्वारा ही तृतीय मासमें होनेवाले पुंसवन संस्कारकी सिद्धिके लिए वामदेवमन्त्रद्वारा अग्निकरर पूजा करके, ‘शिरसे स्वाहा।’ बोलकर तीन आहुतियाँ दे।

इसके बाद उस अग्निपर जलबिन्दुओंसे छींटा दे। तदनन्तर छठे मास में होनेवाले सीमन्तोन्नयन-संस्कारकी भावना करके, अघोरमन्त्रसे अग्निका पूजन करके ‘शिखायै वषट्।’ का उच्चारण करते हुए तीन आहुतियाँ दे तथा शिखा-मन्त्र से ही मुख आदि अङ्गोंकी कल्पना करे। मुखका उदधाटन एवं प्रकटीकरण करे। तत्पश्चात् पूर्ववत् दसवें मासमें होनेवाले जातकर्म एवं नरकर्मकी भावनासे तत्पुरुष-मन्त्रद्वारा दर्भ आदिसे अग्निका पूजन एवं प्रज्वलन करके गर्भमलको दूर करनेवाला स्नान करावे तथा ध्यानद्वारा देवीके हाथमें सुवर्ण-बन्धन करके हृदय-मन्त्रसे पूजन करे। फिर सूतककी तत्काल निवृत्तिके लिये अस्त्र-मन्नद्वारा अभिमन्त्रित जलसे अभिषेक करें ॥ ४४-१९ ॥

कुण्डका बाहरकी ओर से अस्त्र-मन्त्रके उच्चारणपूर्वक कुशोंद्वारा ताड़न या मार्जन करे। फिर ‘हुम्’ का उच्चारण करके उसे जलसे सींचे।

तत्पश्चात् कुण्डके बाहर मेखलाओंपर अस्त्रमन्त्रसे उत्तर और दक्षिण दिशाओंमें पूर्वाग्र तथा पूर्व और पश्चिम दिशाओंमें उत्तराग्र कुशाओंको बिछावें। उनपर हुदय-मन्त्रसे परिधि-विष्टर (आठों दिशाओंमें आसनविशेष) स्थापित करे। इसके बाद सद्योजातादि पाँच मुख-सम्बन्धी मन्त्रोंसे तथा अस्त्र-मन्त्रसे नालच्छेदनके उद्देश्यसे पाँच समिधाओंके मूलभागको घीमें डुबोकर उन पाँचोंकी आहुति दे।

तदनन्तर ब्रह्मा, शंकर, विष्णु और अनन्तका दूर्वा और अक्षत आदिसे पूजन करे। पूजनके समय उनके नामके अन्तमें ‘नम:’ जोड़कर उच्चारण करे। यथा-‘ब्रह्मणे नम:।’ ‘शंकराय नमः ।।’ “विष्णावे नमः ।’ ‘अनन्ताय नम:।’ फिर कुण्डके चारों ओर बिछे हुए पूर्वोत आठ विष्टरोंपर पूर्वादि दिशाओंमें क्रमश: इन्द्र, अग्नि, यम, निऋति, वरुण, वायु, कुबेर और ईशानका आवाहन और स्थापन करके यह भावना करे कि उन सबका मुख अग्निदेवकी ओर है। फिर उन सबकी अपनी-अपनी दिशा में पूजा करे। पूजाके समय उनके नाम मन्त्रके अन्तमें “नमः” जोड़कर बोले । यथा-‘इन्द्राय नमः।’ इत्यादि ॥ २०-२३ ॥

इसके बाद उन सब देवताओंको भगवान् शिवकी यह आज्ञा सुनावे-‘देवताओं! तुम सब लोग विध्नसमूहका निवारण करके इस बालक (अग्नि)-का पालन करो।” तदनन्तर ऊर्ध्वमुख स्रुकू और स्रुवको लेकर उन्हें बारी-बारीसे तीन बार अग्निमें तपावे। फिर कुशके मूल, मध्य और अग्रभागसे उनका स्पर्श करावे। कुशसे स्पर्श कराये हुए स्थानोंमें क्रमश: आत्मतत्व, विद्यातत्व और शिवतत्व-इन तीनोंका न्यास करे। न्यासवाक्य इस प्रकार हैं- ॐ हां आत्मतत्वाय नम:।’ ‘ॐ हीं विद्यातत्वाय नम:।’ ‘ॐ हूँ शिवतत्त्वाय नमः ।।’ ॥ २४-२६ ॥

तत्पश्चात् स्रुकमें ‘नमः’ के साथ शक्तिका और स्रुवमें शिवका न्यास करे। यथा-‘शक्त्यै नम:।’शिवाय नम:।’ फिर तीन आवृत्तिमें फैले हुए रक्षासूत्रसे स्रुक और स्रुव दोनोंके ग्रीवाभागको आवेष्टित करे। इसके बाद पुष्पादिसे उनका पूजन करके अपने दाहिने भागमें कुशोंके ऊपर उन्हें रख दे।

फिर गायका घी लेकर, उसे अच्छी तरह देख-भालकर शुद्ध कर ले और अपने स्वरूपके ब्रह्ममय होनेकी भावना करके, उस घीके पात्रको हाथमें लेकर हृदय-मन्त्रसे कुण्डके ऊपर अग्निकोणमें घुमाकर, पुनः अपने स्वरूपके विष्णुमय होनेकी भावना करे। तत्पश्चात् घृतको ईशानकोणमें रखकर कुशाग्रभागसे घी निकाले और ‘शिरसे स्वाहा।’ एवं ‘विष्णवे स्वाहा।’ बोलकर भगवान् विष्णुके लिये उस घृतबिन्दुकी आहुति दे। अपने स्वरूपके रुद्रमय होनेकी भावना करके, कुण्डके नाभीस्थानमें घृतको रखकर उसका आप्लावन करे॥२७-३१ई ॥

155

(फैलाये हुए अँगूठेसे लेकर तर्जनीतककी लंबाईको “प्रादेश” कहते हैं।) प्रादेश बराबर लंबे दो कुशोको अङ्गुष्ठ तथा अनामिका-इन दो अँगुलियोंसे पकड़कर उनके द्वारा अस्त्र (फट्)- के उच्चारणपूर्वक अग्निके सम्मुख घीको प्रवाहित करे। इसी प्रकार हृदय-मन्त्र(नमः)-का उच्चारण करके अपने सम्मुख भी घृतका आप्लावन करे। ‘नमः’ के उच्चारणपूर्वक हाथमें लिये हुए कुशके दग्ध हो जानेपर उसे शस्त्र-क्षेप (फट्के उच्चारण)- के द्वारा पवित्र करे। एक जलते हुए कुशसे उसकी नीराजना (आरती) करके फिर दूसरे कुशसे उसे जलावे। उस जले हुए कुशको अस्त्रमन्त्रसे पुनः अग्निमें ही डाल दे। तत्पश्चात् घृतमें एक प्रादेश बराबर कुश छोड़े, जिसमें गाँठ लगायी गयी हो। फिर घीमें दो पक्षों तथा इडा आदि तीन नाड़ियोंकी भावना करे। इड़ा आदि तीनों भागोंसे क्रमश: स्रुवद्वारा घी लेकर उसका होम करे। ‘स्वा’ का उच्चारण करके स्रुवावस्थित घीकों अग्निमें ड़ाले और “हा’ का उच्चारण करके हुतशेष घीको उसे डालनेके लिये रखे हुए पात्रविशेषमें छोड़ दे। अर्थात् ‘स्वाहा’ बोलकर क्रमश: दोनों कार्य (अग्निमें हवन और शेषका पात्रविशेष में प्रक्षेप) करे। ३२-३६ ॥

प्रथम इड़ाभागसे घी लेकर ‘ॐ हामग्नये स्वाहा।” इस मन्त्रका उच्चारण करके घीका अग्निमें होम करे और हुतशेषका पात्रविशेषमें प्रक्षेप करे। इसी प्रकार दूसरे पिङ्गलाभागसे घी लेकर ‘ॐ हां सोमाय स्वाहा।’ बोलकर घीमें आहुति दे और शेषका पात्रविशेष में प्रक्षेप करे। फिर ‘सुषुम्णा’ नामक तृतीय भागसे घी लेकर ‘ॐ हामग्नीषीमाभ्यां स्वाहा।’ बोलकर स्रुवाद्वारा घी अग्निमें डाले और शेवका पात्रविशेष में प्रक्षेपण करे। तत्पश्चात् बालक अग्निके मुखमें नेत्रत्रयके स्थानविशेषमें तीनों नेत्रोंका उदघाटन करनेके लिये धृतपूर्ण स्रुवद्वारा निम्नाङ्गित मन्त्र बोलकर अग्निमें चौथी आहुति दे-‘ॐ हामग्नये स्विष्टकृते स्वाहा’॥ ३७-३९॥

तत्पश्चात् (पहले अध्यायमें बताये अनुसार) ‘ॐ हां हृदयाय नम:।’ इत्यादि छहों अङ्गसम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा घीको आभिमंत्रित करके धेनुमुद्राद्वारा जगावे। फिर कवच-मन्त्र (हुम्)-से अवगुण्ठित करके शरमन्त्र (फट्)-से उसकी रक्षा करे। इसके बाद हृदय-मन्त्रसे घृतबिन्दुका उत्क्षेपण करके उसका अभ्युक्षण एवं शोधन करे। साथ ही शिवस्वरूप अग्निके पाँच मुखोंके लिये अभिधार-होम, अनुसंधान-होम तथा मुखोंके एकीकरण-सम्बन्धी होम करे।

अभिघार-होमकी विधि यों है-‘ॐ हां सद्योजाताय स्वाहा। ॐ हां वामदेवाय स्वाहा। ॐ हां अघोराय स्वाहा। ॐ हां तत्पुरुषाय स्वाहा। ॐ हां ईशानाय स्वाहा।’-इन पाँच मन्त्रोंद्वारा सद्योजातादि पाँच मुखोंके लिये अलग-अलग क्रमशः घीकी एक-एक आहुति देकर उन मुखोंको अभिधारितघीसे आप्लावित करे। यही मुखाभिघारसम्बन्धी होम है।

तत्पश्चात् दो-दो मुखोंके लिये एक साथ आहुति दे; यही मुखानुसंधान होम है। यह होम निम्नाङ्कित मन्त्रोसे सम्पन्न करे-“ॐ हां सद्योजातवामदेवाभ्यां स्वाहा। ॐ हां वामदेवाघोराभ्यां स्वाहा। ॐ हां अघोरतत्पुरुषाभ्यां स्वाहा। ॐ हां तत्पुरुषेशानाभ्यां स्वाहा।।’ ॥ ४०-४४ ॥

तदन्तर कुण्डमें अग्निकोणसे वायव्यकोणतक तथा नैत्रीकृयकोणसे  ईशानकोणतक घीकी अविचिछन्न धाराद्वारा आहुति देकर उत्त पाँचों मुखोंकी एकता करे। यथा-‘ॐ हां सद्योजात वामदेवाघोरतत्पुरुषेशानेभ्यः स्वाहा।’ इस मन्त्रसे पाँचों मुखोंके लिये एक ही आहुति देनेसे उन सबका एकीकरण होता है। इस प्रकार इष्टमुखमें सभी मुखोंका अन्तर्भाव होता है, अतः वह एक ही मुख उन सभी मुखोंका आकार धारण करता है-उन सबके साथ उसकी एकता हो जाती है। इसके बाद कुण्डके ईशानकोणमें अग्निकी पूजा करके, अस्त्र-मन्त्रसे तीन आहुतियाँ देकर अग्निका   नामकरण करे-‘हे अग्निदेव! तुम सब प्रकारसे शिव हो, तुम्हारा नाम ‘शिव’ है।”

इस प्रकार नामकरण करके नमस्कारपूर्वक, पूजित हुए माता-पिता वागीश्वरी एवं वागीश्वर अथवा शक्ति एवं शिवका अग्निमें विसर्जन करके उनके लिये विधिपूरक पूर्णाहुति दे।

मूल-मन्त्रके अन्तमें ‘वौषट् पद जोड़कर (यथा-ॐ नम: शिवाय वौषट्।-ऐसा कहकर) शिव और शक्तिके लिये विधिपूर्वक पूर्णाहुति देनी चाहिये। तत्पश्चात् हृदय–कमलमें अङ्ग और सेनासहित परम तेजस्वी शिवका पूर्ववत् आवाहन करके पूजन करे और उनकी आज्ञा लेकर उन्हें पूर्णत: तृप्त करे॥ ४५-४९ ॥

यज्ञाग्नि तथा शिवका अपने साथ नाड़ीसंधान करके अपनी शक्तिके अनुसार मूल-मन्त्रसे अङ्गोंसहित दशांश होम करे। घी, दूध और मधुका एक-एक ‘कर्ष’ (सोलह माशा) होम करना चाहिये। दहीकी आहुतिकी मात्रा एक ‘सितुही’ बतायी गयी हैं। दूधकी आहुतिका मान एक ‘पसर’ है। सभी भक्ष्य पदार्थों तथा लावाकी आहुतिकी मात्रा एक-एक “मुट्ठी’ है। मूलके तीन टुकड़ोंकी एक आहुति दी जाती है। फलकी आहुति उसके अपने ही प्रमाणके अनुसार दी जाती है, अर्थात् एक आहुतिमें छोटा हो या बड़ा एक फल देना चाहिये। उसे खण्डित नहीं करना चाहिये। अनकी आहुतिका मान आधा ग्रास है। जो सूक्ष्म किसमिस आदि वस्तुएँ हैं, उन्हें एक बार पाँचकी संख्यामें लेकर होम करना चाहिये। ईखकी आहुतिका मान एक ‘पोर’ है। लताओंकी आहुतिका मान दो-दो अंगुलका टुकड़ा है। पुष्प और पत्रकी आहुति उनके अपने ही मानसे दी जाती है, अर्थात् एक आहुतिमें पूरा एक फूल और पूरा एक पत्र देना चाहिये। समिधाओंकी आहुतिका मान दस अङ्गुल है ॥५०-५४॥

कपूर, चन्दन, केसर और कस्तूरीसे बने हुए दक्ष-कर्दम (अनुलेपविशेष)-की मात्रा एक कलाय (मटर या केराव)-के बराबर है। गुग्गुलकी मात्रा क्षेरके बीजके बराबर होनी चाहिये। कंदोंके आठवें भागसे एक आहुति दी जाती है। इस प्रकार विचार करके विधिपूर्वक उत्तम होम करे। इस तरह प्रणव तथा बीज-पदोंसे युक्त मन्त्रोंद्वारा होम-कर्म सम्पन्न करना चाह्रिये॥५५-५६ ॥

तदनन्तर घीसे भरे हुए स्रुकके ऊपर अधोमुख स्रुवको रखकर स्रुकके अग्रभागमें फूल रख दें। फिर बायें और दायें हाथसे उन दोनोंको शंखकी मुद्रासे पकड़े। इसके बाद शरीरके ऊपरी भागकों उन्नत रखते हुए उठकर खड़ा हो जाय। पैरोंको समभावसे रखे। स्रुक और स्रुव दोनोंके मूलभागको अपनी नाभिमें टिका दे। नेत्रोंको स्रुकके अग्रभागपर ही स्थिरतापूर्वक जमाये रखें। ब्रह्मा आदि कारणोंका त्याग करते हुए भावनाद्वारा सुषुम्ना नाड़ीके मार्गसे निकलकर ऊपर उठे। स्रुक-स्रुवके मूलभागकों नाभिसे ऊपर उठाकर बायें स्तनके पास ले आवे। अपने तन-मनसे आलस्यको दूर रखे तथा (ॐ नम: शिवाय वौषट्। -इस प्रकार) मूल-मन्त्रका वौषट-पर्यन्त अस्पष्ट (मन्द स्वरसे) उच्चारण करे और उस घीको जौकी-सी पतली धाराके साथ अग्निमें होंम दें  Il

इसके बाद आचमन, चन्दन और ताम्बूल आदि देकर भक्तिभावसे भगवान् शिव के ऐश्वर्यकी वन्दना करते हुए उनके चरणोंमें उत्तम (साष्टाङ्ग) प्रणाम करे। फिर अग्निकी पूजा करके ‘ॐ ह: अस्त्राय फट्।” के उच्चारणपूर्वक संहारमुद्राके द्वारा शंवरोंका आहरण करके इष्टदेवसे ‘भगवन्! मेरे अपराधको क्षमा करें’-ऐसा कहकर हृदयमन्त्रसे पूरक प्राणायामके द्वारा उन तेजस्वी परिधियोंको बड़ी श्रद्धाके साथ अपने ह्रदयकमलमें स्थापित करे॥६१-६३ ॥

सम्पूर्ण पाक (रसोई)-से अग्रभाग निकालकर कुण्डके समीप अग्निकोणमें दो मण्डल बनाकर एकमें अन्तबलि दे और दूसरेमें बाह्य-बलि।

प्रथम मण्डलके भीतर पूर्व दिशा में ‘ॐ हां रूद्रेभ्यः स्वाहा।’-इस मन्त्र से रुद्रोंके लिये बलि (उपहार) अर्पित करे।

दक्षिण दिशा में ‘ॐ हां मातृभ्यः स्वाहा।” कहकर मातृकाओंके लिये, पश्चिम दिशामे *ॐ हां गणेभ्यः स्वाहा तेभ्योऽयं बलिरस्तु।’ ऐसा कहकर गणोंके लिये, उत्तर दिशामें ‘ॐ हां यक्षेभ्यः स्वाहा तेभ्योऽयं बलिरस्तु।’ कहकर यक्षोंके लिये, ईशानकोणमें ‘ॐ हां ग्रहेभ्यः स्वाहा तेभ्योऽयं बलिरस्तु।।’ ऐसा कहकर ग्रहोंके लिये, अग्निकोणमें ‘ॐ हां असुरेभ्यः स्वाहा तेभ्योऽयं बलिरस्तु ॥’ ऐसा कहकर असुरोके लिये, नैऋत्यकोणमें ‘ॐ हां रक्षोभ्यः स्वाहा तेभ्योऽयं बलिरस्तु ॥’ ऐसा कहकर राक्षसोंके लिये, वायव्यकोणमें ‘ॐ हां नागेश्य: स्वाहा तेभ्योऽयं बलिरस्तु।’ ऐसा कहकर नागोंके लिये तथा मण्डल के मध्यभाग में ‘ॐ हां नक्षत्रेभ्य: स्वाहा तेभ्योऽयं बलिरस्तु। ऐसा कहकर नक्षत्रोंके लिये बलि अर्पित करे॥६४-६७ ॥

इसी तरह ” ॐ हां रागिभ्यः स्वाहा तेभ्योऽयं बलिरस्तु।’ ऐसा कहकर अग्निकोणमें राशियोंके लियै, “ॐ हां विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा तेभ्योऽयं बलिरस्तु।’ ऐसा कहकर नैऋत्यकोणमें विश्वदेवोंके लिये तथा ‘ॐ हां क्षेत्रपालाय स्वाहा तस्मा अयं बलिरस्तु।’ ऐसा कहकर पश्चिममें क्षेत्रपालको बलि दें |

तदनन्तर दूसरे बाह्य-मण्डलमें पूर्व आदि दिशाओंके क्रमसे इन्द्र, अग्नि, यम, निऋति, जलेश्वर वरुण, वायु, धनरक्षक कुबेर तथा ईशानके लिये बलि समर्पित करे। फिर ईशानकोणमें ‘ॐ ब्रह्मणे नमः स्वाहा।” कहकर ब्रह्माके लिये तथा नैऋत्यकोणमें ‘ॐ विष्णवे नमः स्वाहा।” कहकर भगवान् विष्णुके लिये बलि दे। मण्डलसे बाहर काक आदिके लिये भी बलि देनी चाहिये। आन्तर और बाह्य-दोनों बलियोंमें उपयुक्त होनेवाले मन्त्रोंको संहारमुद्राके द्वारा अपने-आपमें समेट ले ॥ ६९-७१ ॥

पचहतरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७५ ॥

अध्याय – ७६ चण्डकी पूजाका वर्णन

महादेवजी कहते हैंस्कन्द! तदनन्तर शिवविग्रहके निकट जाकर साधक इस प्रकार प्रार्थना करे- भगवन्! मेरे द्वारा जो पूजन और होम आदि कार्य सम्पन्न हुआ है, उसे तथा उसके पुण्यफलको आप ग्रहण करें।’ ऐसा कहकर, स्थिरचित हो ‘उद्भव’ नामक मुद्रा दिखाकर अर्घ्यजलसे “नमः” सहित पूर्वोक्त मूल-मन्त्र पढ़ते हुए इष्टदेवको अर्ध्य निवेदन करे। तत्पश्चात् पूर्ववत् पूजन तथा स्तोत्रोंद्वारा स्तवन करके प्रणाम करे तथा पराङ्मुख अर्ध्य देकर कहे-‘प्रभो! मेरे अपराधोंको क्षमा करें।’ ऐसा कहकर दिव्य नाराचमुद्रा दिखा ‘अस्त्राय फट् का उच्चारण करके समस्त संग्रहक अपने-आपमें उपसंहार करनेके पश्चात् शिवलिङ्गको मूर्ति-सम्बन्धी मन्त्रसे अभिमन्त्रित करे। तदनन्तर वेदीपर इष्टदेवताकी पूजा कर लेनेपर मन्त्रका अपने-आपमें उपसंहार करके पूर्वोत विधिसे चण्डका पूजन करे ॥ १-५ ॥

“ॐ चण्डेशानाय नमः ।“ से चण्डदेवताको नमस्कार करे। फिर मण्डल के मध्यभागमें ‘ॐ चण्डमूर्तये नम:।’ से चण्डकी पूजा करे। उस मूर्तिमें ‘ॐ धूलिचण्डेश्वराय हूं फट् स्वाहा।’ बोलकर चण्डेश्वरका आवाहन करे। इसके बाद अङ्ग-पूजा करे। यथा-‘ॐचण्डहृदयाय हुँ फट्।’ इस मन्त्रसे हृदयकी, ‘ॐ चण्डशिरसे हूं फट्।’ इस मन्त्रसे सिरकी, ‘ॐ चण्डशिखायै हूं फट्।” इस मन्त्रसे शिखाकी, ‘ॐ चण्डायुष्कवचाय हूं फट्।’ से कवचकी तथा ‘ॐ चण्डास्त्राय हूं फट्।” से अस्त्रकी पूजा करे।

इसके बाद रुद्राग्निसे उत्पन्न हुए चण्ड देवताका इस प्रकार ध्यान करे॥६-७ ॥

‘चण्डदेव अपने दो हाथोंमें शूल और टङ्क धारण करते हैं। उनका रंग साँवला है। उनके तीसरे हाथमें अक्षसूत्र और चौथेमें कमण्डलु है। वे टङ्ककी-सी आकृतिवाले या अर्धचन्द्राकार मण्डलमें स्थित हैं। उनके चार मुख हैं।” इस प्रकार ध्यान करके उनका पूजन करना चाहिये। इसके बाद यथाशक्ति जप करे। हवनकी अङ्गभूत सामग्रीका संचय करके उसके द्वारा जपका दशांश होम करे। भगवानपर चढ़े हुए या उन्हें अर्पित किये हुए गो, भूमि, सुवर्ण, वस्त्र आदि तथा मणि-सुवर्ण आदिके आभूषणको छोड़कर शेष सारा निर्माल्य चण्डेश्वरको समर्पित कर दे । उस समय इस प्रकार कहे—’हे चण्डेश्वर! भगवान् शिवकी आज्ञासे यह लेह्म, चोष्य आदि उत्तम अन्न, ताम्बूल, पुष्पमाला एवं अनुलेपन आदि निर्माल्यस्वरूप भोजन तुम्हें समर्पित है। चण्ड! यह सारा पूजन-सम्बन्धी कर्मकाण्ड मैंने तुम्हारी आज्ञासे किया है। इसमें मोहवश जो न्यूनता या अधिकता कर दी गयी हो, वह सदा मेरे लिये पूर्ण हो जाय-न्यूनातिरिक्तताका दोष मिट जाय II

इस तरह निवेदन करके, उन देवेश्वरका स्मरण करते हुए उन्हें अर्ध्य देकर संहार-मूर्ति-मन्त्रको पढ़कर संहारमुद्रा दिखाकर धीरे-धीरे पूरक प्राणायामपूर्वक मूल-मन्त्रका उच्चारण करके सब मन्त्रोंका अपने-आपमें उपसंहार कर ले। निर्माल्य जहाँसे हटाया गया हो, उस स्थानको गोबर और जलसे लीप दे। फिर अर्ध्य आदिका प्रोक्षण करके देवताका विसर्जन करनेके पश्चात् आचमन करके अन्य आवश्यक कार्य करे। १३-१५ ॥

अध्याय – ७७ घरकी कपिला गाय, चूल्हा, चक्की, ओखली, मूसल, झाडू और खंभे आदिका पूजन एवं प्राणाग्निहोत्रकी विधि

भगवान् महेश्वर कहते हैंस्कन्द! अब कपिलापूजनके विषयमें कहूँगा। निम्नाङ्कित मन्त्रोंसे गोमाताका पूजन करे-‘ॐ कपिले नन्दे नमः। ॐ कपिले भद्रिके नमः। ॐ कपिले सुशीले नमः। ॐ कपिले सुरभिप्रभे नमः। ॐ कपिले सुमनसे नमः। ॐ कपिले भुक्तिमुक्तिप्रदे नम:।” इस प्रकार गोमातासे प्रार्थना करे-‘देवताओंको अमृत प्रदान करनेवाली, वरदायिनी, जगन्माता सौरभेयि! यह ग्रास ग्रहण करो और मुझे मनोवाञ्छित वस्तु दो। कपिले। ब्रह्मर्षि वसिष्ठ तथा बुद्धिमान् विश्वामित्रने भी तुम्हारी वन्दना की है। मैंने जो दुष्कर्म किया हो, मेरा वह सारा पाप तुम हर लो। गौएँ सदा मेरे आगे रहें, गौएँ मेरे पीछे भी रहें, गौएँ मेंरे हृदयमें निवास करें और मैं सदा गौओंके बीच निवास करूं । गोमातः! मेंरे दिये हुए इस ग्रासको ग्रहण करो।’

गोमाता के पास इस प्रकार बारंबार प्रार्थना करनेवाला पुरुष निर्मल (पापरहित) एवं शिवस्वरूप हो जाता है।

विद्या पढ़नेवाले मनुष्यकी चाहिये कि प्रतिदिन अपने विद्या-ग्रन्थोंका पूजन करके गुरुके चरणोंमें प्रणाम करे।

गृहस्थ पुरुष नित्य मध्याहकालमें स्नान करके अष्टपुष्मिका (आठ फूलोंवाली) पूजाकी विधिसे भगवान् शिवका पूजन करे। योगपीठ, उसपर स्थापित शिवकी मूर्ति तथा भगवान् शिवके जानु, पैर, हाथ, उर, सिर, वाक्, दृष्टि और बुद्धि-इन आठ अङ्गोंकी पूजा ही अष्टपुष्पिका पूजाकहलाती है (आठ अङ्ग ही आठ फूल हैं)।

मध्याहृकालमें सुन्दर रीतिसे लिपे-पुते हुए रसोईघरमें पकापकाया भोजन ले आवे। फिर – ‘त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीयमाऽमृतात्॥’ वौषट्॥  इस प्रकार अन्तमें ‘वौषट्” पदसे युक्त मृत्युज़यमन्त्रका सात बार जप करके कुशयुक्त शङ्कमें रखे हुए जलकी बूंदोंसे उस अन्नको सींचे। तत्पश्चात् सारी रसोईसे अग्राशन निकालकर भगवान् शिवको निवेदन करे ॥ १-९ ॥

इसके बाद आधे अन्नको चुल्लिका-होमका कार्य सम्पन्न करनेके लिये रखे। विधिपूर्वक चूल्हेकी शुद्धि करके उसकी आगमें पूरक प्राणायामपूर्वक एक आहुति दे। फिर नाभिगत अग्नि-जठरानलके उद्देश्यसे एक आहुति देकर रेचक प्राणायामपूर्वक भीतरसे निकलती हुई वायुके साथ अग्निबीज (रं)-को लेकर क्रमश: ‘क’ आदि अक्षरोंके उच्चारणस्थान कण्ठ आदिके मार्गसे बाहर करके “तुम शिवस्वरूप अग्नि हो’ ऐसा चिन्तन करते हुए उसे चूल्हेकी आगमें भावनाद्वारा समाविष्ट कर दे। इसके बाद चूल्हेकी पूर्वादि दिशाओंमें ‘ॐ हां अग्नये नमः। ॐ हां सोमाय नमः ।। ॐ हां सूर्याय नमः ।। ॐ हां बृहस्पतये नमः ।। ॐ हां प्रजापतये नमः ।। ॐ हां सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः ।। ॐ हां सर्वविश्वेभ्यो नमः । ॐ हां अग्नये स्विष्टकृते नम:।’-इन आठ मन्त्रोंद्वारा अग्नि आदि आठ देवताओंकी पूजा करे। फिर इन मन्त्रोंके अन्तमें ‘स्वाहा’ पद जोड़कर एकएक आहुति दे और अपराधोंके लिये क्षमा माँगकर उन सबका विसर्जन कर दे॥ १०-१४॥

चूल्हेके दाहिने बगलमें ‘धर्माय नम:।’ इस मन्त्रसे धर्मकी तथा बायें बगल में ‘अधर्माय नम:।’ इस मन्त्रसे अधर्मकी पूजा करे। फिर काँजी आदि रखनेके जो पात्र हों, उनमें तथा जलके आश्रयभूत घट आदिमें ‘रसपरिवर्तमानाय वरुणाय नमः ।’ इस मन्त्रसे वरुणकी पूजा करे। रसोईघरके द्वारपर “विध्नराजाय नम:।’ से विघ्नराजकी तथा ‘सुभगायै नम:।’ से चक्कीमें सुभगाकी पूजा करे॥१५-१६ ॥

ओखली में ‘ॐ रौद्रिके गिरिके नम:।’ इस मन्त्रसे रौद्रिका तथा गिरिकाकी पूजा करनी चाहिये। मूसलमें ‘बलप्रियायायुधाय नमः ।’ इस मन्त्रसे बलभद्रजीके आयुधका पूजन करे, झाड़ूमें भी उक्त दो देवियों (रौद्रिका और गिरिका)-की, शय्यामें कामदेवकी तथा मझले खम्भे में स्कन्दकी पूजा करे।

बेटा स्कन्द! तत्पश्चात् व्रतका पालन करनेवाला साधक एवं पुरोहित वास्तु-देवताको बलि देकर सोनेके थालमें अथवा पुरइनके पते आदिमें मौनभावसे भोजन करे। भोजनपात्र के रूपमें उपयोग करनेके लिये बरगद, पीपल, मदार, रेंड़, साखू और भिलावेके पत्तॉकी त्याग देना चाहिये-इन्हें काममें नहीं लाना चाहिये।

पहले आचमन करके, प्रणवयुक्त प्राण आदि शब्दोंके अन्तमें “स्वाहा” बोलकर अन्नकी पाँच आहुतियाँ देकर जठरानलको उद्दीप्त करनेके पश्चात् भोजन करना चाहिये। इसका क्रम यों है-नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय-ये पाँच उपवायु हैं। ‘एतेभ्यो नागादिभ्य उपवायुभ्यः स्वाहा।’ इस मन्त्रसे आचमन करके, भात आदि भोजन निवेदन करके अन्त में फिर आचमन करे और कहे-‘ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।’ इसके बाद पाँच प्राणोंको एक-एक ग्रासकी आहुतियाँ अपने मुखमें दे-(१) ॐ प्राणाय स्वाहा। (२) ॐ आपानाय स्वाहा। (३) ॐ व्यानाय स्वाहा। (४) ॐ समानाय स्वाहा। (५) ॐ उदानाय स्वाहा।।” तत्पश्चातू पूर्ण भोजन करके पुनः चूल्लूभर पानीसे आचमन करे और कहे-‘ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा।’ यह आचमन शरीरके भीतर पहुँचे हुए अनको आच्छादित करने या पचानेके लिये है॥ १७-२४ ॥

सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥७७॥

अध्याय – ७८ पवित्राधिवासनकी विधि

भगवान् महेश्वर कहते हैंस्कन्द! अब मैं पवित्रारोहणका वर्णन करुँगा, जो क्रिया, योग तथा पूजा आदिमें न्यूनताकी पूर्ति करनेवाला है। जो पवित्रारोहण कर्म नित्य किया जाता है, उसे “नित्य” कहा गया है तथा दूसरा, जो विशेष निमित्तकों लेकर किया जाता है, उसे ‘नैमितिक’ कहते हैं। आषाढ़ मासकी आदि-चतुर्दशीको तथा श्रावण और भाद्रपद मासोंकी शुक्ल-कृष्ण उभयपक्षीय चतुर्दशी एवं अष्टमी तिथियोंमें पवित्रारोहण या पवित्रारों पण कर्म करना चाहिये। अथवा आषाढ़ मासकी पूर्णिमासे लेकर कार्तिकमासकी पूर्णिमातक प्रतिपदा आदि तिथियोंको विभिन्न देवताओंके लिये पवित्रारोहण करना चाहिये।

प्रतिपदाको अग्निके लिए, द्वितीयाको ब्रह्माजीके लिये, तृतीयाको पार्वतीके लिए, चतुर्थीको गणेशके लिए, पञ्चमीको नागराज अनन्तके लिये, षष्ठीको स्कन्दके लिए, सप्तमीको सूर्यके लिये, अष्टमीको शूलपाणि अर्थात् मेरे लिये, नवमीको दुर्गाके लिए, दशमीको यमराजके लिए, एकादशीको इंद्रके लिए, द्वादशीको भगवान गोविन्दके लिए, त्रयोदशीको कामदेवके लिए,  चतुर्दशीको मुझ शिवके लिये तथा पूर्णिमाको अमृतभोजी देवताओंके लिये पवित्रारोपण कर्म करना चाहिये ॥ १-३ ई॥

सत्ययुग आदि तीन युगोंमें क्रमशः सोने, चाँदी और ताँबैंके पवित्रक अर्पित किये जाते हैं, किंतु कलियुगमें कपासके सूत, रेशमी सूत अथवा कमल आदिके सूतका पवित्रक अर्पित करनेका विधान है। प्रणव, चन्द्रमा, अग्नि, ब्रह्मा, नागगण, स्कन्द, श्रीहरि, सर्वेश्वर तथा सम्पूर्ण देवता-ये क्रमशः पवित्रकके नौ तन्तुओंके देवता हैं।

उत्तम श्रेणीका पवित्रक एक सौ आठ सूत्रोंसे बनता है। मध्यम श्रेणीका चौवन तथा निम्न श्रेणीका सताईस सूत्रोंसे निर्मित होता है। अथवा इक्यासी, पचास या अड़तीस सूत्रोंसे उसका निर्माण करना चाहिये। जो पवित्रक जितने नवसूत्रीसे बनाया जाय, उसमें बीच में उतनी ही गाँठ लगनी चाहिये।

पवित्रकोंका व्यास-मान या विस्तार बारह अंगुल, आठ अङ्गुल अथवा चार अङ्कुलका होना चाहिये। यदि शिवलिङ्गके लिये पवित्रक बनाना हो तो उस लिङ्गके बराबर ही बनाना चाहिये॥ ४-८ ॥

(इस प्रकार तीन तरहके पवित्रक बताये गये।)

इसी तरह एक चौथे प्रकारका भी पवित्रक बनता है, जो सभी देवताओंके उपयोग में आता है। वह उनकी पिण्डी या मूर्तिके बराबरका बनाया जाना चाहिये। इस तरह बने हुए पवित्रकको ‘गङ्गावतारक’ कहते हैं। इसे ‘सद्योजात” मन्त्रके द्वारा भलीभाँति धोना चाहिये। इसमें ‘वामदेव” मन्त्रसे ग्रन्थि लगावे। ‘अघोर’ मन्त्रसे इसकी शुद्धि करे तथा ‘तत्पुरुष’ मन्त्रसे रतचन्दन एवं रोलीद्वारा इसको रंगे। अथवा कस्तूरी, गोरोचना, कपूर, हल्दी और गेरू आदिसे मिश्रित रंगके द्वारा पवित्रक मात्रकी रँगना चाहिये।

सामान्यत: पवित्रकमें दस गाँठे लगानी चाहिये अथवा तन्तुओंकी संख्याके अनुसार उसमें गाँठे लगावे। एक गाँठसे दूसरी गाँठमें एक, दो या चार अंगुलका अन्तर रखे। अन्तर उतना ही रखना , जिससे उसकी शोभा बनी रहे।

प्रकृति (क्रिया), पौरुषी, वीरा, अपराजीता, जाया, विजया, अजिता, सदाशिव, मनोन्मनी तथा सर्वतोमुखी-ये दस ग्रन्थियोंकी अधिष्ठात्री देवियाँ हैं। अथवा दससे अधिक भी सुन्दर गाँठे लगानी चाहिये।

पवित्रकके चन्द्रमण्डल, अग्निमण्डल तथा सूर्य-मण्डलसे युक्त होनेकी भावना करके, उसे साक्षात् भगवान् शिवके तुल्य मानकर हृदय में धारण करे-मन-ही-मन उसके दिव्य स्वरूपका चिन्तन करे। शिवरूपसे भावित अपने स्वरूपको, पुस्तकको तथा गुरुगणको एकएक पवित्रक अर्पित करे॥९-१४॥

इसी प्रकार द्वारपाल, दिक्पाल और कलश आदिपर भी एक-एक पवित्रक चढ़ाना चाहिये। शिवलिङ्गोंके लिये एक हाथसे लेकर नौ हाथतकका पवित्रक होता है।

एक हाथवाले पवित्रक में अट्ठाईस गाँठें होती हैं। फिर क्रमशः दस-दस गाँठें बढ़ती जाती हैं। इस तरह नौ हाथवाले पवित्रक में एक सौ आठ गाँठें होती हैं। ये ग्रन्थियाँक्रमशः एक या दो-दो अङ्कुलके अन्तरपर रहती हैं। इनका मान भी लिङ्गके विस्तारके अनुरूप हुआ करता है।

जिस दिन पवित्रारोपण करना हो, उससे एक दिन पूर्व अर्थात् सप्तमी या त्रयोदशी तिथिको उपासक नित्यकर्म करके पवित्र हो सायंकालमें पुष्प और वस्त्र आदिसे यागमन्दिर (पूजा-मण्डप)-को सजावे। नैमित्तिकी संध्योपासना करके, विशेषरूपसे तपण-कर्मका सम्पादन करनेके पश्चात् पूजाके लिये निश्चित किये हुए पवित्र भूभागमें सूर्यदेवका पूजन करे॥१५-१८ ॥

आचार्यको चाहिये कि वह आचमन एवं सकलीकरणकी क्रिया करके प्रणवके उच्चारणपूर्वक अर्ध्यपात्र हाथमें लिये अस्त्र-मन्त्र (फट्) बोलकर पूर्वादि दिशाओंके क्रमसे सम्पूर्ण द्वारोंका प्रोक्षण करके उनका पूजन करे।

हां शान्तिकलाद्वाराय नम:

हां विद्याकलाद्वाराय नम:

हां निवृत्तिकलाद्वाराय नम:।

तदन्तर भगवान शिव, अग्नि और आत्माके भेदसे तीन अधिकारियोंके लिये चम्मचसे उस चरूके तीन भाग करे तथा अग्निकुण्डमें शिव एवं अग्निका भाग देकर शेष भाग आत्माके लियें सुरक्षित रखे॥ ३४-३८॥

तत्पुरुष-मन्त्रके साथ “हूं’ जोड़कर उसके उच्चारणपूर्वक पूर्व दिशामें इष्टदैवके लिये दन्तधावन अर्पित करे । अघोर-मन्त्रके अन्तमें “वषट” जोड़कर उसके उच्चारणपूर्वक उत्तर दिशा में आँवला अर्पित करे। वामदेव-मन्त्रके अन्तमें “स्वाहा’ जोड़कर उसका उच्चारण करते हुए जल निवेदन करे। ईशान-मन्त्रसे ईशानकोणमें सुगन्धित जल समर्पित करे। पञ्चगव्य और पलाश आदिके दोने सब दिशाओंमें रखे। ईशानकोणमें पुष्प, अग्निकोणमें गोरोचन, नैऋत्यकोणमें अगुरु तथा वायव्यकोणमें चतु:सम’ समर्पित करे। तुरंतके पैदा हुए कुशोंके साथ समस्त होमद्रव्य भी अर्पित करे। दण्ड, अक्षसूत्र, कौपीन तथा भिक्षापात्र भी देवविग्रहको अर्पित करे । काजल, कुमकुम, सुगन्धित तेल, केशोंकी शुद्ध करनेवाली कंधी, पान, दर्पण तथा गोरोचन भी उत्तर दिशा में अर्पित करे। तत्पश्चात् आसन, खड़ाऊँ, पात्र, योगपट्ट और छत्र-ये वस्तुएँ भगवान् शंकरकी प्रसन्नताके लिये ईशानकोणमें ईशान-मन्त्रसे ही निवेदन करे॥३९-४४ ॥

पूर्व दिशा में घीसहित चरु तथा गन्ध आदि भगवान् तत्पुरुषको अर्पित करे। तदनन्तर आर्ध्यजलसे प्रक्षालित तथा संहिता-मन्त्र से शोधित पवित्रकोंको लेकर अग्निके निकट पहुँचावे। कृष्ण मृगचर्म आदिसे उन्हें ढककर रखें। उनके भीतर समस्त कर्मोके साक्षी और संरक्षक संवत्सरस्वरूपा अविनाशी भगवान् शिवका चिन्तन करे। फिर ‘स्वा’ और “हा’ का प्रयोग करते हुए मन्त्र-संहिताके पाठपूर्वक इक्कीस-बार ठन पवित्रकोंका शोधन करे। तत्पश्चात् गृह आदिको सूत्रोंसेवेष्टित करे । सूर्यदेवको गन्ध, पुष्प आदि चढ़ावे। फिर पूजित हुए सूर्यदेवकी आचमनपूर्वक अर्ध्य दे। न्यास करके नन्दी आदि द्वारपालोंको और वास्तुदेवताको भी गन्धादि समर्पित करें।  तदनन्तर यज्ञ-मण्डपके भीतर प्रवेश करके शिव-कलश पर उसके चारों और इन्द्रादि लोकपालों और उनके शस्त्रोंकी अपनेअपने नाम-मन्त्रोंसे पूजा करे॥ ४५-५० ॥

इसके बाद वर्धनीमें विघ्नराज, गुरु और आत्माका पूजन करे। इन सबका पूजन करनेके अनन्तर सर्वोषधिसे लिप्त, धूपसे धूपित तथा पुष्प-दूर्वा आदिसे पूजित पवित्रकको दोनों अञ्जलियोंके बीच में रख ले और भगवान् शिवको सम्बोधित करते हुए कहे-‘सबके कारण तथा जड और चेतनके स्वामी परमेश्वर! पूजनकी समस्त विधियोंमें होनेवाली त्रुटिकी पूर्तिके लिये मैं आपको आमन्त्रित करता हूँ। आपसे अभीष्ट मनोरथकी प्राप्ति करानेवाली सिद्धि चाहता हूँ। आप अपनी आराधना करनेवाले इस उपासक के लिये उस सिद्धिका अनुमोदन कीजिये। शम्भो! आपको सदा और सब प्रकारसे मेरा नमस्कार है। आप मुझपर प्रसन्न होइये। देवेश्वर! आप देवी पार्वती तथा गणेश्वरोंके साथ आमन्त्रित हैं। मंत्रेश्वरों, लोकपालों तथा सेवकोंसहित आप पधारें। परमेंश्वर! मैं आपको सादर निमन्त्रित करता हूँ। आपकी आज्ञासे कल प्रात:काल पवित्रारोपण तथा तत्सम्बन्धि नियमका पालन करूंगा ।

इस प्रकार महादेवजीको आमन्त्रित करके रेचक प्राणायामके द्वारा अमृतीकरणकी क्रिया सम्पादित करते हुये शिवान्त मूल-मन्त्रका उच्चारण एवं जप करके उसे भगवान शिव को समर्पित करे। जप, स्तुति एवं प्रणाम करके भगवान् शंकरसे अपनी त्रुटियोंके लिये क्षमा-प्रार्थना करे।

तत्पश्चात् चरुके तृतीय अंशका होम करे। उसे शिवस्वरूप अग्निको, दिग्वासियोंको, दिशाओंके अधिपतियोंको, भूतगणोंको, मातृगणोंको, एकादश रुद्रोंकों तथा क्षेत्रपाल आदिकों उनके नाममन्त्रके साथ ‘नम: स्वाहा’ बोलकर आहुतिके रूपमें अर्पित करे।

इसके बाद इन सबका चतुर्थ्यन्त नाम बोलकर ‘अयं बलिः’ कहते हुए बलि समर्पित करे।

पूर्वादि दिशाओंमें दिग्गजों आदिके साथ दिक्पालोको, क्षेत्रपालको तथा अग्निको भी बलि समर्पित करनी चाहिये।

बलिके पश्चात् आचमन करके विधिच्छिद्रपूरक* होम करे। फिर पूर्णाहुति और व्याह्रति-होम करके अग्निदेवकों अवरुद्ध करे।

तदनन्तर ‘ॐ अग्नये स्वाहा।’ ‘ॐ सोमाय सवाहा।’ ‘ॐ अग्नीषोमाभ्यां क्वाहा।’ ‘ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा।’-इन चार मन्त्रोंसे चार आहुतियाँ देकर भावी कार्यकी योजना करे।

अग्निकुण्डमें पूजित हुए आराध्यदेव भगवान् शिवकी पूजामण्डलमें पूजित कलशस्थ शिवमें नाड़ीसंधानरूप विधिसे संयोजित करें। फिर बाँस आदिके पात्रमें ‘फट्’ और ‘नमः’ के उच्चारणपूर्वक अस्त्रन्यास और हृदयन्यास करके उसमें सब पवित्रकोंकों रख दे। इसके बाद शान्तिकलात्मने नमः, विधाकलात्माने नमः, निवृत्तिकलात्मने नमः, प्रतिष्ठाकलात्मने नमः, शान्त्यतीतकलात्मने नमः –  इन कलामन्त्रोंद्वारा उन्हें अभिमन्त्रित करे । फिर प्रणवमन्त्र अथवा मूल-मन्त्रसे षडअंगन्यास करके ‘नमः’ ‘हूं’ एवं फट का उच्चारण करके, उनमें क्रमशः ह्रदय, कवच एवं अस्त्रकी योजना करे ॥ ६१-६४ ॥

यह सब करके उन पवित्रकोंको सूत्रोंसे आवेष्टित करे । फिर “नमः’, ,’स्वाहा’, ‘वषट्’, ‘हुं’, ‘वौषट्, तथा ‘फट्” इन अङ्ग-सम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा उन सबका पूजन करके उनकी रक्षाके लिये भक्तिभावसे नम्र हो, उन्हें जगदीश्वर शिवकी समर्पित करे। इसके बाद पुष्प, धूप आदिसे पूजित सिद्धान्त-ग्रन्थपर पवित्रक अर्पित करके गुरुके चरणोंके समीप जाकर उन्हें भक्तिपूर्वक पवित्रक दे। फिर वहाँसे बाहर आकर आचमन करे और गोबरसे लिपे-पुते मण्डलत्रयमें क्रमशः पञ्चगव्य, चरुः एवं दन्तधावनका पूजन करे॥६५-६७॥

तदनन्तर भलीभाँति आचमन करके मन्त्रसे आवृत एवं सुरक्षित साधक रात्रिमें संगीतकी व्यवस्था करके जागरण करे। आधी रातके बाद भोगसामग्रीकी इच्छ रखनेवाला पुरुष मन-ही-मन भगवान् शंकरका स्मरण करता हुआ कुशकी चटाईपर सोये। मोक्षकी इच्छा रखनेवाला पुरुष भी इसी केवल भस्मकीं शय्यपर सोवे ॥६८-६९ ॥

अध्याय – ७९ पवित्रारोपणकी विधि

महादेवजी कहते हैं स्कन्द! तदनन्तर प्रात:काल उठकर स्नान करके एकाग्रचित्त हो। संध्या-पूजनका नियम पूर्ण करके मन्त्र-साधक यक्षमण्डपमें प्रवेश करें और जिनका विसर्जन नहीं किया गया है, ऐसे इष्टदेव भगवान् शिवसे पूर्वोत पवित्रकोंको लेकर ईशानकोणमें बने हुए मण्डलके भीतर किसी शुद्धपात्रमें रखें।

तत्पश्चात् देवेश्वर शिवका विसर्जन करके, उनपर चढ़ी हुई निर्माल्य–सामग्रीको हटाकर, पूर्ववत् शुद्ध भूमिपर दो बार आह्रिक कर्म करे।

फिर सूर्य, द्वारपाल, दिक्पाल, कलश तथा भगवान् ईशान (शिव)-का शिवाग्निमें विशेष विस्तारपूर्वक नैमित्तिकी पूजा करे। फिर मन्त्र-तर्पण और अस्त्र-मन्त्रद्वारा एक सौ आठ बार प्रायश्चित-होम करके धीरे से मन्त्र बोलकर पूर्णाहुति कर दे ॥ १-५ ॥

इसके बाद सूर्यदेवको पवित्रक देकर आचमन करे। फिर द्वारपाल आदिको, दिक्पालोको, कलशको और वर्धनी आदिपर भी पवित्रक अर्पण करे। बैठकर आत्मा, गण, गुरु तथा अग्निको पवित्रक अर्पित करे। उस समय भगवान् शिवसे इस प्रकार प्रार्थना करें-

देव! आप कालस्वरूप हैं। आपने मेंरे कार्यके विषयमें जैसी आज्ञा दी थी, उसका ठीक-ठीक पालन न करके मैंने जो विहित कर्मको क्लेशयुक्त (त्रुटियोंसे पूर्ण) कर दिया है अथवा आवश्यक विधिको छोड़ दिया है या प्रकटको गुप्त कर दिया है, वह मेरा किया हुआ क्लिष्ट और संस्कारशून्य कर्म इस पवित्रारोपणकी विधिसे सर्वथा अक्लिष्ट (परिपूर्ण) हो जाय।

शम्भो! आप अपनी ही इच्छासे मेंरे इस पवित्रकद्वारा सम्पूर्ण रूपसे प्रसन्न होकर मेरे नियमको पूर्ण कीजिये। ‘ॐ पूरय पूरय मखव्रतं नियमेश्वराय स्वाहा’-इस मन्त्रका उच्चारण करे॥६-१० ॥

‘ॐपद्मयोनिपालितात्मतत्वेश्वराय प्रकृतिलयाय ॐ नम: शिवाय।’-इस मन्त्रका उच्चारण करके पवित्रकद्वारा भगवान् शिवकी पूजा करे।

“विष्णुकारणपालितविद्यातत्त्वेश्वराय ॐ नमः शिवाय।’-इस मन्त्रका उच्चारण करके पवित्रक चढ़ावे ।

‘रुद्रकारणपालितशिवतत्वेश्वराय शिवाय ॐ नम: शिवाय।’ इस मन्त्रका उच्चारण करके भगवान् शिवको पवित्रक निवेदन करे।

उत्तम व्रतका पाल्नन करनेवाले स्कन्द ! ‘सर्वकारणपालाय शिवाय लयाय ॐ नम: शिवाय।’-इस मन्त्रका उच्चारण करके भगवान शिवको गंगावतारक नामक सूत्र समर्पित करे||११-१४ ॥

मुमुक्षु पुरुषोंके लिये आत्मतत्त्व, विद्यातत्त्व और शिवतत्त्वके क्रमसे मन्त्रोच्चारणपूर्वक पवित्रक अर्पित करनेका विधान है तथा भोगाभिलाषी पुरुष क्रमशः शिवतत्त्व, विद्यातत्त्व और आत्मतत्त्वके अधिपति शिवको मन्त्रोच्चारणपूर्वक पवित्रक अर्पित करे, उसके लिये ऐसा ही विधान हैं।

मुमुक्षु पुरुष स्वाहान्त मन्त्रका उच्चारण करे और भोगाभिलाषी पुरुष नमोऽन्त मन्त्रका।

‘स्वाहान्त’ मन्त्रका स्वरुप इस प्रकार है –

ॐ हां आत्मतत्वाधिपतये शिवाय स्वाहा।

हां विद्यातत्वाधिपतये शिवाय स्वाहा।

हां शिचतत्चाधिपतये शिवाय स्वाहा।

हां सर्वतत्वाधिपतये शिवाय स्वाहा।

(“स्वाहा’ की जगह ‘नम:’ पद रख देनेसे ये ही मन्त्र भोंगाभिलावियोंके उपयोग में आनेवाले हो जाते हैं; परंतु इनका क्रम ऊपर बताये अनुसार ही होना चाहिये।)

गङ्गावतारक अर्पण करनेके पश्चात् हाथ जोड़कर भगवान् शिवसे इस प्रकार प्रार्थना करे-‘परमेश्वर! आप ही समस्त प्राणियोंकी गति हैं। आप ही चराचर जगतकी स्थितिके हेतुभूत (अथवा लयके आश्रय) हैं। आप सम्पूर्ण भूतोंके भीतर विचरते हुए उनके साक्षीरूपसे अवस्थित हैं। मन, वाणी और क्रियाद्वारा आपके सिवा दूसरी कोई मेरी गति नहीं है। महेश्वर! मैंने प्रतिदिन आपके पूजनमें जो मन्त्रहीन, क्रियाहीन, द्रव्यहीन तथा जप, होम और अर्चनसे हीन कर्म किया है, जो आवश्यक कर्म नहीं किया है तथा जो शुद्ध वाक्यसे रहित कर्म किया है, वह सब आप पूर्ण करें। परमेश्वर! आप परम पवित्र हैं। आपको अर्पित किया हुआ यह पवित्रक समस्त पापोंका नाश करनेवाला है। आपने सर्वत्र व्याप्त होकर इस समस्त चराचर जगतको पवित्र कर रखा है। देव! मैंने व्याकुलताके कारण अथवा अङ्गवैकल्य-दोषके कारण जिस व्रतको खण्डित कर दिया है, वह सब आपकी आज्ञारूप सूत्रमें गुंथकर एक-अखण्ड ही जाय’॥ १५-२२३॥

तत्पश्चात् जप निवेदन करके उपासक भक्तिपूर्वक भगवानकी स्तुति करे और उन्हें नमस्कार करके, गुरुकी आज्ञाके अनुसार चार मास, तीन मास, तीन दिन अथवा एक दिनके लिये ही नियम ग्रहण करे। भगवान् शिवको प्रणाम करके उनसे त्रुटियोंके लिये क्षमा माँगकर व्रती पुरुष कुण्डके समीप जाय और अग्निमें विराजमान भगवान् शिवके लिये भी चार पवित्रक अर्पित करके पुष्प, धूप और अक्षत आदिसे उनकी पूजा करे। इसके बाद रुद्र आदिकी अन्तर्बलि एवं पवित्रक निवेदन करें ॥ २३-२६ ॥

तत्पश्चात् पूजा-मण्डपमें प्रवेश करके भगवान् शिवका स्तवन करते हुए प्रणामपूर्वक क्षमाप्रार्थना करे। प्रायश्चित-होम करके खीरकी आहुति दे। मन्दस्वरमें मन्त्र बोलकर पूर्णाहुति करके अग्निमें विराजमान शिवका विसजन करे।

फिर व्याहृति—होम करके, निष्ठुराद्वारा अग्निको निरुद्ध करे और अग्नि आदिकी निम्नोक्त मन्त्रोंसे चार आहुति दे। तत्पश्चात् दिक्पालोंको पवित्र एवं बाह्य बलि अर्पित करे। इसके बाद सिद्धान्तग्रन्थपर उसके बराबरका पवित्रक अर्पित करे।

पूर्वोक्त व्याहृति-होमके मन्त्र इस प्रकार हैं –

हां भू: स्वाहा ।

हां भुवः स्वाहा ।

हां स्वः स्वाहा ।

हां भूर्भुवः स्वः स्वाहा २७३१

इस प्रकार व्याह्मतियोंद्वारा होम करके अग्नि आदिके लिये चार आहुतियाँ देकर दूसरा कार्य करे। उन चार आहुतियोंके मन्त्र इस प्रकार हैं

हां अग्नये स्वाहा ।

हां सोमाय स्वाहा ।

हां अग्निषोमाभ्यां स्वाहा ।

हां अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा।

फिर गुरुकी शिवके समान वस्त्राभूषण आदि विस्तृत सामग्रीसे पूजा करे। जिसके ऊपर गुरुदेव पूर्णरूपसे संतुष्ट होते हैं, उस साधकका सारा वार्मिक कर्मकाण्ड आदि सफल हो जाता हैं-ऐसा परमेश्वरका कथन है।

इस प्रकार गुरुका पूजन करके उन्हें हृदयतक लटकता हुआ पवित्रक धारण करावें और ब्राह्मण आदिको भोजन कराकर भक्तिपूर्वक उन्हें वस्त्र आदि दे। उस समय यह प्रार्थना करे कि ‘देवेश्वर भगवान् सदाशिव इस दानसे मुझपर प्रसन्न हों।’

फिर प्रातःकाल भक्तिपूर्वक स्नान आदि करके भगवान् शंकरके श्रीविग्रह से पवित्रकोंकों समेट ले और आठ फूलोंसे उनकी पूजा करके उनका विसर्जन कर दे। फिर पहलेकी तरह विस्तारपूर्वक नित्य-नैमितिक पूजन करके पवित्रक चढ़ाकर प्रणाम करनेके पश्चात् अग्निमें शिवका पूजन करे ॥३२-३८ ॥

तदनन्तर अस्त्र-मन्त्रसे प्रायश्चित्त-होम् करके पूर्णाहुति दे।

भोग-सामग्रीकी इच्छावाले पुरुषको चाहियें कि वह भगवान् शिवकी अपना सारा कर्म समर्पित करे और कहे-‘प्रभो! आपकी कृपासे मेरा यह कर्म मनोवाञ्छित फलका साधक हो।’

मोक्षकी कामना रखनेवाला पुरुष भगवान् शिवसे इस प्रकार प्रार्थना करें-“नाथ! यह कर्म मेरे लिये बन्धनकारक न हों।’ इस तरह प्रार्थना करके अग्निमें स्थित शिवकों नाड़ीबोगके द्वारा अन्तरात्मामें स्थित शिवमें संयोजित करे। फिर अणुसमूहका हृदयमें न्यास करके अग्निदेवका विसर्जन कर दे और आचमन करके पूजामण्डपके भीतर प्रविष्ट हों, कलश के जलकी सब ओर छिड़कते हुए भगवान् शिवसे संयुक्त करके कहें-‘प्रभो! मेरी त्रुटियोंको क्षमा करो।’ इसके बाद विसर्जन कर दे॥ ३९-४२ ॥

तदनन्तर लोकपाल आदिका विसर्जन करके भगवान् शिवकी प्रतिमासे पवित्रक लेकर चण्डेश्वरकी प्रतिमामें उनकी भी पूजा करके उन्हें वह पवित्रक अर्पित करे और शिवनिर्माल्य आदि सारी सामग्री पवित्रक के साथ ही उन्हें समर्पित कर दें। अथवा वेदीपर पूर्ववत् विधिपूर्वक चण्डेश्वरकी पूजा करे और उनसे प्रार्थनापूर्वक कहे-‘चण्डनाथ! मैंने जो कुछ वार्षिक कर्म किया है, वह यदि न्यूनता या अधिकताके दोषसे युक्त है, तो आपकी आज्ञासे वह दोष दूर होकर मेरा कर्म साङ्गोपाङ्ग परिपूर्ण हो जाय।’ इस प्रकार प्रार्थना करके देवेश्वर चण्डको नमस्कार करे और स्तुतिके पश्चात् उनका विसर्जन कर दे।

निर्माल्यका त्याग करके, शुद्ध हो भगवान् शिवको नहलाकर उनका पूजन करे। घरसे पाँच योजन दूर रहनेपर भी गुरुके समीप पवित्रारोहणकर्मका सम्पादन करना चाहिये ॥४३-४६ ॥

 

उन्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७९॥

अध्याय – ८० दमनकारोपण की विधि

भगवान् महेश्वर कहते हैंस्कन्द! अब मैं दमनकारोपणकी विधिका वर्णन करूंगा। इसमें भी सब कार्य पूर्ववत् करने चाहिये।

प्राचीन कालमें भगवान शंकरके कौपसे भैरवकी उत्पत्ति हुई। भैरवने देवताओंका दमन आरम्भ किया। यह देख त्रिपुरारि शिवने रुष्ट होकर भैरवको शाप दिया-“तुम वृक्ष हो जाओ।” फिर भैरवके क्षमा माँगनेपर प्रसन्न हो भगवान् शिव बोले—’जो मनुष्य तुम्हारे पत्रोंद्वारा पूजन करेंगे, अथवा तुम्हारी पूजा करेंगे, उनका मनोवाछित फल पूरा होगा। उनकी इच्छा किसी तरह अपूर्ण नहीं रहेगी ‘

सप्तमी या त्रयोदशी तिथिको मन्त्रवेत्ता पुरुष संहिता-मन्त्रोंसे दमनक-वृक्षकी पूजा करके उसे भगवान् शंकरके वाक्यका स्मरण दिलाते हुए जगावे- ॥ १-३६ ॥

हरप्रसादसम्भूत त्वमत्र संनिधीभव।

शिवकार्यं समुदिदश्य नेतव्योऽसि शिवाज्ञया

‘दमनक! तुम भगवान् शंकरके कृपाप्रसादसे प्रकट हुए हो। तुम यहाँ संनिहित हो जाओ। भगवान् शिवकी आज्ञासे उन्हींके कार्यके उद्देश्यसे मुझे तुम्हें अपने साथ ले जाना है।

‘घरपर भी उस वृक्षको आमन्त्रित करे और सायंकालमें अधिवासनकर्म सम्पन्न करे।

विधिपूर्वक सूर्य, शंकर और अग्निदेवकी पूजा करके, इष्टदेवताके पश्छिम भागमें मिट्टीके साथ संयुक्त करके उस वृक्षकी जड़को स्थापित करे। वामदेव-मन्त्र अथवा शिरोमन्त्रसे उस वृक्षकी नाल तथा आँवलेका फल उत्तर दिशामें रखे। उसके टूटे हुए पत्रको दक्षिणमें तथा पुष्प और धावनको पूर्वमें स्थापित करे॥ ४-७॥

ईशानकोणमें एक दोंनेमें उसके फल और मूलको रखकर भगवान् शिवका पूजन करे। उस वृक्षकी जड़, नाल, पत्र, फूल और फल-इन पाँचौं अङ्गोको अञ्जलिमें लेकर आमन्त्रित करते हुए सिरपर रखे और इस प्रकार कहे’देवेश्वर! मैं आज आपको निमन्त्रित करता हूँ। कल प्रात:काल मुझे तपस्याका लाभ लेना है-की हुई उपासनाकी सफल बनाना है। वह सब कार्य आपकी आज्ञासे पूर्ण हो।’

तत्पश्चात् पात्रमें रखे हुए शेष पवित्रककों मूल-मन्त्रसे ढककर प्रातःकाल स्नान करनेके पश्चातू जगदीश्वर शिवका गन्ध-पुष्प आदिसे पूजन करे॥ ८-१० ॥

तदनन्तर नित्य-नैमितिक कर्म करके दमनकसे पूजन करे। शेष दमनकको अञ्जलिमें लेकर

हां आत्मतत्वाधिपतये शिवाय स्वाहा।‘,

हां विद्यातत्वाधिपतये शिवाय स्वाहा।‘,

हां शिवतत्वाधिपतये शिवाय क्वाहा।‘,

हां सर्वतत्वाधिपतये शिवाय स्वाहा।

-इन चार मन्त्रोंद्वारा दमनक चढ़ाकर शिवका पूजन करना चाहिये।

तदनन्तर दमनककी चौथी अञ्जलि लेकर

हौं महेश्वराय खं पूरय पूरय शूलपाणये नम:

‘-इस मन्त्रके उच्चारणपूर्वक भगवान् शिवकों अर्पित करे ॥ ११-१३ ॥

इस प्रकार शिव और अग्निकी पूजा करके गुरुकी विशेषरूपसे अर्चना करते हुये प्रार्थना करे- भगवन्! मैंने दमनकद्वारा पूजनकर्ममें जो न्यूनता या अधिकता कर दी है, वह सब आपकी कृपासे परिपूर्ण हो जाय।’ इस रीतिसे दमनकारोपणकर्मका सम्पादन करके मनुष्य चैत्रमासजनित सम्पूर्ण फलको पाता है और अन्तमें स्वर्गलोकको जाता है। १४-१५ ॥

अध्याय – ८१ समयाचार-दीक्षाकी विधि

भगवान् महेश्वर कहते हैंस्कन्द! अब मैं भोग और मोक्षकी सिद्धिके लिये दीक्षाकी विधि बताऊँगा, जो समस्त पापोंका नाश करनेवाली है तथा जिसके द्वारा मल और माया आदि पाशोंका निवारण किया जाता है। जिससे शिष्यमें ज्ञानकी उत्पत्ति करायी जाती है, उसका नाम ‘दीक्षा’ है।

वह भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है। पशु (पाश-बद्ध जीव) शुद्ध विद्याद्वारा अनुग्राह्य कहा गया है। वह तीन प्रकारका होता है-पहला विज्ञानाकल, दूसरा प्रलयाकल तथा तीसरा सकल ॥ १३ ॥

उनमेंसे प्रथम अर्थात् ‘विज्ञानाकल’ पशु केवल मलरूप पाशसे युक्त होता है, दूसरा अर्थात् ‘प्रलयाकल’ पशु मल और कर्म-इन दो पाशोंसे आबद्ध होता है तथा तीसरा अर्थात् ‘सकल’ पशु कला आदिसे लेकर भूमिपर्यन्त सारे तत्वसमुहोंसे बन्धा होता है (अर्थात वह् मल, माया तथा कर्म – त्रिविध पाशोंसे बंधा हुआ बताया गया है )॥ इन पाशोंसे मुक्त होनेके लिये जीवको आचार्यसे मन्त्राराधनकी दीक्षा लेनी होती हैं।

वह दीक्षा दो प्रकारकी मानीं गयी हैंएकनिराधाराऔर दूसरीसाधारा

उपर्युक्त तीन पशुओंमेंसे विज्ञानाकल और प्रलयाकल-इन दो पशुओं के लिये निराधारा दीक्षा बतायी गयी हैं और सकल पशुके लिये साधारा।

आचार्यकी अपेक्षा न रखकर शम्भुद्वारा ही तीव्र शक्तिपात करके जो दीक्षा दी जाती है, वह ‘निराधारा’ कही गयी है।

आचार्यके शरीर में स्थित होकर भगवान् शङ्कर अपनी मन्दा, तीव्रा आदि भेदवाली शक्ति से जिस दीक्षाका सम्पादन करते हैं, वह “साधारा’ कहलातीं है।

यह साधारा दीक्षा सबीजा, निर्बीजा, साधिकण और अनधिकाराइन भेदोंके द्वारा जिस तरह चार” प्रकार की हों जाती है, वह बताया जाता है।॥ ४-७ ।।

समर्थ पुरुषोंको जो समयाचारसे युक्त दीक्षा दी जाती हैं, उसे “सबीजा’ कहते हैं और असमर्थ पुरुषोंकी दी जानेवाली समयाचारशून्य दीक्षा ‘निर्बीजा’ कही गयी हैं॥८ ई॥

जिस दीक्षासे साधक और आचार्यकों नित्यनैमितिक एवं काम्य कर्मोमें अधिकार प्राप्त होता हैं, वह “साधिकारा दीक्षा’ है।

‘निबजा दीक्षा’ में दीक्षित होनेवाले लोगोंकों तथा समयाचारकों दीक्षा लेनेवाले साधारण शिष्य एवं पुत्रकसंज्ञक शिष्यविशेषको नित्यकर्म-मात्रके अधिकारी होनेके कारण जो दीक्षा दी जाती हैं, वह ‘निरधिकारा दीक्षा’ कहलाती है।

साधारा और निराधारा भेदसे जो दीक्षाके दो भेद बताये गये हैं, उनमेंसे प्रत्येकके निम्नाङ्कित दो रूप (या भेद) और होते हैं-एक तो ‘क्रियावती’ कही गयी है, जिसमें कर्मकाण्डकी विधिसे कुण्ड और मण्डल की स्थापना एवं पूजा की जाती है। दूसरी ‘ज्ञानवती दीक्षा’ हैं, जों बाह्य-सामग्रीसे नहीं, मानसिक व्यापारमात्रसे साध्य है ॥९-१२ ॥ इस प्रकार अधिकारप्राप्त आचार्यद्वारा दीक्षाकर्मका सम्पादन होता है।*

स्कन्द! गुरुको चाहिये कि वह नित्यकर्मका विधिवत् अनुष्ठान करके शिष्यका दीक्षाकर्म सम्पन्न करे। प्रणवके जपपूर्वक गुरु अपने कर-कमलमें अर्ध्य-जल ले द्वारपालोंका पूजन करे। फिर विघ्नोंका निवारण करनेके अनन्तर, द्वार-देहलीपर अस्त्रन्यास करके अपने आसनपर बैठे। शास्त्रोतक्त विधिसे भूतशुद्धि एवं अन्तर्याग करे।

तिल, चावल, सरसों, कुश, दूर्वाङ्कुर, जौ, दूध और जल-इन सबको एकत्र करके विशेषार्ध्य बनावे।

उसके जलसे समस्त द्रव्यों (पूजन-सामग्रियों)-की शुद्धि करे। फिर तिलक-सम्बन्धी अपने सम्प्रदायके मन्त्रसे भालदेशमें तिलक लगावे। फिर पूर्ववत् पूजन, मन्त्र-शोधन तथा पञ्चगव्य-प्राशन आदि कार्य करने चाहिये। क्रमशः लावा, चन्दन, सरसों, भस्म, दुर्वा, अक्षत, कुश और अन्तमें पुन: शुद्ध लावा-ये सब ‘विकिर’ (बिखरनेयोग्य द्रव्य) कहे गये हैं।

इन सब वस्तुओंको एकत्र करके सात बार अस्त्रमन्त्रसे अभिमन्त्रित करे। अस्त्र-मन्त्रद्वारा अभिमन्त्रित जलसे इनका प्रोक्षण करके फिर कवच-मन्त्र (हुम)-से अवगुण्ठन करके यह भावना करे कि ये विध्नसमूहका निवारण करनेवाले नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र हैं।॥ १३-१८ ॥

तदनन्तर प्रादेशमात्र लंबे कुशके छत्तीस दलोंसे वेणीरूप बोधमय उत्तम खड्ग बनाकर उसे सात बार जपते हुय शिव-मन्त्रसे अभिमन्त्रित करे ।

फ़िर उसे शिवस्वरुप मानकर भावनाद्वारा अपने हृदयमें स्थापित करे। साथ ही जगदाधार भगवान् शिवकी जो झाँकी अपनेको अभीष्ट हो, उसी रूममें उनका ध्यान-चिन्तन करके निष्कल परमात्मा शिवका अपने भीतर न्यास करे। तत्पश्चात् यह भावना करे कि ‘मैं साक्षात् शिव हूँ।’ फिर सिरपर (मूल-मन्त्रसे अभिमन्त्रित) श्वेत पगड़ी रखकर अपने शरीरको (गन्ध, पुष्प एवं आभूषणोंसे) अलंकृत करे।

तत्पश्चात् गुरु अपने दाहिने हाथपर सुगन्ध-द्रव्य अथवा कुङ्कुमद्वारा मण्डलका निर्माण करे। फिर उसपर विधिपूर्वक भगवान् शिवकी पूजा करे। इससे वह ‘शिवहस्त’ हो जाता है।

उस तेजस्वी शिवहस्तकों शिव-मन्त्रसे अपने मस्तक पर रखकर यह दृढ़ भावना करे कि ‘मैं शिवसे अभिन्न और सबका कर्ता साक्षात् परमात्मा शिव ही हूँ।’ जब गुरु ऐसी भावना कर ले, तब वह यज्ञमण्डपमें कर्मोंका साक्षी, कलशमें यज्ञका रक्षक, अग्निमें होमका अधिष्ठान, शिष्यमें उसके अज्ञानमय पाशका उच्छेद करनेवाला तथा अन्तरात्मामें अनुग्रहीता-इन पाँच आकारोंमें अभिव्यक्त ईश्वररूप हो जाता है। गुरु इस भावको अत्यन्त दृढ़तर कर ले कि ‘वह परमेश्वर मै ही हूं’ ॥ १९-२५॥

तदनन्तर ज्ञानरूपी खड्ग हाथमें लिये गुरु यज्ञमण्डपके नैऋत्यकोणवाले भागमें उत्तराभिमुख स्थित हो, अर्ध्य, जल और पञ्चगव्यसे उस मण्डपका प्रोक्षण करे।

ईक्षण आदि चतुष्पथान्त संस्कारोंद्वारा उसका संस्कार करे। फिर यज्ञमण्डपमें बिखरनेयोग्य पूर्वोक्त वस्तुओंको बिखेरकर कुशकी कुँचीसे उन सबको बटोर ले और उन्हें ईशानकोणमें स्थापित वार्धानी (जलपान)-में आसनके लिये रख दे। नैऋत्यकोणमें वास्तुदेवताओंका और पश्चिम द्वारपर लक्ष्मीका पूजन करे। साथ ही यह भावना करे कि ‘वे मण्डपरूपिणी लक्ष्मी देवी रत्नोंके भण्डारसे यज्ञमण्डपको परिपूर्ण कर रही हैं।’ इस प्रकार ध्यान एवं आवाहन कर हृदयमन्त्र “नमः” के द्वारा अर्थात् ‘लक्ष्म्यै नमः ।।’-इस मन्त्रसे उनकी पूजा करनी चाहिये।

इसके बाद ईशानकोणमें सप्तधान्यपर स्थापित किये हुए वस्त्रवेष्टित पञ्चरत्नयुक्त एवं जलसे परिपूर्ण पश्चिमाभिमुख कलशपर भगवान् शंकरका पूजन करे। फिर उस कलशके दक्षिण भाग में सिंहपर विराजमान पश्चिमाभिमुखी शक्ति खड्गरूपिणी वार्धानीका पूजन करे॥२६-३० ॥

तदनन्तर पूर्व आदि दिशाओंमें इन्द्र आदि दिक्पालोंका और इसके अन्तमें विष्णुभगवानका पूजन करे। ये सब-के-सब प्रणवमय आसनपर विराजमान हैं तथा अपने-अपने वाहनों और आयुधोंसे संयुक्त हैं-ऐसी भावना करके उनके नामोंके अन्तमें ‘नमः’ पद जोड़कर उन्हीसे उनकी पूजा करे। यथा-‘इन्द्राय नम:।’, ‘विष्णवे नम:।’ इत्यादि।

पहले पूर्वोक्त वार्धानीको भलीभाँति हाथमें ले, उसे कलशके सामनेकी ओर से ले जाकर प्रदक्षिणक्रमसे उसके चारों ओर घुमावे और उससे जलकी अविच्छिन्न धारा गिराता रहें। साथ ही मूलमन्त्रका उच्चारण करते हुए लोकपालोंको भगवान् शिवकी निम्नाङ्कित आज्ञा सुनावे— ‘लोकपालगण! आपलोग यथाशकि सावधानीके साथ इस यज्ञकी रक्षा करें।’ यों आदेश दे, नीचे एक कलश रखकर उसके ऊपर उस वार्धानीकों स्थापित कर दे।

तत्पश्चात् सुस्थिर आसनवाले कलशपर भगवान् शंकरका साङ्ग पूजन करे। इसके बाद कला आदि षडध्वाका न्यास करके शोधन करे और वार्धानीमें अस्त्रकी पूजा करे॥ ३१-३४॥

पूजाके मन्त्र इस प्रकार हैं – ‘ॐ हः अस्त्रासनाया हूं फट् नम:।’,’ॐ ॐ अस्त्रमूर्तये हूं फट् नमः ॥’,’ॐ हूं फट् पाशुपतास्त्राय नमः ।’, ‘ॐ ॐ हृदयाय हूं फट् नम:।’, ‘ॐ श्रीं शिरसे हूं फट् नम:।’,’ॐ यं शिखायै हूं फट नम:।’ ‘ॐ शुं कवचाय हूं फट् नम:।’,’ॐ हूं फट अस्त्राय हूं फद नमः ।’

इसके बाद पाशुपतास्त्रके स्वरूपका इस प्रकार चिन्तन करे-‘उनके चार मुख हैं। प्रत्येक मुखमें दाढ़ें हैं। उनके हाथोंमें शक्ति, मुद्गर, खड्ग और त्रिशूल हैं तथा उनकी प्रभा करोड़ों सूर्योंके समान है।’ इस प्रकार ध्यान करके लिङ्गमुद्राके प्रदर्शनद्वारा भगलिङ्गका समायोग करे।

हृदय-मन्त्र (नम:)-का उच्चारण करतें हुए अंगुष्ठसे कलशका स्पर्श करे और मुट्ठीसे खडगरूपिणी वार्धानीका।

भोग और मोक्षकों सिद्धिके लिये पहले मुट्ठीसे वार्धानीका ही स्पर्श करना चाहिये। फिर कलशके मुखभागकी रक्षाके लिये उसपर पूर्वोच्क ज्ञान-खड्ग समर्पित करे। साथ ही मूल-मन्त्रका एक सौ आठ बार जप करके वह जप भी कलश की निवेदन कर दें। उसके दशमांशका जप करके वार्धानीमें उसका अर्पण करे। तदनन्तर भगवानसे रक्षाके लिये प्रार्थना करे-‘सम्पूर्ण यज्ञोंको धारण करनेवाले भगवान् जगन्नाथ! बड़े यत्नसे इस यज्ञ-मन्दिरका निर्माण किया गया है? कृपया आप इसकी रक्षा करे इसके बाद वायव्यकोणमें प्रणवमय आसनपर विराजमान चार भुजाधारी गणेशजीका पूजन करे। तत्पश्चातू वैदीपर शिवका पूजन करके अर्ध्य हाथमें लिये साधक यज्ञकुण्डके पास जाय। वहाँ बैठकर मन्त्र-देवताकी तृप्तिके लिये बायें भागमें अर्ध्य, गन्ध और घृत आदिको तथा दाहिने भागमें समिधा, कुशा एवं तिल आदिको रखकर कुण्ड, अग्नि, स्रुक तथा घृत आदिका पूर्ववत् संस्कार करके, हृदयमें ऊर्ध्वमुख अग्निकी प्रधानताका चिन्तन करे तथा अग्निमें भगवान शिवका पूजन करे। फिर गुरु अपने शरीरमें, शिवकलशमें, मण्डपमें, अग्नि और शिष्यकी देहमें सृष्टीन्यासकी रीतिसे न्यासकर्मका सम्पादन करके अध्वाका विधिपूर्वक शोधन करनेके पश्चात्कुण्डकी लंबाईचौड़ाईके अनुसार ही अग्निदेवके मुखकी लंबाईचौड़ाईका चिन्तन करके अग्निजिह्वाओंके नाममन्त्रके अन्तमें ‘नम:’ (एवं “स्वाहा’) बोलकर अभीष्ट वस्तुकी आहुतियाँ देते हुए अग्निदेवको तृप्त करे।

अग्निकी सात जिह्वाओंके सात बीज हैं। होम के लिये उनका परिचय दिया जाता है।॥ `४१-४५ ॥

रेफरहित अन्तिम दो वर्णोके सभी (अर्थात् सात) अक्षर यदि रकार और छठे स्वर (ऊ)- पर आरूढ़ हों और उनके भी ऊपर चन्द्रबिन्दुरूप शिखा हो तो वे ही अग्निकी सात जिह्वाओंके क्रमश: सात बीज-मन्त्र हैं।

अग्निकी सात जिह्वाओंके नाम इस प्रकार हैं-हिरण्या, कनका, रक्ता, कृष्णा, सुप्रभा, अतिरिक्ता तथा बहुरूपा । ईशान, पूर्व, अग्नि, नैर्ऋत्य, पश्चिम, वायव्य तथा मध्य दिशामें क्रमशः इनके मुख हैं। (अर्थात् एक त्रिभुजके ऊपर दूसरा त्रिभुज बनानेसे जो छः कोण बनते हैं, वे क्रमश: ईशान, पूर्व अग्नि, नैऋत्य, पश्चिम तथा वायव्यकोणमें स्थित होते हैं। अग्निकी हिरण्या आदि छ: जिह्वाओंकों इन्हीं छ: कोणोंमें स्थापित करे तथा अन्तिम जिह्वा ‘बहुरूपा’ को मध्यमें)* ॥ ४६-४७॥

शान्तिक एवं पौष्टिक कर्ममें खीर आदि मधुर पदार्थोंद्वारा होम करे। परंतु अभिचार कर्ममें सरसोंकी खली, सत्तू, जौकी काँजी, नमक, राई, मट्ठा, कड़वा तेल. काँटे तथा टेढ़ी-मेढ़ी समिधाओंद्वारा क्रोधपूर्वक भाष्याणु (भाष्यमन्त्र)- से हवन करे।

कदम्बकी कलिकाओंद्वारा होम करनेसे निश्चय ही यभिणी सिद्ध हो जाती हैं।

वशीकरण और आकर्षणकी सिद्धिके लिये बन्धूक (दुपहरिया) और पलाशके फूलोंका हवन करना चाहिये।

राज्यलाभके लिये बिल्वफलका और लक्ष्मीकी प्राप्तिके लिये पाटल (पाड़र) एवं चम्पाके फूलोका होम करे।

चक्रवर्ती सम्राट्का पद पानेके लिए कमलोंका तथा संपत्तिके लिए भक्ष्य-भोज्य पदार्थोंका होम करे।

दूर्वाका हवन किया जाय तो उससे व्याधियोंका नाश होता है।

समस्त जीवोंको वशमें करनेके लिये विद्वान् पुरुष प्रियङ्ग तथा कदलीके पुष्पोंका हवन करे। आमके पतेका होम ज्वरका नाशक होता है।॥ ४८-५२॥

मृत्युज्जय देवता या मन्त्रका उपासक मृत्युविजयी होता है। तिलका होम करनेसे अभ्युदयकी प्राप्ति होती है। रुद्रशान्ति समस्त दोषोंकों शान्ति करनेवालीं होती हैं। वे अब प्रस्तुत प्रसंगको पुन: प्रारम्भ करते है एक सौ आठ आहुतियोंसे मूलका और उसके दशांश आहुतियोसे अङ्गोका तर्पण करे। यह हवन अथवा तर्पण मूलमन्त्रसे ही करना चाहिये। फिर पूर्ववत् पूर्णाहुति दे।

शिष्योंका दीक्षामें प्रवेश करानेके लिये प्रत्येक शिष्यके निमित्त मूलमन्त्रका सौ बार जप करना चाहिये। साथ ही दुर्निमितोंका निवारण तथा शुभ निमितोंकी सिद्धिके लिये मूलमन्त्रसे पूर्ववत् दो सौ आहुतियाँ देनी चाहिये।

पहले बताये हुए जो अस्त्र-सम्बन्धी आठ मन्त्र हैं, उनके आदिमें मूल और अन्तमें ‘स्वाहा’ जोड़कर पाठ करते हुए एक-एक बार तर्पण करे। मूल-मन्त्रमेंजों बीज हों, उन्हें ‘शिखा’ (वषट्)- से सम्पुटित करके अन्तमें ‘हूं फट्’ जोड़कर जप करे तो उससे मन्त्रका दीपन होता है। ‘ॐ हूं शिवाय स्वाहा।” इत्यादि मन्त्रोंसे तर्पण किया जाता है। इसी प्रकार ‘ॐ ॐ शिवाय हूं फट्।’ इत्यादि दीपन-मन्त्र हैं।॥ ५४-५७ ॥

तदनन्तर “शिव-मन्त्रसे ” अभिमन्त्रित जनसे धोयी हुई बटलोईको कवच-मन्त्रसे अवगुणठत करके उसमें रोलीं-चन्दन आदि लगा दे। फिर उसके गलेमें ‘हूं फट्’ मन्त्रसे अभिमन्त्रित उत्तम कुश और सूत्र बाँध दे। इससे चरुकी सिद्धि होती है। फिर धर्म आदि चार पायोंसे युक्त चौंकी आदिका आसन देकर उसके ऊपर बने हुए अर्धचन्द्राकार मण्डलमें ठस बटलोईको रखे तथा उसे आराध्यदेवताकी मूर्ति मानकर उसके ऊपर भावात्मक पुष्पोंसे भगवान् शिवका पूजन करे। अथवा उस बटलोईके मुखको वस्त्रसे बाँध दे और उसपर ब्राह्रापुष्पोंसे शिवका पूजन करे । इसके बाद पश्चिमाभिमुख रखे हुए चूल्हेको देखभालकर शुद्ध करके उसमें अहंकार-बीजका न्यास करे। तत्पश्चात् उसे कुण्डके दक्षिण भागमें रखे और यह भावना करे कि ‘इस चूल्हेका धर्माधर्ममय है।’ फिर उसकी शुद्धिके लिये उसके स्पर्शपूर्वक अस्त्र-मन्त्रका जप करे। इसके बाद अस्त्र-मन्त्र (फट्)-के जपसे अभिमन्त्रित गायके घीसे मार्जित हुई उस बटलोईको चूल्हे पर चठ्ठावे॥५८-६२ 

उसमें अस्त्र-मन्त्रसे शुद्ध किये हुए गोदुग्धको सौ बार प्रासाद—मन्त्र (हौं)–से अभिमन्त्रित करके डाले। फिर उस दूधमें साँवा आदिके चावल छोड़े। उसकी मात्रा इस प्रकार है-एक शिष्यकी दीक्षा-विधिके लियें पाँच पसर चावल डालें और दो-तीन आदि जितने शिष्य बढ़े, उन सबके लिये क्रमश: एक-एक पसर चावल बढ़ाता जाय। फिर अस्त्र-मन्त्रसे आग जलावे एवं कवच-मन्त्र (हुम)-से बटलोईको ढक दे। साधक पूर्वाभिमुख हो उक्त शिवाग्निमें मूलमन्त्रके उच्चारणपूर्वक चरुको पकावे। जब वह अच्छी तरह सीझ जाय, तब वहाँ स्रुवाको घीसे भरकर स्वाहान्त संहिता-मन्त्रोंद्वारा उस चूल्हेमें ही ‘तप्ताभिघार’ नामक आहुति दे। तदनन्तर मण्डलमें चरु–स्थालीको रखकर अस्त्र-मन्त्रसे उसपर कुश रख दे। इसके बाद प्रणवसे चूल्हेमें उल्लेखन और हृदय-मन्त्रसे लेपन करके पूर्ववत् “तप्ताभिघार’ के स्थानमें ‘सीताभिघार’ नामक आहुति दे। इस तरह चूल्हा शीतल होता है। सीताभिधारआहुतिकी विधि यह है कि संहिता-मन्त्रोंके अन्तमें ‘वौषट्।’ पद जोड़कर उसके द्वारा कुण्ड-मण्डपके पश्चिम भागमें दर्भ आदिके आसन पर प्रत्येक शिष्यके निमित्तसे एक-एक आहुति दे। फिर स्रुकद्वारा सम्पात-होम करनेके पश्चात् संहिता-मन्त्रसे शुद्धि करे। फिर अन्तमें ‘वषट’ लगे हुए उसी संहितामन्त्रद्वारा एक बार चरु लेकर धेनुमुद्राद्वारा उसका अमृतीकरण करे । इसके बाद वेदीपर उसके द्वारा शान्ति-होम करे॥६३-७० ॥

तत्पश्चात् गुरु अपने शिष्योंके लिये, अग्निदेवताके लिये तथा लोकपालोंके लिये घृतसहित भाग नियत करे। ये तीनों भाग समान घीसे युक्त होते हैं। इन सबके नाम-मन्त्रोंके अन्त में ‘नम: ‘ पद लगाकर उनके द्वारा उनका भाग अर्पित करे और उसी मन्त्रसे उन्हें आचमनीय निवेदित करें।

तदनन्तर मूल-मन्त्रसे एक सौ आठ आहुति देकर विधिवत् पूर्णाहुति होम करे। इसके बाद मण्डलके भीतर कुण्डके पूर्वभागमें अथवा शिव एवं कुण्डके मध्यभागमें हृदय-मन्त्रसे रुद्र-मातृकागण आदिके लिये अन्तर्बलि अर्पित करे। फिर शिवका आश्रय ले, उनकी आज्ञा पाकर एकत्वकी भावना करते हुए इस प्रकार चिन्तन करे-‘मैं सर्वज्ञता आदि गुणोंसे युक्त और समस्त अध्वाओंके ऊपर विराजमान शिव हूँ। यह यज्ञस्थान मेरा अंश है। मैं यज्ञका अधिष्ठाता हूँ। यों अहंकार-शिवसे अपने ऐकात्म्य-बोधपूर्वक गुरु यज्ञमण्डपसे बाहर निकले । ७१-७५

फिर अस्त्र-मन्त्र (फट्)-द्वारा निर्मित मण्डलमें पूर्वाग्र उत्तम कुश बिछाकर, उसमें प्रणवमय आसनकी भावना करके, उसके ऊपर स्नान किये हुए शिष्यको बिठावे। उस समय शिष्यको श्वेत वस्त्र और श्वेत उत्तरीय धारण किये रहना चाहिये। यदि वह मुक्तिका इच्छुक हो तो उसका मुख उत्तर दिशाकी ओर होना चाहिये और यदि वह भोगका अभिलाषी हो तो उसे पूर्वाभिमुख बिठाना चाहिये।

शिष्यके शरीरका घुटनोंसे ऊपरका ही भाग उस प्रणवासनपर स्थित रहना चाहिये, नीचेका भाग नहीं। इस प्रकार बैठे हुए शिष्यकी ओर गुरु पूर्वाभिमुख होकर बैठे। मोक्षरूपी प्रयोजनकी सिद्धिके लिये शिष्यके पैरोंसे लेकर शिखातकके अङ्गोका क्रमशः निरीक्षण करना चाहिये और यदि भोगरूपी प्रयोजनकी सिद्धि अभीष्ट हो तो इसके विपरीत क्रमसे शिष्यके अंगोंपर दृष्टीपात करना उचित है अर्थात उस दशामें शिखासे लेकर पैरोंतकके अंगोंका क्रमशः निरिक्षण करना चाहिये।

   

उस समय गुरुकी दृष्टिमें शिष्यके प्रति कृपाप्रसाद भरा हो और वह दृष्टि शिष्यके समक्ष शिवके ज्योतिर्मय स्वरूपको अनावृतरूपसे अभिव्यक्त कर रही हो।

इसके बाद अस्त्र-मन्त्रसे अभिमन्त्रित जलसे शिष्यका प्रोक्षण करके मन्त्राम्बु–स्नानका कार्य सम्पन्न करे (प्रोक्षण– मन्त्रसे ही यह स्नान सम्पन्न हो जाता है) ।

तदनन्तर विध्नोंकी शान्ति और पापोंके नाशके लिये भस्म-स्नान करावें। इसकी विधि यों है-अस्त्र-मन्त्रद्वारा अभिमन्त्रित भस्म लेकर उसके द्वारा शिष्यको सृष्टि-संहार-योगसे ताड़ित करे (अर्थात् ऊपरसे नीचे तथा नीचेसे ऊपरतक अनुलोम-विलोम-क्रमसे उसके ऊपर भस्म छिङ्के) ॥७६-८० ॥

फिर सकलीकरणके लिये पूर्ववत् अस्त्रजलसे शिष्यका प्रोक्षण करके उसकी नाभि से ऊपरके भागमें अस्त्र-मन्त्रका उच्चारण करते हुए कुशाग्रसे मार्जन करे और हृदय-मन्त्रका उच्चारण करके पापोंके नाशके लिये पूर्वोक्त कुशोंके मूलभागसे नाभिके नीचेके अङ्गोंका स्पर्श करे। साथ ही समस्त पाशोंको दो टूक करनेके लिये पुनः अस्त्र-मन्त्रसे उन्हीं कुशोंद्वारा यथोक्तरूपसे मार्जन एवं स्पर्श करे।

तत्पश्चात् शिष्यके शरीरमें आसनसहित साङ्ग-शिवका न्यास करे। न्यासके पश्चात् शिवकी भावनासे ही पुष्प आदि द्वारा उसका पूजन करे। इसके बाद नेत्र-मन्त्र ( वौषट) अथवा हृदय-मन्त्र (नम:)-से शिष्य के दोनों नेत्रोंमें श्वेत, कोरदार एवं अभिमन्त्रित वस्त्रसे पट्टी बाँध दे और प्रदक्षिणक्रमसे उसको शिवके दक्षिण पार्श्वमें ले जाय। वहाँ षडूत्थ(छहों अध्वाओंसे ऊपर उठा हुआ अथवा उन छहोंसे उत्पन्न) आसन देकर यथोचित रीतिसे शिष्यको उसपर बिठावे ।। ८१-८४ ।।

संहार-मुद्राद्वारा शिवमूर्तीसे एकीभूत अपने-आपको उसके ह्रदय-कमलमें अवरुद्ध करके उसका काय-शोधन करे। तत्पश्चात् न्यास करके उसकी पूजा करे। पूर्वाभिमुख शिष्यके मस्तकपर मूल-मन्त्रसे शिवहस्त रखना चाहिये, जो रुद्र एवं ईशका पद प्रदान करनेवाला है। इसके बाद शिव-मन्त्र में शिष्यके हाथमें शिवकी सेवाकी प्रातिके उपायस्वरूप पुष्प दे और उसे शिवपर ही चढ़वावे।

तदनन्तर गुरु उसके नेत्रोंमें बँधे हुए वस्त्रको हटाकर उसके लिये शिवदेवगनांकित स्थान, मन्त्र, नाम आदिकी उद्भावना करे, अथवा अपनीं इच्छासे ही ब्राहमण आदि वर्णोंके क्रमशः नामकरण  करे॥८५-८८॥ 

शिव-कलश तथा वार्धानोंको प्रणाम करवाकर अग्निके समीप अपने दाहिने आसनपर पुर्ववत उत्तराभिमुख शिष्यको बिठावे और यह भावना करे कि ‘शिष्यके शरीरसे सुषुम्णा निकलकर मेरे शरीर में विलीन हो गयी हैं।

स्कन्द! इसके बाद मूलमन्त्रसे अभिमन्त्रित दर्भ लेकर उसके अग्रभागको तो शिष्यके दाहिने हाथमें रखे और मूलभागको अपनी जंघापर। अथवा अग्रभागको ही अपनी जंघापर रखे और मूलभाग को शिष्यके दाहिने हाथमें॥८९-९१ ॥

शिव-मन्त्रद्वारा रेचक प्राणायामकी क्रिया करते हुए शिष्यके ह्रदयमें प्रवेशकी भावना करके पुन: उसी मन्नसे पूरक प्राणायामद्वारा अपने हृदयाकाशमें लौट आनेकीं भावना करे। फिर शिवाग्निसे इसी तरह नाड़ी-संधान करके उसके संनिधानके लिये हृदय-मन्त्रसे तीन आहुतियाँ दे।

शिवहस्तकी स्थिरता के लिये मूल-मन्त्रसे एक सौ आहुतियोंका हवन करे। इस प्रकार करनेसे शिष्य समय-दीक्षामें संस्कारके योग्य हो जाता है। १२-१५॥

अध्याय – ८२ समय-दीक्षाके अन्तर्गत संस्कार-दीक्षाकी विधिका वर्णन

भगवान् शिव कहते हैंषडानन! अब मैं संस्कार-दीक्षाकी विधिका वर्णन करुँगा, सुनो -अग्निमें स्थित महेश्वरके शिवा-शिवमय (अर्धनारीश्वर) रूपका अपने हृदयमें आवाहन करे। शिव और शिवा दोनों एक शरीर में ही परस्पर सटे हुए हैं-इस प्रकार ध्यानद्वारा देखकर उनका पूजन करके हृदय-मन्त्रसे संतर्पण करे। फिर उनके संनिधानके लिये हृदय-मन्त्रसे ही अग्निमें पाँच आहुतियाँ दे। तदनन्तर अस्त्र-मन्त्रसे अभिमन्त्रित पुष्पद्वारा शिष्यके हृदयमें ताड़ना दे, अर्थात् उसके वक्षपर उस फूलको फेंके। फिर उसके भीतर प्रकाशमान नक्षत्रकी आकृति में चैतन्य (जीव)- की भावना करे। तत्पश्चात् हुँकारयुक्त रेचक प्राणायामके योगसे शिष्यके ह्रदयमें भावनाद्वारा प्रवेश करके संहारिणीमुद्राद्वारा उस जीवचैतन्यको वहाँसे खीचकर पूरक प्राणायामके योगसे उसे अपने हृदय में स्थापित करे॥ १-४॥

तदन्तर उद्भव नामक मुद्राका प्रदर्शन करके हत्सम्युटित आत्ममन्त्रका उच्चारण करते हुए रेचक प्राणायामके सहयोगसे उसका वागीश्वरी देवी की योनिमें भावनाद्वारा आधान करे। उक्त मन्त्रका स्वरूप इस प्रकार है-ॐ हां हाँ हामात्मने नमः । इसके बाद अत्यन्त प्रज्वनित एवं धूमरहित अग्निमें अभीष्ट-सिद्धिके लिये आहुति दे। अप्रज्वलित तथा धूमयुक्त अग्निमें किया गया होम सफल नहीं होता है। यदि अग्निकी लपटें दक्षिणावर्त उठ रही हों, उससे उत्तम गन्ध प्रकट हो रही हो तथा वह अग्नि सुस्निग्ध प्रतीत होती हो तो उसे श्रेष्ठ बताया गया है। इसके विपरीत जिस अग्निसे चिनगारियाँ छूटती हों तथा जिसकी लपट धरतीको ही चूम रहीं हों, उसे उत्तम नहीं कहा गया है* ॥ ५-८ ॥

इस प्रकारके चिन्होंसे शिष्यके पापको जानकर उसका हवन कर दे, अथवा पाप-भक्षण-निमित्तक होमसे उस पापको जला डाले। फिर नूतन रूपसे उसमें द्विजत्वकी प्राप्ती, रुद्रांशकी भावना, आहार और बीजकी शुद्धि, गर्भाधान, गर्भ-स्थिति (पुंसवन), सीमन्तोन्नयन, जातकर्म तथा नामकरण के लिये पृथकृ-पृथकू मूल-मन्त्रसे एक सौ पाँच-पाँच आहुतियाँ दे तथा चूड़ाकर्म आदिके लिये इनकी अपेक्षा दशमांश आहुतियाँ प्रदान करे। इस प्रकार जिसका बन्धन शिथिल हो गया है, उस जीवात्माके भीतर जो शक्तिका उत्कर्ष होता है, वही उसके रूद्रपुत्र होनेमें निमित बनकर ‘गर्भाधान’ कहलाता है।

स्वतन्त्रतापूर्वक उसमें जो आत्मगुणोंकी अभिव्यक्ति होती है, उसीको यहाँ ‘पुंसवन’ माना गया है।

माया और आत्मा-दोनों एक-दूसरेसे पृथक् हैं, इस प्रकार जो विवेक-ज्ञान उत्पन्न होता है, उसीका नाम यहाँ ‘सीमन्तोन्नयन’ है। ९-१३ ॥

शिव आदि शुद्ध सद्वस्तुको स्वीकार करना ‘जन्म’ माना गया है।

मुझमें शिवत्व हैं अथवा मैं शिव हूँ, इस प्रकार जो बोध होता है, वहीं शिवत्व के योग्य शिष्यका ‘नामकरण’ है।

संहारमुद्रासे प्रकाशमान अग्निकणके समान प्रतीत होनेवाले जीवात्माको लेकर अपने हृदयकमलमें स्थापित करे। तदनन्तर कुम्भक प्राणायामके योगपूर्वक मूल-मन्त्रका उच्चारण करते हुए उस समय ह्रदयके भीतर शक्ति और शिवकी समरसताका सम्पादन करें ॥ १४-१६ ॥

ब्रह्मा आदि कारणोंका क्रमश: त्याग करतें हुए रेचक-योगसे जीवात्माको शिवके समीप ले जाकर फिर उद्भवमुद्राके द्वारा उसे वापस ले ले और पूर्वोक्त हृत्सम्पुटित आत्ममन्त्रद्वारा रेचक प्राणायाम करते हुए विधानवेत्ता गुरु शिष्यके हृदय-कमलकी कर्णिकामें उस जीवात्माको स्थापित कर दे। इसके बाद गुरु शिव और अग्निकी तत्कालोचित पूजा करे और शिष्यसे अपने लिये प्रणाम करवाकर उसे समयाचारका उपदेश दे। वह उपदेश इस प्रकार है-‘इष्टदेवता (शिव)- की कभी निन्दा न करे; शिव-सम्बन्धी शास्त्रोंकी भी निन्दासे दूर रहे; शिव-निर्माल्य आदिको कभी न लाँघे । जीवन-पर्यन्त शिव, अग्नि तथा गुरुदेवकी पूजा करता रहे। बालक, मूढ़, वृद्ध, स्त्री, भोगार्थी (भूखे) तथा रोगी मनुष्योंको यथाशक्ति धन आदि आवश्यक वस्तुएँ दें।’ समर्थ पुरुषके लिये सब कुछ दान करनेका नियम बताया गया है। १७-११ ॥

व्रतके अंगभूत जटा, भस्म, दण्ड, कौपीन एवं संयमपोषक अन्य वस्तुओंको ईशान आदि नामोंसे अथवा उनके आदिमें ‘नम:’ लगाकर उन नाम-मन्त्रोंसे क्रमश: अभिमन्त्रित करके स्वाहान्त संहिता-मन्त्रोंका पाठ करते हुए उन्हें पात्रोंमें रखे और पूर्ववत् सम्पाताभिहत (संस्कारविशेषसे संस्कृत) करके स्थण्डिलेश (वेदीपर स्थापितपूजित भगवान् शिव)-के समक्ष उपस्थित करे। इनकी रक्षाके लिये क्षणभर कलशके नीचे रखे। इसके बाद गुरु शिवसे आज्ञा लेकर उत्क सभी वस्तुएँ व्रतधारी शिष्यको अर्पित करें ॥ २३-२४॥।

इस प्रकार विशेष रूप में विशिष्ट समय-दीक्षासम्पन्न हो जानेपर शिष्य अग्निहोम तथा आगमज्ञानके योग्य हो जाता है* ॥ २५ ॥

अध्याय – ८३ निर्वाण-दीक्षाके अन्तर्गत अधिवासनकी विधि

भगवान् शंकर कहते हैंषडानन स्कन्द! तदनन्तर निर्वाण-दीक्षामें पाश बन्धन-शक्ति के लियें और ताड़न आदिके लिये मूल-मन्त्र आदिका दीपन करे। उस समय प्रत्येक के लिये एक-एक या तीन-तीन आहुति देकर मन्त्रोंका दीपन-कर्म सम्पन्न करे। आदिमें प्रणव और अन्तमें “हूं फट्।’ लगाकर बीच में बीज, गर्भ एवं शिखाबन्ध-स्वरूप तीन ‘हूं’ का उच्चारण करे। इससे मूल-मन्त्रका दीपन होता है, यथा-‘ॐ हूं हूं हूं हूं फट्।’ इसीसे हृदयका दीपन होता है। यथा-‘ॐ हूं हूं हूं हूं फट्। हृदयाय नम:।’ फिर ‘ॐ हूं हूं हूं हूं फद शिरसे स्वाहा।’ आदि कहकर सिर आदि अङ्गोंका दीपन करे।

समस्त क्रूर कर्मोंमें इसी तरह मूलादिका दीपन करना उचित है। शान्तिकर्म, पुष्टिकर्म और वशीकरणमें आदिगत प्रणव-मन्त्रके अन्तमें ‘वौषट जोड़कर उसी मन्त्रद्वारा प्रत्येकका दीपन करे। ‘वषट्’ और ‘वौषट्।’से युक तथा सम्पूर्ण काम्यकर्मोके ऊपर स्थित शम्बर-मन्त्रोंद्वारा आप्यायन आदि सभी कर्मोमें हवन करना चाहिये ॥ १-५ ॥

तत्पश्चात् अपने वामभागमें स्थित और मण्डलमें विराजमान शुद्ध शरीरवाले शिष्यका पूजन करके, एक उत्तम सूत्रमें सुषुम्ना नाड़ीकी भावना करके, मूल-मन्त्रसे उसको शिखाबन्धतक ले जाकर, वहाँसे फिर पैरोंके अंगूठेतक ले आवे। तत्पश्चात् संहारक्रमसे उसे पुनः मुमुक्षु शिष्यकी शिखाके समीप ले जाय और वहीं उसे बाँध दे।

पुरुषके दाहिने भागमें और नारीके वामभागमें उस सूत्रकी नियुक्त करना चाहिये। इसके बाद शिष्य के मस्तक पर शक्तिमन्त्रसे पूजित शक्तिको संहारमुद्राद्वारा लाकर उत्त सूत्रमें उसी मन्त्रसे जोड़ दे। सुषुम्णा नाड़ी को लेकर मूल-मन्त्रसे उसका सूत्रमें न्यास करे और हृदय-मन्त्रसे उसकी पूजा करे।

तदनन्तर कवच मन्त्रसे अवगुंठित करके ह्रदय-मन्त्रद्वारा तीन आहुतियाँ दे, ये आहुतियाँ नाड़ीके संनिधानके लियें दी जाती हैं। शक्ति के संनिधानके इसी तरह आहुति देनेका विधान है।॥ ६-१० ॥

तदनन्तर *ॐ हां तत्त्वाध्वने नमः ।।’,’ॐ हां पदाध्वने नमः ।।’, ‘ ॐ हां वणांध्वने नमः ।’, ‘ॐ हां मन्त्राध्वने नम:।’, ‘ॐ हां कलाध्वने नमः ॥’, ‘ॐ हां भुवनाध्वने नमः॥’-इन मन्त्रोंसे पूर्वोत सूत्रमें छ: प्रकारके अध्वाओंका न्यास करके अस्त्र-मन्त्रद्वारा अभिमन्त्रित जलसे शिष्यका प्रोक्षण करे। फिर अस्त्र-मन्त्रके जपपूर्वक पुष्प लेकर उसके द्वारा शिष्यके हृदयमें ताड़न करे। इसके बाद हूंकार युक्त रेचक प्राणायामके योगसे वहाँ शिष्यके शरीर में प्रवेश करके, उसके भीतर हंस-बीजमें स्थित जीवचैतन्यको अस्त्र-मन्त्र पढ़कर वहाँसे विलग करे। इसके बाद ‘ॐ ह: हूं फट्।’ इस शक्तिसूत्रसे तथा ‘हां हां स्वाहा।” इस मन्त्रसे संहारमुद्राद्वारा उक्त नाड़ीभूत सूत्रमें उस विलग हुए जीवचैतन्यको नियुक्त करे। ‘ॐ हां हां हामात्मने नम:।’इस मन्त्रका जप करते हुए जीवात्माके व्यापक होनेकी भावना करे। फिर कवच-मन्त्रसे उसका अवगुण्ठन करे और उसके सांनिध्यके लिये हृदय-मन्त्रसे तीन बार आहुतियाँ दे॥ ११-१८॥

तत्पश्चात् विद्यादेहका न्यास करके उसमें शान्य्ततीतकलाका अवलोकन करे। उस कलाके अन्तर्गत इतर तत्त्वोसे युक्त आत्माका चिन्तन करे।’ॐ हूंशान्त्यतीतकलाप्पाशाय नम:।’ इस मन्त्रसे उक्त कलाका अवलोकन करे। दो तत्त्व, एक मन्त्र, एक पद, सोलह वर्ण, आठ भुवन क, ख आदि बीज और नाड़ी, दो कलाएँ विषय, गुण और एकमात्र कारणभूत सदाशिव-इन सबका श्वेतवर्णा शान्त्यतीतकलामें अन्तर्भाव करके ॐ हूं शान्त्यतीतकलापाशाय हूं फट्।’ इस मन्त्रसे प्रताड़न करे। संहारमुद्राद्वारा उक्त कलापाशको लेकर सूत्रके मस्तकपर रखे और उसकी पूजा

करे। तदनन्तर उसके सांनिध्यके लिये पूर्ववत् तीन आहुतियाँ दे। शान्त्यतीतकलाका अपना बीज

है- ‘हूं”। दो तत्व, दो अक्षर, बीज, नाड़ी, क, ख-ये दो अक्षर, दो गुण, दो मन्त्र, कमलमें विराजमान एकमात्र कारणभूत ईश्वर, बारह पद, सात लोक और एक विषय-इन सवका कृष्णवर्णा शान्तिकलाके भीतर चिन्तन करे।

तत्पश्चात् पूर्ववत् ताड़न करके सूत्रके मुखभागमें इन सबका नियोजन करे। इसके बाद सांनिध्य के लियें अपने बीज-मन्त्रद्वारा तीन आहुतियाँ दे ॥ १९-२७॥

शान्तिकलाका अपना बीज है-‘हूं हूं’, सात तत्त्च, इककीस पद, छः वर्ण, एक शम्बर, पच्चीस लोक, तीन गुण, एक विषय, रूद्ररूप, कारणतत्व, बीज, नाड़ी और क, ख-ये दो कलाएँ-इन सबका अत्यन्त रतवर्णवाली विद्याकलामें अन्तर्भाव करके, आवाहन और संयोजकपूर्वक पूर्वोक्त सूत्रक ह्रदयभागमें स्थापित करके अपने मन्त्रसे पूजन करे और इन सबकी संनिधिके लिये पूर्ववत् तीन आहुतियाँ दे। आहुतिके लिये बीजमन्त्र इस प्रकार है-‘हूं हूं हूं।’ चौबीस तत्व, पचीस वर्ण, बीज, नाड़ी, क, ख-ये दो कलाएँ बाईस, पद, साठ लोक, साठ कला, चार गुण, तीन मन्त्र, एक विषय तथा कारणरूप श्रीहरिका शुक्लर्णा प्रतिष्ठा-कलामें अन्तर्भाव करके ताड़न आदि करे। फिर इन सबका पूर्वोत सूत्रके नाभिभाग में संयोजन करके संनिधिकरण के लिये तीन आहुतियाँ दे। उसके लिये बीज-मन्त्र इस प्रकार है-‘हूं हूं हूं हूं।’ एक सौ आठ भुवन या लोक, अठाईस पद, बीज, नाड़ी और समीरकी दो-दो संख्या, दो इन्द्रियाँ, एक वर्ण, एक तत्त्व, एक विषय, पाँच गुण, कारणरूप कमलासन ब्रह्मा और चार शम्बर-इन सबका पीतवर्णा निवृत्तिकलामें अन्तर्भाव करके ताड़न करे। इन्हें ग्रहण करके सूत्रके चरणभागमें स्थापित करनेके पश्चात् इनकी पूजा करे और इनके सांनिध्यके लिये अग्निमें तीन आहुतियाँ दे। आहुतिके लिये बीज-मन्त्र यों है-‘हूं हूं हूं हूं हूं’। इस प्रकार सूत्रगत पाँच कलाओंको लेकर शिष्यके शरीर में उनका संयोजन करे ॥ २८-३५ ॥

सबीजादीक्षामें समयाचार-पाशसे, देहारम्भक धर्मसे, मन्त्रसिद्धिके फलसे तथा इष्टापूर्तादि धर्मसे भी भिन्न चैतन्यरोधक सूक्ष्म प्रबन्धकका कलाओंके भीतर चिन्तन करे। इसी क्रमसे अपने मन्त्रद्वारा तीन-तीन आहुतियाँ देते हुए तर्पण और दीपन करे।’ॐ हूं शान्त्यतीतकलापाशाय स्वाहा।’ इत्यादि मन्त्रसे तर्पण करे। ‘ॐ हूं हूं। शान्त्यतीतकलापाशाय हूं हूं फट्।’- इत्यादि मन्त्रसे दीपन करे। पूर्वोक्त सूत्रको व्याप्तिबोधके लिये पाँच कला-स्थानोंमें सुरक्षापूर्वक रखकर उसपर कुङ्कुम आदिके द्वारा साङ्ग-शिवका पूजन करे। फिर कला-मन्त्रोंके अन्तमें “हूँ फट्।’- इन पदोंको जोड़कर उनका उच्चारण करते हुए क्रमश: पाशोंका भेदन करके नमस्कारान्त कलामन्त्रोंद्वारा हीं उनके भीतर प्रवेश करे। साथ हीं उन कलाओंका ग्रहण एवं बन्धन भी करे। ‘ॐ हूं हूं हूं शान्त्यतीतकलां गृह्णामि बध्नामि च ॥’-इत्यादि मन्त्रोंद्वारा कलाओंके ग्रहण एवं बन्धन आदिका प्रयोग होता है। पाश आदिका वशीकरण (या भेदन), ग्रहण और बन्धन तथा पुरुषके प्रति सम्पूर्ण व्यापारोंका निषेध-यह बारंबार प्रत्येक कलाके लिये आवश्यक कर्तव्य हैं। ३६-४४।।

तदन्तर शिष्यको बिठाकर, पूर्वोक्त सूत्रको उसके कंधेसे लेकर उसके हाथमें दे और भूलेभटके पापोंका नाश करनेके लिये सौ बार मूलमन्त्रसे हवन करे। अस्त्र-सम्बन्धी मन्त्रके सम्पुटमें पुरुषके और प्रणवके सम्पुटमें स्त्रीके सूत्रको रखकर, उसे ह्रदय-मन्त्रसे सम्पुटित करके उसी मन्त्रसे उसकी पूजा करे।

साङ्ग-शिवसे सूत्रको सम्पात-शोधित करके कलशके नीचे एखें और उसकी रक्षाके लिये इष्टदेवसे प्रार्थना करे। शिष्यके हाथमें फुल देकर कलश आदिका पूजन एवं प्रणाम करने के अनन्तर याग-मन्दिरके मध्यभागसे बाहर जाय। वहाँ तीन मण्डल बनाकर मुक्तिकी इच्छा रखनेवाले शिष्योंको उत्तराभिमुख बिठावे और भोगकी अभिलाषा रखनेवाले शिष्योंको पूर्वाभिमुख ॥ ४५-४९ ॥

पहले कुशयुक्त हाथसे तीन चुल्लू पञ्चगव्य पिलावे । बीचमें कोई आचमन न करे। तत्पश्चात् दूसरी बार प्रत्येक शिष्यको तीन या आठ ग्रास चरू दें। मुक्तिकामी शिष्यकों पलाशके दोने में और भोगेच्छुको पीपलके पतेसे बने हुए दोनेमें चरु देकर उसे हृदय-मन्त्रके उच्चारणपूर्वक दाँतोंके स्पर्शके बिना खिलाना चाहिये। चरु देकर गुरु स्वयं हाथ धो शुद्ध होकर, पवित्र जलसे उन शिष्योंको आचमन करावे। इसके बाद हृदय-मन्त्रसे दातुन करके उसे फेंक दे।’ उसका मुखभाग शुभ दिशाकी ओर हो तो उसका शुभ फल होता है। न्यूनता आदि दोषको दूर करनेके लिये मूलमन्नसे एक सौ आठ बार आहुति दे।

स्थण्डिलेश्वर (वेदीपर स्थापित-पूजित शिव)-को सम्पूर्ण कर्म समर्पित करे। तदनन्तर इनकी पूजा और विसर्जन करके चण्डेशका पूजन करे॥५०-५४॥

तत्पश्चात् निर्माल्यको हटाकर चरुके शेष भागको अग्निमें होम दे। कलश और लोकपालोंका पूजन एवं विसर्जन करके गण और अग्निका भी, यदि वे बाह्य दिशा में रक्षित हों तो, विसर्जन करे। मण्डलसे बाहर लोकपालोंको भी संक्षेप से बलि अर्पित करके भस्म और शुद्ध जलके द्वारा स्नान करनेके पश्चात् यागमण्डपमें प्रवेश करे। वहाँ गृहस्थ साधकोंको कुशकी शय्यापर अस्त्र-मन्नसे रक्षित करके सुलावे। उनका सिरहाना पूर्वकी ओर होना चाहिये। जों साधक या शिष्य विरक्त हों उन्हें हुदय-मन्त्र से उत्तम भस्ममयी शय्यापर सुलावे। उन सबके मस्तक दक्षिण दिशाकी ओर होने चाहिये। सभी शिष्य अस्त्र-मन्त्रसे रक्षित होकर शिखा-मन्त्र में अपनी-अपनी शिखा बाँध लें। तदनन्तर गुरु उन्हें स्वप्न-मानवका परिचय देकर सों जानेकीं आज्ञा प्रदान करे और स्वयं मण्डलसे वाहर चला जाय॥५५-५९ ॥

इसके बाद ‘ॐ हिलि हिलि शूलपाणये नमः स्वाहा।’ इस मन्त्र से पञ्चगव्य और चरुका प्राशन करके दन्तधावन ले आचमन करे। फिर भगवान् शिवका ध्यान करके पवित्र शय्यापर आकर दीक्षागत क्रियाकाण्ड़का स्मरण करते हुए गुरु शयन करे। इस प्रकार दीक्षाधिवासनकी विधि संक्षेपसे बतायी गयी॥६०-६२॥

तिरासीवाँ अभ्याय पूरा हुआ ॥८३॥

अध्याय -८४ निर्वाण-दीक्षाके अन्तर्गत निवृत्तिकला-शोधन-विधि

भगवान् शंकर कहते हैंस्कन्द! तदनन्तर प्रातःकाल उठकर गुरु स्नान आदिसे निवृत्त हो। शिष्योंसे उनके द्वारा देखे गये स्वप्नको पूछे। आदिका दर्शन या उपयोग उत्तम बताया गया हैं। ऐसा स्वप्न शुभका सूचक होता है। सपनेमें हाथी और घोड़ेपर चढ़ना तथा श्वेत वस्त्र आदिका दर्शन शुभ है। स्वप्नमें तेल लगाना आदि अशुभ माना गया है। उसकी शान्तिके लिये अघोरमन्त्रसे होम करना चाहिये। प्रात: और मध्याह्नदो कालोंका नित्य-कर्म करके यज्ञमपड़पमें प्रवेश करे तथा विधिवत् आचमन करके नैमितिक विधि में भी नित्यके समान हीं कर्म करे। तत्पश्चात् अध्व-शुद्धि करके अपने ऊपर शिवहस्त रखे। फिर कलशस्थ शिवका पूजन करके क्रमश: इन्द्रादि दिक्पालोंकी भी पूजा करे। मण्डलमें और वेदीपर भी भगवान् शिवका पूजन करना चाहिये। इसके बाद तर्पण, अग्निपूजन, पूर्णाहुति-पर्यन्त होम एवं मन्त्र-तर्पण* करे। १-५ ॥

दुःस्वप्न-दर्शनजनित दोषका निवारण करनेके लिये ‘हूं’ सम्पुटित अस्त्र-मन्त्र (हूं फट हूं)-के द्वारा एक सौ आठ आहुतियाँ देकर मन्त्र-दीपन करें। वेदी और कलाशके मध्यभाग में अन्तर्बलिका अनुष्ठान करके शिष्योंके प्रवेशके लिये इष्टदेवसे आज्ञा लेकर, गुरु मण्डपसे बाहर जाय। वहाँ समय-दीक्षाकी ही भाँति मण्ड़लारोपण आदि करें।

सम्पातहोम तथा सुषुम्णा नाड़ी रूप कुशको शिष्यके हाथ में देने आदिसे सम्बद्ध कार्यका सम्पादन करे। फिर निवृत्तिकलाके सांनिध्यके लिये मूल-मन्त्रसे तीन आहुतियाँ देकर, कुम्भस्थ शिवकी पूजा करके कलापाशमय सूत्र अर्पित करे। तदनन्तर पूजित शिष्यके ऊपरी शरीरके दक्षिणी भागमें-उसकी शिखामें उस सूत्रको बाँधे और उसे पैरके औगूठेतक लंबा रखे। इस प्रकार उस पाशका निवेश करके उसमें मन-ही- मन न्वित्तिकलाकी व्याप्तिका दर्शन करे। उसमें एक सौ आठ भुवन जानने योग्य हैं ॥ ६-११ ॥

१. कपाल, २. अज, ३. अहिर्बुध्न्य, ४. वज्रदेह, ५. प्रमर्दन. ६. विभूति, ७. अव्यय, ८. शास्ता, ९. पिनाकी, १०. त्रिदशाधिप-ये दस रुद्र पूर्व दिशामें विराजते हैं।

११. अग्निभद्र, १२. हुताश, १३. पिङ्गल, १४. खादक, १५ हर, १६. ज्वलन, १७. दहन, १८, बभ्रू, १९. भस्मान्तक, १०. क्षपान्तक-ये दस रुद्र अग्निकोणमें स्थित हैं।

२१. दम्य, २२. मृत्युहर, २३. धाता, २४. विधाता, २५. कर्ता, ३६. काल, २७, धर्म, २८. अधर्म, २६. संयोक्ता, ३०, वियोजक-ये दस रुद्र दक्षिण दिशा में शोभा पाते हैं।

३१ नैऋत्य, ३२. मारूत, ३३. हन्ता, ३४. क्रुरदृष्टि, ३५. भयानक, ३६. ऊर्ध्वकेश. ३७ विरूमाक्ष, ३८. धूम्र, ३९. लोहित, ४० दंष्ट्री-ये दस रुद्र नैऋत्यकोणमें स्थित हैं।

४१. बल, ४२. अतिबल, ४३. पाशहस्त, ४४. महाबल, ४५. श्वेत. ४६. जयभद्र, ४७. दीर्घबाहु, ४८. जलान्तक, ४९. वड़वास्य, ५.०, भीम-ये दस रुद्र वरुणदिशा में स्थित बताये गये हैं।

५१. शीघ्र, ५२. लघु ५३. वायुवेग, ५४. सूक्ष्म,५५. तीक्षण,५६. क्षमान्तक,५७,पञ्चान्तक, ५८, पञ्चशिख, ५९. कपर्दी, ६र०. मेघवाहन-ये दस रुद्र वायव्यकोणमें स्थित हैं।

६१ जटामुकुटधारी, ६२. नानारत्नधर ६३. निधीश, ६४. रूपवान् ६५. धन्य, ६६. सौम्यदेह, ६७. प्रसादकृतू. ६८. प्रकाम, ६९. लक्ष्मीवान्, ७०. कामरूप-ये दस रुद्र उत्तर दिशा में स्थित हैं।

७१ विद्याधर, ७२ ज्ञानधर, ७३. सर्वज्ञ, ७४. वेदपार्ग, ७५. मातृवृत, ७६. पिङ्गाक्ष. ७७. भूतपाल, ७८. वालिप्रिय, ७९. सर्वविद्याविधाता, ८०, सुख-दु:खकर-ये दस रुद्र ईशानकोणमें स्थित हैं।

८१- अनन्त, ८२, पालक, ८३, धीर, ८४. पातालाधिपति, ८५. वृष, ८६. वृषधर ८७ वीर ८८. ग्रसन, ८९. सर्वतोमुख,९०. लोहित-इन दस रुद्रोंकी स्थिति नीचेकी दिशा पाताललोकमें समझनी चाहिये।।

९१. शम्भु, ९२, विभु, ९३. गणाध्यक्ष, १४. त्र्यक्ष, ९५. त्रिदशावन्दित, ९६. संवाह ९७. विवाह ९८, नभ, ९९. लिप्सु. १००. विचक्षण-ये दस रुद्र ऊर्ध्व दिशा में विराजमान हैं।

१०१. हूहूक, १०२. कालाग्निरुद्र, १०३, हाटक, १०४. कूष्माण्ड, १०५. सत्य, १०६. ब्रह्मा, १०७ विष्णु तथा १०८, रुद्र-ये आठ रुद्र ब्रह्माण्ड-कटाइके भीतर स्थित हैं।

यह स्मरण रखना चाहिये कि इन्हीके नामपर एक सौ आठ भुवनोंके भी नाम है

  • सद्भावेश्वर, (२) महातेज:, (३) योगाधिपते, (४) मुञ्च मुञ्च, (५) प्रमथ प्रमथ, (६) शर्व शर्व, (७) भव भव, (८) भवोद्भव, (९) सर्वभूतसुखप्रद. (१०) सर्वसानिध्यकर, (११) ब्रह्मविष्णुरुद्रपर, , (१२) अनर्चितानर्चित, (१३) असंस्तुतासंस्तुत (१४) पूर्वस्थित पूर्वस्थित (१५) साक्षिन् साक्षिन् (१६) तुरु तुरु, (१७) पतंग पतंग, (१८) पिङ्ग पिङ्ग, (१९) ज्ञान ज्ञान, (२०) शब्द शब्द, (२१) सूक्ष्म सूक्ष्म, (२२) शिव, (२१३) सर्व, (२४) सर्वद, (२५) ॐ नमो नमः, (२६) ॐ नमः, (२७) शिवाय, (२८) नमो नम:-ये अट्ठाईस पद हैं।

स्कन्द! व्यापक आकाश मन है। ‘ॐ नमो वौषट्र-ये अभीष्ट मन्त्रवर्ण हैं। अकार और लकार (अं ल) बीज हैं। इड़ा और पिङ्गला नामवाली दो नाड़ियाँ हैं। प्राण और अपान-दो वायु हैं और ध्राण तथा उपस्थ-ये दो इन्द्रियाँ हैं। गन्धको ‘विषय’ कहा गया है तथा इसमें गन्ध आदि पाँच गुण हैं। यह पृथ्वीतत्वसे सम्बन्धित है। इसका रंग पीला है। इसकी मण्डलाकृति (भूपुर) चौकोर है और चारों ओरसे वज्रसे अङ्कित है। इस पार्थिव मण्ड़ल्लका विस्तार सौ कोटि योजन माना गया है। चौदह योनियोंकी भी इसीके अन्तर्गत जानना चाहिये॥ ३६-३१ ॥

प्रथम छ: योनियाँ मृग आदिकी हैं और आठ दूसरी देवयोनियाँ हैं। उनका विवरण इस प्रकार है-मृग पहली योनि है, दूसरी पक्षी, तीसरी पशु, चौथी सर्प आदि, पाँचवीं स्थावर और छठी योनि मनुष्यकी है।

आठ देवयोनियोंमें प्रथम पिशाचोंकी योनि है, दूसरी राक्षसोंकी तीसरी यक्षोंकी, चौंथी गन्धर्वोकी, पाँचवीं इन्द्रकी, छठी सोमकी, सातवीं प्रजापतिकी और आठवीं योनि ब्रह्राकीं बतायीं गयी हैं।

पार्थिव-तत्त्वपर इन आठोंका अधिकार माना गया है। लय होता है प्रकृति में, भोग होता है बुद्धिमें और ब्रह्मा कारण हैं।

तदनन्तर जाग्रत् अवस्था-पर्यन्त समस्त भुवन आदिसे गर्भीत हुई निवृत्तिकलाका ध्यान करके इसका अपने मन्त्रमें विनियोग करे। वह मन्त्र इस प्रकार है –

‘ॐ हां हां हां निवृत्तिकलापाशाय हूं फट स्वाहा।’ इसके बाद ‘ॐ हां ह्रां हों निवृत्तिकलापाशाय हूं फट स्वाहा।’-इस मन्त्रसे अंकुशमुद्राके प्रदर्शनपूर्वक पूरक प्राणायामद्वारा उक्त कलाका आकर्षण करे। फिर ‘ॐ हूं हां ह्रां हां हूं निवृत्तिकलापाशाय हूं फट।’-इस मन्त्रसे संहारमुद्रा एवं कुम्भक प्राणायामद्वारा उसे नाभिके निचेके स्थानसे लेकर ॐ हां निवृत्तिकलापाशाय नम:।’-इस मन्त्रसे उद्भव-मुद्रा एवं रेचक प्राणायामके द्वारा उसको कुण्डमें किसी आधार या आसनपर स्थापित करे। तत्पश्चात् ‘ॐ हां निवृतिकलापाशाय नम:।’-इस मन्त्रसे अर्ध्यदानपूर्वक पूजन करके इसीके अन्तमें स्वाहा लगाकर तर्पण और संनिधानके उद्देश्यसे पृथक-पृथक् तीन-तीन आहुतियाँ दें। इसके बाद ‘ॐ हां ब्रह्मणे नम:।’-इस मन्त्रसे ब्रह्माका आवाहन और पूजन करके उसीके अन्तमें स्वाहा जोड़कर तीन आहुतियोंद्वारा ब्रह्माजीको तृप्त करे। तदनन्तर उनसे इस प्रकार विज्ञप्तिपूर्वक प्रार्थना करे’ ब्रह्मन्! मैं इस मुमुक्षुको आपके अधिकारमें दीक्षित कर रहा हूँ। आपको सदा इसके अनुकूल राष्हना चाहिये’ ॥ ३२-३८ ॥

तदनन्तर रक्तवर्णा वागीश्वरीदेवीका मन-ही- मन हृदय-मन्त्रसे आवाहन करे। वे देवी इच्छा, ज्ञान और क्रियारूपिणी हैं। छ: प्रकारके अध्वाओंकी एकमात्र कारण हैं। फिर पूर्वोक्त प्रकारसे वागीश्वरीदेवीका पूजन और तर्पण करे। साथ ही समस्त योनियोंको विक्षुब्ध करनेवाले और ह्रदयमें विराजमान वागीश्वरदेवका भी पूजन और तर्पण करना चाहिये। आदिमें अपने बीज और अन्त में। ‘हूं फट्’ से युक्त जो अस्त्र-मन्त्र हैं, उसीसे विधानवेत्ता गुरु शिष्यके हृदयका ताड़न करे और भावनाद्वारा उसके भीतर प्रविष्ट हो।

तत्पश्चात् हृदयके भीतर अग्निकणके समान प्रकाशमान जो शिष्यका जीवचैतन्य निवृत्तिकलामें स्थित होकर पाशोंसे आबद्ध है, उसे ज्येष्ठाद्वारा विभक्त करे। उसके विभाजनका मन्त्र इस प्रकार है-‘ॐ हां हूं हः हूं फट।’ ‘ॐ हां स्वाहा।’ इस मन्त्रसे पूरक प्राणायाम और अङ्कुश-मुद्राद्वारा उस जीवचैतन्यको हृदयमें आकृष्ट करके, आत्ममन्त्रसे पकड़कर, उसे अपने आत्मामें योजित करे। वह मन्त्र इस प्रकार है-ॐ हां हां हामात्मने नमः !’ ॥ ३९-४५॥

फिर माता-पिताके संयोगका चिन्तन करके रेचक प्राणायामाद्वारा ब्रह्मादि कारणोंका क्रमश: त्याग करते हुए उक्त जीवचैतन्यको शिवरूप अधिष्ठानमें ले जाय और गर्भाधान के लिये उसे लेकर एक ही समय सब योनियोंमें तथा वामा उद्धव-मुद्राके द्वारा वागीश्वरी योनिमें उसे डाल दे। इसके बाद ‘ॐ हां हां हामात्मने नम:।’ इसी मन्त्रसे पूजन और पाँच बार तर्पण भी करे। इस जीवचैतन्यका सभी योनियोंमें हृदय-मन्त्रसे देह-साधन करे। यहाँ पुंसवन-संस्कार नहीं होता; क्योंकि स्त्री आदिके शरीर की भी उत्पति सम्भव है। इसी तरह सीमन्तोन्नयन भी नहीं हो सकता; क्योंकि दैववश अन्ध आदिके शरीरसे भी उत्पतिकी सम्भावना है। ४६-५० ॥

शिरोमन्त्र (स्वाहा) -से एक ही समय समस्त देहधारियोंके जन्मकी भावना करे। इसी तरह शिव-मन्त्र में भी भावना में करें। कवच-मन्त्रसे भोगकी और अस्त्र-मन्त्रसे विषय और आत्मा में मोहरूप लय नामक अभेदकी भी भावना करे।

तदनन्तर शिव-मन्त्रसे स्रोतोंकी शुद्धि और हृदयमन्त्रसे तत्वशोधन करके गर्भाधान आदि संस्कारोंके निमित्त क्रमश: पाँच-पाँच आहुतियाँ दे। मायेय | (मायाजनित), मल्लजनित तथा कर्मजनित आदि* पाश-बन्धनोंकी निवृत्तिके लिये हृदय-मन्त्रसे निष्कृति (प्रायश्चित्त अथवा शुद्धि) कर लेनेपर पीछे अग्निमें सौ आहुतियाँ दे। मलशक्तिका तिरोधान (लय) और पाशोंका वियोग सम्पादित करनेके लिये ‘स्वाहान्त’ अस्त्र-मन्त्रसे पाँच-पाँच आहुतियोंका हवन करे।

अन्त:करणमें स्थित मल आदि पाशका सात बार अस्त्र-मन्त्रके जपसे अभिमन्त्रित कटार-कला-शस्त्रसे छेदन करे। कलाशस्त्रसे छेदनका मन्त्र इस प्रकार है-‘ॐ हां हां हां निवृत्तिकलापाशाय हः हूं फट्’ ॥ ५१-५७॥

बन्धकताकी निवृतिके लिये अस्त्र-मन्त्रसे दोनों हाथोंद्वारा मसलकर गोलाकार करके पाशको  घीसे भरे हुए स्रुवमें डाल दे। फिर कलामय अस्त्र से अथवा केवल अस्त्र-मन्त्र से उसको जलाकर भस्म कर डाले । तदनन्तर पाशाङ्कुरकी निवृत्तिके लिये पाँच आहुतियाँ दे। आहुतिका मन्त्र इस प्रकार हैं-‘ ॐ हः अस्त्राय हूं फट् स्वाह्वा’ उक्त आहुतिके पश्चात् अस्त्र-मन्त्रसे आठ आहुतियाँ देकर प्रायश्चित-कर्म सम्पन्न करे। उसके बाद विधाताका आवाहन करके उनका पूजन और तर्पण करे फिर ॐ हां शब्दस्पर्शी शुल्कं ब्राह्राण गृहाण स्वाहा।’ इस मन्त्रसे तीन आहुतियाँ देकर शिष्यकों अधिकार अर्पित करे। उस समय ब्रह्माजीको भगवान् शिवकी यह आज्ञा सुनावे’-ब्रह्मन्! इस बालक के सम्पूर्ण पाश दग्ध हो गये हैं। अब आपको पुन: इसे बन्धनमें डालनेके लिये यहाँ नहीं रहना चाहिये।” ॥ ५८-६३ ॥

-यों कहकर ब्रह्माजीको बिदा कर दे और संहारमुद्राद्वारा एवं कुम्भक प्राणायामपूर्वक राहुमुक्त एक देशवाले चन्द्रमण्डलके सदृश आत्माको तत्सम्बन्धी-मन्त्रका उच्चारण करते हुए दक्षिण नाड़ीद्वारा धीरे-धीरे लेकर रेचक प्राणायाम एवं उद्भव नामक मुद्राके सहयोगसे पूर्वोक्त सूत्रमें योजित करे। फिर उसकी पूजा करके गुरु अर्ध्यपात्रमें स्थित अमृतोपम जलबिन्दु ले, शिष्यकी पुष्टि एवं तृप्तिके लिये उसके सिरपर रखे। तत्पश्चात् माता-पिताका विसर्जन करके ‘वौषडन्त’ अस्त्र-मन्त्रके द्वारा विधिकी पूर्तिके लिये पूर्णाहुतिहोम करे। ऐसा करनेसे निवृत्तिकलाकी शुद्धि होती है। पूर्णाहुतिका पूरा मन्त्र इस प्रकार है ‘ॐ हूं हां अमुक आत्मनो निवृत्तिकलाशुद्धिरस्तु स्वाहा फट वौषट’॥६४-६७ ॥

चौरासीवाँ’ अध्याय पूरा हुआ ॥८४॥

अध्याय – ८५ निर्वाण-दीक्षाके अन्तर्गत प्रतिष्ठाकलाके शोधनकी विधिका वर्णन

भगवान् शंकर कहते हैंस्कन्द! तदनन्तर शुद्ध और अशुद्ध कलाओंका शान्त और नादान्तसंक्षक हृस्व-दीर्घ-प्रयोगद्वारा संधान करे। संधानका मन्त्र इस प्रकार है-‘ॐ हां ह्रां ह्रीं हां।’ इसके बाद प्रतिष्ठाकलामें निविष्ट जल, तेज, वायु, आकाश, पाँच तन्मात्रा, दस इन्द्रिय, बुद्धि, तीनों गुण, चौंबीसवाँ अहंकार और पुरुष-इन पचीस तत्वों तथा ‘क’ से लेकर ‘य’ तक के पचीस अक्षरोंका चिन्तन करे।

प्रतिष्ठाकलामें छप्पन भुवन हैं और उनमें उन्हींके समान नामवाले उतने ही रुद्र जानने चाहिये। इनकी नामावली इस प्रकार है- ॥ १-५ ॥

अमरेश, प्रभास, नैमिष, पुष्कर, आषाढ़ी, डिण्डि, भारभूति तथा लकुलीश- (यह प्रथम अष्टक कहा गया) । हरिश्चन्द्र, श्रीशैल, जल्प, आम्रातकेश्वर, महाकाल, मध्यम, केदार और भैरव-(यह द्वितीय अटक बताया गया)। तत्पश्चात् गया, कुरुक्षेत्र, नाल, कनखल, विमल, अट्टाहस, महेन्द्र और भीम-(यह तृतीय अटक कहा गया) । वस्त्रापद, रुद्रकोटि, अविमुक्त, महालय, गोकर्ण, भद्रकर्ण, स्वर्णाक्ष और स्थाणु-(यह चौथा आष्ट्रक बताया गया)। अजेश, सर्वज्ञ, भास्कर, तदन्तर, सुबाहु, मन्त्ररूपी, विशाल, जटिल तथा रौद्र-(यह पाँचवाँ अटक हुआ)। पिंगलाक्ष, कालदंष्टी, विधुर, घोर, प्राजापत्य, हुताशन, कालरूपी तथा कालकर्ण-(यह छठा अष्टक कहा गया)। भयानक, पतङ्ग, पिङ्गल, हर, धाता, शंकुकर्ण, श्रीकण्ठ तथा चन्द्रमौलि (यह सातवाँ अटक बताया गया)। ये छप्पन रूद्र छप्पन भुवनोंमें व्याप्त हैं।६-१३ ॥

अब वत्तीस पद बताये जाते हैं।

व्यापिन्, अरूपिन्, प्रथम, तेजः, ज्योतिः, अरूप, पुरूष, अनग्ने, अधूम, अभस्मन, अनादे, नाना नाना, धूधू धूधू, ॐ भू:, ॐ भुव:, ॐ स्वः, अनिधन, निधन, निधनोद्भव, शिव, शर्व, परमात्मन्, महेश्वर, महादेव, सद्भाव, ईश्वर, महातेजा, योगाधिपते, मुञ्ज, प्रमथ, सर्व, सर्वसर्व – ये बतीस पद हैं। दो बीज, तीन मन्त्र-वामदेव, शिर, शिखा, गान्धारी और सुषुम्णा-दो नाड़ियाँ समान और उदान नामक दो प्राणवायु रसना और पायु-दो इन्द्रियाँ, रस नामक विषय, रूप, शब्द, स्पर्श तथा रस-ये चार गुण, कमलसे अङ्कित श्वेत अर्धचन्द्राकार मण्डल, सुषुप्ति अवस्था तथा प्रतिष्ठामें कारणभूत भगवान् विष्णु-इस प्रकार भुवन आदि सब तत्त्वोंका प्रतिष्ठाके भीतर चिन्तन करके प्रतिष्ठाकला-सम्बन्धी मन्त्रसे शिष्यके शरीर में भावनाद्वारा प्रवेश करके उसे उस कलापाशसे मुक्त करे ॥ १४-१८॥

‘ॐ हां हीं हां प्रतिष्ठाकलापाशाय हूं फट् स्वाहा।”-इस स्वाहान्त-मन्त्र से ही पूरक प्राणायाम तथा अङ्कुशमुद्राद्वारा उक्त कलापाशका आकर्षण करे। तत्पश्चात् ‘ॐ हूं हां हीं हां हूं प्रतिष्ठाकलाप्पाशाय हूं फट्।’-इस मन्त्रसे संहारमुद्रा और कुम्भक प्राणायामद्वारा उसे हृदयके नीचे नाड़ीसूत्रसे लेकर ‘ॐ हूं हीं हां प्रतिष्ठाकलाप्पाशाय नम:।’-इस मन्त्रसे उद्भवमुद्रा तथा रेचक प्राणायामद्वारा कुण्डमें स्थापित करे। तदनन्तर ‘ॐ इां हां हीं हां प्रतिष्ठाकलाद्वाराय नम:।’-इस मन्त्रसे अर्ध्य दे, पूजन करके स्वाहान्त मन्त्रद्वारा तीन-तीन आहुतियाँ देते हुए संतर्पण और संनिधापन करे। इसके बाद ‘ॐ हां विष्णवे नम:।’-इस मन्त्रसे विष्णुका आवाहन, पूजन और संतर्पण करके निम्नाङ्गित प्रार्थना करे-‘विपणों! आपके अधिकार में मैं मुमुक्षु शिष्यको दीक्षा दे रहा हूँ। आप सदा अनुकूल रहें।’ इस प्रकार विष्णुभगवानसे निवेदन करे। तत्पश्चात् वागीश्वरी देवी और वागीश्वर देवताका पूर्ववत आवाहन, पूजन और तर्पण करके शिष्यकी छातीमें ताड़न करे। ताड़नका मन्त्र इस प्रकार है-‘ॐ हां हं हः हूं फट्।’ इसी मन्त्रसे शिष्य के हृदय में प्रवेश करके उसके पाशबद्ध चैतन्यको अस्त्र-मन्त्र एवं ज्येष्ठ अङ्कुशमुद्राद्वारा उस पाशसे पृथक् करे। यथा’ॐ हां हं ह: फट्।’ उकक्त मन्त्रके ही अन्तमें ‘नम: स्वाहा’ लगाकर उससे सम्पुटित मन्त्रद्वारा जीवचैतन्यको खीचे तथा नमस्कारान्त आत्ममन्त्रसे उसको अपने आत्मामें नियोजित करे। आत्मामें नियोजनका मन्त्र यों है-‘ॐ हां हां हामात्मनें नमः ।।’ ॥ १९-२६ ॥

इसके बाद पूर्ववत् उस जीवचैतन्यके पितासे संयुक्त होनेकी भावना करके वामा उद्भवमुद्राद्वारा उसे देवोंके गर्भमें स्थापित करे। साथ ही इस मन्त्रका उच्चारण करे- ॐ इां हां हामात्मने नम:।’ देहोंत्पत्तिके लिये हृदय-मन्त्रसे पाँच बार बार आहुति दे। अधिकार-प्राप्तिके लिये शिखामन्त्रसे पाँच बार आहुति दे। अधिकार-प्राप्तिके लिये शिखा-मन्त्रसे तथा भोगसिद्धिके लिये कवच-मन्त्रसे, लयके लिये अस्त्र-मन्त्रसे, स्रोत:सिद्धिके लिये शिवमन्त्रसे तथा तत्वशुद्धिके लिये हृदय-मन्त्रसे इसी तरह पाँच-पाँच आहुतियाँ देनी चाहिये। इसके बाद पूर्ववत् गर्भाधान आदि संस्कार करे।

पाशकी शिथिलता और निष्कृति (प्रायश्चित)-के लिये शिरोमन्त्रसे सौ आहुतियाँ दे। मलशक्तिके तिरोधान (निवारण)-के लिये स्वाहान्त अस्त्र-मन्त्रसे पाँच बार हवन करे॥ २७ -३० ॥

इस प्रकार पाश-वियोग होनेपर भी सात बार अस्त्र-मन्त्रके जपपूर्वक कलाबीजसे युक्त अस्त्रमन्त्ररूपी कटारसे उस कलापाशको काट डाले । वह मन्त्र इस प्रकार है- ॐ ही प्रतिष्ठाकलापाशाय हूं फट्।” तदनन्तर पाश-शस्त्रसे उस पाशकी मसलकर वर्तुलाकार बनाकर पूर्ववत् घृतपूर्णं स्रुवामें रख दे और कला-शस्त्रसे ही उसकी आहुति दे दे। इसके बाद पाशांकुरकी निवृतिके लिये अस्त्र-मन्त्रसे पाँच आहुतियाँ दें और प्रायश्चितनिवारणके लिये फिर आठ आहुतियोंका हवन करे। आहुतिके लिये अस्त्र-मन्त्र इस प्रकार है’ ॐ हः अस्त्राय हूं फट्।।’ ॥ ३१-३५॥

इसके बाद हृदय-मन्त्रसे भगवान् हृषीकेशका आवाहन करके पूर्वोक्त विधिसे उनका पूजन और तर्पण करनेके पश्चात् अधिकार-समर्पण करे। इसके लिये मन्त्र इस प्रकार हैं- ॐ हां विष्णो रसं शुल्क गृहाण स्वाहा।’ इसके बाद उन्हें भगवान् शिवकी आज्ञा इस प्रकार सुनावे-‘हरे! इस पशुका पाश सम्पूर्णत: दग्ध हो चुका है। अब आपको इसके लिये बन्धनकारक होकर नहीं रहना चाहिये।’ शिवाज्ञा सुनानेके बाद रौद्री नाड़ीद्वारा गोविन्दका विसर्जन करके राहुमुक्त आधे भागवाले चन्द्रमणद्धलके समान आत्माको नियोजित करे-संहारमुद्राद्वारा उसे आत्मस्थ करके उद्भवमुद्राद्वारा सूत्रमें उसकी संयोजना करे।

तत्पश्चात् पूर्ववत् जलबिन्दु-सदृश ठस आत्माको शिष्य के सिर पर स्थापित करें। इससे उसका आप्यायन होता है। फिर अग्निके पिता-माताका पुष्प आदिसे पूजन एवं विसर्जन करके विधिकी पूर्तिके लिये विधानपूर्वक पूर्णाहुति प्रदान करे। ऐसा करनेसे प्रतिष्ठाकलाका भी शोधन सम्पन्न हों जाता हैं ॥ ३६-४१ ॥

पचासीवाँ अभ्याय पूर्ण हुआ ॥८५॥

अध्याय – ८६ निर्वाण-दीक्षाके अन्तर्गत विद्याकलाका शोधन

भगवान् शिव कहते हैंस्कन्द! पूर्ववर्तिनी कला-प्रतिष्ठाके साथ विद्याकलाका संधान करे तथा पूर्ववत् उसमें तत्व-वर्ण आदिका चिन्तन भी करे। उसके लिये मन्त्र इस प्रकार है-‘ॐ हां हीं हूं हां।”-यह संधान-मन्त्र है।

राग, शुद्ध विद्या, नियति, कला, काल, माया तथा अविद्या –  ये सात तत्व तथा र, ल, व, श, ष, स-ये छ: वर्ण विद्याकलाके अन्तर्गत बताये गये हैं।

प्रणव आदि इकीस पद भी उसके अन्तर्गत हैं।

‘ॐनमः शिवाय सर्वप्रभवे शिवाय ईशानमूर्ध्न तत्पुरुषवक्त्राय अघोरहृदयाय वामदेवगुह्याय सधोजातमुर्तेये ॐ नमो नमः गुह्रातिगुह्राय गोप्वे अनिधानाय सर्वयोगाधिकृताय सर्वयोगाधिपाय ज्योतीरूपाय परमेश्वराय अचेतन अचेतन व्योमन् व्योमन्।’-ये इकीस पद हैं।॥ १-५ ॥

अब रुदों और भुवनोंका स्वरुप बताया जाता हैं- प्रमथ, वामदेव, सर्वदेवोद्भव, भवोद्भव, वज्रदेह, प्रभु, धाता, क्रम, विक्रम, सुप्रभ, बुद्ध, प्रशान्तनामा, ईशान, अक्षर, शिव, सशिव, बभ्रु, अक्षय, शम्भु, अदृष्टरूपनामा, रूपवर्धन, मनोन्मन, महावीर, चित्राङ्ग तथा कल्याण—ये पचीस भुवन एवं रुद्र जानने चाहिये ॥ ६-९ ॥

विद्याकलामें अघोर-मन्त्र है, ‘म’ और ‘र’ बीज हैं, पूषा और हस्तिजिह्वा-दो नाड़ियाँ हैं, व्यान और नाद – ये दो प्राणवायु हैं। एकमात्र रूप ही विषय हैं। पैर और नेत्र दो इन्द्रियाँ हैं। शब्द, स्पर्श तथा रूप-ये तीन गुण कहे गये हैं। सुषुप्ति अवस्था है और रुद्रदेव कारण हैं।

भुवन आदि समस्त वस्तुओंको भावनाद्वारा विद्याके अंतर्गत देखें। इसके लिये संधान-मन्त्र है- ‘ॐ हूं हैं हा।’ तत्पश्चात् रक्तवर्ण एवं स्वस्तिकके चिह्नसे अङ्कित त्रिकोणाकार मण्डलका चिन्तन करे। शिष्यके वक्षमें ताड़न, कलापाशका छेदन, शिष्यके हृदयमें प्रवेश, उसके जीवचैतन्यका पाश-बन्धनसे नियोजन तथा हृदयप्रदेशसे जीवचैतन्य एवं विद्याकलाका आकर्षण और ग्रहण करे ॥ १०-१३॥

जीवचैतन्यका अपने आत्मामें आरोपण करके कलापाशका संग्रहण एवं कुण्डमें स्थापन भी पूर्वोत पद्धतिसे करे। कारणरूप रुद्रदेवताका आवाहन-पूजन आदि करके शिष्यके प्रति बन्धनकारी न होनेके लिये उनसे प्रार्थना करे। पिता-माताका आवाहन आदि करके शिशु (शिष्य)-के हृदयमें ताड़न करे। पूर्वोत विधिके अनुसार पहले अस्त्रमन्त्रद्वाण हृदयमें प्रवेश करके जीवचैतन्यकों कलापाश से विलग करे। फिर उसका आकर्षण एवं ग्रहण करके अपने आत्मामें संयोजन करे। फिर वामा उद्भवमुद्राद्वारा वागीश्वरीदेवीके गर्भमें उसके स्थापित होनेकी भावना करे। इसके बाद देह-सम्पादन करे। जन्म, अधिकार, भोग, लय, स्त्रोत:शुद्धि, तत्वशुद्धि नि:शेष मलकर्मादिके निवारण, पाश-बन्धनकी निवृत्ति एवं निष्कृतिके हेतु स्वाहान्त अस्त्र-मन्त्रसे सौ आहुतियाँ दे। तदनन्तर अस्त्र-मन्त्रसे पाशबन्धनको शिथिल करना, मलशक्तिका तिरोधान करना, कलापाशका छेदन, मर्दन, वर्तुलीकरण, दाह, अङ्कुराभाव-सम्पादन तथा प्रायश्चित्त-कर्म पूर्वोत रीतिसे करे। इसके बाद रुद्रदेवका आवाहन, पूजन एवं रूप और गन्धका समर्पण करें। उसके लियें मन्त्र इस प्रकार है-‘ॐ हां रूपगन्धौ शुल्कं रुद्र गृहाण स्वाहा।।’ ॥ १४-१९॥

शंकरजीकी आज्ञा सुनाकर कारणस्वरुप रुद्रदेवका विसर्जन करें। इसके बाद जीवचैतन्यका आत्मामें स्थापन करके उसे पाशसूत्रमें निवेशित करे। फिर जलबिन्दु-स्वरूप उस चैतन्यका शिष्यके सिरपर न्यास करके माता-पिताका विसर्जन करे। तत्पश्चात् समस्त विधिकी पूर्ति करनेवाली पूर्णाहुतिका विधिवत् हृश्वन करे ॥ २०-२१॥

विद्यामें ताड़न आदि कार्य पूर्वोत विधिसे ही करना चाहिये। अन्तर इतना हीं है कि उसमें सर्वत्र अपने बीजका प्रयोग होगा। यह सब विधान पूर्ण करनेसे विद्याकलाका शोधन होता है।॥ २२॥

 

छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८६ ॥

अध्याय – ८७ निर्माण-दीक्षाके अंतर्गत शान्तिकलाका शोधन

भगवान् शंकर कहते हैंस्कन्द! पूर्वोत मार्गसे विद्याकलाका शान्तिकलाके साथ विधिपूर्वक संधान करे। उसके लिये मन्त्र है-‘ॐ हां हूं हां।” शान्तिकलामें दो तत्व लीन हैं। वे दोनों हैं-ईश्वर और सदाशिव। हकार और क्षकारये दो वर्ण कहे गये हैं। अब भुवनोंके साथ उन्हके समान नामवालें रुद्रोंका परिचय दिया जा रहा है। उनकी नामावली इस प्रकार हैं- प्रभव, समय, क्षुद्र, विमल, शिव, घन, निरंजन, अंगार, सुशिरा, दीप्तकारण, त्रिदशेश्वर, कालदेव, सूक्ष्म और अम्बुजेश्वर (या भुजेश्वर)-ये चौदह रुद्र शान्तिकलामें प्रतिष्ठित हैं।

क्योमव्यापिने, व्योमरूपाय, सर्वव्यापिने, शिवाय, अनन्ताय, अनाथाय, अनाश्रिताय, ध्रुवाय, शाश्वताय, ये बारह पद हैं। १-५ ॥

पुरुष और कवच-ये दो मन्त्र हैं; बिन्दु और जकार-ये दो बीज हैं: अलम्बुषा और यशा-ये दो नाड़ियाँ हैं: कृष्कर और कूर्म-ये दो प्राणवायु हैं, त्वचा और हाथ-ये दो इन्द्रियाँ हैं, शान्तिकलाका विषय स्पर्श माना गया है: स्पर्श और शब्द-ये दो गुण हैं और एक ही कारण हैं-ईश्वर इसकी तुर्यावस्था है। इस प्रकार भुवन आदि समस्त तत्वोंकी शान्तिकलामें स्थितिका चिन्तन करके पूर्ववत ताड़न, छेदन, ह्रदय-प्रवेश, चैतन्यका वियोजन, आकर्षण और ग्रहण करे। 

फिर शान्तिके मुखसूत्रसे चैतन्यका आत्मामें आरोपण करके कलाका ग्रहण कर उसे कुण्डमें स्थापित कर दे। तदनन्तर ईशसे इस प्रकार प्रार्थना करे – “हे ईश! मैं इस मुमुक्षुको तुम्हारे अधिकारमें दीक्षित कर रहा हूँ। तुम्हें इसके अनुकूल रहना चाहिये”॥ ६-१० ॥

फिर माता-पिताका आवाहन आदि और शिष्यका ताड़न आदि करके चैतन्यको लेकर विधिवत् आत्मामें योजित करे। तत्पश्चात् पूर्ववत् माता-पिता के संयोगकी भावना करके उद्भवा नाड़ीद्वारा उस चैतन्यका हृदय-मन्त्र से सम्मुटित करे। देहोत्पतिके लिये हृदय-मन्त्रसे, जन्मके हेतु शिरोमन्त्रसे, अधिकार-सिद्धिके लिये शिखामन्त्रसे, भोगके निमित्त कवच-मन्त्रसे, लयके लिये शस्त्र-मन्त्रसे, स्रोत:शुद्धिके लिये शिवमन्त्रसे तथा तत्वशोधनके लिये हृदय-मन्त्रसे पाँच-पाँच आहुतियाँ दे। इसी तरह पूर्ववत् गर्भाधान आदि संस्कार भी करें। कवच-मन्त्र में पाशकी शिथिलता एवं निष्कृतिके लिये सौ आहुतियाँ दे। मलशक्ति-तिरोधानके उद्देश्यसे शस्त्रमन्त्रद्वारा पाँच आहुतियोंका हवन करे। इसी तरह पाश-वियोगके निमित भी पाँच आहुतियाँ देनी चाहिये। तदनन्तर अस्त्र-मन्त्रका सात बार जप करके बीजयुक्त अस्त्र-मन्त्ररूपी कटारसे पाशका छेदन करे। उसके लियें मन्न इस प्रकार है- ‘ॐ हौं शान्तिकलापाशाय नमः हः हूं फट्।।’ ॥ ११-१७॥

इसके बाद पाशका विमर्दन तथा वर्तुलीकरण पूर्ववत् अस्त्र-मन्त्रसे करके उसे घृतसे भरे हुए स्रुवेमें रख दे और कला-सम्बन्धी अस्त्र-मन्त्रद्वारा उसका हवन करे। फिर पाशाङ्कुरकी निवृत्तिके लिये अस्त्र-मन्त्रसे पाँच आहुतियाँ दे और प्रायश्चितनिवारणके लिये आठ आहुतियोंका हवन करे। मन्त्र इस प्रकार है-‘ॐ ह: अस्त्राय हूं फट्।’ फिर हुदय-मन्त्रसे ईश्वरका आवाहन करके पूजन-तर्पण करनेके पश्चातू उन्हें विधिपूर्वक शुल्क समर्पण करे। मन्त्र इस प्रकार है-‘ॐ हां ईश्वर बुद्धयहंकारी शुल्क गृहाण स्वाहा।’ इसके बाद ईश्वरको शिवकी यह आज्ञा सुनावे-‘ईधर! इस पशुके सारे पाश दग्ध हो गये हैं। अब तुम्हें इसके लिये बन्धनकारक होकर नहीं रहना चाहिये’ ॥ १८-२३ ॥

-यों कहकर ईश्वर देवका विसर्जन करे और रौद्रीशक्तिसे आत्माकों नियोजित करे। जैसे ईशने चन्द्रमाको अपने मस्तकपर आश्रय दे रखा है, उसी प्रकार शिष्यकै जीवात्माको गुरु अपने आत्मामें नियोजित करे। फिर शुद्धा उद्भव-मुद्राके द्वारा इसकी सूत्रमें संयोजना करे और मूल-मन्त्रसे शिष्यके मस्तकपर अमरबिन्दुस्वरुप उस चैतन्यसूत्रको रखे; तदन्तर पुष्प आदिसे पूजित अग्निके पिता-माताका विसर्जन करके विधिज्ञ पुरुष समस्त विधिकी पूर्ती करनेवाली पूर्णाहुति प्रदान करे इसमें भी पूर्ववत् ताड़न आदि करना चाहिये। विशेषत: कला-सम्बन्धी अपने बीजका प्रयोग होना चाहिये। इस प्रकार शान्तिकलाकी शुद्धि बतायी गयी॥ २४-२७॥

सतासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥८७॥

अध्याय – ८८ निवणि-दीक्षाकी अवशिष्ट विधिका वर्णन

भगवान् शंकर कहते हैंस्कन्द! विशुद्ध शान्तिकलाके साथ शान्यतीतकलाका संधान करे। उसमें भी पूर्ववत् तत्व और वर्ण आदिका चिन्तन करना चाहिये, जैसा कि नीचे बताया जाता है। संधानकालमें इस मन्त्रका उच्चारण करे- ‘ॐ हां हौं हूं हां।’ शान्त्यतीतकलामें शिव और शक्ति-ये दो तत्व हैं। आठ भुवन हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं-इन्धक, दीपक, रोचक, मोचक, ऊर्ध्वगामी, व्योमरूप, अनाथ और आठवाँ अनाश्रित। ॐकार पद है, ईशान मन्त्र हैं, अकारसे लेकर विसर्गतक सोलह अक्षर हैं, नाद और हकारये दो बीज हैं, कुहू और शङ्किनी-दो नाड़ियाँ हैं, देवदत्त और धनञ्जय-दो प्राणवायु हैं, वाक् और श्रोत्र-दो इन्द्रियाँ हैं, शब्द विषय है, गुण भी वही है और अवस्था पाँचवीं तुरीयातीता है II 8-5 ||

सदाशिव देव ही एकमात्र हेतु हैं। इस तत्वादिसंचयकी शान्यतीतकलामें स्थिति है, ऐसा चिन्तन करके ताड़न आदि कर्म करे। ‘फडन्त’ मन्त्रसे कला-पाशका ताड़न और बोधन करके नमस्कारान्त-मन्त्रसे शिष्यके अन्त:करणमें प्रवेश करे। इसके बाद फड़न्त-मन्त्रसे जीवचैतन्यकों पाशसे वियुक्त करे। ‘वषट और ‘नमः’ पदोंसे सम्पुटित, स्वाहान्त-मन्त्रका उच्चारण करके, अंकुशमुद्रा तथा पूरक प्राणायामद्वारा उसे लेकर, रेचक प्राणायाम एवं उद्भ-मुद्राद्वारा हृदय-मन्त्रसे सम्मुटित नमस्कारान्त-मन्त्रसे उसका अग्रिकुण्डमें स्थापन करे। इसका पूजन आदि सब कार्य निवृत्तिकलाके समान ही सम्पन्न करे। सदाशिवका आवाहन, पूजन और तर्पण करके उनसे भक्तिपूर्वक इस प्रकार निवेदन करे-‘भगवन्! इस ‘साद’ संज्ञक मुमुक्षुको तुम्हारे अधिकारमें दीक्षित करता हूँ। तुम्हें सदा इसके अनुकूल रहना चाहिये’॥७-१२॥

फिर माता-पिताका आवाहन, पूजन एवं तर्पणसंनिधान करके हृदय-सम्पुटित आत्मबीजसे शिष्यके वक्ष:स्थलमें ताड़न करे। मन्त्र इस प्रकार है-‘ॐ हां हां हां ह: हूं फट्। ‘ इसी मन्त्रसे शिष्यके हृदय में प्रवेश करके अस्त्र-मन्नद्वारा पाशयुक्त चैतन्यका उस पाशसे वियोजन करे। फिर ज्येष्ठा अङ्कुश-मुद्राद्वारा सम्पुटित उसी स्वाहान्तमन्त्रसे उसका आकर्षण और ग्रहण करके ‘नमोऽन्त’ मन्त्रसे उसे अपने आत्मामें नियोजित करे। आकर्षण-मन्त्र तो वही ‘ॐ हां इां हां ह: हूं फट्।’ है, परंतु आत्म-नियोजनका मन्त्र इस प्रकार है-‘ॐ हां हां हामात्मने नम:।’ पूर्ववत् वामा उद्भव-मुद्राद्वारा माता-पिताके संयोगकी भावना करके इसी मन्त्रसे उस जीवचैतन्यका देवीके गर्भमें स्थापन करे। तदनन्तर पूर्वोत्त विधिसे गर्भाधान आदि सब संस्कार करें। पाशबन्धन की शिथिलता के लिये प्रायश्चित्तके लपमें मूल-मन्त्रसे सौ आहुतियाँ दे (अथवा मूलमन्त्रका सौं बार जप करे) ॥ १३-२० ॥

मलशक्तिके तिरोधान ऑौर पाशोंके वियोजनके निमित्त अस्त्र-मन्त्रसे पूर्ववत् पाँच-पाँच आहुतियाँ दे। कला-सम्बन्धी बीजसे युक्त आयुध-मन्त्रसे सात बार अभिमन्त्रित की हुई कटाररूप अस्त्रसे पाशोंका छेदन करे। उसके लियें मन्न इस प्रकार है-‘ॐ ह: हां शान्यतीतकलापाशाय हूं फट्।’ तदनन्तर अस्त्र-मन्त्रसे पूर्ववत् उन पाशोंको मसलकर, वर्तुलाकार बनाकर, घीसे भरे हुए स्रुवमें रख दे और कला-सम्बन्धी अस्त्र-मन्त्रके द्वारा ही उसका हवन करे। फिर पाशांकुरकी निवृतिके लिये अस्त्र-मन्त्रसे पाँच और प्रायश्चित-निषेधके आठ आहुतियाँ दे

इसके बाद ह्रदय मन्त्रसे सदाशिवका आवाहन एवं पूजन और तर्पण करके पूर्वोक्त विधिसे अधिकार समर्पण करें। इसका मन्त्र इस प्रकार है- ‘ॐ हां सदाशिव मनोबिन्दु शुल्क गृहाण स्वाहा” || २१-२७ ॥

तत्पश्चात् उन्हें भी निम्नाङ्कित रूपसे शिवकी आज्ञा सुनावे-‘सदाशिव! इस पशुके सारे पाप दग्ध हो गये हैं। अत: अब आपको इसे बन्धनमें डालनेके लिये यहाँ नहीं ठहरना चाहिये।” मूलमन्त्रसे पूर्ण आहुती दे और सदाशिवका विसर्जन करे। तत्पश्चात् गुरु शिष्यके शरत्कालिक चन्द्रमाके समान उदित विशुद्ध जीवात्माको रौद्री संहारमुद्राके द्वारा अपने आत्मामें संयोजित करके आत्मस्थ कर ले। शिष्यके शरीरस्थ जीवात्माका उद्भव-मुद्राद्वारा उत्थान या उद्धार करके उसके पोषणके लिए शिष्यके मस्तकपर अर्ध्य-जलकी एक बूंद स्थापित करे। इसके बाद परम भक्तिभावसे क्षमा-प्रार्थना करके माता-पिताका विसर्जन करे। विसर्जनके समय इस प्रकार कहे-‘मैंने शिष्यको दीक्षा देने के लियें जो आप दोनों माता-पिताकों खेद पहुँचाया है, उसके लिये मुझे कृपापूर्वक क्षमा-दान देकर आप दोनों अपने स्थानको पधारे २८-३२ 

वषट्-मन्त्रसे अभिमन्त्रित कर्तरी (कटार)- द्वारा शिवास्त्रसे शिष्यकी चार अंगुल बड़ी बोधशक्तिस्वरूपिणी शिखाका छेदन करे। छेदनके मन्त्र इस प्रकार हैं-‘ॐ हूं शिखायै हूं फद।’ ‘ॐ अस्त्राय हूं फट।’ उसे घृतपूर्ण स्रुकमें रखकर ‘हूं फट’ अन्तवाले अस्त्र-मन्त्रसे अग्निमें होम दे। मन्त्र इस प्रकार है-‘ॐ ॐ* ह: अस्त्राय हूं फट्।’ इसके बाद स्रुक और स्नुवाको धोकर शिष्यको स्नान करवानेके पश्चात् स्वयं भी आचमन करे और योजनिका अथवा योजनास्थानके लिये अस्त्र-मन्त्रसे अपने-आपका ताड़न करे।

तत्पश्चात् वियोजन, आकर्षण और संग्रहण करके पूर्ववत् द्वादशान्त* (ललाटके ऊपरी भाग)- से जीवचैतन्यकों ले आकर अपने हृदय-कमलकी कर्णिकामें स्थापित करे॥ ३३-३८ ॥

स्रुकको घीसे भरकर और उसके ऊपर अधोमुख स्रुव रखकर शङ्कतुल्य मुद्राद्वारा नित्योक्त विधिसे हाथमें ले। तत्पश्चात् नादोच्चारणके अनुसार मस्तक और ग्रीवा फैलाकर दृष्टिको समभावसे रखते हुए स्थिर, शान्त एवं परमभावसे सम्पन्न हो कलश, मण्डल, अग्नि, शिष्य तथा अपने आत्मासे भी छ: प्रकार के अध्वाकों ग्रहण करके, स्रुकके अग्रभागमें प्राणमयी नाड़ीके भीतर स्थापित करके, उसी भाव से उसका चिन्तन करे। इस प्रकार चिन्तन करके क्रमश: सात प्रकारके विषुवका ध्यान करे। उन सातोंका परिचय इस प्रकार हैं-पहला “प्राणसंयोगस्वरूप’ हैं और दूसरा हृदयादि-क्रमसे उच्चारित मन्त्रसंज्ञक है। तीसरा सुषुम्णा में अनुगत ‘नाद या नाड़ी” रूप है। नाड़ी-सम्बद्ध नादका जो शक्तिमें लय होना है, उसको ‘प्रशान्त-विषुव’ कहते हैं। शक्तिमें लीन हुए नादका पुन: उज्जीवन होकर जो ऊपरको संचार और समतामें लय होता है, उसे ‘शक्ति’ नामक विषुव कहा गया है। सम्पूर्ण नादक शक्तिकी सीमाकों लाँघकर उन्मनीमें लीन होना ‘कालविषुव’ कहलाता है। यह छठा है। यह शक्तिसे अतीत होता है। सातवाँ विषुव है-“तत्वसंज्ञक’। यही योजना-स्थान है।॥ ३९-४५३ ॥

पूरक और कुम्भक करके मुँहको थोड़ा खोलकर धीरे-धीरे मूल-मन्त्रका उच्चारण करते हुए भावनाद्वारा शिष्यात्माका लय करे। उसका क्रम यों है-विद्युत्सदृश छहों अध्याओंके प्राणस्वरूपमें ‘फट्कार’ का चिन्तन करे। नाभिसे ऊपर एक बिक्तेका स्थान ‘फट्कार’ है, जों प्राणका स्थान माना गया है। उससे ऊपर हृदयसे चार अंगुलकी दूरीपर ‘अकार” का चिन्तन करना (यह ब्रह्माका बोधक है) । उससे आठ अंगुल ऊपर कण्ठमें विष्णुका वाचक ‘उकार’ है, उससे भी चार अंगुल ऊँचे तालुस्थानमें रुद्ववाचक “मकार’ की स्थिति हैं। इसी प्रकार ललाटके मध्यभागमें ईश्वरवाचक ‘बिन्दुका’ स्थान हैं। ललाटमें ऊपर ब्रह्मरन्ध्रपर्यन्त नादमय सदाशिव देव विराजमान हैं। उनके साथ ही वहाँ उनकी शक्ति भी विद्यमान है। उपर्युक्त तत्वोंका क्रमश: चिन्तन और त्याग करते हुए अन्ततोगत्वा शक्ति को भी प्रयाग दें। वहाँ दिव्य पिपीलिकास्पर्शका अनुभव करके ललाटके ऊपरके प्रदेशमें परम तत्त्व, परमानंदस्वरुप, भावशून्य, मनोअतीत, नित्य गुणोदयशाली शिवतत्वमें शिष्यात्माके विलीन होनेकी भावना करे॥४६-५२ ॥

परम शिवमें योजनिकाकी स्थिरताके लिये ‘ॐ नम: शिवाय वौषट्।’-इस मन्त्रका उच्चारण करते हुए अग्निकी ज्वालामें घीकी धारा छोड़ता रहे। फिर विधिपूर्वक पूर्णाहुति देकर गुणापादन करे। उसकी विधि इस प्रकार है। निम्नाङ्कित मन्त्रोंको पढ़कर अग्निमें आहुतियाँ दे- ‘ॐ हां आत्मन् सर्वज्ञो भव स्वाहा।’ॐ हीं आत्मन् नित्यतृप्तो भव स्वाहा।।’ ‘ ॐ हूं आत्मन् अनादिबोधो भव स्वाहा।’ॐ हैं आत्मन् स्वतन्त्रो भव स्वाहा।।’ ‘ ॐ हौं आत्मन् अलुप्तशक्तिर्भव स्वाहा।।’ ‘ ॐ हः आत्मन् अनन्तशक्तिर्भव स्वाहा ।।’ इस प्रकार छ: गुणोंसे सम्पन आत्माको अविनाशी परमशिवसे लेकर विधिवत् भावनापूर्वक शिष्यके शरीरमेंनियोजित करें। तीव्र और मन्द शक्तिपातजनित श्रमकी शान्तिके लिये शिष्यके मस्तकपर न्यासपूर्वक अमृत-बिन्दु अर्पित करे॥५३-५७ ॥

ईशान-कलश आदिके रूपमें पूजित शिवस्वरूप कलशोंको नमस्कार करके दक्षिणमण्डलमें शिष्यकों अपने दाहिने उत्तराभिमुख बिठावें और देवेश्वर शिवसे प्रार्थना करे-‘ प्रभो ! मैरी मूर्तिर्मे स्थित हुए इस जीवको आपने ही अनुगृहीत किया है; अत: नाथ! देवता, अग्नि तथा गुरुमें इसकी भक्ति बढ़ाइये।” ॥ ५८-५९ ॥

इस प्रकार प्रार्थना करके देवेश्वर शिवको प्रणाम करनेके अनन्तर गुरु स्वयं शिष्यको आदरपूर्वक यह आशीर्वाद दे कि ‘तुम्हारा कल्याण हो”। इसके बाद भगवान् शिवकी उत्तम भक्तिभावसे आठ फूल चढ़ाकर शिवकलशके जलसे शिष्यकी स्नान करवावे और यज्ञका विसर्जन करे॥ ६०-६१॥

अध्याय – ८९ एकतत्व-दीक्षाकी विधि *

भगवान् शिव कहते हैंस्कन्द! अब लघु होनेके कारण एकतात्विकी-दीक्षाका उपदेश दिया जाता है।

यथावसर यथोचित रीतिसे स्वकीय मन्त्रद्वारा सूत्रबन्ध आदि कर्म करे। तत्पश्चात् काल, अग्नि आदिसे लेकर शिव पर्यन्त समस्त तत्त्वोंका प्रविभावन (चिन्तन) करे। शिवतत्वमें अन्य सब तत्व धागेमें मनकोंकी भाँति पिरोये हुए हैं। शिव- तत्व आदिका आवाहन करके गर्भाधान आदि संस्कारोंका पूर्ववत् सम्पादन करे; किंतु मूल-मन्त्रसे सर्वशुल्क समर्पण करे। इसके बाद तत्वसमूहोंसे गर्मित पूर्णाहुति प्रदान करे। उस एक ही आहुतिसे शिष्य निर्वाण प्राप्त कर लेता है॥ १-४॥

शिवमें नियोजन तथा स्थिरताका आपादन करनेके लिये दूसरी पूर्णाहुति भी देनी चाहिये। उसे देकर शिवकलशके जलसे शिष्यका अभिषेक करें ॥ ५ ॥

नवासीवाँ अभ्याय पूरा हुआ ॥ ८९ ॥

अध्याय – ९० अभिषेक आदिकी विधिका वर्णन

भगवान् शंकर कहते हैंस्कन्द! शिवका पूजन करके गुरु शिष्य आदिका अभिषेक करे। इससे शिष्यकी श्रीकी प्राप्ति होती है। ईशान आदि आठ दिशाओंमें आठ और मध्यमें एक- इस प्रकार नौ कलश स्थापित करे। उन आठ कलशोंमें क्रमश: क्षारोद, क्षीरोद, दध्यूदक, घृतोद, इक्षुरसोद, सुरोद, स्वादूदक तथा गर्भोद – इन आठ समुद्रोंका आवाहन करे। इसी तरह क्रमानुसार उनमें आठ विद्दोश्वरोंका भी स्थापन  करे, जिनके नाम इस प्रकार हैं- १. शिखण्ड़ी, २. श्रीकण्ठ, ३. त्रिमूर्ति, ४. एकरुद्र, ५. एकनेत्र, ६. शिवोक्तम्, ७. सूक्ष्म और ८. अनन्तरुद्र॥ १-४॥

मध्यवर्ती कलशमें शिव, समुद्र तथा शिवमन्त्रकी स्थापना करें। यागमण्डपकी दिशाके स्वामीके लिये पश्चित स्नान-मण्डपमें दी हाथ लंबी और आठ अंगुल ऊँची एक वेदी बनावे। उसपर कमल आदिका आसन बिछा दें। और उसके उपर आसनस्वरूप अनन्तका न्यास करके शिष्यको पूर्वाभिमुख बिठाकर सकलीकरणपूर्वक पूजन करे। काञ्जी, भात, मिट्टी, भस्म, दूर्वा, गोबरके गोले, सरसों, दही और जल-इन सबके द्वारा उसके शरीरको मलकर क्षारोदक आदिके क्रमसे नमस्कारसहित विधेश्वरोंके नाम-मन्त्रोंद्वारा पूर्वोत कलशोंके जलसे शिष्यको स्नान करावे और शिष्य मन-ही-मन यह धारणा करें कि ‘मुझे अमृतसे नहलाया जा रहा है’॥५-८ ॥

तत्पश्चात् उसे दो श्वेत वस्त्र पहनाकर शिवके दक्षिण भागमें बिठावे और पूर्वोक्त आसनपर पुन: उस शिष्य की पहलेकी ही भाँति पूजा करे। इसके बाद उसे पगड़ी, मुकुट, योग-पट्टिका, कर्तरी (कैंची, चाकू या कटार), खड़िया, अक्षमाला और पुस्तक आदि अर्पित करे। वाहनके लिये शिविका आदि भी दे। तदनन्तर गुरु उस शिष्यकी अधिकार सौंपे।’ आज से तुम भलीभाँति जानकर, अच्छी तरह जांच-परखकर किसीको दीक्षा, व्याख्या और प्रतिष्ठा आदिका उपदेश करना – यह आज्ञासुनावे

तदन्तर शिष्यका अभिवादन स्वीकार कर और महेश्वरकों प्रणाम करके उनसे विध्न-समूहका निवारण करनेके लिये इस प्रकार प्रार्थना करे-‘प्रभो शिव! आप गुरुस्वरूप हैं, आपने इस शिष्यका अभिषेक करनेके लिये मुझे आदेश दिया था, उसके अनुसार मैंने इसका अभिषेक कर दिया। यह संहिता में पारंगत है ९-१३II

मन्त्रचक्रकी तृप्तिके लिये पाँच-पाँच आहुतियाँ दे। फिर पूर्णाहुति-होम करे। इसके बाद शिष्यको अपने दाहिने बिठावें । शिष्य के दाहिने हाथकी अङ्गुष्ठ आदि अँगुलियोंको क्रमशः दग्ध दर्भाङ्गशम्बरोंसे ‘ऊषरत्च’ के लियें लाजिछत करे। उसके हाथमें फूल देकर उससे कलश, अग्नि एवं शिवकी प्रणाम करवावें। तदनन्तर उसके लिये कर्तव्यका आदेश दे-‘तुम्हें शास्त्रके अनुसार भलीभाँति परीक्षा करके शिष्योंको अनुगृहीत करना चाहिये।” मानव आदिका राजाकी भाँति अभिषेक करनेसे अभीष्टकी प्राप्ति होती हैं। ‘ॐ श्लीं पशु हूं फट्।”-यह अस्त्रराज पाशुपत-मन्त्र है। इसके द्वारा अस्त्रराजका पूजन और अभिषेक करना चाहिये*॥ १४-१८ ॥

 

नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ। ९० ॥

अध्याय – ९१ देवार्चनकी महिमा तथा विविध मन्त्र एवं मण्डलका कथन

भगवान् शंकर कहते हैंस्कन्द! अभिषेक हो जानेपर दीक्षित पुरुष शिव, विष्णु तथा सूर्य आदि देवताओंका पूजन करे। जो शंख, भेरी आदि वाद्योंकी ध्वनिके साथ देवताओंको पञ्चगव्यसे स्नान कराता है, वह अपने कुलका उद्धार करके स्वयं भी देवलोकको जाता हैं।

अग्निनन्दन! कोटि सहस्त्र वर्षोंमें जो पाप ठपार्जित किया गया है, वह सब देवताओंको घीका अभ्यङ्ग लगानेसे भस्म हो जाता है। एक आढ़क घी आदिसे देवताओंकों नहलाकर मनुष्य देवता हो जाता है॥ १-३ ॥

चन्दनका अनुलेप लगाकर गन्ध आदिसे देवपूजन करे तो उसका भी वही फल है। थोड़ेसे आयासके द्वारा स्तुति पढ़कर यदि सदा देवताओंकी स्तुति की जाय तो वे भूत और भविष्यका ज्ञान, मन्त्रज्ञान, भोंग तथा मोंक्ष प्रदान करनेवाले होते हैं॥ ४३ ॥

यदि कोई मन्त्रके शुभाशुभ फलके विषयमें प्रश्न करे तो प्रश्नकर्ताके संक्षित प्रश्नवाक्यके अक्षरोंकी संख्या गिन ले। उस संख्यामें दोसे भाग दे। एक बचे तो शुभ और शून्य या दो बचे तो अशुभ फल जाने।

तीनसे भाग देनेपर मूल धातुरूप जीवका परिचय मिलता है, अर्थात् एक शेष रहे तो वातजीव, दो शेष रहे तो पित्तजीव और तीन शेष रहे तों कफजीव जाने।

चारसे भाग देनेपर ब्राह्मणादि वर्ण-बुद्धि होती है। तात्पर्य यह कि एक बाकी बचे तो उस मन्त्रमें ब्राह्मण-बुद्धि, दो बचनेपर क्षत्रिय-बुद्धि, तीन बचनेपर वैश्य-बुद्धि और चार शेष रहनेपर शूद्र-बुद्धि करे।

पाँचसे भाग देनेपर शेषके अनुसार भूततत्त्व आदिका बोध होता है, अर्थात् एक आदि शेष रहनेपर पृथिवी आदि तत्वका परिचय मिलता है। इसी प्रकार जय-पराजय आदिका ज्ञान प्राप्त करे ॥५-६॥

यदि मन्त्र-पदके अन्तमें एक त्रिक (तीन बीजाक्षर) हों, अधिक बीजाक्षर हों अथवा दों प, म एवं क हो तो इनमेंसे प्रथम वर्ग अशुभ, बीचवाला मध्यम तथा अन्तिम वर्ग शुभ है। यदि अन्तमें संख्या-समूह हो तो वह जीवनकालके दस वर्षका सूचक है। यदि दसकी संख्या हो तो दस वर्षके पश्चात उस मन्त्रके साधकपर यमराजका निश्चय ही आक्रमण हो सकता है॥ ७ ॥

सूर्य, गणपति, शिव, दुर्गा, लक्ष्मी तथा श्रीविष्णु भगवानके मन्त्रोंके अक्षरोंद्वारा जपमें तत्पर कठिनी (अङ्गुष्ठ अँगुली)-से स्पर्श किये गये कमलपत्रमें गोमूत्राकार रेखापर एक त्रिकसे आरम्भ कर बारह त्रिक-पर्यन्त लिखे। अर्थात् उक्त मन्त्रोंके तीन-तीन अक्षरोंका समुदाय एकसे लेकर बारह स्थानोंतक पृथक्-पृथक् लिखे।

इसी प्रकार चौंसठ कोष्ठोका एक मण्डल बनाकर उसमें मरुत् (यं), व्योम (हं) और मरुत् (यं)-इन तीन बीजोंक त्रिक पहले कोठसे लेकर आठवें कोष्ठतक लिखें। इन सब स्थानोंपर पासा फेंकनेसे अथवा स्पर्श करनेपर शुभाशुभका परिज्ञान होता है। विषम संख्यावाले स्थानोंपर पासा पड़े या स्पर्श हो तो शुभ और सम संख्यापर पड़े तो अशुभ फल होता है।॥ ८-१० ॥

‘यं हं यं’-इन तीन बीजोंके आठ त्रिक हैं। वे ध्वज आदि आठ आयोंके प्रतीक हैं। इन आयोंमें जो सम हैं, वे अशुभ हैं। विषम आय शुभप्रद कहे गये हैं।॥ ११॥

‘क’ आदि अक्षरोंको सोलह स्वरोंसे तथा सोलह स्वरोंको ‘क’ आदिसे युक्त करके उन सबके साथ आं ई” यह पल्लव लगा दे। पल्लवयुत इन सस्वर कादि अक्षरोंकों आदि में रखकर उनके साथ त्रिपुराके नाम-मन्त्रको पृथक्-पृथक् सम्बद्ध करे। उनके आदिमें ‘ॐ ह्रीं’ जोड़े और अन्तमें ‘नम:’ पद लगा दें। इस प्रकार पूजनकर्मके उपयोग में आनेवाले इन मन्त्रोंका प्रस्तार बीस हजार एक सौं साठ्की संख्यातक पहुँच जाता है॥ १२-१३॥

 ‘आं ह्रीं”-इन बीजोंसे युक्त सरस्वती, चण्डी, गौरी तथा दुर्गाके मन्त्र हैं। श्रीदेवीके मन्त्र ‘आं श्री’ इन बीजोंसे युक्त हैं।

सूर्यके मन्त्र आं क्षौं’ इन बीजोंसे, शिवके मन्त्र ‘आं हौं’ इन बीजोंसे, गणेशके मन्त्र ‘आं गं’ इन बीजोंसे तथा श्रीहरिके मन्त्र आं अं इन बीजोंसे युक्त हैं। कादि व्यञ्जन अक्षरों तथा अकारादि सोलह स्वरोंको मिलाकर मन्त्रों इक्यावन होते हैं। इस प्रकार सस्वर कादि अक्षरोंकों आदिमें और सस्वर ‘क्ष’ से लेकर ‘क’ तकके अक्षरोंको अन्तमें रखनेसे सम्पूर्ण मन्त्र बनते हैं। १४-१६ ॥

१४४० सम्पूर्ण मण्डल होनेसे (१) सूर्य, (२) शिव, (३) देवी दुर्गा तथा (४) विष्णुमेंसे प्रत्येकके तीन सौ साठ मण्डल होते हैं। (१४४०/४ = ३६०) अभिषिक्त गुरु इन सब मन्त्रों तथा देवताओंका जप-ध्यान करे तथा शिष्य एवं पुत्रकी दीक्षा भी दे॥ १७॥

 

इक्यानबवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ९१॥

अध्याय – ९२ प्रतिष्ठाके अङ्गभूत शिलान्यासकी विधिका वर्णन

भगवान् शिव कहते हैंस्कन्द! अब मैं संक्षेपसे और क्रमश: प्रतिष्ठाका वर्णन करूंगा।

पीठ शक्ति है और लिङ्ग शिव। इन दोनोंके योगमें शिव-सम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा प्रतिष्ठाकी विधि सम्पादित होती है।

प्रतिष्ठाके ‘प्रतिष्ठा’ आदि पाँच भेद हैं। उनका स्वरूप तुम्हें बता रहा हूँ।

जहाँ ब्रह्मशिलाका योग हो, वहाँ विशेषरूपसे की हुई स्थापना ‘प्रतिष्ठा’ कही गयी हैं। पीठपर ही यथायोग्य जों अर्चा-विग्रहको पधराया जाता है, उसे ‘स्थापन” कहते हैं। प्रतिष्ठा (ब्रह्मशिला)-से भिन्नकी स्थापनाकों ‘स्थिर स्थापन” कहते हैं। लिङ्गके आधारपूर्वक जो स्थापना होती हैं, उसे ‘उत्थापन” कहा गया है।

जिस प्रतिष्ठामें लिंगको आरोपित करके विद्वानोंद्वारा उसका संस्कार किया जाता है, उसकी ‘आस्थापन” संज्ञा है। ये शिव-प्रतिष्ठाके पाँच भेद हैं।

‘आस्थान” और “उत्थान’ भेदसे विष्णु आदिकी प्रतिष्ठा दो प्रकारकी मानी गयी है। इन सभी प्रतिष्ठाओंमें चैतन्यस्वरूप परमशिवका नियोजन कोरे।

‘पदाध्वा’ आदि भेदसे प्रासादोंमें भी पाँच प्रकारकी प्रतिष्ठा बतायी गयी है’। प्रासादकी इच्छासे पृथ्वीकी परीक्षा करे। जहाँकी मिट्टीका रंग श्वेत हो और घीकी सुगन्ध आती हो, वह भूमि ब्राह्मणके लिये उत्तम बतायी गयी हैं। इसी तरह क्रमश: क्षत्रियके लिये लाल तथा रक्तकी-सी गन्धवाली मिट्टी, वैश्यके लिये पीली और सुगन्धयुक्त मिट्टीवाली तथा शूद्रके लिये काली एवं सुराकी-सी गन्धवाली मिट्टीसे युक्त भूमि श्रेष्ठ कही गयी है।॥ १-७ ॥

पूर्व, ईशान, उत्तर अथवा सब ओर नीची और मध्यमें ऊँची भूमि प्रशस्त मानी गयी है। एक हाथ गहराईतक खोदकर निकाली हुई मिट्टी यदि फिर उस गईमें डाली जाने पर अधिक हो जाय तो वहाँकी भूमिको उत्तम समझे। अथवा जल आदिसे उसकी परीक्षा करे।*

हड्डी और कोयले आदिसे दूषित भूमिका खोदने, वहाँ गौओंको ठहराने अथवा बारंबार जीतने आदिके द्वारा अच्छी तरह शोधन करे।

नगर, ग्राम, दुर्ग, गृह और प्रसादका निर्माण करानेके लिए उक्त प्रकारसे भूमि-शोधन आवश्यक है।

मण्डपमें द्वारपूजासे लेकर मन्त्रतर्पण-पर्यन्त सम्पूर्ण कर्मका सम्पादन करके विधिपूर्वक घोरास्त्र सहस्रयाग करे।

बराबर करके लिपी-पुती भूमिपर दिशाओंका साधन करे।

सुवर्ण, अक्षत और दहीके द्वारा प्रदक्षिणक्रमसे रेखाएँ खींचे।

मध्यभागसे ईशानकोष्ठमें स्थित भरे हुए कलशमें शिवका पूजन करे। फिर वास्तुकी पूजा करके उस कलशके जलसे कुदाल आदिकों सीचे। मण्ड़पमें बाहर राक्षसों और ग्रहोंका पूजन करके दिशाओंमें विधिपूर्वक बलि दे॥८-१३ ॥

कलशमें पूजा करके लग्न आनेपर अग्निकोणवर्ती कोष्ठमें पहले जिसका अभिषेक किया गया था, उस मधुलिप्त कुदालसे धरती ख़ुदावे और मिट्टीको नैऋत्यकोणमें फेंके। खोदे गये गढ़ेमें कलशका जल गिरा दे। फिर भूमिका अभिषेक करके कुदाल आदिको नहलाकर उसका पूजन करे। तत्पश्चात् दूसरे कलशको दो वस्त्रोंसे आच्छादित करके ब्राह्मणके कंधेपर रखकर गाजे-बाजे और वेदध्वनिके साथ नगरकी पूर्व सीमाके अन्ततक, जितनी दूर जाना अभीष्ट हो, उतनी दूर ले जाय और वहाँ क्षणभर ठहरकर वहाँसे नगरके चारों और प्रदक्षिणक्रमसे चलते हुए ईशानकोणतक उस कलशको घुमावे। साथ ही सीमान्तचिहोंका अभिषेक करता रहे॥१४-१८ ॥

इस प्रकार रुद्र-कलशकों नगरके चारों और घुमाकर भूमिका परिग्रह करे। इस क्रियाको ‘अर्ध्यदान’ कहा गया है। तदनन्तर शल्यदोषका निवारण करनेके लिए भूमिको इतनी गहराईतक खुदवावे, जिससे कंकड़-पत्थर अथवा पानी दिखायी देने लगे। अथवा यदि शल्य (हड़ी आदि)-का ज्ञान हो जाय तो उसे विधिपूर्वक खुदवाकर निकाल दे।

यदि कोई लग्न-कालमें प्रश्न पूछे और उसके मुखसे अ, क, च, ट त, प, स और ह-इन वर्गोके अक्षर निकलें तों इनकी दिशाओंमें शल्यकी स्थिति सूचित होती हैं। अथवा द्विज आदि वहाँ गिरें तो ये सब उस स्थानमें शल्य होनेकी सूचना देते हैं। कर्ताके अपने अङ्ग-विकारसे उसके ही बराबर शल्य होनेका निश्चय करे। पशु आदिके प्रवेशसे, कीर्तनसे तथा पक्षियोंके कलरवोंसे शल्यकी दिशाका ज्ञान प्राप्त करे ॥ १९-२२ ॥

किसी पट्टीपर या भूमिपर अकारादि आठ वर्गोंसे युक्त मातृका-वणोंको लिखे। वर्गके अनुसार क्रमश: पूर्वसे लेकर ईशानतककी दिशाओंमें शल्यकी जानकारी प्राप्त करे।

‘अ’ वर्गमें पूर्व दिशाकी ओर लोहा होनेका अनुमान करे। ‘क’ वर्गमें अग्निकोण की ओर कोयला जाने। ‘च’ वर्गमें दक्षिण दिशाकी ओर भस्म तथा “ट” वर्गमें नैऋत्यकोणकी और अस्थिका होना समझे। ‘त’ वर्गमें पश्चिम दिशाकी ओर ईंट, ‘प’ वर्गमें वायव्यकोणकी ओर खोपड़ी, ‘य’ वर्गमें उत्तर दिशाकी ओर मुर्दे और कीड़े आदि और ‘स’ वर्गमें ईशानकोण की और लोहे का होना बतावे। इसी प्रकार ‘ह’ वर्गमें चाँदी होनेका अनुमान करे। ‘क्ष’ वर्गयुक्त दिग्भागसे उसी दिशामें अन्य अनर्थकारी वस्तुओंके होनेका अनुमान करे।

एक–एक हाथ लंबे नौ शिलाखण्डौंका प्रोक्षण करके, उन्हें आठ-आठ अंगुल मिट्ठीके भीतर गाड़ दे। फिर वहाँ पानी डालकर उनपर मुद्ररसे आघात करें। जब वे प्रस्तर तीन चौथाई भाग तक गड़े के भीतर धस जायें, तब उस खातकों भरकर, लीप-पोतकर वहाँकी भूमिको बराबर कर दे। ऐसा करवाकर गुरु सामान्य अर्घ्य हाथमें लिये आगे बताये जानेवाले मण्डल (या मण्डप)-की ओर जाय। मण्डपके द्वारपर द्वारपालोंका पूजन (आदर-सत्कार) करके पश्चिम द्वारसे उसके भीतर प्रवेश करे || २३-२८ ॥

वहाँ आत्मशुद्धि आदि कुण्ड-मण्डपका संस्कार करे। कलश और वार्धानी आदिका स्थापन करके लोकपालों तथा शिवका अर्चन करें। अग्निका जनन और पूजन आदि सब कार्य पूर्ववत् करे। तत्पश्चात् गुरु यजमानके साथ शिलाओंके स्नानमण्डपमें जाय। वे शिलाएँ प्रासाद-लिङ्गके चार पाये हैं। उनके नाम हैं-क्रमश: धर्म, ज्ञान, वैरागाय और ऐश्वर्य: अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और अनैश्वर्य आदि।

उनकी ऊँचाई आठ हों तो अच्छी मानी गयी हैं। वे चौकोर हों और उनकी लंबाई एक हाथकी हो, इस मापसे प्रस्तरकी शिलाएँ बनवानी चाहिये। ईटोंकी शिलाओंका माप आधा होना चाहिये। प्रस्तरखण्ड़से बने हुए प्रासादमें जो शिलाएँ उपयोगमें लायी जाये अथवा ईटोंके बने हुए मन्दिरमें जो ईट लगे, उनमेंसे नौ शिलाएँ अथवा ईटें वज्र आदि चिह्नोंसे अङ्कित हो, अथवा पाँच शिलाएँ कमलके चिहोंसे अङ्कित हों। इन अङ्कित शिलाओंसे ही मन्दिर-निर्माणका कार्य आरम्भ किया जाय २९-३२

पाँच शिलाओंके नाम इस प्रकार हैं-नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा। इन पाँचोंके निधिकुम्भ इस प्रकार हैं-पद्म, महापद्म, शङ्क, मकर और समुद्र।

नौ शिलाओंके नाम इस प्रकार हैं-नन्दा, भद्रा, जया, पूर्णा, अजिता, अपराजिता, विजया, मङ्गला और नवमी शिला धरणी है। इन नवोंके निधिकलश क्रमश: इस प्रकार जानने चाहिये-सुभद्र, विभद्र, सुनन्द, पुष्पदन्त, जय, विजय, कुम्भ, पूर्व और उत्तर।

प्रणवमय आसन देकर अस्त्र-मन्त्रसे ताड़न और उल्लेखन करनेके पश्चात् इन सब शिलाओंको सामान्य रूपसे कवच-मन्त्रसे अवगुण्ठित करना चाहिये। अस्त्र मन्त्रके अन्तमें हूं फटलगाकर उसका उच्चारण करते हुए मिट्टी, गोबर, गोमूत्र, कषाय तथा गन्धयुक्त जलसे मलस्नान करावे, तत्पश्चात विधिपूर्वक पञ्चगव्य और पंचामृतसे स्नान कराना चाहिये उसके बाद गन्धयुक्त जलसे स्नान करानेके अनन्तर अपने नामसे अंकित मन्त्रद्वारा फल, रत्न, सुवर्ण तथा गोश्रृङ्गके जलसे और चन्दनसे शिलाकों चर्चित करके उसे वस्त्रोंसे आच्छादित करे ॥३३-४० ॥

खडुत्थ आसन देकर, यागमण्डपकी परिक्रमा करके, उस शिलाको ले जाय और हृदयमन्त्रद्वारा उसे शय्या अथवा कुशके विस्तरपर सुला दे। वहाँ पूजन करके, बुद्धिसे लेकर पृथिवी-पर्यन्त तत्त्वसमूहोंका न्यास करनेके पश्चात्, त्रिखण्ड-व्यापक तत्वत्रयका उन शिलाओंमें क्रमश: न्यास करें। बुद्धिसे लेकर चित्ततक, चितके भीतर मातृकातक और तन्मात्रासे लेकर पृथिवी-पर्यन्त शिवतत्व, विद्यातत्त्च तथा आत्मतत्त्वकी स्थिति है। पुष्पमाला आदिसे चिह्रित स्थानोंपर क्रमश: तीनों तत्वोंका अपने मन्नसे और तत्वेशोंका हृदय-मन्त्रसे पूजन करे। पूजनके मन्त्र इस प्रकार हैं-‘ॐ हूं शिवतत्वाय नमः। ॐ हां शिवतत्त्वाधिपाय रुद्राय नमः ।। ॐ हां विद्यातत्त्वाय नम: ॥ ॐ हां विद्यातत्त्वाधिपाय विष्णवे नमः । ॐ हां आत्मतत्त्वाय नमः ।। ॐ हां आात्मतत्त्वाधिपतये ब्रह्मणे नमः ।।’ ॥ ४१-४६ ॥

प्रत्येक तत्व और प्रत्येक शिलामें पृथ्वी, अग्नि, यजमान, सूर्य, जल, वायु, चन्द्रमा और आकाश-इन आठ मूर्तियोंका न्यास करे। फिर क्रमशः शर्व, पशुपति, उग्र, रुद्र, भव, ईश्वर (या ईशान), महादेव तथा भीम-इन मूर्तीश्वरोंका न्यास करे। मूर्तियों तथा मूर्तीधरोंके मन्त्र इस प्रकार हैं-‘ॐ धरामूर्तये नमः। ॐ धराधिपतये शर्वाय नम:।’ इसके बाद अनन्त आदि लोकपालोंका क्रमशः अपने मन्त्रोंसे न्यास करे। इन्द्र आदि लोकपालोंके बीज आगे बताये जानेवाले क्रमसे यों जानने चाहिये-लूं, रूं, यूं बूं, श्रृं, षु. स्रु, हूं, क्षू। यह नौ शिलाओंके पक्षमें बताया गयी है।

जब पाँच पदकी शिलाएँ हों, तब प्रत्येक तत्वमयी शिलामें स्पर्शपूर्वक पृथ्वी आदि पाँच मूर्तियोंका न्यास करें। उक्त मूर्तियोंके पाँच मूर्तीश इस प्रकार हैं-ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर और सदाशिव। इन पाँचोंका उक्त पाँचों मूर्तियोंमें पूर्ववत् पूजन करना चाहिये ॥४७-५३ ॥

ॐ पृथिवीमूर्तये नमः | ॐ पृथिवीमूर्तयेधिपतये ब्रह्मणे नमः ॥’ इत्यादि मन्त्र पूजनके लिये जानने चाहिये। क्रमश: पाँच कलशोंका अपने नाम-मन्त्रोंसे पूजन करके उन्हें स्थापित करे। मध्यशिलाके क्रमसे विधिपूर्वक न्यास करे। विभूति, कुशा और तिलोंसे अस्त्र-मन्त्रद्वारा प्राकारकी कल्पना करे। कुण्डोंमें आधार-शक्तिका न्यास और पूजन करके तत्वों, तत्वाधिपों, मूर्तियों तथा मूर्तीश्वरोंका घृत आदिसे तर्पण करे। तत्पश्चात् ब्रह्रात्म-शुद्धिके लिये मूलके अंगभूत ब्रह्रा-मन्त्रोंद्वारा क्रमश: सौ-सौ आहुतियाँ देकर पूर्णाहुतिपर्यन्त होम करनेके पश्चात् शान्ति-जलसे शिलाओंका प्रोक्षणपूर्वक पूजन करे। कुशाओंद्वारा स्पर्श करके प्रत्येक तत्वमें क्रमश: सांनिध्य और संधान करके फिर शुद्ध-न्यास करे। इस प्रकार जा-जाकर तीन भागोंमें कर्म करे। मन्त्र यों हैं-‘ॐ आाम् ईम् आत्मतत्त्वविद्यातत्त्वाभ्यां नमः।’ इति ॥ ५४-६० ॥

कुशके मूल आदिसे क्रमश: तत्वेशादि तीनका स्पर्श करे। इसके बाद हृस्व-दीर्घके प्रयोगपूर्वक तत्वानुसंधान करे। इसके लिये मन्त्र यों है* ॐ इं ऊं विद्यातत्त्वशिवतत्त्वाभ्यां नमः ॥’

तदनन्तर घी और मधुसे भरे हुए पञ्चरत्नयुक्त और पञ्चगव्यसे अग्रभागमें अभिषिक्त पाँच कलशोंका, जिनके देवता पञ्च-लोकपाल हैं, अपने मन्त्रोंसे पूजन करके उनके निकट होम करे। फिर समस्त शिलाओंके अधिदेवताओंका ध्यान करे। ‘वे शिलाधिदेवता विद्यास्वरूप हैं, स्नान कर चुके हैं। उनकी अङ्गकान्ति सुवर्णके समान उद्दीप्त होती है। वे उज्वल वस्त्र धारण करते हैं और समस्त आभूषणोंसे सम्पन्न हैं।’ न्यूनतादि दोष दूर करनेके लिये तथा वास्तुभूमिकी शुद्धिके लिये अस्त्र-मन्त्रद्वारा पूर्णाहुतिपर्यन्त सौ-सौ आहुतियाँ दे ॥ ६१-६५॥

बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ९२॥

अध्याय – ९३ वास्तुपूजा-विधि

भगवान् शिव कहते हैं-स्कन्द! तदनन्तर प्रासादको आसूत्रित करके वास्तुमण्डलकी रचना करे। समतल चौकोर क्षेत्र में चौंसठ कोष्ठ बनावे ।कोनोंमें दो वंशोंका विन्यास करें।विकोणगामिनी आठ रज्जूएँ अङ्कित करे। वे द्विपद और षट्पद स्थानोंके रूपमें विभक्त होंगी।उनमें वास्तुदेवताका पूजन करे, जिसकी विधि इस प्रकार है-‘कुञ्चित केशधारी वास्तुपुरुष उत्तान सो रहा है। उसकी आकृति असुरके समान है।’ पूजाकालमें उसके इसी स्वरुपका स्मरण करना चाहिये,परन्तु दीवार आदिकी नींव रखते समय उसका ध्यान यों करना चाहिये कि ‘वह औधेमुँह पड़ा हुआ है। कोहनीसे सटे हुए उसके दो घुटने वायव्य और अग्निकोणमें स्थित हैं। अर्थात् दाहिना घुटना स्थित है। उसके जुड़े हुए दोनों चरण पैतृ(नैक्रश्य!) दिशा में स्थित हैं तथा उसका सिर  ईशानकोंणकी और है। उसके हाथोंकी अञ्जलि वक्ष:स्थल पर है १-४

उस वास्तुपुरुषके शरीरपर आरूढ़ हुए देवताओंकी पूजा करनेसे वे शुभकारक होते हैं। आठ देवता कोणाधिपति माने गये हैं, जो आठ कोणाधोंमें स्थित हैं।

क्रमश: पूर्व आदि दिशाओंमें स्थित मरीचि आदि देवता छ:-छ: पदोंके स्वामी कहे गये हैं और उनके बीच में विराजमान ब्रह्मा चार पदोंके स्वामी हैं। शेष देवता एक-एक पदके अधिष्ठाता बताये गये हैं।

समस्त नाड़ी-सम्पात, महामर्म, कमल, फल, त्रिशूल, स्वस्तिक, वज्र, महास्वस्तिक, सम्पुट, त्रिकटी, मणिबन्ध तथा सुविशुद्ध पद-ये बारह मर्म-स्थान हैं। वास्तुकी भित्ति आदिमें इन सबका पूजन करे।

ईशान (रुद्र)-को घृत और अक्षत चढ़ावे।

पर्जन्यको कमल और जल अर्पित करे ।

जयन्तको कुङ्कुमरञ्जित निर्मल पताका दे।

महेन्द्रको रत्नमिश्चित जल दे।

सूर्यको धूम्र वर्णका चंदोवा दे।

सत्यको घृतयुक्त गेहूँ दे।

भृशकी उड़द-भात चढ़ावे।

अन्तरिक्षको विमांस (विशिष्ट फलका गूदा या औषधविशेष) अथवा सतु (सत्तू) निवेदित करे।

ये पूर्व दिशाके आठ देवता हैं॥ ५-१० ई ॥

अग्निदेवको मधु, दूध और घीसे भरा हुआ स्रुक अर्पित करे।

पूषाको लाजा अर्पित करे।

वितथको सुवर्ण-मिश्रित जल दे।

गृहक्षतको शहद अर्पित करे।

यमराजको पलोदन भेट करे।

गन्धर्वनाथको गन्ध अर्पित करे।

भृङ्गराजको पक्षिजिह्वा अर्पित करे।

मृगको यवपर्ण (जौके पत्ते) चढ़ावे-वे आठ देवता दक्षिण दिशा में पूजित होते हैं।

पितृ’ देवताको तिल-मिश्रित जल अर्पित करे।

दौवारिक’ नामवाले देवताकों वृक्ष-जनित दूध और दन्तधावन धेनुमुद्राके प्रदर्शनपूर्वक निवेदित करे।

‘सुग्रीव’ को पूआ चढ़ावे।

पुष्पदन्तको कुशा अर्पित करे ।

वरुणको लाल कमल भेंट करे।

असुरको सुरा एवं आसव चढ़ावे।

शोषको घीसे ओतप्रोत भात चढ़ावे।

रोगको घृतमिश्चित माँड़ या लावा चढ़ावें। ये पश्चिम दिशाके आठ देवता कहे गये हैं॥ ११-१६ ॥

मारुतको पीले रंगका ध्वज चढ़ावे ।

नागदेवताको नागकेसर चढ़ावे ।

मुख्यको भक्ष्यपदार्थ चढ़ावे ।

भल्लाटको छौंक-बघारकर मुंगकी दाल अर्पित करे।

सोमको घृतमिश्रित खीर चढ़ावे ।

चरकको शालूक चढ़ावे ।

अदितिको लोपी चढ़ावे ।

दितिको पूरी चढ़ावे । ये उत्तर दिशाके आठ देवता कहे गये।

मध्यवर्ती ब्रह्माजीकों मोदक चढ़ावे।

पूर्व दिशा में छ: पदोंके उपभोक्ता मरीचिकों भी मोदक अर्पित करें।

ब्रह्माजीसे नीचे अग्निकोणवर्ती कोष्ठमें स्थित सविता देवताकों लाल फूल चढ़ावे ।

सवितासे नीचे वह्रिकोणवर्ती कोष्ठमें सावित्री देवीको कुशोदक अर्पित करे।

ब्रह्माजीसे दक्षिण छः पर्दोके अधिष्ठाता विवस्वानको लाल चन्दन चढावे॥१७-२० ॥

ब्रह्माजीसे नैऋत्य दिशा में नीचेके कोष्ठमें इन्द्रदेवताके लिये हल्दी-भात अर्पित करे।

इन्द्रसे नीचे नैऋत्यकोंणमें इन्द्रजयके लिये मिष्ठान्न निवेदित करे।

ब्रह्माजीसे पश्चिम छ: पदोंमें विराजमान मित्र देवताको गुडमिश्रित भात चढ़ावे ।

वायव्यकोणसे नीचेके पदमें रुद्रदेवताको धृतपक्व अन्न अर्पित करे।

रूद्र देवतासे नीचेके कोष्ठमें, रुद्र दासके लिये आर्द्रमांस निवेदित करे।

तत्पश्चात् उत्तरवर्ती छः पर्दोके अधिष्ठाता पृथ्वीधरके निमित्त उड़दका बना नैवेद्य चढ़ावे।

ईशानकोणके निम्रवर्ती पदमें ‘आप’की और उससे भी नीचेके पदमें आपवत्सकी विधिवत् पूजा करके उन्हें क्रमश: दही और खीर अर्पित करे॥ २१-२४॥

तत्पश्चात् मध्यदेशवर्ती चार पदोंमें स्थित ब्रह्माजीको पञ्चगव्य, अक्षत और घृतसहित चरु निवेदित करे ।

तदनन्तर ईशानसे लेकर वायव्यकोण-पर्यन्त चार कोणोंमें स्थित चरकी आदि चार मातृकाओंका वास्तुके बाह्मभागमें क्रमशः पूजन करे, जैसा कि क्रम बताया जाता है।

चरकीको सघृत मांस (फलका। गूदा), विदारीको दही और कमल तथा पूतनाको पल, पित्त एवं रुधिर अर्पित करे। पापराक्षसीको अस्थि, मांस, पित्त तथा रक्त चढ़ावे।

इसके पश्चात् पूर्व दिशामें स्कन्दको उड़द-भात चढ़ावे। दक्षिण दिशा में अर्यमाको खिचड़ी और पूआ चढ़ावे तथा पश्चिम दिशा में जम्भकको रक्त-मांस अर्पित करें। उत्तर दिशा में पिलिपिच्छको रक्तवर्णका अन्न और पुष्प निवेदित करे। अथवा सम्पूर्ण वास्तुमण्डलका कुश, दही, अक्षत तथा जलसे ही पूजन करे॥ २५-३० ॥

घर और नगर आदिमें इक्यासी पदोंसे युक्त वास्तुमण्डलका पूजन करना चाहिये। इस वास्तुमण्डलमें त्रिपद और षट्पद रज्जुएँ पूर्ववत् बनानी चाहिये। उसमें ईश आदि देवता ‘पदिक’ (एक-एक पदके अधिष्ठाता) माने गये हैं। ‘आप’ आदिकी स्थिति दो-दों कोष्ठोमें बतायी गयी हैं। मरीचि आदि देवता छ: पदोंमें अधिष्ठित होते हैं और ब्रह्मा नौ पदोंके अधिष्ठाता कहे गये हैं।

नगर, ग्राम और खेट आदिमें शतपद-वास्तुका भी विधान है। उसमें दो वंश कोणगत होते हैं। वे सदा दुर्जय और दुर्धर कहे गये हैं॥ ३१-३३॥

देवालयमें जैसा न्यास बताया गया है, वैसा ही शतपद-वास्तुमण्डलमें भी विहित है। उसमें स्कन्द आदि ग्रह ‘षट्पद’ (छ: पदोंके अधिष्ठाता) जानने चाहिये। चरकी आदि पाँच-पाँच पदोंकी अधिष्ठात्री कही गयी हैं। रज्जू और वंश आदिका उल्लेख पूर्ववत् करना चाहिये।

देश-की स्थापनाके अवसर पर चौंतीस सौ पदोंका वास्तुमण्डल होना चाहिये। उसमें मध्यवर्ती ब्रह्मा चौंसठ पदोंके अधिष्ठाता होते हैं। मरीचि आदि देवताओं के अधिकारमें चौवन-चौवन पद होते हैं। ‘आप’ आदि आठ देवताओंके स्थान छत्तीस-छत्तीस पद बताये गये हैं। वहाँ ईशान आदि नौ-नौ पदोंके अधिष्ठाता कहे गये हैं और स्कन्द आदि सौ-सौ पदोंके । चरकी आदिके पद भी तदनुसार ही हैं। रज्जू, वंश आदिकी कल्पना पूर्ववत् जाननी चाहिये।

बीस हजार पदोंके वास्तुमण्डलमें भी वास्तुदेवकी पूजा होती है-यह जानना चाहिये। उसमें देश-वास्तुकी भाँति नौ-गुना न्यास करना चाहिये।

पच्चीस पदोंकावास्तुमण्डल चितास्थापनके समय विहित है। उसकी ‘वताल’ संज्ञा है।

दूसरा नौ पदोंका भी होता है। इसके सिवा एक सोलह पदोंका भी वास्तुमण्डल होता है। ॥ ३४-३९॥

षट्कोण, त्रिकोण तथा वृत्त आदिके मध्यमें चौकोर वास्तुमण्डलका भी विधान है। ऐसा वास्तु ख़ात (नींव आदिके लिये खोदे गये गड्ढे)-के लिये उपयुक्त है। इसीके समान वास्तु ब्रह्म-शिलात्मक पृष्ठन्यासमें, शावाकके निवेशमें और मूर्तिस्थापनमें भी उपयोगी होता है।

वास्तुमण्डलवर्ती समस्त देवताओंको खीरसे नैवेद्य अर्पित करे। उक्त-अनुक्त सभी कार्योंकि लिये सामान्यत: पाँच हाथकी लंबाई-चौड़ाईमें वास्तुमण्डल बनाना चाहिये।

गृह और प्रासादके मानके अनुसार ही निर्मित वास्तुमण्डल सर्वदा श्रेष्ठ कहा गया है॥ ४०-४२॥

अध्याय – ९४ शिलान्यासकी विधि

भगवान् शिव कहते हैंस्कन्द! ईशान आदि कोणोंमें वास्तुमण्डलके बाहर पूर्ववत चरकी आदिका पूजन करे। प्रत्येक देवताके लिये क्रमशः तीन-तीन आहुतियाँ दे। भूतबलि देकर नियत लग्नमें शिलान्यासका उपक्रम करे।

खातके मध्यभाग में आधार-शक्तिका न्यास करे। वहाँ अनन्त (शेषनाग)—के मन्त्रसे अभिमन्त्रित उत्तम कलश स्थापित करे। “लं पृथिव्यै नम:।’-इस मूल-मन्त्रसे इस कलशपर पृथिवीस्वरूपा शिलाका न्यास करे। उसके पूर्वादि दिग्भागोंमें क्रमश: सुभद्र आदि आठ कलशोंकी स्थापना करे। पहले उनके लिये गड्ढे खोदकर उनमें आधार-शक्तिका न्यास करनेके पश्चात् उक्त कलशोको इन्द्रादि लोकपालोंके मन्त्रोंद्वारा स्थापित करना चाहिये। तदनन्तर उन कलशोंपर क्रमश: नन्दा आदि शिलाओंको रखें। १-४ ॥

तत्वमूर्तियोंके अधिदेवता-सम्बन्धी शस्त्रोंसे युक्त वे शिलाएँ होनी चाहिये। जैसे दीवारमें मूर्ति तथा अस्त्र आदि अङ्कित होते हैं, उसी प्रकार उन शिलाओंमें शर्व आदि मूर्ति, देवताओंके अस्त्र-शस्त्र अङ्कित रहें। उक्त शिलाओंपर कोण और दिशाओंके विभागपूर्वक धर्म आदि आठ देवताओंकी स्थापना करे। सुभद्र आदि चार कलशोंपर नन्दा आदि चार शिलाएँ अग्रि आदि चार कोणोंमें स्थापित करनी चाहिये। फिर जय आदि चार कलशोंपर अजिता आदि चार शिलाओंकी पूर्व आदि चार दिशाओंमें स्थापना करे। उन सबके ऊपर ब्रह्माजी तथा व्यापक महेश्वरका न्यास करके मन्दिरके मध्यवर्ती ‘आकाश’ नामक अध्वाका चिन्तन करे। इन सबको बलि अर्पित करके विध्नदोषके निवारणार्थ अस्त्र-मन्त्रका जप करे ॥५-८॥

जहाँ पाँच ही शिलाएँ स्थापित करनेकी विधि है, उसके पक्षमें भी कुछ निवेदन किया जाता है। मध्यभागमें सुभद्र-कलशके ऊपर पूर्णा नामक शिलाकी स्थापना करे और अग्नि आदि कोणोंमें क्रमश: पद्म आदि कलशोंपर नन्दा आदि शिलाएँ स्थापित करे। मध्यशिलाके अभावमें चार शिलाएँ भी मातृभावसे सम्मानित करके स्थापित की जा सकती हैं। उक्त पाँचों शिलाओंकी प्रार्थना इस प्रकार करे-

सर्वसंदोहस्वरूपे महाविद्ये पूर्ण! तुम अङ्गिरा-ऋषिकी पुत्री हो। इस प्रतिष्ठाकर्ममें सब कुछ सम्यक्-रूपसे ही पूर्ण करो।

नन्दे! तुम समस्त पुरुषोको आनन्दित करनेवाली हो। मै यहाँ तुम्हारी स्थापना करता हूँ। तुम इस प्रासादमें सम्पूर्णतः तृप्त होकर तबतक सुस्थिरभावसे स्थित रहो, जबतक कि आकाशमें चन्द्रमा, सूर्य और तारे प्रकाशित होते रहें। वसिष्ठनन्दिनि नन्दे! तुम देहधारियोंको आयु, सम्पूर्ण मनोरथ तथा लक्ष्मी प्रदान करो। तुम्हें प्रासादमें सदा स्थित रहकर यत्नपूर्वक इसकी रक्षा करनी चाहिये।

कश्यपनन्दिनि भद्रे! तुम सदा समस्त लोकोंका कल्याण करो। देवि! तुम सदा ही हमें आयु, मनोरथ और लक्ष्मी प्रदान करती रहीं।

देवि जये ! तुम सदा-सर्वदा हमारे लिये लक्ष्मी तथा आयु प्रदान करनेवाली होओ।

भृगुपुत्रि देवि जये ! तुम स्थापित होकर सदा यहीं रहो और इस मन्दिरके अधिष्ठाता मुझ यजमानको नित्य-निरन्तर विजय तथा ऐश्वर्य प्रदान करनेवाली अनों।

रिक्त! तुम अतिरिक्त दोषका नाश करनेवाली तथा सिद्धि और मोक्ष प्रदान करनेवाली हो।

शुभे! सम्पूर्ण देश-कालमें तुम्हारा निवास है।

ईशरूपिणि ! तुम सदा इस प्रासादमें स्थित रहो’। ९-१६॥

तत्पश्चात् आकाशस्वरूप मन्दिरका ध्यान करके उसमें तीन तत्वोंका न्यास करें। फिर विधिवत् प्रायश्चित्त-होम करके यज्ञका विसर्जन करे ॥ १७॥

अध्याय – ९५ प्रतिष्ठा-काल-सामग्री आदिकी विधिका कथन

भगवान् शंकर कहते हैंस्कन्द! अब मैं मन्दिरमें लिङ्ग-स्थापनाकी विधिका वर्णन करूंगा, जो भोग और मोक्षको देनेवाली है।

यदि मुक्तिके लिये लिङ्ग-प्रतिष्ठा करनी हो तो उसे हर समय किया जा सकता है, परंतु यदि भोग-सिद्धिके उद्देश्यसे लिङ्ग-स्थापना करनेका विचार हो तो देवताओंका दिन (उत्तरायण) होनेपर ही वह कार्य करना चाहिये।

माघसे लेकर पाँच महीनोंमें, चैत्रको छोड़कर, देवस्थापना करनेकी विधि है।

जब गुरु और शुक्र उदित हों तो प्रथम तीन करणों (वव, बालव और कौलव)-में स्थापना करनी चाहिये। विशेषत: शुक्लपक्षमें तथा कृष्णपक्षमें भी पञ्चमी तिथितकका समय प्रतिछाके लिये शुभ माना गया है।

चतुर्थी, नवमी, षष्ठी और चतुर्दशीको छोड़कर शेष तिथियाँ क्रूरग्रहके दिन से रहित होनेपर उत्तम मानीं गयीं है ।।१-३।।

शतभिषा, धनिष्ठा, आर्द्रा, अनुराधा, तीनों उत्तरा, रोहिणीं और श्रवण-ये नक्षत्र स्थिर प्रतिष्ठा आरम्भ करनेके लिये महान् अभ्युदयकारक कहे गये हैं।

कुम्भ, सिंह, वृश्चिक, तुला, कन्या, वृष-ये लग्र श्रेष्ठ बताये गये हैं।

बृहस्पति (तृतीय, अष्टम और द्वादशको छोड़कर शेष) नौ स्थानोंमें शुभ माने गये हैं। सात स्थानोंमें तो वे सर्वदा ही शुभ हैं।

छठे, आठवें, दसवें, सातवें और चौथे भावोंमें बुधकी स्थिति हो तो वे शुभकारक होते हैं। इन्हीं स्थानोंमें छठेको छोड़कर यदि शुक्र हों तो उन्हें शुभ कहा गया है।

प्रथम, तृतीय, सप्तम, षष्ठ, दशम (द्वितीय और नवम) स्थानों में चन्द्रमा सदैव बलदायक माने गये हैं।

सूर्य, दसवें, तीसरे और छठे भावोंमें स्थित हों तो शुभफल देनेवाले होते हैं। तीसरे, छठे और दसवेंमें राहुको भी शुभकारक कहा गया है।॥ ४-७ ॥

छठे और तीसरे स्थानमें स्थित होनेपर शनैश्वर, मङ्गल और केतु प्रशस्त कहे गये हैं।

शुभग्रह, क्रूरग्रह और पापग्रह-सभी ग्यारहवें स्थानमें स्थित होनेपर श्रेष्ठ बताये गये हैं।

अपनी जगहसे सप्तम स्थानपर ही इन समस्त ग्रहोंकी दृष्टि पूर्ण (चारों चरणोंसे युक्त) होती है। पाँचवें और नवें स्थानोंपर इनकी दृष्टि आधी (दो चरणोंसे युक्त) बतायी गयी है। तृतीय और दसवें स्थानोंको ये ग्रह एकपादसे देखते हैं तथा चौथे एवं आठवें स्थानोंपर इनकी दृष्टि तीन चरणोंसे युक्त होती है।

मीन और मेष राशिका भोग पौने चार नाड़ीतक है। वृष और कुम्भ भी पौने चार नाड़ीका ही उपभोग करते हैं।

मकर और मिथुन पाँच नाड़ीका उपभोग करते हैं।

धन, वृश्चिक, सिंह और कर्क पौने छ: नाड़ीका उपभोग करते हैं।

तुला और कन्या राशियाँ साढ़े पाँच नाड़ीका उपभोग करती हैं।॥ ८-११ ॥

सिंह, वृष और कुम्भ-ये ‘स्थिर’ लग्न सिद्धिदायक होते हैं। धन, तुला और मेष ‘चर’ कहे गये हैं। तीसरी-तीसरी संख्या के लग्न (मिथुन, कन्या आदि) द्वि-स्वभाव कहे गये हैं।

कर्क, मकर और वृश्चिक-ये प्रव्रज्या (संन्यास) कार्यके नाशक हैं।

जो लग्र शुभग्रहोंसे देखा गया हो, वह शुभ है तथा जिस लग्रमें शुभग्रह स्थित हों, वह श्रेष्ठ माना गया है।

बृहस्पति, शुक्र और बुधसे युक्त लग्न धन, आयु, राज्य, शौर्य (अथवा सौख्य), बल, पुत्र, यश तथा धर्म आदि वस्तुओंको अधिक मात्रा में प्रदान करता है।

कुण्डलीके बारह भावोंमेंसे प्रथम, चतुर्थ, सप्तम और दशमको ‘केन्द्र’ कहते हैं। उन केन्द्र-स्थानोंमें यदि गुरु, शुक्र और बुध हों तो वे सम्पूर्ण सिद्धियोंके दाता होते हैं।

लग्न-स्थानसे तीसरे, ग्यारहवें और चौथे स्थानोंमें पापग्रह हों तो वे शुभकारक होते हैं। अत: इनकों तथा इनसे भिन्न शुभग्रहों तथा शुभ तिथियोंको विद्वान् पुरुष प्रतिष्ठाकर्मके लिये योजित करे।

मन्दिरके सामने उससे पाँच गुनी अथवा मन्दिरके बराबर ही या सीढ़ीसे दस हाथ आगेतककी भूमि छोड़कर मण्डप निर्माण करे ॥ १२-२५ ॥ 

वह मण्डप चौकोर और चार देअवाजोंसे युक्त हो। उसकी आधी भूमि लेकर स्नानके लिये मण्डप बनावे । उसमें भी एक या चार दरवाजे हों। यह स्रान-मण्डप ईशान, पूर्व अथवा उत्तर दिशा में होना चाहिये।*

[ प्रथम तीन लिङ्गोंके लिये तीन मण्डपोंका निर्माण करे। पहले मण्डपकी ‘हास्तिक’ संज्ञा है। वह आठ हाथका होता है। शेष दो मण्डप एक-एक हाथ बड़े होंगे, अर्थात् दूसरा मण्डप नौ हाथका और तीसरा दस हाथका होगा। इसी तरह अन्य लिङ्गोंके लिये भी प्रतिमण्डप दो-दो हाथ भूमि बढ़ा दे, जिससे नौ हाथ बड़े नवें लिङ्गके लिये बाईस हाथका मण्डप संपन्न हो सके ]

प्रथम मण्डप आठ हाथका, दस हाथ का अथवा बारह हाथका होना चाहिये। शेष आठ मण्डपोंको दो-दो हाथ बढ़ाकर रखे।

(इस प्रकार कुल नौ मण्डप होने चाहिये।) [पाद आदिसे वृद्धलिङ्गोंकी स्थापनामें पादों (पायों)- के अनुसार मण्डप बनावे। बाणलिङ्ग, रत्नजलिङ्ग तथा लौहलिङ्गको स्थापनाके अवसरपर हास्तिक (आठ हाथवाले) मण्डपके अनुसार सब कुछ बनावे । अथवा जो देवीका प्रासाद हो, उसके अनुसार मण्डप बनावे। समस्त लिङ्गोंके लिये प्रासाद-निर्माणकी विधि शैव-शास्त्रके अनुसार जाननी चाहिये। घन, घोष, विराग,काञ्चन, काम, राम, सुवेश, घर्मर तथा दक्ष-ये नौ लिङ्गोंके लिये नौ मणद्धपोंके नाम हैं। चारों कोणोंमें चार खंभे हों और दरवाजोंपर दो-दो। यह सब हास्तिक-मण्डपके विषयमें बताया गया है। उससे विस्तृत मण्डपमें जैसे भी उसकी शोभा सम्भव हो, अन्य खंभोंका भी उपयोग किया जा सकता है।] ॥ १८-१९॥

मध्य-मण्डलमें चार हाथकी वेदी बनावें। उसके चारों कोनोंमें चार खंभे हों। वेदी और पायोंके बीचका स्थान छोड़कर कुण्डोंका निर्माण करे। इनकी संख्या नौ अथवा पाँच होनी चाहिये।

ईशान या पूर्व दिशामें एक ही कुण्ड बनावे। वह गुरुका स्थान है।

यदि पचास आहुति देनी हो तो मुट्ठी बँधे हाथसे एक हाथका कुण्ड होना चाहिये।

सौ आहुतियाँ देनी हों तो कोहनीसे लेकर कनिष्ठकातक के मापसे एक अरत्नि या एक हाथका कुण्ड बनाये।

एक हजार आहुतियोका होम करना हो तो एक हाथ लंबा, चौड़ा और गहरा कुण्ड हो।

दस हजार आहुतियोंके लिये इससे दूने मापका कुण्ड होना चाहिये।

लाख आहुतियोंके लिये चार हाथके और एक करोड़ आहुतियोंके लिये आठ हाथके कुण्डका विधान है।

अग्निकोणमें भगाकार, दक्षिण दिशामें अर्धचन्द्राकार, नैत्रीत्यकोणमें त्रिकोण (पश्चिम दिशा में चन्द्रमण्डल के समान गोलाकार), वायव्यकोणमें षट्कोण, उत्तर दिशा में कमलाकार, ईशानकोणमें अष्टकोण (तथा पूर्व दिशामें चतुष्कोण) कुण्डका निर्माण करना चाहिये ॥ २०-२३ ॥

कुण्ड सब ओरसे बराबर और ढालू होना चाहिये। ऊपरकी ओर मेखलाएँ बनी होनी चाहिये। बाहरी भागमें क्रमश: चार, तीन और दो अद्भुल चौड़ी तीन मेखलाएँ होती हैं। अथवा एक ही छ: अंगुल चौड़ी मेखला रहे। मेखलाएँ कुण्डके आकारके बराबर ही होती हैं। उनके ऊपर मध्यभागमें योनि हो, जिसकी आकृति पीपलके पत्तेंकी भाँति रहे। उसकी ऊँचाई एक अंगुल और चौड़ाई आठ अंगुलकी होनी चाहिये। लंबाई कुण्डार्धक तुल्य हो। योनिका मध्यभाग कुण्डके कण्ठकी भाँति हो, पूर्व, अग्रिकोण और दक्षिण दिशाके कुण्डोंकी योनी उत्तराभिमुख होनी चाहिये, शेष दिशाओंके कुण्डोंकी योनी पूर्वाभिमुखी हो तथा ईशानकोणके कुण्डकी योनि उक्त दोनों प्रकारोंमेंसे किसी एक प्रकार की (उत्तराभिमुखी या पूर्वाभिमुखी) रह सकती है। २४-२७ ॥

कुण्डोंका जो चौबीसवाँ भाग है, वह ‘अंगुल” कहलाता है। इसके अनुसार विभाजन करके मेखला, कण्ठ और नाभिका निश्चय करना चाहिये।

मण्डपमें पूर्वादि दिशाओंकी ओर जो चार दरवाजे लगते हैं, वे क्रमश: पाकड़, गूलर, पीपल और बड़की लकड़ीके होने चाहिये। पुर्वादि दिशाओंके क्रमसे इनके नाम शान्ति, भूति, बल और आरोग्य है ।

दरवाजोंकी ऊँचाई पाँच, छ: अथवा सात हाथकों हीनीं चाहिये। वे हाथभर गहरे खुदे हुए गड्ढेमें खड़े किये गये हों। उनका विस्तार ऊँचाई या लंबाईकी अपेक्षा आधा होना चाहिये। उनमें आम्र-पल्लव आदिकीं बन्दनवारें लगा देनी चाहिये। मण्डपकी पूर्वादि दिशाओंमें क्रमशः इन्द्रायुधकी भाँति तिरंगी, लाल, काली, धूमिल, चाँदनीकी भाँति श्वेत, तोतेकी पाँखके समान हरे रंगकी, तथा स्टफीक मणिके समान उल्वल पताका फहरानी चाहिये।

ईशान और पूर्वके मध्यभागमें ब्रह्माजीके लिये लाल रंगकी तथा नैऋत्य और पश्चिमके मध्यभागमें अनन्त (शेषनाग)-के लिये नीले रंगकी पताका फहरानी चाहिये।

ध्वजोंकी पताकाएँ पाँच हाथ लंबी और इससे आधी चौड़ी हों। ध्वज-दण्डकी ऊँचाई पाँच हाथकी होनी चाहिये। ध्वजकी मोटाई ऐसी हो कि दोनों हाथोंकी पकड़में आ जाय ।।२८-३२ ।।

पर्वत-शिखर, राजद्वार, नदीतट, घुड़सार, हथिसार, विमौट, हाथीके दाँतोंके अग्रभागसे कोड़ी गयी भूमि, सांडके सींगसे खोदी गयी भूमि, कमलसमूहके नीचेके स्थान, सूअरकी खोदी हुई भूमि, गोशाला तथा चौराहा-इन बारह स्थानोंसे बारह प्रकारकी मिट्टी लेनी चाहिये।

भगवान् विष्णुकी स्थापनामें ये द्वादश मृत्तिकाएँ तथा भगवान् शिवकी स्थापनामें आठ प्रकारकी मृत्तिकाएँ ग्राह्य हैं।

बरगद, गूलर, पीपल, आम और जामुनकी छालसे पैदा हुई पाँच प्रकारकी गोंद संग्रहणीय हैं।

आठ प्रकारके ऋतुफल मंगा लेने चाहिये।

तीर्थजल, सुगन्धित जल, सर्वोषधिमिश्रित जल, शस्य-पुष्पमिश्रित जल, स्वर्णमिश्रित, रत्नमिश्रित तथा गो-श्रृङ्गके स्पर्शसे युक्त जल, पञ्चगव्य और पञ्चामृत-इन सबको देवस्नानके लिये एकत्र करे।

विघ्रकर्ताओंको डराने के लिये आटेके बने हुए वज्र आदि आयुध-द्रव्योंको भी प्रस्तुत रखना चाहिये।

सहस्त्र छिद्रोंसे युक्त कलश तथा मङ्गलकृत्यके लिये गोरोचना भी रखें ॥ ३३-३७ ॥

सौ प्रकारकी ओषधियोंकी जड़, विजया, लक्ष्मणा (श्वेत कण्टकारिका), बला’ (अथवा अभया-हरें), गुरुचि, अतिबला, पाठा, सहदेवा, शतावरी, ऋद्धि, सुवर्चला और वृद्धि-इन सबका पृथक्-पृथक् स्नानके लिये उपयोग बताया गया है।

रक्षाके लिये तिल और कुशा आदि संग्रहणीय हैं।

भस्मस्नानके लिये भस्म जुटा ले।

विद्वान् पुरुष स्नानके लिये जौ और गेहूँके आटे, बेलका चूर्ण, विलेपन, कपूर, कलश तथा गडुओंका संग्रह कर ले।

खाट, दो तूलिका (रूईभरा गद्दा तथा रजाई), तकिया, चादर आदि अन्य आवश्यक वस्त्र—इन सवको अपने वैभवके अनुसार तैयार करावे और विविध चिन्होंसे सुसजित शयनकक्षमें इनको रखें।

घी और मधुसे युक्त पात्र, सोनेकी सलाई, पूजोपयोगी जलसे भरा पात्र, शिवकलश और लोकपालोंके लिये कलशका भी संग्रह करें ॥ ३८-४२ ।।

एक कलश निद्राके लिये भी होना चाहिये।

कुण्डोकी संख्याके अनुसार उतने ही शान्तिकलश रखे जाने चाहिये।

द्वारपाल आदि, धर्म आदि तथा प्रशान्त आदिके लिये भी कलश जुटा ले।

वास्तुदेव, लक्ष्मी और गणेशके लिये भी अन्यान्य पृथक्-पृथक् कलश आवश्यक हैं।

इन कलशोंके नीचे आधारभूमिपर धान्य-पुञ्ज रखना चाहिये सभी कलश वस्त्र और पुष्पमालासे विभूषित किये जाने चाहिये। इनके भीतर सुवर्ण डालकर इनका स्पर्श किया जाय और इन्हें सुगन्धित जलसे भरा जाय सभी कलशोंके ऊपर पूर्णपात्र और फल रखे जायें। उनके मुखभागमें पञ्चपल्लव रहें तथा वे कलश उत्तम लक्षणोंमें सम्पन्न हों। कलशोंको वस्त्रों से आच्छादित करें।

सब ओर बिखेरनेके लिये पीली सरसों और लावाका संग्रह कर ले।

पूर्ववत् ज्ञान-खड्गका भी सम्पादन करे। चरु रखनेके लिये बटलोई और उसका ढकन मंगा ले। ताँबेकी बनी हुई करछुल तथा पादाभ्यङ्गके लिये घृत और मधुका पात्र भी संगृहित कर ले  ।।४३-४७।।

कुशके तीस दलोंसे बने हुए दो-दो हाथ लंबे-चौड़े चार-चार आसन एकत्र कर ले। इसी तरह पलाशोंके बने हुए चार-चार परिधि भी जुटा ले।

तिलपात्र, हविष्यपात्र, अध्र्यपात्र और पवित्रक एकत्र करे। इनका मान बीस-बीस पल है। घण्टा और धूपदानी भी मंगा ले। स्रुक्, स्रुवा, पिटक (पिटारी एवं टोकरी), पीठ (पीढ़ा या चौकी), व्यजन, सूखी लकड़ी, फूल, पत्र, गुग्गुल, घीके दीपक, धूप, अक्षत, तिगुना सूत, गायका घी, जौ, तिल, कुशा, शान्तिकर्मके लिये त्रिविध मधुर पदार्थ (मधु, शकर और घी), दस पर्वकी समिधाएँ बाँह-बराबर या एक हाथका स्रुवा, सूर्य आदि ग्रहोंकी शान्तिके लिये समिधाएँ-आक, पलाश, खैर, अपामार्ग, पीपल, गूलर, शमी, दूर्वा और कुशा भी संग्रहणीय हैं।

आक आदि में प्रत्येककी समिधाएँ एक सौ आठ-आठ होनी चाहिये। ये न मिल सकें तो इनकी जगह जौ और तिलोंकी आहुति देनी चाहिये।

इनके सिवा घरेलू आवश्यकताकी वस्तुओंका भी संग्रह करें । बटलोई, करछुल, ढक्कन आदि जुटा ले। देवता आदिके लिये प्रत्येकको दो-दो वस्त्र देने चाहिये। आचार्यकी पूजाके लिये मुद्रा, मुकुट, वस्त्र, हार, कुण्डल और कंगन आदि तैयार करा ले। धन खर्च करनेमें कंजूसी न करे॥ ५४ ॥

मूर्ति धारण करनेवाले तथा अस्त्र-मन्त्रका जप करनेवाले ब्राह्मणोंको आचार्यकी अपेक्षा एकएक चौथाई कम दक्षिणा दे।

सामान्य ब्राह्मणों, ज्योतिषियों तथा शिलिपयोंको जपकर्ताओंके बराबर ही पूजा देनी चाहिये।

हीरा, सूर्यकान्तमणि, नीलमणि, अतिनीलमणि, मुक्ताफल, पुष्पराग, पद्मराग तथा आठवाँ रत्न वैदूर्यमणि-इनका भी संग्रह करे।

उशीर (खस), विष्णुक्रान्ता (अपराजिता), रक्तचन्दन, अगुरु, श्रीखण्ड शारिवा (अनन्ता या श्यामालता), कुष्ठ (कुट) और शङ्खिनी (श्वेत फुन्नाग)—इन ओषधियोंका समुदाय संग्रहणीय है॥५५-५७ ॥

सोना, ताँबा, लोहा, राँगा, चाँदी, काँसी और सीसा-इन सबकी ‘लोह’ संज्ञा है। इनका भी संग्रह करे।

हरिताल, मैनसिल, गेरू, हेममाक्षीक, पारा, वह्रिगैरिक, गन्धक और अभ्रक-ये आठ धातुएँ संग्रहणीय हैं। इसी प्रकार आठ प्रकारके व्रीहियों (अनाजों)-का भी संग्रह करना चाहिये। उनके नाम इस प्रकार हैं-धान, गेहूँ, तिल, उड़द, मूंग, जौ, तिनी और सावाँ॥ ५८-६१॥

 

पंचानबेवाँ अश्याय पूरा हुआr॥ ९५ ॥

अध्याय – ९६ प्रतिष्ठा में अधिवास की विधि

भगवान् शिव कहते हैंस्कन्द! पुरोहितको चाहिये कि वह स्नान करके प्रात:काल और मध्याह्रकाल, दोनों समयोंका नित्यकर्म संपन्न करके मूर्तिरक्षक सहायक ब्राह्मणोंके साथ यज्ञमण्डपको पधारे।

(मूर्तिभिजपिभिर्विप्रै:- इस पाठान्तरके अनुसार मूर्तियों और जपकर्ता ब्राह्मणोंके साथ यज्ञमण्डपमें जाय, एसा अर्थ समझना चाहिये।)

फिर वहाँ शान्ति आदि द्वारोंका पूर्ववत् क्रमश: पूजन करे। इन द्वारोंकी दोनों शाखाओंपर प्रदक्षिणक्रमसे द्वारपालोंकी पूजा करनी चाहिये।

पूर्व दिशा में द्वारपाल नन्दी और महाकालकी, दक्षिण दिशा में भृङ्गी और विनायककी, पश्चिम दिशा में वृषभ और स्कन्दकी तथा उत्तर दिशा में देवी और चण्डकी पूजा करे।

द्वार-शाखाओंके मूलदेशमें पूर्वादि क्रमसे दो-दो कलशोंकी पूजा करे। उनके नाम इस प्रकार हैं-पूर्व दिशामें प्रशान्त और शिशिर, दक्षिणमें पर्जन्य और अशोक, पश्चिममें भूतसंजीवन और अमृत तथा उत्तरमें धनद और श्रीप्रद-इन दो-दो कलशोंकी क्रमशः पूजाका विधान हैं। इनके नाम आदिमें प्रणव और अन्तमें नमः जोड़कर चतुर्थ्यान्त रूप रखे। यही इनके पूजनका मन्त्र हैं।

यथा-‘ॐ प्रशान्तशिशिराभ्या नम:।’ इत्यादि ॥ १-५ ॥

लोक दो, ग्रह दो, वसु दो, द्वारपाल दो, नदियाँ दो, सूर्य तीन, युग एक, वेद एक, लक्ष्मी तथा गणेश-इतने देवता यज्ञमण्डपके प्रत्येक द्वारपर रहते हैं। इनका कार्य है-विध्नसमूहका निवारण और यज्ञका संरक्षण।

पूर्वादि दस दिशाओंमें वज्र, शक्ति, दण्ड़, खड्ग, पाश, ध्वज, गदा, त्रिशूल, चक्र और कमलकी क्रमश: पूजा करे तथा प्रत्येक दिशामें दिक्पालकी पताकाका भी पूजन करे। पूजनके मन्त्रका स्वरूप इस प्रकार है- ॐ हूं ह: वज्राय हूं फट्। ॐ हूं ह: शक्तये हूं फट्।’ इत्यादि॥ ६-९ ॥

कुमुद, कुमुदाक्ष, पुण्डरीक, वामन, शंकुकर्ण, सर्वनेत्र (अथवा पद्मनेत्र), सुमुख और सुप्रतिष्ठित-ये ध्वजोंके आठ देवता हैं, जो पूर्वादि दिशाओंमें कोटि-कोटि भूतोंसहित पूजनीय हैं। इनके पूजन सम्बन्धी मन्त्र इस प्रकार हैं-‘ॐ कुं कुं कुमुदाय नम:।’ इत्यादि।

हेतुक (अथवा हेरुक), त्रिपुरध्न, शक्ति (अथवा बह्रि), यमजिह्र, काल, छठा कराली, सातवाँ एकाङ्घ्रि और आठवाँ भीम-ये क्षेत्रपाल हैं। इनका क्रमश: पूर्वादि आठ दिशाओंमें पूर्ववत् पूजन करे। बलि, पुष्प और धूप देकर इन सबको सन्तुष्ट करे। तदनन्तर उत्तम एवं पवित्र तृणोंपर, अथवा बाँसके खंभोंपर क्रमश: पृथ्वी आदि पाँच तत्वोंकी स्थापना करके अधोजातादि पाँच मन्त्रोंद्वारा उनका पूजन करे।

सदाशिवपदव्यापी मण्डपका, जो भगवान् शंकरका धाम है तथा पताका एवं शक्ति से संयुक्त है (पाठान्तरके अनुसार पातालशक्ति या पिनाकशक्तिसे संयुक्त है), तत्वदृष्टिसे अवलोकन करे॥ १०-१५ ॥

पूर्ववत् दिव्य अन्तरिक्ष एवं भूलोकवर्ती विघ्नोंका अपसारण करके पश्चिम द्वारमें प्रवेश करे और शेष दरवाजोंकी बंद करा दे (अथवा शेष द्वारोंका दर्शनमात्र कर ले)। प्रदक्षिणक्रमसे मण्डपके भीतर जाकर वेदीके दक्षिण भागमें उत्तराभिमुख होकर बैठे और पूर्ववत् भूतशुद्धि करे। अन्तर्याग, विशेषार्ध्य, मन्त्र-द्रव्यादि-शोधन, स्वात्मपूजन तथा पञ्चगव्य आदि पूर्ववत् करे।

फिर वहाँ आधारशक्तिकी प्रतिष्ठापूर्वक कलश-स्थापन करे। विशेषत: शिवका ध्यान करें। तदनन्तर क्रमश: तीनों तत्वोंका चिन्तन करे। ललाटमें शिवतत्वकी, स्कन्धदेश में विद्यातत्वकीं तथा पादान्त-भागमें उत्तम आत्मतत्त्वकी भावना करे । शिवतत्त्वके रुद्र, विद्यातक्वके नारायण तथा आत्मतत्त्वके ब्रह्मा देवता हैं। इनका अपने नाम-मन्त्रोंद्वारा पूजन करना चाहिये। इन तत्वोंके आदि-बीज क्रमश: इस प्रकार हैं–‘ॐ ईं आाम्॥ १६-२१॥

मूर्तीयों और मूर्तीश्वरोंको वहाँ पूर्ववत स्थापना करे। उनमें व्यापक शिवका साङ्ग पूजन करके मस्तकपर शिवहस्त रखे। भावनाद्वारा ब्रह्मरन्ध्रके मार्गसे प्रविष्ट हुए तेजसे अपने बाहर-भीतरकी अन्धकार-राशिको नष्ट करके आत्मस्वरूपका इस प्रकार चिन्तन करे कि ‘वह सम्पूर्ण दिगमण्डलको प्रकाशित कर रहा है।” मूर्तिपालकोंके साथ अपने-आपको भी हार, वस्त्र और मुकुट आदिसे अलंकृत करके-‘मैं शिव हूँ’-ऐसा चिन्तन करते हुए ‘बोधासि” (ज्ञानमय खड्ग)-को उठावे।

चतुष्पदान्त संस्कारोद्वारा यज्ञमण्डपका संस्कार करे। बिखेरने योग्य वस्तुओंको सब ओर बिखेरकर, कुशकी कूंचीसे उन सबको समेटे। उन्हें आसनके नीचे करके वार्धानीके जलसे पूर्ववत वास्तु आदिका पूजन करे। शिव-कुम्भास्त्र और वार्धानीके सुस्थिर आसनोंकी भी पूजा करे। अपनी-अपनी दिशा में कलशोंपर विराजमान इन्द्रादि लोकपालोंका क्रमश: उनके वाहनों और आयुध आदिके साथ यथाविधि पूजन करे॥ २२-२७॥

पूर्व दिशा में इन्द्रका चिन्तन करे। वे ऐरावत हाथीपर बैठे हैं। उनकी अङ्ग-कान्ति सुवर्णके समान दमक रही है। मस्तकपर किरीट शोभा दे रहा है। वे सहस्त्र नेत्र धारण करते हैं। उनके हाथ में वज्र शोभा पाता है।

अग्रिकोणमें सात ज्वालामयी जिह्राएँ धारण किये, अक्षमाला और कमण्डलु लिये, लपटोंसे घिरे रक्त वर्णवाले अग्निदेवका ध्यान करे। उनके हाथ में शक्ति शोभा पाती है तथा बकरा उनका वाहन है।

दक्षिणमें महिषारूद्ध दण्डधारी यमराज़का चिन्तन करे, जो कालाअग्निके समान प्रकाशित हो रहे हैं।

नैऋत्यकोणमें लाल नेत्रवाले नैऋत्यकी भावना करे, जो हाथमें तलवार लिये, शव (मुर्दे)-पर आरूढ़ हैं।

पश्चिममें मकरारूढ, श्वेतवर्ण, नागपाशधारी वरुणका चिन्तन करे।

वायव्यकोणमें मृगारूढ़, नीलवर्ण वायुदेवका चिन्तन करे।

उत्तरमें भेंड़ेपर सवार कुबेरका ध्यान करे।

ईशानकोणमें त्रिशूलधारी  वृषभारूढ़ ईशानका चिन्तन करे।

नैऋत्य तथा पश्चिमके मध्यभागमें कच्छपपर सवार चक्रधारी भगवान् अनन्तका चिन्तन करे।  ईशान और पूर्वके भीतर चार मुख एवं चार भुजा धारण करनेवाले हूंसवाहन ब्रह्माका चिन्तन करे।

खंभोंके मूल भागमें स्थित कलशोंमें तथा वेदीपर धर्म आदिका पूजन करे। कुछ लोग सम्पूर्ण दिशाओंमें स्थित कलशोंपर अनन्त आदिकी पूजा भी करते हैं। इसके बाद शिवाज्ञा सुनावे और कलशोंको अपने पृष्ठभागतक घुमावे। तत्पश्चात् पहले कलशको और फिर वार्धानीको पूर्ववत् अपने स्थानपर रख दें। स्थिर आसनवाले शिवका कलशमें और शस्त्रके लिये ध्रुवासनका पूर्ववत् पूजन करके उद्द्भव-मुद्राद्वारा स्पर्श करे। उस समय भगवानसे इस प्रकार प्रार्थना करे-‘हे जगन्नाथ! आप अपने भक्तजनपर कृपा करके इस अपने ही यज्ञकी रक्षा कीजिये।”-यों रक्षाके लिये प्रार्थना सुनाकर कलशमें खड्गकी स्थापना करे।

दीक्षा और स्थापनाके समय कलशमें, वेदीपर अथवा मण्डलमें भगवान् शिवका पूजन करे। मण्डलमें देवेश्वर शिवका पूजन करनेके पश्चात् कुण्डके समीप जाय ॥ ३३-३७॥

कुण्ड-नाभिको आगे करके बैठे हुए मूर्तिधारी पुरुष गुरुकी आज्ञासे अपने-अपने कुण्डका संस्कार करें। जप करनेवाले ब्राह्मण संख्यारहित मन्त्रका जप करें। दूसरे लोग संहिताका पाठ करें। अपनी शाखाके अनुसार वेदोंके पारंगत विद्वान् शान्तिपाठमें लगे रहें।

ऋग्वेदी विद्वान् पूर्व दिशामें श्रीसूक्त, पावमानी ऋचा, मैत्रेय ब्राह्मण तथा वृषाकपिमन्त्र-इन सबका पाठ करें।

सामवेदी विद्वान् दक्षिणमें देवव्रत, भारुण्ड, ज्येष्ठसाम, रथन्तरसाम तथा पुरुषगीत-इन सबका गान करें।

यजुर्वेदी विद्वान् पश्चिम दिशामें रुद्रसुक्त, पुरुषसूक्त, श्लोकाध्याय तथा विशेषत: ब्राह्मणभागका पाठ करें।

अथर्ववेदी विद्वान् उत्तर दिशा में नीलरुद्र, सूक्ष्मासूक्ष्म तथा अथर्वशीर्षका तत्परतापूर्वक अध्ययन करें ॥ ३८-४३॥

आचार्य (अरणी-मन्थनद्वारा) अग्रिका उत्पादन करके उसे प्रत्येक कुण्डमें स्थापित करावें।

अग्रिके पूर्व आदि भागोंको पूर्व-कुण्ड आदिके क्रमसे लेकर धूप, दीप और चरुके निमित्त अग्रिका उद्धार करे। फिर पहले बताये अनुसार भगवान् शंकरका पूजन करके शिवाग्रिमें मन्त्रतर्पण करे।

देश, काल आदिकी सम्पन्नता तथा दुर्निमितकी शान्तिके लिये होम करके मन्त्रज्ञ आचार्य मंगलकारिणी पूर्णहुतीप्रदान करके, पूर्ववत् चरु तैयार करे और उसे प्रत्येक कुण्डमें निवेदित करे।

यजमानसे वास्र्त्राभूषणोंद्वारा विभूषित एवं सम्मानित मूर्तिपालक ब्राह्मण स्नान-मण्डपमें जाय। भद्रपीठपर भगवान् शिवकी प्रतिमाको स्थापित करके ताड़न और अवगुण्ठनकी क्रिया करें। पूर्वकी वेदीपर पूजन करके मिट्टी, काषायजल, गोबर और गोमूत्रसे तथा बीच-बीचमें जलसे भगवत्प्रतिमाको स्नान करावे।। तत्पश्चात् भस्म तथा गन्धयुक्त जलसे नहलावे। इसके बाद आचार्य ‘अस्त्राय फट्।’-इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित जलके द्वारा मूर्तिपालकोंके साथ हाथ धोकर कवच-मन्त्रमे अभिमन्वित पीताम्बरद्वारा मूर्तिको आच्छादित करके श्वेत फूलोंसे उसकी पूजा करे। तदनन्तर उसे उत्तर-वेदीपर ले जाय ।।४४-५०।।

वहाँ आसनयुक्त शय्यापर सुलाकर कुकुंममें रंगे हुय सूतसे अंगोंका विभाजन करके आचार्य  सोनेकी शलाकाद्वारा उस प्रतिमामें दोनों नेत्र अङ्कित करे। यह कार्य शस्त्र-क्रियाद्वारा सम्पन्न होना चाहिये।

पहले चिन्ह बनानेवाला गुरु नेत्रचिह्नको अञ्जनसे अङ्कित कर दे; इसके बाद वह शिल्पी, जो मूर्ति-निर्माणका कार्य पहले भी कर चुका हो, उस नेत्रचिह्नको शस्त्रद्वारा खोदे (अर्थात् खुदाई करके नेत्रकी आकृतिको स्पष्टरूपसे अभिव्यक्त करें)। अर्चाके तीन अंश से कम अथवा एक चौथाई भाग या आधे भागमें सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धिके लिये शुभ लक्षण (चिह्न)-की अवतारणा करनी चाहिये।

शिवलिङ्गकी लंबाईके मानमें तीनसे भाग देकर एक भागको त्याग देनेसे जो मान हो, वही लिङ्गके लक्ष्मदेहका सन्म ओरसे विस्तार होना चाहिये ॥ ५१-५५ ॥

एक हाथके प्रस्तरखण्ड़में जो लक्ष्मरेखा बनेगी, उसकी गहराई और चौड़ाई उतनी ही होगी, जितनी जौके नौ भागोंमेंसे एककों छोड़ने और आठको लेनेसे होती है।

इसी प्रकार डेढ़ हाथ या दो हाथ आदिके लिङ्गसे लेकर नौ हाथतकके लिङ्गमें क्रमश: आधा भागकी वृद्धि करके लक्ष्मरेखा बनानी चाहिये। इस तरह नौ हाथवाले लिङ्गमें आठ जौ के बराबर मोटी और गहरी लक्ष्मरेखा होनी चाहिये।

जो शिवलिङ्ग परस्पर अन्तर रखते हुय उत्तरोतर सवाये बड़े हों, वहाँ लक्ष्म-देहका विस्तार एक-एक जौ बढ़ाकर करना चाहिये। गहराई और मोटाईकी वृद्धिके अनुसार रेखा भी एक तिहाई बढ़ जायेगी । सभी शिवलिंगोंमें लिंगका उपरी भाग ही उनका सूक्ष्म मस्तक है ।।५६-५९।।

लक्ष्म अर्थात् चिन्हका जो क्षेत्र है, उसका आठ भाग करके दो भागोंको मस्तकके अन्तर्गत रखें। शेष छ: भागोंमेंसे नीचेके दो भागोंकों छोड़कर मध्यके अवशिष्ट भागोंमें तीन रेखा खीचें और उन्हें पृष्ठदेशमें ले जाकर जोड़ दे।

रत्नमय लिङ्गमें लक्षणोद्धारकों आवश्यकता नहीं है।

भूमिसे स्वत: प्रकट हुए अथवा नर्मदादि नदियोंसे प्रादुभूत हुए शिवलिङ्गमें भी लक्ष्मोद्धार अपेक्षित नहीं है।

रत्नमय लिङ्गोंके रत्नोंमें जो निर्मल प्रभा होती है, वही उनके स्वरूपका लक्षण (परिचायक) हैं। मुखभागमें जों नेत्रोन्मीलन किया जाता है, वह आवश्यक है और उसीके संनिधानके लिये वह लक्ष्म या चिह्न बनाया जाता है।

लक्षणोद्धारकों रेखाका धृत और मधुसे मृत्युजय-मन्त्रद्वारा पूजन करके, शिल्पिदोषकी निवृत्तिके लिये मृत्तिका आदिसे स्नान कराकर, लिङ्गकी अर्चना करे। फिर दान-मान आदिसे शिल्पीको संतुष्ट करके आचार्यको गोदान दे।

तदनन्तर सौभाग्यवती स्त्रियाँ धूप, दीप आदिके द्वारा लिङ्गकी विशेष पूजा करके मङ्गल-गीत गायें और सव्य या अपसव्य भावसे सूत्र अथवा कुशके द्वारा स्पर्शपूर्वक रोचना अर्पित करके न्योछावर दें।

इसके बाद यजमान गुड़, नमक और धनिया देकर उन स्त्रियोंकों विदा करैः ॥ ६७-६६ ॥

तत्पश्चात् गुरु मूर्तिरक्षक ब्राह्मणोंके साथ “नमः’ या प्रणव-मन्त्रके द्वारा मिट्टी, गोबर्, गोमूत्र और भस्मसे पृथक्-पृथकू स्नान करावे। एक-एकके बाद बीच में जलसे स्नान कराता जाय। फिर पञ्चगव्य, पञ्चमृत, रूखापन दूर करनेवाले कषाय द्रव्य, सर्वोषधिमिश्रित जल, श्वेत पुष्प, फल, सुवर्ण, रत्न, सींग एवं जौ मिलाये हुए जल, सहस्रधारा, दिव्यौषधियुक्त जल, तीर्थ-जल,गङ्गाजल, चन्दनमिश्रित जल, क्षीरसागर आदिके जल, कलशोंके जल तथा शिवकलशके जलसे  अभिषेक करे। रूखेपनको दूर करनेवाला विलेपन लगाकर उत्तम गन्धः और चन्दन आदिसे पूजन करनेके पश्चात् ब्रह्ममन्त्रद्वारा पुष्प तथा कवचमन्त्रसे लाल वस्त्र चढ़ावे। फिर अनेक प्रकारसे आरती उतारकर रक्षा और तिलकपूर्वक गीतवाघ आदिसे, विविध द्रव्योंसे तथा जय-जयकार और स्तुति आदिसे भगवानको संतुष्ट करके पुरुष-मन्त्रसे उनकी पूजा करे। तदनन्तर हृदयमन्त्रसे आचमन करके इष्टदेवसे कहें- प्रभो! ठठिये’ || ६७-७ ॥

फिर इष्टदेवकी ब्रह्मरथपर बिठाकर उसीके द्वारा उन्हें सब ओर घुमाते और द्रव्य बिखेरते हुए मण्डपके पश्चिम द्वारपर ले जाय और वहाँ शय्यापर भगवान्को पधरावे। आसनके आदिअन्तमें शक्तिकी भावना करके उस शुभ आसनपर उन्हें विराजमान करे। पश्चिमाभिमुख प्रासादमें पश्चिम दिशाकी और पिण्डिका स्थापित करके उसके ऊपर ब्रह्मशिला रखें। शिवकोण में सौ अस्त्र-मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित निद्रा-कलश और शिवासनकी कल्पना करके, हृदय-मन्त्रसे अर्ध्य दे, देवताको उठाकर लिङ्गमय आसनपर शिरोमन्त्रद्वारा पूर्वकी ओर मस्तक रखते हुए आरोपित एवं स्थापित करे। इस प्रकार उन परमात्माका साक्षात्कार होनेपर चन्दन और धूप चढ़ाते हुए उनकी पूजा करे तथा कवचमन्त्र में वस्त्र अर्पित करे।

घर का उपकरण आदि अर्पित कर दे। फिर अपनी शक्तिके अनुसार नमस्कारपूर्वक ” नैवेद्य ” निवेदन” करे। अभ्यङ्गकर्मके लिये धृत और मधुसे युक्त पात्र इष्टदैवके चरणोंके समीप रखे। वहाँ उपस्थित हुए आचार्य शक्तिसे लेकर भूमि-पर्यन्त छत्तीस तत्त्वोके समूहको उनके अधिपतियोंसहित स्थापित करके फूलकी मालाओंसे उनके तीन भागोंकी कल्पना करे ।।७४-८०।।

 वे तीन भाग मायासे लेकर शक्ति-पर्यन्त है । उनमें प्रथम भाग चतुष्कोण, द्वितीय भाग अष्टकोण और तृतीय भाग वर्तुलाकार है। प्रथम भागमें आत्मतत्व, द्वितीय भागमें विद्यातत्व और तृतीय भागमें शिवतत्वकी स्थिति है। इन भागोंमें सृष्टिक्रमसे एक-एक अधिपति हैं, जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव नामसे प्रसिद्ध हैं।

तदनन्तर मूर्तियों और मूर्तीश्वरोंका पूर्वादि दिशाओंके क्रमसे न्यास करे। पृथ्वी, अग्नि, यजमान, सूर्य, जल, वायु, चन्द्रमा और आकाश-ये आठ मूर्तिरूप हैं। इनका न्यास करनेके पश्चात् इनके अधिपतियोंका न्यास करना चाहिये। उनके नाम इस प्रकार हैं-शर्व, पशुपति, उग्रा, रुद्र, भव, ईश्वर्, महादेव और भीम। इनके वाचक मन्त्र निम्नलिखित हैं-लं, रं, शं, खं, चं, पं, सं, हं* अथवा त्रिमात्रिक प्रणव तथा ‘हां’ अथवा हृदय-मन्त्र अथवा कही-कही मूल-मन्त्र इनके (मूर्तियों और मूर्तिपतियोंके) पूजनके उपयोगमें आते हैं। अथवा पञ्चकुण्डात्मक यागमें पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश-इन पाँच मूर्तियोंका ही न्यास करे॥८१-८६॥

फिर क्रमश: इनके पाँच अधिपतियों-ब्रह्मा, शेषनाग, रुद्र, ईश और सदाशिवका मन्त्रज्ञ पुरुष सृष्टि-क्रमसे न्यास करे। यदि यजमान मुमुक्षु हो तो वह पञ्चमूर्तियोंके स्थानमें ‘निवृति’ आदि पाँच कलाओं तथा उनके ‘अजात’ आदि अधिपतियोंका न्यास करें। अथवा सर्वत्र व्यातिरूप कारणात्मक त्रितत्वका ही न्यास करना चाहिये। शुद्ध अध्वामें विधेश्वारोंका और अशुद्धमें लोकनायकोंका मूर्तिपतियोंके रूपमें दर्शन करना चाहिये। भोंगी (सर्प) भी मन्त्रेश्वर हैं।

पैंतीस, आठ, पाँच और तीन मूर्तिरूप-तत्व क्रमश: कहे गये हैं। ये ही इनके तत्व हैं। इन तत्वोंके अधिपतियोंके मन्त्रोंका दिग्दर्शनमात्र कराया जाता है।

ॐ हां शक्तितत्वाय नमः । इत्यादि ।

ॐ हां शक्तितत्त्वाधिपाय नमः । इत्यादि।

ॐ हां क्षमामूर्तये नमः।।

ॐ हां  क्षमामूर्त्यधिपतये ब्रह्मणे नमः । इत्यादि।

ॐ हां शिवतत्त्वाय नमः ॥

ॐ हां शिवतत्वाधिपतये रुद्राय नमः। इत्यादि।

नाभिमूलसे उच्चरित होकर घण्टानादके समान सब ओर फैलनेवाले, ब्रह्मादि कारणोंके त्यागपूर्वक, द्वादशान्तस्थानको प्राप्त हुए मनसे अभिन्न तथा आनन्द-रसके उदूमको पा लेनेवाले मन्त्रका और निष्कल, व्यापक शिवका जो अड़तीस कलाओंसे युक्त, सहस्त्रों किरणोंसे प्रकाशमान, सर्वशक्तिमय तथा साङ्ग हैं, ध्यान करते हुए उन्हें द्वादशान्तसे लाकर शिवलिङ्गमें स्थापित करें ॥ ८७-९४ ॥

इस प्रकार शिवलिङ्ग में जीवन्यास होना चाहिये, जो सम्पूर्ण पुरुषार्थोंका साधक है।

पिण्डिका आदिमें किस प्रकार न्यास करना चाहिये, ये बताया जाता है।

पिण्डिकाकों स्नान कराकर उसमें चन्दन आदिका लेप करे और उसे सुन्दर वस्त्रोंसे आच्छादित करके, उसके भगस्वरूंप छिद्र में पञ्चरत्न आदि डालकर, उस पिण्डिकाको लिङ्ग से उत्तर दिशा में स्थापित करे। उसमें भी लिङ्गकी ही भाँति न्यास करके विधिपूर्वक उसकी पूजा करे। उसका स्नान आदि पूजन-कार्य सम्पन्न करके लिङ्गके मूलभागमें शिवका न्यास करे। फिर शक्त्यन्त वृषभका भी स्नान आदि संस्कार करके स्थापन करना चाहिये॥ ९५-१८ ॥

तत्पश्चात् पहले प्रणवका, फिर ‘ह्रां हूं ह्रीं।’- इन तीन बीजोंमेंसे किसी एकका उच्चारण करते हुए क्रियाशक्तिसहित आधाररूपिणी शिलापिण्डिकाका पूजन करे। भस्म, कुशा और तिलसे तीन प्राकार (परकोटा) बनावे तथा रक्षाके लिये आयुधोंसहित लोकपालोको बाहरकी ओर नियोजित एवं पूजित करे।

पूजनके मन्त्र इस प्रकार हैं-

ॐ ह्रीं क्रियाशक्तये नमः ।।

ॐ ह्रीं महागौरि कद्रदयिते स्वाहा।’

निम्राङ्कित मन्त्रके द्वारा पिण्डिकामें पूजन करे-

‘ ॐ ह्रीं आधारशक्तये नमः ।।

ॐ ह्रां वृषभाय नमः ॥’ ॥ ९९-१०१ ॥

धारिका, दीप्ता, अत्युग्रा, ज्योत्स्त्रा, बालोत्कटा, धात्री और विधात्री-इनका पिण्डीमें न्यास करें: अथवा वामा, ज्येष्ठा, क्रिया, ज्ञाना और वेधा (अथवा रोधा या प्रह्री)-इन पाँच नायिकाओंका न्यास करें। अथवा क्रिया, ज्ञाना तथा इच्छा-इन तीनका ही न्यास करे; पूर्ववत् शान्तिमूर्तियोंमें तमी, मोहा, क्षुधा, निद्रा, मृत्यु, माया, जरा और भया-इनका न्यास करे; अथवा तमा, मोहा, घोरा, रति, अपज्वरा-इन पाँचोंका न्यास करे, या क्रिया, ज्ञाना और इच्छा-इन तीन अधिनायिकाओंका आत्मा आदि तीन तीव्र मूर्तिवाले तत्वोंमें न्यास करे। यहाँ भी पिण्डिका, ब्रह्मशिला आदिमें पूर्ववत् गौरी आदि शम्बरों (मन्त्रों) द्वारा ही सब कार्य विधिवत् सम्पन्न करे ॥ १०२-१०६ ॥

इस प्रकार न्यास-कर्म करके कुण्डके समीप जा, उसके भीतर महेश्वरका, मेखलाओंमें चतुर्भुजका, नाभिमें क्रियाशक्तिका तथा ऊर्ध्वभागमें नादका न्यास करें। तदनन्तर कलश, वेदी, अग्रि और शिवके द्वारा नाड़ीसंधान-कर्म करे।

कमलके तन्तुकी भाँती सूक्ष्मशक्ति ऊर्ध्वगत वायुकी सहायतासे ऊपर उठती और शून्य मार्गसे शिवमें प्रवेश करती है। फिर वह ऊर्ध्वगत शक्ति वहाँसे निकलती और शून्यमार्गसे अपने भीतर प्रवेश करती है। इस प्रकार चिन्तन करे। मूर्तिपालकोंको भी सर्वत्र इसी प्रकार संधान करना चाहियें ॥ १०७-११६ ॥

कुण्डमें आधार-शक्तिका पूजन करके, तर्पण करनेके पश्चात्, क्रमशः तत्त्व, तत्त्वेश्वर, मूर्तिं और मूर्तीश्वरोंका घृत आदिसे पूजन और तर्पण करे। फिर उन दोनों (तत्त्व, तत्त्वेश्वर एवं मूर्ति, मूर्तीश्वर)-को संहिता-मन्त्रोंसे एक सौं, एक सहस्र अथवा आधा सहस्र आहुतियाँ दे। साथ ही पूर्णाहुति भी अर्पण करे। तत्व और तत्वेश्वरों तथा मूर्ति और मूर्तीश्वरोंका पूर्वोत रीतिसे एकदूसरेके संनिधानमें तर्पण करके मूर्तिपालक भी उनके लिये आहुतियाँ दें। इसके बाद द्रव्य और कालके अनुसार वेदों और अङ्गोंद्वारा तर्पण करके, शान्ति-कलशके जलसे प्रोक्षित कुशमूलद्वारा लिङ्गके मूलभागका स्पर्श करके, होमसंख्याके बराबर जप करे। हृदय-मन्त्रसे संनिधापन और कवच-मन्त्रसे अवगुण्ठन करे॥१११-११५॥

इस प्रकार संशोधन करके, लिङ्गके ऊर्ध्वभागमें ब्रह्मा और अन्त (मूल) भागमें विष्णुका पूजन आदि करके, शुद्धिके लिये पूर्ववत् सारा कार्य सम्पन्न कर, होम-संख्याके अनुसार जप आदि करे। कुशके मध्यभागसे लिङ्ग के मध्यभागाका और कुशके अग्रभागसे लिङ्गके अग्रभागका स्पर्श करे। मिस मन्त्रसे जिस प्रकार संधान किया जाता है, वह इस समय बताया जाता है –

ॐ हां हं, ॐ ॐ एं, ॐ भूं भूं बाह्ममूर्तये नमः।

हां वां, आं आं षां, भूं भूं वां वह्रिमूर्तये नमः  

इसी प्रकार यजमान आदि मूर्तियोंके साथ भी अभिसंधान करना चाहिये। पञ्चमूर्त्यात्मक शिवके लिये भी हृदयादिमन्त्रोंद्वारा इसी तरह संधानकर्म करनेका विधान है। त्रितत्वात्मक स्वरूपमें मूलमन्त्र अथवा अपने बीज-मन्त्रोंद्वारा संधानकर्म करनेकी विधि है — ऐसा जानना चाहिये।

शिला, पिण्डिका एवं वृषभके लिये भी इसी तरह संधान आवश्यक है। प्रत्येक भागकी शुद्धिके लिये अपने मन्त्रोंद्वारा शतादि होम करे और उसे पूर्णाहुतिद्वारा पृथक कर दे ॥ ११६-१३५ ॥

न्यूनता आदि दोषसे छुटकारा पानेके लिये शिव-मन्त्रसे एक सौ आठ आहुतियाँ दे और जो कर्म किया गया हैं, उसे शिवके कानमें निवेदन करे-‘प्रभो! आपकी शक्ति से ही मेंरे द्वारा इस कार्यका सम्पादन हुआ है, ॐ भगवान् रुद्रको नमस्कार है। रूद्रदेव! आपको मेरा नमस्कार है। यह कार्य विधिपूर्ण हों या अपूर्ण, आप अपनी शक्तिसे ही इसे पूर्ण करके ग्रहण करें।’ ‘ॐ ह्रीं शांकरि पूरय स्वाहा।’। ऐसा कहकर पिण्डिकामें न्यास करे।

तदनन्तर ज्ञानी पुरुष लिङ्गमें क्रिया शक्तिका और पीठ-विग्रह में ब्रह्मशिलाके ऊपर आधाररूपिणी शक्तिका न्यास करे॥ १२१-१२५।।

सात, पाँच, तीन अथवा एक राततक उसका निरोध करके या तत्काल ही उसका अधिवासन करे। अधिवासनके बिना कोई भी याग सम्पादित होनेपर भी फलदायक नहीं होता। अत: अधिवासन अवश्य करे।

अधिवासन-कालमें प्रतिदिन देवताओंको अपने-अपने मन्त्रोंद्वारा सौ-सौ आहुतियाँ दे तथा शिव-कलश आदिकी पूजा करके दिशाओंमें बलि अर्पित करे॥१२६-१२७ ॥

गुरु आदिके साथ रातमें नियमपूर्वक वास ‘अधिवास’ कहलाता है। ‘अधि’पूर्वक ‘वस’ धातुसे भावमें ‘घअ’ प्रत्यय किया गया है। इससे ‘अधिवास’ शब्द सिद्ध हुआ है॥ १२८॥

अध्याय – ९७ शिव-प्रतिष्ठाकी विधि

भगवान् शिव कहते हैंस्कन्द! प्रात:काल नित्य-कर्मके अनन्तर द्वार-देवताओंका पूजन करके मण्डपमें प्रवेश करे। पूर्वोक्त विधिसे देहशुद्धि आदिका अनुष्ठान करे। दिक्पालोंका, शिवकलशका तथा वार्धानी (जलपात्र)-का पूजन करके अष्टपुष्पिकाद्वारा शिवलिंगकी अर्चना करे और क्रमश: आहुति दें, अग्निदेवको तृप्त करे।

तदनन्तर शिवकी आज्ञा ले ‘अस्त्राय फट्।’ का उच्चारण करते हुए मन्दिरमें प्रवेश करे तथा ‘अस्त्राय हुं फट्।’ बोलकर वहाँके विध्नोंका अपसारण करे॥ १-३ ॥

शिलाके ठीक मध्यभागमें शिवलिंगकी स्थापना न करे; क्योंकि वैसा करनेपर वेध-दोषकी आशङ्का रहती है। इसलिये मध्यभागको त्यागकर, एक या आधा जौ किंचित् ईशान भागका आश्रय ले आधारशिलामें शिवलिङ्गकी स्थापना करे। मूल-मन्त्रका उच्चारण करते हुए उस (अनन्त) नाम-धारिणी, सर्वाधारस्वरूपिणी, सर्वव्यापिनी शिलाकों सृष्टियोगद्वारा अविचल भावसे स्थापित करे। अथवा निम्नाङ्कित मन्त्रसे शिवकी आसनस्वरूपा उस शिलाकी पूजा करे-‘ॐ नमो व्यापिनि भगवति स्थिरेऽचले ध्रुवे ह्रीं लं ह्रीं स्वाहा।’

पूजनसे पहले यों कहे- ‘आधारशक्तिस्वरूपिणि शिले! तुम्हें भगवान् शिवकी आज्ञासे यहाँ नित्य-निरन्तर स्थिरतापूर्वक स्थित रहना चाहिये।”-ऐसा कहकर पूजन करनेके पश्चात् अवरोधिनी-मुद्रासे शिलाको अवरुद्ध (स्थिरतापूर्वक स्थापित) कर दे ॥ ४-८ ॥

हीरे आदि रत्न, उशीर (खश) आदि ओषधियाँ लोह और सुवर्ण, कास्य आदि धातु, हरिताल आदि, धान आदिके पौधे तथा पूर्वकथित अन्य वस्तुएँ क्रमश: एकत्र करे और मन-ही-मन भावना करे कि ‘ये सब वस्तुएँ कान्ति, आरोग्य, देह, वीर्य और शक्तिस्वरूप हैं’। इस प्रकार एकाग्रचितसे भावना करके लोकपाल और शिवसम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा पूर्वादि कुण्डोंमें इन वस्तुओंमेंसे एक-एकको क्रमश: डाले। सोने अथवा ताँबेके बने हुए कछुए या वृषभको द्वारके सम्मुख रखकर नदीके किनारेकी या पर्वतके शिखरकी मिट्टीसे युक्त करे और उसे बीचके कुण्ड आदिमें डाल दे। अथवा सुवर्णनिर्मित मेरुको मधूक, अक्षत और अञ्जनसे युक्त करके उसमें डाले अथवा सोने या चाँदीकी बनी हुई पृथ्वीको सम्पूर्ण बीजों और सुवर्णसे संयुक्त करके उस मध्यम कुण्डमें डाले। अथवा सोने, चाँदी या सब प्रकारके लोहसे निर्मित सुवर्णमय केसरोंसे युक्त कमल या अनन्त (शेषनाग)-की मूर्तिको उसमें छोड़े॥ ९-१५॥

शक्तिसे लेकर मूर्ति-पर्यन्त अथवा शक्तिसे लेकर शक्ति-पर्यन्त तत्त्वका देवाधिदेव महादेवके लिये आसन निर्मित करके उसमें खीर या गुग्गुलका लेप करे । तत्पश्चात वस्त्रसे गर्तको आच्छादित करके कवच और अस्त्र-मन्त्रद्वारा उसकी रक्षा करे।

फिर दिक्पालोंकी बलि देकर आचार्य आचमन करे। शिला और गर्तके सङ्गदोषकी निवृत्तिके लिये शिवमन्त्र से अथवा अस्त्र-मन्त्रसे विधिपूर्वक सौ आहुतियाँ दे। साथ ही पूर्णाहुति भी करे। वास्तु देवताओंको एक-एक आहुति देकर तृप्त करनेके पश्चात् हदय-मन्त्रसे भगवानको उठाकर मंगल-वाध और मङ्गल-पाठ आदिके साथ ले आवे॥१६-१९॥

गुरु भगवानके आगे-आगे चले और चार दिशाओंमें स्थित चार मूर्तिपालोंके साथ यजमान स्वयं भगवानकी सवारीके पीछे-पीछे चले। मन्दिर आदिके चारों ओर घुमाकर शिवलिङ्ग को भद्रद्वारके सम्मुख नहलावे और अर्ध्य देकर उसे मन्दिरके भीतर ले जाय। खुले द्वारसे अथवा द्वारके लिये निश्चित स्थानसे शिवलिङ्गको मन्दिरमें ले जाय। इन सबके अभाव में द्वार बंद करनेवाली शिलासे शून्य-मार्गसे अथवा उस शिलाके ऊपरसे होकर मन्दिरमें प्रवेशका विधान हैं। दरवाजेसे ही महेश्वरको मन्दिरमें ले जाय, परन्तु उनका द्वारसे स्पर्श न होने दें। यदि देवालयका समारम्भ हों रहा हो तो किसी कोणसे भी शिवलिङ्गको मन्दिरके भीतर प्रविष्ट कराया जा सकता हैं। व्यक्त अथवा स्थूल शिवलिङ्गके मन्दिर-प्रवेशके लिये सर्वत्र यही विधि जाननी चाहिये। घरमें प्रवेंशका मार्ग द्वार हीं है, इसका साधारण लोगोंकी भी प्रत्यक्ष अनुभव है। यदि बिना द्वारके घरमें प्रवेश किया जाय तो गोत्रका नाश होता हैं-ऐसी मान्यता है॥ २०-२४३ ॥

तदन्तर पीठपर, द्वारके सामने शिवलिंगको स्थापित करके नाना प्रकारके वाद्यो तथा मङ्गलसूचक ध्वनियोंके साथ उसपर दूर्वा और अक्षत चढ़ावे तथा ‘समुक्तिष्ठ नमः’-ऐसा कहकर महापाशुपतमन्त्रका पाठ करें।

इसके बाद आचार्य गर्तमें रखें हुए घटको वहाँसे हटाकर मूर्तिपालकोंके साथ यन्त्रमें स्थापित करावे और उसमें कुंकुम आदिका लेप करके, शक्ति और शक्तिमानकी एकताका चिन्तन करते हुए लयान्त मूल-मन्त्रका उच्चारण करके, उस आलम्बनलक्षित घटका स्पर्शपूर्वक पुन: गर्तमें ही स्थापना करा दे।

ब्रह्मभागके एक अंश, दो अंश, आधा अंश अथवा आठवें अंशतक या सम्पूर्ण ब्रह्मभागाका ही गर्तमें प्रवेश करावे । फिर नाभिपर्यन्त दीर्घाओंके साथ शीशेका आवरण देकर, एकाग्रचित हो, नीचेके गर्तको बालूसे पाट दे और कहे-‘भगवन्! आप सुस्थिर हो जाइये’॥ २५-३० ॥

तदनन्तर लिङ्गके स्थिर हो जानेपर सकल (सावयव) रूपवाले परमेश्वरका ध्यान करके, शक्त्यन्त-मूल-मन्त्रका उच्चारण करते हुए, शिवलिङ्गके स्पर्शपूर्वक उसमें निष्कलीकरण-न्यास करे। जब शिवलिङ्गकी स्थापना हो रही हो, उस समय जिस-जिस दिशा का आश्रय ले, उस-उस दिशाके दिक्पाल-सम्बन्धी मन्त्रका उच्चारण करके पूर्णाहुतिपर्यन्त होम करे और दक्षिणा दे। यदि शिवलिङ्गसे शब्द प्रकट हो अथवा उसका मुख्यभाग हिले या फट-फूट जाय तो मूल-मन्त्रसे या ‘बहुरूप” मन्त्रद्वारा सौ आहुतियाँ दे। इसी प्रकार अन्य दोष प्राप्त होनेपर शिवशास्त्रोक्त शान्ति करे। ठक्त विधिसे यदि शिवलिंगमें न्यासका विधान किया जाय तो कर्ता दोषका भागीं नहीं होता।

तदनन्तर लक्षणस्पर्शरूप पीठबन्ध करके गौरीमन्त्रसे उसका लय करे। फिर पिण्डीमें सृष्टिन्यास करे॥ ३१-३५ ॥

लिङ्गके पार्श्वभागमें जो संधि (छिद्र) हो, उसको बालू एवं वज्रलैपसे भर दे। तत्पश्चात् गुरु मूर्तिपालकोंके साथ शान्तिकलशके आधे जलसे शिवलिङ्गको नहलाकर, अन्य कलशो तथा पञ्चामृत आदिसे भी अभिषिक्त करे। फिर चन्दन आदिका लेप लगा, जगदीश्वर शिवकी पूजा करके, उमामहेश्वर-मन्त्रोंद्वारा लिङ्गमुद्रासे उन दोनोंका स्पर्श करे। इसके बाद छहों अध्वाओंके न्यासपूर्वक त्रितत्त्वन्यास करके, मूर्तीन्यास, दिक्पालन्यास, अङ्गन्यास एवं ब्रह्मन्यासपूर्वक ज्ञानाशक्तिका लिङ्गमें तथा क्रियाशक्तिका पीठमें न्यास करनेके पश्चात् स्नान करावे ॥ ३६-३९ ॥

गन्धका लेपन करके धूप दे और व्यापकरूपसे शिवका न्यास कोरे। हृदय-मन्त्रद्वारा पुष्पमाला, धूप, दीप, नैवेद्य और फल निवेदन करे। यथाशक्ति इन वस्तुओंको निवेदित करनेके पश्चात् महादेवजीको आचमन करावे। फिर विशेषार्ध्य देकर मन्त्र जपे और भगवानके वरदायक हाथमें उस जपको अर्पित करनेके पश्चात् इस प्रकार कहें-‘हे नाथ! जबतक चन्द्रमा, सूर्य और तारोंकी स्थिति रहे, तबतक मूर्तीशों तथा मूर्तिपालकोंके साथ आप स्वेच्छापूर्वक ही इस मन्दिरमें सदा स्थित रहें।’ ऐसा कहकर प्रणाम करनेके पश्चात् बाहर जाय और हृदय या प्रणवमन्त्रसे वृषभ (नन्दिकेश्वर)-की स्थापना करके, फिर पूर्ववत् बलि निवेदन करे।

तत्पश्चात् न्यूनता आदि दोषके निराकरणके लिये मृत्युञ्जयमन्त्रसे सौ बार समिधाओंकी आहुति दे एवं शान्तिके लियें खीरसे होम करे॥ ४०-४४॥

इसके बाद यों प्रार्थना करे-‘महाविभो! ज्ञान अथवा अज्ञानपूर्वक कर्ममें जो त्रुटि रह गयी है, उसे आप पूर्ण करें।’ यों कहकर यथाशक्ति सुवर्ण, पशु एवं भूमि आदि सम्पत्ति तथा गीत– वाद्य आदि उत्सव, सर्वकारणभूत अम्बिकानाथ शिवको भक्तिपूर्वक समर्पित करे।

तदनन्तर चार दिनोंतक लगातार दान एवं महान् उत्सव करे। मन्त्रज्ञ आचार्यकी चाहिये कि उत्सव के इन चार दिनोंमेंसे तीन दिनोंतक तीनों समय मूर्तीपालकोंके साथ होम करे और चौथे दिन पूर्ण आहुति देकर, बहुरूप-सम्बन्धी मन्त्रसे चरु निवेदित करे। सभी कुण्डोंमें सम्पताहुतिसे शोधित चरू अर्पित करना चाहियें। उक्त चार दिनोंतक निर्माल्य न हटावे। चौथे दिनके बाद निर्माल्य हटाकर, स्नान करानेके पश्चात् पूजन करे। सामान्य लिङ्गोंमें साधारण मन्त्रोद्वारा पूजा करनी चाहिये।

लिङ्ग–चैतन्यको छोड़कर स्थाणु-विसर्जन करे। आसाधारण लिंगोंमें क्षमस्व इत्यादि कहकर विसर्जन करे ।।४५-५०।।

आवाहन, अभिव्यक्ति, विसर्ग, शक्तिरूपता और प्रतिष्ठा-ये पाँच बातें मुख्य हैं। कहीं-कहीं प्रतिष्ठाके अन्तमें स्थिरता आदि गुणोंकी सिद्धिके लिये सात आहुतियाँ देनेका विधान है। भगवान् शिव स्थिर, अप्रमेय, अनादि, बोधस्वरुप, नित्य, सर्वव्यापी, अविनाशी एवं आत्मतृत हैं। महेश्वरकी संनिधि या उपस्थितिके लिये ये गुण कहे गये हैं।

आहुतियोंका क्रम इस प्रकार है-‘ॐ नम: शिवाय स्थिरो भव नम: स्वाहा।’-इत्यादि। इस प्रकार इस कार्यका सम्पादन करके शिव-कलशाकी भाँति दो कलश और तैयार करे। उनमेंसे एक कलशके जलसे भगवान् शिवकी स्नान कराकर, दूसरा यजमानके स्नानके लिये रखे।

(कहीं-कहीं ‘कर्मस्थानाय धारयेत्।’ ऐसा पाठ है। इसके अनुसार दुसरे कलशका जल कर्मानुष्ठानके लिए स्थापित करे, यह अर्थ समझना चाहिये।) इसके बाद बलि देकर आचमन करनेके पश्चात् शिवकी आज्ञासे बाहर जाय ॥ ५१-५५ ॥

याग-मण्डपके बाहर मन्दिरके ईशानकोणमें चण्डका स्थापन-पूजन करे। फिर मण्डपमें धामके गर्भके बराबर उत्तम पीठपर आसनकी कल्पना करके, पूर्ववत न्यास, होम आदिका अनुष्ठान करे। फिर ध्यानपूर्वक ‘सद्योजात’ आदिकी स्थापना करके, वहाँ ब्रह्माङ्गोद्वारा विधिवत् पूजन करे। ब्रह्माङ्गोंका वर्णन पहले किया जा चुका है। अब जिस प्रकार मन्त्रद्वारा पूजन किया जाता है उसे  सुनो-

‘ॐ वं सद्योजाताय हूं फट् नम:।

‘ॐ विं वामदेवाय ह्रूं फट् नम:।

‘ॐ वुं अघोराय ह्रूं फट् नम:।

-इसी प्रकार

‘ॐ वें तत्पुरुषाय ह्रूं फट् नम:।

‘ॐ वों ईशानाय ह्रूं फट् नम:।’

– ये मन्त्र हैं ॥ ५६-५९ ॥

इस प्रकार जप निवेदन करके, तर्पण करनेके पश्चात्, स्तुतिपूर्वक विज्ञापना देकर चण्डेशसे प्रार्थना करे-‘हे चण्डेश! जबतक श्रीमहादेवजी यहाँ विराजमान हैं, तबतक तुम भी इसके समीप विद्यमान रहो। मैंने अज्ञानवश जो कुछ भी न्यूनाधिक कर्म किया है, वह सब तुम्हारे कृपाप्रसादसे पूर्ण हो जाय। तुम स्वयं उसे पूर्ण करो।’ जहाँ बाणलिङ्ग (नर्मदेश्वर) हो, जहाँ चल लोहमय (सुवर्णमय) लिङ्ग हो, जहाँ सिद्धलिङ्ग (ज्योतिर्लिङ्गादि) तथा स्वयम्भूलिङ्ग हो, वहाँ और सब प्रकारकी प्रतिमाओंपर चढ़े हुय निर्मालय में चण्डेशका अधिकार नहीं होता हैं। अद्वैतभावनायुक्त यजमानपर तथा स्थण्डिलेशविधि में भी चण्डेशका अधिकार नहीं है। चण्डका पूजन करके स्रापक (अभिषेक करनेवाला गुरु) स्वयं ही पत्नी और पुत्रसहित यजमानको पूर्व-स्थापित कलशके जलसे स्नान करावे। यजमान भी स्रापक गुरुका महेश्वरकी भाँति पूजन करके, धनकी कंजूसी छोड़कर, उन्हें भूमि और सुवर्ण आदिकी दक्षिणा दे॥ ६०-६४ ॥

तत्पश्चात मुर्तिपालकों तथा जपकर्ता ब्राह्मणोंका, ज्योतिषीका और शिल्पीका भी भलीभाँति विधिवत् पूजन करके दीनों और अनाथों आदिको भोजन करावे। इसके बाद यजमान गुरुसे इस प्रकार प्रार्थना करे-‘हे भगवन्! यहाँ सम्मुख करनेके लिये मैंने आपको जो कष्ट दिया है, वह सब आप क्षमा करें, क्योंकि नाथ! आप करुणाके सागर हैं, अत: मेरा सारा अपराध भूल जायँ।’

इस प्रकार प्रार्थना करनेवाले यजमानको सदगुरु अपने हाथ से कुश, पुष्प और अक्षतपुञ्जके साथ प्रतिष्ठाजनित पुण्यकी सत्ता समर्पित करे, जिसका स्वरूप चमकते हुए तारोंके समान दीप्तिमान् है ।।६४-६८।।

तदनन्तर, पाशुपत-मन्त्रका जप करके, परमेश्वरको प्रणाम करनेके अन्तर, भूतगणोंको बलि अर्पित करे और इस प्रकार उन सबको समीप लाकर यों निवेदन करें- आपलोगोंकों तबतक यहाँ स्थित रहना चाहिये, जबतक महादेवजी यहाँ विराजमान हैं।’ वस्त्र आदिसे युक्त यागमण्डपको गुरु अपने अधिकारमें ले ले तथा समस्त उपकरणोंसे युक्त स्नापन-मण्डपको शिल्पी ग्रहण करे। अन्य देवता आदिकी आगमोक्त मन्त्रोंद्वारा स्थापना करनी चाहिये। सूर्यके वर्णभेदके अनुसार उन देवता आदिके वर्णभेद समझने चाहिये। वे अपने तैजस-तत्व में व्याप्त हैं-ऐसीं भावना करनी चाहिये। साध्य आदि देवता, सरिताएँ औषधियाँ क्षेत्रपाल और किंनर आदि-ये सब पृथ्वीतत्वके आश्रित हैं। कहीं-कहीं सरस्वती, लक्ष्मी और नदियोंका स्थान जलमें बताया गया हैं।॥ ६९-७३ ॥

भुवनाधिपतियोंका स्थान वही है, जहाँ उनकी स्थिति हैं। अहंकार, बुद्धि और प्रकृति-ये तीन तत्व ब्रह्माके स्थान हैं। तन्मात्रासे लेकर प्रधानपर्यन्त तीन तत्व श्रीहरिके स्थान हैं। नाटयेश, गण, मातृका, यक्षराज, कार्तिकेय तथा गणेशका अण्डजादि शुद्ध विद्यान्त-तत्व है। मायांश देशसे लेकर शक्ति-पर्यन्त तत्त्व शिवा, शिव तथा उग्रतेजवाले सूर्यदेवका स्थान है। व्यक्त प्रतिमाओंके लिये ईश्वर-पर्यन्त पद बताया गया है। स्थापनाकी सामग्रीमें जो कूर्म आदिका वर्णन किया गया है तथा जो रत्न आदि पाँच वस्तुएँ कही गयी हैं, उन सबको देवपीठके गर्तमें डाल दे, परंतु पाँच ब्रह्मशिलाओंको उसमें न डाले ॥ ७४-७७ ई॥

मन्दिरके गर्भका छ: भागोंमें विभाजन करके छठे भागको त्याग दे और पाँचवें भागमें देवताकी स्थापना करे। अथवा मन्दिरके गर्भका आठ भाग करके सातवें भागमें प्रतिमाओंकों स्थापना करे तो वह सुखावह होता है।

लेप अथवा चित्रमय विग्रहकी स्थापनामें पञ्चभूतोंकी धारणाओंद्वारा विशुद्धि होती है। वहाँ स्नान आदि कार्य जलसे नहीं, मानसिक किये जाते हैं। वैसे विग्रहोंकी शिला एवं रत्न आदिके भवनमें रखना चाहिये। उनमें नेत्रोन्मीलन तथा आसन आदिकी कल्पना अभीष्ट है। इनकी पूजा जलरहित पुष्पोंसे करनी चाहिये, जिससे चित्र दूषित न हो ॥ ७८-८१ ॥

अब चल लिंगोंके लिये स्थापनाकी विधि बतायी जाती है।

गर्भस्थानके पाँच अथवा तीन भाग करके एक भागको छोड़ दे और तीसरे या दूसरे भागमें चल लिङ्गकी स्थापना करे। इसी प्रकार उनके पीठोंके लियें भी करना चाहिये। लिङ्गोंमें तत्वभेदसे पूजनकी प्रक्रियामें भेद होता है। स्फटिक आदिके लिङ्गोंमें इटमन्त्रसे (अथवा सृष्टि-मन्त्रसे) विधिवत् संस्कार होना चाहिये। इसके सिवा वहाँ ब्रह्मशिला एवं रत्नप्रभूतिका निवेदन अपेक्षित नहीं हैं ॥ ८२-८४ ॥

पिण्डिकाकी योजना भी मनसे ही कर लेनी चाहिये। स्वयम्भूलिङ्ग और बाणलिङ्ग आदिमें संस्कारका नियम नहीं है।” उन लिङ्गोंको संहितामन्त्रोंसे स्नान करना चाहिये वैदिक विधिसे ही उनके लिए न्यास और होम करना चाहिये । नदी, समुंद्र तथा रोह- इनके स्थापन करानेका विधान पूर्ववत है ॥ ८४-८६ ॥

इहलोकमें जो मृतिका आदिके अथवा आटे आदिके शिवलिंगका पूजन किया जाता है, वह तात्कालिक होता है । अर्थात पूजन-कालमें ही लिङ्ग-निर्माण करके वीक्षणादि विधानसे उनकी शुद्धि करे। तत्पश्चात् विधिवत् पूजन करना चाहिये। पूजनके पश्चात् मन्त्रोंको लेकर अपने-आपमें स्थापित करे और उस लिङ्गकी जलमें डाल दे। एक  वर्षतक ऐसा करनेसे वह लिङ्ग और उसका पूजन मनोवाक्छित फल देनेवाला होता है। विष्णु आदि देवताओंकी स्थापनाके मन्त्र अलग हैं। उन्होंके द्वारा उनकी स्थापना करनी चाहियें ॥ ८७-८९ ॥

अध्याय – ९८ गौरी-प्रतिष्ठा-विधि

भगवान् शिव कहते हैंस्कन्द! अब मैं पूजासहित गौरीकी प्रतिष्ठाका वर्णन करूँगा, सुनो।

पूर्ववत् मण्डप आदिकी रचना करके देवीकी स्थापना एवं शय्याधिवासन करे। पूर्वोत मन्त्रों और मूर्त्यादिकोंका न्यास करके आत्म-तत्व, विद्यातत्व और शिवतत्वका परमेश्वरमें स्थापन करे।

तदनन्तर पराशक्तिका न्यास, होम और जप पूर्ववत् करके क्रियाशक्तिस्वरूपिणी पिण्डीका संधान करे। सर्वव्यापिनी पिण्ड़ी का ध्यान करके वहाँ रत्न आदिका न्यास करे। इस विधिसे पिण्डीकी स्थापना करके उसके ऊपर देवीकों स्थापित करें ॥ १-४॥

वे देवी परमशक्तिस्वरूपा हैं। उनका अपने ही मन्त्रसे सृष्टि-न्यासपूर्वक स्थापन करे। तदनन्तर पीठमें क्रियाशक्तिका और देवीके विग्रहमें ज्ञानशक्तिका न्यास करे। इसके बाद सर्वव्यापिनी शक्तिका आवाहन करके देवीकी प्रतिमामें उसका नियोजन करें। फिर “शिवा’ नामवाली अम्बिका देवीका स्पर्शपूर्वक पूजन करे” ॥५-६॥

पूजाके मन्त्र इस प्रकार हैं-

‘ॐ आं आधारशक्तये नमः ।।

ॐ कूर्माय नमः ।।

ॐ कन्दाय नमः ।।

ॐ ह्रीं नारायणाय नमः ।।

ॐ ऐश्वर्याय नमः ।।

ॐ अधश्छदनाय नमः ।।

ॐ पधासनाय नमः ।।’

तदनन्तर केसरोंकी पूजा करे तत्पश्चात्-

‘ॐ ह्रीं कर्णिकायै नमः ।।

ॐ क्षं पुष्कराक्षेभ्यो नमः ।।’

इन मन्त्रोंद्वारा कर्णिका एवं कमलाक्षोंका पूजन करे इसके बाद-

‘ॐ हां पुष्टयै नमः।

ॐ ह्रीं ज्ञानायै नमः ॥

ॐ ह्रूं क्रियायै नमः॥’

इन मन्त्रॊद्वारा पुष्टि, ज्ञाना एवं क्रियाशक्तिका पूजन करे॥७-१० ॥

‘ॐ नालाय नमः ।

ॐ रं धर्माय नमः ।।

ॐ रूं ज्ञानाय नमः ।।

ॐ वैराग्याय नमः।।

ॐ अधर्माय नमः ।।

ॐ रं अज्ञानाय नमः ।।

ॐ अवैराग्याय नमः ।।

ॐ अनैश्वर्याय नमः ॥’

-इन मन्त्रोंद्वारा नाल आदिकी पूजा करे।

ॐ ह्रूं वाचे नमः ।।

ॐ ह्रूं रागिण्यै नमः ॥

ॐ ह्रूं ज्वालिन्यै नमः ।।

ॐ ह्रौं शमायै नमः ॥

ॐ ह्रूं ज्येष्ठायै नमः ॥

ॐ ह्रौं रौं क्रौं नवशक्त्यै नमः ॥

-इन मन्त्रोंद्वारा वाक् आदि शक्तियोंकी पूजा करे।

‘ॐ गौं गौर्यासनाय नमः।

ॐ गौं गौरीमूर्तये नम:।’

अब गौरीका मूलमन्त्र बताया जाता है-

 ॐ ह्रीं सः महागौरि रुद्रदयिते स्वाहा गौर्यै नमः ।

ॐ गां हृदयाय नमः, ॐ गीं शिरसे स्वाहा।

ॐ गूं शिखायै वषट्।

ॐ गैं कवचाय हुम्।

ॐ गौं नेत्रत्रयाय वौषट्।

ॐ ग: अस्त्राय फट् ।

ॐ गौं विज्ञानशक्तिये नम:।’

-इन मन्त्रोंसे शिखा आदिकी पूजा करें ॥ ११-१५ ॥

‘ॐ गूं क्रियाशक्तये नम:।’-इस मन्त्रसे क्रियाशक्तिकी पूजा करे। पूर्वाद दिशाओंमें इन्द्रादि देवताओंका पूजन करे। इनके मन्त्र पहले बताये गये हैं। ‘ॐ सुं सुभगायै नमः’-इससे सुभगाका, ‘ॐ ह्रीं ललितायै नम:।’ से ललिताका पूजन करे। ‘ॐ ह्रीं कामिन्यै नम:।’ॐ ह्रूं काममालिन्यै नम:।’-इन मन्त्रोंसे गौरीकी प्रतिष्ठ, पूजा और जप करनेसे उपासक सब कुछ पा लेता है* ॥ १६-१७॥

अध्याय – ९९ सूर्यदेवकी स्थापनाकी विधि

भगवान् शिव बोलेस्कन्द! अब मैं सूर्यदेवकी प्रतिष्ठाका वर्णन करूंगा। पूर्ववत् मण्डप-निर्माण और स्नान आदि कार्यका सम्पादन करके, पूर्वोत्त विधिसे विद्या तथा साङ्गं सूर्यदेवका आसन-शय्यामें न्यास करके त्रितत्वका, ईश्वरका तथा आकाशादि पाँच भूतोंका न्यास करे॥ १-२ ॥

पूर्ववत् शुद्धि आदि करके पिण्डीका शोधन करें। फिर सदेशपद-पर्यन्त तत्व-पञ्चक का न्यास करे। तदनन्तर सर्वतोमुखी शक्ति के साथ विधिवत् स्थापना करके गुरु सूर्य-सम्बन्धी मन्त्र बोलते हुए शक्यन्त सूर्यका विधिवत् स्थापन करे॥ ३-४॥

श्रीसूर्यदेवका स्वाम्यन्त अथवा पादान्त नाम रखें। (यथा विक्रमादित्य-स्वामी अथवा रामादित्यपाद इत्यादि) सूर्यके मन्त्र पहले बताये गये हैं, उन्हींका स्थापनकालमें भी साक्षात्कार (प्रयोग) करना चाहिये ॥ ५ ॥

अध्याय – १०० द्वारप्रतिष्ठा-विधि

भगवान् शंकर कहते हैंस्कन्द! अब मैं द्वारगत प्रतिष्ठाकी विधिका वर्णन करूंगा। द्वारके अङ्गभूत उपकरणोंका कसैले जल आदिसे संस्कार करके उन्हें शय्यापर रखे। द्वारके मूल, मध्य और अग्रभागोंमें आत्मतत्व, विद्यातत्व और शिवतत्वका न्यास करके संनिरोधिनी-मुद्राद्वारा उनका निरोध करे। फिर तदनुरूप होम और जप करके, द्वारके अधोभागमें अनन्त देवताके मन्त्रसे वास्तु-देवताकी पूजा करे वही रत्नादि-पञ्चक स्थापित करके शान्ति-होम करे। तत्पश्चात् जौ, सरसों, बरहंटा, ऋद्धि (ओषधिविशेष), वृद्धि (ओषधिविशेष), पीली सरसों, महातिल, गोमृत (गोपीचन्दन), दरद ( हिंगुल या सिंगरफ), नागेन्द्र (नागकेसर), मोहिनी (त्रिपुरमाली या पोई), लक्ष्मणा (सफेद कटेहरी), अमृता (गुरुचि), गोरोचन या लाल कमल, आरग्वध (अमलताश) तथा दूर्वा–इन औषधियोंकी मन्दिरके नीचे नींव में ड़ाले तथा इनकी पोटली बनाकर दरवाजेके ऊपरी भागमें उसकी रक्षाके लिये बाँध दें। बाँधते समय प्रणव मन्त्रका उच्चारण करें ॥ १-५ ॥

दरवाजेको कुछ उत्तर दिशाका आश्रय लेकर स्थापित करना चाहिये-द्वारके अधोभागमें आत्मतत्त्वका दोनों बाजुओंमें विद्यातत्वका, आकाशदेश (खाली जगह) में तथा सम्पूर्ण द्वार-मण्डलमें सर्वव्यापी शिवतत्वका न्यास करे। इसके बाद मूलमन्त्रसे महेशनाथ का न्यास करना चाहिये। द्वारका आश्रय लेकर रहनेवाले नन्दी आदि द्वारपालोंके लिये ‘नम:’ पदसे युक्त उनके नाम-मन्त्रोंद्वारा सौ या पचास आहुतियाँ दे। अथवा शक्ति हो तो इससे दूनी आहुतियाँ दे॥ ६-८ ॥

न्यूनातिरिक्ताता-सम्बन्धी दोषसे छुटकारा पानेके लिये अस्त्र-मन्त्रसे सौ आहुतियाँ दे। तदनन्तर पहले बताये अनुसार दिशाओंमें बलि देकर दक्षिणा आदि प्रदान करें। ९ ।।

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