Shree Naval Kishori

अग्निपुराण

अध्याय – १०१ प्रासाद-प्रतिष्ठा

भगवान् शिव कहते हैंस्कन्द! अब मैं प्रासाद (मन्दिर)-की स्थापनाका वर्णन करता हूँ। उसमें चैतन्यका सम्बन्ध दिखा रहा हूँ। जहाँ मन्दिरके गुंबजकी समाप्ति होती है, वहाँ पूर्ववेदीके मध्यभागमें आधारशक्तिका चिन्तन करके प्रणत्र-मन्त्रसे कमलका न्यास करे। उसके ऊपर सुवर्ण आदि धातुओंमेंसे किसी एकका बना हुआ। कलश स्थापित करे। उसमें पञ्चगव्य, मधु और दूध पड़ा हुआ हो। रत्न आदि पाँच वस्तुएँडाली गयी हो। कलशपर गन्धका लेप हुआ हो। वह वस्त्रसे आवृत हो तथा उसे सुगन्धित पुष्पोंसे सुवासित किया गया हो। उस कलशके मुखमें आम आदि पाँच वृक्षोंके पाल्लव डाले गये हों। हृदय-मन्त्रसे हृदय-कमलकी भावना करके उस कलशको वहाँ स्थापित करना चाहिये॥ १-३ ॥

तदनन्तर गुरु पूरक प्राणायामके द्वारा श्वासको भीतर लेकर, शरीरके द्वारा सकलीकरण क्रियाका सम्पादन करके, स्व-सम्बन्धी मन्त्रसे कुम्भक प्राणायामद्वारा प्राणवायुको भीतर अवरुद्ध करे। फिर भगवान् शंकरकी आज्ञासे सर्वात्मासे अभिन्न आत्मा (जीवचैतन्य)-को जगावे।। तत्पश्चात्, रेचक प्राणायामाद्वारा द्वादशान्त-स्थानसे ‘ प्रज्वलित अग्निकणके समान जीव चैतन्यको लेकर कलशके भीतर स्थापित करे और उसमें आतिवाहिक शरीरका न्यास करके उसके गुणोंके बोधक काल आदिका एवं ईश्वरसहित पृथ्वी–पर्यन्त तत्त्व– समुदायका भी उसमें निवेश करे॥ ४-७ ॥

इसके बाद उक्त कलशमें दस नाड़ियों, दस प्राणों, (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय तथा मन,  बुद्धि और अहंकार-इन) तेरह इन्द्रियों तथा उनके अधिपतियोंकीं भी उस कलशमें स्थापना करके, प्रणव आदि नाम-मन्त्रोंसे उनका पूजन करके, प्रणव आदि नाम-मन्त्रोंसे उनका पूजन करे। अपने-अपने कार्यके कारकरूपसे जो मायापाशके नियामक है, उनका प्रेरक विधेश्वारोंका तथा सर्वव्यापी शिवका भी अपने-अपने मन्त्रद्वारा वहाँ न्यास और पूजन करें। समस्त अङ्गोंका भी न्यास करके अवरोधिनी-मुद्राद्वारा उन सबका निरोध करे। अथवा सुवर्ण आदि धातुओंद्वारा निर्मित पुरुषकी आकृति, जो ठीक मानव-शरीरके तुल्य हो, लेकर उसे पूर्ववत् पञ्चगव्य एवं कसैले जल आदिसे संस्कृत (शुद्ध) करे। फिर उसे शय्यापर आसीन करके उमापति रुद्रदेवका ध्यान करते हुए शिव-मन्त्रसे उस पुरुष-शरीरमें व्यापक रूपसे उन्हींका न्यास करे॥ ८-११३ ॥

उनके संनिधानके लिये होम, प्रोक्षण, स्पर्श एवं जप करे। संनिधापन तथा रोधक आदि सारा कार्य भागत्रय-विभागपूर्वक करे। इस प्रकार प्रकृति-पर्यन्त न्यास सारा विधान पूर्ण करके उस पुरुषकों पूर्वोत कलशमें स्थापित कर दे॥ १२-१३॥

अध्याय – १०२ ध्वजारोपण

भगवान् शंकर कहते हैंस्कन्द! देव-मन्दिरमें शिखर, ध्वजदण्ड एवं ध्वजकी प्रतिष्ठा जिस प्रकार बतायी गयी है, उसका तुमसे वर्णन। करता हूँ।

शिखरके आधे भागमें शूलका प्रवेश हो अथवा सम्पूर्ण शूलके आधे भागका शिखरमें प्रवेश कराकर प्रतिष्ठा करनी चाहिये।

ईटोंके बने हुये मन्दिरमें लकड़ीका शूल होना चाहिये और प्रस्तरनिर्मित मन्दिरमें प्रस्तरका

विष्णु आदिके मन्दिरमें कलशको चक्र से संयुक्त करना चाहिये। वह कलश देवमूर्तिकी मापके अनुरूप ही होना चाहिये। कलश यदि त्रिशूलसे युक्त हो तो ‘अग्रचूल’ या अगचूड़ नामसे प्रसिद्ध होता है ।।१-३।।

यदि उसके मस्तक-भागमें शिवलिङ्ग हो तो उसे ‘ईश शूल’ कहते हैं। अथवा शिरोभागमें बिजौंरे नीबूकी आकृतिसे युक्त होनेपर भी उसका यही नाम है। शैव-शास्त्रोंमें वैसे शूलका वर्णन मिलता है।

जिसकी ऊँचाई जङ्गावेदीके बराबर अथवा जड़ावेदीके आधे मापकी हो, वह’चित्रध्वज’ कहा गया है। अथवा उसका मान दण्ड़के बराबर या अपनी इच्छा के अनुसार रखे। जो पीठकों आवेष्टित कर ले, वह ‘महाध्वज’ कहा गया है।

चौदह, नौ अथवा छ: हाथोक मापका दण्ड क्रमशः उत्तम, मध्यम और अधम माना गया है-यह विद्वान् पुरुषोंद्वारा जाननेके योग्य है।

ध्वजका दण्ड बाँसका अथवा साख्नु आदिका हो तो सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाला होता है।॥ ४-७ ॥

यह ध्वज आरोपण करते समय यदि टूट जाय तो राजा अथवा यजमानके लिये अनिष्टकारक होता हैं-ऐसा जानना चाहिये। उस दशा में बहुरूप-मन्त्रद्वारा पूर्ववत् शान्ति करे। द्वारपाल आदिका पूजन तथा मन्त्रोंका तर्पण करके ध्वज और उसके दण्डकी अस्त्र-मन्त्रसे नहलावे। गुरु इसी मन्त्रसे ध्वजका प्रोक्षण करके मिट्टी तथा कसैले जल आदिसे मन्दिरको भी स्नान करावे। चूलक (ध्वजके ऊपरी भाग)-में गन्धादिका लेप करके उसे वस्त्रसे आच्छादित करे। फिर पूर्ववत् उसे शय्यापर रखकर उसमें लिंगकी भाँती न्यास करना चाहिये। परंतु चूलकमें ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्तिका न्यास न करे। वहाँ विशेषार्थ बोधिका चतुर्थी भी वाब्छित नहीं है और न उसके लिये कुम्भ या कुण्डकी ही कल्पना आवश्यक है।॥ ८-१२ ॥

दण्डमें आत्मतत्वका, विद्यातत्वका तथा सद्योजात आदि पाँच मुखोंका न्यास करे। फिर ध्वजमें शिवतत्वक न्यास करे। वहाँ निष्कल शिवका न्यास करके हृदय आदि अङ्गोकी पूजा करे। तदनन्तर मन्त्रज्ञ गुरु ध्वज और ध्वजाग्रभागमें संनिधीकरणके लिये फडन्त संहिता-मन्त्रोद्वारा प्रत्येक भागमें होम करे। किसी और प्रकारसे भी कहीं जो ध्वज-संस्कार किया गया है, वह भी इस प्रकार अस्त्र-याग करके ही करना चाहिये। ये सब बातें मनीषी पुरुषोंने करके दिखायी हैं॥ १३-१५ ॥

मन्दिरको नहलाकर, पुष्पहार और वस्त्र आदिसे विभूषित करके, जंधावेदीके उपरी भागमें त्रितत्त्व आदिका न्यास, होम आदिका विधान एवं शिवका पूर्ववत् पूजन करके, उनके सर्वतत्वमय व्यापक स्वरूपका ध्यान करते हुए व्यापक-न्यास करे।

भगवान् शिवके चरणारविन्दमें अनन्त एवं कालरूद्रकी भावना करके पीठमें कूष्माण्ड, हाटक, पाताल तथा नरकोंकी भावना करे।

तदनन्तर भुवनों, लोकपालों तथा शतरुद्रादिसे घिरे हुए इस ब्रह्माण्डका ध्यान करके जङ्घावेदीमें स्थापित करें ॥ १६-१९ ॥

पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाशरूप पञ्चाष्टक, सर्वावरणसंज्ञक, बुद्धियोन्यष्टक, योगाष्टक, प्रलयपर्यन्त रहनेवाला त्रिगुण, पटस्थ पुरुष और वाम सिंह-इन सबका भी जङ्गावेदीमें चिन्तन करे; किन्तु मञ्जरी वेदिकामें विद्यादि चार तत्त्वोंकी भावना करे। कण्ठमें माया और रुद्रका, अमलसारमें विद्याओंका तथा कलशमें ईश्वर-बिन्दु और विधेश्वरका चिन्तन करे। चन्द्रार्धस्वरूप शूलमें जटाजूटकी भावना करे। उसी शूलमें त्रिविध शक्तियोंकी तथा दण्ड़में नाभिकी भावना करके ध्वजमें कुण्डलिनी शक्तिका चिन्तन करे। इस प्रकार मन्दिरके अवयवोंमें विभिन्न तत्वोंकीं भावना करनी चाहिये ॥ २०-२४ ॥

जगतीसे धाम (प्रासाद या मन्दिर)-का तथा पिण्डिकासे लिङ्गका संधान करके शेष सारा विधान यहाँ भी पूर्ववत् करना चाहियें।

इसके बाद गुरु वाद्योंके मङ्गलमय घोष तथा वेदध्वनिके साथ मूर्तिधरोंसहित शिवरूप मूलवाले ध्वजदण्डको उठाकर जहाँ मन्त्रोच्चारणपूर्वक शक्तिमय कमलका न्यास हुआ है तथा रत्नादि–पञ्चकका भी न्यास हो गया हैं, वहाँ आधार-भूमिमें उसे स्थापित कर दे ॥ २५-२६ ॥

जब प्रासाद-शिख्नरपर ध्वज लग जाय, तब यजमान अपने मित्रों और बन्धुओं आदिके साथ मन्दिरकी परिक्रमा करके अभीष्ट फलका भागीं होता है। गुरुको चाहिये कि वह अस्त्र आदिके साथ पशुपतका चिरकालतक चिन्तन करते हुय उन सबके शस्त्रयुक्त अधिपतियोंको मन्दिरकी रक्षाके लिये निवेदन करे। न्यूनता आदि दोषकी शान्तिके लिये होम, दान और दिगबलि करके यजमान गुरुकों दक्षिणा दे। ऐसा करके वह दिव्य धाम में जाता है ॥ २७-२९ ॥

प्रतिमा, लिङ्ग और वेदीके जितने परमाणु होते है, उतने सहस्त्र युगोंतक मन्दिर निर्माण एवं प्रतिष्ठा करनेवाला यजमान दिव्यलोक में उत्तम भोग भोगता हैं। यही उसका प्रातव्य फल है ॥ ३० ॥

अध्याय - १०३ शिवलिङ्ग आदिके जीर्णोद्धारकी विधि

भगवान् शंकर कहते हैंस्कन्द! जीर्ण आदि लिंगोंके विधिवत उद्धारका प्रकार बता रहा हूँ।

जिसका चिन्ह मिट गया हो, जो टूट-फूट गया हो, मैल आदिसे स्थूल हो गया हो, वज्रसे आहत हुआ हो, सम्मुटित (बंद) हो, फट गया हो, जिसका अङ्ग–भङ्ग हो गया हो तथा जो इसी तरहके अन्य विकारोंसे ग्रस्त हो-ऐसे दूषित लिङ्गोकी पिण्डी तथा वृषभका तत्काल त्याग कर देना चाहिये। १-१ ॥

जो शिवलिङ्ग किसीके द्वारा चालित हो या स्वयं चलित हो, अत्यन्त नीचा हो गया हो, विषम स्थानमें स्थित हो; जहाँ दिङ्मोह होता हो, जो किसीके द्वारा गिरा दिया गया हों अथवा जों मध्यस्थ होकर भी गिर गया हो-ऐसे लिङ्गकी पुनः ठीकसे स्थापना कर देनी चाहिये। परंतु यदि वह व्रणरहित हो, तभी ऐसा किया जा सकता है।

यदि वह नदीके जलप्रवाह द्वारा वहाँसे अन्यत्र हटा दिया जाता हो तो उस स्थानसे अन्यत्र भी शास्त्रीय विधिके अनुसार उसकी स्थापना की जा सकती है।

जो शिवलिङ्ग अच्छी तरह स्थित हो, सुदृढ़ हो, उसे विचलित करना या चलाना नहीं चाहिये॥ ३-५ ॥

जो अस्थिर या अदृढ हो, उस शिवलिङ्गको यदि चालित करे तो उसकी शान्तिके लिये एक सहस्र आहुतियाँ दे तथा सौ आहुतियाँ देकर पुन: उसकी स्थापना करे।

जीर्णता आदि दोषोंसे युक्त शिवलिङ्ग भी यदि नित्यपूजा—अर्चा आदिसे युक्त हो तो उसे सुस्थित ही रहने दे; चालित न करे।

जीर्णोद्धारके लिये दक्षिणदिशा में एक मण्डप बनावे । ईशानकोणमें पश्चिम द्वारका एक फाटक लगा दे। द्वारपूजा आदि करके, वेदीपर शिवजीकी पूजा करे। इसके बाद मन्त्रोंका पूजन और तर्पण करके वास्तुदेवताकी पूर्ववत पूजा करे । तदनन्तर बाहर जा, दिशाओंमें बलि दे, स्वयं आचमन करनेके पश्चात् गुरु ब्राह्मणोंको भोजन करावे तत्पश्चात भगवान शंकरको इस प्रकार विज्ञप्ति दे -६-८   शम्भो ! यह लिङ्ग दोषयुक्त हो गया है। इसके उद्धार करनेसे शान्ति होगी-ऐसा आपका वचन है। अत: विधिपूर्वक इसका अनुष्ठान होने जा रहा है।

शिव! इसके लिये आप मेंरे भीतर | स्थित होइये और अधिष्ठाता बनकर इस कार्यका सम्पादन कीजिये।

‘ देवेश्वर शिवकी इस प्रकार विज्ञप्ति देकर मधु और घृतमिश्रित खीर एवं दूर्वाद्वारा मूल-मन्त्रसे एक सौ आठ आहुर्तियाँ देकर शान्ति-होमका कार्य सम्पन्न करे।

तदनन्तर लिङ्गकी स्नान कराकर वेदीपर इसकी पूजा करे। पूजनकालमें ‘ॐ व्यापकेश्वराय शिवाय नम:।’ इस मन्त्रका उच्चारण करे।अङ्गपूजा और अङ्गन्यासके मन्त्र इस प्रकार हैं-‘ॐ व्यापकेश्वगाय हृदयाय नमः । ॐ व्यापकेश्वराय शिरमें स्वाहा। ॐ व्यापकेश्वराय शिखायै वषट्। ॐ व्यापकेश्वराय कवचाय हुम्। ॐ व्यापकेश्वराय नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ व्यापकेश्वराय अस्त्राय फट्।”॥ ९-१३ ॥

तत्पश्चात् उस शिवलिङ्गके आश्रित रहनेवाले भूतको अस्त्र-मन्त्रके उच्चारणपूर्वक सुनावे-‘यदि कोई भूत-प्राणी यहाँ इस लिङ्गका आश्रय लेकर रहता है, वह भगवान् शिवकी आज्ञासे इस लिङ्गको त्यागकर, जहाँ इच्छा हो, वहाँ चला जाय। अब यहाँ विद्या तथा विधेश्वरोंके साथ साक्षात् भगवान् शम्भु निवास करेंगे।’

इसके बाद पाशुपतमन्नसे प्रत्येक भागके लिये सहस्त्र आहुतियाँ देकर शान्तिजलसे प्रोक्षण करे। फिर कुशोंद्वारा स्पर्श करके उत्त मन्त्रको जपे ॥ १४-१६ ॥

तदनन्तरं, विलोम-क्रमसे अर्घ्यं देकर लिङ्ग और पिण्डिकामें स्थित तत्वों, तत्वाधिपतियों और अष्ट मूर्तीश्वरोंका गुरु स्वर्णपाशसे विसर्जन करके वृषभके कंधेपर स्थित रज्जुद्वारा उसे बाँधकर ले जाय तथा जनसमुदायके साथ शिव-नामका कीर्तन करते हुए, उस वृषभ (नन्दिकेश्वर)-को जलमें डाल दे। फिर मन्त्रज्ञ आचार्य पुष्टिके लिये सौ आहुतियाँ दे। दिक्पालोंकी तृति तथा वास्तुशुद्धिके लिये भी सौ-सौ आहुतियोंका होम करे। तत्पश्चात् महापाशुपत-मन्नसे उस मन्दिरमें रक्षाकी व्यवस्था करके, गुरु वहाँ विधिपूर्वक दुसरे लिंगक स्थापना करे। असुरों, मुनियों, देवताओं तथा तत्ववेत्ताओंद्वारा स्थापित लिङ्ग जीर्ण या भग्न हो गया हो तो भी विधिके द्वारा भी उसे चालित न करे ।।१७-२१।।

जीर्ण-मन्दिरके उद्धार में भी यहीं विधि काम में लानी चाहिये। मन्त्रगणोंका खङ्गमें न्यास करके दूसरा मन्दिर तैयार करावे। यदि पहलेकी अपेक्षा मन्दिरको संकुचित या छोटा कर दिया जाय तो कर्ताकी मृत्यु होती है और विस्तार किया जाय तो धनका नाश होता है। अत: प्राचीन मन्दिरके द्रव्यको लेकर या और कोई श्रेष्ठ द्रव्य लेकर पहलेके मन्दिरके बराबर ही उस स्थानपर नूतन मन्दिरका निर्माण करना चाहियें ॥ २२-२३ ॥

अध्याय – १०४ प्रासादके लक्षण

भगवान शंकर कहते हैंध्वजामें मयूरका चिन्ह धारण करनेवाले स्कन्द! अब मैं प्रासाद-सामान्यका लक्षण कहता हूँ।

चौकोर क्षेत्रके चार भाग करके एक भागमें भिक्तियों (दीवारों)-का विस्तार हो। बीच के भाग गर्भके रूप में रहें और एक भागमें पिण्डिका हो। पाँच भागवाले क्षेत्रके भीतरी भाग में तो पिण्डिका हो, एक भागका विस्तार छिद्र (शून्य या खाली जगह)-के रूपमें हों तथा एक भाग का विस्तार दीवारोंके उपयोग में लाया जाय। मध्यम गर्भमें दो भाग और ज्येष्ठ गर्भमें भी दो ही भाग रहें। किंतु कनिष्ठ गर्भ तीन भागोंसे सम्पन्न होता है: शेष आठवाँ भाग दीवारोंके उपयोगमें लाया जाय, ऐसा विधान कहीं-कहीं उपलब्ध होता है॥ १-३ ॥

 

छ: भागोंद्वारा विभक्त क्षेत्रमें एक भाग का विस्तार दीवारके उपयोग में आता है, एक भागका विस्तार गर्भ है और दो भागोंमें पिण्ड़िका स्थापित की जाती है।

कहीं-कहीं दीवारोंकीं ऊँचाई उसकी चौड़ाईकी अपेक्षा दुगुनी, सवा दो गुनी, ढाई गुनी अथवा तीन गुनी भी होनेका विधान मिलता हैं।

कहीं-कहीं प्रासाद (मन्दिर)- के चारों और दीवारके आधे या पौने विस्तारकी जगत होती है और चौथाई विस्तारकी नेमि।

बीच में एक तृतीयांशकी परिधि होती है। वहाँ रथ बनवावे और उनमें चामुण्ड-भैरव तथा नाटयेशकी स्थापना करे। प्रासादके आधे विस्तार में चारों ओर बाहरी भागमें देवताओंके लिये आठ या चार परिक्रमाएँ बनवावे। प्रासाद आदिमें इनका निर्माण वैकल्पिक है। चाहें बनवावे, चाहे न बनवावे॥४-८ ॥

आदित्योंकी स्थापना पूर्व दिशामें और स्कन्द एवं अग्निकी प्रतिष्ठा वायव्यदिशा में करनी चाहिये। इसी प्रकार यम आदि देवताओंकी भी स्थिति उनकी अपनी-अपनीं दिशा में मानीं गयीं है।

शिखरके चार भाग करके नीचेके दो भागोंकी ‘शुकनासिका’ (गुंबज) संज्ञा है। तीसरे भागमें वेंदीकी प्रतिष्ठा है। इससे आगेका जों भाग हैं, वहीं ‘अमलसार” नामसे प्रसिद्ध ‘कण्ठ’ है। वैराज, पुष्पक, कैलाश, मणिक और त्रिविष्टप – ये पाँच ही प्रासाद मेरुके शिखर पर विराजमान हैं। (अत: प्रासादके ये ही पाँच मुख्य भेद माने गये हैं।) ॥ ९-११३ ॥

इनमें पहला वैराज नामवाला प्रासाद चतुरस्त्र (चौकोर) होता है। दूसरा (पुष्पक) चतुरस्रायत है। तीसरा (कैलास) वृताकार है। चौथा (मणिक) वृत्तायत है तथा पाँचवाँ (त्रिविष्टप) अष्टकोणाकार हैं। इनमें से प्रत्येकके नौ-नौ भेद होनेके कारण कुल मिलाकर पैंतालीस भेद हैं।

पहला प्रासाद मेरु, दूसरा मन्दर, तीसरा विमान, चौथा भद्र, पाँचवाँ सर्वतोभद्र, छठा रूचक, सातवाँ नन्दक (अथवा नन्दन), आठवाँ वर्धमान नन्दी अर्थात् नन्दिवर्द्धन और नवाँ श्रीवत्स-ये नौ प्रासाद ‘वैराज के कुलमें प्रकट हुए हैं। १२-१५ ॥

वलभी, गृहराज, शालागृह, मन्दिर, विशालचमस, ब्रह्म-मन्दिर्, भुवन, प्रभव और शिविकावेश्म-ये नौ प्रासाद ‘पुष्पक’से प्रकट हुए हैं।

वलय, दुदुभि, पद्म, महापद्म, वर्धनी, उष्णीष, शंख, कलश तथा खवृक्ष-ये नौ वृत्ताकार प्रासाद ‘कैलास’ कुलमें उत्पन्न हुए हैं।

गज, वृषभ, हंस, गरुत्मान, ऋक्षनायक, भूषण, भूधर, श्रीजय तथा पृथ्वीधर-ये नौ वृतायत प्रासाद ‘मणिक’ नामक मुख्य प्रासादसे प्रकट हुए हैं।

वज़, चक्र, स्वस्तिक, व्रजस्वस्तिक (अथवा वज्रहस्तक), चित्र, स्वस्तिक-खङ्ग, गदा, श्रीकण्ठ और विजय-में नौ प्रासाद ‘त्रिविष्ट्रप से प्रकट हुए हैं।॥ १६-२१ ॥

ये नगरोंकी भी संज्ञाएँ हैं। ये ही लाट आदिकी भी संज्ञाएँ हैं।

शिखरकी जो ग्रीवा (या कण्ठ) है, उसके आधे भागके बराबर ऊँचा चूल (चोटी) हों। उसकी मोटाई कण्ठके तृतीयाँशके बराबर हों।

वेदीके दस भाग करके पाँच भागोंद्वारा स्कन्धका विस्तार करना चाहियें, तीन भागोंद्वारा कण्ठ और चार भागोंद्वारा उसका अण्ड (या प्रचण्ड) बनाना चाहिये. ॥२२-२३ ॥

पूर्वादि दिशाओंमें ही द्वार रखने चाहिये, कोणोंमें कदापि नहीं। पिण्ड़िका-विस्तार कोण तक जाना चाहिये, मध्यम भागातक उसकी संमति हो-ऐसा विधान है।

कहीं-कहीं द्वारोंकी ऊँचाई गर्भके चौथे या पाँचवें भागसे दूनी रखनी चाहिये। अथवा इस विषयकों अन्य प्रकारसे भी बताया जाता है।

एक सौ साठ अङ्गलकी ऊँचाईसे लेकर दस-दस घटाते हुए जो चार द्वार बनते हैं, वे उत्तम माने गये हैं (जैसे १६०, १५०, १४० और १३० ऊँचे द्वार उत्तम कोटिमें गिने जाते हैं)। एक सौ बीस, एक सौ दस और सौ अंगुल ऊँचे द्वार मध्यम श्रेणीके अन्तर्गत हैं तथा इससे कम ९०, ८० और ७० अंगुल ऊँचे द्वार कनिष्ठ कोटीके बताये गए है । द्वारकी जितनी ऊँचाई हो, उससे आधी उसकी चौड़ाई होनी चाहिये। ऊँचाई उक्त मापसे तीन, चार, आठ या दस अंगुल भी हो तो शुभ है। ऊँचाईसे एक चौथाई विस्तारहोना चाहिये, दरवाजेकी शाखाओं (बाजुओं)-का अथवा उन सबकी ही चौड़ाई द्वारकी चौड़ाईसे आधी होनी चाहिये-ऐसा बताया गया है। तीन, पाँच, सात तथा नौ शाखाओं द्वारा निर्मित द्वार अभीष्ट फलको देनेवाला हैं ॥ २४-२९ ॥

नीचेकी जो शाखा है उसके एक चौथाई भागमें दो द्वारपालोंकों स्थापना करे। शेष शाखाओंकों स्त्री-पुरुषोंके जोड़ेकी आकृतियोंसे विभूषित करे। द्वारके ठीक सामने खंभा पड़े तो ‘स्तम्भवेध’ नामक दोष होता है। इससे गृहस्वामीको दासता प्राप्त होती है। वृक्षसे वेध हो तो ऐश्वर्यका नाश होता है, कूपसे वेध हो तो भयकी प्राप्ति होती है और क्षेत्रसे वेध होनेपर धनकी हानि होती है ।

प्रसाद, गृह एवं शाला आदिके मार्गोंसे द्वारोंके विद्ध होनेपर बन्धन प्राप्त होता है, सभासे वेध प्राप्त होनेपर दरिद्रता होती है तथा वर्णसे वेध हो तो निराकरण (तिरस्कार) प्राप्त होता है।

उलूखलसे वेध हो तो दारिद्रय, शिलासे वेध हो तो शत्रुता और छायासे वेध हो तो निर्धनता प्रास होती है। इन सबका छेदन अथवा उत्पाटन हो जानेसे वेध-दोष नहीं लगता है । इनके बीचमें चहारदीवारी उठा दी जाय तो भी वेध-दोष दूर हो जाता है। अथवा सीमासे दुगुनी भूमि छोड़कर ये वस्तुएँ हों तो भी वेध-दोष नहीं होता है।

अध्याय - १०५ नगर, गृह आदिकी वास्तु-प्रतिष्ठा-विधि

भगवान शंकर कहते हैंस्कन्द! नगर, ग्राम तथा दुर्ग आदिमें गृहों और प्रासादोंकी वृद्धि हो, इसकी सिद्धिके लिये इक्यासी पदोंका वास्तुमण्डल बनाकर उसमें वास्तु-देवताकी पूजा अवश्य करनी चाहिये।

(दस रेखा पश्चिमसे पूर्वकी ओर और दस दक्षिणसे उत्तरकी ओर खींचनेपर इक्यासी पद तैयार होते हैं।)

पूर्वाभिमुखी दस रेखाएँ दस नाडियोंकी प्रतीक’भूता हैं। उन नाडियोंके नाम इस प्रकार बताये गये हैं-शान्ता, यशोवती, कान्ता, विशाला, प्राणवाहिनी, सती, वसुमती, नन्दा, सुभद्रा और मनोरमा।

उत्तराभिमुख प्रवाहित होनेवाली दस नाड़ियाँ और हैं, जो उक्त नौ पदोंको इक्यासी पदोंमें विभाजित करती हैं; उनके नाम ये हैं-हरिणी, सुप्रभा, लक्ष्मी, विभूति, विमला, प्रिया, जया, (विजया) ज्वाला और विशोका।

सूत्रपात करनेसे ये रेखामयी नाडियाँ अभिव्यक्त होकर चिन्तनका विषय बनती हैं। ॥ १-४ ॥

ईश आदि आठ-आठ देवता ‘अष्टक’ हैं, जिनका चारों दिशाओं में पूजन करना चाहिये।

ईश, घन (पर्जन्य}, जय (जयन्त), शक्र (इन्द्र), अर्कं (आदित्य या सूर्य), सत्य, भृश और व्योम (आकाश)-इन आठ देवताओंका वास्तुमण्डलमें पूर्व दिशाके पदोंमें पूजन करना चाहिये।

हव्यवाह (अग्नि), पूषा, वितथ, सौम (सोमपुत्र गृहक्षता), कृतान्त (यम), गन्धर्व, भृंग (भूङ्गराज) और मृग-इन आठ देवताओंकी दक्षिण दिशाके पदोंमें अर्चना करनी चाहिये।

पितर, द्वारपाल (या दौवारिक), सुग्रीव, पुष्पदन्त, वरुण, दैत्य (असुर), शेष (या शोष) और यक्ष्मा (पापयक्ष्मा)-इन आठोंका सदा पश्चिम दिशाके पदोंमें पूजन करनेकी विधि है।

रोग, अहि (नाग), मुख्य, भल्लाट, सोम, शैल (ऋषि), अदिति और दिति – इन आठोंकी उत्तर दिशाके पदोंमें पूजा होनी चाहिये।

वास्तुमण्डलके मध्यवर्ती नौ पदोंमें ब्रह्माजी पूजित होते हैं और शेष अड़तालीस पदोंमेंसे आधेमें अर्थात् चौबीस पदोंमें वे देवता पूजनीय हैं, जो अकेले छ: पदोंपर अधिकार रखते हैं।

[ब्रह्माजीके चारों ओर एक-एक करके चार देवता षट्पदगामी हैं-जैसे पूर्वमें मरीचि (या अर्यमा), दक्षिणमें विवस्वान्, पश्चिममें मित्र देवता तथा उत्तरमें पृथ्वीधरI]॥ ५-८ ॥

ब्रह्माजी तथा ईशके मध्यवर्ती कोष्ठकोंमें जो दो पद है, उनमें आप की तथा निचेवाले दो पदोंमें ‘आपवत्स” की पूजा करे। इसके बाद छः पदोंमें मरीचिकी अर्चना करे। मरीचि और अग्निके बीचमें जो कोणवर्ती दो पद हैं, उनमें सविताकी स्थिति है और उनसे निम्नभाग के दो पदोंमें सावित्र तेज या सावित्रीकी। उसके नीचे छ: पदोंमें विवस्वान् विद्यमान हैं। पितरों और ब्रह्माजीके बीचके दो पदोंमें विष्णु-इन्दु स्थित हैं और नीचेके दो पदोंमें इन्द्र-जय विद्यमान हैं, इनकी पूजा करे।

वरुण तथा ब्रह्माके मध्यवर्ती छः पदोंमें मित्र-देवताका यजन करे । रोग तथा ब्रह्माके बीचवाले दो पदोंमें रुद्र-रुद्रदासकी पूजा करे और नीचेके दो पदोंमें यक्ष्मकी। फिर उतरके छ: पदोंमें धराधर (पृथ्वीधर)-का यजन करे। फिर मण्डलके बाहर ईशानादि कोणोंके क्रमसे चरकी, स्कन्द, बिदारीविकट पूतना, जम्भ, पापा (पापराक्षसी) तथा पिलिपिच्छ (या पिलिपित्स)-इन बालग्रहोंकी पूजा करे। यह इक्यासी पदवाले वास्तुचक्रका वर्णन हुआ। ॥ ९-१३ ॥

एक शतपद-मण्डप भी होता है। उसमें भी पूर्ववत् देवताओंकी पूजाका विधान है। शतपदचक्रके मध्यवर्ती सोलह पदोंमें ब्रह्माजीकी पूजा करनी चाहिये। ब्रह्माजीके पूर्व आदि चार दिशाओंमें स्थित मरीचि, विवस्वान्, मित्र तथा पृथ्वीधरकी दस-दस पदोंमें पूजाका विधान है। अन्य जो ईशान आदि कोणोंमें स्थित देवता हैं, जैसे दैत्योंकी माता दिति और ईश, अग्नि तथा मृग (पूषा) और पितर तथा पापयक्ष्मा और अनिल (रोग)-वे सब-के-सब डेढ़-डेढ़ पदमें अवस्थित है ॥ १४-१६ ॥

सकन्द! अब में यज्ञ आदिके लिये जों मण्डप होता है, उसका संक्षेपसे तथा क्रमश: वर्णन करूंगा।

तीस हाथ लंबा और अट्ठाईस हाथ चौड़ा मण्डप शिवका आश्रय है। लंबाई और चौड़ाईदोनोंमें ग्यारह-गयारह हाथ घटा देनेपर उन्नीस हाथ लंबा और सत्रह हाथ चौड़ा मण्डप शिवसंज्ञक होता है। बाईस हाथ लम्बा और उन्नीस हाथ चौड़ा अथवा अठारह हाथ लम्बा तथा पन्द्रह हाय चौड़ा मण्डप हो तो वह सावित्र-संज्ञावाला कहा गया है। अन्य गृहोंका विस्तार आंशिक होता है। दीवारकी जो मोटी उपजंधा (कुर्सी) होती हैं, उसकी ऊँचाईसे दीवारकी ऊँचाई तिगुनी होनी चाहिये। दीवारके लिये जो सूतसे मान निश्चित किया गया हो, उसके बराबर ही उसके सामने भूमि (सहन) होनी चाहिये। वह वीथीके भेदसे अनेक भेदवाली होती है।॥ १७-२० ॥

‘भद्र’ नामक प्रासादमें वीथियोंके समान ही “द्वारवीथीं” होती है; केवल वीथीका अग्रभाग द्वारवीथीमें नहीं होता हैं।

‘श्रीजय’ नामक प्रासादमें जो द्वारवीथी होती है, उसमें वीथीका पृष्ठभाग नहीं होता है। वीथीके पार्श्र्वभागोंकों द्वारवीथी में कम कर दिया जाय, तो उससे उपलक्षित प्रासादकीं भी ‘भद्र” संज्ञा हीं होती है। गर्भके विस्तारकी ही भाँति वीथीका भी विस्तार होता है। कहीं-कहीं उसके आधे या चौथाई भाग के बराबर भी होता हैं। वीथीके आधे मानसे उपवीथी आदिका निर्माण करना चाहिये। वह एक, दो या तीन पुरोंसे युक्त होता है।

अब अन्य साधारण गृहोंके विषयमें बताया जाता है; गृहका वैसा स्वरूप हो तो वह सबकी समस्त कामनाओंकों पूर्ण करनेवाला होता है। वह क्रमश: एक, दो, तीन, चार और आठ शालाओंसे युक्त होता है। एक शालावाले गृहकी शाला दक्षिणभागमें बनती हैं और उसका दरवाजा उत्तरकी और होता है। यदि दो शालाएँ बनानी हों तो पश्चिम और पूर्वमें बनवाये और उनका द्वार आमने-सामने पूर्व-पश्चिमकी ओर रखे। चार शालाओंवाला गृह चार द्वारों और अलिन्दोंसे युक होनेके कारण सर्वतोमुख होता है। वह गृहस्वामीके लिये कल्याणकारी है। पश्चिम दिशाकी ओर दो शालाएँ हों तो उस द्विशाल-गृहको ‘यमसूर्यक’ कहा गया है। पूर्व तथा उत्तरकी ओर शालाएँ हों तो उस गृहकी ‘दण्ड’ संज्ञा है तथा पूर्व-दक्षिणकी ओर दो शालाएँ हों तो वह गृह ‘वात’ संज्ञक होता है। जिस तीन शालावाले गृहमें पूर्व दिशाकी ओर शाला न हो, उसे ‘सुक्षेत्र’ कहा गया है, वह बुद्धिदायक होता है” ॥ २१-२६ ॥

यदि दक्षिण दिशा में कोई शाला न हो (और अन्य दिशाओंमें हो) तो उस घर की “विशाल’ संज्ञा है। वह कुलक्षयकारी तथा अत्यन्त भयदायक होता है। जिसमें पश्चिम दिशा में ही शाला न बनीं हो, उस विशाल गृहको ‘पक्षध्न’ कहते हैं। वह पुत्र-हानिकारक तथा बहुत-से शत्रुओंका उत्पादक होता है।

अब मैं पूर्वादि दिशाओंके क्रमसे ‘ध्वज’ आदि आठ गृहोंका वर्णन करता हूँ। (ध्वज, धूम, सिंह, श्र्वान, वृषभ, ख़र (गधा), हाथी और काक-ये ही आठोंके नाम हैं।)

पूर्वदिशा में स्नान और अनुग्रह (लोगोंसे कृपापूर्वक मिलने)-के लिये घर बनावे । अग्निकोण में उसका एसोईघर होना चाहिये। दक्षिण दिशा में रस-क्रिया तथा शय्या (शयन)-के लिये घर बनाना चाहिये। नैऋत्यकोणमें शस्त्रागार रहें। पश्चिम दिशा में धनरत्न आदिके लिये को कोषागार रखें। वायव्यकोणमें सम्यक् अनागार स्थापित करे। उत्तर दिशा में धन और पशुओंको रखे तथा ईशानकोणमें दीक्षाके लिये उत्तम भवन बनवावे।

गृहस्वामीके हाथसे नापे हुए गृहका जो पिण्ड है, उसकी लंबाई-चौड़ाईके हस्तमानको तिगुना करके उसमें आठसे भाग दे। उस भागका जो शेष हो, तदनुसार यह ध्वज आदि आय स्थित होता है। उसीसे ध्वजादि-काकान्त आयका ज्ञान होता हैं। दो, तीन, चार, छ:, सात और आठ शेष बचे तों उसके अनुसार शुभाशुभ फल हो। यदि मध्य (पाँचवें) और अन्तिम (काक)-में गृहकी स्थिति हुई तो वह गृह सर्वनाशकारी होता है। इसलिये आठ भागोंको छोड़कर नवम भागमें बना हुआ गृह शुभकारक होता है। उस नवम भागमें ही मण्डप उतम माना गया है। उसकी लंबाई-चौड़ाई बराबर रहे अथवा चौड़ाईसे लम्बाई दुगुनी रहे ॥ २७-३३ ॥

पूर्वसे पश्चिमकी ओर तथा उत्तरसे दक्षिणकी ओर बाजार में ही गृहपङ्कि देखी जाती है।

एकएक भवनके लिये प्रत्येक दिशा में आठ-आठ द्वार हों सकते हैं। इन आठों द्वारोंके क्रमश: फल भी पृथक्-पृथकू कहे जाते हैं। भय, नारीकी चपलता, जय, वृद्धि, प्रताप, धर्म, कलह तथा निर्धनता-ये पूर्ववर्ती आठ द्वारोंके अवश्यम्भावी फल हैं। दाह, दुःख, सुहत्राश, धननाश, मृत्यु, धन, शिल्पज्ञान  तथा पुत्रकी प्राप्ति-ये दक्षिण दिशा के आठ द्वारोंके फल हैं। आयु, संन्यास, सस्य, धन, शान्ति, अर्थनाश, शोषण, भोग एवं संतानकी प्राप्ति- ये पश्चिम द्वारके फल हैं। रोग, मद, आर्ति, मुख्यता, अर्थ, आयु, कृशता और मान-ये क्रमश: उत्तर दिशाके द्वारके फल है ॥३४-३८ ॥

अध्याय -१०६ नगर आदिके वास्तुका वर्णन

भगवान् महेश्वर कहते हैंकार्तिकेय! अब मैं राज्यादिकी अभिवृद्धिके लिये नगर-वास्तुका वर्णन करता हूँ। नगर-निर्माणके लिये एक योजन या आधी योजन भूमि ग्रहण करे। वास्तु-नगरका पूजन करके उसको प्राकारसे संयुक्त करे।

ईशादि तीस पदोंमें सूर्यके सम्मुख पूर्वद्वार, गन्धर्वके समीप दक्षिणद्वार, वरुणके निकट पश्चिमद्वार और सोमके समीप उत्तरद्वार बनाना चाहिये।

नगरमें चौड़े-चौड़े बाजार बनाने चाहिये। नगरद्वार छ: हाथ चौड़ा होना चाहिये, जिससे हाथी आदि  सुखपूर्वक आ-जा सकें।

नगर छिन्नकर्ण, भग्न तथा अर्धचन्द्राकार नहीं होना चाहियें। वज्रसूचीमुख नगर भी हितकर नहीं है।

एक, दो या तीन द्वारोंसे युक्त धनुषाकार वज्रनागाभ नगरका निर्माण शान्तिप्रद हैं ॥ ३-५ ॥

नगरके आग्नेयकोणमें स्वर्णकारोंको बसावे, दक्षिण दिशामें नृत्योपजीविनी वारांगनाओंके भवन  हों। नैऋत्यकोणमें नट, कुम्भकार तथा केवट आदिके आवास-स्थान होने चाहियें। पश्चिममें रथकार, आयुधकार, और खडग निर्माताओंका निवास हो। नगर के वायव्यकोणमें मद्य-विक्रेता, कर्मकार तथा भृत्योंका निवेश करे। उत्तर दिशा में ब्राह्मण, यति, सिद्ध और पुण्यात्मा पुरुषोंको बसावे। ईशानकोणमें फलादिका विक्रय करनेवालें एवं वणिग-जन निवास करें। पूर्व दिशा में सेनाध्यक्ष रहें। आग्नेयकोणमें विविध सैन्य, दक्षिणमें स्त्रियोंकों ललित कलाकी शिक्षा देनेवाले आचार्यों तथा नैऋत्यकोणमें धनुर्धर सैनिकोंको रखे। पश्चिममें महामात्य, कोषपाल एवं कारीगरोंको, उत्तरमें दंडाधिकारियों, नायक तथा द्विज्जोंको, पूर्वमें क्षत्रियोंको, दक्षिणमें वैश्योंको, पश्छिममें शूद्रोंको, विभिन्न दिशाओंमें वैद्योंकी और अश्वों तथा सेनाकों चारों ओर रखे ॥ ६-१२ ॥

राजा पूर्वमें गुप्तचरों, दक्षिणमें शमशान, पश्छिममें गोधन और उत्तरमें कृषकोंका निवेश करे ।   म्लेंच्छोंको दिक्कोणोंमें स्थान दे अथवा ग्रामोंमें स्थापित करे ।

पूर्व द्वारपर लक्ष्मी एवं कुबेरकी स्थापना करे। जो उन दोनोंका दर्शन करते है, उन्हें लक्ष्मी (सम्पति)-की प्राप्ति होती है।

पश्चिममें निर्मित देवमन्दिर पूर्वाभिमुख, पूर्व दिशा में स्थित पश्चिमाभिमुख तथा दक्षिण दिशाके मन्दिरके द्वार  उत्तराभिमुख होने चाहिये।

नगरकी रक्षाके लिये इन्द्र और विष्णु आदि देवताओंके मन्दिर बनवावे।

देवशून्य नगर, ग्राम, दुर्ग तथा गृह आदिका पिशाच उपभोग करते हैं और वह रोगसमूहसे परिभूत हो जाता है। उपर्युक्त विधिसे निर्मित नगर |आदि सदा जयप्रद और भोग-मोक्ष प्रदान करनेवाले होते हैं॥ १३-१७ ॥

वास्तु-भूमिकी पूर्व दिशामें भृङ्गार-कक्ष, अग्निकोणमें पाकगृह (रसोईघर), दक्षिणमें शयनगृह, नैऋत्यकोणमें शस्त्रागार, पश्चिममें भोजनगृह, वायव्यकोणमें धान्य-संग्रह, उत्तर दिशामें धनागार तथा ईशानकोणमें देवगृह बनवाना चाहिये। नगरमें एकशाल, द्विशाल, त्रिशाल या चतु:शाल- गृहका निर्माण होना चाहिये। चतु:शाल-गृहके शाला और अलिन्द (प्राङ्गण)-के भेदसे दो सौ भेद होते हैं। उनमें भी चतु:शाल-गृहके पचपन, त्रिशाल-गृहके चार तथा द्विशालके पाँच भेद होते हैं । एकशाल-गृहके चार भेद हैं ॥ १८-२१॥

अब मैं अलिन्दयुक्त गृहके विषयमें बतलाता हूँ, सुनिये।

गृह-वास्तु तथा नगर-वास्तुभें अट्ठाईस अलिन्द होते हैं। चार तथा सात अलिन्दोंसे पचपन, छ: अलिन्दोंसे बीस तथा आठ अलिन्दोंसे भी बीस भेद होते हैं। इस प्रकार नगर आदिमें आठ अलिन्दोंसे युक्त वास्तु भी होता है।॥ २२-२४ ॥

 

एक सौ छछा अभ्याय पूरा हुआ। १०६ ॥

अध्याय-१०७ भुवनकोष (पृथ्वी-द्वीप आदि)-का तथा स्वायम्भुव सर्गका वर्णन

अग्निदेव कहते हैं -वसिष्ठ। अब मैं भुवनकोष तथा पृथ्वी एवं द्वीप आदिके लक्षणोंका वर्णन करुँगा। आग्नीध्र, अग्निबाहु, वपुष्मान् द्युतिमान् मेधा, मेधातिथि, भव्य, सवन और क्षय-ये प्रियव्रतके पुत्र थे। उनका दसवाँ यथार्थनामा पुत्र ज्योतिष्मान् था। प्रियव्रतके ये पुत्र विश्वमें विख्यात थे। पिताने उनको सात द्वीप प्रदान किये। आग्नीध्रको जम्बूद्वीप एवं मेधातिथिको प्लक्षद्वीप दिया। वपुष्मान्को शाल्मलिद्वीप, ज्योतिष्मान्को कुशद्वीप, द्युतिमान्को क्रोञ्चद्वीप तथा भव्यको शाकद्वीपमें अभिषिक्त किया। सवनको पुष्करद्वीप प्रदान किया। (शेष तीनको कोई स्वतन्त्र द्वीप नहीं मिला।) आग्नीध्रने अपने पुत्रोंमें लाखों योजन विशाल जम्बूद्वीपको इस प्रकार विभाजित कर दिया। नाभिको हिमवर्ष (आधुनिक भारतवर्ष) प्रदान किया, किम्पूरुषको हेमकूटवर्ष, हरिवर्षको नैषधवर्ष, इलावृतको मध्यभागमें मेरुपर्वतसे युक्त इलावृतवर्ष, रम्यकको नीलाचलके आश्रित रम्यकवर्ष, हिरण्यवानको श्वेतवर्ष एवं कुरुको उत्तरकुरुवर्ष दिया। उन्होंने भद्राश्वको भद्राश्ववर्ष तथा केतुमालको मेरुपर्वतके पश्चिममें स्थित केतुमालवर्षका शासन प्रदान किया।

महाराज प्रियव्रत अपने पुत्रोंको उपर्युक्त द्वीपोंमें अभिषिक्त करके वनमें चले गये। वे नरेश शालग्रामक्षेत्रमें तपस्या करके विष्णुलोककों प्राप्त हुए॥ १-८ ॥

मुनिश्रेष्ठ! किम्पुरुषादि जो आठ वर्ष हैं, उनमें सुखकी बहुलता है और बिना यत्नके स्वभावसे ही समस्त भोग-सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। उनमें जरा-मृत्यु आदिका कोई भय नहीं है और न धर्म-अधर्म अथवा उत्तम, मध्यम और अधम आदिका हीं भेद है। वहाँ सब समान हैं। वहाँ कभी युग-परिवर्तन भी नहीं होता।

हिमवर्षके शासक नाभिके मेरु देवीसे ऋषभदेव पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए। ऋषभके पुत्र भरत हुए। ऋषभदेवने भरतपर राज्यलक्ष्मीका भार छोड़कर शालग्रामक्षेत्रमें श्रीहरिकी शरण ग्रहण की।

भरतके नामसे ‘भारतवर्ष” प्रसिद्ध है। भरतसे सुमति हुए। भरतने सुमतिको राज्यलक्ष्मी देकर शालग्रामक्षेत्रमें श्रीहरिकी शरण ली। उन योगिराजने योगाभ्यास में तत्पर होकर प्राणोंका परित्याग किया। इनका वह चरित्र तुमसे मैं फिर कहूँगा ॥९-१२॥

तदनन्तर सुमतिके वीर्यसे इन्द्रद्युम्नका जन्म हुआ। उससे परमेष्ठी और परमेष्ठीका पुत्र प्रतीहार हुआ। प्रतीहारके प्रतिहर्ता, प्रतिहर्ताके भव, भवके उदगीथ, उद्गीथके प्रस्तार तथा प्रस्तारके विभु नामक पुत्र हुआ। विभुका पृथु, पृथुका नक्त एवं नक्तका पुत्र गय हुआ। गय,के नर नामक पुत्र और नरके विराट् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। विराट्का पुत्र महावीर्य था। उससे धीमान्का जन्म हुआ तथा धीमान्का पुत्र महान्त और उसका पुत्र मनस्यु हुआ। मनस्युका पुत्र त्वष्टा, त्वष्टाका विरज और विरजका पुत्र रज हुआ। मुने! रजके पुत्र शतजितके सौ पुत्र उत्पन्न हुए, उनमें विश्वज्योति मुख्य था। उनसे भारतवर्षकी अभिवृद्धि हुई।

कृत-त्रेतादि युगक्रमसे यह स्वायम्भुव-मनुका वंश माना गया है॥ १३-१९॥

नामक एक सौ सातवाँ अध्याय पूरा हुआ। १०७॥

अध्याय-१०८ भुवनकोश-वर्णनके प्रसंगमें भूमण्डल के द्वीप आदिका परिचय

अग्निदेव कहते हैं-वसिष्ठ! जम्बू, प्लक्ष, महान शाल्मलि, कुश, क्रौच्च, शाक और सातवाँ पुष्कर-ये सातों द्वीप चारों ओरसे खारे जल, इक्षुरस, मदिरा, धृत, दधि, दुग्ध और मीठे जलके सात समुद्रोंसे घिरे हुए हैं। जम्बूद्वीप उन सब द्वीपोंके मध्यमें स्थित है और उसके भी बीचों-बीच में मेरुपर्वत सीना ताने खड़ा है। उसका विस्तार चौरासी हजार योजन है और यह पर्वतराज सोलह हजार योजन पृथिवीमें घुसा हुआ है। ऊपरी भागमें इसका विस्तार बत्तीस हजार योजन हैं। नीचेकी गहराईमें इसका विस्तार सोलह हजार योजन हैं। इस प्रकार यह पर्वत इस पृथिवीरूप कमलकी कर्णिकाके समान स्थित हैं। इसके दक्षिणमें हिमवान्, हेमकूट और निषध तथा उत्तरमें नील, श्वेत और भृङ्गी नामक वर्षपर्वत हैं। उनके बीच के दो पर्वत (निषध और नील) एक-एक लाख योजनतक फैले हुए हैं। दूसरे पर्वत उनसे दस-दस हजार योजन कम हैं। वे सभी दो-दो सहस्र योजन ऊँचे और इतने ही चौड़े है ।।१-६।।

द्विजश्रेष्ठ! मेरुपर्वतके दक्षिणकी और पहला वर्ष भारतवर्ष है तथा दूसरा किम्पुरुषवर्ष और तीसरा हरिवर्ष माना गया है। उत्तरकों और रम्यक, हिरणमय और उतरकुरुवर्ष है, जो भारतवर्षके ही समान है।

मुनिप्रवर! इनमेंसे प्रत्येकका विस्तार नौ-नौ हजार योजन हैं तथा इन सबके बीच में इलावृतवर्ष है, जिसमें सुवर्णमय सुमेरु पर्वत खड़ा है।

महाभाग! इलावृतवर्ष सुमेरुके चारों ओर नौ-नौ हजार योजनतक फैला हुआ है। इसके चारों ओर चार पर्वत हैं। ये चारों पर्वत मानो सुमेरुको धारण करनेवाले ईश्वरनिर्मित आधारस्तम्भ हों।

विपुल पश्चिम पार्श्वमें और सुपार्श्व उत्तरमें है।  ये सभी पर्वत दस-दस हजार योजन विस्तृत हैं। इन पर्वतोंपर ग्यारह-ग्यारह सौ योजन विस्तृत कदम्ब, जम्बू, पीपल और वटके वृक्ष हैं, जो इन पर्वतोंकी पताकाओंके समान प्रतीत होते हैं। इनमेंसे जम्बूवृक्ष ही जम्बूद्वीपके नामका कारण है। उस जम्बूवृक्षके फल हाथीके समान विशाल और मोटे होते हैं। इसके रससे जम्बूनदी प्रवाहित होती है। इसीसे परम उत्तम जाम्बूनदसुवर्णका प्रादुर्भाव होता हैं।

मेरुके पूर्वमें भद्राश्र्ववर्ष और पश्चिममें केतुमाल वर्ष है। इसी प्रकार उसके पूर्वकी ओर चैत्ररथ, दक्षिणकी ओर गन्धमादन, पश्चिम की ओर वैभ्राज़ और उतरकी ओर नन्दन नामक वन है । इसी तरह पूर्व आदि दिशाओंमें अरुणोद, महाभद्र, शीतोद और मानस – ये चार सरोवर है । सिताम्भ तथा चक्रमुञ्ज आदि मेरुके पूर्व-दिशावर्ती केसर-स्थानीय अचल है ।

दक्षिणमें त्रिकुट आदि, पश्छिममें शिखिवास-प्रभृति और उत्तर दिशामें शंखकूट आदि इसके केसराचल है ।

सुमेरु पर्वतके ऊपर ब्रह्माजीकी पुरी है। उसका विस्तार चौदह हजार योजन हैं। ब्रह्मपुरीके चारों और सभी दिशाओंमें इन्द्रादि लोकपालोंके नगर है । इसी ब्रह्मपुरीसे श्रीविष्णुके चरणकमलसे निकली हुई गंगानदी चंद्रमंडलको आप्लावित करती हुई स्वर्गलोकसे नीचे उतरती है ।

पूर्वमें शीता (अथवा सीता) नदी भद्राश्वपर्वतसे निकलकर एक पर्वतसे दूसरे पर्वतपर जाती हुई समुद्रमें मिल जाती है। इसी प्रकार अलकनन्दा भी दक्षिण दिशा की ओर भारतवर्षमें आती है और सात भागोंमें विभक्त होकर समुद्रमें मिल जाती है। चक्षु पश्चिम समुद्रमें तथा भद्रा उत्तरकुरुवर्षको पार करती हुई समुद्रमें जा गिरती हैं ॥ ७ -२० ॥

माल्यवान् और गन्धमादन पर्वत उत्तर तथा दक्षिण की ओर नीलाचल एवं निषध पर्वततक फैले हुए हैं। उन दोनोंके बीच में कर्णिकाकार मेरुपर्वत स्थित हैं।

मर्यादापर्वतोंके बहिर्भागमें स्थित भारत, केतुमाल, भद्राव और उत्तरकुरुवर्व-इस लोकपद्मके दल हैं।

जठर और देवकूट-ये दोनों मर्यादापर्वत हैं। ये उत्तर और दक्षिण की और नील तथा निषध पर्वततक फैले हुए हैं। पूर्व और पश्चिमकी ओर विस्तृत गन्धमादन  एवं कैलास-ये दो पर्वत अस्सी हजार योजन विस्तृत हैं।

पूर्वके समान मेरुके पश्चिम की ओर भीं निषध और पारियात्र नामक दो मर्यादापर्वत हैं, जो अपने मूलभागसे समुद्रके भीतरतक प्रविष्ट हैं॥ २१-२५॥

उत्तरकी ओर त्रिश्रृङ्ग और रुधिर नामक वर्षपर्वत हैं। ये दोनों पूर्व और पश्चिमकी ओर समुद्रके गर्भमें व्यवस्थित हैं।

इस प्रकार जठर आदि मर्यादापर्वत मेरुके चारों ओर सुशोभीत होते हैं।

ऋविप्रवर! केसरपर्वतोंके मध्यमें जो श्रेणियाँ हैं, उनमें लक्ष्मी, विष्णु अग्नि तथा सूर्य आदि देवताओंके नगर हैं। ये भौम होते हुए भी स्वर्गके समान हैं। इनमें पापात्मा पुरुषोंका प्रवेश नहीं हो पाता। २६-२८/१॥

श्रीविष्णुभगवान् भद्राश्ववर्षमें हयग्रीवरूपसे, केतुमालवर्षमें वराहरूपसे, भारतवर्षमें कूर्मरूपसे तथा उत्तरकुरुवर्षमें मत्स्यरूपसे निवास करते हैं।

भगवान् श्रीहरि विश्वरूपसे सर्वत्र पूजित होते हैं।

किम्पुरुष आदि आठ वर्षोंमें क्षुधा, भय तथा शोक आदि कुछ भी नहीं हैं। उनमें प्रजाजन चौबीस हजार वर्षतक रोग-शोकरहित होकर जीवन व्यतीत करते हैं। उनमें कृत-त्रेतादि युगोंकी कल्पना नहीं होती, न उनमें कभी वर्षा ही होती है। उनमें केवल पार्थिव-जल रहता है। इन सभी वर्षोंमें सात-सात कुलाचल पर्वत हैं और उनसे निकली हुई सैकड़ों तीर्थरूपा नदियाँ हैं। ॥ २९-३३॥

अब मैं भारतवर्षमें जो तीर्थ हैं, उनका तुम्हारे सम्मुख वर्णन करता हूँ ।

एक सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ। १०८ ॥

अध्याय-१०९ तीर्थ-माहात्म्य

अग्निदेव कहते हैंअब मैं सब तीर्थोका माहात्म्य बताऊँगा, जो भोग और मोक्ष प्रदान

करनेवाला है।

जिसके हाथ, पैर और मन भलीभाँती संयममें रहे तथा जिसमें विधा, तपस्या और उत्तम कीर्ति हो, वही तीर्थके पूर्ण फलका भागी होता है।

जो प्रतिग्रह छोड़ चुका है, नियमित भोजन करता और इन्द्रियोंको काबूमें रखता है, वह पापरहित तीर्थयात्रीं सब यज्ञोंका फल पाता है।

जिसने कभी तीन राततक उपवास नहीं किया, तीर्थोंकी यात्रा नहीं की और सुवर्ण एवं गौंका दान नहीं किया, वह दरिद्र होता है।

यज्ञसे जिस फलकी प्राप्ति होतीं है, वहीं तीर्थसेवनसे भी मिलता है॥ १-४॥

ब्रह्मन्! पुष्कर श्रेष्ठ तीर्थ है। वहाँ तीनों संध्याओंके समय दस हजार कोटि तीर्थोंका निवास रहता है। पुष्करमें सम्पूर्ण देवताओंके साथ ब्रह्माजी निवास करते हैं। सब कुछ चाहनेवाले मुनी और देवता वहाँ स्नान करके सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। पुष्करमें देवताओं और पितरोंकी पूजा करनेवाले मनुष्य अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त करके ब्रह्मलोक में जाते हैं। जों कार्तिककी पूर्णिमाको वहाँ अन्नदान करता है, वह शुद्धचित्त होकर ब्रह्मलोकका भागी होता है।

पुष्करमें जाना दुष्कर हैं, पुष्करमें तपस्याका सुयोग मिलना दुष्कर है, पुष्करमें दानका अवसर प्राप्त होना भी दुष्कर है और वहाँ निवासका सौभाग्य होना तो अत्यंत ही दुष्कर है।

वहाँ निवास, जप और श्राद्ध करनेसे मनुष्य अपनी सौ पीढ़ियोंका उद्धार करता हैं। वहीं जम्बूमार्ग तथा तण्डुलिकाश्रम तीर्थ भी हैं॥ ५-९ ॥

(अब अन्य तीर्थोंके विषयमें सुनो-) कण्वाश्रम, कोटितीर्थ, नर्मदा और अर्बुद (आबू) भी उत्तम तीर्थ हैं। चर्मण्वती (चम्बल), सिन्धु, सोमनाथ, प्रभास, सरस्वती-समुद्र-संगम तथा सागर भी श्रेष्ठ तीर्थ हैं।

पिण्डारक क्षेत्र, द्वारका और गोमती-ये सब प्रकारकी सिद्धि देनेवाले तीर्थ हैं।

भूमितीर्थ, ब्रह्मांतुङ्गतीर्थ और पञ्चनद (सतलज आदि पाँचों नदियाँ) भी उत्तम हैं।

भीमतीर्थ, गिरीन्द्रतीर्थ, पापनाशिनीं देविका नदी, पवित्र विनशनतीर्थ (कुरुक्षेत्र), नागोद्भेद, अघार्दन तथा कुमारकोटि तीर्थ-ये सब कुछ देनेवाले बताये गये हैं।

‘मैं कुरुक्षेत्र जाऊँगा, कुरुक्षेत्रमें निवास करूंगा’ जो सदा ऐसा कहता है, वह शुद्ध हो जाता है और उसे स्वर्गलोककी प्राप्ति होतीं है। वहाँ विष्णु आदि देवता रहते हैं। वहाँ निवास करनेसे मनुष्य श्रीहरिके धाममें जाता है।

कुरुक्षेत्रमें समीप ही सरस्वतीं बहती हैं। उसमें स्नान करनेवाला मनुष्य ब्रह्मलोकका भागी होता है। कुरुक्षेत्रकी धूलि भी परम गतिकी प्राप्ति कराती है।

धर्मतीर्थ, सुवर्णतीर्थं, परम उत्तम गङ्गाद्वारं (हरिद्वार), पवित्र तीर्थ कनखल, भद्रकर्ण-हृद. गङ्ग-सरस्वती-संगम और ब्रह्मावर्त-ये पापनाशक तीर्थ हैं॥ १०-१७ ॥

भृगुतुङ्ग, कुब्जाम्र तथा गङ्गोद्भेद—ये भी पापोंको दूर करनेवाले हैं।

वाराणसी (काशी) सर्वोत्तम तीर्थ है। उसे श्रेष्ठ अविमुक्त-क्षेत्र भी कहते हैं। कपाल-मोचनतीर्थ भी उत्तम हैं, प्रयाग तो सब तीथाँका राजा ही है। गोमती और गङ्गाका संगम भी पावन तीर्थ है। गङ्गाजी कहीं भी क्यो न हो, सर्वत्र स्वर्गलोककी प्राप्ति करानेवाली हैं। राजगृह पवित्र तीर्थ है। शालग्राम तीर्थ पापोंका नाश करनेवाला है। वटेश, वामन तथा कालिका-संगम तीर्थ भी उत्तम हैं॥ १८-३० ॥

लौहित्य-तीर्थ, करतोया नदी, शोणभद्र तथा ऋषभतीर्थ भी श्रेष्ठ हैं।

श्रीपर्वत, कोलाचल, सह्रागिरि, मलयगिरि, गोदावरी, तुङ्गभद्रा, वरदायिनी कावेरी नदी, तापी, पयोष्णी, रेवा (नर्मदा) और दण्डकारण्य भी उत्तम तीर्थ हैं।

कालंजर, मुञ्जवट, शूर्पारक, मन्दाकिनी, चित्रकूट और श्रृङ्गवेरपुर श्रेष्ठ तीर्थ हैं।

अवन्ती भी उत्तम तीर्थ है।

अयोध्या सब पापोंका नाश करनेवाली है।

नैमिषारण्य परम पवित्र तीर्थ हैं। वह भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है।॥ २१-२४॥

एक सौ नौवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १०१॥

अध्याय-११० गङ्गाजीकी महिमा

अग्निदेव कहते हैं अब गङ्गाका माहात्म्य बतलाता हूँ। गङ्गाका सदा सेवन करना चाहिये। वह भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली हैं। जिनके बीचसे गङ्गा बहती हैं, वे सभी देश श्रेष्ठ तथा पावन हैं। उत्तम गतिकी खोज करनेवाले प्राणियोंके लिये गङ्गा ही सर्वोत्तम गति हैं। गङ्गाका सेवन करनेपर वह माता और पिता-दोनोंके कुलोंका उद्धार करती है।

एक हजार चान्द्रायण-व्रतकों अपेक्षा गङ्गाजीके जलका पीना उत्तम है। एक मास गङ्गाजीका सेवन करनेवाला मनुष्य सब यज्ञोंका फल पाता है। १-३ ॥

गङ्गादेवी सब पापोंको दूर करनेवाली तथा स्वर्गलोक देनेवाली हैं। गङ्गाके जलमें जबतक हडुी पड़ी रहती है, तबतक वह जीव स्वर्गमें निवास करता है। अंधे आदि भी गङ्गाजीका सेवन करके देवताओंके समान हो जाते हैं। गङ्गा-तीर्थसे निकली हुई मिट्टी धारण करनेवाला मनुष्य सूर्यके समान पापोंका नाशक होता है। जो ‘गङ्गा’ इस नामका कीर्तन करता है, वह अपनी सैकड़ों-हजारों पीढ़ियोंके पुरुषोंको पवित्र कर देता हैं। ॥ ४-६ ॥

एक सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ। ११० ॥

अध्याय – १११ प्रयाग माहात्म्य

अग्निदेव कहते हैं – ब्रह्मन ! अब मैं प्रयाग का माहात्म्य बताता हूँ, जो भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला तथा उत्तम है ।

प्रयाग में ब्रम्हा, विष्णु आदि देवता तथा बड़े-बड़े मुनिवर निवास करते हैं ।  नदियाँ, समुद्र, सिद्ध, गंधर्व तथा अप्सराएँ भी उस तीर्थ में वास करती हैं ।

प्रयाग में तीन अग्निकुंड हैं । उनके बीच में गंगा सब तीर्थों को साथ लिये बड़े वेग से बहती हैं । वहाँ त्रिभुवन- विख्यात सुर्यकन्या यमुना भी हैं । गंगा और यमुना का मध्यभाग पृथ्वी का ‘जघन’ माना गया हैं और प्रयाग को ऋषियों ने जघन के बीच का ‘उपस्थ भाग’ बताया हैं ।। १-४ ।।

प्रतिष्ठान (झूसी) सहित प्रयाग, कम्बल और अश्वतर नाग तथा भोगवती तीर्थ – वे ब्रह्माजी के यज्ञ की वेदी कहे गये हैं ।

प्रयाग में वेद और यज्ञ मूर्तिमान होकर रहते हैं । उस तीर्थ के स्तवन और नाम कीर्तन से तथा वहाँ की मिटटी का स्पर्श करनेमात्र से भी मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है ।

प्रयाग में गंगा और यमुना के सगमपर किये हुए दान, श्राद्ध और जप आदि अक्षय होते हैं ।। ५-७ ।।

ब्रह्मन ! वेद अथवा लोक – किसी के कहने से भी अंतमे प्रयागतीर्थ के भीतर मरने का विचार नहीं छोड़ना चाहिये | प्रयाग में साठ करोड़, दस हजार तीर्थो का निवास हैं; अत: वह सबसे श्रेष्ठ है ।

वासुकि नाग का स्थान, भोगवती तीर्थ और हंसप्रपतन – ये उत्तम तीर्थ हैं । कोटि गोदान से जो फल मिलता हैं, वाही इनमें तीन दिनोंतक स्नान करनेमात्रसे प्राप्त हो जाता है ।

प्रयाग में माघमासमें मनीषी पुरुष ऐसा कहते हैं कि ‘गंगा सर्वत्र सुलभ हैं; किन्तु गंगाद्वार, प्रयाग और गंगा-सागर-संगम- इन तीन स्थानों में उनका मिलना बहुत कठिन है ।’

प्रयाग में दान देनेसे मनुष्य स्वर्ग में जाता है और इस लोक में आनेपर राजाओं का भी राजा होता है ||८-१२||

अक्षयवट के मूल के समीप और संगम आदि में मृत्यु को प्राप्त हुआ मनुष्य भगवान् विष्णु के धाम में जाता है ।

प्रयाग में परम रमणीय उर्वशी-पुलिन, संध्यावट, कोटितीर्थ, दशाश्वमेध घाट, गंगा-यमुना का उत्तम संगम, रजोहीन मानसतीर्थ तथा वासरक तीर्थ – ये सभी परम उत्तम हैं ।। १३-१४ ।।

 

अध्याय – ११२ वाराणसी का माहात्म्य

अग्निदेव कहते हैं – वाराणसी परम उत्तम तीर्थ है | जो वहाँ श्रीहरि का नाम लेते हुए निवास करते हैं, उन सबको वह भोग और मोक्ष प्रदान करता हैं | महादेवजी ने पार्वती से उसका माहात्म्य इसप्रकार बतलाया हैं ||१||

महादेवजी बोले – गौरि ! इस क्षेत्र को मैंने कभी मुक्त नहीं किया –सदा ही वहाँ निवास किया हैं, इसलिये यह ‘अविमुक्त’ कहलाता है | अविमुक्त – क्षेत्र में किया हुआ जप, तप, होम और दान अक्षय होता है | पत्थर से दोनों पैर तोडकर बैठ रहे, परन्तु काशी कभी न छोड़े | हरिश्चन्द्र, आम्रातकेश्वर, जप्येश्वर, श्रीपर्वत, महालय, भृगु, चंडेश्वर और केदारतीर्थ – ये आठ अविमुक्त – क्षेत्र में परम गोपनीय तीर्थ हैं |

मेरा अविमुक्त-क्षेत्र सब गोपनीयोंमें भी परम गोपनीय हैं | वह दो योजन लंबा और आधा योजन चौड़ा है | ’वरणा’ और ‘नासी’ (असी) – इन दो नदियों के बीचमें ‘वाराणसीपूरी’ है | इसमें स्नान, जप, होम, मृत्यु, देवपूजन, श्राद्ध, दान और निवास – जो कुछ होता है, वह सब भोग एवं मोक्ष प्रदान करता हैं ||२-७||

अध्याय – ११३ नर्मदा माहात्म्य

अग्निदेव कहते हैं  अब मैं नर्मदा आदि का माहात्म्य बाताऊँगा | नर्मदा श्रेष्ठ तीर्थ है | गंगा का जल स्पर्श करनेपर मनुष्य को तत्काल पवित्र करता हैं, किन्तु नर्मदा का जल दर्शनमात्र से ही पवित्र कर देता हैं | नर्मदातीर्थ सौ योजन लंबा और दो योजन चौड़ा है | अमरकण्टक पर्वत के चारों ओर नर्मदा सम्बन्धी साठ करोड़, साठ हजार तीर्थ है | कावेरी संगमतीर्थ बहुत पवित्र है | अब श्रीपर्वत का वर्णन सुनो ||१-३||

एक समय गौरी ने श्रीदेवी का रूपधारण करके भारी तपस्या की | इससे प्रसन्न होकर श्रीहरि ने उन्हें वरदान देते हुए कहा – “देवि ! तुम्हें अध्यात्म-ज्ञान प्राप्त होगा और तुम्हारा यह पर्वत ‘श्रीपर्वत’ के नामसे विख्यात होगा | इसके चारों ओर सौ योजनतक का स्थान अत्यंत पवित्र होगा |” यहाँ किया हुआ दान, तप, जप तथा श्राद्ध सब अक्षय होता है | यह उत्तम तीर्थ सब कुछ देनेवाला है | यहाँ की मृत्यु शिवलोक की प्राप्ति करानेवाली है | इस पर्वतपर भगवान् शिव सदा पार्वतीदेवी के साथ क्रीडा करते हैं तथा हिरण्यकशिपु यहीं तपस्या करके अत्यंत बलवान हुआ था | मुनियों ने भी यहाँ तपस्या से सिद्धि प्राप्त की है ||४-७||

अध्याय –११४ गया – माहात्म्य

अग्निदेव कहते हैं – अब मैं गया के माहात्म्य का वर्णन करूँगा | गया श्रेष्ठ तीर्थों में सर्वोत्तम है | एक समय की बात हैं – गय नामक असुर ने बड़ी भारी तपस्या आरम्भ की | उससे देवता संतप्त हो उठे और उन्होंने क्षीरसागरशायी भगवान् विष्णु के समीप जाकर कहा – ‘भगवन ! आप गयासुरसे हमारी रक्षा कीजिये |’ ‘तथास्तु’ कहकर श्रीहरि गयासुर के पास गये और उससे बोले – ‘कोई वर माँगो |’ दैत्य बोला – ‘भगवन ! मैं सब तीर्थो से अधिक पवित्र हो जाऊँ |’

भगवान ने कहा  ‘ऐसा ही होगा |’ – यों कहकर भगवान चले गये | फिर तो सभी मनुष्य उस दैत्य का दर्शन करके भगवान् के समीप जा पहुँचे | पृथ्वी सूनी हो गयी | स्वर्गवासी देवता और ब्रह्मा आदि प्रधान देवता श्रीहरि के निकट जाकर बोले – ‘देव ! श्रीहरि ! पृथ्वी और स्वर्ग सूने हो गये | दैत्य के दर्शनमात्र से सब लोग आपके धाम में चले गये हैं |’

यह सुनकर श्रीहरि ने ब्रह्माजी से कहा – ‘तुम सम्पूर्ण देवताओं के साथ गयासुर के पास जाओ और यज्ञभूमि बनाने के लिये उसका शरीर माँगो |’ भगवान् का यह आदेश सुनकर देवताओंसहित ब्रह्माजी गयासुर के समीप जाकर उससे बोले – ‘दैत्यप्रवर ! मैं तुम्हारे द्वारपर अतिथि होकर आया हूँ और तुम्हारे पावन शरीर को यज्ञ के लिये माँग रहा हूँ ‘ ||१-६||

‘तथास्तु’ कहकर गयासुर धरतीपर लेट गया | ब्रह्माजी ने उसके मस्तकपर यग्य आरम्भ किया | जब पूर्णाहुति का समय आया, तब गयासुर का शरीर चंचल हो उठा | यह देख प्रभु ब्रह्माजी ने पुन: भगवान् विष्णु से कहा – ‘देव ! गयासुर पूर्णाहुति के समय विचलित हो रहा है |’ तब श्रीविष्णु ने धर्म को बुलाकर कहा – ‘तुम इस असुर के शरीरपर देवमयी शिला रख दो और सम्पूर्ण देवता उस शिलापर बैठ जायँ | देवताओं के साथ मेरी गदाधरमूर्ति भी इसपर विराजमान होगी |’ यह सुनकर धर्म ने देवमयी विशाल शिला उस दैत्य के शरीरपर रख दी | (शिला का परिचय इसप्रकार है ) – धर्म से उनकी पत्नी धर्मवती के गर्भ से एक कन्या उत्पन्न हुई थी, जिसका नाम ‘धर्मंव्रता’ था | वह बड़ी तपस्विनी थी | ब्रह्मा के पुत्र महर्षि मरीचि ने उसके साथ विवाह किया | जैसे भगवान् विष्णु श्रीलक्ष्मीजी के साथ और भगवान् शिव श्रीपार्वतीजी के साथ विहार करते हैं, उसीप्रकार महर्षि मरीचि धर्मव्रता के साथ रमण करने लगे ||७-११||

एक दिन की बात है | महर्षि जंगल से कुषा और पुष्प आदि ले आकर बहुत थक गये थे | उन्होंने भोजन करके धर्मव्रता से कहा – ‘प्रिये ! मेरे पैर दबाओ |’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर प्रिया धर्मवता थके-माँदे मुनि के चरण दबाने लगी | मुनि सो गये; इतने में ही वहाँ ब्रह्माजी आ गये | धर्मव्रता ने सोचा –‘ मैं ब्रह्माजी का पूजन करूँ या अभी मुनि की चरण-सेवा में ही लगी रहूँ | ब्रह्माजी गुरुके भी गुरु हैं – मेरे पति के भी पूज्य हैं; अत: इनका पूजन करना ही उचित है |’ ऐसा विचारकर वह पूजन – समाग्रियों से ब्रह्माजी की पूजा में लग गयी | नींद टूटनेपर जब मरीचि मुनि ने धर्मव्रता को अपने समीप नहीं देखा, तब आज्ञा-उल्लघन के अपराध से उसे शाप देते हुए कहा – ‘तू शिला हो जायगी |’ यह सुनकर धर्मव्रता कुपित हो उनसे बोली – ‘मुने ! चरण – सेवा छोडकर मैंने आपके पूज्य पिता की पूजा की हैं, अत: मैं सर्वथा निर्दोष हूँ; ऐसी दशामें भी आपने मुझे शाप दिया है, अत: आपको भी भगवान् शिव से शाप की प्राप्ति होगी |’ यों कहकर धर्मव्रता ने शाप को पृथक रख दिया और स्वयं अग्नि में प्रवेश करके वह हजारों वर्षोंतक कठोर तपस्या में संलग्न रही | इससे प्रसन्न होकर श्रीविष्णु आदि देवताओं ने कहा – ‘वर माँगो |’ धर्मव्रता देवताओं से बोली –‘आपलोग मेरे शाप को दूर कर दें ‘ ||१२-१८||

देवताओं ने कहा – शुभे ! महर्षि मरीचि का दिया हुआ शाप अन्यथा नहीं होगा | तुम देवताओं के चरण-चिन्ह से अंगित परमपवित्र शिला होओगी | गयासुर के शरीर को स्थिर रखने के लिये तुम्हें शिला का स्वरुप धारण करना होगा | उस समय तुम देवव्रता, देवशिला, सर्वदेवस्वरूपा, सर्वतीर्थमयी तथा पुण्यशिला कहलाओगी ||१९-२०||

देवव्रता बोली देवताओं ! यदि आपलोग मुझपर प्रसन्न हों तो शिला होने के बाद मेरे ऊपर ब्रह्मा, विष्णु तथा रूद्र आदि देवता और गौरी-लक्ष्मी आदि देवियाँ सदा विराजमान रहें ||२१||

अग्निदेव कहते हैं देवव्रता की बात सुनकर सब देवता ‘तथास्तु’ कहकर स्वर्ग को चले गये | उस देवमयी शिला को ही धर्म ने गयासुर के शरीरपर रखा | परन्तु वह शिला के साथ ही हिलने लगा | यह देख रूद्र आदि देवता भी उस शिलापर जा बैठे | अब वह देवताओं को साथ लिये हिलने-डोलने लगा | तब देवताओं ने क्षीरसागरशायी भगवान् विष्णु को प्रसन्न किया | श्रीहरि ने उनको अपनी गदाधरमूर्ति प्रदान की और कहा – ‘देवगण ! आपलोग चलिये; इस देवगम्य मूर्ति के द्वारा मैं स्वयं ही वहाँ उपस्थित होऊँगा |’ इस प्रकार उस दैत्य के शरीर को स्थिर रखने के लिये व्यक्ताव्यक्त उभयस्वरुप साक्षात गदाधारी भगवान् विष्णु वहाँ स्थित हुए | वे आदि-गदाधर के नामसे उस तीर्थमें विराजमान हैं ||२२-२५||

पूर्वकाल में ‘गद’ नामसे प्रसिद्ध एक भयंकर असुर था | उसे श्रीविष्णु ने मारा और उसकी हड्डियों से विश्वकर्मा ने गदा का निर्माण किया | वही ‘आदि-गदा’ है | उस आदि-गदा के द्वारा भगवान् गदाधर ने ‘हेति’ आदि राक्षसों का वध किया था, इसलिए वे ‘आदि-गदाधर’ कहलाये | पूर्वोक्त देवमयी शिलापर आदि-गदाधर के स्थित होनेपर गयासुर स्थिर हो गया; तब ब्रह्माजी ने पूर्णाहुति दी | तदनन्तर गयासुर ने देवताओं से कहा – ‘किसलिये मेरे साथ वंचना की गयी है? क्या मैं भगवान् विष्णु के कहनेमात्र से स्थिर नहीं हो सकता था ? देवताओं ! यदि आपने मुझे शिला आदि के द्वारा दबा रखा हैं, तो आपको मुझे वरदान देना चाहिये’ ||२६-३०||

देवता बोले – ‘दैत्यप्रवर ! तीर्थ-निर्माण के लिये हमने तुम्हारे शरीर को स्थिर किया है; अत: यह तुम्हारा क्षेत्र भगवान् विष्णु, शिव तथा ब्रह्माजी का निवास-स्थान होगा | सब तीर्थों से बढकर इसकी प्रसिद्धी होगी तथा पितर आदिके लिये यह क्षेत्र ब्रह्मलोक प्रदान करनेवाला होगा |’ – यों कहकर सब देवता वहीँ रहने लगे | देवियों और तीर्थ आदि ने भी उसे अपना निवास-स्थान बनाया | ब्रम्हाजी ने यज्ञ पूर्ण करके उस समय ऋत्विजों को दक्षिणाए दी | पाँच कोस का गया-क्षेत्र और पचपन गाँव अर्पित किये | यही नहीं, उन्होंने सोने के अनेक पर्वत बनाकर दिये | दूध और मधु की धारा बहनेवाली नदियाँ समर्पित कीं | दही और घी के सरोवर प्रदान किये | अन्न आदिके बहुत से पहाड़, कामधेनु गाय, कल्पवृक्ष तथा सोने-चाँदी के घर भी दिये | भगवान् ब्रह्मा ने ये सब वस्तुएँ देते समय ब्राह्मणों से कहा – ‘विप्रवरों ! अब तुम मेरी अपेक्षा अल्प-शक्ति रखनेवाले अन्य व्यक्तियों से कभी याचना न करना |’ यों कहकर उन्होंने वे सब वस्तुएँ उन्हें अर्पित कर दिन ||३१-३५||

तत्पश्च्यात धर्म ने यज्ञ किया | उस यज्ञ में लोभवश धन आदि का दान लेकर जब वे बाह्मण पुन: गया में स्थित हुए, तब ब्रह्माजी ने उन्हें शाप दिया – ‘अब तुमलोग विद्याविहीन और लोभी हो जायोगे | इन नदियों में अब दूध आदि का अभाव हो जायगा और ये सुवर्ण-शैल भी पत्थर मात्र रह जायेंगे |’ तब ब्राह्मणों ने ब्रह्माजी से कहा – ‘भगवन ! आप के शाप से हमारा सब कुछ नष्ट हो गया | अब हमारी जीविका के लिये कृपा कीजिये |’ यह सुनकर वे ब्राह्मणों से बोले – ‘अब इस तीर्थसे ही तुम्हारी जीविका चलेगी | जबतक सूर्य और चन्द्रमा रहेंगे, तबतक इसी वृत्तिसे तुम जीवननिर्वाह करोगे | जो लोग गया-तीर्थ में आयेंगे, वे तुम्हारी पूजा करेंगे | जो हव्य, कव्य, धन और श्राद्ध आदि के द्वारा तुम्हारा सत्कार करेंगे, उनकी सौ पीढ़ियों के पितर नरक से स्वर्गमें चले जायेंगे और स्वर्ग में ही रहनेवाले पितर परमपद को प्राप्त होंगे’ ||३६-४०||

महाराज गय ने भी उस क्षेत्र में बहुत अन्न और दक्षिणा से सम्पन्न यज्ञ किया था | उन्हीं के नाम से गयापुरी की प्रसिद्धि हुई | पांडवों ने भी गया में आकर श्रीहरि की आराधना की थी ||४१||

अध्याय –११५ गया – यात्रा की विधि

अग्निदेव कहते हैं यदि मनुष्य गया जाने को उद्यत हो तो विधिपूर्वक श्राद्ध करके तीर्थयात्री का वेष धारणकर अपने गाँव की परिक्रमा कर ले; फिर प्रतिदिन पैदल यात्रा करता रहे | मन और इन्द्रियों को वश में रखे | किसी से कुछ दान न ले | गया जाने के लिये घरसे चलते ही पग-पगपर पितरों के लिये स्वर्ग में जाने की सीढी बनने लगती हैं | यदि पुत्र (पितरों का श्राद्ध करने के लिये) गया चला जाय तो उससे होनेवाले पुण्य के सामने ब्रह्मज्ञान की क्या कीमत है ? गौओं को संकट से छुडाने के लिये प्राण देनेपर भी क्या उतना पुण्य होना सम्भव है ? फिर तो कुरुक्षेत्र में निवास करने की भी क्या आवश्यकता है ? पुत्र को गया में पहुँचा हुआ देखकर पितरों के यहाँ उत्सव होने लगता है | वे कहते हैं – ‘क्या यह पैरों से भी जल का स्पर्श करके हमारे तर्पण के लिये नहीं देगा ?’ ब्रह्मज्ञान, गया में किया हुआ श्राद्ध, गोशाला में मरण और कुरुक्षेत्र में निवास – ये मनुष्यों की मुक्ति के चार साधन हैं | नरक के भय से डरे हुए पितर पुत्र की अभिलाषा रखते हैं | वे सोचते हैं, जो पुत्र गया में जायगा, वह हमारा उद्धार कर देगा ||१- ६||

मुंडन और उपवास – यह सब तीर्थो के लिये साधारण विधि है | गयातीर्थ में काल आदि का कोई नियम नहीं हैं | वहाँ प्रतिदिन पिंडदान देना चाहिये | जो वहाँ तीन पक्ष (डेढ़ मास) निवास करता हैं, वह सात पीढ़ी तक के पितरों को पवित्र कर देता हैं | अष्टका तिथियों में, आभ्युदयिक कार्यों में तथा पिता आदि की क्षयाह – तिथि को भी यहाँ गया में माता के लिये पृथक श्राद्ध करने का विधान है | एनी तीर्थों में स्त्री का श्राद्ध उसके पति के साथ ही होता है | गया में पिता आदि के क्रम से ‘नव देवताक’ अथवा ‘द्वादशदेवताक’ श्राद्ध करना आवश्यक है ||७-९||

पहले दिन उत्तर-मानस-तीर्थ में स्नान करे | परम पवित्र उत्तर-मानस-तीर्थ में किया हुआ स्नान आयु और आरोग्य की वृद्धि, सम्पूर्ण पापराशियों का विनाश तथा मोक्ष की सिद्धि करनेवाला है; अत: वहाँ अवश्य स्नान करे | स्नान के बाद पहले देवता और पितर आदि का तर्पण करके श्राद्धकर्ता पुरुष पितरों को पिंडदान दे | तर्पण के समय यह भावना करे कि ‘मैं स्वर्ग, अन्तरिक्ष तथा भूमिपर रहनेवाले सम्पूर्ण देवताओं को तृप्त करता हैं |’ स्वर्ग, अन्तरिक्ष तथा भूमि के देवता आदि एवं पिता-माता आदि का तर्पण करे | फिर इसप्रकार कहे – ‘पिता, पितामह और प्रपितामह; माता, पितामही और प्रपितामही तथा मातामह, प्रमातामह और वृद्ध प्रमातामह – इन सबको तथा अन्य पितरों को भी उनके उद्धार के लिये मैं पिंड देता हूँ | सोम, मंगल और बुधस्वरुप तथा बृहस्पति, शुक्र, शनैश्वर, राहू और केतुरूप भगवान् सूर्य को प्रणाम है |’ उत्तर-मानस-तीर्थ में स्नान करनेवाला पुरुष अपने समस्त कुल का उद्धार कर देता है ||१०-१६||

सूर्यदेव को नमस्कार करके मनुष्य मौनभाव से दक्षिण-मानस-तीर्थ को जाय और यह भावना करे – ‘मैं पितरों की तृप्ति के लिये दक्षिण-मानस-तीर्थ में स्नान करता हूँ | मैं गया में इसी उद्देश्य से आया हूँ कि मेरे सम्पूर्ण पितर स्वर्गलोक को चले जायँ | तदनन्तर श्राद्ध और पिंडदान करके भगवान् सूर्य को प्रणाम करते हुए इसप्रकार कहे – ‘सबका भरण-पोषण करनेवाले भगवान् भानु को नमस्कार हैं | प्रभो ! आप मेरे अभ्युदय के साधक हों | मैं आपका ध्यान करता हूँ | आप मेरे सम्पूर्ण पितरों को भोग और मोक्ष देनेवाले हों | कव्यवाट, अनल, सोम, यम, अर्यमा, अग्निष्वात, बर्हिषद तथा पदार्पण करें | आपलोगों के द्वारा सुरक्षित जो मेरे पिता-माता,पितामह आदि पितर हैं, उनको पिंडदान करने के उद्देश्य से मैं इस गयातीर्थ में आया हूँ |’ मुंडपृष्ठ के उत्तर भाग में देवताओं और ऋषियों से पूजित जो ‘कनखल’ नामक तीर्थ हैं, वह तीनों लोकों में विख्यात है | सिद्ध पुरुषों के लिये आनंददायक और पापियों के लिये भयंकर बड़े-बड़े नाग, जिनकी जीभ लपलपाती रहती है, उस तीर्थ की प्रतिदिन रक्षा करते हैं | वहाँ स्नान करके मनुष्य इस भूतलपर सुखपूर्वक क्रीडा करते और अंत में स्वर्गलोक को जाते हैं ||१७-२४||

तत्पश्च्यात महानदी में स्थित परम उत्तम फल्गु-तीर्थपर जाय | यह नाग, जनार्दन, कूप, वट और उत्तर-मानस में भी उत्कृष्ट हैं | इसे ‘गया का शिरोभाग’ कहा गया है | गयाशिर को ही ‘फल्गु-तीर्थ’ कहते हैं | यह मुंडपृष्ठ और नग आदि तीर्थ की अपेक्षा सारसे भी सार वास्तु है | इसे ‘आभ्यन्तर-तीर्थ’ कहा गया है | जिसमें लक्ष्मी, कामधेनु गौ, जल और पृथ्वी सभी फलदायक होते है तथा जिससे दृष्टी रमणीय, मनोहर वस्तुएँ फलित होती हैं, वह ‘फल्गु-तीर्थ’ है | फल्गु-तीर्थ किसी हलके फुलके तीर्थ के समान नहीं हैं | फल्गु-तीर्थ में स्नान करके मनुष्य भगवान् गदाधर का दर्शन करे तो इससे पुण्यात्मा पुरुषों को क्या नहीं प्राप्त होता ? भूतलपर समुद्र पर्यन्त जितने भी तीर्थ और सरोवर हैं, वे सब प्रतिदिन एक बार फल्गु-तीर्थ में जाया करते हैं | जो तीर्थराज फल्गु-तीर्थ में श्रद्धा के साथ स्नान करता हैं, उसका वह स्नान पितरों को ब्रह्मलोक की प्राप्ति करानेवाला तथा अपने लिये भोग और मोक्ष की सिद्धि करनेवाला होता हैं ||२५-३०||

श्राद्धकर्ता पुरुष स्नान के पश्च्यात भगवान् ब्रह्माजी को प्रणाम करे | (उससमय इसप्रकार कहे ) – ‘कलियुग में सब लोग महेश्वर के उपासक हैं, किन्तु इस गया तीर्थ में भगवान् गदाधर उपास्यदेव हैं | यहाँ लिंगस्वरूप ब्रह्माजी का निवास हैं, उन्हीं महेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ | भगवान् गदाधर (वासुदेव), बलराम (संकर्षण), प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, नारायण, ब्रम्हा, विष्णु, नृसिंह तथा वराह आदिको मैं प्रणाम करता हूँ |’ तदनन्तर श्रीगदाधर का दर्शन करके मनुष्य अपनी सौ पीढ़ियों का उद्धार कर देता हैं | दुसरे दिन धर्मारण्य-तीर्थ का दर्शन करे | वहाँ मतंग मुनि के श्रेष्ठ आश्रम में मतंग वापी के जलमें स्नान करके श्राद्धकर्ता पुरुष पिंडदान करे | वहाँ मतंडेश्वर एवं सुसिद्धेश्वर को मस्तक झुकाकर इसप्रकार कहे – ‘सम्पूर्ण देवता प्रमाणभूत होकर रहें, समस्त लोकपाल साक्षी हों, मैंने इस मतंग-तीर्थ में आकर पितरों का उद्धार कर दिया |’ तत्पस्च्यात ब्राह्मतीर्थ नामक कूप में स्नान, तर्पण और श्राद्ध आदि करे | उस कूप और यूप के मध्यभाग में किया हुआ श्राद्ध सौ पीढ़ियों का उद्धार करनेवाला हैं | वहाँ धर्मात्मा पुरुष महाबोधि वृक्ष को नमस्कार करके स्वर्गलोक का भागी होता है | तीसरे दिन नियम एवं व्रत का पालन करनेवाला पुरुष ‘ब्रह्म-सरोवर/ नामक तीर्थ में स्नान करे | उससमय इसप्रकार प्रार्थना करे – मैं ब्रह्मर्षियोंद्वारा सेवित ब्रह्म-सरोवर-तीर्थ में पितरों को ब्रह्मलोक की प्राप्ति कराने के लिये स्नान करता हूँ |’ श्राद्धकर्ता पुरुष तर्पण करके पिंडदान दे | फिर वृक्ष को सीचें | जो वाजपेय–यज्ञ का फल पाना चाहता हो, वह ब्रह्माजीद्वारा स्थापित यूप की प्रदक्षिणा करे ||३१-३९||

उस तीर्थ में एक मुनि रहते थे, वे जल का घडा और कुश का अग्रभाग हाथ में लिये आम के पेड़ की जडमें पानी देते थे | इससे आम भी सींचे गये और पितरों की भी तृप्ति हुई | इसप्रकार एक ही क्रिया दो प्रयोजन सिद्ध करनेवाली हो गयी | ब्रह्माजी को नमस्कार करके मनुष्य अपनी सौ पीढ़ियों का उद्धार कर देता हैं | चौथे दिन फल्गु-तीर्थ में स्नान करके देवता आदि का तर्पण करे | फिर गयाशिर्ष में श्राद्ध और पिंडदान करे | गया का क्षेत्र पाँच कोसका हैं | उसमें एक कोस केवल ‘गयाशिर्ष’ हैं | उसमें पिंडदान करके मनुष्य अपनी सौ पीढ़ियों का उद्धार कर सकता हैं | परम बुद्धिमान महादेवजी ने मुंडपृष्ठ में अपना पैर रखा हैं | मुंडपृष्ठ में ही गयासुर का साक्षात सिर हैं, अतएव उसे ‘गया-शिर’ कहते हैं | जहाँ साक्षात गयाशिर्ष हैं, वहीँ फल्गु-तीर्थ का आश्रय है | फल्गु अमृत की धारा बहाती है | वहाँ पितरों के उद्देश्यसे किया हुआ दान अक्षय होता है | दशाश्वमेघ तीर्थ में स्नान तथा ब्रह्माजी का दर्शन करके महादेवजी के चरण (रुद्र्पाद) का स्पर्श करनेपर मनुष्य पुन: इस लोक में जन्म नहीं लेता | गयाशीर्ष में शमी के पत्ते बराबर पिंड देने से भी नरकों में पड़े हुए पितर स्वर्ग को चले जाते हैं और स्वर्गवासी पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है | वहाँ खीर, आटा, सत्तू, चरु और चावलसे पिंडदान करे | तिलमिश्रित गेहूँ से भी रुद्र्पाद में पिंडदान करके मनुष्य अपनी सौ पीढ़ियों का उद्धार कर सकता हैं ||४०-४८||

इसप्रकार ‘विष्णुपदी’ में भी श्राद्ध और पिंडदान करनेवाला पुरुष पितृ-ऋण से छुटकारा पाता है और पिता आदि ऊपरकी सौ पीढ़ियों तथा अपने को भी तार देता हैं | ‘ब्रह्मपद’ में श्राद्ध करनेवाला मानव अपने पितरों को ब्रह्मलोक में पहुँचाता हैं | दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य-अग्नि तथा आहवनीय-अग्नि के स्थान में श्राद्ध करनेवाला पुरुष यज्ञफल का भागी होता है | आवसथ्याग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, गणेश, अगस्त्य और कार्तिकेय के स्थान में श्राद्ध करनेवाला मनुष्य अपने कुल का उद्धार कर देता है | मनुष्य सूर्य के रथ को नमस्कार करके कर्णादित्य को मस्तक झुकावे | कनकेश्वर के पद को प्रणाम करके गया-केदार-तीर्थ को नमस्कार करे | इससे मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पाकर अपने पितरों को ब्रह्मलोक में पहुँचा देता हैं | विशाल भी गयाशीर्ष में पिंडदान करनेसे पुत्रवान हुए |

कहते हैं, विशाला नगरीमें एक ‘विशाल’ नामसे प्रसिद्ध राजपुत्र थे | उन्होंने ब्राह्मणों से पूछा – ‘मुझे पुत्र आदि की उत्पत्ति किसप्रकार होगी? ‘ यह सुनकर ब्राह्मणों ने विशाल से कहा – ‘गया में पिंडदान करनेसे तुम्हें सब कुछ प्राप्त होगा |’ तब विशाल ने भी गयाशीर्ष में पितरों को पिंडदान किया | उससमय आकाश में उन्हें तीन पुरुष दिखायी दिये, जो क्रमश: श्वेत, लाल और काले थे | विशाल ने उनसे पूछा – ‘आप लोग कौन है ?’ उनमें से एक श्वेतवर्णवाले पुरुष ने विशाल से कहा – ‘मैं तुम्हारा पिता हूँ; मेरा वर्ण श्वेत हैं; अपने शुभकर्म से इन्द्रलोक में गया था | बेटा ! ये लाल रंगवाले मेरे पिता और काले रंगवाले मेरे पितामह थे | ये नरक में पड़े थे; तुमने हम सबको मुक्त कर दिया | तुम्हारे पिंडदान से हमलोग ब्रह्मलोक में जा रहे हैं |’ यों कहकर वे तीनों चले गये | विशाल को पुत्र-पौत्र आदि को प्रप्ति हुई | उन्होंने राज्य भोगकर मृत्यु के पश्च्यात भगवान् श्रीहरि को प्राप्त कर लिया ||४९-५९||

एक प्रेतों का राजा था, जो अन्य प्रेतों के साथ बहुत पीड़ित रहता था | उसने एक दिन एक वणिक से अपनी मुक्ति के लिये इसप्रकार कहा – ‘भाई ! हमारे द्वारा एक ही पुण्य हुआ था, जिसका फल यहाँ भोगते हैं | पूर्वकाल में एक बार श्रवण नक्षत्र और द्वादशी तिथि का योग आनेपर हमने अन्न और जलसहित कुम्भदान किया था; वही प्रतिदिन मध्याह्न के समय हमारी जीवन-रक्षा के लिये उपस्थित होता है | तुम हमसे धन लेकर गया जाओ और हमारे लिये पिंडदान करो |’ वणिक ने उससे धन लिया और गया में उसके निमित्त पिंडदान किया | उसका फल यह हुआ कि वह प्रेतराज अन्य सब प्रेतों के साथ मुक्त होकर श्रीहरि के धाम में जा पहुँचा | गयाशीर्ष में पिंडदान करनेसे मनुष्य अपने पितरों का तथा अपना भी उद्धार कर देता हैं ||६०-६३||

वहाँ पिंडदान करते समय इसप्रकार कहना चाहिये – ‘मेरे पिताके कुल में तथा माता के वंश में और गुरु, श्वशुर एवं बंधुजनों के वंश में जो मृत्यु को प्राप्त हुए हैं, उनके अतिरिक्त भी जो बंधू-बांधव मरे हैं, मेरे कुल में जिनका श्राद्ध कर्म-पिंडदान आदि लुप्त हो गया है, जिनके कोई स्त्री-पुत्र नहीं रहा हैं, जिनके श्राद्धकर्म नहीं होने पाये हैं, जो जन्मके अंधे, लँगड़े और विकृत रूपवाले रहे हैं, जिनका अपक्व गर्भ के रूप में निधन हुआ है, इसप्रकार जो मेरे दिये हुए इस पिंडदान से सदा के लिये तृप्त हो जायँ | जो कोई मेरे पितर प्रेतरूप से स्थित हों, वे सब यहाँ पिंड देने से सदा के लिये तृप्ति को प्राप्त हों |’ अपने कुल को तारनेवाली सभी संतानों का कर्तव्य हैं कि वे अपने सम्पूर्ण पितरों के उद्देश्य से वहाँ पिंड दें तथा अक्षय लोक की इच्छा रखनेवाले पुरुष को अपने लिये भी पिंड अवश्य देना चाहिये ||६४-६८||

बुद्धिमान पुरुष पाँचवे दिन ‘गदालोल’ नामक तीर्थ में स्नान करे | उससमय इस मन्त्र का पाठ करे –‘भगवान् जनार्दन ! जिसमें आपकी गदा का प्रक्षालन हुआ था, उस अत्यंत्य पावन ‘गदालोल’ नामक तीर्थ में मैं संसाररूपी रोग की शान्ति के लिये स्नान करता हूँ ||६९||

‘अक्षय स्वर्ग प्रदान करनेवाले अक्षयवट को नमस्कार है | जो पिता-पितामह आदि के लिये अक्षय आश्रय है तथा सब पापों का क्षय करनेवाला हैं, उस अक्षय वट को नमस्कार है |’ यों प्रार्थना कर वट के नीचे श्राद्ध करके ब्राह्मण भोजन करावे ||७०-७१||

वहाँ एक ब्राह्मण को भोजन कराने से कोटि ब्राह्मणों को भोजन करानेका पुण्य होता हैं | फिर यदि बहुत से ब्राह्मणों को भोजन कराया जाय, तब तो उसके पुण्यका क्या कहना हैं ? वहाँ पितरों के उद्देश्य से जो कुछ दिया जाता है, वह अक्षय होता है | पितर उसी पुत्र से अपने को पुत्रवान मानते हैं, जो गया में जाकर उनके लिये अन्नदान करता हैं | वट तथा वटेश्वर को नमस्कार करके अपने प्रपितामह का पूजन करे | ऐसा करनेवाला पुरुष अक्षय लोक में जाता हैं और अपनी सौ पीढ़ियों का उद्धार कर देता हैं | क्रम से हो या बिना क्रमसे, गया की यात्रा महान फल देनेवाली होती है ||७२-७४||

अध्याय –११६ गया में श्राद्ध की विधि

अग्निदेव कहते हैं गायत्री मन्त्र से ही महानदी में स्नान करके संध्योपासना करे | प्रात:काल गायत्री के सम्मुख किया हुआ श्राद्ध और पिंडदान अक्षय होता है | सूर्योदय के समय तथा मध्याह्नकाल में स्नान करके गीत और वाद्य के द्वारा सावित्री देवी की उपासना करे | फिर उन्हीं के सम्मुख संध्या करके नदीके तटपर पिंडदान करे | तदनन्तर अगस्त्यपद में पिंडदान करे | फिर ‘योनिद्वार’ (ब्रह्मयोनि) – में प्रवेश करके निकले | इससे वह फिर माता की योनि में नहीं प्रवेश करता, पुनर्जन्म से मुक्त हो जाता है | तत्पस्च्यात काकशिलापर बलि देकर कुमार कार्तिकेय को प्रणाम करे | इसके बाद स्वर्गद्वार, सोमकुंड और वायु-तीर्थ में पिंडदान करे | फिर आकाशगंगा और कपिला के तटपर पिंड दे | वहाँ कपिलेश्वर शिव को प्रणाम करके रुक्मिणीकुंड पर पिंडदान करे ||१-५||

कोटि-तीर्थ में भगवान् कोटीश्वर को नमस्कार करके मनुष्य अमोघपद, गदालोल, वानरक एवं गोप्रचार तीर्थ में पिंडदान दे | वैतरणी में गौ को नमस्कार एवं दान करके मनुष्य अपनी इक्कीस पीढ़ियों का उद्धार कर देता है | वैतरणी के तटपर श्राद्ध एवं पिंडदान करे | उसके बाद क्रौंचपाद में पिंड दे | तृतीया तिथि को विशाला, निश्चिरा, ऋणमोक्ष तथा पापमोक्ष तीर्थ में भी पिंडदान करे | भस्मकुंड में भस्म से स्नान करनेवाला पुरुष पाप से मुक्त हो जाता है | वहाँ भगवान् जनार्दन को प्रणाम करे और इस प्रकार प्रार्थना करे –‘जनार्दन ! यह पिंड मैंने आपके हाथमें समर्पित किया हैं | परलोक में जानेपर यह मुझे अक्षयरुप में प्राप्त हो |’ गया में साक्षात भगवान् विष्णु ही पितृदेव के रूप में विराजमान हैं ||६-१०||

उन भगवान् कमलनयन का दर्शन करके मानव तीनों ऋणों से मुक्त हो जाता है | तदनंतर मार्कण्डेयेश्वर को प्रणाम करके मनुष्य ग्रुध्रेश्वर को नमस्कार करना चाहिये | महादेवजी के मुलक्षेत्र धारा में पिंडदान करना चाहिये | इसीप्रकार गृध्रकूट, गृध्रवट और धौतपाद में पिंडदान करना उचित है | पुष्करिणी, कर्दमाल और रामतीर्थ में पिंड दे | फिर प्रभासेश्वर को नमस्कार करके प्रेतशिलापर पिंडदान दे | उस समय इसप्रकार कहे – ‘दिव्यलोक, अन्तरिक्षलोक तथा भुमिलोक में जो मेरे पितर और बांधव आदि सम्बन्धी प्रेत आदि के रूप में रहते हो, वे सब लोग इन मेरे दिये हुए पिंडों के प्रभाव से मुक्ति-लाभ करे |’ प्रेतशिला तीन स्थानों में अत्यंत पावन मानी गयी हैं – गयाशीर्ष, प्रभासतीर्थ और प्रेतकुंड | इनमे पिंडदान करनेवाला पुरुष अपने कुल का उद्धार कर देता है ||११-१५||

वसिष्ठेश्वर को नमस्कार करके उनके आगे पिंडदान दे | गयानाभि, सुषुम्ना तथा महाकोष्ठी में भी पिंडदान करे | भगवान् गदाधर के सामने मुंडपृष्ठपर देवी के समीप पिंडदान करे | पहले क्षेत्रपाल आदिसहित मुंडपृष्ठ को नमस्कार कर लेना चाहिये | उनका पूजन करनेसे भय का नाश होता है, विष और रोग आदि का कुप्रभाव भी दूर हो जाता है | ब्रह्माजी को प्रणाम करने से मनुष्य अपने कुल को ब्रह्मलोक में पहुँचा देता हैं | सुभद्रा, बलभद्र तथा भगवान् पुरुषोत्तम का पूजन करने से मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त करके अपने कुल का उद्धार कर देता और अंत में स्वर्गलोक का भागी होता है | भगवान् हृषिकेश को नमस्कार करके उनके आगे पिंडदान देना चाहिये | श्रीमाधव का पूजन करके मनुष्य विमानचारी देवता होता है ||१६-२०||

भगवती महालक्ष्मी, गौरी तथा मंगलमयी सरस्वती की पूजा करके मनुष्य अपने पितरों का उद्धार करता, स्वयं भी स्वर्गलोक में जाता और वहाँ भोग भोगने के पश्च्यात इस लोकमें आकर शास्त्रों का विचार करनेवाला पंडित होता है | फिर बारह आदित्यों का, अग्नि का, रेवंत का और इंद्र का पूजन करके मनुष्य रोग आदि से छुटकारा पा जाता है और अंत में स्वर्गलोक का निवासी होता है | ‘श्रीकपर्दी विनायक’ तथा कार्तिकेय का पूजन करनेसे मनुष्य को निर्विघ्नतापूर्वक सिद्धि प्राप्त होती है | सोमनाथ, कालेश्वर, केदार, प्रपितामह, सिद्धेश्वर, रुद्रेश्वर, रामेश्वर तथा ब्रह्मकेश्वर – इन आठ गुप्त लीगों का पूजन करनेसे मनुष्य सब कुछ पा लेता हैं | यदि लक्ष्मीप्राप्ति की कामना हो तो भगवान् नारायण, वाराह, नरसिंह को नमस्कार करे ब्रह्मा, विष्णु तथा त्रिपुरनाशक महेश्वर को भी प्रणाम करे | वे सब कामनाओं को देनेवाले हैं ||२१-२५||

सीता, राम, गरुड़ तथा वामन का पूजन करनेसे मानव अपनी सम्पूर्ण कामनाएँ प्राप्त कर लेता हैं और पितरों को ब्रह्मलोक की प्राप्ति करा देता हैं | देवताओंसहित भगवान् श्रीआदि-गदाधर का पूजन करनेसे मनुष्य तीनों ऋणों से मुक्त होकर अपने सम्पूर्ण कुल को तार देता है | प्रेतशिला देवरुपा होने से परम पवित्र है | गया में वह शिला देवमयी ही है | गया में ऐसा कोई स्थान नहीं हैं, जहाँ तीर्थ न हो | गयामें जिसके नाम से भी पिंड दिया जाता है, उसे वह सनातन ब्रह्म में प्रतिष्ठित कर देता है |

देव ! भगवान् गदाधर ! मैं पितरों का श्राद्ध करने के निमित्त गया में आया हूँ | आप यहाँ मेरे साक्षी होईये | आज मैं तीनों ऋणों से मुक्त हो गया | ब्रह्मा और शंकर आदि देवता मेरे लिये साक्षी बनें | मैंने गया में आकर अपने पितरों का उद्धार कर दिया | श्राद्ध आदि में गया के इस माहात्म्य का पाठ करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोक का भागी होता है | गया में पितरों का श्राद्ध अक्षय होता है | वह अक्षय ब्रह्मलोक देनेवाला है || २६-४३ ||

अध्याय –११७ श्राद्ध कल्प

अग्निदेव कहते हैं महर्षि कात्यायन ने मुनियों से जिसप्रकार श्राद्ध का वर्णन कीया था, उसे बतलाता हूँ | गया आदि तीर्थों में, विशेषत: संक्राति आदि के अवसरपर श्राद्ध करना चाहिये | अपराह्रकाल में, अपरपक्ष (कृष्णपक्ष) – में, चतुर्थी तिथि को अथवा उसके बाद की तिथियों में श्राद्धोपयोगी सामग्री एकत्रित कर उत्तम नक्षत्र में श्राद्ध करे | श्राद्ध के एक दिन पहले ही ब्राह्मणों को निमंत्रित करे | संन्यासी, ग्रहस्थ, साधू अथवा स्नातक तथा श्रोत्रिय ब्राह्मणों को, जो निंदा के पात्र न हों, अपने कर्मों में लगे रहते हों और शिष्ट एवं सदाचारी हों – निमंत्रित करना चाहिये | जिनके शरीर में सफेद दाग हों, जो कोढ़ आदि के रोगों से ग्रस्त हों, ऐसे ब्राह्मणों को छोड़ दे; उन्हें श्राद्ध में सम्मिलित न करे | निमंत्रित ब्राह्मण जब स्नान और आचमन करके पवित्र हो जायँ तो उन्हें देवकर्म में पूर्वाभिमुख बिठावे | देव-श्राद्ध, पितृ-श्राद्ध में तीन-तीन ब्राह्मण रहें अथवा दोनों में एक-एक ही ब्राह्मण हों | इसप्रकार मातामह आदि के श्राद्ध में भी समझना चाहिये | शाक आदि से भी श्राद्ध-कर्म करावे ||१-५||

श्राद्ध के दिन ब्रह्मचारी रहे, क्रोध और उतावली न करे | नम्र, सत्यवादी और सावधान रहे | उस दिन अधिक मार्ग न चले, स्वाध्याय भी न करे, मौन रहे | सम्पूर्ण पंक्तिमूर्धन्य (पंक्तिमें सर्वश्रेष्ठ अथवा पंक्तिवान) ब्राह्मणों से प्रत्येक कर्म के विषय में पूछे | आसनपर कुश बिछावे | पितृकर्म में कुशों को दुहरा मोड़ देना चाहिये | पहले देव-कर्म, फिर पितृ-कर्म करे | (श्राद्ध आरम्भ करनेसे पूर्व रक्षा-दीप जला लेना चाहिये |) देव-धर्म में स्थित ब्राह्मणों से पूछे –‘मैं विश्वेदेवों का आवाहन करूँगा |’ ब्राह्मण आज्ञा दें –‘आवाहन करो’, तब

‘विश्वेदेवास आगत श्रुणुताम इम हवम, एदं बहिर्निषीदत’ (यजु.७/३४)– इस मन्त्र के द्वारा विश्वेदेवों का आवाहन करके आसनपर जौ छोड़े तथा

‘विश्वेदेवा: श्रुणुतेम हवं में ये अन्तरिक्षे य उपद्यविष्ठ |ये अग्निजिव्हा उत वा यजत्रा आसद्यास्मिन बहिर्षि माद्यध्वम ||’ (यजु. ३३/५३)

इस मन्त्र का जप करे | तत्पस्च्यात पितृकर्म में नियुक्त ब्राह्मणों से पूछे – ‘मैं पितरों का आवाहन करूँगा |’ ब्राहमण कहें – ‘आवाहन करो |’ तब‘ॐ उशन्तस्तवा निधीध्म्युशन्त: समिधीमहि | उशन्नुशत आवह पितृन हविये अतवे || (यजु. १९/७०)

इस मन्त्र का पाठ करते हुए आवाहन करे | फिर ‘अपहता असुरा रक्षांसि वेदिषद: ||’ (यजु. २/२९) – इस मन्त्र से तिल बिखेरकरॐ आयन्तु न: पितर: सोम्यासोग्निष्वात्ता: पथिभिर्देवयानै: |अस्मिन यज्ञे स्वधया मदन्तोधिब्रुवन्तु तेवन्त्वस्मान || (यजु. १९/५८)इत्यादि मन्त्र का जप करे | इसके बाद पवित्रकसहित अर्घ्यपात्र में –

ॐ शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये | शैय्योरभिसवन्तु न: || (अथर्व. १/६/१) इस मन्त्र से जल डाले ||६-१०||

तदनंतर ॐ यवोसि यवयास्मदद्वेपो यवयाराती: | (यजु. ५/२६) इस मन्त्र से जौ देकर पितरों के निमित्त सर्वत्र तिलका उपयोग करे | (पितरों के अर्घ्यपात्र में भी ‘ॐ शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये | शैय्योरभिसवन्तु न: || (अथर्व. १/६/१)’ इस मन्त्र से जल डालकर)‘तिलोंसि सोमदेवत्यों गोसवे देवनिर्मित: | प्रत्नवभ्दी: प्रत्त: स्वधया पित्रुल्लोकान पृणीहि न: स्वधा |’ यह मन्त्र पढ़कर तिल डाले |

फिर ‘श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पल्यावहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूपमश्चिंनौ व्यात्तम | इष्णात्रिषाणामुं म इषाण सर्वलोकं म इषाण || (यजु,३१/२२) इस मन्त्र से अर्घ्यपात्र में फुल छोड़े | अर्घ्यपात्र सोना, चाँदी, गुलर अथवा पत्तेका होना चाहिये | उसी में देवताओं के लिये सव्यभाव से और पितरों के लिये अपसव्यभाव से उक्त वस्तुएँ रखनी चाहिये | एक –एक को एक-एक अर्घ्यपात्र पृथक-पृथक देना उचित हैं | पितरों के हाथों में पहले पवित्री रखकर ही उन्हें अर्घ्य देना चाहिये ||११-१३||

तत्पस्च्यात देवताओं के अर्घ्यपात्र को बायें हाथ में लेकर उसमें रखी हुई पवित्री को दाहिने हाथ से निकाल कर देव-भोजन-पात्रपर पूर्वाग्र करके रख दे | उसके ऊपर दूसरा जल देकर अर्घ्यपात्र को ढककर निम्नांकित मन्त्र पढ़े – ॐ या दिव्या आप: पयसा सम्बभूवुर्या अन्तरिक्षा उत पार्थिविर्या: | हिरण्यवर्णा यज्ञियास्ता न आप: शिवा: शं स्योना: सुहवा भवन्तु ||’ फिर जौ, कुश और जल हाथ में लेकर संकल्प पढ़े | ‘ॐ अध्यामुकगोत्रानां पितृपितामह प्रपितामहानाम अमुकामुकशर्मणाम अमुकश्राद्धस्म्बन्धिनों विश्वेदेवा: एष वो हस्तार्घ्य: स्वाहा |’ यों कहकर देवताओं को अर्घ्य देकर पात्रको दक्षिण भाग में सीधे रख दे | इसीप्रकार पिता आदिके लिये भी अर्घ्य दे | उसका संकल्प इसप्रकार है – ‘ओमद्य अमुकगोत्र पित: अमुकशर्मन अमुकश्राद्धे एष हस्तार्घ्य: ते स्वधा |’ इसी तरह पितामह आदि को भी दे | फिर सब अर्घ्य का अवशेष पहले पात्रमे डाल दे अर्थात प्रपितामह के अर्घ्य में जो जल आदि हो, उसे पितामह के पात्रमे डाल दे | इसके बाद वह सब पिताके अर्घ्यपात्र में रख दे | पिटा के अर्घ्यपात्र को पितामह के अर्घ्यपात्र के ऊपर रखे | फिर उन दोनों को प्रपितामह के अर्घ्यपात्र के ऊपर रख दे | फिर उन दोनों को प्रपितामह के अर्घ्यपात्र के ऊपर रख दे | तत्पस्च्यात तीनों को पिता के आसन के वामभाग में ‘पितृभ्य: स्थानमसि |’ ऐसा कहकर उल्ट दे | तदनंतर वहाँ देवताओं और पितरों के लिये गंध, पुष्प, धुप, दीप तथा वस्त्र आदि का दान किया जाता हैं ||१४-१६ ||

अब काम्य श्राद्धकल्प का वर्णन –

प्रतिपदा को श्राद्ध करनेसे बहुत धन प्राप्त होता हैं | द्वितीया व तृतीया को श्राद्ध करनेसे श्रेष्ठ स्त्री मिलती हैं | चतुर्थी कोकिया हुआ श्राद्ध धर्म और काम को देनेवाला है | पुत्रकी इच्छावाला पुरुष पंचमी को श्राद्ध करे | षष्ठी के श्राद्ध से मनुष्य श्रेष्ठ होता है | सप्तमी के श्राद्ध से खेती में लाभ होता और अष्टमी के श्राद्ध से अर्थ की प्राप्ति होती है | नवमी को श्राद्ध अनुष्ठान करनेसे एक खुरवाले घोड़े आदि पशु प्राप्त होते है | दशमी के श्राद्ध से गो-समुदाय की उपलब्धि होती है | एकादशी के श्राद्ध से परिवार और द्वादशी के श्राद्ध से धन-धान्य बढ़ता है | त्रयोदशी को श्राद्ध करनेसे अपनी जाति में श्रेष्ठता प्राप्त होती है |चतुर्दशी को उसीका श्राद्ध किया जाता है, जिसका शस्त्रद्वारा वध हुआ है | अमावस्या को सम्पूर्ण मृत व्यक्तियों के लिये श्राद्ध करने का विधान है || १७-५१||

जो दशार्णदेश के वनमें सात व्याध थे, वे कालंजर गिरिपर मृग हुए, शरद्वीप में चक्रवाक् हुए तथा मानस सरोवर में हंस हुए | वे ही अब कुरुक्षेत्र में वेदों के पारंगत विद्वान ब्राह्मण हुए है | अब उन्होंने दुरतक का मार्ग तय कर लिया हैं; तुमलोग उनसे बहुत पीछे रहकर कष्ट पा रहे हो | श्राद्ध आदि के अवसरपर इसका पाठ करनेसे श्राद्ध पूर्ण एवं ब्रह्मलोक देनेवाला होता है | यदि पितामह जीवित हो तो पुत्र आदि अपने पिताका तथा पितामह के पिता और उनके भी पिताका श्राद्ध करे | यदि प्रपितामह जीवित हो तो पिता, पितामह एवं वृद्धप्रपितामहका श्राद्ध करे | इसीप्रकार माता आदि तथा मातामह आदि के श्राद्ध में भी करना चाहिये | जो इस श्राद्धकल्प का पाठ करता हैं, उसे श्राद्ध करने का फल मिलता है ||५२-५६||

उत्तम तीर्थ में, युगादि और मन्वादि तिथि में किया श्राद्ध अक्षय होता है | आश्विनी शुक्ल नवमी, कार्तिक की द्वादशी, माघ तथा भाद्रपद की तृतीया, फाल्गुन की अमावस्या, पौष शुक्ल एकादशी, आषाढ़ की दशमी, माघमास की सप्तमी, श्रावण कृष्णपक्ष की अष्टमी, आषाढ़, कार्तिक, फाल्गुन तथा जेष्ठ की पूर्णिमा – ये तिथियाँ स्वायम्भुव आदि मनुसे सम्बन्ध रखनेवाली हैं | इनके आदिभाग में किया हुआ श्राद्ध अक्षय होता है | गया, प्रयाग, गंगा, कुरुक्षेत्र, नर्मदा, श्रीपर्वत, प्रभास, शालग्रामतीर्थ (गण्डकी), काशी, गोदावरी तथा श्रीपुरुषोत्तमक्षेत्र आदि तीर्थों में श्राद्ध उत्तम होता हैं ||५७-६२||

अध्याय –११८ भारतवर्ष का वर्णन

उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणं  ।११८.००१

वर्षं तद्भारतं नाम नवसाहस्रविस्तृतं  ॥११८.००१

कर्मभूमिरियं स्वर्गमपवर्गं च गच्छतां  ।११८.००२

अग्निदेव कहते हैं – समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण जो वर्ष हैं, उसका नाम ‘भारत’ है | उसका विस्तार नौ हजार योजन है | स्वर्ग तथा अपवर्ग पाने की इच्छावाले पुरुषों के लिये यह कर्मभूमि हैं | महेंद्र, मलय, सह्य, शुक्तिमान, हिमालय, विन्ध्य और पारियात्र – ये सात यहाँ के कुल-पर्वत हैं | इंद्रद्वीप, कसेरू, ताम्रवर्ण, गभस्तिमान, नागद्वीप, सौम्य, गान्धर्व और वारुण – ये आठ द्वीप हैं | समुद्र से घिरा हुआ भारत नवाँ द्वीप है ||१-४||

भारतद्वीप उत्तरसे दक्षिण की ओर हजारों योजन लंबा है | भारत के उपर्युक्त नौ भाग हैं | भारत की स्थिति मध्य में हैं | इसमें पूर्वकी ओर किरात और पश्चिम में यवन रहते हैं | मध्यभाग में ब्राह्मण आदि वर्णों का निवास हैं | वेद-स्मृति आदि नदियाँ पारियात्र पर्वत से निकली हैं | विन्ध्याचल से नर्मदा आदि प्रकट हुई हैं | सह्य पर्वत से तापी, पयोष्णी, गोदावरी, भीमरथी और कृष्णवेणा आदि नदियों का प्रादुर्भाव हुआ हैं ||५-७||

मलय से कृतमाला आदि और महेंद्र पर्वत से त्रिसामा आदि नदियाँ निकली हैं | शुक्तिमान से कुमारी आदि और हिमालय से चन्द्रभागा आदि का प्रादुर्भाव हुआ है | भारत के पश्चिम भाग में कुरु, पांचाल और मध्यदेश आदि की स्थिति हैं ||८||

अध्याय –११९ जम्बू आदि महाद्वीपों तथा समस्त भूमि के विस्तार का वर्णन

अग्निदेव कहते हैं – जम्बूद्वीप का विस्तार एक लाख योजन हैं | वह सब ओरसे एक लाख योजन विस्तृत खारे पानी के समुद्रसे घिरा है | उस क्षारसमुद्र को घेरकर प्लक्षद्वीप स्थित है | मेधातिथि के सात पुत्र प्लक्षद्वीप के स्वामी हैं | शांतभय, शिशिर, सुखोदय, आनंद, शिव, क्षेम तथा ध्रुव – ये सात ही मेधातिथि के पुत्र हैं; उन्हीं के नामसे उक्त सात वर्ष हैं | गोमेध, चंद्र, नारद, दुन्दुभि, सोमक, सुमना और शैल – ये उन वर्षों के सुंदर मर्यादापर्वत है | वहाँ के सुंदर निवासी ‘वैभ्राज’ नामसे विख्यात हैं | इस द्वीप में सात प्रधान नदियाँ हैं | प्लक्षसे लेकर शाकद्वीप तक के लोगों की आयु पाँच हजार वर्ष है | वहाँ वर्णाश्रम-धर्म का पालन किया जाता हैं ||१-५||

आर्य, कुरु, विविंश तथा भावी – यही वहाँ के ब्राह्मण आदि वर्णों की संज्ञाएँ हैं | चंद्रमा उनके आराध्यदेव हैं | प्लक्षद्वीप का विस्तार दो लाख योजन हैं | वह उतने ही बड़े इक्षुरस के समुद्र से घिरा है | उसके बाद शाल्मलद्वीप हैं, जी प्लक्षद्वीप से दुगुना बड़ा हैं | वपुष्मान के सात पुत्र शाल्मलद्वीप के स्वामी हुए | उनके नाम है – श्वेत, हरित, जीमूत, लोहित, वैद्युत, मानस और सुप्रभ | इन्हीं नामों से वहाँ के सात वर्ष हैं | वह प्लक्षद्वीप से दुगुना हैं तथा उससे दुगुने परिमाणवाले ‘सुरोद’ नामक (मदिराके)समुद्रसे घिरा हुआ है | कुमुद, अनल, बलाहक, द्रोण, कंक, महिष और कुकुद्यान – ये मर्यादापर्वत हैं | सात ही वहाँ प्रधान नदियाँ है | कपिल, अरुण, पीत और कृष्ण – ये वहाँ के ब्राह्मण आदि वर्ण है | वहाँ के लोग वायु-देवता की पूजा करते हैं | वह मदिरा के समुद्र से घिरा है ||६-१०||

इसके बाद कुशद्वीप है | ज्योतिष्मान के पुत्र उस द्वीप के अधीश्वर हैं | उद्भिद, धेनुमान, द्वैरथ, लंबन, धैर्य, कपिल और प्रभाकर – ये सात उनके नाम हैं | इन्हीं के नामपर वहाँ सात वर्ष हैं | दमी आदि वहाँ के ब्राह्मण है, जो ब्रह्मरूपधारी भगवान् विष्णु का पूजन करते हैं | विद्रुम, हेमशैल, द्युतिमान, पुष्पवान, कुशेशय, हरि और मंदराचल – ये सात वहाँ के वर्षापर्वत हैं | यह कुशद्वीप अपने ही बराबर विस्तारवाले घी के समुद्र से घिरा हुआ है और वह घृतसमुद्र क्रौंचद्वीप के परिवेष्टित है | राजा द्युतिमान के पुत्र क्रौंचद्वीप के स्वामी हैं | उन्हीं के नामपर वहाँ के वर्ष प्रसिद्ध हैं ||११-१४||

उदयगिरि, जलधर, रैवत, श्याम, कोद्र्क, आम्बिकेय और सुरम्य पर्वत केसरी – ये सात वहाँ के मर्यादापर्वत हैं तथा सात ही वहाँ की प्रसिद्ध नदियाँ हैं | मग, मगध, मानस्य और मन्दग – ये वहाँ के ब्राह्मण आदि वर्ण हैं, जो सूर्यरूपधारी भगवान् नारायण की आराधना करते हैं | शाकद्वीप क्षीरसागर से घिरा हुआ है |क्षीरसागर पुष्करद्वीप से परिवेष्टित हैं | वहाँ के अधिकारी राज सवन के दो पुत्र हुए, जिनके नाम थे – महावीत और धातकि | उन्हीने नामसे वहाँ के दो वर्ष प्रसिद्ध हैं ||२०-२२||

वहाँ एक ही मानसोत्तर नामक वर्षपर्वत विद्यमान हैं, जो उस वर्ष के मध्यभाग में वलयाकार स्थित हैं | उसका विस्तार कई सहस्र योजन हैं | ऊँचाई भी विस्तार के समान ही है | वहाँ के लोग दस हजार वर्षोतक जीवन धारण करते हैं | वहाँ देवता लोग ब्रह्माजी की पूजा करते हैं | पुष्करद्वीप स्वादिष्ट जलवाले समुद्र से घिरा हुआ है | उस समुद्र का विस्तार उस द्वीप के समान ही है | महामुने ! समुद्रों से जो जल हैं, वह कभी घटता – बढ़ता नहीं हैं | शुक्ल और कृष्ण – दोनों पक्षों में चंद्रमा के उदय और अस्तकाल में केवल पाँच सौ दस अंगुलयुक्त समुद्र के जल का घटना और बढ़ना देखा जाता है (परन्तु इससे जलमें न्यूनता या अधिकता नहीं होती हैं ) ||२३-२६||

मीठे जलवाले समुद्र के चारों ओर उससे दुगुने परिमाणवाली भूमि सुवर्णमयी हैं, किन्तु वहाँ कोई भी जीव-जन्तु नहीं रहते हैं | उसके बाद लोकालोकपर्वत हैं, जिसका विस्तार दस हजार योजन हैं | लोकालोकपर्वत एक ओर से अन्धकारद्वारा आवृत है और वह अन्धकार अंडकटाह से आवृत है | अंडकटाहसहित साड़ी भूमिका विस्तार पचास करोड़ योजन हैं ||२७-२८||

अध्याय –१२० भुवनकोश वर्णन

अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! भूमि का विस्तार सत्तर हजार योजन बताया गया है | उसकी ऊँचाई दस हजार योजन है | पृथ्वी के भीतर सात पाताल हैं | एक-एक पाताल दस-दस हजार योजन विस्तृत हैं | सात पातालों के नाम इस प्रकार हैं –

अतल, वितल, नितल, प्रकाशमान महातल, सुतल, तलातल और सातवाँ रसातल या पाताल | उस पातालों की भूमियाँ क्रमशः काली, पीली, लाल, सफेद, कंकरीली, पथरीली और सुवर्णमयी हैं | वे सभी पाताल बड़े रमणीय हैं | उनमें दैत्य और दानव आदि सुखपूर्वक निवास करते हैं | समस्त पातालों के नीचे शेषनाग विराजमान हैं, जो भगवान् विष्णु के तमोगुण-प्रधान विग्रह हैं | उनमें अनंत गुण हैं, इसीलिये उन्हें ‘अनंत’ भी कहते हैं | वे अपने मस्तकपर इस पृथ्वी को धारण करते हैं ||१-४||

पृथ्वी के नीचे अनेक नरक हैं, परन्तु जो भगवान् विष्णु का भक्त हैं, वह उन नरकों में नहीं पड़ता हैं | सूर्यदेव से प्रकाशित होनेवाली पृथ्वीका जितना विस्तार हिन्, उतना ही नभोलोक (अन्तरिक्ष या भुवर्लोक)- का विस्तार माना गया हैं | वसिष्ठ ! पृथ्वी से एक लाख योजन दूर सूर्यमंडल है | सूर्य से लाख योजन की दुरीपर चंद्रमा विराजमान हैं | चंद्रमा से एक लाख योजन ऊपर नक्षत्र-मंडल प्रकाशित होता है | नक्षत्र मंडल से दो लाख योजन ऊँचे बुध विराजमान हैं | बुध से दो लाख योजन ऊपर शुक्र हैं | शुक्र से दो लाख योजन की दुरीपुर मंगल स्थान हैं | मंगल से दो लाख योजन ऊपर बृहस्पति हैं | बृहस्पति से दो लाख योजन ऊपर शनैश्वर का स्थान हैं | उनसे लाख योजन ऊपर सप्तर्षियों का स्थान हैं | सप्तर्षियों से लाख योजन ऊपर ध्रुव प्रकाशित होता है | त्रिलोकी की इतनी ही ऊँचाई हैं, अर्थात त्रिलोकी (भूर्भव:स्व:- के ऊपरी भाग की चरम सीमा ध्रुव ही है ||५-८||

ध्रुव से कोटि योजन ऊपर ‘महर्लोक; है, जहाँ कल्पान्तजीवी भृगु आदि सिद्धगण निवास करते हैं | महर्लोक से दो करोड़ ऊपर ‘जनलोक’ की स्थिति हैं, जहाँ सनक, सनन्दन आदि सिद्ध पुरुष निवास करते हैं | जनलोक से आठ करोड़ योजन ऊपर ‘तपोलोक’ है, जहाँ वैराज नामवाले देवता निवास करते हैं | तपोलोक से छानबे करोड़ योजन ऊपर ‘सत्यलोक’ विराजमान है | सत्यलोक में पुन: मृत्यु के अधीन न होनेवाले पुण्यात्मा देवता एवं ऋषि-मुनि निवास करते हैं | उसी को ‘ब्रह्मलोक’ भी कहा गया है | जहाँतक पैरोंसे चलकर जाया जाता हैं, वह सब ‘भूलोक’ है | भूलोक से सूर्यमंडल के बीच का भाग ‘भुवर्लोक’ कहा गया हैं | सूर्यलोक से ऊपर ध्रुवलोक तक के भाग को ‘स्वर्गलोक’ कहते है | उसका विस्तार चौदह लाख योजन हैं | यही त्रैलोक्य है और यही अंडकटाह से घिरा हुआ विस्तृत ब्रह्मांड है | यह ब्रहमांड क्रमश: जल, अग्नि, वायु और आकाशरूप आवरणोंद्वारा बाहर से घिरा हुआ है | इन सबके ऊपर अहंकार का आवरण हैं | ये जल आदि आवरण उत्तरोत्तर दसगुने बड़े हैं | अहंकाररूप आवरण महत्तत्त्वमय आवरण से घिरा हुआ है ||९-१३||

महामुने ! ये सारे आवरण एक से दुसरे के क्रम से दसगुने बड़े हैं | महत्तत्त्व को भी आवृत करके प्रधान (प्रकृति) स्थित हैं | वह अनंत है; क्योंकि उसका कभी अंत नहीं होता | इसीलिये उसकी कोई संख्या अथवा माप नहीं है | मुने ! वह सम्पूर्ण जगतका कारण है | उसे ही “अपरा प्रकृति” कहते है | उसमें ऐसे-ऐसे असंख्य ब्रह्मांड उत्पन्न हुए है | जैसे काठ में अग्नि और तिल में तेल रहता हैं, उसीप्रकार प्रधान में स्वयंप्रकाश चेतनात्मा व्यापक पुरुष विराजमान हैं ||१४-१६||

महाज्ञान मुने ! ये संश्रयधर्मी प्रधान और पुरुष सम्पूर्ण भूतों की आत्मभूता विष्णुशक्ति से आवृत्त हैं | महामुने ! भगवान् विष्णु की स्वरुपभूता वह शक्ति ही प्रकृति और पुरुष के संयोग और वियोग में कारण है | वाही सृष्टि के समय उनमें क्षोभ का कारण बनती है | जैसे जल के सम्पर्क में आयी हुई वायु उसकी कर्निकाओं में व्याप्त शीतलता को धारण करती हैं, उसीप्रकार भगवान् विष्णु की शक्ति भी प्रकृति-पुरुषमय जगत को धारण करती है | विष्णु-शक्ति का आश्रय लेकर ही देवता आदि प्रकट होते हैं | वे भगवान् विष्णु स्वयं ही साक्षात ब्रह्म हैं, जिससे इस सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति होती है ||१७-२०||

मुनिश्रेष्ठ ! सूर्यदेव के रथ का विस्तार नौ सहस्त्र योजन है तथा उस रथ का ईषादण्ड (हरसा) इससे दूना बड़ा अर्थात अठारह हजार योजन का है | उसका धुरा डेढ़ करोड़ सात लाख योजन लंबा हैं, जिसमें उस रथ का पहिया लगा हुआ है | उसमें पूर्वान्ह, मध्यान्ह और अपरान्हरूप तीन नाभियाँ हैं | संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर और वत्सर – ये पाँच प्रकार के वर्ष उसके पाँच अरे हैं | छहों ऋतुएँ उसकी छ: नेमियाँ हैं और उत्तर – दक्षिण दो अयन उसके शरीर हैं | ऐसे संवत्सरमय रथ का दूसरा धुरा साढ़े पैंतालिस हजार योजन लंबा हैं | दोनों धुरों के परिमाण के तुल्य ही उसके युगार्द्धो का परिमाण है ||२१-२५||

उस रथ के दो धुरों में से जो छोटा है वह, और उसका युगार्द्ध ध्रुव के आधारपर स्थित है | उत्तम व्रत का पालन करनेवाले मूने ! गायत्री, बृहती, उष्णिक, जगती, त्रिष्टुप, अनुष्टुप और पंक्ति – ये सात छंद ही सूर्यदेव के सात घोड़े कहे गये है | सूर्यका दिखायी देना उदय हैं और उनका दृष्टी से ओझल हो जान ही अस्तकाल हैं, ऐसा जानना चाहिये | वसिष्ठ ! जितने प्रदेश में ध्रुव स्थित है, पृथ्वी से लेकर उस प्रदेश-पर्यन्त सम्पूर्ण देश प्रलयकाल में नष्ट हो जाता हैं | सप्तर्षियों से उत्तर दिशामें ऊपर की ओर जहाँ ध्रुव स्थित हैं, आकाश में वह दिव्य एवं प्रकाशमान स्थान ही विराटरूपधारी भगवान् विष्णु का तीसरा पद है | पुण्य और पाप के क्षीण हो जानेपर दोषरूपी पंक से रहित संयतचित्त माहात्माओं का यही परम उत्तम स्थान हैं | इस विष्णुपद से ही गंगा का प्राकट्य हुआ है, जो स्मरणमात्र से सम्पूर्ण पापों का नाश करनेवाली हैं ||२६-२९||

आकाश में जो शिशुमार (सूंस) – की आक्रुतिवाला ताराओं का समुदाय देखा जाता हैं, उसे भगवान् विष्णु का स्वरुप जानना चाहिये | उस शिशुमारचक्र के पुच्छभाग में ध्रुव की स्थिति है | यह ध्रुव स्वयं घूमता हुआ चन्द्रमा और सूर्य आदि ग्रहों को घुमाता हैं | भगवान् सूर्यका वह रथ प्रतिमास भिन्न-भिन्न आदित्य-देवता, श्रेष्ठ ऋषि, गंधर्व, अप्सरा, ग्रामणी (यक्ष), सर्प तथा राक्षसों से अधिष्ठित होता है | भगवान् सूर्य ही सर्दी, गर्मी तथा जल-वर्षा के कारण हैं | वे ही ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदमय भगवान् विष्णु है; वे ही शुभ और अशुभ के कारण हैं ||३०-३२||

चंद्रमा का रथ तीन पहियों से युक्त है | उस रथ के बायें और दायें भाग में कुंद-कुसुम की भाँती श्वेत रंग के दस घोड़े जूते हुए हैं | उसी रथ के द्वारा वे चंद्रदेव नक्षत्रलोक में विचरण करते हैं | तैतीस हजार तैतीस सौ तैतीस (३३३३३) देवता चंद्रदेव की अमृतमयी कलाओं का पान करते हैं | अमावस्या के दिन ‘अमा’नामक एक रश्मि (कला)- में स्थित हुए पितृगण चंद्रमा की बची हुई दो कलाओं में से एकमात्र अमृतमयी कला का पान करते हैं | चंद्रमा के पुत्र बुध का रथ वायु और अग्निमय द्रव्य का बना हुआ है || उसमें आठ शीघ्रगामी घोड़े जुते हुए हैं | उसी रथ से बुध आकाश में विचरण करते हैं ||३३-३६||

शुक्र के रथों में  भी आठ घोड़े जुते होते है | मंगल के रथ में भी उतने ही घोड़े जोते जाते हैं | बृहस्पति और शनैश्वर के रथ भी आठ-आठ घोड़ों से युक्त हैं | राहू और केतु के रथों में भी आठ-आठ ही घोड़े जोते जाते हैं | विप्रवर ! भगवान् विष्णु का शरीरभूत जो जल हैं, उससे पर्वत और समुद्रादि के सहित कमल के समान आकारवाली पृथ्वी उत्पन्न हुई | ग्रह, नक्षत्र, तीनों लोक, नदी, पर्वत, समुद्र और वन – ये सब भगवान् विष्णु के ही स्वरुप हैं | जो है और जो नहीं है, वह सब भगवन विष्णु ही हैं | विज्ञान का विस्तार भी भगवान् विष्णु ही है | विज्ञान से अतिरिक्त किसी वस्तु की सत्ता नहीं है | भगवान् विष्णु ज्ञानस्वरूप ही हैं | वे ही परमपद हैं | मनुष्य को वही करना चाहिये, जिससे चित्तशुद्धि के द्वारा विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करके वह विष्णुस्वरूप हो जाय | सत्य एवं अनंत ज्ञानस्वरूप ब्रह्म ही ‘विष्णु’ हैं ||३७-४०||

जो इस भुवनकोश के प्रसंग का पाठ करेगा, वह सुखस्वरूप परमात्मपद को प्राप्त कर लेगा | अब ज्योतिषशास्त्र आदि विद्याओं का वर्णन करूँगा | उसमें विवेचित शुभ और अशुभ – सबके स्वामी भगवान् श्रीहरि ही है ||४१-४३||

अध्याय-१२१ ज्योतिःशास्त्रका कथन

अग्निदेव कहते हैंमुने! अब मैं शुभ-अशुभका विवेक प्रदान करनेवाले संक्षित ज्यौतिषशास्त्रका वर्णन करुँगा, जो चार लक्ष श्लोकवाले विशाल ज्यौतिषशास्त्रका सारभूत अंश है, जिसे जानकर मनुष्य सर्वज्ञ हो सकता हैं।

यदि कन्याकी राशिसे वरकी राशिसंख्या परस्पर छ:- आठ, नौ-पाँच और दो-बारह हो तो विवाह शुभ नहीं होता है।

शेष दस-चार, ग्यारह-तीन और सम सप्तक (सात-सात) हो तो विवाह शुभ होता है।

यदि कन्या और वरकी शशिके स्वामियोंमें परस्पर मित्रता हो या दोनोंकी राशियोंका एक ही स्वामी हो, अथवा दोनोंकी ताराओं (जन्मनक्षत्रों)-में मैत्री हो तो नौ-पाँच तथा दो-बारहका दोष होने पर भी विवाह कर लेना चाहिये, किंतु षड़ष्टक (छ:-आठ)-के दोषमें तो कदापि विवाह नहीं हो सकता।

गुरु-शुक्रके अस्त रहनेपर विवाह करनेसे वधूके पतिका निधन हो जाता है। गुरु-क्षेत्र (धनु, मीन)-में सूर्व हो एवं सूर्यके क्षेत्रमें गुरु हो तो विवाहको अच्छा नहीं मानते हैं; क्योंकि वह विवाह कन्याके लिये वैधव्यकारक होता है। १-५ ॥

(संस्कार-मुहुर्त) बृहस्पतिके वक्र रहनेपर तथा अतिचारी होनेपर विवाह तथा उपनयन नहीं करना चाहिये। आवश्यक होनेपर अतिचारके समय त्रिपक्ष अर्थात डेढ़ मास तथा वक्र होनेपर चार मास छोड़कर शेष समयमें विवाह-उपनयनादि शुभ संस्कार करने चाहिये।

चैत्र-पौषमें, रिक्ता तिथिमें, भगवानके सोनेपर, मङ्गल तथा रविवारमें, चन्द्रमाके क्षीण रहनेपर भी विवाह शुभ नहीं होता है।

संध्याकाल (गोधूलि-समय) शुभ होता है।

रोहिणी, तीनों उत्तरा, मूल, स्वाती, हस्त, रेवती-इन नक्षत्रोंमें, तुला लग्नको छोड़कर मिथुनादि द्विस्वभाव एवं स्थिर लग्नोंमें विवाह करना शुभ होता है।

विवाह, कर्णवेध, उपनयन तथा पुंसवन संस्कारोंमें अन-प्राशन तथा प्रथम चूझकर्ममें .विद्धनक्षत्रकों त्याग देना चाहिये।॥ ६-९ ॥

श्रवण, मूल, पुष्य-इन नक्षत्रोंमें, रवि, मङ्गल, बृहस्पति-इन वारोंमें तथा कुम्भ, सिंह, मिथुनइन लग्नोंमें पुंसवन-कर्म करनेका विधान है।

हस्त, मूल, मृगशिरा और रेवती नक्षत्रोंमें, बुध और शुक्र वारमें बालकोंका निष्कासन शुभ होता है।

रवि, सोम, बृहस्पति तथा शुक्र-इन दिनोंमें, मूल नक्षत्रमें प्रथम बार ताम्बूल-भक्षण करना चाहिये।

शुक्र तथा बृहस्पति वारको, मकर और मीन लग्नमें, हस्तादि पाँच नक्षत्रोंमें, पुष्यमें तथा कृत्तिकादि तीन नक्षत्रोंमें अन-प्राशन करना चाहिये।

आश्वनी, रेवती, पुष्य, हस्त, ज्येष्ठा, रिहिणी और श्रवण नक्षत्रोंमें नूतन अन और फलका भक्षण शुभ होता है।

स्वातीं तथा मृगशिरा नक्षत्रमें औषध-सेवन करना शुभ होता है।

(रोग-मुक्त-स्नान)

तीनों पूर्वा, मघा, भरणी, स्वाती तथा श्रवणसे तीन नक्षत्रोंमें, रवि, शनि और मङ्गल-इन वारोंमें रोग-विमुक्त व्यक्तिको स्नान करना चाहिये ॥ १०-१४ ॥

(यन्त्र-प्रयोग)

मिट्टीके चौकोर पट्टपर आठ दिशाओं में आठ ‘ह्रीं’ कार और बीच में अपना नाम लिखे अथवा पार्थिव पट्ट या भोजपत्रपर आठों दिशाओंमें ‘ह्रीं” लिखकर मध्यमें अपना नाम गोरोचन तथा कुङ्कुमसे लिखे। ऐसे यन्त्रको वस्त्रमें लपेटकर गलेमें धारण करनेसे शत्रु निश्चय ही वशमें हो जाते हैं। इसी तरह गोरोचन तथा कुङ्कुमसे ‘श्री’ह्रीं’ मन्त्रद्वारा सम्पुटित नामको आठ भूर्जपत्र-खण्डपर लिखकर पृथ्वीमें गाड़ दे तो शीघ्र विदेश गया हुआ व्यक्ति वापस आता है और उसी यन्त्रको हल्दीके रससे शिलापट्टपर लिखकर नीचे मुख करके पृथ्वीपर रख दे तो शत्रुका स्तम्भन होता है।

‘ॐ हूं सः’ मन्त्रसे सम्पुटित नाम गोरोचन तथा कुङ्कुमसे आठ भूर्जपत्रोंपर लिखकर रखा जाय तो मृत्युका निवारण होता है।

यह यन्त्र एक, पाँच और नौ बार लिखनेसे परस्पर प्रेम होता है। दो, छ: या बारह बार लिखनेसे वियुक्त व्यक्तियोंका संयोग होता है और तीन, सात या ग्यारह बार लिखनेसे लाभ होता है और चार, आठ और बारह बार लिखनेसे परस्पर शत्रुता होती है।॥ १५-२० ॥

(भाव और तारा)

मेषादि लग्नोंसे तनु, धन, सहज, सुहृत्, सुत, रिपु, जाया, निधन, धर्म, कर्म, आय, व्यय-ये बारह भाव होते हैं।

अब नौ ताराओंका बल बतलाता हूँ। जन्म, संपत्, विपत्, क्षेम, प्रत्यरि, साधक, मृत्यु मैत्र और अतिमैत्र-ये नौ तारे होते हैं।

बुध, वृहस्पति, शुक्र, रवि तथा सोम वारको और माघ आदि छ: मासोंमें प्रथम क्षौर-कर्म (बालकका मुण्डन) कराना शुभ कहा गया है।

बुधवार तथा गुरुवारको एवं पुष्य, श्रवण और चित्रा नक्षत्रमें कर्णवेधसंस्कार शुभ होता है।

पाँचवें वर्षमें प्रतिपदा, षष्ठी, रिक्ता और पूर्णिमा तिथियोको एवं मङ्गलवारको छोड़कर शेष वारोंमें सरस्वती, विष्णु और लक्ष्मीका पूजन करके अध्ययन (अक्षरारम्भ) करना चाहिये।

माघसे लेकर छ: मासतक अर्थात् आषाढ़तक उपनयन-संस्कार शुभ होता है।

चूड़ाकरण आदि कर्म श्रावण आदि छ: मासोंमें प्रशस्त नहीं माने गये हैं।

गुरु तथा शुक्र अस्त हो गये हों और चन्द्रमा क्षीण हों तो यज्ञोपवीत-संस्कार करनेसे बालककी मृत्यु अथवा जड़ता होती है, ऐसा संकेत कर दे।

क्षौरमें कहे हुए नक्षत्रोंमें तथा शुभ ग्रहके दिनोंमें समावर्तन-संस्कार करना शुभ होता हैं ॥ २१-२८ ॥

(विविध मुहूर्त- )

लग्नमें शुभ ग्रहोंकी राशि हो और लग्नमें शुभ ग्रह बैठे हों या उसे देखते हों तथा अश्विनी, मघा, चित्रा, स्वाती, भरणी, तीनों उत्तरा, पुनर्वसु और पुष्य नक्षत्र हों तो ऐसे समयमें धनुर्वेदका आरम्भ शुभ होता है।

भरणी, आर्द्, मघा, आश्लेषा, कृत्तिका, पूर्वाफाल्गुनी-इन नक्षत्रोंमें जीवनकी इच्छा रखनेवाला पुरुष नवीन वस्त्र धारण न करे। बुध, बृहस्पति तथा शुक्र-इन दिनोंमें वस्त्र धारण करना चाहिये।

विवाहादि माङ्गलिक कार्योंमें वस्त्र-धारणके लिये नक्षत्रादिका विचार नहीं करना चाहिये।

रेवती, अश्विनी, धनिष्ठा और हस्तादि पाँच नक्षत्रोंमें चूड़ी, मूंगा तथा रत्नोंका धारण करना शुभ होता है|॥ २९-३२ ॥

(क्रय-विक्रय-मुहूर्त—)

भरणी, आश्लेषा, धनिष्ठा, तीनों पूर्वा और कृतिका-इन नक्षत्रोंमें खरीदी हुई वस्तु हानिकारक (घाटा देनेवाली) होती हैं और बेचना लाभदायक होता है।

अश्विनी, स्वाती, चित्रा, रेवती, शतभिषा, श्रवण-इन नक्षत्रोंमें खरीदा हुआ सामान लाभदायक होता है और बेचना अशुभ होता है।

भरणी, तीनों पूर्वा, आर्द्रा, आश्लेषा, मघा, स्वाती, कृतिका, ज्येष्ठा और विशाखा-इन नक्षत्रोंमें स्वामीकी सेवाका आरम्भ नहीं करना चाहियें। साथ ही इन नक्षत्रोंमें दूसरेको द्रव्य देना, व्याजपर द्रव्य देना, धाती या धरोहरके रूप में रखना आदि कार्य भी नहीं करने चाहिये।

तीनों उतरा, श्रवण और ज्येष्ठा-इन नक्षत्रोंमें राज्याभिषेक करना चाहिये।

चैत्र, ज्येष्ठ, भाद्रपद, आश्विन, पौष और माध-इन मासोंकी छोड़कर शेष मासोंमें गृहारम्भ शुभ होता है।

अश्विनी, रोहिणी, मूल, तीनों उतरा, मृगशिरा, स्वाती, हस्त और अनुराधा-ये नक्षत्र और मङ्गल तथा रविवारको छोड़कर शेष दिन गृहारम्भ, तड़ाग, वापी एवं प्रासादारम्भके लिये शुभ होते हैं।

गुरु सिंह-राशिमें हों तब, गुर्वादित्यमें (अर्थात् जब सिंह राशिके गुरु और धन एवं मीन राशिओंके सूर्य हों,) अधिक मासमें और शुक्रके बाल, वृद्ध तथा अस्त रहनेपर गृह-सम्बन्धी कोई कार्य नहीं करना चाहिये।

श्रवणसे पाँच नक्षत्रोंमें तृण तथा काष्ठोंके संग्रह करनेसे अग्निदाह, भय, रोग, राजपीड़ा तथा धन-क्षति होती है।

(गृहप्रवेश-}

धनिष्ठा, तीनों उत्तरा, शतभिषा—इन नक्षत्रोंमें गृहप्रवेश करना चाहिये।

(नौकानिर्माण-)

द्वितीया, तृतीया, पद्ममी, ससमी, त्रयोदशी-इन तिथियोंमें नौका बनवाना शुभ होता है।

(नृपदर्शन- )

धनिष्ठा, हस्त, रेवती,अश्विनी-इन नक्षत्रोंमें राजाका दर्शन करना शुभ होता है।

(युद्धयात्रा- )

तीनों पूर्वा, धनिष्ठा, आर्द्रा, कृत्तिका, मृगशिरा, विशाखा, आश्लेषा और अश्विनी-इन नक्षत्रोंमें की हुई युद्धयात्रा सम्पति-लाभपूर्वक सिद्धिदायिनी होती है।

(गौओंके गोष्ठसे बाहर ले जाने या गोष्ठके भीतर लानेका मुहूर्त—)

अष्टमी, सिनीवाली (अमावास्या) तथा चतुर्दर्शी तिथियोंमें, तीनों उत्तरा, रोहिणी, श्रवण, हस्त और चित्रा-इन नक्षत्रोंमें बेचनेके लिये गोशालासे पशुको बाहर नहीं ले जाना चाहिये और खरीदे हुए पशुओंका गोशालामें प्रवेश भी नहीं कराना चाहिये।

(कृषि-कर्ममुहूर्त-)

स्वाती, तीनों उत्तरा, रोहिणी, मृगशिरा, मूल, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त तथा श्रवण-इन नक्षत्रोंमें सामान्य कृषि-कर्म करना चाहिये।

पुनर्वसु, तीनों उत्तरा, स्वाती, पूर्वाफाल्गुनी, मूल, ज्येष्ठा और शतभिषा-इन नक्षत्रोंमें, रवि, सोम, गुरु तथा शुक्र-इन वारोंमें, वृष, मिथुन, कन्या-इन लग्नोंमें, द्वितीया, पञ्चमी, दशमी, सप्तमी, तृतीया और त्रयोदशी-इन तिधियोंर्मे (हल-प्रवहणादि) कृषि-कर्म करना चाहिये।

रेवती, रोहिणी, ज्येष्टा, कृत्तिका हस्त, अनुराधा, तीनों उत्तरा-इन नक्षत्रोंमें, शनि एवं मङ्गलवारोंकों छोड़कर दूसरे दिनोंमें सभी संपत्तियोंकी प्राप्तीके लिये बीज-वपन करना चाहिये।

(धान्य काटने तथा घरमें रखनेका मुहूर्त- )

रेवती, हस्त, मूल, श्रवण, पूर्वाफाल्गुनी, अनुराधा, मघा, मृगशिरा-इन नक्षत्रोंमें तथा मकर लग्नमें धान्य-छेदन-(धान काटनेका) मुहूर्त शुभ होता है और हस्त, चित्रा, पुनर्वसु, स्वाती, रेवती तथा श्रवणादि तीन नक्षत्रोंमें भी धान्य-छेदन शुभ है।

स्थिर लग्न तथा बुध, गुरु, शुक्रवारोंमें, भरणी, पुनर्वसु, मघा, ज्येष्ठा, तीनों उत्तरा-इन नक्षत्रोंमें अनाजको डेहरी या बखार आदि में रखें ॥ ३३-५१ ॥

(धान्य-वृद्धिके लिये मन्त्र- )

ॐ धनदाय सर्वधनेशाय देहि में धनं स्वाहा। ॐ नवे वर्षे इलादेवि! लोकसंवद्विनि! कामरूपिणि! देहि मे धनं स्वाहा।।-इन मन्त्रोंकों पत्ते या भोज़पनपर लिखकर धान्यकी राशिमें रख दे तों धान्यकी वृद्धि होतीं है।

तीनों पूर्वा, विशाखा, धनिष्ठा और शतभिषा-इन छ: नक्षत्रोंमें बखारसे धान्य निकालना चाहिये।

(देवादि-प्रतिष्ठामुहूर्त-)

सूर्यके उत्तरायणमें रहनेपर देवता, बाग, तड़ाग, वापी आदिकीं प्रतिष्ठा करनी चाहिये।

(भगवानके शयन, पार्श्व-परिवर्तन और जागरणका उत्सव- )

मिथुन-राशिमें सूर्यके रहनेपर अमावास्या के बाद जब द्वादशी तिथि होती है, उसीमें सदैव भगवान् चक्रपाणिके शयनका उत्सव करना चाहिये।

सिंह तथा तुलाराशिमें सूर्यके रहनेपर अमावास्याके बाद जो दो द्वादशी तिथियाँ होती हैं, उनमें क्रमसे भगवानका पार्श्व-परिवर्तन तथा प्रबोधन (जागरण) होता हैं।

कन्या-राशिका सूर्य होनेपर अमावास्याके बाद जो अष्टमी तिथि होती है, उसमें दुर्गाजी जागती

हैं।

(त्रिपुष्करयोग-)

जिन नक्षत्रोंके तीन चरण दूसरी राशिमें प्रविष्ट हों (जैसे कृतिका, पुर्नवसु, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा, उत्तराषाढ़ और पूर्वभाद्रपदा-इन नक्षत्रोंमें, जब भद्रा द्वितीया, सप्तमी और द्वादशी तिथियाँ हों एवं रवि, शनि तथा मङ्गलवार हों तो त्रिपुष्करयोग होता है।

(चन्द्रबल- )

प्रत्येक व्यावहारिक कार्यमें चन्द्र तथा ताराकी शुद्धि देखनी चाहिये । जन्मराशिमें तथा जन्मराशिसे तृतीया, षष्ठ, सप्तम, दशम, एकादश स्थानोंपर स्थित चन्द्रमा शुभ होते है । शुक्ल पक्षमें द्वीतीय, पंच्चम, नवम चन्द्रमा भी शुभ होता है ।

तारा शुद्धि

मित्र, अतिमित्र, साधक, सम्पत और क्षेम आदि ताराएँ शुभ है । जन्म-तारा से मृत्यु होती है, विपत्ति-तारासे धनका विनाश होता है, प्रत्यरि और मृत्युतारा में निधन होता है ।

   

क्षीण और पूर्णचन्द्र

कृष्ण पक्षकी अष्टमीसे शुक्ल पक्षकी अष्टमी तिथितक चन्द्रमा क्षीण रहता है; इसके बाद वह पूर्ण माना जाता है।

(महाज्येष्ठी-)

वृष तथा मिथुन राशिका सूर्य हो, गुरु मृगशिरा अथवा ज्येष्ठा नक्षत्रमें हो। और गुरुवारको पूर्णिमा तिथि हो तो वह पूर्णिमा महाज्येष्ठी कही जाती है ।

ज्येष्ठामें गुरु तथा चन्द्रमा हो, रोहिणीमें सूर्य हो एवं ज्येष्ठ मासकी पूर्णिमा हो वह पूर्णिमा महाज्येष्ठी कहलाती है।

स्वाती नक्षत्रके आनेसे पूर्व ही यन्त्रपर इन्द्रदेवका पूजन करके उनका ध्वजारोपण करना चाहिये; श्रवण अथवा अश्विनीमें या सप्ताह के अन्त में उसका विसर्जन करना चाहिये ॥ ५२-६४॥

(ग्रहणमें दानका महत्व-)

सूर्यके राहुद्वारा ग्रस्त होनेपर अर्थात् सूर्यग्रहण लगनेपर सब प्रकारका दान सुवर्ण-दानके समान है, सब ब्राह्मण ब्रह्माके समान होते हैं और सभी जल गङ्गाजलके समान हो जाते हैं।

(संक्रान्तिका कथन-)

सूर्यकी संक्रान्ति रविवारसे लेकर शनिवारतक किसी-न-किसी दिन होती है। इस क्रमसे उस संक्रांतिके सात भिन्न-भिन्न नाम होते हैं। यथा-घोरा, ध्वाङ्क्षी, महोदरी, मन्दा, मन्दाकिनी, युता (मिश्रा) तथा राक्षसी।

कौलव, शकुनि और किंस्तुघ्न करणोंमें सूर्य यदि संक्रमण करे तो लोग सुखी होते हैं।

गर, वव, वणिक, विष्टि और बालव-इन पाँच करणोंमें यदि सूर्यसंक्रान्ति बदले तो प्रजा राजाके दोष से सम्पतिके साथ पीड़ित होती है।

चतुष्पात, तैतिल और नाग-इन करणोंमें सूर्य यदि संक्रमण करे तो देशमें दुर्मिक्ष होता है, राजाओंमें संग्राम होता है तथा पति-पत्नीके जीवनके लिये भी “संशय उपस्थित होता है ॥ ६६-७० ॥

( रोगकी स्थ्यितिका विचार- )

जन्म नक्षत्र या आधान (जन्मसे उन्नीसवें) नक्षत्र में रोग उत्पन्न हो जाय, तो अधिक कलेशदायक होता है। कृतिका नक्षत्रमें रोग उत्पन्न हो तो नौ दिनतक, रोहिणीमें उत्पन्न हो तो तीन राततक तथा मृगशिरामें हो तो पाँच राततक रहता है। आर्द्रामें रोग हो तो प्राणनाशक होता है। पुनर्वसु तथा पुष्य नक्षत्रोंमें रोग हों तो सात राततक बना रहता हैं। आश्लेषाका रोग नौ राततक रहता है। मघा का रोग अत्यन्त घातक या प्राणनाशक होता है। पूर्वाफाल्गुनीका रोग दो मासतक रहता है। उत्तराफाल्गुनीमें उत्पन्न हुआ रोग तीन दिनोंतक रहता है। हस्त तथा चित्राका रोग पंद्रह दिनोंतक पीड़ा देता है। स्वातीका रोग दो मासतक, विशाखाका बीस दिन, अनुराधाका रोग दस दिन और ज्येष्ठका पंद्रह दिन रहता है। मूल नक्षत्रमें रोग हो तो वह छूटता ही नहीं है। पूर्वाषाढ़ाका रोग पाँच दिन रहता है। उत्तराषाढ़ाका रोग बीस दिन, श्रवणका दो मास, धनिष्ठाका पंद्रह दिन और शतभिषा का रोग दस दिनोंतक रहता है। पूर्वाभाद्रपदाका रोग छूटता ही नहीं। उत्तराभाद्रपदाका रोग सात दिनोंतक रहता है। रेवतीका रोग दस रात और अश्विनीका रोग एक दिन-रात मात्र रहता है, किंतु भरणीका रोग प्राणनाशक होता है।

(रोग-शान्तिका उपाय-}

पञ्चधान्य, तिल और घृत आदि हवनीय सामग्रीद्वारा गायत्रीमन्त्रसे हवन करनेपर रोग छूट जाता है और शुभ फलकी प्राप्ति होती है तथा ब्राह्मणको दूध देनेवाली गौका दान करनेसे रोगका शमन हो। जाता है।॥ ७१-७७ ॥

(अष्टोत्तरी-क्रमसे)

सूर्यकी दशा छ: वर्षकी होती है। इसी प्रकार चन्द्रदशा पंद्रह वर्ष, मङ्गलकी आठ वर्ष, बुधकी सत्रह वर्ष, शनिकी दस वर्ष, बृहस्पतिकी उन्नीस वर्ष, राहुकी बारह वर्ष और शुक्रकी इक्कीस वर्ष महादशा चलती है ॥ ७८-७९ ॥

एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२१ ॥

अध्याय-१२२ कालगणना-पञ्चाङ्गमान-साधन

अग्निदेव कहते हैंमुने! (अब मैं) वर्षोंके समुदायस्वरूप ‘काल’ का वर्णन कर रहा हूँ और उस कालकी समझनेके लिये मैं गणित बतला रहा हूँ।

(ब्रह्म-दिनादिकालसे अथवा सृष्टयारम्भकालसे अथवा व्यवस्थित शकारम्भसे)

वर्षसमुदाय–संख्याको १२ से गुणा करे। उसमें चैत्रादि गत मास-संख्या मिला दे। उसे दोसे गुणा करके दो स्थानोंमें रखे। प्रथम स्थानमें चार मिलाये, दूसरे स्थानमें आठ सौ पैंसठ मिलाये। इस तरह जो अङ्ग सम्पन्न हो, वह ‘सगुण’ कहा गया है। उसे तीन स्थानोंमें रखे; उसमें बीचवालेको आठसे गुणा करके फिर चारसे गुणित करे। इस तरह मध्यका संस्कार करके गोमूत्रिका-क्रमसे रखे हुए तीनोंका यथास्थान संयोजन करें।

उसमें प्रथम स्थान का नाम ‘ऊर्ध्व’, बीचका नाम ‘मध्य’ और तृतीय स्थानका नाम ‘अध:’ ऐसा रखे।

अध:-अङ्गमें ३८८ और मध्याङ्कमें ८७ घटाये। तत्पश्चात् उसे ६० से विभाजित करके शेषकों (अलग) लिखें। फिर लब्धिको आगेवाले अङ्कमें मिलाकर ६० से विभाजित करें। इस प्रकार तीन स्थानोंमें स्थापित अङ्कोंमेंसे प्रथम स्थानके अङ्कमें ७ से भाग देनेपर शेष बची हुई संख्याके अनुसार रवि आदि वार निकलते हैं। शेष दो स्थानोंका अङ्ग तिथिका ध्रुवा होता है। सगुणको दोसे गुणा करे। उसमें तीन घटाये। उसके नीचे सगुणको लिखकर उसमें तीस जोड़े। फिर भी ६, १२, ८-इन पलोंकों भी क्रमसे तीनों स्थानोंमें मिला दे। फिर ६० से विभाजित करके प्रथम स्थानमें २८ से भाग देकर शेषको लिखे। उसके नीचे पूर्वानीत तिथिध्रुवाको लिखे। सबको मिलानेपर धुवा हो जायगा। फिर भी उसी सगुणको आर्द्ध करे। उसमें तीन घटा दे। दोसे गुणा करे। मध्यकों एकादशसे गुणा करे। नीचेमें एक मिलाये।

द्वितीय स्थानमें उनतालीससे भाग देकर लब्धिको प्रथम स्थानमें घटाये, उसीका नाम ‘मध्य’ हैं। मध्यमें बाईस घटाये। उसमें ६० से भाग देनेपर शेष ‘ऋण’ है। लब्धिको ऊर्ध्वमें अर्थात् नक्षत्र-ध्रुवामें मिलाना चाहिये। २७ से भाग देनेपर शेप नक्षत्र तथा योगका ध्रुवा हो जाता है॥ १-७ ई॥

अब तिथि तथा नक्षत्रका मासिक ध्रुवा कह रहे हैं।

(२।३२।००) यह तिथि-ध्रुवा है और (२।११।००) यह नक्षत्र-ध्रुवा है। इस ध्रुवाको प्रत्येक मासमें जोड़कर, वार-स्थानमें ७ से भाग देकर शेष वारमें तिथिका दण्ड़-पल समझना चाहिये। नक्षत्रके लिये २७ से भाग देकर अश्विनीसे शेष संख्यावाले नक्षत्रका दण्डादि जानना चाहिये॥ ८-१० ॥

(पूर्वोक्त प्रकारसे तिथ्यादिका मान मध्यममानसे निश्चित हुआ। उसे स्पष्ट करनेके लिये संस्कार कहते हैं।)

चतुर्दशी आदि तिथियोंमें कहीं हुई घटियोंकी क्रमसे ऋण-धन तथा धन-ऋण करना चाहिये। जैसे चतुर्दशीमें शून्य घटी तथा त्रयोदशी और प्रतिपदामें पाँच घटी क्रमसे ऋण तथा धन करना चाहियें। एवं द्वादशी तथा द्वितीयामें दस घटीं ऋण-धन करना चाहिये। तृतीया तथा एकादशीमें पंद्रह घटी, चतुर्थी और दशमीमें १९ घटीं, पञ्चमीं और नवमीमें २२ घटी, षष्ठीं तथा अष्टमींमें २४ घटीं तथा सप्तमीमें २५ घटी धन-ऋण-संस्कार करना चाहिये। यह अंशात्मक फल चतुर्दशी आदि तिथिपिण्डमें करना होता हैं।॥ ११-१३ ई ॥

(अब कलात्मक फल-संस्कार के लिये कहते हैं-)

कर्कादि तीन राशियोंमें छ:, चार, तीन (६।४।३) तथा तुलादि तीन राशियोंमें विपरीत तीन, चार, छ: (३।४।६) संस्कार करनेके लिये ‘खण्डा’ होता है ॥” खेषवः-५०”, ”खयुगाः४०’, ‘मैत्र-१२’-इनको मेषादि तीन राशियोंमें धन करना चाहिये। कर्कादि तीन राशियोंमें विपरीत १२, ४०, ५० का संस्कार करना चाहिये।

तुलादि छः राशियोंमें इनका ऋण संस्कार करना चाहिये। चतुर्गुणित तिथिमें विकलात्मक फल-संस्कार करना चाहिये। ‘गत’ तथा ‘एष्य’ खण्डाओं के अन्तरसे कलाको गुणित करे। ६० से भाग दे। लब्धिको प्रथमोच्चारमें ऋण-फल रहनेपर भी धन करे और धन रहने पर भी धन ही करें। द्वितीयोच्चारित वर्ग रहनेपर विपरीत करना चाहिये। तिथिकों द्विगुणित करे। उसका छठा भाग उसमें घटाये। सूर्य-संस्कारके विपरीत तिथि–दण्डको मिलाये। ऋण-फलको घटानेपर स्पष्ट तिथिका दण्डादि मान होता है। यदि ऋण-फल नहीं घटे तो उसमें ६० मिलाकर संस्कार करना चाहिये। यदि फल ही ६० से अधिक हो तो उसमें ६० घटाकर शेषका हीं संस्कार करना चाहियें। इससे तिथिके साथ-साथ नक्षत्रका मान होगा। फिर भी चतुर्गुणित तिथिमें तिथिका त्रिभाग मिलायें। उसमें ऋण-फलको भी मिलायें। तष्टित करनेपर योगका मान होता है। तिथिका मान तों स्पष्ट ही है, अथवा सूर्य–चन्द्रमाको योग करके भी ‘योग’ का मान निश्चित आता है। तिथिकी संख्यामेंसे एक घटाकर उसे द्विगुणित करनेपर फिर एक घटाये तो भी चर आदि करण निकलते हैं। कृष्णपक्षकी चतुर्दशीके परार्धसे शकुनि, चतुरङ्घ्र (चतुष्पद), किंस्तुघ्न और अहि (नाग)-ये चार स्थिर करण होते हैं। इस तरह शुक्लपक्षकी प्रतिपदा तिथिके पूर्वार्द्धमें किंस्तुघ्न करण होता है*॥ १४-२४॥


एक सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२२ ॥

अध्याय-१२३ युद्धजयार्णव-सम्बन्धी विविध योगोंका वर्णन

अग्निदेव कहते हैं-(अब स्वरके द्वारा |युद्धजयार्णव-प्रकरणमें विजय आदि शुभ कार्योंकी विजय-साधन कह रहे हैं-)

मैं इस पुराणके युद्धजयार्णव-प्रकरणमें विजय आदि शुभ कार्योकी सिद्धिके लिये सार वस्तुओंको कहूँगा।

जैसे अ, इ, उ, ए, ओ-ये पाँच स्वर होते हैं। इन्हींके क्रमसे नन्दा (भद्रा, जया, रिता, पूर्णा) आदि तिथियाँ होती हैं।

‘क’ से लेकर ‘ह’ तक वर्ण होते हैं और पूर्वोक्त स्वरोंके क्रमसे सूर्य-मङ्गल, बुध-चन्द्रमा, बृहस्पति-शुक्र, शनि-मङ्गल तथा सूर्य-शनि-ये ग्रह-स्वामी होते हैं ॥ १-२॥

चालीसको साठसे गुणा करे। उसमें ग्यारहसे भाग दे। लब्धिको छ:से गुणा करके गुणनफलमें फिर ग्यारहसे ही भाग दें। लब्धिको तीनसे गुणा करके गुणनफलमें एक मिला दे तो उतनी ही बार नाडीके स्फुरणके आधारपर पल होता है। इसके बाद भी अहर्निश नाड़ीका स्फुरण होता ही रहता है।

उदाहरण- जैसे ४०x६०=२४००, २४००/११=२१९ लब्धि स्वल्पान्तरसे हुई। इसे छः से गुणा किया तो २११x६=१३१४ गुणनफल हुआ । इसमें फिर ११ से भाग दिया तो १३१४/११=११९ लब्धि, शेष ५, शेष छोड़ दिया । लब्धि ११९ को ३ से गुणा किया तो गुणनफल ३५७ हुआ। इसमें १ मिलाया तो ३५८ हुआ। इसको स्वल्पान्तरसे ३६० मान लिया। अर्थात् करमूलगत नाडीका ३६० बार स्फुरण होनेके आधारपर ही पल होते हैं, जिनका ज्ञानप्रकार आगे कहेंगे। इसी तरह नाड़ीका स्फुरण अहर्निश होता रहता है और इसी मानसे अकारादि स्वरोंका उदय भी होता रहता है।॥ ३-४ ई॥

(अब व्यावहारिक काल-ज्ञान कहते हैं-)

तीन बार स्फुरण होनेपर १ ‘उच्छास’ होता है अर्थात् १ ‘अणु’ होता है, ६ ‘उच्छास’का १ ‘पल’ होता है, ६० पलका एक ‘लिप्ता’ अर्थातू १ ‘दण्ड़’ होता है,

(यद्यपि ‘लिप्ता’ शब्द कलावाचक हैं, जो कि ग्रहोंके राश्यादि विभागमें लिया जाता है, फिर भी यहाँ काल-मानके प्रकरणमें लिप्ता शब्दसे दण्ड ही लिया जायगा, क्योंकि ‘कला’ तथा “दण्ड’-ये दोनों भचक्र के षष्टयंश-विभागमें ही लिये गये हैं।)

 ६० दण्डका १ अहोरात्र होता है। उपर्युक्त अ, इ, उ, ए, ओ-स्वरोंकी क्रमसे बाल, कुमार, युवा, वृद्ध, मृत्यु-ये पाँच संज्ञाएँ होती हैं। इनमें किसी एक स्वरके उदयके बाद पुन: उसका उदय पाँचवें खण्ड़पर होता हैं। जितने समयसे उदय होता है, उतने ही समयसे अस्त भी होता है। इनके उदयकाल एवं अस्तकालका मान अहोरात्रके अर्थात ६० दण्डके एकादशांशके समान होता हैं-जैसे ६० में ११ से भाग देनेपर ५ दण्ड २७ पल लब्धि होगी तो ५ दण्ड २७ पल उक्त स्वरोंका उदयास्तमान होता हैं। किसी स्वरके उदयके बाद दूसरा स्वर ५ दण्ड २७ पलपर उदय होगा। इसी तरह पाँचोंका उदय तथा अस्तमान जानना चाहिये। इनमेंसे जब मृत्युस्वरका उदय हो, तब युद्ध करनेपर पराजयके साथ ही मृत्यु हो जाती है।॥ ५-७ ॥

(अब शनिचक्रका वर्णन करते हैं-)

शनिचक्र में १५ दिनोंपर क्रमश: ग्रहोंका उदय हुआ करता है। इस पञ्चदश विभागके अनुसार शनिका भाग युद्धमें मृत्युदायक होता हैं।

(विशेषजब कि शनि एक राशिमें ढाई साल अर्थात् ३० मास रहता है, उसमें दिन-संख्या ९०० हुई। ९०० में १५ का भाग देने से लब्धि ६० होगी। ६० दिनका १ पञ्चदश विभाग हुआ। शनिके राशिमें प्रवेश करनेके बाद शनि आदि ग्रहोंका उदय ६० दिनका होगा, जिसमें उदयसंख्या ४ बार होगीं। इस तरहजब शनिका भाग आये, उस समय युद्ध करना निषिद्ध है)

(अब कूर्मपृष्ठाकार शनि-विम्बके पृष्ठका क्षेत्रफल कहते हैं-)

दस कोटि सहस्त्र तथा तेरह लाखमें इसीका दशांश मिला दे तो उतने ही योजनके प्रमाणवाले कूर्मरूप शनि-बिम्बके पृष्ठका क्षेत्रफल होता है। अर्थात् ११००, १४३०००० ग्यारह अरब चौदह लाख तीस हजार योजन शनि-बिम्ब पृष्ठका क्षेत्रफल है।

(विशेष-ग्रन्थान्तरोंमें ग्रहोंके बिम्ब-प्रमाण तथा कर्मप्रमाण योजनमें हीं कहें गये हैं। जैसे ‘गणिताध्याय’ में भास्कराचार्य-सूर्य तथा चन्द्रका बिम्बपरिमाण-कथनके अवसरपए—

‘ब्रिम्बं रवेर्द्वीद्विशरर्तुसंख्यानीन्दोः खनागाम्बुधियोजनानि।’ आदि। यहाँ भी संख्या योजनके प्रमाणवाली ही लेनी चाहिये।)

मघाके प्रथम चरणसे लेकर कृत्तिकाके आदिसे अन्ततक शनिका निवास अपने स्थानपर रहता है, उस समय युद्ध करना ठीक नहीं होता ॥ ९ ॥

(अब राहु-चक्र का वर्णन करते हैं-)

राहुचक्रके लिये सात खड़ी रेखा एवं सात पड़ी रेखा बनानी चाहिये। उसमें वायुकोणसे नैऋत्यकोणको लिये हुए अग्निकोणतक शुक्लपक्षकी प्रतिपदासे लेकर पूर्णिमातककी तिथियोंको लिखना चाहिये एवं अग्निकोणसे ईशानकोणको लिये हुय वायुकोणतक कृष्णपक्षकी प्रतिपदासे लेकर अमावास्यातककी तिथियोंको लिखना चाहिये। इस तरह तिथिरूप राहुका न्यास होता है।

‘र’ कारकों दक्षिण दिशा में लिखे और ‘ह’ कारकों वायुकोणमें लिखें। प्रतिपदादि तिथियोंके सहारे ‘क’कारादि अक्षरोंकों भी लिखें। नैऋत्यकोणमें ‘सकार’ लिखे। इस तरह राहुचक्र तैयार हो जाता है। राहु-मुखमें* यात्रा करनेसे यात्रा-भङ्ग होता है । १०-१२

(अब तिथिके अनुसार भद्रानिवासकी दिशाका वर्णन करते हैं-)

पौर्णमासी तिथिको भद्राका नामविष्टिहोता है और वह अग्निकोणमें रहती है।

तृतीया तिथिको भद्राका नामकरालीहोता है और वह पूर्व दिशामें वास करती है।

सप्तमी तिथि को भद्राका नामघोराहोता है और वह दक्षिण दिशा में निवास करती है।

सप्तमी तथा दशमी तिथियोंको भद्रा क्रमसे ईशानकोण तथा उत्तरदिशामें, चतुर्दर्शी तिथिको वायव्यकोणमें, चतुर्थी तिथिको पश्चिम दिशामें, शुक्लपक्षकी अष्टमी तथा एकादशीकों दक्षिण दिशा में रहती हैं।

इसका प्रत्येक शुभ कार्योंमें सर्वथा त्याग करना चाहिये॥ १३१४ ॥

(अब पंद्रह मुहूर्तोंका नाम एवं नामानुकूल कार्योंका वर्णन कर रहे हैं-)

रौद्र, श्वेत, मैत्र, सारभट, सावित्र, विरोचन, जयदेव, अभिजित, रावण, विजय, नन्दी, वरुण, यम, सौम्य, भवये पंद्रह मुहूर्त हैं।

रौद्रमुहूर्तमें भयानक कार्य करना चाहिये।

श्वेतमुहूर्तमें स्नानादिक कार्य करना चाहिये।

मैत्रमुहूर्तमें कन्याका विवाह शुभ होता है।

सारभटमुहूर्तमें शुभ कार्य करना चाहिये।

सावित्रमुहूर्तमें देवोंका स्थापन करना चाहिये।

विरोचनमुहूर्तमें राजकीय कार्य करना चाहिये।

जयदेवमुहूर्तमें विजयसम्बन्धी कार्य करना चाहिये।

रावणमुहूर्तमें संग्रामका कार्य करना चाहिये।

विजयमुहूर्तमें कृषि तथा व्यापार कार्य करना चाहिये।

नन्दीमुहूर्तमें षट्कर्म करना चाहिये।

वरुणमुहूर्तमें तड़ागादि कार्य करना चाहिये।

यममुहूर्तमें विनाशवाला कार्य करना चाहिये।

सौम्यमुहूर्तमें सौम्य कार्य करना चाहिये।

भवमुहूर्तमें दिनरात शुभ लग्न ही रहता है, अत: उसमें सभी शुभ कार्य किये जा सकते हैं।

इस प्रकार ये पंद्रह योग अपने नामानुसार ही शुभ तथा अशुभ होते हैं*॥ १५२० ॥

(अब राहुके दिशासंचारका वर्णन कर रहे हैं—)

(दैनिक राहु)

राहु पूर्वदिशासे वायुकोणतक, वायुकोणसे दक्षिण दिशातक, दक्षिण दिशासे ईशानकोणतक, ईशानकोणसे पश्चिमतक, पश्चिमसे अग्निकोणतक एवं अग्निकोण से उत्तरतक तीनतीन दिशा करके चार घटियोंमें भ्रमण करता है।॥ २१२२

(अब ओषधियोंके लेपादिट्रारा विजयका वर्णन कर रहे हैं-)

चण्डी, इन्द्राणी (सिंधुवार), वाराही (वाराहीकंद), मुशली (तालमूली), गिरिकर्णिका (अपराजिता), बला (कुट), अतिबला (कंघी), क्षीरी (सिरखोला), मल्लिका (मोतिया), जाती (चमेली), यूथिका (जूही), श्वेतार्क (सफेदमदार), शतावरी, गुरुच, वागुरीइन यथाप्रास दिव्य औषधियोंकी धारण करना चाहिये। धारण करनेपर ये युद्धमें विजयदायिनी होती हैं॥ २३२४॥

 * नमो भैरवाय खगंपरशुहस्ताय ॐ ह्रूं विध्नविनाशाय हूं फट्।इस मन्त्रसे शिाखा बाँधकर यदि संग्राम करे तो विजय अवश्य होती है।

(अब संग्राम में विजयप्रद)

तिलक, अञ्जन, धूप, उपलेप, स्नान, पान, तैल, योगचूर्णइन पदार्थोंका वर्णन करता हूँ, सुनों

सुभगा (नीलदूर्वा), मन:शिला (मैनसिल), ताल (हरताल)-इनको लाक्षारसमें मिलाकर, स्त्रीके दूध में घोंटकर ललाटमें तिलक करनेसे शत्रु वशमें हो जाता है।

विष्णुक्रान्ता (अपराजिता), सर्पाक्षी (महिषकंद), सहदेवी (सहदेइया), रोचना (गोरोचन)-इनको बकरीके दूधमें पीसकर लगाया हुआ तिलक शत्रुओंको वशमें करनेवाला होता है।

प्रियंगु (नागकेसर), कुङ्कुम, कुष्ठ, मोहिनी (चमेली), तगर, घृतइनको मिलाकर लगाया हुआ तिलक वश्यकारक होता है।

रोचना (गोरोचन), रक्तचन्दन, निशा (हल्दी), मन:शिला (मैनसिल), ताल (हरताल), प्रियंगु (नागकेसर), सर्षप (सरसों), मोहिनी (चमेली), हरिता (दूर्वा), विष्णुक्रान्ता (अपराजिता), सहदेवी, शिखा (जटामाँसी)-इनको मातुलुङ्ग (बिजौरा नीबू)के रसमें पीसकर ललाटमें किया हुआ तिलक वशमें करनेवाला होता हैं। इन तिलकोंसे इन्द्रसहित समस्त देवता वशमें हो जाते हैं, फिर क्षुद्र मनुष्योंकी तो बात ही क्या है।

मञ्जिष्ठ, रक्तचन्दन, कटुकन्दा (सहिजन), विलासिनी, पुनर्नवा (गदहपूर्णा)इनको मिलाकर लेप करनेसे सूर्य भी वशमें हो जाते हैं।

मलयचन्दन, नागपुष्प (चम्पा), मञ्जिष्ठ, तगर, वच, लोध्र, प्रियंगु (नागकेसर), रजनी (हल्दी), जटामसीइनके सम्मिश्रणसे बना हुआ तैल वशमें करनेवाला होता है

 

एक सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२३ ॥

अध्याय-१२४ युद्धजयार्णवीय ज्यौतिषशास्त्रका सार

अग्निदेव कहते हैं- अब मैं युद्धजयार्णवप्रकरणमें ज्योतिषशास्त्रकी सारभूत वेला (समय), मन्त्र और औषध आदि वस्तुओंका उसी प्रकार वर्णन करूँगा, जिस तरह शंकरजीने पार्वतीजीसे कहा था। १ ॥

पार्वतीजीने पूछा- भगवन्! देवताओंने (देवासुर-संग्राममें) दानवोंपर जिस उपायसे विजय पायी थी, उसका तथा युद्धजयार्णवोक्त शुभाशुभ-विवेकादि रूप ज्ञानका वर्णन कीजिये ॥ २ ॥

शंकरजी बोलेमूलदेव (परमात्मा)-की इच्छासे पंद्रह अक्षरवाली एक शक्ति पैदा हुई। उसीसे चराचर जीवोंकी सृष्टि हुई। उस शक्तिकी आराधना करनेसे मनुष्य सब प्रकार के अर्थोंका ज्ञाता हो जाता है।

अब पाँच मन्त्रोंसे बने हुए मन्त्रपीठका वर्णन करूंगा। वे मन्त्र सभी मन्त्रोंके जीवन-मरणमें अर्थात् ‘अस्ति’ तथा ‘नास्ति” रूप सत्तामें स्थित हैं।

ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद-इन चारों वेदोंके मन्त्रोंकों प्रथम मन्त्र कहते हैं। सद्योजातादि मन्त्र द्वितीय मन्त्र हैं एवं ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र-ये तृतीय मन्त्र के स्वरूप हैं। ईश (मैं), सात शिखावाले अग्नि तथा इन्द्रादि देवता-ये चौथे मन्त्रके स्वरूप हैं। अ, इ, उ, ए, ओ-ये पाँचों स्वर पञ्चम मन्त्रके स्वरूप हैं। इन्हीं स्वरोंको मूलब्रह्म भी कहते हैं।॥ ३-६ ॥

(अब पञ्च स्वरोंकी उत्पति कह रहे हैं-)

जिस तरह लकड़ीमें व्यापक अग्निकी प्रतीति बिना जलाये नहीं होती है, उसी तरह शरीरमें विद्यमान शिव-शक्तिकों प्रतीति ज्ञानके बिना नहीं होती है।

महादेवी पावती! पहले ॐकारस्वरसे विभूषित शक्तिकी उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् बिन्दु ‘एकार’ रूपमें परिणत हुआ। पुन: ओंकारमें शब्द पैदा हुआ, जिससे ‘उकार’ का उद्गम हुआ। यह ‘उकार’ हृदयमें शब्द करता हुआ विद्यमान रहता है। ‘अर्धचन्द्र’ से मोक्ष-मार्गको बतानेवाले ‘इकार’ का प्रादुर्भाव हुआ। तदनन्तर भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला अव्यक्त ‘अकार” उत्पन्न हुआ। वही ‘अकार’ सर्वशक्तिमान् एवं प्रवृत्ति तथा निवृत्तिका बोधक है।॥ ७ -१०॥

(अब शरीरमें पाँचों स्वरोंका स्थान कह रहे हैं-)

‘अ’ स्वर शरीर में प्राण अर्थात् श्वासरूपसे स्थिर होकर विद्यमान रहता है। इसीका नाम ‘इडा’ है। ‘इकार’ प्रतिष्ठा नामसे रहकर रसरूप में तथा पालक-स्वरूपमें रहता है। इसे ही ‘पिङ्गला’ कहते हैं। ‘ई’ स्वरको ‘कूरा शक्ति’ कहते हैं। ‘हर-बीज’ (उकार) स्वर शरीर में अग्निरूपसे रहता है। यही ‘समान-बोधिका विद्या’ है। इसे ‘गान्धारी’ कहते हैं। इसमें ‘दहनात्मिका’ शक्ति है। ‘एकार” स्वर शरीर में जलरूपसे रहता है। इसमें शान्ति-क्रिया है तथा ‘ओकार’ स्वर शरीरमें वायुरूपसे रहता है। यह अपान, व्यान, उदान आदि पाँच स्वरूपोंमें होकर स्पर्श करता हुआ गतिशील रहता है।

पाँचों स्वरोंका सम्मिलित सूक्ष्म रूप जो ‘ओंकार’ है, वह ‘शान्त्यतीत’ नामसे बोधित होकर शब्द-गुणवाले आकाशरूपमें रहता है।

इस तरह पाँचों स्वर (अ, इ, उ, ए, ओ) हुए, जिनके स्वामी क्रमसे मङ्गल, युध, गुरु, शुक्र तथा शनि ग्रह हुए।

ककारादि वर्ण इन स्वरोंके नीचे होते हैं। ये ही संसारके मूल कारण हैं। इन्हीसे चराचर सब पदार्थोंका ज्ञान होता है। ॥११-१४॥

अब मैं विद्यापीठका स्वरूप बतलाता हूँ, जिसमें ‘ओंकार’ शिवरूपसे कहा गया है और ‘उमा’ स्वयं सोम अर्थात् अमृतरूपसे हैं। इन्हींको वामा, ज्येष्ठा तथा रौद्री शक्ति भी कहते है। ब्रहमा, विष्णु तथा रूद्र – क्रमश: ये ही तीनों गुण है एवं सृष्टीके उत्पादक, पालक तथा संहारक है । शरीरके अन्दर तीन रत्न नाड़ियाँ है, जिनका नाम स्थूल, सूक्ष्म तथा पर है । इनका श्वेत वर्ण है। इनमें सदैव अमृत टपकता रहता है, जिससे आत्मा संदैव आप्लावित रहता है । इस प्रकार उसका दिन-रात ध्यान करते रहना चाहिये ।

देवी! ऐसे साधकका शरीर अजर हो जाता है तथा उसे शिव-सायुज्यकी प्राप्ति हो जाती है । प्रथमतः अंगुष्ठ आदिमें, नेत्रोंमें तथा देहमें भी अंगन्यास करे, तत्पश्चात मृत्युंजयकी अर्चना करके यात्रा करनेवाला संग्राम आदिमें विजयी होता है ।

आकाश शून्य है, निराधार हैं तथा शब्द-गुणवाला है। वायुमें स्पर्श गुण है। वह तिरछा झुककर स्पर्श करता है। रूपकी अर्थात् अग्निकी ऊर्ध्वगति बतलायी गयी है तथा जलकी अधोगति होती है। सब स्थानोंको छोड़कर गन्ध-गुणवाली पृथ्वी मध्य में रहकर सबके आधार-रूप में विद्यमान है ।  ॥१५-२० ॥

नाभिके मूलमें अर्थात् मेरुदण्डकी जड़में कंदके स्वरूपमें श्रीशिवजी सुशोभित हैं। वहींपर शक्ति-समुदायके साथ सूर्य, चन्द्रमा तथा भगवान् विष्णु रहते हैं और पञ्चतन्मात्राओंके साथ दस प्रकार के प्राण भी रहते हैं। कालाग्निके समान देदीप्यमान वह शिवजीकी मूर्ति सदैव चमकती रहती है। वहीं चराचर जीवलोकका प्राण है। उस मन्त्रपीठके नष्ट होनेपर वायुस्वरूप जीवका नाश समझना चाहिये* ॥ २१-२३ ॥

एक सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ। १२४

अध्याय-१२५ युद्धजयार्णव-सम्बन्धी अनेक प्रकारके चक्रोंका वर्णन

शंकरजीने कहा‘ॐ ह्रीं कर्णमोटनि बहुरूपे बहुदंष्टे ह्रूं फट, ॐ हः, ॐ ग्रस ग्रस, कृन्त कृन्तच्छक च्छक ह्रूं फट् नम:।’

इस मन्त्रका नाम “कर्णमोटीं महाविद्या’ हैं। यह सभी वर्णोंमें रक्षा करनेवाली है।

इस मन्त्रको केवल पढ़नेसे ही मनुष्य क्रोधाविष्ट हो जाता है तथा उसके नेत्र लाल हो जाते हैं। यह मन्त्र मारण, पातन, मोहन एवं उच्चाटनमें उपयुक्त होता है॥ १-२ ॥

अब स्वरोदयके साथ पाँच प्रकारके वायुका स्थान तथा उसका प्रयोजन कहता हूँ।

नाभिसे लेकर हृदयतक जो वायुका संचार होता रहता हैं, उसको ‘मारुतचक्र’ कहते हैं। जप तथा होम कार्यमें लगा हुआ क्रोधी साधक उससे संग्रामादि कार्योंमें उच्चाटन-कर्म करता हैं।

कानसे लेकर नेत्रतक जो वायु है, उससे प्रभेदन-कार्य करे एवं हृदयसे गुदामार्गतक जो वायु है, उससे ज्वर-दाह तथा शत्रुओंका मारण-कार्य करना चाहिये। इसी वायुका नाम ‘वायुचक्र’ है।

हृदयसे लेकर कण्ठतक जो वायु है, उसका नाम ‘रस’ है। इसे ही ‘रमचक्र’ कहतें हैं। उससे शान्तिका प्रयोग किया जाता है तथा पौष्टिक रसके समान उसका गुण है।

भौंहसे लेकर नासिकाके अग्रभागतक जो वायु हैं, उसका नाम ‘दिव्य’ है। इसे ही ‘तेजचक्र’ कहते हैं। गन्ध इसका गुण है तथा इससे स्तम्भन और आकर्षण-कार्य होता हैं।

नासिकाग्रमें मनकों स्थिर करके साधक निस्संदेह स्तम्भन तथा कीलन कर्म करता है। उपर्युक्त वायुचक्रमें चण्डघण्टा, कराली, सुमुखी, दुर्मुखी, रेवती, प्रथमा तथा घोरा-इन शक्तियोंका अर्चन करना चाहिये।

उच्चाटन करनेवाली शक्तियाँ तेजचक्र में रहती हैं। सौम्या, भीषनी, देवी, जया, विजया, अजिता, अपराजिता, महाकोटी, महारौद्री, शुष्ककाया, प्राणहरा-ये ग्यारह शक्तियाँ रसचक्र में रहती है

विरूपाक्षी, परा, दिव्या, ११ आकाश-मातृकाएँ, संहारी, जातहारी, दंष्ट्राला, शुष्करेवती, पिपीलिका, पुष्टिहरा, महापुष्टि, प्रवर्धना, भद्रकाली, सुभद्रा, भद्रभीमा, सुभद्रिका, स्थिरा, निष्ठुरा, दिव्या, निष्कम्पा, गदिनी और रेवती-ये बत्तीस मातृकाएँ कहे हुए चारों चक्रों (मारुत, वायु, रस, दिव्य)-में आठआठके क्रमसे स्थित रहती हैं। १०-१२१॥

सूर्य तथा चन्द्रमा एक ही हैं तथा उनकी शक्तियाँ भी भूतभेदसे एक-एक ही हैं। जैसे भूतलपर नदीके जलकी स्थानभेदसे ‘तीर्थ’ संज्ञा हो जाती है, शरीरके अस्थिपङ्गरमें रहनेवाला एक ही प्राण कई मण्डलों (चक्रों)-से विभक्त हो जाता है। जैसे वाम तथा दक्षिण अङ्गके योगसे वही वायु दस प्रकारका हो जाता है, वैसे ही वही वायु तत्वरूपी वस्त्रमें छिपकर विचित्र बिन्दुरूपी मुण्डके द्वारा कपालरूपी ब्रहमाण्डके अमृतका पान करता है ॥ १३-१५॥

अब पञ्चवर्गके बलसे जिस प्रकार युद्धमें विजय होती हैं, उसे सुनो-

‘अ, आ, क, च, ट, त, प, य, श’-यह प्रथम वर्ग कहा गया है।

‘इ, ई, ख, छ, ठ, थ, फ, र, ष’-यह द्वितीय वर्ग हैं।

“उ, ऊ, ग, ज, ड, द, ब, ल, स’-यह तृतीय वर्ग है।

‘ए, ऐ, घ, झ, ढ, ध, भ, व, ह”-यह चौथा वर्ग है।

‘ओ, औ, अं, अः, ङ, ञ, ण, न, म”-यह पश्चम वर्ग हैं।

ये पैंतालीस अक्षर मनुष्योंके अभ्युदयके लिये हैं।

इन वर्गोंके क्रमसे बाल, कुमार, युवा, वृद्ध और मृत्यु-ये पाँच नाम हैं॥ १६-१९३ ॥

(अब तिथि, वार और नक्षत्रोंके योगसे काल-ज्ञानका वर्णन करते हैं-)

आत्मपीड़, शोषक, उदासीन-ये तीन प्रकार के काल होते हैं।

मङ्गलवारको प्रतिपदा तिथि तथा कृत्तिका नक्षत्र हों तों वे प्राणीके लिये लाभदायक होते हैं।

मङ्गलवारको षष्ठी तिथि तथा मघा नक्षत्र हों तो पीड़ाकारक होते हैं।

मङ्गलवारको एकादशी तिथि और आद्रा नक्षत्र हों तो वे मृत्युदायक होते हैं।

बुधवार, द्वितीया तिथि तथा मघा नक्षत्रका योग एवं बुधवार, सप्तमीं तिथि और आद्रा नक्षत्रका योग लाभदायक होते हैं। बुधवार और भरणी नक्षत्रका योग हानिकारक होता है।

इसी प्रकार बुधवार तथा श्रवण नक्षत्रके योगमें ‘कालयोग’ होता है।

वृहस्पतिवार, तृतीया तिथि और पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रका योग लाभकारक होता है।

बृहस्पतिवार, अष्टमी तिथि, ” धनिष्ठा तथा आर्द्रा नक्षत्र एवं गुरुवार, त्रयोदशी “तिथि, ” आश्लेषा नक्षत्र—ये योग मृत्युकारक होते हैं।

शुक्रवार, चतुर्थी तिथि और पूर्वभाद्रपदा नक्षत्रका योग श्रीवृद्धि करता हैं।

शुक्रवार, नवमी तिथि और पूर्वाषाढ़ा नक्षत्रयह योग दुःखप्रद होता है।

शुक्रवार, द्वितीया तिथि और भरणी नक्षत्रका योग यमदण्ड़के समान हानिकर होता है।

शनिवार, पश्चमी तिथि और कृतिका नक्षत्रका योग लाभके लिये कहा गया है।

शनिवार, दशमी तिथि और आश्लेषा नक्षत्रका योग पीड़ाकारक होता है।

शनिवार, पूर्णिमा तिथि और मघा नक्षत्रका योग मृत्युकारक कहा गया है। २०-२६ ॥

(अब दिशा-तिथि-दिनके योगसे हानि-लाभ कहते हैं-)

पूर्व, उत्तर, अग्नि, नैऋत्य, दक्षिण, वायव्य, पश्चिम, ऐशान्य-ये इनमेंसे एक-दूसरे को देखते हैं।

प्रतिपदा तथा नवमी आदि तिथियोंमें मेषादि राशियोंके साथ ही रवि आदि वारकों भी मिलाये। यह योग कार्यसिद्धिके लिये होता है। जैसे पूर्व दिशा, प्रतिपदा तिथि, मेष लग्न, रविवार-यह योग पूर्व दिशाके लिये युद्ध आदि काश्याँमें सिद्धिदायक होता है। ऐसे और भी समझने चाहिये।

मेषसे चार राशियाँ अर्थात् मेष, वृष, मिथुन, कर्क एवं कुम्भ – ये लग्न पूर्ण विजय के लिये होते हैं। शेष राशियाँ मृत्युके लिये होती हैं।

सूर्यादि ग्रह तथा रिक्ता, पूर्णा आदि तिथियों का इसी तरह क्रमश: न्यास करना चाहिये, जैसा कि पहले दिशाओंके साथ कहा गया है।

सूर्यके सम्बन्धसे युद्धमें कोई उत्तम फल नहीं होता।

सोमका सम्बन्ध संधिके लिये होता है।

मङ्गलके सम्बन्धसे कलह होता है।

बुधके सम्बन्धसे संग्राम करनेसे अभीष्टसाधनकी प्राप्ति होती है।

गुरुके सम्बन्धसे विजयलाभ होता है।

शुक्रके सम्बन्धसे अभीष्ट सिद्ध होता है एवं शनिके सम्बन्धसे युद्धमें पराजय होती है॥ २७-३० ॥

(पिङ्गला (पक्षि)-चक्रसे शुभाशुभ कहते हैं-)

एक पक्षीका आकार लिखकर उसके मुख, नेत्र, ललाट, सिर, हस्त, कुक्षि, चरण तथा पंखमें सूर्यके नक्षत्रसे तीन-तीन नक्षत्र लिखे।

पैरवाले तीन नक्षत्रोंमें रण करनेसे मृत्यु होती है तथा पंख वाले तीन नक्षत्रोंमें धनका नाश होता हैं। मुखवाले तीन नक्षत्रोंमें पीड़ा होती है और सिरवाले तीन नक्षत्रोंमें कार्यका नाश होता है। कुक्षिवाले तीन नक्षत्रोंमें रण करनेसे उत्तम फल होता हैं।॥ ३१-३२ ॥

(अब राहुचक्र कहते हैं-)

पूर्वसे नैऋत्यकोणतक, नैऋत्यकोणसे उत्तर दिशातक, उत्तरदिशासे अग्निकोणतक, अग्निकोणसे पश्छिमतक, पश्छिमसे ईशानतक, ईशानसे दक्षिणतक, दक्षिणसे वायव्यकोणतक, वायव्यकोणसे उत्तरतक चार-चार दण्डतक राहुका भ्रमण होता है।

राहुको पृष्ठकी ओर रखकर रण करना विजयप्रद होता है तथा राहुके सम्मुख रहनेसे मृत्यु हो जाती है।

प्रिये! मैं तुमसे अब तिथि-राहुका वर्णन करता हूँ। पूर्णिमाके बाद कृष्णपक्षकी प्रतिपदासे अग्निकोणसे लेकर ईशानकोणतक अर्थात कृष्णपक्षकी अष्टमी तिथितक राहू पूर्वदिशामें रहता है। उसमें युद्ध करनेसे जय होती है। इसी तरह ईशानसे अग्निकोणतक और नैऋत्यकोणसे वायव्यकोणतक राहुका भ्रमण होता रहता है।

मेषादि राशियोंको पूर्वादि दिशामें रखना चाहिये। इस तरह रखनेपर मेष, सिंह, धनु राशियाँ पूर्वमें: वृष, कन्या, मकर-ये दक्षिणमें; मिथुन, तुला, कुम्भ-ये पश्चिममें, कर्क, वृश्चिक, मीन-ये उत्तरमें हो जाती हैं।

सूर्यकी राशिसे सूर्यकी दिशा जानकर सम्मुख सूर्यमें रण करना मृत्युकारक होता है ॥ ३५-३७ ॥

(भद्राकी तिथिका निर्णय बताते हैं -)

कृष्णपक्षमें तृतीया, सप्तमी, दशमी तथा चतुर्दशीको ‘भद्रा’ होती है।

शुक्लपक्षमें चतुर्थी, एकादशी, अष्टमी और पूर्णिमाको ‘भद्रा’ होती है।

भद्राका निवास अग्निकोणसे वायव्यकोणतक रहता है।

अ, क, च, ट, त, प, य, श-ये आठ वर्ग होते हैं, जिनके स्वामी क्रमसे सूर्य, चन्द्रमा, मङ्गल, बुध, वृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु ग्रह होते हैं। इन ग्रहोंके वाहन क्रमसे गृध्र, उलूक, बाज, पिङ्गल, कौशिक (उलूक), सारस, मयूर, गोरकं नामके पक्षी हैं।

पहले हवन करके मन्त्रोंकों सिद्ध कर लेना चाहिये।

उच्चाटनमें मन्त्रोंका प्रयोग पाल्लवरूपसे करना चाहिये ॥३८-४० ॥

वश्य, ज्वर एवं आकर्षणमें पल्लवका प्रयोग सिद्धिकारक होता है।

शान्ति तथा मोहन-प्रयोगोंमें ‘नमः’ कहना ठीक होता है।

पुष्टिमें तथा वशीकरणमें ‘वौषट्’ कहना ठीक होता है।

मारण तथा प्रीतिविनाशके प्रयोग में ‘हुम’ कहना ठीक होता है।

विद्वेषण तथा उच्चाटनमें ‘फट्’ कहना चाहिये।

पुत्रादिप्रातिके प्रयोगमें तथा दीति आदिमें ‘वषट्’ कहना चाहिये।

इस तरह मन्त्रोंकी छ: जातियाँ होतीं है ॥४१-४२॥

अब हर तरह से रक्षा करनेवाली औषधियोंका वर्णन करूंगा-

महाकाली, चण्डी, वाराही (वाराहीर्कद), ईश्वरी, सुदर्शना, इन्द्राणी (सिंधुवार)-इनको शरीरमें धारण करनेसे ये धारककी रक्षा करती हैं।

बला (कुट), अतिबला (कंधी), भीरु (शतावरी अथवा कंटकारी), मुसली (तालमूली), सहदेवी, जाती (चमेली), मल्लिका (मोतिया), यूथी (जूही), गारुड़ी, भृङ्गराज (भटकटैया), चक्ररुपा-ये महौषधियाँ धारण करनेसे युद्धमें विजयदायिनी होती हैं।

महादेवि! ग्रहण लगनेपर पूर्वोक्त ओषधियोंका उखाड़ना शुभदायक होता है। ॥४३-४६ ॥

हाथीकी सर्वांगसंपन्न मिट्टीकी मूर्ती बनाकर, उसके पैरके नीचे शत्रुके स्वरूपको रखकर, स्तम्भन-प्रयोग करना चाहिये। अथवा किसी पर्वतके ऊपर, जहाँपर एक ही वृक्ष हो, उसके नीचे, अथवा जहाँपर बिजली गिरी हो, उस प्रदेशमें, वल्मीककी मिट्टीसे एक स्त्रीकी प्रतिकृति बनाये। फिर ‘ॐ नमो महाभैरवाय विकृतदंष्टोग्ररुपाय पिंगलाक्षाय त्रिशूलखङ्गधराय वौषट।’

हे देवि! इस मन्त्रसे उस मृत्तिकामयी देवीकी पूजा करके (शत्रुके) शस्त्रसमूहका स्तम्भन करना चाहिये॥४७-४९॥

अब संग्राम में भाग विजय ने दिलानेवाले अग्निकार्यका वर्णन करूंगा-रातमें शमशानमें जाकर नंग-धड़ग, शिखा खोलकर, दक्षिणमुख बैठकर जलती हुई चितामें मनुष्यका मांस, रुधिर, विष, भूसी और हड्डीके टुकड़े मिलाकर नीचे लिखे मन्त्रसे आठ सौ बार शत्रुका नाम लेकर हवन करे—’ॐ नमो भगवति कौमारि लल लल लालय लालय घण्टादेवि! अमुर्क मारय मारय सहसा नमोऽस्तु ते भगवति विधे स्वाहा।’-इस विद्यासे हवन करनेपर शत्रु अंधा ही जाता है। ५०-५३ ॥

(सब प्रकारकी सफलताके लिये हनुमान्जीका मन्त्र कहते हैं-)

‘ॐ वज्रकाय वज्रतुण्ड कपिलपिंगल करालवदनोर्ध्वकेश महाबल रक्तमुख तडिज्जीह्र महारौद्र दंष्ट्रोत्कट कटकरालिन् महादृढप्रहार लंकेश्वरसेतुबन्ध शैलप्रभाव गगनचर एह्रोहि महारौद्र दीर्धलांगलेन अमूकं वेष्टय वेष्टय जम्भय जम्भय खन खन वैते ह्रूं फट |

देवी! इस मन्त्रको ३८०० बार जप कर लैनेपर श्रीहनुमानजी सब प्रकारके कार्योंकी सिद्ध कर देते हैं। कपड़ेपर हनुमान्जीकी मूर्ति लिखकर दिखानेसे शत्रुओंका विनाश होता है। ॥५४-५५॥

अध्याय-१२६ नक्षत्र-सम्बन्धी पिण्डका वर्णन

शंकरजी कहते है देवी! अब मैं प्राणियोंके शुभाशुभ फलकी जानकारीके लिये नक्षत्रिक पिण्डका वर्णन करुँगा।

(जिस राजा या मनुष्यके लिये शुभाशुभ फलका ज्ञान करना हो, उसकी प्रतिकृतिरूपसे एक मनुष्यका आकार बनाकर)

सूर्य जिस नक्षत्रमें हों, उससे तीन नक्षत्र उसके मस्तकमें, एक मुखमें, दो नेत्रोंमें, चार हाथ और पैरमें, पाँच ह्रदयमें और पाँच जानुमें लिखकर आयु-वृद्धिका विचार करना चाहिये।

सिरवाले नक्षत्रोंमें संग्राम (कार्य) करनेसे राज्यकी प्राप्ति होती है। मुखवाले नक्षत्रमें सुख, नेत्रवाले नक्षत्रोंमें सुन्दर सौभाग्य, ह्रदयवाले नक्षत्रोंमें द्रव्यसंग्रह,  हाथवाले नक्षत्रोंमें चोरी और पैरवाले नक्षत्रोंमें मार्गमें ही मृत्यु-इस तरह क्रमश: फल होते है।

(अब ‘कुम्भ-चक्र’ कह रहे हैं-)

आठ कुम्भको पूर्वादि आठ दिशाओंमें स्थापित करना चाहिये। प्रत्येक कुम्भमें तीन-तीन नक्षत्रोंकी स्थापना करनेपर आठ कुम्भोंमें चौबीस नक्षत्रोंका निवेश हो जाने पर चार नक्षत्र शेष रह जायँगे। इन्हें ही ‘सूर्यकुम्भ’ कहते हैं। यह सूर्यकुम्भ अशुभ होता है। शेष पूर्वादि दिशाओंवाले कुम्भ-सम्बन्धी नक्षत्र शुभ होते हैं। (इसका उपयोग नाम-नक्षत्रसे दैनिक नक्षत्रतक गिनकर उसी संख्यासे करना चाहिये।) ॥ ४६ ॥

अब मैं संग्राममें जय-पराजयका विवेक प्रदान करनेवाले सपाकार राहुचक्रका वर्णन करता हूँ।

प्रथम अट्ठाईस बिन्दुओंकी लिखे, उसमें तीन-तीनका विभाग कर दे, इस तरह आठ विभाग कर देनेपर चौबीस नक्षत्रोंका निवेश हो जायगा। चार शेष रह जायँगे। उसपर रेखा करे। इस तरह करनेपर ‘सर्पाकार चक्र’ बन जायगा।

जिस नक्षत्रमें राहु रहे, उसको सर्पके फणमें लिखे। उसके बाद उसी नक्षत्रसे प्रारम्भ करके क्रमश: सत्ताईस नक्षत्रोका निवेश करे॥५-७॥

(सर्पाकार राहुचक्रका फल- )

मुखवाले सात नक्षत्रोंमें संग्राम करनेसे मरण होता है, स्कन्धवाले सात नक्षत्रोंमें युद्ध करनेसे पराजय होती है, पेटवाले सात नक्षत्रोंमें युद्ध करनेसे सम्मान तथा विजयकी प्राप्ति होती है, कटिवाले नक्षत्रोंमें संग्राम करनेसे शत्रुओंका हरण होता है, पुच्छवाले नक्षत्रोंमें संग्राम करनेसे कीर्ति होती है और राहुसे दृष्ट नक्षत्रमें संग्राम करनेसे मृत्यु होती हैं।

इसके बाद फिर सूर्यसे राहुतक ग्रहोंके बलका वर्णन करूंगा ॥ ८-१० ॥

(अर्धयामेशका वर्णन करते हैं-)

जैसे चार प्रहरका एक दिन होता हैं तो एक दिनमें आठ अर्धप्रहर होंगें । यदि दिनमान बत्तीस दण्ड़का हों तो एक अर्ध प्रहरका मान चार दण्डका होगा। दिनमान-प्रमाणमें आठसे भाग देनेपर जो लब्धि होगी, वही एक अर्धप्रहरका मान होता है।

रवि आदि सात वारोंमें प्रत्येक अर्धप्रहरका कौन ग्रह स्वामी होगा-इसपर विचार करते हुए केवल रविवारके दिन प्रत्येक अर्धप्रहरके स्वामियोंकी अता रहे हैं।

जैसे रविवारमें एकसे लेकर आठ अर्धप्रहरोंके स्वामी क्रमश: सूर्य, शुक्र, बुध, सोम, शनि, गुरु, मङ्गल और राहु ग्रह होते हैं।

(इनमें जिस विभागका स्वामी शनि होता है, वह समय शुभ कार्योंमें त्याज्य है और उसे ही ‘वारवेला’ कहते हैं।)

(विशेष-रविवारके अर्धयामेशोंकी देखनेसे यह अनुमान होता है कि रविवारके अतिरिक्त जिस दिनका अर्धयामेश जानना हो तो प्रथम अर्धयामेंश तो दिनपति हीं होगा और बादके अर्धयामोंके स्वामी छः संख्यावाले ग्रह होंगे। इसी आधारपर रविवार से लेकर शनिवातक के अर्धयामोंके स्वामी नीचे चक्र में दिये जा रहे हैं”-)

शनि, सूर्य तथा राहुको यत्नसे पीठ पीछे करके जो संग्राम करता है, वह सैन्यसमुदायपर विजय प्राप्त करता है तथा जूआ, मार्ग और युद्धमें सफल होता है।॥ ११-१२ ॥

(नक्षत्रोंकी स्थिरादि संज्ञा तथा उसका प्रयोजन कहते हैं- )

रोहिणी, तीनों उत्तराएँ, मृगशिरा-इन पाँच नक्षत्रोंकी ‘स्थिर’ संज्ञा है।

अश्विनी, रेवती, स्वाती, धनिष्ठा, शतभिषा-इन पाँचों नक्षत्रोंकी ‘क्षिप्र” संज्ञा है। इनमें यात्रार्थीकों यात्रा करनी चाहिये।

अनुराधा, हस्त, मूल, मृगशिरा, पुष्य, पुनर्वसु-इनमें प्रत्येक कार्य हो सकता है।

ज्येष्ठा, चित्रा, विशाखा, तीनों पूर्वाये, कृत्तिका, भरणी, मघा, आर्द्रा, आश्लेषा,-इनकी दारुण संज्ञा है।

स्थिर कार्योंमें स्थिर संज्ञावाले नक्षत्रोंकों लेना चाहिये।

यात्रा में ‘क्षिप्र’ संज्ञक नक्षत्र उत्तम माने गये हैं।

‘मृदु’ संज्ञक नक्षत्रोंमें सौभाग्यका काम करना चाहिये।

‘उग्र’ संज्ञक नक्षत्रोंमें उग्र काम करना चाहिये।

‘दारुण’ संज्ञक नक्षत्र दारुण (भयानक) कामके लिये उपयुक्त होते हैं॥ १३-१६६॥

(अब अधोमुख, तिर्यङ्मुख आदि नक्षत्रोंका नाम तथा प्रयोजन कहता हूँ-)

कृत्तिका, भरणी, आश्लेषा, विशाखा, मघा, मूल, तीनों पूर्वाएँ-ये अधोमुख नक्षत्र हैं। इनमें अधोमुख कर्म करना चाहिये। उदाहरणार्थ कूप, तडाग, विधाकर्म, चिकित्सा, स्थापन, नौका-निर्माण, कूपोंका विधान, गड्ढा खोदना आदि कार्य इन्हीं अधोमुख नक्षत्रोंमें करना चाहिये।

रेवती, अश्विनी, चित्रा, हस्त, स्वाती, पुनर्वसु, अनुराधा, मृगशिरा, ज्येष्ठा-ये नौ नक्षत्र तिर्यङ्मुख हैं। इनमें राज्याभिषेक, हाथी तथा घोड़ेको पट्टा बाँधना, बाग लगाना, गृह तथा प्रासादका निर्माण, प्राकार बनाना, क्षेत्र, तोरण, ध्वजा, पताका लगाना-इन सभी कार्योंको करना चाहिये।

रविवारको द्वादशी, सोमवारकों एकादशी, मङ्गलवारको दशमी, बुधवारको तृतीया, बृहस्पतिवारको षष्ठी, शुक्रवारको द्वितीया, शनिवारको सप्तमी हों तो ‘दग्धयोग’ होता है।॥ १७-२३ ॥

(अब त्रिपुष्कर योग बतलाते हैं-)

द्वितीया, द्वादशी, सप्तमी-तीन तिथियाँ तथा रवि, मङ्गल, शनि-तीन वार-ये छ: “त्रिपुष्कर’ हैं तथा विशाखा, कृत्तिका, दोनों उत्तराएँ, पुनर्वसु, पूर्वाभाद्रपदा-ये छ: नक्षत्र भी ‘त्रिपुष्कर’ हैं। अर्थात् रवि, शनि, मङ्गलवारोंमें द्वितीया, सतमी, द्वादशीमेंसे कोई तिथि हो तथा उपर्युक्त नक्षत्रोंमेंसे कोई नक्षत्र हो तो ‘त्रिपुष्कर-योग’ होता है।

त्रिपुष्कर योगमें लाभ, हानि, विजय, वृद्धि, पुत्रजन्म, वस्तुओंका नष्ट एवं विनष्ट होना-ये सब त्रिगुणित हो जाते हैं॥ २४-२६ ॥

(अब नक्षत्रोंकी स्वक्ष, मध्याक्ष, मन्दाक्ष और अन्धाक्ष संज्ञा तथा प्रयोजन कहते हैं-)

अश्विनी, भरणी, आश्लेषा, पुष्य, स्वाती, विशाखा, श्रवण, पुनर्वसु-ये दृढ़ नेत्रवाले नक्षत्र हैं और दसों दिशाओंको देखते हैं। (इनकी संज्ञा ‘स्वक्ष’ हैं।) इनमें गयी हुई वस्तु तथा यात्रा में गया हुआ व्यक्ति विशेष पुण्यके उदय होनेपर ही लौटते हैं।

दोनों आषाढ़ नक्षत्र, रेवती, चित्रा, पुनर्वसु-ये पाँच नक्षत्र ‘केकर’ हैं, अर्थात् ‘मध्याक्ष’ हैं। इनमें गयी हुई वस्तु विलम्बसे मिलती है।

कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, पूर्वाफाल्गुनी, मघा, मूल, ज्येष्ठा, अनुराधा, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपदा-ये नक्षत्र “चिपिटाक्ष’ अर्थात् ‘मन्दाक्ष’ हैं। इनमें गयी हुई वस्तु तथा मार्ग चलनेवाला व्यक्ति कुछ ही विलम्बमें लौट आता है।

हस्त, उत्तराभाद्रपदा, आद्रा, पूर्वाषाढा-ये नक्षत्र ‘अन्धाक्ष’ हैं। इनमें गयी हुई वस्तु शीघ्र मिल जाती है, कोई संग्राम नहीं करना पड़ता ॥ २७-३२॥

अब नक्षत्रोंमें स्थित ‘गण्डान्त’का निरूपण करता हूँ-

रेवती के अन्तके चार दण्ड और अश्विनीके आदिके चार दण्ड़ ‘गण्डान्त’ होते हैं। इन दोनों नक्षत्रोंका एक प्रहर शुभ कार्योंमें प्रयत्नपूर्वक त्याग देना चाहियें। आश्लेषाके अन्तका तथा मघाके आदिके चार दण्ड ‘द्वितीय गण्डान्त’ कहे गये हैं।

भैरवि! अब ‘तृतीय गण्डान्त’को सुनो-ज्येष्ठा तथा मूलके बीच का एक प्रहर बहुत ही भयानक होता है। यदि व्यक्ति अपना जीवन चाहता हो तों उसे इस कालमें कोई शुभ कार्य नहीं करना चाहियें। इस समयमें यदि बालक पैदा हों तों उसके माता-पिता जीवित नहीं रहते ॥ ३३-३६।

एक सौ छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १२६।

अध्याय-१२७ विभिन्न बलोंका वधर्णन

शंकरजी कहते हैं‘विष्कुम्भ योग’की तीन घड़ियाँ ‘शूल योग’की पाँच ‘गण्ड’ तथा अतिगण्ड योग की छः व्याधात, तथा वज्र योग’ की नौ घड़ियोंको सभी शुभ कार्योंमें त्याग देना चाहिये।

‘परिघ’, ‘व्यतीपात’ और ‘वैधृति’ योगोंमें पूरा दिन त्याज्य बतलाया गया है। इन योगोंमें यात्रा-युद्धादि कार्य नहीं करने चाहिये ॥ १-२॥

देवि! अब मैं मेषादि राशि तथा ग्रहोंके द्वारा शुभाशुभका निर्णय बताता हूँ-

जन्म-राशिके चन्द्रमा तथा शुक्र वर्जित होनेपर ही शुभदायक होते हैं।

जन्म-राशि तथा लग्नसे दूसरे स्थानमें सूर्य, शनि, राहु अथवा मङ्गल हो तो प्राप्त द्रव्यका नाश और अप्राप्तका अलाभ होता है तथा युद्धमें पराजय होती है।

चन्द्रमा, बुध, गुरु, शुक्र-ये दूसरे स्थानमें शुभप्रद होते हैं।

सूर्य, शनि, मङ्गल, शुक्र, बुध, चन्द्रमा, राहु-ये तीसरे घरमें हों तो शुभ फल देते हैं।

बुध, शुक्र चौथे भावमें हों तो शुभ तथा शेष ग्रह भयदायक होते हैं।

बृहस्पति, शुक्र, बुध, चन्द्रमा-ये पञ्चम भावमें हों तो अभीष्ट लाभकी प्राप्ति कराते हैं।

देवि! अपनी राशि से छठे भावमें सूर्य, चन्द्र, शनि, मङ्गल, बुध-ये ग्रह शुभ फल देते हैं; किंतु छठे भावका शुक्र तथा गुरु शुभ नहीं होता । सप्तम भावके सूर्य, शनि, मङ्गल, राहु हानिकारक होते हैं तथा बुध, गुरु, शुक्र सुखदायक होते हैं। अष्टम भावके बुध और शुक्र-शुभ तथा शेष ग्रह हानिकारक होते हैं। नवम भावके बुध, शुक्र शुभ तथा शेष ग्रह अशुभ होते हैं। दशम भावके शुक्र, सूर्य लाभकर होते हैं तथा शनि, मङ्गल, राहु, चन्द्रमा-बुध शुभकारक होते हैं। ग्यारहवें भावमें प्रत्येक ग्रह शुभ फल देता है, परंतु दसवें बृहस्पति त्याज्य हैं। द्वादश भावमें बुध-शुक्र शुभ तथा शेष ग्रह अशुभ होते हैं।

एक दिन-रातमें द्वादश राशियाँ भोग करती हैं। अब मैं उनका वर्णन कर रहा हूँ॥ ३-१२ ॥

(राशियोंका भोगकाल एवं चरादि संज्ञा तथा प्रयोजन कह रहे हैं-)

मीन, मेष, मिथुन-इनमें प्रत्येकके चार दण्ड: वृष, कर्क, सिंह, कन्या-इनमें प्रत्येकके छ: दण्ड; तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ-इनमें प्रत्येकके पाँच दण्ड भोगकाल हैं।

सूर्य जिस राशिमें रहते हैं, उसीका उदय होता है और उसी राशिमें अन्य राशियोंका भोंगकाल प्रारम्भ होता है।

मेषादि राशियोंकी क्रमश: ‘चर’ ‘स्थिर’ और ‘द्विस्वभाव’ संज्ञा होती हैं। जैसेमेष, कर्क, तुला, मकर-इन राशियोंकी ‘चर’ संज्ञा हैं। इनमें शुभ तथा अशुभ स्थायी कार्य करने चाहिये।

वृष, सिंह, वृश्चिक, कुम्भ-इन राशियोंकी “स्थिर’ संज्ञा है। इनमें स्थायी कार्य करना चाहिये। इन लग्नोंमें बाहर गये हुए व्यक्तिसे शीघ्र समागम नहीं होता तथा रोगीकी शीघ्र रोगसे मुक्ति नहीं प्राप्त होती।

मिथुन, कन्या, धनु, मीन-इन राशियोंकी ‘द्विस्वभाव” संज्ञा है। ये द्विस्वभावसंज्ञक राशियाँ प्रत्येक कार्यमें शुभ फल देनेवाली हैं। इनमें यात्रा, व्यापार, संग्राम, विवाह एवं राजदर्शन होनेपर वृद्धि, जय तथा लाभ होते हैं और युद्धमें विजय होती है।

अश्विनी नक्षत्रकी बीस ताराएँ हैं और घोड़ेके समान उसका आकार हैं। यदि इसमें वर्षा हो तो एक रात तक घनघोर वर्षा होती है।

यदि भरणीमें वर्षा आरम्भ हों तों पंद्रह दिन तक लगातार वर्षा होती रहती हैं ॥ १३-११ ॥

एक सौ सताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२७ ॥

अध्याय-१२८ कोष्टचक्रका वर्णन

शंकरजी कहते हैं- अब मैं ‘कोटचक्र’ का वर्णन करता हूँ-पहले चतुर्भुज लिखे, उसके और उसके भीतर चौथा चतुर्भुज लिखें। इस तरह लिख देने पर ‘कोटचक्र’ बन जाता है।

कोटचक्र के भीतर तीन मेंखलाएँ बनतीं हैं, जिनका नाम क्रमसे प्रथम नाड़ी, मध्यनाड़ी और अन्तनाड़ी  है।

कोटचक्रके ऊपर पूर्वादि दिशाओंको लिखकर मेषादि राशियोंकी भी लिख देना चाहिये।

पूर्व भागमें कृतिका, अग्निकोणमें आश्लेषा, दक्षिणमें मघा, नैऋत्यमें विशाखा, पश्चिममें अनुराधा, वायुकोणमें श्रवण, उत्तरमें धनिष्ठा, ईशानमें भरणीको लिखे। इस तरह लिख देनेपर बाह्रा नाड़ीमें अर्थात् प्रथम नाड़ीमें आठ नक्षत्र हो जायँगे। इसी तरह पूर्वादि दिशाओंके अनुसार रोहानी, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, स्वाती, ज्येष्ठा, अभिजित्, शतभिषा, अश्विनी-ये आठ नक्षत्र, मध्यनाड़ीमें हो जाते हैं। कोटके भीतर जो अन्तनाड़ी है, उसमें भी पूर्वाद दिशाओंके अनुसार पूर्वमें मृगशिरा, अग्निकोणमें पुनर्वसु, दक्षिणमें उत्तराफाल्गुनी, नैऋत्यमें चित्रा, पश्छिममें मूल, वायव्यमें उत्तराषाढ़, उत्तरमें पूर्वाभाद्रपदा और ईशानमें रेवतीको लिखे। इस तरह लिख देनेपर अन्तनाड़ीमें भी आठ नक्षत्र हो जाते हैं।

आद्रा, हस्त, पूर्वाषाढ़ा तथा उत्तराभाद्रपदा-ये चार नक्षत्र कोष्टचक्रके मध्यमें स्तम्भ होते हैं।” इस तरह चक्र को लिख देनेपर बाहरका स्थान दिशाके स्वामियोंका होता है”।

आगन्तुक योद्धा जिस दिशा में जो नक्षत्र हैं, उसी नक्षत्र में उसी दिशासे कोटमें यदि प्रवेश करता है तो उसकी विजय होती है। कोटके बीच में जो नक्षत्र हैं, उन नक्षत्रोंमें जब शुभ ग्रह आये, तब युद्ध करनेसे मध्यवाले की विजय तथा चढ़ाई करनेवालेकी पराजय होती है।

प्रवेश करनेवाले नक्षत्रमें प्रवेश करना तथा निर्गमवाले नक्षत्रमें निकलना चाहिये। शुक्र, मङ्गल और बुध-ये जब नक्षत्र के अन्तमें रहें, तब यदि युद्ध आरम्भ किया जाय तो आक्रमणकारीकी पराजय होती है। प्रवेशवाले चार नक्षत्रोंमें यदि युद्ध छेड़ा जाय तो वह दुर्ग वशमें हो जाता है-इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है।॥ १-१३ ॥

(विशेष प्रथम नाड़ीके आठ नक्षत्र दिशाके नक्षत्र हैं, उन्होंको ‘बाह्म’ भी कहते हैं। मध्य तथा अन्त नाड़ीवाले नक्षत्रोंको कोटके मध्यका समझना चाहिये।)

एक सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ। १२८ ॥

अध्याय-१२९ अर्घकाण्डका प्रतिपादन

शंकरजी कहते हैं अब मैं वस्तुओंकी महंगी तथा सस्तीके सम्बन्ध में विचार प्रकट कर रहा हूँ।

जब कभी भूतलपर उल्कापात, भूकम्प, निर्घात (वज्रपात), चन्द्र और सूर्यके ग्रहण तथा दिशाओंमें अधिक गरमीका अनुभव हो तो इस बात का प्रत्येक मासमें लक्ष्य करना चाहिये।

यदि उपर्युक्त लक्षणोंमेंसे कोई लक्षण चैत्रमें हो तो अलंकार-सामग्रियों (सोना-चाँदी आदि)-का संग्रह करना चाहिये। वह छ: मासके बाद चौगुने मूल्यपर बिक सकता है।

यदि वैशाखमें हो तो वस्त्र, धान्य, सुवर्ण, घृतादि सब पदार्थोंका संग्रह करना चाहिये। वे आठवें मासमें छ:गुने मूल्यपर बिकते हैं।

यदि ज्येष्ठ तथा आषाढ़ मासमें मिले तो जौ, गेहूँ और धान्यका संग्रह करना चाहिये।

यदि श्रावणमें मिले तो घृत-तैलादि रस-पदार्थोंका संग्रह करना चाहिये।

यदि आश्विनमें मिले तो वस्त्र तथा धान्य दोनोंका संग्रह करना चाहिये।

यदि कार्तिकमें मिले तो सब प्रकारका अन्न ख़रीदकर रखना चाहिये।

अगहन तथा पौषमें यदि मिले तो कुङ्कुम तथा सुगन्धित पदार्थोंसे लाभ होता है।

माघमें यदि उक्त लक्षण मिले तो धान्यसे लाभ होता है।

फाल्गुनमें मिले तो सुगन्धित पदार्थोंसे लाभ होता है।

लाभकी अवधि छ: या आठ मास समझनी चाहिये ॥ १-५ ॥

एक सौ उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १२९॥

अध्याय-१३० विविध मण्डलोंका वर्णन

शंकरजी कहते हैं भद्रे! अब मैं विजय के लिये चार प्रकारके मण्डलका वर्णन करता हूँ।

कृत्तिका, मघा, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, विशाखा, भरणी, पूर्वाभाद्रपदा-इन नक्षत्रोंका ‘आग्नेय मण्डल’ होता है, उसका लक्षण बतलाता हूँ।

इस मण्डलमें यदि विशेष वायुका प्रकोप हो, सूर्य-चन्द्रका परिवेष लगे, भूकम्प हो, देशकी क्षति हो, चन्द्र-सूर्यका ग्रहण हो, धूमज्वाला देखनेमें आये, दिशाओंमें ाहका अनुभव होता हो, केतु अर्थात् पुच्छल तारा दिखायी पड़ता हो, रक्तवृष्टि हो, अधिक गर्मीका अनुभव हो, पत्थर पड़े, तो जनतामें नेत्रका रोग, अतिसार (हैजा) और अग्निभय होता है। गायें दूध कम कर देती हैं। वृक्षोंमें फल-पुष्प कम लगते हैं। उपज कम होती है। वर्षा भी स्वल्प होती है। चारों वर्ण दुखी रहते है। सारे मनुष्य भूखसे व्याकुल रहते है । ऐसे उत्पातोंके दीख पड़नेपर सिंध-यमुनाकी तहलटी, गुजरात, भोज, बाह्रीक, जालन्धर, काश्मीर और सातवाँ उत्तरापथ – ये देश विनिष्ट हो जाते है ।

हस्त, चित्रा, मघा, स्वाती, मृगशिरा, पुरर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, अश्विनी-इन नक्षत्रोंका ‘वायव्य मण्डल’ कहा जाता है।

इसमें यदि पूर्वोक्त उत्पात हों तो विक्षित होकर हाहाकार करती हुई सारी प्रजाएँ नष्टप्राय हो जाती हैं। साथ ही डाहल (त्रिपुर), कामरूप, कलिंग, कोशल, अयोध्या, उज्जैन, कोक्कन तथा आन्ध्र-ये देश नष्ट हो जाते हैं।

आश्लेषा, मूल, पूर्वाषाढा, रेवती, शतभिषा तथा उत्तराभाद्रपदा-इन नक्षत्रोंको ‘वारुण मण्डल’ कहते हैं।

इसमें यदि पूर्वोक्त उत्पात हों तो गायोंमें दूध-घीकी वृद्धि और वृक्षोंमें पुष्प तथा फल अधिक लगते हैं। प्रजा आरोग्य रहती है। पृथ्वी धान्यसे परिपूर्ण हो जाती है। अन्नोंका भाव सस्ता तथा देशमें सुकालका प्रसार हो जाता है, किंतु राजाओंमें परस्पर घोर संग्राम होता रहता है॥ १-१४ ॥

ज्येष्ठा, रोहिणी, अनुराधा, श्रवण, धनिष्ठा, उत्तराषाढ़ा, सातवाँ अभिजित्-इन नक्षत्रोंका नाम’माहेन्द्र मण्डल’ है।

इसमें यदि पूर्वोक्त उत्पात हों तो प्रजा प्रसन्न रहती है, किसी प्रकारके रोगका भय नहीं रह जाता। राजा लोग आपसमें संधि कर लेते हैं और राजाओंके सुभिक्ष होता है॥ १५-१६६ ॥

‘ग्राम’ दो प्रकारका होता है-पहलेका नाम ‘मुखप्राम’ है और दूसरेका नाम ‘पुच्छग्राम’ है।

चन्द्र, राहु तथा सूर्य जब एक राशिमें हो जाते हैं, तब उसे ‘मुख ग्राम’ कहते हैं। राहुसे सातवें स्थानको ‘पुच्छग्राम’ कहते हैं।

सूर्यके नक्षत्रसे पंद्रहवें नक्षत्रमें जब चन्द्रमा आता है, उस समय तिथि-साधनके अनुसार ‘सोमग्राम’ होता है अर्थात् पूर्णिमा तिथि होती है* ॥ १७-१९ ॥

एक सौ तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ  ॥१३०॥

अध्याय-१३१ घातचक्र आदिका वर्णन

शंकरजी कहते हैंपूर्वादि दिशाओंमें प्रदक्षिणक्रमसे अकारादि स्वरोंको लिखें। उसमें शुक्लपक्षकी प्रतिपदा, पूर्णिमा, त्रयोदशी, चतुर्दशी केवल शुक्लपक्षकी एक अष्टमी (कृष्णपक्षकी अष्टमी नहीं), सप्तमी, कृष्णपक्षमें प्रतिपदासे त्रयोदशीतक (अष्टमीको छोड़कर) द्वादश तिथियोंका न्यास करे।

इस चैत्र-चक्रमें पूर्वादि दिशाओंमें स्पर्श-वर्णोंको लिखनेसे जय-पराजयका तथा लाभका निर्णय होता है।

विषम दिशा, विषम स्वर तथा विषम वर्णमें शुभ होता है और सम दिशा आदिमें अशुभ होता है॥ १-३॥

(अब युद्धमें जय-पराजयका लक्षण बतलाते है )

युद्धारम्भके समय सेनापति पहले जिसका नाम लेकर बुलाता है, उस व्यक्रिके नामका आदि-अक्षर यदि ‘दीर्घ’ हो तो उसकी घोर संग्राममें भी विजय होती हैं। यदि नामका आदिवर्ण ‘हृस्व’ हो तो निश्चय ही मृत्यु होती है।

जैसे-एक सैनिकका नाम ‘आदित्य’ और दूसरका नाम है-‘गुरु’। इन दोनोंमें प्रथमके नामके आदिमें ‘आ’ दीर्घ स्वर है और दूसरेके नामके आदिमें ‘उ’ हुस्व स्वर है; अत: यदि दीर्घ स्वरवाले व्यक्तिको बुलाया जायगा तो विजय और हृस्ववालेको बुलानेपर हार तथा मृत्यु होगी ॥ ४-७॥

(अब ‘नरचक्र’के द्वारा घाताङ्गका निर्णय करते हैं-)

नक्षत्र-पिण्ड़के आधार पर नरचक्रका वर्णन करता हूँ।

पहले एक मनुष्यका आकार बनावे । तत्पश्चात् उसमें नक्षत्रोंका न्यास करे। सूर्यके नक्षत्रसे नामके नक्षत्रतक गिनकर संख्या जान लें। पहले तीनकों नरके सिरमें, एक मुखमें, दो नेत्रमें, चार हाथमें, दो कानमें, पाँच हृदयमें और छ: पैरोंमें लिखे। फिर नाम-नक्षत्रका स्पष्ट रूपसे चक्रके मध्यमें न्यास करे। इस तरह लिखनेपर नरके नेत्र, सिर, दाहिना कान, दाहिना हाथ, दोनों पैर, हृदय, ग्रीवा, बायाँ हाथ और गुह्राङ्गमेंसे जहाँ शनि, मङ्गल, सूर्य तथा राहुके नक्षत्र पड़ते हों, युद्धमें उसी अङ्गमें घात (चोट) होता है ।। ९-१२ ।।

 (अब जयचक्रका निर्णय करते हैं-)

पूर्वसे पश्चिमतक तेरह रेखाएँ बनाकर पुन: उत्तरसे दक्षिणतक छ: तिरछी रेखाएँ खींचे। (इस तरह लिखनेपर जयचक्र बन जायगा।) उसमें अ से ह तक अक्षरोंको लिखे और १०।।९।।७।१२।।४। ११।१५।।२४।१८।।४।।२७।।२४- इन अंकोंका भी न्यास करे। अङ्गोंको ऊपर लिखकर अकारादि अक्षरोंको उसके नीचे लिखे। शत्रुके नामाक्षरके स्वर तथा व्यञ्जन वर्णके सामने जो अङ्क हों, उन सबको जोड़कर पिण्ड बनाये। उसमें सातसे भाग देनेपर एक आदि शेषके अनुसार सूर्यादि ग्रहोंका भाग जाने। १ शेषमें सूर्य, २ में चन्द्र, ३ में भौम, ४ में बुध, ५ में गुरु, ६ में शुक्र, ७ में शनिका भाग होता है-यों समझना चाहिये।

जब सूर्य, शनि और मङ्गलका भाग आये तो विजय होती हैं तथा शुभ ग्रहके भागमें संधि होती है॥१३-१५॥

उदाहरण- जैसे किसीका नाम देवदत्त है, इस नामके अक्षरों तथा ए स्वरके अनुसार अङ्क- क्रमसे १८+४+२४+१८+१५=७९ (उन्यासी) योग हुआ। इसमें सातका भाग दिया = ११ लब्धि तथा २ शेष हुआ। शेषके अनुसार सूर्यसे गिननेपर चन्द्रका भाग हुआ, अत: संधि होगी। इससे यह निश्चय हुआ कि ‘देवदत्त’ नामक व्यक्ति संग्राममें कभी पराजित नहीं हो सकता। इसी तरह और नामके अक्षर तथा मानाके अनुसार जय-पराजयका ज्ञान करना चाहिये।

(अब द्वितीय जयचक्र का निर्णय करते हैं-)

पूर्वसे पश्चिमतक बारह रेखाएँ लिखें और छ: तथा रेखाएँ याम्योत्तर करके लिखी जायँ। इस तरह यह जयचक्र बन जाएगा ।

उसके सर्वप्रथम ऊपरवाले कोष्ठमें १४ ।२७ । २ । १२ । १५ । ६ । | ४ । ३ ।  १७ । ८ । ८ -इन अङ्गोंको लिखे और कोष्ठोंमें ‘अकार’ आदि स्वरोंसे लेकर ‘ह’तकके अक्षरोंका क्रमशः न्यास करे ।

तत्पश्चात् नामके अक्षरोद्वारा बने हुए पिण्ड़में आठसे भाग दे तो एक आदि शेषके अनुसार वायस, मण्डल, रासभ, वृषभ, कुञ्जर, सिंह, खर, धूम्र-वे आठ शेषोंके नाम होते हैं।

इसमें वायससे प्रबल मण्डल और मण्डलसे प्रबल रासभ-यों उत्तरोत्तर बली जानना चाहिये।

संग्राममें यायी तथा स्थायीके नामाक्षरके अनुसार मण्डल बनाकर एक-दूसरेसे बली  दुर्बलका ज्ञान करना चाहिये ॥ १६-२० ॥

दूसरा उदाहरण-जैसे यायी रामचन्द्र तथा स्थायी रावण– इन दोनोंमें कौन बली हैं-वह जानना है। अत: रामचन्द्रके अक्षर तथा स्वरके अनुसार

अध्याय-१३२ सेवाचक्र आदिका निरूपण

शंकरजी कहते हैं अब मैं ‘सेवाचक्र’ का प्रतिपादन कर रहा हूँ, जिससे सेवककों सेव्यसे लाभ तथा हानिका ज्ञान होता है।

पिता, माता तथा भाई एवं स्त्री-पुरुष-इन लोगोंके लिये इसका विचार विशेषरूपसे करना चाहिये।

कोई भी व्यक्ति पूर्वोक्त व्यक्तियोंमेंसे किससे लाभ प्रात कर सकेगा-इसका ज्ञान वह उस ‘सेवाचक्र” से कर सकता है।॥ १-२ ॥

(सेवाचक्र का स्वरूप वर्णन करते हैं-)

पूर्वसे पश्चिमको छ: रेखाएँ और उत्तरसे दक्षिणको आठ तिरछी रेखाएँ खाँचे। इस तरह लिखनेपर पैतीस कोंष्ठका ‘सेवाचक्र’ बन जायगा।

उसमें ऊपरके कोष्ठोंमें पाँच स्वरोंको लिखकर पुन: स्पर्श-वणोंको लिखे। अर्थात् ‘क’ से लेकर ‘ह’ तकके वणाँका न्यास करे। वसमें तीन वर्णों-को छोड़कर लिखे। नीचेवाले कोष्ठोमें क्रमसे सिद्ध, साध्य, सुसिद्ध, शत्रु तथा मृत्यु-इनको लिखे । इस तरह लिखनेपर सेवाचक्र सर्वाङ्ग सम्पन्न हो जाता है।

इस चक्र में शत्रु तथा मृत्यु नामके कोष्ठमें जो स्वर तथा अक्षर हैं, उनका प्रत्येक कार्यमें त्याग कर देना चाहिये। किंतु सिद्ध, साध्य, सुसिद्ध, शत्रु तथा मृत्यु नामवाले कोष्ठोंमेंसे किसी एक ही कोष्ठमें यदि सेव्य तथा सेवकके नामका आदि-अक्षर पड़े तो वह सर्वथा शुभ है। इसमें द्वितीय कोष्ठ पोषक है, तृतीय कोष्ठ धनदायक हैं, चौथा कोष्ठ आत्मनाशक है, पाँचवाँ कोष्ठ मृत्यु देनेवाला है।

इस चक्रसे मित्र, नौकर एवं बान्धवसे लाभकी प्रातिके लिये विचार करना चाहिये। अर्थात् हम किससे मित्रताका व्यवहार करें कि मुझे उससे लाभ हो तथा किसको नौकर रखें, जिससे लाभ हो एवं परिवारके किस व्यक्तिसे मुझे लाभ होगा-इसका विचार इस चक्र से करे।

जैसे-अपने नामका आदि-अक्षर तथा विचारणीय व्यक्ति के नामका आदि-अक्षर सेवाचक्रके किसी एक ही कोष्ठमें पड़ जाय तो वह शुभ हैं, अर्थात् उस व्यक्तिसे लाभ होंगा-यह जाने।

यदि पहलेवाले तीन कोछॉमेंसे किसी एक में अपने नामका आदि-वर्ण पहलेवाले तीन कोष्ठोमेंसे किसी एकमें पड़े और विचारणीय व्यक्तिके नामका आदिअक्षर चौथे तथा पाँचवें पड़े तो अशुभ होता है। चौथे तथा पाँचवें कोष्ठोमें किसी एकमें सेव्यके तथा दूसरेमें सेवक के नामका आदि-वर्ण पड़े तो अशुभ ही होता है। ॥३-८ ॥

अब अकारादि वगों तथा ताराओंके द्वारा सेव्य-सेवक का विचार कर रहे हैं-

अवर्ग (अ इ उ ए ओ)-का स्वामी देवता है,

कवर्ग (क ख ग ध डy-का स्वामी दैत्य हैं,

चवर्ग (च छ ज झ न)-का स्वामी नाग है,

टवर्ग (ट ठ ड ढ ण)- का स्वामी गन्धर्व है,

तवर्ग (त थ द ध न)-का स्वामी ऋवि हैं,

पवर्ग (प फ ब भ म)-का स्वामी राक्षस है,

यवर्ग (य र ल व)-का स्वामी पिशाच हैं,

शवर्ग (श ष स ह)-का स्वामी मनुष्य है।

इनमें देवतासे बली दैत्य हैं, दैत्यसे बली सर्प हैं, सर्पसे बली गन्धर्व है, गन्धर्वसे बली ऋषि है। ऋषिसे बली राक्षस है, राक्षससे बली, पिशाच है और पिशाचसे बली मनुष्य होता है।

इसमें बली दुर्बलका त्याग करे-अर्थात् सेव्यसेवक-इन दोनोंके नामोंके आदि-अक्षरके द्वारा बली वर्ग तथा दुर्वल वर्गका ज्ञान करके बली वर्गवाले दुर्बल वर्गवालेसे व्यवहार न करें।

एक ही वर्गके सेव्य तथा सेवकके नामका आदि-वर्ण रहना उत्तम होता है। ॥९-१३ ॥

अब मैंत्री-विभाग-सम्बन्धी ‘तापाचक्र’ की सुनो।

पहले नामके प्रथम अक्षरके द्वारा नक्षत्र जान ले, फिर नौ ताराओंकी तीन बार आवृत्ति करनेपर सत्ताईस नक्षत्रोंकी ताराओंका ज्ञान हो जायगा।

इस तरह अपने नामके नक्षत्रका तारा जान लें। १ जन्म, २ सम्पत्, ३ विपत्, ४ क्षेम, ५ प्रत्यरि ६ साधक, ७ वध, ८ मैत्र, ९ अतिमैत्रये नौ ताराएँ हैं।

इनमें ‘जन्म” तारा अशुभ, ‘सम्पत्’ तारा अति उत्तम और ‘विपत् तारा निष्फल होती हैं। ‘क्षेम” ताराकों प्रत्येक कार्यमें लेना चाहियें। ‘प्रत्यरि” तारासे धन-क्षति होती हैं। ‘साधक” तारासे राज्य-लाभ होता है। ‘वध’ तारासे कार्यका विनाश होता हैं। ‘मैत्र” तारा मैंत्रीकारक है और ‘अतिमैन’ तारा हितकारक होती है।

उदाहरण-

जैसे सेव्य रामचन्द्र, सेवक हनुमान्-इन दोनोंमें भाव कैसा रहेगा, इसे जानने के लिये हनुमानके नामके आदि वर्ण (ह)- के अनुसार पुनर्वसु नक्षत्र हुआ तथा रामके नामके आदि वर्ण (रा)-के अनुसार नक्षत्र चित्रा हुआ। पुनर्वसुसे चित्राकी संख्या आठवीं हुई। इस संख्याके अनुसार ‘मैत्र’ नामक तारा हुई। अत: इन दोनोंकी मैत्री परस्पर कल्याणकर होगी-यों जानना चाहिये॥१४-१८॥

(अब ताराचक्र कहते हैं-)

प्रिये! नामाक्षरोंके स्वरोंकी संख्यामें वर्णोंकी संख्या जोड़ दे। उसमे बीसका भाग दे। शेषसे फलको जाने। अर्थात् स्वल्प शेषवाला व्यक्ति अधिक शेषवाले व्यकिसे लाभ उठाता हैं। जैसे सेव्य राम तथा सेवक हनुमान्। इनमें सेव्य रामके नामका र=२। आ=२। म-५ अ-१। सबका योग १० हुआ। इसमें २० से भाग दिया तो शेष १० सेव्यका हुआ तथा सेवक हनुमानके नामका ह-४।अ=१।न-५ उ=५, म=५, आ=२ न्=५। सबका योग २७ हुआ। इसमें २० का भाग दिया तो शेष ७ सेवकका हुआ। यहाँपर सेवकके शेषसे सेव्यका शेष अधिक हो रहा है, अतः हनुमानजी रामजीसे पूर्ण लाभ उठायेंगे-ऐसा ज्ञान होता है॥ १९॥

अब नामाक्षरोंमें स्वरोंकी संख्यांके अनुसार लाभ-हानिका विचार करते हैं।

सेव्य-सेवक दोनोंके बीच जिसके नामाक्षरोंमें अधिक स्वर हों, वह धनी है तथा जिसके नामाक्षरोंमें अल्प स्वर हों, वह ऋणी है।

‘धन’ स्वर मित्रताके लिये तथा ‘ऋण’ स्वर दासता के लिये होता है।

इस प्रकार लाभ तथा हानिकी जानकारी के लियें ‘सेवाचक्र’ कहा गया।

मेष-मिथुन राशिवालोंमें प्रीति, मिथुन-सिंह राशिवालोंर्मे मैत्री तथा तुला-सिंह राशिवालोंमें महामैत्री होती है; किंतु धनु-कुम्भ राशिवालोंमें मैत्री नहीं होती। अत: इन दोनोंको परस्पर सेवा नहीं करनी चाहिये।

मीन-वृष, वृष-कर्क, कर्क-कुम्भ, कन्या-वृश्चिक, मकर-वृश्चिक, मीन-मकर राशिवालोंमें मैत्री तथा मिथुन-कुम्भ, तुला-मेष राशिवालोकी परस्पर महामैत्री होती है। वृष-वृश्चिकमें परस्पर वैर होता है, मिथुन-धनु, कर्क-मकर, मकर-कुम्भ, कन्यामीन राशिवालोंमें परस्पर प्रीति रहती है। अर्थात् उपर्युक्त दोनों राशिवालोंमें सेव्य-सेवक भाव तथा मैत्री-व्यवहार एवं कन्या-वरका सम्बन्ध सुन्दर तथा शुभप्रद होता है॥ २०-२६॥

अध्याय-१३३ नाना प्रकारके बालोंका विचार

शंकरजी कहते हैं अब सूर्यादि ग्रहोंकी राशियोंमें पैदा हुए नवजात शिशुका जन्म-फल क्षेत्राधिपके अनुसार वर्णन करूंगा।

सूर्यके गृहमें अर्थात् सिंह लग्नमें उत्पन्न बालक समकाय, कभी कृशांग, कभी स्थुलांग, गौरवर्ण, पित्त प्रकृति, लाल नेत्रोंवाला, गुणवान् तथा वीर होता है।

चन्द्रके गृहमें अर्थात कर्क लग्नका जातक भाग्यवान तथा कोमल शरीरवाला होता है।

मङ्गलके गृहमें अर्थात् मेष तथा वृश्चिक लग्नोंका जातक वातरोगी तथा अत्यन्त लोभी होता है।

बुधके गृहमें अर्थात् मिथुन तथा कन्या लग्नोंका जातक बुद्धिमान्, सुन्दर तथा मानी होता है।

गुरुके गृहमें अर्थात् धनु तथा मीन लग्नोंका जातक सुन्दर और अत्यन्त क्रोधी होता है ।

 

शुक्रके गृहमें अर्थात तुला तथा वृष लग्नोंका जातक त्यागी, भोगी एवं सुन्दर शरीरवाला होता है ।

शनिके गृहमें अर्थात मकर तथा कुम्भ लग्नोंका जातक बुद्धिमान, सुन्दर तथा मानी होता है ।

सौम्य लग्नका जातक सौम्य स्वभावका तथा क्रूर लग्नका जातक क्रूर स्वभावका होता है*॥ १-५ ॥

गौरि! अब नाम-राशिके अनुसार सूर्यादि ग्रहोंका दशा-फल कहता हूँ।

सूर्यकी दशामें हाथी, घोड़ा, धन-धान्य, प्रबल राज्यलक्ष्मीकी प्राप्ति और धनागम होता है।

चन्द्रमाकी दशा में दिव्य स्त्रीकी प्राप्ति होती है।

मङ्गलकी दशामें भूमिलाभ और सुख होता है।

बुधकी दशामें भूमिलाभके साथ धन-धान्यकी भी प्राप्ति है।

गुरुकी दशामें घोड़ा, हाथी तथा धन मिलता है।

शुक्रकी दशामें खाद्यान तथा गोदुग्धादिपानके साथ धनका लाभ होता है।

शनिकी दशा में नाना प्रकारके रोग उत्पन्न होते हैं।

राहुका दर्शन होनेपर अर्थात् ग्रहण लगनेपर निश्चित स्थानपर निवास, दिनमें ध्यान और व्यापारका काम करना चाहिये॥ ६-८ ॥

यदि वाम श्वास चलते समय नामका अक्षर विषम संख्याका हो तो वह समय मङ्गल, शनि तथा राहुका रहता है। उसमें युद्ध करनेसे विजय होती हैं।

दक्षिण श्वास चलते समय यदि नामका अक्षर सम संख्याका हो तो वह समय सूर्यका रहता है। उसमें व्यापार-कार्य निष्फल होता है, किंतु उस समय पैदल संग्राम करनेसे विजय होती है और सवारीपर चढ़कर युद्ध करनेसे मृत्यु होती है। ॥९-११ ॥

ॐ हूं, ॐ हूं, ॐ स्फें, अस्त्र मोटय, ॐ चूर्णय, चूर्णय, ॐ सर्वशत्रु मर्दय, मर्दय अं ह्रूं, ॐ ह्रः फट्

-इस मन्त्रका सात बार न्यास करना चाहिये।

फिर जिनके चार, दस तथा बीस भुजाएँ हैं, जो हाथोंमें त्रिशूल, खट्वाङ्ग, खङ्ग और कटार धारण किये हुए हैं तथा जो अपनी सेनासे विमुख और शत्रु-सेनाका भक्षण करनेवाले हैं, उन भैरवजीका अपने हृदयमें ध्यान करके शत्रु-सेनाके सम्मुख उक्त मन्त्रका एक सौ आठ बार जप करे। जपके पश्चात् डमरूका शब्द करनेसे शत्रु-सेना शस्त्र त्यागकर भाग खड़ी होती हैं।॥ १२-१५॥

पुनः शत्रु-सेनाकी पराजयका अन्य प्रयोग बतलाता हूँ।

श्मशानके कोयलेकों काक या उल्लूकी विष्ठामें मिलाकर उसीसे कपड़ेपर शत्रुकी प्रतिमा लिखे और उसके सिर, मुख, ललाट, ह्रदय, गुह्रा, पैर, पृष्ठ, बाहु और मध्यमें शत्रुका नाम नौ बार लिखे। उस कपड़ेको मोड़कर संग्रामके समय अपने पास रखनेसे तथा पूर्वोत मन्त्र पढ़नेसे विजय होती है।॥ १६-१८॥

अब विजय प्राप्त करनेके लिये त्रिमुखाक्षर ‘तार्क्ष्यचक्र’ को कहता हूँ।

“क्षिप ॐ स्वाहा तार्क्ष्यात्मा शत्रुरोगविषादिनुत।” इस मन्त्रको ‘तार्क्ष्य-चक्र’ कहते हैं।

इसके अनुष्ठानसे दुष्टोंकी बाधा, भूत-बाधा एवं ग्रह-बाधा तथा अनेक प्रकारके रोग निवृत हो जाते हैं। इस ‘गरुडमन्त्र’ से जैसा कार्य चाहे, सब सिद्ध हो जाता हैं। इस मन्त्रके साधकका दर्शन करनेसे स्थावर-जंगम, लूता तथा कृत्रिम-ये सभी विष नष्ट हो जाते हैं॥ १९-२१ ॥

पुन: महातार्क्ष्यका यों ध्यान करना चाहिये-

जिनकी आकृति मनुष्यकी-सी है, जो दो पाँख और दो भुजा धारण करते हैं, जिनकी चोंच टेढ़ी हैं, जो सामर्थ्यशाली तथा हाथी और कछुएकी पकड़ रखनेवाले हैं, जिनके पंजोंमें असंख्य सर्प उलझे हुए हैं, जो आकाशमार्गसे आ रहे हैं और रणभूमिमें शत्रुओंको खाते हुए नोच-नोचकर निगल रहे हैं, कुछ शत्रु जिनकी चोंचसे मारे हुए दीख रहे हैं, कुछ पंजोंके आघातसे चूर्ण हो गये हैं, किन्हींका पंखोंके प्रहारसे कचूमर निकल गया है और कुछ नष्ट होकर दसों दिशाओंमें भाग गये हैं। इस तरह जो साधक ध्याननिष्ठ होगा, वह तीनों लोकॉमें अजेय होकर रहेगा अर्थात् उसपर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता ।

अब मन्त्र-साधनसे सिद्ध होनेवाली ‘पिच्छिकाक्रिया’ का वर्णन करता हूँ-

ॐ ह्रूं पक्षिन् क्षिप, ॐ हूं सः महाबलपराक्रम सर्वसैन्यं भक्षय भक्षय, ॐ मर्दय मर्दय, ॐ चूर्णय चूर्णय, ॐ विद्रावय विद्रावय, ॐ हूं खः, ॐ भैरवो ज्ञापयति स्वाहा।

-इस ‘पिच्छिका-मन्त्र’ को चन्द्रग्रहण में जप करके सिद्ध कर लेनेवाला साधक संग्राममें सेनाके सम्मुख हाथी तथा सिंहको भी खदेड़ सकता है।

मन्त्रके ध्यानसे उनके शब्दोंका मर्दन कर सकता है तथा सिंहारूढ़ होकर मृग तथा बकरके समान शत्रुओंको मार सकता है।॥ २६-२८॥

दूर रहकर केवल मन्त्रोच्चारणसे शत्रुनाशका उपाय कह रहे हैं-

कालरात्रि (आश्विन शुक्लाष्टमी)- में मातृकाओंको चरु प्रदान करे और श्मशानकी भस्म, मालती-पुष्प, चामरी एवं कपासकी जड़के द्वारा दूरसे शत्रुको सम्बोधित करे।

सम्बोधित करनेका मन्त्र निम्नलिखित हैं –

ॐ, अहे हे। महेन्द्रि! अहे महेन्द्रि भंज हि। ॐ जहि मसानं हि खाहि खाहि, किलि किलि, ॐ हूं फट-इस भङ्गविद्याका जप करके दूरसे ही शब्द करनेसे, अपराजिता और धतूरेका रस मिलाकर तिलक करनेसे शत्रुका विनाश होता है॥ २९-३२ ॥

ॐ किलि किलि विकिलि इच्छाकिलि भूतहनि शंखनि, उमे दण्डहस्ते रौद्रि माहेश्वरि, उल्कामुखि ज्वालामुखि शङ्कुकर्णे शुष्कजङ्गे अलम्बुषे हर हर, सर्वदुष्टान् खन खन, ॐ यन्मात्रिरीक्षयेद देवि ताँस्तान् मोहय, ॐ रुद्रस्य हृदये स्थिता रौद्रि सौम्येन भावेन आत्मरक्षां ततः कुरु स्वाहा।

-इस सर्वकार्यार्थसाधक मन्त्रको भोजपत्रपर वृताकार लिखकर बाहरमें मातृकाओंको लिखे। इस विद्याको पहले ब्रह्मा, विष्णु रुद्र तथा इन्द्रने हाथ आदिमें धारण किया था तथा इस विद्याद्वारा बृहस्पतिने देवासुर-संग्राममें देवताओंकी रक्षा की श्री ॥ ३३-३५ ॥

(अब रक्षायन्त्रका वर्णन करते हैं-)

रक्षारूपिणी नारसिंही, शक्तिरूपा भैरवी तथा त्रैलोक्यमोहिनी गौरीने भी देवासुर-संग्राममें देवताओंकी रक्षा की थी।

अष्टदल-कमलकी कर्णिका तथा दलोंमें गौरीके बीज (ह्रीं) मन्त्रसे सम्पुटित अपना नाम लिख दे।

पूर्व दिशा में रहनेवाले प्रथमादि दलोंमें पूजाके अनुसार गौरीजीकी अङ्ग-देवताओंका न्यास करे। इस तरह लिखनेपर शुभे! ‘रक्षायन्त्र’ बन जाएगा ॥३६-३७ ॥

अब इन्हीं संस्कारोंके बीच ‘मृत्युंजय-मन्त्र’को कहता हूँ, जो सब कलाओंसे परिवेष्टित है, अर्थात् उस मन्त्रसे प्रत्येक कार्यका साधन हो सकता है, तथा जो सकारसे प्रबोधित होता है। मन्त्रका स्वरूप कहते हैं-

ॐकार पहले लिखकर फिर बिन्दुके साथ जकार लिखे, पुनः धकारके पेटमें वकारको लिखे, उसे चन्द्रबिन्दुसे अङ्कित करे। अर्थात् ‘ॐ ज ध्वम”-यह मन्त्र सभी दुष्टोंका विनाश करनेवाला है॥ ३८-३९ ई॥

दूसरे ‘रक्षायन्त्र’ का उद्धार कहते हैं-

गोरोचन-कुङ्कुमसे अथवा मलयागिरि चन्दनकर्पूरसे भोजपत्रपर लिखे हुए चतुर्दल कमलकी कर्णिकामें अपना नाम लिखकर चारों दलोंमें ॐकार लिखे। आग्नेय आदि कोणोंमें हूंकार लिखे। उसके ऊपर घोडश दलोंका कमल बनाये। उसके दलोंमें अकारादि षोडश स्वरोंकों लिखें। फिर उसके ऊपर चौंतीस दलोंका कमल बनाये। उसके दलोंमें ‘क’ से लेकर ‘क्ष’ तक अक्षरोंकों लिखे। उस यन्त्रको श्वेत सूत्रसे वेष्टित करके रेशमी वस्त्रसे आच्छादित कर, कलशपर स्थापन करके उसका पूजन करे । इस यन्त्रको धारण करनेसे सभी रोग शान्त होते है एवं शत्रुओंका विनाश होता है ।। ४०-४३ ।।

अब भेलखी विद्या को कह रहा हूँ, जो वियोगमें होनेवाली मृत्युसे बचाती है । उसका मन्त्रस्वरुप निम्नलिखित है –

ॐ वातले वितले विडालमुखी इंद्रपुत्री उद्भवो वायुदेवेन खीलि आजी हाजा मयि वाह इहादिदु:खनित्यकंठोच्चैर्मुहूर्त्तान्वया अह मां यस्महमुपाडि ॐ भेलखि ॐ स्वाहा नवरात्रके अवसरपर इस मन्त्रको सिद्ध करके संग्रामके समय सात बार मन्त्रजप करनेपर शत्रुका मुखस्तम्भन होता है ।।४६-४६ ।।

‘ॐ चण्डि, ॐ हूं फट स्वाहा।’

-इस मन्त्रको संग्रामके अवसरपर सात बार जपनेसे खङ्ग-युद्धमें विजय होती है।॥ ४७-४८ ॥

एक सौं तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३३ ॥

अध्याय-१३४ त्रैलोक्यविजया –विद्या

भगवान् महेश्वर कहते हैंदेवि! अब मैं समस्त यन्त्र-मन्त्रोंको नष्ट करनेवाली “त्रैलोक्यविजयाविद्या”का वर्णन करता हूँ॥ १॥

ॐ ह्रूं क्षं ह्रूं, ॐ नमो भगवति दंष्टिणि भीमवक्त्रे महोग्ररूपे हिलि हिलि, रक्तनेत्रे किलि किलि, महानिस्वने कुलु, ॐ विद्युज्जिह्रे कुलु ॐ निर्मासे कट कट, गोनसाभरणे चिलि चिलि, शवमालाधारिणि द्रावय, ॐ महारौद्रि सार्द्रचर्मकृताच्छदे विजृम्भ, ॐ नृत्यासिलताधारिणि भ्रुकुटीकृतापाङ्गे विषमनेत्रकृतानने वसामेदोविलिप्तगात्रे कह कह, ॐ हस हस, क्रुध्य क्रुध्य, ॐ नीलजीमूतवर्णेऽभ्रमालाकृताभरणे विस्फुर, ॐ घण्टारवाकीर्णदेहे, ॐ सिंसिस्थेऽरुणवणें, ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं रौद्ररूपे ह्रूं ह्रीं क्लीं, ॐ ह्रीं ह्रूं मोमाकर्ष, ॐ धून धून, ॐ हे ह: स्वः खः, वज्रिाणि हूं क्षूं क्षां क्रोधरूपिणि प्रज्वल प्रज्वल, ॐ भीमभीषणे भिन्द, ॐ महाकाये छिन्द, ॐ करालिनि किटि किटि, महाभूतमातः सर्वदुष्टनिवारिणि जये, ॐ विजये औ० त्रैलोक्यविजये ह्रूं फट स्वाहा॥

ॐ ह्रूं क्षूं ह्रूं, ॐ बड़ी-बड़ी दाढोंसे जिनकी आकृति अत्यन्त भयंकर है, उन महोग्ररूपिणी भगवतीको नमस्कार है। वे रणाङ्गणमें स्वेच्छापूर्वक क्रीड़ा करें, क्रीड़ा करें। लाल नेत्रोंवाली! किलकारी कीजिये, किलकारी कीजिये। भीमनादिनि कुलु। ॐ विद्युजिह्रे! कुलु। ॐ मांसहीने! शत्रुओंको आच्छादित कीजिये, आच्छादित कीजिये। भुजङ्गमालिनि! वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत होइये, अलंकृत होइये। शवमालाविभूषिते! शत्रुओंको खदेड़िये। ॐ शत्रुओंके रक्त से सने हुए चमड़ेके वस्त्र धारण करनेवाली महाभयंकरि! अपना मुख खोलिये। ॐ ! नृत्य-मुद्रामें तलवार धारण करनेवाली! टेढ़ी भौंहोंसे युक्त तिरछे नेत्रोंसे देखनेवाली! विषम नेत्रोंसे विकृत मुखवाली!! आपने अपने अंगोंमें मज्जा और मेदा लपेट रखा है। ॐ अट्टहास कीजिये, अट्टहास कीजिये। हँसिये, हँसियें। कुद्ध होइये, कुद्ध होइये। ॐ नील मेघके समान वर्णवाली! मेंधमालाकों आभरण रूपमें धारण करनेवाली !! विशेषरूंप से प्रकाशित होइये। ॐघण्टाकी ध्वनिसे शत्रुओंके शरीरोंकी धजियाँ उड़ा देनेवाली! ॐ सिंसिस्थिते! रक्तवर्ण! ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं रौद्ररूपे! ह्रूं ह्रीं क्लीं ॐ ह्रीं ह्रूं ॐ शत्रुओंका आकर्षण कीजिये, उनको हिला डालिये काँपा डालिये। ॐ हे हः ख: वज्रहस्ते! ह्रूं क्षूं क्षां क्रोधम्लप्पिणि! प्रज्वलित होइये, प्रज्वलित होइये। ॐ महाभयंकरको डरानेवाली! उनको चीर डालिये। ॐ विशाल शरीरवाली देवि! इनकों काट डालिये। ॐ करालरूपे! शत्रुओंकी डराइये, डराइये। महाभयंकर भूतोंकी जननि! समस्त दुष्टोंका निवारण करनेवाली जये !! ॐ विजये !!! ॐ त्रैलोक्यविजये हूं फट् स्वाहा ॥ २ ॥

विजयके उद्देश्यसे नीलवर्णा, प्रेताधिरूढा त्रैलोक्यविजया-विद्याकी बीस हाथ ऊँची प्रतिमा बनाकर उसका पूजन करे।

पझाङ्गन्यास करके रक्तपुष्पोंका हवन करे। इस त्रैलोक्यविजयाविद्याके पठनसे समरभूमिमें शत्रुकी सेनाएँ पलायन कर जाती हैं।॥ ३ ॥

ॐ नमो बहुरूपाय स्तम्भय स्तम्भय ॐ मोहय, ॐ सर्वशत्रून द्रावय, ॐ ब्रह्राणामाकर्षय, ॐ विष्णुमाकर्षय, ॐ महेश्वरमाकर्षय, ॐ इन्द्रं टालय, ॐ पर्वतiश्चालय, ॐ सप्तसागराञ्शोषय, ॐ च्छिन्द च्छिन्द बहुरूपाय नमः ॥

ॐ अनेकरूपको नमस्कार है। शत्रुका स्तम्भन कीजिये। ॐ सम्मोहन कीजिये। ॐ सब शत्रुओंको खदेड़ दीजिये। ॐ ब्रह्माका आकर्षण कीजिये। ॐ विष्णुका आकर्षण कीजिये। ॐ महेश्वरका आकर्षण कीजिये। ॐ इन्द्रकी भयभीत कीजिये। ॐ पर्वतोंकी विचलित कीजिये। ॐ सातों समुद्रोंको सुखा डालिये, काट डालिये, काट डालिये । अनेकरूपको नमस्कार हैं ॥ ४॥

मिट्टीकी मूर्ति बनाकर उसमें शत्रुको स्थित हुआ जाने, अर्थात् उसमें शत्रुके स्थित होनेकी भावना करे। उस मूर्तिमें स्थित शत्रुका ही नाम भुजंग है: ‘ॐ बहुरूपाय’ इत्यादि मन्त्रसे  अभिमन्त्रित करके उस शत्रुके नाशके लिये  उक्त मन्त्रका जप करे। इससे शत्रुका अन्त हो जाता है॥५॥

अध्याय-१३५ संग्रामविजय-विद्या

महेश्वर कहते हैंदेवि! अब मैं संग्राममें विजय दिलानेवाली विद्या (मन्त्र)-का वर्णन करता हूँ, जो पदमालाके रूपमें है॥ १॥

ॐ ह्रीं चामुण्डे श्मशानवासिनि खटवांगकपालहस्ते महाप्रेतसमारूढ़े महाविमानसमाकुले कालरात्री महागणपरिवृते महामुखे बहुभुजे घंटाडमरूकिकिंनि अट्टाट्टहासे किलि किलि, ॐ हूं फट; दंष्ट्राघोरान्धकारिणि नादशब्दबहुले गजचर्मप्रावृतशरीरे मांसदिग्धे लेलिहानोग्राजिह्रे महाराक्षसि रौद्रदंष्ट्राकराले भीमाट्टाट्टहासे स्फुरद्विधुत्प्रभे चल चल, ॐ चकोरनेत्रे चिलि चिलि, ॐ ललज्जिह्रे, ॐ भीं भ्रुकुटीमुखि हुँकारभयत्रासनि कपालमालावेष्टितजटामुकुटशशाकंधारिणि, अट्टाट्टहासे किलि किलि, ॐ ह्रूं दंष्ट्राघोरान्धकारिणि सर्वविध्नविनाशिनि, इदं कर्म साधय साधय, ॐ शीध्रं कुरु कुरु, ॐ फट, ओमकुंशेन शमय, प्रवेशय, ॐ रंग रंग, कम्पय कम्पय, ॐ चालय, ॐ रुधिरमांसमधप्रिये हन हन, ॐ कुट्ट कुट्ट, ॐ छिन्द, ॐ मारय, ओमनुक्रमय, ॐ वज्रशरीरं पातय, ॐ त्रैलोक्यगतं —– अभी दो पेज आवर लिखना है 

सौ पैंतीसवाँ अध्याय का संग्रामविजय-विद्या

अध्याय-१३६ नक्षत्रोंके त्रिनाड़ी-चक्र या फणीश्वर-चक्र का वर्णन

महेश्वर कहते हैंदेवि! अब मैं नक्षत्रसम्बन्धी त्रिनाड़ी-चक्र का वर्णन करूंगा, जो यात्रा आदि में फलदायक होता है।

अश्विनी आदि नक्षत्रोंमें तीन नाड़ियोंसे भूषित चक्र अङ्कित करे। पहले अश्विनी, आद्रा और पुनर्वसु अङ्कित करे; फिर उत्तराफाल्गुनी, हस्त, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा और पूर्वभाद्रपद-इन नक्षत्रोंको लिखे। यह प्रथम नाड़ी कही गयी है।

दूसरी नाड़ी इस प्रकार है-भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढा, धनिष्ठा तथा उत्तराभाद्रपदा।

तीसरी नाडीके नक्षत्र ये हैं-कृतिका, रोहिणी, आश्लेषा, मघा, स्वाती, विशाखा, उत्तराषाढा, श्रवण तथा रेवती*॥ १-४ ॥

इन तीन नाड़ियोंके नक्षत्रोंद्वारा सेवित ग्रहके अनुसार शुभाशुभ फल जानना चाहिये।

इस ‘त्रिनाड़ी’ नामक चक्र को ‘फणीश्वर-चक्र’ कहा गया है।

इस चक्रगत नक्षत्रपर यदि सूर्य, मङ्गल, शनैचर एवं राहु हों तो वह अशुभ होता है। इंके सिवा, अन्य ग्रहोंद्वारा अधिष्ठित होनेपर वह नक्षत्र शुभ होता है।

देश, ग्राम, भाई और भार्या आदि अपने नामके आदि अक्षरके अनुसार एक नाडीचक्रमें पड़ते हों तो वे शुभकारक होते है ॥ ४-५ ॥

अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा तथा रेवती-ये सत्ताईस नक्षत्र यहाँ जानने योग्य है॥३-४॥
एक सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३६ ॥

अध्याय-१३७ महामारी-विद्याका वर्णन

महेश्वर कहते हैंदेवि! अब मैं महामारी- विद्याका वर्णन करुँगा, जो शत्रुओंका मर्दन करनेवाली हैं ॥ १ ॥

ॐ ह्रीं महामारि रक्ताक्षि कृष्णवर्णे यमस्याज्ञाकारिणि सर्वभूतसंहारकारिणि अमुक हन हन, ॐ दह दह, ॐ पच पच, ॐ च्छिन्द चिछन्द, ॐ मारय मारय, ओमुत्सादयोत्सादय, ॐ सर्वसत्त्ववशंकरि सर्वकामिके हूं फट् स्वाहा॥

ॐ ह्रीं लाल नेत्रों तथा काले रंगवाली महामारि! तुम यमराजकी आज्ञाकारिणी हो, समस्त भूतोंका संहार करनेवाली हो, मेरे अमुक शत्रुका हनन करो, हनन करो। ॐ उसे जलाओ, जलाओ। ॐ पकाओं, पकाओ । ॐ काटो, काटो । ॐ मारो, मारो। ॐ उखाड़ फेंको, उखाड़ फेंको। ॐ समस्त प्राणियोंको वशमें करनेवाली और सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाली! हुं फट् स्वाहा ॥ २॥

अङ्गन्यास

‘ॐ मारि हृदयाय नम:।’-इस वाक्यकी बोलकर दाहिने हाथकी मध्यमा, अनामिका और तर्जनी अंगुलियोंसे हृदयका स्पर्श करे।

 ‘ॐ महामारि शिरसे स्वाहा।’-इस वाक्यकी बोलकर दाहिने हाथ से सिरका स्पर्श करे।

 ‘ॐ कालरात्रि शिखायै वौषट्।’-इस वाक्यको बोलकर दाहिने हाथके अँगूठेसे शिखाका स्पर्श करें।

‘ॐ कृष्णवर्णे ख: कवचाय हुम्।’-इस वाक्यको बोलकर दाहिने हाथकी पाँचों अंगुलियोंसे बायी भुजाका और बायें हाथकी पाँचों अँगुलियोंसे दाहिने भुजाका स्पर्श करे।

‘ॐ तारकाक्षि विद्युज्जिह्रे सर्वसत्त्वभयंकरी रक्ष रक्ष सर्वकार्येषु ह्रं त्रिनेत्राय वषट्।’- इस वाक्यको बोलकर दाहिने हाथकी अँगुलियोंके अग्रभागसे दोनों नेत्रों और ललाटके मध्यभागका स्पर्श करे।

‘ॐ महामारि सर्वभूतदमनि महाकालि अस्त्राय हुँ फट्।”-इस वाक्यको बोलकर दाहिने हाथकों सिरके ऊपर एवं बायीं ओरसे पीछेकी ओर ले जाकर दाहिनी ओरसे आगेकी ओर ले आये और तजनी तथा मध्यमा अँगुलियोंसे बाएं हाथकी हथेलीपर ताली बजायें ॥ ३ ॥

महादेवि! साधकको यह अङ्गन्यास अवश्य करना चाहिये। वह मुर्देपरका वस्त्र लाकर उसे चौकोर फाड़ ले। उसकी लंबाई-चौड़ाई तीनतीन हाथकों होनी चाहिये। उसी वस्त्रपर अनेक प्रकारके रंगोंसे देवीकी एक आकृति बनावे, जिसका रंग काला हो। वह आकृति तीन मुख और चार भुजाओंसे युक्त होनी चाहिये। देवीकी यह मूर्ति अपने हाथोंमें धनुष, शूल, कतरनी और खट्वाङ्ग (खाटका पाया) धारण किये हुए हो। उस देवीका पहला मुख पूर्व दिशाकी ओर हो और अपनी काली आभासे प्रकाशित हो रहा हो तथा ऐसा जान पड़ता हो कि दृष्टि पड़ते ही वह अपने सामने पड़े हुए मनुष्यको खा जायगी। दूसरा मुख दक्षिण भागमें होना चाहिये। उसकी जीभ लाल हो और वह देखने में भयानक जान पड़ता हो। वह विकराल मुख अपनी दाढ़ोंके कारण अत्यन्त उत्कट और भयंकर हों और जीभ से दो गलफर चाट रहा हो। साथ ही ऐसा जान पड़ता हो कि दृष्टि पड़ते ही यह घोड़े आदिको खा जायगा। देवीका तीसरा मुख पश्चिमाभिमुख हो। उसका रंग सफेद होना चाहिये। वह ऐसा जान पड़ता हो कि सामने पड़नेपर हाथी आदिको भी खा जायगा। ॥ ४-७ ॥

गन्ध-पुष्प आदि उपचारों तथा घी-मधु आदि नैवेद्योंद्वारा उसका पूजन करे॥ ८१ ॥

पूर्वोक्त मन्त्रका स्मरण करनेमात्रसे नेत्र और मस्तक आदिका रोग नष्ट हो जाता है। यक्ष और राक्षस भी वशमें हो जाते हैं और शत्रुओंका नाश हो जाता है।

यदि मनुष्य क्रोधयुक्त होकर, निम्ब-वृक्षकी समिधाओंको होम करे तो उस होमसे ही वह अपने शत्रुको मार सकता है, इसमें संशय नहीं है।

यदि शत्रुकी सेनाकी ओर मुँह करके एक सप्ताहतक निम्ब-वृक्षकी समिधाओंका हवन किया जाय तो शत्रुकी सेना नाना प्रकारके रोगोंसे ग्रस्त हो जाती है और उसमें भगदड़ मच जाती हैं।

जिसके नामसे आठ हजार निम्ब-वृक्षकी समिधाओंका होम कर दिया जाय, वह यदि ब्रह्माजींके द्वारा सुरक्षित हो तो भी शीघ्र ही मर जाता है।

यदि धतूरेकी एक सहस्र समिधाओंको रक्त और विषसे संयुक्त करके तीन दिनतक उनका होम किया जाय तो शत्रु अपनी सेनाके साथ ही नष्ट हो जाता है॥९-१३३ ॥

राई और नमकसे होम करने पर तीन दिनमें ही शत्रुकी सेनामें भगदड़ पड़ जायगी-शत्रु भाग खड़ा होगा।

यदि उसे गदहेके रक्तसे मिश्रित करके होम किया जाय तो साधक अपने शत्रुका उच्चाटन कर सकता है-वहाँसे भागनेके लिये उसके मनमें उचाट पैदा कर सकता है।

कौएके रक्तसे संयुक्त करके हवन करनेपर शत्रुको उखाड़ फेंका जा सकता है। साधक उसके वध में समर्थ हो सकता है तथा साधक के मनमें जो-जो इच्छा होती है, उन सब इच्छाओंको वह पूर्ण कर लेता है।

युद्धकालमें साधक हाथीपर आरूढ़ हो, दो कुमारियोके साथ रहकर, पूर्वोक्त मन्त्रद्वारा शरीरको सुरक्षित कर ले; फिर दूरके शङ्क आदि वाद्योंको पूर्वोक्त महामारी-विद्यासे अभिमन्त्रित करे। तदनन्तर महामायाकी प्रतिमासे युक्त वस्त्रको लेकर समराङ्गणमें ऊँचाईपर फहराये और शत्रुसेनाकी ओर मुँह करके उस महान् पटको उसे दिखाये। तत्पश्चात् वहाँ कुमारी कन्याओंको भोजन करावे। फिर पिण्डीको घुमाये। उस समय साधक यह चिन्तन करे कि शत्रुकी सेना पाषाणकी भाँति निचल हो गयी है। १४-१९॥ वह यह भी भावना करे कि शत्रुकी सेनामें लड़नेका उत्साह नहीं रह गया है, उसके पाँव उखड़ गये हैं और वह बड़ी घबराहटमें पड़ गयी है। इस प्रकार करनेसे शत्रुकी सेनाका स्तम्भन हो जाता है। (वह चित्रलिखितकी भाँति खड़ी रह जाती है, कुछ कर नहीं पाती।) यह मैंने स्तम्भनका प्रयोग बताया है। इसका जिस-किसी भी व्यक्ति को उपदेश नहीं देना चाहिये। यह तीनों लोकोंपर विजय दिलानेवाली देवी ‘माया’ कही गयी है और इसकी आकृतिसे अङ्कित वस्त्रको ‘मायापट’ कहा गया है।

इसी तरह दुर्गा, भैरवी, कुब्जिका, रुद्रदेव तथा भगवान् नृसिंहकी आकृतिका भी वस्त्रपर अङ्कन किया जा सकता है।

इस तरहकी आकृतियोंसे अङ्कित पट आदिके द्वारा भी यह स्तम्भनका प्रयोग सिद्ध हो सकता है। २०-२१ ॥

एक सौ सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३७॥

अध्याय-१३८ तन्त्रविषयक छ; कर्मोका वर्णन

महादेवजी कहते है – पार्वती! सभी मन्त्रोंके साध्यरूपसे जो छ: कर्म कहे गये हैं, उनका वर्णन करता हूँ, सुनो।

शान्ति, वश्य, स्तम्भन्, द्वेष, उच्चाटन और मारण-ये छ: कर्म हैं। इन सभी कर्मोंमें छ: सम्प्रदाय अथवा विन्यास होते हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं-पल्लव, योग, रोधक, सम्पुट, ग्रन्थन तथा विदर्भ।

भोजपत्र आदिपर पहले जिसका उच्चाटन करना हो, उस पुरुषका नाम लिखे। उसके बाद उच्चाटन-सम्बन्धी मन्त्र लिखे । लेखनके इस क्रमको पल्लव नामक विन्यास या सम्प्रदाय समझना चाहिये। यह उच्चकोटिका महान् उच्चाटनकारी प्रयोग है।

आदिमें मन्त्र लिखा जाय फिर साध्य व्यक्तिका नाम अङ्कित किया जाय। यह साध्य बीचमें रहे। इसके लिये अन्तमें पुन: मन्त्रका उल्लेख किया जाय। इस क्रमको ‘योग’ नामक सम्प्रदाय कहा  गया है।

शत्रुके समस्त कुलका संहार करनेके लिये इसका प्रयोग करना चाहिये॥ १-२ ॥

पहले मन्त्रका पद लिखें। बीच में साध्यका नाम लिखें। अन्त में फिर मन्त्र लिखे। फिर साध्यका नाम लिखे। तत्पश्चात् पुन: मन्त्र लिखें। यह ‘रोधक’ सम्प्रदाय कहा गया है।

स्तम्भन आदि कर्मोंमें इसका प्रयोग करना चाहिये।

मन्त्रके ऊपर, निचे, दायें, बायें और बीचमें भी साध्यका नामोल्लेख करे, इसे सम्पुट समझना चाहिये। वश्याकर्षण-कर्ममें इसका प्रयोग करे।

जब मन्त्रका एक अक्षर लिखकर फिर साध्यके नामका एक अक्षर लिखा जाय और इस प्रकार बारी-बारीसे दोनोंके एक-एक अक्षरको लिखते हुए मन्त्र और साध्यके अक्षरोंको परस्पर ग्रथित कर दिया जाय तो यह ‘ग्रन्थन” नामक सम्प्रदाय है। इसका प्रयोग आकर्षण या वशीकरण करनेवाला है।

पहले मन्त्रका दो अक्षर लिखें, फिर साध्यका एक अक्षर इस तरह बार-बार लिखकर दोनोंकों पूर्ण करे। (यदि मन्त्राक्षरोंके बीच में ही समाप्ति हो जाय तो दुबारा उनका उल्लेख करे।) इसे ‘विदर्भ’ नामक सम्प्रदाय समझना चाहिये तथा वशीकरण एवं आकर्षणके लिये इसका प्रयोग करना चाहिये। ३-७ ॥

आकर्षण आदि जो मन्त्र हैं, उनका अनुष्ठान वसन्त-ऋतुर्मे करना चाहिये।

तापज्वरके निवारण, वशीकरण तथा आकर्षण-कर्ममें ‘स्वाहा’का प्रयोग शुभ होता है।

शान्ति और वृद्धि-कर्ममें ‘नम:’ पदका प्रयोग करना चाहिये।

पौष्टिक-कर्म, आकर्षण और वशीकरणमें ‘वषट्कार’का प्रयोग करे।

विद्वेषण, उच्चाटन और मारण आदि अशुभ कर्ममें पृथक् ‘फट्’ पदकी योजना करनी चाहिये।

लाभ आदिमें तथा मन्त्रकी दीक्षा आदिमें ‘वषट्कार’ ही सिद्धिदायक होता है।

मन्त्रकी दीक्षा देनेवाले आचार्यमें यमराजकी भावना करके इस प्रकार प्रार्थना करें- प्रभो! आप यम हैं, यमराज हैं, कालरूप हैं तथा धर्मराज हैं। मेरे दिये हुए इस शत्रुको शीघ्र ही मार गिराइये’॥८-११ ॥

तब शत्रुसूदन आचार्य प्रसन्नचित्तसे इस प्रकार उत्तर दे-‘साधक! तुम सफल होओ। मैं यत्नपूर्वक तुम्हारे शत्रुको मार गिराता हूँ।’

श्वेत कमलपर यमराजकी पूजा करके होम करनेसे यह प्रयोग सफल होता हैं।

अपनेमें भैरवकी भावना करके अपने ही भीतर कुलेश्वरी (भैरवी)-की भी भावना करे। ऐसा करनेसे साधक रातमें अपने तथा शत्रुके भावी वृतान्तको जान लेता हैं।

‘दुर्गप्रक्षिणि दुर्गे!’ (दुर्गकी रक्षा करनेवाली अथवा दुर्गम संकटसे बचानेवाली देवि! आपकी नमस्कार है)-इस मन्त्रके द्वारा दुर्गाजीकी पूजा करके साधक शत्रुका नाश करने में समर्थ होता है।

‘ह स क्ष म ल व र यु म—इस भैरवी-मन्त्रका जप करनेपर साधक अपने शत्रुका वध कर सकता है॥ १२-१४॥

एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ। १३८

अध्याय-१३९ साठ संवत्सरोंमें मुख्य-मुख्यके नाम एवं उनके फल-भेदका कथन

भगवान् महेश्वर कहते हैंपार्वती! अब मैं साठ संवत्सरों (मेंसे कुछ)-के शुभाशुभ फलको कहता हूँ, ध्यान देकर सुनो।

‘प्रभव’ संवत्सरमें यज्ञकर्मकी बहुलता होती है।

‘विभव’ में प्रजा सुखी होती हैं।

‘शुक्ल’में समस्त धान्य प्रचुर मात्रामें उत्पन्न होते हैं।

‘प्रमोद” से सभी प्रमुदित होते हैं।

‘प्रजापति’ नामक संवत्सरमें वृद्धि होती है।

‘अङ्गिरा’ संवत्सर भोगोंकी वृद्धि करनेवाला। है।

‘श्रीमुख’ संवत्सरमें जनसंख्याकी वृद्धि होती है और

“भाव” संज्ञक संवत्सर में प्राणियोंमें सद्भावकी वृद्धि होती है।

‘युवा’ संवत्सरमें मेघ प्रचुर वृष्टि करते हैं।

‘धाता’ संवत्सरमें समस्त ओषधियाँ बहुलतासे उत्पन्न होती हैं।

‘ईश्वर’ संवत्सरमें क्षेम और आरोग्यकी प्राप्ति होती है।

‘बहुधान्य’ में प्रचुर अन्न उत्पन्न होता है।

‘प्रमाथी’ वर्ष मध्यम होता है।

‘विक्रम में अन-सम्पदाकों अधिकता होती है।

‘वृष” संवत्सर सम्पूर्ण प्रजाओंका पोषण करता हैं।

‘चित्रभानु’ विचित्रता और ‘सुभानु’ कल्याण एवं आरोग्यको उपस्थित करता है।

‘तारण’ संवत्सरमें मेघ शुभकारक होते हैं। १-५ ॥

‘पार्थिव” में सस्य-सम्पति, ‘अव्यय’ में अतिवृष्टि, ‘सर्वजित्’ में उत्तम वृष्टि और ‘सर्वधारी’ नामक संवत्सरमें धान्यादिकी अधिकता होती हैं।

“विरोधी’ मेघोंका नाश करता है अर्थात् अनावृष्टिकारक होता है।

“विकृति’ भय प्रदान करनेवाला है।

‘खर’ नामक संवत्सर पुरुषोंमें शौर्यका संचार करता है।

‘नन्दन’ में प्रजा आनन्दित होती है।

‘विजय’ संवत्सर शत्रुनाशक और ‘जय’ रोगोंका मर्दन करनेवाला हैं।

‘मन्मथ’ में विश्व ज्वरसे पीड़ित होता है।

‘दुष्कर’ में प्रजा दुष्कर्ममें प्रवृत होती है।

‘दुर्मुख’ संवत्सरमें मनुष्य कटुभाषी हो जाते हैं।

‘हेमलम्य’ से सम्पतिकी प्राप्ति होतीं हैं।

महादेवि! “विलम्ब’ नामक संवत्सरमें अन्नकी प्रचुरता होती है।

“विकारी’ शत्रुओंको कुपित करता है और ‘शार्वरी’ कहीं-कहीं सर्वप्रदा होती हैं।

‘प्लव’ संवत्सरमें जलाशयोंमें बाढ़ आती है।

‘शोभन” और ‘शुभकृत्’ में प्रजा संवत्सरके नामानुकूल गुणसे युक्त होती है। ६-१० ॥

राक्षस वर्षमें लोक निष्ठुर हो जाता है।

आनल संवस्तरमें विविध धान्योंकी उतपत्ति होती है ।

पिंगल में कही-कही उत्तम वृष्टि और कालयुक्तमें धनहानि होती है ।

सिद्धार्थमें सम्पूर्ण कार्योंकी सिद्धि होती है ।

रौद्रवर्षमें विश्वनें रौद्रभावोंकी प्रवृति होती है ।

दुर्मति संवस्तरमें मध्यम वर्षा और दुन्दुभीमें मंगल एवं धन-धान्यकी उपलब्धी होती है । रूधिरोदादागारी और रक्ताक्ष नामक संवस्तर रक्तपान करनेवाले है ।

‘क्रोधन’ वर्ष विजयप्रद है।

‘क्षय’ संवत्सरमें प्रजाका धन क्षीण होता है।

इस प्रकार साठ संवत्सरों (मेंसे कुछ)-का वर्णन किया गया है॥ ११-१३॥

अध्याय-१४० वश्य आदि योगोंका वर्णन

भगवान् महेश्वर कहते हैं- स्कन्द! अब मैं वशीकरण आदिके योगोंका वर्णन करूंगा।

निम्नाङ्कित ओषधियोंको सोलह कोष्ठवाले चक्रमें अङ्कित करे-

भृङ्गराज (भैंगरैया), सहदेवी (सहदेइया), मोरकी शिखा, पुत्रजीवक (जीवापोता) नामक वृक्षकी छाल, अध:पुष्पा (गोझिया), रुदन्तिका(रुद्रदन्ती), कुमारी (घीकुँआर), रुद्रजटा (लताविशेष), विष्णुक्रान्ता (अपराजिता), श्वेतार्क (सफेद मदार), लज्जालुका (लाजवन्ती लता), मोहलता (त्रिपुरमाली), काला धतूरा, गोरक्षकर्कटी (गोरखककड़ी या गुरुम्ही), मेष श्रृंगी (मेढ़ासिंगी) तथा स्नुही (सेंहुड़) ॥ १-३॥

ओषधियोंके ये भाग प्रदक्षिण-क्रमसे ऋत्विज १६, वह्रि ३, नाग ८, पक्ष २, मुनि ७, मनु १४, शिव ११, वसुदेवता ८, दिशा १०, शर ५, वेद ४, ग्रह ९, ऋतु ६, सूर्य १२, चन्द्रमा १ तथा तिथि १५-इन सांकेतिक नामों और संख्याओंसे गृहीत होते हैं।

प्रथम चार ओषधियोंका अर्थात् भैंगरैया, सहदेइया, मोरकी शिखा और पुत्रजीवककी छाल-इनका चूर्ण बनाकर इनसे धूपका काम लेना चाहिये। अथवा इन्हें पानीके साथ पीसकर उत्तम उबटन तैयार कर ले और उसे अपने अङ्गोंमें लगावे ॥ ४-५ ॥

तीसरे चतुष्क (चौक) अर्थात् अपराजिता, श्वेतार्क, लाजवन्ती लता और मोहलता-इन चार ओषधियोंसे अञ्जन तैयार करके उसे नेत्रमें लगावे ।

तथा चौथे चतुष्क अर्थात् काला धतूरा, गोरखककड़ी, मेढ़ासिंगी और सेंहुड़-इन चार ओषधियोंसे मिश्रित जलके द्वारा स्नान करना चाहिये।

भृंगराजवाले चतुष्कके बादका जो द्वितीय चतुष्क अर्थातू अध:पुष्पा, रुद्रदन्ती, कुमारी तथा रुद्रजटा नामक औषधियाँ हैं, उन्हें पीसकर अनुलेप या उबटन लगानेका विधान है” ॥ ६ ॥

अध:पुष्पाको दाहिने पार्श्वमें धारण करना चाहिये तथा लाजवन्ती आदिकी वाम पार्श्वमें।

मयूरशिखाको पैरमें तथा घृतकुमारीको मस्तकपर धारण करना चाहिये।

रुद्रजटा, गोरखककड़ी और मेढ़ाश्रृंगी-इनके द्वारा सभी कार्योंमें धूपका काम लिया जाता है। इन्हें पीसकर उबटन बनाकर जो अपने शरीर में लगाता है, वह देवताओंद्वारा भी सम्मानित होता है।

भृंगराज आदि चार औषधियाँ जो धूपके उपयोगमें आती हैं, ग्रहादिजनित बाधा दूर करनेके लिये उनका उद्वर्तनके कार्यमें भी उपयोग बताया गया है।

युगादिसे सूचित लज्जालुका आदि ओषधियाँ अञ्जनके लिये बतायी गयी हैं।

बाण आदिसे सूचित श्वेतार्क आदि ओषधियाँ स्नान-कर्ममें उपयुक्त होती हैं।

घृतकुमारी आदि ओषधियाँ भक्षण करनेयोग्य कही गयी हैं

और पुत्रजीवक आदिसे संयुक्त जलका पान बताया गया है।

ऋत्वीक (भंगरैया), वेद (लाजवन्ती), ऋतु (काला धतूरा) तथा नेत्र (पुत्रजीवक)-इन ओषधियोंसे तैयार किये हुए चन्दनका तिलक सब लोगोंको मोहित करनेवाला होता है॥७-१० ॥

 

सूर्य (गोरखककड़ी), त्रिदश (काला धतूरा), पक्ष (पुत्रजीवक) और पर्वत (अध:पुष्पा)-इन ओषधियोंका अपने शरीरमें लेप करनेसे स्त्री वशमें होती है।

चन्द्रमा (मेढ़ासिंगी), इन्द्र (रुद्रदन्तिका), नाग (मोरशिखा), रुद्र (घीकुआँर)-इन ओषधियोंका योनिमें लेप करनेसे स्त्रियाँ वशमें होती हैं।

तिथि (सेंहुड़), दिक् (अपराजिता), युग (लाजवन्ती) और बाण (श्वेतार्क)-इन औषधियाँके द्वारा बनायी हुई गुटिका (गोली) लोगोंको वशमें करनेवाली होतीं हैं। किसीकों वश में करना ही तो उसके लिये भक्ष्य, भोज्य और पेय पदार्थमें इसकी एक गोली मिला देनी चाहिये। ११-१२।

ऋत्विक् (भंगरैया), ग्रह (मोहलता), नेत्र (पुत्रजीवक) तथा पर्वत (आध:पुष्पा)- इन ओषधियोंको मुखमें धारण किया जाय तो इनके प्रभावसे शत्रुओंके चलाये हुए अस्त्र-शस्त्रोंका स्तम्भन हो जाता है-चे घातक आघात नहीं कर पाते।

पर्वत (अध:पुष्पा), इन्द्र (रुद्रदन्ती), वेद (लाजवन्ती) तथा रन्ध्र (मोहलता)-इन ओषधियोंका अपने शरीरमें लेप करके मनुष्य पानीके भीतर निवास कर सकता है।

बाण (श्वेतार्क), नेत्र (पुत्रजीवक), मनु (रुद्रदन्ती) तथा रुद्र (घीकुआँर)-इन ओषधियोंसे बनायी हुई बटी भूख, प्यास आदिका निवारण करनेवाली होती है।

तीन (सहदेइया), सोलह (भैंगरैया), दिशा (अपराजिता) तथा बाण (श्वेतार्क)-इन ओषधियोंका लेप करनेसे दुर्भगा स्त्री सुभगा बन जाती है।

त्रिशद (काला धतूरा), अक्षि (पुत्रजीवक) तथा दिशा (विष्णुक्रान्ता) और नेत्र (सहदेइया)- इन दवाओंका अपने शरीरमें लेप करके मनुष्य सर्पोके साथ क्रीड़ा कर सकता हैं।

इसी प्रकार त्रिदश (काला धतूरा), अक्षि (पुत्रजीवक), शिव (धृतकुमारी) और सर्प (मयूरशिखा)-से उपलक्षित दवाओंका लेप करनेसे स्त्री सुखपूर्वक प्रसव कर सकती हैं ॥ १३-१५ ॥

सात (अध:पुष्पा), दिशा (अपराजिता), मुनि (अध:पुष्पा) तथा रन्ध्र (मोहलता)-इन दवाओंका वस्त्रमें लेपन करनेसे मनुष्यको जूए में विजय प्राप्त होती है।

काला धतूरा, नेत्र (पुत्रजीवक), अब्धि (अध:पुष्पा) तथा मनु (रुद्रदन्तिका)-से उपलक्षित ओषधियोंका लिङ्गमें लेप करके रति करनेपर जो गर्भाधान होता है, उससे पुत्रकी उत्पत्ति होती है।

ग्रह (मोहलता), अब्धि (अध:पुष्पा), सूर्य (गोरक्षकर्कटी) और त्रिदशा (काला धतूरा)- इन ओषधियोंद्वारा बनायी गयी बटी सबको वशमें करनेवाली होती है।

इस प्रकार ऋत्विक आदि सोलह पदोंमें स्थित औषधियोंके प्रभावका वर्णन किया गया।॥ १६-१७ ॥

अध्याय- १४१ छत्तीस कोष्ठोंमें निर्दिष्ट ओषधियोंके वैज्ञानिक प्रभावका वर्णन

महादेवजी कहते हैंस्कन्द! अब मैं छत्तीस पदों (कोष्ठकों)-में स्थापित की हुई ओषधियोंका फल बताता हूँ। इन ओषधियोंके सेवनसे मनुष्योंका अमरीकरण होता है। ये औषध ब्रह्मा, रुद्र तथा इन्द्रके द्वारा उपयोग में लाये गये हैं॥ १ ॥

हरीतकी (हरें), अक्षधात्री (ऑवला), मरीच (गोलमिर्च), पिप्पली, शिफा (जटामांसी), वह्रि (भिलावा). शुण्ठी । (सोंठ), पिप्पली. गुडुची (गिलोय), वच, निम्ब, वासक (अडूसा), शतमूली (शतावरी), सैंधव (सेंधानमक), सिन्धुवार, कण्टकारि (कटेरी), गोक्षुर (गोखरू), विल्व (बेल), पुनर्नवा (गदहपूर्णा), बला (बरियारा), रेंड़, मुण्डी, रुचक (बिजौरा नीबू), भूङ्ग (दालचीनी), क्षार (खारा नमक या यवक्षार), पर्पट  (पितपापड़ा), धन्याक (धनिया), जीरक (जीरा), शतपुष्पी (सौंफ), यवानी (अजवाइन), विडङ्ग (वायविडंग), खदिर (खैर), कृतमाल (अमलतास), हल्दी, वचा, सिद्धार्थ (सफेद सरसों)-ये छत्तीस पदोंमें स्थापित औषध हैं। २-५ ॥

क्रमशः एक–दो आदि संख्यावाले ये महान् औषध समस्त रोगोंको दूर करनेवाले तथा अमर बनानेवाले हैं: इतना ही नहीं, पूर्वोत सभी कोष्ठोंके औषध शरीरमें झुर्रियाँ नहीं पड़ने देते और बालोंका पकना रोक देते हैं।

इनका चूर्ण या इनके रससे भावित बटी, अवलेह, कषाय (काढ़ा), लडू या गुडखण्ड। यदि धी या मधुके साथ खाया जाय, अथवा इनके रससे भावित घी या तेलका जिस किसी तरह से भी उपयोग किया जाय, वह सर्वथा मृतसंजीवन (मुर्देको भी जिलानेवाला) होता है।

आधे कर्ष या एक कर्षभर अथवा आधे पल या एक पलके तौल में इसका उपयोग करनेवाला पुरुष यथेष्ट आहार-विहारमें तत्पर होकर तीन सौ वर्षोंतक जीवित रहता है।

मृतसंजीवनी-कल्पमें इससे बढ़कर दूसरा योग नहीं है।॥ ६-१० ॥

(नौ-नीं औषधोंके समुदायकी एक ‘नवक’ कहते हैं। इस तरह उत्त छत्तीस औषधोंमें चार नवक होते हैं।)

प्रथम नवकके योगसे बनी हुई ओषधिका सेवन करनेसे मनुष्य सब रोगोंसे छुटकारा पा जाता है, इसी तरह दूसरे, तीसरे और चौथे नवकके यौगका सेवन करनेसे भी मनुष्य रोगमुक्त होता है।

इसी प्रकार पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे, पाँचवें और छठें षट्कके सेवनमानसे भी मनुष्य नीरोग हो जाता है।

उक्त छत्तीस ओषधियोंमें नौ चतुष्क होते हैं। उनमेंसे किसी एक चतुष्कके सेवनसे भी मनुष्यके सारे रोग दूर हो जाते हैं।

प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पश्चम, षष्ठ, सप्तम और अष्टम कोष्ठकी ओषधियोंके सेवनसे वात-दोषसे छुटकारा मिलता है।

तीसरी, बारहवीं, छब्बीसवीं और सत्ताईसवीं औषधियोंके सेवनसे पित्त-दोष दूर होता है

तथा पाँचवीं, छठी, सातवीं, आठवीं और पंद्रहवी ओषधियोंके सेवनसे कफ-दोषकी निवृत्ति होती है।

चौंतीसवें, पैतीसवें और छत्तीसवें कोष्ठकी औषधोंको धारण करनेसे वशीकरणकी सिद्धि होती है तथा ग्रहबाधा, भूतबाधा आदिसे लेकर निग्रहपर्यन्त सारे संकटोंसे झुटकारा मिल जाता है॥ ११-१४ ॥

प्रथम, द्वितीय, तृतीय, षष्ठ, सक्षम, अष्टम, नवम, एकादश संख्यावाली ओषधियों तथा बत्तीसवीं, पंद्रहवीं एवं बारहवीं संख्यावाली ओषधियोंकों धारण करनेसे भी उत्त फलकी प्राप्ति (वशीकरणकी सिद्धि एवं भूतादि बाधाकी निवृत्ति) होती है। इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहियें।

छत्तीस कोष्ठोंमें निर्दिष्ट की गयीं। इन औषधियाँका ज्ञान जैसे-तैसे हर व्यक्तिकों नहीं देना चाहिये ॥ १५-१६ ॥

 

एक सौ इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १४१॥

अध्याय-१४२ चोर और जातकका निर्णय, शनि–दृष्टि, दिन-राहु, फणि-राहु, तिथि-राहु तथा विष्टि-राहुके फल और अपराजिता-मन्त्र एवं ओषधिका वर्णन

भगवान् महेश्वर कहते हैंस्कन्द! अब मैं मन्त्र-चक्र तथा औषध-चक्रोंका वर्णन करूंगा, जो सम्पूर्ण मनोरथोंको देनेवाले हैं। जिन-जिन व्यक्तियोंके ऊपर चोरी करनेका संदेह हो, उनके लिये किसी वस्तु (वृक्ष, फूल या देवता आदि)- का नाम बोले। उस वस्तुके नामके अक्षरोंकी संख्याको दुगुनी करके एक स्थानपर रखे तथा उस नामकी मात्राओंकी संख्यामें चारसे गुणा करके गुणनफल को दूसरे स्थानपर रखें।

पहली संख्यासे दूसरी संख्या में भाग दे। यदि कुछ शेष बचे तो वह व्यक्ति चोर हैं। यदि भाजकसे भाज्य पूरा-पूरा कट जाय तो यह समझना चाहिये कि वह व्यक्ति चोर नहीं है।॥ १ ॥

अब यह बता रहा हूँ कि गर्भमें जो बालक है, वह पुत्र है या कन्या, इसका निश्चय किस प्रकार किया जाय ?

प्रश्न करनेवाले व्यक्तिके प्रश्न-वाक्यमें जो-जो अक्षर उच्चारित होते हैं, वे सब मिलकर यदि विषम संख्यावाले हैं तो गर्भमें पुत्रकी उत्पति सूचित करते हैं। (इसके विपरीत सम संख्या होंने पर उस गर्भसे कन्याकों उत्पत्ति होनेकी सूचना मिलती है।)

प्रश्न करनेवालेसे किसी वस्तुका नाम लेनेके लिये कहना चाहिये। वह जिस वस्तुके नामका उल्लेख करे, वह नाम यदि स्त्रीलिंग है तो उसके अक्षरोंके सम होनेपर पूछे गये गर्भसे उत्पन्न होनेवाला बालक बायीं आँखका काना होता है। यदि वह नाम पुंलिंलग हैं और उसके अक्षर विषम हैं तो पैदा होनेवाला बालक दाहिनी आँखका काना होता है। इसके विपरीत होनेपर उत्त दोष नहीं होते हैं।

स्त्री और पुरुषके नामोंकी मात्राओं तथा उनके अक्षरोंकी संख्यांमें पृथक-पृथक चारसे गुणा करके गुणनफलको अलग-अलग रखें। पहली संख्या ‘मात्रा-पिण्ड’ है और दूसरी संख्या ‘वर्ण-पिण्ड’।

वर्ण-पिण्डमें तीनसे भाग दे। यदि सम शेष हो तो कन्याकी उत्पति होती हैं, विषम शेष हो तो पुत्रकी उत्पति होती है। यदि शून्य शेष हो तो पतिसे पहले स्त्रीकी मृत्यु होती है और यदि प्रथम ‘मात्रापिण्ड’ में तीनसे भाग देनेपर शून्य शेष रहे तो स्त्रीसे पहले पुरुषकी मृत्यु होती है।

समस्त भागमें सूक्ष्म अक्षरवाले द्रव्योंद्वारा प्रश्नको ग्रहण करके विचार करने से अभीष्ट फलका ज्ञान होता है। २-५ ॥

अब मैं शनि-चक्र का वर्णन करूंगा।

जहाँ शनिकी दृष्टि हो, उस लग्नका सर्वथा परित्याग कर देना चाहिये। जिस राशिमें शनि स्थित होते है, उससे सातवीं राशिपर उनकी पूर्ण दृष्टी रहती है, चौथीं और दसवींपर आधी दृष्टि रहती है तथा पहली, दूसरी, आठवीं और बारहवीं राशिपर चौथाई दृष्टि रहती है। शुभकर्ममें इन सबका त्याग करना चाहियें।

जिस दिनका जो ग्रह अधिपति हो, उस दिनका प्रथम पहर उसी ग्रहका होता है और शेष ग्रह उस दिनके आधे-आधे पहरके अधिकारी होते हैं।

दिनमें जो समय शनिके भागमें पड़ता है, उसे युद्धमें त्याग दे॥ ६-७ ई॥

अब मैं तुम्हें दिनमें राहुकी स्थितिका विषय बता रहा हूँ।

राहु रविवारको पूर्वमें, शनिवारको वायव्यकोणमें, गुरुवारको दक्षिणमें, शुक्रवारको अग्निकोणमें, मङ्गलवारकी भी अग्निकोणमें तथा बुधवारको सदा उत्तर दिशामें स्थित रहते हैं।

फणि-राहु ईशान, अग्नि, नैऋत्य एवं वायव्यकोणमें एक-एक पहर रहते हैं और युद्धमें अपने सामने खड़े हुए शत्रुको आवेष्टित करके मार डालते हैं॥ ८-९ ई।

अब मै तिथि–राहुका वर्णन करुँगा।

पूर्णिमाको अग्नि-कोणमें राहुकी स्थिति होती है और अमावास्याको वायव्यकोणमें। सम्मुख राहु शत्रुका नाश करनेवाले हैं।

पश्चिमसे पूर्वकी ओर तीन खड़ी रेखाएँ खींचे और फिर इन मूलभूत रेखाओंका भेदन करते हुए दक्षिणसे उत्तरकी ओर तीन पड़ी रेखाएँ खींचे। इस तरह प्रत्येक दिशा में तीन-तीन रेखाग्र होंगे।

सूर्य जिस राशिपर स्थित हों, उसे सामनेवाली दिशा में लिखकर क्रमश: बारहों राशियोंकी प्रदक्षिण-क्रमसे उन रेखाग्रोंपर लिखे।

तत्पश्चात् ‘क’ से लेकर ‘ज’ तकके अक्षरोंकों सामनेकी दिशा में लिखे। ‘झ’ से लेकर ‘द’ तक के अक्षर दक्षिण दिशा में स्थित रहें, ‘ध’ से लेकर ‘म’ तक के अक्षर पूर्व दिशामें लिखे जायँ और ‘य’ से लेकर ‘ह’ तक के अक्षर उत्तर दिशा में अङ्कित हों। ये राहुके गुण या चिह बतायें गये हैं। शुक्लपक्षमें इनका त्याग करे तथा तिथि

राहुकी सम्मुख दृष्टिका भी त्याग करे। राहुकी दृष्टि सामने हो तो हानि होती है; अन्यथा विजय प्राप्त होती है ॥ १०-१३॥

अब ‘विष्टि-राहु’ का वर्णन करता हूँ।

निम्नाङ्कित रूपसे आठ रेखाएँ खींचे-ईशानकोणसे दक्षिण दिशातक, दक्षिण दिशासे वायव्यकोणतक, वायव्यकोणसे पूर्व दिशातक, वहाँसे नैऋत्यकोणतक, नैऋत्यकोणसे उत्तर दिशातक, उत्तर दिशासे अग्निकोणतक, अग्निकोणसे पश्चिम दिशातक तथा पश्चिम दिशासे ईशानकोणतक।

इन रेखाओंपर विष्टि (भद्रा)-के साथ महाबली राहु विचरण करते हैं।

कृष्णपक्षकी तृतीयादि तिथियोंमें विष्टि राहुकी स्थिति ईशानकोणमें होती है और सतमी आदि तिथियोंमें दक्षिण दिशा में।

(इसी प्रकार शुक्लपक्षकी अष्टमी आदिमें उनकी स्थिति नैऋत्यकोणमें होती है और चतुर्थी आदिमें उत्तर दिशा में)।

इस तरह कृष्ण एवं शुक्लपक्षमें वायुके आश्रित रहनेवाले सम्मुख राहु शत्रुओंका नाश करते हैं।*

विष्टि-राहुचक्रकी पूर्व आदि दिशाओंमें इन्द्र आदि आठ दिक्पालों, महाभैरव आदि आठ महाभैरवों, ब्रह्माणी आदि आठ शक्तियों तथा सूर्य आदि आठ ग्रहोंकी स्थापित करे।

पूर्व आदि प्रत्येक दिशा में ब्रह्माणी आदि आठ शक्तियोंके आठ अष्टकोंकी भी स्थापना करे।

दक्षिण आदि दिशाओंमें वातयोगिनौका उल्लेख करे। वायु जिस दिशा में बहती है, उसी दिशामें इन सबके साथ रहकर राहु शत्रुओंका संहार करता है॥ १४-१७६॥

अब मैं अङ्गोंको सुदृढ़ करनेका उपाय बता रहा हूँ।

पुष्यनक्षत्रमें उखाड़ी हुई तथा निम्नाङ्कित अपराजिता-मन्त्रका जप करके कण्ठ अथवा भुजा आदिमें धारण की हुई शरपुंखिका विपक्षीके बाणोंका लक्ष्य बननेसे बचाती है।

इसी प्रकार पुष्यमें उखाड़ी ‘अपराजिता” एवं ‘पाठा” नामक ओषधिकों भी यदि मन्त्रपाठपूर्वक कण्ठ और भुजाओंमें धारण किया जाय तो उन दोनोंके प्रभावसे मनुष्य तलवारके वारको बचा सकता है।॥ १८-१९॥

(अपराजिता-मन्त्र इस प्रकार है-)

ॐ नमो भगवति वज्रशृङ्खले हन हन, ॐ भक्ष भक्ष, ॐ खाद ॐ अरे रक्त पिव कपालेन रक्ताक्षि रक्तपटे भस्माङ्गि भस्मलिप्तशरीरे वज्रायुये वज्रप्राकारनिचिते पूर्वा दिशं बन्ध बन्ध, ॐ उत्तरां दिशं बन्ध, ॐ पश्चिमां दिशं बन्ध बन्ध, ॐ उत्तरां दिशं बन्ध बन्ध, नागान बन्ध बन्ध, नागपत्नीर्बन्ध बन्ध, ॐ असुरान् बन्ध बन्ध, ॐ यक्षराक्षसपिशाचान् बन्ध बन्ध, ॐ प्रेतभूतगन्धर्वादयो ये केचिदुपद्रवास्तेभ्यो रक्ष रक्ष, ॐ ऊर्ध्वं रक्ष रक्ष, ॐ अधो रक्ष रक्ष, ॐ क्षुरिकं बन्ध बन्थ्य, ॐ ज्वल महाबले । घटि घटि, ॐ मोटि मोटि, सटावलिवज्राग्नि वज्रप्राकारे हुं फट, ह्रीं ह्रूं श्रीं फट् ह्रीं ह: फूं फें फ: सर्वग्रहेभ्य: सर्वव्याधिभ्यः सर्वदुष्टोपद्रवेभ्यो ह्रीं अशेषेभ्यो रक्ष रक्ष ॥ २o ॥

ग्रहपीड़ा, ज्वर आदिकी पीड़ा तथा भूतबाधा आदिके निवारण-इन सभी कर्मोमें इस मन्त्रका उपयोग करना चाहिये ॥ २१ ॥

एक सौ बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १४२ ॥

अध्याय-१४३ कुब्जिका-सम्बन्धी न्यास एवं पूजनकी विधि

महादेवजी कहते हैंस्कन्द! अब मैं कुब्जिकाकी क्रमिक पूजाका वर्णन करूंगा, जो समस्त मनोरथोंको सिद्ध करनेवाली है।

‘कुब्जिका’ वह शक्ति है, जिसकी सहायतासे राज्यपर स्थित हुए देवताओंने अस्त्र-शस्त्रादिसे असुरोंपर विजय पायी है।॥ १ ॥

मायाबीज “ह्रीं” तथा हृदयादि छ: मन्त्रोंका क्रमश: गुह्राङ्ग एवं हाथमें न्यास करे।

‘काली- काली’-यह हृदय मन्त्र है। ‘दुष्ट चाण्डालिका’-यह शिरोमन्त्र है।’ह्रीं स्फेंह स ख क छ ड ओंकारो भैरव:।’-यह शिखा सम्बन्धी मन्त्र है। ‘भेलखी दूती’- यह कवच सम्बन्धी मन्त्र है। ‘रक्तचण्डिका”-यह नेत्र सम्बन्धी मन्त्र है तथा ‘गुह्राकुब्जिका’-यह अस्त्र-सम्बन्धी मन्त्र है।

अङ्गों और हाथोंमें इनका न्यास करके मण्डलमें यथास्थान इनका पूजन करना चाहिये ‘॥ २-३ ॥

मण्डलके अग्निकोणमें कूर्च बीज (हूं), ईशानकोणमें शिरोमन्त्र (स्वाहा), नैऋत्यकोणमें शिखामन्त्र (वषट्), वायव्यकोणमें कवचमन्त्र (हुम), मध्यभागमें नेत्रमन्त्र (वौषट्) तथा मण्डल की सम्पूर्ण दिशाओंमें अस्त्र-मन्त्र (फट्)-का उलेख एवं पूजन करे।

बत्तीस अक्षरोंसे युक्त बत्तीस दलवाले कमलकीं कर्णिकामें ‘स्त्रों ह स क्ष म ल न व ब ष ट स च’ तथा आत्मबीज-मन्त्र (आम्)-का न्यास एवं पूजन करे।

कमलके सब ओर पूर्व दिशासे आरम्भ करके क्रमश: ब्रह्माणी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, माहेन्द्री, चामुण्डा और चण्डिका (महालक्ष्मी)-का न्यास एवं पूजन करना चाहिये ॥ ४-६ ॥

तत्पश्चात् ईशान, पूर्व, अग्निकोण, दक्षिण, नैऋत्य और पश्चिममें क्रमश: र, व, ल, क, स और ह-इनका न्यास और पूजन करे। फिर इन्हीं दिशाओंमें क्रमश: कुसुममाला एवं पाँच पर्वतोंका स्थापन एवं पूजन करे। पर्वतोंके नाम हैं-जालन्धर, पूर्णगिरि और कामरूप आदि।

तत्पश्चात् वायव्य, ईशान, अग्नि और नैऋत्यकोणमें तथा मध्यभागमें वज्रकुब्जिकाका पूजन करे।

उत्तर शिख़रपर क्रमश: अनादि विमल, सर्वज्ञ विमल, प्रसिद्द विमल, संयोग विमल तथा समय विमल-इन पाँच विमलोंकी पूजा करे। इन्हीं श्रृङ्गोपर कुब्जिकाकी प्रसन्नताके लिये क्रमशः खिङ्गिनी, षष्ठी, सोपन्ना, सुस्थिरा तथा रत्नसुन्दरीका पूजन करना चाहिये।

ईशानकोणवर्ती शिखरपर आाठ आादिनाथोंकी आराधना करे ॥७-११ ॥

अग्निकोणवर्ती शिखरपर मित्रकी, पश्चिमवर्ती शिखर पर औडीश वर्षकों तथा वायव्यकोंणवर्ती शिखरपर षष्टि नामक वर्षकी पूजा करनी चाहिये। पश्चिमदिशावर्ती शिखर पर गगनरत्न और कवचरल की अर्चना की जानी चाहिये। वायव्य, ईशान और अग्निकोणमें ब्रुँ बीजसहित पञ्चनाम संज्ञक मर्त्यकी पूजा करनी चाहिये। दक्षिण दिशा और अग्निकोणमें ‘पञ्चरत्न’ की अर्चना करे।

ज्येष्ठा, रौद्री तथा अन्तिका-ये तीन संध्याओंकी अधिष्ठात्री देवियाँ भी उसी दिशा में पूजने योग्य हैं। इनके साथ सम्बन्ध रखनेवाली पाँच महावृद्धाएँ हैं, उन सबकी प्रणवके उच्चारणपूर्वक पूजा करनी चाहिये। इनका पूजन सत्ताईस अथवा अट्ठाईसके भेदसे दो प्रकार का बताया गया है। १२-१४॥

चौकोर मण्डलमें दाहिनी ओर गणपतिका तथा बायीं ओर वटुकका पूजन करे।

‘ॐ एं गूं क्रमगणपतये नमः ।’ इस मन्त्रसे क्रमगणपतिकी तथा ‘ॐ वटुकाय नम:।’ इस मन्त्रसे वटुककी पूजा करे।

वायव्य आदि कोणोंमें चार गुरुओंका तथा अठारह षटकोणोंमें सोलह नाथोंका पूजन करे। फिर मण्डल के चारों और ब्रह्मा आदि आठ देवताओंकी तथा मध्यभागमें नवमी कुब्जिका एवं कुलटा देवीकी पूजा करनी चाहिये।

इस प्रकार सदा इसी क्रमसे पूजा करे॥ १५-१७ ॥

 

एक सौ तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १४३ ॥

अध्याय-१४४ कुब्जिकाकी पूजा-विधिका वर्णन

भगवान् महेश्वर कहते हैंस्कन्द! अब मैं धर्म, अर्थ, काम तथा विजय प्रदान करनेवाली श्रीमतिकुब्जिकादेवीके मन्त्रका वर्णन करूँगा परिवारसहित मूलमंत्रसे उनकी पूजा करनी चाहिये ॥ १ ॥

‘ॐ ऐं ह्रीं श्रीं खै ह्रें हसक्षमलचवयं भगवति अम्बिके ह्रां ह्रीं क्षीं क्षौ क्षूं क्रीं कुब्जिके ह्राम ॐ डञनणमेऽअघोरमुख ब्रां छां छीं किलि किलि क्षौं विच्चे खयों श्रीं क्रोम, ॐ ह्रोम, ऐं वज्रकुब्जिनि स्त्रीं त्रैलोक्यकर्षिणि ह्रीं कामाङ्गाद्राविणि ह्रीं स्त्रीं महाक्षोभकारिणि ऐं ह्रीं क्षौ ऐं ह्रीं श्रीं फें क्षौ नमो भगवति क्षौ कुब्जिके ह्रों ह्रों क्रै डञणनमे अघोरमुख छूां छां विच्धे, ॐ किलि किलि।’ -यह कुब्जिकामन्त्र हैं ॥ २॥

करन्यास और अङ्गन्यास करके संध्या-वन्दन करे। वामा, ज्येष्ठा तथा रौद्री-ये क्रमश: तीन संध्याएँ कही गयी हैं।॥ ३ ॥

(कौली गायत्री)

“कुलवागीश विद्महे, महाकौलीति धीमहि। तन्न: कौली प्रचोदयात्।’

‘कुलवागीश्वरि! हम आपकी जानें। महाकौलोंके रूपमें आपका चिन्तन करें। कौली देवी हमें शुभ कर्मोंके लिये प्रेरित करे’। ४ ।।

इसके पाँच मन्त्र हैं, जिनके आदिमें ‘प्रणव’ और अन्तमें ‘नम:’ पदका प्रयोग होता है। बीच में पाँच नाथोंके नाम हैं; अन्तमें ‘श्रीपादुकां पूजयामि’-इस पदको जोड़ना चाहिये। मध्यमें देवताका चतुर्थ्यंन्त नाम जोड़ देना चाहिये। इस प्रकार ये पाँचों मन्त्र लगभग अठारह-अठारह अक्षरोंके होते हैं। इन सबके नामोंकी षष्ठी विभक्तिके साथ संयुक्त करना चाहिये। इस तरह वाक्य-योजना करके इनके स्वरूप समझने चाहिये।

मैं उन पाँचों नार्थोंका वर्णन करता हूँ-कौलीशनाथ, श्रीकण्ठनाथ, कौलनाथ, गगनानन्दनाथ तथा तूर्णनाथ। इनकी पूजाका मन्त्र-वाक्य इस प्रकार होना -‘ॐ कौलीशनाथाय नमस्तस्मै पादुकां पूजयामि।’ इनके साथ क्रमश: ये पाँच देवियाँ भी पूजनीय हैं-१-सुकला देवी, जो जन्मसे ही कुब्जा होनेके कारण ‘कुब्जिका’ कही गयी हैं: २-चटुला देवी, ३-मैत्रीशी देवी, जो विकराल रूपवाली हैं, ४-अतल देवी और ५-श्रीचन्द्रा देवी हैं। इन सबके नामके अन्तमें ‘देवी’ पद है। इनके पूजनका मन्त्र-वाक्य इस प्रकार होगा* ॐ सुकलादेव्यै नमस्तस्यै भगात्मपुङ्गणदेवमोहिनीं पादुकां पूजयामि।’ दूसरी (चटुला) देवीकी पादुकाका यह विशेषण देना चाहिये’अतीतभुवनानन्दरत्नाढयां पादुकां पूजयामि।’ इसी तरह तीसरी देवीकी पादुकाका विशेषण ‘ब्रह्मज्ञानाढयां’, चौथीकी पादुकाका विशेषण ‘कमलाढय़ां’ तथा पाँचवींकी पादुकाका विशेषण ‘परमविद्याडढयां’ देना चाहिये। ५-१ ॥

इस प्रकार विद्या, देवी और गुरु (उपर्युक पाँच नाथ)-इन तीनकी शुद्धि ‘त्रिशुद्धि’ कहलाती है। मैं तुमसे इसका वर्णन करता हूँ।

गगनानन्द, चटुली, आत्मानन्द, पद्मनन्द, मणि, कला, कमल, माणिक्यकण्ठ, गगन, कुमुद, श्रीपद्म, भैरवानन्द, कमलदेव, शिव, भव तथा कृष्ण-ये सोलह नूतन सिद्ध हैं ॥ १०-११ ॥

चन्द्रपूर गुल्म, शुभकाम, अतिमुक्तक वीरकण्ठ प्रयोग, कुशल, देवभोगक्र (अथवा भोगदायक), विश्वदेव, खङ्गदेव, रुद्र, धाता, असि, मुद्रास्फोट, वंशपूर तथा भोज-ये सोलह सिद्ध हैं।

इन सिद्धोंका शरीर भी छ: प्रकार के न्यासोंसे नियनित होनेके कारण इनके आत्माके समान जातिका ही (सच्चिदानन्दमय) हो गया है।

मण्डलमें फूल विखेरकर मण्डलोंकी पूजा करे। अनन्त, महान्, शिवपादुका, महाव्याप्ति, शून्य, पञ्चतत्त्वात्मक– मण्डल, श्रीकण्ठनाथ-पादुका, शंकर एवं अनन्तकी भी पूजा करे॥१२-१६ ॥

सदाशिव, पिङ्गल, भृग्वानन्द, नाथ-समुदाय, लाङ्गूलानन्द और् संवर्त-इन सबका मण्डलस्थानमें पूजन करे।

नैऋत्यकोणमें श्रीमहाकाल, पिनाकी, महेन्द्र, खड्ग, नाग, बाण, अघासि (पापका छेदन करनेके लिये खड्गरूप), शब्द, वश, आज्ञारूप और नन्दरूप-इनको बलि अर्पित करके क्रमश: इनका पूजन करे। इसके बाद वटुकको अर्ध्य, पुष्प, धुप, दीप, गन्ध और बलि तथा क्षेत्रपालको गन्ध, पुष्प और बलि अर्पित करे। इसके लिये मन्त्र इस प्रकार है-

‘ह्रीं खं खं हूं सौं वटुकाय अरु अरु अन्य पुष्पं धूपं दीपं गन्ध बलिं पूजां गृह्र गृह्र नमस्तुभ्यम्।। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं क्षेत्रपालायावतरावतार महाकपिलजटाभार भास्वर त्रिनेत्र ज्वालामुख एह्रोहि गन्धपुष्पबलिपूजां गृह्र गृह्र खः खः ॐ कः ॐ लः ॐ ‘महाडामराधिपतये स्वाहा।’

बलि के अन्त में दायें-बायें तथा सामने त्रिकूटका पूजन करे; इसके लिये मन्त्र इस प्रकार है-ह्रीं ह्रूं हां श्रीं त्रिकूटाय नमः फिर बायें निशानाथकी, दाहिने तमोऽरिनाथ (या सूर्यनाथ)- की तथा सामने कालानलकी पादुकाओंका यजनपूजन करे।

तदनन्तर उड़ियान, जालन्धर, पूर्णगिरि तथा कामरूपका पूजन करना चाहिये।

फिर गगनानन्ददेव, वर्गसहित स्वर्गानन्ददेव, परमानन्ददेव, सत्यानन्ददेवकी पादुका तथा नागानन्ददेवकी पूजा करे। इस प्रकार ‘वर्ग’ नामक पच्चरत्नका तुमसे वर्णन किया गया है॥ १७-२३६ ॥

उत्तर और ईशानकोणमें इन छ:की पूजा करें-सुरनाथकी पादुकाकी, श्रीमान् समयकोटीश्वरकी, विद्याकोटीश्वरकी, कोटीस्वरकी, बिन्दुकोटीश्वरकी तथा सिद्धकोटीश्वरकी।

अग्निकोणमें चार* सिद्धसमुदायकी तथा अमरीशेश्वर, चक्रीशेश्वर, कुरज्ञेश्वर, वृत्रेश्वर और चन्द्रनाथ या चन्द्रेश्वरकी पूजा करे।

इन सबकी गन्ध आदि पंचोपचारोंसे पूजा करनी चाहिये।

दक्षिण दिशा में अनादि विमल, सर्वज्ञ विमल, योगीश विमल, सिद्ध विमल और समय विमल-इन पाँच विमलोंका पूजन ॥੪॥

नैऋत्यकोणमें चार वेदोंका, कंदर्पनाथका, पूर्वोत सम्पूर्ण शक्तियोंका तथा कुकिज़काकी श्रीपादुकाका पूजन करे।

इनमें कुब्जिकाकी पूजा ‘ॐ ह्रां ह्रीं कुब्जिकायै नम:।’- इस नवाक्षर मन्त्रसें अथवा केवल पाँच प्रणवरूप मन्त्रसे करें।

पूर्व दिशासे लेकर ईशानकोण-पर्यन्त ब्रह्मा, इन्द्र, अग्नि, यम, निऋति, अनन्त, वरुण, वायु, कुबेर तथा ईशान-इन दस दिक्पालोंकी पूजा करे।

सहस्रनेत्रधारी इन्द्र, अनवद्य विष्णु तथा शिवको पूजा सदा ही करनी चाहिये।

ब्रह्माणी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, ऐन्द्री, चामुण्डा तथा महालक्ष्मी-इनकी पूजा पूर्व दिशासे लेकर ईशानकोण-पर्यन्त आठ – दिशाओंमें कि क्रमश: करें ॥ २८-३१ ॥

तदनन्तर वायव्यकोण में छ: उग्र दिशाओंमें क्रमशः डाकिनी, राकिनी, लाकिनी, काकिनी, शाकिनी तथा याकिनी-इनकी पूजा करे।

तत्पश्चात् ध्यानपूर्वक कुब्जिकादेवीका पूजन करना चाहिये। बत्तीस व्यंजन अक्षर ही उनका शरीर है। उनके पूजनमें पाँच प्रणव अथवा ‘ह्रीं’ का बीजरूपसे उच्चारण करना चाहिये।

(यथा-‘ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ कुब्जिकायै नम:।’ अथवा’ॐ ह्रीं कुक्जिकायै नमः’)

देवीकी अङ्गकान्ति नील कमल-दलके समान श्याम है, उनके छ: मुख हैं और उनकी मुखकान्ति भी छ: प्रकारकी है। वे चैतन्यशक्तिस्वरूपा हैं। अष्टादशाक्षर मन्त्रद्वारा उनका प्रतिपादन होता है। उनके बारह भुजाएँ हैं। वे सुखपूर्वक सिंहासनपर विराजमान हैं। प्रेतपद्मके ऊपर बैठी हैं। वे सहस्रों कोटि कुलोंसे सम्पन्न हैं। ‘कर्कोटक’ नामक नाग उनकी मेखला (करधनों) है। उनके मस्तक पर “तक्षक’ नाग विराजमान हैं। ‘वासुकि’ नाग उनके गलेका हार है। उनके दोनों कानोंमें स्थित ‘कुलिक’ और ‘कूर्म’ नामक नाग कुण्डल-मण्डल बने हुए हैं। दोनों भाँहोंमें पद्म’ और ‘महापद्म’ नामक नागोंकी स्थिति है। बायें हाथोंमें नाग, कपाल, अक्षसूत्र, खट्वान, शंख और पुस्तक हैं। दाहिने हाथोंमें त्रिशूल, दर्पण, खड्ग, रत्नमयी माला, अङ्कुश तथा धनुष हैं। देवी के दो मुख ऊपरकी ओर हैं, जिनमें एक तो पूरा सफेद है और दूसरा आधा सफेद है। उनका पूर्ववर्ती मुख पाण्डुवर्णका है, दक्षिणवर्ती मुख क्रोधयुक जान पड़ता है, पश्चिमवाला मुख काला है और उत्तरवर्ती मुख हिम, कुन्द एवं चन्द्रमाके समान श्वेत है। ब्रह्मा उनके चरणतलमें स्थित हैं, भगवान् विष्णु जघनस्थलमें विराजमान हैं, रुद्र हृदयमें, ईश्वर कण्ठ में, सदाशिव ललाटमें तथा शिव उनके ऊपरी भाग में स्थित हैं। कुब्जीकादेवी झूमती हुई-सी दिखायी देती हैं। पूजा आदि कर्मोमें कुब्जिकाका ऐसा ही ध्यान करना चाहिये ॥ ३४-४० ॥

एक सौ चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुका ॥ १४४॥

अध्याय-१४५ मालिनी आदि नाना प्रकारके मन्त्र और उनके षोढा-न्यास

भगवान् महेश्वर कहते हैंस्कन्द! अब मैं छ: प्रकारके न्यासपूर्वक नाना प्रकारके मन्त्रोका वर्णन करूंगा।

ये छहों प्रकार के न्यास ‘शाम्भव’, “शाक्त’ तथा ‘यामल के भेदसे तीन-तीन प्रकारके होते हैं।

‘शाम्भव-न्यास’ में षट्षोडश ग्रन्थिरूप शब्दराशि प्रथम है, तीन विद्याएँ और उनका ग्रहण द्वितीय न्यास है, त्रितत्वात्मक न्यास तीसरा है, वनमालान्यास चौथा है, यह बारह श्लोकोंका है। रत्नपञ्चकका न्यास पाँचवाँ है और नवाक्षरमन्त्रका न्यास छठा कहा गया है।॥ १-३ ॥

शाक्तपक्षमें ‘मालिनी’ का न्यास प्रथम, ‘त्रिविद्या’का न्यास द्वितीय, ‘अघोर्यष्टक’का न्यास तृतीय, द्वादशाअंगन्यास चतुर्थ, षड-अंग-न्यास पञ्चम तथा ‘अस्त्रचण्डिका’ नामक शक्तिका न्यास छठा है।

क्लीं (क्री), ह्रीं, क्लीं, श्रीं, क्रू, फट्- इन छ: बीजमन्त्रोंका जों छ: प्रकारका न्यास है, यही तीसरा अर्थात् ‘यामल न्यास’ है। इन छहोंमेंसे चौथा ‘श्रीं’ बीजका न्यास है, वह सम्पूर्ण मनोरथोंको सिद्ध करनेवाला है।॥ ४-५ ॥

‘न’ से लेकर ‘फ’ तक जो न्यास बताया जाता है, वह सब मालिनीका ही न्यास हैं। ‘न’ से आरम्भ होनेवाली अथवा नाद करनेवाली शक्तिका न्यास शिखामें करना चाहिये।

 ‘अ’ ग्रसनी शक्ति तथा ‘श’ शिरोमाला-निवृत्ति शक्तिका स्थान सिर में है; अत: वहीं उनका न्यास करे। ‘ट’ शान्तिका प्रतीक है, इसका न्यास भी सिरमें ही होगा। ‘च’ चामुण्डाका प्रतीक है, इसका न्यास नेत्रत्रयमें करना चाहिये।’ढ’प्रियदृष्टिस्वरूप है, इसका न्यास नेत्रद्वयमें होना चाहिये। गुह्राशक्तिका प्रतीक हैं-‘नी’, इसका न्यास नासिकाद्वयमें करे। ‘न’ नारायणीरूप है, इसका स्थान दोनों कानोंमें है। ‘त’ मोहिनीरूप है, इसका स्थान केवल दाहिने कानमें है। ‘ज’ प्रज्ञाका प्रतीक है, इसकी स्थिति बायें कानमें बतायी गयी है। वज्रिणी देवीका स्थान मुखमें है। ‘क’ कराली शक्तिका प्रतीक हैं, इसकी स्थिति दाहिनी दंट्रा (दाढ़)- में है। ‘ख’ कपालिनीरूप है, ‘व’ बायें कंधेपर स्थापित होनेके योग्य हैं। ‘ग’ शिवाका प्रतीक है, इसका स्थान ऊपरी दाढ़ोंमें है। ‘घ’ घोरा शक्तिका सूचक है, इसकी स्थिति बायीं दाढ़में मानी गयी है। ‘उ’ शिखा शक्तिका सूचक है, इसका स्थान दाँतोंमें है। ‘ई’ मायाका प्रतीक है, जिसका स्थान जिह्राके अन्तर्गत माना गया है। ‘अ’ नागेश्वरीरूप है, इसका न्यास वाक्-इन्द्रियमें होना चाहिये। ‘व’ शिखिवाहिनीका बोधक है, इसका स्थान कण्ठमें है।॥ ६-१० ॥

‘भ’ के साथ भीषणी शक्तिका न्यास दाहिने कंधेमें करे। ‘म’ के साथ वायुवेगका न्यास बायें कधे में करे। ‘ड’ अक्षर और नामा शक्तिका दाहिनी भुजामें तथा ‘ढ’ अक्षर एवं विनायका देवीका बायीं भुजामें न्यास करे। ‘प’ एवं पूर्णिमाका न्यास दोनों हाथोंमें करे। प्रणवसहित तथा ‘ओंकारा शक्तिका दाहिने  हाथ की अँगुलियोंमें तथा अं सहित दर्शनीका बायें हाथकी अँगुलियोंमें न्यास करे। ‘अ’ एवं संजीवनी-शक्तिका हाथमें न्यास करे। ‘ट’ अक्षरसहित कपालिनी शक्तिका स्थान कपाल है। ‘त’ सहित दीपनीकी स्थिति शूलदण्डमें है। जयन्तीकी स्थिति त्रिशूलमें है। ‘य’ सहित साधनी देवीका स्थान ऋद्धि (वृद्धि) है

‘श’ अक्षरके साथ परमाख्या देवीकी स्थिति जीवमें हैं। ‘ह’ अक्षर सहित अम्बिका देवीका न्यास प्राणमें करना चाहिये। ‘छ’ अक्षरके साथ शरीरा देवीका स्थान दाहिने स्तनमें है। ‘न’ सहित पूतनाकी स्थिती बायें स्तनमें बतायी गयी है। ‘अ’ सहित आमोटीका स्तन-दुग्धमें, ‘थ’ सहित लम्बोदरीका उदर में ‘क्ष’ सहित संहारिकाका नाभिमें तथा ‘म’ सहित महाकालीका नितम्बमें न्यास करे। ‘स’ अक्षरसहित कुसुममालाका गुह्रादेशमें, ‘ष’ सहित शुक्रदेविकाका शुक्रमें, ‘त’ सहित तारा देवींका दोनों ऊरुओंमें तथा ‘द’ सहित ज्ञानाशक्तिका दाहिने घुटनेमें न्यास करे। ‘औ’ सहित क्रियाशक्तिका बायें घुटनेमें, ओ सहित गायत्री देवीका दाहिनी जंधा (पिण्डली)-में, ‘ॐ’ सहित सावित्रीका बायीं जङ्गामें तथा ‘द’ सहित दोहिनीका दाहिने पैरमें न्यास करें। ‘फ’ सहित ‘फत्कारी’ का बायें पैर में न्यास करना चाहिये॥ १४-१७ ॥

मालिनी-मन्त्र नौ अक्षरोंसे युक्त होता है। ‘अ’ सहित श्रीकण्ठका शिखा में, ‘आ’ सहित अनन्तका मुखमें, ‘इ’ सहित सूक्ष्मका दाहिने नेत्रमें, ‘ई’ सहित त्रिमूर्तिका बायें नेत्रमें, ‘उ’ सहित अमरीशका दाहिने कानमें तथा ‘ऊ’ सहित अर्धाशकका बायें कानमें न्यास करें। ‘ऋ’ सहित भावभूतिका दाहिने कानमें न्यास करे ऋ सहित तिथिशका वामनासाग्रमें, ल्र सहित स्थाणुका दाहिने गालमें तथा ‘लू’ सहित हरका बायें गालमें न्यास करे। ‘ए’ अक्षरसहित कटीशका नीचेकी दन्तपङ्किमें, ‘ऐ’ सहित भूतीशका ऊपरकी दन्तपङ्किमें, ‘ओ’ सहित सद्योजातका – नीचेके ओष्ठमें तथा ‘औ’ सहित अनुग्रहीश (या अनुग्रहेश)-का ऊपरके औष्ठमें न्यास करें। ‘अं’ सहित क्रूरका गलेकी घाटीमें, ‘अः’ सहित महासेनका जिह्रामें, ‘क’ सहित क्रोधीशका दाहिने कंधे में तथा ‘ख’ सहित चण्डीशका बाहुओंमें न्यास करे। ‘ग’ सहित पंचान्तकका कूर्परमें, ‘घ’ सहित शिखीका दाहिने कङ्कणमें, ‘ ‘ सहित एकपादका दायीं अँगुलियोंमें  तथा ‘च’ सहित कूर्मकका बायें कंधेमें न्यास करे ॥ १८-२३ ॥

‘छ’ सहित एकनेत्रका बाहुमें, ‘ज’ सहित चतुर्मुखका कूर्पर या कोहनीमें, ‘झ’ सहित राजसका वामकङ्कणमें तथा ‘‘ सहित सर्वकामदका बायीं अँगुलियोंमें न्यास कोर।’ट” सहित सोमेश्वरका नितम्बमें, ‘ठ’ सहित लाङ्गलीका दक्षिण ऊरु (दाहिनी जाँघ)-में, ‘ड’ सहित दारुकका दाहिने घुटनेमें तथा ‘ढ’ सहित अर्द्धजलेश्वरका पिण्डलीमें न्यास करे । ‘ण’ सहित उमाकान्तका दाहिने पैरकी अंगूलियोंमें ‘त’ सहित आषाढीका नितम्बमें ‘थ’ सहित दण्डीका वाम ऊरु (बायीं जाँघ)-में तथा ‘द’ सहित भिदका बायें घुटनेमें न्यास करे।

‘ध’ सहित मीनका बायीं पिण्ड़ली में, ‘न’ सहित मेषका बायें पैरकी अँगुलियोंमें ‘प’ सहित लोहितका दाहिनी कुक्षिमें तथा ‘फ’ सहित शिखीका बायीं कुक्षिमें न्यास करे।’ब’ सहित गलण्डका पृष्ठवंशमें, ‘भ’ सहित द्विरण्डका नाभि में, ‘म’ सहित महाकालका हृदयमें तथा ‘य’ सहित वाणीशका त्वचामें न्यास बताया गया है।॥ २४-२८ ॥

“र” सहित भुजङ्गेशका रक्तमें, ‘ल’ सहित पिनाकीका मांसमें, ‘व’ सहित खङ्गीशका अपने आत्मा (शरीर)-में तथा ‘श’ सहित वक का हड़ीमें न्यास करे। ‘ष सहित श्वेतका मज्जामें, ‘स’ सहित भृगुका शुक्र एवं धातुमें, ‘ह’ सहित नकुलीशका प्राणमें तथा ‘क्ष’ सहित संवर्तका पञ्चकोशोंमें न्यास करना चाहिये। ‘ह्रीं’ बीजसे रुद्रशक्तियोंका पूजन करके उपासक सम्पूर्ण मनोरथोंकों प्राप्त कर लेता है।॥ २१-३० ॥

एक सौ पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १४५ ॥

अध्याय-१४६ त्रिखण्डी-मन्त्रका वर्णन, पीठस्थानपर पूजनीय शक्तियों तथा आठ अष्टक देवियोंका कथन

भगवान् महेश्वर कहते हैंस्कन्द! अब मैं ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वरसे सम्बन्ध रखनेवाली त्रिखण्डीका वर्णन करूंगा ॥ १॥

ॐ नमो भगवते रुद्राय नमः। नमश्चामुण्डे नमश्चाकाशमातॄणां सर्वकामार्थसाधनीनामजरामरीणां सर्वत्राप्रतिहतगतीनां स्वरूपपरिवर्तिनीनां सर्वसत्त्ववशीकरणोत्सादनोन्मूलनसमस्तकर्मप्रवृत्तानां सर्वमातृगुह्रां ह्रदयं परमसिद्धं परकर्मच्छेदनं परमसिद्धिकरं मातृणां वचनं शुभम्।।

‘ इस ब्रह्मखण्डपदमें रुद्रमन्त्र-सम्बन्धी एक सौ इकीस अक्षरँ हैं ।॥ २-३॥

(अब विष्णुखण्डपद बताया जाता है-)

‘ॐ नमश्चामुण्डे ब्रह्राणि अघोरे अमोघे वरदे विच्चे स्वाहा।। ॐ नमश्चामुण्डे माहेश्वरि अघोरे अमोधे वरदे विच्चे स्वाहा। ॐ नमश्चामुण्डे कौमारि अघोरे अमोधे वरदे विच्चे स्वाहा। ॐ नमश्चामुण्डे वैष्णवि अधोरे अमोघे वरदे विच्चे स्वाहा। ॐ नमश्चामुण्ड़े वाराहि अघोरे अमोधे वरदे विच्चे स्वाहा। ॐ नमश्चामुण्डे इन्द्राणि अघोरे अमोघे वरदे विच्चे स्वाहा। ॐ नमश्चामुण्ड़े चंडी अघोरे अमोधे वरदे विच्चे स्वाहा। ॐ नमश्चामुण्डे ईशानि अधोरे अमोघे वरदे विच्चे स्वाहा।’

यह यथोचित अक्षरवाले पदोंका दूसरा मन्त्रखण्ड है, जो ‘विष्णुखण्डपद’ कहा गया हैं।॥ ४-५ ॥

(अब महेश्वरखण्डपद बताया जाता है-)

‘ॐ नमश्चामुण्डे ऊर्ध्वकेशि ज्वलितशिखरे विद्युज्जिह्रे तारकाक्षि पिंगलभ्रुवे विकृतदंष्टे क्रुद्धे, ॐ मांसशोणितसुरासवप्रिये हस हस ॐ नृत्य नृत्य ॐ विजृम्भय विजृम्भय ॐ मायात्रैलोक्यरूपसहत्रपरिवर्तिनीनामों बन्ध बन्ध, ॐ कुट्ट कुट्ट चिरि चिरि हिरि हिरि भिरि भिरि त्रासनि त्रासनि भ्रामणि भ्रामणि, ॐ द्रावणि द्रावणि क्षोभणि क्षोभणि मारणि मारणि संजीवनि संजीवनि हेरि हेरि गेरि गेरि घेरि घेरि, ॐ सुरि सुरि ॐ नमो मातृगणाय नमो नमो विच्चे’ ॥ ६॥

यह माहेश्वरखण्ड़ एकतीस पदोंका है। इसमें एक सौ एकहत्तर अक्षर हैं।

इन तीनों खण्डोंकों ‘त्रिखण्डी’ कहते हैं। इस त्रिखण्डी-मन्त्र के आदि और अन्तमें ‘हें घों तथा पाँच प्रणव जोड़कर उसका जप एवं पूजन करना चाहिये।

‘हें घो श्रीकुब्जिकायै नम:।’- इस मन्त्रकों त्रिखण्डीके पदोंकी संधियोंमें जोड़ना चाहिये

अकुलादि त्रिमध्यग, कुलादि त्रिमध्यग, मध्यमादि त्रिमध्यग तथा पाद-त्रिमध्यग-ये चार प्रकारके मन्त्रपिण्ड हैं।

साढ़े तीन मात्राओं से युक्त प्रणवकों आदिमें लगाकर इनका जप अथवा इनके द्वारा यजन करना चाहियें।

तदननतर भैरवके शिखा-मन्त्रका जप एवं पूजन करे-

‘ॐ क्षौ शिखाभैरवाय नमः’॥७-९ई ॥

‘स्खां स्खीं स्खें”-ये तीन सबीज त्र्यक्षर हैं। ‘ह्रां ह्रीं ह्रें’- ये निबीज त्र्यक्षर हैं।

विलोमक्रमसे “क्ष” से लेकर ‘क’ तक के बत्तीस अक्षरोंकीं वर्णमाला ‘अकुला’ कही गयी है।

अनुलोमक्रमसे गणना होनेपर वह ‘सकुला’ कही जाती हैं।

शशिनी, भानुनी, पावनी, शिव, गन्धारी, ‘ण’ पिण्डाक्षी, चपला, गजजिह्रिका, ‘म’ मृषा, भयसारा, मध्यमा, ‘फ’ अजरा, ‘य’ कुमारी, ‘न’ कालरात्री,’द’ संकटा, ‘ध’ कालिका, “फ’ शिवा, ‘ण’ भवघोरा, “ट’ बीभत्सा,’त’ विद्युता,’ठ’ विश्वम्भरा और शांसिनी अथवा ‘उ’ विश्वम्भरा, ‘आ’ शंसिनी, ‘द’ ज्वालामालिनी, कराली, दुर्जया, रङ्गी, वामा, ज्येष्ठा तथा रौद्री, ‘ख’ काली, ‘क’ कुलालम्बी, अनुलोमा, ‘द’ पिण्डिनी, ‘आ’ वेदिनी, ‘इ’ रूपी, ‘वै’ शान्तिमूर्तिं एवं कलाकुला, ‘ऋ’ खङ्गिनी, ‘उ’ वलिता, ‘ल्री’ कुला, ‘ल्रिल’ सुभागा, वेदनादिनी और कराली, अं मध्यमा तथा ‘अ:’ अपेतरया-इन शक्कियोंका योगपीठपर क्रमशः पूजन करना चाहिये ॥ १०-१७॥

‘स्खां स्खीं स्खौं महाभैरवाय नमः।”-यह महाभैरवके पूजनका मन्त्र है।

(ब्रह्राणी आदि आठ शक्तियोंके साथ पृथक् आठ-आठ शक्तियाँ और हैं, जिन्हें ‘अष्टक’ कहा गया है। उनका क्रमश: वर्णन किया जाता है।)

अक्षोद्या, ऋक्षकर्णी, राक्षसी, क्षपणा, क्षया, पिंगाक्षी, अक्षया और क्षेमा-ये ब्रह्राणीके अष्टक-दलमें स्थित होतीं हैं।

इला, लीलावती, नीला, लङ्का, लङ्केश्वरी, लालसा, विमला और माला-ये माहेश्वरीअष्टकमें स्थित हैं।

हुताशना, विशालाक्षी, हूंकारी, वडवामुखी, हाहारवा, क्रूरा, क्रोधा तथा खरानना बाला-ये आठ कौमारीके शरीरसे प्रकट हुई हैं। इनका पूजन करनेपर ये सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनवाली होती हैं।

सर्वज्ञा, तरला, तारा, ऋग्वेदा, हयानना, सारासारा, स्वयंग्राहा तथा शाश्वती-ये आठ शक्तियाँ वैष्णवीके कुलमें प्रकट हुई हैं ॥१८-२२॥

तालुजिह्रा, रक्ताक्षी, विद्युज्जिह्रा, करंकिणी, मेघनाद, प्रचण्डोग्रा, कालकर्णी तथा कलिप्रिया-ये वाराहीके कुलमें उत्पन्न हुई हैं। विजयकी इच्छवाले पुरुषको इनकी पूजा करनी चाहिये।

चम्पा, चम्पावती, प्रचम्पा, ज्वलितानना, पिशाची, पिचुवक्त्रा तथा लोलुपा-ये इन्द्राणी शक्ति के कुलमें उत्पन्न हुई हैं।

पावनी, याचनी, वामनी, दमनी, विन्दुवेला, बृहत्कुक्षी, विद्युता तथा विश्वरूपिणी-ये चामुण्डाके कुलमें प्रकट हुई हैं और मण्डलमें पूजित होनेपर विजयदायिनी होती हैं ॥ २३-२६६ ॥

यमजिह्रा, जयन्ती, दुर्जया, यमान्तिका, विडाली, रेवती, जया और विजया-ये महालक्ष्मीके कुलमें उत्पन्न हुई हैं। इस प्रकार आठ अष्टकोंका वर्णन किया गया। २७-२८ ॥

एक सौ छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ। ॥ १४६ ॥

अध्याय-१४७ गुह्राकुब्जिका, नवा त्वरिता तथा दूतियोंके मन्त्र एवं न्यास-पूजन आदिका वर्णन

भगवान महेश्वर कहते है स्कन्द ! (अब मैं गुह्रा-कुब्जिका, नवा त्वरिता, दूती तथा त्वरिता के गुह्यांग एवं तत्वों का वर्णन करूंगा- )

ॐ गुह्राकुब्जिके हूं फट मम सर्वोपद्रवान यन्त्रमन्त्रतन्त्रचूर्णप्रयोगादिकं येन कृतं कारितं कुरुते करिष्यति कारयिष्यति तान् सर्वान् हुन हुन दंष्ट्राकरालिनि ह्रैं ह्रीं ह्रुं गुह्राकुब्जिकायै स्वाहा ह्रौं, ॐ खें वों गुह्राकुब्जिकायै नम:।’

(इस मन्त्रसे गुह्राकुब्जकाका पूजन एवं जप करना चाहिये।)

‘ह्रीं सर्वजनक्षोभणी जनानुकर्षिणी ॐ खें ख्यां ख्यां सर्वजनवशंकरी जनमोहनी, ॐ ख्यौं सर्वजनस्तम्भनी, ऐ खं खां क्षोभणी, ऐ त्रितत्वं बीजं श्रेष्ठम कुले पञ्चाक्षरी, फं श्रीं क्षीं ह्रीं क्षें वच्छे क्षे क्षे ह्रूं फट्, ह्रीं नमः। ॐ ह्रां वच्छे क्षे क्षें क्षों ह्रीं फट्’ ॥ १-४॥

यह ‘नवा त्वरिता’ बतायी गयी है। इसे बारंबार जानना (जपना) चाहिये। इसकी पूजा की जाय तो यह विजयदायिनी होती है।

ह्रौं सिंहाय नम:।’ इस मन्त्रसे आसनकी पूजा करके देवीको सिंहासन समर्पित करे।

ह्रीं क्षे हृदयाय नम:।’ बोलकर हृदयका स्पर्श करें।

‘वच्छे शिरसे स्वाहा।’ बोलकर सिरका स्पर्श करे।

इस प्रकार यह ‘त्वरितामन्त्र’का शिरोन्यास बताया गया है।

क्षें ह्रीं शिखायै वषट्।’ ऐसा कहकर शिखाका स्पर्श करे।

क्षें कवचाय हुम्। कहकर दोनों  भुजाओंका स्पर्श करे।

ह्रूं नेत्रत्रयाय वौषट्। कहकर दोनों नेत्रोंका तथा ललाटके मध्यभागका स्पर्श करे।

ह्रीं अस्त्राय फट । कहकर ताली बजाये ।

हींकारी, खेचरी, चण्डा, छेदनी, क्षोभणी, क्रिया, क्षेमकारी, हुंकारी तथा फ़टकारी- ये नौ शक्तियां है ॥५-७ ॥

अब दूतियोंका वर्णन करता हूँ। इन सबका पूर्व आदि दिशाओंमें पूजन करना चाहिये-‘ह्रीं नले बहुतुण्डे च खगे ह्रीं खेचरे ज्वालिनि ज्वल ख खे छ च्छे शवविभीषणी चच्छे चण्डे छेदनि करालि ख खे छे खे  खरहाङ्गी ह्रीं क्षे वक्षे कपिले ह क्षे ह्रूं क्रूं तेजोवति रौद्रि मातः ह्रीं फे वे फे फे वक्त्रे वरी फे पुटि पुटि घोरे ह्रूं फट् ब्रह्रावेतालि मध्ये।’

(यह दूती-मन्त्र है) ॥ ८-९ ॥

अब पुनः त्वरिताके गुह्राङ्गों तथा तत्त्वॊका वर्णन करता हूँ।

‘ह्रौं ह्रूं ह: हृदयाय नमः ।’ इसका हृदयमें न्यास करे।

‘ह्रीं हः शिरसे स्वाहा।’ ऐसा कहकर सिर में न्यास करे।

‘फ़ां ज्वल ज्वल शिखायै वषट्।’ कहकर शिखामें,

‘इले ह्रं ह्रूं कवचाय हुम।’ कहकर दोनों भुजाओंमें

‘क्रों क्षूं श्रीं नेत्रत्रयाय वौषट्।’ बोलकर नेत्रोंमें तथा ललाटके मध्यभाग में न्यास करे।

‘क्षौ अस्त्राय फट्।’ कहकर दोनों हाथोंसे ताली बजाये अथवा हुं खे वच्छे क्षे ह्रीं क्षें हुं अस्त्राय फट्। कहकर ताली बजानी चाहिये ॥ १०-१२ ॥

“मध्यभागमें ‘हुं स्वाहा।’ लिखे तथा पूर्व आदि दिशाओंमें क्रमश: ‘खें सदाशिवे, व ईश:, छे मनोन्मनी, मक्षे तार्क्ष:, ह्रीं माधवः, क्षे ब्रह्रा, हुम् आदित्य:, दारुण फट ‘का उल्लेख एवं पूजन करे। ये आठ दिशाओंमें पूजनीय देवता बताये गये हैं।॥ १३॥

एक सौ सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १४७॥

अध्याय-१४८ संग्राम-विजयदायक सूर्य-पूजनका वर्णन

भगवान् महेश्वर कहते हैंस्कन्द! (अब मैं संग्राममें विजय देनेवाले सूर्यदेवके पूजनकी विधि बताता हूँ।)

‘ॐ डे ख खयां सूर्याय संग्रामविजयाय नम:।’-यह मन्त्र है।

ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रें ह्रों हृ:- ये संग्राममें विजय देनेवाले छ: अङ्ग हैं, अर्थात् इनके द्वारा षडङ्गन्यास करना चाहिये। यथा-‘ह्रां हृदयाय नम:। ह्रीं शिरसे स्वाहा। ह्रूं शिखायै वषट्। ह्रें कवचाय हुम्। ह्रों नेत्र त्रयाय वौषट्। ह्रः अस्त्राय फट्’ ॥ १-२ ।।

‘ॐ हं खं खखोल्काय स्वाहा।’-यह पूजाके लिये मन्त्र है।

‘स्फूं ह्रूं ह्रुं क्रूं ॐ ह्रों क्रेम-ये छ: अङ्गन्यासके बीज-मन्त्र हैं।

पीठस्थानमें प्रभूत, विमल, सार, आराध्य एवं परम सुखका पूजन करें।

पीठके पायों तथा चौचकीं चार दिशाओंमें क्रमशः धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य तथा अनैश्वर्य-इन आठोंकी पूजा करे।

तदनन्तर अनन्तासन, सिंहासन एवं पद्मासनकी पूजा करे।

इसके बाद कमलकी कर्णिका एवं केसरोंकी, वहीं सूर्यमण्डल, सोममण्डल तथा अग्निमण्डलकी पूजा करे।

फिर दीप्ता, सूक्ष्मा, जया, भद्रा, विभूति, विमला, अमोघा, विद्युता तथा नवीं सर्वतोमुखी-इन नौ शक्तियोंका पूजन करें ॥ ३-६ ॥

तत्पश्चात् सत्त्व, रञ्ज और तमका, प्रकृति और पुरुषका, आत्मा, अन्तरात्मा और परमात्माका  करे। ये सभी अनुस्वारयुक्त आदि अक्षरसे युक होकर अन्तमें ‘नम:’ के साथ चतुर्थ्यन्त होनेपर पूजाके मन्त्र हो जाते हैं।

यथा-‘सं सत्वाय नमः। अं अन्तरात्मने नम:।” इत्यादि।

इसी तरह उषा, प्रभा, संध्या, साया, माया, बला, बिन्दु, विष्णु तथा आठ द्वारपालोंकी पूजा करे।

इसके बाद गन्ध आदिसे सूर्य, चण्ड और प्रचण्डका पूजन करे।

इस प्रकार पूजा तथा जप, होम आदि करनेसे युद्ध आदिमें विजय प्राप्त होती है। ७ -१ ॥

एक सौ अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ। १४८ ॥

अध्याय-१४९ होमके प्रकार-भेद एवम विविध फ़लोंका कथन

भगवान् महेश्वरने कहा-देवि! होमसे युद्धमें विजय, राज्यप्राप्ति और विध्नोंका विनाश होता है। पहले ‘कृच्छूव्रत’ करके देहशुद्धि करे।

तदन्तर सौ प्राणायाम करके शरीरका शोधन करे। फ़िर जलके भीतर गायत्री-जप करके सोलह बार प्राणायाम करे।

पुर्वाह्रकालमें अग्निमें आहुति समर्पित कोरे। भिक्षाद्वारा प्राप्त यवनिर्मित आहार यज्ञकालमें विहित हैं। १-३ ॥

पार्वति! लक्ष-होमकी समाप्ति-पर्यन्त एक समय भोजन करे। लक्ष-होमकी पूर्णाहुतिके पश्चात् गौ, वस्त्र एवं सुवर्णकी दक्षिणा दे॥

सभी प्रकारके उत्पातोंके प्रकट होनेपर पाँच या दस ऋत्विजोंसे पूर्वोक्त यज्ञ करावे। इस लोकमें ऐसा कोई उत्पात नहीं है, जो इससे शान्त न हो जाय। इससे बढ़कर परम मङ्गलकारक कोई वस्तु नहीं है।

जो नरेश पूर्वोक्त विधिसे ऋत्विजोंद्वारा कोटिहोम कराता है, युद्धमें उसके सम्मुख शत्रु कभी नहीं ठहर सकते हैं। उसके राज्यमें अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूषकोपद्रव, टिट्टीदल, शुकोपद्रव एवं भूत-राक्षस तथा युद्धमें समस्त शत्रु शान्त हो जाते हैं।

कोटि-होममें बीस, सौ अथवा सहस्त्र ब्राह्मणोंका वरण करे। इससे यजमान इच्छानुकूल धन-वैभवकी प्राप्ति करता है।

जो ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य इस कोटिहोमात्मक यज्ञका अनुष्ठान करता है, वह जिस पदार्थकी इच्छा करता है, उसकी प्राप्त करता है। वह सशरीर स्वर्गलोकको जाता है।॥ ४-१६ ॥

गायत्री-मन्त्र, ग्रह-सम्बन्धी मन्त्र, कूष्माण्डमन्त्र, जातवेदा-अग्नि-सम्बन्धी अथवा ऐन्द्र, वारुण, वायव्य, याम्य, आग्नेय, वैष्णव, शाक्त, शैव एवं सूर्यदेवता-सम्बन्धी मन्त्रोंसे होम-पूजन आदिका विधान है।

अयुत-होमसे अल्प सिद्धि होती है।

लक्ष-होम सम्पूर्ण दु:खोंको दूर करनेवाला हैं।

कोटि-होम समस्त कलेशोंका नाश करनेवाला और सम्पूर्ण पदार्थोंको प्रदान करनेवाला है।

यव, धान्य, तिल, दुग्ध, धृत, कुश, प्रसातिका (छोटे दानेका चावल), कमल, खस, बेल और आम्रपत्र होमके योग्य माने गये हैं।

कोटि-होममें आठ हाथ और लक्ष-होममें चार हाथ गहरा कुण्ड यनावे।

अयुत-होम, लक्ष-होम और कोटि-होममें घृतका हवन करना चाहिये ॥ १०॥

 

एक सौ उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ। १४९

अध्याय –१५० मन्वन्तरों का वर्णन

अग्निदेव कहते हैं अब मैं मन्वन्तरों का वर्णन करूँगा | सबसे प्रथम स्वायम्भुव मनु हुए हैं | उनके आग्नीध्र आदि पुत्र थे | स्वायम्भुव मन्वन्तर में यम नामक देवता, और्व आदि सप्तर्षि तथा शतक्रतु इंद्र थे | दूसरे मन्वन्तर का नाम था – स्वारोचिष; उसमें पारावत और तुषित नामधारी देवता थे | स्वरोचिष मनुके चैत्र और किम्पुरुष आदि पुत्र थे | उससमय विपश्चित नामक इंद्र तथा उर्जस्वन्त आदि द्विज (सप्तर्षि) थे | तीसरे मनु का नाम उत्तम हुआ; उनके पुत्र अज आदि थे | देवता तथा वसिष्ठ के पुत्र सप्तर्षि थे | चौथे मनु तामस नामसे विख्यात हुए; उस समय स्वरुप आदि देवता, शिखरी इंद्र, ज्योतिर्होम आदि ब्राह्मण (सप्तर्षि) थे तथा उनके ख्याति आदि नौ पुत्र हुए  ||१-५||

रैवत नामक पाँचवे मन्वन्तर में वितथ इंद्र, अमिताभ देवता, हिरण्यरोमा आदि मुनि तथा बलबंध आदि पुत्र थे | छठे चाक्षुष मन्वन्तर में मनोजव नामक इंद्र और स्वाति आदि देवता थे | तत्पश्चात सातवे मन्वन्तर में सुर्यपुत्र श्राद्धदेव मनु हुए | इनके समय में आदित्य, वसु तथा रूद्र आदि देवता; पुरन्दर नामक इंद्र, वसिष्ठ, काश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र तथा भरद्वाज सप्तर्षि हैं | यह वर्तमान मन्वन्तर का वर्णन है | वैवस्वत मनुके इक्ष्वाकु आदि पुत्र थे | इन सभी मन्वन्तरों में भगवान् श्रीहरि के अंशावतार हुए हैं | स्वायम्भुव मन्वन्तर में भगवान् ‘मानस’ के नामसे प्रकट हुए थे | तदनंतर शेष छ: मन्वन्तरों में क्रमश: अजित, सत्य, हरि, देववर, वैकुण्ठ और वामन रूप में श्रीहरि क प्रादुर्भाव हुआ | छाया के गर्भ से उत्पन्न सूर्यनंदन सावर्णि आठवे मनु होंगे ||६-११||

वे अपने पूर्वज (जेष्ठ भ्राता) श्राद्धदेव के समान वर्णवाले हैं, इसलिये ‘सावर्णि’ नाम से विख्यात होंगे | उनके समय में सुतपा आदि देवता, परम तेजस्वी अश्वत्थामा आदि सप्तर्षि, बलि इंद्र और विरज आदि मनुपुत्र होंगे | नवे मनुका नाम दक्षसावर्णि होगा | उससमय पार आदि देवता होंगे | उन देवताओं के इंद्र की ‘अद्भुत’ संज्ञा होगी | उनके समय में सवन आदि श्रेष्ठ ब्राह्मण सप्तर्षि होंगे और ‘धृतकेतु’ आदि मनुपुत्र | तत्पस्च्यात दसवें मनु ब्रह्मसावर्णि के नाम से प्रसिद्ध होंगे | उससमय सुख आदि देवगण, शान्ति इंद्र, हविष्य आदि मुनि तथा सुक्षेत्र आदि मनुपुत्र होंगे ||१२-१५||

तदनंतर धर्मसावर्णि नामक ग्यारहवें मनुका अधिकार होगा | उससमय विहंग आदि देवता, गण इंद्र, निश्वर आदि मुनि तथा सर्वत्रग आदि मनुपुत्र होंगे | इसके बाद बारहवें मनु रूद्रसावर्णि के नामसे विख्यात होंगे | उनके समय में ऋतधामा नामक इंद्र और हरित आदि देवता होंगे | तपस्य आदि सप्तर्षि और देववान आदि मनुपुत्र होंगे | तेरहवें मनुका नाम होगा रौंच्य | उससमय सुत्रामणि आदि देवता तथा दिवस्पति इंद्र होंगे, जो दानव-दैत्य आदि का मर्दन करनेवाले होंगे | रौंच्य मन्वन्तर में निर्मोह आदि सप्तर्षि तथा चित्रसेन आदि मनुपुत्र होंगे | चौदहवें मनु भौत्य के नाम से प्रसिद्ध होंगे | उनके समय में शुचि इंद्र, चाक्षुष आदि देवता तथा आग्निबाहू आदि सप्तर्षि होंगे | चौदहवें मनुके पुत्र ऊरू आदि के नामसे विख्यात होंगे ||१६-२०||

सप्तर्षि द्विजगण भूमंडलपर वेदों का प्रचार करते हैं, देवगण यज्ञ-भाग के भोक्ता होते हैं तथा मनुपुत्र इस पृथ्वी का पालन करते है | ब्रह्मन ! ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनु होते हैं | मनु, देवता तथा इंद्र आदि भी उतनी ही बार होते हैं | प्रत्येक द्वापर के अंत में व्यासरूपधारी श्रीहरि वेद का विभाग करते हैं | आदि वेद एक ही था, जिसमें चार चरण और एक लाख ऋचाएँ थी | पहले एक ही यजुर्वेद था, उसे मुनिवर व्यासजी ने चार भागों में विभक्त कर दिया | उन्होंने अध्वर्यु का काम यजुर्भाग से, होताका कार्य ऋग्वेद की ऋचाओं से, उद्गाता का कर्म साम-मंत्रो से तथा ब्रह्मा का कार्य अथर्ववेद के मन्त्रों से होना निश्चित किया | व्यास के प्रथम शिष्य पैल थे, जो ऋग्वेद के पारंगत पंडित हुए ||२१-२५||

इंद्र ने प्रमति और बाष्कल को संहिता प्रदान की | बाष्कल ने भी बौध्य आदि को चार भागों में विभक्त अपनी संहिता दी | व्यासजी के शिष्य परम बुद्धिमान वैशम्पायन ने यजुर्वेदरूप वृक्ष की सत्ताईस शाखाएँ निर्माण की | काण्व और वाजसनेय आदि शाखाओं को याज्ञवल्क्य आदि ने सम्पादित किया हैं | व्यास-शिष्य जैमिनी ने सामवेदरूपी वृक्ष की शाखाएँ बनायी | फिर सुमन्तु और सुकर्मा ने एक-एक संहिता रची | सुकर्मा ने अपने गुरुसे एक हजार संहिताओं को ग्रहण किया | व्यास-शिष्य सुमन्तु ने अथर्ववेद की भी एक शाखा बनायी तथा उन्होंने पैप्पल आदि अपने सहस्त्रों शिष्यों को उसका अध्ययन कराया | भगवान् व्यासदेवजी की कृपासे सूतने पुराण-संहिता का विस्तार किया ||२६-३१||

इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘मन्वन्तरों का वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||

– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –