- अध्याय –२०१ नवव्यूहार्चन
- अध्याय –२०२ देवपूजा के योग्य और अयोग्य पुष्प
- अध्याय –२०३ नरकों का वर्णन
- अध्याय-२०४ मासोपवास-व्रत
- अध्याय-२०५ भीष्मपञ्चकव्रत
- अध्याय-२०६ अगस्त्यके उद्देश्यसे अर्ध्यदान एवं उनके पूजनका कथन
- अध्याय-२०७ कौमुद-व्रत
- अध्याय-२०८ व्रतदानसमुच्चय
- अध्याय-२०९ धनके प्रकार; देश-काल और पात्रका विचार; पात्रभेदसे दानके फल-भेद; द्रव्य-देवताओं तथा दान-विधिका कथन
- अध्याय-२१० सोलह महादानोंके नाम; दस मेरुदान, दस धेनुदान और विविध गोदानींका वर्णन
- अध्याय-२११ नाना प्रकारके दानोंका वर्णन
- अध्याय-२१२ विविध काम्य-दान एवं मेरुदानोका वर्णन
- अध्याय-२१३ पृथ्वीदान तथा गोदानकी महिमा
- अध्याय –२१४ नाडीचक्र का वर्णन
- अध्याय –२१५ संध्या – विधि
- अध्याय –२१६ गायत्री-मन्त्र के तात्पर्यार्थ का वर्णन
- अध्याय –२१७ गायत्री से निर्वाण की प्राप्ति
- अध्याय-२१८ राजाके अभिषेककी विधि
- अध्याय-२१९ राजाके अभिषेकके समय पढ़नेयोग्य मन्त्र
- अध्याय-२२० राजाके द्वारा अपने सहायकोंकी नियुक्ति और उनसे काम लेनेका ढंग
- अध्याय-२२१ अनुजीवियोंका राजाके प्रति कर्तव्यका वर्णन
- अध्याय-२२२ राजाके दुर्ग, कर्तव्य तथा साध्वी स्त्रीके धर्मका वर्णन
- अध्याय-२२३ राष्ट्रकी रक्षा तथा प्रजासे कर लेने आदिके विषयमें विचार
- अध्याय-२२४ अन्तःपुरके सम्बन्धमें राजाके कर्त्तव्य; स्त्रीकी विरक्ति और अनुरक्तिकी परीक्षा तथा सुगन्धित पदार्थोंके सेवनका प्रकार
- अध्याय-२२५ राज-धर्म–राजपुत्र-रक्षण आदि
- अध्याय-२२६ पुरुषार्थकी प्रशंसा; साम आदि उपायोंका प्रयोग तथा राजाकी विविध देवरूपताका प्रतिपादन
- अध्याय-२२७ अपराधोंके अनुसार दण्डका प्रयोग
- अध्याय-२२८ युद्ध-यात्राके सम्बन्धमें विचार
- अध्याय –२२९ अशुभ और शुभ स्वप्नों का विचार
- अध्याय –२३० अशुभ और शुभ शकुन
- अध्याय-२३१ शकुनके भेद तथा विभिन्न जीवोंके दर्शनसे होनेवाले शुभाशुभ फलका वर्णन
- अअध्याय-२३२ कौए, कुत्ते, गौ, घोड़े और हाथी आदिके द्वारा होनेवाले शुभाशुभ शकुनोंका वर्णन
- अध्याय-२३३ यात्राके मुहूर्त और द्वादश राजमण्डलका विचार
- अध्याय-२३४ दण्ड़, उपेक्षा, माया और साम आदि नीतियोंका उपयोग
- अध्याय-२३५ राजाकी नित्यचर्या
- अध्याय-२३६ संग्राम-दीक्षा-युद्धके समय पालन करनेयोग्य नियमोंका वर्णन
- अध्याय –२३७ लक्ष्मीस्तोत्र और उसका फल
- अध्याय –२३८ श्रीराम के द्वारा उपदिष्ट राजनीति
- अध्याय-२३९ श्रीरामकी राजनीति
- अध्याय-२४० द्वादशराजमण्डल-चिन्तन*
- अध्याय-२४१ मन्त्रविकल्प
- अध्याय-२४२ सेनाके छः भेद, इनका बलाबल तथा छः अङ्ग
- अध्याय –२४३ पुरुष-लक्षण-वर्णन
- अध्याय –२४४ स्त्री के लक्षण
- अध्याय-२४५ चामर, धनुष, बाण तथा खड़गके लक्षण
- अध्याय-२४६ रत्न-परीक्षण
- अध्याय-२४७ गृहके योग्य भूमि; चतुःषष्टिपद वास्तुमण्डल और वृक्षारोपणका वर्णन
- अध्याय-२४८ विष्णु आदिके पूजनमें उपयोगी पुष्पोंका कथन
- अध्याय-२४९ धनुर्वेदका' वर्णन-युद्ध और अस्त्रके भेद, आठ प्रकारके स्थान, धनुषा, बाणको ग्रहण करने और छोड़नेकी विधि आदिका कथन
- अध्याय-२५० लक्ष्यवेधके लिये धनुष-बाण लेने और उनके समुचित प्रयोग करनेकी शिक्षा तथा वेध्यके विविध भेदोंका वर्णन
अग्निपुराण
अध्याय –२०१ नवव्यूहार्चन
अग्निदेव कहते है – वशिष्ठ ! अब मैं नवव्यूहार्चन की विधि बताऊँगा, जिसका उपदेश भगवान श्रीहरि ने नारदजी के प्रति किया था | पद्ममय मंडल के बीच में ‘अं’ बीज से युक्त वासुदेव की पूजा करे (यथा – अं वासुदेवाय नम: ) | ‘आं’ बीजसे युक्त संकर्षण का अग्निकोण में, ‘अं’ बीजसे युक्त प्रद्युम्नका दक्षिण में, ‘अं:’ बीजवाले अनिरुद्ध का नैऋत्यकोण में, प्रणवयुक्त नारायण का पश्चिम में, तत्सद ब्रह्म का वायव्यकोण में, ‘ह्रं’ बीज से युक्त विष्णुका और ‘क्षौ’ बीज से युक्त नृसिंह का उत्तर दिशामें, पृथ्वी और वराह का ईशानकोण में तथा पश्चिम द्वार में पूजन करे ||१-३||
‘कं टं शं सं’ – इन बीजों से युक्त पूर्वाभिमुख गरुड़ का दक्षिण दिशामें पूजन करें | ‘खं छं बं हूं फट’ तथा ‘खं ठं फं शं ‘ – इन बीजों से युक्त गदा की चंद्रमंडल में पूजा करे | ‘बं ण. मं क्षं’ तथा ‘शं धं दं भं हं’ – इन बीजों से युक्त श्रीदेवी का कोणभाग में पूजन करे | दक्षिण तथा उत्तर दिशामें ‘गं डं बं शं’ – इन बीजों से युक्त पुष्टिदेवी की अर्चना करे | पीठ के पश्चिम भाग में ‘धं वं‘- इन बीजों से युक्त वनमाला का पूजन करे | ‘सं हं लं’ – इन बीजों से युक्त श्रीवत्स की पश्चिम दिशामें पूजा करे और ‘छं तं यं’ – इन बीजों से युक्त कौस्तुभ का जल में पूजन करे ||४-६||
फिर दशमांग-क्रम से विष्णु का और उनके अधोभाग में भगवान् अनंतका उनके नाम के साथ ‘नम:’ पद जोडकर पूजन करे | दस (पाँच अंगन्यास तथा पाँच करन्यास ) अन्गादिका तथा महेंद्र आदि दस दिक्पालों का पूर्वादि दिशाओं में पूजन करे | पुर्वादि दिशाओं में चार कलशों का भी पूजन करें | तोरण, वितान (चँदोवा) तथा अग्नि, वायु और चंद्रमा के बीजों से युक्त मंडलों का क्रमशः ध्यान करके अपने शरीर को वंदनापूर्वक अमृत से प्लावित करे | आकाश में स्थित आत्मा के सूक्ष्मरूप का ध्यान करके यह भावना करे कि वह चंद्रमंडल से झरे हुए श्वेत अमृत की धारा में निमग्न है | प्लवन से जिसका संस्कार किया गया हैं, वह अमृत ही आत्मा का बीज है | उस अमृत से उत्पन्न होनेवाले पुरुष को आत्मा (अपना स्वरुप) माने | यह भावना करे कि ‘मैं स्वयं ही विष्णुरूप से प्रकट हुआ हूँ |’ इसके बाद द्वादश बीजों का न्यास करे | क्रमशः वक्ष:स्थल, मस्तक, शिखा, पृष्ठभाग, नेत्र तथा दोनों हाथों में ह्रदय, सिर, शिखा,पृष्ठभाग, नेत्र तथा दोनों हाथों में ह्रदय, सिर, शिखा, कवच, नेत्रत्रय और अस्त्र – इन अंगों का न्यास करे | दोनों हाथों में अस्त्र का न्यास करने के पश्च्यात साधक के शरीर में दिव्यता आ जाती है ||७-१२||
जैसे अपने शरीर में न्यास करे, वैसे ही देवता के विग्रह में भी करे तथा शिष्य के शरीर में भी उसी तरह न्यास करे | ह्रदय में जो श्रीहरि का पूजन किया जाता हूँ, उसे ‘निर्माल्यरहित पूजा’ कहा गया है | मंडल आदि में निर्माल्यरहित पूजा की जाती है | दीक्षाकाल में शिष्यों के नेत्र बंधे रहते है | उस अवस्था में इष्टदेव के विग्रहपर वे जिस फूलको फेंके, तदनुसार ही उनका नामकरण करना चाहिये | शिष्यों को वामभाग में बैठाकर अग्नि में तिल, चावल और घी की आहुति दे | एक सौ आठ आहुतियाँ देने के पश्च्यात कायशुद्धि के लिये एक सहस्र आहुतियों का हवन करे | नवव्यूहकी मूर्तियों तथा अंगों के लिये सौ से अधिक आहुतियाँ देनी चाहिये | तदनंतर पूर्णाहुति देकर गुरु उन शिष्यों को दीक्षा दे तथा शिष्यों को चाहिये कि वे धन से गुरु की पूजा करें ||१३-१६||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘नवव्यूहर्चन वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –२०२ देवपूजा के योग्य और अयोग्य पुष्प
अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! भगवान् श्रीहरि पुष्प, गंध, धुप, दीप और नैवेद्य के समर्पण से ही प्रसन्न हो जाते है | मैं तुम्हारे सम्मुख देवताओं के योग्य एवं अयोग्य पुष्पों का वर्णन करता हूँ | पूजन में मालती-पुष्प उत्तम हैं | तमाल-पुष्प भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है | मल्लिका (मोतिया) समस्त पापोंका नाश करती है तथा यूथिका (जूही) विष्णुलोक प्रदान करनेवाली है | अतिमुक्तक (मोगरा) और लोध्रपुष्प विष्णुलोक की प्राप्ति करानेवाले हैं | करवीर-कुसुमों से पूजन करनेवाला वैकुण्ठ को प्राप्त होता है तथा जपा-पुष्पों से मनुष्य पुण्य उपलब्ध करता है | पावंती, कुब्जक और तगर-पुष्पों से पूजन करनेवाला विष्णुलोक का अधिकारी होता है | कर्णिकार (कनेर)- द्वारा पूजन करने से वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है एवं कुरुंट (पीली कटसरैया) के पुष्पोंसे किया हुआ पूजन पापोंका नाश करनेवाला होता है | कमल, कुंद एवं केतकी के पुष्पों से परमगति की प्राप्ति होती है | बाणपुष्प, बर्बर-पुष्प और कृष्ण तुलसी के पत्तों से पूजन करनेवाला श्रीहरि के लोक में जाता हैं | अशोक, तिलक तथा आटरुष (अडूसे) के फूलों का पूजन में उपयोग करनेसे मनुष्य मोक्ष का भागी होता है | बिल्वपत्रों एवं शमिपत्रों से परमगति सुलभ होती है | तमालदल तथा भृंगराज-कुसुमों से पूजन करनेवाला विष्णुलोक में निवास करता है | कृष्ण तुलसी, शुक्ल तुलसी, कल्हार, उत्पल, पद्म एवं कोकनद – ये पुष्प पुण्यप्रद माने गये हैं ||१-७||
भगवान् श्रीहरि सौ कमलों की माला समर्पण करनेसे परम प्रसन्न होते है | नीप, अर्जुन, कदम्ब, सुगन्धित बकुल (मौलसिरी), किंशुक (पलाश), मुनि (अगस्त्यपुष्प), गोकर्ण, नागकर्ण (रक्त एरण्ड), संध्यापुष्पी (चमेली), बिल्बातक, रजनी एवं केतकी तथा कुष्माण्ड, ग्रामकर्कटी, कुश, कास, सरपत, विभीतक, मरुआ तथा अन्य सुंगधित पत्रोंद्वारा भक्तिपूर्वक पूजन करनेसे भगवान् श्रीहरि प्रसन्न हो जाते हैं | इनसे पूजन करनेवाले के पाप नाश होकर उसको भोग-मोक्ष की प्राप्ति होती हैं | लक्ष स्वर्णभार से पुष्प उत्तम है, पुष्पमाला उससे भी करोड़गुनी श्रेष्ठ है, अपने तथा दूसरों के उद्यान के पुष्पों की अपेक्षा वन्य पुष्पों का तिगुना फल माना गया है ||८-११||
झड़कर गिरे, अधिकांग एवं मसले हुए पुष्पों से श्रीहरि का पूजन न करे | इसीप्रकार कचनार, धत्तूर, गिरिकर्णिका (सफेद किणही), कुटज, शाल्मलि (सेमर) एवं शिरीष (सिरस) वृक्ष के पुष्पों से भी श्रीविष्णु की अर्चना न करे | इससे पूजा करनेवाले का नरक आदि में पतन न होता है | विष्णुभगवान का सुगन्धित रक्तकमल तथा नीलकमल-कुसुमों से पूजन होता है | भगवान शिवका आक, मदार, धत्तूर-पुष्पों से पूजन किया जाता है; किन्तु कुटज, कर्कटी एवं केतकी (केवड़े) के फुल शिव के ऊपर नहीं चढाने चाहिये | कुष्माण्ड एवं निम्ब के पुष्प तथा अन्य गंधहीन पुष्प ‘पैशाच’ माने गये हैं ||१२-१५||
अहिंसा, इन्द्रियसंयम, क्षमा, ज्ञान, दया एवं स्वाध्याय आदि आठ भावपुष्पों से देवताओं का यजन करके मनुष्य भोग-मोक्ष का भागी होता है | इनमें अहिंसा प्रथम पुष्प है, इन्द्रिय-निग्रह द्वितीय पुष्प है, सम्पूर्ण भूत-प्राणियोंपर दया तृतीय पुष्प है, क्षमा चौथा विशिष्ट पुष्प है | इसीप्रकार क्रमश: शम, तप एवं ध्यान पाँचवे, छठे और सातवे पुष्प हैं | सत्य आठवाँ पुष्प है | इनसे पूजित होनेपर भगवान् केशव प्रसन्न हो जाते हैं | इन आठ भावपुष्पों से पूजा करनेपर ही भगवान् केशव संतुष्ट होते हैं | नरश्रेष्ठ ! अन्य पुष्प तो पूजा के बाह्य उपकरण हैं, श्रीविष्णु तो भक्ति एवं दयासे समन्वित भाव-पुश्पोद्वारा पूजित होनेपर परितुष्ट होते है ||१६-१९||
जल वारुण पुष्प है; घृत, दुग्ध, दधि सौम्य पुष्प है; अन्नादि प्राजापत्य पुष्प हैं, धुप-दीप आग्नेय पुष्प हैं, फल-पुष्पादि पंचम वानस्पत्य पुष्प हैं, कुशमुल आदि पार्थिव पुष्प हैं; गंध-चंदन वायव्य कुसुम हैं, श्रद्धादि भाव वैष्णव प्रसून हैं | ये आठ पुष्पिकाएँ हैं, जो सब कुछ देनेवाली है | आसन (योगपीठ), मूर्ति-निर्माण, पंचांगन्यास तथा अष्टपुष्पिकाए – ये विष्णुरूप हैं | भगवान् श्रीहरि पूर्वोक्त अष्टपुष्पिकाद्वारा पूजन करनेसे प्रसन्न होते है | इसके अतिरिक्त भगवान् श्रीविष्णु का ‘वासुदेव’ आदि नामों से एवं श्रीशिव का ‘ईशान’ आदि नामपुष्पों से भी पूजन किया जाता है ||२०-२३||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘पुष्पाध्याय’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –२०३ नरकों का वर्णन
अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! अब मैं नरकों का वर्णन करता हूँ | भगवान् श्रीविष्णु का पुष्पादि उपचारों से पूजन करनेवाले नरक को नहीं प्राप्त होते | आयु के समाप्त होनेपर मनुष्य न चाहता हुआ भी प्राणों से बिछुड़ जाता है | देहधारी जीव जल, अग्नि, विष, शस्त्राघात, भूख, व्याधि या पर्वत से पतन-किसी-न-किसी निमित्त को पाकर प्राणों से हाथ धो बैठता है | वह अपने कर्मों के अनुसार यातनाएँ भोगने के लिये दूसरा शरीर ग्रहण करता है | इसप्रकार पापकर्म करनेवाला दुःख भोगता हैं, परन्तु धर्मात्मा पुरुष सुख का भोग करता है | मृत्यु के पश्च्यात पापी जीव को यमदूत बड़े दुर्गम मार्ग से ले जाते है और वह यमपुरी के दक्षिण द्वार से यमराज के पास पहुँचाया जाता है | वे यमदूत बड़े डरावने होते है | परन्तु धर्मात्मा मनुष्य पश्चिम आदि द्वारोसे ले जायें जाते हैं | वहाँ पापी जीव यमराज की आज्ञा से यमदूतोंद्वारा नरकों में गिराये जाते हैं, किन्तु वसिष्ठ आदि ऋषियोंद्वारा प्रतिपादित धर्म का आचरण करनेवाले स्वर्ग में ले जाये जाते हैं | गोहत्यारा ‘महावीचि’ नामक नरक में एक लाख वर्षतक पीड़ित किया जाता है | ब्रह्मघाती अत्यंत दहकते हुए ‘ताम्रकुम्भ’ नामक नरक में गिराये जाते हैं और भूमिका अपहरण करनेवाले पापीको महाप्रलय कालतक ‘रौरवनरक’ में धीरे-धीरे दु:सह पीड़ा दी जाती हैं | स्त्री, बालक अथवा वृद्धों का वध करनेवाले पापी चौदह इन्द्रों के राज्यकाल पर्यन्त ‘महारौरव’ नामक रौद्र नरक में क्लेश भोगते हैं | दूसरों के घर और खेत को जलानेवाले अत्यंत भयंकर ‘महारौरव’ नरक में एक कल्पपर्यन्त पकाये जाते हैं | चोरी करनेवाले को ‘तामिस्त्र’ नामक नरक में गिराया जाता है | इसके बाद उसे अनेक कल्पोंतक यमराज के अनुचर भालों से बाँधते रहते हैं और फिर ‘महातामिस्त्र’ नरक में जाकर वह पापी सर्पों और जोकोंद्वारा पीड़ित किया जाता हैं | मातृघाती आदि मनुष्य ‘असिपत्रवन’ नामक नरक में गिराये जाते हैं | वहाँ तलवारों से उनके अंग तबतक काटे जाते हैं, जबतक यह पृथ्वी स्थित रहती है | जो इस लोक में दूसरे प्राणियों के ह्रदय को जलाते हैं, वे अनेक कल्पोंतक ‘करम्भवालुका’ नरक में जलती हुई रेतमें भुने जाते हैं | दूसरों को बिना दिये अकेले मिष्टान्न भोजन करनेवाला ‘काकोल’ नामक नरक में कीड़ा और विष्ठा का भक्षण करता हैं | पंचमहायज्ञ और नित्यकर्म का परित्याग करनेवाला ‘कुट्टल’ नामक नरक में जाकर मूत्र और रक्त का पान करता हैं | अभक्ष्य वस्तुका भक्षण करनेवाले को महादुर्गन्धमय नरक में गिरकर रक्त का आहार करना पड़ता हैं ||१-१२||
दूसरों को कष्ट देनेवाला ‘तैलपाक’ नामक नरक में तिलों की भाँती पेरा जाता हैं | शरणागत का वध करनेवाले को भी ‘तैलपाक’ में पकाया जाता हैं | यज्ञ में कोई चीज देने की प्रतिज्ञा करके न देनेवाला ‘निरुच्छावास’ में, रस-विक्रय करनेवाला ‘वज्रकटाह’ नामक नरक में और असत्यभाषण करनेवाला ‘महापात’ नामक नरक में गिराया जाता है ||१३-१४||
पापपूर्ण विचार रखनेवाला ‘महाज्वाल’ में, अगम्या स्त्री के साथ गमन करनेवाला ‘क्रकच’ में, वर्णसंकर सन्तान उत्पन्न करनेवाला ‘गुडपाक’ में, दूसरों के मर्मस्थानों में पीड़ा पहुँचानेवाला ‘प्रतुद’ में, प्राणिहिंसा करनेवाला ’क्षारह्र्द’ में, भूमिका अपहरण करनेवाला ‘क्षुरधार’ में, गौ और स्वर्ण की चोरी करनेवाला ‘अम्बरीष’ में, वृक्ष काटनेवाला ‘वज्रशस्त्र’ में मधु चुरानेवाला ‘परिताप’ में, दूसरों का धन अपहरण करनेवाला ‘कालसूत्र’ में, अधिक मांस खानेवाला ‘कश्मल’ में और पितरों को पिंड न देनेवाला ‘उग्रगंध’ नामक नरक में यमदूतोंद्वारा ले जाया जाता है | घूस खानेवाले ‘दुर्धर’ नामक नरक में और निरपराध मनुष्यों को कैद करनेवाले ‘लौहमय मंजूष’ नामक नरक में यमदूतोंद्वारा ले जाकर कैद किये जाते हैं | वेदनिंदक मनुष्य ‘अप्रतिष्ठ’ नामक नरक में गिराया जाता है | झूठी गवाही देनेवाला ‘पूतिवक्त्र’ में, धन का अपहरण करनेवाला ‘परिलुन्ठ’ में, बालक, स्त्री और वृद्ध की हत्या करनेवाला तथा ब्राह्मण को पीड़ा देनेवाला ‘कराल’ में, मद्यपान करनेवाला ब्राह्मण ‘विलेप’ में और मित्रों में परस्पर भेदभाव करानेवाला ‘महाप्रेत’ नरक को प्राप्त होता है | परायी स्त्री का उपभोग करनेवाले पुरुष और अनेक पुरुषो से सम्भोग करनेवाली नारी को ‘शाल्मल’ नामक नरक में जलती हुई लौहमयी शिला के रूप में अपनी उस प्रिया अथवा प्रिय का आलिंगन करना पड़ता हैं ||१५-२१||
नरकों में चुगली करनेवालों की जीभ खींचकर निकाल ली जाती हैं, परायी स्त्रियों को कुदृष्टि से देखनेवालों की आँखें फोड़ी जाती हैं, माता और पुत्री के साथ व्यभिचार करनेवाले धधकते हुए अंगारोंपर फेंक दिये जाते है, चोरों को छुरों से काटा जाता हैं और मांस-भक्षण करनेवाले नरपिशाचों को उन्हीं का मांस काटकर खिलाया जाता हैं | मासोपवास, एकादशीव्रत अथवा भीष्मपंचकव्रत करनेवाला मनुष्य नरकों में नहीं जाता ||२२-२३||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘एक सौ नवासी नरकों के स्वरूप का वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय-२०४ मासोपवास-व्रत
अग्निदेव कहते हैं–मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ! अब मैं तुम्हारे सम्मुख सबसे उत्तम मासोपवास-व्रतका वर्णन करता हूँ।
वैष्णव-यज्ञका अनुष्ठान करके, आचार्यकी आज्ञा लेकर, कृच्छू आदि व्रतोंसे अपनी शक्तिका अनुमान करके मासोपवासव्रत करना चाहिये।
वानप्रस्थ, संन्यासी एवं विधवा स्त्री-इनके लिये मासोपवास-व्रतका विधान है। १-२ ॥
आश्विनके शुक्ल पक्षकी एकादशीको उपवास रखकर तीस दिनोंके लियें निम्नलिवित संकल्प करके मासोपवास-व्रत ग्रहण करे-
‘श्रीविष्णो! में आजसे लेकर तीस दिन तक आपके उत्थानकालपर्यन्त निराहार रहकर आपका पूजन करूंगा। सर्वव्यापी श्रीहरे! आश्विन शुक्ल एकादशीसे आपके उत्थानकाल कार्तिक शुक्ल एकादशीके मध्यमें यदि मेरी मृत्यु हो जाय तो (आपकी कृपासे) मेरा व्रत भङ्ग न हो*।’
व्रत करनेवाला दिनमें तीन बार स्नान करके सुगन्धित द्रव्य और पुष्पोंद्वारा प्रातः, मध्याह एवं सायंकाल श्रीविष्णुका पूजन करे तथा विष्णु-सम्बन्धी गान, जप और ध्यान करे।
व्रती पुरुष वकवादका परित्याग करे और धनकी इच्छा भी न करे। वह किसी भी व्रतहीन मनुष्यका स्पर्श न करे और शास्त्रनिषिद्ध कर्मोंमें लगे हुए लोगोंका चालक-प्रेरक न बने। उसे तीस दिनतक देवमन्दिर में ही निवास करना चाहिये।
व्रत करनेवाला मनुष्य कार्तिकके शुक्लपक्षकी द्वादशीको भगवान् श्रीविष्णुकी पूजा करके ब्राह्मणोंकों भोजन करावें। तदनन्तर उन्हें दक्षिणा देकर और स्वयं पारण करके व्रतका विसर्जन करे। इस प्रकार तेरह पूर्ण मासोपवासव्रतोंका अनुष्ठान करनेवाला भोग और मोक्षदोनोंको प्राप्त कर लेता है।॥ ३-९ ॥
(उपर्युक्त विधिसे तेरह मासोपवास-व्रतोंका अनुष्ठान करनेके बाद व्रत करनेवाला व्रतका उद्यापन करे।) वह वैष्णवयज्ञ करावे, अर्थात् तेरह ब्राह्मणोंका पूजन करे। तदनन्तर उनसे आज्ञा लेकर किसी ब्राह्मणको तेरह ऊर्ध्ववस्त्र, अधोवस्त्र, पात्र, आसन, छत्र, पवित्री, पादुका, योगपट्ट और यज्ञोंपवीतोंका दान करें ॥ १०-१२ ॥
तत्पश्चात् शव्यापर अपनी और श्रीविष्णुकी स्वर्णमयी प्रतिमाका पूजन करके उसे किसी दूसरे ब्राह्मणकों दान करे एवं उस ब्राह्मणका वस्त्र आदिसे सत्कार करें।
तदनन्तर व्रत करनेवाला यह कहे-‘मैं सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर ब्राह्मणों और श्रीविष्णुभगवान्के कृपा-प्रसादसे विष्णुलोकको जाऊँगा। अब मैं विष्णुस्वरूप होता हूँ।” इसके उत्तरमें ब्राह्मणोंको कहना चाहिये-‘देवात्मन्! तुम विष्णुके उस रोग-शोकरहित परमपदको जाओ-जाओ और वहाँ विष्णुका स्वरूप धारण करके विमानमें प्रकाशित होते हुए स्थित होओ।” फिर व्रत करनेवाला द्विजोंकी प्रणाम करके वह शय्या आचार्यको दान करे।
इस विधिसे व्रत करनेवाला अपने सौ कुलोंका उद्धार करके उन्हें विष्णुलोकमें ले जाता है।
जिस देशमें मासोपवासव्रत करनेवाला रहता हैं, वह देश पापरहित हो जाता है। फिर उस सम्पूर्ण कुलकी तो बात ही क्या है, जिसमें मासोपवास-व्रतका अनुष्ठान करनेवाला उत्पन्न हुआ होता है।
व्रतयुक्त मनुष्यकी मूर्च्छित देखकर उसे घृतमिश्रित दुग्धको पान कराये। निम्नलिखित वस्तुएँ व्रतको नष्ट नहीं करतीं-ब्राह्मणकी अनुमतिसे ग्रहण किया हुआ हविष्य, दुग्ध, आचार्यकी आज्ञासे ली हुई औषधि, जल, मूल और फल।
‘इस व्रतमें भगवान् श्रीविष्णु ही महान् ओषधिरूप हैं-इसी विश्वाससे व्रत करनेवाला इस व्रतसे उद्धार पाता है ॥ १३-१८ ॥
दो सौ चारवाँ अध्याय पूरा हुआ। २०४॥”
अध्याय-२०५ भीष्मपञ्चकव्रत
अग्निदेव कहते है – अब मैं सबकुछ देनेवाला व्रतराज “भीष्मपञ्चक”के विषयमें कहता हूँ ।
कार्तिकके शुक्लपक्षकी एकादशीको यह व्रत ग्रहण करे । पाँच दिनोंतक तीनों समय स्नान करके पाँच तिल और यवोंके द्वारा देवता तथा पितरोंका तर्पण करे । फिर मौन रहकर भगवान् श्रीहरीका पूजन करे। देवाधिदेव श्रीविष्णुको पञ्चगव्य और पंचामृतसे स्नान करावे और उनके श्रीअंगमें चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्योंका आलेपन करके उनके सम्मुख घृतयुक्त गुग्गुल जलावे। १-३
प्रातःकाल और रात्रीके समय भगवान् श्रीविष्णुको दीपदान करे और उत्तम भोज्य-पदार्थका नैवेद्य समर्पित करे। व्रती पुरुष “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” इस द्वादशाक्षर-मन्त्रका एक सौ आठ बार जप करे। तदन्तर घृतसिक्त तिल और जौका अन्तमें “स्वाहा” से संयुक्त “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय”- इस द्वादशाक्षर-मन्त्रसे हवन करे।
पहले दिन भगवानके चरणोंका कमलके पुष्पोंसे, दुसरे दिन घुटनों और सक्विथभागका बिल्वपत्रोंसे, तीसरे दिन नाभिका भृगराजसे, चौथेदिन बाणपुष्प, बिल्वपत्र और जपापुष्पोंद्वारा एवं पांचवें दिन मालतीपुष्पोंसे सर्वअंगका पूजन करे।
व्रत करनेवालेको भूमिपर शयन करना चाहिये।
एकादशीको गोमय, द्वादशीको गोमूत्र, त्रयोदशीको दधि, चतुर्दशीको दुग्ध और अन्तिम दिन पञ्चगव्यका आहार करे।
पौर्णमासीको नक्तव्रत करनी चाहिये।
इस प्रकार व्रत करनेवाला भोग और मोक्ष-दोनोंको प्राप्त कर लेता है।
भीष्मपितामह इसी व्रतका अनुष्ठान करके भगवान श्रीहरिको प्राप्त हुए थे, इसीसे यह “भीष्मपञ्चक” के नामसे प्रसिद्ध है।
ब्रहमाजीने भी इस व्रतका अनुष्ठान करके श्रीहरिका पूजन किया था। इसलिये यह व्रत पाँच उपवास आदिसे युक्त है ४-९
अध्याय-२०६ अगस्त्यके उद्देश्यसे अर्ध्यदान एवं उनके पूजनका कथन
अग्निदेव कहते हैं– वसिष्ठ! महर्षि अगस्त्य साक्षात् भगवान् विष्णुके स्वरूप हैं। उनका पूजन करके मनुष्य श्रीहरिको प्राप्त कर लेता है।
जब सूर्य कन्या-राशिको प्राप्त न हुए हों (किंतु उसके निकट हों) तब साढ़े तीन दिनतक उपवास रखकर अगस्त्यका पूजन करके उन्हें अर्घ्यदान दें। पहले दिन जब चार घंटा दिन बाकी रहे, तब व्रत आरम्भ करके प्रदोषकालमें अगस्त्य मुनिकी काश-पुष्पमयी मूर्तिको कलशपर स्थापित करे और उस कलशस्थित मूर्तिका पूजन करे।
अर्ध्य देनेवालेको रात्रिमें जागरण भी करना चाहिये ॥ १-२३ ॥
(अगस्त्यके आवाहनका मन्त्र यह है-)
अगस्त्य मुनिशार्दूल तेजोराशे महामते॥
इमां मम कृतां पूजां गृह्रीष्व प्रियया सह।
मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य! आप तेज:पुंजमय और महाबुद्धिमान् हैं। अपनी प्रियतमा पत्नी लोपामुद्राके साथ मेरे द्वारा की गयी इस पूजाको ग्रहण कीजिये ॥ ३ ॥
इस प्रकार अगस्त्यका आवाहन करे और उन्हें गन्ध, पुष्प, फल, जल आदिसे अध्र्यदान दे। तदनन्तर मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यकी ओर मुख करके चन्दनादि उपचारोंद्वारा उनका पूजन करे। दूसरे दिन प्रात:काल कलशस्थित अगस्त्यकी मूर्तिको किसी जलाशय के समीप ले जाकर निम्नलिखित मन्त्रसे उन्हें अर्ध्य समर्पित करे – ४
काशपुष्पप्रतीकाश अग्निमारुतसम्भव॥
मित्रावरुणयो: पुत्र कुम्भयोने नमोsस्तु ते।
आतापिर्भक्षितो वेन वातापिश्च महासुर: ॥
समुद्रः शोषितो येन सोऽगस्त्यः सम्मुख्रोऽस्तुमे।
अगस्ति प्रार्थयिष्यामि कर्मणा मनसा गिया।
अर्चयिष्याम्यहं मैत्रं परलोकाभिकाङ्क्षया ॥
काशपुष्पके समान उज्वल, अग्नि और वायुसे प्रादुर्भूत, मित्रावरुणके पुत्र, कुम्भसे प्रकट होनेवाले अगस्त्य! आपको नमस्कार हैं। जिन्होंने राक्षसराज आतापी और वातापीका भक्षण कर लिया था तथा समुद्रको सुखा डाला था, वे अगस्त्य मेरे सम्मुख प्रकट हों। मैं मन, कर्म और वचनसे अगस्त्यकी प्रार्थना करता हूँ। मैं उत्तम लोकोंकी आकाङ्क्षासे अगस्त्यका पूजन करता हूँ॥ ५-७ ॥
चन्दन-दान-मन्त्र
द्वीपान्तरसमुत्पन्नं देवानां परमं प्रियम्।
राजानं सर्ववृक्षाणां चन्दनं प्रतिगृह्राताम्।
जम्बूद्वीपके बाहर उत्पन्न, देवताओंके परमप्रिय समस्त वृक्षोंके राजा चन्दनको ग्रहण कीजिये॥८॥
पुष्यमाला–अर्पण
धर्मार्थकाममोक्षाणां भाजनी पापनाशनी॥
सौभाग्यारोग्यलक्ष्मीदा पुष्पमाला प्रगृह्राताम्।
महर्षि अगस्त्य! यह पुष्पमाला धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चारों पुरुषार्थोंको देनेवाली एवं पापोंका नाश करनेवाली हैं। सौभाग्य, आरोग्य और लक्ष्मीकी प्राप्ती करानेवाली इस पुष्पमालाको आप ग्रहण कीजिये ॥ ९॥
धूपदान-मन्त्र
धूपोऽयं गृह्रातां देव! भक्तिं मे ह्राचलां कुरु ।
ईप्सितं मे वरं देहि परमां च शुभां गतिम्।
भगवन्! अब यह धूप ग्रहण कीजिये और आपमें मेरी भक्तिको अविचल कीजिये। मुझे इस लोकमें मनोवाच्छित वस्तुएँ और परलोकमें शुभगति प्रदान कीजिये ॥ १० ॥
वस्व, धान्य, फल, सुवर्णसे युक्त अर्घ्य-दान-मन्त्र
सुरासुरैर्मुनिश्रेष्ठ सर्वकामफलप्रद॥
वस्त्रब्रीहिफलैहेम्ना दत्तस्त्वर्ध्यो ह्रायं मया।
देवताओं तथा असुरोंसे भी समादृत मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य! आप सम्पूर्ण अभीष्ट फल प्रदान करनेवाले हैं। मैं आपको वस्त्र, धान्य, फल और सुवर्णसे युक्त यह अर्ध्य प्रदान करता हूँ॥ ११ ई॥
फलार्ध्यदान-मन्त्र
अगस्त्यं बोधयिष्यामि यन्मया मनसोद्धतम्॥
फलैरर्ध्य प्रदास्यामि गृहाणार्ध्य महामुने।
महामुने! मैंने मनमें जो अभिलाषा कर रखी थी, तदनुसार मैं अगस्त्यजीको जगाऊँगा। आपको फलार्ध्य अर्पित करता हूँ, इसे ग्रहण कीजिये ॥ १२॥
(केवल द्विजोंके लिये उच्चारणीय अध्यदान का वैदिक मन्त्र)
अगस्त्य एवं खनमानो धरित्रीं प्रजामपत्यं बलमीहमानः ।
उभौ कर्णावृषिरुग्रतेजा: पुपोष सत्या देवेव्वाशिषो जगाम।
महर्षि अगस्त्य इस प्रकार प्रजा–संतति तथा बल एवं पुष्टिके लिये सचेष्ट हो कुदाल या खनित्रसे धरतीकों खोदते रहे। उन उग्र तेजस्वी ऋषिने दोनों कणों (सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी शकि)- का पोषण किया। देवताओंके प्रति उनकी सारी आशीःप्रार्थना सत्य हुई॥ १३॥
(तदनन्तर निम्नलिखित मन्त्रसे लोपामुद्राको अर्ध्यदान दें)
राजपुत्रि नमस्तुभ्यं मुनिपत्नि महाव्रते।
अर्ध्य गृह्रीष्य देवेशि लोपामुद्रे यशस्विनि॥
महान् व्रतका पालन करनेवाली राजपुत्री अगस्त्यपत्नी देवेश्वरी लोपामुद्रे! आपको नमस्कार हैं। यशस्विनि! इस अर्ध्यको ग्रहण कीजिये। १४।।
अगस्त्यके लिये पञ्चरत्न, सुवर्ण और रजतसे युक्त एवं सप्तधान्यसे पूर्ण पात्र तथा दधि-चन्दनसे समन्वित अर्ध्य प्रदान करे। स्त्रियों और शूद्रोंको ‘काशपुष्पप्रतीकाश’ आदि पौराणिक मन्त्रसे अर्ध्य देना चाहिये॥१५॥
विसर्जन-मन्त्र
अगस्त्य मुनिशार्दूल तेजोराशे च सर्वदा।
इमां मम कृतां पूजां गृहीत्वा व्रज शान्तये।
मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य! आप तेज:पुञ्जसे प्रकाशित और सब कुछ देनेवाले हैं। मेरे द्वारा की गयी इस पूजाको ग्रहणकर शान्तिपूर्वक पधारिये १६
इस प्रकार अगस्त्यका विसर्जन करके उनके उद्देश्यसे किसी एक धान्य, फल और रसका त्याग करे। तदन्तर ब्राह्राणोंको धृतमिश्रित खीर और लड्डू आदि पदार्थोंका भोजन करावे और उन्हें गौ, वस्त्र, सुवर्ण एवं दक्षिणा दे । इसके बाद उस कुम्भका मुख घृतमिश्रित खीरयुक्त पात्रसे ढककर, उसमें सुवर्ण रखकर वह कलश ब्राह्राणको दान दे। इस प्रकार सात वर्षोंतक अगस्त्यको अर्ध्य देकर सभी लोग सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं। इससे स्त्री सौभाग्य और पुत्रोको, कन्या पतिको और राजा पृथ्वीको प्राप्त करता है॥ १७-२० ॥
अध्याय-२०७ कौमुद-व्रत
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ! अब मैं’कौमुद’- व्रतके विषयमें कहता हूँ।
इसे आश्विनके शुक्लपक्षमें आरम्भ करना चाहिये। ब्रत करनेवाला एकादशीको उपवास करके एकमासपर्यन्त भगवान श्रीहरिका पूजन करे॥ १ ॥
व्रती निम्नलिखित मन्त्र से संकल्प करे
आश्विने शुक्लपक्षेऽहमेकाहारो हरि जपन्।
मासमेकं भुक्तिमुक्त्यै करिष्ये कौमुदं व्रतम्॥
मैं आश्विनके शुक्ल पक्षमें एक समय भोजन करके भगवान् श्रीहरिके मन्त्रका जप करता हुआ भोग और मोक्षकी प्रातिके लिये एक मासपर्यन्त कौमुद-व्रतका अनुष्ठान करूंगा ॥ २॥
तदनन्तर झतके समाप्त होनेपर एकादशीकों उपवास करे और द्वादशीको भगवान श्रीविष्णुका पूजन करे। उनके श्रीविग्रहमें चन्दन, अगर और केसरका अनुलेपन करके कमल, उत्पल, कह्रार एवं मालती पुष्पोंसे विष्णुकी पूजा करे।
व्रत करनेवाला वाणीको संयममें रखकर तैलपूर्ण दीपक प्रज्वलित करे और दोनों समय खीर, मालपूए तथा लड्डुओंका नैवेद्य समर्पित करे। व्रती पुरुष ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’-इस द्वादशाक्षर-मन्त्रका निरन्तर जप करे। अन्तमें ब्राह्मण-भोजन कराके क्षमा-प्रार्थनापूर्वक व्रतका विसर्जन को।
‘देवजागरणी’ या ‘हरिप्रबोधिनी’ एकादशीतक एक मासपर्यन्त उपवास करनेसे ‘कौमुद-व्रत’ पूर्ण होता है। इतने ही दिनोंका पूर्वोक्त मासोपवास भी होता है। किंतु इस कौमुद-व्रतसे उसकी अपेक्षा अधिक फल भी प्राप्त होता है।॥ ३-६ ॥
अध्याय-२०८ व्रतदानसमुच्चय
अग्निदेव कहते हैं– वसिष्ठ! अब मैं सामान्य व्रतों और दानोंके विषयमें संक्षेपपूर्वक कहता हूँ।
प्रतिपदा आदि तिथियों, सूर्य आदि वारों, कृतिका आदि नक्षत्रों, विष्कुम्भ आदि योगों, मेष आदि व्रता, दान एवं तत्सम्बन्धी द्रव्य एवं नियमादि आवश्यक हैं, उनका भी वर्णन करूंगा।
व्रतदानोपयोगी द्रव्य और काल सबके अधिष्ठातृ देवता भगवान् श्रीविष्णु हैं। सूर्य, शिव, ब्रह्मा, लक्ष्मी आदि सभी देव-देवियाँ श्रीहरिकी हीं विभूति हैं। इसलिये उनके उद्देश्यसे किया गया व्रत, दान और पूजन आदि सब कुछ देनेवाला होता है। १-३ ॥
श्रीविष्णु-पूजन-मन्त्र
जगत्पते समागच्छ आसनं पाद्यामर्ध्यकम॥
मधुपर्कं तथाऽऽचामं रुनानं वस्त्रं च गन्धकम्।
पुष्यं धूपं च दीपं च नैवेद्यादि नमोऽस्तु ते॥
जगत्पते! आपको नमस्कार है। आइये और आसन, पाद्य, अर्ध्य, मधुपर्क, आचमन, स्नान, वस्त्र, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य ग्रहण कीजिये ॥ ४-५ ॥
पूजा, व्रत और दानमें उपर्युक्त मन्त्रसे श्रीविष्णुकी अर्चना करनी चाहिये।
अब दानका सामान्य संकल्प भी सुनो-
‘आज मैं अमुक गोत्रवाले अमुक शर्मा आप ब्राहमण देवताको समस्त पापोंकी शान्ति, आयु और आरोग्यकी वृद्धि, सौभाग्यके उदय, गोत्र और संततिके विस्तार, विजय एवं धनकी प्राप्ति, धर्म, अर्थ और कामके सम्पादन तथा पापनाशपूर्वक संसारसे मोक्ष पानेके लिये विष्णुदेवता-सम्बन्धी इस द्रव्यका दान करता हूँ।
मैं इस दानकी प्रतिष्ठा = (स्थिरता)-के लिये आपको यह अतिरिक्त सुवर्णादि द्रव्य समर्पित करता हूँ। मेरे इस दानसे सर्वलोकेश्वर भगवान् श्रीहरि सदा प्रसन्न हों।
यज्ञ, दान और व्रतोंके स्वामी! मुझे विद्या तथा यश आदि प्रदान कीजिये। मुझे धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चारों पुरुषार्थ तथा मनोऽभिलषित वस्तुसे सम्पन्न कीजिये’॥ ६–१०३॥
जो मनुष्य प्रतिदिन इस व्रत-दान-समुच्चयका पठन अथवा श्रवण करता है, वह अभीष्ट वस्तुसे युक्त एवं पापरहित होकर भोग और मोक्ष दोनोंको प्राप्त करता है।
इस प्रकार भगवान् वासुदेव आदिसे सम्बन्धित नियम और पूजनसे अनेक प्रकारके तिथि, वार, नक्षत्र, संक्रांति, योग और मन्वादिसम्बन्धी व्रतोंका अनुष्ठान सिद्ध होता है। ११-१२ ॥
दो सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ। ॥ २०८ ॥
अध्याय-२०९ धनके प्रकार; देश-काल और पात्रका विचार; पात्रभेदसे दानके फल-भेद; द्रव्य-देवताओं तथा दान-विधिका कथन
अग्निदेव कहते हैं–मुनिश्रेष्ठ! अब मैं भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले दानधर्मोंका वर्णन करता हूँ, सुनो।
दानके “इष्ट’ और ‘पूर्त’ दो भेद हैं।
दानधर्मका आचरण करनेवाला सब कुछ प्राप्त कर लेता है।
बावड़ी, कुआँ तालाब, देवमन्दिर, अन्नका सदावर्त तथा बगीचे आदि बनवाना ‘पूर्तधर्म’ कहा गया हैं, जो मुक्ति प्रदान करनेवाला है।
अग्निहोत्र तथा सत्यभाषण, वेदोंका स्वाध्याय, अतिथि-सत्कार और बलिवैश्वदेव— इन्हें ‘इष्ट्रधर्म’ कहा गया है। यह स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला है।
ग्रहणकालमें, सूर्यकी संक्रान्तिमें और द्वादशीं आदि तिथियोंमें जो दान दिया जाता है, वह ‘पूर्त’ है। वह भी स्वर्ग प्रदान करनेवाला हैं।
देश, काल और पात्रमें दिया हुआ दान करोड़गुना फल देता है।
सूर्यके उतरायण और दक्षिणायन प्रवेशके समय, पुण्यमय विषुवकालमें, व्यतीपात, तिथिक्ष्य, युगारंभ, संक्रांति, चतुर्दशी, अष्टमी, पूर्णिमा, द्वादशी, अष्टकाश्राद्ध, यज्ञ, उत्सव, विवाह, मन्वन्तरारम्भ, वैधृतियोग, दु:स्वप्नदर्शन, धन एवं ब्राह्मणकी प्राप्तिमें दान दिया जाता है।
अथवा
जिस दिन श्रद्धा हो उस दिन या सदैव दान दिया जा सकता है।
दोनों अयन और दोनों विषुव -ये चार संक्रान्तियाँ, ‘षडशीतिमुखा’ नामसे प्रसिद्ध चार संक्रान्तियाँ तथा ‘विष्णुपदा’ नामसे विख्यात चार संक्रान्तियाँये बारहों संक्रान्तियाँ ही दानके लिये उत्तम मानों गयी हैं।
कन्या, मिथुन, मीन और धनु राशियोंमें जो सूर्यकी संक्रान्तियाँ होती हैं वे “षडशीतिमुखा’ कही जाती हैं, वे छियासीगुना फल देनेवाली हैं।
उत्तरायण और दक्षिणायन-सम्बन्धिनी (मकर एवं कर्ककी) संक्रान्तियोंके अतीत और अनागत (पूर्व तथा पर) घटिकाएँ पुण्य मानी गयी हैं।
कर्क-संक्रान्तिकी तीस-तीस घड़ी और मकरसंक्रान्तिकी बीस-बीस घड़ी पूर्व और परकी भी पुण्यकार्यके लिये विहित हैं।
तुला और मेषकी संक्रान्ति वर्तमान होनेपर उसके पूर्वापरकी दसदस घड़ीका समय पुण्यकाल है।
‘पडशीतिमुखा संक्रांतियोंके व्यतीत होनेपर साठ घड़ीका समय पुण्यकालमें ग्राह्रा है।
विष्णुपदा नामसे प्रसिद्ध संक्रांतियोंके पूर्वापरकी सोलह-सोलह घड़ियोंको पुण्यकाल माना गया है।
श्रवण, अश्विनी और धनिष्ठाको एवं आश्लेषाके मस्तक भाग अर्थात् प्रथम चरणमें जब रविवारका योग हो, तब यह ‘व्यतीपातयोग’ कहलाता है।॥ १-१३।।
कार्तिकके शुक्लपक्षकी नवमीको कृतयुग और वैशाखके शुक्लपक्षकी तृतीयाको त्रेता प्रारम्भ हुआ।
अब द्वापरके विषयमें सुनी-
माघमासकी पूर्णिमाको द्वापरयुग और भाद्रपदके कृष्णपक्षकी त्रयोदशीको कलियुगकी उत्पत्ति जाननी चाहिये।
मन्वन्तरोंका आरम्भकाल या मन्वादि तिथियाँ इस प्रकार जाननी चाहिये-आश्विनके शुक्लपक्षकी नवमी, कार्तिककी द्वादशी, माघ एवं भाद्रपदकी तृतीया, फाल्गुनकी अमावास्या, पौषकी एकादशी, आषाढ़की दशमी, माघामासकी सप्तमी, श्रावनके कृष्णपक्षकी अष्टमी, आषाढ़की पूर्णिमा, कार्तिक, फाल्गुन एवं ज्येष्ठकी पूर्णिमा॥ १४-१८॥
मार्गशीर्षमासकी पूर्णिमाके बाद जो तीन अष्टमी तिथियाँ आती हैं, उन्हें तीन ‘अष्टका” कहा गया है। अष्टमी का ‘अष्टका’ नाम हैं। इन अष्टकाओंमें दिया हुआ दान अक्षय होता है। गया, गंगा और प्रयाग आदि तिथियोंमें तथा मन्दिरोंमें किसीके बिना माँगे दिया हुआ दान उत्तम जाने। किंतु कन्यादानके लिये यह नियम लागू नहीं है।
दाता पूर्वाभिमुख होकर दान दे और लेनेवाला उत्तराभिमुख होकर उसे ग्रहण करे।
दान देनेवालेकी आयु बढ़ती है, किंतु लेनेवालेकी भी आयु क्षीण नहीं होती।
अपने और प्रतिगृहीताके नाम एवं गोत्रका उच्चारण करके देय वस्तुका दान किया जाता है।
कन्यादानमें इसकी तीन आवृतियाँ की जाती हैं।
स्नान और पूजन करके हाथमें जल लेकर उपर्युक्त संकल्पपूर्वक दान दे।
सुवर्ण, अश्व, तिल, हाथी, दासी, रथ, भूमि, गृह, कन्या और कपिला गौका दान-ये दस ‘महादान’ हैं।
विद्या, पराक्रम, तपस्या, कन्या, यजमान और शिष्यसे मिला हुआ सम्पूर्ण धन दान नहीं, शुल्करूप है। जैसे शिल्पकलासे प्राप्त धन भी शुल्क ही है।
व्याज, खेती, वाणिज्य और दूसरेका उपकार करके प्राप्त किया हुआ धन, पासे, जूए चोरी आदि प्रतिरूपक (स्वाँग बनाने) और साहसपूर्ण कर्मसे उपार्जित किया हुआ धन तथा छल-कपटसे पाया हुआ धन-ये तीन प्रकारके धन क्रमशः सात्विक, राजस एवं तामस-तीन प्रकार के फल देते हैं।
विवाहके समय मिला हुआ, ससुरालको विदा होते समय प्रीतिके निमित्त प्राप्त हुआ, पतिद्वारा दिया गया, भाईसे मिला हुआ, मातासे प्राप्त हुआ तथा पितासे मिला हुआ-ये छ: प्रकारके धन ‘स्त्री-धन’ माने गये हैं।
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंके अनुग्रहसे प्राप्त हुआ धन शूद्रका होता है।
गौ, गृह, शय्या और स्त्रीं-ये अनेक व्यक्तियोंकों नहीं दीं जानी चाहियें। इनकी अनेक व्यक्तियोंके साझेमें देना पाप हैं।
प्रतिज्ञा करके फिर न देनेसे प्रतिज्ञाकर्ताके सौ कुलोंका विनाश हो जाता है।
किसी भी स्थानपर उपार्जित किया हुआ पुण्य देवता, आचार्य एवं माता-पिताको प्रयत्नपूर्वक समर्पित करना चाहिये।
दूसरेसे लाभकी इच्छा रखकर दिया हुआ धन निष्फल होता है।
धर्मकी सिद्धि श्रद्धासे होती है; श्रद्धापूर्वक दिया हुआ जल भी अक्षय होता है।
जो ज्ञान, शील और सद्गुणोंसे सम्पन्न हो एवं दूसरोंको कभी पीड़ा न पहुँचाता हो, वह दानका उत्तम पात्र माना गया है।
अज्ञानी मनुष्योंका पालन एवं त्राण करनेसे वह ‘पात्र’ कहलाता है।
माताको दिया गया दान सौगुना और पिताको दिया हुआ हजार गुना होता है।
पुत्री और सहोदर भाईको दिया हुआ दान अनन्त एवं अक्षय होता है।
मनुष्येतर प्राणियोंकी दिया गया दान सम होता है, न्यून या अधिक नहीं।
पापात्मा मनुष्यको दिया गया दान अत्यन्त निष्फल जानना चाहिये।
वर्णसंकरको दिया हुआ दान दुगुना, शुद्रको दिया हुआ दान चौगुना, वैश्य अथवा क्षत्रियको दिया हुआ आठगुना, ब्राह्मणत्रुव’ (नाममात्रके ब्राह्मण)-को दिया हुआ दान सोलहगुना और वेदपाठी ब्राह्मणको दिया हुआ दान सौगुना फल देता हैं।
वेदोंके अभिप्रायका बोध करानेवाले आचार्यको दिया हुआ दान अनन्त होता है।
पुरोहित एवं याजक आदिको दिया हुआ दान अक्षय कहा गया है।
धनहीन ब्राह्मणोंको और यज्ञकर्ता ब्राह्मणको दिया हुआ दान अनन्त फलदायक होता है।
तपोहीन, स्वाध्यायरहित और प्रतिग्रह में रुचि रखनेवाला ब्राह्मण जलमें पत्थरकी नौकापर बैठे हुएके समान है, वह उस प्रस्तरमयी नौकाके साथ ही डूब जाता है।
ब्राह्राणको स्नान एवं जलका उपस्पर्शन करके प्रयत्नपूर्वक पवित्र हो दान ग्रहण करना चाहिये।
प्रतिग्रह लेनेवालेको सदैव गायत्रीका जप करना चाहिये एवं उसके साथ-ही-साथ प्रतिगृहीत द्रव्य और देवताका उच्चारण करना चाहिये।
प्रतिग्रह लेनेवाले श्रेष्ठ ब्राह्मणसे दान ग्रहण करके उच्चस्वरमें क्षत्रियसे दान लेकर मन्दस्वरमें तथा वैश्य का प्रतिग्रह स्वीकार करके उपांशु (ओठोंको बिना हिलाये) जप करे। शूद्रसे प्रतिग्रह लेकर मानसिक जप और स्वस्तिवाचन करे॥१९-३९ई॥
मुनिश्रेष्ठ! अभयके सर्वदेवगण देवता हैं, भूमिके विष्णु देवता हैं, कन्या और दास-दासीके देवता प्रजापति कहे गये हैं,
गजके देवता भी प्रजापति ही हैं।
अश्वके यम, एक खुरवाले पशुओंके सर्वदेवगण, महिषके यम, उष्टके निऋति, धेनुके रूद्र, बकरेके अग्नि, भेड़, सिंह एवं वराहके जलदेवता, वन्य-पशुओंके वायु, जलपात्र और कलश आदि जलाशयोंके वरुण, समुद्रसे उत्पन्न होनेवाले रत्नों तथा स्वर्ण-लौहादि धातुओंके अग्नि, पक्कान्न और धान्योंके प्रजापति, सुगन्धके गन्धर्व, वस्त्रके वृहस्पति, सभी पक्षियोंके वायु, विद्या एवं विद्याङ्गोंके ब्रह्मा, पुस्तक आदिकी सरस्वती देवी, शिल्पके विश्वकर्मा एवं वृक्षोंके वनस्पति देवता हैं।
ये समस्त द्रव्य-देवता भगवान् श्रीहरिके अङ्गभूत हैं ॥ ४०-४६ ॥
छत्र, कृष्णमृगचर्म, शय्या, रथ, आसन, पादुका तथा वाहन—इनके देवता ‘ऊर्ध्वङ्गिरा’ (उतानाङ्गिरा) कहे गये हैं।
युद्धोपयोगी सामग्री, शस्त्र और ध्वज आदिके सर्वदेवगण देवता हैं। गृहके भी देवता सर्वदेवगण ही हैं।
सम्पूर्ण पदार्थोंके देवता विष्णु अथवा शिव हैं, क्योंकि कोई भी वस्तु उनसे भिन्न नहीं है।
दान देते समय पहले द्रव्यका नाम ले। फिर ‘ददामि’ (देता हूँ) ऐसा कहें। फिर संकल्पका जल दान लेनेवालेके हाथमें दे। दानमें यही विधि बतलायी गयी है।
प्रतिग्रह लेनेवाला यह कहे-‘विष्णु दाता हैं, विष्णु ही द्रव्य हैं और मैं इस दानको ग्रहण करता हूँ; यह धर्मानुकूल प्रतिग्रह कल्याणकारी हों। दाताको इससे भोग और मोक्षरूप फलोंकीं प्राप्ति हो।’
गुरुजनों (माता-पिता) और सेवकोंके उद्धारके लिये देवताओं और पितरोंका पूजन करना हो तो उसके लिये सबसे प्रतिग्रह ले; परंतु उसे अपने उपयोग में न लावे। शूद्रका धन यज्ञकार्यमें ग्रहण न करे; क्योंकि उसका फल शूद्रको ही प्रास होता है ॥ ४७-५२ ॥
वृतिरहित ब्राह्मण शूद्रसे गुड़, तक्र, रस आदि पदार्थ ग्रहण कर सकता है।
जीविकाविहीन द्विज सबका दान ले सकता हैं, क्योंकि ब्राह्मण स्वभावसे ही अग्नि और सूर्यके समान पवित्र है। इसलिये आपत्तिकालमें निन्दित पुरुषोंको पढ़ाने, यज्ञ कराने और उनसे दान लेनेसे उसको पाप नहीं लगता।
कृतयुगमें ब्राह्मणके घर जाकर दान दिया जाता है, त्रेतामें अपने घर बुलाकर, द्वापरमें माँगनेपर और कलियुगमें अनुगमन करनेपर दिया जाता है।
समुद्रका पार मिल सकता है, किंतु दानका अन्त नहीं मिल सकता।
दाता मन-ही- मन सत्पात्रके उद्देश्यसे निम्नलिखित संकल्प करके भूमिपर जल छोड़े-‘आज मैं चन्द्रमा अथवा सूर्यके ग्रहण या संक्रान्तिके समय गंगा, गया अथवा प्रयाग आदि अनन्तगुणसम्पन्न तीर्थदेशमें अमुक गोत्रवाले वेद-वेदाङ्गवेत्ता महात्मा एवं सत्पात्र अमुक शर्माको विष्णु, रुद्र अथवा जो देवता हों, उन देवता-सम्बन्धी अमुक महाद्रव्य कीर्ति, विद्या, महती कामना, सौभाग्य और आरोग्यके उदयके लिये, समस्त पापोंकी शान्ति एवं स्वर्गके लिये, भोग और मोक्षके प्राप्त्यर्थ आपको दान करता हूँ। इससे देवलोक, अन्तरिक्ष और भूमि-सम्बन्धी समस्त उत्पातोंका विनाश करनेवाले मङ्गलमय श्रीहरि मुझपर प्रसन्न हों और मुझे धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्षकी प्राप्ति कराकर ब्रह्मलोक प्रदान करें।’
(तदनन्तर यह संकल्प पढ़े) ‘अमुक नाम और गोत्रवाले ब्राह्मण अमुक शर्माको मैं इस दानकी प्रतिष्ठाके निमित सुवर्णकी दक्षिणा देता हूँ।’ इस दान-वाक्यसे समस्त दान दे II ५३-६३ Il
अध्याय-२१० सोलह महादानोंके नाम; दस मेरुदान, दस धेनुदान और विविध गोदानींका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ! अब मैं सभी प्रकारके दानोंका वर्णन करता हूँ।
सोलह महादान होते हैं।
सर्वप्रथम तुलापुरुषदान, फिर हिरण्यगर्भदान, ब्रह्माण्डदान, कल्पवृक्षदान, पाँचवाँ सहस्त्र गोदान, स्वर्णमयी कामधेनुका दान, सातवाँ स्वर्णनिर्मित अश्वका दान, स्वर्णमय अश्वयुक्त रथका दान, स्वर्णरचित हस्तिरथका दान, पाँच हलोंका दान, भूमिदान, विश्वचक्रदान, कल्पलतादान, उत्तम सप्तसमुद्रदान, रत्नधेनुदान और जलपूर्ण कुम्भदान।
ये दान शुभ दिनमें मण्डलाकार मण्डपमें देवताओंका पूजन करके ब्राह्मणको देने चाहिये।
मेरुदान भी पुण्यप्रद है। ‘मेरु” दस माने गये हैं, उन्हें सुनो-
धान्यमेरु एक हजार द्रोण धान्यका उत्तम माना गया है, पाँच सौ द्रोणका मध्यम और ढाई सौ द्रोणका अधम माना गया है।
लवणाचल सोलह द्रोणका बनाना चाहिये, वही उत्तम माना गया है।
गुड़-पर्वत दस भारका उत्तम माना गया है, पाँच भारका मध्यम और ढाई भारका निकृष्ट कहा जाता है।
स्वर्णमेरु सहस्त्र पलका उत्तम, पाँच सौं पलका मध्यम और ढाई सौ पलका निकृष्ट माना गया है।
तिलपर्वत क्रमश: दस द्रोण का उत्तम, पाँच द्रोणका मध्यम और तीन द्रोणका निकृष्ट कहा गया है।
कापास (रूई) पर्वत बीस भारका उत्तम, दस भारका मध्यम तथा पाँच भारका निकृष्ट है।
बीस घृतपूर्ण कुम्भोंका उत्तम घृताचल होता है।
रजत-पर्वत दस हजार पलका उत्तम माना गया है।
शर्कराचल आठ भारका उत्तम, चार भारका मध्यम और दों भारका मन्द माना गया है॥ १-९ ॥
अब मैं दस धेनुओंका वर्णन करता हूँ
जिनका दान करके मनुष्य भोग और मोक्षको प्रास कर लेता है।
पहली गुड़धेनु होती हैं, दूसरी घृतधेनु, तीसरी तिलधेनु, चौथी जलधेनु, पाँचवीं क्षीरधेनु, छठी मधुधेनु, सातर्वी शर्कराधेनु, आठर्वी दधिधेनु, नवीं रसधेनु और दसवीं गोरूपेण कल्पित कृष्णाजिनधनु।
इनके दानकी विधि यह बतलायी जाती है कि तरल पदार्थ-सम्बन्धी धेनुओंके प्रतिनिधिरूपसे घड़ोंमें उन पदार्थोंको भरकर कुम्भदान करने चाहिये और अन्य धातुओंके रूपमें उन-उन द्रव्योंकी राशिका दान करना चाहिये ॥ १०-१२ ॥
(कृष्णाजिनघेनुके दानकी विधि यह है-)
गोबरसे लिपी-पुर्ती भूमिपर सब ओर दर्भ बिछाकर उसके ऊपर चार हाथका कृष्णमृगचर्म रखे। उसकी ग्रीवा पूर्व दिशाकी ओर होनी चाहिये। इसी प्रकार गोवत्सके स्थानपर छोटे आकारका कृष्णमृगचर्म स्थापित करे। वत्ससहित धेनुका मुख पूर्वकी ओर और पैर उत्तर दिशाकी ओर समझे।
चार भार गुड़की गुड़धेनु सदा ही उत्तम मानी गयी है। एक भार गुड़का गोवत्स बनावें ।
दो भार की गों मध्यम होती है। उसके साथ आधे भारका बछड़ा होना चाहिये। एक भारकी गौ कनिष्ठ कहीं जाती है। इसके चतुर्थाशका वत्स इसके साथ देना चाहिये।
गुड़धेनु अपने गुड़संग्रहके अनुसार बना लेनी चाहिये ॥१३-१६ ॥
पाँच गुञ्जाका एक ‘माशा’ होता है, सोलह माशेका एक ‘सुवर्ण’ होता है, चार सुवर्णका ‘पल’ और सौ पलकी ‘तुला’ मानी गयी है। बीस तुलाका एक ‘भार’ होता है एवं चार आढक (चौसष्ठ पल)-का एक ‘द्रोण’ होता है॥ १७-१८ ॥
गुड़निर्मित धेनु और वत्सको श्वेत एवं सूक्ष्म वस्त्र से ढकना चाहियें। उनके कानोंके स्थान में सीप, चरणस्थानमें ईख, नेत्रस्थान में पवित्र मौत्किक, अलकोंके स्थानपर श्वेतसूत्र, गलकम्बलके स्थानपर सफेद कम्बल, पृष्ठभागके स्थानपर ताम्र, रोमस्थानपर श्वेत चंबर, भौहोके स्थानपर विद्रुममणि, स्तनोंके स्थानपर नवनीत, पुच्छस्थानपर रेशमीवस्त्र, अक्षि-गोलकोंके स्थानपर नीलमणि, श्रीङ्ग और श्रीङ्गाभरणोंके स्थानपर सुवर्ण एवं खुरोंकी जगह चाँदी रखें। दन्तस्थानपर विविध फल और नासिका-स्थानपर सुगन्धित द्रव्य स्थापित करे- साथमें काँसेकी दोहनी भी रखें।
द्विजश्रेष्ठ! इस प्रकार धेनुकी रचना करके निम्नलिखित मन्त्रोंसे उसकी पूजा करे-‘जो समस्त भूतप्राणियोंकी लक्ष्मीं हैं, जो देवताओंमें भी स्थित हैं, वे धेनुरूपिणी देवी मुझे शान्ति प्रदान करें। जो अपने शरीर में स्थित होकर “रूद्राणी” के नामसे प्रसिद्ध हैं और शंकरकी सदा प्रियतमा पत्नी हैं, वे धेनुरूपधारिणी देवी मेरे पापोंका विनाश करें। जो विष्णुके वक्ष:स्थलपर लक्ष्मीके रूपसे सुशोभित होती हैं, जो अग्निकी स्वाहा और चन्द्रमा, सूर्य एवं नक्षत्र-देवताओंकी शक्ति के रूप में स्थित हैं, वे धेनुरूपिणी देवी मुझे लक्ष्मी प्रदान करें। जो चतुर्मुख ब्रह्माकी साबित्री, धनाध्यक्ष कुबेरकी निधि और लोकपालोंकी लक्ष्मी हैं, वे धेनुदेवी मुझे अभीष्ट वस्तु प्रदान करें।
देवि! आप पितरोंकी स्वधा एवं यज्ञभोक्ता अग्निकी स्वाहा हैं। आप समस्त पापोंका हरण करनेवाली एवं धेनुरूपसे स्थित हैं, इसलिये मुझे शान्ति प्रदान करें।’
इस प्रकार अभिमन्त्रित की हुई धेनु ब्राह्मणको दान दे। अन्य सब धेनुदानोंकी भी साधारणतया यही विधि है। इससे मनुष्य सम्पूर्ण यज्ञोंका फल प्राप्त कर पापरहित हुआ भोग और मोक्ष-दोनोंकी सिद्ध कर लेता हैं ॥ १९-२९ ॥
सोनेके सींगोंसे युक्त चाँदीके खुरोंवाली सीधीसादी दुधारू गों, काँसेकी दोहनी, वस्त्र एवं दक्षिणाके साथ देनी चाहिये। ऐसी गौका दान करनेवाला उस गौके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षोंतक स्वर्गमें निवास करता है। यदि कपिलाका दान किया जाय तो वह सात पीढ़ियोंका उद्धार कर देंती हैं ॥ ३०-३१ ॥
स्वर्णमय श्रृंगोंसे युक्त, रजतमण्डित खुरोंवाली कपिला गौका काँसेंके दोहनपात्र और यथाशक्ति दक्षिणाके साथ दान करके मनुष्य भोग और मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
‘उभयतोमुखी’* गौका दान करके दाता बछड़ेसहित गौके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने युगोंतक स्वर्गमें जाकर सुख भोगता है। उभयतोमुखी गौका भी दान पूर्वोत विधिसे ही करना चाहिये ॥ ३२-३३ ॥
मरणासन्न मनुष्यको भी पूर्वोक्त विधिसे ही बछड़ेसहित गौका दान करना चाहिये। (और यह संकल्प करना चाहिये-) ‘अत्यन्त भयंकर यमलोकके प्रवेशद्वारपर तप्तजलसे युक्त वैतरणी नदी प्रवाहित होती है। उसको पार करनेके लिये मैं इस कृष्णवर्णा वैतरणी गौका दान करता हूँ
दो सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २१० ॥
अध्याय-२११ नाना प्रकारके दानोंका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं– वसिष्ठ ! जिसके पास दस गौएँ हों, वह एक गौ, जिसके पास सौ गौएँ हों, वह दस गौएँ, जिसके पास एक हजार गौएँ हों, वह सौं गौओंका दान करे तो उन सबकों समान फल प्राप्त होता है।
कुबेरकी राजधानी अलकापुरी, जहाँ स्वर्णनिर्मित भवन हैं एवं जहाँ गन्धर्व और अप्सराएँ विहार करती हैं, सहस्त्र गौओंका दान करनेवाले वहीं जाते हैं।
मनुष्य सौं गौओंका दान करके नरक-समुद्रसे मुक्त हो जाता है और बछियाका दान करके स्वर्गलोकमें पूजित होता है।
गोदानसे दीर्घायु, आरोग्य, सौभाग्य और स्वर्गकी प्राप्ति होती है।
‘जो इन्द्र आदि लोकपालोंकी मङ्गलमयी राजमहिषी हैं, वे देवी इस महिषीदानके माहात्म्यसे मुझे सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुएँ प्रदान करें।
जिनका पुन धर्मराजकी सहायतामें नियुक्त हैं एवं जो महिषासुरकी जननी हैं, वे देवी मुझे वर प्रदान करें।’
उपर्युक्त मन्त्र पढ़कर महिषीदान करनेसे सौभाग्यकी प्राप्ति होती है।
वृषदानसे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाता है॥ १-६ ॥
‘संयुक्त हलपंक्ति’ नामक दान समस्त फलोको प्रदान करता है। काठके बने हुए दस हलोंकी पङ्कि, जो सुवर्णमय पट्टसे परस्पर जुड़ी हो और प्रत्येक हलके साथ आवश्यक संख्या में बैल भी हों तो उसका दान ‘संयुक्त हलपंक्ति’ नामक दान कहा गया है। वह दान करके मनुष्य स्वर्गलोकमें पूजित होता है।
ज्येष्ठपुष्कर-तीर्थमें दस कपिला गाँठोंका दान किया जाय तो उसका फल अक्षय बतलाया गया है।
वृषोत्सर्ग करनेसे भी अक्षय फलकी प्राप्ति होती है।
साँड़को चक्र और त्रिशूलसे अङ्कित करके यह मन्त्र पढ़कर छोड़े-देवेश्वर! तुम चार चरणोंसे युक्त साक्षात धर्म हो ये तुम्हारी चार प्रियतमाएँ हैं। पितरों, मनुष्यों और ऋषियोंका पोषण करनेवाले वेदमूर्ति वृष! तुम्हारे मोचनसे मुझे अमृतमय शाश्वत लोकोंकी प्राप्ति हो। मैं देवऋण, भूतऋण, पितृऋण एवं मनुष्यऋणसे मुक्त हो जाऊँ। तुम साक्षात् धर्म हो; तुम्हारा आश्रय ग्रहण करनेवालोंको जो गति प्राप्त होती हो, वह नित्य गति मुझे भी प्राप्त हो।
जिस मृत व्यक्रिके एकादशाह, षाण्मासिक अथवा वार्षिक श्राद्धमें वृषोत्सर्ग किया जाता है, वह प्रेतलोकसे मुक्त हो जाता है।
दस हाथके डंडेसे तीस डंडेके बराबरकी भूमिको ‘निवर्तन’ कहते हैं। दस निवर्तन भूमिकी ‘गोचर्म’ संज्ञा है। इतनी भूमिका दान करनेवाला मनुष्य अपने समस्त पापोंका नाश कर देता है।
जो गौं, भूमि और सुवर्णयुक्त कृष्णमृगचर्मका दान करता है, वह सम्पूर्ण पापोके करनेपर भी ब्रह्माका सायुज्य प्राप्त कर लेता है।
तिल एवं मधुसे भरा पात्र मगधदेशीय मानके अनुसार एक प्रस्थ (चौसठ पल) कृष्णतिलका दान करे। इसके साथ उत्तम गुणोंसे युक्त शय्या देनेसे दाताको भोग और मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥ १२-१६ ॥
अपनी स्वर्णमयी प्रतिमा बनवाकर दान करनेवाला स्वर्गमें जाता है।
विशाल गृहका निर्माण कराके उसका दान देनेवाला भोग एवं मोक्ष-दोनोंकी प्राप्त करता है।
गृह, मठ, सभाभवन (धर्मशाला) एवं आवासस्थानका दान करके मनुष्य स्वर्गलोक में जाकर सुख भोगता है।
गोशाला मनवाकर दान करनेवाला पापरहित होकर स्वर्गकी प्राप्त होता है।
यम-देवता-सम्बन्धी महिषदान करनेसे मनुष्य निष्पाप होकर स्वर्गलोककों जाता हैं।
देवताओं सहिंत ब्रह्मा, शिव और विष्णुके बीच में पाशधारी यमदूतकी (स्वर्णादिमयी) मूर्तियाँ स्थापित करके यमदूतके सिरका छेदन करे; फिर उस मूर्तिमण्डलका ब्राह्मणको दान कर दे। ऐसा करने से दाता तों स्वर्गलोकका भागी होता है, किंतु इस ‘त्रिमुख’ नामक दानको ग्रहण करके द्विज पापका भागी होता हैं।
चाँदीका चक्र बनवाकर, उसे जलमें रखकर उसके निमितसे होम करे। पश्चात् वह चक्र ब्राह्मणको दान कर दे। यह महान् ‘कालचक्रदान’ माना गया है।॥ १७-२१ ॥
जो अपने वजनके बराबर लोहे का दान करता है, वह नरक में नहीं गिरता।
जो पचास पलका लौहदण्ड़ वस्त्रसे ढककर ब्राह्मणको दान करता है, उसे यमदण्डसे भय नहीं होता।
दीर्घायुकी इच्छा रखनेवाला मृत्युज्जयके उद्देश्यसे फल, मूल एवं द्रव्यको एक साथ अथवा पृथकृ-पृथकू दान करे।
कृष्णतिलका पुरुष निर्मित करे। उसके चाँदीके दाँत और सोने की आँखें हों। वह मालाधारी दीर्घाकार पुरुष दाहिने हाथमें खङ्ग उठाये हुए हो। लाल रंगके वस्त्र धारण किये जपापुष्पोंसे अलंकृत एवं शड़की मालासे विभूषित हो। उसके दोनों चरणोंमें पादुकाएँ हों और पार्श्वभागमें काला कम्बल हो। वह कालपुरुष बायें हाथमें मांस-पिण्ड लिये हो। इस प्रकार कालपुरुषका निर्माणकर गन्धादी द्रव्योंसे उसकी पूजा करके ब्राह्मणकों दान करे। इससे दाता मानव मृत्यु और क्याधिसे रहित होकर राजराजेश्वर होता हैं।
ब्राह्मणको दो बैलोका दान देकर मनुष्य भोग और मोक्षको प्राप्त कर लेता है।॥ २२-२८३ ॥
जो मनुष्य सुवर्णदान करता है, वह सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको प्राप्त कर लेता हैं। सुवर्णके दानमें उसकी प्रतिष्ठाके लिये चाँदीकी दक्षिणा विहित है।
अन्य दानोंकी प्रतिष्ठाके लिये सुवर्णकी दक्षिणा प्रशस्त मानी गयी है। सुवर्णके सिवा, रजत, ताम्र, तण्डुल और धान्य भी दक्षिणाके लिये विहित हैं।
नित्य श्राद्ध और नित्य देवपूजन-इन सबमें दक्षिणा की आवश्यकता नहीं हैं।
पितृकार्यमें रजतकी दक्षिणा धर्मं, काम और अर्थको सिद्ध करनेवाली है।
भूमिका दान देनेवाला महाबुद्धिमान मनुष्य सुवर्ण, रजत, ताम्र, मणि और मुक्ता-इन सबका दान कर लेता है, अर्थात् इन सभी दानोंका पुण्यफल पा लेता है। जो पृथ्वीदान करता है, वह शान्त अन्त:करणवाला पुरुष पितृलोकमें स्थित पितरोंको और देवलोकमें निवास करनेवाले देवताओंको पूर्णरूपसे तृप्त कर देता है।
शस्यशाली खर्वट, ग्राम और खेटक (छोटा गाँव), सौ निवर्तनसे अधिक या उसके आधे विस्तारमें बने हुए गृह आदि अथवा गोचर्म (दस निवर्तन)-के मापकी भूमिका दान करके मनुष्य सब कुछ पा लेता है।
जिस प्रकार तैलबिन्दु जल या भूमिपर गिरकर फैल जाता है, उसी प्रकार सभी दानोंका फल एक जन्मतक रहता है।
स्वर्ण, भूमि और गौरी कन्याके दानका फल सात जन्मोंतक स्थिर रहता है।
कन्यादान करनेवाला अपनी इक्कीस पीढीयोंका नरकसे उद्धार करके ब्रह्मलोककों प्राप्त होता हैं।*
दक्षिणासहित हाथीका दान करनेवास्ना निष्पाप होकर स्वर्गलोक में जाता है।
अश्वका दान देकर मनुष्य दीर्ध आयु, आरोग्य, सौभाग्य और स्वर्गको प्राप्त कर लेता है।
श्रेष्ठ ब्राह्मणकों दासीदान करनेवाला अप्साराओंके लोकमें जाकर सुखोपभोग करता है।
जो पाँच सौ पल ताँबेकीं थाली या ढ़ाई सौ पल, सवा सौं पल अथवा उसके भी आधे (६२ ई.) पलोंकी बनी थाली देता है, वह भोग तथा मोक्षका भागी होता है॥ २९-३९३ ॥
बैलोंसे युक्त शकटदान करनेसे मनुष्य विमानद्वारा स्वर्गलोकको जाता है।
वस्त्रदानसे आयु, आरोग्य और अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति होती है।
धान, गेहूँ, अगहनीका चावल और जी आदिका दान करनेवाला स्वर्गलोकको प्राप्त होता है।
आसन, धातुनिर्मित पात्र, लवण, सुगन्धियुक्त चन्दन, धूप-दीप, ताम्बूल, लोहा, चाँदी, रत्न और विविध दिव्य पदार्थोंका दान देकर मनुष्य भोग और मोक्ष भी प्राप्त करता है।
तिल और तिलपात्रका दान देकर मनुष्य स्वर्ग-सुखका भागी होता है।
अन्नदानसे बढ़कर कोई दान न तो है, न था और न होगा ही।
हाथी, अश्व, रथ, दास-दासी और गृहादिके दान-ये सब अन्नदानकी सोलहवीं कलाके समान भी नहीं हैं।
जो पहले बड़ा-से-बड़ा पाप करके फिर अन्नदान कर देता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे छूटकर अक्षय लोकोंको पा लेता है।
जल और प्याऊ का दान देकर मनुष्य भोग और मोक्ष-दोनोंको सिद्ध कर लेता है।
(शीतकालमें) मार्ग आदि में अग्नि और काष्ठका दान करनेसे मनुष्य तेजोयुक्त होता है और स्वर्गलोकमें देवताओं, गन्धर्वों तथा अप्साराओंद्वारा विमानमें सेवित होता है। ४०-४७ ॥
घृत, तैल और लवणका दान देनेसे सब कुछ मिल जाता है।
छत्र, पादुका और काष्ठ आदिका दान करके स्वर्गमें सुखपूर्वक निवास करता है।
प्रतिपदा आदि पुण्यमयी तिथियोंमें, विष्कुम्भ आदि योगोंमें, चैत्र आदि मासोंमें, संवत्सरारम्भमें और अश्विनी आदि नक्षत्रोंमें विष्णु, शिव, ब्रह्मा तथा लोकपाल आदिकी अर्चना करके दिया गया दान महान् फलप्रद है।
वृक्ष, उद्यान, भोजन, वाहन आदि तथा पैरोंमें मालिश के लियें तेल आदि देकर मनुष्य भोग और मोक्षको प्राप्त कर लेता है। ४८-५० ।
इस लोकमें गौ, पृथ्वी और विद्याका दान-ये तीनों समान फल देनेवाले हैं।
वेद-विद्याका दान देकर मनुष्य पापरहित हो ब्रह्मलोकमें प्रवेश करता है।
जों (योग्य शिष्यकी) ब्रह्मज्ञान प्रदान करता है, उसने तो मानो सप्तद्वीपवती पृथ्वीका दान कर दिया।
जों समस्त प्राणियोंकी अभयदान देता है, वह मनुष्य सब कुछ प्राप्त कर लेता है।
पुराण, महाभारत अथवा रामायणका लेखन करके उस पुस्तकका दान करनेसे मनुष्य भोग और मोंक्षकी प्राप्ति कर लेता है।
जो वेद आदि शास्ना और नृत्य-गीतका अध्यापन करता है, वह स्वर्गगामी होता है।
जो उपाध्यायकी वृत्ति और छात्रोंको भोजन आदि देता है, उस धर्म एवं कामादि पुरुषार्थोंके रहस्यदर्शी मनुष्यने क्या नहीं दे दिया: ॥५१-५५ ॥
सहस्र वाजपेय यज्ञोंमें विधिपूर्वक दान देनेसे जो फल होता है, विद्यादानसे मनुष्य वह सम्पूर्ण फल प्राप्त कर लेता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।
जो शिवालय, विष्णुमन्दिर तथा सूर्यमन्दिरमें ग्रन्थवाचन करता है, वह सभी दानोंका फल प्राम करता है।
त्रैलोक्यमें जो ब्राह्मणादि चार वर्ण और ब्रह्मचर्यादि चार आश्रम हैं, वे तथा ब्रह्मा आदि समस्त देवगण विद्यादान में प्रतिष्ठित हैं। विद्या कामधेनु है और विद्या उत्तम नेत्र है।
गान्धर्व आदि उपवेदोंका दान करनेसे मनुष्य गन्धर्वोके साथ प्रमुदित होता है, वेदाङ्गोंके दानसे स्वर्गल्नोकको प्राप्त करता है और धर्मशास्त्रके दानसे धर्मके सांनिध्यकी प्राप्त होकर दाता प्रमुदित होता है।
सिद्धान्तोंके दानसे मनुष्य निस्संदेह मोक्ष प्राप्त करता है।
पुस्तक-प्रदानसे विद्यादान के फलकी प्राप्ति होती है। इसलिये शास्त्रों और पुराणोंका दान करनेवाला सब कुछ प्राप्त कर लेता है।
जो शिष्योंकी शिक्षादान करता है, वह पुण्डरीकयागका फल प्राप्त करता है ॥ ५६-६२ ॥
जीविका-दान के तो फलका अन्त ही नहीं है।
जो अपने पितरोंको अक्षय लोकोंकी प्राप्ति कराना चाहें, उन्हें इस लोकके सर्वश्रेष्ठ एवं अपनेको प्रिये लगनेवाले समस्त पदार्थोंका पितरोंके उद्देश्यसे दान करना चाहिये।
जो विष्णु, शिव, ब्रह्मा, देवी और गणेश आदि देवताओंकी पूजा करके पूजाद्रव्यका ब्राह्मणको दान करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है।
देवमन्दिर एवं देवप्रतिमाका निर्माण करानेवाला समस्त अभिलषित वस्तुओंको प्राप्त करता है।
मन्दिरमें झाडू-बुहारी और प्रक्षालन करनेवाला पुरुष पापरहित हो जाता है।
देवप्रतिमाके सम्मुख विविध मंडलोंका निर्माण करनेवाला मण्डलाधिपति होता है।
देवताको गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, प्रदक्षिणा, घण्टा, ध्वजा, चंदोवा और वस्त्र आदि समर्पित करनेसे एवं उनके दर्शन और उनके सम्मुख गाने-बजानेसे मनुष्य भोग और मोक्ष-दोनोंको प्राप्त करता है।
भगवानको कस्तुरी, सिंहलदेशीय चन्दन, अगुरु, कपूर तथा मुस्त आदि सुगन्धि-द्रव्य और विजयगुग्गुल समर्पित करे और संक्रान्ति आदिके दिन एक प्रस्थ धृतसे स्नान कराके मनुष्य कुछ प्राप्त कर लेता है।
‘स्नान” सौ पलका और पच्चीस पलका’अभ्यङ्ग’ मानना चाहिये।’महास्नान’ हजार पलका कहा गया है।
भगवानको जलस्नान करानेसे दस अपराध, दुग्धस्नान करानेसे सौ अपराध, दुग्ध एवं दधि दोनोंसे स्नान करानेसे सहस्र अपराध और घृतस्नान करानेसे दस हजार अपराध विनष्ट हो जाते हैं।
देवताके उद्देश्यसे दास-दासी, अलंकार, गौ, भूमि, हाथी-घोड़े और सौभाग्य-द्रव्य देकर मनुष्य धन और दीर्घायुसे युक्त होकर स्वर्गलोकको प्राप्त होता हैं।॥ ६३-७२ ॥
दो सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २११ ॥
अध्याय-२१२ विविध काम्य-दान एवं मेरुदानोका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं– वसिष्ठ! अब में आपके सम्मुख काम्य-दानोंका वर्णन करता हूँ जो समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं।
प्रत्येक मासमें प्रतिदिन पूजन करते हुए एक दिन विशेषरूपसे पूजन किया जाता है। इसे ‘काम्यपूजन’ कहते हैं।
वर्षके समाप्त होनेपर गुरूपूजन एवं महापूजनके साथ व्रतका विसर्जन किया जाता है ॥ १ ॥
जो मार्गशीर्षमासमें शिवका पूजन करके पिष्ट (आटा) निर्मित अश्व एवं कमलका दान करता है, वह चिरकालतक सूर्यलोकमें निवास करता हैं।
पौषमास में पिष्टमय हाथी का दान देकर मनुष्य अपनी इक्कीस पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है।
माघमें पिष्टमय अश्वयुक्त रथका दान देनेवाला नरकमें नहीं जाता।
फाल्गुनमें पिष्टनिर्मित बैलका दान देकर मनुष्य स्वर्गको प्राप्त होता है तथा दूसरे जन्ममें राज्य प्राप्त करता है।
चैत्रमासमें दास-दासियोंसे युक्त एवं ईख (गुड़)-से भरा हुआ घर देकर मनुष्य चिरकालतक स्वर्गलोकमें निवास करता है और उसके बाद राजा होता है।
वैशाखमें सप्तधान्यका दान देकर मनुष्य शिवके सामुज्यको प्राप्त कर लेता है।
ज्येष्ठ तथा आषाढ़में अन्नकी बलि देनेवाला शिवस्वरुप हो जाता हैं।
श्रावणमें पुष्परथका दान देकर मनुष्य स्वर्गीके सुखोंका उपभोग करनेके पश्चात दुसरे जन्ममें राज्यलाभ करता है और दो सौ फलोंका दान देनेवाला अपने सम्पूर्ण कुलका उद्धार करके राजपदको प्राप्त होता है।
भ्रादपदमें धुपदान करनेवाला स्वर्गको प्राप्त होकर दुसरे जन्ममें राज्यका उपभोग करता है।
आश्विनमें दुग्ध और धृतसे परिपूर्ण पात्रका दान स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला है।
कार्तिकमें गुड़, शक्कर और धृतका दान देकर मनुष्य स्वर्गलोकमें निवास करता है और दुसरे जन्ममें राजा होता है २-८
अब मैं बारह प्रकारके मेरुदानोंके विषयमें कहूंगा, जो भोग और मोक्षकी प्राप्ति करानेवाले है।
कार्तिककी पूर्णिमाको मेरुव्रत करके ब्राह्राणको रत्नमेरु का दान करना चाहिये।
अब क्रमशः सब मेरुओंका प्रमाण सुनिये।
हीरे, माणिक्य, नीलमणि, वैदूर्यमणि, स्फटिकमणि, पुखराज, मरकतमणि और मोती-इनका एक प्रस्थका मेरु उत्तम माना गया है । इससे आधे परिमाणका मेरु मध्यम और मध्यमसे आधा निकृष्ट होता है।
रत्नमेरुका दान करनेवाला धनकी कंजूसीका परित्याग कर दे।
द्वादशदल कमलका निर्माण करके उसकी कर्णिकापर मेरुकी स्थापना करे। इसके ब्रह्रा, विष्णु और शिव देवता है। मेरुसे पूर्वदिशामें तीन दल है, उनमे क्रमशः माल्यवान, भद्राश्व तथा ऋक्ष पर्वतोंका पूजन करे। मेरुसे दक्षिणवाले दलोंमें निषध, हेमकूट और हिमवानकी पूजा करे। मेरुके उत्तरवाले तीन दलोंमें क्रमशः नील, श्वेत और श्रृंगीका पूजन करे तथा पश्छिमवाले दलोंमे गन्धमादन, वैकंक एवं केतुमालकी पूजा करे। इस प्रकार बारह पर्वतोंसे युक्त मेरु पर्वतका पूजन करना चाहिये ९-१४
उपवासपूर्वक रहकर स्नानके पश्चात भगवान विष्णु अथवा शिवका पूजन करे। भगवानके सम्मुख मेरुका पूजन करके मंत्रोच्चारणपूर्वक उसका ब्राह्राणको दान कर दे ।
दानका संकल्प करते समय देश-कालके उच्चारणके पश्चात कहे-मैं इस दिव्यनिर्मित उत्तम मेरुपर्वतका, जिसके देवता भगवान विष्णु है, अमुक गोत्रवाले ब्राह्राणको दान करता हूँ । इस दानसे मेरा अंतःकरणशुद्ध हो जाय और मुझे उत्तम भोग एवं मोक्षकी प्राप्ति हो।
इस प्रकार दान करनेवाला मनुष्य अपने समस्त कुलका उद्धार करके देवताओं द्वारा सम्मानित हो विमानपर बैठकर इन्द्लोक, ब्रहमलोक, शिवलोक तथा श्रीवैकुंठधाममें क्रीडा करता है।
संक्रांति आदि अन्य पुण्यकालोंमें मेरुका दान करना चाहिये। १७-१८
एक सहस्त्र पल सुवर्णके द्वारा महामेरुका निर्माणकरावे। वह तीन शिखरोंसे युक्त होना चाहिये और उन शिखरोंपर ब्रह्रा, विष्णु और शिवकी स्थापना करनी चाहिये। मेरुके साथवाला प्रत्येक पर्वत सौ-सौ पल सुवर्णका बनबाये। मेरुको लेकर उसके सहवर्ती पर्वत तेरह माने गये है।
उत्तरायण अथवा दक्षिणायनकी सक्रांतिमें या सूर्य-चन्द्रके ग्रहणकालमें विष्णुकी प्रतिमाके सम्मुख स्वर्णमेरुकी स्थापना करे। तदन्तर श्रीहरी और स्वर्णमेरुकी पूजा कर उसे ब्राह्राणको समर्पित करे। ऐसा करनेसे मनुष्य चिरकालतक विष्णुलोकमें निवास करता है। जो बारह पर्वतोंसे युक्त रजतमेरुका संकल्पपूर्वक दान करता है, वह उतने वर्षोंतक राज्यका उपभोग करता है, जितने की इस पृथ्वीपर परमाणु है । इसके सिवा वह पूर्वोक्त फलको भी प्राप्त कर लेता है। भूमिमेरु का दान विष्णु एवं ब्राह्राणकी पूजा करके करना चाहिये।
एक नगर, जनपद अथवा ग्राममें आठवें अंशसे शेष बारह अंशोंकी कल्पनाकरनी चाहिये। भूमिमेरुके दानका फल पूर्ववत होता है १९-२३
बारह पर्वतोंसे युक्त मेरुका हाथियोंद्वारा निर्माण करके तीन पुरुषोंसहित उस हस्तिमेरुका दान करे । वह दान देकर मनुष्य अक्षय फलका भागी होता है ।
पंद्रह अश्वोंका अश्वमेरु होता है । इसके साथ बारह पर्वतोंके स्थान बारह घोड़े होने चाहिये।
श्रीविष्णु आदि देवताओंके पूजनपूर्वक अश्वमेरुका दान करनेवाला इस जन्ममें विविध भोगोंका उपभोग करके दुसरे जन्ममें राजा होता है।
गोमेरूका भी अश्वमेरुकी संख्यांके परिमाण एवं विधिसे दान करना चाहिये।
एक भार रेशमी वस्त्रोंका वस्त्रमेरु होता है । उसे मध्यमें रखकर अन्य बारह पर्वतोंके स्थानपर बारह वस्त्र रखे। इसका दान करके मनुष्य अक्षय फलकी प्राप्ति करता है।
पाँच हजार फल धृतका आज्य-पर्वत माना गाया है । इसका सहवर्ती प्रत्येक पर्वत पाँच सौ पल धृतका होना चहिये । इस आज्य-पर्वतपर श्रीहरिका यजन करे। फिर विष्णुके सम्मुख इसे ब्राह्राणको दानकर मनुष्य इस लोकमें सर्वस्व पाकर श्रीहरिके परमधामको प्राप्त होता है। उसी प्रकार खण्ड मेरु का निर्माण एवं दान करके मनुष्य पूर्वोक्त फलकी प्राप्ति कर लेता है -२५-२९
पाँच खारी धान्यका धान्यमेरु होता है । इसके साथ अन्य बारह पर्वत एक एक खारी धान्यके बनाने चहिये । उन सबके तीन-तीन स्वर्णमय शिखर होने चाहिये । सबपर ब्रहमा, विष्णु और महेश-तीनोंका पूजन करना चाहिये । इससे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है ।
इसी प्रमाणके अनुसार तिलमेरूका निर्माण करके दशांशके प्रमाणसे अन्य पर्वतोंका निर्माण करे। उसके एवं अन्य पर्वतोंके भी पूर्वोक्त प्रकारसे शिखर बनाने चाहिये। इस तिलमेरूका दान करके मनुष्य बंधू-बांधवोंके साथ विष्णुलोकको प्राप्त होता है। ३१-३२
(तिलमेरुका दान करते समय निम्नलिखित मन्त्र पढ़े)
विष्णुस्वरुप तिलमेरुको नमस्कार है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश जिसके शिखर है, जो पृथ्वीकी नाभीपर स्थित है, जो सहवर्ती बारहों पर्वतोंका प्रभु, समस्त पापोंका अपहरण करनेवाला, शान्तिमय, विष्णुभक्त है, उस तिलमेरुको नमस्कार है। वह मेरी सर्वथा रक्षा करे । मैं निष्पाप होकर पितरोंके साथ श्रीविष्णुको प्राप्त होता हूँ। ॐ नमः तुम विष्णुस्वरुप हो, विष्णुके सम्मुख मैं विष्णुस्वरुप दाता विष्णुस्वरुप ब्राह्राणका भक्तिपूर्वक भोग एवं मोक्षकी प्राप्तिके हेतु तुम्हारा दान करता हूँ । ३३-३५
अध्याय-२१३ पृथ्वीदान तथा गोदानकी महिमा
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ ! अब मैं ‘पृथ्वीदान’के विषयमें कहता हूँ। ‘पृथ्वी’ तीन प्रकारकी मानी गयी है।
सौ करोड़ योजन विस्तारवाली सप्तद्वीपवती समुद्रोंसहित जम्बूद्वीपपर्यन्त पृथ्वी पृथ्वी उत्तम मानी गयी है।
उत्तम पृथ्वीकी पाँच भार सुवर्णसे रचना करे। उसके आधेमें कूर्म एवं कमल बनवाये। यह ‘उत्तम पृथ्वी’ बतलायी गयी है। इसके आधेमें ‘मध्यम पृथ्वी’ मानी जाती है। इसके तीसरे भागमें निर्मित पृथ्वी ‘कनिष्ठ’ मानी गयी है। इसके साथ पृथ्वीके तीसरे भागमें कूर्म और कमलका निर्माण करना चाहियें ॥ १-३ ॥
एक हजार पल सुवर्णसे मूल, दण्ड, पत्ते, फल, पुष्प और पाँच स्कंधोंसे युक्त कल्पवृक्षकी कल्पना करे। विद्वान् ब्राह्मण यजमानके द्वारा संकल्प कराके पाँच ब्राह्रणोंको इसका दान करावे। इसका दान करनेवाला ब्रह्मलोकमें पितृगणोंके साथ चिरकाल तक आनन्दका उपभोग करता है।
पाँच सौ पल सुवर्णसे कामधेनुका निर्माण कराके विष्णुके सम्मुख दान करे। ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि समस्त देवता गौमें प्रतिष्ठित हैं। धेनुदान करनेसे अपने-आप समस्त दान हो जाते हैं। यह सम्पूर्ण अभीष्ट कामनाओंको सिद्ध करनेवाला एवं ब्रह्मलोक की प्राप्ति करानेवाला है।
श्रीविष्णुके सम्मुख कपिला गौका दान करनेवाला अपने सम्पूर्ण कुलका उद्धार कर देता है।
कन्याको अलंकृत करके दान करनेसे अश्वमेध-यज्ञके फलकीं प्राप्ति होतीं हैं।
जिसमें सभी प्रकारके सस्य (अनाजोंके पौधे) उपज सकें, ऐसी भूमिका दान देकर मनुष्य सब कुछ प्राप्त कर लेता है।
ग्राम, नगर अथवा खेटक (छोटे गाँव)-का दान देनेवाला सुखी होता है।
कार्तिककी पूर्णिमा आदिमें वृषोत्सर्ग करनेवाका अपने कुलका उद्धार कर देता है। ४-१० ॥
दो सौ तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१३ ॥
अध्याय –२१४ नाडीचक्र का वर्णन
अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! अब मैं नाडीचक्र के विषय में कहता हूँ | जिसके जानने से श्रीहरि का ज्ञान हो जाता हैं | नाभि के अधोभाग में कंद (मुलाधार) हैं, उससे अन्गकुरों की भाँती नाड़ियाँ निकली हुई हैं | नाभि के मध्य में बहत्तर हजार नाड़ियाँ स्थित हैं | इन नादियों ने शरीर को ऊपर-नीचे, दायें-बायें सब ओरसे व्याप्त कर रखा हैं और ये चक्राकार होकर स्थित हैं | इनमें प्रधान दस नाड़ियाँ हैं – इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, गांधारी, हस्तिजिव्हा, पृथा, यशा, अलम्बुषा, कुहू और दसवी शंगिनी | ये दस प्राणों का वहन करनेवाली प्रमुख नाड़ियाँ बतलायी गयी | प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय – ये दस ‘प्राणवायु’ है | इनमें प्रथम वायु प्राण दसों का स्वामी है | यह प्राण – रिक्तता की पूर्ति प्रति प्राणों को प्राणयन (प्रेरण) करता हैं और सम्पूर्ण प्राणियों के ह्रदयदेश में स्थित रहकर अपान-वायुद्वारा मल-मुत्रादि के त्याग से होनेवाली रिक्तता को नित्य पूर्ण करता हैं | जीव में आश्रित यह प्राण श्वासोच्छ्वास और कास आदिद्वार प्रयाण (गमनागमन) करता हैं, इसलिये इसे ‘प्राण’ कहा गया है | अपानवायु मनुष्यों के आहार को नीचे की ओर ले जाता है और मूत्र एवं शुक्र आदिका भी नीचे की ओर वहन करता हैं, इस अपानयन के कारण इसे ‘अपान’ कहा जाता हैं | समानवायु मनुष्यों के खाये-पीये और सूंघे हुए पदार्थों को एवं रक्त, पित्त, कफ तथा वात को सारे अंगों में समानभाव से ले जाता हैं, इसकारण उसे ‘समान’ कहा गया है | उदान नामक वायु मुख और अधरों को स्पन्दित करता हैं, नेत्रों की अरुणिमा को बढाता है और मर्मस्थानों को उद्विग्न करता हैं, इसलिये उसका नाम ‘उदान’ हैं | ‘व्यान’ अंगों को पीड़ित करता हैं | यही व्याधि को कुपित करता है और कंठ को अवरुद्ध कर देता हैं | व्यापनशील होने से इसे ‘व्यान’ कहा गया है | ‘नागवायु’ उदगार (डकार-वमन आदि ) में और ‘कूर्मवायु’ नयनो के उन्मीलन (खोलने) में प्रवृत्त होता है | ‘कृकर’ भक्षण में और ‘देवदत्त’ वायु जँभाई में अधिष्ठित है | ‘धनंजय’ पवन का स्थान घोष है | यह मृत शरीर का भी परित्याग नहीं करता | इन द्सोंद्वारा जीव प्रयाण करता हैं, इसलिये प्राणभेद से नाडीचक्र के भी दस भेद हैं ||१-१४||
संक्रान्ति, विषुव, दिन, रात, अयन, अधिमास, ऋण, ऊनरात्र एवं धन – ये सूर्य की गति से होनेवाली दस दशाएँ शरीर में भी होती हैं | इस शरीर में हिक्का (हिचकी) ऊनरात्र, विजृम्भिका (जँभाई) अधिमास, कास (खाँसी) ऋण और नि:श्वास ‘धन’ कहा जाता है | शरीरगत वामनाडी ‘उत्तरायण’ और दक्षिणनाड़ी ‘दक्षिणायन’ है | दोनों के मध्य म नासिका के दोनों छिद्रों से निर्गत होनेवाली श्वासवायु ‘विषुव’ कहलाती हैं | इस विषुववायु का ही अपने स्थान से चलकर दूसरे स्थान से युक्त होना ‘संक्रान्ति’ है | द्विजश्रेष्ठ वसिष्ठ ! शरीर के मध्यभाग में ‘सुषुम्ना’ स्थित हैं, वामभाग में ‘इड़ा’ और दक्षिणभाग में ‘पिंगला’ है | ऊर्ध्वगतिवाला प्राण ‘दिन’ माना गया है | एक प्राणवायु ही दस वायु के रूप में विभाजित है | देह के भीतर जो प्राणवायु का आयाम (बढ़ना) हैं, उसे ‘चंद्रग्रहण’ कहते हैं | वही जब देहसे ऊपरतक बढ़ जाता है, तब उसे ‘सूर्यग्रहण’ मानते हैं ||१५-२०||
साधक अपने उदर में जितनी वायु भरी जा सके, भर लें | यह देह को पूर्ण करनेवाला, ‘पूरक’ प्राणायाम है | श्वास निकलने के सभी द्वारों को रोककर श्वासोच्छवास की क्रिया से शून्य हो परिपूर्ण कुम्भ की भाँती स्थित हो जाय – इसे ‘कुम्भक’ प्राणायाम कहा जाता हैं | तदनंतर मंत्रवेत्ता साधक ऊपर की ओर एक ही नासारन्ध्रसे वायु को निकाले | इसप्रकार उच्छावासयोग से युक्त हो वायु का ऊपर की ओर विरेचन (नि:सारण) करे (यह रेचक प्राणायाम है) | यह श्वासोच्छावास की क्रियाद्वारा अपने शरीर में विराजमान शिवस्वरूप ब्रम्ह का ही ( ‘सोऽहं’ ‘हंस:’ के रूप में ) उच्चारण होता है, अत: तत्त्ववेत्ताओं के मतमें वही ‘जप’ कहा गया है | इसप्रकार एक तत्त्ववेत्ता योगीन्द्र श्वास-प्रश्वासद्वारा दिन-रात में इक्कीस हजार छ: सौ की संख्या में मन्त्र-जप करता हैं | यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर से सम्बन्ध रखनेवाली ‘अजपा’ नामक गायत्री है | जो इस अजपा का जप करता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता | चन्द्रमा, अग्नि तथा सूर्य से युक्त मूलाधार-निवासिनी आद्या कुंडलिनी शक्ति ह्रदयप्रदेश में अंकुर के आकर में स्थित हैं | सात्त्विक पुरुषों में उत्तम वह योगी सृष्टिक्रम का अवलम्बन करके सृष्टिन्यास करे तथा ब्रह्मरन्ध्रवर्ती शिव से कुंडलिनी के मुखभाग में झरते हुए अमृत का चिन्तन करे | शिव के दो रूप हैं – सकल और निष्कल | सगुण साकार देह में विराजित शिव को ‘सकल’ जानना चाहिये और जो देहसे रहित हैं, वे ‘निष्कल’ कहे गये हैं | वे ‘हंस-हंस’ का जप करते हैं | ‘हंस’ नाम है – ‘सदाशिव’ का | जैसे तिलों में तेल और पुष्पों में गंध की स्थिति है, उसी प्रकार अन्तर्यामी पुरुष (जीवात्मा) में बाहर और भीतर भी सदाशिव का निवास हैं | ब्रह्मा का स्थान ह्रदय में हैं, भगवान् विष्णु कंठ में अधिष्ठित हैं, तालुके मध्यभाग में रूद्र, ललाट में महेश्वर और प्राणों के अग्रभाग में सदाशिव का स्थान हैं | उनके अंत में परात्पर ब्रह्म विराजमान हैं | ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र, महेश्वर और सदाशिव – इन पाँच रूपों में ‘सकल’ (साकार या सगुण) परमात्मा का वर्णन किया गया है | इसके विपरीत परमात्मा, जो निर्गुण निराकाररूप हैं, उसे ‘निष्कल’ कहा गया है ||२१-३२||
जो योगी अनाहत नाद को प्रासादतक उठाकर अनवरत जप करता हैं, वह छ: महीनों में ही सिद्धि प्राप्त कर लेता हैं, इसमें संशय नहीं हैं | गमनागमन के ज्ञान से समस्त पापों का क्षय होता है और योगी अणिमा आदि सिद्धियों, गुणों और ऐश्वर्य को छ: महीनों में ही प्राप्त कर लेता हैं | मैंने स्थूल, सूक्ष्म और परके भेद से तीन प्रकार के प्रासाद का वर्णन किया है | प्रासाद को ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत – इन तीन रूपों में लक्षित करे | ‘ह्रस्व’ पापों को दग्ध कर देता हैं, ‘दीर्घ’ मोक्षप्रद होता है और ;प्लुत’ आप्यायन (तृप्तिप्रदान) करनेमें समर्थ है | यह मस्तकपर बिंदु (अनुस्वार) से विभूषित होता है | ह्रस्व-प्रासाद-मन्त्र के आदि और अंत में ‘फट’ लगाकर जप किया जाय तो यह मारण कर्म में हितकारक होता हैं | यदि उसके आदि – अंत में ‘नम:’ पद जोडकर जपा जाय तो वह आकर्षण साधक बताया गया है | महादेवजी के दक्षिणामूर्तिरूप सम्बन्धी मन्त्र का खड़े होकर यदि पाँच लाख जप किया जाय तथा जप के अंत में घी का दस हजार होम कर दिया जाय तो वह मन्त्र आप्यायित (सिद्ध) हो जाता है | फिर उससे वशीकरण, उच्चाटन आदि कार्य कर सकते हैं ||३३-३८||
जो ऊपर शून्य, नीचे शून्य और मध्य में भी शून्य हैं, उस त्रिशुन्य निरामय मन्त्र को जो जानता हैं, वह द्विज निश्चय ही मुक्त हो जाता हैं |
पाँच मन्त्रों के मेल से महाकलेवरधारी अड़तीस कलाओं से युक्त प्रासादमन्त्र को जो नहीं जानता हैं, वह आचार्य नहीं कहलाता हैं |
जो ॐकार, गायत्री तथा रुद्रादि मन्त्रों को जानता हैं, वही गुरु है ||३९-४१||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘नाड़ीचक्र कथन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –२१५ संध्या – विधि
अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! जो पुरुष ॐकार को जानता हैं, वह योगी और विष्णुस्वरूप हैं | इसलिये सम्पूर्ण मन्त्रों के सारस्वरूप और सब कुछ देनेवाले ॐकार का अभ्यास करना चाहिये | समस्त मन्त्रों के प्रयोग में ॐकार का सर्वप्रथम स्मरण किया जाता हैं | जो कर्म उससे युक्त है, वही पूर्ण है | उससे विहीन कर्म पूर्ण नहीं हैं | आदिमें ॐकार से युक्त (‘भू: भुव: स्व:’ – ये ) तीन शाश्वत महाव्याह्रतियों एवं (तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि, धियो यो न: प्रचोदयात्’ इस ) तीन पदों से युक्त गायत्री को ब्रह्म का (वेद अथवा ब्रह्माका) मुख जानना चाहिये | जो मनुष्य नित्य तीन वर्षोतक आलस्यरहित होकर गायत्री का जप करता हैं, वह वायुभूत और आकाश्स्वरूप होकर परब्रह्म को प्राप्त होता है | एकाक्षर ॐकार ही परब्रह्म है और प्राणायाम ही परम तप है | गायत्री–मन्त्र से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है | मौन रहनेसे सत्यभाषण करना ही श्रेष्ठ हैं’ ||१-५||
गायत्री की सात आवृत्ति पापों का हरण करनेवाली हैं, दस आवृत्तियों से वह जपकर्ता को स्वर्ग की प्राप्ति कराती है और बीस आवृत्ति करनेपर तो स्वयं सावित्री देवी जप करनेवाले को ईश्वरलोक में ले जाती हैं | साधक गायत्री का एक सौ आठ बार जप करके संसार–सागर से तर जाता हैं | रूद्र-मन्त्रो के जप तथा कुष्मांड-मन्त्रो के जप से गायत्री-मन्त्र का जप श्रेष्ठ हैं | गायत्री से श्रेष्ठ कोई भी जप करनेयोग्य मंत्र नहीं है तथा व्याह्रति-होम के समान कोई होम नहीं हैं | गायत्री के एक चरण, आधा चरण, सम्पूर्ण ऋचा अथवा आधी ऋचा का भी जप करनेमात्र से गायत्री देवी साधक को ब्रह्महत्या, सुरापान, सुवर्ण की चोरी एवं गुरुपत्नी–गमन आदि महापातकों से मुक्त कर देती है ||६-९||
कोई भी पाप करनेपर उसके प्रायश्चित्तस्वरुप तिलों का हवन और गायत्री का जप बताया गया हैं | उपवासपूर्वक एक सहस्त्र गायत्री-मन्त्र का जप करनेवाला अपने [पापों को नष्ट कर देता है | गो-वध, पितृवध, मातृवध, ब्रह्महत्या अथवा गुरुपत्नीगमन करनेवाला, ब्राह्मण की जीविका का अपहरण करनेवाला, सुवर्ण की चोरी करनेवाला और सुरापान करनेवाला महापातकी भी गायत्री का एक लाख जप करनेसे शुद्ध हो जाता है | अथवा स्नान करके जल के भीतर गायत्री का सौ बार जप करे | तदनंतर गायत्री से अभिमंत्रित जल के सौ आचमन करे | इससे भी मनुष्य पापरहित हो जाता है | गायत्री का सौ बार जप करनेपर वह समस्त पापों का उपशमन करनेवाली मानी गयी है और एक सहस्त्र जप करनेपर उपपातकों का भी नाश करती है | एक करोड़ जप करनेपर गायत्री देवी अभीष्ट फल प्रदान करती है | जपकर्ता देवत्व और देवराजत्व को भी प्राप्त कर लेता है ||१०-१३||
आदि में ॐकार, तदनंतर ‘भूर्भुव: स्व:’ का उच्चारण करना चाहिये | उसके बाद गायत्री मन्त्र का एवं अंत में पुन: ॐकार का प्रयोग करना चाहिये | जप में मन्त्र का यही स्वरूप बताया गया है |
ॐकारं पूर्वमुच्चार्य भूर्भुव: स्वस्तथैव च ||
गायत्रीं प्रणवश्चान्ते जपे चैव मुदाह्र्तम | (अग्नि. २१५ /१४-१५)
– इसके अनुसार जपनीय मन्त्र का पाठ यों होगा –
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि | धियो यो न: प्रचोदयात् ॐ |
गायत्री मन्त्र के विश्वामित्र ऋषि, गायत्री छंद और सविता देवता है | उपनयन, जप एवं होम में इनका विनियोग करना चाहिये |
गायत्र्या विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छंद: सविता देवताग्निर्मुखमुपनयने जपे होमे वा विनियोग: |
गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों के अधिष्ठातृदेवता क्रमश: ये है – अग्नि, वायु, रवि, विद्युत्, यम, जलपति, गुरु, पर्जन्य, इंद्र, गंधर्व, पूषा, मित्र, वरुण, त्वष्टा, वसुगण, मरुद्गण, चंद्रमा, अग्निरा, विश्वदेव, अश्विनीकुमार, प्रजापतिसहित समस्त देवगण, रूद्र, ब्रह्मा और विष्णु | गायत्री जप के समय उपर्युक्त देवताओं का उच्चारण किया जाय तो वे जपकर्ता के पापों का विनाश करते हैं ||१४-१८ ||
गायत्री मन्त्र के एक-के अक्षर का अपने निम्नलिखित अंकों में क्रमश: न्यास करे | पैरों के दोनों अंगुष्ठ, गुल्फ्द्वय, नल्क (दोनों पिंडलियाँ), घुटने, दोनों जाँघें, उपस्थ, वृषण, कटिभाग, नाभि, उदर, स्तनमंडल, ह्रदय, ग्रीवा, मुख (अधरोष्ठ), तालु, नासिका, नेत्रद्वय, भ्रूमध्य, ललाट,पूर्व आनन (उत्तरोष्ठ), दक्षिण पार्श्व, उत्तर पार्श्व, सिर और सम्पूर्ण मुखमंडल | गायत्री के चौबीस अक्षरों के वर्ण क्रमश” इसप्रकार है –
पीत, श्याम, कपिल, मरकतमणितुल्य, अग्नितुल्य, रुक्मसदृश, विद्युत्प्रभ, धूम्र, कृष्ण, रक्त, गौर, इन्द्रनीलमणिसदृश, स्फटिकमणिसदृश, स्वर्णिम, पांडू, पुखराजतुल्य, अखिलद्युति, हेमाभधूम्र, रक्तनील, रक्तकृष्ण, सुवर्णाभ, शुक्ल, कृष्ण और पलाशवर्ण | गायत्री ध्यान करनेपर पापों का अपहरण करती और हवन करनेपर सम्पूर्ण अभीष्ट कामनाओं को प्रदान करती है | गायत्री मन्त्र से तिलों का होम सम्पूर्ण पापों का विनाश करनेवाला है | शान्ति की इच्छा रखनेवाला जौ का और दीर्घायु चाहनेवाला घृत का हवन करे | कर्म की सिद्धि के लिये सरसों का, ब्रह्मतेज की प्राप्ति के लिये दुग्ध का, पुत्र की कामना करनेवाला दधि का और अधिक धान्य चाहनेवाला अगहनी के चावल का हवन करे | गृहपीड़ा की शान्ति के लिये खैर वृक्ष की समिधाओं का, धन की कामना करनेवाला बिल्वपत्रों का, लक्ष्मी चाहनेवाला कमल–पुष्पों का, आरोग्य का इच्छुक और महान उत्पात से आतकिंत मनुष्य दुर्वा का, सौभाग्याभिलाशी गुग्गुल का और विद्याकामी खीर का हवन करे | दस हजार आहुतियों से उपर्युक्त कामनाओं की सिद्धि होती है और एक लाख आहुतियों से साधक मनोभिलषित वस्तु को प्राप्त करता हैं | एक करोड़ आहुतियों से होता ब्रह्महत्या के महापातक से मुक्त हो अपने कुल का उद्धार करके श्रीहरिस्वरुप हो जाता है | ग्रह–यज्ञ–प्रधान होम हो, अर्थात ग्रहों की शान्ति के लिए हवन किया जा रहा हो तो उसमें भी गायत्री–मन्त्र से दस हजार आहुतियाँ देनेपर अभीष्ट फल की सिद्धि होती है ||१९-३०||
संध्या–विधि
गायत्री का आवाहन करके ॐकार का उच्चारण करना चाहिये | गायत्री मन्त्रसहित ॐकार का उच्चारण करके शिखा बाँधे | फिर आचमन करके ह्रदय, नाभि और दोनों कंधों का स्पर्श करे | प्रणव के ब्रह्मा ऋषि, गायत्री छंद, अग्नि अथवा परमात्मा देवता है | इसका सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ में प्रयोग होता है |
ॐकारस्य ब्रह्मा ऋषिर्गायत्री छन्दोंग्निर्देवता शुक्लो वर्ण: सर्वकर्मोरम्भे विनियोग: |
निम्नलिखित मन्त्र से गायत्री देवी का ध्यान करे –
शुक्ला चाग्निमुखी दिव्या कात्यायनसगोत्रजा |
त्रैलोक्यवरणा दिव्या पृथिव्याधारसंयुता ||
अक्षसुत्रधरा देवी पद्मासनगता शुभा ||
तदनंतर निम्नांकित मन्त्र से गायत्री देवी का आवाहन करे –
‘ॐ तेजोऽसि महोऽसि बलमसि भ्राजोऽसि देवानां धामनामाऽसि |
विश्वमसि विश्वायु: सर्वमसि सार्वायु: ॐ अभि भू: |’
आगच्छ वरदे देवि जपे में संनिधौ भव |
गायन्तं त्रायसे यस्माद गायत्री त्वं तत: स्मृता ||
समस्त व्याह्रतियों के ऋषि प्रजापति ही हैं; वे सब – व्यष्टि और समष्टि दोनों रूपों से परब्रह्मस्वरुप एकाक्षर ॐकार में स्थित हैं |
सप्तव्याह्र्तियों के क्रमश: ये ऋषि हैं – विश्वामित्र, जमदग्नि, भरद्वाज, गौतम, अत्रि, वसिष्ठ तथा कश्यप | उनके देवता क्रमश: – ये है – अग्नि, वायु, सूर्य, बृहस्पति, वरुण, इंद्र और विश्वदेव | गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, बृहती, पंकि, त्रिष्टुप और जगती – ये क्रमश: सात व्याह्र्तियों के छंद हैं | इन व्याह्र्तियों का प्राणायाम और होम में विनियोग होता हैं |
ॐ आपो हि ष्ठा मयो भुव:, ॐ ता न ऊर्जे दधातन, ॐ महेरणाय चक्षसे, ॐ यो व: शिवतमो रस:, ॐ तस्य भाजयतेह न: , ॐ उशतीरिव मातर:, ॐ तस्मा अरं गमाम व: ॐ यस्य क्षयाय: जिन्वथ, ॐ आपो जनयथा च न: |
इन तीन ऋचाओं का तथा ‘ॐ द्रुपदादिव मुमुचान: स्विन्न: स्रातो मलादिव | पूतं पवित्रेणवाज्यमाप: शुन्धन्तु मैनस: |’ इस मन्त्र का ‘हिरण्यवर्णा: शुचय:’ इत्यादि पावमानी ऋचाओं का उच्चारण करके (पवित्रो अथवा दाहिने हाथ की अँगुलियोंद्वारा) जल के आठ छीटे ऊपर उछालें | इससे जीवनभर के पाप नष्ट हो जाते हैं ||३१-४१||
जल के भीतर ‘ऋतं च’ – इस अघमर्षण मन्त्र का तीन बार जप करें |
ॐ ऋतजं सत्यष्ठाभीद्धात्तपसोध्यजायत | ततो राज्यजायत | तत: समुद्रो अर्णव: | समुद्रादर्नवादधिसंवत्सरो अजावत | अहो रात्रापि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी | सूर्याचन्द्रमसी धाता यथापूर्वमकल्पयत | दिवस पृथिविशान्तरिक्षमयो स्व: ||
‘आपो हि ष्ठा’ आदि तीन ऋचाओं के सिन्धुद्वीप ऋषि, गायत्री छंद और जल देवता माने गये हैं | ब्राह्मस्नान के लिये मार्जन में इसका विनियोग किया जाता है |
आपो हिष्ठेत्यादि तुचस्य सिन्धुद्वीप ऋषि: गायत्री छंद:, आपो देवता ब्राह्मस्नानाय मार्जने विनियोग: |
अघमर्षण मन्त्र का विनियोग इसप्रकार करना चाहिये | इस अघमर्षण सूक्त के अघमर्षण ऋषि, अनुष्टुप छंद और भाववृत्त देवता हैं | पापनि:सारण के कर्म में इसका प्रयोग किया जाता हैं |
अघमर्षणसुक्त्याघमर्षण ऋषिरनुष्टपछन्दों भाववृतो देवता अघमर्षने विनियोग: |
‘ॐ आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुव: स्वरोम |’ यह गायत्री मन्त्र का शिरोभाग हैं | इसके प्रजापति ऋषि हैं | यह छंदरहित यजुर्मन्त्र हैं; क्योंकि यजुर्वेद के मन्त्र किसी नियत अक्षरवाले छंद में आबद्ध नहीं है | शिरोमंत्र के ब्रह्मा, आग्नि, वायु और सूर्य देवता माने गये हैं |
शिरस: प्रजापतिऋषित्रिपदा गायत्री छन्दों ब्रह्माग्निवायुसुर्या देवता यजु:प्राणायामे विनियोग: |
प्राणायाम से वायु, वायु से अग्नि और अग्निसे जल की उत्पत्ति होती है तथा उसी जल से शुद्धि होती है | इसलिये जल का आचमन निम्नलिखित मन्त्र से करे –
ॐ अन्तश्वरसि भूतेषु गुहायां विश्वमुर्तिषु | तपो यज्ञो वषट्कार आपो ज्योती रसोऽमृतम ||
‘उदुत्यं जातवेद्सं ‘ – इस मन्त्र के प्रस्कन्व ऋषि कहे गये हैं | इसका गायत्री छंद और सूर्य देवता हैं | इसका अतिरात्र और अग्निष्टोम याग में विनियोग होता है ( परन्तु संध्योपासना में इसका सूर्योपस्थान कर्म में विनियोग किया जाता हैं |)
उदुत्पमिति प्रस्कन्व ऋषिगायत्री छंद: सूर्यो देवता सुर्योपस्थाने विनियोग: |
‘चित्रं देवानां’ – इस ऋचा के कौत्स ऋषि कहे गये है | इसका छंद त्रिष्टुप और देवता सूर्य माने गये हैं | यहाँ इसका भी विनियोग सुर्योपस्थान में ही हैं ||४२-५०||
चित्रमित्यस्य कौत्स ऋषिस्रिष्टपछंद: सूर्यो देवता सुर्योपस्थाने विनियोग: |
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘संध्याविधि का वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –२१६ गायत्री-मन्त्र के तात्पर्यार्थ का वर्णन
अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! इसप्रकार संध्या का विधान करके गायत्री का जप और स्मरण करे | यह अपना गान करनेवाले साधकों के शरीर और प्राणों का त्राण करती है, इसलिये इसे ‘गायत्री’ कहा गया हैं | सविता (सूर्य) से इसका प्रकाशन-प्राकट्य हुआ है, इसलिये यह ‘सावित्री’ कहलाती हैं | वाकस्वरुपा होने से ‘सरस्वती’ नामसे भी प्रसिद्ध हैं ||१-२||
‘तत’ पदसे ज्योति:स्वरुप परब्रह्म परमात्मा अभिहित हैं | ‘भर्ग:’ पद तेजका वाचक है; क्योंकि ‘भा’ धातु दीप्त्यर्थक है और उसीसे ‘भर्ग’ शब्द सिद्ध है | ‘भातीति भर्ग:’ – इसप्रकार इसकी व्युत्पत्ति है | अथवा ‘भ्रस्ज पाके’ – इस धातुसुत्र के अनुसार पाकार्थक ‘भ्रस्ज’ धातु से भी ‘भर्ग’ शब्द निष्पन्न होता है; क्योंकि सूर्यदेव का तेज औषधि आदि को पकाता है | ‘भ्राजृ’ धातु भी दीप्त्यर्थक होता है | ‘भ्राजते इति भर्ग:’ – इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘भ्राज’ धातु से भी ‘भर्ग’ शब्द बनता है | ‘बहुलं छंदसि’ – इस वैदिक व्याकरणसूत्र के अनुसार उक्त सभी धातुओं से आवश्यक प्रत्यय, आगम एवं विकार की ऊहा करनेसे ‘भर्ग’ शब्द बन सकता है | ‘वरेण्य’ का अर्थ है –‘सम्पूर्ण तेजोंसे श्रेष्ठ परमपदस्वरुप’ | अथवा स्वर्ग एवं मोक्ष की कामना करनेवालों के द्वारा सदा ही वरणीय होने के कारण भी वह ‘वरेण्य’कहलाता हैं; क्योंकि ‘वृत्र’ धातु वरणार्थक हैं | ‘धीमहि’ पदक यह अभिप्राय है कि ‘हम जाग्रत और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं से अतीत नित्य शुद्ध, बुद्ध, एकमात्र सत्य एवं ज्योति:स्वरुप परब्रह्म परमेश्वर का मुक्ति के लिये ध्यान करते अहिं’ ||३-६||
जगत की सृष्टि आदि के कारण भगवान् श्रीविष्णु ही वह ज्योति हैं | कुछ लोग शिवको वह ज्योति मानते हैं, कुछ लोग शक्ति को मानते हैं और कोई सूर्य को तथा कुछ अग्निहोत्री वेदज्ञ अग्नि को वह ज्योति मानते हैं | वस्तुतः अग्नि आदि रूपों में स्थित विष्णु ही वेद-वेदागों में ‘ब्रह्म’ माने गये हैं | इसलिये ‘देवस्य सवितु:’ – अर्थात जगत के उत्पादक श्रीविष्णुदेव का ही वह परमपद माना गया हैं; क्योंकि वे स्वयं ज्योति:स्वरुप भगवान् श्रीहरि महत्तत्त्व आदि का प्रसव (उत्पत्ति) करते हैं | वे ही पर्जन्य, वायु, आदित्य एवं शीत-ग्रीष्म आदि ऋतुओंद्वारा अन्न का पोषण करते है | अग्निमें विधिपूर्वक दी हुई आहुति सूर्य को प्राप्त होती है और सूर्य से वृष्टि, वृष्टि से अन्न और अन्नसे प्रजाओं की उत्पत्ति होती है | ‘धीमहि’ पद धारणार्थक ‘डूधात्र’ धातुसे भी सिद्ध होता है | इसलिए हम उस तेज का मनसे धारण-चिन्तन करते हैं – यह भी अर्थ होगा | (य: ) परमात्मा श्रीविष्णु का वह तेज (न:) हम सब प्राणियों की (धिय: ) बुद्धि-वृत्तियों को (प्रचोदयात) प्रेरित करे | वे ईश्वर ही कर्मफल का भोग करनेवाले समस्त प्राणियों के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष परिणामों से युक्त समस्त कर्मों में विष्णु, सूर्य और अग्निरूप से स्थित है | यह प्राणी ईश्वर की प्रेरणासे ही शुभाशुभ कर्मानुसार स्वर्ग अथवा नरक को प्राप्त होता है | श्रीहरि द्वारा महत्तत्त्व आदि रूपसे निर्मित यह सम्पूर्ण जगत ईश्वर का आवासस्थान है | वे सर्वसमर्थ हंसस्वरुप परम पुरुष स्वर्गादि लोकों से क्रीडा करते हैं, इसलिये वे ‘देव’ कहलाते हैं | आदित्य में जो ‘भर्ग’ नामसे प्रसिद्ध दिव्य तेज है, वह उन्हीका स्वरुप है | मोक्ष चाहनेवाले पुरुषों को जन्म-मरण के कष्ट से और दैहिक, दैविक तथा भौतिक त्रिविध दुःखोंसे छुटकारा पाने के लिये ध्यानस्थ होकर इन परमपुरुष का सूर्यमंडल में दर्शन करना चाहिये | वे ही ‘तत्त्वमसि’ आदि औपनिषद महावाक्योंद्वारा प्रतिपादित सच्चितस्वरुप परब्रह्म हैं | सम्पूर्ण लोकों का निर्माण करनेवाले सविता देवता का जो सबके लिये वरणीय भर्ग है, वह विष्णु का परमपद हैं और वही गायत्री का ब्रह्मरूप ‘चतुर्थ पाद’ है | ‘धीमहि’ पदसे यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिये कि देहादिकी जाग्रत-अवस्थामें सामान्य जीव से लेकर ब्रह्मपर्यंत मैं ही ब्रह्म हूँ और आदित्यमंडल में जो पुरुष हैं, वह भी मैं ही हूँ – मैं अनंत सर्वत: परिपूर्ण ॐ (सच्चिदानंद) हूँ | ‘प्रचोदयात’ पदके कर्तारूप से उन परमेश्वर को ग्रहण करना चाहिये, जो सदा यज्ञ आदि शुभ कर्मों के प्रवर्तक हैं ||७-१८||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘गायत्री-मन्त्र के तात्पर्य का वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –२१७ गायत्री से निर्वाण की प्राप्ति
अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! किसी अन्य वसिष्ठ ने गायत्री-जपपूर्वक लिंगमूर्ति शिव की स्तुति करके भगवान् शंकर से निर्वाणस्वरुप परब्रह्म की प्राप्ति की ||१||
वसिष्ठ ने कहा – कनकलिंग को नमस्कार, वेदलिंग को नमस्कार, परमलिंग को नमस्कार और आकाशलिंग को नमस्कार हैं | मैं सहस्त्रलिंग, वह्रीलिंग, पुराणलिंग और वेदलिंग शिव को बारंबार नमस्कार करता हूँ | पाताललिंग, ब्रह्मलिंग, सप्तद्वीपोंर्ध्वलिंग को बारंबार नमस्कार है | मैं सर्वात्मलिंग, सर्वलोकांगलिंग, अव्यक्तलिंग, बुद्धिलिंग, अहंकारलिंग, भुतलिंग, इन्द्रियलिंग, तन्मात्रलिंग, पुरुषलिंग, भावलिंग, रजोर्ध्वलिंग, सत्त्वलिंग, भवलिंग, त्रैगुण्यलिंग, अनागतलिंग, तेजोलिंग, वायुर्ध्वलिंग, श्रुतिलिंग, अथर्वलिंग, समलिंग, यज्ञांगलिंग, यज्ञलिंग, तत्त्वलिंग और देवानुगतलिंगरूप आप शंकर को बारंबार नमस्कार करता हूँ | प्रभो ! आप मुझे परमयोग का उपदेश कीजिये और मेरे समान पुत्र प्रदान कीजिये | भगवन ! मुझे अविनाशी परब्रह्म एवं परमशान्ति की प्राप्ति कराइये | मेरा वंश कभी क्षीण न हो और मेरी बुद्धि सदा धर्म में लगी रहे ||२-१२||
अग्निदेव कहते है – प्राचीनकाल में श्रीशैलपर वसिष्ठ के इसप्रकार स्तुति करनेपर भगवान् शंकर प्रसन्न हो गये और वसिष्ठ को वर देकर वहीँ अन्तर्धान हो गये ||१३||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘गायत्री-निर्वाण का कथन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय-२१८ राजाके अभिषेककी विधि
अग्निदेव कहते हैं– वसिष्ठ! पूर्वकालमें परशुरामजीके पूछनेपर पुष्करने उनसे जिस प्रकार राजधर्मका वर्णन किया था, वही मैं तुमसे बतला रहा हूँ॥ १ ॥
पुष्करने कहा- राम! मैं सम्पूर्ण राजधर्मोसे संगृहीत करके राजाके धर्मका वर्णन करूंगा।
राजाको प्रजाका रक्षक, शत्रुओंका नाशक और दण्डका उचित उपयोग करनेवाला होना चाहिये। वह प्रजाजनसे कहे कि ‘धर्म-मार्गपर स्थित रहनेवाले आप सब लोगोंकी मैं रक्षा करूंगा’ और अपनी इस प्रतिज्ञाका सदा पालन करे।
राजाको वर्षफल बतानेवाले एक ज्यौतिषौ तथा ब्राह्मण पुरोहितका वरण कर लेना चाहिये। साथ ही सम्पूर्ण राजशास्त्रीय विषयों तथा आत्माका ज्ञान रखनेवाले मन्त्रियोंका और धार्मिक लक्षणों से सम्पन्न राजमहिषीका भी बरण करना उचित है।
राज्यभार ग्रहण करनेके एक वर्ष बाद राजाको सब सामग्री एकत्रित करके अच्छे समयमें विशेष समारोहके साथ अपना अभिषेक कराना चाहिये। पहलेवाले राजाको मृत्यु होनेपर शीघ्र ही राजासन ग्रहण करना उचित है; ऐसे समयमें कालका कोई नियम नहीं है।
ज्योतिषी और पुरोहितके द्वारा तिल, सर्षप आदि सामग्रियों का उपयोग करते हुए राजा स्नान करे तथा भद्रासनपर विराजमान होकर समूचे राज्यमें राजाकी विजय घोषित करे। फिर अभयकी घोषणा कराकर राज्यके समस्त कैदियोंको वन्धनसे मुक्त कर दे।
पुरोहितके द्वारा अभिषेक होनेसे पहले इन्द्र देवताको शान्ति करानी चाहिये। अभिषेकके दिन राजा उपवास करके वेदीपर स्थापित की हुई अग्निमें मन्त्रपाठपूर्वक हवन करे। विष्णु, इन्द्र, सविता, विश्वेदेव और सोम- देवतासम्बन्धी वैदिक ऋचाओंका तथा स्वस्त्ययन, शान्ति, आयुष्य तथा अभय देनवाले मन्त्रों का पाठ करे ॥ २८॥ तत्पश्चात् अग्निके दक्षिण किनारे अपराजिता देवी तथा सुवर्णमय कलशकी, जिसमें जल गिरानेके लिये अनेकों छिद्र बने हुए हों, स्थापना करके चन्दन और फूलों के द्वारा उनका पूजन करे। यदि अग्निकी शिखा दक्षिणावर्त हो, तपाये हुए सोनेके समान उसकी उत्तम कान्ति हो, रथ और मेघके समान उससे ध्वनि निकलती हो, धुआँ बिलकुल नहीं दिखायी देता हो, अग्निदेव अनुकूल होकर हविष्य ग्रहण करते हों, होमाग्निसे उत्तम गन्ध फैल रही हो, अग्निसे स्वस्तिकके आकारकी लपटें निकलती हों, उसकी शिखा स्वच्छ हो और ऊँचेतक उठती हो तथा उसके भीतरसे चिनगारियाँ नहीं छूटती हों तो ऐसी अग्नि-ज्वाला श्रेष्ठ एवं हितकर मानी गयी है॥ ९-११॥
राजा और आगके मध्यसे बिल्ली, मूग तथा पक्षी नहीं जाने चाहिये। राजा पहले पर्वतशिखरकी मृत्तिकासे अपने मस्तककी शुद्धि करे। फिर बाँबीकी मिट्टीसे दोनों कान, भगवान् विष्णुके मन्दिरकी धूलिसे मुख, इन्द्रके मन्दिरकी मिट्टीसे ग्रीवा, राजाके आँगनकी मृत्तिकासे हृदय, हाथीके दाँतोंद्वारा खोदी हुई मिट्टीसे दाहिनी बाँह, बैलके सींगसे उठायी हुई मृत्तिकाद्वारा बायीं भुजा, पोखरेकी मिट्टीसे पीठ, दो नदियोंके संगमकी मृत्तिकासे पेट तथा नदीके दोनों किनारोंकी मिट्टीसे अपनी दोनों पसलियोंका शोधन करे। वेश्याके दरवाजेकी मिट्टीसे राजाके कटिभागकी शुद्धि की जाती है, यज्ञशालाकी मृत्तिकासे वह दोनों ऊरु, गौशालाकी मिट्टीसे दोनों घुटनों, घुड़सारकी मिट्टीसे दोनों जाँघ तथा रथके पहियेकी मृत्तिकासे दोनों चरणोंकी शुद्धि को। इसके बाद पञ्चगव्यके द्वारा राजाके मस्तककी शुद्धि करनी चाहिये।
तदनन्तर चार अमात्य भद्रासनपर बैठे हुए राजाका कलशोंद्वारा अभिषेक करें।
ब्राह्मणजातीय सचिव पूर्व दिशाकी ओरसे घृतपूर्ण सुवर्णकलशद्वारा अभिषेक आरम्भ करे। क्षत्रिय दक्षिणकी ओर खड़ा होकर दूधसे भरे हुए चाँदीके कलशसे, वैश्य पश्चिम दिशामें स्थित हो ताम्र कलश एवं दहीसे तथा शूद्र उत्तरकी ओरसे मिट्टी घड़ेके जलसे राजाका अभिषेक करे ॥ १२-१९ ॥
तदनन्तर बह्रचों (ऋग्वेदी विद्वानों) श्रेष्ठ ब्राह्मण मधुसे और ‘छन्दो’ अर्थात् सामवेदी विप्र कुशके जलसे नरपतिका अभिषेक करे। इसके बाद पुरोहित जल गिरानेके अनेकों छिद्रोंसे युक्त (सुवर्णमय) कलशके पास जा, सदस्योंके बीच विधिवत् अग्निरक्षाका कार्य सम्पादन करके, राज्याभिषेकके लिये जो मन्त्र बताये गये हैं, उनके द्वारा अभिषेक करे। उस समय ब्राह्मणोंको वेद-मन्त्रोच्चारण करते रहना चाहिये।
तत्पश्चात् पुरोहित वेदीके निकट जाय और सुवर्णके बने हुए है सौ छिद्रोंवाले कलशसे अभिषेक आरम्भ करे। ‘या ओषधी:०’- इत्यादि मन्त्रसे ओषधियोंद्वारा, ‘अर्थत्युक्त्याः०’-इत्यादि मन्त्रोंसे गन्धद्वारा, ‘पुष्पवती:०’- आदि मन्त्रसे फूलोंद्वारा, ‘ब्राह्मण:०’-इत्यादि मन्त्रसे बीजोंद्वारा, ‘आशुः शिशानः०’ आदि मन्त्रसे रत्नोंद्वारा तथा ‘ये देवा:०’- इत्यादि मन्त्रसे कुशयुक्त जलद्वारा अभिषेक करे।
यजुर्वेदी और अथर्ववेदी ब्राह्मण ‘गन्धद्वारा दुराधर्षा’- इत्यादि मन्त्रसे गोरोचनद्वारा मस्तक तथा कण्ठमें तिलक करे। इसके बाद अन्यान्य ब्राह्मण सब तीर्थोके जलसे अभिषेक करे २०-२६
उस समय कुछ लोग गीत और बाजे आदिके शब्दोंके साथ चँवर और व्यजन धारण करें। राजाके सामने सर्वांषधियुक्त कलश लेकर खड़े हों। राजा पहले उस कलशको देखें, फिर दर्पण तथा घृत आदि माङ्गलिक वस्तुओंका दर्शन करें। इसके बाद विष्णु, ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवताओं तथा ग्रहपतियोंका पूजन करके राजा व्याघ्रचर्मयुक्त आसनपर बैठे। उस समय पुरोहित मधुपर्क आदि देकर राजाके मस्तकपर मुकुट बाँधे । पाँच प्रकारके चमड़ोंके आसनपर बैठकर राजाको मुकुट बँधाना चाहिये। ‘ध्रुवाछै:०’- इत्यादि मन्त्रके द्वारा उन आसनोंपर बैठे। वृष, वृषभांश, वृक, व्याघ्र और सिंह-इन्हीं पाँचोंके चर्मका उस समय आसनके लिये उपयोग किया जाता है। अभिषेकके बाद प्रतीहार अमात्य और सचिव आदिको दिखाये-प्रजाजनोंसे उनका परिचय दे। तदनन्तर राजा गौ, बकरी, भेड़ तथा गृह आदि दान करके सांवत्सर (ज्यौतिषी) और पुरोहितका पूजन करे। फिर पृथ्वी, गौ तथा अन्न आदि देकर अन्यान्य ब्राह्मणोंकी भी पूजा करे। तत्पश्चात् अग्निकी प्रदक्षिणा करके गुरु (पुरोहित)-को प्रणाम करे। फिर बैलकी पीठका स्पर्श करके, गौ और बछड़ेकी पूजाके अनन्तर अभिमन्त्रित अश्वपर आरूढ़ होवे। उससे उतरकर हाथीकी पूजा करके, उसके ऊपर सवार हो और सेना साथ लेकर प्रदक्षिण-क्रमसे सड़कपर कुछ दूरतक यात्रा करे। इसके बाद दान आदिके द्वारा सबको सम्मानित करके विदा कर दे और स्वयं राजधानीमें प्रवेश करे ॥ २५-३५ ॥
सौ अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१८ ॥
अध्याय-२१९ राजाके अभिषेकके समय पढ़नेयोग्य मन्त्र
पुष्करने कहा– अब मैं राजा और देवता आदिके अभिषेक सम्बन्धी मन्त्रोंका वर्णन करूँगा, जो सम्पूर्ण पापोंको दूर करनेवाले हैं।
कलशसे कुशयुक्त जलद्वारा राजाका अभिषेक करे; इससे सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि होती है॥ १॥
(उस समय निम्नाङ्कित मन्त्रोंका पाठ करना चाहिये-) “राजन्! ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि सम्पूर्ण देवता तुम्हारा अभिषेक करें। भगवान् वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, इन्द्र आदि दस दिक्पाल, रुद्र, धर्म, मनु, दक्ष, रुचि तथा श्रद्धा-ये सभी सदा तुम्हें विजय प्रदान करनेवाले हों। भृगु, अत्रि, वसिष्ठ, सनक, सनन्दन, सनत्कुमार, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, मरीचि और कश्यप आदि ऋषि-महर्षि प्रजाका शासन करनेवाले भूपतिकी रक्षा करें। अपनी प्रभासे प्रकाशित होनेवाले ‘बर्हिषद्’ और ‘अग्निष्वात्त’ नामवाले पितर तुम्हारा पालन करें। क्रव्याद (राक्षस), आवाहन किये हुए आज्यपा (घृतपान करनेवाले देवता और पितर), सुकाली (सुकाल लानेवाले देवता) तथा धर्मप्रिया लक्ष्मी आदि देवियाँ प्रवृद्ध अग्नियोंके साथ तुम्हारा अभिषेक करें। अनेकों पुत्रोंवाले प्रजापति, कश्यपके आदित्य आदि प्रिय पुत्रगण, अग्निनन्दन कृशाश्र्व तथा अरिष्टनेमिकी पत्नियाँ भी तुम्हारा अभिषेक करें। चन्द्रमाकी अश्विनी आदि भार्याएँ, पुलहकी प्रिय पत्नियाँ और भूता, कपिशा, दंष्टी, सुरसा, सरमा, दनु, श्येनी, भाषी, क्रौञ्ची , धृतराष्ट्री तथा शुकी आदि देवियाँ एवं सूर्यके सारथि अरुण–ये सब तुम्हारे अभिषेकका कार्य सम्पन्न करें।
आयति, नियति, रात्रि, निद्रा, लोकरक्षामें तत्पर रहनेवाली उमा, मेना और शची आदि देवियाँ, धूमा, ऊर्णा, नैऋती, जया, गौरी, शिवा, ऋद्धि, वेला, नड्वला, असिनी, ज्योत्स्ना, देवाङ्गनाएँ तथा वनस्पति- विष्णुये सब तुम्हारा पालन करें ।। २-११॥
“महाकल्प, कल्प, मन्वन्तर, युग, संवत्सर, वर्ष, दोनों अयन, ऋतु, मास, पक्ष, रात-दिन, संध्या, तिथि, मुहूर्त तथा कालके विभिन्न अवयव (छोटे-छोटे भेद) तुम्हारी रक्षा करें। सूर्य आदि ग्रह और स्वायम्भुव आदि मनु तुम्हारी रक्षा करें। स्वायम्भुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, सार्वाण, ब्रह्मपुत्र, धर्मपुत्र, रुद्रपुत्र, दक्षपुत्र, रीच्य तथा भौत्य-ये चौदह मनु तुम्हारे रक्षक हों। विश्वभुक्, विपश्चित्, शिखी, विभु, मनोजव, ओजस्वी, बलि, अद्भुत शान्तियाँ, वृष, ऋतधामा, दिवःस्पृक्, कवि, इन्द्र, रैवन्त, कुमार कार्तिकेय, वत्सविनायक, वीरभद्, नन्दी, विश्वकर्मा, पुरोजव, देववैद्य अश्विनीकुमार तथा ध्रुव आदि आठ वसु–ये सभी प्रधान देवता यहाँ पदार्पण करके तुम्हारे अभिषेकका कार्य सम्पन्न करें। अङ्गिराके कुलमें उत्पन्न दस देवता और चारों वेद सिद्धिके लिये तुम्हारा अभिषेक करें। आत्मा, आयु, मन, दक्ष, मद, प्राण, हविष्मान्, गरिष्ठ, ऋत और सत्य-ये तुम्हारी रक्षा करें तथा क्रतु, दक्ष, वसु, सत्य, काल, काम और धुरि- ये तुम्हें विजय प्रदान करें। पुरूरवा, आर्द्रवा, विश्वेदेव, रोचन, अङ्गारक (मङ्गल) आदि ग्रह, सूर्य, निति तथा यम-ये सब तुम्हारी रक्षा करें। अजैकपाद, अहिर्बुध्य, धूमकेतु, रुद्रके पुत्र, भरत, मृत्यु, कापालि, किंकणि, भवन, भावन, स्वजन्य, स्वजन, क्रतुश्रवा, मूर्धा, याजन और उशना-ये तुम्हारी रक्षा करें। प्रसव, अव्यय, दक्ष, भृगुवंशी ऋषि, देवता, मनु, अनुमन्ता, प्राण, नव, बलवान् अपान वायु, वीतिहोत्र, नय, साध्य, हंस, विभु, प्रभु और नारायण-संसारके हितमें लगे रहनेवाले ये श्रेष्ठ देवता तुम्हारा पालन करें। धाता, मित्र, अर्यमा, पूषा, शक्र, वरुण, भग, त्वष्टा, विवस्वान्, सविता, भास्कर और विष्णु- ये बारह सूर्य तुम्हारी रक्षा करें। एकज्योति, द्विज्योति, त्रिज्योति, चतुज्र्योति, एकशक्र, द्विशक्र, महाबली त्रिशक्र, इन्द्र, पतिकृत्, मित, सम्मित, महाबली अमित, ऋतजित्, सत्यजित्, सुषेण, सेनजित्, अतिमित्र, अनुमित्र, पुरुमित्र, अपराजित, ऋत, ऋतवाक्, धाता, विधाता, धारण, ध्रुव, इन्द्रके परम मित्र महातेजस्वी विधारण, इदृक्ष, अदृक्ष, एतादृक्, अमिताशन, क्रीडित, सदृक्ष, सरभ, महातपा, धर्ता, धुरर्य, धुरि, भीम, अभिमुक्त, अक्षपात, सह, धृति, वसु, अनाधृष्य, राम, काम, जय और विराट्-ये उन्चास मरुत नामक देवता तुम्हारा अभिषेक करें तथा तुम्हें लक्ष्मी प्रदान करें। चित्राङ्गद, चित्ररथ, चित्रसेन, कलि, ऊर्णायु, उग्रसेन, धृतराष्ट्र, नन्दक, हाहा, हूहू, नारद, विश्वावसु और तुम्बुरु–ये गन्धर्व तुम्हारे अभिषेकका कार्य सम्पन्न करें और तुम्हें विजयी बनावें । प्रधान-प्रधान मुनि तथा अनवद्या, सुकेशी, मेनका, सहजन्या, क्रतुस्थला, घृताची, विश्वाची, पुञ्जिकस्थला, प्रम्लोचा, उर्वशी, रम्भा, पञ्चचूड़ा, तिलोत्तमा, चित्रलेखा, लक्ष्मणा, पुण्डरीका और वारुणी-ये दिव्य अप्सराएँ तुम्हारी रक्षा करें ॥ १२-३८॥
“प्रह्लाद, विरोचन, बलि, बाण और उसका पुत्र-ये तथा दूसरे-दूसरे दानव और राक्षस तुम्हारे अभिषेकका कार्य सिद्ध करें। हेति, प्रहेति, विद्युत्, स्फूर्जथु, अग्रक, यक्ष, सिद्ध, मणिभद्र और नन्दन-ये सब तुम्हारी रक्षा करें। पिङ्गाक्ष, द्युतिमान्, पुष्पवन्त, जयावह, शङ्ख, पद्म, मकर और कच्छप-ये निधियाँ तुम्हें विजय प्रदान करें, ऊर्ध्वकेश आदि पिशाच, भूमि आदिके निवासी भूत और माताएँ, महाकाल एवं नृसिंहको आगे करके तुम्हारा पालन करें। गुह, स्कन्द, विशाख, नैगमेय-ये तुम्हारा अभिषेक करें। भूतल एवं आकाशमें विचरनेवाली डाकिनी तथा योगिनियाँ, गरुड, अरुण तथा सम्पाति आदि पक्षी तुम्हारा पालन करें। अनन्त आदि बड़े-बड़े नाग, शेष, वासुकि, तक्षक, ऐरावत, महापद्य, कम्बल, अश्वतर, शङ्ख, कर्कोटक, धृतराष्ट्र, धनंजय, कुमुद, ऐरावत, पद्य, पुष्पदन्त, वामन, सुप्रतीक तथा अञ्जन नामक नाग सदा और सब ओरसे तुम्हारी रक्षा करें। ब्रह्माजीका वाहन हंस, भगवान् शंकरका वृषभ, भगवती दुर्गाका सिंह और यमराजका भैंसा-ये सभी वाहन तुम्हारा पालन करें। अश्वराज उच्चैःश्रवा, धन्वन्तरि वैद्य, कौस्तुभ- मणि, शङ्खराज पाञ्चजन्य, वज्र, शूल, चक्र और नन्दक खङ्ग आदि अस्त्र तुम्हारी रक्षा करें। दृढ़ निश्चय रखनेवाले धर्म, चित्रगुप्त, दण्ड, पिङ्गल, मृत्यु, काल, बालखिल्य आदि मुनि, व्यास और वाल्मीकि आदि महर्षि, पृथु, दिलीप, भरत, दुष्यन्त, अत्यन्त बलवान् शत्रुजित्, मनु, ककुत्स्थ, अनैना, युवनाश्व, जयद्रथ, मान्धाता, मुचुकुन्द और पृथ्वीपति पुरूरवा-ये सब राजा तुम्हारे रक्षक हों। वास्तुदेवता और पचीस तत्त्व तुम्हारी विजयके साधक हों। रुक्मभौम, शिलाभौम, पाताल, नीलमूर्ति, पीतरक्त, क्षिति, श्वेतभौम, रसातल, भूलक, भुवर् आदि लोक तथा जम्बू- द्वीप आदि द्वीप तुम्हें राज्यलक्ष्मी प्रदान करें। उत्तरकुरु, रम्य, हिरण्यक, भद्राश्व, केतुमाल, बलाहक, हरिवर्ष, किंपुरुष, इन्द्रद्वीप, कशेरुमान्, ताम्रवर्ण, गभस्तिमान्, नागद्वीप, सौम्यक, गान्धर्व, वारुण और नवम आदि वर्ष तुम्हारी रक्षा करें और तुम्हें राज्य प्रदान करनेवाले हों। हिमवान्, हेमकूट, निषध, नील, श्वेत, शृङ्गवान्, मेरु, माल्यवान्, गन्धमादन, महेन्द्र, मलय, सह्रा, शुक्तिमान्, ऋक्षवान् गिरि, विन्ध्य और पारियात्र-ये सभी पर्वत तुम्हें शान्ति प्रदान करें। ऋक् आदि चारों वेद, छहों अङ्ग, इतिहास, पुराण, आयुर्वेद, गान्धर्ववेद और धनुर्वेद आदि उपवेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्यौतिष, छन्द-ये छः अङ्ग, चार वेद, मीमांसा, न्याय, धर्मशास्त्र और पुराण-ये चौदह विद्याएँ तुम्हारी रक्षा करें ॥ ३९-६०॥
“सांख्य, योग, पाशुपत, वेद, पाञ्चरात्र-ये ‘सिद्धान्तपञ्चक’ कहलाते हैं। इन पाँचोंके अतिरिक्त गायत्री, शिवा, दुर्गा, विद्या तथा गान्धारी नामवाली देवियाँ तुम्हारी रक्षा करें और लवण, इक्षुरस, सुरा, घृत, दधि, दुग्ध तथा जलसे भरे हुए समुद्र तुम्हें शान्ति प्रदान करें। चारों समुद्र और नाना प्रकारके तीर्थ तुम्हारी रक्षा करें। पुष्कर, प्रयाग, प्रभास, नैमिषारण्य, गयाशीर्ष, ब्रह्मशिरतीर्थ, उत्तरमानस, कालोदक, नन्दिकुण्ड, पञ्चनदतीर्थ, भृगुतीर्थ, अमरकण्टक, जम्बूमार्ग, विमल, कपिलाश्रम, गङ्गाद्वार, कुशावर्त, विध्य, नीलगिरि, वराह पर्वत, कनखल तीर्थ, कालज्ञ्जर, केदार, रुद्रकोटि, महातीर्थ वाराणसी, बदरिकाश्रम, द्वारका, श्रीशैल, पुरुषोत्तमतीर्थ, शालग्राम, वाराह, सिंधु और समुद्रके संगमका तीर्थ, फल्गुतीर्थ, विन्दुसर, करवीराश्रम, गङ्गानदी, सरस्वती, शतद्रु, गण्डकी, अच्छोदा, विपाशा, वितस्ता, देविका नदी, कावेरी, वरुणा, निश्चिरा, गोमती नदी, पारा, चर्मण्वती, रूपा, महानदी, मन्दाकिनी, तापी, पयोष्णी, वेणा, वैतरणी, गोदावरी, भीमरथी, तुङ्गभद्रा, अरणी, चन्द्रभागा, शिवा तथा गौरी आदि पवित्र नदियाँ तुम्हारा अभिषेक और पालन करें”॥६१–७२ ॥
दो सौ उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१९
अध्याय-२२० राजाके द्वारा अपने सहायकोंकी नियुक्ति और उनसे काम लेनेका ढंग
पुष्कर कहते हैं– अभिषेक हो जानेपर उत्तम राजाके लिये यह उचित है कि वह मन्त्रीको साथ लेकर शत्रुओंपर विजय प्राप्त करे। उसे ब्राह्मण या क्षत्रियको, जो कुलीन और नीतिशास्त्रका ज्ञाता हो, अपना सेनापति बनाना चाहिये। द्वारपाल भी नीतिज्ञ होना चाहिये। इसी प्रकार दूतको भी मृदुभाषी, अत्यन्त बलवान् और सामर्थ्यवान् होना उचित है ॥ १-२ ॥
राजाको पान देनेवाला सेवक, स्त्री या पुरुष कोई भी हो सकता है। इतना अवश्य है कि उसे राजभक्त, क्लेश-सहिष्णु और स्वामीका प्रिय होना चाहिये। साँधिविग्रहिक (परराष्ट्रसचिव) उसे बनाना चाहिये, जो संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय-इन छहों गुणोंका समय और अवसरके अनुसार उपयोग करनेमें निपुण हो। राजाकी रक्षा करनेवाला प्रहरी हमेशा हाथों तलवार लिये रहे। सारथि सेना आदिके विषयमें पूरी जानकारी रखे। रसोइयोंके अध्यक्षको राजाका हितैषी और चतुर होनेके साथ ही सदा रसोईघरमें उपस्थित रहना चाहिये। राजसभाके सदस्य धर्मके ज्ञाता हों। लिखनेका काम करनेवाला पुरुष कई प्रकारके अक्षरोंका ज्ञाता तथा हितैषी हो। द्वार-रक्षामें नियुक्त पुरुष ऐसे होने चाहिये, जो स्वामीके हितमें संलग्न हों और इस बातकी अच्छी तरह जानकारी रखें कि महाराज कब-कब उन्हें अपने पास बुलाते हैं। धनाध्यक्ष ऐसा मनुष्य हो, जो रत्न आदिकी परख कर सके और धन बढ़ानेके साधनोंमें तत्पर रहे। राजवैद्यको आयुर्वेदका पूर्ण ज्ञान होना चाहिये। इसी प्रकार गजाध्यक्षको भी गजविद्यासे परिचित होना आवश्यक है। हाथी-सवार परिश्रमसे थकनेवाला न हो। घोड़ोंका अध्यक्ष अश्वविद्याका विद्वान् होना चाहिये। दुर्गके अध्यक्षको भी हितैषी एवं बुद्धिमान् होना आवश्यक है। शिल्पी अथवा कारीगर वास्तुविद्याका ज्ञाता हो। जो मशीनसे हथियार चलाने, हाथसे शस्त्रोंका प्रयोग करने, शस्त्रको न छोड़ने, छोड़े हुए शस्त्रको रोकने या निवारण करनेमें तथा युद्धकी कलामें कुशल और राजाका हित चाहनेवाला हो, उसे ही अस्त्राचार्यके पदपर नियुक्त करना चाहिये। रनिवासका अध्यक्ष वृद्ध पुरुषको
बनाना चाहिये। पचास वर्षकी स्त्रियाँ और सत्तर वर्षकै बूढ़े पुरुष अन्त:पुरके सभी कार्योंमें लगाये
जा सकते हैं। शस्त्रागारमें ऐसे पुरुषको रखना चाहिये, जो सदा सजग रहकर पहरा देता रहे। भृत्योंके कार्योको समझकर उनके लिये तदनुकूल जीविकाका प्रबन्ध करना उचित है। राजाको चाहिये कि वह उत्तम, मध्यम और निकृष्ट कार्यों का विचार करके उनमें ऐसे ही पुरुषको नियुक्त करे। पृथ्वीपर विजय चाहनेवाला भूपाल हितैषी सहायकोंका संग्रह करे। धर्मके कार्यों में धर्मात्मा पुरुषोंको, युद्धमें शूरवीरोंको और धनोपार्जनके कार्यों में अर्थकुशल व्यक्तियोंको लगावे। इस बातका ध्यान रखें कि सभी कार्यों में नियुक्त हुए पुरुष शुद्ध आचार-विचार रखनेवाले हों ॥ ३-१२॥
स्त्रियोंकी देख-भालमें नपुंसकोंको नियुक्त करे। कठोर कर्मोमें तीखे स्वभाववाले पुरुषोंको लगावे। तात्पर्य यह कि राजा धर्म-अर्थ अथवा कामके साधनमें जिस पुरुषको जहाँके लिये शुद्ध एवं उपयोगी समझे, उसकी वहीं नियुक्ति करे।
निकृष्ट श्रेणीके कामों में वैसे ही पुरुषको लगावे। राजाके लिये उचित है कि वह तरह-तरहके उपायोंसे मनुष्योंकी परीक्षा करके उन्हें यथायोग्य कार्योंमें नियोजित करे। मन्त्रीसे सलाह ले, कुछ व्यक्तियोंको यथोचित वृत्ति देकर हाथियोंके जंगलमें तैनात करे तथा उनका पता लगाते रहनेके लिये कई उत्साही अध्यक्षको नियुक्त करे। जिसको जिस काममें निपुण देखे, उसको उसीमें लगाने और कोई बाप-दादोंके समयसे चले आते हुए भृत्योंको सभी तरहके कार्यों में नियुक्त करे। केवल उत्तराधिकारी कार्योंमें उनकी नियुक्ति नहीं करे; क्योंकि वहाँ वे सब-के-सब एक समान हैं। जो लोग दूसरे राजाके आश्रयसे हटकर अपने पास शरण लेनेकी इच्छासे आवें, वे दुष्ट हों या साधु, उन्हें यलपूर्वक आश्रय दे। दुष्ट साबित होनेपर उनका विश्वास न करे और उनकी जीविकावृत्तिको अपने ही अधीन रखे। जो लोग दूसरे देशों से अपने पास आये हों, उनके विषयमें गुप्तचरोंद्वारा सभी बातें जानकर उनका यथावत् सत्कार करे। शत्रु, अग्नि, विष, साँप और तलवार एक ओर तथा दुष्ट स्वभाववाले भृत्य दूसरी ओर, इनमें दुष्ट भृत्योंको ही अधिक भयंकर समझना चाहिये। राजाको चारचक्षु होना उचित है। अर्थात् उसे गुप्तचरोंद्वारा सभी बातें देखनी-उनकी जानकारी प्राप्त करनी चाहिये। इसलिये वह हमेशा सबकी देख-भालके लिये गुप्तचर तैनात किये रहे। गुप्तचर ऐसे हों, जिन्हें दूसरे लोग पहचानते न हों, जिनका स्वभाव शान्त एवं कोमल हों तथा जो परस्पर एक-दूसरेसे भी अपरिचित हों। उनमें कोई वैश्यके रूपमें हो, कोई मन्त्र-तन्त्रमें कुशल, ज्यौतिषी, कोई वैद्य, कोई संन्यास-वेषधारी और कोई बलाबलका विचार करनेवाले व्यक्तिके रूपमें हो। राजाको चाहिये कि किसी एक गुप्तचरकी बातपर विश्वास न करे। जब बहुतोंके मुखसे एक तरहकी बात सुने, तभी उसे विश्वसनीय समझे। भृत्योंके हृदयमें राजाके प्रति अनुराग है। या विरक्ति, किस मनुष्यमें कौन-से गुण तथा अवगुण हैं, कौन शुभचिन्तक हैं और कौन अशुभ चाहनेवाले-अपने भृत्यवर्गको वशमें रखनेके लिये राजाको ये सभी बातें जाननी चाहिये। वह ऐसा कर्म करे, जो प्रजाका अनुराग बढ़ानेवाला हो। जिससे लोगोंके मनमें विरक्ति हो, ऐसा कोई काम न करे । प्रजाका अनुराग बढ़ानेवाली लक्ष्मीसे युक्त राजा ही वास्तवमें राजा है। यह सब लोगोंका रञ्जन करने–उनकी प्रसन्नता बढ़ानेके कारण ही ‘राजा’ कहलाता है ॥ १३-२४ ॥
दो सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २२० ॥
अध्याय-२२१ अनुजीवियोंका राजाके प्रति कर्तव्यका वर्णन
पुष्कर कहते हैं– भृत्यको राजाकी आज्ञाका उसी प्रकार पालन करना चाहिये, जैसे शिष्य गुरुकी और साध्वी स्त्रियाँ अपने पतिकी आज्ञाका पालन करती हैं। राजाकी वातपर कभी आक्षेप न करे, सदा ही उसके अनुकूल और प्रिय वचन बोले। यदि कोई हितकी बात बतानी हो और वह सुननेमें अप्रिय हो तो उसे एकान्तमें राजासे कहना चाहिये। किसी आयके काममें नियुक्त होनेपर राजकीय धनका अपहरण न करे; राजाके सम्मानको उपेक्षा न करे। उसकी वेश-भूषा और बोल-चालको नकल करना उचित नहीं है। अन्त:पुरके सेवकोंके अध्यक्षका कर्तव्य है कि
वह ऐसे पुरुषोंके साथ न बैठे, जिनका राजाकेसाथ वैर हो तथा जो राजदरबारसे अपमानपूर्वक निकाले गये हों। भृत्यको राजाको गुप्त बातोंको दूसरोंपर प्रकट नहीं करना चाहिये। अपनी कोई कुशलता दिखाकर राजाको विशेष सम्मानित एवं प्रसन्न करना चाहिये। यदि राजा कोई गुप्त बात सुनावें तो उसे लोगों में प्रकाशित न करे। यदि वे दूसरेको किसी कामके लिये आज्ञा दे रहे हों तो स्वयं ही उठकर कहे-‘महाराज! मुझे आदेश दिया जाय, कौन-सा काम करना है, मैं उसे करूंगा।’ राजाके दिये हुए वस्त्र-आभूषण तथा रत्न आदिको सदा धारण किये रहे। बिना आज्ञाके दरवाजेपर अथवा और किसी अयोग्य स्थानपर, जहाँ राजाकी दृष्टि पड़ती हो, न बैठे। जँभाई लेना, थूकना, खाँसना, क्रोध प्रकट करना, खाटपर बैठना, भाँहें टेढ़ी करना, अधोवायु छोड़ना तथा डकार लेना आदि कार्य राजाके निकट रहनेपर न करे। उनके सामने अपना गुण प्रकट करनेके लिये दूसरोंको ही युक्तिपूर्वक नियुक्त करे। शठता, लोलुपता, चुगली, नास्तिकता, नीचता तथा चपलता-इन दोषोंका राजसेवकोंको सदा त्याग करना चाहिये। पहले स्वयं प्रयत्न करके अपनेमें वेदविद्या एवं शिल्पकलाकी योग्यताका सम्पादन करे। उसके बाद अपना धन बढ़ानेकी चेष्टा करनेवाले पुरुषको अभ्युदयके लिये राजाकी सेवामें प्रवृत्त होना चाहिये। उनके प्रिय पुत्र एवं मन्त्रियोंको सदा नमस्कार करना उचित है। केवल मन्त्रियोंके साथ रहनेसे राजाका अपने ऊपर विश्वास नहीं होता; अतः उनके हार्दिक अभिप्रायके अनुकूल सदा प्रिय कार्य करे।
राजाके स्वभावको समझनेवाले पुरुषके लिये उचित है कि वह विरक्त राजाको त्याग दे और अनुरक्त राजासे ही आजीविका प्राप्त करनेकी चेष्टा करे।
बिना पूछे राजाके सामने कोई बात न कहे; किंतु आपत्तिके समय ऐसा करनेमें कोई हर्ज नहीं है। राजा प्रसन्न हो तो वह सेवकके विनययुक्त वचनको मानता है, उसकी प्रार्थनाको स्वीकार करता है। प्रेमी सेवकको किसी रहस्य स्थान (अन्तःपुर) आदिमें देख ले तो भी उसपर शङ्का-संदेह नहीं करता है। वह दरबारमें आये तो राजा उसकी कुशल पूछता है, उसे बैठनेके लिये आसन देता है। उसकी चर्चा सुनकर वह प्रसन्न होता है। वह कोई अप्रिय बात भी कह दे तो वह बुरा नहीं मानता, उलटे प्रसन्न होता है। उसकी दी हुई छोटी-मोटी वस्तु भी राजा बड़े आदरसे ले लेता है और बातचीतमें उसे याद रखता है। उक्त लक्षणों से राजा अनुरक्त है या विरक्त यह जानकर अनुरक्त राजाकी सेवा करे। इसके विपरीत जो विरक्त है, उसका साथ छोड़ दे॥ १-१४॥
दो सौ इक्सकीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २२१ ॥
अध्याय-२२२ राजाके दुर्ग, कर्तव्य तथा साध्वी स्त्रीके धर्मका वर्णन
पुष्कर कहते हैं– अब मैं दुर्ग बनानेके विषयमें कहूँगा। राजाको दुर्गदेश (दुर्गम प्रदेश अथवा सुदृढ़ एवं विशाल किले)-में निवास करना चाहिये। साथ रहनेवाले मनुष्योंमें वैश्यों और शूद्रोंकी संख्या अधिक होनी चाहिये। दुर्ग ऐसे स्थानमें रहे, जहाँ शत्रुओंका जोर न चल सके। दुर्गमें थोड़े-से ब्राह्मणोंका भी रहना आवश्यक है। राजाके रहनेके लिये वही देश श्रेष्ठ माना गया
है, जहाँ बहुत-से काम करनेवाले लोग (किसान- मजदूर) रहते हों, जहाँ पानीके लिये वर्षाकी राह नहीं देखनी पड़ती हो, नदी-तालाब आदिसे ही पर्याप्त जल प्राप्त होता रहता हो। जहाँ शत्रु पीड़ा न दे सकें, जो फल-फूल और धन-धान्यसे सम्पन्न हो, जहाँ शत्रु-सेनाकी गति न हो सके और सर्प तथा लुटेरोंका भी भय न हो। बलवान् राजाको निम्नाङ्कित छः प्रकारके दुर्गों में से किसी एकका आश्रय लेकर निवास करना चाहिये। भृगुनन्दन! धन्वदुर्ग, महीदुर्ग, नरदुर्ग, वृक्षदुर्ग, जलदुर्ग और पर्वतदुर्ग-ये ही छ: प्रकारके दुर्ग हैं। इनमें पर्वतदुर्ग सबसे उत्तम है। वह शत्रुओंके लिये अभेद्य तथा रिपुवर्गका भेदन करनेवाला है। दुर्ग ही राजाका पुर या नगर है। वहाँ हाट-बाजार तथा देवमन्दिर आदिका होना आवश्यक है। जिसके चारों ओर यन्त्र लगे हों, जो अस्त्र-शस्त्रों से भरा हो, जहाँ जलका सुपास हो तथा जिसके सब ओर पानीसे भरी खाइयाँ हों, वह दुर्ग उत्तम माना गया है॥ १-६॥
अब मैं राजाकी रक्षाके विषयमें कुछ निवेदन करूंगा-राजा पृथ्वीका पालन करनेवाला है, अतः विष आदिसे उसकी रक्षा करनी चाहिये।
शिरीष वृक्षकी जड़, छाल, पत्ता, फूल और फल-इन पाँचों अङ्गको गोमूत्रमें पीसकर सेवन करनेसे विषका निवारण होता है।
शतावरी, गुडुचि और चौंराई विषका नाश करनेवाली है।
कोषातकी (कड़वी तरोई), कहारी (करियारी), ब्राह्मी, चित्रपटोलिका (कड़वी परोरी), मण्डूकपर्णी (ब्राह्मीका एक भेद), वाराहीकन्द, आँवला, आनन्दक, भाँग और सोमराजी (बकुची)-ये दवाएँ विष दूर करनेवाली हैं।
विषनाशक माणिक्य और मोती आदि रत्न भी विषका निवारण करनेवाले हैं। ॥ ७-१० ॥
राजाको वास्तुके लक्षणों से युक्त दुर्गमें रहकर देवताओंका पूजन, प्रजाका पालन, दुष्टोंका दमन तथा दान करना चाहिये। देवताके धन आदिको अपहरण करनेसे राजाको एक कल्पतक नरकमें रहना पड़ता है। उसे देवपूजामें तत्पर रहकर देवमन्दिरोंका निर्माण कराना चाहिये। देवालयोंकी | रक्षा और देवताओंकी स्थापना भी राजाका कर्तव्य है। देवविग्रह मिट्टीका भी बनाया जाता है। मिट्टीसे काठका, काठसे ईंटका, ईटसे पत्थरका और पत्थरसे सोने तथा रत्नका बना हुआ विग्रह पवित्र माना गया है। प्रसन्नतापूर्वक देवमन्दिर बनवानेवाले पुरुषको भोग और मोक्षकी प्राप्ति होती है। देवमन्दिरमें चित्र बनवावे, गाने-बजाने आदिका प्रवन्ध करे, दर्शनीय वस्तुओं का दान दे तथा तेल, घी, मधु और दूध आदिसे देवताको नहलावे तो मनुष्य स्वर्गलोकमें जाता है। ब्राह्मणोंका पालन और सम्मान करे; उनका धन न छीने। यदि राजा ब्राह्मणका एक सोना, एक गौ अथवा एक अंगुल जमीन भी छीन ले, तो उसे महाप्रलय होनेतक नरकमें डूबे रहना पड़ता है। ब्राह्मण सब प्रकारके पापोंमें प्रवृत्त तथा दुराचारी हो तो भी उससे द्वेष नहीं करना चाहिये। ब्राह्मणकी हत्यासे बढ़कर भारी पाप दूसरा कोई नहीं है। महाभाग ब्राह्मण चाहें तो जो देवता नहीं हैं, उन्हें भी देवता बना दें और देवताको भी देवपदसे नीचे उतार दें; अतः सदा ही उनको नमस्कार करना चाहिये ॥ ११-१७॥
यदि राजाके अत्याचारसे ब्राह्मणीको रुलाई आ जाय तो वह उसके फूल, राज्य तथा प्रजा-सबका नाश कर डालती है। इसलिये धर्मपरायण राजाको उचित है कि वह साध्वी स्त्रियोंका पालन करे। स्त्रीको घरके काम-काजमें चतुर और प्रसन्न होना चाहिये। वह घरके प्रत्येक सामानको साफ-सुथरा रखे; खर्च करनेमें खुले हाथवाली न हो। कन्याको उसका पिता जिसे दान कर दे, यही उसका पति है। अपने पतिकी उसे सदा सेवा करनी चाहिये। स्वामीकी मृत्यु हो जानेपर ब्रह्मचर्यका पालन करनेवाली स्त्री स्वर्गलोकमें जाती है। वह दूसरेके घरमें रहना पसंद न करे। और लड़ाई-झगड़ेसे दूर रहे। जिसका पति परदेशमें हो, वह स्त्री शृङ्गार न करे, सदा अपने स्वामीके हितचिन्तनमें लगी रहकर देवताओंकी आराधना करे। केवल मङ्गलके लिये सौभाग्यचिह्नके रूपमें दो-एक आभूषण धारण किये रहे। जो स्त्री स्वामीके मरनेपर उसके साथ ही चिताकी आगमें प्रवेश कर जाती है, उसे भी स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है। लक्ष्मीको पूजा और घरकी सफाई आदि रखना गृहिणीका मुख्य कार्य है। कार्तिककी द्वादशीको विष्णुकी पूजा करके बछडेसहित गौका दान करना चाहिये। सावित्रीने अपने सदाचार और ब्रतके प्रभावसे पतिकी मृत्युसे रक्षा की थी। मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमीको सूर्यको पूजा करनेसे स्त्रीको पुत्रोंकी प्राप्ति होती है; इसमें तनिक भी अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है॥ १८-२६॥
दो सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २२२॥
अध्याय-२२३ राष्ट्रकी रक्षा तथा प्रजासे कर लेने आदिके विषयमें विचार
पुष्कर कहते हैं-(राज्यका प्रबन्ध इस प्रकार करना चाहिये-) राजाको प्रत्येक गाँवका एक-एक अधिपति नियुक्त करना चाहिये। फिर दस-दस गाँवोंका तथा सौ-सौ गाँवोंका अध्यक्ष नियुक्त करे। सबके ऊपर एक ऐसे पुरुषको नियुक्त करे, जो समूचे राष्ट्रका शासन कर सके। उन सबके कार्योंके अनुसार उनके लिये पृथक्-पृथक् भोग (भरण-पोषणके लिये वेतन आदि)- का विभाजन करना चाहिये तथा प्रतिदिन गुप्तचरोंके द्वारा उनके कार्योंकी देख-भाल एवं परीक्षण करते रहना चाहिये। यदि गाँवमें कोई दोष उत्पन्न हो–कोई मामला खड़ा हो तो ग्रामाधिपतिको उसे शान्त करना चाहिये। यदि वह उस दोषको दूर करनेमें असमर्थ हो जाय तो इस गाँवोंके अधिपतिके पास जाकर उनसे सब बातें बतावे। पूरी रिपोर्ट सुनकर वह दस गाँवका स्वामी उस दोषको मिटानेका उपाय करे ॥ १-३॥
जब राष्ट्र भलीभाँति सुरक्षित होता है, तभी राजाको उससे धन आदिकी प्राप्ति होती है। धनवान् धर्मका उपार्जन करता है, धनवान् ही कामसुखका उपभोग करता है। जैसे गर्मीमें नदीको पानी सूख जाता है, उसी प्रकार धनके बिना सब कार्य चौपट हो जाते हैं। संसारमें पतित और निर्धन मनुष्यों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। लोग पतित मनुष्यके हाथसे कोई वस्तु नहीं लेते और दरिद्र अपने अभावके कारण स्वयं ही नहीं दे पाता। धनहीनकी स्वी भी उसकी आज्ञाके अधीन नहीं रहती; अतः राष्ट्रको पीड़ा पहुँचानेवाला-उसे कंगाल बनानेवाला राजा अधिक कालतक नरकमें निवास करता है। जैसे गर्भवती पत्नी अपने सुखका खयाल छोड़कर गर्भके बच्चेको सुख पहुँचानेकी चेष्टा करती है, उसी प्रकार राजाको भी सदा प्रजाकी रक्षाका ध्यान रखना चाहिये। जिसकी प्रजा सुरक्षित नहीं हैं, उस राजाके यज्ञ और तपसे क्या लाभ? जिसने प्रजाकी भलीभाँति रक्षा की है, उसके लिये स्वर्गलोक अपने घरके समान हो जाता है। जिसकी प्रजा अरक्षित-अवस्थामें कष्ट उठाती हैं, उस राजाका निवासस्थान है-नरक। राजा अपनी प्रजाके पुण्य और पापमेंसे भी छठा भाग ग्रहण करता है। रक्षा करनेसे उसको प्रजाके धर्मकान अंश प्राप्त होता है और रक्षा न करनेसे वह लोगोंके पापका भागी होता है। जैसे परस्त्रीलम्पट दुराचारी पुरुषोंसे डरी हुई पतिव्रता स्त्रीकी रक्षा करना धर्म है, उसी प्रकार राजाके प्रिय व्यक्तियों, चोरों और विशेषतः राजकीय कर्मचारियोंके द्वारा चूसी जाती हुई प्रजाको रक्षा करनी चाहिये। उनके भयसे रक्षित होनेपर प्रजा राजाके काम आती है। यदि उसकी रक्षा नहीं की गयी तो वह पूर्वोक्त मनुष्योंका ही ग्रास बन जाती है। इसलिये राजा दुष्टोंका दमन करे और शास्त्रमें बताये अनुसार प्रजासे कर ले। राज्यकी आधी आय सदा खजानेमें रख दिया करे और आधा ब्राह्मणको दे दे। श्रेष्ठ ब्राह्मण उस निधिको पाकर सब-का-सब अपने हाथमें ले ले और उसमें से चौथा, आठवाँ तथा सोलहवाँ भाग निकालकर क्रमशः क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रको दे। धनको धर्मके अनुसार सुपात्रके हाथमें ही देना चाहिये। झूठ बोलनेवाले मनुष्यको दण्ड देना उचित है। राजा उसके धनका आठवाँ भाग दण्डके रूपमें ले ले। जिस धनका स्वामी लापता हो, उसे राजा तीन वर्षों तक अपने अधिकार रखे। तीन वर्षक पहले यदि धनका स्वामी आ जाय तो वह उसे ले सकता है। उससे अधिक समय बीत जाने पर राजा स्वयं ही उस धनको ले ले। जो मनुष्य (नियत समयके भीतर आकर) ‘यह मेरा न है’-ऐसा कहकर उसका अपनेसे सम्बन्ध बतलाता है, वह विधिपूर्वक (राजाके सामने जाकर) उस धनका रूप और उसकी संख्या बतलावे। इस प्रकार अपनेको स्वामी सिद्ध कर देनेपर वह उस धनको पानेका अधिकारी होता है। जो धन छोटे बालकके हिस्सेका हो, उसकी राजा तबतक रक्षा करता रहे, जबतक कि उसका समावर्तन-संस्कार न हो जाय, अथवा जबतक उसकी बाल्यावस्था निवृत्त हो जाय। इसी प्रकार जिनके कुलमें कोई न हो और उनके बच्चे छोटे हों, ऐसी स्त्रियोंकी भी रक्षा आवश्यक है ॥४-१९ ॥
पतिव्रता स्त्रियाँ भी यदि विधवा तथा रोगिणी हों तो उनकी रक्षा भी इसी प्रकार करनी चाहिये। यदि उनके जीते-जी कोई बन्धु-बान्धव उनके धनका अपहरण करें तो धर्मात्मा राजाको उचित है कि उन बान्धवोंको चोरका दण्ड दे। यदि साधारण चोरोंने प्रजाका धन चुराया हो तो राजा स्वयं उतना धन प्रजाको दे तथा जिन्हें चोरोंसे रक्षा करनेका काम सौंपा गया हो, उनसे चुराया हुआ धन राजा वसूल करे। जो मनुष्य चोरी न होनेपर भी अपने धनको चुराया हुआ बताता हो, वह दण्डनीय है; उसे राज्यसे बाहर निकाल देना चाहिये। यदि घरका धन घरवालोंने ही चुराया हो तो राजा अपने पाससे उसको न दें। अपने राज्यके भीतर जितनी दूकानें हों, उनसे उनको आयका बीसवीं हिस्सा राजाको टैक्सके रूपमें लेना चाहिये। परदेशसे माल मंगानेमें जो खर्च और नुकसान बैठता हो, उसका ब्यौरा बतानेवाला बीजक देखकर तथा मालपर दिये जानेवाले टैक्सका विचार करके प्रत्येक व्यापारीपर कर लगाना चाहिये, जिससे उसको लाभ होता रहे-वह घाटेमें न पड़े। आयका बीसवाँ भाग ही राजाको लेना चाहिये। यदि कोई राजकर्मचारी इससे अधिक वसूल करता हो तो उसे दण्ड देना उचित है। स्त्रियों और साधु-संन्यासियोंसे नावकी उतराई (सेवा) नहीं लेनी चाहिये। यदि मल्लाहोंकी गलतीसे नावपर कोई चीज नुकसान हो जाय तो वह मल्लाहोरो ही दिलानी चाहिये। राजा शुकधान्यका छठा भाग और शिम्बिधान्यका आठवाँ भाग करके रुपमें ग्रहण करे। इसी प्रकार जंगली फल-मूल आदिमेंसे देश-कालके अनुरूप उचित कर लेना चाहिये । पशुओंका पाँचवाँ और सुवर्णका छठा भाग राजाके लिये ग्राह्य है। गन्ध, ओषधि, रस, फूल, मूल, फल, पत्र, शाक, तृण, बाँस, वेणु, चर्म, बाँसको चीरकर बनाये हुए टोकरे तथा पत्थरके बर्तनोंपर और मधु, मांस एवं घीपर भी आमदनीका छठा भाग ही कर लेना उचित है। २०-२९ ॥
ब्राह्मणों से कोई प्रिय वस्तु अथवा कर नहीं लेना चाहिये। जिस राजाके राज्यमें श्रोत्रिय ब्राह्मण भूखसे कष्ट पाता है, उसका राज्य बीमारी, अकाल और लुटेरोंसे पीड़ित होता रहता है। अत: ब्राह्मणकी विद्या और आचरणको जानकर उसके लिये अनुकूल जीविकाका प्रबन्ध करे तथा जैसे पिता अपने औरस पुत्रका पालन करता है, उसी प्रकार राजा विद्वान् और सदाचारी ब्राह्मणकी सर्वथा रक्षा करे। जो राजासे सुरक्षित होकर प्रतिदिन धर्मका अनुष्ठान करता है, उस ब्राह्मणके धर्मसे राजाकी आयु बढ़ती है तथा उसके राष्ट्र एवं खजानेको भी उन्नति होती है। शिल्पकारोंको चाहिये कि महीनेमें एक दिन बिना पारिश्रमिक लिये केवल भोजन स्वीकार करके राजाका काम करें। इसी प्रकार दूसरे लोगों की भी, जो राज्यमें रहकर अपने शरीर परिश्रमसे जीविका चलाते हैं, महीनेमें एक दिन राजाका काम करना चाहिये । ३०-३४॥
दो सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २२३ ॥
अध्याय-२२४ अन्तःपुरके सम्बन्धमें राजाके कर्त्तव्य; स्त्रीकी विरक्ति और अनुरक्तिकी परीक्षा तथा सुगन्धित पदार्थोंके सेवनका प्रकार
पुष्का कहते हैं– अब मैं अन्त:पुरके विषयमें विचार करूंगा। धर्म, अर्थ और काम-ये तीन पुरुषार्थ ‘त्रिवर्ग’ कहलाते हैं। इनकी एक-दूसरेके द्वारा रक्षा करते हुए स्त्रीसहित राजाओंको इनका सेवन करना चाहिये। ‘त्रिवर्ग’ एक महान् वृक्षके समान है। ‘धर्म’ उसकी जड़, ‘अर्थ’ उसकी शाखाएँ और ‘काम’ उसका फल है। मूलसहित उस वृक्षकी रक्षा करनेसे ही राजा फलका भागी हो सकता है। राम! स्त्रियाँ कामके अधीन होती हैं, उन्हींक लिये रत्नोंका संग्रह होता है। विषयसुखकी इच्छा रखनेवाले राजाको स्त्रियों का सेवन करना चाहिये, परंतु अधिक मात्रामें नहीं। आहार, मैथुन और निद्रा-इनका अधिक सेवन निषिद्ध है; क्योंकि इनसे रोग उत्पन्न होता है। उन्हीं स्त्रियोंका सेवन करे अथवा पलंगपर बैठावे, जो अपनेमें अनुराग रखनेवाली हों। परंतु जिस स्त्रीका आचरण दुष्ट हो, जो अपने स्वामीको चर्चा भी पसंद नहीं करती, बल्कि उनके शत्रुओंसे एकता स्थापित करती है, उद्दण्डतापूर्वक गर्व धारण किये रहती है, चुम्बन करनेपर अपना मुँह पोंछती या धोती है, स्वामीकी दी हुई वस्तुका अधिक आदर नहीं करती, पतिके पहले सोती है, पहले सोकर भी उनके जागनेके बाद ही जागती है, जो स्पर्श करने पर अपने शरीरको कैंपाने लगती है, एक-एक अङ्गपर अवरोध उपस्थित करती है, उनके प्रिय वचनको भी बहुत कम सुनती है और सदा उनसे परामख रहती है, सामने जाकर कोई वस्तु दी जाय, तो उसपर दृष्टि नहीं डालती, अपने जघन (कटिके अग्रभाग)-को अत्यन्त छिपाने-पतिके स्पर्शसे बचानेकी चेष्टा करती है, स्वामीको देखते ही जिसका मुँह उतर जाता है, जो उनके मित्रोंसे भी विमुख रहती है, वे जिन-जिन स्त्रियोंके प्रति अनुराग रखते हैं, उन सबकी ओरसे जो मध्यस्थ (न अनुरक्त न विरक्त) दिखायी देती है तथा जो शृङ्गारका समय उपस्थित जानकर भी शृङ्गार-धारण नहीं करती, वह स्त्री ‘विरक्त’ है। उसका परित्याग करके अनुरागिणी स्त्रीका सेवन करना चाहिये। अनुरागवती स्त्री स्वामीको देखते ही प्रसन्नतासे खिल उठती है, दूसरी ओर मुख किये होनेपर भी कनखियोंसे उनकी ओर देखा करती है, स्वामीको निहारते देख अपनी चञ्चल दृष्टि अन्यत्र हटा ले जाती है, परंतु पूरी तरह हटा नहीं पाती तथा भृगुनन्दन! अपने गुप्त अङ्गोंको भी वह कभी-कभी व्यक्त कर देती है और शरीरका जो अंश सुन्दर नहीं है, उसे प्रयत्नपूर्वक छिपाया करती है, स्वामीके देखते-देखते छोटे बच्चेका आलिङ्गन और चुम्बन करने लगती है, बातचीतमें भाग लेती और सत्य बोलती है, स्वामीका स्पर्श पाकर जिसके अंगों में रोमाञ्च और स्वेद प्रकट हो जाते हैं, जो उनसे अत्यन्त सुलभ वस्तु ही माँगती है और स्वामीसे थोड़ा पाकर भी अधिक प्रसन्नता प्रकट करती है, उनका नाम लेते ही आनन्दविभोर हो जाती तथा विशेष आदर करती है, स्वामीके पास अपनी अंगुलियोंके चिह्नसे युक्त फल भेजा करती है तथा स्वामीकी भेजी हुई कोई वस्तु पाकर उसे आदरपूर्वक छातीसे लगा लेती है, अपने आलिंगनोंद्वारा मानो स्वामीके शरीरपर अमृतका लेप कर देती हैं, स्वामीके सो जानेपर सोती और पहले ही जग जाती है तथा स्वामीके ऊओंका स्पर्श करके उन्हें सोतेसे जगाती है ॥ १-१७६ ॥
राम! दहीकी मलाईके साथ थोड़ा-सा कपित्थ (कैथ)-को चूर्ण मिला देनेसे जो घी तैयार होता है, उसकी गन्ध उत्तम होती है।
घी, दूध आदिके साध जौ, गेहूँ आदिके आटेका मेल होनेसे उत्तम खाद्य-पदार्थ तैयार होता है।
अब भिन्न-भिन्न द्रव्योंमें गन्ध छोड़नेका प्रकार दिखलाया जाता है।
शौच, आचमन, विरेचन, भावना, पाक, बोधन, धूपन और वासन-ये आठ प्रकारके कर्म बतलाये गये हैं।
कपित्थ, बिल्व, जामुन, आम और करवीरके पल्लवोंसे जलको शुद्ध करके उसके द्वारा जो किसी द्रव्यको धोकर या अभिषिक्त करके पवित्र किया जाता है, वह उस द्रव्यको ‘शौचन’ (शोधन अथवा पवित्रीकरण) कहलाता है। इन पल्लवोंके अभावमें कस्तूरीमिश्रित जलके द्वारा द्रव्योंकी शुद्धि होती है। नख, कूट, घन (नागरमोथा), जटामांसी, स्पृक्क, शैलेयज (शिलाजीत), जल, कुमकुम (केसर), लाक्षा (लाह), चन्दन, गुरु, नीरद्, सरल, देवदारु, कपूर, कान्ता, वाल (सुगन्धबाला), कुन्दुक, गुग्गुल, श्रीनिवास और करायल-ये धूपके इक्कीस द्रव्य हैं। इन इक्कीस धूप-द्रव्योंमेंसे अपनी इच्छाके अनुसार दो-दो द्रव्य लेकर उनमें करायल मिलावे। फिर सबमें नख (एक प्रकारका सुगन्धद्रव्य), पिण्याक (तिलकी खली) और मलय चन्दनका चूर्ण मिलाकर सबको मधुसे युक्त करे। इस प्रकार अपने इच्छानुसार विधिवत् तैयार किये हुए धूपयोग होते हैं। त्वचा (छाल), नाड़ी (डंठल), फल, तिलका तेल, केसर, ग्रन्थिपर्वा, शैलेय, तगर, विष्णुक्रान्ता, चोल, कर्पूर, जटामांसी, मुरा, कूट-ये सब स्नानके लिये उपयोगी द्रव्य हैं। इन द्रव्योंमेंसे अपनी इच्छाके अनुसार तीन द्रव्य लेकर उनमें कस्तूरी मिला दे। इन सबसे मिश्रित जलके द्वारा यदि स्नान करे तो कामदेवको बढानेवाला होता है। त्वचा, मुरा, नलद-इन सबको समान मात्रामें लेकर इनमें आधा सुगन्धवाला मिला दें। फिर इनके द्वारा स्नान करनेपर शरीरसे कमलकी-सी गन्ध उत्पन्न होती है। इनके ऊपर यदि तेल लगाकर स्नान करे तो शरीरका रंग कुमकुमके समान हो जाता है। यदि उपर्युक्त द्रव्योंमें आधा तगर मिला दिया जाय तो शरीरसे चमेली फूलकी भाँति सुगन्ध आती है। उनमें द्वयामक नामवाली औषध मिला देनेसे मौलसिरीके फूलोंकी-सी मनोहारिणी सुगन्ध प्रकट होती है। तिलके तेलमें मंजिष्ठ, तगर, चोल, त्वचा, व्याघ्रनख, नख और गन्धपत्र छोड़ देनेसे बहुत ही सुन्दर और सुगन्धित तेल तैयार हो जाता है। यदि तिलोंको सुगन्धित फूलों से वासित करके उनका तेल पेरा जाय तो निश्चय ही वह तेल फूलके समान ही सुगन्धित होता है। इलायची, लवंग, काकोल (कबाबचीन), जायफल और कर्पर -ये स्वतन्त्ररूपसे एक-एक भी यदि जायफलकी पत्तीके साथ खाये जायें तो मुंहको सुगन्धित रखनेवाले होते हैं। कर्पूर, केसर, कान्ता, कस्तूरी, मेउड़का फल, कबाबचीनी, इलायची, लवंग, जायफल, सुपारी, त्वक्पत्र, त्रुटि (छोटी इलायची), मोथा, लता, कस्तूरी, लवंगके कॉट, जायफलके फल और पत्ते, कटुकफल-इन सबको एक-एक पैसेभर एकत्रित करके इनका चूर्ण बना ले और उसमें चौथाई भाग वासित किया हुआ खैरसार मिलावे। फिर आपके रसमें घोटकर इनकी सुन्दर-सुन्दर गोलियाँ बना ले। वे सुगन्धित गोलियाँ मुँहमें रखनेपर मुख-सम्बन्धी रोगों का विनाश करनेवाली होती है। पूर्वोक्त पाँच पल्लवोंके जलसे धोयी हुई सुपारीको यथाशक्ति ऊपर बतायी हुई गोलीके द्रव्योंसे वासित कर दिया जाये तो वह मुँहको सुगन्धित रखनेवाली होती है। कटुक और दाँतनको यदि तीन दिनतक गोमूत्रमें भिगोकर रखा जाय तो वे सुपारीकी ही भाँत मुँहमें सुगन्ध उत्पन्न करनेवाले होते हैं। त्वचा और जंगी हरेंको बराबर मात्रामें लेकर उनमें आधा भाग कर्पूर मिला दे तो वे मुँहमें डालनेपर पानके समान मनोहर गन्ध उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार राजा अपने सुगन्ध आदि गुणों से स्त्रियोंको वशीभूत करके सदा उनकी रक्षा करे। कभी उनपर विश्वास न करे। विशेषतः पुत्रकी मातापर तो बिलकुल विश्वास न करे। सारी रात स्त्रीके घरमें न सोवे; क्योंकि उनका दिलाया हुआ विश्वास बनावटी होता है ॥ १८-४२॥
दो सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २२४॥
अध्याय-२२५ राज-धर्म–राजपुत्र-रक्षण आदि
पुष्कर कहते हैं– राजाको अपने पुत्रकी रक्षा करनी चाहिये तथा उसे धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और धनुर्वेदकी शिक्षा देनी चाहिये। साथ ही अनेक प्रकारके शिल्पोंकी शिक्षा देनी भी आवश्यक है। शिक्षक विश्वसनीय और प्रिय वचन बोलनेवाले होने चाहिये। राजकुमारकी शरीर-रक्षाके लिये कुछ रक्षकको नियुक्त करना भी आवश्यक है। क्रोधी, लोभी तथा अपमानित पुरुषोंके संगसे उसको दूर रखना चाहिये। गुणोंका आधान करना सहज नहीं होता, अत: इसके लिये राजकुमारको सुखोंसे बाँधना चाहिये। जब पुत्र शिक्षित हो जाय तो उसे सभी अधिकारों में नियुक्त करे। मृगया, मद्यपान और जुआ-ये राज्यका नाश करनेवाले दोष हैं। राजा इनका परित्याग करे ।। १-४॥
दिनका सोना, व्यर्थ घूमना और कटुभाषण वह करना छोड़ दे। परायी निन्दा, कठोर दण्ड और अर्थदूषणका भी परित्याग करे। सुवर्ण आदिकी खानोंका विनाश और दुर्ग आदिकी मरम्मत न कराना–ये अर्थके दूषण कहे गये हैं। धनको थोड़ा-थोड़ा करके अनेकों स्थानोंपर रखना, अयोग्य देश और अयोग्य कालमें अपात्रको दान देना तथा बुरे कामों में धन लगाना—यह सब भी अर्थका दूषण (धनका दुरुपयोग) है। काम, क्रोध, मद, मान, लोभ और दर्पका त्याग करे। तत्पश्चात् भृत्योंको जीतकर नगर और देशके लोगोंको वशमें करे। इसके बाद बाह्यशत्रुओंको जीतनेका प्रयत्न करे। बाह्राशत्रु भी तीन प्रकारके होते हैं-एक तो वे हैं, जिनके साथ पुस्तैनी दुश्मनी हो; दूसरे प्रकारके शत्रु हैं-अपने राज्यकी सीमापर रहनेवाले सामन्त तथा तीसरे हैं-कृत्रिम-अपने बनाये हुए शत्रु। इनमें पूर्व-पूर्व शत्रु गुरु (भारी या अधिक भयानक) हैं।
महाभाग! मित्र भी तीन प्रकारके बतलाये जाते हैं-बाप-दादोंके समयके मित्र, शत्रुके सामन्त तथा कृत्रिम ॥ ५-१० ॥
धर्मज्ञ परशुरामजी! राजा, मन्त्री, जनपद, दुर्ग, दण्ड (सेना), कोष और मित्र-ये राज्यके सात अंग कहलाते हैं। राज्यकी जड़ है-स्वामी (राजा), अतः उसकी विशेषरुपसे रक्षा होनी चाहिये। राज्याङ्गके विद्रोहीको मार डालना उचित हैं। राजाको समयानुसार कठोर भी होना चाहिये और कोमल भी। ऐसा करनेसे राजाके दोनों लोक सुधरते हैं। राजा अपने भृत्योंके साथ हँसी परिहास न करे; क्योंकि सबके साथ हँस-हँसकर बातें करनेवाले राजाको उसके सेवक अपमानित कर बैठते हैं। लोगों को मिलाये रखनेके लिये राजाको बनावटी व्यसन भी रखना चाहिये। मुसकाकर बोले और ऐसा बर्ताव करे, जिससे सब लोग प्रसन्न रहें। दीर्घसूत्री (कार्यारम्भमें विलम्ब करनेवाले) राजाके कार्यको अवश्य हानि होती है, परंतु राग, दर्प, अभिमान, द्रोह, पापकर्म तथा अप्रिय भाषणमें दीर्घसूत्री (विलम्ब लगानेवाले) राजाको प्रशंसा होती है। राजाको अपनी मन्त्रणा गुप्त रखनी चाहिये। उसके गुप्त रहनेसे राजापर कोई आपत्ति नहीं आती ॥ ११-१६ ।।
राजाका राज्य-सम्बन्धी कोई कार्य पूरा हो जानेपर ही दूसरोंको मालूम होना चाहिये । उसका प्रारम्भ कोई भी जानने न पावे। मनुष्यके आकार, इशारे, चाल-ढाल, चेष्टा, बातचीत तथा नेत्र और मुखके विकारोंसे उसके भीतरकी बात पकड़में आ जाती है। राजा न तो अकेले ही किसी गुप्त विषयपर विचार करे और न अधिक मनुष्योंको ही साथ रखे। बहुतों से सलाह अवश्य ले, किंतु अलग-अलग। (सबको एक साथ बुलाकर नहीं) मन्त्रीको चाहिये कि राजाके गुप्त विचारको दूसरे मन्त्रियोंपर भी न प्रकट करे। मनुष्योंका सदा कहीं, किसी एकपर ही विश्वास जमता है, इसलिये एक ही विद्वान् मन्त्रीके साथ बैठकर राजाको गुप्त मन्त्रका निश्चय करना चाहिये। विनयका त्याग करनेसे राजाका नाश हो जाता है और विनयको रक्षासे उसे राज्यकी प्राप्ति होती है। तीनों वेदोंके विद्वानोंसे त्रयीविद्या, सनातन दण्डनीति, आन्वीक्षिकी (अध्यात्मविद्या) तथा अर्थशास्त्रका ज्ञान प्राप्त करे। साथ ही वार्ता (कृषि, गोरक्षा एवं वाणिज्य आदि) के प्रारम्भ करनेका ज्ञान लोकसे प्राप्त करे। अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाला राजा ही प्रजाको अधीन रखनेमें समर्थ होता है। देवताओं और समस्त ब्राह्मणोंकी पूजा करनी चाहिये तथा उन्हें दान भी देना चाहिये। ब्राह्मणको दिया हुआ दान अक्षय निधि है; उसे कोई भी नष्ट नहीं कर सकता। संग्राममें पीठ ने दिखा।, प्रजाका पालन करना और ब्राह्मणोंको दान देना-ये राजाके लिये परम कल्याणकी बातें हैं। दीनों, अनाथों, वृद्धों तथा विधवा स्त्रियोंके योगक्षेमका निर्वाह तथा उनके लिये आजीविकाका प्रबन्ध करे। वर्ण और आश्रम-धर्मकी रक्षा तथा तपस्वियोंका सत्कार राजाका कर्तव्य है। राजा कहीं भी विश्वास न करे, किंतु तपस्वियोंपर अवश्य विश्वास करे। उसे यथार्थ युक्तियोंके द्वारा दूसरों पर अपना विश्वास जमा लेना चाहिये। राजा बगुलेकी भाँति अपने स्वार्थका विचार करे और (अवसर पानेपर) सिंहके समान पराक्रम दिखावे। भेड़ियेकी तरह झपटकर शत्रुको विदीर्ण कर डाले, खरगोशकी भाँति छलाँगें भरते हुए अदृश्य हो जाय और सूअरकी भाँति दृढ़तापूर्वक प्रहार करे। राजा मोरकी भाँति विचित्र आकार धारण करे, घोडेके समान दृढ भक्ति रखनेवाला हो और कोयलकी तरह मीठे वचन बोले। कौएकी तरह सबसे चौकन्ना रहे; रातमें ऐसे स्थानपर रहे, जो दूसरोंको मालुम न हो; जाँच या परख किये बिना भोजन और शय्याको ग्रहण न करे। अपरिचित स्त्रीके साथ समागम न करे; बेजान-पहचानकी नावपर न चढ़े। अपने राष्ट्रकी प्रजाको चूसनेवाला राजा राज्य और जीवन-दोनोंसे हाथ धो बैठता है।
महाभाग ! जैसे पाला हुआ बछड़ा बलवान् होनेपर काम करनेके योग्य होता है, उसी प्रकार सुरक्षित राष्ट्र राजाके काम आता है। यह सारा कर्म दैव और पुरुषार्थके अधीन है। इनमें दैव तो अचिन्त्य है, किंतु पुरुषार्थ में कार्य करनेकी शक्ति है। राजाके राज्य, पृथ्वी तथा लक्ष्मीकी उत्पत्तिका एकमात्र कारण है-प्रजाका अनुराग। (अतः राजाको चाहिये कि वह सदा प्रजाको संतुष्ट रखे।) ॥ १७-३३॥
दो सौ पचौसषाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २५ ॥
अध्याय-२२६ पुरुषार्थकी प्रशंसा; साम आदि उपायोंका प्रयोग तथा राजाकी विविध देवरूपताका प्रतिपादन
पुष्कर कहते हैं– परशुरामजी! दूसरे शरीरसे उपार्जित किये हुए अपने ही कर्मका नाम ‘दैव’ समझिये । इसलिये मेधावी पुरुष पुरुषार्थको ही श्रेष्ठ बतलाते हैं। दैव प्रतिकूल हो तो उसका पुरुषार्थसे निवारण किया जा सकता है तथा पहलेके सात्त्विक कर्मसे पुरुषार्थके बिना भी सिद्धि प्राप्त हो सकती है।
भृगुनन्दन! पुरुषार्थ ही दैवकीं सहायतासे समयपर फल देता है। दैव और पुरुषार्थ-ये दोनों मनुष्यको फल देनेवाले हैं। पुरुषार्थद्वारा की हुई कृषिसे वर्षाका योग प्राप्त होनेपर समयानुसार फलकी प्राप्ति होती है। अत: धर्मानुष्ठानपूर्वक पुरुषार्थ करे, आलसी न बने और दैवका भरोसा करके बैठा न रहे। १-४ ॥
साम आदि उपायोंसे आरम्भ किये हुए सभी कार्य सिद्ध होते हैं। साम, दान, भेद, दण्ड, माया, उपेक्षा और इन्द्रजाल-ये सात उपाय बतलाये गये हैं। इनका परिचय सुनिये।
तथ्य और अतथ्य-दो प्रकारका ‘साम’ कहा गया है। उनमें “अतथ्य साम’ साधु पुरुषोंके लिये कलंकका ही कारण होता है। अच्छे कुलमें उत्पन्न, सरल, धर्मपरायण और जितेन्द्रिय पुरुष सामसे ही वशमें होते हैं। अतथ्य सामके द्वारा तों राक्षस भी वशीभूत हो जाते हैं। उनके किये हुए उपकारोंका वर्णन भी उन्हें वश में करनेका अच्छा उपाय है।
जो लोग आपसमें द्वेष रखनेवाले तथा कुपित, भयभीत एवं अपमानित हैं, उनमें भेदनीतिका प्रयोग करे और उन्हें अत्यन्त भय दिखावें। अपनी और से उन्हें आशा दिखावें तथा जिस दोषसे वे दुसरे लीग डरते हो, उसीको प्रकट करके उनमें भेद डाले। शत्रुके कुटुम्बमें भेद डालनेवाले पुरुषकों रक्षा करनी चाहियें।
सामन्तका क्रोध बाहरी कोप हैं तथा मन्त्री, अमात्य और पुत्र आदिका क्रोध भीतरी क्रीधके अन्तर्गत है; अत: पहले भीतरी कोपको शान्त करके सामान्त आदि शत्रुओंके बाह्य कोपको जीतने का प्रयत्न करे। ५- ११ ॥
सभी उपायोंमें ‘दान’ श्रेष्ठ माना गया हैं। दानसे इस लोक और परलोक-दोनोंमें सफलता प्राप्त होती है। ऐसा कोई भी नहीं है, जो दानसे वश में न हो जाता हो। दानी मनुष्य ही परस्पर सुसंगठित रहनेवाले लोगोंमें भी भेद डाल सकता है।
साम, दान और भेद-इन तीनोंसे जो कार्य न सिद्ध हो सके, उसे ‘दण्ड” के द्वारा सिद्ध करना चाहिये। दण्डमें सब कुछ स्थित है। दण्डका अनुचित प्रयोग अपना ही नाश कर डालता है। जो दण्डके योग्य नहीं हैं. उनको दण्ड देनेवाला, तथा जो दण्डनीय है, उनको दण्ड न देनेवाला राजा नष्ट हो जाता है। यदि राजा दण्डके द्वारा सबकी रक्षा न करे तो देवता, दैत्य, नाग, मनुष्य, सिद्ध, भूत और पक्षी-ये सभी अपनी मर्यादाका उल्र्द्धन कर जाये।
चूँकि यह उद्दण्ड पुरुषोंका दमन करता और अदण्डनीय पुरुषोंको दण्ड देता है, इसलिए दमन और दण्डके कारण विद्वान् पुरुष इसे ‘दण्ड’ कहते हैं॥ १२-१६॥
जब राजा अपने तेजसे इस प्रकार तप रहा हों कि उसकी ओर देखना कठिन हो जाय, तब वह “सूर्यवत्’ होता है। जब वह दर्शन देनेमानसे जगतको प्रसन्न करता है, तब ‘चन्द्रतुल्य’ माना जाता है। राजा अपने गुप्तचरोंके द्वारा समस्त संसारमें व्याप्त रहता है, इसलिये वह ‘वायुरूप’ है तथा दोष देखकर दण्ड देनेके कारण ‘सर्वसमर्थ यमराज़” के समान माना गया है। जिस समय वह खोटी बुद्धिवाले दुष्टजनको अपने कोपसे दग्ध करता है, उस समय साक्षात् ‘अग्निदेव’ का रूप होता है तथा जब ब्राह्मणोंको दान देता है, उस समय उस दानके कारण वह धनाध्यक्ष ‘कुबेर तुल्य’ हो जाता है। देवता आदिके निमित्त वृत आदि हविष्यकी घनी धारा बरसानेके कारण वह ‘वरुण’ माना गया है। भूपाल अपने ‘क्षमा’ नामक गुणसे जब सम्पूर्ण जगतको धारण करता है, उस समय ‘पृथ्वीका स्वरूप’ जान पड़ता है तथा उत्साह, मन्त्र और प्रभुशक्ति आदिके द्वारा वह सबका पालन करता है, इसलिये साक्षात् ‘भगवान् विष्णु’का स्वरूप है। १७-२० ॥
दो सौं छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २२६ ॥
अध्याय-२२७ अपराधोंके अनुसार दण्डका प्रयोग
पुष्कर कहते हैं– राम! अब मैं दण्डनीतिका प्रयोग बतलाऊँगा, जिससे राजाको उतम गति प्राप्त होती है।
तीन जौका एक ‘कृष्णल’ समझना चाहिये, पाँच कृष्णलका एक ‘माष’ होता है, साठ कृष्णल (अथवा बारह माध) ‘आधे कर्ष’के बराबर बताये गये हैं। सोलह माषका एक “सुवर्ण’ माना गया है। चार सुवर्णका एक ‘निष्क’ और दस निष्कका एक ‘धरण’ होता है। यह ताँबे, चाँदी और सोनेका मान बताया गया है १-३
परशुरामजी! ताँबेका जो ‘कर्ष’ होता है, उसे विद्वानोंमें ‘कार्षिक’ और ‘कार्षापण” नाम दिया है।
ढाई सौ पण (पैसे) ‘प्रथम साहस’ दण्ड़ माना गया है, पाँच सौ पण ‘मध्यम साहस’ और एक हजार पण ‘उत्तम साहस’ दण्ड़ बताया गया है।
चोरोंके द्वारा जिसके धनकी चोरी नहीं हुई है तो भी जो चोरीका धन वापस देनेवाले राजाके पास जाकर झूठ ही यह कहता है कि ‘मेरा इतना धन चुराया गया है”, उसके कथनकी असत्यता सिद्ध होनेपर उससे उतना ही धन दणड़के रूपमें वसूल करना चाहिये।
जो मनुष्य चोरीमें गये हुए धनके विपरीत जितना धन बतलाता है, अथवा जो जितना झूठ बोलता है-उन दोनोंसे राजा को दण्डके रूपमें दूना धन वसूल करना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही धर्मको नहीं जानते।
झूठी गवाहीं देनेवाले क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-इन तीनों वणोंको कठोर दण्ड देना चाहिये; किंतु ब्राह्मणको केवल राज्यसे बाहर कर देना उचित है। उसके लिये दूसरे किसी दण्डका विधान नहीं है।
धर्मज्ञ! जिसने धरोहर हड़प ली हो, उसपर धरोहरके रूपमें रखे हुए वस्त्र आदिकी कीमतके बराबर दण्ड़ लगाना चाहिये; ऐसा करनेसे धर्मकी हानि नहीं होती।
जो धरोहरकों नष्ट करा देता है, अथवा जो धरोहर रखें बिना ही किसीसे कोई वस्तु माँगता है-उन दोनोंको चोरके समान दण्ड देना चाहिये; या उनसे दूना जुर्माना वसूल करना चाहिये।
यदि कोई पुरुष अनजानमें दूसरेका धन बेच देता है तो वह (भूल स्वीकार करनेपर) निर्दोष माना गया है; परंतु जो जान-बूझकर अपना बताते हुए दूसरेका सामान बेचता है, वह चोरके समान दण्ड पानेका अधिकारी है।
जो अग्रिम मूल्य लेकर भी अपने हाथका काम बनाकर न दे, वह भी दण्ड़ देनेके ही योग्य हैं।
जो देने की प्रतिज्ञा करके न दें, उसपर राजाको सुवर्ण (सोलह माध)-का दण्ड छलगाना चाहिये।
जो मजदूरी लेकर काम न करे, उसपर आठ कृष्णल जुर्माना लगाना चाहिये।
जो असमयमें भृत्यका त्याग करता है, उसपर भी उतना ही दण्ड लगाना चाहिये।
कोई वस्तु खरीदने या बेचनेके बाद जिसको कुछ पश्चात्ताप हो, वह धनका स्वामी दस दिनके भीतर दाम लौटाकर माल ले सकता है। (अथवा खरीददारकों ही यदि माल पसंद न आवे तो वह दस दिनके भीतर उसे लौटाकर दाम ले सकता है।) दस दिनसे अधिक हो जाने पर यह आदान-प्रदान नहीं हो सकता।
अनुचित आदान-प्रदान करनेवालेपर राजाको छ: सौका दण्ड लगाना चाहिये॥ ४-१४ ॥
जो वरके दोषोंकों न बताकर किसी कन्याका वरण करता है, उसको वचनद्वारा दी हुई कन्या भी नहीं दी हुईके ही समान है। राजाको चाहिये कि उस व्यक्तिपर दो सौका दण्ड लगावे ।
जो एकको कन्या देनेकी बात कहकर फिर दूसरेको दे डालता है, उसपर राजाको उत्तम साहस (एक हजार पण)-का दण्ड़ लगाना चाहिये।
वाणीद्वारा कहकर उसे कार्य-रूप में सत्य करने से निस्संदेह पुण्यकी प्राप्ति होती है।
जो किसी वस्तुको एक जगह देनेकी प्रतिज्ञा करके उसे लोभवश दूसरेके हाथ बेच देता है. उसपर छः सौका दण्ड लगाना चाहिये।
जो ग्वाला मालिक से भोजन-खर्च और वेतन लेकर भी उसकी गाय उसे नहीं लौटाता, अथवा अच्छी तरह उसका पालन पोषण नहीं करता, उसपर राजा सौं सुवर्णका दण्ड लगावे।
गाँवके चारों ओर सौ धनुषके घेरेमें तथा नगरके चारों ओर दो सौ या तीन सौ धनुषके घेरेमें खेती करनी चाहिये।
जिसे खड़ा हुआ ऊँट न देख सके। जो खेत चारों ओर से घेरा न गया हों, उसकी फसलको किसीके द्वारा नुकसान पहुँचनेपर दण्ड़ नहीं दिया जा सकता।
जो भय दिखाकर दूसरोंके घर, पोखरे, बगीचे अथवा खेतको हड़पनेकी चेष्टा करता हैं, उसके ऊपर राजाको पाँच सौका दण्ड लगाना चाहिये। यदि उसने अनजानमें ऐसा किया हो तो दो सौंका ही दण्ड लगाना उचित हैं।
सीमाका भेदन करनेवाले सभी लोगोंको प्रथम श्रेणीके साहस (ढाई सी पण)- का दण्ड देना चाहिये ॥ १५-२३ ॥
परशुरामजी! ब्राह्मणकी नीचा दिखानेवाले क्षत्रिय पर सौंका दण्ड़ लगाना उचित हैं। इसी अपराधके लिये वैश्यसे दो सौ जुर्माना वसूल करे और शूद्रको कैदमें डाल दे।
क्षत्रियको कलंकित कट्नेपर ब्राह्मणको पचासका दण्ड, वैश्यपर दोषारोपण करनेसे पचीसका और शूद्रको कलंक लगाने पर उसे बारहका दण्ड़ देना उचित हैं।
यदि वैश्य क्षत्रियका अपमान करे तो उसपर प्रथम साहस (ढाई सौ पण)-का दण्ड लगाना चाहिये और शूद्र यदि क्षत्रियको गाली दे तो उसकी जीभकों सजा देनी चाहिये।
ब्राह्मणोंकों उपर्देश करनेवाला शूद्र भी दण्डका भागी होता हैं।
जो अपने शास्त्रज्ञान और देश आदिका झूठा परिचय दे, उसे दूने साहसका दण्ड देना उचित है।
जो श्रेष्ठ पुरुषोंको पापाचारी कहकर उनके ऊपर आक्षेप करें, वह उत्तम साहसका दण्ड पानेके योग्य है। यदि वह यह कहकर कि ‘मेरे मुंहसे प्रमादवश ऐसी बात निकल गयी हैं’, अपना प्रेम प्रकट करे तो उसके लिये दपड़ घटाकर आधा कर देना चाहिये।
माता, पिता, ज्येष्ठ भ्राता, श्वशुर तथा गुरुपर आक्षेप करनेवाला और गुरुजनोंको रास्ता न देनेवाला पुरुष भी सौका दण्ड पानेके योग्य है।
जो मनुष्य अपने जिस अंगसे दूसरे ऊँचे लोगोंका अपराध करे, उसके उसी अंगको बिना विचारे शीघ्र ही काट डालना चाहिये।
जो घमंड़में आकर किसी उच्च पुरुषकी ओर थूके, राजाको उसके ओठ काट लेना उचित हैं। इसी प्रकार यदि वह उसकी ओर मुँह करके पेशाब करे तो उसका लिङ्ग और उधर पीठ करके अपशब्द करे तो उसकी गुदा काट लेनेके योग्य है। इतना ही नहीं, यदि वह ऊँचे आसनपर बैठा हो तो उस नीचके शरीरके निचले भागको दण्ड़ देना उचित हैं।
जो मनुष्य दूसरेके जिस-किसी अंगको घायल करे, उसके भी उसी अंगको कुतर डालना चाहिये।
गौ, हाथी, घोड़े और ऊँटको हानि पहुँचानेवाले मनुष्योंके आधे हाथ और पैर काट लेने चाहिये।
जो किसी (पराये) वृक्षके फल तोड़े, उसपर सुवर्णका दण्ड लगाना उचित है।
जो रास्ता, खेतकी सीमा अथवा जलाशय आदिको काटकर नष्ट करे, उससे नुकसानका दूना दण्ड दिलाना चाहिये।
जों जान-बूझकर या अनजानमें जिसके धनका अपहरण करे, वह पहले उसके धनकी लौटाकर उसे संतुष्ट करे। उसके बाद राजाको भी जुर्माना दे।
जो कुएँपरसे दूसरेकी रस्सी और घड़ा चुरा लेता तथा पौंसले नष्ट कर देता है, उसे एक मासतक कैदकी सजा देनी चाहिये। प्राणियोंकी मारनेपर भी यही दण्ड़ देना उचित है।
जो दस घड़ेसे अधिक अनाजकी चोरी करता हैं, वह प्राणदण्ड़ देनेके योग्य हैं। बाकीमें भी अर्थात् दस घड़ेसे कम अनाजकी चोरी करनेपर भी, जितने घड़े अन्नकी चोरी करे, उससे ग्यारह गुना अधिक उस चोरपर दण्ड लगाना चाहिये।
सोने-चाँदी आदि द्रव्यों, पुरुषों तथा त्रियोंका अपहरण करने पर अपराधीकों वध का दण्ड़ देना चाहियें।
चोर जिस-जिस अंगसे जिस प्रकार मनुष्योंके प्रतिकूल चेष्टा करता है, उसके उसी-उसी अंगको वैसी ही निष्ठुरताके साथ कटवा डालना राजाका कर्तव्य हैं। इससे चोरोंकों चेतावनी मिलती है।
यदि ब्राह्मण बहुत थोड़ी मात्रा में शाक और धान्य आदि ग्रहण करता हैं तों वह दोषका भागी नहीं होता।
गो-सेवा तथा देवपूजाके लिये भी कोई वस्तु लेनेवाला ब्राह्मण दण्डके योग्य नहीं है।
जो दुष्ट पुरुष किसीका प्राण लेनेके लिये उद्यत हो, उसका वध कर डालना चाहिये।
दूसरोंके घर और क्षेत्रका अपहरण करनेवाले, परस्त्रीके साथ व्यभिचार करनेवाले, आग लगानेवाले, जहर देनेवाले तथा हथियार उठाकर मारनेको उद्यत हुए पुरुषको प्राणदण्ड देना ही उचित हैं। २३ – ३१ ॥
राजा गौओंकों मारनेवाले तथा आततायीं पुरुषोंका वध करे।
परायी स्त्रीसे बातचीत न करे और मना करनेपर किसीके घरमें न घुसे।
स्वेच्छासे पतिका वरण करनेवाली स्त्री राजाके द्वारा दण्ड पानेके योग्य नहीं हैं, किंतु यदि नीच वर्णका पुरुष ऊँचे वर्णकी स्त्रीके साथ समागम करे तो वह वध के योग्य है।
जो स्त्रीं अपने स्वामीका उल्लंघन (करके दूसरेके साथ व्यभिचार) करे, उसको कुत्तोंसे नोचवा देना चाहिये।
जो सजातीय परपुरुषके सम्पर्कसे दूषित हो चुकी हो, उसे (सम्पतिके अधिकारसे वनित करके) शरीरनिर्वाहमानके लिये अन्न देना चाहिये।
पतिके ज्येष्ठ भ्रातासे व्यभिचार करके दूषित हुई नारीके मस्तकका बाल मुँडवा देना चाहिये। यदि ब्राह्मण वैश्यजातिकी स्त्रोंसे और क्षत्रिय नीच जातिकी स्त्रोंके साथ समागम करें तो उनके लिये भी यहीं दण्ड है। शूद्राके साथ व्यभिचार करनेवाले क्षत्रिय और वैश्यकी प्रथम साहस (ढाई सौ पण)-का दण्ड देना उचित है।
यदि वेश्या एक पुरुषसे वेतन लेकर लोभवश दूसरेके पास चली जाय तो वह दूना वेतन वापस करे और दण्ड भी दूना दे।
स्त्री, पुत्र, दास, शिष्य तथा सहोदर भाई यदि अपराध करें तो उन्हें रस्सी अथवा बाँसकी छड़ीसे पीट देना चाहिये। प्रहार पीठपर ही करना उचित हैं, मस्तकपर नहीं। मस्तकपर प्रहार करनेवालेकों चोरका दण्ड मिलता हैं। ४० -४६ ॥
जो रक्षाके कामपर नियुक्त होकर प्रजासे रुपये एठता हों, उनका सर्वस्व छीनकर राजा उन्हें अपने राज्य से बाहुर कर दे।
जो लोग किसी कार्यार्थीके द्वारा उसके निजी कार्यमें नियुक्त होकर वह कार्य चौपट कर ड़ालते हैं, राजाकों उचित है कि उन क्रूर और निर्दयी पुरुषोंका सारा धन छीन ले।
यदि कोई मन्त्री अथवा प्राडविवाक (न्यायाधीश) विपरीत कार्य करे तो राजा उसका सर्वस्व लेकर उसे अपने राज्यसे बाहर निकाल दे।
गुरुपत्नीगामीके शरीरपर भगका चिह्न अंकित करा दें।
सुरापान करनेवाले महापातकीके ऊपर शराबखानेके झंडेका चिह्न दगवा दें।
चोरी करनेवालेपर कुत्तेका नाखून गोदवा दे और ब्रह्महत्या करनेवालेके भालपर नरमुण्डका चिह्न अंकित कराना चाहिये। पापाचारी नीचोंको राजा मरवा डाले और ब्राह्मणोंको देश-निकाला दे दे तथा महापातकी पुरुषोंका धन वरुण देवताके अर्पण कर दे (जलमें डाल दे)। गाँवमें भी जो लोग चोरोंको भोजन देते हों तथा चोरीका माल रखनेके लिये घर और खजानेका प्रबन्ध करते हों, उन सबका भी वध करा देना उचित है। अपने राज्यके भीतर अधिकारके कार्यपर नियुक्त हुए सामन्त नरेश भी यदि पापमें प्रवृत्त हों तो उनका अधिकार छीन लेना चाहिये। जो चोर रातमें सेंध लगाकर चोरी करते हैं, राजाको उचित है कि उनके दोनों हाथ काटकर उन्हें तीखी शूलीपर चढ़ा दे। इसी प्रकार पोखरा तथा देवमन्दिर नष्ट करनेवाले पुरुषको भी प्राणदण्ड दे। जो बिना किसी आपत्तिके सड़कपर पेशाब, पाखाना आदि अपवित्र वस्तु छोड़ता है, उसपर कार्षापणोंका दण्ड लगाना चाहिये तथा उसीसे वह अपवित्र वस्तु फेंकवाकर वह जगह साफ करानी चाहिये। प्रतिमा तथा सीढीको तोड़नेवाले मनुष्योंपर पाँच सौ कर्षका दण्ड लगाना चाहिये। जो अपने प्रति समान बर्ताव करनेवालोंके साथ विषमताका बर्ताव करता है, अथवा किसी वस्तुकी कीमत लगानेमें बेईमानी करता है, उसपर मध्यम साहस (पाँच सौ कर्ष)-का दण्ड लगाना चाहिये। जो लोग बनियोंसे बहुमूल्य पदार्थ लेकर उसकी कीमत रोक लें, राजा उनपर पृथक्-पृथक् उत्तम साहस (एक हजार कर्ष)-का दण्ड लगावे। जो वैश्य अपने सामानोंको खराब करके, अर्थात् बढ़िया चीजोंमें घटिया चीजें मिलाकर उन्हें मनमाने दामपर बेचे, वह मध्यम साहस (पाँच सौ कर्ष)-को दण्ड पानेके योग्य है। जालसाजको उत्तम साहस (एक हजार कर्ष)-का और कलहपूर्वक अपकार करनेवालेको उससे दुना दण्ड देना उचित है। अभक्ष्य-भक्षण करनेवाले ब्राह्मण अथवा शूद्रपर कृष्णलका दण्ड लगाना चाहिये। जो तराजूपर शासन करता है, अर्थात् इंडी मारकर कम तौल देता है, जालसाजी करता है तथा ग्राहकोंको हानि पहुँचाता है-इन सबको और जो इनके साथ व्यवहार करता है, उसको भी उत्तम साहसका दण्ड दिलाना चाहिये। जो स्त्री जहर देनेवाली, आग लगानेवाली तथा पति, गुरु, ब्राह्मण और संतानकी हत्या करनेवाली हो, उसके हाथ, कान, नाक और ओठ कटवाकर, बैलकी पीठपर चढ़ाकर उसे राज्यसे बाहर निकाल देना चाहिये। खेत, घर, गाँव और जंगल नष्ट करनेवाले तथा राजाकी पत्नीसे समागम करनेवाले मनुष्य घास-फूसकी आगमें जला देने योग्य हैं। जो राजाको आज्ञाको घटा-बढ़ाकर लिखता है तथा परस्त्रीगामी पुरुषों और चोरोंको बिना दण्ड दिये ही छोड़ देता है, वह उत्तम साहसके दण्डका अधिकारी है। राजाकी सवारी और आसनपर बैठनेवालेको भी उत्तम साहसका ही दण्ड देना चाहिये। जो न्यायानुसार पराजित होकर भी अपनेको अपराजित मानता है, उसे सामने आनेपर फिर जीते और उसपर दूना दण्ड लगावे। जो आमन्त्रित नहीं है, उसको बुलाकर लानेवाला पुरुष वधके योग्य है। जो अपराधी दण्ड देनेवाले पुरुषके हाथसे छूटकर भाग जाता है, वह पुरुषार्थसे हीन है। दण्डकर्ताको उचित है कि ऐसे भीरु मनुष्यको शारीरिक दण्ड न देकर उसपर धनका दण्ड लगावे ॥ ४७-६७ ॥
दो सौ सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ २२७॥
अध्याय-२२८ युद्ध-यात्राके सम्बन्धमें विचार
पुष्कर कहते हैं–जब राजा यह समझ ले कि किसी बलवान् आक्रन्द’ (राजा)-के द्वारा मेरा पार्ष्नीग्राह राजा पराजित कर दिया गया है तो वह सेनाको युद्धके लिये यात्रा करनेकी आज्ञा दे। पहले इस बातको समझ ले कि मेरे सैनिक खूब हष्ट-पुष्ट हैं, भृत्योंका भलीभाँति भरण-पोषण हुआ है, मेरे पास अधिक सेना मौजूद है तथा मैं मूलकी रक्षा करनेमें पूर्ण समर्थ हैं। इसके बाद सैनिकोंसे घिरकर शिविरमें जाय। जिस समय शत्रुपर कोई संकट पड़ हो, दैवी और मानुषी आदि बाधाओंसे उसका नगर पीड़ित हो, तब युद्धके लिये यात्रा करनी चाहिये। जिस दिशामें भूकम्प आया जिसे केतुने अपने प्रभावसे दूषित किया हो, ओर आक्रमण करे। जब सेनामें शत्रुको नष्ट करनेका उत्साह हो, योद्धाओंकै मनमें विपक्षियोंके प्रति क्रोधका भाव प्रकट हुआ हो, शुभसूचक अंग फड़क रहे हों, अच्छे स्वप्न दिखायी देते हों। तथा उत्तम निमित्त और शकुन हो रहे हों, तब शत्रुके नगरपर चढ़ाई करनी चाहिये। यदि वर्षाकालमें यात्रा करनी हो तो जिसमें पैदल और हाथियोंकी संख्या अधिक हो, ऐसी सेनाको कूच करनेकी आज्ञा दे। हेमन्त और शिशिर-तुमें ऐसी सेना ले जाय, जिसमें रथ और घोड़ोंकी संख्या अधिक हो। वसन्त और शरद्के आरम्भमें चतुरंगिणी सेनाको युद्धके लिये नियुक्त करे। जिसमें पैदलोंकी संख्या अधिक हो, वही सेना सदा शत्रुओंपर विजय पाती है। यदि शरीरके दाहिने भागमें कोई हो, अंग फड़क रहा हो तो उत्तम है। बायें अंग, पीठ उसी तथा हृदयका फड़कना अच्छा नहीं है। इस प्रकार शरीरके चिह्नों, फोड़े-फुसियों तथा फड़कने आदिके शुभाशुभ फलोंको अच्छी तरह समझ लेना चाहिये। स्त्रियोंके लिये इसके विपरीत फल बताया गया है । उनके बाये अंगका फड़कना शुभ होता है १-९
अध्याय –२२९ अशुभ और शुभ स्वप्नों का विचार
पुष्कर कहते हैं – अब मैं शुभाशुभ स्वप्नों का वर्णन करूँगा तथा दु:स्वप्न-नाश के उपाय भी बतलाऊँगा | नाभिके सिवा शरीर के अन्य अंगों में तृण और वृक्षों का उगना, काँस के बर्तनों का मस्तकपर रखकर फोड़ा जाना, माथा मूँडाना, नग्न होना, मैले कपड़े पहनना, तेल लगना, कीचड़ लपेटना, ऊँचे से गिरना, विवाह होना, गीत सुनना, वीणा सुनना, वीणा आदि के बाजे सुनकर मन बहलाना, हिंडोलेपर चढना, पद्म और लोहों का उपार्जन, सर्पों को मारना, लाल फुल से भरे हुए वृक्षों तथा चांडाल को देखना, सूअर, कुत्ते, गदहे और ऊंटोंपर चढना, चिड़ियों के मांस का भक्षण करना, तेल पीना, खिचड़ी खाना, माता के गर्भ में प्रवेश करना, चितापर चढना, इंद के उपलक्ष्य में खड़ी की हुई ध्वजा का टूट पड़ना, सूर्य और चन्द्रमा का गिरना, दिव्य, अन्तरिक्ष और भूलोक में होनेवाले उत्पातों का दिखायी देना, देवता, ब्राह्मण, राजा और गुरुओं का कोप होना, नाचना, हँसना, व्याह करना, गीत गाना, वीणा ले सिवा अन्य प्रकार के बाजों का स्वयं बजाना, नदीमें डूबकर नीचे जाना, गोबर, कीचड़ तथा स्याही मिलाये हुए जलसे स्नान करना, कुमारी कन्याओं का आलिंगन, पुरुषों का एक-दुसरे के साथ मैथुन, अपने अंगों की हानि, वमन और विरेचन करना, दक्षिण दिशाकी ओर जाना, रोग से पीड़ित होना, फलों की हानि, धातुओं का भेदन, घरों का गिरना, घरोंमें झाड़ू देना, पिशाचों, राक्षसों, वानरों तथा चांडाल आदि साथ खेलना, शत्रु से अपमानित होना, उसकी ओरसे संकट का प्राप्त होना, गेरुआ वस्त्र धारण करना, गेरुएं वस्त्रों से खेलना, तेल पीना या उसमें नहाना, लाल फूलोंकी माला पहनना और लाल ही चंदन लगाना- ये सब बुरे स्वप्न हैं | इन्हें दूसरोंपर प्रकट न करना अच्छा हैं | ऐसे स्वप्न देखकर फिरसे सो जाना चाहिये | इसीप्रकार स्वप्नदोष की शान्ति के लिये स्नान, ब्राह्मणों का पूजन, तिलों का हवन, ब्रह्मा, विष्णु, शिव और सूर्य के गणों की पूजा, स्तुति का पाठ तथा पुरुषसक्त आदि का जप करना उचित है | रात के पहले प्रहर में देखे हुए स्वप्न एक वर्षतक फल देनेवाले होते हैं, दुसरे प्रहर के स्वप्न छ: महीने में, तीसरे प्रहर के तीन महीने में, चौथे प्रहर के पन्द्रह दिनों में और अरुणोदय की वेला में देखे हुए स्वप्न दस ही दिनों में अपना फल प्रकट करते हैं ||१-१७||
यदि एक ही रातमें शुभ और अशुभ – दोनों ही प्रकार के स्वप्न दिखायी पड़ें तो उनमे जिसका पीछे दर्शन होता है, उसीका फल बतलाना चाहिये | अत: शुभ स्वप्न देखने के पश्च्यात सोना अच्छा नहीं माना जाता हैं | स्वप्नमें पर्वत, महल, हाथी, घोड़े और बैल पर चढ़ना हितकर होता हैं | परशुरामजी ! यदि पृथ्वीपर या आकाश में सफेद फूलों से भरे हुए वृक्षों का दर्शन हो, अपनी नाभिसे वृक्ष अथवा तिनका उत्पन्न हो, अपनी भुजाएँ और मस्तक अधिक दिखायी दें, सिर के बाल पक जाय तो उसका फल उत्तम होता हैं | सफेद फूलों की माला और श्वेत वस्त्र धारण करना, चन्द्रमा, सूर्य और ताराओं को [पकड़ना, परिमार्जन करना, इंद की ध्वजाका आलिंगन करना, ध्वजा को ऊंचे उठाना, पृथ्वीपर पडती हुई जल की धाराको अपने ऊपर रोकना, शत्रुओं की बुरी दशा देखना, वाद–विवाद, जुआ तथा संगाम में अपनी विजय देखना, खीर खाना, रक्त का देखना, खून से नाहना, सूरा, मद्य अथवा दूध पीना, अस्त्रों से घायल होकर धरतीपर छटपटाना, आकाश का स्वच्छ होना तथा गाय, भैस, सिहिनी, हथिनी और घोड़ी को मुँह से दुहना– ये सब उत्तम स्वप्न है | देवता, ब्राह्मण और गुरुओं की प्रसन्नता, गौओं के सींग अथवा चंद्रमा से गिरे हुए जलके द्वारा अपना अभिषेक होना – ये स्वप्न राज्य प्रदान करनेवाले हैं, ऐसा समझना चाहिये | परशुरामजी ! अपना राज्याभिषेक होना, अपने मस्तक का काटा जाना, मरना, आगमे पड़ना, गृह आदि में लगी हुई आग के भीतर जलना, राजचिन्हों का प्राप्त होना, अपने हाथ से वीणा बजाना– ऐसे स्वप्न भी उत्तम एवं राज्य प्रदान करनेवाले हैं | जो स्वप्न के अंतिम भाग में राजा, हाथी, घोडा, सुवर्ण, बैल तथा गाय को देखता हैं, उसका कुटुम्ब बढ़ता हैं, बैल, हाथी, महल की छत, पर्वत–शिखर तथा वृक्षपर चढ़ना, रोना, शरीर में घी और विष्ठा का लग जाना तथा अगम्या स्त्री के साथ समागम करना – ये सब शुभ स्वप्न है ||१८-३१ ||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘शुभाशुभ स्वप्न एवं दु:स्वप्न-निवारण’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –२३० अशुभ और शुभ शकुन
पुष्कर कहते हैं – परशुरामजी ! श्वेत वस्त्र, स्वच्छ जल, फल से भरा हुआ वृक्ष, निर्मल आकाश, खेत में लगे हुए अन्न और काला धान्य– इनका यात्रा के समय दिखायी देना अशुभ है | रुई, तृणमिश्रित सूखा गोबर (कंडा), धन, अंगार, गृह, करायल, मुंड, मुड़ाकर तेल लगाया हुआ नग्न साधू, लोहा, कीचड़, चमडा, बाल, पागल मनुष्य, हिजड़ा, चांडाल, श्वपच आदि बंधन की रक्षा करनेवाले मनुष्य, गर्भिणी स्त्री, विधवा, तिल की खली, मृत्यु, भूसी, राख, खोपड़ी, हड्डी और फूटा हुआ बर्तन – युद्धयात्रा के समय इनका दिखायी देना अशुभ माना जाता हैं | बाजों का वह शब्द, जिसमें फूटे हुए झाँझ की भयंकर ध्वनि सुनायी पडती हो, अच्छा नहीं माना गया हैं | ‘चले आओ’ – यद शब्द यदि समाने की ओर से सुनायी पड़े तो उत्तम हैं, किन्तु पीछे की ओर से शब्द हो तो अशुभ माना गया हैं | ‘जाओ’ – यह शब्द यदि पीछे की ओर से हो तो उत्तम है; किन्तु आगेकी ओर से हो तो निन्दित होता है |’ ‘कहाँ जाते हो? ठहरो, न जाओ; वहाँ जाने से तुम्हें क्या लाभ है ?’ – ऐसे शब्द अनिष्ट की सूचना देनेवाले हैं | यदि ध्वजा आदि के ऊपर चील आदि मांसाहारी पक्षी बैठ जायँ, घोड़े, हाथी आदि वाहन लडखडाकर गिर पड़ें, हथियार टूट जायँ, हार आदि के द्वारा मस्तकपर चोट लगे तथा छत्र और वस्त्र आदि को कोइ गिरा दे तो ये सब अपशकुन मृत्युका कारण बनते हैं | भगवान् विष्णू की पूजा और स्तुति करनेसे अमंगल का नाश होता है | यदि दूसरी बार इन अपशकुनों का दर्शन हो तो घर लौट जाय ||१–८||
यात्रा के समय श्वेत पुष्पों का दर्शन श्रेष्ठ माना गया हैं | भरे हुए घड़े का दिखायी देना तो बहुत ही उत्तम हैं | मांस, मछली, दूर का कोलाहल, अकेला वृद्ध पुरुष, पशुओं में बकरे, गौ, घोड़े तथा हाथी, देवप्रतिमा, प्रज्वलित अग्नि, दूर्वा, ताजा गोबर, वेश्या, सोना, चाँदी, रत्न, बच, सरसों आदि ओषधियाँ, मूँग, आयुधों में तलवार, छाता, पीढ़ा, राजचिन्ह, जिसके पास कोई रोता न हो ऐसा शव, फल, घी, दही, दूध, अक्षत, दर्पण, मधु, शंख, ईख, शुभसूचक वचन, भक्त पुरुषों का गाना–बजाना, मेघ की गम्भीर गर्जना, बिजलीकी चमक तथा मन का संतोष – ये सब शुभ शकुन हैं | एक ओर सब प्रकार के शुभ शकुन और दूसरी ओर मन की प्रसन्नता – ये दोनों बराबर हैं ||९–१३||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘शकुन-वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय-२३१ शकुनके भेद तथा विभिन्न जीवोंके दर्शनसे होनेवाले शुभाशुभ फलका वर्णन
पुष्कर कहते हैं– राजाके ठहरने, जाने अथवा प्रश्न करनेके समय होनेवाले शकुन उसके देश और नगरके लिये शुभ और अशुभ फलकी सूचना देते हैं।
शकुन दो प्रकारके होते हैं’दीप्त’ और ‘शान्त’।
दैवका विचार करनेवाले ज्योतिषियोंने सम्पूर्ण दीप्त शकुनोंका फल अशुभ तथा शान्त शकुनोंका फल शुभ बतलाया है।
बेलादेप्त, दिग्दीप्त, देशदिप्त, क्रियादीप्त, रूतदीप्त और जातिदीप्तके भेदसे दीप्त शकुन छ: प्रकारके बताये गये हैं। उनमें पूर्व-पूर्वको अधिक प्रबल समझना चाहिये।
दिनमें विचरनेवाले प्राणी रात्रिमें और रात्रीमें चलनेवाले प्राणी दिनमें विचरते दिखायी दें तो उसे ‘वेलादीप्त’ जानना चाहिये।
इसी प्रकार जिस समय नक्षत्र, लग्न और ग्रह आदि क्रूर अवस्थाको प्राप्त हो जायँ, वह भी ‘वेलादीप्त’के ही अन्तर्गत है।
सूर्य जिस दिशाको जानेवाले हों, वह ‘धूमिता’, जिसमें मौजूद हों, वह ‘ज्वलिता’ तथा जिसे छोड़ आये हों, वह ‘अंगारिणी” मानी गयी हैं। ये तीन दिशाएँ ‘दीप्त’ और शेष पाँच दिशाएँ ‘शान्त’ कहलाती हैं।
दीप्तदिशामें जो शकुन हो उसे ‘दिग्दीप्त’ कहा गया है।
यदि गाँवमें जंगली और जंगलमें ग्रामीण पशुपक्षी आदि मौजूद हों तो वह निन्दित देश है। इसी प्रकार जहाँ निन्दित वृक्ष हों, वह स्थान भी निन्द्य एवं अशुभ माना गया है॥ १-७ ॥
विप्रवर! अशुभ देशमें जो शकुन होता हैं, उसे ‘देशदीप्ति’ समझना चाहिये।
अपने वर्णधर्मके विपरीत अनुचित कर्म करनेवाला पुरुष क्रियादीप्त बतलाया गया है। (उसका दिखायी देना ‘क्रियादीस” शकुनके अन्तर्गत हैं।)
फटी हुई भयंकर आवाजका सुनायी पड़ना रूतदीप्त कहलाता है
केवल मांसभोजन करनेवाले प्राणीको ‘जातिदीप्त” समझना चाहिये। (उसका दर्शन भी ‘जातिदीप्त’ शकुन है।)
दीप्त अवस्थाके विपरीत जो शकुन हो, वह ‘शान्त’ बतलाया गया है। उसमें भी उपर्युक्त सभी भेद यत्नपूर्वक जानने चाहिये।
यदि शान्त और दीप्तके भेद मिले हुए हों तो उसे ‘मिश्र शकुन’ कहते हैं। इस प्रकार विचारकर उसका फलाफल बतलाना चाहिये ॥८-१० ॥
गौ, घोड़े, ऊँट, गदहे, कुत्ते, सारिका (मैना), गृहगोधिका (गिरगिट), चटक (गौरैया), भास (चील या मुर्गा) और कछुए आदि प्राणीं ‘ग्रामवासी’ कहे गये हैं।
बकरा, भेड़ा, तोता, गजराज, सूअर, भैंसा और कॉआ-ये ग्रामीण भी होते हैं और जंगली भी। इनके अतिरित और सभी जीव जंगली कहे गये हैं।
बिल्ली और मुर्ग भी ग्रामीण तथा जंगली होते हैं; उनके रूपमें भेद होता है, इसीसे वे सदा पहचाने जाते है।
गोकर्ण, (खच्चर) मोर, चक्रवाक्, गदहे, हारीत, कौए, कुलाह, कुक्कुभ, बाज, गीदड़, खञ्जरीट, वानर, शतध्न, चटक, कोयल, नीलकंठ (श्येन), कपिञ्जल (चातक), तीतर, शतपत्र, कबूतर, खञ्जन, दात्यूह (जलकाक), शुक, राजीव, मुर्गा, भरदुल और सारंग-ये दिनमें चलनेवाले प्राणी है।
वागुरी, उल्लू, शरभ, क्रौच्च, खरगोश, कछुआ, लोमासिका और पिंगलिका-ये रात्रीमें चलनेवाले प्राणी बताये गये हैं।
हंस, मृग, बिलाव, नेवला, रीछ, सर्प, वृकारि, सिंह, व्याघ्र, ऊँट, ग्रामीण सूअर, मनुष्य,श्र्वाविद, वृषभ, गोमायु, वृक, कोयल, सारस, घोड़े, गोधा और कौपीनधारी पुरुष-ये दिन और रात दोनोंमें चलनेवाले हैं॥ ११-११ ॥
युद्ध और युद्धकी यात्राके समय यदि ये सभी जीव झुंड बाँधकर सामने आवें तो विजय दिलानेवाले बताये गये हैं, किंतु यदि पीछेसे आवें तो मृत्युकारक माने गये हैं।
यदि नीलकण्ठ अपने घोंसलेसे निकलकर आवाज देता हुआ सामने स्थित हो जाय तो वह राजाको अपमानकी सूचना देता है और जब वह वामभागमें आ जाय तो कलहकारक एवं भोजनमें बाधा डालनेवाला होता हैं। यात्रा के समय उसका दर्शन उत्तम माना गया है, उसके बायें अंगका अवलोकन भी उत्तम है।
यदि यात्राके समय मोर जोर-जोर से आवाज दें तो चोरोंके द्वारा अपने धनकी चोरी होनेका संदेश देता है।॥ २०-२२।
परशुरामजी! प्रस्थानकालमें यदि मृग आगेआगे चले तो वह प्राण लेनेवाला होता है। रीछ, चूहा, सियार, बाघ, सिंह, बिलाव, गदहे –ये यदि प्रतिकूल दिशामें जाते हों, गदहा जोर-जोरसे रेंकता हो और कपिञ्जल पक्षी वायीं अथवा दाहिनी ओर स्थित हो तो सभी उत्तम माने गये है। किन्तु कपिञ्जल पक्षी यदि पीछेकी ओर हो तो उसका फल निन्दित है।
यात्राकालमें तीतरका दिखाई देना अच्छा नहीं है। मृग, सूअर और चितकबरे हिरन-ये यदि बाएं होकर फिर दाहिने हो जाये तो सदा कार्यसाधक होते है। इसके विपरीत यदि दाहिनेसे बाएं चले जाये तो निन्दित माने गये है।
बैल, घोड़े, गीदर, बाघ, सिंह, बिलाव और गदहे यदि दाहिनेसे बाये जाये तो ये मनोवांछित वस्तुकी सिद्धि करनेवाले होते है, ऐसा समझना चाहिये।
श्रृगाल, श्याममुख, छुच्छु (छुछंदर), पिंगला, गृहगोधिका, शूकरी, कोयल तथा पुलिंग नाम धारण करनेवाले जीव यदि वाम-भागमें हों तथा स्त्रीलिंग नामवाले जीव, भास, कारुष, बन्दर, श्रीकर्ण, छित्त्वर, कपि, पिप्पीक, रुरु और श्येन – ये दक्षिण दिशामें हो तो शुभ है।
यात्राकालमें जातिक, सर्प, खरगोश, सूअर तथा गोधाका नाम लेना भी शुभ माना गया है २३-२९
रीछ और वानरोंका विपरीत दिशामें दिखाई देना अनिष्टकारक होता है। प्रस्थान करनेपर जो कार्यसाधक बलवान शकुन प्रतिदिन दिखायी देता हो, उसका फल विद्वान पुरुषोंको उसी दिनके लिये बतलाना चाहिये, अर्थात जिस-जिस दिन शकुन दिखायी देता है, उसी-उसी दिन उसका फल होता है।
परशुरामजी! पागल, भोजनार्थी बालक और बैरी पुरुष यदि गाँव या नगरकी सीमाके भीतर दिखायी दे तो इनके दर्शनका कोई फल नहीं होता, ऐसा समझना चाहिये।
यदि सियारिन एक, दो, तीन या चार बार आवाज लगावे तो वह शुभ मानी गयी है। इसी प्रकार पाँच, छः बार बोलनेपर शुभ बतायी गयी है । सात बारसे अधिक बोले तो उसका कोइ फल नहीं होता । यदि रास्तेमें सूर्यकी ओर उठती हुई कोइ ऐसा ज्वाला दिखायी दे, जिसपर दृष्टी पड़ते ही मनुष्योंके रोगटे खड़े हो जाये और सेनाके वाहन भयभीत हो उठें, तो वह भय बढानेवाली-महान भयकी सूचना देनेवाली होती है, ऐसा समझना चाहिये । यदि पहले किसी उत्तम देशमें सारंगका दर्शन हो तो वह मनुष्यके लिये एक वर्षतक शुभकी सूचना देता है। अतः यात्राके प्रथम दिन मनुष्य ऐसे गुणवाले किसी सारंगका दर्शन करे तथा अपने लिये एक वर्षतक उपयुक्त रूपसे शुभ फलकी प्राप्ति होनेवाली समझे ॥ ३०-३६॥
दो सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ। २३१
अअध्याय-२३२ कौए, कुत्ते, गौ, घोड़े और हाथी आदिके द्वारा होनेवाले शुभाशुभ शकुनोंका वर्णन
पुष्कर कहते हैं–जिस मार्गसे बहुतेरे कौए शत्रुके नगरमें प्रवेश करें, उसी मार्गसे घेरा डालनेपर उस नगरके ऊपर अपना अधिकार प्राप्त होता है।
यदि किसी सेना या समुदाय में बायीं ओरसे भयभीत कौआ रोता हुआ प्रवेश करे तो वह आनेवाले अपार भयकी सूचना देता है।
छाया (तम्बू, रावटी आदि), अङ्ग, वाहन, उपानह, छत्र और वस्त्र आदिके द्वारा कौएको कुचल डालनेपर अपने लिये मृत्युकी सूचना मिलती है। उसकी पूजा करनेपर अपनी भी पूजा होती है तथा अन्न आदिके द्वारा उसका इष्ट करनेपर अपना भी शुभ होता है। यदि कौआ दरवाजेपर बारंबार आया-जाया करे तो वह उस घरके किसी परदेशी व्यक्तिके आनेकी सूचना देता है तथा यदि वह कोई लाल या जली हुई वस्तु मकानके ऊपर डाल देता है तो उससे आग लगनेकी सूचना मिलती है। १-४।।
भूगुनन्दन! यदि वह मनुष्यके आगे कोई लाल वस्तु डाल देता है तो उसके कैद होनेकी बात बतलाता है और यदि कोई पीले रंगका द्रव्य सामने गिराता हैं तो उससे सोने-चाँदीकी प्राप्ति सूचित होती है। सारांश यह कि वह जिस द्रव्यको अपने पास ला देता है, उसकी प्राप्ति और जिस द्रव्यको अपने यहाँसे उठा ले जाता है, उसकी हानिकी ओर संकेत करता है। यदि वह अपने आगे कच्चा मांस लाकर डाल दे तो धनकी, मिट्टी गिरावे तो पृथ्वीकी और कोई रत्न डाल दे तो महान् साम्राज्यकी प्राप्ति होती है। यदि यात्रा करनेवालेकी अनुकूल दिशा (सामने) -की ओर कौआ जाय ती वह कल्याणकारी और कार्यसाधक होता है, परंतु यदि प्रतिकूल दिशाकी ओर जाय तो उस कार्यमें बाधा डालनेवाला तथा भयंकर जानना चाहिये। यदि कौआ सामने काँव-काँव करता हुआ आ जाय तो वह यात्राका विघातक होता है। कौएका वामभागमें होना शुभ माना गया हैं और दाहिनें भाग में होनेपर वह कार्यका नाश करता है। वामभागमें होकर कौआ यदि अनुकूल दिशाकों और चलें तो ‘ श्रेष्ठ’ और दाहिने होकर अनुकूल दिशाकी ओर चले तो ‘मध्यम’ माना जाता है; किंतु वामभाग में होकर यदि वह विपरीत दिशाकों और जाय तो यात्राका निषेध करता है। यात्राकालमें घर पर कौआ आ जाय तो वह अभीष्ट्र कार्यकी सिद्धि सूचित करता है। यदि वह एक पैर उठाकर एक आँखसे सूर्यकी ओर देखे तो भय देनेवाला होता है। यदि कौआ किसी वृक्षके खोखलेमें बैठकर आवाज दे तो वह महान् अनर्थका कारण है। ऊसर भूमिमें बैठा हो तो भी अशुभ होता है, किंतु यदि वह कीचड़में लिपटा हुआ हो तो उत्तम माना गया है।
परशुरामजी! जिसकी चोंचमें मल आदि अपवित्र वस्तुएँ लगी हों, वह कौआ दीख जाय तों सभी कार्योंका साधक होता है। कौए की भाँति अन्य पक्षियोंका भी फल जानना चाहिये ॥५-१३ ॥
यदि सेनाकी छावनीके दाहिने भागमें कुत्ते आ जाये तो वे ब्राह्मणोंके विनाशकी सूचना देते हैं। इन्द्रध्वजके स्थानमें हों तो राजाका और गोपुर (नगरद्वार) पर हों तो नगराधीशकी मृत्यु सूचित करते हैं।
घरके भीतर भूकता हुआ कुत्ता आवे तो गृहस्वामीकी मृत्युका कारण होता है। वह जिसके बायें अङ्गको सूंघता है, उसके कार्यकी सिद्धि होती है। यदि दाहिने अङ्ग और बायीं भुजाको सुंधे तो भय उपस्थित होता है। यात्रीके सामनेकी ओरसे आवें तो यात्रा में विघ्र डालनेवाला होता है।
भृगुनन्दन! यदि कुत्ता राह रोककर खड़ा हो तो मार्गमें चोरोंका भय सूचित करता है; मुँहमें हड्डी लिये हो तो उसे देखकर यात्रा करनेपर कोई लाभ नहीं होता तथा रस्सी या चिथड़ा मुखमें रखनेवाला कुत्ता भी अशुभसूचक होता है। जिसके मुँहमें जूता या मांस हो, ऐसा कुत्ता सामने हो तो शुभ होता है। यदि उसके मुँहमें कोई अमाङ्गलिक वस्तु तथा केश आदि हो तो उससे अशुभकी सूचना मिलतीं हैं। कुत्ता जिसके आगे पेशाब करके चला जाता है, उसके ऊपर भय आता है: किन्तु मूत्र त्यागकर यदि वह किसी शुभ स्थान, शुभ वृक्ष तथा माङ्गलिक वस्तुके समीप चला जाय तो वह उस पुरुषके कार्यका साधक होता है।
परशुरामजी! कुत्तेकी ही भाँति गीदड़ आदि भी समझने चाहिये ॥ १-४-२० ॥
यदि गौएँ अकारण ही डकराने लगें तों समझना चाहियें कि स्वामीके ऊपर भय आनेवाला है। रातमें उनके बोलनेसे चोरोंका भय सूचित होता है और यदि वे विकृत स्वरमें क्रन्दन करें तो मृत्युकी सूचना मिलती है।
यदि रातमें बैल गर्जना करे तो स्वामीका कल्याण होता है और साँड़ आवाज दें तों राजा की विजय प्रदान करता हैं।
यदि अपनी दी हुई तथा अपने घर पर मौजूद रहनेवाली गौएँ अभक्ष्य-भक्षण करें और अपने बछड़ोंपर भी सनेह करना छोड़ दें तो गर्भक्षयकी सूचना देनेवाली मानी गयी हैं।
पैरोंसे भूमि खोदनेवाली, दीन तथा भयभीत गौएँ भय लानेवाली होती हैं। जिनका शरीर भीगा हो, रोम-रोम प्रसन्नतासे खिला हो और सींगोंमें मिट्टी लगी हुई हो, वे गौएँ शुभ होती हैं। विज्ञ पुरुषको भैंस आदिके सम्बन्धमें भी यही सब शकुन बताना चाहिये॥२१-२४ ॥
जीन कसे हुय अपने घोड़ेपर दुसरेका चढ़ना, उस घोड़ेका जलमें बैठना और भूमिपर एक ही जगह चक्कर लगाना अनिष्टका सूचक है। बिना किसी कारणके घोड़े का सो जाना विपत्तिमें डालनेवाला होता है। यदि अकस्मात् जई और मुँहसे खून गिरने लगे तथा उसका सारा बदन काँपने लगे तों ये सब अच्छे लक्षण नहीं हैं; इनसे अशुभकी सूचना मिलती है।
यदि घोड़ा बगुलों, कबूतरों और सारिकाओंसे खिलवाड़ करे तो मृत्युका संदेश देता है। उसके नेत्रोंसे आँसू बहे तथा वह जीभसे अपना पैर चाटने लगे तो विनाशका सूचक होता है। यदि वह बायें टापसे धरती खोदे, बायीं करवटसे सोये अथवा दिनमें नींद ले तो शुभकारक नहीं माना जाता।
जो घोड़ा एक बार मूत्र करनेवाला हो, अर्थात् जिसका मूत्र एक बार थोड़ा-सा निकलकर फिर रुक जाय तथा निद्राके कारण जिसका मुंह मलिन हो रहा हो, वह भय उपस्थित करनेवाला होता है।
यदि वह चढ़ने न दे अथवा चढ़ते समय उलटे घरमें चला जाय या सवारकी बायीं पसलीका स्पर्श करने लगे तो वह यानामें विघ्न पड़नेकी सूचना देता है।
यदि शत्रु-योद्धाको देखकर हींसने लगे और स्वामीके चरणोंका स्मर्श करें तों वह विजय दिलानेवाला होता है।॥ २५-३१ ॥
यदि हाथी गाँवमें मैथुन करे तो उस देशके लिये हानिकारक होता है। हथिनी गाँवमें बच्चा दे या पागल हो जाय तो राजाके विनाशको सूचना देती है। यदि हाथी चढ़ने न दे, उलटे हथिसारमें चला जाय या मदकी धारा बहाने लगे तो वह राजाका घातक होता हैं। यदि दाहिने पैरकों बायेंपर रखे और सुड़से दाहिने दाँतका मार्जन करे तो वह शुभ होता है।॥ ३२-३४॥
अपना बैल, घोड़ा अथवा हाथी शत्रुकी सेनामें चला जाय तो अशुभ होता है।
यदि थोड़ी ही दूर में बादल घिरकर अधिक वर्षा करे तो सेनाका नाश होता है। यात्राके समय अथवा युद्धकालमें ग्रह और नक्षत्र प्रतिकूल हों, सामनेसे हवा आ रही हो और छन आदि गिर जायँ तो भय उपस्थित होता है। लड़नेवाले योद्धा हर्ष और उत्साहमें भरे हों और ग्रह अनुकूल हों तो यह विजयका लक्षण है। यदि कौए और मांसाहारी जीव-जन्तु योद्धाओंका तिरस्कार करें तो मण्डलका नाश होता है। पूर्व, पश्चिम एवं ईशान दिशा प्रसन्न तथा शान्त हों तो प्रिय और शुभ फलकी प्राप्ति करानेवाली होती हैं। ३५-३७ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें नामक दो साँ बनीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २३२ ॥
अध्याय-२३३ यात्राके मुहूर्त और द्वादश राजमण्डलका विचार
पुष्कर कहते हैं– अब मैं राजधर्मका आश्रय लेकर सबकी यात्रा के विषयमें बताऊँगा।
जब शुक्र अस्त हों अथवा नीच स्थानमें स्थित हों, विकलाङ्ग (अन्ध) हों, शत्रु-राशिपर विद्यमान हों अथवा वें प्रतिकूल स्थानमें स्थित या विध्वस्त हों तो यात्रा नहीं करनी चाहिये।
बुध प्रतिकूल स्थानमें स्थित हों तथा दिशाका स्वामी ग्रह भी प्रतिकूल हो तो यात्रा नहीं करनी चाहिये। वैधृति, व्यतीपात, नाग, शकुनि, चतुष्पाद तथा किंस्तुघ्नयोग में भी यात्राका परित्याग कर देना चाहिये। विपत् मृत्यु प्रत्यरि और जन्म-इन ताराओंमें, गण्ड़योगमें तथा रिका तिथि में भी यात्रा न करे॥ १-४ ॥
उत्तर और पूर्व-इन दोनों दिशाओंकी एकता कही गयी है। इसी तरह पश्चिम और दक्षिणइन दोनों दिशाओंकी भी एकता मानी गयी हैं।
वायव्यकोणसे लेकर अग्रिकोणतिक जो परिघदण्ड रहता है, उसका उलधन करके यात्रा नहीं करनी चाहिये।
रवि, सोम और शनैश्नर-वे दिन यात्रा के लिये अच्छे नहीं माने गये हैं। ५-६ ॥
कृतिकासे लेकर सात नक्षत्रसमूह पूर्व दिशामें रहते हैं। मघा आदि सात नक्षत्र दक्षिण दिशा में रहते हैं, अनुराधा आदि सात नक्षत्र पश्चिम दिशामें रहते हैं तथा धनिष्ठा आदि सात नक्षत्र उत्तर दिशामें रहते हैं।
(अग्निकोणसे वायुकोणतक परिघदण्ड रहा करता है; अत: इस प्रकार यात्रा करनी चाहिये, जिससे परिघ-दण्डका उल्लङ्घन न हो।)*
पूर्वोत नक्षत्र उन-उन दिशाओंके द्वार हैं, सभी द्वार उन-उन दिशाओंके लिये उत्तम हैं।
अब मैं तुम्हें छायाका मान बताता हूँ॥ ७ ॥
रविवारको बीस, सोमवारको सोलह, मंगलवारको पंद्रह, बुधको चौदह, बृहस्पतिको तेरह, शुक्रको बारह तथा शनिवारको ग्यारह अंगुल ‘छायामान’ कहा गया है, जो सभी कर्मोके लिये विहित है।
जन्म-लग्रमें तथा सामने इन्द्रधनुष उदित हुआ हो तो मनुष्य यात्रा न करे। शुभ शकुन आदि होनेपर श्रीहरिका स्मरण करते हुये विजययात्रा करनी चाहिये ॥ ८-१० ई॥
परशुरामजी! अब मैं आपसे मण्डलका विचार बतलाऊँगा,
राज़ाकी सब प्रकारसे रक्षा करनी चाहिये।
राजा, मन्त्री, दुर्ग, कोष, दण्ड, मित्र और जनपद-ये राज्यके सात अङ्ग बतलाये जाते हैं। इन सात अङ्गोंसे युक्त राज्यमें विध्न डालनेवाले पुरुषोका विनाश करना चाहिये।
राजाको उचित है कि अपने सभी मण्डलोंमें वृद्धि करे। अपना मण्डल ही यहाँ सबसे पहला मण्डल हैं। सामन्त-नरेशोको ही उस मण्डलका शत्रु जानना चाहिये।
‘विजिगीषु राजाके सामनेका सीमावर्ती सामन्त उसका शत्रु है। उस शत्रु-राज्यसे जिसकी सीमा लगी है, वह उक्त शत्रुका शत्रु होनेसे विजिगीषुका मित्र है।
इस प्रकार शत्रु, मित्र, अरिमित्र, मित्रमित्र तथा अरिमित्र-मित्र-ये पाँच मण्डल के आगे रहनेवाले हैं। इनका वर्णन किया गया,
अब पीछे रहनेवालोंको बताता हूँ. सुनिये ॥ ११-१५ ॥
पीछे रहनेवालोंमें पहला ‘पार्ष्नीग्राह” है और उसके पीछे रहनेवाला ‘आक्रन्द’ कहलाता है। तदनन्तर इन दोनोंके पीछे रहनेवाले ‘आसार” होते हैं, जिन्हें क्रमश: ‘पार्ष्नीग्राहासार’ और ‘आक्रन्दासार’ कहते हैं।
नरश्रेष्ठ! विजयकी इच्छा रखनेवाला राजा, शत्रुके आक्रमणसे युक्त हो अथवा उससे मुक्त, उसकी विजयके सम्बन्धमें कुछ निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।
विजिगीषु तथा शत्रु दोनोंके असंगठित रहनेपर उनका निग्रह और अनुग्रह करनेमें समर्थ तटस्थ राजा मध्यस्थ कहलाता है। जो बलवान् नरेश इन तीनोंके निग्रह और अनुग्रहमें समर्थ हो, उसे ‘उदासीन’ कहते हैं।
कोई भी किसीका शत्रु या मित्र नहीं हैं: सभी कारणवश ही एक–दूसरेके शत्रु और मित्र होते हैं।
इस प्रकार मैंने आपसे यह बारह राजाओंके मण्डलका वर्णन किया है ॥ १६-२० ॥
शत्रुओंके तीन भेद जानने चाहिये-कुल्य, अनन्तर और कृत्रिम।
इनमें पूर्व-पूर्व शत्रु भारी होता है। अर्थात् ‘कृत्रिम’की अपेक्षा “अनन्तर’ और उसकी अपेक्षा ‘कुल्य’ शत्रु बड़ा माना गया है; उसको दबाना बहुत कठिन होता है।
“अनन्तर’ (सीमाप्रान्तवर्ती), शत्रु भी मेरी समझमें ‘कृत्रिम’ ही है। पार्ष्नीग्राह राजा शत्रुका मित्र होता है; तथापि प्रयत्नसे वह शत्रुका शत्रु भी हो सकता है। इसलिये नाना प्रकारके उपायोंद्वारा अपने पार्ष्नीग्राहकों शान्त रखें-उसे अपने वश में किये रहे।
प्राचीन नीतिज्ञ पुरुष मित्रके द्वारा शत्रुको नष्ट करा डालनेकी प्रशंसा करते हैं।
सामन्त (सीमा-निवासी) होनेके कारण मित्र भी आगे चलकर शत्रु हो जाता है; अत: विजय चाहनेवाले राजाकों उचित है कि यदि अपनेमें शक्ति हो तो स्वयं ही शत्रुका विनाश करे, (मित्रकी सहायता न ले) क्योंकि मित्रका प्रताप बढ़ जानेपर उससे भी भय प्राप्त होता है और प्रतापहीन शत्रुसे भी भय नहीं होता।
विजिगीषु राजाको धर्मविजयी होना चाहिये तथा वह लोंगोंको इस प्रकार अपने वश में करे, जिससे किसीकों उद्वेग न हों और सबका उसपर विश्वास बना रहे ॥ २१-२६॥
दो सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २३३ ॥
अध्याय-२३४ दण्ड़, उपेक्षा, माया और साम आदि नीतियोंका उपयोग
पुष्कर कहते हैं–परशुरामजी ! साम, भेद, दान और दण्डकी चर्चा हो चुकी है और अपने राज्यमें दण्डका प्रयोग कैसे करना चाहियें।?-यह बात भी बतलायी जा चुकी है। अब शत्रुके देशमें इन चारों उपायोंके उपयोगका प्रकार बतला रहा हूँ॥ १॥
‘गुप्त’ और ‘प्रकाश’—दो प्रकारका दण्ड कहा गया है। लूटना, गाँवको गर्दमें मिला देना, खेती नष्ट कर ड़ालना और आग लगा देना-ये ‘प्रकाश दण्ड’ हैं।
जहर देना, चुपकेसे आग लगाना, नाना प्रकारके मनुष्योंके द्वारा किसीका वध करा देना, सत्पुरुषोंपर दोष लगाना और पानीकी दूषित करना-ये ‘गुप्त दण्ड’ हैं॥ २-३ ॥
भूगुनन्दन! यह दण्डका प्रयोग बताया गया,
अब ‘उपेक्षा’ की बात सुनिये-
जब राजा ऐसा समझे कि युद्धमें मेरा किसीके साथ वैर-विरोध नहीं है, व्यर्थका लगाव अनर्थका ही कारण होगा; संधिका परिणाम भी ऐसा ही (अनर्थकारी) होनेवाला है; सामका प्रयोग यहाँ किया गया, किंतु लाभ न हुआ; दानकी नीतिसे भी केवल धनका क्षय ही होंगा तथा भेद और दण्डके सम्बन्धसे भी कोई लाभ नहीं है; उस दशा में ‘उपेक्षा का आश्रय ले ।
जब ऐसा जान पड़े कि अमुक व्यक्ति शत्रु हो जाने पर भी मेरी कोई हानि नहीं कर सकता तथा मैं भी इस समय इसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता, उस समय “उपेक्षा’ कर जाय। उस अवस्थामें राजाकों उचित है कि वह अपने शत्रुको अवज्ञा (उपेक्षा)- से ही ठपहत करें ॥ ४-५ ॥
अब मायामय (कपटपूर्ण) उपायोंका वर्णन करूंगा।
राजा झूठे उत्पातोंका प्रदर्शन करके शत्रुको उद्वेगमें डाले। शत्रुकी छावनीमें रहनेवाले स्थूल पक्षीकी पकड़कर उसकी पूँछमें जलता हुआ लूक बाँध दे; वह लूक अहुत बड़ा होना चाहिये। उसे बाँधकर पक्षीको उड़ा दे और इस प्रकार यह दिखाबे की शत्रुकी छावनीपर उल्कापात हो रहा है।’ इसी प्रकार और भी बहुत-से उत्पात दिखाने चाहिये। भाँति-भाँतिकी माया प्रकट करनेवाले मदारियोंको भेजकर उनके द्वारा शत्रुओंको उद्विग्र करे।
ज्यौतिषी और तपस्वी जाकर शत्रुसे कहें कि ‘तुम्हारे नाशका योग आया हुआ है।’ इस तरह पृथ्वीपर विजय पानेकी इच्छा रखनेवाले राजाको उचित है कि अनेकों उपायोंसे शत्रुको भयभीत करे। शत्रुओंपर यह भी प्रकट करा दे कि ‘मुझपर देवताओंकी कृपा है-मुझे उनसे वरदान मिल चुका है।” युद्ध छिड़ जाय तो अपने सैनिकोंसे कहे-‘वीरो! निर्भय होकर प्रहार करो, मेरे मित्रोंकी सेनाएँ आ पहुँचीं; अब शत्रुओंके पाँव उखड़ गये हैं-वे भाग रहे हैं-यों कहकर गर्जना करे, किलकारियाँ भरे और युद्धाओंसे कहे-‘मेरा शत्रु मारा गया।’ देवताओंके आदेशसे वृद्धिको प्राप्त हुआ राजा कवच आदिसे सुसज्जित होकर युद्धमें पदार्पण करे॥८-१३ ॥
अब ‘इन्द्रजाल’के विषयमें कहता हूँ।
राजा समयानुसार इन्द्रकी मायाका प्रदर्शन करे। शत्रुओंको दिखावे कि ‘मेरी सहायता के लिये देवताओंकी चतुर्राङ्गिणी सेना आ गयी।’फिर शत्रु-सेनापर रक्तकी वर्षा करें और मायाद्वारा यह प्रयत्न करे कि महलके ऊपर शत्रुओंके कटे हुए मस्तक दिखायी दें ॥ १४-१५ ॥
अब मैं छः गुणोंका वर्णन करूंगा; इनमें ‘संधि’ और ‘विग्रह’ प्रधान हैं।
संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय-ये छ: गुण कहे गये हैं।
किसी शर्तपर शत्रुके साथ मेल करना ‘संधि’ कहलाता है। युद्ध आदिके द्वारा उसे हानि पहुँचाना ‘विग्रह’ है।
विजयाभिलाषी राजा जो शत्रुके ऊपर चढ़ाई करता है, उसीका नाम ‘यात्रा’ अथवा ‘यान’ है।
विग्रह छेड़कर अपने ही देशमें स्थित रहना ‘आसन’ कहलाता है।
आधी सेनाके साथ युद्धकी यात्रा करना “द्वैधीभाव’ कहा गया है।
उदासीन अथवा मध्यम राजाकी शरण लेनेका नाम ‘संश्रय’ है॥ १६-१९ ॥
जो अपनेसे हीन न होकर बराबर या अधिक प्रबल हो, उसीके साथ संधिका विचार करना चाहिये। यदि राजा स्वयं बलवान् हो और शत्रु अपने से हीन-निर्बल जान पड़े, तो उसके साथ विग्रह करना ही उचित हैं।
हीनावम्थामें भी यदि अपना पार्ष्नीग्राह विशुद्ध स्वभावका हो, तभी बलिष्ठ राजाका आश्रय लेना चाहियें। यदि युद्धके लिये यात्रा न करके बैठे रहनेपर भी राजा अपने शत्रुके कार्यका नाश कर सके तो पार्ष्नीग्राहका स्वभाव शुद्ध न होनेपर भी वह विग्रह ठानकर चुपचाप बैठा रहे। अथवा पार्ष्नीग्राहका स्वभाव शुद्ध न होनेपर राजा द्वैधीभाव-नीतिका आश्रय ले। जो निस्संदेह बलवान् राजाके विग्रहका शिकार हो जाय, उसीके लिये संश्रय-नीतिका अवलम्बन उचित माना गया है। यह “संश्रय’ साम आदि सभी गुणोंमें अधम है। संश्रयके योग्य अवस्थामें पड़े हुय राजा यदि युद्धकी यात्रा करें तो वह उनके जन और धनका नाश करनेवाली बतायी गयीं हैं। यदि किसीकी शरण लेनेसे पीछे अधिक लाभकीं सम्भावना हो तो राजा संश्रयका अवलम्बन कोरे ।
सब प्रकारकी शक्तिका नाश हो जानेपर ही दूसरेकी शरण लेनी चाहियै॥ २०-२५ ॥
दो सौ चौतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ। २३४॥
अध्याय-२३५ राजाकी नित्यचर्या
पुष्कर कहते हैं–परशुरामजी ! अब निरन्तर किये जाने योग्य कर्मका वर्णन करता हूँ, जिसका प्रतिदिन आचरण करना उचित है।
जब दो घड़ी रात बाकी रहें तो राजा नाना प्रकारके वाद्यों, बन्दीजनोंद्वारा की हुई स्तुतियों तथा मङ्गल-गीतोंकी ध्वनि सुनकर निद्राका परित्याग करे। तत्पश्चात् गूढ़ पुरुषों (गुप्तचरों)-से मिले। वे गुप्तचर ऐसे हों, जिन्हें कोई भी यह न जान सके कि ये राजाके ही कर्मचारी हैं। इसके बाद विधिपूर्वक आय और व्ययका हिसाब सुने। फिर शौच आदिसे निवृत होकर राजा स्नानगृहमें प्रवेश करे। वहाँ नरेशको पहले दन्तधावन (दाँतुन) करके फिर स्नान करना चाहिये। तत्पश्चात् संध्योपासना करके भगवान् वासुदेवका पूजन करना उचित है। तदनन्तर गजा पवित्रतापूर्वक अग्रिमें आहुति दे; फिर जल लेकर पितरोंका तर्पण करे। इसके बाद ब्राह्मणोंका आशीर्वाद सुनते हुए उन्हें सुवर्णसहित दूध देनेवाली गौ दान दे॥ १-५ ॥
इन सब कार्योंसे अवकाश पाकर चन्दन और आभूषण धारण करे तथा दर्पणमें अपना मुँह देखे। साथ ही सुवर्णयुक्त घृतमें भी मुँह देखे। फिर दैनिक-कथा आदिका श्रवण करे। तदनन्तर वैद्यकी बतायी हुई दवाका सेवन करके मांगलिक वस्तुओंका स्पर्श करे। फिर गुरुके पास जाकर उनका दर्शन करे और उनका आशीर्वाद लेकर राजसभामें प्रवेश करे ॥ ६-७॥
महाभाग! सभामें विराजमान होकर राजा ब्राह्मणों, अमात्यों तथा मंत्रियोंसे मिले। फिर इतिहासका श्रवण करके राज्यका कार्य देखे। नाना प्रकारके कार्योंमें जो कार्य अत्यंत आवश्यक हो, उसका निश्चय करे। तत्पश्चात प्रजाके मामले-मुकदमोंको देखे और मंत्रियोंके साथ गुप्त परामर्श करे। मंत्रणा न तो एकके साथ करे, न अधिक मनुष्योंके साथ; न मूर्खोंके साथ और न अविश्वनीय पुरुषोंके साथ ही करे। उसे सदा गुप्तरूपसे ही करे; दूसरोंपर प्रकट न होने दे। मंत्रणाको अच्छी तरह छिपाकर रखे, जिससे राज्यमें कोइ बाधा न पहुचे। यदि राजा अपनी आकृतिको परिवर्तित न होने दे- सदा एक रूपमें रहे तो यह गुप्त मंत्रणाकी रक्षाका सबसे बड़ा उपाय माना गया है; क्योकी बुद्धिमान विद्वान पुरुष आकार और चेष्टाएँ देखकर ही गुप्तमंत्रणाका पता लगा लेते है। राजाको उचित है की वह ज्यौतिशियों, वैधों और मंत्रियोंकी बात माने। इससे वह एश्र्वर्यको प्राप्त करता है; क्योकी ये लोग राजाको अनुचित कार्योंसे रोकते और हितकर कामोंमें लगाते है। ८-१२
मंत्रणा करनेके पश्चात राजाको रथ आदि वाहनोंके हाँकने और शस्त्र चलानेका अभ्यास करते हुये कुछ कालतक व्यायाम करना चाहिये।
युद्ध आदिके अवसरोंपर वह स्नान करके भलीभाँती पूजित हुए भगवान विष्णुका, हवनके पश्चात प्रज्वलित हुए अग्निदेवका तथा दान-मान आदिसे सत्कृत ब्राह्मणोंका दर्शन करे। दान आदिके पश्चात वस्त्राभूषणोंसे विभूषित होकर राजा भलीभाँती जाँचे-बुझे हुए अन्नका भोजन करे। भोजनके अनंतर पान खाकर बाईं करबटसे थोड़ी देरतक लेटे।
प्रतिदिन शास्त्रोंका चिंतन और योद्धाओं, अन्न-भण्डार तथा शास्त्रगारका निरीक्षण करे।
दिनके अंतमें सांय-संध्या करके अन्य कार्योंका विचार करे और आवश्यक कामोंपर गुप्तचरोंको भेजकर रात्रीमें भोजनके पश्चात अन्तःपुरमें जाकर सो जाये तथा दूसरोंके द्वारा आत्मरक्षाका पूरा प्रबंध रखे। राजाको प्रतिदिन ऐसा ही करना चाहिये १३-१७
अध्याय-२३६ संग्राम-दीक्षा-युद्धके समय पालन करनेयोग्य नियमोंका वर्णन
पुष्कर कहते है – परशुरामजी! अब मैं रणयात्राकी विधि बतलाये हुए संग्रामकालके लिये उचित कर्तव्योंका वर्णन करूँगा।
जब राजाकी युद्धयात्रा एक सप्ताहमें होनेवाली हो, उस समय पहले दिन भगवान विष्णु और शंकरजीकी पूजा करनी चाहिये। साथ ही मोदक आदिके द्वारा गणेशजीका पूजन करना उचित है। दुसरे दिन दिक्पालोंकी पूजा करके राजा शयन करे। शय्यापर बैठकर अथवा उसके पहले देवताओंकी पूजा करके निम्नअंकित मन्त्रका स्मरण करे-भगवान शिव! आप तीन नेत्रोंसे विभूषित रूद्रके नामसे प्रसिद्द, वरदायक, वामन, विकटरूपधारी और स्वप्नके अधिष्ठा देवता है; आपको बारम्बार नमस्कार है। भगवन! आप देवाधिदेवोंके भी स्वामी, त्रिशूलधारी और वृषभपर सवारी करनेवाले है। सनातन परमेश्वर! मेरे सो जानेपर स्वपनमें आप मुझे यह बता दें की इस युद्धसे मेरा इष्ट होनेवाला है या अनिष्ट?
उस समय पुरोहितको “यज्जाग्रतो दूरमुदैति” (यजु० ३४|१)-इस मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये। तीसरे दिन दिशाओंकी रक्षा करनेवाले रुद्रों तथा दिशाओंके अधिपतियोंकी पूजा करे; चौथे दिन ग्रहों और पांचवे दिन अश्विनीकुमारोंका यजन करे। मार्गमें जो देवी, देवता तथा नदी आदि पड़े, उनका भी पूजन करना चाहिये। ध्रुलोकमें, अंतरिक्षमें तथा भूमिपर निवास करनेवाले देवताओंको बलि अर्पण करे। रातमें भुतगणोंको भी बलि दे। भगवान वासुदेव आदि देवताओं तथा भद्रकाली और लक्ष्मी आदि देवियोंकी भी पूजा करे। इसके बाद सम्पूर्ण देवताओंसे प्रार्थना करे। १-८
वासुदेव, संकर्षण, प्रधुम्न, अनिरुद्ध, नारायण, ब्रह्रा, विष्णु, नरसिंह, वराह, शिव, ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव, अधोजात, सूर्य, सोम, भौम, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनैश्र्चर, राहू, केतु, गणेश, कार्तिकेय, चण्डिका, उमा, लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, ब्राहाणी आदि गण, रूद्र, इन्द्रादि देव, अग्नि, नाग, गरुड़ तथा धुलोक, अंतरिक्ष एवं भूमिपर निवास करनेवाले अन्याय देवता मेरी विजयके साधक हों। मेरी दी हुई यह भेट और पूजा स्वीकार करके सब देवता युद्धमें मेरे शत्रुओंका मर्दन करें।
देवगण! मैं, माता, पुत्र और भृत्योंसहित आपकी शरणमें आया हूँ। आपलोग शत्रु-सेनाके पीछे जाकर उनका नाश करनेवाले है, आपको हमारा नमस्कार है। युद्धमें विजय पाकर यदि लौटूंगा तो आपलोगोंको इस समय जो पूजा और भेट दी है, उससे भी अधिक मात्रामें पूजा चढ़ाउगा। ९-१४
छठे दिन राज्याभिषेककी भाँति विजय-स्नान करना चाहिये तथा यात्राके सातवें दिन भगवान त्रिविक्रमका पूजन करना आवश्यक है। नीराजनके लिये बताये हुए मन्त्रोंद्वारा अपने आयुध और वाहनकी भी पूजा करे। साथ ही ब्राह्रणोंके मुखसे “पुण्याह” और “जय” शब्दके साथ निम्नाकिंत भाववाले मन्त्रका श्रवण करे- राजन! धुलोक, अन्तरिक्ष और भूमिपर निवास करनेवाले देवता तुम्हें दीर्धायु प्रदान करें। तुम देवताओंके समान सिद्धि प्राप्त करो। तुम्हारी यह यात्रा देवताओंकी यात्रा हो तथा सम्पूर्ण देवता तुम्हारी रक्षा करे। यह आशीर्वाद सुनकर राजा आगे यात्रा करे।
“धन्वना गा०” (यजु २|३९) इत्यादि मन्त्रद्वारा धनुष-बाण हाथमें लेकर “तदविष्णो:०” (यजु० ६|५) इस मन्त्रका जप करते हुए शत्रुके सामने दाहिनापैर बढ़ाकर बत्तीस पग आगे जाय; फिर पूर्व, दक्षिण, पश्चिम एवं उत्तरमें जानेके लिये क्रमशः हाथी, रथ, घोड़े तथा भार ढोनेमें समर्थ जानवरपर सवार होवे और जुझाऊ बाजोंके साथ आगेकी यात्रा करे; पिछे फिरकर न देखे। १५-२०
एक कोस जानेके बाद ठहर जाय और देवता तथा ब्राह्रणोंकी पूजा करे। पीछे आती हुई अपनी सेनाकी रक्षा करते हुए ही राजाको दुसरेके देशमें यात्रा करनी चाहिये। विदेशमें जानेपर भी अपने देशके आचारका पालन राजाका कर्तव्य है। वह प्रतिदिन देवताओंका पूजन करे, किसीकी आय नष्ट ना होने दे और उस देशके मनुष्योंका कभी अपमान न करे। विजय पाकर पुनः अपने नगरमें लौट आनेपर राजा देवताओंकी पूजा करे और दान दे। जब दुसरे दिन संग्राम छिड़नेवाला हो तो पहले दिन हाथी, घोड़े आदि वाहनोंको नहालावे तथा भगवान नृसिंहका पूजन करे। रात्रीमें छत्र आदि राजचिन्हों, अस्त्र-शास्त्रों तथा भुतगणोंकी अर्चना करके सबेरे पुनः भगवान नृसिंहकी एवं सम्पूर्ण वाहन आदिकी पूजा करे। पुरोहितके द्वारा हवन किये हुय अग्निदेवका दर्शन करके स्वयं भी उसमें आहुति डाले तथा ब्राह्रानोंका सत्कार करके धनुष-बाण ले, हाथी आदिपर सवार हो युद्धके लिये जाय। शत्रुके देशमें अदृश्य रहकर प्रकृति-कल्पना करे। यदि अपने पास थोड़े-से सैनिक हों तो उन्हें एक जगह संगठित रखकर युद्धमें प्रवृत करे और यदि युद्धाओंकी संख्या अधिक हो तो उन्हें इच्छानुसार फैला दे। २१-२७
थोड़े-से सैनिकोंका अधिक संख्यावाले युद्धाओंके साथ युद्ध करनेके लिये “सूचिमुख” नामक व्यूह उपयोगी होता है।
व्यूह दो प्रकारके बाताये गये है-प्राणियोंके शरीरकी भाँती और द्रव्यस्वरुप
गरुड़व्यूह, मकरव्यूह, चक्रव्यूह, श्येनव्यूह, अर्धचन्द्रव्यूह, वज्रव्यूह, शकटव्यूह, सर्वतोभद्रमण्डलव्यूह और सूचीव्यूह- ये नौ व्यूह प्रसिद्द है।
सभी व्यूहोंके सैनिकोंको पाँच भागोंमें विभक्त किया जाता है। दो पक्ष, दो अनुपक्ष और एक पाँचवाँ भाग भी अवश्य रखना चाहिये।
योद्धाओंके एक या दो भागोंसे युद्ध करे और तीन भागोंको उनकी रक्षाके लिये रखे। स्वयं राजाको कभी व्यूहमें नियुक्त नहीं करना चाहिये; क्योकी राजा ही सबकी जड़ है, उस जड़के कट जानेपर सारे राज्यका विनाश हो जाता है; अतः स्वयं राजा युद्धमें प्रवृत न हो। वह सेनाके पीछे एक कोसकी दूरीपर रहे। वहाँ रहते हुय राजाका यह कार्य बताया गया है कि वह युद्धसे भागे हुए सिपाहियोंको उत्साहित करके धैर्य बँधावे। सेनाके प्रधान-के भागने या मारे जानेपर सेना नहीं ठहर पाती। व्यूहमें युद्धाओंको न तो एक दुसरेसे सटाकर खडा करे और न बहुत दूर-दूरपर ही; उनके बीचमें इतनी ही दूरी रहनी चाहिये, जिससे एक-दुसरेके हथियार आपसमें टकराने न पावें। २८-३५
जो शत्रु-सेनाकी मोर्चाबंदी तोड़ना चाहता हो, वह अपने संगठीत युद्धाओंके द्वारा ही उसे तोड़नेका प्रयत्न करे तथा शत्रुके द्वारा भी यदि अपनी सेनाके व्यूह-भेदनके लिये प्रयत्न हो रहा हो तो उसकी रक्षाके लिये संगठीत वीरोंको ही नियुक्त करना चाहिये। अपनी इच्छाके अनुसार सेनाका ऐसा व्यूह बनावे, जो शत्रुके व्यूहमें धुसकर उसका भेदन कर सके।
हाथीके पैरोंकी रक्षा करनेके लिये चार रथ नियुक्त करे। रथकी रक्षाके लिये चार घुड़सवार, उनकी रक्षाके लिये उतने ही ढाल लेकर युद्ध करनेवाले सिपाही तथा ढालवालोंके बाराबर ही धनुर्धर वीरोंको तैनात करे।
युद्धमें सबसे आगे ढाल लेनेवाले युद्धाओंको स्थापित करे। उनके पीछे धनुर्धर योद्धा, धनुर्धरोंके पीछे घुड़सवार, घुड़सवारोंके पीछे रथ और रथोंके पीछे राजाको हाथियोंकी सेना नियुक्त करनी चाहिये। ३६-३९
पैदल, हाथीसवार और घुड़सवारोंको प्रयत्नपूर्वक धर्मानुकुल युद्धमें संलग्र रहना चाहिये। युद्धके मुहानेपर शूरवीरोंको ही तैनैत करे, डरपोक स्वभाववाले सैनिकोंको वहाँ कदापि न खडा होने दे। शूरवीरोंको आगे खडा करके ऐसा प्रबंध करे, जिससे वीर स्वभाववाले योद्धाओंको केवल शत्रुओंका जत्थामात्र दिखायी दे; तभी वे शत्रुओंको भगानेवाला पुरुषार्थ कर सकते है।
भीरु पुरुष आगे रहे तो वे भागकर सेनाका व्यूह स्वयं ही तोड़ डालते है; अतः उन्हें आगे न रखे। शुरवीर आगे रहनेपर भीरु पुरुषोंको युद्धके लिये सदा उत्साह ही प्रदान करते रहते है।
जिनका कद उंचा, नासिका तोतेके समान नुकीली, दृष्टी सौम्य तथा दोनों भौहे मिली हुई हो, जो क्रोधी, कलहप्रिय, सदा हर्ष और उत्साहमें भरे रहनेवाले तथा कामपरायण हों, उन्हें शूरवीर समझना चाहिये। ४०-४३
संगठीत वीरोंमेंसे जो मर जाये अथवा घायल हों, उनको युद्धभूमिसे दूर हटाना, युद्धके भीतर जाकर हाथियोंको पानी पिलाना तथा हथियार पहुँचाना-ये सब पैदल सिपाहियोंके कार्य है।
अपनी सेनाका भेदन करनेकी इच्छा रखनेवाले शत्रुओंसे उसकी रक्षा करना और संगठीत होकर युद्ध करनेवाले शत्रु-वीरोंका व्यूह तोड़ डालना-यह ढाल लेकर युद्ध करनेवाले योद्धाओंका कार्य बताया गया है।
युद्धमें विपक्षी युद्धाओंको मार भगाना धनुर्धर वीरोंका काम है।
अत्यंत घायल हुय योद्धाको युद्धभूमिसे दूर ले जाना, फिर युद्धमें आना तथा शत्रुओंकी सेनामें त्रास उत्पन्न करना-यह सब रथी वीरोंका कार्य बतलाया जाता है।
संगठीत व्यूहको तोड़ना, टूटे हुएको जोड़ना तथा चहारदीवारी, तोरण, अट्टालिका और वृक्षोंको भंग कर डालना-यह अच्छे हाथीका पराक्रम है।
ऊँची-नीची भूमीको पैदल सेनाके लिये उपयोगी जानना चाहिये, रथ और घोड़ोंके लिये समतल भूमि उत्तम है तथा कीचडसे भरी हुई युद्धभूमि हाथियोंके लिये उपयोगी बतायी गयी है। ४४-४९
इस प्रकार व्यूह-रचना करके जब सूर्य पीठकी ओर हो तथा शुक्र, शनैश्चर और दिक्कपाल अपने अनुकूल हों, सामनेसे मन्द-मन्द हवा आ रही हो, उस समय उत्साहपूर्वक युद्ध करे तथा नाम एवं गोत्रकी प्रशंसा करते हुए सम्पूर्ण योद्धाओंमें उत्तेजना भरता रहे। साथ ही यह बात भी बताये कि युद्धमें विजय होनेपर उत्तम-उत्तम भोगोंकी प्राप्ति होगी और मृत्यु हो जानेपर स्वर्गका सुख मिलेगा। वीर पुरुष शत्रुओंकी जीतकर मनोवांछित भोग प्राप्त करता है और युद्धमें प्राणत्याग करनेपर उसे परमगति मिलती है। इसके सिवा वह जो स्वामीका अन्न खाये रहता है, उसके ऋणसे छुटकारा पा जाता है; अतः युद्धके समान श्रेष्ठ गति दूसरी कोइ नहीं है। शुरवीरोंके शरीरसे जब रक्त निकलता है, तब वे पापमुक्त हो जाते है। युद्धमें जो शस्त्र-प्रहार आदिका कष्ट सहना पड़ता है, वह बहुत बड़ी तपस्या है। रणमें प्राणत्याग करनेवाले शुरवीरके साथ हजारों सुन्दरी अप्सराएँ चलाती है। जो सैनिक हतोत्साह होकर युद्धसे पीठ दिखाते है, उनका सारा पुण्य मालिकको मिल जाता है और स्वयं उन्हें पग-पगपर एक-एक ब्रह्राह्त्याके पापका फल प्राप्त होता है। जो अपने सहायकोंको छोड़कर चल देता है, देवता उनका विनाश कर डालते है। जो युद्धसे पीछे पैर नहीं हटाते, उन बहादुरोंके लिये अश्वमेध-यज्ञका फल बताया गया है। ५०-५६
यदि राजा धर्मपर दृढ रहे तो उसकी विजय होती है। योद्धाओंको अपने समान योद्धाओंके साथ ही युद्ध करना चाहिये। हाथीसवार आदि सैनिक हाथीसवार आदिके साथ ही युद्ध करें। जो लोग केवल युद्ध देखनेके लिये आये हों, अथवा युद्धमें सम्मिलित होनेपर भी जो शस्त्रहीन एवं भूमिपर गिरे हुए हों, उनको भी नहीं मारना चाहिये। जो योद्धा शान्त हो या थक गया हो, नींदमें पडा हो तथा नदी या जंगलके बीच उतारा हो, उसपर भी प्रहार न करे। दुर्दीनमें शत्रुके नाशके लिये कूटयुद्ध करे। दोनों बाहें ऊपर उठाकर जोर-जोरसे पुकारकर कहे- यह देखो, हमारे शत्रु भाग चले, भाग चले। इधर हमारी ओर मित्रोंकी बहुत बड़ी सेना आ पहुँची; शत्रुओंकी सेनाका संचालन करनेवाला मार गिराया गया। यह सेनापति भी मौतके घाट उतर गया। साथ ही शत्रुपक्षके राजाने भी प्राण त्याग कर दिया। ५६-६०
भागते हुए विपक्षी योद्धाओंको अनायास ही मारा जा सकता है। धर्मके जानने वाले परशुरामजी! शत्रुओंको मोहित करनेके लिये कृतिम धुपकी सुगंधभी फैलानी चाहिये। विजयकी पताकाएँ दिखानी चाहिये, बाजोंका भयंकर समारोह करना चाहिये। इस प्रकार जब युद्धमें विजय प्राप्त हो जाय तो देवताओं और ब्राह्मणोंकी पूजा करनी चाहिये।
अमात्यके द्वारा किये हुए युद्धमें जो रत्न आदि उपलब्ध हों, वे राजाको ही अर्पण करने चाहिये। शत्रुकी स्त्रियोंपर किसीका भी अधिकार नहीं होता। स्त्री शत्रुकी हो तो भी उसकी रक्षा ही करनी चाहिये।
संग्राममें सहायकोंसे रहित शत्रुको पाकर उसका पुत्रकी भाँती पालन करना चाहिये। उसके साथ पुनः युद्ध करना उचित नहीं है। उसके प्रति देशोचित आचारआदिका पालन करना कर्तव्य है। ६१-६४
युद्धमें विजय पानेके पश्चात अपने नगरमें जाकर “ध्रुव” संज्ञक नक्षत्रमें राजमहलके भीतर प्रवेश करे। इसके बाद देवताओंका पूजन और सैनिकोंके परिवारके भरणपोषणका प्रबन्ध करना चाहिये। शत्रुके यहाँसे मिले हुए धनका कुछ भाग भृत्योंको भी बाँट दे। इस प्रकार यह रणकी दीक्षा बतायी गयी है; इसके अनुसार कार्य करनेसे राजाको निश्चय ही विजयकी प्राप्ति होती है। ६५-६६
अध्याय –२३७ लक्ष्मीस्तोत्र और उसका फल
पुष्कर कहते है – परशुरामजी ! पूर्वकाल में इंद्र ने राज्यलक्ष्मी की स्थिरता के लिये जिस प्रकार भगवती लक्ष्मी की स्तुति की थी, उसीप्रकार राजा भी अपनी विजय के लिये उनका स्तवन करे ||१||
इंद्र बोले – जो सम्पूर्ण लोकों की जननी हैं, समुद्रसे जिनका आविर्भाव हुआ है, जिनके नेत्र खिले हुए कमल के समान शोभायमान है तथा जो भगवान् विष्णु के वक्ष:स्थल में विराजमान हैं, उन लक्ष्मीदेवी को मैं प्रणाम करता हूँ | जगत को पवित्र करनेवाली देवि ! तुम्हीं सिद्धि हो और तुम्हीं स्वधा, स्वाहा, सुधा, संध्या, रात्रि, प्रभा, भूति, मेधा, श्रद्धा और सरस्वती हो | शोभामयी देवि ! तुम्हीं य्ग्यविद्या, महाविद्या, गुह्यविद्या तथा मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाली आत्मविद्या हो | आन्वीक्षिकी (दर्शनशास्त्र), त्रयी (ऋक, साम, यजु), वार्ता (जीविका–प्रधान कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य कर्म) तथा दंडनीति भी तुम्हीं हो | देवि ! तुम स्वयं सौम्यस्वरुपवाली (सुन्दरी) हो; अत: तुमसे व्याप्त होने के कारण इस जगत का रूप भी सौम्य–मनोहर दिखायी देता है | भगवति ! तुम्हारे सिवा दूसरी कौन स्त्री है, जो कौमोदकी गदा धारण करनेवाले देवाधिदेव भगवान् विष्णु के अखिल यज्ञमय विग्रह को, जिसका योगिलोग चिन्तन करते हैं, अपना निवासस्थान बना सके | देवि ! तुम्हारे त्याग देने से समस्त त्रिलोकी नष्टप्राय हो गयी थी; किन्तु इस समय पुन: तुम्हारा ही सहारा पाकर यह समृद्धिपूर्ण दिखायी देती है | महाभागे ! तुम्हारी कृपादृष्टि से ही मनुष्यों को सदा स्त्री, पुत्र, गृह, मित्र और धन–धान्य आदि की प्राप्ति होती है | देवि ! जिन पुरुषोपर आप की दयादृष्टि पड जातो है, उन्हें शरीर की नीरोगता, ऐश्वर्य, शत्रुपक्ष की हानि और सब प्रकार के सुख–कुछ भी दुर्लभ नहीं है | मात: ! तुम सम्पूर्ण भूतों की जननी और देवाधिदेव विष्णु सबके पिता है | तुमने और भगवान् विष्णु ने इस चराचर जगत को व्याप्त कर रखा है | सबको पवित्र करनेवाली देवि ! तुम मेरी मान–प्रतिष्ठा, खजाना, अन्न–भंडार, गृह, साज – सामान, शरीर और स्त्री – किसीका भी त्याग न करो | भगवान् विष्णु के वक्ष:स्थल में वास करनेवाली लक्ष्मी ! मेरे पुत्र, मित्रवर्ग, पशु तथा आभूषणों को भी न त्यागो | विमलस्वरूपा देवि ! जिन मनुष्यों को तुम त्याग देती हो, उन्हें सत्य, समता, शौच तथा शील आदि सदगुण भी तत्काल ही छोड़ देते हैं | तुम्हारी क्पादृष्टि पड़नेपर गुणहीन मनुष्य भी तुरंत ही शील आदि सम्पूर्ण उत्तम गुणों तथा पीढ़ियोंतक बने रहनेवाले ऐश्वर्य से युक्त हो जाते है | देवी ! जिसको तुमने अपनी दयादृष्टि से एक बार देख लिया, वाही श्लाघ्य (प्रशंसनीय), गुणवान, धन्यवाद का पात्र, कुलीन, बुद्धिमान, शूर और पराक्रमी हो जाता है | विष्णुप्रिये ! तुम जगत की माता हो | जिसकी ओर से तुम मुँह फे लेती हो, उसके शील आदि सभी गुण तत्काल दुर्गुण के रूप में बदल जाते हैं | कमल के समान नेत्रोंवाली देवि ! ब्रह्माजी की जिव्हा भी तुम्हारे गुणों का वर्णन करने में समर्थ नहीं हो सकती | मुझपर प्रसन्न हो जाओ तथा कभी भी मेरा परित्याग न करो ||२–१७||
पुष्कर कहते हैं – इंद्र के इसप्रकार स्तवन करनेपर भगवती लक्ष्मी ने उन्हें राज्य की स्थिरता और संग्राम में विजय आदि का अभीष्ट वरदान दिया | साथ ही अपने स्तोत्र का पाठ या श्रवण करनेवाले पुरुषों के लिये भी उन्होंने भोग तथा मोक्ष मिलने के लिये वर प्रदान किया | अत: मनुष्य को चाहिये कि सदा ही लक्ष्मी के इस स्तोत्र का पाठ और श्रवण करे ||१८–१९||
पुष्कर उवाच –
राज्यलक्ष्मीस्थिरत्वाय यथेन्द्रेण पूरा त्रिय: | स्तुति: कृता तथा राजा जयार्थ स्तुतिमाचरेत ||
इंद्र उवाच –
नमस्ये सर्वलोकाना जननीमब्धिसम्भवाम | श्रियमुन्निद्रपदमाक्षी विष्णुवक्ष:स्थलस्थिताम ||
त्वं सिद्धिस्तवं स्वधा स्वाहा सुधा त्वं लोकपावनि |संध्या रात्रि: प्रभा भुतिर्मेधा श्रद्धा सरस्वती ||
यज्ञविद्या महाविद्या गुह्यविद्या च शोभने | आत्मविद्या च देवि त्वं विमुक्तिफलदायिनी ||
आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दंडनीतिसत्वमेव च | सौम्या सौम्यं जगद्रूपं त्वयैतद्देवि पूरितम |
का त्वन्या त्वामृते देवि सर्वयज्ञमयं वपु: | अध्यास्ते देवदेवस्य योगिचिन्त्यं गदाभृत: ||
त्वया देवि परित्यक्तं सकलं भुवनप्रयम | विनष्टप्रायमभक्त त्वयेदानीं समेधितम ||
दारा: पुत्रास्तथागारं सुह्र्भ्दान्यधनादिकम | भवत्येतन्महाभागे नित्यं त्वदबीक्षणानृणाम ||
शरीररोग्यमैश्वर्यमरिपक्षक्षय : सुखम | देवि त्वददृष्टिदृष्टां पुरुषाणाः न दुर्लभम ||
त्वमम्या सर्वभूतानां देवदेवो हरि: पिता | त्वयैतद विष्णुना चाम्ब जगद व्याप्तं चराचरम ||
मानं कोषं तथा कोष्ठं मा गृहं मा परिच्छदम | मा शरीरं कलत्रं क त्वजेथा: सर्वपावनि ||
मा पुत्रान मा सुहृदवर्गान मा पशून मा विभूषणम | त्वजेथा मम देवस्य विष्णोर्वक्ष: स्थलालये ||
सत्येन समशौचाभ्यां तथा शिलाद्द्येरखिलैर्गुनै: | त्वज्यन्ते ते नरा: सद्य: सन्त्यक्ता ये त्वयामले ||
त्वयावलोकिता: सद्य: शीलाद्धेरखिलैर्गुने: | कुलैश्वर्यश्व युज्यन्ते पुरुषा निर्गुणा अपि ||
स श्लाप्य : स गुणी धन्य: स कुलीन: स बुद्धिमान | स शूर: स च विक्रान्तो यस्त्वया त्वं विष्णुवल्लभे ||
न ते वर्णयितुं शक्ता गुणान जिव्हापि वेधस: | प्रसीद देवि पद्माक्षी मास्मांस्त्याश्वों : कदाचन ||
पुष्कर उवाच –
एवं स्तुता ददौ श्रीश्व वरमिन्द्राय चेप्सितम | सुस्थिरत्वं च राज्यस्य संग्रामविजयादिकम ||
स्वस्तोजपाठश्रवणकर्तुणां भुक्तिमुक्तिदम | श्री स्त्रोत्रं सततं तस्मात पठेच्च श्रुणुयान्नर: || (अग्निपुराण २३७/१-१९)
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘श्रीस्तोत्रका वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –२३८ श्रीराम के द्वारा उपदिष्ट राजनीति
अग्निदेव कहते है – वशिष्ट ! मैंने तुमसे पुष्कर की कही हुई नीति का वर्णन किया है | अब तुम लक्ष्मण के प्रति श्रीरामचंद्रद्वारा कही गयी विजयदायिनी नीति का निरूपण सुनो | यह धर्म आदि को बढानेवाली है ||१||
श्रीराम कहते हैं – लक्ष्मण ! न्याय (धान्य का छठा भाग लेने आदि) के द्वारा धन का अर्जन करना, अर्जित किये हुए धन को व्यापार आदि द्वारा बढ़ाना, उसकी सत्पात्र में नियोजन करना (यज्ञादि में तथा प्रजापालन में लगाना एवं गुणवान पुत्र को सौपना)- ये राजा के चार प्रकार के व्यवहार बताये गये है | (राजा नय और पराक्रम से सम्पन्न एवं भलीभाँति उद्योगशील होकर स्वमंडल एवं परमंडल की लक्ष्मी का चिन्तन करे |) नय का मूल है विनय और विनय की प्राप्ति होती है, शास्त्र के निश्चय से | इन्द्रिय–जय का ही नाम विनय है जो उस विनय से युक्त होता है, वही शास्त्रों को प्राप्त करता है | जो शास्त्र में निष्ठां रखता है, उसी के ह्रदय में शाश्त्र के अर्थ स्पष्टतया प्रकाशित होते है | ऐसा होने इ स्वमंडल और परमंडल की ‘श्री’ प्रसन्न (निष्कंटकरूप से प्राप्त) होती है – उसके लिये लक्ष्मी अपना द्वार खोल देती है ||२–३||
शास्त्रज्ञान, आठ गुणों से युक्त ( सुनना, ग्रहण, धारण करना, अर्थ–विज्ञान, ऊह, अपोह और तत्त्वज्ञान ) बुद्धि, धृति (उद्वेग का अभाव ), दक्षता (आलस्य का अभाव), प्रगल्भता, धारणशीलता, उत्साह, प्रवचन–शक्ति, दृढ़ता, प्रभाव, शुचिता, मैत्री, त्याग, सत्य, कृतज्ञता, कुल, शील और दम – ये सम्पत्ति के हेतुभूत गुण है ||४–५||
विस्तृत विषयरूपी वन में दौड़ते हुए तथा निरंकुश होने के कारण विप्रमाथी इन्द्रियरूपी हाथी को ज्ञानमय अंगकुश से वश में करे | काम, क्रोध, लोभ, हर्ष, मान और मद – ये ‘षडवर्ग’ कहे गये हैं | राजा इनका सर्वथा त्याग कर दे | इन सबका त्याग हो जानेपर वह सुखी होता है ||६–७||
राजा को चाहिये कि वह विनय–गुण से सम्पन्न हो आन्वीक्षिकी, वेदत्रयी, वार्ता तथा दण्डनिति – इन चार विद्याओं का उनके विद्वानों तथा उन विद्याओं के अनुसार अनुष्ठान करनेवाले कर्मठ पुरुषों के साथ बैठकर चिन्तन करे | ‘आन्वीक्षिकी’ से आत्मज्ञान एवं वास्तु के यथार्थ स्वभाव का बोध होता है | धर्म और अधर्म का ज्ञान ‘वेदत्रयी’ पर अवलम्बित है, अर्थ और अनर्थ ‘वार्ता’ के सम्यक उपयोगपर निर्भर है तथा न्याय और अन्याय ‘दंडनिति’ के समुचित प्रयोग और अप्रयोगपर आधारित है ||८–९||
किसी भी प्राणी की हिंसा न करना – कष्ट न पहुँचाना, मधुर वचन बोलना, सत्यभाषण करना, बाहर और भीतर से पवित्र रहना एवं शौचाचारका पालन करना, दीनों के प्रति दयाभाव रखना तथा क्षमा – ये चारों वर्णों तथा आश्रमों के सामान्य धर्म कहे गये हैं | राजा को चाहिये कि वह प्रजपर अनुग्रह करे और सदाचार के पालन में संलग्न रहे | मधुरवाणी, दीनोंपर दया, देश–काल की अपेक्षा से सत्पात्र को दान, दीनो और शरणागतों की रक्षा तथा सत्पुरुषों का संग – ये सत्पुरुषों के आचार है | यह आचार प्रजासंग्रह का उपाय है, जो लोक में प्रशंसित होने के कारण श्रेष्ट है तथा भविष्य में भी अभ्युदयरूप फल देनेवाला होने के कारण हितकारक है | यह शरीर मानसिक चिंताओं तथा रोगों से घिरा हुआ है | आज या कल इसका विनाश निश्चित है | ऐसी दशा में इसके लिये कैन राजा धर्म के विपरीत आचरण करेगा ? ||१०–१२||
राजा को चाहिये कि वह अपने लिये सुख की इच्छा रखकर दीन–दुखी लोगों को पीड़ा न दे; क्योंकि सताया जानेवाला दीन–दुखी मनुष्य दुःखजनित क्रोध के द्वारा अत्याचारी राजा का विनाश कर डालता है | अपने पूजनीय पुरुष को जिस तरह सादर हाथ जोड़ा जाता है, कल्याणकामी राजा दुष्टजन को उससे भी अधिक आदर देते हुए हाथ जोड़े | साधू सुह्रदों तथा दुष्ट शत्रुओं के प्रति भी सदा प्रिय वचन ही बोलना चाहिये | प्रियवादी ‘देवता’ कहे गये है और कटुवादी ‘पशु’ ||१३–१५||
बाहर और भीतर से शुद्ध रहकर राजा आस्तिकता द्वारा अंत:करण को पवित्र बनाये और सदा देवताओं का पूजन करे | गुरुजनों का देवताओं के समान ही सम्मान करे तथा सुह्रदों को अपने तुल्य मानकर उनका भलिभान्ति सत्कार करे | वह अपने ऐश्वर्य की रक्षा एवं वृद्धि के लिये गुरुजनों की प्रतिदिन प्रणामद्वारा अनुकूल बनाये | अनुचान की सी चेष्टाओंद्वारा विद्यावृद्ध सत्पुरुषों का साम्मुख्य प्राप्त करे | सुकृतकर्म द्वारा देवताओं को अपने अनुकूल करे | सद्भाव द्वारा मित्र का ह्रदय जीते, सम्भ्रम से बांधवों को अनुकूल बनाये | स्त्री को प्रेम से तथा भृत्यवर्ग को दान से वश में करे | इनके अतिरिक्त जो बाहरी लोग है, उनके प्रति अनुकूलता दिखाकर उनका ह्रदय जीते ||१६–१८||
दुसरे लोगों के कृत्यों की निंदा या आलोचना न करना, अपने वर्ण तथा आश्रम के अनुरूप धर्म का निरंतर पालन, दिनों के प्रति दया, सभी लोक व्यवहारों में सब के प्रति मोठे वचन बोलना, अपने अनन्य मित्र का प्राण देकर भी उपकार करने के लिए उद्यत रहना, घरपर आये हुए मित्र या अन्य सज्जनों को भी ह्रदय से लगाना – उनके प्रति अत्यंत स्नेह एवं आदर प्रकट करना, आवश्यकता हो तो उनके लिये यथाशक्ति धन देना, लोगों के कटु व्यवहार एव कठोर वचन को भी सहन करना, अपनी समृद्धिके अवसरोंपर निर्विकार रहना, दूसरों के अभ्युदयपर मन में ईर्ष्या या जलन न होना, दूसरों को ताप देनेवाली बात न बोलना, मौनव्रत का आचरण, बंधुजनों के साथ अटूट सम्बन्ध बनाये रखना, सज्जनों के प्रति चतुरश्रता, उनकी हार्दिक सम्मति के अनुसार कार्य करना – ये महात्माओं के आचार है ||१९–२२||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘रामोक्तनीति का वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ || १०० ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय-२३९ श्रीरामकी राजनीति
श्रीराम कहते हैं– लक्ष्मण! स्वामी (राजा), अमात्य (मन्त्री), राष्ट्र (जनपद), दुर्ग (किला), कोष (खजाना), बल (सेना) और सुत् (मित्रादि)- ये राज्यके परस्पर उपकार करनेवाले सात अङ्ग कहे गये हैं।
राज्यके अङ्गोंमें राजा और मन्त्रीके बाद राष्ट्र प्रधान एवं अर्थका साधन है, अतः उसका सदा पालन करना चाहिये। (इन अङ्गोंमें पूर्व-पूर्व अङ्ग परकी अपेक्षा श्रेष्ठ हैं।) ॥ १६ ॥
कुलीनता, सत्त्व (व्यसन और अभ्युदयमें भी निर्विकार रहना), युवावस्था, शील (अच्छा स्वभाव), दाक्षिण्य (सबके अनुकूल रहना या उदारता), शीघ्रकारिता (दीर्घसूत्रताका अभाव), अविसंवादिता (वाक्छलका आश्रय लेकर परस्पर विरोधी बातें न करना), सत्य (मिथ्याभाषण न करना), वृद्धसेवा (विद्यावृद्धोंकी सेवामें रहना और उनकी बातोंको मानना), कृतज्ञता (किसीके उपकारको न भुलाकर प्रत्युपकारके लिये उद्यत रहना), दैवसम्पन्नता (प्रबल पुरुषार्थसे दैवको भी अनुकूल बना लेना), बुद्धि (शुश्रूषा आदि आठ गुणों से युक्त प्रज्ञा), अक्षुद्रपरिवारता (दुष्ट परिजनोंसे युक्त न होना), शक्यसामन्तता (आसपासके माण्डलिक राजाओंको वशमें किये रहना), दृढभक्तिता (सुदृढ़ अनुराग), दीर्घदर्शिता (दीर्धकालमें घटित होनेवाली बातोंका अनुमान कर लेना), उत्साह, शुद्धचित्तता, स्थूललक्षता (अत्यन्त मनस्वी होना), विनीतता (जितेन्द्रियता) और धार्मिकता -ये अच्छे आभिगामिक गुण हैं ॥ २-४३॥
जो सुप्रसिद्ध कुलमें उत्पन्न, क्रूरतारहित, गुणवान् पुरुषोंका संग्रह करनेवाले तथा पवित्र (शुद्ध) हों, ऐसे लोगोंको आत्मकल्याणकी इच्छा रखनेवाला राजा अपना परिवार बनाये ॥५॥
वाग्मी (उत्तम वक्ता–ललित, मधुर एवं अल्पाक्षरोंद्वारा ही बहुत-से अर्थाका प्रतिपादन करनेवाला), प्रगल्भ (सभामें सबको निगृहीत करके निर्भय बोलनेवाला), स्मृतिमान् (स्वभावतः किसी बातको न भूलनेवाला), उदग्र (ऊँचे कट्वाला), बलवान् (शारीरिक बलसे सम्पन्न एवं युद्ध आदिमें समर्थ), वशी (जितेन्द्रिय), दण्डनेता (चतुरङ्गिणी सेनाका समुचित रीतिसे संचालन करनेमें समर्थ), निपुण (व्यवहारकुशल), कृतविद्य (शास्त्रीयविद्यासे सम्पन्न), स्ववग्रह (प्रमादसे अनुचित कर्ममें प्रवृत्त होनेपर वहाँसे सुखपूर्वक निवृत किये जाने योग्य), (शत्रुओद्वारा छेड़े गये युद्धादिके कष्टको दृढतापूर्वक सहन करनेमें समर्थ–सहसा आत्मसमर्पण न करनेवाला), सर्वदृष्टप्रतिक्रिय (सब प्रकारके संकटके निवारणके अमोघ उपायको तत्काल जान लेनेवाला), परच्छिद्रान्ववेक्षी (गुप्तचर आदिके द्वारा शत्रुओंके छिद्रोंके अन्वेषणमें प्रयत्नशील), संधिविग्रहतत्त्ववित् (अपनी तथा शत्रुको अवस्थाकै बलाबल-भेदको जानकर संधि-विग्रह आदि छहों गुणोंके प्रयोगके ढंग और अवसरको ठीक-ठीक जाननेवाला), गूढमन्त्रप्रचार (मन्त्रणा और उसके प्रयोगको सर्वथा गुप्त रखनेवाला), देशकालविभागवित् (किस प्रकारकी सेना किस देश और किस कालमें विजयिनी होगी–इत्यादि बातोंको विभागपूर्वक जाननेवाला), आदाता सम्यगर्थानाम् (प्रजा आदिसे न्यायपूर्वक धन लेनेवाला), विनियोक्ता (धनको उचित एवं उत्तम कार्य में लगानेवाला), पात्रवित् (सत्पात्रका ज्ञान रखनेवाला), क्रोध, लोभ, भय, द्रोह, स्तम्भ (मान) और चपलता (बिना विचारे कार्य कर बैठना)-इन दोषों से दूर रहनेवाला, परोपताप (दूसरों को पीड़ा देना), पैशुन्य (चुगली करके मित्रोंमें परस्पर फूट डालना), मात्सर्य (डाह), ईष्र्या (दूसरोंके उत्कर्षको न सह सकना) और अनृत’ (असत्यभाषण)-इन दुर्गुणोंको लाँघ जानेवाला, वृद्धजनोंक उपदेशको मानकर चलनेवाला, श्लक्ष्ण (मधुरभाषी), मधुरदर्शन (आकृतिसे सुन्दर एवं सौम्य दिखायी देनेवाला), गुणानुरागी (गुणवानोंके गुणोंपर रीझनेवाला) तथा मितभाषी (नपी-तुली बात कहनेवाला) राजा श्रेष्ठ है। इस प्रकार यहाँ राजाके आत्मसम्पत्ति-सम्बन्धी गुण (उसके स्वरूपके पराभियोगप्रसह उपपादक गुण) बताये गये हैं। ६-१०॥
उत्तम कुलमें उत्पन्न, बाहर-भीतरसे शुरू, शौर्य-सम्पन्न, आन्वीक्षिकी आदि विद्याओंको जाननेवाले, स्वामिभक्त तथा दण्डनीतिका समुचित प्रयोग जाननेवाले लोग राजाके सचिव (अमात्य) होने चाहिये ॥ ११ ॥
जिसे अन्यायसे हटाना कठिन न हो, जिसका जन्म उसी जनपदमें हुआ हो, जो कुलीन (ब्राह्मण आदि), सुशील, शारीरिक बलसे सम्पन्न, उत्तम वक्ता, सभामें निर्भीक होकर बोलनेवाला, शास्त्ररूपी नेत्रसे युक्त, उत्साहवान् (उत्साहसम्बन्धी विविध गुण-शौर्य, अमर्ष एवं दक्षतासे सम्पन्न), तिपत्तिमान् (प्रतिभाशाली, भय आदिके अवसरोंपर उनका तत्काल प्रतिकार करनेवाला), स्तब्धता (मान) और चपलतासे रहित, मैत्र (मित्रोंके अर्जन एवं संग्रहमें कुशल), शीत-उष्ण आदि क्लेशको सहन करनेमें समर्थ, शुचि (उपधाद्वारा परीक्षासे प्रमाणित हुई शुद्धिसे सम्पन्न), सत्य (झूठ में बोलना), सत्त्वं (व्यसन और अभ्युदयमें भी निर्विकार रहना), धैर्य, स्थिरता, प्रभाव तथा आरोग्य आदि गुणों से सम्पन्न, कृतशिल्प (सम्पूर्ण कलाक अभ्याससे सम्पन), दक्ष (शीघ्रतापूर्वक कार्यसम्पादनमें कुशल), प्रज्ञावान् (बुद्धिमान्), धारणान्वित (अविस्मरणशील), दृभक्ति (स्वामीके प्रति अविचल अनुराग रखनेवाला) तथा किसीसे वैर ने रखनेवाला और दूसरोंद्वारा किये गये विरोधको शान्त कर देनेवाला पुरुष राजाका बुद्धिसचिव एवं कर्मसचिव होना चाहिये ॥ १२-१४॥
स्मृति (अनेक वर्षोंकी बीती बातों को भी न भूलना), अर्थ-तत्परता (दुर्गादिकी रक्षा एवं संधि आदिमें सदैव तत्पर रहना), वितर्क (विचार), ज्ञाननिश्चय (यह ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है-इस प्रकारका निश्चय), दृढ़ता तथा मन्त्रगुप्त (कार्यसिद्धि होनेतक मन्त्रणाको अत्यन्त गुप्त रखना)-ये ‘मन्त्रिसम्पत्’ के गुण कहे गये हैं॥ १५॥
पुरोहितको तीनों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद) तथा दण्डनीतिके ज्ञानमें भी कुशल होना चाहिये; वह सदा अथर्ववेदोक्त विधिसे राजाके लिये शान्तिकर्म एवं पुष्टिकर्मका सम्पादन करे ॥ १६ ॥
बुद्धिमान् राजा तत्तद् विद्याके विद्वानों द्वारा उन अमात्योंके शास्त्रज्ञान तथा शिल्पकर्म-इन दो
गुणोंको परीक्षा करे। यह परोक्ष या आगम प्रमाणद्वारा परीक्षण है॥ १७॥
कुलीनता, जन्मस्थान तथा अवग्रह (उसे नियन्त्रित रखनेवाले बन्धुजन)-इन तीन बातोंकी जानकारी उसके आत्मीयजनके द्वारा प्राप्त करे। (यहाँ भी आगम या परोक्ष प्रमाणका ही आश्रय लिया गया है।) परिकर्म (दुर्गादि-निर्माण)-में दक्षता (आलस्य न करना), विज्ञान (बुद्धिसे अपूर्व बातको जानकर बताना) और धारयिष्णुता (कौन कार्य हुआ और कौन-सा कर्म शेष रहा इत्यादि बातोंको सदा स्मरण रखना)-इन तीन गुणोंकी भी परीक्षा करे। प्रगल्भता (सभा आदिमें निर्भीकता), प्रतिभा (प्रत्युत्पन्नमतिता), वाग्मिता (प्रवचनकौशल) तथा सत्यवादिता-इन चार गुणोंको बातचीतके प्रसङ्गों में स्वयं अपने अनुभवसे जाने ॥ १८-१९ ॥
उत्साह (शौर्यादि), प्रभाव, क्लेश सहन करनेकी क्षमता, धैर्य, स्वामिविषयक अनुराग और स्थिरता- इन गुणोंकी परीक्षा आपत्तिकालमें करे। राजाके प्रति दृढभक्ति, मैत्री तथा आचार-विचारकी शुद्धि इन गुणोंको व्यवहारसे जाने ॥ २०-२१ ॥
आसपास एवं पड़ोसके लोगों से बल, सत्त्व (सम्पत्ति और विपत्तिमें भी निर्विकार रहनेका स्वभाव), आरोग्य, शील, अस्तब्धता (मान और दर्पका अभाव) तथा अचापल्य (चपलताको अभाव एवं गम्भीरता)-इन गुणोंको जाने वैर न करनेका स्वभाव, भद्रता (भलमनसाहत) तथा क्षुद्रता (नीचता)-को प्रत्यक्ष देखकर जाने जिनके गुण और बर्ताव प्रत्यक्ष नहीं हैं, उनके कार्योंसे सर्वत्र उनके गुणों का अनुमान करना चाहिये ॥ २२-२३॥
जहाँ खेतीकी उपज अधिक हो, विभिन्न वस्तुओंकी खाने हों, जहाँ विक्रयके योग्य तथा खनिज पदार्थ प्रचुर मात्रामें उपलब्ध होते हों, जो गौओंके लिये हितकारिणी (घास आदिसे युक्त) हो, जहाँ पानीकी बहुतायत हो, जो पवित्र जनपदोंसे घिरी हुई हो, जो सुरम्य हो, जहाँके जंगलों में हाथी रहते हों, जहाँ जलमार्ग (पुल आदि) तथा स्थलमार्ग (सड़कें) हों, जहाँकी सिंचाई वर्षापर निर्भर न हो अर्थात् जहाँ सिंचाईके लिये प्रचुर मात्रामें जल उपलब्ध हो, ऐसी भूमि ऐश्वर्य वृद्धिके लिये प्रशस्त मानी गयी है ॥ २४-२५ ॥
(‘जो भूमि कैंकरीली और पथरीली हो, जहाँ जंगल-ही-जंगल हों, जो सदा चोरों और लुटेरोंके भयसे आक्रान्त हो, जो रूक्ष (ऊसर) हो, जहाँक जंगलों में काँटेदार वृक्ष हों तथा जो हिंसक जन्तुओंसे भरी हो, वह भूमि नहींके बराबर है।)
(जहाँ सुखपूर्वक आजीविका चल सके, जो पूर्वोक्त उत्तम भूमिके गुणों से सम्पन्न हो) जहाँ जलकी अधिकता हो, जिसे किसी पर्वतका सहारा प्राप्त हो, जहाँ शूद्रों, कारीगरों और वैश्योंकी वस्ती अधिक हो, जहाँक किसान विशेष उद्योगशील एवं बड़े-बड़े कार्यों का आयोजन करनेवाले हों, जो राजाके प्रति अनुरक्त, उनके शत्रुओंसे द्वेष रखनेवाला और पीड़ा तथा करका भार सहन करनेमें समर्थ हो, हष्ट-पुष्ट एवं सुविस्तृत हो, जहाँ अनेक देशों के लोग आकर रहते हों, जो धार्मिक, पशु-सम्पत्तिसे भरा पूरा तथा धनी हो और जहाँक नायक (गाँवोंके मुखिया) मूर्ख और व्यसनग्रस्त हों, ऐसा जनपद राजाके लिये प्रशस्त कहा गया है। (मुखिया मूर्ख और व्यसनी हो तो वह राजाके विरुद्ध आन्दोलन नहीं कर सकता) ॥ २६-२७॥
जिसकी सीमा बहुत बड़ी एवं विस्तृत हो, जिसके चारों ओर विशाल खाइयाँ बनी हों, जिसके प्राकार (परकोटे) और गोपुर (फाटक) बहुत ऊँचे हों, जो पर्वत, नदी, मरुभूमि अथवा जंगलका आश्रय लेकर बना हो, ऐसे पुर (दुर्ग)-में राजाको निवास करना चाहिये। जहाँ जल, धान्य और धन प्रचुरमात्रामें विद्यमान हों, वह दुर्ग दीर्घकालतक शत्रुके आक्रमणका सामना करने में समर्थ होता है। जलमय, पर्वतमय, वृक्षमय, ऐरिण (उजाड़ या चौरान स्थानपर बना हुआ) तथा धान्वन (मरुभूमि या बालुकामय प्रदेशमें स्थित)-ये पाँच प्रकारके दुर्ग हैं। (दुर्गका विचार करनेवाले उत्तम बुद्धिमान् पुरुषोंने इन सभी दुर्गाको प्रशस्त बतलाया है) ॥ २८-२९ ॥
(जिसमें आय अधिक हो और खर्च कम, अर्थात् जिसमें जमा अधिक होता हो और जिसमेंसे धनको कम निकाला जाता हो, जिसकी ख्याति खूब हो तथा जिसमें धनसम्बन्धी देवता (लक्ष्मी, कुबेर आदि)-का सदा पूजन किया जाता हो, जो मनोवाञ्छित द्रव्योंसे भरा-पूरा हो, मनोरम हो और विश्वस्त जनोंकी देख-रेखमें हो, जिसका अर्जन धर्म एवं न्यायपूर्वक किया गया हो तथा जो महान् व्ययको भी सह लेने में समर्थ हो ऐसा कोष श्रेष्ठ माना गया है। कोषका उपयोग धर्मादिकी वृद्धि तथा मूल्योंके भरण-पोषण आदिके लिये होना चाहिये ॥ ३० ॥
जो बाप-दादोंके समयसे ही सैनिक सेवा करते आ रहे हों, वशमें रहते (अनुशासन मानते) हों, संगठित हों, जिनका वेतन चुका दिया जाता हो बाकी न रहता हो, जिनके पुरुषार्थकी प्रसिद्धि हो, जो राजाके अपने ही जनपदमें जन्मे हों, युद्धकुशल हों और कुशल सैनिकों के साथ रहते हों, नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न हों, जिन्हें नाना प्रकारके युद्धोंमें विशेष कुशलता प्राप्त हो तथा जिनके दलमें बहुत-से योद्धा भरे हों, जिन सैनिकोंद्वारा अपनी सेनाके घोड़े और हाथियोंकी आरती उतारी जाती हो, जो परदेश निवास, युद्धसम्बन्धी आयास तथा नाना प्रकार के क्लेश सहन करनेके अभ्यासी हों तथा जिन्होंने युद्धमें बहुत श्रम किया हो, जिनके मनमें दुविधा न हो तथा जिनमें अधिकांश क्षत्रिय जातिके लोग हों, ऐसी सेना या सैनिक दण्डनीतियेत्ताओंके मतमें श्रेष्ठ है॥ ३१-३३ ॥
जो त्याग (अलोभ एवं दूसरोंके लिये सब कुछ उत्सर्ग करनेका स्वभाव), विज्ञान (सम्पूर्ण शास्त्रों में प्रवीणता) तथा सत्त्व (विकारशून्यता)-इन गुणों से सम्पन्न, महापक्ष (महान् आश्रय एवं बहुसंख्यक बन्धु आदिके वर्गसे सम्पन्न), प्रियंवद (मधुर एवं हितकर वचन बोलनेवाला), आयतिक्षम (सुस्थिर स्वभाव होनेके कारण भविष्यकालमें भी साथ देनेवाला), अद्वैध (दुविधामें न रहनेवाला) तथा उत्तम कुलमें उत्पन्न हो-ऐसे पुरुषको अपना मित्र बनाये। मित्रके आनेपर दूरसे ही अगवानीमें जाना, स्पष्ट एवं प्रिय वचन बोलना तथा सत्कारपूर्वक मनोवाञ्छित वस्तु देना–ये मित्रसंग्रहके तीन प्रकार हैं। धर्म, काम और अर्थकी प्राप्ति-ये मित्रसे मिलनेवाले तीन प्रकारके फल हैं। चार प्रकारके मित्र जानने चाहिये-औरस(माता-पिताके सम्बन्धसे युक्त), मित्रताके सम्बन्धसे बँधा हुआ, कुलक्रमागत तथा संकटसे बचाया हुआ। सत्यता (झुठ न बोलना), अनुराग और दुःख-सुखमें समानरूपसे भाग लेना-ये मित्रके गुण हैं॥ ३४-३७॥
अब मैं अनुजीवी (राजसेवक) जनोंके बर्तावका वर्णन करूंगा। सेवकोचित गुणोंसे सम्पन्न पुरुष राजाका सेवन करे। दक्षता (कौशल तथा शीघ्रकारिता), भद्रता (भलमनसाहत या लोकप्रियता), दृढ़ता (सुस्थिर स्नेह एवं कर्मोमें दृढ़तापूर्वक लगे रहना), क्षमा (निन्दा आदिको सहन करना), क्लेशसहिष्णुता (भूख-प्यास आदिके क्लेशको सहन करनेकी क्षमता), संतोष, शील और उत्साह-ये गुण अनुजीवीको अलंकृत करते हैं॥ ३८॥
सेवक यथासमय न्यायपूर्वक राजाको सेवा करे; दूसरेके स्थानपर जाना, क्रूरता, उद्दण्डता या असभ्यता और इर्ष्या -इन दोषोंको वह त्याग दें। जो पद या अधिकारमें अपनेसे बड़ा हो, उसका विरोध करके या उसकी बात काटकर राजसभामें न बोले । राजाके गुप्त कर्मी तथा मन्त्रणाको कहीं प्रकाशित न करे । सेवकको चाहिये कि वह अपने प्रति स्नेह रखनेवाले स्वामीसे ही जीविका प्राप्त करनेकी चेष्टा करे; जो राजा विरक्त हो–सेवकसे घृणा करता हो, उसे सेवक त्याग दे॥ ३९-४१ ॥
यदि राजा अनुचित कार्यमें प्रवृत्त हो तो उसे मना करना और यदि न्याययुक्त कर्ममें संलग्न हो तो उसमें उसका साथ देना–यह थोडेमें बन्धु, मित्र और सेवकोंका श्रेष्ठ आचार बताया गया है॥४२॥
राजा मेघकी भाँति समस्त प्राणियोंको आजीविका प्रदान करनेवाला हो उसके यहाँ आयके जितने द्वार (साधन) हों, उन सबपर वह विश्वस्त एवं जाँचे-परखे हुए लोगों को नियुक्त करे। (जैसे सूर्य अपनी किरणोंद्वारा पृथ्वीसे जल लेता है, उसी प्रकार राजा उन आयुक्त पुरुषोंद्वारा धन ग्रहण करे) ॥४३॥
(जिन्हें उन-उन कर्मोके करनेका अभ्यास तथा यथार्थ ज्ञान हो, जो उपधाद्वारा शुद्ध प्रमाणित हुए हों तथा जिनके ऊपर जाने-समझे हुए गणक आदि करणवर्गकी नियुक्ति कर दी गयी हो तथा) जो उद्योगसे सम्पन्न हों, ऐसे ही लोगोंको सम्पूर्ण कर्मों में अध्यक्ष बनाये। खेती, व्यापारियोंके उपयोगमें आनेवाले स्थल और जलके मार्ग, पर्वत आदि दुर्ग, सेतुबन्ध (नहर एवं बाँध आदि), कुआरबन्धन (हाथी आदिके पकड़नेके स्थान), सोने-चाँदी आदिकी खाने, वनमें उत्पन्न सार-दारु आदि (साखू, शीशम आदि)-की निकासी के स्थान तथा शून्य स्थानोंको बसाना-आयके इन आठ द्वारोंको ‘अष्टवर्ग’ कहते हैं। अच्छे आचार-व्यवहारवाला राजा इस अष्टवर्गकी निरन्तर रक्षा करे ॥ ४४-४५ ॥
आयुक्तक (रक्षाधिकारी राजकर्मचारी), चोर, शत्रु, राजाके प्रिय सम्बन्धी तथा राजाके लोभ इन पाँचोंसे प्रजाजनको पाँच प्रकारका भय प्राप्त होता है। इस भयका निवारण करके राजा उचित समयपर प्रजासे कर ग्रहण करे। राज्यके दो भेद हैं-बाह्य और आभ्यन्तर। राजाका अपना शरीर ही ‘आभ्यन्तर राज्य’ है तथा राष्ट्र या जनपदको ‘बाह्य राज्य’ कहा गया है। राजा इन दोनोंकी रक्षा करे ॥ ४६-४७॥
जो पापी राजाके प्रिय होनेपर भी राज्यको हानि पहुँचा रहे हों, वे दण्डनीय हैं। राजा उन सबको दण्ड दे तथा विष आदिसे अपनी रक्षा करे। स्त्रियोंपर, पुत्रोंपर तथा शत्रुओंपर कभी विश्वास न करे ॥ ४८ ॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें ‘राजधर्मकथन’ नामक दो सौ उनतालीसां अध्याय पूरा हुआ ॥ २३९ ॥
अध्याय-२४० द्वादशराजमण्डल-चिन्तन*
श्रीराम कहते हैं– राजाको चाहिये कि वह मुख्य द्वादश राजमण्डलका चिन्तन करे। १. अरि, २. मित्र, ३. अरिमित्र, तत्पश्चात् ४. मित्रमित्र तथा ५. अरिमित्रमित्र-ये क्रमशः विजिगीषुके सामनेवाले राजा कहे गये हैं। विजिगीषुके पीछे क्रमश: चार राजा होते हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं-१. पार्ष्नीग्राह, उसके बाद २. आक्रन्द, तदनन्तर इन दोनोंके आसार अर्थात् ३, पाणिग्राहासार एवं ४. आक्रन्दासार। अरि और विजिगीषु-दोनोंके राज्यसे जिसकी सीमा मिलती है, वह राजा ‘मध्यम’ कहा गया है। अरि और विजिगीषु-ये दोनों यदि परस्पर मिले हों-संगठित हो गये हों तो मध्यम राजा कोष और सेना आदिको सहायता देकर इन दोनोंपर अनुग्रह करनेमें समर्थ होता है और यदि ये परस्पर संगठित न हों तो वह मध्यम राजा पृथक्-पृथक् या बारी-बारीसे इन दोनोंका वध करनेमें समर्थ होता है। इन सबके मण्डलसे बाहर जो अधिक बलशाली या अधिक सैनिकशकिसे सम्पन्न राजा है, उसकी ‘उदासीन’ संज्ञा है। विजिगीषु, अरि और मध्यम-ये परस्पर संगठित हों तो उदासीन राजा इनपर अनुग्रहमात्र कर सकता है और यदि ये संगठित न होकर पृथक्-पृथक् हों तो वह ‘उदासीन’ इन सबका वध कर डालनेमें समर्थ हो जाता है॥ १-४६॥
लक्ष्मण! अब मैं तुम्हें संधि, विग्रह, यान और आसन आदिके विषयमें बता रहा हैं। किसी बलवान् राजाके साथ युद्ध ठन जानेपर यदि अपने पक्षकी अवस्था शोचनीय हो तो अपने कल्याणके लिये संधि कर लेनी चाहिये।
१. कपाल, २ उपहार, ३. संतान, ४. संगत, ५. उपन्यास, ६. प्रतीकार, ७, संयोग, ८, पुरुषान्तर, ९. अष्टनर, १०, आदिष्ट, ११, आत्मामिष, १२. उपग्रह, १३. परिक्रय, १४. उच्छिन्न, १५. परदूषण तथा १६. स्कन्धोपनेय-ये संधिके सोलह भेद बतलाये गये हैं। जिसके साथ संधि की जाती है, वह ‘संधेय’ कहलाता है। उसके दो भेद हैं-अभियोक्ता और अनभियोक्ता।
उक्त संधियोंमेंसे उपन्यास, प्रतीकार और संयोग-ये तीन संधियाँ अनभियोक्ता (अनाक्रमणकारी) के प्रति करनी चाहिये। शेष सभी अभियोक्ता (आक्रमणकारी)-के प्रति कर्तव्य हैं॥५-८॥
परस्परोपकार, मैत्र, सम्बन्धज तथा उपहार-ये ही चार संधिके भेद जानने चाहिये-ऐसा अन्य लोगोंका मत है ॥९॥
बालक, वृद्ध, चिरकालका रोगी, भाई-बन्धुओंसे बहिष्कृत, डरपोक, भीरु सैनिकोंवाला, लोभी-लालची सेवकोंसे घिरा हुआ, अमात्य आदि प्रकृतियों के अनुरागसे वञ्चित, अत्यन्त विषयासक्त, अस्थिरचित्त और अनेक लोगोंके सामने मन्त्र प्रकट करनेवाला, देवताओं और ब्राह्मणोंका निन्दक, दैवका मारा हुआ, दैवको ही सम्पत्ति और विपत्तिका कारण मानकर स्वयं उद्योग न करनेवाला, जिसके ऊपर दुर्भिक्षका संकट आया हो वह, जिसकी सेना कैद कर ली गयी हो अथवा शत्रुओंसे घिर गयी हो चह, अयोग्य देशमें स्थित (अपनी सेनाकी पहुँचसे बाहरके स्थानमें विद्यमान), बहुत-से शत्रुओंसे युक्त, जिसने अपनी सेनाको युद्धके योग्य कालमें नहीं नियुक्त किया है वह, तथा सत्य और धर्मसे भ्रष्ट-ये बीस पुरुष ऐसे हैं जिनके साथ संधि न करे, केवल विग्रह करे ॥ १०-१३३॥
एक-दूसरे के अपकारसे मनुष्योंमें विग्रह (कलह या युद्ध) होता है। राजा अपने अभ्युदयकी इच्छासे अथवा शत्रुसे पीड़ित होनेपर यदि देश-कालकी अनुकूलता और सैनिक-शक्ति से सम्पन्न हो तो | विग्रह प्रारम्भ करे ॥ १४-१५॥
सप्ताङ्ग राज्य, स्त्री (सीता आदि-जैसी असाधारण देवी), जनपदके स्थानविशेष, राष्ट्रके एक भाग, ज्ञानदाता उपाध्याय आदि और सेना इनमें से किसीका भी अपहरण विग्रहका कारण है। (इस प्रकार छः हेतु बताये गये)। इनके सिवा मद (राजा दम्भोद्भव आदिको भाँति शौर्यादिजनित दर्प), मान (रावण आदिकी भाँति अहंकार), जनपदकी पीड़ा (जनपद-निवासियोंका सताया जाना), ज्ञानविघात (शिक्षा-संस्थाओं अथवा ज्ञानदाता गुरुओं का विनाश), अर्थविपात (भूमि, हिरण्य आदिको क्षति पहुँचाना), शक्तिविघात (प्रभुशक्ति, मन्त्रशक्ति और उत्साहशक्तियोंका अपक्षय), धर्मविघात, दैव (प्रारब्धजनित दुरवस्था), सुग्रीव आदि-जैसे मित्रों के प्रयोजनकी सिद्धि, माननीय जनोंका अपमान, बन्धुवर्गका विनाश, भूतानुग्रहविच्छेद (प्राणियोंको दिये गये अभयदानका खण्डन-जैसे एकने किसी वनमें वहाँकै जन्तुओंको अभय देनेके लिये मृगयाकी पनाही कर दी, कि दूसरा उस नियमको तोड़कर शिकार खेलने आ गया-यही ‘भूतानुग्रहविच्छेद’ है), मण्डलदूषण (द्वादशराजमण्डलमेंसे किसीको विजिगीषुके विरुद्ध उभाड़ना), एकार्थाभिनिवेशित्व (जो भूमि या स्त्री आदि अर्थ एकको अभीष्ट है, उसीको लेनेके लिये दूसरेका भी दुराग्रह)-ये वीस विग्रहके कारण हैं॥ १६-१८॥ ।
सापत्र (रावण और विभीषणकी भाँती सौतेले भाइयोंका वैमनस्य), वास्तुज (भूमि, सुवर्ण आदिके हरणसे होनेवाला अमर्ष), स्त्रीके अपहरणसे होनेवाला रोष, कटुवचनजनित क्रोध तथा अपराधजनित प्रतिशोधको भावना-ये पाँच प्रकारके वैर अन्य विद्वानोंने बताये हैं ॥ १९ ॥
(१) जिस विग्रहसे बहुत कम लाभ होनेवाला हो, (२) जो निष्फल हो, (३) जिससे फलप्राप्तिमें संदेह हो, (४) जो तत्काल दोषजनक (विग्रहके समय भित्रादिके साथ बिरोध पैदा करनेवाला), (५) भविष्यकालमें भी निष्फल, (६) वर्तमान और भविष्यमें भी दोषजनक हो, (७) जो अज्ञात बल-पराक्रमवाले शत्रुके साथ किया जाय एवं (८) दूसरोंके द्वारा उभाड़ा गया हो, (९) जो दूसरोंको स्वार्थसिद्धिके लिये किंवा, (१०) किसी साधारण स्त्रीको पानेके लिये किया जा रहा हो, (११) जिसके दीर्घकालतक चलते रहनेको सम्भावना हो, (१२) जो श्रेष्ठ द्विजोंके साथ छेड़ा गया हो, (१३) जो वरदान आदि पाकर अकस्मात् दैवबलसे सम्पन्न हुए पुरुषके साथ छिड़नेवाला हो, (१४) जिसके अधिक बलशाली मित्र हों, ऐसे पुरुषके साथ जो छिड़नेवाला हो, (१५) जो वर्तमान कालमें फलद, किंतु भविष्यमें निष्फल हो तथा (१६) जो भविष्यमें फलद किंतु वर्तमानमें निष्फल हो-इन सोलह प्रकारके विग्रहोंमें कभी हाथ न डाले। जो वर्तमान और भविष्यमें परिशुद्ध-पूर्णतः लाभदायक हो, वही [विग्रह राजाको छेड़ना चाहिये। २०-२४॥
राजा जब अच्छी तरह समझ ले कि मेरी सेना हृष्ट–पुष्ट अर्थात उत्साह और शक्तिसे सम्पन है तथा शत्रुको अवस्था इसके विपरीत है, तब वह उसका निग्रह करने के लिये विग्रह आरम्भ करे। जव मित्र, आक्रन्द तथा आफ़न्दासार-इन तीनोंकी राजाके प्रति दृढभक्ति हो तथा शत्रुके मित्र आदि विपरीत स्थितिमें हों अर्थात् उसके प्रति भक्तिभाव न रखते हों, तब उसके साथ विग्रह आरम्भ करे ॥ २५॥
(जिसके बल एवं पराक्रम उच्च कोटिके हों, जो विजिगीषुके गुणों से सम्पन्न हो और विजयकी अभिलाषा रखता हो तथा जिसकी अमात्यादि प्रकृति उसके सद्गुणोंसे उसमें अनुरक्त हो, ऐसे राजाका युद्धके लिये यात्रा करना ‘यान’ कहलाता है।) विगृहागमन, संधायगमन, सम्भूयगमन, प्रसङ्गतः गमन तथा उपेक्षापूर्वक गमन-से नीतिज्ञ पुरुषोंद्वारा यानके पाँच भेद कहे गये हैं” ॥ २६॥
जब विजिगीषु और शत्रु-दोनों एक-दूसरेको शक्तिका विघात न कर सकनेके कारण आक्रमण न करके बैठ रहें तो इसे ‘आसन’ कहा जाता है; इसके भी ‘यान’को ही भाँति पाँच भेद होते हैं- १. विगृह्य आसन, २. संधाय आसन, ३. सम्भूय आसन, ४, प्रसङ्गमसन तथा ५. उपेक्षासन*॥ २७॥
दो बलवान् शत्रुओंकै बीचमें पड़कर वाणीद्वारा दोनों को ही आत्मसमर्पण करे-‘मैं और मेरा! राज्य दोनोंके ही हैं, यह संदेश दोनों ही पास गुप्तरूपसे भेजे और स्वयं दुर्गमें छिपा रहे। यह ‘द्वैधीभाव’की नीति है। जब उक्त दोनों शत्रु पहलेसे ही संगठित होकर आक्रमण करते हों, तब जो उनमें अधिक बलशाली हो, उसकी शरण ले। यदि वे दोनों शत्र परस्पर मन्त्रणा करके उसके साथ किसी भी शर्तपर संधि न करना चाहते हों, तब विजिगीषु उन दोनोंके ही किसी शत्रुका आश्रय ले अथवा किसी भी अधिक शक्तिशाली राजाकी शरण लेकर आत्मरक्षा करे॥ २८-३० ॥
यदि विजिगीषुपर किसी बलवान् शत्रुका आक्रमण हो और वह उच्छिन्न होने लगे तथा किसी उपायसे उस संकटका निवारण करना उसके लिये असम्भव हो जाय, तब वह किसी कुलीन, सत्यवादी, सदाचारी तथा शत्रुकी अपेक्षा अधिक बलशाली राजाकी शरण ले। उस आश्रयदाताके दर्शनके लिये उसकी आराधना करना, सदा उसके अभिप्रायके अनुकूल चलना, उसीके लिये कार्य करना और सदा उसके प्रति आदरका भाव रखना-यह आश्रय लेनेवालेका व्यवहार बतलाया गया है। ३१-३२॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें ‘वाड्गुण्यकथन’ नामक दो सौ चालीसवां अध्याय पुरा हुआ ॥ २४० ॥
अध्याय-२४१ मन्त्रविकल्प
श्रीराम कहते हैं–‘लक्ष्मण! प्रभावशक्ति और उत्साह-शक्तिसै मन्त्रशक्ति श्रेष्ठ बतायी गयी है। प्रभाव और उत्साहसे सम्पन्न शुक्राचार्यको देवपुरोहित बृहस्पतिने मन्त्र-बलसे जीत लिया ॥ १॥
जो विश्वसनीय होनेके साथ-ही-साथ नीतिशास्त्रका विद्वान् हो, उसीके साथ राजा अपने कर्तब्यके विषयमें मन्त्रणा करे। (जो विश्वसनीय होनेपर भी मूर्ख हो तथा विद्वान् होनेपर भी अविश्वसनीय हो, ऐसे मन्त्रीको त्याग दे। कौन कार्य किया जा सकता है और कौन अशक्य है, इसका स्वच्छ बुद्धिसे विवेचन करे।) जो अशक्य कार्यका आरम्भ करते हैं, उन्हें क्लेश उठानेके सिवा कोई फल कैसे प्राप्त हो सकता है ? ॥ २-३॥
अविज्ञात (परोक्ष)-का ज्ञान, विज्ञातका निश्चय, कर्तव्यके विषयमें दुविधा उत्पन्न होनेपर संशयका उच्छेद (समाधान) तथा शेष (अन्तिम निश्चित कर्तव्य)-की उपलब्धिये सब मन्त्रियोंक ही अधीन हैं। सहायक, कार्यसाधनके उपाय, देश और कालका विभाग, विपत्तिका निवारण तथा कर्तव्यकी सिद्धि-ये मन्त्रियोंकी मन्त्रणाके पाँच अङ्ग हैं ॥ ४॥
मनकी प्रसन्नता, श्रद्धा (कार्यसिद्धिके विषयमें दृढ़ विश्वास), ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों की स्वविषयक व्यापारमें क्षमता, सहाय-सम्पत्ति (सहायकका बाहुल्य अथवा सत्त्वादि गुणका योग) तथा उत्थान-सम्पत्ति (शीघ्रतापूर्वक उत्थान करनेका स्वभाव)-ये मन्त्रद्वारा निश्चित करके आरम्भ किये जानेवाले कर्मोकी सिद्धिके लक्षण हैं॥५॥
मद (मदिरा आदिका नशा), प्रमाद (कार्यान्तरके प्रसङ्गसे असावधानी), काम (कामभावनासे प्रेरित होकर स्त्रियोंपर विश्वास), स्वप्नावस्थामें किये गये प्रलाप, खंभे आदिकी ओटमें लुकै-छिपे लोग पार्श्ववर्तिनी कामिनियाँ तथा उपेक्षित प्राणी (तोता, मैना, बालक, बहरे आदि)-ये मन्त्रका भेदन करनेमें कारण बनते हैं ॥ ६ ॥
सभामें निर्भीक बोलनेवाला, स्मरणशक्तिसे सम्पन्न, प्रवचन-कुशल, शस्त्र और शास्त्रमें परिनिष्ठित तथा दूतोचित कर्मके अभ्याससे सम्पन्न पुरुष राजदूत होने के योग्य होता है। निसृष्टार्थ (जिसपर संधि-विग्रह आदि कार्यको इच्छानुसार करनेका पूरा भार सौंपा गया हो, वह), मितार्थ (जिसे परिमित कार्यभार दिया गया हो, यथा-इतना ही करना या इतना ही बोलना चाहिये), तथा शासनहारक (लिखित आदेशको पहुँचानेवाला)- ये दूतके तीन भेद कहे गये हैं ॥ ७-८॥
दूत अपने आगमनकी सूचना दिये बिना शत्रुके दुर्ग तथा संसद्में प्रवेश न करे (अन्यथा वह संदेहका पात्र बन जाता है)। वह कार्यसिद्धिके लिये समयकी प्रतीक्षा करे तथा शत्रु राजाकी आज्ञा लेकर वहाँसे विदा हो। उसे शत्रुके छिद्र (दुर्बलता)-की जानकारी प्राप्त करनी चाहिये। उसके कोष, मित्र और सेनाके विषयमें भी वह जाने तथा शत्रुको दृष्टि एवं शरीरकी चेष्टाओं से अपने प्रति राग और विरक्तिका भी अनुमान कर लेना चाहिये ॥ ९-१० ॥
वह उभय पक्षोंके कुलकी (यथा-‘आप उदितोदित कुलके रत्न हैं’ आदि), नामकी (यथा ‘आपका नाम दिग्दिन्तमें विख्यात है’ इत्यादि), द्रव्यको (यथा-‘आपका द्रव्य परोपकारमें लगता है’ इत्यादि) तथा श्रेष्ठ कर्मकी (यथा-‘आपके सत्कर्मको श्रेष्ठ लोग भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। आदि कहकर) बड़ाई करे। इस तरह चतुर्विध स्तुति करनी चाहिये। तपस्वीके वेषमें रहनेवाले अपने चरोंके साथ संवाद करे। अर्थात् उनसे बात करके यथार्थ स्थितिको जाननेकी चेष्टा करे ॥ ११ ॥
चर दो प्रकारके होते हैं-प्रकाश (प्रकट) और अप्रकाश (गुप्त)। इनमें जो प्रकाश है, उसकी ‘दूत’ संज्ञा है और अप्रकाश ‘चर’ कहा गया है। वणिक् (वैदेहक), किसान (गृहपति), लिङ्गी (मुण्डित या जटाधारी तपस्वी), भिक्षुक (उदास्थित), अध्यापक (छात्रवृत्तिसे रहनेवाला-कार्पटिक)-इन चारोंकी स्थितिके लिये संस्थाएँ हैं। इनके लिये वृत्ति (जीविका)-की व्यवस्था की जानी चाहिये, जिससे ये सुखसे रह सकें ॥ १२ ॥
जब दूतकी चेष्टा विफल हो जाय तथा शत्रु व्यसनग्रस्त हो, तब उसपर चढ़ाई करे ॥ १२ ॥
जिससे अपनी प्रकृतियाँ व्यसनग्रस्त हो गयी हों, उस कारणको शान्त करके विजिगीषु शत्रुपर चदाई करे। व्यसन दो प्रकारके होते हैं—मानुष और दैव। अनय और अपनय दोनोंके संयोगसे प्रकृति-व्यसन प्राप्त होता है। अथवा केवल दैवसे भी उसकी प्राप्ति होती है। वह श्रेय (अभीष्ट अर्थ)-को व्यस्त (क्षिप्त या नष्ट) कर देता है, इसलिये ‘व्यसन’ कहलाता है। अग्नि (आग लगना), जल (अतिवृष्टि या बाढ़), रोग, दुमक्ष (अकाल पड़ना) और मरक (महामारी)-ये पाँच प्रकारके ‘दैव-व्यसन’ हैं। शेष ‘मानुष-व्यसन’ हैं। पुरुषार्थ अथवा अथर्ववेदोक्त शान्तिकर्मसे दैव-व्यसनका निवारण करे। उत्थान-शीलता (दुर्गादि-निर्माणविषयक चेष्टा) अथवा नीति-संधि या साम आदिके प्रयोगके द्वारा मानुष-व्यसनकी शान्ति करे ॥ १३-१५ ॥
मन्त्र (कार्यका निश्चय), मन्त्रफलकी प्राप्ति, कार्यका अनुष्ठान, भावी उन्नतिका सम्पादन, आय- व्यय, दण्डनीति, शत्रुका निवारण तथा व्यसनको टालनेका उपाय, राजा एवं राज्यकी रक्षा-ये सब अमात्यके कर्म हैं। यदि अमात्य व्यसनग्रस्त हो तो वह इन सब कर्मोको नष्ट कर देता है ॥ १६-१७॥
सुवर्ण, धान्य, वस्त्र, वाहन तथा अन्यान्य द्रव्योंका संग्रह जनपदवासिनी प्रजाके कर्म हैं। यदि प्रजा व्यसनग्रस्त हो तो वह उपर्युक्त सब कार्योंका नाश कर डालती है॥ १८॥
आपत्तिकालमें प्रजाजनकी रक्षा, कोष और सेनाकी रक्षा, गुप्त या आकस्मिक युद्ध, आपत्तिग्रस्त जनोंकी रक्षा, संकट में पड़े हुए मित्रों और अमित्रोंका संग्रह तथा सामन्तों और वनवासियोंसे प्राप्त होनेवाली बाधाओंका निवारण भी दुर्गका आश्रय लेनेसे होता है। नगरके नागरिक भी शरण लेनेके लिये दुर्गपतियोंका कोष आदिके द्वारा उपकार करते हैं। (यदि दुर्ग विपत्तिग्रस्त हो जाय तो ये सब कार्य विपन्न हो जाते हैं।) ॥ १९-२० ॥
भृत्यों (सैनिक आदि) का भरण-पोषण, दानकर्म, भूषण, हाथी-घोड़े आदिका खरीदना, स्थिरता, शत्रुपक्षकी लुब्ध प्रकृतियोंमें धन देकर फूट डालना, दुर्गका संस्कार (मरम्मत और सजावट), सेतुबन्ध (खेतीके लिये जलसंचय करनेके निमित्त बाँध आदिका निर्माण), वाणिज्य, प्रजा और मित्रोंका संग्रह, धर्म, अर्थ एवं कामकी सिद्धि-ये सब कार्य कोषसे सम्पादित होते हैं। कोषसम्बन्धी व्यसनसे राजा इन सबका नाश कर देता है; क्योंकि राजाका मूल है- कोष ॥ २१-२२ ॥
मित्र, अमित्र (अपकारकी इच्छावाले शत्रु) सुवर्ण और भूमिको अपने वशमें करना, शत्रुओंको कुचल डालना, दूरके कार्यको शीघ्र पूरा करा लेना इत्यादि कार्य दण्ड (सेना)-द्वारा साध्य हैं। उसपर संकट आनेसे ये सब कार्य बिगड़ जाते हैं॥ २३ ॥
‘मित्र’ विजिगीषुके विचलित होनेवाले मित्रोंको रोकता है-उनमें सुस्थिर स्नेह पैदा करता है, उसके शत्रुओंका नाश करता है तथा धन आदिसे विजिगीषुका उपकार करता है। ये सब मित्रसे सिद्ध होनेवाले कार्य हैं। मित्रके व्यसनग्रस्त होनेपर ये कार्य नष्ट होते हैं ॥ २४ ॥
यदि राजा व्यसनी हो तो समस्त राजकार्योको नष्ट कर देता है। कठोर वचन बोलकर दूसरोंको दुःख पहुँचाना, अत्यन्त कठोर दण्ड देना, अर्थदूषण (वाणीद्वारा पहलेकी दी हुई वस्तुको न देना, दी हुईको छीन लेना, चोरी आदिके द्वारा धनका नाश होना तथा प्राप्त हुए भनको त्याग देना),* मदिरापान, स्त्रीविषयक आसक्ति, शिकार खेलनेमें अधिक तत्पर रहना और जुआ खेलना-ये राजाके व्यसन हैं॥ २५ ॥
आलस्य (उद्योगशून्यता), स्तब्धता (बड़ोंके सामने उद्दण्डता या मान-प्रदर्शन), दर्प (शौर्यादिका अहंकार), प्रमाद (असावधानता), बिना कारण वैर बाँधना -ये तथा पूर्वोक्त कठोर वचन बोलना आदि राजव्यसन सचिवके लिये दुर्व्यसन बताये गये हैं॥ २६॥
अनावृष्टि (और अतिवृष्टि) तथा रोगजनित पीड़ा आदि राष्ट्रके लिये व्यसन कहे गये हैं। यन्त्र (शतघ्नी आदि), प्राकार (चहारदीवारी) तथा परिखा (खाई)-का नष्ट-भ्रष्ट हो जाना, अस्त्र-शस्त्रोंका अभाव हो जाना तथा घास, इंधन एवं अन्नका क्षीण हो जाना दुर्गके लिये व्यसन बताया गया है॥ २७-२८॥
असङ्ख्यय किंवा अपव्ययके द्वारा जिसे खर्च कर दिया गया हो, जिसे मण्डलके अनेक स्थानों में थोड़ा-थोड़ा करके बाँट दिया गया हो, रक्षक आदिने जिसका भक्षण कर लिया हो, जिसे संचय करके रखा नहीं गया हो, जिसे चोर आदिने चुरा लिया हो तथा जो दूरवर्ती स्थानमें रखा गया हो, ऐसा कोष व्यसनग्रस्त बताया जाता है ॥ २९ ॥
जो चारों ओरसे अवरुद्ध कर दी गयी हो, जिसपर घेरा पड़ गया हो, जिसका अनादर या असम्मान हुआ हो, जिसका ठीक-ठीक भरण पोषण नहीं किया गया हो, जिसके अधिकांश सैनिक रोगी, थके-माँदे, चलकर दूरसे आये हुए तथा नवागत हों, जो सर्वथा क्षीण और प्रतिहत हो चली हो, जिसके आगे बढ़नेका वेग कुण्ठित कर दिया गया हो, जिसके अधिकांश लोग आशाजनित निर्वेद (खेद एवं विरक्ति)-से भरे हों, जो अयोग्य भूमिमें स्थित, अनृतप्राप्त (अविश्वस्त) हो गयी हो, जिसके भीतर स्त्रियाँ अथवा स्त्रैण हों, जिसके हृदयमें कुछ काँटा-सा चुभ रहा हो तथा जिस सेनाके पीछे दुष्ट पाणिग्राह (शत्रु) की सेना लगी हुई हो, उस सेनाकी इस दुरवस्थाको अलव्यसन’ कहा जाता है॥ ३०-३३॥
जो दैवसे पीड़ित, शत्रुसेनासे आक्रान्त तथा पूर्वोक्त काम, क्रोध आदिसे संयुक्त हो, उस मित्रको व्यसनग्रस्त बताया गया है। उसे उत्साह एवं सहायता दी जाय तो वह शत्रुओंसे युद्धके लिये उद्यत एवं विजयी हो सकता है॥ ३४॥
अर्थदूषण, वाणीको कठोरता तथा दण्डविषयक अत्यन्त क्रूरता-ये तीन क्रोधज व्यसन हैं। मृगया, जुआ, मद्यपान तथा स्त्रीसङ्ग-ये चार प्रकारके कामज व्यसन हैं॥ ३५ ॥
वाणीकी कठोरता लोकमें अत्यन्त उद्वेग पैदा करनेवाली और अनर्थकारिणी होती है। अर्थहरण, ताड़न और वध-यह तीन प्रकारका दण्ड असिद्ध अर्थका साधक होनेसे सत्पुरुषोंद्वारा ‘शासन’ कहा गया है। उसको युक्तिसे ही प्राप्त कराये। जो राजा युक्त (उचित) दण्ड देता है, उसकी प्रशंसा की जाती है। जो क्रोधवश कठोर दण्ड देता है, वह राजा प्राणियोंमें उद्वेग पैदा करता है। उस दण्डसे उद्विग्न हुए मनुष्य विजिगीषुके शत्रुओंको शरणमें चले जाते हैं, उनसे वृद्धिको प्राप्त हुए शत्रु उक्त राजाके विनाशमें कारण होते हैं॥ ३६-३७६॥
दूषणीय मनुष्यके दूषण (अपकार)-के लिये उससे प्राप्त होनेवाले किसी महान् अर्थका विघातपूर्वक परित्याग नीति-तत्त्वज्ञ विद्वानों द्वारा ‘अर्थदूषण’ कहा जाता है ॥ ३८ ॥
दौड़ते हुए यान (अश्व आदि) से गिरना, भूख-प्यासका कष्ट उठाना आदि दोष मृगयासे प्राप्त होते हैं। किसी छिपे हुए शत्रुसे मारे जानेकी भी सम्भावना रहती हैं। श्रम या थकावटपर विजय पानेके लिये किसी सुरक्षित वनमें राजा शिकार खेले ॥ ३९ ॥
जूएमें धर्म, अर्थ और प्राणोंके नाश आदि दोष होते हैं; उसमें कलह आदिकी भी सम्भावना रहती है। स्त्रीसम्बन्धी व्यसनसे प्रत्येक कर्तव्य-कार्य करनेमें बहुत अधिक विलम्ब होता है-ठीक समयसे कोई काम नहीं हो पाता तथा धर्म और अर्थको भी हानि पहुँचती है। मद्यपानके व्यसनसे प्राणोंका नाशतक हो जाता है, नशेके कारण कर्तव्य और अकर्तव्यका निश्चय नहीं हो पाता ।। ४०-४१ ॥
सेनाकी छावनी कहाँ और कैसे पड़नी चाहिये, इस बातको जो जानता है तथा भले-बुरे निमित्त (शकुन)-का ज्ञान रखता है, वह शत्रुपर विजय पा सकता है। स्कन्धाकार (सेनाकी छावनी)-के मध्यभागमें खजानासहित राजाके ठहरनेका स्थान होना चाहिये। राजभवनको चारों ओरसे घेरकर क्रमशः मौल (पिता-पितामहके कालसे चली आती हुई मौलिक सेना), भृत (भोजन और वेतन देकर रखी हुई सेना), श्रेणि (जनपदनिवासियोंका दल अथवा कुविन्द आदिकी सेना), मित्रसेना, द्विषद्वल (राजाकी दण्डशक्तिसे वशीभूत हुए सामन्तोंकी सेना) तथा आटविक (वन्य-प्रदेशके अधिपतिकी सेना)-इन सेनाओंकी छावनी डाले ॥ ४२-४३ ॥
(राजा और उसके अन्तःपुरकी रक्षाकी सुव्यवस्था करनेके पश्चात्) सेनाका एक चौथाई भाग युद्धसज्जासे सुसज्जित हो सेनापतिको आगे करके प्रयत्नपूर्वक छावनीके बाहर रातभर चक्कर लगाये। वायुके समान वेगशाली घोड़ों पर बैठे हुए घुड़सवार दूर सीमान्तपर विचरते हुए शत्रुकी गतिविधिका पता लगायें। जो भी छावनीके भीतर प्रवेश करें या बाहर निकलें, सब राजाकी आज्ञा प्राप्त करके ही वैसा करें ।। ४४-४५ ॥
साम, दान, दण्ड, भेद, उपेक्षा, इन्द्रजाल और माया-ये सात उपाय हैं; इनका शत्रुके प्रति प्रयोग करना चाहिये। इन उपायोंसे शत्रु वशीभूत होता है ॥ ४६॥
सामके पाँच भेद बताये गये हैं-१. दूसरेके उपकारका वर्णन, २. आपसके सम्बन्धको प्रकट करना (जैसे ‘आपकी माता मेरी मौसी हैं’ इत्यादि) ३. मधुरवाणीमें गुण-कीर्तन करते हुए बोलना, ४. भावी उन्नतिका प्रकाशन (यथा-‘ऐसा होनेपर आगे चलकर हम दोनोंका बड़ा लाभ होगा। इत्यादि) तथा ५. मैं आपका हूँ—यों कहकर आत्मसमर्पण करना ॥४७॥
किसीसे उत्तम (सार), अधम (असार) तथा मध्यम (सारासार) भेदसे जो द्रव्य-सम्पत्ति प्राप्त हुई हो, उसको उसी रूपमें लौटा देना-यह दानका प्रथम भेद है। २. बिना दिये ही जो धन किसीके द्वारा ले लिया गया हो, उसका अनुमोदन करना (यथा-‘आपने अच्छा किया जो ले लिया मैंने पहलेसे ही आपको देनेका विचार कर लिया था’)-यह दानका दूसरा भेद है। ३. अपूर्व द्रव्यदान (भाण्डागारसे निकालकर दिया गया नूतन दान), ४, स्वयंग्राहप्रवर्तन (किसी दूसरेसे स्वयं ही धन ले लेनेके लिये प्रेरित करना। यथा-‘अमुक व्यक्ति अमुक द्रव्य ले लो, वह तुम्हारा ही हो जायगा’) तथा ५. दातव्य ऋण आदिको छोड़ देना या न लेना-इस प्रकार ये दानके पाँच भेद कहे गये हैं ॥ ४८-४९॥
स्नेह और अनुरागको दूर कर देना, परस्पर संघर्ष (कलह) पैदा कला तथा धमकी देना-भेदज्ञ पुरुषोंने भेदके ये तीन प्रकार बताये हैं॥ ५० ॥
वध, घनका अपहरण और बन्धन एवं ताड़न आदिके द्वारा क्लेश पहुँचाना से दण्डके तीन भेद हैं। वधके दो प्रकार हैं-(१) प्रकाश (प्रकट) और (२) अप्रकाश (गुप्त) । जो सब लोगोंके द्वेषपात्र हों, ऐसे दुष्टोंका प्रकटरूपमें वध करना चाहिये; किंतु जिनके मारे जानेसे लोग उद्विग्न हो उठें, जो राजाके प्रिय हों तथा अधिक बलशाली हों, वे यदि राजाके हितमें बाधा पहुँचाते हैं तो उनका गुप्तरूपसे वध करना उत्तम कहा गया है। गुप्तरूपसे वधको प्रयोग यों करना चाहिये-विष देकर, एकान्तमें आग आदि लगाकर, गुप्त मनुष्योंद्वारा शस्त्रका प्रयोग कराकर अथवा शरीरमें फोड़ा पैदा करनेवाले उबटन लगवाकर राज्यके शत्रुको नष्ट करे। जो जातिमात्रसे भी ब्राह्मण हो, उसे प्राणदण्ड न दे। उसपर सामनीतिका प्रयोग करके उसे वशमें लानेकी चेष्टा करे ।।५१-५३।६।
प्रिय वचन बोलना ‘साम’ कहलाता है। उसका प्रयोग इस तरह करे, जिससे चित्तमें अमृतका-सा लेप होने लगे। अर्थात् वह हृदयमें स्थान बना ले। ऐसी स्निग्ध दृष्टिसे देखे, मानो वह सामनेवालेको प्रेमसे पी जाना चाहता हो तथा इस तरह बात करे, मानौ उसके मुखसे अमृतकी वर्षा हो रही हो ॥५४॥
जिसपर झूठा ही कलङ्क लगाया गया हो, जो धनका इच्छुक हो, जिसे अपने पास बुलाकर अपमानित किया गया हो, जो राजाका द्वेषी हो, जिसपर भारी कर लगाया गया हो, जो विद्या और कुल आदिकी दृष्टिसे अपनेको सबसे बड़ा मानता हो, जिसके धर्म, काम और अर्थ छिन्न भिन्न हो गये हों, जो कुपित, पानी और अनादृत हो, जिसे अकारण राज्य निर्वासित कर दिया गया हो, जो पूजा एवं सत्कारके योग्य होनेपर भी असत्कृत हुआ हो, जिसके धन तथा स्त्रीका हरण कर लिया गया हो, जो मनमें वैर रखते हुए भी ऊपरसे सामनीतिके प्रयोगसे शान्त रहता हो, ऐसे लोगोंमें, तथा जो सदा शङ्कित रहते हों, उनमें, यदि वे शत्रुपक्षके हों तो फूट डाले और अपने पक्षमें इस तरहके लोग हों तो उन्हें यत्नपूर्वक शान्त करे। यदि शत्रुपक्षसे फूटकर ऐसे लोग अपने पक्षमें आयें तो उनका सत्कार करे ॥ ५५-५७ ॥
समान तृष्णाका अनुसन्धान (उभयपक्षको समानरूपसे लाभ होनेकी आशाका प्रदर्शन), अत्यन्त उग्रभय (मृत्यु आदिकी विभीषिका) दिखाना तथा उच्चकोटिका दान और मान-ये भेदके उपाय कहे गये हैं। ५८६ ॥
शत्रुकी सेनामें जब भेदनीतिद्वारा फूट डाल दी जाती है, तब वह पुन लगे हुए काष्ठकी भाँती विशीर्ण (छिन्न-भिन्न) हो जाती है। प्रभाव, उत्साह तथा मन्त्रशक्तिसे सम्पन्न एवं देश-कालका ज्ञान रखनेवाला राजा दण्डके द्वारा शत्रुओका अन्त कर जिसमें मैत्रीभाव प्रधान है तथा जिसका विचार कल्याणमय है, ऐसे पुरुषको सामनीतिके द्वारा वशमें करे ॥ ५९-६० ॥
जो लोभी हो और आर्थिक दृष्टिसे क्षीण हो चला हो, उसको दानद्वारा सत्कारपूर्वक वशमें करे। परस्पर शङ्कासे जिनमें फूट पड़ गयी हो तथा जो दुष्ट हों, उन सबको दण्डका भय दिखाकर वशमें ले आये। पुत्र और भाई आदि बन्धुजनोंको सामनीतिद्वारा एवं धन देकर वशीभूत करे। सेनापतियों, सैनिकों तथा जनपदके लोगोंको दान और भेदनीतिके द्वारा अपने अधीन करे। सामन्तों (सीमावर्ती नरेशों), आटविकों (वन्य-प्रदेशके शासकों) तथा यथासम्भव दूसरे लोगोंको भी भेद और दण्डनीतिसे वशमें करे ॥ ६१-६२॥
देवताओंकी प्रतिमाओं तथा जिनमें देवताओंकी मूर्ति खुदी हो, ऐसे खंभोंके बड़े-बड़े छिद्रों में छिपकर खड़े हुए मनुष्य ‘मानुषी माया’ हैं।’ स्त्रीके कपड़ों से ढंका हुआ अथवा रात्रिमें अद्भुतरूपसे दर्शन देनेवाला पुरुष भी ‘मानुषी माया’ है। वेताल, मुखसे आग उगलनेवाले पिशाच तथा देवताओंके समान रूप धारण करना इत्यादि ‘मानुषी माया’ है। इच्छानुसार रूप धारण करना, शस्त्र, अग्नि, पत्थर और जलकी वर्षा करना तथा अन्धकार, आँधी, पर्वत और मेघोंकी सृष्टि कर देना-यह ‘अमानुषी माया’ है। पूर्वकल्पकी चतुर्युगीमें जो द्वापर आया था, उसमें पाण्डवंशी भीमसेनने स्त्रीके समान रूप धारण करके अपने शत्रु कीचकको मारा था ।। ६३-६५ ॥
अन्याय (अदण्ड्यदण्डन आदि), व्यसन (मृगया आदि) तथा बड़ेके साथ युद्धमें प्रवृत्त हुए आत्मीय जनको न रोकना ‘उपेक्षा’ है। पूर्वकल्पवर्ती भीमसेनके साथ युद्धमें प्रवृत्त हुए अपने भाई हिडिम्बको हिडिम्बाने मना नहीं किया, अपने स्वार्थकी सिद्धिके लिये उसकी उपेक्षा कर दी। ६६ ।।
मेघ, अन्धकार, वर्षा, अग्नि, पर्वत तथा अन्य अद्भुत वस्तुओंको दिखाना, दूर खड़ी हुई ध्वजशालिनी सेनाओंका दर्शन कराना, शत्रुपक्षके सैनिकोंको कटे, फाड़े तथा विदीर्ण किये गये और अङ्गोंसे रक्तकी धारा बहाते हुए दिखाना यह सब ‘इन्द्रजाल’ है। शत्रुओंको डरानेके लिये इस इन्द्रजालकी कल्पना करनी चाहिये ।। ६७-६८ ॥ |
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें ‘साम आदि उपायोंका कथन’ नामक दो सौ इकतालीसवां अध्याय पूरा हुआ ॥ २४१ ॥
अध्याय-२४२ सेनाके छः भेद, इनका बलाबल तथा छः अङ्ग
श्रीराम कहते हैं– छः प्रकारकी सेनाको कवच आदिसे संनद्ध एवं व्यूहबद्ध करके इष्ट देवताओंकी तथा संग्रामसम्बन्धी दुर्गा आदि देवियों की पूजा करनेके पश्चात् शत्रुपर चढ़ाई करे। मौल, भृत, श्रेणि, सुहद्, शत्रु तथा आटविक – ये छः प्रकारके सैन्य हैं। इनमें परकी अपेक्षा पूर्व-पूर्व सेना श्रेष्ठ कही गयी है। इनका व्यसन भी इसी क्रमसे गरिष्ठ माना गया है। पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथीसवार-ये सेनाके चार अङ्ग हैं; किंतु मन्त्र और कोष-इन दो अङ्गोंके साथ मिलकर सेनाके छः अङ्ग हो जाते हैं॥ १-२॥
नदी-दुर्ग, पर्वत-दुर्ग तथा वन-दुर्ग-इनमें जहाँ-जहाँ (सामन्त तथा आटविक आदिसे) भय प्राप्त हो, वहाँ-वहाँ सेनापति संनद्ध एवं व्यूहबद्ध सेनाओंके साथ जाय। एक सेनानायक उत्कृष्ट वीर योद्धाओंके साथ आगे जाय (और मार्ग एवं सेनाके लिये आवास-स्थानका शोध करे)। विजिगीषु राजा और उसका अन्त:पुर सेनाके मध्यभागमें रहकर यात्रा करे। खजाना तथा फल्गु (असार एवं वेगार करनेवालोंकी) सेना भी बीचमें हो रहकर चले। स्वामौके अगल-बगलमें घुड़सवारोंकी सेना रहे । घुड़सवार सैनाके उभय पाश्वमें रथसेना रहे। रथसेनाके दोनों तरफ हाथियोंकी सेना रहनी चाहिये। उसके दोनों बगल आटविकों (जंगली लोगों) की सेना रहे। यात्राकालमें प्रधान एवं कुशल सेनापति स्वयं स्वामीके पीछे रहकर सबको आगे करके चले। थके-माँदे (हतोत्साह) सैनिकको धीरे-धीरे आश्वासन देता रहे। उसके साथकी सारी सेना कमर कसकर युद्धके लिये तैयार रहे। यदि आगेको ओरसे शत्रुके आक्रमणका भय सम्भावित हो तो महान् मकरव्यूहकी रचना करके आगे बढ़े। (यदि तिर्यग् दिशासे भयकी सम्भावना हो तो) खुले या फैले पंखवाले श्येन पक्षीके आकारकी व्यूह-रचना करके चले। (यदि एक आदमीके ही चलनेयोग्य पगडंडी-मार्गसे यात्रा करते समय सामनेसे भय हो तो) सूची-व्यूहकी रचना करके चले तथा उसके मुखभागमें वीर योद्धाओंको खड़ा करे। पीछेसे भय हो तो शकटव्यूहकी, पार्श्वभागसे भय हो तो वज्रव्यूहको’ तथा सब ओरसे भय होनेपर ‘सर्वतोभद्र” नामक व्यूहकी रचना करे ॥ ३-८॥
जो सेना पर्वतको कन्दरा, पर्वतीय दुर्गम स्थान एवं गहन वनमें, नदी एवं घने वनसे संकीर्ण पथपर फैंसी हो, जो विशाल मार्गपर चलनेसे थकी हो, भूख-प्याससे पीड़ित हो, रोग, दुर्भिक्ष (अकाल) एवं महामारीसे कष्ट पा रही हो, लुटेरोंद्वारा भगायी गयी हो, कोचड़, पूल तथा पानीमें फंस गयी हो, विक्षिप्त हो, एक-एक व्यक्ति हो चलनेका मार्ग होनेसे जो आगे न बढ़कर एक हो स्थानपर एकत्र हो गयी हो. सोयी हो, खाने पीनेमें लगी हो, अयोग्य भूमिपर स्थित हो, बैठी हो, चोर तथा अग्निके भयसे डरी हो, वर्षा और आँधीकी चपेटमें आ गयी हो तथा इसी तरह अन्यान्य संकटेंमें फँस गयी हो, ऐसी अपनी सेनाकी तो सब ओरसे रक्षा करे तथा शत्रुसेनाको घातक प्रहारका निशाना बनाये ।। ९-११६ ॥
जब आक्रमणके लक्ष्यभूत शत्रुकी अपेक्षा विजिगीषु राजा देश-कालकी अनुकूलताकी दृष्टिले बढ़ा-चढ़ा हो तथा शत्रुकी प्रकृतिमें फूट डाल दी गयी हो और अपना बल अधिक हो तो शत्रुके साथ प्रकाश-युद्ध (घोषित या प्रकट संग्राम) छेड़ दे। यदि विपरीत स्थिति हो तो कूट-युद्ध (छिपी लड़ाई) करे। जब शत्रुकी सेना पूर्वोक्त बलव्यसन (सैन्य-संकट)-के अवसरों या स्थानोंमें फँसकर व्याकुल हो तथा युद्धके अयोग्य भूमिमें स्थित हो और सेनासहित विजिगीषु अपने अनुकूल भूमिपर स्थित हो, तब वह शत्रुपर आक्रमण करके उसे | मार गिराये। यदि शत्रु-सैन्य अपने लिये अनुकूल भूमिमें स्थित हो तो उसकी प्रकृतियों में भेदनीतिद्वारा फूट डलवाकर, अवसर देख शत्रुका विनाश कर डाले ॥ १२–१३॥
जो युद्धसे भागकर या पीछे हटकर शत्रुको उसकी भूमिसे बाहर खींच लाते हैं, ऐसे वनचरों (आटविकों) तथा अमित्र सैनिकोंने पाशभूत होकर जिसे प्रकृतिप्रगहसे (स्वभूमि या मण्डलसे) दूर- परकीय भूमिमें आकृष्ट कर लिया है, उस शत्रुको प्रकृष्ट वीर योद्धाओंद्वारा मरवा डाले। कुछ थोड़े- से सैनिकोंको सामनेकी ओरसे युद्धके लिये उद्यत दिखा दे और जब शत्रुके सैनिक इन्हको अपना लक्ष्य बनानेका निश्चय कर लें, तब पीछेसे वैगशाली उत्कृष्ट वीरोंकी सेनाके साथ पहुँचकर उन शत्रुओंका विनाश करे। अथवा पीछेकी ओर ही सेना एकत्र करके दिखाये और जब शत्रु-सैनिकोंका ध्यान उधर ही खिंच जाय, तब सामनेकी ओरसे शूरवीर बलवान् सेनाद्वारा आक्रमण करके उन्हें नष्ट कर दे। सामने तथा पीछेकी ओरसे किये जानेवाले इन दो आक्रमणोंद्वारा अगल-बगलसे किये जानेवाले आक्रमणकी भी व्याख्या हो गयी अर्थात् बायी और कुछ सेना दिखाकर दाहिनी ओरसे और दाहिनी और सेना दिखाकर बायीं औरसे गुप्तरूपसे आक्रमण को। फूटयुमें ऐसा ही करना चाहिये। पहले दूष्यबल, अमित्रबल तथा आटविकबल-इन सबके साथ शत्रुसैनाको लड़ाकर थका दे। जब शत्रुबल श्रान्त, मन्द (हतोत्साह) और निराक्रन्द (मित्ररहित एवं निराश) हो जाय और अपनी सेनाके वाहन थके न हों, उस दशामें आक्रमण करके शत्रुवर्गको मार गिराये। अथवा दूष्य एवं अमित्र सेनाको युद्धसे पीछे हटने या भागनेका आदेश दे दे और जब शत्रुको यह विश्वास हो जाय कि मेरी जीत हो गयी, अतः वह ढीला पड़ जाय, तब मन्त्रबलका आश्रय ले प्रयत्नपूर्वक आक्रमण करके उसे मार डाले। स्कन्धावार (सेनाके पड़ाव), पुर, ग्राम, सस्यसमूह तथा गौओंके व्रज (गोष्ठ)-इन सबको लूटनेका लोभ शत्रु-सैनिकोंके मनमें उत्पन्न करा दे और जब उनका ध्यान बंट जाय, तब स्वयं सावधान रहकर उन सबका संहार कर डाले। अथवा शत्रु राजाकी गायोंका अपहरण करके उन्हें दूसरी ओर (गायोंको छुड़ानेवालोंकी ओर) खींचे और जब शत्रुसेना उस लक्ष्यकी ओर बढ़े, तब उसे मार्गमें ही रोककर मार डाले। अथवा अपने ही ऊपर आक्रमणके भयसे रातभर जागनेके श्रमसे दिनमें सोयी हुई। शत्रुसेनाके सैनिक जब नींदसे व्याकुल हों, उस समय उनपर धावा बोलकर मार डाले। अथवा रातमें ही निश्चिन्त सोये हुए सैनिकोंको तलवार हाथमें लिये हुए पुरुषोंद्वारा मरवा दे॥ १४-२२॥
जब सेना कूच कर चुकी हो तथा शत्रुने मार्गमें ही घेरा डाल दिया हो तो उसके उस घेरे या अवरोधको नष्ट करनेके लिये हाथियोंको हो आगे-आगे ले चलना चाहिये। वन-दुर्गमें, जहाँ घोड़े भी प्रवेश न कर सकें, वहाँ हाथियोंकी ही सहायतासे सेनाका प्रवेश होता है–थे आगे वृक्ष आदिको तोड़कर सैनिकों के प्रवेशके लिये मार्ग बना देते हैं। जहाँ सैनिकोंकी पंक्ति ठोस हो, वहाँ उसे तोड़ देना हाथियोंका ही काम है तथा जहाँ व्यूह टूटनेसे सैनिकपंक्तिमें दरार पड़ गयी हो, वहाँ हाथियोंके खड़े होनेसे छिद्र या दरार बंद हो जाती है। शत्रुओंमें भय उत्पन्न करना, शत्रुके दुर्गके द्वारको माथेकी टक्कर देकर तोड़ गिराना, खजानेको सेनाके साथ ले चलना तथा किसी उपस्थित भयसे सेनाकी रक्षा करना-ये सब हाथियोंद्वारा सिद्ध होनेवाले कर्म हैं॥ २३-२४॥
अभिन्न सेनाका भेदन और भिन्न सेनाका संधान-ये दोनों कार्य (गजसेनाकी ही भाँती) रथसेनाके द्वारा भी साध्य हैं। वनमें कहाँ उपद्रव है, कहाँ नहीं है-इसका पता लगाना, दिशाओंका शोध करना (दिशाका ठीक ज्ञान रखते हुए सेनाको यथार्थ दिशाकी ओर ले चलना) तथा मार्गका पता लगाना -यह अश्वसेनाका कार्य हैं। अपने पक्षके वीवध और आसारको रक्षा, भागती हुई शत्रुसेनाका शौम्रतापूर्वक पीछा करना, संकटकालमें शीघ्रतापूर्वक भाग निकलना, जल्दीसे कार्य सिद्ध करना, अपनी सेनाकी जहाँ दयनीय दशा हो, वहाँ उसके पास पहुँचकर सहायता करना, शत्रुसेनाके अग्रभागपर आयात करना और तत्काल ही घूमकर उसके पिछले भागपर भी प्रहार करना—ये अश्वसेनाके कार्य हैं। सर्वदा शस्त्र धारण किये रहना (तथा शस्त्रोंको पहुँचाना)-ये पैदल सेनाके कार्य हैं। सेनाकी छावनी डालनेके योग्य स्थान तथा मार्ग आदिकी खोज करना विष्टि (बेगार) करनेवाले लोगोंका काम है॥ २५-२७ ॥
जहाँ मोटे-मोटे हूँठ, बाँबियाँ, वृक्ष और झाड़ियाँ हों, जहाँ काँटेदार वृक्ष न हों, किंतु भाग निकलनेके लिये मार्ग हों तथा जो अधिक ऊँची-नीची न हो, ऐसी भूमि पैदल सेनाके संचार योग्य बतायी गयी है। जहाँ वृक्ष और प्रस्तरखण्ड बहुत कम हों, जहाँकी दरारें शीघ्र लाँघने योग्य हों, जो भूमि मुलायम न होकर सख्त हो, जहाँ कंकड़ और कीचड़ न हो तथा जहाँसे निकलनेके लिये मार्ग वह भूमि अश्वसंचारके योग्य होती हैं। जहाँ ठुठ वृक्ष और खेत न हों तथा जहाँ पङ्कका सर्वथा अभाव हो-ऐसी भूमि रथसंचारके योग्य मानी गयी है। जहाँ पैरोंसे रौंद डालनेयोग्य वृक्ष और काट देनेयोग्य लताएँ हों, कीचड़ न हो, गर्त या दरार न हो, जहाँकै पर्वत हाथियोंके लिये गम्य हों, ऐसी भूमि ऊँच-नीची होनेपर भी गजसेनाके योग्य कही गयी है॥ २८-३०॥
जो सैन्य अभ्र आदि सेनाओंमें भेद (दरार या छिद्र) पड़ जानैपर उन्हें ग्रहण करता-सहायताद्वारा अनुगृहीत बनाता है, उसे ‘प्रतिग्रह’ कहा गया है। उसे अवश्य संघटित करना चाहिये; क्योंकि वह भारको वहन या सहन करनेमें समर्थ होता है। प्रतिग्रहसे शून्य व्यूह भिन्न-सा दीखता है॥३१-३२॥
विजयकी इच्छा रखनेवाला बुद्धिमान् राजा प्रतिग्रहसेनाके बिना युद्ध न करे। जहाँ राजा रहे, वहीं कोष रहना चाहिये; क्योंकि राजत्व कोषके हो अधीन होता है। विजयी योद्धाओंको उससे पुरस्कार देना चाहिये। भला ऐसा कौन है, जो दाताके हितके लिये युद्ध न करेगा ? शत्रुपक्षके राजाका वध करनेपर योद्धाको एक लाख मुद्राएँ पुरस्कारमें देनी चाहिये। राजकुमारका वध होनेपर इससे आधा पुरस्कार देनेकी व्यवस्था रहनी चाहिये। सेनापतिके मारे जानेपर भी उतना ही पुरस्कार देना उचित है। हाथी तथा रथ आदिका नाश करनेपर भी उचित पुरस्कार देना आवश्यक हैं॥३३-३४३॥
पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथीसवार-ये सब सैनिक इस तरहसे (अर्थात् एक-दूसरेसे इतना अन्तर रखकर) युद्ध करें, जिससे उनके व्यायाम (अङ्गोंके फैलाव) तथा विनिवर्तन हो, (विश्रामके लिये पीछे हटने)-में किसी तरहकी बाधा या रुकावट न हो। समस्त योद्धा पृथक् पृथक् रहकर युद्ध करें। घोल-मेल होकर जूझना संकुलावह (धमासान एवं रोमाञ्चकारी) होता है। यदि महासंकुल (घमासान) युद्ध छिड़ जाय तो पैदल आदि असहाय सैनिक बड़े-बड़े हाथियोंका आश्रय लें ॥ ३५-३६॥
एक-एक घुड़सवार योद्धाके सामने तीन-तीन पैदल पुरुषों को प्रतियोद्धा अर्थात् अग्रगामी योद्धा बनाकर खड़ा करे। इसी रीतिसे पाँच-पाँच अश्व एक-एक हाथीके अग्रभागमें प्रतियोद्धा बनाये। इनके सिवा हाथीके पादरक्षक भी उतने ही हों, अर्थात् पाँच अध और पंद्रह पैदल। प्रतियोद्धा तो हाथोके आगे रहते हैं और पादरक्षक हाथीके चरणोंके निकट खड़े होते हैं। यह एक हाथोके लिये व्यूह-विधान कहा गया है। ऐसा ही विधान रधव्यूहके लिये भी समझना चाहिये”॥ ३७-३८॥
एक गजव्यूहके लिये जो विधि कही गयी है, उसीके अनुसार नौ हाथियोंका व्यूह बनाये। उसे ‘अनीक’ जानना चाहिये। (इस प्रकार एक अनीकमें पैंतालीस अश्व तथा एक सौ पैंतीस पैदल सैनिक प्रतियोद्धा होते हैं और इतने ही अश्व तथा पैदल-पादरक्षक हुआ करते हैं।) एक अनीकसे दूसरे अनीककी दूरी पाँच धनुष बतायी गयी हैं। इस प्रकार अनीक विभागके द्वारा व्यूह-सम्पत्ति स्थापित करे ।। ३९-४० ॥
व्यूहके मुख्यतः पाँच अङ्ग हैं। १. ‘उरस्य’ २. ‘कक्ष’, ३. ‘पक्ष’-इन तीनोंको एक समान बताया जाता है। अर्थात् मध्यभागमें पूर्वोक्त रीतिसे नौ हाथियोंद्वारा कल्पित एक अनीक सेनाको ‘उरस्य’ कहा गया है। उसके दोनों पार्श्वभागों में एक एक अनीककी दो सैनाएँ ‘कक्ष’ कहलाती हैं। कक्षके बाह्यभागमें दोनों ओर जो एक-एक अनीककी दो सेनाएँ हैं, वे ‘पक्ष’ कही जाती हैं। इस प्रकार इस पाँच अनीक सेनाकै व्यूहमें ४५ हाथी, २२५ अश, ६७५ पैदल सैनिक प्रतियोद्धा और इतने ही पादरक्षक होते हैं। इसी तरह उरस्य, कक्ष, पक्ष, मध्य पृष्ठ, प्रतिग्रह तथा कोटि- इन सात अङ्गोंको लेकर व्यूहशास्त्रके विद्वानोंने व्यूहको सात अङ्गों से युक्त कहा है ॥४१॥
उरस्य, कक्ष, पक्ष तथा प्रतिग्रह आदिसे युक्त यह व्यूहविभाग वृहस्पतिके मतके अनुसार है। शुक्रके मतमें यह व्यूहविभाग कक्ष और प्रकक्षसे रहित है। अर्थात् उनके मतमें व्यूहके पाँच ही अङ्ग हैं ॥ ४२३॥
सेनापतिगण उत्कृष्ट वीर योद्धाओं से घिरे रहकर युद्धके मैदानमें खड़े हों। वे अभिन्नभावसे संघटित रहकर युद्ध करें और एक-दूसरेकी रक्षा करते रहें ॥ ४३३॥
सारहीन सेनाको व्यूहके मध्यभागमें स्थापित करना चाहिये। युद्धसम्बन्धी यन्त्र, आयुध और औषध आदि उपकरणोंको सेनाके पृष्ठभागमें रखना उचित है। युद्धका प्राण है नायक-राजा या विजिगीषु। नायकके न रहने या मारे जानेपर युद्धरत सेना मारी जाती है॥ ४४ ॥
हृदयस्थान (मध्यभाग) में प्रचण्ड हाथियों को खड़ा करे । कक्षस्थानोंमें रथ तथा पक्षस्थानोंमें घोड़े स्थापित करे। यह ‘मध्यभेदी’ व्यूह कहा गया है ॥ ४५ ॥
मध्यदेश (वक्ष:स्थान) में घोड़ोंकी, कक्षभागों में रथोंकी तथा दोनों पक्षोंकै स्थानमें हाथियोंकी सेना खड़ी करे। यह ‘अन्तभेदी’ व्यूह बताया गया है। रथकी जगह (अर्थात् कक्षोंमें) घोड़े दे दे तथा घोड़ोंकी जगह (मध्यदेशमें) पैदलोंको खड़ा कर दे। यह अन्य प्रकारका ‘अन्तभेदी’ व्यूह है। रथके अभावमें व्यूहके भीतर सर्वत्र हाथियोंकी ही नियुक्ति करे (यह व्यामिश्र या घोल-मेल युद्धके लिये | उपयुक्त नीति है) ॥ ४६-४७३॥
1 (रथ, पैदल, अश्व और हाथी-इन सबका विभाग करके व्यूहमें नियोजन करे।) यदि सेनाका बाहुल्य हो तो वह व्यूह ‘आषाप’ कहलाता है। मण्डल, असंहत, भोग तथा दण्ड-ये चार प्रकारके व्यूह ‘प्रकृतिव्यूह’ कहलाते हैं। पृथ्वीपर रखे हुए इंडेकी भाँति वायेंसे दायें या दायेंसे बायेंतक लंबी जो व्यूह-रचना की जाती हो, उसका नाम “दण्ड’ है। भोग (सर्प-शरीर)-के समान यदि सेनाकी मोर्चेबंदी की गयी हो तो वह ‘भोग’ नामक व्यूह है। इसमें सैनिकका अन्वावर्तन होता है। गोलाकार खड़ी हुई सेना, जिसका सब ओर मुख हो, अर्थात् जो सब ओर प्रहार कर सके, ‘मण्डल’ नामक व्यूहसे बद्ध कही गयी है। जिसमें अनीकोंको बहुत दूर-दूर खड़ा किया गया हो. वह ‘असंहत’ नामक व्यूह है ॥४८-४९३॥
‘दण्डव्यूह’के सत्रह भेद हैं-प्रदर, दृढक, असह्रा, चाप, चापकुक्षि, प्रतिष्ठ, सुप्रतिष्ठ, श्येन, विजय, संजय, विशालविजय, सूची, स्थूणाकर्ण, चमूमुख, झषास्य, वलय तथा सुदुर्जय। जिसके पक्ष, कक्ष तथा उरस्य–तीनों स्थानोंके सैनिक सम स्थितिमें हों, वह तो ‘दण्डप्रकृति’ है; परंतु यदि कसभागके सैनिक कुछ आगेकी ओर निकले हों और शेष दो स्थानोंके सैनिक भीतरकी और दबे हों तो वह व्यूह शत्रुको प्रदरण (विदारण) करनेके कारण प्रदर’ कहलाता है। यदि पूर्वोक्त दण्डके कक्ष और पक्ष दोनों भीतरकी ओर प्रविष्ट हों और केवल उरस्य भाग ही बाहरकी ओर निकला हो तो वह ‘दृढक’ कहा गया है। यदि दण्डके दोनों पक्षमात्र ही निकले हों तो उसका नाम ‘असह्य होता है। प्रदर, दृढक और असह्यको क्रमशः विपरीत स्थितिमें कर दिया जाय, अर्थात् उनमें जिस भागको अतिक्रान्त (निर्गत) किया गया हो, उसे ‘प्रतिक्रान्त’ (अन्त:प्रविष्ट) कर दिया जाय तो तीन अन्य व्यूह-चाप’, ‘चापकुक्षि’ तथा प्रतिष्ठ’ नामक हो जाते हैं। यदि दोनों पंख निकले हों तथा उरस्य भीतरकौ और प्रविष्ट हो तो ‘सुप्रतिष्ठित’ नामक व्यूह होता है। इसको विपरीत स्थितिमें कर देनेपर ‘श्येन’ व्यूह बन जाता है॥ ५०-५३ ॥
आगे बताये जानेवाले स्थूणाकर्ण ही जिस खड़े इंडेके आकारवाले दण्डव्यूहके दोनों पक्ष हों, उसका नाम ‘विजय’ है। (यह साढे तीन व्यूहोंका संघ है। इसमें १७‘अनीक’ सेनाएँ उपयोगमें आती हैं।) दो चाप-व्यूह ही जिसके दोनों पक्ष हों, वह ढाई व्यूहोंका संघ एवं तेरह अनीक सेनासे युक्त व्यूह ‘संजय’ कहलाता है। एकके ऊपर एकके क्रमसे स्थापित दो स्थूणाकर्णोको ‘विशाल विजय’ कहते हैं। ऊपर-ऊपर स्थापित पक्ष, कक्ष आदिके क्रमसे जो दण्ड ऊर्ध्वगामी (सीधा खड़ा) होता है, वैसे लक्षणवाले व्यूहका नाम ‘सूची’ है। जिसके दोनों पक्ष द्विगुणित हों, उस दण्डव्यूहको ‘स्थूणाकर्ण’ कहा गया है। जिसके तीन-तीन पक्ष निकले हों, वह चतुर्गण पक्ष्याला ग्यारह अनीकसे युक्त व्यूह ‘चमूमख’ नामबाला हैं। इसके विपरीत लक्षणवाला अर्थात् जिसके तीन-तीन पक्ष प्रतिक्रान्त (भीतर की ओर प्रविष्ट) हों, वह व्यूह ‘झषास्य’ नाम धारण करता है। इसमें भी ग्यारह अनीक सेनाएँ नियुक्त होती हैं। दो दण्डव्यूह मिलकर दस अनीक सेनाका एक ‘वलय’ नामक व्यूह बनाते हैं। चार दण्डव्यूहोंके मेलसे बीस अनीकोंका एक ‘दुर्जय’ नामक व्यूह बनता है। इस प्रकार क्रमशः इनके लक्षण कहे गये हैं॥५४॥
गोमूत्रिका, अहिसंचारी, शकट, मकर तथा परिपतन्तिक-ये भोगके पाँच भेद कहे गये हैं। मार्गमें चलते समय गायके मुत्र करनेसे जो रेखा बनती है, उसकी आकृतिमें सेनाको खड़ी करना ‘गोमूत्रिका’ व्यूह है। सर्पके संचरण-स्थानकी रेखा जैसी आकृतिवाला व्यूह ‘अहिसंचारी’ कहा गया है। जिसके कक्ष और पक्ष आगे-पीछेके क्रमसे दण्डव्यूहकी भाँति ही स्थित हो, किंतु उरस्यकी संख्या दुगुनी हो, वह ‘शकट-व्यूह’ है। इसके विपरीत स्थिति में स्थित व्यूह ‘मकर’ कहलाता है। इन दोनों व्यूहों में से किसीके भी मध्यभागमें हाथी और घोड़े आदि आवाप मिला दिये जायें तो वह ‘परिपतन्तिक’ नामक व्यूह होता है॥५५-५६६॥
मण्डल-व्यूहके दो ही भेद हैं-सर्वतोभद्र तथा दुर्जय । जिस मण्डलाकार व्यूहका सब ओर मुख हो, उसे ‘सर्वतोभद्र’ कहा गया है। इसमें पाँच अनीक सेना होती है। इसमें आवश्यकतावश उरस्य तथा दोनों कक्षों में एक-एक अनीक बढ़ा देनेपर आठ अनीकका ‘दुर्जय’ नामक व्यूह बन जाता है। अर्धचन्द्र, उद्धान तथा वा-ये ‘असेहत के भेद हैं। इसी तरह कर्कटशृङ्गी, काकपादी और गोधिका भी असंहतके ही भेद हैं। अर्धचन्द्र तथा कर्कटङ्गी-ये तीन अनीकोंके व्यूह हैं, उद्धान और काकपादी-ये चार अनीक सेनाओंसे बननेवाले व्यूह हैं तथा वज़ एवं गौधिका-ये दो व्यूह पाँच अनीक सेनाओंके संघटनसे सिद्ध होते हैं। अनीककी दृष्टिसे तीन ही भेद होनेपर भी आकृति भेद होनेके कारण ये छः बताये गये हैं। दण्डसे सम्बन्ध रखनेवाले १७, मण्डलके २, असंहतके ६ और भोगके समराङ्गणमें ५ भेद कहे गये हैं ॥ ५७-६० ॥
पक्ष आदि अङ्गोंमेंसे किसी एक अङ्गकी सेनाद्वारा शत्रुके व्यूहका भेदन करके शेष अनीकोद्वारा उसे घेर ले अथवा उरस्यगत अनीकसे शत्रुके व्यूहपर आघात करके दोनों कोटियों (प्रपक्षों)- द्वारा घेरे। शत्रुसेनाकी दोनों कोटियों (प्रपक्षों)-पर अपने व्यूहके पक्षोंद्वारा आक्रमण करके शत्रुके जघन (प्रोरस्य) भागको अपने प्रतिग्रह तथा दोनों कोटियों द्वारा नष्ट करे। साथ ही, उरस्यगत सेनाद्वारा शत्रुपक्षको पौड़ा दे। व्यूह जिस भागमें सारहीन सैनिक हों, जहाँ सैनामें फूट या दरार पड़ गयी हो तथा जिस भागमें दृष्य (क्रुद्ध, लुल्य आदि) सैनिक विद्यमान हों, वहीं-वहीं शत्रुसेनाका संहार करे और अपने पक्षकै वैसे स्थानोंको सबल बनाये। बलिष्ठ सेनाको उससे भी अत्यन्त बलिष्ठ सेनाद्वारा पीड़ित करे। निर्बल सैन्यदलको सबल सैन्यद्वारा दबाये। यदि शत्रुसेना संघटितभावसे स्थित हो तो प्रचण्ड गज़सेनाद्वारा उस शत्रुवाहिनीका विदारण करे ॥ ६१-६४॥
पक्ष, कक्ष और उरस्य-ये सम स्थितिमें वर्तमान हों तो ‘दण्डव्यूह’ होता है। दण्डका प्रयोग और स्थान व्यूहके चतुर्थ अङ्गद्वारा प्रदर्शित करे। दण्डके समान ही दोनों पक्ष यदि आगेकी ओर निकले हों तो ‘प्रदर’ या ‘प्रदारक’ व्यूह बनता है। वही यदि पक्ष-कक्षद्वारा अतिक्रान्त (आगेकी ओर निकला) हो तो ‘दृढ़’ नामक व्यूह होता है। यदि दोनों पक्षमात्र आगेकी ओर निकले हों तो वह व्यूह ‘असह्य’ नाम धारण करता है। कक्ष और पक्षको नीचे स्थापित करके उरस्यद्वारा निर्गत व्यूह ‘चाप‘ कहलाता है। दो दण्ड मिलकर एक ‘वलय–व्यूह‘ बनाते हैं। यह व्यूह शत्रुको विदीर्ण करनेवाला होता है। चार वलय-व्यूहोंके योगसे एक ‘दुर्जय’ व्यूह बनता है, जो शत्रुवाहिनीका मर्दन करनेवाला होता है। कक्ष, पक्ष तथा उरस्य जब विषमभावसे स्थित हों तो ‘भोग’ नामक व्यूह होता है। इसके पाँच भेद हैं-सर्पचारी, गोमूत्रिका, शकट, मकर और परिपतन्तिक। सर्प-संचरणकी आकृतिसे सर्पचारी, गोमूत्रके आकारसे गोमूत्रिका, शकटकी-सी आकृतिसे शकट तथा इसके विपरीत स्थितिसे मकर-व्यूहका सम्पादन होता है। यह भेदोंसहित ‘भोग-व्यूह’ सम्पूर्ण शत्रुओंका मर्दन करनेवाला है। चक्रव्यूह तथा पद्मव्यूह आदि मण्डलके भेद-प्रभेद हैं। इसी प्रकार सर्वतोभद्र, वज्र, अक्षवर, काक, अर्धचन्द्र, शृङ्गार और अचल आदि व्यूह भी हैं। इनकी आकृतिके ही अनुसार ये नाम रखे गये हैं। अपनी मौजके अनुसार व्यूह बनाने चाहिये। व्यूह शत्रुसेनाकी प्रगतिको रोकनेवाले होते हैं॥ ६५-७२ ॥
अग्निदेव कहते हैं– ब्रह्मन्! श्रीरामने रावणका वध करके अयोध्याका राज्य प्राप्त किया। श्रीरामकी बतायी हुई उक्त नीतिसे ही पूर्वकालमें लक्ष्मणने इन्द्रजित्का वध किया था ॥७३॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें ‘राजनीति-कथन’ नामक दो सौ बयालीसवा अध्याय पूरा हुआ
अध्याय –२४३ पुरुष-लक्षण-वर्णन
अग्निदेव कहते है – वसिष्ठ ! मैंने श्रीराम के प्रति वर्णित राजनीति का प्रतिपादन किया | अब मैं स्त्री-पुरुषों के लक्षण बतलाता हूँ, जिसका पूर्वकाल में भगवान समुद्र ने गर्ग मुनि को उपदेश दिया था ||१||
समुद्र ने कहा – उत्तम व्रत का आचरण करनेवाले गर्ग ! मैं स्त्री – पुरुषों के लक्षण एवं उनके शुभाशुभ फल का वर्णन करता हूँ | एकाधिक, द्विशुक्ल, त्रिगम्भीर, त्रित्रिक, त्रिप्रलम्ब, त्रिकव्यापी, त्रिवलीयुक्त, त्रिविनत, त्रिकालज्ञ एवं त्रिविपुल पुरुष शुभ लक्षणों से समन्वित माना जाता है | इसीप्रकार चतुर्लेख, च्तुस्सम, चतुष्कीष्कू, चतुर्दष्ट, चतुष्कृष्ण, चतुर्गन्ध, चतुर्ह्रस्व, पंचसूक्ष्म, पंचदीर्घ, षडून्नत, अष्टवंश, सप्तस्नेह, नवामल, दशपद्म, दशव्यूह, न्यग्रोधपरिमंडल, चतुर्दशस्मद्वंद्व एवं षोडशाक्ष पुरुष प्रशस्त है ||२-६||
धर्म, अर्थ तथा काम से संयुक्त धर्म ‘एकाधिक’ माना गया हैं | तारकाहीन नेत्र एवं उज्ज्वल दंतपंक्तिसे सुशोभित पुरुष ‘द्विशुक्ल’ कहलाता है | जिसके स्वर, नाभि एवं सत्त्व – तीनों गम्भीर हों, वह ‘त्रिगम्भीर’ होता है | निर्मत्सरता, दया, क्षमा, सदाचरण, शौच, स्पृहा, औदार्य, अनायास, तथा शूरता – इनसे विभूषित पुरुष ‘त्रित्रिक’ माना गया है | जिस मनुष्य के वृषण (लिंग)एवं भुजयुगल लंबे हों, वह ‘त्रिप्रलम्ब’ कहा जाता है | जो अपने तेज, यश एवं कान्ति से देश, जाति वर्ग एवं दसों दिशाओं को व्याप्त कर लेता है, उसको ‘त्रिकव्यापी’ कहते हैं | जिसके उदर में तीन रेखाएँ हों, वह ‘त्रिवलीमान’ होता है | अब ‘त्रिविनत’ पुरुष का लक्षण सुनो | वह देवता, ब्राम्हण तथा गुरुजनों के प्रति विनीत होता है | धर्म, अर्थ एवं काम के समय का ज्ञाता ‘त्रिकालज्ञ’ कहा जाता है | जिसका वक्ष:स्थल, ललाट एवं मुख विस्तारयुक्त हो, वह ‘त्रिविपुल’ तथा जिसके हस्तयुगल एवं चरणयुगल ध्वज-छत्रादि से चिन्हित हों, वह पुरुष ‘चतुर्लेख’ होता है | अंगुली, ह्रदय, पृष्ट एवं कटी – ये चारों अंग समान होने से प्रशस्त होते हैं | ऐसा पुरुष ‘चतुस्सम’ कहा गया है | जिसकी ऊँचाई छानवे अंगुल की हो, वह ‘चतुष्कीष्कू’पप्रमानवाला एवं जिसको चारों दंष्ट्राएँ चन्द्रमा के समान उज्ज्वल हों, वह ‘चतुर्दृष्ट्र’ होता है | अब मैं तुमको ‘चतुष्कृष्ण’ पुरुष के विषय में कहता हूँ | उसके नयनतारक, भ्रू-युगल, श्मश्रु एवं केश कृष्ण होते है | नासिका, मुख एवं कक्षयुग्म में उत्तम गंध से युक्त मनुष्य ‘चतुर्गन्ध’ कहलाता है | लिंग ग्रीवा तथा जंघा-युगल के ह्रस्व होने से पुरुष –चतुर्ह्रस्व’ होता है | अंगूलिपर्व, नख, केश, दंत तथा त्वचा सूक्ष्म होनेपर पुरुष ‘पंचसुक्ष्म’ एवं हनु, नेत्र, ललाट, नासिका एवं वक्ष:स्थल के विशाल होने से ‘पंचदीर्घ’ माना जाता है | वक्ष:स्थल, कक्ष, नख, नासिका, मुख एवं कृकाटिका (गर्दन की घंटी) – ये छ: अंग उन्नत एवं त्वचा, केश, दंत, रोम, दृष्टी, नख, एवं वाणी – ये सात स्निग्ध होनेपर शुभ होते है | जानुद्वय, ऊरुद्वय, पृष्ठ, हस्तद्वय एवं नासिका को मिलाकर कुल ‘आठ वंश’ होते है | नेत्रद्वय, नासिकाद्वय, कर्णयुगल, शिश्न, गुदा एवं मुख – ये स्थान निर्मल होने से पुरुष ‘नवामल’ होता है | जिव्हा, ओष्ठ, तालु, नेत्र, हाथ, पैर, नख, शिश्नाग्र एवं मुख – ये दस अंग पद्म के समान कान्ति से युक्त होनेपर प्रशस्त माने गये हैं | हाथ, पैर, मुख, ग्रीवा, कर्ण, ह्रदय, सिर, ललाट, उदर एवं पृष्ठ – ये दस बृहदाकार होनेपर सम्मानित होते हैं | जिस पुरुष की ऊँचाई भुजाओं के फैलानेपर दोनों मध्यमा अंजलियों के मध्य्मान्तर के समान हो, वह ‘न्यग्रोधपरिमंडल’ कहलाता है | जिस के चरण, गल्फ, नितम्ब, पार्श्व, स्तन, कर्ण, ओष्ठ, ओष्ठांत, जंघा, हस्त, बाहू एवं नेत्र – ये अंग-युग्म समान हों, वह पुरुष ‘चतुर्दशसमद्वन्द्व’ अवलोकन खरता है, वह ‘षोडशाक्ष’ कहा जाता हैं | दुर्गन्धयुक्त, मांसहिन्, रुक्ष एवं शिराओं से व्याप्त शरीर अशुभ माना गया है | इसके विपरीत गुणों से सम्पन्न एवं उत्फुल्ल नेत्रों से सुशोभित शरीर प्रशस्त होता है | धन्य पुरुष की वाणी मधुर एवं चाल मतवाले हाथी के समान होती है | प्रतिरोम कूप से एक–एक रोम ही निर्गत होता है | ऐसे पुरुष की बार–बार भय से रक्षा होती है || ७-२६||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘पुरुष-लक्षण-वर्णन ’ नामक अध्याय पूरा हुआ || १०१ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय –२४४ स्त्री के लक्षण
समुद्र कहते हैं – गर्गजी ! शरीर से उत्तम श्रेणी की स्त्री वह है, जिसके सम्पूर्ण अंग मनोहर हों, जो मतवाले गजराज की भाँति मंदगति से चलती हो, जिसके ऊरू और जघन (नितम्बदेश) भारी हों तथा नेत्र उन्मत पारावत के समान मदभरे हों, जिसके केश सुंदर नीलवर्ण के, शरीर पतला और अंग लोमरहित हों, जो देखनेपर मन को मोह लेनेवाली हो, जिसके दोनों पैर समतल भूमिका पूर्णरूप से स्पर्श करते हों और दोनों स्तन परस्पर सटे हुए हों, नाभि दक्षिणावर्त हो, योनि पीपल के पत्ते की –सी आकारवाली हो, दोनों गल्फ भीतर छिपे हुए हों – मांसल होने के कारण वे उभड़े हुए न दिखायी देते हों, नाभि अँगूठे के बराबर हो तथा पेट लंबा या लटकता हुआ न हो | रोमावलियों से रुक्ष शरीरवाली रमनी अच्छी नहीं मानी गयी है | नक्षत्रों, वृक्षों और नदियों के नामपर जिनके नाम रखे गये हों तथा जिसे कलह सदा प्रिय लगता हो, वह स्त्री भी अच्छी नहीं है | जो लोलुप न हो, कटुवचन न बोलती हो, वह नारी देवता आदि से पूजित ‘शुभलक्षणा’ कही गयी है | जिसके कपोल मधूक-पुष्पों के समान गोर हों, वह नारी शुभ है | जिसके शरीर की नस-नाड़ियां दिखायी देती हों और जिसके अंग अधिक रोमावलियों से भरे हों, वह स्त्री अच्छी नहीं मानी गयी हैं | जिसकी कुटिल भौंहे परस्पर सत गयी हों, वह नारी भी अच्छी श्रेणी में नहीं गिनी जाती | जिसके प्राण पतिसे ही बसते हों तथा जो पति को प्रिय हो, वह नारी लक्षणों से रहित होनेपर भी शुभलक्षणों से सम्पन्न कही गयी हैं | जहाँ सुंदर आकृति है, वहाँ शुभ गुण है | जिसके पैर की कनिष्ठिका अँगुली धरती का स्पर्श न करे, वह नारी मृत्युरूपा ही है || १- ६ ||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘स्त्री के लक्षणों का वर्णन ’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय-२४५ चामर, धनुष, बाण तथा खड़गके लक्षण
अग्निदेव कहते हैं– वसिष्ठ! सुवर्णदण्डभूषित चामर उत्तम होता है। राजाके लिये हंसपक्ष, मयूरपक्ष या शुकपक्षसे निर्मित छत्र प्रशस्त माना गया है। वकपक्षसे निर्मित छत्र भी प्रयोगमें लाया जा सकता है, किंतु मिश्रित पक्षोंका छत्र नहीं बनवाना चाहिये। तीन, चार, पाँच, छः, सात या आठ पर्वोसे युक्त दण्ड प्रशस्त है॥ १-२॥
भद्रासन पचास अङ्गल ऊँचा एवं क्षीरकाष्ठसे निर्मित हो। वह सुवर्णचित्रित एवं तीन हाथ विस्तृत होना चाहिये। द्विजश्रेष्ठ ! धनुषके निर्माणके लिये लोह, शृङ्ग या काष्ठ-इन तीन द्रव्योंका प्रयोग करे। प्रत्यञ्चाके लिये तीन वस्तु उपयुक्त हैं-वंश, भङ्ग एवं चर्म ॥ ३-४ ॥
दारुनिर्मित श्रेष्ठ धनुषका प्रमाण चार हाथ माना गया है। उसी क्रमशः एक एक हाथ कम मध्यम तथा अधम होता है। मुष्टिग्राहकै निमित्त धनुषके मध्यभागमें द्रव्य निर्मित करावे ॥ ५-६॥
धनुषकी कोटि कामिनीकी भूलताके समान आकारवाली एवं अत्यन्त संयत बनवानी चाहिये। लौह या शृङ्गके धनुष पृथक्-पृथक् एक ही द्रव्यके या मिश्रित भी बनवाये जा सकते हैं। शृङ्गनिर्मित धनुषको अत्यन्त उपयुक्त तथा सुवर्ण-बिन्दुओंसे अलंकृत करे। कुटिल, स्फुटित या छिद्रयुक्त धनुष निन्दित होता है। धातुओंमें सुवर्ण, रजत, ताम् एवं कृष्ण लौहका धनुषके निर्माणमें प्रयोग करे। शाङ्गधनुष-महिष, शरभ एवं रोहिण मृगके शृङ्गोंसे निर्मित चाप शुभ माना गया है। चन्दन, वेतस, साल, धव तथा अर्जुन वृक्षके काष्ठसे बना हुआ दारुमय शरासन उत्तम होता है। इनमें भी शरद् ऋतुमें काटकर लिये गये पके बॉसोंसे निर्मित धनुष सर्वोत्तम माना जाता है। धनुष एवं खङ्गकी भी त्रैलोक्यमोहन मन्त्रोंसे पूजा करे ॥ ७-११ ॥
लोहे, बाँस, सरकंडे अथवा उससे भिन्न किसी और वस्तुके बने हुए बाण सीधे, स्वर्णाभ, युश्लिष्ट, सुवर्णपुभूषित, तैलधौत, सुनहले एवं उत्तम पड्युक्त होने चाहिये। राजा यात्रा एवं अभिषेकमें धनुष बाण आदि अस्त्रों तथा पताका, अस्त्रसंग्रह एवं दैवज्ञका भी पूजन करे । १२-१३ ॥
एक समय भगवान् ब्रह्माने सुमेरु पर्वतके शिखरपर आकाशगङ्गाके किनारे एक यज्ञ किया था। उन्होंने उस यज्ञमें उपस्थित हुए लौहदैत्यको देखा। उसे देखकर वे इस चिन्तामें डूब गये कि ‘यह मेरे यज्ञमें विघ्नरूप न हो जाय ।’ उनके चिन्तन करते ही अग्निसे एक महाबलवान् पुरुष प्रकट हुआ और उसने भगवान् ब्रह्माकी वन्दना की। तदनन्तर देवताओंने प्रसन्न होकर उसका अभिनन्दन किया। इस अभिनन्दनके कारण ही वह ‘नन्दक’ कहलाया और खङ्गरूप हो गया। देवताओंके अनुरोध करनेपर भगवान् श्रीहरिने उस नन्दक खङ्गको निजी आयुधके रूपमें ग्रहण किया। उन देवाधिदेवने उस खङ्गको उसके गलेमें हाथ डालकर पकड़ा, इससे वह खङ्ग म्यानके बाहर हो गया। उस खङ्गकी कान्ति नीली थी, उसकी मुष्टि रत्नमयी थी। तदनन्तर वह बढ़कर सौ हाथका हो गया। लौहदैत्यने गदाके प्रहारसे देवताओंको युद्धभूमिसे भगाना आरम्भ किया। भगवान् विष्णुने उस लौहदैत्यके सारे अङ्ग उक्त खड़से काट डाले। नन्दकके स्पर्शमात्रसे छिन्न भिन्न होकर उस दैत्यके सारे लौहमय अङ्ग भूतलपर गिर पड़े। इस प्रकार लोहासुरका वध करके भगवान् श्रीहरिने उसे वर दिया कि ‘तुम्हारा पवित्र अङ्ग (लोह) भूतलपर आयुधके निर्माणके काम आयेगा।’ फिर श्रीविष्णुके कृपा प्रसादसे ब्रह्माजीने भी उन सर्वसमर्थ श्रीहरिका यज्ञके द्वारा निर्विन पूजन किया। अब मैं खङ्गके लक्षण बतलाता हूँ॥ १४-२०॥
खटखट्टर देशमें निर्मित खङ्ग दर्शनीय माने गये हैं। ऋषीक देशके खङ्ग शरीरको चीर डालनेवाले तथा शूर्पारकदेशीय खङ्ग अत्यन्त दृढ़ होते हैं। बङ्गदेशके खङ्ग तीखे एवं आपातको सहन करनेवाले तथा अङ्गदेशीय खङ्ग तीक्ष्ण कहे जाते हैं। पचास अङ्गलका खङ्ग श्रेष्ठ माना गया है। इससे अर्ध-परिमाणका मध्यम होता है। इससे हीन परिमाणका खडू धारण न करे ॥ २१-२३॥
हिजोत्तम! जिस खङ्गका शब्द दीर्घ एवं किंकिणीको ध्वनिके समान होता है, उसको धारण करना श्रेष्ठ कहा जाता है। जिस खड्का अग्रभाग पद्मपत्र, मण्डल या करवीर-पत्रके समान हो तथा जो घृत-गन्धसे युक्त एवं आकाशकी-सी कान्तिवाला हो वह प्रशस्त होता है। खङ्गमें समाङ्लपर स्थित लिङ्गके समान व्रण (चिह्न) प्रशंसित है। यदि वे काक या उलूकके समान वर्ण या प्रभासे युक्त एवं विषम हों, तो मङ्गलजनक नहीं माने जाते। खङ्गमें अपना मुख न देखे। जुठे हाथों से उसका स्पर्श न करे। खड्की जाति एवं मूल्य भी किसीको न बतलाये तथा रात्रिके समय उसको सिरहाने रखकर न सोवे ॥ २४-२७॥
| इस प्रकार आदि आत्रेय महापुराणमें ‘चामर आदिके लक्षणोंका कधन’ नामक दो सौ पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २४५ ॥
अध्याय-२४६ रत्न-परीक्षण
अग्निदेव कहते हैं– द्विजश्रेष्ठ वसिष्ठ! अब मैं रत्नोंके लक्षणोंका वर्णन करता हैं। राजाओंको ये रत्न धारण करने चाहिये-वज्र (हीरा), मरकत, पद्मराग, मुक्ता, महानील, इन्द्रनील, वैदूर्य, गन्धसस्य, चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, स्फटिक, पुलक, कर्कतन, पुष्पराग, ज्योतीरस, राजपट्ट, राजमय, शुभसौगन्धिक, गज, शंख ब्रह्रामय, गोमेद, रुधिरा, भल्लातक, धूली, मकरा, तुष्यक, सीस, पीलु, प्रवाल, गिरिवज्र, भुजङ्गमणि, मणि, टिभि, भ्रामर और उत्पल। श्री एवं विजयकी प्राप्तिके लिये पूर्वोक्त रत्नोंको सुवर्णमण्डित कराके धारण करना चाहिये। जो अन्तर्भागमें प्रभायुक्त, निर्मल एवं सुसंस्थान हों, उन रत्नोंको ही धारण करना चाहिये। प्रभाहीन, मलिन, खण्डित और किरकिरीसे युक्त रत्नोंको धारण न करे। सभी रत्नोंमें हीरा धारण करना श्रेष्ठ है। जो हीरा जलमें तैर सके, अभेद्य हो, षट्कोण हो, इन्द्रधनुषके समान निर्मल प्रभासे युक्त हो, हल्का तथा सूर्यके समान तेजस्वी हो अथवा तोतेके पंखके समान वर्णवाला हो, स्निग्ध, कान्तिमान् तथा विभक्त हो, वह शुभ माना गया है। मरकतमणि सुवर्ण चूर्णके समान सूक्ष्म बिन्दुओंसे विभूषित होनेपर श्रेष्ठ बतलायी गयी है। स्फटिक और पराग अरुणिमासे युक्त तथा अत्यन्त निर्मल होनेपर उत्तम कहे जाते हैं। मोती शुक्तिसे उत्पन्न होते हैं, किंतु शंखसे बने मोती उनकी अपेक्षा निर्मल एवं उत्कृष्ट होते हैं। ऋषिप्रवर! हाथीके दाँत और कुम्भस्थलसे उत्पन्न, सुकर, मत्स्य और वेणूनागसे उत्पन्न एवं मेघद्वारा उत्पन्न मोती अत्यन्त श्रेष्ठ होते हैं। मौक्तिकमें वृत्तत्व (गोलाई), शुक्लता, स्वच्छता एवं महत्ता-ये गुण होते हैं। उत्तम इन्द्रनीलमणि दुग्धमें रखनेपर अत्यधिक प्रकाशित एवं सुशोभित होती है। जो रत्न अपने प्रभावसे सबको रञ्जित करता है, उसे अमूल्य समझे। नील एवं रक्त अभावाला वैदूर्य श्रेष्ठ होता है। यह हारमें पिरोने योग्य है ॥ १-१५॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें ‘रत्न-परीक्षा-कधन’ नामक दो सौ छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २४६ ॥
अध्याय-२४७ गृहके योग्य भूमि; चतुःषष्टिपद वास्तुमण्डल और वृक्षारोपणका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ! अब मैं वास्तुके लक्षणोंका वर्णन करता हूँ। वास्तुशास्त्रमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंके लिये क्रमश: श्वेत, रक्त, पीत एवं काले रंगकी भूमि निवास करनेयोग्य है। जिस भूमिमें घृतके समान गन्ध हो वह ब्राह्मणोंके रक्तके समान गन्ध हो वह क्षत्रियोंके, अन्नकी-सी गन्ध हो वह वैश्योंके और मद्यतुल्य गन्ध हो वह शूद्रोंके वास करनेयोग्य मानी गयी है। इसी प्रकार रसमें ब्राह्मण आदिके लिये क्रमशः मधुर, कषाय और अम्ल आदि स्वादसे युक्त भूमि होनी चाहिये। चारों वर्णोको क्रमशः कुश, सरपत, कास तथा दूर्वांसे संयुक्त भूमिमें घर बनाना चाहिये। पहले ब्राह्मणों का पूजन करके शल्यरहित भूमिमें खात (कुण्ड) बनावे ॥ १-३॥
फिर चौंसठ पदोंसे समन्वित वास्तुमण्डलका निर्माण करे। उसके मध्यभागमें चार पदोंमें ब्रह्माकी स्थापना करे। उन चारों पदों के पूर्व में गृहस्वामी ‘अर्यमा’ बतलाये गये हैं। दक्षिणमें विवस्वान्, पश्चिममें मित्र और उत्तर दिशामें महीधरको अङ्कित करे। ईशानकोणमें आप तथा आपवत्सको, अग्निकोणमें सावित्र एवं सविताको, पश्चिमके समीपवर्ती नैर्ऋत्यकोणमें जय और इन्द्रको और वायव्यकोणमें रुद्र तथा व्याधिको लिखे। पूर्व आदि दिशाओंमें कोणवर्ती देवताओंसे पृथक् निम्नाङ्कित देवताओंका लेखन करे-पूर्वमें महेन्द्र, रवि, सत्य तथा भृश आदिको, दक्षिणमें गृहक्षत, यम, भृङ्ग तथा गन्धर्व आदिको, पश्चिममें पुष्पदन्त, असुर, वरुण और पापपदमा आदिको, उत्तर दिशामें भल्लाट, सोम, अदिति एवं धनदको तथा ईशानकोणमें नाग और करग्रहको अङ्कित करे। प्रत्येक दिशाके आठ देवता माने गये हैं। उनमें प्रथम और अन्तिम देवता वास्तुमण्डलके गृहस्वामी कहे गये हैं। पूर्व दिशाके प्रथम देवता पर्जन्य हैं, दूसरे करग्रह (जयन्त), महेन्द्र, रवि, सत्य, भृश, गगन तथा पवन हैं। कुछ लोग आग्नेयकोणमें गगन एवं पवनके स्थानपर अन्तरिक्ष और अग्निको मानते हैं। नैर्ऋत्यकोणमें मृग और सुग्रीव-इन दोनों देवताओंको, वायव्यकोणमें रोग एवं मुख्यको, दक्षिणमें पूषा, वितथ, गृहक्षत, यम, भृङ्ग, गन्धर्व, मृग एवं पितरको स्थापित करे। वास्तुमण्डलके पश्चिम भागमें दौवारिक, सुग्रीव, पुष्पदन्त, असुर, वरुण, पापयक्ष्मा और शेष स्थित हैं। उत्तर दिशा में नागराज, मुख्य, भल्लाट, सोम, अदिति, कुवेर, नाग और अग्नि (करग्रह) सुशोभित होते हैं। पूर्व दिशामें सूर्य और इन्द्र श्रेष्ठ दक्षिण दिशामें गृहक्षत पुण्यमय हैं, पश्चिम दिशामें सुग्रीव उत्तम और उत्तरद्वारपर पुष्पदन्त कल्याणप्रद है। भल्लाटको ही पुष्पदन्त कहा गया हैं। ४-१५॥
इन वास्तुदेवताओंका मन्त्रोंसे पूजन करके आधारशिलाका न्यास करे। तदनन्तर निम्नाङ्कित मन्त्रोंसे नन्दा आदि देवियोंका पूजन करे। वसिष्ठनन्दिनी नन्दे! मुझे धन एवं पुत्र-पौत्रोंसे संयुक्त करके आनन्दित करो। भार्गवपुत्र जये! आपके प्रजाभूत हमलोगोंको विजय प्रदान करो। अङ्गिरसतनये पूर्णे! मेरी कामनाओं को पूर्ण करो। कश्यपात्मजे भद्रे! मुझे कल्याणमयी बुद्धि दो। वसिष्ठपुत्र नन्दे! सब प्रकारके बीजोंसे युक्त एवं सम्पूर्ण रत्नोंसे सम्पन्न इस मनोरम नन्दनवनमें विहार करो। प्रजापतिपुत्रि! देवि भद्रे! तुम उत्तम लक्षणों एवं श्रेष्ठ व्रतको धारण करनेवाली हो; कश्यपनन्दिनि! इस भूमिमय चतुष्कोणभवनमें निवास करो। भार्गवतनये देवि! तुम सम्पूर्ण विश्वको ऐश्वर्य प्रदान करनेवाली हो; श्रेष्ठ आचार्यों द्वारा पूजित एवं गन्ध और मालाओं से अलंकृत मेरे गृहमें निवास करो। अंगीरा ऋषिकी पुत्री पूर्णे! तुम भी सम्पूर्ण अंगोंसे युक्त तथा क्षतिरहित मेंरे घरमें रमण करो। इष्टके! मैं गृहप्रतिष्ठाता करा रहा हूँ, तुम मुझे अभिलाषित भोग प्रदान करो। देशस्वामी, नगरस्वामी और गृहस्वामीके संचयमें मनुष्य, धन, हाथी-घोड़े और पशुओंकी वृद्धि करो। १६-२२
गृहप्रवेशके समय भी इसी प्रकार शिलान्यास करना चाहिये। घरके उत्तरमें पल्क्ष तथा पूर्वमें वटवृक्ष शुभ होता है। दक्षिणमें गुलर और पश्छिममें पीपलका वृक्ष उत्तम माना गाया है। घरके वामपार्श्वमें उधान बनाए। ऐसे घरमें निवास करना शुभ होता है। लगाये हुए वृक्षोंको ग्रीष्मकालमें प्रातः-सायं, शीतऋतूमें मध्याह्रके समय तथा वर्षाकालमें भूमिके सुख जानेपर सीचना चाहिये। वृक्षोंको बायविडंग और धृतमिश्रित शीतल जलसे सीचे। जिन वृक्षोंके फल लगने बंद हो गये हो, उनको कुलथी, उड़द, मुंग, तिल और जौ मिले हुये जलसे सीचना चाहिये। धृतयुक्त शीतल दुग्धके सेचनसे वृक्ष सदा फल-पुष्पोंसे युक्त रहता है।मत्स्यवाले जलके सेचनसे वृक्षोंकी वृद्धि होती है। भेड़ और बकरीकी लेंड़ीका चूर्ण, जौका चूर्ण, तिल अन्य गोबर आदि खाद एवं जल – इन सबको सात दिनतक ढककर रखे। इसका सेचन सभी प्रकारके वृक्षोंके फल-पुष्प आदिकी वृद्धि करनेवाला है। आम्रवृक्षोंका शीतल जलसे सेचन उत्तम माना गया है। अशोक वृक्षके विकासके लिये कामिनियोंके चरणका प्रहार प्रशस्त है। खजूर और नारियल आदि वृक्ष लवणयुक्त जलसे वृद्धिको प्राप्त होते है। बायविडंग तथा जलके द्वारा सेचन सभी वृक्षोंके लिये उत्तम दोहद है। २३-३१
अध्याय-२४८ विष्णु आदिके पूजनमें उपयोगी पुष्पोंका कथन
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ! पुष्पोंसे पूजन करनेपर भगवान् श्रीहरि सम्पूर्ण कार्योंमें सिद्धि प्रदान करते हैं। मालती, मल्लिका, यूथिका, गुलाब, कनेर, पावन्ती, अतिमुतक, कर्णिकार, कुरण्टक, कुब्जक, तगर, नीप (कदम्ब), बाण, वनमल्लिका, अशोक, तिलक, कुन्द और तमाल-इनके पुष्प पूजाके लिये उपयोगी माने गये हैं। बिल्वपत्र, शमीपत्र, भृङ्गराजके पत्र, तुलसी, कृष्णतुलसी तथा वासक (अडूसा)-के पत्र पूजनमें ग्राह्म माने गये हैं। केतकीके पन्न और पुष्प, पद्म एवं रक्तकमल ये भी पूजामें ग्रहण किये जाते हैं। मदार, धतूर, गुंजा, पर्वतीय मल्लिका, कुटज, शाल्मलि और कटेरीके फूलोंका पूजामें प्रयोग नहीं करना चाहिये। प्रस्थमात्र घृतसे भगवान् विष्णुका अभिषेक करनेपर करोड़ गौओंके दान करनेका फल मिलता है। एक आढ़क घृतसे अभिषेक करनेवाला राज्य तथा घृतमिश्रित दुग्धसे अभिषेक करनेवाला स्वर्गको प्राप्त करता है॥ १-६ ॥
दो सौ अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ। २४८ ॥
अध्याय-२४९ धनुर्वेदका' वर्णन-युद्ध और अस्त्रके भेद, आठ प्रकारके स्थान, धनुषा, बाणको ग्रहण करने और छोड़नेकी विधि आदिका कथन
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ ! अब मैं चार पादोंसे युत धनुर्वेदका वर्णन करता हूँ। धनुर्वेद पाँच प्रकारका होता है। रथ, हाथी, घोड़े और पैदल-सम्बन्धी योद्धाओंका आश्रय लेकर इसका वर्णन किया गया है। यन्त्रमुत, पाणिमुक्त, मुक्तसंधारित, अमुक्त और बाहुयुद्ध-ये ही धनुर्वेदके पाँच प्रकार कहे गयें हैं। उसमें भी शस्त्र-सम्पति और अस्त्र-सम्पतिके भेदसे युद्ध दो प्रकारका बताया गया है।
ऋजुयुद्ध और मायायुद्धके भेदसे उसके पुन: दो भेद हो जाते हैं। क्षेपणी (गोफन आदि), धनुष एवं यन्त्र आदिके द्वारा जो अस्त्र फेंका जाता है, उसे ‘यन्त्रमुक्त’ कहते हैं। (यन्त्रमुक्त अस्त्रका जहाँ अधिक प्रयोग हो, वह युद्ध भी ‘यन्त्रमुक्त’ ही कहलाता है।) प्रस्तरखण्ड और तोमर-यन्त्र आदिको ‘पाणिमुक्त’ कहा गया है। भाला आदि जो अस्त्र शत्रुपर छोड़ा जाय और फिर उसे हाथमें ले लिया जाय, उसे मुक्तसंधारित समझना चाहिये। खङ्ग (तलवार आदि)-को’अमुक्त’ कहते हैं और जिसमें अस्त्र-शस्त्रोंका प्रयोग न करके मल्लोंकी भाँति लड़ा जाय, उस युद्धको ‘नियुद्ध’ या ‘बाहुयुद्ध’ कहते हैं॥ १-५ ॥
युद्धकी इच्छा रखनेवाला पुरुष श्रमको जीते और योग्य पात्रोंका संग्रह करे। जिनमें धनुषचाणका प्रयोग हो, वे युद्ध श्रेष्ठ कहे गये हैं: जिनमें भालोंकी मार हो, वे मध्यम कोटिके हैं। जिनमें खड्गोंसे प्रहार किया जाय, वे निम्नश्रेणीके युद्ध हैं और बाहुयुद्ध सबसे निकृष्ट कोटिके अन्तर्गत हैं।
धनुर्वेदमें क्षत्रिय और वैश्य-इन दो वर्णोंका भी गुरु’ ब्राह्मण ही बताया गया है। आपत्तिकालमें स्वयं शिक्षा लेकर शूद्रको भी युद्धका अधिकार प्राप्त है। देश या राष्ट्रमें रहनेवाले वर्णसंकरोंको भी युद्धमें राजाकी सहायता करनी चाहिये ॥ ६-८ ॥
स्थान-वर्णन-अङ्गुष्ठ, गुल्फः पार्षिणभाग औरपैर-ये एक साथ रहकर परस्पर सटे हुए हों तो लक्षणके अनुसार इसे ‘समपद” नामक स्थान’ कहते हैं। दोनों पैर बाह्य अंगूलियोंके बलपर स्थित हों, दोनों घुटने स्तब्ध हों तथा दोनों पैरोंके बीचका फैसला तीन बिता हो, तो यह ‘वैशाख”नामक स्थान कहलाता है। जिसमें दोनों घुटने हंसपंक्तिके आकारकी भाँती दिखाई देते हों और दोनोंमें चार बितेका अन्तर हो, वह “मण्डल’ स्थान माना गया हैं। जिसमें दाहिनी जाँघ और घुटना स्तब्ध (तना हुआ) हो और दोनों पैरोंके बीचका विस्तार पाँच बितेका हो, उसे ‘आलीढ़’ नामक स्थान कहा गया है। इसके विपरीत जहाँ बायीं जाँघ और घुटना स्तब्ध हों तथा दोनों पैरोंके बीचका विस्तार पाँच बित्ता हो, वह ‘प्रत्यालीढ़’नामक स्थान है। जहाँ बायाँ पैर टेढ़ा और दाहिना सीधा हो तथा दोनों गुल्फ और पार्शिनभाग पाँच अङ्कुलके अन्तरपर स्थित हो तो यह बारह अहुल बड़ा ‘स्थानक’ कहा गया है। यदि बायें पैरकी घुटना सीधा हो और दाहिना पैर भलीभाँति फैलाया गया हो अथवा दाहिना घुटना कुब्जाकार एवं निश्चल हों या घुटनेके साथ ही दायाँ चरण दण्ड़ाकार विशाल दिखायी दे तों ऐसी स्थितिमें ‘विकट’नामक स्थान कहा गया है। इसमें दोनों पैरोंका अन्तर दो हाथ बड़ा होता है। जिसमें दोनों घुटने दुहरे और दोनों पैर उतान हो जाये, इस विधानके योगसे जो ‘स्थान’ बनता हैं, उसका नाम ‘सम्पुट’ है। जहाँ कुछ घूमे हुए दोनों पैर समभावसे दण्ड़के समान विशाल एवं स्थिर दिखायी दें, वहाँ दोनोंके बीचकी लंबाई सोलह ही देखी गयीं हैं। यह स्थानका यथोचित स्वरूप हैं। ९-१८ ॥
ब्रह्मन्! योद्धाओंको चाहिये कि पहले बायें हाथमें धनुष और दायें हाथमें बाण लेकर उसे चलायें और उन छोड़े हुए बाणोंको स्वस्तिकाकार करके उनके द्वारा गुरुजनोंको प्रणाम करें। धनुषका प्रेमीं योद्धा ‘वैशाख’ सथानके सिद्ध हो जाने पर *स्थिति’ (वर्तमान) या ‘आयति’ (भविष्य)-में जब आवश्यकता हो, धनुषपर डोरीको फैलाकर धनुषकी निचली कोटी और बाणके फलदेशको धरतीपर टिकाकर रखे और उसी अवस्थामें मुड़ी हुई दोनों भुजाओं एवं कलाइयोंद्वारा नापे। उत्तम ब्रतका पालन करनेवाले वसिष्ठ! उस योद्धाके बाणसे धनुष सर्वथा बड़ा होना चाहिये और मुष्टिके सामने बाणके पुंज तथा धनुषके डंडेमें वारह अङ्कुलका अन्तर होना चाहिये।ऐसी स्थिति हो तो धनुर्दण्डको प्रत्यञ्चासे संयुक्त कर देना चाहिये। वह अधिक छोटा या बड़ा नहीं होना चाहियें ॥ १९-२३ ॥
धनुषको नाभिस्थानमें और बाण-संचयको नितम्बपर रखकर उठे हुए हाथको आँख और कानके बीच में कर ले तथा उस अवस्था में बाणकों फेंके। पहले बाणको मुट्ठी में पकड़े और उसे दाहिने स्तनाग्रकी सीध में रखें। तदनन्तर उसे प्रत्यङ्झापरले जाकर उस मौर्वी (डोरी या प्रत्यझा)- को खींचकर पूर्णरूपसे फैलावे। प्रत्यश्चा न तो भीतर हो न बाहर, न ऊँची हो न नीची, न कुबड़ी हो न उत्तान, न चझल हो न अत्यन्त आवेष्टित। वह सम, स्थिरतासे युक्त और दण्डकी भाँति सीधी होनी चाहियें। इस प्रकार पहले इस मुष्टिके द्वारा लक्ष्यकी आच्छादित करके बाणको छोड़ना चाहिये ॥ २४-२७ ॥
धनुर्धर योद्धाको यत्नपूर्वक अपनी छाती ऊँची रखनी चाहिये और इस तरह झुककर खड़ा होना चाहिये, जिससे शरीर त्रिकोणाकार जान पड़े। कंधा ढीला, ग्रीवा निश्चल और मस्तक मयूरकी भौति शोभित हो। ललाट, नासिका, मुख, बाहुमूल और कोहनी-ये सम अवस्थामें रहें। ठोढ़ी और कंधेमें तीन अंगुलका अन्तर समझना चाहिये। पहली बार तीन अंगुल, दूसरी बार दों अंगुल और तीसरी बार ठोढ़ी तथा कंधेका अन्तर एक ही अंगुलका बताया गया है॥ २८-३० ॥
बाणको पुंजकी ओरसे तर्जनी एवं अंगूठेसे पकड़े। फिर मध्यमा एवं अनामिकासे भी पकड़ ले और तबतक वेगपूर्वक खींचता रहे, जबतक पूरा-पूरा बाण धनुषपर न आ जाय। ऐसा उपक्रम करके विधिपूर्वक बाणको छोड़ना चाहिये ॥ ३१-३२ ॥
सुव्रत! पहले दृष्टि और मुष्टिसे आहत हुए लक्ष्यको ही बाणसे विदीर्ण करे। बाणको छोड़कर पिछला हाथ बड़े वेग से पीठकी ओर ले जाय, क्योकी ब्राह्राण! यह ज्ञात होना चाहिये की शत्रु इस हाथकों काट डालनेकी इच्छा करते हैं। अत: धनुर्धर पुरुषको चाहिये, धनुषको खींचकर कोहनीके नीचे कर ले और बाण छोड़ते समय उसके ऊपर करे। धनु:शास्त्र-विशारद पुरुषोंको यह विशेषरूपसे जानना चाहियें। कोहनीका आँखसे सटाना मध्यम श्रेणीका बचाव है और शत्रुके लक्ष्य से दूर रखना उत्तम है ॥ ३३-३५॥
उत्तम श्रेणीका बाण बारह मुष्टियोंके मापका होना चाहिये। ग्यारह मुष्टियोंका “मध्यम’ और दस मुष्टियोंका ‘कनिष्ठ’ माना गया है। धनुष चार हाथ लंबा हो तो ‘उत्तम’ साढ़े तीन हाथका हो तो ‘मध्यम’ और तीन हाथका हो तो “कनिष्ठ” कहा गया हैं। पैदल योद्धाके लिये सदा तीन हाथके ही धनुषको ग्रहण करनेका विधान है। घोड़े, रथ और हाथीपर श्रेष्ठ धनुषका ही प्रयोग करनेका विधान किया गया है। ३६-३७
दो सौ उनचासवा अध्याय पूरा हुआ २४९
अध्याय-२५० लक्ष्यवेधके लिये धनुष-बाण लेने और उनके समुचित प्रयोग करनेकी शिक्षा तथा वेध्यके विविध भेदोंका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं–ब्रह्मन्! द्विज को चाहिये कि पूरी लम्बाईवाले धनुषका निर्माण कराकर, उसे अच्छी तरह धो-पोंछकर यज्ञभूमिमें स्थापित करे तथा गदा आदि आयुधोंको भलीभाँत साफ करके रखें ॥ १ ॥
तत्पश्चात वाणोंका संग्रह करके, कवच-धारणपूर्वक एकाग्रचित हो, तूणीर ले, उसे पीठकी ओर दाहिनी काँखके पास दृढ़ताके साथ बाँधे। ऐसा करनेसे विलक्ष्य बाण भी उस तूणीरमें सुस्थिर रहता है। फिर दाहिने हाथसे तूणीरके भीतरसे बाण को निकाले। उसके साथ ही बायें हाथसे धनुषको वहाँसे उठा ले और उसके मध्यभागमें। बाणका संधान’ करे। २-४ ॥
चित्तमें विषादको न आने दें-उत्साह-सम्पन्न हो, धनुषकी डोरीपर बाणका पुङ्खभाग रखे, फिर “सिंहकर्ण’ नामक मुष्टिद्वारा डोरीको पुङ्खके साथ ही दृढ़तापूर्वक दबाकर समभावसे संधान करे और बाणको लक्ष्यकी ओर छोड़े। यदि बायें हाथसे बाणकों चलाना हों तो बायें हाथ में बाण ले और दाहिने हाथसे धनुषकी मुट्ठी पकड़े। फिर प्रत्यन्चापर वाणको इस तरह रखें कि खींचने पर उसका फल या पुंज बायें कानके समीप आ जाय। उस समय बाणकों वायें हाथकों (तर्जनी और अङ्गुष्टके. अतिरिक्त) मध्यमा अंगुलीसे भी धारण किये रहे। बाण चलानेकी विधिको जाननेवाला पुरुष उपयुक्त मुष्टिके द्वारा धनुषको दृढ़तापूर्वक पकड़कर, मनको दृष्टिके साथ ही लक्ष्यगत करके बाणको शरीरके दाहिने भागकी ओर रखते हुए लक्ष्यकी ओर छोड़े ॥ ५-७ ॥
धनुषका दण्ड इतना बड़ा हो कि भूमिपर खड़ा करनेपर उसकी ऊँचाई ललाटतक आ जाय। उसपर लक्ष्यवेधके लिये सोलह अंगुल लंबे चन्द्रक (बाणविशेष)-का संधान करे और उसे भलीभाँति खींचकर लक्ष्यपर प्रहार करे। इस तरह एक बाणका प्रहार करके फिर तत्काल ही तूणीरसे अङ्गुष्ठ एवं तर्जनी अङ्गुलिद्वारा बारंबार बाण निकाले।
उसे मध्यमा अंगुलीसे भी दबाकर काबूमें करे और शीघ्र ही दृष्टिगत लक्ष्यकी ओर चलावे। चारों और तथा दक्षिण और लक्ष्यवेधका क्रम जारी रखें। योद्धा पहलेमें ही चारों और बाण मारकर सब ओरके लक्ष्यको वेधनेका अभ्यास करें ॥ ८-१० ॥
तदनन्तर वह तीक्ष्ण, परावृत्त, गत, निम्न, उन्नत तथा क्षिप्र वेधका अभ्यास बढ़ावे । वेध्य लक्ष्यके ये जो उपर्युक्त स्थान हैं, इनमें सत्व (बल एवं धैर्य)-का पुट देते हुए विचित्र एवं दुस्तर रीतिसे सैकड़ों बार हाथसे बाणोंके निकालने एवं छोड़नेकी क्रियाद्वारा धनुषका तर्जन करे-उसपर टङ्कारे दे॥ ११-१२ ॥
विप्रवर! उक्त वेध्यके अनेक भेद हैं। पहले तो दृढ़, दुष्कर तथा चित्र दुष्कर-ये वेध्यके तीन भेद हैं। ये तीनों ही भेद दो-दो प्रकार के होते हैं। ‘नतनिम्न’ और ‘तीक्ष्ण-ये ‘दृढ़वेध्य’के दो भेद हैं। ‘दुष्करवेध्य’ के भी ‘निम्न’ और ‘ऊर्ध्वगत”- ये दो भेद कहे गये हैं तथा ‘चित्रदुष्कर’ वेध्यके ‘मस्तकपन” और ‘मध्य’-ये दो भेद बताये गये हैं।॥ १३-१४ ॥
इस प्रकार इन वेंध्यगणोंको सिद्ध करके वीर पुरुष पहले दायें अथवा बायें पार्श्वसे शत्रुसेनापर चढ़ाई करे। इससे मनुष्यकी अपने लक्ष्यपर विजय प्राप्त होती है। प्रयोक्ता पुरुषोंने वेध्यके विषयमें यही विधि देखीं और बतायी है। १५-१६॥
योद्धाके लिये उस वेध्यकी अपेक्षा भ्रमणकी अधिक उत्तम बताया गया है। वह लक्ष्यको अपने बाणके पुंजभागसे आच्छादित करके उसकी ओर दृढ़तापूर्वक शर-संधान करे। जो लक्ष्य भ्रमणशील, अत्यन्त चञ्चल और सुस्थिर हो, उसपर सब ओर से प्रहार करे। उसका भेदन और छेदन करे तथा उसे सर्वथा पीड़ा पहुँचाये ॥ १७-१८ ॥
कर्मयोगके विधानका ज्ञाता पुरुष इस प्रकार समझ-बूझकर उचित विधिका आचरण (अनुष्ठान) करे। जिसने मन, नेत्र और दृष्टिके द्वारा लक्ष्यके साथ एकता-स्थापनकी कला सीख ली है, वह योद्धा यमराजकी भी जीत सकता है। (पाठान्तर के अनुसार वह श्रमको जीत लेता है-युद्ध करते करते थकता नहीं।) ॥ १९॥
इस प्रकार आदि आग्रेव महापुराणमें ‘धनुर्वेदका कथन’ नामक दो साँ पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २५० ॥