- अध्याय-२५१ पाशके निर्माण और प्रयोगकी विधि तथा तलवार और लाठीको अपने पास रखने एवं शत्रुपर चलानेकी उपयुक्त पद्धतिका निर्देश
- अध्याय-२५२ तलवारके बत्तीस हाथ, पाश, चक्र, शूल, तोमर, गदा, परशु, मुद्रर,भिन्दिपाल, वज्र, कृपाण, क्षेपणी, गदायुद्ध तथा मल्लयुद्धके दाँव और पैतरोंका वर्णन
- अध्याय-२५३ व्यवहारशास्त्र तथा विविध व्यवहारोका वर्णन
- अध्याय-२५४ ऋणादान तथा उपनिधि-सम्बन्धी विचार
- अध्याय-२५५ साक्षी, लेखा तथा दिव्यप्रमाणोंके विषयमें विवेचन
- अध्याय-२५६ पैतृक धनके अधिकारी; पत्रियोंका धनाधिकार; पितामहके धनके अधिकारी; विभाज्य और अविभाज्य धन; वर्णक्रमसे पुत्रोंके धनाधिकार; बारह प्रकारके पुत्र और उनके अधिकार; पत्नी-पुत्री आदिके, संसृष्टीके धनका विभाग; क्लीब आदिका अनधिकार; स्त्रीघन तथा उसका विभाग
- अध्याय-२५७ सीमा-विवाद, स्वामिपाल-विवाद, अस्वामिविक्रय, दत्ताप्रदानिक, क्रीतानुशय, अभ्युपेत्याशुश्रुषा, संविद्व्यतिक्रम, वेतनादान तथा द्यतसमाहुयका विचार
- अध्याय-२५८ व्यवहारके वाक्पारुष्य, दण्डपारुष्य, साहस, विक्रियासम्प्रदान, सम्भूय-समुत्थान, स्तेय, स्त्री-संग्रहण तथा प्रकीर्णक-इन विवादास्पद विषयोंपर विचार
- अध्याय-२५९ ऋग्विधान-विविध कामनाओंकी सिद्धिके लिये प्रयुक्त होनेवाले ऋग्वेदीय मन्त्रोंका निर्देश
- अध्याय-२६० यजुर्विधान-यजुर्वेदके विभिन्न मन्त्रोंका विभिन्न कार्योंके लिये प्रयोग
- अध्याय-२६१ सामविधान – सामवेदोक्त मन्त्रोंका भिन्न-भिन्न कार्योंके लिये प्रयोग
- अध्याय-२६२ अथर्वविधान-अथर्ववेदोक्त मन्त्रोंका विभिन्न कर्मोमें विनियोग
- अध्याय-२६३ नाना प्रकारके उत्पात और उनकी शान्तिके उपाय
- अध्याय-२६४ देवपूजा तथा वैश्वदेव-बलि आदिका वर्णन
- अध्याय-२६५ दिक्पालस्नानकी विधिका वर्णन
- अध्याय-२६६ विनायक-स्नानविधि
- अध्याय-२६७ माहेश्वर-स्नान आदि विविध स्नानोंका वर्णन; भगवान् विष्णुके पूजनसे तथा गायत्रीमन्त्रद्वारा लक्ष-होमादिसे शान्तिकी प्राप्तिका कथन
- अध्याय-२६८ सांवत्सर-कर्म; इन्द्र-शचीकी पूजा एवं प्रार्थना; राजाके द्वारा भद्रकाली तथा अन्यान्य देवताओंके पूजनकी विधि; वाहन आदिका पूजन तथा नीराजना
- अध्याय - २६९ छत्र, अश्व, ध्वजा, गज, पताका, खङ्ग, कवच और दुन्दुभिकी प्रार्थनाके मन्त्र
- अध्याय –२७० विष्णुपज्जरस्तोत्र का कथन
- अध्याय –२७१ वेदों के मन्त्र और शाखा आदि का वर्णन तथा वेदों की महिमा
- अध्याय – २७२ विभिन्न पुराणोंके दान तथा महाभारत-श्रवणमें दान-पूजन आदिका माहात्म्य
- अध्याय - २७३ सूर्यवंशका वर्णन
- अध्याय – २७४ सोमवंशका वर्णन
- अध्याय - २७५ यदुवंशका वर्णन
- अध्याय -२७६ श्रीकृष्णकी पत्नियों तथा पुत्रोंके संक्षेपसे नामनिर्देश तथा द्वादश-संग्रामोंका संक्षिप्त परिचय
- अध्याय – २७७ तुर्वसु आदि राजाओंके वंशका तथा अंगवंशका वर्णन
- अध्याय – २७८ पुरुवंशका वर्णन
- अध्याय – २७९ सिद्ध ओषधियोंका वर्णन
- अध्याय – २८० सर्वरोगहर औषधोका वर्णन
- अध्याय – २८१ रस आदिके लक्षण"
- अध्याय – २८२ आयुर्वेदोक्त वृक्ष-विज्ञान
- अध्याय – २८३ नाना रोगनाशक ओषधियोंका वर्णन
- अध्याय – २८४ मन्त्ररूप औषधोका कथन
- अध्याय – २८५ मृतसंजीवनकारक सिद्ध योगोंका कथन
- अध्याय – २८६ मृत्युञ्जय योगोका वर्णन
- अध्याय – २८७ गज-चिकित्सा
- अध्याय – २८८ अश्ववाहन-सार
- अध्याय – २८९ अश्व-चिकित्सा
- अध्याय – २९० अश्व-शान्ति
- अध्याय – २९१ गज-शान्ति
- अध्याय – २९२ गवायुर्वेद
- अध्याय – २९३ मन्त्र-विद्या
- अध्याय – २९४ नाग-लक्षण*
- अध्याय – २९५ दष्ट-चिकित्सा
- अध्याय – २९६ पञ्चाङ्ग-रुद्रविधान
- अध्याय – २९७ विषहारी मन्त्र तथा औषध
- अध्याय – २९८ गोनसादि-चिकित्सा
- अध्याय – २९९ बालादिग्रहहर बालतन्त्र
- अध्याय - ३०० ग्रहबाधा एवं रोगोंको हरनेवाले मन्त्र तथा औषध आदिका कथन
अग्निपुराण
अध्याय-२५१ पाशके निर्माण और प्रयोगकी विधि तथा तलवार और लाठीको अपने पास रखने एवं शत्रुपर चलानेकी उपयुक्त पद्धतिका निर्देश
अग्निदेव कहते हैं–ब्रह्मन्! जिसने हाथ, मन और दृष्टिको जीत लिया है, ऐसा लक्ष्यसाधक नित्य सिद्धिको पाकर युद्धके लिये वाहनपर आरूढ़ हो। ‘पाश’ दस हाथ बड़ा, गोलाकार और हाथके लिये सुखद होना चाहिये। इसके लिये अच्छी मूंज, हरिणकी ताँत अथवा आकके छिलकोंकी डोरी तैयार करानी चाहिये। इनके सिवा अन्य सुदृढ़ (पट्टसूत्र आदि) वस्तुओंका भी सुन्दर पाश थनाया जा सकता हैं। उक्त सूत्रों या रस्सियोंको कई आवृति लपेटकर खूब बट ले। विज्ञ पुरुष तीस आवृत्ति करके बटे हुए सूत्र या रस्सीसे ही पाशका निर्माण करे ॥ १-३ ॥
शिक्षकोंको पाशकी शिक्षा देनेके लिये कक्षाओंमें स्थान बनाना चाहिये। पाशकों बायें हाथ में लेकर दाहिने हाथसे उधेड़े। उसे कुण्डलाकार बना, सब ओर घुमाकर शत्रुके मस्तकके ऊपर फेंकना चाहिये। पहले तिनकेके बने और चमड़ेसे मढ़े हुए पुरुषपर उसका प्रयोग करना चाहिये। तत्पश्चात् उछलतेकूदते और जोर-जोरसे चलते हुए मनुष्योंपर सम्यकरूपसे विधिवत प्रयोग करके सफलता प्राप्त कर लेनेपर ही पाशका प्रयोग करे। सुशिक्षित योद्धाको पाशद्वारा यथोचित रीतिसे जीत लेने पर ही शत्रुके प्रति पाश-बन्धनकी क्रिया करनी चाहिये ॥ ४-६ ॥
तदन्तर कमरमें म्यानसहित तलवार बाँधकर उसे बायीं ओर लटका ले और उसकी म्यानकों बायें हाथसे दृढ़ताके साथ पकड़कर दायें हाथसे तलवारकों बाहर निकाले। उस तलवारकी चौड़ाई छ: अङ्गुल और लंबाई या ऊँचाई सात हाथकी हॊ ॥७-८॥
लोहेकी बनी हुई कई शलाकाएँ और नाना प्रकारके कवच अपने आधे या समूचे हाथमें लगा ले; अगल-बगल में और ऊपर-नीचे भी शरीरकी रक्षाके लिये इन सब वस्तुओंको विधिवत् धारण करें ॥ ९ ॥
युद्धमें विजयके लिये जिस विधिसे जैसी योजना बनानी चाहिये, वह बताता हूँ, सुनो। तूणीरके चमड़ेसे मढ़ी हुई एक नयी और मजबूत लाठी अपने पास रख ले। उस लाठीकी दाहिने इाथकी औगुलियोंसे उठाकर वह जिसके ऊपर जोरसे अधात करेगा, उस शत्रुका अवश्य नाश हो जायगा। इस क्रियामें सिद्धि मिलनेपर वह दोनों हाथोंसे लाठीको शत्रुके ऊपर गिरावे। इससे अनायास ही वह उसका वध कर सकता है। इस तरह युद्धमें सिद्धिकी बात बतायी गयी। रणभूमिमें भलीभाँति संचरण के लिये अपने वाहनोंसे श्रम कराते रहना चाहिये, यह बात तुम्हें पहले बतायी गयी है। १०-१२ ॥
इस प्रकार आदि आट्रय महापुराणमें ‘धनुर्वोदका कथन’ नामक दो सों इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५१ ॥
अध्याय-२५२ तलवारके बत्तीस हाथ, पाश, चक्र, शूल, तोमर, गदा, परशु, मुद्रर,भिन्दिपाल, वज्र, कृपाण, क्षेपणी, गदायुद्ध तथा मल्लयुद्धके दाँव और पैतरोंका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं–ब्रह्मन्! भ्रान्त, उदभ्रान्त, आविद्ध, आप्लुत, विप्लुत, प्लुत (या सृत), सम्पात, समुदीर्ण, श्येनपात, आकुल, उद्धत, अवधूत, सव्य, दक्षिण, अनालक्षित, विस्फोट, करालेन्द्र, महासख, विकराल, निपात, विभीषण, भयानक, समग्र, अर्ध, तृतीयांश, पाद, पादार्थ, वारिंज, प्रत्यालीढ़, आलीढ़, वराह और लुलित-ये रणभूमिमें दिखाये जानेवाले ढाल-तलवारके बतीस हाथ (या चलानेके ढंग) हैं; इन्हें जानना चाहिये। १-४॥
परावृत, अपावृत, गृहित, लघु, ऊर्ध्वक्षिप्त, अध:क्षिप्त, संधारित, विधारित, श्येनपात, गजपात और ग्राह-ग्राह्य-ये युद्धमें ‘पाश’फेंकनेके ग्यारह प्रकार हैं। ५-६ ॥
ऋजु, आयत, विशाल, तिर्यक्र और भ्रामित-ये पाँच कर्म ‘व्यस्तपाश’ के लिये महात्माओंने बतायें हैं ॥ ७ ॥
छेदन, भेदन, पात, भ्रमण, शमन, विकर्तन तथा कर्तन-ये सात कर्म ‘चक्र के हैं ॥ ८॥
आस्फोट, क्ष्वेडन, भेद, त्रास, आन्दोलितक और आघात-ये छ: ‘शूल के कर्म जानी ॥ ९॥
द्विजोत्तम! दृष्टिघात, भुजाघात, पार्श्वघात, ऋजुपात, पक्षपात और इषुपात-ये ‘तोमर’के कार्य कहें गये हैं। १० ॥
विप्रवर! आहत, विहृत, प्रभूत, कमलासन, ततोर्ध्वगात्र, नमित, वामदक्षिण, आवृत्त, परावृत्त, पादोद्धत, अवप्लुत, हंसमर्द (या हंसमार्ग) तथा विमर्द-ये ‘गदा-सम्बन्धी’ कर्म कहे गये हैं।॥ ११-१२॥
कराल, अवधात, दंशोपप्लुत, क्षिप्तहस्त, स्थित और शून्य-ये ‘फरसे’ के कर्म समझने चाहिये ॥ १३॥
विप्रवर! ताड़न, छेदन, चूर्णन, प्लवन तथा घातन-ये ‘मुद्गर के कर्म हैं॥ १४॥
संश्रान्त, विश्रान्त, गोविसर्ग तथा सुदुर्धर-ये ‘भिन्दिपाल के कर्म हैं और ‘लगुड’के भी वे ही कर्म बताये गये हैं। १५ ॥
द्विजोत्तम! अन्त्य, मध्य, परावृत्त तथा निदेशान्त-ये ‘वज्र’ और ‘पट्टिश के कर्म हैं॥ १६॥
हरण, छेदन, घात, भेदन, रक्षण, पातन तथा स्फोटन-यें ‘कृपाण के कर्म कहे गये हैं॥ १७॥
त्रासन, रक्षण, घात, बलोद्धरण और आयत-ये ‘क्षेपणी’ (गोफन)-के कार्य कहे गये हैं। ये ही “यन्त्र के भी कर्म हैं। १८ ॥
संत्याग, अवदंश, वराहोद्धुतक, हस्तावहस्त, आलीन, एकहस्त, अवहस्तक, द्विहस्त, बाहुपाश, कटिरेचितक, उदगत, उरोघात, ललाटघात, भुजाविधमन, करोद्धूत, विमान, पादाहति, विपादिक, गात्रसंश्लेषण, शान्त, गात्रविपर्यय, ऊर्ध्वप्रहार, घात, गोमूत्र, सव्य, दक्षिण, पारक, तारक, दण्ड (गण्ड), कबरीबन्ध, आकुल, तिर्यग्बंध, अपामार्ग, भीमवेग, सुदर्शन, सिंहाक्रान्त, गजाक्रान्त और गर्दभाक्रान्त-ये ‘गदायुद्ध” के हाथ जानने चाहिये। ॥ १९-२३ ॥
अब ‘मल्लयुद्ध’के दाव-पेंच बताये जाते हैं। आकर्षण, विकर्षण, बाहुमुल, ग्रीवाविपरिवर्त, सुदारुण, पृष्ठभंग, पर्यासन, विपर्यास, पशुमार, अजाविक, पादप्रहार, आस्फोट, कटिरेचितक, गात्राश्लेष, स्कन्धगत, महीव्याजन, उरोललाटघात, विस्पष्टकरण, उद्धूत, अवधूत, तिर्यङ्मार्गगत, गजस्कन्ध, अवक्षेप, अपराड्मुख, देवमार्ग, अधोमार्ग, अमार्गगमनाकुल, यष्ट्रिघात, अवक्षेप, वसुधादारण, जानूबन्ध, भुजाबन्ध, सुदारुण, गात्रबन्ध, विपृष्ठ, सोदक, श्वभ्र तथा भुजावेटित ॥ २४-२९ ई॥
युद्धमें कवच धारण करके, अस्त्र-शस्त्रसे सम्पन हो, हाथी आदि वाहनोंपर चढ़कर उपस्थित होना चाहिये। हाथीपर उत्तम अङ्कुश धारण किये दो महावत या चालक रहने चाहिये। उनमेंसे एक तो हाथीकी गर्दनपर सवार हो और दूसरा उसके कंधेपर। इनके अतिरिक्त सवारोंमें दो धनुर्धर होने चाहिये और दी खङ्गधारी ॥ ३०-३१ ॥
प्रत्येक रथ और हाथीकी रक्षाके लिये तीन-तीन घुड़सवार सैनिक रहें तथा घोड़ेकी रक्षाके लिये तीन-तीन धनुर्धर पैदल-सैनिक रहने चाहिये। धनुर्धरकी रक्षाके लिये चर्म या ढाल लिये रहनेवाले योद्धाकी नियुक्ति करनी चाहिये ॥ ३२॥
जो प्रत्येक शस्त्रका उसके अपने मन्त्रोंसे पूजन करके ‘त्रैलोक्यमोहन-कवच’का पाठ करनेके अनन्तर युद्धमें जाता है, वह शत्रुओंपर विजय पाता और भूतलकी रक्षा करता है। (पाठान्तरके
अनुसार शत्रुओंपर विजय पाता और उन्हें निश्चय हीं मार गिराता हैं।) ॥ ३३ ॥
दो साँ बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २५२
अध्याय-२५३ व्यवहारशास्त्र तथा विविध व्यवहारोका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं– वसिष्ठ! अब मैं व्यवहारका वर्णन करता हूँ जों नय और अनयका विवेक प्रदान करनेवाला हैं। उसके चार चरण, चार स्थान और चार साधन बतलाये गये हैं। वह चारका हितकारी, चारमें व्याप्त और चारका कर्ता कहा जाता है। वह आठ अङ्ग, अठारह पद, सौ शाखा, तीन योनि, दो अभियोग, दो द्वार और दो गतियोंसे युक्त है।॥ १-२ ॥
धर्म, व्यवहार, चरित्र और राजशासन-ये व्यवहारदर्शनके चार चरण हैं। इनमें उत्तरोत्तर पाद पूर्व-पूर्व पादके साधक हैं। इन सबमें ‘धर्म’का आधार सत्य है, ‘ व्यवहार’ का आधार साक्षी | (गवाह) है, ‘चरित्र’ पुरुषोंके संग्रहपर आधारित है और “शासन” राजाकी आज्ञापर अवलम्बित हैं । साम, दान, दण्ड़ और भेद-इन चार उपायोंसे साध्य होनेके कारण वह ‘चार साधनोंवाला’ हैं।
चारों आश्रमोंकी रक्षा करनेसे वह ‘चतुहिंत’ है।
एक-एक चरणसे उसकी स्थिति हैं-इसलिये उसे ‘चतुव्यापी’ माना गया है। वह धर्म, अर्थ, यश और लोकप्रियता-इन चारोंकी वृद्धि करनेवाला होनेसे ‘चतुष्कारी’ कहा जाता है। राजपुरुष, सभासद, शास्त्र, गणक, लेखक, सुवर्ण, अग्रि और जलइन आठ अङ्गोसे युक्त होनेके कारण वह ‘अष्टाङ्ग’ हैं। काम, क्रोध और लोभ-इन तीन कारणोंसे मनुष्यकी इसमें प्रवृत्ति होती है, इसीलिये व्यवहारको “त्रियोनि’ कहा जाता है; क्योंकि ये तीनों ही विवाद करानेवाले हैं। अभियोगके दो भेद हैं(१) शङ्काभियोग और (२) तत्वाभियोग। इसी दृष्टिसे वह दो अभियोगवाला है। ‘शङ्का’ असत्
होढा (चिह्न या प्रमाण) देखनेसे होता है। यह दी पक्षोंसे सम्बन्धित होनेके कारण ‘दी द्वारोंवाला” कहा जाता हैं। इनमें पूर्ववाद ‘पक्ष’ और उत्तरवाद प्रतिपक्ष’ कहलाता है। ‘भूत’ और ‘छल’- इनका अनुसरण करनेसे यह दो गतियोंसे युक्त माना जाता हैं ॥ ३-१२॥
कैसा ऋण देय है, कैसा ऋण अदेय है- कौन दे, किस समय दे, किस प्रकारसे दे, ऋण देनेकी विधि या पद्धति क्या है तथा उसे लेने या वसूल करनेका विधान क्या है? इन सब बातोंका विचार’ ‘ऋणादान’ कहा गया है। जब कोई मनुष्य किसीपर विश्वास करके शङ्कारहित होकर उसके पास अपना कोई द्रव्य धरोहरके तौरपर देता है, तब उसे विद्वान् लोग ‘निक्षेप’ नामक व्यवहारपद कहते हैं। जब चणिक आदि अनेक मनष्य मिलकर सहकारिता या साझेदारीके तौरपर कोई कार्य करते हैं तो उसको ‘सम्भूयसमुत्थान’ संज्ञक विवादपद बतलाते हैं। यदि कोई मनुष्य पहले विधिपूर्वक किसी द्रव्यका दान देकर पुनः उसे रख लेनेकी इच्छा करे, तो वह ‘दत्ताप्रदानिक’ नामक विवादपद कहा जाता है। जो सेवा स्वीकार करके भी उसका सम्पादन नहीं करता या उपस्थित होता, उसका यह व्यवहार ‘अभ्युपेत्य अशुश्रूषा’ नामक विवादपद होता है। भृत्योंको वेतन देने-न-देनेसे सम्बन्ध रखनेवाला विवाद ‘वेतनानपाक्रम’ माना गया है। धरोहरमें रखे हुए या खोये हुए पराये द्रव्यको पाकर अथवा चुराकर स्वामीकै परोक्षमें बेचा जाय तो यह ‘अस्वामिविक्रय’ नामक विवादपद है। यदि कोई व्यापारी किसी पण्य-द्रव्यको मूल्य लेकर विक्रय कर देनेके बाद भी खरीददारको वह द्रव्य नहीं देता है तो उसको ‘विक्रीयासम्प्रदान’ नामक विवादपद कहा जाता है। यदि ग्राहक किसी वस्तुको मूल्य देकर खरीदनेके बाद उस वस्तुको ठीक नहीं समझता, तो उसका यह आचरण ‘क्रीतानुशय’ नामक विवादपद कहलाता है। यदि ग्राहक या खरीददार मूल्य देकर वस्तुको खरीद लेनेके बाद यह समझता है कि यह खरीददारी ठीक नहीं है, (अतः वह वस्तु लौटाकर दाम वापस लेना चाहता है) तो उसी दिन यदि वह लौटा दे तो विक्रेता उसका मूल्य पूरा-पूरा लौटा दे, उसमें काट-छाट न करे ।। १३-२१ ॥
पाखण्डी और नैगम आदिकी स्थितिको ‘समय’ कहते हैं। इससे सम्बद्ध विवादपदको ‘समयानपानहीं कर्म’ कहा जाता है। (याज्ञवल्क्यने इसे ‘संविद् व्यतिक्रम’ नाम दिया है।) क्षेत्रके अधिकारको लेकर सेतु, केदार (मेड़) और क्षेत्र सीमाके घटने-बढ़नेके विषयमें जो विवाद होता है, वह ‘क्षेत्रज’ कहा गया हैं। जो स्त्री और पुरुषके विवाहादिसे सम्बन्धित विवादपद है, उसे ‘स्त्री-पुंस योग’ कहते हैं। पुत्रगण पैतृक धनका जो विभाजन करते हैं, विद्वानों ने उसको ‘दायभाग’ नामक व्यवहारपद माना है। बलके अभिमानसे जो कर्म सहसा किया जाता है, उसे ‘साहस’ नामक विवादपद बतलाया गया है। किसीके देश, जाति एवं कुल आदिपर दोषारोपण करके प्रतिकूल अर्थसे युक्त व्यंग्यपूर्ण वचन कहना ‘वाक्-पारुष्य’ माना गया है। दूसरेके शरीरपर हाथ-पैर या आयुधसे प्रहार अथवा अग्नि आदिसे आधात करना ‘दण्ड-पारुष्य’ कहलाता है। पासे, वध्र (चमड़ेकी पट्टी) और शलाका (हाथीदाँतकी गोटियों)-से जो क्रीडा होती है, उसको ‘छूत’ कहा जाता है। (घोड़े आदि) पशुओं और (बटेर आदि) पक्षियोंसे होनेवाली क्रीडाको ‘प्राणिचूत’ समझना चाहिये। राजाकी आज्ञाका उल्लङ्घन और उसका कार्य न करना यह ‘प्रकीर्णक’ नामक व्यवहारपद जानना चाहिये। यह विवादपद राजापर आश्रित है। इस प्रकार व्यवहार अठारह पदोंसे युक्त है। इनके भी सौ भेद माने गये हैं। मनुष्योंकी क्रियाके भेदसे यह सौ शाखाओंवाला कहा जाता है ॥ २२-३१॥
राजा क्रोधरहित होकर ज्ञान-सम्पन्न ब्राह्मणोंके साथ व्यवहारका विचार करे और ऐसे मनुष्योंको सभासद बनाये, जो वेदवेत्ता, लोभरहित और शत्रु एवं मित्रको समान दृष्टिसे देखनेवाले हों। यदि राजा कार्यवश स्वयं व्यवहारका विचार न कर सके तो सभासदोंके साथ विद्वान् ब्राह्मणको नियुक्त करे। यदि सभासद् राग, लोभ या भयसे धर्मशास्त्र एवं आचारके विरुद्ध कार्य करे, तो राजा प्रत्येक सभासदपर अलग-अलग विवादसे दुगुना अर्थदण्ड करे। यदि कोई मनुष्य दूसरोंके द्वारा धर्मशास्त्र और समयाचारके विरुद्ध मार्गसे धर्षित किया गया हो और वह राजाके समीप आवेदन करे तो उसको ‘व्यवहार’ (पद) कहते हैं। वादीने जो निवेदन किया हो, राजा उसको वर्ष, मास, पक्ष, दिन, नाम और जाति आदिसे चिह्नित करके प्रतिवादीके सामने लिख ले। (वादीके आवेदन या बयानको ‘भाषा’, ‘प्रतिज्ञा’ अथवा ‘पक्ष’ कहते हैं।) प्रतिवादी वादीका आवेदन सुनकर उसके सामने ही उसका उत्तर लिखावे। तब वादी उसी समय अपने निवेदनका प्रमाण लिखावे । निवेदनके प्रमाणित हो जानेपर वादी जीतता है, अन्यथा पराजित हो जाता हैं ॥ ३२-३७॥
इस प्रकार विवादमें चार पाद (अंश)-से युक्त व्यवहार दिखाया गया है। जबतक अभियुक्तके वर्तमान अभियोगका निर्णय (फैसला) न हो जाय, तबतक उसके ऊपर दूसरे अपराधका मामला न चलाये। जिसपर किसी दूसरेने अभियोग कर दिया हो, उसपर भी कोई वादी दूसरा अभियोग न चलावे। आवेदनके समय जो कुछ कहा गया हो, अपने उस कथनके विपरीत (विरुद्ध) कुछ न कहे। (हिंसा आदि)-का अपराध बन जाय तो पूर्व अभियोगका फैसला होनेके पहले ही मामला चलाया जा सकता है ॥ ३८-३९ ॥
सभासदोंसहित सभापति या प्राविवाकको चाहिये कि वह वादी और प्रतिवादी दोनोंके सभी विवादोंमें जो निर्णयका कार्य है, उसके सम्पादनमें समर्थ पुरुषको ‘प्रतिभू’ बनावे। अर्थीके द्वारा लगाये गये अभियोगको यदि प्रत्यर्थीने अस्वीकार कर दिया और अर्थाने गवाही आदि देकर अपने दावेको पुनः उससे स्वीकार करा लिया, तब प्रत्यर्थी अर्थीको अभियुक्त धन दे और दण्डस्वरूप उतना ही धन राजाको भी दे। यदि अर्थी अपने दावेको सिद्ध न कर सका तो स्वयं मिथ्याभियोगी (झूठा मुकदमा चलानेवाला) हो गया; उस दशामें वही अभियुक्त धनराशिसे दूना धन राजाको अर्पित करे ॥ ४०॥
हत्या या डकैती-चौरी, वाक्पारुष्य (गाली-गलौज), दण्डपारुष्य (निर्दयतापूर्वक की हुई मारपीट), दूध देनेवाली गायके अपहरण, अभिशाप (पातकका अभियोग), अत्यय (प्राणघात) एवं धनातिपात तथा स्त्रियोंके चरित्र-सम्बन्धी विवाद प्राप्त होनेपर तत्काल अपराधीसे उत्तर माँगे, विलम्ब न करे। अन्य प्रकारके विवादों में उत्तरदानका समय वादी, प्रतिवादी, सभासद् तथा प्राडविवाककी इच्छाके अनुसार रखा जा सकता है॥ ४१६-॥
(दुष्टोंकी पहचान इस प्रकार करे-) अभियोगके विषयमें बयान या गवाही देते समय जो एक जगसे दूसरी जगह जाता-आता है, स्थिर नहीं रह पाता, दोनों गलफर चाटता है, जिसके भाल-देशमें पसीना हुआ करता है, चेहरेका रंग फीका पड़ जाता है, गला सूखनेसे वाणी अटकने लगती है, जो बहुत तथा पूर्वापर-विरुद्ध बातें कहा करता है, जो दूसरेकी बातका ठीक-ठीक उत्तर नहीं दे पाता और किसीसे दृष्टि नहीं मिल पाता है, जो ओठ टेढ़े-मेढ़े किया करता है, इस प्रकार जो स्वभावसे ही मन, वाणी, शरीर तथा क्रिया-सम्बन्धी विकारको प्राप्त होता है, वह ‘दुष्ट’ कहा गया है ।।४२-४३॥
जो संदिग्ध अर्थको, जिसे अधमर्णने अस्वीकार कर दिया है, बिना किसी साधनकै मनमाने ढंगसे सिद्ध करनेकी चेष्टा करता है तथा जो राजाके बुलानेपर उसके समक्ष कुछ भी नहीं कह पाता है, वह भी हीन और दण्डनीय माना गया है॥४४॥
दोनों वादियोंके पक्षोंके साधक साक्षी मिलने सम्भव हो तो पूर्ववादीके साक्षियोंसे ही पूछे, अर्थात् उन्हींकी गवाही ले। जो वादीके उत्तरमें यह कहे कि ‘मैंने बहुत पहले इस क्षेत्रको दानमें पाया था और तभीसे यह हमारे उपयोगमें है’, वहीं यहाँ पूर्ववादी है, जिसने पहले अभियोग दाखिल किया है, वह नहीं। यदि कोई यह कहे कि ‘ठीक है कि यह सम्पत्ति इसे दानमें मिली थी और इसने इसका उपयोग भी किया है, तथापि इसके यहाँसे अमुकने वह क्षेत्र-सम्पत्ति खरीद ली और उसने पुनः इसे मुझको दे दिया’ तब पूर्वपक्ष असाध्य होनेके कारण दुर्बल पड़ जाता है। ऐसा होनेपर उत्तरवादीके साक्षी ही प्रष्टव्य हैं; उन्हींकी गवाही ली जानी चाहिये॥ ४५ ॥
यदि विवाद किसी शर्तके साथ किया गया हो, अर्थात् यदि किसीने कहा हो कि ‘यदि मैं अपना पक्ष सिद्ध न कर सकें तो पाँच सौ पण अधिक दण्ड दूंगा, तब यदि वह पराजित हो जाय तो उसके पूर्वकृत पणरूपी दण्डका धन राजाको दिलवावे। परंतु जो अर्थी धनी है, उसे राजा विवादका आस्पदभूत धन ही दिलवावे’ ॥ ४६३ ॥
राजा छल छोड़कर वास्तविकताका आश्रय ले व्यवहारोंका अन्तिम निर्णय करे। यथार्थ वस्तु भी यदि लेखबद्ध न हुई हो तो व्यवहारमें वह पराजयका कारण बनती है। सुवर्ण, रजत और वस्त्र आदि अनेक वस्तुएँ अर्थीके द्वारा अभियोग पत्रमें लिखा दी गयी हैं, परंतु प्रत्यर्थी उन सबको | अस्वीकार कर देता है, उस दशामें यदि साक्षी आदिके प्रमाणसे एक वस्तुको भी प्रत्यर्थीने स्वीकार कर लिया, तब राजा उससे अभियोग-पत्रमें लिखित सारी वस्तुएँ दिलवाये। यदि कोई वस्तु पहले नहीं लिखायी गयी और बादमें उसकी भी वस्तुसूचीमें चर्चा की गयी हो तो उसको राजा नहीं दिलवावे। यदि दो स्मृतियों अथवा धर्मशास्त्र-वचनों में परस्पर विरोधकी प्रतीति होती हो तो उस विरोधको दूर करनेके लिये विषय-व्यवस्थापना आदिमें उत्सर्गापवाद-लक्षण न्यायको बलवान् समझना चाहिये। एक वाक्य उत्सर्ग यो सामान्य है और दूसरा अपवाद अथवा विशेष है, अतः अपवाद उत्सर्गका बाधक हो जाता है। उस न्यायकी प्रतीति कैसे होगी ? व्यवहारसे। अन्वय-व्यतिरेक-लक्षण जो वृद्धव्यवहार है, उससे उक्त न्यायका अवगमन हो जायेगा। इस कथनका भी अपवाद है। अर्थशास्त्र और धर्मशास्त्रके वचनों में विरोध होनेपर अर्थशास्त्रसे धर्मशास्त्र ही बलवान् है; यह ऋषि-मुनियोंकी बाँधी मर्यादा है॥ ४७-४९॥
(अर्थी या वादी पुरुष सप्रमाण अभियोग-पत्र उपस्थित करे, यह बात पहले कही गयी है। प्रमाण दो प्रकारका होता है-‘मानुष-प्रमाण’ और ‘दैविक-प्रमाण’। ‘मानुष-प्रमाण’ तीन प्रकारका होता है, वही यहाँ बताया जाता है-) लिखित, भुक्ति और साक्षी-ये तीन ‘मानुष-प्रमाण’ कहे गये हैं। (लिखितके दो भेद हैं-‘शासन’ और ‘चीरक’। ‘शासन’का लक्षण पहले कहा गया है और ‘चोरक’ को आगे बताया जायगा।) ‘भुक्ति का अर्थ है-उपभोग (कब्जा) । (साक्षियोंके स्वरूप-प्रकार आगे बताये जायेंगे।) यदि मानुष-प्रमाणके इन तीनों भेदों में से एककी भी उपलब्धि न हो तो आगे बताये जानेवाले दिव्य प्रमाणों में से किसी एकको ग्रहण करना आवश्यक बताया जाता है॥५०॥
ऋण आदि समस्त विवादों में उत्तर क्रिया बलवती मानी गयी है। यदि उत्तर क्रिया सिद्ध कर दी गयी तो उत्तरवादी विजयी होता है और पूर्ववादी अपना पक्ष सिद्ध कर चुका हो तो भी वह हार जाता है। जैसे किसीने सिद्ध कर दिया कि ‘अमुकने मुझसे सौ रुपये लिये हैं; अतः वह उतने रुपयोंक देनदार है’; तथापि लेनेवाला यदि यह जवाब लगा दे कि ‘मैंने लिया अवश्य था, किंतु अमुक तिथिको सारे रुपये लौटा दिये थे’ और यदि उत्तरदाता प्रमाणसे अपना यह कथन सिद्ध कर दे, तो अर्थी या पूर्ववादी पराजित हो जाता है; परंतु ‘आधि’ (किसी वस्तुको गिरवी रखने), प्रतिग्रह लेने अथवा खरीदनेमें पूर्वक्रिया ही प्रबल होती हैं। जैसे किसी खेतको उसके मालिकने किसी धनीके यहाँ गिरवी रखकर उससे कुछ रुपये ले लिये। फिर उसी खेतको दूसरेसे भी रुपये लेकर उसने उसके यहाँ गिरवी रख दिया, ऐसे मामलों में जहाँ पहले खेतको गिरवी रखा है, उसीका स्वत्व प्रबल माना जायगा, दूसरेका नहीं ॥५१॥
यदि भूमि-स्वामीके देखते हुए कोई दूसरा उसकी भूमिका उपभोग करता है और वह कुछ नहीं बोलता तो बीस वर्षोंतक ऐसा होनेपर वह भूमि उसके हाथसे निकल जाती है। इसी प्रकार हाथी, घोड़े आदि धनका कोई दस वर्षतक उपभोग करे और स्वामी कुछ न बोले तो वह उपभोक्ता ही उस धनका स्वामी हो जाता है, पहलेके स्वामीको उस धनसे हाथ धोना पड़ता है॥५२॥
आधि, सीमा और निक्षेप-सम्बन्धी धनको, जड़ और बालकोंके धनको तथा उपनिधि, राजा, स्त्री एवं श्रोत्रिय ब्राह्मणोंके धनको छोड़कर ही पूर्वोक्त नियम लागू होता है, अर्थात् इनके धनका उपभोग करनेपर भी कोई उस धनका स्वामी नहीं हो सकता। आधिसे लेकर श्रोत्रिय-पर्यन्त धनको चिरकालसे उपभोगकै बलपर अपहरण करनेवाले पुरुषसे उस विवादास्पद धनको लेकर राजा धनके असली स्वामीको दिलवा दे और अपहरण करनेवालेसे उस धनके बराबर ही दण्डस्वरूप धन राजाको दिलवाया जाय। अथवा अपहरणकर्ताको शक्तिके अनुसार अधिक या कम धन भी दण्डके रूपमें लिया जाय। स्वत्वका हेतुभूत जो प्रतिग्रह और क्रय आदि है, उसको आगम’ कहते हैं। वह ‘आगम’ भोगको अपेक्षा भी अधिक प्रबल माना गया है। स्वत्वका बोध करानेके लिये आगमसापेक्ष भोग ही प्रमाण है। परंतु पिता, पितामह आदिके क्रमसे जिस धनका उपभोग चला आ रहा है, उसको छोड़कर अन्य प्रकारके उपभोगमें ही आगमकी प्रबलता है; पूर्व-परम्परा-प्राप्त भोग तो आगमसे भी प्रबल है; परंतु जहाँ थोड़ा-सा भी उपभोग नहीं है, उस आगममें भी कोई बल नहीं है॥ ५३-५५३॥
विशुद्ध आगमसे भोग प्रमाणित होता है। जहाँ विशुद्ध आगम नहीं है, वह भोग प्रमाणभूत नहीं होता है। जिस पुरुषने भूमि आदिका आगम (अर्जन) किया है, वही ‘कहाँसे तुम्हें क्षेत्र आदिकी प्राप्ति हुई’-यह पूछे जानेपर लिखितादि प्रमाणोंद्वारा आगम (प्रतिग्रह आदि जनित अर्जन)-का उद्धार (साधन) करे। (अन्यथा वह दण्डका भागी होता है।) उसके पुत्र अथवा पौत्रको आगमके उद्धारकी आवश्यकता नहीं है। वह केवल भोग प्रमाणित करे। उसके स्वत्वकी सिद्धिके लिये परम्परागत भोग ही प्रमाण है॥५६-५७ ॥
जो अभियुक्त व्यवहारका निर्णय होनेसे पहले ही परलोकवासी हो जाय, उसके धनके उत्तराधिकारी पुत्र आदि ही लिखितादि प्रमाणोंद्वारा उसके धनागमका उद्धार (साधन) करें; क्योंकि उस व्यवहार (मामले)-में आगमके बिना केवल भोग प्रमाण नहीं हो सकता ॥५८३॥
जो मामले बलात्कारसे अथवा भय आदि उपाधिके कारण चलाये गये हों, उन्हें लौटा दे। इसी प्रकार जिसे केवल स्त्रीने चलाया हो, जो रातमें प्रस्तुत किया गया हो, घरके भीतर घटित घटनासे सम्बद्ध हो अथवा गाँव आदिके बाहर निर्जन स्थानमें किया गया हो तथा किसी शत्रुने अपने द्वेषपात्रपर कोई अभियोग लगाया हो-इस तरहके व्यवहारोंको न्यायालयमें विचारके लिये न ले-लौटा दे ॥ ५९॥
(अब यह बताते हैं कि किनका चलाया हुआ अभियोग सिद्ध नहीं होता-)जो मादक द्रव्य पीकर मत्त हो गया हो, वात, पित्त, कफ, सन्निपात अथवा ग्रहावेशके कारण उन्मत्त हो, रोग आदिसे | पीड़ित हो, इष्टके वियोग अथवा अनिष्टकी प्राप्तिसे दुःखमग्र हो, नाबालिग हो और शत्रु आदिसे डरा हुआ हो, ऐसे लोगोंद्वारा चलाया हुआ व्यवहार ‘असिद्ध’ माना गया है। जिनका अभियुक्त-वस्तुसे कोई सम्बन्ध न हो, ऐसे लोगोंका चलाया हुआ व्यवहार भी सिद्ध नहीं होता (विचारणीय नहीं समझा जाता) ॥ ६०३॥
यदि किसीका चोरोंद्वारा अपहृत सुवर्ण आदि धन शौल्किक (टैक्स लेनेवाले) तथा स्थानपाल आदि राजकर्मचारियोंको प्राप्त हो जाय और राजाको समर्पित किया जाय तो राजा उसके स्वामी धनाधिकारीको वह धन लौटा दे। यह तभी करना चाहिये, जब धनका स्वामी खोयी हुई वस्तुके रूप, रंग और संख्या आदि चिह्न बताकर उसपर अपना स्वत्व सिद्ध कर सके। यदि वह चिह्नों द्वारा उस धनको अपना सिद्ध न कर सके तो मिथ्यावादी होनेके कारण उससे उतना ही धन दण्डके रूपमें वसूल करना चाहिये। ६१६॥
राजाको चाहिये कि वह चोरोंद्वारा चुराया हुआ द्रव्य उसके अधिकारी राज्यके नागरिकको लौटा दे। यदि वह नहीं लौटाता है तो जिसका वह धन है, उसका सारा पाप राजा अपने ऊपर ले लेता है ॥ ६२ ॥
(अब ऋणादान-सम्बन्धी व्यवहारपर विचार करते हैं-) यदि कोई वस्तु बन्धक रखकर ऋण लिया जाय तो ऋणमें लिये हुए धनको भाग प्रतिमास ब्याज धर्मसंगत होता है; अन्यथा बन्धकरहित ऋण देनेपर ब्राह्राणदि वर्णोंके क्रमसे प्रतिशत कुछ-कुछ अधिक ब्याज लेना भी धर्मसम्मत है। अर्थात् ब्राह्मणसे जितना ले क्षत्रियसे, वैश्यसे सूद या वृद्धिकी रकम ली जा सकती हैं ॥ ६३॥
ऋणके रूपमें प्रयुक्त मादा पशुओंके लिये वृद्धिके रूपमें उसकी संतति ही ग्राह्य है। तेल, घी, आदि रसद्रव्य किसीके यहाँ चिरकालतक रह गया और बीचमें यदि उसकी वृद्धि (सूदवृद्धिकी रकम) नहीं ली गयी तो वह बढ़तेबढ़ते आठगुनातक हो सकती है। इससे आगे उसपर वृद्धि नहीं लगायी जाती। इसी प्रकार वस्त्र, धान्य तथा सुवर्ण—इनकी क्रमशः चौगुनी, तिगुनी और दुगुनीतक वृद्धि हो सकती है, इससे आगे नहीं ॥ ६४ ॥
व्यापारके लिये दुर्गम वनप्रदेशको लांधकर यात्रा करनेवाने लोग ऋणदाताको दस प्रतिशत ब्याज दें और जो समुद्रकी यात्रा करनेवाले हैं, वे बीस प्रतिशत वृद्धि प्रदान करें। अथवा सभी वर्णके लोग अबन्धक या सबन्धक ऋणमें अपने लिये धनके स्वामीद्वारा नियत की हुई वृद्धि सभी जातियांके लियें दें। ६५ ।
ऋण लेनेवाले पुरुषने पहले जो धन लिया है और जो साक्षी आदिके द्वारा प्रमाणित है, उसको वसूल करनेवाला धनी राजाके लिये वाच्य (निवारणीय) नहीं होता, अर्थात् राजा उस न्यायसंगत धनको वसूल करनेसे उस ऋणदाताको न रोके। (यदि वह अप्रमाणित या अदत्त धनकी वसूली करता है तो वह आवश्य राजाके द्वारा निवारणीय है।) जो पूर्वोक्त रूपसे न्यायसंगत धनकी वसूली करनेपर भी ऋणदाता के विरुद्ध शिकायत लेकर राजाके पास जाय, वह राजाके द्वारा दण्ड पानेके योग्य हैं। राजा उससे वह धन आवश्य दिlवावै ।। ६६ ॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें ‘व्यवहारकथन’ नामक दो साँ तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २५३ ॥
अध्याय-२५४ ऋणादान तथा उपनिधि-सम्बन्धी विचार
अग्रिदेव कहते हैं–वसिष्ठ! यदि ऋण लेनेवाले पुरुपके अनेक ऋणदाता साहु हों और वे सबके-सब एक ही जातिके हो तो राजा उन्हें ग्रहणक्रमके अनुसार ऋण लेनेवालेसे धन दिलवावे । अर्थात् जिस धनीने पहले ऋण दिया हो, उसे पहले और जिसने बादमें दिया हो, उसे बादमें ऋणग्राही पुरुष ऋण लौटाये। यदि ऋणदाता धनी अनेक जातिके हों तो ऋणग्राही पुरुष सबसे पहले ब्राह्मण-धनीको धन देकर उसके बाद क्षत्रिय आदि को देय-धन अर्पित करे। राजा की चाहिये कि वह ऋण लेनेवालेसे उसके द्वारा गृहीत धनके प्रमाणद्वारा सिद्ध हो जानेपर दस प्रतिशत धन दण्डके रूपमें वसूल करे तथा जिसने अपना धन वसूल कर लिया है, उस ऋणदाता पुरुषसे पाँच प्रतिशत धन ग्रहण कर लें और उस धनकों न्यायालयके कर्मचारियोंके भरण-पोषणमें लगावे ॥ १-२ ॥
यदि ऋण लेनेवाला पुरुष ऋणदाताकी अपेक्षा हीन जातिका हो और निर्धन होनेके कारण ऋणकी अदायगी न कर सके, तब ऋणदाता उससे उसके अनुरूप कोई काम करा ले और इस प्रकार उस ऋणका भुगतान कर ले। यदि ऋण लेनेवाला ब्राह्मण हो और वह भी निर्धन हो गया हो तों उससे कोई काम न लेकर उसे अवसर देना चाहिये और धीरे-धीरे जैसे-जैसे उसके पास आय हो, वैसे-वैसे (उसके कुटुम्बको कष्ट दिये बिना) ऋणकी वसूली करे। जो वृद्धिके लिये ऋणके रूपमें दिये हुए अपने धनको लोभवश ऋणग्राहीके लौटानेपर भी नहीं लेता है, उसके देय-धनको यदि किसी मध्यस्थके यहाँ रख दिया जाय तो उस दिनसे उसपर वृद्धि नहीं होतीं-ब्याज़ नहीं बढ़ता; परन्तु इस रखे हुए घनको भी ऋणदाताके माँगनेपर न दिया जाय तो उसपर पूर्ववत् ब्याज बढ़ता ही रहता हैं ॥ ३-४॥
दूसरेको द्रव्य जब खरीद आदिके बिना ही अपने अधिकार में आता है तो उसे ‘रिक्थ’ कहते हैं। विभागद्वारा जो उस रिक्थकों ग्रहण करता है, वह ‘रिक्थम्राह’ कहलाता है। जो जिसके द्व्यको रिक्थके रूपमें ग्रहण करता है, उससे उसके ऋणको भी दिलवाया जाना चाहिये। इसी तरह जो जिसकी स्त्रीको ग्रहण करता है, वही उसका ऋण भी दें। रिंक्थ-धनका स्वामी यदि पुत्रहींन हैं तो उसका ऋण वह कृत्रिम पुत्र चुकाचे, जो एकमात्र उसके धनपर जीवन-निर्वाह करता हैं। संयुक्त परिवारमें समूचे कुटुम्बके भरण-पोषणके लिये एक साथ रहनेवाले अहुत-से लोगोंने या उस कुटुम्बके एक-एक व्यक्तिने जो ऋण लिया हो, उसे इस कुटुम्बका मालिक है। यदि वह मर गया या परदेश चला गया तो उसके धनके भागीदार सभी लोग मिलकर वह ऋण चुकानें। पतिके किये हुए ऋणको स्त्री न दे, पुत्रके किये हुए ऋणको माता न दे, पिता भी न दे तथा स्त्रीके द्वारा किये गये ऋणको पति न दे; किंतु यह नियम समूचे कुटुम्बके भरण-पोषणके लिये किये गयें ऋणपर लागू नहीं होता है। ग्वालें, शराब बनानेवाले, नट, धोनी तथा व्याधकी स्त्रियोंने जो ऋण लिया हो, उसे उनके पति अवश्य दें; क्योंकि इनकी वृत्ति (जीविका) उन स्त्रियोंके ही अधीन होती हैं। यदि पति मुमूर्य हो या परदेश जानेवाला हो, उसके द्वारा नियुक्त स्त्रीने जो ऋण लिया हो, वह भी यद्यपि पतिका ही किया हुआ ऋण है, तथापि उसे पत्नीको चुकाना होगा; अथवा पतिके साथ रहकर भार्याने जो ऋण किया हो, वह भी पति और पुत्रके अभाबमें उस भार्याको ही चुकाना होगा; जो ऋण स्त्रीने स्वयं किया हो, उसकी देनदार तो यह हैं हीं। इसके सिंज्ञा दूसरे किसी प्रकारके पतिकृत ऋणको चुकानेका भार स्त्रीपर नहीं है ।। ५-६ ॥
यदि पिता ऋण करके बहुत दूर परदेशमें चला गया, मर गया अथवा किसी बड़े भारी संकटमें फँस गया तो उसके ऋणको पुत्र और पौत्र चुकावें। (पिताके अभावमें पुत्र और पुत्रके अभावमें पौत्र उस ऋणकी अदायगी करे। यदि वे अस्वीकार करें तो अर्थी न्यायालयमें अभियोग उपस्थित करके साक्षी आदिके द्वारा उस ऋणकी यथार्थता प्रमाणित कर दें। उस दशामें तौ पुत्र पौत्रोंको वह ऋण देना ही पड़ेगा। जो ऋण शराब पीनेके लिये लिया गया हो, परस्त्री-लम्पटताके कारण कामभोगके लिये किया गया हो, जूएमें हारनेपर जो ऋण लिया गया हो, जो धन दण्ड और शुल्कका शेष रह गया हो तथा जो व्यर्थका दान हो, अर्थात् धूत और नट आदिको देनेके लिये किया गया हो, इस तरह पैतृक ऋणको पुत्र कदापि न दें। भाइयों, पति-पत्नी तथा पिता-पुत्रकै अविभक्त धनमें ‘प्रातिभाव्य’ ऋण और साक्ष्य नहीं माना गया हैं ॥ १०-१२ ॥
विश्वासके लिये किसी दूसरे पुरुषके साथ जो समय-शर्त या मर्यादा निश्चित की जाती हैं, उसका नाम हैं-प्रातिभाव्य’। यह विषय-भैदसैं तीन प्रकारका होता है। जैसे == (१) दर्शनविषयक प्रतिभाव्य । अर्थात् कोई दूसरा पुरुष यह उत्तरदायित्व लें कि जब-जब आवश्यकता होगी, ताब-तब इस व्यक्तिको मैं न्यायालयके सामने उपस्थित कर दूंगा अर्थात् दिखाऊँगा -हाजिर कर दूंगा। (‘दर्शन-प्रतिभू’ को आजकलकी भाषामें ‘हाजिर-जामिन’ कहते हैं।) (३) प्रत्ययविषयक प्रातिभाच्य। ‘प्रत्यय’ कहते हैं विश्वासको ‘विश्वास-प्रतिभू’को ‘विश्वास-जामिन’ कहा जाता है। जैसे कोई कहे कि आप मेरे विश्वासपर इसको धन दीजिये, यह आपको ठगेगा नहीं; क्योंकि यह अमुकका बेटा है। इसके पास उपजाऊ भूमि हैं और इसके अधिकारमें एक बड़ा-सा गाँव भी हैं’ इत्यादि। (३) दानविषयक प्रातिभाव्य। ‘दान-प्रतिभू’को ‘माल-जामिन’ कहते हैं। ‘दान-प्रतिभू’ यह जिम्मेदारी लेता है कि ‘यदि यह लिया हुआ धन नहीं देगा तो मैं स्वयं ही अपने पाससे दूंगा’–इत्यादि। इस प्रकार दर्शन (उपस्थिति), प्रत्यय (विश्वास) तथा दान (वसूली)-के लिये प्रातिंभाव्य किया जाता है—जमिन देनेकी आवश्यकता पड़ती है। इनमेसे प्रथम दों, अर्थात् “दर्शन-प्रतिभू’ और ‘विश्वास-प्रतिभू-इनको बात झूठी होनेपर, स्वयं धनी ऋण चुकानेके लिये विवश है, अर्थात् राजा उनसे धनीको वह धन अवश्य दिलवावे; परंतु ज्ञों तीसरा ‘दान-प्रतिभू’ हैं, उसकी बात झूठीं होनेपर वह स्वयं तो उस धनको लौटानेका अधिकारी हैं ही, किंतु यदि बिना लौटाये ही विलुप्त हो जाय तो उसके पुत्रोंसे भी उस धनकी वसूली की जा सकती है। जहाँ ‘दर्शन-प्रतिभू’ अथवा ‘विश्वास-प्रतिभू’ परलोकवासी हो जायें, वहाँ उनके पुत्र उनके दिलाये हुए ऋणको न दें; परंतु जो स्वयं लौटा देनेके लिये जिम्मेदारी ले चुका है, वह ‘दान-प्रतिभू’ यदि मर जाय तो उसके पुत्र अवश्य उसके दिलाये हुए ऋणको दें। यदि एक ही धनको दिलानेके लिये बहुत-से प्रतिभू (जामिनदार) बन गये हों, तो उस धनके न मिलनेपर, वे सभी उस ऋणको बाँटकर अपने-अपने अंशसे चुकावें। यदि सभी प्रतिभू एक-से ही हों, अर्थात् जैसे ऋणग्राही सम्पूर्ण धन लौटानेको उद्यत रहा है, उसी प्रकार प्रत्येक प्रतिभु यदि सम्पुर्ण धन लौटाने लिये प्रतिज्ञाबद्ध हो तो धनी पुरुष अपनी कुचिके अनुसार इनमेंसे किसी एकसे ही अपना सारा धन वसूल कर सकता हैं। ऋण देनेवाले धनीके द्वारा दबाये ज्ञानेपर प्रतिभू राजाके आदेशसे सबके सामने उसे धनीको जो धन देता है, इससे दूना धन ऋण लेनेवाले लोग उस प्रतिभूको लौटावें ॥ १३-१६ ॥
मादा पशुओंको यदि मणके रूपमें दिया गया हो तो उस धनकी वृद्धिके रूपमें केवल उनकी संतति ली जा सकती हैं। धान्यकी अधिक-से-अधिक वृद्धि तीनगुनेतक मानी गयी है। वस्त्र वृद्धिके क्रमसे बढ़ता हुआ चौगुना तथा रस ( घी, तेल आदि) अधिक-से-अधिक आगुनातक हो सकता हैं। यदि कोई वस्तु बन्धक रखकर ऋण लिया गया हो और उस ऋणकी रकम ब्याजके द्वारा बढ़ते-बढ़ते दूनी हो गयी हो, उस देशामें भी ऋणग्राही यदि सारा धन लौटाकर उस वस्तुको छुड़ा नहीं लेता है, तो वह वस्तु नष्ट हो जाती हैं—उसके हाथसे निकलकर ऋणदाताकी अपनी वस्तु हो जाती है। जो धन समय-विशेषपर वह लौटाने की शर्तपर लिया जाता हैं और उसके लिये कोई ज़ेवर आदि बन्धक रखा जाता है, वह समय बीत ज्ञानेपर वह बन्धक नष्ट हो जाता हैं, फिर वापस नहीं मिलता। परंतु जिसका फलमात्र भौगनेकै योग्य होता है, वह बगीचा या खेत आदि अन्धककै रूपमें रखा गया हो तो वह कभी नष्ट नहीं होता; उसपर मालिकको स्वत्व बना ही रहता है ॥ १७-१८ ॥
यदि कोई गोपनीय आधि (बन्धकमें रखी हुई वस्तु-ताँबंकी काहीं आदि) ऋणदाताके उपभोगमें आये तो उसपर दिये हुए धनके लिये ब्याज नहीं लगाया जा सकता। यदि बन्धकमें कोई उपकारी प्राणी (बैल आदि) रखा गया हों और उसके काम लेकर उसकी शक्ति क्षीण कर दी गयी हो तो उसपर दिए गये ऋणके ऊपर वृद्धि नहीं जोड़ी जा सकती। यदि बन्धककी वस्तु नष्ट हो जाय-टूट-फूट जाय तो उसे ठीक कराकर लौटाना चाहिये और यदि वह सर्वथा विलुप्त (नष्ट) हो जाय तो उसके लिये भी उचित मूल्य आदि देना चाहिये। यदि दैव अथवा राजाके प्रकोपसे वह वस्तु नष्ट हुई हो तो उसपर उक्त नियम लागू नहीं होता। उस दशामें ऋणग्राही धनीको वृद्धिसहित धन लौटाये अथवा वृद्धि रोकनेके लिये दूसरी कोई वस्तु बन्धक रखे। ‘आधि’ चाहे गोप्य हो या भोग्य, उसके स्वीकार (उपभोग)-मात्र से आधि-ग्रहणकी सिद्धि हो जाती है। उस आधिकी प्रयत्नपूर्वक रक्षा करने पर भी यदि वह कालवश निस्सार हो जाय-वृद्धिसहित मूलधनके लिये पर्यात न रह जाय तो ऋणग्राहीको दूसरी कोइ वस्तु आधिके रूपमें रखनी चाहिये अथवा धनीकों उसका धन लाँटा देना चाहिये ॥ १९-१० ॥
सदाचारको ही बन्धक मानकर उसके द्वारा जो द्रव्य अपने या दूसरे के अधीन किया जाता है, उसको ‘चरित्र-बन्धककृत’ धन कहते हैं”। ऐसे धनको ऋणग्राही वृद्धिसहित धनीको लौटावे या राजा ऋणग्राहीसे धनीकी वृद्धिसहित वह धन दिलवाये। यदि ‘सत्यङ्कारकृत’ द्रव्य बन्धक रखा गया हो तो धनीको द्विगुण धन लौटाना चाहिये। तात्पर्य यह कि यदि बन्धक रखतें समय ही यह बात कह दी गयीं हो कि ‘ऋणकी रकम बढ़तेयढ़ते दूनी हो जाय तो भी मैं दूना द्रव्य ही दूँगा। मेरी बन्धक रखी हुई वस्तुपर धनीका अधिकार नहीं होगा”-इस शर्तके साथ जो ऋण लिया गया हो वह ‘सत्यङ्कारकृत’ द्रव्य कहलाता है। इसका एक दूसरा स्वरूप भी है। क्रय-विक्रय आदिकी व्यवस्था (मर्यादा)-के निर्वाहके लिये जो दूसरेके हाथमें कोई आभूषण इस शर्तके साथ समर्पित किया जाता है कि व्यवस्था-भङ्ग करनेपर दुगुना धन देना होगा, उस दशा में जिसने वह भूषण अर्पित किया हैं, यदि वही व्यवस्था भङ्ग करे तो उसे वह भूषण सदाके लिये छोड़ देना पड़ेगा। यदि दूसरी ओरसे व्यवस्था भङ्ग की गयी तो उसे उस भूषणको द्विगुण करके लौटाना होगा। यह भी ‘सत्यङ्कारकृत’ ही द्रव्य है। यदि धन देकर बंधक छुड़ानेके लिये ऋणग्राही उपस्थित हो तो धनदाताको चाहिये कि वह उसका बन्धक लौंटा दे। यदि सूदके लोभसे वह बंधक लौटानेमें आनाकानी करता या विलम्ब लगाता है तो वह चोरकी भाँति दण्डनीय हैं। यदि धन देनेवाला कहीं दूर चला गया हो तो उसके कुलके किसी विश्वसनीय व्यतिके हाथमें वृद्धिसहित मूलधन रखकर ऋणग्राही अपना अन्धक वापस ले सकता है। अथवा उस समयतक उस बन्धकको छुड़ानेका जो मूल्य हो, वह निश्चित करके उस बन्धकको धनी के लौटनेतक उसीके यहाँ रहने दे, उस दशा में उस घनपर आगे कोई बृद्धि नहीं लगायी जा सकतीं। यदि ऋणग्राही दूर चला गया हो और नियत समय तक न लौटे तो धनी ऋणग्राहीके विश्वसनीय पुरुषों और गवाहोंके साथ उस बन्धकको बेचकर अपना प्राप्तव्य धन लें लें (यदि पहले बताये अनुसार ऋण लेते समय ही केवल द्रव्य लौटानेकीं शर्त हो गयी हो, तव बन्धक को नहीं बेचा या नष्ट किया जा सकता हैं)। जब किया हुआ ऋण अपनी वृद्धिके क्रमसे दूना होकर आधिपर चढ़ जाय और धनिकको आधिसे दूना धन प्राप्त हो गया हो तो वह आधिको छोड़ दे। (ऋणाग्राहीकी लौटा दे) ॥ २१-२४ ॥
“उपनिधि-प्रकरण’-यदि निक्षेप-द्रव्यके आधारभूत वासन या पेटी आदिमें धरोहरकी वस्तु रखकर उसे सील-मोहरसहित बन्द करके वस्तुका स्वरूप या संख्या बताये बिना ही विश्वास करके किसी दूसरेके हाथमें रक्षाके लिये उसे दिया जाता है तो उसे ‘उपनिधि-द्रव्य’ कहते हैं। उसे स्थापक के माँगनेपर ज्यों-का-क्यों लौटा देना चाहिये। यदि उपनिधिकी वस्तु राजाने बलपूर्वक ले ली हो या दैवी बाधा (आग लगने आदि)-से नष्ट हुई हो, अथवा उसे चोर चुरा ले गये हों तो जिसके यहाँ वह वस्तु रखी गयी थी, उसको वह वस्तु देने या लौटानेके लिये बाध्य नहीं किया जा सकता। यदि स्वामीने उस वस्तुको माँगा हो और धरोहर रखनेवालेने नहीं दिया हो, उस दशा में यदि राजा आदिकी बाधासे उस वस्तुका नाश हुआ हो तो रखनेवाला उस वस्तुके अनुरूप मूल्य मालधनीको देनेके लिये विवश किया जा सकता है और राजाको उससे उतना ही दण्ड दिलाया जाय। जो मालधनीकी अनुमति लिये बिना स्वेच्छासे उपनिधिकी वस्तुको भोगता या उससे व्यापार करता है, वह दण्डनीय हैं। यदि उसने उस वस्तुका उपभोग किया है तो वह सूदसहित उस वस्तुको लौटाये और यदि व्यापारमें लगाकर लाभ उठाया है तो लाभसहित वह वस्तु मालधनीको लौटाये और उतना ही दण्ड राजाकों दे। याचित, अन्वाहित, न्यास’ और निक्षेप’. आदिमें यह उपनिधि-सम्बन्धी विधान ही लागू होता है। २५-२८ ॥
दो सौ चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २५४ ॥
अध्याय-२५५ साक्षी, लेखा तथा दिव्यप्रमाणोंके विषयमें विवेचन
‘साक्षी-प्रकरण’
अग्निदेव कहते हैं-बसिष्ठ! तपस्वी, कुलीन, दानशील, सत्यवादी, कोमलहृदय, धर्मात्मा, पुन्ययुक्त, धनी, पञ्चयज्ञ आदि वैदिक क्रियाओंसे युक्त अपनी जाति और वर्गके पाँच या तीन साक्षी होने चाहिये। अथवा सभी मनुष्य सबके साक्षी हो सकते हैं, किंतु स्त्री, बालक, वृद्ध, जुआरी, मत्त (शराव आदि पीकर मतवाला), उन्मत्त (भूत या ग्रहके आवेशसे युक्त), अभिशस्त (पातकी), रंगमञ्चपर उतरनेवाला चारण, पाखण्डी, कूटकारी (जालसाज), विकलेन्द्रिय (अंधा, बहरा आदि), पतित, आप्त (मित्र या सगे-सम्बन्धी), अर्थ-सम्बन्धी (विवादास्पद अर्थसे सम्बन्ध रखनेवाला), सहायक शत्रु, चोर, साहसी (दुस्साहसपूर्ण कार्य करनेवाला). दृष्टदोष (जिसका पूर्वापर-विरुद्ध बोलनेका स्वभाव देखा गया हो, वह) तथा निर्धुत (भाई-बन्धुओंसे परित्यक्त) आदि साक्षी बनानेयोग्य नहीं हैं। वादी और प्रतिवादी-दोनोंके मान लेनेपर एक भी धर्मवेत्ता पुरुष साक्षी हो सकता है। किसी स्त्रीको बलपूर्वक पकड़ लेना, चोरी करना, किसीको कटुवचन सुनाना या कठोर दण्ड देना तथा हत्या आदि दु:साहसपूर्ण कार्य करना-इन अपराधोंमें सभी साक्षी बनाये जा सकते हैं।॥ १-५ ॥
जो मनुष्य साक्षी होना स्वीकार करके तीन पक्षके भीतर गवाही नहीं देता है, राजा छियालीसवें दिन उससे सारा ऋण सूदसहित वादीको दिलावे और अपना दशांश भाग भी उससे वसूल करे। जो नराधम जानते हुए भी साक्षी नहीं होता, वह कूटसाक्षी (झूठी गवाही देनेवालों)-के समान दण्ड और पापका भागी होता है। न्यायाधिकारी वादी एवं प्रतिवादीके समीप-स्थित साक्षियोंकों यह वचन सुनावे-‘पातकियों और महापातकियोंको तथा आग लगानेवालों और स्त्री एवं बालकोंकी हत्या करनेवालोंको जो लोक (नरक) प्राप्त होते हैं, झूठी गवाही देनेवाला मनुष्य उन सभी लोकों (नरकों)-को प्राप्त होता है। तुमने सैकड़ों जन्मोंमें जो कुछ भी पुण्य अर्जित किया है, वह सब उसीको प्राप्त हुआ समझों, जिसे तुम असत्यभाषणसे पराजित करोगे।’ साक्षियोंकी बातोंमें द्विविधा (परस्पर विरुद्धभाव) हो तो उनमेंसे बहुसंख्यक साक्षियोंका वचन ग्राह्म होता है। यदि समान संख्यावाले साक्षियोंकी बातोंमें विरोध हो, अर्थात् जहाँ दो एक तरहकी बात कहते हों और दो दूसरे तरहकी बात, वहाँ गुणवानोंकी बातको प्रमाण मानना चाहिये। यदि गुणवानोंकी बातोंमें भी विरोध उपस्थित हो तो उनमें जो सबसे अधिक गुणवान हो, उसकी बातको विश्वसनीय एवं ग्राह्य माने। साक्षी जिसकी प्रतिज्ञा (दावा)-की सत्य बतायें, वह विजयी होता है। वे जिसके दावेकों मिथ्या बतलायें, उसकी पराजय निश्चित है।॥ ६-११३ ॥
साक्षियोंके साक्ष्य देनेपर भी यदि गुणोंमें इनसे श्रेष्ठ अन्य पुरुष अथवा पूर्वसाक्षियोसे दुगुने साक्षी उनके साक्ष्यको असत्य बतलावें तो पूर्वसाक्षी कूट (झूठे) माने जाते हैं। उन लोगोंको, जो कि धनका प्रलोभन देकर गवाहोंको झुठी गवाही देनेके लिये तैयार करते हैं तथा जो उनके कहनेसे झूठी गवाही देते हैं, उनको भी पृथक्-पृथक् दण्ड दे। विवादमें पराजित होनेपर जो दण्ड बताया गया है, उससे दूना दण्ड झूठी गवाही दिलानेवाले और देनेवालेसे वसूल करना चाहिये। यदि दण्डका भागी ब्राह्मण हों तो उसे देशसे निकाल देना चाहिये। जो अन्य गवाहोंके साथ गवाही देना स्वीकार करके, उसका अवसर आनेपर रागादि दोषोंसे आक्रान्त हो अपने साक्षीपनकों दूसरे साक्षियोंसे अस्वीकार करता है, अर्थात् यह कह देता है कि ‘मैं इस मामलेमें साक्षी नहीं हूँ, वह विवादमें पराजय प्राप्त होनेपर जो नियत दण्ड है, उससे आठगुना दण्ड़ देनेका अधिकारी है। उससे उतना दण्ड वसूल करना चाहिये। परंतु जो ब्राह्मण उतना दण्ड देने में असमर्थ हो, उसको देशसे निर्वासित कर देना चाहिये। जहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्रके वधकी सम्भावना हो, वहाँ (उनके रक्षार्थ ) साक्षी झूठ बोले (कदापि सत्य न कहे। यदि किसी हत्यारेके विरुद्ध गवाही देनी ही ती सत्य ही कहना चाहिये) ॥१२-१५ ॥
लेखा–प्रकरण
धनी और अधमर्ण (साहु और खदुका)-के वीच जो सुवर्ण आदि द्रव्य परस्पर अपनी ही रूचिसे इस शर्तके साथ कि ‘इतने समयमें इतना देना है और प्रतिमास इतनी वृद्धि चुकानी है’, व्यवस्थापूर्वक रखा जाता हैं, उस अर्थको लेकर कालान्तर में कोई मतभेद या विवाद उपस्थित हो जाय तो उसमें वास्तविक तत्वका निर्णय करनेके लिये कोइ लेखापत्र तैयार कर लेना चाहिये। उसमें पूर्वोत योग्यतावाले साक्षी रहें और धनी (साहु)-का नाम भी पहले लिखा गया हो। लेखामें संवत् मास, पक्ष, दिन, तिथि, साहु और खदुकाके नाम, जाति तथा गोत्र के उल्लेखके साथ-साथ शाखा-प्रयुक्त गौण नाम (बह्र.च, कठ आदि) तथा धनीं और ऋणों के अपने-अपने पिताके नाम आदि लिखें रहने चाहिये। लेखा में वाञ्छनीय विषयका उल्लेख पूर्ण हो जानेपर ऋण लेनेवाला अपने हाथ से लेखापर यह लिख दे कि ‘अमुकका पुत्र मैं अमुक इस लेखामें जो लिखा गया है, उससे सहमत हूँ।” तदनन्तर साक्षी भी अपने हाथसे यह लिखे कि ‘आज मैं अमुकका पुत्र अमुक इस लेखाका साक्षी होता हूँ।’ साक्षी सदा समसंख्या (दो या चार)-में होने चाहिये। लिपिज्ञानशून्य ऋणी अपनी सम्मति किसी दुसरे व्यक्ति से लिखवा ले और अपढ़ साक्षी अपना मत सव साक्षियोंके समीप दूसरे साक्षीसे लिखवाये। अन्त में लेखक (कातिब) यह लिख दे कि ‘आज अमुक धनी और अमुक ऋणीके कहनेपर अमुकके पुत्र मुझ अमुकने यह लेखा लिखा।’ साक्षियोंके न होनेपर भी ऋणीके हाथका लिखा हुआ लेखा पूर्ण प्रमाण माना जाता है, किंतु वह लेखा बल अथवा छलके प्रयोगसे लिखवाया गया न हो। लेखा लिखकर लिया हुआ ऋण तीन पीढ़ियोंतक ही देय होता है, परंतु बन्धककी वस्तु तबतक धनीके उपभोगमें आतीं हैं, जबतक कि लिया हुआ ऋण चुका नहीं दिया जाता है। यदि लेखापत्र देशान्तरमें हों, उसकी लिखाबट दोषपूर्ण अथवा संदिग्ध हो, नष्ट हो गया हो, घिस गया हो, अपहृत हो गया हो, छिन्न-भिन्न अथवा दग्ध हो गया हो, तव धनी ऋणीकी अनुमतिसे दूसरा लेखा तैयार करवावे। संदिग्ध लेखकी शुद्धि स्वहस्तलिखित आदिसे होती हैं, अर्थात् लेखक अपने हाथसे दूसरा लेखा लिखकर दिखावे। जब दोनोंके अक्षर समान हों, तब संदेह दूर हो जाता हैं। ‘आदि” पदसे यह सूचित किया गया है कि साक्षी और लेखकसे दूसरा कुछ लिखवाकर यह देखा जाय कि दोनों लेखोंके अक्षर मिलते हैं या नहीं। यदि मिलते हों तो पूर्वलेखाके शुद्ध होनेमें कोई संदेह नहीं रह जाता है।
युक्तिप्राप्ति, क्रिया, चिह्न, सम्बन्ध’ और आगम-इन हेतुओंसे भी लेखाकी शुद्धि होती है।
ऋणी जब-जब ऋणका धन धनीकों दे, तब-तब लेखापत्रकी पीठपर लिख दिया करे। अथवा धनी जब-जब जितना धन पावे, तब-तब अपने हाथ से लेखाकी पीठपर उसको लिखकर अङ्कित कर दे। ऋणी जब ऋण चुका दे तो लेखाको फाड़ डाले, अथवा (लेखा किसी दुर्गम स्थानमें हो या नष्ट हो गया, तो) ऋणशुद्धिके लिये धनीसे भरपाई लिखवा ले। यदि लेखापत्रमें साक्षियोंका उल्लेख हो तो उनके सामने ऋण चुकावे ॥ १६-२७ ॥
दिव्य-प्रकरण
तुला, अग्रि, जल, विष तथा कोष-ये पाँच दिव्य प्रमाण धर्मशास्त्र में कहे गये हैं, जो संदिग्ध अर्थक निर्णय अथवा संदेहकी निवृत्तिके लिये देने चाहिये। जब अभियोग बहुत बड़े हों और अभियोक्ता परले सिरेपर, अर्थात् व्यवहारके जय-पराजयलक्षण चतुर्थपाद में पहुँच गया हो, तभी इन
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यदि लौहपिण्ड बीच में ही गिर पड़े या कोई संदेह हो तो शपथकर्ता पूर्ववत् लौहपिण्ड लेकर चले ॥ ४०-४२ ॥
जल-दिव्य
जलका दिव्य ग्रहण करनेवालेको निमंलिखित रूपसे वरुणदेवकी प्रार्थना करनी चाहिये-‘वरुण! आप पवित्रोंमें भी पवित्र है और सबको पवित्र करनेवाले हैं। मैं शुद्धिके योग्य हूँ। मेरी शुद्धि कीजिये ॥ सत्यके बलसे मेंरी रक्षा कीजिये।”- इस प्रार्थना-मन्त्रसे जलको अभिमन्त्रित करके वह मनुष्य नाभिपर्यन्त जलमें खड़े हुए पुरुषकी जंधा पकड़कर जलमें डूबे। उसी समय कोई व्यक्ति बाण चलावे। जबतक एक वेगवान् मनुष्य उस छूटे हुए बाणकों ले आवे, तबतक यदि शपथकर्ता जलमें डूबा रहे तो वह शुद्ध होता है*॥४३-४४ ॥
विघ-दिव्य
विषका दिव्य-प्रमाण ग्रहण करनेवाला इस प्रकार विषकी प्रार्थना करे-“विष! तुम ब्रह्माके पुत्र हो और सत्यधर्ममें अधिष्ठित हो, इस कलङ्कसे मेरी रक्षा एवं सत्यके प्रभावसे मेरे लिये अमृतरूप हो जाओ।”-ऐसा कहकर शपथकर्ता हिमालय पर उत्पन्न शाङ्ग विषका भक्षण करे। यदि विष बिना वेग के पच जाय, तो न्यायाधिकारी उसकी शुद्धिका निर्देश करें ॥ ४५-४६ ॥
कोश-दिव्य
कोश-दिव्य लेनेवालाके लिये न्यायाधिकारी उग्र देवताओंका पूजन करके उनके अभिषेकका जल ले आवे । फिर शपथकर्ताको यह बतलाकर उसमें से तीन पसर जल पिला दे। यदि चौदहवें दिन तक राजा अथवा देवता से घोर पीड़ा न प्राप्त हो, तो वह नि:संदेह शुद्ध होता है। ४७-४८ ई॥
अल्प मूल्यवाली वस्तुके अभियोग में संदेह उपस्थित होनेपर सत्य, वाहन, शस्त्र, गौ, बीज, सुवर्णं, देवता, गुरुचरण एवं इष्टापूर्तं आदि पुण्यकर्म इनकी सहजसाध्य शपथ विहित है।॥ ४९-५० ॥
दो सौ पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २५५ ॥
अध्याय-२५६ पैतृक धनके अधिकारी; पत्रियोंका धनाधिकार; पितामहके धनके अधिकारी; विभाज्य और अविभाज्य धन; वर्णक्रमसे पुत्रोंके धनाधिकार; बारह प्रकारके पुत्र और उनके अधिकार; पत्नी-पुत्री आदिके, संसृष्टीके धनका विभाग; क्लीब आदिका अनधिकार; स्त्रीघन तथा उसका विभाग
दाय-विभाग-प्रकरण
(‘दाय” शब्दसे वह धन समझना चाहिये, जिसपर स्वामीके साथ सम्बन्धके कारण दूसरोंका स्वत्व हो जाता हैं। ‘दाय” के दो भेद हैं — ‘अप्रतिबन्ध” और ‘सप्रतिबन्ध’। पुत्रों और पौत्रोंका पुत्रत्व और पौत्रोत्वके कारण पिता और पितामहके धनपर अनायास ही स्वत्व होता है, इसलिये वह ‘अप्रतिबन्ध दाय’ है। चाचा और भाई आदिकों पुत्र और स्वामीके अभाव में धनपर अधिकार प्राप्त होता हैं, इसलिये वह ‘सप्रतिबन्ध दाय’ है। इसी प्रकार उनके पुत्र आदिके लिये भी समझ लेना चाहिये। जिसके अनेक स्वामी हैं, ऐसे धनको बाँटकर एक-एकके अंशको पृथकृपृथक् व्यवस्थित कर देना ‘विभाग’ कहलाता है। इस अध्याय में दाय-विभाग और स्वत्वपर विचार किया गया हैं, जो धर्मशास्त्रकारों एवं महर्षियोंको अभिमत है।)
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ! यदि पिता अपने जीवनमें सब पुत्रोंमें धनका विभाजन करे तो वह इच्छानुसार ज्येष्ठ पुत्रको श्रेष्ठ भाग दे या सव पुत्रोंको समांश भागी बनाये। यदि पिता सब पुत्रोंको समान भाग दे, तो अपनी उन स्त्रियोंको भी समान भाग दें, जिनको पति अथवा सशुरकी ओरसे स्त्रीधन न मिला हो। जो पुत्र धनोपार्जनमें समर्थ होनेके कारण पैतृक धनकी इच्छा न रखता हो, उसे भी थोड़ा-बहुत धन देकर विभाजनका कार्य पूर्ण करना चाहिये। पिता के द्वारा दिया हुआ न्यूनाधिक भाग, यदि धर्मसम्मत है, तो वह पितृकृत होनेसे निवृत्त नहीं हो सकता, ऐसा स्मृतिकारोंका मत है।
माता-पिताकी मृत्युके पश्चात् पुत्र पिताके धन और् ऋणको बराबरबराबर बाँट लें । माताद्वारा लिये गये ऋणको चुकानेके बाद बचा हुआ मातृधन पुत्रियाँ आपसमें बाँट लें”। उनके अभावमें पुत्र आदि उस धनका विभाग कर लें।
पैतृक धनको हानि न पहुँचाकर जो धन स्वयं उपार्जित किया गया हो, मित्रसे मिला हो और विवाहमें प्राप्त हुआ हो, भाई आदि दायाद उसके अधिकारी नहीं होते। यदि सब भाईयोंने सम्मिलित रहकर घनकी वृद्धि की ही तो उस धनमें सबका समान भाग माना जाता है। १-५ ई॥
(यहाँतक पैतृक सम्पत्तिमें पुत्रोंका विभाग किस प्रकार हो, यह बतलाया गया। अब पितामह के धनमें पौत्रोंका विभाग कैसे हो, इस विषयमें विशेष बात बताते हैं- )
यद्यपि पितामह के धनमें पौत्रोंका पुत्रोंके समान जन्मसे ही स्वत्व है, तथापि यदि वे पौत्र अनेक पितावाले हैं तो उनके पिताओंको द्वार बनाकर ही पितामहके द्रव्यका विभाजन होगा। सारांश यह कि यदि संयुक्त परिवारमें रहते हुए ही अनेक भाई अनेक पुत्रोंको उत्पन्न करके परलोकवासी हो गये और उनमेंसे एकके दो, दूसरेके तीन और तीसरे के चार पुत्र हों, तो उन संख्याके अनुसार होगा। जिसके दो पुत्र हैं, उसे अपने पिताका एक अंश प्राप्त हैं, जिसके तीन पुत्र हैं, उसे भी अपने पिताका एक अंश प्राप्त होगा और जिसे चार हैं, उसे भी अपने पिताका एक ही अंश मिलेगा। पितामहद्वारा अर्जित भूमि, निबन्ध और द्रव्यमें पिता और पुत्र दोनोंका समान स्वामित्व है। धनका विभाग होनेके बाद भी सवर्णा स्त्रीमें उत्पन्न हुआ पुत्र विभागका अधिकारी होता है। अथवा आय और व्ययका संतुलन करनेके बाद दृश्य धनमें उसका विभाग होता है।
पिता-पितामह आदिके क्रमसे आया हुआ जो द्रव्य दूसरोंने हर लिया हो और असमर्थतावश पिता आदिने उसका उद्धार नहीं किया हों, उसे पुत्रोंमेंसे एक कोई भी पुत्र अन्य बन्धुओंकी अनुमति लेकर वदि अपने प्रयाससे प्राप्त कर ले तो वह उस धनकी स्वयं ले ले, अन्य दायादोंको न बाँटे। परंतु खेतका उद्धार करनेपर उद्धारकर्ता उसका चौथाई अंश स्वयं ले, शेष भाग सब भाइयोंकी बराबर-बराबर बाँट दे। इसी तरह विद्यासे (शास्त्रोंको पढ़ने-पढ़ाने या उसकी व्याख्या करनेसे) जो धन प्राप्त हो, उसको भी दायादोंमें न बाँटे। मातापिता अपनी जो वस्तु जिसे दे दें, वह उसीका धन होगा। यदि पिताके मरनेपर पुत्रगण पैतृक धनका विभाजन करें तो माता भी पुत्रोंके समान भागकी अधिकारिणी होती है। विभाजनके समय जिन भाइयोंके विवाह आदि संस्कार न हुए हों, उनके संस्कार वे भाई, जिनके संस्कार पहले हों चुके हैं, संयुक्त धनसे करें। अविवाहिता बहिनोंके भी विवाह-संस्कार सब भाई अपने भाग का चतुर्थाश देकर करें।
ब्राह्मणसे ब्राह्मणी आदि विभिन्न वर्णोंकी स्त्रियोंमें उत्पन्न हुए पुत्र वर्णक्रमसे चार, तीन, दो और एक भाग प्राप्त करें। इसी प्रकार क्षत्रियसे क्षत्रिया आदि में उत्पन्न तीन, दो एवं एक भाग और वैश्यसे वैश्यजातीय एवं शूद्रजातीय स्त्रीमें उत्पन्न पुत्र क्रमश: दो और एक अंशके अधिकारी होते हैं।
धनविभाग के पश्चात् जो धन भाइयोंद्वारा एक-दूसरे से अपहृत किया गया दृष्टिगोचर हो, उसे सब भाई पुन: समान अंशोंमें विभाजित कर लें, यह शास्त्रीय मर्यादा है।
पुत्रहीन पुरुषके द्वारा दूसरेके क्षेत्रमें नियोगकी विधिसे उत्पन्न पुत्र धर्मके अनुसार दोनों पिताओंके धन और पिण्डदानका अधिकारी है || ६-१४ ॥
अपने समान वर्णकी स्त्री जब धर्मविवाहके अनुसार ब्याहकर लायी जाती है तो उसे ‘धर्मपत्नी’ कहते हैं। अपनी धर्मपत्नीसे स्वकीय वीर्यद्वारा उत्पादित पुत्र ‘औरस’ कहलाता है। यह सब पुत्रोंमें मुख्य है। दूसरा ‘पुत्रिकापुत्र’ है। यह भी औरसके ही समान हैं।
अपनी स्त्रीके गर्भसे किसी सगोत्र या सपिण्ड पुरुषके द्वारा अथवा देवरके द्वारा उत्पन्न पुत्र ‘क्षेत्रज’ कहलाता है।
पतिके घरमें छिपे तौरपर जो सजातीय पुरुषसे उत्पन्न होता है, वह ‘गूढ़ज’ माना गया है।
अविवाहिता कन्यासे उत्पन्न पुत्र ‘कानीन’ कहलाता है। वह नानाका पुत्र माना गया है।
जो अक्षतयोनि अथवा क्षतयोनिकी विधवासे सजातीय पुरुषद्वारा उत्पन्न पुत्र है, उसको ‘पौनर्भव’ कहते हैं।
जिसे माता अथवा पिता किसीको गोद दे दें, वह ‘दत्तक’ पुत्र कहा गया है।
जिसे किसी माता-पिताने खरीदा और दूसरे माता-पिताने बेचा हो, वह ‘क्रीतपुत्र माना गया है।
किसीको स्वयं धन आदिका लोभ देकर पुत्र बनाया गया हो तो वह ‘कृत्रिम’ कहा गया है।
जो माता-पितासे रहित बालक “मुझे अपना पुत्र बना लें”-ऐसा कहकर स्वयं आत्मसमर्पण करता है, वह ‘दत्तात्मा’ पुत्र है।
जो विवाहसे पूर्व ही गर्भमें आ गया और गर्भवतीके विवाह होनेपर उसके साथ परिणीत हो गया, वह ‘सहीढ़ज” पुत्र माना गया है।
जिसे माता-पिताने त्याग दिया हो, वह समान वर्णका पुत्र यदि किसीने ले लिया तो वह उसका ‘अपविद्ध पुत्र” माना गया है।
ये जो पूर्वकथित बारह पुत्र हैं, इनमेंसे पूर्व-पूर्वके अभावमें उत्तर-उत्तर पिण्डदाता और धनांशभागी होता है। मैंने सजातीय पुत्रोंमें धनविभागकी यह विधि बतलायी है॥ १५-१९६ ॥
शूद्रके धनविभागकी विशेष विधि
शूद्रद्वारा दासीमें उत्पन्न पुत्र भी पिताकी इच्छासे धनमें भाग प्राप्त करेगा। पिताकी मृत्युके पश्चात् शूद्रकी विवाहिता पत्नीसे उत्पन्न पुत्र अपने पिताके दासीपुत्रको भी भाईकी हैसियतसे आधा भाग दे।
यदि शूद्रकी परिणीतासे कोई पुत्र न हो तो वह भ्रातृहीन दासीपुत्र पूरे धनपर अधिकार कर ले; (परंतु यह तभी सम्भव है, जब उसकी परिणीताकी पुत्रियोंके पुत्र न हों। उनके होनेपर तो वह आधा भाग ही पा सकता है।) जिसके पूर्वोक्त बारह प्रकारके पुत्रोंमेंसे कोई नहीं है, ऐसा पुत्रहीन पुरुष यदि स्वर्गवासी हो जाय तो उसके धनके भागी क्रमशः पत्नी, पुत्रियाँ, माता-पिता, सहोदर भाई, असहोदर भाई, भ्रातृपुत्र, गोत्रज (सपिण्ड या समानोदक) पुरुष, बन्धु-बान्धव (आचार्य), शिष्य तथा सजातीय सहपाठी होते हैं-इनमें पूर्व-पूर्वके अभाव में उत्तरोतर धनके भागी होते हैं। सब वणाँके लिये धनके विभाजनकी यही विधि शास्त्रविहित हैं ॥ २०-२३ ॥
वानप्रस्थ, सन्यासी और नैष्ठीक ब्रहाचारीयोंके धनके अधिकारी क्रमश: एक आश्रममें रहनेवाला धर्मभ्राता, श्रेष्ठ शिष्य और आचार्य होते हैं। बटे हुए घनको फिर मिला दिया जाय तो वह संस्तुष्ट कहलाता है। ऐसा संसृष्ट धन जिन लोगोंके पास हैं, वे सभी ‘संसृष्टी’ कहे गये हैं। ‘संसृष्टत्वसम्बन्ध” जिस किसीके साथ नहीं हो सकता, किंतु पिता, भाई अथवा पितृव्य (चाचा)-के साथ ही हो सकता है। यदि कोई संसृष्टी मर जाय तो उसके हिस्सेका धन दूसरा संसृष्टी पुरुष मृत संसृष्टीकी मृत्युके बाद उसकी भार्यासे उतपन्न हुए पुत्र को दे दे। पुत्र न हो तो वह संसृष्टी स्वयं ही ले लें। पत्नी आदिकों वह धन नहीं मिल सकता। यदि सहोदर संसृष्टी मर जाय तो दूसरा सहोदर संसृष्टी उसकी मृत्युके पश्चात् पैदा हुए पुत्रको उसका अंश दे दे। यदि पुत्र न हो तो वह स्वयं ही उस संसृष्टीके अंशको ले ले; असहोदर भाई संसृष्टि होनेपर भी उसे नहीं ले सकता। अन्य माताके पैटसे पैदा हुआ सौतेला भाई भी यदि संसृष्टी हो तो वह संसृष्टी भ्राताके धनको ले सकता है। यदि वह असंसृष्टी है तो उस धनको नहीं ले सकता। अथवा असंसृष्टी भी उस संसृष्टीके धनको ले सकता है, जबकि वह संसृष्टी उस असंसृष्टीका सहोदर भाई रहा ही ॥ २४-२६ ॥
नंपुसक, पतित, उसका पुत्र, पंगु, उन्मत, जड़, अंध, असाध्य रोगसे ग्रस्त और आश्रमान्तरमें गये हुए पुरुष केवल भरण-पोषण पानेके योग्य हैं। इन्हें हिस्सा बँटानेका अधिकार नहीं है। इन लोगोंके औरस एवं क्षेत्रज पुत्र क्लीबत्व आदि दीषोंसे रहित होने पर भाग लेने के अधिकारी होंगे। इनकी पुत्रियोंका भी तबतक भरण-पोषण करना चाहिये, जबतक कि वे पतिके अधीन न कर दी जायँ। इन क्लीब, पतित आदिकी पुत्रहीन सदाचारिणी स्त्रियोंका भी भरण-पोषण करना चाहिये। यदि वे व्यभिचारिणी या प्रतिकूल आचरण करनेवाली हों तो उनकी घर से निर्वासित कर देना चाहिये ॥ २७ -२९ ॥
स्त्रीधन
जो पिता-माता, पति और भाईने दिया हो, जो विवाहकालमें अग्निके समीप मामा आदिकी ओर से मिला हो तथा जो आधिवेदनिक आदि धन हो, वह “स्त्रीधन” कहा गया है। जिसे कन्याकी माताके बन्धु-बान्धवोंने दिया हो, जिसे पिताके बन्धु-बान्धवोंने दिया हो तथा जो वर-पक्षकी ओरसे कन्याके लिये शुल्करूपमें मिला हो एवं विवाहके पश्चात् पतिकुलसे जो वधूको भेट मिला हो, वह सब ‘स्त्रीधन” कहा गया है।
यदि स्त्री संतानहीना हो-जिसके बेटी, दौहित्री, दौहित्र, पुत्र और पौत्र कोई भी न हों, ऐसी स्त्री यदि दिवंगत हो जाय तो उसके पति आदि बान्धवजन उसका धन ले सकते हैं।
ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्राजापत्य-इन चार प्रकार के विवाहोंकी विधिसे विवाहित स्त्रियोंके निस्सतान मर जाने पर उनका धन पतिको प्राप्त होता है। यदि वे संतानवती रही हों तो उनका धन उनकी पुत्रियोंको प्राप्त होता है और शेष चार गान्धर्व, आसुर, राक्षस तथा पैशाच विवाहकी विधिसे विवाहित होकर मरी हुई संतानहीना स्त्रियोंका धन उनके पिताको प्राप्त होता है ॥ ३०-३२ ॥
जो कन्याका वाग्दान करके कन्यादान नहीं करता, वह राजाके द्वारा दण्डनीय होता है तथा कन्या-सम्बन्धियोंके स्वागत-सत्कारमें जो धन खर्च किया हो, वह सब सूदसहित कन्यादाता वरको लौटावे। यदि वाग्दता कन्याकी मृत्यु हो जाय, तो वर अपने और कन्यापक्ष दोनोंके व्ययका परिशोधन करके जो अवशिष्ट व्यय हो, वहीं कन्यादातासे ले।
दुर्मिक्षमें, धर्मकार्यमें, रोग या बन्धनसे मुक्ति पानेके लिये यदि पति दूसरा कोई धन प्राप्त न होनेपर स्त्रीधनको ग्रहणको तो पुनः उसे लौटानेको बाध्य नहीं है।
जिस स्त्रीकी श्वशुर अथवा पतिसे स्त्रीधन न प्राप्त हुआ हो, उस स्त्रीके रहते हुए दूसरा विवाह करनेपर पति ‘आधिवेदनिक’ के समान धन दे। अर्थात् ‘अधिवेदन’ (द्वितीय विवाह)-में जितना धन खर्च होता हो, उतना ही धन उसे भी दिया जाय। यदि उसे पति और शशुरकी ओरसे स्त्रीधन प्राप्त हुआ हो, तब आधिवेदनिक धनका आधा भाग ही दिया जाय।
विभागका अपलाप होनेपर यदि संदेह उपस्थित हो तो कुटुम्बीजनों, पिताके बंधू-बांधवों, माताके बंधू-बान्धवों, पूर्वोक्त लक्षणवाले साक्षियों तथा अभिलेख -विभागपत्रके सहयोगसे विभागका निर्णय जानना चाहिये।
इसी प्रकार यौंतक तथा पृथक् किये गये गृह और क्षेत्र आदिके आधार पर भी विभागका निर्णय जाना जा सकता है।॥ ३३-३६ ॥
दो सौं छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २५६ ॥
अध्याय-२५७ सीमा-विवाद, स्वामिपाल-विवाद, अस्वामिविक्रय, दत्ताप्रदानिक, क्रीतानुशय, अभ्युपेत्याशुश्रुषा, संविद्व्यतिक्रम, वेतनादान तथा द्यतसमाहुयका विचार
सीमा-विवाद
दो गाँवोंसे सम्बन्ध रखनेवाले खेतकी सीमाके विषयमें विवाद उपस्थित होनेपर तथा एक ग्रामके अन्तर्वर्ती खेतकी सीमाका झगड़ा खड़ा होनेपर सामन्त (सब और उस खेतसे सटकर रहनेवाले), स्थविर (वृद्ध) आदि, गोप (गायके चरवाहे), सीमावर्ती किसान तथा समस्त वनचारी मनुष्य-वे सब लोग पूर्वकृत स्थल (ऊँची भूमि) कोयले, धानकी भूसी तथा बरगद आदिके वृक्षोंद्वारा सीमाका निश्चय करें। वह सीमा कैसी हो, इस प्रश्रके उत्तरमें कहते हैं-वह सीमा सेतु (पुल), वल्मीक (बॉबी), चैत्य (पत्थरके चाबूतरे या देवस्थान), बाँस और बालू आदिसे उपलक्षित होनी चाहिये’ ॥ १-२ ॥
सामन्त अथवा निकटवर्ती ग्रामवाले चार, आठ अथवा दस मनुष्य लाल फूलोंकी माला और लाल वस्त्र धारण करके, सिरपर मिट्टी रखकर सीमाका निर्णय करें।
सीमा-विवादमें सामन्तोंके असत्य-भाषण करनेपर राजा सवको अलग-अलग मध्यम साहसका दण्ड़ दे। सीमाका ज्ञान करानेवाले चिहोंके अभाव में राजा ही सीमाका प्रवर्तक होता है।
आराम (बाग), आयतन (मन्दिर या खलिहान), ग्राम, वापी या कूप, उद्यान (क्रीडावन), गृह और वर्षाके जलको प्रवाहित करनेवाले नाले आदिकी सीमाके निर्णय में भी यही विधि जाननी चाहिये।
मर्यादाका भेदन, सीमाका उल्लङ्घन एवं क्षेत्रका अपहरण करनेपर राजा क्रमशः अधम, उत्तम और मध्यम साहसका दण्ड दे।
यदि सार्वजनिक सेतु (पुल या बाँध) और छोटे क्षेत्रमें अधिक जलवाला कुआँ बनाया जा रहा हो तथा वह दूसरेकी कुछ भूमि अपनी सीमामें ले रहा हो, परंतु उससे हानि तो बहुत कम हो और बहुत-से लोगोंकी अधिक भलाई हो रही हो तो उसके निर्माणमें रुकावट नहीं डालनी चाहिये।
जो क्षेत्रके स्वामीको सूचना दिये बिना उसके क्षेत्रमें सेतुका निर्माण करता है, वह उस सेतुसे प्राप्त फलका उपभोग स्वयं नहीं कर सकता, क्षेत्रका स्वामी ही उसके फलका भोगी-भागी होगा और उसके अभावमें राजाका उसपर अधिकार होगा।
जो कृषक किसीके खेत में एक बार हल चलाकर भी उसमें स्वयं खेती न करे और दूसरेसे भी न कराये, राजा उससे क्षेत्रस्वामीको कृषीका सम्भावित फल दिलाये और खेतको दूसरे किसानसे जुतवाये ॥ ३-९॥
स्वामिपाल-विवाद
(अब गाय-भैंस या भेड़-बकरी चरानेवाले चरवाहे जब किसीके खेत चरा दें तो उन्हें किस प्रकार दण्ड देना चाहिये-इसका विचार किया जाता है-)
राजा दूसरेके खेतकी फसलको नष्ट करनेवाली भैंसपर आठ माष (पणका बीसवाँ भाग) दण्ड लगावें। गौपर उससे आधा और भेड़-बकरीपर उससे भी आधा दण्ड लगावे।
यदि भैंस आदि पशु खेत चरकर वहीं बैठ जायँ, तो उनपर पूर्वकथितसे दूना दण्ड लगाना चाहिये।
जिसमें अधिक मात्रामें तृण और काठ उपजता है, ऐसा भूप्रदेश जब स्वामीसे लेकर उसे सुरक्षित रखा जाता है तो उसे ‘विवीत” (रक्षित या रखातु) कहते हैं। उस रखांतुको भी हानि पहुँचानेपर इन भैंस आदि पशुओंपर अन्य खेतोंके समान ही दण्ड समझे। इसी अपराधमें गदहे और ऊँटोंपर भी भेंसके समान ही दण्ड लगाना चाहिये।
जिस खेतमें जितनी फसल पशुओंके द्वारा नष्ट की जाय, उसका सामन्त आदिके द्वारा अनुमानित फल गो-स्वामीको क्षेत्रस्वामीके लिये दण्ड़के रूपमें देना चाहिये और चरवाहोंकी तो केवल शारीरिक दण्ड़ देना (कुछ पीट देना चाहिये) । यदि गोस्वामीने स्वयं चराया हो तो उससे पूर्वोत दण्ड ही वसूल करना चाहिये, ताड़ना नहीं देनी चाहिये।
यदि खेत रास्तेपर हो, गाँव के समीप हो अथवा ग्रामके ‘विवीत’ (सुरक्षित) भूमिके निकट हो और वहाँ चरवाहे अथवा गो-स्वामीकी इच्छा न होनेपर भी अनजानेमें पशुओंने चर लिया अथवा फसलको हानि पहुँचा दी तो उसमें गो-स्वामी तथा चरवाहा-दोनोंमेंसे किसीका दोष नहीं माना जाता, अर्थात् उसके लिये दण्ड नहीं लगाना चाहिये; किंतु यदि स्वेच्छासे जान-बूझकर खेत चराया जाय तो चरानेवाला और गो-स्वामी दोनों चोरकी भाँति दण्ड पानेके अधिकारी हैं।
साँड़, वृषोत्सर्गकी विधिसे या देवी-देवताकी चढ़ाकर छोड़े गये पशु, दस दिनके भीतरकी व्यायी हुई गाय तथा अपने यूथसे बिछुड़कर दूसरे स्थानपर आया हुआ पशु-ये दूसरेकी फसल चर लें तो भी दण्डनीय नहीं हैं, छोड़ देने योग्य हैं।
जिसका कोई चरवाहा न हो, ऐसे देवोपहत तथा राजोपहत पशु भी छोड़ ही देने योग्य हैं।
गोप (चरवाहा) प्रात:काल गौओंके स्वामीके सँभलाये हुए पशु सायंकाल उसी प्रकार लाकर स्वामीको सौंप दे।
वेतनभोगी ग्वालेके प्रमादसे मृत अथवा खोये हुए पशु राजा उससे पशु-स्वामीको दिलाये।
गोपालकके दोषसे पशुओंका विनाश होनेपर उसके ऊपर साढ़े तेरह पण दण्ड लगाया जाय और वह स्वामीको नष्ट हुए पशुका मूल्य भी दे।
ग्रामवासियोंकी इच्छासे अथवा राजाकी आज्ञाके अनुसार गोचारणके लिये भूमि छोड़ दे; उसे जोते-बोये नहीं।
ब्राह्मण सदा, सभी स्थानोंसे तृण, काष्ठ और पुष्प ग्रहण कर सकता है।
ग्राम और क्षेत्रका अन्तर सौ धनुषके प्रमाणका हो, अर्थात् गाँवके चारों ओर सौ-सौ धनुष भूमि परती छोड़ दी जाय और उसके बादकी भूमिपर ही खेती की जाय।
खर्वट (बड़े गाँव) और क्षेत्रका अन्तर दो सौ धनुष एवं नगर तथा क्षेत्रका अन्तर चार सौ धनुष होना चाहिये ॥ १०-१८॥
अस्वामिविक्रय
(अब अस्वामिविक्रय नामक व्यवहारपदपर विचार आरम्भ करते हैं-नारदजीने ‘अस्वामिविक्रय” का लक्षण इस प्रकार बताया है
निक्षिप्तं वा परद्रव्यं नष्टं लब्ध्वापह्रत्य वा।
विक्रीयतेऽसमक्षं यत् स ज्ञेयोऽस्वामिविक्रयः॥
अर्थात् धरोहरके तौरपर रखे हुए पराये द्रव्यको खोया हुआ पाकर अथवा स्वयं चुराकर जो स्वामीके परोक्षमें बेच दिया जाता है, वह ‘अस्वामिविक्रय’ कहलाता है।”
द्रव्यका स्वामी अपनी वस्तु दूसरे के द्वारा बेची हुई यदि किसी खरीददारके पास देखें तो उसे अवश्य पकड़े-अपने अधिकारमें ले ले।
यहाँ “विक्रीत” शब्द ‘दत’ और “आहित’का भी उपलक्षण है। अर्थात् यदि कोई दूसरेकी रखी हुई वस्तु उसे बताये बिना दूसरेके यहाँ रख दे या दूसरेको दे दे तो उसपर यदि स्वामीकी दृष्टि पड़ जाय तो स्वामी उस वस्तुको हठात् ले ले या अपने अधिकारमें कर ले; क्योकि उस वस्तुसे उसका स्वामित्व निवृत्त नहीं हुआ।
यदि खरीददार उस वस्तुको खरीदकर छिपाये रखे, किसीपर प्रकट न करे तो उसका अपराध माना जाता है। तथा जो हीन पुरुष है, अर्थात् उस द्रव्यकी प्राप्तिके उपायसे रहित है, उससे एकान्तमें कम मूल्यमें और असमयमें (रात्रि आदिमें) उस वस्तुको खरीदनेवाला मनुष्य चोर होता है, अर्थात् चोरके समान दण्डनीय होता है।
अपनी खोयी हुई या चोरीमें गयी हुई वस्तु जिसके पास देखे, उसे स्थानपाल आदि राजकर्मचारीसे पकड़वा दे। यदि उस स्थान अथवा समयमें राजकर्मचारी न मिले तो चोरको स्वयं पकड़कर राजकर्मचारीको सौंप दे।
यदि खरीददार यह कहे कि ‘मैंने चोरी नहीं की है, अमुकसे खरीदी है”, तो वह बेचनेवालेको पकड़वा देनेपर शुद्ध (अभियोगसे मुत) हो जाता है।
जो नष्ट या अपहत वस्तुका विक्रेता है, उसके पाससे द्रव्यका स्वामी द्रव्य, राजा अर्थदण्ड और खरीदनेवाला अपना दिया हुआ मूल्य पाता है।
वस्तुका स्वामी लेख्य आदि आगम या उपभोगका प्रमाण देकर खोयी हुई वस्तुको अपनी सिद्ध करे। सिद्ध न करनेपर राजा उससे वस्तुका पश्चमांश दण्डके रूपमें ग्रहण करे।
जो मनुष्य अपनी खोयी हुई अथवा चुरायी गयी वस्तुको राजाको बिना बतलाये दूसरेसे ले ले, राजा उसपर छानबे पणका अर्थदण्ड लगावे ।
शौल्किक (शुल्कके अधिकारी) या स्थानपाल (स्थानरक्षक) जिस खोये अथवा चुराये गये द्रव्यको राजाके पास लायें, उस द्रव्यको एक वर्षके पूर्व ही वस्तुका स्वामी प्रमाण देकर प्राप्त कर ले; एक वर्षके बाद राजा स्वयं उसे ले ले।
घोड़े आदि एक खुरवाले पशु खोनेके बाद मिलें, तो स्वामी उनकी रक्षाके निमित चार पण राजाकी दे; मनुष्यजातीय द्रव्यके मिलनेपर पाँच पण, भैंस, ऊँट और गौके प्राप्त होनेपर दो-दो पण तथा भेड़-बकरीके मिलनेपर पणका चतुथाँश राजाकी अर्पित करें ॥ १९-२५ ॥
दत्ताप्रदानिक
[‘दत्ताप्रदानिक’का स्वरूप नारदने इस प्रकार बताया है-‘जो असम्यगरूपसे (अयोग्य मार्गका आश्रय लेकर) कोई द्रव्य देने के पश्चात् फिर उसे लेना चाहता है, उसे ‘दत्ताप्रदानिक’ नामक व्यवहारपद कहा जाता है।’ इस प्रकरणमें इसीपर विचार किया जाता है।]
जीविकाका उपरोध न करते हुए ही अपनी वस्तुका दान करे; अर्थात् कुटुम्बके भरण–पोषणसे बचा हुआ धन ही देनेयोग्य है।
स्त्री और पुत्र किसीको न दे। अपना वंश होनेपर किसीको सर्वस्वका दान न करे।
जिस वस्तुको दूसरे के लिये देनेकी प्रतिज्ञा कर ली गयी हो, वह वस्तु उसीको दे, दूसरेको न दे।
प्रतिग्रह प्रकटरूपमें ग्रहण करे । विशेषतः स्थावर भूमि, वृक्ष आदिका प्रतिग्रह तो सबके सामने ही ग्रहण करना चाहिये।
जो वस्तु जिसे धर्मार्थ देनेकी प्रतिज्ञा की गयी हो, वह उसे अवश्य दे दे और दी हुई वस्तुका कदापि फिर अपहरण न करें-उसे वापस न ले ॥ २६–२७ ॥
क्रीतानुशयः
(अब ‘क्रीतानुशय’ बताया जाता है। इसका स्वरूप नारदजीने इस प्रकार कहा है-‘जो खरीददार मूल्य देकर किसी पण्य वस्तुको खरीदनेके बाद उसे अधिक महत्वकी वस्तु नहीं मानता है, अत: उसे लौटाना चाहता है तो यह मामला ‘क्रीतानुशय’ नामक विवादपद कहलाता है। ऐसी वस्तुको जिस दिन खरीदा जाय, उसी दिन अविकृतरूपसे मालधनीको लौटा दिया जाय। यदि दूसरे दिन लौटावे तो क्रेता मूल्यसे १/३०वाँ भाग छोड़ दे। यदि तीसरे दिन लौटावे तो १/१५वाँ भाग छोड़ दे। इसके बाद वह वस्तु खरीददारकी ही हो जाती है, वह उसे लौटा नहीं सकता।”) अब बीज आदिके विषयमें बताते हैं- ॥ २७६ ॥
बीजकी दस दिन, लोहेकी एक दिन, वाहनकी पाँच दिन, रत्नोंकी सात दिन, दासीकी एक मास, दूध देनेवाले पशुकी तीन दिन और दासकी एक पक्षतक परीक्षा होती है।
सुवर्ण अग्रिमें डालनेपर क्षीण नहीं होता; परंतु चाँदी प्रतिशत दो पल, राँगे और सीसेमें प्रतिशत आठ पल, ताँबेमें पाँच पल और लोहे में दस पल कमी होती है।
ऊन और रूईके स्थूल सूतसे बुने हुए कपड़ेमें सौ पलमें दस पलकी वृद्धि होती है। इसी प्रकार मध्यम सूतमें पाँच पल और सूक्ष्म सूतमें तीन पलकी वृद्धि जाननी चाहिये।
कार्मिक (अनेक रङ्गके चित्रोंसे युक्त) और रोमबद्ध (किनारेपर गुच्छोंसे युक्त) वस्त्रमें तीसवाँ भाग क्षय होता है। रेशम और वल्कलके बुने हुए वस्त्रमें न तो क्षय होता है और न वृद्धि ही।
उपर्युक द्रव्योंके नष्ट होनेपर द्रव्यज्ञानकुशल व्यक्ति देश, काल, उपयोग और नष्ट हुए वस्तुके सारासारकी परीक्षा करके जितनी हानिका निर्णय कर दें, राजा उस हानिकी शिल्पियोंसे अवश्य पूर्ति कराये ॥ २८-३२ ॥
अभ्युपेत्याशुश्रूषा
(सेवा स्वीकार करके जो उसे नहीं करता है, उसका यह बर्ताव ‘अभ्युपेत्याशुश्रुषा’ नामक व्यवहारपद है।)
जो बलपूर्वक दास बनाया गया है और जो चोरोंके द्वारा चुराकर किसीके हाथ बेचा गया है-ये दोनों दासभावसे मुक्त हो सकते हैं।
यदि स्वामी इन्हें न छोड़े तो राजा अपनी शक्तिसे इन्हें दासभावसे छुटकारा दिलाये।
जो स्वामी को प्राणसंकटसे बचा दे, वह भी दासभावसे मुक्त कर देनेयोग्य हैं।
जो स्वामीसे भरण-पोषण पाकर उसका दास्य स्वीकार करके कार्य कर रहा है, वह भरण-पोषणमें स्वामीका जितना धन खर्च करा चुका है, उतना धन वापस कर दे तो दासभावसे छुटकारा पा जाता है।
जितना धन लेकर स्वामीने किसीको किसी धनी के पास बन्धक रख दिया है, अथवा जितना धन देकर किसी धनीने किसी ऋणग्राहीको ऋणदातासे छुड़ाया है, उतना धन सूदसहित वापस कर देनेपर आहित दास भी दासत्वसे छुटकारा पा सकता है।
प्रव्रज्यावसित (संन्यासभ्रष्ट अथवा आरूढ़पतित) मनुष्य यदि इसका प्रायश्चित न कर ले तो मरणपर्यन्त राजाका दास होता है।
चारों वर्ण अनुलोमक्रमसे ही दास हो सकते हैं, प्रतिलोमक्रमसे नहीं।
विद्यार्थी विद्याग्रहणके पश्चातू गुरुके घरमें आयुर्वेदादि शिल्पशिक्षाके लिये यदि रहना चाहे तो समय निश्चित करके रहे। यदि निश्चित समयसे पहले वह शिल्पशिक्षा प्राप्त कर ले तो भी उतने समय तक वहाँ अवश्य निवास करे। उन दिनों वह गुरुके घर भोजन करे और उस शिल्पसे उपार्जित धन गुरुको ही समर्पित करे ॥३३-३५ ॥
संविद्-व्यतिक्रम
(नियत की हुई व्यवस्थाका नाम ‘समय’ या ‘संविद’ है। उसका उल्लङ्कन ‘संविद्-व्यतिक्रम” कहलाता है। यह विवादका पद है।)
राजा अपने नगरमें भवन-निर्माण कराकर उनमें वेदविद्या-सम्पन्न ब्राह्मणोंको जीविका देकर बसावे और उनसे प्रार्थना करे कि “आप यहाँ रहकर अपने धर्मका अनुष्ठान कीजिये।”
ब्राह्मणोंको अपने धर्ममें बाधा न डालते हुए जो सामयिक और राजादवारा निर्धारित धर्म हो, उसका भी यत्नपूर्वक पालन करना चाहिये। जो मनुष्य समूह या संस्थाका द्रव्यग्रहण और मर्यादाका उल्लधन करता हो, राजा उसका सर्वस्व छीनकर उसे राज्यसे निर्वासित कर दे।
अपने समाजके हितैषी मनुष्योंके कथनानुसार ही सब मनुष्योंको कार्य करना चाहिये। जो मनुष्य समाजके विपरीत आचरण करे, राजा उसे प्रथम साहसका दण्ड” दे।
समूहके कार्यकी सिद्धिके लिये राजाके पास भेजा हुआ मनुष्य राजासे जो कुछ भी मिले, वह समाजके श्रेष्ठ व्यक्तियोंकों बुलाकर समर्पित कर दे। यदि वह स्वयं लाकर नहीं देता तो राजा उससे ग्यारहगुना धन दिलावे।
जो वेदज्ञान-सम्पन्न, पवित्र अन्त:करणवाले, लोभशून्य तथा कार्यका विचार करनेमें कुशल हों, उन समूहके हितैषी मनुष्योंका वचन सबके लिये पालनीय है।
‘श्रेणी’ (एक व्यापार से जीविका चलानेवाले), ‘नैगम’ (वेदोक्त धर्मका आचरण करनेवाले), ‘पाखण्डी’ (वेदविरुद्ध आचरणवाले) और ‘गण’ (अस्त्र-शस्त्रोंसे जीविका चलानेवाले)- इन सब लोगोंके लिये भी यही विधि है। राजा इनके धर्मभेद और पूर्ववृत्तिका संरक्षण करें ॥ ३६-४२ ॥
वेतनादान
जो भृत्य वेतन लेकर काम छोड़ दे, वह स्वामीको उस वेतनसे दुगुना धन लौटाये। वेतन न लिया हो तो वेतनके समान धन उससे ले। भूत्य सदा खेती आदिके सामानकी रक्षा करे।
जो वेतनका निश्चय किये बिना भृत्यसे काम लेता है, राजा उसके वाणिज्य, पशु और शस्यकी आयका दशांश भृत्यको दिलाये।
जो भूत्य देश-कालका अतिक्रमण करके लाभको अन्यथा (औसतसे भी कम) कर देता है, उसे स्वामी अपने इच्छानुसार वेतन दे। परंतु औसतसे अधिक लाभ प्राप्त करानेपर भृत्यको वेतनसे अधिक दे।
वेतन निश्चित करके दो मनुष्योंसे एक ही काम कराया जाय और यदि वह काम उनसे समाप्त न हो सके तो जिसने जितना काम किया हो, उसको उतना वेतन दे और यदि कार्य सिद्ध हो गया हो तो पूर्वनिश्चित वेतन दे।
यदि भारवाहक से राजा और देवतासम्बन्धी पात्रके सिवा दूसरेका पात्र फूट जाय तो राजा भारवाहक से पात्र दिलाये।
यात्रामें विध्न करनेवाले भृत्यपर वेतनसे दुगुना अर्थदण्ड करे। जो भृत्य यात्रारम्भके समय काम छोड़ दे, उससे वेतनका सातवाँ भाग, कुछ दूर चलकर काम छोड़ दे, उससे चतुर्थ भाग और जो मार्गके मध्यमें काम छोड़ दे, उससे पूरा वेतन राजा स्वामीको दिलावे। इसी प्रकार भूत्यका त्याग करनेवाले स्वामीसे राजा भूत्यको दिलाये ॥ ४३-४८ ॥
द्युत-समाह्रय
(जूएमें छलसे काम लेना ‘घृतसमाह्रय’ है। प्राणिभिन्न पदार्थ-सोना, चाँदी आदिसे खेला जानेवाला जूआ ‘द्युत” कहलाता है। किंतु प्राणियोंको घुड़दौड़ आदिमें दाँवपर लगाकर खेला जाय तो उसको “समाह्रय’ कहा जाता है।)
परस्परकी स्वीकृतिसे जुआरियोंद्वारा कल्पित पण (शर्त)-को ‘ग्लह’ कहते हैं। जो जुआरियोंको खेलनेके लिये सभा-भवन प्रदान करता है, वह ‘सभिक’ कहलाता है। ‘ग्लह’ या दाँवमें सौ या इससे अधिक वृद्धि (लाभ) प्राप्त करनेवाले धूर्त जुआरीसे ‘सभिक’ प्रतिशत पाँच पण अपने भरण-पोषणके लिये ले। फिर दूसरी बार उतनी ही वृद्धि प्राप्त करनेवाले अन्य जुआरीसे प्रतिशत दस पण ग्रहण करे।
राजाके द्वारा भलीभाँति सुरक्षित घूतका अधिकारी सभिक राजाका निश्चित भाग उसे दें। जीता हुआ धन जीतनेवालेको दिलाये और क्षमापरायण होकर सत्य-भाषण करे।
जब द्युतका सभिक और प्रख्यात जुआरियोंका समूह राजाके समीप आये तथा राजाको उनका भाग दे दिया गया हो तो राजा जीतनेवालेको जीतका धन दिला दे, अन्यथा न दिलाये। द्युत-व्यवहारको देखनेवाले सभासदके पदपर राजा उन जुआरियोंको ही नियुक्त करे तथा साक्षी भी द्युतकारोंको ही बनाये।
कृत्रिम पाशोंसे छलपूर्वक जूआ खेलनेवाले मनुष्योंके ललाटमें चिन्ह करके राजा उन्हें देशसे निर्वासित कर दे। चोरोंको पहचाननेके लिये द्युतमें एक ही किसीको प्रधान बनावे, यही विधि ‘प्राणिधृत-समाह्रय’ (घुड़दौड़) आदिमें भी जाननी चाहिये ॥ ४९-५३॥
दो सौ सतावनवाँ अध्याय पूरा हुआ। २५७ ॥
अध्याय-२५८ व्यवहारके वाक्पारुष्य, दण्डपारुष्य, साहस, विक्रियासम्प्रदान, सम्भूय-समुत्थान, स्तेय, स्त्री-संग्रहण तथा प्रकीर्णक-इन विवादास्पद विषयोंपर विचार
वाक्पारुष्य
[अब ” वाक्पारुष्य’ (कठोर गाली देने आदि)- के विषय में विचार किया जाता है। इसका लक्षण नारदजीने इस प्रकार बताया है-‘देश, जाति और कुल आदिको कोसते हुए उनके सम्बन्धमें जो अश्लील और प्रतिकूल अर्थवाली बात कहीं जाती है, उसको ‘वाक्पारुष्य’ कहते हैं।” प्रतिकूल अर्थवालीसे तात्पर्य हैं-उद्वेगजनक वाक्यसे। जैसे कोई कहे-‘गौड़देशवाले बड़े झगड़ालू होते हैं।’ तो यह देशपर आक्षेप हुआ। ‘ब्राह्मण बड़े लालची होते हैं”-यह जातिपर आक्षेप हुआ, तथा ‘विश्वामित्रगोत्रीय बड़े क्रूर चरित्रवाले होते हैं”- यह कुलपर आक्षेप हुआ। यह ‘वाक्पारुष्य’ तीन प्रकारका होता है-‘निष्ठुर’, ‘अश्लील” और “तीव्र’। इनका दण्ड भी उत्तरोत्तर भारी होता है। आक्षेपयुक्त वचनको ‘निष्ठुर” कहते हैं, जिसमें अभद्र बात कही जाय, वह “अश्लील” है और जिससे किसीपर पातकी होनेका आरोप हो, वह वाक्य ‘तीव्र’ है। जैसे किसीने कहा-‘तू मूर्ख है, मौगड़ है, तुझे धिक्कार है”-यह साक्षेप वचन ‘निष्ठुर” की कोटिमें आता है, किसीकी माँ-बहिनके लिये गाली निकालना ‘अश्लील” है और किसीको यह कहना कि ‘तू शराबी है, गुरुपत्नीगामी है”-ऐसा कटुवचन’ तीव्र” कहा गया है। इस तरह वाक्पारुष्य के अपराधोंपर दण्डविधान कैसे किया जाता है, इसीका यहाँ विचार है-]
जो न्यूनाङ्ग (लैंगड़े-लूले आदि) हैं, न्यूनेन्द्रिय (अन्धे-बहरे आदि) हैं तथा जो रोगी (दूषित चर्मवाले, कोढ़ी आदि) हैं, उनपर सत्यवचन, असत्यवचन अथवा अन्यथा-स्तुतिके द्वारा कोई आक्षेप करे तो राजा उसपर साढ़े बारह पण दण्ड लगाये।
(‘इन महोदयकों दोनों आँखें नहीं हैं, इसलिये लोग इन्हें ‘अंधा” कहते हैं’-यह सत्यवचनद्वारा आक्षेप हुआ। ‘इनकी आँखें तो सही-सलामत हैं, फिर भी लोग इन्हें ‘अंधा” कहते हैं”-यह असत्यवचनद्वारा आक्षेप हुआ। ‘तुम विकृताकार होनेसे ही दर्शनीय हो गये हो” यह ‘अन्यथास्तुति’ है।) ॥ १ ॥
जो मनुष्य किसीपर आक्षेप करते हुए इस प्रकार कहे कि ‘मैं तेरी बहिनसे, तेरी माँसे समागम करूंगा’ तो राजा उसपर पचीस पणका अर्थदण्ड़ लगाये। यदि गाली देनेवाले की अपेक्षा गाली पानेवाला आधम * है तो उसको गाली देनेके अपराधमें श्रेष्ठ पुरुषपर उक्त दण्डका आधा लगेगा तथा परायी स्त्री एवं उच्चजातिवालेको अधमके द्वारा गाली दी गयी ही तो उसके ऊपर पूर्वोत दण्ड दुगुना लगाया जाय।
वर्ण और जातिकी लघुता और श्रेष्ठताको देखकर राजा दण्डकी व्यवस्था करे।
वर्णोंके ‘प्रातिलोम्यापवाद में अर्थात् निम्नवर्णके पुरुषद्वारा उच्चवर्णके पुरुषपर आक्षेप किये जानेपर दुगुने और तिगुने दण्डका विधान है। जैसे ब्राह्मणको कटुवचन सुनानेवाले क्षत्रियपर पूर्वोत्त द्विगुण दण्ड, पचास पणसे दुगुने दण्ड सी पण, लगाये जाने चाहिये तथा वहीं अपराध करनेवाले वैश्यपर तिगुने, अर्थात् डेढ़ सौ पण दण्ड लगने चाहिये।
इसी तरह ‘आनुलोम्यापवाद में, अर्थात् उच्चवर्णद्वारा हीनवर्णके मनुष्यपर आक्षेप किये जानेपर क्रमश: आधे-आधे दण्डकी कमी हो जाती है। अर्थात् ब्राह्मण क्षत्रियपर आक्रोश करे तो पचास पण दण्ड दे, वैश्यपर करे तो पच्चीस पण और यदि शूद्रपर करे तो साढ़े बारह पण दण्ड दे।
यदि कोई मनुष्य वाणीद्वारा दूसरोंको इस प्रकार धमकावे कि ‘मैं तुम्हारी बाँह उखाड़ लुंगा, गर्दन मरोड़ दूँगा, आखें फोड़ दूँगा और जंधा तोड़ डालूँगा तो राजा उसपर सौं पणका दण्ड लगावे और जो पैर, नाक, कान और हाथ आदि तोड़नेको कहे, उसपर पचास पणका अर्थदण्ड लागू करे।
यदि असमर्थ मनुष्य ऐसा कहे, तो राजा उसपर दस पण दण्ड लगावे और समर्थ मनुष्य असमर्थकी ऐसा कहे, तो उससे पूर्वोत सौ पण दण्ड वसूल करे। साथ ही असमर्थ मनुष्यकी रक्षाके लिये उससे कोई ‘प्रतिभू (जमानतदार) भी माँगे।
किसीको पतित सिद्ध करनेके लिये आक्षेप करनेवाले मनुष्यको मध्यम साहसका दण्ड देना चाहिये तथा उपपातकका मिथ्या आरोप करनेवालेपर प्रथम साहसका दण्ड लगाना चाहिये।
वेदविद्या-सम्पन्न ब्राह्मण, राजा अथवा देवताकी निन्दा करनेवालोंकी उत्तम साहस, जातियोंके सङ्घकी निन्दा करनेवालेको मध्यम साहस और ग्राम या देशकी निन्दा करनेवालेको प्रथम साहसका दण्ड देना चाहिये ॥ २-८ ॥
दण्डपारुष्य
[अब ‘दण्डपारुष्य’ प्रस्तुत किया जाता है। नारदजीके कथनानुसार उसका स्वरूप इस प्रकार है-“दूसरोंके शरीरपर, अथवा उसकी स्थावरजङ्गम वस्तुओंपर हाथ, पैर, अस्त्र-शस्त्र तथा पत्थर आदिसे जो चोट पहुँचायी जाती है तथा राख, धूल और मल-मूत्र आदि फेंककर उसके मनमें दु:ख उत्पन्न किया जाता है, यह दोनों ही प्रकारका व्यवहार ” दण्डपारुष्य’ कहलाता है ।’ उसके तीन कारण बताये जाते हैं-‘अवगोरण” (मारनेके लिये उद्योग), ‘निःसङ्गपातन” (निष्ठुरतापूर्वक नीचे गिरा देना) और ‘क्षतदर्शन’ (रक्त निकाल देना)। इन तीनोंके द्वारा हीन द्रव्यपर, मध्यम द्रव्यपर अौर उत्तम द्रव्यपर जो आक्रमण होता है, उसको दृष्टिमें रखकर ‘दण्डपारुष्य के तीन भेद किये जाते हैं। ‘दण्डपाक्ष्य’का निर्णय करके उसके लिये अपराधीको दण्ड दिया जाता है। उसके स्वरूप में संदेह होनेपर निर्णय के कारण बता रहे हैं-]
यदि कोई मनुष्य राजाके पास आकर इस आशयका अभियोगपत्र दे कि ‘अमुक व्यक्तिने एकान्त स्थानमें मुझे मारा है’, तो राजा इस कार्यमें चिहोंसे, युक्तियोंसे, आशय (जनप्रवादसे) तथा दिव्य-प्रमाणसे निश्चय करे। ‘अभियोग लगानेवालेने अपने शरीरपर घावका कपष्टपूर्वक चिह्न तो नहीं बना लिया है’ इस संदेह के कारण उसका परीक्षण (छानबीन) आवश्यक है।
दूसरेके ऊपर राख, कीचड़ या धूल फेंकनेवालेपर दस पण और अपवित्र वस्तु या थूक डालनेवाले, अथवा अपने पैरकी एड़ी छुआ देनेवालेपर राजा बीस पण दण्ड लगाये। यह दण्ड़ समान वर्णवालोंके प्रति ऐसा अपराध करनेवालोंके लिये ही बताया गया है।
परायीं स्त्रियों और अपने से उत्तम वर्णवाले पुरुषोंके प्रति पूर्वोक्त व्यवहार करनेपर मनुष्य दुगुने दण्डका भागी होता है और अपनेसे हीन आधा दण्ड़ पानेका अधिकारी होता हैं। यदि कोई मोह एवं मदके वशीभूत (नशेमें) होकर ऐसा अपराध कर बैठे तो उसे दण्ड नहीं देना चाहिये ॥ ९-११ ॥
ब्राह्रानेतर मनुष्य अपने जिस अंगसे ब्राहणको पीड़ा दे-मारे-पीटे, उसका वह अङ्ग छेदन कर देने योग्य हैं। ब्राह्मणके वध के लिये शस्त्र उठा लेनेपर उस पुरुषको प्रथम साहसका दण्ड मिलना चाहिये।
यदि उसने मारनेकी इच्छासे शस्त्र आदिका स्पर्शमात्र किया हो तो उसे प्रथम साहसके आधे दण्ड़से दण्ड़ित करना चाहियें।
आपने समान जातिवाले मनुष्यको मारनेके लिये हाथ उठानेवालेको दस पण, लात उठानेवालेकी बीस पण और एक-दूसरेके वधके लिये शस्त्र उठानेपर सभी वर्णके लोगोंको मध्यम साहसका दण्ड देना चाहिये।
किसीके पैर, केश, वस्त्र और हाथ-इनमेंसे कोईसा भी पकड़कर खींचने या झटका देनेपर अपराधीकी दस पणका दण्ड लगावे।
इसी तरह दूसरेको कपड़ेमें लपेटकर जोर-जोरसे दबाने, घसीटने और पैरोंसे आघात करनेपर आक्रामकसे सौ पण वसूल करे।
जो किसीपर लाठी आदिसे ऐसा प्रहार करे कि उसे दु:ख तो हो, किंतु शरीरसे रक्त न निकले, तो उस मनुष्यपर बत्तीस पण दण्ड़ लगावें । यदि उस प्रहार से रक्त निकल आवे तो अपराधीपर इससे दूना, चौंसठ पण दण्ड लगाया जाना चाहिये।
किसीके हाथ-पाँव अथवा दाँत तोड़नेवाले, नाक-कान काटनेवाले, घावकी कुचल देनेवाले या मारकर मृतकतुल्य बना देनेवालेपर मध्यम साहस-पाँच सौ पणका दण्ड लगाया जाय।
किसीकी चेष्टा, भोजन या वाणीको रोकनेवाले आँख, जिह्रा आदिको फोड़ने या छेदनेवाले या कंधा, भुजा और जाँघ तोड़नेवालेको भी मध्यम साहसका दण्ड देना चाहिये।
यदि बहुत-से मनुष्य मिलकर एक मनुष्यका अङ्ग– भङ्ग करें तो जिस-जिस अपराधके लिये जो-जो दण्ड बताया गया है, उससे दूना दण्ड प्रत्येकको दे।
परस्पर कलह होते समय जिसने जिसकी जो वस्तु हड़प ली हो, राजाकी आज्ञासे उसे उसकी वह वस्तु लौटा देनी होगी और अपहरणके अपराधमें उस अपहृत वस्तुके मूल्य से दूना दण्ड राजाके लिये देना होगा।
जो मनुष्य किसीपर प्रहार करके उसे घायल कर दे, वह उसके घाव भरने और स्वस्थ होने तक औषध, पथ्य एवं चिकित्सामें जितना व्यय हों, उसका भार वहन करे। साथ ही जिस कलहके लिये जो दण्ड बताया गया है, उतना अर्थदण्ड भी चुकाये।
नावसे लोगोंको पार उतारनेवाला नाविक यदि स्थलमार्गका शुल्क ग्रहण करता है तो उसपर दस पण दण्ड़ लगाना चाहिये।
यदि यजमानके पास वैभव हो और पड़ोसमें विद्वान् और सदाचारी ब्राह्मण बसते हों तो श्राद्ध आदि में उनकी निमन्त्रण न देने पर उस यजमानपर भी वही दण्ड़ लगाना चाहिये।
किसीकी दीवार पर मुद्गर आदिसे आघात करनेवालेपर पाँच पण, उसे विदीर्ण करनेवाले पर दस पण तथा उसको फोड़ने या दो टूक करनेवालेपर बीस पण दण्ड लगाया जाय और वह दीवार गिरा देनेवालेसे पैंतीस पण दण्ड वसूल किया जाय। साथ ही उस दीवारके मालिक को नये सिरे से दीवार बनानेका व्यय उसमें दिलाया जाय।
किसीके घर में दुःखोत्पादक वस्तु-कण्टक आदि फेकनेवालेपर सोलह पण और शीघ्र प्राण हरण करनेवाली वस्तु—विषधर सर्प आदि फेकनेपर मध्यम साहसपाँच सौ पण दण्ड देनेका विधान है।
क्षुद्र पशुको पीड़ा पहुँचानेवालेपर दो पण, उसके शरीरसे रुधिर निकाल देनेवालेपर चार पण, सींग तोड़नेवालेपर छः पण तथा अङ्ग–भङ्ग करनेवालेपर आठ पण दण्ड लगावे। क्षुद्र पशुका लिङ्ग-छेदन करने या उसको मार डालनेपर मध्यम साहसका दण्ड दे और अपराधीसे स्वामीको उस पशुका मूल्य दिलाये।
महान् पशु-हाथी-घोड़े आदिके प्रति दु:खोत्पादन आदि पूर्वोक्त अपराध करनेपर क्षुद्र पशुओंकी अपेक्षा दूना दण्ड जानना चाहिये।
जिनकी डालियाँ काटकर अन्यत्र लगा दी जानेपर अङ्कति हो जाती हैं, वे बरगद आदि वृक्ष ‘ प्ररोहिशाखी कहलाते हैं। ऐसे प्ररोही वृक्षोंकी तथा जिनकी डालियाँ अंकुरित नहीं होतीं, परंतु जो जीविका साधन बनते हैं, उन आम आदि वृक्षोंकी शाखा, स्कन्ध तथा मूलसहित समूचे वृक्षका छेदन करनेपर क्रमश: बीस पण, चालीस पण और अस्सी पण दण्ड लगानेका विधान है।॥ १२-२५ ॥
साहस-प्रकरण
(अब ” साहस” नामक विवादपदका विवेचन करनेके लिये पहले उसका लक्षण बताते हैं-)
सामान्य द्रव्य अथवा परकीय द्रव्यका बलपूर्वक अपहरण ‘साहस’ कहलाता है।
(यहाँ यह कहा गया कि राजदण्डका उल्लङ्घन करके, जनसाधारणके आक्रोशकी कोई परवा किये बिना राजकीय पुरुषोंसे भिन्न लोगोंके सामने जो मारण, अपहरण तथा परस्त्रीके प्रति बलात्कार आदि किया जाता है, वह सब ‘साहस’की कोटिमें आता है।)
जो दूसरोंके द्रव्यका अपहरण करता है, उसके ऊपर उस अपहृत द्रव्यके मूल्यसे दूना दण्ड लगाना चाहिये। जो ‘साहस’ (लुट-पाट, डकैती आदि) कर्म करके उसे स्वीकार नहीं करता-‘मैंने नहीं किया है’-ऐसा उत्तर देता है, उसके ऊपर वस्तुके मूल्यसे चौगुना दण्ड लगाना उचित है ॥ २६ ॥
जो मनुष्य दूसरे से डकैती आदि ‘साहस’ करवाता है, उससे उस साहसके लिये कथित दण्डसे दूना दण्ड लेना चाहिये।
जो ऐसा कहकर कि ‘मैं तुम्हें धन दूँगा, तुम ‘साहस’ (डकैती आदि) करो”, दूसरेसे ‘साहस’का काम कराता हैं, उससे साहसिक के लिये नियत दण्डकी अपेक्षा चौगुना दण्ड वसूल करना चाहिये।
श्रेष्ठ पुरुष (आचार्य आदि)-की निन्दा या आज्ञाका उल्लङ्घन करनेवाले, भ्रातृपत्नी (भौजाई या भयहु)-पर प्रहार करनेवाले, प्रतिज्ञा करके न देनेवाले, किसीके बंद घरका ताला तोड़कर खोलनेवाले तथा पड़ोसी और कुटुंबीजनोंका अपकार करनेवालेपर राजा पचास पणका दण्ड लगावे, यह शास्त्रका निर्णय है।॥ २७-२८ ॥
(बिना नियोगके) स्वेच्छाचारपूर्वक विधवासे गमन करनेवाले, संकटग्रस्त मनुष्यके पुकारनेपर उसकी रक्षाके लिये दौड़कर न जानेवाले, अकारण ही लोगोंको रक्षाके लिये पुकारनेवाले, चाण्डाल होकर श्रेष्ठ जातिवालोका स्पर्श करनेवाले, दैव एवं पितृकार्यमें संन्यासीको भोजन न करानेवाले, शूद्र, अनुचित शपथ करनेवाले, अयोग्य (अनधिकारी) होनेपर भी योग्य (अधिकारी)- के कर्म (वेदाध्ययनादि) करनेवाले, बैल एवं क्षुद्र पशु-बकरे आदिकी बधिया करनेवाले, साधारण वस्तुमें भी ठगी करनेवाले तथा दासीका गर्भ गिरानेवालेपर एवं पिता-पुत्र, बहिन-भाई, पति-पत्नी तथा आचार्य-शिष्य-ये पतित न होते हुए भी यदि एक-दूसरेका त्याग करते हों तो इनके ऊपर भी सौ पण दण्ड़ लगावे।
यदि धोबी दूसरोंके वस्त्र पहने तो तीन पण और यदि बेचे, भाड़ेपर दें, बन्धक रखे या मैंगनी दे, तो दस पण अर्थदण्डके योग्य होता है’।
तोलनदण्ड़, शासन, मान (प्रस्थ, द्रोण आदि) तथा नाणक (मुद्रा आदिसे चिह्नित निष्क आदि)-इनमें जो कूटकारी (मानके वजनमें कमी-बेशी तथा सुवर्णमें ताँबे आदिकी मिलावट करनेवाला) हो तथा उससे कूट-तुला आदि व्यवहार करता हो, उन दोनोंको पृथकू-पृथकू उत्तम साहसके दण्डसे दण्डित करना चाहिये।
सिक्कोंकी परीक्षा करते समय यदि पारखी असली सिक्केको नकली या नकली सिक्केको असली बतावे तो राजा उसे भी प्रथम साहसका दण्ड वसूल करे।
जो वैद्य आयुर्वेदको न जाननेपर भी पशुओं, मनुष्यों और राजकर्मचारियोंकी मिथ्या चिकित्सा करे, उसे क्रमश: प्रथम, मध्यम और उत्तम साहसके दण्डसे दण्डित करे।
जो राजपुरुष कैद न करनेयोग्य (निरपराध) मनुष्योंको राजा की आज्ञाके बिना कैद करता है और बन्धनके योग्य बन्दीको उसके अभियोगका निर्णय होनेके पहले ही छोड़ देता है, उसे उत्तम साहसका दण्ड देना चाहिये।
जो व्यापारी कूटमान अथवा तुलासे धानकपास आदि पण्यद्रव्यका आष्टमांश हरण करता हैं, वह दो सौ पणके दण्डसे दण्डनीय होता है।
अपहृत द्रव्य यदि अष्टमांशसे अधिक या कम हो तो दण्डमें भी वृद्धि और कमी करनी चाहिये।
ओषधि, धृत, तेल, लवण, गन्धद्रव्य, धान्य और गुड़ आदि पण्यवस्तुओंमें जो निस्सार वास्तुका मिश्रण कर देता है, राजा उसपर सोलह पण दण्ड लगावें ॥ २९-३९ ॥
यदि व्यापारीलीग संगठित होकर राजाके द्वारा निश्चित किये हुए भावको जानते हुए भी लोभवश कारु और शिल्पियोंको पीड़ा देनेवाले मूल्यकी वृद्धि या कमी करें तो राजा उनपर एक हजार पणका दण्ड लागू करे।
राजा निकटवर्ती हो तो उनके द्वारा जिस वस्तुका जो मूल्य निर्धारित कर दिया गया हो, व्यापारीगण प्रतिदिन उसी भावसे क्रय-विक्रय करें, उसमें जो बचत हो, वहीं बनियोंके लिये लाभकारक मानी गयीं है।
व्यापारी देशज वस्तुपर पाँच प्रतिशत लाभ रखें और विदेशी द्रव्यको यदि शीघ्र ही क्रयविक्रय कर ले तो उसपर दस प्रतिशत लाभ ले।
राजा दूकानका खर्च पण्यवस्तुपर रखकर उसका भाव इस प्रकार निश्चित करे, जिससे क्रेता और विक्रेताको लाभ हो ॥ ४०-४३ ॥
विक्रीयासम्रदान
(प्रसङ्गप्राप्त ‘साहस’का प्रकरण समाप्त करके अब ‘विकीयासम्प्रदान” आरम्भ करते हैं। नारदजीके वचनानुसार ‘विक्रीयासम्प्रदान’का स्वरूप इस प्रकार है-‘मूल्य लेकर पण्यवस्तुका विक्रय करके जब खरीददारको वह वस्तु नहीं दी जाती है, तब वह ‘विक्रीयासम्प्रदान’ (बेचकर भी वस्तुको न देना) नामक विवादास्पद कहलाता है।” विक्रेय वस्तु “चल’ और ‘अचल के भेदसे दो प्रकारकी होती हैं। फिर उसके छ: भेद किये गये हैं-गणित, तुलित, मेय, क्रियोपलक्षित, रूपोपलक्षित और दीप्तिसे उपलक्षित। सुपारीके फल आदि ‘गणित’ हैं, क्योंकि वे गिनकर बेचे जाते हैं। सोना, कस्तूरी और केसर आदि ‘तुलित’ हैं, क्योंकि वे तौलकर बेचे जाते हैं। शाली (अगहनी धान) आदि “मेय’ हैं, क्योंकि वे पात्रविशेष से माप कर दिये जाते हैं। ‘क्रियोपलक्षित’ वस्तुमें घोड़े, भैंस आदिकी गणना है; क्योंकि उनकी चाल और दोहन आदिकी क्रियाको दृष्टिमें रखकर ही उनका क्रय-विक्रय होता है। ‘रूपोपलक्षित’ वस्तुमें पण्यस्त्री (वैश्या) आदिकी गणना है; क्योंकि उनके रूपके अनुसार ही उनका मूल्य होता है। ‘दीप्तिसे उपलक्षित’ वस्तुओंमें हीरा, मोती, मरकत और पद्मराग आदिकी गणना है। इन छहों प्रकारकी पण्यवस्तुको बेचकर, मूल्य लेकर भी यदि क्रेताको वह वस्तु नहीं दी जाती तो विक्रेताको किस प्रकार दण्डित करना चाहिये, यह बताते हैं-)
जो व्यापारी मूल्य लेकर भी ग्राहकको माल न दे, उससे वृद्धिसहित वह माल ग्राहक को दिलाया जाय। यदि ग्राहक परदेशका हो तो उसके देशमें ले जाकर बेचनेसे जो लाभ होता है, उस लाभसहित वह वस्तु राजा व्यापारीसे ग्राहक को दिलावे।
यदि पहला ग्राहक मालमें किसी प्रकार संदेह होने पर वस्तुकी न लेना चाहे तो व्यापारी उस बेची हुई वस्तुको भी दूसरेके हाथ बेच सकता है।
यदि विक्रेता के देने पर भी ग्राहक न ले और वह पण्यवस्तु राजा या दैवकी बाधासे नष्ट हो जाय तो वह हानि क्रेताके ही दोषसे होनेके कारण वही उस हानिको सहन करेगा, बेचनेवाला नहीं।
यदि ग्राहकके माँगनेपर भी उस बेची हुई पण्यवस्तुको बेचनेवाला नहीं दे और वह पण्यद्रव्य राजा या दैवके कोपसे उपहत हो जाय तो वह हानि विक्रेताकी होगी ॥ ४४-४६ ॥
जो व्यापारी किसीको बेची हुई वस्तु दूसरेके हाथ बेचता है, अथवा दूषित वस्तुको दोषरहित बतलाकर बेचता है, राजा उसपर वस्तुके मूल्यसे दुगुना अर्थदण्ड लगावे।
जान-बूझकर खरीदे हुए पण्यद्रव्योंका मूल्य खरीदनेके बाद यदि बढ़ गया या घट गया तो उससे होनेवाले लाभ या हानिकों जो ग्राहक नहीं जानता, उसे ‘अनुशय’ (माल लेनेमें आनाकानी) नहीं करनी चाहिये।
विक्रेता भी यदि बढ़े हुए दामके कारण अपनेको लगे हुए घाटेको नहीं जान पाया है तो उसे भी माल देनेमें आनाकानी नहीं करनी चाहिये। इससे यह बात स्वत: स्पष्ट हो जाती है कि खरीद-बिक्रीके पश्चात् यदि ग्राहकको घाटा दिखायी दे तो वह माल लेनेमें आपत्ति कर सकता है। इसी तरह विक्रेता उस भावपर माल देनेमें यदि हानि देखें तो वह उस मालको रोक सकता है।
यदि अनुशय न करनेकी स्थितिमें क्रेता या विक्रेता अनुशय करें तो उनपर पण्यवस्तुके मूल्यका छठा अंश दण्ड लगाना चाहिये
सम्भूयसमुत्थान
जो व्यापारी सम्मिलित होकर लाभके लिये व्यापार करते हैं, वे अपने नियोजित धनके अनुसार अथवा पहलेके समझौतेके अनुसार लाभ-हानिमें भाग ग्रहण करें। यदि उनमें कोई अपने साझीदारोंके मना करनेपर या उनके अनुमति न देनेपर, अथवा प्रमादवश किसी वस्तुमें हानि करेगा, तो क्षतिपूर्ति उसे ही करनी होगी।
यदि उनमेंसे कोई पण्यद्रव्यकी विप्लवोंसे रक्षा करेगा तो वह दशमांश लाभका भागी होगा॥ ४९-५०॥
पण्यद्रव्योंका मूल्य निश्चित करनेके कारण राजा मूल्यका बीसवाँ भाग अपने शुल्कके रूपमें ग्रहण करे।
यदि कोई व्यापारी राजाके द्वारा निषिद्ध एवं राजोपयोगी वस्तुको लाभके लोभसे किसी दूसरेके हाथ बेचता है तो राजा उससे वह वस्तु बिना मूल्य दिये ले सकता है।
जो मनुष्य शुल्कस्थानमें वस्तुका मिथ्या परिमाण बतलाता हैं, अथवा वहाँसे खिसक जानेकी चेष्टा करता है तथा जो कोई बहाना बनाकर किसी विवादास्पद वस्तुका क्रय-विक्रय करता है-इन सबपर पण्यवस्तुके मूल्यसे आठगुना दण्ड लगाना चाहिये।
यदि संधबद्ध होकर काम करनेवालोंमेंसे कोई देशान्तरमें जाकर मृत्युको प्राप्त हो जाय तो उसके हिस्सेके द्रव्यको दायाद (पुत्र आदि), बान्धव (मातुल आदि) अथवा ज्ञाति (सजातीय-सपिण्ड) आकर ले लें। उनके न होनेपर उस धनकों राजा ग्रहण करे।
संघबद्ध होकर काम करनेवालोंमें जो कुटिल या वञ्चक हो, उसे किसी तरहका लाभ दिये बिना ही संघसे बाहर कर दे। उ
जो अपना कार्य स्वयं करनेमें असमर्थ हो, वह दूसरे से करावे। होता आदि ऋत्विजों, किसानों तथा शिल्पकमोंपजीवी नट, नर्तकादिकोंके लिये भी रहन-सहनका ढंग उपर्युक्त कथनसे स्पष्ट कर दिया गया॥ ५१-५४ ॥
स्तेय–प्रकरण
(अब ‘स्तेय’ अथवा चोरीके विषयमें बताया जाता है। मनुजीने ‘साहस’ और ‘चोरी”में अन्तर बताते हुए लिखा है-‘जो द्रव्य-रक्षकोंके समक्ष बलात् पराये धनको लूटा जाता है, वह ‘साहस’ या ‘डकैती’ है। तथा जो पराया धन स्वामी की दृष्टिसे बचकर या किसीको चकमा देकर हड़प लिया जाता है, तथा ‘मैंने यह कर्म किया है”- यह बात भयके कारण छिपायी जाती है, किसीपर प्रकट नहीं होने दी जाती, वह सब ‘स्तेय’ (चोरी) कर्म है।” चोरको कैसे पकड़ना चाहिये, यह बात बता रहे हैं-)
किसीके यहाँ चोरी होनेपर ग्राहक-राजकीय कर्मचारी या आरक्षा-विभागका सिपाही ऐसे व्यक्तिको पकडे, जो लोगोंमें चोरीके लिये विख्यात हो-जिसे सब लोग चोर कहते हैं, अथवा जिसके पास चोरीका चिह्न-चोरी गया हुआ माल मिल जाय, उसे पकड़े। अथवा चोरीके दिनसे ही चोरके पदचिहोंका अनुसरण करते हुए पता लग जाने पर उस चोरको बंदी बनावे । जो पहले भी चौर्य-कर्मका अपराधी रहा हो तथा जिसका कोई शुद्ध-निश्चित निवासस्थान न हो, ऐसे व्यक्तिको भी संदेहमें कैद करे। जो पूछनेपर अपनी जाति और नाम आदिको छिपावें, जो घृतक्रीड़ा, वेश्यागमन और मद्यपानमें आसक्त हों, चोरीके विषयमें पूछनेपर जिनका मुँह सूख जाय और स्वर विकृत हो जाय, जो दूसरोंके धन और घरके विषयमें पूछते फिरें, जो गुप्तरूपसे विचरण करें, जो आय न होनेपर भी बहुत व्यय करनेवाले हों तथा जो विनष्ट द्रव्यों (फटे-पुराने वस्त्रों और टूटे-फूटे बर्तन आदि)- को बेचते हों-ऐसे अन्य लोगोंको भी चोरीके संदेहमें पकड़ लेना चाहिये।
जो मनुष्य चोरीके संदेहमें पकड़ा गया हो, वह यदि अपनी निदोंषिताको प्रमाणित न कर सके तो राजा उससे चोरीका धन दिलाकर उसे चोरका दण्ड दे। राजा चोरसे चोरीका धन दिलाकर उसे अनेक प्रकारके शारीरिक दण्ड देते हुए मरवा डाले। यह दण्ड बहुमूल्य वस्तुओंकी भारी चोरी होनेपर ही देनेयोग्य हैं, किंतु यदि चोरी करनेवाला ब्राह्मण हो तो उसके ललाटमें दाग देकर उसकी अपने राजयसे निर्वासित कर दे।
यदि गाँवमें मनुष्य आदि किसी प्राणीका वध हो जाय, अथवा धनकी चोरी हो जाय और चोरके गाँवसे बाहर निकल जानेका कोई चिह्न न दिखायी दे तो सारा दोष ग्रामपालपर आता है। वही चोरको पकड़कर राजाके हवाले करे। यदि ऐसा न कर सके तो जिसके घरमें धनकी चोरी हुई है, उस गृहस्वामीको चोरीका सारा धन अपने पाससे दे। यदि चोरके गाँव से बाहर निकल जानेका कोई चिह्न वह दिखा सके तो जिस भूभागमें चोरका प्रवेश हुआ है, उसका अधिपति ही चोरको पकड़वावे, अथवा चोरीका धन अपने पास से दे।
यदि विवीत-स्थानमें अपहरणकी घटना हुई है तो विवीत-स्वामीका ही सारा दोष है। यदि मार्गमें या विवीत-स्थानसे बाहर दुसरे क्षेत्रमें चोरीका कोइ माल मिले या चोरका ही चिह्न लक्षित हो तो चोर पकड़नेके कामपर नियुक्त हुए मार्गपालका अथवा उस दिशाके संरक्षकका दोष होता है।
यदि गाँवसे बाहर, किंतु ग्रामकी सीमाके अंदरके क्षेत्रमें चोरी आदिकी घटना घटित हो तो उस ग्रामके निवासी ही क्षतिपूर्ति करें। उनपर यह उत्तरदायित्व तभीतक आता है, जबतक चोरका पदचिह्न सीमाके बाहर गया हुआ नहीं दिखायी देता। यदि सीमाके बाहर गया दिखायी पड़े, तो जिस ग्राम आदिमें उसका प्रवेश हो, वहींके लोग चोरको पकड़वाने और चौरीका माल वापस देनेके लिये जिम्मेदार हैं।
यदि अनेक गाँवोंके बीच में एक कोसकी सीमासे बाहर हत्या और चोरीकी घटना घटित हुई हो और अधिक जनसमूहकी दौड़-धूपसे चोरका पदचिह्न मिट गया हो तो पाँच गाँवके लोग अथवा दस गाँवके लोग मिलकर चोरको पकड़वाने तथा चोरीका माल वापस देनेका उत्तरदायित्व अपने ऊपर लें।
बंदीको गुप्तरूपसे जेलसे छुड़ाकर भगा ले जानेवाले, घोड़ों और हाथियोंकी चोरी करनेवाले तथा बलपूर्वक किसीकी ह्त्या करनेवाले लोगोंको राजा शूलीपर चढ़वा दे।
राजा वस्त्र आदिकी चोरी करनेवाले और गठरी आदि काटनेवाले चोरोंके प्रथम अपराध में क्रमश: और तर्जनी कटवा दे और दूसरी बार वही अपराध करनेपर उन दोनोंको क्रमश: एक हाथ तथा एक पैरसे हीन कर दे।
जो मनुष्य जानयूझकर चोर या हत्यारेको भोजन, रहनेके लिये स्थान, सर्दीमें तापनेके लिये अग्नि, प्यासे हुएको जल, चोरी करनेके तौर-तरीकेकी सलाह, चोरीके साधन और उसी कार्यके लिये परदेश जानेके लिये मार्गव्यय देता है, उसको उत्तम साहसका दण्ड देना चाहिये।
दूसरे के शरीरपर घातक शस्त्रसे प्रहार करने तथा गर्भवती स्त्रीके गर्भ गिराने पर भी उत्तम साहसका ही दण्ड देना उचित है।
किसी भी पुरुष या स्त्रीकी हत्या करनेपर उसके शील और आचारको दृष्टिमें रखते हुए उत्तम या अधम साहसका दण्ड देना चाहिये।
जो पुरुषकी हत्या करनेवाली तथा दूसरोंको जहर देकर मारनेवाली है, ऐसी स्त्रीके गलेमें पत्थर बाँधकर उसे पानीमें फेंक देना चाहिये; (परन्तु यदि वह गर्भवति हो तो उस समय उसे ऐसा दण्ड न दे।)
विष देनेवाली, आग लगानेवाली तथा अपने पति, गुरु या संतानको मारनेवाली स्त्रीको कान, हाथ, नाक और ओठ काटकर उसे साँड़ोंसे कुचलवाकर मरवा डाले।
खेत, घर, वन, ग्राम, रक्षित भूभाग अथवा खलिहानमें आग लगानेवाले या राजपत्नीसे समागम करनेवाले मनुष्यको सूखे नरकुल या सरकंडो-तिनकोंसे ढककर जला दे ॥५५-६७ ॥
स्त्री-संग्रहण
(अब ‘स्त्री-संग्रहण’ नामक विवादपर विचार किया जाता है। परायी स्त्री और पराये पुरुषका मिथुनीभाव (परस्पर आलिङ्गन) ‘स्त्री-संग्रहण’ कहलाता है। दण्डनीयताकी दृष्टिसे इसके तीन भेद हैं-प्रथम, मध्यम और उत्तम। अयोग्य देश और कालमें, एकान्त स्थानमें, बिना कुछ बोलेचाले परायी स्त्रीकी कटाक्षपूर्वक देखना और हास्य करना ‘प्रथम साहस’ माना गया है। उसके पास सुगन्धित वस्तु—इत्र-फुलेल आदि, फूलोके हार, धूप, भूषण और वस्त्र भेजना तथा उन्हें खाने-पीनेका प्रलोभन देना ‘मध्यम साहस’ कहा गया है। एकान्त स्थानोंमें एक साथ एक आसन पर आदिको ‘उत्तम संग्रहण’ या “उत्तम साहस’ माना गया है। संग्रहणके कार्यमें प्रवृत्त पुरुषको बंदी बना लेना चाहिये-यह बात निम्नाङ्गित श्लोकमें बता रहे हैं-)
केशग्रहणपूर्वक परस्त्रीके साथ क्रीड़ा करनेवाले पुरुषको व्यभिचारके अपराधमें पकड़ना चाहिये। सजातीय नारीसे समागम करनेवालेको एक हजार पण, अपनेसे नीच जातिकी स्त्रीसे सम्भोग करनेवालेको पाँच सौ पण एवं उच्चजातिकी नारीसे संगम करनेवालेकों वध का दण्ड दे और ऐसा करनेवाली स्त्रीके नाक-कान आदि कटवा डाले।
जो पुरुष परस्त्रीकी नीवी (कटिवस्त्र), स्तन, कक्षुकी, नाभि और केशोंका स्पर्श करता है, अनुचित देशकालमें सम्भाषण करता है, अथवा उसके साथ एक आसनपर बैठता है, उसे भी व्यभिचारके दोषमें पकड़ना चाहिये।
जो स्त्री मना करनेपर भी परपुरुषके साथ सम्भाषण करे, उसको सौ पण सम्भाषण करे तो उसे दो सौ पणका दण्ड देना चाहिये। यदि वे दोनों मना करनेके बाद भी सम्भाषण करते पाये जायँ तो उन्हें व्यभिचारका दण्ड देना चाहिये।
पशुके साथ मैथुन करनेवालेपर सौ पण तथा नीचजातिकी स्त्री या गौसे समागम करनेवाले पर पाँच सौ पणका दण्ड करे।
किसीकी अवरुद्धा (खरीदी हुई) दासी तथा रखेल स्त्रीके साथ उसके समागमके योग्य होनेपर भी समागम करनेवाले पुरुषपर पचास पणका दण्ड लगाना चाहिये। दासीके साथ बलात्कार करनेवालेके लिये दस पणका विधान है।
चाण्डाली या संन्यासिनीसे समागम करनेवाले मनुष्यके ललाटमें ‘भग”का चिह्न अङ्कित करके उसे देशसे निर्वासित कर दे ॥ ६८-७३ ॥
प्रकीर्णक-प्रकरण
जो मनुष्य राजाज्ञाको न्यूनाधिक करके लिखता है, अथवा व्यभिचारी या चोरको छोड़ देता है, राजा उसे उत्तम साहसका दण्ड दे।
ब्राह्मणको अभक्ष्य पदार्थका भोजन कराके दूषित करनेवाला उत्तम साहसके दण्डका भागी होता है।
कृत्रिम स्वर्णका व्यवहार करनेवाले तथा मांस बेचनेवालेको एक हजार पणका दण्ड़ दे और उसे नाक, कान और हाथ-इन तीन अङ्गोंसे हीन कर दे।
यदि पशुओंका स्वामी समर्थ होते हुए भी अपने दाढ़ों और सींगोंवाले पशुओंसे मारे जाते हुए मनुष्यकी छुड़ाता नहीं है तो उसको प्रथम साहसका दण्ड दिया जाना चाहिये। यदि पशुके आक्रमणका शिकार होनेवाला मनुष्य जोर-जोरसे चिल्लाकर पुकारे कि ‘अरे! मैं मारा गया। मुझे बचाओ’, उस दशा में भी यदि पशुओंका स्वामी उसके प्राण नहीं बचाता तो वह दूने दण्डका भागी होता है।
जो अपने कुलमें कलङ्क लगनेके डरसे घरमें घुसे हुए जार (परस्त्रीलम्पट)-को चोर बताता है, अर्थात् “चोर-चोर” कहकर निकालता है, उसपर पाँच सौ पण दण्ड़ लगाना चाहिये।
जो राजाको प्रिय न लगनेवाली बात बोलता हैं, राजाकी ही निन्दा करता है तथा राजाकी गुप्त मन्त्रणाका भेदन करता-शत्रुपक्षके कानोंतक पहुँचा देता है, उस मनुष्यकी जीभ काटकर उसे राज्यसे निकाल देना चाहिये।
मृतकके अङ्गसे उतारे गये वस्त्र आदिका विक्रय करनेवाले, गुरुकी ताड़ना करनेवाले तथा राजाकी सवारी और आसनपर बैठनेवालेको राजा उत्तम साहसका दण्ड दे।
जो क्रोधमें आकर किसीकी दोनों आँखें फोड़ देता है, उस अपराधीको, जो राजाके अनन्य हितचिन्तकोंमें न होते हुए भी राजाके लिये अनिष्टसूचक फलादेश करता है, उस ज्यौतिष्पीकों तथा जो ब्राह्मण बनकर जीविका चला रहा हो, उस शूद्रको आठ सौं पणके दण्डसे दण्डित करना चाहिये।
जो मनुष्य न्यायसे पराजित होनेपर भी अपनी पराजय न मानकर पुनः न्यायके लिये उपस्थित होता है, उसको धर्मपूर्वक पुन: जीतकर उसके ऊपर दुगुना दण्ड लगावे।
राजाने अन्यायपूर्वक जो अर्थदण्ड़ लिया हो, उसे तीसगुना करके वरुणदेवताको निवेदन करनेके पश्चात् स्वयं ब्राह्मणोंको बाँट दे।
जो राजा धर्मपूर्वक व्यवहारोंको देखता है, उसे धर्म, अर्थ, कीर्ति, लोकपंक्ति, उपग्रह (अर्थसंग्रह), प्रजाओंसे बहुत अधिक सम्मान और स्वर्गलोकमें सनातन स्थान-ये सात गुण प्राप्त होते है।
दो सौ अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ। २५८॥
अध्याय-२५९ ऋग्विधान-विविध कामनाओंकी सिद्धिके लिये प्रयुक्त होनेवाले ऋग्वेदीय मन्त्रोंका निर्देश
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ! अब मैं महर्षि पुष्करके द्वारा परशुरामजीके प्रति वर्णित ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेदका विधान कहता हूँ जिसके अनुसार मन्त्रोंके जप और होमसे भोग एवं मोक्षकी प्राप्ति होती है। १ ॥
पुष्कर बोले–परशुराम! अब मैं प्रत्येक वेदके अनुसार तुम्हारे लिये कर्तव्यकर्मोंका वर्णन करता हूँ। पहले तुम भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले ‘ऋग्विधान”को सुनो ।
ऋग्विधान
गायत्री-मन्त्रका विशेषत: प्राणायामपूर्वक जलमें खड़े होकर तथा होमके समय जप करनेवाले पुरुषकी समस्त मनोवाञ्छित कामनाओंको गायत्री देवी पूर्ण कर देती हैं।
ब्रह्मन्! जो दिनभर उपवास करके केवल रात्रिमें भोजन करता और उसी दिन अनेक बार स्नान करके गायत्री-मन्त्रका दस सहस्र जप करता है, उसका वह जप समस्त पापोंका नाश करनेवाला है।
जो गायत्रीका एक लाख जप करके हवन करता है, वह मोक्षका अधिकारी होता है।
‘प्रणव” परब्रह्म हैं। उसका जप सभी पापोंका हनन करनेवाला है।
नाभिपर्यन्त जलमें स्थित होकर ॐकारका सौ बार जप करके अभिमन्त्रित किये गये जलकों जो पीता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है।
गायत्रीके प्रथम अक्षर प्रणवकी तीन मात्राएँअकार, उकार और मकार-ये ही ‘ऋक्’, ‘साम’ और ‘यजुष्-तीन वेद हैं, ये ही ब्रह्मा, विष्णु और शिव-तीनों देवता हैं तथा ये ही गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्रि-तीनों अग्रियाँ हैं।
गायत्रीकी जो सात महाव्याह्रतियाँ हैं, वे ही सातों लोक हैं। इनके उच्चारणपूर्वक गायत्री-मन्त्रसे किया हुआ होम समस्त पापोंका नाश करनेवाला होता है। सम्पूर्ण गायत्री-मन्त्र तथा महाव्याहतियाँ-ये सब जप करनेयोग्य एवं उत्कृष्ट मन्त्र हैं।
परशुरामजी! अघमर्षण-मन्त्र ‘ऋतं च सत्यं च०’ (१०। १९० । १-३) इत्यादि जलके भीतर डुबकी लगाकर जपा जाय तो सर्वपापनाशक होता है।
“अग्निमीळे पुरोहितम्•” (ऋग्वेद १ ॥ १ । १)- यह ऋग्वेदका प्रथम मन्त्र अग्निदेवताका सूक्त है। अर्थात् ‘अग्रि’ इसके देवता हैं। जो मस्तकपर अग्निका पात्र धारण करके एक वर्षतक इस सूक्तका जप करता है, तीनों काल स्नान करके हवन करता है, गृहस्थोंके घरमें चूल्हेकी आग बुझ जाने पर उनके यहाँसे भिक्षान्न लाकर उससे जीवननिर्वाह करता है तथा उत्त प्रथम सूक्तके अनन्तर जो वायु आदि देवताओंके सात सूक्त (१।१।। २ से ८ सूत) कहे गये हैं, उनका भी जो प्रतिदिन शुद्धचित होकर जप करता है, वह मनोवाक्छित कामनाओंको प्राप्त कर लेता है।
जो मेधा (धारण-शक्ति)-को प्राप्त करना चाहे, वह प्रतिदिन ‘सदसस्पतिo’ (१। १८ ॥ ६-८) इत्यादि तीन ऋचाओंका जप करे॥ २-११ ॥
‘अम्बयो यन्त्यध्वभिः°’ (१ ।। २३॥ १६-२४) आदि-ये नौ ऋचाएँ अकालमृत्युका नाश करनेवाली कही गयी हैं।
कैदमें पड़ा हुआ या अवरुद्ध (नजरबंद) द्विज ‘शुनःशेपो यमाह्रदगृभीतः’ (१ ।।२४।। १२-१४) इत्यादितीन ऋचाओंका जप करें। इसके जपसे पापी समस्त पापोंसे छूट जाता है और रोगी रोगरहित हो जाता है।
जो शाश्वत कामनाकी सिद्धि एवं बुद्धिमान् मित्रकी प्राप्ति चाहता हो, वह प्रतिदिन इन्द्रदेवताके ‘इन्द्रस्थ०’ आदि सोलह ऋचाओंका जप करे।
‘हिरण्यस्तूप:०’ (१०॥१४९॥५) इत्यादि मन्त्रका जप करनेवाला शत्रुओंकी गतिविधिमें बाधा पहुँचाता है।
‘ये ते पन्था:’ (१ ॥ ३५ ॥ ११)-का जप करनेसे मनुष्य मार्गमें क्षेमका भागी होता है।
जो कद्रदेवता-सम्बन्धिनी छ: ऋचाओंसे प्रतिदिन शिवकी स्तुति करता हैं, अथवा रुद्रदेवताको चरु अर्पित करता है, उसे परम शान्तिकी प्राप्ति होती है।
जो प्रतिदिन ‘उद्वयं तमसः०’ (१।५० ॥ १०) तथा ‘उदुत्यं जातवेदसम्’ (१।५० । १) -इन ऋचाओंसे प्रतिदिन उदित होते हुए सूर्यका उपस्थान करता है तथा उनके उद्देश्य से सात बार जलाञ्जलि देता है, उसके मानसिक दु:खका विनाश हो जाता है।
‘द्विषन्तं०” इत्यादि आधी ऋचासे लेकर ‘यद्विप्रा:०’ इत्यादि मन्त्रतिकका जप और चिन्तन करे। इसके प्रभावसे अपराधी मनुष्य सात ही दिनोंमें दूसरोंके विद्वेषका पात्र हो जाता है।
आरोग्यकी कामना करनेवाला रोगी “पुरीष्यासोऽग्नय:०” (३। २२ । ४)—इस ऋचाका जप करे। इसी ऋचाका आधा भाग शत्रुनाशके लिये उत्तम है। अर्थात् शत्रुकी बाधा दूर करनेके लिये इसका जप करना चाहिये। इसका सूर्योदयके समय जप करनेसे दीर्घ आयु, मध्याह्नमें जप करनेसे शत्रुनाश होता है।
‘नव य:’ (८ ॥ ९३ ॥ २) आदि सूक्तका जप करनेवाले शत्रुओंका दमन करता है।
सुपर्ण-सम्बन्धिनी ग्यारह ऋचाओंका जप सम्पूर्ण कामनाओंकी प्राप्ति करानेवाला है।
अध्यात्मका प्रतिपादन करनेवाली ‘क’ आदि ऋचाओंका जप करनेवाला मोक्ष प्राप्त करता है।
‘आ नो भद्रा:’ (१ ॥ ८९ ॥ १)-इस ऋचाके जपसे दीर्घ आयुकी प्राप्ति होती है।
हाथमें समिधा लिये ‘त्वं सोम०’ (१ ॥ ८६ ॥ २४)-इस ऋचासे शुक्लपक्षकी द्वितीयाके चंद्रमाका दर्शन करे। जो हाथमें समिधा लेकर उक्त मन्त्रसे चन्द्रमाका उपस्थान करता है, उसे निस्संदेह वस्त्रोंकी प्राप्ति होती है।
दीर्घ आयु चाहनेवाला ‘इमं०’ (१।९४) आदि कौत्ससूक्तका सदा जप करे।
जो मध्याह्रकालमें ‘अप नः शोशुचदघम्’ (१।। ९७ ॥ १-८ ) इत्यादि ऋचा के द्वारा सूर्यदेवकी स्तुति करता है, वह अपने पापोंको उसी प्रकार त्याग देता है, जैसे कोई मनुष्य तिनकेसे सींकको अलग कर लेता है।
यात्री ‘जातवेदसे० ‘ (१।१९।१)-इस मङ्गलमयी ऋचाका मार्गमें जप करे। ऐसा करके | वह समस्त भयोंसे छूट जाता और कुशलपूर्वक घर लौट आता है। प्रभातकालमें इसका जप करनेसे दु:स्वप्नका नाश होता है।
‘प्र मन्दिने पितुमदर्चता०’ (१॥१०१॥१)-इस ऋचाका जप करनेसे प्रसव करनेवाली स्त्री सुखपूर्वक प्रसव करती है।
‘इन्द्रम्०’ (१।। १०६।१) इत्यादि ऋचाका जप करते हुए सात बार बलिवैश्वदेव-कर्म करके घृतका होम करनेसे मनुष्य समस्त पापोंसे छूट जाता है।
‘इमाम्’ (१० ॥ ८५ ॥ ४५)–इस ऋचाका सदा जप करनेवाला अभीष्ट कामनाओंकों प्राप्त कर लेता है।
तीन दिन उपवास करके पवित्रतापूर्वक “मा नस्तोकेo’ (१ ॥ ११४। ८-१) आदि ऋचाओंद्वारा गुलरकी धृतयुक्त समिधाओंका हवन दो करे। ऐसा करनेसे मनुष्य मृत्युके समस्त पाशोंका छेदन करके रोगहीन जीवन बिताता है। दोनों बाँहें ऊपर उठाकर इसी “मा नस्तोकेe” (१। ११४।।८) आदि ऋचासे भगवान् शंकरकी स्तुति करके शिखा बाँध लेनेपर मनुष्य सम्पूर्ण भूत-प्राणियोंके लिये अजेय हो जाता है, इसमें कोई संशय नहीं है।
जो मनुष्य हाथमें समिधाएँ लेकर ‘चित्र देवानाम्’ (१। ११५ ॥ १) इत्यादि मन्त्रसे प्रतिदिन तीनों संध्याओंके समय भगवान् भास्करका उपस्थान करता है, वह मनोवाञ्छित धन प्राप्त कर लेता है।
‘स्वप्नेनाभ्युष्या चुमुरिम‘ ( २ || १५ || ९) आदि ऋचाका प्राप्त:, मध्याह्र और अपराह्रमें जप करनेसे सम्पूर्ण दु:स्वप्नका नाश होता है एवं उत्तम भोजनकी प्राप्ति होती हैं।
‘उभे पुनामि रोदसी०’ (१।१३३। १)-यह मन्त्र राक्षसोंका विनाशक कहा गया है।
“उभयासो जातवेदः०” (२ । २ । १२-१३) आदि ऋचाओाँका जप करनेवाला मनोऽभिलषित वस्तुओंको प्राप्त करता है।
‘तमागन्म सोमरयः०” (८॥ १९ ।। ३२) ऋचाका जप करनेवाला मनुष्य आततायीके भयसे छुटकारा पाता है।॥ २२-३४॥
‘कया शुभा सवयसः°’ ( १ ॥ १६५ । १)- इस ऋचाका जप करनेवाला अपनी जाति में श्रेष्ठताको प्राप्त करता है।
‘इमं नु सोमम्०’ (१। १७९।५)- इस ऋचाका जप करनेसे मनुष्यको समस्त कामनाओंकी प्राप्ति होती है।
‘पितुं नु स्तोषम०’ (१। १८७। १) ऋचासे नित्य उपस्थान करनेपर नित्य अन्न उपस्थित होता है।
‘अग्रे नय सुपथा०’ (१। १८९। १)-इस सूक्तसे घृतका होम किया जाय तो वह परलोक में उत्तम मार्ग प्रदान करनेवाला होता है। जो सदा सुश्लोकका जप करता है, वह वीरोंको न्यायके मार्गपर ले जाता है।
‘कङ्कतो न कङ्कतो०’ (१। १९१। १)-इस सूक्तका जप सब प्रकारके विध्नोंका प्रभाव दूर कर देता है।
‘यो जात एव प्रथमो०’ (२।१।२)-इस सूक्तका जप करनेवाला सभी कामनाओंको प्राप्त कर लेता है।
‘गणानां त्वा०’ (२।२३। १) सूक्तके जपसे उत्तम स्निग्ध पदार्थ प्राप्त होता है।
‘यो मे राजन्०’ (२।२८।। १०)-यह ऋचा दु:स्वप्नोंका शमन करनेवाली है।
मार्गमें प्रस्थित हुआ जो मनुष्य अपने सामने प्रशस्त या अप्रशस्त शत्रुको खड़ा हुआ देखें, वह ‘कुविदङ्ग०’ इत्यादि मन्त्रका जप करे, इससे उसकी रक्षा हो जाती है।
बाईसवें उत्तम आध्यात्मिक सूक्तका पर्वकालमें जप करनेवाला मनुष्य सम्पूर्ण अभीष्ट कामनाओंको प्राप्त कर लेता है।
‘कृष्णुष्व पाज:०’ (४।।४। १)-इस सूक्तका जप करते हुए एकाग्रचितसे घीकी आहुति देनेवाला पुरुष शत्रुओंके प्राण ले सकता है तथा राक्षसोंका भी विनाश कर सकता है।
जो स्वयं “परि०” इत्यादि सूक्तसे प्रतिदिन अग्निका उपस्थान करता है, विश्वतोमुख अग्रिदेव स्वयं उसकी सब ओरसे रक्षा करते हैं।
‘हंसः शुचिषत्०’ (४।।४०।।५) इत्यादि मन्त्रका जप करते हुए सूर्यका दर्शन करे। ऐसा करनेसे मनुष्य पवित्र हो जाता है।
कृषिमें संलगन गृहस्थ मौन रहकर क्षेत्रके मध्यभागमें विधिवत् स्थालीपाक होम करे। ये आहुतियाँ ‘इन्द्राय स्वाहा। मरुद्धवः स्वाहा। पर्जन्याय स्वाहा। एवं भगाय स्वाहा।”-कहकर उन-उन देवताओंके निमित अग्रिमें डाले। फिर जैसे स्त्रीकी योनिमें बीज-वपनके लिये जननेन्द्रियका व्यापार होता है, उसी तरह किसान धान्यका बीज बोनेके लिये हराईके साथ हलका संयोग करे और ‘शुनासीराविमां०’ (४।।५७।।५)-इस ऋचाका जप भी करावे । इसके बाद गन्ध, माल्य और नमस्कार के द्वारा इन सबके अधिष्ठाता देवताओंकी पूजा करे। ऐसा करनेपर बीज बोने, फसल काटने और फसल की खेतसे खलिहानमें लानेके समय किया हुआ सारा कर्म अमोघ होता है, कभी व्यर्थ नहीं जाता। इससे सदैव कृषिकी वृद्धि होती है।
‘समुद्रादूर्मिर्मधुमान्’ (४।।५८। १) इस सूक्तके जपसे मनुष्य अग्निदेवसे अभीष्ट वस्तुओंकी प्राप्ति करता है।
जो ‘विश्वानि नो दुर्गहा०’ (५।।४।। ९-१०) आदि दो ऋचाओंसे जो अग्रिदेवका पूजन करता है, वह सम्पूर्ण विपत्तियोंको पार कर जाता है और अक्षय यशकी प्राप्ति करता है। इतना ही नहीं, वह विपुल लक्ष्मी और उत्तम विजय की भी हस्तगत कर लेता है। ‘अग्रे त्वम०’ (५ ॥ २४। १)-इस ऋचासे अग्रिकी स्तुति करनेपर मनोवाछित धनकी प्राप्ति होतीं हैं।
संतानकी अभिलाषा रखनेवाला वरुणदेवता-सम्बन्धीं तीन ऋचाओंका नित्य जप करे।
“स्वस्ति न इन्द्रो• ‘ (१।८९।। ६-८) आदि तीन ऋचाओंका सदा प्रात:काल जप करे। यह महान् स्वस्त्ययन है।
‘स्वस्ति पन्थामनु चरेम०’ (५।।५१।१५)-इस ऋचाका उच्चारण करके मनुष्य मार्गमें सकुशल यात्रा करता है।
“वि जिहीष्व वनस्पते•’ (५ ।।७८।५)-के जपसे शत्रु रोगग्रस्त हो जाते हैं। इसके जपसे गर्भवेदनासे मूर्चिछत स्त्रीको गर्भक संकटसे भलीभाँति छुटकारा मिल जाता है।
वृष्टिकी कामना करनेवाला निराहार रहकर भीगे वस्त्र पहने हुए ‘अच्छा वद०’ (५।।८३) आदि सूक्तका प्रयोग करे। इससे शीघ्र ही प्रचुर वर्षा होती है।
पशुधनकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य ‘मनसः कामम्” (श्रीसूक्त १०) इत्यादि ऋचाका जप करे।
संतानाभिलाषी पुरुष पवित्र व्रत ग्रहण करके ‘कर्दमेन०’ (श्रीसूक्त ११)-इस मन्त्रसे स्नान करे।
राज्यकी कामना रखनेवाला मानव ‘अश्वपूर्वा०’ (श्रीसूक्त ३) इत्यादि ऋचाका जप करता हुआ स्नान करे। ब्राह्मण विधिवत् रोहितचर्मपर्, क्षत्रिय व्याघ्रचर्मपर एवं वैश्य बकरेके चर्मपर स्नान करे। प्रत्येकके लिये दस-दस सहस्र होम करनेका विधान हैं।
जो सदा अक्षय गोंधनकों अभिलाषा रखता हो, वह गोष्ठमें जाकर ‘आ गावो अगमन्नुत भद्रम्e” (६।२८। १) ऋचाका जप करता हुआ लोकमाता गौको प्रणाम करे और गोचरभूमितक उसके साथ जाय।
राजा “उप०” आदि तीन ऋचाओंसे अपनी दुन्दुभियोंको अभिमन्त्रित करे। इससे वह तेज और बलकी प्राप्ति करता है और शत्रुपर भी काबू पाता है।
दस्युओंसे घिर जानेपर मनुष्य हाथमें तृण लेकर ‘रक्षोध्न-सूक्त’ (१० ॥ ८७)-का जप करे।’
ये के च जमा० ” (६ ॥ ५२ ॥ १५)-इस ऋचाका जप करनेसे दीर्घायुकी प्राप्ति होती है।
राजा “जीमूत-सूक्त’से सेनाके सभी अङ्गोंको उसके चिन्हके अनुसार अभिमन्वित करे। इससे वह रणक्षेनमें शत्रुओंका विनाश करने में समर्थ होता है।
‘प्राग्रये’ (७।।५) आदि तीन सूक्तोंके जपसे मनुष्यकी अक्षय धनकी प्राप्ति होती हैं।
‘अमीचहा० ‘ (७ ॥ ५५)-इस सूक्तका पाठ करके रात्रिमें भूतोंकी स्थापना करे। फिर संकट, विषम एवं दुर्गम स्थलमें, बन्धनमें या बन्धनमुक्त अवस्थामें, भागते अथवा पकड़े जाते समय सहायताकी इच्छासे इस सूक्तका जप करे।
तीन दिन नियमपूर्वक उपवास रखकर खीर और चरु पकावे। फिर ‘न्यम्बकं यजामहे० ‘ (७ ॥ ५९ ॥ १२) मन्त्रसे उसकी सौं आहुतियाँ भगवान् महादेवके उद्देश्य से अग्निमें डाले तथा उसीसे पूर्णाहुति करे।
दीर्घकालतक जीवित रहनेकी इच्छावाला पुरुष स्नान करके ‘तच्चक्षुर्देवह्नितम्•’ (७ ॥ ६६ ॥ १६)-इस ऋचासे उदयकालिक एवं मध्याह्नकालिक सूर्यका उपस्थान करे।
‘न हि०’ आदि चार ऋचाओंके पाठसे मनुष्य महान् भयसे मुक्त हो जाता है।
‘पर ऋणा सावी:०’ (२।२८।। ९-१०) आदि दो ऋचाओंसे होम करनेपर ऐश्वर्यकी उपलब्धि होती है।
‘इन्द्रा सोमा तपतम०’ (७ ॥ १०४)-से प्रारम्भ होनेवाला सूक्त शत्रुओंका विनाश करनेवाला कहा गया है।
मोहवश जिसका व्रत भङ्ग हो गया अथवा व्रात्य-संसर्गके कारण जो पतित हो गया हैं, वह उपवास करके ‘विमग्ने व्रतपा°’ (८॥११।१)-इस ऋचासे धृतका होम करें।
“आदित्य’ और “सम्राजा”-इन दोनों ऋचाओंका जप करनेवाला शास्त्रार्थमें विजयीं होता है।
‘मही०’ आदि चार ऋचाओंके जपसे महान् भयसे मुक्ति मिलती है।
‘यदि०’ इत्यादि ऋचाका जप करके मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है।
इन्द्रदेवतासम्बन्धिनी वयालीसवाँ ऋचाका जप करनेसे शत्रुओंका विनाश होता है।
‘वार्च मही•’-इस ऋचाका जप करके मनुष्य आरोग्यलाभ करता है।
प्रयत्नपूर्वक पवित्र हो “शां नो भव०’ (८ ॥ ४८ ॥ ४-५)-इन दो ऋचाओंके जपपूर्वक भोजन करके हृदयका हाथसे स्पर्श करे। इससे मनुष्य कभी व्याधिग्रस्त नहीं होता।
स्नान करके ‘उत्तमेदम्०’-इस मन्त्रसे हवन करके पुरुष अपने शत्रुओंका विनाश कर डालता है।
‘शनो अग्रि०’ (७।३५)-इस सूक्तसे हवन करनेपर मनुष्य धन पाता है।
‘कन्या वाखायती०’ (८।। ९१)-इस सूक्तका जप करके वह दिग्भ्रमके दोषसे छुटकारा पाता है।
सूर्योदयके समय ‘यदद्यकच्चe’ (८ ॥९३॥४)-इस ऋचाका जप करनेसे सम्पूर्ण जगत् वशीभूत हो जाता है।
‘यदवाग०’ (८।। १०० ॥ १०)-इत्यादि ऋचाके जपसे वाणी संस्कारयुक्त होती है।
‘वचोविदम्’ (८ | १०१ ॥१६) ऋचाका मन-ही-मन जप करनेवाला वाक्-शक्ति प्राप्त करता है।
पावमानी ऋचाएँ परम पवित्र मानी गयी हैं। वैखानससम्बन्धिनी तीस ऋचाएँ भी परम पवित्र मानी गयी हैं।
ऋषिश्रेष्ठ परशुराम! “परस्य०’ इत्यादि बासठ ऋचाएँ भी पवित्र कही गयी हैं।
‘स्वादिष्ठया०’ (९। १-६७) इत्यादि सरसठ सूक्त समस्त पापोंके नाशक, सबको पवित्र करनेवाला तथा कल्याणकारी कहे गये हैं।
छ: सौ दस पावमानी ऋचाएँ कही गयी हैं। इनका जप और इनसे हवन करनेवाला मनुष्य भयंकर मृत्युभयकी जीत लेता है।
पाप-भयके विनाशके लिये “आयों हि ष्ठा:’ (१०।१। १-३) इत्यादि ऋचाका जलमें स्थित होकर जप करे।
‘प्र देवत्रा ब्रह्मणो०’ (१०।।३०।१)-इस ऋचाका मरुप्रदेशमें मनुष्य प्राणान्तक भयके उपस्थित होनेपर नियमपूर्वक जप करे। उससे शीघ्र भयमुक्त होकर मनुष्य दीर्घायु प्राप्त करता है।
‘प्रा वेपा मा बृहत:०’ (१० ॥ ३४ | १)-इस एक ऋचाका प्रात:काल सूर्योदयके समय मानसिक जप करे। इससे द्युतमें विजयकी प्राप्ति होती है।
‘मा प्रा गाम०” (१ I५७। १) – इस ऋचाका जप करनेसे पथभ्रान्त मनुष्य उचित मार्गको पा जाता है।
यदि अपने किसी प्रिय सुहृद्की आयु क्षीण हुई जाने तो स्नान करके “यते यमं०’ (१० ॥ ५८॥ १)-इस मन्त्रका जप करते हुए उसके मस्तकका स्पर्श करे। पाँच दिनतक हजार बार ऐसा करनेसे वह लंबी आयु प्राप्त करता है।
विद्वान् पुरुष ‘इदमित्था रौद्र गूर्तवचा°’ (१० ॥६१॥।१)-इस ऋचासे धृतकी एक हजार आहुतियाँ दे।
पशुओंकी इच्छा करनेवालेको गोशालामें और अर्थकामौको चौराहेपर हवन करना चाहिये।
‘वय:सुपर्णा०’ (१०।।७३।११)-इस ऋचाका जप करनेवाला लक्ष्मीकी प्राप्त करता है।
“हविष्यान्तमजरं स्वर्विदि०’ (१० ॥ ८८ ॥ १)-इस मन्त्रका जप करके मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है, उसके रोग नष्ट हो जाते हैं तथा उसकी जठराग्रि प्रबल हो जाती हैं।
“या ओषधय:०’ यह मन्त्र स्वस्त्ययन (मङ्गलकारक) है। इसके जपसे रोगोंका विनाश हो जाता है।
वृष्टिकी कामना करनेवाला ‘वृहस्पते अति यदर्योe-‘ (२) ।। २३ ।। १५) आदि ऋचाका प्रयोग करे।
‘सर्वत्र०” इत्यादि मन्त्रके जपसे अनुपम पराशान्तिकी प्राप्ति होती है, ऐसा जानना चाहिये। संतानकी कामनावाले पुरुषके लिये ‘संकाश्यसूक्त’का जप सदा हितकर बताया गया है।
‘अहं रुद्रेभिर्वसुभिः०’ (१०।। १२५ । १)-इस ऋचाके जपसे मानव प्रवचनकुशल हो जाता है।
‘रात्री व्याख्यदायाती●’ (१० ॥ १२७ | १)-इस ऋचाका जप करनेवाला विद्वान् पुरुष पुनर्जन्मको नहीं प्राप्त होता। रात्रिके समय ‘रात्रिसूक्त’का जप करनेवाला मनुष्य रात्रिकी कुशलपूर्वक व्यतीत करता है।
‘कल्पयन्ती०’-इस ऋचाका नित्य जप करनेवाला शत्रुओंका विनाश करनेमें समर्थ होता है।
‘दक्षिायणसूक्त’ महान् आयु एवं तेजकी प्राप्ति कराता है।
‘उत देवा:०’ (१० ॥ १३७ ॥ १)-यह रोगनाशक मन्त्र है। व्रतधारणपूर्वक इसका जप करना चाहिये।
अग्रिसे भय होनेपर ‘अयमग्रे जरिता क्वे०’ (१०।। १४२ ॥ १) इत्यादि ऋचाका जप करे।
जंगलोंमें ‘आरणयान्यप्रणयानिo’ (१० ॥ १४६। १)-इस मन्त्रका जप करे तो भयका नाश होता है।
ब्राह्रीको प्राप्त करके ब्रह्म-सम्बन्धिनी दो ऋचाओंका जप करे और पृथक्-पृथक् जलसे ब्राह्रीलता एवं शतावरीकों ग्रहण करे। इससे मेंधाशक्ति और लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है।
‘शाश इत्था०’ (१० ॥ १५२। १)-यह ऋचा शत्रुनाशिनी मानी गयी है। संग्राममें विजयकी अभिलाषा रखनेवाले वीरकी इसका जप करना चाहिये!
‘व्रह्मणाः संविदान:०'(१० ॥१६२॥ १)— यह ऋचा गर्भमृत्युका निवारण करनेवाली वाली है।
‘अपेहि” (१० | १६४)-इस सूक्तका पवित्र होकर जप करना चाहिये। यह दु:स्वप्नको नाश करनेवाला है।
‘येनेदम्’ इत्यादि ऋचाका जप करके साधक परम समाधि में स्थिर होता है।
‘मयोभूर्वातःe’ (१० ।। १६९ । १)-यह ऋचा गौओंके लिये परम मङ्गलकारक है। इसके द्वारा शाम्बरी माया अथवा इन्द्रजालका निवारण करे।
‘महि त्रीणामवोऽस्तु•’ (१०।१८५।१)-इस कल्याणकारी ऋचाका मार्गमें जप करे।
द्वेषपात्रके प्रति विद्वेष रखनेवाला पुरुष ‘प्राग्रये०” (१० ॥ १८७। १) इत्यादि ऋचाका जप करे, इससे शत्रुओंका नाश होता है।
“वास्तोष्पते०’ आदि चार मन्त्रोंसे गृहदेवताका पूजन करे।
यह जपकी विधि बतायी गयी है।
अब हवनमें जों विशेष विधि हैं, वह जाननी चाहिये।
होमके अन्तमें दक्षिणा देनी चाहिये। होमसे पापकी शान्ति, अन्नसे होमकी शान्ति और स्वर्णदानसे अन्नकी शान्ति होती है। इससे मिलनेवाले ब्राह्मणोंके आशीर्वाद कभी व्यर्थ नहीं जाते। यजमानको सब ओरसे बाह्रा स्नान करना चाहिये।
सिद्धार्थक (सरसों), यव, धान्य, दुग्ध, दधि, घृत, क्षीरवृक्षकी समिधाएँ हवनमें प्रयुक्त होनेपर सम्पूर्ण कामनाओं को सिद्ध करनेवाली हैं तथा अभिचारमें कण्टकयुक्त समिधा, राई, रुधिर एवं विषका हवन करे।
होमकालमें शिलोञ्छवृत्तिसे प्राप्त अन्न, भिक्षान्न, सत्तू, दूध, दही एवं फल-मूलका भोजन करना चाहिये। यह ‘ऋग्विधान” कहा गया है। १२-१८ ॥
दो सौ उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २५९ ॥
अध्याय-२६० यजुर्विधान-यजुर्वेदके विभिन्न मन्त्रोंका विभिन्न कार्योंके लिये प्रयोग
पुष्कर कहते हैं–परशुराम! अब मैं भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले ‘यजुर्विधान” का वर्णन करता हूँ, सुनो।
ॐकार-संयुक्त महाव्याहतियाँ समस्त पापोंका विनाश करनेवाली और सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाली मानी गयी हैं। विद्वान् पुरुष इनके द्वारा एक हजार घृताहुतियाँ देकर देवताओंकी आराधना करे।
परशुराम! इससे मनोवाक्छित कामनाकी सिद्धि होती है; क्योंकि यह कर्म अभीष्ट मनोरथ देनेवाला है।
शान्तिकी इच्छावाला पुरुष प्रणवयुक्त व्याहति-मन्त्रसे जौकी आहुति दे और जो पापोंसे मुक्ति चाहता हो, वह उत्त मन्त्रसे तिलोंद्वारा हवन करे। धान्य एवं पीली सरसोंके हवनसे समस्त कामनाओंकी सिद्धि होती है। परधनकी कामनावालेके लिये गूलरकी समिधाओंद्वारा होम प्रशस्त माना गया है। अन्न चाहनेवाले के लिये दधिसे, शान्तिकी इच्छा करनेवालेके लिये दुग्धसे एवं प्रचुर सुवर्णकी कामना करनेवालेके लिये अपामार्गकी समिधाओंसे हवन करना उत्तम माना गया हैं। कन्या चाहनेवाला एक सूत्रमें ग्रथित दो-दो जातीपुष्पोंको घीमें डुबोकर उनकी आहुति दे। ग्रामाभिलाषी तिल एवं चावलोंका हवन करें। वशीकरण कर्ममें शाखोट (सिंहोर), वासा (अडूसा) और अपामार्ग (चिचिड़ा या ऊँगा) -की समिधाओंका होम करना चाहिये।
भूगुनन्दन! रोगका नाश करनेके लिये विष एवं रक्तसे सिक्त समिधाओंका हवन प्रशस्त है। शत्रुओंके वधकी इच्छासे उक्त समिधाओंका क्रोधपूर्वक भलीभाँति हवन करे।
द्विज सभी धान्योंसे राजाकी प्रतिमाका निर्माण करे और उसका हजार बार हवन करे। इससे राजा वशमें हो जाता है।
वस्त्राभिलाषीको पुष्पोंसे हवन करना चाहिये।
दूर्वाका होम व्याधिका विनाश करनेवाला है।
ब्रह्मतेजकी इच्छा करनेवाले पुरुषके लिये भगवत्प्रीत्यर्थ वासोष्ट्रय (उत्तम वस्त्र) अर्पण करनेका विधान है।
विद्वेषण-कर्मके लिये प्रत्यङ्गिराप्रोक्त विधिके अनुसार स्थापित अग्रिमें धानकी भूसी, कण्टक और भस्मके साथ काक और उलूकके पंखोंका हवन करे।
ब्रह्मन्! चन्द्रग्रहणके समय कपिला गायके घीसे गायत्री-मन्त्रद्वारा आहुति देकर उस घीमें वचाका चूर्ण मिलाकर ‘सम्पात’ नामक आहुति दे और अवशिष्ट वचाको लेकर उसे गायत्री-मन्त्रसे एक सहस्र बार अभिमन्त्रित करे। फिर उस वचाको खानेसे मनुष्य मेधावी होता है।
लोहे या खदिर काष्ठकी गयारह अंगुल लंबी कील “द्विषतो वधोऽसि०’ (१ ।। २८) आदि मन्त्रका जप करते हुए शत्रुके घरमें गाड़ दे। यह मैंने तुमसे शत्रुओंका नाश और उच्चाटन करनेवाला कर्म बतलाया है।
“चक्षुष्पा०’ (२।१६) इत्यादि मन्त्र अथवा चाक्षुषी-जपसे मनुष्य अपनी खोयी हुई नेत्रज्योतिकी पुन: पा लेता है।
‘उपयुञ्जत०’ इत्यादि अनुवाक अन्नकी प्राप्ति करानेवाला है।
‘तनूपा अग्रेऽसि०’ (३।१७) इत्यादि मन्त्रद्वारा दूर्वाका होम करनेसे मनुष्यका संकट दूर हो जाता है।
‘भेषजमसिe” (३।।५९) इत्यादि मन्त्रसे दधि एवं घृतका हवन किया जाय तो वह पशुओंपर आनेवाली महामारी रोगोंको दूर कर देता है।
‘त्र्यम्बक यजामहे०’ (३ । ६०)-इस मन्त्रसे किया हुआ होम सौभाग्यकी वृद्धि करनेवाला है। कन्याका नाम लेकर अथवा कन्याके उद्देश्य से यदि उत्त मन्त्रका जप और होम किया जाय तो वह कन्याकी प्राप्ति करानेवाला उत्तम साधन है।
भय उपस्थित होनेपर ‘त्र्यम्बकo’ (३ । ६०) मन्त्रका नित्य जप करनेवाला पुरुष सब प्रकारके भयोंसे छुटकारा पा जाता है। परशुराम! घृतसहित धतूरके फूलकी उक्त मन्त्रसे आहुति देकर साधक अपनी सम्पूर्णं कामनाओंको प्राप्त कर लेता है। जो ‘त्र्यम्बक’ मन्त्रसे गुग्गुलकी आहुति देता है, वह स्वप्नमें भगवान् शंकरका दर्शन पाता है।
‘युञ्जते मन:०’ (५ ॥ १४)-इस अनुवाकका जप करनेसे दीर्घ आयुकी प्राप्ति होती है।
‘विष्णो रराटमसि०’ (५। २१) आदि मन्त्र सम्पूर्ण बाधाओंका निवारण करनेवाला है। यह मन्त्र राक्षसोंका नाशक, कीर्तिवर्द्धक एवं विजयप्रद है।
‘अयं नो अग्रि:०’ (५। ३७) इत्यादि मन्त्र संग्राममें विजय दिलानेवाला हैं।
स्नानकालमें “इदमाप: प्रवहत०’ इत्यादि (६।१७) मन्त्रका जप पापनाशक है।
दस अंगूल लंबी लोहेकी सुईको ‘विश्वकर्मन हविषा०’ (१७ ॥ २२)-इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित करके जिस कन्याके द्वारपर गाड़ दे, वह कन्या दूसरे किसीको नहीं दी जा सकती।
“देव सवित:o’ (११।७)- इस मन्त्रसे होम करनेपर मनुष्य प्रचुर अन्नराशिसे सम्पन्न होता है॥ १-२२ ॥
धर्मज्ञ जमदग्रिनन्दन! बलकी इच्छा रखनेवाला श्रेष्ठ द्विज ‘अग्रौ स्वाहा०’ मन्त्रसे तिल, यव, अपामार्ग एवं तण्डुलोंसे युक्त हवन-सामग्रीद्वारा होम करे। विप्रवर! इसी मन्त्रसे गोरोचनको सहत्र बार अभिमन्त्रित करके उसका तिलक करनेसे मनुष्य लोकप्रिय हो जाता है।
रुद्र-मन्त्रोंका जप सम्पूर्ण पापोंका विनाश करनेवाला है। उनके द्वारा सर्वत्र शान्ति प्रदान करनेवाला है।
धर्मज्ञ भूगुनन्दन! बकरी, भेड़, घोड़े, हाथी, गौ, मनुष्य, राजा, उपद्रवोंसे पीड़ित एवं रोगग्रस्त हो गये हों, अथवा महामारी या शत्रुओंका भय उपस्थित हो गया हो तो घृतमिश्रित खीरसे रुद्रदेवताके लिये किया गया होम परम शान्तिदायक होता है।
रुद्रमन्त्रोंसे कूष्माण्ड एवं धृतका होम सम्पूर्ण पापोंका विनाश करता है।
नरश्रेष्ठ! जो मानव केवल रातमें सत्तू, जौकी लप्सी एवं भिक्षान्न भोजन करते हुए एक मास तक बाहर नदी या जलाशय में स्नान करता है, वह ब्रह्महत्याके पापसे मुक्त हो जाता है।
‘मधुवाता०’ (१३। २७) इत्यादि मन्त्रसे होम आदिका अनुष्ठान करनेपर सब कुछ मिलता है।
‘दधिक्राव्गो०’ (२३ ॥३२)-इस मन्त्रसे हवन करके गृहस्थ पुत्रोंको प्राप्त करता है, इसमें संशय नहीं है। इसी प्रकार ‘घृतवती भुवनानामभि०” (३४। ४५)-इस मन्त्रसे किया गया घृतका होम आयुको बढ़ानेवाला है।
‘स्वस्ति न इन्द्रो०’ (२५ ॥ ११)-यह मन्त्र समस्त बाधाओंका निवारण करनेवाला है।
‘इह गावः प्रजायध्वम्”-यह मन्त्र पुष्टिवर्धक है। इससे घृतकी एक हजार आहुतियाँ देनेपर दरिद्रताका विनाश होता है।
‘देवस्य त्वा० ‘-इस मन्त्रसे स्रुवाद्वारा अपामार्ग और तंडुलका हवन करनेपर मनुष्य विकृत अभिचारसे शीघ्र छुटकारा पा जाता है, इसमें संशय नहीं है।
“रुद्र यते०’ (१० ॥ २०) मन्त्रसे पलाशकीं समिधाओंका हवन करनेसे सुवर्णकी उपलब्धि होती है।
अग्रिके उत्पातमें मनुष्य ‘शिवो भव०’ (११।४५) मन्त्रसे धान्यकी आहुति दे।
‘या सेना:०’ (११।७७)-इस मन्त्रसे किया गया हवन चोरोंसे प्राप्त होनेवाले भयको दूर करता है।
ब्रह्मन्! जो मनुष्य ‘यो अस्मभ्यमरातीयात्०’ (११।। ८०)-इस मन्नसे काले तिनोंकी एक हजार आहुति देता है, वह विकृत अभिचारसे मुक्त हो जाता है।
‘अन्नपतेe’ (११।। ८३)-इस मन्त्रसे अन्नका हवन करनेसे मनुष्यको प्रचुर अन्न प्राप्त होता है ॥
‘हंसः शुचिघत्•’ (१० ।। २४) इत्यादि मन्नका जनमें किया गया जप समस्त पापोंका नाश करता है।
‘चत्वारेि भूङ्गा०’ (१७।।९१) इत्यादि मन्त्रका जल में किया गया जप समस्त पापोंका अपहरण करनेवाला है।
‘देवा यज्ञमतन्नतe’ (११। १२) इसका जप करके साधक ब्रह्मलोकमें पूजित होता है।
‘वसन्तो स्यासीद’ (३१ ॥१४) इत्यादि मन्त्रसे घृतकी आहुति देनेपर भगवान् सूर्यसे अभीष्ट वरकी प्राप्ति होती है।
“सुपर्णोऽसि०’ (१७॥७२) इत्यादि मन्त्रसे साध्यकर्म व्याहति-मन्त्रोंसे साध्यकर्मके समान हीं होता है।
“नमः स्वाहाe ‘ आदि मन्त्रका तीन बार जप करके मनुष्य बन्धनसे मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
जलके भीतर “द्रुपदादिव मुमुचान:०’ (२० ॥ २०) इत्यादि मन्त्रकी तीन आवृतियाँ करके मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है।
“इह गाव: प्रजायध्वम्’-इस मन्त्रसे घृत, दधि, दुग्ध अथवा खीरका हवन करनेपर बुद्धिकी वृद्धि होती है।
‘शं नी देवी:०’ (३६ | १२)-इस मन्त्रसे पलाशके फलोंकी आहुती देनेसे मनुष्य आरोग्य, लक्ष्मी और दीर्घ जीवन प्राप्त करता हैं।
‘औषधी: प्रतिमोदध्वमo’ (१२।७७)-इस मन्त्रसे बीज बौने और फसल काटने के समय होम करनेपर अर्थकी प्राप्ति होती हैं।
‘आश्चावतीर्गोमतीर्ण उपासोंe” (३४ ॥ ४०) मन्नसे पायसका होम करनेसे शान्तिकी प्राप्ति होती है।
‘तस्मा आरं गमामo ” (३६। १६) इत्यादि मन्त्रसे होम करनेपर बन्धनग्रस्त मनुष्य मुक्त हो जाता है।
‘युवा सुवासा०’ (तैe ब्रा० ३ । ६ । १३) इत्यादि मन्त्रसे हवन करनेपर उत्तम वस्त्रोंकी प्राप्ति होती है।
‘मुच्चन्तु मा शपथ्यात’ (१२।९०) इत्यादि मन्त्रसे हवन करने पर शाप या शपथ आदि समस्त किलिंबषोंका नाश होता है।
‘मा मा हिसीज्जनिता:०’ (१२ | १०२) इत्यादि मन्त्रसे धृतमिश्रित तिलोंका होम शत्रुओंका विनाश करनेवाला होता है।
‘नमोऽस्तु सर्पभ्यो०’ (१३ । ६) इत्यादि मन्त्रसे घृतका होम एवं “कृणुष्व पाज:०’ (१३।९) इत्यादि मन्त्रसे खीरका होम अभिचारका उपसंहार करनेवाला है।
‘काण्डात् काण्डात्ष्” (१३। २०) इत्यादि मन्त्रसे दूर्वाकाण्डकी दस हजार आहुतियाँ देकर होता ग्राम या जनपदमें फैली हुई महामारीको शान्त करे। इससे रोगपीड़ित मनुष्य रोगसे और दु:खग्रस्त मानव दु:खसे छुटकारा पाता है।
परशुराम ! ‘मधुमानो वनस्पति:०’ (१३।२९) इत्यादि मन्त्रसे उदुम्बरकी एक हजार समिधाओंका हवन करके मनुष्य धन प्राप्त करता है तथा महान् सौभाग्य एवं व्यवहार में विजय लाभ करता है।
‘अपां गमभन्सीद मा त्वाe’ (वाe १३ || ३०) इत्यादि मन्त्रसे हवन करके मनुष्य निश्चय ही पर्जन्यदेवसे वर्षा करवा सकता है।
धर्मज्ञ परशुराम! ‘अप: पिवन्। वौषधीः०’ (१४।।८) इत्यादि मन्त्रसे दधि, घृत एवं मधुका हवन करके यजमान तत्काल महावृष्टि करवाता है।
‘नमस्ते रुद्र०’ (१६। १) इत्यादि मन्त्रसे आहुति दी जाय तो यह कर्म। समस्त उपद्रवोंका नाशक, सर्वशान्तिदायक तथा महापातकोंका निवारक कहा गया है।
‘अध्यवोचदधिवक्ता’o’ (१६ |५) इत्यादि मन्त्रसे आहुति देनेपर व्याधिग्रस्त मनुष्यकी रक्षा होती है। इस मन्त्र से किया गया हवन राक्षसोंका नाशक, कीर्तिकारक तथा दीर्घायु एवं पुष्टिका वर्धक है।
मार्गमें सफेद सरसों फेंकते हुए इसका जप करनेवाला राहगीर सुखी होता है।
धर्मज्ञ भूगुनन्दन! ‘असौ यस्ताम्र:०’ (१६।। ६)-इसका पाठ करते हुए नित्य प्रात:काल एवं सायंकाल आलस्यरहित होकर भगवान् सूर्यका उपस्थान करे। इससे वह अक्षय अन्न एवं दीर्घ आयु प्राप्त करता है ॥
‘प्रमुञ्च धन्वन्•” (१६।९-१४) इत्यादि छः मन्त्रोंसे नहीं करना चाहिये।
‘मानो महान्तम्’ (१६।। १५) इत्यादि मन्त्रका जप एवं होम बालकोंके लिये शान्तिकारक होता है।
‘नमो हिरण्यवाहवे० ‘ (१६।१७) इत्यादि सात अनुवाकोंसे कडुए तेलमें मिलायी गयी राईकी आहुति दे तो वह शत्रुओंका नाश करनेवाली होती हैं।
‘नमो वः किरिकेaयोंe’ (१६ । ४६)-इस अर्धमन्त्रसे एक लाख कमलपुष्पोंका हवन करके मनुष्य राज्यलक्ष्मी प्राप्त कर लेता है तथा बिल्वफलोंसे उतनी ही आहुतियाँ देनेपर उसे सुवर्णराशिकी उपलब्धि होती है।
‘इमा रुद्राय०’ (१६ ॥ ४८) मन्त्रसे तिलोंका होम करनेपर धनकी प्राप्ति होती है। एवं इसी मन्त्र से घृतसित दुर्वाका हवन करनेपर मनुष्य समस्त व्याधियोंसे मुक्त होता है।
परशुराम! ‘आशु शिशान:०’ (१७।३३)-यह मन्त्र आयुधोंकी रक्षा एवं संग्राममें सम्पूर्ण शत्रुओंका विनाश करनेवाला है।
धर्मज्ञ द्विजश्रेष्ठ! ‘वाजश्व में० ‘ (१८ ॥ १५-१९) इत्यादि पाँच मन्त्रोंसे घृतकी एक हजार आहुतियाँ दे। इससे मनुष्य नेत्ररोगसे मुक्त हो जाता है।
‘शं नो वनस्पते०’ (१९ ॥ ३८) इस मन्त्रसे घरमें आहुति देनेपर वास्तुदोषका नाश होता है।
‘अग्र आयुंधि०’ (१९।। ३८) इत्यादि मन्त्रसे घृतका हवन करके मनुष्य किसीका द्वेषपात्र नहीं होता।
‘अपां फेनेन०’ (११ ॥ ७१) मन्त्र से लाजा का हीम करके योद्धा विजय प्राप्त करता है।
‘भद्रा उत प्रशस्तयों० ” (१४।३९) इत्यादि मन्त्रके जपसे इन्द्रियहीन अथवा दुर्बल इन्द्रिय मनुष्य समस्त इन्द्रियोंकी शक्तिसे सम्पन हो जाता है।
‘अग्रिश्च पृथिवी च०’ (२६। १) इत्यादि मन्त्र उत्तम वशीकरण हैं।
‘अथ्वना० ‘ (५ ॥ ३३) आदि मन्त्रका जप करनेवाला मनुष्य व्यवहार (मुकदमे)-में विजयी होता है।
कार्यके आरम्भर्मे ‘ ब्रह्म क्षत्रं पवतेo ‘ ( १९ । ५) इत्यादि मन्त्रका जप सिद्धि प्रदान करता है।
‘संवत्सरोऽस्मि०’ (२७।।४५) इत्यादि मन्त्रसे घृतकी एक लाख आहुतियाँ देनेवाला रोगमुक्त हो जाता है।
‘केतु कृण्वन्•’ (२९ ।। ३७) इत्यादि मन्त्र संग्राममें विजय दिलानेवाला है।
‘इन्द्रोऽग्निर्धर्म:०’ मन्त्र युद्धर्मे धर्मसंगत विजयकों प्राप्ति कराता हैं।
“धन्वना गा०’ (२९ ॥ ३९) मन्त्रका धनुष ग्रहण करनेके समय जप करना उत्तम माना गया है।
‘यजीत०’- यह मन्त्र धनुषकी प्रत्यंचाको अभिमंत्रित करनेके लिये है, ऐसा जानना चाहिये।
‘ अहिरिव भोगै:०’ (२९।५१)। मन्त्रका बाणोंको अभिमन्त्रित करनेमें प्रयोग करे।
‘वहीनां पिता०’ (२९ ॥ ४२)-यह तूणीरकी अभिमन्त्रित करनेका मन्त्र बतलाया गया है।
‘युद्धन्यस्य०’ (२३ । ६) इत्यादि मन्त्र अश्वोंकी रथ में जोतनेके लिये उपयोगी बताया गया है।
‘आशुः शिशानः ०’ ( १७ ।। ३३)-यह मन्त्र यात्रारम्भके समय मंगलके रूपमें पठनीय कहा जाता हैं ।
‘विष्णोः क्रमोऽसिo’ ( १२ । ५) मन्त्रका पाठ रथारोहणके समय करना उत्तम हैं।
‘आजङ्गन्ति०’ (२९।५०)-इस मन्त्रसे अश्वको प्रेरित करनेके लिये प्रथम बार चाबुकसे हाँक।
‘या: सेना अभित्वरीं:०’ (११ ॥७७) इत्यादि मन्त्रका शत्रुसेनाके सम्मुख जप करे।
‘दुन्दुभ्य:०’ इत्यादि मन्त्रसे दुन्दुभि या नगारेकों पीटे। इन मन्त्रोंसे पहले हवन करके तब उपर्युत कर्म करनेपर योद्धाकी संग्राममें विजय प्राप्त होती है।
विद्वान् पुरुष ‘यमेन दत्तं०’ (२९। १३)-इस मन्त्रसे एक करोड़ आहुतियाँ देकर संग्रामके लिये शीध्रही विजयप्रद रथ उत्पन्न कर सकता है।
‘आकृष्णेन०’ (३४ ॥ ३१) इत्यादि मन्त्रसे साध्यकर्म व्याहुतियोंके समान ही होता है।
‘यज्जाग्रतों०’ (३४। १) इत्यादि शिवसंकल्प सम्बन्धी सूक्तोंके जपसे साधकका मन एकाग्र होता है।
‘पञ्चनद्य:०’ (३४।११) इत्यादि मन्त्रसे पाँच लाख घीकी आहुतियाँ देनेपर लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है।
‘यदावध्नन्दाक्षायणाः,०’ (३४।। ५२)-इस मन्त्रसे हजार बार अभिमन्त्रित करके सुवर्णको धारण करे। यह प्रयोग शत्रुओंका निवारण करनेवाला होता है।
‘इम जीवेभ्य:०’ (३५ । १५) मन्त्रसे शिला अथवा ढेलेको अभिमन्त्रित करके घरमें चारों ओर फेंक दे। ऐसा करनेवाले को रातमें चोरोंसे भय नहीं होता।
‘परीमे गामनेषत्०’ (3५ | १८)-यह उत्तम वशीकरण-मन्त्र है। इस मन्त्रके प्रयोगसे मारनेके लिये आया हुआ मनुष्य भी वश में हो जाता है। धर्मात्मन! उक्त मन्त्रसे दे दिया जाय तो वह शीघ्र ही देनेवालेके वशीभूत हो जायगा।
“शां नो मित्र:०’ (३६ । १)-यह मन्त्र संदैव सभी स्थानोंपर शान्ति प्रदान करनेवाला है।
‘गणानां त्वा गणपति०’ (२३ । १९)-इस मन्त्रसे चौराहेपर सप्तधान्यका हवन करके होता सम्पूर्ण जगत् को वशीभूत कर लेता है, इसमें संशय नहीं है।
‘हिरण्यवणा: शुकय:०’- इस मन्त्रका अभिषेक में प्रयोग करना चाहिये।
‘श नो देवीरभीष्टृयैe ” ( ३६ || १२)—यह मन्त्र परम शान्तिकारक हैं।
‘एकचक्र०’ इत्यादि मन्त्रसे आज्यभागपूर्वक ग्रहोंके लिये घीकी आहुति देनेपर साधककी शान्ति प्राप्त होती है और निस्संदेह उसे ग्रहोंका कृपाप्रसाद सुलभ हो जाता है।
‘गाव उपावतावम्°’ (३३ ।। २९) एवं ‘भग प्रणेतः ०’ (३४।३६-३७) इत्यादि दो मन्त्रोंसे घृतका हवन करके मनुष्य गौओंकी प्राप्ति करता है।
‘प्रवादां ष: सोपत्०’- इस मन्त्रका ग्रहयज्ञमें प्रयोग होता है।
‘देवेभ्यो वनस्पतेः” इत्यादि मन्त्रका वृक्षयज्ञमें विनियोग होता है।
गायत्रीको विष्णुरूपा जाने। समस्त पापोंका प्रशमन एवं समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला विष्णुका परमपद भी वहीं है।॥ २३-८४ ॥
दो साँ साठवाँ अध्याय पूरा हुआ। २६० ॥
अध्याय-२६१ सामविधान – सामवेदोक्त मन्त्रोंका भिन्न-भिन्न कार्योंके लिये प्रयोग
पुष्कर कहते हैं-परशुराम! मैंने तुम्हें ‘यजुर्विधान’ कह सुनाया, अब मैं ‘सामविधान’ कहूँगा।
“वैष्णवी-संहिता’ का जप करके उसका दशांश होम करे। इससे मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंका भागी होता है।
‘छान्दसी-संहिता’ का विधिपूर्वक जप करके मानव भगवान् शंकरको प्रसन्न कर लेता है।
‘स्कन्द-संहिता’ और “पितृ-संहिता का जप करनेसे प्रसन्नताकी प्राप्ति होती है।
‘यत इन्द्र भजामहे०'(१३२१)-इस मन्त्रका जप हिंसा-दोषका नाश करनेवाला हैं।
‘अग्निस्तिग्मेन०’ (२२) इत्यादि मन्त्रका जप करनेवाला अवकीणों (जिसका ब्रह्मचर्यावस्थामें ही ब्रह्मचर्य खण्डित हो गया हो, वह) पुरुष भी अपने पाप-दोषसे मुक्त हो जाता है।
‘परीतोऽधिञ्चता सुतम्०’ (५१२) इत्यादि साममन्त्र समस्त पापोंका नाश करनेवाला है, ऐसा जानना चाहिये।
जिसने प्रमादवश निषिद्ध वस्तुका विक्रय कर लिया हो, वह उसके प्रायश्चित्तरूपसे ‘धृतवती भुवना०’ (३७८) इत्यादि मन्त्रका जप कोरे ।
‘अद्य नो देव सवितः०” (१४१)-यह मन्त्र दुःस्वप्नोंका नाश करनेवाला हैं।
भृगुश्रेष्ठ परशुराम ! ‘अब्बोध्यग्निःe’ (१७४६) इत्यादि मन्त्र से विधिवत् घृतका हवन करे। फिर शेष धृतसे मेखलाबन्ध (करधनी आदि)-का सेचन करे। वह मेखलाबन्ध ऐसी स्त्रियोंकी धारण करावे, जिनके गर्भ गिर जाते रहे हों। तदनन्तर बालकके उत्पन्न होनेपर उसे पूर्वोक्त मन्त्रसे अभिमन्त्रित मणि पहनावे।
‘सोम राजानम०’ (११) मन्त्रके जप से रोगी व्याधियोंसे छुटकारा पाता है।
सर्पसामका प्रयोग करनेवालेको कभी सर्पोंसे भय नहीं प्राप्त होता।
ब्राह्मण ‘मा पापत्वाय नी:e’ (९१८)-इस मन्त्रसे सहस्र आहुतियाँ देकर शतावरीयुक्त मणि बांधनेसे शस्त्रभयको नहीं प्राप्त होता ।
‘दीर्घतमसोऽर्क:०’-इस साममन्त्रसे हवन करनेपर प्रचुर अन्नकी प्राप्ति होती है।
‘समन्या यन्ति:e” (६०७)—इस सामका जप करनेवाला प्याससे नहीं मर सकता।
‘त्वमिमा औषधी:०’ (६०४)-इस मन्त्रका जप करनेसे मनुष्य कभी व्याधिग्रस्त नहीं होता।
मागमें ‘देवव्रत-साम’का जप करके मानव भय से छुटकारा पा जाता है।
‘यदिन्द्रो अनुनयत्e’ (१४८)-यह मन्त्र हवन करनेपर सौभाग्यकी वृद्धि करता है।
परशुराम ! ‘भगो न चित्रो०’ (४४९)-इस मन्त्रका जप करके नेत्रोंमें लगाया गया अज्ञन हितकारक एवं सौभाग्यवर्द्धक होता है, इसमें अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये।
“इन्द्र”-इस पदसे प्रारम्भ होनेवाले मन्त्रवर्गका जप करें। इससे सौभाग्यकी वृद्धि होती है।
“परि प्रिया दिवः कविः०” (`४७६)-यह मन्त्र, जिसे प्राप्त करनेकी इच्छा हो, उस स्त्रीको सुनावे । परशुराम! ऐसा करनेसे वह स्त्री उसे चाहने लगती हैं, इसमें अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये।
‘रथन्तर-साम’ एवं ‘वामदेव्य-साम’ ब्रह्मतेजकी वृद्धि करनेवाले हैं। ‘इन्द्रमिदगाथिनोo’ (१९८) इत्यादि मन्त्रका जप करके धृतमें मिलाया हुआ बचा चूर्ण प्रतिदिन बालककी खिलाये। इससे वह श्रुतिधर हो जाता है, अर्थात् एक बार सुननेसे ही उसे शास्त्रकी पंक्तियाँ याद हो जाती हैं।
‘रथन्तर-साम’ का जप एवं उसके द्वारा होम करके पुरुष निस्संदेह पुत्र प्राप्त कर लेता है।
‘मयि श्री:०’ (‘मयि वचों अथो०’) (६०२)-यह मन्त्र लक्ष्मीकी वृद्धि करनेवाला है। इसका जप करना चाहिये।
प्रतिदिन ‘वैरूप्याटक’ (वैरूप्य। सामके आठ मन्त्र)-का पाठ करनेवाल्ना लक्ष्मीकी प्राप्ति करता है।
‘सप्ताष्ट्रक’का प्रयोग करनेवाला समस्त कामनाओंको प्राप्त कर लेता है।
जो मनुष्य प्रतिदिन प्रात:काल एवं सायंकाल आलस्यरहित होकर ‘गव्योपुणो यथा०’ (१८६)- इस मन्त्रसे गौओंका उपस्थान करता है, उसके घरमें गौएँ सदा बनी रहती हैं।
‘वात आ वातु भेषजम्•’ (१८४) मन्त्रसे एक द्रोण घृतमिश्रित यवोंका विधिपूर्वक होम करके मनुष्य सारी मायाको नष्ट कर देता है।
‘प्र दैवोदासो०’ (५१) आदि सामसे तिलोका होम करके मनुष्य अभिचारकर्मको शान्त कर देता है।
‘अभि त्वा शर नोनुमो०’ (२३३)-इस सामको अन्तमें वषट्कारसे संयुक्त करके [इससे वासक (अडूसा) वृक्षकी एक हजार समिधाओंका होम युद्धमें विजयकी प्राप्ति करानेवाला हैI] उसके साथ ‘वामदेव्यसाम’का सहस्र बार जप और उसके द्वारा होम किया जाय तो वह युद्धमें विजयदायक होता है।
विद्वान् पुरुष सुन्दर पिष्टमय हाथी, घोड़े एवं मनुष्योंका निर्माण करे। फिर शत्रुपक्षके प्रधानप्रधान वीरोंको लक्ष्यमें रखकर उन पसीजे हुए पिटकमय पुरुषोंके छूरेसे टुकड़े-टुकड़े कर डाले: तदनन्तर मन्त्रवेत्ता पुरुष उन्हें सरसोंके तेलमें भिगोकर ‘अभि त्वा शूर नोनुमो०’ (२३३)-इस मन्त्रसे उनका क्रोधपूर्वक हवन करे। बुद्धिमान् पुरुष यह अभिचारकर्म करके संग्राममें विजय प्राप्त करता हैं।
गारुड वामदेव्य, रथन्तर एवं बृहद्रथ-साम निस्देह समस्त पापोंका शमन करनेवाले कहे गये हैं। १-२४ ॥
दो सौ इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २६१ ॥
अध्याय-२६२ अथर्वविधान-अथर्ववेदोक्त मन्त्रोंका विभिन्न कर्मोमें विनियोग
पुष्कर कहते हैं–परशुराम! ‘सामविधान” कहा गया। अब मैं ‘अथर्वविधान का वर्णन करूंगा।
शान्तातीयगणके उद्देश्यसे हवन करके मानव शान्ति प्राप्त करता है। भैषज्यगण के उद्देश्यसे होम करके होता समस्त रोगोंको दूर करता है। त्रिसप्तीयगणके उद्देश्यसे आहुतियाँ देनेवाला सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है। अभयगणके उद्देश्यसे होम करनेपर मनुष्य किसी स्थानपर भी भय नहीं प्राप्त करता। परशुराम! अपराजितगणके उद्देश्यसे हवन करनेवाला कभी पराजित नहीं होता। आयुष्यगणके उद्देश्यसे आहुतियाँ देकर मानव दुमृत्युको दूर कर देता है। स्वस्त्ययनगणके उद्देश्यसे हवन करनेपर सर्वत्र मङ्गलकी प्राप्ति होती है। शर्मवर्मगणके उद्देश्यसे होम करनेवाला कल्याणका भागी होता है। वास्तोष्पत्यगणके उद्देश्यसे आहुतियाँ देनेपर वास्तुदोषकी शान्ति होती है। रौद्रगणके लिये हवन करके होता सम्पूर्ण दोषोंका विनाश कर देता है।
निम्नाङ्कित अठारह प्रकारकी शान्तियोंमें इन दस गणोंके द्वारा होम करना चाहिये। (वे अठारह शान्तियाँ ये हैं-) वैष्णवी, ऐन्द्री, ब्राह्मी, रौद्री, वायव्या, वारुणी, कौबेरी, भार्गवी, प्राजापत्या, त्वाष्ट्री, कौमारी, आग्नेयी, मारुद्गणी, गान्धर्वी, नैऋतिकी, आङ्गिरसी, याम्या एवं कामनाओंको पूर्ण करनेवाली पार्थिवी शान्ति ॥ १-८ ॥
‘यस्त्वां मृत्यु:०’ इत्यादि आथर्वण-मन्त्रका जप मृत्युका नाश करनेवाला है।
‘सुपर्णस्त्वा०’ (४।।६।३)-इस मन्त्रसे होम करनेपर मनुष्यकों सर्पोसे बाधा नहीं प्राप्त होती।
‘इन्ट्रेण दत्तो०’ (२।२९।।४)-यह मन्त्र सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्ध करनेवाला है।
‘इन्द्रण दत्तो०’ यह मन्त्र समस्त बाधाओंका भी विनाश करनेवाला है।
‘इमा या देवी’ (२।। १० ॥ ४)-यह मन्त्र सभी प्रकारकी शान्तियोंके लिये उत्तम है।
‘देवा मरुत:”-यह मन्त्र समस्त कामनाओंकी सिद्ध करनेवाला है।
‘यमस्य लोकाद०’ (१९।५६। १)-यह मन्त्र दु:स्वप्नका नाश करने में उत्तम है।
‘इन्द्रश्च पञ्च वणिज:०’-यह मन्त्र परमपुण्यका लाभ करानेवाला है।
“कामों में वाजी०’ मन्नसे हवन करनेपर स्त्रियोंके सौभाग्यकी वृद्धि होती है।
‘तुभ्यमेव०’ (२।२८। १) इत्यादि मन्त्रकी नित्य दस हजार जप करते हुए उसका दशांश हवन करे एवं ‘अग्रे गोभिन:०’ मन्त्रसे होम करे तो उत्तम मेधाशक्तिकी वृद्धि होती है।
“ध्रुवं ध्रुवेण०’ (७ ॥ ८४। १) इत्यादि मन्त्रसे होम किया जाय तो वह स्थानकी प्राप्ति कराता है।
‘अलतनीवेति शुना०’-यह मन्त्र कृषि-लाभ करानेका साधन है।
‘अहं ते भग्रः”-यह मन्त्र सौभाग्यकी वृद्धि करनेवाला है।
‘ये में पाशा:०’ मन्त्र बन्धनसे छुटकारा दिलाता है।
‘शपत्वहन०’-इस मन्त्रका जप एवं होम करनेसे मनुष्य अपने शत्रुओंका विनाश कर सकता है।
‘त्वमुक्तमम्०’-यह मन्त्र यश एवं बुद्धिका विस्तार करनेवाला है।
“यथा मृगा:०’ (५ ॥ २१।४)-यह मन्त्र स्त्रियोंके सौभाग्यको बढ़ानेवाला है।
“येन चेह दिश चैव०’-यह मन्न गर्भकी प्राप्ति करानेवाला है।
‘अयं ते योनि:०’ (३। २० ॥ १)-इस मन्नके अनुष्ठानसे पुत्रलाभ होता है।
‘शिव: शिवाभि:०’ इत्यादि मन्त्र सौभाग्यवर्धक हैं।
‘बृहस्पतिर्नः परि पातु०’ (७।।५१।१) इत्यादि मन्त्रका जप मार्गमें मङ्गल करनेवाला है।
‘मुचामि त्वा०” (३।११।१)-यह मन्त्र अपमृत्युका निवारक है।
अथर्वशीर्षका पाठ करनेवाला समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है।
यह मैंने तुमसे प्रधानतया मन्त्रोंके द्वारा साध्य कुछ कर्म बताये हैं।
परशुराम! यज्ञसम्बन्धी वृक्षोंकी समिधाएँ सबसे मुख्य हविष्य है। इसके सिवा धृत, धान्य, श्वेत सर्षप, अक्षत, तिल, दधि, दुग्ध, कुश, दुर्वा, विल्ब और कमल –ये सभी द्रव्य शान्तिकारक एवं पुष्टिकारक बताये गये है। धर्मज्ञ! तेल, कण, राई, रुधिर, विष एवं कंटकयुक्त समिधाओंका अभिचारक कर्ममें प्रयोग करे। जो मन्त्रोंके ऋषि, देवता, छंद और विनियोगको जानता है, वही उन उन मन्त्रोंद्वारा कथित कर्मोंका अनुष्ठान करे।
अध्याय-२६३ नाना प्रकारके उत्पात और उनकी शान्तिके उपाय
पुष्कर कहते हैं– परशुराम! प्रत्येक वेदके ‘श्रीसूत’को जानना चाहिये। वह लक्ष्मीकी वृद्धि करनेवाला है।
‘हिरणयवणां हरिणीं” इत्यादि पंद्रह ऋचाएँ ऋग्वेदीय श्रीसूक्त हैं।
‘रथे०'(२९-४३) ‘अक्षराजायo’,(३o I १८) ‘वाज:0′, (१८ || ३४) एवं “चतस्त्र:०’ (१८। ३२)-ये चार मन्त्र यजुर्वेदीय श्रीसूक्त हैं।
‘श्रावन्तीय-साम’ सामवेदीय श्रीसूक्त है तथा
‘श्रियं धातर्मयि धेहि’ यह अथर्ववेदका श्रीसूक्त कहा गया है।
जो भक्तिपूर्वक श्री सूक्तका जप एवं होम करता है, उसे निश्चय ही लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है।
श्रीदेवीकी प्रसन्नताके लिये कमल, बेल, घी अथवा तिलकी आहुति देनी चाहिये ॥ १-३ ॥
प्रत्येक वेदमें एक ही ‘पुरुषसूक्त” मिलता है, जो सब कुछ देनेवाला है।
जो स्नान करके ‘पुरुषसूक्त’के एक-एक मन्त्रसे भगवान् श्रीविष्णुको एक-एक जलाञ्जलि और एक-एक फूल समर्पित करता है, वह पापरहित होकर दूसरोंके भी पापका नाश करनेवाला हो जाता है। स्नान करके इस सूक्तके एक-एक मन्त्रके साथ श्रीविष्णुको फल समर्पित करके पुरुष सम्पूर्ण कामनाओंका भागी होता है।
‘पुरुषसूक्त’के जपसे महापातकों और उपपातकोंका नाश हो जाता है।
कृच्छ्व्रत करके शुद्ध हुआ मनुष्य स्रानपूर्वक ‘पुरुषसूक्त’का जप एवं होम करके सब कुछ पा लेता है। ४-६ ॥
अठारह शान्तियोंमें समस्त उत्पातोंका उपसंहार करनेवाली अमृता, अभया और सौम्या-ये तीन शान्तियाँ सर्वोत्तम हैं।
‘अमृता शान्ति’ सर्वदैवत्या, ‘अभया’ ब्रह्मदैवत्या एवं ‘सौम्या’ सर्वदैवत्या है। इनमेसे प्रत्येक शान्ति सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाली है।
भूगुश्रेष्ठ! ‘अभया’ शान्तिके लिये वरुणवृक्षके मूलभागकी मणि बनानी चाहिये। ‘अमृता’ शान्तिके लिये दुर्वामूलकी मणी एवं “सौम्या” शांतिके लिये शङ्कमणि धारण करे। इसके लिये उन-उन शान्तियोंके देवताओंसे सम्बद्ध मन्त्रोंको सिद्ध करके मणि बाँधनी चाहिये। ये शान्तियाँ दिव्य, आन्तरिक्ष एवं भौम उत्पातोंका शमन करनेवाली हैं।
‘दिव्य’, ‘आन्तरिक्ष’ और ‘भौम’-यह तीन प्रकारका अद्भुत उत्पात बताया जाता है, सुनो।
ग्रहों एवं नक्षत्रोंकी विकृतिसे होनेवाले उत्पात ‘दिव्य” कहलाते हैं।
अब ‘आन्तरिक्ष’ उत्पातका वर्णन सुनो ।
उल्कापात, दिग्दाह, परिवेश, सूर्यपर घेरा पड़ना, गन्धर्व नगरका दर्शन एवं विकारयुक्त वृष्टि-ये अन्तरिक्ष-सम्बन्धी उत्पात हैं।
भूमिपर एवं जंगम प्राणियोंसे होनेवाले उपद्रव तथा भूकम्प-ये ‘भौम’ उत्पात हैं।
इन त्रिविध उत्पातोंके दीखनेके बाद एक सप्ताहके भीतर यदि वर्षा हो जाय तो वह ‘अद्भुत’ निष्फल हो जाता है।
यदि तीन वर्षतक अद्भुत उत्पातकी शान्ति नहीं की गयी तो वह लोकके लिये भयकारक होता है।
जब देवताओंकी प्रतिमाएँ नाचती, काँपती, जलती, शब्द करती, रोती, पसीना बहाती या हँसती हैं, तब प्रतिमाओंके इस विकारकी शान्तिके लिये उनका पूजन एवं प्राजापत्य-होम करना चाहिये।
जिस राष्ट्रमें बिना जलाये ही घोर शब्द करती हुई आग जल उठती है और इन्धन डालनेपर भी प्रज्वलित नहीं होती, वह राष्ट्र राजाओंके द्वारा पीड़ित होता है॥७-१६॥
भूगुनन्दन! अग्रि-सम्बन्धी विकृतिकी शान्तिके लिये अग्रिदैवत्य-मन्त्रोंसे हवन बताया गया है।
जब वृक्ष असमयमें ही फल देने लगें तथा दूध और रक्त बहावें तो वृक्षजनित भौम-उत्पात होता है। वहाँ शिवका पूजन करके इस उत्पातकी शान्ति करावे ।
अतिवृष्टि और अनावृष्टि-दोनों ही दुर्भिक्षाका कारण मानी गयी हैं। वर्षा-ऋतुके सिवा अन्य ऋतुओंमें तीन दिनतक अनवरत वृष्टि होनेपर उसे भयजनक जानना चाहिये। पर्जन्य, चन्द्रमा एवं सूर्यके पूजनसे वृष्टि-सम्बन्धी वैकृत्य (उपद्रव)-का विनाश होता है।
जिस नगरसे नदियाँ दूर हट जाती हैं या अत्यधिक समीप चली आती हैं और जिसके सरोवर एवं झरने सूख जाते हैं, वहाँ जलाशयोंके इस विकारको दूर करनेके लिये वरुणदेवता-सम्बन्धी मन्त्रका जप करना चाहिये ।
जहाँ स्त्रियाँ असमयमें प्रसव करें, समयपर प्रसव न करें, विकृत गर्भको जन्म दें या युग्म-संतान आदि उत्पन्न करें, वहाँ स्त्रियोंके प्रसव-सम्बन्धी वैकृत्यके निवारणार्थ साध्वी स्त्रियों और ब्राह्मण आदिका पूजन करे॥१७-२२ ॥
जहाँ घोड़ी, हथिनी या गौ एक साथ दो बच्चोंको जनती हैं या विकारयुक्त विजातीय संतानको जन्म देती हैं, छ: महीनोंके भीतर प्राणत्याग कर देती हैं अथवा विकृत गर्भका प्रसव करती हैं, उस राष्ट्रको शत्रुमण्डलसे भय होता है। पशुओंके इस प्रसव-सम्बन्धी उत्पातकी शान्तिके उद्देश्य से होम, जप एवं ब्राह्मणोंका पूजन करना चाहिये।
जब अयोग्य पशु सवारीमें आकर जुत जाते हैं, योग्य पशु यानका वहन नहीं करते हैं एवं आकाशमें तूर्यनाद होने लगता है, उस समय महान् भय उपस्थित होता है। जब वन्यपशु एवं पक्षी ग्राममें चले जाते हैं, ग्राम्यपशु वनमें चले जाते हैं, स्थलचर जीव जलमें प्रवेश करते हैं, जलचर जीव स्थलपर चले जाते हैं, राजद्वारपर गीदड़ियाँ आ जाती हैं, मुर्गों प्रदोषकालमें शब्द करें, सूर्योदयके समय गीदड़ियाँ रुदन करें, कबूतर घरमें घुस आवे, मांसभौजी पक्षी सिरपर मँडराने लगें, साधारण मक्खी मधु बनाने लगें, कौए सबकी आँखोंके सामने मैथुनमें प्रवृत हो जाय, दृढ़ प्रासाद, तोरण, उद्यान, द्वार, परकोटा और भवन अकारण ही गिरने लगें, तब राजाकी मृत्यु होती है।
जहाँ धूल या धुएँसे दशों दिशाएँ भर जाये, केतुका उदय, ग्रहण, सूर्य और चन्द्रमामें छिद्र प्रकट होना-ये सब ग्रहों और नक्षत्रोंके विकार हैं। ये विकार जहाँ प्रकट होते हैं, वहाँ भयकी सूचना देते हैं।
जहाँ अग्रि प्रदीप्त न हो, जलसे भरे हुए घड़े अकारण ही चूने लगें तो इन उत्पातोंके फल मृत्यु, भय और महामारी आदि होते हैं।
ब्राह्मणों और देवताओंकी पूजासे तथा जप एवं होमसे इन उत्पातोंकी शान्ति होती है ॥ २३-३३॥
दो सौ तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ। २६३ ॥
अध्याय-२६४ देवपूजा तथा वैश्वदेव-बलि आदिका वर्णन
पुष्कर कहते हैं–परशुराम! अब मैं देवपूजा आदि कर्मका वर्णन करूंगा, जो उत्पातोंको शान्त करनेवाला है। मनुष्य स्नान करके ‘आपो हि ष्ठा०’ (यजु० ३६ ॥ १४-१६) आदि तीन मन्त्रोंसे भगवान् श्रीविष्णुको अर्घ्यं समर्पित करे ।
फिर ‘हिरण्यवर्णा-‘ (ऋकू०प० ११।११।१-३) आदि तीन मन्त्रोंसे पाद्य समर्पित करे।
“शनों आप:०’- इस मन्त्रसे आचमन एवं “इदमाप:०’ (यजु० ६।१७) मन्त्रसे अभिषेक अर्पण करे।
‘रथे०, अक्षेषु• एवं चतस्रः’– इन तीन मन्त्रोंसे भगवानके श्रीअङ्गोंमें चन्दनका अनुलेपन करे।
फिर ‘युवा सुवासाः०’ (ऋक्र० ३ ।।८।। ४) मन्त्रसे वस्त्र और ‘पुष्पवती०’ (अथर्व० ८ ।।७।। २७) इत्यादि मन्त्रसे पुष्प एवं ‘धूरसि०’ (यजु० १।।८) आदि मन्त्रसे धूप समर्पित करे।
‘तेजोऽसि शुक्रमसि०’ (यजु० १। ३१)-इस मन्त्रसे दीप तथा ‘दधिक्राव्यगो०” (यजु० २३ ।। ३२) मन्त्रसे मधुपर्क निवेदन करे।
नरश्रेष्ठ! तदनन्तर “हिरणयगर्भ:० ” आदि आठ ऋचाओंका पाठ करके अन्न एवं सुगन्धित पेय पदार्थका नैवेद्य समर्पित करे। इसके अतिरिक्त भगवानको चामर, व्यजन, पादुका, छत्र, यान एवं आसन आदि जो कुछ भी समर्पित करना हो, वह सावित्र-मन्त्रसे अर्पण करे।
फिर ‘पुरुषसूक्त’ का जप करे और उसीसे आहुति दे।
भगवदविग्रहके अभावमें वेदिकापर स्थित जलपूर्ण कलशमें, अथवा नदीके तटपर, अथवा कमलके पुष्पमें भगवान् विष्णुका पूजन करनेसे उत्पातोंकी शान्ति होती it -3 ||
(काम्य बलिवैश्वदेव-प्रयोग)
भूमिस्थ वेदीका मार्जन एवं प्रोक्षण करके उसके चारों ओर कुशको बिछावे। फिर उसपर अग्रिको प्रदीप्त करके उसमें होम कोरे’।
महाभाग परशुराम! मन और इन्द्रियोको संयममें रखते हुए सब प्रकारकी रसोईमेंसे अग्राशन निकालकर गृहस्थ द्विज क्रमश: वासुदेव आदिके लिये आहुतियाँ दे।
मन्त्रवाक्य इस प्रकार हैं-
“प्रभवे अव्ययाय देवाय वासुदेवाय नमः स्वाहा।
अग्नये नमः स्वाहा ।
सोमाय नमः स्वाहा ।
मित्राय नमः स्वाहा।
वरुणाय नमः स्वाहा ॥
इन्द्राय नमः स्वाहा।
इन्द्राग्रीभ्यां नमः स्वाहा।
विश्वेभ्यो देवेभ्यो नमः स्वाहा ।
प्रजापतये नमः स्वाहा ।
अनुमत्यै नमः स्वाहा ।
धन्वन्तरये नमः स्वाहा ।
वास्तोष्पतये नमः स्वाहा ॥
देव्यै-२ नमः स्वाहा । अग्नये स्विष्टकृते नमः स्वाहा।’
इन देवताओंको उनका चतुथ्र्यन्त नाम लेकर एक-एक ग्रास अन्नकी आहुति दे।
तत्पश्चात् निम्नाङ्कित रीतिसे बलि समर्पित करें ॥ ८-१२ ॥
धर्मज्ञ! पहले अग्रिदिशासे आरम्भ करके तक्षा, उपतक्षा, अश्वा, ऊर्णा, निरुन्धी, धूग्रिणीका, अस्वपन्ती तथा मेघपत्नी-इनको बलि अर्पित करे।
भूगुनन्दन! ये ही समस्त बलिभागिनी देवियोंके नाम हैं। क्रमश: आग्रेय आदि दिशाओंसे आरम्भ करके इन्हें बलि दे।
(बलि-समर्पणके वाक्य इस प्रकार हैं-तक्षायै नमः अग्नेय्याम, उपतक्षायै नमः याम्ये, अश्वाभ्यो नमः नैर्ऋत्ये, ऊर्णाभ्यो नमः वारुण्याम्, निरुन्ध्यै नमः वायव्ये, धूम्रिणीकायै नमः उदीच्याम्, अस्वपन्त्यै नमः ऐशान्याम्, मेघपत्न्यै नमः प्राच्याम्॥)
भार्गव! तदन्तर नन्दिनी आदि शक्तियोंको बलि अर्पित करे । यथा-नन्दिन्यै नमः, सुभगायै नमः (अथवा सौभाग्यायै नमः), सुमङ्गल्यै नमः, भद्रकाल्यै *नमः। इन चारोंके लिये पूर्वादि चारों दिशाओंमें बलि देकर किसी खम्भे या खूंटेपर लक्ष्मी’ आदिके लिये बलि दे। यथा-श्रियै नमः, हिरण्यकेशष्यै नमः तथा वनस्पतये नमः । द्वारपार दक्षिणभागर्मे “धर्ममयाय नमः’, वामभागमें ‘अधर्ममयाय नमः’, घरके भीतर ‘ध्रुवाय नम:’, घरके बाहर ‘मृत्यवे नमः’ तथा ज्ञलाशयमे ‘वरुणाय नमः’-इस मन्त्रसे बलि अर्पित करे।
फिर घरके वाहर’भूतेभ्यो नमः’- इस मन्नसे भूतबलि दे। घरके भीतर ‘धनदाय नमः’ कहकर कुबेरकों बलि दे।
इसके बाद मनुष्य घर से पूर्वदिशा में ‘इन्द्राय नमः, इन्द्रपुरुषेभ्यो नमः’-इस मन्त्रसे इन्द्र और इन्द्रके पार्षदपुरुषोंको बलि अर्पित करे।
तत्पश्चात् दक्षिणमें ‘ यमाय नमः, यमपुरुषेभ्यो नमः’-इस मन्त्रसे,
वरुणाय नमः, वरुणपुरुषेभ्यो नमः’-इस मन्त्रसे पश्चिममें,
‘सोमाय नमः, सोमपुरुषेभ्यो नमः’- इस मन्नसे उत्तर में और
‘ब्रह्मणों वास्तोम्पतये नमः, ब्रह्मपुरुषेभ्यो नमः’-इस मन्त्रसे गृहके मध्यभागमें बलि दे।
‘विश्वेभ्यो देवेभ्यो नमः’-इस मन्त्रसे घरके आकाशमें ऊपरकी ओर बलि अर्पित करे। ‘स्थण्डिलाय नमः”-इस मन्त्रसे पृथ्वीपर बलि दे। तत्पश्चात् ‘दिवाचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः’- इस मन्त्रसे दिनमें बलि दे तथा ‘रात्रिचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः”-इस मन्त्रसे रात्रिमें बलि अर्पित करे।
घर के बाहर जो बलि दी जाती हैं, उसे प्रतिदिन सायंकाल और प्रात:काल देते रहना चाहिये। यदि दिनमें श्राद्ध-सम्बन्धी पिण्द्धदान किया जाय तो उस दिन सायंकालमें बलि नहीं देनी चाहिये ॥ १३-२२ ॥
पितृ-श्राद्धमें दक्षिणाग्र कुशोंपर पहले पिताको, फिर पितामहको और उसके बाद प्रपितामहकों पिण्ड देना चाहिये। इसी प्रकार पहले माताकों, फिर पितामहीको, फिर प्रपितामहीको पिण्ड अथवा जल दे। इस प्रकार “पितृयाग’ करना चाहिये॥ २३ ॥
बने हुए पाकमेंसे बलिवैश्वदेव करने के बाद पाँच बलियाँ दी जाती हैं। उनमें सर्वप्रथम ‘गो- बलि’ है; किंतु यहाँ पहले ‘काकबलि’का विधान किया गया है-
काकबलि
इन्द्रवाफणवायव्या याम्या वा नैऋताश्र्व ये॥
ते काकाः प्रतिगृह्णन्तु इमं पिण्डं मयोदधृतम्।’
‘जो इन्द्र, वरुण, वायु, यम एवं निर्ऋति देवताकी दिशामें रहते हैं, वे काक मेंरेद्धारा प्रदत्त यह पिण्ड ग्रहण करें।’ इस मन्त्रसे काकबलि देकर निम्नाड़ित मन्त्रसे कुत्तोंके लिये अन्नका ग्रास दे॥ २४-२५ ॥
कुक्कुर-बलि
विवस्वतः कुले जातौ द्वौ श्यामशबली शुनौ।
ताभ्यां पिण्डं प्रदास्यामि रक्षतां पथि मां सदा।
‘श्याम और शबल। (काले और चितकबरे) रंगवाले दो श्वान विवस्वान्के कुलमें उत्पन्न हुए हैं। मैं उन दोनोंके लिये पिण्ड प्रदान करता हूँ। वे लोक-परलोकके मार्गमें सदा मेरी रक्षा करें’॥ २६॥
गो-ग्रास
सौरभेय्यः सर्व्वहिताः पवित्राः पापनाशनाः*।।
प्रतिगृह्णन्तु मे ग्रासं गावस्त्रैलोक्यमातरः॥
त्रैलोक्यजननी, सुरभीपुत्री गौए सबका हित करनेवाली, पवित्र एवं पापोंका विनाश करनेवाली हैं। वे मेरे द्वारा दिये हुए ग्रासको ग्रहण करें।” इस मन्नसे गो-ग्रास देकर स्वस्त्ययन करे।
फिर याचकोंकों भिक्षा दिलावे । तदनन्तर दीन प्राणियों एवं अतिथियोंका अन्नसे सत्कार करके गृहस्थ स्वयं भोजन करे॥ २७-२८॥
(अनाहिताग्रि पुरुष निम्नलिखित मन्त्रोंसे जलमें अन्नकी आहुतियाँ दे-)
ॐ भूः स्वाहा।।
ॐ भुवः स्वाहा ।।
ॐ स्वः स्वाहा ॥
ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा ।।
ॐ देवकृतस्यैन- सोऽवयजनमसि स्वाहा।।
ॐ पितृकृतस्यैनसोऽवयजनमसि स्वाहा।।
ॐ आत्मकृतस्यैनसोऽवयजनमसि स्वाहा।।
ॐ मनुष्यकृतस्यैनसोऽवयजनमसि स्वाहा ॥
ॐ एनस एनसोऽवयजनमसि स्वाहा ।
यच्चाहमेनो विद्वांश्चकार यच्चाविद्वांस्तस्य सर्वस्यैनसोऽवयजनमसि स्वाहा ॥
अग्रये स्विष्टकृते स्वाहा ॥
ॐ प्रजापतये स्वाहा ॥
यह मैने तुमसे विष्णुपूजन एवं बलिवैश्वदेवका वर्णन किया ॥ २९ ॥
सौ चौंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २६४ ॥
अध्याय-२६५ दिक्पालस्नानकी विधिका वर्णन
पुष्कर कहते हैं–परशुराम! अब मैं सम्पूर्ण अर्थोको सिद्ध करनेवाले शान्तिकारक स्नानका वर्णन करता हूँ, सुनो ।
बुद्धिमान् पुरुष नदीतटपर भगवान् श्रीविष्णु एवं ग्रहोंको स्नान करावे ।
ज्वरजनित पीड़ा आदिमें तथा विध्वंराज एवं ग्रहोंके कष्टसे पीड़ित होनेपर उस पीड़ासे छूटनेवाले पुरुषको देवालयमें स्नान करना चाहिये।
विद्याप्राप्तिकी अभिलाषा रखनेवाने छात्रको किसी जलाशय अथवा घरमें ही स्नान करना चाहिये तथा विजयकी कामनावाले पुरुषके लिये तीर्थजलमें स्नान करना उचित हैं।
जिस नारीका गर्भ स्खलित हो जाता हो, उसे पुष्करिणीमें स्नान कराये। जिस स्त्रीके नवजात शिशुकी जन्म लेते ही मृत्यु हो जाती हो, वह अशोकवृक्षके समीप स्नान करे।
रजोदर्शनकी कामना करनेवाली स्त्री पुष्पोंसे शोभायमान उद्यानमें और पुत्राभिलाषिणी समुद्रमें स्नान करे।
सौभाग्यकी कामनावाली स्त्रियोंको घर में स्नान करना चाहिये। परंतु जो सब कुछ चाहते हों, ऐसे सभी स्त्री-पुरुषोंको भगवान विष्णुके अर्चाविग्रहोंके समीप स्नान करना उत्तम है।
श्रवण, रेवती एवं पुष्य नक्षत्रोंमें सभीके लिये स्नान करना प्रशस्त है।॥ १-४३ ॥
काम्यस्नान करनेवाले मनुष्यके लिये एक सप्ताह पूर्वसे ही उबटन लगानेका विधान है।
पुनर्नवा (गदहपूर्णा), रोचना, सताङ्ग (तिनिश) एवं अगुरु वृक्षकी छाल, मधूक (महुआ), दो प्रकारकी हल्दी (सॉठहल्दी और दारुहल्दी), तगर, नागकेसर, अम्बरी, मञ्जिष्ठा (मजीट), जटामसी, यासक, कर्दम (दक्ष-कर्दम), प्रियंगु, सर्षप, कुष्ठ (कूट), बला, ब्राह्मी, कुङ्कुम एवं सक्तुमिश्रित पञ्चगव्य– इन सबका उबटन करके स्नान करें ॥ ५-७ ॥
तदनन्तर ताम्रपत्रपर अष्टदल पद्म-मण्ड़लका निर्माण करके पहले उसकी कर्णिका में श्रीविष्णुका, उनके दक्षिणभागमें ब्रह्माका तथा वामभागमें शिवका अङ्कन और पूजन करे। फिर पूर्व आदि दिशाओंके दलोंमें क्रमश: इन्द्र आदि दिक्पालोंको आयुधों एवं बन्धु-बान्धवोंसहित अङ्कित करे। तदनन्तर पूर्वाद दिशाओं और अग्रि आदि कोणोंमें भी आठ स्नान-मण्डलोंका निर्माण करे। उन मण्डलोंमें विष्णु, ब्रह्मा, शिव एवं इन्द्र आदि देवताओंका उनके आयुधोंसहित पूजन करके उनके उद्देश्यसे होम करे।
प्रत्येक देवताके निमित्त समिधाओं, तिलों या घृतोंकी १०८ (एक सौ आठ) आहुतियाँ दे। फिर भद्र, सुभद्र, सिद्धार्थ, पुष्टिवर्धन, अमोघ, चित्रभानु, पर्जन्य एवं सुदर्शन-इन आठ कलशोंकी स्थापना करे और उनके भीतर अश्विनीकुमार, रुद्र, मरुदगण, विश्र्वेदेव, दैत्य, वसुगण तथा मुनिजनों एवं अन्य देवताओंका आवाहन करे। उनसे प्रार्थना करे कि आप सब लोग प्रसन्तापूर्वक इन कलशोंमें आविष्ट हो जायँ।’ इसके बाद उन कलशोंमें जयन्ती, विजया, जया, शतावरी, शतपुष्पा, विष्णुक्रान्ता नामसे प्रसिद्ध अपराजिता, ज्योतिष्मती, अतिबला, उशीर, चन्दन, केसर, कस्तुरी, कपूर, वालक, पत्रक (पत्ते), त्वचा (छाल), जायफल, लवङ्ग आदि ओषधियाँ तथा मृतिका और पश्चगव्य डाले।
तत्पश्चात् ब्राह्मण साध्य मनुष्यको भद्रपीठपर बैठाकर इन कलशोंके जलसे बलपूर्वक स्नान करावे। राज्याभिषेकके मन्त्रोंमें उक्त देवताओंके उद्देश्यसे पृथकू-पृथकू होम करना चाहिये। तत्पश्चात्पूर्णाहुति देकर आचार्यको दक्षिणा दे।
पूर्वकालमें देवगुरु वृहस्पतिने इन्द्रका इसी प्रकार अभिषेक किया था, जिससे वे दैत्योंका वध करने में समर्थ हो सके।
यह मैंने संग्राम आदिमें विजय आदि प्रदान करनेवाला ‘दिक्पालस्रान’ कहा है।॥ ८-१८ ॥
दो सौ पैसठवाँ अध्याय पूरा हुआ। २६५ ॥
अध्याय-२६६ विनायक-स्नानविधि
पुष्कर कहते हैं–परशुराम! जो मनुष्य विध्वराज विनायकद्वारा पीड़ित हैं, उनके लिये सर्व-मनोरथसाधक स्नानकी विधिका वर्णन करता हूँ।
कर्ममें विध्न और उसकी सिद्धिके लिये विष्णु, शिव और ब्रह्माजीने विनायकको पुष्पदन्त आदि गणोंके अधिपतिपदपर प्रतिष्ठित किया है।
विध्नराज विनायकके द्वारा जो ग्रस्त है, उस पुरुषके लक्षण सुनो।
वह स्वप्नमें बहुत अधिक स्नान करता है और वह भी गहरे जलमें। (उस अवस्थामें वह यह भी देखता हैं कि पानीका स्रोत मुझे बहाये लिये जाता है, अथवा मैं डूब रहा हूँ।) वह मूंड़ मुँड़ाये (और गेरुआ वस्त्र धारण करनेवाले) मनुष्योंको भी देखता है। कच्चे मांस खानेवाले गीधों एवं व्याघ्र आदि पशुओंकी पीठपर चढ़ता है। (चाण्डालों, गदहों और ऊँटोंके साथ एक स्थानपर बैठता है।) जाग्रत्-अवस्थामें भी जब वह कहीं जाता है तो उसे यह अनुभव होता है कि शत्रु मेरा पीछा कर रहे हैं। उसका चित विक्षिप्त रहता है। उसके द्वारा किये हुए प्रत्येक कार्यका आरम्भ निष्फल होता है। वह अकारण ही खिन्न रहता है। विघ्नराजकी सतायी हुई कुमारी कन्याको जल्दी वर ही नहीं मिलता है और विवाहिता स्त्री भी संतान नहीं पातीं। श्रोंत्रियको आचार्यपद नहीं मिलता। शिष्य अध्ययन नहीं कर पाता। वैश्यको व्यापार में और किसानकों खेतीमें लाभ नहीं होता है। राजाका पुत्र भी राज्यको हस्तगत नहीं कर पाता है। ऐसे पुरुषको (किसी पवित्र दिन एवं शुभ मुहूर्तमें) विधिपूर्वक स्नान कराना चाहिये।
हस्त, पुष्य, अश्विनी, मृगशिरा तथा श्रवण नक्षत्र में किसी भद्रपीठपर स्वस्तिवाचन-पूर्वक बिठाकर उसे स्नान करानेका विधान है।
पीली सरसों पीसकर उसे घीसे ढीला करके उबटन वनावे और उसको उस मनुष्यके सम्पूर्ण शरीर में मले। फिर उसके मस्तकपर सर्वोषधिसहित सब प्रकार के सुगन्धित द्रव्यका लेप करे। चार कलशोंके जलसे उनमें सर्वोषधि छोड़कर स्नान कराये।
अश्वशाला, गजशाला, वल्मीक (बाँबी), नदी-संगम तथा जलाशयसे लायी गयी पाँच प्रकारकी मिट्टी, गोरोचन, गन्ध (चन्दन, कुङ्कम, अगुरु,आदि) और गुग्गुल – ये सब वस्तुएं भी उन कलशोंके जलमें छोड़े।
आचार्य पूर्वदिशावर्ती कलशको लेकर निम्नाङ्कित मन्त्रसे यजमानका अभिषेक करे-
सहस्राक्षं शतधारमृषिभिः पावनं कृतम्॥
तेन त्वामभिषिञ्चामि पावमान्यः पुनन्तु ते।
‘जो सहस्त्रों नेत्रों-से युक्त हैं, जिसकी सैकड़ों धाराएँ हैं और जिसे महर्षियोंने पावन बनाया हैं, उस पवित्र जलसे मैं तुम्हारा अभिषेक करता हूँ। यह पावन जल तुम्हें पवित्र करे’ ॥ १-९ ॥
(तदनन्तर दक्षिण दिशामें स्थित द्वितीय कलश लेकर नीचे लिखे मन्त्रको पढ़ते हुए अभिषेक करे-)
भगं ते वरुणो राजा भगं सूर्यो वृहस्पतिः ।
भगमिन्द्रश्च वायुश्च भगं सप्तर्षयो ददुः ॥
‘राजा वरुण, सूर्य, बृहस्पति, इन्द्र, वेयु तथा सप्तर्षिगणने तुम्हें कल्याण प्रदान किया है
(फिर तीसरा पश्चिम कलश लेकर निम्नाङ्कित मन्त्रसे अभिषेक करे-)
यत्ते केशेषु दौर्भाग्यं सीमन्ते यच्च मूर्धनि॥
ललाटे कर्णयोरक्ष्णोरापस्तदघ्नन्तु सर्वदा ।
तुम्हारे केशोंमें, सीमन्तमें, मस्तकपर, ललाटमें, कानोंमें और नेत्रोंमें भी जो दुर्भाग्य है, उसे जलदेवता सदाके लिये शान्त करें।’ ॥ ११ ॥
(तत्पश्चात् चौथा कलश लेकर पूर्वोत्त तीनों मन्त्र पढ़कर अभिषेक करे।)
इस प्रकार स्नान करनेवाले यजमानके मस्तक पर बायें हाथमें लिये हुए कुशोंको रखकर आचार्य उसपर गूलरकी स्रुवासे सरसोंका तेल उठाकर डाले॥ १२-१३ ॥
(उस समय निम्नाङ्कित मन्त्र पढ़े-)
‘ॐ मिताय स्वाहा।
ॐ समिताय स्वाहा।
ॐ शालाय स्वाहा।
ॐ कणटकाय स्वाहा।
ॐ कूष्माण्डाय स्वाहा।
ॐ राजपुत्राय स्वाहा।’
इस प्रकार स्वाहासमन्वित इन मितादि नामोंके द्वारा सरसोंके तैलको मस्तकपर आहुति दे। मस्तकपर तैल डालना ही हवन है ॥ १४-१५॥
(मस्तकपर उक्त होमके पश्चात् लौकिक अग्रिमें भी स्थालीपाककी विधिसे चरु तैयार करके उक्त छ: मन्त्रोंसे ही उसी अग्रिमें हवन करे।)
फिर होमशेष चरुद्वारा ‘नमः’ पदयुक्त इन्द्रादि नामोको बलि-मन्त्र बनाकर उनके उच्चारणपूर्वक उन्हें बलि अर्पित करे।
तत्पश्चात् सूपमें सब ओर कुश बिछाकर, उसमें कच्चे-पके चावल, पीसे हुए तिलसे मिश्रित भात तथा भाँति-भाँतिके पुष्प, तीन प्रकारकी (गौड़ी, माधवी तथा पैटी) सुरा, मूली, पूरी, मालपूआ, पीठेकी मालाएँ दही-मिश्रित अन्न, खीर, मीठा, लडू और गुड़-इन सबको एकत्र रखकर चौराहेपर रख दे और उसे देवता, सुपर्ण, सर्प, ग्रह, असुर, यातुधान, पिशाच, नागमाता, शाकिनी, यक्ष, वेताल, योगिनी और पूतना आदिको अर्पित करे।
तदनन्तर विनायक जननी भगवती अम्बिकाको दूर्वादल, सर्षप एवं पुष्पोसे भरी हुई अर्ध्यरूप अञ्जलि देकर निम्नाङ्कित मन्त्रसे उनका उपस्थान करे-
‘सौभाग्यवती अम्बिके! मुझे रूप, यश, सौभाग्य, पुत्र एवं धन दीजिये। मेरी सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण कीजिये*।’
इसके बाद ब्राह्मणोंको भोजन करावे तथा आचार्यको दो वस्त्र दान करे।
इस प्रकार विनायक और ग्रहोंका पूजन करके मनुष्य धन और सभी कार्योंमें सफलता प्राप्त करता है। १६-२० ॥
अध्याय-२६७ माहेश्वर-स्नान आदि विविध स्नानोंका वर्णन; भगवान् विष्णुके पूजनसे तथा गायत्रीमन्त्रद्वारा लक्ष-होमादिसे शान्तिकी प्राप्तिका कथन
पुष्कर कहते हैं– अब मैं राजा आदिकी विजयश्रीको बढ़ानेवाले ‘माहेश्वर-स्नान’का वर्णन करता हूँ, जिसका पूर्वकालमें शुक्राचार्यने दानवेन्द्र बलिको उपदेश किया था।
प्रात:काल सूर्योदयके पूर्व भद्रपीठपर आचार्य जलपूर्ण कलशोंसे राजाको स्नान करावे॥१३॥
(स्नानके समय निम्नाङ्कित मन्त्रका पाठ करे)
‘ॐ नमो भगवते रुद्राय च ब्रालाय च पाण्डरोचितभस्मानुलिप्तगात्राय जय-जय सर्वान शत्रून् मूकयस्व कलहविग्रहविवादेषु भञ्जय भञ्जय।
ॐ मथ मथ।
सर्वप्रत्यर्थिकान योऽसौ युगान्तकाले दिधक्षति ।
इमां पूजां रौद्रमूर्तिः सहस्त्रांशुः शुक्लः स ते रक्षतु जीवितम्।
संवर्तकाग्नितुल्यश्र्च त्रिपुरान्तकरः शिवः ॥
सर्वदेवमयः सोऽपि तव रक्षतु जीवितम्।
लिखि लिख्रि खिनि स्वाहा।”
धवल भस्मका अनुलेपन अपने अंगोंमें लगाये महाबलशाली भगवान् रुद्रको नमस्कार है। आपकी जय हो, जय हो। समस्त शत्रुओंको गूँगा कर दीजिये। कलह, युद्ध एवं विवादमें भग्न कीजिये, भग्र कीजिये। मथ डालिये, मथ डालिये। जों प्रलयकालमें सम्पूर्ण लोकोंको भस्म कर देना चाहते हैं, वे रुद्र समस्त प्रतिपक्षियोंको भस्म कर डालें। इस पूजा को स्वीकार करके वे रौद्रमूर्ति, सहस्त्र किरणोंसे सुशोभित, शुक्लवर्ण शिव तुम्हारे जीवनकी रक्षा करें। प्रलयकालीन अग्रिके समान तेजस्वी, सर्वदेवमय, त्रिपुरनाशक शिव तुम्हारे जीवनकी रक्षा करें।”
इस प्रकार मनसे स्नान करके तिल एवं तण्डुलका होम करे। फिर त्रिशूलधारी भगवान शिवको पञ्चामृतसे स्नान करके उनका पूजन करे॥ २-६ ई ॥
अब मैं तुम्हारे सम्मुख सदा विजयकी प्राप्ति करानेवाले अन्य स्नानोंका वर्णन करता हूँ।
घृतस्नान आयुकी वृद्धि करने में उत्तम है।
गोमयसे स्नान करनेपर लक्ष्मीप्राप्ति, गोमूत्रसे स्नान करनेपर पाप-नाश, दुग्धसे स्नान करनेपर बलवृद्धि एवं दधिसे स्नान करनेपर सम्पतिकी वृद्धि होती है।
कुशोदकसे स्नान करनेपर पापनाश, पञ्चगव्यसे स्नान करनेपर समस्त अभीष्ट वस्तुओंकी प्राप्ति, शतमूलसे स्नान करनेपर सभी कामनाओंकी सिद्धि तथा गोश्रृङ्गके जलसे स्नान करनेपर पापोकी शान्ति होती है। पलाश, बिल्वपत्र, कमल एवं कुशके जलसे स्नान करना सर्वप्रद है।
बचा, दो प्रकारकी हल्दी और मोथामिश्रित जलसे किया गया स्नान राक्षसोंके विनाशके लिये उत्तम है। इतना ही नहीं, वह आयु, यश, धर्म और मेधाकी भी वृद्धि करनेवाला है।
स्वर्णजलसे किया गया स्नान मङ्गलकारी होता है। रजत और ताम्रजलसे किये गये स्नानका भी यही फल है। रत्नमिश्रित जलसे स्नान करनेपर विजय, सब प्रकार के गन्धोंसे मिश्रित जलद्वारा स्नान करनेपर सौभाग्य, फलोदकसे स्नान करनेपर आरोग्य तथा धात्रीफलके जलसे स्नान करनेपर उत्तम लक्ष्मीकी प्राप्ति होती हैं। तिल एवं श्वेत सर्षपके जलसे स्नान करनेपर लक्ष्मी, प्रियंगुजलसे स्रान करनेपर सौभाग्य, पद्म, उत्पल तथा कदम्बमिश्रित जलसे स्नान करनेपर लक्ष्मी एवं बला-वृक्षके जलसे स्नान करनेपर बलकी प्राप्ति होती है।
भगवान् श्रीविष्णुके चरणोदकद्वारा स्नान सब स्नानोंसे श्रेष्ठ है॥७-१३ ॥
एकाकी मनुष्य मनमें एक कामना लेकर विधिपूर्वक एक ही स्नान करे। वह ‘आक्रन्दयति०’ आदि सूक्तसे अपने हाथमें मणि (मनका) बाँधे। वह मणि कूट, पाट, वचा, सोंठ, शखं अथवा लोहे आदिकी होनी चाहिये।
समस्त कामनाओंके ईश्वर भगवान् श्रीहरि ही हैं, अत: उनके पूजनसे ही मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है।
जो मनुष्य घृतमिश्रित दुग्धसे स्नान कराके श्रीविष्णुका पूजन करता है, वह पितरोगका नाश कर देता है। उनके उद्देश्यसे पाँच मूंगोंकी बलि देकर मनुष्य अतिसारसे छुटकारा पाता है।
भगवान् श्रीहरिको पञ्चगव्यसे स्नान करानेवाला वातरोगका नाश करता है।
द्विस्नेह-द्रव्यसे स्नान कराके अतिशय, श्रद्धापूर्वक उनका पूजन करनेवाला कफ-सम्बन्धी रोगसे मुक्त हो जाता है।
घृत, तैल एवं मधुद्वारा कराया गया स्नान ‘त्रिरस-स्नान’ माना गया है।
घृत और जलसे किया गया स्नान ‘द्विस्नेह स्नान’ है।
घृत-तेल-मिश्रित जलका स्नान “समलस्नान’ है।
मधु, ईखका रस और दूध-इन तीनोंसे मिश्रित जलद्वारा किया गया स्नान त्रिमधुर-स्नान है।
घृत, इक्षुरस तथा शहद यह “त्रिरस-स्नान” लक्ष्मीकी प्राप्ति करानेवाला है।
कर्पूर, उशीर एवं चन्दनसे किया गया अनुलेप ‘त्रिशुक्ल’ कहलाता हैं ।
चन्दन, अगुरु, कर्पूर, कस्तूरी एवं कुङ्कुमइन पाँचोंके मिश्रणसे किया गया अनुलेपन यदि विष्णुको अर्पित किया जाय तो वह सम्पूर्ण मनोवाक्छित फलोंको देनेवाला है।
कपूर, चन्दन एवं कुङ्कुम अथवा कस्तूरी, कपूर और चन्दन- यह त्रिसुग्नध समस्त कामनाओंको प्रदान करनेवाला है।
जायफल, कर्पूर और चन्दन-ये ‘शीतत्रय” माने गये हैं।
पीला, सुग्गापंखी, शुक्ल, कृष्ण एवं लाल-ये पाँच वर्ण कहे गये हैं ।। १४-२४॥
श्रीहरिके पूजनमें उत्पल, कमल, जातीपुष्प तथा त्रिशीत उपयोगी होते हैं।
कुङ्कम, रक्त कमल और लाल उत्पल ये ‘त्रिरक्त’ कहे जाते हैं।
श्रीविष्णुका धूप-दीप आदिसे पूजन करनेपर मनुष्योंको शान्तिकी प्राप्ति होती है।
चार हाथके चौकोर कुण्डमें आठ या सोलह ब्राह्मण तिल, घी और चावलसे लक्षहोम या कोटिहोम करें।
ग्रहोंकी पूजा करके गायत्री-मन्त्रसे उक्त होम करनेपर क्रमशः सब प्रकारकी शान्ति सुलभ होती है।॥ २५-२७ ॥
दो सौ सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २६७॥
अध्याय-२६८ सांवत्सर-कर्म; इन्द्र-शचीकी पूजा एवं प्रार्थना; राजाके द्वारा भद्रकाली तथा अन्यान्य देवताओंके पूजनकी विधि; वाहन आदिका पूजन तथा नीराजना
पुष्कर कहते हैं–अब मैं राजाओंके करनेयोग्य सांवत्सर-कर्मका वर्णन करता हूँ। राजाको अपने जन्मनक्षत्रमें नक्षत्र-देवताका पूजन करना चाहिये।
वह प्रत्येक मासमें, संक्रान्तिके समय सूर्य और चन्द्रमा आदि देवताओंकी अर्चना करे। अगस्त्य ताराका उदय होनेपर अगस्त्यकी एवं चातुर्मास्यमें श्रीहरिका यजन करे। श्रीहरिके शयन और उत्थापनकालमें, अर्थात् हरिशयनी एकादशी और हरिप्रबोधिनी एकादशीके अवसर पर, पाँच दिन तक उत्सव करे।
भाद्रपदके शुक्लपक्षमें, प्रतिपदा तिथिको शिविरके पूर्वदिग्भागमें इन्द्रपूजाके लिये भवननिर्माण करावे । उस भवन में इन्द्रध्वजकी स्थापना करके वहाँ प्रतिपदासे लेकर अष्टमीतक शची और इन्द्रकी पूजा करे । अष्टमीको वाद्यघोषके साथ उस पताकामें ध्वजदण्डका प्रवेश करावे । फिर एकादशीकी उपवास रखकर द्वादशीको ध्वजका उत्तोलन करे। फिर एक कलशपर वस्त्रादिसे युक्त देवराज इन्द्र एवं शचीकी स्थापना करके उनका पूजन करे॥ १-५ ॥
(इन्द्रदेवकी इस प्रकार प्रार्थना करे- )
‘शत्रुविजयी वृत्रनाशन पाकशासन! महाभाग देवदेव! आपका अभ्युदय हो। आप कृपापूर्वक इस भूतलपर पधारे हैं। आप सनातन प्रभु, सम्पूर्ण भूतोंके हितमें तत्पर रहनेवाले, अनन्त तेजसे सम्पन्न, विराट् पुरुष तथा यश एवं विजयकी वृद्धि करनेवाले हैं। आप उत्तम वृष्टि करनेवाले इन्द्र हैं, समस्त देवता आपका तेज बढ़ायें। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कार्तिकेय, विनायक, आदित्यगण, वसुगण, रुद्रगण, साध्यगण, भृगुकुलोत्पन्न महर्षि, दिशाएँ, मरुदगण, लोकपाल, ग्रह, यक्ष, पर्वत, नदियाँ, समुन्द्र, श्रीदेवी, भूदेवी, गौरी, चण्डिका एवं सरस्वती-ये सभी आपके तेजको प्रदीप्त करें।
शचीपते इन्द्र! आपकी जय हो। आपकी विजयसे मेरा भी सदा शुभ हो। आप नरेशों, ब्राह्मणों एवं सम्पूर्ण प्रजाओंपर प्रसन्न होइये। आपके कृपाप्रसादसे यह पृथ्वी सदा सस्यसम्पन्न हो । सबका विघ्नरहित कल्याण हो तथा ईतियाँ पूर्णतया शान्त हो।”
इस अभिप्रायवाले मन्त्रसे इन्द्रकी अर्चना करनेवाला भूपाल पृथ्वीपर विजय प्राप्त करके स्वर्गको प्राप्त होता है।॥ ६-१२ई ॥
आश्विन मासके शुक्लपक्षकी अष्टमी तिथिको किसी पटपर भद्रकालीका चित्र अङ्कित करके राजा विजयकी प्राप्तिके लिये उसकी पूजा करे। साथ ही आयुध, धनुष, ध्वज, छत्र, राजचिह (मुकुट, छत्र तथा चौंवर आदि) तथा अस्त्र-शस्त्र आदिकी पुष्प आदि उपचारोंसे पूजा करे। रात्रिके समय जागरण करके देवीकों बलि अर्पित करे। दूसरे दिन पुन: पूजन करे। (पूजा के अन्तमें इस प्रकार प्रार्थना करे-)
“भद्रकालि, महाकाली, दुर्गतिहारिणी दुर्गे, त्रैलोक्यविजयिनि चण्डिके! मुझे सदा शान्ति और विजय प्रदान कीजिये’॥१३-१५ ॥
अब मैं ‘नीराजन’की विधि कहता हूँ।
ईशानकोणमें देवमन्दिरका निर्माण करावे। वहाँ तीन दरवाजे लगाकर मन्दिरके गर्भगृहमें सदा देवताओंकी पूजा करे।
जब सूर्य चित्रा नक्षत्रको छोड़कर स्वाती नक्षत्रमें प्रवेश करते हैं, उस समयसे प्रारम्भ करके जबतक स्वातीपर सूर्य स्थित रहें, तबतक देवपूजन करना चाहिये।
ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र, अग्नि, वायु, विनायक, कार्तिकेय, वरुण, विश्रवाके पुत्र कुबेर, यम, विश्र्वेदेव एवं कुमुद, ऐरावत, पद्य, पुष्पदन्त, वामन, सुप्रतीक, अञ्चन और नील-इन आठ दिग्गजोंकी गृह आदिमें पूजा करनी चाहिये।
तदनन्तर पुरोहित घृत, समिधा, श्वेत सर्षप एवं तिलोंका होम करे।
आठ कलशोंकी पूजा करके उनके जलसे उत्तम हाथियोंको स्नान कराये।
तदनन्तर घोड़ोंको स्नान कराये और उन सबके लिये ग्रास दे।
पहले हाथियोंको तोरणद्वारसे बाहर निकाले; परंतु गोपुर आदिका उल्लङ्घन न करावे ।
तदनन्तर सब लोग वहाँसे निकलें और राजचिहोंकी पूजा घरमें ही की जाय।
शतभिषा नक्षत्रमें वरुणका पूजन करके रात्रिके समय भूतोंको बलि दे।
जब सूर्य विशाखा नक्षत्रपर जाय, उस समय राजा आश्रममें निवास करे।
उस दिन वाहनोंको विशेषरूपसे अलंकृत करना चाहिये। राजचिन्होंकी पूजा करके उन्हें उनके अधिकृत पुरुषोंके हाथोंमें दे। धर्मज्ञ परशुराम! फिर कालज्ञ ज्यौतिषी हाथी, अश्व, छत्र, खङ्ग, धनुष, दुन्दुभि, ध्वजा एवं पताका आदि राजचिह्नोंकी अभिमन्त्रित करे। फिर उन सबको अभिमन्त्रित करके हाथीकी पीठपर रखे। ज्योतिषी और पुरोहित भी हाथीपर आरूढ़ हों। इस प्रकार अभिमन्त्रित वाहनोंपर आरूढ़ होकर तोरण-द्वारसे निष्क्रमण करें। इस प्रकार राजद्वार से बाहर निकलकर राजा हाथी की पीठपर स्थित रहकर विधिपूर्वक बलि-वितरण करे। फिर नरेश सुस्थिरचित होकर चतुरंगी सेनाके साथ सर्वसैन्यसमूहके द्वारा जयघोष कराते हुए दिग्रदिगन्तको प्रकाशित करनेवाले जलते मसालोंके समूहकी तीन बार परिक्रमा करे। इस प्रकार पूजन करके राजा जनसाधारणको विदा करके राजभवनकी प्रस्थान करे। मैंने यह समस्त शत्रुओंका विनाश करनेवाली ‘नीराजना’ नामक शान्ति बतलायी है, जो राजा को अभ्युदय प्रदान करनेवाली हैं ॥ १६-३१ ॥
दो सौ अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २६८ ॥
अध्याय - २६९ छत्र, अश्व, ध्वजा, गज, पताका, खङ्ग, कवच और दुन्दुभिकी प्रार्थनाके मन्त्र
पुष्कर कहते हैं– परशुराम! अब मैं छत्र आदि राजोपकरणोंके प्रार्थनामन्त्र बतलाता हूँ जिनसे उनकी पूजा करके नरेशगण विजय आदि प्राप्त करते हैं॥ ई॥
छत्र–प्रार्थना–मन्त्र
‘महामते छत्रदेव! तुम हिम, कुन्द एवं चन्द्रमाके समान श्वेत कान्तिसे सुशोभित और पाण्डुर-वर्णकीसी आभावाले हों। ब्रह्माजीके सत्यवचन तथा चन्द्र, वरुण और सूर्यके प्रभावसे तुम सतत वृद्धिशील होओ। जिस प्रकार मेघ मङ्गलके लिये इस पृथ्वीकी आच्छादित करता है, उसी प्रकार तुम विजय एवं आरोग्यकी वृद्धिके लिये राजाको आच्छादित करो’ ॥ १-३ ॥
अश्व–प्रार्थना–मन्त्र
‘अश्व! तुम गन्धर्वकुलमें उत्पन्न हुए हो, अतः अपने कुलको दूषित करनेवाला न होना। ब्रह्माजीके सत्यवचनसे तथा सोम, वरुण एवं अग्रिदेवके प्रभावसे, सूर्यके तेजसे, मुनिवरोंके तपसे, रुद्रके ब्रह्मचर्यसे और वायुके बलसे तुम सदा आगे बढ़ते रहो। याद रखो, तुम अश्वराज उच्चैःश्रवाके पुत्र हो, अपने साथ ही प्रकट हुए कौस्तुभरत्नका स्मरण करो। ब्रह्मघाती, पितृघाती, मातृहन्ता, भूमिके लिये मिथ्याभाषण करनेवाला तथा युद्धसे पराङ्मुख क्षत्रिय जितनी शीघ्रतासे अधोगतिकी प्राप्त होता है, तुम भी युद्धसे पीठ दिखानेपर उसी दुर्गतिको प्राप्त हो सकते हो; किंतु तुम्हें वैसा पाप या कलङ्क न लगे। तुरंगम! तुम युद्धके पथपर विकारको न प्राप्त होना। समराङ्गणमें शत्रुओंका विनाश करते हुए अपने स्वामीके साथ तुम सुखी होओ’॥ ४-८ ई॥
ध्वजा–प्रार्थना–मन्त्र
‘महापराक्रमके प्रतीक इन्द्रध्वज ! भगवान् नारायण के ध्वज विनतानन्दन पक्षिराज गरुड तुममें प्रतिष्ठित हैं। वे सर्पशत्रु, विष्णुवाहन, कश्यपनन्दन तथा देवलोकस हठात् अमृत छीन लेनेवाले हो ॥ उनका शरीर विशाल और बल एवं वेग महान् है। वे अमृतभोगी हैं। उनकी शक्ति अप्रमेय है। वे युद्धमें दुर्जय रहकर देवशत्रुओंका संहार करनेवाले हैं। उनकी गति वायुके समान तीव्र है। वे गरुड तुममें प्रतिष्ठित हैं। देवाधिदेव भगवान् विष्णुने इन्द्रके लिये तुममें उन्हें स्थापित किया है, तुम सदा मुझे विजय प्रदान करो। मेरे बल को बढ़ाओं। घोड़े, कवच तथा आयुधोंसहित हमारे योद्धाओंकी रक्षा करो और शत्रुओंको जलाकर भस्म कर दो’॥ ९-१३ ॥
गज–प्रार्थना–मन्त्र
कुमुद, ऐरावत, पद्य, पुष्पदन्त, वामन, सुप्रतीक, आञ्चन और नील – ये आठ देवयोनिमें उत्पन्न गजराज हैं। इनके ही पुत्र और पौत्र आठ वनोंमें निवास करते हैं। भद्र, मन्द, मृग एवं संकीर्णजातीय गज वन-वनमें उत्पन्न हुए हैं। हे महागजराज! तुम अपनी योनिका स्मरण करो। वसुगण, रुद्र, आदित्य एवं मरुदगण तुम्हारी रक्षा करें। गजेन्द्र ! अपने स्वामीकी रक्षा करों और अपनी मर्यादाका पालन करो। ऐरावतपर चढ़े हुए वज़धारी देवराज इन्द्र तुम्हारे पीछे-पीछे आ रहे हैं, ये तुम्हारी रक्षा करें। तुम युद्धमें विजय पाओ और सदा स्वस्थ रहकर आगे बढ़ो। तुम्हें युद्धमें ऐरावतके समान बल प्राप्त हो। तुम चन्द्रमासे कान्ति, विष्णुसे बल, सूर्यसे तेज, वायुसे वेग, पर्वतसे स्थिरता, रूद्रसे विजय, और देवराज इन्द्रसे यश प्राप्त करो। युद्धमें दिग्गज दिशाओं और दिक्पालोंके साथ तुम्हारी रक्षा करें। गन्धर्वोके साथ अश्विनीकुमार सब ओरसे तुम्हारा संरक्षण करें। मनु, वसु, रुद्र, वायु, चन्द्रमा, महर्षिगण, नाग, किंनर, यक्ष, भूत, प्रमथ, ग्रह, आदित्य, मातृकाओोंसहित भूतेश्वर शिव, इन्द्र, देवसेनापति कार्तिकेय समस्त शत्रुओंकी भस्मसात् कर दें और राजा विजय प्राप्त करें” ॥१४-२३ ॥
पताका–प्रार्थना–मन्त्र
‘पताके! शत्रुओंने सब ओर जो घातक प्रयोग किये हों, शत्रुओंके वे प्रयोग तुम्हारे तेजसे अभिहत होकर नष्ट हो जायँ। तुम जिस प्रकार कालनेमिवध एवं त्रिपुरसंहारके युद्धमें, हिरण्यकशिपुके संग्राममें तथा सम्पूर्ण दैत्योंके वध के समय सुशोभित हुई हो, आज उसी प्रकार सुशोभित होओ। अपने प्रणका स्मरण करो। इस नीलोज्ज्वलवर्णकी पताकाको देखकर राजाके शत्रु युद्धमें विविध भयंकर व्याधियों एवं शास्त्रोंसे पराजित होकर शीघ्र नष्ट हो जायें। तुम पूतना, रेवती, लेखा और कालग्रात्रि आदि नामोंसे प्रसिद्ध हों। पताके! हम तुम्हारा आश्रय ग्रहण करते हैं, हमारे सम्पूर्ण शत्रुओंको दग्ध कर डादो। सर्वमेध महायज्ञमें देवाधिदेव भगवान् रुद्रने जगत्के सारतत्वसे तुम्हारा निर्माण किया था’॥ २४-२८ ॥
ख्नङ्ग–प्रार्थना–मन्त्र
‘शत्रुसूदन खङ्ग ! तुम इस बातको याद रखो कि नारायणके “नन्दक’ नामक खङ्गकी दूसरी मूर्ति हो। तुम नीलकमलदलके समान श्याम एवं कृष्णवर्ण हो। दुःस्वप्नोंका विनाश करनेवाले हो। प्राचीनकालमें स्वयम्भू भगवान् ब्रह्माने असि, विशसन, खङ्ग, तीक्ष्णधार, दुरासद, श्रीगर्भ, विजय और धर्मपाल-ये तुम्हारे आठ नाम बतलाये हैं। कृतिका तुम्हारा नक्षत्र है, देवाधिदेव महेश्वर तुम्हारे गुरु हैं, सुवर्ण तुम्हारा शरीर है और जनार्दन तुम्हारे देवता हैं। खङ्ग! तुम सेना एवं नगरसहित राजाकी रक्षा करो। तुम्हारे पिता देवश्रेष्ठ पितामह हैं। तुम सदा हमलोगोंकी रक्षा करो’ ॥ २९-३३ ॥
कवच–प्रार्थना–मन्त्र
‘हे वर्म! तुम रणभूमिमें कल्याणप्रद हो। आज मेरी सेनाको यश प्राप्त हो। निष्पाप! मैं तुम्हारे द्वारा रक्षा पानेके योग्य हूँ। मेरी रक्षा करो। तुम्हें नमस्कार है’ ॥ ३४ ॥
दुन्दुभि–प्रार्थना–मन्त्र
‘दुन्दुभे! तुम अपने घोषसे शत्रुओंका हृदय कम्पित करनेवाली हो; हमारे राजाकी सेनाओंके लिये विजयवर्धक बन जाओ। मोददायक दुन्दुभे! जैसे मेघ की गर्जनासे श्रेष्ठ हाथी हर्षित होते हैं, वैसे ही तुम्हारे शब्दसे हमारा हर्ष बढ़े। जिस प्रकार मेघकी गर्जना सुनकर स्त्रियाँ भयभीत हो जाती हैं, उसी प्रकार तुम्हारे नादसे युद्धमें उपस्थित हमारे शत्रु नस्त हो उठें”॥ ३५-३७ ॥
इस प्रकार पूर्वोक्त मन्त्रोंसे राजोपकरणोंकी अर्चना करे एवं विजयकार्यमें उनका प्रयोग करे। दैवज्ञ राजपुरोहितको रक्षाबन्धन आदिके द्वारा राजाकी रक्षाका प्रबंध करके प्रतिवर्ष विष्णु आदि देवताओं एवं राजाका अभिषेक करना चाहिये ॥ ३८-३१ ॥
दो सौ उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २६९ ॥
अध्याय –२७० विष्णुपज्जरस्तोत्र का कथन
पुष्कर कहते हैं – द्विजश्रेष्ठ परशुराम ! पूर्वकाल में भगवान् ब्रह्माने त्रिपुरसंहार के लिये उद्यत शंकर की रक्षा के लिये ‘विष्णुपज्जर’ नामक स्तोत्र का उपदेश किया था | इसीप्रकार बृहस्पति ने बल दैत्य का वध करने के लिये जानेवाले इंद्र की रक्षा के लिये उक्त स्तोत्र का उपदेश दिया था | मैं विजय प्रदान करनेवाले उस विष्णुपज्जर का स्वरुप बतलाता हूँ, सुनो ||१-२||
‘मेरे पूर्वभाग में चक्रधारी विष्णु एवं दक्षिणपार्श्व में गदाधारी श्रीहरि स्थित हैं | पश्चिमभाग में शारंगपाणि विष्णु और उत्तरभाग में नंदक-खंडधारी जनार्दन विराजमान हैं | भगवान् हृषिकेश दिक्कोणोंमें एवं जनार्दन मध्यवर्ती अवकाश में मेरी रक्षा कर रहे हैं | वराहरूपधारी श्रीहरि भूमिपर तथा भगवान् नृसिंह आकाश में प्रतिष्ठित होकर मेरा संरक्षण कर रहे हैं | जिसके किनारे के भागों में छुरे जुड़े हुए हैं वह यह निर्मल ‘सुदर्शनचक्र’ घूम रहा है | यह जब प्रेतों तथा निशाचरों को मारने के लिये चलता हैं, उससमय इसकी किरणों की ओर देखना किसी के लिये भी बहुत कठिन होता है | भगवान् श्रीहरि की यह ‘कौमोदकी’ गदा सहस्त्रों ज्वालाओं से प्रदीप्त पावक के समान उज्ज्वल हैं | यह राक्षस, भुत, पिशाच और डाकिनियों का विनाश करनेवाली हैं | भगवान वासुदेव के शारंगधनुष की टंकार मेरे शत्रुभुत मनुष्य, कुष्मांड, प्रेत आदि और तिर्यग्योनिगत जीवों का पूर्णतया संहार करे | जो भगवान् श्रीहरि खड्गधारामयी उज्ज्वल ज्योत्स्ना में स्नान कर चुके हैं, वे मेरे समस्त शत्रु उसीप्रकार तत्काल शांत हो जायँ, जैसे गरुड के द्वारा मारे गये सर्प शांत हो जाते हैं’ ||३-८||
‘जो कूष्मांड, यक्ष, राक्षस, प्रेत, विनायक, क्रूर मनुष्य, शिकारी पक्षी, सिंह आदि पशु एवं डँसनेवाले सर्प हों, वे सब-के-सब सच्चिदानंदस्वरुप श्रीकृष्ण के शंखनाद से आहत हो सौम्यभाव को प्राप्त हो जायँ | जो मेरी चित्तवृत्ति और स्मरणशक्ति का हरण करते हैं, जो मेरे बल और तेज का नाश करते हैं तथा जो मेरी कान्ति या तेज को विलुप्त करनेवाले है, जो उपभोग सामग्री को हर लेनेवाले तथा शुभ लक्षणों का नाश करनेवाले हैं, वे कूष्मांडगण श्रीविष्णु के सुदर्शन चक्र के वेग से आहत होकर विनष्ट हो जायँ | देवाधिदेव भगवान् वासुदेव के संकीर्तन से मेरी बुद्धि, मन और इन्द्रियों को स्वास्थ्यलाभ हो | मेरे आगे-पीछे, दायें-बायें तथा कोणवर्तिनी दिशाओं में सब जगह जनार्दन श्रीहरि का निवास हो | सबके पूजनीय मर्यादा से कभी च्युत न होनेवाले अनंतरूप परमेश्वर जनार्दन के चरणों में प्रणत होनेवाला कभी दुखी नहीं होता | जैसे भगवान् श्रीहरि परब्रह्म हैं, उसी प्रकार वे परमात्मा केशव भी जगतस्वरुप हैं – इस सत्य के प्रभाव से तथा भगवान् अच्युत के नामकीर्तन से मेरे त्रिविध पापोंका नाश हो जाय” || ९-१५||
श्रीविष्णुपज्जरस्तोत्र
पुष्कर उवाच –
त्रिपुरं जघ्नुष: पूर्व ब्रह्मणा विष्णुपज्जरम | शंकरस्य द्विजश्रेष्ठ रक्षणाय निरूपितम ||
वागीशेन च शक्रस्य बलं हन्तुं प्रयास्यत: | तस्य स्वरूपं यक्ष्यामि वत त्वं श्रुणु जयादिमत ||
विष्णु: प्राच्यां स्थितंक्षक्री हरिर्दक्षिणतो गदी | प्रतीच्यां शारंगधृग विष्णुर्जिष्णु: खंगी ममोत्तरे ||
हृषीकेशो विकोणेषु ताच्छिद्रेषु जनार्दन: | क्रोड़रूपी हरिर्भुमौ नारसिंहोऽम्बरे मम ||
क्षुरांतममलं चक्रं भ्रमत्येतत सुदर्शनम | अस्यांशुमाला दुष्प्रेक्ष्या हन्तुं प्रेतनिशाचराम ||
गदा चेयं सहस्नाचिॅ: प्रदीप्तपावकोज्ज्वला | रक्षोभूतपिशाचनां डाकिनीनां च नाशनी ||
शांगविस्फुर्जितं चैव वासुदेवस्य मद्रिपुंव | तिर्यंमनुष्यकूष्माण्डप्रेतादीन हन्त्वशेषत: ||
खण्डधारो ज्वल ज्योत्स्त्नानिर्धुता ये समाहिता: | ते यान्तु शाम्यतां सद्यो गरुडेनेव पन्नगा: ||
ये कूष्माण्डस्तथा यक्षा ये दैत्या ये निशाचरा: | प्रेता विनायका: क्रूरा मनुष्या जम्भगा: खगा : ||
सिंहादयश्व पशवो दंदशुकाश्व पन्नगा: | सर्वे भवन्तु ते सौम्या: कृष्णशंकरवाहता: ||
चित्तवृत्तिहरा ये में ये जना: स्मुतिहारका: | बलौजसां च हर्तारश्चायाविभ्रंशकाश्व ये ||
ये चोपभोगहर्तारो ये च लक्षणनाशका: | कुष्मांडास्ते प्रणश्वन्तु विष्णुचक्ररवाहता: ||
बुद्धिस्वास्थ्यं मन:स्वास्थ्यं स्वास्थ्यमैंन्द्रियकं तथा | ममास्तु देवदेवस्य वासुदेवस्य कीर्तनात ||
पृष्ठे पुरस्तान्मम दक्षिणोत्तरे विकोणतश्वास्तु जनार्दनो हरि : | तमींनग्मोशानस्त्मच्युतं जनार्दनं प्रणीपतितो न सौद्ती |
यथा परं ब्रह्म हरिस्तथा परो जगत्स्वरुपक्ष स एवं केशव: | सत्येन तेनाच्युतनामकीर्तनात प्रणाशयेत्तु त्रिविधं ममाशुधम || ( अग्निपुराण -२७०/१/१५)
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘विष्णुपज्जरस्तोत्र का कथन ’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
अध्याय –२७१ वेदों के मन्त्र और शाखा आदि का वर्णन तथा वेदों की महिमा
पुष्कर कहते हैं – परशुराम ! वेदमंत्र सम्पूर्ण विश्वपर अनुग्रह करनेवाले तथा चारों पुरुषार्थों के साधक है | ऋग्वेद की शाखा ‘सांख्यायन’ और दूसरी शाखा ‘आश्वलायन’ है | इन दो शाखाओं में एक सहस्त्र तथा ऋग्वेदीय ब्राह्मण भाग में दो सहस्त्र मन्त्र हैं | श्रीकृष्णद्वैपायन आदि महर्षियों ने ऋग्वेद को प्रमाण माना है | यजुर्वेद में उन्नीस सौ मन्त्र हैं | उसके ब्राह्मण-ग्रंथो में एक हजार मन्त्र है और शाखाओं में एक हजार छियासी | यजुर्वेद में मुख्यतया कान्वी, माध्यन्दिनी, कठी, माध्यकठी, मैत्रायणि, तैत्तिरीया एवं वैशम्पायनिया – ये शाखाएँ विद्यमान हैं | सामवेद में कौथमी और आथर्वणा यनी (राणायनिया) – ये दो शाखाएँ मुख्य हैं | इसमें वेद, आरण्यक, उक्था और ऊह – ये चार गान हैं | सामवेद में नौ हजार चार सौ पचीस मन्त्र है | वे ब्रह्म से सम्बन्धित है | यहाँतक सामवेद का मान बताया गया ||१-७||
अथर्ववेद में सुमन्तु, जाजलि, श्लोकायनी, शौनक, पिप्पलाद और मुज्जकेश आदि शाखाप्रवर्तक ऋषि हैं | इसमें सोलह हजार मन्त्र और सौ उपनिषद हैं | व्यासरूप में अवतीर्ण होकर भगवान् श्रीविष्णु ने ही वेदों की शाखाओं का विभाग आदि किया है | वेदों के शाखा भेद आदि इतिहास और पुराण सब विष्णुस्वरूप हैं | भगवान् व्यास से लोमहर्षण सूत ने पुराण आदिका उपदेश पाकर उनका प्रवचन किया | उनके सुमति, अग्निवर्चा, मित्रयु, शिंशपायन, कृतव्रत और सावणिॅ – ये छ: शिष्य हुए | शिंशपायन आदिने पुराणों की संहिता का निर्माण किया | भगवान् श्रीहरि ही ‘ब्राह्म’ आदि अठारह पुराणों एवं अष्टादश विद्याओं के रूप में स्थित हैं | वे सप्रंच-निष्प्रपंच तथा मूर्त-अमूर्त स्वरूप धारण करनेवाले विद्यारूपी श्रीविष्णु ‘आग्नेय महापुराण’ में स्थित हैं | उनको जानकर उनकी अर्चना एवं स्तुति करके मानव भोग और मोक्ष – दोनों को प्राप्त कर लेता हैं | भगवान् विष्णु विजयशील, प्रभावसम्पन्न तथा अग्नि-सूर्य आदि के रूप में स्थित हैं | वे भगवान् विष्णु ही अग्निरूप से देवता आदि के मुख है | वे ‘यज्ञमूर्ति’ के नामसे गाये जाते हैं |
यह ‘अग्निपुराण’ श्रीविष्णु का ही विराटरूप हैं | इस अग्नि–आग्नेय पुराण के निर्माता और श्रोता श्रीजनार्दन ही हैं | इसलिये यह महापुराण सर्ववेदमय, सर्वविद्यामय तथा सर्वज्ञानमय है | यह उत्तम एवं पवित्र पुराण पठन और श्रवण करनेवाले मनुष्यों के लिये सर्वात्मा श्रीहरिस्वरुप है | यह ‘आग्नेय–महापुराण’ विद्यार्थियों के लिये विद्याप्रद, अर्थार्थियों के लिये लक्ष्मी और धन–सम्पत्ति देनेवाला, राज्यार्थियों के लिये राज्यदाता, धर्मार्थियों के लिये धर्मदाता, स्वर्गार्थियों के लिये स्वर्गप्रद और पुत्रार्थियों के लिये पुत्रदायक हैं | गोधन चाहनेवाले को गोधन और ग्रामाभिलाषियों को ग्राम देनेवाला हैं | यह कामार्थी मनुष्यों को काम, सम्पूर्ण सौभाग्य, गुण तथा कीर्ति प्रदान करनेवाला है | विजयाभिलाषी पुरुषों को विजय देता है, सब कुछ चाहनेवालों को सब कुछ देता है, मोक्षकामियों को मोक्ष देता है और पापियों के पापों का नाश कर देता हैं ||८-२२||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘वेदों की शाखा आदि का वर्णन ’ नामक अध्याय पूरा हुआ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
अध्याय – २७२ विभिन्न पुराणोंके दान तथा महाभारत-श्रवणमें दान-पूजन आदिका माहात्म्य
पुष्कर कहते हैं-परशुराम! पूर्वकालमें लोकपितामह ब्रह्माने मरीचिके सम्मुख जिसका वर्णन किया था, पचीस हजार श्लोकोंसे समन्वित उस ‘ब्रह्मपुराण’ को लिखकर ब्राह्मणको दान दे।
स्वर्गाभिलाषी वैशाखकी पूर्णिमाको जलधेनुके साथ ‘ब्रह्मपुराण’ का दान करे।
‘पद्मपुराण’ में जो पद्मसंहिता (भूमिखण्ड) हैं, उसमें बारह* हजार श्लोक हैं। ज्येष्ठमासकी पूर्णिमाको गौके साथ इसका दान करना चाहिये।
महर्षि पराशरने वाराहकल्पके वृत्तान्तको अभिगत करके तेईस हजार श्लोकोंका “विष्णुपुराण” कहा है। इसे आषाढ़कों पूर्णिमाको जलधेनुसहित प्रदान करे। इससे मनुष्य भगवान् विष्णुके परमपदको प्राप्त होता है।
चौदह हजार श्लोकोवाला ‘वायुपुराण’ भगवान् शंकरको अत्यन्त प्रिय है। इसमें वायुदेवने श्वेतकल्पके प्रसङ्ग से धर्मका वर्णन किया है। इस पुराणको लिखकर श्रावणकी पूर्णिमाको गुड़धेनुके साथ ब्राह्मणकी दान करे।
गायत्री-मन्त्रका आश्रय लेकर निर्मित हुए जिस पुराणमें भागवत-धर्मका विस्तृत वर्णन है, सारस्वतकल्पका प्रसङ्ग कहा गया है तथा जो वृत्रासुर-वधकी कथासे युक्त है-उस पुराणकों ‘भागवत’ कहते हैं। इसमें अठारह हजार श्लोक हैं। इसको सोनेके सिंहासनके साथ भाद्रपदकी पूर्णिमाको दान करे।
जिसमें देवर्षि नारदने बृहत्कल्पके वृत्तान्तका आश्रय लेकर धर्मोकी व्याख्या की है, वह ‘नारदपुराण’ है। उसमें पचीस हजार श्लोक हैं। आश्विनमासकी पूर्णिमाको धेनुसहित उसका दान करे। इससे आत्यन्तिक सिद्धि प्राप्त होती है।
जिसमें पक्षियोंके द्वारा धर्माधर्मका विचार किया गया हैं, नौ हजार श्लोकोंवाले उस “मार्कंडेयपुराण”का कार्तिककी पूर्णिमाको दान करे।
अग्रिदेवने वसिष्ठ मुनिकी जिसका श्रवण कराया है, वह ‘अग्रिपुराण’ हैं। इस ग्रन्थकों लिखकर मार्गशीर्षकी पूर्णिमा तिथिमें ब्राहम्णके हाथमें दे। इस पुराणका दान सब कुछ देनेवाला है। इसमें बारह हजार ही श्लोक हैं और यह पुराण सम्पूर्ण विद्याओंका बोध करानेवाला है।
‘भविष्यपुराण’ सूर्य-सम्भव है। इसमें सूर्यदेवकी महिमा बतायी गयी है। इसमें चौदह हजार श्लोक हैं। इसे भगवान् शंकरने मनुसे कहा है। गुड़ आदि वस्तुओंके साथ पौषकी पूर्णिमाको इसका दान करना चाहिये।
सावर्न्य-मनुने नारदसे ‘ब्रह्मवैवर्तपुराण’ का वर्णन किया है। इसमें रथन्तरकल्पका वृतान्त है और अठारह हजार श्लोक हैं। माघमासकी पूर्णिमाको इसका दान करे।
वराहके चरित्रसे युक्त जो “वाराहपुराण’ है, उसका भी माघ मासकी पूर्णिमाको दान करे। ऐसा करनेसे दाता ब्रह्मलोकका भागी होता है।
जहाँ अग्रिमय लिङ्गमें स्थित भगवान् महेश्वरने आग्रेयकल्पके वृतान्तोंसे युक्त धर्मोंका विवेचन किया है, वह ग्यारह हजार श्लोकोंवाला ‘लिङ्ग पुराण’ है। फाल्गुनकी पूर्णिमाको तिलधेनुके साथ उसका दान करके मनुष्य शिवलोकको प्राप्त होता है।
‘वाराहपुराण’में भगवान् श्रीविष्णुने भूदेवीके प्रति मानव-जगत्की प्रवृत्तिसे लेकर वराह-चरित्र आदि उपाख्यानोंका वर्णन किया है। इसमें चौबीस हजार श्लोक हैं।
चैत्रकी पूर्णिमाको ‘गरुडपुराण’का सुवर्णके साथ दान करके मनुष्य विष्णुपदको प्राप्त होता है।
‘स्कन्दमहापुराण’ चौरासी हजार श्लोकोंका है। कुमार स्कन्दने तत्पुरुष-कल्पकी कथा एवं शैवमतका आश्रय लेकर इस महापुराणका प्रवचन किया है। इसका भी चैत्रकी पूर्णिमाको दान करना चाहिये।
दस हजार श्लोकोंसे युक्त ‘वामनपुराण’ धर्मार्थ आदि पुरुषार्थोका अवबोधक हैं। इसमें श्रीहरिकी धौमकल्पसे सम्बन्धित कथाका वर्णन है। शरद पूर्णिमामें विषुव-संक्रान्तिके समय इसका दान करे।
‘कूर्मपुराण में आठ हजार श्लोक हैं। कूर्मावतार श्रीहरिने इन्द्रद्युम्नके प्रसङ्ग से रसातलमें इसको कहा था। इसका सुवर्णमय कच्छपके साथ दान करना चाहिये।
मत्स्यरूपी श्रीविष्णुने कल्पके आदिकालमें मनुको तेरह हजार श्लोकोंसे युक्त ‘मत्स्यपुराण’ का श्रवण कराया था। इसे हेमनिर्मित मत्स्य के साथ प्रदान करे।
आठ हजार श्लोकोंवाले “गरुडपुराण’का भगवान् श्रीविष्णुने तार्क्क्षकल्पमें प्रवचन किया था। इसमें विश्वाण्डसे गरुड़की उत्पतिकी कथा कही गयी हैं। इसका स्वर्णहंसके साथ दान कोरे।
भगवान् ब्रह्माने ब्रह्माण्डके माहात्म्यका आश्रय लेकर जिसे कहा है, बारह हजार श्लोकोंवाले उस ‘ब्रह्माण्डपुराण’को भी लिखकर ब्राह्मणके हाथमें दान करे॥ १-२२६ ॥
महाभारत-श्रवणकालमें प्रत्येक पर्वकी समापिापर पहले कथावाचकका वस्त्र, गन्ध, माल्य आदिसे पूजन करे। तत्पश्चात् ब्राह्मणोंको खीरका भोजन करावे। प्रत्येक पर्वकी समाप्तिपर गौ, भूमि, ग्राम तथा सुवर्ण आदिका दान करे।
महाभारतके पूर्ण होनेपर कथावाचक ब्राह्मण और महाभारत-संहिताकी पुस्तकका पूजन करे। ग्रन्थको पवित्र स्थानपर रेशमी वस्त्रसे आच्छादित करके पूजन करना चाहिये। फिर भगवान् नर-नारायणकी पुष्प आदिसे पूजा करे। गौ, अन्न, भूमि, सुवर्णके दानपूर्वक ब्राह्मणोंको भोजन कराकर क्षमा-प्रार्थना करे।
श्रोताकी विविध रत्नोंका महादान करना चाहिये। प्रत्येक मासमें कथावाचक को दो या तीन माशे सुवर्णका दान करे और अयनके प्रारम्भमें भी पहले उसके लिये सुवर्णके दानका विधान है।
द्विजश्रेष्ठ! समस्त श्रोताओंको भी कथावाचकका पूजन करना चाहिये।
जो मनुष्य इतिहास एवं पुराणोंका पूजन करके दान करता है, वह आयु, आरोग्य, स्वर्ग और मोक्षको भी प्राप्त कर नेता है* ॥ २३-२९ ॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें ‘पुराणदान आदिके माहात्म्यका कथन’ नामक दो सौ बहतरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २७२ ॥
अध्याय - २७३ सूर्यवंशका वर्णन
अग्रिदेव कहते हैं–वसिष्ठ! अब मैं तुमसे सूर्यवंश तथा राजाओंके वंशका वर्णन करता हूँ।
भगवान् विष्णुके नाभिकमल से ब्रह्माजी प्रकट हुए हैं। ब्रह्माजीके पुत्रका नाम मरीचि है। मरीचिसे कश्यप तथा कश्यपसे विवस्वान् (सूर्य)-का जन्म हुआ है।
सूर्यकी तीन स्त्रियाँ हैं-संज्ञा, राज्ञी और प्रभा। इनमेंसे ‘राज्ञी”रैवतकी पुत्री हैं। उन्होंने ‘रेवन्त’ नामवाले पुत्रको जन्म दिया है।
सूर्यकी ‘प्रभा’ नामवाली पत्नीसे ‘प्रभात’ नामवाला पुत्र हुआ।
‘संज्ञा’ विश्वकर्माकी पुत्री है। उनके गर्भसे वैवस्वत मनु तथा जुड़वीं संतान यम और यमुनाकी उत्पति हुई है। (संज्ञाकी छायाको भी, जो स्त्री,रूपमें प्रतिष्ठित थी, ‘छाया-संज्ञा’ कहते हैं।) छाया-संज्ञाने सूर्यके अंशसे सावर्णि मनु तथा शनैश्वर नामक पुत्रको और तपती एवं विष्टि नामवाली कन्याओंको जन्म दिया। तदनन्तर (अश्वारूपधारिणी) संज्ञासे दोनों अश्विनीकुमारोंकी उत्पति हुई॥ १-४॥
वैवस्वत मनुके दस पुत्र हुए, जो उन्होंके समान तेजस्वी थे। उनके नाम इस प्रकार हैं- इक्ष्वाकु, नाभाग, धृष्ट, शर्याति, नारिश्यंत, प्रांशु, नृग, सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ दिष्ट, करूष और पृषभ्र-ये दासों महाबली राजा अयोध्यामें हुए।
मनुकी इला नामवाली एक कन्या भी थी, जिसके गर्भसे बुधके अंशसे पुरूरवाका जन्म हुआ। पुरूरवाको उत्पन्न करके इला पुरुषरूपमें परिणत हो गयी। उस समय उसका नाम सुद्युम्न हुआ। सुद्युम्नसे उत्कल, गय और विनताश्व-इन तीन राजाओंका जन्म हुआ। उत्कलको उत्कलप्रान्त (उड़ीसा)-का राज्य मिला, विनताश्वका पश्चिमदिशापर अधिकार हुआ तथा राजाओंमें श्रेष्ठ गय पूर्वदिशाके राजा हुए | जिनकी राजधानी गयापुरी थी।
राजा सुधुम्न वसिष्ठ ऋषिके आदेशसे प्रतिष्ठानपुरमें आ गये और उसीको अपनी राजधानी बनाया। उन्होंने वहाँका राज्य पाकर उसे पुरूरवाको दे दिया।
नरिष्यन्तके पुत्र ‘शक’ नामसे प्रसिद्ध हुए। नाभागसे परमवैष्णव अम्बरीषका जन्म हुआ। वे प्रजाओंका अच्छी तरह पालन करते थे।
राजा धृष्टसे धार्ष्टक-वंशका विस्तार हुआ। सुकन्या और आनर्त-ये दो शर्यातिकी संतानें हुई। आनर्तसे ‘रेव’ नामक नरेशकी उत्पति हुई। आनर्तदेशमें उनका राज्य था और कुशस्थली उनकी राजधानी थी। रेवके पुत्र रैवत हुए, जो ‘ककुद्मी’ नामसे प्रसिद्ध और धर्मात्मा थे। वे अपने पिता के सौ पुत्रोंमें सबसे बड़े थे, अत: कुशस्थलीका राज्य उन्हींको मिला। ५-१२ ॥
एक समयकी बात है-वे अपनी कन्या रेवतीको साथ लेकर ब्रह्माजीके पास गये और वहाँ संगीत सुनने लगे। वहाँ ब्रह्माजीके समयसे दो ही घड़ी बीती, किन्तु इतनेहीमें मर्त्यलोकके अन्दर अनेक युग समाप्त हो गये। संगीत सुनकर वे बड़े वेगसे अपनी पुरीको लौटे, परन्तु अब उसपर यदुवंशियोंका अधिकार हो गया था। उन्होंने कुशस्थलीकी जगह द्वारका नामकी पुरी बसायी थी, जो बड़ी मनोरम और अनेक द्वारोंसे सुशोभित थी। भोज, वृष्णि और अन्धकत्वंशके वासुदेव आदि वीर उसकी रक्षा करते थे। वहाँ जाकर रैवतने अपनी कन्या रेवतीका बलदेवजीसे विवाह कर दिया और संसारकी अनित्यता जानकर सुमेरु पर्वतके शिखरपर जाकर तपस्या करने लगे। अन्तमें उन्हें विष्णुधामकी प्राप्ति हुई ॥ १३-१६॥
नाभागके दो पुत्र हुए, जो वैश्याके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। वे (अपनी विशेष तपस्याके कारण) ब्राह्मणत्वको प्राप्त हुए।
करूषके पुत्र ‘कारूष’ नामसे प्रसिद्ध क्षत्रिय हुए, जो युद्धमें मतवाले हो उठते थे।
पृषभ्रने भूलसे अपने गुरुकी गायकी हिंसा कर डाली थी, अतः वे शापवश शूद्र हो गये।
मनुपुत्र इक्ष्वाकुके पुत्र विकुक्षि हुए, जो (कुछ कालके लिये) देवताओंके राज्यपर आसीन हुए थे। विकुक्षिके पुत्र ककुत्स्थ हुए। ककुत्स्थका पुत्र सुयोधन नामसे प्रसिद्ध हुआ। उसके पुत्रका नाम ‘पृथु’ था। पृथुसे विश्वश्रवाका जन्म हुआ। उसका पुत्र आयु और आयुका पुत्र युवनाश्र्व हुआ। युवनाश्र्वसे श्रावन्तकी’ उत्पत्ति हुई, जिन्होंने पूर्वदिशा में श्रावन्तिकी’ नामकी पुरी बसायी। श्रावन्तसे बृहदश्व और बृहदश्वसे कुवलाश्व नामक राजाका जन्म हुआ। इन्होंने पूर्वकालमें धुन्धु नामसे प्रसिद्ध दैत्यका वध किया था, अत: उसीके नामपर ये ‘धुन्धुमार’ कहलाये। धुन्धुमारसे तीन पुत्र हुए। वे तीनों ही राजा थे। उनके नाम थे-दृढाश्व, दण्ड और कपिल। दृढाश्वसे हर्यश्च और प्रमोदकने जन्म ग्रहण किया। हर्यधसे निकुम्भ और निकुम्भसे संहताश्वकी उत्पत्ति हुई। संहताश्वके दो पुत्र हुए-अकृशाश्व तथा रणाश्व। रणाश्के पुत्र युवनाश्व और युवनाश्धके पुत्र राजा मांधाता हुए। मांधाताके भी दो पुत्र हुए, जिनमें एकका नाम पुरुकुत्स था और दूसरेका नाम मुचुकुन्द॥ १७-२४ ॥
पुरुकुत्ससे त्रसद्दस्युका जन्म हुआ। वे नर्मदाके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। उनका दूसरा नाम ‘सम्भूत’ भी था। सम्भूतके सुधन्वा और सुधन्वाके पुत्र त्रिधन्वा हुए। त्रिधन्वाके तरुण और तरुणके पुत्र सत्यव्रत थे। सत्यव्रतसे सत्यरथ हुए, जिनके पुत्र हरिश्चन्द्र थे। हरिश्चन्द्रसे रोहिताश्वका जन्म हुआ, रोहिताविसे वृक हुए वृकसे बाहु और बाहुसे सगरकी उत्पति हुई। सगरकी प्यारी पत्नी प्रभा थी, जो प्रसन्न हुए और्व मुनिकी कृपासे साठ हजार पुत्रोंकी जननी हुई तथा उनकी दूसरी पत्नी भानुमतौने राजासे एक ही पुत्रको उत्पन्न किया, जिसका नाम असमञ्जस था।
सगरके साठ हजार पुत्र पृथ्वी खोदते समय भगवान् कपिलके क्रोधसे भस्म हो गये। असमञ्जसके पुत्र अंशुमान् और अंशुमान्के दिलीप हुए। दिलीपसे भगीरथका जन्म हुआ, जिन्होंने गङ्गाको पृथ्वीपर उतारा था। भगीरथसे नाभाग और नाभागसे अम्बरीष हुए। अम्बरीषके सिन्धुद्वीप और सिन्धुद्वीपके पुत्र श्रुतायु हुए। श्रुतायुके ऋतुपर्ण और ऋतुपर्णके पुत्र कल्माषपाद थे। कल्माषपादसे सर्वकर्मा और सर्वकर्मासे अनरण्य हुए। अनरण्यके निध्न और निध्नके पुत्र दिलीप हुए। राजा दिलीपके रघु और रघुके पुत्र अज थे। अजसे दशरथका जन्म हुआ। दशरथके चार पुत्र हुए-वे सभी भगवान् नारायणके स्वरूप थे। उन सबमें ज्येष्ठ श्रीरामचन्द्रजी थे। उन्होंने रावणका वध किया था। रघुनाथजी अयोध्याके सर्वश्रेष्ठ राजा हुए। महर्षि वाल्मीकिने नारदजीके मुँहसे उनका प्रभाव सुनकर (रामायणके नामसे) उनके चरित्रका वर्णन किया था। श्रीरामचन्द्रजीके दो पुत्र हुए, जो कुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले थे। वे सीताजीके गर्भसे उत्पन्न होकर कुश और लवके नामसे प्रसिद्ध हुए। कुशसे अतिथिका जन्म हुआ। अतिथिके पुत्र निषध हुए। निषधसे नलकी उत्पति हुई (ये सुप्रसिद्ध राजा दमयन्तीपति नलसे भिन्न हैं); नलसे नभ हुए। नभसे पुण्डरीक और पुण्डरीकसे सुधन्वा उत्पन्न हुए। सुधन्वाके पुत्र देवानीक और देवानीकके अहींनाव हुए। अहीनावसे सहस्राव और सहस्रावसे चन्द्रालोक हुए। चन्द्रालोकसे तारापीड़, तारापीड़से चन्द्रगिरि और चन्द्रगिरिसे भानुरथका जन्म हुआ। भानुरथका पुत्र श्रुतायु नामसे प्रसिद्ध हुआ। ये इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न राजा सूर्यवंशका विस्तार करनेवाले माने गये हैं। २५-३९ ॥
दो सौ तिहतरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २७३ ॥
अध्याय – २७४ सोमवंशका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ! अब मैं सोमवंशका वर्णन करूँगा, इसका पाता करनेसे पापका नाश होता है।
विष्णुके नाभिकमलसे ब्रह्मा उत्पन्न हुए। ब्रह्माके पुत्र महर्षि अत्रि हुए। अत्रिसे सोमकी उत्पति हुई। सोमने राजसूय-यज्ञ किया और उसमें तीनों लोकोंको राज्यका उन्होंने दक्षिणारूपसे दान कर दिया। जब यज्ञके अन्तमें अवभृथस्नान समाप्त हुआ तो उनका रूप देखनेकी इच्छासे नौ देवियाँ चन्द्रमाके पास आयी और कामबाणसे संतप्त होकर उनकी सेवा करने लगीं।
लक्ष्मी (कान्ति) नारायणको छोड़कर चली आयी, सिनीवाली कर्दमको, द्युति अग्रिको और पुष्टि अपने अविनाशी पति धाताको क्यागकर आ गयीं। प्रभा प्रभाकरकों और कुहू हविष्मानको, छोड़कर स्वयं सोमके पास चली आयीं। कीर्तिने अपने स्वामी जयन्तकों छोड़ा और वसुने मरीचिनन्दन कश्यपको तथा धृति भी उस समय अपने पति नन्दिको त्यागकर सोमकी ही सेवामें संलग्रा ही गयीं ॥ १-५ ॥
चंद्रमाने भी उस समय उन देवियोंको अपनी ही पत्नीकी भाँती सकामभावसे अपनाया। सोमके इस प्रकार अत्याचार करनेपर भी उस समय उन देवियोंके पति शाप तथा शस्त्र आदि के द्वारा उनका अनिष्ट करने में समर्थ न हो सके, अपितु सोम ही अपनी तपस्याके प्रभावसे ‘भू’ आदि सातों लोकोंके एकमात्र स्वामी हुए।
इस अनीतिसे ग्रस्त होकर चन्द्रमाकी बुद्धि विनयसे भ्रष्ट होकर भ्रान्त हो गयी और उन्होंने अंगिरानन्दन वृहस्पतिजीका अपमान करके उनकी यशस्विनीं पत्नी ताराका बलपूर्वक अपहरण कर लिया। इसके कारण देवताओं और दानवोंमें संसारका विनाश करनेवाला महान् युद्ध हुआ, जो ‘तारकामय संग्राम’ के नामसे विख़्यात है। अन्तमें ब्रह्माजीने (चन्द्रमाकी औरसे युद्धमें सहायता पहुँचानेवाले) शुक्राचार्यको रोककर तारा बृहस्पतिजीको दिला दी। देवगुरु बृहस्पतिने ताराको गर्भिणी देखकर कहा—’इस गर्भका त्याग कर दो।’ उनकी आज्ञासे ताराने उस गर्भका त्याग किया, जिससे बड़ा तेजस्वी कुमार प्रकट हुआ। उसने पैदा होते ही कहा-‘मैं चन्द्रमाका पुत्र हूँ।’ इस प्रकार सोमसे बुधका जन्म हुआ। उनके पुत्र पुरूरवा हुए, उर्वशी नामकी अप्सराने स्वर्ग छोड़कर पुरूरवाका वरण किया।॥ ६-१२ ॥
महामुने! राजा पुरूरवाने उर्वशीके साथ उनसठ वर्षोंतक विहार किया। पूर्वकालमें एक ही अग्रि थे। राजा पुरूरवाने ही उन्हें (गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्रि-भेदसे) तीन रूपोंमें प्रकट किया। राजा योगी थे। अन्तमें उन्हें गन्धर्वलोककी प्राप्ति हुई। उर्वशीने राजा पुरूरवासे आयु, दृढ़ायु, अवायु, धनायु, धृतिमान्, वसु, दिविजात और शतायु – इन आठ पुत्रोंको उत्पन्न किया।
आयुके नहुष, वृद्धशर्मा, रजि, दम्भ और विपाप्मा-ये पाँच पुत्र हुए। रजिसे सौ पुत्रोंका जन्म हुआ। वे ‘राजेय’के नामसे प्रसिद्ध थे। राजा रजिको भगवान् विष्णुसे वरदान प्राप्त हुआ था। उन्होंने देवासुर-संग्राममें देवताओंकी प्रार्थनासे दैत्योंका वध किया था। इन्द्र राजा रजिके पुत्रभावको प्राप्त हुए। रजि स्वर्गका राज्य इन्द्रको देकर स्वयं दिव्यलोकवासी हो गये। कुछ कालके बाद रजिके पुत्रोंने इन्द्रका राज्य छीन लिया। इससे वे मन-ही-मन बहुत दुखी हुये। तदन्तर देवगुरु वृहस्पति ग्रह-शान्ति आदिकी विधिसे रजिके पुत्रोंको मोहित करके राज्य लेकर इन्द्रको दे दिया। उस समय रजिके पुत्र अपने धर्मसे भ्रष्ट हो गये थे।
राजा नहुषके सात पुत्र हुए। उनके नाम थे-यति, ययाति उतम उद्धव, पश्चक, शर्याति और मेघपालक। यति कुमारावस्थामें होनेपर भी भगवान् विष्णुका ध्यान करके उनके स्वरूपको प्राप्त हो गये।
उस समय शुक्राचार्यकी कन्या देवयानी तथा वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठा-ये दो राजा ययातिकी पत्नीयाँ हुई। राजाके इन दोनों स्त्रियोंसे पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। देवयानीने यदु और तुर्वसुको जन्म दिया और वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाने द्रुह्रु, अनु और पूरु-ये तीन पुत्र उत्पन्न किये। इनमेंसे यदु और पूरु-ये दो ही सोमवंशका विस्तार करनेवाले हुए॥ १३-२३ ॥
दो सौ चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २७४ ॥
अध्याय - २७५ यदुवंशका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ! यदुके पाँच पुत्र थे-नीलाञ्जिक, रघु क्रोष्ठु, शतजित्और सहस्रजित्। इनमें सहस्रजित् सबसे ज्येष्ठ थे। शतजित्के हैहय, रेणुहय और हय-ये तीन पुत्र हुए। हैहयके धर्मनेत्र और धर्मनेत्रके पुत्र संहत हुए। संहतके पुत्र महिमा तथा महिमाके भद्रसेन थे। भद्रसेनके दुर्गम और दुर्गमसे कनकका जन्म हुआ। कनकसे कृतवीर्य, कृताग्रि, करवीरक और चौथे कृतौजा नामक पुत्रकी उत्पति हुई। कृतवीर्यसे अर्जुन हुए। अर्जुनने तपस्या की, इससे प्रसन्न होकर भगवान् दत्तात्रेयने उन्हें सातों द्वीपोंकी पृथ्वीका आधिपत्य, एक हजार भुजाएँ और संग्राममें अजेयताका वरदान दिया। साथ ही यह भी कहा-‘अधर्ममें प्रवृत्त होनेपर भगवान् विष्णुके (अवतार श्रीपरशुरामजीके) हाथ से तुम्हारी मृत्यु निश्चित है।’ राजा अर्जुनने दस हजार यज्ञोंका अनुष्ठान किया। उनके स्मरणमात्रसे राष्ट्रमें किसीके धनका नाश नहीं होता था। यज्ञ, दान, तपस्या, पराक्रम और शास्त्रज्ञानके द्वारा कोई भी राजा कृतवीर्यकुमार अर्जुनकी गतिकी नहीं पा सकता। कार्तवीर्य अर्जुनके सौ पुत्र थे, उनमें पाँच प्रधान थे। उनके नाम हैं-शूरसेन, शूर, धृष्टोंक्त, कृष्ण और जयध्वज। जयध्वज अवन्ती देशके महाराज थे। जयध्वजसे तालजङ्घका जन्म हुआ और तालजङ्गसे अनेक पुत्र उत्पन्न हुए, जो तालजङ्घके ही नामसे प्रसिद्ध थे। हैहयवंशी क्षत्रियोंके पाँच कुल हैं-भोज, अवन्ति, वीतिहोत्र, स्वयंजात और शौण्डिकेय। वीतिहोत्र से अनन्तकी उत्पत्ति हुई और अनन्तसे दुर्जय नामक राजाका जन्म हुआा ॥ १-११ ॥
अब क्रोष्टुके वंशका वर्णन करूंगा, जहाँ साक्षात् भगवान् विष्णुने अवतार धारण किया था।
क्रोष्टुसे वृजिनीवान् और वृजिनीवान्से स्वाहाका जन्म हुआ। स्वाहाके पुत्र रुषदगु और उनके पुत्र चित्ररथ थे। चित्ररथ से शशबिन्दु उत्पन्न हुए. जो चक्रवर्ती राजा थे। वे सदा भगवान् विष्णुके भजनमें ही लगे रहते थे। शशबिन्दुके दस हजार पुत्र थे। वे सब-के-सय बुद्धिमान् सुन्दर, अधिक धनवान् और अत्यन्त तेजस्वी थे; उनमें पृथुश्रवा ज्येष्ठ थे। उनके पुत्रका नाम सुयज्ञ था। सुयज्ञके पुत्र उशना और उशनाके तितिक्षु हुए। तितिक्षुसे मरुत और मरुतसे कम्बलबर्हिष (जिनका दूसरा नाम रुक्मकवच था) हुए। रुक्मकवचसे रुक्मेषु, पृथुरुक्मक, हवि, ज्यामघ और पापघ्न आदि पचास पुत्र उत्पन्न हुए। इनमें ज्यामघ अपनी स्त्रीके वशीभूत रहनेवाला था। उससे उसकी पत्नी शैव्याके गर्भसे विदर्भकी उत्पति हुई। विदर्भके कौशिक, लोमपाद और क्रथ नामक पुत्र हुए। इनमें लोमपाद ज्येष्ठ थे। उनसे कृतिका जन्म हुआ। कौशिकके पुत्रका नाम चिदि हुआ। चिदिके वंशज राजा ‘चैद्य के नामसे प्रसिद्ध हुए। विदर्भपुत्र क्रथसे कुन्ति और कुन्तिसे धृष्टकका जन्म हुआ। धृष्टकके पुत्र धृति और धूतिके विदूरथ हुए। ये ‘दशाह’ नामसे भी प्रसिद्ध थे। दशाह के पुत्र व्योम और व्योमके पुत्र जीमूत कहे जाते है। जीमूतके पुत्रका नाम विकल हुआ और उनके पुत्र भीमरथ नामसे प्रसिद्ध हुए। भीमरथसे नवरथ और नवरथसे दृढ़रथ हुए। दृढ़रथसे शकुन्ति तथा शकुन्तिसे करम्भ उत्पन्न हुए। करम्भसे देवरातका जन्म हुआ। देवरातके पुत्र देवक्षेत्र कहलाये। देवक्षेत्रसे मधु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ और मधुसे द्रवरसने जन्म ग्रहण किया। द्रवरसके पुरुहूत और पुरुहूतके पुत्र जन्तु थे। जन्तुके पुत्रका नाम सात्वत था। ये यदुवंशियोंमें गुणवान् राजा थे। सात्वतके भजमान, वृष्णि, अन्धक तथा देवावृध-ये चार पुत्र हुए। इन चारोंके वंश विख्यात हैं। भजमानके बाह्य, वृष्टि, कृमि और निमि नामक पुत्र हुए। देवावृधसे बभ्रूका जन्म हुआ। उनके विषयमें इस शलोकका गान किया जाता है-
‘हम जैसा दूरसे सुनते हैं, वैसा ही निकटसे देखते भी हैं। बभ्रू मनुष्योंमें श्रेष्ठ हैं और देवावृध देवताओंके समान हैं।’
बभ्रूके चार पुत्र हुए। वे सभी भगवान् वासुदेवके भक्त थे। उनके नाम हैं-कुकुर, भजमान, शिनि और कम्बलबर्हिष। कुकुरके धृष्णु नामक पुत्र हुए। धृष्णुसे धूति नामवाले पुत्रकी उत्पति हुई। धृतिसे कपोतरोमा और उनके पुत्र तितिरिके हुए। तितिरिके पुत्र नर और उनके पुत्र आनकदुन्दुभि नामसे विख्यात हुए। आनकदुन्दुभिकी परम्परामें पुनर्वसु और उनके पुत्र आहुक हुए। ये आहुकीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। आहुकसे देवक और उग्रसेन हुए। देवकसे देववान, उपदेव, सहदेव और देवरक्षित-ये चार पुत्र हुए। इनकी सात बहिनें र्थी, जिनका देवकने वसुदेवके साथ ब्याह कर दिया। उन सातोंके नाम हैं-देवकी, श्रुतदेवी, मित्रदेवी, यशोदरा, श्रीदेवी, सत्यदेवी और सातवीं सुरापी। उग्रसेन के नौ पुत्र हुए, जिनमें कंस ज्येष्ठ था। शेष आठ पुत्रोंके नाम इस प्रकार हैं- न्यग्रोध, कंक, राजाशंकु, सुतनु, राष्टपाल, युद्धमुष्टी, और और सुमुष्टिक। भजमानके पुत्र विदूरथ हुए, जो रथियोंमें प्रधान थे। उनके पुत्र राजाधिदेव और शूर नामसे विख्यात हुए। राजाधिदेवके दो पुत्र हुए शोणाश्व और श्वेतवाहन। शोणाधके शमी और शत्रुजित् आदि पाँच पुत्र हुए। शमीके पुत्र प्रतिक्षेत्र, प्रतिक्षेत्रके भोज और भोजके हृदिक हुए। हदिकके दस पुत्र थे, जिनमें कृतवर्मा, शतधन्वा, देवार्हा और भीषण आदि प्रधान हैं। देवार्हसे कम्बलवर्हि और कम्बलवर्हिसे असमौजाका जन्म हुआ। असमौजाके सुदंष्ट, सुवास और धृष्ट नामक पुत्र हुए। धृष्टकी दो पनियाँ थीं-गान्धारी और माद्री। इनमें गान्धारीसे सुमित्रका जन्म हुआ और माद्रीने युधाजित्को उत्पन्न किया। धृष्टसे अनमित्र और शिनिका भी जन्म हुआ। शिनिसे देवमीढूष उत्पन्न हुए। अनमित्रके पुत्र निध्न और निध्नके प्रसेन तथा सत्राजित् हुए। इनमें प्रसेनके भाई सत्राजित्को सूर्यसे स्यमन्तकमणि प्राप्त हुई थी, जिसे लेकर प्रसेन जंगलमें मृगयाके लिये विचर रहे थे। उन्हें एक सिंहने मारकर वह मणि ले ली। तत्पश्चात् जाम्बवानूने उस सिंहको मार डाला (और मणिकों अपने अधिकारमें कर लिया)। इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने जाम्बनको युद्धमें परास्त किया और उनसे जाम्बवती तथा मणिको पाकर वे द्वारकापुरीको लौट आये। वहाँ आकर उन्होंने वह मणि सत्राजितको दे दी, किंतु (मणिके लोभसे) शतधन्वाने सत्राजितूको मार डाला। श्रीकृष्णने शतधन्वाको मारकर वह मणि छीन ली और यशके भागी हुए। उन्होंने बलराम और मुख्य यदुवंशियोंके सामने वह मणि अक्रूरको अर्पित कर दी। इससे श्रीकृष्णके मिथ्या कलङ्कका मार्जन हुआ। जो इस प्रसङ्गका पाठ करता है, उसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है। सत्राजितको भंगकार नामसे प्रसिद्द पुत्र और सत्यभामा नामकी कन्या हुई, जो भगवान श्रीकृष्णकी प्यारी पटरानी हुई थी।
अनमित्रसे शिनिका जन्म हुआ। शिनिके पुत्र सत्यक हुए। सत्यकसे सात्यकिकी उत्पति हुई। वे ‘युयुधान’ नामसे भी प्रसिद्ध थे। उनके धुनि नामक पुत्र हुआ। धुनिका पुत्र युगन्धर हुआ। युधाजित्से स्वाह्राका जन्म हुआ। स्वाह्रासे ऋषभ और क्षेत्रककी उत्पति हुई। ऋषभसे श्र्वफल्क उत्पन्न हुए। श्र्वफल्कके पुत्रका नाम अक्रूर हुआ और अकूरसे सुधन्वक का जन्म हुआ। शूरसे वसुदेव आदि पुत्र तथा पृथा नामवाली कन्या उत्पन्न हुई, जो महाराज पाण्डुकी प्यारी पत्नी हुई। पाण्डुकी पत्नी कुन्ती (पृथा)-के गर्भ हुआ। (पाण्डुकी दूसरी पत्नी) माद्रीके पेटसे (अश्विनीकुमारोंके अंशसे) नकुल और सहदेव उत्पन्न हुए। वसुदेवसे रोहिणीके गर्भसे बलराम, सारण और दुर्गम-ये तीन पुत्र हुए तथा देवकीके उदरसे पहले सुषेणका जन्म हुआ, फिर कीर्तिमान्, भद्रसेन, जारुख़य, विष्णुदास और भद्रदेह उत्पन्न हुए। इन छहों बच्चोंको कंसने मार डाला। तत्पश्चात् बलराम और कृष्णका प्रादुर्भाव हुआ तथा अन्तमें कल्याणमय वचन बोलनेवाली सुभद्राका जन्म हुआ। भगवान् श्रीकृष्णसे चारुदेष्ण और साम्ब आदि पुत्र उत्पन्न हुए। साम्ब आदि रानी जाम्बवतीके पुत्र थे।। १२-५१ ॥
दो सौ पचहतरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २७५ ॥
अध्याय -२७६ श्रीकृष्णकी पत्नियों तथा पुत्रोंके संक्षेपसे नामनिर्देश तथा द्वादश-संग्रामोंका संक्षिप्त परिचय
अग्निदेव कहते हैं– वसिष्ठ! महर्षि कश्यप वसुदेवके रूपमें अवतीर्ण हुए थे और नारियोंमें श्रेष्ठ अदितिका देवकी के रूपमें आविर्भाव हुआ था। वसुदेव और देवकीसे भगवान् श्रीकृष्णका प्रादुर्भाव हुआ। वे बड़े तपस्वी थे। धर्मकी रक्षा, अधर्मका नाश, देवता आदिका पालन तथा दैत्य आदिका मर्दन-यही उनके अवतारका उद्देश्य था। रुक्मिणी, सत्यभामा और नग्रजित्कुमारी सत्या-ये भगवानकी प्रिय रानियाँ थीं। इनमें भी सत्यभामा उनकी आराध्य देवी थीं। इनके सिवा गन्धार-राजकुमारी लक्ष्मणा, मित्रविन्दा, देवी कालिन्दी, जाम्बवती, सुशीला, माद्री, कौसल्या, विजया और जया आदि सोलह हजार देवियाँ भगवान् श्रीकृष्णकी पत्नीयाँ थीं।
रुक्मिणीके गर्भसे प्रद्युम्न आदि पुत्र उत्पन्न हुए थे और सत्यभामाने भीम आदिको जन्म दिया था। जाम्बवतीके गर्भसे साम्ब आदिकी उत्पति हुई थी। ये तथा और भी बहुत-से श्रीकृष्णके पुत्र थे। परम बुद्धिमान् भगवानके पुत्रोंकी संख्या एक करोड़ अस्सी हजारके लगभग थी। समस्त यादव भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित थे। प्रद्युम्नसे विदर्भराजकुमारी रुक्मवतीके गर्भसे अनिरुद्ध नामक पुत्र हुआ। अनिरुद्धको युद्ध बहुत ही प्रिय था। अनिरुद्धके पुत्र वज्र आदि हुए। सभी यादव अत्यन्त बलवान् थे। यादवोंकी संख्या कुल मिलाकर तीन करोड़ थी। उस समय साठ लाख दानव मनुष्य-योनिमें उत्पन्न हुए थे, जो लोगोंको कष्ट पहुँचा रहे थे। उन्हींका विनाश करनेके लिये भगवानका अवतार हुआ था। धर्ममर्यादाकी रक्षा करनेके लिये ही भगवान् श्रीहरि मनुष्यरूपमें प्रकट होते हैं। १-९ ॥
देवता और असुरोंमें अपने दायभागके लिये बारह संग्राम हुए हैं। उनमें पहला “नारसिंह’ और दूसरा ‘वामन” नामवाला युद्ध है। तीसरा ‘बाराहसंग्राम’ और चौथा ‘अमृत-मन्थन’ नामक युद्ध है। पाँचवाँ’तारकामय संग्राम’ और छठा ‘आजीवक” नामक युद्ध हुआ। सातवाँ ‘त्रैपुर’ आठवाँ ‘अन्धकवध’और नवाँ ‘वृत्रविघातक संग्राम’ है। दसवाँ ‘जित्’, ग्यारहवाँ ‘हालाहल’ और बारहवाँ ‘घोर कोलाहल’ नामक युद्ध हुआ है॥ १०-१२॥
प्राचीनकालमें देवपालक भगवान् नरसिंहने हिरण्यकशिपुका हृदय विदीर्ण करके प्रह्लादको दैत्योंका राजा बनाया था।
फिर देवासुर-संग्रामके अवसरपर कश्यप और अदितिसे वामनरूपमें प्रकट होकर भगवानने बल और प्रतापमें बढ़े-चढ़े हुए राजा बलिको छल्ला और इन्द्रको त्रिलोकीका राज्य दे दिया।
‘वाराह” नामक युद्ध उस समय हुआ था, जबकि भगवानने वाराह अवतार धारण करके हिरण्याक्षको मारा, देवताओंकी रक्षा की और जलमें डूबी हुई पृथ्वीका उद्धार किया। उस समय देवाधिदेवोंने भगवानकी स्तुति कीं ॥ १३-१५ ॥
एक बार देवता और असुरोंने मिलकर मन्दराचलको मथानी और नागराज वासुकिको नैती (बन्धनकी रस्सी) बना समुद्रको मथकर अमृत निकाला, किंतु भगवानने वह सारा अमृत देवताओंको ही पिला दिया। (उस समय देवताओं और दैत्योंमें घोर युद्ध हुआ था।)
तारकामय-संग्रामके अवसरपर भगवान् ब्रह्माने इन्द्र, बृहस्पति, देवताओं तथा दानवोंको युद्धसे रोककर देवताओंकी रक्षा की और सोमवंशकी स्थापित किया।
आजीवक-युद्धमें विश्वामित्र, वसिष्ठ और अत्रि आदि ऋषियोंने राग-द्वेषादि दानवोंका निवारण करके देवताओंका पालन किया।
पृथ्वीरूपी रथमें वेदरूपी घोड़े जोतकर भगवान् शंकर उसपर बैठे (और त्रिपुरका नाश करनेके लिये चले)। उस समय देवताओंके रक्षक और दैत्योंका विनाश करनेवाले भगवान् श्रीहरिने शंकरजीको शरण दी और बाण बनकर स्वयं ही त्रिपुरका दाह किया।
गौरीका अपहरण करनेकी इच्छासे अंधकासुरने रुद्रदेवको बहुत कष्ट पहुँचाया-यह जानकर रेवतीमें अनुराग रखनेवाले श्रीहरिने उस असुरका विनाश किया (यही आठवाँ संग्राम है)।
देवताओं और असुरोंके युद्धमें वृत्रका नाश करनेके लिये भगवान विष्णु जलके फेन होकर इन्द्रके वज़में लग गये। इस प्रकार उन्होंने देवराज इन्द्र और देवधर्मका पालन करनेवाले देवताओंको संकटसे बचाया।
(‘जित्’ नामक दसवाँ संग्राम वह है, जब कि) भगवान् श्रीहरिने परशुराम अवतार धारण कर शाल्व आदि दानवोंपर विजय पायी और दुष्ट क्षत्रियोंका विनाश करके देवता आदिकी रक्षा की।
(ग्यारहवें संग्रामके समय) मधुसूदनने हालाहल विषके रूपमें प्रकट हुए दैत्यका शंकरजीके द्वारा नाश कराकर देवताओंका भय दूर किया।
देवासुर संग्राममें जो ‘कोलाहल’ नामका दैत्य था, उसकों परास्त करके भगवान् विष्णुने धर्मपालनपूर्वक सम्पूर्ण देवताओंकी रक्षा की।
राजा, राजकुमार, मुनि और देवता-सभी भगवानके स्वरूप हैं। मैंने यहाँ जिनको बतलाया और जिनका नाम नहीं लिया, वे सभी श्रीहरिके ही अवतार हैं॥ १६-२५॥
दो सौ छिहतरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २७६ ॥
अध्याय – २७७ तुर्वसु आदि राजाओंके वंशका तथा अंगवंशका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ! तुर्वसुके पुत्र वर्ग और वर्गके पुत्र गौभानु हुए। गोभानुसे त्रैशानि, त्रैशानीसे करंघमसे मरुक्तका जन्म हुआ। उनके पुत्र दुष्यन्त हुए। दुष्यन्तसे वरूथ और वरूथसे गाण्डीरकी उत्पति हुई। गाण्डीरसे गान्धार हुए। गान्धारके पाँच पुत्र हुए, जिनके नाममर गन्धार, केरल, चोल, पाण्डय और कोल – इन पाँच देशोंकी प्रसिद्धि हुई। ये सभी महान् बलवान् थे।
द्रुह्रुसे बभ्रूसेतु और बभ्रूसेतुसे पुरोवसुका जन्म हुआ। उनसे गान्धार नामक पुत्रोंकी उत्पति हुई। गान्धारोंने धर्मको जन्म दिया और धर्मसे घृत उत्पन्न हुए। घृतसे विदुष और विदुषसे प्रचेता हुए। प्रचेताके सौ पुत्र हुए, जिनमें अनडु, सुभानु, चाक्षुष और परमेषु-ये प्रधान थे। सुभानुसे कालानल और कालानलसे सृञ्जय उत्पन्न हुए। सूञ्जयके पुञ्जय और पुरञ्जयके पुत्र जनमेजय थे। जनमेजयके पुत्र महाशाल और उनके पुत्र महामना हुए।
ब्रह्मन्! महामनासे उशीनरका जन्म हुआ और महामनाकी ‘नृगा’ नामवाली पत्नीके गर्भसे राजा नृगका जन्म हुआ। नृगकी ‘नरा” नामक पत्नीसे नरकी उत्पति हुई और कृमि नामवाली स्त्रीके गर्भसे कृमिका जन्म हुआ। इसी प्रकार नृगके दशा नामकी पत्नीसे सुव्रत और दृषद्वतीसे शिवि उत्पन्न हुए। शिविके चार पुत्र हुए-पृथुदर्भ, वीरक, कैकेय और भद्रक-इन चारोंके नामसे श्रेष्ठ जनपदोंकी प्रसिद्धि हुई। उशीनरके पुत्र तितिक्षु हुए, तितिक्षुसे रुषद्रथ, रुषद्रथसे पैल और पैलसे सुतपा नामक पुत्रोंकी उतपत्ति हुई | सुतपाससे महायोगी बालिकाजन्म हुआ। बलिसे अङ्ग, बङ्ग, मुख्यक, पुण्ड्र और कलिङ्ग नामक पुत्र उत्पन्न हुए। ये सभी ‘बालेय’ कहलाये। बलि योगी और बलवान् थे। अङ्गसे दधिवाहन, दधिवाहनसे राजा दिविरथ और दिविरथसे धर्मरथ उत्पन्न हुए। धर्मरथके पुत्रका नाम चित्ररथ हुआ। चित्ररथके सत्यरथ और उनके पुत्र लोमपाद हुए। लोमपादका पुत्र चतुरङ्ग और चतुरङ्गका पुत्र पृथुलाक्ष हुआ। पृथुलाक्षसे चम्प, चम्पसे हर्यंग और हर्यंगसे भद्ररथ हुआ। भद्ररथके पुत्रका नाम वृहत्कर्मा था। बृहत्कर्मासे बृहद्भानु बृहद्भानुसे बृहात्मवान्, उनसे जयद्रथ और जयद्रथसे बृहद्रथकी उत्पत्ति हुई। बृहद्रथ से विश्वजित् और विश्वजित्का पुत्र कर्ण हुआ। कर्णका वृषसेन और वृषसेनका पुत्र पृथुसेन था। ये अङ्गवंशमें उत्पन्न राजा बतलाये गये। अब मुझसे पूरुवंशका वर्णन सुनो ॥ १-१७॥
दो सौ साहारवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २७७॥
अध्याय – २७८ पुरुवंशका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं– वसिष्ठ! पूरुसे जनमेजय हुए, जनमेजयसे प्राचीवान् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। प्राचीवानसे मनस्यु और मनस्युसे राजा वीतमयका जन्म हुआ। वीतमयसे शुन्धु हुआ, शुन्धुसे बहुविध नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई। बहुविधसे संयाति और संयातिका पुत्र रहोवादी हुआ। रहोवादीके पुत्रका नाम भद्राश्व था। भद्राश्वके दस पुत्र हुए-ऋचेयु, कृषेयु, संनतेयु, घृतेयु, चितेयु, स्थण्डिलेयु, धर्मेयु, संनतेयु (दूसरा), कृतेयु और मतिनार। मतिनारके तंसुरोध, प्रतिरथ और पुरस्त-ये तीन पुत्र हुए। प्रतिरथसे कण्व और कण्वसे मेधातिथिका जन्म हुआ। तंसुरोधसे चार पुत्र उत्पन्न हुए-दुष्यन्त, प्रवीरक, सुमन्त और वीरवर अनय। दुष्यन्तसे भरतका जन्म हुआ। भरत शकुन्तलाके महाबली पुत्र थे। राजा भरतके नामपर उनके वंशज क्षत्रिय ‘भारत’ कहलाते हैं। भरतके पुत्र अपनीं माताओंके क्रोध से नष्ट हो गये, तब राजाके यज्ञ करनेपर मरुद्गणोंने बृहस्पतिके पुत्र भरद्वाजको ले आकर उन्हें पुत्ररूपसे अर्पण किया। (भरतवंश “वितथ” हो रहा था, ऐसे समय में भरद्वाज आये, अत:) वे ‘वितथ’ नामसे प्रसिद्ध हुए। वितथने पाँच पुत्र उत्पन्न किये, जिनके नाम ये हैं-सुहोत्र, सुहोता, गय, गर्भ तथा कपिल। इनके सिवा उनसे महात्मा और सुकेतु-ये दो पुत्र और उत्पन्न हुए। तत्पश्चात् उन्होंने कौशिक और गृत्सपतिको भी जन्म दिया। गृत्सपतिके अनेक पुत्र हुए, उनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य-सभी थे। काश और दीर्घतमा भी उन्हींके पुत्र थे। दीर्घतमाके धन्वन्तरि हुए और धन्वन्तरिका पुत्र केतुमान् हुआ। केतुमानसे हिमरथका जन्म हुआ, जो ‘दिवोदास’के नामसे भी प्रसिद्ध हैं। दिवोदाससे प्रतर्दन तथा प्रतर्दनसे भर्ग और वत्स नामक दो पुत्र हुए। वत्ससे अनर्क और अनर्कसे क्षेमककी उत्पत्ति हुई। क्षेमकके वर्षकेतु और वर्षकेतुके पुत्र विभु बतलाये गये हैं। विभुसे आनर्त और सुकुमार नामक पुत्र उत्पन्न हुए। सुकुमारसे सत्यकेतुका जन्म हुआ। राजा वत्ससे वत्सभूमि नामक पुत्रकी भी उत्पत्ति हुई थी। वितथकुमार सुहोत्रसे बृहत् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। बृहत्के तीन पुत्र हुए-अजमीढ, द्विमीढ़ और पराक्रमी पुरुमीढ। अजमीढ़की केशिनी नामवाली पत्नीके गर्भसे प्रतापी जह्रूका जन्म हुआ। जहृसे अजकाश्वकी उत्पत्ति हुई और अजकाश्वका पुत्र बलाकाश्व हुआ। बलाकाश्वके पुत्रका नाम कुशिक हुआ। कुशिकसे गाधि उत्पन्न हुए, जिन्होंने इन्द्रत्व प्राप्त किया था। गाधिसे सत्यवती नामकी कन्या और विश्वामित्र नामक पुत्रका जन्म हुआ। देवरात और कतिमुख आदि विश्वामित्रके पुत्र हुए। अजमीढसे शुनःशेप और अष्टक नामवाले अन्य पुत्रोंकी भी उत्पति हुई। उनकी नीलिनी नामवाली पत्नीके गर्भसे एक और पुत्र हुआ, जिसका नाम शान्ति था। शान्तिसे पुरुजाति,पुरुजातिसे बाह्राश्व और बाह्राश्वसे पाँच राजा उत्पन्न हुए, जिनके नाम इस प्रकार हैं-मुकुल, सृञ्जय, राजा बृहदिषु, यवीनर और कृमिल।-ये ‘पंचाल’ नामसे विख्यात हुए। मुकुलके वंशज ‘मौकुल्य’ कहलाये। वे क्षात्रधर्मसे युक्त ब्राह्मण हुए। मुकुलसे चझावका जन्म हुआ और चश्वावसे एक पुत्र और एक जुड़वीं संतान पैदा हुई। पुत्रका नाम दिवोदास था और कन्याका अहल्या।
अहल्याके गर्भसे शरद्वत (गौतम)-द्वारा शतानंदकी उतपत्ति हुई। शतानंदसे सत्यधृक हुए। सत्यधृकसे भी दो जुड़वी संताने पैदा हुई। उनमें पुत्रका नाम कृप और कन्याका नाम कृपी था। दिवोदाससे मैत्रेय और मैत्रेयसे सोमक हुए। सृंजयसे पञ्चधनुषकी उतपत्ति हुई। उनके पुत्रका नाम सोमदत्त था। सोमदत्तसे सहदेव, सहदेवसे सोमक और सोमकसे जंतु हुए। जंतुके पुत्रका नाम पृषत हुआ । पृषतसे द्रुपदका जन्म हुआ तथा द्रुपदका पुत्र धृष्टधुम्न था और धृष्टधुम्नसे धृष्टकेतुकी उतपत्ति हुई। महाराज अजमीढ़की धुमिनी नामवाली पत्नीसे ऋक्ष नामक पुत्र उत्पन्न हुआ || १-२५ ||
ऋक्षसे संवरण और संवरणसे कुरुका जन्म हुआ, जिन्होंने प्रयागसे जाकर कुरुक्षेत्र तीर्थकी स्थापना की। कुरुसे सुधन्वा, सुधनु, परीक्षीत और रिपुंजय – ये चार पुत्र हुय। सुधन्वासे सुहोत्र और सुहोत्रसे च्यवन उतपन्न हुय। च्यवनकी पत्नी महारानी गिरिकाके वसुश्रेष्ठ उपरिचरके अंशसे सात पुत्र उत्पन्न हुए। उनके नाम इस प्रकार है – बृहद्रथ, कुश, वीर, यदु, प्रत्यग्रह, बल और मत्स्यकाली। राजा बृहद्रथसे कुशाग्रका जन्म हुआ। कुशाग्रसे वृषभकी उत्पत्ति हुई और वृषभके पुत्रका नाम सत्यहित हुआ। सत्यहितसे सुधन्वा, सुधन्वासे उर्ज, उर्जसे सम्भव और सम्भवसे जरासंध उत्पन्न हुआ। जरासंधके पुत्रका नाम सहदेव था। सहदेवसे उदापि और उदापिसे श्रुतकर्माकी उत्पत्ति हुई। कुरुनन्दन परीक्षितके पुत्र जनमेजय हुए। वे बड़े धार्मिक थे। जनमेजयसे त्रसद्दस्युका जन्म हुआ। राजा अजमीढके जो जह्रु नामवाले पुत्र थे, उनके सुरथ, श्रुतसेन, उग्रसेन और भीमसेन – ये चार पुत्र उत्पन्न हुए। परीक्षितकुमार जनमेजयके दो पुत्र और हुय-सुरथ तथा महिमान। सुरथसे विदुरथ और विदुरथसे ऋक्ष हुय। इस वंशमें ये ऋक्ष नामसे प्रसिद्द द्वीतीय राजा थे। इनके पुत्रका नाम भीमसेन हुआ। भीमसेनके पुत्र प्रतीप और प्रतीपके शंतनू हुय। शंतनूके देवापि, बाह्रिक और सोमदत्त – ये तीन पुत्र थे। बाह्रिकसे सोमदत्त और सोमदत्तसे भूरि, भूरिश्रवा तथा शलका जन्म हुआ। शंतनूसे गंगाजीके गर्भसे भीष्म उत्पन्न हुय तथा उनकी काल्या (सत्यवती) नामवाली पत्नीसे विचित्रवीर्यकी उत्पत्ति हुई। विचित्रवीर्यकी पत्नीके गर्भसे श्रीकृष्णद्वैपायनने धृतराष्ट, पांडू और विदुरको जन्म दिया। पांडूकी रानी कुंतीके गर्भसे युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन-ये तीन पुत्र उत्पन्न हुय तथा उनकी माद्री नामवाली पत्नीसे नकुल और सहदेवका जन्म हुआ। पांडूके ये पाँच पुत्र देवताओंके अंशसे प्रकट हुए थे। अर्जुनके पुत्रका नाम अभिमन्युसे राजा परीक्षितका जन्म हुआ। द्रोपदी पाँचों पांडवोंकी पत्नी थी। उसके गर्भसे युधिष्ठिरसे प्रतिविन्ध्य, भीमसेनसे सूतसोम, अर्जुनसे श्रुतकीर्ति, सहदेवसे श्रुतशर्मा और नकुलसे शतानीककी उत्पत्ति हुई। भीमसेनका एक दूसरा पुत्र भी था, जो हिडिम्बाके गर्भसे उत्पन्न हुआ था। उसका नाम था घटोत्कच। ये भुतकालके राजा है। भविष्यमें भी बहुत-से राजा होंगे, जिनकी कोई गणना नहीं हो सकती। सभी समयानुसार कालके गालमें चले जाते है।
विप्रवर! काल भगवान विष्णुका ही स्वरुप है, अतः उन्हीका पूजन करना चाहिये। उन्हीके उद्देश्यसे अग्निमें हवन करो; क्योकी वे भगवान ही सब कुछ देनेवाले है || २६-४१ ||
अध्याय – २७९ सिद्ध ओषधियोंका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं– वसिष्ठ! अब मैं आयुर्वेदका वर्णन करुगाँ, जिसे भगवान् धन्वन्तरिने सुश्रुतसे कहा था। यह आयुर्वेदका सार है और अपने प्रयोगोंद्वारा मृतकको भी जीवन प्रदान करनेवाला है
सुश्रुतने कहा– भगवन्! मुझे मनुष्य, घोड़े और हाथीके रोगोंका नाश करनेवाले आयुर्वेदशास्त्रका उपदेश कीजिये। साथ ही सिद्ध योगों, सिद्ध मन्त्रों और मृतसंजीवनकारक औषधोंका भी वर्णन कीजिये ॥ २ ॥
ज्वर निदान के उपाय
धन्वन्तरि बोले– सुश्रुत ! वैद्य ज्वराक्रान्त व्यक्तिके बलकी रक्षा करते हुए, अर्थात् उसके बलपर ध्यान रखते हुए लधंन (उपवास) करावे।
तदनन्तर उसे सोंठसे युक्त लाल मण्ड (धानके लावेका माँड़) तथा नागरमोथा, पित्तपापड़ा, खस, लालचंदन सुगंधवाला, और सोठके साथ श्रृत (अर्धपक्व) जलको प्यास और ज्वरकी शान्तिके लिये दे।
छ: दिन बीत जानेके बाद चिरायता जैसे द्रव्योंका काढ़ा अवश्य दे॥ ३-४॥
ज्वर निकालनेके लिये (आवश्यकता हो तो) स्नेहन (पसीना) करावे ।
रोगी के दोष (वातादि) जब शान्त हो जायँ, तब विरेचन-द्रव्य देकर विरेचन कराना चाहिये।
साठी, तिन्नी, लाल अगहनी और प्रमोदक (धान्यविशेष)-के तथा ऐसे ही अन्य धान्योंके भी पुराने चावल ज्वरमें (ज्वरकालमें मण्ड आदिके लिये) हितकर होते हैं।
यवके बने (बिना भूसीके) पदार्थ भी लाभदायक हैं।
मूंग, मसूर, चना, कुलथी, मोंठ, अरहर, खेखसा, कायफर, उत्तम फल के सहित परवल, नीम की छाल, पित्तपापड़ा एवं अनार भी ज्वर में हितकारक होते हैं॥ ५-७ ॥
रक्तपित्त नामक रोग का निदान उपाय
रक्तपित्त नामक रोग यदि अधोग (नीचेकी गतिवाला) हो तो वमन (उलटी) हितकर होता है तथा ऊर्ध्वग (ऊपरकी ओर गतिवाला) हो तो विरेचन (पाथ) लाभदायक होता है।
इसमें बिना सोंठके षडङ्ग (मुस्तपर्पटकोशीरचन्दनोदीच्य-नागरमोथा, पित्तपापड़ा, खस, चन्दन एवं सुगन्धयाला)-से बना काथ देना चाहिये।
इस रोगमें (जौका) सत्तू, गेहूँका आटा, धानका लावा, जौके बने विभिन्न पदार्थ, अगहनी धानका चावल, मसूर, मोंठ, चना और मूंग खानेयोग्य हैं।
घी एवं दूधसे तैयार किये गये गेहूँके पदार्थ-जैसे दलिया, हलुवा आदि भी लाभकारी होते हैं।
बलवर्धक रस तथा छोटी मक्खियोंका मधु भी हितकर होता है।
अतिसार रोग के निदान उपाय
अतिसारमें पुराना अगहनीका चावल लाभदायक होता है।॥ ८-१० ॥
गुल्मरोग निदान उपाय
गुल्मरोगमें जो अन्न कफकारक न हो तथा पठानी लोध की छाल के क्वाथसे सिद्ध किया गया हो, वही देना चाहिये। उस रोगमें वायुकारक अन्नको त्याग दे एवं वायुसे रोगीको बचावे। रोगको मिटानेके लियें यह प्रयत्न सर्वथा करनेयोग्य है।॥ ११ ॥
उदर–रोग निदान उपाय
उदर-रोगमें दूधके साथ बाटी खाय। घीसे पकाया हुआ बथुवा, गेहूँ, अगहनी चावल तथा तिक्त औषध उदर-रोगियोंके लिये हितकर हैं। १२ ॥
कुष्ठ रोग निदान उपाय
गेहूँ, चावल, मूंग, पलाशबीज, खैर, हरें, पञ्चकोल (पिप्पली, पीपलामूल, चाभ, चित्ता, सोठ), जांगल-रस, नीमका पञ्चाङ्ग (फूल, पत्ती, फल, छाल एवं मूल), आँवला, परवल, बिजौरा नीबूका रस, काला या सफेद जीरा, (पाठान्तरके अनुसार चमेलीकी पत्ती), सूखी मूली तथा सेंधा नमक-ये कुष्ठ रोगियोंके लिये हितकारक हैं।
पीनेके लिये खदिरोदक (खैर मिलाकर तैयार किया गया जल) प्रशस्त माना गया है।
पेया बनानेके लिये मसूर एवं मुँगका प्रयोग होना चाहिये।
खानेके लिये पुराने चावलका उपयोग उचित है।
नीम तथा पित्तपापड़ाका शाक और जांगल-रसये सब कुष्ठमें हितकर होते हैं।
बायबिडङ्ग, काली मिर्च, मोथा, कूट, पठानी लोध, हुरहुर, मैनसिल तथा वच-इन्हें गोमूत्रमें पीसकर लगानेसे कुष्ठरोगका नाश होता है। १३-१६ ॥
प्रमेहक रोग निदान उपाय
प्रमेहके रोगियोंके लिये पूआ, कूट, कुल्माष (घुघुरी) और जौ आदि लाभदायक हैं।
जौके बने भोज्य पदार्थ, मूंग, कुलथी, पुराना अगहनीका चावल, तिक्त-रुक्ष एवं तिक्त हरे शाक हितकर हैं।
तिल, सहजन, बहेड़ा और इंगुदीके तेल भी लाभदायक हैं। १७-१८ ॥
राजयक्ष्मा रोग निदान उपाय
मूंग, जौ, गेहूँ, एक वर्षतक रखें हुए पुराने धानका चावल तथा जांगल-रस-ये राजयक्ष्माके रोगियोंके भोजनके लिये प्रशस्त हैं।॥ ११॥
श्वास–कास (दमा और खाँसी) रोग निदान उपाय
श्वास-कास (दमा और खाँसी)-के रोगियोंको कुलथी, मूंग, रास्ना, सूखी मूली, मूंगका पूआ, दही और अनारके रससे सिद्ध किये गये विष्किर, जांगल-रस, बिजौरेका रस, मधु, दाख और व्योष (सोंठ, मिर्च, पीपल)-से संस्कृत जौ, गेहूँ और चावल खिलाये।
श्वास और हिचकी रोग निदान उपाय
दशमूल, बला (बरियार या खरेटी), रास्रा और कुलथीसे बनाये गये तथा पूपरससे युक्त क्वाथ श्वास और हिचकीका कष्ट दूर करनेवाले हैं॥ २०-२२॥
सूखी मूली, कुलथी, मूल (दशमूल), जांगलरस, पुराना जौ, गेहूँ और चावल खसके साथ लेना चाहिये। इससे भी श्वास और कासका नाश होता है।
शोथमें गुड़सहित हर्रे या गुड़सहित सोंठ खानी चाहिये।
चित्रक तथा मट्ठा-दोनों ग्रहणी रोगके नाशक हैं ॥ २३-२४ ॥
वातरोग निदान उपाय
निरन्तर वातरोगसे पीड़ित रहनेवालोंके लिये पुराना जौ, गेहूँ, चावल, जांगल-रस, मूंग, आँवला, खजूर, मुनक्का, छोटी बेर, मधु, घी, दूध, शक्र (इन्द्रयव), नीम, पित्तपापड़ा, वृष (बलकारक द्रव्य) तथा तक्रारिष्ट हितकर हैं। २५-२६ ॥
हृदयके रोगी
हृदयके रोगी विरेचन-योग्य होते हैं अर्थात् उनका विरेचन कराना चाहिये।
हिचकी
हिचकीवालोंके लिये पिप्पली हितकर है। छाछ-आरनाल, सीधु तथा मोती ठंढे जलसे लें। यह हिक्का (हिचकी) रोगोंमें विशेष लाभप्रद है।॥ २७ ॥
मदात्यय–रोग
मदात्यय-रोगमें मोती, नमकयुक्त जीरा तथा मधु हितकर हैं।
उर:क्षत (क्षयरोगी)रोगी
उर:क्षत रोगी मधु और दूधसे लाहको लेवे।
गिरिमृत्तिका (पहाड़ी मिट्टी), सफेद चन्दन, लाख, मालतीकलिका (चमेलीकी कली) सबको पीसकर बनायी हुई बत्ती उर:क्षत तथा शुक्र-दोषोंको नष्ट करती है।
क्षयरोगी रोगी
मांस-रस (जटामांसी के रस)-के आहार और अग्निसंरक्षण (बुभुक्षा-वर्द्धक भोगों)- से क्षयको जीते। क्षयरोगीके लिये भोजनमें लाल अगहनी धानका चावल, नीवार, कलम (रोपा धान) अनादि हितकारी हैं ।। २८-२९ ॥
अर्श (बवासीर)
अर्श (बवासीर)-में यवान्न-विकृति, नीम, मांस (जटामांसी), शाक, संचर नमक, कचूर, हरें, माँड तथा जल मिलाया हुआ मट्ठा हितकारक है॥ ३० ॥
मूत्रकृच्छू
मूत्रकृच्छू में मोथा, हल्दीके साथ चित्रकका लेप, यवान्न–विकृति, शालिधान्य, बथुआ, सुवर्चल (संचर नमक), त्रपु (लाह), दूध, ईखके रस और घीसे युक्त गेहूँ-ये खानेके लिये लाभकारी हैं तथा पीनेके लिये मण्ड और सुरा आदि देने चाहिये ॥ ३१-३२ ॥
छर्दि (कै, वमन)
छर्दि (कै, वमन)-के लिये लाजा (लावा), सत्तू, मधु, परूषक (फालसा), बैगनका भर्ता, शिखि-पंख (मोरकी पाँख) तथा पानक (विशेष प्रकार का पेय) लाभदायक है।॥ ३३ ॥
तृष्णानाशक
अगहनी के चावल का जल, गरम या शीतगरम दूध तृष्णाका नाशक है। मोथा और गुड़से बनी हुई गुटिका (गोली) मुखमें रखी जाय तो तृष्णानाशक है।
ऊरुस्तम्भ (जाँघके जकड़ने)
यवान-विकृति, पूप (पूआ), सूखी मूली, परवलका शाक, वेत्राग्र (बेतके अग्रभागका नरम हिस्सा) और करेल ऊरुस्तम्भ (जाँघके जकड़ने)-का विनाशक है।
विसर्पी (फोड़े–फुसी रोगी)
विसर्पी (फोड़े-फुसी रोगी) मूंग, अरहर, मसूरके यूष, तिलयुक्त जांगलरस, सेंधा नमकसहित घृत, दाख, सोंठ, आँवला और उन्नावके यूषके साथ पुराने गेहूँ, जौ और अगहनी धानके चावल आदि अन्नका सेवन करे तथा चीनीके साथ मधु, मुनक्का एवं अनारसे बना जल पीये॥ ३४-३७॥
वातरक्त
वातरक्तके रोगीके लिये लाल साठीका चावल, गेहूँ, यव, मूंग आदि हलका अन्न देवे।
काकमाची (काली मकोय), वेत्राग्र, बथुआ, सुवर्चला आदि शाक देवे।
मधु और मिश्रीसहित जल पिलावे।
नासिकाके रोग
नासिकाके रोगोंमें दूर्वासे सिद्ध घृत लाभदायक है। आँवलेके रससे या भूङ्गराजके रससे सिद्ध किये हुए तेलका नस्य दिया जाय तो वह सिरके समस्त कृमिरोगोंमें लाभप्रद है।॥ ३८-४० ॥
दाँत
विप्रवर! शीतल जलके साथ लिया गया अन्नपान और तिलोंका भक्षण दाँतोंको मजबूत बनानेवाला तथा परम तृप्तिकारक है। तिलके तेल से किया गया कुल्ला दाँतोंको अधिक मजबूत करनेवाला है।
कृमियोंके नाश
सब प्रकारके कृमियोंके नाशके लिये बायविडंगका चूर्ण तथा गोमूत्रका प्रयोग करे।
शिरोरोग
आँवलेको घीमें पीसकर यदि उसका सिरपर लेपन किया जाय तो वह शिरोरोगके नाशके लिये उत्तम माना गया है। चिकना और गरम भोजन भी इसके लिये हितकर होता है ॥ ४१-४३ ।।
द्विजोत्तम! कानमें दर्द हो तो बकरके मूत्र तथा तेलसे कानोंकों भर देना उत्तम है। यह कर्णशूलका नाश करनेवाला है। सब प्रकारके सिरके भी इस रोगमें लाभदायक हैं।
कानमें दर्द
द्विजोत्तम! कानमें दर्द हो तो बकरके मूत्र तथा तेलसे कानोंकों भर देना उत्तम है। यह कर्णशूलका नाश करनेवाला है। सब प्रकारके सिरके भी इस रोगमें लाभदायक हैं।
उर:क्षत तथा शुक्र–दोषों
गिरिमृत्तिका (पहाड़ी मिट्टी), सफेद चन्दन, लाख, मालतीकलिका (चमेलीकी कली) सबको पीसकर बनायी हुई बत्ती उर:क्षत तथा शुक्र-दोषोंको नष्ट करती है।
नेत्र–रोग
व्योष (सोंठ, काली मिर्च, पीपल) और त्रिफला (ऑाँवला, हरा, बहेड़ा) तथा तृतिया थोड़ा जल मिलाकर आँखमें डाले। यह और रसाङ्गन (रसोत) भी आंखके सब रोगोंका नाश करनेवाला हैं।
लोध, कांजी और सेंधा नमकको घीमें भूनकर शिलापर पीसकर आँखोंपर लेप करनेसे सब प्रकार के नेत्र-रोगोंमें लाभ होता है। आश्च्योतन (आँसू गिरना) तो बंद ही हो जाता है।
गिरिमृतिका और सफेद चन्दनका बाहरी लेप आँखोंको लाभ पहुँचाता है तथा नेत्र-रोगोंके नाशके लिये त्रिफलाका सदा सेवन करे (उसके जलसे आँखोंको धोना उत्तम माना गया है।) ॥ ४४-४८ ॥
दीर्घजीवी
दीर्घजीवी होनेकी इच्छावालेको रातमें त्रिफला घृत-मधुके साथ खाना चाहिये।
शतावरी-रसमें सिद्ध दूध तथा घी वृष्य है (बलकारक एवं आयुवर्धक है)।
कलम्बिका (करमीका शाक) और उड़द भी वृष्य होते हैं।
दूध एवं घृत भी वृष्य हैं।
पूर्ववत् मुलहठीके सहित त्रिफला आयुको बढ़ानेवाली है।
बालोंके पकने–गिरने से रोकने का उपाय
महुवाके फूलके रसके साथ त्रिफला ली जाय तो वह बुढ़ापा के चिह्नझुरीं पड़ने और बालोंके पकने-गिरने आदिका निवारण करती है।॥ ४९-५२ ॥
बुद्धि
विप्रवर! वचसे सिद्ध धृत भूतदोषका नाश करनेवाला है। उसका कव्य बुद्धिको देनेवाला तथा सम्पूर्ण मनोरथोंको सिद्ध करनेवाला है।
नेत्र
खरेटीके (पत्थरपर पीसे हुए) कल्कसे सिद्ध क्वाथद्वारा बनाया हुआ अञ्जन नेत्रोंके लिये हितकारी है।
वातरोगि
रास्रा या सहचरी (झिण्टी)-से सिद्ध तैल वातरोगियोंके लिये हितकर है।
व्रण (फोड़ा)रोग
जो अन्न शलेष्माकारी न हो, वह व्रणरोगोंमें श्रेष्ठ माना गया है।
पाचन
सक्तुपिण्डी तथा आमड़ा पाचनके लिये श्रेष्ठ हैं।
घाव- व्रण (फोड़ा)
नीमका चूर्ण घावके भेदन (फोड़ने)-में तथा रोपण (घाव भरने)-में श्रेष्ठ है। उसी प्रकार सूच्युपचार (सूचीकर्म) भी व्रणको फोड़ने या बहानेमें सहायक हैं।
बलि
बलिकर्मविशेषसे सूतिकाको लाभ होता है तथा रक्षा-कर्म प्राणियोंके लिये सदा हित करनेवाला है।
साँपसे डसे
नीमके पत्तोंको खाना साँपसे डैसे हुएकी दवा है।
केश (बाल)
(पीसकर लगाया हुआ) पताल नीमका पता, पुराना तैल अथवा पुराना घी केशके लिये हितकर होते हैं॥ ५१-५६ ॥
बिच्छूका जहर
जिसे विच्छूने काटा हो, उसके लिये मोरपंख और घृतका धूम लाभदायक है। अथवा आकके
दूधसे पीसे हुए पलाशबीजका लेप करनेसे बिच्छूका जहर उतर जाता है।
बिच्छूके काटे हुएको पीपल या बड़ी हरड़ जायफलके साथ पिलाये।
कुतेका विष
आकका दूध, तिल, तैल, पलल और गुड़-इनको समान मात्रा में लेकर पिलानेसे कुतेका भयंकर विष शीघ्र ही दूर होता है।
अतिबलवान
चौराईका मूल और निशोथ समान मात्रा में घीके साथ पीनेसे मनुष्य अतिबलवान्, सर्पविष और कीटोंके विर्षोंपर भी शीघ्र ही काबू पा लेता है।
मकड़ी के विष
श्वेत चन्दन, पद्माख, कूठ, लताम्बु (जूहीका पानी), उशीर (ख़स), पाटला, निर्गुण्डी, शारिवा, सेलु (सेरुकी)-ये मकड़ी के विषका नाश करनेवाले औषध हैं।
शिरोविरेचन
द्विजश्रेष्ठ! गुड़सहित सोंठ शिरोविरेचनके लिये हितकारक हैं। ५७-६१ ॥
वात, पित्त एवं कफ
स्नेहपानमें तथा वस्तिकर्ममें तैल और घृत सर्वोत्तम है।
अग्रि पसीना करानेमें तथा शीतजल स्तम्भनमें श्रेष्ठ हैं।
इसमें संशय नहीं कि निशोथ रेचनमें श्रेष्ठ है और मैनफल वमनमें।
वस्ति, विरेचन एवं वमन, तैल, घृत एवं मधु-ये तीन क्रमश: वात, पित्त एवं कफके परम औषध हैं।॥ ६२-६३ ॥
दो सौ उनासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २७९ ॥
अध्याय – २८० सर्वरोगहर औषधोका वर्णन
भगवान् धन्वन्तरि कहते हैं– सुश्रुत! शारीर, मानस, आगन्तुक और सहज-ये चार प्रकारकी व्याधियाँ हैं।
ज्वर और कुष्ठ आदि ‘शारीर’ रोग हैं, क्रोध आदि ‘मानस’ रोग हैं, चोट आदिसे उत्पन्न रोग ‘आगन्तुक’ कहे जाते हैं तथा भूख, बुढ़ापा आदि “सहज” (स्वाभाविक) रोग हैं।
‘शारीर’ तथा ‘आगन्तुक” व्याधिके नाशके लिये रविवारको ब्राह्मणकी पूजा करके उसे घृत, गुड़, नमक और सुवर्णका दान करे।
जो सोमवारको ब्राह्मणके लिये उबटन देता है, वह सब रोगोंसे छूट जाता है।
शनिवारको तैलका दान करे।
आश्विनके महीनेमें गोरस-गायका घी, दूध और दही तथा अन्न देनेवाला सब रोगोंसे छुटकारा पा जाता है।
घृत तथा दूधसे शिवलिङ्गको स्नान करानेसे मनुष्य रोगहीन हो जाता है।
त्रिमधुर (शर्करा, गुड़, मधु)-में डुबायी हुई दूर्वाका गायत्री-मन्त्रसे हवन करनेपर मनुष्य सब रोगोंसे छूट जाता है।
जिस नक्षत्रमें रोग पैदा हो, उसी शुभ नक्षत्रमें स्नान करे तथा बलि दे।
भगवान् विष्णुका स्तोत्र ‘मानस-रोग’ आदिको हर लेनेवाला हैं।
अब वात, पित्त एवं कफ-इन दोषोंका तथा रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र आदि धातुओंका वर्णन सुनो ॥ १-६॥
सुश्रुत! खाया हुआ अन्न पक्राशयसे दो भागोंमें विभक्त हो जाता है। एक अंशसे वह किट्ट होता है और दूसरे अंशसे रस।
किट्टभाग मल है, जो विष्ठा, मूत्र तथा स्वेदरूपमें परिणत होता है। वही नेत्रमल, नासामल, कर्णमल तथा देहमल कहलाता है।
रस अपने समस्त भाग से रुधिररूपमें परिणत हो जाता है। रुधिरसे मांस, मांससे मेद, मेदसे अस्थि, अस्थिसे मज्जा, मज्जासे शुक्र, शुक्रसे राग (रंग या वर्ण) तथा ओजस् उत्पन्न होता है।
चिकित्सक को चाहिये कि देश,काल, पीड़ा, बल, शक्ति, प्रकृति तथा भेषजके बलको समझकर तदनुकूल चिकित्सा करे।
औषध प्रारम्भ करने में रिक्ता (४, १,१४) तिथि, भौमवार एवं मन्द, दारुण तथा उग्र नक्षत्रको त्याग देखे।
विष्णु, गौ, ब्राह्मण, चन्द्रमा, सूर्य आदि देवोकी पूजा करके रोगीके उद्देश्यसे निम्नाङ्कित मन्त्रका उच्चारण करते हुए औषध प्रारम्भ करे-॥ ७-१२॥
ब्रह्मदक्षाश्विरुद्रेन्द्रभूचन्द्रार्कानिलानला: ।
ऋषय:श्र्चौषधीग्रामा भूतसंघाश्च पान्तु ते॥
रसायनमिवर्षीणां देवानाममृतं यथा।
सुधैवोत्तमनागानां भैषज्यमिदमस्तु ते॥
‘ब्रह्मा, दक्ष, अश्विनीकुमार, रुद्र, इन्द्र, भूमि, चंद्रमा, सूर्य, अनिल, अनल, ऋषि, ओषधिसमूह तथा भूतसमुदाय-ये तुम्हारी रक्षा करें। जैसे ऋषियोंके लिये रसायन, देवताओंके लिये अमृत तथा श्रेष्ठ नागोंके लिये सुधा ही उत्तम एवं गुणकारी है, उसी प्रकार यह औषध तुम्हारे लिये आरोग्यकारक एवं प्राणरक्षक हो‘ ॥ १३-१४॥
देश-बहुत वृक्ष तथा अधिक जलवाला देश ‘अनूप’ कहलाता है। वह वात और कफ उत्पन्न करनेवाला होता है।
जांगल देश “अनूप’ देशके गुण-प्रभावसे रहित होता है। जांगल देश अधिक पित्त उत्पन्न करनेवाला होता है।
थोड़े वृक्ष तथा थोड़े जलवाला देश ‘साधारण” कहा जाता है। साधारण देश मध्यमपितका उत्पादक है ॥ १५-१६ ॥
वात, पित्त, कफके लक्षण–
वात, पित्त, कफके लक्षण- वायु रूक्ष, शीत तथा चल है। पित्त उष्ण है तथा कटुत्रय (सोंठ, मिर्च, पीपली)पितकर हैं। कफ स्थिर, अम्ल, स्निग्ध तथा मधुर है।
समान वस्तुओंके प्रयोगसे इनकी वृद्धि तथा असमान वस्तुओंके प्रयोगसे हानि होती है।
मधुर, अम्ल एवं लवण रस कफकारक तथा वायुनाशक हैं।
कटु, तिक्त एवं कषाय रस वायुकी वृद्धि करते हैं तथा कफनाशक हैं।
इसी तरह कटु, अम्ल तथा लवण रस पित्त बढ़ानेवाले हैं। तिक्त, स्वादु (मधुर) तथा कषाय रस पित्तनाशक होते हैं।
यह गुण या प्रभाव रसका नहीं, उसके विपाकका माना गया हैं।
उष्णवीर्य कफनाशक तथा शीतवीर्य पित्तनाशक होते हैं।
सुश्रुत! ये सब प्रभावसे ही वैसा कार्य करते हैं।॥ १७ -२१ ॥
शिशिर, वसन्त तथा शरदमें क्रमश: कफके चय, प्रकोप तथा प्रशमन बताये गये हैं। अर्थात् कफका चय शिशिर-ऋतुमें, प्रकोप वसन्त-ऋतुर्मे तथा प्रशमन ग्रीष्म-ऋतुमें होता है।
सुश्रुत! वायुका संचय ग्रीष्ममें, प्रकोप वर्षा रात्रिमें और शमन शरद कहा गया है।
इसी प्रकार पित्तका संचय वर्षामें, प्रकोप शरदमें तथा शमन हेमन्तमें कहा गया है।
वर्षासे हेमन्तपर्यन्त (वर्षा, शरद, हेमन्त-ये) तीन ऋतुएँ ‘विसर्ग-काल’ कही गयी हैं तथा शिशिरसे ग्रीष्मपर्यन्त तीन ऋतुओंको ‘आदान-काल” कहा गया है।
विसर्ग-कालको ‘सौम्य’ और आदानकालकों “आग्रेय” कहा गया हैं।
वर्षा आदि तीन ऋतुओमें चलता हुआ चन्द्रमा औषधियोंमें क्रमश: अम्ल, लवण तथा मधुर रसोंकी उत्पन्न करता है।
शिशिर आदि तीन ऋतुओंमें विचरता हुआ सूर्य क्रमशः तिक्त, कषाय तथा कटु रसोंको बढ़ाता है।
रातें ज्यों-ज्यों बढ़ती हैं, त्यों-त्यों ओषधियोंका बल बढ़ता है। जैसे-जैसे रातें घटती हैं, वैसे-वैसे मनुष्योंका बल क्रमश: घटता है।
रातमें, दिनमें तथा भोजनके बाद, आयुके आदि, मध्य और अवसानकालमें कफ, पित्त एवं वायु प्रकुपित होते हैं।
प्रकोपके आदिकाल में इनका संचय होता है तथा प्रकोपके बाद इनका शमन कहा गया है।
विप्रवर! अधिक भोजन और अधिक उपवाससे तथा मल-मूत्र आदिके वेगोंको रोकनेसे सभी रोग उत्पन्न होते हैं। इसलिये पेटके दो भागोंकों अन्नसे तथा एक भागको जलसे पूरा करे। अवशिष्ट रखें।
व्याधिका निदान तथा विपरीत औषध करना चाहिये, इन सबका सार यही है, जो मैंने बतलाया है।॥ २९-३३ ॥
नाभिके ऊपर पित्तका स्थान है तथा नीचे श्रोणी एवं गुदाको वातका स्थान कहा गया है। तथापि ये सभी समस्त शरीरमें घूमते हैं। उनमें भी वायु विशेषरूपसे सम्पूर्ण शरीरमें संचरण करती है।
(इस विषयका सुस्पष्ट वर्णन सुश्रुतमें इस प्रकार है-
दोषस्थानान्यत ऊर्ध्व वक्ष्याम: । तत्र समासेन वातः श्रोणिगुदसंश्रय:, तदुपर्यधो नाभे: पक्वाशय: पक्वामाशयमध्यम पित्तस्य, आमाशयः श्लेष्मणः ॥
(सुश्रुत, सूत्र-स्थान अध्याय २१ सूत्र)
शरीर में कौन सी चीज कहां है उसका वर्णन
‘इसके बाद दोषोंके स्थानोंका वर्णन करूंगा-
उनमें संक्षेपसे वायुका स्थान श्रोणि एवं गुदा है, उसके ऊपर एवं नाभि के नीचे पक्काशय है, पक़ाशय एवं आमाशयके मध्यमें पित्तका स्थान है। श्लेष्माका स्थान आमाशय है’) ॥ ३४-३५॥
देहके मध्यमें हृदय है, जो मनका स्थान है।
जो स्वभावत: दुर्बल, थोड़े बालवाला, चञ्चल, अधिक बोलनेवाला तथा विषमानल हैं-जिसकी जठराग्नि कभी ठीकसे पाचनक्रिया करती है, कभी नहीं करती तथा जो स्वप्नमें आकाशमें उड़नेवाला है, वह वात प्रकृतिका मनुष्य है।
समय-से पूर्व ही जिसके बाल पकने-झरने लगे, जो क्रोधी हो, जिसे पसीना अधिक होता हो, जो मीठी वस्तुएँ खाना पसंद करता हो और स्वप्रमें अग्रिको देखनेवाला हो, वह पित्त प्रकृतिका है।
जो दृढ अंगोवाला, स्थिरचित, सुन्दर, कान्तियुक्त चिकने केश तथा स्वप्नमें स्वच्छ जलको देखनेवाला है, वह कफ प्रकृतिवाला मनुष्य कहा जाता है।
इसी प्रकार तामस, राजस तथा सात्विक – तीन प्रकारके मनुष्य होते हैं।॥ ३६-३९ ॥ ]
मुनिश्रेष्ठ! सभी मनुष्य वात, पित्त और कफवाले हैं।
मैथुनसे और भारी काम में लगे रहनेसे रक्तपित होता हैं।
कदन्नके भोजनसे तथा शोकसे वायु कुपित होती है।
द्विजोत्तम! जलन पैदा करनेवाले पदार्थों तथा कटु, तिक्त, कषायरससे युक्त पदार्थोंके सेवनसे, मार्गमें चलनेसे तथा भयसे पित्त प्रकुपित होता है।
अधिक जल पीनेवालों, भारी अन्न भोजन करनेवालों, खाकर तुरंत सो जानेवालों तथा आलसियोंका कफ प्रकुपित होता है।
उत्पन्न हुए वातादि रोगोंको लक्षणोंसे जानकर उनका शमन करें ॥ ४० -४३ ॥
अस्थिभङ्ग (हड्डियोंका टूटना या व्यथित होना), मुखका कसैला स्वाद होना, मुँह सूखना, जभाई आना तथा रोएँ खड़े हो जाना-ये वायुजनित रोगके लक्षण हैं।
नाखून, आँखें एवं नस-नाड़ियोंका पीला हो जाना, मुखमें कडुवापन प्रतीत होना, प्यास लगना तथा शरीरमें दाह या गर्मी मालूम होना- ये पित्तव्याधिके लक्षण है
आलस्य, प्रसेक (मुँहमें पानी आना), भारीपन, मुँहका मीठा होना, उष्णकी अभिलाषा (धूपमें या आगके पास बैठने की इच्छा होना या उष्णपदार्थोंको ही खानेकी कामना)-ये कफज व्याधिके लक्षण हैं।
स्निग्ध और गरम-गरम भोजन करनेसे, तेलकी मालिशसे तथा तैल-पान आदिसे वातरोगका निवारण होता है।
घी, दूध, मिश्री आदि एवं चन्द्रमाकी किरण आदि पित्तको दूर करता है।
शहदके साथ त्रिफलाका तेल लेने तथा व्यायाम आदिसे कफका शमन होता है।
सब रोगोंकी शान्तिके लिये भगवान् विष्णुका ध्यान एवं पूजन सर्वोत्तम औषध है।॥ ४६-४८ ॥
दो सौ अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २८०॥
अध्याय – २८१ रस आदिके लक्षण"
भगवान् धन्वन्तरिने कहा– सुश्रुत ! अब मैं औषधियोंके रस आदिके लक्षणों और गुणोंका वर्णन करता हूँ, ध्यान देकर सुनो।
जो ओषधियोंके रस, वीर्य और विपाकको जानता है, वही चिकित्सक राजा आदिकी रक्षा कर सकता है।॥ १ ॥
महाबाहो! मधुर, अम्ल और लवण रस चन्द्रमासे उत्पन्न कहे गये हैं। कटु, तिक्त एवं कषाय रस अग्निसे उत्पन्न माने गये हैं।
द्रव्य का विपाक तीन प्रकारका होता है-कटु, अम्ल और लवणरूप। वीर्य दो प्रकार के कहे गये हैं-शीत और उष्ण।
द्विजोत्तम! ओषधियोंका प्रभाव अकथनीय है।
मधुर, तिक्त और कषायरस ‘शीतवीर्य’ कहे गये हैं एवं शेष रस “उष्णवीर्य’ माने गये हैं; किंतु गुडूची (गिलोय) तिक्तरसवाली होनेपर भी अत्यंत वीर्यपद होनेसे उष्ण है।॥ २-५ ॥
मानद! इसी प्रकार हरड़ कषायरससे युक्त होनेपर भी “उष्णवीर्य” होती है तथा मांस (जटामांसी) मधुररससे युक्त होनेपर भी ‘उष्णवीर्य’ ही कहा गया है। लवण और मधुर-ये दोनों रस विपाकमें मधुर माने गये हैं। अम्लोष्णका विपाक (स्वाद) भी मधुर होता है। शेष रस विपाक में कटु हैं।
इसमें संशय नहीं है कि विशेष वीर्ययुक्त द्रव्यके विपाक में उसके प्रभावके कारण विपरीतता भी हो जाती है; क्योंकि शहद मधुर होनेपर भी विपाक में कटु माना गया है।॥ ६-८ ॥
द्रव्य से सोलहगुना जल लेकर काथ करे। प्रक्षिप्त द्रव्यसे चारगुना जल शेष रहनेपर (क्वाथको) छानकर पीवें । यह क्वाथके निर्माण की विधि है। जहाँ क्वाथकी विधि न बतलायी गयी हो, वहाँ इसीको प्रमाण जानना चाहिये ॥ ९ ॥
स्नेह (तैल या घृत) पाककी विधिमें स्रहसे चौगुना’ कषाय (कृथित द्रव्य) अथवा बराबरबराबर तैल एवं विभिन्न द्रव्योंके क्वाथ लेने चाहिये।
तैलका परिपाक तब समझना चाहिये, जब कि उसमें डाली हुई ओषधियाँ उफनते हुए तैलमें गलकर ऐसी हो जाय, कि उन्हें ठंढा करके यदि हाथपर रगड़ा जाय तो उनकी बत्ती-सी बन जाय। विशेष बात यह है कि उस बत्तीका सम्बन्ध अग्रिसे किया जाय तो चिड़चिड़ाहटकी प्रतीति न हो, तब सिद्धतैल मानना चाहिये ॥ १०-११३॥
सुश्रुत! लेह्म (चाटनेयोग्य) औषधद्रव्योंमें भी इसीके समान प्रक्षेप आदि होते हैं। निर्मल तथा उचित औषध-प्रक्षेपद्वारा निर्मित क्वाथ उत्तम होता है (तथा उसका प्रयोग लेह्य आदिमें करना चाहिये)।
चूर्णकी मात्रा एक अक्ष (तोला) और क्वाथकी मात्रा चार पल है। यह मध्यम मात्रा (साधारण मात्रा) बतलायी गयी है। वैसे मात्राका परिमाण कोई निश्चित परिमाण नहीं है।
महाभाग! रोगीकी अवस्था, बल, अग्रि, देश, काल, द्रव्य और रोगका विचार करके मात्राकी कल्पना होती है। उसमें सौम्य रसोंको प्राय: धातुवर्द्धक जानना चाहिये ॥ १२-१५ ॥
मधुर रस तो विशेषतया शरीरके धातुओंकी वृद्धिके लिये जानना चाहिये।
दोष, धातु और द्रव्य’ समानगुणयुक्त होनेपर शरीरकी वृद्धि करते हैं और इसके विपरीत होनेपर क्षयकारक होते हैं।
नरश्रेष्ठ! इस शरीरमें तीन प्रकारके उपस्तम्भ (खंभे) कहे गये हैं-आहार, मैथुन और निद्रा।
मनुष्य इनके प्रति सदा सावधानी रखे। इनके पूर्णतया परित्याग या अत्यन्त सेवनसे शरीर क्षयको प्राप्त होता है।
कृश शरीरका ‘वृंहण’ (पोषण), स्थूल शरीरका “कर्षण” और मध्यम शरीरका ‘रक्षण’ करना चाहिये। ये शरीरके तीन भेद माने गये हैं।
‘तर्पण” और ‘अतर्पण”-इस प्रकार आहारादि उपक्रमोंके दो भेद होते हैं।
मनुष्यको सदा ‘हिताशी’ होना चाहिये (हितकारी पदार्थोंको ही खाना चाहिये) और ‘मिताशी’ बनना चाहिये (परिमित भोजन करना चाहिये) तथा ‘जीर्णाशी’ होना चाहिये (पूर्वभुक्त अनका परिपाक हो जानेपर ही पुनः भोजन करना चाहिये) ॥ १६-२० ॥
नरश्रेष्ठ! ओषधियोंकी निर्माण-विधि पाँच प्रकारकी मानी गयी है-रस, कल्क, क्वाथ, शीतकषाय तथा फाण्ट।
औषधोंको निचोड़नेसे ‘रस’ होता है, मन्थनसे ‘कल्क’ बनता है, औटानेसे ‘क्वाथ’ होता है, रात्रिभर रखनेसे ‘शीत’ और तत्काल जलमें कुछ गरम करके छान लेनेसे ‘फाण्ट’ होता है ॥ २१-२२ ॥
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चिकित्साके एक सौ आठ साधन हैं। जो वैद्य उनको जानता है, वह अजेय होता है। अर्थात् वह चिकित्सामें कहीं असफल नहीं होता है। वह ‘बाहुशौण्डिक” कहा जाता है।
आहार-शुद्धि अग्रिके संरक्षण, संवर्द्धन एवं संशुद्धि आदिके लिये आवश्यक है, क्योंकि मनुष्योंके बलका अग्नि ही मूल आधार है।
बलके लिये सैन्धव लवणसे युक्त त्रिफला, कान्तिप्रद उत्तम पेय, जाङ्गल–रस, सैन्धवयुक्त दही और दुग्ध तथा पिप्पली (पीपल)-का सेवन करना चाहिये ॥ २३-२५।।
मनुष्यको चाहिये कि जो रस अधिक हो गये, अर्थात् बढ़ गये हैं, उन्हें सम करे-साम्यावस्थामें लावे।
वातप्रधान प्रकृतिके मनुष्यको अपनी परिस्थितिके अनुसार ग्रीष्मऋतुभें अङ्गमर्दन करना चाहिये।
शिशिर-ऋतुमें साधारण या अधिक, वसन्त-ऋतुमें मध्यम और ग्रीष्म-ऋतुमें विशेषरूपसे अङ्गोंका मर्दन करे। पहले त्वचाका, उसके बाद मर्दन करनेयोग्य अङ्गका मर्दन करे॥२६-२७ ॥
स्नायु एवं रुधिरसे परिपूर्ण शरीर में अस्थिसमूह अत्यन्त मांसल-सा प्रतीत होता है।
इसी प्रकार कंधे, बाहु, जानुद्वय तथा जङ्घाद्वय भी मांसल प्रतीत होते हैं।
बुद्धिमान् मनुष्य शत्रुके समान इनका मर्दन करे।
जत्रु (हंसलीका भाग), वक्षःस्थल (छाती) इन्हें पूर्ववत् साधारण प्रकारसे मलें तथा समस्त अंग-संधियोंको खूब मलकर उन्हें (अङ्ग-संधियोंकी) फैला दे। किंतु उनका प्रसारण हठात् एवं क्रमविरुद्ध न करे।
मनुष्य अजीर्णमें, भोजनोपरान्त और तत्काल जल पीकर परिश्रम न करे। २८-३० ॥
दिनके चार भाग होते हैं।
प्रथम प्रहरार्धके व्यतीत हो जाने पर व्यायाम न करे।
शीतल जलसे एक बार स्नान करे।
उष्ण जल थकावटको दूर करता है।
हृदयके श्वासको अवरुद्ध न करे।
व्यायाम कफको नष्ट करता है तथा मर्दन वायुका नाश करता है।
स्नान पिक्ताधिक्यका शमन करता है।
स्नानके पश्चात् धूपका सेवन प्रिय हैं।
व्यायामका सेवन करनेवाले मनुष्य धूप और परिश्रमयुक्त कार्यको सहन करने में समर्थ होते हैं।
अध्याय – २८२ आयुर्वेदोक्त वृक्ष-विज्ञान
धन्वन्तरेरि कहते हैं– सुश्रुत! अब मैं वृक्षायुर्वेदका वर्णन करूंगा। क्रमशः गृहके उत्तर दिशा में प्लक्ष (पाकड़), पूर्वमें वट (बरगद), दक्षिणमें आम्र और पश्चिम में अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष मङ्गल माना गया है। घरके समीप दक्षिण दिशा में उत्पन्न हुए काँटेदार वृक्ष भी शुभ हैं।
आवास-स्थानके आसपास उद्यानका निर्माण करे अथवा सब ओरका भाग पुष्पित तिलोंसे सुशोभित करे॥ १-२ ॥
ब्राह्मण और चन्द्रमाका पूजन करके वृक्षोंका आरोपण करे।
वृक्षारोपणके लिये तीनों उत्तरा, स्वाती, हस्त, रोहिणी, श्रवण और मूल- ये नक्षत्र अत्यन्त प्रशस्त हैं।
उद्यानमें पुष्करिणी (बावली)-का निर्माण करावे और उसमें नदीके प्रवाहका प्रवेश करावे।
जलाशयारम्भके लिये हस्त, मघा, अनुराधा, पुष्य, ज्येष्ठा, शतभिषा, उत्तराषाढा, उत्तरा-भाद्रपदा और उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र उपयुक्त हैं॥ ३-५ ॥ वरुण, विष्णु और इन्द्रका पूजन करके इस कर्मको आरम्भ करे।
नीम, अशोक, पुन्नाग (नागकेसर), शिरीष, प्रियन्गु, अशोक’, कदली (केला), जम्बू (जामुन), वकुल (मौलसिरी) और अनार वृक्षोंका आरोपण करके ग्रीष्म-ऋतुमें प्रात:काल और सायंकाल, शीत-ऋतुमें दिनके समय एवं वर्षा-ऋतुमें रात्रिके समय भूमिके सूख जानेपर वृक्षोंको सींचे।
वृक्षोंके मध्यमें बीस हाथ का अन्तर उत्तम सोलह हाथ का अन्तर मध्यम और बारह हाथ का अन्तर अधम माना गया है।
बारह हाथ अन्तरवाले वृक्षोंको स्थानान्तरित कर देना चाहिये।
घने वृक्ष फलहीन होते हैं। पहले उन्हें काट-छाँटकर शुद्ध करे। फिर विडन्ग, धृत और पङ्क-मिश्रित शीतल जलसे उनकी सींचे।
वृक्षोंके फलोंका नाश होनेपर कुलथी, उड़द, मूंग, जौ, तिल और घृतसे मिश्रित शीतल जलके द्वारा यदि सेचन किया जाय तो वृक्षोंमें सदा फलों एवं पुष्पोंकी वृद्धि होती है।
भेड़ और बकरीकी विष्ठाका चूर्ण, जौका चूर्ण, तिल और जल-इनको एकत्र करके सात दिन तक एक स्थानपर रखें। उसके बाद इससे सींचना सभी वृक्षोंके फल और पुष्पोंकों बढ़ानेवाला है।॥ १०-१२॥
मछलीके जल (जिसमें मछलीं रहती हों)-से सींचनेपर वृक्षोंकी वृद्धि होती है। विडंगचावलके साथ मछलीके जल वृक्षोंका दोहद (अभिलषितपदार्थ) है। इसका सेचन साधारणतया सभी वृक्ष रोगोंका विनाश करनेवाला है। १३-१४ ॥
अध्याय – २८३ नाना रोगनाशक ओषधियोंका वर्णन
भगवान् धन्वन्तरेरि कहते हैं– अडूसा, मुलहठी या कचूर, दोनों प्रकारकी हल्दी और इन्द्रयव-इनका क्वाथ बालकोंके सभी प्रकारके अतिसारमें तथा स्तन्य (माताके दूधके) दोषोंमें प्रशस्त है।
पीपल और अतीसके सहित काकड़ा श्रृंगीका अथवा केवल एक अतीसका चूर्ण करके बालकोंको मधुके साथ चटावे। इससे खाँसी, वमन और ज्वर नष्ट होता है।
बालकोंको दुग्ध, घृत अथवा तैलके साथ वचका सेवन करावें अथवा मुलहठी और शङ्कपुष्पीको दूधके साथ बालक पिये। इससे बालकोंकी वाक्शक्ति एवं रूपसम्पतिके साथ साथ आयु, बुद्धि और कान्तिकी भी वृद्धि होती है।
वच, कलिहारी, अडूसा, सोंठ, पीपल, हल्दी, कूट, मुलहठी और सैन्धव – इनका चूर्ण बालकोंको प्रात:काल पिलावे। इसका सेवन बुद्धिवर्द्धक हैं।
देवदारु, बड़ा, सहजन, त्रिफला और नागरमोथा-इनका क्वाथ अथवा पीपल और मुनक्काका कल्क सभी प्रकारके कृमिरोगोंका नाशक है।
शुद्ध राँगेको त्रिफला, भूङ्गगज तथा अदरखके रस या मधु-घृतमें अथवा भेड़के मूत्र या गोमूत्रमें अञ्चन करनेसे नेत्ररोगोंमें लाभ होता है।
दूर्वारसका नस्य नाकसे बहनेवाले रक्तरोग -को शान्त करने में उत्तम है। १-७ ॥
लहसुन, अदरख और सहजनके रससे कानको भर देनेपर अथवा अदरखके रस या तैलसे कानको भर देनेपर वह कर्णशूलका नाशक तथा ओष्ठ-रोगोंको दूर करनेवाला होता है।
जायफल, त्रिफला, व्योष (सोंठ, मिर्च, पीपल), गोमूत्र, हल्दी, गोदुग्ध तथा बड़ी हर्रेके कल्कसे सिद्ध किया हुआ तिलका तैल कवल (कुल्ला) करनेसे दन्तपीड़ाका नाशक है।
काँजी, नारियलका जल, गोमूत्र, सुपारी तथा सोंठ-इनके क्वाथका कवल मुखमें रखनेसे जिह्वाके रोगका नाश होता है।
कलिहारीके कल्क (पिसे हुए द्रव्य)-में निर्गुण्डीके रसके साथ सिद्ध किया हुआ तैलका नस्य लेने (नाक में डालने)-से गण्डमाला और गलगण्डरोगका नाश होता है।
सभी चर्मरोगोंको नष्ट करनेवाले आक, काटा, करञ्च, थूहर, अमलतास और चमेलीके पत्तोंकी गोमूत्रके साथ पीसकर उबटन लगाना चाहिये।
वाकुचीको तिलोंके साथ एक वर्षतक खाया जाय तो वह सालभर में कुष्ठरोगका नाश कर देती हैं।
हर्रे, भिलावा, तैल, गुड़ और पिण्डखजूर-ये कुष्ठनाशक औषध हैं।
पाठा, चित्रक, हल्दी, त्रिफला और व्योष (सोठ, मिर्च, पीपल)-इनका चूर्ण तक्रके साथ पीने से अथवा गुड़के साथ हरीतकी खानेसे अर्शरोगका नाश होता है
प्रमेह-रोगीको त्रिफला, दारुहल्दी, बड़ी इन्द्रायण और नागरमोथा-इनका क्वाथ या आँवलेका रस हल्दी, कल्क और मधुके साथ पीना चाहिये ।
अडूसेकी जड़ गिलोय और अमलतासके क्वाथमें शुद्ध एरण्डका तेल मिलाकर पीनेसे वातरक्तका नाश होता है और पिप्पली प्लीहारोगको नष्ट करती है।॥ ८-१६ ॥
पैटके रोगीको थूहरके दूधमें अनेक बार भावना दी हुई पिप्पलीका सेवन करना चाहिये।
चित्रक, विडान्ग तथा त्रिकटु (सौंठ, मिर्च, पीपल)- के कल्कसे सिद्ध दूध अरुचिरोगका निवारण करता है।
पीपलामूल, वच, हर्रे, पीपल और विडङ्ग को घीमें मिलाकर रखे। केवल तक्रके एक मासतक सेवनसे ग्रहणी, अर्श, पांडू, गुल्म और कृमीरोगोंका नाश होता है।
त्रिफला, गिलोय, अडूसा, कुटकी, चिरायता-इनका क्वाथ शहदके साथ पीने से कामला सहित पाण्डुरोगका नाश होता है।
अडूसेके रसको मिश्री और शहद मिलाकर पीनेसे या शतावरी, दाख, खरेटी और सोंठ-इनसे सिद्ध किया हुआ दूध पीनेसे रक्त-पितरोगका नाश होता है ।
क्षयरोगके रोगी को शतावरी, विदारीकंद, बड़ी हर्रे, तीनों खरेटी, असगंध, गदहपुर्ना तथा गोखरूके चूर्णको शहद और घीके साथ चाटना चाहिये। १७-२१ ।
हर्रे, सहजन, करञ्च, आक, दालचीनी, पुनर्नवा, सोंठ और सैन्धव-इनका गोमूत्र के साथ योग करके लेप किया जाय तो यह विद्रधिकीं गाँठकों पकानेके लिये उत्तम उपाय है।
निशोथ, जीवन्ती, दन्तीमूल, मञ्जिष्ठा, दोनों हलदी, रसाञ्जन और नीम के पत्तेका लेप भगन्दरमें श्रेष्ठ हैं।
अमलतास, हरिद्रा, लाक्षा और अडूसा-इनके चूर्णको गोघृत और शहदके साथ बत्ती बनाकर नासूर में देवे। इससे नासूर का शोधन होकर घाव भर जाता है।
पिप्पली, मुलहठी, हल्दी, लोध, पधकाष्ठ, कमल, लालचन्दन एवं मिर्च-इनके साथ गोदुग्धमें सिद्ध किया हुआ तैल घावकों भरता है।
श्रीताड़, कपासकी पक्तियोंकी भस्म, त्रिफला, गोलामीर्च, खरेटी और हल्दी-इनका गोला बनाकर घावका स्वेदन करे और इन ओषधियोंके तेलको घावपर लगाये।
दूधके साथ कुम्भीसार (गुग्गुलसार)-की आग पर जलाकर व्रण पर लेप करें। अथवा जलकुम्भीको जलाकर दूधमें मिलाकर लगानेसे सभी प्रकारके व्रण ठीक होते हैं। इसी प्रकार नारियलके जड़की मिट्टीमें घृत मिलाकर सेक करनेसे व्रणका नाश होता है || २३-२७ ॥
सोंठ, अजमोद, सेंधानमक, इमलीकी छाल-इन सबके समान भाग हर्रेको तक्र या गरम जलके साथ पीनेसे अतिसारका नाश होता है।
इन्द्रयव, अतीस, सोंठ, बेलगिरि और नागरमोथाका क्वाथ आमसहित जीर्ण अतिसारमें और शूलसहित रतातिसारमें भी पिलाना चाहिये।
ठंडे थूहरमें सेंधानमक भरकर आग में जला ले। फिर यथोचित मात्रामें उदरशूलवालेको गरम जलके साथ दे। अथवा सेंधानमक, हींग, पीपल, हर्रे-इनका गरम जलके साथ सेवन करावै ॥ २८-३० ॥
वरकी वरोह, कमल और धानकी खीलका चूर्ण-इनको शहदमें भिगोकर, कपड़ेमें पोटली बनाकर, मुखमें रखकर उसे चूसे तो इससे प्यास दूर होती है।
अथवा
कुटकी, पीपल, मीठा कूट एवं धानका लावा मधुके साथ मिलाकर, पोटलीमें रखकर मुँहमें रखे और चूसे तो प्यास दूर हो जाती है।
पाठा, दारुहल्दी,चमेलीके पत्र, मुनक्काकी जड़ और त्रिफला-इनका क्वाथ बनाकर उसमें शहद मिला दे। इसको मुखमें धारण करनेसे मुखपाक-रोग नष्ट होता है।
पीपल, अतीस, कुटकी, इन्द्रयव, देवदारु, पाठा और नागरमोथा – इनको गोमूत्रमें बना क्वाथ मधुके साथ लेनेपर सब प्रकारके कण्ठरोगोंका नाश होता है।
हर्रे, गोखरू, ज़वासा, अमलतास एवं पाषाण-भेद-इनके क्वाथमें शहद मिलाकर पीनेसे मूत्रकृच्छुका कष्ट दूर होता है।
बाँसका छिल्का और वरुणकी छालका क्वाथ शर्करा और अश्मरी-रोगका विनाश करता है।
श्लीपद-रोगसे युक्त मनुष्य शाखोटक (सिंहोर)-की छालका क्वाथ मधु और दुग्धके साथ पान करे।
उड़द, मदारकी पत्ती तथा दूध, तैल, मोम एवं सैंधव लवण-इनका योग पादरोगनाशक है।
सोंठ, काला नमक और होंग-इनका चूर्ण या सोंठके रसके साथ सिद्ध किया घी अथवा इनका क्वाथ पीनेसे मलबन्ध दोष और तत्सम्बन्धी रोग नष्ट होते हैं।
गुल्मरोगी सर्जक्षार, चित्रक, हींग और अजमोद-इनके रसके साथ या विडंग एवं चित्रकके साथ तक्रपान करे।
आँवला, परवल और मूंग-इनके क्वाथका घृतके साथ सेवन विसर्परोगका अपहरण करनेवाला हैं।
अथवा
सोंठ, देवदारु और पुनर्नवा या बंशलोचन-इनका दुग्धयुक्त क्वाथ उपकारक है।
गोमूत्रके साथ सोंठ, मिर्च, पीपल, लोहचूर, यवक्षार तथा त्रिफलाका क्वाथ शोथ (सूजन)-को शान्त करता है।
गुड़, सहिजन एवं निशोथ, सैंधव लवण-इनका चूर्ण (या काथ) भी शोथको शान्त करता है।॥ ३१-४० ॥
निशोथ एवं गुड़के साथ त्रिफलाका क्वाथ विरेचन करनेवाला है।
वच और मैनफलके क्वाथका जल वमनकारक होता है।
भृंङ्गराजके रसमें भावित त्रिफला सौ पल, बायविडंग और लोहचूर दस भाग एवं शतावरी, गिलोय और चिचक पचीस पल ग्रहण करके उसका चूर्ण बना ले। उस चूर्णको मधु, वृत और तेलके साथ चाटनेसे मनुष्य वली और पलितसे रहित होता है। अर्थात् उसके मुँहपर झुर्रियाँ नहीं होतीं और बाल नहीं पकते। इसके सिवा वह सम्पूर्ण रोगोंसे मुक्त होकर सौ वर्षोंतक जीवित रहता है।
मधु और शर्कराके साथ त्रिफलाका सेवन सर्वरोगनाशक है।
त्रिफला और पीपलका मिश्री, मधु और घृतके साथ भक्षण करनेपर भी पूर्वोक्त सभी फल या लाभ प्राप्त होते हैं।
हर्रे, चित्रक, सोंठ, गिलोय और मुसलीका चूर्ण गुड़के साथ खानेपर रोगोंका नाश होता है और तीन सौ वर्षोंकी आयु प्राप्त होती है।
जपा-पुष्पको थोड़ा मसलकर जलमें मिला ले। उस चूर्णजलको थोड़ी-सी मात्रामें तेलमें मिला देनेपर तैल घृताकार हो जाता है।
जलगोह-की जरायु-की धूप देनेसे चित्र दिखलायी नहीं देता। फिर शहदकी धूप देनेसे पूर्ववत् दिखायी देने लगता है।
पाड़रकी जड़, कपूर, जोंक और मेढ़क का तेल-इनको पीसकर दोनों पैरोंमें लगाकर मनुष्य जलते हुए अङ्गारोंपर चल सकता है। तृणोत्थापन (तृणोंको आगमें ऊपर फेंकताउछालता हुआ) आश्चर्यजनक खेल दिखलाता हुआ चल सकता है।
विषोका रोकना (अथवा विष एवं ग्रह-निवारण), रोगका नाश एवं तुच्छ क्रीड़ाएँ कामनापरक हैं।
इहलौकिक तथा पारलौकिक दोनों सिद्धियोंके देनेवाले कर्मोकी मैंने तुम्हें बतलाया है, जो छ: कर्मोसे युक्त हैं। मन्त्र, ध्यान, औषध, कथा, मुद्रा और यज्ञ-ये छ: जहाँ मुष्टि (भुजाके रूपसे सहायक) हैं, वह कार्यं धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्षरूप चतुर्वर्गं फलकों देनेवाला कर्म बताया गया। इसे जो पढ़ेगा वह स्वर्गमें जायगा ॥ ४१-५१ ॥
दो सौ तिरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ। ॥ २८३ ॥
अध्याय – २८४ मन्त्ररूप औषधोका कथन
धन्वन्तरिजी कहते हैं– सुश्रुत! ‘ओंकार” आदि मन्त्र आयु देनेवाले तथा सब रोगोंको दूर करके आरोग्य प्रदान करनेवाले हैं। इतना ही नहीं, देह छूटने के पश्चात् वे स्वर्गकी भी प्राप्ति करानेवाले हैं।
‘ओंकार’ सबसे उत्कृष्ट मन्त्र है। उसका जप करके मनुष्य अमर हो जाता है-आत्माके अमरत्वका बोध प्राप्त करता है, अथवा देवतारूप हो जाता है।
गायत्री भी उत्कृष्ट मन्त्र है। उसका जप करके मनुष्य भोग और मोक्षका भागी होता है।
‘ॐ नमो नारायणाय।”-यह आटाक्षर-मन्त्र समस्त मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला है।
‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।”-यह द्वादशाक्षर-मन्त्र सब कुछ देनेवाला है।
‘ॐ हूं विष्णवे नम:।’- यह मन्त्र उत्तम औषध है। इस मन्त्रका जप करनेसे देवता और असुर श्रीसम्पन्न तथा नीरोग हो गये। जगतके समस्त प्राणियोंका उपकार तथा धर्माचरण-यह महान् औषध है।
‘धर्म, सद्धर्मकृत्, धर्मी’-इन धर्म-सम्बन्धी नामोंके जपसे मनुष्य निर्मल (शुद्ध) हो जाता है।
श्रीदः, श्रीशः, श्रीनिवासः, श्रीधरः, श्रीनिकेतनः, श्रियःपतिः तथा श्रीपरमः’– इन श्रीपति-सम्बन्धी नामात्मक मन्त्रपर्दोके जपसे मनुष्य लक्ष्मी (धनसम्पति)-को पा लेता है॥१-५ ई॥
“कामी, कामप्रदः, कामः, कामपालः, हरिः, आनन्दः, माधवः’- श्रीहरिके इन नाम-मन्त्रोंके जप और कीर्तनसे समस्त कामनाओंकी पूर्ति हो जाती है।
‘रामः, परशुरामः, नृसिंहः, विष्णुः, त्रिविक्रमः”- ये श्रीहरिके नाम युद्धमें विजयकी इच्छा रखनेवाले योद्धाओंको जपने चाहिये।
नित्य विद्याभ्यास करनेवाले छात्रोंको सदा ‘श्रीपुरुषोत्तम’ नामका जप करना चाहये।
‘दामोदरः” नाम बन्धन दूर करनेवाला है।
‘पुष्कराक्षः”-यह नाम-मन्त्र नेत्र-रोगोंका निवारण करनेवाला है।
‘हुषीकेश: ‘- इस नामका स्मरण भयहारी है।
औषध देते और लेते समय इन सब नामोंका जप करना चाहिये ॥ ६-९ ॥
औषधकर्ममें ‘अच्युत”-इस अमृत-मन्त्रका भी जप करे।
संग्राममें ‘अपराजित’ का तथा जलसे पार होते समय ‘श्रीनृसिंह’ का स्मरण करे।
जो पूर्वादि दिशाओंकी यात्रामें क्षेत्रकी कामना रखनेवाला हो, वह क्रमशः ‘चक्री’, ‘गदी’, ‘शाङ्गी” और ‘खङ्गी’का चिन्तन को।
व्यवहारोंमें (मुकदमोंमें) भक्ति-भावसे ‘सर्वेश्वर अजित’का स्मरण करे।
‘नारायण’ का स्मरण हर समय करना चाहिये।
भगवान् ‘नृसिंह” को याद किया जाय तो वे सम्पूर्ण भीतियोंको भगानेवाले हैं।
‘गरुडध्वजः”-यह नाम विषका हरण करनेवाला है।
‘वासुदेव’ नामका तो सदा ही जप करना चाहिये।
धान्य आदिको घर में रखते समय तथा शयन करते समय भी ‘अनन्त’ और ‘अच्युत” का उच्चारण करे।
दु:स्वप्र दीखनेपर “नारायण’का तथा दाह आदिके अवसर पर ‘जलशायी’ का स्मरण करे।
विद्यार्थी’हयग्रीव’का चिन्तन करे।
पुत्रकी प्राप्तिके लिये ‘जगत्सूति (जगत्-स्रष्टा)’-का तथा शौर्यकी कामना हो तो ‘श्रीबलभद्र’का स्मरण करे।
इनमेंसे प्रत्येक नाम अभीष्ट मनोरथको सिद्ध करनेवाला है। १०-१४ ॥
दो सौ चौंरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २८४॥
अध्याय – २८५ मृतसंजीवनकारक सिद्ध योगोंका कथन
धन्वन्तरि कहते हैं–सुश्रुत ! अब मैं आत्रेयके द्वारा वर्णित मृतसंजीवनकारक दिव्य सिद्ध योगोंको कहता हूँ जो सम्पूर्ण व्याधियोंका विनाश करनेवाले हैं ॥ १ ॥
आत्रेयने कहा-वातज्वरमें बिल्वादि पञ्चमूल- बेल, सोनापाटा, गम्भीर, पाटल एवं अरणीका काढ़ा दे और पाचनके लिये पिप्पलीमूल, गिलोय और सोंठ-इनका क्वाथ दे।
आँवला, अभया (बड़ी हरैं), पीपल एवं चित्रक-यह आमलक्यादि क्वाथ सब प्रकारके ज्वरोंका नाश करनेवाला है।
बिल्वमूल, अरणी, सोनापाठा, गम्भारी, पाटल, शालपर्णी, गोखरू, पृष्टपर्णी, वृहती (बड़ी कटेर) और कण्टकारिका (छोटी कटेर)-ये दशमूल कहे गये हैं। इनका क्वाथ तथा कुशके मूलका क्वाथ ज्वर, अपाचन, पार्श्वशूल और कास (खाँसी)- का नाश करनेवाला है।
गिलोय, पित्तपापड़ा, नागरमीथा, चिरायता और सोंठ-यह “पञ्चभद्र क्वाथ” वात और पित्तजवरमें देना चाहिये। २-५ ॥
निशोथ, विशाला (इन्द्रवारुणी), कुटकी, त्रिफला और अमलतास-इनका क्वाथ यवक्षार मिलाकर पिलावे। यह विरेचक और सम्पूर्ण ज्वरोंको शान्त करनेवाला है।
देवदारु, खरेटी, अडूसा, त्रिफला और व्योष (सोठ, काली मिर्च, पीपल), पद्मकाष्ठ, वायविडन्ग और मिश्री-इन सबका समान भाग चूर्ण पाँच प्रकार के कास-रोगोंका मर्दन करता हैं।
रोगी मनुष्य हृदयरोग, ग्रहणी, पार्श्वरोग, हिक्का, श्वास और कासरोगके विनाशके लिये दशमूल, कचूर, रास्ना, पीपल, बिल्व, पोकरमूल, काकड़ासिंगी, भुई आँवला, भार्गी, गिलोय और पान-इनसे विधिवत् सिद्ध किया हुआ क्वाथ या यवागूका पान करे।
मुलहठी (चूर्ण)-के साथ मधु, शर्कराके साथ पीपल, गुड़के साथ नागर (सोंठ) और तीनों लवण (सेंधानमक, विडनमक और कालानमक)-ये हिक्का (हिचकी)-का नाश करनेवाले हैं।
कारवी अजाजी (कालाजीरा, सफेदजीरा), काली मिर्च, मुनक्क, वृक्षाम्ल (इमली), अनारदाना, कालानमक और गुड़-इन सबके समानभाग से तैयार चूर्णका शहदके साथ निर्मित ‘कारव्यादि बटी” सब प्रकारके अरुचिरोगोंका नाश करती है।
अदरखके रसके साथ मधु मिलाकर रोगीको पिलाये। इससे अरुचि, श्वास, कास, प्रतिश्याय (जुकाम) और कफविकारोंका नाश होता है।॥ ६-१२॥
वट-वटाडकुर, काकडुासिंगी, शिलाजीत, लोध, अनारदाना और मुलहठी-इनका चूर्ण बनाकर उस चूर्णके समान मात्रा में मिश्री मिला मधुके साथ अवलेह (चटनी)-का निर्माण करे। इस ‘वटशुङ्गादि’के अवलेहको चावलके पानीके साथ लिया जाय तो उससे प्यास और छर्दि (वमन)- का प्रशमन होता है।
गिलोय, अडूसा, लोध और पीपल-इनका चूर्ण शहदके साथ कफयुक्त रक्त, प्यास, खाँसी एवं जवरको नष्ट करनेवाला है। इसी प्रकार समभाग मधुसे मिश्रित अङ्कसेका रस और ताम्रभस्म कासको नष्ट करता है।
शिरीषपुष्पके स्वरसमें भावित सफेद मिर्चका चूर्ण कासमें (तथा सर्पविषमें) हितकर है।
मसूर सभी प्रकारकी वेदनाको नष्ट करनेवाला हैं तथा चौंराईका साग पित्तदोषको दूर करनेवाला है।
मेउड़, शारिवा, सेरुकी एवं अङ्कोल-ये विषनाशक औषध हैं।
सोंठ, गिलोय, छोटी कटेरी, पोकरमूल, पीपलामूल और पीपल-इनका क्वाथ मूर्छा और मदात्यय रोगमें लेना चाहिये।
हींग, कालानामक एवं व्योष (साँठ, मिर्च, पीपल)-ये सब दो-दो पल लेकर चार सेर घृत और घृतसे चौगुने गोमूत्रमें सिद्ध करनेपर उन्मादका नाश करते हैं।
शखंपुष्पी, वच और मीठा कूटसे सिद्ध ब्राह्मी रसको मिलाकर इन सबकी गुटिका बना ले तो वह पुराने उन्माद और अपस्मार रोगका नाश करती हैं और उत्तम मेधावर्धक औषध हैं।
हर्रेके साथ पञ्चगव्य या घृतका प्रयोग कुष्ठनाशक है।
परवलकी पत्ती, त्रिफला, नीमकी छाल, गिलोय, प्रीश्रिपरनी, अङ्कसेके पत्ते तथा करञ्च-इनसे सिद्ध किया घृत कुष्ठरोगका मर्दन करता है। इसे ‘वज्रक’ कहते हैं।
नीमकी छाल, परवल, कण्टकारि-पञ्चाङ्ग, गिलोय और अडूसा-सबको दस-दस पल लेकर भलीभाँति कूट ले। फिर सोलह सेर जलमें क्वाथ बनाकर उसमें सेर भर घृत और (बीस तोले) त्रिफला-चूर्णका कल्क बनाकर डाल दे और चतुर्थाश शेष रहनेतक पकाये। यह ‘पञ्चतिक्त घृत’ कुष्ठनाशक है। यह अस्सी प्रकारके वातरोग, चालीस प्रकार के पितरोग और बीस प्रकारके कफरोग, खाँसी, पीनस (बिगड़ी जुकाम), बवासीर और व्रणरोगोंका नाश करता है। जैसे सूर्य अन्धकारको नष्ट कर डालता है, उसी प्रकार यह योगराज नि:संदेह अन्य रोगोंका भी विनाश कर देता है। ॥ १३-२४ ॥
उपदंश की शान्तिके लिये त्रिफलाके क्वाथ या भृंगराजके रससे व्रणोंका प्रक्षालन करे (धोये)। परवलकी पत्तीकी चूर्ण के साथ अनारकी छालका चूर्ण अथवा गजपीपर या त्रिफलाका चूर्ण पाउडरके रूपमें ही उसपर छोड़े।
त्रिफला, लोहचूर्ण, मुलहठी, आर्कव (कुकुरमाँगरा), नील कमल, कालीमिर्च और सैन्धव-नमक सहित पकाये हुए तैलके मर्दनसे वमनकी शान्ति होती है।
दुग्ध, मार्कव-रस, मुलहठी और नील कमल -इनको दो सेर लेकर तबतक पकाये, जबतक एक पाव तैल शेष रह जाय। इस तैलका नस्य (वृद्धावस्थाके चिह) पलित (बाल पकने)-का नाशक है।
नीमकी छाल, परवलकी पत्ती, त्रिफला, गिलोय, खैरकी छाल, अडूसा अथवा चिरायता, पाठा, त्रिफला और लाल चन्दन-ये दोनों योग घ्यावरकी नष्ट करते हैं तथा कुष्ठ, फोड़ा-फुन्सी, चकते आदिको भी मिटा देते हैं।
परवलकी पत्ती, गिलोय, चिरायता, अडूसा, मजीठ एवं पित्तपापड़ा- इनके क्वाथमें खदिर मिलाकर लिया जाय तों वह ज्वर तथा विस्फोटक रोगोंको शांत करता है॥ २५-३१ ॥
दशमूल, गिलोय, हर्रे, दारूहल्दी, गदहपूर्ण, सहजना एवं सोंठ ज्वर, विद्रधि तथा शोथ- रोगोंमें हितकर है।
महुवा और नीमकी पतीका लेप व्रणशोधक होता है।
त्रिफला (आंवला, हर्रा, बहेरा), खैर (कत्था), दारुहल्दी, बरगदकी छाल, बरियार, कुशा, नीमके पत्ते तथा मूलीके पत्ते-इनका क्वाथ शरीरके बाह्य-शोधन के लिये हितकर है।
करञ्ज, नीम तथा मेउड़का रस घावके कृमियोंको नष्ट करता है।
धायका फूल, सफेद चन्दन, खरेटी, मजीठ, मुलहठी, कमल, देवदारू तथा मेदाका घृतसहित लेप व्रणरोपण (घावको भरनेवाला) है।
गुग्गुल, त्रिफला, पीपल, सोंठ, मिर्च, पीपर-इनका समान भाग ले और इन सबके समान घृत मिलाकर प्रयोग करे। इस प्रयोगसे मनुष्य नाड़ीव्रण, दुष्टव्रण, शूल और भगन्दर आदि रोगोंको दूर करे।
गोमूत्रमें भिगोकर शुद्ध की हुई हरीतकी (छोटी हरैं)-को (रेडीके) तेलमें भूनकर सेंधा नमकके साथ प्रतिदिन प्रात:काल सेवन करे। ऐसी हरीतकी कफ और वातसे होनेवाले रोगोंको नष्ट करती हैं।
सोंठ, मिर्च, पीपल और त्रिफलाका क्वाथ यवक्षार और लवण मिलाकर पीये। कफप्रधान और वातप्रधान प्रकृतिवाले मनुष्योंके लिये यह विरेचन है और कफवृद्धिको दूर करता है।
पीपल, पीपलामूल, वच, चित्रक, सोंठ-इनका क्वाथ अथवा किसी प्रकार का पेय बनाकर पीये। यह आमवातका नाशक है।
रास्ना, गिलोय, रेंड़की छाल, देवदारु और सोंठ-इनका क्वाथ सर्वाङ्ग-वात तथा संधि, अस्थि और मज्जागत आमवातमें पीना चाहिये। अथवा सोंठके जलके साथ दशमूल-क्वाथ पीना चाहिये।
सोंठ एवं गोखरूका क्वाथ प्रतिदिन प्रात:-प्रात: सेवन किया जाय तो वह आमवातके सहित कटिशूल और पाण्डुरोगका नाश करता है। शाखा एवं पत्रसहित प्रसारिणी (छुईमुई)-का तैल भी उक्त रोगमें लाभकर हैं।
गिलोयका स्वरस, कल्क, चूर्ण या क्वाथ दीर्घकालतक सेवन करके रोगी वातरक्त-रोगसे छुटकारा पा जाता है।
वर्धमान पिप्पली या गुड़के साथ हर्रेका सेवन करना चाहिये। (यह भी वात-रक्तनाशक है।)
पटोलपत्र, त्रिफला, राई, कुटकी और गिलोय-इनका पाक तैयार करके उसके सेवनसे दाहयुक्त वात-रतरोग शीघ्र नष्ट होता है।
गुग्गुलको ठंढे-गरम जलसे और त्रिफलाको समशीतोष्ण जलसे, अथवा खरेटी, पुनर्नवा, एरण्डमूल, दोनों कटेरी, गोखरूका क्वाथ हींग तथा लवणके साथ लेने पर वह वातजनित पीड़ाको शीघ्र ही दूर कर देता है।
एक तोला पीपलामूल, सैन्धव, सौवर्चल, विड्, सामुद्र एवं औदभिद-पाँचों नमक, पिप्पली, चित्ता, सोंठ, त्रिफला, निशोथ, वच, यवक्षार, सर्जक्षार, शीतला, दन्ती, स्वर्णक्षीरी (सत्यनाशी) और काकड़ासिंगी-इनकी बेरके समान गुटिका बनाये और काँजीके साथ उसका सेवन करे। शोथ तथा उससे हुए पाक में भी इसका सेवन करे। उदरवृद्धिमें भी निशोथका प्रयोग विहित है।
दारुहल्दी, पुनर्नवा तथा सोठ—इनसे सिद्ध किया हुआ दुग्ध शोथनाशक है तथा मदार, गदहपूर्ना एवं चिरायताके क्वाथ से सेक (करनेपर) शोथका हरण होता है। ३२-५१ ॥
जो मनुष्य त्रिकटुयुक्त धृतकी तिगुने पलाशभस्मयुत जलमें सिद्ध करके पीता है, उसका अशरोग निस्संदेह नष्ट हो जाता है।
फूल प्रियडू, कमल, सँभालू, वायविडङ्ग, चित्रक, सैन्धवलवण, रास्ना, दुग्ध, देवदारु और वचसे सिद्ध चौगुना कटुद्रव्ययुक्त तैल मर्दन करनेसे (या जलके साथ ही पीसकर लेप करने से) गलगण्ड और गण्ड़माल-रोगोंका नाश ही जाता है ॥ ५२-५४ ॥
कचूर, नागकेसर, कुमुदका पकया हुआ क्वाथ तथा क्षीरविदारी, पीपल और अडूसाका कल्क दूधके साथ पकाकर लेनेसे क्षयरोगमें लाभ होता है ॥ ५५ ॥
वचा, विडलवण, अभया (बड़ी हर्रे), सोंठ, हींग, कूठ, चित्रक और अजवाइन-इनके क्रमश: दो, तीन, छ:, चार, एक, सात, पाँच और चार भाग ग्रहण करके चूर्ण बनावे। वह चूर्ण गुल्मरोग, उदररोग, शूल और कासरोगको दूर करता है।
पाठा, दन्तीमूल, त्रिकटु (सोंठ, मिर्च, पीपल), त्रिफला और चित्ता-इनका चूर्ण गोमूत्रके साथ पीसकर गुटिका बना ले। यह गुटिका गुल्म और प्लीहा आदिका नाश करनेवाली है।
अडूसा, नीम और परवलके पतोंके चूर्णका त्रिफलाके साथ सेवन करनेपर वात-पित्त रोगों का शमन होता है।
वायविडङ्गका चूर्ण शहदके साथ लिया जाय तो वह कृमिनाशक है। विडङ्ग, सेंधानमक, यवक्षार एवं गोमूत्रके साथ ली गयी हर्रे भी (कृमिध्न है)।
शल्लकी (शालविशेष), बेर, जामुन, प्रियाल, आम्र और अर्जुन-इन वृक्षों की छालका चूर्ण मधुमें मिलाकर दूधके साथ लेनेसे रक्तातिसार दूर होता है।
कच्चे बेलका सूखा गूदा, आमकी छाल, धायका फूल, पाठा, सोंठ और मोचरस (कदली स्वरस)-इन सबका समान भाग लेकर चूर्ण बना ले और गुड़मिश्रित तक्रके साथ पीये। इससे दुस्साध्य अतिसारका भी अवरोध हो जाता है।
चाँगेरी, बेर, दहीका पानी, सोंठ और यवक्षार-इनका घृतसहित क्वाथ पीनेसे गुदभ्रंश रोग दूर होता है।
वायविडंग, अतीस, नागरमोथा, देवदारु, पाठा तथा इन्द्रयव-इनके क्वाथमें मिर्चका चूर्ण मिलाकर पीनेसे शोथयुक्त अतिसारका नाश होता है ॥ ५६-६३ ॥
शर्करा, सैन्धव और सोंठके साथ अथवा पीपल, मधु एवं गुड़के सहित प्रतिदिन दो हर्रेका भक्षण करे तो इससे मनुष्य सौ वर्ष (अधिक काल)-तक सुखपूर्वक जीवित रह सकता है। पिप्पलीयुक्त त्रिफला भी मधु और घृतके साथ प्रयोग में लायी जाने पर वैसा ही फल देती हैं।
आँवलेके स्वरससे भावित आँवलेके चूर्णको मधु, घृत तथा शर्कराके साथ चाटकर दुग्धपान करे। इससे मनुष्य स्त्रियोंका (प्रिय) प्रभु बन सकता है।
उड़द, पीपल, अगहनीकी चावल, जौ और गेहूँ-इन सबका चूर्ण समान मात्रामें लेकर घृतमें उसकी पूरी बना ले। उसका भोजन करके शर्करायुक्त मधुर दुग्धपान करे। निस्संदेह इस प्रयोगसे मनुष्य गौरैया पक्षीके समान दस बार स्त्री-सम्भोग करनेमें समर्थ हो सकता है।
मजीठ, धायके फूल, लोध, नीलकमल-इनको दूधके साथ देना चाहिये। यह स्त्रियोंके प्रदररोगको दूर करता है।
पीली कटसरैया, मुलहठी और श्वेतचन्दन-ये भी प्रदररोगनाशक हैं।
श्वेतकमल और नीलकमलकी जड़ तथा मुलहठी, शर्करा और तिल-इनका चूर्ण गर्भपातकी आशङ्का होनेपर गर्भको स्थिर करनेमें उत्तम योग है।
देवदारु, अभ्रक, कूठ, खस और सोंठ-इनको कांजीमें पीसकर तैल मिलाकर लेप करनेसे शिरोरोगका नाश करता है।
सैन्धवलवणको तैलमें सिद्ध करके छान ले। जब तैल थोड़ा गरम रह जाय तो उसको कानमें डालनेसे कर्णशूलका शमन होता है।
लहसुन, अदरख, सहजन और केला-इनमेंसे प्रत्येक का रस (कर्णशूलहारी है।)
बरियार, शतावरी, रास्ना, गिलोय, कटसरैया और त्रिफला-इनसे सिद्ध धृतका या इनके सहित धृतका पान तिमिररोगका नाश करनेमें परम उत्तम माना गया है।
त्रिफला, त्रिकटु एवं सैन्धवलवण-इनसे सिद्ध किये हुए घृतका पान मनुष्यको करना चाहिये। यह चक्षुष्य (आँखोंके लिये हितकर), हृद्य (हृदय के लिये हितकर), विरेचक, दीपन और कफरोगनाशक है।
गायके गोबरके रसके साथ नीलकमलके परागकी गुटिकाका अञ्जन दिनौंधी और रतौंधीके रोगियोंके लिये हितकर है।
मुलहठी, बच, पिप्पली-बीज, कुरैयाकी छालका कल्क और नीमका काक्वाथ घोट देने से वह वमनकारक होता है।
खूब चिकना तथा रेड़ी-जैसे तैलसे स्निग्ध किया गया या पकाया हुआ यवका पानी विरेचक होता है। किंतु इसका अनुचित प्रयोग मन्द्राग्नि, उदरमें भारीपन और अरुचिको उत्पन्न करता है।
हर्रे, सैन्धवलवण और पीपल-इनके समान भागका चूर्ण गर्म जलके साथ ले। यह नाराच-संज्ञक चूर्ण सर्वरोगनाशक तथा विरेचक है।॥ ६४-७८ ॥
महर्षि आत्रेयने मुनिजनोंके लिये जिन सिद्ध योगोंका वर्णन किया था, समस्त योगोंमें श्रेष्ठ उन सर्वरोगनाशक योगोका ज्ञान सुश्रुतने प्राप्त किया ॥७९ ॥
दो सौ पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २८५ ॥
अध्याय – २८६ मृत्युञ्जय योगोका वर्णन
भगवान् धन्वन्तरि कहते हैं– सुश्रुत! अब मैं मृत्युञ्जय-कल्पोंका वर्णन करता हूँ, जो आयु देनेवाले एवं सब रोगोंका मर्दन करनेवाले हैं।
मधु, घृत, त्रिफला और गिलोयका सेवन करना चाहिये। यह रोगको नष्ट करनेवाली हैं तथा तीन सौ वर्षतककी आयु दे सकती है। चार तोले, दो तोले अथवा एक तोलेकी मात्रामें त्रिफलाका सेवन वही फल देता है।
एक मासतक बिल्व-तैलका नस्य लेनेसे पाँच सौ वर्षकी आयु और कवित्च-शक्ति उपलब्ध होती हैं।
भिलावा एवं तिलका सेवन रोग, अपमृत्यु और वृद्धावस्थाको दूर करता है
वाकुचीके पञ्चांग चूर्णको खैर (कत्था) –के क्वाथके साथ छ: मासतक प्रयोग करनेसे रोगी कुष्ठपर विजयी होता है।
नीली कटसरैयाके चूर्णका मधु या दुग्धके साथ सेवन हितकर है।
खाँडयुक्त दुग्धका पान करनेवाला सौ वर्षोंकी आयु प्राप्त करता है।
प्रतिदिन प्रात:काल मधु, घृत और सोंठका चार तोलेकी मात्रामें सेवन करनेवाला मनुष्य मृत्युविजयी होता है।
ब्राह्मीके चूर्णके साथ दूधका सेवन करनेवाले मनुष्यके चेहरेपर झुर्रियाँ नहीं पड़ती हैं और उसके बाल नहीं पकते हैं, वह दीर्घजीवन लाभ करता है।
मधुके साथ उच्चटा (भुई आँवला)-को तोलेकी मात्रामें खाकर दुग्धपान करनेवाला मनुष्य मृत्युपर विजय पाता है।
मधु, घी अथवा दूधके साथ मेउड़के रसका सेवन करनेवाला रोग एवं मृत्युको जीतता है।
छ: मासतक प्रतिदिन एक तोलेभर पलाश-तैलका मधुके साथ सेवन करके दुग्धपान करनेवाला पाँचे सौ वर्षोंकी आयु प्राप्त करता है।
दुग्धके साथ काँगनीके पत्तोंके रसका या त्रिफलाका प्रयोग करे। इससे मनुष्य एक हजार वर्षोंकी आयु प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार मधुके साथ घृत और चार तोले भर शतावरी-चूर्णका सेवन करनेसे भी सहस्रों वर्षोंकी आयु प्राप्त हो सकती है।
घी अथवा दूधके साथ मेउड़की जड़का चूर्ण या पत्रस्वरस रोग एवं मृत्युका नाश करता है।
नीमके पश्चाङ्ग-चूर्णको खैरके क्वाथ (काढ़े)-की भावना देकर भृंगराजके रसके साथ एक तोलाभर सेवन करनेसे मनुष्य रोगको जीतकर अमर हो सकता है।
रुदन्तिकाचूर्ण घृत और मधुके साथ सेवन करनेसे या केवल दुग्धाहारसे मनुष्य मृत्युको जीत लेता है।
हरीतकीके चूर्णको भृंगराजरसकी भावना देकर एक तोलेकी मात्रामें घृत और मधुके साथ सेवन करनेवाला रोगमुक्त होकर तीन सौ वर्षोंकी आयु प्राप्त कर सकता है।
गेठी, लोहचूर्ण, शतावरी समान भागसे भृङ्गराज-रस तथा घीके साथ एक तोला मात्रामें सेवन करनेसे मनुष्य पाँच सौ वर्षकी आयु प्राप्त करता है।
लौह भस्म तथा शतावरीको भृंगराजके रसमें भावना देकर मधु एवं घीके साथ लेनेसे तीन सौ वर्षकी आयु प्राप्त होती है।
ताम्रभस्म, गिलोय, शुद्ध गन्धक समान भाग घीकुंवारके रसमें घोटकर दो-दो रत्तीकी गोली बनायें। इसका घृतसे सेवन करनेसे मनुष्य पाँच सौ वर्षकी आयु प्राप्त करता है।
असगन्ध, त्रिफला, चीनी, तैल और घृतमें सेवन करनेवाला सौ वर्षतक जीता है। गदहपूर्णाका चूर्ण एक पल, मधु, घृत और दुग्धके साथ भक्षण करनेवाला भी शतायु होता है।
अशोककी छालका एक पल चूर्ण, मधु और घृतके साथ खाकर दुग्धपान करने से रोगनाश होता है ।
निम्बके तेलकी मधुसहित नस्य लेनेसे मनुष्य सौ वर्ष जीता है और उसके केश सदा काले रहते है ।
बहेड़ेके चूर्णको एक तोला मात्रामें शहद, घी और दूधसे पीनेवाला शतायु होता है ।
मधुरादिगणकी औषधियों और हरीतकीको गुड़ और घृतके साथ खाकर दूधके सहित अन्न भोजन करनेवालोंके केश सदा काले रहते है तथा रोगरहित होकर पाँच सौ वर्षोका जीवन प्राप्त करता है ।
एक मासतक सफ़ेद पेठेके एक पल चूर्णको मधु, घृत और दूधके साथ सेवन करते हुय दुग्धान्नका भोजन करनेवाला नीरोग रहकर एक सहस्त्र वर्षकी आयुका उपभोग करता है ।
कमलगन्धका चूर्ण भांगरेके रसकी भावना देकर मधु और घृतके साथ लिया जाय तो वह सौ वर्षोकी आयु प्रदान करता है ।
कड़बी तुम्बीके एक तोलेभर तेलका नस्य दो सौ वर्षोकी आयु प्रदान करता है।
त्रिफला, पीपल और सोंठ-इनका प्रयोग तीन सौ वर्षोंकी आयु प्रदान करता है। इनका शतावरीके साथ सेवन अत्यन्त बलप्रद और सहस्त्र वर्षोकी आयु प्रदान करनेवाला है। इनका चित्रकके साथ तथा सोंठके साथ विडंगका प्रयोग भी पूर्ववत् फलप्रद है।
त्रिफला, पीपल और सोंठ-इनका लोह, भृंगराज, खरेटी, निम्ब-पंच्चांग, खैर, निर्गुण्डी, कटेरी, आडूसा और पुनर्नवाके साथ या इनके रसकी भावना देकर या इनके संयोगसे बटी या चूर्णका निर्माण करके उसका घृत, मधु, गुड़ और जलादि अनुपानोंके साथ सेवन करनेसे पूर्वोत फलकी प्राप्ति होती है।
‘ॐ हूं सः‘-इस मन्त्रसे’ अभिमन्त्रित योगराज मृतसंजीवनीके समान होता है। उसके सेवनसे मनुष्य रोग और मृत्युपर विजय प्राप्त करता है।
देवता, असुर और मुनियोंने इन कल्प-सागरोंका सेवन किया है। १-२३ ॥
दो सौ छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २८६ ॥
अध्याय – २८७ गज-चिकित्सा
गजायुर्वेदका वर्णन पालकाप्यने अङ्गराज (लोमपाद)-से किया था ॥ २४॥
पालकाप्यने कहा– लोमपाद! मैं तुम्हारे सम्मुख हाथियोंके लक्षण और चिकित्साका वर्णन करता हूँ।
लम्बी मुँड़वाले, दीर्घ श्वास लेनेवाले, आघातको सहन करने में समर्थ, बीस या अठारह नखोंवाले एवं शीतकालमें मदकी धारा बहानेवाले हाथी प्रशस्त माने गये हैं।
जिनका दाहिना दाँत उठा हो, गर्जना मेघके समान गम्भीर हो, जिनके कान विशाल हों तथा जो त्वचापर सूक्ष्म-बिन्दुओंसे चित्रित हों, ऐसे हाथियोंका संग्रह करना चाहिये: किंतु जो ह्रस्वाकार और लक्षणहीन हों, ऐसे हाथियोंका संग्रह कदापि नहीं करना चाहिये।
पार्श्वगर्भिणी हस्तिनी और मूढ़ उन्मत्त हाथियोंको भी न रखे।
वर्ण, सत्व, बल, रूप, कान्ति, शारीरिक संगठन एवं वेग-इस प्रकारके सात गुणोंसे युक्त गजराज सम्मुख युद्धमें शत्रुओंपर विजय प्राप्त करता है।
गजराज ही शिविर और सेनाकी परम शोभा हैं। राजाओंकी विजय हाथियोंके अधीन है॥ १-५३ ॥
हाथियोंके सभी प्रकारके ज्वरोंमें अनुवासन देना चाहिये।
घृत और तैलके अभ्यङ्गके साथ स्नान वात-रोगको नष्ट करनेवाला हैं।
राजाओंकों हाथियोंके स्कन्धरोगोंमें पूर्ववत् अनुवासन देना चाहिये।
द्विजश्रेष्ठ ! पाण्डुरोगमें गोमूत्र, हरिद्रा और घृत दे। बद्धकोष्ठ (कब्जियत)-में तैलसे पूरे शरीरका मर्दन करके स्नान कराना या क्षरण कराना प्रशस्त है।
हाथीकों पञ्चलवण (कालानमक, सेंधानमक, संचर नोन, समुद्रलवण और काचलवण) युक्त वारुणी मदिराका पान करावे।
मूर्च्छा-रोगमें हाथीको वायविडंग, त्रिफला, त्रिकटु और सैन्धव लवणके ग्रास बनाकर खिलाये तथा मधुयुत जल पिलाये।
शिरश्शूलमें अभ्यङ्ग और नस्य प्रशस्त है।
हाथियोंके पैरके रोगोंमें तैलयुक्त पोटली से मर्दनरूप चिकित्सा करे। तदनन्तर कल्क और कषाय से उनका शोधन करना चाहिये।
जिस हाथीको कम्पन होता हो, उसको पीपल और मिर्च मिलाकर मोर, तीतर और बटेरके मांसके साथ भोजन करावे
अतिसाररोगके शमनके लिये गजराजको नेत्रबाला, बेलका सूखा गूदा, लोध, धायके फूल और मिश्रीकी पिंडी बनाकर खिलावे।
करग्रह (मुँडके रोग)-में लवणयुक्त घृतका नस्य देना चाहिये।
उत्कर्णक-रोगमें पीपल, सोंठ, कालाजीरा और नागरमोथासे साधित यवागू एवं वाराहीकंदका रस दे।
दशमूल, कुलथी, अम्लवेत और काकमाचीसे सिद्ध किया हुआ तैल मिर्चके साथ प्रयोग करनेसे गलग्रह-रोगका नाश होता है।
मूत्रकृच्छू-रोग में अष्टलवणयुक्त सुरा एवं घृतका पान करावे अथवा खीरेके बीजोंका क्वाथ दे।
हाथीको चर्मदोषमें नीम या अडूसेका काथ पिलावे।
कृमियुक्त कोष्ठकी शुद्धिके लिये गोमूत्र और वायविडंग प्रशस्त हैं।
सोंठ, पीपल, मुनक्का और शर्करासे शृत जलका पान क्षतदोषका क्षय करनेवाला है तथा मांस-रस भी लाभदायक है।
अरुचिरोंगमें सौंठ, मिर्च एवं पिप्पलीयुत मूंग-भात प्रशंसित है।
निशोथ, त्रिकटु, चित्रक, दन्ती, आक, पीपल, दुग्ध और गजपीपल-इनसे सिद्ध किया हुआ स्नेह गुल्मरोगका अपहरण करता है।
इसी प्रकार (गजचिकित्सक) भेदन, द्रावण, अभ्यङ्ग, स्नेहपान और अनुवासनके द्वारा सभी प्रकार के विद्रधिरोगोंका विनाश करे ॥ ६-२१ ॥
हाथीके कटुरोगोंमें मूगंकी दाल या मुंगके साथ मुलहठी मिलावे और नेत्रबाला एवं बेलकी लेप करे।
सभी प्रकारके शूलोंका शमन करनेके लिये दिनके पूर्वभागमें इन्द्रयव, हींग, धूपसरल, दोनों हल्दी और दारुहल्दीकी पिंडी दे।
हाथियोंके उत्तम भोजनमें साठी चावल, मध्यम भोजनमें जौ और गेहूँ एवं अधम भोजनमें अन्य भक्ष्य-पदार्थ माने गये हैं।
जौ और ईख हाथियोंका बल बढ़ानेवाले हैं तथा सूखा तृण उनके धातुको प्रकुपित करनेवाला है।
मदक्षीण हाथीको दुग्ध पिलाना प्रशस्त है तथा दीपनीय द्रव्योंसे पकाया हुआ मांसरस भी लाभप्रद है।
गुग्गुल, गठीवन, करकोल्यादिगण और चन्दन -इनका मधुके साथ प्रयोग करे। इससे पिण्डोद्रेक रोगका नाश होता है।
कुटकी, मत्स्य, वायविडंग, लवण, कोशातकी (झिमनी)-का दूध और हल्दी-इनका धूप हाथियोंके लिये विजयप्रद है।
पीपल और चावल तथा तेल, माध्वीक (महुआ या अङ्गुरके रससे निर्मित सुरा) तथा मधु-इनका नेत्रोंमें परिषेक दीपनीय माना गया है।
गौरैया चिडिया और कबूतरकी बीट, गूलर, सुखा गोबर एवं मदिरा-इनका मञ्जन हाथिर्योको अत्यन्त प्रिय है। हाथीके नेत्रोंको इससे अद्धित करने पर वह संग्रामभूमिमें शत्रुओंको मसल डालता है।
नीलकमल, नागरमोथा और तगर-इनको चावलके जलमें पीस ले। यह हाथियोंके नेत्रोंको परम शान्ति प्रदान करता है।
नख बढ़नेपर उनके नख काटने चाहिये और प्रतिमास तैलका सेक करना चाहिये। हाथियोंका शयन-स्थान सूखे गोबर और धूलसे युक्त होना चाहिये। शरद और ग्रीष्म-ऋतुमे इनके लिये घृतका सेक उपयुक्त हैं।॥ २२-३३॥
दो सौ सत्तासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २८७ ॥
अध्याय – २८८ अश्ववाहन-सार
भगवान् धन्वन्तरि कहते हैं– सुश्रुत ! अब मैं अश्ववाहनका रहस्य और अश्वोंकी चिकित्साका वर्णन करूंगा।
धर्म, कर्म और अर्थकी सिद्धिके लिये अश्वोंका संग्रह करना चाहिये।
घोड़ेके ऊपर प्रथम बार सवारी करनेके लिये अश्विनी, श्रवण, हस्त, उत्तराषाढ, उत्तरभाद्रपद और उत्तरफ़ाल्गुनी नक्षत्र प्रशस्त माने गये हैं।
घोड़ोंपर चढ़नेके लिये हेमन्त, शिशिर और वसन्त ऋतु उत्तम हैं। ग्रीष्म, शरद् एवं वर्षा ऋतुमें घुड़सवारी निषिद्ध है।
घोड़ोंको तीखे और लचीले डंडोंसे न मारे। उनके मुखपर प्रहार न करे। जो मनुष्य घोड़ेके मनकों नहीं समझता तथा उपायोंकों जाने बिना ही उसपर सवारी करता है तथा घोड़ेको कीलों और कीचड़से आच्छन्न पथपर , गड्ढो या उन्नत भूमियोंसे दूषित मार्गपर ले जाता है एवं पीठपर काठीके बिना ही बैठ जाता है, वह मूर्ख अश्वका ही वाहन बनता है, अर्थात् वह अश्वके अधीन होकर विपत्तिमें फैस जाता है।
कोई बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ सुकृती अश्ववाहक अश्वशास्त्रको पढ़े बिना भी केवल अभ्यास और अध्यवसाय से ही अश्वको अपना अभिप्राय समझा देता है। अथवा घोड़ेके अभिप्रायको समझकर दूसरोंको उसका ज्ञान करा देता है। ॥१-६॥
अश्वको नहलाकर पूर्वाभिमुख खड़ा करे। फिर उसके शरीर में आदि में ‘ॐ’ और अन्त में ‘नमः’ शब्द जोड़कर अपने बीजाक्षरसे युक्त मन्त्र बोलकर देवताओंकी क्रमश: योजना (न्यास या भावना) करे *।
अश्व के चित्तमें ब्रह्मा, बलमें विष्णु, पराक्रममें गरुड, पार्श्वभागमें रुद्रगण, बुद्धिमें बृहस्पति, मर्मस्थानमें विश्वेदेव, नेत्रावर्त और नेत्रमें चन्द्रमा-सूर्य, कानोंमें अश्विनीकुमार, जठराग्रिमें स्वधा, जिह्वामें सरस्वती, वेगमें पवन, पृष्ठभागमें स्वर्गपृष्ठ, खुराग्रमें समस्त पर्वत, रोमकुपोंमें नक्षत्रगण, हृदयमें चन्द्रकला, तेजमें अग्नि, श्रोणिदेशमें रति, ललाटमें जगत्पति, ह्रेषित (हिनहिनाहट)- में नवग्रह एवं वक्ष:स्थलमें वासुकिका न्यास करे।
उसके दक्षिण कर्णमें निम्नलिखित मन्नका जप करे
‘तुरंगम! तुम गन्धर्वराज हो। मेरे वचनको सुनो। तुम गन्धर्वकुलमें उत्पन्न हुए हो। अपने कुलको दूषित न करना। अश्व! ब्राह्मणोंके सत्यवचन, सोम, गरुड, रुद्र, वरुण और पवनके बल एवम अग्रिके तेजसे युक्त अपनी जातिका स्मरण करो। याद करो कि “तुम राजेन्द्रपुत्र हो।” सत्यवाक्यका स्मरण करो। वरुणकन्या वारुणी और कौस्तुभमणिको याद करो। जब दैत्यों और देवताओंद्वारा क्षीरसमुद्रका मन्थन हो रहा था, उस समय तुम देवकुलमें प्रादुभूर्त हुए थे। अपने वाक्यका पालन करो। तुम अश्ववंशमें उत्पन्न हुए हो। सदाके लिये मेरे मित्र बनो। मित्र! तुम यह सुनो। मेरे लिये सिद्ध वाहन बनो। मेरी रक्षा करते हुए मेरी विजयकी रक्षा करो। समराङ्गणमें मेरे लिये तुम सिद्धिप्रद हो जाओ। पूर्वकालमें तुम्हारे पृष्ठभाग पर आरूढ़ होकर देवताओंने दैत्योंका संहार किया था। आज मैं तुम्हारे ऊपर आरूढ़ होकर शत्रुसेनाओंपर विजय प्राप्त करूंगा’ ॥ १३-१९ ॥
अश्वारोही बीर अश्वके कर्णमें उसका जप करके शत्रुओंको मोहित करता हुआ अश्वको युद्धस्थलमें लाये और उसपर आरूढ़ हो युद्ध करते हुए विजय प्राप्त करे।
श्रेष्ठ अधारोही घोड़ोंके शरीरसे उत्पन्न दोषोंको भी प्राय: यत्नपूर्वक नष्ट कर देते हैं तथा उनमें पुन: गुणोंका विकास करते हैं।
श्रेष्ठ अश्वरोहियोंद्वारा अश्वमें उत्पादित गुण स्वाभाविकसे दीखने लगते हैं। कुछ अश्वारोही तो घोड़ोंके सहज गुणोंको भी नष्ट कर देते हैं। कोई अश्वोंके गुण और कोई उनके दोषोंको जानता है। वह बुद्धिमान् पुरुष धन्य है, जो अश्व-रहस्यको जानता है।
मन्दबुद्धि मनुष्य उनके गुण-दोष दोनोंकी ही नहीं जानता। जी कर्म और उपायसे अनभिज्ञ है, अश्वका वेगपूर्वक वाहन करनेमें प्रयत्नशील है, क्रोधी एवं छोटे अपराधपर कठोर दण्ड़ देता है, वह अधिारोही कुशल होनेपर भी प्रशंसित नहीं होता है।
जो अश्वरोही उपायका जानकार हैं, घोड़ेके चित्तको समझनेवाला है, विशुद्ध एवं अश्वदोषोंका नाश करनेवाला है, वह सम्पूर्ण कर्मोमें निपुण सवार सदा गुणोंके उपार्जनमें लगा रहता है।
उत्तम अश्वारोही अश्वको उसकी लगाम पकड़कर बाह्मभूमिमें ले जाय। वहाँ उसकी पीठपर बैठकर दायें-बायेंके भेदसे उसका संचालन करे। उत्तम घोड़ेपर चढ़कर सहसा उसपर कोड़ा नहीं लगाना चाहिये; क्योंकि वह ताड़नासे डर जाता है और भयभीत होनेसे उसकी मोह भी हो जाता है।
अश्वारोही प्रात:काल अश्वको उसकी वल्गा (लगाम) उठाकर प्लुतगतिसे चलायें। संध्याकालमें यदि घोड़ेके पैरमें नाल न हो तो लगाम पकड़कर धीरे-धीरे चलाये, अधिक वेगसे न दौड़ाये ॥ २०-२८ ॥
ऊपर जो कानमें जपनेकी बात तथा अश्वसंचालनके सम्बन्ध में आवश्यक विधि कहीं गयी
है, इससे अश्वको आश्वासन प्राप्त होता है, इसलिये उसके प्रति यह ‘सामनीति’का प्रयोग हुआ।
जब एक अश्व दूसरे अश्वके साथ (रथ आदिमें) नियोजित होता है, तो उसके प्रति यह ‘भेद-नीति’का बर्ताव हुआ। कोड़े आदिसे अश्वको पीटना-यह उसके ऊपर ‘दण्डनीति” का प्रयोग है।
अश्वको अनुकूल बनानेके लिये जो कालविलम्ब सहन किया जाता है या उसे चाल सीखने का अवसर दिया जाता है, यह उस अश्वके प्रति ‘दान-नीति’का प्रयोग समझना चाहिये ॥ २९ ॥
पूर्व-पूर्व नीतिकी शुद्धि (सफल उपयोग) हो जाने पर उत्तरोत्तर नीतिका प्रयोग करे।
घोड़ेकी जिह्वाके नीचे बिना योगके ग्रन्थि बाँधे। अधिकसे-अधिक सौगुने सूतको बँटकर बनायी गयी वल्गा (लगामको) घोड़ेके दोनों गल्फरोंमें घुसा दे। फिर धीरे-धीरे वाहनको भुलावा देकर लगाम ढीली करे। जब घोड़ेकी जिह्वा आहीनावस्थाको प्राप्त हो, तब जिह्वातलकी ग्रन्थि खोल दे। जबतक अश्व स्तोभ (स्थिरता)-का त्याग न करे, तबतक गाढ़ताका मोचन करे-लगामको अधिक न कसे। उरस्त्राणको तबतक खूब कसा-कसा रखे, जबतक अश्व मुखसे लार गिराता रहे। जो स्वभावसे ही ऊपर मुँह किये रहे, उसी अश्वका उरस्त्राण खूब कसकर श्रेष्ठ घुड़सवार उसे अपनी दृष्टिके संकेतपर लीलापूर्वक चला सकता है।॥ ३०-३३ ई ॥
जो पहले घोड़े के पिछले दायें पैरसे दाई वल्गा संयोजित कर देता हैं, उसने उसके दायें पैरको काबूमें कर लिया। इसी क्रमसे जो बायीं वल्गासे घोड़ेके बायें पैरको संयुक्त कर देता है, उसने भी उसके वाम पैर पर नियन्त्रण पा लिया। यदि अगले पैर परित्यक्त हुए तो आसन सुदृढ़ होता है।
जो पैर दुष्कर मोटनकर्ममें अपहृत हो गये, अथवा बायें पैरमें हीन अवस्था आ गयी, उस स्थितिका नाम ‘नाटकायन” है। हनन और गुणन कर्मोंमें ‘खलीकार’ होता है। बारंबार मुख-व्यावर्तन अश्वका स्वभाव हैं। ये सब लक्षण उसके पैरोंपर नियन्त्रण पानेके कारणभूत नहीं हैं। जब देख ले कि घोड़ा पूर्णत: विश्वस्त हो गया है, तब आसनको जोरसे दबाकर अपना पैर उसके मुखसे अड़ा दे; ऐसा करके उसकी ग्राह्यताका अवलोकन हितकारी होता है।
रानोंद्वारा जो घोड़ेके दो पैरोंको गृहीत-आकर्षित किया जाता है, वह “उद्वक्कन’ कहलाता है। लगामसे घोड़े के चारों पैरोंको संयुक्त कर उसे यथेष्ट ढीली करके बाह्य पार्ष्णिभागोंके प्रयोगसे जहाँ घोड़ेको मोड़ा जाता है, उसे ‘मोट्टन’ (या ताड़न) माना गया है। ३४-४६ ॥
बुद्धिमान् घुड़सवार इस क्रमसे प्रलय तथा अविप्लवको जान ले। फिर चतुर्थ मोटन क्रियाद्वारा इस विधिका सम्पादन होता है। जो घोड़ा लघुमण्डलमें मोटन और उद्वक्कनद्वारा अपने पैरको भूमिपर नहीं रखता-भूमिस्पर्शके बिना ही चक्कर पूरा कर लेता है, वह सफल माना गया है, उसे इस प्रकारकी पादगति ग्रहण करानी-सिखानी चाहिये।
आसनमें खूब कसकर निबद्ध करके जिसे शिक्षा दी जाती है, तथापि जो मन्दगतिसे ही चलता है, फिर संग्रहण करके (पकड़कर) जिसे अभीष्ट चाल ग्रहण करायी जाती है, उसकी उस शिक्षणक्रियाको “संग्रहण’ कहा गया है।
जो घोड़ा स्थानमें स्थित होकर भी व्यग्रचित हो जाय और उसके पार्श्वभागमें ऐंड़ लगाकर लगाम खींचकर उसे कण्टक पान (लगामके लोहेका आस्वादन) कराया जाय तथा इस प्रकार पार्श्वभागमें किये गये इस पाद-प्रहारसे जो खलीकृत होकर चाल सीखें, उसका वह शिक्षण “ख़लीकार’ माना गया है।
तीनों प्रकार की गतियोंसे भी जी मनोवाच्छित पैर (चाल) नहीं पकड़ पाता है, उस दशा में डंडेसे मारकर जहाँ वह पादग्रहण कराया जाता है, वह क्रिया ‘हनन’ कही गयी है।
जब दूसरी वल्गा (लगाम)-के द्वारा चार बार ख़लीकृत करके अश्वको अन्यत्र ले जाकर उच्छ्वासित करके वह चाल ग्रहण करायी जाती है, तब उस क्रियाको “उच्छास’ नाम दिया जाता है।
स्वभावसे ही अश्व अपना मुख बाह्य दिशाकी ओर घुमा देता है। उसे यत्नपूर्वक उसी दिशाकी और मोड़कर, वहीं नियुक्त करके जब अश्वको वैसी गति ग्रहण करायी जाती है, तब इस यत्नको ‘मुखव्यावर्तन’ कहते हैं।
क्रमश: तीनों ही गतियोंमें चलनेकी रीति ग्रहण कराकर फिर उसे मण्डल आदि पञ्चधाराओंमें चलनेका अभ्यास कराये।
ऊपर उठे हुए मुखसे लेकर घुटनोंतक जब अश्व शिथिल हो जाय, तब उसे गतिकी शिक्षा देनेके लिये बुद्धिमान् पुरुष उसके ऊपर सवारी करे तथा जबतक उसके अङ्गोंमें हल्कापन या फुर्ती न आ जाय, तबतक उसे दौड़ाता रहे।
जब घोड़ेकी गर्दन कोमल, मुख हलका और शरीरकी सारी संधियाँ शिथिल हो जायँ, तब वह सवारके वशमें होता है, उसी अवस्थामें अश्वका संग्रह करे।
जब वह पिछला पाद (गति-ज्ञान) न छोड़े, तब वह साधु (अच्छा) अश्व होता है। उस समय दोनों हाथोंसे लगाम खींचे। लगाम खींचकर ऐसा कर दे, जिससे घोड़ा ऊपरकी ओर गर्दन उठाकर एक पैरसे खड़ा हो जाय। जब भूतलपर स्थित हुए पिछले दोनों पैर आकाशमें उठे हुए दोनों अग्रिम पैरोंके आश्रय बन जाय, उस समय अश्वको मुट्ठीसे संधारण करे। सहसा इस प्रकार खींचनेपर जो घोडा खडा नाही होता, शरीरको क्षकक्षोरने लगता है, तब उसको मण्डलाकार दौड़ाकर साधे-वशमें करे।
जो घोड़ा कंधा कंपाने लगे, उसे लगामसे खींचकर खड़ा कर देना चाहिये ॥ ४८-५६ ॥
गोबर, नमक और गोमूत्रका क्वाथ बनाकर उसमें मिट्टी मिला दे और घोड़ेके शरीरपर उसका लेप करे। यह मक्खी आदिके काटनेकी पीड़ा तथा थकावटको दूर करनेवाला है।
सवारको चाहिये कि वह ‘भद्र’ आदि जातिके घोड़ोंको माँड़ दे। इससे सूक्ष्म कीट आदिके दंशनका कष्ट दूर होता है। भूखके कारण घोड़ा उत्साहशून्य हो जाता है, अत: माँड़ देना इसमें भी लाभदायक है।
घोड़ेको उतनी ही शिक्षा देनी चाहिये, जिससे वह वशीभूत हो जाय। अधिक सवारीमें जोते जानेपर घोड़े नष्ट हो जाते हैं।
यदि सवारी ली ही न जाय तो वे सिद्ध नहीं होते। उनके मुखको ऊपरकी और रखते हुए ही उनपर सवारी करे। मुट्ठीको स्थिर रखते हुए दोनों घुटनोंसे दबाकर अश्वको आगे बढ़ाना चाहिये।
गोमूत्राकृति, वक्रता, वेणी, पद्ममण्डल और मालिका-इन चिहोंसे युक्त अश्व ‘पञ्चोलूखलिक’ कहे गये हैं। ये कार्यमें अत्यन्त गर्वीले कहे गये हैं। इनके छ: प्रकार के लक्षण बताये जाते हैं-संक्षिप्त, विक्षिप्त, कुचित, आश्चित, वल्गित और अवल्गित।
गलीमें या सड़कपर सौ धनुषकी दूरीतक दौड़ानेपर ‘भद्र’ जातीय अश्व सुसाध्य होता है।
‘मन्द” अस्सी धनुषतक और ‘दण्डैकमानस’ नब्बे धनुषतक चलाया जाय तो साध्य होता है।
‘मृगजङ्गध’ या मृगजातीय अश्व संकर होता है; वह इन्हींके समन्वयके अनुसार अस्सी या नब्बे धनुषकी दूरीतक हाँकनेपर साध्य होता हैं ॥५७-६३ ॥
शक्कर, मधु और लाजा (धानका लावा) खानेवाला ब्राह्मणजातीय अश्व पवित्र एवं सुगन्धयुक्त होता है, क्षत्रिय-अश्व तेजस्वी होता है, वैश्य-अश्व विनीत और बुद्धिमान् हुआ करता है और शूद्र-अश्व अपवित्र, चञ्चल, मन्द, कुरूप, बुद्धीहीन और दुष्ट होता है।
लगामद्वारा पकड़ा जाने पर जो अश्व लार गिराने लगे, उसे रस्सी और लगाम खोलकर पानीकी धारासे नहलाना चाहिये।
अब आश्वकेलक्षण बताऊँगा, जैसा कि शालिहोत्रने कहा था। ६४-६६ ॥
दो सौ अठासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २८८ ॥
अध्याय – २८९ अश्व-चिकित्सा
शालिहोत्र कहते हैं–सुश्रुत ! अब मैं अश्वोंके लक्षण एवं चिकित्साका वर्णन करता हूँ। जो अश्व हीनदन्त, विषमदन्तयुक्त या बिना दाँतका, कराली (दोसे अधिक दन्तपद्धतियोंसे युक्त, कृष्णतालु, कृष्णवर्णकी जिह्वासे युक्त, युग्मज (जुडवाँ पैदा), जन्मसे ही बिना अण्डकोषका, दो खुरोंवाला, भृङ्गयुक्त, तीन रङ्गोंवाला, व्याघ्रवर्ण, गर्दभवर्ण, भस्मवर्ण, सुवर्ण या अग्निवर्ण, ऊँचे ककुदवाला, श्वेतकुष्ठग्रस्त, कौवे जिसपर आक्रमण करते हों, जो खरसार अथवा वानरके समान नेत्रोंवाला हो या जिसके अयाल, गुह्याङ्गं तथा नथुने कृष्णवर्णके हो, यवके टुडके समान कठोर केश हो, जो तीतरके समान रंगवाला हो, विषमाङ्ग हो, श्वेत चरणवाला हो तथा जो ध्रुव (स्थिर) आवर्तीसे रहित हो तथा अशुभ आवर्तीसे युक्त हो, ऐसे अश्वका परित्याग करना चाहिये ॥ १-५ ॥
नाक तथा नाक के पास (ऊपर) दो-दो, मस्तक एवं वक्ष:स्थलमें दो-दो तथा प्रयाण (पीठ और पिछले भाग), ललाट और कण्ठदेशमें (भी दो-दो)-इस प्रकार अश्वोंके दस आवर्त (भवरीचिह्न) शुभ माने गये हैं।
ओष्ठ-प्रान्तमें, ललाटमें, कानके मूलमें, निगालक (गर्दन)-में, अगले पैरोंके ऊपर मूलमें तथा गलेमें स्थित आवर्त श्रेष्ठ कहे जाते हैं। शेष अङ्गोंके आवर्त अशुभ होते हैं।
शुक, इन्द्रगोप (बीरवधूटी), एवं चन्द्रमाके समान कान्तिसे युक्त, काकवर्ण, सुवर्णवर्ण तथा चिकने घोड़े सदैव प्रशस्त माने जाते हैं। जिन राजाओंके पास लम्बी ग्रीवावाले, भीतरके ओर धंसी आंखवाले, छोटे कानवाले, किन्तु देखने में महोहर घोडा हो, वहाँ विजयकी अभिलाषा छोड़ दे।
घोड़े-हाथी यदि पाले जायँ तो शुभप्रद होते हैं, परंतु यदि उचित पालन न हो तो दुःखप्रद होते हैं।
घोड़े लक्ष्मीके पुत्र, गन्धर्वरूपमें पृथ्वीके उत्तम रत्न हैं। अश्वमेध में पवित्र होनेके कारण ही अश्वका उपयोग किया जाता है ॥ ६-१० ॥
मधुके साथ अडूसा, नीमकी छाल, बड़ी कटेरी और गिलोय-इनकी पिण्डी तथा सिरका स्वेद- ये नासिका मलकी नाश करनेवाले हैं।
हींग, पीकरमूल, सोंठ, अम्लवेत, पीपल तथा सैन्धवलवण-ये गरम जलके साथ देनेपर शूलका नाश करते हैं।
सोंठ, अतीस, मोथा, अनन्तमूल या दूब और बेल-इनका क्वाथ घोड़ेको पिलाया जाय तो वह उसके सभी प्रकार के अतिसारकों नष्ट करता है।
प्रियङ्क, कालीसर तथा पर्याप्त शर्करासे युक्त बकरीका गरम किया हुआ दूध पी लेनेपर घोड़ेकी थकावट दूर हो जाती है।
अश्वको द्रोणी में तैलबस्ति देनी चाहिये अथवा कोष्ठमें उत्पन्न शिराओंका वेधन करना चाहिये। इससे उसको सुख प्राप्त होता है॥ ११-१५ ॥
अनारकी छाल, त्रिफ़ला, त्रिकटु तथा गुड-इनको सम मात्रामें ग्रहण करके इनका पिण्ड बनाकर घोड़े को दे। यह अश्वोंकी कृशताको दूर करनेवाला है।
घोड़ा प्रियङ्क, लोध तथा मधुके साथ आडूसेके रस या पञ्चकोलादि (पीपल, पीपलामूल, चव्य, चीता तथा सोंठ) युक्त दुग्धका पान करे तो वह कासरोगसे मुक्त हो जाता है।
प्रस्कन्ध (छलाँग आदि दौड़)-से हुए सभी प्रकार के कष्ट में पहले शोधन श्रेयस्कर होता है। तदन्तर अभ्यङ्ग, उद्वर्तन, स्नेहन, नस्य और वर्तिकाका प्रयोग श्रेष्ठ माना जाता है।
ज्वरयुक्त अश्वोंकी दुग्धसे ही चिकित्सा करे।
लोधमूल, करपञ्जमूल, बिजौरा नीबु, चित्रक, सोंठ, कूट, वच एवं रास्ना-इनका लेप शोथ, (सूजन)-का नाश करनेवाला है।
घोड़ेको निराहार रखकर मजीठ, मुलहठी, मुनक्का, बडी कटेरी, छोटी कटेरी, लाल चन्दन, खीरेके मूल और बीज सिंहाड़ेके बीज और कसेरु-इनसे युक्त बकरीका दूध पकाकर अत्यन्त शीतल करके शक्करके साथ पिलानेसे वह घोड़ा रक्तप्रमेहसे छुटकारा पाता है॥ १६-२२ ॥
मन्या, ठुड्डी तथा ग्रीवाकी शिराओंके शोथ तथा गलग्रहरोगमें उन-उन स्थानोंपर कटुतैलका अभ्यङ्ग प्रशस्त है।
गलग्रहरोग और शोथ प्राय: गलदेशमें ही होते हैं।
चिरचिरा, चित्रक, सैन्धव तथा सुगन्ध घासका रस, पीपल और हींगके साथ इनका नस्य देनेसे अश्व कभी विषादयुक्त नहीं होता है।
हल्दी, दारुहल्दी, मालकाँगनी, पाठा, पीपल, कूट, बच तथा मधु-इनका गुड़ एवं गोमूत्रके साथ जिह्वापर लेप जिह्वास्तम्भमें हितकर है।
तिल, मुलहठी, हल्दी और नीमके पत्तोंसे निर्मित पिण्डी मधुके साथ प्रयोग करनेपर व्रणका शोधन और धृतके साथ प्रयुक्त होनेपर घावकी भरती है।
जो घोड़े अधिक चोटके कारण तीव्र वेदनासे युक्त होकर लंगडाने लगता है, उनके लिये तैलसे परिषेक-क्रिया शीघ्र ही रोगनाश करनेवाली होती हैं।
वात, पित्त, कफ दोषोंके द्वारा अथवा क्रोधके कारण चोट पा जानेसे पके, फूटे स्थानोंके व्रणके लिये यह क्रम है।
पीपल, गूलर, पाकर, मुलहठी, बट और बैल-इनका अत्यधिक जलमें सिद्ध क्वाथ थोड़ा गरम हो तो वह व्रणका शोधन करनेवाला है।
सौंफ, सोंठ, रास्ना, मजीठ, कूट, सैन्धव, देवदारू, वच, हल्दी, दारुहल्दी, रक्तचन्दन-इनका स्नेह क्वाथ करके गिलोयके जलके साथ या दूधके साथ उद्वर्तन, बस्ति अथवा नस्यरूप में प्रयोग सभी लिङ्गित दोषोंमे करना चाहिये
नेत्ररोगयुक्त अश्वके नेत्रान्तमें जोंकद्वारा अभिस्रावण कराना चाहिये।
खैर, गूलर और पीपलकी छालके क्वाथसे नेत्रोंका शोधन होता है। ।। २३-३२ ।।
युक्तावलम्बी अश्वके लिये आंवला, जवासा, पाठा, प्रियङ्गु, कुङ्कम और गिलोय-इनका समभाग ग्रहण करके निर्मित किया हुआ कल्क हितकर है।
कर्णसम्बन्धी दोष में एवं उपद्रवमें, शिल (अनियमित वृति)-में शुष्क-शेपमें (लिङ्ग सूखनेकी दशा में) और शीघ्र (हानि) करनेवाले दोषमें तत्काल वेधन करना चाहिये।
गायका गोबर, मजीठ, कूट, हल्दी, तिल और सरसों-इनको गोमूत्रमें पीसकर मर्दन करनेसे खुजलीका नाश होता है।
शालकी छालका क्वाथ शीतल हो जानेपर मधु और शर्करासहित नासिकामें डालनेसे एवं उसी प्रकार पिलानेसे घोड़ेका रक्तपित्त नष्ट होता है।
घोड़ोंको सातवें-सातवें दिन नमक देना चाहिये ॥ ३३-३७ ॥
अश्वोंके अधिक भोजन हो जाने पर वारुणी (मदिरा), शरद ऋतुमें जीवनीयगण*के द्रव्य (जीवक, ऋषभक, मैदा, महामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, मुद्गपणी (वनपूंग), माषपर्णी (वनउरद), जीवन्ती तथा मुलहठी), मधु, दाख, शक्कर, पिपली और पद्माख़सहित प्रतिपानमें देना चाहिये।
हेमन्त ऋतुमें अश्वोंको वायबिडंग, पीपल, धनियाँ, सौंफ, लोध, सैन्धवलवण और चित्रकसे समन्वित प्रतिपान देना चाहिये
वसन्त ऋतु मे लोध, प्रियङ्गु, मोथा, पीपल, सोंठ और मधुसे युक्त प्रतिपान कफनाशक माना गया है।
ग्रीष्म ऋतुमें प्रतिपानके लिये प्रियन्गु, पीपल, लोध, मुलहठी, सोंठ और गुड़के सहित मदिरा दे।
वर्षा ऋतुमे अश्वोंके लिये प्रतिपान तैल, लोध्, लवण, पीपल और सोंठसे समन्वित होना चाहिये।
ग्रीष्म ऋतुमें बढ़े हुए पित्तके प्रकोपसे पीड़ित, शरत्कालमें रक्तघनत्व से युक्त अश्वको एवं प्रावृट् (वर्षाके प्रारम्भ)-में जिन घोड़ोंका गोबर फूट गया है, उन्हें घृत पिलाना चाहिये।
कफ एवं वातकी अधिकता होनेपर अश्वोंको तैलपान कराना चाहिये।
जिनके शरीरमें स्नेहतत्त्वके प्राबल्यसे कोई कष्ट उत्पन्न हो, उनका रुक्षण करना चाहिये। मट्ठाके साथ भोजन तथा तीन दिनतक यवागू पिलानेसे अश्वोंका रुक्षण होता है।
अश्रोंके बस्तिकर्मके लिये शरद-ग्रीष्ममें घृत, हेमन्त-वसन्तमें तैल तथा वर्षा एवं शिशिर ऋतुओंमें घृत-तैल दोनोंका प्रयोग करना चाहिये।
जिन घोड़ोंको स्नेह (तैलघृतादि) पान कराया गया है, उनके लिये (गुरुभारी) या अभिष्यन्दी (कफकारक) भोजन-भात आदि, व्यायाम, स्नान, धूप तथा वायुरहित स्थान वर्जित हैं।
वर्षा ऋतुमें घोड़ेको दिनमें एक बार स्नान और पान कराये, किन्तु घोर दुर्दीनके समय केवल पान ही प्रशस्त हैं।
समशीतोष्ग ऋतुमें दो बार और एक बार स्नान विहित है।
ग्रीष्म ऋतुमें तीन बार स्नान और प्रतिपान उचित होता है। पूर्णजलमें बहुत देरतक स्नान कराना चाह्रिये।। ३८-४९ ॥
घोड़ेको प्रतिदिन चार आढ़क भूसासे रहित जी खिलावे। उसको चना, धान, मूंग या मटर भी खानेको दे।
अश्वकों (एक) दिन-रातमें पाँच सेर दूब खिलावे। सूखी दूब होनेपर आठ सेर अथवा भूसा हो तो चार सेर देना चाहिये।
दूर्वा पित्तका, जौ कासका, भूसी कफाधिक्यका, अर्जुन श्वासका एवं मानकन्द बलक्षयका नाश करता है।
दूर्वाभोजी अश्वको कफज, वातज, पित्तज और संनिपातज रोग पीड़ित नहीं कर सकते।
दुष्ट घोड़ोंके आगेपीछे दोनों ओर दो रज्जुबन्धन करने चाहिये। गर्दनमें भी बन्धन करना चाहिये।
घोड़े आस्तरणयुक्त और धूपित स्थानमें बसाने चाहिये। जहाँकि उपायपूर्वक घासें रखी हों। (वह अश्वशाला) प्रदीपसे आलोकित तथा सुरक्षित होनी चाहिये। चाहिये। ५०-५६ ||
दो सौ नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ। ॥ २८९ ॥
अध्याय – २९० अश्व-शान्ति
शालिहोत्र कहते हैं–सुश्रुत! अब मैं घोड़ोंके रोगोंका मर्दन करनेवाली ‘अश्वशान्ति’का वर्णन करूंगा, जो नित्य, नैमितिक और काम्यके भेदसे तीन प्रकारकी मानी गयी है; इसे सुनो।
किसी शुभ दिनको श्रीधर (विष्णु), श्री (लक्ष्मी) तथा उच्चै:श्रवाके पुत्र हयराजकी पूजा करके सवितादेवता-सम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा घीका हवन करे। तदनन्तर ब्राह्मणोंको दक्षिणा दे। इससे अश्वोंकी वृद्धि होती है। (शुभ दिनसे आरम्भ करके इस कर्मको प्रतिदिन चालू रखा जाय तो यह ‘नित्य अश्व-शान्ति’ है) ॥ १-२३ ॥
(अश्व-समृद्धिकी कामनासे) आश्विनके शुक्ल पक्षकी पूर्णीमाको नगरके बाह्रादेशमें शान्ति-कर्म करे। उसमें विशेषतः अश्विनीकुमारों तथा वरुण देवताका पूजन करे। तत्पश्चात् श्रीदेवीको वेदीपर पद्मासनके ऊपर अङ्कित करके उन्हें चारों ओरसे वृक्षकी शाखाओंद्वारा आवृत कर दे। उनकी सभी दिशाओंमें समस्त रसोंसे परिपूर्ण कलशोंको वस्त्रसहित स्थापित करे। इसके बाद श्रीदेवीका पूजन करके उनकी प्रसन्नताके लिये जौ और घीका हवन करे।
फिर अश्विनीकुमारों और अश्वोंकी अर्चना करे तथा ब्राह्मणोंको दक्षिणा दे। (यह काम्य शान्ति हुई) ।
अब नैमित्तिक शान्तिका वर्णन सुनो ॥ ३-५ ॥
मकर आदिकी संक्रान्तियोंमें अश्वोंका पूजन करे। साथ ही कमलपुष्पोद्वारा विष्णु, लक्ष्मी, ब्रह्मा, शंकर, चन्द्रमा, सूर्य, अश्विनीकुमार, रैवन्त तथा उच्चैःश्रवाकी अर्चना करे। इसके सिवा कमलके दस दलोंपर दस दिक्पालोंकी भी पूजा करे।
प्रत्येक अर्चनीय देवताके निमित वेदीपर जलपूर्ण कलश स्थापित करे और उन कलशोंमें अधिष्ठित देवोंकी पूजा करे। इन देवताओंके उत्तरभाग में इन सबके निमित्त तिल, अक्षत, घी और पीली सरसोंकी आहुतियां दे।
एक-एक देवताके निमित्त सौ-सौ आहुतियाँ देनी चाहिये।
अश्वसम्बन्धी रोगोंके निवारणके लिये उपवासपूर्वक यह शान्तिकर्म करना उचित हैं ॥ ६-८ ॥
दो सौ नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ। ॥ २९० ॥
अध्याय – २९१ गज-शान्ति
शालिहोत्र कहते हैं-मैं गजरोंगोंका प्रशमन करनेवाली गज-शान्तिके विषयमें कहूँगा। किसी भी शुक्ला पञ्चमीको विष्णु, लक्ष्मी तथा नागराज ऐरावतकी पूजा करे। फिर ब्रह्मा, शिव, विष्णु, इन्द्र, कुबेर, यमराज, चन्द्रमा, सूर्य, वरुण, वायु, अग्नि, पृथिवी, आकाश, शेषनाग, पर्वत, विरूपाक्ष, महापद्य, भद्र, सुमनस और देवजातीय आठ हाथियोंका पूजन करे। उन आठ नागोंके नाम ये हैं-कुमुद, ऐरावत, पद्म, पुष्पदन्त, वामन, सुप्रतीक, अपञ्जन और नील।
तत्पश्चात् होम करे और दक्षिणा दे।
शान्ति-कलश के जलसे हाथियोंका अभिषेक किया जाय तो वे वृद्धिको प्राप्त होते हैं। (यह नित्य विधि है)
अब नैमितिक शान्तिकर्मके विषयमें सुनो ॥ १-४३ ॥
मकर आदिकी संक्रान्तियोंमें हाथियोंका नगरके बहिर्भागमें ईशानकोणमें (पूजन करे)। वेदी या पद्मासनपर अष्टदल कमलका निर्माण करके उसमें केसरके स्थानपर श्रीविष्णु और लक्ष्मीकी अर्चना करे।
तदनन्तर अष्टदलोंमें क्रमश: ब्रह्मा, सूर्य, पृथ्वी, स्कन्द, अनन्त, आकाश, शिव तथा चन्द्रमाकी पूजा करे। उन्हीं आठ दलोंमें पूर्वादिके क्रमसे इन्द्रादि दिक्पालोंका भी पूजन करे। देवताओंके साथ कमलदलोंमें उनके वज़, शक्ति, दण्ड, तोमर, पाश, गदा, शूल और पद्म आदि अस्त्रोंकी अर्चना करनी चाहिये।
दलोंके बाह्यभागमें चक्र में सूर्य और अश्विनीकुमारोंकी पूजा करे। अष्टवसुओं एवं साध्यदेवोंका दक्षिणभागमें तथा भार्गवाङ्गिरस देवताओंका नैऋत्यकोणमें यजन करे। वायव्यकोणमें मरुदगणोंका, दक्षिणभागमें विश्वेदेवोंका एवं रौद्रमण्डल (ईशान)-में रुद्रोंका पूजन करना चाहिये।
वृत्तरेखाके द्वारा निर्मित अष्टदल कमलके बहिर्भागमें सरस्वती, सूत्रकार और देवर्षियोंकी अर्चना करे।
पूर्वभागमें नदी, पर्वतों एवम ईशान आदि कोणोंमें महाभूतोंकी पूजा करे। तदनन्तर पद्म, चक्र, गदा तथा शंखसे सुशोभित चतुष्कोण एवं चतुद्वारयुक्त भूपुरमण्डलका निर्माण करके आग्रेय आदि कोणोंमें कलशोंकी भी स्थापना करे तथा चारों ओर पताकाओं और तोरणोंका निवेश करे। सभी द्वारोंपर ऐरावत आदि नागराजोंका पूजन करे।
पूर्वादि दिशाओंमें समस्त देवताओंके लिये पृथक्-पृथक् सर्वोषधियुक्त पात्र रखे।
हाथियोंका पूजन करके उनकी परिक्रमा करे।
सभी देवताओंके उद्देश्यसे पृथक्-पृथक् सौ-सौ आहुतियाँ प्रदान करे।
तदनन्तर नागराज, अग्रि और देवताओंको साथ लेकर बाजे बजाते हुए अपने घरोंको लौटना चाहिये।
ब्राह्मणों एवं गज-चिकित्सक आदिको दक्षिणा देनी चाहियै ।
तत्पश्चात कालज्ञ विद्वान् गजराजपर आरूढ होकर उसके कानमें निम्नाङ्कित मन्त्र कहे। उस नागराजके मृत्युको प्राप्त होनेपर शान्ति करके दूसरे हाथीके कान में मन्त्रका जप करे- ॥ ५-१५ ॥
‘महाराजने तुमको ‘श्रीगज के पदपर नियुक्त किया है। अबसे तुम इस राजाके लिये ‘गजाग्रणी” (गजोंके अगुआ) हो। ये नरेश आजसे गन्ध, माल्य एवं उत्तम अक्षतोंद्वारा तुम्हारा पूजन करेंगे। उनकी आज्ञासे प्रजाजन भी सदा तुम्हारा अर्चन करेङ्गे। तुमको युद्धभूमि, मार्ग एवम् गृहमें महाराजकी सदा रक्षा करनी चाहिये। नागराज! तिर्यग्भाव (टेढ़ापन)-को छोड़कर अपने दिव्यभावका स्मरण करो । पुर्वकालमें देवासुर-संग्राममें देवताओंने ऐरावतपुत्र श्रीमान् अरिष्ट नागको ‘श्रीगज’ का पद प्रदान किया था। श्रीगजका वह सम्पूर्ण तेज तुम्हारे शरीरमें प्रतिष्ठित है।
नागेन्द्र! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारा अन्तर्निहित दिव्यभावसम्पन्न तेज उद्बुद्ध हो उठे। तुम रणाङ्गणमें राजाकी रक्षा करी” ॥ १६=२० ॥
राजा पूर्वोत अभिषिक्त गजराजपर शुभ मुहूर्तमें आरोहण करे। शस्त्रधारी श्रेष्ठ वीर उसका अनुगमन करें। राजा हस्तिशालामें भूमिपर अङ्कित कमलके बहिर्भागमें दिक्पालोंका पूजन करे। केसरके स्थानपर महाबली नागराज, भूदेवी और सरस्वतीका यजन करे। मध्यभागमें गन्ध, पुष्प और चन्दनसे डिण्डिमकी पूजा एवं हवन करके ब्राह्मणोंको रसपूर्ण कलश प्रदान करे।
पुन: गजाध्यक्ष, गजरक्षक और ज्यौतिषीका सत्कार करे।
तदनन्तर, डिण्डिम गजाध्यक्षको प्रदान करे। वह भी इसकी बजावे । गजाध्यक्ष नागराजके जघनप्रदेशपर आरूढ़ होकर शुभ एवं गम्भीर स्वरमें डिण्ड़िमवादन करे॥ २१-२४ ॥
दो सौ इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २९१ ॥
अध्याय – २९२ गवायुर्वेद
धन्वन्तरि कहते हैं– सुश्रुत! राजाको गौओं और ब्राह्मणोंका पालन करना चाहिये।
अब मैं ‘गोशान्ति’का वर्णन करता हूँ। गौएँ पवित्र एवं मङ्गलमयी हैं। गौओंमें सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित है। गौओंका गोबर और मूत्र अलक्ष्मी (दरिद्रता)-के नाशका सर्वोतम साधन है। उनके शरीरको खुजलाना, सींगोको सहलाना और उनको जल पिलाना भी अलक्ष्मीका निवारण करनेवाला है।
गोमूत्र, गोबर, गोदुग्ध, दधि, घृत और कुशोदक-यह “षड़ङ्ग’ पीनेके लिये उत्कृष्ट वस्तु तथा दु:स्वप्रों आदिका निवारण करनेवाला है।
गोरोचना विष और राक्षसोंको विनाश करती है। गौओंको ग्रास देनेवाला स्वर्गको प्राप्त होता है। जिसके घरमें गौऐ दु:खित होकर निवास करती हैं, वह मनुष्य नरकगामी होता है।
दूसरेकी गायको ग्रास देनावाला स्वर्गको और गोहितमें तत्पर ब्रह्मलोककों प्राप्त होता है।
गोदान, गो-माहात्म्य-कीर्तन और गोरक्षणसे मानव अपने कुलका उद्धार कर देता है।
यह पृथ्वी गौओंके श्वाससे पवित्र होती हैं। उनके स्पर्श से पापोंका क्षय होता हैं। एक दिन गोमूत्र, गोमाय, घृत, दूध, दधि और कुशका जल एवं एक दिन उपवास चाण्डालको भी शुद्ध कर देता है।
पूर्वकालमें देवताओंने भी समस्त पापोंके विनाशके लिये इसका अनुष्ठान किया था।
इनमेंसे प्रत्येक वस्तुका क्रमशः तीन-तीन दिन भक्षण करके रहा जाय, उसे ‘महासान्तपन व्रत’ कहते हैं। यह व्रत सम्पूर्ण कामनाओंको सिद्ध करनेवाला और समस्त पापोंका विनाश करनेवाला हैं।
केवल दूध पीकर इक्कीस दिन रहनेसे ‘कृच्छतिकृच्छ् व्रत’ होता है। इसके अनुष्ठानसे श्रेष्ठ मानव सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको प्राप्तकर पापमुक्त हो स्वर्गलोकमें जाते हैं।
तीन दिन गरम गोमूत्र, तीन दिन गरम घृत, तीन दिन गरम दूध और् तीन दिनगरम वायु पीकर रहे। यह ‘तप्तकृच्छ व्रत’ कहलाता है, जो समस्त पापोंका प्रशमन करनेवाला और ब्रह्मलोककों प्राप्ति करानेवाला है।
यदि इन वस्तुओंको इसी क्रमसे शीतल करके ग्रहण किया जाय, तो ब्रह्माजीके द्वारा कथित ‘शीतकृच्छ’ होता है, जो ब्रह्मलोकप्रद है। १-११ ॥
एक मासतक गोव्रती होकर गोमूत्रसे प्रतिदिन स्नान करे, गोरससे जीवन चलावे, गौओंका अनुगमन करे और गौओंके भोजन करनेके बाद भोजन करे। इससे मनुष्य निष्पाप होकर गोलोकको प्राप्त करता है।
गोमती विद्याके जपसे भी उत्तम गोलोककी प्राप्ति होती है। उस लोकमें मानव विमानमें अप्सराओंके द्वारा नृत्य-गीतसे सेवित होकर प्रमुदित होता है।
गौएँ सदा सुरभिरूपिणी हैं। वे गुग्गुलके समान गन्धसे संयुक्त हैं। गौएँ समस्त प्राणियोंकी प्रतिष्ठा हैं। गौएँ परम मङ्गलमयी हैं। गौएँ परम अन्न और देवताओंके लिये उत्तम हविष्य हैं। वे सम्पूर्ण प्राणियोंको पवित्र करनेवाले दुग्ध और गोमूत्रका वहन एवं क्षरण करती हैं और मन्त्रपूत हविष्यसे स्वर्गमें स्थित देवताओंको तृप्त करती हैं।
ऋषियोंके अग्रिहोत्रमें गौएँ होमकार्यमें प्रयुक्त होती हैं। गौएँ सम्पूर्ण मनुष्योंकी उत्तम शरण हैं। गौएँ परम पवित्र, महामङ्गलमयी, स्वर्गकी सोपानभूत, धन्य और सनातन (नित्य) हैं।
श्रीमती सुरभि-पुत्री गौओंको नमस्कार है। ब्रह्मसुताओंको नमस्कार है। पवित्र गौओंको बारंबार नमस्कार है।
ब्राह्मण और गौएँ-एक ही कुलकी दो शाखाएँ हैं। एकके आश्रयमें मन्त्रकी स्थिति है और दूसरीमें हविष्य प्रतिष्ठित है। देवता, ब्राह्मण, गौ, साधु और साध्वी स्त्रियोंके बलपर यह सारा संसार टिका हुआ हैं, इसीसे वे परम पूजनीय हैं।
गौएँ जिस स्थानपर जल पीती हैं, वह स्थान तीर्थ है। गङ्गा आदि पवित्र नदियाँ गोस्वरूपा ही हैं।
सुश्रुत! मैंने यह गौओंके माहात्म्यका वर्णन किया; अब उनकी चिकित्सा सुनी॥१२-२२ ॥
गौओंके श्रींङ्ग रोगोंमेंसोठ, खरेटी और जटामांसीको सिलपर पीसकर उसमें मधु, सैन्धव और तैल मिलाकर प्रयोग करे।
सभी प्रकार के कर्णरोगोंमें मञ्जिष्ठा, हीग और सैन्धव डालकर सिद्ध किया हुआ तैल प्रयोग करना चाहिये या लहसुनके साथ पकाया हुआ तैल प्रयोग करना चाहिये।
दन्तशूलमें बिल्वमूल, अपामार्ग, धानकी पाटला और कुटजका लेप करे। वह शूलनाशक है।
दन्तशूलका हरण करनेवाले द्रव्यों और कूटको घृतमें पकाकर देनेसे मुखरोगोंका निवारण होता है।
जिह्वा-रोगोंमें सैन्धव लवण प्रशस्त है।
गलग्रह-रोग में सोंठ, हल्दी, दारुहल्दी और त्रिफला विहित है।
हृद्रोग, वस्तिरोग, वातरोग और क्षयरोगमें गौओंको घृतमिश्रित त्रिफलाका अनुपान प्रशस्त बताया गया है।
अतिसारमें हल्दी, दारुहल्दी और पाठा (नेमुक) दिलाना चाहिये।
सभी प्रकार के कोष्ठगत” रोगोंमें, शाखा (पैर-पुच्छादि)-गत रोगोंमें एवं कास, वास एवं अन्य साधारण रोगोंमें सोंठ, भारङ्गी देनी चाहिये।
हड़ी आदि टूटनेपर लवणयुक्त प्रियदुका लेप करना चाहिये।
तैल वातरोगका हरण करता है।
पितरोगमें तैलमें पकायी हुई मुलहठी, कफरोगमें मधुसहित त्रिकटु (सोंठ, मिर्च और पीपल) तथा रक्तविकारमें मजबूत नखोंका भस्म हितकर है।
भग्रक्षतमें तैल एवं घृतमें पकाया हुआ हरताल दे।
उड़द, तिल, गेहूँ, दुग्ध, जल और घृत-इनका लवणयुक्त पिण्ड गोवत्सोंके लिये पुष्टिप्रद है।
विषाणी बल प्रदान करनेवाली है।
ग्रहबाधाके विनाशके लिये धूपका प्रयोग करना चाहिये।
देवदारू, वचा, जटामांसी, गुग्गुल, हिंगु और सर्षप-इनकी धूप गौओंके ग्रहजनित रोगोंका नाश करने में हितकर है। इस धूपसे धूपित करके गौओंके गलेमें घण्टा बाँधना चाहिये।
असगन्ध और तिलोंके साथ नवनीतका भक्षण करानेसे गौ दुग्धवती होती है।
जो वृष घरमें मदोन्मत्त हो जाता है, उसके लिये । परम रसायन है॥ २३-३५ ॥
पञ्चमी तिथिको सदा शान्तिके निमित्त गोमयपर भगवान् लक्ष्मी-नारायणका पूजन करे। यह ‘अपरा शान्ति’ कही गयी है।
आश्विनके शुक्लपक्षकी पूर्णीमाको श्रीहरिका पूजन करे। श्रीविष्णु, रुद्र, ब्रह्मा, सूर्य, अग्नि और लक्ष्मीका घृतसे पूजन करे।
दही भलीभाँति खाकर गोपूजन करके अग्रिकी प्रदक्षिणा करे।
गृहके बहिर्भागमें गीत और वाद्यकी ध्वनिके साथ वृषभयुद्धका आयोजन करें।
गौओंकों लवण और ब्राह्मणोंकों दक्षिणा दे।
मकरसंक्रान्ति आदि नैमितिक पर्वोपर भी लक्ष्मीसहित श्रीविष्णुको भूमिस्थ कमलके मध्यमें और पूर्व आदि दिशाओं में कमल-केसरपर देवताओंकी पूजा करे।
कमलके बहिर्भागमें मङ्गलमय ब्रह्मा, सूर्य, बहुरूप, बली, आकाश, विश्वरूपका तथा ऋद्धि, सिद्धि, शान्ति और रोहिणी आदि दिग्धेनु, चन्द्रमा और शिवका कृशर (खिचड़ी)- से पूजन करे।
दिक्पालोंकी कलशस्थ पद्मपत्रपर अर्चना करे।
फिर अग्रिमें सर्षप, अक्षत, तण्डुल और खैर-वृक्षकी समिधाओंका हवन करे।
ब्राह्मणको सौं-सौ भर सुवर्ण और काँस्य आदि धातु दान करे। फिर क्षीरसंयुक्त गौओंकी पूजा करके उन्हें शान्तिके निमित्त छोडे ॥ ३६-४३ ॥
अग्रिदेव कहते हैं–वसिष्ठ! शालिहोत्रने सुश्रुतकों “अश्वायुर्वेद” और पालकाप्यने अङ्गराजको ‘गवायुर्वेद’का उपदेश किया था ॥ ४४ ॥
दो सौ बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २९२॥
अध्याय – २९३ मन्त्र-विद्या
अग्निदेव कहते हैं-वसिष्ठ! अब मैं भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली मन्त्र-विद्याका वर्णन करता हूँ, ध्यान देकर उसका श्रवण कीजिये।
द्विजश्रेष्ठ! बीससे अधिक अक्षरोंवाले मन्त्र’मालामन्त्र’ दससे अधिक अक्षरोंवाले ‘मन्त्र’ और दससे कम अक्षरोंवाले ‘बीजमन्त्र’ कहे गये हैं।
‘मालामन्त्र” वृद्धावस्थामें सिद्धिदायक होते हैं,
‘मन्त्र” यौवनावस्थामें सिद्धिप्रद है।
पाँच अक्षरसे अधिक तथा दस अक्षरतकके मन्त्र बाल्यावस्थामें सिद्धि प्रदान करते हैं*।
अन्य मन्त्र अर्थात् एकसे लेकर पाञ्च अक्षरतकके मन्त्र सर्वदा और सबके लिये सिद्धिदायक होते हैं ॥ १-२३ ॥
मन्त्रोंकी तीन जातियाँ होती हैं-स्त्री, पुरुष और नपुंसक ।
जिन मन्त्रोंके अन्तमें ‘स्वाहा’ पदका प्रयोग हो, वे स्नी जातीय हैं।
जिनके अन्तमें ‘नमः’ पद जुड़ा हो, वे मन्त्र नपुंसक हैं।
शेष सभी मन्त्र पुरुषजातीय हैं। वे वशीकरण और उच्चाटन-कर्ममें प्रशस्त माने गये हैं।
क्षुद्रक्रिया तथा रोगकेनिवारणार्थ अर्थात् शान्तिकर्ममें स्त्रीजातीय मन्त्र’ उत्तम माने गये हैं।
इन सबसे भिन्न (विद्वेषण एवं अभिचार आदि) कर्ममें नपुंसक मन्त्र उपयोगी बताये गये हैं।॥ ३-४ ॥
मन्त्रोंके दो भेद हैं- आग्रेय’ और ‘सौम्य’।
जिनके आदिमें ‘प्रणव’ लगा हो, वे ‘आग्रेय’ हैं और जिनके अन्त में ‘प्रणव’का योग है, वे ‘सौम्य” कहे गये हैं।
इनका जप इन्हीं दोनोंके कालमें करना चाहिये (अर्थात् सूर्य-नाड़ी चलती हो तो ‘आग्रेय-मन्त्र’का और चन्द्र-नाड़ी चलती हों तो ‘सौम्य-मन्त्रों” का जप करे) ।
जिस मन्त्र में तार (ॐ), अन्त्य (क्ष), अग्नि (र), वियत् (ह)-इनका बाहुल्येन प्रयोग हो, वह ‘आग्रेय’ माना गया है। शेष मन्त्र ‘सौम्य” कहे गये हैं। ये दो प्रकारके मन्त्र क्रमश: क्रूर और सौम्य कर्मोंमें प्रशस्त माने गये हैं।
आग्रेय मन्त्र” प्राय: अन्त में ‘नम:’ पदसे युक्त होनेपर ‘सौम्य’ हो जाता है और ‘सौम्य मन्त्र भी अन्तमें ‘फट’ लगा देनेपर ‘आग्रेय’ हो जाता है।
यदि मन्त्र सोया हों या सोकर तत्काल ही जगा हो तो वह सिद्धिदायक नहीं होता है।
जब वामनाड़ी चलती हो तो वह ‘आग्रेय मन्त्र’ के सोने का समय हैं और यदि दाहिनी नाड़ी (नासिकाके दाहिने छिद्रसे साँस) चलती हो तो वह उसके जागरणका काल है। ‘सौम्य मन्त्र’के सोने और जागनेका समय इसके विपरीत है। अर्थात् वामनाड़ी (साँस) उसके काल है।
जब दोनों नाड़ियाँ साथ-साथ चल रही हों, उस समय आग्रेय और सौम्य-दोनों मन्त्र जगे रहते हैं। (अत: उस समय दोनोंका जप किया जा सकता है।)
दुष्ट नक्षत्र, दुष्ट राशि तथा शत्रुरूप आदि अक्षरवाले मन्त्रोंको अवश्य त्याग देना चाहिये ॥ ५-९ ॥
(नक्षत्र–चक्र)
राज्यलाभोपकाराय प्रारभ्यारिः स्वरः कुरून्॥
गोपालकुकुटीं प्रायात् फुल्लावित्युदिता लिपिः ।
(साधकके नामके प्रथम अक्षरको तथा मन्त्रके आदि अक्षरकों लेकर गणना करके यह जानना है कि उस साधकके लिये वह मन्त्र अनुकूल है या प्रतिकूल ? इसीके लिये उपर्युक श्लोक एक संकेत देता है-)
‘राज्य’से लेकर ‘फुल्लौ” तक लिपिका ही संकेत है। ‘इत्युदिता लिपि:” इस प्रकार लिपि कहीं गयी है।
‘नारायणीय-तन्त्र’ में इसकी व्याख्या करते हुए कहा गया है कि अश्विनीसे लेकर उत्तरभाद्रपदातकके छब्बीस नक्षत्रोंमें ‘अ’से लेकर ‘ह’ तक के अक्षरोंकों बाँटना है।
किस नक्षत्रमें कितने अक्षर लिये जायगे, इसके लिये उपर्युक्त श्लोक संकेत देता है।
‘रा’ से ‘ल्लौ’तक छब्बीस अक्षर हैं; वे छब्बीस नक्षत्रोंके प्रतीक हैं।
तन्त्रशास्त्रियोंने अपने संकेतवचनोंमें केवल व्यञ्जनोंको ग्रहण किया है और समस्त व्यञ्जनोंको कवर्ग, टवर्ग, पवर्ग तथा यवर्गमें बाँटा है।
संकेत-लिपिका जो अक्षर जिस वर्गका प्रथम, द्वितीय, तृतीय या चतुर्थ अक्षर है, उससे उतनी ही संख्याएँ ली जायगी।
संयुक्ताक्षरोंमेंसे अन्तिम अक्षर ही गृहीत होगा।
स्वरोंपर कोई संख्या नहीं है।
उपर्युक्त श्लोकमें पहला अक्षर ‘रा’ है। यह यवर्गका दूसरा अक्षर है, अत: उससे दो संख्या ली जायगी। इस प्रकार ‘रा’ यह संकेत करता है कि अश्विनी-नक्षत्रमें दो अक्षर ‘अ आ’ गृहीत होंगे।
दूसरा अक्षर है “ज्य’ यह संयुक्ताक्षर है, इसका अन्तिम अक्षर ‘य’ गृहीत होगा। वह अपने वर्गका प्रथम अक्षर है, अतः एकका बोधक होगा। इस प्रकार पूर्वोक्त “ज्य के संकेतानुसार भरणी नक्षत्रमें एक अक्षर “इ” लिखा जायगा।
इस बातको ठीक समझनेके लिये निम्नाङ्कित चक्र देखिये ।
यह वर्णमाला नक्षत्रोंके साथ क्रमश: जोड़नी चाहिये। केवल ‘ अं अ: “-ये दो अन्तिम स्वर रेवती नक्षनके साथ सदा जुड़े रहते हैं ॥ १०–११ ॥
(इनके द्वारा जन्म, सम्पद्, विपत्, क्षेम, प्रत्यरि, साधक, वध, मित्र तथा अतिमित्र इन तारोंका विचार किया जाता है। जहाँ साधकके नामका आदि अक्षर है, वहाँसे लेकर मन्त्र के आदि अक्षरतक गिने। उसमें नौ का भाग देकर शेषके अनुसार जन्मादि तारोंको जाने।)
(बारह राशियोंमें वणाँका विभाजन)
वालं गौरं खुरं शोणं शमी शोभेति भेदिताः।
लिप्यर्णा राशिषु ज्ञेयाः षष्ठे शादींश्व योजयेत्॥ १२ ॥
(जैसा कि पूर्व श्लोकमें संकेत किया है, उसी तरह ‘वा“से लेकर ‘भा” तक के बारह अक्षर क्रमश: मेंष आदि राशियों तथा ४ आदि संख्याओंकी ओर संकेत करते हैं-)
वा ४ लं ३ गौ ३ रं २ खु २ रं २ शो ५ ण ५ भा ४।
इन संख्याओंमें विभक्त हुए अकार आदि अक्षर क्रमशः मेष आदि राशियोंमें स्थित जानने चाहिये।
‘श ष स, ह”
इन अक्षरोंको (तथा स्वरान्य वणों ‘अं अः‘को) छठी कन्याराशिमें संयुक्त करना चाहिये।
क्षकारका मीनराशिमें प्रवेश है ।
यथा
राशि–ज्ञानका उपयोग–साधकके नामका आदि अक्षर जहाँ हो, उस राशि से मन्त्रके आदि अक्षरकी राशितक गिने।
जो संख्या हो, उसके अनुसार फल जाने।
यदि संख्या छठी, आठवीं अथवा बारहवीं हो तो वह निन्द्य है।
इन बारह संख्याओंको ‘बारह भाव” कहते हैं। उनकी विशेष संख्यासंज्ञा इस प्रकार है–तन, धन, सहज, सुहृद, पुत्र, रिपु, जाया, मृत्यु, धर्म, कर्म, आय और व्यय।
मन्त्रके अक्षर यदि मृत्यु, शत्रु तथा व्यय भावके अन्तर्गत हैं तो वे अशुभ हैं।
(सिद्धादि मन्त्र–शोधन–प्रकार)
चौकोर स्थानपर पाँच रेखाएँ पूर्वसे पश्चिमकी ओर तथा पाँच रेखाएँ उत्तरसे दक्षिणकी ओर खींचे। इस प्रकार सोलह कोष्ठ बनाये।
इनमें क्रमश: सोलह स्वरोंकों लिखा जाय। तदनन्तर उसी क्रमसे व्यञ्जन–वर्ण भी लिखे।
तीन आवृत्ति पूर्ण होनेपर चौथी आवृत्तिमें प्रथम दो कोष्ठोंके भीतर क्रमश: ‘ह‘ और ‘क्ष‘ लिखकर सब अक्षरोंकी पूर्ति कर ले।
इन सोलहमें प्रथम कोष्ठकी चार पंक्तियाँ‘सिद्ध‘, दूसरे कोष्ठकी चार पंक्तियाँ ‘साध्य‘ तीसरे कोष्ठकी चार पंक्तियाँ ‘सुसिद्ध” तथा चौथे कोष्ठकी चार पंक्तियाँ ‘अरि‘ मानी गयी हैं।
जिस साधक के नामका आदि अक्षर जिस चतुष्कमें पड़े, वही उसके लिये ‘सिद्ध चतुष्क‘ है, वहाँसे दूसरा उसके लिये ‘साध्य‘, तीसरा ‘सुसाध्य‘ और चौथा चतुष्क ‘अरि‘ है।
जिस चतुष्कके जिस कोष्ठमें साधकका नाम है, वह उसके लियें ‘सिद्ध–सिद्ध” कोष्ठ है। फिर ‘सिद्धसाध्य‘, ‘सिद्ध–सुसिद्ध‘ तथा ‘सिद्ध–अरि‘ है।
इसी चतुष्कमें यदि मन्त्रका भी आदि अक्षर हो तो इसी गणनाके अनुसार उसके भी ‘सिद्धसिद्ध‘, ‘सिद्ध–साध्य‘ आदि भेद जान लेने चाहिये।
यदि इस चतुष्कमें अपने नामका आदि अक्षर हो और द्वितीय चतुष्कमें मन्त्रका आदि अक्षर हो तो पूर्व चतुष्कके जिस कोष्ठमें नामका आदि अक्षर है, उस दूसरे चतुष्कमें भी उसी कोष्ठसे लेकर प्रादक्षिण्य–क्रमसे ‘साध्यसिद्ध‘ आदि भेदकी कल्पना करनी चाहिये।
इस प्रकार सिद्धादिकी कल्पना करे।
सिद्ध–मन्त्र अत्यन्त गुणोंसे युक्त होता है। ‘सिद्ध–मन्त्र‘ जपमात्रसे सिद्ध अर्थात् सिद्धिदायक होता है; ‘साध्य–मन्त्र‘ जप, पूजा और होम आदिसे सिद्ध होता है। ‘सुसिद्ध मन्त्र‘ चिन्तनमात्रसे सिद्ध हो जाता है, परंतु ‘अरि मन्त्र‘ साधकका नाश कर देता है।
जिस मन्त्रमें दुष्ट अक्षरोंकी संख्या अधिक हो, उसकी सभीने निन्दा की है। १३–१५॥
शिष्यको चाहिये कि वह अभिषेकपर्यन्त दीक्षामें विधिवत् प्रवेश लेकर गुरुके मुखसे तन्त्रोक्त विधिका श्रवण करके गुरुसे प्राप्त हुए अभीष्ट मन्त्रकी साधना करे।
जो धीर, दक्ष, पवित्र, भक्तिभावसे सम्पन्न, जप–ध्यान आदि में सत्यवादी तथा निग्रह–अनुग्रहमें समर्थ हो, वह ‘गुरु‘ कहलाता है।
जो शान्त (मनको वशमें रखनेवाला), दान्त (जितेन्द्रिय), पटु (सामथ्र्यवान्), ब्रह्माचारी, हविष्यान्नभोजी, गुरुकी सेवामें संलग्न और मन्त्रसिद्धिके प्रति उत्साह रखनेवाला हो, वह ‘योग्य‘ शिष्य है।
उसको तथा अपने पुत्रको मन्नका उपदेश देना चाहिये।
शिष्य विनयी तथा गुरुको धन देनेवाला हो। ऐसे शिष्यको गुरु मन्त्रका उपदेश दे और उसकी सुसिद्धिके लिये स्वयं भी एक सहस्त्रकी संख्या में जप करे।
अकस्मात् कहींसे सुना हुआ, छल अथवा बलसे प्राप्त किया हुआ, पुस्तकके पन्नेमें लिखा हुआ अथवा गाथामें कहा गया मन्त्र नहीं जपना चाहिये। यदि ऐसे मन्त्रका जप किया जाय तों वह अनर्थ उत्पन्न करता है।
जो जप, होम तथा अर्चना आदि भूरि क्रियाओंद्वारा मन्त्रकी साधनामें संलग्र रहता है, उसके मन्त्र स्वल्पकालिक साधनसे ही सिद्ध हो जाते हैं। जिसने एक मन्त्रको भी विधिपूर्वक सिद्ध कर लिया है, उसके लिये इस लोकमें कुछ भी असाध्य नहीं है; फिर जिसने बहुत–से मन्त्र सिद्ध कर लिये हैं, उसके माहात्म्यका किस प्रकार वर्णन किया जाय? वह तो साक्षात् शिव ही है।
एक अक्षरका मन्त्र दस लाख जप करनेसे सिद्ध हो जाता हैं। मन्त्रमें क्यों–ज़्यों अक्षरकी वृद्धि हो, त्यों–ही–त्यों उसके जपकी संख्यामें कमी होती है। इस नियमसे अन्य मन्त्रोंके जपकी संख्याके विषयमें स्वयं ऊहा कर लेनी चाहिये।
बीज–मन्त्रकी अपेक्षा दुगुनी-तिगुनी संख्यामें मालामन्त्रोंके जपका विधान है। जहाँ जपकी संख्या नहीं बतायी गयी हो, वहाँ मन्त्र–जपादिके लिये एक सौ आठ या एक हजार आठ संख्या जाननी चाहिये।
सर्वत्र जपसे दशांश हवन एवं तर्पणका विधान मिलता है। १६–२५ ॥
जहाँ किसी द्रव्य–विशेषका उल्लेख न हो, वहाँ होममें घृतका उपयोग करना चाहिये।
जो आर्थिक दृष्टिसे असमर्थ हो, उसके लिये होमके निमित जपकी संख्यासे दशांश जपका ही सर्वत्र विधान मिलता है। उसी प्रकार अङ्ग आदिके लिये भी जप आदिका विधान हैं।
सशक्ति–मन्त्र के जपसे मन्त्रदेवता साधककी अभीष्ट फल देते हैं। वें साधकके द्वारा किये गये ध्यान, होम और अर्चन आदिसे तृप्त होते हैं।
उच्चस्वरसे जपकी अपेक्षा उपांशु (मन्दस्वरसे किया गया) जप दसगुना श्रेष्ठ कहा गया है। यदि केवल जिह्वा हिलाकर जप किया जाय तो वह सौ गुना उत्तम माना गया है। मानस (मनके द्वारा किये जानेवाले) जपका महत्व सहस्त्रगुना उत्तम कहा गया है।
मन्त्र–सम्बन्धी कर्मका सम्पादन पुर्वाभिमुख अथवा दक्षिणाभिमुख होकरकरना चाहिये।
मौन होकर विहित आहार ग्रहण करते हुए प्रणव आदि सभी मन्त्रोंका जप करना चाहिये।
देवता तथा आचार्यके प्रति समान दृष्टि रखते हुए आसनपर बैठकर मन्त्रका जप करे।
कुटी, एकान्त एवं पवित्र स्थान, देवमन्दिर, नदी अथवा जलाशय–में जप करनेके लिये उत्तम देश हैं।
मन्त्र–सिद्धिके लिये जौकी लप्सी, मालपूए, दुग्ध एवं हविष्यान्नका भोजन करे।
साधक मन्त्रदेवताका उनकी तिथि, वार, कृष्णपक्षकी अष्टमी–चतुर्दशी तथा ग्रहण आदि पर्वोपर पूजन करे।
अक्विनीकुमार, यमराज, अग्रि, धाता, चन्द्रमा, रुद्र, अदिति, बृहस्पति, सर्प, पितर, भग, अर्यमा, सूर्य, त्वष्टा, वायु, इन्द्राग्नि, मित्र, इन्द्र, जल, निऋति, विश्वेदेव, विष्णु, वसुगण, वरुण, अजैकपात्, अहिर्बुध्न्य और पूषा–ये क्रमश: अश्विनी आदि नक्षत्रोंके देवता हैं।
प्रतिपदासे लेकर चतुर्दशीपर्यन्त तिथियोंके देवता क्रमश: निम्नलिखित हैं–अग्रि, ब्रह्मा, पार्वती, गणेश, नाग, स्कन्द, सूर्य, महेश, दुर्गा, यम, विश्वदेव, विष्णु, कामदेव और ईश, पूर्णिमाके चन्द्रमा और अमावस्याके देवता पितर हैं।
शिव, दुर्गा, बृहस्पति, विष्णु, ब्रह्मा, लक्ष्मी और कुबेर–ये क्रमशः रविवार आदि वारोंके देवता हैं।
अब मैं ‘लिपिन्यास” का वर्णन करता हूँ॥ २६–३६ई ॥
साधक निम्नलिखित प्रकारसे लिपि (मातृका) न्यास करे–
ॐ अं नमः, केशान्तेषु ॥
ॐ आं नमः, मुखे ।।
ॐ इं नमः, दक्षिणनेत्रे ।।
ॐ ईं नमः, वामनेत्रे ॥
ॐ उं नमः, दक्षिणकर्णे ।।
ॐ ऊं नमः, वामकर्णे ।।
ॐ ऋं नमः, दक्षिणनासापुटे ।।
ॐ ऋ नमः, वामनासापुटे ॥
ॐ लृं नमः, दक्षिणकपोले ॥
ॐ लृं नमः, वामकपोले ॥
ॐ एं नमः, ऊर्ध्वोष्ठे ॥
ॐ ऐं नमः, अधरोष्ठे ॥
ॐ ओं नमः, ऊर्ध्वदन्तपङ्तौ ॥
ॐ औं नमः, अधोदन्तपङ्तौ ॥
ॐ अं नमः, मूर्ध्नि ॥
ॐ अः नमः, मुखवृत्ते ।।
ॐ कं नमः, दक्षिणबाहुमूले ॥
ॐ खं नमः, दक्षिण कूर्परे ॥
ॐ गं नमः, दक्षिणमणिबन्धे ।।
ॐ घं नमः, दक्षिणहस्तांगुलिमूले॥
ॐ ड नमः, दक्षिणहस्तागुंल्यग्रे ॥
ॐ चं नमः, वामबाहुमूले ॥
ॐ छं नमः, वामकूर्परे ॥
ॐ जं नमः, वाममणिबन्धे ॥
ॐ झं नमः, वामहस्तागुंलिमूले ॥
ॐ ञं नमः, वामहस्तागुंल्यग्रे ॥
ॐ ट नमः, दक्षिणपादमूले ।।
ॐ ठं नमः, दक्षिणजानुनि ।।
ॐ डं नमः, दक्षिणगुल्फे ।।
ॐ ढं नमः, दक्षिणपादागुंलिमूले ।।
ॐ णं नमः, दक्षिणपादागुंल्यग्रे ।।
ॐ तं नमः, वामपादमूले ।।
ॐ थं नमः, वामजानुनि ।।
ॐ दं नमः, वामगुल्फे ।।
ॐ धं नमः, वामपादागुंलिमूले ॥
ॐ नं नमः, वामपादागुंल्यग्रे ॥
ॐ पं नमः, दक्षिणपार्श्वे ।।
ॐ फ़ं नमः, वामपार्श्वे ।।
ॐ बं नमः, पृष्ठे ।।
ॐ भं नमः, नाभौ ।।
ॐ मं नमः, उदरे ।।
ॐ यं त्वगात्मने नमः, हृदि ।।
ॐ रं असृगात्मने नमः, दक्षांसे ।।
ॐ लं मांसात्मने नमः, ककुदि ।।
ॐ वं मेदात्मने नमः, वामांसे।
ॐ शं अस्थ्यात्मने नमः, हृदयादि-दक्षहस्तान्तम् ॥
ॐ षं मज्जात्मने नमः, हृदयादिवामहस्तान्तम् ॥
ॐ सं शुक्रात्मने नमः, हृदयादिदक्षपादान्तम् ॥
ॐ हं आत्मने नमः, हृदयादिवामपादान्तम् ।।
ॐ लं परमात्मने नमः, जठरे ।।
ॐ क्षं प्राणात्मने नमः, मुखे ।।
इस प्रकार आदिमें ‘प्रणव‘ और अन्तमें‘नम:” पद जोड़कर लिपीश्वरोंमातृकेश्वरोंका न्यास किया जाता है।॥ ३७–४० ॥
श्रीकण्ठ, अनन्त, सूक्ष्म, त्रिमूर्ति, अमरेश्वर, अर्धीश, भारभूति, तिथीश, स्थाणुक, हर, झिण्टीश, भौतिक, सद्योजात, अनुग्रहेश्वर, अक्रूर तथा महासेन–ये सोलह ‘स्वर–मूर्तिदेवता‘ हैं।
क्रोधीश, चण्डीश, पञ्चान्तक, शिवोत्तम, एकरुद्र, कूर्म, एकनेत्र, चतुरानन, अजेश, सर्वेश, सोमेश, लांगलि, दारुक, अर्द्धनारीश्वर, उमाकान्त, आषाढ़ी, दण्डी अद्रि, मीन, मेष, लोहित, शिखी, छगलाण्ड, द्विरण्ड, महाकाल, कपाली, भुजंगेश, पिनाकी, खड्गीश, बक, श्वेत, भृगु, नकुली, शिव तथा संवर्तक–ये ‘व्यञ्जन–मूर्तिदेवता‘ माने गये हैं II४१-४६ ||
उपर्युक्त श्रीकण्ठ आदि रुद्रोंका उनकी शक्तियों सहित क्रमश: न्यास करे।
(श्रीविद्यार्णवतन्त्र में इनकी शक्तियोंके नाम इस प्रकार दिये गये हैं–
पूर्णोदरी, विरजा, शाल्मली, लोलाक्षी, वर्तुलाक्षी, दीर्घघोणा, सुदीर्घमुखी, गोमुखी, दीर्घजिह्मा, कुण्डोदरी, ऊर्ध्वकेशी, विकृतमुखी, ज्वालामुखी, उल्कामुखी, श्रामुखी तथा विद्यामुखी–ये रुद्रोंकी ‘स्वर–शक्तियाँ” हैं।
महाकाली, महासरस्वती, सर्वसिद्धि, गौरी, त्रैलोक्यविद्या, मन्त्रशक्ति, आत्मशक्ति, भूतमाता, लम्बोदरी, द्रावणी, नागरी, खेचरी, मञ्जरी,रूपिणी, वीरिणी, काकोदरी, पूतना, भद्रकाली, योगनी, शंखिनी, गर्जिनी, कालरात्री, कूर्दिनी, कपर्दिनी, वज्रिका, जया, सुमुखी, रेवती, माधवी, वारुणी, वायवी, रक्षोविदारिणी, सहजा, लक्ष्मी, व्यापिनी और महामाया—ये ‘व्यञ्जनस्वरूपा रुद्रशक्तियाँ‘ कही गयी हैं।)
इनके न्यासकी विधि इस प्रकार है–
‘हसौं अं श्रीकण्ठाय पूर्णोदयैं नमः॥
हसौं आं अनन्ताय विरजायै नमः ॥ इत्यादि।
इसी तरह अन्य स्वरशक्तिकयोंका न्यास करना चाहिये
व्यञ्जनशक्तियोंके न्यासके लिये यही विधि है। यथा–
‘हसौं कं क्रोधीशाय महाकाल्यै नमः ।
हसौं खं चण्डीशाय महासरस्वत्यै नमः ।” इत्यादि।
साधकको चाहिये कि उदयादि अङ्गोका भी न्यास कोरे; क्योकि सम्पूर्ण मन्त्र साङ्ग होनेपर ही सिद्धिदायक होते हैं।
हल्लेखाकों व्योम–बीजसे युक्त करके इन अङ्गोका न्यास करना चाहिये।
हृदयादि अङ्ग मन्त्रोंको अन्तमें जोड़कर बोलना चाहिये । यथा–
ह्रां हृदयाय नम:।
ह्रीं शिरसे स्वाहा।
ह्रूं शिखायै वषट्।
ह्रें कवचाय हुम्।
ह्रों नेत्रत्रराय वौषट्।
ह्रुं अस्त्राय फट्।
यह ‘पडङ्गन्यास” कहा गया है। पञ्चाङ्गन्यासमें नेत्रको छोड़ दिया जाता है।
निरङ्ग–मन्त्रका उसके स्वरूपसे ही अङ्गन्यास करके क्रमश: वागीश्वरी देवी (ह्रीं)-का एक लाख जप करे तथा यथोक्त (दशांश) तिलोंकी आहुति दे।
लिपियोंकी अधिष्ठात्री देवी वागीश्वरी अपने चार हाथोंमें अक्षमाला, कलश, पुस्तक और कमल धारण करती हैं। कवित्व आदिकी शक्ति प्रदान करती हैं। इसलिये जपकर्मके आदिमें सिद्धिके लिये उनका न्यास करे। इससे अकवि भी निर्मल कवि होता है।
मातृका–न्याससे सभी मन्त्र सिद्ध होते हैं॥ ४७–५१ ॥
अध्याय – २९४ नाग-लक्षण*
अग्निदेव कहते हैं– वसिष्ठ! अब मैं नागोंकी उत्पति, सर्पदंशमें अशुभ नक्षत्र आदि, सर्पदंशके विविध भेद, दंशके स्थान, मर्मस्थल, सूतक और सर्पदष्ट मनुष्यकी चेष्टा-इन सात लक्षणोंको कहता हूँ॥ १ ॥
शेष, वासुकि, तक्षक, ककॉटक, पद्म, महापद्म, शंखपाल एवं कुलिक-ये आठ नागोंमें श्रेष्ठ हैं।
इन नागोंमेंसे दो नाग ब्राह्मण, दो क्षत्रिय, दो वैश्य और दो शूद्र कहे गये हैं*। ये चार वर्णोंके नाग क्रमश: दस सौ, आठ सौ, पाँच सौ और तीन सौ फणोंसे युक्त हैं। इनके वंशज पाँच सौ नाग हैं। उनसे असंख्य नागोंकी उत्पत्ति हुई है।
आकारभेदसे सर्प फणी, मण्डली और राजिलतीन प्रकार के माने जाते हैं। ये वात, पित्त और कफप्रधान हैं।
इनके अतिरिक्त व्यन्तर, दोषमिश्र तथा दर्वीकर जातिवाले सर्प भी होते हैं। ये चक्र, हल, छत्र, स्वस्तिक और अङ्कुशके चिहोंसे युक्त होते हैं।
गोनस सर्प विविध मण्डलोंसे चित्रित, दीर्घकाय और मन्दगामी होते हैं।
राजिल सर्प स्निग्ध तथा ऊध्र्वभाग और पाशवभाग में रेखाओंसे सुशोभित होते हैं।
व्यन्तर सर्प मिश्रित चिहोंसे युक्त होते हैं। इनके पार्थिव, आप्य (जलसम्बन्धी), आग्रेय और वायव्य-ये चार मुख्य भेद और छब्बीस अवान्तर भेद हैं। गोनस सर्पोके सोलह, राजिलजातीय सर्पोके तेरह और व्यन्तर सर्पोके इक्कीस भेद हैं।
सर्पोकी उत्पति के लिये जो काल बताया गया है, उससे भिन्न कालमें जो सर्प उत्पन्न होते हैं, वे ‘व्यन्तर’ माने गये हैं।
आषाढ्से लेकर तीन मासोंतक सर्पोकी गर्भस्थिति होती है। गर्भस्थितिके चार मास व्यतीत होनेपर (सर्पिणी) दो सौ चालीस अंड़े प्रसव करती है। सर्प-शावक के उन अंडोंसे बाहर निकलते ही उनमें स्त्री, पुरुष और नपुंसक के लक्षण प्रकट होनेसे पूर्व ही प्राय: सर्पगण उनको खा जाते हैं।
कृष्णसर्प आंख खुलनेपर एक सप्ताहमें अंडेसे बाहर आता है। उसमें बारह दिनोंके बाद ज्ञानका उदय होता है। बीस दिनोंके बाद सूर्यदर्शन होनेपर उसके बतीस दाँत और चार दाढ़ें निकल आती हैं।
सर्पकी कराली, मकरी, कालरात्रि और यमदूतिका-ये चार विषयुक्त दाढ़ें होती हैं। ये उसके वाम और दक्षिण पार्श्वमें स्थित होती हैं। सर्प छः महीनेके बाद केंचुलको छोड़ता है और एक सौ बीस वर्षतक जीवित रहता है।
शेष आदि सात नाग क्रमश: रवि आदि वारोंके स्वामी माने गये हैं। वे वारेश दिन तथा रात्रिमें भी रहते हैं। (दिनके सात भाग करने पर पहला भाग वारेश का होता है। शेष छ: भागोंका अन्य छ: नाग क्रमश: उपभोग करते हैं।)
शेष आदि सात नाग अपने-अपने वारोंमें उदित होते हैं, किंतु कुलिकका उदय सबके संधिकालमें होता है। अथवा महापद्म और शङ्खपालके साथ कुलिकका उदय माना जाता है।
मतान्तरके अनुसार महापद्म और शङ्कपालके मध्यकी दो घड़ियोंमें कुलिक का उदय होता है। कुलिकोदयका समय सभी कार्योंमें दोषयुक्त माना गया है। सर्पदंशमें तो वह विशेषत: अशुभ है।
कृतिका, भरणी, स्वाती, मूल, पूर्वाफ़ाल्गुनी, पुर्वाषाढा, पूर्वभाद्रपदा, अश्वनि, विशाखा, आर्द्रा, आश्लेषा, चित्रा, श्रवण, रोहिणी, हस्त नक्षत्र, शनि तथा मङ्गलवार एवं पञ्चमी, अष्टमी, षष्ठी, रिकता-चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी एवं शिवा (तृतीया) तिथि सर्पदंशमें निन्द्य मानी गयी हैं।
पञ्चमी और चतुर्दशी तिथियोंमें सर्पका दंशन विशेषत: निन्दित है।
यदि सर्प चारों संध्याओंके समय, दग्धयोग या दग्धराशिमें डस ले, तो अनिष्टकारक होता है। एक, दो और तीन दशनोंको क्रमशः “दष्ट’, ‘विद्ध” और ‘खण्डित’ कहते हैं।
सर्पका केवल स्पर्श हो, परंतु वह डसे नहीं तो उसे ‘अदंश” कहते हैं। इसमें मनुष्य सुरक्षित रहता है।
इस प्रकार सर्पदंशके चार भेद हुए। इनमें तीन, दो एवं एक दश वेदनाजनक और रकस्राव करनेवाले हैं।
एक पैर और कूर्मके समान आकारवाले दंश मृत्युसे प्रेरित होते हैं। अङ्गोंमें दाह, शरीरमें चींटियोंके रेंगनेका-सा अनुभव, कण्ठशोथ एवं अन्य पीड़ासे युक्त और व्यथाजनक गाँठवाला दंशन विषयुक्त माना जाता है, इनसे भिन्न प्रकारका सर्पदंश विषहीन होता है।
देवमन्दिर, शून्यगृह, वल्मीक (बाँबी), उद्यान, वृक्षके कोटर, दो सड़कों या मागाँकी संधि, शमशान, नदी-सागर-संगम, द्वीप, चतुष्पथ (चौराहा), राजप्रासाद, गृह, कमलवन, पर्वतशिखर, बिलद्वार, जीर्णगृह, दीवाल, शौभाञ्जन, श्लेष्मातक (लिसोडा) वृक्ष, जम्बूवृक्ष, उदुम्बरवृक्ष, वेणुवन (बँसवारी), वटवृक्ष और जीर्ण प्राकार (चहारदीवारी) आदि स्थानोंमें सर्प निवास करते हैं।
इन्द्रिय-छिद्र, मुख, हृदय, कक्ष, जत्रु (ग्रीवामूल), तालु, ललाट, ग्रीवा, सिर, चिबुक, नाभी और चरण – इन अंगोंमें सर्पदंश अशुभ है।
विषचिकित्सक को सर्पदंशकी सूचना देनेवाला दूत यदि हाथोंमें फूल लिये हो, सुन्दर वाणी बोलता हो, उत्तम बुद्धिसे युक्त हो, सर्पदष्ट मनुष्यके समान लिङ्ग एवं जातिका हो, श्वेतवस्त्रधारी हो, निर्मल और पवित्र हो, तो शुभ माना गया है।
इसके विपरीत जो दूत मुख्यद्वारके सिवा दूसरे मार्गसे आया हो, शस्त्रयुक्त एवं प्रमादी हो, भूमिपर दृष्टि गड़ाये हो, गंदा या हो, गद्गदकण्ठसे बोल रहा हो, सूखे काठपर बैठा हो, खिन्न हो तथा जो हाथमें काले तिल लिये हो या लाल रंगके धब्बेसे युक्त वस्त्र धारण किये हो अथवा भीगे वस्त्र पहने हुए हो, जिसके मस्तकके बालोंपर काले और लाल रंगके फ़ूल पड़े हों, अपने कुचोंका मर्दन, नखोंका छेदन या गुदाका स्पर्श कर रहा हो, भूमिको पैरसे खुरच रहा हो, केशोंको नोंच रहा हो या तिनके तोड़ रहा हो, ऐसे दूत दोषयुक्त कहे गये हैं।
इन लक्षणोंमेंसे एक भी हो तो अशुभ है।॥ २-२८ ॥
अपनी और दूतकी यदि इडा अथवा पिङ्गला या दोनों ही नाड़ियाँ चल रही हों, उन दोनोंके इन चिन्होसे डसनेवाले सर्पको क्रमशः स्त्री, पुरूष अथवा नपुंसक जाने। दूत अपने जिस अंगका स्पर्श करे, रोगीके उसी अंगमें सर्पका दंश हुआ जाने। दूतके पैर चञ्चल हों तो अशुभ और यदि स्थिर हों तो शुभ माने गये हैं॥ २९-३०॥
किसी जीवके पार्श्वदेशमें स्थित दूत शुभ और अन्य भागोंमें स्थित अशुभ माना गया है। दूतके निवेदनके समय किसी जीवका आगमन शुभ और गमन अशुभ है। दूतकी वाणी यदि अत्यन्त दोषयुक्त हो अथवा सुस्पष्ट प्रतीत न होती हो तो वह निन्दित कही गयी है। उसके सुस्पष्ट एवं विभक्त वचनोंद्वारा यह ज्ञात होता है कि सर्पका दंशन विषयुक्त है अथवा विषरहित।
दूतके वाक्यके आदि में ‘स्वर’ और ‘कादि” वर्गके भेदसे लिपिके दो प्रकार माने जाते हैं। दूतके वचनसे वाक्यके आरम्भमें स्वर प्रयुक्त हो, तो सर्पदष्ट मनुष्यकी जीवनरक्षा और कादिवर्गीके प्रयुक्त होनेपर अशुभकी आशङ्का होती है।
यह मातृका-विधान है। ‘क’ आदि वर्गोंमें आरम्भके चार अक्षर क्रमशः वायु, अग्नि, इन्द्र और वरुणदेवता-सम्बन्धी होते हैं। कादि वर्गोके पञ्चम अक्षर नपुंसक माने गये हैं।
‘अ’ आदि स्वर हस्व और दीर्घके भेदसे क्रमश: इन्द्र एवं वरुणदेवतासम्बन्धी होते हैं।
दूतके वाक्यारम्भमें वायु और अग्निदैवत्य अक्षर दूषित और ऐन्द्र अक्षर मध्यम फलप्रद हैं।
वरुणदैवत्य वर्ण उत्तम और नपुंसक वर्ण अत्यन्त अशुभ हैं ।॥ ३१-३५॥
विषचिकित्सक के प्रस्थानकालमें मङ्गलमय वचन, मेघ और गजराजकी गर्जना, दक्षिणपार्श्वमें फलयुत वृक्ष हो और वामभागमें किसी पक्षीका कलरव हो रहा हो, तो वह विजय या सफलताका सूचक है। प्रस्थानकालमें गीत आदिके शब्द शुभ होते हैं। दक्षिणभागमें अनर्थसूचक वाणी, चक्रवाकका रुदन-ऐसे लक्षण सिद्धिके सूचक हैं।
पक्षियोंकी अशुभ ध्वनि और छींक-ये कार्यमें असिद्धि प्रदान करते हैं। वेश्या, ब्राह्मण, राजा, कन्या, गौ, हाथी, ढोलक, पताका, दुग्ध, घृत, दही, शंख, जल, छत्र, भेरी, फ़ल, मदिरा, अक्षत, सुवर्ण और चाँदी-ये लक्षण सम्मुख होनेपर कार्यसिद्धिके सूचक हैं।
काष्ठपर अग्रिसे युक्त शिल्पकार, मैले कपडोका बोझ ढोनेवाले पुरूष, गलेमें टंक (पाषाणभेदक शस्त्र) धारण किये हुए मनुष्य, श्रींगाल, गृध्र, उलूक, कौड़ी, तेल, कपाल और निषिद्ध भस्म-ये लक्षण नाशके सूचक हैं।
विषके एक धातुसे दूसरे धातुमें प्रवेश करनेसे विष सम्बन्धी सात रोग होते हैं। विषदंश पहले ललाटमें, ललाटसे नेत्रमें और नेत्रसे मुखमें जाता है। मुखमें प्रविष्ट होनेके बाद वह सम्पूर्ण धमनियोंमें व्याप्त हो जाता है। फिर क्रमश: धातुओंमें प्रवेश करता है।॥ ३६-४१ ॥
दो सौ चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ २९४
अध्याय – २९५ दष्ट-चिकित्सा
अग्रिदेव कहते हैं–वसिष्ठ! अब मैं मन्त्र, ध्यान और ओषधिके द्वारा साँपके द्वारा डैसे हुए मनुष्यकी चिकित्साका वर्णन करता हूँ।
ॐ नमो भगवते नीलकण्ठाय-इस मन्त्रके जपसे विषका नाश होता है*।
घृतके साथ गोबरके रसका पान करे। यह ओषधि साँपके डसे हुए मनुष्यके जीवनकी रक्षा करती है।
विष दो प्रकारके कहे जाते हैं-“जङ्गम’ विष, जो सर्प और मूषक आदि प्राणियोंमें पाया जाता है एवं दूसरा ‘स्थावर’ विष, जिसके अन्तर्गत श्रीङ्गी (सिंगिया) आदि विषाभेद हैं।॥ १-२ ॥
शान्तस्वरसे युक्त ब्रह्मा (क्षौं), लोहित (ह्रीं), तारक (ॐ) और शिव (हौं)-यह चार अक्षरोंका वियति-सम्बन्धी नाममन्त्र हैं*। इसे शब्दमय ताक्ष्र्य (गरूड) माना गया है। ३-४ ॥
ॐ ज्वल महामते हुदयाय नमः, गरुड़ विशाल शिरसे स्वाहा, गरुड शिखायै वषट्, गरुडविषभञ्जन प्रभेदन प्रभेदन वित्रासय वित्रासय विमर्द्दय विमर्द्दय कवचाय हुम्, उग्ररूपधारक सर्वभयंकर भीषय भीषय सर्व दह दह भस्मीकुरू कुरू स्वाहा, नेत्रत्रयाय वौषट् । अप्रतिहतशासनं वं हूं फ़ट् ।
मातृकामय कमल बनावे। उसके आठों दिशाओंमें आठ दल हों।
पूर्वादि दलोंमें दो-दोके क्रमसे समस्त स्वरवर्णोको लिखें।
कवर्गादि सात वर्गोके अन्तिम दो-दो अक्षरोंका भी प्रत्येक दलमें उल्लेख करे। उस कमलके केसर भागकों वर्गके आदि अक्षरोंसे अवरुद्ध करे तथा कर्णिकामें अग्निबीज “रं” लिखे । मन्त्रका साधक उस कमलको हृदयस्थ करके बायें हाथकी हथेलीपर उसका चिन्तन करे। अंगुष्ठ आदिमें वियति-मन्त्रके वर्णोका न्यास करे और उनके द्वारा भेदित कलाओंका भी चिन्तन करे।
तदनन्तर चौकोर ‘भू-पुर’ नामक मण्डल बनावे, जों पीले रंगका हो और चारों ओरसे वज्रद्वारा चिह्नित हो। यह मण्डल इन्द्रदेवताका होता है।
अर्धचन्द्राकार वृत्त जलदेवता-सम्बन्धी है।
कमलका आधा भाग शुक्लवर्णका है। उसके देवता वरुण हैं।
फिर स्वस्तिक-चिह्नसे युक्त त्रिकोणाकार तेजोमय बह्रिदेवताके मण्डलका चिन्तन करे।
वायुदेवताका मण्डल बिन्दुयुक एवं वृताकार है। वह कृष्णमालासे सुशोभित है, ऐसा चिन्तन करे। II ५-८ II
ये चार भूत अङ्गुष्ठ, तर्जनी, मध्यमा और अनामिका-इन चार अँगुलियोंके मध्यपर्वोमें स्थित अपने निवासस्थानोंमें विराजमान हैं और सुवर्णमय नागवाहनसे इनके वासस्थान आवेष्टित हैं। इस प्रकार चिन्तनपूर्वक क्रमश: पृथ्वी आदि तत्वोंका अंगुष्ठ आदिके मध्यपर्वमें न्यास करे। साथ ही वियति-मन्त्र के चार वर्णोको भी क्रमश: उन्होंमें विन्यस्त करे। इन वर्णोकी कान्ति उनके सुन्दर मण्डलोंके समान है। इस प्रकार न्यास करनेके पश्चात् रूपरहित शब्दतन्मात्रमय शिवदेवताके आकाशतत्वका कनिष्ठाके मध्यपर्वमें चिन्तन करके उसके भीतर वेदमन्त्र के प्रथम अक्षरका न्यास करे।
पूर्वोक्त नागोंके नामके आदि अक्षरोंका उनके अपने मण्डलोंमें न्यास करे। पृथ्वी आदि भूतोंके आदि अक्षरोंका अंगुष्ठ आदि अंगुलियोंके अन्तिम पर्वोपर न्यास करे तथा विद्वान् पुरुष गन्धतन्मानादिके गन्धादि गुणसम्बन्धी अक्षरोंका पाँचों अंगुलियोंमें न्यास करे॥ ९-१२ ॥
इस प्रकार न्यास-ध्यानपूर्वक तार्क्ष्य-मन्त्रसे रोगीके हाथका स्पर्शमात्र करके मन्त्रज्ञ विद्वान् उसके स्थावर-जगम दोनों प्रकार के विषोंका नाश कर देता है।
विद्वान् पुरुष पृथ्वीमण्डल आदिमें विन्यस्त वियति-मन्त्रके चारों वर्णोका अपनी श्रेष्ठ दो अँगुलियोंद्वारा शरीरके नाभिस्थानों और पर्वोमें न्यास करे।
तदनन्तर गरुड़के स्वरूपका इस प्रकार ध्यान करे-‘पक्षिराज गरुड दोनों घुटनोंतक सुनहरी आभासे सुशोभित हैं। घुटनोंसे लेकर नाभितक उनकी अंगकान्ति बर्फ़के समान सफ़ेद है। वहाँसे कण्ठतक वे कुडकुमके समान अरुण प्रतीत होते हैं और कण्ठसे केशपर्यन्त उनकी कान्ति असित (श्याम) हैं। वे समूचे ब्रह्माण्डमें व्याप्त हैं। उनका नाम चन्द्र हैं और वे नागमय आभूषणसे विभूषित हैं। उनकी नासिकाका अग्रभाग नीले रंगका है और उनके पंख बड़े विशाल हैं।”
मन्त्रज्ञ विद्वान् अपने-आपको भी गरुडके रूपमें ही चिन्तन करें।
इस तरह गड़स्वरूप मन्त्रप्रयोक्ता पुरुषके वाक्यसे मन्त्र विषपर अपना प्रभाव डालता है।
गरुड़के हाथकी मुट्ठी रोगीके हाथमें स्थित हो तो वह उसके अनुष्ठमें स्थित विषका विनाश कर देती है।
मन्त्रज्ञ पुरुष अपने गरुड़स्वरूप चालनमानसे विष से उत्पन्न होनेवाले मदपर दृष्टि रखते हुए उस विषका स्तम्भन आदि कर सकता है॥ १३-१७ ॥
आकाशसे लेकर भू-बीजपर्यन्त जो पाँच बीज हैं, उन्हें ‘पञ्चाक्षर मन्त्रराज” कहा गया है। (उसका स्वरूप इस प्रकार है-हं, यं, रं, वं, लं।) अत्यन्त विषका स्तम्भन करना हो तो इस मन्त्रके उच्चारणमात्रसे मन्त्रज्ञ पुरुष विषको रोक देता है। यह ‘व्यत्यस्तभूषण” बीजमन्त्र है। अर्थात् इन बीजोंकों उलट-फेरकर बोलना इस मन्त्रके लिये भूषणरूप है। इसको अच्छी तरह साध लिया जाय और इसके आदिमें ‘संप्लव प्लावय प्लावय“-यह वाक्य जोड़ दिया जाय तो मन्त्रप्रयोक्ता पुरुष इसके प्रयोगसे विषका संहार कर सकता है॥ १८-१९ ॥
इस मन्त्रके भलीभाँति जपसे अभिमन्त्रित जलके द्वारा अभिषेक करने मात्र से यह मन्त्र अपने प्रभावद्वारा उस रोगी से डड़ा उठवा सकता हैं, अथवा मन्त्रजपपूर्वक की गयी शंखभेर्यादिकी ध्वनिको सुननेमात्रसे यह प्रयोग रोगीके विषको अवश्य ही दग्ध कर देता है।
यदि भू-बीज ‘ल’ तथा तेजीबीज ‘रं” को उलटकर रखा जाय, अर्थात् “हं, यं, लं, वं, रं”-इस प्रकार मन्त्रका स्वरूप कर दिया जाय तो उसका प्रयोग भी उपर्युक्त फलका साधक होता है। अर्थात् उससे भी विषका दहन हो जाता है।
भू-बीज और वायु-बीजका व्यत्यय करनेसे जो मन्त्र बनता है वह (हं लं रं वं यं) विषका संक्रामक होता है, अर्थात् उसका अन्यत्र संक्रमण करा देता है।
मन्त्र-प्रयोक्ता पुरुष रोगीके समीप बैठा हो या अपने घरमें स्थित हों, यदि गरुड़के स्वरूपका चिन्तन तथा अपने-आपमें भी गरुड़की भावना करके ‘रं वं,”-इन दो ही बीजोंका उच्चारण (जप) करे तो इस कर्मको सफल बना सकता हैं।
गरुड़ और वरुण के मन्दिरमें स्थित होकर उक्त मन्त्रका जप करनेसे मन्त्रज्ञ पुरुष विषका नाश कर देता है।
‘स्वधा” और श्रीके बीजोंसे युक्त करके यदि इस मन्त्रको बोला जाय तो इसे ‘जानुदण्डिमन्त्र’ कहते हैं। इसके जपपूर्वक स्नान और जलपान करनेसे साधक सब प्रकारके विष, ज्वर, रोग और अपमृत्युपर विजय पा लेता है। २०-२४।।
१-पक्षि पक्षि महापक्षि महापक्षिा वि वि स्वाहा ।
२-पक्षि पझि महापक्षि महापक्षि क्षि क्षि स्वाहा ।
-ये दो पक्षिराज गरुड़के मन्त्र हैं। इनके द्वारा अभिमन्त्रण करने अर्थात इनके जपपुर्वक रोगीको झाड़नेसे ये दोनों मन्त्र विषके नाशक होते हैं। २५-२६ ॥
पक्षिराजाय विद्महे पक्षिदेवाय धीमहि तन्नो गरुड़: प्रचोदयात्।”-यह गरुड़-गायत्रीमन्त्र है।॥ २७ ॥
उपर्युक्त दोनों पक्षिराज-मन्त्रोंको ‘रं’ बीजसे आवृत करके उनके पार्श्वभाग में भी ‘रं’ बीज जोड़ दे।
तदनन्तर दन्त, श्री, दण्डि, काल और लाङ्गलीसे उन्हें युक्त कर दे और आदिमें पूर्वोक्त ‘नीलकण्ठ-मन्त्र’ जोड़ दे। इस प्रकार बताये गये मन्त्रका वक्ष:स्थल, कण्ठ और शिखामें न्यास करे।
उक्त दोनों मन्त्रोंका संस्कार करके उन्हें स्तम्भमें अङ्कित करे॥ २८॥ इसके पश्चात् निम्नाङ्कित रूपसे न्यास करे-
‘हर हर स्वाहा हृदयाय नमः । कपर्द्दिने स्वाहा शिरसे स्वाहा। नीलकण्ठाय स्वाहा शिखायै वषट्। कालकूटविषभक्षणाय हुं फट्। कवचाय हुम्।”
इससे भुजाओं तथा कण्ठका स्पर्श करे।
‘कृत्तिवाससे नेत्रत्रयाय वौषट् नीलकण्ठाय स्वाहा अस्त्राय फट्’॥२९॥
जिनके पूर्व आदि मुख क्रमशः श्वेत, पीत, अरुण और श्याम हैं, जो अपने चारों हाथोंमें क्रमशः अभय, वरद, धनुष तथा वासुकि नागको धारण करते हैं, जिनके गलेमें यज्ञोपवीत शोभा पाता है और पार्श्वभाग में गौरीदेवी विराजमान हैं, वे भगवान् रुद्र इस मन्त्रके देवता हैं।
दोनों पैर, दोनों घुटने, गुह्मभाग, नाभि, हृदय, कण्ठ और मस्तक-इन अङ्गोंमें मन्त्रके अक्षरोंका न्यास करके दोनों हाथोंमें अंगुष्ठ आदि अँगुलियोंमें अर्थात् तर्जनीसे लेकर तर्जनीपर्यन्त अंगुलियोंमें मन्त्राक्षरोंका न्यास करके सम्पूर्ण मन्त्रका अंगुष्ठोंमें न्यास करे॥३०-३२ ॥
इस प्रकार ध्यान और न्यास करके शीघ्र ही बँधी हुई शूलमुद्राद्वारा विषका संहार करे।
कनिष्ठा अँगुली ज्येष्ठासे बँध जाय और तीन अन्य अँगुलियाँ फैल जायँ तो ‘शूलमुद्रा’ होती है।
विषका नाश करनेके लिये बायें हाथ का और अन्य कार्यमें दक्षिण हाथ का प्रयोग करना चाहिये ॥३३-३४ ॥
ॐ नमो भगवते नीलकण्ठाय चिः । अमलकण्ठाय चिः । सर्वज्ञकण्ठाय चिः । क्षिप क्षिप ॐ स्वाहा। आमलनीलकण्ठाय नैकसर्पविषापहाय। नमस्ते रूद्र मन्यवे। –
इस मन्त्रको पढ़कर झाड़नेसे विष नष्ट हो जाता है, इसमें संदेह नहीं है।
रोगीके कानमें जप करनेसे अथवा मन्त्र पढ़ते हुए जूतेसे रोगीके पासकी भूमिपर पीटनेसे विष उतर जाता है।
रुद्रविधान करके उसके द्वारा नीलकण्ठ महेश्वरका यजन करे। इससे विष-व्याधिका विनाश हो जाता है। ३५-३६ ॥
दो सौ पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २९५ ॥
अध्याय – २९६ पञ्चाङ्ग-रुद्रविधान
अग्निदेव कहते हैं– वसिष्ठ! अब मैं ‘पञ्चाङ्ग रुद्र-विधान का वर्णन करता हूँ। यह परम उत्तम सब कुछ प्रदान करनेवाला है।
‘शिवसंकल्प” इसका हृदय, ‘पुरुषसूक्त’ शीर्ष ‘अदभ्यः सम्भूत:०'(यजु० ३१।१७) आदि सूक्त शिखा और ‘आशु: शिशान:’ आदि अध्याय इसका कवच है।
शतरुद्रिय-संज्ञक रुद्रके ये पाँच अङ्ग हैं। रुद्रदेवका ध्यान करके इसके पञ्चाङ्गभूत रुद्रोंका क्रमशः जप करे।
‘यज्जाग्रतौं०’ आदि छः ऋचाओंका तथा शिवसंकल्प-सूक्त (यजु० ३४। १-६) इसका हृदय है। इसके शिवसंकल्प ऋषि और त्रिष्टुप् छन्द कहे गये हैं।
‘सहस्रशीर्षा०’ (यजु० ३१)-से प्रारम्भ होनेवाला पुरुषसूक्त इसका शीर्षस्थानीय है। इसके नारायण ऋषि, पुरुष देवता और अनुष्टुप् एवं त्रिष्टुप् छन्द जानने चाहिये।
‘अदभ्यः सम्भूत:०’ आदि सूक्तके उत्तरगामी नर ऋषि हैं। इनमें क्रमशः पहले तीन मन्त्रोंका त्रिष्टुप् छन्द, फिर दो मन्त्रोका अनुष्टुप् छन्द और अन्तिम मन्त्रका त्रिष्टुप छन्द है तथा पुरुष इसके देवता हैं।
‘आशुः शिशानः•’ (यजु०.१७ ।। ३३) आदि सूक्तमें बारह मन्त्रोंके इन्द्र देवता और त्रिष्टुप् छन्द हैं। इन सत्रह ऋचाओंके सूक्तके ऋषि “प्रतिरथ” कहे गये है, किन्तु देवता भिन्न-भिन्न माने गये है । कुछ मन्त्रोंके पुरूवित् देवता है । अवशिष्ट देवतासंबन्धि मन्त्रोंका छन्द अनुष्टुप् कहा गया है।
‘असी यस्ताम्रो०’ (यजु० १६।।६) मन्त्रके पुरुलिङ्गोक्त देवता और पंक्ति छन्द हैं।
‘मर्माणि ते०’ (यजु० १७ ।। ४९) मन्त्रका त्रिष्टुप् छन्द और लिङ्गोक्त देवता हैं।
सम्पूर्ण रुद्राध्यायके परमेष्ठी ऋषि, देवतानम् इत्यादि मन्त्रोंके प्रजापति ऋषि और तीनों ऋचाओंके कुत्स ऋषि है ।
‘मा नो महान्तमुत मा नो०” (यजु र्वेद १६|१५) और “मा नस्तोके 0 (यजु 0 १६ | १६ ) आदि दो मन्त्रोंके एकमात्र उमा तथा अन्य मन्त्रोंके रुद्र और रुद्रगण देवता है ।
सोलह ऋचाओंवाले आद्द अनुवाकके रुद्र देवता है ।
प्रथम मन्त्रका छन्द गायत्री, तीन ऋचाओंका अनुष्टुप और दो मन्त्रोंका जगती छन्द है।
‘नमो हिरण्यवाहवे०’ (यजु० १६।१७) मन्त्रसे लेकर ‘नमो वः किरिकेभ्यः०’ (यजु १६ ।। ४६) तक रुद्रगणकी तीन अशीतियाँ हैं।
रुद्रानुवाकके पाँच ऋचाओंके रुद्र देवता हैं। बीसवीं ऋचा भी रुद्रदेवता-सम्बन्धिनी है।
पहली ऋचाका छन्द बृहती, दूसरीका त्रिजगती, तीसरीका त्रिष्टुप् और शेष तीनका अनुष्टुप छन्द है।
श्रेष्ठ आचरणसे युक्त पुरुष इसका ज्ञान पाकर उत्तम सिद्धिका लाभ करता है।
‘त्रैलोक्य-मोहन’ मन्त्रसे भी विष-व्याधि आदिका विनाश होता है। वह मन्त्र इस प्रकार है-
‘इं श्रीं ह्रीं ह्रूं त्रैलोक्यमोहनाय विष्णवे नमः ॥’
निम्नाङ्कित आनुष्टुभ नृसिंह-मन्त्रसे भी विषव्याधिका विनाश होता है॥ १-१६ ॥
ॐ ह्रं इं उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम्।
नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम्।
‘जो उग्र, वीर, सर्वतोमुखी तेजसे प्रज्वलित, भयंकर तथा मृत्युकी भी मृत्यु होते हुए भी भक्तजनोंके लिये कल्याणस्वरूप हैं, उन महाविष्णु नृसिंहका मैं भजन करता हूँ।
हृदयादि पाँच अङ्गोंके न्याससे युक्त यही मन्त्र समस्त अर्थोंको सिद्ध करनेवाला है।
श्रीविष्णुके द्वादशाक्षर और अष्टाक्षर मन्त्र भी विष-व्याधिका नाश करनेवाले हैं।
कुब्जिका त्रिपुरा गौरी चन्द्रिका विषहारिणी।
– यह प्रसादमन्त्र विषहारक तथा आयु और आरोग्यका वर्धक है।
सूर्य और विनायकके मन्त्र भी विषहारी कहे गये हैं।
इसी तरह समस्त रुद्रमन्त्र भी विषका नाश करनेवाले हैं॥ १८-२१॥
दो सौ छियानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ। २९६ ॥
अध्याय – २९७ विषहारी मन्त्र तथा औषध
अग्निदेव कहते है – वसिष्ठ!
ॐ नमो भगवते रुद्राय च्छिन्द- च्छिन्द विषं ज्वलितपरशुपाणये स्वाहा ।
इस मन्त्रसे और
ॐ नमो भगवते पक्षिरुद्राय दष्टकमुत्थापयोत्थापय, दष्टकं कम्पय कम्पय जल्पय जल्पय सर्पदष्टमुत्थापयोत्थापय लल लल बन्ध बन्ध मोचय मोचय वररुद्र गच्छ गच्छ वध वध त्रुट त्रुट वुक वुक भीषय भीषय मुष्टिना विषं संहर संहर ठ ठ।
-इस ‘पक्षिरुद्र-मन्त्र’ सेसर्पदष्ट मनुष्यको अभिमन्त्रित करनेपर उसके विषका नाश हो जाता है।
ॐ नमो भगवते रुद्र नाशाय विषं स्थावरजंगमं कृतिमाकृत्रिमं विषमुपविषं नाशय नानाविषं दष्टकविषं नाशय धम धम दम दम वम वम मेघान्धकारधारावर्षकर्ष निर्विषीभव संहर संहर गच्छ गच्छ आवेशय आवेशय विषोत्थापनरूपं मन्त्राद् विषधारणम् ‘ॐ क्षिप ॐ क्षिप स्वाहा” ॐ हृां ह्रीं खीं सः ठं द्रौं ह्रीं ठः।।
– यह मन्त्र जप आदिके द्वारा सिद्ध होनेपर सदैव सपाँकी बाँध लेता है।
‘गोपीजनवल्लभाय स्वाहा’-यह मन्त्र सम्पूर्ण अभीष्ट अर्थोको सिद्ध करनेवाला है। इसमें आदिके एक, दो, तीन और चौथा अक्षर बीजके रूपमें होगा। इससे हृदय, सिर, शिखा और कवचका न्यास होगा। फिर ‘कृष्णचक्राय अस्त्राय फट्’ बोलनेसे पञ्चाङ्गन्यासकी क्रिया पूरी होगी।
ॐ नमो भगवते रुद्राय प्रेताधिपतये हुलु हुलु गर्ज गर्ज नागान् भ्रामय भ्रामय मुञ्च मुञ्च मोहय मोहय कट्ट कट्ट आविश आविश सुवर्णपतंग रुद्रौ ज्ञापयति स्वाहा ॥ १-५॥
यह ‘पातालक्षोभ-मन्त्र’ है। इसके द्वारा रोगीकी अभिमन्त्रित करनेसे यह उसके लिये विषनाशक होता है।
दंशक सर्पके डस लेनेपर जलते काष्ठ, तप्त शिला, आगकी ज्वाला अथवा गरम कोकनद (कमल) आदिके द्वारा दंशस्थानको जला दे-सेंक दे; इससे विषका उपशमन होता है।
शिरीषवृक्षके बीज और पुष्प, आकके दूध और बीज एवं सोंठ, मिर्च तथा पीपल-ये पान, लेपन और अञ्जन आदिके द्वारा विषका नाश करते हैं।
शिरीष-पुष्पके रससे भावित सफेद मिर्च पान, नस्य और अञ्जन आदिके द्वारा विषका उपसंहार करती है, इसमें संशय नहीं है।
कड़वी तोरई, वच, हींग तथा शिरीष और आकका दूध, त्रिकटु और मेषाम्भ-इनका नस्य आदिके रूपमें प्रयोग होनेपर ये विषका हरण करते हैं।
अङ्कोल और कड़वी तुम्बीके सर्वाङ्गके चूर्णसे नस्य लेनेसे विषका अपहरण होता हैं।
इन्द्रायण, चित्रक, द्रोण (गूमा), तुलसी, धतूरा और सहा-इनके रसमें त्रिकटुके चूर्णको भिगोकर खानेसे विषका नाश होता है।
कृष्णपक्षकी पश्चमीको लाया हुआ शिरीषका पञ्चाङ्ग विषहारी है।॥ ६-१२॥
दो सौ सतानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २९७॥
अध्याय – २९८ गोनसादि-चिकित्सा
अग्निदेव कहते हैं– वसिष्ठ! अब मैं तुम्हारे सम्मुख गोनस आदि जातिके सर्पोके विषकी चिकित्साका वर्णन करता हूँ, ध्यान देकर सुनो।
ॐ ह्रां ह्रीं अमलपक्षि स्वाहा
-इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित ताम्बूलके प्रयोगसे मन्त्रवेत्ता मण्डली (गोनस) सर्पके विषका हरण करता है।
लहसुन, अङ्कोल, त्रिफला, कूट, वच और त्रिकटु-इनका सर्पविषमें पान करे।
सर्पविषमें स्नुहीदुग्ध, गोदुग्ध, गोदधि और गोमूत्रमें पकाया हुआ गोघृत पान करना चाहिये।
राजिलजातीय सर्पके डस लेनेपर सैन्धवलवण, पीपल, घृत, मधु, गोमयरस और साहीकी आँतका भक्षण करना चाहिये।
सर्पदष्ट मनुष्यको पीपल, शर्करा, दुग्ध, धृत और मधुका पान करना चाहिये।
त्रिकटु, मयूरपिच्छ, विडालकी अस्थि और नेवलेका रोम-इन सबको समान भाग लेकर चूर्ण बना ले। फिर भेड़के दूधमें भिगोकर उसकी धूप देनेसे सभी प्रकारके विषोंका विनाश होता है।
पाठा, निर्गुण्डी और अङ्कोलके पत्रको समान भाग में लेकर तथा सबके समान लहसुन लेकर बनाया हुआ धूप भी विषनाशक है।
अगस्त्यके पत्तोंको कांजीमें पकाकर उसकी भापसे डसे हुए स्थानको सेंका जाय, इससे विष उतर जाता है।॥ १-७ ॥
मूषक सोलह प्रकारके कहे गये हैं। कपासका रस तेलके साथ पान करनेसे ‘मूषक-विष’का नाश होता है।
फलिनी (फलिहारी)-के फूलोंका सोंठ और गुड़के साथ भक्षण करना चाहिये। यह विषरोगनाशक है।
लूताएँ (मकड़ी) बीस प्रकारकी कही गयी हैं। इनके विपकी सावधानीसे चिकित्सा करनी चाहिये।
पद्म, पद्माक, काष्ठ, पाटला, कूट, तगर, नेत्रबाला, खस, चन्दन, निर्गुण्डी, सारिवा और शेलु (लिप्सोडा)-ये लूता-विषहारीगण हैं।
गुञ्जा, निर्गुण्डी और अङ्गोलके पत्र, सोठ, हल्दी, दारुहल्दी, करञ्जकी छाल-इनको पकाकर ‘लूताविष से पीड़ित मनुष्यका पूर्वोक्त ओषधियोंसे युक्त जलके द्वारा सेचन करे॥८-१३॥
अब ‘वृश्चिक-विष का अपहरण करनेवाली ओषधियोंको सुनो।
मञ्जिष्ठा, चन्दन, त्रिकटु तथा शिरीष, कुमुदके पुष्प-इन चारों योगोंको एकत्रित करना चाहिये। ये योग लेप आदि करने पर वृश्चिक-विषका विनाश करते हैं।
‘ॐ नमो भगवते रुद्राय चिवि चिवि च्छिन्द किरि किरि भिन्द भिन्द खङ्गेन च्छेदय च्छेदय शूलेन भेदय भेदय चक्रेण दारय दारय ॐ हूं फट’
इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित अगद (औषध) विषार्त मनुष्यको दे। यह गर्दभ आदिके विषका विनाश करता है।
त्रिफला, खस, नागरमोथा, नेत्रबाला, जटामांसी, पद्मक और चन्दन—इनको बकरीके दूधके साथ पिलानेपर गर्दभ आदिके विर्षोंका नाश होता है।
शिरीषका पञ्चाङ्ग और त्रिकटु गोजरके विषका हरण करता है।
स्त्रुहीदुग्धके साथ सिरसकी छाल “उन्दूरज दर्दुर’ (मेढक)-के विषका शमन करती है।
त्रिकटु और तगरमूल घृतके साथ प्रयुक्त होनेपर ‘मत्स्यविष’का नाश करते हैं।
यवक्षार, त्रिकटु, वच, हींग, बायबिडगं, सैन्धवलवण, तगर, पाठा, अतिबाला और कूट-ये सभी प्रकारके ‘कीट-विषों’का विनाश करते हैं।
मुलहठी, त्रिकटु, गुड और दुग्धका-इनका योग ‘पागल कुत्ते के विषका हरण करता है॥ १४-१७॥
‘ॐ सुभद्रायै नमः, ॐ सुप्रभायै नमः’-यह ओषधि उखाड़नेका मन्त्र है।
भगवान् ब्रह्माने सुप्रभादेवीको आदेश दे रखा है कि मानवगण जो ओषधियाँ बिना विधि-विधानके ग्रहण करते हैं, तुम उन ओषधियोंका प्रभाव ग्रहण करो। इसलिये पहले सुप्रभादेवीको नमस्कार करके ओषधिके चारों ओर मुट्टीसे जौ बिखेरकर पूर्वोक्त मन्त्रका दस बार जप करके ओषधिको नमस्कार करे और कहे-‘तुम ऊर्ध्वनेत्रा हो, मैं तुम्हें उखाड़ता हूँ।’
इस विधिसे ओषधिको उखाड़े और निम्नाङ्कित मन्त्रसे उसका भक्षण करे-
नमः पुरुषसिंहाय नमो गोपालकाय च॥
आत्मनैवाभिजानाति रणे कृष्णः पराजयम्।
अनेन सत्यवाक्येन अगदो मेऽस्तु सिद्धयतु॥
पुरुषसिंह भगवान् गोपालको बारंबार नमस्कार है। युद्धमें अपनी पराजयकी बात श्रीकृष्ण ही जानते हैं-इस सत्य वाक्य के प्रभावसे यह अगद मुझे सिद्धिप्रद हो।
स्थावर विष की औषधि आदि में निम्नलिखित मन्त्रका प्रयोग करना चाहिये-
ॐ नमो वैदूर्यमात्रे तत्र रक्ष रक्ष मां सर्वविषेभ्यो गौरि गान्धारि चाण्डालि मातङ्गिनि स्वाहा हरिमाये।
विषका भक्षण कर लेनेपर पहले वमन कराके विषयुक्त मनुष्यका शीतल जलसे सेचन करे। तदनन्तर उसको मधु और घृत पिलाये और उसके बाद विरेचन कराये ॥ १८-२४ ॥
दो सौ अट्टानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१८ ॥
अध्याय – २९९ बालादिग्रहहर बालतन्त्र
अग्निदेव कहते हैं– वसिष्ठ! अब में बालादि ग्रहोंको शान्त करनेवाले ‘बालतन्त्र’को कहता हूँ।
शिशुको जन्मके दिन ‘पापिनी’ नामवाली ग्रही ग्रहण कर लेती है। उससे आक्रान्त बालकके शरीरमें उद्वेग बना रहता है। वह माँका दूध पीना छोड़ देता है, लार टपकाता है और बारंबार ग्रीवाको घुमाता है। यह सारी चेष्टा पापिनी ग्रहीके कारण से ही होती है।
इसके निवारण के लिये पापिनी ग्रही और मातृकाओंके उद्देश्यसे उनके योग्य विविध भक्ष्य पदार्थ, गन्ध, माल्य, धूप एवं दीपकी यलि प्रदान करे।
पापिनीद्वारा गृहीत शिशुके शरीरमें धातकी, लोध, मजीठ, तालीसपत्र और चन्दनसे लेप करे और गुग्गुलसे धूप दे।
जन्मके दूसरे दिन ‘भौषणी’ ग्रही शिशुको आक्रान्त करती है। उससे आक्रान्त शिशुकी ये चेष्टाएँ होती हैं-वह खाँसी और श्वाससे पीड़ित रहता है तथा अङ्गोंको बारंबार सिकोड़ता है।
ऐसे बालकको बकरीके मूत्र, अपामार्ग और चन्दनके साथ धिसी हुई पिप्पलीका सेवन कराना-अनुलेप लगाना चाहिये।
गोश्रृंग, गोदन्त तथा केशोंकी धूप दे एवं पूर्ववत् बलि प्रदान करे।
तीसरे दिन ‘घण्टाली” नामकी ग्रही बच्चेको ग्रहण करती है। उसके द्वारा गृहीत शिशुकी निम्नलिखित चेष्टाएँ होती हैं। वह बारंबार रुदन करता है, जभाइयाँ लेता है, कोलाहल करता है एवं त्रास, गात्रोद्वेग और अरुचिसे युक्त होता हैं-ऐसे शिशुको केसर, रसाञ्जन, गोदन्त और हस्तिदन्तको बकरीके दूधमें पीसकर लेप लगाये।
नख, राई और बिल्वपत्रसे धूप दे तथा पूर्वोक्त बलि अर्पित करे।
चौथी ग्रही ‘काकोली’ कही गयी है। इससे गृहीत बालक के शरीर में उद्वेग होता है। वह जोर-जोरसे रोता है। मुँहसे गाज निकालता है और चारों दिशाओंमें बारंबार देखता है। इसकी शान्तिके लिये मदिरा और कुल्माष (चना या उड़द)-की बलि दे तथा बालकके गजदन्त, सौंपकी केंचुल और अश्वमूत्रका प्रलेप करे।
तदनन्तर राई, नीमकी पत्ती और भेड़ियेके केशसे धूप दे।
“हंसाधिका’ पाँचवीं ग्रही है। इससे गृहीत शिशु जभाई लेता, ऊपरकी और जोरसे साँस खींचता और मुट्ठी बाँधता हैं। ऐसी ही अन्य चेष्टाएँ भी करता है। ‘हंसाधिका’को पूर्वोक्त बलि दे। इससे गृहीत शिशुके शरीरमें काकडासिंगी, बला, लोध, मैनसिल और तालीसपत्रका अनुलेपन करे।
‘फट्कारी’ छठी ग्रही मानी गयी है। इससे आक्रान्त बालक भयसे चिहुँकता, मोहसे अचेत होता और बहुत रोता है, आहारका त्याग कर देता है और अपने अङ्गोंको बहुत हिलाता-डुलाता है। ‘फट्कारी”के उद्देश्यसे भी पूर्वोक्त बलि प्रदान करे। इससे गृहीत शिशुका राई, गुग्गुल, कूट, गजदन्त और धृतसे धूपन और अनुलेपन करे।
‘मुक्तकेशी’ नामकी ग्रही जन्मके सातवें दिन बालक पर आक्रमण करती है। इससे आक्रान्त बालक दु:खातुर रहता है। उसके शरीरसे सड़नेकी-सी गन्ध आती है। वह जृम्भा, कोलाहल, अत्यधिक रुदन और काससे पीड़ित रहता है। ऐसे बालक को व्याघ्रके नखोंकी धूप देकर बच, गोमय और गोमूत्रसे अनुलिप्त करे।
‘श्रीदण्डी’ नामवाली ग्रही शिशुको आठवें दिन पकड़ती है। इससे ग्रस्त बालक दिशाओंको देखता, जीभ को हिलाता, खाँसता और रोता है। ‘श्रीदण्डी’के उद्देश्यसे पूर्वोत्त पदार्थांकी विविध बलि दे। इससे पीड़ित शिशुको हींग, बच, सफेद सर्षप और लहसुनसे धूपित तथा अनुलिप्त करे।
‘ऊर्ध्वग्रही” नवीं महाग्रही है। इससे ग्रस्त बालक उद्वेग और दीर्घ उच्छवाससे युक्त होता है। वह अपनी दोनों मुट्ठियोंको चबाता है। ऐसे शिशुको लाल चन्दन, कूट, बच और सरसोंसे लेप और वानरके नख एवं रोमसे धूपन करे।
दसवीं ‘रोदनी’ नामकी ग्रही है। इससे गृहीत शिशुकी निम्नलिखित चेष्टाएँ होती हैं। वह सदा रोता है, उसका शरीर नील वर्ण और सुगन्धसे युक्त हो जाता है। ऐसे शिशुको निम्बका धूप और कूट, बच, राई तथा रालका लेपन करे। ‘रोदनी’ ग्रहीके उद्देश्यसे लाजा, कुल्माष, वनमूंग और भातकी बलि दे। इस प्रकार ये धूपदान आदिकी क्रियाएँ शिशुके जन्मके तेरहवें दिन तक की जाती हैं। (शेष तीन दिनोंकी सारी क्रियाएँ दसवें दिनके समान समझनी चाहिये।) ॥ १-१८३ ॥
एक मासके शिशुको ‘पूतना’ नामकी ग्रहीं ग्रहण करती है। उसका स्वरूप शकुनि (पक्षिणीबकी)-का है। इससे पीड़ित बालक कौएके समान कांव-कांव करता, रोता, लंबी सांसे लेता, आंखोंको बारंबार मीचता और मूत्रके समान गन्धसे युक्त होता है। ऐसे बालकको गोमूत्रसे स्नान कराना और गोदन्तसे धूपित करना चाहिये। ‘पूतना”के उद्देश्यसे ग्रामकी दक्षिणदिशामें करञ्जवृक्षके नीचे एक सप्ताहतक प्रतिदिन पीतवस्त्र, रक्तमाल्य, गन्ध, तैल, दीप, त्रिविध पायसान्न, तिल और पूर्वोक्त पदार्थोंकी बलि दे।
दो मासके शिशुको ‘मुकुटा’ नामकी ग्रही ग्रहण करती है। इससे आक्रान्त शिशुका शरीर पीला और ठण्ढा पड़ जाता है। उसको सर्दी होती है, नाक से पानी गिरता है और मुख सूख जाता है। इस ग्रहीके निमित्तपुष्प, गन्ध, वस्त्र, मालपुए, भात और दीपककी बलि प्रदान करे। इससे ग्रस्त बालकको कृष्णागुरू और सुगन्धबाला आदिसे धूपित करे । बालकको तृतीया मासमें गोमुखी ग्रहण करती है । इससे आक्रान्त शिशु बहूत नींद लेता है, बारंबार मलमूत्र करता है और जोर-जोरसे रोता है । गोमुखी को पहले यव, प्रियगुं, कुल्माष, शाक, भात और दुधकी पुर्व दिशामें बलि देनी चाहिये ।
तदन्तर मध्याहकालमें शिशुको पञ्चभंग या पञ्चपत्रसे स्नान कराकर घीसे धूपित करे ।
चतुर्थ मासमें पिंगला नामकी ग्रही बालकको पीडित करती है । इससे गृहीत बालकका शरीर सफ़ेद और दुर्गन्धयुक्त होकर सूखने लगता है । ऐसे शिशुकी मृत्यु अवश्य हो जाती है ।
पांचवी ललना नामकी ग्रही होती है । इससे पीडित शिशुका शरीर शिथिल होता है और मुख सूखने लगता है । उसकी देह पीली पड जाती है और अपानवायुनिकलती है । ललना की शान्तिके लिये दक्षिणदिशामें पूर्वोक्त पदार्थोंकी बलि दे ।
छठी मासमें पंकजा नामकी ग्रही शिशुको पीडित करती है । इससे गृहीत शिशुकी चेष्टायें रूदन और विकृत स्वर् आदि है । पंकजा को भी पूर्वोक्त पदार्थ, भात, पुष्प, गन्ध आदिकी बलि प्रदान करे ।
सातवें महिनेमें निराहार नामकी ग्रही शिशुको ग्रहण करती है। इससे पीड़ित शिशु दुर्गन्ध और दन्तरोगसे युक्त होता है। ‘निराहारा”के निमित्त मिष्ठान और पूर्वोक्त पदार्थोंकी बलि दे।
आठवें मासमें ‘यमुना’ नामवाली ग्रही शिशुपर आक्रमण करती है। इससे पीड़ित शिशुके शरीरमें दाने (फोड़े-फुन्सियाँ) उभर आते हैं और शरीर सूख जाता है। इसकी चिकित्सा नहीं करानी चाहिये।
नवम मासमें ‘कुम्भकर्णी’ नामवाली ग्रहीसे पीड़ित हुआ बालक ज्वर और सर्दीसे कष्ट पाता है तथा बहुत रोता है। ‘कुम्भकणों”के शान्त्यर्थ पूर्वोक्त पदार्थ, कुल्माष (उड़द या चना) आदि पदार्थोंकी ईशानकोणमें बलि दे।
दशम मासमें तापसी ग्रही बालकपर आक्रमण करती है । इससे ग्रस्त बालक आहारका परित्याग कर देता है और आँखें मूंदे रहता है। ‘तापसी”के उद्देश्यसे घण्टा, पताका, पिष्टान आदि पदार्थोंकी बलि प्रदान करें।
ग्यारहवीं ‘राक्षसों’ नामकी ग्रहीं है। इससे गृहीत बालक नेत्ररोगसे पीड़ित होता है। उसकी चिकित्सा व्यर्थ होती है।
बारहवें महीने में ‘चञ्चला” ग्रही शिशुको ग्रहण करती है। इसके द्वारा आक्रान्त बालक दीर्घ निःश्वास और भय आदि चेष्टाओंसे युक्त होता है। इस ग्रहीके शान्त्यर्थ मध्याहके समय पूर्वदिशामें कुल्माष और तिल आदिकी बलि दे॥१९-३२ ॥
द्वितीय वर्षमें ‘यातना’ नामकी ग्रही शिशुको ग्रहण करती है। इससे शिशुकों ‘यातना’ सहनी पड़ती है और उसमें रोदन आदि दोष प्रकट होते हैं। ‘यातना” ग्रहीको तिलके गूदे और पूर्वोत्क पदार्थोंकी बलि दे। स्नान आदि कर्म पूर्ववत् विधिसे करना चाहिये।
तृतीय वर्षमें बालकपर “रोदिनी’ आधिकार करती है। इससे ग्रस्त बालक काँपता और रोता है तथा उसके पेशाबमें रक्त आता है। इसके उद्देश्यसे गुड़, भात, तिलका पूआ और पीसे हुए तिलकी बनी प्रतिमा दे। बालक को तिल्लमिश्रित जलसे स्नान कराकर पञ्चपत्र और राजफलके छिलकेसे धूप दे॥३३-३५ ॥
चतुर्थ वर्षमें ‘चटका’ नामकी राक्षसी शिशुको ग्रहण करती है। उससे ग्रस्त हुए बालक को ज्वर आता है और सारे अङ्गोंमें व्यथा होती है। चटकाको पूर्वोक्त पदार्थ एवं तिल आदिकी बलि दे और बालक को स्नान कराकर उसके लिये धूपन करे।
पञ्चम वर्षमें ‘चञ्चला’ शिशुपरि अधिकार कर लेती है। इससे पीड़ित बालक ज्वर, भय और अङ्ग शैथिल्यसे युक्त होता है। चञ्चलाको भात आदि पदार्थोंकी बलि दे और बालकको काकड़ासिंगीसे धूपित करे। साथ ही पलाश, गूलर, पीपल, बड़ और बिल्वपत्रके जलसे उसका अभिषेक किया जाय।
छठे वर्षमें “धावनीं’ नामकी ग्रही बालक पर आक्रमण करती है। उससे गृहीत बालकका शरीर नीरस होकर सूखने लगता है। उसके अङ्ग-अङ्गमें पीड़ा होती है। इसके उद्देश्यसे सात दिनतक पूर्वोत्क पदार्थोंकी बलि और बालकका भृगराजसे स्नापन और धूपन करे ॥३६-३८ ॥
सप्तम वर्षमें ‘यमुना’ ग्रहीसे पीड़ित बालक सर्दी, मुक्ता तथा अत्यन्त हास एवं रोदनसे युक्त होता है। इस ग्रहीके निमित्त पायस और पूर्वोत पदार्थ आदिकी बलि दे एवं बालकका पूर्ववत् विधिसे स्नापन और धूपन करे।
अष्टम वर्षमें ‘जातबैदा’ नामको ग्रही बालकपर अधिकार करती है। इससे पीड़ित बालक भोजन छोड़ देता है और बहुत रोता है। जातवेदाके निमित्त कृसर (खिचड़ी), मालपूए और दही आदिकी बलि प्रदान करे। बालक को स्नान कराके धूपित भी करे।
नवम वर्षमें ‘काला” नामकी ग्रहीं बालकको पकड़ती है। इससे ग्रस्त बालक अपनी भुजाओंको कंपाता है, गर्जना करता है और भयभीत रहता है। कालाके शान्त्यर्थ कृसर, मालपूए, सत्तू, कुल्माष और पायस (खीर)-की बलि दे।
दसवें वर्षमें कलहंसी बालकको ग्रहण करती है। इससे उसके शरीरमें जलन होती है, अङ्ग दुर्बल हो जाते हैं और वह ज्वरग्रस्त रहता है। इसके निमित्त पाँच दिनतक पूरी, मालपूए, दधि और अन्नकी बलि देनी चाहिये। बालक का निम्बपत्रोंसे धूपन और कूटका अनुलेपन करे।
ग्यारहवें वर्षमें कुमारको ‘देवदूती’ नामकी ग्रही ग्रहण करती है। इससे वह कठोर वचन बोलता है। ‘देवदूती”के उद्देश्यसे पूर्ववत् बलिदान और लेपादिक करे।
बारहवें वर्षमें ‘बलिका’ से आक्रान्त बालक श्वासरोगसे युक्त होता है। इसके निमित्त भी पूर्वोत
विधिसे बलि एवं लेंपादि करे।
तेरहवें वर्षमें वायवी ग्रहीका आक्रमण होता है। इससे पीडित कुमार मुखरोग तथा अंगशैथिल्यसे युक्तहोता है । वायवीको अन्न, गन्ध, माल्य आदिकी बलि दे और बालकको पञ्चपत्रसे स्नान करावे । राई और निम्बपत्रोंसे धूपित करे ।
चौदहवें वर्षमें यक्षिणी बालकपर अधिकार करती है । इससे वह शूल, ज्वर, दाह आदिसे पीडित होता है । यक्षिणीके उद्देश्यसे पूर्वोक्त विविध भक्ष्य-पदार्थोंकी बलि विहित है । इसकी शान्तिके लिये पुर्ववत् स्नान आदि भी करने चाहिये ।
पंद्रहवें वर्षमे बालकको मुण्डीका ग्रहीसे कष्ट प्राप्त होता है । उससे पीडित बालकके सदा रक्तपात होता रहता है । इसकी चिकित्सा नहीं करनी चाहिये ।
सोलहबी वानरी नामकी ग्रही है । इससे पीडित नवयुवक भूमिपर गिरता है और सदा निद्रा तथा जवरसे पीडित रहता है । वानरीको तीन दिनतक पायस आदिकी बलि दे एवम बालकको पूर्ववत् स्नान आदि कर्म कराये।
सत्रहवें वर्षमें ‘गन्धवती” नामकी ग्रही आक्रमण करती है। इससे ग्रस्त बालक के शरीर में उद्वेग बना रहता है और वह जोर-जोरसे रोता इस ग्रहीकी कुल्माष आदिकी बलि दे और पुर्ववत् स्नान, धूपन तथा लेपन आदि कर्म करे।
दिनकी स्वामिनी ग्रही ‘पूतना’ कही जाती है और वर्ष-स्वामिनी ‘सुकुमारी’ ॥ ४८-५० ॥
ॐ नमः सर्वमातृभ्यो बालपीडासंयोगं भुञ्ज भुञ्ज चुट चुट स्फ़ोटय स्फ़ोटय स्फ़ुर स्फ़ुर गृह्र गृह्राक्रन्दयाssक्रन्दय एवम सिद्धरूपो ज्ञापयति| हर हर निर्दोषं कुरू कुरू बालिकां बालं स्त्रियं पुरुषं वा सर्वग्रहाणामुपक्रमात् | चामुण्डे नमो देव्यै ह्रूं ह्रूं ह्रीं अपसर दुष्टग्रहान् ह्रूं तधथा गच्छन्तु गृह्राका:, अन्यत्र पन्थानं रूद्रो ज्ञापयति ॥ ५१-५२ ॥
-इस सर्वकामप्रद मन्त्रका बालग्रहोंके शान्यर्थ प्रयोग करे॥ ५३ ॥
ॐ नमो भगवति चामुण्डे मुञ्च मुञ्च बालं बालिकां वा बलिं गृह्र गृह्र जय जय वस वस॥ ५४ ॥
-इस रक्षाकारी मन्त्रका सर्वत्र बलिदानकर्ममें पाठ किया जाता है।
ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कार्तिकैय, पार्वती, लक्ष्मी एवं मातृकागण ज्वर तथा दाहसे पीड़ित इस कुमारको छोड़ दें और इसकी भी रक्षा करें।
(इस मन्त्रसे भी बालग्रहजनित पीड़ाका निवारण होता है।) ॥ ५५॥
दो सौ निन्नानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २९९॥
अध्याय - ३०० ग्रहबाधा एवं रोगोंको हरनेवाले मन्त्र तथा औषध आदिका कथन
अग्निदेव कहते हैं– वसिष्ठ! अब मैं ग्रहोंके उपहार और मन्त्र आदिका वर्णन करूंगा, जो ग्रहोंको शान्त करनेवाले हैं।
हर्ष, इच्छा, भय और शोकादिसे, प्रकृतिके विरुद्ध तथा अपवित्र भोजनसे और गुरु एवं देवताके कोपसे मनुष्यको पाँच प्रकार के उन्माद होते हैं। वे वातज, कफज, पित्तज, सन्निपातज और आगन्तुक कहे जाते हैं।
भगवान् रुद्रके क्रोधसे अनेक प्रकारके देवादि ग्रह उत्पन्न हुए। वे ग्रह – नदी, तालाब, पोखरे, पर्वत, उपवन, पुल, नदी-संगम, शून्य गृह, बिलद्वार और एकान्तवर्ती इकले वृक्षपर रहते और वहाँ जानेवाले पुरुषोंको पकड़ते हैं। इसके सिवा वे सोयी हुई गर्भवती स्त्रीको, जिसका ऋतुकाल निकट है उस नारीको, नंगी औरतको तथा जो ऋतुस्नान कर रही हो, ऐसी स्त्रीको भी पकड़ते हैं।
मनुष्योंके अपमान, वैर, विध्न, भाग्यमें उलट–फेर इन ग्रहोंसे ही होते हैं।
जो मनुष्य देवता, गुरु, धर्मादि तथा सदाचार आदिका उल्लङ्कन करता है, पर्वत और वृक्ष आदिसे गिरता है, अपने केशोंकी बार-बार नीचता है तथा लाल आँखें किये रुदन और नर्तन करता है, उसको ‘रूप‘- ग्रहविशेषसे पीड़ित जानना चाहिये।
जो मानव उद्वेगयुक्त, दाह और शूलसे पीड़ित, भूख-प्याससे व्याकुल और शिरोरोगसे आतुर होता और ‘मुझे दो, मुझे दो’-यों कहकर याचना करता है, उसे ‘बलिकामी” ग्रहसे पीड़ित जाने।
स्त्री, माला, स्नान और सम्भोगकी इच्छासे युक्त मनुष्यको “रतिकामी” ग्रहसे गृहीत समझना चाहिये ॥ १-८ ॥
व्योमव्यापी, महासुदर्शनमन्त्र, विटपनासिक, पातालनारसिंहादि मन्त्र तथा चंडीमन्त्र-ये ग्रहोंका मर्दन-ग्रहपीड़ाका निवारण करनेवाले हैं*॥ ९॥
(अब ग्रहपीड़ानाशन भगवान् सूर्यकी आराधना बतलाते हैं-)
सूर्यदेव अपने दाहिने हाथोंमें पाश, अङ्कुश, अक्षमाला और कपाल तथा बायें हाथोंमें खटवान्ग, कमल, चक्र और शक्ति धारण करते हैं। उनके चार मुख हैं। वे आठ भुजा और बारह नेत्र धारण करते हैं।
सूर्यमण्डलके भीतर कमल के आसनपर विराजमान हैं और आदित्यादि देवगणोंसे घिरे हुए हैं। इस प्रकार उनका ध्यान और पूजन करके सूर्योदयकालमें उन्हें अर्ध्य दे।
अर्ध्यदानका मन्त्र इस प्रकार है-
श्वास (य),
विष (ओं),
अग्रिमान् रण्डी (र–ओं),
हृल्लेखा (ह्रीं)- ये संकेताक्षर हैं।
यौं रौं ऐं ह्रीं कलशाकार्यभूर्भुव: स्वरों ज्वालिनीकुलमुद्धर । ॥ १०-१२ ॥
ग्रहोंका ध्यान
सूर्यदेव कमलके आसनपर विराजमान हैं। उनकी अङ्गकान्ति अरुण हैं। वे रक्तवस्त्र धारण करते हैं। उनका मण्डल क्योतिर्मय है। वे उदार स्वभावके हैं और दोनों हाथोंमें कमल धारण करते हैं। उनकी प्रकृति सौम्य है तथा सारे अङ्ग दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हैं।
सूर्य आदि सभी ग्रह सौम्य, बलदायक तथा कमलधारी हैं। उन सबका वस्न विद्युत्-पुञ्जके समान प्रकाशमान है।
चन्द्रमा श्वेत, मङ्गल और बुध लाल, बृहस्पति पीतवर्ण, शुक्र शुक्लवर्ण, शनैचर काले कोयलेके
समान कृष्ण तथा राहु और केतु धूमके समान वर्णवाले बताये गये हैं।
इन सबके बायें हाथ बायीं जाँघ पर स्थित हैं और दाहिने हाथमें अभयमुद्रा शोभा पाती है।
ग्रहोंके अपने–अपने नामके आदि अक्षर बिन्दुयुक्त होकर बीजमन्त्र होते हैं।
‘फट्’ का उच्चारण करके दोनों हाथोंका संशोधन करे। फिर अगुष्ठसे लेकर करतलपर्यन्त करन्यास और नेत्ररहित हृदयादि पञ्चाङ्गन्यास करके भानुके मूल बीजस्वरूप तीन अक्षरों (ह्रां, ह्रीं, स:) द्वारा व्यापकन्यास करे। उसका क्रम इस प्रकार है-मूलाधारचक्र से पादाग्रपर्यन्त प्रथम बीजका, कण्ठसे मूलाधारपर्यन्त द्वितीय बीजका और मूर्धासे लेकर कण्ठपर्यन्त तृतीय बीजका न्यास करे। इस प्रकार अङ्गन्याससहित व्यापकन्यासका सम्पादन करके अर्ध्यपात्रकी अस्त्र-मन्त्रसे प्रक्षालित करे और पूर्वोक्त मूलमन्त्रका उच्चारण करके उस पात्रकी जलसे भर दे। फिर उसमें गन्ध, पुष्प, अक्षत और दूर्वा डालकर पुन: उसे अभिमन्त्रित करे। उस अभिमन्त्रित जलसे अपना और पूजाद्रव्यका अवश्य ही प्रोक्षण करे ॥ १३-१९ ॥
तत्पश्चात् योगपीठकी कल्पना करके उस पीठके पायोंके रूपमें ‘प्रभूत‘ आदिकी कल्पना करे। वे क्रमश: इस प्रकार हैं-प्रभूत, विमल, सार, आराध्य और परमसुख।
आग्रेयादि चार कोणोंमें और मध्यभाग में इनके नामके अन्तमें ‘नमः‘ पद जोड़कर इनका आवाहन-पूजन करे।
योगपीठके ऊपर हृदयकमलमें तथा दिशाविदिशाओंमें दीप्ता आदि शक्तियोंकी स्थापना करे।
पीठके ऊपरी भागमें हृदयकमलकी स्थापित करनी चाहिये।
रां दीप्तायै नमः पूर्वस्याम्।
रीं सूक्ष्मायै नमः आग्नेयकेसरे।
रुं जयायै नमः दक्षिणकेसरे।
रें भद्रायै नमः नैऋत्यकेसरे।
रैं विभूत्यै नमः पश्चिमकेसरे।
रौं विमलायै नमः वायव्यकेसरे।
रौं अमोघायै नमः उत्तरकेसरे।
रं विद्युतायै नमः ईशानकेसरे।
रः सर्वतोमुख्यै नमः मध्ये।
-इस प्रकार शक्तियोंकी अर्चना करके
ॐ ब्रह्मविष्णुशिवात्मकाय सौराय योगपीठाय नम:।
– इस मन्त्रसे समस्त पीठकी पूजा करे।
तत्पश्चात् रवि आदि मूर्तियोंका आवाहन करके उन्हें पाद्यादि समर्पित करे और क्रमश: ह्रदादि षडङ्गन्यासपूर्वक पूजन करे।
खं कान्तौ। इत्यादि संकेतसे
खं खखोल्काय नम: ।– यह मन्त्र प्रकट होता है।
इसके उच्चारणपूर्वक आदित्यमूर्ति परिकल्पयामि, रविमूर्ति परिकल्पयामि, भानुमूर्ति परिकल्पयामि, भास्कर्मूर्ति परिकल्पयामि, सुर्यमूर्ति परिकल्पयामि – यों कहना चाहिये।
इन मूर्तियोंके पूजनका मन्त्र इस प्रकार है-
ॐ आदित्याय नमः।
एं रवये नमः ।
ॐ भानवे नमः ।
इं भास्कराय नमः ।
अं सूर्याय नम:।
अग्रिकोण, नैऋत्यकोण, ईशानकोण और वायव्यकोण – इन चार कोणोंमें तथा मध्यमें हृदादि पाँच अङ्गोंकी उनके नाम-मन्त्रोंसे पूजा करनी चाहिये।
वे कर्णिकाके भीतर ही उत्त दिशाओंमें पूजनीय हैं। अस्त्रकी पूजा अपने सामनेकी दिशामें करनी चाहिये।
पूर्वादि दिशाओंमें क्रमश: चन्द्रमा, बुध, गुरु और शुक्र पूजनीय हैं तथा आग्रेय आदि कोणोंमें मङ्गल, शनैचर, राहु और केतुकी पूजा करनी चाहिये ॥२०-२५ ॥
पृश्निपणी, हींग, बच, चक्र (पित्तपापड़ा), शिरीष, लहसुन और आमय-इन ओषधियोंको बकरके मूत्रमें पीसकर अञ्जन और नस्य तैयार कर ले। उस अञ्जन और नम्यके रुपमें उत्त औषधौंका उपयोग किया जाय तो वे ग्रह–बाधक निवारण करनेवाले होते हैं।
पाठा, पथ्या (हरें), वचा, शिग्रु (सहिजन), सिन्धु (सेंधा नमक), व्यौष (त्रिकटु)- इन औषधोको पृथक्-पृथक् एक-एक पल लेकर उन्हें बकरीके एक आढ़क दूधमें पका ले और उस दूधसे घी निकाल ले। वह घी समस्त ग्रहबाधाओंको हर लेता है।
वृश्चिकाली (बिच्छूघास), फला, कूट, सभी तरहके नमक तथा शाङ्गक-इनको जलमें पका ले। उस जलका अपस्मार रोग (मिरगी)-के विनाशके लिये उपयोग करे।
विदारीकंद, कुश, काश तथा ईखके क्वाथसे सिद्ध किया हुआ दूध रोगीको पिलाये।
जेठीमधु और भथएके एक दोन रसमें घीको पकाकर दे। अथवा पश्चगव्य घीका उस रोगमें प्रयोग करे।
अब ज्वर–निवारक उपाय सुनो–॥ २६–३० ॥
ज्वर-गायत्री
ॐ भस्मास्त्राय विद्महे। एकदंष्ट्राय धीमहि। तन्नो ज्वरः प्रचोदयात् ॥ ३१ ॥
(इस मन्त्रके जपसे ज्वर दूर होता है।)
श्वास (दमा)-का रोगी –
कृष्णोषण (काली मिर्च), हल्दी, रास्ना, द्राक्षा और तिलका तैल एवं गुड़का आस्वादन करे।
अथवा
वह रोगी जेठीमधु (मुलहठी) और घीके साथ भार्गीका सेवन करे
या
पाठा, तिक्ता (कुटकी), कर्णा (पिप्पली) तथा भार्गीको मधुके साथ चाटे ।
धात्री (आँवला), विश्वा (सोंठ), सिता (मिश्री), कृष्णा (पिप्पली), मुस्ता (नागरमोथा), खजूर मागधी (खजूर और पीपल’*) तथा पीवरा (शतावर)-ये औषध हिक्का (हिचकी) दूर करनेवाले हैं।
उपर्युक्त तीनों योग मधुके साथ लेने चाहिये।
कामलरोगसे ग्रस्त मनुष्यको जीरा, माण्डूकपर्णी, हल्दी और आँवलेका रस पिलाना चाहिये।
त्रिकटु, पद्मकाष्ठ, त्रिफला, वायविडङ्ग, देवदारु तथा रास्ना-इन सबको सममात्रामें लेकर चूर्ण बना ले और खाँड मिलाकर उसे खाये। इस औषधसे अवश्य ही खाँसी दूर हो जाती है। ॥३२-३५॥
तीन साँवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३०० ॥