- तीन साँ एकवर्ण आध्याय ॥ ३०१ ॥
- अध्याय – ३०२ नाना प्रकार के मन्त्र और औषधोंका वर्णन
- अध्याय – ३०३ अष्टाक्षर मन्त्र तथा उसकी न्यासादि विधि
- अध्याय – ३०४ पश्चाक्षर-दीक्षा-विधान; पूजाके मन्त्र
- अध्याय - ३०५ पचपन विष्णुनाम
- अध्याय – ३०६ श्रीनरसिंह आदिके मन्त्र
- अध्याय – ३०७ त्रैलोक्यमोहन आदि मन्त्र
- अध्याय – ३०८ त्रैलोक्यमोहिनी लक्ष्मी एवं भगवती दुर्गाके मन्त्रोंका कथन
- अध्याय – ३०९ त्वरिता-पूजा
- अध्याय – ३१० अपरत्वरिता-मन्त्र एवं मुद्रा आदिका वर्णन
- अध्याय – ३११ त्वरिता-मन्त्र के दीक्षा-ग्रहण की विधि
- अध्याय – ३१२ त्वरिता-विद्यासे प्राप्त होनेवाली सिद्धियोंका वर्णन
- अध्याय – ३१३ नाना मन्त्रोका वर्णन
- अध्याय – ३१४ त्वरिताके पूजन तथा प्रयोग का विज्ञान
- अध्याय – ३१५ स्तम्भन आदिके मन्त्रोंका कथन
- अध्याय – ३१६ त्वरिता आदि विविध मन्त्र एवं कुब्जिका-विद्याका कथन
- अध्याय – ३१७ सकलादि मन्त्रोंके उद्धारका क्रम
- अध्याय – ३१८ अन्त:स्थ, कण्ठोष्ठ तथा शिवस्वरूप मन्त्रका वर्णन; अघोरास्त्र-मन्त्रका उद्धार; 'विघ्नमर्द' नामक मण्डल तथा गणपति-पूजनकी विधि
- अध्याय -३१९ वागीश्वरीकी पूजा एवं मन्त्र आदि
- अध्याय – ३२० सर्वतोभद्र आदि मण्डलोंका वर्णन
- अध्याय – ३२१ अघोरास्त्र आदि शान्ति-विधानका कथन
- अध्याय - ३२२ पाशुपतास्त्र-मन्त्रद्वारा शान्तिका कथन
- अध्याय – ३२३ गङ्गा–मन्त्र, शिवमन्त्रराज, चण्डकपालिनी-मन्त्र, क्षेत्रपाल-बीजमन्त्र, सिद्धिविधा, महामृत्युंजय, मृतसंजीवनी, ईशानादि मन्त्र तथा इनके छ: अङ्ग एवम अघोरास्त्रका कथन
- अध्याय – ३२४ कल्पाघोर रुद्रशान्ति
- अध्याय – ३२५ रुद्राक्ष-धारण, मन्त्रोंकी सिद्धादि संज्ञा तथा अंश आदिका विचार
- अध्याय – ३२६ गौरी आदि देवियों तथा मृत्यंजयकी पूजाका विधान
- अध्याय – ३२७ विभिन्न कर्मोमें उपयुक्त माला, अनेकानेक मन्त्र, लिङ्ग-पूजा तथा देवालयकी महत्ताका विचार
- अध्याय – ३२८ छन्दोंके गण और गुरु-लघुकी व्यवस्था
- अध्याय – ३२९ गायत्री आदि छन्दोंका वर्णन
- अध्याय – ३३० “गायत्री” से लेकर “जगती” तक छन्दोंके भेद तथा उनके देवता, स्वर, वर्णं और गोत्रका वर्णन
- अध्याय – ३३१ उत्कृति आदि छन्द, गण-छन्द और मात्रा-छन्दोका निरूपण
- अध्याय – ३३२ विषमवृत्तका वर्णन
- अध्याय ३३३ अर्धसमवृत्तोंका वर्णन
- अध्याय ३३४ समवृत्तका वर्णन
- अध्याय – ३३५ प्रस्तार-निरूपणा
- अध्याय – ३३६ शिक्षानिरूपण
- अध्याय – ३३७ काव्य आदिके लक्षण
- अध्याय – ३३८ नाटक-निरुपण
- अध्याय – ३३९ श्रृङ्गारादि रस, भाव तथा नायक आदिका निरूपण
- अध्याय – ३४० रीति-निरूपणा
- अध्याय – ३४१ नृत्य आदिमें उपयोगी आङ्गिक कर्म
- अध्याय – ३४२ अभिनय और अलंकारोंका निरूपण
- अध्याय – ३४३ शब्दालंकारोंका विवरण
- अध्याय – ३४४ अर्थालंकार निरूपण
- अध्याय – ३४५ शब्दार्थोंभियालंकार
- अध्याय – ३४६ काव्यगुण-विवेक
- अध्याय – ३४७ काव्यदोष-विवेक
- अध्याय – ३४८ एकाक्षरकोष
- अध्याय – ३४९ व्याकरण-सार
- अध्याय – ३५० “संधि” के सिद्ध रूप
अग्निपुराण
तीन साँ एकवर्ण आध्याय ॥ ३०१ ॥
अध्याय – ३०२ नाना प्रकार के मन्त्र और औषधोंका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं– “ऐं कुलजे ऐं सरस्वति स्वाहा“-यह ग्यारह अक्षरोंका मन्त्र मुख्य “सरस्वतीविद्या‘ है।
जो क्षारलवणसे रहित आहार ग्रहण करते हुए मन्त्रोंकी अक्षरसंख्याके अनुसार उतने लाख मन्त्रका जप करता है, वह बुद्धिमान् होता है।
अत्रि (द्), अग्नि (र), वामनेत्र (ई) तथा बिन्दु (. ) ‘द्रीं‘-यह मन्त्र महान् विद्रावणकारी (शत्रुको मार भगानेवाला) है।
व्रज और कमल धारण करनेवाले पीत वर्णवाले इन्द्रका आवाहन करके उनकी पूजा करे और घी तथा तिलकी एक लाख आहुतियाँ दे।
फिर तिलमिश्रित जलसे इन्द्रदेवताका अभिषेक करे। ऐसा करनेसे राजा आदि अपने छीने गये राज्य आदि तथा राजपुत्र आदि (मनोवाञ्छित वस्तुओं)-को पा सकते हैं।
हल्लेखा (ह्रीं)- यह ‘शक्तिदेवा‘ नामसे प्रसिद्ध है। इसका उद्धार यों हैं-घोष (ह), अग्नि (र), दण्डी (ई), दण्ड (.’) ‘ह्रीं“।
शिवा और शिवका पूजन करके शक्तिमन्त्र (ह्रीं)-का जप करे। अष्टमीसे लेकर चतुर्दशीतक आराधनामें संलग्र रहे। हाथोंमें चक्र, पाश, अडकुष एवम अभयकी मुद्रा धारण करनेवाली देवी की आराधना करके होम आदि करनेपर उपासक को सौभाग्य एवं कवित्वशक्तिकी प्राप्ति होती है तथा वह पुत्रवान् होता है। १-५॥
ॐ ह्रीं ॐ नमः कामाय सर्वजनहिताय सर्वजनमोहनाय प्रज्वलिताय सर्वजनहृदयं ममाऽऽत्मगतं कुरु कुरु ॐ ॥
-इसके जप आदि करनेसे यह मन्त्र सम्पूर्ण जगत् को अपने वशमें कर सकता है। ६-७ ॥
ॐ ह्रीं चामुण्डे अमुकं दह दह पच पच मम वशमानयानय स्वाहा ॐ।
यह चामुण्डाका वशीकरणमन्त्र कहा गया है।
स्त्रीकी चाहिये कि वशीकरणके प्रयोगकालमें त्रिफलाके ठंड़े पानीसे अपनी योनिको धोये । अश्वगन्धा, यवक्षार, हल्दी और कपूर आदिसे भी स्त्री अपनी योनिका प्रक्षालन कर सकती है।
पिप्पलीके आठ तन्दुल, कालीमिर्चके बीस दाने और भटकटैयाके रसका योनिमें लेप करनेसे उस स्त्रीका पति आमरण उसके वशमें रहता है।
कटीरमूल, त्रिकटु (सोंठ, मिर्च और पीपल)-का लेप भी उसी तरह लाभदायक होता है।
हिम, कैथका रस, मागधीपिप्पली, मुलहठी और मधु-इनके लेपका प्रयोग दम्पतिके लिये कल्याणकारी होता है।
शक्कर मिला हुआ कदम्ब-रस और मधु-इसका योनिमें लेप करनेसे भी वशीकरण होता है।
सहदेई, महालक्ष्मी, पुत्रजीवी, कृताञ्जलि (लज्जावती)-इन सबका चूर्ण बनाकर सिरपर डाला जाय तो इहलोकके लिये उत्तम वशीकरणका साधन है।
त्रिफला और चन्दनका काथ एक प्रस्थ अलग हो और दो कुडव अलग हो, भैंगरैया तथा नागकेसरका रस हो, उतनी ही हल्दी, क्षम्बुक, मधु, घीमें पकायी हुई हल्दी और सूखी हल्दीइन सबका लेप करे तथा बिदारीकंद और जटामांसीके चूर्णमें चीनी मिलाकर उसको खूब मथ दे। फिर दूधके साथ प्रतिदिन पीये। ऐसा करनेवाला पुरुष सैकड़ों स्त्रियोंके साथ सहवासकी शक्ति प्राप्त कर लेता है।॥ ८-१६ ॥
गुप्ता, उड़द, तिल, चावल-इन सबका चूर्ण बनाकर दूध और मिश्री मिलाये। पीपल, बाँस और कुशकी जड़, ‘वैष्णवी’ और ‘श्री’ नामक ओषधियोंकी जड़ तथा दूर्वा और अश्वगन्धाका मूल-इन सबको पुत्रकी इच्छा रखनेवाली नारी दूधके साथ पीये।
कौन्ती, लक्ष्मी, शिवा और धात्री (ऑवलेका बीज), लोध्र और वटके अङ्करको स्त्री ऋतुकालमें घी और दूधके साथ पीये। इससे उसको पुत्रकी प्राप्ति होती है।
पुत्रार्थिनी नारी ‘श्री’ नामक ओषधिकी जड़ और वटके अन्कुरको दूधके साथ पीये।
श्री, वटङ्कर और देवी-इनके रसक नस्य ले और पीये भी।
‘श्री’ और ‘कमल’ की जड़को, अश्वत्थ और उत्तरके मूलको दूधके साथ पीये।
कपासके फल और पल्लवको दूधमें पीसकर तरल बनाकर पीये।
अपामार्गके नूतन पुष्पाग्रको भैंसके दूधके साथ पीये।
उपर्युक्त साढ़े पाँच श्लोकोंमें पुत्रप्राप्तिके चार योग बताये गये हैं॥ १७-२१३ ॥
यदि स्त्रीका गर्भ गलित हो जाता हो तो उसे शक्कर, कमलके फ़ूल, कमलगट्टा, लोध, चन्दन और सारिवालता-इनको चावलके पानीमें पीसकर दे
या
लाजा, यष्टि (मुलहठी), सिता (मिश्री), द्राक्षा, मधु और धी-इन सबका अवलेह बनाकर वह स्त्री चाटे ॥ २२-२३ ॥
आटरूप (अडूसा), कलाङ्गली, काकमाची, शिफा (जटामासी) -इन सबको नाभिके नीचे पीसकर छाप दे तो स्त्री सुखपूर्वक प्रसव कर सकती हैं। ॥ २४ ॥
लाल और सफ़ेद जवाकुसुम, लाल चीता और हींगपत्री पीये। केसर, भटकटैयाकी जड़, गोपी, षष्ठी (साठीका तृण) और उत्पल-इनको बकरीके दूधमें पीसकर तैल मिलाकर खाय तो सिरमें बाल उगते हैं।
अगर सिरके बाल झड़ रहे हों तो यह उनको रोकनेका उपाय है।॥ २५-२६ ॥ आंवला और भगौरैयाका एक सेर तैल, एक आढ़क दूध, षष्ठी और अञ्जज्ञनका एक पल तैल-ये सब सिरके बाल, नेत्र और सिरके लिये हितकारक होते हैं। २७ ॥
हल्दी, राजवृक्षकी छाल, चिञ्चा (इमलीका बीज), नमक, लोध और पीली खारी-ये गौओंके पेट फूलनेकी बीमारीको तत्काल रोक देते हैं। २८ ॥
ॐ नमो भगवते त्र्यम्बकायोपशमयोपशमय चुलु चुलु मिलि मिलि भिदि भिदि गोमानिनि चक्रिणि ह्रूं फट्। अस्मिन् ग्रामे गोकुलस्य रक्षां कुरु शान्तिं कुरु कुरु कुरु ठ ठ ठ॥ २९-३०॥
यह गोसमुदायकी रक्षाका मन्त्र है।
‘घण्टाकर्ण महासेन वीर बड़े बलवान् कहे गये हैं। वे जगदीश्वर महामारीका नाश करनेवाले हैं, अत: मेरी रक्षा करें।’ ये दोनों श्लोक और मन्त्र गोरक्षक हैं, इनको लिखकर घर पर टाँग देना
चाहिये ॥ ३१ ॥
तीन सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ। ३०२ ॥
अध्याय – ३०३ अष्टाक्षर मन्त्र तथा उसकी न्यासादि विधि
जब चन्द्रमा जन्म-नक्षत्रपर हों और सूर्य सातवीं राशिपर हो तो उसे ‘पूषाका काल’ समझना चाहिये। उस समय चासकी परीक्षा करे।
जिसके कण्ठ और ओष्ठ अपने स्थानसे चलित हो रहे हों, जिसकी नाक टेढ़ी हो गयी और जीभ काली पड़ गयी हो, उसका जीवन अधिक-से- अधिक सात दिन और रह सकता है॥ १-२ ॥
तार (ॐ), मेष (न), विष (म), दन्ती (ओ), दीर्घस्वरयुक्त ‘न’ तथा ‘र’ (ना रा), ‘य णा’, रस (य)-यह भगवान् विष्णुका आटाक्षर मन्त्र( ॐ नमो नारायणाय) है।*
इसका अङ्गन्यास इस प्रकार है-
क्रुद्धोल्काय स्वाहा हृदयाय नमः।
महोल्काय स्वाहा शिरसे स्वाहा।
वीरोल्काय स्वाहा शिखायै वषट्।
द्युल्काय स्वाहा कवचाय हुम्।
सहस्रोल्काय स्वाहा अस्त्राय फट्।
-इन मन्त्रोको क्रमशः पढ़ते हुए हृदय, सिर, शिखा, दोनों भुजा तथा सम्पूर्ण दिग्भागमें न्यास करे॥३॥
कनिष्ठासे लेकर कनिष्ठातक आठ अंगुलियोंके तीनों पर्वोमें आटाक्षर मन्त्रके पृथक्-पृथक् आठ अक्षरोंको ‘प्रणव’ तथा ‘नमः’ से सम्पुटित करके बोलते हुए अंगुष्ठके अग्रभागसे उनका क्रमश: न्यास करे।
तर्जनीमें, मध्यमासे युक्त अगुष्ठमें, करतलमें तथा पुनः अगुष्ठमें प्रणवका न्यास ‘उत्तार‘ कहलाता है।
पूर्वोक्त न्यासके पश्चात् ‘बीजोंत्तारन्यास‘ करे।
अष्टाक्षर मन्त्र के वर्णोका रंग यों समझे-आदिके पाँच अक्षर क्रमश: रक्त, गौर, धूम्र, हरित और सुवर्णमय कान्तिवाले हैं तथा अन्तिम तीन वर्ण श्वेत हैं।
इस रूप में इन वर्णोकी भावना करके इनका क्रमश: न्यास करना चाहिये।
न्यासके स्थान हैं- हृदय, मुख, नैत्र, मूर्धा, चरण, तालु, गुह्य तथा हस्त आदि॥ ४-७॥
हाथोंमें और अङ्गोंमें बीजन्यास करके फिर अङ्गन्यास करे। जैसे अपने शरीरमें न्यास किया जाता है, उसी तरह देवविग्रह में भी करना चाहिये। किंतु देवशरीरमें करन्यास नहीं किया जाता है।
देवविग्रहके हृदयादि अङ्गोंमें विन्यस्त वर्णोका गन्ध-पुष्पोंद्वारा पूजन करे। देवपीठपर धर्म आदि, अग्नि आदि तथा अधर्म आदिका भी यथास्थान न्यास करे। फिर उसपर कमलका भी न्यास करना चाहिये ॥ ८-९ ॥
पीठपर ही कमलके दल, केसर, किञ्जल्कका व्यापक सूर्यमण्डल, चन्द्रमण्डल तथा अग्निमण्डल-इन तीन मण्डलोका पृथक्-पृथक् क्रमशः न्यास करे।
वहाँ सत्व आदि तीन गुणोंका तथा केसरोंमें स्थित विमला आदि शक्तियोंका भी चिन्तन करें। उनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं-विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्री, सत्या तथा ईशाना। ये आठ शक्तियाँ आठ दिशाओंमें स्थित हैं और नवीं अनुग्रहा शक्ति मध्यमें विराजमान है। योगपीठकी अर्चना करके उसपर श्रीहरीका आवाहन और पूजन करे ॥ १०-१२॥
पाद्य, अध्य, आचमनीय, पीताम्बर तथा आभूषण-ये पाँच उपचार हैं। इन सबका मूल (अष्टाक्षर) मन्त्रसे समर्पण किया जाता है।
पीठके पूर्व आदि चार दिशाओंमें वासुदेव आदि चार मूर्तियोंका तथा अग्रि आदि कोणोंमें क्रमश: श्री, सरस्वती, रति और शान्तिका पूजन करे॥ १३-१४॥
इसी प्रकार दिशाओंमें शङ्क, चक्र, गदा और पद्मका तथा विदिशाओं (कोणों)-में मुसल, खङ्ग, शार्ङ्गधनुष तथा वनमालाकी क्रमशः अर्चना करे॥१५॥
मण्डलके बाहर गरुड़की पूजा करके भगवान् नारायणदेवके सम्मुख विराजमान विष्वक्सेन तथा सोमेशका मध्यभागमें और आवरणसे बाहर इन्द्र आदि परिचारकवर्गके साथ भगवान्का सम्यक् पूजन करनेसे साधकको अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है॥ १६-१७॥
तीन सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३०३ ॥
अध्याय – ३०४ पश्चाक्षर-दीक्षा-विधान; पूजाके मन्त्र
अग्निदेव कहते हैं– मेष (न) सर्गि विष – विसर्ग युक्त मकार (म:) ष से पहलेका अक्षर श और उसके साथ अक्षि – इकार (शि) दीर्धोदक (वा) मरुत् (य) – यह पञ्चाक्षर मन्त्र (नमः शिवाय’) शिवस्वरूप तथा शिवप्रदाता है।
इसके आदि में ॐ लगा देनेपर यह षडक्षर मन्त्र हो जाता है। इसका अर्चन (भजन) करके मनुष्य देवत्व आदि उत्तम फलोंको प्राप्त कर लेता है ॥१॥
ज्ञानस्वरूप परब्रह्म ही परम बुद्धिरूप है। वही सबके हृदयमें शिवरूपसे विराजमान है। वह शक्तिभूत सर्वेश्वर ही ब्रह्मा आदि मूर्तियोंके भेदसे भिन्न-सा प्रतीत होता है।
मन्त्रके अक्षर पाँच हैं, भूतगण भी पाँच हैं तथा उनके मन्त्र और विषय भी पाँच हैं। प्राण आदि वायु पाँच हैं। ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ भी पाँच-पाँच हैं। ये सब-की- सब वस्तुएँ पश्चाक्षर-ब्रह्मरूप हैं। इसी प्रकार यह सब कुछ अष्टाक्षर मन्त्ररूप भी है। २-४ ॥
दीक्षा-स्थानका मन्त्रोच्चारणपूर्वक पञ्चगव्यसे प्रोक्षण करे। फिर वहाँ समस्त आवश्यक सामग्रीका संग्रह करके विधिपूर्वक शिवकी पूजा करे।
तत्पश्चात् मूलमन्त्र, इष्ट-मूर्तिसम्बन्धी मन्त्र तथा अङ्गसम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा अक्षत छींटते हुए भूतापसारणपूर्वक रक्षात्मक क्रिया सम्पादित करे।
फिर दूधमें चरु पकाकर उसके तीन भाग करे।
उनमेंसे एक भाग तो इष्टदेवताकी निवेदित कर दे, दूसरे भागकी आहुति दे और तीसरा शिष्यसहित स्वयं ग्रहण करे।
फिर आचमन एवं सकलीकरण करके आचार्य शिष्यको हृदय-मन्त्रसे अभिमन्त्रित एक दन्तधावन दे, जो दूधवाले वृक्ष आदिका काष्ठ हो।
उससे दाँतोंका शोधन करके, उसे चीरकर उसके द्वारा जीभ साफ करनेके बाद धोकर पृथ्वीपर फ़ेक दे। यदि पूर्वदिशासे फेंकनेपर वह दन्तकाष्ठ उत्तर या पश्चिम दिशाकी ओर जाकर गिरे तो शुभ होता है, अन्यथा अशुभ होता है।
पुनः अपने सम्मुख आते हुए शिष्यको शिखाबन्धके द्वारा रक्षित करके ज्ञानी गुरु वेदीपर उसके साथ कुशके बिस्तर पर सो जाय। शिष्य सोते समय रातमें जो स्वप्र देखें, उसे प्रात:काल अपने गुरुको सुनावे ॥९-१० ॥
यदि स्वप्र शुभ एवं सिद्धिसूचक हुए तो उनसे मन्त्र तथा इष्टदेवके प्रति भक्ति बढ़ती है।
तत्पश्चात् पुनः मण्डलार्चन करना चाहिये । ‘सर्वतोभद्र‘ आदि मण्डल पहले बताये गये हैं।
उन्ही मण्डलसे किसी एकका पूजन करना चाहिये। पूजित हुआ मण्डल सम्पूर्ण सिद्धियोंका दाता है॥ ११॥
पहले स्रानऔरआचमन करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक देहमें मिट्टी लगाये। फिर पूर्ववत् कल्पित शिवतीर्थमें साधक अघमर्षण-मन्त्रके जपपूर्वक स्नान करे।
फिर विद्वान् पुरुष हस्ताभिषेक’ (हाथोंकी शुद्धि) करके पूजा गृहमें प्रवेशकरे। मूलमन्त्रसे योगपीठ पर कमलासनका न्यास (चिन्तन) कोरे। मूलसे ही पूरक कुम्भक तथा रेचक प्राणायाम करे॥ १२-१३ ॥
(सुषुम्णा नाड़ीके मार्गसे) जीवात्माको ऊपर ब्रह्मरन्ध्रस्थित सहस्रारचक्र में ले जाकर परमात्मामें योजित (स्थापित) कर दे।
सिरसे लेकर शिखापर्यन्त जो बारह अङ्गुल विस्तृत स्थान है, वही ‘ब्रह्मरन्ध्र” है।
ब्रह्मरन्ध्र में स्थित परमात्माके भीतर जीवको (“हंस: सोऽहम्-इस मन्त्रद्वारा) संयोजित करनेके पश्चात् (यह चिन्तन कोरे कि सम्पूर्ण भूतोंके तत्त्व बीजरूपसे अपने-अपने कारणमें संहारक्रमसे विलीन हो गये हैं। इस प्रकार प्रकृतिपर्यन्त समस्त तत्वोंका परमात्मामें लय हो गया है। तदनन्तर) वायुबीज (यकार)-के द्वारा वायुको प्रकट करके उसके द्वारा अपने शरीरको सुखा दे।
इसके बाद अग्निबीज (रकार)-से अग्रि प्रकट करके उसके द्वारा उस समस्त शुष्क शरीरको जलाकर भस्म कर दे। (उसमेंसे दग्ध हुए पापपुरुषके भस्मको विलगाकर) अपने शरीरके भस्मको अमृतबीज (वकार)-से प्रकट अमृतकी धारासे आप्लावित कर दे ॥ १४ ॥
(इसके बाद विलीन हुए प्रत्येक तत्वके बीजको अपने-अपने स्थानपर पहुँचाकर दिव्य शरीरका निर्माण करे।) दिव्य स्वरूपका ध्यान करके जीवात्माको पुन: ले आकर हृदयकमलमें स्थापित कर दे। ऐसा करनेसे आत्मशुद्धि सम्पादित होती है।
तदनन्तर न्यास करके पूजन आरम्भ करें ॥ १५ ॥
पञ्चाक्षर-मन्त्रके न, म आदि पाँच वर्ण क्रमश: कृष्ण, श्वेत, श्याम, रक्त और पीत कान्तिवाले हैं।
( नमः शिवाय – न– कृष्ण, म– श्वेत, श– श्याम, व– रक्त, य– पीत)
नकारादि अक्षरोंसे क्रमश: अङ्गन्यास करे। उन्हीं अङ्गोंमें तत्पुरुष आदि पाँच मूर्तियोंका भी न्यास करना चाहिये’ ॥१६॥
तदनन्तर कनिष्ठापर्यन्त पाँच अँगुलियोंमें क्रमश: अंगमन्त्रोंका सर्वतोभावेन न्यास’ करके पाद, गुह्म, हृदय, मुख तथा मूर्धामें मन्त्राक्षरोंका न्यास’ करे।
इसके बाद मूर्धा, मुख, हृदय, गुह्य और पाद-इन अङ्गोंमें व्यापक-न्यास’ करके मूलमन्त्रके अक्षरोंका तथा अङ्ग मन्त्रोका भी वहीं न्यास करे।
फिर अग्नि आदि कोणोंमें प्रकट पीठके धर्म आदि पादोंका, जो क्रमश: रक्त, पीत, श्याम और श्वेत वर्णके है, चिन्तन करके उनमें अंगमन्त्रोंका न्यास करे।
इस प्रकार योगीपीठका चिन्तन करके उसके ऊपर अष्टदल कमलका और सूर्यमंडल, सोममंडल तथा अग्रिमण्डल-इन तीन मण्डलोंका एवं सत्वादि गुणोंका चिन्तन करे॥ १७-१९ ॥
इसके बाद अष्टदल कमलके पूर्वादि दलोंपर वामा आदि आठ शक्तियोंका तथा कर्णिकाके ऊपर नवीं (मनोन्मनी) शक्तिका न्यास या चिन्तन करे।
इन शक्तियोंके नाम इस प्रकार हैं-वामा, ज्येष्ठा, रौद्री, काली, कलाविकारिणी, बलविकारिणी, बलप्रमथनी, सर्वभूतदमनी तथा नवीं मनोन्मनी। ये शक्तियाँ ज्वालास्वरूपा हैं और इनकी कान्ति क्रमशः श्वेत, रक्त, सित, पीत, श्याम, अग्नि–सदृश, असित, कृष्ण तथा अरुण वर्णकी है। इस प्रकार इनका चिन्तन करे॥ २०-२२ ॥
तदनन्तर ‘अनन्तयोगपीठाय नमः‘ से योगपीठकी पूजा करके हृदयकमलमें शिवका आवाहन करे।
यथा
स्फटिकाभं चतुर्बाहुं फालशूलधरं शिवम्।
साभयं वरदं पञ्चवदनं च त्रिलोचनम्॥
जिनकी कानित स्फटिकमणिके समान श्वेत है, जो चार भुजाओंसे सुशोभित हैं और उन हाथोंमें फाल, शूल तथा अभय एवं वरद मुद्राएँ धारण करते हैं, जिनके पाँच मुख और प्रत्येक मुखके साथ तीन-तीन नेत्र हैं, उन भगवान् शिवका मैं ध्यान एवं आवाहन करता हूँ।
इसके बाद कमलदलोंमें तत्पुरुषादि पञ्चमूर्तियोंकी स्थापना करे।
यथा-
नं तत्पुरुषाय नमः (पूर्व)।
मं अघोराय नमः (दक्षिणे)।
शिं सद्योजाताय नमः ( पश्चिमे ) ।
वां वामदेवाय नमः (उत्तरे)।
यं ईशानाय नमः (ईशाने)।
तत्पुरुष चतुर्भुज हैं। उनका वर्ण श्वेत है। उनका स्थान कमलके पूर्ववर्ती दल में हैं।
अघोरके आठ भुजाएँ हैं और उनकी अङ्गकान्ति असित (श्याम) है। इनका स्थान दक्षिणदलमें है।
सद्योजातके चार मुख और चार ही भुजाएँ हैं। उनका पीत वर्ण हैं और स्थान पश्चिमदल में है।
वामदेवविग्रह स्त्री (देवी पार्वती)-के साथ विलसित होता है। उनके भी मुख तथा भुजाएँ चार-चार ही हैं। कान्ति अरुण है। इनका स्थान उत्तरवर्ती कमलदलमें है।
ईशानके पाँच मुख हैं। वे ईशानदलमें स्थित हैं। उनका वर्ण गौर है तथा वे सब कुछ देनेवाले हैं ॥ २३-२६ ॥
तत्पश्चात् इष्टदेवके अङ्गोंका यथोचित पूजन कोरे ।
फिर अनन्त, सूक्ष्म, सिद्धेश्वर (अथवा शिवोत्तम) और एकनेत्रका पूर्वादि दिशाओंमें (नाममन्त्रसे) पूजन करे।
एकरुद्र, त्रिनेत्र, श्रीकण्ठ तथा शिखण्डीका ईशान आदि कोणोंमें पूजन करे।
ये सब-के-सब विधेश्वर हैं और कमल इनका आसन है। इनकी अङ्गकान्ति क्रमश: श्वेत, पीत, सित, रक्त, धूम्र, रक्त, अरुण और नील है। ये सभी चतुर्भुज हैं और चार ध्वज, गदा, शूल चक्र और पद्मका पूजन करे’।
इस प्रकार छ: आवरणोंसहित इष्टदेवताकी पूजा करके गुरु अधिवासित शिष्यको पञ्चगव्यपान कराये।
फिर आचमन कर लेनेपर उसका प्रोक्षण करे।
इसके बाद नेत्रान्त अर्थात् नूतन शुक्ल वस्त्रकी पट्टीसे नेत्र-मन्त्र (वौषट्र)-का उच्चारण करते हुए गुरु शिष्यके नेत्रोंको बाँध दें।
फिर उस शिष्यको मण्डपके दक्षिणद्वारमें प्रवेश कराये। वहाँ आसन आदि या कुशपर बैठे हुए शिष्यका गुरु शोधन करे ।
पूर्वोक्त रीतिसे शरीर आदि पाञ्चभौतिक तत्वोंका क्रमशः संहार करके शिष्यका गुरु शोधन करे । पुर्वोक्त रीतिसे शरीर आदि पञ्चभौतिक तत्वोंका क्रमशः संहार करके शिष्यका परमात्मामें लय किया जाय; फिर सृष्टिमार्गसे देशिक शिष्यका पुनरुत्पादन करे।
इसके बाद उस शिष्यके दिव्य शरीरमें न्यास करके उसे प्रदक्षिणक्रमसे पश्चिमद्वारपर लाकर उसके द्वारा पुष्पाञ्जलिका क्षेपण कराये।
जिस देवताके ऊपर वे फूल गिरें, उसके नामको आदिमें रखते हुए शिष्यके नामका निर्देश करे।
तत्पश्चात् (नेत्रका बन्धन खोलकर) यज्ञभूमिके पार्श्वभागमें सुन्दर नाभि और मेखलासे युक्त ख़ुदे हुए कुण्डमें शिवाग्रिका को प्रकट कराकर, स्वयं उसका पूजन करके, फिर शिष्यसे भी उसकी अर्चना कराये।
फिर ध्यानद्वारा आत्मसदृश शिष्यकी संहारक्रमसे अपनेमें लीन करके पुन: उसका सृष्टिक्रमसे उत्पादन करे।
तदनन्तर उसके हाथमें अभिमन्त्रित कुश दे और हृदयादि मन्त्रोद्वारा पृथिवी आदि तत्त्वोंके लिये आहुति प्रदान। करे ॥३१-३८ ॥
पृथ्वी, जल, तेज और वायु-इनमेंसे प्रत्येकके लिये इनके नाम-मन्त्रसे सौ-सौ आहुतियाँ देकर आकाशतत्वके लिये मूलमन्त्र(ॐ नमः शिवाय)- से सौ आहुतियाँ दे।
इस प्रकार हवन करके उसकी पूर्णाहुति करे।
फिर अस्त्र-मन्त्र (फट्)-का उच्चारण करके आठ आहुतियाँ दे।
तत्पश्चात् विशेष शुद्धिके लिये प्रायश्चित (होम या गोदान) करे।
अभिमन्त्रित कलशका पूजन कर पीठस्थित शिष्यका अभिषेक करे।
फिर गुरु शिष्यको समयाचार सिखावे ।
शिष्य स्वर्ण-मुद्रा आदिके द्वारा अपने गुरुका पूजन करे।
इस प्रकार यहाँ ‘शिवपश्चाक्षर‘ मन्त्रकी दीक्षा बतायी गयी।
इसी तरह विष्णु आदि देवताओंके मन्त्रोंकी भी दीक्षा दी जाती है ॥ ३९-४१ ॥
तीन सौ चारवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३०४ ॥
अध्याय - ३०५ पचपन विष्णुनाम
अग्रिदेव कहते हैं– मुने! जो मनुष्य भगवान् विष्णुके निम्नाङ्कित। पचपन नामोंका जप करता है, वह मन्त्रजप आदिके फलका भागी होता है तथा तीर्थोंमें पूजनादिके अक्षय पुण्यको प्राप्त करता है।
पुष्करमें पुण्डरीकाक्ष, गयामें गदाधर, है, वह मन्त्रजप आदिके फलका भागी होता है|चित्रकूटमें राघव, प्रभासमें दैत्यसूदन, जयन्तीमें जय, हस्तिनापुरमें जयन्त, वर्धमानमें वाराह, काश्मीर में चक्रपाणि, कुब्जाभ में जनार्दन, मथुरामें केशवदेव, कुब्जाम्रक में हृषीकेश, गंगा द्वारमें जटाधर, शालग्राममें महायोग, गोवर्धनगिरिपर हरि, पिण्डारकमें चतुर्बाहु, शङ्खोंद्वारमें शङ्खी, कुरुक्षेत्रमें वामन, यमुनामें त्रिविक्रम, शोणतीर्थमें विश्वेश्वर, पूर्वसागरमें कपिल, महासागर में विष्णु, गङ्गासागर-सङ्गममें वनमाल, किष्किन्धामें रैवतकदेव, काशीतटमें महायोग, विरजामें रिपुंजय, विशाखायुपमें अजित, नेपालमें लोकभावन, द्वारकामें कृष्ण, मन्दराचलमें मधुसूदन, लोकाकुलमें रिपुहर, शालग्राम में हरिका स्मरण करे ॥ १-९ ॥
पुरुषवटमें पुरुष, विमलतीर्थमें जगत्प्रभु, सैन्धवारण्यमें अन्नत, दण्डकारण्यमें शार्गधारी, उत्पलावर्तकमें शौरी, नर्मदा में श्रीपति, रैवतगिरि पर दामोदर, नन्दामें जलशायी, सिन्धुसागरमें गोपीश्वर, माहेन्द्रतीर्थमें अच्युत, सह्राद्रिपर देवदेवेश्वर, मागधवनमें वैकुण्ठ, विन्ध्यगिरिपर सर्वपापहारी, औण्ड्में पुरूषोत्तम, हृदय में आत्मा, विराजमान हैं। ये अपने नामका जप करनेवाले साधकोंको भोग तथा मोक्ष देनेवाले हैं, ऐसा जानी॥ १०-१३॥
प्रत्येक वटवृक्षपर कुबेरका, प्रत्येक चौराहेपर शिवका, प्रत्येक पर्वतपर रामका तथा सर्वत्र मधुसूदन का स्मरण करे।
धरती और आकाशमें नरका, वसिष्ठतीर्थमें गरुड़ध्वजका तथा सर्वत्र भगवान् वासुदेव
का स्मरण करनेवाला पुरुष भोग एवं मोक्षका भागी होता है।
भगवान् विष्णुके इन नामोंका जप करके मनुष्य सब कुछ पा सकता है।
उपर्युक्त क्षेत्रमें जो जप, श्राद्ध, दान और तर्पण किया जाता है, वह सब कोटिगुना हो जाता है। जिसकी वहाँ मृत्यु होती है, वह ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। जो इस प्रसंगको पढ़ेगा अथवा सुनेगा, वह शुद्ध होकर स्वर्ग (वैकुण्ठधाम)-को प्राप्त होगा*॥१४-१७॥
तीन सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३०५ ॥
अध्याय – ३०६ श्रीनरसिंह आदिके मन्त्र
अग्निदेव कहते हैं–मुने! स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन, उत्सादन, भ्रामण, मारणा तथा व्याधि-ये ‘क्षुद्र’ संज्ञक अभिचारिक कर्म हैं। इनसे छुटकारा कैसे प्राप्त हो ? यह बात बताऊँगा; सुनो-॥ १॥
ॐ नमो भगवते उन्मत्तरुद्राय भ्रम भ्रम भ्रामय भ्रामय अमुकं वित्रासय वित्रासय उद्-भ्रामय उद्-भ्रामय रुद्र रौद्रेण रूपेण हूं फट् स्वाहा॥ २॥
शमशान-भूमिमें रातको इस मन्त्रका तीन लाख जप करे। फिर चिताकी आगमें धतूरेकी समिधाओंद्वारा हवन करे।
इस प्रयोगसे शत्रु सदा भ्रान्त होता-चक्करमें पड़ा रहता है।
सुनहरे गेरूसे शत्रुकी प्रतिमा बनाकर उक्त मन्त्रका जप करे।
फिर मन्त्रजपसे अभिमन्त्रित की हुई सोनेकी सूइयोंसे उस प्रतिमाके कण्ठ अथवा हृदयको बीघे। इस प्रयोगसे शत्रुकी मृत्यु हो जाती है।
गधेका बाल (अथवा खराश्चा-मयूरशिखा नामक ओषधिके पते), चिताका भस्म, ब्रह्मदण्डी (ब्रह्मदारु या तृतकी लकड़ी) तथा मर्कटी (करंजभेद)-इन सबको जलाकर भस्म (चूर्ण) बना ले।
उस भस्म या चूर्णको उक्त मन्त्रसे अभिमन्त्रित करके उत्सादनका प्रयोग करनेवाला पुरुष शत्रुके घरपर अथवा उसके मस्तकपर फेंक दे’ ॥ ३-५ ॥
भृगु (स) आकाश (ह), दीप्त (दीर्घं आकारयुक्त) रेफसहित भृगु (स) अर्थात् (सहरुमा), फिर र, वर्म (हुम्) और फट् इस प्रकार सब मिलकर मन्त्र बना- सहस्रार हूं फट्।
इसका अङ्गन्यास इस प्रकार है-
आचक्राय स्वाहा, हृदयाय नमः।
विचक्राय स्वाहा, शिरसे स्वाहा।
सुचक्राय स्वाहा, शिखायै वषट्।
धीचक्राय स्वाहा, कवचाय हुम्।
संचक्राय स्वाहा, नेत्रत्रयाय वौषट्।
ज्वालाचक्राय स्वाहा, अस्त्राय फट्।
ये न्यास पूर्ववत् कहे गये हैं।
अङ्गन्यासपूर्वक जपा हुआ सुदर्शनचक्र मन्त्र पूर्वोक्तः ‘क्षुद्र‘ संज्ञकः अभिचारों तथा ग्रहबाधाओंको हर लेनेवाला और समस्त मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला है।॥ ६-८॥
उक्त सुदर्शन-मन्त्रके छः अक्षरोका क्रमशः मूर्धा, नेत्र, मुख, हृदय, गुह्य तथा चरण-इन छ: अङ्गोंमें न्यास करे।
इसके बाद चक्रस्वरूप भगवान् विष्णुका ध्यान करे—’भगवान् चक्राकार कमलके आसनपर विराजमान हैं। उनकी आभा अग्रिसे भी अधिक तेजस्विनी है। उनके मुखमें दाढ़ें हैं। वे चार भुजाधारी होते हुए भी अष्टबाहु हैं। वे अपने हाथोंमें क्रमशः शंख, चक्र, गदा, पद्म, मुसल, अङ्कुश, पाश और धनुष धारण करते हैं। उनके केश पिङ्गलवर्णके और नेत्र लाल हैं।
उन्होंने अरोंसे त्रिलोकी को व्याप्त कर रखा है। चक्र की नाभि (नाहा) उस अग्रिसे आविद्ध (व्याप्त) है। उसके चिन्तनमात्रसे समस्त रोग तथा अरिष्टग्रह नष्ट हो जाते हैं।
सम्पूर्ण चक्र पीतवर्णका है। उसके सुन्दर अरे रक्तवर्णके हैं। उन अरोंका अवान्तरभाग श्यामवर्णका है। चक्रकी नेमि श्वेतवर्णकी है। उसमें बाहर की ओर से कृष्णवर्णकी पार्थिवी रेखा है। अरोंसे युक्त जो मध्यभाग है, उसमें समस्त अकारादि वर्ण हैं।
इस प्रकार दो चक्र-चिन्ह अङ्कित करे॥ ९-१२ ॥
आदि (उत्तरवर्ती) चक्रपर कलशका जल ले अपने आगे समीपमें ही स्थापित करे।
दूसरे दक्षिण चक्रपर सुदर्शनकी पूजा करके वहाँ अग्निमें क्रमशः घी, अपामार्गकी समिधा, अक्षत, तिल, सरसों, खीर और गोघृत-सबकी आहुतियाँ दे।
प्रत्येक वस्तुकी एक हजार आठ आहुतियाँ पृथक्-पृथक् देनी चाहिये ॥ १३-१४॥
विधि-विधानका ज्ञाता विद्वान् प्रत्येक द्रव्य हुतशेष भाग कलशमें डाले।
तदनन्तर एक प्रस्थ (सेर) अन्नद्वारा निर्मित पिण्ड उस कलशके भीतर रखे।
फिर विष्णु आदि देवोंके लिये सब देय वस्तु वही दक्षिण भागमें स्थापित करे॥ १५॥
इसके बाद ‘सर्वशान्तिकर विष्णुजनों (भगवान् विष्णुके पार्षदों)-को नमस्कार है। वे शान्तिके लिये यह उपहार ग्रहण करें। उनको नमस्कार है।-
इस मन्त्रको पढ़कर हुतशेष जलसे बलि समर्पित करे।
किसी काष्ठ-फलक पर या कलशमें अथवा दूधवाले वृक्षकी लकड़ीसे बनवाये हुए दधिपूर्ण काष्ठपात्रमें बलिकी वस्तु रखकर प्रत्येक दिशा में अर्पित करे।
यह करके ही द्विजोंके द्वारा होम कराना चाहिये।
दक्षिणासहित दो बार किया हुआ यह होम भूत-प्रेत आदिका नाशक होता है।
दही लगे हुए पत्तेपर लिखित मन्त्राक्षरोंद्वारा किया गया होम “क्षुद्र” रोगोंका नाशक होता है।
दूर्वासे होम किया जाय तो वह आयुकी, कमलोंकी आहुति दी जाय तो वह श्री (ऐश्वर्य)- की और गूलर-काष्ठसे हवन किया जाय तो वह पुत्रकी प्राप्ति करानेवाला होता है।
गोशालामें घीके द्वारा आहुति देनेसे गौओंकी प्राप्ति एवं वृद्धि होती है।
इसी प्रकार सम्पूर्ण वृक्षोंकी समिधासे किया गया होम बुद्धिकी वृद्धि करनेवाला होता है।॥ ११-२० ॥
ॐ क्षौं नमो भगवते नारसिंहाय ज्वालामालिने दीप्त दंष्टायाग्रिनेत्राय सर्वरक्षोघ्नाय सर्वभूतविनाशाय सर्वज्वरविनाशाय दह दह पच पच रक्ष रक्ष हुं फट्॥ २१ ॥
-यह भगवान् नरसिंहका मन्त्र समस्त पापोंका निवारण करनेवाला है। इसका जप आदि किया जाय तो यह क्षुद्र महामारी, विष एवं रोगोंका हरण कर सकता है।
चूर्णीभूत मण्डूक-वयस् (औषध-विशेष)-से हवन किया जाय तो वह जलस्तम्भन और अग्रि-स्तम्भन करनेवाला होता है ॥ २१-२२॥
तीन सौ छठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३०६ ॥
अध्याय – ३०७ त्रैलोक्यमोहन आदि मन्त्र
अग्निदेव कहते हैं– मुने! अब मैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थोंकी सिद्धिके लिये “त्रैलोक्यमोहन” नामक मन्त्रका वर्णन करूंगा ॥ १ ॥
ॐ श्रीं ह्रीं हूं ओम्, ॐ नमः पुरुषोत्तम पुरुषोत्तमप्रतिरूप लक्ष्मीनिवास सकलजगतक्षोभण सर्वस्त्रीहृदयदारण त्रिभुवनमदोन्मादकर सुरमनुजसुन्दरीजनमनांसि तापय दीपय दीपय शोषय शोषय मारय मारय स्तम्भय स्तम्भय द्रावय द्रावयाकर्षयाकर्षय परमसुभग सर्वसौभाग्यकर कामप्रदामुकं (शत्रुम) हन हन चक्रेण गदया खङ्गेन सर्वबाणौर्भिन्द भिन्द पाशेन कट्ट कट्ट अङ्कुशेन ताडय ताडय त्वर त्वर किं तिष्ठसि यावत्तावत् समीहितं मे सिद्धं भवति हूं फट्, नमः॥ २ ॥
ॐ पुरुषोत्तम त्रिभुवनमदोन्मादकर हुं फट् हृदयाय नमः।
सुरमनुजसुन्दरीमनांसि तापय तापय शिरसे स्वाहा ।
दीपय दीपय शोषय शोषय मारय मारय स्तम्भय स्तम्भय द्रावय द्रावय कवचाय हुम्।
आकर्षयाकर्षय महावल हुं फट् नेत्रत्रयाय वौषट्।
त्रिभुवनेश्वर सर्वजनमनांसि हन हन दारय दारय ॐ मम वशमानयानय हूं फट् अस्त्राय फट्।
त्रैलोक्यमोहन हृषीकेशा प्रतिरूप सर्वस्त्रीहृदयाकर्षण आगच्छ–आगच्छ नमः। (सर्वाङ्गे ) व्यापकम॥ ३॥
इस प्रकार मूलमन्त्रयुक्त व्यापक न्यास बताया गया।
फिर पूजन तथा पचास हजारकी संख्यामें जप करके अभिषेक करे।
तत्पश्चात् वैदिक विधिसे स्थापित कुण्डाग्रिमें सौ बार आहुति दे।
दही, घी, खीर, सघृत चरु तथा औटाये हुए दूधकी पृथक-पृथक बारह-बारह आहुतियाँ मूलमन्त्रसे दे।
फिर अक्षत, तिल और यवकी एक हजार आहुतियाँ देनेके पश्चात् त्रिमधु, पुष्प, फल, दही तथा समिधाओंकी सौ-सौ बार आहुतियाँ दे॥ ४-६॥
तदनन्तर पूर्णाहुति-होम करके हुतावशिष्ट सधृत चरुका प्राशन करे-कराये।
फिर ब्राह्मण-भोजन कराकर आचार्यको उचित दक्षिणा आदिसे संतुष्ट करे।
यों करनेसे मन्त्र सिद्ध होता है।
स्नान करके विधिवत् आचमन करे और मौनभावसे यागमन्दिरमें जाकर पद्मासनसे बैठे और तान्त्रिक विधिके अनुसार शरीरका शोषण करे।
पहले राक्षसों तथा विघ्नकारक भूतोंका दमन करनेके लिये सम्पूर्ण दिशाओंमें सुदर्शनका न्यास करे। साथ ही यह भावना करे कि वह सुदर्शन अस्त्र पाँच क्लेशोंके बीजभूत, धूम्रवर्ण एवं प्रचण्ड अनिलरूप मेरे सम्पूर्ण पापको, जो नाभिमें स्थित है, शरीरसे अलग कर रहा है।
फिर हृदयकमलमें स्थित ‘रं’ बीजका स्मरण करके ऊपर, नीचे तथा अगलबगलमें फैली हुई अग्रिकी ज्वालाओंसे उस पापपुञ्जको जलाकर भस्म कर दे।
फिर मूर्धा (ब्रह्मरन्ध्र)-में अमृतका चिन्तन करके सुषुम्णानाड़ीके मार्गसे आती हुई अमृतकी धाराओंसे अपने शरीर को बाहर और भीतरसे भी आप्लावित करे ॥ ७-११ ॥
इस प्रकार शुद्धशरीर होकर मूलमन्त्रसे तीन बार प्राणायाम करे।
फिर मस्तक और मुखपर तथा गुह्मभाग, ग्रीवा, सम्पूर्ण दिशा, हृदय, कुक्षि एवं समस्त शरीरमें हाथ रखकर उनमें शक्तिका न्यास करे।
इसके बाद सूर्यमण्डलसे सम्परात्माका आवाहन करके ब्रह्मरन्ध्रके मार्गसे हृदय-कमलमें लाकर चिन्तन करे।
वे परात्मा समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न हैं। प्रणवका उच्चारण करते हुए परात्माका स्मरण करना चाहिये ॥ १२-१४ ॥
उनके स्मरणके लिये गायत्री-मन्त्र इस प्रकार है-
त्रैलेक्यमोहनाय विद्महे।
स्मराय धीमहि ।
तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्।
इति ।
परात्माका अर्चन करनेके पश्चात् यज्ञसम्बन्धी द्रव्यों और शुद्ध पात्रका प्रोक्षण करे।
विधिपूर्वक आत्मपूजा करके वेदीपर उसकी अर्चना करे ॥ १५-१६ ॥
कूर्म-अनन्त आदिके रूपमें कल्पित पीठपर कमल एवं गरुड़के आसनपर विराजमान त्रैलोक्यमोहन भगवान् विष्णु सर्वाङ्गसुन्दर हैं और वयके अनुरूप लावण्य तथा यौवनको प्राप्त हैं। उनके अरुणनयन मदसे घूर्णित हो रहे हैं। वे परम उदार तथा स्मरसे विह्रल हैं। दिव्य माला, वस्त्र और अनुलेप उनकी शोभा बढ़ाते हैं। मुखपर मन्दहास्यकी छटा छिटक रही है।
उनके परिवार और परिकर अनेक हैं। वे लोकपर अनुग्रह करनेवाले, सौम्य तथा सहस्रों सूर्योंके समान तेजस्वी हैं। उन्होंने हाथोंमें पाँच बाण धारण कर रखे हैं। उनकी समस्त इन्द्रियाँ पूर्णकाम हैं। उनके आठ भुजाएँ हैं। देवाङ्गनाएँ उन्हें घेरकर खड़ी हैं। उनकी दृष्टि लक्ष्मीदेवी के मुखपर गड़ी है। ऐसे भगवान् का भजन करे।
उनके आठ हाथोंमें क्रमश: चक्र, शङ्क, धनुष, खङ्ग, गदा, मुसल, अडुश और पाश शोभा पाते हैं।
आवाहन आदिके द्वारा उनकी अर्चना करके अन्तमें उनका विसर्जन करना चाहिये ॥ १७-२१ ॥
यह भी चिन्तन करे कि भगवान् अपने ऊरु तथा जंघापर श्रीलक्ष्मीजीको बैठाये हुए हैं और वे दोनों हाथोंसे पतिका आलिङ्गन करके स्थित हैं। उनके बायें हाथ में कमल है। वे शरीरसे हृष्टपुष्ट हैं तथा श्रीवत्स और कौस्तुभसे सुशोभित हैं। भगवान् के गलेमें वनमाला है और शरीरपर पीताम्बर शोभा पाता है। इस प्रकार चक्र आदि आयुधोंसे सम्पन्न श्रीहरिका पूजन करे॥ २२-२३॥
ॐ सुदर्शन महाचक्रराज दह दह सर्वदुष्टभयं कुरु कुरु छिन्द छिन्द विदारय विदारय परमन्त्रान् ग्रस ग्रस भक्षय भक्षय भूतानि त्रासय त्रासय हुँ फट् स्वाहा–
इस मन्त्रसे चक्र सुदर्शनकी पूजा करे।
ॐ महाजलचराय हुं फट् स्वाहा। पाञ्चजन्याय नमः ।।
-इस मन्त्रसे शखंकी पूजा करे।
महाखङ्ग तीक्ष्ण छिन्द छिन्द हुं फट् स्वाहा खङ्गाय नमः ।
– इससे खङ्गकी पूजा करे।
शाङ्गय सशराय नमः ।
-इससे धनुष और बाणकी पूजा करे।
ॐ भूतग्रामाय विद्महे। चतुर्विधाय धीमहि। तन्नो ब्रह्म प्रच्त्रोदयात्।।
-यह भूतग्राम गायत्री है।
संवर्तक मुशल पोथय पोथय हुं फट् स्वाहा।
-इस मन्त्रसे मुशलकी पूजा करे।
पाश बन्ध बन्धाकर्षयाकर्षय हूं फट्
-इस मन्त्रसे पाशका पूजन करे।
अङ्कुश कट्ट हूं फट्
– इससे अङ्गशकी पूजा करे।
भगवान् की भुजाओंमें स्थित अस्त्रोंका तत्तत्-अस्त्र-सम्बन्धी इन्हीं मन्त्रोंसे क्रमशः पूजन करें ॥ २४-२७ ॥
ॐ पक्षिराजाय हूं फट्
-इस मन्त्रसे पक्षिराज गरुड़की पूजा करे।
कर्णिकामें पहले अङ्गदेवताओंका विधिवत् पूजन करे। फिर पूर्व आदि दलोंमें लक्ष्मी आदि शक्तियों तथा चामरधारी तार्क्ष्य आदिकी अर्चना करे।
शक्तियोंकी पूजाका प्रयोग अन्तमें करना चाहिये।
पहले देवेश्वर इन्द्र आदि दण्डीसहित पूजनीय हैं।
लक्ष्मी और सरस्वती पीतवर्णकी हैं। रति, प्रीति और जया-ये शक्तियाँ श्वेतवर्ण हैं। कीर्ति तथा कान्ति श्वेतवर्णा हैं। तुष्टि तथा पुष्टि-ये दोनों श्यामवर्णा हैं। इनमें स्मरभाव (प्रेममिलनकी उत्कण्ठा) उदित रहती है।
लोकेश (ब्रह्माजी तथा दिक्पाल)-पर्यन्त देवताओं की पूजा करके अभीष्ट अर्थकी सिद्धिके लिये भगवान् विष्णुकी पूजा करनी चाहिये।
निम्नाङ्कित मन्त्रका ध्यान और जप करे। उसके द्वारा होम और अभिषेक करे।
(मन्त्र यों है-) ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं हूं त्रैलोक्यमोहनाय विष्णवे नमः॥
-इस मन्त्रद्वारा पूर्ववत् पूजन आदि करनेसे साधक सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है।
जल तथा सम्मोहनी वृक्षके पुष्पद्वारा उक्त मन्त्रसे नित्य तर्पण करे।
ब्रह्मा, इन्द्र, श्रीदेवी, दण्डी, बीजमन्त्र तथा त्रैलोक्यमोहन विष्णुका पूजन करके उत्त मन्त्रका तीन लाख जप करनेके पश्चात् कमलपुष्प, बिल्वपत्र तथा घीसे एक लाख होम करे।
उत्त हवन-सामग्रीमें चावल, फल, सुगन्धित चन्दन आदि द्रव्य और दूर्वा भी मिला ले। इन सबके द्वारा हवनकर्म सम्पादित करके मनुष्य दीर्घ आयुकी उपलब्धि करता है।
उस जप, अभिषेक तथा होमादि क्रियासे संतुष्ट होकर भगवान् विष्णु उपासकको अभीष्ट फल प्रदान करते हैं। २८-३६ ॥
ॐ नमो भगवते वराहाय भूर्भुवःस्वः पतये भूपतित्वं मे देहि दापय स्वाहा।
– यह वराह भगवान्का मन्त्र है।
इसका पश्चाङ्गन्यास इस प्रकार है-
ॐ नमो हृदयाय नमः।
भगवते शिरसे स्वाहा।
वराहाय शिखायै वषट्।
भूर्भुवःस्वःपतये कवचाय हुम्।
भूपतित्वं मे देहि दापय स्वाहा अस्त्राय फट्।
इस प्रकार पद्धानन्यासपूर्वक वराह-मन्त्रका प्रतिदिन दस हजार बार जप करनेसे मनुष्य दीर्घ आयु तथा राज्य प्राप्त कर सकता है।॥ ३७-३८ ॥
तीन सौ सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३०७ ॥
अध्याय – ३०८ त्रैलोक्यमोहिनी लक्ष्मी एवं भगवती दुर्गाके मन्त्रोंका कथन
अध्याय १
अग्रिदेव कहते हैं– वसिष्ठ! वान्त (शू), वह्रि (र), वामनेत्र (ईकार) और दण्ड(अनुस्वार)-इनके योगसे ‘श्रीं’ बीज बनता है, जो ‘श्री’ देवीका मन्त्र है और सब सिद्धियोंको देनेवाला है।
(इसका अङ्गन्यास इस प्रकार करना चाहिये-)
(प्रथम प्रकार)
महाश्रिये महाविद्युत्प्रभे स्वाहा, हृदयाय नमः ।
श्रियै देवि विजये स्वाहा, शिरसे स्वाहा।
गौरि महाबले बन्ध-वन्ध स्वाहा, शिखायै वषट् ।
धृतिः स्वाहा, कवचाय हुम् ।
महाकाये पद्महस्ते हूं फट्, अस्नाय फट्।
(दूसरा प्रकार)
श्रियै स्वाहा, हृदयाय नमः ।
श्रीं फट्, शिरसे स्वाहा।
श्रीं नमः शिखायै वषट् ।
श्रियै प्रसीद नमः ।
कवचाय हुम्।
श्रीं फट्, अस्त्राय फट्।
[इसी तरह अन्यान्य प्रकार भी तन्त्र-ग्रन्थोंमें कहे गये हैं।] ॥ १-२ ॥
—इस प्रकार ‘श्री’-मन्त्रके नौ अङ्गन्यास बतलाये गये हैं। उनमेंसे किसी एकका आश्रय ले’।
पद्माक्षकी मालासे पूर्वोत्त मन्त्रका तीन लाख या एक लाख बार जप ऐश्वर्य प्रदान करनेवाला है
साधक लक्ष्मी अथवा विष्णुके मन्दिरमें श्रीदेवीका पूजन करके धन प्राप्त कर सकता है।
खदिरकाठसे प्रज्वलित अग्रिमें घृतमिश्रित तण्डुलोंकी एक लाख आहुतियाँ दे। इससे राजा वशीभूत हो जाता है तथा लक्ष्मीकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती है।
श्रीमन्त्रसे अभिमन्त्रित सर्षपजलसे अभिषेक करनेपर सब प्रकारकी ग्रहबाधा शान्त होती है।
एक लाख विल्वफलोंका होम करने से लक्ष्मीकी प्राप्ति और धनकी वृद्धि होती है।॥ ३-५ ॥
साधक चारद्वारोंसेयुक्त निम्नाङ्कित ‘शक्रवेश्म‘ का चिन्तन करे।
पूर्वद्वारपर क्रीडामें संलग्र दोनों भुजाओंको ऊपर उठाये हुए श्वेत कमलको धारण करनेवाली श्यामवर्ण वामनाकृति बलाकीका ध्यान करे।
दक्षिणद्वारपर ऊपर उठाये हुए एक हाथमें रक्तकमल धारण करनेवाली श्वेतांगी वनमालिनीका चिन्तन करे।
पश्चिमद्वारपर दोनों हाथोंकी ऊपर उठाकर श्वेत पुण्डरीक को धारण करनेवाली हरितवर्णा विभीषिका नामवाली श्रीदूतीका ध्यान करे।
उत्तरद्धारपर शाङ्करीकी धारणा करे।
‘शक्रवेश्म’ के मध्यमें अष्टदल कमलका निर्माण करे।,
कमलदलोंपर क्रमशः शङ्क, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए वासुदेव, संकर्षण, प्रधुमन और अनिरुद्धका ध्यान करे। उनकी अङ्गकान्ति क्रमशः अञ्जन, दुग्ध, केसर और सुवर्णके समान है। वे सुन्दर वस्त्रोंसे विभूषित हैं।
उस अष्टदल कमलके आग्रेय आदि दलोंपर गुग्गुलु, कुरण्टक, दमक और सलिल नामक दिग्गजोंकी धारणा करे। ये चारों स्वर्णकलशोंको धारण करनेवाले हैं।
कमलकी कर्णिकामें श्रीदेवीका स्मरण करे। वे चार भुजाओंसे युक्त हैं। उनकी अङ्गकान्ति सुवर्णके समान है। उनकी ऊपर उठी हुई दोनों भुजाओंमें कमल है तथा दक्षिणहस्तमें अभयमुद्रा और वामहस्तमें वरमुद्रा सुशोभित हो रही है। वे शुभ्र एवं सुवासित वस्त्र तथा गलेमें एक श्वेत माला धारण करती हैं। उन श्रीदेवीका ध्यान एवं सपरिवार पूजन करके मनुष्य सब कुछ प्राप्त कर लेता है।॥ ६-१४ ॥
वान्त, वह्रि, वामनेत्र और दण्ड – इनके योगसे ‘श्रीं‘ बीज बनता हैं।
‘श्रीं‘ देवी मन्त्र है जो सब सिद्धियोंको देनेवाला है।
पूर्वोत उपासनाके समय द्रोणपुष्प, कमल और बिल्वपत्रको सिरपर धारण न करे।
पश्चमी और सप्तमी के दिन क्रमश: लवण और ऑवलेका परित्याग कर दें।
साधक खीरका भोजन करके श्रीसूक्तका जप करे तथा श्रीसूक्तसे ही श्रीदेवीका अभिषेक करे। आवाहनसे लेकर विसर्जनपर्यन्त सभी उपचार–अर्पण श्रीसूक्तकी ऋचाओंसे करता हुआ ध्यानपूर्वक श्रीदेवीका पूजन करे।
बिल्व, घृत, कमल और खीर–ये वस्तुएँ एक साथ या अलग–अलग भी श्रीदेवीके निमित्त होममें उपयुक्त हैं। यह होम लक्ष्मीकी प्राप्ति एवं वृद्धि करनेवाला है ॥ १५–१७॥
विषं (म), हि, मज्जा (ष), काल (म), अग्नि (र), अत्रि (द), निष्ठ (इ), नि, स्वाहा (मर्दिषमर्दिनि स्वाहा )—याह भगवती महिषमर्दिनी (महालक्ष्मी)-का अष्टाक्षर–मन्त्र कहा गया हैं ॥ १८॥
ॐ ह्रीं महामहिषमर्दिनि स्वाहा।
–यह मूलमन्त्र है। इसका पश्चाङ्गन्यास इस प्रकार करे–
महिषमर्दिनि हुं फट्, हृदयाय नमः।
महिषशत्रूत्सादिनि हुं फट्, शिरसे स्वाहा।
महिषं भीषय हूं फट्, शिखायै वषट्।
महिषं हन हन देवि हुं फट्, कवचाय हुम्।
महिषसूदनि हुं फट्, अस्त्राय फट्।
यह अङ्गोंसहित ‘दुर्गाहृदय‘ कहा गया है, जो सम्पूर्ण कामनाओंको सिद्ध करनेवाला है।
दुर्गादेवीका निम्नाङ्कित प्रकारसे पीठ एवं अष्टदल–कमलपर पूजन करें ॥ १९–२० ॥
ॐ ह्रीं दुर्गे दुर्गे रक्षणी स्वाहा
–यह दुर्गाका मन्त्र है।
अष्टदलपद्मपर दुर्गा, वरवर्णिनी, आर्या, कनकप्रभा, कृत्तिका, अभयप्रदा, कन्यका और सुरूपा–इन शक्तियोंके क्रमश: आदिके सस्वर नाममन्त्रोंद्वारा यजन करे ।
यथा–
दुं दुर्गायै नमः इत्यादि।
इनके साथ क्रमश: चक्र, शङ्क, गदा, खङ्ग, बाण, धनुष, अङ्कुश और खेट–इन अस्त्रोंकी भी अर्चना करे।
अष्टमी आदि तिथियोंपर लोकेश्वरी दुर्गाकी पूजा करे।
दुर्गाकी यह उपासना पूर्ण आयु, लक्ष्मी, (आत्मरक्षा) एवं युद्धमें विजय प्रदान करनेवाली है।
साध्यके नामसे युक्त मन्त्रसे तिलका होम ‘वशीकरण‘ करनेवाला है।
कमलोंके हवनसे ‘विजय‘ प्राप्त होती है।
शान्तिकी कामना करनेवाला दूर्वासे हवन करे।
पलाश–समिधाओंसे पुष्टि, काकपक्षके हवनसे मारण एवं विद्वेषणकर्म सिद्ध होते हैं।
यह मन्त्र सभी प्रकार की ग्रहबाधा एवं भयका हरण करता है। २५–२६ ॥
ॐ दुर्ग दुर्ग रक्षणि स्वाहा– यह अङ्गसहित ‘जय दुर्गा‘ बतलायी गयी है। यह साधककी रक्षा करती है।
मैं श्यामाङ्गी, त्रिनेत्रभूषिता, चतुर्भुजा, शङ्ख, चक्र, शूल एवं खङ्गधारिणी रौद्ररूपिणी रणचण्डीस्वरूपा हैं–ऐसा ध्यान करे।
युद्धके प्रारम्भमें इस जयदुर्गा का जप करे। विजयके लिये खङ्ग आदिपर दुर्गाका पूजन करें ॥ २७–२९ ॥
ॐ नमो भगवति ज्वालामालिनि गृध्रगणपरिवृते चराचररक्षिणि स्वाहा–
युद्धके निमित्त इस मन्त्रका जप करे। इससे योद्धा शत्रुओंपर विजय प्राप्त करता है।॥ ३०–३१ ॥
तीन सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३०८ ॥
अध्याय – ३०९ त्वरिता-पूजा
अग्निदेव कहते हैं–मुने! त्वरिता-विद्याका ज्ञान भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है; अत: अब उसीका वर्णन करूंगा।
पहले
ॐ आधारशवत्यै नम:।
– इस मन्त्र से आधारशक्तिका स्मरण और वन्दन करे।
फिर महासिंहस्वरूप सिंहासनकी
ॐ प्रों पुरु पुरु महासिंहाय नम:।
– इस मन्त्रसे और आसनस्वरूप कमलकी
पद्माय नमः।
– इस मन्त्रसे पूजा करे।
तदनन्तर मूलमन्त्रका उच्चारण करके त्वरितादेवीकी पूजा करे।
यथा
ॐ ह्रीं हुं खे च च्छे क्ष: स्त्री हूं क्षे ह्रीं फट् त्वरितायै नमः ।
इसका अङ्गन्यास इस प्रकार है
खे च हृदयाय नमः ।
च च्छे शिरसे नमः ।
छे क्षः शिखायै नमः ।
क्षः स्त्री कवचाय नमः ।
स्त्री हूं नेत्राय नमः ।
हूं क्षे अस्त्राय नमः । ॥ १-२॥
[इसी प्रकार करन्यास करके निम्नाङ्कित गायत्रीका जप करे-]
ॐ त्वरिताविद्यां विद्महे। तूर्णविद्यां च धीमहि । तन्नो देवी प्रचोदयात्।
-यह त्वरिता-गायत्री मन्त्र हैं।
तदनन्तर पीठगत कमल-कर्णिकाके केसरोंमें पूर्वादि क्रमसे अङ्ग-देवताओंका पूजन करे।
खे च हृदयाय नमः । पूर्व
च च्छे शिरसे नमः । अग्निकोणे
छे क्षः शिखायै नमः । दक्षिणे
क्षः स्त्री कवचाय नमः । नैर्ऋत्ये
स्त्री हूं नेत्रत्रयाय नमः । पश्चिमे
हूं क्षे अस्त्राय नमः । ( वायव्ये )
तत्पश्चात् उत्तरदिशामें
श्रीप्रणीतायै नम:
– इस मन्त्रसे श्रीप्रणीताका तथा ईशानकोणमें
श्रीगायत्र्यै नमः
से गायत्रीका पूजन करे॥ ३ ॥
तदनन्तर बाह्मगत तीन गोलाकार रेखाओंके बीच में स्थित दो विथियामस दवाक सामनवाल दलाग्रके बाह्यभागमें
कोदण्डशरधारिणयै फट्कायैं नम:।
से फट्कारीकी पूजा करे।
फिर उसके बाहरवाली वीथीमें देवीके सम्मुख
गदापाणये किङ्कराय नम:।
से किङ्करकी पूजा करके कहे-
किङ्कर रक्ष रक्ष त्वरिताज्ञया स्थिरो भव।
इसके बाद द्वारके दक्षिणपार्श्वमें जयाकी और वामपार्श्वमें विजयाकी पूजा करे-
जयायै नमः ।
विजयायै नम: ।
तत्पश्चात् कमलके पूर्वादि दलोंमें
हूंकार्यै नमः ।
रखेचर्यै नमः ।
चण्डायै नमः ।
छेदिन्यै नमः ।
क्षेपिण्यै नमः ।
स्त्रीकार्यै नमः ।
हूंकार्यै नमः ।
क्षेमङ्कर्यै नमः ।
इन मन्त्रोंसे ‘हूंकारी‘ आदि आठ मन्त्राक्षरशक्तियोंकी पूजा करनी चाहिये।
त्वरिता-विद्या – .
तोतला, त्वरिता और तृणीं -इन तीन नामोंसे कही जाती है।
इसके अक्षरोंका सिर, भ्रू-युगल, ललाट, कण्ठ, हृदय, नाभि, गुह्य (मूलाधार), ऊरुद्वय, जानुद्वय, जङ्घाद्वय, व्यापकन्यास करना चाहिये.” ॥ ४-६ ॥
त्वरितादेवी साक्षात् पर्वतराजनन्दिनीकी स्वरूपभूता हैं, इसलिये इनका नाम ‘पार्वती‘ है। शबर (किरात)-का वेष धारण करनेसे उनकी ‘शबरी” कहा गया है। वे सबकी स्वामिनी या सबपर शासन करने में समर्थ होने से “ईशा‘ कहीं गयी हैं।
उनके एक हाथमें वरमुद्रा और दूसरेमें अभयमुद्रा शोभा पाती हैं। मोरपंखका कंगन पहननेसे उनका नाम ‘मयूरवलया” है। मयूरपिच्छका मुकुट धारण करनेसे उन्हें ‘पिच्छमौलि‘ कहा जाता है। नूतन पल्लव ही उनके वस्त्रके उपयोगमें आते हैं, अत: वे ‘किसलयांशुका‘ कही गयी हैं।
वे सिंहासनपर विराजमान होती हैं। मोरपंखका छत्र धारण करती हैं। त्रिनेत्रधारिणी तथा श्यामवर्णा दवा है । आपदितललाम्बिना माला उनका आभूषण हैं। ब्राह्मणजातीय दो नाग अनन्त और कुलिक देवी के कानोंके आभूषण हैं। क्षत्रियजातिके दो नागराज वासुकि और शङ्कपाल उनके बाजूबंद बने हुए हैं। वैश्यजातीय दो नाग तक्षक और महापद्म त्वरितादेवी के कटिप्रदेशमें किङ्किणी बनकर रहते हैं और शूद्रजातीय दो सर्प पद्म तथा कर्कोटक देवीके चरणोंमें नृपुरकी शोभा प्रदान करते हैं।
साधक स्वयं भी देवीस्वरूप होकर उनके मन्त्रका एक लाख जप करे।
पूर्वकालमें देवेश्वर शिव किरातरूपमें प्रकट हुए थे। उस समय दैवी पार्वती भी तदनुरूप ही किराती बन गयी थीं।
सब प्रकार की सिद्धियोंके लिये उनका ध्यान करें। उनके मन्त्रका जप करे तथा उनका पूजन करे। देवी की आराधना विष आदि सब प्रकारके उपद्रवॉकी हर लेती है॥७-१० ॥
(पूर्ववर्णनके अनुसार) कमलके पूर्वादि दलके भीतर कर्णिकामें आठ सिंहासनोंपर निम्नाङ्कित देवियोंका क्रमश: पूजन करे।
हृदयादि छ: अङ्गोंसहित प्रणीता और गायत्रीका पूजन करे।
पूर्वादि दलोंमें हूंकारी आदिकी पूजा करे।
दलाग्रभागमें देवी त्वरिताके सम्मुख फ़ट्कारीकी पूजा करे। इन सब देवियोंके नाममन्त्र के साथ ‘श्री‘ बीज लगाकर उसीसे इनकी पूजा करना चाहिये।
हूंकारी आदिके आयुध और वर्ण उस-उस दिशाके दिक्पालोंके ही समान हैं। परंतु फट्कारी देवी धनुष धारण करती हैं।
मण्डल के द्वार-भागोंमें जया तथा विजयाकी पूजा करे। ये दोनों देवियाँ सुनहरे रंगकी छड़ी धारण करती हैं। उनके बाह्यभागमें देवीके समक्ष द्वारपाल किङ्करका पूजन करना चाहिये, जिसे ‘वर्वर‘ कहा गया है। उसका मस्तक मुण्डित है। (मतान्तरके अनुसार उसके सिरके केश ऊपरकी ओर उठे रहते हैं।) वह लगुडधारी है। उसका स्थान जया-विजयाके बाह्यभागमें है।
इस प्रकार पूजन करके सिद्धिके लिये हवनीय द्र्व्योंद्वारा योन्याकार कुण्डमें हवन करे ॥ ११-१४ ॥
उज्ज्वल धान्यसे हवन करनेपर सुवर्ण-लाभ होता है। गोधूमसे हवन करनेपर पुष्टि-सम्पति प्राप्त होती है। जौ, धान्य (चावल) और तिलोंकी मिश्रित हवनसामग्रीसे हवन करनेपर सब प्रकारकी सिद्धि सुलभ होती है तथा ईतिभयका नाश हो जाता है। बहेड़का हवन किया जाय तो शत्रुको उन्माद हो जाता है। सेमरसे हवन करनेपर शत्रुके प्रति मारणका प्रयोग सफल होता है। जामुनके फलकी आहुतियाँ दी जाय तो उनसे धन-धान्यकी प्राप्ति होती हैं। नील कमलके हवनसे तुष्टि होती है। लाल कमलोंद्वारा होम करनेसे महापुष्टि होती है। कुन्दके फूलोंसे होम किया जाय तो महान् अभ्युदय होता है। मल्लिका कुसुमोंसे हवन करनेपर ग्राम या नगरमें क्षोभ होता है। कुमुद-कुसुमोंकी आहुतिसे साधक सब लोगोंका प्रिय हो जाता है। १५-१७ ॥
अशोक-सुमनोंसे होम किया जाय तो पुत्रकी और पाटलासे होम करनेपर उत्तम अङ्गनाको प्राप्ति होती है। आम्रफलकी आहुतिसे आयु, तिलोंके हवनसे लक्ष्मी, बिल्वके होमसे श्री तथा चम्पाके फूलोंके हवनसे धनकी प्राप्ति होती है। महुएके फूलों और बेलके फलोंसे एक साथ होम करनेपर सर्वज्ञता-शक्ति सुलभ होती है।
त्वरितामन्त्रके तीन लाख जप, होम, ध्यान तथा पूजनसे समस्त अभिलषित वस्तुओंकी प्राप्ति होती है।
मण्डलमें त्वरितादेवीकी अर्चना करके त्वरिता-गायत्रीसे पचीस आहुतियाँ दे। फिर मूलमन्त्रसे पल्लवोंकी तीन सी आहुतियाँ देकर दीक्षा ग्रहण करे।
दीक्षासे पूर्व पश्चगव्य-पान कर ले।
दीक्षितावस्थामें सदा चरु (हविष्य)-का भोजन करना चाहिये ॥ १८-२० ॥
तीन सौ नवाँ अध्याय पूरा हुआ । ॥ ३०९ ॥
अध्याय – ३१० अपरत्वरिता-मन्त्र एवं मुद्रा आदिका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं–मुने! अब मैं दूसरी ‘अपरा विद्या”का वर्णन करता हूँ, जो भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है। धूलिसे निर्मित, वज्रचिह्नसे आवृत और चौकोर भूपुरमण्डलमें त्वरितादेवीकी पूजा करे। उस मण्डलके भीतर योगपीठपर कमलका निर्माण भी होना चाहिये। मण्डलके पूर्वादि दिशाओं तथा कोणोंमें कुल मिलाकर आठ वज्र अङ्कित होंगे। मण्डलके भीतर चौथी, द्वार, शोभा तथा उपशोभाकी भी रचना करे। उसके भीतर उपासक मनुष्य त्वरितादेवीका चिन्तन करे। उनके अठारह भुजाएँ हैं। उनकी बायीं जङ्गा तो सिंहकी पीठपर प्रतिष्ठित है और दाहिनी जङ्गा उससे दुगुनी बड़ी आकृतिमें पीढ़े या खड़ाऊँपर अवलम्बित है। वे नागमय आभूषणोंसे विभूषित हैं। दायें भागके हाथोंमें क्रमश: वज्र, दण्ड, खङ्ग, चक्र, गदा, शूल, बाण, शक्ति तथा वरद मुद्रा धारण करती हैं और वामभाग के हाथोंमें क्रमशः धनुष, पाश, शर, घण्टा, तर्जनी, शुङ्ख, अङ्कुश, अभयमुद्रा तथा वज्र नामक आयुध लिये रहती हैं। १-५ ॥ त्वरितादेवीके पूजनसे शत्रुका नाश होता है। त्वरिताका आराधक राज्यको भी अनायास ही जीत लेता है। वह दीर्घायु तथा राष्ट्रकी विभूति बन जाता है। दिव्य और आदिव्य (दैविक और लौकिक) सभी सिद्धियाँ उसके अधीन हो जाती हैं।
(त्वरिता को ‘तोतला त्वरिता’ भी कहते हैं। इस नामकी व्युत्पत्ति इस प्रकार समझनी चाहिये-)
‘तल‘ शब्दसे सातों पाताल, काल, अग्रि और सम्पूर्ण भुवन गृहीत होते हैं।
ॐकारसे परमेश्वरसे लेकर जितना भी ब्रह्माण्ड है, उन सबका प्रतिपादन होता है।
अपने मन्त्र के आदि अक्षरः ॐ कारसे देवी तलपर्यन्त ‘तोय‘ का त्वरित भ्रामण (प्रक्षेपण) करती हैं, इसलिये वे ‘तोतला त्वरिता‘ कही गयी हैं॥ ६-७६ ॥
अब मैं त्वरिता-मन्त्रको प्रस्तुत करनेका प्रकार बता रहा हूँ।
- भूतलपर स्वरवर्ग लिखे। (स्वरवर्गमें सोलह अक्षर हैं-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ, लृ, ॡ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः। इसके बाद व्यञ्जन वणोंको भी वर्गक्रमसे लिखे – )
- कवर्गके लिये सांकेतिक नाम तालुवर्ग है।
स्वरवर्ग पहला है और तालुवर्ग दूसरा।
- तीसरा जिह्रा-तालुकवर्ग है। (इसमें चवर्गके अक्षर संयोजित हैं।)
- चतुर्थ वर्ग तालु-जिह्रा कहा गया हैं। (इसमें टवर्गके अक्षर हैं।)
- पचंम जिह्रादन्तक वर्ग है। (इसमें तवर्गके अक्षर हैं।)
- षष्ठ वर्गका नाम है-ओठपुट-सम्पन्न। (इसमें पवर्गके अक्षर हैं।)
- सातवाँ मिश्रवर्ग है। (इसमें अन्त:स्थ-य, र, ल, वका समावेश है।)
- आठवाँ वर्ग ऊष्मा या शवर्ग है।
इन्हीं वर्गोके अक्षरोंसे मन्त्रका उद्धार करे॥ ८-१० ॥
छठे स्वर ऊकारपर आरूढ उष्माका द्वितीया अक्षर हकार बिन्दु —से युक्त हो।
ऊ+ ष् +ह्+ अं =हूं (दो बीज एक शक्ति )
तालुवर्गका द्वितीय अक्षर ‘खकार’ ग्यारहवें स्वर ‘एकार’से युक्त हो ।
ख्+ ए=खे (एक बीज एक शक्ति )
जिह्रा-तालु-समायोगका केवल प्रथम अक्षर ‘चकार’ हो, उसके नीचे उसी वर्गका दूसरा अक्षर ‘छकार’ हो और वह ग्यारहवें स्वर ‘एकार’ से संयुक्त हो।
च्+ छ्+ ए=च्छे (एक बीज दो शक्ति)
तालुवर्गका प्रथम अक्षर ‘क्’ हो, फिर उसके नीचे ऊष्माका द्वितीय अक्षर ‘ष’ को देखकर जोड़ दे और उसे सोलहवें स्वर-‘अः’ से संयुक्त करे (क्ष:)।
क्+ ष्+ अः=क्ष: (एक बीज दो शक्ति)
ऊष्माका तीसरा अक्षर ‘स्’ हो, उसके नीचे जिह्रादन्त-समायोगके प्रथम अक्षर ‘तकार’को जोड़े। उसके नीचे मिश्रवर्गका दूसरा अक्षर ‘रकार’ जोड़े और उसे चौथे स्वर “ईकार से जोड़ दे-।
स्+ त्+ र्+ ई=स्त्री (एक बीज तीन शक्ति)
तदनन्तर तालुवर्गके आदि अक्षर ‘क्’ के नीचे ऊष्माका द्वितीय अक्षर ‘ष’ जोड़ दे और उसको ग्यारहवें स्वरसे मिला दे(क्षे)।
क्+ ष्+ ए=क्षे (एक बीज दो शक्ति)
इसके बाद ऊष्माके अन्तिम अक्षर ‘हकार”को अनुस्वारयुक्त करके पाँचवें स्वरपर आरूढ़ कर दे (हुं)।
ह्+ अं+ उ=हुं (दो बीज एक शक्ति)
ओष्ठसम्पुटयोगसे दूसरा अक्षर ‘फ’ और जिह्राग्र तालुयोगसे द्वितीय अक्षर ‘ट्’को पञ्चम ‘ण’के रूप में परिणत करके जोड़ना चाहिये।
फ्+ छ् + ण्= ? फट् (तीन शक्ति)
स्वर तथा अर्द्ध-व्यञ्जन वर्णोके साथ उद्धृत हुएये अक्षर ‘ तोतला त्वरिता”के मन्त्र हैं।
इनके आदिमें ॐकार और अन्तमें ‘नमः’ जोड़नेपर जो मन्त्र बने, उसका तो जप करे, किंतु अग्रिकार्य (हवन)-में ‘नम:’ को हटाकर ‘स्वाहा’ जोड़ देना चाहिये।
ॐ हूं खे च्छे क्ष: स्त्री क्षे हुं फट् नमः
(तात्पर्य यह है कि ‘ॐ हूं खे च्छे क्षः स्त्री क्षेहूं फट् नम:।’- यह जपमन्त्र है और ‘ॐ हूं खे च्छे क्ष: स्त्री क्षे हुं फट् स्वाहा”-यह हवनोपयोगी मन्त्र है) ॥ ११-१८॥
इसका अङ्गन्यास इस प्रकार है-
ॐ ह्रीं हूं ह्रः हृदयाय नमः ।
हां हः शिरसे स्वाहा ।
ह्रीं ज्वल ज्वल शिखायै वषट् ।
हनुहनु कवचाय हुम् ।
ह्रीं श्रीं क्षूं नेत्रत्रयाय वौषट् ।
नवाँ (फ) और आधा अक्षर (ट्) रूप जो तोतला-त्वरिता-विद्या है, उसीको देवीका नेत्र कहा गया है। ????
क्षौं हः खौ हूं फट् अस्त्राय फट् । ये गुह्य अङ्गमन्त्र हैं। इनका पहले न्यास करे॥ १९-२० ॥
त्वरिताके अङ्गोका वर्णन आगे चलकर करुगां।
इस समय त्वरिता-विद्याके अङ्गोंका वर्णन मुझसे सुनो-
प्रथम दो बीजाक्षर या मन्त्राक्षर हृदय हैं, (ॐ, अ)
तीसरा और चौथा-ये दो अक्षर स्थिर हैं, (क्, च्)
पाँचवाँ और छठा-ये अक्षर शिखाके मन्त्र कहे गये हैं। (ट, त्)
सातवाँ और आठवाँ कवच-मन्त्र हैं,
नवाँ और आधा अक्षर तारक (फट्) है। यही नेत्र कहा गया है।
(प्रयोग-
ॐ हूं हृदयाय नमः ।
खे च्छे शिरसे स्वाहा ।
क्ष: स्त्री शिखायै वषट् ।
क्षे हुम् कवचाय हुम्।
फट् नेत्रत्रयाय वौषट्।)॥ २१-२२॥
तोतले वज्रतुण्डे ख ख हूं ।
-इन दस अक्षरोंसे युक्त ‘वज्रतुण्डिका’ नामक ‘इन्द्रदूतिका विद्या‘ है।
खेचरि ज्वालिनि ज्वाले ख ख ।
– इन दस अक्षरोंसे युक्त ‘ज्वालिनी विद्या‘ है।
वर्चे शरविभीषणि ख खे ।
– यह दशाक्षरा ‘शबरी विद्या‘ है।
छे छेदनि करालिनि ख ख ।
-यह दशाक्षरा “कराली विद्या‘ है।
क्षः श्रव द्रव प्लवङ्गि ख खे ।
– यह दशाक्षर ‘प्लवङ्गदूती विद्या‘ है।
स्त्रीबलं कलिधुननि शासी ।
-यह दशाक्षरा’ श्वसनवेगिका विद्या‘ है।
क्षे पक्षे कपिले हंस ।
-यह दशाक्षरा ‘कपिलादूतिका विद्या‘ है।
हूं तेजोवति रौद्रि मातङ्गि ।
-यह दशाक्षरा ‘रौद्री‘ दूतिका है
पुटे पुटे ख ख खड्गे फट् ।
-यह दशाक्षरा ‘ब्रह्मदूतिका विद्या‘ है।
वैताली में उक्त सभी मन्त्र दशाक्षर होते हैं। अन्य विस्तारकी बातें पुआलकी भाँति सारहीन हैं। उन्हें छोड़ देना चाहिये।
न्यास आदिमें हृदयादि अङ्गोंका उपयोग है। नेत्रका सुधी पुरुष मध्यमें न्यास करें ॥ २३-२८ ॥
पैरसे लेकर मस्तकतक तथा मस्तक से लेकर पैरोतक चरण, जानु ऊरु, गुह्य, नाभि, हृदय तथा कण्ठदेशसे मुखमण्डलपर्यन्त ऊपर-नीचे आदिबीजसे निर्गत सोमरूप ‘अकार‘, जो अमृतकी धारा एवं सुवाससे परिपूर्ण है, ब्रह्मरन्ध्रसे मुझमें प्रवेश कर रहा है, ऐसा साधक चिन्तन करे।
मन्त्रोपासक मूर्धा, मुख, कण्ठ, हृदय, नाभि, गुह्म, ऊरु, जानु और पैरोंमें तथा तर्जनी आदि में आदिबीजका बारंबार न्यास करे।
ऊपर अमृतमय सोम है, नीचे बीजाक्षररूप शरीर-कमल है।
इस गूढ़ रहस्यकी जो जानता है, उसकी मृत्यु नहीं होती है। इस मन्त्र के जपसे रोग-व्याधिका अभाव हो जाता है।
न्यास और ध्यानपूर्वक त्वरितादेवीका पूजन और उनके मन्त्रका एक सौ आठ बार जप करे* ॥ २९-३३ ॥
अब मैं ‘प्रणीता” आदि मुद्राओंका वर्णन करूंगा। ‘प्रणीता’ मुद्राएँ पाँच प्रकारकी मानी गयी हैं-
प्रणीता‘, ‘सबीजा ‘, ‘भेदनी‘, ‘कराली‘ और ‘वज्रतुण्डा‘।
दोनों हाथोंको परस्पर ग्रथित करके बीच में अँगूठोंको डाल दे और तर्जनीकों ऊपर लगाये रखें, इसका नाम ‘प्रणीता” है। इसे हृदयदेशमें लगाये।
इसी मुद्रामें कनिष्ठिका अँगुलीको ऊपरकी ओर उठाकर मध्यमें रखे तो वह द्विजोंद्वारा ‘सबीजा“के नामसे मानी जाती है।
यदि तर्जनीके बीचमें अनामिकाको परस्पर संलग्न करके अङ्गुष्ठके अग्रभागकों मध्यभागमें रखे तो वह ‘भेदनी‘ मुद्रा कही गयी है।
उस मुद्राको नाभिदेशमें निबद्ध करके अङ्गुष्ठका जल छिड़के। उसीको मन्त्रसाधकके योजित करनेपर ‘कराली‘ नामक महामुद्रा होती है।
फिर पूर्ववत् ब्रह्मलग्रा ज्येष्ठाको ऊपर उठाये तो वह ‘वज्रतुण्डा मुद्रा‘ होती है। उसको वज्रदेशमें आबद्ध करे।
दोनों हाथोंसे मणिबन्ध (कलाई)-को बाँधे और तीन-तीन अँगुलियोंको फैलाये रखे, इसे “वज्रमुद्रा‘ कहते हैं।
दण्ड, खड्ग, चक्र और गदा आदि मुद्राएँ उनकी आकृतिके अनुसार बतायी गयी हैं।
अङ्गुष्ठसे तीन अँगुलियोंको आक्रान्त करे, वे तीनों ऊर्ध्वमुख हों तो ‘त्रिशूलमुद्रा‘ होती है।
एकमात्र मध्यमा अँगुली ऊपरकी ओर उठी रहे तो ‘शक्तिमुद्रा‘ सम्पादित होती है।
बाण, वरद, धनुष, पाश, भार, घण्टा, शङ्ख, अङ्कुश, अभय और पद्म-ये (प्रणीतासे लेकर पद्मतक कुल) अट्ठाईस मुद्राएँ कही गयी हैं।
ग्रहणी, मोक्षणी, ज्वालिनी, अमृता और अभया-ये पाँच ‘प्रणीता‘ नामवाली मुद्राएँ हैं। इनका पूजन और होममें उपयोग करना चाहिये ॥ ३४-३७ ।
तीन सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३१० ॥
अध्याय – ३११ त्वरिता-मन्त्र के दीक्षा-ग्रहण की विधि
अग्निदेव कहते हैं–मुने! अब सिंहासनपर स्थित वज्रसे व्याप्त कमलमें मन्त्र-न्यासपूर्वक दीक्षा आदिका विधान बताऊँगा। १ ॥
हे हे हुति वज्रदन्त पुरु पुरु लुलु गर्ज गर्ज इह सिंहासनायनम: ।
यह सिंहासनके पूजनका मन्त्र है।
चार रेखा खड़ी और चार रेखा तिरछी या (पड़ी) खींचे। इस प्रकार नौ भागोंके विभाग करके विद्वान् पुरुष नौ कोष्ठ बनाये।
प्रत्येक दिशाके कोष्ठ तो रख लें और कोणावर्ती कोष्ठ मिटा दे। अब बाह्य दिशा में जो कोष्ठ बच जाते हैं, उनके कोणोंतक जो रेखाएँ आयी हैं, उनकी संख्याएँ आठ कही गयी हैं।
बाह्यकोष्ठके बाह्य-भागमें ठीक बीचों-बीच में वज्रका मध्यवर्ती शृङ्ग होता हैं।
बाह्यरेखाके दो भाग करने पर जो रेखार्द्ध बनता है, उतना ही बड़ा शृङ्ग होना चाहिये।
बाहरी रेखा टेढ़ी होनी चाहिये। विद्वान् पुरुष उसे द्विभङ्गी बनाये।
मध्यवर्ती कोष्ठको कमलकी आकृति में परिणत करे। वह पीले रंगकी कर्णिकासे सुशोभित हो।
काले रंगके चूर्णसे कुलिशचक्र बनाकर उसके ऊपरी सिरे या शृङ्गकी आकृति खङ्गाकार बनाये।
चक्रके बाह्यभाग में चौकोर लिखे, जो वज्रसम्पुटसे चिह्रित हो।
भृपुरके द्वारपर मन्त्रोपासक चार वज्रसम्पुट दिलाये।
पद्म और वामवीथी सम होनी चाहिये।
कमलका भीतरी भाग (कणिका) और केसर लाल रंग के लिखे और मण्डलमें स्त्रियोंकी दीक्षित करके मन्त्रजपका अनुष्ठान करवाये तो राजा शीघ्र ही परराष्ट्रोंपर विजय पाता है और यदि अपना राज्य छिन गया हो तो उसे भी वह शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है।
प्रणव-मन्त्र (ॐकार)-से संदीप्त (अतिशय तेजस्विनी) की हुई मूर्तिको हुंकारसे नियोजित करे।
ब्रह्मन्! वायु तथा आकाशके बीज (यं ह)- से सम्पुटित मूलविद्याका उच्चारण करके आदि और अन्तमें भी कर्णिकामें पूजन करे।
इस प्रकार प्रदक्षिण-क्रमसे आदिसे ही एक-एक अक्षररूप बीजका उच्चारण करते हुए कमलदलोंमें पूजन करना चाहिये ॥ २-११ ॥
दलोंमें विद्याके अङ्गोंकी पूजा करे।
आग्रेय दिशासे लेकर वामक्रमसे नैऋत्य-दिशातक हृदय, सिर, शिखा, कवच तथा नेत्र-इन पाँच अङ्गोकी पूजा करके मध्यभाग (कर्णिका)-में पुन: नेत्रकी तथा सम्पूर्ण दिशाओंमें अस्त्रकी पूजा करनी चाहिये।
गुह्याङ्गमें रक्षाकी तथा केसरोंमें वामदक्षिण-पार्श्वमें विद्यमान पाँच-पाँच हुतियोंकी अपने-अपने नाम-मन्त्रोंसे पूजा करे।
गर्भमण्डल के बाह्यभाग में आठ लोकपालोंका न्यास करे।
वर्णान्त (क्ष या ह)-को अग्रि (र)-के ऊपर चढ़ाकर उसे छठे स्वर (ऊ)-से विभेदित करे और पंद्रहवें स्वर (“) बिन्दुओंकी उसके सिरपर चढ़ाकर उस (क्षूं) (अथवा हूं) बीजको’ आदिमें रखकर उनकी पूजा करे।
फिर शीघ्र ही सिंहासनपर कमलकी कर्णिकामें गन्ध आदि उपचारोंद्वारा पूजन करे। इससे श्रीकी प्राप्ति होती है। १२-१५ ॥
तदनन्तर एक सौ आठ मन्त्रोंद्वारा अभिमन्त्रित आठ कलशोंद्वारा कमलको वेष्टित कर दे।
फिर एक हजार बार मन्त्र-जप करके दशांश होम करे।
पहले अग्रि-मन्त्र (रं)-से कुण्डमें अग्रिको ले जाय और हृदयमन्त्र (नम:)-से उसको वहाँ स्थापित करे। साथ ही कुण्डके भीतर अग्रियुक्त शक्तिका ध्यान करे।
तदनन्तर उस शक्ति में गर्भाधान, पुंसवन तथा जातकर्म-संस्कारके उद्देश्यसे हृदयमन्त्रद्वारा एक सौ आठ बार होम करे।
फिर गुह्याङ्गके द्वारसे नूतन अग्निके जन्म होनेकी भावना करे।
फिर मूलविद्याके उच्चारणपूर्वक पूर्णाहुति दे। इससे शिवाग्रिका जन्म सम्पादित होता है।
फिर मूलमन्त्रसे उसमें सौ आहुतियाँ दे।
तत्पश्चात् अङ्गोके उद्देश्यसे दशांश होम करे। इसके बाद शिष्यकों देवी के हाथ में सौंपे और उसका मण्डलमें प्रवेश कराये।
फिर अस्त्र-मन्त्रसे ताडन करके गुह्राअंगोंका विद्याके अंगोंसे संनद्ध शिष्यको विद्याअंगोंमें नियोजित करे । उसके द्वारा पुष्पका प्रक्षेप करवाये तथा उसे अग्रिकुण्डके समीप ले जाय।
तदनन्तर जौ, धान्य, तिल और घीसे मूलविद्याके उच्चारणपूर्वक सौ आहुतियाँ दे।
प्रथम होम स्थावरयोनिमें पहुँचाकर उससे मुक्ति दिलाता हैं और दूसरा सरीसृप (साँप, बिच्छू आदि)-की योनिसे। तदनन्तर क्रमशः पक्षी, मृग, पशु और मानवयोनिकी प्राप्ति और उससे मुक्ति होती है।
फिर क्रमश: ब्रह्मपद, विष्णुपद तथा अन्तमें रुद्रपदकी प्राप्ति होती है।
अन्तमें पूर्णाहुति कर देनी चाहिये।
एक आहुतिसे शिष्य दीक्षित होता है और उसे मोक्षप्राप्तिका अधिकार मिल जाता है।
अब मोक्ष कैसे होता है, यह सुनो ॥ १६–२४॥
जब मन्त्रोपासक समेरूपर सदाशिवपदमें स्थित हो तो दूसरे दिन स्वस्थचित्त होकर अकर्म और कर्मक्षयके लिये एक हजार आहुतियाँ दे। फिर पूर्णाहुति करके मन्त्रयोगी पुरुष धर्म-अधर्मसे लिप्त नहीं होता है, मोक्ष प्राप्त कर लेता है। वह उस परमपदको पहुँच जाता है, जहाँ जाकर मनुष्य फिर इस संसारमें नहीं लौटता।
जैसे जलमें डाला हुआ जल उसमें मिलकर एकरूप हो जाता है, उसी प्रकार जीव शिवमें मिलकर शिवरूप हो जाता है।
जो कलशोद्वारा अभिषेक करता है, वह विजय तथा राज्य आदि सब अभीष्ट वस्तुओंको प्राप्त कर लेता है।
ब्राह्मणकुलमें उत्पन्न कुमारी कन्याका पूजन करे तथा गुरु आदिको दक्षिणा दे।
प्रतिदिन पूजा करके एक सहस्र आहुतियाँ अग्रिमें देनी चाहिये। तिल और घीसे पूर्ण आहुति देनेपर त्वरिता देवी लक्ष्मी एवं अभिमत वस्तु देती हैं। वे विपुल भोग प्रदान करती हैं तथा और भी जो कुछ साधक चाहता है, उसे माता त्वरिता पूर्ण करती हैं।
मन्त्रके जितने अक्षर हैं, उतने लाख जप करनेसे मनुष्य निधियोंका अधिपति होता है, दुगुना जप करनेपर राज्यकी प्राप्ति होती है, त्रिगुण जप करे तो यक्षिणी सिद्ध हो जाती है, चौगुने जपसे ब्रह्मपद, पाँचगुने जपसे विष्णुपद तथा छ:गुने जपसे महासिद्धि सुलभ होती है।
मन्त्रके एक लाख जपसे मनुष्य अपने पापोंका नाश कर देता है, दस बार जप करनेसे देहशुद्धि होती है, सौ बारके जपसे तीर्थस्नानका फल होता है।
वेदीपर पट या प्रतिमा रखकर उसके समक्ष सौ, हजार अथवा दस हजारकी संख्यामें जप करके हवन करना बताया गया है। इस प्रकार विधानपूर्वक जप करके एक लाख हवन करे।
तिल, जौ, लावा, धान, गेहूँ, कमल-पुष्प (पाठान्तरके अनुसार आमके फल) तथा श्रीफल (बेल)-इन सबको एकत्र करके इनमें घी मिलावे और उस होम-सामग्रीसे हवन करके व्रत करे।
रातमें कवच आदिसे संनद्ध हो खङ्ग, धनुष तथा बाण आदि लेकर एक वस्त्र धारण करके उपर्युक्त वस्तुओंसे ही देवीकी पूजा करे।
वस्त्रका रंग चितकबरा, लाल, पीला, काला अथवा नीला होना चाहिये।
मन्त्रवेत्ता विद्वान् दक्षिणदिशा में जाकर मण्डपके द्वारपर दूती-मन्त्रसे बलि अर्पित करे। यह बलि द्वार आदिमें अथवा एक वृक्षवाले शमशानमें भी दी जा सकती है। ऐसा करनेसे साधक राजा हो समस्त कामनाओंका तथा सारी पृथ्वीके राज्यका उपभोग कर सकता है। २५-३७ ॥
तीन सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥
अध्याय – ३१२ त्वरिता-विद्यासे प्राप्त होनेवाली सिद्धियोंका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं–मुने! अब मैं विद्याप्रस्तावक वर्णन करूंगा, जो धर्म, काम आदिकी सिद्धि प्रदान करनेवाला है। नौ कोष्ठोंके विभागसे विद्याभेदकी उपलब्धि होती है। अनुलोम- विलोमयोग, समास-व्यासयोग, कर्णाविकर्णयोग, अध-ऊर्ध्व-विभागयोग तथा त्रित्रिक योगसे देवी के द्वारा जिसके शरीरकी सुरक्षा सम्पादित हुई है, वह साधक सिद्धिदायक मन्त्रों तथा बहुत-से निर्गत प्रस्तावोंकी जानता है।
शास्त्र-शास्त्रमें मन्त्र बताये गये हैं, किंतु वहाँ उनके प्रयोग दुर्लभ हैं।
प्रथम गुरु वर्ण ही होता है। उसका पूर्वकालमें वर्णन नहीं हुआ है। वहाँ प्रस्तावमें एकाक्षर, द्वयक्षर तथा त्र्यक्षर मन्त्र प्रकट हुए।
चार–चार खड़ी तथा पड़ी रेखाएँ खींचे। इस प्रकार नौ कोष्ठ होते हैं। मध्यकोष्ठसे आरम्भ करके प्रदक्षिणक्रमसे मन्त्रके अक्षरोंका उनमें न्यास करे।
तदनन्तर प्रस्ताव-भेदन करे। प्रस्तावक्रमयोगसे जो प्रस्तावकों प्राप्त करता है, उस साधककी मुट्टीमें सारी सिद्धियाँ आ जाती हैं। सारी त्रिलोकी उसके चरणोंमें झुक जाती है। वह नौ खण्डोंमें विभक्त जम्बूद्वीपकी सम्पूर्ण भूमिपर अधिकार प्राप्त कर लेता है।
कपाल-पर अथवा शमशान के वस्त्र-पर सब और शिवतत्व लिखकर मन्त्रवेत्ता पुरुष बाहर निकले और मध्यभागमें कर्णिकाके ऊपर अभीष्ट व्यकिविशेषका भोजपत्रपर नाम लिखकर रख दे। फिर खैरकी लकड़ीसे तैयार किये गये अङ्गारोंद्वारा उस भोजपत्रको तपाकर दोनों पैरोंके नीचे दबा दे। यह प्रयोग एक ही सप्ताहमें चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिभुवनको भी चरणोंमें ला सकता है।
वज्रसम्पुट गर्भसे युक्त द्वादशारचक्रकेमध्यमें द्वेश्य व्यक्तिका नाम लिखकर रखें। उस नामको ‘सदाशिव’ मन्त्र से विदर्भित (कुशद्वारा मार्जित) कर दे। उक्त द्वादशारचक्र तथा नाम आदिका उल्लेख हल्दीसे दीवार पर, काष्ठफलक पर अथवा शिलापट्टपर करना चाहिये। ऐसा करनेसे शत्रुके मुख, गमनशक्ति तथा सेनाका भी स्तम्भन (अवरोध) हो जाता हैं॥ १-१२ ॥
शमशान के वस्त्रपर विषमिश्रित रक्तसे षट्कोणचक्रका उल्लेख कर उसके मध्यमें शत्रुका नाम लिखें। फिर उस चक्रकों चारों और शक्तिबीजसे योजित करके उसपर डडा रख दे। फिर साधक शमशानभूमिपर रखे हुए उस शत्रुपर शीघ्र दण्डसे प्रहार करे। यह प्रयोग उस शत्रु-राजाके राष्ट्रको खण्डित कर देता है।
इसी तरह चक्राकार मण्डल बनाकर उसके मध्यभागमें शत्रुके नामको स्थापित कर दे। चक्र की धारा में शक्तिबीजका न्यास करे। शत्रुका नाम लेकर उसपर भावनाद्वारा उत्त चक्रधारसे प्रहार करे। इससे शत्रुका हरण होता है।
इसी प्रकार खङ्गके मध्यभागमें गरुडबीजके साथ शत्रुका नाम लिखकर उसका पूर्ववत् विदभीकरण करे। उक्त नाम शमशानभूमिकी चिताके कोयलेसे लिखना चाहियें। उसपर चिताके भस्मसे प्रहार करे। ऐसा करनेसे साधक एक ही सप्ताह में शत्रुके देशको अपने अधिकारमें कर लेता है। वह छेदन, भेदन और मारणमें शिव के समान शक्तिशाली हो जाता है।
तारक -को नेत्र कहा गया है। उसका शान्ति-पुष्टिकर्ममें नियोग करे। यह दहनादि प्रयोग शाकिनीको भी आकर्षित कर लेता है।
पूर्वोत नौ चक्रोंमें मध्यगत मन्त्राक्षर से लेकर पश्चिम-दिशावर्ती कोष्ठतकके दो अक्षरोंको वक्रतुण्ड-मत्रके साथ जपनेसे कुष्ठ आदि जितने भी चर्मगत रोग हैं, उन सबका नाश हो जाता है, इसमें संशय नहीं हैं।
मध्यकोष्ठसे उत्तरवर्ती कोष्ठतकके दो अक्षरवाले मन्त्रको ‘करालीबन्ध” के साथ जप करे तो वह द्वचक्षरीविद्या, यदि साक्षात् शिव प्रतिवादी हों तो उनसे भी अपनी रक्षा करवाती हैं।
इसी प्रकार पश्चिमगत मन्त्राक्षरको आदिमें रखकर उत्तर कोष्ठतक के मंत्राक्षरोंको ‘वक्रतुण्ड-मन्त्र’के साथ जप किया जाय तो ज्वर तथा खाँसीका नाश होता है।
उत्तरकोष्ठसे लेकर मध्यकोष्ठतकके मंत्राक्षारोका एक-एक साथ जप किया जाय तो साधककी इच्छासे वटके बीजमें गुरुता (भारीपन) आ सकती है।
इसी तरह पूर्वादि-मध्यमान्त अक्षरोंके जपसे वह तत्काल उसमें लघुता (हल्कापन) ला सकता है।
भोजपत्रपर गोरोचनाद्वारा वज्रसे व्याप्त भृपुरचक्र लिखकर, अनुलोमक्रमसे स्थित मन्त्र-बीजोंको लिखकर, उसे मन्त्रवत् धारण करके साधक अपने शरीरकी रक्षा करे।
भावपूर्वक सुर्वणमें मढाकर धारण किया गया यह “रक्षायन्त्र” मृत्युका भी नाश करनेवाला होता है। वह विध्न, पाप तथा शत्रुओंका दमन करनेवाला है तथा सौभाग्य और दीर्घायु देनेवाला है। यह ‘रक्षायन्त्र’ धारण किया जाय तो वह जूआ तथा युद्धमें भी विजयदायक होता है। इन्द्रकी सेनाके साथ संग्राम हो तो उसमें भी वह विजय दिलाता है, इसमें संशय नहीं है। यह ‘रक्षायन्त्र’ वन्ध्याको भी पुत्र देनेवाला तथा दूसरी चिन्तामणिके समान मनोवाञ्छाकी पूर्ति करनेवाला है। इससे रक्षित हुआ मनुष्य परराष्ट्रोंपर भी अधिकार पाता हैं तथा राज्य और पृथ्वीको जीत लेता है।
फट् स्त्रीं क्षें हूं -इन चार अक्षरोंका एक लाख जप करनेसे यक्ष आदि भी वशीभूत हो जाते हैं॥ १३-२५ ॥
तीन सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३१२ ॥
अध्याय – ३१३ नाना मन्त्रोका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं– अब में सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान् विनायक (गणेश)-के पूजनकी विधि बताऊँगा।
योगपीठपर प्रथम तो आधारशक्तिकी पूजा करे। फिर अग्रि आदि कोणों तथा पूर्वादि दिशाओंमें क्रमश: धर्मं, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य तथा अनैश्चर्यं—इन आठकी अर्चना करे।
तदनन्तर कन्द, नाल, पद्म, कर्णिका, केसर और सत्वादि तीन गुणोंकी और पद्मासनकी पूजा करे।
इसके बाद तीव्रा, ज्वालिनी, नन्दा, सुयशा (भोगदा), कामरूपिणी, उग्रा, तेजोवती, सत्या तथा विघ्ननाशिनी-इन नौ शक्तियोंकी पूजा करे।
तत्पश्चात् गणेशजीकी मूर्तिका अथवा मूर्तिके अभावमें ध्यानोक्त गणपतिमूर्तिका पूजन करे।
इसके बाद हृदयादि अङ्गोंकी पूजा करनी चाहिये।
पूजनके प्रयोगवाक्य इस प्रकार हैं-
गणंजयाय हृदयाय नमः ।
एकदन्ताय उत्कटाय शिरसे स्वाहा ।
अचलकर्णिने शिखायै वषट् ।
गजवक्त्राय हुं फट् कवचाय हुम् ।
महोदराय दण्डहस्ताय अस्त्राय फट् ।
-इन पाँच अङ्गोंमेंसे चारकी तो पूर्वादि चार दिशाओंमें और पान्चवेकी मध्यभागमें पूजा करे ॥ १-४ ॥
तदनन्तर गणंजय, गणाधिप, गणनायक, गणेश्वर, वक्रतुण्ड, एकदन्त, उत्कट, लम्बोदर, गजवक्त्र और विकटानन-इन सबकी पद्मदलोंमें पूजा करे।
फिर मध्यभागमें-
हूं विध्ननाशनाय नमः।
महेन्द्राय-धूम्रवर्णाय नमः ।
-यों बोलकर विध्ननाशन एवं धूम्रवर्णकी पूजा करे। फिर बाह्यभागमें विघ्नेशका पूजन करे॥ ५-६ ॥
अब मैं ‘त्रिपुराभैरवी के पूजनकी विधि बताऊँगा।
इसमें आठ भैरवोंका पूजन करना चाहिये। उनके नाम इस प्रकार हैं-असिताङ्ग भैरव, रुरुभैरव, चण्डभैरव, क्रोधभैरव, उन्मत्तभैरव, कपालिभैरव, भीषणभैरव तथा संहार भैरव।
ब्राह्मी आदि मातृकाएँ भी पूजनीय हैं। (उनके नाम इस प्रकार हैं – ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इन्द्राणी, चामुण्डा तथा महालक्ष्मी) ।
अकार आदि हस्व स्वरोंके बीजको आदिमें रखकर भैरवोंकी पूजा करनी चाहिये तथा आकार आदि दीर्घ अक्षरोंके बीजको आदिमें रखकर ‘ब्राह्मी” आदि मातृकाओंकी अर्चना करनी चाहिये’।
अग्रि आदि चार कोणोंमें चार वटुकोंका पूजन कर्तव्य है। समयपुत्र वटुक, योगिनीपुत्र वटुक, सिद्धपुत्र वटुक तथा चौथा कुलपुत्र वटुक-ये चार वटुक हैं।
इनके अनन्तर आठ क्षेत्रपाल पूजनीय हैं। इनमें ‘हेतुक’ क्षेत्रपाल प्रथम हैं और ‘त्रिपुरान्त’ द्वितीय। तीसरे ‘अग्निवेताल’ चौथे “अग्निजिह्रा” पान्चवे “कराल” छठे “काललोचन” हैं। सातवें ‘एकपाद’ तथा आठवें ‘भीमाक्ष” कहे गये हैं। (ये सभी क्षेत्रपाल यक्ष हैं।)
इन सबका पूजन करके त्रिपुरादेवीके प्रेतरूप पद्मासनकी पूजा करे।
यथा-
ऐं क्षैं प्रेतपद्मासनायनमः।
ॐ ऐं ह्रीं हसौः त्रिपुरायै प्रेतपद्मासनसमास्थितायै नमः ।
– इस मन्त्रसे प्रेतपद्मासनपर विराजमान त्रिपुराभैरवीकी पूजा करे। उनका ध्यान इस प्रकार है-‘त्रिपुरादेवी’ बायें हाथमें अभय एवं पुस्तक धारण करती हैं तथा दायें हाथमें वरदमुद्रा एवं माला । देवी बाणसमूह से भरा तरकस और धनुष भी लिये रहती हैं।
मूलमन्त्रसे हृदयादि न्यास करे ॥ ७ – १२ ॥
(अब प्रयोगविधि बतायी जाती है-)
गोसमूहके मध्यमें स्थित हो, श्मशान आदिके वस्त्रपर चिताके कोयलेसे अष्टदलकमलका चक्र लिखे या लिखावे । उसमें द्वेषपात्रका नाम लिखकर लपेट दे। फिर चिताकी राखको सानकर एक मूर्ति बनावे । उसमें द्वेषपात्रकी स्थितिका चिन्तन करके उक्त यन्त्रको नीले रंगकी डोरसे लपेटकर मूर्तिके पेटमें घुसेड़ दे। ऐसा करनेसे उस व्यक्तिका उच्चाटन हो जाता है ॥ १३-१४ ॥ ज्वालामालिनी-मन्त्र
ॐ नमो भगवति ज्वालामालिनि गृध्रगणपरिवृते स्वाहा।
इस मन्त्रका जप करते हुए युद्धमें जानेवाले पुरुषकों प्रत्यक्ष विजय प्राप्त होती है। १५-१६ ॥
श्रीमन्त्र
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रियै नमः ॥ १७॥
चतुर्दल कमलमें उत्तरादि दलके क्रमसे क्रमश: धृणिनी, सूर्या, आदित्या और प्रभावती-इन चार श्रीदेवियोंका उक्त मन्त्रसे पूजन करके मन्त्र जपनेसे श्रीकी प्राप्ति होती है। ये सभी श्रीदेवियाँ सुवर्णगिरिके समान परम सुन्दर कान्तिवाली हैं ॥ १८॥
गौरीमन्त्र
ॐ ह्रीं गौर्यै नमः।
-इस मन्त्रद्वारा जप, होम, ध्यान तथा पूजन किया जाय तो यह साधककी सब कुछ प्रदान करनेवाला है। गौरीदेवीकी अङ्गकान्ति अरुणाभ गौर है। उनके चार भुजाएँ हैं। वे दाहिने दो हाथोंमें पाश तथा वरदमुद्रा धारण करती हैं और बायें दो हाथोंमें अङ्कुश एवं अभय।
शुद्ध चित्तसे गौरीदेवीकी प्रार्थना (आराधना) करनेवाला बुद्धिमान् पुरुष सौ वर्षोंतक जीवित रहता है तथा उसे चोर आदिका भय नहीं प्राप्त होता है।
युद्धस्थलमें इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित जलको पी लेनेसे अपने ऊपर क्रोधसे भरा हुआ पुरुष भी प्रसन्न हो जाता है।
इस मन्त्रसे अञ्जन और तिलक लगाने पर वशीकरण सिद्ध होता है तथा जिह्राग्रपर इसके लेखसे (अथवा जपसे भी) कवित्व-शक्ति प्रस्फुटित होती है।
इसके जपसे स्त्री-पुरुषके जोड़े वशमें हो जाते हैं।
इसके जपसे सूक्ष्म योनियोंके भी दर्शन होते हैं।
स्पर्श करनेमात्रसे मनुष्य वशमें हो जाता है।
इस मन्त्रद्वारा तिलकी आहुति देनेपर सारे मनोरथ सिद्ध होते हैं।
इस मन्त्र से सात बार अभिमन्त्रित करके अनका भोजन करनेवाले पुरुषके पास सदा श्री (धन-सम्पति) बनी रहती है।
इसके आदिमें लक्ष्मी-बीज (श्रीं) और वैष्णव-बीज (क्लीं) जोड़ दिया जाय तो यह ‘अर्धनारीश्वर-मन्त्र’ हो जाता है।
अनङ्गरूपा, मदनातुरा, पवनवेगा, भुवनपाला, सर्वसिद्धिदा, अनङ्गमदना और अनङ्गमेखला-ये शक्तियाँ हैं। इनके नाममन्त्रोंके जपसे लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है।
कमलके दलोंमें ह्रीं, स्वर, कादि व्यज्ञन लिखकर बीच में अभीष्ट स्त्रीका नाम लिखें। षट्कोण-चक्र या कलशमें भी लिख सकते हैं। लिखकर उसके उद्देश्यसे जप करनेपर ‘वशीकरण’ होता है। १९-२६ ॥
नित्यक्लिन्ना-मन्त्र
ॐ ह्रीं ऐं नित्यक्लिन्ने मदद्रवे स्वाहा ।
यह छ: अङ्गोंवाला मूलमन्त्र है (तीन बीज और तीन पद मिलाकर छ: अङ्ग होते हैं)। लाल रंगके त्रिकोण-चक्र में अष्टदल कमलका चिन्तन करके उसमें ‘द्राविणी’ आदिका पूजन करे। पूर्वादि दिशाओंमें ‘द्राविणी’ आदि चार शक्तियों तथा ईशानादि कोणोंमें ‘अपरा’ आदि चार शक्तियोंका चिन्तन-पूजन करना चाहिये। उनके क्रमानुसार नाम यों जानने चाहिये-द्राविणी, वामा, ज्येष्ठा, आह्रादकारणी, अपरा, क्षोभिणी, रौद्री तथा गुणशक्ति।
देवीका ध्यान इस प्रकार करे-वे रक्तवर्णा हैं और उसी रंगके वस्त्राभूषण धारण करती हैं। उनके दो हाथोंमें पाश और अङ्कुश है, दो हाथोंमें कपाल तथा कल्पवृक्ष हैं तथा दो हाथोंसे उन्होंने वीणा ले रखी है।
नित्या, अभया, मङ्गला, नववीरा, सुमङ्गला, दुर्भगा और मनोन्मनी तथा द्रावा-इन आठ देवियोंका पुर्वादि दिशाके कमल-दलोंमें पूजन करे।
[‘श्रीविद्यार्णवतन्त्र’ में ये नाम इस प्रकार मिलते हैं-नित्या, सुभद्रा, समङ्गला, वनचारिणी, सुभगा, दुर्भगा, मनोन्मनी तथा रुद्ररूपिणी।]
इनके बाह्यभाग में पाँच दलोंमें कामदेवोंका पूजन होता हैं।
ॐ ह्रीं अनङ्गाय नमः ।
ॐ ह्रीं स्मराय नमः ।
ॐ ह्रीं मन्मथाय नमः ।
ॐ ह्रीं माराय नमः ।
ॐ ह्रीं कामाय नम:।
-ये ही पाँच काम देव हैं। कामदेवोंके हाथोंमें पाश, अङ्कुश, धनुष और बाणका चिन्तन करे। इनके भी बाह्यभागमें दस दलोंमें क्रमश: रति-विरति, प्रीति-विप्रीति, मति-दुर्मति, धृति-विधृति, तुष्टि-वितुष्टि-इन पाँच कामवल्लभाओंका पूजन करें ॥ २७-३३॥
ॐ छं नित्यक्लिन्ने मदद्रवे ओं ओं अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ लृ ॡ ए ऐ ओ औ अं अः क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह क्षः ॐ छं नित्यक्लिन्ने मदद्रवे स्वाहा । यह नित्यक्लिन्ना विद्या ” है। ३४ ॥
सिंहासनपर आधारशक्ति तथा पद्मका पूजन करके उसके दलोंमें हृदय आदि अंगोंकी स्थापना एवं पूजन करनेके अनन्तर मध्यकर्णिकामें देवीकी पूजा करनी चाहिये ॥३५॥
गौरीमन्त्र ( २ )
ॐ ह्रीं गौरि रुद्रदयिते योगेश्वर हूं फट् स्वाहा ॥ ३६ ॥
तीन सौ तैरहवाँ अम्याय पूरा हुआ ॥ ३१३ ॥
अध्याय – ३१४ त्वरिताके पूजन तथा प्रयोग का विज्ञान
निग्रहयन्त्र (चौंसठ कोष्ठ)
अग्रिदेव कहते हैं– मुने!
ॐ ह्रीं ह्रूं खे च च्छे क्षः स्त्री ह्रूं क्षे ह्रीं फट् त्वरितायै नम:।
-इस मन्त्रसे न्यासपूर्वक त्वरितादेवी की पूजा करे। उनके द्विभुज या अष्टभुज रूपका ध्यान करे। आधारशक्ति तथा अष्टदल कमलका पूजन करे। सिंहासन और उसके ऊपर विराजित त्वरितादेवीकी तथा उनके चारों ओर ह्रदायादि अंगोंकी पूजा करे * ।
पुर्वादि दिशाओंमें ह्रदयादि अंगोंकी पूजा करके मण्डलमें प्रणीता तथा गायत्रीकी पूजा करे।
(देवीके अग्रभागके केसरसे लेकर प्रदक्षिणक्रमसे छः केसरोंमें छ: अङ्गोंका पूजन करके अवशिष्ट दोमें प्रणीता तथा गायत्रीका पूजन करना चाहिये।)
इसके बाद आठ दलोंमें हुंकारी, खेचरी, चण्डा, छेदिनी, क्षेपिणी, स्त्री, हूंकारी तथा क्षेमंकरीकी पूजा करे । फ़िर मध्यभागमें देवीके सामने फ़टकारीकी अर्चना करे । देवीके सम्मुखवर्ती द्वारके दक्षिण तथा वामपार्श्वमें जया एवं विजयाकी पूजा करके द्वाराग्रभागमें
किंकराय रक्ष रक्ष त्वरिताज्ञया स्थिरो भव हुं फट् किंकराय नमः ।
इस मन्त्रसे किंकरका पूजन करना चाहिये ॥ १-४ ॥
त्वरिता-मन्त्रसे तिलोंद्वारा होम करनेसे सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंकी प्राप्ति होती है। नामोच्चारणपूर्वक दैवीके आभूषणस्वरूप आठ नागोंकी पूजा करनी चाहिये।
यथा-
अनन्ताय नमः स्वाहा।
कुलिकाय नमः स्वधा।
वासुकिराजाय स्वाहा।
शङ्खपालाय वौषट् ।
तक्षकाय वषट् ।
महापद्याय नम: ।
कर्कोटनागाय स्वाहा।
पद्माय नमः फट् ॥५-६३ ॥
निग्रहयन्त्र
दस खडी रेखाएं खीचकर उनपर दस पडी रेखाएँ खींचे तो इक्यासी पद (कोष्ठ) बन जाते हैं। इन पदोंद्वारा ‘निग्रहचक्र‘ का निर्माण करे। यह चक्र वस्त्रपर, वेदीपर, वृक्षके तने पर, शिलापट्टपर तथा यटिकाओंपर भी लिखा जा सकता है।
इसके मध्यवर्ती कोष्ठमें साध्य (शत्रु आदि)-का नाम लिखें।
(उस नामकी दो ‘रं’ बीजोंद्वारा आवेटित कर दे। अर्थात् दो ‘रं’ बीजोंके बीच में ‘साध्य-नाम” लिखना चाहिये।)
उसके पार्श्वभागकी पूर्वादि दिशाओंकी चार पट्टिकाओंमें भ्रूं क्षूं छूं ह्रूं – इन चार बीजोंको लिखे । फ़िर ईशान आदि कोणोंमें भीतरकी ओर ‘कालरात्रि–मन्त्र‘ (काली-आनुष्टुभ- सर्वतोभद्र) लिखें तथा बाहर की ओर ‘यमराज–मन्त्र” (यमआनुष्टुभ)–का उल्लेख करे।
(यदि साध्य-व्यक्ति पुरुष है, तब तो यही क्रम ठीक है। यदि वह स्त्री हो तो उसपर निग्रहके लिये भीतरकी ओर ‘यम-आनुgभ’ मन्त्र लिखा जाय और बाहरकी ओर ‘काली-आनुग्नुभ’ मन्त्रका उल्लेख किया जाय-यह ‘ श्रीविद्यार्णवतन्त्र’ में विशेष बात कही गयी है) ॥ ७-१ ॥
काली-आनुष्टुभ मन्त्र
का ली मा र र मा ली का लीनमोक्षक्षमोनली।
मामोदेततदेमोमा रक्षतत्वत्वतक्षर ॥ १० ।।
यम-आनुष्टुभ-मन्त्र
यमावाटटवामाय माटमोटटमोटमा ।
वामोभूरिरिभूमोवा टटरीत्वत्वरीटट॥ ११ ।।
यम-मन्त्रके बाह्यभागमें चारों ओर ‘रं’ लिखे, फिर ‘रं’ के नीचे ‘यं” लिखे।
इससे ‘मारणात्मक निग्रहयन्त्र‘ सम्पादित होता है।
नीमकी गोंद, मज्जा, रक्त तथा विषसे मिश्रित स्याही में थोड़ा चिताका कोयला कूट-पीसकर मिला दे और उसे पिङ्गलवर्णकी दावातमें रखे।
फिर कौएके पंखकी कलम से उक्त ‘निग्रह–यन्त्र‘ को लिखकर उसे श्मशानभूमिमें या चौराहेपर किसी गढ़ेमें नीचेकी ओर गाड़ दे, अथवा बाँबीकी मिट्टीमें उसे डाल दे, अथवा बहेड़ेके वृक्षकी डालीके नीचे भूमिमें गाड़ दे। ऐसा करनेसे सभी शत्रुओंका नाश हो जाता है ॥ १२-१४ ॥
अनुग्रह–चक्र (चौंसठ कोष्ठ)
शुक्लपक्षमें भोजपत्रपर, भूमिपर तथा दीवारपर लाक्षाके रङ्गसे, कुम्कुमसे अथवा खड़िया मिट्टीके चन्दनसे ‘अनुग्रह-चक्र’ लिखे
(यह ‘अनुग्रहचक्र’ पूर्वोत निग्रह-चक्रकी भाँति इक्यासी पदोंका होना चाहिये।)
मध्यकोष्ठमें साध्य व्यक्तिका नाम लिखें। उस नामकों ‘ठं ठं” के मध्य में रखें। पूर्वादि वीथीमें ‘जूं सः वषट्‘ का उल्लेख करे। ईशान आदि कोणसे आरम्भ करके वीथीकी छोड़ते हुए अग्रिकोणपर्यन्त लक्ष्मीका आनुष्टुभ मन्त्र (जों सर्वतोभद्रबन्धमें निबद्ध हैं) लिखें। यह ऊपरकी चार पङ्कियोंमें पूरा हो जायगा।
तत्पश्चात् नीचेकी चार पङ्कियोंमें सबसे नीचेके नैऋत्यकोणस्थ कोष्ठसे आरम्भ करके दाहिनेसे बायें पार्श्वकों और लिखे। निचली पङ्गिके बाद ऊपरी पङ्किमें भी बायेंसे दाहिने लिखें। इस तरह चार पङ्कियोंमें वही ‘लक्ष्मी–मन्त्र‘ पूरा लिख दे। वह मन्त्र इस प्रकार है
श्री सा मा या या मा सा श्री,
सा नो या ज्ञे ज्ञे या नो सा।
मा या ली ला ला ली या मा,
या ज्ञे ला ली ली ला ज्ञे या।
चक्र के बहिर्भागमें चारों और त्वरिता-मन्त्र लिखे।
प्रत्येक दिशा में एक बार, इस प्रकार चार बार वह मन्त्र लिखा जायगा।
फिर उस चौकोर चक्र को इस प्रकार गोल रेखासे घेर दे, जिससे वह कलशके भीतर हो जाय।
उक्त कलश के नीचे एक कमल बनाकर उसी पर उस कमलकी स्थापित किया हुआ दिखाये।
(ऊपरकी ओर कलशके मुखकी-सी आकृति बना दे। दो वृताकार रेखाओंसे कलशकी आकृति स्पष्ट करनी चाहिये। कलशके मुखपर दो आड़ी रेखाएँ खींचकर उन रेखाओंके बीच में ‘नववव”-इस प्रकारकी मालासी बनाकर उस मालासे घटको परिपूरित दिखाये। इस प्रकार इस चक्रका मनोरथपूर्ती के लिये तन्त्र-शास्त्रोक्त रीतिसे प्रयोग करे।) । १५-१८ ॥
कमलपर स्थापित पद्मचक्र लिखकर उसे धारण किया जाय तो वह मृत्युको जीतनेवाला तथा स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला है। वह शान्तिके साधनोंमें भी परम शान्तिप्रद है। सौभाग्य आदि देनेवाला है’ ॥ १९ ॥
बारह खड़ीरेखाओंपर बारह पड़ी रेखाएं खींचकर बराबर-बराबर एक सौ इक्कीस कोष्ठ बनावे ।
उसके मध्यकोष्ठमें साध्यका नाम लिखे। फिर ईशानकोणवाले कोष्ठसे आरम्भ करके प्रदक्षिणक्रमसे बारह बार त्वरिता-विद्याके अक्षर लिखे।
मायाबीज (ह्रीं) को छोड़कर ही मन्त्र लिखना चाहिये। रेखाओंके अग्रभागोंपर बारंबार त्रिशूल अङ्कित करे।
इस यन्त्रको जपद्वारा सिद्ध कर ले।
मध्यकोष्ठमें साध्य-नामके पहले ‘ॐ‘ तथा अन्तमें ‘हूं फट् ‘ जोड़ दे।
त्वरिता-विद्याके वणोंको क्रमसे ही लिखना चाहिये। अन्तमें नीचेकी ओर ‘वषट्‘ जोड़ देना चाहिये। यह ‘प्रत्यङ्गिरा–विद्या‘ कहलाती है, जो सम्पूर्ण मनोरथ एवं प्रयोजनकी सिद्ध करनेवाली है। २०-२१ ॥
इक्यासी कोष्ठवाले चक्र में आदिसे ही वर्णक्रमके अनुसार सम्पूर्ण चक्रोंमें त्वरिता-विद्याके अक्षर लिखें। छ: बार मन्त्र लिखनेके बाद अन्तके शेष कोष्ठोंमें साध्यका नाम तथा उसके अन्तमें ‘वषट्।’ लिखे। यह दूसरी ‘प्रत्यङ्गिरा–विद्या‘ है, जो समस्त कार्य आदिकी सिद्धि करनेवाली है।
चौंसठ कोष्ठवाले चक्रोंमें भी “निग्रह–चक्र‘ और ‘अनुग्रहचक्र‘ लिखे। वह ‘अमृती–विद्या‘ है। उसके मध्यकोष्ठमें “क्रीं सा हूं‘ और साध्य-नाम लिखे।
(पाठन्तरके अनुसार उस चक्रकेमध्यभागमें साध्यका नाम तथा नामके उभय पार्श्वमें ‘हीं” लिखे।)
उसके बाह्यभाग में द्वादशदल कमल बनाकर उसके दलोंमें त्वरिता-विद्याको विलोमक्रमसे लिखे। अर्थात् पहले “फट्‘ लिखे, फिर पूर्व-पूर्वके अक्षर।
फिर उसे ह्रींकारयुक्त तीन वृताकार पङ्कियोंसे वेष्टित करें।
कुम्भाकार यन्त्रके भीतर लिखित इस विद्याको धारण किया जाय तो यह समस्त शत्रुओंका नाश करनेवारी और सब कुछ देनेवाली होती है।
यदि रोगीव कानमें इसका जप किया जाय तो सर्पदि विष भी शान्त हो जाते हैं।
यदि इसके अक्षरोंसे अङ्कित (अथवा इस यन्त्रसे अङ्कित) डंडोंद्वारा इसके शरीपर ठोंका जाय तो उससे भी विषका शमन हो जाती है।॥ २२-२५ ॥
तीन सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३१४ ॥
अध्याय – ३१५ स्तम्भन आदिके मन्त्रोंका कथन
अग्रिदेव कहते हैं–मुने! अब मैं स्तम्भन, मोहन, वशीकरण, विद्वेषण तथा उच्चाटनके प्रयोग बताता हूँ।
विषव्याधि, आरोग्य, मारण तथा उसके शमनके प्रयोग भी बता रहा हूँ।
भोजपत्रपर ताड़की कलमसे ‘कूर्मचक्र’ लिखे। वह छह अङ्गुलके मापका होना चाहिये।
तदनन्तर द्विज उसके मुख तथा चारों पैरोंमें मन्त्रका न्यास करे। चारों पैरोंमें ‘क्रीं‘ तथा मुखमें ‘ह्रीं” लिखे।
गर्भस्थानमें त्वरिता-विद्याका उल्लेख करके पृष्ठभागमें साध्य-नाम लिखें। फिर मालामन्त्रोंसे वैष्टित करके उस यन्त्रको ईटके ऊपर स्थापित करे।
तत्पश्चात उसे ढककर कूर्मपीठगत ‘करालमन्त्र‘ से अभिमन्त्रित करे। महाकूर्मका पूजन करके चरणोदकको शत्रुके उद्देश्यसे फेंके तथा शत्रुका स्मरण करके उसे सात बार बायें पैरसे ताड़ित करे। इससे मुखभागसे शत्रुका स्तम्भन होता है ।
भैरवकी मूर्ती लिखकर उसके चारों ओर निम्नाङ्कित मालामन्त्र लिखे-
ॐ शत्रुमुखस्तम्भनी कामरूपा आलीढकरी ।
ह्रीं फें फेत्कारिणी मम शत्रूणां देवदत्तानां मुखं स्तम्भय स्तम्भय मम सर्वविद्वेषिणां मुखस्तम्भनं कुरु कुरु कुरु ॐ हूं फें फेत्कारिणि स्वाहा ।
इसके बाद ‘फट्’ और हेतु (प्रयोगका उद्देश्य) लिखकर उक्त मन्त्रका जप करते हुए उस महाबली भैरवके बाम हाथ में ‘ग’ (पर्वत या वृक्ष) और दाहिने हाथमें ‘शूल’ लिखे।
तदनन्तर ‘अघोरमन्त्र’ लिखे। इससे वह संग्राममें शत्रुओंकी स्तभित कर देता हैं। १-* ॥
ॐ नमो भगवत्यैभगमालिनि विस्फुर विस्फुर, स्पन्द स्पन्द, नित्यक्लन्ने द्रव द्रव हूं सः क्रींकाराक्षरे स्वाहा ।
-इस्र मन्त्रका जप करते हुए रोचना आदिसे तिलक करनेपर मनुष्य सारे जगत्को मोहित कर सकता हैं ।
ॐ फें हूं फट् फेत्कारिणि ह्रीं ज्वल ज्वल,
त्रैलोक्यं मोहय मोहय, गुह्राकालिके स्वाहा ।
-इससे तिलक करके मनुष्य राजा आदिको भी वशमें कर लेता है॥ १२३ ॥
जहाँ गधा बैठा हो उस स्थानकी धूल, शवके ऊपर चढ़ा हुआ फूल तथा स्त्रीके रजमें संलग्र वस्त्रका टुकडा लेकर रातमें शत्रुकी शय्या आदिपर फेंक दे। इससे उसके स्वजनोंमें विद्वेषा उत्पन्न हो जाता है।
गायका खुर और श्रृंग, घोड़ेकी टापका कटा हुआ टुकड़ा तथा साँपका सिर-इन सबको कूटकर एकमें मिला दे और द्वेषपात्रके घरोंपर फेंक दे। इससे शत्रुवर्गका उच्चाटन होता है।
कनेरकी पीली शिफा (मूल या जडू) मारणके प्रयोगमें संसिद्ध (सफल) है।
साँप और छछूँदरका रक्त तथा कनेरका बीज भी मारणरूपी प्रयोजनका साधक हैं।
मरे हुए गिरगिट, भ्रमर, केकड़ा और बिच्छूका चूरन बनाकर तेलमें डाल दे। उस तेलको अपने शरीरमें लगानेवाला मनुष्य कोढी हो जायगा ॥ १३-१६॥
ॐ नवग्रहाय सर्वशत्रून् मम साधय साधय, मारय मारय आं सों मं बुं गुं शं शं रां के ॐ स्वाहा । इस मन्त्रको भोजपत्र या नवग्रह-प्रतिमापर लिखकर आक (मदार)-के सौ फूलोंसे पूजा करके शत्रु-मारणके उद्देश्यसे उस यन्त्र या प्रतिमाको शमशानभूमिमें गाड़ दे। इससे समस्त ग्रह साधकके शत्रुको मार डालते हैं॥ १७-१८ ॥
ॐ कुञ्जरी ब्रह्माणी, ॐ मञ्जरी माहेश्वरी, ॐ वेताली कौमारी, ॐ काली वैष्णवी, ॐ अघोरा वाराही, ॐ वेतालीन्द्राणी, ॐ उर्वशी चामुण्डा, ॐ वेताली चण्डिका, ॐ जयाली यक्षिणी, नवमातरो हे मम शत्रुं गृह्रत गृह्रत ॥
भोजपत्रपर इस मन्त्रको लिखे। ‘ शत्रुं ‘ पदके स्थानमें शत्रुके नामका निर्देश करे। फिर श्मशानभूमिमें उस यन्त्रकी पूजा करे तो शत्रुकी मृत्यु हो जाती है।॥ १९ ॥
तौन सौ पद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३१५ ॥
अध्याय – ३१६ त्वरिता आदि विविध मन्त्र एवं कुब्जिका-विद्याका कथन
अग्रिदेव कहते हैं–मुने! पहले ‘हुं‘ रखे, फिर ‘खे च च्छे‘-ये तीन पद जोड़कर मन्त्रकी शोभा बढ़ावे । तत्पश्चात् ‘क्ष: स्त्रीं हूं क्षे‘ लिखकर अन्तमें ‘फट् जोड़ दे।
हुं खे च च्छे क्षः स्त्रीं हूं क्षे ह्रीं फट् ।
यह दशाक्षरा त्वरिता-विद्या हुई। यह विद्या समस्त कार्योको सिद्ध करनेवाली तथा विष, सपादिका मर्दन करनेवाली है।
“खे च च्छे“-यह त्र्यक्षर-विद्या काल-के डैसे हुएको भी जीवन देनेवाली है।॥ १-२ ॥
‘ॐ हूं खे क्षः“-इस चतुरक्षरी विद्याका प्रयोग विष एवं सर्पदंशकी पीड़ाको नष्ट करनेवाला है।
(पाठान्तर ‘विषशत्रुप्रमर्दनः” के अनुसार उक्त विद्याका प्रयोग विष एवं शत्रुकी बाधाको दूर करनेवाला है।)
स्त्रीं हूं फट् -इस विद्याका प्रयोग पाप तथा रोग आदिपर विजय दिलाता है।
“खे च‘-इस द्वयक्षर मन्त्रका प्रयोग शत्रु एवं दुष्ट आदिकी बाधाकी दूर करता है।
“हूं स्त्रीं ॐ‘- इस मन्त्रका प्रयोग स्त्री आदिकों वश में करनेवाला है।
‘खे स्त्रीं खे “-इस मन्त्रका प्रयोग कालसर्पद्वारा डसे गये मनुष्यके जीवनकी रक्षा करता है तथा शत्रुओंपर विजय दिलाता है।
“क्ष: स्त्रीं क्षः“-इसका प्रयोग वशीकरण तथा विजयका साधक है। ३-५ ॥
कुब्जिका-विद्या
ऐं ह्रीं श्रीं हसखफ्रें हसौः ॐ नमो भगवति हसखफ्रें कुब्जिके हस्नूं हस्नूं अघोरे घोरे अघोरमुखि छूां छीं किणि किणि विच्चे हसौ: हसखफ्रें श्रीं ह्रीं ऐं
-यह श्रीमती कुब्जिकाविद्या सब कार्योंको सिद्ध करनेवाली मानी गयी हैं। ६ ॥
अब उन मन्त्रोंका वर्णन किया जायगा, जिनका उपदेश भगवान् शंकरने स्कन्दको दिया था ॥ ७ ॥
तीन सौ सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३१६ ॥
अध्याय – ३१७ सकलादि मन्त्रोंके उद्धारका क्रम
भगवान् शिव कहते हैं–स्कन्द! सकल, निष्कल, शून्य, कलाढय, समलंकृत, क्षपण, क्षय, अन्त:स्थ, कण्ठोष्ठ तथा आठवाँ शिव-‘ये प्रासादपरासंज्ञक मन्त्रके आठ स्वरूप माने गये हैं।
(‘कलाढय’ सकलके और ‘शून्य’ निष्कलके अन्तर्गत है।)
यह शब्दमय मन्त्र साक्षात् सदाशिवरूप है। इसके जपसे सम्पूर्ण सिद्धियोंकी प्राप्ति होती हैं।
अमृत, आशुमान्, इन्द्र, ईश्वर, उग्र, ऊहक्, एकपाद, ऐल, ओज, औषध, अंशुमान् और वशी-ये क्रमश: अकार आदि बारह स्वरोंके वाचक हैं
(यथा-अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अ:)
तथा आगे जो शब्द दिये जा रहे हैं, ये ककार आदि अक्षरोंके सूचक हैं।
कामदेव, शिखण्डी, गणेश, काल, शङ्कर, एकनेत्र, द्विनेत्र, त्रिशिखा, दीर्धबाहु, एकपाद, अर्धचन्द्र, वलय, योगिनीप्रिय, शक्तीश्वर, महाग्रन्थि, तर्पक, स्थाणु, दन्तुर, निधीश, नन्दि, पद्म, शाकिनीप्रिय, मुखबिम्ब, भीषण, कृतान्त (यम), प्राण, तेजस्वी, शक्र, उदधि, श्रीकण्ठ, सिंह, शशाङ्क, विश्वरूप तथा नारसिंह (क्ष) ।
विश्वरूप अर्थात् हकारको बारह मात्राओंसे युक्त करके लिखे। ॥ ३-८ ॥
विश्वरूप -को अंशुमान् तथा ओज-से युक्त करके रखा जाय, उसमें वशी बीज-का योग न किया जाय तों ‘हों”-यह प्रथम बीज उद्धृत होता है, जो ‘ईशान’ से सम्बद्ध है।
विश्वरूप+ अंशुमान्+ ओज= हों
उपर्युक्त बारह बीजोंमें पाँच ह्रस्वयुक्त बीज माने जाते हैं और छ: दीर्घबीज।
पहली और ग्यारहवीं मात्रा में एक ही बीज बनता है।
द्वितीय बीजसे लेकर नवम बीजतक के जो आठ बीज हैं, वे आठ विद्देश्वररूप हैं। उनके नाम ये हैं-अनन्तेश, सूक्ष्म, शिवोत्तम, एकमूर्ति, एकरूप, त्रिमूर्ति, श्रीकण्ठ तथा शिखण्ड़ी-ये आठ विद्देश्वर कहे गये हैं।
इसका पहला, तीसरा, पाँचवाँ सातवाँ तथा नवाँ बीज क्रमशः ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव और सद्योजात-स्वरूप है।
इस प्रकार उक्त पाँच बीजोंसे युक्त ‘ईशान’ आदि मुखोंको ‘ब्रह्मपञ्चक’ कहा गया है। इनके आदिमें ‘प्रणव’ तथा अन्तमें ‘नमः’ जोड़ दे।
द्वितीय, चतुर्थ आदि मात्राएँ दीर्ध है, अतः उनसे ह्रदयादि अंगोंमें न्यास किया जाता हैं ।
हृदयादि अङ्गोंकी छ: जातियाँ क्रमश: इस प्रकार हैं – नमः, स्वाहा, वषट्, हुम्, वौषट् तथा फट्।
‘ह+हं, हिं हुं हें हों”-ये पाँच हृस्वयुक्त बीज हैं तथा शेष दीर्घयुक्त।
हृस्व बीजोंमें विलोम-गणनासे प्रथम है। शेष दीर्घ क्रमशः तृतीय, पञ्चम, सप्तम और नवम कहे गये हैं।
द्वितीय आदि दीर्घ हैं।
तृतीय बीज है-‘ ि “। यह तत्पुरुष-सम्बन्धी बीज है, ऐसा जानो।
पाँचवाँ बीज ‘हुं” है, जो दक्षिणदिशावर्ती मुख’अघोर’का बीज है।
सातवाँ बीज हैं-‘हिं”। इसे ‘वामदेवका बीज’ जानना चाहिये।
इसके बाद रस संज्ञक मात्रा-से युक्त सानुस्वार हकार अर्थात् ‘हं’ बीज है; वह उपर्युक्त गणनाक्रमसे नवाँ है और ‘सद्योजात’से सम्बद्ध है।
इस प्रकार उक्त पाँच बीजोंसे युक्त ‘ईशान’ आदि मुखोंको ‘ब्रह्मपञ्चक’ कहा गया है। इनके आदिमें ‘प्रणव’ तथा अन्तमें ‘नमः’ जोड़ दे।
‘ईशान’ आदि नामोंका चतुर्थ्यन्त प्रयोग करे तो सभी उनके लिये पूजोपयुक्त मन्त्र हो जाते हैं। यथा-
ॐ हों ईशानाय नम:। इत्यादि।
इसी प्रकार ॐ हं सद्योजाताय नम:।
यह सद्योजात-देवताका मन्त्र है।
द्वितीय, चतुर्थ आदि मात्राएँ दीर्ध है, अतः उनसे ह्रदयादि अंगोंमें न्यास किया जाता हैं ।
द्वितीय बीजकों बोलकर हृदय और अङ्ग-मन्त्र बोलकर हृदयमें न्यास करे।
यथा-
हां हृदयाय नमः, ह्रदि ।
चतुर्थ बीज ‘शिरोमन्त्र’ है, जो हकारमें ईश्वर तथा अंशुमान् जोड़नेसे सम्पन्न होता है।
यथा-
हीं शिरसे स्वाहा, शिरसि।
विश्वरूप-में ऊहक तथा अनुस्वार जोड़नेपर छठा बीज ‘हूं’ बनता है। उसे ‘शिखामन्त्र’ जानना चाहिये।
यथा-
हूं शिखायै वषट्, शिखायां हुम्।
कवचका मन्त्र आठवाँ बीज ” हैं ” है। यथा-
हैं कवचाय हुम्–बाहुमूलयो:।
दसवाँ बीज ‘हौं’ नेत्र-मन्त्र कहा गया है। यथा-
हौं नेत्रत्रयाय वौषट्, नेत्रयो:।
अस्त्र-मन्त्र वशी है। शिखिध्वज ! इसे शिवसंज्ञक माना गया है। यथा-
ह: अस्त्राय फट्।
(इससे चारों ओर तर्जनी और अनुष्ठद्वारा ताली बजाये।)
हृदयादि अङ्गोंकी छ: जातियाँ क्रमश: इस प्रकार हैं – नमः, स्वाहा, वषट्, हुम्, वौषट् तथा फट्।
अब मैं ‘प्रासाद–मन्त्र‘ बताता हूँ।
‘हीं हौं हूं‘ -ये प्रासादमन्त्रके तीन बीज हैं। इसे ‘कुटिल’ संज्ञा दी गयी है।
इस प्रकार यह प्रासाद-मन्त्र समस्त कार्योको सिद्ध करनेवाला है।
हृदय-शिखा आदि बीजोंका पूर्वोक्त रीतिसे उद्धार करके फट्कारपर्यन्त सब अङ्गोका न्यास करना चाहिये।
अर्धचन्द्राकार आसन दे। ‘भगवान् पशुपति कामपूरक देवता हैं तथा सर्पोसे विभूषित हैं।’
इस प्रकार ध्यान करके महापाशुपतास्त्र मन्त्रका जप करे। यह समस्त शत्रुओंका मर्दन करनेवाला है।
यह ‘सकल प्रासाद-मन्त्र’का वर्णन किया गया।
अब “निष्कल–मन्त्र‘ कहा जाता है। ९-१९ ॥
औषध, विश्वरूप, ग्यारहवी मात्रा, सूर्यमण्डल- इनसे युक्त अर्धचन्द्र एवं नादसे युक्त जो ‘ हौं ” मन्त्र है। यह “निष्कल प्रासाद-मन्त्र’ है; इसे संज्ञाविहीन ‘कुटिल’ भी कहते हैं।
‘निष्कल प्रासाद-मन्त्र’ भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। सदाशिवस्वरूप ‘प्रासाद-मन्त्र’ ईशानादि पाँच ब्रह्ममूर्तियोंसे युक्त होता है; अतः वह ‘पञ्चाङ्ग’ या ‘साङ्ग’ कहा गया है’।
अंशुमान्, विश्वरूप तथा अमृत -इन तीनोंके योगसे व्यक्त हुआ ‘हं‘ बीज ‘शून्य’ नामसे अभिहित होता है।
ईशान आदि ब्रह्मात्मक अङ्गों-से रहित होनेपर ही उसकी शून्य संज्ञा होती है। ईशानादि मूर्तियाँ इन बीजोंके अमृततरु हैं। इनका पूजन समस्त विध्नोंका नाश करनेवाला है। २०-२२ ॥
अंशुमान् युक्त विश्वरूप यदि ऊहक-के ऊपर अधिष्ठित हो तो वह ‘हूं‘ बीज ‘कलाढय” कहा गया है। वह “सकल”के ही अन्तर्गत है। सकलके ही पूजन और अङ्गन्यास आदि सदा होते हैं।
नरसिंह यमराजके ऊपर बैठे हों, अर्थात् क्षकार मकारके ऊपर चढ़ा हो, साथ ही तेजस्वी तथा प्राण-का भी योग हो, फिर ऊपर अंशुमान् हो तथा नीचे ऊहक हो तो ‘क्ष्म्रयूं-यह बीज उद्धत होता है।
नरसिंह+यमराज+ तेजस्वी+ प्राण+ अंशुमान्+ ऊहक =
क्ष+म+र+य+अं+अः =क्ष्म्रयूं
इसकी ‘समलंकृत’ संज्ञा है। यह ऊपर और नीचे भी मात्रासे अलंकृत होनेके कारण ‘समलंकृत’ कहा गया है। यह भी ‘प्रासादपर’ नामक मन्त्रका एक भेद है।
चन्द्रार्धाकार बिन्दु और नादसे युक्त ब्रह्मा एवं विष्णुके नामोंसे विभूषित क्रमशः उदधि और नरसिंह-को बारह मात्राओंसे भेदित करे। ऐसा करनेपर पूर्ववत् हृस्वस्वरोंसे युक्त बीज ईशानादि ब्रह्मात्मक अङ्ग होगे तथा दीर्धस्वरोंसे युक्त बीजसहित मन्त्र ह्रदयादि अंगोंमें विन्यस्त किये जायेंगे’ ॥२३-२५ ॥
अब दस बीजरूप प्रणव बताये जाते हैं
ओजको अनुस्वारसे युक्त करके ‘ओम् इस प्रथम वर्णका उद्धार करे।
अंशुमान् और अंशुका योग ‘आं’ यह नायकस्वरूप द्वितीय वर्ण है।
अंशुमान् और ईश्वर-‘ई’-यह तृतीय वर्ण है, जो मुक्ति प्रदान करनेवाला है।
अंशु-से आक्रान्त ऊहक अर्थात् ‘ॐ’ यह चतुर्थ वर्ण है।
सानुस्वार वरुण, प्राण और तेजस्—अर्थात् ‘व्यूं’ इसे पश्चम बीजाक्षर बताया गया है।
तत्पश्चात् सानुस्वार कृतान्त अर्थात् ‘मं’ यह षष्ठ बीज है।
सानुस्वार उदक और प्राण (व्यं) सप्तम बीजके रूपमें उद्धृत हुआ है।
इन्दुयुक्त पद्म—’पं’ आठवाँ तथा
एकपादयुक्त नन्दीश ‘नें’ नवाँ बीज है।
अन्तमें प्रथम बीज ‘ओम्’ का ही उल्लेख किया जाता है।
इस प्रकार जो दशबीजात्मक मन्त्र है, इसे ‘क्षपण’ कहा गया है।
इसका पहला, तीसरा, पाँचवाँ सातवाँ तथा नवाँ बीज क्रमशः ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव और सद्योजातस्वरूप है।
द्वितीय आदि बीज हृदयादि अङ्गन्यासमें उपयुक्त होते हैं। दसों प्रणवात्मक बीजोंके एक साथ उच्चारणपूर्वक ‘अस्त्राय फट्र’ बोलकर अस्त्रन्यास करे।
ईशानादि मूर्तियोंके अन्तमें ‘नमः’ जोड़कर ही बोलना चाहिये, अन्यथा नहीं।
द्वितीय बीजसे लेकर नवम बीजतक के जो आठ बीज हैं, वे आठ विद्देश्वररूप हैं। उनके नाम ये हैं-अनन्तेश, सूक्ष्म, शिवोत्तम, एकमूर्ति, एकरूप, त्रिमूर्ति, श्रीकण्ठ तथा शिखण्ड़ी-ये आठ विद्देश्वर कहे गये हैं।
शिखण्डीसे लेकर अनन्तेशपर्यन्त विलोम-क्रमसे बीजमन्त्रोंका सम्बन्ध जोड़ना चाहिये ।
(यही प्रासाद-मन्त्रका ‘क्षय’ नामक भेद है।)
इस तरह यहाँ मूर्ति-विद्या बतायी गयी ॥ २६-३४।।
तीन सौ सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३१७ ॥
अध्याय – ३१८ अन्त:स्थ, कण्ठोष्ठ तथा शिवस्वरूप मन्त्रका वर्णन; अघोरास्त्र-मन्त्रका उद्धार; 'विघ्नमर्द' नामक मण्डल तथा गणपति-पूजनकी विधि
भगवान् शिव कहते हैं– स्कन्द! जिसके ऊपर तेज हो, ऐसे विश्वरूप-कोउद्धत करके फिर नरसिंह (क्ष)-के नीचे कृतान्त(म) रखे। उसके अन्तमें ‘प्रणव’ लगा दे। ऐसा कर ‘र् ह् क्ष मों ‘ बना। इसके बाद ऊहक (ऊ), अंशुमान् ( ) तथा विश्व (ह)-को संयुक्त करे। इससे “हूं’ बनेगा। ये दोनों क्रमश: अन्तःस्थ और कण्ठोष्ठ कहे गये हैं।
[(र) अन्त:स्थ वर्ण आदिमें होनेसे उस पूरे मन्त्रकी ‘अन्त:स्थ’ संज्ञा हुई है। दूसरे मन्त्रमें ह, कण्ठ स्थानीय है और ऊकार ओष्ठस्थानीय; अत: उसे ‘कण्ठोष्ठ’ नाम दिया गया है।]
इनके अन्तमें ‘नम:’ जोड़ देनेसे ये दोनों मन्त्र चार अक्षरवाले हो जाते हैं। यथा
ॐ र् ह् क्ष मों नमः । ॐ हूं नम:।
विश्वरूप (हकार) कारण माना गया है। उसे बारह मात्राओंसे गुणित करे। इन बारहमेंसे पाँच ह्रस्व-बीजोद्वारा पूर्ववत् ‘ईशान’ आदि पाँच ब्रह्ममूर्तियोंकी पूजा करे और दीर्घात्मक छ: बीजोंद्वारा पहलेकी ही भाँति यहाँ अङ्गन्यासका कार्य सम्पन्न करे॥ १-३॥
[अब अघोरास्त्र-मन्त्रका उद्धार करते हैं- ]
‘ह्रीं” लिखकर दो बार ‘स्फुर–स्फुर‘ लिखे। इसके बाद इन दोनोंके आदिमें ‘प्र‘ जोड़कर पुनरुल्लेख करे-“प्रस्फुर प्रस्फुर।‘ तत्पश्चात् ‘कह‘, ‘वम” और ‘बन्ध‘-इन तीनों पदोंकी दो-दों बार लिखे। फिर दो बार ‘घातय‘ लिखकर अन्तमें ‘हूं फट् का उच्चारण करे।
ह्रीं स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर कह कह वम वम बन्ध वन्ध घातय घातय हूं फट्।
(सब जोड़नेपर ऐसा बनता है-‘ह्रीं स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर घोर घोरतरतनुरूप चट चट प्रचट प्रचट कह कह वम वम बन्ध वन्ध घातय घातय हूं फट्।“-इक्यावन अक्षरोंका मन्त्र है।)
इस प्रकार ‘अघोरास्त्र-मन्त्र’ होता है।
(इसके विनियोग और न्यास आदिकीं विधि ‘ श्रीविद्यार्णव-तन्त्र’ के ३०वें श्वासमें द्रष्टव्य है।)
अब ‘शिव-गायत्री’ बतायी जाती है।
महेशाय विद्महे ।
महादेवाय धीमहि ।
तन्नः शिवः प्रचोदयात् ।
-यह ‘शिव-गायत्री’ सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंकी सिद्ध करनेवाली है।॥ ४-७॥
यात्रा में तथा विजय आदिके कार्यमें पहले गणकी पूजा करनी चाहिये, इससे ‘श्री’की प्राप्ति होती है।
पहले चौकोर क्षेत्रकों सब ओरसे बारह-बारह कोष्ठोमें विभाजित करे।
[ऐसा करनेसे एक सौ चौवालीस पदोंका चतुष्कोण क्षेत्र बनेगा।]
मध्यवर्ती चार पदोंमें त्रिकोणकी रचना करके उसके बीचमें तीन दलोंसे युक्त कमल लिखे। उसके पृष्ठभाग में पदिका और वीथीके भागमें तीन दलवाला अश्वयुक्त कमल बनावे ।
तदनन्तर वसुदेव-पुत्रों (वासुदेव, संकर्षण और गद)-से, जो तीन दलवाले कमलोंसे सुशोभित हैं, पादपट्टिकाका निर्माण करे।
उसके ऊपर भागमात्र के प्रमाणसे एक वेदीकी रचना करे।
पूर्वादि दिशाओंमें द्वार तथा कोणभागोंमें उपद्वारकी रचना करे। इस प्रकार द्वारों तथा उपद्वारोंसे रचित मण्डल विध्ननाशक है।
मध्यमें जो कमल है, वह आरक्त वर्णका हो। उसके बाहर के कमल भी वैसे ही हों।
वीथी क्षेतवर्णकी होनी चाहिये। द्वारोंका रंग अपने इच्छानुसार रख सकते हैं।
कर्णिका पीले रंगसे रंगी जायगी तथा केसर भी पीले ही होंगे। यह “विध्नमर्द” नामक मण्डल है।
इसके मध्यभागमें गणपतिका पूजन करे। नामका आदि अक्षर अनुस्वारसहित बोलकर आदिमें ‘ओं” और अन्तमें ‘नमः’ जोड़ दे।
(यथा-ॐ गं गणपतये नमः।’)
ह्रस्वान्त बीजोंसे युक्त ईशान-तत्पुरुषादि मन्त्रोंसे ब्रह्मामूर्तियोंका पूजन तथा दीर्धान्त बीजोंसे हृदय, सिर आदि अङ्गोमें न्यास करे।
उपर्युक्त मण्डलकी पूर्वदिशागत पङ्किमें गज, गजशीर्ष (गजानन), गांगेय, गणनायक, गगनग तथा गोपति-इन नामोंका उल्लेख करे। इनमेंसे अन्तिम दो नामोंकी तीन आवृत्तियाँ होंगी।
(इस प्रकार ये दस नाम दस कोष्ठोमें लिखे जायँगे और किनारेके एक-एक कोष्ठ खाली रहेंगे, जो दक्षिण-उत्तरकी नामावली से भरेंगे।) ॥ ८-१५ ॥
विचित्रांश, महाकाय, लम्बोष्ठ, लम्बकर्ण, लम्बोदर, महाभाग, विकृत (विकट), पार्वतीप्रिय, भयावह, भद्र, भगण और भयसूदन-ये बारह नाम दक्षिण दिशाकी पङ्किमें लिखे।
पश्चिममें- देवत्रास, महानाद, भासुर, विघ्नराज, गणाधिप, उद्भटस्वन, उद्धटशुण्ड, महाशुण्ड, भीम, मन्मथ, मधुसूदन तथा सुन्दर और भावपुष्ट-ये नाम लिखे।
फिर उत्तर दिशामें- ब्रहोश्वर, ब्राह्य-मनोवृत्ति, संलय, लय, नृत्यप्रिय, लोल, विकर्ण, वत्सल, कृतान्त, कालदण्ड तथा कुम्भका पूर्ववत् उल्लेख करके इन सबका यजन करें ॥ १६-२० ॥
पूर्वोक्त मन्त्रका दस हजार जप और उसके दशांशसे होम करे।
शेष नाम-मन्त्रोंका दस-दस बार जप करके उनके लिये एक-एक बार आहुति दे। तत्पश्चात् पूर्णाहुति देकर अभिषेक करे। इससे सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध होता है।
साधक भूमि, गौ, अश्व, हाथी तथा वस्त्र आदि देकर गुरुदेवकी पूजा करे॥ २१-२२॥
तीन सौ अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३१८ ॥
अध्याय -३१९ वागीश्वरीकी पूजा एवं मन्त्र आदि
भगवान शिव कहते हैं–स्कन्द! अब मैं मण्डलसहित ‘वागीश्वरी-पूजन’की विधि बता रहा हूँ। ऊहक (ऊ)-को काल (घ)-से संयुक्त करके उसका चन्द्रमा (अनुस्वार)-से योग करें तो वह एकाक्षर मन्त्र बनेगा (घूं)। निषादपर ईश्वर (ई)-का योग करके उसे बिन्दु-विसर्गसे समन्वित करे। इस एकाक्षर मन्त्रका उपदेश सबकों नहीं देना चाहिये।
वागीश्वरीदेवीका ध्यान इस प्रकार करे-
देवीकी अङ्गकान्ति कुन्दकुसुम तथा चन्द्रमाके समान उज्ज्वल हैं। वे पचास वर्णोका मालामय रूप धारण करती हैं। मुक्ताकी माला तथा श्वेतपुष्पके हारोंसे सुशोभित हैं। उनके चार हाथोंमें क्रमशः वरदा, अभया, अक्षमाला तथा पुस्तक शोभा पाते हैं। वे तीन नेत्रोंसे युक्त हैं।
इस प्रकार ध्यान करके उक्त एकाक्षर-मन्त्रका एक लाख जप करे।
देवी पैरोंसे लेकर मस्तक पर्यन्त वर्णमाला धारण करती हैं-इस प्रकार उनके स्वरूपका स्मरण करे॥ १-४ ॥
गुरु दीक्षा देने या मन्त्रोपदेश करनेके लिये एक मण्डल बनाये।
वह सूर्याग्र हो और इन्दुसे विभक्त हो। दो भागोंमें कमल बनाये। वह कमल साधकके लिये हितकर होता है। फिर ची थी और पाया बनाये। चार पदोंमें आठ कमल बनायें। उनके बाह्यभागमें वीथी और पदिकाका निर्माण करे। दो-दो पदोंद्वारा प्रत्येक दिशा में द्वार बनायें। इसी तरह उपद्वारोंका भी निर्माण करे। कोणोंमें दो-दो पट्टिकाएँ निर्मित करे।
अब नौ कमल श्वेतवर्णके रखे। कर्णिकापर सोनेके रंगका चूर्ण गिराकर उसे पीली कर दे। केसरोंकों अनेक रंगोंसे रंगकर कोणोंकी लाल रंगसे भरे। व्योमरेखान्तर काला रखें द्वारोंका मान इन्द्रके हाथीके मानके अनुसार रखे।
मध्यकमलमें सरस्वतीको, पूर्वगत कमलमें वागीश्वरी, फ़िर अग्नि आदि कोणोंके क्रमसे हल्लेखा, चित्रवागीशी, गायत्री, विश्वरूपा, शाङ्करी, मति और धृतिकी स्थापित करके उन सबका पूजन करे।
नामके आदिमें “हीं’ तथा नामके आदि अक्षर को बीज-रूपोंमें बोलकर पूजा करनी चाहिये।
यथा-पूर्वमें ‘हीं वां वागीश्यै नमः‘ इत्यादि। सरस्वती ही वागीश्वरीके रूप में ध्येय हैं।
जप पूरा करके कपिला गायके घीसे हवन करे। ऐसा करनेवाला साधक संस्कृत तथा प्राकृत भाषाओंमें काव्य-रचना करनेवाला कवि होता है और काव्यशास्त्र आदिका विद्वान् हो जाता है। ५-११ ॥
तीन सौ उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३१९ ॥
अध्याय – ३२० सर्वतोभद्र आदि मण्डलोंका वर्णन
भगवान् शिव कहते हैं–स्कन्द! अब मैं सर्वतोभद्र नामक आठ प्रकारके मण्डलोंका वर्णन करता हूँ। पहले शङ्कु या कीलसे प्राचीदिशाका साधन करे। इस प्राचीका निश्चय ही जानेपर विद्वान् पुरुष विषुवकालमें चित्रा और स्वाती नक्षत्रके अन्तरसे,
अथवा
उत्तर दिशा
प्रत्यक्ष सूतको लेकर पूर्वसे पश्चिमतक उसे फैलाकर मध्यमें दो कोटियोंको अङ्कित करे। उन दोनोंके मध्यभागसे उत्तर-दक्षिण की लंबी रेखा खींचे।
दो मत्स्योंका निर्माण करे तथा उन्हें दक्षिणसे उत्तरकी ओर आस्फालित करे।
क्षतपद क्षेत्र के आधे मानसे कोण सम्पात करे।
इस तरह चार बार सूत्रके क्षेत्र में आस्फालनसे एक चौकोर रेखा बनती है।
उसमें चार हाथका शुभ भद्रमण्डल बनाये।
आठ पदोंमें सब ओर से विभक्त चौसठ पदवालेमेंसे बीस पदवाले क्षेत्रमें बाहर की ओर एक वीथीका निर्माण करे। यह वीथी एक मन्त्र की होगी।
कमलके मानसे दो पदोंका द्वार बनाये। द्वार कपोलयुक्त होना चाहिये।
कोणबन्धके कारण उसकी विचित्र शोभा हो, ऐसा द्विपदका द्वारनिर्माणमें उपयोग करे।
कमल श्वेतवर्णका हो, कर्णिका पीतवर्णसे रंगी जाय, केसर चित्रवर्णका हो, अर्थात् उसके निर्माणमें अनेक रंगोंका उपयोग किया जाय। वीथीकी लाल रंगसे भरा जाय। द्वार लोकपाल-स्वरूप होता है।
नित्य तथा नैमितिक विधि में कोणोंका रंग लाल होना चाहिये।
अब कमलका वर्णन सुनो।
कमलके दो भेद हैं’- असंसक्त’ तथा ‘संसक्त’। ‘असंसत’ मोक्षकी तथा संसक्त भौगकी प्राप्ति करानेवाला है।
‘असंसक्त’ कमल मुमुक्षुओंके लिये उपयुक्त है।
संसक्त कमलके तीन भेद हैं-बाल, युवा तथा वृद्ध। वे अपने नामके अनुसार फलसिद्धि प्रदान करनेवाले हैं॥ १-१ ॥
कमलके क्षेत्र में दिशा तथा कोणदिशाकी ओर सूत-चालन करे तथा कमलके समान पाँच वृत निर्माण करे।
प्रथम वृत्तमें नौ पुष्करोंसे युक्त कर्णिका होगी, दूसरेमें चौबीस केसर रहेंगे, तीसरेमें दलोंकी संधि होगी, जिसकी आकृति हाथीके कुम्भस्थलके सदृश होगी, चौथे वृतमें दलोंके अग्रभाग होंगे तथा पाँचवें वृतमें आकाशमात्र “शून्य” रहेगा। इसे ‘संसक्त कमल’ कहा गया है।
“असंसक्त कमल”में दलाग्रभाग पर जो दिशाओंके भाग हैं, उनके विस्तारके अनुसार दो भाग छोड़कर आठ भागोंसे दल बनाये।
संधिविस्तारसूत्रसे उसके मानके अनुसार दलकी रचना करे। इसमें बायेंसे दक्षिणके क्रमसे प्रवृत होना चाहिये। इस तरह यह ‘वृद्ध संसक्त कमल’ बनता है।
अथवा संधिके बीचसे सूतको अर्धचन्द्राकार घुमाये या दो संधियोंके अग्रवर्ती सूतको (अर्धचन्द्राकार) घुमाये। ऐसा करनेसे ‘बालपद्म’ बनता है।
संधिसूत्रके अग्रभागसे पृष्ठभागकी ओर सूत घुमाये। वह तीक्षण अग्रभागवाला ‘युवा’ संज्ञक है। ऐसे कमलसे भोग और मोक्षकी उपलब्धि होती है।
सम (छ:) मुखवाले स्कन्द! मुक्तिके उद्देश्यसे किये जानेवाले आराधनात्मक कर्ममें ‘वृद्ध कमल’का उपयोग करना चाहिये तथा वशीकरण आदिमें ‘बालपद्म”का।
‘नवनाभ‘ कमलचक्र नौ हाथोंका होता है। उसमें मन्त्रात्मक नौ भाग होते हैं। उसके मध्यभागमें कमल होता है। उस कमलके ही मानके अनुसार उसमें पट्टिका, वीथी और द्वारके साथ कण्ठ एवं उपकण्ठके निर्माणकों बात भी कही गयी है। उसके बाह्मभाग में वीथीकी स्थिति मानी गयी है। पाँच भाग में तो वीथी होती हैं और अपने चारों ओर वह दस भाग का स्थान लिये रहती है। उसके आठ दिशाओंमें आठ कमल होते हैं तथा वीथी सहित एक द्वारपद्म भी होता है। उसके बाह्यभागमें पाँच पदोंकी वीथी होती है, जो लता आदिसे विभूषित हुआ करती है। द्वारके कण्ठमें कमल होता है। द्वारका ओष्ठ और कपठभाग एक-एक पदका होता है। कपोल-भाग एक पदका बनाना चाहिये। तीन दिशाओंमें तीन द्वार स्पष्ट होते हैं। कोणबन्ध तीन पट्टियों, दो पद तथा वज्र-चिहसे युक्त होता है। मध्यकमल शुक्लवर्णका होता है तथा शेष दिशाओंके कमल पुर्वादिक्रमसे पीत, रक्त, नील, पीत, शुक्ल, धूम्र, रक्त तथा पीतवर्णके होते हैं। यह कमलचक्र मुक्तिदायक है।
पूर्व आदि दिशाओंमें आठ कमलोंका तथा शिव-विष्णु आदि देवताओंका यजन करे। विष्णु आदिका पूजन प्रासादके मध्यवर्ती कमलमें करके करे। इनकी बाह्मवीथीकी पूर्वादि दिशामें उन-उन इन्द्र आदि देवताओंके वज्र आदि आयुधोंकी पूजा करे। वहाँ विष्णु आदिकी पूजा करके साधक अश्वमेधयज्ञके फलका भागी होता है।
पवित्रारोपण आदिमें महान् मण्डलकी रचना करे। आठ हाथ लंबे क्षेत्रका छब्बीससे विवर्तन (विभाजन) करे। मध्यवर्ती दो पदोंमें कमल-निर्माण करे। तदनन्तर एक पदकी वीथी हो। तत्पश्चात् दिशाओं तथा विदिशाओंमें आठ नीलकमलोंका निर्माण करे। मध्यवर्ती कमलके ही मानसे उसमें कुल तीस पद्म निर्मित किये जाये। वे सब दलसंधिसे रहित हों तथा नीलवर्णके ‘इन्दीवर’ संज्ञक कमल हों। उसके पृष्ठभागमें एक पदक वीथी हो। उसके ऊपर स्वस्तिकचिह्न बने हों। तात्पर्य यह कि वीथीके ऊपरी भाग या बाह्राभागमें दो-दो पदोंके विभक्त स्थानोंमें कुल आठ स्वस्तिक लिखे जायें। तदनन्तर पूर्ववत् बाह्मभागमें वीथिका रहे। द्वार, कमल तथा उपकण्ठ सब कुछ रहने चाहिये। कोणका रंग लाल और वीथीका पीला होना चाहिये । मण्डलके बीचका कमल नीलवर्णका होगा।
कार्तिकेय! विचित्र रंगोंसे युक्त स्वस्तिक आदि मण्डल सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाला है॥ २३ ॥
‘पञ्चाब्ज–मण्डल‘ पाँच हाथके क्षेत्रको सब ओरसे दससे विभाजित करके बनाया जाता है। इसमें दो पदोंका कमल, उसके बाह्मभाग में वीथी, फिर पट्टिका, फिर चार दर्शाओमें चार कमल होते हैं। इन चारोंके बाद पृष्ठभागमें वीथी हो, जो एक पद अथवा दो पदोंके स्थानमें बनायी गयी हो। कण्ठ और उपकण्ठसे युक्त द्वार हों और द्वारके मध्यभागमें कमल हों। इस पञ्चाब्ज -मण्डलमें पूर्ववर्ती कमल श्वेत और पीतवर्णका होता है। दक्षिणदिग्वर्ती कमल वैदूर्यमणिके रंगका, पश्चिमवर्ती कमल कुन्दके समान श्वेतवर्णका तथा उत्तरदिशाका कमल शङ्खके सदृश उज्वल होता हैं। शेष सब विचित्र वर्णके होते हैं।॥ ३०-३३॥
अब मैं दस हाथके मण्डल का वर्णन करता हूँ, जो सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाला है। उसको विकार-संख्या (२४) द्वारा सब ओर विभक्त करके चौकोर क्षेत्र बना ले। इसमें दो-दो पदोंका द्वार होगा। पूर्वोक्त चक्रोंकी भाँति इसके भी मध्यभागमें कमल होगा ।
अब मैं ‘विध्नध्वंसचक्र‘का वर्णन करता हूँ। चार हाथका पुर (चौकोर क्षेत्र) बनाकर उसके मध्यभागमें दो हाथके घेरेमें वृत (गोलाकर चक्र) बनाये। एक हाथकी वीथी होगी, जो सब ओरसे स्वस्तिकचिहोंद्वारा घिरी रहेगी। एक-एक हाथमें चारों ओर द्वार बनेंगे। चारों दिशाओंमें वृत होंगे, जिनमें कमल अङ्कित रहेंगे। इस प्रकार इस चक्रमें पाँच कमल होंगे, जिनका वर्ण श्वेत होगा। मध्यवर्ती कमलमें निष्कल (निराकार परमात्मा)-का पूजन करना चाहिये। पूर्वादि दिशाओंमें हृदय आदि अंगोंकी तथा विदिशाओं में अस्त्रों की पूजा होनी चाहिये। पुर्ववत “अध्धोजात” आदि पाँच ब्रह्रामय मुखोंका भी पूजन आवश्यक है।॥ ३४-३७ ॥
अब मैं ‘बुद्धघाधार–चक्र‘का वर्णन करता हूँ। सौ पदोंके क्षेत्रमेंसे मध्यवर्ती पंद्रह पदोंमें एक कमल अङ्कित करे। फिर आठ दिशाओंमें एकएक करके आठ शिवलिङ्गोंकी रचना करे। मेखलाभाग सहित कण्ठकी रचना दो पदोंमें होगी। आचार्य अपनी बुद्धिका सहारा लेकर यथास्थान लता आदिकी कल्पना करे।
चार, छ:, पाँच और आठ आदि कमलोंसे युक्त मण्डल होता है।
बीस-तीस आदि कमलोंवाला भी मण्डल होता है।
१२१२० कमलोंसे युक्त भी सम्पूर्ण मण्डल हुआ करता है।
१२० कमलोंके मण्डलका भी वर्णन दृष्टिगोचर होता है।
श्रीहरि, शिव, देवी तथा सूर्यदेवके १४४० मण्डल हैं।
१७ पदोंद्वारा सत्रह पदोका विभाग करने पर २८९ पद होते हैं। उक्त पदोंके मण्डलमें लतालिङ्गका उद्धव कैसे होता है, यह सुनो। प्रत्येक दिशामें पाँच, तीन, एक, तीन और पाँच पदोंको मिटा दे। ऊपर के दो पदों से लिंग तथा पार्श्र्वर्ती दो-दो कोष्ठकोंसे मंदिर बनेगा। मध्यवर्ती दो पदों का कमल हो । फिर एक कमल और होगा । लिंग के पार्श्रभागोंमें दो “भद्र” बनगे। एक पद का द्वार होगा; उसका लोप नहीं किया जाएगा । उस द्वार का पार्श्रभागोंमें छ:-छ: पदों का लोप करनेसे द्वार शोभा बनेगी । शेष पदों में श्रीहरी के लिये लहलहाती लताऐ होंगी। ऊपर के दो पदों का लोप करने से श्रीहरिके लिए “भाद्राष्टक” बनेंगे । फिर चार पदों का लोप करनेसे रश्मिमालाओं से युक्त शोभास्थान बनेगा ।
पचीस पदोंसे कमल, फिर पीठ, अपीठ तथा दो-दो पदोंको रखकर आठ उपशोभाए बनेगी ।
देवी आदिका सूचक “भाद्रमंडल” बीचमें नौ पदोंका कमल बनाता है तथा चारों कोणोंमें चार “भद्रमण्डल” बनाते है । शेष त्रयोदश पदोंका बुद्धयाधार-मण्डल है । इसमे एक सौ साठ पद होते है । बुद्धयाधार-मण्डल भगवान शिव आदिकी आराधनाके लिये प्रशस्त है ।
तीन सौ बाँसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३२० ॥
अध्याय – ३२१ अघोरास्त्र आदि शान्ति-विधानका कथन
महादेवजी कहते हैं–स्कन्द! पहले समस्त कर्मोंमें ‘अस्त्रयाग” करना चाहिये। यह सिद्धि प्रदान करनेवाला है। मध्यभागमें शिव, विष्णु आदिके अस्त्रकी पूजा करनी चाहिये तथा पूर्वादि दिशाओंमें क्रमश: इन्द्रादि दिक्पालोंके वज्र आदि अस्त्रोंका पूजन करना चाहिये।
भगवान् शंकरके पाँच मुख तथा दस हाथ हैं। उनके इस स्वरूपका ध्यान करते हुए युद्धसे पूर्व पूजा कर ली जाय तो विजयकी प्राप्ति होती है।
ग्रहपूजा करते समय नवग्रहचक्रके मध्यमें सूर्यदेवकी तथा पूर्वादि दिशाओंमें सोम आदिकी अर्चना करनी चाहिये। ग्रहोंकी पूजा करनेसे सभी ग्रह एकादश (ग्यारहवें) स्थानमें स्थित होते हैं और उस स्थानमें स्थितकी भाँति उत्तम फल देते हैं॥ १-२३ ॥
अब मैं समस्त उत्पातोंका नाश करनेवाली ‘अस्त्रशान्ति’का वर्णन करुँगा। यह शान्ति ग्रहरोग आदिको शान्त करनेवाली तथा महामारी एवं शत्रुका मर्दन करनेवाली है।
विध्नकारक गणोंके द्वारा उत्पादित उत्पातकों भी शान्त करती है।
मनुष्य ‘अघोरास्त्र’का जप करे। एक लाख जप करनेसे ग्रहबाधा आदिका निवारण होता है और तिलसे दशांश होम कर दिया जाय तो उत्पातोंका नाश होता है। एक लाख जप-होमसे दिव्य उत्पातका तथा आधै लक्ष जप-होमसे आकाशज उत्पातका विनाश होता है।
घीकी एक लाख आहुति देने से भूमिज उत्पातके निवारणमें सफलता प्राप्त होती है।
घृतमिश्रित गुग्गुलके होमसे सम्पूर्ण उत्पात आदिका शमन हो जाता है।
दूर्वा, अक्षत तथा घीकी आहुति देनेसे सारे रोग दूर होते हैं।
केवल घीकी एक सहस्र आहुतिसे बुरे स्वप्र नष्ट हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है। वही आहुति यदि दस हजारकी संख्या में दी जाय तो ग्रहदोषका शमन होता है।
घृतमिश्रित जौकी दस हजार आहुतियोंसे विनायकजनित पीड़ाका निवारण होता है।
दस हजार घीकी आहुतिसे तथा गुग्गुलकी भी दस सहस्र आहुतिसे भूत-वेताल आदिकी शान्ति होती है।
यदि कोई बड़ा भारी वृक्ष आँधी आदिसे स्वत: उखड़कर गिर जाय, घरमें सर्पका कङ्काल हो तथा वनमें प्रवेश करना पड़े तो दूर्वा, घी और अक्षतके होमसे विध्नकी शान्ति होती है।
उल्कापात या भूकम्प हो तो तिल और घीसे होम करनेसे कल्याण होता है।
वृक्षोंसे रक्त बहे, असमयमें फल-फूल लगें, राष्ट्रभङ्ग हो, मारणकर्म हो, जब मनुष्य-पशु आदिके लिये महामारी आ जाय तो तिलमिश्रित घीसे अर्धलक्ष आहुति देनी चाहिये। इससे दोषोंका शमन होता है।
यदि हाथीके लिये महामारी उपस्थित हो, हथिनीके दाँत बढ़ जार्यों अथवा हथिनीके गण्डस्थलसे मद फूटकर बहने लगे तो इन सब दोषोंकी शान्तिके लिये दस हजार आहुतियाँ देनी चाहिये। इससे अवश्य शान्ति होती है।॥ ३-१२ ॥
जहाँ असमयमें गर्भपात हो या जहाँ बालक जन्म लेते ही मर जाता हो तथा जिस घरमें विकृत अङ्गवाले शिशु उत्पन्न होते हो तथा जहाँ समय पूर्ण होनेसे पूर्व ही बालकका जन्म होता हो, वहाँ इन सब दोषोंके शमनके लिये दस हजार आहुतियाँ देनी चाहिये।
सिद्धिसाधनमें तिलमिश्रित घीसे एक लाख हवन किया जाय तो वह उत्तम है, मध्यम सिद्धिके साधनमें अर्धलक्ष और अधम सिद्धिके लिये पचीस हजार आहुति देनी चाहिये।
जैसा जप हो, उसके अनुसार ही होम होना चाहिये। इससे संग्राममें विजय प्राप्त होती है।
न्यासपूर्वक तेजस्वी पञ्चमुखका ध्यान करके ‘अघोरास्त्र’* का जप करना चाहिये॥ १३-१६ ॥
तीन सौ इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३२१ ॥
अध्याय - ३२२ पाशुपतास्त्र-मन्त्रद्वारा शान्तिका कथन
महादेवजी कहते हैं-स्कन्द! अब मैं पाशुपतास्त्र-मन्त्रसे शान्ति तथा पूजा आदिकी बात बताऊँगा। शान्ति और जप आदि पूर्ववत् (पूर्व अध्यायमें कहे अनुसार) कर्तव्य हैं।
इस मन्त्रके आंशिक पाठ या जपसे पूर्वकृत पुण्यका नाश होता है; किंतु फडन्त-सम्पूर्ण मन्त्रका जप आपत्ति आदिका निवारण करनेवाला है। १ ॥
ॐ नमो भगवते महापाशुपतायातुलबलवीर्यपराक्रमाय त्रिपञ्चनयनाय नानारूपाय नानाप्रहरणगोद्यताय सर्वाङ्गरक्तायभिन्नाञ्चनचयप्रख्याय श्मशानवेतालप्रियाय सर्वविध्ननिकृन्तनरताय सर्वसिद्धिप्रदाय भक्तानुकम्पिनेऽसंख्यवक्त्रभुजपादाय तस्मिन् सिद्धाय वेतालवित्रासिने शाकिनीक्षोभजनकाय व्याधिनिग्रहकारिणे पापभञ्जनाय सूर्यसोममाग्रिनेत्राय विष्णुकवचाय खड्गवज्रहस्ताय यमदण्डवरुणपाशाय रुद्रशूलाय ज्वलज्जिह्राय सर्वरोगविद्रावणाय ग्रहनिग्रहकारिणे दुष्टनागक्षयकारिणे ।
ॐ कृष्णपिङ्गलाय फट्। हूंकारास्त्राय फट्। वज्रहस्ताय फट्। शक्तये फट्। दण्डाय फट्। यमाय फट्। खङ्गाय फट्। नैऋताय फट्। वरुणाय फट्। वज्राय फट्। पाशाय फट्। ध्वजाय फट्।अङ्कुशाय फट्। गदायै। फट्। कुबेराय फट्। त्रिशूलाय फट्। मुद्रराय फट्। चक्राय फट्। पद्माय फट्।नागास्त्राय फट्। ईशानाय फट्। खेटकास्त्राय फट्। मुण्डाय फट्। मुण्डास्त्राय फट्। कंकालास्त्राय फट्। पिच्छिकास्त्राय फट्। क्षुरिकास्त्राय फट्। ब्रह्मास्त्राय फट्। शक्तयस्त्राय फट्। गणास्त्राय फट्। सिद्धास्त्राय फट्। पिलिपिच्छास्त्राय फट्। गन्धर्वास्त्राय फट्। पूर्वास्त्राय फट्। दक्षिणास्त्राय फट्। वामास्त्राय फट्। पश्चिमास्त्राय फट्। मन्त्रास्त्राय फट्। शाकिन्यस्त्राय फट्। योगिन्यस्त्राय फट्। दण्डास्त्राय फट्। महादण्डास्त्राय फट्। नमोऽस्त्राय फट्। शिवास्त्राय फट्। ईशानास्त्राय फट्। पुरुषास्त्राय फट्। अघोरास्त्राय फट्। सद्योजातास्त्राय फट्। हृदयास्त्राय फट्। महास्त्राय फट्। गरुड़ास्त्राय फट्। राक्षसास्त्राय फट्। दानवास्त्राय फट्। क्षौं नरसिंहास्त्राय फट्॥ त्वष्ट्रस्त्राय फट्॥ सर्वास्त्राय फट्। नः फट्। वः फट्। पः फट्।। फः फट् ॥ मः फट् । श्रीःफट्। पेः फट्। भूः फट्॥ भुवः फट्। स्वः फट्। महः फट्। जनः फट् । तपः फट्। सत्यं फट्। सर्वलोक फट्। सर्वपाताल फट्। सर्वतत्त्व फट्। सर्वप्राण फट्। सर्वनाडी फट्। सर्वकारण फट्। सर्वदेव फट्।ह्रीं फट्। श्रीं फट्। ह्रुं फट्। स्त्रुं फट्। स्वां फट्। लां फट्। वैराग्याय फट्। मायास्त्राय फट्। कामास्नाय फट्। क्षेत्रपालास्त्राय फट्। हुंकारास्त्राय फट्। भास्करास्त्राय फट्। चन्द्रास्त्राय फट्। विघ्नेश्वरास्त्राय फट्। गौ: गां फट्। ख़ों खौं फट्। हौं हों फट्। भ्रामय भ्रामय फट्। संतापय संतापय फट्। छादय छादय फट्। उन्मूलय उन्मूलय फट्। त्रासय त्रासय फट्। संजीवय संजीवय फट्। विद्रावय विद्रावय फट्। सर्वदुरितं नाशय नाशय फट्।
इस पाशुपत-मन्त्रकी एक बार आवृत्ति करनेसे ही यह मनुष्य सम्पूर्ण विध्नोंका नाश कर सकता है, सौ आवृत्तियोंसे समस्त उत्पातोंको नष्ट कर सकता है तथा युद्ध आदिमें विजय पा सकता है॥ २॥
इस मन्त्रद्वारा घी और गुग्गुलके होमसे मनुष्य असाध्य कार्योकी भी सिद्ध कर सकता है। इस पाशुपतास्त्र-मन्त्रके पाठमात्रसे समस्त क्लेशोंकी शान्ति हो जाती हैं ॥ ३ ॥
तीन सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३२२ ॥
अध्याय – ३२३ गङ्गा–मन्त्र, शिवमन्त्रराज, चण्डकपालिनी-मन्त्र, क्षेत्रपाल-बीजमन्त्र, सिद्धिविधा, महामृत्युंजय, मृतसंजीवनी, ईशानादि मन्त्र तथा इनके छ: अङ्ग एवम अघोरास्त्रका कथन
महादेवजी कहते हैं– स्कन्द!
‘ॐ ह्रुं हं सः‘-इस मन्त्रसे मृत्युरोग आदि शान्त हो जाते हैं। इस मन्त्रद्वारा दूर्वाकी एक लाख आहुतियाँ दी जायें तो उससे साधक शान्ति तथा पुष्टिका भी साधन कर सकता है।
षडानन! केवल प्रणव (ॐ) अथवा माया (ह्रीं)-के जपसे ही दिव्य, अन्तरिक्षगत तथा भूमिगत उत्पातॉकी शान्ति होती है। उत्पातवृक्षके शमनका भी यही उपाय है।॥ १-२ ॥
ॐ नमो भगवति गङ्गे कालि कालि महाकालि महाकालि मांसशोणितभोजने रक्तकृष्णमुखि वशमानय मानुषान् स्वाहा। -इस मन्त्रका एक लाख जप करके दशांश आहुति देकर मनुष्य सम्पूर्ण कर्मोमें सिद्धि पा सकता है। इन्द्र आदि देवताओंको भी वशमें ला सकता है, फिर इन साधारण मनुष्योंको वशमें लाना कौन बड़ी बात है? यह विद्या अन्तर्धानकरी, मोहनी, जृम्भनी, शत्रुओंको वशमें लानेवाली तथा शत्रुकी बुद्धिको मोहमें डाल देनेवाली है। यह कामधेनुविद्या सात प्रकारकी कही गयी है।॥ ३-५ ई॥
अब मैं ‘मन्त्रराज’का वर्णन करूंगा, जो शत्रुओं तथा चोर आदिको मोह लेनेवाला है। यह साक्षात् शिव द्वारा पूजित है। इसका सभी महान् भयके अवसरोंपर स्मरण करना चाहिये। एक लाख जप करके तिलोंद्वारा हवन करनेसे यह मन्त्र सिद्ध होता है। अब इसका उद्धार सुनो ॥ ६-७ ॥
ॐ हले शूले एहि ब्रह्मसत्येन विष्णुसत्येन रुद्रसत्येन रक्ष मां वाचेश्वराया स्वाहा ॥ ८ ॥
भगवती शिवा दुर्गम संकटसे तारती-उद्धार करती है, इसलिये ‘दुर्गा’ मानी गयी है।॥ ९॥
ॐ ह्रीं चण्डकपालिनि दन्तान् किट किट क्षिट क्षिट गुह्ये फट् हीम्।
-इस मन्त्रराजके जपपूर्वक चावल धोकर उसको इस मन्त्रके तीस बार जपद्वारा अभिमन्त्रित करे। फिर वह चावल चोरोंमें बँटवा दे। उस चावल को दाँतोंसे चबाने पर उनके श्वेत दन्त गिर जाते हैं तथा वे मनुष्य चोरीके पापसे मुक्त एवं शुद्ध हो जाते हैं॥ ११-१२॥
ॐ ज्वलल्लोचन कपिलजटाभारभास्वर विद्रावण त्रैलोक्यडामर डामर दर दर भ्रम भ्रम आकट्ट आकट्ट तोटय तोटय मोटय मोटय दह दह पच पच एवं सिद्धिरुद्री ज्ञापयति यदि ग्रहोऽपगतः स्वर्गलोकं देवलोकं वाऽऽरामविहाराचलं तथापि तमावर्तयिष्यामि बलिं गृह्र गृह्र ददामि ते स्वाहा। ॥ १३॥
-इस मन्त्रसे क्षेत्रपालको बलि देकर न्यास करनेसे अनिष्ट ग्रह रोता हुआ चला जाता है। साधकके शत्रु नष्ट हो जाते हैं तथा रणभूमिमें शत्रु-समुदायका विनाश हो जाता है॥ १४॥
“हंस” बीजका न्यास करके साधक तीन प्रकार के विष अथवा विघ्नका निवारण कर देता है। अगुरु, चन्दन, कुष्ठ (कूट), कुडुम, नागकेसर, नख तथा देवदारु-इन सबको सममात्रा में कूटपीसकर, धूप बना ले। फिर इसमें मधुमक्खीके शहदका योग कर दे। उसकी सुगन्धसे शरीर तथा वस्त्र आदिको धूपित या वासित करनेसे मनुष्य विवाद, स्त्रीमोहन, श्रृंगार तथा कलह आदिके अवसरपर शुभ फलका भागी होता है। कन्यावरण तथा भाग्योदय-सम्बन्धी कार्यमें भी उसे सफलता प्राप्त होती है।
मायामन्त्र (ह्रीं)-से मन्त्रित हो, रोचना, नागकेसर, कुंकुम तथा मैनसिलका तिलक ललाटमें लगाकर मनुष्य जिसकी ओर देखता है, वही उसके वशमें हो जाता है।
शतावरीके चूर्णको दूधके साथ पीया जाय तो वह पुत्रकी उत्पत्ति करानेवाला होता है।
नागकेसरके चूर्णको घीमें पकाकर खाया जाय तो वह भी पुत्रकारक होता है।
पलाशके बीजको पीसकर पीनेसे भी पुत्रकी प्राप्ति होती है।॥ १५-२० ॥
(वशीकरणके लिये सिद्ध-विद्या)
ॐ उत्तिष्ठ चामुण्डे जम्भय जम्भय मोहय मोहय (अमुकं ) वशमानय स्वाहा॥ २१॥
-यह छब्बीस अक्षरोंवाली ‘सिद्ध-विद्या’ है। (यदि किसी स्त्रीको वशमें करना हो तो) नदीके तीरकी मिट्टीसे लक्ष्मीजीकी मूर्ति बनाकर धतूरके रससे मदारके पत्तेपर उस अभीष्ट स्त्रीका नाम लिखे। इसके बाद मूत्रोत्सर्ग करनेके पश्चात् शुद्ध हो उक्त मन्त्रका जप करे। यह प्रयोग अभीष्ट सत्रीकी अवश्य वशमें ला सकता है। २२-२३ ॥
(महामृत्युंजय)
ॐ जूं सः वषट् ॥ २४॥
-यह ‘महामृत्युंजय-मन्त्र’ है, जो जप तथा होमसे पुष्टिकारक होता है।॥ २५॥
(मृतसंजीवनी)
ॐ हं सः हूं हूं सः, हः सौः ॥ २६॥
-यह आठ अक्षरवाली ‘मृतसंजीवनी-विद्या’ है, जो रणभूमिमें विजय दिलानेवाली है।
‘ईशान’ आदि मन्त्र भी धर्म-काम आदिको देनेवाले हैं। २७ ॥
(ईशान आदि मन्त्र)
(ॐ) ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा शिवो मे अस्तु सदाशिवौम ॥२८॥
(ॐ) तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि । तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥ २९ ॥
(ॐ) अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः सर्वतः सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेऽस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥ ३०॥ (ॐ) वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कालाय नमः कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नमो बलाय नमो बलप्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मनाय नमः ॥ ३१ ॥
(ॐ) सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमो भवे भवे नातिभवे भवस्व मां भवोद्धवाय नम: ॥ ३२ ॥
अब मैं ‘पञ्चब्रह्म” के छ: अङ्गोंका वर्णन करूंगा, जो भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है॥ ३३॥
(ॐ) नम: परमात्मने पराय कामदाय परमेश्वराय योगाय योगसम्भवाय सर्वकराय कुरु कुरु सद्य सद्य भव भव भवोद्धव वामदेव सर्वकार्यकर पापप्रशमन सदाशिव प्रसन्न नमोSस्तुते (स्वाहा) ॥ ३४।।
-यह सतहत्तर अक्षरोंका हृदय-मन्त्र है, जो सम्पूर्ण मनोरथोंको देनेवाला है। [कोष्ठक में दिये गये अक्षरोंको छोड़कर गिननेपर सतहत्तर अक्षर होते हैं।] ॥ ३५।।
(इस मन्त्रको पढ़कर “हृदयाय नमः’ बोलकर हृदयका स्पर्श करना चाहिये।)
ॐ शिव शिवाय नमः ।।’-यह शिरोमन्त्र हैं, अर्थात् इसे पढ़कर ‘शिरसे स्वाहा‘ बोलकर दाहिने हाथ से सिरका स्पर्श करना चाहिये।
ॐ शिवहृदये ज्वालिनी स्वाहा, शिखायै वषट् बोलकर शिखाका स्पर्श करे।
ॐ शिवात्मक महातेजः सर्वज्ञ प्रभो संवर्तय महाघोरकवच पिङ्गल आयाहि पिङ्गल नमो महाकवच शिवाज्ञया हृदयं बन्ध बन्ध धूर्णय घूर्णय चूर्णय चूर्णय सूक्षमासूक्ष्म वज्रधर वज्रपाशधनुर्वज्राशनिवज्रशरीर मच्छरीरमनुप्रविश्य सर्वदुष्टान् स्तम्भय स्तम्भय हुम् ॥ ३६ ॥
-यह एक सौ पाँच अक्षरोंका कवच-मन्त्र है। अर्थात् इसे पढ़कर ‘कवचाय हुम्। बोलते हुए दोनों हाथोंसे एक साथ दोनों भुजाओंका स्पर्श करे॥३७॥
ॐ ओजसे नेत्रत्रयाय वौषट्।
ऐसा बोलकर दोनों नेत्रोंका स्पर्श करे। इसके बाद निम्नाङ्कित मन्त्र पढ़कर अस्त्रन्यास करे-
ॐ ह्रीं स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर घोरघोरतरतनुरूप चट चट प्रचट प्रचट कह कह वम वम बन्ध बन्ध घातय घातय हुं फट्।
यह (प्रणवसहित बावन अक्षरोंका) “अघोरास्त्र-मन्त्र’ है ॥ ३८ ॥
अध्याय – ३२४ कल्पाघोर रुद्रशान्ति
महादेवजी कहते हैं–स्कन्ध! अब मैं ‘कल्पाघोर-शिवशान्ति’का वर्णन करता हैं।
भगवान् अघोर शिव सात करोड़ गणोंके अधिपति हैं तथा ब्रह्महत्या आदि पापोंको नष्ट करनेवाले हैं। उत्तम और अधम-सभी सिद्धियोंके आश्रय तथा सम्पूर्ण रोगोंके निवारक हैं। भौम, दिव्य तथा अन्तरिक्षसभी उत्पातोंका मर्दन करनेवाले हैं। विष, ग्रह और पिशाचोंको भी अपना ग्रास बना लेनेवालें तथा सम्पूर्ण मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले हैं। पापसमूहको पीड़ा देकर दूर भगानेके लिये वे उस प्रबल प्रायश्चितके प्रतीक हैं, जो दुर्भाग्य तथा दु:खका विनाशक है। १-३॥
“एकवीर’का सर्वाङ्ग में न्यास करके सदा पन्चमुख शिवका ध्यान करे। (विभिन्न कर्मोंमें उनके विभिन्न शुक्ल-कृष्ण आदि वणाँका ध्यान किया जाता है। यथा-)
शान्ति तथा पुष्टि-कर्ममें भगवान् शिवका वर्ण शुक्ल है, ऐसा चिन्तन करे।
आकर्षणमें कृष्णवर्णका तथा मोहन-कर्ममें कपिलवर्णका चिन्तन करना चाहिये।
(अघोरमन्त्र बत्तीस अक्षरोंका मन्त्र बताया गया है।) वे बत्तीस अक्षर वेदोक्त अघोरशिवके रूप हैं। अत: उतने अक्षरोके मन्त्रस्वरूप अघोरशिवको अर्चना करनी चाहिये। इस मन्त्रका (बत्तीस) या तीस लाख जप करके उसका दशांश होम करे। यह होम गुग्गुलमिश्रित घी से होना चाहिये। इससे मन्त्र ‘सिद्ध’ होता और साधक ‘सिद्धार्थ” हो जाता है। वह सब कुछ कर सकता है।
अघोरसे बढ़कर दूसरा कोई मन्त्र भोग तथा मोक्ष देनेवाला नहीं हैं। इसके जपसे अब्रह्मचारी ब्रह्मचारी होता तथा अस्नातक स्नातक हो जाता है।
अघोरास्त्र तथा अघोर-मन्त्र-दोनों मन्त्रराज हैं। इनमेंसे कोई भी मन्त्र जप, होम तथा पूजनसे युद्धस्थलमें शत्रुसेनाको रॉद सकता है। ४-८ ॥
अब मै कल्याणमयी “रुद्रशान्ति’का वर्णन करता हूँ, जो सम्पूर्ण मनोरथोंको सिद्ध करनेवाली है।
पुत्रकी प्राप्ति, ग्रहबाधाके निवारण, विष एवं व्याधिके विनाश, दुर्मिक्ष तथा महामारीकी शान्ति, दु:स्वप्रनिवारण, बल आदि तथा राज्य आदिकी प्राप्ति और शत्रुओंके संहारके लिये इस ‘रुद्रशान्ति’ का प्रयोग करना चाहिये।
यदि अपने बगीचे के किसी वृक्षमें असमयमें फल लग जाय तो यह भी अनिष्टकारक है; अत: उसकी शान्तिके लिये तथा समस्त ग्रहबाधाओंका नाश करनेके लिये भी उत्त शान्तिका प्रयोग किया जा सकता है।
पूजनकर्ममें मन्त्रके अन्तमें ‘नम:’ बोलना चाहिये तथा हवन–कर्ममें ‘स्वाहा“। आप्यायन (तृप्ति)-में मन्त्रान्तमें ‘वषट्‘ पदका प्रयोग करे और पुष्टिकर्ममें ‘वौषट् पदका।
मन्त्रमें जो दो जगह ‘च’ का प्रयोग है, वहाँ आवश्यकताके अनुसार ‘नम:‘, ‘स्वाहा’ आदि जातिका योग करना चाहिये ॥ ९-१२ ॥
रुद्रशान्ति–मन्ञ
ॐ रुद्राय च ते ॐ वृषभाय नमोऽविमुक्तायासम्भवाय पुरुषाय च पूज्यायेशानाय पौरुषाय पञ्च पञ्चोत्तरे विश्वरूपाय करालाय विकृतरूपायाविकृतरुपाय ॥१३॥
उत्तरवर्ती कमलदल में नियतितत्वकी स्थिति है, जल (वरुण)-की दिशा पश्चिमके कमलदल में कालतत्व है और नैऋत्यकोणवर्ती दल में मायातत्व अवस्थित है; उन सबमें देवताओं की पूजा होती है।
‘एकपिङ्गलाय श्वेतपिङ्गलाय कृष्णपिङ्गलाय नमः । मधुपिङ्गलाय नमः–मधुपिङ्गलाय ।।‘-इन सबकी पूजा नियतितत्वमें होती है।
‘अनन्तायार्द्राय शुष्काय पयोगणाय ( नम🙂।‘– इनकी पूजा कालतत्व में करे।
‘करालाय विकरालाय ( नम🙂।‘ -इन दोकी पूजा मायातत्वमें करे।
‘सहस्त्रशीर्षाय सहस्त्रवक्त्राय सहस्त्रकरचरणाय सहस्रलिङ्गाय (नम🙂।‘– इनकी अर्चना विद्यातत्व में करे। वह इन्द्रसे दक्षिण दिशा के दल में स्थित है। वहीं छ: पदोंसे युक्त षड्विध रुद्रका पूजन करे। यथा
“एकजटाय द्विजटाय त्रिजटाय स्वाहाकाराय स्वधाकाराय वषट्काराय षडरुद्राय।।‘
स्कन्द! अग्रिकोणवर्ती दल में ईशतत्वकी स्थिति है। उसमें क्रमशः
‘भूतपतये पशुपतये उमापतये कालाधिपतये (नम🙂।‘ बोलकर भूतपति आदिकी पूजा करे।
पूर्ववर्ती दल सदाशिव-तत्वमें छ: पूजनीयोंकी स्थिति हैं, जिनका निम्नाङ्कित मन्त्रमें नामोल्लेख है। यथा-
‘उमायै कुरूपधारिणि ॐ कुरु कुरु रुहिणि रुहिणि रुद्रोऽसि देवानां देवदेव विशाख हन हन दह दह पच पच मथ मथ तुरु तुरु अरु अरु मुक्त मुक्त रुद्रशान्तिमनुस्मर कृष्णपिङ्गल अकालपिशाचाधिपति विद्देश्वराय नमः ।’
कमलकी कर्णिकामें शिवतत्वकी स्थिति है। उसमें भगवान् उमा-महेश्वर पूजनीय हैं। मन्त्र इस प्रकार है
‘ॐ व्योमव्यापिने व्योमरूपाय सर्वव्यापिने शिवायानन्ताय नाथायानाश्रिताय शिवाय’ (प्रणवको अलग गिननेपर इस मन्त्रमें कुल नौ पद हैं)-
शिवतत्त्वमें व्योमव्यापी नामवाले शिवके नौ पदोका पूजन करना चाहिये ॥ १४-२४॥
तदनन्तर योगपीठपर विराजमान शिवका नौ पदोंसे युक्त नाम बोलकर पूजन करे। मन्त्र इस प्रकार है–
“शाश्वताय योगपीठसंस्थिताय नित्ययोगिने ध्यानाहाराय नमः ।।
ॐ नमः शिवाय सर्वप्रभवे शिवाय ईशानमूर्धाय तत्पुरुषाय पञ्चवक्त्राय ।“
स्कन्द! तत्पश्चात् ‘सद्‘ नामक पूर्वदलमें नौ पदोंसे युक्त शिवका पूजन करे॥२५–२६ ॥ ‘अघोरहृदयाय वामदेवगुह्याय सद्योजातमूर्तये ॐ नमो नमः ।
गुह्यातिगुह्याय गोप्त्रेऽनिधनाय सर्वयोगाधिकृताय ज्योतीरूपाय‘॥२७॥ १॥
अग्निकोणवर्ती ईशतत्त्वमे तथा दक्षिणदिशावतीं विधातत्वमें परमेश्वराय अचेतनाचेतन व्योमन् व्यापिन्नरूपिन् प्रमथतेजस्तेजः।‘-इस मन्त्रसे परमेश्वर शिवकी अर्चना करें ॥ २७ ॥ २॥ नैऋत्यकोणवर्ती मायातत्त्व तथा पश्चिमदिग्वर्ती कालतत्वमें निम्नाङ्कित मन्त्रद्वारा पूजन करे
‘ॐ धृ धृ वां वां अनिधान निधनोद्भव शिव सर्व परमात्मन् महादेव सद्भावेश्वर महातेज योगाधिपते मुञ्च मुञ्च प्रमथ प्रमथ ॐ सर्वं सर्वं ॐ भव भव ॐ भवोद्भव सर्वभूतसुखप्रद॥‘ २८–३०॥
वायुकोण तथा उत्तरवर्ती दलोंमें स्थित नियति एवं पुरुष-इन दोनों तत्वोंमें निम्नाङ्कित नौकी पूजा करे
‘सर्वासांनिध्यकर ब्रह्मविष्णुरुद्रपरानर्चितास्तुत स्तुत साक्षिन् साक्षिन् तुरु तुरु पतङ्ग पतङ्ग पिङ्ग पिङ्ग ज्ञान ज्ञान ।
शब्द शब्द सूक्ष्म सूक्ष्म शिव शिव सर्वप्रद सर्वप्रद ॐ नमः शिवाय ॐ नमो नमः शिवाय ॐ नमो नमः‘ ॥ ३१ ॥
ईशानवर्ती प्राकृततत्वमें ‘शब्द‘ से लेकर ‘नम:’ तकका
शब्द शब्द सूक्ष्म सूक्ष्म शिव शिव सर्वप्रद सर्वप्रद ॐ नमः शिवाय ॐ नमो नमः शिवाय ॐ नमो नमः‘ ॥ मन्त्र पढ़कर पूजन, जप और होम करे।
यह ‘रुद्रशान्ति” ग्रहबाधा, रोग आदि तथा त्रिविध पीडाका शमन करनेवाली तथा सम्पूर्ण मनोरथोंकी साधिका है। ३२ ॥
अध्याय – ३२५ रुद्राक्ष-धारण, मन्त्रोंकी सिद्धादि संज्ञा तथा अंश आदिका विचार
महादेवजी कहते हैं– स्कन्द! शैव-साधकको रुद्राक्षका कड़ा धारण करना चाहिये। रुद्राक्षोंकी संख्या विषम हो। उसका प्रत्येक मनका सब ओरसे सम और दृढ़ हो। रुद्राक्ष एकमुख, त्रिमुख या पञ्चमुख-जैसा भी मिल जाय, धारण करे। द्विमुख, चतुर्मुख तथा षण्मुख रुद्राक्ष भी प्रशस्त माना गया है। उसमें कोई क्षति या आघात न हो-वह फूटा या घुना न होना चाहिये। उसमें तीखे कण्टक होने चाहिये।
दाहिनी बाँह तथा शिखा आदिमें चतुर्मुख रुद्राक्ष धारण करे। इससे अब्रह्मचारी भी ब्रह्मचारी तथा अस्त्रातक पुरुष भी स्नातक हो जाता है।
अथवा
शिव-मन्त्रकी पूजा करके सोनेकी अंगुठीको दाहिने हाथ में धारण करे॥ १-३ ॥
शिव, शिखा, ज्योति तथा सावित्र-ये चार ‘गोचर’ हैं। ‘गोचर’ का अर्थ ‘कुल’ समझना चाहिये। उसीसे दीक्षित पुरुषको लक्ष्य करना चाहिये।
शिवकुलमें प्राजापत्य, महीपाल, कापोत तथा ग्रन्थिक-ये चार गिने जाते हैं।
कुटिल, वेताल, पद्म और हंस-ये चार ‘शिखाकुल”में परिगणित होते हैं।
धृतराष्ट्र, वक, काक और गोपाल-ये चार ‘ज्योति’ नामक कुलमें समझे जाते हैं।
कुटिका, साठर, गुटिका तथा दण्डी-ये चार ‘सावित्री-कुल’ में गिने जाते हैं।
इस प्रकार एकएक कुलके चार-चार भेद हैं॥ ४-६३ ॥
अब में ‘सिद्ध’ आदि अंशोंकी व्याख्या करता हूँ, जिससे मन्त्र उत्तम सिद्धिको देनेवाला होता है।
पृथ्वीपर कूटयन्त्ररहित मातृका (अक्षर) लिखे। मन्त्राक्षरोंको विलग-विलग करके अनुस्वारको पृथक् ले जाय। साधकका भी जो नाम हो, उसके अक्षरोंको अलग-अलग करे। मन्त्रके आदि और अन्तमें साधकके नामाक्षर जोड़े। फिर सिद्ध, साध्य, सुसिद्ध तथा अरि-इस संज्ञाके अनुसार अक्षरोको क्रमश: गिने। मन्त्रके आदि तथा अन्तमें ‘सिद्ध’ हों तो वह शत-प्रतिशत सिद्धिदायक होता है। यदि आदि और अन्त दोनोंमें ‘सिद्ध” (अक्षर) हों तो उस मन्त्रकी तत्काल सिद्धि होती है। यदि आदि और अन्तमें भी ‘सुसिद्ध’ हो तो उस मन्त्रको सिद्धवत्मान ले-वह मन्त्र अनायास ही सिद्ध हो गया-ऐसा समझ ले। यदि आदि और अन्त-दोनोंमें ‘अरि’ ही तो उस मन्त्रकों दूरसे ही त्याग दे।
‘सिद्ध’ और ‘सुसिद्धएकार्थक हैं।
‘अरि’ और “साध्य’ भी एकसे ही हैं।
यदि मन्त्र के आदि और अन्त अक्षर में भी मन्त्र “सिद्ध’ हो और बीचंमें सहस्रों ‘रिपु’- अक्षर हों तो भी वे दोषकारक नहीं होते हैं।
मायाबीज, प्रसादबीज और प्रणवके योगसे विख्यात मन्त्रमें अंशक होते हैं। वे क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्रके अंश हैं।
ब्रह्माका अंश “ब्रह्मविद्या’ कहलाता है। विष्णुका अंश ‘वैष्णव’ कहा गया है। रुद्रांशक मन्त्र ‘वीर’ कहलाता है। इन्द्रांशक मन्त्र ‘ईश्वरप्रिय’ होता है। नागांश-मन्त्र नागोंकी भाँति स्तब्ध नेत्रवाला माना गया है। यक्षके अंशका मन्त्र ‘भूषणप्रिय’ होता है। गन्धर्वोके अंशका मन्त्र अत्यन्त गीत आदि चाहता है। भीमांश, राक्षसांश तथा दैत्यांश-मन्त्र युद्ध करानेवाला होता है। विद्याधरोंके अंशका मन्त्र अभिमानीं होता है। पिशाचांश मन्त्र मलाक्रान्त होता है।
मन्त्रका पूर्णतः निरीक्षण करके उपदेश देना चाहिये।
एकाक्षर से लेकर अनेक अक्षरोंतकके मन्त्रके अन्तमें यदि ‘फट्”-यह पल्लव जुड़ा हो तो उसे ‘मन्त्र’ कहना चाहिये।
पचास अक्षरोंतकके मन्त्रकी ‘विद्या” संज्ञा है।
बीस अक्षरोंतककी विद्याको ‘बाला विद्या” कहते हैं।
बीस अक्षरोंतकके “अस्त्रान्त” मन्त्र को “रुद्रा” कहा गया है।
इससे ऊपर तीन सौ अक्षरोंतकके मन्त्र “वृद्ध’ कहे जाते हैं।
अकारसे लेकर हकारतकके अक्षर मन्त्रमें होते हैं।
मन्त्रमें क्रमशः शुक्ल और कृष्ण-दो पक्ष होते हैं।
अनुस्वार और विसर्गको छोड़कर दस स्वर होते हैं।
ह्रस्वस्वर शुक्लपक्ष तथा दीर्घस्वर कृष्णपक्ष हैं। ये ही प्रतिपदा आदि तिथियाँ हैं।
उदयकालमें शान्तिक आदि कर्म करावे तथा भ्रमितकालमें वशीकरण आदि।
भ्रमितकाल एवं दोनों संध्याओंमें द्वेषण तथा उच्चाटन-सम्बन्धी कर्म करे।
स्तम्भनकर्मके लिये सूर्यास्तकाल प्रशस्त है।
इड़ा नाड़ी चलती हो तो शान्तिक आदि कर्म करे।
पिङ्गला नाड़ी चलती हो तो आकर्षण-सम्बन्धी कार्य करे।
विषुवकालमें जब दोनों नाड़ियाँ समान भावसे स्थित हों, तब मारण, उच्चाटन आदि पाँच कर्म पृथक्-पृथक् सिद्ध करे।
तीन तल्ले गृहमें नीचेके तलेको ‘पृथ्वी’ बीचवालेको ‘जल’ तथा ऊपरवालेको ‘तेज’ कहते हैं।
जहाँ-जहाँ रन्ध्र (छिद्र या गवाक्ष) है, वहाँ बाह्यपार्श्वमें वायु और भीतरी पार्श्वमें आकाश है।
पार्थिव अंशमें स्तम्भन, जलीय अंश में शान्तिकर्म तथा तैजस अंश में वशीकरण आदि कर्म करे।
वायुमें भ्रमण तथा शून्य (आकाश)-में पुण्यकर्म या पुण्यकालका अभ्यास करे॥७-२३ ॥
तीन सौ पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३२५ ॥
अध्याय – ३२६ गौरी आदि देवियों तथा मृत्यंजयकी पूजाका विधान
महादेवजी कहते हैं– स्कन्द! अब मैं सौभाग्य आदिके निमित्त उमाकी पूजा का विधान बताऊँगा। उनके मन्त्र, ध्यान, आवरणमण्डल, मुद्रा तथा होमविधिका भी प्रतिपादन करूंगा ॥ १॥
‘गौं गौरीमूर्तये नमः।’-यह गौरीदेवीका वाचक मूल मन्त्र है।
‘ॐ ह्रीं सः शौं गौर्यै नम:।’ तीन अक्षरसे ही ‘नमः’ आदिके योगपूर्वक षड़ङ्गन्यास करना चाहिये। प्रणवसे आसन और हृदय-मन्त्रसे मूर्तिकी उपकल्पना कोरे। ‘ऊ’ कालबीज तथा शिवबीजका उद्धार करे।
दीर्घस्वरसे आक्रान्त प्राण-‘यां यीं” इत्यादिसे जातियुक्त षडङ्गन्यास करे।
प्रणवसे आसन तथा हृदय-मन्त्रसे मूर्तिन्यास करें। यह मैंने ‘यामल-मन्त्र’ कहा है।
अब “एकवीर’का वर्णन करता हूँ।
सृष्टिन्याससे युक्त व्यापकन्यास अग्नि, माया तथा कृशानुद्वाग करे।
शिव-शक्तिमय बीज हृदयादिसे वर्जित हैं।
गौरीकी प्रतिमा बनाकर उसकी पूजा करे।
अथवा
पाँच अव्यक्त प्रतिमा रहे और मध्यभाग में पाँचवीं व्यक्त प्रतिमा स्थापित करे। आवरण-देवताओंके रूप में क्रमश: ललिता आदि शक्तियोंकी पूजा करनी चाहिये।
पहले वृताकार अष्टदल कमल बनाकर आग्रेय आदि कोणवर्ती दलोंमें क्रमश: ललिता, सुभगा, गौरी और क्षोभणीकी पूजा करे। फिर यजन करे। पीठयुक्त वामभागमें शिवके अव्यक्त रूपकी पूजा करनी चाहिये।
देवीका व्यक्त रूप दो या तीन नेत्रोंवाला है। वह शुद्ध रूप भगवान् शंकरके साथ पूजित होता है। वे देवी दो पीठ या दो कमलोंपर स्थित होती हैं। वहाँ देवी दो, चार, आठ अथवा अठारह भुजाओंसे युक्त हैं, ऐसा चिन्तन करे। वे सिंह अथवा भेड़ियेको भी अपना वाहन बनाती हैं। अष्टादशभुजाके दायें नौ हाथोंमें नौ आयुध हैं, जिनके नाम यों हैं-स्त्रक् (हन्), अक्ष, सूत्र (पाश), कलिका, मुण्ड, उत्पल, पिण्डिका, बाण और धनुष।
इनमेंसे एक-एक महान् वक्तु उनके एक-एक हाथकी शोभा बढ़ाते हैं। वामभागके नौ हाथोंमें भी प्रत्येक में एक-एक करके क्रमश: नौ वस्तुएँ हैं। यथा-पुस्तक, ताम्बूल, दण्ड, अभय, कमण्डलु, गणेशजी, दर्पण, बाण और धनुषा ॥ २-१४॥
उनको ‘व्यत’ अथवा ‘अव्यक्त’ मुद्रा दिखानी चाहिये।
आसन-समर्पणके लिये ‘पद्म-मुद्रा’ कही गयी है।
भगवान् शिवकी पूजामें ‘लिङ्ग-मुद्रा’ का विधान हैं। यही ‘शिवमुद्रा’ है।
‘आवाहनीमुद्रा’ दोनोंके लिये है।
शक्ति-मुद्रा ‘योनि’ नामसे कही गयी है। इनका मण्डल या मन्त्र चौकोर है। यह चार हाथ लंबा-चौड़ा हुआ करता है। मध्यवर्ती चार कोष्ठोंमें त्रिदल कमल अङ्कित करना चाहिये। तीनों कोणोंके ऊर्ध्वभागमें अर्धचन्द्र रहे। उसे दो पदों (कोष्ठों)-को लेकर बनाया जाय। एकसे दूसरा दुगुना होना चाहिये। द्वारोंका कण्ठभाग दो-दो पदोंका हो; किंतु उपकण्ठ उससे दुगुना रहना चाहिये। एक-एक दिशा में तीन-तीन द्वार रखने चाहिये अथवा “सर्वतोभद्र” मण्डल बनाकर उसमें पूजन करना चाहिये। अथवा किसी चबूतरे या वेदीपर देवताकी स्थापना करके पञ्चगव्य तथा पञ्चामृत आदिसे पूजन करे॥ १५-१८॥
पूजन करके उत्तराभिमुख हो उन्हें लाल रङ्गके फूल अर्पण करने चाहिये। घृत आदिकी सौ आहुतियाँ देकर पूर्णाहुति प्रदान करनेवाला साधक सम्पूर्ण सिद्धियोंका भागी होता है। फिर बलि अर्पित करके तीन या आठ कुमारियोंको भोजन करावे। पूजाका नैवेद्य शिवभक्तोंको दे, स्वयं अपने उपयोग में न ले।
इस प्रकार अनुष्ठान करके कन्या चाहनेवालेको कन्या और पुत्रहीनको पुत्रकी प्राप्ति होती है। दुर्भाग्यवाली स्त्री सौभाग्यशालिनी होती हैं। राजाको युद्धमें विजय तथा राज्यकी प्राप्ति होती है।
आठ लाख जप करनेसे वाक्सिद्धि प्राप्त होती है तथा देवगण वश में हो जाते हैं।
इष्टदेवकी निवेदन किये बिना भोजन न करे। बायें हाथ से भी अर्चना कर सकते हैं। विशेषत: अष्टमी, चतुर्दशी तथा तृतीयाको ऐसा करनेकी विधि है ॥ १९-२२ ॥
अब मैं मृत्युंजयकी पूजाका वर्णन करूंगा।
कलशमें उनकी पूजा करे। हवनमें प्रणव मृत्युंजयकी मूर्ति हैं और ‘ओं जू सः।”-इस प्रकार मूलमन्त्र है। ‘ओं जूं सः वौषट्।’-ऐसा कहकर अर्चनीय देवता मृत्युजयको कुम्भमुद्रा दिखावे।।
इस मन्त्रका दस हजार बार जप करे तथा खीर, दूर्वा, घृत, अमृता (गुडुची), पुनर्नवा (गदहपूर्ना), पायस (पय:पाक वस्तु) और पुरोडाशका हवन करे।
भगवान् मृत्युंजयके चार मुख और चार भुजाएँ हैं। वे अपने दो हाथोंमें कलश और दो हाथोंमें वरद एवं अभयमुद्रा धारण करते हैं।
कुम्भमुद्रासे उन्हें स्नान कराना चाहिये। इससे आरोग्य, ऐश्वर्य तथा दीर्घायुकी प्राप्ति होती है। इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित औषध शुभकारक होता हैं। भगवान् मृत्युंजय ध्यान किये जानेपर दुमृत्युको दूर करनेवाले हैं, इसलिये उनकी सदा पूजा होती है। २३-२७ ॥
तीन सौ छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ। ३२६ ॥
अध्याय – ३२७ विभिन्न कर्मोमें उपयुक्त माला, अनेकानेक मन्त्र, लिङ्ग-पूजा तथा देवालयकी महत्ताका विचार
भगवान् महेश्वर कहते हैं– कार्तिकेय! ब्रतेश्वर और सत्य आदि देवताओंका पूजन करके उनको व्रतका समर्पण करना चाहिये ।
अरिष्ट-शान्तिके लिये अरिष्ट-मूलकी माला उत्तम हैं।
कल्याणप्राप्तिके लिये सुवर्ण एवं रत्नमयी माला उत्तम हैं।
मारणकर्ममें महाशङ्कमयी माला उत्तम हैं।
शान्तिकर्ममें शङ्कमयी माला उत्तम हैं।
पुत्रप्राप्तिके लिये मौक्तिकमयी मालासे जप करे।
स्फटिकमणिकी माला कोषध-सम्पत्ति देनेवाली और रुद्राक्षकी माला मुक्तिदायिनी है। रुद्राक्षकी मालामें आँवलेके बराबर रुद्राक्ष उत्तम माना गया है। मेरुसहित या में मेरुहीन माला भी जपमें ग्राह्य हैं।
मानसिक जप करते समय मालाके मणियोंको अनामिका और अंगुष्ठसे सरकाना चाहिये।
उपांशु जपमें तर्जनी और अङ्गुष्ठके संयोगसे मणियोंकी गणना करे; किंतु जपमें मेरुका कभी उल्लङ्कन न करे। यदि प्रमादवश माला गिर जाय, तो दो सौ बार मन्त्रजप करे।
घण्टा सर्ववाद्यमय है। उसका वादन अर्थ-सिद्धि करनेवाला है।
गृह और मन्दिरमें शिवलिङ्गको, गोमय, गोमूत्र, वल्मीक-मृत्तिका, भस्म और जलसे शुद्धि करनी चाहिये। १-६ ॥
कार्तिकेय ! “ॐ नमः शिवाय’-यह मन्त्र सम्पूर्ण अभीष्ट अर्थोंको सिद्ध करनेवाला है। वेदमें “पश्चाक्षर’ और लोकमें “षडक्षर’ माना गया है।
परम अक्षर ओंकारमें शिव सूक्ष्म वटबीजमें वटवृक्षके समान स्थित हैं।
शिवके क्रमश: ‘ॐ नमः शिवाय’-‘ईशानः सर्वविद्यानाम्’ आदि मन्त्र समस्त विद्याओंके समुदाय इस षडक्षर मन्त्रके भाष्य हैं।
‘ॐ नमः शिवाय’- यः मन्त्र ही परमपद हैं। इसी मन्त्र से शिव् लिङ्ग का पूजन करना चाहिये; क्योकी धर्म, अर्थ, काम एवम् मोक्ष प्रदान करनेवाला भग्वान् शिव संपूर्ण लोकोंपर अनुग्रह करने लिये लिङ्ग मे प्रतिष्ठीत है; जो मनुष्य शिव लिङ्ग का पूजन नहीं करता है, वह धर्मकी प्राप्ति से वंचित रह जाता हैं। लिङ्ग पूजन से भोग और मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है, इसलिये जीवन पर्यन्त शिव लिङ्ग का पूजन करे । भले ही प्राण चले जाय, किन्तु उसका पूजन किये बिना भोजन ना करे ।
मनुष्य रुद्र के पूजन से रुद्र, श्रीविष्णुके यजन से विष्णु, सूर्यकी पूजा करने से सूर्य और शक्तिकी अर्चना से शक्ति का सारूप्य प्राप्त करता है । उसे संपूर्ण यज्ञ, तप, दानकी प्राप्ति होती है । मनुष्य लिङ्गकी स्थापना करके उससे करोड़गुना फल प्राप्त करता है।
जो मनुष्य प्रतिदिन तीनो समय पार्थिव-लिङ्गका निर्माण करके बिल्वपत्रोंसे उसका पूजन करता है, वह अपनी एक सौ ग्यारह पीढ़ियोंका उद्धार करके स्वर्गलोककों प्राप्त होता है।
अपने धनसंचयके अनुसार भक्तिपुर्वक देवमन्दिर निर्माण कराना चाहिये । दरिद्र और धनिकको मन्दिर निर्माण में यथा शक्ति अल्प या अधिक व्यय करनेके समान फल मिलता है।
संचित धनके दो भाग धर्मकार्यमें व्यय करके जीवन-निर्वाहके लिये समभाग रखें: क्योंकि जीवन अनित्य है। देवमन्दिर बनवानेवाला अपनी इक्कीस पीढ़ियोंका उद्धार करके अभीष्ट अर्थकी प्राप्ति करता है।
मिट्टी, लकड़ी, ईंट और पत्थरसे मन्दिर-निर्माणका क्रमशः करोड़गुना फल हैं। आठ ईंटोंसे भी मन्दिरका निर्माण करनेवाला स्वर्गलोकको प्राप्त हो जाता है। क्रीडामें धूलिका मन्दिर बनानेवाला भी अभीष्ट मनोरथको प्राप्त करता है।॥ ७-११ ॥
तीन सौ सात्ताईसवां अध्याय पूरा हुआ ॥ ३२७॥
अध्याय – ३२८ छन्दोंके गण और गुरु-लघुकी व्यवस्था
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ! अब मैं वेदके मूल मंन्त्रोके अनुसार पिंगलोक्ता छंदोंका क्रमशः वर्णन करूंगा। मगण, नगण, भगण, यगण, जगण रगण, सगण और तगण-ये आठ गण होते हैं। सभी गण तीन-तीन अक्षरोंके हैं। इनमें मगणके सभी अक्षर गुरु (ऽऽऽ) और नगणके सब अक्षर लघु (।।।) होते हैं। आदि गुरु (ऽ।।) होनेसे ‘भगण’ तथा आदि लघु (।ऽऽ) होनेसे ‘यगण’ होता है। इसी प्रकार अन्य गुरु (।।ऽ) होनेसे ‘सगण’ तथा अन्त्य लघु होनेसे ‘तगण’ (ऽऽ।) होता है। पादके अन्तमें वर्तमान ह्रस्व अक्षर विकल्पसे गुरु माना जाता है। विसर्ग, अनुस्वार, संयुक्त अक्षर (व्यंजन), जिह्ममूलीय तथा उपध्मानीयसे अव्यवहित पूर्वमें स्थित होनेपर ‘हृस्व” भी ‘गुरु’ माना जाता है, दीर्घ तो गुरु है ही। गुरुका संकेत ‘ग’ और लघुका संकेत ‘ल’ है। ये ‘ग’ और ‘ल’गण नहीं हैं।
‘वसु’ शब्द आठकी और ‘वेद’ चारकी संज्ञा हैं, इत्यादि बातें लोकके अनुसार जाननी चाहिये ॥ १-३॥
अध्याय – ३२९ गायत्री आदि छन्दोंका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं– वसिष्ठ ! ‘छन्द’ शब्द अधिकारमें प्रयुक्त हुआ है, अर्थात् इस पूरे प्रकरणमें छन्द-शब्दकी अनुवृत्ति होती है। (गायत्री छन्दके आठ भेद हैं-आर्षी, दैवी, आसुरी, प्राजापत्या, याजुषी, साम्नी, आचीं तथा ब्राह्मी) ‘दैवी‘ गायत्री 1 अक्षरकी, ‘आसुरी‘ 15 अक्षरोंकी, ‘प्राजापत्या‘ 8 अक्षरोंकी, ‘याजुषी‘ 6 अक्षरोंकी, ‘साम्नी” गायत्री 12 अक्षरोंकी तथा ‘आचीं” 18 अक्षरोंकी है।
यदि साम्नी गायत्रीमें क्रमश: दो-दो अक्षर बढ़ाते हुए उन्हें छ: कोष्ठोंमें लिखा जाय, इसी प्रकार आर्ची गायत्रीमें तीन-तीन, प्राजापत्या-गायत्रीमें चार-चार तथा अन्य गायत्रियोंमें अर्थात दैवी और याजुषीमें क्रमश: एक-एक अक्षर बढ़ जाय एवं आसुरी गायत्रीका एक-एक अक्षर क्रमश: छ: कोष्ठोंमें घटता जाय तो उन्हें ‘साम्नी’ आदि भेदसहित क्रमशः उष्णिक्, अनुष्टुप्, वृहती, पङ्कि, त्रिष्टुप् और जगती छन्द जानना चाहिये।
याजुषी, साम्नी तथा आर्ची-इन तीन भेदोंवाले गायत्री आदि प्रत्येक छन्दके अक्षरोंको पृथक्-पृथक् जोड़नेपर उन सबको ‘ब्राह्मी-गायत्री’, ‘ब्राह्मी- उष्णिक् ‘ आदि छन्द समझना चाहिये।
इसी प्रकार याजुषीके पहले जो दैवी, आसुरी और प्राजापत्या नामक तीन भेद हैं, उनके अक्षरोंको पृथक्-पृथक् छ: कोष्ठोंमें जोड़नेपर जितने अक्षर होते हैं, वे ‘आर्षी गायत्री’, ‘आर्षी उष्णिक्’ आदि कहलाते हैं।
इन भेदोंको स्पष्टरूपसे समझने के लिये चौसठ कोष्ठोंमें लिखना चाहिये। १-५ ॥
याजुषी, साम्नी तथा आर्ची-इन तीन भेदोंवाले गायत्री आदि प्रत्येक छन्दके अक्षरोंको पृथक्-पृथक् जोड़नेपर 6+12+18 = 36 उन सबको ‘ब्राह्मी-गायत्री’, ‘ब्राह्मी- उष्णिक् ‘ आदि छन्द समझना चाहिये।
इसी प्रकार याजुषीके पहले जो दैवी, आसुरी और प्राजापत्या नामक तीन भेद हैं, उनके अक्षरोंको पृथक्-पृथक् छ: कोष्ठोंमें जोड़नेपर 1+15+8=24 जितने अक्षर होते हैं, वे ‘आर्षी गायत्री’, ‘आर्षी उष्णिक्’ आदि कहलाते हैं।
तीन सौ उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३२९ ॥
अध्याय – ३३० “गायत्री” से लेकर “जगती” तक छन्दोंके भेद तथा उनके देवता, स्वर, वर्णं और गोत्रका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं–इस प्रकरणकी पूर्ति “पाद” पदका अधिकार (अनुवर्तन) है। जहाँ गायत्री आदि छन्दोंमें किसी पादकी अक्षर-संख्या पूरी न हो, वहाँ ‘इय्‘, ‘उव्‘ आदिके द्वारा उसकी पूर्ति की जाती है। (जैसे ‘तत्सवितुर्वरेण्यम्’ में आठ अक्षरकी पूर्तिके लिये ‘वरेण्यम्’ के स्थानमें होनेतक ‘वरेणियम्’ समझ लिया जाता है। ‘स्व:पते’ के स्थानमें ‘सुवःपते’ माना जाता है।)
गायत्री छन्दका एक पाद आठ अक्षरोंका होता है। अर्थात् जहाँ ‘गायत्रीके पाद’का कथन हो, वहाँ आठ अक्षर ग्रहण करने चाहिये। [यही बात अन्य छन्दोंके पादोंके सम्बन्ध में भी है।]
‘जगती’ छन्दका पाद बारह अक्षरोंका होता है।
विराट्के पाद दस अक्षरोंके बताये गये हैं।
‘त्रिष्टुप्’ छन्दका चरण ग्यारह अक्षरोंका है।
जिस छन्दका जैसा पाद बताया गया है, उसीके अनुसार कोई छन्द एक पादका, कोई दो पादका, कोई तीनका और कोई चार पादका माना गया है। [जैसे आठ अक्षरके तीन पादोंका “गायत्री’ छन्द और चार पादोंका ‘अनुष्टुप्’ होता है।]
‘आदि छन्द’ अर्थात् “गायत्री’ कही छ: अक्षरके पादोंसे चार पादोंकी होती है। [जैसे ऋग्वेदमें-‘इन्द्र: शचीपतिर्बलेन वीलितः। दुश्च्यवनो वृषा लमत्सु सामहिः ॥’] कहीं—कहीं गायत्री सात अक्षरके पादोंसे तीन पादकी होती है। [जैसे ऋग्वेदमें’युष्वाकु हि शचीनां युवाकु सुमतीनाम्। भूयाम वाजदानाम्।’ (१।१७।।४)] वह सात अक्षरोंवाली गायत्री ‘पाद–निचृत्‘ संज्ञा धारण करती है।
यदि गायत्रीका प्रथम पाद आठ अक्षरोंका, द्वितीय पाद सात अक्षरोंका तथा तृतीय पाद छः अक्षरोंका हो तो वह ‘प्रतिष्ठा गायत्री” नामक छन्द होता है। [जैसे ऋग्वेदमें-“आप: पृणीत भेषज वरूथ तन्वे मम । ज्योक् च सूर्यं दृशे ॥’ (१ ।। २२ ।। २१)]
इसके विपरीत यदि गायत्रीका प्रथम पाद छ:, द्वितीय पाद सात और तृतीय पाद आठ अक्षरोंका हों तो उसे ‘वर्धमाना‘ गायत्री कहते हैं।
यदि तीन पादोंवाली गायत्रीका प्रथम पाद छ:, द्वितीय पाद आठ और तीसरा पाद सात अक्षरोंका हो तों उसका नाम ‘अतिपाद निवृत्‘ होता है।
यदि दो चरण नौं-नौ अक्षरोंके हों और तीसरा चरण छ: अक्षरोंका ही तो वह ‘नागी” नामकी गायत्रीं होती हैं। [जैसे ऋग्वेदमें-‘अग्रे तमद्यार्श्व न स्तोमैं: क्रतुं न भद्रं हृदिस्पृशम्। ऋध्यामां ओहैः ॥’ (४।। १० । १) ]
यदि प्रथम चरण छः अक्षरोका और द्वितीय-तृतीय नौ-नौ अक्षरोंके हों तो ‘वाराही गायत्री‘ नामक छन्द होता है। [जैसे सामवेदमें-‘अग्रे मूड महाँ अस्यय आदेवयुंजनम्। इयेथ बहिंरासदम॥” (२३)]
अब तीसरे अर्थातू ‘विराट्‘ नामक भेदको बतलाते हैं।
जहाँ दो ही चरणोंका छन्द हों, वहाँ यदि प्रथम चरण बारह और द्वितीय चरण आठ अक्षरका हो तो वह ‘द्विपाद विराट्‘ नामक गायत्री छन्द है। [जैसे ऋग्वेदमें-‘नृभियेंमानी हर्यतो विचक्षणी। राजा देवः समुद्रियः ॥’ (९ ।। १०७ ।। १६)]
ग्यारह अक्षर्गेके तीन चरण होनेपर ‘त्रिपाद् विराट्” नामक गायत्री होती है।[उदाहरण ऋग्वेदमें-‘दुहीयन् मित्रधितये युवाकु राये च नो मिमीतं वाजवत्यै । इषे च नो मिमीतं धेनुमत्यै ॥’ (१ ।। १२० । ९)]॥ १-४॥
जब दो चरण आठ-आठ अक्षरोंके और एक चरण बारह अक्षरोंका हो तो वेदमें उसे ‘उष्णिक्‘ नाम दिया गया है।
प्रथम और तृतीय चरण आठ अक्षरोंके हों और बीचका द्वितीय चरण बारह अक्षरोंका हो तो वह तीन पादोंका “ककुप् उष्णिक्‘ नामक छन्द होता है।[जैसे ऋग्वेदमें’सुदेवः समहासति सुवीरो नरो मरुतः स मर्त्यः॥ | यंत्रायध्वेऽस्यासते’॥’ (५ ।।५३॥१५)]
जब प्रथम चरण बारह अक्षरोंका और द्वितीय-तृतीय चरण आठ-आठ अक्षरोंके हों तो ‘पुर उष्णिक्‘ नामक तीन पादोंवाला छन्द होता है। [जैसे ऋग्वेदमें-‘अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तयेदेवा भवति वाजिनः ॥’ (१ ।। २३ । १९)]
जब प्रथम और द्वितीय चरण आठ-आठ अक्षरोंके हों और तृतीय चरण बारह अक्षरोंका हो तो ‘परोष्णिक्‘ छन्द होता है। [जैसे ऋग्वेदमें”अग्ने वाजस्य गोमत ईशानः सहसो यहो। अस्मे धेहि जातवेदो महि श्रवः’॥’ (१॥७९ । ४)]
सातसात अक्षरोंके चार चरण होनेपर भी ‘उष्णिक्‘ नामक छन्द होता है। [जैसे ऋग्वेदमें-“नर्द व ओदतीनां नदं यो युवतीनाम्। पति वो अध्न्यानां धेनूनामिघुध्र्यसि ॥’ (८॥ ६९ । २)]
आठ-आठ अक्षरके चार चरणोंका ‘अनुष्टुप्‘ नामक छन्द होता है।[जैसे यजुर्वेदमें-‘सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। स भूमिं सर्वतः स्पृत्वा अत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्॥’ (३१ । १)]
अनुष्टुप् छन्द कही-कही तीन चरणोंका भी होता है।
“त्रिपाद अनुष्टुप् दो तरहके होते हैं।
एक तो वह हैं, जिसके प्रथम चरण में आठ तथा द्वितीय और तृतीय चरणोंमें बारह-बारह अक्षर होते हैं।
दूसरा वह है, जिसका मध्यम अथवा अन्तिम पाद आठ अक्षरका हो तथा शेष दो चरण बारह-बारह अक्षरके हों।
आठ अक्षरके मध्यम पादवाले ‘त्रिपाद अनुष्टुप् ‘ का उदाहरण [जैसे ऋग्वेदमें’पयूंपुष्प्र धन्व वाजसातीय, परेि वृत्राणि सक्षणिः । द्विधस्तर ध्या ऋण या न ईयसे।” (९ ॥ ११० ॥ १)] तथा आठ अक्षरके अन्तिम चरणवाले ‘त्रिपाद अनुष्टुप् ‘ का उदाहरण [ऋग्वेदमें-‘मा कस्मै धातमभ्यमित्रिणे नो मा कुत्रा नो गृहेभ्यो धेनवो गुः । स्तनाभुजो अशिश्र्श्वीः ॥’ (१ ।। १२० । ८)]
यदि एक चरण ‘जगती’का (अर्थात् बारह अक्षरका) हो और शेष तीन चरण गायत्रीके (अर्थात् आठ-आठ अक्षरके) हों तो यह चार चरणोंका ‘वृहती छन्द‘ होता है।
इसमें भी जब पहलेका स्थान तीसरा चरण ले ले अर्थातू वही जगतीका पाद हो और शेष तीन चरण गायत्रीके हों तो उसे ‘पथ्या वृहती” कहते हैं। [जैसे सामवेदमें-“मा चिदन्यद विशंसत सखायो मा रिषण्यत । इन्द्रमित्स्तोता वृषणं सचा सुते मुहुरुक्था च शंसत ॥’ (२४२)]
जब पहलेवाला ‘जगती’का चरण द्वितीय पाद हो जाय और शेष तीन गायत्रीके चरण हों तो ‘न्यङ्गुसारिणी वृहती” नामक छन्द होता है। [जैसे ऋग्वेदमें-‘मत्स्यपायि ते महः पात्रस्यैव हरिवौ मत्सरो मदः । वृषा ते वृष्ण इन्दुर्वाजीसहस्त्रसातम:।’ (१। १७५ ॥ १)]
आचार्य क्रोष्टुकिके मतमें यह (न्यङ्कुसारिणी) ‘स्कन्ध” या “ग्रीवा’ नामक छन्द है*। यास्काचार्यने इसे ही ‘उरोवृहती” नाम दिया है।
जब अन्तिम (चतुर्थ) चरण ‘जगती’का हो और आरम्भके तीन चरण गायत्रीके हों तो ‘उपरिष्टाद् बृहती ‘ नामक छन्द होता है।
वही ‘जगती”का चरण जब पहले हो और शेष तीन चरण गायत्री छन्दके हों तो उसे ‘पुरस्ताद् बृहती” छन्द कहते हैं।[जैसे ऋग्वेदमे-“मही यस्पतिः शास्वसो असाम्या मही नृम्णस्य ततुजिः ॥ मर्ता वज्रस्य धृष्णोः पिता पुत्रमिव प्रियम्’॥’ (१०।। २२ । ३)]
वेदमें कही-कही नौ-नौ अक्षरोंके चार चरण दिखायी देते हैं। वे भी ‘बृहती” छन्दके ही अन्तर्गत हैं।[उदाहरणके लिये ऋग्वेदमें-“क्त क्वा वयं पिती वचोभिगाँवो न हव्या सुषूदिम ॥ देवेभ्यस्त्वा सधमादमस्मभ्यं त्वा सधमादम् ॥’ (१। १८७।११)]
जहाँ पहले दस अक्षरके दो चरण हों, फिर आठ अक्षरोंके दो चरण हों, उसे भी ‘बृहती” छन्द कहते हैं।[जैसे। सामवेदमें-‘अग्रे विवस्वदुषसचित्र राधी आमत्र्य। आा दाशुषे जातवेदो वहा त्वमद्या देवाँ उषर्बुधः’॥’ (४०)]
केवल’जगती’ छन्दके तीन चरण हो तो उसे “महाबृहती” कहते हैं। [जैसे ऋग्वेदमें”अजीजनो अमृत मत्येष्वाँ, ऋतस्य धर्मनमृतस्य चारुणाः। सदासरो वाजमच्छसनिष्यदत्’ (५। ११० ॥ ४)]
ताण्डी नामक आचार्यके मतमें यही “सतो बृहती‘ नामकः छन्द है ॥५-१०१ ॥
जहाँ दो पाद बारह-बारह अक्षरोंके और दो आठ-आठ अक्षरोंके हों, वहाँ ‘पङ्गि‘ नामक छन्द होता है।
यदि विषम पाद अर्थात् प्रथम और तृतीय चरण पूर्वकथनानुसार बारह-बारह अक्षरोंके हों और शेष दोनों आठ-आठ अक्षरोंके तो उसे ‘सत:पङ्गि” नामक छन्द कहते हैं। [जैसे ऋग्वेदमें-‘यं त्वा देवासी मनवे दभुरिह यजिष्ट्र हव्यवाहन। यं कण्वो मेध्यातिथिर्धनस्पृतं यं वृषा यमुपस्तुतः ॥’ (१ ।। ३६ ।। १०}]
यदि वे ही चरण विपरीत अवस्थामें हों, अर्थात् प्रथम-तृतीय चरण आठ-आठ अक्षरोंके और द्वितीय-चतुर्थ बारहबारह अक्षरोंके तो भी वह छन्द ‘सत:पङ्गि” ही कहलाता है।[जैसे ऋग्वेदमें-“य ऋष्ये आवश्यत्सरखा विचेत् स वेद जनिमा पुरुष्टुतः। तं विश्वे मानुषा युगे, इन्द्रं हवन्ते तविषं यतासुचः ॥’ (८। ४६ ।। १२)]
जब पहलेके दोनों चरण बारह-बारह अक्षरोंके हों और शेष दोनों आठ-आठ अक्षरोंके, तो उसे ‘प्रस्तारपङ्गि‘ कहते हैं।[ग्यारहवें श्लोकमें बताये हुए ‘पङ्कि’ छन्दके लक्षणसे ही यह गतार्थ हो। जाता है, तथापि विशेष संज्ञा देने के लिये यहाँ पुन: उपादान किया गया है। मन्त्र-ब्राह्मणमें इसका उदाहरण इस प्रकार है-“काम वेदते मदों नामासि समानया अमुं सुरा ते अभवत्। परमत्र जन्मा अग्रे तपसा निर्मितोऽसि * ॥’],
ञ्जब जब अमन्तिम दो चरण बारह-बारह अक्षरोंके हों और आरम्भके दोनों आठ-आठ अक्षरोंके तो ‘आस्तारपङ्गि‘ नामक छन्द होता है। [जैसे ऋग्वेदमें-भद्र नी अपि वातय, मनो दक्षमुत क्रतुम्। अधा ते सञ्ज्य अन्धसो विवो मदेरणन्गावो न यवसे विवक्षसे ।’ (१० ॥ १५। १)]
यदि बारह अक्षरोंवाले दो चरण बीच में हों और प्रथम एवं चतुर्थ चरण आठ-आठ अक्षरोंके हों तो उसे ‘विस्तारपङ्गि‘ कहते हैं। [जैसे ऋग्वेद में-“अगें तव अत्री वयो, महि भाजन्ते अर्चयो विभावसो। बृहद्धानो शवसा वाजिमुक्थ्यंदधासि दाशुषे कवे।।॥’ (१०।। १४०॥ १)]
यदि बारह अक्षरोंवाले दो चरण बारह हों, अर्थात् प्रथम एवं चतुर्थ चरणके रूपमें हों और बीचके द्वितीय-तृतीय चरण आठ-आठ अक्षरोंके हों तो वह ‘संस्तारपङ्गि‘ नामक छन्द होता है। [जैसे ऋग्वेदर्मे-‘पितुभृतो न तन्तुमित्सुदानवः प्रतिदध्मौ यजामसि। उघा अप स्वसुस्तमः संवर्तयति वर्तनि। सुजातता॥’ (१० ॥ १७२।३)]
पाँच-पाँच अक्षरोंके चार पाद होनेपर ‘अक्षरपङ्कि‘ नामक छन्द होता है। [जैसे ऋग्वेदमें-‘प्र शुक्रैतु देवी मनीषा। अस्मत् सुतष्टौ रथो न वाजी ॥’ (७॥ ३४ । १)]
पाँच अक्षरोंके दो ही चरण होनेपर “अल्पश:पङ्गि‘ नामक छन्द कहलाता है।
जहाँ पाँच-पाँच अक्षरोंके पाँच पाद हों, वहाँ ‘पदपङ्गि‘ नामक छन्द जानना चाहिये। [जैसे ऋग्वेदमें-‘घृतं न पूतं तनूरोपाः शुचि हिरण्यं तत्ते रुक्मो न रोचत स्वधावः*।।॥ ‘ ‘ (‘४ ।। १० । ६)]
जब पहला चरण चार अक्षरोंका, दूसरा छ: अक्षरोंका तथा शेष तीन पाद पाँच-पाँच अक्षरोंके हों तो भी ‘पदपङ्गि‘ छन्द ही होता है।
आठ-आठ अक्षरोंके पाँच पार्दोका ‘पथ्यापङ्गि‘ नामक छन्द कहा गया है। [जैसे ऋग्वेदमें- अक्षनमीमदन्त हाव प्रिया अधूषत। अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ठया यती योजान्विन्द्र ते हुरी।’ (१ ॥ ८२ ॥ २)]
आठ-आठ अक्षरोंके छ: चरण होनेपर ‘जगतीपङ्गि‘ नामक छन्द होता है। [जैसे मन्त्रब्राह्मण में-‘येन भ्यधिश्चतम्। येनेमां पृथ्वीं महीं यद्धां तदश्विना यशस्तेन मामभिषिञ्चतम्॥’] ॥ ११-१४॥
‘त्रिष्टुप्‘ अर्थात् ग्यारह अक्षरोंका एक पाद हो और आठ-आठ अक्षरोंके चार पाद हों तो पाँच पादोंका ‘त्रिष्टुब्न्योतिष्मती‘ नामक छन्द होता है।
इसी प्रकार जब एक चरण ‘जगती”का अर्थात् बारह अक्षरोंका हो और चार चरण ‘गायत्री’ के (आठ-आठ अक्षरोंके) हों तो उस छन्दका नाम “जगतीज्योतिष्मती‘ होता है।
यदि पहला ही चरण ग्यारह अक्षरोंका हों और शेष चार चरण आठ-आठ अक्षरोंके हों तो “पुरस्ताज्ज्योति” नामक त्रिष्टुप् छन्द होता है और यदि पहला ही चरण बारह अक्षरोंका तथा शेष चार चरण आठ-आठके हो तो “पुरस्ताज्ज्योति‘ नामक जगती छन्द होता है।
जब मध्यम चरण ग्यारह अक्षरों और आगे-पीछेके दो-दो चरण आठ-आठके हों तो “मध्ये–ज्योति‘ नामक त्रिष्टुप् छन्द होता है;
इसी प्रकार जब मध्यम चरण बारहका तथा आदि-अन्तके दो-दो चरण आठ-आठके हों तो “मध्ये–ज्योति‘ नामक जगती छन्द होता है।
जब आरम्भके चार चरण आठ-आठ अक्षरोंके हों तथा अन्तिम चरण ग्यारह अक्षरोंका हो तो उसे ‘उपरिष्टाज्ज्योसि‘ नामक त्रिष्टुपू छन्द कहते हैं।
इसी प्रकार जब आदिके चार चरण पूर्ववत् आठ-आठके हों और अन्तिम पाद बारह अक्षरोंका हो तो उसका नाम ‘उपरिष्टाज्ज्योसि ” जगती छन्द होता है॥ १५६॥
गायत्री आदि सभी छन्दोंके एक पादमें यदि पाँच अक्षर हों तथा अन्य पादोंमें पहलेके अनुसार नियत अक्षर ही हों तो उस छन्दका नाम ‘शड्कुमती‘ होता है। [जैसे प्रथम पाद पाँच अक्षरका और तीन चरण छ:-छ: अक्षरोंका होनेपर उसे ‘शड्कुमती गायत्री’ कह सकते हैं।]
जब एक चरण छः अक्षरोंका हो और अन्य चरणोंमें पहले बताये अनुसार नियत अक्षर ही हों तो उसका नाम ‘ककुदमती‘ होगा।
जहाँ तीन अक्षर हों और बीचवालेमें बहुत ही कम हों, वहाँ उस छन्दका नाम “पिपीलिकमध्या‘ होगा।[जैसे त्रिपदा गायत्रीके आदि और अन्त चरण आठया पाँच अक्षरका हो तो उसे ‘पिपीलिकमध्या’ कहेंगे।]
इसके विपरीत जब आदि और अन्तवाले पादोंके अक्षर कम हों और बीचवाला पाद अधिक अक्षरोंका हो तो उस ‘त्रिपाद गायत्री’ , आदि छन्दकों ‘यवमध्या‘ कहते हैं।
यदि ‘गायत्री’ या ‘उष्णिक्’ आदि छन्दोंमें केवल एक अक्षरकी कमी हो, उसकी ‘निचृत्‘ यह विशेष संज्ञा होती है।
एक अक्षरकी अधिकता होनेपर वह छन्द ‘भूरिक्‘ नाम धारण करता है।
इस प्रकार दो अक्षरोंकी कमी रहनेपर ‘विराट्‘ और दो अक्षर अधिक होनेपर ‘स्वराट् संज्ञा होती है।
संदिग्ध अवस्थामें आदि पादके अनुसार छन्दका निर्णय करना चाहिये। [जैसे कोई मन्त्र छब्बीस अक्षरका हैं, उसमें गायत्रीसे दो अक्षर अधिक हैं और उष्णिक् से दो अक्षर कम-ऐसी दशामें वह ‘स्वराङ् गायत्री‘ छन्द है या ‘विराङ् उष्णिक्‘ ?– ऐसे संदेहयुक्त स्थलोंमें यदि मन्त्रका पहला चरण ‘गायत्री’से मिलता हो तो उसे ‘स्वराद्ध गायत्री‘ कहेंगे और यदि प्रथम पाद ‘उष्णिक्’से मिलता हो तो उसे ‘विराद्ध उष्णिक्‘ कह सकते हैं। इसी तरह अन्यत्र भी समझना चाहिये।]
इसी प्रकार देवता, स्वर, वर्ण तथा गोत्र आदिके द्वारा संदिग्धस्थल में छन्दका निर्णय हो सकता है।
गायत्री आदि छन्दोंके देवता क्रमश: इस प्रकार हैं- अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, बृहस्पति, मित्रावरुण, इन्द्र तथा विभेदेव।
उत्त छन्दोंके स्वर हैं ‘षड्ज’ आदि। उनके नाम क्रमश: ये हैं-षड्ज, ऋषभ, गन्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद
श्वेत, सारंग, पिशङ्ग, कृष्ण, नील, लोहित (लाल) तथा गौर-ये क्रमश: गायत्री आदि छन्दोंके वर्ण हैं।
‘कृति’ नामवाले छन्दोंका वर्ण गोरोंचनके समान हैं और अतिच्छन्दोंका वर्ण श्यामल है।
अग्रिवेश्य, काश्यप, गौतम, अङ्गिरा, भार्गव, कौशिक तथा वसिष्ठ-ये क्रमश: उक्त सात छन्दोंके गोत्र बताये गये हैं। १६-२३॥
तीन सौ तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३३० ॥
अध्याय – ३३१ उत्कृति आदि छन्द, गण-छन्द और मात्रा-छन्दोका निरूपण
अग्निदेव कहते हैं-वसिष्ठजी ! एक सौ चार अक्षरोंका ‘उत्कृति’छन्द होता है।[जैसे यजुर्वेदमें-“होता यक्षदश्विनौ छागस्य०’ इत्यादि (२१।४१)]
‘उत्कृति’ छन्दमेंसे चार-चार घटाते जायँ तो क्रमश: निम्नाङ्कित छन्द होते हैं-सौ अक्षरोंकी ‘अभिकृति‘, छानबे अक्षरोंकी ‘संस्कृति‘, बानबे अक्षरोंकी “विकृति“, अठासी अक्षरोंकी ‘आकृति“, चौरासी अक्षरोंकी ‘प्रकृति‘, अस्सी अक्षरोंकी “कृति“, छिहत्तर अक्षरॊकी ‘अधिकृति‘, बहत्तर अक्षरों की धृती, 68 अक्षरोंकी अत्यष्टि, चौसठ अक्षरोंकी ‘अष्टि“, साठ अक्षरोंकी ‘अतिशक्वरी“, छप्पन अक्षरोंकी ‘शक्वरी‘, बावन अक्षरोंकी ‘अतिजगती‘ तथा अड़तालीस अक्षरोंकी ‘जगती‘ होती है।
यहाँतक केवल वैदिक छन्द हैं।
यहाँसे आगे लौकिक छन्दका अधिकार है।
‘गायत्री’से लेकर “त्रिष्टुप्’ तक जो आर्षछन्द वैदिक छन्दोंमें गिनाये गये हैं, वे लौकिक छन्द भी हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-त्रिष्टुप्, पङ्कि, बृहती, अनुष्टुप्, उष्णिक्, और गायत्री ।
गायत्री छन्दमें क्रमश: एक-एक अक्षरकी कमी होनेपर ‘सुप्रतिष्ठा‘, ‘प्रतिष्ठा‘, ‘मध्या‘, ‘अत्युक्तात्युक्त‘ तथा ‘आदि” नामक छन्द होते हैं॥ १-४॥
छन्दके चौथाई भागको ‘पाद’ या ‘चरण’ कहते हैं। [छन्द तीन प्रकार के हैं-गणच्छन्द, मात्रा-छन्द और अक्षरच्छन्द] ।
पहले ‘गणच्छन्द’ दिखलाया जाता है।
चार लघु अक्षरोंकी ‘गण’ संज्ञा होती है। [‘आर्या”के लक्षणोंकी सिद्धि ही इस संज्ञाका प्रयोजन है।] ये गण पाँच हैं। कही आदि गुरु (s।।), कही मध्य गुरु (।s।), कही अन्त गुरु (।।s), कही सर्वगुरु (sss) और कही चारों अक्षर लघु (।।।।) होते हैं।
[एक “गुरु’ दो ‘लघु’ अक्षरोंके बराबर होता है, अत: जहाँ सब लघु हैं, वहाँ चार अक्षर तथा जहाँ सब गुरु हैं, वहाँ दो अक्षर दिखाये गये हैं।]
अब ‘आर्या”का लक्षण बताया जाता है।
साढ़े सात गणोंकी, अर्थात् तीस मात्राओं या तीस लघु अक्षरोंकी आधी ‘आर्या” होती है। [आर्यामें गुरुवर्णको दो मात्रा या दो लघु मानकर गिनना चाहिये।]
‘आर्या’ छन्दके विषय गणोंमें जगण (।s।)-का प्रयोग नहीं होता’। किंतु छठा गण अवश्य जगण (। s।) होना चाहिये।’ अथवा वह नगण और लघु यानी सब-का-सब लघु भी हो सकता है।
जब छठा गण सब-का-सब लघु हो तो उस गणके द्वितीय अक्षरसे सुबन्त या तिद्धन्तलक्षण पदसंज्ञाकी प्रवृत्ति होती है।
यदि छठा गण मध्य गुरु (।s।) अथवा सर्वलघु (।।।।) हो और सातवाँ गण भी सर्वलघु ही हो, तो सातवें गणके प्रथम अक्षर से “पद” संज्ञाकी प्रवृत्ति होती है।
इसी प्रकार जब आर्याके उत्तरार्ध-भागमें पाँचवाँ गण सर्वलघु हो तो उसके प्रथम अक्षर से ही पदका आरम्भ होता है।’
आर्याके उत्तरार्ध भागमें छठा गण एकमात्र लघु अक्षरका (।) होता है।’
जिस आर्याके पूर्वार्ध और उतरार्धमें तीन-तीन गणोंके बाद पहले पादका विराम होता है, उसे ‘पथ्या’ माना गया है I
जिस आर्याके पूर्वाधमें या उत्तरार्धमें अथवा दोनोंमें तीन गणोंपर पादविराम नहीं होता, उसका नाम “विपुला” होता है। [इस प्रकार इसके तीन भेद होते हैं-१-आदिविपुला, २-अन्त्यविपुला तथा ३-उभयविपुला। इनमें पहलीका नाम ‘मुखविपुला’ दूसरीका ‘जघनविपुला” तथा तीसरीका ‘महाविपुला” है।]
इनके उदाहरण क्रमश: इस प्रकार हैं
1 स्त्रिग्धच्छायालावण्यलेपिनी किंचिदयनतवीणा ।
मुखविपुला सौभाग्यं लभते स्त्रीत्याह माण्डव्यः ॥
२ चित्तं हरन्ति हरिणीदीर्घदृशः कामिनां कलालापैः ।
नीवीविमोचनव्याजकथितजघना जघनविपुला ॥
३ या स्वी कुचकलशनितम्वमण्डले जायते महाविपुला।
गम्भीरनाभिरतिदीर्घलोचना भवति सा सुभगा ॥
-पहले पद्यमें पूर्वार्धमें, दूसरेमें उतरार्धमें तथा तीसरे में दोनों जगह पाद-विराम तीन गणोंसे आगे होता हैं।
जिस आर्या-छन्दमें द्वितीय तथा चतुर्थ गण गुरु अक्षरोंके बीचमें होनेके साथ ही जगण अर्थात् मध्यगुरु (।ऽ।) हों, उसका नाम “चपला’ हैं। तात्पर्य यह हैं कि ‘चपला’ नामक आर्यामें प्रथम गण अन्त्यगुरु (।।ऽ), तृतीय गण दो गुरु (ऽऽ) तथा पञ्चम गण आदिगुरु (ऽ।।) होता है। शेष गण पूर्ववत् रहते हैं।
पूर्वार्धमें ‘चपला’का लक्षण हो तो उस आर्याका नाम ‘मुखचपला’ होता है। परार्धमें चपलाका लक्षण होनेपर उसे ‘जघनचपला’ कहते हैं। पूर्वार्ध और परार्ध-दोनोंमें चपलाका लक्षण संघटित होता है तो उसका नाम ‘महाचपला’ है। जहाँ आर्याके पूर्वार्धके समान ही उत्तरार्ध भी हो, उसे ‘गीति” नाम दिया गया है। तात्पर्य यह कि उसके उत्तरार्धमें भी छठा गण मध्यगुरु (।ऽ।) अथवा सर्वलघु (।।।।) करना चाहिये।
इसी प्रकार जहाँ आर्याके उत्तरार्धके समान ही पूर्वार्ध भी हो, उसे ‘उपगीति’ कहते हैं। आर्याके पूर्वोक्त क्रमको विपरीत कर देनेपर ‘उद्गीति’ नाम पड़ता है। सारांश यह कि उसमें पूर्वार्धको उत्तरार्धमें और उत्तरार्धको पूर्वार्धमें रखा जाता है।
यदि पूर्वार्धमें आठ गण हों तो ‘आर्यागीति’ नामक छन्द होता हैं। कोई विशेषता न होने से इसका उत्तरार्ध भी ऐसा ही समझना चाहिये। यहाँ भी छठे गणमें मध्यगुरु और सर्वलघु-इन दोनों विकल्पोंकी प्राप्ति थी, उसके स्थानमें केवल एक “लघु’का विधान है।॥ ९-१०३ ॥
अब ‘मात्रा–छन्द‘ बतलाया जाता है।
जहाँ विषम, अर्थात् प्रथम और तृतीय चरणमें चौदह लघु (मात्राएँ) हों और सम-द्वितीय, चतुर्थ चरणोंमें सोलह लघु हों तथा इनमेंसे प्रत्येक चरणके अन्तमें रगण (ऽ।ऽ), एक लघु और एक गुरु हो तो ‘वैतालीय” नामक छन्द होता है। [रगण, लघु और गुरु मिलाकर आठ मात्राएँ होती हैं, इनके सिवा प्रथम-तृतीय पादोंमें छ:-छ: मात्राएँ और द्वितीय-चतुर्थ चरणोंमें आठ-आठ मात्राएँ ही शेष रहती हैं। इन्हें जोड़कर ही चौदह-सोलह मात्राओंकी व्यवस्था की गयी है।]
वैतालीय छन्दके अन्तमें एक गुरु और बढ़ जाय तो उसका नाम ‘औपच्छन्दसक’ होता है ॥ ११-१२॥
पूर्वोत्त वैतालीय छन्दके प्रत्येक चरणके अन्तमें जो रगण, लघु और गुरुकी व्यवस्था की गयी है, उसकी जगह यदि भगण और दो गुरु हो जाय तो उस छन्दका नाम ‘आपातलिका’ होता है।
उपर्युक्त वैतालीय छन्दके अधिकारोंमें जो रगण आदिके द्वारा प्रत्येक चरणके अन्तमें आठ लकारों (मात्राओं)-का नियम किया गया है, उनको छोड़कर प्रत्येक चरणमें जो ‘लकार’ शेष रहते हैं, उनमेंसे सम लकार विषम लकारके साथ मिल नहीं सकता। अर्थात् दूसरा तीसरेके और चौथा पाँचवेंके साथ संयुक्त नहीं हो सकता; उसे पृथक् ही रखना चाहिये।
इससे विषम लकारोंका सम लकारोंके साथ मेल अनुमोदित होता है।
द्वितीय और चतुर्थ चरणोंमें लगातार छ: लकार पृथक्-पृथकू नहीं प्रयुक्त होने चाहिये।
प्रथम और तृतीय चरणोंमें रुचिके अनुसार किया जा सकता है।
अब ‘प्राच्यवृति‘ नामक वैतालीय छन्दका दिग्दर्शन कराया जाता है।
जब दूसरे और चौथे चरणमें चतुर्थ लकार (मात्रा) पञ्चम लकारके साथ संयुक्त हो तो उसका नाम ‘प्राच्यवृत्ति’ होता है। [यद्यपि सम लकारका विषम लकारके साथ मिलना निषिद्ध किया गया है, तथापि वह सामान्य नियम हैं; प्राच्यवृत्ति आदि विशेष स्थलोंमें उस नियमका अपवाद होता है।] शेष लकार पूर्वोक्त प्रकारसे ही रहेंगे।
जब प्रथम और तृतीय चरणमें दूसरा लकार तीसरेके साथ मिश्रित होता है, तब ‘उदीच्यवृति” नामक वैतालीय कहलाता है। शेष लकार पूर्वोक्त रूपमें ही रहते हैं।
जब दोनों लक्षणोंकी एक साथ ही प्रवृत्ति हो, अर्थात् द्वितीय और चतुर्थ पादोंमें पञ्चम लकारके साथ चौथा मिल जाय और प्रथम एवं तृतीय चरणोंमें तृतीयके साथ द्वितीय लकार संयुक्त हो जाय तो ‘प्रवृत्तिक” नामक छन्द होता हैं।
जिस वैतालीय छन्दके चारों चरण विषम पादोंके ही अनुसार हों, अर्थात् प्रत्येक पाद चौदह लकारोंसे युक्त हो तथा द्वितीय लकार तृतीयसे मिला हो, उसे ‘चारुहासिनी’ कहते हैं।
जब चारों चरण सम पादोंके लक्षणसे युक्त हों अर्थात् सबमें सोलह लकार (मात्राएँ) हों और चतुर्थ लकार पञ्चमसे मिला हो तो उसका नाम ‘अपरान्तिका” हैं।
जिसके प्रत्येक पादमें सोलह लकार हों, किन्तु पादके अन्तिम अक्षर गुरु ही हो, उसे ‘मात्रासमक’ नामक छन्द कहा गया हैं। साथ ही इस छन्दमें नवम लकार किसीसे मिला नहीं रहता।
जिस ‘मात्रासमक’के चरणमें बारहवाँ लकार अपने स्वरूप में ही स्थित रहता है, किसी से मिलता नहीं, उसका नाम ‘वानवासिका’ है।
जिसके चारों चरणोंमें पाँचवाँ और आठवाँ लकार लघुरूपमें ही स्थित रहता है, उसका नाम “विश्लोक’ है।
जहाँ नवाँ भी लघु हो, वह “चित्रा’ नामक छन्द कहलाता है।
जहाँ नवाँ लकार दसवेंके साथ मिलकर गुरु हो गया हो, वहाँ ‘उपचिना’ नामक छन्द होता है।
मात्रासमक, विश्लोक, वानवासिका, चित्रा और उपचित्रा – इन पाँचोंमें जिस-किसी भी छन्दके एक-एक पादको लेकर जब चार चरणोंका छन्द बनाया जाय, तब उसे “पादाकुवक’ कहते हैं।
जिसके प्रत्येक चरणमें सोलह लघु स्वरूपसे ही स्थित हों, किसीसे मिलकर गुरु न हो गये हों, उस छन्दका नाम ‘गीत्यार्या’ है।
इसी गीत्यार्यामें जब आधे भागकी सभी मात्राएँ गुरुरूपमें हों और आधे भागकी मात्राएँ लघुरूपमें तो उसका नाम ‘शिखा’ होता है।
इसीके दो भेद हैं-पूर्वार्धभागमें लघु-ही-लघु और उत्तरार्धमें गुरु-ही-गुरु हों तो उसका नाम ‘ज्योति” बताया गया है।
इसके विपरीत पूर्वार्धभागमें सब गुरु और उत्तरार्धमें सब लघु हों तो ‘सौम्या’ नामक छन्द होता है।
जब पूर्वार्धभागमें उन्तीस लकार और उत्तरार्धमें इकतीस लकार हों एवं अन्तिम दो लकारोंके स्थानमें एक-एक गुरु हो तो उसका नाम ‘चूलिका’ होता है।
छन्दकी मात्राओंसे उसके अक्षरोंमें जितनी कमी हो, उतनी गुरुकी संख्या और अक्षरोंसे जितनी कमी गुरुकी संख्यामें हो, उतनी लघुकी संख्या मानी गयी है।
तात्पर्य यह है कि यदि कोई पूछे, इस आर्यामें कितने लघु और कितने गुरु हैं तो उस आर्याको लिखकर उसकी सभी मात्राओंकी गणना करके कहीं लिख ले, फिर अक्षरोंकी संख्या लिख ले। मात्राके अङ्गोंमेंसे अक्षरोंके अङ्क घटा दे; जितना बचे, वह गुरुकी संख्या हुई। इसी प्रकार अक्षरसंख्यामें गुरुकी संख्या घटा देनेपर जो बचे, वह लघु अक्षरोंकी संख्या होगी।
इस प्रकार वर्ण आदिके अन्तरसे गुरु-लघु आदिका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये॥ १३-१८॥
तीन सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३३१ ॥
अध्याय – ३३२ विषमवृत्तका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं– [छन्द या पद्य दो प्रकारके हैं-“जाति’ और ‘वृत्त’। यहाँतक ‘जाति’ छन्दोंका निरूपण किया गया, अब ‘वृत्त’का वर्णन करते हैं-]
वृत्तके तीन भेद हैं-सम, अर्धसम तथा विषम। इन तीनोंका प्रतिपादन करता हूँ।
‘समवृत्त’की संख्यामें उतनी ही संख्यासे गुणा करे। इससे जो गुणनफल हो, उसे अर्धसमवृत्तकी संख्या समझनी चाहिये। इसी प्रकार’अर्धसमवृत”की संख्यामें भी उसी संख्यासे गुणा करनेपर जो अङ्क उपलब्ध हो, वह ‘विषमवृत्त’की संख्या है।
विषमवृत्त और अर्धसमवृतकी संख्यामेंसे मूलराशि घटा देनी चाहिये। इससे शुद्ध विषम और शुद्ध अर्धसमवृत्तकी संख्याका ज्ञान होगा। [केवल गुणनसे जो संख्या ज्ञात होती है, वह मिश्रित होती है; उसमें अर्धसमके साथ सम और विषमके साथ अर्धसमकी संख्या भी सम्मिलित रहती है।]
जो अनुष्टुप् छन्द प्रत्येक चरणमें गुरु और लघु अक्षरोंद्वारा समाप्त होता है, अर्थात् जिसके प्रत्येक पादमें अन्तिम दो वर्ण क्रमश: गुरु-लघु होते हैं, उसे ‘समानी” नाम दिया गया है।
जिसके चारों चरणोंके अन्तिम वर्ण क्रमशः लघु और गुरु हों, उसकी ‘प्रमाणी” संज्ञा है।
इन दोनोंसे भिन्न स्थितिवाला छन्द ‘वितान’ कहलाता है। [इसके अन्तिम दो वर्ण केवल लघु अथवा केवल गुरु भी हो सकते हैं।]
यहाँसे तीन अध्यायोंतक “पादस्य” इस पदका अधिकार है तथा ‘पदचतुरूर्ध्व‘ छन्दके पहलेतक ‘अनुष्टुब्वक्त्रम्‘ का अधिकार है। तात्पर्य यह कि आगे बताये जानेवाले कुछ अनुष्टुप छन्द ‘वक्त्र” संक्षा धारण करते हैं।
‘वक्त्र‘ जातिके छन्दमें पादके प्रथम अक्षरके पश्चात् सगण (।।ऽ) और नगण (।।।) नहीं प्रयुक्त होने चाहिये।’ इन दोनोंके अतिरिक्त मगण आदि छ: गणोंमेंसे किसी एक गणका प्रयोग हो सकता है।
पादके चौथे अक्षरके बाद भगण (ऽ।।)-का प्रयोग करना उचित हैं।
जिस ‘वक्त्र‘ जाति के छन्दमें द्वितीय और चतुर्थ पादके चौथे अक्षरके बाद जगण (।ऽ।)-का प्रयोग हो, उसे ‘पथ्या वक्त्र‘ कहते हैं।
किसी-किसीके मतमें इसके विपरीत न्यास करनेसे, अर्थात् प्रथम एवं तृतीय पादके बाद जगण (।ऽ।) -का प्रयोग करनेसे ‘पथ्या‘ संज्ञा होती है। जब विषम पादोंके चतुर्थ अक्षरके बाद नगण (।।।) हों तथा सम पादोंमें चतुर्थ अक्षरके बाद यगण (।ऽऽ)-की ही स्थिति हो तो उस ‘अनुष्टुब्वक्त्र’का नाम ‘चपला‘ होता है।
जब सम पादोंमें सातवाँ अक्षर लघु हो, अर्थात् चौथे अक्षरके बाद जगण ( ।ऽ।) हो तो उसका नाम ‘विपुला” होता है। [यहाँ सम पादोंमें तो सप्तम लघु होगा ही, विषम पादोंमें भी यगणको बाधितकर अन्य गण हो सकते हैं-यही ‘विपुला” और “पथ्या का भेद है।]
सैतव आचार्यके मत में विपुलाके सम और विषम सभी पादोंमें सातवाँ अक्षर लघु होना चाहिये।
जब प्रथम और तृतीय पादोंमें चतुर्थ अक्षरके बाद यगणकों बाध कर विकल्पसे भगण (ऽ।।), रगण (ऽ।ऽ), नगण (।।।) और तगण (ऽऽ।) आदि हों तो ‘विपुला“* छन्द होता है।
इस प्रकार ‘विपुला‘ अनेक प्रकारकी होती हैं। यहाँतक ‘वक्त्र‘ जाति के छन्दोंका वर्णन किया गया।
अनुष्टुप छन्दके प्रथम पादके पश्चात् जब प्रत्येक चरणमें क्रमश: चार-चार अक्षर बढ़ते जायँ तो ‘पदचतुरूर्ध्व‘ नामक छन्द होता है। [तात्पर्य यह कि इसके प्रथम पादमें आठ अक्षर, द्वितीय पादमें बारह, तृतीय पादमें सोलह और चतुर्थ पादमें बीस अक्षर होते हैं।]
उक्त छन्दके चारों चरणोंमें अन्तिम दो अक्षर गुरु हों तो उसकी ‘आपीड़‘ संज्ञा होती है। [यहाँ अन्तिम अक्षरोंको गुरु बतलानेका यह अभिप्राय जान पड़ता है कि शेष लघु हीं होते हैं।]
जब आदिके दो अक्षर गुरु और शेष सभी लघु हों तो उसका नाम ‘प्रत्यापीड‘ होता है।
‘पदचतुरूर्ध्व’ नामक छन्दके प्रथम पादका द्वितीय आदि पादोंके साथ परिवर्तन होनेपर क्रमशः ‘मञ्जरी‘ ‘लवली‘ तथा ‘अमृतधारा‘ नामक छन्द होते हैं। (अर्थात् जब प्रथम पादके स्थानमें द्वितीय पाद और द्वितीय पादके स्थानमें प्रथम पाद हों तो ‘मञ्जरी’ छन्द होता है। जब प्रथम पादके स्थानमें तृतीय पाद और तृतीय पादके स्थानमें प्रथम पाद हो तो “लवली” छन्द होता है और जब प्रथम पादके स्थानमें चतुर्थ पाद और चतुर्थ पादके स्थानमें प्रथम पाद हो तो ‘अमृतधारा’ नामक छन्द होता है।)
अब ‘उद्गता‘ छन्दका प्रतिपादन किया जाता है।
जहाँ प्रथम चरणमें सगण (।।ऽ), जगण (।ऽ।), सगण (।।ऽ) और एक लघु-ये दस अक्षर हों, द्वितीय पादमें भी नगण (।।।), सगण (।।ऽ), जगण (।ऽ।) और एक गुरु-ये दस ही अक्षर हों, तृतीय पादमें भगण (ऽ।।), नगण (।।।), जगण (।ऽ।), एक लघु तथा एक गुरु-ये ग्यारह अक्षर हों तथा चतुर्थ चरणमें सगण (।।ऽ), जगण ( ।ऽ।), सगण (।।ऽ), जगण (।ऽ।) और एक गुरु – ये तेरह अक्षर हों, वह ‘उद्गता‘ नामवाला छन्द है।
उदगताके तृतीय चरणमें जब रगण (ऽ।ऽ), नगण (।।।), भगण (ऽ।।) और एक गुरु-ये दस अक्षर हों तथा शेष तीन पाद पूर्ववत् ही रहें तो उसका नाम ‘सौरभ‘ होता है।
उदगताके तृतीय पादमें जब दो नगण और दो सगण हों और शेष चरण ज्यों-के-त्यों रहें तो उसकी ‘ललित‘ संज्ञा होती है।
जिसके प्रथम चरणमें यगण, सगण, जगण, भगण और दो गुरु (अठारह अक्षर) हों, द्वितीय चरणमें सगण, नगण, जगण, रगण और एक गुरु (तेरह अक्षर) हों, तृतीय चरणमें दो नगण और एक सगण (नौ अक्षर) हों तथा चतुर्थ चरणमें तीन नगण, एक जगण और एक भगण (पंद्रह अक्षर) हों, वह उपस्थित ‘प्रचुपित” नामक छन्द होता है।
उत्त छन्दके तृतीय चरणमें जब क्रमश: दो नगण, एक सगण, फिर दो नगण और एक सगण (अठारह अक्षर) हों तो वह ‘वर्धमान‘ छन्द नाम धारण करता है।
उसी छन्दमें तृतीय चरणके स्थानमें जब तगण, जगण और रगण (ये नौ अक्षर) हों तो वह ‘शुद्ध विराषभ‘ छन्द कहलाता है।
अब अर्धसमवृत्तका वर्णन करूंगा ॥ १–१० ॥
तीन साँ बतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३३२ ॥
अध्याय ३३३ अर्धसमवृत्तोंका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं–जिसके प्रथम चरणमें तीन सगण, एक लघु और एक गुरु (कुल ग्यारह अक्षर) हों, दूसरे चरणमें तीन भगण एवं दो गुरु हों तथा पूर्वार्धके समान ही उत्तरार्ध भी हो, वह ‘उपचित्रक‘ नामक छन्द है।
जिसके प्रथम पादमें तीन भगण एवं दो गुरु हों और द्वितीय पादमें एक नगण (।।।), दो जगण (।ऽ।) एवं एक जगण हो, वह ‘द्रुतमध्या‘ नामक छन्द होता है। [यहाँ भी प्रथम पादके समान तृतीय पाद और द्वितीय पादके समान चतुर्थ पाद जानना चाहिये। यही बात आगेके छन्दोंमें भी स्मरण रखनेयोग्य है।]
जिसके प्रथम चरणमें तीन सगण और एक गुरु तथा द्वितीय चरणमें तीन भगण एवं दो गुरु हों, उस छन्दका नाम “वेगवती” है।
जिसके पहले पादमें तगण (ऽऽ।), जगण (।ऽ।), रगण (ऽ।ऽ) और एक गुरु तथा दूसरे चरणमें मगण (ऽऽऽ), सगण ( ।।ऽ), जगण ( ।ऽ।) एवं दो गुरु हों, वह ‘भद्रविराट्’ नामक छन्द है।
जिसके प्रथम पादमें सगण, जगण, सगण और एक गुरु तथा द्वितीय पादमें भगण, रगण, नगण और दो गुरु हों, उसका नाम ‘केतुमती‘ है।
जिसके पहले चरणमें दो तगण, एक जगण और दो गुरु हों तथा दूसरे चरणमें जगण, तगण, जगण एवं दो गुरु हों, उसे “आख्यानिकी” कहते हैं।
इसके विपरीत यदि प्रथम चरणमें जगण, तगण, जगण एवं दो गुरु हों और द्वितीय चरणमें दो तगण, एक जगण तथा दो गुरु हों तो उसकी ‘विपरीताख्यानकी” संज्ञा होती है।
जिसके पहले पादमें तीन सगण, एक लघु और एक गुरु हों तथा दूसरेमें नगण, भगण, भगण एवं रगण मौजूद हों, उस छन्दका नाम ‘हरिणप्लुता” है।
जिसके प्रथम चरणमें दो नगण, एक रगण, एक लघु और एक गुरु हो तथा दूसरे चरणमें एक नगण, दो जगण और एक रगण हो, वह “अपरवक्त्र‘ नामक छन्द है।
जिसके प्रथम पादमें दो नगण, एक रगण और एक यगण हो तथा दूसरेमें एक नगण, दो जगण, एक रगण और एक गुरु हो, उसका नाम ‘पुष्पिताग्रा‘ है।
जिसके पहले चरणमें रगण, जगण, रगण, जगण हो तथा दूसरेमें जगण, रगण, जगण, रगण और एक गुरु हो उसे ‘यवमती” कहते हैं।
जिसके प्रथम और तृतीय चरणोंमें अट्ठाईस लघु और अन्तमें एक गुरु हो तथा दूसरे एवं चौथे चरणोंमें तीस लघु एवं एक गुरु हो तो उसका नाम ‘शिखा‘ होता है।
इसके विपरीत यदि प्रथम और तृतीय चरणोंमें तीस लघु और एक गुरु हो तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरणोंमें अट्ठाईस लघुके साथ एक गुरु हो तो उसे ‘खज़ा‘ कहते हैं।
अब “समवृत्त‘का दिग्दर्शन कराया जाता है।॥ १–६ ॥
तीन सौं तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३३३ ॥
अध्याय ३३४ समवृत्तका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं– “यति’ नाम है विच्छेद या विरामका। [पादके अन्तमें श्लोकार्ध पूरा होनेपर तथा कहीं-कहीं पादके मध्य में भी ‘यति’ होती है।] जिसके प्रत्येक चरणमें क्रमश: तगण और यगण हों, उसका नाम ‘तनुमध्या” है।[यह गायत्री छन्दका वृत्त हैं।]
जिसके प्रत्येक चरणमें जगण, सगण और एक गुरु हो, उसे ‘कुमारललिता‘ कहते हैं। [यह उष्णिक् छन्दका वृत्त है। इसमें तीन, चार अक्षरोंपर विराम होता है।]
दो भगण और दो गुरुसे जिसके चरण बनते हों, वह ‘चित्रपदा” है। [यह अनुष्टुप छन्दका वृत्त है, इसमें पादान्तमें ही यति होती है।]
जिसके प्रत्येक पादमें दो मगण और दो गुरु हों, उसका नाम “विद्युन्माला‘ है। [इसमें चार-चार अक्षरोंपर विराम होता है। यह भी अनुष्टुपका ही वृत्त है।]
जिसके प्रत्येक चरणमें भगण, तगण, एक लघु और एक गुरु हो, उसको ‘माणवकाक्रीडितक‘ कहते हैं। [इसमें भी चार-चार अक्षरोंपर विराम होता है।]
जिसके प्रति चरणमें रगण, नगण और सगण हो, वह ‘हलमुखी‘ नामक छन्द है। [इसमें तीन, पाँच, छः अक्षरोंपर विराम होता है, यह बृहती छन्दका वृत्त है।]॥ १-२ ॥
जिसके प्रत्येक चरणमें दो नगण और एक मगण हो, वह ‘भुजङ्गशिशुभृता‘ नामक छन्द है। [इसमें सात और दो अक्षरोंपर विराम है। यह भी बृहतीमें ही है।]
मगण, नगण और दो गुरुसे युक्त पादवाले छन्दकी ‘हंसरुत‘ कहते हैं।
जिसके प्रत्येक चरणमें मगण, सगण, जगण और एक गुरु हों, वह ‘शुद्धविराट्” नामक छन्द कहा गया है। [यहाँसे इन्द्रवज्राके पहलेतकके छन्द पङ्कि छन्दके अन्तर्र्गत है; इसमें पादान्तमें विराम होता है ]
जिसके प्रत्येक पादमें मगण, नगण, यगण और एक गुरु हों, वह ‘पणव” नामक छन्द है। [इसमें पाँच-पाँचपर विराम होता है।]
रगण, जगण, रगण और एक गुरुयुक्त चरणवाले छन्दका नाम ‘मयूरसारिणी” है। [इसमें पादान्तमें विराम होता है।]
मगण, भगण, सगण और एक गुरुयुक्त चरणवाला छन्द ‘मत्ता” कहलाता है। [इसमें चार-छ:पर विराम होता है।]
जिसके प्रत्येक पादमें तगण, दो जगण और एक गुरु हो, उसका नाम “उपस्थिता” है। [इसमें दो-आठपर विराम होता है।]
भगण, मगण, सगण और एक गुरुसे युक्त पादवाला छन्द ‘रुक्मवती‘ कहलाता है। [इसमें पादान्तमें विराम होता है।]
जिसके प्रत्येक चरणमें दो तगण, एक जगण और दो गुरु हों उसका नाम ‘इन्द्रवज्रा” है। [इसमें पादान्तमें विराम होता है। यहाँसे “वंशस्थ ‘के पहलेतक के छन्द बृहतीके अन्तर्गत हैं।]
जगण, तगण, जगण और दो गुरुसे युक्त पादोंवाला छन्द “उपेन्द्रवज्रा” कहलाता है। [इसमें भी पादान्तमें विराम होता हैI]
जब एक ही छन्दमें इन्द्रवज़ा और उपेन्द्रवज़ादोनोंके चरण लक्षित हों, तब उस छन्दका नाम ‘उपजाति‘ होता है। [इन दोनोंके मेल से जो उपजाति बनती है, उसके प्रस्तारसे चौदह भेद होते हैं। इसी प्रकार “वंशस्थ’ और “इन्द्रवज़ा’ तथा ‘शालिनी’ और ‘वातोर्मी के मेलसे भी उपजाति छन्द होता हैI] ॥ ३-५ ॥
तीन भगण और दो गुरुसे युक्त पादवाले वृत्तका नाम ‘दोधक” है। [इसमें पादान्तमें विराम होता है।]
जिसके प्रत्येक चरण में भगण, तगण, तगण और दो गुरु हों, उसका नाम ‘शालिनी‘ है। इसमें चार और सात अक्षरोंपर विराम होता है।
जिसके प्रत्येक पादमें मगण, भगण, तगण एवं दो गुरु हों, उसे ‘वातोर्मी‘ छन्द नाम दिया गया है। इसमें भी चार-सात पर विराम होता है।
प्रत्येक चरणमें मगण, भगण, तगण, नगण, एक लघु और एक गुरु होनेसे ‘भ्रमरीविलसिता‘ (या भ्रमरविलसिता) नामक छन्द होता है। इसमें भी चार और सात अक्षरोंपर ही विराम होता है।
जिसके प्रति पादमें रगण, नगण, रगण, एक लघु और गुरु हों, उसे ‘रथोद्धता” कहते हैं। इसमें भी पूर्ववत् चार और सात अक्षरोंपर विराम होता है।
रगण, नगण, भगण और दो गुरुसे युक्त पादवाले छन्दको ‘स्वागता” कहते हैं। [इसमें पादान्त में विराम होता है।]
जिसके प्रत्येक पादमें दो नगण, सगण और दो गुरु हों, उसे ‘वृत्ता” (या ‘वृन्ता”) कहते हैं।[इसमें चार-सात पर विराम होता है।]
जिसके चरण रगण, जगण, रगण, एक लधु और एक गुरुसे युक्त हो, उसे ‘श्येनी‘ नामक छन्द कहा गया है। [इसमें पादान्तमें विराम होता है।]
जगण, रगण, जगण एवं दो गुरुसे युक्त चरणवाले छन्दका नाम “रम्या” एवं ‘विलासिनी” है। [यहाँ पादान्त में ही विराम होता है।] ॥ ६-८ ॥
यहाँसे ‘जगती’ छन्दका अधिकार आरम्भ होता है [और “प्रहर्षिणी”के पहलेतक रहता है]। जिसके प्रत्येक चरणमें जगण, तगण, जगण और रगण हों, उस छन्दका नाम ‘वंशस्था‘ है। [यहाँ पादान्तमें विराम होता है।]
दो तगण, जगण तथा रगणसे युक्त चरणोंवाले छन्दको ‘इन्द्रवंशी‘ कहते हैं। [यहाँ भी पादान्तमें ही विराम होता है।]
जिसके प्रत्येक पादमें चार सगण हों, उसका नाम ‘तोटक” बताया गया है।
जिसके प्रत्येक पादमें नगण, भगण, भगण और रगण हों, उसका नाम ‘द्रुतविलम्बित‘ है। [‘तोटक’ और ‘द्रुतविलम्बित’ दोनोंमें पादान्त-विराम ही माना गया है।]
जिसके सभी चरणोंमें दो-दो नगण, एक-एक मगण तथा एक-एक यगण हों, उस छन्दका नाम ‘श्रीपुट” है। इसमें आठ और चार अक्षरोंपर विराम होता है।
जगण, सगण, जगण, सगणसे युक्त पार्दोवाले छन्दको “जलोद्धतगति‘ कहते है। इसमें छ:-छ: अक्षरोंपर विराम होता है।
दो नगण, एक मगण तथा एक रगणसे युक्त चरणवाले छन्दका नाम ‘तत‘ है।
नगण, यगण, नगण, यगणसे युक्त पादवाला छन्द’कुसुमविचित्रा‘ कहलाता है।[इसमें भी छ:-छ: अक्षरोंपर विराम होता है।]
जिसके प्रत्येक चरणमें दो नगण और दो रगण हों, उसका नाम ‘चश्वलाक्षिका‘ है। [इसके भीतर सात-पाँचपर विराम होता है।]
प्रत्येक पादमें चार यगण होनेसे ‘भुजंगप्रयात‘ और चार रगण होने से ‘स्रग्विणी‘ नामक छन्द होता है। [इन दोनोंमें पादान्तविराम माना गया है।]
जिसके प्रत्येक चरण में सगण, जगण तथा दो सगण हों, उसकी ‘प्रमिताक्षरा” संज्ञा होती है। [इसमें भी पादान्तविराम ही अभीष्ट हैं।]
भगण, मगण, सगण, मगणसे युक्त चरणोंवाले छन्दको ‘कान्तोत्पीड़ा” कहते हैं। [इसमें भी पादान्तविराम माना गया है।]
दो मगण और दो यगणयुक्त चरणवाले छन्दको ‘वैश्वदेवी” नाम दिया गया है। इसमें पाँच-सात अक्षरोंपर विराम होता है।
यदि प्रत्येक पादमें नगण, जगण, भगण। और यगण हों तो उस छन्दका नाम ‘नवमालिनी” होता है। यहाँतक ‘जगती’ छन्दका अधिकार है
[अब “अतिजगती‘ छन्दके अवान्तर भेद बतलाते हैं-]
जिसके प्रत्येक चरणमें मगण, नगण, जगण, रगण तथा एक गुरु हो, उसकी ‘प्रहर्षिणी” संज्ञा है। इसमें तीन और दस अक्षरोंपर विराम होता है।
जगण, भगण, सगण, जगण तथा एक गुरुसे युक्त चरणवाले छन्दका नाम “रुचिरा” है। इसमें चार तथा नौ अक्षरोंपर विराम माना गया हैं।
मगण, तगण, यगण, सगण और एक गुरुयुक्त पादवाले छन्दको ‘मत्तमयूर‘ कहते हैं। इसमें चार और नौ अक्षरोंपर विराम होता है।
तीन नगण, एक सगण और एक गुरुसे युक्त पादवाले छन्दकी ‘गौरी‘ संज्ञा है।
[अब शष्करीके अन्तर्गत विविध छन्दोंका वर्णन किया जाता है-]
जिसके प्रत्येक पादमें मगण, तगण, नगण, सगण तथा दो गुरु हों और पाँच एवं नौ अक्षरोंपर विराम होता हो, उसका नाम ‘असम्बाधा‘ है।
जिसके प्रतिपादमें दो हों तथा सात-सात अक्षरोंपर विराम होता हो, वह “अपराजिता” नामक छन्द है।
दो नगण, भगण, नगण, एक लघु और एक गुरुसे युक्त पादवाले छन्दकों “प्रहरणकलिता‘ कहते हैं। इसमें सात-सात पर विराम होता है।
तगण, भगण, दो जगण और दो गुरुसे युक्त पादवाले छन्दकी ‘वसन्ततिलका‘ संज्ञा है।[इसमें पादान्तमें विराम होता है।] किसी-किसी मुनिके मत में इसका नाम ‘सिंहोन्नता‘ और ‘उद्धर्षणी‘ भी है
[इसके आगे ‘अतिशक्वरी” का अधिकार है।]
जिसके प्रत्येक पादमें चार नगण और एक सगण हों, उसका नाम ‘चन्द्रावती‘ है। [इसमें सात-आठपर विराम होता है।] इसीमें जब छ: और नाँ अक्षरोंपर विराम हों तो इसका नाम ‘माला” होता है। आठ और सात पर विराम होने से यह छन्द ‘मणिगणनिकर‘ कहलाता है।
दो नगण, मगण और दो यगणसे युक्त चरणोंवाले छन्दको ‘मालिनी‘ कहते हैं। इसमें भी आठ और सात अक्षरोंपर ही विराम होता है।
भगण, रगण, तीन नगण और एक गुरुसे युक्त चरणवाले छन्दको ‘ऋषभगजविलसित” नाम दिया गया है। इसमें सात-नौ अक्षरोंपर विराम होता है। [यह ‘अष्टि’ छन्दके अन्तर्गत है।]
यगण, मगण, नगण, सगण, भगण, एक लघु तथा एक गुरुसे युक्त चरणोंवाले छन्दकों ‘शिखरिणी‘ कहते हैं। इसमें छ: तथा ग्यारह अक्षरोंपर विराम होता है।
जिसके प्रत्येक चरणमें जगण, सगण, जगण, सगण, यगण, एक लघु और एक गुरु हों तथा आठ-नौ अक्षरोंपर विराम हो उसका नाम ‘पृथ्वी‘ है-यह पूर्वकालमें आचार्य पिङ्गलने कहा है।
मगण, रगण, नगण, भगण, नगण, एक लघु तथा एक गुरुसे युक्त पदवाले छन्दको ‘वंशपत्रपतित” कहते हैं। इसमें दस-सात पर विराम होता है।
जिसके प्रत्येक चरण में नगण, सगण, मगण, रगण, सगण, एक लघु तथा एक गुरु हों और छ:, चार एवं सात अक्षरोंपर विराम हो, उसका नाम “हरिणी“* है। [शिखरिणीसे मन्दाक्रान्तातकका छन्द “अत्यष्टि”के अन्तर्गत है।]
मगण, भगण, नगण, दो तगण तथा दो गुरुसे युक्त पादोंवाले छन्दकी ‘मन्दाक्रान्ता” कहते हैं। इसमें चार, छ: और सात अक्षरोंपर विराम होता है।
जिसके पादोंमें मगण, तगण, नगण तथा तीन यगण हों, वह “कुसुमितलतावेल्लिता” छन्द है। [यह ‘घृति’ छन्दके अन्तर्गत है।] इसमें पाँच, छ: तथा सात अक्षरोंपर विराम होता है।
जिसके प्रत्येक चरणमें मगण, सगण, जगण, भगण, दो तगण और एक गुरु हों, उसका नाम ‘शार्दूलविक्रीडित‘ है। इसमें बारह तथा सात अक्षरोंपर विराम होता है। [यह छन्द ‘अतिधृति’के अन्तर्गत है] ॥ १८-२३॥
‘सुवदना” छन्द ‘कृति’ के अन्तर्गत है। इसके प्रत्येक पादमें मगण, रगण, भगण, नगण, यगण, भगण, एक लघु और एक गुरु होते हैं। इसमें सात, सात, छ:पर विराम होता है।
जब कृतिके प्रत्येक पादमें क्रमश: गुरु और लघु अक्षर हों तो उसे ‘वृत्त” छन्द कहते हैं।
मगण, रगण, भगण, नगण और तीन यगण युक्त चरणोंवाले छन्दका नाम “स्नग्धरा” है। इसमें सात-सातके तीन विराम होते हैं। [यह ‘प्रकृति’ छन्दके अन्तर्गत है।]
जिसके प्रत्येक चरणमें भगण, रगण, नगण, रगण, नगण, रगण, नगण तथा एक गुरु हों और दसबारह अक्षरोंपर विराम होता हो, उसे ‘सुभद्रक‘ छन्द कहते हैं। [यह ‘आकृति’ छन्दके अन्तर्गत है।]
नगण, जगण, भगण, जगण, भगण, जगण, भगण, एक लघु और एक गुरुसे युक्त पादवाले छन्दकी ‘अश्वललिता” संज्ञा है। इसमें ग्यारह-बारहपर विराम होता है। [यह ‘विकृति”के अन्तर्गत है]॥ २४-२५६॥
जिसके प्रत्येक चरणमें दो मगण, एक तगण, चार नगण, एक लघु और एक गुरु हों तथा आठ और पंद्रहपर विराम हो, उसे “मत्तक्रीड़ा” [या मत्ताक्रीडा] कहते हैं। [यह भी ‘विकृति में हीं है।]
जिसके पृथक्-पृथक् सभी पादोंमें भगण, तगण, नगण, सगण, फिर दो भगण, नगण और यगण हो तथा पांच, सात, बारहपर विराम होता हो, उसकी ‘तन्वी‘ संज्ञा है। [ यह ‘संस्कृति’ छन्दके अन्तर्गत हैं।]
जिसके प्रत्येक चरण में भगण, मगण, सगण, भगण, चार नगण और एक गुरु हों तथा पाँच-पाँच, आठ और सातपर विराम होता हो, उस छन्दका नाम ‘क्रौज्ञ्ज्पदा” है। [यह ‘अभिकृति”के अन्तर्गत है।]
जिसके प्रतिपादमें दो मगण, तगण, तीन नगण, रगण, सगण, एक लघु और एक गुरु हों तथा आठ, ग्यारह और सातपर विराम होता हो, उस छन्दको ‘भुजंगाविजृम्भित‘ कहते हैं। [यह “उत्कृति’ छन्दके अन्तर्गत है।]
जिसके प्रत्येक पादमें एक मगण, छ: नगण, एक सगण और दो गुरु हों तथा नौ, छ:-छ: एवं पाँच अक्षरोंपर विराम होता हो, उसकी “अपहाव‘ या ‘उपहाव‘ नाम दिया गया है। [यह भी ‘उत्कृति”में ही है]॥ २६-२८ ॥
[अब ‘दण्डक‘ जातिका वर्णन किया जाता है-]
जिसके प्रत्येक चरणमें दो नगण और सात रगण हों, उसका नाम ‘दण्डक” हैं; इसीको ‘चण्डवृष्टिप्रपात‘ भी कहते हैं। [इसमें पादान्तमें विराम होता है।] उत्त छन्दमें दो नगणके सिवा रगणमें वृद्धि करनेपर ‘व्याल‘, ‘जीमूत‘ आदि नामवाले ‘दण्डक’ बनते हैं।
‘चण्डप्रपात के बाद अन्य जितने भी भेद होते हैं, वे सभी दण्डकप्रस्तार “प्रचित” कहलाते हैं।
अब “गाथाप्रस्तार’का वर्णन करते हैं ॥ २९-३० ॥
अध्याय – ३३५ प्रस्तार-निरूपणा
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ! इस छन्दःशास्त्रमें जिन छन्दोंका नामत: निर्देश नहीं किया गया है, किंतु जो प्रयोगमें देखे जाते हैं, वे सभी ‘गाथा” नामक छन्दके अन्तर्गत हैं।
अब ‘प्रस्तार‘ बतलाते हैं। जिसमें सब अक्षर गुरु हों, ऐसे पादमें जो आदिगुरु हो, उसके नीचे लघुका उल्लेख करे। उसके बाद इसी क्रमसे वर्णोकी स्थापना करे, अर्थात् पहले गुरु और उसके नीचे लघु ॥ १ ॥
नष्ट-संख्याको आधी करनेपर जब वह दो भागोंमें बराबर बँट जाय, तब एक लघु लिखना चाहिये।
यदि आधा करनेपर विषम संख्या हाथ लगे तो उसमें एक जोड़कर सम बना ले और इस प्रकार पुनः आधा करे। ऐसी अवस्थामें एक गुरु अक्षरकी प्राप्ति होती है। उसे भी अन्यत्र लिख ले।
जितने अक्षरवाले छन्दके भेदको जानना हो, उतने अक्षरोंकी पूर्ति होनेतक पूर्वोक्त प्रणालीसे गुरु-लघुका उल्लेख करता रहे।
[जैसे:- गायत्री छन्दके छठे भेदका स्वरूप जानना हो तो छ:का आधा करना होगा। इससे एक लघु (।)-की प्राप्ति हुई। बाकी रहा तीन; इसमें दोका भाग नहीं लग सकता, अत: एक जोड़कर आधा किया जायगा। इस दशामें एक गुरु (ऽ)- की प्राप्ति हुई। इस अवस्थामें चारका आधा करनेपर दो शेष रहा, दोका आधा करनेपर एक शेष रहा तथा एक लघु (।)-की प्राप्ति हुई। अब एक समसंख्या न होनेसे उसमें एक और जोड़ना पड़ा; इस दशामें एक गुरु (ऽ)-की प्राप्ति हुई। फिर दोका आधा करनेसे एक हुआ और उसमें एक जोड़ा गया। पुन: एक गुरु (ऽ) अक्षरकी प्राप्ति हुई। फिर यही क्रिया करनेसे एक गुरु (ऽ) और उपलब्ध हुआ। गायत्रीका एक पाद छ: अक्षरोंका है, अत: छः अक्षर पूरे होनेपर यह प्रक्रिया बंद कर देनी पड़ी। उत्तर हुआ गायत्रीका छठा समवृत्त ।ऽ।ऽऽऽ इस प्रकार है।]
[अब ‘उद्दिष्ट की प्रक्रिया बतलाते हैं। अर्थात् जब कोई यह पूछे कि अमुक छन्द प्रस्तारगत किस संख्याका है, तो उसके गुरु-लघु आदिका एक जगह उल्लेख कर ले। इनमें जो अन्तिम लघु हो, उसके नीचे १ लिखे। फिर विपरीतक्रमसे, अर्थात् उसके पहलेके अक्षरोंके नीचे क्रमश: दूनी संख्या लिखता जाय। जब यह संख्या अन्तिम अक्षर पर पहुँच जाय तो उस द्विगुणित संख्यामेंसे एक निकाल दे। फिर सबको जोड़नेसे जो संख्या हो, वही उत्तर होगा।
अथवा
यदि वह संख्या गुरु अक्षरके स्थानमें जाती हो तो पूर्वस्थानकी संख्याको दूनी करके उसमेंसे एक निकालकर रखे। फिर सबको जोड़नेसे अभीष्ट संख्या निकलेगी।]
उद्दिष्टकी संख्या बतलानेका सबसे अच्छा उपाय यह है कि उस छन्दके गुरु–लघु वर्णाको क्रमशः एक पङ्किमें लिख ले और उनके ऊपर क्रमश: एकसे लेकर दूने–दूने अङ्क रखता जाय; अर्थात् प्रथमपर एक, द्वितीयपर दो, तृतीयपर चार-इस क्रमसे संख्या बैठाये। फिर केवल लघु अक्षरोंके अङ्गोंको जोड़ ले और उसमें एक और मिला दे तो वही उत्तर होगा।
जैसे:- ‘तनुमध्या‘ छन्द गायत्रीका किस संख्याका वृत है, यह जाननेके लिये तनुमध्याके गुरु-लघु वर्णो-तगण, यगणकी ऽऽ ।। ऽऽ इस प्रकार लिखना होगा।
फिर क्रमशः अङ्क बिछानेपर १ २ ४ ८ १६ ३२ इस प्रकार होगा। इनमें केवल
लघु अक्षरके अङ्ग। ४ । ८ जोड़नेपर १२ होगा। उसमें एक और मिला देनेसे १३ होगा, यही उत्तर है। तात्पर्य यह है कि ‘तनुमध्या” छन्द गायत्रीका तेरहवाँ समवृत्त है।
[अब बिना प्रस्तारके ही वृत्तसंख्या जानने का उपाय बतलाते हैं। इस उपायका नाम ‘संख्यान’ है। जैसे कोई पूछे छ: अक्षरवाले छन्दकी समवृत्त-संख्या कितनी होगी ? इसका उत्तर-]
उत्तर:- जितने अक्षरके छन्दको संख्या जाननी हो, उसका आधा भाग निकाल दिया जायगा। इस क्रियासे दोकी उपलब्धि होगी, [जैसे छ: अक्षरोंमेंसे आधा निकालनेसे ३ बचा, किंतु इस क्रियासे जो दोकी प्राप्ति हुई] उसे अलग रखेंगे। विषम संख्यामेंसे एक घटा दिया जायगा। इससे शून्यकी प्राप्ति होगी। उसे दोके नीचे रख दें। [जैसे ३ से एक निकालनेपर दो बचा, किंतु इस क्रियासे जो शून्यकी प्राप्ति हुई, उसे २ के नीचे रखा गया। तीनसे एक निकालनेपर जो दो बचा था, उसे भी दो भागोंमें विभक्त करके आधा निकाल दिया गया। इस क्रियासे पूर्ववत् दोकी प्राप्ति हुई और उसे शून्यके नीचे रख दिया गया। अब एक बचा। यह विषम संख्या है-इसमेंसे एक बाद देनेपर शून्य शेष रहा। साथ ही इस क्रियासे शून्यकी प्राप्ति हुई, इसे पूर्ववत् २ के नीचे रख दिया गया।] शून्यके स्थानमें दुगुना करे।[इस नियमके पालनके लिये निचले शून्यको एक मानकर उसका दूना किया गया।] इससे प्राप्त हुए अङ्कको ऊपरके अर्धस्थानमें रखे और उसे उतनेसे ही गुणा करे। [जैसे शून्यस्थानको एक मानकर दूना करने और उसको अर्धस्थानमें रखकर उतनेसे ही गुणा करनेपर ४ संख्या होगी। फिर शून्यस्थानमें उसे ले जाकर पूर्ववत् दूना करनेसे ८ संख्या हुई, पुनः इसे अर्धस्थानमें ले जाकर उतनी ही संख्यासे गुणा करनेपर ६४ संख्या हुई। यही पूर्वोत प्रश्नका उत्तर है।
इसी नियमसे’उष्णिकके १२८ और ‘अनुष्ठपके २५६ समवृत होते हैं।]
इस प्रश्रको इस प्रकार लिखकर हल करे
अर्धस्थान 2, ८ X ८ = ६४
शून्यस्थान ०, ४ X 2 = ८
अर्धस्थान 2, 2 x 2 = ४
शून्यस्थान ०, १ x २ = 2
गायत्री आदि छन्दोंकी संख्याको दूनी करके उसमेंसे दो घटा देने पर जो संख्या हो, वह वहाँतकके छन्दोंकी संयुक्त संख्या होती है।
जैसे गायत्रीकी वृत्त-संख्या ६४ को दूना करके २ घटानेसे १२६ हुआ।
यह एकाक्षरसे लेकर षडक्षरपर्यन्त सभी अक्षरोंके छन्दोंकी संयुक्त संख्या हुई।
जब छन्दके वृत्तोंकी संख्याको द्विगुणित करके उसे पूर्ण ज्यों-का-त्यों रहने दिया जाय, दो घटाया न जाय, तो वह अङ्क बादके छन्दकी वृत्तसंख्याका ज्ञापक होता है।
गायत्रीकी वृत्तसंख्या ६४ को दूना करनेसे १२८ हुआ। यह “उष्णिक’ की वृतसंख्याका योग हुआ।
[अब एकद्वयादि लग क्रियाकी सिद्धिके लिये “मेरु प्रस्तार’ बताते हैं-]
अमुक छन्दमें कितने लघु, कितने गुरु तथा कितने वृत्त होते हैं, इसका ज्ञान ‘मेरु–प्रस्तार से होता है। मेरु प्रस्तार बनाने की विधि
सबसे ऊपर एक चौकोर कोष्ठ बनाये। उसके नीचे दो कोष्ठ, उसके नीचे तीन कोष्ठ, उसके नीचे चार कोष्ठ आदि जितने अभीष्ट हों, बनाये।
पहले कोष्ठमें एक संख्या रखे, दूसरी पड़िके दोनों कोष्ठोंमें एक-एक संख्या रखे, फिर तीसरी पङ्किमें किनारेके दो कोष्ठोंमें एक-एक लिखे और बीच में ऊपरके कोष्ठोंके अङ्ग जोड़कर पूरे-पूरे लिख दे। चौथी पङ्गिमें किनारेके कोष्ठोंमें एक-एक लिखे और बीच के दो कोष्ठोंमें ऊपरके दो-दो कोष्ठोंके अङ्क जोड़कर लिखे। नीचेके कोष्ठोंमें भी यही रीति बरतनी चाहिये।
उदाहरणके लिये देखिये
इसमे चौथे पंक्ति में १ सर्वगुरु, 3 एक लघु, तीन दो लघु और १ सर्वलघु अक्षर है।
इसी प्रकार अन्य पङ्क्तयोंमें भी जानना चाहिये।
इस प्रकार इसके द्वारा छन्दके लघु-गुरु अक्षरोंकी तथा एकाक्षरादि छन्दोंकी वृत्तसंख्या जानी जाती हैं।
मेरु–प्रस्तार में नीचेसे ऊपरकी ओर आधा–आधा अंगुल विस्तार कम होता जाता है। छन्दकी संख्याको दूनी करके एक एक घटा दिया जाय तो उतने ही अंगुलका उसका अध्वा (प्रस्तारदेश) होता है।
इस प्रकार यहाँ छन्द:शास्त्रका सार बताया गया है ।
अध्याय – ३३६ शिक्षानिरूपण
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ! अब मैं ‘शिक्षा का वर्णन करता हूँ। वणोंकी संख्या तिरसठ अथवा चौंसठ भी मानी गयी है। इनमें इकीस स्वर, पचीस स्पर्श, आठ यादि एवं चार यम’ माने गये हैं। अनुस्वार, विसर्ग, दो पराश्रित’ वर्ण- जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय और दु:स्पृष्ट लकार-ये तिरसठ वर्ण हैं। इनमें प्लुत लृकारको और गिन लिया जाय तो वर्णोंकी संख्या चौंसठ हो जाती है।
रङ्ग’ (अनुनासिक)- का उच्चारण ‘खे अरॉ’की तरह बताया गया है।
हकार ‘ड’ आदि पञ्चमाक्षरों और य, र, ल, व-इन अन्त:स्थ वणोंसे संयुक्त होनेपर ‘उरस्य” हो जाता है। इनसे संयुक्त न होनेपर वह ‘कण्ठस्थानीय’ ही रहता है।
आत्मा (अन्त:-करणावच्छिन्न चैतन्य) संस्काररूपसे अपने भीतर विद्यमान घट-पटादि पदार्थोंको अपनी बुद्धिवृत्तिसे संयुक्त करके अर्थात् उन्हें एक बुद्धिका विषय बनाकर बोलने या दूसरोंपर प्रकट करनेकी इच्छासे मनको उनसे संयुक्त करता है। संयुक्त हुआ मन कायाग्नि-जठराग्निको आहत करता है। फिर वह जठरानल प्राणवायुको प्रेरित करता है। वह प्राणवायु हृदयदेशमें विचरता हुआ धीमी ध्वनिमें उस प्रसिद्ध स्वरको उत्पन्न करता है,
जो प्रात:सवनकर्मके साधनभूत मन्त्रके लिये उपयोगी है तथा जो ‘गायत्री’ नामक छन्दके आश्रित है।
तदनन्तर वह प्राणवायु कण्ठदेशमें भ्रमण करता हुआ ‘त्रिष्टुप्’ छन्दसे युक्त माध्यंदिन-सवनकर्मसाधन मन्त्रोपयोगी मध्यम स्वरको उत्पन्न करता है।
इसके बाद उक्त प्राणवायु शिरोदेशमें पहुँचकर उच्चध्वनिसे युक्त एवं ‘जगती’ छन्दके आश्रित सायं-सवन-कर्मसाधन मन्त्रोपयोगी स्वरको प्रकट करता है।
इस प्रकार ऊपरकी ओर प्रेरित वह प्राण, मूर्धामें टकराकर अभिघात नामक संयोगका आश्रय बनकर, मुखवर्ती कण्ठादि स्थानोंमें पहुँचकर वणोंको उत्पन्न करता है।
उन वणाँके पाँच प्रकारसे विभाग माने गये हैं। स्वरसे, कालसे, स्थानसे, आभ्यन्तर प्रयत्नसे तथा वाह्य प्रयत्नसे उन वणोंमें भेद होता है।
वणोंके उच्चारण-स्थान आठ हैं-हृदय, कण्ठ, मूर्धा, जिह्वामूल, दन्त, नासिका, ओष्ठद्वय तथा तालु।
विसर्गका अभाव, विवर्तन’, ‘संधिका अभाव, जिह्वामूलीयत्व और उपध्मानीयत्व-ये ‘ऊष्मा’ वर्णोकी आठ प्रकार की गतियाँ हैं ने।
जिस उत्तरवर्ती पदमें आदि अक्षर ‘उकार’ हो, वहाँ गुण आदिके द्वारा यदि ‘ओ’ भावका प्रसंधान (परिज्ञान) हो रहा हो, तो उस ‘ओकार’को स्वरान्त अर्थात् स्वर-स्थानीय जानना चाहिये। जैसे-‘गङ्गोदकम्। इस पदमें जो ‘ओ’ भावका प्रसंधान है, वह स्वरस्थानीय है।
इससे भिन्न संधिस्थलमें जो ‘औभाव”का परिज्ञान होता है, वह ‘ओं’ भाव ऊष्माका ही गतिविशेष है, यह बात स्पष्टरूपसे जान लेनी चाहिये। जैसे-“शिवो वन्हा:” इसमें जो ओकारका श्रवण होता है, वह ऊष्मस्थानीय ही है। (यह निर्णय किसी अन्य व्याकरणकी रीतिसे किया गया है, ऐसा जान पड़ता है।) जो वेदाध्ययन कुतीर्थसे प्राप्त हुआ है, अर्थात् आचारहीन गुरुसे ग्रहण किया गया है, वह दग्ध-नीरस-सा होता है। उसमें अक्षरोंको खींच-तानकर हठात् किसी अर्थतक पहुँचाया गया है। वह भक्षित-सा हो गया है, अर्थात् सम्प्रदाय-सिद्ध गुरुसे अध्ययन न करनेके कारण वह अभक्ष्य-भक्षणके समान निस्तेज हैं। इस तरहका उच्चारण या पठन पाप माना गया है।
इसके विपरीत जो सम्प्रदायसिद्ध गुरुसे अध्ययन किया जाता है, तदनुसार पठनपाठन शुभ होता है। जो उत्तम तीर्थ-सदाचारी गुरुसे पढ़ा गया है, सुस्पष्ट उच्चारणसे युक्त है, सम्प्रदायशुद्ध है, सुव्यवस्थित है, उदात्त आदि शुद्ध स्वरसे तथा कण्ठ-ताल्वादि शुद्ध स्थानसे प्रयुक्त हुआ है, वह वेदाध्ययन शोभित होता है।
न तो विकराल आकृतिवाला, न लंबे ओठोंवाला, न अव्यक्त उच्चारण करनेवाला, न नाकसे बोलनेवाला एवं न गदगद कण्ठ या जिह्वाबन्धसे युक्त मनुष्य ही वणोंच्चारणमें समर्थ होता है। जैसे व्याध्री दूसरे स्थानपर ले जाती है, किंतु उन्हें पीड़ा नहीं देती, वर्णोका ठीक इसी तरह प्रयोग करे, जिससे वे वर्ण न तो अव्यक्त (अस्पष्ट) हों और न पीड़ित ही हों।
वर्णोके सम्यक प्रयोगसे मानव ब्रह्मलोकमें पूजित होता है।
‘स्वर’ तीन प्रकारके माने गये हैं-उदात्त, अनुदात्त और स्वरित।
इनके उच्चारणकालके भी तीन नियम हैं-हृस्व, दीर्घ तथा प्लुत।
अकार एवं हकार कण्ठस्थानीय हैं।
इकार, चवर्ग, यकार एवं शकार-ये तालुस्थानसे उच्चरित होते हैं।
उकार और पवर्ग-ये दोनों औष्ठस्थानसे उच्चरित होनेवाले हैं।
ऋकार, टवर्ग, रेफ एवं षकार-ये मूर्धन्यसे उच्चरित होनेवाले हैं।
लृकार, तवर्ग, लकार और सकार-ये दन्तस्थानीय होते हैं।
कवर्गका स्थान जिह्वामूल है।
वकारको विद्वज्जन दन्त और औष्ठसे उच्चरित होनेवाला बताते हैं।
एकार और ऐकार कण्ठ-तालव्यसे उच्चरित होनेवाले हैं।
ओकार एवं औकार कण्ठोष्ठज माने गये हैं।
एकार, ऐकार तथा ओकार और औकारमें कण्ठस्थानीय वर्ण अकारकी आधी मात्रा या एक मात्रा होती है।
‘अयोगवाह” आश्रयस्थान के भागी होते हैं, ऐसा जानना चाहिये।
अच् (अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ओ, ऐ, औ)-ये स्वर स्पर्शाभवरूप’विवृत’ प्रयत्नवाले हैं।
यण (य, र, ल, व)’ ‘ईषत्स्पृष्ट’ प्रयत्नवाले हैं।
शल् (श, ष, स, ह) ‘अर्धस्पृष्ट’ अर्थातू’ईषद्ववृत’ प्रयत्नवाले हैं।
शेष ‘हल्’ अर्थात् क से लेकर म तकके अक्षर ‘स्पृष्ट प्रयत्नवाले’ माने गये हैं।
इनमें बाह्य प्रयत्नके कारण वर्णभेद जानना चाहिये
‘अम्” प्रत्याहारमें स्थित वर्ण (ज, म, ड ण, न) अनुनासिक होते हैं। हकार और रैफ अनुनासिक नहीं होते।
‘हकार, झकार तथा षकार के ‘सवार’ ‘ घोष’ और ‘नाद’ प्रयत्न हैं।
‘यण्’ और ‘जश्—इनके ‘ईषन्नाद’ अर्थात् ‘अल्पप्राण’प्रयत्न हैं।
ख, फ आदिका ‘विवार’, ‘अघोष’ और ‘ श्वास’ प्रयत्न हैं।
चर् (च, ट, त, क प, श, ष, स)-का ‘ईषच्छवास’ प्रयत्न जानना चाहिये।
यह व्याकरणशास्त्र वाणीका धाम कहा जाता हैं।
तौन सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३३६ ॥
अध्याय – ३३७ काव्य आदिके लक्षण
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ! अब मैं ‘काव्य’ और ‘नाटक’ आदिके स्वरूप तथा ‘अलंकारों का वर्णन करता हूँ। ध्वनि, वर्ण, पद और वाक्य- यही सम्पूर्ण वाङ्मय माना गया है। शास्त्र, इतिहास तथा काव्य-इन तीनोंकी समाप्ति इसी वाङ्मयमें होती है।
वेदादि शास्त्रोंमें शब्दकी प्रधानता है और इतिहास-पुराणोंमें अर्थकी।
इन दोनोंमें ‘अभिधा-शक्ति’ (वाच्यार्थ)-की ही मुख्यता होती है; अत: ‘काव्य’ इन दोनोंसे भिन्न है। [क्योंकि उसमें व्यङ्गध अर्थको प्रधानता दी जाती है।]
संसारमें मनुष्य-जीवन दुर्लभ है; उसमें भी विद्या तो और भी दुर्लभ है। विद्या होनेपर भी कवित्वका गुण आना कठिन है; उसमें भी काव्य-रचनाकी पूर्ण शक्तिका होना अत्यन्त कठिन है। शक्तिके साथ बोध एवं प्रतिभा हो, यह और भी कठिन है, इन सबके होते हुए विवेकका होना तो परम दुर्लभ है।
कोई भी शास्त्र क्यों न हो, अविद्वान् पुरुषोके द्वारा उसका अनुसंधान किया जाय तो उससे कुछ भी सिद्ध नहीं होता।
‘श’ आदि वर्ण, अर्थात् ‘श घ स ह’ तथा वगाँक द्वितीय एवं चतुर्थ अक्षर ‘महाप्राण” कहलाते है । वर्णोके समुदायको “पद” कहते है। इसके दो भेद है।–सुबन्त और तिडन्त ।
अभिष्ट अर्थसे व्यवच्छिन्न संक्षिप्त पदावलीका नाम “वाक्य’ है। १-६ ॥
जिसमें अलंकार भासित होता हो, गुण विद्यमान हो तथा दोषका अभाव हो, ऐसे वाक्य को ‘काव्य” कहते हैं।
लोक-व्यवहार तथा वेद (शास्त्र)-का ज्ञान-ये काव्यप्रतिभाकी योनि हैं।
सिद्ध किये मन्त्र के प्रभाव से जो काव्य निर्मित होता है, वह अयौनिज है।
देवता आदिके लिये संस्कृत भाषाका और मनुष्योंके लिये तीन प्रकारकी प्राकृत भाषाका प्रयोग करना चाहिये।
काव्य आदि तीन प्रकारके होते हैं-गद्य, पद्य और मिश्र’ ।
गद्य
पादविभागसे रहित पदोंका प्रवाह “गद्य’ कहलाता है।
गद्य भी चूर्णक, उत्कलिका और वृतगन्धि भेदसे तीन प्रकारका होता है।
छोटीछोटी कोमल पदावलीसे युक्त और अत्यन्त मृदु संदर्भसे पूर्ण गद्यको ‘चूर्णक’ कहते हैं। जिसमें बड़े-बड़े समासयुक्त पद हों, उसका नाम ‘उत्कलिका’ हैं । जो मध्यम श्रेणीके संदर्भमें युक्त हो तथा जिसका विग्रह अत्यन्त कुत्सित (क्लिष्ट) न हो, जिसमें पद्यकी छायाका आभास मिलता ही-जिसकी पदावली किसी पद्य या छन्दके खण्ड-सी जान पड़े, उस गद्यको ‘वृतगन्धि’ कहते हैं। यह सुननेमें अधिक उत्कट नहीं होता’।
गद्य-काव्यके पाँच भेद माने जाते हैं-आख्यायिका, कथा, खण्डकथा, परिकथा एवं कथानिका’ ।
जहाँ गद्यके द्वारा विस्तारपूर्वक ग्रन्थ-निर्माता कविके वंशकी प्रशंसा की गयी हो, जिसमें कन्याहरण, संग्राम, विप्रलम्भ (वियोग) और विपत्ति (मरणादि) प्रसङ्गोंका वर्णन हो, जहाँ वैदर्भी आदि रीतियों तथा भारती आदिवृतियोंकी प्रवृतियोंपर विशेषरूपसे प्रकाश पड़ता हो, जिसमें ‘उच्छास के नामसे परिच्छेद (खण्ड) किये गये हों, जो ‘चूर्णक’ नामक गद्यशैलीके कारण अधिक उत्कृष्ट जान पड़ती हो, अथवा जिसमें ‘वक्त्र’ या ‘अपरवक्त्र’ नामक छन्दका प्रयोग हुआ हो, उसका नाम ‘आख्यायिका” है (जैसे ‘कादम्बरी’ आदि)।
जिस काव्यमें कवि श्लोकोंद्वारा संक्षेपसे अपने वंशका गुणगान करता हो, जिसमें मुख्य अर्थको उपस्थित करनेके लिये कथान्तरका संनिवेश किया गया हो, जहाँ परिच्छेद हो ही नहीं, अथवा यदि हो भी तो कहीं लम्बकोंद्वारा ही हो, उसका नाम “कथा” है (जैसे ‘कथा-सरित्सागर’ आदि)।उसके मध्यभागमें चतुष्पदी (पद्य)-द्वारा बन्धरचना करे।
जिसमें कथा खण्डमात्र हो, उसे ‘खण्डकथा” कहते हैं। खण्डकथा और परिकथा-इन दोनों प्रकारकी कथाओंमें मन्त्री, सार्थवाह (वैश्य) अथवा ब्राह्मणको ही नायक मानते हैं। उन दोनोंका ही प्रधान रस ‘करुण” जानना चाहिये। उसमें चार प्रकारका ‘विप्रलम्भ’ (विरह) वर्णित होता है। (प्रवास, शाप, मान एवं करुणभेदसे विप्रलम्भके चार प्रकार हो जाते हैं।) उन दोनोंमें ही ग्रन्थके भीतर कथाकी समाप्ति नहीं होती।
अथवा
“खण्डकथा’ कथाशैलीका ही अनुसरण करती है। कथा एवं आख्यायिका दोनोंके लक्षणोंके मेलसे जो कथावस्तु प्रस्तुत होती है, उसे ‘परिकथा’ नाम दिया गया है।
जिसमें आरम्भमें भयानक, मध्यमें करुण तथा अन्तमें अद्भुत रसको प्रकट करनेवाली रचना होती है, वह ‘कथानिका’ (कहानी) है। उसे उत्तम श्रेणीका काव्य नहीं माना गया है। ७ -२० ॥
पद्य
चतुष्पदी नाम है-पद्यका [चार पादोंसे युक्त होनेसे उसे ‘चतुष्पदी’ कहते हैं]। पद्यके दो भेद हैं, ‘वृत्त” और ‘जाति’।
जो अक्षरोंकी गणनासे जाना जाय, उसे ‘वृत्त’ कहते हैं। यह भी दो प्रकारका है-‘उक्थ’ (वैदिकस्तोत्र आदि) और ‘कृतिशेषज” (लौकिक)।
जहाँ मात्राओंद्वारा गणना हो, वह पद्य ‘जाति’ कहलाता है। यह काश्यपका मत है।
वर्णोकी गणना के अनुसार व्यवस्थित छन्दको ‘वृत्त’ कहते हैं। पिङ्गलमुनिने वृतके तीन भेद माने हैं,-सम, अर्धसम तथा विषम।
जो लोग गम्भीर काव्य-समुद्रके पार जाना चाहते हैं, उनके लिये छन्दोविद्या नौकाके समान है।
महाकाव्य, तथा कोष-ये सभी पद्योंके समुदाय हैं। अनेक सर्गोमें रचा हुआ संस्कृतभाषाद्वारा निर्मित काव्य “महाकाव्य” कहलाता है। २१-२३ ॥
सर्गबद्ध रचनाको, जो संस्कृत भाषामें अथवा विशुद्ध एवं परिमार्जित भाषामें लिखी गयी हो, “महाकाव्य’ कहते हैं।
महाकाव्यके स्वरूपका त्याग न करते हुए उसके समान अन्य रचना भी हो तो वह दूषित नहीं मानी जाती।
‘महाकाव्य’ इतिहासकी कथाको लेकर निर्मित होता है अथवा उसके अतिरिक्त किसी उत्तम आधारको लेकर भी उसकी अवतारणा की जाती है। उसमें यथास्थान गुप्तमन्त्रणा, दूतप्रेषण, अभियान और युद्ध आदिके वर्णनका समावेश होता है। वह अधिक विस्तृत नहीं होता।
शक्वरी, अतिजगती, अतिशक्वरी, त्रिष्टुप् और पुष्पिताग्रा आदि तथा वक्त्र आदि मनोहर एवं समवृत्तवाले छन्दोंमें महाकाव्यकी रचना की जाती है।
प्रत्येक सर्गके अन्तमें छन्द बदल देना उचित है। सर्ग अत्यन्त संक्षित नहीं होना चाहिये। ‘अतिशाक्वरी” और ‘अष्टि”-इन दो छन्दोंसे एक सर्ग संकीर्ण होना चाहिये तथा दूसरा सर्ग मात्रिक छन्दोसे संकीर्ण होना चाहिये। अगला सर्ग पूर्वसर्गकी अपेक्षा अधिकाधिक उत्तम होना चाहिये।
‘कल्प’ अत्यन्त निन्दित माना गया है। उसमें सत्पुरुषोंका विशेष आदर नहीं होता।
नगर, समुद्र, पर्वत, ऋतु, चन्द्रमा, सूर्य, आश्रम, वृक्ष, उद्यान, जलक्रीड़ा, मधुपान, सुरतोत्सव, दूती-वचन-विन्यास तथा कुलटाके चरित्र आदि अद्भुत वर्णनोंसे महाकाव्य पूर्ण होता है। अन्धकार, वायु तथा रतिको व्यक्त करनेवाले अन्य उद्दीपन-विभावोंसे भी वह अलंकृत होता है। उसमें सब प्रकारकी वृत्तियोंकी प्रवृत्ति होती हैं। वह सब प्रकारके भावोंसे प्रभावित होता है तथा सब प्रकारकी रीतियों तथा सभी रसोंसे उसका संस्पर्श होता है। सभी गुणों और अलंकारोंसे भी महाकाव्यको परिपुष्ट किया जाता है। इन सब विशेषताओंके कारण ही उस रचनाको ‘महाकाव्य’ कहते हैं तथा उसका निर्माता ‘महाकवि’ कहलाता है ॥ २४-३२ ॥
महाकाव्यमें उक्ति-वैचिन्यकी प्रधानता होते हुए भी रस ही उसका जीवन है। उसकी स्वरूप सिद्धि अपृथग्यत्नसे (अर्थात् सहजभावसे) साध्य वाग्वक्रिमा (वचनवैचित्र्य अथवा वक्रोक्ति)- विषयक रससे होती है।
महाकाव्यका फल है -चारों पुरुषार्थोंकी प्राप्ति’। वह नायकके नामसे ही सर्वत्र विख्यात होता हैं।
प्राय: समान छन्दों अथवा वृतियोंमें महाकाव्यका निर्वाह किया जाता है।
कौशिकी वृतिकी प्रधानता होनेसे काव्यप्रबन्ध में कोमलता आती है। जिसमें प्रवासका वर्णन हो, उस रचनाको ‘कलाप” कहते हैं। उसमें’पूर्वानुराग’ नामक भृङ्गाररसकी प्रधानता होती है। संस्कृत अथवा प्राकृतके द्वारा प्राप्ति आदिका वर्णन “विशेषक” कहलाता है। जहां अनेक श्लोकोंका एक साथ अन्वय हो, उसे “कुलक” कहते है। उसीका नाम “संदानितक” भी है।
एक-एक श्लोककी स्वतन्त्र रचनाको ‘मुक्तक” कहते हैं। उसे सहृदयोंके हृदयमें चमत्कार उत्पन्न करने में समर्थ होना चाहिये।
श्रेष्ठ कवियोंकी सुन्दर उक्तियोंसे सम्पन्न ग्रन्थको ‘कोष’ कहा गया है। वह ब्रह्मकी भाँति अपरिच्छिन्न रससे युक्त होता है तथा सहृदय पुरुषोंको रुचिकर प्रतीत होता है।
सर्गमें जो भिन्न-भिन्न छन्दोंकी रचना होती है, वह आभासोपम शक्ति है। उसके दो भेद है –मिश्र तथा प्रकीर्ण । जिसमें “श्रव्य” और ‘अभिनेय’-दोनोंके लक्षण हों, वह ‘मिश्न’ और सकल उक्तियोंसे युक्त काव्य ‘प्रकीर्ण” कहलाता है।॥ ३३-३९ ॥
अध्याय – ३३८ नाटक-निरुपण
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ!
‘रूपक”के सताईस भेद माने गये हैं-
नाटक, प्रकरण, डिम, ईहामृग, समवकार, प्रहसन, व्यायोग, भाण, वीथी, अङ्क, त्रोटक, नाटिका, सट्टक, शिल्पक, कर्णा, दुर्मल्लिका, प्रस्थान, भाणिका, भाणी, गोष्ठी, हल्लीशक, काव्य, श्रीगदित, नाट्यरासक, रासक, उल्लाप्य तथा प्रेङ्क्षण।
लक्षण दो प्रकार के होते हैं -सामान्य और विशेष।
सामान्य लक्षण रूपकके सभी भेदोंमें व्याप्त होते हैं और विशेष लक्षण किसी-किसीमें दृष्टिगोचर होते हैं।
रूपकके सभी भेर्दोमें पूर्वरङ्गके’ निवृत्त हो जानेपर देश-काल, रस, भाव, विभाव, अनुभाव, अभिनय, अङ्क और स्थिति-ये उनके सामान्य लक्षण हैं; क्योंकि इनका सर्वत्र उपसर्पण देखा जाता है।
विशेष लक्षण यथावसर बताया जायगा।
यहाँ पहले सामान्य लक्षण कहा जाता है;
‘नाटक’को धर्म, अर्थ और कामका साधन माना गया है; क्योंकि वह करण है। उसकी इतिकर्तव्यता (कार्यारम्भकी विधि) यह है कि ‘पूर्वरङ्ग’का विधिवत् सम्पादन किया जाय। ‘पूर्वरङ्ग’के नान्दी आदि बाईस अङ्ग होते हैं ॥ १-८ ॥
देवताओंको नमस्कार, गुरुजनकी प्रशस्ति तथा गौ, ब्राह्मण और राजा आदिके आशीवाद ‘नान्दी’ कहलाते हैं।
रूपकोंमें ‘नान्दीपाठ’के पश्चात् यह लिखा जाता है कि ‘नान्द्यन्ते सूत्रधार:” (नान्दीपाठके अनन्तर सूत्रधारका प्रवेश) । इसमें कविकी पूर्व गुरुपरम्पराका, वंशप्रशंसा, पौरुष तथा काव्यके सम्बन्ध और प्रयोजन-इन पाँच विषयोंका निर्देश करे।
नटी, विदूषक और पारिपार्श्वक-ये सूत्रधारके साथ जहाँ अपने कार्यसे सम्बद्ध, प्रस्तुत विषयको उपस्थित करनेवाले विचित्र वाक्योंद्वारा परस्पर संलाप करते हैं, पण्डितजन उसको “आमुख” जानें। उसको ‘प्रस्तावना’ भी कहा जाता है।॥ १-१२ ॥
‘आमुख के तीन भेद होते हैं-प्रवृतक, कथोद्धात और प्रयोगातिशय। जब सूत्रधार उपस्थित काल (ऋतु आदि)-का वर्णन करता है, तब उसका आश्रयभूत पात्र-प्रवेश ‘प्रवृत्तक’ कहलाता है। इसका बीजांशोंमें ही प्रादुर्भाव होता है। जब पात्र सूत्रधारके वाक्य अथवा वाक्यार्थको ग्रहण करके प्रवेश करता है, तब उसको ‘कथोद्धात’ कहा जाता है। जिस समय सूत्रधार एक प्रयोगमें दूसरे प्रयोगका वर्णन करे, उस समय यदि पात्र वहाँ प्रवेश करे, तो वह ‘प्रयोगातिशय’ होता है।
‘इतिवृत्त’ (इतिहास)-को नाटक आदिका शरीर कहा जाता है। उसके दो भेद माने गये हैं-“सिद्ध’ और ‘उत्प्रेक्षित’ ॥ शास्त्रोंर्मे वर्णित इतिवृत्त “सिद्ध’ और कविकी कल्पनासे निर्मित “उत्प्रेक्षित” कहा जाता है।
बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी और कार्य-ये पाँच अर्थप्रकृतियाँ (प्रयोजनसिद्धिकी हेतुभूता) हैं।
चेष्टा (कार्यावस्थाएँ) भी पाँच ही मानी गयी हैं। इनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं-प्रारम्भ, प्रयत्न, प्राप्ति-सद्धाव, नियतफलप्राप्ति और पाँचवाँ फलयोग।
रूपकमें मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निर्वहण-ये क्रमश: पाँच संधियाँ हैं’। जो अल्पमात्र बर्णित होनेपर भी बहुधा विसर्पण-अनेक अवान्तर कायाँकी उत्पन्न करता है, फलकी हेतुभूत उस अर्थप्रकृतिको ‘बीज’ कहा जाता है। जिसमें विविध वृतान्तों और रससे बीजकी उत्पत्ति होती है, काव्यके शरीरमें अनुगत उस संधिको “मुख” कहते हैं।
अभीष्ट अर्थकी रचना, कथावस्तुकी अखण्डता, प्रयोगमें अनुराग, गोपनीय विषयोंका गोपन, अद्भुत वर्णन, प्रकाश्य विषयोंका प्रकाशन-ये काव्याङ्गोंके छ: फल हैं। जैसे अङ्गहीन मनुष्य किसी कार्यमें समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार अङ्गहीन काव्य भी प्रयोगके योग्य नहीं माना जाता।
देश-कालके बिना किसी भी इतिवृत्तकी प्रवृति नहीं होती, अतः नियमपूर्वक उन दोनोंका उपादान ‘पद’ कहलाता है।
देशोंमें भारतवर्ष और कालमें सत्ययुग, त्रेता और द्वापरयुगको ग्रहण करना चाहिये।
देश-कालके बिना कहीं भी प्राणियोंके सुख-दु:खका उदय नहीं होता।
सृष्टिके आदिकालकी वार्ता अथवा सृष्टिपालन आदिकी वार्ता प्राप्त हो तो वह वर्णनीय है। ऐसा करने में कोई दोष नहीं हैं ॥ १३-२७ ॥
तीन सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३३८ ॥
अध्याय – ३३९ श्रृङ्गारादि रस, भाव तथा नायक आदिका निरूपण
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ! वेदान्तशास्त्रमें जिस अक्षर (अविनाशी), सनातन, अजन्मा और व्यापक परब्रह्य परमेश्वरको अद्वितीय, चैतन्यस्वरूप और ज्योतिर्मय कहते हैं, उसका सहज (स्वरूपभूत) आनन्द कभी-कभी व्यज्ञ्जीत होता है, उस आनन्दकी अभिव्यक्तिका ही ‘चैतन्य’, “चमत्कार’ और “रस’ के नामसे वर्णन किया जाता है।
आनन्दका जो प्रथम विकार है, उसे ‘अहंकार” कहा गया है। अहंकारसे ‘अभिमान का प्रादुर्भाव हुआ। इस अभिमानमें ही तीनों लोकोंकी समाप्ति हुई है।॥ १-३ ॥
अभिमानसे रतिकी उत्पति हुई और वह व्यभिचारी आदि भाव-सामान्यके सहकारसे पुष्ट होकर ‘श्रृंगार’के नामसे गायी जाती है।
श्रृंगारके इच्छानुसार हास्य आदि अनेक दूसरे भेद प्रकट हुए हैं। उनके अपने-अपने विशेष स्थायी भाव होते हैं, जिनका परिपोष (अभिव्यक्ति) ही उनउन रसोंका लक्षण है।॥ ४-५ ॥
वे रस परमात्माके सत्वादि गुणोंके विस्तारसे प्रकट होते हैं। अनुरागसे भृङ्गार, तीक्ष्णतासे रौद्र, उत्साहसे वीर और संकोच से बीभत्स रसका उदय होता है।
श्रृंङ्कार रससे हास्य, रौद्र रससे करुण रस, वीर रससे अद्भुत रस तथा बीभत्स रससे भयानक रसकी निष्पत्ति होती है।
श्रृंङ्गार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्धत और शान्त-ये नौ रस माने गये हैं। वैसे सहज रस तो चार (श्रृंङ्गार, रौद्र, वीर एवं बीभत्स) ही हैं।
जैसे बिना त्यागके धनकी शोभा नहीं होती, वैसे ही रसहीन वाणीकी भी शोभा नहीं होती।
अपार काव्यसंसार में कवि ही प्रजापति हैं। उसको संसारका जैसा स्वरूप रुचिकर जान पड़ता है, उसके काव्यमें यह जगत् वैसे ही रूपमें परिवर्तित होता है।
यदि कवि श्रृंङ्गाररसका प्रेमी है, तो उसके काव्यमें रसमय जगत्का प्राकटय होता है। यदि कवि श्रृंङ्गारी न हो तो निश्चय ही काव्य नीरस होगा।
‘रस” भावहीन नहीं है और ‘भाव’ भी रससे रहित नहीं है; क्योंकि इन भावोंसे रसकी भावना (अभिव्यक्ति) होती है। ‘भाव्यन्ते रसा एभि:।” (भावित होते हैं रस इनके द्वारा)- इस व्युत्पतिके अनुसार वे ‘भाव’ कहे गये हैं* ॥ ६-१२ ।।
‘रति’ आदि आठ स्थायी भाव होते हैं तथा ‘स्तम्भ” आदि आठ सात्विक भाव माने जाते हैं।
स्थायी भाव
सुखके मनोऽनुकूल अनुभव (आनन्दकी मनोरम अनुभूति)-को ‘रति’ कहा जाता है।
हर्ष आदिके द्वारा चित्तके विकासको “हास’ कहा जाता है।
अभीष्ट वस्तुके नाश आदिसे उत्पन्न मनकी विकलताको ‘शोक’ कहते हैं।
अपने प्रतिकूल आचरण करनेवालेपर कठोरताके उदय को “क्रोध” कहते हैं।
पुरुषार्थके अनुकूल मनोभावका नाम ‘उत्साह’ है। १३-१५ ॥
चित्र आदिके दर्शनसे जनित मानसिक विकलताको ‘भय’ कहते हैं।
दुर्भाग्यवाही पदार्थोंकी निन्दा ‘जुगुप्सा” कहलाती है।
किसी वस्तुके दर्शनसे चित्तका अतिशय आश्चर्यसे पूरित हो जाना ‘विस्मय” कहलाता है।
सात्विक भाव
‘स्तम्भ’ आदि आठ सात्विक भाव हैं, जो रजोगुण और तमोगुणसे परे हैं।
भय या रागादि उपाधियोंसे चेष्टाका अवरोध हो जाना ‘स्तम्भ”* कहलाता है।
श्रम एवं राग आदिसे युक्त अन्त:करणके क्षोभसे शरीरमें उत्पन्न जलकों ‘स्वेद” कहते हैं।
हर्षादिसे शरीरका उच्छवसित होना और उसमें रोंगटे खड़े हो जाना ‘रोमांच’ कहा गया है।
हर्ष आदि तथा भय आदिके कारण वाणीका स्पष्ट उच्चारण न होना (गद्गद हो जाना) ‘स्वरभेद” कहा गया है।
चित्तके क्षोभसे उत्पन्न कम्पनको ‘वेपथु’ कहा गया है।
विषाद आदिसे शरीरकी कान्तिका परिवर्तन ‘वैवर्ण्य” कहा गया है।
दु:ख अथवा आनन्द आदिसे उद्भूत नेत्रजलको ‘अश्रु’ कहते हैं।
उपवास आदिसे इन्द्रियोंकी संज्ञाहीनताको ‘प्रलय’ कहा जाता है।॥ १६-२१ ॥
वैराग्य आदिसे उत्पन्न मानसिक खेदकों ‘निर्वेद’ कहा जाता है।
मानसिक पीड़ा आदिसे जनित शैथिल्यकी ‘ग्लानि’ कहते हैं, वह शरीष्में ही व्याप्त होती है।
अनिष्टप्रातिकी सम्भावनाको ‘शङ्का” कहा जाता है।
मत्सर अर्थात दूसरेका उत्कर्ष सहन न करने-को ‘असूया’ कहा जाता है।
मदिरा आदिके उपयोगसे उत्पन्न मानसिक मोह ‘मद’ कहलाता है।
अधिक कार्य करनेसे शरीरके भीतर उत्पन्न क्लान्तिको ‘श्रम‘ कहते हैं।
भृङ्गार आदि धारण करने में चित्तकी उदासीनताको “आलस्य” कहते हैं।
धैर्यसे भ्रष्ट हो जाना ‘दैन्य‘ कहा जाता है।
अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति न होनेसे जो बार-बार उसकी और ध्यान जाता है, उसे “चिन्ता‘ कहते हैं।
किसी कार्य के लिये उपाय न सूझना ‘मोह‘ कहलाता है॥ २२-२५॥
अनुभूत वस्तुका चित्तमें प्रतिबिम्बित होना ‘स्मृति‘ कहलाता है।
तत्वज्ञानके द्वारा अर्थोंके निश्चयको ‘मति‘ कहते हैं।
अनुराग आदिसे होनेवाला जो कोई अकथनीय मानसिक संकोच होता है, उसका नाम ‘ब्रीडा‘ या ‘लजा” है।
चितकी अस्थिरता को ‘चपलता‘ कहा जाता है।
प्रसन्नताको “हर्ष” कहते हैं।
प्रतीकारकी आशासे उद्धत अन्त:करणकी विकलताको ‘आवेश‘ कहा जाता है।
कर्तव्यके विषयमें कुछ प्रतिभान न होना ‘जडता” कही जाती है।
अभीष्ट वस्तुकी प्राप्तिसे बढ़े हुए आनन्द या संतोषके अभ्युदयको ‘धृति‘ कहते हैं।
दूसरोंमें निकृष्टता और अपनेमें उत्कृष्टताकी भावनाको ‘गर्व” कहा जाता है।
इच्छित वस्तुके लाभ में दैव आदिसे जनित विध्नके कारण जो दु:ख होता है, उसे “विषाद‘ कहते हैं।
अभीष्ट पदार्थको इच्छासे जो मनकी चञ्चल स्थिति होती है, उसका नाम ‘उत्कण्ठा‘ या ‘उत्सुकता‘ है।
अस्थिर हो उठना चित्त और इन्द्रियोंका “अपस्मार” है।
युद्धमें बाधाओंके उपस्थित होनेसे स्थिर न रह पाना ‘त्रास‘ माना गया है
चितके चमत्कृत होनेकों ‘वीप्सा‘ कहते हैं।
क्रोधके शमन न होनेको ‘अमर्ष‘ कहते हैं।
चेतनताके उदयको ‘प्रबोध‘ या “जागरण‘ कहते हैं।
चेष्टा और आकार से प्रकट होनेवाले भावोंका गोपन ‘अवहित्थ‘ कहलाता है।
क्रोध से गुरुजनोंपर कठोर वाग्दंड का प्रयोग “उग्रता” कहलाता है।
चित्तके ऊहापोहको ‘वितर्क‘ कहते हैं।
मानस एवं शरीरकी प्रतिकूल परिस्थितिको ‘व्याधि‘ कहते हैं।
काम आदिके कारण असम्बद्ध प्रलाप करने को “उन्माद” कहा गया है।
तत्वज्ञान होनेपर चित्तगत वासनाकी शान्तिको ‘शम‘ कहते हैं।
कविजनोंको काव्यादिमें रस एवं भावोंका निवेश करना चाहिये।
जिसमें “रति’ आदि स्थायी भावोंकी विभावना हो, अथवा जिसके द्वारा इनकी विभावना हो, वह ‘विभाव’ कहा गया है; यह ‘आलम्बन” और ‘उद्दीपन के भेदसे दो प्रकारका माना जाता है। ‘रति’ आदि भावसमूह जिसका आश्रय लेकर निष्पन्न होते हैं, वह आलम्बन नामक विभाव है। यह नायक आदिका आलम्बन लेकर आविभूर्त होता है।
धीरोदात्त, धीरोद्धत, धीरललित और धीरप्रशान्त-ये चार प्रकारके नायक माने गए है ।
ये धीरोदात्तादि नायक अनुकूल, दक्षिण, शठ एवं धृष्टके भेदसे सोलह प्रकारके कहे जाते हैं।
पीठमर्द, विट और विदूषक-ये तीनों श्रृंङ्गाररसमें नायक के नर्मसचिव-अनुनायक होते हैं।
‘पीठमर्द’ श्रीमान् एवं ‘नायक’के समान बलशाली (सहायक) होता है।
“विट” (धूर्त) – नायकके देशका कोई व्यक्ति होता है।
“विदूषक” प्रहसनसे नायकको प्रसन्न करनेवाला होता है।
नायक की नायिकाएँ भी तीन प्रकारकी होती हैं-स्वकीया, परकीया एवं पुनर्भु।
‘पुनर्भु’ नायिका कौशिकाचार्यके मतसे है। कुछ ‘पुनर्भ नायिकाको न मानकर उसके स्थानपर ‘सामान्य’की गणना करते हैं। इन्हीं नायिकाओंके अनेक भेद होते हैं।
‘उद्दीपन विभाव’ विविध संस्कारोंके रूपमें स्थित रहते हैं। ये ‘आलम्बन विभाव’ में भावोंकी उद्दीप्त करते हैं॥ २६-४२॥
चौंसठ कलाएँ कर्म्मादि एवं गीतिकादिके भेदसे दो प्रकारकी होती हैं।
‘कुहक’ और ‘स्मृति’ प्राय: हासोपहारक हैं।
आलम्बन विभावके उदभुद्ध संस्कारयुक्त भावोंके द्वारा स्मृति, इच्छा, द्वेष और प्रयत्नके संयोगसे किये हुए मन, वाणी, बुद्धि तथा शरीरके कार्यको विद्वजन ‘अनुभाव’ मानते हैं-“स अत्र अनुभूयते उत अनुभवति।‘ (आलम्बनमें जो अनुभूयमान है, अथवा आलम्बनमें जो दर्शनके बाद प्रकट होता है)-इस प्रकार ‘अनुभाव’ शब्दकी निरुक्ति (व्युत्पत्ति)-को जाती है।
मानसिक व्यापारकी बहुलतासे युक्त कार्य ‘मनका कार्य” कहा जाता है। वह ‘पौरुष” (पुरुष-सम्बन्धी) एवं ‘स्वैण’ (स्त्री-सम्बन्धी)- दो प्रकारका होता है। वह इस प्रकार भी प्रसिद्ध है
शोभा, विलास, माधुर्य, स्थैर्य, गाम्भीर्य, ललित, औदार्य तथा तेज-ये आठ ‘पौरुष कर्म’ हैं।
नीच जनोंकी निन्दा, उत्तम पुरुषोंसे स्पर्धा, शौर्य और चातुर्य-इनके कारण मानसिक कार्यके रूप में शोभाका आविर्भाव होता है। जैसे’भवनकी शोभा होती हैं”॥ ४७-४८ ॥
भाव, हाव, हेला, शोभा, कान्ति, दीप्ति, माधुर्य, शौर्य, प्रगल्भता, उदारता, स्थिरता एवं गम्भीरता-ये बारह ‘स्त्रियोंके विभाव’ कहे गये हैं।
विलास और हावको ‘भाव’ कहते हैं। यह ‘भाव’ किंचित् हर्षसे प्रादुभूत होता है।
वाणीके योगको ‘वागारम्भ’ कहते हैं। उसके भी बारह भेद होते हैं।
उनमें भाषणको ‘आलाप’, अधिक भाषणको ‘प्रलाप’, दु:खपूर्ण वचनको ‘विलाप’ बारंबार कथनको ‘अनुलाप’, कथोपकथनको ‘संलाप”, निरर्थक भाषणको ‘अपलाप”, वार्ताके परिवहनको ‘संदेश’ और विषयके प्रतिपादनको ‘निर्देश’ कहते हैं। तत्वकथनको ‘अतिदेश’ एवं निस्सार वस्तुके वर्णनको ‘अपदेश’ कहा जाता है। शिक्षापूर्ण वचनको ‘उपदेश’ और व्याजोत्किकी ‘व्यपदेश’ कहते हैं।
दूसरोंको अभीष्ट अर्थका ज्ञान करानेके लिये उत्तम बुद्धिका आश्रय लेकर वागारम्भका व्यापार होता है। उसके भी रीति, वृति और प्रवृति-ये तीन भेद होते हैं॥ ४९-५४॥
तीन सौ उनतालीसवाँ अध्याय ॥ ३३९ ॥
अध्याय – ३४० रीति-निरूपणा
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ! अब मैं’वाग्विद्या’ (काव्यशास्त्र)-के सम्यक् परिज्ञानके लिये ‘रीति’का वर्णन करता हूँ। उसके भी चार भेद होते हैं-पाञ्चाली, गौडी, वैदभी तथा लाटीं।
इनमें ‘पाञ्चाली रीति’ उपचारयुक्त, कोमल एवं लघुसमासोंसे समन्वित होती हैं।
‘गौड़ी रीति’में संदर्भकी अधिकता और लंबे-लंबे समासोंकी बहुलता होती है। वह अधिक उपचारोंसे युक्त नहीं होती।
‘वैदभी रीति’ उपचाररहित, सामान्यत: कोमल संदर्भोंसे युक्त एवं समासवर्जित होती है।
‘लाटी रीति’ संदर्भकी स्पष्टतासे युक्त होती है, किंतु उसमें समास अत्यन्त स्पष्ट नहीं होते। वह यद्यपि अनेक विद्वानोंद्वारा परित्यक्त है, तथापि अतिबहुल उपचारयुक्त लाटी रीतिकी रचना उपलब्ध होती है।॥ १-४॥
(अब वृत्तियोंका वर्णन किया जाता है-) जो क्रियाओंमें विषमताको प्राप्त नहीं होती, वह वाक्य रचना ‘वृति” कही गयी है। उसके चार भेद हैं-भारती, आरभटी, कैशिकी एवं सात्वती।
‘भारती वृक्ति’ वाचिक अभिनयकी प्रधानतासे युक्त होती है। यह प्राय: (नट) पुरुषके आश्रित होती है, किंतु कभी-कभी स्त्री (नटी)-के आश्रित होनेपर यह प्राकृत उक्तियोंसे संयुक्त होती है। भरतके द्वारा प्रयुक्त होनेके कारण इसे ‘भारती’ कहा जाता है।
भारतीके चार अङ्ग माने गये हैं-वीथी, प्रहसन, आमुख एवं नाटकादिकी प्ररोचना।
वीथीके तेरह अङ्ग होते हैं-उद्धातक, लपित, असत्प्रलाप, वाकश्रेणी, नालिका, विपण, व्याहार, त्रिगत, छल, अवस्यन्दित, गण्ड, मृदव एवं उचित।
तापस आदिके परिहासयुक्त वचनको “प्रहसन’ कहते हैं। ‘आरभटी वृति में माया, इन्द्रजाल और युद्ध आदिकी बहुलता मानी गयी है।
आरभटी वृत्तिके भेद निम्नलिखित हैं-संक्षिप्तकार, पात तथा वस्तूत्थापन*॥५-११ ॥
तीन सौ चालीसवाँ अध्याय ॥ ३४०
अध्याय – ३४१ नृत्य आदिमें उपयोगी आङ्गिक कर्म
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ! अब मैं ‘अभिनय’*में नृत्य आदिके समय शरीरसे होनेवाली विशेष चेष्टाको तथा अङ्ग-प्रत्यङ्गके कर्मको बताता हूँ। इसे विद्वान् पुरुष ‘आङ्गिक कर्म” मानते हैं। यह सब कुछ प्राय: अबलाजनोंके आश्रित होनेपर ‘विच्छिति’-विशेषका पोषक होता है। लीला, विलास, विच्छित्ति, विभ्रम, किलकिशित, मोट्टायित, कुट्टमित, बिब्बोक, ललित, विहृत, क्रीडित तथा केलि-ये नायिकाओंके यौवनकालमें सहजभावसे प्रकट होनेवाले बारह अलंकार हैं।
आवरणसे आवृत स्थानमें प्रियजनोंकी चेष्टाके अनुकरणको ‘लीला’ कहते हैं। प्रियजनके दर्शन आदिसे जो मुख और नेत्र आदिकी चेष्टाओंमें कुछ विशेष चमत्कार लक्षित होता है, उसको सहृदयजन ‘विलास’ कहते हैं।
हर्षसे होनेवाले हास और शुष्क रुदन आदिके मिश्रणको ‘किलकिश्चित’ माना गया है।
चितके किसी गर्वयुक्त विकारको “बब्बोक’ कहते हैं। (इस भावके उदय होनेपर अभीष्ट वस्तुनें भी अनादर प्रकट किया जाता है।)
सौकुमाय्र्यजनित चेष्टा-विशेषकी ‘ललित’ कहते हैं।
सिर, हाथ, वक्ष:स्थल, पार्श्वभाग-ये क्रमश: अङ्ग हैं।
भ्रुलता (भौह) आदिको प्रत्यङ्ग या “उपाङ्ग’ जाना जाता है।
अङ्ग-प्रत्यङ्गके प्रयत्नजनित कर्म (चेष्टाविशेष)-के बिना नृत्य आदिका प्रयोग। सफल नहीं होता। वह कहीं मुख्यरूपसे और कहीं वक्ररूपसे साधित होता है।
आकम्पित, कम्पित, धुत, विधुत्, परिवाहित्, आधुत, अवधुत, अश्चित, निहश्चित, परावृत, उत्क्षिप्त, अधोगत एवं लोलित-ये तेरह प्रकारके शिर:कर्म जानने चाहिये।
भ्रूकर्म सात प्रकारका होता है। भूसंचालनके कर्मोंमें पातन आदि कर्म मुख्य हैं।
रस, स्थायी भाव एवं संचारी भावके सम्बन्धसे दृष्टिका ‘अभिनय’ तीन प्रकारका होता है। उसके भी छत्तीस भेद होते हैं-जिनमें दस भेद रससे प्रादुभूत होते हैं। कनीनिकाका कर्म भ्रमण एवं चलनादिके भेदसे नौ’ प्रकारका माना गया है। मुखके छ:” तथा नासिकाकर्मके छ:* एवं नि:श्वासके नौ भेद माने जाते हैं। ओष्ठकर्मके छ:, पादकर्मके छ: चिबुक-क्रियाके सात एवं ग्रीवाकर्मके नौ* भेद बताये गये हैं।
हस्तका अभिनय प्राय: ‘असंयुत’ तथा ‘संयुत’-दो प्रकारका होता है । पताक, त्रिपताक, कर्तरीमुख, अर्द्धचन्द्र, उत्कराल, शुकतुण्ड, मुष्टि, शिखर, कपित्थ, कटकामुख, सूच्यास्य, पद्मकोष, अतिशिरा, मृगशीर्षक, कामूल, कालपद्म, चतुर, भ्रमर, हंसास्य, हंसपक्ष, संदंश, मुकुल, ऊर्णनाभ एवं ताम्रचूड-‘असंयुत हस्त’के ये चौबीस भेद कहे गये हैं’।॥१-१६॥
‘संयुत हस्त’ के तेरह भेद माने जाते हैं- अङ्गलि, कपोत, कर्कट, स्वस्तिक, कटक, वर्धमान, असङ्ग, निषध, दोल, पुष्पपुट, मकर, गजदन्त एवं बहि:स्तम्भ। संयुत करके परिवर्द्धनसे इसके अन्य भेद भी होते हैं॥ १७-१८॥
वक्ष:स्थलका अभिनय आभुग्ननर्तन आदि भेदोंसे पाँच प्रकारका होता है।
उदरकर्म’ अनतिक्षाम, खल्व तथा पूर्ण-तीन प्रकारके होते हैं।
पार्श्वभागोंके पाँच कर्म तथा जङ्गाके भी पाँच ही कर्म होते हैं।
नाटय-नृत्य आदिमें पादकर्मके अनेक भेद होते हैं। १९-२१ ॥
तीन सौ इकतालीसवाँ अध्याय ॥ ३४१ ॥
अध्याय – ३४२ अभिनय और अलंकारोंका निरूपण
अग्निदेव कहते हैं– वसिष्ठ! ‘काव्य’ अथवा ‘नाटक’ आदिमें वर्णित विषयोंको जो अभिमुख कर देता—सामने ला देता, अर्थात् मूर्तरूपसे प्रत्यक्ष दिखा देता है, पात्रोंके उस कार्यकलापकों विद्वान् पुरुष ‘अभिनय’ मानते या कहते हैं। वह चार प्रकारसे सम्भव होता है। उन चारों अभिनयोंके नाम इस प्रकार हैं-सात्विक, वाचिक, आङ्गिक और आहार्य।
स्तम्भ, स्वेद आदि ‘सात्विक अभिनय’ हैं,
वाणीसे जिसका आरम्भ होता है, वह ‘वाचिक अभिनय’ है;
शरीर से आरम्भ किये जानेवाले अभिनय को ‘आङ्गिक’ कहते हैं
जिसका आरम्भ बुद्धिसे किया जाता है, वह ‘आहार्य अभिनय’ कहा गया है॥ १-२ ॥
रसादिका आधान अभिमानकी सत्तासे होता है। उसके बिना सबकी स्वतन्त्रता व्यर्थ ही है।
‘सम्भोग’ और ‘विप्रलम्भ’के भेदसे शुङ्गार दो प्रकारका माना जाता है।
सम्भोगके ‘प्रच्छन’ एवं ‘प्रकाश’-दो भेद होते हैं।
विप्रलम्भ श्रुङ्गारके चार भेद माने जाते हैं-पूर्वानुराग, मान, प्रवास एवं करुणात्मक ॥३-५ ॥
इन पूर्वानुरागादिसे ‘सम्भोग” श्रृङ्गारकी उत्पत्ति होती है। वह भी चार भागोंमें विभाजित होता है एवं पूर्वका अतिक्रमण नहीं करता। यह स्त्री और पुरुषका आश्रय लेकर स्थित होता है। उस श्रृङ्गारकी साधिका अथवा अभिव्यञ्जिका ‘रति’ मानी गयी है। उसमें वैवणर्य और प्रलयके सिवा अन्य सभी सात्विक भावोंका उदय होता है।
धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष-इन चारॊ पुरुषार्थोसे, आलम्बन-विशेषसे तथा आल्मबन-विशेषके वैशेषिकसे श्रृङ्गाररस निरन्तर उपचय (वृद्धि)- को प्राप्त होता है।
‘अभिनेय’ भृङ्गारके दो भेद और जानने चाहिये -‘वचनक्रियात्मक’ तथा ‘नेपथ्यक्रियात्मक’॥६-८३ ॥
हास्यरस स्थायीभाव–हासके छ: भेद माने गये हैं-स्मित, हसित, विहसित, उपहसित, अपहसित और अतिहसित।
जिसमें मुस्कुराहटमात्र हों, दाँत न दिखायी दें-ऐसी हँसीको ‘स्मित” कहते हैं।
जिसमें दन्ताग्र कुछ दीख पड़ें और नेत्र प्रफुलित हो उठे, वह ‘हसित‘ कहा जाता है। यह उत्तम पुरुषोंकी हँसी है।
ध्वनियुक्त हासको “विहसित” कहते हैं। यह मध्यम पुरुषोंकी हँसी है।
कुटिलतापूर्ण दृष्टिसे देखेकर किये गये अट्टहासको ‘उपहसित‘ कहते हैं। यह मध्यम पुरुषोंकी हँसी है।
बेमौके जोर-जोरसे हँसना और नेत्रोंसे आँसूतक निकल आना-यह ‘अपहसित‘ है
बड़े जोरसे ठहाका मारकर हँसना ‘अतिहसित‘ कहा गया है। (यह अधम जनोंकी हँसी है) ॥ ९-१०॥
जो “करुण’ नामसे प्रसिद्ध रस है, वह तीन प्रकारका होता है। ‘करुण’ नामसे प्रसिद्ध जो रस है, उसका स्थायी भाव “शोक” है। वह तीन हेतुओंसे प्रकट होनेके कारण ‘त्रिविध’ माना गया है-१-धर्मोपघातजनित, २-चित्तविलासजनित और ३-शोकदायकघटनाजनित।
(प्रश्न) शोकजनित शोकमें कौन स्थायी भाव है?
(उत्तर) जो पूर्ववर्ती शोकसे उद्धत हुआ है, वहां ॥ ११-१२॥
अङ्गकर्म, नेपथ्यकर्म और वाक्कर्म—इनके द्वारा रौद्ररसके भी तीन भेद होते हैं। उसका स्थायीं भाव “क्रोध’ है। इसमें स्वेद, रोमाञ्ज और वेपथु आदि सात्त्विक भावोंका उदय होता है।
दानवीर, धर्मवीर एवं युद्धवीर-ये तीन ‘वीररसके* भेद हैं। वीररसका निष्पादक हेतु “उत्साह” माना गया है। जहाँ प्रारम्भमें वीरका ही अनुसरण किया जाता है, परंतु जो आगे चलकर भयका उत्पादक होता है, वहा ‘ भयानक रस’ है। उसका निष्पादक “भय’ नामक स्थायी भाव’ है।
बीभत्सरसके “उद्देजन’ और ‘क्षोभण’-दो भेद माने गये हैं।
पूति (दुर्गन्ध) आदिसे ‘उद्वेजन’ तथा रुधिरक्षरण आदिसे ‘क्षोभण’ होता है। ‘जुगुप्सा’ इसका स्थायी भाव है और सात्विक भावका इसमें अभाव होता है*॥ १४-१६३ ॥
काव्य-सौन्दर्यकी अभिवृद्धि करनेवाले धर्मोको ‘अलंकार’ कहते हैं। वे शब्द, अर्थ एवं शब्दार्थइन तीनोंकी अलंकृत करनेसे तीन प्रकारके होते हैं।
जो अलंकार काव्यमें व्युत्पति आदिसे शब्दोंको अलंकृत करनेमें सक्षम होते हैं, काव्यशास्त्रकी मीमंस करनेवाले विद्वान उनको “शब्दालंकार” कहते हैं।
छाया, मुद्रा, उक्ति, युक्ति, गुम्फना,वाकोवाक्य, अनुप्रास, चित्त और दुष्कर-ये संकरको छोड़कर शब्दालंकारके नौ भेद हैं।
दूसरोंकी उक्तिके अनुकरणको ‘छाया‘ कहते हैं। इस छायाके भी चार भेद जानने चाहिये। लोकोक्ति, छेकोक्ति, अर्भकोक्ति एवं मतोक्तिका अनुकरण।
आभाणक (कहावत)-को “लोकोक्ति‘ कहते हैं। ये उक्तियाँ सर्वसाधारणमें प्रचलित होती हैं।
जो रचना लोकोक्तिका अनुसरण करती है, विद्वजन उसको “लोकोक्ति छाया‘ कहते हैं।
विदग्ध (नागरिक)-को ‘छेक‘ कहा जाता है।
कलाकुशल बुद्धिको ‘वैदग्ध्य‘ कहते हैं।
उल्लेख करनेवाली रचनाको कविजन “छेकोकि–छाया‘ मानते हैं।
‘अर्भकोक्ति’ सब विद्वानोंकी दृष्टिसे अव्युत्पन्न (मूढ़) पुरुषोंकी उतिका उपलक्षण मात्र है, अत: केवल उन मूढ़ेंकी उक्तिका अनुकरण करनेवाली रचना”अर्भकोक्तिछाया‘ कही जाती हैं।
मत्त (पागल)-की जो वर्णक्रमहीन अश्लीलतापूर्ण उक्ति होती है, उसको ‘मतोक्ति‘ कहते हैं। उसका अनुकरण करनेवाली रचना “मतौति–छाया‘ मानी गयी है। यह यथावसर वर्णित होनेपर अत्यन्त सुशोभित होती है। १७-२५॥
जो विशेष अभिप्रायोंके द्वारा कवित्वशक्तिको प्रकाशित करती हुई सहृदयोंको प्रमोद प्रदान करती है, वह ‘मुद्रा‘ कही जाती है। हमारे मतसे वही ‘शया‘ भी कही जाती है।
जिसमें युक्तियुक्त अर्थविशेषका कथन हो तथा जो लोकप्रचलनके प्रयोजनकी विधिसे सामाजिकके हृदयको संतर्पित करे, उसको ‘उक्ति‘ कहते हैं।
उक्तिके अवान्तर भेदोंमें विधि-निषेध, नियम-आनियम तथा विकल्प-परिसंख्यासे सम्बद्ध छ: प्रकार की उक्तियाँ होती हैं।
परस्पर पृथग्भूतके समान स्थित वाच्य और वाचक-दोनोंकी योजनाके लिये जो समर्थ हो, मनीषीजन उसे “उक्ति’ कहते हैं। युक्तिके विषय छः हैं-पद, पदार्थ, वाक्य, वाक्यार्थ, प्रकरण और प्रपञ्च। “गुम्फना’ कहते हैं-रचनाचर्याको। वह ‘शब्दार्थक्रमगोचरा’, ‘शब्दानुकारा’ तथा ‘अर्थानु- पूर्व्वार्था’ -इन तीन भेदोंसे युक्त है।॥ २६-३१॥
जिस वाक्यमें ‘उत्ति’ और ‘प्रत्युक्ति’ (प्रश्न और उत्तर) दोनों हों, उसे ‘वाकोवाक्य’ कहते हैं। उसके भी दो भेद हैं-‘ऋजूक्ति’ और ‘वक्रोक्ति’। इनमें पहली जो ‘ऋजूक्ति’ है, वह स्वाभाविक कथनरूपा है। ऋजूतिके भी दो भेद हैं-“अप्रश्वपूर्वका’ और ‘प्रश्नपूर्वका’। वक्रोक्तिके भी दो भेद हैं-‘भङ्ग-वक्रोक्ति’ और ‘काकु- वक्रोक्ति’ ॥ ३२-३३ ॥
तीन सौ बयालीसवाँ अध्याय ॥ ३४१॥
अध्याय – ३४३ शब्दालंकारोंका विवरण
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ! पद एवं वाक्यमें वर्णोंकी आवृत्तिको ‘अनुप्रास’ कहते हैं। वृत्यनुप्रासके वर्णसमुदाय दो प्रकारके होते हैं- एकवर्णं और अनेकवर्ण*॥१।।
एकवर्णगत आवृत्तिसे पाँच वृत्तियाँ निर्मित होती हैं-मधुरा, ललिता, प्रौढ़ा, भद्रा तथा परुषा* ॥ २ ॥
मधुरावृतिकी रचनामें वर्गान्त पचंम वर्णके नीचे उसी वर्गके अक्षर तथा ‘र ण म न’-ये वर्ण हृस्व स्वरसे अन्तरित होकर प्रयुक्त होते हैं तथा दो नकारोंका संयोग भी रहा करता है।॥ ३॥
वर्ग्य वर्णोंकी आवृत्ति पाँचसे अधिक बार नहीं करनी चाहिये।
महाप्राण (वर्गके दूसरे और चौथे अक्षर) और ऊष्मा (श ष स ह) इनके संयोगसे युक्त उत्तरोत्तर लघु अक्षरवाली रचना मधुरा’ कही गयी है।॥ ४॥
ललितामें वकार और लकारका अधिक प्रयोग होता है। (वकारसे दन्योछय वर्ण और लकारसे दन्त्यवर्ण समझने चाहिये’।)
जिसमें ऊर्ध्वगत रेफसे संयुक्त पकार, णकार एवं वर्ग्य वर्ण प्रयुक्त होते हैं, किंतु टवर्ग और पश्चम वर्ण नहीं रहते, वह ‘प्रौढा’ वृत्ति कही जाती है।
जिसमें अवशिष्ट, असंयुक्त, रेफ, णकार आदि कोमल वर्ण प्रयुक्त होते हैं, वह ‘भद्रा’ अथवा ‘कोमला वृति” मानी जाती है।
जिसमें ऊष्मा वर्ण (श ष स ह) विभिन्न अक्षरोंसे संयुक्त होकर प्रयुक्त होते हैं, उसको ‘परुषा’ कहते हैं। परुषावृत्तिमें अकारके सिवा अन्य स्वरोंकी अत्यधिक आवृत्ति होती है। अनुस्वार, विसर्ग निरन्तर प्रयुक्त होनेपर परुषता प्रकट करते हैं। रेफसंयुक्त श, ष, स का प्रयोग, अधिक अकारका प्रयोग, अन्त:स्थ वर्णोंका अधिक निवेश तथा रेफ और अन्त:स्थसे भेदित एवं संयुक्त ‘हकार’ भी परुषताका कारण होता है। और प्रकारसे भी जो गुरु वर्ण है, वह यदि माधुर्यविरोधी वर्णसे संयुक्त हो, तो परुषता लानेवाला होता है। उस परुष-रचनामें वर्गका आदि अक्षर ही संयुक्त एवं गुरु हो तो श्रेष्ठ माना गया है।
पश्चम वर्ण यदि संयुक्त हो तो परुष-रचनामें उसे प्रशस्त नहीं माना गया है।
किसीपर आक्षेप करना हो या किसी कठोर शब्दका अनुकरण करना हो, तो वहाँ ‘परुषा वृति’ भी प्रयोगमें लायी जाती है।
क च ट त प-इन पाँच वर्गों, अन्त:स्थ वर्णों और ऊष्मा अक्षरोके क्रमशः आवर्तनसे जो वृत्ति होती है, उसके बारह भेद हैं-कर्णाटी, कौन्तली, कौंकी, कौंकणी, वाणवासिका, द्राविडी, माथुरी, मात्सी, मागधी, ताम्रलिप्तिका, औण्ड्री तथा पौण्ड्री
अनेक वर्णोंकी जो आवृत्ति होती है, वह यदि भिन्न-भिन्न अर्थोंकी प्रतिपादिका हो, तो उसे ‘यमक’ कहते हैं ।
यमक दो प्रकारका होता है – ‘अव्यपेत’ और ‘व्यपेत’ ।
निरन्तर आवृत्त होनेवाला अव्यपेत और व्यवधानसे आवृत होनेवाले व्यपेत कहा जाता है।
स्थान और पादके भेदसे इन दोनोंके दो–दो भेद होनेपर कुल चार भेद हुए।
आदि पादके आदि, मध्य और अन्तमें एक, दो और तीन वर्णोंकी पर्यायसे आवृत्ति होनेपर कुल सात भेद होते हैं। यदि सात पादोंमें उत्तरोत्तर पाद एक, दो और तीन पर्दोसे आरम्भ हो तो अन्तिम पाद छ: प्रकारका हो जाता है। तीसरा पाद पादके आदि, मध्य और अन्तमें आवृत्ति होनेसे तीन प्रकारका होता है। श्रेष्ठ यमकके निम्नलिखित दस भेद होते हैं-पादान्त यमक, काञ्जि यमक, समुदग यमक, विक्रान्त्य यमक, वक्रवाल यमक, संदष्ट यमक, पादादि यमक, आम्रेडित यमक, चतुर्व्यवसित यमक तथा माला यमक।
इनके भी अन्य अनेक भेद होते हैं॥ ११-१७॥
सहृदयजन भिन्नार्थवाची पदकी आवृत्तिको ‘स्वतन्त्र’ एवं ‘अस्वतन्त्र’ पदके आवर्तनसे दो प्रकारकी मानते हैं।
दो आवृत पदोंका समास होनेपर ‘समस्ता’ और उनके समासरहित रहनेपर ‘व्यस्ता’ आवृत्ति कही जाती है। एक पादमें विग्रह होनेसे असमासत्वप्रयुक्त “व्यस्ता” जानी जाती है।
यथासम्भव वाक्यकी भी आवृत्ति इस प्रकार होती है। अनुप्रास, यमक आदि अलंकार लघु होनेपर भी इस प्रकार सुधीजनोंद्वारा सम्मानित होते हैं।
आवृति पदकी हो या वाक्य आदिकी, जिस किसी आवृत्तिसे भी जो वर्णसमूह ‘समान’ अनुभवमें आता है, उस आवृतरूपको आदिमें रखकर जो सानुप्रास पदरचना की जाती है, वह सहृदयजनोंकों रसास्वाद करानेवाली होती है।
सहृदयजनोंकी गोष्ठीमें जिस वाग्बन्ध (पदरचना)- को कौतूहलपूर्वक पढ़ा और सुना जाता है, उसे ‘चित्र’ कहते हैं।इनके मुख्य सात भेद होते हैं-प्रश्र, प्रहेलिका, गुप्त, चयुक्ताक्षर, दत्ताक्षर, चच्युतदत्ताक्षर और समस्या।
जिसमें समानान्तरविन्यासपूर्वक उत्तर दिया जाय, वह “प्रश्न’ कहा जाता है और वह “एकपृष्टोत्तर’ और ‘द्विपृष्टोत्तर”के भेदसे दो प्रकारका होता है। ‘एक’पृष्ट”के भी दो भेद हैं-‘समस्त’ और ‘व्यस्त’।
जिसमें दोनों अर्थोंके वाचक शब्द गूढ़ रहते हैं, उसे ‘प्रहेलिका‘ कहते हैं। वह प्रहेलिका ‘आर्थी” और “शाब्दी के भेदसे दो प्रकाएकीं होतीं है। अर्थबोधके सम्बन्धसे ‘आर्थी’ कही जाती है। शब्दबोधके सम्बन्धसे उसकी “शाब्दी’ कहते हैं। इस प्रकार प्रहेलिकाके छ: भेद बताये गये हैं।
वाक्याङ्गके गुप्त होनेपर भी सम्भाव्य अपारमार्थिक अर्थ जिसके अङ्गमें आकाङ्क्षासे युक्त स्थित रहता है, वह ‘गुप्त” कही जाती है। इसीको ‘गूढ़‘ भी कहते हैं।
जिसमें वाक्याङ्गकी विकलतासे अर्थान्तरकी प्रतीति विकलित अङ्गमें साकाङ्क्ष रहती है, वह ‘च्युताक्षरा‘ कही जाती है। वह चार प्रकारकी होती है—स्वर, व्यञ्जन, बिन्दु और विसर्गकी च्युतिके भेदसे।
जिसमें वाक्याङ्गके विकल अंशको पूर्ण कर देनेपर भी द्वितीय अर्थ प्रतीत होता है, उसको ‘दत्ताक्षरा‘ कहते हैं। उसके भी स्वर आदिके कारण पूर्ववत् की तरह चार भेद होते हैं।
जिसमें लुप्तवर्णके स्थानपर अक्षरान्तरके रखनेपर भी अर्थान्तरका आभास होता है, वह ‘च्युतदत्ताक्षरा‘ कही जाती है।
जो किसी पद्यांश से निर्मित और किसी पद्यसे सम्बद्ध हो, वह ‘समस्या” कही जाती है। ‘समस्या’ दूसरेकी रचना होती है, उसकी पूर्ति अपनी कृति है। इस प्रकार अपनी तथा दुसरेकी कृतियोंके सांकर्यसे समस्या पूर्ण होती है।
पूर्वोक्त ‘चित्रकाव्य‘ अत्यन्त क्लेशसाध्य होता है एवं दुष्कर होनेके कारण वह कविकी कवित्व-शक्तिका सूचक होता है। यह नीरस होनेपर भी सहृदयोंके लिये महोत्सवके समान होता है।
यह नियम, विदर्भ और बन्धके भेदसे तीन प्रकारका होता है।
रमणीय कविता के रचयिता कविकी प्रतिज्ञाकों ‘नियम’ कहते हैं।
नियम भी स्थान, स्वर और व्यञ्जनके अनुबन्धसे तीन प्रकारका होता है।
काव्यमें प्रातिलोम्य और आनुलोम्यसे विकल्पना होती है। ‘प्रातिलोम्य’ और ‘आनुलोम्य’ शब्द और अर्थके द्वारा भी होता है।
विविध वृत्तोंके वर्णविन्यासके द्वारा उन-उन प्रसिद्ध वस्तुओंके चित्रकर्मादिकी कल्पनाको ‘बन्ध‘ कहते हैं। बन्धके निम्नाङ्कित आठ भेद माने जाते हैं-गोमूत्रिका, अर्द्धभ्रमक, सर्वतोभद्र, कमल, चक्र, चक्राब्जक, दण्ड और मुरज।
जिसमें श्लोकके दोनों-दोनों अर्द्धभागों तथा प्रत्येक पादमें एक-एक अक्षरके व्यवधानसे अक्षरसाम्य प्रयुक्त हो, उसको ‘गोमूत्रिका–बन्ध‘ कहते हैं। ‘गोमूत्रिका-बन्ध के दो भेद कहे जाते हैं-‘पूर्वा-गोमूत्रका‘ जिसको कुछ काव्यवेत्ता ‘अश्वपदा‘ भी कहते हैं, वह प्रति अर्द्धभागमें एक-एक अक्षरके बाद अक्षरसाम्यसे युक्त होती है। ‘अन्त्या-गोमूत्रिका‘ जिसको ‘धेनुजालबन्ध‘ भी कहते हैं, वह प्रत्येक पदमें एक-एक अक्षरके अन्तरसे अक्षरसाम्यसमन्वित होती है ॥ २२-३८॥
गोमूत्रिका–बन्धके पूर्वोत दोनों भेदोंका क्रमश: अर्द्धभागों और अर्द्धपादोंसे विन्यास करना चाहिये ॥ ३८ ॥
यहाँ क्रमश: नीचे–नीचे विन्यस्त वर्णोंका, नीचे–नीचे स्थित वर्णोंका जबतक चतुर्थ पाद पूर्ण न हो जाय, तबतक नयन करे।
चतुर्थ पाद पूर्ण हो जाने पर प्रतिलोमक्रमसे अक्षरोंको पादार्ध-पर्यन्त ऊपर ले जाय। इस तरह तीन प्रकारका ‘सर्वतोभद्र–मण्डल‘ बनता है।
कमलबन्धके तीन प्रकार हैं–चतुर्दल, अष्टदल और षोडशदल।
चतुर्दल कमलकी इस प्रकारसे आबद्ध किया जाता है–प्रथम पादके ऊपरी तीन पदोंवाले अक्षर सभी पादोंके अन्तमें रखे जाते हैं। पूर्वपादके अन्तिम वर्णको पिछले पादके आदिमें प्रातिलोम्यक्रमसे रखा जाय। अन्तिम पादके अन्तिम दो अक्षरोंको प्रथम पादके आदिमें निविष्ट किया जाय। यह स्थिति चतुर्दल कमलमें होती है।
अष्टदल कमलमें अन्त्य पादके अन्तिम तीन अक्षरोंको प्रथम पादके आदि में विन्यस्त किया जाता है।
षोडशदल कमलमें दो अक्षरोंके बीचमें कर्णिका–मध्यवर्ती एक अक्षरका उच्चारण होता है।
कर्णिकाके अन्तमें उपर पत्राकार अक्षरोंकों पङ्कि लिखे और उसे कर्णिकामें प्रविष्ट कराये। यह बात चतुर्दल कमलके विषयमें कही गयी है।
कर्णिकामें एक अक्षर लिखे और दिशाओं तथा विदिशाओंमें दो–दो अक्षर लिखें, प्रवेश और निर्गमका मार्ग प्रत्येक दिशा में रखें। यह बात ‘अष्टदल कमल‘के विषयमें कही गयी है।
चारों और विषम–वर्णोका उतनी ही पत्रावली बनाकर न्यास करे और मध्यकर्णिकामें सम अक्षरोंका एक अक्षरके रूप में न्यास करे। यह बात ‘षोडशदल कमल‘के विषयमें बतायी गयी है।
‘चक्रबन्ध‘ दो प्रकारका होता है–एक चार अरोंका और दूसरा छ: अरोंका। उनमें जो आदिम, अर्थात् चार अरोंवाला चक्र है, उसके पूर्वार्द्धमें समवर्णोकी स्थापना करे और प्रत्येक पादके जो प्रथम, पचंम आदि विषमवर्ण हैं, उनको एवं चौथे और आठवें, दोनों समवर्णोको क्रमश: उत्तर, पूर्व, दक्षिण और पश्चिमके अरोंमें रखें ॥ ३९–४९ ॥
उत्तर पादार्थके चार अक्षरोंको नाभि में रखें और उसके आदि अक्षरको पिछले दो अरोंमें ले जाय। शेष दो पदोंको नेमिमें स्थापित करे। तृतीय अक्षरको चतुर्थ पादके अन्तमें तथा प्रथम दो समवर्णोको तीनों पादोंके अन्तमें रखें। यदि दसवाँ अक्षर सम हो तो उसे प्रथम आरेपर रखे और छ: अक्षरोंको पश्चिम अरेपर स्थापित करे। वे दो–दोके अन्तरसे स्थापित होंगे। इस प्रकार ‘बृहच्चक्र‘ का निर्माण होगा। यह ‘बृहच्चक्र‘ बताया गया।
सामनेके दो अरोंमें क्रमश: एकएक पाद लिखे। नाभिमें दशम अक्षर अङ्कित करे और नेमिमें चतुर्थ चरणको ले जाय। श्लोकके आदि, अन्त और दशम अक्षर समान हों तथा दूसरे और चौथे चरणोंके आदि और अन्तिम अक्षर भी समान हों। प्रथम और चौथे चरणके प्रथम, चतुर्थ और पचंम वर्ण भी समान हों। द्वितीय चरण को विलोमक्रमसे पढ़नेपर यदि तृतीय चरण बन जाता हो तो उसे पत्रके स्थानमें स्थापित करे तो उस रचनाका नाम ‘दण्डचक्राब्जबन्ध” समझना चाहिये।
पूर्वदल (पूर्वाद्ध)-में दोनों चरणोंके द्वितीय अक्षर एक समान हों और उत्तरार्द्धमें दोनों चरणोंके सातवें अक्षर समान हों। साथ ही द्वितीय अक्षरोंकी दृष्टिसे भी पूर्वाद्ध और उत्तरार्द्ध परस्पर समता रखते हों। दूसरे, छठे तथा चौथे, पाँचवें भी एक–दूसरेके तुल्य हों। उत्तरार्द्ध भागके सातवें अक्षर प्रथम और चतुर्थ चरणोंके उन्हीं अक्षरोंके समान हों तो उन तुल्य रूपवाले चतुर्थं और पञ्चम अक्षरकी क्रमशः योजना करनी चाहिये। क्रमपादगत जो चतुर्थ अक्षर हैं, उनको तथा दलान्त वर्णोको पूर्ववत् स्थापित करना चाहिये।
‘मुरजबन्ध“में पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध दोनोंके अन्तिम और आदि अक्षर समान होते हैं। पादार्द्ध भागमें स्थित जो वर्ण है, उसे प्रातिलोम्यानुलोम्यक्रमसे स्थापित करे। अन्तिम अक्षरकी इस प्रकार निबद्ध करे कि वह चौथे चरणका आदि अक्षर बन जाय। चौथे चरणमें जो आदि अक्षर हो, उससे नवें तथा सोलहवें अक्षरसे पुटकके बीच–बीच में चार–चार अक्षरोंका निवेश करे। ऐसा करनेसे उस श्लोकबन्धद्वारा मुरज (ढोल)-की आकृति स्पष्ट हो जाती है।
द्वितीय चक्र ‘शार्दूलविक्रौडित‘ छन्दसे सम्पादित होता है।
‘गोमूत्रकाबन्ध‘ सभी छन्दोसे निर्मित हो सकता है।
अन्य सब बन्ध अनुष्टुप छन्दसे निर्मित होते हैं।
यदि इन बन्धोंमें कवि और काव्यका नाम न हो तो मित्रभाव रखनेवाले लोग संतुष्ट होते हैं तथा शत्रु भी खिन्न नहीं होता।
बाण, धनुष, व्योम, खड्ग, मुद्गर, शक्ति, द्विश्रृङ्गाट, त्रिश्रृङ्गाट, चतुःश्रृङ्गाट, वज्र, मुसल, ’, अङ्कुश, ‘रथपद, नागपद, पुष्करिणी, असिपुत्रिका (कटारी या छुरी)-इन सबकी आकृतियोंमें चित्रबन्ध लिखे जाते हैं। ये तथा और भी बहुत–से ‘चित्रबन्ध‘ हो सकते हैं, जिन्हें विद्वान् पुरुषोंको स्वयं जानना चाहिये ॥५०–६५॥*
तीन सौ तैंतालीसवाँ ॥ ३४३ ॥
अध्याय – ३४४ अर्थालंकार निरूपण
अग्निदेव कहते हैं– वसिष्ठ! अर्थोंका अलंकरण* ‘अर्थालंकार” कहा जाता है। उसके बिना शब्द-सौन्दर्य भी मनको आकर्षित नहीं करता है। अर्थालंकारसे हीन सरस्वती विधवाके समान शोभाहीन है।
अर्थालंकारके आठ भेद माने गये हैं-स्वरूप, सादृश्य, उत्प्रेक्षा, अतिशय, विभावना, विरोध, हेतु और सम।
पदार्थोंके स्वभावको ‘स्वरूप’ कहते हैं। उसके दो भेद बतलाये गये हैं- “निज’ एवं ‘आगन्तुक’।
सांसिद्धिकको “निज” तथा नैमित्तिकको “आगन्तुक” कहा जाता है।
धर्मकी समानताको ‘सादृश्य’ कहते हैं। वह भी उपमा, रूपक, सहोति तथा अर्थान्तरन्यासके भेदसे चार प्रकारका होता है। जिसमें भेद और सामान्यधर्मके साथ उपमान एवं उपमेयकी सत्ता हो, उसको ‘उपमा” कहते हैं: क्योंकि यत्किंचिद्विवक्षित सारूप्यका आश्रय लेकर ही लोकयात्रा प्रवर्तित होती है।
प्रतियोगी (उपमान)-के समस्त और असमस्त होनेसे उपमा दो प्रकारकी मानी गयी है-‘ससमासा‘ एवं ‘असमासा‘।
‘घन इव श्याम:” इत्यादि पदोंमें समासके कारण वाचक शब्दके लुप्त होनेसे ‘ससमासा उपमा” कही गयी है, इससे भिन्न प्रकार की उपमा ‘असमासा’ है।
कहीं उपमाद्योतक ‘इवादि” पद, कहीं उपमेय और कहीं दोनोंके विरह से ‘ससमासा’ उपमाके तीन भेद होते हैं। इसी प्रकार ‘असमासा’ उपमाके भी तीन भेद हैं। विशेषणसे युक होनेपर उपमाके अठरह भेद होते हैं।
जिसमें साधारण धर्मका कथन या ज्ञान होता है-उपमाके उस भेदविशेषको धर्म या वस्तुकी प्रधानताके कारण ‘धर्मोपमा” एवं ‘वस्तूपमा” कहा जाता है।
जिसमें उपमान और उपमेयकी प्रसिद्धिके अनुसार परस्पर तुल्य उपमा दी जाती है, वह ‘परस्परोपमा’ होती है।
प्रसिद्धिके विपरीत उपमान और उपमेय की विषमतामें जब उपमा दी जाती है, तब वह ‘विपरीतोपमा’ कहलाती है।
उपमा-जहाँ एक वस्तुसे ही उपमा देकर अन्य उपमानोंका व्यावर्तन-निराकरण किया जाता है, वहाँ ‘नियमोपमा” होती है।
यदि उपमेयके गुणादि धर्मकी अन्य उपमानोंमें भी अनुवृति हो तो उसे ‘अनियमोपमा” कहते हैं। १-१२ ॥
एकसे भिन्न धर्मोक बाहुल्यका कीर्तन होनेसे ‘समुच्चयोपमा” होती है।
जहाँ अनेक धर्मोकी समानता होनेपर भी उपमानसे उपमेयकी विलक्षणता विवक्षित हो और इसके कारण जो अतिरिकत्वका कथन होता है, उसे ‘व्यतिरेकोपमा” कहते हैं।
जहाँ बहुसंख्यक सदृश उपमानोंद्वारा उपमा दी जाय उसे “बहुपमा” माना गया है। यदि उनमेसे प्रत्येक उपमान भिन्न-भिन्न साधारण धर्मोसे युक्त हो तो उसे “मालोपमा” कहा जाता है।
उपमेयको उपमानका विकार बताकर तुलना की जाय तो “विक्रियोपमा” होती है ।
यदि कवि उपमानमें किसी ऐसे वैशिष्टयका, जो तीनों लोकोंमें असम्भव हो, आरोप करके उसके द्वारा उपमा देता है, वह “अद्धुतोपमा” कही जाती है ।
उपमानको आरोपित करके उससे अभिन्नरूपमें जो उपमेयका कीर्तन होता है और उससे जो भ्रम होनेका वर्णन किया जाता है, उसे ‘मोहोपमा” कहा जाता है।
दो धर्मियोंमेंसे किसी एकका यथार्थ निश्चय न होने से ‘संशयोपमा‘ तथा पहले संशय होकर फिर निश्चय होनेसे “निश्चयोपमा” होती है।
जहाँ वाक्यार्थकी उपमान बनाकर उससे ही वाक्यार्थकी उपमा दी जाय, उसको ‘वाक्यार्थोपमा‘ कहते हैं। यह उपमा अपने उपमानकी दृष्टिसे दो प्रकारकी होती है-‘साधारणी‘ और ‘अतिशायिनी‘।
जो एकका उपमेय है, वही दूसरेका उपमान हो, अर्थात् दोनों एक-दूसरेके उपमान-उपमेय कहे गये हों तो उसे ‘अन्योन्योपमा” कहते हैं। इस प्रकार यदि उत्तरोत्तर क्रम चलता जाय तो उसको ‘गमनोपमा” कहा जाता है।
इसके सिवा उपमाके और भी पाँच भेद होते हैं-“प्रशस्त” “निन्दा” ‘कल्पिता” “सदृशी‘ एवं ‘किंचित्सदृशी“।
गुणोंकी समानता देखकर उपमेयका जो तत्व उपमानसे रूपित अभेदेन प्रतिपादित होता है, उसे “रूपक” मानते हैं। अथवा भेदके तिरोहित होनेपर उपमा ही ‘रूपक” हो जाती है।
तुल्यधर्मसे युक्त दो पदार्थोंका एक साथ रहनेका वर्णन ‘सहोति” कहा जाता है॥ १३-२३ ॥
पूर्ववर्णित वस्तुके समर्थनके लिये साधर्म्य अथवा वैधर्म्यसे जो अर्थान्तरका उपन्यास किया
जाता है, उसे ‘अर्थान्तरन्यास‘ कहते हैं।
जिसमें चेतन या अचेतन पदार्थकी अन्यथास्थित परिस्थितिको दूसरी तरहसे माना जाता है, उसको ‘उत्प्रेक्षा” कहते हैं।
लोकसीमातीत वस्तु-धर्मका कीर्तन ‘अतिशयालंकार” कहलाता है। यह ‘सम्भव‘ और “असम्भव‘के भेदसे दो प्रकारका माना जाता है।
जिसमें विशेष्यदर्शनके लिये गुण, जाति एवं क्रियादिकी विकलताका प्रदर्शन-अनपेक्षताका प्रकाशन हो, उसको ‘विशेषोति‘ कहा जाता है।
जिसमें प्रसिद्ध हेतुकी व्यावृतिपूर्वक (अर्थात् उसका अभाव दिखाते हुए) अन्य किसी कारणकी उद्धावना की जाय अथवा स्वाभाविकता स्वीकार की जाय अर्थात् बिना किसी कारण के ही स्वाभाविक रूपसे कार्यकी उत्पति मानी जाय, उसे विभावना कहते हैं।
परस्पर असंगत पदार्थोंका जहाँ युक्तिके द्वारा विरोधपूर्वक संगतिकरण किया जाय, वह ‘विरोधालंकार‘ होता है।
जिसकी सिद्धि अभिलषित हो, ऐसे अर्थका साधक ‘हेतु” अलंकार कहलाता है। उस “हेतु’ अलंकारके ‘कारक‘ एवं ‘ज्ञापक‘-ये दो भेद हो जाते हैं। इनमें कारक–हेतु कार्य-जन्मके पूर्वमें और पश्चात् भी रहनेवाला है, जो ‘पूर्वशेष” कहा जाता है और उन्हीं भेदोंमें कार्य-कारणभावसे अथवा किसी नियामक स्वभावसे या अविनाभावके भी दर्शनसे जो अविनाभावका नियम होता है, वह ज्ञापक हेतुका भेद है। ‘नदीपूर‘ आदिका दर्शन ज्ञापकका उदाहरण है ॥ २४-३२॥
तीन सौ चौवालीसवाँ अध्याय ॥ ३४४ ॥
अध्याय – ३४५ शब्दार्थोंभियालंकार
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ! “शब्दार्थालंकार“। शब्द और अर्थ दोनोंको समानरूपसे अलंकृत करता है; जैसे एक ही अङ्गमें धारण किया हुआ हार कामिनीके कण्ठ एवं कुचमण्डलकी कान्तिको बढ़ा देता है।
‘शब्दार्थालंकार‘ के छ: भेद काव्यमें उपलब्ध होते हैं-प्रशस्ति, कान्ति, औचित्य, संक्षेप, यावदर्थता तथा अभिव्यक्ति।
दूसरोंके मर्मस्थलको द्रवीभूत करनेवाले वाक-कौशलको ‘प्रशस्ति‘ कहते हैं। वह प्रशस्ति ‘प्रेमोक्ति‘ एवं ‘स्तुति” के भेदसे दो प्रकारकी मानी गयी है। प्रेमोक्ति और स्तुतिके पर्यायवाचक शब्द क्रमश: ‘प्रियोक्ति‘ एवं ‘गुण–कीर्तन‘ हैं।
वाच्य-वाचककी सर्वसम्मत एवं रुचिकर संगतिकी “कान्ति‘ कहते हैं।
यदि ओज एवं माधुर्ययुक्त संदर्भमें-वस्तुके अनुसार रीति एवं वृत्तिके अनुसार रसका प्रयोग हो तो औचित्यका प्रादुर्भाव होता है।
अल्पसंख्यक शब्दोसे अर्थ-बाहुल्यका संग्रह ‘संक्षेप‘ तथा शब्द एवं वस्तुका अन्यूनाधिक्य ‘यावदर्थता‘ कहा जाता है।
अर्थ-प्राकटयको ‘अभिव्यक्ति‘ कहते हैं। उसके दो भेद हैं-‘श्रुति‘ और ‘आक्षेप‘।
शब्दके द्वारा अपने अर्थका उद्घाटन ‘श्रुति‘ कहा जाता है। श्रुतिके दो भेद हैं- नैमितिकी‘ और ‘पारिभाषिकी“। “संकेत” को परिभाषा कहते हैं। परिभाषाके सम्बन्ध से ही वह पारिभाषिकी है।
पारिभाषिकीको ‘मुख्या” और नैमितिकीकों ‘औपचारिकी” कहते हैं।[ये ही क्रमश: “अभिधा‘ और ‘लक्षणा” हैं।]
उस औपचारिकीके भी दो भेद हैं। जिसके द्वारा अभिधेय अर्थसे स्खलित हुआ शब्द किसी निमितवश अमुख्य अर्थका बोधक होता है, वह वृति ‘औपचारिकी‘ है।
ये ही दोनों भेद नैमितिकीके भी होते हैं। वह लक्षणायोगसे ‘लाक्षणिकी” और गुणयोगसे ‘गौणी‘ कहलाती है।
अभिधेय अर्थके साथ सम्बद्ध रहकर जो अन्यार्थकी प्रतीति होती है, उसको ‘लक्षणा‘ कहते हैं। अभिधेयके साथ सम्बन्ध, सामीप्य, समवाय, वैपरीत्य एवं क्रियायोगसे लक्षणा पाँच प्रकारकी मानी जाती है।
गुणोंकी अनन्तता होने से उनकी विवक्षाके कारण गौणीके अनन्त भेद हो जाते हैं।
लोक सीमाके पालनमें तत्पर कविद्वारा जब अप्रस्तुत वस्तुके धर्म प्रस्तुत वस्तुपर सम्यग्रूपसे आहित-आरोपित किये जाते हैं, तब उसे ‘समाधि” कहते हैं।
जिसके द्वारा श्रुतिसे अनुपलब्ध अर्थ चैतन्ययुक्त होकर भासित होता है, वह ‘आक्षेप” कहा जाता है। इसको ‘ध्वनि‘ भी माना गया है; क्योंकि वह ध्वनिसे ही व्यक्त होता है। इसमें ध्वनिके आश्रयसे शब्द और अर्थके द्वारा स्वतः संकलित अर्थं ही व्यञ्जित होता है।
अभीष्ट कथनका विशेष विवक्षासे अर्थात् उसमें और भी उत्कर्षकी प्रतीति करानेके लिये जो प्रतिषेध-सा होता है, उसको ‘आक्षेप‘ कहते हैं।
अधिकार (प्रकरण)-से पृथक्, अर्थात् अप्रकृत या अप्रस्तुत अन्य वस्तुकी जो स्तुति की जाती है, उसे ‘अस्तुतस्तोत्र‘* (अप्रस्तुतप्रशंसा) कहते हैं।
जहाँ किसी एक वस्तुके कहनेपर उसके समान विशेषणवाले दूसरे अर्थकी प्रतीति हो, उसे विद्वान् पुरुष अर्थकी संक्षिमताके कारण ‘समासोक्ति‘ कहते हैं।
वास्तविक पदार्थका अपलाप या निषेध करके किसी अन्य पदार्थको सूचित करना ‘अपह्रति‘ है।
जो अभिधेय दूसरे प्रकारसे कहा जाता है अर्थात् सीधे न कहकर प्रकारान्तरसे घुमा-फिराकर प्रस्तुत किया जाता है, उसको ‘पर्यायोक्ति’ कहते हैं। इनमेंसे किसी भी एकका नाम ‘ध्वनि” हैं।
अध्याय – ३४६ काव्यगुण-विवेक
अग्निदेव कहते हैं–द्विजश्रेष्ठ! गुणहीन काव्य अलंकारयुक्त होनेपर भी सहृदयके लिये प्रीतिकारक नहीं होता, जैसे नारीके यौवनजनित लालित्यसे* रहित शरीरपर हार भी भारस्वरूप हो जाता है।
यदि कोई कहे कि ‘गुणनिरूपणकी क्या आवश्यकता है? दोषों का अभाव ही गुण हो जायगा’ तो उसका ऐसा कथन उचित नहीं है; क्योंकि ‘श्लेष’ आदि गुण और ‘गूढार्थत्व’ आदि दोष पृथक्- पृथक् कहे गये हैं।
जो काव्यमें महती शोभाका आनयन करता है, उसको ‘गुण’ कहा जाता है। यह सामान्य और वैशेषिकके भेदसे दो प्रकारका हो जाता है। जो गुण सर्वसाधारण हो, उसे ‘सामान्य‘ कहा जाता है। सामान्य गुण शब्द, अर्थ और शब्दार्थको प्राप्त होकर तीन प्रकारका हो जाता है। जो गुण काव्य-शरीरमें शब्दके आश्रित होता है, वह ‘शब्दगुण‘ कहलाता है।
शब्दगुणके सात’ भेद होते हैं-श्लेष, लालित्य, गाम्भीर्य, सौकुमार्य, उदारता, ओज और यौगिकी (समाधि)।
शब्दोंका सुश्लिष्ट संनिवेश ‘श्लेष‘ कहा जाता है।
जहाँ गुणादेश आदिके द्वारा पूर्वपदसम्बद्ध अक्षर संधिको प्राप्त नहीं होता, वहाँ ‘लालित्य” गुण माना गया है।
विशिष्ट लक्षणके अनुसार उल्लेखनीय उच्चभावव्यञ्जक शब्दसमूहको श्रेष्ठ पुरुष ‘गाम्भीर्य‘ कहते हैं। वही अन्यत्र “उत्तान शब्दक” या ‘शब्दत्व‘ नामसे प्रसिद्ध है।
जिसमें निष्ठुरतारहित कोमल अक्षरोंका बाहुल्य हो, उस शब्दसमूहको ‘सौकुमार्य‘ गुणविशिष्ट माना गया है।
जहाँ श्लाध्य विशेषणोंसे युक्त उत्कृष्ट पदका प्रयोग हो, वहाँ ‘औदार्य‘ गुण माना जाता है।
समासोंका बाहुल्य ‘ओज‘ कहलाता है। यह गद्य-पद्यरूप काव्यका प्राण है। ब्रह्मासे लेकर तृणपर्य्यन्त जो कोई भी प्राणी हैं, उनके ‘पौरुष‘ का वर्णन एकमात्र ‘ओज‘ गुणविशिष्ट पदावलीसे ही होता हैं।
जिस-किसी भी शब्दके द्वारा वर्ण्यमान वस्तुका उत्कर्ष वहन करनेवाला गुण ‘अर्थगुण‘ कहा जाता है।
अर्थगुणके छ: भेद प्रकाशित होते हैं-माधुर्य, संविधान, कोमलता, उदारता, प्रौढ़ि एवं सामयिकता।
क्रोध और ईष्यमें भी आकारकी गम्भीरता तथा धैर्य्यधारणको ‘माधुर्य‘ कहते हैं।
अपेक्षित कार्यकी सिद्धिके लिये उद्योग ‘संविधान‘ माना गया है।
जो कठिनता आदि दोषोंसे रहित है तथा संनिवेश विशेषका तिरस्कार करके मृदुरूपमें ही भासित होता है, वह गुण ‘कोमलता‘ के नामसे प्रसिद्ध हैं ॥ १-१४॥
जिसमें स्थूललक्ष्यत्वकी प्रवृत्तिका लक्षण लक्षित होता है, आशय अत्यन्त सुन्दररूपमें प्रकट होता है, वह ‘उदारता” नामक गुण है।
इच्छित अर्थके प्रति निर्वाहका उपपादन करनेवाली हेतुगर्भीणी युक्तियोंको ‘प्रौढ़ि‘ कहते हैं।
स्वतन्त्र या परतन्त्र कार्यके बाह्य एवं आन्तरिक संयोगसे अर्थकी जो व्युत्पति होती है, उसको “सामयिकता‘ कहते हैं।
जो शब्द एवं अर्थ-दोनोंकी उपकृत करता है, वह “उभयगुण” (शब्दार्थगुण) कहलाता है।
साहित्यशानियोंने इसका विस्तार छ: भेदोंमें किया है-प्रसाद, सौभाग्य, यथासंख्य, प्रशस्तता, पाक और राग।
सुप्रसिद्ध अर्थसे समन्वित पदोंका संनिवेश ‘प्रसाद” कहा जाता है।
जिसके उत्त होनेपर कोई गुण उत्कर्षको प्राप्त हुआ प्रतीत होता है, विद्वान् उसको ‘सौभाग्य‘ या ‘औदार्य‘ बतलाते हैं।
तुल्य वस्तुओंका क्रमश: कथन “यथासंख्य‘ माना जाता है।
समयानुसार वर्णनीय दारुण वस्तुका भी अदारुण शब्दसे वर्णन “प्राशस्त्य” कहलाता हैं।
किसी पदार्थकी उच्च परिणतिको ‘पाक‘ कहते हैं।
‘मृद्वीकापाक‘ एवं ‘नारिकेलाम्बुपाक‘के भेदसे ‘पाक’ दो प्रकारका होता हैं।
आदि और अन्तमें भी जहाँ सौरस्य हो, वह ‘ मृद्वीकापाक ‘ हैं।
काव्यमें जो छायाविशेष (शोभाधिक्य) प्रस्तुत किया जाय, उसे ‘राग‘ कहते हैं। यह राग अभ्यासमें लाया जाने पर सहज कान्तिको भी लाँघ जाता है, अर्थात् उसमें और भी उत्कर्ष ला देता हैं।
जो अपने विशेष लक्षणसे अनुभवमें आता हो, उसे ‘वैशेषिक गुण” जानना चाहिये। यह राग तीन प्रकारका होता है-हारिद्रराग, कौसुम्भराग और नीलीराग।
अब ‘वैशेषिक‘का परिचय देते हैं।
वैशेषिक उसको जानना चाहिये, जो स्वलक्षणगोचर हो— अनन्यसाधारणहो ॥ १५-२६ ॥
तीन सौ छियालीसवाँ अध्याय
अध्याय – ३४७ काव्यदोष-विवेक
अग्निदेव कहते हैं–वसिष्ठ! ‘दृश्य‘ और ‘श्रव्य‘ काव्य में यदि ‘दोष” हो तो वह सहृदय सभ्यों (दर्शकों और पाठकों)-के लिये उद्वेगजनक होता है।
वक्ता, वाचक एवं वाच्य-इनमेंसे एकएक के नियोंगसे, दो-दोंके नियोगसे और तीनोंके नियोंगसे सात प्रकारके दोष‘ होते हैं।
इनमें ‘ वक्ता ‘ कविको माना गया है, जो संदिहान, अविनीत, अज्ञ और ज्ञाता के भेदसे चार प्रकार का है।
निमित्त और परिभाषा (संकेत)-के अनुसार अर्थका स्पर्श करनेवाले शब्दकों ‘वाचक‘ कहते हैं। उसके दो भेद हैं-“पद” और ‘वाक्य“। इन दोनोंके लक्षणोंका वर्णन पहले हो चुका है।
पददोष दो प्रकारके होते हैं-असाधुत्व और अप्रयुक्तत्व।
व्याकरणशास्त्रसे विरुद्ध पदमें विद्वानोंने ‘असाधुत्व‘ दोष माना है।
काव्यकी व्युत्पत्तिसे सम्पन्न विद्वानों द्वारा जिसका कहीं उल्लेख न किया गया हो, उसमें ‘अप्रयुक्तत्व‘ दोष कहा जाता है।
अप्रयुक्तत्वके भी पाँच भेद होते हैं-छान्दसत्व, अविस्पष्टत्व, कष्टत्व, असामयिकत्व एवं ग्राम्यत्व।
जिसका लोकभाषा में प्रयोग न हो, वह ‘छान्दसत्व” दोष एवं जो बोधगम्य न हो, वह ‘अविस्पष्टत्व‘ दोष कहलाता है।
अविस्पष्टत्व के भेद निम्नलिखित हैं-गूढार्थता, विपर्यस्तार्थता तथा संशयितार्थता।
जहाँ अर्थका क्लेशपूर्वक ग्रहण हो, वहाँ ‘गूढ़ार्थता‘ दोष होता है।
जो विवक्षितार्थसे भिन्न शब्दार्थके ज्ञानसे दूषित हो उसे ‘विपर्यस्तार्थता” कहते हैं। अन्यार्थत्व एवं असमर्थत्व-ये दोनों दोष भी ‘विपर्यस्तार्थता‘ का ही अनुगमन करते हैं।
जिसमें अर्थ संदिग्ध होता है, उसको “संशयितार्थता” कहते हैं। यह सहृदयके लिये उद्वेगकारक न होनेपर दोष नहीं माना जाता।
सुखपूर्वक उच्चारण न होना “कष्टत्वदोष‘ माना जाता है।
जो रचना समय-कविजन-निर्धारित मर्यादासे च्युत हो, उसमें “असामयिकता” मानी जाती है। उस असामयिकताको मुनिजन ‘नेया‘ कहते हैं।
जिसमें निकृष्ट एवं दूषित अर्थकी प्रतीति होती है, उसमें ‘ग्राम्यतादोष‘ होता है।
निन्दनीय ग्राम्यार्थके कथनसे उसके स्मरण से तथा उसके वाचक पदके साथ समानता होनेसे ‘ग्राम्यदोष” तीन प्रकाएका है। “अर्थदोष” “साधारण” और “प्रातिस्वितक”के भेदसे दो प्रकारका होता है।
जो दोष अनेकवर्ती होता है, उसकी “साधारण” माना गया है।
क्रियाभ्रंश, कारक भ्रंश, विसंधि, पुनरुक्तता एवं व्यस्त-सम्बन्धताके भेदसे ‘साधारण दोष” पाँच प्रकारके होते हैं।
क्रियाहीनताको “क्रियाभ्रंश‘ कर्ता आदि कारकके अभावको ‘कारक भ्रंश‘ एवं संधिदोषको “विसंधि‘ कहते हैं। १-१५ ॥
विसंधि दोष दो प्रकार का होता है-“संधिका अभाव‘ एवं ‘विरुद्ध संधि‘।
विरुद्ध पदार्थान्तरकी प्रतीति होनेसे विरुद्ध संधिको कष्टकर माना गया है। बार-बार कथनको ‘पुनरुतत्व‘ दोष कहते हैं। वह भी दो प्रकारका होता है-‘अर्थावृति‘ एवं ‘पदावृति‘।
‘अर्थावृति’ भी दो प्रकारकी होती है- काव्यमें प्रयुक्त अभीष्ट या विवक्षित शब्दके द्वारा एवं शब्दान्तरके द्वारा ‘पदावृति”में अर्थकी आवृति नहीं होती, पदमात्रकी ही आवृति होती है।
जहाँ व्यवधानसे भली-भाँत सम्बन्ध हो, वहाँ ‘व्यस्त–सम्बन्धता‘ दोष होता है।
सम्बन्धान्तरकी प्रतीतिसे, सम्बन्धान्तरजन्य होनेसे तथा इन दोनोंके अभाव में भी अन्तर्व्यवधानसे व्यस्त-सम्बन्धताके तीन भेद हो जाते हैं।
बीच में पद अथवा वाक्य से व्यवधान होनेके कारण उत्क भेदोंमेंसे प्रत्येकके दो-दो भेद और होते हैं।
पद और वाक्यमें अर्थ और अर्थ्यमानके भेदसे वाच्यार्थके दो भेद होते हैं।
पदगत वाच्य ‘व्युत्पादित‘ और ‘व्युत्पाद्य के भेदसे दो प्रकारका माना जाता है।
यदि हेतु अभीष्टसिद्धिमें व्याघातकारी हो तो यह उसका दोष माना गया है। यह ‘हेतुदोष’ ग्यारह प्रकारका होता है-असमर्थव, असिद्धत्व, विरुद्धत्व, अनेकान्तिकता, सत्प्रतिपक्षत्व, कालातीतत्व, संकर, पक्षमें अभाव, सपक्षमें अभाव, विपक्षमें अस्तित्व और ग्यारहवाँ निरर्थत्व।
वह इष्टव्याघातकारित्व दोष काव्य और नाटकोंमें तथा सहृदय सभासदोंमें (श्रोताओं, दर्शकों और पाठकोंमें) मार्मिक पीड़ा उत्पन्न करनेवाला है।
निरर्थत्वदोष दुष्कर चित्रबन्धादि काव्यमें दूषित नहीं माना जाता।
पूर्वोत गूढार्थत्वदोष दुष्कर चित्रबन्धमें विद्वानोंके लिये दुःखप्रद नहीं प्रतीत होता।
‘ग्राम्यत्व‘ भी यदि लोक और शास्त्र दोनोंमें प्रसिद्ध हो तो उद्वेगकारक नहीं जान पड़ता।
क्रियाभ्रंशमें यदि क्रियाका अध्याहार करके उसका सम्बन्ध जोड़ा जा सके तो वह दोष नहीं रह जाता।
इसी तरह भ्रष्टकारकता दोष नहीं रह जाता, जब कि आक्षेपबलसे कारकका अध्याहार सम्भव हो जाय।
जहाँ ‘प्रगृह्म‘ संज्ञा होनेके कारण प्रकृतिभाव प्राप्त हो, वहाँ विसंधित्व दोष नहीं माना गया है।
जहाँ संधि कर देनेपर उच्चारणमें कठिनाई आ जाय, वैसे दुर्वाच्य स्थलोंमें विसंधित्व दोषकारक नहीं हैं ॥ १६-२७ ॥
‘अनुप्रास“अलंकारकी योजनामें पदोंकी आवृति तथा व्यस्त-सम्बन्धता शुभ है। अर्थात् दोष न होकर गुण है।
अर्थसंग्रहमें अर्थावृत्ति दोषकारक नहीं होती। वह व्युत्क्रम (क्रमोल्लङ्गन) आदि दोषोंसे भी लिप्त नहीं होती।
उपमान और उपमेय में विभक्ति, संज्ञा, लिङ्ग और वचनका भेद होनेपर भी वह तबतक दोषकारक नहीं माना जाता, जबतक कि बुद्धिमान् पुरुषोंको उससे उद्वेगका अनुभव नहीं होता। (उद्वेगजनकता ही दूषकप्ताका बीज है।) वह न हो तो माने गये दोष भी दोषकारक नहीं समझे जाते।
अनेककी एकसे और बहुतोंकी बहुतोंसे दी गयी उपमा शुभ मानी गयी है। (अर्थात् यदि सहृदयोंकी उद्वेग न हो तो लिङ्ग-वचनादिके भेद होनेपर भी दोष नहीं मानना चाहिये।)
कविजनोंका परम्परानुमोदित सदाचार “समय” कहा जाता है। जिसके द्वारा समस्त सिद्धान्तवादी निर्बाध संचरण करते हैं तथा जिसके ऊपर कुछ ही सिद्धान्तवादी चल पाते हैं-इस पक्षद्वयके कारण सामान्य समय दो भेदोंमें विभक्त हो जाता है।
यह मतभेद किसीकी तो सिद्धान्तका आश्रय लेनेसे और किसीको भ्रान्तिसे होता है।
किसी मुनिके सिद्धान्तका आधार तर्क होता हैं और किसीके मतका आलम्बन क्षणिक विज्ञानवाद। किसीका यह मत है कि पश्चभूतोंके संघातसे शरीरमें चेतनता आ जाती है, कोई स्वत:प्रकाश ज्ञानको ही चैतन्यरूप मानते हैं। कोई प्रज्ञात स्थूलतावादी है और कोई शब्दानेकान्तवादी।
शैव, वैष्णव, शाक्त तथा सौर सिद्धांतोंको माननेवालोंका विचार है कि इस जगत्का कारण ‘ब्रह्म’ है। परंतु सांख्यवादी प्रधानतत्त्व (प्रकृति)-को ही दृश्य जगत्का कारण मानते हैं।
इसी वाणीलोकमें विचरते हुए विचारक जो एक-दूसरे के प्रति विपर्यस्त दृष्टि रखते हुय परस्पर युक्तियोंद्वारा एक-दूसरेको बाँधते हैं, उनका वह भिन्न-भिन्न मत या मार्ग ही “विशिष्ट समय” कहा गया है।
यह विशिष्ट समय “असत् के परिग्रह‘ तथा ‘सत् के परित्याग” के कारण दो भेदोंमें विभक्त होता है।
जो ‘प्रत्यक्ष” आदि प्रमाणोंसे बाधित हो, उस मतको ‘असत्‘ मानते हैं।
कवियोंको वह मत ग्रहण करना चाहिये, जहाँ ज्ञानका प्रकाश हो। जो अर्थक्रियाकारी हो, वही ‘परमार्थ सत्‘ है।
अज्ञान और ज्ञानसे परे जों एकमात्र ब्रह्म है, वही परमार्थ सत् जाननेयोग्य है। वही सृष्टि, पालन और संहारका हेतुभूत विष्णु है, वही शब्द और अलंकाररूप है। वही अपरा और परा विद्या है।
अध्याय – ३४८ एकाक्षरकोष
अग्निदेव कहते हैं–अब मैं तुम्हें ‘एकाक्षराभिधान’ तथा मातृकाओंके नाम एवं मन्त्र बतलाता हूँ।
सुनो-
‘अ‘ नाम है भगवान् विष्णुका। ‘अ’ निषेध अर्थमें भी आता है।
‘आ‘ ब्रह्माजीका बोध कराता है। वाक्य-प्रयोग में भी उसका उपयोग होता हैं। ‘सीमा’ अर्थमें ‘आ’ अव्ययपद है। क्रोध और पीड़ा अर्थमें भी उसका प्रयोग किया जाता है।
‘इ‘ काम-अर्थमें प्रयुक्त होता है।
‘ई‘ पति और लक्ष्मीके अर्थमें आता है।
‘उ‘ शिवका वाचक है।
‘ऊ‘ रक्षक आदि अथॉमें प्रयुक्त होता है।
‘ऋ‘ शब्दका बोधक है।
‘ऋ‘ अदितिके अर्थमें प्रयुक्त होता है।
‘ल्री‘, ‘ल्री-ये दोनों अक्षर दिति एवं कुमार कार्तिकेयके बोधक हैं।
‘ए‘ का अर्थ हैं-देवी।
‘ऐ‘ योगिनीका वाचक है।
‘ओ‘ ब्रह्माजीका और
‘औ‘ महादेवजीका बोध करानेवाला है।
‘अं” का प्रयोग काम अर्थमें होता है।
‘अः” प्रशस्त (श्रेष्ठ)-का वाचक है।
‘क‘ ब्रह्मा आदिके अर्थमें आता है। “कु’ कुत्सित (निन्दित) अर्थमें प्रयुक्त होता है।
‘ख‘-यह पद शून्य, इन्द्रिय और मुखका वाचक है।
‘ग‘ अक्षर यदि पुँल्लङ्गमें हो तो गन्धर्व, गणेश तथा गायकका वाचक होता है। नपुंसकलिङ्ग ‘ग’ गीत अर्थमें प्रयुक्त होता है।
‘ध‘ घण्टा तथा करधनीके अग्रभागके अर्थमें आता है। ‘ताड़न” अर्थमें भी ‘घ’ आता है।
‘ड‘ अक्षर विषय, स्पृहा तथा भैरवका वाचक है।
‘च‘ दुर्जन तथा निर्मलअर्थमें प्रयुक्त होता है।
‘छ‘का अर्थ छेदन है। ‘जि’ विजेयके अर्थमें आता है।
‘ज‘ पद गीतका वाचक है तथा
झ का अर्थ प्रशस्त
ञ् का बल तथा
‘ट” का गायन है।
‘ठ“का अर्थ चन्द्रमण्डल, शून्य, शिव तथा उद्बन्धन है।
‘ड‘ अक्षर रुद्र, ध्वनि एवं त्रासके अर्थमें आता है।
ढका और उसकी आवाज के अर्थमें ‘ढ‘ का प्रयोग होता है।
‘ण‘ निष्कर्ष एवं निश्चयके अर्थमें आता है।
‘त‘का अर्थ है-तस्कर (चोर) और सूअरकी पूंछ।
‘थ‘ भक्षणके और
‘द‘ छेदन, धारण तथा शोभन के अर्थमें आता है।
‘ध‘ धाता (धारण करनेवाले या ब्रह्माजी) तथा धूस्तूर (धतूरे)-के अर्थमें प्रयुक्त होता है।
‘न‘ का अर्थ समूह और सुगत (बुद्ध) है।
‘प‘ उपवनका और ‘पू:’ झंझावातका बोधक है।
‘फु‘ फूंकने तथा निष्फल होनेके अर्थमें आता है।
‘बि‘ पक्षी तथा
‘भ‘ ताराओंका बोधक हैं।
“मा“का अर्थ हैं-लक्ष्मी, मान और माता।
‘य‘ योग, याता (यात्री अथवा दयादिन) तथा ‘ईरिण’ नामक वृक्षके अर्थमें आता है ॥ १-१०॥
‘र‘का अर्थ है-अग्नि, बल और इन्द्र।
‘ल‘का विधाता,
‘व‘का विश्लेषण (वियोग या बिलगाव) और वरुण तथा
‘श‘ का अर्थ शयन एवं सुख है।
‘ष‘ का अर्थ श्रेष्ठ,
‘स‘ का परोक्ष, ‘सा’ का लक्ष्मी, ‘स’ का बाल,
‘ह“का धारण तथा रुद्र और
श्र का श्रेष्ठता
‘क्ष‘ का क्षेत्र, अक्षर, नृसिंह, हरि, क्षेत्र तथा पालक है।
एकाक्षरमन्त्र देवतारूप होता है। वह भोग और मोक्ष देनेवाला है।
‘क्षौं हयशिरसे नम:” यह सब विद्याओंको देनेवाला मन्त्र है।
अकार आदि नौ अक्षर भी मन्त्र हैं;” उन्हें उत्तम ‘मातृका–मन्त्र‘ कहते हैं। इन मन्त्रोंको एक कमलके दलमें स्थापित करके इनकी पूजा करे। इनमें नौ दुर्गाओंकी भी पूजा की जाती है। भगवती, कात्यायनी, कौशकी, चण्डिका, प्रचंडा, सुरनायिका, उग्रा, पार्वती, तथा दुर्गा का पूजन करना चाहिये। ॐ चण्डिकायै विग्रहे भगवत्यै धीमहि तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्-यह दुर्गा-मन्त्र है।
षडङ्ग आदिके क्रमसे पूजन करना उचित है। अजिता, अपराजिता, जया, विजया, कात्यायनी, भद्रकाली, मङ्गला, सिद्धि, रेवती, सिद्ध आदि वटुक तथा एकपाद, भीमरूप, हेतुक, कापालिकका पूजन करे।
मध्यभागमें नौ दिक्पालोंकी पूजा करनी चाहिये।
मन्त्रार्थकी सिद्धिके लिये ‘ह्रीं दुर्गे रक्षिणि स्वाहा‘-इस मन्त्रका जप करे।
गौरीकी पूजा करे; धर्म आदिका, स्कन्द आदिका तथा शक्तियोंका यजन करे।
प्रज्ञा, ज्ञानक्रिया, वाचा, वागीशी, ज्वालिनी, वामा, ज्येष्ठा, रौद्रा, गौरी, ह्री तथा पुरस्सरा देवीका ‘ह्रीं: सः महागौरि रुद्रदयिते स्वाहा‘-इस मन्त्रसे महागौरीका तथा ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति, सुभगा, ललिता, कामिनी, काममाला और इन्द्रादि शक्तियोंका पूजन भी एकाक्षर मन्त्रोंसे होता है।
गणेश-पूजनके लिये ‘ॐ गं स्वाहा‘ ‘यह मूलमन्त्र है। अथवा-‘गं गणपतये नम:।’ से भी उनकी पूजा होती है। रक्त, शुक्ल, दन्त, नेत्र, परशु और मोदक-यह ‘षडङ्ग’ कहा गया हैं
“गन्धोल्काय नमः ।।‘ से क्रमशः गन्ध आदि निवेदन कोरे। गज, महागणपति तथा महोल्क भी पूजनके योग्य हैं। ‘कूष्माण्डाय, एकदन्ताय, त्रिपुरान्तकाय, श्यामदन्तविकटहरहासाय, लम्बनासाननाय, पद्मद्रंष्ट्रय, मेघोल्काय, धूमोल्काय, वक्रतुण्डाय, विध्रेश्वराय, विकटोत्क्टाय, गजेन्द्रगमनाय, भुजगेन्द्रहाराय, शशाद्कधराय, गणाधिपतये स्वाहा।”-इन मन्त्रोंके आदिमें ‘क‘ आदि एकाक्षर बीज-मन्त्र लगाये और अन्तमें ‘नम:’ एवं ‘स्वाहा’ शब्दका प्रयोग करे।
फिर इन्ही मन्त्रोंद्वारा तिलोंसे होम आदि करके मन्त्रार्थभूत देवताका पूजन करे।
मन्त्र द्विरेफ, द्विमुख एवं द्वचक्ष आदि पृथक्-पृथक हो सकते हैं।
अब कुमार कार्तिकेयजीने कात्यायनको जिसका उपदेश किया था, वह व्याकरण बतलाऊँगा ॥
११-२८॥
तीन सौ अड़तालीसवाँ अध्याय ॥ ३४८ ॥
अध्याय – ३४९ व्याकरण-सार
सकन्द बोले–कात्यायन! अब मैं बोधके लिये तथा बालकोंको व्याकरणका ज्ञान करानेके लिये सिद्ध शब्दरूप सारभूत व्याकरणका वर्णन करता हूँ,
सुनो। पहले प्रत्याहार आदि संज्ञाएँ बतलायी जाती हैं, जिनका व्याकरणशास्त्रीय प्रक्रियामें व्यवहार होता हैं।
अइउण्, ॠॡक्, एओङ्, ऐऔच्, हयवरट्, लण्, ञमङणनम्, झभञ्, घढधष्, जबगडदश्, खफछठथचटतव्, कपय्, शषसर्, हल् ।
ये ‘माहेश्वर सूत्र‘ एवं ‘अक्षर–समाम्नाय‘ कहलाते हैं। इनसे ‘अण्‘ आदि ‘प्रत्याहार” बनते हैं। उपदेशावस्थामें अन्तिम ‘हल्‘ तथा अनुनासिक ‘अच्‘ की ‘इत्” संज्ञा होती है। अन्तिम इत्संज्ञक वर्णके साथ गृहीत होनेवाला आदि वर्ण उन दोनोंके मध्यवर्ती अक्षरोंका तथा अपना भी ग्रहण करानेवाला होता है। इसीको ‘प्रत्याहार‘ कहते हैं,
जैसा कि निम्नाङ्कित उदाहरणसे स्पष्ट होता है-अण् एङ् अट्, यय्, छव् झष्, भष्, अक्, इक्, उक्
अण् इण् यण् – ये तीनों पर णकार अर्थात् लण् सूत्रके णकारसे बनते हैं।
अम्, यम्, ङम्, अच्, इच्, एच्, ऐच्, अय्, मय्, झय्, खय्, जश्, झर्, खर्, चर्, यर् शर्, अश्, हश्, वश्, झश्, अल्, हल्, वल् रल्, झल्, शल्-ये सभी प्रत्याहार हैं॥ १-७ ॥
अध्याय – ३५० “संधि” के सिद्ध रूप
कुमार कार्तिकेय कहते हैं–कात्यायन ! अव सिद्ध संधिका वर्णन करूंगा। पहले ‘स्वरसंधि’ बतलायी जाती हैं-दण्डाग्रम्, साऽऽगता, दधीदम्, नदीहते, मधूदकम्, पितॄषभः, लृकारः’, तवेदम्, सकलोदकम्, अर्धर्चोऽयम्, तवल्कारः’, सैषा, सैन्द्री, तवौदनम्, खट्वौघोऽभवत्,’ इत्येवम्, व्यसुधीः, वस्वलंकृतम्, पित्रर्थोपवनम्, दात्री, नायकः, लावकः, नयः,” त इह, तयिह इत्यादि । तेऽत्र, योऽत्र जलेऽकजम् । जहाँ संधि न होकर प्रकृत रूप ही रह जाता है, उसे ‘प्रकृतिभाव’ कहते हैं। उसके उदाहरण-नो, अहो, ऐहि, अ अवेहि, इ इन्द्रकम्, उ उत्तिष्ठ, कवी एतौ, वायु एतौ, वने इमे, अमी एते, यज्ञभूते एहि देव इमं नय’ ॥ १-५ ॥
अब ‘व्यञ्जनसंधि’*का वर्णन करूंगा-वाग्यतः। अजेकमातृकः। षडेते। तदिमे। अबादि। वाङ्नीति:। षण्मुखः । वाङ्मनसम्। इत्यादि।
वाग्भावादिः। वाक्शलक्षणम्। तच्छरीरकम्। तल्लुनाति। तच्चरेत्। क्रुङ्डनस्ते। सुगण्णिह । भवांश्चरन्। भवांश्छात्रः। भवांष्टीका। भवांष्टक:। भवांस्तिर्थम्। भवांस्थेत्याह। भवाँल्लेखा। भवाज़यः। भवाब्लेते, भवावशेते, भवाब्शेते। भवाण्ढीनः। सम्भर्ता। त्वङ्करिष्यसि” इत्यादि।॥ ६-९ ॥
इसके बादकी पदावलियोंमें विसर्ग संधि* जाननी चाहिये-कश्छिन्द्यात्’ । कश्चरेत्। कष्ट: । कष्ठ: । क: स्थ: । कश्वलेत्। कश्श्वशुर: । कः श्वशुरः । ‘ कस्स्वरः । ‘कः स्वर: । क: फ़लेत् । क: शयिता । कोऽत्रयोध: । कः उत्तमः । देवाएते । भो इह । स्वदेवा यान्ति । भगो व्रज । सु पू: । सुदूरात्रिरत्र । वायुर्याति । पुनर्नहि । पुना राति । स यातीह । सैष याति । क ईश्वर: । ज्योतीरूपम् । तवच्छत्रम् । म्लेच्छ धी: । छिद्रर्माच्छ्हिदत् ।