अंकगणित-04
१- नैमिषारण्यमें सूतजीका आगमन, पुराणका आरम्भ तथा सृष्टिका वर्णन २- राजा पृथुका चरित्र लीलावती अंकगणित – अध्याय 04 शून्य-परिकर्माष्टक शून्य-परिकर्माष्टक अथ ॰शून्य-परिकर्मसु करण-सूत्रमार्या-द्वयम् । शून्य जोड़ गुणा आदि क्रिया करने की रीति दो आर्या छन्दोंमें योगे ॰खं क्षेप-समं वर्गादौ ॰खम् ॰ख-भाजितस्राशिस् । ॰ख-हरस्॰स्यात्॰ख-गुणस्॰खम् ॰ख-गुणस्चिन्त्यस्च शेष-विधौ ॥२१॥ ॰शून्ये गुणके जाते ॰खं हारस्चेद्पुनर्तदा राशिस् । अविकृतसेव ज्ञेयस्तथा एव ॰खेन ऊनितस्च युतस् ॥२२॥ जोड़ में, शून्यजोड़ में जो अन्य राशी है उनके समान हो जाता है, शून्य का वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, करने से शून्य ही लब्धि होती है | राशि में शून्य का भाग देने हर के स्थान में शून्य ही होता है | शून्य से गुणा करने से शून्य ही लब्धि होता है | यदि गुणा करने पर भाग अथवा घटाव करना बाकी रह जाय तब शून्य से गुणित राशि को चिन्तन करे अर्थात वैसे ही लिखी रखे क्योकि शून्य से गुणा करने पर यदि शून्य का भाग देना होता है तब राशि जैसे का तैसा ही रहता है क्योकि गुणक और भाजक सम है अर्थात जिस अंक से गुणा किया जाय, यदि उसी अंक का भाग दो तो राशि यथास्थित रहता है और जहा शून्य से योग करी हुई राशि में शून्य घटाया जाय तब भी राशि अविकृत रहता है | । अत्र उद्देशकस् । उदाहरण ॰खं पृष्ठअञ्च-युक्॰भवति किम् ॰वद खस्य वर्गं मूलं घनं घन-पदम् ॰ख-गुणास्च पृष्ठअञ्च् । ॰खेन उद्धृतास्दश च कस्ख-गुणस्निज-अर्ध-युक्तस्त्रिभिस्च गुणितस्स्व-हतस्त्रिषष्टिस् ॥ हे मित्र ! पाँच करके युक्त शून्य क्या होता है और शून्यका वर्ग तथा वर्गमूल और घन तथा घनमूल क्या होता हैं ? शून्यसे गुणा किये हुये पाँच कितने होते है और दश में शून्य का भाग देने से क्या लब्धि होता है और शून्य से गुणा किया तब जो अंक हुआ उसका आधा उसमे जोड़ दिया, फिर तीन से गुणा करके शून्यका भाग दिया तब 63 होता है तो कहो मूल राशि क्या है ? । न्यासस्० । एतत्पृष्ठअञ्च-युतं जातम् ५ । ॰खस्य वर्गस्० । मूलम् ० । घनम् ० । घन-मूलम् ० ॥ न्यासस् ५ । एते ॰खेन गुणितास्जातास्० ॥ न्यासस्१० । एते ॰ख-भक्तास्१०_० ॥ अज्ञातस्राशिस्तस्य गुणस्० । स्व-अर्धं क्षेपस्१_२ । गुणस्३। हरस्०। दृश्यम् ६३। ततस्वक्ष्यमाणेन विलोम-विधिना इष्ट-कर्मणा वा लब्धस्राशिस्१४॥ अस्य गणितस्य ग्रह-गणिते महानुपयोगस्॥
अंकगणित-03
भिन्न परिकर्माष्टक भागजाति (Reciprocal or Inversion) प्रभागजाति (Inverse of divisor) भागानुबन्ध (Improper fraction conversion) भागापवाह (Reduction or Simplification) भिन्न-जोड़ (Addition) भिन्न-घटा (Subtraction) भिन्न-गुणा (Multiplication) भिन्न-भाग (Division) भिन्न-वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल लीलावती अंकगणित – अध्याय 03 भिन्न-परिकर्माष्टक भिन्न-परिकर्माष्टक 🧩 भिन्न-परिकर्माष्टक में ‘आठ’ प्रमुख गणनात्मक विधियाँ होती हैं: योगः (Addition of fractions) वियोगः (Subtraction of fractions) गुणनम् (Multiplication of fractions) भागहारः (Division of fractions) परस्परांतरम् (Cross-difference method) परस्परगुणः (Cross-multiplication method) सामानीकरणम् (Common denominator method) रूपान्तरणम् (Conversion of complex to simple fractions and vice versa) ✨ वैज्ञानिक/डिजिटल दृष्टिकोण से: भिन्न-परिकर्माष्टक गणनाओं को डिजिटल लॉजिक, विशेषकर प्रोसेसर की “Floating Point Arithmetic” के प्राथमिक मॉडल के रूप में देखा जा सकता है। ये वही step-by-step procedures हैं जिन पर आज के कैलकुलेटर और कंप्यूटर आधारित गणनाएं आधारित होती हैं — कहने का मतलब सभी वैदिक शास्त्र डिजिटल लॉजिक पर आधारित हैं । अथ भिन्न-परिकर्म-अष्टकम्॥ अथ अंश-सवर्णनम्। तत्र भाग-जातौ करण-सूत्रं वृत्तम्। भिन्न परिकर्माष्ठकमें पहले अंशोंकी सवर्णता लिखते हैं | उसमे भी पहले भागजाति, प्रभागजाति, भागानुबंध, भागापवाह इनमेंसे भागजातिके विषयमें क्रिया करने की सूत्र एक श्लोकमें लिखते है | भिन्न-भागजाति (Reciprocal or Inversion) अन्योन्य-हाराभिहतौ हरांशौ राश्योस्सम-छेद-विधानमेवम्। मिथस्हराभ्यामपवर्तिताभ्यां यत्वा हरांशौ सुधिया अत्र गुण्यौ ॥१६ ॥ एक राशिके हर से दूसरी राशिके हर और अंशको गुणा करे, फिर जिस राशि के हर और अंश को गुणा किया है उस राशि के हर से पहले जिस राशिके हर से हर और अंश को गुणा किया था उस राशिके हर और अंश को गुणा करने से राशियोंका समच्छेद होजाता है अथवा राशियोंके हरोंको किसी एक अंक से अपवर्तन देकर अपवर्तित हरोंसे परस्पर राशियोंके हर और अंशोंको बुद्धिमान गुणा करे, तब भी समच्छेद हो जाता है | इसी को भागजाति कहते है | । अत्र उद्देशकस् । उदाहरण रूप-त्रयं पृष्ठअञ्च-लवस्त्रि-भागस्योगार्थमेतान् ॰वद तुल्य-हारान्। त्रिषष्टि-भागस्च चतुर्दशांशस्सम-छिदौ मित्र वियोजनार्थम्॥ [उपजाति] हे मित्र ! रूप तीन 1/3 और एक रूप का पंचमांश 1/5 तथा एक रूप का तृतीयांश 1/3 इनको योग करने के वास्ते सबके एक समान हर बनाकर कहो और एक रूप का त्रिषष्टमा भाग 1/63 और एक रूप का चौदहमा भाग 1/14 इनको अन्तर के वास्ते दोनोंके एक समान हर बनाकर कहो | । न्यासस्। ३_१। १_५। १_३। जातास्सम-छेदास् ४५_१५। ३_१५। ५_१५। योगे जातम् ५३_१५॥ उपरोक्त नियमानुसार 3/1 1/5 1/3 यहाँ पहली राशिके हर एकसे अन्य दोनों राशियों के हर और अंशों को गुना किया तब 3/1 1/5 1/3 यह स्वरुप हुआ, फिर दूसरी राशिके हर 5 से अन्य राशियों के हर और अंशों को गुना किया तब 15/5 1/5 5/15 ऐसा रूप हुआ. फिर तीसरी राशी के हर 3 से अन्य दोनों राशियों को गुना किया तब 45/15 3/15 5/15 ऐसा रूप हुआ अब सबके हर एक सामान होने से सम्च्छेद हो गया | अब यहाँ हर तो सबके एक ही हैं इस कारण सब अंशों को जोड़ा तब 53/15 ऐसा हुआ ✨ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से: यह पद्धति LCM आधारित Standard Fraction Addition Rule को अनुसरित करती है। अंतर सिर्फ यह है कि वैदिक शैली इसे सारणीबद्ध और यांत्रिक (algorithmic) रूप में सिखाती है, जो कि शिक्षा की प्रारंभिक अवस्था में बच्चों के लिए अत्यंत उपयोगी है। भिन्न-भागाजाति का दुसरा उदाहरण अथ द्वितीयोदाहरणे न्यासस् १_६३। १_१४। सप्तापवर्तिताभ्यां हाराभ्याम् ९। २ संगुणितौ वा जातौ सम-छेदौ २_१२६। ९_१२६। वियोगे जातम् ७_१२६। सप्तापवर्तिते च जातम् १_१८॥ अथ द्वितीयोदाहरणे न्यासस्१_६३। १_१४। सप्तापवर्तिताभ्यां हाराभ्याम् ९। २ संगुणितौ वा जातौ सम-छेदौ २_१२६। ९_१२६। वियोगे जातम् ७_१२६। सप्तापवर्तिते च जातम् १_१८॥ अन्तर के विषय में उदाहरण – 1/63 1/14 यहाँ दोनों राशियों के हरों में 7 का अपवर्तन लग सकता हैं, इस कारण दोनों राशियों के हारों में 7 का अपवर्तन कर दिया तब 1/9 1/2 हुआ, 1/63 को 2 से गुना किया तो 2/126 हुआ, 1/14 को 9 से गुना किया तो 9/126 हुआ, अब यहाँ अंतर करना हैं, 9 में से 2 घटाया तो 7 हुआ, तब 7/126 ऐसा रूप हुआ, यहाँ 7 का परिवर्तन लग सकता हैं इस कारण परिवर्तन किया तब 1/18 ऐसा रूप हुआ chatGPT Say:- ✨ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से: यह प्रक्रिया आज के कम्प्यूटेशनल मैथ एल्गोरिद्म — LCM → conversion → subtraction → simplification — के बिल्कुल अनुरूप है। यह बताता है कि वैदिक गणित वास्तव में “Analog Digital Thinking” की अत्यंत विकसित प्रणाली थी। भिन्न-प्रभागजाति (Inverse of divisor) अथ प्रभाग-जातौ करण-सूत्रं वृत्त-अर्धम्। प्रभागजाति वह कहाती है जिसमे भागका भी भाग लिया जाय, उसके करनेकी रीति आधे श्लोक में कहते हैं | लवास्लव-घ्नास्च हरास्हर-घ्नास्भाग-प्रभागेषु सवर्णनम् ॰स्यात् । प्रभागजातिमें अंशोंको अंशोंसे गुणा करनेसे और हरोंको हरोंसे गुणा करनेसे सवर्णन होता है | । अत्र उद्देशकस् । उदाहरण द्रम्म-अर्ध-त्रि-लव-द्वयस्य सुमते ॰पाद-त्रयं यत्॰भवेत्तत्पृष्ठअञ्चांशक-षोडशांश-॰चरणस्संप्रार्थितेन अर्थिन् । दत्तस्येन वराटकास्कति कदर्येण अर्पितास्तेन मे ॰ब्रूहि त्वं यदि ॰वेत्सि वत्स गणिते जातिं प्रभागाभिधाम् ॥ हे सुबुद्धे ! याचना किये हुये जिस कृपणने एक द्रम्म के आधे के द्विगुणित तृतीय भागका जो त्रिगुणित चतुथंशि होता है, उसके पंचमांश के शोड्शांश का चतुथंशि दिया | यदि गणितशास्त्रमें प्रभागजातिको जानते हो, तो हे पुत्र ! उस कृपणने कितनी कौड़ी याचक को दी सो कहो | न्यासस् । १_१। १_२। २_३। ३_४। १_५। १_१६। १_४। सवर्णिते जातम् ६_७६८०। षड्भिसपवर्तिते जातम्। १_१२८०। एवं दत्तस्वराटकस्॥ ChatGPT Say:- 🔬 ✨ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से: यह एक प्रकार का “Nested Fractional Multiplication” है जो कंपाउंड ऑपरेशन्स के अध्ययन में आता है। इस पद्धति में प्रत्येक अंश पिछले अंश का भाग होता है — ठीक वैसे ही जैसे कंप्यूटर algorithms में chain functions या recursive expressions काम करते हैं। इस दृष्टि से यह गणना एक अत्यंत कुशल memory-saving तकनीक भी है। भिन्न-भागानुबन्ध (Improper fraction conversion) भागापवाह (Reduction or Simplification) अथ भागानुबन्ध-भागापवाहयोस्करण-सूत्रं स-अर्धं वृत्तम्। भागानुबन्ध और भागापवाह करनेकी रीति डेढ़ श्लोकमें छेद-घ्न-रूपेषु लवास्धनर्णम् एकस्य भागासधिकोनकास्चे ॥१७॥ स्वांशाधिकोनस्खलु यत्र तत्र भागानुबन्धे च लवापवाह् । तल-स्थ-हारेण हरम् ॰निहन्यात्स्वांशाधिकोनेन तु तेन भागान् ॥ १८ ॥ यदि किसी एक रूपका भाग अधिक हो अथवा हीन हो तब रूप को हर से गुणा करे, यदि रूप का भाग अधिक हो तो गुणित अंकोंको अंश जोड़कर अंशके स्थानमें लिखे और हर पूर्वोक्त ही रहे और यदि रूप का भाग हीन होता है, गुणित अंकोंमें अंशको घटाकर अंशके स्थानमें लिखे और हर वही अरहता है | यह रीति भागानुबन्ध तथा भागापवाह करने की है | और जहाँ भागानुबन्धमें अथवा भागापवाहमें किसी रूप का भाग अपने किसी भागसे अधिक हो अथवा
अंकगणित-2
परिकर्माष्टक 01-02 जोड़-घटा 03 गुणा 04 भाग 05 वर्ग 06 वर्गमूल 07 घन 08 घनमूल लीलावती अंकगणित – अध्याय 02 परिकर्माष्टक परिकर्माष्टक मंगलाचरणम्– लीला-गल-लुलत्-लोल-काल-व्याल-विलासिन् । गणेशाय नमस्नील-कमलामल-कान्तय् ॥०१॥ अर्थ:- लीला करके गले में लटकते हुए चंचल सर्प से क्रीडा करनेवाले, चिक्कण नीलकान्तिवाले गणेशजी को नमस्कार है ।१। संख्यास्थानानि- एक-दश-शत-सहस्र-अयुत-लक्ष-पृष्ठरयुत-कोटयस्क्रमशस् । अर्बुदम् अब्जम् खर्व-निखर्व-महापद्म-शङ्कवस्तस्मात् ॥०२॥ जलधिस्च अन्त्यम् मध्यं पृष्ठअरार्धमिति दश-गुणोत्तरास्संज्ञास् । संख्यायास्स्थानानां व्यवहारार्थं कृतास्पूर्वैस् ॥०३॥ अर्थ: एक, दश, शत, सहस्र, अयुत, लक्ष, प्रयुत, कोटि, अर्बुद, अब्ज, खर्व, निखर्व, महापद्म, शंकु, जलधि, अन्त्य, मध्य, और परार्ध- इस प्रकार पूर्वाचार्योंने संख्यांके व्यवहारके वास्ते पूर्वपूर्वकी अपेक्षा उत्तरोत्तर दशगुणी संज्ञा कही हैं । ।२। ✨ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से: संख्यात्मक प्रणाली (Numerical System):यह श्लोक संख्या पद्धतियों के क्रम को प्रदर्शित करता है, जो वर्गीकरण और विस्तार के सिद्धांत पर आधारित है। यह आधुनिक सूत्र और पद्धतियों से बहुत मिलता-जुलता है, जैसे कि Exponential Notation (10^n), जिसे आजकल गणना में प्रयोग किया जाता है। येषां सुजातिगुणवर्गविभूषिताङ्गी शुद्धाखिल व्यवहृति खलु कण्ठासक्ता। जिन शिष्यों को जोड़, घटा, गुणन, भाग, वर्ग, घन आदि व्यवहारों, गणित के अवयवों निर्दोषगणित आदि से विभूषित लीलावती ग्रन्थ कण्ठस्थ होता है, उनकी गणित सम्पत्ति सदा वर्धमान होती है। जोड़-घटा अथ संकलित-व्यवकलितयोस्करण-सूत्रं वृत्त-अर्धम् । जोड़ और घटाव करने की रीति आधे श्लोक से कहते हैं :- कार्यस्क्रमातुत्क्रमतसथ वा अङ्क-योगस्यथा-स्थानकमन्तरं वा । अर्थ:- क्रमकी रीतिसे अथवा उत्क्रमकी रीतिसे यथास्थानमें अर्थात एक स्थानीय अंकका दशस्थानीय अंक में, दशस्थानीय अंकका तथा शतस्थानीय अंक में शतस्थानीय अंक का रखकर जोड़ अथवा घटाव करना ।०४। अये बाले लीलावति मति-मति ब्रूहि सहितान् द्वि-पृष्ठअञ्च-द्वात्रिंशत्-त्रिनवति-शत-अष्टादश दश् । शतोपेतानेतान् अयुत-वियुतान् च अपि ॰वद मे यदि व्यक्ते युक्ति-व्यवकलन-मार्गे ॰सि कुशला ॥०१॥ हे बाले, बुद्धिमति लीलावती ! यदि पाटीगणित के योग और घटाव को तुम अच्छी तरह जानती हो, तो 2, 5, 32, 193, 18, 10, इनको 100 में जोड़कर योगफल कहो और इस योगफल को 10000 में घटाने पर शेष क्या होगा वह भी बताओ ।०१। ✨ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से: मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण: प्रश्न एक प्रेमपूर्ण संवाद के रूप में पूछा गया है, जो विद्यार्थी में डर नहीं, बल्कि उत्सुकता और सहभागिता पैदा करता है — आज की इंटरैक्टिव लर्निंग की तरह। गुणा ॥ गुणने करण-सूत्रम् स-अर्ध-वृत्त-द्वयम् ॥ गुणा करने की रीति 2-1/2 ढाई-श्लोकमें कहते हैं । गुण्य-अन्त्यम् अङ्कम् गुणकेन हन्यात् उत्सारितेन एवम् उपान्तिम-आदीन् ॥ गुण्यस् तु अधस् अधस् गुण-खण्ड-तुल्यस् तैस् खण्डकैस् संगुणितस् युतस् वा । भक्तस् गुणस् शुध्यति येन तेन लब्ध्या च गुण्यस् गुणितस् फलम् वा ॥ द्विधा भवेत् रूप-विभागस् एवम् स्थानैस् पृथक् वा गुणितस् समेतस् । इष्ट-ऊन-युक्तेन गुणेन निघ्नस् अभीष्ट-घ्न-गुण्य-अन्वित-वर्जितस् वा ॥ # 01:- गुण्यके अंतके अंकको गुणकसे गुणे, फिर उसके समीपके अंकको उसी गुणकको उठाकर उससे गुणे, इसी प्रकार उसी गुणकसे आदिके जितने अंक है सबको क्रमसे गुणे, यह गुणकका जैसा रूप होता है, उसहीसे गुणा किया जाता है, इस कारण रूपगुणा कहाता है । # 02 :- गुणकके जितने खण्ड की कल्पना करे, उतने ही जगह गुण्यको धरकर और निचे रखे हुए गुणकके खण्डोंसे गुण्यको अलग-अलग गुणा करके जोड़ देय, तब गुणनफल प्राप्त होता है, इस रीति से करने को खण्डगुणा कहते हैं । # 03:- गुणकमें किसी अंकका भाग देनेसे यदि नि:शेष हो जायेतो जिसका भाग दिया उस भाजकसे और उस लब्धिसे गुण्यको गुणा करनेसे भी गुणनफल प्राप्त होता है, इस रीति को विभागगुणा कहते है । # 04:- गुणकके पहले एक स्थानी अंकसे फिर दश स्थानी अंकसे इसी प्रकार जितने गुणकमें अंक हो, सबसे क्रमसे अलग-अलग गुणा करके जोड़देय तब गुणनफल प्राप्त होता है यह रीति स्थानगुणा कहाता है । # 05:- गुणकमें कोई अंक ऐसा घटाया अथवा जोड़ा कि जिससे गुणाकरने में सरलता हो उससे गुणा करके जो अंक गुणकमें घटाया हो उससे गुण्यको गुणा करके घटाये हुए गुणकसे गुणा करनेमें जो लब्धि प्राप्त हुई थी उसमे जोड़देय और यदि गुणकमें कोई अंक मिलाया हो तो उसी अंकसे गुण्यको गुणा करके जोड़े हुए गुणकसे गुणा करीहुई लब्धि घटा देय शेष गुणनफल होता है, इस रीति को इष्टगुणा कहते है । ✨ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से: Computational Thinking: यह श्लोक गणना को modular, decomposed और simplified रूपों में करने की रणनीति सिखाता है — ठीक उसी तरह जैसे आधुनिक कंप्यूटर एल्गोरिदम में उपयोग होता है। पाँच प्रकार के गुणा बताया गया हैं । 01 रूपगुणा, 02 स्थानगुणा, 03 विभागगुणा, 04 खण्डगुणा, 05 इष्टगुणा अत्र उद्देशकस्। बाले बाल-कुरङ्ग-लोल-नयने लीलावति ॰प्रोच्यतां पृष्ठअञ्च-त्रि-एक-मितास्॰दिवाकर-गुणासङ्कास्कति ॰स्युस्यदि। रूप-स्थान-विभाग-खण्ड-गुणने कल्पा ॰सि कल्याणिनि छिन्नास्तेन गुणेन ते च गुणितास्जातास्कति ॰स्युस्॰वद् । ॥ न्यासस् ॥ गुण्यस् १३५/ गुणकस् १२/ (1) गुण्य-अन्त्यम् अङ्कम् गुणकेन हन्यात् इति कृते जातम् १६२०॥(2) गुण-रूप-विभागे कृते खण्डे ४/ ८/ आभ्याम् पृथक् गुण्ये गुणिते युते च जातम् तत् एव १६२०॥(3) गुणकस् त्रिभिस् भक्तस् लब्धम् ४/ एभिस् त्रिभिस् च गुण्ये गुणिते जातम् तत् एव १६२०॥(4) स्थान-विभागे कृते खण्डे १/ २/ आभ्याम् पृथक् गुण्ये गुणिते यथा-स्थान-युते च जातम् तत् एव १६२०॥(5) द्वि-ऊनेन गुणकेन १० द्वाभ्याम् २ च पृथक् गुण्ये गुणिते युते च जातम् तत् एव १६२०॥(6) अष्ट-युतेन गुणकेन २० गुण्ये गुणिते अष्ट-गुणित-गुण्य-हीने च जातम् तत् एव १६२०॥ ॥ इति गुणन-प्रकारस् ॥ हे बाले ! हिरणशावकनयनिय! हे चातुर्यकी खानी ! शुभे लीलावती ! यदि रूपकी, स्थानकी, विभागकी और खण्डकी रीतिसे गुणा करना जानती हो तो कहो ।।01।। 135 को 12 से गुणा किया तो कितने होते हैं, यह सब रीतियों से कहो और वही गुणा किये हुए अंक को 12 से भाग देने से कितने होते हैं सो कहो ।।02।। अत्यंत सुंदर एवं विश्लेषणात्मक रूप में एक ही संख्या (१६२०) की पुष्टि विभिन्न पद्धतियों द्वारा कर रही है — यह वैदिक गणना पद्धति एवं भास्कराचार्य की लीलावती शैली का उत्तम उदाहरण है। 🔢 मूल संख्याएँ: गुण्यः (Multiplicand) = १३५ गुणकः (Multiplier) = १२ गुणनफल = १६२० अब यह दिखाया गया है कि यह १६२० विभिन्न तरीकों से कैसे प्राप्त किया जा सकता है। न्यास: । गुण्यस्१३५। गुणकस्१२। गुण्य-अन्त्यम् अङ्कम् गुणकेन हन्यात् इति कृते जातम् १६२० ॥ (1) गुण्य-अन्त्य-अङ्कं गुणकेन हन्यात् अन्तिम अंक (5) × गुणक (12) =5 × 12 = 60अब अगले अंकों पर carry और बाकी अंक गुणा करके जोड़ें —पूरा 135 × 12 = 1620🔹 सामान्य गणना विधि — एक साधारण long multiplication। न्यास: । गुण्यस्१३५।गुणकस्१२। गुण-रूप-विभागे कृते खण्डे ४। ८। आभ्यां पृथक्गुण्ये गुणिते युते च जातं ततेव १६२०॥ (2) गुणरूप-विभाग: खण्डे 4 और 8 यहाँ गुणक (12) को विभाजित किया गया: 12 = 4 + 8अब: 135 × 4 = 540 135 × 8 = 1080 दोनों को जोड़ें:
अंकगणित-01
मंगलाचरण प्राचीन भारतीय मुद्रा-प्रणाली (Currency System) भारमापन (Weight Measurement) सुवर्ण भार मापन की श्रेणी लंबाई मापन (Length Measurement System) दूरी, लंबाई और क्षेत्रमापन (Area Measurement) आयतन (Volumetric) मापन प्रणाली आयतन मापन (Volume Measurement) यवनप्रचारितमानम् कालादिपरीभाषा लीलावती अंकगणित – अध्याय 01 परिभाषा मंगलाचरण प्रीतिं भक्त-जनस्य यस् जनयते विघ्नं विनिघ्नन् स्मृतः तं वृन्दारक-वृन्द-वन्दित-पदं नत्वा मतङ्गाननम् ।पाटीं सत्-गणितस्य वच्मि चतुर-प्रीति-प्रदां प्रस्फुटां संक्षिप्ताक्षर-कोमलामल-पदैः लालित्य-लीलावतीम् ॥ ०१ ॥ गणेश जी को नमन करते हुए, जो भक्तों को प्रसन्नता देने वाले हैं, विघ्नों का नाश करते हैं, जिनके चरणों को देवता भी वंदना करते हैं और जिनका मुख हाथी जैसा है — मैं उन “मतंगानन” (गणपति) को प्रणाम करता हूँ। इसके बाद मैं एक गणितीय ग्रंथ कहता हूँ, जो: गुणवानों को प्रिय है, स्पष्ट और सुंदर शब्दों में है, संक्षिप्त, कोमल, निर्मल पदों से युक्त है, और जिसका नाम है: “लीलावती“। तत्रादौ मुद्राणां परिभाषा- प्राचीन भारतीय मुद्रा-प्रणाली (Currency System) वराटकानाम् दशक-द्वयम् यत् सा काकिणी ताः च पणस् चतस्रः ।ते षोडश द्रम्मसि ह अवगम्य स्द्रम्मैः तथा षोडशभिः च निष्कः ॥०२॥ अर्थ:- बीस कौड़ी की एक काकिणी और चार काकिणी का एक पण एवं सोलह पणों का एक द्रम्म होता हैं । इस शास्त्र में सोलह द्रम्मों का एक निष्क समझना चाहिये। 20 कौड़ी = 1 काकिणी 4 काकिणी = 1 पण (पण = एक प्राचीन भारतीय मुद्रा) 16 पण = 1 द्रम्म (द्रम्म = एक अधिक मूल्य की मुद्रा) 16 द्रम्म = 1 निष्क (निष्क = उच्च मूल्य की मुद्रा, कभी-कभी सोने की इकाई मानी जाती थी) भारपरिमाणम् – भारमापन (Weight Measurement) तुल्या यवाभ्यां कथिता अत्र गुञ्जा वल्लस्त्रि-गुञ्जा-धरणं च ते अष्टौ ।गद्याणकस् तद् द्वयम् इन्द्र-१४-तुल्यैः वल्लैस् तथा एकस् घटकस् प्रदिष्टस् ॥०३॥ अर्थ:- दों यवों के समान एक गुञ्जा, तीन गुञ्जा का एक वल्ल, आठ वल्लों का एक धरण, दो धरण का एक गद्याणक और 14 वल्ल का एक घटक होता है ।०३। 2 यव (जौ) = 1 गुंजा 3 गुंजा = 1 वल्ली (वल्लि = मापन की इकाई) 8 वल्ली = 1 धरण 2 धरण = 1 गद्याणक 14 वल्ली = 1 घटक माषादिमानम् – सुवर्ण भार मापन की श्रेणी दश-अर्ध-गुञ्जम् प्रवदन्ति माषं माषाह्वयैः षोडशभिः च कर्षम् ।कर्षैः चतुर्भिः च पलं तुला-ज्ञाः कर्षं सुवर्णस्य सुवर्ण-संज्ञम् ॥०४॥ अर्थ:- तोलना जानने वाले विशेषज्ञ पाँच गुञ्जा का एक माष, सोलह माष का एक कर्ष और चार कर्ष का एक पल कहते है सोने का कर्ष सुवर्ण संज्ञक है ।०४। 5 गुञ्जा = माष 16 माष = 1 कर्ष 4 कर्ष = 1 पलं 1 कर्ष को ही सुवर्ण (gold unit) के रूप में जाना जाता हैं अन्गुलादिमानम् लंबाई मापन (Length Measurement System) यवोदरैः अङ्गुलम् अष्टसङ्ख्यैः हस्तसङ्गुलैः षट्-गुणितैः चतुर्भिः ।हस्तैः चतुर्भिः भवति इह दण्डः क्रोशः सहस्र-द्वितयेन तेषाम् ॥०५ ॥ अर्थ:- आठ यवोदर का एक अंगुल, चौबीस अंगुल का एक हांथ, चार हाथ का एक दण्ड और दो हज़ार दण्ड का एक कोश होता है ।०५। 8 यव (जौ के दाने) = 1 अङ्गुल (अंगुली की चौड़ाई के बराबर माप) 24 अंगुल = 1 हस्त 4 हस्त (हाथ) = 1 दण्ड 2000 दण्ड = 1 क्रोश योजनादिमानम्- दूरी, लंबाई और क्षेत्रमापन (Area Measurement) स्यात् योजनं क्रोश-चतुष्टयेन तथा कराणां दशकेन वंशः ।निवर्तनं विंशति-वंश-संख्यैः क्षेत्रं चतुर्भिः च भुजैः निबद्धम् ॥०६ ॥ अर्थ:- चार कोश क एक योजन, दस हाथ क एक वंश और बीस वंश के तुल्य चार भुजाओं से निबद्ध क्षेत्र एक निवर्तन होता है ।०६। 4 क्रोश = 1 योजन 10 कर = 1 वंश 20 वंश = 1 निवर्तन (भूमि मापन की इकाई) घनहस्तादिमानम्- आयतन (Volumetric) मापन प्रणाली हस्तोन्मितैः विस्तृति-दैर्घ्य-पिण्डैः स्यात् द्वादशाश्रं घन-हस्त-संज्ञम् ।धान्यादिके यत् घन-हस्त-मानं शास्त्रोदिता मागध-खारिका सा ॥७॥ अर्थ:- एक हाथ चौड़ा, लम्बा और मोटा बारह कोण वाला गढ़ा घनहस्त संज्ञक है। धान्यादिके तौलने में जो घनहस्त की तौल है वह मगध देश में व्यवहृत शास्त्रोक्त खारी है ।०७। हस्त से मापे गए (लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई) त्रिविमीय पिंड (घन) को जब 12 बार गुणा किया जाए (द्वादशाश्रं = 12 अंशों वाला या 12 घनात्मक भागों वाला), तो उसे कहते हैं “घन–हस्त“। धान्य (अनाज) जैसे पदार्थों को नापने में जो घन–हस्त माप प्रयोग किया जाता है, वह “मागध–खारिका“ नाम से जाना जाता है — जैसा शास्त्रों में वर्णित है। ✨ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से: यह आयतन गणना (Length × Breadth × Height) की वही मूल विधि है, जो आज भी आधुनिक गणित और भौतिकी में प्रयोग होती है — बस नाम और मापन इकाइयाँ बदल गई हैं। द्रोणादिमानम्- आयतन मापन (Volume Measurement) द्रोणस् तु खार्याः खलु षोडशांशः । स्यात् आढकस् द्रोण-चतुर्थ-भागः ॥प्रस्थस् चतुर्थांशः इह आढकस्य ।प्रस्थाङ्घ्रि-साद्यैः कुडवः प्रदिष्टः ॥८॥ अर्थ:- यहाँ खारी के सोलहवें भाग को द्रोण, द्रोण के के चौथे भाग को आढ़क, आढ़क के चौथे भाग को प्रस्थ और प्रस्थ के चौथे भाग को प्राचीनाचार्यों ने कुड़व कहा है ।०८। 1 खारी = 16 द्रोण (द्रोण, खारी का 1/16 भाग होता है) 1 द्रोण = 4 आढ़क 1 आढ़क = 4 प्रस्थ 1 प्रस्थ = 4 कुडव ✨ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से: अनुपातिक संरचना (Ratio System):यह श्लोक दर्शाता है कि प्राचीन भारतीय मापन पद्धति बाइनरी या क्वाड्रेटिक स्केलिंग (1/4, 1/16 आदि) पर आधारित थी, जो आज की SI यूनिट्स में उपसर्गों (kilo, centi, milli) की तरह ही काम करती थी। यवनप्रचारितमानम्- पादोन-गद्याणक-तुल्य-टङ्कैस् द्वि-सप्त-तुल्यैस् कथितसत्र सेरस् ।मणाभिधानम् ख-युगैस्च सेरैस् धान्यादि-तौल्येषु तुरुष्क-संज्ञा ॥९॥ अर्थ:- बहत्तर पौन गद्याणक तुल्य टंक का एक सेर और चालीस सेर का एक मन होता है। यह अन्न आदि तौलने में यवनों की बनाई संज्ञा है। 1 पादोन = 1 गद्याणक (गद्याणक का माप पाद के समान होता है) 1 गद्याणक = 1 टंका 1 टंका = 14 सेर 1 सेर = धन्य (अनाज) माप के अनुसार कालादिपरीभाषा- शेषा कालादि-परिभाषा लोकतस्प्रसिद्धा ज्ञेया ॥१०॥ अर्थ:- शेष काल आदि की परिभाषायें लोक में प्रसिद्ध है अतः उन्हें लोकव्यवहार से समझना चाहिए।१०। । इति परिभाषा ।
वाराह-पुराण-3
अध्याय १०१ मुक्तिके साधन अध्याय १०२ कोकामुखतीर्थ (वराहक्षेत्र * ) – का माहात्म्य अध्याय १०३ पुष्पादिका माहात्म्य अध्याय १०४ वसन्त आदि ऋतुओंमें भगवान्की पूजा करनेकी विधि और माहात्म्य अध्याय १०५ माया चक्रका वर्णन तथा मायापुरी (हरिद्वार ) – का माहात्म्य अध्याय १०६ कुब्जाम्रकतीर्थ (हृषीकेश ) – का माहात्म्य, रैभ्यमुनिपर भगवत्कृपा अध्याय १०७ ‘दीक्षासूत्र’ का * वर्णन अध्याय १०८ क्षत्रियादि दीक्षा एवं गणान्तिकादीक्षाकी विधि तथा दीक्षित पुरुषके कर्तव्य अध्याय १०९ पूजाविधि और ताम्रधातुकी महिमा अध्याय ११० राजाके अन्न भक्षणका प्रायश्चित्त अध्याय १११ दातुन न करने तथा मृतक एवं रजस्वलाके स्पर्शका प्रायश्चित्त अध्याय ११२ भगवान्की पूजा करते समय होनेवाले अपराधोंके प्रायश्चित्त अध्याय ११३ सेवापराध और प्रायश्चित्त- कर्मसूत्र अध्याय ११४ वराहक्षेत्रकी महिमाके प्रसङ्गमें गीध और शृगालका वृत्तान्त तथा आदित्यको वरदान अध्याय ११५ वराहक्षेत्रान्तर्वर्ती ‘आदित्यतीर्थ’ का प्रभाव (खञ्जरीटकी कथा ) अध्याय ११६ भगवान्के मन्दिरमें लेपन एवं संकीर्तनका माहात्म्य अध्याय ११७ कोकामुख-बदरी – क्षेत्रका माहात्म्य अध्याय ११८ ‘बदरिकाश्रम’ का माहात्म्य अध्याय ११९ उपासनाकर्म एवं नारीधर्मका वर्णन अध्याय १२० मन्दारकी महिमाका निरूपण अध्याय १२१ सोमेश्वरलिङ्ग, मुक्तिक्षेत्र ( मुक्तिनाथ ) और त्रिवेणी आदिका माहात्म्य अध्याय १२२ शालग्राम क्षेत्रका माहात्म्य अध्याय १२३ रुरुक्षेत्र * एवं हृषीकेशके माहात्म्यका वर्णन अध्याय १२४ ‘गोनिष्क्रमण’ – तीर्थ और उसका माहात्म्य अध्याय १२५ स्तुतस्वामीका माहात्म्य अध्याय १२६ द्वारका-माहात्म्य अध्याय १२७ सानन्दूर-माहात्म्य अध्याय १२८ लोहार्गल क्षेत्रका माहात्म्य अध्याय १२९ मथुरातीर्थकी प्रशंसा अध्याय १३० मथुरा, यमुना और अकूरतीर्थोंके माहात्म्य अध्याय १३१ मथुरामण्डलके ‘वृन्दावन’ आदि तीर्थ और उनमें स्नान दानादिका महत्त्व अध्याय १३२ मथुरा – तीर्थका प्रादुर्भाव, इसकी प्रदक्षिणाकी विधि एवं माहात्म्य अध्याय १३३ देववन और ‘चक्रतीर्थ’ का प्रभाव अध्याय १३४ कपिल – वराह’ का माहात्म्य अध्याय १३५ अन्नकूट (गोवर्धन ) – पर्वतकी परिक्रमाका प्रभाव अध्याय १३६ ‘असिकुण्ड’ – तीर्थ तथा विश्रान्तिका माहात्म्य अध्याय १३७ मथुरा तथा उसके अवान्तरके तीर्थोंका माहात्म्य अध्याय १३८ गोकर्णतीर्थ और सरस्वतीकी महिमा अध्याय १३९ सुग्गेका मथुरा जाना और वसुकर्णसे वार्तालाप अध्याय १४० गोकर्णका दिव्य देवियोंसे वार्तालाप तथा मथुरामें जाना अध्याय १४१ ब्राह्मण-प्रेत-संवाद *, सङ्गम-महिमा तथा वामन – पूजाकी विधि अध्याय १४२ ब्राह्मण कुमारीकी मुक्ति अध्याय १४३ साम्बको शाप लगना और उनका सूर्याराधन-व्रत अध्याय १४४ शत्रुघ्नका चरित्र, सेवापराध एवं मथुरामाहात्म्य अध्याय १४५ श्राद्धसे अगस्तिका उद्धार, श्राद्ध-विधि तथा ‘ध्रुवतीर्थ की महिमा अध्याय १४६ काष्ठ-पाषाण-प्रतिमाके निर्माण, प्रतिष्ठा एवं पूजाकी विधि अध्याय १४७ मृण्मयी एवं ताम्रप्रतिमाओंकी प्रतिष्ठाविधि अध्याय १४८ कांस्य – प्रतिमा स्थापनकी विधि अध्याय १४९ रजत-स्वर्णप्रतिमाके स्थापन तथा शालग्राम और शिवलिङ्गकी पूजाका विधान अध्याय १५० सृष्टि और श्राद्धकी उत्पत्ति कथा एवं पितृयज्ञका वर्णन अध्याय १५१ अशौच, पिण्डकल्प और श्राद्धकी उत्पत्तिका प्रकरण अध्याय १५२ श्राद्धके दोष और उसकी रक्षाकी विधि अध्याय १५३ श्राद्ध और पितृयज्ञकी विधि तथा दानका प्रकरण अध्याय १५४ ‘मधुपर्क’ की विधि और शान्तिपाठकी महिमा अध्याय १५५ नचिकेताद्वारा यमपुरीकी यात्रा अध्याय १५६ यमपुरीका वर्णन अध्याय १५७ यम-यातनाका स्वरूप अध्याय १५८ राक्षस – यमदूत संघर्ष तथा नरकके क्लेश अध्याय १५९ कर्मविपाक – निरूपण अध्याय १६० दान धर्मका महत्त्व अध्याय १६१ पतिव्रतोपाख्यान अध्याय १६२ पतिव्रताके माहात्म्यका वर्णन अध्याय १६३ कर्मविपाक एवं पापमुक्तिके उपाय अध्याय १६४ पाप नाशके उपायका वर्णन अध्याय १६५ गोकर्णेश्वरका माहात्म्य अध्याय १६६ गोकर्णमाहात्म्य और नन्दिकेश्वरको वर प्रदान अध्याय १६७ गोकर्णेश्वर तथा जलेश्वरके माहात्म्यका वर्णन अध्याय १६८ ‘गोकर्णेश्वर’ और ‘शृङ्गेश्वर’ आदिका माहात्म्य अध्याय १६९ वराहपुराणकी फल- श्रुति श्री वाराह पुराण 101-169 अध्याय अध्याय १०१ मुक्तिके साधन भगवान् वराह कहते हैं- वसुंधरे ! अब जिस कर्मके प्रभावसे प्राणीको पुनः गर्भमें नहीं जाना पड़ता, उसे बताता हूँ, तुम सुनो! यह सम्पूर्ण शास्त्रों एवं धर्मोका निचोड़ है जो बड़ा से बड़ा कार्य करके भी अपनी प्रशंसा नहीं करता और जो सदा शुद्ध अन्तःकरणसे शास्त्रीय सत्कर्मोंका अनुष्ठान करता रहता है, वह उन सत् कर्मोंके प्रभावसे भी पुनः जन्म नहीं पाता। जो मेरा सामर्थ्यशाली भक्त होकर सबपर कृपा करता है तथा कार्य और अकार्यके विषयमें जिसे पूर्ण ज्ञान है एवं जिसकी सम्पूर्ण धर्मोमें श्रद्धा है, वह पुनः गर्भमें नहीं आता। जो सर्दी गरमी, वात- वर्षा और भूख-प्यासको सहता है, जो गरीब होनेपर भी लोभ, मोह एवं आलस्यसे दूर रहता है, कभी झूठ नहीं बोलता, किसीकी निन्दा नहीं करता, जो अपनी ही स्त्रीसे संतुष्ट रहता है, दूसरेकी स्त्रियोंसे दूर रहता है तथा जो सत्यवादी, पवित्र आत्मा एवं निरन्तर भगवान्का प्रिय भक्त है, वह मेरे लोकको प्राप्त होता है। जो संवि भाग (बाँट)-कर खाता है, जो ब्राह्मणोंका भक्त हैं और जो सबसे मधुर वाणी बोलता है, वह कुत्सित योनियोंमें न जाकर मेरे लोकका अधिकारी होता है। वसुंधरे ! अब मैं तुम्हें एक दूसरा उपाय बतलाता हूँ, सुनो ! जिसके प्रभावसे मेरी निरंतर उपासना करनेवाला पुरुष विकृत योनियोंमें नहीं जाता। जो कभी किसी जीवकी हिंसा नहीं करता, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें लगा रहता है और जो मन, कर्म, वचनसे पवित्र है, वह विकृत योनियोंमें नहीं पड़ता। जिसके मनमें सदा सर्वत्र समता है, जो मिट्टीके ढेले, पत्थर और सुवर्णको समान समझता है, जो बाल्यकालमें भी शान्तस्वभावसे रहनेवाला, इन्द्रियविजयी और सदा शुभ कार्यमें रत रहता है, उसे नीच योनि नहीं प्राप्त होती। जो दूसरे द्वारा किये अपकारोंपर कभी किंचिन्मात्र भी ध्यान नहीं देता, जिसे सदा कर्तव्य कर्म ही स्मृत रहते हैं और जो सब कुछ यथार्थ बोलता है, वह नीच योनियोंमें नहीं पड़ता। जो व्यर्थ बातोंसे सदा दूर रहता है, जिसकी तत्त्वज्ञानमें अटल निष्ठा है, जो सदा अपनी वृत्तिमें तत्पर रहकर परोक्षमें भी कभी किसीकी निन्दा नहीं करता, उसे हीन योनियोंमें नहीं जाना पड़ता । भद्रे ! जो ऋतुकालमें ही संतान प्राप्तिकी इच्छासे अपनी स्त्रीसे सहवास करता और सदा मेरी उपासनामें लगा रहता है, वह साधक हीन योनिमें नहीं जाता। वसुंधरे ! अब एक दूसरी बात बताता हूँ, तुम उसे सुनो। जो सदा संयत रहनेवाले पुरुषोंका धर्म है और जिसको मनु, अङ्गिरा, शुक्राचार्य, गौतम मुनि, चन्द्रमा, रुद्र, शङ्ख-लिखित, कश्यप, धर्मदेव अग्निदेव, पवनदेव, यमराज, इन्द्र, वरुण, कुबेर, शाण्डिल्यमुनि, पुलस्त्य, आदित्य, पितृगण और स्वयम्भू ब्रह्मा आदि वेद-धर्म-द्रष्टाओंने पृथक्- पृथक् रूपसे देखा और वर्णन किया है, उस धर्मके पालनमें जो मनुष्य निश्चितरूपसे तत्पर रहकर अपने-आपमें परमात्माको देखता है, वह विकृत योनिमें न जाकर मेरे लोकमें जानेका अधिकारी है। जो अपने धर्मका पालन करता है तथा अपनी बुद्धिके अनुसार ठीक बोलता है, दूसरेकी निन्दासे दूर रहता है, सम्पूर्ण धर्मोंमें जिसकी निश्चित बुद्धि रहती है, जो दूसरोंके धर्मोकी निन्दा नहीं करता तथा जो अपने धार्मिक मार्गपर अटल रहता है, ऐसे उत्तम गुणोंसे युक्त एवं मेरे कर्मोंका सम्पादन करनेवाला पुरुष विकृत योनिमें न जाकर मेरे लोकको ही प्राप्त होता है। जिनकी इन्द्रियाँ वशमें हैं, जिन्होंने क्रोधपर पूरा नियन्त्रण कर लिया है, जो लोभ और मोहसे सदा दूर रहते
वाराह-पुराण-2
अध्याय ५१ धन्यव्रत अध्याय ५२ कान्तिव्रत अध्याय ५३ सौभाग्य- व्रत अध्याय ५४ अविघ्नव्रत अध्याय ५५ शान्ति व्रत अध्याय ५६ काम-व्रत अध्याय ५७ आरोग्य-व्रत अध्याय ५८ पुत्रप्राप्ति व्रत अध्याय ५९ शौर्य एवं सार्वभौम व्रत अध्याय ६० राजा भद्राश्वका प्रश्न और नारदजीके द्वारा विष्णुके आश्चर्यमय स्वरूपका वर्णन अध्याय ६१ भगवान् नारायणसम्बन्धी आश्चर्यका वर्णन अध्याय ६२ सत्ययुग, त्रेता और द्वापर आदिके गुणधर्म अध्याय ६३ कलियुगका वर्णन अध्याय ६४ प्रकृति और पुरुषका निर्णय अध्याय ६५ वैराज – वृत्तान्त अध्याय ६६ भुवन कोशका वर्णन अध्याय ६७ जम्बूद्वीपसे सम्बन्धित सुमेरुपर्वतका वर्णन अध्याय ६८ आठ दिक्पालोंकी पुरियोंका वर्णन अध्याय ६९ मेरुपर्वतका वर्णन अध्याय ७० मन्दर आदि पर्वतोंका वर्णन अध्याय ७१ मेरुपर्वतके जलाशय अध्याय ७२ मेरुपर्वतकी नदियाँ अध्याय ७३ देव – पर्वतोंपरके देव – स्थानोंका परिचय अध्याय ७४ नदियोंका अवतरण अध्याय ७५ नैषध एवं रम्यकवर्षोंके कुलपर्वत, जनपद और नदियाँ अध्याय ७६ भारतवर्षके नौ खण्डोंका वर्णन अध्याय ७७ शाक एवं कुशद्वीपोंका वर्णन अध्याय ७८ क्रौञ्च और शाल्मलिद्वीपका वर्णन अध्याय ७९ त्रिशक्ति- माहात्म्य * और सृष्टिदेवीका आख्यान अध्याय ८० त्रिशक्ति- माहात्म्यमें ‘सृष्टि’, ‘सरस्वती’ तथा ‘वैष्णवी’ देवियोंका वर्णन अध्याय ८१ महिषासुरकी मन्त्रणा और देवासुर संग्राम अध्याय ८२ महिषासुर का वध अध्याय ८३ त्रिशक्तिमाहात्म्यमें रौद्रीव्रत अध्याय ८४ रुद्रके माहात्म्यका वर्णन अध्याय ८५ सत्यतपाका शेष वृत्तान्त अध्याय ८६ तिलधेनुका माहात्म्य अध्याय ८७ जलधेनु एवं रसधेनु – दानकी विधि अध्याय ८८ गुड़धेनु – दानकी विधि अध्याय ८९ शर्करा तथा मधु- धेनुके दानकी विधि अध्याय ९० ‘क्षीरधेनु’ तथा ‘दधिधेनु’ – दानकी विधि अध्याय ९१ ‘नवनीतधेनु’ तथा ‘लवणधेनु’ की दानविधि अध्याय ९२ ‘कार्पास’ एवं ‘धान्य- धेनु’ की दानविधि अध्याय ९३ कपिलादानकी विधि एवं माहात्म्य अध्याय ९४ कपिला-माहात्म्य, ‘उभयतोमुखी’ गोदान, हेम कुम्भदान और पुराणकी प्रशंसा अध्याय ९५ पृथ्वीद्वारा भगवान्की विभूतियोंका वर्णन अध्याय ९६ श्रीवराहावतारका वर्णन अध्याय ९७ विविध धर्मोकी उत्पत्ति अध्याय ९७ सुख और दुःखका निरूपण अध्याय ९८ भगवान्की सेवामें परिहार्य बत्तीस अपराध अध्याय ९९ पूजाके उपचार अध्याय १०० श्रीहरिके भोज्य पदार्थ एवं भजन- ध्यानके नियम श्री वाराह पुराण 51-100 अध्याय अध्याय ५१ धन्यव्रत अगस्त्यजी कहते हैं – राजन् ! इसके बाद अब उत्तम धन्यव्रत बताता हूँ, जिसके प्रभावसे निर्धन व्यक्ति भी यथाशीघ्र धन्यवादका पात्र हो सकता है। यह नक्तव्रत’ है। अगहनमासके शुक्लपक्षकी प्रतिपदा तिथिको यह व्रत करना चाहिये। इस व्रतमें अग्निस्वरूप भगवान् विष्णुकी पूजाका विधान है । ॐ वैश्वानराय नमः’, ‘ॐ अग्नये नमः’, ‘ॐ हविर्भुजाय नमः’, ‘ॐ द्रविणोदाय नमः, ॐ संवर्ताय नमः’ तथा – ‘ॐ ज्वलनाय नमः ‘ – इन मन्त्रवाक्योंका उच्चारण करके अग्निमय भगवान् श्रीहरिके चरण, उदर, वक्षःस्थल, भुजाएँ सिर तथा सर्वाङ्गकी क्रमशः पूजा करनी चाहिये। इस विधानसे देवाधिदेव भगवान् जनार्दनकी अर्चना करनेके पश्चात् उनके सामने एक हवनकुण्ड बनवानेकी विधि है। विद्वान् पुरुष इन्हीं उक्त मन्त्रोंद्वारा उस कुण्डमें हवन करे। इस व्रतमें यवान्न और घृतसे युक्त भोजन करनेकी बात कही गयी है। यह व्रत ऐसा ही कृष्णपक्षमें भी होता है। चार महीनेतक इसे करना चाहिये। चैत्रसे आषाढ़तक चार महीनोंमें घृतयुक्त खीर तथा श्रावणसे कार्तिकतक सत्तूका भोजन करनेका नियम है। इस प्रकार एक वर्षमें यह व्रत समाप्त होता है। व्रत पूरा हो जानेपर विद्वान् पुरुष अग्निदेवकी सुवर्णमयी प्रतिमा बनवाये और दो लाल वस्त्रोंसे उसे आच्छादितकर लाल फूलसे पूजा करे और लाल चन्दन एवं कुकुमका अनुलेपन करे। फिर ब्राह्मणकी पूजा करे। उसे दो वस्त्र अर्पण करे और वह प्रतिमा उस ब्राह्मणको दे दे। तदनन्तर यह मन्त्र पढ़कर प्रार्थना करे – ‘भगवन्! इस ‘धन्य’ नामक व्रतको सम्पन्न करनेसे मैं धन्य हो गया, मेरा कर्म धन्य हो गया तथा मेरी चेष्टा धन्य हो गयी। अब मुझे सदा सुख-शान्ति सुलभ हो जाय।’ इस प्रकार कहकर वह श्रेष्ठ प्रतिमा एवं शक्तिके अनुसार धनराशि देनेका विधान है। जिसके पास भोग्य वस्तुका अत्यन्त अभाव है, वह पुरुष भी यदि इस धन्यव्रतको करता है, तो वह तुरंत धन्य होनेका अधिकारी हो जाता है। केवल इस व्रतके करनेसे ही व्यक्ति इस जन्ममें सौभाग्य एवं प्रचुर धन-धान्यसे सम्पन्न हो जीवन्मुक्त हो जाता है। जो भी व्यक्ति इस प्रसङ्गको सुनेगा अथवा भक्तिके साथ पढ़ेगा, वे दोनों इस लोकमें उसी क्षण धन्य हो जायेंगे। ऐसा सुना जाता है कि पूर्व कल्पमें महात्मा कुबेरका जन्म शूद्रयोनिमें हुआ था। उस समय उन्होंने इस व्रतको किया था और इसीके फलस्वरूप वे धनके स्वामी बन गये। अध्याय ५२ कान्तिव्रत अगस्त्यजी कहते हैं- राजन् ! अब कान्ति नामक व्रतको बताता हूँ। पहले चन्द्रमाने यह व्रत किया था, जिसके फलस्वरूप उन्हें पुनः कान्ति सुलभ हो गयी। प्राचीन कालकी बात है। दक्ष प्रजापतिके शापसे चन्द्रमाको राजयक्ष्मा नामक रोग हो गया। तब उन्होंने यह व्रत किया और वे फिर तत्क्षण कान्तिमान् बन गये। राजेन्द्र ! यह नक्तव्रत है। इसे कार्तिकमासके शुक्लपक्षकी द्वितीया तिथिके दिन करना चाहिये। इसमें बलराम और श्रीकृष्णकी पूजा होती है। इस तिथिमें ये दोनों देवता दो कलावाले चन्द्रमामें विराजते हैं। अतः चन्द्रमाको विष्णुका उत्तम रूप माना जाता है। बुद्धिमान् पुरुष ॐ बलदेवाय नमः’ कहकर उनके चरणोंकी तथा ‘ॐ केशवाय नमः ‘ से सिरकी अर्चना करे। सुव्रत ! फिर आगे कहे जानेवाले मन्त्रको पढ़कर उन्हें अर्घ्य देना चाहिये। भगवन्! आप अमृतस्वरूप हैं, ब्रह्माने आपका सम्मान किया है, यज्ञलोकके आप अध्यक्ष हैं। परमात्मन्! इस समय आप चन्द्रमाके रूपमें पधारे हैं। अतः आपको नमस्कार है।’ व्रती ब्राह्मण रातमें घृतसे युक्त यवान्न भोजन करे । (यह भी चौमासेका व्रत है) फाल्गुनसे लेकर चार महीनेतक इस व्रतको करनेवाला पुरुष पवित्रतापूर्वक रहकर खीर भोजन करे। कार्तिक- मासमें यवान्नके आहारपर रहे और अगहनी चावल से बने हुए हव्यद्वारा हवन करे। आषाढ़ आदि चार महीनों में तिलका हवन करना चाहिये। इसी प्रकार तिलका भोजन भी करना चाहिये। फिर वर्ष पूरा हो जानेपर चन्द्रमाकी एक सोनेकी प्रतिमा बनवाकर उसे दो सफेद वस्त्रोंसे आच्छादित करे । उसपर उजले फूल चढ़ाकर श्वेत चन्दनसे अनुलेपनकर तथा भलीभाँति से पूजा करके ब्राह्मणको दे दे, अथवा वर्षभर व्रतकर चन्द्रमाकी चाँदीकी ही मूर्ति बनवाये और दो श्वेत वस्त्रोंसे आच्छादितकर उसकी श्वेत पुष्पों एवं श्वेत चन्दनसे पूजा करे। ऐसे ही ब्राह्मणकी भी पूजाकर उसे वह प्रतिमा दान कर दे। ब्राह्मणको प्रतिमा अर्पण करते समय व्रती मन ही मन मन्त्र पढ़े- ‘नारायण! आप चन्द्रमाके रूपमें पधारे हैं। आपको मेरा नमस्कार। भगवन्! आपकी कृपासे मैं भी इस लोकमें कान्तिमान्, सर्वज्ञ एवं प्रियदर्शन बन जाऊँ।” राजन् ! उक्त प्रतिमाको दानकर मनुष्य तत्क्षण कान्ति प्राप्त कर लेता है। बहुत पहले स्वयं चन्द्रमाने यह व्रत किया था। व्रत पूर्ण हो जानेपर स्वयं भगवान् श्रीहरि उनपर संतुष्ट हो गये और उनका यक्ष्मा रोग दूरकर उन्हें ‘अमृता’ नामकी कला प्रदान की। महाभाग चन्द्रमाने उस कलाको द्वितीयाके बाद सदा अपनेमें स्थान दिया। उन्हें यह कला तपके
वाराह-पुराण-1
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय १ भगवान् वराहके प्रति पृथ्वीका प्रश्न और भगवान्के उदरमें विश्वब्रह्माण्डका दर्शनकर भयभीत हुई पृथ्वीद्वारा उनकी स्तुति संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय २ विभिन्न सर्गोंका वर्णन तथा देवर्षि नारदको वेदमाता सावित्रीका अद्भुत कन्याके रूपमें दर्शन होनेसे आश्चर्यकी प्राप्ति संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ३ देवर्षि नारदद्वारा अपने पूर्वजन्मवर्णनके प्रसङ्गमें ब्रह्मपारस्तोत्रका कथन संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ४ महामुनि कपिल और जैगीषव्यद्वारा राजा अश्वशिराको भगवान् नारायणकी सर्वव्यापकताका प्रत्यक्ष दर्शन कराना संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ५ रैभ्य मुनि और राजा वसुका देवगुरु बृहस्पतिसे संवाद तथा राजा अश्वशिराद्वारा यज्ञमूर्ति भगवान् नारायणका स्तवन एवं उनके श्रीविग्रहमें लीन होना संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ६ पुण्डरीकाक्षपार – स्तोत्र, राजा वसुके जन्मान्तरका प्रसङ्ग तथा उनका भगवान् श्रीहरिमें लय होना संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ७ रैभ्य- सनत्कुमार-संवाद, गयामें पिण्डदानकी महिमा एवं रैभ्य मुनिका ऊर्ध्वलोक गमन संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ८ भगवान्का मत्स्यावतार तथा उनकी देवताओं द्वारा स्तुति संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ९ राजा दुर्जयके चरित्र – वर्णनके प्रसङ्गमें मुनिवर गौरमुखके आश्रमकी शोभाका वर्णन संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय १० राजा दुर्जयका चरित्र तथा नैमिषारण्यकी प्रसिद्धिका प्रसङ्ग संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ११ राजा सुप्रतीककृत भगवान्की स्तुति तथा श्रीविग्रहमें लीन होना संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय १२ पितरोंका परिचय, श्राद्धके समयका निरूपण तथा पितृगीत संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय १३ श्राद्ध-कल्प संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय १४ गौरमुखके द्वारा दस अवतारोंका स्तवन तथा उनका ब्रह्ममें लीन होना संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय १५ महातपाका उपाख्यान संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय १६ प्रतिपदा तिथि एवं अग्निकी महिमाका वर्णन संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय १७ अश्विनीकुमारोंकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग और उनके द्वारा भगवत्स्तुति संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय १८ गौरीकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग, द्वितीया तिथि एवं रुद्रद्वारा जलमें तपस्या, दक्षके यज्ञमें रुद्र और विष्णुका संघर्ष संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय १९ तृतीया तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें हिमालयकी पुत्रीरूपमें गौरीकी उत्पत्तिका वर्णन और भगवान् शंकरके साथ उनके विवाहकी कथा संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय २० गणेशजीकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग और चतुर्थी तिथिका माहात्म्य संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय २१ सर्पोकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग और पञ्चमी तिथिकी महिमा संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय २२ षष्ठी तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें स्वामी कार्तिकेयके जन्मकी कथा संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय २३ सप्तमी तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें आदित्योंकी उत्पत्तिकी कथा संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय २४ अष्टमी तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें मातृकाओं की उत्पत्तिकी कथा संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय २५ नवमी तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें दुर्गादेवीकी उत्पत्ति-कथा संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय २६ दशमी तिथिके माहात्म्यके प्रसङ्गमें दिशाओंकी उत्पत्तिकी कथा संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय २७ एकादशी तिथिके माहात्म्यके प्रसङ्गमें कुबेरकी उत्पत्ति – संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय २८ द्वादशी तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें उसके अधिष्ठाता श्रीभगवान् विष्णुकी उत्पत्ति – कथा संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय २९ त्रयोदशी तिथि एवं धर्मकी उत्पत्तिका वर्णन संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ३० चतुर्दशी तिथिके माहात्म्यके प्रसङ्गमें रुद्रकी उत्पत्तिका वर्णन संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ३१ अमावास्या तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें पितरोंकी उत्पत्तिका कथन संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ३२ पूर्णिमा तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें उसके स्वामी चन्द्रमाकी उत्पत्तिका वर्णन संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ३३ प्राचीन इतिहासका वर्णन संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ३४ आरुणि और व्याधका प्रसङ्ग, नारायण-मन्त्र- श्रवणसे बाघका शापसे उद्धार संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ३५ सत्यतपाका प्राचीन प्रसङ्ग संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ३६ मत्स्यद्वादशीव्रत का विधान तथा फल – कथन संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ३७ कूर्म – द्वादशीव्रत संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ३८ वराह- द्वादशीव्रत संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ३९ नृसिंह- द्वादशीव्रत संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ४० वामन द्वादशीव्रत संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ४१ जामदग्न्य- द्वादशीव्रत संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ४२ श्रीराम एवं श्रीकृष्ण – द्वादशीव्रत संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ४३ बुद्ध द्वादशीव्रत संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ४४ कल्कि – द्वादशीव्रत संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ४५ पद्मनाभ – द्वादशीव्रत संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ४६ धरणीव्रत संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ४७ अगस्त्य – गीता संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ४८ अगस्त्य – गीतामें पशुपालका चरित्र संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ४९ उत्तम पति प्राप्त करनेका साधनस्वरूप व्रत संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय ५० शुभ-व्रत श्री वाराह पुराण 1-50 अध्याय संक्षिप्त श्रीवराहपुराण – अध्याय १ भगवान् वराहके प्रति पृथ्वीका प्रश्न और भगवान्के उदरमें विश्वब्रह्माण्डका दर्शनकर भयभीत हुई पृथ्वीद्वारा उनकी स्तुति नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् । देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ नमस्तस्मै वराहाय लीलयोद्धरते महीम् । खुरमध्यगतो यस्य मेरुः खणखणायते ॥ दंष्ट्राग्रेणोद्धता गौरुदधिपरिवृता पर्वतैर्निम्नगाभिः साकं मृत्पिण्डवत्प्राग्वृहदुरुवपुषाऽनन्तरूपेण येन । सोऽयं कंसासुरारिर्मुरनरकदशास्यान्तकृत्सर्वसंस्थः कृष्णो विष्णुः सुरेशो नुदतु मम रिपूनादिदेवो वराहः ॥ अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् वराह, नररत्न नरऋषि उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता भगवान् व्यासको नमस्कार करके आसुरी सम्पत्तियोंका नाश करके अन्तःकरणपर विजय प्राप्त करानेवाले वराहपुराणका पाठ करना चाहिये । जिनके लीलापूर्वक पृथ्वीका उद्धार करते समय उनके खुरोंमें फँसकर सुमेरु पर्वत खन- खन शब्द करता है, उन भगवान् वराहको नमस्कार है। जिन अनन्तरूप भगवान् विष्णुने प्राचीन कालमें समुद्रोंसे घिरी, वन पर्वत एवं नदियोंसहित पृथ्वीको अत्यन्त विशाल शरीरके द्वारा अपनी दाढ़के अग्रभागपर मिट्टीके ढेलेकी भाँति उठा लिया था, वे कंस, मुर नरक तथा रावण आदि असुरोंका अन्त करनेवाले कृष्ण एवं विष्णुरूपसे सबमें व्याप्त देवदेवेश्वर आदिदेव भगवान् वराह मेरी सभी बाधाओं को नष्ट करें। सूतजी कहते हैं – पूर्वकालमें जब सर्वव्यापी भगवान् नारायणने वराह रूप धारण करके अपनी शक्तिद्वारा एकार्णवकी अनन्त जलराशिमें निमग्न पृथ्वीका उद्धार किया, उस समय पृथ्वीने उनसे पूछा । पृथ्वीने कहा- प्रभो! आप प्रत्येक कल्पमें सृष्टिके आदिकालमें इसी प्रकार मेरा उद्धार करते रहते हैं; परंतु केशव ! आपके स्वरूप एवं सृष्टिके प्रारम्भके विषयमें मैं आजतक न जान सकी। जब वेद लुप्त हो गये थे, उस समय आप मत्स्यरूप धारण कर समुद्र में प्रविष्ट हो गये थे और वहाँसे वेदोंका उद्धार करके आपने ब्रह्माको दे दिया था। मधुसूदन ! इसके अतिरिक्त जब देवता और दानव एकत्र होकर समुद्रका मन्थन करने लगे, तब आपने कच्छपावतार ग्रहण करके मन्दराचल पर्वतको धारण किया था। भगवन्! आप सम्पूर्ण जगत् के स्वामी हैं। जब मैं जलमें डूब रही थी, तब आपने रसातलसे, जहाँ सब ओर जल ही जल था, अपनी एक दाढ़पर रखकर मेरा उद्धार किया है। इसके अतिरिक्त जब वरदानके प्रभावसे हिरण्यकशिपुको असीम अभिमान हो गया था और वह पृथ्वीपर भाँति-भाँति के उपद्रव करने लगा था, उस समय वह आपके द्वारा ही मारा गया था। देवाधिदेव ! प्राचीन कालमें आपने ही जमदग्निनन्दन परशुरामके रूपमें अवतीर्ण होकर मुझे क्षत्रियरहित कर दिया था। भगवन्! आपने क्षत्रियकुलमें दाशरथि श्रीरामके रूपमें अवतीर्ण होकर क्षत्रियोचित पराक्रमसे रावणको नष्ट कर दिया था तथा वामनरूपसे आपने ही बलिको बाँधा था। प्रभो ! मुझे जलसे ऊपर उठाकर आप सृष्टिकी रचना किस प्रकार करते हैं तथा इसका क्या कारण है? आपकी इन लीलाओंके रहस्यको मैं कुछ भी नहीं
भागवत-स्कंध-12
अध्याय 1 कलियुगके राजवंशोंका वर्णन अध्याय 2 कलियुगके धर्म अध्याय 3 राज्य युगधर्म और कलियुगके दोषोंसे बचनेका उपाय अध्याय 4 चार प्रकारके प्रलय अध्याय 5 श्रीशुकदेवजीका अन्तिम उपदेश अध्याय 6 परीक्षित्की परमगति, जनमेजयका सर्पसत्र अध्याय 7 अथर्ववेदकी शाखाएँ और पुराणोंके लक्षण अध्याय 8 मार्कण्डेयजीकी तपस्या और वर-प्राप्ति अध्याय 9 मार्कण्डेयजीका माया दर्शन अध्याय 10 मार्कण्डेयजीको भगवान् शङ्करका वरदान अध्याय 11 भगवान् के अङ्ग, उपाङ्ग और आयुधोंका रहस्य तथा अध्याय 12 श्रीमद्भागवतकी संक्षिप्त विषय-सूची अध्याय 13 विभिन्न पुराणोंकी श्लोक संख्या और श्रीमद्भागवत की महिमा श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कंध अध्याय 1 कलियुगके राजवंशोंका वर्णन राजा परीक्षितने पूछा-भगवन्! यदुवंश शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण जब अपने परमधाम पधार गये, तब पृथ्वीपर किस वंशका राज्य हुआ ? तथा अब किसका राज्य होगा? आप कृपा करके मुझे यह बतलाइये ॥ 1 ॥ श्रीशुकदेवजीने कहा—प्रिय परीक्षित्! मैंने तुम्हें नवें स्कन्धमें यह बात बतलायी थी कि जरासन्धके पिता बृहद्रथके वंशमें अन्तिम राजा होगा पुरञ्जय अथवा रिपुञ्जय। उसके मन्त्रीका नाम होगा शुनक । वह अपने स्वामीको मार डालेगा और अपने पुत्र प्रद्योतको राजसिंहासनपर अभिषिक्त करेगा। प्रद्योतका पुत्र होगा पालक, पालकका विशाखयूप, विशाखयूपका राजक और राजकका पुत्र होगा नन्दिवर्द्धन । प्रद्योतवंशमें यही पाँच नरपति होंगे। इनकी संज्ञा होगी ‘प्रद्योतन’। ये एक सौ अड़तीस वर्षतक पृथ्वीका उपभोग करेंगे ॥ 24 ॥ इसके पश्चात् शिशुनाग नामका राजा होगा। शिशुनागका काकवर्ण, उसका क्षेमधर्मा और क्षेमधर्माका पुत्र होगा क्षेत्रज्ञ ॥ 5 ॥ क्षेत्रज्ञका विधिसार, उसका अजातशत्रु, फिर दर्भक और दर्भकका पुत्र अजय होगा ॥ 6 ॥ अजयसे नन्दिवर्द्धन और उससे महानन्दिका जन्म होगा। शिशुनाग वंशमें ये दस राजा होंगे। ये सब मिलकर कलियुगमें तीन सौ साठ वर्षतक पृथ्वीपर राज्य करेंगे। प्रिय परीक्षित्! महानन्दिकी शूद्रा पत्नीके गर्भसे नन्द नामका पुत्र होगा। वह बड़ा बलवान् होगा। महानन्दि ‘महापद्म’ नामक निधिका अधिपतिहोगा। इसीलिये लोग उसे ‘महापद्म’ भी कहेंगे । वह क्षत्रिय राजाओंके विनाशका कारण बनेगा। तभी सेराजालोग प्रायः शूद्र और अधार्मिक हो जायँगे ॥ 7–9॥ महापद्म पृथ्वीका एकच्छत्र शासक होगा। उसके शासनका उल्लङ्घन कोई भी नहीं कर सकेगा। क्षत्रियोंके विनाशमें हेतु होनेकी दृष्टिसे तो उसे दूसरा परशुराम ही समझना चाहिये ॥ 10 ॥ उसके सुमाल्य आदि आठ पुत्र होंगे। वे सभी राजा होंगे और सौ वर्षतक इस पृथ्वीका उपभोग करेंगे ॥ 11 ॥ कौटिल्य, वात्स्यायन तथा चाणक्यके नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण विश्वविख्यात नन्द और उनके सुमाल्य आदि आठ पुत्रोंका नाश कर डालेगा। उनका नाश हो जानेपर कलियुगमें मौर्यवंशी नरपति पृथ्वीका राज्य करेंगे ॥ 12 ॥ वही ब्राह्मण पहले-पहल चन्द्रगुप्त मौर्यको राजाके पदपर अभिषिक्त करेगा। चन्द्रगुप्तका पुत्र होगा वारिसार और वारिसारका अशोकवर्द्धन || 13 || अशोकवर्द्धनका पुत्र होगा सुयश । सुयशका सङ्गत, सङ्गतका शालिशूक और शालिशूकका सोमशर्मा ॥ 14 ॥ सोमशर्माका और शतधन्वाका पुत्र बृहद्रथ होगा। कुरुवंशविभूषण परीक्षित्! मौर्यवंशके ये दस * नरपति कलियुगमें एक सौ सैंतीस वर्षतक पृथ्वीका उपभोग करेंगे। बृहद्रथका सेनापति होगा पुष्पमित्र शुङ्ग वह अपने स्वामीको मारकर स्वयं राजा बन बैठेगा। पुष्पमित्रका अग्निमित्र और अग्निमित्रका सुज्येष्ठ होगा ॥ 15-16 ॥ सुज्येष्ठका वसुमित्र, वसुमित्रका भद्रक और भद्रकका पुलिन्द, पुलिन्दका घोष और घोषका पुत्र होगा वज्रमित्र 17 ॥ वज्रमित्रका भागवत और भागवतका पुत्र होगा देवभूति शुङ्गवंशके ये दस नरपति एक सौ बारह वर्षतक पृथ्वीका पालन करेंगे ॥ 18 ॥ शतधन्वा परीक्षित्! शुङ्गवंशी नरपतियोंका राज्यकाल समाप्त होनेपर यह पृथ्वी कण्ववंशी नरपतियोंके हाथमें चली जायगी। कण्ववंशी नरपति अपने पूर्ववर्ती राजाओंकी अपेक्षा कम गुणवाले होंगे। शुङ्गवंशका अन्तिम नरपति देवभूति बड़ा ही लम्पट होगा। उसे उसका मन्त्रीकण्ववंशी वसुदेव मार डालेगा और अपने बुद्धिबलसे स्वयं राज्य करेगा। वसुदेवका पुत्र होगा भूमित्र, भूमित्रका नारायण और नारायणका सुशर्मा। सुशर्मा बड़ा यशस्वी होगा । 19-20 ॥ कण्ववंशके ये चार नरपति काण्वायन कहलायेंगे और कलियुगमें तीन सौ पैंतालीस वर्षतक पृथ्वीका उपभोग करेंगे ॥ 21 ॥ प्रिय परीक्षित्! | कण्ववंशी सुशर्माका एक शूद्र सेवक होगा – बली। वह अन्धजातिका एवं बड़ा दुष्ट होगा। वह सुशर्माको मारकर कुछ समयतक स्वयं पृथ्वीका राज्य करेगा ।। 22 ।। इसके बाद उसका भाई कृष्ण राजा होगा। कृष्णका पुत्र श्रीशान्तकर्ण और उसका पौर्णमास होगा ॥ 23 ॥ पौर्णमासका लम्बोदर और लम्बोदरका पुत्र चिबिलक होगा। चिबिलकका मेघस्वाति, मेघस्वातिका अटमान, अटमानका अनिष्टकर्मा, अनिष्टकर्माका हालेय, हालेयका तलक, तलकका पुरीषभीरु और पुरीषभीरुका पुत्र होगा राजा सुनन्दन ।। 24-25 ॥ परीक्षित् ! सुनन्दनका पुत्र होगा चकोर; चकोरके आठ पुत्र होंगे, जो सभी ‘बहु’ कहलायेंगे। इनमें सबसे छोटेका नाम होगा शिवस्वाति । वह बड़ा वीर होगा और शत्रुओंका दमन करेगा। शिवस्वातिका गोमतीपुत्र और उसका पुत्र होगा पुरीमान् ॥ 26 ॥ पुरीमान्का मेदः शिरा, मेदः शिराका शिवस्कन्द, शिवस्कन्दका यज्ञश्री, यज्ञश्रीका विजय और विजयके दो पुत्र होंगे —चन्द्रविज्ञ और लोमधि ॥ 27 ॥ परीक्षित्! ये तीस राजा चार सौ छप्पन वर्षतक पृथ्वीका राज्य भोगेंगे ॥ 28 ॥ परीक्षित्! इसके पश्चात् अवभृति-नगरीके सात आभीर, दस गर्दभी और सोलह कङ्क पृथ्वीका राज्य करेंगे। ये सब-के-सब बड़े लोभी होंगे ॥ 29 ॥ इनके बाद आठ यवन और चौदह तुर्क राज्य करेंगे। इसके बाद दस गुरुण्ड और ग्यारह मौन नरपति होंगे ॥ 30 ॥ मौनोंके अतिरिक्त ये सब एक हजार निन्यानबे वर्षतक पृथ्वीका उपभोग करेंगे। तथा ग्यारह मौन नरपति तीन सौ वर्षतक पृथ्वीका शासन करेंगे। जब उनका राज्यकाल समाप्त हो जायगा, तब किलिकिला नामकी नगरीमें भूतनन्द नामका राजा होगा। भूतनन्दका वङ्गिरि, वङ्गिरिका भाई शिशुनन्दि तथा यशोनन्दि और प्रवीरक-ये एक सौ छः वर्षतक राज्य करेंगे ।। 31-33 ॥इनके तेरह पुत्र होंगे और वे सब-के-सब बाह्रिक कहलायेंगे। उनके पश्चात् पुष्पमित्र नामक क्षत्रिय और उसके पुत्र दुर्मित्रका राज्य होगा ॥ 34 ॥ परीक्षित् ! बाह्निकवंशी नरपति एक साथ ही विभिन्न प्रदेशोंमें राज्य करेंगे। उनमें सात अन्ध्रदेशके तथा सात ही कोसलदेशके अधिपति होंगे, कुछ विदूर भूमिके शासक और कुछ निषधदेशके स्वामी होंगे ॥ 35 ॥ इनके बाद मगध देशका राजा होगा विश्वस्फूर्जि । यह पूर्वोक्त पुरञ्जयके अतिरिक्त द्वितीय पुरञ्जय कहलायेगा। यह ब्राह्मणादि उच्च वर्णोंको पुलिन्द, यदु और मद्र आदि म्लेच्छप्राय जातियोंके रूपमें परिणत कर देगा ॥ 36 ॥ इसकी बुद्धि इतनी दुष्ट होगी कि यह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंका नाश करके शूद्रप्राय जनताकी रक्षा करेगा। यह अपने बल-वीर्यसे क्षत्रियोंको उजाड़ देगा और पद्मवती पुरीको राजधानी बनाकर हरिद्वारसे लेकर प्रयागपर्यन्त सुरक्षित पृथ्वीका राज्य करेगा ॥ 37 ॥ परीक्षित्! ज्यों-ज्यों घोर कलियुग आता जायगा, त्यों-त्यों सौराष्ट्र, अवन्ती, आभीर, शूर, अर्बुद और मालव देशके ब्राह्मणगण संस्कारशून्य हो जायँगे तथा राजालोग भी शूद्रतुल्य हो जायँगे ॥ 38 ॥ सिन्धुतट, चन्द्रभागाका तटवर्ती प्रदेश, कौन्तीपुरी और काश्मीर मण्डलपर प्रायः शूद्रोंका, संस्कार एवं ब्रह्मतेजसे हीननाममात्रके द्विजोंका और म्लेच्छोंका राज्य होगा ॥ 39 ॥ परीक्षित्! ये सब-के-सब राजा आचार-विचारमें म्लेच्छप्राय होंगे। ये सब एक ही समय
भागवत-स्कंध-11
अध्याय 1 यदुवंशको ऋषियोंका शाप अध्याय 2 वसुदेवजी को श्रीनारदजीका राजा जनक और नौ योगेश्वरों का संवाद सुनना अध्याय 3 माया, मायासे पार होनेके उपाय अध्याय 4 भगवान् के अवतारोंका वर्णन अध्याय 5 भक्तिहीन पुरुषोंकी गति और भगवान्की पूजाविधि अध्याय 6 देवताओंकी भगवान्ले स्वधाम सिधारनेके लिये प्रार्थना करना अध्याय 7 अवधूतोपाख्यान – पृथ्वीसे लेकर कबूतर तक आठ गुरु अध्याय 8 अवधूतोपाख्यान अजगरसे लेकर पिंगला तक नौ गुरु अध्याय 9 अवधूतोपाख्यान – क्रूररसे लेकर भृङ्गीतक सात गुरु अध्याय 10 लौकिक तथा पारलौकिक भोगोंकी असारताका निरूपण अध्याय 11 बद्ध, मुक्त और भक्तजनोंके लक्षण अध्याय 12 सत्सङ्गकी महिमा और कर्म तथा कर्मत्यागकी विधि अध्याय 13 हंसरूपसे सनकादिको दिये हुए उपदेशका वर्णन अध्याय 14 भक्तियोगकी महिमा तथा ध्यानविधिका वर्णन अध्याय 15 भिन्न-भिन्न सिद्धियोंके नाम और लक्षण अध्याय 16 भगवान्की विभूतियोंका वर्णन अध्याय 17 वर्णाश्रम धर्म-निरूपण अध्याय 18 वानप्रस्थ और संन्यासीके धर्म अध्याय 19 भक्ति, ज्ञान और यम-नियमादि साधनोंका वर्णन अध्याय 20 ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग अध्याय 21 गुण-दोष-व्यवस्थाका स्वरूप और रहस्य अध्याय 22 तत्त्वोंकी संख्या और पुरुष प्रकृति-विवेक अध्याय 23 एक तितिक्षु ब्राह्मणका इतिहास अध्याय 24 सांख्ययोग अध्याय 25 तीनों गुणोंकी वृत्तियोंका निरूपण अध्याय 26 पुरूरवाकी वैराग्योक्ति अध्याय 27 क्रियायोगका वर्णन अध्याय 28 परमार्थनिरूपण अध्याय 29 भागवतधर्मोका निरूपण और उद्धवजीका बदरिकाश्रम गमन अध्याय 30 यदुकुलका संहार अध्याय 31 श्रीभगवान्का स्वधामगमन श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कंध अध्याय 1 यदुवंशको ऋषियोंका शाप व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजी कहते है – परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने बलरामजी तथा अन्य यदुवंशियोंके साथ मिलकर बहुत-से दैत्योंका संहार किया तथा कौरव और पाण्डवोंमें भी शीघ्र मार-काट मचानेवाला अत्यन्त प्रबल कलह उत्पन्न करके पृथ्वीका भार उतार दिया 1 ॥ कौरवोंने कपटपूर्ण जूएसे तरह-तरहके अपमानोंसे तथा द्रौपदीके केश खींचने आदि अत्याचारोंसे पाण्डवोंको अत्यन्त क्रोधित कर दिया था। उन्हीं पाण्डवोको निमित्त बनाकर भगवान् श्रीकृष्णने दोनों पक्षोंमें एकत्र हुए राजाओंको मरवा डाला और इस प्रकार पृथ्वीका भार हलका कर दिया। अपने बाल सुरक्षित वंशियों द्वारा पृथ्वीके भार – राजा और उनकी सेनाका विनाश करके, प्रमाणोंके द्वारा ज्ञानके विषय न होनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने विचार किया कि लोकदृष्टिसे पृथ्वीका भार दूर हो जानेपर भी वस्तुतः मेरी दृष्टिसे अभीतक दूर नहीं हुआ; क्योंकि जिसपर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता, वह यदुवंश अभी पृथ्वीपर विद्यमान है ॥ 3 ॥ यह यदुवंश मेरे आश्रित है और हाथी, घोड़े, जनबल, घनवल आदि विशाल वैभवके कारण उच्छृंखल हो रहा है। अन्य किसी देवता आदिसे भी इसकी किसी प्रकार पराजय नहीं हो सकती। बॉसके वनमें परस्पर संघर्षसे उत्पन्न अनिके समान इस यदुवंशमें भी परस्पर कलह खड़ा करके मैं शान्ति प्राप्त कर सकूँगा और इसके बाद अपने धाममें जाऊँगा 4 ॥ राजन् ! भगवान् सर्वशक्तिमान् और सत्यसङ्कल्प हैं। उन्होंने इस प्रकार अपने मनमें निश्चय करके ब्राह्मणोंके शापके बहाने अपने ही वंशका संहार कर डाला, सबको समेटकर अपने धाममे ले गये ॥ 5 ॥ परीक्षित्! भगवान्को वह मूर्ति त्रिलोकीके सौन्दर्यका तिरस्कार करनेवाली थी। उन्होंने अपनी सौन्दर्य-माधुरीसे सबके नेत्र अपनी ओर आकर्षित कर लिये थे। उनकी वाणी, उनके उपदेश परम मधुर, दिव्यातिदिव्य थे। उनके द्वारा उन्हें स्मरण करनेवालोंके चित उन्होंने छोन लिये थे। उनके चरणकमल त्रिलोकसुन्दर थे जिसने उनके एक चरण चिह्नका भी दर्शन कर लिया, उसको बहिर्मुखता दूर भागगयी, वह कर्मप्रपञ्चसे ऊपर उठकर उन्हींकी सेवामें लग गया। उन्होंने अनायास ही पृथ्वीमें अपनी कीर्तिका विस्तार कर दिया, जिसका बड़े-बड़े सुकवियोंने बड़ी ही सुन्दर भाषामें वर्णन किया है। वह इसलिये कि मेरे चले जानेके बाद लोग मेरी इस कीर्तिका गान, श्रवण और स्मरण करके इस अज्ञानरूप अन्धकारसे सुगमतया पार हो जायँगे। इसके बाद परमैश्वर्यशाली भगवान् श्रीकृष्णने अपने धामको प्रयाण किया ।। 6-7 ॥ राजा परीक्षितने पूछा-भगवन्! यदुवंशी बड़े ब्राह्मणभक्त थे। उनमें बड़ी उदारता भी थी और वे अपने कुलवृद्धोंकी नित्य निरन्तर सेवा करनेवाले थे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि उनका चित्त भगवान् श्रीकृष्णमें लगा रहता था; फिर उनसे ब्राह्मणोंका अपराध कैसे बन गया ? और क्यों ब्राह्मणोंने उन्हें शाप दिया ? ॥ 8 ॥ भगवान्के परम प्रेमी विप्रवर! उस शापका कारण क्या था तथा क्या स्वरूप था ? समस्त यदुवंशियोंके आत्मा स्वामी और प्रियतम एकमात्र भगवान् श्रीकृष्ण ही थे; फिर उनमें फूट कैसे हुई? दूसरी दृष्टिसे देखें तो वे सब ऋषि अद्वैतदर्शी थे, फिर उनको ऐसी भेददृष्टि कैसे हुई ? यह सब आप कृपा करके मुझे बतलाइये ॥ 9 ॥ श्रीशुकदेवजीने कहा- भगवान् श्रीकृष्णने वह शरीर धारण करके जिसमे सम्पूर्ण सुन्दर पदार्थोंका सन्निवेश था (नेत्रों में मृगनयन, कन्धों में सिंहस्कन्ध, करोगे करि-कर, चरणोंमें कमल आदिका विन्यास था) पृथ्वीमें मङ्गलमय कल्याणकारी कमका आचरण किया। वे पूर्णकाम प्रभु द्वारकाधाममें रहकर क्रीडा करते रहे और उन्होंने अपनी उदार कीर्तिकी स्थापना की। (जो कीर्ति स्वयं अपने आश्रयतकका दान कर सके वह उदार है।) अन्तमें श्रीहरिने अपने कुलके | संहार – उपसंहारकी इच्छा की; क्योंकि अब पृथ्वीका भार उतरनेमें इतना ही कार्य शेष रह गया था ॥ 10 ॥ भगवान् श्रीकृष्णने ऐसे परम मङ्गलमय और पुण्य प्रापक कर्म किये, जिनका गान करनेवाले लोगोंके सारे कलिमल नष्ट हो जाते हैं। अब भगवान् श्रीकृष्ण महाराज उग्रसेनकी राजधानी द्वारकापुरीमें वसुदेवजीके घर यादवोंका संहार करनेके लिये कालरूपसे ही निवास कर रहे थे। उस समय उनके विदा कर | देनेपर-विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा, भृगु, अङ्गिरा, कश्यप, वामदेव, अत्रि, वसिष्ठ और नारद आदि बड़े-बड़े ऋषि द्वारकाके पास ही पिण्डारक क्षेत्रमें जाकर निवास करने लगे थे ।। 11-12 ।। एक दिन यदुवंशके कुछ उद्दण्ड कुमार खेलते-खेलते उनके पास जा निकले। उन्होंने बनावटी नम्रतासे उनकेचरणों प्रणाम करके प्रश्न किया ।। 13 ।। वे जाम्बवतीनन्दन साम्बको खीके वेपमें सजाकर ले गये और कहने लगे, ‘ब्रह्मणो यह कजरारी आँखोंवाली सुन्दरी गर्भवती है। यह आपसे एक बात पूछना चाहती है परन्तु स्वयं पूछने सकुचाती है आपलोगोंका न अमोध अवाध है, आप सर्वश है। इसे पुत्रकी बड़ी लालसा है और अब प्रसवका समय निकट आ गया है। आपलोग बताइये, यह कन्या जनेगी या पुत्र ?’ ।। 14-15 ॥ परीक्षित् । जब उन कुमाररोंने इस प्रकार उन ऋषि-मुनियोंको धोखा देना चाहा, तब वे भगवत्प्रेरणा से क्रोधित हो उठे। उन्होंने कहा- ‘मूर्खो। यह एक ऐसा मूसल पैदा करेगी, जो तुम्हारे कुलका नाश करनेवाला होगा ॥ 16 ॥ मुनियोंकी यह बात सुनकर वे बालक बहुत ही डर गये। उन्होंने तुरंत साम्बका पेट खोलकर देखा तो सचमुच उसमें एक लोहेका मूसल मिला ॥ 17 ॥ अब तो वे पछताने लगे और कहने लगे-‘हम बड़े अभागे हैं। देखो, हमलोगोंने यह क्या अनर्थ कर डाला ? अब लोग हमें क्या कहेंगे ?’ इस प्रकार वे बहुत ही घबरा गये तथा मूसल
भागवत-स्कंध-10
अध्याय 1 भगवानके द्वारा पृथ्वीको आश्वासन और कंस के अत्याचार अध्याय 2 भगवान्का गर्भ-प्रवेश और देवताओंद्वारा गर्भ-स्तुति अध्याय 3 भगवान् श्रीकृष्णका प्राकट्य अध्याय 4 कंसके हाथसे छूटकर योगमायाका आकाशमें जाकर भविष्यवाणी करना अध्याय 5 गोकुलमें भगवान्का जन्ममहोत्सव अध्याय 6 पूतना- उद्धार अध्याय 7 शकट-भञ्जन और तृणावर्त – उद्धार अध्याय 8 नामकरण संस्कार और बाललीला अध्याय 9 श्रीकृष्णका ऊखलसे बाँधा जाना अध्याय 10 यमलार्जुनका उद्धार अध्याय 11 गोकुलसे वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार अध्याय 12 अघासुरका उद्धार अध्याय 13 ब्रह्माजीका मोह और उसका नाश अध्याय 14 ब्रह्माजीके द्वारा भगवान्की स्तुति अध्याय 15 धेनुकासुरका उद्धार और ग्वालबालोंको कालियनाग के विश से बचाना अध्याय 16 कालिय पर कृपा अध्याय 17 कालियके कालियदहमें आनेकी कथा तथा भगवान् का दावानल पान अध्याय 18 प्रलम्बासुर – उद्धार अध्याय 19 गौओं और गोपोंको दावानलसे बचाना अध्याय 20 वर्षा और शरदऋतुका वर्णन अध्याय 21 वेणुगीत अध्याय 22 चीरहरण अध्याय 23 यज्ञपत्त्रियोंपर कृपा अध्याय 24 इन्द्रयज्ञ-निवारण अध्याय 25 गोवर्धनधारण अध्याय 26 नन्दबाबासे गोपोंकी श्रीकृष्णके प्रभावके विषय में सुनना अध्याय 27 श्रीकृष्णका अभिषेक अध्याय 28 वरुणलोकसे नन्दजीको छुड़ाकर लाना अध्याय 29 रासलीलाका आरम्भ अध्याय 30 श्रीकृष्णके विरहमें गोपियोंकी दशा अध्याय 31 गोपिकागीत अध्याय 32 भगवान्का प्रकट होकर गोपियोंको सान्त्वना देन अध्याय 33 महारास अध्याय 34 सुदर्शन और शङ्खचूडका उद्धार अध्याय 35 युगलगीत अध्याय 36 अरिष्टासुरका उद्धार और कंसका श्री अक्रूर को व्रज भेजना अध्याय 37 केशी और व्योमासुरका उद्धार तथा नारदजीके द्वारा भगवान की स्तुति अध्याय 38 अक्रूरजीकी व्रजयात्रा अध्याय 39 श्रीकृष्ण-बलरामका मथुरागमन अध्याय 40 अक्रूरजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति अध्याय 41 श्रीकृष्णका मथुराजीमें प्रवेश अध्याय 42 कुब्जापर कृपा, धनुषभङ्ग और कंसकी घबड़ाहट अध्याय 43 कुवलयापीडका उद्धार और अखाड़ेमें प्रवेश अध्याय 44 चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानोंका तथा कंसका उद्धार अध्याय 45 श्रीकृष्ण-बलरामका यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश अध्याय 46 उद्धवजीकी ब्रजयात्रा अध्याय 47 उद्धव तथा गोपियोंकी बातचीत और भ्रमरगीत अध्याय 48 भगवान्का कुब्जा और अक्रूरजीके घर जाना अध्याय 49 अक्कुरजीका हस्तिनापुर जाना अध्याय 50 जरासन्धसे युद्ध और द्वारकापुरीका निर्माण अध्याय 51 कालयवनका भस्म होना, मुचुकुन्दकी कथा अध्याय 52 द्वारकागमन, श्रीबलरामजीका विवाह और रुक्मणी जी का संदेश अध्याय 53 रुक्मिणीहरण अध्याय 54 शिशुपालके साथी राजाओंकी और रुक्मीकी हार तथा कृष्ण-रुक्मणी विवाह अध्याय 55 प्रद्युम्नका जन्म और शम्बरासुरका वध अध्याय 56 स्यमन्तकमणिकी कथा, जाम्बवती और सत्यभामाके साथ श्रीकृष्ण का विवाह अध्याय 57 स्यमन्तक- हरण, शतधन्वाका उद्धार अध्याय 58 भगवान् श्रीकृष्णके अन्यान्य विवाहोंकी कथा अध्याय 59 भौमासुरका उद्धार और सोलह हजार एक सौ राज कन्याओं से भगवान का विवाह अध्याय 60 श्रीकृष्ण-रुक्मिणी संवाद अध्याय 61 भगवान्की सन्ततिका वर्णन तथा अनिरुद्ध विवाह में रुकमी का मारा जाना अध्याय 62 ऊषा-अनिरुद्ध मिलन अध्याय 63 भगवान् श्रीकृष्णके साथ बाणासुरका युद्ध अध्याय 64 नृग राजाकी कथा अध्याय 65 श्रीबलरामजीका व्रजगमन अध्याय 66 पौण्ड्रक और काशिराजका उद्धार अध्याय 67 द्विविदका उद्धार अध्याय 68 कौरवोंपर बलरामजीका कोप और साम्बका विवाह अध्याय 69 देवर्षि नारदजीका भगवान्की गृहचर्या देखना अध्याय 70 भगवान् श्रीकृष्णकी नित्यचर्या और जरासंध के कैदी राजाओं के दूत का आना अध्याय 71 श्रीकृष्णभगवान्का इन्द्रप्रस्थ पधारना अध्याय 72 पाण्डवोंके राजसूययज्ञका आयोजन और जरासन्धका उद्धार अध्याय 73 जरासन्धके जेलसे छूटे हुए राजाओंकी बिदाई अध्याय 74 भगवान् की अग्रपूजा और शिशुपालका उद्धार अध्याय 75 राजसूय यज्ञकी पूर्ति और दुर्योधनका अपमान अध्याय 76 शाल्वके साथ यादवोंका युद्ध अध्याय 77 शाल्व उद्धार अध्याय 78 दन्तवका और विदूरथका उद्धार तथा बलराम जी द्वारा सूत जी का वध अध्याय 79 बल्वलका उद्धार और बलरामजीकी तीर्थयात्रा अध्याय 80 श्रीकृष्णके द्वारा सुदामाजीका स्वागत अध्याय 81 सुदामाजीको ऐश्वर्यकी प्राप्ति अध्याय 82 भगवान् श्रीकृष्ण-बलरामसे गोप-गोपियोंकी भेंट अध्याय 83 भगवान्की पटरानियोंके साथ द्रौपदीकी बातचीत अध्याय 84 वसुदेवजीका यज्ञोत्सव अध्याय 85 श्रीभगवान्के का वसुदेवजीको ब्रह्मज्ञान-उपदेश और देवकी के पुत्रों को लौटाना अध्याय 86 सुभद्राहरण और भगवान्का राजा जनक उर श्रुतदेव ब्राह्मण के यहाँ जाना अध्याय 87 वेदस्तुति अध्याय 88 शिवजीका सङ्कटमोचन अध्याय 89 भृगुजीके द्वारा त्रिदेवोंकी परीक्षा अध्याय 90 भगवान् कृष्णके लीला-विहारका वर्णन श्रीमद्भागवत महापुराण दशमं स्कंध अध्याय 1 भगवानके द्वारा पृथ्वीको आश्वासन और कंस के अत्याचार राजा परीक्षितने पूछा- भगवन्! आपने चन्द्रवंश और सूर्यवंशके विस्तार तथा दोनों वंशोंके राजाओंका अत्यन्त अद्भुत चरित्र वर्णन किया। भगवान्के परम प्रेमी मुनिवर! आपने स्वभावसे ही धर्मप्रेमी यदुवंशका भी विद वर्णन किया। अब कृपा करके उसी वंशमें अपने अंश श्रीबलरामजीके साथ अवतीर्ण हुए भगवान् श्रीकृष्णके परम पवित्र चरित्र भी हमें सुनाइये ॥ 1-2 ॥ भगवान् श्रीकृष्ण समस्त प्राणियोंके जीवनदाता एवं सर्वात्मा हैं। उन्होंने यदुवंशमें अवतार लेकर जो-जो लीलाएँ कीं, उनका विस्तारसे हमलोगोंको श्रवण कराइये || 3 || जिनकी तृष्णाकी प्यास सर्वदाके लिये बुझ चुकी है, वेष जिसका पूर्ण प्रेमसे अतृप्त रहकर गान किया करते हैं, मुमुक्षुजनोंके लिये जो भवरोगका रामवाण औषध है तथा विषयी लोगोंके लिये भी उनके कान और मनको परम आह्लाद देनेवाला है, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके ऐसे सुन्दर, सुखद, रसीले, गुणानुवादसे पशुघाती अथवा आत्मघाती मनुष्यके अतिरिक्त और ऐसा कौन है जो विमुख हो जाय, उससे प्रीति न करे ? 4 ॥ श्रीकृष्ण तो मेरे कुलदेव ही है।) जब कुरुक्षेत्र महाभारत युद्ध हो रहा था और देवताओंको भी जीत लेनेवाले भीष्मपितामह आदि अतिरथियोंसे मेरे दादा पाण्डवोका युद्ध हो रहा था, उस समय कौरवोंकी सेना उनके लिये अपार समुद्रके समान थी जिसमें भीष्म आदि वीर बड़े-बड़े मच्छोंको भी निगल जानेवाले तिमिङ्गिल मच्छोंकी भाँति भय उत्पन्न कर रहे थे। परन्तु मेरे स्वनामधन्य पितामह भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी नौकाका आश्रय लेकर उस समुद्रको अनायास ही पार कर गये-ठीक वैसे ही जैसे कोई मार्गमें चलता हुआ स्वभावसे ही बछड़ेके खुरका गड्ढा पार कर जाय ॥ 5 ॥ महाराज मेरा यह शरीर जो आपके सामने है। तथा जो कौरव और पाण्डव दोनों ही वंशोंका एकमात्र सहारा था – अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे जल चुका था। उस समय मेरीमाता जब भगवानकी शरण में गयीं, तब उन्होंने हाथमें चक्र लेकर मेरी माताके गर्भ में प्रवेश किया और मेरी रक्षा ॥ 6 (केवल मेरी ही बात नहीं,) वे समस्त शरीरधारियांक भीतर आत्मारूपसे रहकर अमृतत्वका दान कर रहे हैं और बाहर कालरूपसे रहकर मृत्युका * | मनुष्यके रूपमें प्रतीत होना, यह तो उनकी एक लीला है। आप उन्हीं की ऐश्वर्य और माधुर्यसे परिपूर्ण लीलाओंका वर्णन कीजिये ll 7 ll भगवन्। आपने अभी बतलाया था कि बलरामजी रोहिणी के पुत्र थे। इसके बाद देवकीके पुत्रोंमें भी आपने उनकी गणना की दूसरा शरीर धारण किये बिना दो माताओंका पुत्र होना कैसे सम्भव है ? ॥ 8 ॥ असुरोंको मुक्ति देनेवाले और भक्तोंको प्रेम वितरण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण अपने वात्सल्य स्नेहसे भरे हुए पिताका घर छोड़कर ब्रजमें क्यों