Shree Naval Kishori

भागवत-स्कंध-9

अध्याय 1 वैवस्वत मनुके पुत्र राजा सुद्युनकी कथा अध्याय 2 पृषध, आदि मनुके पाँच पुत्रोंका वंश अध्याय 3 महर्षि च्यवन और सुकन्याका चरित्र, राजा शर्याति अध्याय 4 नाभाग और अम्बरीषकी कथा अध्याय 5 दुर्वासाजीकी दुःखनिवृत्ति अध्याय 6 इक्ष्वाकु वंशका वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषिकी कथा अध्याय 7 राजा त्रिशत्रु और हरिचन्द्रकी कथा अध्याय 8 सगर-चरित्र अध्याय 9 भगीरथ चरित्र और गङ्गावतरण अध्याय 10 भगवान् श्रीरामकी लीलाओंका वर्णन अध्याय 11 भगवान् श्रीरामकी शेष लीलाओंका वर्णन अध्याय 12 इक्ष्वाकुवंशके शेष राजाओंका वर्णन अध्याय 13 राजा निमिके वंशका वर्णन अध्याय 14 चन्द्रवंशका वर्णन अध्याय 15 ऋचीक, जमदग्नि और परशुरामजीका चरित्र अध्याय 16 क्षत्रवृद्ध, रजि आदि राजाओंके वंशका वर्णन अध्याय 17 ययाति चरित्र अध्याय 18 ययातिका गृहत्याग अध्याय 19 पूरुके वंश, राजा दुष्यन्त और भरतके चरित्रका वर्णन अध्याय 20 भरतवंशका वर्णन, राजा रन्तिदेवकी कथा अध्याय 21 पाञ्चाल, कौरव और मगधदेशीय राजाओंके वंशका वर्ण अध्याय 22 अनु, ह्यु, तुर्वसु और यदुके वंशका वर्णन अध्याय 23 विदर्भके वंशका वर्णन अध्याय 24 परशुरामजीके द्वारा क्षत्रियसंहार श्रीमद्भागवत महापुराण नवमं स्कंध अध्याय 1 वैवस्वत मनुके पुत्र राजा सुद्युनकी कथा राजा परीक्षितने पूछा-भगवन्! आपने सब मन्वन्तरों और उनमें अनन्त शक्तिशाली भगवान्के द्वारा किये हुए ऐश्वर्यपूर्ण चरित्रोंका वर्णन किया और मैने उनका श्रवण भी किया ॥ 1 ॥ आपने कहा कि पिछले कल्पके अन्तमें द्रविड़ देशके स्वामी राजर्षि सत्यव्रतने भगवान्की सेवासे ज्ञान प्राप्त किया और वही इस कल्पमें वैवस्वत मनु हुए। आपने उनके इक्ष्वाकु आदि नरपति पुत्रोंका भी वर्णन किया ।। 2-3 ॥ ब्रह्मन् ! अब आप कृपा करके उनके वंश और वंशमें होनेवालोका अलग-अलग चरित्र वर्णन कीजिये। महाभाग ! हमारे हृदयमें सर्वदा ही कथा सुननेकी उत्सुकता बनी रहती है ॥ 4 ॥ वैवस्वत मनुके वंशमें जो हो चुके हों, इस समय विद्यमान हों और आगे होनेवाले हो— उन सब पवित्रकीर्ति पुरुषोंके पराक्रमका वर्णन कीजिये ।। 5 ।। सूतजी कहते हैं- शौनकादि ऋषियो ! ब्रह्मवादी ऋषियोंको सभामें राजा परीक्षित्ने जब यह प्रश्न किया, तब धर्मके परम मर्मज्ञ भगवान् श्रीशुकदेवजीने कहा ॥ 6 ॥ श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित्! तुम मनुवंशका वर्णन संक्षेपसे सुनो। विस्तारसे तो सैकड़ों वर्ष भी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता ॥ 7 ॥। जो परम पुरुष परमात्मा छोटे-बड़े सभी प्राणियोंके आत्मा हैं, प्रलयके समय केवल वही थे; यह विश्व तथा और कुछ भी नहीं था ॥ 8 ॥ महाराज! उनकी नाभिसे एक सुवर्णमय कमलकोष प्रकट हुआ। उसीमें चतुर्मुख ब्रह्माजीका आविर्भाव हुआ ।। 9 ।। ब्रह्माजीके मनसे मरीचि और मरीचिके पुत्र कश्यप हुए। उनकी धर्मपत्नी दक्षनन्दिनी अदितिसे विवस्वान् (सूर्य) का जन्म हुआ ॥ 10 ॥ विवस्वान्की संज्ञा नामक पत्नीसे श्राद्धदेव मनुका जन्म हुआ। परीक्षित्! परम मनस्वी राजा श्राद्धदेवने अपनी पत्नी श्रद्धाके गर्भसे दस पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम थे— इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट, धृष्ट, करूष, नरिष्यन्त, पृषभ, नभग और कवि ।। 11-12 ।। वैवस्वत मनु पहले सन्तानहीन थे उस समय सर्वसमर्थ भगवान् वसिष्ठने उन्हें सन्तान प्राप्ति करानेके लिये मित्रावरुणका यज्ञ कराया था ॥ 13 ॥ यज्ञके आरम्भ में केवल दूध पीकर रहनेवाली वैवस्वत मनुकी धर्मपत्नी श्रद्धाने अपने होताके पास जाकर प्रणामपूर्वक याचना की कि मुझे कन्या ही प्राप्त हो 14 तब अध्वर्युकी प्रेरणासे होता बने हुए ब्राह्मणने श्रद्धाके कथनका स्मरण करके एकाग्र चित्तसे वषट्कारका उच्चारण | करते हुए यज्ञकुण्डमें आहुति दी ।। 15 । जब होताने इस प्रकार विपरीत कर्म किया, तब यज्ञके फलस्वरूप पुत्रके स्थानपर इला नामकी कन्या हुई। उसे देखकर श्राद्धदेव मनुका मन कुछ विशेष प्रसन्न नहीं हुआ। उन्होंने अपने गुरु वसिष्ठजीसे कहा- | 16 || ‘भगवन्! आपलोग तो ब्रह्मवादी हैं, आपका कर्म इस प्रकार विपरीत फल देनेवाला कैसे हो गया ? अरे, यह तो बड़े दुःखकी बात है। वैदिक कर्मका ऐसा विपरीत फल तो कभी नहीं होना चाहिये 17 ॥ आप लोगोंका मन्त्रज्ञान तो पूर्ण है ही इसके अतिरिक्त आपलोग जितेन्द्रिय भी है तथा तपस्याके कारण निष्पाप हो चुके है देवताओगे असत्यकी प्राप्तिके समान आपके संकल्पका यह उलटा | फल कैसे हुआ ?’ ।। 18 ।।परीक्षित् | हमारे वृद्धमपितामह भगवान् वस्ने उनकी यह बात सुनकर जान लिया कि होताने विपरीत संकल्प किया है। इसलिये उन्होंने चैवस्वत मनुसे कहा- ॥ 19 ॥ ‘राजन् ! तुम्हारे होताके विपरीत संकल्पसे ही हमारा संकल्प ठीक-ठीक पूरा नहीं हुआ। फिर भी अपने तपके प्रभावसे मैं तुम्हें श्रेष्ठ पुत्र दूँगा’ ॥ 20 ॥ परीक्षित्! परम यशस्वी भगवान् वसिष्ठने ऐसा निश्चय करके उस इला नामकी कन्याको ही पुरुष बना देनेके लिये पुरुषोत्तम भगवान् नारायणको स्तुति की ॥ 21 ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरिने सन्तुष्ट होकर उन्हें मुँहमाँगा वर दिया, जिसके प्रभावसे वह कन्या ही सुद्युम्न नामक श्रेष्ठ पुत्र बन गयी ॥ 22 ॥ महाराज! एक बार राजा सुद्युन शिकार खेलनेके लिये सिन्धुदेशके घोड़ेपर सवार होकर कुछ मन्त्रियोंके साथ वनमें गये ॥ 23 ॥ वीर सुद्युम्न कवच पहनकर और हाथमें सुन्दर धनुष एवं अत्यन्त अद्भुत वाण लेकर हरिनोंका पीछा करते हुए उत्तर दिशामें बहुत आगे बढ़ गये ।। 24 । अन्तमें सुधुम्र मेरुपर्वतकी तलहटीके एक वनमें चले गये। उस वनमें भगवान् शङ्कर पार्वतीके साथ विहार करते रहते हैं ।। 25 । उसमें प्रवेश करते ही वीरवर सुद्युम्नने देखा कि मैं स्त्री हो गया हूँ और घोड़ा घोड़ी हो गया है ।। 26 ॥ परीक्षित् । साथ ही उनके सब अनुचरोंने भी अपनेको स्त्रीरूपमें देखा। वे सब एक-दूसरेका मुँह देखने लगे, उनका चित्त बहुत उदास हो गया ।। 27 ।। राजा परीक्षितने पूछा- भगवन्! उस भूखण्ड में ऐसा विचित्र गुण कैसे आ गया ? किसने उसे ऐसा बना दिया था ? आप कृपा कर हमारे इस प्रश्नका उत्तर दीजिये; क्योंकि हमें बड़ा कौतूहल हो रहा है ।। 28 ।।श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित्! एक दिन भगवान् शङ्करका दर्शन करनेके लिये बड़े-बड़े व्रतधारी ऋषि अपने तेजसे दिशाओंका अन्धकार मिटाते हुए उस वनमें गये ॥ 29 ॥ उस समय अम्बिका देवी वस्त्रहीन थीं। ऋषियोंको सहसा आया देख वे अत्यन्त लज्जित हो गयीं। झटपट उन्होंने भगवान् शङ्करकी गोदसे उठकर वस्त्र धारण कर लिया ॥ 30 ॥ ऋषियोंने भी देखा कि भगवान् गौरी-शङ्कर इस समय विहार कर रहे हैं, इसलिये वहाँसे लौटकर वे भगवान् नर-नारायणके आश्रमपर चले गये ॥ 31 ॥ उसी समय भगवान् शङ्करने अपनी प्रिया भगवती अम्बिकाको प्रसन्न करनेके लिये कहा कि ‘मेरे सिवा जो भी पुरुष इस स्थानमें प्रवेश करेगा, वहीं स्त्री हो जायेगा’ ॥ 32 ॥ परीक्षित्! तभीसे पुरुष उस स्थानमें प्रवेश नहीं करते। अब सुन स्त्री हो गये थे। इसलिये वे अपने स्त्री बने हुए अनुचरोंके साथ एक वनसे दूसरे वनमें विचरने लगे ॥ 33 ॥ उसी

भागवत-स्कंध-8

अध्याय 1 मन्वन्तरोंका वर्णन अध्याय 2 ग्राहके द्वारा गजेन्द्रका पकड़ा जाना अध्याय 3 गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌की स्तुति और उसका संकट मुक्त होना अध्याय 4 गज और ग्राहका पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार अध्याय 5 देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और स्तुति अध्याय 6 देवताओं और दैत्योका मिलकर समुद्रमन्थन का विचार अध्याय 7 समुद्रमन्थनका आरम्भ और भगवान् शङ्करका विषपान अध्याय 8 समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्‌का मोहिनी अवतार अध्याय 9 मोहिनीरूपसे भगवान्के द्वारा अमृत बाँटा जाना अध्याय 10 देवासुर संग्राम अध्याय 11 देवासुर संग्रामकी समाप्ति अध्याय 12 मोहिनीरूपको देखकर महादेवजीका मोहित होना अध्याय 13 आगामी सात मन्वन्तरोका वर्णन अध्याय 14 मनु आदिके पृथक्-पृथक् कर्मोंका निरूपण अध्याय 15 राजा बलिकी स्वर्गपर विजय अध्याय 16 कश्यपनीके द्वारा अदितिको पयोव्रतका उपदेश अध्याय 17 भगवान्‌का प्रकट होकर अदितिको वर देना अध्याय 18 वामनभगवान्‌का प्रकट होकर राजा बलिकी यज्ञशाला में जाना अध्याय 19 भगवान् वामनका बलिसे तीन पग पृथ्वी माँगना अध्याय 20 भगवान् वामनजीका विराट् रूप होकर दो ही पगसे पृथ अध्याय 21 बलिका बाँधा जाना अध्याय 22 बलिके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और भगवान्‌ का प्रसन्न होना अध्याय 23 बलिका बन्धनसे छूटकर सुतल लोकको जाना अध्याय 24 भगवान्के मत्स्यावतारकी कथा श्रीमद्भागवत महापुराण अष्ठम स्कंध अध्याय 1 मन्वन्तरोंका वर्णन राजा परीक्षित्ने पूछा—गुरुदेव । स्वायम्भुव मनुका वंश विस्तार मैंने सुन लिया। इसी वंशमें उनकी कन्याओंक द्वारा मरीचि आदि प्रजापतियोंने अपनी वंश-परम्परा चलायी थी। अब आप हमसे दूसरे मनुओंका वर्णन कीजिये ॥ 1 ॥ ब्रह्मन् ! ज्ञानी महात्मा जिस-जिस मन्वन्तरमें महामहिम भगवान्‌के जिन-जिन अवतारों और लीलाओंका वर्णन करते हैं, उन्हें आप अवश्य सुनाइये। हम बड़ी श्रद्धासे उनका श्रवण करना चाहते हैं ॥ 2 ॥ भगवन् ! विश्वभावन भगवान् बीते हुए मन्वन्तरोंमें जो-जो लीलाएँ कर चुके हैं, वर्तमान मन्वन्तरमें जो कर रहे हैं और आगामी मन्वन्तरोंमें जो कुछ करेंगे, वह सब हमें सुनाइये ॥ 3 ॥ श्रीशुकदेवजीने कहा- इस कल्पमें स्वायम्भुव आदि छः मन्वन्तर बीत चुके हैं। उनमेंसे पहले मन्वन्तरका मैंने वर्णन कर दिया, उसीमें देवता आदिकी उत्पत्ति हुई थी ॥ 4 ॥ स्वायम्भुव मनुकी पुत्री आकूतिसे यज्ञपुरुषके रूपमें धर्मका उपदेश करनेके लिये तथा देवहूति से कपिलके रूपमें ज्ञानका उपदेश करनेके लिये भगवान्ने उनके पुत्ररूपसे अवतार ग्रहण किया था 5 ॥ परीक्षित्! भगवान् कपिलका वर्णन मैं पहले ही (तीसरे स्कन्धमें) कर चुका हूँ। अब भगवान् यज्ञपुरुषने आकूतिके गर्भ से अवतार लेकर जो कुछ किया, उसका वर्णन करता हूँ ।। 6 ।। परीक्षित् ! भगवान् स्वायम्भुव मनुने समस्त कामनाओं और भोगोंसे विरक्त होकर राज्य छोड़ दिया। वे अपनी पत्नी शतरूपाके साथ तपस्या करनेके लिये वनमें चले गये ॥ 7 ॥परीक्षित्! उन्होंने सुनन्दा नदीके किनारे पृथ्वीपर एक पैरसे खड़े रहकर सौ वर्ष तक घोर तपस्या की। तपस्या करते समय वे प्रतिदिन इस प्रकार भगवान्की स्तुति करते थे॥ 8 ॥ मनुजी कहा करते थे जिनकी चेतनाके स्पर्शमात्रसे यह विश्व चेतन हो जाता है, किन्तु यह विश्व जिन्हें चेतनाका दान नहीं कर सकता; जो इसके सो जानेपर प्रलयमें भी जागते रहते हैं, जिनको यह नहीं जान सकता, परन्तु जो इसे जानते हैं-वही परमात्मा हैं ॥ 9 ॥ यह सम्पूर्ण विश्व और इस विश्व में रहनेवाले समस्त चर-अचर प्राणी – सब उन परमात्मासे ही ओतप्रोत हैं। इसलिये संसारके किसी भी पदार्थमें मोह न करके उसका त्याग करते हुए ही जीवन निर्वाहमात्र के लिये उपभोग करना चाहिये। तृष्णाका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। भला, ये संसारकी सम्पत्तियाँ किसकी है ? ॥ 10 ॥ भगवान् सबके साक्षी है। उन्हें बुद्धि-वृत्तियाँ या नेत्र आदि इन्द्रियाँ नहीं देख सकतीं। परन्तु उनकी ज्ञान शक्ति अखण्ड है। समस्त प्राणियों के हृदयमें रहनेवाले उन्हीं स्वयंप्रकाश असङ्ग परमात्माकी शरण ग्रहण करो ॥ 11 जिनका न आदि है न अन्त, फिर मध्य तो होगा ही कहाँसे ? जिनका न कोई अपना है और न पराया, और न बाहर है न भीतर, वे विश्व के आदि, अन्त, मध्य, अपने-परावे, बाहर और भीतर सब कुछ हैं। उन्हींकी सत्तासे विश्वकी सत्ता है। यही अनन्त वास्तविक सत्य परब्रह्म हैं ।। 12 । वही परमात्मा विश्वरूप है। उनके अनन्या नाम है। वे सर्वशक्तिमान् सत्य, स्वयंप्रकाश, अजन्मा और पुराणपुरुष हैं। वे अपनी मायाशक्ति के द्वारा ही विश्वसृष्टिके जन्म आदिको स्वीकार कर लेते हैं और अपनी विद्याशक्तिके द्वारा उसका त्याग करके निष्क्रिय, सत्स्वरूपमात्र रहते हैं ॥ 13 ॥ इसीसे ऋषि-मुनि नैष्कर्म्यस्थिति अर्थात् ब्रह्मसे एकत्व प्राप्त करनेके लिये पहले कर्मयोगका अनुष्ठान करते हैं। प्रायः कर्म करनेवाला पुरुष ही अन्तमें निष्क्रिय होकर कर्मोंसे छुट्टी पा लेता है ॥ 14 ॥ यों तो सर्वशक्तिमान् भगवान् भी कर्म करते हैं, परन्तु वे आत्मलाभसे पूर्णकाम होने के कारण उन कर्मोंमें आसक्त नहीं होते। अतः उन्हींका अनुसरण करके अनासक्त रहकर कर्म करनेवाले भी कर्मबन्धनसे मुक्त ही रहते हैं ॥ 15 ॥ भगवान् ज्ञानस्वरूप है, इसलिये उनमें अहङ्कारका लेश भी नहीं है। वे सर्वतः परिपूर्ण हैं, इसलिये उन्हें किसी वस्तुकी कामना नहीं है। वे बिनाकिसीकी प्रेरणाके स्वच्छन्दरूपसे ही कर्म करते हैं। वे अपनी ही बनायी हुई मर्यादामें स्थित रहकर अपने कर्मोक द्वारा मनुष्योंको शिक्षा देते हैं। वे ही समस्त धर्मोके प्रवर्तक और उनके जीवनदाता है मैं उन्हीं प्रभुकी शरण में हूँ ।। 16 ।। श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! एक बार स्वायम्भुव मनु एकाग्रचित्तसे इस मन्त्रमय उपनिषत् स्वरूप श्रुतिका पाठ कर रहे थे। उन्हें नींदमें अचेत होकर बड़बड़ाते जान भूखे असुर और राक्षस सा डालने के लिये उनपर टूट पड़े ॥ 17 ॥ यह देखकर अन्तर्यामी भगवान् यज्ञपुरुष अपने पुत्र याम नामक देवताओंके साथ वहाँ आये। उन्होंने उन खा डालनेके निश्चयसे आये हुए असुरोका संहार कर डाला और फिर वे इन्द्रके पदपर प्रतिष्ठित होकर स्वर्गका शासन करने लगे ।। 18 ।। परीक्षित् | दूसरे मनु हुए स्वारोचिप वे अधिके पुत्र थे। उनके पुत्रोंके नाम थे-घुमान, सुषेण और रोचिष्मान् आदि ।। 19 ।। उस मन्वन्तरमें इन्द्रका नाम था रोचन, प्रधान देवगण थे तुषित आदि। ऊर्जस्तम्भ आदि वेदवादीगण सप्तर्षि थे ॥ 20 ॥ उस मन्वन्तरमें वेदशिरा नामके ऋषिकी पत्नी तुषिता थीं। उनके गर्भसे भगवान्ने अवतार ग्रहण किया और विभु नामसे प्रसिद्ध हुए ॥ 21 ॥ वे आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहे। उन्हों आचरणसे शिक्षा ग्रहण करके अठासी हजार व्रतनिष्ठ ऋषियोंने भी ब्रह्मचर्यव्रतका पालन किया ll 22 ll तीसरे मनु थे उत्तम वे वितके पुत्र थे। उनके प्रियव्रतके पुत्रोंके नाम थे— पवन, सृञ्जय, यज्ञहोत्र आदि ॥ 23 ॥ उस मन्वन्तरमे वसिहजी के प्रमद आदि सात पुत्र सप्तर्षि थे सत्य, वेदश्रुत और भद्र नामक देवताओंके प्रधान गण थे और इन्द्रका नाम था सत्यजित् ॥ 24 ॥ उस समय धर्मकी पत्नी सूनृताके गर्भसे पुरुषोत्तम

भागवत-स्कंध-7

अध्याय 1 नारद युधिष्ठिर संवाद और जय-विजयकी कथा अध्याय 2 हिरण्याक्षका वध होनेपर हिरण्यकशिपुका अपनी माता को समझाना अध्याय 3 हिरण्यकशिपुकी तपस्या और वरप्राप्ति अध्याय 4 हिरण्यकशिपुके अत्याचार और प्रह्लादके गुणोंका वर्णन अध्याय 5 हिरण्यकशिपुके द्वारा प्रहादजीके वधका प्रयत्न अध्याय 6 प्रह्लादजीका असुर बालकोंको उपदेश अध्याय 7 प्रह्लादजीद्वारा माताके गर्भ में प्राप्त हुए नारद जी के उपदेश का वर्णन अध्याय 8 नृसिंहभगवान्‌का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपुका वध अध्याय 9 प्रह्लादजीके द्वारा नृसिंहभगवान्की स्तुति अध्याय 10 प्रहादजीके राज्याभिषेक और त्रिपुरदहनकी कथा अध्याय 11 मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्मका निरूपण अध्याय 12 ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमोंके नियम अध्याय 13 यतिधर्मका निरूपण और अवधूत प्रह्लाद-संवाद अध्याय 14 गृहस्थसम्बन्धी सदाचार अध्याय 15 गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कंध अध्याय 1 नारद युधिष्ठिर संवाद और जय-विजयकी कथा राजा परीक्षितने पूछा-भगवन् ! भगवान् तो स्वभावसे ही भेदभावसे रहित हैं—सम हैं, समस्त प्राणियोंके प्रिय और सुहृद हैं; फिर उन्होंने, जैसे कोई साधारण मनुष्य भेदभावसे अपने मित्रका पक्ष ले और शत्रुओंका अनिष्ट करे, उसी प्रकार इन्द्रके लिये दैत्यों वध क्यों किया ? ॥ 1 ॥ वे स्वयं परिपूर्ण कल्याणस्वरूप हैं, इसीलिये उन्हें देवताओंसे कुछ लेना-देना नहीं है। तथा निर्गुण होनेके कारण दैत्योंसे कुछ वैर-विरोध और उद्वेग भी नहीं है ॥ 2 ॥ भगवत्प्रेमके सौभाग्यसे सम्पन्न महात्मन्! हमारे चित्तमें भगवान्‌ के समत्व आदि गुणोंके सम्बन्धमें बड़ा भारी सन्देह हो रहा है। आप कृपा करके उसे मिटाइये || 3 || श्रीशुकदेवजीने कहा- महाराज भगवान् के अद्भुत चरित्रके सम्बन्धमें तुमने बड़ा सुन्दर प्रश्न किया; क्योंकि ऐसे प्रसङ्ग प्राद आदि भक्तोको महिमासे परिपूर्ण होते हैं, जिसके श्रवणसे भगवान्‌की भक्ति बढ़ती है ॥ 4 ॥ इस परम पुण्यमय प्रसङ्गको नारदादि महात्मागण बड़े प्रेमसे गाते रहते हैं। अब मैं अपने पिता श्रीकृष्ण द्वैपायन मुनिको नमस्कार करके भगवान्को लीला कथाका वर्णन करता हूँ ॥ 5 ॥ वास्तवमें भगवान् निर्गुण, अजन्मा, अव्यक्त और प्रकृतिसे परे हैं। ऐसा होनेपर भी अपनी मायाके गुणोंको स्वीकार करके वे बाध्यबाधक भावको अर्थात् मरने और मारनेवाले दोनोंके परस्पर विरोधी रूपोंको ग्रहण करते हैं ॥ 6 ॥ सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण —ये प्रकृतिके गुण हैं, परमात्माके नहीं। परीक्षित् । इन तीनों गुणोंकी भी एक साथ ही घटती बढ़ती नहीं होती ॥ 7 ॥ भगवान् समय-समयके अनुसार गुणोंको स्वीकार करते हैं। सत्त्वगुणकी वृद्धिके समय देवता और ऋषियोंका, रजोगुणकी वृद्धिके समय दैत्योंका और तमोगुणकी वृद्धिके समय वे यक्ष एवं राक्षसोकोअपनाते और उनका अभ्युदय करते हैं ॥ 8 ॥ जैसे | व्यापक अग्नि काष्ठ आदि भिन्न-भिन्न आश्रयोंमें रहनेपर भी उनसे अलग नहीं जान पड़ती, परन्तु मन्थन करनेपर वह | प्रकट हो जाती है वैसे ही परमात्मा सभी शरीरोंमें रहते विचारशील पुरुष हैं, अलग नहीं जान पड़ते। परन्तु हृदयमन्थन करके उनके अतिरिक्त सभी वस्तुओंका बाध करके अन्ततः अपने हृदयमें ही अन्तर्यामीरूपसे उन्हें प्राप्त कर लेते हैं ॥ 9 ॥ जब परमेश्वर अपने लिये शरीरोंका निर्माण करना चाहते हैं, तब अपनी मायासे रजोगुणकी अलग सृष्टि करते हैं। जब वे विचित्र योनियोंमें रमण करना चाहते हैं, तब सत्त्वगुणकी सृष्टि करते हैं और जब वे शयन करना चाहते हैं, तब तमोगुणको बढ़ा देते हैं ॥ 10 ॥ परीक्षित् ! भगवान् सत्यसङ्कल्प हैं। वे ही जगत् की उत्पत्तिके निमित्तभूत प्रकृति और पुरुषके | सहकारी एवं आश्रय कालकी सृष्टि करते हैं। इसलिये वे कालके अधीन नहीं, काल ही उनके अधीन है। राजन्। ये कालस्वरूप ईश्वर जब सत्त्वगुणकी वृद्धि करते हैं, तब सत्त्वमय देवताओंका बल बढ़ाते है और तभी ये परमयशस्वी देवप्रिय परमात्मा देवविरोधी रजोगुणी एवं तमोगुणी दैत्योंका संहार करते हैं। वस्तुतः वे सम ही हैं ll 11 ll राजन्। इसी विषयमें देवर्षि नारदने बड़े प्रेमसे एक इतिहास कहा था। यह उस समयकी बात है, जब राजसूय यज्ञमें तुम्हारे दादा युधिष्ठिरने उनसे इस सम्बन्धमें एक प्रश्न किया था ।। 12 ।। उस महान् राजसूय यज्ञमें राजा युधिष्ठिरने अपनी आँखोंके सामने बड़ी आश्चर्यजनक घटना देखी कि चेदिराज शिशुपाल सबके देखते-देखते भगवान् श्रीकृष्णमें समा गया । 13 ।। वहीं देवर्षि नारद भी बैठे हुए थे। इस घटनासे आश्चर्यचकित होकर राजा युधिष्ठिरने बड़े-बड़े मुनियोंसे भरी हुई सभामें, उस यज्ञमण्डपमें ही | देवर्षि नारदसे यह प्रश्न किया ।। 14 ।। युधिष्ठिरने पूछा- अहो ! यह तो बड़ी विचित्र बात है। परमतत्त्व भगवान् श्रीकृष्णमें समा जाना तो बड़े-बड़े अनन्य भक्तोंके लिये भी दुर्लभ है; फिर भगवान्से द्वेष करनेवाले शिशुपालको यह गति कैसे मिली ? ॥ 15 ॥ नारदजी। इसका रहस्य हम सभी जानना चाहते हैं। पूर्वकालमे भगवान्‌को निन्दा करनेके कारण ऋषिय राज वेनको नरकमे डाल दिया था ॥ 16 ॥यह दमघोषका लड़का पापात्मा शिशुपाल और दुर्बुद्धि दन्तवक्त्र- दोनों ही जबसे तुतलाकर बोलने लगे थे, तबसे अबतक भगवान्से द्वेष ही करते रहे हैं ॥ 17 ॥ अविनाशी परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्णको ये पानी पी-पीकर गाली देते रहे हैं। परन्तु इसके फलस्वरूप न तो इनकी जीभमें कोढ़ ही हुआ और न इन्हें घोर अन्धकारमय नरकको ही प्राप्ति हुई ।। 18 ।। प्रत्युत जिन भगवान्‌की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है, उन्हींमें ये दोनों सबके देखते-देखते अनायास ही लीन हो गये—इसका क्या कारण है ? ॥ 19 ॥ हवाके झोंकेसे लड़खड़ाती हुई दीपककी लौके समान मेरी बुद्धि इस विषयमें बहुत आगा-पीछा कर रही है। आप सर्वज्ञ हैं, अतः इस अद्भुत घटनाका रहस्य समझाइये ॥ 20 ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं— सर्वसमर्थ देव नारद राजाके ये प्रश्न सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने युधिष्ठिरको सम्बोधित करके भरी सभा में सबके सुनते हुए यह कथा कही ॥ 21 ॥ नारदजीने कहा- युधिष्ठिर निन्दा, स्तुति, । सत्कार और तिरस्कार- -इस शरीरके ही तो होते हैं। इस शरीरकी कल्पना प्रकृति और पुरुषका ठीक-ठीक विवेक न होनेके कारण ही हुई है ।। 22 ।। जब इस शरीरको ही अपना आत्मा मान लिया जाता है, तब ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ ऐसा भाव बन जाता है। यही सारे भेदभावका मूल है। इसीके कारण ताड़ना और दुर्वचनोंसे पीड़ा होती है ।॥ 23 ॥ जिस शरीरमें अभिमान हो जाता है कि ‘यह मैं हूँ’, उस शरीरके वधसे प्राणियोंको अपना वध जान पड़ता है। किन्तु भगवान्‌में तो जीवोंके समान ऐसा अभिमान है नहीं; क्योंकि वे सर्वात्मा हैं, अद्वितीय है। वे जो दूसरोंको दण्ड देते हैं—वह भी उनके कल्याणके लिये ही, क्रोधवश अथवा द्वेषवश नहीं। तब भगवान्के सम्बन्धमे हिंसाकी कल्पना तो की ही कैसे जा सकती है ।। 24 । इसलिये चाहे सुद्द वैरभावसे या वैरहीन भक्तिभावसे, भयसे, स्नेहसे अथवा कामनासे-कैसे भी हो, भगवान् ‌में अपना मन पूर्णरूपसे लगा देना चाहिये। भगवान्‌की दृष्टिसे इन भावोंमें कोई भेद नहीं है ॥ 25 ॥युधिष्ठिर !

भागवत-स्कंध-6

अध्याय 1 अजामिलोपाख्यानका प्रारम्भ अध्याय 2 विष्णुदूतोंद्वारा भागवतधर्म-निरूपण अध्याय 3 यम और यमदूतोंका संवाद अध्याय 4 दक्षके द्वारा भगवान्‌की स्तुति अध्याय 5 श्रीनारदजीके उपदेशसे दक्षपुत्रोंकी विरक्ति तथा अध्याय 6 दक्षप्रजापतिकी साठ कन्याओंके वंश का विवरण अध्याय 7 बृहस्पतिजीके द्वारा देवताओंका त्याग अध्याय 8 नारायण कवच का उपदेश अध्याय 9 विश्वरूपका वध, वृत्रासुरद्वारा देवताओंकी हार अध्याय 10 देवताओं द्वारा दधीचि ऋषिकी अस्थियोंसे वज्र बनाना अध्याय 11 वृत्रासुरकी वीरवाणी और भगवत्प्राप्ति अध्याय 12 वृत्रासुरका वध अध्याय 13 इन्द्रपर ब्रह्महत्याका आक्रमण अध्याय 14 वृत्रासुरका पूर्वचरित्र अध्याय 15 चित्रकेतुको अङ्गिरा और नारदजीका उपदेश अध्याय 16 चित्रकेतुका वैराग्य तथा सङ्कर्षणदेव के दर्शन अध्याय 17 चित्रकेतुको पार्वतीजीका शाप अध्याय 18 अदिति और दितिकी सन्तानोंकी तथा मरुद्गणों की उत्पत्ति अध्याय 19 पुंसवन-व्रतकी विधि श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कंध अध्याय 1 अजामिलोपाख्यानका प्रारम्भ राजा परीक्षित्ने कहा- भगवन्! आप पहले (द्वितीय स्कन्धमें) निवृत्तिमार्गका वर्णन कर चुके हैं तथा यह बतला चुके हैं कि उसके द्वारा अर्चिरादि मार्गसे जीव क्रमशः ब्रह्मलोकमें पहुँचता है और फिर ब्रह्माके साथ मुक्त हो जाता है ॥ 1 ॥ मुनिवर ! इसके सिवा आपने उस प्रवृत्तिमार्गका भी (तृतीय स्कन्धमें) भलीभाँति वर्णन किया है, जिससे त्रिगुणमय स्वर्ग आदि लोकोंकी प्राप्ति होती है। और प्रकृतिका सम्बन्ध न छूटनेके कारण जीवोंको बार-बार जन्म-मृत्युके चक्कर आना पड़ता है ॥ 2 ॥ आपने यह भी बतलाया कि अधर्म करनेसे अनेक नरकोंकी प्राप्ति होती है। और (पाँचवें स्कन्धमें) उनका विस्तारसे वर्णन भी किया। (चौथे स्कन्धमें) आपने उस प्रथम मन्वन्तरका वर्णन किया, जिसके अधिपति स्वायम्भुव मनु थे || 3 || साथ ही (चौथे और पाँचवें स्कन्धमें) प्रियव्रत और उत्तानपादके वंशों तथा चरित्रोंका एवं द्वीप, वर्ष, समुद्र, पर्वत, नदी, उद्यान और विभिन्न द्वीपोंके वृक्षोंका भी निरूपण किया ॥ 4 ॥ भूमण्डलकी स्थिति, उसके द्वीप वर्षादि विभाग, उनके लक्षण तथा परिमाण, नक्षत्रोंकी स्थिति, अतल-वितल आदि भू-विवर (सात-पाताल) और भगवान्ने इन सबकी जिस प्रकार सृष्टि की उसका वर्णन भी सुनाया ॥ 5 ॥ महाभाग ! अब मैं वह उपाय जानना चाहता हूँ, जिसके अनुष्ठानसे मनुष्योंको अनेकानेक भयङ्कर यातनाओंसे पूर्ण नरकोंमें न जाना पड़े। आप कृपा करके उसका उपदेश कीजिये ॥ 6 ॥ श्रीशुकदेवजीने कहा- मनुष्य मन, वाणी और शरीरसे पाप करता है। यदि वह उन पापका इसी जन्ममेंप्रायश्चित्त न कर ले, तो मरनेके बाद उसे अवश्य ही उन | भयङ्कर यातनापूर्ण नरकोंमें जाना पड़ता है, जिनका वर्णन मैरे तुम्हें (पाँचवें स्कन्धके अन्तमें) सुनाया है ॥ 7 ॥ इसलिये बड़ी सावधानी और सजगताके साथ रोग एवं मृत्युके पहले ही शीघ्र से शीघ्र पापों की गुरुता और लघुतापर विचार करके उनका प्रायश्चित कर डालना चाहिये, जैसे मर्मज्ञ चिकित्सक रोगोंका कारण और उनकी गुरुता-लघुता जानकर झटपट उनकी चिकित्सा कर डालता है ll 8 ll राजा परीक्षितने पूछा-भगवन् मनुष्य राजदण्ड, समाजदण्ड आदि लौकिक और शास्त्रोक्त नरकगमन आदि पारलौकिक कष्टोंसे यह जानकर भी कि पाप उसका शत्रु है, पापवासनाओंसे विवश होकर बार-बार वैसे ही कर्मोंमें प्रवृत्त हो जाता है। ऐसी अवस्थामें उसके पापोंका प्रायश्चित कैसे सम्भव है ? ।। 9 ।। मनुष्य कभी तो प्रायश्चित्त आदिके द्वारा पापोंसे छुटकारा पा लेता है, कभी फिर उन्हें ही करने लगता है। ऐसी स्थिति में मैं समझता हूँ कि जैसे स्नान करनेके बाद धूल डाल लेनेके कारण हाथीका स्नान व्यर्थ हो जाता है, वैसे ही मनुष्यका प्रायश्चित्त करना भी व्यर्थ ही है 10 ॥ श्रीशुकदेवजीने कहा- वस्तुतः कर्मके द्वारा ही कर्मका निर्बीज नाश नहीं होता; क्योंकि कर्मका अधिकारी अज्ञानी है अज्ञान रहते पापवासनाएँ सर्वधा नहीं मिट सकतीं। इसलिये सच्चा प्रायश्चित्त तो तत्त्वज्ञान ही है ॥ 11 ॥ जो पुरुष केवल सुपथ्यका ही सेवन करता है, उसे रोग अपने वशमे नहीं कर सकते। वैसे ही परीक्षित् । जो पुरुष नियमोंका पालन करता है, वह धीरे-धीरे पाप वासनाओंसे मुक्त हो कल्याणप्रद तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेमें समर्थ होता है ॥ 12 ॥ जैसे बाँसके झुरमुटमे लगी आग बाँसोको जला डालती है— वैसे ही धर्मज्ञ और श्रद्धावान् धीर पुरुष तपस्या, ब्रह्मचर्य, इन्द्रियदमन, मनकी स्थिरता, दान, सत्य, बाहर-भीतरकी पवित्रता तथा यम एवं नियम- इन नौ साधनोंसे मन, वाणी और शरीरद्वारा किये | गये बड़े-से-बड़े पापोंको भी नष्ट कर देते हैं ।। 13-14 ।। भगवान्की शरणमें रहनेवाले भक्तजन, जो बिरले ही होते हैं, केवल भक्तिके द्वारा अपने सारे पापोंको उसी प्रकार भस्म कर देते हैं, जैसे सूर्य कुहरेको ।। 15 ।।परीक्षित् पापी पुरुषकी जैसी शुद्धि भगवान्‌को आत्मसमर्पण करनेसे और उनके भक्तोका सेवन करनेसे होती है, वैसी तपस्या आदिके द्वारा नहीं होती ।। 16 ।। जगत्में यह भक्तिका पंथ ही सर्वश्रेष्ठ, भयरहित और कल्याणस्वरूप है; क्योंकि इस मार्गपर भगवत्परायण, सुशील साधुजन चलते हैं ॥ 17 ॥ परीक्षित् जैसे शराब से भरे घड़ेको नदियाँ पवित्र नहीं कर सकतीं, वैसे ही बड़े-बड़े प्रायश्चित्त बार-बार किये जानेपर भी भगवद्विमुख मनुष्यको पवित्र करनेमें असमर्थ हैं ॥ 18 ॥ जिन्होंने अपने भगवद्गुणानुरागी मन-मधुकरको भगवान् श्रीकृष्णके चरणारविन्द मकरन्दका एक बार पान करा दिया, उन्होंने सारे प्रायश्चित्त कर लिये वे स्वप्रमें भी 1 यमराज और उनके पाशधारी दूतोंको नहीं देखते। फिर नरककी तो बात ही क्या है ॥ 19 ॥ परीक्षित् इस विषयमें महात्मालोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। उसमें भगवान् विष्णु और यमराजके दूतों का संवाद है। तुम मुझसे उसे सुनो ॥ 20 ॥ कान्यकुब्ज नगर (कन्नौज) में एक दासीपति ब्राह्मण रहता था। उसका नाम था अजामिल। दासीके संसर्गसे दूषित होनेके कारण उसका सदाचार नष्ट हो चुका था ॥ 21 ॥ वह पतित कभी बटोहियोंको बाँधकर उन्हें लूट लेता, कभी लोगोंको जूके छलसे हरा देता, किसीका धन धोखा घड़ीसे ले लेता तो किसीका चुरा लेता। इस प्रकार अत्यन्त निन्दनीय वृत्तिका आश्रय लेकर वह अपने कुटुम्बका पेट भरता था और दूसरे प्राणियोंको बहुत ही सताता था ॥ 22 ॥ परीक्षित् इसी प्रकार वह वहाँ रहकर दासीके बच्चोंका लालन-पालन करता रहा। इस प्रकार उसकी आयुका बहुत बड़ा बहुत बड़ा भाग अट्ठासी वर्ष बीत गया ।। 23 ।। बूढ़े अजामिलके दस पुत्र थे उनमें सबसे । छोटेका नाम था ‘नारायण’ माँ-बाप उससे बहुत प्यार करते थे ।। 24 ।। वृद्ध अजामिलने अत्यन्त मोहके कारण अपना सम्पूर्ण हृदय अपने बच्चे नारायणको सौंप दिया था। वह अपने बच्चे की तोतली बोली सुन-सुनकर तथा बालसुलभ खेल देख-देखकर फूला नहीं समाता था ।। 25 ।।अजामिल बालकके स्नेह बन्धनमें बंध गया था। जब वह खाता तब उसे भी खिलाता, जब पानी पीता तो उसे भी पिलाता। इस प्रकार वह अतिशय मूढ़ हो गया था, उसे इस बातका पता ही न चला कि पहुँची है ।। 26 ।। वह मूर्ख इसी प्रकार अपना जीवन बिता

भागवत-स्कंध-5

अध्याय 1 प्रियव्रत चरित्र अध्याय 2 आग्नीध्र-चरित्र अध्याय 3 राजा नाभिका चरित्र अध्याय 4 ऋषभदेवजीका राज्यशासन अध्याय 5 ऋषभजीका अपने पुत्रोंको उपदेश देना अध्याय 6 ऋषभदेवजीका देहत्याग अध्याय 7 भरत चरित्र अध्याय 8 भरतजीका मृगके मोहमें फँसकर मृग-योनिमें जन्म लेना अध्याय 9 भरतजीका ब्राह्मणकुलमें जन्म अध्याय 10 जडभरत और राजा रहूगणकी भेंट अध्याय 11 राजा रहूगणको भरतजीका उपदेश अध्याय 12 रहूगणका प्रश्न और भरतजीका समाधान अध्याय 13 भवाटवीका वर्णन और रहूगणका संशयनाश अध्याय 14 भवाटवीका स्पष्टीकरण अध्याय 15 भरतके वंशका वर्णन अध्याय 16 भुवनकोशका वर्णन अध्याय 17 गङ्गाजीका विवरण अध्याय 18 भिन्न-भिन्न वर्षोंका वर्णन अध्याय 19 किम्पुरुष और भारतवर्षका वर्णन अध्याय 20 अन्य छः द्वीपों तथा लोकालोकपर्वतका वर्णन अध्याय 21 सूर्यके रथ और उसकी गतिका वर्णन अध्याय 22 भिन्न-भिन्न ग्रहों की स्थिति और गतिका वर्णन अध्याय 23 शिशुमारचक्रका वर्णन अध्याय 24 राहु आदिकी स्थिति, अतलादि नीचेके लोकोंका वर्ण अध्याय 25 श्रीसङ्कर्षणदेवका विवरण और स्तुति अध्याय 26 नरकोंकी विभिन्न गतियोंका वर्णन श्रीमद्भागवत महापुराण पञ्चम स्कंध अध्याय 1 प्रियव्रत चरित्र राजा परीक्षितने पूछा- मुने। महाराज प्रियव्रत तो बड़े भगवद्भक्त और आत्माराम थे। उनकी गृहस्थाश्रममें कैसे रुचि हुई, जिसमें फँसने के कारण मनुष्यको अपने स्वरूपकी विस्मृति होती है और वह कर्मबन्धनमें बंध जाता है ? ॥ 1 ॥ विप्रवर ! निश्चय ही ऐसे निःसङ्ग महापुरुषोंका इस प्रकार गृहस्थाश्रममें अभिनिवेश होना उचित नहीं है॥ 2 ॥ इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं कि जिनका चित्त पुण्यकीर्ति श्रीहरिके चरणोंकी शीतल छायाका आश्रय लेकर शान्त हो गया है, उन महापुरुषोंकी कुटुम्बादिमें कभी आसक्ति नहीं हो सकती ॥ 3 ॥ ब्रह्मन् ! मुझे इस बातका बड़ा सन्देह है कि महाराज प्रियव्रतने स्त्री, घर और पुत्रादिमें आसक्त रहकर भी किस प्रकार सिद्धि प्राप्त कर ली और क्योंकर उनकी भगवान् श्रीकृष्णमें अविचल भक्ति हुई 4 ॥ श्रीशुकदेवजीने कहा- राजन्! तुम्हारा कथन बहुत ठीक है। जिनका चित्त पवित्रकीर्ति श्रीहरिके परम मधुर चरणकमल-मकरन्दके रसमें सराबोर हो गया है, वे किसी विघ्न-बाधाके कारण रुकावट आ जानेपर भी भगवद्भक्त परमहंसोंके प्रिय श्रीवासुदेव भगवान्‌के कथाश्रवणरूपी परम कल्याणमय मार्गको प्रायः छोड़ते नहीं ॥ 5 ॥ राजन् ! राजकुमार प्रियव्रत बड़े भगवद्भक्त थे, श्रीनारदजीके चरणोंकी सेवा करनेसे उन्हें सहजमें ही परमार्थतत्त्वका बोध हो गया था। वे ब्रह्मसत्रकी दीक्षा- निरन्तर ब्रह्माभ्यासमें जीवन बितानेका नियम लेनेवाले ही थे कि उसी समय उनके पिता स्वायम्भुव मनुने उन्हें पृथ्वी पालनके लिये शास्त्रमें बताये हुए सभी श्रेष्ठ गुणोंसे पूर्णतया सम्पन्न देख राज्यशासनके लिये आज्ञा दी। किन्तु प्रियव्रत अखण्ड समाधियोगके द्वारा अपनी सारी इन्द्रियों और क्रियाओंको भगवान् वासुदेवके चरणोंमें ही समर्पण कर चुके थे। अतः पिताकी आज्ञा किसी प्रकार उल्लङ्घन करनेयोग्य न होनेपर भी, यह सोचकर कि राज्याधिकार पाकर मेरा आत्मस्वरूप स्त्री-पुत्रादि असत् प्रपञ्चसे आच्छादित हो जायगा — राज्य और कुटुम्बकीचितामें फँसकर में परमार्थतत्वको प्रायः भूल जाऊँगा, उन्होंने उसे स्वीकार न किया ॥ 6 ॥ आदिदेव स्वयम्भू भगवान् ब्रह्माजीको निरन्तर इस गुणमय प्रपञ्चकी वृद्धिका ही विचार रहता है। वे सारे संसारके जीवोंका अभिप्राय जानते रहते हैं। जब उन्होंने प्रियजतकी ऐसी प्रवृत्ति | देखी तब वे मूर्तिमान् चारों वेद और मरीचि आदि पाटोको साथ लिये अपने लोकसे उतरे ॥ 7 ॥ आकाशमें जहाँ-तहाँ विमानोंपर चढ़े हुए इन्द्रादि प्रधान प्रधान देवताओंने उनका पूजन किया तथा मार्गमें टोलियाँ बाँधकर आये हुए सिद्ध, गन्धर्व, साध्य, चारण और मुनिजनने स्तवन किया। इस प्रकार जगह-जगह आदर-सम्मान पाते वे साक्षात् नक्षत्रनाथ चन्द्रमाके समान गन्धमादनकी पाटीको प्रकाशित करते हुए प्रियव्रत के | पास पहुँचे ॥ 8 ॥ प्रियव्रतको आत्मविद्याका उपदेश देनेके लिये वहाँ नारदजी भी आये हुए थे। ब्रह्माजीके वहाँ पहुँचनेपर उनके वाहन हंसको देखकर देवर्षि नारद जान गये कि हमारे पिता भगवान् ब्रह्माजी पधारे हैं, अतः वे स्वायम्भुव मनु और प्रियव्रत के सहित तुरंत खड़े हो गये और सबने उनको हाथ जोड़कर प्रणाम किया ॥ 9 ॥ परीक्षित् नारदजीने उनकी अनेक प्रकारसे पूजा की और सुमधुर वचनोंमें उनके गुण और अवतारकी उत्कृष्टताका वर्णन किया तब आदिपुरुष भगवान् ब्रह्माजीने प्रियव्रतकी ओर मन्द मुसकानयुक्त यादृष्टिसे देखते हुए इस प्रकार कहा ।। 10 ॥ श्रीब्रह्माजीने कहा- बेटा में तुमसे सत्य सिद्धानको बात कहता हूँ ध्यान देकर सुनो तुम्हे अप्रमेय श्रीहरिके प्रति किसी प्रकारको दोषदृष्टि नहीं रखनी चाहिये। तुम्हीं क्या हम, महादेवजी, तुम्हारे पिता स्वायम्भुव मनु और तुम्हारे गुरु ये महर्षि नारद भी विवश होकर उन्हींको आशाका पालन करते हैं ॥ 11 ॥ उनके विधानको कोई भी देहधारी न तो तप, विद्या, | योगबल या बुद्धिबलसे, न अर्थ या धर्मको शक्तिसे और न स्वयं या किसी दूसरेकी सहायतासे ही टाल सकता है12 प्रियवर! उसी अव्यक्त ईश्वरके दिये हुए शरीरको सब जीव जन्म, मरण, शोक, मोह, भय और सुख-दुखका भोग करने तथा कर्म करनेके लिये सदा धारण करते हैं।.13 ॥वत्स ! जिस प्रकार रस्सीसे नथा हुआ पशु मनुष्योंका बोझ ढोता है. उसी प्रकार परमात्माकी वेदवाणीरूप बड़ी रस्सीमें सत्त्वादि गुण, सात्त्विक आदि कर्म और उनके ब्राह्मणादि वाक्योंकी मजबूत डोरीसे जकड़े हुए हम सब लोग उन्हींके इच्छानुसार कर्ममें लगे रहते हैं और उसके द्वारा उनकी पूजा करते रहते हैं। ॥ 14 ॥ हमारे गुण और कर्मोके अनुसार प्रभुने हमें जिस योनिमें डाल दिया है उसीको स्वीकार करके, वे जैसी व्यवस्था करते हैं उसीके अनुसार हम सुख या दुःख भोगते रहते हैं। हमें उनकी इच्छाका उसी प्रकार अनुसरण करना पड़ता है, जैसे किसी अंधेको आँखवाले पुरुषका ।। 15 ।। मुक्त पुरुष भी प्रारब्धका भोग करता हुआ भगवान्‌की | इच्छाके अनुसार अपने शरीरको धारण करता ही है; ठीक वैसे ही जैसे मनुष्यकी निद्रा टूट जानेपर भी स्वप्नमें अनुभव किये हुए पदार्थोंका स्मरण होता है। इस अवस्थामें भी उसको अभिमान नहीं होता और विषय-वासनाके जिन संस्कारोंके कारण दूसरा जन्म होता है, उन्हें वह स्वीकार नहीं करता ॥ 16 ॥ जो पुरुष इन्द्रियोंके वशीभूत है, वह वन-वनमें विचरण करता रहे तो भी उसे जन्म-मरणका भय बना ही रहता है; क्योंकि बिना जीते हुए मन और इन्द्रियरूपी उसके छः शत्रु कभी उसका पीछा नहीं | छोड़ते जो बुद्धिमान पुरुष इन्द्रियोको जीतकर अपनी आत्मामें ही रमण करता है, उसका गृहस्थाश्रम भी क्या बिगाड़ सकता है ? ।। 17 ।। जिसे इन छः शत्रुओंको जीतनेकी इच्छा हो, वह पहले घरमें रहकर ही उनका अत्यन्त निरोध करते हुए उन्हें वशमें करनेका प्रयत्न करे। किलेमें सुरक्षित रहकर लड़नेवाला राजा अपने प्रबल शत्रुओंको भी जीत लेता है। फिर जब इन शत्रुओंका बल अत्यन्त क्षीण हो जाय, तब विद्वान् पुरुष इच्छानुसार विचर सकता है ॥ 18 ॥ तुम यद्यपि श्रीकमलनाभ भगवान् के चरणकमलकी कलीरूप किलेके आश्रित रहकर इन छहों शत्रुओंको जीत चुके हो, तो भी पहले उन पुराणपुरुषके

भागवत-स्कंध-4

अध्याय 1 स्वायम्भुव मनुकी कन्याओंके वंशका वर्णन अध्याय 2 भगवान् शिव और दक्ष प्रजापतिका मनोमालिन्य अध्याय 3 सतीका पिताके यहाँ यज्ञोत्सवमें जानेके लिये आग्रह अध्याय 4 सतीका अग्निप्रवेश अध्याय 5 वीरभद्रकृत दक्षयज्ञविध्वंस और दक्षवध अध्याय 6 ब्रह्मादि देवताओंका कैलास जाकर श्रीमहादेवजीको मनाना अध्याय 7 दक्षयज्ञकी पूर्ति अध्याय 8 ध्रुवका वन-गमन अध्याय 9 ध्रुवका वर पाकर घर लौटना अध्याय 10 उत्तमका मारा जाना, ध्रुवका यक्षोंके साथ युद्ध अध्याय 11 स्वायम्भुव मनुका ध्रुवजीको युद्ध बंद करने अध्याय 12 ध्रुवजीको कुबेरका वरदान और विष्णुलोककी प्राप्ति अध्याय 13 ध्रुववंशका वर्णन, राजा अङ्गका चरित्र अध्याय 14 राजा वेनकी कथा अध्याय 15 महाराज पृथुका आविर्भाव और राज्याभिषेक अध्याय 16 बन्दीजनद्वारा महाराज पृथुकी स्तुति अध्याय 17 महाराज पृथुका पृथ्वीपर कुपित होना अध्याय 18 पृथ्वी – दोहन अध्याय 19 महाराज पृथुके सौ अश्वमेध यज्ञ अध्याय 20 महाराज पृथुकी यज्ञशाला में श्रीविष्णु भगवान‌ का आगमन अध्याय 21 महाराज पृथुका अपनी प्रजाको उपदेश अध्याय 22 महाराज पृथुको सनकादिका उपदेश अध्याय 23 राजा पृथुकी तपस्या और परलोकगमन अध्याय 24 पृथुकी वंशपरम्परा और प्रचेताओंको भगवान् रुद्र का उपदेश अध्याय 25 पुरञ्जनोपाख्यानका प्रारम्भ अध्याय 26 राजा पुरञ्जनका शिकार खेलने वनमें जाना अध्याय 27 पुरञ्जनपुरीपर चण्डवेगकी चढ़ाई अध्याय 28 पुरञ्जनको स्त्रीयोनिकी प्राप्ति अध्याय 29 पुरञ्जनोपाख्यानका तात्पर्य अध्याय 30 प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्‌का वरदान अध्याय 31 प्रचेताओंको श्रीनारदजीका उपदेश अध्याय 32 प्रियव्रत चरित्र श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कंध अध्याय 1 स्वायम्भुव मनुकी कन्याओंके वंशका वर्णन श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! स्वायम्भुव मनुके महारानी शतरूपासे प्रियव्रत और उत्तानपाद — इन दो पुत्रोंके सिवा तीन कन्याएँ भी हुई थीं; वे आकूति, देवहूति और प्रसूति नामसे विख्यात थीं ॥ 1 ॥ आकूतिका, यद्यपि उसके भाई थे तो भी, महारानी शतरूपाकी अनुमतिसे उन्होंने रुचि प्रजापतिके साथ ‘पुत्रिकाधर्म’ के अनुसार विवाह किया ॥ 2 ॥ प्रजापति रुचि भगवान् के अनन्य चिन्तनके कारण ब्रह्मतेजसे सम्पन्न थे उन्होंने आकूतिके गर्भसे एक पुरुष और स्त्रीका जोड़ा उत्पन्न किया ॥ 3 ॥ उनमें जो पुरुष था, वह साक्षात् यज्ञस्वरूपधारी भगवान् विष्णु थे और जो स्त्री थी, वह भगवान् से कभी अलग न रहनेवाली लक्ष्मीजीकी अंशस्वरूपा ‘दक्षिणा’ थी 4 ॥ मनुजी अपनी पुत्री आकूतिके उस परमतेजस्वी पुत्रको बड़ी प्रसन्नतासे अपने घर ले आये और दक्षिणाको रुचि प्रजापतिने अपने पास रखा ॥ 5 ॥ जब दक्षिणा विवाहके योग्य हुई तो उसने यज्ञ भगवान्‌को ही पतिरूपमें प्राप्त करनेकी इच्छा की, तब भगवान् यज्ञपुरुषने उससे विवाह किया। इससे दक्षिणाको बड़ा सन्तोष हुआ। भगवान्ने प्रसन्न होकर उससे बारह पुत्र उत्पन्न किये ॥ 6 ॥। उनके नाम हैं-तोष, प्रतोष, सन्तोष, भद्र, शान्ति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव और रोचन ॥ 7 ॥ ये ही स्वायम्भुव मन्वन्तरमें ‘तुषित’ नामके देवता हुए। उस मन्वन्तरमें मरीचि आदि सप्तर्षि थे, भगवान् यज्ञ ही देवताओंके अधीश्वर इन्द्र थे और महान् प्रभावशाली प्रियव्रत एवं उत्तानपाद मनुपुत्र थे। वह मन्वन्तर उन्हीं दोनोंके बेटों, पोतों और दौहित्रोंके वंशसे छा गया ।। 8-9 ।।प्यारे विदुरजी । मनुजीने अपनी दूसरी कन्या देवहूति | कर्दमजीको ब्याही थी। उसके सम्बन्धको प्रायः सभी बातें पुत्र तुम मुझसे सुन चुके हो | 10 || भगवान् मनुने अपनी तीसरी कन्या प्रसूतिका विवाह ब्रह्माजीके | दक्षप्रजापतिसे किया था; उसकी विशाल वंशपरम्परा तो सारी त्रिलोकीमें फैली हुई है ॥ 11 ॥ मैं कर्दमजीकी नौ कन्याओंकर, जो नौ ब्रह्मर्पियो ब्याही गयी थीं, पहले ही वर्णन कर चुका हूँ। अब उनको वंशपरम्पराका वर्णन करता हूँ, सुनो ॥ 12 ॥ मरीचि ऋषिकी पत्नी कर्दमजीकी बेटी कलासे कश्यप और | पूर्णिमा नामक दो पुत्र हुए, जिनके वंशसे यह सारा जगत् भरा हुआ है ।। 13 ।। शत्रुतापन विदुरजी पूर्णिम विरज और विश्वग नामके दो पुत्र तथा देवकुल्या नामको एक कन्या हुई। यही दूसरे जन्ममें श्रीहरिके चरणोंक धोवनसे देवनदी गङ्गाके रूपमें प्रकट हुई ॥ 14 ॥ अत्रिकी पत्नी अनसूयासे दत्तात्रेय, दुर्वासा और चन्द्रमा नामके तीन परम यशस्वी पुत्र हुए। ये क्रमशः भगवान् विष्णु, शङ्कर और ब्रह्माके अंशसे उत्पन्न हुए थे 15 ॥ विदुरजीने पूछा- गुरुजी कृपया यह बतलाइये कि जगतकी उत्पत्ति, स्थिति और अन्त करनेवाले इन | सर्वश्रेष्ठ देवोंने अत्रिमुनिके यहाँ क्या करने की इच्छासे अवतार लिया था ? ।। 16 ।। श्रीमैत्रेयजीने कहा -जब ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ महर्षि अत्रिको सृष्टि रचनेके लिये आज्ञा दी, तब वे अपनी सहधर्मिणीके सहित तप करनेके लिये ऋक्षनामक कुलपर्वतपर गये ॥ 17 ॥ वहाँ पलाश और अशोकके वृक्षोंका एक विशाल वन था। उसके सभी वृक्ष फूलोंके गुच्छोंसे लदे थे तथा उसमें सब ओर निर्विन्ध्या नदीके जलकी कलकल ध्वनि गूँजती रहती थी ॥ 18 ॥ उस वनमें वे मुनिश्रेष्ठ प्राणायामके द्वारा चित्तको वशमे करके सौ तक केवल वायु पीकर सरदी गरमी आदि द्वन्द्वोंकी कुछ भी परवा न कर एक ही पैरसे खड़े | रहे ।। 19 । उस समय वे मन-ही-मन यही प्रार्थना करते थे कि ‘जो कोई सम्पूर्ण जगत्‌के ईश्वर है, मैं उनकी शरण हूँ; वे मुझे अपने ही समान सन्तान प्रदान करें ॥ 20 ॥ तब यह देखकर कि प्राणायामरूपी ईंधनसे प्रचलित हुआ अत्रिमुनिका तेज उनके मस्तक निकलकर तीनों लोकोंको तपा रहा है-ब्रह्मा, विष्णु और महादेव-तीनों जगत्पति उनके आश्रमपर आये। उससमय अप्सरा, मुनि, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर और नाग-उनका सुयश गा रहे थे ।। 21-22 ॥ उन तीनोंका एक ही साथ प्रादुर्भाव होनेसे अत्रिमुनिका अन्तःकरण प्रकाशित हो उठा। उन्होंने एक पैरसे खड़े-खड़े ही उन देवदेवोंको देखा और फिर पृथ्वीपर दण्डके समान लोटकर प्रणाम करनेके अनन्तर अर्घ्य पुष्पादि पूजनकी सामग्री हाथमें ले उनकी पूजा की। वे तीनों अपने-अपने वाहन हंस, गरुड और बैलपर चढ़े हुए तथा अपने कमण्डलु, चक्र, त्रिशूलादि चिह्नोंसे सुशोभित थे ।। 23-24 ।। उनकी आँखोंसे कृपाकी वर्षा हो रही थी। उनके मुखपर मन्द हास्यकी रेखा थी— जिससे उनकी प्रसन्नता झलक रही थी। उनके तेजसे चौधियाकर मुनिवरने अपनी आँखे मूंद लीं ॥ 25 ॥ वे चित्तको उन्हींकी ओर लगाकर हाथ जोड़ अतिमधुर और सुन्दर भावपूर्ण वचनोंमें लोकमें सबसे बड़े उन तीनों देवों की स्तुति करने लगे ।। 26 ।। अत्रिमुनिने कहा- भगवन्! प्रत्येक कल्पके आरम्भ में जगत्‌को उत्पत्ति, स्थिति और लयके लिये जो मायाके सत्यादि तीनों गुणका विभाग करके भिन्न-भिन्न शरीर धारण करते हैं—वे ब्रह्मा, विष्णु और महादेव आप ही हैं; मैं आपको प्रणाम करता हूँ। कहिये – मैंने जिनको बुलाया था, आपमेंसे वे कौन महानुभाव हैं ? | 27 ।। क्योंकि मैंने तो सन्तानप्राप्तिकी इच्छा केवल एक सुरेश्वर भगवान्‌का ही चिन्तन किया था। फिर आप तीनोंने यहाँ पधारनेकी कृपा कैसे की ? आपलोगोंतक तो | देहधारियोंके मनकी भी गति नहीं है, इसलिये मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। आपलोग कृपा करके मुझे इसकारहस्य बतलाइये ॥ 28

भागवत-स्कंध-3

अध्याय 1 उद्भव और विदुरकी भेंट अध्याय 2 उद्धवजीद्वारा भगवान्की बाललीलाओंका वर्णन अध्याय 3 भगवान् के अन्य लीलाचरित्रोंका वर्णन अध्याय 4 उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना अध्याय 5 विदुरजीका प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्ण अध्याय 6 विराट् शरीरकी उत्पत्ति अध्याय 7 विदुरजीके प्रश्न अध्याय 8 ब्रह्माजीकी उत्पत्ति अध्याय 9 ब्रह्माजीद्वारा भगवान्‌की स्तुति अध्याय 10 दस प्रकारकी सृष्टिका वर्णन अध्याय 11 मन्वन्तरादि कालविभागका वर्णन अध्याय 12 सृष्टिका विस्तार अध्याय 13 वाराह अवतारकी कथा अध्याय 14 दितिका गर्भधारण अध्याय 15 जय-विजयको सनकादिका शाप अध्याय 16 जय-विजयका वैकुण्ठसे पतन अध्याय 17 हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षका जन्म अध्याय 18 हिरण्याक्षके साथ वाराहभगवान्‌का युद्ध अध्याय 19 हिरण्याक्षवध अध्याय 20 ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टि अध्याय 21 कर्दमजीकी तपस्या और भगवान्‌का वरदान अध्याय 22 देवहूतिके साथ कर्दम प्रजापतिका विवाह अध्याय 23 कर्दम और देवहूतिका विहार अध्याय 24 श्रीकपिलदेवजीका जन्म अध्याय 25 देवहूतिका प्रश्न तथा भगवान् कपिलद्वारा भक्तियोग का वर्णन अध्याय 26 महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी उत्पत्तिका वर्णन अध्याय 27 प्रकृति-पुरुषके विवेकसे मोक्ष प्राप्तिका वर्णन अध्याय 28 अष्टाङ्गयोगकी विधि अध्याय 29 भक्तिका मर्म और कालकी महिमा अध्याय 30 देह-गेहमें आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन अध्याय 31 मनुष्ययोनिको प्राप्त हुए जीवकी गतिका वर्णन अध्याय 32 धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गति अध्याय 33 देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कंध अध्याय 1 उद्भव और विदुरकी भेंट श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित्! जो बात तुमने पूछी है, वही पूर्वकालमें अपने सुख-समृद्धिसे पूर्ण घरको छोड़कर बनमें गये हुए विदुरजीने भगवान् मैत्रेयजीसे पूछी थी ॥ 1 ॥ जब सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवोंके दूत बनकर गये थे, तब वे दुर्योधनके महलोंको छोड़कर, उसी विदुरजीके घरमें उसे अपना ही समझकर बिना बुलाये चले गये थे ॥ 2 ॥ राजा परीक्षितने पूछा-प्रभो। यह तो बतलाइये कि भगवान् मैत्रेयके साथ विदुरजीका समागम कहाँ और किस समय हुआ था ? | 3 || पवित्रात्मा विदुरने महात्मा मैत्रेयजीसे कोई साधारण प्रश्न नहीं किया होगा; क्योंकि, उसे तो मैत्रेयजी जैसे साधुशिरोमणिने अभिनन्दनपूर्वक उत्तर देकर महिमान्वित किया था ॥ 4 ॥ सूतजी कहते हैं-सर्वज्ञ शुकदेवजीने राजा परीक्षित्के इस प्रकार पूछनेपर अति प्रसन्न होकर कहा- सुनो ।। 5 ।। श्रीशुकदेवजी कहने लगे- परीक्षित्! यह उन दिनोंकी बात है, जब अन्धे राजा धृतराष्ट्रने अन्यायपूर्वक अपने दुष्ट पुत्रोंका पालन-पोषण करते हुए अपने छोटे भाई पाण्डुके अनाथ बालकोंको लाक्षाभवनमें भेजकर आग लगवा दी || 6 || जब उनकी पुत्रवधू और महाराज युधिष्ठिरकी पटरानी द्रौपदीके केश दुःशासनने भरी सभामें खींचे, उस समय द्रौपदीकी आँखोंसे आँसुओंकी धारा वह चली और उस प्रवाहसे उसके वक्षःस्थलपर लगा हुआ केसर भी वह चला; किन्तु धृतराष्ट्रने अपने पुत्रको उस कुकर्मसे नहीं रोका ॥ 7 ॥दुर्योधनने सत्यपरायण और भोले-भाले युधिष्ठिरका राज्य जूएमें अन्यायसे जीत लिया और उन्हें वनमें निकाल दिया। किन्तु बनसे लौटनेपर प्रतिज्ञानुसार जब उन्होंने अपना न्यायोचित पैतृक भाग माँगा, तब भी मोहवश उन्होंने उन अजातशत्रु युधिष्ठिरको उनका हिस्सा नहीं दिया ॥ 8 ॥ महाराज युधिष्ठिरके भेजनेपर जब जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्णने कौरवोंको सभामें हितभरे सुमधुर वचन कहे, जो भीष्मादि सज्जनोंको अमृत-से लगे, पर कुरुराजने उनके कथनको कुछ भी आदर नहीं दिया। देते कैसे ? उनके तो सारे पुण्य नष्ट हो चुके थे ।। 9 ।। फिर जब सलाहके लिये विदुरजीको बुलाया गया, तब मन्त्रि श्रेष्ठ विदुरजीने राज्यभवनमें जाकर बड़े भाई धृतराष्ट्रके पूछने पर उन्हें वह सम्मति दी, जिसे नीति-शास्त्र के जाननेवाले पुरुष ‘विदुरनीति’ कहते हैं ।। 10 ।। उन्होंने कहा “महाराज! आप अजातशत्रु महात्मा युधिष्ठिरको उनका हिस्सा दे दीजिये। वे आपके न सहनेयोग्य अपराधको भी सह रहे हैं। भीमरूप काले नागसे तो आप भी बहुत डरते हैं; देखिये, वह अपने छोटे भाइयोंके सहित बदला लेनेके लिये बड़े क्रोधसे फुफकारें मार रहा है || 11 | आपको पता नहीं, भगवान् श्रीकृष्णने पाण्डवको अपना लिया है। वे यदुवीरोंके आराध्यदेव इस समय अपनी राजधानी द्वारकापुरीमें विराजमान है। उन्होंने पृथ्वीके सभी बड़े-बड़े राजाओंको अपने अधीन कर लिया है तथा ब्राह्मण और देवता भी उन्होंके पक्षमें हैं ।। 12 ।। जिसे आप पुत्र मानकर पाल रहे हैं तथा जिसकी हाँ में हाँ मिलाते जा रहे है, उस दुर्योधनके रूपमें तो मूर्तिमान् दोष ही आपके घरमें घुसा बैठा है। यह तो साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णसे द्वेष करनेवाला है। इसीके कारण आप भगवान् श्रीकृष्णसे विमुख होकर श्रीहीन हो रहे हैं। अतएव यदि आप अपने कुलकी कुशल चाहते हैं तो इस दुष्टको तुरन्त ही त्याग दीजिये ॥ 13 ॥ विदुरजीका ऐसा सुन्दर स्वभाव था कि साधुजन भी उसे प्राप्त करनेकी इच्छा करते थे। किंतु उनकी यह बात सुनते ही कर्ण, दुःशासन और शकुनिके सहित दुर्योधनके होठ अत्यन्त क्रोधसे फड़कने लगे और उसने उनका तिरस्कार करते हुए कहा- ‘अरे । इस कुटिल दासीपुत्रको यहाँ किसने बुलाया है ? यह जिनके टुकड़ेखा-खाकर जीता है, उन्होंके प्रतिकूल होकर शत्रुका | काम बनाना चाहता है। इसके प्राण तो मत लो, परंतु | इसे हमारे नगरसे तुरन्त बाहर निकाल दो ।। 14-15 ।। भाईके सामने ही कानोंमें बाणके समान लगनेवाले इन अत्यन्त कठोर वचनोंसे मर्माहत होकर भी विदुरजीने कुछ बुरा न माना और भगवान्की मायाको प्रबल समझकर अपना धनुष राजद्वारपर रख वे हस्तिनापुरसे चल दिये ।। 16 ।। कौरवोंको विदुर-जैसे महात्मा बड़े पुण्यसे प्राप्त हुए थे वे हस्तिनापुर से चलकर पुण्य करनेकी इच्छासे भूमण्डल तीर्थपाद भगवान्‌के क्षेत्रों विचरने लगे, जहाँ श्रीहरि, ब्रह्मा, रुद्र, अनन्त आदि अनेकों मूर्तियोंके रूपमे विराजमान हैं ।। 17 ।। जहाँ-जहाँ भगवान्की प्रतिमाओंसे सुशोभित तीर्थस्थान, नगर, पवित्र वन, पर्वत, निकुञ्ज और निर्मल जलसे भरे हुए नदी-सरोवर आदि थे, उन सभी स्थानोंमें वे अकेले ही विचरते रहे ।। 18 ।। वे अवधूत-वेषमें स्वच्छन्दता पूर्वक पृथ्वीपर विचरते थे, जिससे आत्मीय जन उन्हें | पहचान न सके। वे शरीरको सजाते न थे, पवित्र और साधारण भोजन करते, शुद्धवृत्तिसे जीवन-निर्वाह करते, प्रत्येक तीर्थमें स्नान करते, जमीनपर सोते और भगवान्‌को प्रसन्न करनेवाले व्रतोंका पालन करते रहते थे ।। 19 ।। इस प्रकार भारतवर्षमें ही विचरते विचरते जबतक वे प्रभासक्षेत्रमें पहुँचे, तबतक भगवान् श्रीकृष्णको सहायतासे महाराज युधिष्ठिर पृथ्वीका एकच्छत्र अखण्ड | राज्य करने लगे थे 20 ॥ वहाँ उन्होंने अपने कौरव बन्धुओंके विनाशका समाचार सुना, जो आपसकी। कलहके कारण परस्पर लड़-भिड़कर उसी प्रकार नष्ट हो गये थे, जैसे अपनी ही रगड़से उत्पन्न हुई आगसे बाँसोका सारा जंगल जलकर खाक हो जाता है। यह सुनकर वे | शोक करते हुए चुपचाप सरस्वतीके तीरपर आये ॥ 21 ॥वहाँ उन्होंने त्रित, उशना, मनु, पृथु, अग्नि, असित, वायु, सुदास, गौ, गुह और श्राद्धदेवके नामोंसे प्रसिद्ध ग्यारह तीर्थोंका सेवन किया ॥ 22 ॥ इनके सिवा पृथ्वीमें ब्राह्मण और देवताओंके स्थापित

भागवत-स्कंध-2

अध्याय 1 ध्यान-विधि और भगवान्‌के विराट्स्वरूपका वर्णन अध्याय 2 भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म रूपोंकी धारणा अध्याय 3 कामनाओंके अनुसार विभिन्न देवताओंकी उपासना (1) अध्याय 4 सृष्टिविषयक प्रश्न और शुकदेवजीका कथारम्भ अध्याय 5 सृष्टि-वर्णन अध्याय 6 विराट स्वरूप की विभूतियोंका वर्णन अध्याय 7 भगवान्के लीलावतारोंकी कथा अध्याय 8 राजा परीक्षित्के विविध प्रश्न अध्याय 9 ब्रह्माजीका भगवद्धामदर्शन और भगवानके द्वारा चतु:श्लोकी भगवत का उपदेश अध्याय 10 भागवतके दस लक्षण श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कंध अध्याय 1 ध्यान-विधि और भगवान्‌के विराट्स्वरूपका वर्णन श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित्! तुम्हारा लोकहितके लिये किया हुआ यह प्रश्न बहुत ही उत्तम है। मनुष्योंके लिये जितनी भी बातें सुनने, स्मरण करने या कीर्तन करनेकी हैं, उन सबमे यह श्रेष्ठ है। आत्मज्ञानी महापुरुष ऐसे प्रश्नका बड़ा आदर करते हैं ॥ 1 ॥ राजेन्द्र ! जो गृहस्थ घरके काम-धंधोंमें उलझे हुए हैं, अपने स्वरूपको नहीं जानते, उनके लिये हजारों बातें कहने-सुनने एवं सोचने, करनेकी रहती हैं ॥ 2 ॥ उनकी सारी उम्र यों ही बीत जाती है। उनकी रात नींद या स्त्री-प्रसङ्गसे कटती है और दिन धनकी हाय-हाय या कुटुम्बियोंके भरण-पोषणमें समाप्त हो जाता है ॥ 3 ॥ संसारमें जिन्हें अपना अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्धी कहा जाता है, वे शरीर, पुत्र, स्त्री आदि कुछ नहीं है, असत् हैं; परन्तु जीव उनके मोहमें ऐसा पागल सा हो जाता है कि रात-दिन उनको मृत्युका प्रास होते देखकर भी चेतता नहीं ॥ 4 ॥ इसलिये परीक्षित्! जो अभय पदको प्राप्त करना चाहता है, उसे तो सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्णकी ही लीलाओंका श्रवण, कीर्तन और स्मरण करना चाहिये ।। 5 ।। मनुष्य जन्मका यही इतना ही लाभ है कि चाहे जैसे हो— ज्ञानसे, भक्तिसे अथवा अपने धर्मकी निष्ठासे जीवनको ऐसा बना लिया जाय कि मृत्युके समय भगवान्की स्मृति अवश्य बनी रहे ॥ 6 ॥ परीक्षित् । जो निर्गुण स्वरूपमें स्थित है एवं विधि-निषेधकी मर्यादाको लाँघ चुके हैं, वे बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी प्रायः भगवान्के अनन्त कल्याणमय गुणगणोंके वर्णनमें रमे रहते है ॥ 7 ॥| द्वापरके अन्तमें इस भगवद्रूप अथवा वेदतुल्य श्रीमद्भागवत नामके महापुराणका अपने पिता श्रीकृष्णद्वैपावनसे मैने अध्ययन किया था ॥ 8॥ राजर्षे मेरी निर्गुणस्वरूप परमात्मामें पूर्ण निष्ठा है। फिर भी भगवान् श्रीकृष्णकी मधुर लीलाओंने बलात् मेरे हृदयको अपनी ओर आकर्षित कर लिया। यही कारण है कि मैंने | इस पुराणका अध्ययन किया 9 ॥ तुम भगवान्‌के परमभक्त हो इसलिये तुम्हें मैं इसे सुनाऊंगा जो इसके प्रति श्रद्धा रखते हैं, उनकी शुद्ध चित्तवृत्ति भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें अनन्य प्रेमके साथ बहुत शीघ्र लग जाती है ॥ 10 ॥ जो लोग लोक या परलोकको किसी भी वस्तुकी इच्छा रखते हैं, या इसके विपरीत | संसारमें दुःखका अनुभव करके जो उससे विरक्त हो गये हैं और निर्भय मोक्षपदको प्राप्त करना चाहते हैं, उन साधकोंके लिये तथा योगसम्पन्न सिद्ध ज्ञानियोंके लिये भी समस्त शास्त्रोंका यही निर्णय | है कि वे भगवान् के नामोंका प्रेमसे सङ्कीर्तन करें ।। 11 ।। अपने कल्याण साधनकी ओरसे असावधान रहनेवाले पुरुषको वर्षों लम्बी आयु भी अनजानमें ही व्यर्थ बीत जाती है। उससे क्या लाभ! सावधानी से ज्ञानपूर्वक बितायी हुई घड़ी, दो घड़ी भी श्रेष्ठ है; क्योंकि उसके द्वारा अपने कल्याणकी चेष्टा तो की जा सकती है 12 ॥ राजर्षि वाङ्ग अपनी आबुकी समाप्तिका समय जानकर दो घड़ीमें ही सब कुछ त्यागकर भगवान्‌के अभयपदको प्राप्त हो गये ॥ 13 ॥ परीक्षित् अभी तो तुम्हारे जीवनको अवधि सात दिनकी है। इस बीचमें ही तुम अपने परम कल्याणके लिये है जो कुछ करना चाहिये, सब कर लो 14 ॥ मृत्युका समय आनेपर मनुष्य घबराये नहीं। उसे चाहिये कि वह वैराग्यके शस्त्रसे शरीर और उससे सम्बन्ध रखनेवालोंके प्रति | ममताको काट डाले ॥ 15 ॥ धैर्यके साथ घरसे निकलकर पवित्र तीर्थके जलमें स्नान करे और पवित्र तथा एकान्त स्थानमें विधिपूर्वक आसन लगाकर बैठ जाय ।। 16 ।। तत्पश्चात् परम पवित्र ‘अ उ म्’ इन तीन मात्राओंसे युक्त प्रणवका मन-ही-मन जप करे प्राणवायुको वशमें करके मनका दमन करे और एक क्षणके लिये भी प्रणवको न भूले ॥ 17 ॥ बुद्धिकी सहायता मनके द्वारा इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे हटा ले और कर्मको वासनाओंसे चशल हुए मनको विचारके द्वारा रोककर भगवान् के मङ्गलमय रूपये लगाये ।। 18 ।। स्थिर चित्तसे भगवान श्रीविग्रहमेसे किसी एक अङ्गका ध्यान करे। इस प्रकार एक-एक अङ्गका ध्यान करते-करते विषय-वासनासे रहित मनको पूर्णरूप | से भगवान्में ऐसा तल्लीन कर दे कि फिर और किसो विषयका चिन्तन ही न हो। वही भगवान् विष्णुका परमपद है, जिसे प्राप्त करके मन भगवत्प्रेमरूप आनन्दसे भर जाता है ।॥ 19 ॥यदि भगवान्‌का ध्यान करते समय मन रजोगुणसे विक्षिप्त या तमोगुणसे मूढ़ हो जाय तो घबराये नहीं। धैर्यके साथ योगधारणाके द्वारा उसे वशमें करना चाहिये, क्योंकि धारणा उक्त दोनों गुणोंके दोषोंको मिटा देती है ।। 20 ।। धारणा स्थिर हो जानेपर ध्यानमें जब योगी अपने परम मङ्गलमय आश्रय (भगवान्) को देखता है, तब उसे तुरंत ही भक्तियोगकी प्राप्ति हो जाती है ।। 21 ।। परीक्षित्ने पूछा – ब्रह्मन् ! धारणा किस साधनसे किस वस्तुमें किस प्रकार की जाती है और उसका क्या | स्वरूप माना गया है, जो शीघ्र ही मनुष्यके मनका मैल मिटा देती है ? ॥ 22 ॥ श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित् आसन, श्वास, आसक्ति और इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके फिर बुद्धिके द्वारा मनको भगवान्‌ के स्थूल रूपमें लगाना | चाहिये ॥ 23 ॥ यह कार्यरूप सम्पूर्ण विश्व जो कुछ कभी था, है या होगा – सब का सब जिसमें दीख पड़ता है, वही भगवान्‌का स्थूल से स्थूल और विराद शरीर है 24 जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहङ्कार, महत्तत्त्व और प्रकृति — इन सात आवरणोंसे घिरे हुए इस ब्रह्माण्ड-शरीरमें जो विराट् पुरुष भगवान् हैं, वे ही धारणाके आश्रय हैं, उन्हींकी धारणा की जाती है ॥ 25 ॥ तत्त्वज्ञ पुरुष उनका इस प्रकार वर्णन करते हैं- पाताल विराट् पुरुषके तलवे हैं, उनकी एड़ियाँ और पंजे रसातल हैं, दोनों गुल्फ- एड़ीके ऊपरकी गाँठे महातल हैं, उनके पैरके पिंड़े तलातल हैं, ॥ 26 ॥ विश्व मूर्तिभगवान् के दोनों घुटने सुतल है, जो तिल और अतल है, पेड़ भूतल है, और परीक्षित्! उनके नाभिरूप सरोवरको ही आकाश कहते हैं 27 आदिपुरुष परमाको छातीको स्वर्गलोक, गलेको महलक, मुखको जनलोक और ललाटको तपोलोक कहते हैं। उन सहस्र सिरवाले भगवान्का मस्तकसमूह ही सत्यलोक है ॥ 28 ॥ इन्द्रादि | देवता उनकी भुजाएं हैं। दिशाएँ कान और शब्द श्रवणेन्द्रिय है। दोनों अधिनीकुमार उनको नासिकाकेछिद्र हैं; गन्ध घ्राणेन्द्रिय है और धधकती हुई आग उनका मुख है ॥ 29 ॥ भगवान् विष्णुके नेत्र अन्तरिक्ष हैं,

भागवत स्कंध-1

अध्याय 1 श्रीसूतजी से शौनकादि ऋषियों का प्रश्न अध्याय 2 भगवत् कथा और भगवदत भक्ति का माहात्य अध्याय 3 भगवान् के अवतारोंका वर्णन अध्याय 4 महर्षि व्यासका असन्तोष अध्याय 5 भगवान् के यश-कीर्तनकी महिमा और देवर्षि नारदजी का चरित्र अध्याय 6 नारदजी के पूर्वचरित्रका शेष भाग अध्याय 7 अर्जुनके द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन अध्याय 8 गर्भ में परीक्षित्की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान की स्तुति अध्याय 9 युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना अध्याय 10 श्रीकृष्णका द्वारका-गमन अध्याय 11 द्वारकामें श्रीकृष्ण का स्वागत अध्याय 12 परीक्षितका जन्म अध्याय 13 विदुरजीके उपदेशसे धृतराष्ट्र और गान्धारीका वन गमन अध्याय 14 अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिरका शङ्का करना अध्याय 15 पाण्डवों का परीक्षित‌ को राज्य देकर स्वर्ग प्रस्थान अध्याय 16 परीक्षित्की दिग्विजय तथा धर्म-पृथ्वी संवाद अध्याय 17 महाराज परीक्षितद्वारा कलियुगका दमन अध्याय 18 राजा परीक्षितको शृङ्गी ऋषिका शाप अध्याय 19 परीक्षितका अनशनव्रत और शुकदेवजीका आगमन श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कंध अध्याय 1 श्रीसूतजी से शौनकादि ऋषियों का प्रश्न जिससे इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं— क्योंकि वह सभी सद्रूप पदार्थोंमें अनुगत है और असत् पदार्थोंसे पृथक् है; जड नहीं, चेतन है; परतन्त्र नहीं, स्वयंप्रकाश है; जो ब्रह्मा अथवा हिरण्यगर्भ नहीं, प्रत्युत उन्हें अपने संकल्पसे ही जिसने उस वेदज्ञानका दान किया है; जिसके सम्बन्धमें बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं; जैसे तेजोमय सूर्यरश्मियोंमें जलका, जलमें स्थलका और स्थलमें जलका भ्रम होता है, वैसे ही जिसमें यह त्रिगुणमयी जाग्रत्-स्वप्र सुषुप्तिरूपा सृष्टि मिथ्या होनेपर भी अधिष्ठान सत्तासे सत्यवत् प्रतीत हो रही है, उस अपनी स्वयंप्रकाश ज्योतिसे सर्वदा और सर्वथा माया और मायाकार्यसे पूर्णतः मुक्त रहनेवाले परम सत्यरूप परमात्माका हम ध्यान करते हैं ॥ 1 ॥ महामुनि व्यासदेवके द्वारा निर्मित इस श्रीमद्भागवत महापुराणमें मोक्ष पर्यन्त फलकी कामनासे रहित परम धर्मका निरूपण हुआ है। इसमें शुद्धान्तःकरण सत्पुरुषोंके जाननेयोग्य उस वास्तविक वस्तु परमात्माका निरूपण हुआ है, जो तीनों तापोंका जड़से नाश करनेवाली और परम कल्याण देनेवाली है। अब और किसी साधन या शास्त्रसे क्या प्रयोजन जिस समय भी सुकृती पुरुष इसके श्रवणकी इच्छा करते हैं, ईश्वर उसी समय अविलम्ब उनके हृदयमें आकर बन्दी बन जाता है ॥ 2 ॥ रसके मर्मज्ञ भक्तजन। यह श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्षका पका हुआ फल है। श्रीशुकदेवरूप तोतेके* मुखका सम्बन्ध हो जानेसे यह परमानन्दमयी सुधासे परिपूर्ण हो गया है। इस | फलमें छिलका, गुठली आदि त्याज्य अंश तनिक भी नहीं है। यह मूर्तिमान् रस है। जबतक शरीरमे चेतना रहे, तबतक इस दिव्य भगवद्रसका निरन्तर बार-बार पान करते रहो। यह | पृथ्वीपर ही सुलभ है ॥ 3 ॥एक बार भगवान् विष्णु एवं देवताओंके परम पुण्यमय क्षेत्र नैमिषारण्यमें शौनकादि ऋषियोंने भगवत्प्राप्तिकी इच्छासे सहस्र वर्षोंमें पूरे होनेवाले एक महान् यज्ञका अनुष्ठान किया ॥ 4 ॥ एक | दिन उन लोगोंने प्रातः काल अग्रिहोत्र आदि नित्यकृत्योंसे निवृत्त होकर सूतजीका पूजन किया और उन्हें ऊँचे आसनपर बैठाकर बड़े आदरसे यह प्रश्न किया ॥ 5 ॥ ऋषियोंने कहा- सूतजी आप निष्पाप हैं। आपने समस्त इतिहास, पुराण और धर्मशास्त्रोंका विधिपूर्वक अध्ययन किया है तथा उनकी भलीभाँति व्याख्या भी की है ॥ 6 ॥ वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ भगवान् बादरायणने एवं भगवान्के सगुण-निर्गुण रूपको जाननेवाले दूसरे मुनियोंने जो कुछ जाना है—उन्हें जिन विषयोंका ज्ञान है, वह सब आप वास्तविक रूपमें जानते हैं। आपका हृदय बड़ा ही सरल और शुद्ध है, इसीसे आप उनकी और अनुग्रहके पात्र हुए हैं। गुरुजन अपने प्रेमी शिष्यको गुप्त से गुप्त बात भी बता दिया करते हैं।। 7-8 ।। आयुष्मन् | आप कृपा करके यह बतलाइये कि उन सब शास्त्रों पुराणों और गुरुजनोंके उपदेशोंमें कलियुगी जीवोंके परम कल्याणका सहज साधन आपने क्या निश्चय किया है ॥ 9 ॥ आप संत-समाजके भूषण है। इस कलियुग में प्रायः लोगोंकी आयु कम हो गयी है। साधन करनेमें लोगोंकी रुचि और प्रवृत्ति भी नहीं है। लोग आलसी हो गये हैं। उनका भाग्य तो मन्द है ही, समझ भी थोड़ी है। इसके साथ ही वे नाना प्रकारकी विघ्न | बाधाओंसे घिरे हुए भी रहते हैं ॥ 10 ॥ शास्त्र भी बहुत-से हैं । परन्तु उनमें एक निश्चित साधनका नहीं, अनेक प्रकारके कर्मोका वर्णन है। साथ ही वे इतने बड़े हैं कि उनका एक अंश सुनना भी कठिन है। आप परोपकारी हैं। अपनी बुद्धिसे उनका सार निकालकर प्राणियोंके परम कल्याणके लिये हम श्रद्धालुओंको सुनाइये, जिससे हमारे अन्तःकरणको शुद्धि प्राप्त हो । 11 ॥ प्यारे सूतजी ! आपका कल्याण हो। आप तो जानते ही हैं कि यदुवंशियोंके रक्षक भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण वसुदेवको धर्मपत्नी देवकीके गर्भसे क्या करने की इच्छासे अवतीर्ण हुए थे ॥ 12 ॥ हम उसे सुनना चाहते हैं। आप कृपा करके हमारे लिये उसका वर्णन कीजिये; क्योंकि भगवान्का अवतार जीवोंके परम कल्याण और उनकी भगवत्प्रेममयी | समृद्धिके लिये ही होता है। 13। यह जीव जन्म-मृत्युकेर चक्रमें पड़ा हुआ है-इस स्थितिमें भी यदि वह कभी भगवान्के मङ्गलमय नामका उच्चारण कर ले तो उसी क्षण उससे मुक्त हो जाय क्योंकि स्वयं भय भी भगवतरहता है ॥ 14 ॥ सूतजी । परम विरक्त और परम शान्त मुनिजन भगवान्के श्रीचरणोंकी शरणमें ही रहते है, अतएव उनके स्पर्शमात्रसे संसारके जीव तुरन्त पवित्र हो जाते हैं। इधर गङ्गाजीके जलका बहुत दिनोंतक सेवन किया जाय, तब कहीं पवित्रता प्राप्त होती है 15 ॥ ऐसे पुण्यात्मा भक्त जिनकी लीलाओंका गान करते रहते हैं, उन भगवान्‌का कलिमलहारी पवित्र यश भला आत्मशुद्धिको इच्छावाला ऐसा कौन मनुष्य होगा, जो श्रवण न करे ॥ 16 ॥ वे लीलासे ही अवतार धारण करते हैं। नारदादि महात्माओंने उनके उदार कर्मोंका गान किया है। हम श्रद्धालुओंके प्रति आप उनका वर्णन कीजिये ll 17 ll बुद्धिमान् सूतजी ! सर्वसमर्थ प्रभु अपनी योगमायासे स्वच्छन्द लीला करते हैं। आप उन श्रीहरिकी मङ्गलमयी अवतार कथाओंका अब वर्णन कीजिये ।। 18 ।। पुण्यकीर्ति भगवान्‌को लीला सुनने से हमें कभी भी तृप्ति नहीं हो सकती क्योंकि र श्रोताओंको पद-पदपर भगवान्की लीलाओं नये नये रसका अनुभव होता है ॥ 19 ॥ भगवान् श्रीकृष्ण अपनेको छिपाये हुए थे, लोगोंके सामने ऐसी चेष्टा करते थे। मानो कोई मनुष्य हो। परन्तु उन्होंने बलरामजी के साथ ऐसी लोलाएँ भी की हैं, ऐसा पराक्रम भी प्रकट किया है, जो मनुष्य नहीं कर सकते 20 ॥ कलियुगको आया जानकर इस वैष्णवक्षेत्रमे हम दीर्घकालीन सत्रका संकल्प करके बैठे हैं। श्रीहरिकी कथा सुननेके लिये हमें अवकाश प्राप्त है ॥ 21 ॥ | यह कलियुग अन्तःकरणकी पवित्रता और शक्तिका नाश करनेवाला है। इससे पार पाना कठिन है। जैसे समुद्र पार जानेवालोंको कर्णधार मिल जाय, उसी प्रकार इससे पार पानेकी इच्छा रखनेवाले हम लोगोंसे ब्रह्माने आपको मिलाया है ।।

पद्यपुराण-5-पाताल-खण्ड

अध्याय 148 नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा अध्याय 149 गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य अध्याय 150 गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति अध्याय 151 तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य अध्याय 152 त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा अध्याय 153 अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा अध्याय 154 मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा अध्याय 155 संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा अध्याय 156 जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा अध्याय 157 महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना अध्याय 158 त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा अध्याय 159 पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य अध्याय 160 एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन अध्याय 161 मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी ‘मोक्षा’ एकादशीका माहात्म्य अध्याय 162 पौष मासकी ‘सफला’ और ‘पुत्रदा’ नामक एकादशीका माहात्म्य अध्याय 163 माघ मासकी पतिला’ और ‘जया’ एकादशीका माहात्म्य अध्याय 164 फाल्गुन मासकी ‘विजया’ तथा ‘आमलकी एकादशीका माहात्म्य अध्याय 165 चैत्र मासकी ‘पापमोचनी’ तथा ‘कामदा एकादशीका माहात्म्य अध्याय 166 वैशाख मासकी ‘वरूथिनी’ और ‘मोहिनी’ एकादशीका माहात्म्य अध्याय 167 ज्येष्ठ मासकी’ अपरा’ तथा ‘निर्जला’ एकादशीका माहात्म्य अध्याय 168 आषाढ़ मासकी ‘योगिनी’ और ‘शयनी एकादशीका माहात्म्य अध्याय 169 श्रावणमासकी ‘कामिका’ और ‘पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य अध्याय 170 भाद्रपद मासकी ‘अजा’ और ‘पद्मा’ एकादशीका माहात्म्य अध्याय 171 आश्विन मासकी ‘इन्दिरा’ और ‘पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य अध्याय 172 कार्तिक मासकी ‘रमा’ और ‘प्रबोधिनी’ एकादशीका माहात्म्य अध्याय 173 पुरुषोत्तम मासकी ‘कमला’ और ‘कामदा एकादशीका माहात्य अध्याय 174 चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन अध्याय 175 यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य अध्याय 176 वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा अध्याय 177 नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन अध्याय 178 गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा अध्याय 179 गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन अध्याय 180 ऋषिपंचमी – व्रतकी कथा, विधि और महिमा अध्याय 181 न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा अध्याय 182 श्रीविष्णुकी महिमा – भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा अध्याय 183 श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य अध्याय 184 चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व अध्याय 185 पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन अध्याय 186 कार्तिक-व्रतका माहात्म्य – गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति अध्याय 187 कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा ‘तीर्थराज’ के उत्कर्षकी कथा अध्याय 188 कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि अध्याय 189 कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि अध्याय 190 कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार अध्याय 191 कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा अध्याय 192 पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा अध्याय 193 अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय अध्याय 194 कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम अध्याय 195 प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन अध्याय 196 शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य अध्याय 197 भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन अध्याय 198 प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा अध्याय 199 भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य अध्याय 200 भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष अध्याय 201 पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन अध्याय 202 वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य अध्याय 203 साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन अध्याय 204 अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा अध्याय 205 माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन अध्याय 206 साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन अध्याय 207 वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा अध्याय 208 श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा अध्याय 209 श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य अध्याय 210 श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य अध्याय 211 श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य अध्याय 212 श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य अध्याय 213 श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य अध्याय 214 श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य अध्याय 215 श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य अध्याय 216 श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य अध्याय 217 श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य अध्याय 218 श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य अध्याय 219 श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य अध्याय 220 श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य अध्याय 221 श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य अध्याय 222 देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन अध्याय 223 भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति अध्याय 224 सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना अध्याय 225 कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा – धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन अध्याय 226 गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति अध्याय 227 श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार अध्याय 228 यमुनातटवर्ती ‘इन्द्रप्रस्थ’ नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा अध्याय 229 निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा – शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा अध्याय 230 देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना – राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति अध्याय 231 शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार अध्याय 232 इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य अध्याय 233 वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना अध्याय 234 मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना अध्याय 235 मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना अध्याय 236 यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन अध्याय 237 महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार अध्याय 238 मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म अध्याय 239 पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन अध्याय 240 मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति अध्याय 241 मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय – स्तोत्रका वर्णन अध्याय 242 माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम अध्याय 243 माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति अध्याय 244 सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन अध्याय 245 भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण अध्याय 246 श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन अध्याय 247 वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना अध्याय 248