पद्यपुराण-4-ब्रह्म-खण्ड
अध्याय 98 शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना अध्याय 99 भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन अध्याय 100 श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था अध्याय 101 देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन अध्याय 102 श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना अध्याय 103 अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा अध्याय 104 यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना अध्याय 105 शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार अध्याय 106 शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह अध्याय 107 सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन अध्याय 108 सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना अध्याय 109 तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा अध्याय 110 राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना अध्याय 111 चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना अध्याय 112 राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण अध्याय 113 राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध अध्याय 114 पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण अध्याय 115 तेजः पुरके राजा सत्यवान्की जन्मकथा – सत्यवान्का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण अध्याय 116 शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति अध्याय 117 शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना अध्याय 118 देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना अध्याय 119 हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण अध्याय 120 अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति अध्याय 121 राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना अध्याय 122 युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना अध्याय 123 वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना अध्याय 124 गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा अध्याय 125 सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त अध्याय 126 सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन अध्याय 127 युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजितका वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना अध्याय 128 शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा अध्याय 129 शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना अध्याय 130 वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना अध्याय 131 सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा अध्याय 132 वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य अध्याय 133 श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन अध्याय 134 भगवान्के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन अध्याय 135 भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा अध्याय 136 नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्की विशेष आराधनाका वर्णन अध्याय 137 मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन अध्याय 138 दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति अध्याय 139 अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण अध्याय 140 भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा अध्याय 141 वैशाख माहात्म्य अध्याय 142 वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन’ नामक स्तोत्रका वर्णन अध्याय 143 वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा अध्याय 144 यम- ब्राह्मण संवाद – नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन अध्याय 145 तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा अध्याय 146 वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार अध्याय 147 भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान पद्यपुराण-4-ब्रह्म-खण्ड अध्याय 98 शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् । देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥ ऋषि बोले- महाभाग सूतजी हमने आपके मुखसे समूचे स्वर्गखण्डको मनोहर कथा सुनी आयुष्मन् ! अब हमलोगोंको श्रीरामचन्द्रजीका चरित्र सुनाइये। सूतजीने कहा- महर्षिगण। एक समय मुनिवर वात्स्यायनने पृथ्वीको धारण करनेवाले नागराज भगवान् अनन्त से इस परम निर्मल कथाके विषयमें प्रश्न किया। श्रीवात्स्यायन बोले भगवन् शेषनाग। मैंने आपके मुखसे संसारको सृष्टि और प्रलय आदिके विषयकी सब बातें सुन भूगोल, खगोल, ग्रह तारे और नक्षत्र आदिकी गतिका निर्णय महत्तत्त्व आदिकी सृष्टियोंके तत्त्वका पृथक् पृथक् निरूपण तथा सूर्यवंशी राजाओंके अद्भुत चरित्रका भी मैंने श्रवण किया है। इसी प्रसंग आपने भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी कथाका भी वर्णन किया है, जो अनेकों महापापोंको दूर करनेवाली है। परन्तु उन भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके अश्वमेध यज्ञकी कथा संक्षेपसे ही सुननेको मिली, अतः अब मैं उसे आपके द्वारा विस्तार के साथ सुनना चाहता हूँ। यह वही कथा है जो कहने, सुनने तथा स्मरण करनेसे बड़े-बड़े पातकोंको भी नष्ट कर डालती है। इतना ही नहीं, वह मनोवांछित वस्तुको देनेवाली तथा भक्तोंके चित्तको प्रसन्न करनेवाली है। भगवान् शेषने कहा— ब्रह्मन् ! आप ब्राह्मणकुलमें श्रेष्ठ एवं धन्यवादके पात्र हैं; क्योंकिआपको ऐसी बुद्धि प्राप्त हुई है, जो श्रीरामचन्द्रजीके युगल चरणारविन्दोंका
पद्यपुराण-3-स्वर्ग-खण्ड
अध्याय 77 आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन अध्याय 78 भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान अध्याय 79 जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा अध्याय 80 नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन अध्याय 81 विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन अध्याय 82 धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन अध्याय 83 सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य अध्याय 84 पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा अध्याय 85 ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य अध्याय 86 मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना अध्याय 87 भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा अध्याय 88 ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम अध्याय 89 ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म अध्याय 90 स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन अध्याय 91 व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन अध्याय 92 गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन अध्याय 93 वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन अध्याय 94 संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन अध्याय 95 संन्यासीके नियम अध्याय 96 भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता अध्याय 97 श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य पद्यपुराण-3-स्वर्ग-खण्ड अध्याय 77 आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन नमामि गोविन्दपदारविन्दं सन्दिरानन्दनमुनाढ्यम्। जगज्जनानां हृदि संनिविष्टं महाजनैकायनमुत्तमोत्तमम् ॥ ऋषि बोले- उत्तम व्रतका पालन करनेवाले रोमहर्षणजी! आप पुराणोंके विद्वान् तथा परम बुद्धिमान् हैं। आजसे पहले हमलोग आपके मुँह पुराणोंकी अनेकों परम पावन कथाएँ सुन चुके हैं तथा इस समय भी भगवान्की कथा वार्तामें ही लगे हैं। जीवोंके लिये सबसे महान् धर्म वही है, जिससे उनकी भगवान्में भक्ति हो अतः सूतजी! आप फिर हमें श्रीहरिकी कथा सुनाइये; क्योंकि भगवच्चर्चाके अतिरिक्त दूसरी कोई वातचीत श्मशानभूमिके समान मानी गयी है। हमने सुना है तीर्थोंके रूपमें स्वयं भगवान् विष्णु ही इस भूतलपर विराजमान हैं; इसलिये आप पुण्य प्रदान करनेवाले तीर्थोंके नाम बताइये। साथ ही यह भी कहनेकी कृपा कीजिये कि यह चराचर जगत् किससे उत्पन्न हुआ है, किसके द्वारा इसका पालन होता है तथा प्रलयके समय किसमें यह लीन होता है। जगत्में कौन-कौन से पुण्यक्षेत्र हैं? किन-किन पर्वतोंके प्रति पूज्यभाव रखना चाहिये? और मनुष्योंके पाप दूर करनेवाली परम पवित्र नदियाँ कौन-कौन-सी हैं? महाभाग ! इन सबका आप क्रमशः वर्णन कीजिये। सूतजीने कहा- द्विजवरो! पहले मैं आदि सर्गका वर्णन करता हूँ, जिसके द्वारा षड्विध ऐश्वर्यसे सम्पन्न सनातन परमात्माका ज्ञान होता है। प्रलयकालकेपश्चात् इस सृष्टिकी कोई भी वस्तु शेष नहीं रह गयी थी। उस समय केवल ज्योतिःस्वरूप ब्रह्म ही शेष था, जो सबको उत्पन्न करनेवाला है। वह ब्रहा नित्य, निरंजन, शान्त, निर्गुण, सदा ही निर्मल, आनन्दधाग और शुद्धस्वरूप है। संसार बन्धन से मुक्त होनेकी अभिलाषा रखनेवाले साधु पुरुष उसीको जाननेकी इच्छा करते हैं। वह ज्ञानस्वरूप होनेके कारण सर्वज्ञ, अनन्त, अजन्मा, अविकारी, अविनाशी, नित्यशुद्ध, अच्युत, व्यापक तथा सबसे महान् है। सृष्टिका समय आनेपर उस ब्रह्मने वैकारिक जगत्को अपनेमें लीन जानकर पुनः उसे उत्पन्न करनेका विचार किया। तब ब्रह्मसे प्रधान (मूल प्रकृति) प्रकट हुआ। प्रधानसे महत्तत्त्वकी उत्पत्ति हुई, जो सात्त्विक, राजस और तामस भेदसे तीन प्रकारका है। यह महत्तत्त्व प्रधानके द्वारा सब ओरसे आवृत है। फिर महत्तत्त्वसे वैकारिक (सात्त्विक), तैजस ( राजस) और भूतादिरूप तामस तीन प्रकारका अहंकार उत्पन्न हुआ। जिस प्रकार प्रधानसे महत्तत्त्व आवृत है, उसी प्रकार महत्तत्त्वसे अहंकार भी आवृत है। तत्पश्चात् भूतादि नामक तामस अहंकारने विकृत होकर भूत और तन्मात्राओंकी सृष्टि की। इन्द्रियाँ तैजस कहलाती हैं-वे राजस अहंकारसे प्रकट हुई हैं। इन्द्रियोंके अधिष्ठाता दस देवता वैकारिक कहे गये हैं-उनकी उत्पत्ति सात्त्विक अहंकारसे हुई है। तत्त्वका विचार करनेवाले विद्वानोंने मनको ग्यारहवींइन्द्रिय बताया है। विप्रगण! आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी- ये क्रमशः शब्दादि उत्तरोत्तर गुणोंसे युक्त हैं। ये पाँचोंभूत पृथक्-पृथक् नाना प्रकारकी शक्तियोंसे सम्पन्न हैं, किन्तु परस्पर संघटित हुए बिना वे प्रजाकी सृष्टि करनेमें समर्थ न हुए। इसलिये महत्तत्त्वसे लेकर पंचभूतपर्यन्त सभी तत्त्व परम पुरुष परमात्माद्वारा अधिष्ठित और प्रधानद्वारा अनुगृहीत होनेके कारण पूर्णरूपसे एकत्वको प्राप्त हुए। इस प्रकार एक-दूसरेसे संयुक्त होकर परस्परका आश्रय ले उन्होंने अण्डकी उत्पत्ति की। महाप्राज्ञ महर्षियो ! इस तरह भूतोंसे प्रकट हो क्रमशः वृद्धिको प्राप्त हुआ वह विशाल अण्ड पानीके बुलबुलेकी तरह सब ओरसे समान – गोलाकार दिखायी देने लगा। वह पानीके ऊपर स्थित होकर ब्रह्मा (हिरण्यगर्भ) – के रूपमें प्रकट हुए भगवान् विष्णुका उत्तम स्थान बन गया। सम्पूर्ण विश्वके स्वामी अव्यक्त स्वरूप भगवान् विष्णु स्वयं ही ब्रह्माजीका रूप धारणकर उस अण्डके भीतर विराजमान हुए। उस समय मेरु पर्वतने उन महात्मा हिरण्यगर्भके लिये गर्भको ढकनेवाली झिल्लीका काम दिया, अन्य पर्वत जरायु – जेरके स्थानमें थे और समुद्र उसके भीतरका जल था। उस अण्डमें ही पर्वत और द्वीप आदिके सहित समुद्र, ग्रहों और ताराओंके साथ सम्पूर्ण लोक तथा देवता, असुर और मनुष्योंसहित सारी सृष्टि प्रकट हुई। आदि अन्तरहित सनातन भगवान् विष्णुकी नाभिसे जो कमल प्रकट हुआ था, वही उनकी इच्छासे सुवर्णमय अण्ड हो गया। परमपुरुष भगवान् श्रीहरि स्वयं ही रजोगुणका आश्रय ले ब्रह्माजीके रूपमें प्रकट होकर संसारकी सृष्टिमें प्रवृत्त होते हैं। वे परमात्मा नारायणदेव ही सृष्टिके समय ब्रह्मा होकर समस्त जगत्की रचना करते हैं, वे ही पालनकी इच्छासे श्रीराम आदिके रूपमें प्रकट हो इसकी रक्षामें तत्पर रहते हैं तथा अन्तमें वे ही इस जगत्का संहार करनेके लिये रुद्रके रूपमें प्रकट हुए हैं। अध्याय 78 भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान सूतजी कहते हैं— महर्षिगण ! अब मैं आपलोगों से परम उत्तम भारतवर्षका वर्णन करूँगा। राजा प्रियमित्र, देव, वैवस्वत मनु पृथु इक्ष्वाकु ययाति, अम्बरीष, मान्धाता नहुष, मुचुकुन्द, कुबेर, उशीनर, ऋषभ, पुरूरवा, राजा नृग, राजर्षि कुशिक, गाधि, सोम तथा राजर्षि दिलीपको, अन्यान्य बलिष्ठ क्षत्रिय राजाओंको एवं सम्पूर्ण भूतोंको ही यह उत्तम देश भारतवर्ष बहुत ही प्रिय रहा। इस देशमें महेन्द्र, मलय, सह्य, शुक्तिमान् ऋक्षवान् विन्ध्य तथा पारियात्र- ये सात कुल पर्वत हैं। इनके आसपास और भी हजारों पर्वत हैं। भारतवर्षके लोग जिन विशाल नदियोंका जल पीते हैं, उनके नाम ये हैं-गंगा, सिन्धु, सरस्वती, गोदावरी, नर्मदा, बाहुदा, शतद्दु (सतलज), चन्द्रभागा, यमुना, दुष्टुती, विपाशा (व्यास), वेत्रवती (बेतवा, कृष्णा, वेणी, इरावती, (इरावदी), वितस्ता (झेलम), पयोष्णी, देविका, वेदस्मृति, वेदशिरा, त्रिदिया,सिन्धुलाकृमि, करीषिणी, चित्रवहा, त्रिसेना, गोमती, चन्दना, कौशिकी (कोसी), हृद्या, नाचिता, रोहितारणी, रहस्या, शतकुम्भा, सरयू, चर्मण्वती, हस्तिसोमा, दिशा, शरावती, भीमरथी, कावेरी, बालुका, तापी (ताप्ती), नीवारा, महिता, सुप्रयोगा, पवित्रा, कृष्णला, वाजिनी, पुरुमालिनी, पूर्वाभिरामा, वीरा, मालावती, पापहारिणी, पलाशिनी, महेन्द्रा, पाटलावती, असिक्नी, कुशवीरा, मरुत्वा, प्रवरा, मेना, होरा, घृतवती, अनाकती, अनुष्णी, सेव्या, कापी, सदावीरा, अधृष्या, कुशचीरा, रथचित्रा, ज्योतिरथा, विश्वामित्रा, कपिंजला, उपेन्द्रा, बहुला, कुवीरा, वैनन्दी, पिंजला, वेणा,
agni-puran-8
अध्याय – ३५१ सुबन्त-सिद्ध रूप अध्याय – ३५२ स्त्रीलिङ्ग शब्दोके सिद्ध रूप अध्याय – ३५३ नपुंसकलिङ्ग शब्दोके सिद्ध रूप अध्याय – ३५४ कारक प्रकरण अध्याय – ३५५ समास-निरूपण अध्याय – ३५६ त्रिविध तद्वित-प्रत्यय अध्याय – ३५७ उणादिसिद्ध शब्दरूपोंका दिग्दर्शन अध्याय – ३५८ तिङ् विभक्त्यन्त सिद्ध रूपों का वर्णन अध्याय – ३५९ कृदन्त शब्दोंके सिद्ध रूप अध्याय – ३६० स्वर्ग-पाताल आदि वर्ग अध्याय – ३६१ अव्यय-वर्ग अध्याय – ३६२ नानार्थ-वर्ग अध्याय – ३६३ भूमि, वनौषधि आदि वर्गः अध्याय – ३६४ मनुष्य-वर्ग अध्याय – ३६५ ब्रह्म-वर्गं अध्याय – ३६६ क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-वर्ग अध्याय – ३६७ सामान्य नाम-लिङ्ग अध्याय – ३६८ नित्य, नैमितिक और प्राकृत प्रलयका वर्णन अध्याय – ३६९ आत्यन्तिक प्रलय एवं गर्भकी उत्पत्तिका वर्णन अध्याय – ३७० शरीरके अवयव अध्याय – ३७१ प्राणियोकी मृत्यु, नरक तथा पापमूलक जन्मका वर्णन अध्याय – ३७२ यम और नियमोंकी व्याख्या; प्रणवकी महिमा तथा भगवत्पूजनका माहात्म्य अध्याय – ३७३ आसन, प्राणायाम और प्रत्याहारका वर्णन अध्याय – ३७४ ध्यान अध्याय – ३७५ धारणा अध्याय – ३७६ समाधि अध्याय – ३७७ श्रवण एवं मननरूप ज्ञान अध्याय – ३७८ निदिध्यासनरूप ज्ञान अध्याय – ३७९ भगवत्स्वरूपका वर्णन तथा ब्रह्मभावकी प्रामिका उपाय अध्याय – ३८० जड़भरत और सौवीर-नरेश का संवाद-अद्वैत ब्रह्मविज्ञानका वर्णन अध्याय – ३८१ गीता-सार अध्याय – ३८२ यमगीता अध्याय – ३८३ अग्निपुराणका माहात्म्य अग्निपुराण अध्याय – ३५१ सुबन्त-सिद्ध रूप स्कन्द कहते हैं–कात्यायन! अब मैं तुम्हारे सम्मुख विभक्ति-सिद्ध रूपोंका वर्णन करता हूँ। विभक्तियाँ दो हैं-“सुप‘ और ‘तिङ्‘। ‘सुप विभक्तियाँ सात हैं। सु औ जस्-यह प्रथमा विभक्ति है। अम् औट शस्-यह द्वितीया,’ टा भ्याम् भिस्-यह तृतीया, डे भ्याम् भ्यस् यह चतुर्थी, डसि भ्याम् भ्यस्-यह पश्चमी, डस् ओस् आम्‘-यह षष्ठी तथा डि ओस् सुप्“-यह सप्तमी विभक्ति है। ये सातों विभक्तियाँ प्रातिपदिक संज्ञावाले शब्दोंसे परे प्रयुक्त होती है ||१-३|| ‘प्रातिपदिक’ दो प्रकारका होता है-“अजन्त’ और “हलन्त”। इनमेंसे प्रत्येक पुँल्लङ्ग, स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्गके भेदसे तीन-तीन प्रकारका है। उन पुंल्लिङ्ग आदि शब्दोंके नायकोंका* यहाँ दिग्दर्शन कराया जाता है। जो शब्द नहीं कहे गये हैं(किंतु जिनके रूप इन्हींके समान होते हैं) उन्हींके ये ‘वृक्ष‘ आदि शब्द सामथर्यत: नायक हैं। ‘वृक्ष‘ शब्द पेड़का वाचक है। यह अकारान्त पुंलिङ्ग है। इसके सात विभक्तियोंमें तथा सम्बोधनमें एकवचन, द्विवचन और बहुवचनके भेदसे कुल मिलाकर चौबीस रूप होते हैं। उन सबको यहाँ उद्धृत किया जाता है।। इसी प्रकार राम, देव, इन्द्र, वरुण, भव आदि शब्दोंके रूप जानने चाहिये। ‘देव’ आदि शब्दोंके तृतीयाके एकवचनमें ‘देवेन” तथा षष्ठीके बहुवचनमें ‘देवानाम्’ इत्यादि रूप होते हैं। वहाँ ‘न’ के स्थानमें ‘ण’ नहीं होता। रेफ और षकारके बाद जो ‘न’ हो, उसीके स्थानमें ‘ण’ होता है।अकारान्त शब्दोंमें जो सर्वनाम हैं, उनके रूपोंमें कुछ भिन्नता होती है। उस भिन्नताका परिचय देनेके लिये सर्वनामका ‘प्रथम’ या ‘नायक’ जो ‘सर्व’ शब्द है, उसके रूप यहाँ दिये जाते हैं, उसी तरह अन्य सर्वनामोंके भी रूप होंगे। यथा- यहाँ रेखाङ्कित रूपोंपर दृष्टिपात कीजिये। साधारण अकारान्त शब्दोंकी अपेक्षा सर्वनाम शब्दोंके रूपोंमें भिन्नता के पाँच ही स्थल हैं। इसके बाद ‘पूर्व’ शब्द आता है। यह सर्वनाम होनेपर भी अन्य सर्वनामोंसे कुछ विलक्षण रूप रखता है। पूर्व, पर, अवर, दक्षिण, उत्तर, अपर, अधर-ये व्यवस्था और असंज्ञामें सर्वनाम हैं। “स्व” तथा “अन्तर” शब्द भी अर्थ-विशेष में ही सर्वनाम हैं। अत: उससे भिन्न अर्थमें वे असर्वनामवत् रूप धारण करते हैं। प्रथमाके बहुवचनमें तथा पश्चमी-सप्तमीके एकवचनमें पूर्वादि शब्दोंके रूप सर्वनामवत् होते हैं, किंतु विकल्पसे। अत: पक्षान्तरमें उनके असर्वनामवत् रूप भी होते ही हैं-जैसे पूर्वे पूर्वा, परे पराः, इत्यादि। पूर्वस्मात् पूर्वात्। पूर्वस्मिन्पूर्वे इत्यादि। प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय-ये शब्द सर्वनाम नहीं हैं, तथापि ‘प्रथम’ शब्दके प्रथमा बहुवचनमें-प्रथमे प्रथमा:-यह रूप होता है। “चरम’ आदि शब्दोंके लिये भी यही बात है। ‘द्वितीय’ तथा ‘तृतीय’ शब्द चतुर्थी, सर्वनामवत् रूप धारण करते हैं। यथा-द्वितीयस्मै द्वितीयाय। तृतीयस्मै तृतीयाय-इत्यादि शेष रूप वृक्षवत् होते हैं।अब आकारान्त शब्दका एक रूप उपस्थित करते हैं- खड्गपा:-खड्ग पातीति खड़गपा: अर्थात् ‘खड़ग-रक्षक’। इसका रूप यों समझना चाहिये-इसी तरह विश्वपा (विश्वपालक), गोपा (गोरक्षक), कीलालपा (जल पीनेवाला), शङ्खध्मा (शङ्ख बजानेवाला) आदि शब्दोके रूप होंगे। (अब हुस्व इकारान्त “वह्रि” शब्दका रूप प्रस्तुत करते हैं-) इकारान्त शब्दमें “सखि‘ और ‘पति‘ शब्दोंके रूप कुछ भिन्नता रखते हैं। जैसे-१-सखा, सखायौ, सखायः। २-सखायम्, सखायौ, सखीन्। तृतीयाके एकवचनमें-सख्या, चतुर्थीके एकवचनमें सख्ये, पश्चमी और षष्ठीके एकवचनमें सख्यु: तथा सतमीके एकवचनमें सख्यौ रूप होते हैं। शेष सभी रूप ‘ वह्रि” शब्दके समान हैं। ‘पति’ शब्दके प्रथमा और द्वितीया विभक्तियोंमें वह्रिवत् रूप होते हैं, शेष विभक्तियोंमें वह ‘सखि” शब्दके समान रूप रखता है। ‘अहर्पतिः‘ का अर्थ है सूर्य। यहाँ ‘पति‘ शब्द समासमें आबद्ध है। समासमें उसका रूप वह्रितुल्य हीं होता है। (अब उकारान्त शब्दका रूप प्रस्तुत करते हैं।) पहले पुंल्लिङ्ग ‘पटु’ शब्दके रूप दिये जाते हैं। पटुका अर्थ है-कुशल-निपुण।इसी तरह भानु, शम्भु विष्णु आदि शब्दोंके रूप जानने चाहिये। (अब दीर्घ ईकारान्त शब्दका रूप प्रस्तुत करते हैं।) दीर्घ ईकारान्त ‘ग्रामणी’ शब्द है। इसका अर्थ है गाँवका मुखिया। इसका रूप इस प्रकार है- १- ग्रामणीः, ग्रामण्यौ, ग्रामण्यः॥ २-ग्रामणीम्, ग्रामण्यौ, ग्रामण्यः। ३-ग्रामण्या, ग्रामणीभ्याम्, ग्रामणीभिः । ४-ग्रामण्ये, ग्रामणीभ्याम २, ग्रामणीभ्यः२ ।। ५-ग्रामण्यः२ || ६-ग्रामण्योः २॥ बहुवचन-ग्रामण्याम्।। ७-ग्रामण्याम्, ग्रामणीषु॥ इसी तरह ‘प्रधी’ आदि शब्दोंके रूप जानने चाहिये। (अब दीर्घ ऊकारान्त शब्दका रूप प्रस्तुत करते हैं।) दीर्घ ऊकारान्त “दृन्भू शब्द है। इसका अर्थ है-राजा, वज्र, सूर्य, सर्प और चक्र। इसका रूप-दृन्भूः, दृन्भ्वौ, दृन्भ्वः इत्यादि।’खलपूः‘- खलिहान या भूमिको शुद्ध-स्वच्छ करनेवाला। इसके रूप खलपू, खलप्वौ, खलप्वः इत्यादि। ‘मित्रभू:’-मित्रसे उत्पन्न। इसका रूप हैमित्रभूः, मित्रभुवौ, मित्रभुवः इत्यादि । ‘स्वभू’ का अर्थ है-स्वयम्भूः-स्वत: प्रकट होनेवाला। इसके रूप-स्वभू, स्वभुवौ, स्वभुवः इत्यादि है II४-६II’सुश्री:’का अर्थ है-सुन्दर शोभासे सम्पन्न। इसके रूप हैं-सुश्री:, सुश्रियी, सुश्रियः इत्यादि। ‘सुधी:” का अर्थ है-उत्तम बुद्धिसे युक्त विद्वान्। इसके रूप हैं-सुधी, सुधियौ, सुधियः इत्यादि। (अब ऋकारान्त शब्दका रूप प्रस्तुत करते हैं।) अब ऋकारान्त पुँल्लङ्ग ‘पितृ’ तथा ‘भ्रातृ’ शब्दोंके रूप दिये जाते हैं-“पिता’ का अर्थ हैबाप और ‘भ्राता’ का अर्थ है-भाई। “पितृ’ शब्दके सब रूप इस प्रकार हैं- १-पिता, पितरौ, पितरः ॥ २-पितरम्, पितरौ, पितॄन्।। ३-पित्रा, पितृभ्याम्, पितृभ्यः ।। ४-पित्रे, पितृभ्याम्, पितृभ्यः ।। ५-पितुः, पितृभ्याम्, पितृभ्यः ।। ६-पितुः, पित्रोः, पितॄणाम्। ७-पितरि, पित्रोः, पितृषु । सम्बो०-है पितः, हे पितरौ, हे पितरः । इसी तरह ‘भ्रातृ‘ और ‘जामातृ” शब्दोंके भी रूप होते हैं। ‘नृ‘ शब्द नरका वाचक है। इसके रूप ना, नरौ, नरः इत्यादि ‘पितृ’ शब्दवत् के तरह होते हैं। केवल षष्ठीके बहुवचनमें दो रूप होते हैं-नृणाम नृणाम्। ‘कर्तु‘ शब्दका अर्थ है करनेवाला। यह ‘तृजन्त’ शब्द है। इसके दो विभक्तियोंमें रूप इस प्रकार हैं-कर्ता, कर्तारी, कर्तार:। कर्तारम, कर्तारी, कर्नून्। शेष “पितृ” शब्दकी भाति है । ‘क्रोष्टु’ शब्द सियारका वाचक
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तीन साँ एकवर्ण आध्याय ॥ ३०१ ॥ अध्याय – ३०२ नाना प्रकार के मन्त्र और औषधोंका वर्णन अध्याय – ३०३ अष्टाक्षर मन्त्र तथा उसकी न्यासादि विधि अध्याय – ३०४ पश्चाक्षर-दीक्षा-विधान; पूजाके मन्त्र अध्याय – ३०५ पचपन विष्णुनाम अध्याय – ३०६ श्रीनरसिंह आदिके मन्त्र अध्याय – ३०७ त्रैलोक्यमोहन आदि मन्त्र अध्याय – ३०८ त्रैलोक्यमोहिनी लक्ष्मी एवं भगवती दुर्गाके मन्त्रोंका कथन अध्याय – ३०९ त्वरिता-पूजा अध्याय – ३१० अपरत्वरिता-मन्त्र एवं मुद्रा आदिका वर्णन अध्याय – ३११ त्वरिता-मन्त्र के दीक्षा-ग्रहण की विधि अध्याय – ३१२ त्वरिता-विद्यासे प्राप्त होनेवाली सिद्धियोंका वर्णन अध्याय – ३१३ नाना मन्त्रोका वर्णन अध्याय – ३१४ त्वरिताके पूजन तथा प्रयोग का विज्ञान अध्याय – ३१५ स्तम्भन आदिके मन्त्रोंका कथन अध्याय – ३१६ त्वरिता आदि विविध मन्त्र एवं कुब्जिका-विद्याका कथन अध्याय – ३१७ सकलादि मन्त्रोंके उद्धारका क्रम अध्याय – ३१८ अन्त:स्थ, कण्ठोष्ठ तथा शिवस्वरूप मन्त्रका वर्णन; अघोरास्त्र-मन्त्रका उद्धार; ‘विघ्नमर्द’ नामक मण्डल तथा गणपति-पूजनकी विधि अध्याय -३१९ वागीश्वरीकी पूजा एवं मन्त्र आदि अध्याय – ३२० सर्वतोभद्र आदि मण्डलोंका वर्णन अध्याय – ३२१ अघोरास्त्र आदि शान्ति-विधानका कथन अध्याय – ३२२ पाशुपतास्त्र-मन्त्रद्वारा शान्तिका कथन अध्याय – ३२३ गङ्गा–मन्त्र, शिवमन्त्रराज, चण्डकपालिनी-मन्त्र, क्षेत्रपाल-बीजमन्त्र, सिद्धिविधा, महामृत्युंजय, मृतसंजीवनी, ईशानादि मन्त्र तथा इनके छ: अङ्ग एवम अघोरास्त्रका कथन अध्याय – ३२४ कल्पाघोर रुद्रशान्ति अध्याय – ३२५ रुद्राक्ष-धारण, मन्त्रोंकी सिद्धादि संज्ञा तथा अंश आदिका विचार अध्याय – ३२६ गौरी आदि देवियों तथा मृत्यंजयकी पूजाका विधान अध्याय – ३२७ विभिन्न कर्मोमें उपयुक्त माला, अनेकानेक मन्त्र, लिङ्ग-पूजा तथा देवालयकी महत्ताका विचार अध्याय – ३२८ छन्दोंके गण और गुरु-लघुकी व्यवस्था अध्याय – ३२९ गायत्री आदि छन्दोंका वर्णन अध्याय – ३३० “गायत्री” से लेकर “जगती” तक छन्दोंके भेद तथा उनके देवता, स्वर, वर्णं और गोत्रका वर्णन अध्याय – ३३१ उत्कृति आदि छन्द, गण-छन्द और मात्रा-छन्दोका निरूपण अध्याय – ३३२ विषमवृत्तका वर्णन अध्याय ३३३ अर्धसमवृत्तोंका वर्णन अध्याय ३३४ समवृत्तका वर्णन अध्याय – ३३५ प्रस्तार-निरूपणा अध्याय – ३३६ शिक्षानिरूपण अध्याय – ३३७ काव्य आदिके लक्षण अध्याय – ३३८ नाटक-निरुपण अध्याय – ३३९ श्रृङ्गारादि रस, भाव तथा नायक आदिका निरूपण अध्याय – ३४० रीति-निरूपणा अध्याय – ३४१ नृत्य आदिमें उपयोगी आङ्गिक कर्म अध्याय – ३४२ अभिनय और अलंकारोंका निरूपण अध्याय – ३४३ शब्दालंकारोंका विवरण अध्याय – ३४४ अर्थालंकार निरूपण अध्याय – ३४५ शब्दार्थोंभियालंकार अध्याय – ३४६ काव्यगुण-विवेक अध्याय – ३४७ काव्यदोष-विवेक अध्याय – ३४८ एकाक्षरकोष अध्याय – ३४९ व्याकरण-सार अध्याय – ३५० “संधि” के सिद्ध रूप अग्निपुराण तीन साँ एकवर्ण आध्याय ॥ ३०१ ॥ अध्याय – ३०२ नाना प्रकार के मन्त्र और औषधोंका वर्णन अग्निदेव कहते हैं– “ऐं कुलजे ऐं सरस्वति स्वाहा“-यह ग्यारह अक्षरोंका मन्त्र मुख्य “सरस्वतीविद्या‘ है। जो क्षारलवणसे रहित आहार ग्रहण करते हुए मन्त्रोंकी अक्षरसंख्याके अनुसार उतने लाख मन्त्रका जप करता है, वह बुद्धिमान् होता है। अत्रि (द्), अग्नि (र), वामनेत्र (ई) तथा बिन्दु (. ) ‘द्रीं‘-यह मन्त्र महान् विद्रावणकारी (शत्रुको मार भगानेवाला) है। व्रज और कमल धारण करनेवाले पीत वर्णवाले इन्द्रका आवाहन करके उनकी पूजा करे और घी तथा तिलकी एक लाख आहुतियाँ दे। फिर तिलमिश्रित जलसे इन्द्रदेवताका अभिषेक करे। ऐसा करनेसे राजा आदि अपने छीने गये राज्य आदि तथा राजपुत्र आदि (मनोवाञ्छित वस्तुओं)-को पा सकते हैं। हल्लेखा (ह्रीं)- यह ‘शक्तिदेवा‘ नामसे प्रसिद्ध है। इसका उद्धार यों हैं-घोष (ह), अग्नि (र), दण्डी (ई), दण्ड (.’) ‘ह्रीं“। शिवा और शिवका पूजन करके शक्तिमन्त्र (ह्रीं)-का जप करे। अष्टमीसे लेकर चतुर्दशीतक आराधनामें संलग्र रहे। हाथोंमें चक्र, पाश, अडकुष एवम अभयकी मुद्रा धारण करनेवाली देवी की आराधना करके होम आदि करनेपर उपासक को सौभाग्य एवं कवित्वशक्तिकी प्राप्ति होती है तथा वह पुत्रवान् होता है। १-५॥ ॐ ह्रीं ॐ नमः कामाय सर्वजनहिताय सर्वजनमोहनाय प्रज्वलिताय सर्वजनहृदयं ममाऽऽत्मगतं कुरु कुरु ॐ ॥ -इसके जप आदि करनेसे यह मन्त्र सम्पूर्ण जगत् को अपने वशमें कर सकता है। ६-७ ॥ ॐ ह्रीं चामुण्डे अमुकं दह दह पच पच मम वशमानयानय स्वाहा ॐ। यह चामुण्डाका वशीकरणमन्त्र कहा गया है। स्त्रीकी चाहिये कि वशीकरणके प्रयोगकालमें त्रिफलाके ठंड़े पानीसे अपनी योनिको धोये । अश्वगन्धा, यवक्षार, हल्दी और कपूर आदिसे भी स्त्री अपनी योनिका प्रक्षालन कर सकती है। पिप्पलीके आठ तन्दुल, कालीमिर्चके बीस दाने और भटकटैयाके रसका योनिमें लेप करनेसे उस स्त्रीका पति आमरण उसके वशमें रहता है। कटीरमूल, त्रिकटु (सोंठ, मिर्च और पीपल)-का लेप भी उसी तरह लाभदायक होता है। हिम, कैथका रस, मागधीपिप्पली, मुलहठी और मधु-इनके लेपका प्रयोग दम्पतिके लिये कल्याणकारी होता है। शक्कर मिला हुआ कदम्ब-रस और मधु-इसका योनिमें लेप करनेसे भी वशीकरण होता है। सहदेई, महालक्ष्मी, पुत्रजीवी, कृताञ्जलि (लज्जावती)-इन सबका चूर्ण बनाकर सिरपर डाला जाय तो इहलोकके लिये उत्तम वशीकरणका साधन है। त्रिफला और चन्दनका काथ एक प्रस्थ अलग हो और दो कुडव अलग हो, भैंगरैया तथा नागकेसरका रस हो, उतनी ही हल्दी, क्षम्बुक, मधु, घीमें पकायी हुई हल्दी और सूखी हल्दीइन सबका लेप करे तथा बिदारीकंद और जटामांसीके चूर्णमें चीनी मिलाकर उसको खूब मथ दे। फिर दूधके साथ प्रतिदिन पीये। ऐसा करनेवाला पुरुष सैकड़ों स्त्रियोंके साथ सहवासकी शक्ति प्राप्त कर लेता है।॥ ८-१६ ॥ गुप्ता, उड़द, तिल, चावल-इन सबका चूर्ण बनाकर दूध और मिश्री मिलाये। पीपल, बाँस और कुशकी जड़, ‘वैष्णवी’ और ‘श्री’ नामक ओषधियोंकी जड़ तथा दूर्वा और अश्वगन्धाका मूल-इन सबको पुत्रकी इच्छा रखनेवाली नारी दूधके साथ पीये। कौन्ती, लक्ष्मी, शिवा और धात्री (ऑवलेका बीज), लोध्र और वटके अङ्करको स्त्री ऋतुकालमें घी और दूधके साथ पीये। इससे उसको पुत्रकी प्राप्ति होती है। पुत्रार्थिनी नारी ‘श्री’ नामक ओषधिकी जड़ और वटके अन्कुरको दूधके साथ पीये। श्री, वटङ्कर और देवी-इनके रसक नस्य ले और पीये भी। ‘श्री’ और ‘कमल’ की जड़को, अश्वत्थ और उत्तरके मूलको दूधके साथ पीये। कपासके फल और पल्लवको दूधमें पीसकर तरल बनाकर पीये। अपामार्गके नूतन पुष्पाग्रको भैंसके दूधके साथ पीये। उपर्युक्त साढ़े पाँच श्लोकोंमें पुत्रप्राप्तिके चार योग बताये गये हैं॥ १७-२१३ ॥ यदि स्त्रीका गर्भ गलित हो जाता हो तो उसे शक्कर, कमलके फ़ूल, कमलगट्टा, लोध, चन्दन और सारिवालता-इनको चावलके पानीमें पीसकर दे या लाजा, यष्टि (मुलहठी), सिता (मिश्री), द्राक्षा, मधु और धी-इन सबका अवलेह बनाकर वह स्त्री चाटे ॥ २२-२३ ॥ आटरूप (अडूसा), कलाङ्गली, काकमाची, शिफा (जटामासी) -इन सबको नाभिके नीचे पीसकर छाप दे तो स्त्री सुखपूर्वक प्रसव कर सकती हैं। ॥ २४ ॥ लाल और सफ़ेद जवाकुसुम, लाल चीता और हींगपत्री पीये। केसर, भटकटैयाकी जड़, गोपी, षष्ठी (साठीका तृण) और उत्पल-इनको बकरीके दूधमें पीसकर तैल मिलाकर खाय तो सिरमें बाल उगते हैं। अगर सिरके बाल झड़ रहे हों तो यह उनको रोकनेका उपाय है।॥ २५-२६ ॥ आंवला और भगौरैयाका एक सेर तैल, एक आढ़क दूध, षष्ठी
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अध्याय-२५१ पाशके निर्माण और प्रयोगकी विधि तथा तलवार और लाठीको अपने पास रखने एवं शत्रुपर चलानेकी उपयुक्त पद्धतिका निर्देश अध्याय-२५२ तलवारके बत्तीस हाथ, पाश, चक्र, शूल, तोमर, गदा, परशु, मुद्रर,भिन्दिपाल, वज्र, कृपाण, क्षेपणी, गदायुद्ध तथा मल्लयुद्धके दाँव और पैतरोंका वर्णन अध्याय-२५३ व्यवहारशास्त्र तथा विविध व्यवहारोका वर्णन अध्याय-२५४ ऋणादान तथा उपनिधि-सम्बन्धी विचार अध्याय-२५५ साक्षी, लेखा तथा दिव्यप्रमाणोंके विषयमें विवेचन अध्याय-२५६ पैतृक धनके अधिकारी; पत्रियोंका धनाधिकार; पितामहके धनके अधिकारी; विभाज्य और अविभाज्य धन; वर्णक्रमसे पुत्रोंके धनाधिकार; बारह प्रकारके पुत्र और उनके अधिकार; पत्नी-पुत्री आदिके, संसृष्टीके धनका विभाग; क्लीब आदिका अनधिकार; स्त्रीघन तथा उसका विभाग अध्याय-२५७ सीमा-विवाद, स्वामिपाल-विवाद, अस्वामिविक्रय, दत्ताप्रदानिक, क्रीतानुशय, अभ्युपेत्याशुश्रुषा, संविद्व्यतिक्रम, वेतनादान तथा द्यतसमाहुयका विचार अध्याय-२५८ व्यवहारके वाक्पारुष्य, दण्डपारुष्य, साहस, विक्रियासम्प्रदान, सम्भूय-समुत्थान, स्तेय, स्त्री-संग्रहण तथा प्रकीर्णक-इन विवादास्पद विषयोंपर विचार अध्याय-२५९ ऋग्विधान-विविध कामनाओंकी सिद्धिके लिये प्रयुक्त होनेवाले ऋग्वेदीय मन्त्रोंका निर्देश अध्याय-२६० यजुर्विधान-यजुर्वेदके विभिन्न मन्त्रोंका विभिन्न कार्योंके लिये प्रयोग अध्याय-२६१ सामविधान – सामवेदोक्त मन्त्रोंका भिन्न-भिन्न कार्योंके लिये प्रयोग अध्याय-२६२ अथर्वविधान-अथर्ववेदोक्त मन्त्रोंका विभिन्न कर्मोमें विनियोग अध्याय-२६३ नाना प्रकारके उत्पात और उनकी शान्तिके उपाय अध्याय-२६४ देवपूजा तथा वैश्वदेव-बलि आदिका वर्णन अध्याय-२६५ दिक्पालस्नानकी विधिका वर्णन अध्याय-२६६ विनायक-स्नानविधि अध्याय-२६७ माहेश्वर-स्नान आदि विविध स्नानोंका वर्णन; भगवान् विष्णुके पूजनसे तथा गायत्रीमन्त्रद्वारा लक्ष-होमादिसे शान्तिकी प्राप्तिका कथन अध्याय-२६८ सांवत्सर-कर्म; इन्द्र-शचीकी पूजा एवं प्रार्थना; राजाके द्वारा भद्रकाली तथा अन्यान्य देवताओंके पूजनकी विधि; वाहन आदिका पूजन तथा नीराजना अध्याय – २६९ छत्र, अश्व, ध्वजा, गज, पताका, खङ्ग, कवच और दुन्दुभिकी प्रार्थनाके मन्त्र अध्याय –२७० विष्णुपज्जरस्तोत्र का कथन अध्याय –२७१ वेदों के मन्त्र और शाखा आदि का वर्णन तथा वेदों की महिमा अध्याय – २७२ विभिन्न पुराणोंके दान तथा महाभारत-श्रवणमें दान-पूजन आदिका माहात्म्य अध्याय – २७३ सूर्यवंशका वर्णन अध्याय – २७४ सोमवंशका वर्णन अध्याय – २७५ यदुवंशका वर्णन अध्याय -२७६ श्रीकृष्णकी पत्नियों तथा पुत्रोंके संक्षेपसे नामनिर्देश तथा द्वादश-संग्रामोंका संक्षिप्त परिचय अध्याय – २७७ तुर्वसु आदि राजाओंके वंशका तथा अंगवंशका वर्णन अध्याय – २७८ पुरुवंशका वर्णन अध्याय – २७९ सिद्ध ओषधियोंका वर्णन अध्याय – २८० सर्वरोगहर औषधोका वर्णन अध्याय – २८१ रस आदिके लक्षण” अध्याय – २८२ आयुर्वेदोक्त वृक्ष-विज्ञान अध्याय – २८३ नाना रोगनाशक ओषधियोंका वर्णन अध्याय – २८४ मन्त्ररूप औषधोका कथन अध्याय – २८५ मृतसंजीवनकारक सिद्ध योगोंका कथन अध्याय – २८६ मृत्युञ्जय योगोका वर्णन अध्याय – २८७ गज-चिकित्सा अध्याय – २८८ अश्ववाहन-सार अध्याय – २८९ अश्व-चिकित्सा अध्याय – २९० अश्व-शान्ति अध्याय – २९१ गज-शान्ति अध्याय – २९२ गवायुर्वेद अध्याय – २९३ मन्त्र-विद्या अध्याय – २९४ नाग-लक्षण* अध्याय – २९५ दष्ट-चिकित्सा अध्याय – २९६ पञ्चाङ्ग-रुद्रविधान अध्याय – २९७ विषहारी मन्त्र तथा औषध अध्याय – २९८ गोनसादि-चिकित्सा अध्याय – २९९ बालादिग्रहहर बालतन्त्र अध्याय – ३०० ग्रहबाधा एवं रोगोंको हरनेवाले मन्त्र तथा औषध आदिका कथन अग्निपुराण अध्याय-२५१ पाशके निर्माण और प्रयोगकी विधि तथा तलवार और लाठीको अपने पास रखने एवं शत्रुपर चलानेकी उपयुक्त पद्धतिका निर्देश अग्निदेव कहते हैं–ब्रह्मन्! जिसने हाथ, मन और दृष्टिको जीत लिया है, ऐसा लक्ष्यसाधक नित्य सिद्धिको पाकर युद्धके लिये वाहनपर आरूढ़ हो। ‘पाश’ दस हाथ बड़ा, गोलाकार और हाथके लिये सुखद होना चाहिये। इसके लिये अच्छी मूंज, हरिणकी ताँत अथवा आकके छिलकोंकी डोरी तैयार करानी चाहिये। इनके सिवा अन्य सुदृढ़ (पट्टसूत्र आदि) वस्तुओंका भी सुन्दर पाश थनाया जा सकता हैं। उक्त सूत्रों या रस्सियोंको कई आवृति लपेटकर खूब बट ले। विज्ञ पुरुष तीस आवृत्ति करके बटे हुए सूत्र या रस्सीसे ही पाशका निर्माण करे ॥ १-३ ॥ शिक्षकोंको पाशकी शिक्षा देनेके लिये कक्षाओंमें स्थान बनाना चाहिये। पाशकों बायें हाथ में लेकर दाहिने हाथसे उधेड़े। उसे कुण्डलाकार बना, सब ओर घुमाकर शत्रुके मस्तकके ऊपर फेंकना चाहिये। पहले तिनकेके बने और चमड़ेसे मढ़े हुए पुरुषपर उसका प्रयोग करना चाहिये। तत्पश्चात् उछलतेकूदते और जोर-जोरसे चलते हुए मनुष्योंपर सम्यकरूपसे विधिवत प्रयोग करके सफलता प्राप्त कर लेनेपर ही पाशका प्रयोग करे। सुशिक्षित योद्धाको पाशद्वारा यथोचित रीतिसे जीत लेने पर ही शत्रुके प्रति पाश-बन्धनकी क्रिया करनी चाहिये ॥ ४-६ ॥ तदन्तर कमरमें म्यानसहित तलवार बाँधकर उसे बायीं ओर लटका ले और उसकी म्यानकों बायें हाथसे दृढ़ताके साथ पकड़कर दायें हाथसे तलवारकों बाहर निकाले। उस तलवारकी चौड़ाई छ: अङ्गुल और लंबाई या ऊँचाई सात हाथकी हॊ ॥७-८॥ लोहेकी बनी हुई कई शलाकाएँ और नाना प्रकारके कवच अपने आधे या समूचे हाथमें लगा ले; अगल-बगल में और ऊपर-नीचे भी शरीरकी रक्षाके लिये इन सब वस्तुओंको विधिवत् धारण करें ॥ ९ ॥ युद्धमें विजयके लिये जिस विधिसे जैसी योजना बनानी चाहिये, वह बताता हूँ, सुनो। तूणीरके चमड़ेसे मढ़ी हुई एक नयी और मजबूत लाठी अपने पास रख ले। उस लाठीकी दाहिने इाथकी औगुलियोंसे उठाकर वह जिसके ऊपर जोरसे अधात करेगा, उस शत्रुका अवश्य नाश हो जायगा। इस क्रियामें सिद्धि मिलनेपर वह दोनों हाथोंसे लाठीको शत्रुके ऊपर गिरावे। इससे अनायास ही वह उसका वध कर सकता है। इस तरह युद्धमें सिद्धिकी बात बतायी गयी। रणभूमिमें भलीभाँति संचरण के लिये अपने वाहनोंसे श्रम कराते रहना चाहिये, यह बात तुम्हें पहले बतायी गयी है। १०-१२ ॥ इस प्रकार आदि आट्रय महापुराणमें ‘धनुर्वोदका कथन’ नामक दो सों इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५१ ॥ अध्याय-२५२ तलवारके बत्तीस हाथ, पाश, चक्र, शूल, तोमर, गदा, परशु, मुद्रर,भिन्दिपाल, वज्र, कृपाण, क्षेपणी, गदायुद्ध तथा मल्लयुद्धके दाँव और पैतरोंका वर्णन अग्निदेव कहते हैं–ब्रह्मन्! भ्रान्त, उदभ्रान्त, आविद्ध, आप्लुत, विप्लुत, प्लुत (या सृत), सम्पात, समुदीर्ण, श्येनपात, आकुल, उद्धत, अवधूत, सव्य, दक्षिण, अनालक्षित, विस्फोट, करालेन्द्र, महासख, विकराल, निपात, विभीषण, भयानक, समग्र, अर्ध, तृतीयांश, पाद, पादार्थ, वारिंज, प्रत्यालीढ़, आलीढ़, वराह और लुलित-ये रणभूमिमें दिखाये जानेवाले ढाल-तलवारके बतीस हाथ (या चलानेके ढंग) हैं; इन्हें जानना चाहिये। १-४॥ परावृत, अपावृत, गृहित, लघु, ऊर्ध्वक्षिप्त, अध:क्षिप्त, संधारित, विधारित, श्येनपात, गजपात और ग्राह-ग्राह्य-ये युद्धमें ‘पाश’फेंकनेके ग्यारह प्रकार हैं। ५-६ ॥ ऋजु, आयत, विशाल, तिर्यक्र और भ्रामित-ये पाँच कर्म ‘व्यस्तपाश’ के लिये महात्माओंने बतायें हैं ॥ ७ ॥ छेदन, भेदन, पात, भ्रमण, शमन, विकर्तन तथा कर्तन-ये सात कर्म ‘चक्र के हैं ॥ ८॥ आस्फोट, क्ष्वेडन, भेद, त्रास, आन्दोलितक और आघात-ये छ: ‘शूल के कर्म जानी ॥ ९॥ द्विजोत्तम! दृष्टिघात, भुजाघात, पार्श्वघात, ऋजुपात, पक्षपात और इषुपात-ये ‘तोमर’के कार्य कहें गये हैं। १० ॥ विप्रवर! आहत, विहृत, प्रभूत, कमलासन, ततोर्ध्वगात्र, नमित, वामदक्षिण, आवृत्त, परावृत्त, पादोद्धत, अवप्लुत, हंसमर्द (या हंसमार्ग) तथा विमर्द-ये ‘गदा-सम्बन्धी’ कर्म कहे गये हैं।॥ ११-१२॥ कराल, अवधात, दंशोपप्लुत, क्षिप्तहस्त, स्थित और शून्य-ये ‘फरसे’ के कर्म समझने चाहिये ॥ १३॥ विप्रवर! ताड़न, छेदन, चूर्णन, प्लवन तथा घातन-ये ‘मुद्गर के कर्म हैं॥ १४॥ संश्रान्त, विश्रान्त, गोविसर्ग तथा सुदुर्धर-ये ‘भिन्दिपाल के कर्म हैं और ‘लगुड’के भी वे ही कर्म बताये गये हैं। १५ ॥ द्विजोत्तम! अन्त्य, मध्य, परावृत्त तथा निदेशान्त-ये ‘वज्र’ और
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अध्याय –२०१ नवव्यूहार्चन अध्याय –२०२ देवपूजा के योग्य और अयोग्य पुष्प अध्याय –२०३ नरकों का वर्णन अध्याय-२०४ मासोपवास-व्रत अध्याय-२०५ भीष्मपञ्चकव्रत अध्याय-२०६ अगस्त्यके उद्देश्यसे अर्ध्यदान एवं उनके पूजनका कथन अध्याय-२०७ कौमुद-व्रत अध्याय-२०८ व्रतदानसमुच्चय अध्याय-२०९ धनके प्रकार; देश-काल और पात्रका विचार; पात्रभेदसे दानके फल-भेद; द्रव्य-देवताओं तथा दान-विधिका कथन अध्याय-२१० सोलह महादानोंके नाम; दस मेरुदान, दस धेनुदान और विविध गोदानींका वर्णन अध्याय-२११ नाना प्रकारके दानोंका वर्णन अध्याय-२१२ विविध काम्य-दान एवं मेरुदानोका वर्णन अध्याय-२१३ पृथ्वीदान तथा गोदानकी महिमा अध्याय –२१४ नाडीचक्र का वर्णन अध्याय –२१५ संध्या – विधि अध्याय –२१६ गायत्री-मन्त्र के तात्पर्यार्थ का वर्णन अध्याय –२१७ गायत्री से निर्वाण की प्राप्ति अध्याय-२१८ राजाके अभिषेककी विधि अध्याय-२१९ राजाके अभिषेकके समय पढ़नेयोग्य मन्त्र अध्याय-२२० राजाके द्वारा अपने सहायकोंकी नियुक्ति और उनसे काम लेनेका ढंग अध्याय-२२१ अनुजीवियोंका राजाके प्रति कर्तव्यका वर्णन अध्याय-२२२ राजाके दुर्ग, कर्तव्य तथा साध्वी स्त्रीके धर्मका वर्णन अध्याय-२२३ राष्ट्रकी रक्षा तथा प्रजासे कर लेने आदिके विषयमें विचार अध्याय-२२४ अन्तःपुरके सम्बन्धमें राजाके कर्त्तव्य; स्त्रीकी विरक्ति और अनुरक्तिकी परीक्षा तथा सुगन्धित पदार्थोंके सेवनका प्रकार अध्याय-२२५ राज-धर्म–राजपुत्र-रक्षण आदि अध्याय-२२६ पुरुषार्थकी प्रशंसा; साम आदि उपायोंका प्रयोग तथा राजाकी विविध देवरूपताका प्रतिपादन अध्याय-२२७ अपराधोंके अनुसार दण्डका प्रयोग अध्याय-२२८ युद्ध-यात्राके सम्बन्धमें विचार अध्याय –२२९ अशुभ और शुभ स्वप्नों का विचार अध्याय –२३० अशुभ और शुभ शकुन अध्याय-२३१ शकुनके भेद तथा विभिन्न जीवोंके दर्शनसे होनेवाले शुभाशुभ फलका वर्णन अअध्याय-२३२ कौए, कुत्ते, गौ, घोड़े और हाथी आदिके द्वारा होनेवाले शुभाशुभ शकुनोंका वर्णन अध्याय-२३३ यात्राके मुहूर्त और द्वादश राजमण्डलका विचार अध्याय-२३४ दण्ड़, उपेक्षा, माया और साम आदि नीतियोंका उपयोग अध्याय-२३५ राजाकी नित्यचर्या अध्याय-२३६ संग्राम-दीक्षा-युद्धके समय पालन करनेयोग्य नियमोंका वर्णन अध्याय –२३७ लक्ष्मीस्तोत्र और उसका फल अध्याय –२३८ श्रीराम के द्वारा उपदिष्ट राजनीति अध्याय-२३९ श्रीरामकी राजनीति अध्याय-२४० द्वादशराजमण्डल-चिन्तन* अध्याय-२४१ मन्त्रविकल्प अध्याय-२४२ सेनाके छः भेद, इनका बलाबल तथा छः अङ्ग अध्याय –२४३ पुरुष-लक्षण-वर्णन अध्याय –२४४ स्त्री के लक्षण अध्याय-२४५ चामर, धनुष, बाण तथा खड़गके लक्षण अध्याय-२४६ रत्न-परीक्षण अध्याय-२४७ गृहके योग्य भूमि; चतुःषष्टिपद वास्तुमण्डल और वृक्षारोपणका वर्णन अध्याय-२४८ विष्णु आदिके पूजनमें उपयोगी पुष्पोंका कथन अध्याय-२४९ धनुर्वेदका’ वर्णन-युद्ध और अस्त्रके भेद, आठ प्रकारके स्थान, धनुषा, बाणको ग्रहण करने और छोड़नेकी विधि आदिका कथन अध्याय-२५० लक्ष्यवेधके लिये धनुष-बाण लेने और उनके समुचित प्रयोग करनेकी शिक्षा तथा वेध्यके विविध भेदोंका वर्णन अग्निपुराण अध्याय –२०१ नवव्यूहार्चन अग्निदेव कहते है – वशिष्ठ ! अब मैं नवव्यूहार्चन की विधि बताऊँगा, जिसका उपदेश भगवान श्रीहरि ने नारदजी के प्रति किया था | पद्ममय मंडल के बीच में ‘अं’ बीज से युक्त वासुदेव की पूजा करे (यथा – अं वासुदेवाय नम: ) | ‘आं’ बीजसे युक्त संकर्षण का अग्निकोण में, ‘अं’ बीजसे युक्त प्रद्युम्नका दक्षिण में, ‘अं:’ बीजवाले अनिरुद्ध का नैऋत्यकोण में, प्रणवयुक्त नारायण का पश्चिम में, तत्सद ब्रह्म का वायव्यकोण में, ‘ह्रं’ बीज से युक्त विष्णुका और ‘क्षौ’ बीज से युक्त नृसिंह का उत्तर दिशामें, पृथ्वी और वराह का ईशानकोण में तथा पश्चिम द्वार में पूजन करे ||१-३|| ‘कं टं शं सं’ – इन बीजों से युक्त पूर्वाभिमुख गरुड़ का दक्षिण दिशामें पूजन करें | ‘खं छं बं हूं फट’ तथा ‘खं ठं फं शं ‘ – इन बीजों से युक्त गदा की चंद्रमंडल में पूजा करे | ‘बं ण. मं क्षं’ तथा ‘शं धं दं भं हं’ – इन बीजों से युक्त श्रीदेवी का कोणभाग में पूजन करे | दक्षिण तथा उत्तर दिशामें ‘गं डं बं शं’ – इन बीजों से युक्त पुष्टिदेवी की अर्चना करे | पीठ के पश्चिम भाग में ‘धं वं‘- इन बीजों से युक्त वनमाला का पूजन करे | ‘सं हं लं’ – इन बीजों से युक्त श्रीवत्स की पश्चिम दिशामें पूजा करे और ‘छं तं यं’ – इन बीजों से युक्त कौस्तुभ का जल में पूजन करे ||४-६|| फिर दशमांग-क्रम से विष्णु का और उनके अधोभाग में भगवान् अनंतका उनके नाम के साथ ‘नम:’ पद जोडकर पूजन करे | दस (पाँच अंगन्यास तथा पाँच करन्यास ) अन्गादिका तथा महेंद्र आदि दस दिक्पालों का पूर्वादि दिशाओं में पूजन करे | पुर्वादि दिशाओं में चार कलशों का भी पूजन करें | तोरण, वितान (चँदोवा) तथा अग्नि, वायु और चंद्रमा के बीजों से युक्त मंडलों का क्रमशः ध्यान करके अपने शरीर को वंदनापूर्वक अमृत से प्लावित करे | आकाश में स्थित आत्मा के सूक्ष्मरूप का ध्यान करके यह भावना करे कि वह चंद्रमंडल से झरे हुए श्वेत अमृत की धारा में निमग्न है | प्लवन से जिसका संस्कार किया गया हैं, वह अमृत ही आत्मा का बीज है | उस अमृत से उत्पन्न होनेवाले पुरुष को आत्मा (अपना स्वरुप) माने | यह भावना करे कि ‘मैं स्वयं ही विष्णुरूप से प्रकट हुआ हूँ |’ इसके बाद द्वादश बीजों का न्यास करे | क्रमशः वक्ष:स्थल, मस्तक, शिखा, पृष्ठभाग, नेत्र तथा दोनों हाथों में ह्रदय, सिर, शिखा,पृष्ठभाग, नेत्र तथा दोनों हाथों में ह्रदय, सिर, शिखा, कवच, नेत्रत्रय और अस्त्र – इन अंगों का न्यास करे | दोनों हाथों में अस्त्र का न्यास करने के पश्च्यात साधक के शरीर में दिव्यता आ जाती है ||७-१२|| जैसे अपने शरीर में न्यास करे, वैसे ही देवता के विग्रह में भी करे तथा शिष्य के शरीर में भी उसी तरह न्यास करे | ह्रदय में जो श्रीहरि का पूजन किया जाता हूँ, उसे ‘निर्माल्यरहित पूजा’ कहा गया है | मंडल आदि में निर्माल्यरहित पूजा की जाती है | दीक्षाकाल में शिष्यों के नेत्र बंधे रहते है | उस अवस्था में इष्टदेव के विग्रहपर वे जिस फूलको फेंके, तदनुसार ही उनका नामकरण करना चाहिये | शिष्यों को वामभाग में बैठाकर अग्नि में तिल, चावल और घी की आहुति दे | एक सौ आठ आहुतियाँ देने के पश्च्यात कायशुद्धि के लिये एक सहस्र आहुतियों का हवन करे | नवव्यूहकी मूर्तियों तथा अंगों के लिये सौ से अधिक आहुतियाँ देनी चाहिये | तदनंतर पूर्णाहुति देकर गुरु उन शिष्यों को दीक्षा दे तथा शिष्यों को चाहिये कि वे धन से गुरु की पूजा करें ||१३-१६||इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘नवव्यूहर्चन वर्णन’ नामक अध्याय पूरा हुआ || – ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ – अध्याय –२०२ देवपूजा के योग्य और अयोग्य पुष्प अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! भगवान् श्रीहरि पुष्प, गंध, धुप, दीप और नैवेद्य के समर्पण से ही प्रसन्न हो जाते है | मैं तुम्हारे सम्मुख देवताओं के योग्य एवं अयोग्य पुष्पों का वर्णन करता हूँ | पूजन में मालती-पुष्प उत्तम हैं | तमाल-पुष्प भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है | मल्लिका (मोतिया) समस्त पापोंका नाश करती है तथा यूथिका (जूही) विष्णुलोक प्रदान करनेवाली है | अतिमुक्तक (मोगरा) और लोध्रपुष्प विष्णुलोक की प्राप्ति करानेवाले हैं | करवीर-कुसुमों से पूजन करनेवाला वैकुण्ठ को प्राप्त होता है तथा जपा-पुष्पों से
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अध्याय –१५१ वर्ण और आश्रम के सामान्य धर्म, वर्णों तथा विलोमज जातियों के विशेष धर्म अध्याय –१५२ गृहस्थ की जीविका अध्याय –१५३ संस्कारों का वर्णन और ब्रह्मचारी के धर्म अध्याय –१५४ विवाहविषयक बातें अध्याय –१५५ आचार का वर्णन अध्याय –१५६ द्रव्य शुद्धि अध्याय-१५७ मरणाशौच तथा पिण्डदान एवम् दाह-संस्कारकालिक कर्त्वयका कथन अध्याय-१५८ गर्भस्राव आदि सम्बन्धी अशौच अध्याय –१५९ असंस्कृत आदि की शुद्धि अध्याय –१६० वानप्रस्थ-आश्रम अध्याय –१६१ संन्यासी के धर्म अध्याय –१६२ धर्मशास्त्र का उपदेश अध्याय-१६३ श्राद्धकल्पका वर्णन अध्याय-१६4 अध्याय-१६५ विभिन्न धर्मोका वर्णन अध्याय-१६६ वर्णाश्रम-धर्म आदिका वर्णन अध्याय- १६७ ग्रहोंके अयुत-लक्ष-कोटि हवनोंका वर्णन अध्याय-१६८ महापातकोंका वर्णन अध्याय -१६९ ब्रह्महत्या आदि विविध पापोंके प्रायश्चित्त अध्याय-१७० विभिन्न प्रायश्चितोंका वर्णन अध्याय –१७१ अध्याय –१७२ समस्त पापनाशक स्तोत्र अध्याय-१७३ अनेकविध प्रायश्चित्तोंका वर्णन अध्याय-१७४ प्रायश्चित्तोंका वर्णन अध्याय-१७५ व्रतके विषयमें अनेक ज्ञातव्य बातें अध्याय -१७६ प्रतिपदा तिथि के व्रत अध्याय –१७७ द्वितीया तिथि के व्रत अध्याय –१७८ तृतीया तिथि के व्रत अध्याय –१७९ चतुर्थी तिथि के व्रत अध्याय –१८० पंचमी तिथि के व्रत अध्याय –१८१ षष्ठी तिथि के व्रत अध्याय –१८२ सप्तमी तिथिके व्रत अध्याय –१८३ अष्टमी तिथि के व्रत अध्याय –१८4 अध्याय –१८५ नवमी तिथि के व्रत अध्याय –१८६ दशमी तिथि के व्रत अध्याय –१८७ एकादशी तिथि के व्रत अध्याय –१८८ द्वादशी तिथि के व्रत अध्याय –१९१ त्रयोदशी तिथि के व्रत अध्याय –१90 अध्याय –१91 अध्याय –१९२ चतुर्दशी-सम्बन्धी व्रत अध्याय –१९३ शिवरात्रि – व्रत अध्याय –१९४ अशोक पूर्णिमा आदि व्रतों का वर्णन अध्याय –१९५ वार – सम्बन्धी व्रतों का वर्णन अध्याय –१९६ नक्षत्र-सम्बन्धी व्रत अध्याय –१९७ दिन-सम्बन्धी व्रत अध्याय –१९८ मास-सम्बन्धी व्रत अध्याय –१९९ ऋतू, वर्ष, मास, संक्रान्ति आदि विभिन्न व्रतों का वर्णन अध्याय –२०० दीपदान-व्रत की महिमा एवं विदर्भराजकुमारी ललिता का उपाख्यान अग्निपुराण अध्याय –१५१ वर्ण और आश्रम के सामान्य धर्म, वर्णों तथा विलोमज जातियों के विशेष धर्म अग्निदेव कहते हैं – मनु आदि राजर्षि जिन धर्मो का अनुष्ठान करके भोग और मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं, उनका वरुण देवताने पुष्कर को उपदेश किया था और पुष्कर ने श्रीपरशुरामजी से उनका वर्णन किया था ||१|| पुष्कर ने कहा – परशुरामजी ! मैं वर्ण, आश्रम तथा इनसे भिन्न धर्मों का आपसे वर्णन करूँगा | वे धर्म सब कामनाओं को देनेवाले हैं | मनु आदि धर्मात्माओं ने भी उनका उपदेश किया है तथा वे भगवान् वासुदेव आदि को संतोष प्रदान करनेवाले हैं | भृगुश्रेष्ठ ! अहिंसा, सत्य-भाषण, दया, सम्पूर्ण प्राणियों पर अनुग्रह, तीर्थों का अनुसरण, दान, ब्रह्मचर्य, मत्सरता का अभाव, देवता, गुरु और ब्रह्मणों की सेवा, सब धर्मों का श्रवण, पितरों का पूजन, मनुष्यों के स्वामी श्रीभगवान में सदा भक्ति रखना, उत्तम शास्त्रों का अवलोकन करना, क्रूरता का अभाव, सहनशीलता तथा आस्तिकता (ईश्वर और परलोकपर विश्वास रखना) – ये वर्ण और आश्रम दोनों के लिये ‘सामान्य धर्म’ बताये गये हैं | जो इसके विपरीत हैं, वाही ‘अधर्म’ है | यज्ञ करना और कराना, दान देना, वेद पढ़ाने का कार्य करना, उत्तम प्रतिग्रह लेना तह स्वाध्याय करना – ये ब्राह्मण के कर्म हैं | दान देना, वेदों का अध्ययन करना और विधिपूर्वक यज्ञानुष्ठान करना – ये क्षत्रिय और वैश्य के सामान्य कर्म हैं | प्रजा का पालन करना और दुष्टों को दण्ड देना – ये क्षत्रिय के विशेष धर्म हैं | खेती, गोरक्षा और व्यापार – ये वैश्य के कर्म बताये गये हैं | ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य – इन द्विजों की सेवा तथा सब प्रकार की शिल्प-रचना- ये शुद्र के कर्म हैं ||२-९|| मौंजी बंधन (यज्ञोपवीत-संस्कार) होनेसे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य – बालक का द्वितीय जन्म होता हैं; इसलिये वे ‘द्विज’ कहलाते हैं | यदि अनुलोम-क्रम से वर्णों की उत्पत्ति हो तो माता के समान बालक की जाति मानी गयी है ||१०|| विलोम-क्रम से अर्थात शुद्र के वीर्य से उत्पन्न हुआ ब्राह्मणी का पुत्र ‘चाण्डाल’ कहलाता हैं, क्षत्रिय के वीर्य से उत्पन्न होनेवाला ब्राह्मणी का पुत्र ‘सूत’ कहा गया हैं और वैश्य के वीर्य से उत्पन्न होनेपर उसकी ‘वैदेहक’ संज्ञा होती है | क्षत्रिय जाति की स्त्री के पेट से शुद्र के द्वारा उत्पन्न हुआ विलोमज पुत्र ‘पुक्कस’ कहलाता हैं | वैश्य और शुद्र के वीर्यसे उत्पन्न होनेपर क्षत्रिया के पुत्र की क्रमश: ‘मागध’ और ‘अयोगव’संज्ञा होती है | वैश्य जाति की स्त्री के गर्भ से शुद्र एवं विलोमज जातियोंद्वारा उत्पन्न विलोमज संतानों के हजारों भेद हैं | इन सबका परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध समाना जातिवालों के साथ ही होना चाहिये; अपनेसे ऊँची और नीची जाति के लोगों के साथ नहीं ||११-१३|| वध के योग्य प्राणियों का वध करना- यह चाण्डाल का कर्म बताया गया हैं | स्रियों के उपयोंग में आनेवाली वस्तुओं के निर्माण से जीविका चलाना तथा स्त्रियों की रक्षा करना – यह ‘वैदेहक’ का कार्य हैं | सुतों का कार्य है – घोड़ों का सारथिपना,’पुक्कस’ व्याध-वृत्ति से रहते हैं तथा ‘मागध’ का कार्य हैं – स्तुति करना, प्रशंसा के गीत गाना| ‘अयोगव’ का कर्म है –रंगभूमि में उतरना और शिल्प के द्वारा जीविका चलाना | ‘चाण्डाल’ को गाँव के बाहर रहना और मुर्दे से उतारे हुए वस्त्र को धारण करना चाहिये | चाण्डाल को दूसरे वर्ण के लोगों का स्पर्श नहीं करना चाहिये | ब्राह्मणों तथा गौओं की रक्षा के लिये प्राण त्यागना अथवा स्त्रियों एवं बालकों की रक्षा के लिये देह-त्याग करना वर्ण-बाह्य चाण्डाल आदि जातियों की सिद्धि का (उनकी आध्यात्मिक उन्नति) – का कारण माना गया हैं | वर्णसंकर व्यक्तियों की जाति उनके पिता-माता तथा जातिसिद्ध कर्मों से जाननी चाहिये ||१४-१८|| इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘वर्णोंतर – धम्रों का वर्णन’ नामक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ||५५|| – ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ – अध्याय –१५२ गृहस्थ की जीविका पुष्कर कहते हैं – परशुरामजी ! ब्राह्मण अपने शास्त्रोक्त कर्म से ही जीविका चलावे; क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्र के धर्म से जीवन-निर्वाह न करे | आपत्तिकाल में क्षत्रिय और वैश्य की वृत्ति ग्रहण कर ले; किन्तु शुद्र-वृत्तिसे कभी गुजारा न करे | द्विज खेती, व्यापार, गोपालन तथा कुसीद (सूद लेना) – इन वृत्तियों का अनुष्ठान करे; परन्तु वह गोरस, गुड, नमक, लाक्षा और मांस न बेचे | किसान लोग धरती को कोड़ने-जोतने के द्वारा जो कीड़े और चींटी आदि की हत्या कर डालते हैं और सोहनी के द्वारा जो पौधों को नष्ट कर डालते हैं, उससे यज्ञ और देवपूजा करके मुक्त होते हैं ||१-३|| आठ बैलों का हल धर्मानुकुल माना गया हैं | जीविका चलानेवालों का हल छ: बैलों का, निर्दयी हत्यारों का हल
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अध्याय – १०१ प्रासाद-प्रतिष्ठा अध्याय – १०२ ध्वजारोपण अध्याय – १०३ शिवलिङ्ग आदिके जीर्णोद्धारकी विधि अध्याय – १०४ प्रासादके लक्षण अध्याय – १०५ नगर, गृह आदिकी वास्तु-प्रतिष्ठा-विधि अध्याय -१०६ नगर आदिके वास्तुका वर्णन अध्याय-१०७ भुवनकोष (पृथ्वी-द्वीप आदि)-का तथा स्वायम्भुव सर्गका वर्णन अध्याय-१०८ भुवनकोश-वर्णनके प्रसंगमें भूमण्डल के द्वीप आदिका परिचय अध्याय-१०९ तीर्थ-माहात्म्य अध्याय-११० गङ्गाजीकी महिमा अध्याय – १११ प्रयाग माहात्म्य अध्याय – ११२ वाराणसी का माहात्म्य अध्याय – ११३ नर्मदा माहात्म्य अध्याय –११४ गया – माहात्म्य अध्याय –११५ गया – यात्रा की विधि अध्याय –११६ गया में श्राद्ध की विधि अध्याय –११७ श्राद्ध कल्प अध्याय –११८ भारतवर्ष का वर्णन अध्याय –११९ जम्बू आदि महाद्वीपों तथा समस्त भूमि के विस्तार का वर्णन अध्याय –१२० भुवनकोश वर्णन अध्याय-१२१ ज्योतिःशास्त्रका कथन अध्याय-१२२ कालगणना-पञ्चाङ्गमान-साधन अध्याय-१२३ युद्धजयार्णव-सम्बन्धी विविध योगोंका वर्णन अध्याय-१२४ युद्धजयार्णवीय ज्यौतिषशास्त्रका सार अध्याय-१२५ युद्धजयार्णव-सम्बन्धी अनेक प्रकारके चक्रोंका वर्णन अध्याय-१२६ नक्षत्र-सम्बन्धी पिण्डका वर्णन अध्याय-१२७ विभिन्न बलोंका वधर्णन अध्याय-१२८ कोष्टचक्रका वर्णन अध्याय-१२९ अर्घकाण्डका प्रतिपादन अध्याय-१३० विविध मण्डलोंका वर्णन अध्याय-१३१ घातचक्र आदिका वर्णन अध्याय-१३२ सेवाचक्र आदिका निरूपण अध्याय-१३३ नाना प्रकारके बालोंका विचार अध्याय-१३४ त्रैलोक्यविजया –विद्या अध्याय-१३५ संग्रामविजय-विद्या अध्याय-१३६ नक्षत्रोंके त्रिनाड़ी-चक्र या फणीश्वर-चक्र का वर्णन अध्याय-१३७ महामारी-विद्याका वर्णन अध्याय-१३८ तन्त्रविषयक छ; कर्मोका वर्णन अध्याय-१३९ साठ संवत्सरोंमें मुख्य-मुख्यके नाम एवं उनके फल-भेदका कथन अध्याय-१४० वश्य आदि योगोंका वर्णन अध्याय- १४१ छत्तीस कोष्ठोंमें निर्दिष्ट ओषधियोंके वैज्ञानिक प्रभावका वर्णन अध्याय-१४२ चोर और जातकका निर्णय, शनि–दृष्टि, दिन-राहु, फणि-राहु, तिथि-राहु तथा विष्टि-राहुके फल और अपराजिता-मन्त्र एवं ओषधिका वर्णन अध्याय-१४३ कुब्जिका-सम्बन्धी न्यास एवं पूजनकी विधि अध्याय-१४४ कुब्जिकाकी पूजा-विधिका वर्णन अध्याय-१४५ मालिनी आदि नाना प्रकारके मन्त्र और उनके षोढा-न्यास अध्याय-१४६ त्रिखण्डी-मन्त्रका वर्णन, पीठस्थानपर पूजनीय शक्तियों तथा आठ अष्टक देवियोंका कथन अध्याय-१४७ गुह्राकुब्जिका, नवा त्वरिता तथा दूतियोंके मन्त्र एवं न्यास-पूजन आदिका वर्णन अध्याय-१४८ संग्राम-विजयदायक सूर्य-पूजनका वर्णन अध्याय-१४९ होमके प्रकार-भेद एवम विविध फ़लोंका कथन अध्याय –१५० मन्वन्तरों का वर्णन अग्निपुराण अध्याय – १०१ प्रासाद-प्रतिष्ठा भगवान् शिव कहते हैं–स्कन्द! अब मैं प्रासाद (मन्दिर)-की स्थापनाका वर्णन करता हूँ। उसमें चैतन्यका सम्बन्ध दिखा रहा हूँ। जहाँ मन्दिरके गुंबजकी समाप्ति होती है, वहाँ पूर्ववेदीके मध्यभागमें आधारशक्तिका चिन्तन करके प्रणत्र-मन्त्रसे कमलका न्यास करे। उसके ऊपर सुवर्ण आदि धातुओंमेंसे किसी एकका बना हुआ। कलश स्थापित करे। उसमें पञ्चगव्य, मधु और दूध पड़ा हुआ हो। रत्न आदि पाँच वस्तुएँडाली गयी हो। कलशपर गन्धका लेप हुआ हो। वह वस्त्रसे आवृत हो तथा उसे सुगन्धित पुष्पोंसे सुवासित किया गया हो। उस कलशके मुखमें आम आदि पाँच वृक्षोंके पाल्लव डाले गये हों। हृदय-मन्त्रसे हृदय-कमलकी भावना करके उस कलशको वहाँ स्थापित करना चाहिये॥ १-३ ॥ तदनन्तर गुरु पूरक प्राणायामके द्वारा श्वासको भीतर लेकर, शरीरके द्वारा सकलीकरण क्रियाका सम्पादन करके, स्व-सम्बन्धी मन्त्रसे कुम्भक प्राणायामद्वारा प्राणवायुको भीतर अवरुद्ध करे। फिर भगवान् शंकरकी आज्ञासे सर्वात्मासे अभिन्न आत्मा (जीवचैतन्य)-को जगावे।। तत्पश्चात्, रेचक प्राणायामाद्वारा द्वादशान्त-स्थानसे ‘ प्रज्वलित अग्निकणके समान जीव चैतन्यको लेकर कलशके भीतर स्थापित करे और उसमें आतिवाहिक शरीरका न्यास करके उसके गुणोंके बोधक काल आदिका एवं ईश्वरसहित पृथ्वी–पर्यन्त तत्त्व– समुदायका भी उसमें निवेश करे॥ ४-७ ॥ इसके बाद उक्त कलशमें दस नाड़ियों, दस प्राणों, (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय तथा मन, बुद्धि और अहंकार-इन) तेरह इन्द्रियों तथा उनके अधिपतियोंकीं भी उस कलशमें स्थापना करके, प्रणव आदि नाम-मन्त्रोंसे उनका पूजन करके, प्रणव आदि नाम-मन्त्रोंसे उनका पूजन करे। अपने-अपने कार्यके कारकरूपसे जो मायापाशके नियामक है, उनका प्रेरक विधेश्वारोंका तथा सर्वव्यापी शिवका भी अपने-अपने मन्त्रद्वारा वहाँ न्यास और पूजन करें। समस्त अङ्गोंका भी न्यास करके अवरोधिनी-मुद्राद्वारा उन सबका निरोध करे। अथवा सुवर्ण आदि धातुओंद्वारा निर्मित पुरुषकी आकृति, जो ठीक मानव-शरीरके तुल्य हो, लेकर उसे पूर्ववत् पञ्चगव्य एवं कसैले जल आदिसे संस्कृत (शुद्ध) करे। फिर उसे शय्यापर आसीन करके उमापति रुद्रदेवका ध्यान करते हुए शिव-मन्त्रसे उस पुरुष-शरीरमें व्यापक रूपसे उन्हींका न्यास करे॥ ८-११३ ॥ उनके संनिधानके लिये होम, प्रोक्षण, स्पर्श एवं जप करे। संनिधापन तथा रोधक आदि सारा कार्य भागत्रय-विभागपूर्वक करे। इस प्रकार प्रकृति-पर्यन्त न्यास सारा विधान पूर्ण करके उस पुरुषकों पूर्वोत कलशमें स्थापित कर दे॥ १२-१३॥ अध्याय – १०२ ध्वजारोपण भगवान् शंकर कहते हैं–स्कन्द! देव-मन्दिरमें शिखर, ध्वजदण्ड एवं ध्वजकी प्रतिष्ठा जिस प्रकार बतायी गयी है, उसका तुमसे वर्णन। करता हूँ। शिखरके आधे भागमें शूलका प्रवेश हो अथवा सम्पूर्ण शूलके आधे भागका शिखरमें प्रवेश कराकर प्रतिष्ठा करनी चाहिये। ईटोंके बने हुये मन्दिरमें लकड़ीका शूल होना चाहिये और प्रस्तरनिर्मित मन्दिरमें प्रस्तरका विष्णु आदिके मन्दिरमें कलशको चक्र से संयुक्त करना चाहिये। वह कलश देवमूर्तिकी मापके अनुरूप ही होना चाहिये। कलश यदि त्रिशूलसे युक्त हो तो ‘अग्रचूल’ या अगचूड़ नामसे प्रसिद्ध होता है ।।१-३।। यदि उसके मस्तक-भागमें शिवलिङ्ग हो तो उसे ‘ईश शूल’ कहते हैं। अथवा शिरोभागमें बिजौंरे नीबूकी आकृतिसे युक्त होनेपर भी उसका यही नाम है। शैव-शास्त्रोंमें वैसे शूलका वर्णन मिलता है। जिसकी ऊँचाई जङ्गावेदीके बराबर अथवा जड़ावेदीके आधे मापकी हो, वह’चित्रध्वज’ कहा गया है। अथवा उसका मान दण्ड़के बराबर या अपनी इच्छा के अनुसार रखे। जो पीठकों आवेष्टित कर ले, वह ‘महाध्वज’ कहा गया है। चौदह, नौ अथवा छ: हाथोक मापका दण्ड क्रमशः उत्तम, मध्यम और अधम माना गया है-यह विद्वान् पुरुषोंद्वारा जाननेके योग्य है। ध्वजका दण्ड बाँसका अथवा साख्नु आदिका हो तो सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाला होता है।॥ ४-७ ॥ यह ध्वज आरोपण करते समय यदि टूट जाय तो राजा अथवा यजमानके लिये अनिष्टकारक होता हैं-ऐसा जानना चाहिये। उस दशा में बहुरूप-मन्त्रद्वारा पूर्ववत् शान्ति करे। द्वारपाल आदिका पूजन तथा मन्त्रोंका तर्पण करके ध्वज और उसके दण्डकी अस्त्र-मन्त्रसे नहलावे। गुरु इसी मन्त्रसे ध्वजका प्रोक्षण करके मिट्टी तथा कसैले जल आदिसे मन्दिरको भी स्नान करावे। चूलक (ध्वजके ऊपरी भाग)-में गन्धादिका लेप करके उसे वस्त्रसे आच्छादित करे। फिर पूर्ववत् उसे शय्यापर रखकर उसमें लिंगकी भाँती न्यास करना चाहिये। परंतु चूलकमें ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्तिका न्यास न करे। वहाँ विशेषार्थ बोधिका चतुर्थी भी वाब्छित नहीं है और न उसके लिये कुम्भ या कुण्डकी ही कल्पना आवश्यक है।॥ ८-१२ ॥ दण्डमें आत्मतत्वका, विद्यातत्वका तथा सद्योजात आदि पाँच मुखोंका न्यास करे। फिर ध्वजमें शिवतत्वक न्यास करे। वहाँ निष्कल शिवका न्यास करके हृदय आदि अङ्गोकी पूजा करे। तदनन्तर मन्त्रज्ञ गुरु ध्वज और ध्वजाग्रभागमें संनिधीकरणके लिये फडन्त संहिता-मन्त्रोद्वारा प्रत्येक भागमें होम करे। किसी और प्रकारसे भी कहीं जो ध्वज-संस्कार किया गया है, वह भी इस प्रकार अस्त्र-याग करके ही करना चाहिये। ये सब बातें मनीषी पुरुषोंने करके दिखायी हैं॥ १३-१५ ॥ मन्दिरको नहलाकर, पुष्पहार और वस्त्र आदिसे विभूषित करके, जंधावेदीके उपरी भागमें त्रितत्त्व आदिका न्यास, होम आदिका विधान एवं शिवका पूर्ववत् पूजन करके, उनके सर्वतत्वमय व्यापक स्वरूपका ध्यान करते हुए व्यापक-न्यास करे। भगवान् शिवके चरणारविन्दमें अनन्त एवं कालरूद्रकी भावना करके पीठमें कूष्माण्ड, हाटक, पाताल तथा
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अध्याय – ५१ सूर्यादि ग्रहों तथा दिक्पाल आदि देवताओंकी प्रतिमाओंके लक्षणोंका वर्णन अध्याय – ५२ चौंसठ योगिनी आदिकी प्रतिमाओंके लक्षण अध्याय – ५३ लिङ्ग आदिका लक्षण अध्याय – ५४ लिङ्ग-मान एवं व्यक्ताव्यक्त लक्षण आदिका वर्णन अध्याय – ५५ पिण्डिकाका लक्षण अध्याय – ५६ प्रतिष्ठाके अङ्गभूत मण्डपनिर्माण, तोरण-स्तम्भ, कलश एवं ध्वजके स्थापना तथा दस दिक्पाल-यागका वर्णन अध्याय – ५७ कलशाधिवासकी विधिका वर्णन अध्याय – ५८ भगवद्विग्रहको स्नान और शयन करानेकी विधि अध्याय – ५९ अधिवास-विधिका वर्णन अध्याय – ६० वासुदेव आदि देवताओंके स्थापनकी साधारण विधि अध्याय – ६१ अवभृथस्नान, द्वारप्रतिष्ठा और ध्वजारोपण आदिकी विधिका वर्णन अध्याय – ६२ लक्ष्मी आदि देवियोंकी प्रतिष्ठाकी सामान्य विधि अध्याय – ६३ विष्णु आदि देवताओंकी प्रतिष्ठाकी सामान्य विधि तथा पुस्तक-लेखन-विधि अध्याय – ६४ कुआँ, बावड़ी और पोखरे आदिकी प्रतिष्ठाकी विधि अध्याय – ६५ सभा-स्थापन और एकशालादि भवनके निर्माण आदिकी विधि, गृहप्रवेशका क्रम तथा गोमातासे अभ्युदयके लिये प्रार्थना अध्याय – ६६ देवता-सामान्य-प्रतिष्ठा अध्याय – ६७ जीणोद्धार-विधि अध्याय – ६८ उत्सव-विधिका कथन अध्याय – ६९ स्नपनोत्सवके विस्तारका वर्णन अध्याय – ७० वृक्षोंकी प्रतिष्ठाकी विधि अध्याय – ७१ गणपतिपूजनकी विधि अध्याय – ७२ स्नान, संध्या और तर्पणकी विधिका वर्णन अध्याय – ७३ सूर्यदेवकी पूजा-विधिका वर्णन अध्याय – ७४ शिवपूजाकी विधि अध्याय – ७५ शिवपूजाके अङ्गभूत होमकी विधि अध्याय – ७६ चण्डकी पूजाका वर्णन अध्याय – ७७ घरकी कपिला गाय, चूल्हा, चक्की, ओखली, मूसल, झाडू और खंभे आदिका पूजन एवं प्राणाग्निहोत्रकी विधि अध्याय – ७८ पवित्राधिवासनकी विधि अध्याय – ७९ पवित्रारोपणकी विधि अध्याय – ८० दमनकारोपण की विधि अध्याय – ८१ समयाचार-दीक्षाकी विधि अध्याय – ८२ समय-दीक्षाके अन्तर्गत संस्कार-दीक्षाकी विधिका वर्णन अध्याय – ८३ निर्वाण-दीक्षाके अन्तर्गत अधिवासनकी विधि अध्याय -८४ निर्वाण-दीक्षाके अन्तर्गत निवृत्तिकला-शोधन-विधि अध्याय – ८५ निर्वाण-दीक्षाके अन्तर्गत प्रतिष्ठाकलाके शोधनकी विधिका वर्णन अध्याय – ८६ निर्वाण-दीक्षाके अन्तर्गत विद्याकलाका शोधन अध्याय – ८७ निर्माण-दीक्षाके अंतर्गत शान्तिकलाका शोधन अध्याय – ८८ निवणि-दीक्षाकी अवशिष्ट विधिका वर्णन अध्याय – ८९ एकतत्व-दीक्षाकी विधि * अध्याय – ९० अभिषेक आदिकी विधिका वर्णन अध्याय – ९१ देवार्चनकी महिमा तथा विविध मन्त्र एवं मण्डलका कथन अध्याय – ९२ प्रतिष्ठाके अङ्गभूत शिलान्यासकी विधिका वर्णन अध्याय – ९३ वास्तुपूजा-विधि अध्याय – ९४ शिलान्यासकी विधि अध्याय – ९५ प्रतिष्ठा-काल-सामग्री आदिकी विधिका कथन अध्याय – ९६ प्रतिष्ठा में अधिवास की विधि अध्याय – ९७ शिव-प्रतिष्ठाकी विधि अध्याय – ९८ गौरी-प्रतिष्ठा-विधि अध्याय – ९९ सूर्यदेवकी स्थापनाकी विधि अध्याय – १०० द्वारप्रतिष्ठा-विधि अग्निपुराण अध्याय – ५१ सूर्यादि ग्रहों तथा दिक्पाल आदि देवताओंकी प्रतिमाओंके लक्षणोंका वर्णन श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैं–ब्रह्मन्! सात अश्वोंसे जुते हुए एक पहियेवाले रथपर विराजमानसूर्यदेवकी प्रतिमाको स्थापित करना चाहिये । भगवान् सूर्य अपने दोनों हाथोंमें दो कमल धारण करते हैं। उनके दाहिने भागमें दावात और कलम लिये दण्ड़ी खड़े हैं और वाम भागमें पिङ्गल हाथमें दण्ड लिये द्वारपर विद्यमान हैं। ये दोनों सूर्यदेवके पार्षद हैं। भगवान् सूर्यदेवके उभय पार्श्वमें बालव्यजन (चवर) लिये ‘राज्ञी’ तथा ‘निष्प्रभा’ खड़ी हैं। अथवा घोड़ेपर चढ़े हुए एकमात्र सुर्यकी ही प्रतिमा बनानी चाहिये। समस्त दिक्पाल हाथोंमें वरद मुद्रा, दो-दो कमल तथा शस्त्र लिये क्रमशः पूर्वादि दिशाओंमें स्थित दिखाये जाने चाहिये ॥ १-३ ॥ बारह दलोंका एक कमल-चक्र बनावे । उसमें सूर्य, अर्यमा * आदि नामवाले बारह आदित्योंका क्रमश: बारह दलोंमें स्थापन करे। यह स्थापना वरुण-दिशा एवं वायव्यकोणसे आरम्भ करके नैऋत्यकोणके अन्ततक के दलोंमें होनी चाहिये। उक्त आदित्यगण चार-चार हाथ वाले हों और उन हाथोंमें मुदूर, शूल, चक्र एवं कमल धारण किये हों। अग्निकोणसे लेकर नैऋत्यतक, नैऋत्यसे वायव्यतक, वायव्यसे ईशानतक और वहाँसे अग्निकोणतक के दलोंमें उक्त आदित्योंकी स्थिति जाननी चाह्रियै ॥ ४॥ बारह आदित्योंके नाम इस प्रकार हैं-वरुण, सूर्य, सहस्त्रांशु, धाता, तपन, सविता, गभस्तिक, रवि, पर्जन्य, त्वष्टा, मित्र और विष्णु। ये मेष आदि बारह राशियोंमें स्थित होकर जगत् को ताप एवं प्रकाश देते हैं। ये वरुण आदि आदित्य क्रमश: मार्गशीर्ष मास (या वृश्चिक राशि)-से लेकर कार्तिक मास (या तुलाराशि)-तकके मासों (एवं राशियों)-में स्थित होकर अपना कार्य सम्पन्न करते हैं। इनकी अङ्गकान्ति क्रमश: काली, लाल, कुछ–कुछ लाल, पीली, पाण्डुवर्ण, श्वेत, कपिलवर्ण, पीतवर्ण, तोतेके समान हरी, धवलवर्ण, धूम्रवर्ण और नीली है। इनकी शक्तियाँ द्वादशदल कमलके केसरोंके अग्रभागमें स्थित होती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-इडा, सुषुम्ना, विश्वार्चि, इन्दु प्रमर्दिनी (प्रवर्द्धिनी), प्रहर्षिणी, महाकाली, कपिला, नीलाम्बर, वनान्तस्था और अमृताख्या। वरुण आदिकी जो अङ्गकान्ति है, वही इन शक्तियोंकी भी है। केसरोंके अग्रभागोंमें इनकी स्थापना करे। सूर्यदेवका तेज प्रचण्ड और मुख विशाल है। उनके दो भुजाएँ हैं। वे अपने हाथोंमें कमल और खड्ग धारण करते हैं। ५-१० ॥ चन्द्रमा कुण्डिका तथा जपमाला धारण करते हैं। मङ्गलके हाथोंमें शक्ति और अक्षमाला शोभित होती हैं। बुध के हाथोंमें धनुष और अक्षमाला शोभा पाते हैं। बृहस्पति कुण्डिका और अक्षमालाधारी हैं। शुक्रका भी कुण्डिका और अक्षमालाधारी हैं। शनि किङ्गिणी-सूत्र धारण करते हैं। राहु अर्धचन्द्रधारी है तथा केतुके हाथमें खङ्ग और दीपक शोभा पाते हैं। अनन्त, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शङ्क और कुलिक आदि सभी मुख्य नागगण सूत्रधारी होते हैं। फन ही इनके मुख हैं। ये सब-के-सब महान् प्रभापुञ्जसे उद्भसित होते हैं। इन्द्र वज्रधारी हैं। ये हाथीपर आरूढ होते हैं। अग्निका वाहन बकरा है। अग्निदेव शक्ति धारण करते हैं। यम दण्डधारी हैं और भैंसेपर आरूढ़ होते हैं। निऋति खड्गधारी हैं और मनुष्य उनका वाहन है। वरुण मकरपर आरूढ़ हैं और पाश धारण करते हैं। वायुदेव वज्रधारी हैं और मृग उनका वाहन हैं। कुबेर भेड़पर चढ़ते और गदा धारण करते हैं। ईशान जटाधारी हैं और वृषभ उनका वाहन हैं। समस्त लोकपाल द्विभुज हैं। विश्वकर्मा अक्षसूत्र धारण करते हैं। हनुमानजीके हाथमें वज्र है। उन्होंने अपने दोनों पैरोंसे एक असुरको दबा रखा है। किंनर-मूर्तियाँ हाथमें वीणा लिये हों और विद्याधर माला धारण किये आकाशमें स्थित दिखाये जाय। पिशाचोंके शरीर दुर्बल-कङ्कालमात्र हों। वेतालोंके मुख विकराल हों। क्षेत्रपाल शूलधारी बनाये जाय। प्रेतोंके पेट लंबे और शरीर कृश हों।॥ १६-१८॥ इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५१ ॥ अध्याय – ५२ चौंसठ योगिनी आदिकी प्रतिमाओंके लक्षण श्रीभगवान् बोले–ब्रह्मन्! अब मैं चौंसठ यौगिनियोंका वर्णन करुँगा। इनका स्थान क्रमशः पूर्वदिशासे लेकर ईशानपर्यन्त है। इनके नाम इस प्रकार हैं- १. अक्षोभ्या, २. रूक्षकर्णी, ३. राक्षसी, ४. क्षपणा, ५. क्षमा, ६. पिङ्गाक्षी, ७. अक्षया, ८. क्षेमा, ९. इला, १०. नीलालया, ११. लोला, १२. रक्ता (या लत्ता), १३. बलाकेशी, १४. लालसा, १५ विमला, १६. दुर्गा (अथवा हुताशा), १७. विशालाक्षी, १८. ह्रींकारा (या हुंकारा), १९. वडवामुखी, २०. महाक्रूरा, २१. क्रोधना, २२. भयंकरी, २३. महानना, २४. सर्वज्ञा, २५. तरला, २६. तारा, २७. ऋग्वेदा, २८, हयानना, २९. सारा, ३०. रससंग्राही (अथवा सुसंग्राही या रुद्रसंग्राही), ३१. शबरा (या शम्वरा), ३२. तालजङ्गिका, ३३. रक्ताक्षी, ३४.
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अध्याय – १ मंगलाचरण तथा अग्नि और वसिष्ठ के संवाद-रूप से अग्निपुराण का आरम्भ अध्याय – २ मत्स्यावतार की कथा अध्याय – ३ समुद्र-मन्थन, कुर्म तथा मोहिनी-अवतार की कथा अध्याय – ४ वराह, नृसिंह, वामन और परशुराम – अवतार की कथा अध्याय – ५ श्रीरामावतार-वर्णन के प्रसंग में रामायण-बालकाण्ड की संक्षिप्त कथा अध्याय – ६ अयोध्याकाण्ड की संक्षिप्त कथा अध्याय – ७ अरण्यकाण्ड की संक्षिप्त कथा अध्याय – ८ किष्किन्धाकाण्ड की संक्षिप्त कथा अध्याय – ९ सुन्दरकाण्ड की संक्षिप्त कथा अध्याय – १० युद्धकाण्ड की कथा अध्याय – ११ उत्तरकाण्ड की कथा अध्याय – १२ हरिवंश का वर्णन एवं श्रीकृष्णावतार की कथा अध्याय – १३ महाभारत की संक्षिप्त कथा अध्याय – १४ कौरव और पांडवों का युद्ध तथा उसका परिणाम अध्याय – १५ यदुकुल का संहार और पांडवों का स्वर्गगमन अध्याय – १६ बुद्ध और कल्कि-अवतारों की कथा अध्याय – १७ जगतकी सृष्टि का वर्णन अध्याय – १८ स्वायम्भुव मनु के वंश का वर्णन अध्याय – १९ कश्यप आदि के वंश का वर्णन अध्याय – २० सर्ग का वर्णन अध्याय – २१ विष्णु आदि देवताओं की सामान्य पूजा का विधान अध्याय – २२ पूजा के अधिकार की सिद्धि के लिये सामान्यत: स्नान-विधि अध्याय – २३ देवताओं तथा भगवान विष्णु की सामान्य पूजा-विधि अध्याय – २४ कुण्ड – निर्माण एवं अग्नि – स्थापन – सम्बन्धी कार्य आदि का वर्णन अध्याय – २५ वासुदेव, संकर्षण आदि के मंत्रो का निर्देश एक व्यूह से लेकर द्वादश व्यूह तक के व्यूहों का एवं पंचविंश और षडविंश व्यूहों का वर्णन अध्याय – २६ मुद्राओं के लक्षण अध्याय – २७ शिष्यों को दीक्षा देने की विधि का वर्णन अध्याय – २८ आचार्य के अभिषेक का विधान अध्याय – २९ मन्त्र-साधन-विधि, सर्वतोभद्रादि मण्डलों के लक्षण अध्याय- ३० भद्रमण्डल आदिकी पूजन-विधिका वर्णन अध्याय- ३१ अपामार्जन-विधान एवं कुशापामार्जन नामक स्तोत्रका वर्णन अध्याय- ३२ निर्वाणादि-दीक्षाकी सिद्धिके उद्देश्यसे सम्पादनीय संस्कारोका वर्णन अध्याय- ३३ पवित्रारोपण, भूतशुद्धि, योगपीठस्थ देवताओं तथा प्रधान देवताके पार्षद-आवरणदेवोंकी पूजा अध्याय – ३४ पावित्रारोपण के लिए पूजा-होमादि की विधि अध्याय – ३५ पवित्राधिवासन – विधि अध्याय – ३६ भगवान् विष्णु के लिये पवित्रारोपण की विधि अध्याय – ३७ संक्षेप से समस्त देवताओं के लिये साधारण पवित्रारोपण की विधि अध्याय – ३८ देवालय-निर्माण से प्राप्त होनेवाले फल आदि का वर्णन अध्याय – ३९ विष्णु आदि देवताओं की स्थापना के लिये भूपरिग्रह का विधान अध्याय – ४० वास्तुमंडलवर्ती देवताओं के स्थापन, पूजन, अर्घ्यदान तथा बलिदान आदि की विधि अध्याय – ४१ शिलान्यास की विधि अध्याय – ४२ प्रसाद –लक्षण – वर्णन अध्याय – ४३ मन्दिरके देवताकी स्थापना और भूतशान्ति आदिका कथन अध्याय – ४४ वासुदेव आदिकी प्रतिमाओंके लक्षण अध्याय – ४५ पिण्डिका आदिके लक्षण अध्याय -४६ शालग्राम-मूर्तियोके लक्षण अध्याय – ४७ शालग्राम-विग्रहोंकी पूजाका वर्णन अध्याय – ४८ चतुर्विशति-मूर्तिस्तोत्र एवं द्वादशाक्षर स्तोत्र अध्याय-४९ मत्स्यादि दशावतारोंकी प्रतिमाओंके लक्षणोंका वर्णन अध्याय – ५० चण्डी आदि देवी-देवताओंकी प्रतिमाओंके लक्षण List Item अग्निपुराण अध्याय – १ मंगलाचरण तथा अग्नि और वसिष्ठ के संवाद-रूप से अग्निपुराण का आरम्भ श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम् । ब्रह्माणं वह्रिमिन्द्रादीन वासुदेवं नमाम्यहम् ।। ‘लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय, महादेवजी, ब्रह्म़ा, अग्नि, इन्द्र आदि देवताओं तथा भगवान वासुदेव को मैं नमस्कार करता हूँ’ ।।१।। नैमिषारण्य की बात है । शौनक आदि ऋषि यज्ञोंद्वारा भगवान विष्णु का यजन कर रहे थे । उस समय वहाँ तीर्थयात्रा के प्रसंग से सूतजी पधारे । महर्षियों ने उनका स्वागत-सत्कार करके कहा ।।२।। ऋषि बोले : सूतजी ! आप हमारी पूजा स्वीकार करके हमें वह सारसे भी सारभूत तत्त्व बतलाने की कृपा करें, जिसके जान लेनेमात्र से सर्वज्ञता प्राप्त होती है ।।३।। सूतजी ने कहा : ऋषियों ! भगवान विष्णु ही सारसे भी सारतत्व हैं । वे सृष्टि और पालन आदि के कर्ता और सर्वत्र व्यापक हैं । ‘वह विष्णुस्वरूप ब्रह्म मैं ही हूँ’ – इसप्रकार उन्हें जान लेनेपर सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है । ब्रह्म के दो स्वरुप जानने के योग्य हैं –शब्दब्रह्म और परब्रह्म । दो विद्याएँ भी जानने के योग्य हैं – अपरा विद्या और परा विद्या । यह अथर्ववेद की श्रुतिका कथन है । एक समय की बात हैं, मैं, शुकदेवजी तथा पैल आदि ऋषि बदरिकाश्रम को गये और वहाँ व्यासजी को नमस्कार करके हमने प्रश्न किया । तब उन्होंने हमे सारतत्त्व का उपदेश देना आरम्भ किया ।। ४ – ६ ।। व्यासजी बोले : सूत ! तुम शुक आदि के साथ सुनो । एक समय मुनियों के साथ मैंने महर्षि वसिष्ठजी से सारभूत परात्पर ब्रह्म के विषय में पूछा था । उस समय उन्होंने मुझे जैसा उपदेश दिया था, वही तुम्हें बतला रहा हूँ ।। ७ ।। वसिष्ठजी ने कहा : व्यास ! सर्वान्तर्यामी ब्रह्म के दो स्वरुप हैं । मैं उन्हें बताता हूँ, सुनो ! पूर्वकाल में ऋषि-मुनि तथा देवताओं सहित मुझसे अग्निदेवने इस विषय में जैसा, जो कुछ भी कहा था, वही मैं (तुम्हें बता रहा हूँ) । अग्निपुराण सर्वोत्कृष्ट है । इसका एक-एक अक्षर ब्रह्मविद्या हैं, अतएव यह ‘परब्रह्मरूप’ है । ऋग्वेद आदि सम्पूर्ण वेद-शास्त्र अपरब्रह्मा है । परब्रह्मास्वरूप अग्निपुराण सम्पूर्ण देवताओं के लिये परम सुखद है । अग्निदेवद्वारा जिसका कथन हुआ है, वह आग्नेयपुराण वेदों के तुल्य सर्वमान्य हैं । यह पवित्र पुराण अपने पाठकों और श्रोताजनों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला हैं । भगवान विष्णु ही कालाग्रिरूप से विराजमान हैं । वे ही ज्योतिर्मय परात्पर परब्रह्म हैं । ज्ञानयोग तथा कर्मयोग द्वारा उन्हीं का पूजन होता है । एक दिन उन विष्णुस्वरुप अग्निदेव से मुनियोंसहित मैंने इसप्रकार प्रश्न किया ।।८ – ११।। वसिष्ठजी ने पूछा : अग्निदेव ! संसारसागर से पार लगाने के लिये नौकारूप परमेश्वर ब्रह्म के स्वरुप का वर्णन कीजिये और सम्पूर्ण विद्याओं के सारभूत उस विद्या का उपदेश दीजिये, जिसे जानकर मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है ।।१२।। अग्निदेव बोले : वशिष्ठ ! मैं ही विष्णु हूँ, मैं ही कालाग्निरुद्र कहलाता हूँ । मैं तुम्हें सम्पूर्ण विद्याओं की सारभूता विद्याका उपदेश देता हूँ, जिसे अग्निपुराण कहते है । वही सब विद्याओं का सार हैं, वह ब्रह्मस्वरूप हैं । सर्वमय एवं सर्वकारणभूत ब्रह्म उससे भिन्न नहीं हैं । उसमें सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर, वंशानुचरित आदि का तथा मत्स्यकूर्म आदि रूप धारण करनेवाले भगवान का वर्णन हैं । ब्रह्मन ! भगवान विष्णु की स्वरुपभूता दो विद्याएँ हैं – एक परा और दूसरी अपरा । ऋक, यजु:, साम और अथर्वनामक वेद, वेद के छहों अंग-शिक्षा, कल्प, व्याकरण,