Shree Naval Kishori

नारद पुराण उत्तरभाग

अध्याय १०३ महर्षि वसिष्ठाका मान्धाताको एकादशीव्रतकी महिमा सुनाना

पान्तु वो जलदश्यामा: शारंगज्याघातकर्कशा: ।

कैलोक्यमण्डपस्तम्भाश्चत्वारो हरिबाहव : ॥ १ ॥

   ‘ जो मेघके समान श्यामवर्ण हैं, शाङर्गधनुषकी प्रत्यञ्चाके आघात (रगड़)-से कठोर हो गयी हैं तथा त्रिभुवनरूपी विशाल भवनको खड़े रखनेके लिये मानो खंभेके समान हैं, भगवान् विष्णुकी वे चारों भुजाएँ आप लोगोंकी रक्षा करें ।’

सुरासुरशिरोरत्ननिरघृष्टमणिरञ्जितम् ।

रिपादाम्बुजद्वन्द्वभाष्टप्रदमस्तु नः ॥ २॥

   ‘ भगवान् श्रीहरिके वे युगल चरणारविन्द हमारे अभीष्ट मनोरथोंकी पूर्ति करें, जो देवताओं और असुरोंके मस्तकपर स्थित रत्नमय मुकुटकी घिसी हुई मणियोंसे सदा अनुरञ्जित रहते हैं । ‘

   मान्धाताने (वसिष्ठजीसे) पूछाद्विजोत्तम ! जो भयंकर पापरूपी सूखे या गीले ईंधनको जला सके, ऐसी अग्नि कौन है? यह बतानेकी कृपा करें । ब्रह्मपुत्र ! विप्र-शिरोमणे ! तीनों लोकोंमें त्रिविध पाप-तापके निवारणका कोई भी ऐसा सुनिश्चित उपाय नहीं है, जो आपको ज्ञात न हो । अज्ञानावस्थामें किये हुए पापको ‘शुष्क’ और जान-बूझकर किये हुए पातकको ‘ आर्द्र ’ कहा गया है । वह भूत, वर्तमान अथवा भविष्य कैसा ही क्यों न हो, किस अग्निसे दग्ध हो सकता है? यह जानना मुझे अभीष्ट है ।

   वसिष्ठजी बोले- नृपश्रेष्ठ ! सुनो, जिस अग्निसे ‘ शुष्क ‘ अथवा ‘ आर्द्र ‘ पाप पूर्णत: दग्ध हो सकता है, वह उपाय बताता हूँ । जो मनुष्य भगवान् विष्णुके दिन (एकादशी तिथि) आनेपर जितेन्द्रिय हो उपवास करके भगवान् मधुसूदनकी पूजा करता है, आँवलेसे स्नान करके रातमें जागता है, वह पापोंको धो बहा देता है । राजन् ! एकादशी नामक अग्निसे, पातकरूपी ईंधन सौ वर्षोसे संचित हो तो भी शीघ्र ही भस्म हो जाता है । नरेश्वर ! मनुष्य जबतक भगवान् पद्मनाभके शुभदिवस-एकादशी तिथिको उपवासपूर्वक व्रत नहीं करता, तभीतक इस शरीरमें पाप ठहर पाते हैं । सहस्त्रों अश्वमेध और सैकड़ों राजसूय यज्ञ एकादशीव्रतकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं हो सकते । प्रभो ! एकादश इन्द्रियोंद्वारा जो पाप किया जाता है, वह सब-का-सब एकादशीके उपवाससे नष्ट हो जाता है । राजन् ! यदि किसी दूसरे बहानेसे भी एकादशीको उपवास कर लिया जाय तो वह यमराजका दर्शन नहीं होने देती। यह एकादशी स्वर्ग और मोक्ष देनेवाली   है । राज्य और पुत्र प्रदान करनेवाली है । उत्तम स्त्रीकी प्राप्ति करानेवाली तथा शरीरको नीरोग बनानेवाली है । राजन्! एकादशीसे अधिक पवित्र न गङ्गा है, न गया, न काशी है, न पुष्कर । कुरुक्षेत्र नर्मदा, देविका, यमुना तथा चन्द्रभागा भी एकादशीसे बढ़कर पुण्यमय नहीं हैं । राजन् ! एकादशीका व्रत करनेसे भगवान् विष्णुका धाम अनायास ही प्राप्त हो जाता है । एकादशीको उपवासपूर्वक रातमें जागरण करनेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके लोकमें जाता है । राजेन्द्र ! एकादशीव्रत करनेवाला पुरुष मातृकुल, पितृकुल तथा पत्नीकुलकी दस-दस पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है महाराज ! वह अपनेको भी वैकुण्ठमें ले जाता है । एकादशी चिन्तामणि अथवा निधिके समान है । संकल्पसाधक कल्पवृक्ष एवं वेदवाक्योंके समान है । नरश्रेष्ठ ! जो मनुष्य द्वादशी ( एकादशीयुक्त )- की शरण लेते हैं, वे चार भुजाओंसे युक्त हो गरुड़की पीठपर वनमाला और पीताम्बरसे सुशोभित हो भगवान् विष्णुके धाममें जाते हैं । महीपते ! यह मैंने द्वादशी ( एकादशीयुक्त )- का प्रभाव बताया है । यह घोर-पापरूपी ईंधनके लिये अग्निके समान है । पुत्र-पौत्र आदि विपुल योगों ( अप्राप्त वस्तुओं ) अथवा भोगोंकी इच्छा रखनेवाले धर्मपरायण मनुष्योंको सदा एकादशीके दिन उपवास करना चाहिये । नरश्रेष्ठ ! जो मनुष्य आदरपूर्वक एकादशीव्रत करता है, वह माताके उदरमें प्रवेश नहीं करता ( उसकी मुक्ति हो जाती है ) । अनेक पापोंसे युक्त मनुष्य भी निष्काम या सकामभावसे यदि एकादशीका व्रत करता है तो वह लोकनाथ भगवान् विष्णुके अनन्त पद ( वैकुण्ठ धाम )- को प्राप्त कर लेता है ।

अध्याय १०४ तिथिके विषयमें अनेक ज्ञातव्य बातें विद्धा तिथिका निषेध

वसिष्ठजी कहते हैंराजन्‌ ! एकादशी तथा भगवान्‌ विष्णुकी महिमासे सम्बन्ध रखनेवाले सूतपुत्रके उस वचनको जो समस्त पापराशियोंका निवारण करनेवाला था, सुनकर सम्पूर्ण श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने पुन: निर्मल हृदयवाले पौराणिक सूतपुत्रसे पूछा—मानद ! आप व्यासजीकी कृपासे अठारह पुराण और महाभारतको भी जानते हैं । पुराणों और स्मृतियोंमें ऐसी कोई बात नहीं है, जिसे आप न जानते हों । हम लोगोंके हृदयमें एक संशय उत्पन्न हो गया है । आप ही विस्तारसे समझाकर यथार्थरूपसे उसका निवारण कर सकते हैं । तिथिके मूल भाग (प्रारम्भ)-में उपवास करना चाहिये या अन्तमें ? देवकर्म हो या पितृकर्म उसमें तिथिके किस भागमें उपवास करना उचित है? यह बतानेकी कृपा करें ।

   सौतिने कहामहर्षियो ! देवताओंकी प्रसन्नताके लिये तो तिथिके अन्तभागमें ही उपवास करना उचित है । वही उनकी प्रीति बढ़ानेवाला है । पितरोंको तिथिका मूलभाग ही प्रिय है-ऐसा कालज्ञ पुरुषोंका कथन है । अत: दसगुने फलकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको तिथिके अन्तभागमें ही उपवास करना चाहिये । धर्मकामी पुरुषोंको पितरोंकी तृप्तिके लिये तिथिके मूलभागको ही उत्तम मानना चाहिये । विप्रगण  ! धर्म, अर्थ तथा कामकी इच्छावाले मनुष्योंको चाहिये कि द्वितीया, अष्टमी, षष्ठी और एकादशी तिथियाँ यदि पूर्वविद्धा हों अर्थात्‌ पहलेवाली तिथिसे संयुक्त हों तो उस दिन व्रत न करें । द्विजवरो ! सप्तमी, अमावास्या, पूर्णिमा तथा पिताका वार्षिक श्राद्धदिन—इन दिनोंमें पूर्वविद्धा तिथि ही ग्रहण करनी चाहियेव । सूर्योदयके समय यदि थोड़ी भी पूर्व तिथि हो तो उससे वर्तमान तिथिको पूर्वविद्धा माने, यदि उदयके पूर्वसे ही वर्तमान तिथि आ गयी हो तो उसे ‘ प्रभूता ‘ समझे । पारण तथा मनुष्यके मरणमें तत्कालवर्तिनी तिथि ग्राह्म करने योग्य मानी गयी है । पितृकार्यमें वही तिथि ग्राह्म है जो सूर्यास्तकालमें मौजूद रहे । विप्रवरो ! तिथिका प्रमाण सूर्य और चन्द्रमाकी गतिपर निर्भर है । चन्द्रमा और सूर्यकी गतिका ज्ञान होनेसे कालवेत्ता विद्वान्‌ तिथिके कालका मान समझते हैं ।                         

   इसके बाद, अब मैं स्नान, पूजा आदिकी विधिका क्रम बताऊँगा, यदि दिन शुद्ध न मिले तो रातमें पूजा की जाती है । दिनका सारा कार्य प्रदोष (रात्रिके आरम्भकाल)-में पूर्ण करना चाहिये । यह विधि व्रत करनेवाले मनुष्योंके लिये बतायी गयी है । विप्रवरो ! यदि अरुणोदयकालमें थोड़ी भी द्वादशी हो तो उसमें स्नान, पूजन, होम और दान आदि सारे कार्य करने चाहिये । द्वादशीमें व्रत करनेपर शुद्ध त्रयोदशीमें पारण हो तो पृथ्वीदानका फल मिलता है । अथवा वह मनुष्य सौ यज्ञोंके अनुष्ठानसे भी अधिक पुण्य प्राप्त कर लेता है । विप्रगण ! यदि आगे द्वादशीयुक्त दिन न दिखायी दे तो (अर्थात्‌ द्वादशीयुक्त त्रयोद्शी न हो तो) प्रात:काल ही स्नान करना चाहिये और देवताओं तथा पितरोंका तर्पण करके द्वादशीमें ही पारण कर लेना चाहिये । इस द्वादशीका यदि मनुष्य उल्लड्घन करे तो वह बहुत खड़ी हानि करनेवाली होती है । ठीक उसी प्रकार जैसे विद्याध्ययन करके समावर्तन-संस्कारद्वारा मनुष्य स्नातक न बने तो वह सरस्वती उस विद्वानके धर्मका अपहरण करती है । क्षयमें, वृद्धिमें अथवा सूर्योदयकालमें भी पवित्र द्वादशी तिथि प्राप्त हो तो उसीमें उपवास करना चाहिये, किंतु पूर्व तिथिसे विद्ध होनेपर उसका अवश्य त्याग कर देना चाहिये ।

   ब्राह्मणोंने पूछासूतजी ! जब पहले दिनको एकादशीमें द्वादशीका संयोग न प्राप्त होता हो तो मनुष्योंको किस प्रकार उपवास करना चाहिये ? यह बतलाइये । उपवासका दिन जब पूर्व तिथिसे विद्ध हो और दूसरे दिन जब थोड़ी भी एकादशी न हो तो उसमें किस प्रकार उपवास करनेका विधान है? इसे भी स्पष्ट कीजिये ।

   सौतिने कहाब्राह्मणो ! यदि पहले दिनकी एकादशीमें आधे सूर्योदयतक भी द्वादशीका संयोग न मिलता हो तो दूसरे दिन ही व्रत करना चाहिये। अनेक शास्त्रोंमें परस्पर विरुद्ध वचन देखे जाते हैं और ब्राह्मण लोग भी विवादमें ही पड़े रहते हैं। ऐसी दशामें कोई निर्णय होता न देख पवित्र द्वादशी तिथिमें ही उपवास करे और त्रयोदशीमें पारण कर ले । जब एकादशी दशमीसे विद्ध हो और द्वादशीमें श्रवणका योग मिलता हो तो दोनों पक्षोंमें पवित्र द्वादशी तिथिको ही उपवास करना चाहिये।

   ऋषि बोलेसूतपुत्र ! अब आप युगादि तिथियों तथा सूर्यसंक्रान्ति आदिमें किये जानेवाले पुण्य कर्मोकी विधिका यथावत्‌ वर्णन कीजिये; क्योंकि आपसे कोई बात छिपी नहीं है।

   सौतिने कहाअयनका पुण्यकाल, जिस दिन अयनका आरम्भ हो, उस पूरे दिनतक मानना चाहिये। संक्रान्तिका पुण्यकाल सोलह घटीतक होता है। विषुवकालको अक्षय पुण्यजनक बताया गया है। द्विजश्रेष्ठगण ! दोनों पक्षोंकी दशमीविद्धा एकादशीका अवश्य त्याग करना चाहिये। जैसे वृषली स्त्रीसे सम्बन्ध रखनेवाला ब्राह्मण श्राद्धमें भोजन कर लेनेपर उस श्राद्धको और श्राद्धकर्ताके पुण्यकृत पुण्यको भी नष्ट कर  देता है, उसी प्रकार पूर्वविद्धा तिथिमें किये हुए  दान, जप, होम, स्नान तथा भगवत्पूजन आदि कर्म सूर्योदयकालमें अन्धकारकी भाँति नष्ट हो जाते हैं ।

अध्याय १०५ रुकमांदके राज्यमें एकादशी— व्रतके प्रभावसे सबका वैकुंठ— गमन, यमराज आदिका चिंतित होना, नारदजीसे उनका वार्तालाप तथा ब्र्ह्मालोक— गमन

ऋषि बोलेसूतजी ! अब भगवान् विष्णुके आराधनकर्मका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये, जिससे भगवान् संतुष्ट होते और अभीष्ट वस्तु प्रदान करते हैँ । भगवान् लक्ष्मीपति सम्पूर्ण ज़गतके स्वामी हैं । यह चराचर जगत् उन्हींका स्वरूप है । वे समस्त पापराशियोंका नाश करनेवाले भगवान् श्रीहरि किस कर्मसे प्रसन्न होते हैँ ?

   सौतिने कहाब्राह्मणो ! धरणीधर भगवान् हृषीकेश भक्तिसे ही वशमें होते हैँ, धनसे नहीं । भक्तिभावसे पूजित होनेपर श्रीविष्णु सब मनोरथ पूर्ण कर देते हैं । अत: ब्राह्मणो ! चक्रसुदर्शनधारी भगवान् श्रीहरिको सदा भक्ति करनी चाहिये। जलसे भी पूजन करनेपर भगवान् जगन्नाथ सम्पूर्ण क्लेशोंका नाश कर देते हैं । जैसे प्यासा मनुष्य जलसे तृप्त होता है । उसी प्रकार उस पूजनसे भगवान् शीघ्र संतुष्ट होते हैं । ब्राह्मणो ! इस विषयमें एक पापनाशक उपाख्यान सुना जाता है, जिसमेँ महर्षि गौतमके साथ राजा रुक्माङ्गदके संवादका वर्णन है । प्राचीन कालमें रुक्माङ्गद नामसे प्रसिद्ध एक सार्वभौम राजा हो गये हैँ । वे सब प्राणिर्योंके प्रति क्षमाभाव रखते थे । क्षीरसागरमें शयन करनेवाले भगवान् विष्णु उनके प्रिय आराध्यदेव थे । वे भगवद्भक्त तो थे ही, सदा एकादशीव्रतके पालनमें तत्पर रहते थे । राजा रूक्माङ्गद इस जगतमें देवेश्वर भगवान् पद्मनाभके सिवा और किसीको नहीं देखते थे । उनकी सर्वत्र भगवद्दृष्टि थी । वे एकादशीके दिन हाथीपर नगाड़ा रखकर बजवाते और सब ओर यह घोषणा कराते थे कि आज एकादशी तिथि है । आजके दिन आठ वर्षसे अधिक और पचासी वर्षसे कम आयुवाला जो मन्दबुद्धि मनुष्य भोजन करेगा, वह मेरे द्वारा दण्डनीय होगा, उसे नगरसे निर्वासित कर दिया जायगा । औरोंकी तो बात ही क्या, पिता, भ्राता, पुत्र, पत्नी और मेरा मित्र ही क्यों न हो, यदि वह एकादशीके दिन भोजन करेगा तो उसे कठोर दण्ड दिया जायगा। आज गंगाजीके जलमें गोते लगाओ, श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको दान दो । ‘ द्विजवरो ! राजाके इस प्रकार घोषणा करानेपर सब लोग एकादशीव्रत करके भगवान् विष्णुके लोकमें जाने लगे । ब्राह्मणो ! इस प्रकार वैकुण्ठधामका मार्ग लोगोंसे भर गया । उस राजाके राज्यमे जो लोग भी मृत्युको प्राप्त होते थे, वे भगवान् विष्णुके धाममें चले जाते थे ।

   ब्राह्मणो ! सूर्यनन्दन प्रेतराज यम दयनीय स्थितिमे पहुँच गये थे । चित्रगुप्तको उस समय लिखने—पढ़नेके कामसे छुट्टी मिल गयी थी । लोगोके पूर्व कर्मोंके सारे लेख मिटा दिये गये । मनुष्य अपने धर्मके प्रभावसे क्षणभरमें वैकुण्ठधामको चले जाते थे । सम्पूर्ण नरक सूने हो गये । कही कोई पापी जीव नहीं रह गया था । बारह सूर्योंके तेजसे तप्त होनेवाला यमलोकका मार्ग नष्ट हो गया । सब लोग गरुड़की पीठपर बैठकर भगवान् विष्णुके धामको चले जाते थे । मर्त्यलोकके मानव एकमात्र एकादशीको छोडकर और कोई व्रत आदि नहीं जानते थे । नरकमें भी सन्नाटा छा गया । तब एक दिन नारदजीने धर्मराजके पास जाकर कहा ।

   नारदजी बोले- राजन् ! नरकोंके आँगनमें भी किसी प्रकारकी चीख-पुकार नहीं सुनायी देती । आजकल लोगोंके पापकर्मोंका लेखन भी नहीं किया जा रहा है । क्यों चित्रगुप्तजी मुनिकी भाँति मौन साधकर बैठे हैं ? क्या कारण है कि आजकल आपके यहाँ माया और दम्भके वशीभूत हो दुष्कर्मोंमें तत्पर रहनेवाले पापियोंका आगमन नहीं हो रहा है ?

   महात्मा नारदके ऐसा पूछनेपर सूर्यपुत्र धर्मराजने कुछ दयनीय भावसे कहा ।                                         

   यम बोले- नारदजी ! इस समय पृथ्वीपर जो राजा राज्य कर रहा है, वह पुराणपुरुषोत्तम भगवान् हृषीकेशका भक्त है । राजेश्वर रुकमाङ्गद अपने राज्यके लोगोंको नगाड़ पीटकर सचेत करता हे- ‘ एकादशी तिथि प्राप्त होनेपर भोजन न करो, न करो । जो मनुष्य उस दिन भोजन करेंगें वे मेरे दण्डके पात्र होंगे । ‘ अत: सब लोग ( एकादशीसंयुक्त ) द्वादशीव्रत करते हैं । मुनिश्रेष्ठ ! जो लोग किसी बहानेसे भी ( एकादशीसंयुक्त ) द्वादशीको उपवास कर लेते हैं, वे दाह और प्रलयसे रहित वैष्णवधामको जाते हैं । सारांश यह है कि ( एकादशीसंयुक्त ) द्वादशीव्रतके सेवनसे सब लोग वैकुण्ठधामको चले जा रहे हैं । द्विजश्रेष्ठ ! उस राजाने इस समय मेरे लोकके मार्गोंका लोप कर दिया है । अत: मेरे लेखकोंने लिखनेका काम ढीला कर दिया है । महामुने ! इस समय मैं काठके मृगकी भाँति निश्चेष्ट हो रहा हूँ । इस तरहके लोकपाल-पदको मैं त्याग देना चाहता हूँ । अपना यह दु:ख ब्रह्माजीको बतानेके लिये मैं ब्रह्मलोकमें जाऊँगा । किसी कार्यके लिये नियुक्त हुआ सेवक काम न होनेपर भी यदि उस पदपर बना रहता है और बेकार रहकर स्वामीके धनका उपभोग करता है, वह निश्चय ही नरकमें जाता  है ।

   सौति कहते हैं- ब्राह्मणो ! ऐसा कहकर यमराज देवर्षि नारद तथा चित्रगुप्तके साथ ब्रह्माजीके धाममें गये । वहाँ उन्होंने देखा कि ब्रह्माजी मूर्त और अमूर्त जीवोंसे घिरे बैठे हैं । वे सम्पूर्ण वेदोंके आश्रय जगतकी उत्पत्तिके बीज तथा सबके प्रपितामह हैं । उनका स्वत: प्रादुर्भाव हुआ हैं । वे सम्पूर्ण भूतोंके निवासस्थान और पापसे रहित हैं । ॐकार उन्हींका नाम है । वे पवित्र, पवित्र वस्तुओंके आधार, हंस (विशुद्ध आत्मा) और दर्भ (कुशा), कमण्डलु आदि चिह्नोंसे युक्त हैं । अनेकानेक लोकपाल और दिक्पाल भगवान् ब्रह्माजीकी उपासना कर रहे हैं । इतिहास, पुराण और वेद साकाररूपमें उपस्थित हो उनकी सेवा करते हैं । उन सबके बीचमें यमराजने लजाती हुई नववधूकी भाँति प्रवेश किया । उनका मुँह नीचेकी ओर झुका था और वे नीचेकी और ही देख रहे थे । ब्रह्माजीकी सभामें बैठे हुए लोग देवर्षि नारद तथा चित्रगुप्तके साथ यमराजको वहाँ उपस्थित देख आश्चर्यचकित नेत्रोंसे देखते हुए आपसमें कहने लगे, ‘ क्या ये सूर्यपुत्र यमराज यहा लोककर्ता पितामह ब्रह्माजीका दर्शन करनेके लिये पधारे हुए हैं ? क्या इनके पास इस समय कोई कार्य नहीं है ? इनको तो एक क्षणका भी अवकाश नहीं मिलता है; ये सूर्यनन्दन यम सदा अपने कार्योमें ही व्यग्र रहते हैं, फिर भी आज यहाँ कैसे आ गये ? देवता लोग सकुशल तो हैं ? सबसे बढ़कर आश्चर्य तो यह मालूम होता है कि ये लेखक महोदय (चित्रगुप्तजी) बड़ी दीनताके साथ यहाँ उपस्थित हुए हैं और इनके हाथमें जो पट है, जिसपर जीवोंका शुभाशुभ कर्म लिखा जाता है, उसका सब लेख मिटा दिया गया है। अबतक किसी भी धर्मात्माने इनके पटपर लिखे हुए लेखको नहीं मिटाया था। अबतक जो बात देखने और सुननेमें नहीं आयी थी, वह यहीं प्रत्यक्ष दिखायी देती है। ‘

   ब्राह्मणो ! ब्रह्माजीके सभासद जब इस प्रकारकी बातें कर रहे थे, उस समय सम्पूर्ण भूतोंका शासन करनेवाले सूर्यपुत्र यम पितामहके चरणोंमें गिर पड़े और बोले- ‘ देवेश्वर ! मेरा बड़ा तिरस्कार हुआ है। मेरे पटपर जो कुछ लिखा गया था, सब मिटा दिया गया। कमलासन ! आप-जैसे स्वामीके रहते हुए मैं अपनेको अनाथ देख रहा हूं । ‘ द्विजवरो ! ऐसा कहकर धर्मराज निश्चेष्ट हो गये। फिर उदारचित्तवाले लोकमूर्ति वायुदेवने अपनी सुन्दर एवं मोटी भुजाओंसे यमराजके संदेहका निवारण करते हुए उन्हें धीरे-धीरे उठाया और उन धर्मराज और चित्रगुतको आसनपर बिठाया।

अध्याय १०६ यमराजके द्धारा ब्रह्माजीसे अपने कष्टका निवेदन, रुक्मांगदके प्रभावका वर्णन

तब यमराज बोले—पितामह ! पितामह ! नाथ ! मेरी बात सुनिये। देव ! किसीके प्रभावका जो खण्डन है, वह मृत्युसे भी अधिक दु:खदायक होता है। कमलोद्भव ! जो पुरुष कार्यमें नियुक्त होकर स्वामीके उस आदेशका पालन नहीं करता; किंतु उनसे वेतन लेकर खाता है, वह काठका कीड़ा होता है। जो लोभवश प्रजा अथवा राजासे धन लेकर खाता है, वह कर्मचारी तीन सौ कल्पोंतक नरकमें पड़ा रहता है। जो अपना काम बनाता और स्वामीको लूटता है, वह मन्दबुद्धि मानव तीन सौ कल्पोंतक घरका चूहा होता है। जो राजकर्मचारी राजाके सेवकोंको अपने घरके काममें लगाता है, वह बिल्ली होता है । देव ! मैं आपकी आज्ञासे धर्मपूर्वक प्रजाका शासन करता था । प्रभो ! मैं मुनियों तथा धर्मशास्त्र आदिके द्वारा भलीभाँति विचार करके पुण्यकर्म करनेवालेको पुण्यफलसे और पाप करनेवालेको पापके फलसे संयुक्त करता था । कल्पके आदिसे लेकर जबतक आपका वह दिन पूरा होता है, तबतक आपके ही आदेशके अनुसार मैं सब काम करता आया और आगे भी कर सकता हूं, किंतु आज राजा रुक्माङ्गदने मेरा महान् तिरस्कार कर दिया है । जगन्नाथ ! उस राजाके भयसे समुद्रोंद्वारा घिरी हुई समूची पृथ्वीके लोग सर्वपापनाशक एकादशीके दिन भोजन नहीं करते हैं और उसके प्रभावसे भगवान् विष्णुके धाममें चले जाते हैं, वह भी अकेले नहीं, पितरों और पितामहोंको भी साथ ले लेते हैं । इस लोकमें व्रत करनेवालोंके पितर तो वैकुण्ठलोकमें जाते ही हैं, उनके पितरोंके पितर तथा माताके पिता-मातामह आदि भी विष्णुधामको चले जाते हैं, फिर उन सबके भी जो पिता-माता आदि, उनके पूर्वज भी वैकुण्ठवासी हो जाते हैं । यही नहीं उनकी पत्नियोंके पितर भी मेरी लिपिको मिटाकर विष्णुधामको चले जाते हैं । पिता आदिके साथ वीर्यका सम्बन्ध है और मातानें तो गर्भमे ही धारण किया है | अत: उनकी सदति हो तो कोई अनुचित बात नहीं है । नियम यह है कि एक पुरुष जो कर्म करता है उसका उपभोग भी वह अकेले ही करता है । ब्रह्मन ! कर्तासे भिन्न जो उसके पिता हैं, उनके वीर्यसे उसका जन्म हुआ है और माताके पेटसे वह पैदा हुआ है । इसलिये वह जिसको पिण्ड देनेका अधिकारी है और जिससे उसका शरीर प्रकट हुआ है, ऐसे पिता और माता इन दोनों पक्षोंको वह तार सकता है । किंतु वह पत्नीका वीर्य तो है नहीं और न पत्नीने उसे गर्भमें धारण किया है । अत: जगन्नाथ ! पति या दामादके पुण्यकी महिमासे उसकी पत्नी तथा श्वशुर पक्षके लोग कैसे परम पदको प्राप्त होते हैं? इसीसे मेरे सिरमें चक्कर आ रहा है । पद्मयोने ! वह अपने साथ पिता, माता और पत्नी-इन तीन कुलोंका उद्धार करके मेरे लोकका मार्ग त्यागकर विष्णुधाममें पहुंच जाता है । वैष्णवव्रत एकादशीका पालन करनेवाला पुरुष जैसी गतिको पाता है, वैसी गति और किसीको नहीं मिलती । एकादशीके दिन आपने शरीरमें आँवलेके फलका लेपन करके भोजन छोड़कर मनुष्य दुष्कर्मोसे युक्त होनेपर भी भगवान धरणीधरके लोकमें चला जाता है । देव! अब मैं निराश हो गया हूँ । इसलिये आपके युगल चरणारविन्दोंकी सेवामें उपस्थित हुआ हूँ । आपकी सेवामें अपने दुःखका निवेदनमात्र कर देनेसे आप सबको अभयदान देते हैं । इस समय जगतकी सृष्टि, पालन और संहारके लिये जो समयोचित कार्य प्रतीत हो, उसे आप करें । अब पृथिवीपर वैसे पापी मनुष्य नही हैं, जो मेरे भूतगणोंद्वारा सांकल और पाशमें बाँधकर मेरे समीप लाये जाय और मेरे अधीन हों । सूर्यके तापसे युक्त जो यमलोकका मार्ग था, उसे अत्यन्त तीव्र हाथवाले विष्णुभक्तोने नष्ट कर दिया; अतः समस्त जनसमुदाय कुम्भीपाककी यातनाको त्यागकर परात्पर श्रीहरिके धाममें चला जा रहा है । त्रिभुवनपूजित देव ! निरन्तर जाते हुए मनुष्योंसे ठसाठस भरे रहनेके कारण भगवान्‌ विष्णुके लोकका मार्ग घिस गया है । जगत्पते ! मैं समझता हूँ कि भगवान्‌ विष्णुके लोकका कोई माप नही है, वह अनन्त है । तभी तो सम्पूर्ण जीवसमुदायके जानेपर भी भरता नहीं है । राजा रुक्माङ्गदने एक हजार वर्षसे इस भूमण्डलका शासन प्रारम्भ किया है और इसी बीचमें असंख्य मानवोंको चतुर्भुज रूप दे पीत वस्त्र, वनमाला और मनोहर अङ्गरागसे सुशोभित करके उन्हें गरुड़की पीठपर बिठाकर वैकुण्ठधाममें पहुँचा दिया । देवेश ! लक्ष्मीपतिका प्रिय भक्त रुक्माङ्गदने यदि पृथ्वीपर रह जायगा तो वह सम्पूर्ण लोकको भगवान्‌ विष्णुके अनामय धाम वैकुण्ठमें पहुँचा देगा । लीजिये यह रहा आपका दिया हुआ दण्ड और यह है पट; यह सब मैंने आपके चरणोंमें अर्पित कर दिया । देवेश्वर ! राजा रुक्माङ्गदने मेरे अनुपम लोकपालपदको मिट्टीमें मिला दिया । धन्य है उसकी माता, जिसने उसे गर्भमें धारण किया था । मातासे उत्पन्न हुआ अधिक गुणवान्‌ पुत्र सम्पूर्ण दुःखोंका विनाश करनेवाला होता है । माताको क्लेश देनेवाले पुत्रके जन्म लेनेसे क्या लाभ? देव ! कुपुत्रको जन्म देनेवाली माताने व्यर्थ ही प्रसवका कष्ट भोगा है | विरचने ! निःसंदेह इस संसारमें एक ही नारी वीर पुत्रको जन्म देनेवाली है, जिसने मेरी लिपिको मिटा देनेके लिये रुक्माङ्गदको उत्पन्न किया है । देव ! पृथ्वीपर अबतक किसी भी राजाने ऐसा कार्य नहीं किया था । अत: भगवन्‌ ! जो भयंकर नगाड़ा बजाकर मेरे लोकके मार्गका लोप कर रहा है और निरन्तर भगवान्‌ विष्णुकी सेवामें लगा हुआ है, उस रुक्माङ्गदने पृथ्वीके राज्यपर स्थित रहते मेरा जीवन सम्भव नहीं !

अध्याय १०७ ब्रह्माजीके द्धारा यमराजको भगवान तथा उनके भक्तोंकी श्रेष्ठता बताना

   ब्रह्माजी बोलेधर्मराज ! तुमने क्या आश्चर्यकी बात देखी है?  क्यों इतने खिन्न हो रहे हो? किसीके उत्तम गुणोंको देखकर जो मनमें संताप होता है,  वह मृत्युके तुल्य माना गया है । सूर्यनन्दन ! जिनके नामका उच्चारण करनेमात्रसे परम पद प्राप्त हो जाता है, उन्हींकी प्रीतिके लिये उपवास करके मनुष्य वैकुण्ठधामको क्यों न जाय? भगवान्‌ श्रीकृष्णके लिये किया हुआ एक बारका प्रणाम दस अश्वमेध-यज्ञोंके अवभृथ-स्नानके समान है । फिर भी इतना अन्तर है कि दस अश्वमेध-यज्ञ करनेवाला मनुष्य पुण्यभोगके पश्चात्‌ पुन: इस संसारमें जन्म लेता है; परंतु श्रीकृष्णको प्रणाम करनेवाला पुरुष फिर संसार-बन्धनमें नहीं पड़ता१ । जिसको जिह्वाके अग्रभागपर ‘ हरि ‘ यह दो अक्षर विराजमान है, उसे कुरुक्षेत्र, काशी और विरजतीर्थके सेवनकी क्या आवश्यकता है? क्योंकि जो खिलवाड़में भी भगवान्‌ विष्णुके नामका उच्चारण और श्रवण कर लेता है, वह मनुष्य गज़ाजीके जलमें स्नान करनेसे प्राप्त हुई पवित्रताके तुल्य पवित्रता प्राप्त कर लेता है । त्रिभुवननाथ पुरुषोत्तम हमारे जन्मदाता हैं, उनके दिन (एकादशी) सेवन करनेवाले पुरुषपर शासन कैसे चल सकता है? जो राजकर्मचारी इस पृथ्वीपर राजाके श्रेष्ठ भक्तोंको नहीं जानता, वह उनके विरुद्ध सम्पूर्ण आयास करके भी फिर उन्हींके द्वारा दण्डनीय होता है । अत: राजकार्यमें नियुक्त हुए पुरुषको चाहिये कि वे अपराधी होनेपर भी राजाके प्रिय जनोंपर शासन न करें, क्योंकि वे स्वामीके प्रसादसे सिद्ध (कृतकार्य) होते हैं और शासकपर भी शासन कर सकते हैं । सूर्यनन्दन ! इसी प्रकार जो पापी होनेपर भी भगवान्‌ जनार्दनके चरणोंकी शरणमें जा चुके हैं, उनपर तुम्हारा शासन कैसे चल सकता है? उनपर शासन करना तो मुर्खताका ही सूचक है । धर्मराज ! यदि भगवान्‌ शिवके, सूर्यके अथवा मेरे भक्तोंसे तुम्हारा विवाद हो त मैं तुम्हारी कुछ सहायता कर सकता हूँ;  किन्तु भास्करनन्दन ! विष्णुभक्तोंके साथ सामना होनपर मैं कोई सहायता नहीं कर सकूँगा; क्योंकि भगवान पुरुषोत्तम सभी देवताओंके आदि हैं । भगवान मधुसूदनके भक्तोंको दण्ड देना सम्भव नहीं है । जिन्होंने किसी बहानेसे भी दोनों हर (एकादशीसंयुक्त) द्वादशीका सेवन किया है, उनके द्वारा यदि तुम्हारा अपमान हुआ है तो उसमें मैं तुम्हारा सहायक नहीं हो सकता ।

अध्याय १०८ यमराजकी इच्छा पूर्ति, भक्त रुकमाण्डका गौरव बढ़ानेके लिय ब्रह्माजीका अपने मनसे एक सुंदरी नारीको प्रकट करना, नारीके प्रति वैराग्यकी भावना तथा उस सुंदरी "मोहनी"का मंदराचलपर जाकर मोहक संगीत गाना

   यमराजने कहातात ! वेद जिनके चरण हैं, उन भगवान्‌को नमस्कार करनेमें ही सबका हित है; इस बातको मैंने भी समझा है । जगत्पते ! फिर भी जबतक राजा रुक्माज़द पृथ्वीका शासन करता है, तबतक मेरा चित्त शान्त नहीं रह सकता । देवश्रेष्ठ ! यदि एकमात्र रुक्माड्रदकों ही आप एकादशीके दिन धैर्यसे विचलित कर दे, तो मैं आपका किंकर बना रहूँगा । देव ! उसने मेरे पटका लेख मिटा दिया है । आजसे जो मानव देवताओंके स्वामी भगवान्‌ विष्णुका स्मरण, स्तवन अथवा उनके लिये उपवासब्रत करेंगे, उनपर मैं कोई शासन नहीं करूँगा । जो मनुष्य किसी दूसरे व्याजसे भी सहसा हरि-नामका उच्चारण कर लेते हैं, वे माताके गर्भसे छुटकारा पा जाते हैं । वे चतुर मानव मेरे पटके लेखमें नहीं आते तथा देवताओंके समुदाय भी उन्हें नमस्कार करते हैं१ ।

   सौति कहते हैं- वैवस्वत यमके कार्यसे और उनके सम्मानकी रक्षा करनेके लिये (और रुक्माज़दका गौरव बढ़ानेके लिये) देवेश्वर ब्रह्माजीने कुछ देरतक विचार किया । सम्पूर्ण प्राणियोंसे विभूषित भगवान्‌ ब्रह्माने क्षणभर चिन्तन करनेके पश्चात्‌ सम्पूर्ण लोकको मोहमें डालनेवाली एक नारीको उत्पन्न किया । ब्रह्माजीके मनसे निर्मित हुई वह देवी संसारकी समस्त सुन्दरियोंमें श्रेष्ठ एवं प्रकाशमान थी । सम्पूर्ण आभूषणोंसे विभूषित हो वह उनके आगे खड़ी हुई । रूपके वैभवसे सम्पन्न उस सुन्दरीको सामने देख ब्रह्माजीने अपनी आंखें मूंद लीं । उन्होंने इस बातपर भी लक्ष्य किया कि मेरे स्वजन काममोहित होकर इस सुन्दरीकी ओर देख रहे हैं । तब उन्होंने उन सबको समझाते हुए कहा-‘जो यहाँ मातापुत्री, पुत्रवधू, भौजाई, गुरुपत्नी तथा राजाकी रानीकी ओर रागयुक्त मन और आसक्तिपूर्ण दृष्टिसे देखता या उनका चिन्तन करता है, वह घोर नरकमें पड़ता है । जो मनुष्य इन प्रमदाओंको देखकर क्षोभको प्राप्त होता है, उसका जन्मभरका किया हुआ पुण्य व्यर्थ हो जाता है । यदि उन रमणियोंका संग करे तो दस हजार जन्मोंका पुण्य नष्ट होता है और पुण्यका नाश होनेसे पापी मनुष्य अवश्य ही पहाड़ी चूहा होता है, अतविद्वान् पुरुष इन युवतियोंको न तो रागयुक्त दृष्टिसे देखे और न रागयुक्त हृदयसे इनका चिन्तन ही करे ।

   धर्मराज ! जो पुत्रवधू अपने श्वसुरको अपने खुले अते दिखाती है, उसके हाथ और पैर गल जाते हैं तथा वह ‘कृमिभक्ष’ नामक नरकमें पड़ती है । जो पापी मनुष्य पुत्रवधूके हाथसे पैर धुलवाता, स्नान करता अथवा शरीरमें तेल आदि मालिश कराता है, उसकी भी ऐसी ही गति होती है । वह एक कल्पतक काले रंगके मुखवाले ‘सूचीमुखनामक कीड़ोंका भक्ष्य बना रहता है । अतमनुष्य कामनायुक्त मनसे किसी भी नारीकी ओर विशेषतपुत्री अथवा पुत्रवधूकी ओर न देखे । जो देखता है, वह उसी क्षण पतित हो जाता है । इस प्रकार विचार करके ब्रह्माजीने अपनी दृष्टि और सूक्ष्म कर ली और कहा यह जो गोलगोल और कुछ ऊँचाई लिये हुए सुन्दर मुंह दिखायी देता है, वह हड्डियोंका ढाँचामात्र ही तो है, जो चर्म और मांससे ढका हुआ है । स्त्रियोंके शरीरमें जो दो सुन्दर नेत्र स्थित हैं, वे वसा और मेदके सिवा और क्या हैं?  छातीपर दोनों स्तनोंमें यह अत्यन्त ऊँचा मांस ही तो स्थित है । जघनदेशमें भी अधिक मांस ही भरा हुआ  है । जिस योनिपर तीनों लोकोंके प्राणी मुग्ध रहते हैं, वह छिपा हुआ मूत्रका ही तो द्वार है । वीर्य और हड्डियोंसे भरा हुआ शरीर केवल मांससे ढका होनेके कारण कैसे सुन्दर कहा जा सकता है? मांस, मेद और चर्बा ही जिसका सार-सर्वस्व है, देहधारियोंके उस शरीरमें सार तत्त्व क्या है?  बताओ । विष्ठा, मूत्र और मलसे पुष्ट हुए शरीरमें कौन मनुष्य अनुरक्त होगा? ‘ इस प्रकार ब्रह्माजीने ज्ञानदृष्टिसे बहुत विचार करके उस नारीसे कहा-‘सुन्दरी, जिस प्रकार मैंने मनसे तुम श्रेष्ठ वर्णवाली नारीकी सृष्टि की है, उसके अनुरूप ही तुम मनको उन्मत्त बना देनेवाली उत्पन्न हुई हो । ‘ तब उस नारीने चतुर्मुख ब्रह्माजीको प्रणाम करके कहा-‘नाथ ! देखिये योगियोंसहित समस्त चराचर जगत् मेरे रूपसे मोहित हो गया है; तीनों लोकोंमें कोई भी ऐसा पुरुष नहीं है, जो मुझे देखकर क्षब्ध न हो जाय । कल्याणकी इच्छा रखनेवाले किसी पुरुषको अपनी स्तुति नहीं करनी चाहिये तथापि कार्यके उद्देश्यसे मुझे अपनी प्रशंसा करनी पड़ी है । ब्रह्मन् ! आपने किसीके चित्तमें क्षोभ उत्पन्न करनेके लिये ही मेरी सृष्टि की है, अतजगन्नाथ ! उसका नाम बताइये मैं निस्संदेह उसको क्षुब्ध कर डालुगी | देव ! पृथ्वीपर मुझे देखकर पहाड़ भी मोहित हो जायगा फिर साँस लेनेवाले जहूम प्राणीके लिये तो कहना ही क्या?  इसीलिये पुराणोंमें नारीकी ओर देखना उसके रूपकी चर्चा करना मनुष्योंके लिये उन्मादकारी बतलाया गया है । वह कठिन-से-कठिन व्रतका भी नाश करनेवाला है । मनुष्य तभीतक सन्मार्गपर चलता रहता है, तभीतक इन्द्रियोंको काबूमें रखता है, तभीतक दूसरोसे लज्जा करता है और तभीतक विनयका आश्रय लेता है, जबतक कि धैर्यको छीन लेनेवाले युवतियों के नीली पाँखवाले नेत्ररूपी बाण हदयमें गहरी चोट नहीं पहुँचाते । नाथ ! मदिराको तो जब मनुष्य पी लेता है, तब वह चतुर पुरुषके मनमें मोह उत्पन्न करती है, परंतु युवती नारी दूरसे दर्शन और स्मरण करनेपर ही मोहमें डालती है । अत: वह मदिरासे बढ़कर है’ ।

   ब्रह्माजीने कहादेवि ! तुमने ठीक कहा है । तुम्हारे लिये तीनों लोकोंमें कुछ भी असाध्य नहीं है । ऐसी शक्ति रखनेवाली तुम सम्पूर्ण लोकोंके चित्तका अपहरण क्यों न करोगी । यह सत्य है कि तुम्हारा रूप सबको मोह लेनेवाला है । मैंने जिस उद्देश्यसे तुम्हारी सृष्टि की है, उसे सिद्ध करो । शुभ ! बंदिश नगरमें रुक्माइद नामसे प्रसिद्ध एक राजा  हैं । उनकी पत्नीका नाम सन्ध्यावली है, जो रूपमें तुम्हारे ही समान है । उसके गर्भसे राजकुमार धर्मानदका जन्म हुआ है, जो पितासे भी अत्यधिक प्रतापी है । उसमें एक लाख हाथीका बल है और प्रतापमें तो वह सूर्यके ही समान है । क्षमामें पृथ्वीके और गम्भीरतामें वह समुद्रके समान है । तेजसे अग्निके समान प्रज्वलित होता है । त्यागमें राजा बलि गति वायुसौम्यतामें चन्द्रमा तथा रूपमें कामदेवके समान है । राजकुमार धर्मानंद राजनीतिमें बृहस्पति और शुक्राचार्यको भी परास्त करता है । वरानने ! पिताने केवल एक (अखण्ड) रूपमें समस्त जम्बूद्वीपका भोग किया है; किंतु धर्मानंदने अन्य द्वीपोंपर भी अधिकार प्राप्त कर लिया है । उसने माता-पिताके संकोचवश अभीतक स्त्रीसुखका अनुभव नहीं  किया । सहस्त्रों राजकुमारियाँ उसकी पत्नी होनेके लिये स्वयं आयींकिंतु उसने सबको त्याग दिया । वह घरमें रहकर कभी पिताकी आज्ञाके पालनसे विचलित नहीं होता । चारुहासिनि ! धर्मानुदके तीन सौ माताएँ हैं । वे सब-की-सब सोनेके महलोंमें रहती हैं । राजकुमार उन सबके प्रति समानरूपसे पूज्य दृष्टि रखता है । रुक्माअङ्गदके जीवनमें धर्मकी ही प्रधानता हैं । वे पुत्ररत्नसे सम्पन्न हैं । मोहिनी ! तुम उत्तम मन्दराचलपर उन्हीं नरेशके समीप जाओ और उन्हें मोहित करो । सुन्दरी ! तुमने इस सम्पूर्ण जगत्को मोहित कर लिया है, अतदेवि ! तुम्हारे इस गुणके अनुरूप ही तुम्हारा ‘मोहिनी’ नाम होगा।

   ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर मोहिनी ब्रह्माजीको प्रणाम करके मन्दराचलकी ओर प्रस्थित हुई । तीसरे मुहूर्त (पाँचवीं घड़ी) में वह पर्वतके शिखरपर जा पहुँची । मन्दराचल वह पर्वत है, जिसे पूर्वकालमें भगवान् विष्णुने कच्छपरूपसे अपनी पीठपर धारण किया था और देवता तथा दानवोंने जिसके द्वारा क्षीरसागरका मन्थन किया था एवं जो महान् पर्वत भगवानके कूर्मशरीरसे रगड़ा जानेपर भी फूट न सका तथा जिसने क्षीरसागरमें पड़कर उसकी गहराई कितनी है, इसे स्पष्ट दिखा दिया । वह अनेक प्रकारके रत्नोंका घर तथा भाँति-भाँतिकी धातुओंसे सम्पन्न है । मन्दराचल देवताओं की क्रीडा और विहारका स्थान है । तपस्वी मुनियोंकी तपस्याका वह प्रमुख साधन है । उसका मूलभाग ग्यारह हजार योजनतक नीचे गया है । इतना ही उसका विस्तार भी है ऊंचाइमे भी उसका यही माप है । वह अपने सुवर्णमय तथा रत्नमय शिखरोसे पृथ्वी और आकाशको प्रकाशित कर रहा है । मोहिनी उस मन्दराचलपर आ पहुँची । उसके अङ्गोंकी   प्रभा भी स्वर्णके ही समान थी; अत: वह अपनी कान्तिसे स्वयं भी उस पर्वतके तेजको बढ़ा रही थी । वह राजा रुक्माङगदसे मिलनेकी इच्छा रखकर पर्वतकी एक विशाल शिलापर जा बैठी, जिसका विस्तार सात योजन था । वह दिव्य शिला नीली कान्तिसे सुशोभित थी । राजेन्द्र ! उस शिलापर एक बज्रमय शिवलिङग स्थापित था, जिसकी ऊँचाई दस हाथकी थी । वह ‘ वृषलिङ्ग ‘ के नामसे विख्यात था और ऐसा जान पड़ता था, मानो महलके ऊपर सुन्दर सोनेका कलश शोभा पा रहा हो । द्विजवरो ! मोहिनीने उस शिवलिङ्ग समीप ही उत्तम संगीत प्रारम्भ किया । वीणाकी झंकार और ताल-स्वरसे युक्त वह श्रेष्ठ गीत मानसिक क्लेशको दूर करनेवाला था । वह सुन्दरी शिवलिड्ग अत्यन्त निकट होकर मूर्च्छना और तालके साथ गान्धारस्वरमें गीत गा रही थी । राजेन्द्र ! उसका वह गान कामवेदनाको बढ़ानेवाला था । मुनीश्वरो ! उस संगीतके प्रारम्भ होनेपर स्थावर जीवोंकी भी उसमें स्पृहा हो गयी । देवताओं तथा दैत्योकि समाजमें भी कभी वैसा मोहक संगीत नहीं हुआ था । मोहिनीके मुखसे निकला हुआ वह गान चित्तको मोह लेनेवाला था ।

अध्याय १०९ रुकमाङ्गद— धर्मांङ्गद— संवाद, धर्मांङ्गदका प्रजाजनोंको उपदेश और प्रजापालन, तथा रुकमाङ्गदका रानी सन्ध्यावलीसे वार्तालाप

   सौति कहते हैंमहाराज रुक्माङ्गदने मनुष्य-लोकके उत्तम भोग भोगते हुए नाना प्रकारसे पीताम्बरधारी भगवान्‌ श्रीहरिकी आराधना की । विप्रगण ! युद्धमें पराक्रमसे सुशोभित होनेवाले शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर ली और वैवस्वत यमको जीतकर यमलोकका मार्ग सुना कर दिया । वैकुण्ठका मार्ग मनुष्योंसे भर दिया और उचित समय जानकर अपने पुत्र धर्माङ्गदको बुलाकर कहा―बेटा ! तुम अपने धर्मपर दृढ़तापूर्वक डटे रहकर अपने पराक्रमसे इस धन-धान्य-सम्पन्न पृथ्वीका सब ओरसे पालन करो । पुत्रके समर्थ हो जानेपर जो उसे राज्य नहीं सौंप देता, उस राजाके धर्म तथा कीर्तिका निश्चय ही नाश हो जाता है। अपने शक्तिशाली पुत्रके द्वारा यदि पिता सुखी न हो तो उस पुत्रको तीनों लोकोंमें अवश्य पातको जानना चाहिये। पिताका भार हल्का करनेमें समर्थ होकर भी जो पुत्र उस भारकों नहीं सँभालता, वह माताके मल-मूत्रकी भाँति पैदा हुआ है। पुत्र वही है, जो इस पृथ्वीपर पितासे भी अधिक ख्याति लाभ करे । यदि पुत्रके अन्यायजनित दू:खसे पिताको रातभर जागना पड़े तो वह पुत्र एक कल्पतक नरकमें पड़ा रहता है। जो पुत्र घरमें रहकर पिताकी प्रत्येक आज्ञाका पालन करता है, वह देवताओद्वारा प्रशंसित हों भगवानका सायुज्य प्राप्त करता है। पुत्र ! मैं प्रजाजनोकी रक्षाके लिये इस पृथ्वीपर सदा नाना प्रकारके कर्माँमें आसक्त रहा । प्रजापालनमें संलग्र होकर मैंने कभी भोजन और शयनकी परवा नहीं की । कुछ लोग शिवकी उपासनामें तत्पर रहते हैं, कुछ लोग भगवान्‌ सूर्यके भजन-ध्यानमें संलग्र हैं, कोई ब्रह्माजीके पथपर चलते हैं और दूसरे लोग पार्वतीजीकी आराधनामें स्थित हैं । लोग सायंकाल और सवेरे अग्रिहोत्र कर्ममें लगे होते हैं। ‘ बालक हो या युवक, बुढ़ा हो या गर्भिणी स्त्री, कुमारी कन्या, रोगी पुरुष अथवा किसी कष्टसे व्याकुल मनुष्य-ये सब उपवास नहीं कर सकते। ‘ इस तरहकी बातें जिन्होंने कहीं, उन सबकी बातोंका मैंने सब तरहसे खण्डन किया और बहुत दिनोंतक पुराणमें कहे हुए वचनोद्वारा प्रजाके सुखके लिये उन्हें बार-बार समझाया। विद्वानोंको शास्त्रदृष्टिस समझाकर और मूखोंको दण्डपूर्वक काबूमें करके मैं एकादशीके दिन सबको निराहार रखता आया हूँ।

   ‘ वत्स ! अपने हों या पराये, कभी किसीको दुःख नहीं देना चाहिये। जो राजा प्रजाकी रक्षा करता है, उसे पुराणोंमें अक्षय लोकोंकी प्राप्त बतायी गयी है। अतः सौम्य ! मैं प्रजाके लिये सदा कर्तव्यपालनमें लगा रहा। अपने शरीरको विश्राम देनेका मुझे कभी अवसर नहीं मिला । बेटा ! मुझे कभी मदिरा पीने और जूआ खेलने आदिके सुखकी इच्छा नहीं होती। वत्स ! इन दुर्व्यसनोंमें फँसा हुआ राजा शीघ्र नष्ट हो जाता है। पुत्र ! तुम्हारे ऊपर राज्यका भार रखकर मैं ( प्रजाजनोंके रक्षार्थ ) शिकार खेलने जाना चाहता हूँ और इसी बहाने अनेकानेक पर्वत, वन, नदी और भाँति-भाँतिके सरोवर देखना चाहता हूँ।’

   धर्माङ्गदने कहापिताजी ! मैं आपके राज्य-सम्बन्धी भारी भारको आजसे अपने ऊपर उठाता हूँ। आपकी आज्ञापालन करनेके सिवा मेरे लिये दूसरा कोई धर्म नहीं है। जो पिताको बात नहीं मानता, यह धर्मानुष्ठान करते हुए भी नरकमें पड़ता है। इसलिये मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा ।

   ऐसा कहकर धर्माङ्गद हाथ जोड़े खड़े रहे। उनके इस वचनको सुनकर राजा रुक्माङ्गद बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने ( प्रजाके रक्षार्थ ) मृगयाके लिये वनमें जानेका निश्चय किया और पुत्रकी अनुमति प्राप्त कर ली। इस बातको जानकर धर्माङ्गदने प्रसन्नचित्त हो प्रजावर्गको बुलाया और इस प्रकार कहा- ‘ प्रजागण ! पिताने मुझे आप लोगोंके पालन और हित-साधनके लिये नियुक्त किया है। सर्वथा धर्मपालनकी इच्छा रखनेवाले मुझ-जैसे पुत्रको पिताकी आज्ञाका सदैव पालन करना चाहिये। पुत्रके लिये पिताके आदेशका पालन करनेके सिवा दूसरा कोई धर्म नहीं है। अब मैं दण्ड धारण करके राजाके पदपर स्थित हुआ हूँ। मेरे जीते-जी यहाँ कहीं यमराजका शासन नहीं चल सकता। ऐसा समझकर आप सब लोगोंको भगवान्‌ गरुडध्वजका स्मरण तथा भगवदर्पणबुद्धिसे कर्म करते हुए उसके द्वारा भगवान्‌ जनार्दनका यजन करते रहना चाहिये। संसारके भोगोंसे ममता हटाकर अपनी-अपनी जातिके लिये विहित कर्मद्वारा भगवान्‌की पूजा करनी चाहिये। इससे आपको अक्षय लोकोंकी प्राप्ति होगी । प्रजाजनो ! यह मैंने पिताजीके मार्गसे एक अधिक मार्ग आपको दिखाया है । ब्रह्मार्पणभावसे कर्ममें संलग्न होकर आप सब लोग ज्ञानमें निपुण हो जाय। एकादशीके दिन भोजन नहीं करना चाहिये-यह पिताजीका बताया हुआ सनातन मार्ग तो है ही, यह ब्रह्मनिष्ठारूप विशेष मार्ग आपके लिये मैंने बताया है। तत्ववेत्ता पुरुषोंको इस ब्रह्मनिष्ठारूप मार्गका अवलम्बन अवश्य करना चाहिये। इससे इस संसारमें पुन: नहीं आना पड़ता। ‘

   इस प्रकार सम्पूर्ण प्रजाको अनुनयपूर्वक बारम्बार आश्वासन देकर धर्माङ्गद उनके पालनमें लगे रहे। वे न तो दिनमें सोते थे और न रातमें ही। वे अपने शौर्यके बलसे पृथ्वीको निष्कण्टक बनाते हुए सर्वत्र भ्रमण करते थे। हाथीके मस्तकपर रखा हुआ उनका नगाड़ा प्रतिदिन बजता और कर्तव्यपालनकी घोषणा इस प्रकार करता रहता था―’ लोगो ! ( एकादशीसंयुक्त ) द्वादशीको उपवास करते हुए ममतासे रहित हो जाओ और नाना प्रकारके कार्योंमें देवेध्वर श्रीहरिका चिन्तन करते रहो। भगवान्‌ पुरुषोत्तम ही यज्ञ और श्राद्धके भोक्ता हैं। सूर्यमें, सूने आकाशमें तथा सम्पूर्ण सृष्टिमें वे जगदीश्वर भगवान्‌ विष्णु व्याप्त हो रहे हैं। धर्म, अर्थ और कामरूप त्रिवर्गकी भी इच्छा रखनेवाले सब मनुष्योंको उन्हींका स्मरण करना चाहिये। इसी प्रकार अपने वर्णोचित कर्तव्यकर्मका आचरण करते हुए भी उन्हीं भगवान माधवका चिन्तन करना चाहिये। वे भगवान्‌ पुरुषोत्तम ही भोक्ता और भोग्य हैं, सब कर्मोंमें उन्हीं का विनियोग―उन्हींकी प्रसन्नताके लिये कर्मोका अनुष्ठान करना उचित है। ‘  इस प्रकार मेघकी गर्जनाके समान गम्भीर स्वरसे डंका पीटकर श्रेष्ठ ब्राह्मण उपर्युक्त बातें दुहराया करते थे। ब्राह्मणो ! इस तरह धर्मका सम्पादन करके धर्माङ्गदके पिताने जब यह जान लिया कि मेरा पुत्र मुझसे भी अधिक कर्तव्यपरायण है तो वे अत्यन्त प्रसन्न हो द्वितीय लक्ष्मीके समान सुशोभित अपनी धर्मपत्नीसे बोले―’ सन्ध्यावलि ! मैं धन्य हूँ तथा श्रेष्ठ वर्णवाली देवि ! तुम भी धन्य हो; क्योंकि हम दोनोंका पैदा किया हुआ पुत्र इस पृथ्वीपर चन्द्रमाके समान उज्ज्वल कीर्तिसे प्रकाशित हो रहा है। सुन्दरी ! यह निश्चय है कि सदाचार और पराक्रमसे सम्पन्न विनयशील एवं प्रतापी पुत्र प्राप्त होनेपर पिताके लिये घरमें ही मोक्ष है। किंतु अब मैं प्रसन्नतापूर्वक शिकार खेलने एवं जंगली पशुओंको मारनेके लिये वनमें जाऊँगा। विशाललोचने ! वहाँ स्वच्छन्द विचरते हुए मैं जन-रक्षाका कार्य करूंगा ।

अध्याय ११० रानी सन्ध्यावलीका पतिको मृगोंकी हिंसासे रोकना, राजाका वामदेवके आश्रम पर जाना उनसे अपने पारिवारिक सुख आदिका कारण पूछना

सिष्ठजी कहते हैंपतिका यह वचन सुनकर विशाल नेत्रोवाली रानी सन्ध्यावलीने कहा— ‘ राजन ! आपने पुत्रपर सातों द्वीपोके पालनका भार रख दिया । अब यह मृगोंकी हिंसा छोड़कर यज्ञोंद्वारा भगवान्‌ जनार्दनकी आराधना कीजिये और भोगोंकी अभिलाषा त्यागकर देवनदी गंगाका सेवन कीजिये । आपके लिये अब यही न्यायोचित कर्तव्य है; मृगोंके प्राण लेना न्यायकी बात नहीं है । पुराणोंमें कहा गया है कि ` अहिंसा परम धर्म है। जो हिंसामें प्रवृत्त होता है, उसका सारा धर्म व्यर्थ हो जाता है। राजन्‌ ! विद्वानोंने जीव-हिंसा छः प्रकारकी बतायी है। पहला हिंसक वह है, जो हिंसाका अनुमोदन करता है। दूसरा वह है, जो जीवको मारता है। जो विश्वास पैदा करके जीवको फँसाता है, वह तीसरे प्रकारका हिंसक है। मारे हुए जीवका मांस खानेवाला चौथा हिंसक है; उस मांसको पकाकर तैयार करनेवाला पाँचवाँ हिंसक है तथा राजन्‌ ! जो यहाँ उसका बटवारा करता है, वह छठा हिंसक है। विद्वान्‌ पुरुषोंने हिंसायुक्त धर्मको अधर्म ही माना है। धर्मात्मा राजाओंमें भी मृगोंके प्रति दयाभावका होना ही श्रेष्ठ माना गया है। मैंने आपके हितकी भावनासे ही बार-बार आपको मृगयासे रोकनेका प्रयत्न किया है।’

   ऐसी बातें कहती हुई अपनी धर्मपत्नीसे राजा रुक्माङ्गदने कहा -‘ देवि ! मैं मृगोंकी हत्या नहीं करूँगा । मृगया बहाने हाथमें धनुष लेकर वनमें विचरण करूँगा । वहाँ जो प्रजाके लिये कण्टकरूप हिंसक जन्तु हैं, उन्हींका वध करूँगा। जनपदमें मेरा पुत्र रहे और वनमें मैं। वरानने ! राजाको हिंसक जन्तुओं और लुटेरोंसे प्रजाकी रक्षा करनी चाहिये। शुभे ! अपने शरीरसे अथवा पुत्रके द्वारा प्रजाकी रक्षा करना अपना धर्म है। जो राजा प्रजाकी रक्षा नहीं करता, वह धर्मात्मा होनेपर भी नरकमें जाता है; अतः प्रिये ! मैं हिंसाभावका परित्याग करके जन-रक्षाके उद्देश्यसे वनमें जाऊँगा। ‘

   रानी सन्ध्यावलीसे ऐसा कहकर राजा रुक्माङ्गद अपने उत्तम अश्वपर आरूढ़ हुए। वह घोड़ा पृथ्वीका आभूषण, चन्द्रमाके समान धवल वर्ण और अश्वसम्बन्धी दोषोंसे रहित था। रूपमें उच्चै: श्रवाके समान और वेगमें वायुके समान था । राजा रुक्माङ्गद पृथ्वीको कम्पित करते हुए-से चले। वे नृपश्रेष्ठ अनेक देशोंको पार करते हुए वनमें जा पहुँचे । उनके घोड़ेके वेगसे तिरस्कृत हो कितने ही हाथी, रथ और घोड़े पीछे छूट जाते थे। वे राजा रुक्माङ्गद एक सौ आठ योजन भूमि लाँघकर सहसा मुनियोंके उत्तम आश्रमपर पहुँच गये। घोड़ेसे उतरकर उन्होंने आश्रमकी रमणीय भूमिमें प्रवेश किया, जहाँ केलेके बगीचे आश्रमकी शोभा बढ़ा रहे थे। अशोक, वकुल ( मौलसिरी ), पुन्नाग ( नागकेसर ) तथा सरल ( अर्जुन ) आदि वृक्षोंसे वह स्थान घिरा हुआ था। राजाने उस आश्रमके भीतर जाकर द्विजश्रेष्ठ महर्षि वामदेवका दर्शन किया, जो अङ्गोके समान तेजस्वी जान पड़ते थे। उन्हें बहुत-से शिष्योंने घेर रखा था। राजाने मुनिको देखकर उन्हें आदरपूर्वक प्रणाम किया। उन महर्षिने भी अर्घ्य, पाद्य आदिके द्वारा राजाका सत्कार किया। वे कुशके आसनपर बैठकर हर्षभरी वाणीसे बोले- ` मुने ! आज मेरा पातक नष्ट हो गया। भलीभाँति ध्यानमें तत्पर रहनेवाले आप-जैसे महात्माके युगल चरणारविन्दोंका दर्शन करके मैंने समस्त पुण्य-कर्मोका फल प्राप्त कर लिया। ‘ राजा रुक्माड़दकी यह बात सुनकर वामदेवजी बड़े प्रसन्न हुए और कुशल-मड़़ल पूछकर बोले- ‘ राजन्‌ ! तुम अत्यन्त पुण्यात्मा तथा भगवान्‌ विष्णुके भक्त हो । महाभाग ! तुम्हारी दृष्टि पड़नेसे मेरा यह आश्रम इस पृथ्वीपर अधिक पुण्यमय हो गया । भूमण्डलमें कौन ऐसा राजा होगा, जो तुम्हारी समानता कर सके । तुमने यमराजको जीतकर उनके लोकमें जानेका मार्ग ही नष्ट कर दिया । राजन्‌ ! सब लोगोंसे पापनाशिनी ( एकादशीसंयुक्त ) द्वादशीका व्रत कराकर सबको तुमने अविनाशी वैकुण्ठधाममें पहुँचा दिया। साम, दान, दण्ड और भेद- इन चार प्रकारके सुन्दर उपायोंसे भूमण्डलकी प्रजाको संयममें रखकर अपने कर्म या विपरीत कर्ममें लगी हुई सब प्रजाको तुमने भगवान्‌ विष्णुके धाममें भेज दिया । नरेश्वर ! हम भी तुम्हारे दर्शनकी इच्छा रखते थे, सो तुमने स्वयं दर्शन दे दिया।

   महिपाल ! चाण्डाल भी यदि भगवान्‌ विष्णुका भक्त है तो वह द्विजसे भी बढ़कर है और द्विज भी यदि विष्णुभक्तिसे रहित है तो वह चाण्डालसे भी अधिक नीच है। भूपाल ! इस पृथ्वीपर विष्णुभक्त राजा दुर्लभ हैं*। जो राजा भगवान्‌ विष्णुका भक्त नहीं है, वह भूदेवी और लक्ष्मीदेवीकी कृपा नहीं प्राप्त कर सकता । तुमने भगवान्‌ विष्णुकी आराधना करके न्यायोचित कर्तव्यका ही पालन किया है । नृपते ! भगवान्‌की आराधनासे तुम धन्य हो गये हो और तुम्हारे दर्शनसे हम भी धन्य हो गये। ‘

   वामदेवजीको ऐसी बातें करते देख नृपश्रेष्ठ रुक्माङ्गद, जो स्वभावसे ही विनयी थे, अत्यन्त नम्र होकर उनसे बोले-‘ द्विजश्रेष्ठ ! आपसे क्षमा माँगता हूँ। भगवन्‌ ! आप जैसा कहते हैं, वैसा महान्‌ मैं नहीं हूँ। विप्रवर ! आपके चरणोंकी धूलके बराबर भी मैं नहीं हूँ। इस जगतमें देवता भी कभी ब्राह्मणोंसे बढ़कर नहीं हो सकते; क्योंकि ब्राह्मणोंके संतुष्ट होनेपर जीवकी भगवान्‌ विष्णुमें भक्ति होती है। ‘ तब वामदेवजीने उनसे कहा—’ राजन्‌ ! इस समय तुम मेरे घरपर आये हो। तुम्हारे लिये कुछ भी अदेय नहीं है, अतः बोलो, मैं तुम्हें कया दूँ ? महीपाल ! इस भूतलपर जो सबको अभीष्ट वस्तु प्रदान करता है और एकादशीके दिन डंका पीटकर प्रजाको भोजन करनेसे रोकता है, उसके लिये क्या नहीं दिया जा सकता। ‘

   तब राजाने हाथ जोड़कर विप्रवर वामदेवजीसे कहा—’ ब्रह्मन्‌ ! आपके युगल चरणोंके दर्शनसे मैंने सब कुछ पा लिया। मेरे मनमें बहुत दिनोंसे एक संशय है । मैं उसीके विषयमें आपसे पूछता हूँ; क्योंकि आप सब संदेहोंका निवारण करनेवाले ब्राह्मणशिरोमणि हैं । मुझे किस सत्कर्मके फलसे त्रिभुवनसुन्दरी पत्नी प्राप्त हुई है, जो सदा मुझे अपनी दृष्टिसे कामदेवसे भी अधिक सुन्दर देखती है। परम सुन्दरी देवी सन्ध्यावली जहाँ-जहाँ पैर रखती है, वहाँ-वहाँ पृथ्वी छिपी हुई निधि प्रकाशित कर देती है। उसके अङ्गोमे बुढ़ापेका प्रवेश नहीं होता । मुनिश्रेष्ठ ! वह सदा शरत्कालके चन्द्रमाकी प्रभाके समान सुशोभित होती है। विप्रवर ! बिना आगके भी वह वडरस भोजन तैयार कर लेती है और यदि थोड़ी भी रसोई बनाती है तो उसमें करोड़ों मनुष्य भोजन कर लेते हैं । वह पतिव्रता, दानशीला तथा समस्त प्राणियोंको सुख देनेवाली है। ब्रह्मन ! उसने सोते समय भी वाणीमात्रके द्वारा भी कभी मेरी अवहेलना नहीं की है। उसके गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न हुआ है, वह सदा मेरी आज्ञाके पालनमें तत्पर रहता है। द्विजश्रेष्ठ ! ऐसा लगता है, इस भूतलपर केवल मैं ही पुत्रवान्‌ हूँ, जिसका पुत्र पिताका भक्त है और गुणोंके संग्रहमें पितासे भी बढ़ गया है । मैं भूमण्डलमें केवल एक द्वीपके स्वामीरूपसे प्रसिद्ध था; किंतु मेरा पुत्र मुझसे बढ़ गया। वह सातों द्वीपोंकी पृथ्वीका पालक है। विप्रवर ! वह मेरे लिये विद्युल्लेखा नामसे विख्यात राजकुमारीको ले आया था और युद्धमें उसने विपक्षी राजाओंको परास्त कर दिया था। वह रूप-सम्पत्तिसे भी सुशोभित है। उसने सेनापति होकर छः महीनेतक युद्ध किया और शत्रुपक्षके सैनिकोंको जीतकर सबको अस्त्रहीन कर दिया। स्त्रीराज्यमें जाकर उसने वहाँकी स्त्रियोंको युद्धमें जीता और उनमेंसे आठ सुन्दरियोंको लाकर मुझे समर्पित किया तथा उन सबको मातृभावसे उसने बारम्बार मस्तक झुकाया । पृथ्वीपर उसने जो-जो दिव्य वस्त्र तथा दिव्य रत्र प्राप्त किये, उन सबको लाकर मुझे दे दिया । इससे उसको माताने उसकी बड़ी प्रशंसा की। वह एक ही दिनमें अनेक योजन विस्तृत समूची पृथ्वीको लॉघकर रातको मेरे पैरोंमें तेल मालिश करनेके लिये पुन: घर लौट आता है। आधी रातमें मेरे शरीरकी सेवा करके वह द्वारपर कवच धारण करके खड़ा हो जाता है और नींदसे व्याकुल इन्द्रियोंवाले सेवकोंको जगाता रहता है। मुनिश्रेष्ठ! मेरा यह शरीर भी नीरोग रहता है। मुझे अनन्त सुख प्राप्त है और घरमें मेरी प्यारी पत्नी सदा मेरे अधीन रहती है। पृथ्वीपर सब लोग मेरी आज्ञाका पालन करनेवाले हैं। किस कर्मके प्रभावसे इस समय मुझे यह सुख मिला है ? वह सत्कर्म इस जन्मका किया हुआ है या दूसरे जन्मका ? ब्रह्मन ! आप अपनी बुद्धिसे विचारकर मेरा पुण्य मुझे बताइये । मेरे शरीरमें रोग नहीं है। मेरी पत्नी मेरे वशमें रहनेवाली है। घरमें अनन्त ऐश्वर्य है। भगवान्‌के चरणोंमें मेरी भक्ति है। विद्वानोंमें मेरा आदर है और ब्राह्मणोंको दान देनेकी मुझमें शक्ति है। अत: मैं ऐसा मानता हूँ कि यह सब किसी ( विशेष ) पुण्यकर्मका फल है ।’

अध्याय १११ वामदेवजी पूर्वजन्ममें किये हुय’अशून्यशयन व्रत’को राजाके वर्तमान सुखका कारण बताना, मंदराचलपर जाकर मोहिनीके गीत तथा रूप— दर्शनसे मोहित होकर गिरना, मोहनीद्वारा उन्हें आश्वासन प्राप्त होना

वसिष्ठजी कहते हैंराजाका यह वचन सुनकर महाज्ञानी मुनीश्वर वामदेवजीने एक क्षणतक कुछ चिन्तन किया । फिर राजाके सुख-सोभाग्यका कारण जानकर वे इस प्रकार बोले ।   

   वामदेवजीने कहामहीपाल ! तुम पूर्वजन्ममों शूद्रजातिमें उत्पन्न हुए थे । उस समय दरिद्रता तथा दुष्ट भार्याने तुम्हारा बड़ा तिरस्कार किया था । तुम्हारी स्त्री पर-पुरुषका सेवन करती थी । राजन्‌ ! तुम ऐसी स्त्रीके साथ बहुत वर्षोतक निवास करते हुए दुःखसे संतप्त होते रहे । एक समय किसी ब्राह्मणके संसर्गसे तुम तीर्थयात्राके लिये गये; फिर सब ती्थोंमें घूमकर ब्राह्मणकी सेवामें तत्पर हो, तुम पुण्यमयी मथुरापुरीमें जा पहुँचे । महीपते ! वहाँ ब्राह्मणदेवताके सङ्गसे तुमने यमुनाजीके सब तीर्थोंमें उत्तम―विश्रामघाट नामक तीर्थमें स्नान करके भगवान्‌ वाराहके मन्दिरमें होती हुई पुराणकी कथा सुनी, जो ‘ अशुन्यशयनव्रत ‘के विषयमें थी; चार पारणसे जिसकी सिद्धि होती है, जिसका अनुष्ठान कर लेनेपर मेघके समान श्यामवर्ण देवेश्वर लक्ष्मीभर्ता जगन्नाथ, जो अशेष पापराशिका नाश करनेवाले हैं, प्रसन्न होते हैं । राजन्‌ ! तुमने अपने घर लौटकर वह पवित्र ‘ अशून्यशयनब्रत ‘ किया, जो घरमें परम अभ्युदय प्रदान करनेवाला है । महीपते ! श्रावण मासकी द्वितीयाको यह पुण्यमयव्रत ग्रहण करना चाहिये । इससे जन्म, मृत्यु और जरावस्थाका नाश होता है । पृथ्वीपते ! इस व्रतमें फल, फूल, धूप, लाल-चन्दन, शय्यादान, वस्त्रदान और ब्राह्मणभोजन आदिके द्वारा लक्ष्मीसहित भगवान्‌ विष्णुकी पूजा करनी चाहिये । राजन्‌ ! तुमने यह सब दुस्तर कर्म भी पूरा किया । महीपते ! तुमने जो पहले पुण्यके फलस्वरूप सुख विस्तारपूर्वक बताये हैं, वे इसी व्रतसे प्राप्त हुए हैं, सुनो-जिसके ऊपर भगवान्‌ जगन्नाथ प्रसन्न न हों, उसके यहाँ वे सुख निश्चय ही नहीं हो सकते । राजेन्द्र ! इस जन्ममें भी तुम (एकादशीसंयुक्त) द्वादशीव्रतके द्वारा श्रीहरिकी पूजा करते हो । राजन् ! इससे तुम्हें निश्चितरूपसे भगवान् विष्णुका सायुज्य प्राप्त  होगा ।

   राजा बोलेद्विजश्रेष्ठ ! आपकी आज्ञा हो तो मैं मन्दराचलपर जानेको उत्सुक हूँ । राज्य-शासनका गुरुतर भार अपने पुत्रके ऊपर छोड़कर मैं हलका हो गया हूँ । अब मेरे कर्तव्यका पालन मेरा पुत्र करेगा ।

   राजाकी बात सुनकर वामदेवजी इस प्रकार बोले-‘नृपश्रेष्ठ ! पुत्रका यह सबसे महान् कर्तव्य है कि वह सदा प्रेमपूर्वक पिताको क्लेशसे मुक्त करता रहे । जो मन, वाणी और शरीरकी शक्तिसे सदा पिताकी आज्ञाका पालन करता है, उसे प्रतिदिन गङ्गास्नानका फल मिलता है । जो पिताकी आज्ञाका उल्लङघन करके गङ्गास्नान करनेके लिये जाता है, उस पुत्रकी शुद्धि नहीं होती—यह वैदिक श्रुतिका कथन है१ । भूपाल ! तुम इच्छानुसार यात्रा करो । तुमने अपना सब कर्तव्य पूरा कर लिया।

   मुनिके ऐसा कहनेपर श्रीमान् राजा रुकमाङ्गद घोड़ेपर चढ़कर शीघ्र गतिसे चले, मानो साक्षात् वायुदेव जा रहे हों । मार्गमें अनेकानेक पर्वत, वन, नदी, सरोवर तथा उपवन आदि सम्पूर्ण आश्चर्यमय हृदयोंको देखते हुए वे राजाधिराज  रुक्माङगद थोड़े ही समयमें श्वेतगिरि, गन्धमादन और महामेरुको लाँघकर उत्तर-कुरुवर्षको देखते हुए मन्दराचलपर्वतपर जा पहुँचे, जो सब ओरसे सुवर्णसे आच्छादित था । वहाँ बहुत-से निर्झर झर रहे थे । अनेकानेक कन्दराएँ उस पर्वतकी शोभा बढ़ा रही थीं । सहस्त्रों नदियोंसे पूर्ण मन्दराचल गङ्गाके शुभ जलसे भी प्रक्षालित हो रहा था । यह सब देखते हुए राजा रुक्माङ्गद उस महापर्वतके समीप जा पहुँचे । तत्पश्चात उन्होंने समस्त मृग आदि पशुओ और पक्षियोंके समुदायको एक संगीतकी ध्वनिसे खिंचकर शीघ्रतापूर्वक एक ओर जाते देखा । वह ध्वनि मोहिनीके मुखसे निकले हुए संगीतकी थी । उनको जाते देख राजा रुक्माङ्गद स्वयं भी उन्हींके साथ शीघ्रतापूर्वक चल दिये । मोहिनीके मुखसे निकले हुए संगीतकी ध्वनि राजाके भी कानमें पड़ी, जिससे मोहित होकर उन्होंने घोड़ा वहीं छोड़ दिया और पर्वतीय मार्गको लाँघते हुए वे क्षणभरमें सहसा उसके पास पहुँच गये । उन्होंने देखा, तपाये हुए सुवर्णके समान कान्तिवाली एक दिव्य नारी पर्वतपर बैठी है, मानो गिरिराजनन्दिनी पार्वतीकी रूपराशि उसके रूपमें अभिव्यक्त हुई हो । उसे देखकर राजा उसके पास खड़े हो उस मोहिनीका रूप निहारने लगे । देखते-देखते वे मोहित होकर वहीं गिर पड़े । मोहिनीने वीणाको रख दिया और गीत बन्द कर दिया । वह देवी राजाके समीप गयी । मोहिनी सन्तप्त राजा रुक्माङ्गदसे मधुर मनोरम वचनोंमें बोली―’ राजन्‌ ! उठिये । मैं आपके वशमें हूँ । क्यों मूर्च्छासे आप अपने इस शरीरको क्षीण कर रहे  हैं । भूपाल ! आप तो पृथ्वीके इस महान्‌ भारको तिनकेके समान समझकर ढोते आये हैं । फिर आज आप मोहित क्यों हो रहे हैं? दृढ़तापूर्वक अपनेको सँभालिये । आप धीर हैं, वीर हैं । आपकी चेष्टाएँ उदारतापूर्ण हैं । राजराजेश्वर ! यदि मेरे साथ अत्यन्त मनोरम एवं मनोsनुकूल क्रीड़ा करनेकी आपके मनमें इच्छा हो तो मुझे धर्मयुक्त दान देकर अपनी दासीकी भाँति मेरा उपभोग कीजिये ।’

अध्याय ११२ राजाकी मोहनीसे प्रणय— याचना, मोहनीकी शर्त तथा राजाद्वारा उसकी स्वकृति एवं विवाह तथा दोनोंका राजधानीकी ओर प्रस्थान

वसिष्जी कहते हैंमोहिनीके इस प्रकार सुन्दर वचन बोलनेपर राजा रूक्माङ्गद आँखें खोलकर गद्गद कण्ठसे बोले-‘ बाले ! मैंने पूर्ण चन्द्रमाके समान सुन्दर मुखवाली बहुत-सी रमणियोंको देखा, किंतु ऐसा रूप मैंने कहीं नहीं देखा है, जैसा कि विश्वविमोहन रूप तुमने धारण किया है । वरानने ! मैं तुम्हारे दर्शनमात्रसे इतना मोहित हो गया कि तुमसे बाततक न कर सका और पृथ्वीपर गिर पड़ा । मुझपर कृपा करो ! तुम्हारे मनमें जो भी अभिलाषा होगी, वह सब मैं तुम्हें दूँगा । मैं सम्पूर्ण पृथ्वीको तुम्हारी सेवामें दे दूँगा । इसके साथ ही कोष, खजाना, हाथी, घोड़े, मन्त्री और नगर आदि भी तुम्हारे अधीन हो जायँगे । तुम्हारे लिये मैं अपने-आपको भी तुम्हें अर्पण कर दूँगा; फिर धन, रत्न आदिकी तो बात ही क्या है? अत: मोहिनी ! मुझपर प्रसन्न हो जाओ ।’

   राजाका मधुर वचन सुनकर मोहिनीने मुसकराते हुए उस समय उन्हें उठाया और इस प्रकार कहा-‘वसुधापते ! मैं आपसे पर्वतोंसहित पृथ्वी नहीं माँगती । मेरी इतनी ही इच्छा है कि मैं समयपर जो कुछ कहूँ, उसका नि:शड्क होकर आप पालन करते रहें । यदि यह शर्त आप स्वीकार कर लें तो मैं नि:संदेह आपकी सेवा करूँगी ।’

   राजा बोलेदेवि ! तुम जिससे संतुष्ट रहो, वही शर्त मैं स्वीकार करता हूँ ।

  मोहिनीने कहाआप अपना दाहिना हाथ मुझे दीजिये; क्योंकि वह बहुत धर्म करनेवाला हाथ है । राजन्‌ ! उसके मिलनेसे मुझे आपकी बातपर विश्वास हो जायगा । आप धर्मशील राजा हैं । आप समय आनेपर कभी असत्य नहीं बोलेंगे ।

   राजन्‌ ! मोहिनीके ऐसा कहनेपर महाराज रुक्माङ्गदका मन प्रसन्न हो गया और वे इस प्रकार बोले-‘ सुन्दरि ! जन्मसे लेकर अबतक मैंने कभी क्रीडाविहारमें भी असत्य भाषण नहीं किया है । लो, मैंने पुण्य-चिह्नसे युक्त यह दाहिना हाथ तुम्हें दे दिया । मैंने जन्मसे लेकर अबतक जो भी पुण्य किया है, वह सब यदि तुम्हारी बात न मानूँ तो तुम्हारा ही हो जाय । मैंने धर्मको ही साक्षीका स्थान दिया है । कल्याणी ! अब तुम मेरी पत्नी बन जाओ ! मैं ईक्ष्वाकुकुलमें उत्पन्न हुआ हूँ । मेरा नाम रुक्माङ्गद है । मैं महाराज ऋतध्वजका पुत्र हूँ और मेरे पुत्रका नाम धर्माङ्गद है । तुम मेरी प्रार्थनाका उत्तर देकर मेरे ऊपर कृपादृष्टि करो ।’

   राजाके ऐसा कहनेपर मोहिनीने उत्तर देते हुए कहा-‘राजन्‌ ! मैं ब्रह्माजीकी पुत्री हूँ । आपकी कीर्ति सुनकर आपके लिये ही इस स्वर्णमय मन्दराचलपर आयी हूँ । केवल आपमें मन लगाये यहाँ तपस्यामें तत्पर थी और देवेश्वर भगवान्‌ शंकरका संगीतदानके द्वारा पूजन कर रही थी । मुझे विश्वास है कि संगीतका दान देवताओंको अधिक प्रिय है । संगीतसे संतुष्ट हो भगवान्‌ पशुपति तत्काल फल देते हैं । तभी तो अपने प्रियतम आप महाराजको मैंने शीघ्र पा लिया है । राजन्‌ ! आपका मुझपर प्रेम है और मैं भी आपसे प्रेम करती हूँ । ‘ राजासे ऐसा कहकर मोहिनीने उनका हाथ पकड़ लिया।

   तदनन्तर राजाको उठाकर मोहिनी बोली महाराज ! मेरे प्रति कोई शंका न कोजिये ! मुझे कुमारी एवं पापरहित जानिये । महीपाल ! गृह्मसूत्रमें बतायी हुई विधिके अनुसार मेरे साथ विवाह कोजिये । राजन्‌ ! यदि अविवाहिता कन्या गर्भ धारण कर ले तो वह सब वर्णोंमें निन्दित चाण्डाल पुत्रको जन्म देती है । पुराणमें विद्वान्‌ पुरुषोंने तीन प्रकारकी चाण्डाल-योनि मानी है-एक तो वह जो कुमारी कन्यासे उत्पन्न हुआ है, दूसरा वह जो विवाहिता होनेपर भी सगोत्र कन्याके पेटसे पैदा हुआ है । नृपत्रेष्ठ ! शूद्रके वीर्यद्वारा ब्राह्मणीके गर्भसे उत्पन्न हुआ पुत्र तीसरे प्रकारका चाण्डाल   है । महाराज ! इस कारण मुझ कुमारीके साथ आप विवाह कर लें ।

   तब राज रुक्माङगदने मन्दराचलपर उस  चपलनयना मोहिनीके साथ विधिपूर्वक विवाह किया और उसके एसएसटीएच हँसते हुए-से रहने लगे |

   राजाने कहा- वरानने ! स्वर्गकी प्राप्ति भी मुझे वैसा सुख नहीं दे सकती, जैसा सुख इस मन्दराचल पर्वतपर तुम्हारे मिलनेसे प्राप्त हो रहा है । बाले ! तुम यहीं मेरे साथ रहोगी या मेरे राजमहलमें?

   राजा रुक्मा़ङगदकी बात सुनकर मोहिनीने अनुरागपूर्वक मधुर वाणीमें कहा-‘ राजन्‌ ! जहाँ आपको सुख मिले, वही मैं भी रहूँगी । स्वामीका ‘निवासस्थान धन-वैभवसे रहित हो तो भी पत्नीको वहाँ निवास करना चाहिये । उसके लिये पतिके सामीप्यको ही सुवर्णमय मेरु पर्वत बताया गया है । नारीके लिये पतिके निवासस्थानको छोड़कर अपने पिताके घर भी रहना वर्जित है । पिताके स्थान और आश्रयमें आसक्त होनेवाली स्त्री नरकमें डूबती है । वह सब धर्मसे रहित होकर सूकर-योनिमें जन्म लेती है१ । इस प्रकार पतिके निवासस्थानसे अन्यत्र रहनेमें जो दोष है, उसे मैं जानती हूँ । अत: मैं आपके साथ ही चलूँगी। सुखमें और दु:खमें आप ही मेरे स्वामी हैं ।’

   मोहिनीका यह कथन सुनकर राजाका हृदय प्रसन्नरतासे खिल उठा । वे उस सुन्दरीकों हृदयसे लगाकर बोले-‘ प्रिये ! मेरी समस्त पत्नियोंमें तुम्हारा स्थान सर्वोपरि होगा । मेरे घरमें तुम प्राणोंसे भी अधिक प्रिय बनकर रहोगी । आओ, अब हम लोग सुखपूर्वक राजधानीकी ओर चलें।’ राजा रुक्माङ्गदने जब ऐसी बात कही, तब चन्द्रमाके समान मुखवाली मोहिनी उस पर्वतकी शोभाकों अपने साथ खींचती हुई (राजा रुक्माङगदके साथ राजधानीकी ओर) चली ।

अध्याय ११३ घोड़ेकी टापसे कुचली हुई छिपकलीकी राजाद्वारा सेवा, छिपकलीकी आत्मकथा, पतिपर वशीकरणका दुष्परिणाम, राजाके पुण्यदानसे उसका उद्धार

वशिष्ठजी कहते हैंराजन्‌ ! वे दोनों पति-पत्नी मन्दराचलके शिखरसे पृथ्वीकी ओर प्रस्थित हुए । मार्गमें अनेकों मनोहर पर्वतीय दृश्योंको देखते हुए क्रमश: नीचे उतरने लगे । पृथ्वीपर आकर राजाने अपने श्रेष्ठ घोड़ेको देखा, जो वज्रके समान कठोर टापोंसे धरतीको वेगपूर्वक खोद रहा था । उस भूभागके भीतर एक छिपकली रहती थी । जब तीखी टापसे वह घोड़ा धरती खोद रहा था, उसी समय वह छिपकली वहाँसे निकलकर जाने लगी । इतनेमें ही टापके आघातसे उसका शरीर विदोर्ण हो गया । दयालु राजा रुक्माज़दने जब उसकी यह दशा देखी तो वे बड़े वेगसे दौड़े और वृक्षके कोमल पत्तेसे उन्होंने स्वयं उसे खुरके नीचेसे उठाया तथा घास एवं तृणसे भरी हुई भूमिपर रख दिया । तत्पश्चात उसे मूर्च्छित देख मोहिनीसे बोले-‘ सुन्दरी ! शीघ्र पानी ले आओ | कमललोचने ! यह छिपकली कुचलकर मूर्च्छित हो गयी है । इसे उस जलसे सींचूँगा ।’ स्वामीकी आज्ञासे मोहिनी शीघ्र शीतल जल ले आयी । राजाने उस जलसे बेहोश पड़ी हुई छिपकलीकों सींचा । राजन्‌ ! शीतल जलके अभिषेकसे उसकी खोयी हुई चेतना फिर लौट आयी । किसी प्रकारकी चोट क्यों न हो, सबमें शीतल जलसे सींचना उत्तम माना गया है अथवा भीगे हुए वस्त्रसे सहसा उसपर पढट्टी बाँधना हितकर माना गया है । राजन ! जब छिपकली सचेत हुई तो राजाको सामने खड़े देख वेदनासे पीड़ित हो धीरे-धीरे इस प्रकार (मनुष्यकी बोलीमें) बोली-‘महाबाहु रुक्माङ्गद ! मेरा पूर्वजन्मका चरित्र सुनिये । रमणीय शाकल नगरमें मैं एक ब्राह्मणकी पत्नी थी । प्रभो ! मुझमें रूप था, जवानी थी तो भी मैं अपने स्वामीकी अत्यन्त प्यारी न हो सकी । वे सदा मुझसे द्वेष रखते और मेरे प्रति कठोरतापूर्ण बातें कहते थे । महाराज! तब मैंने क्रोधयुक्त हो वशीकरण औषध प्राप्त करनेके लिये ऐसी स्त्रियोंसे सलाह ली, जिन्हें उनके पतियोंने कभी त्याग दिया था (और फिर वे उनके वशमें हो गये  थे) । भूपाल ! मेरे पूछनेपर उन स्त्रियोंने कहा-‘ तुम्हारे पति अवश्य वशमें हो जायँगे । उसका एक उपाय है । यहाँ एक संन्यासिनी रहती हैं, उन्हींकी दी हुई दवाओंसे हमारे पति वशमें हुए थे । वरारोहे ! तुम भी उन्हीं संन्यासिनीजीसे पूछो। वे तुम्हें कोई अच्छी दवा दे देंगी । तुम उनपर संदेह न करना ।’ राजन्‌ ! तब उन स्त्रियोंके कहनेसे मैं तुरंत वहाँ उनके पास पहुँची और उनसे चूर्ण और रक्षासूत्र लेकर अपने पतिके पास लौट आयी और प्रदोषकालमें दूधके साथ वह चूर्ण स्वामीको पिला दिया । साथ ही रक्षासूत्र उनके गलेमें बाँध दिया । नृपश्रेष्ठ ! जिस दिन स्वामीने वह चूर्ण पीया उसी दिनसे उन्हें क्षयका रोग हो गया और वे प्रतिदिन दुबले होने लगे। उनके गुप्त अज्ञमें घाव हो जानेसे उसमें दूषित ब्रणजनित कीड़े पड़ गये । कुछ ही दिन बीतनेपर मेरे स्वामी तेजोहीन हो गये । उनकी इन्द्रियाँ व्याकुल हो         उठीं | वे दिन-रात क्रन्दन करते हुए मुझसे बार-बार कहने लगे-‘ सुन्दरी ! मैं तुम्हारा दास हूँ । तुम्हारी शरणमें आया हूँ, अब कभी परायी स्त्रीके पास नहीं जाऊँगा । मेरी रक्षा करो ।’ महीपते ! उनका वह रोदन सुनकर मैं उन तापसीके पास गयी और पूछा-‘ मेरे पति किस प्रकार सुखी होंगे?’ अब उन्होंने उनके दाहकी शान्तिके लिये दूसरी दवा दी । उस दवाको पिला देनेपर मेरे पति तत्काल स्वस्थ हो गये । तबसे मेरे स्वामी मेरे अधीन हो गये और मेरे कथनानुसार चलने लगे । तदनन्तर कुछ कालके बाद मेरी मृत्यु हो गयी और मैं नरक-यातनामें पड़ी । मुझे ताँबेके भाड़में रखकर पंद्रह युगोंतक जलाया गया । जब थोड़ा-सा पातक शेष रह गया तो मैं इस पृथ्वीपर उतारी गयी और यमराजने मेरा छिपकलीका रूप बना दिया । राजन्‌ ! उस रूपमें यहाँ रहते हुए मुझे दस हजार वर्ष बीत गये।

   ‘भूपाल! यदि कोई दूसरी युवती भी पतिके लिये वशीकरणका प्रयोग करती है तो उसके सारे धर्म व्यर्थ हो जाते हैं और वह दुराचारिणी स्त्री ताँबेके भाड़में जलायी जाती है । पति ही नारीका रक्षक है, पति ही गति है तथा पति हो देवता और गुरु है । जो उसके ऊपर वशीकरणका प्रयोग करेगी, वह कैसे सुख पा सकती है?  वह तो सैकड़ों बार पशु-पक्षियोंकी योनिमें जन्म लेती और अन्तमें गलित कोढ़के रोगसे युक्त स्त्री होती है । अत: महाराज ! स्त्रियोंको सदा अपने स्वामीके आदेशका पालन करना चाहिये १ । राजन्‌ ! आज मैं आपकी शरणमें आयी हूँ । यदि आप विजया द्वादशीजनित पुण्य देकर मेरा उद्धार नहीं करेंगे तो मैं फिर पातक युक्त कुत्सित योनिमें ही पड़ जाऊँगी । आपने जो सरयू और गङ्गाके पापनाशक एवं पुण्यमय संगम-तीर्थमें श्रवण नक्षत्रयुक्त द्वादशीका व्रत किया है, वह पुण्यमयी तिथि प्रेतयोनिसे छुड़ानेवाली तथा मनोवाञ्छित फल देनेवाली है । भूपाल ! उस तिथिको जो मनुष्य घरमें रहकर भी भगवान्‌ श्रीहरिका स्मरण करते हैं, उन्हें भगवान्‌ सब तीथोंके फलकी प्राप्ति करा देते हैं । भूपते ! विजयाके दिन जो दान, जप, होम और देवाराधन आदि किया जाता है, वह सब अक्षय होता है, जिसका ऐसा उत्कृष्ट फल है, उसीका पुण्य मुझे दीजिये । द्वादशीको उपवास करके त्रयोदशीको पारण करनेपर मनुष्य उस एक उपवासके बदले बारह वर्षोंके उपवासका फल पाता है । महीपाल ! आप इस पृथ्वीपर धर्मके साक्षात्‌ स्वरूप तथा यमराजके मार्गका विध्वंस करनेवाले हैं; दया करके मुझ दुखियाका उद्धार कीजिये ।’ छिपकलीकी बात सुनकर मोहिनी बोली- ‘प्रभो ! मनुष्य अपने ही कियेका सुख और दु:खरूप फल भोगता है; अत: स्वामीके प्रति दुष्ट भाव रखनेवाली इस पापिनीसे अपना क्या प्रयोजन है, जिसने रक्षासूत्र और चूर्ण आदिके द्वारा पतिको वशमें कर रखा था । इस पापिनीको छोड़िये, अब हम दोनों नगरकी ओर चलें । जो दूसरे लोगोंके व्यापारमें फैँसते हैं, उनका अपना सुख नष्ट होता है ।’

   रुक्माङ्गदने कहा- ब्रह्मपुत्री ! तुमने ऐसी बात कैसे कही? सुमुखि ! साधुपुरुषोंका बर्ताव ऐसा नहीं होता है । जो पापी और दूसरोंको सतानेवाले होते हैं, वे ही केवल अपने सुखका ध्यान रखते हैं । सूर्य, चन्द्रमा, मेघ, पृथ्वी, अग्नि, जल, चन्दन, वृक्ष और संतपुरुष परोपकार करनेवाले ही होते हैं । वरानने ! सुना जाता है कि पहले राजा हरिक्षन्द्र हुए थे, जिन्हें (सत्यरक्षाके लिये) स्त्री और पुत्रको बेचकर चाण्डालके घरमें रहना पड़ा । वे एक दुःखसे दूसरे भारी दु:खमें फँसते चले गये, परंतु सत्यसे विचलित नहीं हुए । उनके सत्यसे संतुष्ट होकर इन्द्र आदि देवताओंने महाराज हरिश्न्द्रको इच्छानुसार वर माँगनेके लिये प्रेरित किया; तब उन सत्यपरायण नरेशने ब्रह्मा आदि देवताओंसे कहा-देवगण ! यदि आप संतुष्ट हैं और मुझे वर देना चाहते हैं तो यह वर दीजिये-‘यह सारी अयोध्यापुरी बाल, वृद्ध, तरुण, स्त्री, पशु, कीट-पतंग और वृक्ष आदिके साथ पापयुक्त होनेपर भी स्वर्गलोकमें चली जाय और अयोध्याभरका पाप केवल मैं लेकर निश्चितरूपसे नरकमें जाऊँ । देवेश्वरो ! इन सब लोगोंको पृथ्वीपर छोड़कर मैं अकेला स्वर्गमें नहीं जाऊँगा ।

   यह मैंने सच्ची बात बतायी है । ‘उनकी यह दृढ़ता जानकर इन्द्र आदि देवताओंने आज्ञा दे दी और उन्हींके साथ वह सारी पुरी स्वर्गलोगमें चली गयी । देवि ! महर्षि दधीचिने देवताओंको दैत्योंसे परास्त हुआ सुनकर दयावश उनके उपकारके लिये अपने शरीरकी हड्डियाँ तक दे दीं । सुन्दरी ! पूर्वकालमें राजा शिविने कबूतरकी प्राणरक्षाके लिये भूखे बाजको अपना मांस दे दिया था । वरानने ! प्राचीन कालमें इस पृथ्वीपर जीमूतवाहन नामसे प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं, जिन्होंने एक सर्पकी प्राणरक्षाके लिये अपना जीवन समर्पित कर दिया था । इसलिये देवि ! राजाको सदा दयालु होना चाहिये । शुभे ! बादल पवित्र और अपवित्र स्थानमें भी समानरूपसे वर्षा करता है । चन्द्रमा अपनी शीतल किरणोंसे चाण्डालों और पतितोंको भी आह्लाद प्रदान करते हैं । अत: सुन्दरि ! इस दु:खिया छिपकलीको मैं उसी प्रकार अपने पुण्य देकर उद्धार करूँगा, जैसे राजा ययातिका उद्धार उनके नातियोंने किया था ।

   इस प्रकार मोहिनीकी बातका खण्डन करके राजाने छिपकलीसे कहा-‘मैंने विजयाका पुण्य स्वयं तुम्हें दे दिया, दे दिया । अब तुम समस्त पापोंसे रहित हो विष्णुलोकको चली जाओ ।’ भूपाल ! राजा रुक्माङ्गदके ऐसा कहनेपर उस स्त्रीने सहसा छिपकलीके उस पुराने शरीरको त्याग दिया और दिव्य शरीर धारण करके दिव्य वस्त्राभूषणोंसे विभूषित हो वह दसों दिशाओंको प्रकाशित करती हुई राजाकी आज्ञा ले अभ्दुत वैष्णव धामको चली गयी । वह वैकुण्ठधाम योगियोंके लिये भी आगम्य है । वहाँ अग्नि आदिका प्रकाश काम नहीं देता । वह स्वयं प्रकाश, श्रेष्ठ, वरणीय तथा परमात्मस्वरूप है; अतः राजन ! यह अग्निको भी प्रकाश देनेवाला विजया-द्वादशी (वामन-द्वादशी) सम्पूर्ण जगतको प्रकाश देनेके लिये प्रकट हुई है ।

अध्याय ११४ मोहिनीके साथ राजा रुक्मांगदका वैदिश नगरको प्रस्थान, राजकुमार धर्मांगदकालिय मार्गमें आगमन, पिता—पुत्र—संवाद

वसिष्ठजी कहते हैं- छिपकलीको पापसे मुक्त करके राजा रूक्माङगद बड़े प्रसन्न हुए और वे मोहिनीसे हंसते हुए बोले-‘घोड़ेपर शीघ्र सवार हो जाओ ।’ राजाकी बात सुनकर मोहिनी वायुके समान वेगवाले उस अश्वपर पतिके साथ सवार हुई । राजा रुक्माङद बड़े हर्षक साथ मार्गमें आये हुए वृक्ष, पर्वत, नदी, अत्यन्त विचित्र वन, नाना प्रकारके मृग, ग्राम, दुर्ग, देश, शुभ नगर, विचित्र सरोवर तथा परम मनोहर भूभागका दर्शन करते हुए वैदिश नगरमें आये, जो उनके अपने अधीन था । गुसचरोंके द्वारा महाराजके आगमनका समाचार सुनकर राजकुमार धर्माङगद हर्षमें भर गये और अपने वशवर्ती राजाओंसे पिताके सम्बन्धमे इस प्रकार बोले-‘ नृपवरो ! मेरे पिताका अश्व इधर आ पहुँचा है । इसलिये हम सब लोग महाराजके सम्मुख चलें । जो पुत्र पिताके आनेपर उनकी अगवानीके लिये सामने नहीं जाता, वह चौदह इन्द्रोंके राज्यकालतक घोर नरकमें पड़ा रहता है । पिताके स्वागतके लिये सामने जानेवाले पुत्रको पग-पगपर यज्ञका फल प्राप्त होता है-ऐसा पौराणिक द्विज कहते है । अत: उठिये, मैँ आप लोगोंके साथ पिताजीको प्रेमपूर्वक प्रणाम करनेके लिये चल रहा है; क्योंकि ये मेरे लिये देवताओँके भी देवता हैं । ‘

   तदनन्तर उन सब राजाओँने ‘तथास्तु’ काका धर्माङ्गदकी आज्ञा स्वीकार की । फिर राजकुमार धर्माङ्गद उन सबके साथ एक कोसतक पैदल चलकर पिताके सम्मुख गये । मार्गमें दूरतक बढ़ जानेके बाद उन्हें राजा रुक्माङ्गद मिले । पिताको पाकर धर्माङ्गदने राजाओंके साथ धस्तीपर मस्तक रखकर भक्तिभावसे उन्हें प्रणाम किया । राजन् ! महाराज रुक्माङ्गदने देखा कि मेरा पुत्र प्रेमवश अन्य सव नरेशोंके साथ स्वागतके लिये आया है और प्रणाम कर रहा है, तब वे घोड़ेसे उतर पड़े और अपनी विशाल भुजाओंसै पुत्रको उठाकर उन्होंने हृदयसे लगा लिया । उसका मस्तक सूँघा और उस समय धर्माङ्गदमे इस प्रकार कह ‘ पुत्र ! तुम समस्त प्रजाका पालन करते हो न? शत्रुओंको दण्ड तो देते हो न? खजानेको न्यायोपार्जित धनसेभरते रहते हो न?  ब्राहमणोंको अधिक संख्यामें स्थिर वृत्ति तुमने दी है न?  तुम्हारा शील-स्वभाव सबको रुचिकर प्रतीत होता है न? तुम किसीसे कठोर बातें तो नहीं कहते? अपने राज्यके भीतर प्रत्येक पुत्र पिताकी आज्ञाका पालन करनेवाला है न?  बहुएँ सासका कहना मानती हैं न? अपने स्वामीके अनुकूल चलती हैं न? तिनके और घाससे भरी हुई गोचरभूमिमें जानेसे गौओंको रोका तो नहीं जता? अत्र आदिके तोल और माप आदिका तुम सदा निरीक्षण तो करते हो न? वत्स ! किसी बड़े कुटुम्बवाले गृहस्थको उसपर अधिक कर लगाकर कष्ट तो नहीं देते? तुम्हारे राज्यमें कहीं भी मदिरापान और जूआ आदिका खेल तो नहीं होता? अपनी सब माताओँको समानभावसे देखते हो न? वत्स ! लोग एकादशीके दिन भोजन तो नहीं करते? अमावास्याके दिन लोग श्राध्द करते है न?  प्रतिदिन रातके पिछले पहरपें तुम्हारी नींद खुल जाती है न? क्योंकि अधिक निद्रा अधर्मका मूल है । निद्रा पाप बढानेवाली है । निद्रा दरिद्रताकी जननी तथा कल्याणका नाश करनेवाली है ।

   निद्राके वशमेँ रहनेवाला राजा अधिक दिनोंतक पृथ्वीका शासन नहीं कर सकता । निद्रा व्यभिचारिणी स्वीकौ शीश्त अपने स्वामीके त्तोक-परलोक दोनोंका नाश करनेवाली है ।’

   पिताके इस प्रकार पृछनेपर राजकुमार धर्माङ्गदने महाराजकी वार वार प्रणाम करके कहा- ‘ तात ! इन सब बातोंका पालन किया गया है और आगे भी आपकी आज्ञाका पालन करूंगा । पिताकी आज्ञापालन करनेवाले पुत्र तीनों लोकोंमें धन्य माने जाते हैं । राजन जो पिताकी बात नहीं मानता उसके लिये उससे बढकर और पातक क्या हो सकता है ? जो मिलाके वचनोंको अवहेलना करके गंगा-स्नान करनेके लिये जाता है और पिताकी आज्ञाका पालन नहीं करता, उसे उस तीर्थ सेवनका फल नहीं मिलता । मेरा यह शरीर आपके अधीन है । मेरे धर्मपर भी आपका अधिकार है और आप ही मेरे सबसे बड़े देवता है ‘ अनेकों राआओँसे घिरे हुए अपने पुत्र धर्माङ्गदको यह बात सुनकर महाराज रुकमाङ्गदने पुन:  छातीसे लगा लिया और इस प्रकार कहा- ‘ बेटा तुमने ठोक कहा है; क्योंकि तुम धर्मके ज्ञाता हो । पुत्रके लिये पितासे बढकर दूसरा कोई देवता नहीं है। बेटा ! तुमने अनेक राजाओंसे सुरक्षित सात दीपवाली पृथ्वीको जीतकर जो उसकी भलीभाँति रक्षा की है, इससे तुमने मुझे अपने मस्तकपर बिठा लिया । लोकों यहीं सबसे बड़ा सुख है, यही अक्षय स्वर्गलोक है कि पृथ्वीपर पुत्र अपने पितासे अधिक यशस्वी हो । तुम सदगुणपर चलनेवाले तया समस्त राजाओंपर शासन करनेवाले हो । तुमने मुझे कृतार्थ कर दिया, ठीक उसी तरह जेसे शुभ एकादशी तिथिने मुझे कृतार्थ किया है।”

   पिताको यह बात सुनकर राजपुत्र धर्माङ्गदने पुछा- ‘ पिताजी ! सारी संपति मुझे सौंपकर आप कहाँ चले गये थे ? ये कान्तिमय देवी किस स्थानपर प्राप्त नुई हैं ? महीपाल ! मालूम होता है, ये क्या गिरिराजनंदिनी उमा है अथवा क्षीरसागर कन्या लाओ है ? अहो ! ब्रह्माजी रुप-रचनामे क्तिने कुशल हैं, जिन्होंने ऐसो देवीका निर्माण किया है । राजराजेश्वर ! ये स्वर्णगौरीदेवी आपके घरको शोमा बढाने योग्य हैं । यदि इनकी-जैसी माता मुझे प्रपट हो जायें तो मुझसे बढ़कर पुण्यात्मा दूसरा कौन होगा ।`

अध्याय ११५ धर्मांगदद्वारा मोहिनीका सत्कार, धर्मांगद अपनी माताको मोहनीकी सेवाके लिय एक पतिव्रतानारीका उपाख्यान सुनाना

   वसिष्ठजी कहते हैंधर्माङ्गदकी बात सुनकर रुक्माङ्गदको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे बोले―’ बेटा ! सचमुच ही ये तुम्हारी माता हैं। ये ब्रह्माजीकी पुत्री हैं। इन्होंने बाल्यावस्थासे ही मुझे प्राप्त करनेका निश्चय लेकर देवगिरिपर कठोर तपस्या प्रारम्भ की थी । आजसे पंद्रह दिन पूर्व मैं घोड़ेपर सवार हो अनेक धातुओंसे सुशोभित गिरिश्रेष्ठ मन्दराचलपर गया था । उसीके शिखरपर यह बाला भगवान्‌ महेश्वरको प्रसन्न करनेके लिये संगीत सुना रही थी । वहीं मैंने इस सुन्दरीका दर्शन किया और इसने कुछ प्रार्थनाके साथ मुझे पतिरुपमें वरण किया । मैंने भी इन्हें दाहिना हाथ देकर इनकी मुँहमाँगी वस्तु देनेकी प्रतिज्ञा की और मन्दराचलके शिखरपर ही विशाल नेत्रोवाली पुत्रीको अपनी पत्नी बनाया । फिर पृथ्वीपर उतरकर घोड़ेपर चढ़ा और अनेक पर्वत, देश, सरोवर एवं नदियोंको देखता हुआ तीन दिनमें वेगपूर्वक चलकर तुम्हारे समीप आया हूँ।’

   पिताका यह कथन सुनकर शत्रुदमन धर्माङ्गदने घोड़ेपर चढ़ी हुई माताके उद्देश्यसे धरतीपर मस्तक रखकर प्रणाम करते हुए कहा- देवि ! आप मेरी माँ हैं, प्रसन्न होइये। मैं आपका पुत्र और दास हूँ। माता ! अनेक राजाओंके साथ मैं आपको प्रणाम करता हूँ।’  राजन्‌ ! मोहिनी राजपुत्र धर्माङ्गदको धरतीपर गिरकर प्रणाम करते देख घोड़ेसे उतर पड़ी और उसने दोनों बाँहोंसे उसे उठाकर हृदयसे लगा लिया। फिर कमलनयन धर्माङ्गदने मोहिनीको अपनी पीठपर पैर रखवाकर उस उत्तम घोड़ेपर चढ़ाया। राजन्‌ ! इसी विधिसे उसने पिताको भी घोड़ेपर बिठाया । तत्पश्चात्‌ राजकुमार धर्माङ्गद अन्य राजाओंसे घिरकर पैदल ही चलने लगे। अपनी माता मोहिनीको देखकर उनके शरीरमें हर्षातिरेकसे रोमाञ्च हो आया और मेघके समान गम्भीर वाणीमें अपने भाग्यकी सराहना करते हुए वे इस प्रकार बोले- ‘ एक माताको प्रणाम करनेपर पुत्रको समूची पृथ्वीकी परिक्रमाका फल प्राप्त होता है; इसी प्रकार बहुत-सी माताओंको प्रणाम करनेपर मुझे महान्‌ पुण्यकी प्राप्ति होगी ।’  राजाओंसे घिरकर इस प्रकारकी बातें करते हुए धर्माङ्गदने परम समृद्धिशाली रमणीय वैदिश नगरमें प्रवेश किया। मोहिनीके साथ घोड़ेपर चढ़े हुए राजा रुक्माङ्गद भी तत्काल वहाँ जा पहुँचे। तदनन्तर राजमहलके समीप पहुँचकर परिचारकोंसे पूजित हो राजा घोड़ेसे उतर गये और मोहिनीसे इस प्रकार बोले- सुन्दरि ! तुम अपने पुत्र धर्माङ्गदके घरमें जाओ। ये गुणोंके अनुरूप तुम्हारी गुरुजनोचित सेवा करेंगे।’

   पतिके ऐसा कहनेपर मोहिनी पुत्रके महलकी ओर चली । धर्माङ्गदने देखा, पतिकी आज माता मोहिनी मेरे महलकी ओर जा रही हैं । तब उन्होंने राजाओंको वहीं छोड़ दिया और कहा, ‘ आप लोग ठहरें । मैं पिताकी आज्ञासे माताजीकी सेवा करूँगा ।’  ऐसा कहकर वे गये और माताको घरमें ले गये। पंद्रह पग चलनेके बाद एक पलंगके पास पहुँचकर उन्होंने माताको उसपर बिठाया। वह पलंग सोनेका बना और रेशमी सूतसे बुना हुआ था। अत: मजबूत होनेके साथ ही कोमल भी था। उस पलंगमें जहाँ-तहाँ मणि और रत्न जड़े हुए थे। मोहिनीको पलंगपर बैठाकर धर्माङ्गदने उसके चरण धोये । संध्यावलीके प्रति राजकुमारके मनमें जो गौरव था, उसी भावसे वे मोहिनीको भी देखते थे। यद्यपि वे सुकुमार एवं तरुण थे और मोहिनी भी तन्वंगी तरुणी थी तथापि मोहिनीके प्रति उनके मनमें तनिक भी दोष या विकार नहीं उत्पन्न हुआ । उसके चरण धोकर उन्होंने उस चरणोदकको मस्तकपर चढ़ाया और विनम्र होकर कहा- ‘  माँ ! आज मैं बड़ा पुण्यात्मा हूँ। ‘  ऐसा कहकर धर्माङ्गदने स्वयं तथा दूसरे नर-नारियोंके संयोगसे मोहिनी माताके श्रमका निवारण किया और प्रसन्नतापूर्वक उनके लिये सब प्रकारके उत्तम भोग अर्पण किये। क्षीरसागरका मन्थन होते समय जो दो अमृतवर्षी कुण्डल प्रात हुए थे, उन्हें धर्माङ्गदने पातालमें जाकर दानवोंको पराजित करके प्राप्त किया था। उन दोनों कुण्डलोंको उन्होंने स्वयं मोहिनीके कानोंमें पहना दिया। आँवलेके फल बराबर सुन्दर मोतीके एक हजार आठ दानोंका बना हुआ सुन्दर हार मोहिनीदेवीके वक्ष:स्थलपर धारण कराया। सौ भर सुवर्णका एक निष्क (पदक) तथा सहस्त्रों हीरोंसे विभूषित एक सुन्दर लघूत्तर हार भी उस समय राजकुमारने माताको भेंट किया। दोनों हाथोंमें सोलह-सोलह रत्नमयी चूड़ियाँ, जिनमे हीरे जेड हुए थे, पहनाये। उनमेंसे एक-एकका मूल्य उसकी कीमतकों समझनेवाले लोगोंने एक-एक करोड़ स्वर्ण-मुद्रा निश्चित किया था। केयूर और नूपुर भी जो सूर्यके समान चमकनेवाले थे, राजकुमारने उसे आर्पित कर दिये। उस समय धर्माङ्गदका अङ्ग-अङ्ग आनन्दसे पुलकित हो उठा था। पूर्वकालमें हिरण्यकशिपुकी जो त्रिलोकसुन्दरी पत्नी थी, उसके पास विद्युतके समान प्रकाशमान एक जोड़ा सीमन्त (शीशफूल) था। वह पतिव्रता नारी जब पतिके साथ अग्निमें प्रवेश करने लगी तो अपने सीमन्तको अत्यन्त दुःखके कारण समुद्रमें फेंक दिया । कालान्तरमें धर्माङ्गदके पराक्रमसे संतुष्ट हो समुद्रने उन्हें वे दोनों रत्न भेंट कर दिये। धर्माङ्गदने प्रसन्नतापूर्वक वे दोनों सीमन्त भी मोहिनी माताको दे दिये। अत्यन्त मनोहर दो सुन्दर साड़ियाँ और दो चोलियाँ, जिनकी कीमत कोटि सहस्त्रो स्वर्णमुद्रा थी, धर्माङ्गदने मोहिनीको भेंट की । दिव्य माल्य, उत्तम गन्धसे युक्त दिव्य अनुलेपन जो सम्पूर्ण देवताओंके गुरु बृहस्पतिजीके सिद्ध हाथसे तैयार किया हुआ तथा परम दुर्लभ था और जिसे वीर धर्माङ्गदने सम्पूर्ण द्वीपोंकी विजयके समय प्राप्त किया था; मोहिनी देवीको दे दिया। राजन्‌ ! इस प्रकार मोहिनीको विभूषित करके राजकुमारने बड़ी भक्तिके साथ षड्रस भोजन मँगाया और अपनी माताके हाथसे मोहिनीको भोजन कराया।

   बहुत समझा-बुझाकर माता संध्यावलीको इस सपत्नीसेवाके लिये तैयार कर लिया था। उन्होंने कहा था- ` देवि ! मेरा और तुम्हारा कर्तव्य है कि राजाकी आज्ञाका पालन करें। स्वामीको स्नेहकी दृष्टिसि जो अधिक प्रिय है, उसके साथ स्वामीका स्नेह छुड़ानेके लिये जो सौतिया-डाह करती है, वह यमलोकमें जाकर ताँबेके भाड़में भूँजी जाती है। अतः पतिव्रता पत्नीका कर्तव्य है कि जिस प्रकार स्वामीको सुख मिले, वैसा ही करे । श्रेष्ठ वर्णवाली माँ ! स्वामीकी ही भाँति उनकी प्रियतमा पत्नीको भी आदरको दृष्टिसे देखना चाहिये। जो सपत्नी अपनी सौतको पतिकी प्यारी देख उसकी सदा सेवा-शुश्रूषा करती है, उसे अक्षय लोक प्राप्त होता है।

    ` प्राचीन कालकी बात है, एक दुष्ट प्रकृतिका शूद्र था, जिसने अपने सदाचारका परित्याग कर दिया था। उसने अपने घरमें एक वेश्या लाकर रख ली। शूद्रकी विवाहित पत्नी भी थी, किंतु वह वेश्या ही उसको अधिक प्रिय थी। उसको स्त्री पतिकों प्रसन्न रखनेवाली सती थी। वह वेश्याके साथ पतिकी सेवा करने लगी। दोनोंसे नीचे स्थानमें सोती और उन दोनोंके हितमें लगी रहती थी। वेश्याके मना करनेपर भी उसकी सेवासे मुँह नहीं मोड़ती थी और सदाचारके पावन पथपर दृढ़तापूर्वक स्थित रहती थी। इस प्रकार वेश्याके साथ पतिकी सेवा करते हुए उस सतीके बहुत वर्ष बीत गये। एक दिन खोटी बुद्धिवाले उसके पतिने मूलीके साथ भेंसका दही और तेल मिलाया हुआ ‘ निष्पाव ‘ खा लिया। अपनी पतिव्रता स्त्रीकी बात अनसुनी करके उसने यह कुपथ्य भोजन कर लिया। परिणाम यह हुआ कि उसकी गुदामें भगंदर रोग हो गया । अब वह दिन-रात उसकी जलनसे जलने लगा। उसके घरमें जो धन था, उसे लेकर वह वेश्या चली गयी। तब वह शुद्र लज्जामें डूबकर दीनतापूर्ण मुखसे रोता हुआ अपनी पत्नीसे बोला | उस समय उसका चित्त बड़ा व्याकुल था । उसने कहा- ‘ देवि ! वेश्यामें फँसे हुए मुझ निर्दयीकी रक्षा करो । मुझ पापीने तुम्हारा कुछ भी उपकार नहीं किया । बहुत वर्षोतक उस वेश्याके ही साथ जीवन बिताता रहा । जो पापी अपनी विनीत भार्याका अहंकारवश अनादर करता, वह पंद्रह जन्मोतक उस पापके अशुभ फलको भोगता है ।’  पतिकी यह बात सुनकर शुद्रपली उससे बोली- ‘ नाथ ! पूर्वजन्मके किये हुए पाप ही दु:खरूपमें प्रकट होते हैं। जो विवेकी पुरुष उन दुःखोंको धैयपूर्वक सहन करता है, उसे मनुष्योंमें श्रेष्ठ समझना चाहिये ।’  ऐसा कहकर उसने स्वामीको धीरज बँधाया । वह सुन्दरी नारी अपने पिता और भाइयोंसे धन माँग लायी। वह अपने पतिकों क्षीरशायी भगवान्‌ मानती थी। प्रतिदिन दिनमें रातमें भी उसकी गुदाके घावको धोकर शुद्ध करती थी। रजनीकर नामक वृक्षका गोंद लेकर दिनोंके बाद उसके पतिको त्रिदोष हो गया। अब वह बड़े यत्नसे सोंठ, मिर्च और पीपल अपने स्वामीको पिलाने लगी । एक दिन सर्दीसे पीड़ित हो काँपते हुए पतिने पत्नीकी अँगुली काट ली। उस समय सहसा उसके दोनों दांत आपसमे सट गये और वह कटी हुई अँगुली उसके मुँहके भीतर ही रह गयी। महारानी ! उसी दशामें उसको मृत्यु हो गयी। अब वह अपना कंगन बेचकर काठ खरीद लायी और उसकी चिता तैयार की । चितापर उसने घी छिड़क दिया और बीचमें पतिको सुलाकर स्वयं भी उसपर चढ़ गयी। वह सुन्दर अङ्गोवाली सती प्रज्वलित अग्रिमें देहका परित्याग करके पतिको साथ ले सहसा देवलोकको चली गयी। उसने, जिसका साधन कठिन है, ऐसे दुष्कर कर्मद्वारा बहुत-सी पापराशियोंको शुद्ध कर दिया था।’

अध्याय ११६ सन्ध्यावलीका मोहनीको भोजन कराना और धर्मांगदके मातृभक्ति— पूर्ण वचन

धर्माङ्गद कहते हैं माँ ! इस बातपर विचार करके मोहिनीकों भोजन कराओ। ऐसा धर्म तीनों लोकोंमें कहीं नहीं मिलेगा। श्रेष्ठ वर्णवाली माताजी ! पिताको सुख पहुँचाना ही हम दोनोंका कर्तव्य है। इससे इस लोकमें हमारे पापोंका भलीभाँति नाश होगा और परलोकमें अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति होगी ।

   पुत्रकी यह बात सुनकर देवी संध्यावलीने उसके साथ कुछ विचार-विमर्श किया। फिर पुत्रको बार-बार हदयसे लगाकर उसका मस्तक सूँघा और इस प्रकार कहा- ‘ बेटा ! तुम्हारी बात धर्मसे युक्त है। अत: मैं उसका पालन करूँगी ईर्ष्या और अभिमान छोड़कर मोहिनीको अपने हाथसे भोजन कराऊँगी । बेटा ! व्रतराज एकादशीके अनुष्ठानसे तुझ-जैसा पुत्र मुझे प्राप्त हुआ है। लोकमें ऐसा लाभदायक व्रत दूसरा नहीं देखा जाता। यह बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाला तथा तत्काल फल देकर अपने प्रति विश्वास बढ़ानेवाला है। शोक और संताप देनेवाले अनेक पुत्रोंके जन्मसे क्या लाभ ? समूचे कुलको सहारा देनेवाला एक ही पुत्र श्रेष्ठ है, जिसके भरोसे समस्त कुल सुख-शान्तिका अनुभव करता है*। तुम्हें अपने गर्भमें पाकर मैं तीनों लोकोंसे ऊपर उठ गयी । पुत्र ! तुम शूरवीर, सातों द्वीपोंके अधिपति तथा पिताके आज्ञापालक हो एवं पिता और माता दोनोंको अह्लाद प्रदान करते हो। ऐसे पुत्रको ही विद्वानोंने पुत्र कहा है। दूसरे सभी नाममात्रके पुत्र हैं।’

   ऐसा वचन कहकर उस समय देवी संध्यावलीने षड्रस भोजन रखनेके लिये पात्रोंकी ओर दृष्टिपात किया। राजन्‌ ! उसको दृष्टि पड़नेमात्रसे वे सभी पात्र उत्तम भोजनसे भर गये । महीपते ! मोहिनीको भोजन करानेके लिये कुछ-कुछ गरम और षड्रसयुक्त भोजनकी तथा अमृतके समान स्वादिष्ट जलकी व्यवस्था हो गयी। तदनन्तर रत्नजड़ित सुवर्णमयी चम्मच लेकर मनोहर हास्यवाली रानी संध्यावलीने शान्तभावसे मोहिनीको भोजन परोसा । सोनेके चिकने पात्रमें, जिसमें उचितमात्रामें सब प्रकारका भोज्य पदार्थ रखा हुआ था, मोहिनी देवी सोनेके सुन्दर आसनपर बैठकर अपनी रुचिके अनुकूल सुसंस्कृत अन्न धीरे-धीरे भोजन करने लगी। उस समय धर्माङ्गदके द्वारा व्यजन डुलाया जा रहा था।

   मोहिनीके भोजन कर लेनेके अनन्तर राजकुमारने उसे प्रणाम करके कहा- ‘ देवि ! इन संध्यावली देवीने मुझे तीन वर्षतक अपने गर्भमें धारण किया है तथा आपके पतिदेवके प्रसादसे पलकर मैं इतना बड़ा हुआ हूँ। मनोहर अङ्गोवाली देवि ! तीनों लोकोंमें ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे देकर पुत्र अपनी मातासे उऋण हो सके।’

   पुत्र धर्माङ्गदके ऐसा कहनेपर मोहिनीको बड़ा आश्चर्य हुआ। वह सोचने लगी- ‘ जिसमें पिताकी सेवाका भाव है, उसके समान इस पृथ्वीपर दूसरा कोई नहीं है। जो इस प्रकार गुणोंमें बढ़ा-चढ़ा है, उस धर्मात्मा पुत्रके प्रति मैं माता होकर कैसे कुत्सित बर्ताव कर सकती हूँ।’ मोहिनी इस तरह नाना प्रकारके विचार करके पुत्रसे बोली- ‘ तुम मेरे पतिको शीघ्र बुला लाओ, मैं उनके बिना दो घड़ी भी नहीं रह सकती ।’ तब उसने तुरंत ही पिताके पास जा उन्हें प्रणाम करके कहा- ‘ तात ! मेरी छोटी माँ आपका शीघ्र दर्शन करना चाहती है। ‘  पुत्रकी यह बात सुनकर राजा रुक्माङ्गद तत्काल वहाँ जानेको उद्यत हुए। उनके मुखपर प्रसन्नता छा गयी । उन्होंने महलमें प्रवेश करके देखा, मोहिनी पलंगपर सो रही है। उसके शरीरसे तपाये हुए सुवर्णकी-सी प्रभा फैल रही है और उस बालाकी महारानी संध्यावली धीरे-धीरे सेवा कर रही हैं। प्रचुर दक्षिणा देनेवाले राजा रुक्माङ्गदको शय्याके समीप आया देख सुन्दरी मोहिनीका मुख प्रसन्नतासे खिल उठा और उसने राजासे कहा- ‘ प्राणनाथ ! कोमल बिछौनोंसे युक्त इस पलंगपर बैठिये। जो मानव दूसरे-दूसरे कार्योमें आसक्त होकर अपनी युवती भार्याका सेवन नहीं करता, उसकी वह भार्या, कैसे रह सकती है?  जिसका दान नहीं किया जाता, वह धन भी चला जाता है, जिसकी रक्षा नहीं की जाती, वह राज्य अधिक कालतक नहीं टिक पाता और जिसका अभ्यास नहीं किया जाता, वह शास्त्रज्ञान भी टिकाऊ नहीं होता। आलसी लोगोंको विद्या नहीं मिलती । सदा व्रतमें ही लगे रहनेवालोंको पत्नीकी प्राप्ति नहीं होती । पुरुषार्थके बिना लक्ष्मी नहीं मिलतीं । भगवान्‌की भक्तिके बिना यशकी प्राप्ति नहीं होती । बिना उद्यमके सुख नहीं मिलता और बिना पत्नीके संतानकी प्राप्ति नहीं होती । अपवित्र रहनेवालेको धर्म-लाभ नहीं होता । अप्रिय वचन बोलनेवाला ब्राह्मण धन नहीं पाता । जो गुरुजनोंसे प्रश्न नहीं करता, उसे तत्वका ज्ञान नहीं होता तथा जो चलता नहीं, वह कहीं पहुँच नहीं सकता । जो सदा जागता रहता है, उसे भय नहीं होता । भूपाल ! प्रभो ! आप राज्यकाजमें समर्थ पुत्रके होते हुए भी मुझे धर्माङ्गदके सुन्दर महलमें अकेली छोड़ राजका कार्य क्यों देखते हैं ?’  तब राजा रुक्माज़द उसे सान्त्वना देते हुए बोले।

अध्याय ११७ धर्मांगदका माताओंसे पिता और मोहनीके प्रति उदार होनेका अनुरोध, पुत्रद्वारा माताओंका धन— वस्त्र आदिसे समादार

राजाने कहाभीरु ! मैंने राजलक्ष्मी तथा राजकीय वस्तुओंपर पुन: अधिकार नहीं स्थापित किया है । मैंने धर्माङ्गदको पुकारकर यह आदेश दिया था कि ‘ कमलनयन ! तुम मोहिनीको संपूर्ण रत्नोंसे विभूषित अपने महलमें ले जाओ और इसके सेवा करो; क्योंकि यह मेरी सबसे प्यारी पत्नी है । तुम्हारा महल हवादारभी है और उसमें हवासे बचनेका भी उपाय है । वह सभी ऋतुओंमें सुख देनेवाला है, अत: वहीं ले जाओ। ‘ पुत्रको इस प्रकार आदेश देकर मैं कष्टसे बचनेके लिये बिछौनेपर गया । शय्यापर पहुँचते ही मुझे नींद आ गयी और अभी-अभी ज्यों ही जगा हूँ, सहसा तुम्हारे पास चला आया हूँ । देवि ! तुम जो कुछ भी कहोगी, उसे निस्संदेह पूर्ण करूँगा ।

   मोहिनी बोलीराजेन्द्र ! मेरे विवाहसे अत्यन्त दुखित हुई इन अपनी पत्नियोंको धीरज बंधाओ । इन पतिव्रताओंके औसुओंसे दग्ध होनेपर मेरे मनमें क्या शान्ति होगी ?  भूपाल ! ये पतिव्रता देवियाँ तो मेरे पिता ब्रह्माजीको भी भस्म कर सकती हैं। फिर आप-जैसे प्राकृत नरेशको और मेरी-जैसी स्त्रीको जला देना इनके लिये कौन बड़ी बात है? भूमिपाल ! महारानी संध्यावलीके समान नारी तीनों लोकोंमें कहीं नहीं है । इनका एक-एक अङ्ग आपके स्नेहपाशसे बँधा हुआ है; इसीलिये ये मुझे बड़े प्यारसे षड्रस भोजन कराती हैं और आपके ही गौरवसे मुझे प्रिय लगनेवाली मीठी-मीठी बातें सुनाती हैं । इन्हींके स्वभावकी सैकड़ों देवियाँ आपके घरकी शोभा बढ़ा रही हैं । महीपते ! मैं कभी इन सबके चरणोंकी धूलके बराबर भी नहीं हो सकती । पुत्रके साथ खड़ी हुई जेठी रानीके समीप मोहिनीका यह वचन सुनकर राजा रुक्माङ्गद बहुत लज्जित हुए । तब धर्माङ्गदने कहा―’ माताओ ! मेरे पिताको मोहिनीदेवी तुम सबसे अधिक प्रिय है । वे मन्दराचलके शिखरसे उस बालाको अपने साथ क्रीडाके लिये ले आये हैं । ( अत: ईर्ष्या छोड़कर तुम सब लोग पिताके सुखमें योग दो ।’ )

   पुत्रकी यह बात सुनकर सब माताएँ बोलीं- ` बेटा ! तुम्हारे न्याययुक्त वचनका पालन हम अवश्य करेंगी । ‘   

   माताओंको यह बात सुनकर राजकुमार धर्माङ्गदने प्रसंन्नचित्तसे एक-एकके लिये एक-एक करोड़से अधिक स्वर्णमुद्राएं, हजार-हजार नगर और गाँव तथा आठ-आठ सुवर्णमण्डित रथ प्रदान किये। एक-एक रानीको उन्होंने दस-दस हजार बहुमूल्य वस्त्र दिये, जिनमेंसे प्रत्येकका मूल्य सौ स्वर्णमुद्रासे के था। मेरुपर्वतकी खानसे निकले हुए शुद्ध अक्षय सुवर्णकी ढाली हुई एक-एक लाख मुद्राएँ उन्होंने प्रत्येक माताको अर्पित कीं । साथ ही एक-एकके लिये सौसे अधिक दासियाँ भी दीं । घड़ेके समान थनवाली दस-दस हजार दुधारू गायें और एक-एक हजार बैल भी दिये । तदनन्तर भक्तिभावसे राजकुमारने सभी माताओंको एक-एक हजार सोनेके आभूषण दिये, जिनमें हीरे जड़े हुए थे। आँवले बराबर मोतीके बने हुए प्रकाशमान हारोंकी कई ढेरियाँ लगाकर उन माताओंको दे दीं। सभीको पाँच-पाँच या सात-सात वलय ( कड़े ) भी दिये। महीपते ! महारानी संध्यावलीके पास चन्द्रमाके समान चमकीले ढाई सौ मोतीके हार थे। धर्माङ्गदने एक-एक माताको दो-दो मनोहर हार दिये। प्रत्येकको चौबीस सौ सोनेकी थालियाँ और इतने ही घड़े प्रदान किये । राजन्‌ ! हर एक माताके लिये सौ-सौ सुन्दर पालकियाँ और उनके ढोनेवालें मोटे-ताजे शीघ्रगामी कहार दिये। इस प्रकार कुबेरके समान शोभा पानेवाले उस धन्य राजकुमारने बहुत-सी माताओंको बहुत-सा धन देकर उन सबकी परिक्रमा की और हाथ जोड़कर यह वचन कहा―’ माताओ ! मैं आपके चरणों में मस्तक रंखकर प्रणाम करता हूँ। आप सब लोग मेरे अनुरोधसे पतिके सुखको इच्छा रखकर मेरे पितासे आज ही चलकर कहें कि―’ नरेश्वर ! ब्रह्मकुमारी मोहिनी बड़ी सुशीला हैं। आप इनके साथ सैकड़ों वर्षोतक सुखसे ‘ एकान्तमें निवास करें ।’

   पुत्रका यह वचन सुनकर सबके शरीरमें हर्षातिरेकसे रोमाञ्च हो आया । उन सबने महाराजसे जाकर कहा―’ आर्यपुत्र ! आप ब्रह्मकुमारी मोहिनीके साथ दीर्घकालतक निवास करें। आपके पुत्रके तेजसे हमारी हार्दिक भावना दु:खरहित हो गयी है, इसलिये हमने आपसे यह बात कही है। आप इसपर विश्वास कीजिये ।’

अध्याय ११८ राजाका अपने पुत्रको राज्य सौपकर नीतिका उपदेश देना और धर्मांगदके सुराज्यकी स्थिति

वसिष्ठजी कहते हैंराजन्‌ ! अपनी पत्नियोंके इस प्रकार अनुमति देनेपर महाराज रुक्माङ्गदके हर्षकी सीमा न रही । वे अपने पुत्र धर्माङ्गदसे इस प्रकार बोले―’ बेटा ! इस सात द्वीपोंवाली पृथ्वीका पालन करो । सदा उद्यमशील और सावधान रहना । किस अवसरपर क्या करना उचित है, इसका सदा ध्यान रखना । सदाचारका पालन हो रहा है या नहीं, इसकी ओर दृष्टि रखना । सदा सचेत रहना और वाणिज्य-व्यवसायको सदा प्रिय कार्य समझकर उसे बढ़ाना । राज्यमें सदा भ्रमण करते रहना, निरन्तर दानमें अनुरक्त रहना, कुटिलतासे सदा दूर ही रहना और नित्य-निरन्तर सदाचारके पालनमें संलग्न रहना । बेटा ! राजाओंके लिये सर्वत्र अविश्वास रखना ही उत्तम बताया जाता है। खजानेकी जानकारी रखना आवश्यक है ।’

   पिताकी यह बात सुनकर उत्तम बुद्धिवाले धर्माङ्गदने भक्तिभावसे मातासहित उन्हें प्रणाम किया । फिर उस राजकुमारने उन नृपश्रेष्ठ रुकमाङ्गदको असंख्य धन दिया । उनकी आज्ञाका पालन करनेके लिये बहुत-से सेवकों और कण्ठमें सुवर्णका हार धारण करनेवाली बहुत-सी दासियोंको नियुक्त किया । इस प्रकार पिताको सुख पहुँचानेके लिये पुत्रने सारी व्यवस्था की । फिर उसने पृथ्वीकी रक्षाका कार्य सँभाला । तदनन्तर अनेक राजाओंसे घिरे हुए राजा धर्माङ्गद सातों द्वीपोंसे युक्त सम्पूर्ण पृथ्वीपर भ्रमण करने लगे । उनके भ्रमण करनेसे परिणाम यह होता था कि जनताके मनमें पापबुद्धि नहीं आती थी । उनके राज्यमें कोई भी वृक्ष फल और फूलसे हीन नहीं था । कोई भी खेत ऐसा नहीं था जिसमें जौ या धान आदिकी खेती लहलहाती न हो । उस राज्यकी सभी गौएँ घड़ाभर दूध देती थीं । उस दूधमें घीका अंश अधिक होता था और उसमें शक्करके समान मिठास रहती थी । वह दूध उत्तम पेय, सब रोगोंका नाशक, पापनिवारक तथा पुष्टिवर्धक होता था कोई भी मनुष्य अपने धनकों छिपाकर नहीं रखता था । पत्नी अपने पतिसे कटुवचन नहीं बोलती थी । पुत्र विनयशील तथा पिताकी आज्ञाके पालनमें तत्पर होता था । पुत्रवधू सासके हाथमें रहती थी । साधारण लोग ब्राह्मणोंके उपदेशके अनुसार चलते थे । श्रेष्ठ द्विज वेदोक्त धर्मोंका पालन करते थे। मनुष्य एकादशीके दिन भोजन नहीं करते थे । पृथ्वीपर नदियाँ कभी सूखती नहीं थीं। धर्माङ्गदके राज्यपालनमें प्रवृत्त होनेपर सम्पूर्ण जगत पुण्यात्मा हो गया था । भगवान्‌के दिन एकादशी-व्रतका सेवन करनेसे सब लोग इस जगतमें सुख भोगकर अन्तमें भगवान्‌ विष्णुके वैकुण्ठधाममें जाते थे । भूपाल ! चोर और लुटेरोंका भय नहीं था । अत: अँधेरी रातमें भी कोई अपने घरके दरवाजे नहीं बंद करते थे । इच्छानुसार विचरनेवाले अतिथि घरपर आकर ठहरते थे । ( किसीके लिये कहीं रोक-टोक नहीं थी ।) हल चलाये बिना ही सब ओर अन्नकी अच्छी उपज होती थी। केवल माताके दूधसे बच्चे खूब हृष्ट-पुष्ठ रहते थे और पतिके संयोगसे युवतियाँ भी पृष्ठ और संतुष्ट रहती थीं । राजाओंसे सुरक्षित होकर समस्त जनता हृष्ट-पुष्ठ रहती थी तथा शक्तिसहित धर्मका भी भलीभाँति पोषण होता था । इस प्रकार सब लोगोंमें धर्म-प्रेमको प्रधानता थी। सभी भगवान्‌ विष्णुकी भक्तिमें लगे रहते थे । राजकुमार धर्माङ्गदके द्वारा सारी जनता सुरक्षित थी और सबका समय बड़े सुखसे बीत रहा था । उधर राजा रुक्माङ्गद नीरोग रहकर सब प्रकारके ऐश्वर्यसे सम्पन्न हो प्रचुर दानकी वर्षा करते और उत्सव मनाते थे । वे मोहिनीकी चेष्टाओंके सुखसे अत्यंत मुग्ध थे ।

अध्याय ११९ धर्मांङ्गदका दिग्विजय, उसका विवाह तथा उसकी शाशन— व्यवस्था

वसिष्ठजी कहते हैं- राजन्‌ ! इस प्रकार मोहिनीके विलाससे मोहित हुए राजा रुक्माङ्गदके आठ वर्ष बड़े सुखसे बीते । नवम वर्ष आनेपर उनके बलवान्‌ पुत्र धर्माङ्गदने मलयपर्वतपर पाँच विद्याधरोंको परास्त किया और उनसे पाँच मणियोंको छीन लिया, जो सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाली और शुभकारक थीं । एक मणिमें यह गुण था कि वह प्रतिदिन कोटि-कोटि गुना सुन्दर सुवर्ण दिया करती थी । दूसरी लाखकोटि वस्त्राभूषण आदि दिया करती थी । तीसरी अमृतकी वर्षा करती और बुढ़ापेमें भी पुन: नयी जवानी ला देती थी । चौथीमें यह गुण था कि वह सभाभवन तैयार कर देती और उसमें इच्छानुसार अन्न प्रस्तुत किया करती थी । पाँचवीं मणि आकाशमें चलनेको शक्ति देती और तीनों लोकोंमें भ्रमण करा देती थी । उन पाँचों मणियोंको लेकर धर्माङ्गद मन:-शक्तिसे पिताके पास आये । राजकुमारने पिता रुक्माङ्गद और माता मोहिनीके चरणोंमें प्रणाम किया और उनके चरणोंमें पाँचों मणि समर्पित करके विनीत भावसे कहा― ` पिताजी ! पर्वतश्रेष्ठ मलयपर मैंने वैष्णवास्त्रद्वारा पाँच विद्याधरोंपर विजय पायी है । नृपश्रेष्ठ ! वे अपनी स्त्रियोंसहित आपके सेवक हो गये हैं । आप ये मणियाँ मोहिनी देवीको दे दीजिये । वे इनके द्वारा अपनी बाँहोंको विभूषित करेंगी । ये मणियाँ समस्त कामनाओंको देनेवाली हैं । भूपते ! आपके ही प्रतापसे मैंने सातों द्वीपोंको बड़े कष्टसे अपने अधिकारमें किया है। ‘ तदनन्तर कुमार धर्माङ्गदने नागोंकी भोगपुरी, विशाल दानवपुरी और वरुणलोकके विजयकी बात सुनाकर वहाँसे जीतकर लाये हुए करोड़ों रत्न, हजारों श्वेतरंगके श्यामकर्ण घोड़े और हजारों कुमारियोंको पिताको दिखाया और कहा―’ पिताजी ! मैं और यह सारी सम्पत्तियाँ आपके अधीन हैं । तात ! पुत्रको पिताके सामने आत्मप्रशंसा नहीं करनी चाहिये । पिताके ही पराक्रमसे पुत्रकी धनराशि बढ़ती है । अत: आप अपनी इच्छाके अनुसार इनका दान अथवा संरक्षण कीजिये । मेरी माताएँ भी अपनी इस सम्पदाको देखें ।’

   वसिष्ठजीने कहापुत्रकी बात सुनकर नृपश्रेष्ठ रुक्माङ्गद बड़े प्रसन्न हुए और अपनी प्रियाके साथ उठकर खड़े हो गये। उन्होंने वह सारी धन-सम्पत्ति देखी । उन विष्णुपरायण राजाने एक क्षणतक हर्षमें मग्न रहकर बड़े प्रेमके सहित वरुण-कन्यासहित समस्त नागकन्याओंको अपने पुत्र धर्माङ्गदके अधिकारमें दे दिया । शेष सब वस्तुएँ बहुत-से रत्नो तथा दानव-नारियोंके साथ उन्होंने मोहिनीको अर्पित कर दीं। धर्माङ्गदके लाये हुए धनवैभवका यथायोग्य विभाजन करके राजाने समयपर पुरोहितजीको बुलाया और कहा ब्रह्मन् ! मेरा पुत्र सदा मेरी आज्ञाके पालनमें स्थित रहा है और अभीतक यह कुमार ही है। अत: इन सब कुमारियोंका यह धर्मपूर्वक पाणिग्रहण करे। धर्मकी इच्छा रखनेवाले पिताको पुत्रका विवाह अवश्य कर देना चाहिये। जो पिता पुत्रोंको पत्नी और धनसे संयुक्त नहीं करता, उसे इस लोक और परलोकमें भी निन्दित जानना चाहिये। अतः पुत्रोंको स्त्री तथा जीवननिर्वाहके योग्य धनसे सम्पन्न अवश्य कर देना चाहिये।’ राजाका यह वचन सुनकर पुरोहितजी बड़े प्रसन्न हुए और धर्माङ्गदका विवाह करानेके उद्योगमें लग गये। धर्माङ्गदने युवा होनेपर भी लज्जावश स्त्री-सुखकी इच्छा नहीं रखते थे तथापि पिताके आदेशसे उन्होंने उस समय स्त्री-संग्रह स्वीकार कर लिया। तदनन्तर महाबाहु धर्माङ्गदने वरुण कन्याके साथमनोहर नागकन्याओंके साथ भी विवाह कियाजो पृथ्वीपर अनुपम रूपवती थीं। शास्त्रीय विधिके अनुसार उन सबका विवाह करके धर्माङ्गदने ब्राह्मणोंको धनरत्न तथा गौओंका प्रसन्नतापूर्वक दान किया। विवाहके पश्चात् उन्होंने माता और पिताके चरणोंमें हर्षके साथ प्रणाम किया। तदनन्तर राजकुमार धर्माङ्गदने अपनी माता संध्यावलीसे कहा- ‘ देवि ! पिताजीकी आज्ञासे मेरा वैवाहिक कार्य सम्पन्न हुआ है। मुझे दिव्य भोगों तथा स्वर्गसे भी कोई प्रयोजन नहीं है । पिताजीकी तथा तुम्हारी दिन-रात सेवा करना ही मेरा कर्तव्य है।’

   संध्यावली बोली- बेटा ! तुम दीर्घकालतक सुखपूर्वक जीते रहो। पिताके प्रसादसे मनके अनुरूप भोगोंका उपभोग करो। वत्स ! तुमजैसे गुणवान् पुत्रके द्वारा मैं इस पृथ्वीपर श्रेष्ठ पुत्रवाली हो गयी हूँ और सपत्नियोंके हृदयमें मेरे लिये उच्चतम स्थान बन गया है। ‘

   ऐसा कहकर माताने पुत्रको हृदयसे लगाकर बार-बार उसका मस्तक सुंघा । तत्पश्चात् उसे राजकाज देखनेके लिये विदा किया । माता संध्यावलीसे विदा लेकर राजकुमारने अन्य माताओंको भी प्रणाम किया और पिताकी आज्ञाके अधीन रहकर वे राज्यशासनका समस्त कार्य देखने लगे । वे दुष्टोंको दण्ड देतेसाधु-पुरुषोंका पालन करते और सब देशोंमें घूम-घूमकर प्रत्येक कार्यकी देखभाल किया करते थे । सर्वत्र पहुँचकर प्रत्येक मासमें वहाँके कार्योंका निरीक्षण करते थे। उन्होंने हाथी और घोड़ोंके पालन-पोषणकी अच्छी व्यवस्था की थी । गुप्तचर-मण्डलपर भी उनकी दृष्टि रहती थी । इधर-उधरसे प्राप्त समाचारोंको वे देखते और उनपर विचार करते थे। प्रतिदिन माप और तौलकी भी जाँच करते रहते थे । राजा धर्माङ्गद प्रत्येक घरमें जाकर वहाँके लोगोंकी रक्षाका प्रबन्ध करते थे । उनके राज्यमें कहीं दूध पीनेवाला बालक माताके स्तन न मिलनेसे रोता हो, ऐसा नहीं देखा गया । सास अपनी पुत्रवधूसे अपमानित होकर कहीं भी रोती नहीं सुनी गयी । कहीं भी समर्थ पुत्र पितासे याचना नहीं करता था। उनके राज्यभरमें किसीके यहाँ वर्णसंकर संतानकी उत्पत्ति नहीं हुई । लोग अपना धन-वैभव छिपाकर नहीं रखते थे । कोई भी धर्मपर दोषारोपण नहीं करता था । सधवा नारी कभी भी बिना चोलीके नहीं रहती थी । उन्होंने यह घोषणा करायी थी कि मेरे राज्यमें स्त्रियाँ घरोंमें सुरक्षित रहें। विधवा केश न रखावे और सौभाग्यवती कभी केश न कटावे। जो दूसरोंको साधारणवृत्ति ( जीवननिर्वाहके लिये अन्न आदि ) नहीं देता, वह निर्दयी मेरे राज्यमें निवास न करे । दूसरोंको सद्गुणोंका उपदेश देनेवाला पुरुष स्वयं सद्गुण-शून्य हो और ऋत्विग यदि शास्त्रज्ञानसे वचित हो तो वह मेरे राज्यमें निवास न करे । जो नीलका उत्पादन करता है अथवा जो नीलके रंगसे अधिकतर वस्त्र गंगा करता है, उन दोनोंको मेरे राज्यसे निकाल देना चाहिये। जो मदिरा बनाता है, वह भी यहाँसे निर्वासित होने योग्य ही है। जो मांस भक्षण करता है तथा जो अपनी स्त्रीका अकारण परित्याग करता है, उसका मेरे राज्यमें निवास न हो । जो गर्भवती अथवा साद्य प्रसूता युवतीसे समागम करता है, वह मनुष्य मुझे-जैसा शासकों के द्वारा दंडनीय है ।’

अध्याय १२० राजा रुकमान्गका मोहिनीसे कार्तिकमासकी महिमा, चातुर्मास्यके नियम व्रत एवं उद्यापन बताना

वसिष्ठजी कहते हैं राजेन्द्र ! इस प्रकार पिताकी आज्ञासे एकादशी-व्रतका पालन करते हुए धर्माङ्गद इस पृथ्वीका राज्य करने लगे । उस समय उनके राज्यमें कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं था, जो धर्म-पालनमें तत्पर न हो । महीपते ! कोई भी व्यक्ति दुःखी, संतानहीन अथवा कोढ़ी नहीं था । नरेश्वर ! उस राज्यमें सब लोग हृष्ट-पुष्ट थे । पृथ्वी निधि देनेवाली थी, गौएँ बछड़ोंको दूध पिलाकर तृप्त रखतीं और एक घड़ा दूध देती थीं । वृक्षोंके पत्ते-पत्तेमें मधु भरा था । एक-एक वृक्षपर एक-एक दोन मधु सुलभ था । सर्वथा प्रसन्न रहनेवाली पृथ्वीपर सब प्रकारके धान्योंकी उपज होती थी । त्रेताके अन्तका द्वापरयुग सत्ययुगसे होड़ लगाता था । वर्षाकाल बीत चला, शरद्‌-ऋतुका आकाश और गृहस्थोंका घर धूल-पड़से रहित स्वच्छ हो गया । राजा रुक्माज़द मोहिनीके प्रेमसे अत्यन्त मुग्ध होनेपर भी एकादशी-व्रतकी अवहेलना नहीं करते थे । दशमी, एकादशी और द्वादशी―इन तीन दिनोंतक राजा रतिक्रीडा त्याग देते थे । इस प्रकार क्रीडा करते हुए उन्हें लगभग एक वर्ष पूरा हो गया । कालजोंमें श्रेष्ठ नरेश ! उस समय परम मज़्लमय श्रेष्ठ कार्तिकमास आ पहुँचा था, जो भगवान्‌ विष्णुकी निद्राको दूर करनेवाला परम पुण्यदायक मास है । राजन्‌ ! उसमें वैष्णव मनुष्योंद्वारा किया हुआ सारा पुण्य अक्षय होता है और विष्णुलोक प्रदान करता है । कार्तिकके समान कोई मास नहीं है, सत्ययुगके समान कोई युग नहीं है, दयाके तुल्य कोई धर्म नहीं है और नेत्रके समान कोई ज्योति नहीं है । वेदके समान दूसरा शास्त्र नहीं है, गंगाके समान दूसरा तीर्थ नही है । भूमिदानके समान अन्य दान नहीं है और पत्नी-सुखके समान कोई ( लौकिक ) सुख नहीं है । खेतीके समान कोई धन नहीं है, गाय रखनेके समान कोई लाभ नहीं है, उपवासके समान कोई तप नहीं है और ( मन और ) इन्द्रियोंके संयमके समान कोई कल्याणमय साधन नहीं है । रसनातृप्तिके समान कोई ( सांसारिक ) तृप्ति नहीं है, ब्राह्मणके समान कोई वर्ण नहीं है, धर्मके समान कोई मित्र नहीं है और सत्यके समान कोई यश नहीं है । आरोग्यके समान कोई ऐश्वर्य नहीं है, भगवान्‌ विष्णुसे बढ़कर कोई देवता नहीं है तथा लोकमें कार्तिकव्रतके समान दूसरा कोई पावन व्रत नहीं है। ऐसा ज्ञानी पुरुषोंका कथन है । कार्तिक सबसे श्रेष्ठ मास है और वह भगवान्‌ विष्णुको सदा ही प्रिय है।

   राजन्‌ ! कार्तिक मासको आया देख अत्यन्त मुग्ध हुए महाराज रुक्माङ्गदने मोहिनीसे यह बात कही—’ देवि ! मैंने तुम्हारे साथ बहुत वर्षोतक रमण किया। शुभानने ! इस समय मैं कुछ कहना चाहता हूँ । उसे सुनो । देवि ! तुम्हारे प्रति आसक्त होनेके कारण मेरे बहुत-से कार्तिक मास व्यर्थ बीत गये। कार्तिकमे मैं केवल एकादशीको छोड़कर और किसी दिन व्रतका पालन न कर सका । अत: इस बार मैं व्रतके पालनपूर्वक कार्तिक मासमें भगवान्‌की उपासना करना चाहता हूँ । कार्तिकमें सदा किये जानेवाले भोज्योंका परित्याग कर देनेपर साधककों अवश्य ही भगवान्‌ विष्णुका सारूप्य प्राप्त होता है । पुष्करतीर्थमें कार्तिक-पूर्णिमाको व्रत और स्नान करके मनुष्य आजन्म किये हुए पापसे मुक्त हो जाता है। जिसका कार्तिक मास व्रत, उपवास तथा नियमपूर्वक व्यतीत होता है, वह विमानका अधिकारी देवता होकर परम गतिको प्राप्त होता है । अत: मोहिनी ! तुम मेरे ऊपर मोह छोड़कर आज्ञा दो, जिससे इस समय मैं कार्तिकका व्रत आरम्भ करूँ । ‘

  मोहिनी बोलीनृपशिरोमणे ! कार्तिक मासका माहात्म्य विस्तारपूर्वक बताइये । मैं कार्तिक-माहात्म्य सुनकर जैसी मेरी इच्छा होगी, वैसा करूँगी ।

   रुक्माङ्गदने कहावरानने ! मैं इस कार्तिक मासकी महिमा बताता हूं । सुन्दरी ! कार्तिक मासमें जो कृच्छ्र अथवा प्राजापत्यव्रत करता है अथवा एक दिनका अन्तर देकर उपवास करता है अथवा तीन रातका उपवास स्वीकार करता है अथवा दस दिन, पंद्रह दिन या एक मासतक निराहार रहता है, वह मनुष्य भगवान्‌ विष्णुके परम पदको प्राप्त कर लेता है । जो मनुष्य कार्तिकमें एकभुक्त ( केवल दिनमें एक समय भोजन ) या नक्तव्रत ( केवल रातमें एक बार भोजन ) अथवा अयाचित्तव्रत ( बिना माँगे स्वत: प्राप्त हुए अन्नका दिन या रातमें केवल एक बार भोजन ) करते हुए भगवान्‌की आराधना करते हैं, उन्हें सातों द्वीपोंसहित यह पृथ्वी प्राप्त होती है। विशेषत: पुष्करतीर्थ, द्वारकापुरी तथा सूकरक्षेत्रमें यह कार्तिक मास व्रत, दान और भगवत्पूजन आदि करनेसे भक्ति देनेवाला बताया गया है । कार्तिकर्मे एकादशीका दिन तथा भीष्मपञ्चक अधिक पुण्यमय माना गया है । मनुष्य कितने ही पापोंसे भरा हुआ क्यों न हो, यदि वह रात्रि जागरणपूर्वक प्रबोधिनी एकादशीका व्रत करे तो फिर कभी माताके गर्भमें नहीं आता। वरारोहे ! उस दिन जो वाराहमण्डलका दर्शन करता है, वह बिना सांख्ययोगके परमपदकों प्राप्त होता है। शुभे ! कार्तिकमें शूकरमण्डल या कोकवाराहका दर्शन करके मनुष्य फिर किसीका पुत्र नहीं होता । उसके दर्शनसे मनुष्योंका आध्यात्मिक आदि तीनों प्रकारके पापोंसे छुटकारा हो जाता है । ब्रह्मकुमारी ! उक्त मण्डल, श्रीधर तथा कुब्जकका दर्शन करके भी मनुष्य पापमुक्त होते हैं । कार्तिकमें तैल छोड़ दे । कार्तिकमें मधु त्याग दे । कार्तिकमे स्त्रीसेवनका भी त्याग कर दे। देवि ! इन सबके त्यागद्वार तत्काल ही वर्षभरके पापसे छुटकारा मिल जाता है। जो थोड़ा भी व्रत करनेवाला है, उसके लिये कार्तिक मास सब पापोंका नाशक होता है । कार्तिकमें ली हुई दीक्षा मनुष्योंके जन्मरूपी बन्धनका नाश करनेवाली है । अतः पूरा प्रयत्न करके कार्तिकमें दीक्षा ग्रहण करनी चाहिये । जो तीर्थमें कार्तिक-पूर्णिमाका व्रत करता है या कार्तिकके शुक्लपक्षकि एकादशीको व्रत करके मनुष्य यदि सूंदर कलशोंका दान करता है तो वह भगवान्‌ विष्णुके धाममें जाता है । सालभरतक चलनेवाले व्रतोंकी समाप्ति कार्तिकमें होती है। अत: मोहिनी ! मैं कार्तिक मासमें समस्त पापोंके नाश तथा तुम्हारी प्रीतिकी वृद्धिके लिये व्रत-सेवन करूँगा ।

   मोहिनीने कहा पृथ्वीपते ! अब चातुरमासकी विधि और उद्यापनका वर्णन कीजिये, जिससे सब व्रतोंकी पूर्णता होती है । उद्यापनसे व्रतकी का होती है और वह पुण्यफलका साधक होता है |

  राजा बोले― प्रिये ! चातुर्मास्यमें नक्तव्रत करनेवाला पुरुष ब्राह्मणको षड्रस भोजन करावे । अयाचित-व्रतमें सुवर्णसहित वृषभ दान करे। जो प्रतिदिन आँवलेके फलसे स्नान करता है, वह मनुष्य दही और खीर दान करे । सुभ्रु ! यदि फल न खानेका नियम ले तो उस अवस्थामें फलदान करे। तेलका त्याग करनेपर घीदान करे और घीका त्याग करनेपर दूधका दान करे । यदि धान्यके त्यागका नियम लिया हो तो उस अवस्थामें अगहनीके चावल या दूसरे किसी धान्यका दान करे। भूमिशयनका नियम लेनेपर गद्दा, रजाई और तकियासहित शय्यादान करे । पत्तेमें भोजनका नियम लेनेवाला मनुष्य घृतसहित पात्रदान करे । मौनव्रती पुरुष घण्टा, तिल और सुवर्णका दान करे । व्रतकी पूर्तिके लिये ब्राह्मण पति-पत्नीको भोजन करावे । दोनोंके लिये उपभोगसामग्री तथा दक्षिणासहित शय्यादान करे । प्रात: स्नानका नियम लेनेपर अश्वदान करे और स्नेहरहित ( बिना तेलके ) भोजनका नियम लेनेपर घी और सत्तू दान करे । नख और केश न कटाने-धारण करनेका नियम लेनेपर दर्पण दान करे। पादन्नाण (जूता, खड़ाऊँ आदि)- के त्यागका नियम लेनेपर जूता दान करे । नमकका त्याग करनेपर गोदान करे । प्रिये । जो इस अभीष्ट व्रतमें प्रतिदिन देवमंदिरमें दीप-दान करता है, वह सुवर्ण अथवा तांबेका घृतयुक्त दीपक दान करे तथा व्रतकी पूर्तिके लिये वैष्णवको वस्त्र एवं छत्र दान करे । जो एक दिनका अन्तर देकर उपवास करता है, वह रेशमी वस्त्र दान करे । त्रिरात्र-व्रतमें सुवर्ण तथा वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत शय्यादान करे । षड्रात्र आदि उपवासोंमें छत्रसहित शिबिका ( पालकी ) दान करे। साथ ही हाँकनेवाले पुरुषके साथ मोटा-ताजा गाड़ी खींचनेवाला बैल दान करे । एकभुक्त ( आठ पहरमें केवल एक बार भोजन करनेके ) व्रतका नियम लेनेपर बकरी और भेड़ दान करे । फलाहारका नियम ग्रहण करनेपर सुवर्णका दान करे । शाकाहारके नियममें फल, घी और सुवर्ण दान करे । सम्पूर्ण रसों तथा अबतक जिनकी चर्चा नहीं की गयी, ऐसी वस्तुओंका त्याग करनेपर अपनी शक्तिके अनुसार सोने-चाँदीका पात्र दान करे । सुभ्रु ! जिसके लिये जो दान कर्तव्य बताया गया है, उनका पालन न हो सके तो भगवान्‌ विष्णुके स्मरणपूर्वक ब्राह्मणकी आज्ञाका पालन करे । सुन्दरी ! देवता, तीर्थ और यज्ञ भी ब्राह्मणोंके वचनका पालन करते हैं; फिर कल्याणकी इच्छा रखनेवाला कौन विद्वान्‌ मनुष्य उनकी आज्ञाका उल्लड्घन करेगा । प्रिये ! भगवान्‌ विष्णुने ब्रह्माजीको जिस प्रकार यह धर्म-रहस्यसे युक्त उपदेश दिया था, वही मैंने तुमसे प्रकाशित किया है । यह दूसरे अनधिकारियोंके सामने प्रकट करने योग्य नहीं है। यह दान और व्रत भगवान्‌ विष्णुकी प्रसन्नताका हेतु और मनोवांछित फल देनेवाला है ।

अध्याय १२१ राजा रुकमाङ्गदकी आज्ञासे रानी सन्ध्यावलीका कार्तिकमासमें कृच्छुव्रत प्रारम्भ करना, धर्मांगकी एकादशीके लिय घोषणा, मोहिनीका राजासे एकादशीको भोजन करनेका आग्रह और राजाकी अस्वीकृति

मोहिनी बोलीराजेन्द्र ! आपने कार्तिक मासमें उपवासके विषयमें जो बातें कही हैं, वे बहुत उत्तम हैं । पर राजाओंके लिये तीन ही कर्म प्रधान रूपसे बताये गये हैं । पहला कर्म है दान देना, दूसरा प्रजाका पालन करना तथा तीसरा है विरोधी राजाओंसे युद्ध करना । आपको यह व्रत नहीं करना चाहिये । मैं तो आपके बिना कहीं दो घड़ी भी नहीं रह सकती; फिर तीस दिनोंतक मैं आपसे अलग कैसे रह सकती हूँ । वसुधापते ! आप जहाँ उपवास करना उचित मानते हैं, वहाँ उपवास न करके महात्मा ब्राह्मणोंको भोजन-दान करें अथवा यदि उपवास ही आवश्यक हो तो आपकी जो ज्येष्ठ पत्नी हैं, वे ही यह सब व्रत आदि करें ।

   मोहिनीके ऐसा कहनेपर राजा रुक्माङ्गदने संध्यावलीको बुलाया । बुलानेपर वे प्रचुर दक्षिणा देनेवाले महाराजके पास तत्काल आ पहुँचीं और हाथ जोड़कर बोलीं—’ प्राणनाथ ! दासीको किसलिये बुलाया ? आज्ञा कीजिये, मैं उसका पालन करूँगी ।’

   रुक्माङ्गदने कहाभामिनि ! मैं तुम्हारे शील-स्वभाव और कुलको जानता हूँ। तुम्हारे आदेशसे ही मैंने मोहिनीके साथ दीर्घकालतक आज्ञाका पालन करे । सुन्दरी ! देवता, तीर्थ और यज्ञ भी ब्राह्मणोंके वचनका पालन करते हैं; फिर कल्याणकी इच्छा रखनेवाला कौन विद्वान्‌ मनुष्य उनकी आज्ञाका उल्लनघन करेगा । प्रिये ! भगवान्‌ विष्णुने ब्रह्माजीको जिस प्रकार यह धर्म-रहस्यसे युक्त उपदेश दिया था, वही मैंने तुमसे प्रकाशित किया है । यह दूसरे अनधिकारियोंके सामने प्रकट करने योग्य नहीं है । यह दान और व्रत भगवान्‌ विष्णुकी प्रसन्नताका हेतु और मनोवाज्छित फल देनेवाला है । समागम-सुखसे मुग्ध हो निवास करते-करते मेरे बहुतसे कार्तिक मास व्यर्थ बीत गये । तथापि मेरा एकादशीव्रत कभी भंग नहीं होने पाया है। कि सम्पूर्ण पापोंका विनाश करनेवाला यह कार्तिक मास आया है । देवि ! मैं उत्तम पुण्य प्रदान करनेवाले इस कार्तिकव्रतको करना चाहता हूँ । परंतु शुभे ! ये ब्रह्मकुमारी मुझे इस व्रतसे रोक ती हैं। इसलिये शरीरको सुखानेवाले कृच्छ नामक व्रतका पालन मेरी ओरसे तुम करो ।

   रानी संध्यावलीने उस समय पतिदेवका वह प्रस्ताव सुनकर कहा- ‘ प्रभो ! मैं आपके संतोषके लिये व्रतका पालन अवश्य करूँगी । आपके लिये मैं अपने शरीरको आगमें भी झोंक सकती हूँ। भूमिपाल ! आपने जो आज्ञा दी है, वह तो बहुत उत्तम है। नरदेवनाथ ! मैं इसका पालन करूँगी ।’ यमराजके शत्रु राजा रुक्माङ्गदसे ऐसा कहकर मनोहर एवं विशाल नेत्रोंवाली रानी संध्यावलीने उन्हें प्रणाम किया और समस्त पापराशिका विनाश करनेके लिये उस उत्तम व्रतका पालन आरम्भ किया। अपनी प्रियाद्वारा उत्तम कृच्छुव्रत प्रारम्भ किये जानेपर राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने ब्रह्माजीकी पुत्री मोहिनीसे यह बात कही- ‘ सुभ्रु ! मैंने तुम्हारी आज्ञाका पालन किया। देवि ! मेरे प्रति तुम्हारे मनमें जो-जो कामनाएँ निहित हैं, उन सबको सफल कर लो । मैं तुम्हारे संतोषके लिये राज्यशासनके समस्त कार्योंसे अलग हो गया हूँ। तुम्हारे सिवा दूसरी कोई नारी मुझे सुख देनेवाली नहीं है ।’ अपने प्राणवल्लभके मुखसे ऐसी बात सुनकर मोहिनीके हर्षकी सीमा न रही । उसने राजासे कहा देवता, दैत्य, गन्धर्व, नाग राक्षस सब मेरी दृष्टिमें आये, किन्तु मैं सबको त्यागकर केवल आपके प्रति स्नेहयुक्त हो मंन्दराचलर आयी थी । लोकमें कामकी सफलता कि प्रिया और प्रियतम दोनों एकचित हो-परस्पर एक दूसरेको चाहते हों ।’ उस समय रूक्माङ्गदके कानों में डंकेकी चोट सुनायी दी, जो मतवाले गजराजके मस्तकपर रखकर धर्माङ्गदके आदेशसे बजाया जा रहा था । उस पटह-ध्वनिके साथ यह घोषणा हो रही थी—’ लोगो ! कल प्रात:कालसे भगवान्‌ विष्णुका दिन एकादशी है, अतः आज केवल एक समय भोजन करके रहो । क्षार नमक छोड़ दो । सब-के-सब हविष्यान्नका सेवन करो । भूमिपर शयन करो । स्त्री-संगमसे दूर रहो और पुराणपुरुषोत्तम देवदेवेश्वर भगवान्‌ विष्णुका स्मरण करो । आज एक समय भोजन करके कल दिन-रात उपवास करना होगा । ऐसा करनेसे तुम्हारे लिये श्राद्ध चाहे न किया गया हो, तुम्हें पिण्ड न मिला हो और तुम्हारे पुत्र गयामें जाकर श्राद्ध न कर सके हों, तो भी तुम्हें भगवान्‌ श्रीहरिके वैकुण्ठ धामकी प्राप्ति होगी । यह कार्तिक शुक्ला एकादशी भगवान्‌ श्रीहरिकी निद्रा दूर करनेवाली है । प्रात:काल एकादशी प्राप्त होनेपर तुम कदापि भोजन न करो । इस प्रबोधिनी एकादशीको उपवास करनेसे इच्छानुसार किये हुए ब्रह्महत्या आदि सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जायेँगे। यह तिथि धर्मपरायण तथा न्याययुक्त सदाचारका पालन करनेवाले पुरुषोंको प्रबोध ( ज्ञान ) देती है और इसमें भगवान्‌ विष्णुका प्रबोध (जागरण) है, इसलिये इसका नाम प्रबोधिनी है । इस एकादशीको जो एक बार भी उपवास कर लेता है, वह मनुष्य फिर संसारमें जन्म नहीं लेता । मनुष्यो ! तुम अपने वैभवके अनुसार इस एकादशीकों चक्रसुदर्शनधारी विष्णुकी पूजा करो । वस्त्र, उत्तम चन्दन, पुष्प, धूप, दीप तथा हृदयको अत्यन्त प्रिय लगनेवाले सुन्दर फल एवं उत्तम गन्धके द्वारा भगवान्‌ श्रीहरिके चरणारविन्दोंकी अर्चना करो। जो भगवान्‌ विष्णुका लोक प्रदान करनेवाले मेरे इस धर्मसम्मत वचनका पालन नहीं करेगा, निश्चय ही उसे कठोर दण्ड दिया जायगा ।’

   इस प्रकार मेघके समान गम्भीर शब्द करनेवाले नगाड़ेको बजाकर जब उक्त घोषणा की जा रही थी, उस समय वे भूपाल मोहिनीकी शय्या छोड़कर उठ गये । फिर मोहिनीको मधुर वचनोंसे सान्त्वना देते हुए बोले—’ देवि ! कल प्रात:काल पापनाशक एकादशी तिथि होगी । अत: आज मैं संयमपूर्वक रहूँगा। तुम्हारी आज्ञासे मैंने कृच्छ-व्रत तो संध्यावलीदेवीके द्वारा कराया है, किंतु यह प्रबोधिनी एकादशी मुझे स्वयं भी करनी है। यह सम्पूर्ण पापबन्धनोंका उच्छेद करनेवाली तथा उत्तम गति देनेवाली है। अत: मोहिनी देवी ! आज मैं हविष्य भोजन करूँगा और संयम-नियमसे रहूँगा । विशाललोचने ! तुम भी मेरे साथ उपवासपूर्वक समस्त इन्द्रियोंके स्वामी भगवान्‌ अधोक्षजकी आराधना करो, जिससे निर्वाणपदको प्रात करोगी ।’

   मोहिनी बोलीराजन्‌ ! चक्रधारी भगवान्‌ विष्णुका पूजन जन्म-मृत्यु तथा जरावस्थाका नाश करनेवाला है- यह बात आपने ठीक कही है, किंतु पहले मन्दराचलके शिखरपर आपने मुझे अपना दाहिना हाथ देकर प्रतिज्ञा की है, उसके पालनका समय आ गया है । अतः मुझे आप वर दीजिये, यदि नहीं देते हैं तो जन्मसे लेकर अबतक आपने बड़े यत्रसे जो पुण्यसंचय किया है, वह सब शीघ्र नष्ट हो जायगा ।

   रुक्माङ्गदने कहाप्रिये ! आओ, तुम्हारे मनमें जो इच्छा होगी, उसे मैं पूर्ण करूँगा। मेरे पास कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो तुम्हारे लिये देने योग्य न हो, मेरा यह जीवनतक तुम्हें अर्पित है, फिर ग्राम, धन और पृथ्वीके राज्य आदिकी तो बात ही क्या है।

   मोहिनी बोलीराजन्‌ ! यदि मैं आपकी प्रिया हूँ तो आप एकादशीके दिन उपवास न करके भोजन करें । यही वर मुझे देना चाहिये । जिसके लिये मैंने पहले ही आपसे प्रार्थना कर ली है । महाराज ! यदि आप वर नहीं देंगे तो असत्यवादी होकर घोर नरकमें जायँगे और एक कल्पतक उसीमें पड़े रहेंगे।

   राजाने कहाकल्याणी ! ऐसी बात न कहो। यह तुम्हें शोभा नहीं देती । अहो ! तुम ब्रह्माजीकी पुत्री होकर धर्ममें विश्न क्यों डालती हो ?  शुभे ! जन्मसे लेकर अबतक मैंने कभी एकादशीको भोजन नहीं किया, तब आज जब कि मेरे बाल सफेद हो गये हैं, मैं कैसे भोजन कर सकता हूँ । जिसको जवानी बीत चुकी है और जिसकी इन्द्रियोंकी शक्ति नष्ट हो गयी है, उस मनुष्यके लिये यही उचित है कि वह गंगाजीका सेवन या भगवान्‌ विष्णुकी आराधना करे | सुन्दरी ! मुझपर प्रसन्न होओ। मेरे व्रतको भँग न करो। मैं तुम्हें राज्य और सम्पत्ति दे दूँगा अथवा इसकी इच्छ न हो तो और कोई कार्य कहो उसे पूरा करूँगा । आमावास्याके दिन मैथुन करनेपर जो पाप होता है, चतुर्दशीको हजामत बनवानेसे मनुष्यमें जिस पापका संचार होता है और षष्ठीको तेल खाने या लगानेसे जो दोष होता है, वे सब एकादशीको भोजन करनेसे प्राप्त होते हैं । गोचरभूमिका नाश करनेवाले, झूठी गवाही देनेवाले, धरोहर हड़पनेवाले कुमारी कन्याके विवाहमें डालनेवाले विश्वासघाती, मरे हुए बछड़ेवाली गायको दुहनेवाले तथा श्रेष्ठ ब्राह्मणको कुछ देनेकी प्रतिज्ञा करके न देनेवाले पुरुषको जो पाप लगता है, मणिकूट, तुलाकूट, कन्यानृत और गवानृतमें जो पातक होता है, वही एकादशीको अन्नमें विद्यमान रहता है । चारुलोचने ! मैं इन सब बातोंको जानता हूँ अतः एकादशीको पापमय भोजन कैसे करूँगा ?

   मोहिनी बोली―राजेन्द्र ! एकभुक्तव्रत, नक्त-व्रत, अयाचितव्रत अथवा उपवासके द्वारा एकादशी-व्रतको सफल बनावे । उसका उल्लङ्गन न करे, यह बात ठीक हो सकती है;  किंतु जिन दिनों मैं मन्दराचलपर रहती थी, उन दिनों महर्षि गौतमने मुझे एक बात बतायी थी, जो इस प्रकार है― गर्भिणी स्त्री, गृहस्थ पुरुष, क्षीणकाय रोगी, शिशु, वलिगात्र ( झुर्रियोंसे जिसका शरीर भरा हुआ है, ऐसा ), यज्ञके आयोजनके लिये उद्यत पुरुष एवं संग्रामभूमिमें रहनेवाले योद्धा तथा पतिव्रता स्त्री-इन सबके लिये निराहार व्रत करना उचित नहीं है। नरश्रेष्ठ ! एकादशीको बिना व्रतके नहीं व्यतीत करना चाहिये-यह आज्ञा उपर्युक्त व्यक्तियोंपर लागू नहीं होती। अत: जब आप एकादशीको भोजन कर लेंगे, तभी मुझे प्रसन्नता होगी । अन्यथा यदि आप अपना सिर काटकर भी मुझे दे दें तो भी मुझे प्रसन्नता न होगी । राजन्‌ ! यदि आप एकादशीको भोजन नहीं करेंगे तो आप-जैसे असत्यवादीके शरीरका मैं स्पर्श नहीं करूँगी। महाराज ! समस्त वर्णों और आश्रमोंमें सत्यकी ही पूजा होती है । महीपते ! आप-जैसे राजाओंके यहाँ तो सत्यका विशेष आदर होना चाहिये। सत्यसे ही सूर्य तपता है, सत्यसे ही चन्द्रमा प्रकाशित होते हैं । भूपाल ! सत्यपर ही यह पृथ्वी टिकी हुई है और सत्य ही सम्पूर्ण जगत्‌को धारण करता है । सत्यसे वायु चलती है, सत्यसे आग जलती है और इस सम्पूर्ण चराचर जगत्‌का आधार सत्य ही है। सत्यके ही बलसे समुद्र अपनी मर्यादाके आगे नहीं बढ़ता । राजन्‌ ! सत्यसे ही बँधकर विंध्यपर्वत ऊँचा नहीं उठता और सत्यके ही प्रभावसे युवती स्त्री समय बीतनेपर कभी गर्भ नहीं धारण करती। सत्यमें स्थित होकर ही वृक्ष समयपर फूलते-फलते दिखायी देते हैं । महीपते ! मनुष्यों के लिये दिव्यलोक आदिके साधनका आधार भी सत्य ही है । सहस्रों अश्रमेध-यज्ञोंसे भी बढ़कर सत्य ही है । यदि आप असत्यका आश्रय लेंगे तो मदिरापानके तुल्य पातकसे लिप्त होंगे।

अध्याय १२२ राजा रुकुमाङ्गदद्वारा मोहिनीके आक्षेपोंका खंडन, एकादशी— व्रतकी वैदिकता, मोहिनी— द्धारा गौतम आदि ब्राह्मणोंके समक्ष अपने पक्षकी स्थापना

राजा बोलेवरानने ! गिरिश्रेष्ठ मन्दराचलपर एकादशीको भोजन करनेके विषयमें तुमने जो महर्षि गौतमको कही हुई बात बतायी है, वह कथन पुराणसम्मत नहीं है । पुराणमें तो विद्वानोंका किया हुआ यह निर्णय स्पष्टरूपसे बताया गया है कि एकादशी तिथिको भोजन न करे । फिर मैं एकादशीको भोजन कैसे करूँगा ? एकादशीके दिन क्षीणकाय पुरुषोंके लिये मुनीश्वरोंने फल, मूल, दूध और जलको अनुकूल एवं भोज्य बताया है। एकादशीको किसीके लिये अन्नका भोजन किन्हीं महापुरुषोंने नहीं कहा है । जो लोग ज्वर आदि रोगोंके शिकार हैं उनके लिये तो उपवास और उत्तम बताया गया है । धार्मिक पुरुषोंके लिये एकादशीके दिन उपवास शुभ एवं सढूति देनेवाला कहा गया है । अत: तुम भोजन करनेके लिये आग्रह न करो, इससे मेरा व्रत भंग हो जायगा । इसके सिवा, तुम्हें जो भी रुचिकर प्रतीत हो, वह कार्य मैं अवश्य करूँगा।

  मोहिनीने कहाराजन्‌ ! आप एकादशीको भोजन करें, इसके सिवा दूसरी कोई बात मुझे अच्छी नहीं लगती । एकादशीके दिन यह उपवासका विधान वेदोंमें नहीं देखा जाता है । भूपते ! मोहिनीकी यह बात सुनकर वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ राजा रुक्माङ्गद मनमें तो कुपित हुए; परतु बाहरसे ही हँसते हुए-से बोले- ‘ मोहिनी ! मेरी बात सुनो ! वेद अनेक रूपोंमें स्थित है। यज्ञ आदि कर्मकाण्ड वेद है, स्मृति वेद है और ये दोनों प्रकारके वेद पुराणों में प्रतिष्ठित हैं। अत: वरानने ! मैं वेदार्थसे अधिक पुराणार्थको मान्यता देता हूं। जो शास्त्रको बहुत कम जानता है, उससे वेद डरता है कि ‘ यह कहीं मुझपर ही प्रहार न कर बैठे। ‘ सब विषयोंका निर्णय इतिहास और पुराणोंने पहलेसे ही कर रखा है। वेदोंमें जो नहीं देखा गया, वह सब स्मृतिमें दृष्टिगोचर होता है। वेदों और स्मृतियोंमें भी जो बात नहीं देखी गयी है, उसका वर्णन पुराणोंने किया है। प्रिये ! हत्या आदि पापोंका प्रायश्चित्त तथा रोगीके औषधका वर्णन भी पुराणोंमें मिलता है । उन प्रायश्चित्तोंके बिना पापको शुद्धि नहीं हो सकती । सुभ्रु ! वेदों, वेदके उपाड़ों, पुराणों तथा स्मृतियोंद्वारा जो कुछ कहा जाता है, वह सब वेदमें ही बताया गया है―ऐसा मानना चाहिये। वरानने ! पुराण बार-बार यह दुहराते हैं कि एकादशी प्राप्त होनेपर भोजन नहीं करना चाहिये, नहीं करना चाहिये ।’ पिताको कौन नहीं प्रणाम करेगा, कौन माताकी पूजा नहीं करेगा, कौन सरिताओंमें श्रेष्ठ गंगाके समीप नहीं जायगा और कौन है जो एकदशीको भोजन करेगा ? कौन वेदकी निन्दा करेगा, कौन ब्राह्मणकों नीचे गिरायेगा, कौन पर-स्त्री-गमन करेगा और कौन एकादशीकों अन्न खायेगा ?

   मोहिनीने कहा- घूर्णिके ! तुम शीघ्र जाकर वेद-विद्याके पारंगत ब्राह्मणोंको यहाँ बुला लाओं, जिनके वाक्यसे प्रेरित होकर ये राजा एकादशीको भोजन करें ।

   उसकी बात सुनकर घूर्णिका गयी और वेद-विद्यासे खुशोभित गौतम आदि ब्राह्मणोंको बुलाकर मोहिनीके पास ले आयी। उन वेद-वेदाड़के पारंगत ब्राह्मणोंको आया देख राजासहित मोहिनीने प्रणाम किया । वह अपना काम बनानेके प्रयत्नमें लग गयी थी । महीपाल ! प्रज्वलित अग्रिके समान तेजस्वी वे सब ब्राह्मण सोनेके सिंहासनोंपर बैठे । तदनन्तर उनमेंसे वयोवृद्ध ब्राह्मण गौतमने कहा―’देवि ! सब प्रकारके संदेहका निवारण करनेवाले तथा अनेक शास्त्रोंमें कुशल हम सब ब्राह्मण यहाँ आ गये हैं । जिसके लिये हमें बुलाया गया है वह कारण बताइये ।’ उनकी बात सुनकर मोहिनी बोली ।

   मोहिनीने कहा―ब्राह्मणों ! हमारा यह संदेह तो जड़तापूर्ण है; साथ डी छोटी भी है । इसपर अपनी बुद्धिकि अनुसार आप लोग प्रकाश डालें । ये राजा कहते हैं―मैं एकादशीके दिन भोजन नहीं करूँगा, किंतु यह सम्पूर्ण चराचर जगत्‌ अन्नके ही आधारपर टिका है । मरे हुए पितर भी अन्नद्वारा श्राद्ध करनेपर स्वर्गलोकर्में तृप्ति एवं प्रसन्नताका अनुभव करते हैं । द्रिजवरो ! स्वर्गके देवता बेरके बराबर पुरोडाशकी भी आहुति पानेकी इच्छा रखते हैं, अत: अन्न सर्वोत्तम अमृत है, भूखी हुई चींटी भी मुखसे चावल लेकर बड़े कष्टसे अपने बिलके भीतर जाती है । भला, अन्न किसको अच्छा नहीं लगता । ये महाराज एकादशी प्राप्त होनेपर खाना-पीना बिलकुल छोड़ देते हैं; किंतु व्रतका सेवन विधवाओं और यतियोंके लिये ही उचित होता है । राजाका धर्म है प्रजाकी रक्षा करना । वह धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष―चारों पुरुषार्थोका फल देनेवाला है । स्त्रियोंके लिये पत्सेवा, पुत्रों के लिये माता-पिताकी सेवा, शूद्रोंके लिये द्विजोंकी सेवा तथा राजाओंके लिये सम्पूर्ण जगत्‌की रक्षा स्वंधर्म है । जो अपने धर्मानुकूल कर्मका परित्याग करके अज्ञान अथवा प्रमादवश परधर्मके लिये कष्ट उठाता है, वह निश्चय ही पतित है। इन राजाका शरीर तो अत्यन्त क्षीण हो गया है; फिर ये एकादशीके दिन संयम-नियमका पालन कैसे करेंगे ? अन्नसे ही प्राणकी पुष्टि होती है और प्राणसे शरीरमें विशेषरूपसे चेष्टाकी शक्ति आती है । चेष्टासे शत्रुका नाश होता है । जो चेष्टा या पुरुषार्थसे रहित है, उसका पराभव होता है। ऐसा जानकर मैं राजाको बराबर समझाती हूँ, परंतु ये समझ नहीं पाते ।

अध्याय १२३ राजाके द्धारा एकादशीके दिन भोजनविषयक मोहिनी तथा ब्राह्मणोके वचनका खंडन, मोहिनीका रुष्ट होकर राजाको त्यागकर जाना और धर्मांगदका उसे लौटाकर लाना, पितासे मोहिनीको दी हुई वस्तु देनेके लिय अनुरोध करना

वसिष्ठजी कहते हैंमोहिनीकी कही हुई बात सुनकर वे ब्राह्मणलोग ‘ यह ठीक ही है ‘ ऐसा कहकर राजासे बोले।

   ब्राह्मणोंने कहाराजन्‌ ! आपने जो यह पुष्यमय शपथ कर ली है कि दोनों पक्षोंकी एकादशीको भोजन नहीं करना चाहिये, वह निश्चय शास्त्रदूष्टिसे नहीं, अपनी बुद्धिसे ही किया गया है । जो अग्रिहोत्री हैं, उनके लिये दोनों संध्याओंमें भोजनका विधान है । ब्राह्मण आदि तीन वर्णके लोग होमावशिष्ट ( यज्ञशिष्ट ) अन्नके भोक्ता बताये गये हैं । प्रभो ! जो सदा अस्त्र-शस्त्र उठाये ही रहते हैं और दुष्ट पुरुषोंको संयममें रखते हैं, ऐसे भूपालोंके लिये विशेषत: उपवास-कर्म कैसे उचित हो सकता है ?  शास्त्रसे या अशास्त्रसे आपने इस व्रतके लिये जो प्रतिज्ञा कर ली है, वह ठीक है; किंतु आप ब्राह्मणोंके साथ भोजन करें, इससे आपका व्रत भङ्ग नहीं हो सकता ।

   यह वचन सुनकर राजाके मनमें बड़ा क्रोध हुआ । पर वे उन ब्राह्मणोंसे मधुर वाणीमें बोले― ‘ विप्रवरो ! आप लोग सब प्राणियोंको मार्ग दिखानेवाले हैं, अत: आपको ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिये । जो लोग एकादशीके दिन उपवासका विधान करनेवाले वचनको ( केवल ) यतियों और विधवाओंके लिये ही विहित बताते हैं, वे ठीक नहीं कहते हैं । वैष्णवोंका कहीं ऐसा मत नहीं है । आप लोगोंने जो यह कहा है कि राजाओंके लिये उपवासका विधान नहीं है, उसके विषयमें मैं वैष्णवाचार-लक्षणके वचन सुनाता हूँ, आप लोग सुनें । ‘ मदिरा कभी नहीं पीना चाहिये, ब्राह्मणको कभी नहीं मारना चाहिये । धर्मज्ञ पुरुषको जूएका खेल नहीं खेलना चाहिये और एकादशीके दिन भोजन नहीं करना चाहिये । नहीं करने योग्य कार्यको करके कौन सौ वर्षोतक जीवित रहता है ?  कौन सचेष्ट मनुष्य है, जो एकादशीके दिन भोजन करे । उत्तर दिशामें रहनेवाले विष्णुधर्मपरायण ब्राह्मणोंको तो उचित है कि वे एकादशीके दिन पशुओंको भी अन्न न दें । द्विजोत्तमो ! मेरा शरीर क्षीण नहीं है और मैं रोगी भी नहीं हूँ, अत: ब्राह्मणके कहनेमात्रसे मैं एकादशीके व्रतका त्याग कैसे करूँगा ? मेरा पुत्र धर्माङ्गद इस भूतलकी रक्षा कर रहा है । अत: मैं लोक या प्रजाकी रक्षारूप धर्मसे भी शून्य नहीं हूँ । मेरा कोई भी शत्रु नहीं है । द्विजवरो ! ऐसा जानकर आपलोगोंको वैष्णव-व्रतका पालन करनेवाले मेरे प्रतिकूल कोई व्रतनाशक वचन नहीं कहना चाहिये। देवता, दानव, गन्धर्व, राक्षस, सिद्ध, ब्राह्मण, हमारे पिता, भगवान्‌ विष्णु, भगवान्‌ शिव अथवा मोहिनीके पिता श्रीब्रह्माजी, सूर्य अथवा और कोई लोकपाल स्वयं आकर कहें तो भी मैं एकादशीको भोजन नहीं करूँगा । द्विजो ! इस पृथ्वीपर विख्यात यह राजा रुक्माङ्गद अपनी सच्ची प्रतिज्ञाको कभी निष्फल नहीं कर सकता । ब्राह्मणों ! इन्द्रका तेज क्षीण हो जाय, हिमालय बदल जाय, समुद्र सूख जाय तथा आग्रि अपनी स्वाभाविक उष्णताको त्याग दे तथापि मैं एकादशीके दिन उपवासरूप व्रतका त्याग नहीं करूँगा । विप्रगण ! तीनों लोकोंमें यह बात प्रसिद्ध हो चुकी है और डंकेकी चोटसे दुहरायी जाती है कि जो लोग रुक्माअंगदके गाँव, देश तथा अन्य स्थानोंमें एकादशीकों भोजन करेंगे, वे पुत्रसहित दण्डनीय एवं वध्य होंगे और उनके लिये इस राज्यमे ठहरनेका स्थान नहीं होगा । एकादशीका दिन सब यज्ञोंसे प्रधान पापनाशक, धर्मवर्धक, मोक्षदायक तथा जन्मरूपी बन्धनको काटनेवाला है। यह तेजकी निधि है और सब लोगोंमें इसकी प्रसिद्धि भी है । इस तरहके शब्दकी घोषणा होनेपर भी यदि मैं एकादशीको भोजन करता हूँ तो पापका प्रवर्तक होऊँगा । मेरा व्रत भङ्ग हो जानेपर मुझे जन्म देनेवाली माता अपनेको व्यर्थ मानेगी तथा ब्राह्मण, देवता तथा पितर निराश होंगे। जो वेद, पुराण और शास्त्रोंको नहीं मानता, वह अन्तमें सूर्यपुत्र यमराजकी पुरीमें जाता है । जो वमन करके फिर उसे खाता है, उसीके समान वह भी है, जो अपनी प्रतिज्ञा तथा व्रतको भङ्ग कर देता है । वेद, शास्त्र, पुराण, संत-महात्मा तथा धर्मशास्त्र कोई भी ऐसे नहीं हैं, जो भगवान्‌ विष्णुके प्रिय कार्यके योग्य एकादशीके दिन भोजनका विधान करते हों । एकादशीके दिनका व्रत भगवान्‌ विष्णुके पदको देनेवाला है । उस दिन क्षयाह तिथि होनेपर भी अन्न-भोजनकी बात मूढ़ पुरुष ही कह सकते हैं ।’

  राजाकी यह बात सुनकर मोहिनी भीतर-ही-भीतर जल उठी और क्रोधसे आँखें लाल करके पतिसे बोली―’ राजन्‌ ! तुम मेरी बात नहीं स्वीकार करते हो तो धर्मभ्रष्ट हो जाओगे । पृथ्वीपते ! तुमने वर देनेके लिये अपना हाथ सौंपा था। अपनी उस प्रतिज्ञाका उल्लङ्घ्न करके यदि दिये हुए वचनका पालन न करोगे तो मैं चली जाऊँगी । नरेश ! अब मैं न तो तुम्हारी प्यारी पत्नी हूँ और न तुम मेरे पति । तुम अपने वचनको मिटाकर धर्मका नाश करनेवाले हो । तुम्हें धिक्कार है। ‘ ऐसा कहकर मोहिनी बड़ी उतावलीके साथ उठी और जिस प्रकार सती देवी महादेवजीको छोड़कर गयी थीं, उसी प्रकार वह राजाको छोड़कर ब्राह्मणोंको साथ ले उसी समय वहाँसे चल दी। उस समय ब्रह्माजीकी मानसपत्र मोहिनी ` हा तात ! हा जगन्नाथ ! जगत्‌की सृष्टि स्थिति और संहार करनेवाले परमेश्वर ! मेरी सुध लो ‘―इन शब्दोंका जोर-जोरसे उच्चारण करते हुई विलाप कर रही थी।

   इसी समय धर्माअंगद सारी पृथ्वीका परिभ्रमण करके घोड़ेपर चढ़े हुए आये। उनके मनमें कोई ईर्ष्या-द्वेष नहीं था। उन्होंने मोहिनीकी वह पुकार अपने कानों सुन ली थी। धर्माअंगद बड़े पितृभक्त थे। धर्ममूर्ति रुक्माङ्गदकुमार तुरंत घोडेसे उतर पड़े और पिताके चरणोंके समीप गये । उन्हें प्रणाम करके धर्माअंगदने फिर उठकर हाथ जोड़, उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको प्रणाम किया । राजन्‌ ! तदनन्तर रोषयुक्त हदयवाली मोहिनीको शीघ्र-गतिसे बाहर जाती देख धर्माङ्गद बड़े वेगसे सामने गये और हाथ जोड़कर बोले- ‘ माँ ! किसने तुम्हारा अपमान किया है ? देवि ! तुम तो पिताजीको अधिक प्रिय हो, आज रुष्ट कैसे हो गयी ?  इन ब्राह्मणोंके साथ इस समय तुम कहाँ जा रही हो? ‘ धर्माङ्गदकी बात सुनकर मोहिनी बोली―बेटा ! तुम्हारे पिता झूठे हैं, जिन्होंने अपना हाथ मुझे देकर भी उसे व्यर्थ कर दिया । अत: तुम्हारे पिता रुक्माङ्गदके साथ रहनेका अब मेरे मनमें कोई उत्साह नहीं है ।’

   धर्माङ्गदने कहादेवि ! तुम जो कहोगी, उसे मैं तुरंत करूँगा । माँ ! तुम क्रोध न करो । तुम पिताजीको अधिक प्रिय हो; अत: उनके पास लौट चलो ।

   मोहिनी बोलीवत्स ! मुँहमाँगा वरदान देनेकी शर्त रखकर तुम्हारे पिताने मन्दराचलपर मुझे अपनी पत्नी बनाया था । देवेश्वर भगवान्‌ शिव इसके साक्षी हैं, किंतु तुम्हारे पिता रुक्माङ्गद अब उस प्रतिज्ञासे गिर गये हैं। राजकुमार ! मैं उनसे सुवर्ण, ही हाथी, घोड़े, गाँव या बहुमूल्य वस्त्र नहीं माँगती हूँ जिससे उनकी आर्थिक हानि हो । देहधारियों में श्रेष्ठ बेटा धर्माअंगद ! जिससे वे अपने शरीरकों पीड़ा दे रहे हैं, वही वस्तु मैंने उनसे माँगी है; किंतु वे मोहवश उसे भी नहीं दे रहे हैं । नृपनन्दन ! उन्हीं के शरीरकी भलाईके लिये, उन्हींके सुखके लिये मैंने वर माँगा है, किंतु वे नृपश्रेष्ठ उसे न देकर आज भयंकर असत्यके दलदलमें फँस गये हैं। असत्य मदिरापानके समान घृणित पाप है । इस कारण तुम्हारे पिताको मैं त्याग रही हूँ। अब उनके साथ मेरा रहना नहीं हो सकता।

   मोहिनीका यह वचन सुनकर पुत्र धर्माङ्गदने कहा ‘ मेरे जीते-जी मेरे पिता कभी झूठे नहीं हो सकते। वरारोहे ! तुम लौटो । मैं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करूँगा । देवि ! मेरे पिताने पहले कभी असत्यभाषण नहीं किया है; फिर वे महाराज मुझ पुत्रके होते हुए असत्य कैसे बोलेंगे ? जिनके सत्यपर देवता, असुर तथा मानवोंसहित सम्पूर्ण लोक स्थित हैं, जिन्होंने यमराजके घरको पापियोंसे शून्य कर दिया है, जिनकी कीर्ति रोज बढ़ रही है और उससे सम्पूर्ण ब्रह्माण्डमण्डल व्याप्त हो गया है, वे ही भूपालशिरोमणि असत्य-भाषणमें तत्पर कैसे हो सकते हैं ?  मैंने महाराजका वचन सुना नहीं है, फिर उनके परोक्षमें तुम्हारी बातपर कैसे विश्वास कर लूँ ? शुभानने ! मुझपर दया करके लौट चलो ।

   राजन्‌ ! धर्माङ्गदका यह कथन सुनकर मोहिनी लौटी । सूर्यके समान तेजस्वी रुक्माङ्गद जिस शय्यापर मृतकके समान लेटे थे, उसीपर धर्माङ्गदने मोहिनीको बिठाया । वह शय्या सुवर्णसे विभूषित, अनुपम और मनोहर थी । जब मोहिनी उसपर बैठ गयी, तब धर्माअंगदने हाथ जोड़कर पितासे मधुर वाणीमें कहा―’तात! ये मेरी माता मोहिनी आज आपको असत्यवादी बता रही हैं । महाराज! इस पृथ्वीपर आप असत्यवादी क्यों होंगे? आप सातों समुद्रोंसे युक्त भूमण्डलका शासन करते हैं। आपके पास खजाना है, रत्नोंकी राशि संचित है। प्रभो! यह सब आप इन्हें दे दीजिये। और भी जो कुछ देनेकी प्रतिज्ञा आपने की हो, वह दे दीजिये। पिताजी ! जब मैं धनुष-बाण धारण करके खड़ा हूँ तो आपके प्रतिकूल आचरण कौन कर सकता है ? आप चाहें तो देवीको इन्द्रपद दे दीजिये और इन्द्रको जीता हुआ ही समझिये । ब्रह्माजीका पद अत्यन्त दुर्लभ है, वह योगियोंके ही अनुभवमें आने योग्य तथा निरज्जन है । यदि देवी चाहें तो मैं तपस्यासे ब्रह्माजीको संतुष्ट करके वह भी इन्हें दे दूँगा। राजेन्द्र ! इस त्रिलोकीमें जो दुष्कर हो अथवा अधिक प्रिय होनेसे जो देनेयोग्य न हो, वह भी मोहिनी देवीको दे दीजिये। ये चाहें तो मेरा अथवा मेरी जननीका जीवन भी इन्हें दे सकते हैं। इससे आप तत्काल ही इस लोकमें सदाके लिये उत्तम कीर्तिसे सुशोभित होंगे ।’

अध्याय १२४ राजा रुकुमाङ्गदका एकादशीको भोजन न करनेका ही निश्चय, सन्ध्यावली— मोहिनी— संवाद, रानी सन्ध्यावलीका मोहिनीको पतिकी इच्छाके विपरीत चलनेमें दोष बताना

राजा बोले― बेटा ! मेरी कीर्ति नष्ट हो जाय,  मैं असत्यवादी हो जाऊँ अथवा घोर नरकमें ही पड़ जाऊँ, किंतु एकादशीके दिन भोजन कैसे करूँगा ?  पुत्र ! यह मोहनी देवी ब्रह्माजीके लोकमें चली जाय, यह मुझसे बार-बार यही कहती है कि मैं पापनाशिनी एकादशीके दिन तुम्हें भोजन करानेके सिवा राज्य, वसुधा और धन आदि दूसरी कोई वस्तु नहीं चाहती । यह जो हमारी दुंदुभी स्वयं गुरुतर होकर गम्भीर नाद करती हुई लोगोंको शिक्षा देती है, वह आज असत्य कैसे हो जाय ?  अभक्ष्यभक्षण, अगम्या स्त्रीके साथ संगम तथा न पीने योग्य मदिरा आदिका पान करके कोई सौ वर्ष क्यों जीयेगा ?  इस चञ्चल कटाक्षवाली मोहिनीके वियोगसे यदि मेरी मृत्यु हो जाय तो वह भी यहाँ अच्छा ही है;  किंतु मैं एकादशीके दिन भोजन नहीं करूँगा । तात ! नरकोंकी जो पड़क्तियाँ मैंने सूनी कर दी हैं, वे मेरे भोजन करते ही पुन: ज्यों-की-त्यों लोगोंसे भर जायेँगी। मेरा रुक्माङ्गद नाम तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है और एकादशीके उपवाससे ही मैंने इस यशका संचय किया है, वहीं अब मैं एकादशीको भोजन करके अपने ही द्वारा फैलाये हुए यशका नाश कैसे कर दूँगा । मोहिनी मर जाय या चली जाय, गिर जाय या नष्ट हो जाय तथापि मेरा मन इसके लिये एकादशीके उपवाससे विरत नहीं हो सकता । स्त्री-पुत्र आदि कुट्म्बीजनोंके साथ मैं अपने शरीरका त्याग कर सकता हूँ, परंतु भगवान मधुसूदनके पुण्यमय दिवस एकादशीको अन्नका सेवन नहीं करूँगा ।

अध्याय १२५ सन्ध्यावली— मोहिनी— संवाद, रानी सन्ध्यावलीका मोहिनीको पतिकी इच्छाके विपरीत चलनेमें दोष बताना

वसिष्ठजी कहते हैंपिताकी बात सुनकर पुत्र धर्माङ्गदने अपनी कल्याणमयी माता संध्यावलीको शीघ्र ही बुलाया । पुत्रके कहनेसे वे उसी क्षण महाराजके समीप आयीं । धर्माङ्गदने उनसे मोहिनी तथा पिताकी भी बातें कह सुनायीं और निवेदन किया- ‘ माँ ! दोनोंकी बातोंपर विचार करके मोहिनीको सान्त्वना दो । यह एकादशीके दिन राजाको भोजन करानेपर तुली हुई है । मेरे पिता जिस प्रकार सत्यसे विचलित न हों और एकादशीकों भोजन भी न करें―ऐसा कोई उपाय निकालो, ऐसा होनेपर ही दोनोंका मङ्गल होगा ।’  राजन्‌ ! पुत्रकी बात सुनकर संध्यावलीदेवी ब्रह्मपुत्रीमोहिनीसे उस समय मधुर वाणीमें बोलीं―’ वामोरु ! आग्रह न करो । एकादशी प्राप्त होनेपर अन्नमात्रमें पापका सम्पर्क हो जाता है, अत: महाराज किसी प्रकार भी उसका आस्वादन नहीं कर सकते । तुम राजाका अनुसरण करो । ये हम लोगोंके सनातन गुरु हैं । जो नारी सदा अपने पतिकी आज्ञाका पालन करती है, उसे सावित्रीके समान अक्षय तथा निर्मल लोक प्राप्त होते हैं । देवि ! यदि इन्होंने पहले मन्दराचलपर कामसे पीड़ित होकर तुम्हें अपना हाथ दिया है तो उस समय इन्होंने योग्यायोग्यका विचार नहीं किया। जो देनेलायक वस्तु है, उसे तो वे दे ही रहे हैं और जो नहीं देनेयोग्य वस्तु है, उसको तुम माँगों भी मत । जो सन्मार्गमें स्थित है उसे यदि विपत्त भी प्राप्त हो तो वह कल्याणमयी ही होती है। सुभगे ! जिन्होंने बचपनमें भी एकादशीके दिन भोजन नहीं किया है, वे इस समय वृद्धावस्थामें भगवान्‌ विष्णुके पुण्यमय दिवसको अन्न कैसे ग्रहण करेंगे ?  तुम इच्छानुसार कोई दूसरा अत्यन्त दुर्लभ वर माँग लो । उसे महाराज अवश्य दे देंगे । उन्हें भोजन करानेके हटसे निवृत्त हो जाओं। देवि ! मैं धर्माङ्गदकी जननी हूँ । यदि तुम मुझे विश्वसनीय मानती हो तो सातों द्वीप, नदी, वन और पर्वतसहित इस सम्पूर्ण राज्यको और मेरे जीवनको भी माँग लो । विशाललोचने ! यद्यपि मैं ज्येष्ठ हूँ तथापि पतिके लिये छोटी सपत्नीकी भी चरण-वन्दना करूँगी । तुम प्रसन्न हो जाओ । जो वचनसे और शपथ-दोषसे पतिको विवश करें उनसे न करने योग्य कार्य करा लेती है, वह पापपरायणा नारी नरकमें निवास करती है । वह भयंकर नरकसे निकलनेके बाद बारह जन्मोंतक शूकरीको योनिमें जन्म लेती है। तत्पश्चात्‌ चाण्डाली होती है । सुन्दरि ! इस प्रकार पापका परिणाम जानकर मैंने तुम्हें सखी-भावसे मना किया है । कमलानने ! धर्मकी इच्छा रखनेवाले मनुष्यको उचित है कि वह शत्रुको भी अच्छी बुद्धि (नेक सलाह) दे; फिर तुम तो मेरी सखीके रूपमें स्थित हो । अतः तुम्हें क्यों न अच्छी सलाह दी जाय ?’

   संध्यावलीकी बात सुनकर मोहकारिणी मोहिनी सुवर्णके समान सुन्दर कान्तिवाली पतिकी ज्येष्ठ प्रियासे उस समय इस प्रकार बोली- ‘ सुभ्रु ! तुम मेरी माननीया हो, मैं तुम्हारी बात मानूँगी । नारदादि विद्वान महर्षियोंने ऐसा ही कहा है । देवि ! यदि राजा एकादशीके दिन भोजन न करें तो उसके बदले एक दूसरा कार्य करें, जो तुम्हारे लिये मृत्युसे अधिक कष्टदायक है । शुभे ! वह कार्य मेरे लिये भी दुःखदायक है तथापि मैं वह बात कहूँगी, जो तुम्हारे प्राण लेनेवाली है । तुम्हारे ही नहीं, पतिदेवके, प्रजावर्गके तथा पुत्रवधुओं के भी प्राण हर लेनेवाली वह बात है । उससे मेरे धर्मका नाश तो होगा ही, मुझे भारी क्लंककी भी प्राप्ति होगी। उस बातको कर दिखाना तो दूर है, मनमें उसे करनेका विचार लाना भी सम्भव नहीं है। यदि तुम मेरे उस वचनका पालन करोगी तो इस संसारमें तुम्हारी बड़ी भारी कीर्ति फैलेगी, पतिदेवको भी यश मिलेगा, तुम्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति होगी, तुम्हारे पुत्रकी सब लोग प्रशंसा करेंगे और मुझे चारों ओरसे धिक्कार मिलेगा ।’

   वसिष्ठजी कहते हैं―राजन्‌ ! मोहिनीको बात सुनकर देवी संध्यावलीने किसी तरह धैर्य धारण किया और उस मोहिनीसे कहा―’ कहो, कहो क्या बात है ?  तुम कैसा वचन बोलोगी, जिससे मुझे दुःख होगा। मुझे अपने पतिके सत्यको रक्षामें कभी कोई दु:ख नहीं हो सकता। स्वामीके हितका साधन करते समय मेरे इस शरीरका अन्त हो जाय, मेरे पुत्रकी मृत्यु हो जाय अथवा सम्पूर्ण राज्यका नाश हो जाय; तथापि मुझे कोई व्यथा नहीं होगी । सुन्दरी ! जिस पत्नीके पति उसके व्यवहारसे दु:खी होते हैं, वह समृद्धिशालिनी हो तो भी उस पापिनीकी अधोगति ही कही गयी है । वह सत्तर युगोंतक ‘ पूय ‘ नामक नरकमें पड़ी रहती है । तत्पश्चात्‌ भारतवर्षमें सात जन्मोंतक छछूंदर होती है । उसके बाद काकयोनिमें जन्म लेती है;  फिर क्रमश: शृगाली, गोधा और गाय होकर शुद्ध होती है । अत: तुम माँगो;  मैं पतिके हितके लिये तुम्हें अवश्य अभीष वस्तु प्रदान करूँगी। वरानने ! मेरा धन, शरीर, मुत्र अथवा अन्य कोई वस्तु जो चाहो माँगो, स्त्रियोंके लिये एकमात्र पतिके सिवा संसारमें दूसरा कौन देवता है ?’

अध्याय १२६ मोहिनीका सन्ध्यावलीसे उसके पुत्रका मस्तक मांगना, सन्ध्यावलीका उसे स्वीकार करते हुय विरोचनकी कथा सुनाना

   वशिष्ठजी कहते हैंसंध्यावलीकी बात सुनकर ! ब्रह्माजीकी पुत्री मोहिनी अपने कार्यसाधनमें तत्पर होकर बोली―’शुभे ! यदि तुम इस प्रकार धर्म और अधर्मकी गति जानती हो और स्वामीके लिये धन तथा जीवनका भी दान करनेको उद्यत हो तो मैं तुमसे उस धनकी याचना करती हूँ, जो तुम्हारे लिये जीवनसे भी अधिक महत्त्व रखता है । तुम्हारे पति रुक्माअंगद यदि एकादशीके दिन भोजन नहीं करेंगे तो वे अपने हाथमें तलवार लेकर धर्माङ्गदके चन्द्रमण्डल-सदृश सुन्दर एवं मुनोहर कुण्डलभूषित मस्तकको, जिसमें अभी मूंछ नही लगी है, काटकर तुरंत मेरी गोदमें गिरा दें ।’

   मोहिनीका वह कड़वे अक्षरोंसे युक्त वचन सुनकर देवी संध्यावली शीतपीड़ित कदलीके समान क्षणभरके लिये काँप उठी । तदनन्तर श्रेष्ठ वर्णवाली महारानी धैर्य धारण कर हँसती हुई सुन्दर मुखवाली मोहिनीसे बोली- ‘ सुभ्रू ! पुराणोंमें द्वादशी  (एकादशी )- के सम्बन्धमें वर्णित कुछ गाथाएँ सुनी जाती हैं, जो स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवाली हैं- धनको त्याग दे, स्त्री, जीवन और घरको भी छोड़ दे, देश, राजा और मित्रको भी त्याग दे; अत्यन्त प्रिय व्यक्तिको भी त्याग दे; परंतु दोनों पक्षोंकी पवित्र द्वादशी ( एकादशी )- का त्याग न करे; क्योंकि पुत्र, भाई, सुहृद और प्रियजन-सब सम्बन्धी यहीं काम देते हैं, किंतु द्वादशी ( एकादशी ) इहलोक और परलोकमें भी अभीष्ट साधन करती है । अत: द्वादशी  ( एकादशी )- के प्रभावसे सब मनल ही होगा । शुभ ! मैं तुम्हारी प्रसन्नताके लिये धर्माङ्गदका मस्तक दिलाऊंगी।   शोभने ! मेरी बातपर विश्वास करो और सुखी हो जाओ । भद्रे ! इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास सुना जाता है, उसे मैं कहती हैं, तुम सावधान होकर सुनो ।

   पूर्वकालमें विरोचन नामसे प्रसिद्ध एक धर्मपरायण दैत्य थे । उनकी पत्नी विशालाक्षी ब्राह्मणपूजनमें तत्पर रहती थी । सुभ्रू ! वह प्रतिदिन प्रातःकाल एक ऋषिको बुलाकर विधिपूर्वक उनकी पूजा करती और प्रसन्नचित्त भक्तिभावसे उनका चरणोदक लेती थी। उन दिनों मारे जानेपर सब देवता प्रह्लादपुत्र विरोचनसे भी सदा शंकित रहते थे। एक दिन वे इन्द्र आदि देवता बृहस्पतिजीकी सलाह लेते हुए बोले―‘ हम लोग शत्रुओंसे बहुत पीड़ित हैं, इस समय हमें क्या करना चाहिये ?’ उनका वह वचन सुनकर देवगुरु बृहस्पतिने कहा―‘ देवताओ ! आज दु:खमें पड़े हुए तुम सब लोगोंको अपना यह कष्ट भगवान् विष्णुसे निवेदन करना चाहिये ।’ अमित-तेजस्वी गुरुका यह भाषण सुनकर सब देवता विरोचनके प्राणनाशका संकल्प लेकर भगवान् विष्णुके समीप गये। वहाँ जाकर उन्होंने अनेक प्रकारके स्तुतियोंसे सुरश्रेष्ठ श्रीहरिका स्तवन किया।

   देवता बोलेदेवताओंके भी अधिदेवता अमित तेजस्वी भगवान् विष्णुको नमस्कार है। भक्तोंके विघ्नका निवारण करनेवाले नरहरिको नमस्कार है। महात्मा वामनको नमस्कार है । वाराहरूपधारी भगवानको नमस्कार है । प्रलयकालीन समुद्रमें निवास करनेवाले मत्स्यरूप माधवको नमस्कार है । पीठपर मन्दराचलको धारण करनेवाले भगवान् कूर्मको नमस्कार है । भृगुनन्दन परशुराम तथा क्षीरसागरशायी भगवान् नारायणको नमस्कार है । सम्पूर्ण जगतके स्वामी श्रीरामको नमस्कार है । विश्वके शासक तथा साक्षीरूप श्रीहरिको नमस्कार है । शुद्ध दत्तात्रेयस्वरूप और दूसरोंकी पीड़ा दूर करनेवाले कपिलरूपधारी भगवानको नमस्कार है । धर्मको धारण करनेवाले सनकादि महात्मा जिनके स्वरूप हैं, उन यज्ञमय भगवानको नमस्कार है । ध्रुवको वरदान देनेवाले नारायणको नमस्कार है । महान् पराक्रमी पृथूको प्रणाम है । विशुद्ध अन्तःकरणवाले ऋषभको और हयग्रीवावतारधारी श्रीहरिको नमस्कार है । आगमस्वरूप भगवान् हंसको नमस्कार है तथा अमृतकलश धारण करनेवाले धन्वन्तरिको नमस्कार है एवं वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध जिनके व्यूहरूप शरीर हैं, उन भगवान् श्रीकृष्णको नमस्कार है । ब्रह्मा, शंकर, स्वामिकार्तिकेय, गणेश, नन्दी और भृङ्गीरूपमें भगवान् विष्णुको नमस्कार है । जो बदरिकाश्रममें नर-नारायणरूपसे गन्धमादन पर्वतपर निवास करते हैं, उन भगवानको नमस्कार है। जो जगदीश्वरपुरीमें जगन्नाथ नाम धारण करते हैं, सेतुबन्धमें रामेश्वर नामसे विख्यात होते हैं तथा द्वारका और वृन्दावनमें श्रीकृष्णरूपसे रहते हैं, उन परमेश्वरको नमस्कार है । जिनकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ है, उन भगवान् विष्णुको नमस्कार है । प्रभो ! आपके चरण, हाथ और नेत्र सभी कमलके समान हैं । आपको नमस्कार है । आप कमला देवीके प्रतिपालक भगवान् केशवको बारम्बार नमस्कार है । सूर्यरूपमें  आपको नमस्कार है । चन्द्रमारूप धारण करनेवाले आपको नमस्कार है । इन्द्रादि लोकपाल आपके स्वरूप हैं, आपको नमस्कार है । प्रजापतिस्वरूप धारण करनेवाले आपको नमस्कार है । सम्पूर्ण प्राणियोंका समुदाय आपका स्वरूप है, आप जीवस्वरूप, तेजोमय, जय, विजयी, नेता, नियम और क्रियारूप हैं, आपको नमस्कार है । निर्गुण निरीह, नीतिज्ञ तथा निष्क्रियरूप आपको नमस्कार है । बुद्ध और कल्कि—ये दोनों आपके सुप्रसिद्ध अवतार-विग्रह हैं, आप ही क्षेत्रज्ञ जीव तथा अक्षर परमात्मा हैं, आपको नमस्कार है । आप गोविन्द, विश्वम्भर, अनन्त, आदिपुरुष, शारंगधनुषधारी, शंखधारी, गदाधर, चक्रसुदर्शनधारी, खड्गहस्त, शूलपाणि, समस्त शस्त्रास्त्रघाती, शरणदाता, वरणीय तथा सबसे परे परमात्मा हैं, आपको नमस्कार है । आप इन्द्रियोंके स्वामी और विश्वमय हैं । यह सम्पूर्ण जगत् आपका स्वरूप है, आपको नमस्कार है । काल आपकी नाभि है, आप कालस्वरूप हैं, चन्द्रमा और सूर्य आपके नेत्र हैं, आपको नमस्कार है । आप सर्वत्र परिपूर्ण, सबके सेव्य तथा परात्पर पुरुष हैं, आपको नमस्कार है । आप इस जगत्‌के कर्ता, भर्ता तथा धर्ता हैं । यमराज भी आपके ही रूप हैं । आप ही सबको मोह और क्षोभमें डालनेवाले हैं । अजन्मा होते हुए भी इच्छानुसार अनेक रूप धारण करते हैं । आप सर्वश्रेष्ठ विद्वान्‌ हैं; आपको नमस्कार है । भगवन्‌ ! हम सब देवता दैत्योंसे सताये हुए हैं और इस समय आपकी शरणमें आये हैं । जगदाधार ! आप ऐसी कृपा कीजिये, जिससे हम स्त्री, पुत्र और मित्र आदिके साथ सुखी होकर रह सकें। दैत्योंसे सताये हुए देवताओंका यह स्तवन सुनकर भगवान विष्णु मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए और उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया । स्नेहपुर्ण हृदय वाला देवदेवेश्वर भगवान विष्णुका दर्शन करके उन देवताओंने विरोचनका शीघ्र वध करनेके लिए उनसे सादर प्रार्थना की । कार्यसिद्धका उपाय जाननेवालोंमें श्रेष्ठ श्रीहरिने इन्द्रादि देवता की आवश्यकता सुनकर उन्हें आश्वासन दिया और उन्हें प्रसन्न करके प्रेमपूर्वक विदा किया । देववर्गके चले जानेपर भगवान् विष्णु देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये वृद्ध ब्राह्मणका रूप धारणकर विरोचनके घर गये और ब्राह्मण-पूजनके समय वहाँ पहुँचे । जो पहले कभी नहीं आये, ऐसे ब्राह्मणको आया देख विशालाक्षी मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुई । उसने भक्तिभावसे उनका सत्कार करके उन्हें बैठनेके लिये आसन दिया । शुभ ! ब्राह्मणने उसके दिये गये हुए आसनको स्वीकार न करके कहा- ‘ देवि ! मैं तुम्हारे दिये हुए इस उत्तम आसनको ग्रहण नहीं करूंगा । मानिनि ! जो मेरे मनोगत कार्यको समझकर उसे पूर्ण करनेकी स्वीकृति दे,  उसीकी पूजा में ग्रहण करूंगा ।’  बूढ़े ब्राह्मणकी यह बात सुनकर बातचीत करनेमें निपुण विशालाक्षी बड़ी प्रसन्न हुई । भगवान् विष्णुकी मायाने उसे मोहित कर लिया था । अपने स्त्री-स्वभावके कारण भी वह इस विषयमें अधिक विचार न कर सकी और बोली ।

   विशालाक्षीने कहाब्रह्मन् ! आपका जो मनोगत कार्य है, उसे मैं पूर्ण करुंगी । मेरा दिया हुआ आसन ग्रहण कीजिये और अपना चरणोदक दीजिये ।

   उसके ऐसा कहनेपर ब्राह्मण बोले‘ मैं स्त्रीकी बातपर विश्वास नहीं करता । यदि तुम्हारे पति यह बात कहें तो मुझे विश्वास हो सकता है । ‘ ब्राह्माणका यह वचन सुनकर विरोचनकी गृहस्वामिनीने वहीं उनके समीप पतिको बुलवाया । दूतके मुखसे सब बात सुनकर प्रह्लादपुत्र विरोचन हर्षभरे हदयसे अन्तःपुरमें आये, जहाँ महारानी विशालाक्षी विराजमान थीं । पतिको आया देख धर्मपरायणा विशालाक्षी उठकर खड़ी हो गयी । उसने उस श्रेष्ठ ब्राह्मणको नमस्कार करके पुनः आसन समर्पित किया । जब उन्होंने आदरपूर्वक दिये हुए उस आसनको ग्रहण नहीं किया, तब उसने अपने पति दैत्यराज विरोचनसे सब हाल कह सुनाया । सब बातें जानकर दैत्यराजने पत्नीके प्रेमसे मुग्ध होकर उस समय ब्राह्मणकी शर्त स्वीकार कर ली । विरोचनके स्वीकार कर लेनेपर ब्राह्मणने प्रसन्नतापूर्वक कहा ‘ मुझे अपनी आयु समर्पित कर दो। ‘  तब वे दोनों पति-पत्नी स्वनिर्मित शोकसे मोहित हो दो घड़ीतक कुछ चिन्तन करते रहे। फिर उन दम्पत्तिने हाथ जोड़कर ब्राह्मणसे कहा- ‘ विप्रवर ! हमारा जीवन ले लीजिये और अपना चरणोदक दीजिये । आपकी कही हुई बात हम सत्य करेंगे । आप प्रसन्न होइये। ‘

   तब ब्राह्मणने प्रसन्नचित्त होकर आसन ग्रहण किया । विशालाक्षीने प्रसन्नतापूर्वक ब्राह्मणके दोनों चरण पखारे और उनका चरणोदक पतिसहित अपने मस्तकपर धारण किया । फिर तो वे दोनों दम्पती सहसा ( दैत्य-शरीर छोड़ ) दिव्यरूप धारण करके श्रेष्ठ विमानपर बैठे और भगवानके वैकुण्ठधाममें चले गये । इस प्रकार देवताओंका कण्टक दूर करके भगवान् अत्यन्त प्रसन्न हुए और सम्पूर्ण देवताओंद्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए वैकुण्ठलोकको चले गये । देवि ! इसी प्रकार मैंने भी जो तुम्हें देनेकी प्रतिज्ञा की है, वह अवश्य दूँगी । देवि ! मैं अपने पति महाराज रुक्माङ्गदको सत्यसे विचलित न होने ढूंगी, क्योंकि सत्य ही मनुष्योंको उत्तम गति देनेवाला बताया गया है। सत्यसे भ्रष्ट हुए मनुष्यको चाण्डालसे भी नीच माना गया है।

अध्याय १२७ रानी संधयावालीका राजाको पुत्र वधके लिय उद्यत करना, राजाका मोहिनीसे अनुनय— विनय, मोहिनीका दुराग्रह तथा धर्मांगदका राजाको अपने वधके लिय प्रेरित करना

वसिष्ठजी कहते हैंभूपते ! तदनन्तर देवी संध्यावलीने पतिके दोनों चरण पकड़कर धर्माङ्गदके विनाशसे सम्बन्ध रखनेवाली बात कही―’ महाराज ! आपकी ही भाँति मैंने भी इसे बहुत समझाया है; किंतु इस मोहरूपा मोहिनीको इस समय दूसरी कोई बात अच्छी ही नहीं लगती । इसका एक ही आग्रह है, एकादशीके दिन राजा भोजन करें अथवा अपने पुत्रका वध कर डालें । नाथ ! धर्म छोड़नेकी अपेक्षा तो पुत्रका वध ही श्रेष्ठ है । राजन् ! गर्भ धारण करनेमें माताको ही अधिक क्लेश सहना पड़ता है और बालकपर उसीका स्नेह भी अधिक होता है। खेद और स्नेह जैसा माताका होता है, वैसा पिताका नहीं हो सकता । राजेन्द्र ! इस भूतलपर पिताको बीजवपन करनेवाला कहा गया है, माता उसको धारण करनेवाली है। अत: उसके पालन-पोषणमें अधिक क्लेश उसीको उठाना पड़ता है। पुत्रपर पितासे सौगुना स्नेह माताका होता है। उसके स्नेहकी अधिकतापर ही दृष्टि रखकर गौरवमें माताको पितासे बड़ी माना गया है, किंतु नृपश्रेष्ठ ! आज मैं माता होकर भी सत्यके पालनसे परलोकको जीतनेकी इच्छा रखकर पुत्रस्नेहको तिलाञ्जलि दे चुकी हु । भूपाल ! स्नेहको दूर करके पुत्रका वध कीजिये । राजन् ! वे आपत्तियाँ भी धन्य हैं, जो सत्यका पालन करानेवाली हैं । सत्यका संरक्षण करानेवाली होनेसे वे मनुष्योंके लिये मोक्षदायिनी हैं । अत: पृथ्वीपते ! संतप्त होनेसे कोई लाभ नहीं, आप सत्यकी रक्षा कीजिये । राजन् ! सत्यके पालनसे भगवान विष्णुका सायुज्य प्राप्त होता है । देवताओंने आपकी परीक्षाके लिये इस मोहिनीको कसौटीके रूपमें उत्पन्न किया है । अतभूपाल ! आप दृढ़ होकर प्रिय पुत्रका वध कीजिये। अपने सत्य-पालनके उद्देश्यसे मोहिनीके वचनकी पूर्ति कीजिये ।’

   वसिष्ठजी कहते हैंराजन् ! पत्नीकी यह बात सुनकर महाराज रुक्माङ्गदने मोहिनीके समीप रानी संध्यावलीसे इस प्रकार कहा―प्रिये ! पुत्रकी हत्या बहुत बड़ी हत्या है। वह ब्रह्महत्यासे भी बढ़कर है । कहाँ-से-कहाँ मैं मन्दराचलपर गया और न जाने कहाँसे यह मोहिनी मुझे वहाँ मिली । देवि ! यह स्त्री नहीं, धर्माङ्गदका नाश करनेके लिये साक्षात् कालप्रिया काली है। धर्माङ्गद धर्म, विनयशील तथा प्रजाको प्रसन्न रखनेवाला है, अभीतक उसे कोई संतान भी नहीं हुई है। ऐसे पुत्रको मारकर मेरी क्या गति होगी ? देवि ! कुपुत्रको भी मारनेसे पिताके मनमें दु:ख होता है, फिर जो धर्मशील गुरुजनोंका सेवक है, उसके मरनेसे कितना दु:ख होगा । वरवर्णिनि ! इस समय तुम्हारे पुत्रके प्रतापसे ही मैंने सातों द्वीपोंके राज्यका उपभोग किया है। अपना यह पुत्र धर्माङ्गद इस पृथ्वीपर सबसे श्रेष्ठ है। मनोहराङ्गी ! वह मेरे समूचे कुलका सम्मान बढ़ानेवाला है। सुन्दरि ! मोहिनी मोहमें डूबकर केवल मुझे दुदे रही है, तुम पुन: शुभ वचनोंद्वारा उसे समझाओ ।’

   अपनी प्रिय पत्नी संध्यावलीसे ऐसा कहकर राजा उस समय मोहिनीसे इस प्रकार बोले― ‘ शुभे ! मैं एकादशीको भोजन नहीं करूंगा और पुत्रकी हत्या भी नहीं कर सकेंगा । अपनेको और संध्यावली देवीको आरेसे चीर सकता हूँ अथवा तुम्हारे कहनेसे कोई और भी भयंकर कर्म कर सकता हूँ। सुभ्रु ! पुत्रके सम्बन्धमें यह दुष्टतापूर्ण आग्रह छोड़ दो । बताओ, पुत्र धर्माङ्गदको मार देनेसे तुम्हें क्या फल मिलेगा ?  मुझे एकादशीको भोजन करा देनेसे तुम्हारा क्या लाभ होगा ? वरानने ! मैं तुम्हारा दास हूँ, सेवक हूँ और सर्वथा तुम्हारे अधीन हूँ । सौभाग्यशालिनि ! मैं तुम्हारी शरणमें आया हूँ । सुन्दरि ! कोई दूसरा वर माँग लो । देवि ! मुझपर कृपा करो। पुत्रकी भिक्षा दे दो । गुणवान्‌ पुत्र दुर्लभ है और एकादशीका व्रत भी दुर्लभ है । इस पृथ्वीपर गंगाजीका जल दुर्लभ है, भगवान्‌ विष्णुका पूजन दुर्लभ है तथा स्मृतियोंका संग्रह भी दुर्लभ है एवं भगवान्‌ विष्णुका स्मरण एवं चिन्तन भी अत्यन्त दुर्लभ है। साधु पुरुषोंका संग दुर्लभ है तथा भगवानकी भक्ति भी दुर्लभ ही बतायी गयी है । वरवर्णिनि ! मृत्युकालमें भगवान्‌ विष्णुका स्मरण भी दुर्लभ ही है, ऐसा समझकर मेरा धर्मरक्षाविषयक वचन स्वीकार करो। मैंने सब विषय भोग लिये, निष्कण्टक राज्य भी कर लिया;  किंतु मेरे पुत्रने तो अभी संसारके विषयोंका सुख देखा ही नहीं, अतः उसकी हत्या कदापि नहीं करूँगा । मोहिनी ! अपने ही हाथसे अपने पुत्रका वध ! ओह ! इससे बढ़कर पाप और क्या होगा ?’

   मोहिनीने कहाराजन्‌ ! मैंने तो पहले ही कह दिया है, एकादशीको भोजन करो और इच्छानुसार बहुत वर्षोतक पृथ्वीका शासन करते रहो । मैं पुत्रका वध नहीं कराऊँगी । एकादशीको तुम्हारे भोजन कर लेनेमात्रसे ही मेरा प्रयोजन सिद्ध हो जायगा । पृथ्वीपते ! तुम्हारे पुत्रकी मृत्युसे मेरा कोई मतलब नहीं है। राजन्‌ ! यदि पुत्र प्रिय है तो एकादशीके दिन भोजन करो । महीपाल ! इस धर्मविरोधी विलापसे क्या लाभ ? मेरी बात और यत्नपूर्वक सत्यकी रक्षा करो।

   राजन ! मोहिनी जब ऐसी बात कह रही थी, उसी समय धर्माङ्गद वहाँ आ गये और मोहिनी की ओर देखकर उसे प्रणाम करके सामने खड़े हो विनीतभावसे बोले―’ भामिनि ! तुम यही लो ( मेरे वधरूपी वरको ही ग्रहण करो ); विषयमें तनिक भी शंका न करो। ‘  ऐसा कहकर, उन्होंने राजाके आगे एक चमकती हुई तलवार रख दी और अपने-आपको भी समर्पित कर दिया । तत्पश्चात्‌ सत्य-धर्ममें स्थित हो पितासे कहा―’ पिताजी ! अब आपको मुझे मारनेमें विलम्ब नहीं करना चाहिये। महाराज ! आपने मेरी माता मोहिनीके समक्ष जो प्रतिज्ञा की है, उसे सत्य कर दिखाइये । आपके हितके लिये मेरा मरना मुझे अक्षय गति देनेवाला है और अपने वचनके पालनसे आपको भी तेजस्वी लोक प्राप्त होंगे । अतः पुत्रके मारे जानेका जो महान्‌ दुःख है, उसको त्यागकर अपने धर्मका पालन कीजिये । इस मर्त्यशरीरका त्याग करनेपर मेरे भावी जीवनका आरम्भ अमर देहमें होगा । वह मेरा दिव्य शरीर सब प्रकारके रोगोंसे रहित होगा । प्रभो ! जो पुत्र पिता अथवा माताके हितके लिये मारे जाते हैं तथा राजन्‌ ! जो गाय, ब्राह्मण,स्त्री, भूमि, राजा, देवता, बालक तथा आर्तजनोंके लिये प्राण त्याग करते हैं, वे अत्यन्त प्रकाशमय लोकोंमें जाते हैं । अत: शोक-संतापसे कोई लाभ नहीं, आप श्रेष्ठ तलवारसे मेरा वध कीजिये । राजेन्द्र ! सत्यका पालन कीजिये और एकादशीको भोजन न कीजिये । मैंने अपने शरीरके वधके लिये जो बात कही है, उसे सत्य कीजिये । महाराज ! आपने मोहिनीको दाहिना हाथ देकर जो वचन दिया है,  उसका पालन न करनेसे असत्यका दोष लगेगा । उस भयंकर असत्य-भाषणके पापसे अपनेको बचाइये ।

अध्याय १२८ राजाको पुत्रवधके लिय उद्यत देख मोहिनी का मूर्छित होना, पत्नी, पुत्र सहित राजारुक्मांगद का भगवान के शरीर में प्रवेश करना

वशिष्ठजी कहते हैं पुत्र का यह वचन सुनकर राजा रुक्माङ्गदने उस समय संध्यावलीके मुखकी और देखा, जो कमल के समान प्रसन्नता से खिल उठा था । फिर मोहिनीकी बात सुनी, जिसमें एकादशीको भोजन करो, पुत्रको न मारो, यदि भोजन न करना हो तो पुत्रका वध करो । यही बार-बार आग्रह किया जा रहा था । नृपश्रेष्ठ ! इसी समय कमलनयन भगवान्‌ विष्णु अदृश्यरूपसे आकाशमें आकर ठहर गये । उनकी अंग-कान्ति मेघके समान श्याम थी । वे स्वभावत: निर्मल―निर्दोष हैं । भगवान्‌ श्रीहरि गरुड़की पीठपर बैठकर वीर धर्माङ्गद, राजा रुक्माङ्गद तथा देवी संध्यावली―तीनोंके धैर्यका अवलोकन कर रहे थे। जब मोहिनीने पुन: ‘ एकादशीके दिन भोजन करो, भोजन करो ‘ की बात दुहरायी, तब राजाने हर्षयुक्त हृदयसे भगवान्‌ गरुडध्वजको प्रणाम करके पुत्र धर्मङ्गदको मारनेके लिये चमचमाती हुई तलवार हाथमें ले ली । पिताको खड्गहस्त देख धर्माङ्गदने माता, पिता तथा भगवान्‌को प्रणाम किया । तदनन्तर माताके उदार मुखपर दृष्टि डालकर राजकुमारने अपनी गरदन धरतीसे सटा ली । धर्माङ्गदने उसे ठीक तलवारकी धारके सामने रखा । वे पिताके भक्त तो थे ही, माताके भी महान्‌ भक्त थे ।

   राजन ! जब पुत्रने चन्द्रमाके समान मनोहर मुखको प्रसन्न रखते हुए अपनी गरदन समर्पित कर दी और सम्पूर्ण जगत्‌के शासक महाराज रुक्मांगदने हाथमे तलवार उठा ली, उस समय वृक्षों और पर्वतोंसहित सम्पूर्ण पृथ्वी काँपने लगी । समुद्रमे ज्वार आ गया, मानो वह तीनों लोकोंको तत्क्षण डुबो देनेके लिये उद्यत हो । पृथ्वीपर सैकडों उल्काएँ गिरने लगीं । आकाशमें बिजली चमक उठी और गड़गड़ाहटकी आवाज होने लगी । मोहिनीका रंग फीका पड़ गया । उसने सोचा, ‘ जगत्स्रष्टा विधाताने इस समय मुझे व्यर्थ ही जन्म दिया ! मेरा यह विमोहक रूप विडम्बनामात्र बनकर रह गया; क्योंकि इससे प्रभावित होकर राजाने पापनाशिनी एकादशीके दिन अन्न नहीं खाया । अब तों स्वर्गलोकमें मैं तिनकेके समान हो जाऊँगी | राजामें सत्त्वगुण एवं धैर्य अधिक होनेसे ये मोक्षमार्गको चले जायँगे, किंतु मैं पापिनी भयंकर नरकमें पड़ूँगी ।’ नृपश्रेष्ठ ! इसी समय महाराज रुक्माङ्गदने तलवार ऊपर उठायी । यह देख मोहिनी मोहसे मूर्च्छित होकर धरतीपर गिर पड़ी । राजा धैर्य और हर्षसे युक्त हो पुत्रका चन्द्रमाके समान प्रकाशमान कुण्डलमण्डित मनोहर मुखयुक्त मस्तक काटना ही चाहते थे कि उसी समय भगवान्‌ श्रीहरिने अपने हाथसे उन्हें पकड़ लिया और कहा―’ राजन्‌ ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ, बहुत प्रसन्न हूँ, अब तुम मेरे वैकुण्ठधामको चलो । अकेले ही नहीं, अपनी प्रिया रानी संध्यावली और पुत्र धर्माङ्गदको भी साथ ले लो । तीनों लोकोंके लिये पूजनीय, निर्मल तथा उज्ज्वल कीर्तिको स्थापना करके यमराजके मस्तकपर पाँव रखकर मेरे शरीरमें मिल जाओ ।’  ऐसा कहकर चक्रधारी भगवान्‌ने राजाको अपने हाथसे छू दिया । भगवान्‌के स्पर्शमात्रसे उनका ( मोहिनीमें आसक्तिरूप ) रजोगुण धुल गया । वे महात्मा नरेश अपनी पत्नी और पुत्रके साथ वेगपूर्वक समीप जा भगवान्‌के दिव्य शरीरमें समा गये। उस समय आकाशसे पुष्पसमूहकी वर्षा होने लगी। हर्षमें भरे हुए सिद्ध तथा देवताओंके लोकपाल दुन्दुभियाँ बजाने लगे, जिनकी आवाज सब ओर गूँज उठी । सूर्यपुत्र यमराजने यह अद्भुत दृश्य अपनी आँखोंसे देखा । राजा उनकी लिपिको मिटाकर अपनी स्त्री और पुत्रके साथ भगवान्‌के शरीरमें समा गये थे और सर्वसाधारण लोग भी राजाके सिखाये हुए मार्गपर स्थित होकर एकादशीका व्रत एवं भगवान्‌का कीर्तन आदि करते हुए वैकुण्ठके ही मार्गपर जाते थे । यह सब देखकर भयभीत हुए यमराज चतुर्मुख ब्रह्माजीके समीप पुन: जाकर बोले—’ सुरलोकनाथ ! अब मैं यमराजके पदपर नियुक्त नहीं होना चाहता, क्योंकि मेरी आज्ञा जगतसे उठ गयी । तात ! मेरे लिये कोई दूसरा कार्य करनेकी आज्ञा प्रदान की जाय। दण्ड देनेका कार्य अब मेरे जिम्मे न रहे ।’

अध्याय १२९ यमराजका ब्रह्माजीसे कष्ट— निवेदन, वर देनेके लिय उद्यत देवताओंको रुक्मांगदके पुरोहितकीफटकार, मोहिनीका ब्राह्मणके शापसे भस्म होना

   यमराज बोलेदवेश्वर ! जगन्नाथ ! चराचरगुरो ! प्रभो ! राजा रुक्मंगदकी चलायी हुई पद्धतिसे सब लोग वैकुण्ठमें ही जा रहे हैं । मेरे पास कोई नहीं आता । पितामहा ! कुमारावस्थासे ही सब मनुष्य एकादशीको उपवास करके पापशून्य हो भगवान्‌ विष्णुके परमधाममें चले जाते हैं । आपकी पुत्री मोहिनीदेवी लज्जावश मूच्छित होकर पड़ी है, अत: आपके पास नहीं आती । सब लोग उसे घिक्कारते हैं, इसलिये वह भोजनतक नहीं कर रही है । मेरा तो सारा व्यापार ही बंद हो गया है । आज्ञा कीजिये, मैं क्या करूँ ?

   सूर्यपुत्र यमकी बात सुनकर कमलासन ब्रह्माजीने कहा—’ हम सब लोग साथ ही मोहिनीको होशमें लानेके लिये चलें ।’ तदनन्तर इन्द्र आदि सब देवता ब्रह्माजीके साथ दिव्य विमानोंपर बैठकर पृथ्वीपर आये । उन्होंने विमानोंद्वारा मोहिनीको सब ओरसे घेर लिया । वह मन्त्रहीन विधि, धर्म और दयासे रहित युद्ध, भूपालरहित पृथ्वी और मन्त्रणारहित राजाको भांति शोचनीय अवस्थामें पड़ी थी । ममत्वयुक्त ज्ञान और दम्भयुक्त धर्मकी जैसी अवस्था होती है, वैसी ही उसको भी थी। देवताओंने उसे सर्वथा तेजोहीन देखा । प्रभो ! वह उत्साहशून्य होकर किसी गम्भीर चिन्तनमें निमग्न थी, सब लोग उसे देखते हुए निन्दायुक्त कटुवचन सुना रहे थे । वह धर्मसे गिर गयी थी। पतिके वचनको उलटकर अपनी बात मनवानेका दुराग्रह रखनेवाली और अत्यन्त क्रोधी थी । उस अवस्थामें उससे देवताओंने कहा—वामोरु ! तुम शोक न करो । तुमने पुरुषार्थ किया है, किंतु जो भगवान्‌ विष्णुके भक्त हैं, उनके मानका कभी खण्डन नहीं हो सकता । इसका एक कारण है, वैशाखमासके शुक्लपक्षमें जो परम पुण्यमयी मोहिनी नामवाली एकादशी आती है, वह सम्पूर्ण विघ्नोका विध्वंस करनेवाली है । राजा रुक्माङ्गदने पहले उस एकादशीका व्रत किया था । विशाललोचने ! उन्होंने एक वर्षतक पादकृच्छव्रत करते हुए उसका पूजन किया था । उसीका यह अनुपम अध्यवसाय ( सामर्थ्य ) है कि वे सत्यसे विचलित न हो सके। लोकमें नारीको समस्त विघ्नोंकी रानी कहा जाता है। तुम्हारे विघ्न डालनेपर भी राजा रुक्माङ्गदने मन, वाणी और क्रियाद्वारा एकादशीको अन्न न खानेका निश्चय करके पुत्रको मारनेका विचार कर लिया और स्नेहको दूरसे ही त्यागकर तलवार उठा ली । इस कसौटीपर कसकर भगवान्‌ मधुसूदनने देख लिया कि ‘ ये प्रिय पुत्रका वध कर डालेंगे, किंतु एकादशीको भोजन नहीं करेंगे ।’  पुत्र, पत्नी तथा राजा तीनोंका विलक्षण भाव देखकर भगवान्‌ बहुत संतुष्ट हुए । तदनन्तर वे सब भगवान्‌में मिल गये । देवि ! सुभगे ! यदि सब प्रकारसे प्रयत्नपूर्वक कर्म करनेपर भी फलकी सिद्धि नहीं हो सकी तो अब इसमें तुम्हारा क्या दोष है ?  इसलिये शुभे ! सब देवता तुम्हें वर देनेके लिये यहाँ आये हैं । सद्भावपूर्वक प्रयत्न करनेवाले पुरुषका कार्य यदि नहीं सिद्ध होता तो भी उसको वेतनमात्र तो दे ही देना चाहिये । नहीं तो उसे संतोष नहीं होगा ।’

   देवताओंके ऐसा कहनेपर सम्पूर्ण विश्वको मोहनेवाली मोहिनी आनन्दशून्य, पतिहीन एवं अत्यन्त दुःखित होकर बोली- ‘ देवेधरो ! मेरे इस जीवनको धिक्कार है, जो मैंने यमलोकके मार्गको मनुष्योंसे भर नहीं दिया, एकादशीके महत्त्वका लोप नहीं किया और राजाको एकादशीके दिन भोजन नहीं करा दिया । वह वीर भूपाल रुक्माङ्गद प्रसन्नतापूर्वक भगवान्‌ श्रीहरिमें मिल गये । जिनके कल्याणमय गुणोंका कोई माप नहीं है, जो स्वभावत निर्मल तथा शुद्ध अन्त:करणवाले संतोंके आश्रय हैं । सर्वव्यापी, हंसस्वरूप, पवित्र पद, परम व्योमरूप, ओंकारमय, सबके कारण, अविनाशी, निराकार, निराभास, प्रपश्नसे परे तथा निरजन ( निर्दोष ) हैं, जो आकाशस्वरूप तथा ध्येय और ध्यानसे रहित हैं,  जिन्हें सत्‌ और असत्‌ कहा गया है, जो न दूर हैं, न निकट हैं, मन जिनको ग्रहण नहीं कर सकता, जो परमधाम-स्वरूप, परम पुरुष एवं जगन्मय हैं, जो सनातन तेज:स्वरूप हैं, उन्हीं भगवान्‌ विष्णुमें राजा रुक्माङ्गद लीन हो गये । देवताओ ! जो भृत्य स्वामीके कार्यकी सिद्धि नहीं करते और वेतन भोगते रहते हैं, वे इस पृथ्वीपर घोड़े होते हैं । आपकी यह मोहिनी तो पति और पुत्रका नाश करनेवाली है । इसके द्वारा कार्यकी सिद्धि भी नहीं हुई है, फिर यह आप स्वर्गवासियोंसे वर कैसे ग्रहण करे ?’

   देवताओंने कहामोहिनी ! तुम्हारे हृदयमें जो अभिलाषा हो उसे कहो, हम अवश्य उसकी पूर्ति करेंगे ।

   महीपते ! जब देवता लोग इस तरहकी बातें कह रहे थे, उसी समय राजा रुक्माङ्गदके पुरोहित जो अग्निके समान तेजस्वी थे, वहाँ आये । वे मुनि पहले जलमें बैठकर योगकी साधनामें तत्पर थे । बारहवाँ वर्ष पूर्ण होनेपर पुन: जलसे निकले थे । जलसे निकलनेपर उन्होंने मोहिनीकी सारी करतूतें सुनीं । इससे क्रोधमें भरकर वे मुनिश्रेष्ठ देवसमुदायके पास आये और मोहिनीको वर देनेवाले सम्पूर्ण देवताओंसे इस प्रकार बोले—’ इस मोहिनीको धिक्कार है, देवसमूहको भी धिक्कार है और इस पापकर्मको धिककार है । आप लोग धिक्कारके पात्र इसलिये हैं कि आप मोहिनीको मनोवांछित वर देनेवाले हैं। इसपर हत्याका पाप सवार है। इसमें नारीजनोचित साधु बर्ताव नहीं रह गया है। यह स्त्री नहीं, राक्षसी है । देवताओ ! यदि यह जलती हुई आगमें कूद पड़े तो भी इस लोकमें इसकी शुद्धि नहीं हो सकती; क्योंकि इसने इस पृथ्वीको राजासे शून्य कर दिया। देवगण ! इस खोटी बुद्धिवाली पापिनीके लिये तो नरकोंमें भी रहनेका अधिकार नहीं है। फिर स्वर्गमें इसकी स्थिति कैसे हो सकती है ?  यह राजाके निकट नहीं जा सकती है। लोकापवादसे यह इतनी दूषित हो चुकी है कि लोकमें कहीं भी इसका रहना सम्भव नहीं है । देवताओ ! जो सदा पापमें ही डूबी रही है और अपने दुष्कर्मोके कारण जिसकी सर्वत्र निन्दा होती है, उस पापिनीके जीवनको धिक्कार है । यह वैष्णवधर्मका लोप करनेवाली तथा भारी पापराशिसे दबी हुई है । देवेश्वरो ! यह तो स्पर्श करने योग्य भी नहीं है, इसे आप लोग वर कैसे दे रहे हैं ? जो लोग न्यायपरायण तथा धर्ममार्गपर चलनेवाले हैं, उन्हींको वर देनेके लिये आपको सदा तत्पर रहना चाहिये । देवता लोग कभी पापीको रक्षा नहीं करते; उन्हें धर्मका आधार माना गया है और धर्मका प्रतिपादन वेदमें किया गया है। वेदोंने पतिकी सेवाको ही स्त्रियोंका धर्म बताया है। पति जो कुछ भी कहे, उसे निःशंक होकर करना चाहिये । इसीको सेवाकर्म जानना चाहिये । केवल शारीरिक सेवाका ही नाम शुश्रूषा नहीं है । देवगण ! इसने अपनी आज्ञा स्थापित करनेकी इच्छासे पतिकी आज्ञाका उल्लंघन किया है, इसलिये मोहिनी सम्पूर्ण स्त्रियोंमें पापिनी है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। इसकी शपथोंसे बँधे हुए राजा रुक्माङ्गदने सत्यकी रक्षाके लिये नाना प्रकारकी अनुनय-विनयभरी बातें कहीं, किंतु इसने उनकी ओरसे अनिच्छा प्रकट कर दी, अत: राजा इसके ऊपर पाप डालकर स्वयं मोक्षको प्राप्त हुए हैं । इसलिये इसपर हजारों हत्याका पाप सवार है । इसका शरीर ही पापमय है । जो सब प्रकारके उत्तम दान देनेवाले, ब्राह्मणभक्त, भगवान्‌ विष्णुके आराधक, प्रजाको प्रसन्न रखनेवाले तथा एकादशी-व्रतके सेवी थे, परायी स्त्रियोंकों प्रति जिनके मनमें आसक्ति नहीं थी, जो विषयोंकी ओरसे विरक्त हो चले थे, परोपकारके लिये सारा भोग त्याग चुके थे और सदा यज्ञानुष्ठानमें लगे रहते थे, इस पृथ्वीपर जो सदा दुष्टोंका दमन करनेमें तत्पर रहते थे और सात प्रकारके भयंकर व्यसनोंने कभी जिनपर आक्रमण नहीं किया, उन्हीं महाराज रुक्माङ्गदको इस जगतसे हटाकर दुराचारिणी मोहिनी वर पानेके योग्य कैसे हो सकती है ?  सुरतश्रेष्ठगण ! जो इस मोहिनीके पक्षमें होगा, वह देवता हो या दानव, मैं उसको भी क्षणभरमें भस्म कर दूँगा । जो मोहिनीकी रक्षाका प्रयत्न करेगा, उसको वही पाप लगेगा, जो मोहिनीमें स्थित है ।’

   राजन्‌ ! ऐसा कहकर उन द्विजेन्द्रने हाथमें तीव्र जल लिया और ब्रह्मपुत्री मोहिनीकी ओर क्रोधपूर्वक देखकर उसके मस्तकपर वह जल डाल दिया । उस जलसे अग्रिके समान लपट उठ रही थी । महीपते ! उस जलके छोड़ते ही मोहिनीका शरीर स्वर्गवासियोंके देखते-देखते तत्काल प्रज्वलित हो उठा,  मानो तिनकोंकी राशिमें आगकी लपटें उठ रही हों। ‘ प्रभो ! अपना कोप रोकिये, रोकिये ।’ यह देवताओंकी वाणी जबतक आकाशमें गूँजी, तबतक तो ब्राह्मणके वचनसे प्रकट हुई अग्रिने उस रमणीको जलाकर राख कर दिया ।

अध्याय १३० मोहिनीकी दुर्दशा, ब्रह्माजीका राज पुरोहितके समीप जाकर उनको प्रसन्न करना, मोहिनीकी याचना

वसिष्ठजी कहते हैंराजन्‌ ! मोहिनी मोहमय शरीर त्यागकर देवताओंके लोकमें गयी। वहाँ देवदूत ( वायुदेव )-ने उसे डाँटा— पापिनी ! तेरा स्वभाव पापमय है। तेरी बुद्धि अत्यन्त खोटी है। तू सदा एकादशी-व्रतके लोपमें संलग्न रही है अत: स्वर्गमें तेरा रहना असम्भव है ।’ इस प्रकार कठोर वचन कहकर वायुदेवने उसे डंडेसे पीटा और यातनामय नरकमें भेज दिया । राजन्‌ ! देवदूत ( वायुदेव )- से इस प्रकार तड़ित होनेपर मोहिनी नरकमें गयी । वहाँ धर्मराजकी आज्ञासे दूतोंने उसे खूब पीटा और दीर्घकालतक क्रमश: सभी नरकोंमें उसे गिराया;  साथ ही उससे यह बात भी कही—’ ओ पापिनी ! तूने पतिके हाथों अपने पुत्र धर्माङ्गदकी हत्या करनेको कहा, अत: अपने किये हुए उस पापकर्मका फल यहाँ अच्छी तरह भोग ले । ‘ नृपश्रेष्ठ ! यमदूतोंके इस प्रकार धिक्कारनेपर यमकी आज्ञाके अनुसार वह क्रमश: सब नरकोंकी यातनाएँ भोगती रही। मोहिनी ब्राह्मणके शापसे मरी थी, अत: उसके शरीरके स्पर्शसे उन नरक-यातनाओंकी अभिमानिनी चेतनशक्तियोंका सारा अंग जलने लगा । वे अधिष्ठात्री देवियाँ उसको धारण करनेमें असमर्थ हो गयीं । राजन्‌ ! तब वे सभी नरक ( नरक अभिमानी देवता ) धर्मराजके समीप आये और हाथ जोड़कर भयभीत हो बोले— देवदेव ! जगन्नाथ ! धर्मराज ! हमपर दया कीजिये और इस मोहिनीको हमारी यातनाओंसे शीघ्र अलग कीजिये, जिससे हमें सुख मिले । नाथ ! इसके शरीरके स्पर्शसे हम क्षणभरमें भस्म हो जायँगे; अत: इसे यहाँसे निकाल बाहर कीजिये ।’ उनकी बात सुनकर धर्मराज बड़े विस्मित हुए और अपने दूतोंसे बोले- ‘ इसे मेरे लोकसे निकाल बाहर करो । जो ब्रह्मशापसे दग्ध हुआ है, वह स्त्री हो, पुरुष हो या चोर ही क्यों न हो, उस पापीका स्पर्श हमारी नरक-यातनाएं भी नहीं करना चाहती हैं । अतः इस पपिनी को, जी पतिके वचनका लोप करनेवाली, पुत्रघातीनि, धर्मनाशिनी तथा ब्रह्मांडसे मारी गई है यहां से जल्दी निकालो ।’

   भूपते ! धर्मराजके ऐसा कहनेपर वह दूत अस्त्र-शस्त्रोंका प्रहार करते हुए मोहिनी को यमलोकसे बाहर कर आये । राजन ! जब मोहयुक्त मोहिनी अत्यंत दुखी होकर पाताललोकमें गयी, किंतु पातालवासियोंने भी उसे रोक दिया । तब मोहिनीने अत्यन्त लज्जित हो अपने पिताके समीप जाकर सारा दुःख निवेदन किया- ‘ तात ! चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिलोकीमें मेरे रहनेके लिये कोई स्थान नहीं है। जहाँ-जहाँ जाती हूँ वहाँ-वहाँ सब लोग मेरी निन्दा और तिरस्कार करते हैं । नाना प्रकारके आयुधोंसे मुझे खूब मारकर लोगोंने अपने स्थानसे बाहर निकाल दिया है । पिताजी ! मैं तो आपकी आज्ञा शिरोधार्य करके ही रुक्माङ्गदके समीप गयी थी और वहाँ ऐसी-ऐसी चेष्टाएँ की, जो सम्पूर्ण लोकोंमें निन्दित हैं । पतिको कष्टमें डाला, पुत्रको तीखी तलवारसे कटवा देना चाहा और संध्यावलीको भी क्षोभमें डाल दिया, इसीसे मेरी यह दशा हुई है । देव ! मुझ पापिनीके लिये अब कहीं कोई सहारा नहीं है । विशेषत: ब्राह्मणके शापसे मुझे अधिक दुःख भोगना पड़ रहा है । पिताजी ! जो ब्राह्मणके शापसे मरे हैं, आगसे जले हैं, चाण्डालके हाथों मारे गये हैं, व्याघ्र-सिंह आदि वन-जन्तुओंद्वारा भक्षण किये गये हैं तथा बिजली गिरनेसे नष्ट हुए हैं, उन सबको मोक्ष देनेवाली केवल गंगा नदी हैं । यदि आप जाकर मुझे शाप देनेवाले उस ब्राह्मणको प्रसन्न कर लें तो मेरी सद्गति हो सकती है ।’

   राजन्‌ ! तब लोकपितामह ब्रह्माजी शिव, इन्द्र, धर्म, सूर्य तथा अग्नि आदि देवेश्वरों और मुनियोंको साथ ले उपर्युक्त बातें कहनेवाली मोहिनीको आगे करके ब्राह्मणके समीप गये । वहाँ जाकर देवता आदिसे घिरे हुए स्वयं ब्रह्माजीने बड़े गौरवसे उन्हें नमस्कार किया । यद्यपि ब्रह्माजी रुद्र आदि देवताओंके लिये भी पूजनीय और माननीय हैं, तथापि मोहिनीके स्नेहके कारण उन्होंने स्वयं ही नमस्कार किया । राजन्‌ ! जब तीनों लोकोंमें असाध्य एवं महान्‌ कार्य प्राप्त हो जाय, तब बड़ेके द्वारा छोटेका अभिवादन दूषित नही माना जाता । वे ब्राह्मण देवता वेद-वेदाड़ोंके पारदर्शी विद्वान और तपस्वी थे लोककर्ता ब्रह्मजीको देवताओंके साथ आया देख ब्राह्मणने उठकर मुनियोंसहित उन सबको प्रणाम किया और आसनपर बिठाकर भक्तिपूर्वक ब्रह्माजीका स्तवन किया,  तब प्रसन्न होकर लोककर्ता जगदगुरु भगवान्‌ ब्रह्माने मोहिनीके लिये उन राजपुरोहित ब्राह्मणसे इस प्रकार प्रार्थना की―’ तात ! आप ब्राह्मण हैं, सदाचारी हैं और परलोकमें उपकार करनेवाले हैं । कृपासिन्धो ! कृपा कीजिये और मोहिनीको उत्तम गति प्रदान कीजिये । ब्रह्मन ! मोहिनी मेरी पुत्री है । मानद ! यमलोकको सूना देखकर रुक्माङ्गदको मोहनेके लिये ( प्रकारान्तरसे उस भक्तका गौरव बढ़ानेके लिये ) मैंने ही उसे भेजा था । धर्मकी गति अत्यन्त सूक्ष्म है । वह सम्पूर्ण लोकका कल्याण करनेवाली है । यह मोहिनी एक कसौटी थी, जिसपर सुवर्णरूपी राजा रुक्माङ्गदकी परीक्षा करके उन्हें स्त्री-पुत्रसहित भगवान्‌के धामको भेज दिया गया है। राजाने अविचल भक्तिसे एकादशी-व्रतका पालन करने और करानेके कारण यमराजकी लिपिको मिटाकर यमपुरीको सूना कर दिया था । ब्रह्मन ! सांख्यवेत्ताको जिसकी प्राप्ति असम्भव है, अष्टानगयोगके साधनसे भी जो मिलनेवाला नहीं है, उस भक्तिगम्य पदकी प्राप्ति राजा, राजकुमार और देवी संध्यावलीको हुई है । मोहिनीने जो उस पुण्यशील भूपशिरोमणिके प्रतिकूल आचरण किया है, उस पापके वेगसे उसकी बड़ी दुर्दशा हुई है । आपके शापसे दग्ध होकर यह राखको ढेरमात्र रह गयी है । इसके द्वारा जो अपकार हुआ है, उसे क्षमा कर दीजिये । दया कीजिये, शान्त होइये ! आपके शाप देनेसे यह अधोगतिमें डाली गयी है। इसपर प्रसन्न होइये और इसे उत्तम गति दीजिये ।’ ब्रह्माजीके द्वारा ऐसा कहे जानेपर उन विप्रशिरोमणिने बुद्धिसि विचार करके क्रोध त्याग दिया और मोहिनीके पिता देवेश्वर श्रीब्रह्माजीसे इस प्रकार कहा– देव ! आपकी पुत्री मोहिनी बहुत पापसे भरी हुई है, अत: प्राणियोंसे परिपूर्ण लोकोंमें उसकी स्थिति नहीं हो सकती । सुरेश्वर ! जिस प्रकार आपका और मेरा भी वचन सत्य हो, देवताओंका कार्य सिद्ध हो और मोहिनीकी आवश्यकता भी पूर्ण हो जाय, वही करना चाहिये । अत: जो भूतसमुदायसे कभी आक्रान्त न हुआ हो, उसी स्थानपर मोहिनी रहे ।’

   नृपश्रेष्ठ ! तब ब्रह्माजीने सम्पूर्ण देवताओंसे सलाह लेकर मोहिनी देवीसे कहा―’ तुम्हारे लिये कहीं स्थान नहीं है ।’ यह सुनकर मोहिनी सम्पूर्ण देवताओंको प्रणाम करके बोली- सुरश्रेष्ठाण ! आप सब देवता सम्पूर्ण लोकके साक्षी हैं । पुरोहितजीके साथ आप लोगोंको सौ-सौ बार प्रणाम करके मैं हाथ जोड़ती हूँ। आप प्रसन्न हदयसे मेरी याचना पूर्ण करें । मुझे वह स्थान दें, जो सबके लिये प्रीतिकारक हो । दूसरोंको मान देनेवाले महात्माओ ! किसी दोषसे दूषित एकादशीका दिन जिस प्रकार मेरा हो जाय, ऐसा कीजिये―यही मेरी याचना है । इसे आप अवश्य पूर्ण कर दें । यह माँग मैंने स्वार्थसिद्धिकि लिये की है ।’

अध्याय १३१ मोहिनीको दशमीके अंतभागमें स्थानकी प्राप्ति तथा उसे पुनः शरीरकी प्राप्ति

देवता बोलेमोहिनी ! निशीथकालमें जिसका दशमीसे वेध हो, वह एकादशी देवताओंका उपकार करनेवाली होती है और सूर्योदयमें दशमीसे वेध होनेपर वह असुरोंके लिये लाभदायक होती है। यह व्यवस्था स्वयं भगवान्‌ विष्णुने की है । त्रयोदशीमें पारण हो तो वह उपवास व्रतका नाश करनेवाला होता है । वैष्णव-शास्त्रमें जो आठ महाद्वादशिया बतायी गयी हैं, वे एकादशीसे भिन्न हैं । वैष्णवलोग उनमें उपवास करते हैं। वैष्णव महात्माओंका एकादशी व्रत भिन्न हैं। दोनों पक्षोंमें वह नित्य बताया गया है । विधिपूर्वक किये जानेपर वह तीन दिनमें पूरा होता है । एकादशीके पहले दिन सायंकालका भोजन छोड़ दे और दूसरे दिन प्रात:कालका भोजन त्याग दे । यदि एकादशी दो दिन हो या प्रथम दिन विद्ध होनेके कारण त्याज्य हो तो दसरे दिन उपवास करना चाहिये । द्वादशीमें उपवास करना उचित है । जो सर्वथा उपवास करनेमें असमर्थ हों, उनके लिये जल, शाक, फल, दूध अथवा भगवान्‌के नैवेद्यको ग्रहण करनेका विधान है;  किंतु वह अपने स्वाभाविक आहारकी मात्राके चौथाई भागके बराबर होना चाहिये । साध्वी ! स्मार्त ( स्मृतियोंके अनुसार चलनेवाले गृहस्थ ) लोग सूर्योदयकालमें दशमीविद्धा एकादशीका त्याग करते हैं, परंतु निष्काम एवं विरक्त वैष्णवजन आधी रातके समय भी दशमीसे विद्ध होनेपर उस एकादशीको त्याग देते हैं । सम्पूर्ण लोकोंमें यह बात विदित है कि दशमी यमराजकी तिथि है । अनघे ! उस दशमीके अन्तिम भागमें तुम्हें निवास करना चाहिये । तुम दशमी तिथिके अन्तिम भागमें स्थित होकर सूर्य और चन्द्रमाकी किरणोंके साथ संचरण करोगी । अब तुम अपने पापका नाश करनेके लिये पृथ्वीपर सब तीर्थोंमें भ्रमण करो । अरुणोदयसे लेकर सूर्योदयतकका जो समय है, उसके भीतर तुम व्रतमें स्थित होकर एकादशीका फल प्राप्त करो । जो कोई मनुष्य तुमसे विद्ध एकादशीका व्रत करता है, वह उस व्रतद्वारा तुम्हें लाभ पहुँचानेवाला होगा । यहाँ अरुणोदयका समय दो मुहूर्ततक जानना चाहिये । रात और दिनके पृथक्-पृथक् पंद्रह मुहूर्त माने गये हैं । दिन और रात्रिकी छोटाई-बड़ाईके अनुसार त्रैराशिककी विधिसे रात या दिनके मुहूर्ताको समझना चाहिये । रात्रिके तेरहवें मुहूर्तके बाद तुम दशमीके अन्त भागमें स्थित होकर उस दिन उपवास करनेवाले लोगोंके पुण्यको प्राप्त कर लोगी । शुचिस्मिते ! यह वर पाकर तुम निश्चिन्त हो जाओ । मोहिनी ! जो व्रत करनेवाले लोग तुमसे विद्ध हुई एकादशीका व्रत यहाँ प्रयत्नपूर्वक करते हैं, उनके उस व्रतसे जो पुण्य होता है, उसका फल तुम भोगो ।

   ब्रह्मा आदि देवताओंद्वारा इस प्रकार आदेश प्राप्त होनेपर मोहिनी बहुत प्रसन्न हुई। अपने पाप दूर करनेके लिये तीर्थ-सेवनकी आज्ञा मिल जानेपर उसने जीवनको कृतार्थ माना । राजन् ! ऐसा सोचकर हर्षमें भरी हुई मोहिनी देवताओं तथा पुरोहितको प्रणाम करके सूर्योदयसे पूर्ववर्ती दशमीके अन्त भागमें स्थित हो गयी । मोहिनीको अपनी तिथिके अन्तमें स्थित देख सूर्यपुत्र यमका मुख प्रसन्नतासे खिल उठा । वे बोले- ‘ चारुलोचने ! तुमने इस लोकमें फिर मेरी अच्छी प्रतिष्ठा कर दी । राजा रुक्माङ्गदके मतवाले हाथीपर रखकर जो नगाड़ा बजाया जाता था, वह तो तुमने बंद करा ही दिया । यह दशमी तिथि यदि सूर्योदयकालका स्पर्श करे तो सदा निन्दित मानी गयी है । यदि दशमीसे उदयकालका स्पर्श न हो तो भी अरुणोदयकालमें रहनेपर वह मनुष्योंको मोहमें डालनेवाली होगी । उस दशमीको त्याग करके व्रत करनेपर मनुष्यको प्रिय वस्तुओंका संयोग एवं भोग प्राप्त होता है ।’  ऐसा कहकर सुर्यपुत्र यम प्रसन्नतापूर्वक ब्रह्मकुमारी मोहिनीको प्रणाम करके देवताओंके साथ अपने चित्रगुसका हाथ पकड़े हुए स्वर्गलोकको चले गये । देवताओंकि चले जानेपर मोहिनी ब्रह्माजीसे बोली―’ पिताजी ! मेरे इन पुरोहितने क्रोधपूर्वक मेरे शरीरको जला दिया है । मैं पुन: उसे प्राप्त कर लूँ― ऐसा प्रयत्न कीजिये ।’

   मोहिनीका यह वचन सुनकर लोकस्रष्टा ब्रह्माजी पुत्रीके हितके लिये ब्राह्मणदेवताको पुन: शान्त करते हुए बोले―’ तात ! वसो ! मेरी बात सुनो । महाभाग ! मैं तुम्हारे, इस मोहिनीके तथा सम्पूर्ण लोकोंके हितके लिये हितकारक वचन कहता हूँ । मानद ! तुमने क्रोधवश मोहिनीको भस्मावशेष कर दिया है । अब यह पुन: अपने लिये शरीरकी याचना करती है, अत: आज्ञा दो । तात ! मेरी पुत्री और तुम्हारी यजमान होकर यह दुर्गतिमें पड़ी है । तुम्हारा और मेरा कर्तव्य है कि इसका पालन करें । मानद ! यदि तुम शुद्ध भावसे मुझे आज्ञा दो तो मैं इसके लिये पुनः नूतन शरीर उत्पन्न कर दूँगा, किंतु यह एकादशीसे वैर रखनेवाली होनेके कारण पापाचारिणी है । विप्रवर ! जिस प्रकार यह पापसे शीघ्र शुद्ध हो सके, वही उपाय कीजिये।’  ब्रह्माजीका यह कथन सुनकर राजपुरोहितने अपनी यजमानपत्नीके शरीरकी प्राप्तिके लिये प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा दे दी । ब्राह्मणका अनुमोदक वचन सुनकर लोकपितामह ब्रह्माने मोहिनीके शरीरकी राखको कमण्डलुके जलसे सींच दिया । लोककर्ता ब्रह्माके सींचते ही मोहिनी पूर्ववत्‌ शरीरसे सम्पन्न हो गयी । उसने अपने पिता ब्रह्माजीको प्रणाम करके विनयसे नतमस्तक हो पुरोहित वसुके दोनों पैर पकड़ लिये । इससे राजपुरोहित वसु प्रसन्न हो गये । उन्होंने पति और पुत्रसे रहित संकटमें पड़ी हुई विधवा यजमानपत्नी मोहिनीसे इस प्रकार कहा । वसु बोले―देवि ! मैंने ब्रह्माजीके कहनेसे क्रोध त्याग दिया । अब तीर्थ-स्रानादि पुण्य-कर्मसे तुम्हारी सदगति कराऊँगा ।

   मोहिनीसे ऐसा कहकर ब्राह्मणने उसके पिता जगत्पति ब्रह्माजीको नमस्कार करके प्रसन्नतापूर्वक विदा किया । तब ब्रह्माजी अपने लोकको चलें गये, जो परम ज्योतिर्मय है । रुक्माङ्गदके पुरोहित विप्रवर वसु मोहिनीको कृपाके योग्य मानकर मन-ही-मन उसकी सद्गतिका उपाय सोचन लगे । दो घड़ीतक ध्यानमें स्थित होकर उन्होंने उसकी सदगतिका उपाय जान लिया ।

अध्याय १३२ मोहिनी-वसु-संवाद-गंगाजीके माहात्म्यका वर्णन

वसिष्ठजी कहते हैंनृपश्रेष्ठ ! सम्पूर्ण लोकोके हितमें तत्पर रहनेवाले पुरोहित वसु यजमान पत्नीमोहिनीसे मधुर वाणीमें बोले ।

   पुरोहित वसुने कहामोहिनी ! सुनो, मैं तुम्हें तीर्थोंके पृथक-पृथक लक्षण बतलाता हूँ । जिसके जान लेनेमात्रसे पापियोंकी उत्तम गति होती है । पृथ्वीपर सब तीर्थोंमें श्रेष्ठ गंगा हैं । गंगाके समान पापनाशक तीर्थ दूसरा कोई नहीं है।

   अपने पुरोहित वसुका यह वचन सुनकर मोहिनीके मनमें गंगा-स्नानके प्रति आदर बढ़ गया । वह पुरोहितजीकों प्रणाम करके बोली ।

   मोहिनीने कहाभगवन्‌ ! सम्पूर्ण पुराणोंकी सम्मतिके अनुसार इस समय गँगाजीका उत्तम माहात्म्य बताइये । पहले गंगाजीके अनुपम तथा पापनाशक माहात्म्यको सुनकर फिर आपके साथ पापनाशिनी गंगाजीमें स्नान करनेके लिये चलूंगी । वसु सब पुराणोंके ज्ञाता थे । उन्होंने मोहिनीका वचन सुनकर गंगाजीके पापनाशक का इस प्रकार वर्णन किया ।

   पुरोहित वसु बोले―देवि ! वे देश, वे जनपद वे पर्वत और वे आश्रम भी धन्य हैं, जिनके समीप सदा पुण्यसलिला भगवती भागीरथी बहती रहती हैं । जीव गंगाजीका सेवन करके जिस गतिकों पाता है, उसे तपस्या, ब्रह्मचर्य यज्ञ अथवा त्यागके द्वारा भी नहीं पा सकता । जो मनुष्य पहली अवस्थामें पापकर्म करके अन्तिम अवस्थामें गंगाजीका सेवन करते हैं, वे भी परम गतिको प्राप्त होते हैं । इस संसारमें दुःखसे व्याकुल जो जीव उत्तम गतिकी खोजमें लगे हैं, उन सबके लिये गंगाके समान दूसरी कोई गति नहीं है। गंगाजी बड़े-बड़े भयंकर पातकोंके कारण अपवित्र नरकमें गिरनेवाले नराधम पापियोंको जबरन तार देती हैं । गंगा देवी अंधों, जड़ों तथा द्रव्यहीनोको भी पवित्र बनाती हैं । मोहिनी ! ( विशेषरूपसे ) पक्षोके आदि अर्थात्‌ कृष्णपक्षमें षष्ठीसे लेकर पुण्यमयी अमावास्यातक दस दिन गंगाजी इस पृथ्वीपर निवास करती हैं । शुक्लपक्षकी प्रतिपदासे लेकर दस दिनतक वे स्वयं ही पतालमे निवास करती हैं । फिर शुक्लपक्षकी एकादशीसे कृष्ण-पक्षको पश्चनमीतक जो दस दिन होते है, उनमे गँगाजी सदा स्वर्गमें रहती है । [ इसलिए इन्हें ‘ त्रिपथगा ‘ कहते हैं ] सत्ययुगमें सब तीर्थ उत्तम हैं । त्रेतामें पुष्कर तीर्थ सर्वोत्तम है, द्वापरमें कुरुक्षेत्रकी विशेष महिमा है और कलियुगमें गंगा ही सबसे बढ़कर है । कलियुगमें सब तीर्थ स्वभावत: अपनी-अपनी शक्तिको गंगाजीमें छोड़ते हैं, परंतु गंगादेवी अपनी शक्तिको कहीं नही छोड़तीं । गंगाजीके जलकणोंसे परिपुष्ट हुई वायुके स्पर्शसे भी पापाचारी मनुष्य भी परम गतिको प्राप्त होते हैं । जो सर्वत्र व्यापक हैं, जिनका स्वरूप चिन्मय है, वे जनार्दन भगवान् विष्णु ही द्रवरूपसे गंगाजीके जल हैं, इसमें संशय नहीं है । महापातकी गंगाजीके जलमें स्नान करनेसे पवित्र हो जाते हैं, इस विषयमें अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये । गंगाजीका जल अपने क्षेत्रमें हो या निकालकर लाया गया हो, ठंडा हो या गरम हो, वह सेवन करनेपर आमरण किये हुए पापोंको हर लेता है । बासी जल और बासी दल त्याग देने योग्य माना गया है, परंतु गंगाजल और तुलसीदल बासी होनेपर भी त्याज्य नहीं है । मेरुके सुवर्णकी, सब प्रकारके रत्नोंकी, वहाँके प्रस्तर और जलके एक-एक कणकी गणना हो सकती है, परंतु गंगाजलके गुणोंका परिमाण बतानेकी शक्ति किसीमें भी नहीं है । जो मनुष्य तीर्थयात्राकी पूरी विधि न कर सके वह भी केवल गंगाजलके माहात्म्यसे यहाँ उत्तम फलका भागी होता है । गंगाजीके जलसे एक भक्तिपूर्वक बार कुल्ला कर लेनेपर मनुष्य स्वर्गमें जाता और वहाँ कामधेनुके थनोंसे प्रकट हुए दिव्य रसोंका आस्वादन करता है । जो शालग्राम शिलापर गंगाजल डालता है, वह पापरूपी तीव्र अन्धकारको मिटाकर उदयकालीन सूर्यकी भाँति पुण्यसे प्रकाशित होता है । जो पुरुष मन, वाणी और शरीरद्वारा किये हुए अनेक प्रकारके पापोंसे ग्रस्त हो, वह भी गंगाका दर्शन करके पवित्र हो जाता है; इसमें संशय नहीं है । जो सदा गंगाजीके जलसे सींचकर पवित्र की हुई भिक्षा भोजन करता है, वह केंचुलका त्याग करनेवाले सर्पकी भाँति पापसे शून्य हो जाता है । हिमालय और विन्ध्यके समान पापराशियाँ भी गंगाजीके जलसे उसी प्रकार नष्ट हो जाती हैं, जिस प्रकार भगवान् विष्णुकी भक्तिसे सब प्रकारकी आपत्तियाँ । गंगाजीमें भक्तिपूर्वक स्नानके लिये प्रवेश करनेपर मनुष्योंके ब्रह्महत्या आदि पाप ‘ हाय-हाय ‘ करके भाग जाते हैं । जो प्रतिदिन गंगाजी के तटपर रहता और सदा गंगाजीका जल पीता है, वह पुरुष पूर्वसंचित पातकोंसे मुक्त हो जाता है । जो गंगाजीका आश्रय लेकर नित्य निर्भय रहता है, वही देवताओंऋषियों और मनुष्योंके लिये पूजनीय है । प्रभासतीर्थमें सूर्यग्रहणके समय सहस्त्र गोदान करनेसे जो फल पाता है, वह गंगाजीके तटपर एक दिन रहनेसे ही मिल जाता है । जो अन्य सारे उपायोंको छोड़कर मोक्षकी कामना लिये दृढ़निश्चयके साथ गंगाजीके तटपर सुखपूर्वक रहता है, वह अवश्य ही मोक्षका भागी होता है, विशेषत: काशीपुरीमें गंगाजी तत्काल मोक्ष देनेवाली हैं । यदि जीवनभर प्रतिमासकी चतुर्दशी और अष्टमी तिथिको सदा गंगाजीके तटपर निवास किया जाय तो वह उत्तम सिद्धि देनेवाला है । मनुष्य सदा कृच्छ और चान्द्रायण करके सुखपूर्वक जिस फलका अनुभव करता है, वही उसे गंगाजीके तटपर निवास करनेमात्रसे मिल जाता है । ब्रह्मपुत्री ! इस लोकमें गंगाजीकी सेवामें तत्पर रहनेवाले मनुष्यको आधे दिनके सेवनसे जो फल प्राप्त होता है, वह सैकडों यज्ञोंद्वारा भी नहीं मिल सकता । सम्पूर्ण यज्ञ, तप, दान, योग तथा स्वाध्याय-कर्मसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, वही भक्तिभावसे गंगाजीके तटपर निवास करनेमात्रसे मिल जाता है । सत्य-भाषण, नैष्ठिक करनेमात्रसे मिल जाता है । सत्य-भाषणनैष्ठिक ब्रह्मचर्यका पालन तथा अग्निहोत्रके सेवनसे मनुष्योंको जो पुण्य प्राप्त होता है, वह गंगातटपर निवास करनेसे ही मिल जाता है । गंगाजीके भक्तको संतोष, उत्तम ऐश्वर्य, तत्त्वज्ञान, सुखस्वरूपता तथा विनय एवं सदाचार-सम्पत्ति प्राप्त होती है । मनुष्य केवल गंगाजीको ही पाकर कृतकृत्य हो जाता है । जो भक्तिभावसे गंगाजीके जलका स्पर्श करता और गंगाजल पीता है, वह मनुष्य अनायास ही मोक्षका उपाय प्राप्त कर लेता है । जिनके सम्पूर्ण कृत्य सदा गंगाजलसे ही सम्पन्न होते हैं, वे मनुष्य शरीर त्यागकर भगवान् शिवके समीप आनन्दका अनुभव करते हैं । जैसे इन्द्र आदि देवता अपने मुखसे चन्द्रमाकी किरणोंमें स्थित अमृतका पान करते हैं, उसी प्रकार मनुष्य गंगाजीका जल पीते हैं । विधिपूर्वक कन्यादान और भक्तिपूर्वक भूमिदान, अन्नदान गोदान, स्वर्णदान, रथदान, अश्वदान और गजदान आदि करनेसे जो पुण्य बताया गया है, उससे सौ गुना अधिक पुण्य चुल्लूभर गंगाजल पीनेसे होता है । सहस्रों चान्द्रायणव्रतका । जो फल कहा गया है, उससे अधिक फल गंगाजल पीनेसे मिलता है । चुल्लूभर गंगाजल पीनेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है । जो इच्छानुसार गंगाजीका पानी पीता है, उसकी मुक्ति हाथमें ही है । सरस्वती नदीका जल तीन महीनेमें, यमुनाजीका जल सात महीनेमें, नर्मदाजीका जल दस महीनेमें तथा गंगाजीका जल एक वर्षमें पचता है । अर्थात् शरीरमें उसका प्रभाव विद्यमान रहता है । जो देहधारी मनुष्य कहीं अज्ञात स्थानमें मर गये और उनके लिये शास्त्रीय विधिसे तर्पण नहीं किया गया, ऐसे लोगोंको गंगाजीके जलसे उनकी हड्डियोंका संयोग होनेपर परलोकमें उत्तम फलकी प्राप्ति होती है । जो शरीरकी शुद्धि करनेवाले चान्द्रायणव्रतका एक सहस्त्र बार अनुष्ठान कर चुका है और जो केवल इच्छानुसार गंगा-जल पीता है, वही पहलेवालेसे बढ़कर है । जो गंगाजीका दर्शन और स्तुति करता है, जो भक्तिपूर्वक गंगामें नहाता और गंगाका ही जल पीता है, वह स्वर्ग, निर्मल ज्ञान, योग तथा मोक्ष सब कुछ पा लेता है ।

अध्याय १३३ गंगाजीके दर्शन, स्मरण तथा उनके जलमें स्नान करनेका महत्व

पुरोहित वसु कहते हैंमोहिनी ! सुनो, अब मैं गंगाजीके दर्शनका फल बतलाता हूँ, जिसका वर्णन तत्त्वदर्शी मुनियोंने पुराणोंमें किया है । ज्ञान, अनुपम ऐश्वर्य, प्रतिष्ठा, आयु, यश तथा शुभ आश्रमोंकी प्राप्ति गंगाजीके दर्शनका फल है । गंगाजीके दर्शनमात्रसे सम्पूर्ण इन्द्रियोंको चञ्चलता, दुर्व्यसन, पातक तथा निर्दयता आदि दोष नष्ट हो जाते हैं । दूसरोंकी हिंसा, कुटिलता, परदोष आदिका दर्शन तथा मनुष्योंके दम्भ आदि दोष गंगाजीके दर्शनमात्रसे दूर हो जाते हैं । मनुष्य यदि अविनाशी सनातन पदको प्राप्ति करना चाहता है तो वह भक्तिपूर्वक बार-बार गंगाजीकी ओर देखे और बार-बार उनके जलका स्पर्श करे । अन्यत्र बावड़ी, कुआँ और तालाब आदि बनवाने, पौंसले चलाने तथा अन्नसत्र आदिको व्यवस्था करनेसे जो पुण्य होता है, वह गंगाजीके दर्शनमात्रसे मिल जाता है । परमात्माके दर्शनसे मानवोंको जो फल प्राप्त होता है, वह भक्तिभावसे गंगाजीका दर्शनमात्र करनेसे सुलभ हो जाता है । नैमिषारण्य, कुरक्षेत्र नर्मदा तथा पुष्करतीर्थमें स्नान, स्पर्श और सेवन करके मनुष्य जिस फलको पाता है, वह कलियुगमें गंगाजीके दर्शनमात्रसे प्राप्त हो जाता है- ऐसा महर्षियोंका कथन है ।

   राजपत्नी ! जो अशुभ कर्मोसे युक्त हो संसारसमुद्रमें डूब रहे हों और नरकमें गिरनेवाले हों, उनके द्वारा यदि गंगाजीका स्मरण कर लिया जाय तो वह दूरसे ही उनका उद्धार कर देती है । चलते, खड़े होते, सोते, ध्यान करते, जागते, खाते और हँसते-रोते समय जो निरन्तर गंगाजीका स्मरण करता है, वह बन्धनसे मुक्त हो जाता है । जो सहस्रों योजन दूरसे भी भक्तिपूर्वक गंगाका स्मरण करते हैं तथा ‘ गंगा-गंगा ‘ की रट लगाते हैं, वे भी पातकसे मुक्त हो जाते हैं । विचित्र भवन, विचित्र आभूषणोंसे विभूषित स्त्रियां, आरोग्य और धन-सम्पत्ति-ये गंगाजीके स्मरणजनित पुण्यके फल हैं । मनुष्य गंगाजीके नामकीर्तनसे पापमुक्त होता है और दर्शनसे कल्याणका भागी होता है । गंगामें स्नान और जलपान करके वह अपनी सात पीढ़ियोंको पवित्र कर देता है । जो अश्रद्धासे भी पुण्यवाहिनी गंगाका नामकीर्तन करता है, वह भी स्वर्गलोकका भागी होता है।

   देवि ! अब मैं गंगाजीके जलमें स्नानका फल बतलाता हूँ । जो गंगाजीके जलमें स्नान करता है, उसका सारा पाप तत्काल नष्ट हो जाता है और मोहिनी ! उसे उसी क्षण अपूर्व पुण्यकी प्राप्ति होती है । गंगाजीके पवित्र जलसे स्नान करके शुद्धचित्त हुए पुरुषोंको जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह सैकड़ों यज्ञोंके अनुष्ठानसे भी सुलभ नहीं है । जैसे सूर्य उदयकालमें घने अन्धकारका नारी करके प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार गंगाजलसे अभिषिक्त हुआ पुरुष पापराशिका नाश करके प्रकाशमान होता है । गंगामें स्नान करनेमात्रसे मनुष्यके अनेक जन्मोंका पाप नष्ट हो जाता है और वह तत्काल पुण्यका भागी होता है । सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान करनेसे और समस्त इष्टदेव-मन्दिरोंमें पूजा करनेसे जो पुण्य होता है, वही केवल गंगास्नानसे मनुष्य प्राप्त कर लेता है । कोई महापातकोंसे युक्त हो या सम्पूर्ण पातकोंसे, विधिपूर्वक गंगास्नान करनेसे वह सभी पातकोंसे मुक्त हो जाता है । गंगास्नानसे बढ़कर दूसरा कोई स्नान न हुआ है, न होगा । विशेषत: कलियुगमें गंगादेवी सब पाप हर लेती हैं । जो मानव नित्य-निरन्तर गंगामें स्नान करता है, वह यही जीवन्मुक्त हो जाता है और मरनेपर भगवान विष्णुके धाममें जाता है । गंगामें मध्यकालमें स्नान करनेसे प्रातःकालकी अपेक्षा दस गुना पुण्य होता है, सायकालमें सौ गुना तथा भगवान शिवके समीप अनंतगुना पुण्य होता है । करोड़ों कपिला गोआका दान करनेसे भी गंगास्नान बढ़कर है । गंगामें जहां कहीं भी स्नान किया जाय, कुरुक्षेत्रके समान पुण्य देनेवाली है; किंतु हरिद्वार, प्रयाग तथा गंगासागर-संगममें अधिक फल देनेवाली होती है । भगवान्‌ सूर्य गंगाजीसे कहते हैं कि ‘ हे जाह्नवी ! जो लोग मेरी किरणोंसे तपे हुए तुम्हारे जलमें स्नान करते हैं, वे मेरा मण्डल भेदकर मोक्षको प्राप्त होते हैं। वरुणने भी गंगासे कहा है कि ‘ जो मनुष्य अपने घरमें रहकर भी स्नानकालमें तुम्हारे नामका कीर्तन करेगा, वह भी वैकुण्ठलोकमें चला जायगा ।’

अध्याय १३४ कालविशेष और स्थल विशेषमें गंगास्नानकी महिमा

पुरोहित वसु कहते हैंवामोरु ! अब मैं कालविशेषमें किये जानेवाले गंगा-स्नानका फल बतलाऊँगा । जो मनुष्य माघ मासमें निरन्तर गंगा-स्नान करता है, वह दीर्घकालतक अपने समस्त कुलके साथ इन्द्रलोकमें निवास करता है । तदनन्तर दस लाख करोड़ कल्पोंतक ब्रहमलोकमें जाकर रहता है । सम्पूर्ण संक्रान्तियोंमें जो मनुष्य गंगाजीके जलमें स्नान करता है, वह सूर्यके समान तेजस्वी विमानद्वारा वैकुण्ठधामको जाता है । विषुव योगमें उत्तरायण या दक्षिणायन आरम्भ होनेके दिन तथा संक्रान्तिकि समय विशेषरूपसे उसका फल बताया गया है । माघके ही समान कार्तिकमें भी गंगा-स्नानका महान फल माना गया है । मोहिनी ! जब सूर्य मेष राशिमें प्रवेश करते हैं, उस समय तथा कार्तिक-पूर्णिमाको गंगा-स्नान करनेसे ब्रह्मा आदि देवताओंने माघस्नानकी अपेक्षा अधिक पुण्य बताया है । कार्तिक अथवा वैशाखमें अक्षयतृतीया तिथिको गंगा-स्नान करनेसे एक वर्षतक स्नान करनेका पुण्यफल प्राप्त होता है । मन्वादि और युगादि तिथियोंमें गंगा-स्नानका जो फल बताया गया है, तीन मासके निरन्तर स्नानसे भी वही फल प्राप्त होता है । द्वादशीको श्रवण, अष्टमीको पुष्य और चतुर्दशीको आर्द्रा नक्षत्रका योग होनेपर गंगा-स्नान अत्यन्त दुर्लभ है । वैशाख, कार्तिक और माघकी पूर्णिमा और अमावास्या बड़ी पवित्र मानी गयी हैं । इनमें गंगा-स्नानका सुयोग अत्यन्त दुर्लभ है । कृष्णाष्टमी ( भाद्रपद कृष्णा अष्टमी )- को गंगा-स्नान करनेसे ( साधारण तिथिके स्तरानकी अपेक्षा ) सहस्त्रगुना फल होता है । सभी पर्वोंमें सौगुना पुण्य प्राप्त होता है । माघ कृष्णा अष्टमी तथा अमावास्याको भी गंगा-स्नानसे सौगुना पुण्य होता है । उक्त दोनों तिथियोंको सूर्यके आधा उदय होनेपर ‘ अर्धोदय ‘ योग होता है और आधासे कुछ कम उदय होनेपर ‘ महोदय ‘ कहा गया है । महोदयमें गंगा स्रान करनेसे सौगुना और अर्धोदयमें लाखगुन पुण्य बताया गया है । देवि ! फाल्गुन और आधा मासमें तथा सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहणके समय किया हुआ गंगा-स्नान तीन मासके स्नानका फल देनेवाला है। अपने जन्मके नक्षत्रमें ! भक्तिभावसे गंगा-स्नान करनेपर आजन्म संचित पापोंका नाश हो जाता है । माघ कृष्णा चतुर्दशीको व्यतीपातयोग तथा कृष्णाष्टमी ( भाद्रपद कृष्णा अष्टमी )-को विशेषत: वैधृतियोग गंगा-स्नान लिये दुर्लभ है । जो मनुष्य पूरे माघभर विधिपूर्वक अरुणोदयकालमें गंगा-स्नान करता है, वह जातिस्मर ( पूर्वजन्मकी बातोंको स्मरण रखनेवाला ) होता है। इतना ही नहीं, वह सम्पूर्ण शास्त्रोंका अर्थवेत्ता, ज्ञानी तथा नीरोग भी अवश्य होता है। संक्रान्तिमें, दोनों पक्षोंकी अन्तिम तिथिको तथा चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहणमें इच्छानुसार गंगा-स्नान करनेवाला मानव ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है । चन्द्रग्रहणका स्नान लाखगुना बताया गया है और सूर्यग्रहणका स्नान उससे भी दस गुना अधिक माना गया है । वारुण-नक्षत्र ( शतभिषा )- से युक्त चैत्र कृष्णा त्रयोदशी यदि गंगा-तटपर सुलभ हो जाय तो वह सौ सूर्यग्रहणके समान पुण्य देनेवाली है । ज्येष्ठ मासके शुक्लपक्षमें दशमी तिथिको मंगलवार तथा हस्त नक्षत्रके योगमें भगवती भागीरथी हिमालयसे इस मर्त्यलोकमें उतरी थीं । इस तिथिको वह आद्यगंगा-स्नान करनेपर दसगुना पाप हर लेती हैं और अश्वमेधयज्ञका सौगुना पुण्य प्रदान करती हैं । ‘ हे जाह्नवी ! मेरे जो महापातक-समुदायरूप पाप हैं, उन सबको तुम गोविन्द-द्वादशीके दिन स्नान करनेसे नष्ट कर दो ।’ यदि माघकी पूर्णिमाको मघा नक्षत्र या बृहस्पतिका योग हो तो उक्त तिथिका महत्त्व बहुत बढ़ जाता है । यदि यह योग गंगाजीमें सुलभ हो तब तो सौ सूर्यग्रहणके समान पुण्य होता है।

   अब देशविशेषके योगसे गंगा-स्नानका फल बतलाया जाता है । गंगाजीमें जहाँ-कहीं भी स्नान किया जाय, वह कुरुक्षेत्रसे दसगुना पुण्य देनेवाली है; किंतु जहाँ वे विन्ध्याचल पर्वतसे संयुक्त होती हैं, वहाँ कुरुक्षेत्रकी अपेक्षा सौगुना पुण्य होता है । काशीपुरीमें गंगाजीका माहात्म्य विन्ध्याचलक अपेक्षा सौगुना बताया गया है । यों तो गंगाजी सर्वत्र ही दुर्लभ हैं, किंतु गंगाद्वार, प्रयाग और गंगासागर-संगम―इन तीन स्थानोंमें उनका माहात्म्य बहुत अधिक है । गंगाद्वारमें कुशावर्ततीर्थके भीतर स्नान करनेसे सात राजसूय और दो अश्वमेध- यज्ञोंका फल मिलता है। उस तीर्थमें पंद्रह दिन निवास करनेसे छ: विश्वजित्‌ यज्ञोंका फल प्राप्त होता है। साथ ही विद्वानोंने वहाँ रहनेसे एक लाख गोदानका पुण्य बताया है। कुशावर्तमें भगवान्‌ गोविन्दका और कनखलमें भगवान्‌ रुद्रका दर्शन-पूजन करनेसे अथवा इन स्थानोंमें गंगा-स्नान करनेसे अक्षय पुण्यकी प्राप्ति होती है । जहाँ पूर्वकालमें वाराहरूपधारी भगवान्‌ विष्णु प्रकट हुए थे, वहाँ स्नान करके मनुष्य सौ अग्निहोत्रका, दो ज्योतिष्टोम यज्ञका और एक हजार ज्योतिष्टोम यज्ञोंका और तीन अश्वमेध-यज्ञों का पुण्य प्राप्त करता है । मोहिनी ! कुब्ज नामसे प्रसिद्ध जो पापनाशक तीर्थ है, वहाँ स्नान करनेसे सम्पूर्ण रोग और सब जन्मोंके पातक नष्ट हो जाते हैं । हरिद्वारक्षेत्रमें ही एक दुसरा तीर्थ है, जो कापिलतीर्थके नामसे प्रसिद्ध है । शुभे ! उसमें स्नान करनेवाला मानव अस्सी हजार कपिला गौओंके दानके समान पुण्य-फल पाता है । गंगाद्वार, कुशावर्त, बिल्वक, नीलपर्वत तथा कनखल-तीर्थमें स्नान करके मनुष्य पापरहित हो स्वर्गलोकमें जाता है । तदनन्तर पवित्र नामक तीर्थ है, जो सब तीर्थोंमें परम उत्तम है । वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य दो विश्वजित्‌ याज्ञोंका पुण्य पाता है । तदनन्तर वेणीराज्य नामक तीर्थ है, जहाँ महापुण्यमयी सरयू उत्तम पुण्यस्वरूपा गंगासे इस प्रकार मिली हैं, जैसे एक बहिन अपनी दूसरी बहिनसे मिलती है । भगवान्‌ विष्णुके दाहिने चरणारविन्दके पखारनेसे देवनदी गंगा प्रकट हुई हैं और बायें चरणसे मानस-नन्दिनी सरयूका प्रादुर्भाव हुआ है । उस तीर्थमें भगवान्‌ शिव और विष्णुकी पूजा करनेवाला पुरुष विष्णुस्वरूप हो जाता है । वहाँका स्त्रान पाँच अश्वमेध-यज्ञोंका फल देनेवाला बताया गया है । तत्पश्चात्‌ गंगातीर्थ है, जहाँ गंगासे गण्डकी नदी मिली है । वहाँका स्रान और एक हजार गौओंका दान दोनों बराबर हैं । तदनन्तर रामतीर्थ है, जिसके समीप पुण्यमय वैकुण्ठ है । तत्पश्चात्‌ परम पवित्र सोमतीर्थ है, जहाँ नकुल मुनि भगवान्‌ शिवकी पूजा करके उनका ध्यान करते हुए गणस्वरूप हो गये । उसके बाद चम्पक नामक पुण्य तीर्थ है, जहाँ गंगाकी धारा उत्तर दिशाकी ओर बहती है । उसे मणिकर्णिकाके समान महापातकोंका नाश करनेवाला बताया गया है । तदनन्तर कलश-तीर्थ है, जहाँ कलशसे मुनिवर अगस्त्य प्रकट हुए थे । वहीं भगवान्‌ रुद्रकी आराधना करके वे श्रेष्ठ मुनीधर हो गये । इसके बाद परम पुण्यमय सोमद्वीप-तीर्थ है, जिसका महत्त्व काशीपुरीके समान है । वहाँ भगवान्‌ शंकरकी आराधना करनेवाले चन्द्रमाको भगवान्‌ रुदरने सिरपर धारण किया था । यहीं विश्वामित्रकी भगिनी गंगामें मिली हैं । उसमें गोता लगानेवाला मनुष्य इन्द्रका प्रिय अतिथि होता है । मोहिनी ! जहरुकुण्ड नामक महातीर्थमें स्नान करनेवाला मनुष्य निश्चय ही अपनी इक्कीस पीढ़ियोंका उद्धारक होता है । सुभगे ! तदनन्तर अदिति-तीर्थ है, जहाँ अदितिने कश्यपसे भगवान्‌ विष्णुको वामनरूपमें प्राप्त किया था । वहाँ किये जानेवाले स्नानका फल महान्‌ अभ्युदय बताया गया है । तत्पश्चात्‌ शिलोच्चय नामक महातीर्थ है, जहाँ तपस्या करके समस्त प्रजा तृण आदिके साथ स्वर्गको चली जाती है; क्योंकि वह स्थान अनेक तीर्थोंका आश्रय है । तदनन्तर इन्द्राणी नामक तीर्थ है, जहाँ इन्द्राणीने तपस्या करके इन्द्रको पतिरूपमें प्राप्त किया था । यह स्थान प्रयागके तुल्य सेवन करने योग्य है । उसके बाद पुण्यदायक स्त्रातक तीर्थ है, जहाँ क्षत्रिय विश्वामित्रने तपस्या करके तीर्थ-सेवनके प्रभावसे ब्रह्मर्षिपदको प्राप्त किया था । तत्पश्चात्‌ प्रद्युम्न-तीर्थ है, जो तपस्याके लिये प्रसिद्ध है । वहाँ कामदेव तपस्या करके भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्रद्युम्न नामक पुत्र हुए । उस तीर्थमें स्नान करनेसे महान्‌ अभ्युदयकी प्राप्ति होती है । तदनन्तर दक्षप्रयाग है, जहाँ गंगासे यमुना मिली हैं । वहाँ स्नान करनेसे प्रयागकी ही भाँति अक्षय पुण्य होता है ।

अध्याय १३५ गंगाजीके तटपर किय जानेवाले स्नान, तर्पण, पूजन, विविध प्रकारके दानोंकी महिमा

पुरोहित वसु कहते हैंराजपपत्नी मोहिनी ! अब गंगाजीमें स्नान-तर्पण आदि कर्मोका फल बतलाया जाता है । देवि ! यदि गंगाजीके तटपर संध्योपासना की जाय तो द्विजोंको पवित्र करनेवाली गायत्रीदेवी किसी साधारण स्थानकी अपेक्षा वहाँ लाख गुना पुण्य प्रकट करनेमें समर्थ होती हैं । मोहिनी ! यदि पुत्रगण श्रद्धापूर्वक गंगाजीमें पितरोंको जलाञ्जलि दें तो वे उन्हें अक्षय तथा दुर्लभ तृप्ति प्रदान करते हैं । गंगाजीमें तर्पण करते समय मनुष्य जितने तिल हाथमें लेता है, उतने सहस्र वर्षोतक पितृगण स्वर्गवासी होते हैं । सब लोगोंके जो कोई भी पितर पितृलोकमें विद्यमान हैं, वे गंगकजीके शुभ जलसे तर्पण करनेपर परम तृप्तिको प्राप्त होते हैं । शुभानने ! जो जन्मकी सफलता अथवा संतति चाहता है, वह गंगाजीके समीप जाकर देवताओं तथा पितरोंका तर्पण करे । जो मनुष्य मृत्युको प्राप्त होकर दुर्गतिमें पड़े हैं, वे अपने वंशजोंद्वारा कुश, तिल और गंगाजलसे तृप्त किये जानेपर वैकुण्ठधाममें चले जाते है । जो कोई पुण्यात्मा पितर स्वर्गलोकमें निवास करते हैं, उनके लिये यदि गंगाजलसे तर्पण किया जाय तो वे मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, ऐसा ब्रह्माजीका कथन है । जो मनुष्य गंगाजीमें स्नान करके प्रतिदिन शिवलिंगकी पूजा करता है, वह निश्चय ही एक ही जन्ममें मोक्ष प्राप्त कर लेता है । अग्रिहोत्र, वेद तथा बहुत दक्षिणावाले यज्ञ भी गंगाजीपर शिवलिंग-पूजाके करोड़वें अंशके बराबर भी नहीं हैं । जो पितरों अथवा देवताओंके उद्देश्यसे गंगाजलद्वारा अभिषेक करता है, उसके नरकनिवासी पितर भी तत्काल तृप्त हो जाते हैं । मिट्टीके घड़ेकी अपेक्षा ताँबेके घड़ेसे किया हुआ स्नान दसगुना उत्तम माना गया है । इसी प्रकार अर्घ्य, नैवेद्य, बलि और पूजा आदिमें भी क्रमश: समझने चाहिये । उत्तरोत्तर पात्रमें विशेषता होनेके कारण फलमें भी विशेषता होती है । जो धन होते हुए भी मोहवश विस्तृत विधिका पालन नहीं करता, वह उस कर्मके फलका भागी नहीं होता ।

   देवताओंका दर्शन पुण्यमय होता है । दर्शनसे स्पर्श उत्तम है । स्पर्शसे पूजन श्रेष्ठ है और पूजनमे भी घृतके द्वारा कराया हुआ देवताका स्नान परम उतम माना गया है । गंगाजलसे जो स्नान कराया जाता हैं, उसे विद्वान्‌ पुरुष घृतस्नानके ही तुल्य कहते हैं । जो तांबेके पात्रमें मगधदेशीय मापके अनुसार एक प्रस्थ गंगाजल रखकर उसमें दूसरे-दूसरे विशेष द्रव्य मिलाकर उस मिश्रित जलके द्वारा अपने पितरोंसहित देवताओंको एक बार भी अर्ध्य देता है, वह पुत्र-पौत्रोंक साथ स्वगलोकको जाता है । जल, क्षीर, कुशाग्र, घृत दधि, मधु, लाल कनेरके फूल तथा लाल चन्दन―इन आठ अंगोंसे युक्त अर्घ्य सूर्यके लिये देनेयोग्य कहा गया है । जो श्रेष्ठ मानव गंगाजीके तटपर भगवान्‌ विष्णु, शिव, सूर्य, दुर्गा तथा ब्रह्माजीकी स्थापना करता है और अपनी शक्तिके अनुसार उनके लिये मन्दिर बनवाता है, उसे अन्य तीर्थोंमें यह सब करनेकी अपेक्षा गंगाजीके तटपर कोटि-कोटिगुना पुण्य प्राप्त होता है । जो प्रतिदिन गंगाजीके तटकी मिट्टीसे यथाशक्ति उत्तम लक्षणयुक्त शिवलिंग बनाकर उनकी प्रतिष्ठा करके मन्त्र तथा पत्र-पुष्प आदिसे यथासाध्य पूजा करता और अन्तमें विसर्जन करके उन्हें गंगामें ही डाल देता है, उसे अनन्त पुण्यकी प्राप्ति होती है । जो नरश्रेष्ठ सर्वानन्ददायिन गंगाजीमें स्नान करके भक्तिपूर्वक ‘ ॐ नमो नारायणाय ‘ इस अष्टाक्षर-मन्त्रका जप करता है, मुक्ति उसके हाथमें हो आ जाती है । जो नियमपूर्क छ: मासतक गंगाजीमें ‘ ॐ नमो नारायणाय ‘ इस मन्त्रका जप करता है, उसके पास सब सिद्धियाँ उपस्थित हो जाती हैं । जो गंगाके समीप प्रणवसहित ‘नमः शिवाय’ मंत्रका विधिपूर्वक चौबीस लाख जप करता है, साक्षात्‌ शङ्कर (के समान) है । ‘नमः शिवाय’― यह पश्चाक्षरी मन्त्र सिद्ध-विद्या है । उसको जपनेवाला साक्षात्‌ शिव (के समान) ही है, इसमें संशय नहीं है । ‘ अपवित्र: पवित्रो वा’―इस मन्त्रका जप करनेवाला पुरुष पातकरहित हो जाता है । गंगाजीके पूजित होनेपर सब देवताओंकी पूजा हो जाती है । अत: सर्वथा प्रयत्न करके देवनदी गंगाकी पूजा करनी चाहिये । गंगाजीके चार भुजाएँ और तीन नेत्र हैं । वे सम्पूर्ण अड्डोंसे सुशोभित होती हैं । उनके एक हाथमें रतमय कलश, दूसरेमें श्वेत कमल, तीसरेमें वर और चौथेमें अभय है । वे शुभ-स्वरूपा हैं उनके श्रीअंगोंपर श्वेत वस्त्र सुशोभित होता हैं । मोती और मणियोंके हार उनके आभूषण हैं । उनका मुख परम सुन्दर है । वे सदा प्रसन्न रहती हैं । उनका हदय-कमल करुणारससे सदा आद्र बना रहता है । उन्होंने वसुधापर सुधाधारा बहा रखी है । तीनों लोक सदा उनके चरणोंमें नमस्कार करते हैं । इस प्रकार जलमयी गंगाका ध्यान करके उनकी पूजा करनेवाला पुरुष पुण्यका भागी होत है । जो इस प्रकार पंद्रह दिन भी निरंतर पूजा करता है, वही देवताओंके समान हो जाता है और दीर्घकालतक पूजा करनेसे फलमें भी अधिकता होती है । पूर्वकालमें राजा जहुनने वैशाख शुक्ला सप्तमीको क्रोधपूर्वक गंगाजीको पी लिया था और फिर अपने कानके दाहिने छिद्रसे उन्हें निकाल दिया । शुभानने ! उस स्थानपर आकाशको मेखलारूप गंगाजीका पूजन करना चाहिये । वैशाख मासकी अक्षय-तृतीयाको तथा कार्तिकमें भी रातको जागरण करते हुए जौ और तिलसे भक्तिभावपूर्वक विष्णु, गंगा और शिवकी पूजा करनी चाहिये । उक्त सामग्रियोंके सिवा उत्तम गन्ध, पुष्प, कुंकुम, अगरु, चन्दन, तुलसीदल, बिल्वपत्र, बिजौरा नीबू आदि, धूप, दीप और नैवेद्यसे वैभव-विस्तारके अनुसार पूजा करनी उचित है । गंगाजीके तटपर किया हुआ यज्ञ, दान, तप, जप, श्राद्ध और देवपूजा आदि सब कर्म कोटि-कोटिगुना फल देनेवाला होता है । जो अक्षय-तृतीयाको गंगाजीके तटपर विधिपूर्वक घृतमयी धेनुका दान करता है, वह पुरुष सहस्रों सूर्योंके समान तेजस्वी और सम्पूर्ण भोगोंसे सम्पन्न हो हंसभूषित सुवर्ण-रत्नमय विचित्र विमानपर बैठकर अपने पितरोंके साथ कोटिसहस्र एवं कोटिशत कल्पोंतक ब्रह्मलोकमें पूजित होता है । इसी प्रकार जो (कभी) गंगातटपर शास्त्रीय विधिसे गोदान करता है, वह उस गायके शरीरमे जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षोतक स्वर्गलोकमे सम्मानित होता है । यदि गंगातटपर वेदवेत्ता ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक कपिला गौका दान दिया जाय तो वह गौ नरकमें पड़े हुए सम्पूर्ण पितर तत्काल स्वर्ग पहुँचा देती है । जो गंगातटपर ब्रह्मा, विष्णु, शिव, दुर्गा तथा सूर्यभगवानकों प्रीतिके लिये ब्राह्मणोंको ग्रामदान करता है, उसे सम्पूर्ण दानोंका जो पुण्य है, समस्त यज्ञोंका जो फल है तथा सब प्रकारके तप, व्रत और पुण्यकर्मोका जो फल बताया गया है, वह सहस्त्रगुना होकर मिलता है । उस दानके प्रभावसे दाता पुरुष करोड़ों सूर्योके समान तेजस्वी विमानपर बैठकर अपनी रुचिके अनुसार श्रीविष्णुधाममें अथवा श्रीशिवधाममें प्रसन्नतापूर्वक क्रीडा-विहार करता है । देवता उसकी स्तुति करते रहते हैं । देवि ! जो अक्षयतृतीयाके दिन गंगातटपर श्रेष्ठ ब्राह्मणको सोलह माशा सुवर्ण दान करता है, वह भी दिव्यलोकोंमें पूजित होता है । अन्नदान करनेसे विष्णुलोककी और तिलदानसे शिवलोककी प्राप्ति होती है । रत्नदानसे ब्रह्मलोक, गोदान और सुवर्णदानसे इन्द्रलोक तथा सुवर्णसहित वस्त्रदानसे गन्धर्वलोककी प्राप्ति होती है । विद्यादानसे मुक्तिदायक ज्ञान पाकर मनुष्य निरञ्जन ब्रह्मको प्राप्त कर लेता है ।

अध्याय १३६ एक वर्षका गंगार्चन— व्रतका विधान और माहात्म्य, गंगातटपर नक्तव्रत करके भगवान शिवका पूजन, प्रत्येक मासकी पूर्णिमा और अमावास्याको शिव आराधना, गंगा— दशहराके पुण्य— कृत्य एवं उनका माहात्म्य

पुरोहित वसु बोलेमोहिनी ! एकाग्रचित्त हो विधिपूर्वक गंगाजीकी पूजा करनी चाहिये। दिव्यस्वरूपा गंगादेवीका ध्यान करके एक सेर अगहनीके चावलको दो सेर दूधमें पकाकर खीर तैयार करावे, उसमें मधु और घी मिला दे, वे दोनों पृथक्‌-पृथक्‌ एक-एक तोला होने चाहिये । तदनन्तर भक्तिभावसे परिपूर्ण हो खीर, पूआ,लड्डू, मण्डल, आधा गुंजा सुवर्ण, कुछ चाँदी, चन्दन, अगरु, कर्पूर, कुंकुम, गुग्गुल, बिल्वपत्र, दूर्वा, रोचना, श्वेत चन्दन, नील कमल तथा अन्यान्य सुगन्धित पुष्प यथाशक्ति गंगाजिमे छोड़े और अत्यन्त भक्तिभावसे निम्नांकित पौराणिक मंत्रोका उच्चारण करता रहे―’ॐ गंगायै नमः, ॐ नारायणये, शिवाये नम: ।’ मोहिनी ! प्रत्येक मासकी पूर्णिमा और अमावास्याको प्रात:―काल एकाग्रचित्त हो इसी विधिसे गंगाजीकी पूजा करनी चाहिये जो मनुष्य एक वर्षतक हविष्यभोजी, मिताहारी तथा ब्रह्मचारी रहकर दिनमें अथवा रात्रिकि समय नियमपूर्वक भक्ति और प्रसन्नताके साथ यथाशक्ति गंगाजीकी पूजा करता है, उसे वर्षके अन्तमें ये गंगादेवी दिव्य शरीर धारण करके दिव्य माला, दिव्य वस्त्र तथा दिव्य रत्नोंसे विभूषित हो प्रत्यक्ष दर्शन देती हैं और वर देनेके लिये उसके सामने खड़ी हो जाती हैं । शुभे ! इस प्रकार दिव्य देहधारिणी प्रत्यक्षरूपा गंगाजीका अपने नेत्रोंसे दर्शन करके मनुष्य कृतकृत्य होता है । वह मानव जिन-जिन भोगोंकी कामना करता है, उन सबको प्राप्त कर लेता है और जो ब्राह्मण निष्कामभावसे गंगाकी आराधना करता है, वह उसी जन्ममें मोक्ष पा जाता है । गंगाजीके पूजनका यह सांवत्सरव्रत भगवान्‌ लक्ष्मीपतिको संतुष्ट करनेवाला एवं मोक्ष देनेवाला है

   वसिष्ठजी कहते हैंराजेन्द्र ! वसुका यह गंगामाहात्म्य सूचक वचन सुनकर मोहिनीने पुन: अपने पुरोहित विप्रवर वसुसे पूछा ।

   मोहिनी बोलीब्रहमन ! गंगाजीके तटपर गड्डा आदिके स्थापन और पूजनका क्या फल हैं? मुझ अबलाको गंगाजीके माहात्म्यसे युक्त देवाराधनकी विधि बताइये, जिसे सुनकर पापसे छुटकारा मिल जाता है ।

   पुरोहित वसु बोलेदेवि ! तुमने सब लोकोंके भी कामनासे बहुत उत्तम बात पूछी है । गंगाजीका सम्पूर्ण माहात्म्य बड़े-बड़े पापोंका नाश करनेवाला है । पूर्वकालमें वृषध्वज भगवान्‌ शिवने कृपापूर्वक इसका वर्णन किया था । देवी पार्वतीने प्रेमपूर्वक उनसे प्रश्न किया था और उन्होंने गंगाजीके तटपर बैठकर गंगाजीका माहात्म्य उन्हें सुनाया था । देवताओंने पूर्वाह्नकालमें, ऋषियोंने मध्याह्रकालमें, पितरोंने अपराह्ककालमें तथा गुह्यक आदिने रात्रिके प्रथम भागमें भोजन किया है । इन सब वेलाओंका उल्लंघन करके रातमें भोजन करना उत्तम है । अत: नक्तव्रतका आचरण करना चाहिये । रातकों भोजन करनेवाले नक्त-व्रतीको ये छः कर्म अवश्य करने चाहिये―स्त्रान, हविष्य-भोजन, सत्यभाषण, स्वल्पाहार, अग्रिहोत्र तथा भूमिशयन । जो कोई भी साधक हो, वह माघ मासमें गंगातटपर शिव-मन्दिरके समीप रातमें घी मिलायी हुई खिचड़ी भोजन करे । भोजन आरम्भ करनेसे पहले भगवान्‌ शिवको खिचड़ीका ही नैवेद्य लगावे । काष्ठ-मौन होकर भोजन करे और जिह्वाकी लोलुपता त्याग दे । भगवान्‌ शिवको स्मरण करके जितेन्द्रियभावसे पलाशके पत्तेमें नियमपूर्वक भोजन करे । धर्मराज तथा देवीके लिये पृथक-पृथक्‌ पिण्ड दे । दोनों पक्षोंकी चतुर्दशीको उपवास करे । पूर्णिमाके दिन गन्ध और गंगाजलसे तथा दूध, दही, घी, शहद (और शर्करा)-से भगवान्‌ शिवको नहलाकर शिवलिंगके मस्तकपर धतूरका फूल चढ़ावे । तत्पश्चात्‌ यथाशक्ति घीका पकाया हुआ पूआ निवेदन करे । फिर एक आढक तिल लेकर शिवलिंगके ऊपर चढ़ावे । नील तथा लाल कमलके फूलोंसे सर्वेश्वर शिवका पूजन करे । कमलका फूल न मिले तो सुवर्णमय कमलसे महादेवजीकी पूजा करे । मधुयुक्त खीरका भोग लगावे । घृतमिश्रित गुग्गुलका धूप दे । घीका दीपक जलावें । चन्दन आदिसे अनुलेपन करे । भक्तिपूर्वक महेश्वरको बिल्वपत्र और फल चढ़ावे । उनकी प्रसन्नताके लिये काले रंगकी गौ और काले रंगक बैल दान करे । उन गाय-बैलोकी शकल-सूरत एक-सी होनी चाहिए । माघ मास व्यतीत होनेपर आठ ब्राह्मणोंको भोजन करावे और उन्हें दक्षिणा दे । ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक रहे । इस प्रकार यम-नियम, श्रद्धा और भक्तिसे युक्त होकर जो एक बार भी शास्त्रीय विधिसे इस व्रतका पालन करता है, वह इस लोकमें उत्तम भोगोंको भोगता है और मृत्युके पश्चात्‌ परम उत्तम गतिका भागी होता है ।

   वैशाख शुक्ला चतुर्दशीको एकाग्रचित्त होकर अगहनीके चावलका भात और दूध रातमें भोजन करे । पुष्प आदिसे भगवान्‌ शिवकी पूजा करे । उन्हें भोज्य पदार्थ निवेदन करके काष्ठ-मौन होकर भोजन करे । उस दिन पवित्र हो मौन-भावसे बरगदकी लकड़ीद्वारा दन्तधावन करे । रातमें गंगातटपर शिवलिंगके समीप सोये । प्रात:काल पूर्णिमाको विधिपूर्वक गंगामें स्नान करके उपवास व्रतका संकल्प लेकर रातमें जागरण करे । शिवलिंगको घीसे नहलाकर गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदिके द्वारा उनका पूजन करके एक सुन्दर वृषभको श्वेत पुष्प, वस्त्र, हल्दी और चन्दनसे अलंकृत करके विधिपूर्वक भगवान्‌ शिवके लिये निवेदन करे । ब्राह्मणोंको यथाशक्ति खीर भोजन करावे। इस प्रकार जो श्रद्धा और भक्तिके साथ एक बार भी उक्त नियमका पालन करता है, वह अन्तमें मुक्त हो जाता है ।

   ज्येष्ठ मासके शुक्लपक्षमें दशमी तिथिको हस्त नक्षत्रका योग होनेपर स्त्री हो या पुरुष, भक्तिभावसे गंगाजीके तटपर जाकर रात्रिमें जागरण करना चाहिये और दस प्रकारके फूलोंसे, दस प्रकारकी गन्धसे, दस तरहके नैवेद्योंसे तथा दस-दस ताम्बूल एवं दीप आदिसे श्रद्धापूर्वक गंगाजीकी पूजा करनी चाहिए । पूजनके पहले भक्तिपूर्वक शास्त्रोक्त विधीके अनुसार गंगाजीमे दस बार स्नान करके जलमे दस पसर काले तिल और घी छोड़ना चाहिए । इसी प्रकार सतू एयर गुड़के दस-दस पिंड भी गंगाजीके जलमे डालने चाहिये । तदनंतर गंगाके रमणीय तटपर अपनी शक्तिके अनुसार सोने या चाँदीसे गंगाजीकी प्रतिमा निर्माण कराकर उसकी स्थापना करे । पहले भूमिपर कमल या स्वस्तिकका चिह्न बनाकर उसके ऊपर कलश स्थापित करे । कलशपर भी पद्म एवं स्वस्तिकका चिह्न होना चाहिये । उसके कण्ठमें वस्त्र और पुष्पहार लपेट देना चाहियेण । कलशको गंगाजलसे भरकर उसमें अन्य आवश्यक पदार्थ छोड़े । उसके ऊपर पूर्णपात्र रखकर उसमें गंगाजीकी पूर्वोक्त प्रतिमा स्थापित करनी चाहिये । सुवर्ण आदिको प्रतिमा न मिले तो मिट्टी आदिकी बनवानी चाहिये । इसकी भी शक्ति न हो तो आटासे पृथ्वीपर ही गड़ाजीका स्वरूप अङ्कित करना चाहिये । उनका स्वरूप इस प्रकार है―गंगादेवीके चार भुजाएँ और सुन्दर नेत्र हैं । उनके श्रीअड्गोंसे दस हजार चन्द्रमाओंके समान उज्चल चॉदनी-सी छिटकती रहती है । दासियाँ उन्हें चँवर डुलाती हैं । मस्तकपर तना हुआ श्रेत छत्र उनकी शोभा बढ़ाता है । वे अत्यन्त प्रसन्न और वरदायिनी हैं । करुणासे उनका अन्तःकरण सदा द्रवीभूत रहता है । वे वसुधातलपर सुधाधारा बहाती हैं । देवता आदि सदा उनकी स्तुति करते रहते हैं । वे दिव्य रत्नोंके आभूषण, दिव्य हार और दिव्य अनुलेपनसे विभूषित हैं । जलमें उनके उपर्युक्त स्वरूपका ध्यान करके प्रतिमामें उनकी विशेषरूपसे पूजा करनी चाहिये । प्रतिमाको पश्नामृतसे स्नान कराना उत्तम है । प्रतिमाके आगे एक वेदी बनाकर उसको गोबरसे लीपे। उसपर भगवान्‌ नारायण, शिव, ब्रह्मा, सूर्य, राजा भगीरथ तथा गिरिराज हिमालयकी स्थापना करके गन्ध-पुष्प आदि उपचारोंसे यथाशक्ति उनकी पूजा करे; फिर दस ब्राह्मणोंको दस सेर तिल दे । इसी प्रकार दस सेर जौ दे और उनके साथ अलग-अलग दस पत्रोंमें गव्य (दही-घी आदि) भी दे । तत्पश्चात्‌ पहलेसे तैयार करायी हुई मछली, कछुआ, मेढ़क, मगर आदि जलचर जीवोंकी यथाशक्ति सुवर्णमयी अथवा रजतमयी प्रतिमा स्थापित करके उनकी पूजा करे, वैसी प्रतिमा न मिलनेपर आटेकी प्रतिमा बनावे और मन्त्रज्ञ पुरुष पुष्प आदिसे पूर्वनिर्दिष्ट मंत्रद्वारा ही उनको पूजा करके उन्हें गंगाजीमें छोड़ दे । यदि अपने पास वैभव हो तो उस दिन गंगाजीको रथयात्रा भी करावे । रथपर गंगाजीकी प्रतिमा या चित्र हो, उसका मुख उत्तर दिशाकी ओर रहे । रथपर भ्रमण करती हुई गंगाजीका दर्शन इस लोकमें पापी मनुष्योंके लिये अत्यन्त दुर्लभ है । इस प्रकार विधिपूर्वक रथयात्रा सम्पन्न करके मनुष्य आगे बताये जानेवाले दस प्रकारके पापोसे तत्काल ही मुक्त हो जाता है । बिना दिये हुए किसीकी वस्तु ले लेना, हिंसा करना और परायी स्त्रीके साथ सम्बन्ध रखनाये तीन प्रकारके शारीरिक पाप माने गये हैं । कठोरतापूर्ण वचन, असत्य, चुगली तथा अनाप-शनाप बातें बकनाये चार प्रकारके वाचिक पाप कहे गये हैं दूसरेका धन हड़पनेकी बात सोचना, मनसे किसीका अनिष्ट-चिन्तन करना और झूठा अभिनिवेश (मरण-भय)ये तीन प्रकारके मानसिक पाप हैं । ये दस प्रकारके पाप करोड़ों जन्मोंद्वारा संचित हो तो भी पूर्वोक्त विधिसे रथयात्रा करनेवाला पुरुष उनसे मुक्त हो जाता है ।

   पूजाका मन्त्र इस प्रकार हैं― ‘ ॐ नमो दशहरायै नारायण्यै गङ्गाये नमः ।’ जो मनुष्य उस दिन रातमें और दिनमें भी उक्त मन्त्रका पांच-पांच हज़ार जप करता है, वह मनुके बताये हुए दस धर्मो१ का फल प्राप्त करता है । आगे बताये जानेवाले स्तोत्रको विधिपूर्वक ग्रहण करके उस दिन गंगाजीके आगे उसका पाठ करे । फिर भगवान्‌ विष्णुकी पूजा करे । वह स्तोत्र इस प्रकार है―

   ॐ शिवस्वरूपा गंगाको नमस्कार है । कल्याण प्रदान करनेवाली गंगाको नमस्कार है । विष्णुरूपिणी देवीको नमस्कार है । आप भगवती गंगाकों बारंबार नमस्कार है । सम्पूर्ण देवता आपके स्वरूप हैं, आपको नमस्कार है । आपका स्वरूपभूत जल उत्तम औषध है, आपको नमस्कार है । आप समस्त जीवोंके सम्पूर्ण रोगोंका निवारण करनेके लिये श्रेष्ठ वैद्यके समान हैं, आपको नमस्कार है । आप स्थावर और जड़म जीवोंसे उत्पन्न होनेवाले विषका नाश करनेवाली हैं, आपको नमस्कार है । संसाररूपी विषका नाश करनेवाली जीवनदायिनी गंगादेवीको बारंबार नमस्कार है । आप आध्यात्मिक आदि तीनों तापोंका निवारण करनेवाली एवं सबके प्राणोंकी अधीश्वरी हैं, आपको नमस्कार है, नमस्कार है । आप शान्तिस्वरूपा तथा सबका संताप दूर करनेवाली हैं, सब कुछ आपका ही स्वरूप है, आपको नमस्कार है । सबको पूर्णत: शुद्ध करनेवाली और सब पार्पोसे छुटकारा दिलानेवाली आपको नमस्कार है । आप भोग और मोक्ष देनेवाली भोगवती (नामक पातालगंगा) हैं, आपको नमस्कार है, नमस्कार है । आप ही मन्दाकिनी नामसे प्रसिद्ध आकाशगंगा हैं, आपको नमस्कार है । आप स्वर्ग देनेवाली हैं आपको नमस्कार है, नमस्कार है । तीनों लोकोंमें मूर्तरूपसे प्रकट होनेवाली आप गंगादेवीको बारम्बार नमस्कार है । शुक्लरूपसे स्थित होनेवाली आपको नमस्कार है । सबका क्षेम चहनेवाली क्षेमवतिको नमस्कार है, नमस्कार है । देवताओंके सिंहासनपर विराजमान होनेवाली तेजोमयी आप गंगादेवीको नमस्कार है । आप मन्द गति धारण करके ‘ मन्दा ‘ और शिवलिंगका आधार होनेसे ‘ लिज़धारिणी ‘ कहलाती हैं । भगवान्‌ नारायणके चरणारविन्दोंसे प्रकट होनेके कारण आप ‘नारायणी’ कहलाती हैं, आपको नमस्कार है, नमस्कार है । सम्पूर्ण जगत्‌को मित्र माननेवाली आप विश्वमित्राको नमस्कार है । रेवती नामसे प्रसिद्ध गंगाको नमस्कार है, नमस्कार है । आप बृहतीदेवीको नित्य नमस्कार है । लोकधात्रीको बारंबार नमस्कार है । विश्वमें प्रधान होनेसे आपका नाम विश्वमुख्या है, आपको नमस्कार है । जगत्‌को आनन्दित करनेके कारण नन्दिनी हैं, आपको नमस्कार है, नमस्कार है । पुथ्वी,  शिवामृता और विरजा नामवाली गंगादेवीको बारंबार नमस्कार है । परावरगता, आद्या एवं तारा नामवाली आपको नमस्कार है, नमस्कार है । स्वर्गमें विराजमान गंगादेवी ! आपको नमस्कार है । आप सबसे अभिन्न हैं, आपको नमस्कार है, नमस्कार है । आप शान्त-स्वरूपा, प्रतिष्ठा (आधारस्वरूपा) तथा वरदायिनी हैं, आपको नमस्कार है, नमस्कार है । आप उग्रा, मुखजल्पा और संजीवनी हैं, आपको नमस्कार है, नमस्कार है । आपकी ब्रह्मलोकतक पहुँच है । आप ब्रह्मकी प्राप्ति करानेवाली तथा पापनाशिनी हैं, आपको नमस्कार है, नमस्कार है । प्रणतजनोंकी पीड़ाका नाश करनेवाली जगन्माता गंगाको नमस्कार है, नमस्कार है । देवि ! आप जल-विन्दुओंकी राशि हैं, दुर्गम संकटका नाश करनेवाली तथा जगतके उद्धारमें दक्ष हैं, आपको नमस्कार है । सम्पूर्ण विपत्तियोंका विरोध करनेवाली मङ्गलमयी गंगादेवीको नमस्कार है, नमस्कार है । पर और अपर सब आपके ही स्वरूप हैं, आप ही पराशक्ति हैं, मोक्षदायिनी देवि ! आपको सदा नमस्कार है । गंगा मेरे आगे रहें, गंगा मेरे दोनों पार्श्वमें रहें गंगा मेरे चारों ओर रहें और हे गङ्गे ! आपमें ही मेरी स्थिति हो । पृथ्वीपर प्राप्त हुई शिवस्वरूपा देवि ! आदि, मध्य और अन्तमें आप ही हैं। आप सर्वस्वरूपा हैं । आप ही मूल प्रकृति हैं । आप ही सर्वसमर्थ नर-नारायण हैं । गङ्गे ! आप ही परमात्मा और आप ही शिव हैं, आपको नमस्कार है नमस्कार है ।

   जो प्रतिदिन भक्तिभावसे इस स्तोत्रका पाठ करता है अथवा जो श्रद्धापूर्वक इसे सुनता है, वह मन, वाणी और शारीरद्वारा होनेवाले पूर्वोक्त दस पापों तथा सम्पूर्ण दोषोंसे मुक्त हो जाता है । रोगी रोगसे और विपत्तिका मारा पुरुष विपत्तिसे छुटकारा पा जाता है । शत्रुओंसे, बन्धनसे तथा सब प्रकारके भयसे भी वह मुक्त हो जाता है । इस लोकमें सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त करता है और मृत्युके पश्चात्‌ परब्रह्म परमात्मामें लीन हो जाता है । जिसके घरमें इस स्तोत्रको लिखकर इसकी पूजा की जाती है, वहाँ आग और चोरका भय नहीं है । वहाँ पापसे भी भय नहीं होता । ज्येष्ठ शुक्ला दशमीको गंगाजीके जलमें खड़ा होकर जो इस स्तोत्रका दस बार जप या पाठ करता है, वह दरिद्र अथवा असमर्थ होनेपर भी वही फल पाता है, जो पूर्वोक्त विधिसे भक्तिपूर्वक गंगाजीकी पूजा करनेसे प्राप्त होने योग्य बताया गया है । जैसी गौरी देवीकी महिमा है, वैसी ही गंगा देवीकी भी है, अतः गौरीके पूजनमें जो विधि कही गयी है, वही गंगाजीके पूजनके लिये भी उत्तम विधि है । जैसे भगवान्‌ शिव हैं, वैसे ही भगवान्‌ विष्णु हैं, जैसे भगवान्‌ विष्णु हैं, वैसी ही भगवती उमा हैं और जैसी भगवती उमा हैं, वैसी ही गंगाजी हैं―इनमें कोई भेद नहीं है। जो भगवान्‌ विष्णु और शिवमें, गंगा और गौरीमें तथा लक्ष्मी और पार्वतीमें भेद मानता है, वह मूढबुद्धि है । उत्तरायणमें किसी उत्तम मासका शुक्लपक्ष हो, दिनका समय हो और गंगाजीके तटको भूमि हो, साथ ही हृदयमें भगवान्‌ जनार्दनका चिन्तन हो रहा हो-ऐसी अवस्थामें जो शरीरका त्याग करते हैं, वे धन्य हैं । विधिनन्दिनी ! जो मनुष्य गंगामें प्राणत्याग करते हैं, वे देवताओं द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए विष्णुलोकको जाते हैं । जो मनुष्य गंगाके तटपर आमरण उपवासका व्रत लेकर मर जाता है, वह निश्चय ही अपने पितरोंके साथ परमधामको प्राप्त होता है । गंगाजीमें मृत्युके लिये दो योजन दूरकी भूमि और समीपका स्थान दोनों समान हैं । जो मनुष्य गंगामें मर जाता है, वह स्वर्ग और मोक्षको प्राप्त होता है । जो मानव प्राण-त्यागके समय गंगाका स्मरण अथवा गंगाजलका स्पर्श करता है, वह पापी होनेपर भी परमगतिको प्राप्त होता है । जिन धीर पुरुषोंने गया गंगाजीके समीप जाकर अपने शरीरका त्याग किया है, वे देवताओंके समान हो गये । इसलिये मुक्ति देनेवाले दूसरे सब साधनोंको छोड़कर देहपातपर्यन्त गंगाजीका ही सेवन करे । जो महान्‌ पापी होकर भी गंगाके समीपवर्ती आकाशमें, गंगातटकी भूमिपर अथवा गंगाजीके जलमें मरा है, वह ब्रह्मा, विष्णु और शिवके द्वारा पूजनीय अक्षयपदको प्राप्त कर लेता है । जो धर्मात्मा, पवित्र एवं साधुसम्मत प्राणधारी मनुष्य मन-ही-मन गंगाजीका चिन्तन करता है, वह परम गतिको प्राप्त कर लेता है । कोई कहीं भी मर रहा हो, परंतु मृत्युकाल उपस्थित होनेपर यदि वह गंगाजीका स्मरण करता है, तो वह शिवलोक अथवा विष्णुधामको जाता है । भगवान्‌ शंकरके अत्यन्त कर्कश जटाकलापसे निकलकर पापी सगर-पुत्रोंके शरीरकी राखको बहाकर गंगाजीने उन्हें स्वर्गलोक पहुँचाया था । पुरुषके शरीरकी जितनी हड्डियां गंगाजीमें मौजूद रहती है, उतने हजार वर्षोतक वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है । मनुष्यकी हड्डी जब गंगाजीके जलमें ले जाकर छोड़ी जाती है, उसी समयसे प्रारम्भ करके उसकी स्वर्गलोकमें स्थित होती है । जिस पुण्यकर्मा पुरुषकी हड्डी गंगाजीके जलमें पहुँचायी जाती है, उसकी ब्रह्मलोकसे किसी प्रकार पुनरावृत्ति नहीं होती । जिस मृतक पुरुषको हड्डी दशाहके भीतर गंगाजीके जलमें पड़ जाती है, उसे गंगामें मरनेका जैसा फल बताया गया है, उसी फलकी प्राप्ती होती है । अतः स्नान करके पंचगव्य छिड़ककर सुवर्ण, मधु, घी और तिलके साथ उस अस्थि-पिण्डको दोनेमें रख ले और प्रेतगणोंसे युक्त दक्षिण दिशाकी ओर देखते हुए ‘ नमोस्तु धर्माय ‘ (  धर्मराजकों नमस्कार है ) ऐसा कहकर जलमें प्रवेश करे और ‘ धर्मराज मुझपर प्रसन्न हों ‘ ऐसा कहकर उस हड्डीको जलमें फेंक दे । तदनन्तर स्नान करके तीर्थवासी अक्षयवटका दर्शन करे और ब्राह्मणको दक्षिणा दे । ऐसा करनेपर यमलोकमें स्थित हुए पुरुषका स्वर्गलोकमें गमन होता है और वहाँ उसे देवराज इन्द्रके समान प्रतिष्ठा प्राप्त होती है । गंगाजीकी बहती हुई मुख्य धारासे लेकर चार हाथतकका जो भाग है, उसके स्वामी भगवान्‌ नारायण हैं । प्राण कण्ठतक आ जाये तो भी उसमें प्रतिग्रह स्वीकार न करे । भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशीको गंगाजीका जल जहाँतक बढ़ जाता है, वहाँतककी भूमिकों उनका गर्भ जानना चाहिये । उससे दूरका स्थान ‘ तीर ‘ कहलाता है । साधारण स्थितिमें जहाँतक जल रहता है, उससे डेढ़ सौ हाथ दूरतक गर्भकी सीमा है । उससे परेका भू-भाग तट है । देवी ! किन्हीं विद्वानोंका ऐसा ही मत है तथा यह श्रुतियों और स्मृतियोंको भी अभिमत है । तीरसे दो-दो कोस दोनों ओरका स्थान ‘ क्षेत्र ‘ कहलाता है । तीरको छोड़कर क्षेत्रमें वास करना चाहिये; क्योंकि तीरपर निवास अभीष्ट नहीं है । दोनों तटोंसे एक योजन विस्तृत भू-भाग क्षेत्रकी सीमा माना गया है । जितने पाप हैं, वे सब-के-सब गंगाजीकी सीमा नहीं लांघते । वे गंगाको देखकर उसी प्रकार दूर भागते हैं, जैसे सिंहको देखकर वनमें रहनेवाले दूसरे जीव । महाभागे ! जहाँ गंगा हैं, जहाँ श्रीराम और श्रीशिवका तपोवन है, उसके चारों ओर तीन योजनतक सिद्धक्षेत्र जानना चाहिये । तीर्थमें कभी दान न ले । पवित्र देव-मन्दिरोंमें भी प्रतिग्रह न ले तथा ग्रहण आदि सभी निमित्तोंमें मनुष्य प्रतिग्रहसे अलग रहे । जो तीर्थमें दान लेता है तथा पुण्यमय देवमन्दिरोंमें भी प्रतिग्रह स्वीकार करता है, उसके पास जबतक प्रतिग्रहका धन है, तबतक उसका तीर्थ-व्रत निष्फल कहा जाता है । देवि ! गंगाजीमें दान लेना मानो गंगाको बेचना है । गंगाके विक्रयसे भगवान्‌ विष्णुका विक्रय हो जाता है और भगवान्‌ विष्णुका विक्रय होनेपर तीनों लोकोंका विक्रय हो जाता है । जो गंगाजीके तीरकी मिट्टी लेकर अपने मस्तकपर धारण करता है, वह केवल तम (अन्धकार अज्ञान एवं तमोगुण )- का नाश करनेके लिये मानो सूर्यका स्वरूप धारण करता है । जो मनुष्य गंगाजीके तटकी धूलि फैलाकर उसके ऊपर पितरोंके लिये पिण्ड देता है, वह अपने पितरोंको तृप्त करके स्वर्गलोकमें पहुँचा देता है । भद्रे ! इस प्रकार मैंने तुम्हें गंगाका उत्तम माहात्म्य बताया है। जो मनुष्य इसको पढ़ता अथवा सुनता है, वह भगवान्‌ विष्णुके परमपदको प्राप्त होता है । विधिनन्दिनी ! जो भगवान्‌ विष्णु अथवा शिवका लोक प्राप्त करना चाहते हों, उन्हें प्रतिदिन पवित्रचित्त हो श्रद्धा और भक्तिके साथ इस गंगा-माहात्म्यका पाठ करना चाहिये।

अध्याय १३७ गयातीर्थकी महिमा

वसिष्ठजी कहते हैंराजन्‌ ! तदनन्तर पापनाशिनी गंगाजीका यह उत्तम माहात्म्य सुनकर मोहिनीने पुन: अपने पुरोहितसे पूछा।

   मोहिनी बोलीभगवन्‌ ! आपने मुझे गंगाका पुण्यमय आख्यान ( माहात्म्य ) सुनाया है। अब मैं यह सुनना चाहती हूँ कि संसारमें गयातीर्थ कैसे वीख्यात हुआ ?

   पुरोहित वसुने कहागया पितृतीर्थ है । उसे सब तीर्थोंमें श्रेष्ठ माना गया है, जहाँ देवदेवेश्वर पितामह ब्रह्माजी स्वयं निवास करते हैं । जहाँ याग ( श्राद्ध) -की अभिलाषा रखनेवाले पितरोंने यह गाथा गायी है―’बहुत-से पुत्रोंको अभिलाषा करनी चाहिये, क्योंकि उनमेंसे एक भी तो गया जायगा अथवा अश्वमेध-यज्ञ करेगा या नीलवृषभका उत्सर्ग करेगा ।’  देवि ! गयाका उत्तम माहात्म्य सारसे भी सारतर वस्तु है । मैं उसका संक्षेपसे वर्णन करूँगा । वह भोग और मोक्ष देनेवाला है । सुनो, पूर्वकालकी बात है । गयासुर नामसे प्रसिद्ध एक असुर हुआ था, जो बड़ा पराक्रमी था । उसने बड़ा भयंकर तप किया, जो सम्पूर्ण भूतोंको पीड़ित करनेवाला था । उसको तपस्यासे संतप्त हुए देवता लोग उसके वधके लिये भगवान्‌ विष्णुकी शरणमें गये । तब भगवानने उसको गदासे मार दिया । अतः गदाधर भगवान्‌ विष्णु ही गयातीर्थमें मुक्तिदाता माने गये हैं । भगवान्‌ विष्णुने इस तीर्थकी मर्यादा स्थापित की । जो मनुष्य यहाँ यज्ञ, श्राद्ध, पिण्डदान एवं सानकादि कर्म करता है, वह स्वर्ग अथवा ब्रह्मलोकमें जाता है । गयातीर्थको उत्तम जानकर ब्रह्माजीने वहाँ यज्ञ किया तथा उन्होंने वहाँ सरस्वती नदीकी भी सृष्टि की और समस्त दिशाओंमें व्याप्त होकर उस तीर्थमें निवास किया । तदनन्तर ब्राह्मणोंके प्रार्थना करनेपर ब्रह्माजीने वहाँ अनेक तीर्थ निर्माण किये और कहा―ब्राह्मणों ! गयामें श्राद्ध करनेसे पवित्र हुए लोग ब्रह्मलोकगामी होंगे और जो लोग तुम्हारा पूजन और सत्कार करेंगे, उनके द्वारा सदा मैं पूजित होऊँगा । ब्रहाज्ञान, गयाश्राद्ध, गोशालामें प्राप्त होनेवाली मृत्यु तथा कुरुक्षेत्रमें निवास―यह मनुष्योंके लिये चार प्रकारकी मुक्ति ( -के साधन ) हैं । ब्रह्महत्या, मदिरापान, चोरी और गुरुपत्नीगमन तथा इन सबके संसर्गसे होनेवाला पाप―ये सब-के-सब गयाश्राद्धसे नष्ट हो जाते हैं । मरनेपर जिनका दाह-संस्कार नहीं हुआ है, जो पशुओंद्वारा मारे गये हैं अथवा जिन्हें सर्पने डँस लिया है, वे सब लोग गयाश्राद्धसे मुक्त होकर स्वर्गलोकमें जाते हैं ।

   देवि ! इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास सुना जाता है । त्रेतायुगमें विशाल नामसे प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं, जो विशालापुरीमें रहते थे । वे अपने सद्गुणोंके कारण धन्य समझे जाते थे । उनमें धैर्यका विलक्षण गुण था । उन्होंने श्रेष्ठ तीर्थ गयाशिरमें आकर पितृयाग प्रारम्भ किया । उन्होंने विधिपूर्वक पितरोंको पिण्डदान दिया । इतनेमें ही उन्होंने आकाशमें उत्तम आकृतिसे युक्त तीन पुरुषोंको देखा, जो क्रमश: श्वेत, लाल और काले रंगके थे । उन्हें देखकर राजाने पूछा―’ आपलोग कौन हैं ?’

   सित ( श्वेत )-ने कहा―राजन्‌ ! मैं तुम्हारा पिता सित हूँ । मेरा नाम तो सित है ही, मेरे शरीरका वर्ण भी सित (श्वेत) है । साथ ही मेरे कर्म भी सित ( उज्ज्वल ) हैं और ये जो लाल रंगके पुरुष दिखायी देते हैं, ये मेरे पिता हैं इन्होंने बड़े निष्ठुर कर्म किये हैं । वे ब्रह्महत्यारे और पापाचारी रहे हैं और इनके बाद ये जो तीसरे सज्जन हैं,  ये तुम्हारे प्रपितामह हैं । ये नामसे तो कृष्ण हैं ही, कर्म और वर्णसे भी कृष्ण हैं । इन्होंने पूर्वजन्ममें अनेक प्राचीन ऋषियोंका वध किया है । ये दोनों पिता और पुत्र अवीचि नामक नरकमें पड़े हुए हैं, अतः ये मेरे पिता और ये दूसरे इनके पिता, जो दीर्घकालतक काले मुखसे युक्त हो नरकमें रहे हैं और मैं, जिसने अपने शुद्ध कर्मके प्रभावसे इन्द्रका परम दुर्लभ सिंहासन प्राप्त किया था, तुझ मन्त्रज्ञ पुत्रके द्वारा गयामें पिण्डदान करनेसे हम तीनों ही बलात्‌ मुक्त हो गये ।

   एक बार गया जाना और एक बार वहाँ पितरोंको पिण्ड देना भी दुर्लभ है; फिर नित्य वहीं रहनेका अवसर मिले, इसके लिये तो कहना ही क्या है ! देश-कालके प्रमाणानुसार कहीं-कहीं मृत्युकालसे एक वर्ष बीतनेके बाद अपने भाई-बन्धु पतित पुरुषोंके लिये गयाकूपमें पिण्डदान करते हैं । एक समय किसी प्रेतराजने एक वैश्यसे अपनी मुक्तिके लिये अनुरोध करते हुए कहा―तुम गयातीर्थका दर्शन करके स्नान कर लेना और पवित्र होकर मेरा नाम ले मेरे लिये पिण्डदान करना । वहाँ पिण्ड देनेसे मैं अनायास ही प्रेतभावसे मुक्त हो सम्पूर्ण दाताओंको प्राप्त होनेवाले शुभ लोकोंमें चला जाऊँगा । वैश्यसे ऐसा कहकर अनुयायियोंसहित प्रेतराजने एकान्तमें विधिपूर्वक अपने नाम आदि अच्छी तरह बताये । वैश्य धनोपार्जन करके परम उत्तम गयातीर्थ नामक तीर्थमें गया । उस महाबुद्धि वैश्यने वहाँ पहले अपने पितरोंको पिण्ड आदि देकर फिर सब प्रेतोंके लिये क्रमश: पिण्डदान और धनदान किया । उसने अपने पितरों तथा अन्य कुट्म्बीजनोंके लिये भी पिण्डदान किया था । वैश्यद्वारा इस प्रकार पिण्ड दिये जानेपर वे सभी प्रेत प्रेतभावसे छूटकर द्विजत्वको प्राप्त हो ब्रह्मललोकमें चले गये । गयामें किये हुए श्राद्ध, जप, होम और तप अक्षय होते हैं । यदि पिताकी क्षयाह-तिथिकों पुत्रोंद्वारा ये कर्म किये जायेँ तो वे मोक्षकी प्रात करानेवाले होते हैं । पितृगण नरकके भयसे पीड़ित हो पुत्रकी अभिलाषा करते हैं और सोचते हैं―जो कोई पुत्र गया जायगा, वह हमें तार देगा ।

   गयामें  धर्मपृष्ठ,  ब्रह्मसभा, गयाशीर्ष तथा अक्षयवटके समीप पितरोंके लिये जो कुछ दिया जाता है, वह अक्षय होता है । ब्रह्मारण्य, धर्मपृष्ठ और धेनुकारण्य―इनका दर्शन करके वहाँ पितरोंकी पूजा करनेसे मनुष्य अपनी बीस पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है । महान्‌ कल्पपर्यन्त किया हुआ पाप गयामें पहुँचनेपर नष्ट हो जाता है । गोतीर्थ और गृध्रवटतीर्थमें किया हुआ श्राद्धदान महान फल देनेवाला होता है । वहाँ सब मनुष्य मतंगके आश्रमका दर्शन करते हैं और सब लोकोंके समक्ष ‘ धर्मसर्वस्व ‘ को घोषणा करते हैं । वहाँ पवित्र पङ्कजवन नामक तीर्थ है, जो पुण्यात्मा पुरुषोंसे सेवित है, जिसमें पिण्डदान दिया जाता है । वह सबके लिये दर्शनीय तीर्थ है । तृतीयातीर्थ, पादतीर्थ,नि:क्षीरामण्डलतीर्थ, महाहलद तथा कौशिकोतीर्थ―इन सबमें किया हुआ श्राद्ध महान्‌ फल देनेवाला होता है । मुण्डपृष्ठमें परम बुद्धिमान्‌ महादेवजीने अपना पैर दे रखा है । अन्य तीर्थोंमें अनेक सौ वर्षोतक जो दुष्कर तपस्या की जाती है, उसके समान फल यहाँ थोड़े ही समयके तीर्थसेवनसे प्राप्त हो जाता है । धर्मपरायण मनुष्य इस तीर्थमें आकर अपनी समस्त पापराशिको तत्काल दूर कर देता है, ठीक उसी तरह जैसे सॉप पुरानी कैंचुलको त्याग देता है । वहीं मुण्डपृष्ठतीर्थके उत्तर भागमें कनकनन्दा नामसे विख्यात तीर्थ है, जहां ब्रह्मर्षिगण निवास करते हैं । वहाँ स्नान करके मनुष्य अपने शरीरके साथ स्वर्गलोकको जाते हैं। वहाँ किया हुआ श्राद्ध, दान सदा अक्षय कहा गया है । सुलोचने ! वहाँ नि:क्षीरामें तीन दिनतक स्नान करके मानसरोवरमें नहाकर श्राद्ध करे । उत्तरमानसमें जाकर मनुष्य परम उत्तम सिद्ध प्राप्त कर लेता है । जो अपनी शक्ति और बलके अनुसार वहाँ श्राद्ध करता है, वह दिव्य भोगों और मोक्षके सम्पूर्ण उपायोंको प्राप्त कर लेता है । तदनन्तर ब्रहासरोवरतीर्थमें जाय, जो ब्रह्मयूपसे सुशोभित है । वहाँ श्राद्ध करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोकको प्रात होता है । सुभगे ! तदनन्तर लोकविख्यात धेनुकतीर्थमें जाय । वहाँ एक रात रहकर तिलमयी धेनुका दान करे । ऐसा करनेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो निश्चय ही चन्द्रलोकमें जाता है । तत्पश्चात्‌ परम बुद्धिमान्‌ महादेवजीके गृध्रवट नामक स्थानको जाय । वहाँ भगवान्‌ शङ्करके समीप जाकर अपने अंगोंमें भस्म लगावे । देवि ! ऐसा करनेसे ब्राह्मणोंको तो बारह वर्षोतक किये जानेवाले व्रतका पुण्य प्राप्त होता है और अन्य वर्णके लोगोंका सारा पाप नष्ट हो जाता है ।

   तत्पश्चात्‌ उदयगिरि पर्वतपर जाय; जहाँ दिव्य संगीतकी ध्वनि गूँजती रहती है । वहाँ सावित्रीदेवीका परम पुण्यदायक पदचिह्न दृष्टिगोचर होता है । उत्तम व्रतका पालन करनेवाला ब्राह्मण वहाँ संध्योपासना करे। इससे बारह वर्षोतक संध्योपासना करनेका फल प्राप्त होता है । विधिनन्दिनि ! वहीं योनिद्वार है। वहाँ जानेसे मनुष्य योनि-संकटसे सदाके लिये मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य शुक्ल और कृष्ण दोनों पक्षोंमें गयातीर्थमें निवास करता है, वह अपने कुलकी सात पीढ़ियोंको पवित्र कर देता है । सुभगे ! तदनन्तर महान फलदायक धर्मपृष्ठ नामक तीर्थमें जाय, जहाँ पितृलोकका पालन करनेवाले साक्षात्‌ धर्मराज विराजमान हैं । वहाँ जानेसे मनुष्य अश्वमेध-यज्ञका फल पाता है । तदनन्तर मनुष्य परम उत्तम ब्रह्मतीर्थमें जाय, वहाँ ब्रह्माजीके समीप जानेसे राजसूय-यज्ञका फल मिलता है । तदनन्तर फल्गुतीर्थमें जाय । वह प्रचुर फल-मूलसे सम्पन्न और विख्यात है । वहीं कौशिको नदी है, जहाँ किया हुआ श्राद्ध अक्षय माना गया है । वहाँसे उस पर्वतपर जाय, जो परम पुण्यात्मा, धर्मज्ञ राजर्षि गयके द्वारा सुरक्षित रहा है । वहीं गयशिर नामका सरोवर है, जहाँ पुण्यसलिला महानदी विद्यमान हैं । ऋषियोंसे सेवित परम पुण्यमय ब्रह्मसरोवर नामक तीर्थ भी वहीं है, जहाँ भगवान्‌ अगस्त्य वैवस्वत यमसे मिले थे और जहाँ सनातन धर्मराज निरन्तर निवास करते हैं । वहाँ सब सरिताओंका उद्गम दिखायी देता है और पिनाकपाणि महादेव वहाँ नित्य निवास करते हैं । लोकविख्यात अक्षयवट भी वहीं है । पूर्वकालमें यजमान राजा गयने वहाँ यज्ञ किया था । वहाँ प्रकट हुई सरिताओंमें श्रेष्ठ गज़ा गयके यज्ञोंमें सुरक्षित थीं । मुण्डपृष्ठ,गया, रैवत, देवगिरि, तृतीय, क्रौञ्चपाद―इन सबका दर्शन करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । शिवनदीमें शिवकरका, गयामें गदाधरका और सर्वत्र परमात्माका दर्शन करके मनुष्य पापराशिसे मुक्त हो जाता है । काशीमें विशालाक्षी, प्रयागमें ललितादेवी, गयामें मङ्गलादेवी तथा कृतशौचतीर्थमें सैंहिकादेवीका दर्शन करनेसे भी उक्त फलकों प्राप्ति होती है । गयामें रहकर मनुष्य जो कुछ दान करता है, वह सब अक्षय होता है। उसके उत्तम कर्मसे पितर प्रसन्न होते हैं। पुत्र गयामें स्थित होकर जो अन्नदान करता है, उसीसे पितर अपनेकों  पुत्रवान्‌ मानते हैं ।

अध्याय १३८ गयामें प्रथम और द्वितीय दिनके कृत्यका वर्णन, प्रेतशिला आदि तीर्थोंमें पिंडदान आदिके विधि उन तीर्थोंकी महिमा

पुरोहित वसु कहते हैंमोहिनी ! सुनो, अब मैं प्रेतशिलाका पवित्र माहात्म्य बतलाता हूँ, जहाँ पिण्डदान करके मनुष्य अपने पितरोंका उद्धार करता है । प्रभासात्रिने शिलाके चरणप्रान्तको आच्छादित कर रखा है । मुनियोंसे संतुष्ट हुए प्रभास शिलाके अंगुष्ठभागसे प्रकट हुए । अंगुष्ठभागमें ही भगवान्‌ शङ्कर स्थित हैं । इसलिये वे प्रभासेश कहे गये हैं । शिलाके अंगुष्ठका जो एक देश है, उसीमें प्रभासेशकी स्थिति है और वहीं प्रेतशिलाको स्थिति है । वहाँ पिण्डदान करनेसे मनुष्य प्रेतयोनिसे मुक्त हो जाता है, इसीलिये उसका नाम ‘ प्रेतशिला ‘ है । महानदी तथा प्रभासात्रिके संगममें स्नान करनेवाला पुरुष साक्षातू वामदेव ( शिव )-स्वरूप हो जाता है । इसीलिये उक्त संगमको ‘ वामतीर्थ ‘ कहा गया है । देवताओंके प्रार्थना करनेपर भगवान्‌ श्रीरामने जब महानदीमें स्नान किया, तभीसे वहाँ सम्पूर्ण लोकोंको पवित्र करनेवाला ‘ रामतीर्थ ‘ प्रकट हुआ । मनुष्य अपने सहस्रों जन्मोंमें जो पापराशि संग्रह करते हैं, वह सब रामतीर्थमें स्नान करनेमात्रसे नष्ट हो जाती है । जो मनुष्य―

राम राम महाबाहों देवानामभयंकर।        

त्वां नमस्ये तु देवेश मम नश्यतु पातकम्‌॥

(ना० उत्तर० ४५। ८-९)

      ‘ महाबाहु राम ! देवताओंको अभय देनेवाले श्रीराम ! आपको नमस्कार करता हूँ । देवेश ! मेरा पातक नष्ट हो जाय ।’

      ―इस मन्त्रद्वारा रामतीर्थमें स्नान करके श्राद्ध एवं पिण्डदान करता है, वह विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है । प्रभासेश्वरको नमस्कार करके भासमान शिवके समीप जाना चाहिये और उन भगवान्‌ शिवकों नमस्कार करके यमराजको बलि दे और इस प्रकार कहे―’ देवेश ! आप ही जल हैं तथा आप ही ज्योतियोंके अधिपति हैं। आप मेरे मन वचन, शरीर और क्रियाद्वारा उत्पन्न हुए समस्त पापोंका शीघ्र नाश कोजिये।’ शिलाके जघन प्रदेशको यमराजने दबा रखा है । धर्मराजने पर्वतसे कहा― ‘ न गच्छ ‘  ( गमन न करो-हिलो-डुलो मत ), इसलिये पर्वतको ‘ नग ‘ कहते हैं । यमराजको बलि देनेके पश्चात्‌ उनके दो कुत्तोंको भी अन्नकी बलि या पिण्ड देना चाहिये । उस समय इस प्रकार कहे―’ वैवस्वतकुलमें उत्पन्न जो दो श्याम और सबल नामवाले कुत्ते हैं, उनके लिये मैं पिण्ड दूँगा । ये दोनों हिंसा न करें ।’ तत्पश्चात्‌ प्रेतशिला आदि तीर्थमें घृतयुक्त चरुके द्वारा पिण्ड बनावे और पितरोंका आवाहन करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक उनके लिये पिण्ड दे । प्रेतशिलापर पवित्रचित्त हो जनेऊको अपसव्य करके दक्षिण दिशाकी ओर मुँह किये हुए पितरोंका ध्यान एवं स्मरण करे- `कव्यवाहक, अनल, सोम, यम, अर्यमा, अग्रिष्वात्त, बाहिरषद और सोमपा―ये सब पितृ-देवता हैं । हे महाभाग पितृदेवताओ ! आप यहाँ पधारें और आपके द्वारा सुरक्षित मेरे पितर एवं मेरे कुलमें उत्पन्न हुए जो भाई-बन्धु हों, वे भी यहाँ आवें । मैं उन सबको पिण्ड देनेके लिये इस गयातीर्थमें आया हूँ । वे सब-के-सब इस श्राद्ध दानसे अक्षय तृप्तिलाभ करें ।’

   तत्पश्चात्‌ आचमन करके पञ्चाङ्ग-न्यासपूर्वक यत्नत: प्राणायाम करे;  फिर देश-काल आदिका उच्चारण करके अस्मत्‌ पितृणां पुनरावृत्तिरहित- ब्रहालोकापतिहेतवे गयाश्राद्धमहं करिष्ये  ( अपने पितरोंको पुनरावृत्तिरहित ब्रह्मलोककी प्राप्ति करानेके लिये मैं गयाश्राद्ध करूँगा ) ऐसा संकल्प करके शास्त्रोक्त क्रमसे विधिपूर्वक श्राद्ध करे । पहले श्राद्धके स्थानको पृथक्‌-पृथक्‌ पंचगव्यसे सींचकर पितरोंका आवाहन-पूजन करे । तत्पश्चात्‌ मन्त्रोंद्वरा पिण्डदान करे । पहले सपिण्ड पितरोंको श्राद्धका पिण्ड देकर उनके दक्षिण भागमें कुश बिछाकर उनके लिये एक बार तिल और जलकी अञ्जलि दे । अञ्जलिमें तिल और जल लेकर यत्नपूर्वक पितृतीर्थसे उनके लिये अंजलि देनी चाहिये; फिर एक मुठी सत्तूसे अक्षय्य पिण्ड दे । पिण्डद्रव्योंमें तिल, घी, दही और मधु आदि मिलाना चाहिये। सम्बन्धियोंका तिल आदिके द्वारा कुशोंपर आवाहन करना चाहिये । श्राद्धमें माता, पितामही और प्रपितामहीके लिये जो तीन मन्त्र-वाक्य बोले जाते हैं, उनमें यथास्थान स्त्रीलिङ्गका उच्चारण करना चाहिये । सम्बन्धियोंके लिये भी पूर्ववत्‌ पितरोंका आवाहन करते हुए पहलेकी ही भाँति पिण्ड दे । अपने गोत्रमें या पराये गोत्रमें पति-पत्नीके लिये पिण्ड देते समय यदि पृथक्‌-पृथक्‌ श्राद्ध, पिण्डदान और तर्पण नहीं किया गया तो वह व्यर्थ है । पिण्डपात्रमें तिल देकर उसे शुभ जलसे भर दे और मन्त्रपाठपूर्वक उस जलसे प्रदक्षिणक्रमसे उन सब पिण्डोंको तीन बार सींचे । तत्पश्चात्‌ प्रणाम करके क्षमा-प्रार्थना करे । तदनन्तर पितरोंका विसर्जन करके आचमन करनेके पश्चात्‌ साक्षी देवताओंको सुना दे । मोहिनी ! सब स्थानोंमें इसी प्रकार पिण्डदान करना चाहिये ।

   गयामें पिण्डदानके लिये समय एवं मुहूर्तका विचार नहीं करना चाहिये । मलमास हो, जन्मदिन हो, गुरु और शुक्र अस्त हों, अथवा बृहस्पति सिंहराशिपर स्थित हों तो भी गयाश्राद्ध नहीं छोड़ना चाहिये । संन्यासी गयामें जाकर दण्ड दिखावे, पिण्डदान न करे । वह विष्णुपदमें दण्ड रखकर पितरोंसहित मुक्त हो जाता है । गयामें खीर, सत्तू, आटा, चरु अथवा चावल आदिसे भी पिण्डदान किया जाता है । सुभगे ! गयाजीका दर्शन करके महापापी और पातकी भी पवित्र एवं श्राद्ध-कर्मका अधिकारी हो जाता है और श्राद्ध करनेपर वह ब्रह्मलोकका भागी होता है । ‘ फल्गुतीर्थमें श्राद्ध करनेवाला मनुष्य जिस फलको पाता है, उसे जो एक लाख अश्वमेध-याज्ञोंका अनुष्ठान करता है वह भी नहीं पाता । मनुष्यको गयामें जाकर अवश्य पिण्डदान करना चाहिये । वहाँके पिण्ड पितरोंको अत्यन्त प्रिय हैं । इस कार्यमें न तो विलम्ब करना चाहिये और न विघ्न डालना चाहिये ।

   ( श्राद्धकर्ताको गयामें इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये―) पिता, पितामह, प्रपितामह, माता, पितामही, प्रपितामही, मातामह, मातामहके पिता प्रमातामह आदि ( अर्थात्‌ वृद्धप्रमातामह, मातामही, प्रमातामही और वृद्धप्रमातामही )―इन सबके लिये मेरा दिया हुआ पिण्डदान अक्षय होकर प्राप्त हों । मेरे कुलमें जो मरे हैं, जिनकी उत्तम गति नहीं हुई है, उनके उद्धारके लिये मैं यह पिण्ड देता हूं । मेरे भाई-बन्धुओंके कुलमें जो लोग मरे हैं और जिनकी उत्तभ गति नहीं हुई है, उनके उद्धारके लिये मैं यह पिण्ड-देता हूं । जो फांसी पर लटककर मरे हैं, जहर खाने या शास्त्रोंके आघातसे जिनकी मृत्यु हुई है और जो आत्मघाती हैं, उनके लिये मैं पिण्ड देता हैं । जो यमदूतोंके अधीन होकर सब नरकोंमें यातनाएँ भोगते हैं उनके उद्धारके लिये मैं यह पिण्डदान करता हैं । जो पशुयोनिमें पड़े हैं, पक्षी, कीट एवं सर्पका शरीर धारण कर चुके हैं अथवा जो वृक्षोंकी योनिमें स्थित हैं, उन सबके लिये मैं यह पिण्ड देता हूँ । द्युलोक, अन्तरिक्ष और पृथ्वीपर स्थित जो पितर और भाई-बन्धु आदि हैं तथा संस्कारहीन अवस्थामें जिनकी मृत्यु हुई है, उनके लिये मैं पिण्ड देता हूँ । जो मेरे भाई-बन्धु हों अथवा न हों या दूसरे जन्ममें मेरे भाई-बन्धु रहे हों, उन सबके लिये मेरा दिया हुआ पिण्ड अक्षय होकर मिले । जो मेरे पिताके कुलमें मरे हैं, जो माताके कुलमें मरे हैं, जो गुरु, श्वशुर तथा बन्धु-बान्धवोंके कुलमें मरे हैं एवं इनके सिवा जो दूसरे भाई-बन्धु मृत्युको प्राप्त हुए हैं, मेरे कुलमें जिनका पिण्डदान-कर्म नहीं हुआ है, जो स्त्री-पुत्रसे रहित हैं, जिनके श्राद्धकर्मका लोप हो गया है, जो जन्मसे अन्धे और पंगु रहे हैं, जो विकृतरूपवाले या कच्चे गर्भकी दशामें मरे हैं, मेरे कुलमें मरे हुए जो लोग मेरे परिचित या अपरिचित हों, उन सबके लिये मेरा दिया हुआ पिण्ड अक्षयभावसे प्राप्त हो । ब्रह्मा और शिव आदि सब देवता साक्षी रहें । मैंने गयामें आकर पितरोंका उद्धार किया है । देव गदाधर ! मैं पितृकार्य ( श्राद्ध)- के लिये गयामें आया हूँ । भगवन्‌ ! आप ही इस बातके साक्षी हैं । मैं तीनों ऋणोंसे मुक्त हो गया । दूसरे दिन पवित्र होकर प्रेतपर्वतपर जाय और वहाँ ब्रह्मकुण्डमें स्नान करके विद्वान्‌ पुरुष देवता आदिका तर्पण करे। फिर पवित्र होकर प्रेतपर्वतपर पितरोंका आवाहन करे और पूर्ववत्‌ संकल्प करके पिण्ड दे । परम उत्तम पितृदेवताओकी उनके नाम-मन्त्रोंद्वारा भली भाँति पूजा करके उनके लिये पिण्डदान करे । मनुष्य पितृ-कर्ममें जितने तिल ग्रहण करता है, उतने ही असुर भयभीत होकर इस प्रकार भागते हैं, जैसे गरुड़को देखकर सर्प भाग जाते हैं। मोहिनी ! उस प्रेतपर्वतपर पूर्ववत्‌ सब कार्य करे । तत्पश्चात्‌ वहाँ तिलमिश्रित सत्तू दे और इस प्रकार प्रार्थना करे―

ये केचित्प्रेतरूपेण वर्तन्ते पितरो मम ॥।

ते सर्वे तृप्तिमायान्तु सक्तुभिस्तिलमिश्रितै: ।

आब्रहास्तम्बपर्यन्तं यत्किंचित सचराचरम्‌ ॥

मया दत्तेन पिण्डेन तृप्तिमायान्तु सर्वश: ।

(ना० उत्तर० ४५। ६४-६६)

     ‘ जो कोई मेरे पितर प्रेतरूपमें विद्यमान हैं, वे सब इन तिलमिश्रित सत्तुओंके दानसे तृप्तिपलाभ करें । ब्रह्माजीसे लेकर कीटपर्यन्त जो कुछ भी चराचर जगत्‌ है, वह मेरे दिये हुए पिण्डसे पूर्ण: तृप्त हो जाय ।’

   सबसे पहले पाँच तीर्थोंमें तथा उत्तरमानसमें श्राद्ध करनेकी विधि है। हाथमें कुश लेकर आचमन करके कुशयुक्त जलसे अपना मस्तक सींचे और उत्तरमानसमें जाकर मन्त्रोच्चारणपूर्वक स्त्रान करे उस समय इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये―

उत्तरे मानसे स्नानं लरोम्यात्मविशुद्धये ।

सूर्यलोकादिसम्प्राप्तिसिद्धये पितृमुक्तये॥ ६८ ॥

    ‘मैं उत्तरमानसमें आत्मशुद्धि, सूर्यादि लोकोंकी प्राप्ति तथा पितरोंकी मुक्तिके लिये स्नान करता हूँ ।’

   इस प्रकार स्नान करके विधिपूर्वक देवता आदिका तर्पण करे और अन्तमें इस प्रकार कहे―

आब्रहास्तम्बपर्यन्त देवर्षिपितृमानवा: ।

तृप्यन्तु पितर: सर्वे मातृमातामहादय: ॥ ६९-७२ ।।

     ‘ ब्रह्माजीसे लेकर कीटपर्यन्त समस्त जगत, देवता, ऋषि, दिव्य पितर, मनुष्य, पिता, पितामह, प्रपितामह, माता, पिंतामही, प्रपितामही, मातागद और प्रमातामह आदि सब लोग तृप्त हो जाय ।

   अपनी शाखाके गुह्यसूत्रमें बतायी हुई विधिकेअनुसार पिण्डदानसहित श्राद्ध करना चाहिये । अष्टकाश्राद्ध, आभ्युदयिकश्राद्ध,  गयाश्राद्ध तथा क्षयाह तिथिको किये जानेवाले एकोदयिष्ट श्राद्धमें माताके लिये पृथक श्राद्ध करना चाहिये और अन्यत्र पतिके साथ ही संयुक्तरूपसे उसके लिये श्राद्ध करना उचित है। तदनन्तर―

ॐ नमोअस्तु भानवे भत्रेर सोमभौमज्ञरूपिणे।

जीवभार्गवशनैश्चरराहुकेतुस्वरूपिणे ॥ ७२१॥

     ‘ सोम, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनैश्चर, राहु तथा केतु―ये सब जिनके स्वरूप हैं, सबका भरण-पोषण करनेवाले उन भगवान्‌ सूर्यको नमस्कार है ।’

     ―इस मन्त्रसे भगवान्‌ सूर्यको नमस्कार करके उनकी पूजा करे । ऐसा करनेवाला पुरुष अपने पितरोंको सूर्यलोकमें पहुँचा देता है । मानसरोवर पूर्वोक्त प्रेतपर्वत आदिसे यहाँ उत्तरमें स्थित है, इसलिये इसे उत्तरमानस कहते हैं। उत्तरमानससे मौन होकर दक्षिणमानसकी यात्रा करनी चाहिये । उत्तरमानससे उत्तर दिशामें उदीची नामक तीर्थ है, जो पितरोंको मोक्ष देनेवाला है । उदीची और मुण्डपृष्ठके मध्यभागमें देवताओं, ऋषियों तथा मनुष्योंको तृप्त करनेवाला कनखलतीर्थ है, जो पितरोंको उत्तम गति देनेवाला है । वहाँ स्नान करके मनुष्य बुकनककी भाँति प्रकाशित होता है और अत्यन्त पवित्र हो जाता है; इसीलिये वह परम उत्तम तीर्थ लोकमें कनखल नामसे विख्यात है । कनखलसे दक्षिण भागमें दक्षिणमानसतीर्थ है । दक्षिणमानसे तीन तीर्थ बताये गये हैं । उन सबमें विधिपूर्वक स्नान करके पृथक्‌-पृथक्‌ श्राद्ध करना चाहिये । स्नानके समय निम्नाड्कित मन्त्रका उच्चारण करे―

दिवाकर करोमीह स्त्रानं दक्षिणमानसे।

ब्रह्महत्यादिपापौघघातनाय विमुक्तये॥ ७८-७९ ॥

     ‘ भगवन्‌ दिवाकर ! मैं ब्रह्महत्या आदि पापोंके समुदायका नाश करने और मोक्ष पानेके लिये यहाँ दक्षिणमानसतीर्थमें स्नान करता हूँ।’

   यहाँ स्नान-पूजन आदि करके पिण्डसहित श्राद्ध करे और अन्तमें पुनः भगवान्‌ सूर्यको प्रणाम करते हुए निम्नांकित वाक्य कहे―

नमामि सूर्य तृप्त्यर्थ पितृणां तारणाय च।

पुत्रपौत्रधनैश्चर्याद्यायुरारोग्यवृद्धये ॥८०॥

     ‘ मैं पितरोंकी तृप्ति तथा उद्धारके लिये और पुत्र, पौत्र, धन, ऐश्वर्य आदि आयु तथा आरोग्यकी वृद्धिकि लिये भगवान्‌ सूर्यको प्रणाम करता हूँ ।’

   इस प्रकार मौनभावसे सूर्यका दर्शन और पूजन करके नीचे लिखे मन्त्रका उच्चारण करे―

कव्यवाडादयो ये च पितृणां देवतास्तथा।

मदीयै: पितृभि: साद्ध तर्पिता: स्थ स्वधाभुज: ॥८१-८२॥

   ‘ कव्यवाड, अनल आदि जो पितरोंके देवता हैं, वे मेरे पितरोंके साथ तृप्त होकर स्वधाका उपभोग करें ।’

   वहाँसे सब तीथोंमें परम उत्तम फल्गुतीर्थको जाय। वहाँ श्राद्ध करनेसे सदा पितरोंकी तथा श्राद्धकर्ताकी भी मुक्ति होती है। पूर्वकालमें ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे भगवान्‌ विष्णु स्वयं फल्गुरूपसे प्रकट हुए थे। दक्षिणाग्रिमें ब्रह्माजीके द्वारा जो होम किया गया, निश्चय ही उसीसे फल्गुतीर्थका प्रादुर्भाव हुआ; जिसमें स्नान आदि करनेसे घरकी लक्ष्मी फलती-फूलती है, गौ कामधेनु होकर मनोवाज्छित फल देती है तथा वहाँका जल और भूतल भी मनोवाज्छित फल देता है । सृष्टिके अन्तर्गत फल्गुतीर्थ कभी निष्फल नहीं होता । समस्त लोकोंमें जो सम्पूर्ण तीर्थ हैं, वे सब फल्गुतीर्थमें स्नान करनेके लिये आते हैं । गंगाजी भगवान्‌ विष्णुका चरणोदक हैं और फल्गुरूपमें साक्षात्‌ भगवान्‌ आदिगदाधर प्रकट हुए हैं । वे स्वयं ही द्रंव ( जल )- रूपमें विराजमान हैं, अतः फल्गुतीर्थको गंगासे अधिक माना गया है । फल्गुके जलमें स्नान करनेसे सहस्त्र अश्वमेध-यज्ञॉंका फल प्राप्त होता है । ( उसमें स्नान करते समय निम्नाड़ित मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये – )

फल्गुतीर्थ विष्णुजले करोमि स्त्रानमद्य वै।

पितृणां विष्णुलोकाय भुक्तिमुक्तिप्रसिद्धये ॥ ८८ ॥।

     ‘ भगवान्‌ विष्णु ही जिसके जल हैं, उस फल्गुतीर्थमें आज मैं स्नान करता हूँ। इसका उद्देश्य यह है कि पितरोंको विष्णुलोककी और मुझे भोग एवं मोक्षकी प्राप्ती हो ।’

   फल्गुतीर्थमें स्नान करके मनुष्य अपने गुह्यसूत्रमें बतायी हुई विधिके अनुसार तर्पण एवं पिण्डदानपूर्वक श्राद्ध करे । तत्पश्चात्‌ शिवलिङ्गरूपमें स्थित ब्रह्माजीको नमस्कार करे―

नमः शिवाय देवाय इशानपुरुषाय च।

अधघोरवामदेवाय सद्योजाताय शम्भवे॥ ९० ॥।

      ‘ ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात―इन पाँच नामोंसे प्रसिद्ध कल्याणमय भगवान्‌ शिवको नमस्कार है ।’

   इस मन्त्रसे पितामहको नमस्कार करके उनको पूजा करनी चाहिये । फल्गुतीर्थमें स्नान करके यदि मनुष्य भगवान्‌ गदाधरका दर्शन और उनको नमस्कार करे तो वह पितरोंसहित अपने-आपको वैकुण्ठधाममें ले जाता है। ( भगवान्‌ गदाधरको नमस्कार करते समय निम्नाकित मन्त्र पढ़ना चाहिये -)

ॐ नमो वासुदेवाय नम: संकर्षणाय च।

प्रद्युप्नायानिरुद्धाय श्रीधराय च विष्णवे॥ ९२-९३।।

   ‘ वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युप्न तथा अनिरुद्ध इन चार व्यूहोंवाले सर्वव्यापी भगवान्‌ श्रीधरको नमस्कार है ।’

   पाँच तीर्थोंमें स्नान करके मनुष्य अपने पितरोंको ब्रह्मलोकमें पहुँचाता है। जो भगवान्‌ गदाधरकों पाँच तीर्थोंके जलसे स्नान कराकर उन्हें पुष्प और वस्त्र आदिसे सुशोभित नहीं करता, उसका किया हुआ श्राद्ध व्यर्थ होता है। नागकूट, गृध्रकूट,भगवान्‌ विष्णु तथा उत्तरमानस—इन चारोंके मध्यका भाग ‘ गयाशिर ‘ कहलाता है। इसीको फल्गुतीर्थ कहते हैं । मुण्डपृष्ठ पर्वतके नीचे परम उत्तम फल्गुतीर्थ हैं । उसमें श्राद्ध आदि करनेसे सब पितर मोक्षको प्राप्त होते हैं । यदि मनुष्य गयाशिरतीर्थमें शमीपत्रके बराबर भी पिण्डदान करता है तो वह जिसके नामसे पिण्ड देता है, उसे सनातन ब्रह्मपदको पहुँचा देता है । जो भगवान्‌ विष्णु अव्यक्त रूप होते हुए भी मुण्डपृष्ठ पर्वत तथा फलगु आदि तीर्थोंके रूपमें सबके सामने अभिव्यक्त हैं,  उन भगवान्‌ गदाधरको मैं नमस्कार करता हूँ । शिला पर्वत तथा फल्गु आदि आदिगदाधररूपसे सबके समक्ष प्रकट हुए हैं ।

   तदनन्तर धर्मारण्यतीर्थको जाय, जहाँ साक्षात धर्म विराजमान हैं । वहाँ मतङ्गवापीमें स्नान करके तर्पण और श्राद्ध करे । फिर मतंगेश्वरके समीप जाकर उन्हें नमस्कार करते हुए निम्नकित मन्त्रका उच्चारण करे—

प्रमाणं देवता: शम्भुलॉकपालाश्च साझिण: ।

मयागत्य मतंगेSस्मिन्‌ पितृणां निष्कृति: कृता॥ १०१-१०२॥

      ‘ सब देवता और भगवान्‌ शंकर प्रमाणभूत हैं तथा समस्त लोकपाल भी साक्षी हैं । मैंने इस मतङ्गतीर्थमें आकर पितरोंका उद्धार किया है— उनका ऋण चुकाया है ।’

   पहले ब्रह्मतीर्थमें, फिर ब्रह्मकूपमें श्राद्ध आदि करे । कूप और यूपके मध्यभागमें श्राद्ध करनेवाला पुरुष पितरोंका उद्धार कर देता है । धर्मेश्वर धर्मको नमस्कार करके महाबोधि वृक्षको प्रणाम करे । मोहिनी ! यह दूसरे दिनका कृत्य मैंने तुम्हें बताया है । स्नान, तर्पण, पिण्डदान, पूजन और नमस्कार आदिके साथ किया हुआ श्राद्धकर्म पितरोंको सुख देनेवाला होता है ।

अध्याय १३९ गयामें तीसरे और चौथे दिनका कृत्य, ब्रहातीर्थ तथा विष्णुपद आदिकी महिमा

पुरोहित वसु कहते हैंमोहिनी ! अब मैं तुम्हें गयाजीमें तीसरे दिनका कृत्य बतलाता हूं, जो भोग और मोक्ष देनेवाला है । उसका श्रवण गया-सेवनका फल देनेवाला है । ‘ ब्रह्मसर ‘ में स्नान करके पिण्डसहित श्राद्ध करना चाहिये । ( स्नानके समय इस प्रकार कहे―)

स्नानं करोमि तीर्थेअस्मिन्नरीणत्रयविमुक्तये ॥

श्राद्धाय पिण्डदानाय तर्पणायार्थसिद्धये ।

(ना० उत्तर० ४६। २-३)

       ‘ मैं तीनों ऋणोंसे मुक्ति पाने, श्राद्ध, तर्पण एवं पिण्डदान करने तथा अभीष्ट मनोरथोंकी सिद्धिके लिये इस तीर्थमें स्नान करता हूँ ।’

   ब्रह्मकूप और ब्रह्मयूपके मध्यभागमें स्नान, तर्पण एवं श्राद्ध करनेवाला पुरुष अपने पितरोंका उद्धार कर देता है। स्नान करके ‘ ब्रह्मयूप ‘ नामसे प्रसिद्ध जो ऊँचा यूप है, वहाँ श्राद्ध करे । ब्रह्मसरमें श्राद्ध करके मनुष्य अपने पितरोंको ब्रह्मलोकमें पहुँचा देता है। गोप्रचारतीर्थके समीप ब्रह्माजीके द्वारा उत्पन्न किये हुए आम्रवृक्ष हैं, उनको सींचनेमात्रसे पितृगण मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। [ आम्रवृक्षको सींचते समय निम्नांकित मन्त्रका उच्चारण करे- ]

आम्र ब्रहासरोद्भुतं सर्वदेवमयं विभुम्‌।

विष्णुरूप प्रसिज्चामि पितृणां चैव मुक्तये॥ ६॥

      ‘ ब्रह्मसरमें प्रकट हुआ आम्रवृक्ष सर्वदेवमय है, वह सर्वव्यापी भगवान्‌ विष्णुका स्वरूप है । मैं पितरोंकी तृप्तिके लिये उसका अभिषेक करत हूँ ।’

   एक मुनि हाथमें जलसे भरा हुआ घड़ा और कुशका अग्रभाग लेकर आमकी जड़में पानी दे रहे थे । उन्होंने आमको भी सींचा और पितरोंको भी तृप्त किया। उनकी एक ही क्रिया दो प्रयोजनोंको सिद्ध करनेवाली हुई । ब्रह्मयूपकी परिक्रमा करके मनुष्य वाजपेय-यज्ञका फल पाता हैं और ब्रह्माजीको नमस्कार करके अपने पितरोंको ब्रह्मलोकमें ले जाता है। ( निम्नांकित मन्त्रसे ब्रह्माजीको नमस्कार करना चाहिये― )

ॐ नमो ब्रह्मणेSजाय जगजन्मादिकारिणे ।

भक्तानां च पितृणां च तारकाय नमो नमः ॥ ९॥

     ‘ जगत्‌की सृष्टि, पालन आदि करनेवाले सच्चिदानन्द-स्वरूप अजन्मा ब्रह्माजीको नमस्कार है। भक्तों और पितरोंके उद्घारक पितामहकों बारम्बार नमस्कार है ।’

   तत्पश्चात्‌ निम्नांकित मन्त्रसे इन्द्रिय-संयमपूर्वक यमराजके लिये बलि दे―

यमराजधर्मराजौ निश्चलार्था इति स्थितौ।

ताभ्यां बलिं प्रयच्छामि पितृणां मुक्तिहेतवे॥ १०-११ ॥

    ‘ यमराज और धर्मराज―दोनों  सुस्थिर प्रयोजनवाले हैं । मैं पितरोंकी मुक्तिके लिये उन दोनोंको बलि अर्पित करता हूँ ।’

   मोहिनी ! इसके बाद ‘ दौ श्वानो श्यामशबलौ ‘― इत्यादि पूर्वोक्त मन्त्रसे कुत्तोंके लिये बलि देकर नीचे लिखे मन्त्रद्वार संयमपूर्वक काकबलि समर्पित करे―

ऐन्द्रवारुणवायदव्या याम्या वै नैऋतास्तथा।

वायसा: प्रतिगृहन्तु भूमौ पिण्डं मयार्पितम्‌॥ १२-४३ ॥।

     ‘ पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, वायव्य कोण तथा नैऋऋत्यकोणके कौए भूमिपर मेरे दिये हुए इस पिण्डको ग्रहण करें ।’

   तत्पश्चात्‌ हाथमें कुश लेकर ब्रह्मतीर्थमें स्नान करे । इस प्रकार विद्वान्‌ पुरुष तीसरे दिनका नियम समाप्त करके भगवान्‌ गदाधरकों नमस्कार को और ब्रह्मचर्य पालन करता रहे । चौथे दिन फल्गुतीर्थमे स्नान आदि कार्य करे । फिर गयाशिरमें ‘ पद ‘  पर पिण्डदानसहित श्राद्ध करे । वहाँ फल्गुतीर्थमें साक्षात्‌ ‘ गयाशिर ‘ का निवास है। क्रौञ्चपादसे लेकर फल्गुतीर्थतक―साक्षात्‌ गयाशिर है । गयाशिरपर वृक्ष, पर्वत आदि भी हैं, किंतु वह साक्षात्‌ रूपसे फल्गुतीर्थस्वरूप है । फल्गुतीर्थ गयासुरका मुख है । अत: वहाँ स्नान करके श्राद्ध करना चाहिये । आदिदेव भगवान्‌ गदाधर व्यक्त और अव्यक्त रूपका आश्रय ले पितरोंकी मुक्तिके लिये विष्णुपद आदिके रूपमें विद्यमान हैं । वहाँ जो दिव्य विष्णुपद है, वह दर्शनमात्रसे पापका नाश करनेवाला है । स्पर्श और पूजन करनेपर वह पितरोंको मोक्ष देनेवाला है । विष्णुपदमें पिण्डदानपूर्वक श्राद्ध करके मनुष्य अपनी सहस्र पीढ़ियोंका उद्धार करके उन्हें विष्णुलोक पहुँचा देता है । रुद्रपद अथवा शुभ ब्रह्मपदमें श्राद्ध करके पुरुष अपने ही साथ अपनी सौ पीढ़ियोंको शिवधाममें पहुँचा देता है । दक्षिणाग्रिपदमें श्राद्ध करनेवाला वाजपेय-यज्ञका और गार्हपत्यपदमें श्राद्ध करनेवाला राजसूय-यज्ञका फल पाता है । चन्द्रपदमें श्राद्ध करके अश्वमेध-यज्ञका फल मिलता है । सत्यपदमें श्राद्ध करनेसे ज्योतिष्ठोम-यज्ञके फलकी प्राप्ति होती है । आवसध्यपदमें श्राद्ध करनेवाला चन्द्रलोकको जाता है और इन्द्रपदमें श्राद्ध करके मनुष्य अपने पितरोंको इन्द्रलोक पहुँचा देता है । दूसरे-दूसरे देवताओंके जो पद हैं, उनमें श्राद्ध करनेवाला पुरुष अपने पितरोंको ब्रह्मलोकमें पहुँचा देता है । सबमें काश्यपपद श्रेष्ठ है । विष्णुपद, रुद्रपद तथा ब्रह्मपदकों भी सर्वश्रेष्ठ कहा गया है । मोहिनी ! आरम्भ और समाप्तिके दिनमें इनमेंसे किसी एक पदपर श्राद्ध करना श्राद्धकर्ताके लिये भी श्रेयस्कर होता है ।

   पूर्वकालमें भीष्मजीने विष्णुपदपर श्राद्ध करते समय अपने पितरोंका आवाहन करके विधिपूर्वक श्राद्ध किया और जब वे पिण्डदानके लिये उद्यत हुए उस समय गयाशिरमें उनके पिता शन्तनुके दोनों हाथ सामने निकल आये । परंतु भीष्मजीने भूमिपर ही पिण्ड दिया, क्योंकि शास्त्रमें हाथपर पिण्ड देनेका अधिकार नहीं दिया गया है । भीष्मके इस व्यवहारसे सन्तुष्ट होकर शन्तनु बोले―’ बेटा ! तुम शास्त्रीय सिद्धान्तपर दृढ़तापूर्वक डटे हुए हो, अतः त्रिकालदर्शी होओ और अन्तमें तुम्हें भगवान्‌ विष्णुकी प्राप्ति हो;  साथ ही जब तुम्हारी इच्छा हो, तभी मृत्यु तुम्हारा स्पर्श करे ।’ ऐसा कहकर शन्तनु मुक्त हो गये ।

   भगवान्‌ श्रीराम रमणीय रुद्रपदमें आकर जब पिण्डदान करनेको उद्यत हुए, उस समय पिता दशरथ स्वर्गसे हाथ फैलाये हुए वहाँ आये । किंतु श्रीरामने उनके हाथमें पिण्ड नहीं दिया । शास्त्रको आज्ञाका उल्लंघन न हो जाय, इसलिये उन्होंने रुद्रपदपर ही उस पिण्डको रखा । तब दशरथने श्रीरामसे कहा- ‘ पुत्र ! तुमने मुझे तार दिया ! रुद्रपदपर पिण्ड देनेसे मुझे रुद्रलोककी प्राप्ति हुई है। तुम चिरकालतक राज्यका शासन, धन प्रजाका पालन तथा दक्षिणासहित यज्ञोंका अनुष्ठान करके अपने विष्णुलीकको जाओगें । तुम्हारे साथ अयोध्याके सब लोग, कीड़े-मकोड़ेतक वैकुण्ठधाममें जायेँगे ।’ श्रीरामसे ऐसा कहकर राजा दशरथ परम उत्तम रुद्रलोकको चले गये ।

   कनकेश, केदार, नारसिंह और वामन-इनकी रथमार्गमें पूजा करके मनुष्य अपने समस्त उद्धार कर देता है । जो गयाशिरमें जिनके नामसे पिण्ड देते हैं, उनके वे पितर यदि नरकमें हों तो स्वर्गमें जाते हैं और स्वर्गमें हों तो मोक्षलाभ करते हैं । जो गयाशिरमें कन्द, मूल, फल आदिके द्वारा शमीपत्रके बराबर भी पिण्ड देता है, वह अपने पितरोंको स्वर्गलोकमें पहुँचा देता है । जहाँ विष्णु आदिके पद दिखायी देते हैं, वहाँ उनके आगे जिनके पदपर श्राद्ध किया जाता है, उन्हींके लोकोंमें मनुष्य अपने पितरोंको भेजता हैं । इन पदोंके द्वारा सर्वत्र मुण्डपृष्ठ पर्वत ही लक्षित होता है । वहाँ पूजित होनेवाले पितर ब्रह्मलोकको प्राप्त होते हैं । एक मुनि मुण्डपृष्ठमें कौञ्चवरूपसे तपस्या करते थे । उनके चरणोंका चिह्न जहाँ लक्षित होता है, वह क्रौज्नपद माना गया है । भगवान्‌ विष्णु आदिके पद यहाँ लिंगरूपमें स्थित हैं । देवता आदिका तर्पण करके रुद्रपदसे प्रारम्भ करके श्राद्ध करना चाहिये । मोहिनी ! यह चौथे दिनका कृत्य बताया गया है । इसे करके मनुष्य पवित्र एवं श्राद्धकर्मका अधिकारी होता है और श्राद्ध करनेपर वह ब्रह्मललोकका भागी होता है। शिलापर स्थित तीर्थोंमें स्तान और तर्पण करके जिनके लिये पिण्डदानपूर्वक श्राद्ध किया जाता है, वे ब्रह्मलोकको प्राप्त होते हैं और वहाँ कल्पपर्यन्त सानन्द निवास करते हैं।

अध्याय १४० गयामें पांचवे दिनका कृत्य, गयाके विभिन्न तीर्थोंकी पृथक्— पृथक् महिमा

पुरोहित वसु कहते हैंमोहिनी ! पाँचवें दिन मनुष्य गदालोल-तीर्थमें पूर्ववत्‌ स्नान आदि करके अक्षयवटके समीप पिण्डदानपूर्वक श्राद्ध करे । वहाँ श्राद्ध आदि करके वह अपने पितरोंको ब्रह्मलोकमें पहुँचा देता है । वहाँ ब्राह्मणोंको भोजन करावे और उनकी पूजा करे । अक्षयवटके निकट श्राद्ध करके एकाग्रचित्त हो वटेश्वरका दर्शन, नमस्कार तथा पूजन करे । ऐसा करनेसे श्राद्धकर्ता पुरुष अपने पितरोंको अक्षय तथा सनातन ब्रह्मलोकमें भेज देता है । ( गदालोल-तीर्थमें स्नान करते समय इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये―)

गदालोले महातीर्थे गदाप्रक्षालने वरे॥

स्नानं करोमि शुद्धयर्थमक्षय्याय स्वराप्तये।

एकान्तरे वटस्याग्रे य: शेते योगनिद्रया ॥

बालरूपधरस्तस्मै नमस्ते योगशायिने।

संसारवृक्षशस्त्रायाशेषपापक्षयाय चा।।

अक्षय्यब्रहादात्रे च नमोअक्षय्यवटाय वै।

( ना० उत्तर० ४७ 1 ४-७ )

    जहाँ भगवान्‌की गदा धोयी गयी है, उस गदालोल नामक श्रेष्ठ महातीर्थमें मैं आत्मशुद्धि तथा अक्षय स्वर्गकी प्राप्तिकि लिये स्नान करता हूँ । जो बालरूप धारण करके वटकी शाखाके अग्रभागपर एकान्त स्थलमें योगनिद्राके द्वारा शयन करते हैं, उन योगशायी श्रीहरिको नमस्कार है । जो संसाररूपी वृक्षका उच्छेद करनेके लिये शस्त्ररूप हैं, जो समस्त पापोंका नाश तथा अक्षय ब्रह्मलोक प्रदान करनेवाले हैं, उन अक्षयवटस्वरूप श्रीहरिको नमस्कार है ।’

   ( इसके बाद लिङ्गस्वरूप प्रपितामहकों नमस्कार करे―)

कलौ माहेश्वरा लोका येन तस्मादू गदाधर: ।

लिङ्गरूपोअभवत्तं च वन्दे त्वां प्रपितामहम्‌ ॥ ७-८

     ‘ कलियुगमें लोग प्राय: शिवभक्त होते है, इसलिये भगवान्‌ गदाधर वहाँ शिवलिङ्गरूपमे प्रकट हुए हैं । प्रभो ! आप पितामह ब्रह्माके भी पिता होनेसे प्रपितामहरूप हैं । मैं आपको प्रणाम करता हूँ ।’

   इस मन्त्रसे उन प्रपितामहदेवकों नमस्कार करके मनुष्य अपने पितरोंको रुद्रलौकमे पहुँचा देता है । हेति नामसे प्रसिद्ध एक असुर था; भगवानने अपनी गदासे उस असुरके मस्तकके दो टुकड़े कर दिये । तत्पश्चात्‌ जहाँ वह गदा धोयी गयी, वह गदालोल नामसे विख्यात श्रेष्ठ तीर्थ हो गया । हेति राक्षस ब्रह्माजीका पुत्र था । उसने बड़ी अद्भुत तपस्या की । तपस्यासे वरदायक ब्रह्मा आदि देवताओंको सन्तुष्ट करके यह वर माँगा―मैं दैत्य आदिसे, शस्त्र आदिसे, नाना प्रकारके मनुष्यों से तथा विष्णु और शिव आदिके चक्र एवं त्रिशुल आदि आयुधोंद्वारा अवध्य और महान्‌ बलवान्‌ होऊँ ।’  ‘ तथास्तु ‘ कहकर देवता अन्तर्धान हों गये । तब हेतिने देवताओंको जीत लिया और स्वयं इन्द्रपदका उपभोग करने लगा । तब ब्रह्मा और शिव आदि देवता भगवान्‌ विष्णुकी शरणमें गये और बोले―’ भगवान ! हेतिके वध कीजिये ।’ भगवान्‌ने कहा―’ देवताओ ! हेति तो समस्त सुर और असुरोंके लिये अवध्य है । तुम लोग मुझे कोई ब्रह्माजीका अस्त्र दो, जिससे मैं हेतिको  मारूँ ।’

   उनके ऐसा कहनेपर ब्रह्मादि देवताओंने भगवान्‌ विष्णुको वह गदा दे दी और कहा―’ उपेन्द्र ! आप हेतिको मार डालिये ।’ देवताओंके ऐसा कहनेपर भगवान्‌ने वह गदा धारण की । फिर युद्धमें गदाधरने गदासे हेतिको मारकर देवताओंकों स्वर्गलोक लौटा दिया ।

   तदनन्तर महानदीमें स्थित गायत्री-तीर्थमें उपवासपूर्वक स्नान करके गायत्रीदेवीके सम सन्ध्योपासना करे । वहाँ पिण्डदानपूर्वक श्राद्ध करके मनुष्य अपने कुलको ब्राह्मणत्वकी ओर ले जाता है । समुद्यत-तीर्थमें स्नान करके सावित्री-देवीके समक्ष मध्याह्नकालकी सन्ध्योपासना करके द्विज अपने पितरोंको ब्रह्मलोकमें पहुँचा देता है । सरस्वती-देवीके समक्ष सायंकालीन सन्ध्योपासना करके मनुष्य अपने कुलको सर्वज्ञताकी प्राप्ति कराता है । वह अनेक जन्मोंतक किये हुए सन्ध्यालोपजनित पापसे सर्वथा शुद्ध हो जाता है । विशालामें लेलिहान- तीर्थमें, भरताश्रममें पादाङ्कित-तीर्थमें, मुण्डपृष्ठमें गदाधरके समीप, आकाशगङ्गातीर्थमें तथा गिरिकर्ण आदिमें श्राद्ध एवं पिण्डदान करनेवाला, गोदा वैतरणीमें स्नान करनेवाला एवं देवनदीमें, गोप्रचारमें, मानसतीर्थमें, पदस्वरूप-तीर्थोंमें, पुष्करिणीमें, गदालोल-तीर्थमें, अमरतीर्थमें, कोटितीर्थमें तथा रुक्मागदमें पिण्ड देनेवाला पुरुष अपने पितरोंको स्वर्गलोकमें पहुँचा देता है । सुलोचने ! मार्कण्डेयेश्वर तथा कोटीश्वरको नमस्कार करके मनुष्य अपने पितरोंको तार देता हैं तथा पुण्यदायिनी पाण्डुशिलाका दर्शनमात्र करनेसे मानव अपने नरकनिवासी पितरोंको भी पवित्र करके उन्हें स्वर्गलोकमें पहुँचाता है । पाण्डशिलाके विषयमें यह उद्गार प्रकट करके राजा पाण्डु अविनाशी शाश्वत पदकों प्राप्त हुए थे । घृतकुल्या, मधुकुल्या, देविका और महानदी-ये शिलामें संगत होकर मधुसवा कही गयी हैं । वहाँ स्नान करनेसे मानव दस हजार अश्वमेध-यज्ञोंका फल पाता है ।

   दशाश्वमेधतीर्थ और हंसतीर्थमें श्राद्ध करनेसे श्राद्धकर्ता स्वर्गलोकमें जाता है । मतङ्गपदमें श्राद्ध करनेवाला पुरुष ब्रह्मलोकका निवासी होता है । ब्रह्माजीने विष्णु आदिके साथ शमीगर्भमें अग्निका मन्थन करके एक नूतन तीर्थको उत्पन्न किया, जो मन्थोकुण्डके नामसे विख्यात है । वह पिंतरोंको मुक्ति देनेवाला तीर्थ है । वहाँ स्नान करके तर्पण और पिण्डदान करनेसे मनुष्य मोक्षका भागी होता है । रामेश्वर और करकेश्वरको नमस्कार करके मानव अपने पितरोंको स्वर्गमें भेज देता है । गयाकूपमें पिण्डदान करनेसे अश्वमेध-यज्ञका फल प्राप्त होता हैं । भस्मकूटमें भस्मस्नान करनेसे मनुष्य अपने पितरोंका उद्धार कर देता है । नि:क्षीरा-संगममें स्नान करनेवाले मनुष्यके सारे पाप धुल हैं । रामपुष्करिणीमें श्राद्ध करनेवाला पुरुष अपने पितरोंको ब्रह्मलोकमें पहुँचाता है । वशिष्ठतीर्थमें वशिष्ठेश्वरको प्रणाम करके मनुष्य अश्वमेध-यज्ञके पुण्यका भागी होता है । धुनेकारण्यमें कामधेनु-पदोंपर स्नान करके पिण्ड देनेवाला पुरुष वहाँके देवताको नमस्कार करके पितरोंको ब्रह्मलोकमें पहुँचाता है । कर्दमालतीर्थमें, गयानाभिमें और मुण्डपृष्ठके समीप स्नान करके श्राद्ध करनेवाला पुरुष अपने पितरोंको स्वर्गलोकमें पहुँचा देता है । चण्डीदेवीको नमस्कार तथा फल्गुचण्डीश नामक संगमेश्वरका पूजन करनेसे भी पूर्वोक्त फलकी ही प्राप्ति होती है । गयागज, गयादित्य, गायत्री, गदाधर, गया और गयाशिर-ये छः प्रकारकी गया मुक्ति देनेवाली है । श्राद्धकर्ता जिस-जिस तीर्थमें जाय, वहीं जितेन्द्रियभावसे आदिगदाधरका ध्यान करते हुए ब्राह्मणके कथनानुसार श्राद्ध एवं पिण्डदान करे । तदनन्तर भगवान्‌ जनार्दनका विधिपूर्वक पूजन करके दही और भातका उत्तम नैवेद्य अर्पण करे-

   तत्पश्चात्‌ पिण्डदान करके भगवतप्रसादसे ही जीवननिर्वाह करे । दैत्यके मुण्डपृष्ठपर वह शिला स्थित है, इसलिये मुण्डपृष्ठ नामक पर्वत पितरोंको ब्रह्मलोक देनेवाला है । श्रीरामचन्द्रजीके वनमें जानेके बाद उनके भाई भरत उस पर्वतपर आये थे । उन्होंने पिताकों पिण्ड आदि देकर वहाँ रामेश्वरकी स्थापना की थी । जो एकाग्रचित्त होकर वहाँ स्नान करके रामेश्वरको तथा राम और सीताको नमस्कार करता और श्राद्ध एवं पिण्डदान देता है, वह धर्मात्मा अपने पितरोंके साथ भगवान्‌ विष्णुके लोकमें जाता है । शिलाके दक्षिण हाथमें स्थापित मुण्डपृष्ठतीर्थके समीप श्राद्ध आदि करनेसे मनुष्य अपने समस्त पितरेंको ब्रह्मलोक पहुँचा देता हैं । कुण्डने सीतागिरिके दक्षिण पर्वतपर बड़ी भारी तपस्या की थी, अत: उनके नामपर कुण्डपृष्ठतीर्थ विख्यात हुआ ।

   पुण्यमय मतङ्गपदमें पिण्ड देनेवाला पुरुष अपने पितरोंको स्वर्गमें पहुँचा देता है । शिलाके बायें हाथमें उद्यन्तक गिरिकी स्थापना हुई । यहाँ महात्मा अगस्त्यजीने उदयाचलको ले आकर स्थापित किया था । वहाँ पिण्ड देनेवाला पुरुष अपने पितरोंको ब्रह्मलोक भेज देता है । अगस्त्यजीने अपनी तपस्याके लिये वहाँ उद्यनतक नामक कुण्डका निर्माण किया था । वहाँ ब्रह्माजी अपनी देवी सावित्री और सनकादि कुमारोंके साथ विराजमान हैं । हाहा, हूहू आदि गन्धर्वोने वहाँ सङ्गीत और वाद्यका आयोजन किया था । अगस्त्यतीर्थमें स्नान करके मध्याह्नकालमें सावित्रीकी उपासना करनेपर पुरुष कोटि जन्मोंतक धनाढय तथा वेदवेत्ता ब्राह्मण होता है । अगस्त्वपदमें स्नान करके पिण्ड देनेवाला पुरुष पितरोंको स्वर्गकी प्राप्ति कराता है । जो मनुष्य ब्रह्मयोनिमें प्रवेश करके निकलता है, वह योनिसंकटसे मुक्त हो परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होता है । गयाकुमारको प्रणाम करके मनुष्य ब्राह्मणत्व पाता है । सोमकुण्डमें स्नान आदि करनेसे वह पितरोंको चन्द्रलोककी प्राप्ति कराता है । काकशिलामें कौओंके लिये दी हुई बलि क्षणभरमें मोक्ष देनेवाली है । स्वर्गद्वारेश्वरको नमस्कार करके मनुष्य अपने पितरोंको स्वर्गसे ब्रह्मलोकको भेज देता है । आकाश-गंगामें पिण्ड देनेवाला पुरुष स्वयं निर्मल होकर पितरोंको स्वर्गलोकमें भेज देता है । शिलाके दाहिने हाथमें धर्मराजने भस्मकूट धारण किया था । अत: वहाँ महादेवजीने अपना वही नाम रखा है । मोहिनी ! जहाँ भस्मकूट पर्वत है, वहीं भस्म नामधारी भगवान्‌ शिव हैं । जहाँ वट है वहाँ वटेश्वर ब्रह्माजी स्थित हैं । उनके सामने रुक्मिणी-कुण्ड है और पश्चिममें कपिला नदी है । नदीके तटपर कपिलेश्वर महादेव हैं, वहीं उमा और सोमकी भेंट हुई थी । मनुष्य कपिलामें स्नान करके कपिलेश्वरको प्रणाम एवं उनका पूजन करे । वहाँ श्राद्धका दान करनेवाला पुरुष स्वर्गलोकका भागी होता है । महिषीकुण्डपर मंगलागौरीका निवास है, जो पूजित होनेपर पूर्ण सौभाग्यको देनेवाली है । भस्मकूटमें भगवान्‌ जनार्दन हैं । उनके हाथमें अपने या दूसरेके लिये बिना तिलके और सव्यभावसे भी पिण्ड देनेवाला पुरुष जिनके लिये दधिमिश्रित पिण्ड देता है, वे सब विष्णुलोकगामी होते हैं । ( वहाँ पिण्ड देकर भगवान्‌से इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये― )

एष पिण्डो मया दत्तस्तव हस्ते जनार्दन।

गयाश्राद्धे त्वया देयो मह्यं पिण्डो मृते मयि ॥

तुभ्यं पिण्डो मया दत्तो यमुद्दिश्य जनार्दन।

देहि देव गयाशीर्षे तस्मै तस्मै मृते ततः ॥

जनार्दन नमस्तुभ्यं नमस्ते पितृरूपिणे।

पितृपात्र नमस्तुभ्यं नमस्ते मुक्तिहेतवे ॥

गयायां पितृरूपेण स्वयमेव जनार्दन: ।

तं दृष्ट्वा पुण्डरीकाक्ष मुच्यते च ऋणत्रयात्‌ ॥

नमस्ते पुण्डरीकाक्ष ऋणत्रयविमोचन।

लक्ष्मीकान्त नमस्तेआस्तु नमस्ते पितृमोक्षद ॥

(ना० उत्तर० ४७। ६३-६४)

      ‘ जनार्दन ! मैंने आपके हाथमें यह पिण्ड दिया है । मेरे मरनेपर आप गयाश्राद्धमें मुझे पिण्ड दीजियेगा । जनार्दन ! जिसके उद्देश्यसे मैंने आपको पिण्ड दिया है, देव ! उसके मरनेपर आप गयाशीर्षमें उसके लिये अवश्य पिण्ड दें । जनार्दन ! आप पितृस्वरूप हैं,  आपको नमस्कार है,  बारम्बार नमस्कार है । पितरोंके पात्ररूप नारायण ! आपको नमस्कार है । आप सबकी मुक्तिके हेतुभूत हैं, आपको नमस्कार है । गयामें साक्षात्‌ जनार्दन ही पितृरूपसे विद्यमान हैं । उन कमलनेत्र श्रीहरिका दर्शन करके मनुष्य तीनों ऋणोंसे मुक्त हो जाता है । पुण्डरीकाक्ष ! आपको नमस्कार है । तीनों ऋणोंसे मुक्त करनेवाले लक्ष्मीकान्त ! आपको नमस्कार है । पितरोंको मोक्ष देनेवाले प्रभो ! आपको नमस्कार है ।’

   इस प्रकार कमलनयन भगवान्‌ जनार्दनका पूजन करके मनुष्य स्वर्गलोकमें जाता है । पृथ्वीपर बायाँ घुटना गिराकर भगवान्‌ जनार्दनको नमस्कार करे । तत्पश्चात पिण्डदानपूर्वक श्राद्ध करनेवाला पुरुष भाइयोंसहित विष्णुलोकमें जाता है । शिलाके वाम भागमें प्रेतकूटगिरि स्थित है । प्रेतकूटगिरिको धर्मराजने धारण किया है । वहाँ प्रेतकुण्ड है, जहाँ पदोंके साथ देवता विद्यमान हैं । उसमें स्नान करके श्राद्ध-तर्पण आदि करनेवाला पुरुष पितरोंको प्रेतभावसे मुक्त कर देता है । कीकट प्रदेशमें गया, राजगृह वन, महर्षि च्यवनका आश्रम, पुनपुना नदी, वैकुण्ठ, लोहदण्ड तथा शौणग गिरिकूट―ये सब पवित्र हैं । उनमें श्राद्ध-पिण्डदान आदि करनेवाला पुरुष पितरोंको ब्रह्मधाममें पहुँचा देता है । शिलाके दक्षिण पादमें गृध्रकूटगिरि रखा गया है । धर्मराजने शिलाको स्थिर रखनेके लिये वहाँ उस पर्वतको स्थापित किया है । वह शीघ्र पवित्र करनेवाला है । वहाँ ‘ गृध्रेश्वर ‘  नामक भगवान्‌ शिव विराजमान हैं । गुश्रेश्वरका दर्शन और उनके समीप स्नान करके मनुष्य शिवधाममें जाता है । ऋणमोक्ष एवं पापमोक्ष नामवाले शिवजीका दर्शन करके मनुष्य शिवलोकमें जाता है । वहाँ विघ्नोंका नाश करनेवाले विघ्नेश्वर गणेशजी गजरूपसे निवास करते हैं । उनका दर्शन करके मनुष्य विघ्नोसे मुक्त होता है और प्रितरोंको भगवान्‌ शिवके लोकमें पहुँचा देता है । स्नान करके गायत्री और गयादित्यका दर्शन करनेसे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाता है । प्रथम पादमें विराजमान ब्रह्माजीका दर्शन करके पुरुष अपने पितरोंका उद्धार कर देता है । जो नाभिमें पिण्ड देता है, वह पितरोंको ब्रह्मलोकमें पहुँचाता है । मुण्डपृष्ठकों शोभाके लिये श्रेष्ठ कमल उत्पन्न हुआ है । मुण्डपृष्ठ और अरविन्द दोनोंका दर्शन करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ।

   जो हाथियों अथवा सर्पोंका अपराध करके मारा गया है; जो परायी स्त्रियोंसे रमण करते समय उनके पतियोंद्वारा मारे गये हैं; जो गौओंको आगगमें जलाने या विष देनेवाले हैं, पाखण्डी तथा क्रूर बुद्धिवाले हैं; जो नराधम क्रोधमें आकर प्राय: विष खा लेते, आगमें जल मरते, अपने ऊपर हथियार चला लेते, फाँसी लगाकर मर जाते, पानीमें डूब मरते तथा वृक्ष एवं पर्वतसे नीचे कूदकर प्राण दे देते हैं;  जो पाँच प्रकारकी हत्याके अधिकारी हैं तथा जो महापातकी हैं; वे सब-के-सब पतित कहे गये हैं । वे गयाकूपके स्नानसे तथा वहाँकी भस्म रमानेसे अवश्य शुद्ध हो जाते हैं । देवि ! इस प्रकार गयातीर्थका उत्तम माहात्म्य सब पापोंको शान्त करनेवाला तथा पितरोंको मुक्ति देनेवाला है । जो मनुष्य इसे प्रतिदिन अथवा श्राद्ध एवं पर्वके दिन भक्तिपूर्वक सुनता या सुनाता है, वह भी ब्रह्मलोकका भागी होता है । वह कल्याणका आश्रय, पवित्र, धन्य तथा मानवोंको स्वर्गीय गति प्रदान करनेवाला है। यह माहात्म्य यश, आयु तथा पुत्र-पौत्रकी वृद्धि करनेवाला है ।

अध्याय १४१ अविमुक्त क्षेत्र— काशीपुरीकी महिमा

मान्धाता बोले–भगवन्‌ ! मोहिनीने पितरोंकों उत्तम गति देनेवाले गया-माहात्म्यको सुनकर वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ विप्रवर वसुसे पुनः क्या पूछा ?

   वसिष्जी बोले–राजन्‌ ! सुनो, मोहिनीने पुन: जो प्रश्न किया, वह बतलाता हूँ।

   मोहिनीने कहा–लोकोद्धारपरायण द्विजश्रेष्ठ ! आपको बारम्बार साधुवाद है, आप बड़े दयालु हैं । ब्रह्मन्‌ ! मैंने गयाजीका परम उत्तम पवित्र माहात्म्य सुना, जो परम गोपनीय और पितरोंको सदगति देनेवाला है । विप्रेन्द्र ! अब काशीका उत्तम माहात्म्य बताइये ।

   वसिष्जी कहते हैं–मोहिनीका यह कथन सुनकर उसके पुरोहित वसु बोले सुनो ।

   पुरोहित वसुने कहा–कल्याणमयी काशीपुरी धन्य है । भगवान्‌ महेश्वर भी धन्य हैं, जो मुक्तिदायिनी वैष्णवपुरी काशीको श्रीहरिसे माँगकर निरन्तर उसका सेवन करते हैं । सनातनदेव भगवान्‌ शड्र श्रीहरिके क्षेत्रमें ही विद्यमान हैं । वे भगवान्‌ हषीकेशकी पूजा करते हुए स्वयं भी देवता आदिसे पूजित होते हैं । काशीपुरी तीनों लोकोंका सार है । उस रमणीय नगरीका यदि सेवन किया जाय तो वह मनुष्योंको उत्तम गति देनेवाली है । नाना प्रकारके पापकर्म करनेवाले मनुष्य भी यहाँ आकर अपने पापोंका नाश करके रजोगुणरहित तथा शुद्ध अन्तःकरणके प्रकाशसे युक्त हो जाते हैं । इसे ‘ वैष्णवक्षेत्र ‘ तथा ‘ शैवक्षेत्र ` भी कहते हैं । यह सब प्राणियोंको मोक्ष देनेवाला है । महापातकी मनुष्य भी जब भगवान्‌ शिवकी नगरी काशीपुरीमें आता है, तब उसका शरीर संसारके सुदूढ़ बन्धनोंसे मुक्त हो जाता है । जो पुण्यात्मा मनुष्य भगवान्‌ विष्णु या भगवान्‌ शिवके भक्त होकर सबको प्रतिदिन आदरबुद्धिसे देखते हुए इस क्षेत्रमें निवास करते हैं, वे शुद्ध संत पुरुष भगवान्‌ शड्करके समान हैं । वे भय, दुःख और पापसे रहित हो जाते हैं । उनके कर्मकलाप पूर्णत: शुद्ध होते हैं और वे जन्म-मृत्युके गहन जालका भेदन करके परम मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । काशीका विस्तार पुर्वसे पश्चिमकी ओर ढाई योजनतक है और दक्षिणसे उत्तरकी ओर असीसे वरणातक आधे योजनका विस्तार है । शुभे ! असी शुष्क नदी है । भगवान शिवने इस क्षेत्रका यही विस्तार बताया है। काशीमें जो तिमिचण्डेश्वर नामक शिवलिंग हैं उससे उत्तरायण जानना चाहिये और शंकुकर्णकों दक्षिणायन । वह ओंकारमें स्थित है । तदनन्तर पिड्ला नामक तीर्थ आग्नेय कोणमें स्थित बताया गया है । सूखी हुई नदी जो असी नामसे प्रसिद्ध है, उसीको पिड़्ला नाड़ी समझना चाहिये । उसीके आस-पास लोलार्कतीर्थ विद्यमान है । इडा नामकी नाड़ी सौम्या कही गयी है । उसीको वरणाके नामसे जानना चाहिये, जहाँ भगवान्‌ केशवका स्थान है । इन दोनोंके बीचमें सुषुम्णा नाड़ीकी स्थिति कही गयी है । मत्स्योदरीको ही सुषुम्णा जानना चाहिये । इस महाक्षेत्रको भगवान्‌ शिव और भगवान्‌ विष्णुने कभी विमुक्त ( परित्यक्त ) नहीं किया है और न भविष्यमें भी करेंगे । इसीलिये इसका नाम ‘ अविमुक्त ‘ है । शुभे ! प्रयाग आदि दुस्तर ( दुर्लभ ) तीर्थसे भी काशीका माहात्म्य अधिक है, क्योंकि वहाँ सबको अनायास ही मोक्षकी प्राप्ति होती है। निषिद्ध कर्म करनेवाले जो नाना वर्णके लोग हैं तथा महान्‌ पातकों और पापोंसे परिपूर्ण शरीरवाले जो घृणित चाण्डाल आदि हैं, उन सबके लियें विद्वानोंने अविमुक्तक्षेत्रको उत्तम औषध माना है ।

   वहाँ दुष्ट, अन्धे, दीन, कृपण, पापी और दुराचारी सबको भगवान्‌ शिव अपनी कृपाशक्तिके द्वारा शीघ्र ही परम गतिकी प्राप्ति करा देते हैं । उत्तरवाहिनी गंगा और पूर्ववाहिनी सरस्वती अत्यन्त पवित्र मानी गयी हैं । वहीं कपालमोचन है । उस तीर्थमें जाकर जो श्राद्धमें पिण्डदानके द्वारा पितरोंको तृप्त करेंगे, उन्हें परम प्रकाशमान लोकोंकी प्राप्ति होती है। जो ब्रह्महत्यारा है, वह भी यदि कभी अविमुक्तक्षेत्र काशीकी यात्रा करे तो उस क्षेत्रके माहात्म्यसे उसकी ब्रह्महहत्या निवृत्त हो जाती है। जो परम पुण्यात्मा मानव काशीपुरीमें गये हैं, वे अक्षय, अजर एवं शरीररहित परमात्मस्वरूप हो जाते हैं ।

   कुरुक्षेत्र, हरिद्वार और पुष्करमें भी वह सदगति सुलभ नहीं है, जो काशीवासी मनुष्योंको प्राप्त होती है । वहाँ रहनेवाले प्राणियोंको सब प्रकारसे तप और सत्यका फल मिलता है, इसमें संशय नहीं है । काशी पुरीमें रहनेवाले दुष्कर्मी जीव वायुद्वारा उड़ायी हुई वहाँकी धूलिका स्पर्श पाकर परम गतिकों प्राप्त कर लेते हैं। जो एक मासतक वहां जितेन्द्रियभावसे नियमित भोजन करते हुए निवास करता है, उसके द्वारा भलीभाँति महापाशुपत व्रतका अनुष्ठान सम्पन्न हो जाता है । वह जन्म और मृत्युके भयको जीतकर परम गतिको प्राप्त होता है । वह पुण्यमयी नि: श्रेयसगति तथा योगगतिको पा लेता है । सैकड़ों जन्मोंमें भी योगगति नहीं प्राप्त की जा सकती; परंतु काशीक्षेत्रके माहात्म्य तथा भगवान्‌ शड्करके प्रभावसे उसकी प्राप्ति हो जाती है। शुभानने ! जो प्रतिदिन एक समय भोजन करके एक मासतक काशीमें निवास करता है, वह जीवनभरके पापको एक ही महीनेमें नष्ट कर देता है । जो मानव मृत्युपर्यन्त अविमुक्तक्षेत्रको नहीं छोड़ता और ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक वहाँ निवास करता है, वह साक्षात्‌ शंकर होता है । जो विघ्नोंसे आहत होकर भी काशी नहीं छोड़ता, वह जरा-मृत्यु तथा इस नश्वर जन्मसे छूट जाता है । जो इस देहका अन्त होनेतक निरन्तर काशीपुरीका सेवन करते हैं, वे मृत्युके पश्चात्‌ हंसयुक्त विमानसे दिव्यलोकोंमें जाते हैं। जिसका चित्त विषयोंमे आसक्त है, जिसने भक्ति और सद्बुद्धि त्याग दी है, ऐसा मनुष्य भी इस काशीक्षेत्रमें मरकर फिर संसारबन्धनमें नहीं पड़ता । पृथ्वीपर यह काशी नामक श्रेष्ठ तीर्थ स्वर्ग तथा मोक्षका हेतु है । जो वहाँ मृत्युको प्राप्त होता है, उसकी मुक्तिमें कोई संशय नहीं है । सहस्त्रों जन्मोंतक योगसाधन करके योगी जिस पदको पाता है, वही परम मोक्षरूप पद काशीमें मृत्यु होनेमात्रसे मनुष्य प्राप्त कर लेता है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, वर्णसंकर, म्लेच्छ, कीट-पतंग आदि पाप-योनिके जीव, कीड़े, चींटियाँ तथा दूसरे-दूसरे मृग और पक्षी आदि जीव काशीमें समयानुसार ( अपने-आप ) मृत्यु होनेपर देवेधर शिवरूप माने गये हैं । शुभे ! जो जीव वास्तवमें वहाँ प्राण-त्याग करते हैं, वे रुद्र-शरीर पाकर भगवान्‌ शिवके समीप आनन्द भोगते हैं । मनुष्य सकाम हो या निष्काम अथवा वह पशु-पक्षीकी योनिमें क्यों न पड़ा हो, अविमुक्तक्षेत्र ( काशी )- में प्राण-त्याग करनेपर वह अवश्य ही भागी होता है, इसमें संशय नहीं है। जो मानव सदा भगवान्‌ शिवकी भक्तिमें तत्पर रहनेवाले और उनके अनन्य भक्त हैं, उन्हींके चिन्तनमें जिनका चित्त आसक्त है और भगवान्‌ शिवमें ही जिनके प्राण बसते हैं, वे नि:संदेह जीवन्मुक्त हैं । अविमुक्तक्षेत्रें मृत्युके समय साक्षात्‌ भगवान्‌ भूतनाथ कर्मप्रेरित जीवोंके कानमें मन्त्रोपदेश देते हैं । स्वयं भगवान्‌ श्रीरामने अत्यन्त प्रसन्नचित्त हो अविमुक्तनिवासी कल्याणकारी शिवसे यह कहा है कि ` शिव ! तुम जिस-किसी भी मुमूर्ष जीवके दाहिने कानमें मेरे मन्त्रका उपदेश करोगे, वह मुक्त हो जायगा ।’  अत: भगवान्‌ शिवकी कृपाशक्तिसे अनुगृहीत हो सभी जीव वहाँ परम गतिको प्राप्त होते हैं । मोहिनी ! यह मैंने अविमुक्तक्षेत्रके संक्षेपमें बहुत थोड़े गुण बताये हैं । समुद्रके रत्नोंकी भाँति अविमुक्तक्षेत्रके गुणोंका विस्तार अनन्त है । जो ज्ञान-विज्ञानमें निष्ठा रखनेवाले तथा परमानन्दकी प्राप्तिके इच्छुक हैं, उनके लिये जो गति बतायी गयी है, निश्चय ही काशीमें मरे हुएको वही गति प्राप्त होती है । काशीका योगपीठ है श्मशानतीर्थ, जिसे मणिकर्णिका कहते हैं । अपने कर्मसे भ्रष्ट हुए मनुष्योंको भी काशीके श्मशानादि तीर्थोंमें मोक्षकी प्राप्ति बतायी गयी है । काशीमें भी अन्य सब तीर्थोंकी अपेक्षा मणिकर्णिका उत्तम मानी गयी है । वहाँ नित्य भगवान्‌ शिवका निवास माना गया हैं। वरानने ! दस अश्वमेध-यज्ञोंका जो फल बताया गया है, उसे धर्मात्मा पुरुष मणिकर्णिकामें  स्नान करके प्राप्त कर लेता है। जो यहाँ वेदवेत्ताणको अपना धन दान करता है, वह गतिकों पाता और अग्निकी भाँति तेजसे उद्दीस होता है । जो मनुष्य वहाँ उपवास करके ब्राह्मणोंको तृप्त करता है, वह निश्चय ही सौत्रामणी यज्ञका फल प्राप्त करता है । जो मनुष्य वहाँ चार वत्सतरीसे युक्त सौम्य स्वभावके तरुण वृषभको छत्र आदिसे चिह्नित करके छोड़ता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है । इसमें संदेह नहीं कि वह पितरोंके साथ मोक्षको प्राप्त होता है । इस विषयमें अधिक कहनेसे क्या लाभ, भगवान्‌ शिवकी प्रसन्नताके उद्देश्यसे वहाँ जो कुछ भी धर्म आदि किया जाता है, उसका फल अनन्त है । जो अविमुक्तक्षेत्रमें महादेवजीकी पूजा और स्तुति करते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त एवं अजर-अमर होकर स्वर्गमें निवास करते हैं । जो मुक्तात्मा पुरुष एकाग्रचित्त हो इन्द्रिय-समुदायको संयममें रखकर ध्यान लगाये हुए शतरुद्रीका जप करते हैं और अविमुक्तक्षेत्रमें सदा निवास करते हैं, वे उत्तम द्विज कृतार्थ हो जाते हैं । यशस्विनी ! जो काशीमें एक दिन उपवास करेगा, उसे सौ वर्षोतक उपवास करनेका फल प्राप्त होगा ।

   इससे आगे गंगा और वरणाका संगमरूप उत्तम तीर्थ है, जो सायुज्य मुक्ति देनेवाला है । जब बुधवारको श्रवण और द्वादशीका योग हो, उस समय उसमें स्नान करके मनुष्य मोक्षरूप फल पाता है । शुभानने ! जो वहाँ उस समय श्राद्ध करता है, वह अपने समस्त पितरोंका उद्धार करके विष्णुलोकमें जाता है । गंगाके साथ वरणा और असीका जो संगम है, वह समस्त लोकोंमें विख्यात है; वहाँ विधिपूर्वक अश्वदान करके मनुष्य फिर इस संसारमें जन्म नहीं लेता । जो मनुष्य वहाँ भक्तिपूर्वक संगमेश्वरका पूजन करता है, वह निग्रह और अनुग्रहमें समर्थ साक्षात्‌ देवदेवेश्वर शिव ( -तुल्य ) है । देवेश्वरसे पूर्वमें भगवान्‌ केशव विद्यमान हैं और केशवके पूर्वमें जगद्धविख्यात संगमेश्वर विद्यमान हैं ।

अध्याय १४२ काशीके तीर्थ एवं शिवलिंगोंके दर्शन— पूजन आदिकी महिमा

पुरोहित सु कहते हैं—सुन्दरि ! संगमेश्वर पीतठके वायव्य भागगें राजा सगरके द्वारा स्थापित किया हुआ चतुर्मुख शिवलिंग है । उससे वायव्य कोणमें भद्रदेह नामक तालाब है, जो गौओंके दुधसे भरा गया है । वह सम्पूर्ण पातकोंका नाश करनेवाला है। मोहिनी ! सहस्रों कपिला गौओंके विधिपूर्वक दान करनेका जो फल है, उसे मनुष्य वहाँ स्नान करनेमात्रसे पा लेता है । जब पूर्वाभाद्रपदा नक्षत्रसे युक्त पूर्णिमा हो, उस समय वहाँके लिये अतिशय पुण्यकाल माना गया है, जो अश्वमेध-यज्ञका फल देनेवाला है । वहीं श्मशानभूमिमें विख्यात देवी भीष्मचण्डिकाका दर्शन होता है । उनकी पूजा करनेसे मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता । अन्तकेश्वरसे पूर्व, सर्वेश्वरके दक्षिणभागमें और मातलीश्वरसे उत्तर दिशामें कृत्तिवासेश्वर नामक शिवलिड्ग है । देवि ! कृत्तिवासेश्वरका दर्शन और पूजन करके मनुष्य एक ही जन्ममें शिवके समीप परम गति प्राप्त कर लेता है । सत्ययुगमें पहले उसका नाम ` त्रयम्बकेश्वर ‘ था, त्रेतामें वही ‘  कृत्तिवासेधर ‘ के नामसे प्रसिद्ध हुआ । द्वापरमें उन्हीं भगवान्‌ शिवका नाम ‘ महेधर ` कहा जाता है तथा कलियुगमें सिद्ध पुरुष उन्हें ‘ हस्तिपालेधवर ‘ कहते हैं । यदि सनातन मोक्षप्रद तारकज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छा हो तो बारंबार भगवान्‌ कृत्तिवासेश्वरका दर्शन करना चाहिये । उन देवाधिदेवका दर्शन करनेसे ब्रह्महत्यारा भी पापमुक्त हो जाता है । उनका स्पर्श और पूजन करनेपर सम्पूर्ण यज्ञोंका फल मिलता है । जो उन सनातन महादेवजीका बड़ी श्रद्धासे पूजन करते है और फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशीको एकाग्रचित्त हो फूल, फल, बिल्वपत्र, उत्तम और सा भक्ष्यपदार्थ दूध, दही, घी, मधु और जलसे उस घोष, नमस्कार, नृत्य, गीत, अनेक प्रकारक मुखवाद्य, स्तोत्र एव मन्त्रींद्वारा शुभस्वरूप भगवान शिवकों तृप्त करते हैं और मोहिनी ! एक रात उपवास करके परम भक्तिभावसे पूजन करके श्रीमहादेवजीकों संतुष्ट करते हैं, वे परम पदको प्राप्त कर लेते हैं ।

   जो चैत्र मासकी चतुर्दशीकों परमेश्वर शिवका पूजा करता है, वह धनके स्वामी कुबेरके समीप जाकर उन्हींकी भाँति क्रीड़ा करता है । जो वैशाखका चतुर्दशीको पवित्रचित्तसे भगवान्‌ शिवकी अर्चना करता है, वह स्वामिकार्तिकेयके लोकमें जाकर उन्हींका अनुचर होता है । जो ज्येष्ठ मासकी चतुर्दशीको श्रद्धापूर्वक भगवान्‌ शंकरकी पूजा करता है, वह स्वर्गलोकमें जाता है और प्रलयकाल आनेतक वहाँ निवास करता है । भद्रे ! जो आषाढ़ मासकी चतुर्दशीको पवित्रभावसे कृत्तिवासेश्वर शिवकी पूजा करता है, वह सूर्यलोकमें जाकर इच्छानुसार क्रीड़ा करता है । जो श्रावणकी चतुर्दशीको वहाँ प्रकट हुए कामेश्वर शिवकी पूजा करता है, उसे भगवान्‌ शिव वरुणलोक देते हैं । जो भाद्रपद मासकी चतुर्दशीको भाँति-भाँतिके पुष्पों और फलोंद्वारा भगवान्‌ शंकरकी पूजा करता है, उसे इन्द्रका सालोक्य प्राप्त होता है । जो आश्विन कृष्णा चतुर्दशीको भगवान्‌ शिवकी पूजा करता है, वह पितरोंके लोकमें जाता है । जो कार्तिक मासकी चतुर्दशीको देवेश्वर महादेवजीकी पूजा करता है, वह चन्द्रलोकमें जाकर जबतक इच्छा हो, तबतक वहाँ क्रीड़ा करता है । जो मार्गशीर्ष कृष्णा चतुर्देशीको पिनाकधारी भगवान्‌ शिवको पूजा करता है, वह भगवान्‌ विष्णुके लोकमें जाता है और वहाँ अनन्त कालतक धारण क्रीड़ा-सुखमें निमगन रहता है । जो पौष मासमें  प्रसन्नचित्त होकर भगवान्‌ शिवकी अर्चना करता उत्तम शिवलिंगका अर्चन तथा डमरूके डिंडिम डिम् ही है, वह नैरऋत्यलोकमें जाता है और निर्ऋतिके साथ ही आनन्दका अनुभव करता है । जो माघ मासमें सुन्दर पुष्प एवं मूल-फल आदिके द्वारा भगवान्‌ शंकरकी आराधना करता है, वह संसार-सागरका त्याग करके भगवान्‌ शिवके लोकमें जाता है । अतः यदि शिवधाममें जानेको इच्छा हो तो यत्नपूर्वक कृत्तिवासेश्वरका पूजन तथा अविमुक्त-क्षेत्रमें निवास करना चाहिये । काशीमें व्यासेश्वरके पश्चिम घण्टाकर्ण ( या कर्णघण्टा ) नामक सरोवर है । देवि ! उस सरोवरमें स्नान करके व्यासेश्वरका दर्शन करनेसे मनुष्यकी जहाँ-कहीं भी मृत्यु हो, उसे काशीमें मरनेका ही फल प्राप्त होता है । मोहिनी ! यदि मनुष्य दण्डघात-तीर्थमें स्नान करके अपने पितरोंका तर्पण करे तो उसके नरक-निवासी पितर वहाँसे निकलकर पितृलोकमें चले जाते हैं । देवि ! जो पापकर्मी मनुष्य पिशाचयोनिको प्राप्त हो गये हैं, उनके लिये यदि वहाँ पिण्डदान किया जाय तो उनका उस पिंशाच-शरीरसे उद्धार हों जाता है । उस घातके दर्शनसे मानव कृतकृत्य हो जाता है । वहीं लोकको कल्याण प्रदान करनेवाली ललितादेवी विद्यमान हैं । यह मनुष्य-जन्म दुर्लभ है । विद्युत्पातके समान चद्नल है, उसे पाकर जिसने ललितादेवीका दर्शन कर लिया, उसे जन्मका भय कहाँसे हो सकता है ?  पृथ्वीकी परिक्रमा करके मनुष्य जिस ‘ फलकों पाता है, वही फल उसे काशीमें ललितादेवीके दर्शनसे मिल जाता है । प्रत्येक मासकी चतुर्थीको उपवास करके ललितादेवीकी पूजा और उनके समीप रातमें जागरण करे । देवि ! ऐसा करनेसे समृद्धियाँ प्राप्त होती हैं । मोहिनी ! तीनों लोको द्वारा पूजित नलकूबरकेश्वर सब सिद्धियेंकि के दाता है । उनका पूजा करके मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है । देवी ! उनके दक्षिणभागमें मणिकर्णी नामसे प्रसिद्ध शिवलिंग है । उसके आगे एक महान तीर्थ ( जलाशय ) है, जो सब पापोंका नाश करनेवाला है। भगवान्‌ मणिकर्णी कुण्डमें विराजमान हैं । उनका दर्शन, नमस्कार और पूजन करनेसे फिर गर्भमें निवास नहीं करना पड़ता । मणिकर्णीश्वरके दक्षिण पार्श्वमें गंगाजीके जलमें स्थापित परम उत्तम गंगेश्वरलिंग है। उसकी पूजा करनेसे देवलोककी प्राप्ति होती है ।

   मोहिनी ! अब मैं काशीके दूसरे मन्दिरका वर्णन करता हूँ, जहाँ देवाधिदेव महादेवजीका रुचिर एवं अभीष्ट स्थान है । सुभगे ! पूर्वकालमें कुछ राक्षस भगवान्‌ चन्द्रमौलिका शुभ लिंग साथ ले अन्तरिक्ष-मार्गसे बड़ी उतावलीके साथ जा रहे थे । जिस समय वह शिवलिंग इस काशी-क्षेत्रमें पहुँचा, उस समय महादेवजीने सोचा- ‘ क्या उपाय किया जाय, जिससे मेरा अविमुक्तक्षेत्रसे वियोग न हो ।’  शुभे ! देवेश्वर भगवान्‌ शिव इस बातका विचार कर ही रहे थे कि उस स्थानपर मुर्गेका शब्द सुनायी दिया । देवि ! उस शब्दकों सुनकर राक्षसोंके मनमें भय समा गया और वे प्रात:काल उस शिवलिंगको वहीं छोड़कर वहाँसे भाग गये । राक्षसोंके चले जानेपर वहीं अत्यन्त रुचिर एवं सुन्दर स्थानमें वह लिंग स्थित हुआ । साक्षात्‌ देवदेव भगवान्‌ शिव उस अविमुक्तक्षेत्रमे उस शिवलिद्गभके रूपमें विराजमान हुए । इसीलिये उसे ‘ अविमुक्त ‘ कहते हैं । उस समय देवताओंने महादेवजीका नाम ‘ अविमुक्त ‘ रख दिया,  जो परम पवित्र अक्षरोंसे युक्त है । जो प्राणी वहाँ मृत्युको प्राप्त होते हैं,  वे स्थावर हों या जज़म, उन सबको वह शिवलिड्ग मोक्ष देनेवाला है । भगवान्‌ अविमुक्तके दक्षिण भागमें एक सुन्दर बावड़ी है, उसका जल पीनेसे इस लोकमें पुनरावृत्ति नहीं होती । जिन मनुष्योंने उक्त बावड़ीका जल पीया है, वे कृतार्थ हैं । उन्हें निश्चय ही तारक ज्ञान प्राप्त होता है । मनुष्य बावड़ीके जलमें स्नान करके यदि दण्डकेश्वर एवं अविमुक्तेश्वरका दर्शन करे तो वह क्षणमात्रमें कैवल्य-मोक्षका भागी होता है । काशीपुरी, श्मशानघाट, अविमुक्तस्थान और अविमुक्तेधर लिंगका दर्शन करके मनुष्य शिवगणोंका अधिपति होता है । अविमुक्तेध्वर लिंगका दर्शन करनेसे मानव सम्पूर्ण पापों, रोगों तथा पशुपाश ( जीवके अज्ञानमय बन्धन )- से मुक्त हो जाता है ।

   ‘ अविमुक्तके आगे एक शिवलिंग स्थित है,  जिसका मुख पश्चिमकी ओर है । भद्रे ! वह ` लक्षणेश्वर ‘ नामसे विख्यात है । उसके दर्शनमात्रसे मनुष्य ज्ञानी हो जाता है । देवि ! उसके उत्तरमें चतुर्मुख लिंग है, जो चतुर्थंधरके नामसे प्रसिद्ध है । वह श्रेष्ठ शिवलिंग पाप-भयका निवारण करनेवाला  है । वाराणसी नामक क्षेत्र पृथ्वीपर प्राणियोंके लिये मुक्तिदायक है । उसमें भी अविमुक्तेश्वर तो जीवन्मुक्त कहा गया है ( वह जीवन्मुक्ति देनेवाला है ) । काशीमें जहाँ-कहीं भी जो रह चुका है, उसके लिये गणपति-पदकी प्राप्ति बतायी गयी है और जो वहाँ प्राण-त्याग करता है, वह आत्यन्तिक मोक्षको प्राप्त करता है । उपर्युक्त सीमाके भीतरी क्षेत्रें प्रथम आवरण बताया गया है । द्वितीय आवरणमें पूर्व दिशामें मणिकर्णिका है । उस स्थानमें सात करोड़ शिवलिड् विद्यमान हैं। उनके दर्शनमात्रसे यज्ञोंका फल प्राप्त होता है। ये सब सिद्ध लिंग हैं । काशीमें जो पवित्र कूप, सरोवर, बावड़ी, नदी और कुण्ड कहे गये हैं, वे ही सिद्धपीठ हैं । जो एकाग्रचित्त हो इन सबमें स्नान करेगा और वहाँके शिवलिंगोका दर्शन करेगा, वह फिर इस संसारमें जन्म नहीं ले सकता । पृथ्वीपर और अन्तरिक्षमें जो-जो तीर्थ हैं, उनमें मुख्य तीर्थोंका मैंने तुमसे वर्णन किया है । वरारोहे ! तीर्थयात्राको सब पापोंका नाश करनेवाली कहा गया है ।

अध्याय १४३ काशी— यात्राके काल, यात्राकालमें यात्रियोंके लिय आवशयक कृत्य, अवांतर तीर्थ और शिवलिंगोंका वर्णन

पुरोहित वसु कहते हैं—मोहिनी ! अब मैं यात्राकालका वर्णन करता हूँ, जिसे देवता आदिने नियत किया है । वह यात्रा यथायोग्य फलकी प्राप्ति करानेवाली है । पूर्वकालमें देवताओंने काशी में रहकर चैत्र मासमें यह तीर्थयात्रा की थी । वे कामकुण्डपर स्थित होकर स्नान एवं पूजनमें तत्पर रहते थे । शुभानने ! ज्येष्ठ मासमें रुद्रावास कुण्डपर स्नान-पूजामें तत्पर रहनेवाले सिद्धोंने वहाँकी शुभ यात्रा की है । गन्धर्वोने आषाढ़ मासमें यहाँकी यात्रा की थी । वे प्रियादेवी-कुण्डपर रहकर स्नान-पूजनें किया करते थे।

   मोहिनी ! विद्याधरोंने श्रावण मासमें यह यात्रा की थी । वे लक्ष्मीकुण्डपर रहकर स्नान-पूजन करते थे । वरानने ! यक्षोंने आश्विन मासमें यह यात्रा सम्पन्न करा है । वे मार्कण्डेय-कुण्डपर रहकर स्नान-पूजनमें संलग्न थे । मोहिनी ! नागोंने मार्गशीर्ष मासमें यह यात्रा की है । वे कोटितीर्थमें रहकर स्नान-पूजन आदि करते थे । शुभलोचने ! गुह्माकों ने कपालमोचनतीर्थमें रहकर स्नान-ध्यान एवं पूजन आदि करते हुए पौष मासमें यहाँकी यात्रा सम्पन्न की है । शोभने ! पिशाचोंने फाल्गुन मासमें काशीको यात्रा की थी। वे कालेश्वर-कुण्डपर रहकर स्नान-पूजन आदिमें तत्पर रहते थे । देवि ! शुभ फाल्गुन मासमें शुक्ल पक्षकी जो चतुर्दशी है, उसीमें पिशाचोंने यात्रा की थी । इसीलिये उसे ‘ पिशाच-चतुर्दशी ‘ कहते हैं ।

   शुभानने ! अब मैं यात्राका आवश्यक कृत्य बतलाऊँगा, जिसके करनेसे मनुष्य यात्राका फल पाता है । यात्राके समय जलसे भरे हुए सुन्दर घड़ोंको वस्त्रसे ढककर फल, फूल और मिष्ठानके साथ उनका दान करना चाहिये करना चाहिये । चैत्रके शुक्लपक्षमे महान फल देनेवाली जो तृतीया है, उसमें मनुष्योंको भक्तिभावसे गौरी-देवीका दर्शन करना चाहिये । वरानने ! स्नान करके गोप्रेक्षतीर्थमे जाना चाहिए और स्वर्गद्वारमे जो कालिका देवी हैं, उनकी यत्नपूर्वक पूजा करनी चाहिए । उनके सिवा संवार्ता और ललिता भि श्रेष्ठ एवं कल्याणमयी देवी कही गयी है, उनका भी भक्तिभावसे दर्शन करना चाहिए । वे सम्पूर्ण कामनाओका फल देनेवाली है । तद्नंतर पवित्र व्रतका पालन करनेवाली शिवभक्त ब्राह्मणोको भोजन करने और वस्त्र तथा भरपूर दक्षिणाद्वारा उनका यथायोग्य सत्कार करना चाहिए । 

   अब मैं उन विनायकोंका परिचय देता हूँ, जो काशीक्षेत्रके निवासमें विघ्न डालनेवाले हैं । देवि ! उनका पूजन करके मनुष्य काशीवासका निर्विघ्न फल प्राप्त करता है । पहले ढुंढिविनायक, फिर किलविनायक, देवीविनायक, गोप्रेक्षविनावक, हस्तिहस्तीविनायक तथा सिन्दुर्यविनायकका दर्शन करना चाहिये । देवि ! चतुर्थीको इन सभी विनायकोंका दर्शन करे और इनकी प्रसन्नताके लिये ब्राह्मणको मिठाई खिलावे । इस कार्यसे मनुष्यको सिद्धि प्राप्त होती है ।

   अब मैं  काशीक्षेत्रकी रक्षा करनेवाली चण्डिकाओंका वर्णन करता हूँ । दक्षिण दिशामें दुर्गा रक्षा करती हैं । नैऋत्य कोणमें अन्तरेश्वरी, पश्चिममें अंगारेश्वरी, वायव्य कोणमें भद्रकाली, उत्तर दिशामें भीमचण्डा, ईशानकोणमें महामत्ता, पूर्व दिशमें ऊर्ध्वकेशीसहित शंकरीदेवी, अग्निकोणमें अध:केशी तथा मध्यभागमें चित्रघण्टादेवी रक्षा करती हैं । जो मानव इन चंडीका देवियोंका दर्शन करता है, उसपर प्रसन्न होकर वे सब-की-सब तत्परतापूर्वक उसके लिये क्षेत्रकी रक्षा करती हैं । देवि  ! ये पापियोंके लिये सदा विघ्न उपस्थित करती हैं, अत: रक्षाके लिये विनायकोंसहित उक्त देवियोंकी सदा पूजा करनी चाहिये ।

   भीष्मजी काशीपुरीमें आकर उत्तम पँचायतनरूपसे देवेश्वर शिवकी आराधना करते हुए कुछ कालतक यहाँ रहे । सुभगे ! उस स्थानपर भगवान्‌ शिव स्वयं प्रकट हुए थे, जो ‘ गोप्रेक्षक ‘  के नामसे

विख्यात हुए । सम्पूर्ण देवता उनकी स्तुति करते हैं । गोप्रेक्षेश्वरके पास आकर उनका दर्शन और

पूजन करके मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता और सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । एक समय वनकी गौएँ दावानलसे दग्ध हो इधर-उधर भटकती हुई इस कुण्डके समीप आयीं और यहाँका जल पीकर शान्त हुईं । तबसे यह ` कपिलाहद ‘ कहलाता है । यहाँ प्रकट होकर साक्षात्‌ भगवान्‌ शिव ` वृषध्वज ‘  नामसे विख्यात हुए । भगवान्‌ शिवने न केवल वहाँ निवास किया, वे वहाँ सबको प्रत्यक्ष दर्शन देते हुए शिवलिंगरूपमें विराजमान हैं । जो एकाग्रचित्त हो इस कपिलाहद-तीर्थमें स्नान करके वृषध्वज शिवका दर्शन करता है, वह सम्पूर्ण यज्ञोंका फल पाता है । वह स्वर्गलोकमें जाता है । भगवान्‌ वृषध्वजकी पूजा करके वहाँ मरा हुआ पुरुष शिवरूप हो जाता है । अधवा शरीर-भेदसे अत्यन्त दुर्लभ शिवगणका स्वरूप धारण करता है । इसी प्रदेशमें गौओंने स्वयं ब्रह्माजीके अनुरोधसे सम्पूर्ण लोकोकी शान्तिके लिये तथा सबको पवित्र करनेके उद्देश्यसे अपना दुग्ध दान किया था; जिससे ‘ भद्रदोह ‘ नामक सरोवर प्रकट हुआ, जो पवित्र, पापहारी एवं शुभ है । उस स्थानमें स्नान करनेवाला मनुष्य साक्षात्‌ वागीश्वर होता है । वहाँ परमेष्ठी ब्रह्माजीने स्वयं ले आकर एक शिवलिंग स्थापित किया है । फिर ब्रह्माजीसे लेकर भगवान्‌ विष्णुने दूसरा शिवलिंग स्थापित किया, जो ‘  हिरण्यगर्भ ‘ के नामसे वहाँ विद्यमान है । तदनन्तर ब्रह्माजीने पुन: इसी कारणसे ` स्वलोकेश्वर ‘ नाम शिवलिंग स्थापित किया ; जो स्वर्गीय लीलाका दर्शन करानेवाला है । देवताओंके स्वामी उन स्वलोकेश्वरका दर्शन करके मनुष्य शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता है । यहाँ प्राणत्याग करनेसे फिर कभी वह संसारमें जन्म नहीं लेता । उसकी वह अक्षयगति होती है, जो केवल योगियोंके लिये सुलभ बतायी गयी है ।

   भूमण्डलके उसी प्रदेशमें देवताओंके लिये कण्टकरूप दैत्य व्याघ्रका रूप धारण करके रहता था । वह बड़ा बलवान्‌ और अभिमानी था । भगवान्‌ शंकरने उसे मारा और उस स्थानपर व्याघ्रेश्वर नामसे प्रसिद्ध होकर नित्य निवास किया । उन देवेश्वरका दर्शन करके मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता । हिमवान्‌के द्वारा स्थापित एक शिवलिंग है, जो ‘ शैलेश्वर ‘ के नामसे विख्यात

है । भद्रे ! शैलेश्वरका दर्शन करके मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता । उत्पल और विदल नामके जो दो दैत्य ब्रह्माजीके वरदानसे बलोन्मत्त हो रहे थे, वे दोनों स्त्री-विषयक लोलुपताके कारण पार्वतीजीके हाथसे मारे गये । एक शारंगधनुषसे मारा गया और दूसरा कुन्तक अर्थात्‌ भालेसे । इन दोनों शास्त्रोके नामपर दो शिवलिंग स्थापित किये गये हैं । भद्रे ! जो मनुष्य श्रेष्ठ स्थानमें विमान उक्त दोनों लिंगोका दर्शन करता है, वह जन्म-जन्ममें सिद्ध होकर कभी शोक नहीं करता । देवताओंने उनके सब ओर बहुत-से शिवलिंग स्थापित किये हैं । उनका दर्शन करके मनुष्य देहत्यागके पश्चात्‌ भगवान्‌ शिवका गण होता है । वाराणसी नदी परम पवित्र और सब पापोंका नाश करनेवाली है । यह इस पवित्र क्षेत्रको सुशोभित करके गंगामें मिली है । उसके संगमपर ब्रह्माजीने उत्तम शिवलिंगकी स्थापना की है, जो ‘ शुक्रेश्वर ‘ के नामसे संसारमें विख्यात है, उसका दर्शन करना चाहिये । शुभे ! जो मानव इन देवनदियोंके संगममें स्नान करके संगमका पूजन करता है, उसे जन्म लेनेका भय कैसे हो सकता है ?  भद्रे ! भृगुपुत्र शुक्राचार्यने यहाँ एक शिवलिंग स्थापित किया है, जो ‘ शुक्रेधर ‘ के नामसे विख्यात है । सम्पूर्ण सिद्ध और देवता भी उसकी पूजा करते हैं । इसका दर्शन करके मनुष्य तत्काल सब पापोंसे मुक्त हो जाता है और मरनेपर फिर इस संसारमें जन्म नहीं लेता । मोहिनी ! महादेवजीने यहाँ जम्बुक नामक दैत्यका वध किया था । तत्सम्बन्धी शिवलिंगका दर्शन करके मानव सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है । इन्द्र आदि देवताओंके द्वारा स्थापित किये हुए इन शिवलिंगको तुम पुण्यलिंग समझो । ये समस्त कामनाओंकों देनेवाले हैं । मोहिनी ! इस प्रकार इस अविमुक्तक्षेत्रमें मैंने तुम्हें ये सब शिवलिंग बताये हैं ।

अध्याय १४४ काशीकी गंगाके वरणा— संगम, असी— संगम, तथा पंचगंगा आदि तीर्थोका माहात्म्य

पुरोहित वसु कहते हैं- भद्रे ! अब मैं तुम्हें काशीकी गंगाका उत्तम माहात्म्य बताता हूँ, जो भोग और मोक्षरूप फल देनेवाला है । अविमुक्त-क्षेत्रमें जो भी कर्म किया जाता है, वह अक्षय हो जाता है । कोई भी पापी अविमुक्तक्षेत्र ( काशी  )- में जाकर पापरहित हो जानेके कारण कभी नरकमें नहीं पड़ता । शुभे ! अविमुक्तक्षेत्रमें किया हुआ पाप वज्रतुल्य हो जाता है । तीनों लोकोंमें जो मोक्षदायक तीर्थ हैं, वे सम्पूर्ण सदा काशीकी उत्तरवाहिनी गंगाका सेवन करते हैं । जो दशाश्वमेधघाटमें स्नान करके विश्वनाथजीका दर्शन करता है, वह शीघ्र ही पापमुक्त होकर संसारबन्धनसे छूट जाता है । यों तो पुण्यसलिला गंगा सर्वत्र ही ब्रह्महत्या-जैसे पापोंका निवारण करनेवाली हैं, तथापि काशीमें जहाँ उनकी धारा उत्तरकी ओर बहती है, वहाँ उनकी विशेष महिमा प्रकट होती है । वरणा और गंगाके तथा असी और गंगाके संगममें स्नान करनेमात्रसे मनुष्य सम्पूर्ण पातकों से मुक्त हो जाता है । काशीकी उत्तरवाहिनी गंगामें कार्तिक और माघ मासमें स्नान करके मनुष्य महापाप आदि पातकोंसे मुक्त हो जाते हैं । सुन्दरी ! वहाँ धर्मनद नामसे विख्यात एक कुण्ड है । उसमें धर्म स्वरूपत: प्रकट होकर बड़े-बड़े पातकोंका नाश करता है । वहीं धूली एवं धूतपापा भी है, जो सर्वतीर्धमयी एवं शुभकारक है । जैसे नदीका वेग तटवर्ती वृक्षोंको गिरा देता है, उसी प्रकार वह धूतपापा समस्त पापराशिकों हर लेती है ।

   काशीमें किरणा, धूतपापा, पुण्य-सलिला सरस्वती, गड़ा और यमुना- ये पाँच नदियाँ एकत्र बतायी गयी हैं । इनसे त्रिभुवनविख्यात च्यनद ( पश्चगंगा ) तीर्थ प्रकट हुआ है । उसमें डुंबकों लगानेवाला मानव फिर पाज्ञभौतिक शरीर नहीं धारण करता । यह पाँच नदियोंका सड़म समस्त पापराशियोंका नाश करनेवाला है । उसमें स्नान करनेमात्रसे मनुष्य ब्रह्माण्डटमण्डपका भेदन करके परम पदकों प्राप्त होता है । प्रयागमें माघ मासमें विधिपूर्वक स्नान करनेसे जो फल प्राप्त होता है, वह काशीके पञ्चगंगातीर्थमें एक ही दिनके स्नानसे मिल जाता है । पञ्चगंगामें स्नान और पितरोंका तर्पण करके ‘ माधव ‘  नामसे प्रसिद्ध भगवान्‌ विष्णुकी पूजा करनेवाला पुरुष फिर इस संसारमें जन्म नहीं लेता । जिन्होंने पञ्चगंगामें श्रद्धापूर्वक श्राद्ध किया है, उनके पितर अनेक योनियोंमें पड़े होनेपर भी मुक्त हो जाते हैं । पश्वनदतीर्थमें श्राद्धकर्मकी महिमाका प्रत्यक्ष दर्शन करके यमलोकमें पितरलोग यह गाथा गाया करते हैं कि ‘ क्या हमारे वंशमें भी कोई ऐसा होगा, जो काशीके पञ्चगंगातीर्थमें आकर श्राद्ध करेगा ? जिससे हम लोग मुक्त हो जायेंगे ।’ पञ्चगंगातीर्थमें जो कुछ धन दान किया जाता है, कल्पके अन्ततक उसके पुण्यका क्षय नहीं होता । वन्ध्या स्त्री भी एक वर्षतक पञ्चगंगातीर्थमें स्नान करके यदि मंगलागौरीका पूजन करे तो वह अवश्य ही पुत्रको जन्म देती है । वस्त्रसे छाने हुए पञ्चगंगाके पवित्र जलसे यहाँ दिकश्रुतादेवीको स्नान कराकर मनुष्य महान्‌ फलका भागी होता है । पाँचामृतके एक सौ आठ कलशोंके साथ तुलना करनेपर पञ्चगंगाका एक बूँद जल भी उनसे श्रेष्ठ सिद्ध होता है । इस लोकमें पद्टकूर्च ( पञ्चगव्य ) पीनेसे जो शुद्धि कही गयी है, वही शुद्धि श्रद्धापूर्वक पञ्चगंगाके जलकी एक बूँद पीनेसे प्राप्त होती है और उसके कुण्डमें स्नान करनेसे राजसूय तथा अश्वमेधयज्ञका जो फल कहा गया है, उससे सौगुना उत्तम फल उपलब्ध होता है । राजसूय और अश्वमेध-यज्ञ केवल स्वर्गके साधक हैं, किंतु पञ्चगंगाके जलसे ब्रहमलोकतकके सम्पूर्ण दन्द्रोंसे मुक्ति मिल जाती है। सत्ययुगमें वह ‘ धर्मनद ‘ के नामसे प्रसिद्ध हुआ, त्रेतामें उसीका नाम ‘ धूतपापा ‘ हुआ । द्वापरमें उसे ‘ विन्दुतीर्थ ‘ कहा जाने लगा और कलियुगमें ‘ पञ्चनद ‘  के नामसे उसकी ख्याति होती है । पञ्चनदतीर्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थोंका शुभ आश्रय है, उसकी अत्यन्त महिमाका कोई भी वर्णन नहीं कर सकता । भद्रे ! इस प्रकार मैंने तुम्हें काशीका उत्तम माहात्म्य बताया है । वह मनुष्यों के लिये सुखद, मोक्षप्रद तथा बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाला है। महापातकी एवं उपपातकी मानव भी अविमुक्तक्षेत्रके इस माहात्म्यकों सुनकर शुद्ध हो जाता है। ब्राह्मण इसको सुनने और पढ़नेसे वेदोंका विद्वान्‌ होता है । क्षत्रिय युद्धमें विजय पाता है, वैश्य धन-सम्पत्तिसे भरपूर होता है और शूद्रको वैष्णव भक्तोंका संग प्राप्त होता है । सम्पूर्ण यज्ञॉमें जो फल मिलता है, समस्त तीर्थोंमें जो फल प्राप्त होता है, वह सब इसके पाठसे और श्रवणसे भी मनुष्य प्राप्त कर लेता हैं । विद्यार्थी इससे विद्या पाता है, धनार्थी धन पाता है, पत्नी चाहनेवाला पत्नी और पुत्रकी इच्छावाला पुरुष पुत्र पाता है ।

अध्याय १४५ उत्तकल देशके पुरुषोत्तम— क्षेत्रकी महिमा, राजा इंद्रधुम्नका वहाँ जाकर मोक्ष प्राप्त करना

मोहिनी बोली—विप्रवर ! मैंने आपके मुखारविन्दसे काशीका उत्तम माहात्म्य सुना । पुराणोंमें मुनियों और ब्राह्मणोंका यह वर्णन सुना जाता है कि पुरुषोत्तम भगवान्‌ विष्णुका क्षेत्रमोक्ष देनेवाला है । महाभाग ! अब उस पुरुषोत्तम-क्षेत्रका माहात्म्य कहिये ।

   पुरोहित वसुने कहा—देवि ! सुनो, मैं तुम्हें ब्रह्माजीके द्वारा कहा हुआ पुरुषोत्तम-क्षेत्रका उत्तम माहात्म्य बतलाता हूँ । भारतवर्षमें दक्षिण समुद्रके तटतक फैला हुआ एक उत्कल नामका प्रदेश है, जो स्वर्ग और मोक्ष देनेवाला है । समुद्रसे उत्तर विरज-मण्डलतकका जो प्रदेश है, वह पुण्यात्माओंका देश है । वह भू-भाग सम्पूर्ण गु्णोंसे अलंकृत है । विशालाक्षि ! समुद्रके उत्तर तटवर्ती उस सर्वोत्तम उत्कल प्रदेशमें सभी पुण्य तीर्थ और पवित्र मन्दिर आदि हैं, जिनका परिचय जानने योग्य है । मुक्ति देनेवाला परम उत्तम एवं पापनाशक पुरुषोत्तम-क्षेत्र परम गोपनीय है । सर्वत्र बालुका-आच्छादित भू-भागमें वह पवित्र एवं धर्म और कामकी पूर्ति करनेवाला परम दुर्लभ क्षेत्र दस योजनतक फैला हुआ है । जैसे नक्षत्रोंमें चन्द्रमा और सरोवरोंमें सागर श्रेष्ठ है, उसी प्रकार समस्त तीर्थोंमें पुरुषोत्तम-क्षेत्र सबसे श्रेष्ठ है । भगवान्‌ पुरुषोत्तमका एक बार दर्शन करके, सागरके भीतर एक बार स्नान करनेसे तथा ब्रहमविद्याको एक बार जान लेनेसे मनुष्यको गर्भमें नहीं आना पड़ता । देवेध्वर पुरुषोत्तम समस्त जगतमें व्यापक और सम्पूर्ण विश्वके आत्मा हैं । वे जगत्‌की उत्पत्तिके कारण तथा जगदीश्वर हैं । सब कुछ उन्हींमें प्रतिष्ठित है । जो देवताओं, ऋषियों और पितरोंद्वारा सेवित तथा सर्वभोगसम्पन्न है, ऐसे पुण्यात्मा प्रदेशमें निवास करना किसको नहीं अच्छा लगेगा । इससे बढ़कर इस देशकी श्रेष्ठताके विषयमें और क्या कहा जा सकता है? जहाँ सबको मुक्ति देनेवाले जगदीश्वर भगवान्‌ पुरुषोत्तम निवास करते हैं, उस उत्कल-देशमें जो मनुष्य निवास करते हैं, वे देवताओंके समान तथा धन्य हैं । जो तीर्थराज समुद्रके जलमें स्रान करके भगवान्‌ पुरुषोत्तमका दर्शन करते वे मनुष्य स्वर्गमें निवास करते हैं । जो उत्कलमें परम पवित्र श्रीपुरुषोत्तमक्षेत्रके भीतर निवास करते हैं, उन उत्तम बुद्धिवाले उत्कलवासियोंका ही जीवन सफल है; क्योंकि वे भगवान्‌ श्रीकृष्णके उस मुखारविन्दका दर्शन करते हैं, जो तीनों लोकोंको आनन्द देनेवाला है । भगवान्‌का मुख लाल ओष्ठ और प्रसन्नतासे खिले हुए विशाल नेत्रोंसे सुशोभित है। मनोहर भौंहों, सुन्दर केशों और दिव्य मुकुटसे अलंकृत है । सुन्दर कर्णलतासे उसकी शोभा और बढ़ गयी है । उस मुखपर मन्द-मन्द मुसकान बड़ी मनोहर लगती है। दन्तावली भी बड़ी सुन्दर है । कपोलपर मनोहर कुण्डल झिलमिला रहे हैं । नासिका, कपोल सभी परम सुन्दर और उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न हैं ।

   देवि ! प्राचीन कालकी बात है । सत्ययुगमें इन्द्रके तुल्य पराक्रमी एक राजा थे, जो श्रीमान्‌ ‘ इन्द्रद्युप्न ‘ के नामसे प्रसिद्ध हुए । वे बड़े सत्यवादी, पवित्र, कार्यदक्ष, सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ,सौभाग्यशाली, शूर, दाता, भोक्ता, प्रिय वचन बोलनेवाले, सम्पूर्ण यज्ञोंके याजक, ब्राह्मण-भक्त,सत्य-प्रतिज्ञ, धनुर्वेद तथा वेद-शास्त्रके निपुण बिद्वान्‌ एवं चन्द्रमाकी भाँति मधुर प्रकृतिके थे ।

   राजा इन्द्रद्युम्न भगवान्‌ विष्णुके भक्त, सत्यपरायण,क्रोधको जीतनेवाले, जितेन्द्रिय, अध्यात्मविद्यातत्पर, न्यायप्राप्त युद्धके लिये उत्सुक तथा धर्मपरायण थे । इस प्रकार सम्पूर्ण गुणोंको खानरूप राजा इन्द्रद्युम्न सारी पृथ्वीका पालन करते थे । एक बार उनके मनमें भगवान्‌ विष्णुकी आराधनाका विचार उठा । वे सोचने लगे- ‘  मैं देवदेव भगवान्‌ जनार्दनकी किस प्रकार आराधना करूँ ?  किस क्षेत्रमें, किस नदीके तटपर, किस तीर्थमें अथवा किस आश्रममें मुझे भगवान्‌की आराधना करनी चाहिये ?’  इस प्रकार विचार करते हुए वे मन-ही-मन समूची पृथ्वीपर दृष्टिपात करने लगे । जो-जो पापहारी तीर्थ हैं, उन सबका मानसिक अवलोकन और चिन्तन करके अन्तमें वे परम विख्यात मुक्तिदायक पुरुषोत्तमक्षेत्रमें गये । अधिकाधिक सेना और वाहनोंके साथ पुरुषोत्तमक्षेत्रमें जाकर राजाने विधिपूर्वक अश्वमेध-यज्ञका अनुष्ठान किया और उसमें पर्याप्त दक्षिणाएँ दीं । तदनन्तर बहुत ऊँचा मन्दिर बनवाकर अधिक दक्षिणाके साथ श्रीकृष्ण, बलभद्र और सुभद्राको स्थापित किया । फिर उन पराक्रमी नरेशने विधिपूर्वक पञ्चतीर्थ करके वहाँ प्रतिदिन न, स्नान, जप, होम, देवदर्शन तथा भक्तिभावसे भगवान्‌ पुरुषोत्तमकी सविधि आराधना करते हुए देवदेव जगन्नाथके प्रसादसे मोक्ष प्राप्त कर लिया ।

अध्याय १४६ राजा इंद्रद्युम्नके द्धारा भगवान श्रीकृष्णकी स्तुति

मोहिनी बोली- मुनिश्रेष्ठ ! पूर्वकालमें महाराज इन्द्रदुम्नने श्रीकृष्ण आदिकी प्रतिमाओंका निर्माण कैसे कराया ? भगवान्‌ लक्ष्मीपति उनपर किस प्रकार संतुष्ट हुए ?  ये सब बातें मुझे बताइये ।

   पुरोहित वसुने कहा- चारुनयने ! वेदके तुल्य माननीय पुराणकी बातें सुनो । मैं श्रीकृष्ण आदिकी प्रतिमाओंके प्रकट होनेका प्राचीन वृत्तान्त कहता हूँ, सुनो । राजा इन्द्रदुम्नके अधमेध नामक महायज्ञके अनुष्ठान और प्रासाद-निर्माणका कार्य पूर्ण हो जानेपर उनके मनमें दिन-रात प्रतिमाके लिये चिन्ता रहने लगी । वे सोचने लगे-कौन-सा उपाय करूँ, जिससे सृष्टि, पालन और संहार करनेवाले, सम्पूर्ण लोकोंके उत्पादक देवेश्वर भगवान्‌ पुरुषोत्तमका मुझे दर्शन हो ‘ -इसी चिन्तामें निमगन रहनेके कारण महाराजको न रातमें नींद आती थी, न दिनमें । वे न तो भाँति-भाँतिके भोग भोगते और न स्नान एवं शृंगार ही करते थे। इस पृथ्वीपर पत्थर, लकड़ी अथवा धातु, किससे भगवान्‌ विष्णुकी योग्य प्रतिमा हो सकती है, जिसमें भगवानके सभी लक्षणोंका अंकन ठीक-ठीक हो सके । इन तीनोमेंसे किसकी प्रतिमा भगवान्‌कों प्रिय तथा सम्पूर्ण देवताऑद्वारा पूजित होगी, जिसकी स्थापना करनेसे भगवान प्रसन्न हो जायँगे ।’  इस प्रकारकी चिन्तामें पड़े-पड़े उन्होंने पञ्चरात्रकी विधिसे भगवान्‌ पुरुषोत्तमका पूजन किया और अन्तमें ध्यानमग्न हो राजाने इस प्रकार स्तुति प्रारम्भ की ।

   इन्द्रदुम्न बोले- वासुदेव ! आपको नमस्कार है । आप मोक्षके कारण हैं, आपको मेरा नमस्कार है । सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी परमेश्वर ! आप इस जन्म-मृत्युरूपी संसार-सागरसे मेरा उद्धार कीजिये । पुरुषोत्तम ! आपका स्वरूप निर्मल आकाशके समान है । आपको नमस्कार है । सबको अपनी ओर खींचनेवाले संकर्षण ! आपको प्रणाम है । धरणीधर ! आप मेरी रक्षा कीजिये । भगवन्‌ ! आपका श्रीअंग मेघके समान श्याम है । भक्तवत्सल ! आपको नमस्कार है । सम्पूर्ण देवताओंका निवासस्थान ! आपको नमस्कार है । देवप्रिय ! आपको प्रणाम है । नारायण ! आपकों नमस्कार है । आप मुझ शरणागतकी रक्षा कीजिये । नील मेघके समान आभावाले घनश्याम ! आपको नमस्कार है । देवपूजित परमेश्वर ! आपको प्रणाम है । विष्णों ! जगन्नाथ ! मैं भवसागरमें डूबा हुआ हूँ । मेरा उद्धार कीजिये । पूर्वकालमें महावराहरूप धारण करके आपने जिस प्रकार जलमें डूबी हुई पृथ्वीका रसातलसे उद्धार किया था, उसी प्रकार मेरा भी दुःखके समुद्रसे उद्धार कीजिये । कृष्ण ! आपकी वरदायक मूर्तियोंका मैंने स्तवन किया है । ये बलदेव आदि जो पृथक रूपसे स्थित हैं,  इन सबके रूपमें आप ही विराजमान हैं । देवेश ! प्रभो ! अच्युत ! गरुड़ आदि पार्षद आयुर्धोंसहित इन्द्र आदि दिकपाल आपके ही अद्र हैं । देवेश ! आप मुझे धर्म, अर्थ, काम और मौक्ष देनेवाला वर प्रदान करें । हरे ! आप एकमात्र व्यापक, चेतनस्वरूप तथा निरझन हैं । आपका जो परम स्वरूप है, वह भाव और अभावसे रहित, निर्लेप, निर्मल, सुक्ष्म, कूटस्थ, अचल, श्रुव, समस्त उपाधियोंसे विमुक्त और सत्तामात्ररूपसे स्थित है । प्रभों ! उसे देवता भी नहीं जानते, फिर मैं कैसे जान सकता हूँ । उससे भिन्न जो आपका दूसरा स्वरूप है, वह पीताम्बरधारी और चार भुजाओंसे युक्त है  । उसके हाथोंमें शंख, चक्र और गदा सुशोभित हैं । वह मुकुट और अंगद धारण करता है । उसका वक्ष:स्थल श्रीवत्सचिह्मसे युक्त है तथा वह वनमालासे विभूषित रहता है । देवता तथा आपके अन्यान्य शरणागत भक्त उसीकी पूजा करते हैं । देव ! आप सम्पूर्ण देवताओंमें श्रेष्ठ एवं भक्तोंकों अभय देनेवाले हैं । मनोहर कमलके समान नेत्रोंवाले प्रभो ! मैं विषयोंके समुद्रमें डूबा हूँ, आप मेरी रक्षा कोजिये । लोकेश ! मैं आपके सिवा और किसीको नहीं देखता, जिसकी शरणमें जाऊँ । कमलाकान्त ! मधुसूदन ! आप मुझपर प्रसन्न होइये । मैं बुढ़ापे और सैकड़ों व्याधियोंसे युक्त हो नाना प्रकारके दुः:खोंसे पीड़ित हूँ तथा अपने कर्मपाशमें बँधकर हर्ष-शोकमें मग्र हो विवेकशून्य हो गया हूँ । अत्यन्त भयंकर घोर संसार-समुद्रमें गिरा हूँ । यह भवसागर विषयरूपी जलराशिके कारण दुस्तर है । इसमें राग-द्वेषरूपी मत्स्य भरे पड़े हैं । इन्द्रियरूपी भँवरोंसे यह बहुत गहरा प्रतीत होता है । इसमें तृष्णा और शोकरूपी लहरें व्याप्त हैं । यहाँ न कोई आश्रय है, न अवलम्ब । यह सारहीन एवं अत्यन्त चज्नल है। प्रभो ! मैं मायासे मोहित होकर इसके भीतर चिरकालसे भटक रहा हूँ। हजारों भिन्न-भिन्न योनियोंमें बारंबार जन्म लेता हूँ। प्रभो ! देवता, पशु, पक्षी, मनुष्य तथा अन्य चराचर भूतोंमें ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ मेरा जाना न हुआ हो । सुरश्रेष्ठ ! जैसे रहटमें रस्सीसे बँधी हुई घटी कभी ऊपर जाती, कभी नीचे आती और कभी बीचमें ठहरी रहती है, उसी प्रकार मैं कर्मरूपी रजुमें बँधकर दैवयोगसे ऊपर, नीचे तथा मध्यवर्ती लोकमें भटकता रहता हूँ । इस प्रकार यह संसार-चक्र बड़ा ही भयानक एवं रोमाञ्चकारी है । मैं इसमें दीर्घकालसे घुम रहा हूँ, किंतु कभी मुझे इसका अन्त नहीं दिखायी देता । समझमें नहीं आता, अब मैं क्या करूँ हरे ! मेरी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ व्याकुल हो गयी हैं । मैं शोक और तृष्णासे आक्रान्त होकर अब कहाँ जाऊँ ?  मेरी चेतना लुप्त हो रही है । देव ! इस समय व्याकुल होकर मैं आपकी शरणमें आया हूँ। श्रीकृष्ण ! मैं संसार-समुद्रमें डुबकर दुःख भोग रहा हूँ, मुझे बचाइये । जगगनाथ ! यदि आप मुझे अपना भक्त मानते हैं तो मुझपर कृपा कीजिये । आपके सिवा दूसरा कोई ऐसा बन्धु नहीं है जो मेरी तरफ खयाल करेगा । देव ! प्रभो ! आप-जैसे स्वामीकी शरणमें आकर अब मुझे जीवन-मरण अथवा योगक्षेमके लिये कहीं भी भय नहीं होता । हरे ! अपने कर्मोसे बँधे रहनेके कारण मेरा जहाँ-कहीं भी जन्म हो, वहाँ सर्वदा आपमें मेरी अविचल भक्ति बनी रहे । देव ! आपकी आराधना करके देवता, दैत्य, मनुष्य तथा अन्य संयमी पुरुषोंने परम सिद्धि प्राप्त की है, फिर कौन आपकी पूजा नहीं करेगा ?  भगवन्‌ ! ब्रह्मा आदि देवता भी आपकी स्तुति करनेमें समर्थ नहीं हैं, फिर मानवी बुद्धिसे मैं आपकी स्तुति कैसे कर सकता हूँ; क्योंकि आप प्रकृतिसे परे हैं। अत: देवेश्वर ! आप भक्त-स्नेहके वशीभूत होकर मुझपर प्रसन्न होइये । देव ! मैंने भक्तिभावित चित्तसे आपकी जो स्तुति की है, वह संगोपांग सफल हो । वासुदेव ! आपको नमस्कार है।

अध्याय १४७ राजाको स्वप्नमें और प्रत्यक्ष भी भगवानके दर्शन, भागवतप्रतिमाओंका निर्माण, वरप्राप्ति और प्रतिष्ठाता

     पुरोहित वसु कहते हैं- सुभगे ! राजा इन्द्रदुम्नके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान्‌ गरुडध्वज बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने राजाका सब मनोरथ पूर्ण किया । जो मनुष्य भगवान्‌ जगन्नाथका पूजन करके प्रतिदिन इस स्तोत्रसे उनका स्तवन करता है, वह बुद्धिमान्‌ निश्चय ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है । जो निर्मल हृदयवाले मनुष्य उन परम सूक्ष्म, नित्य, पुराणपुरुष मुरारि श्रीविष्णु भगवान्‌का ध्यान करते हैं, वे मुक्तिके भागी हो भगवान्‌ विष्णुमें प्रवेश कर जाते हैं । एकमात्र वे देवदेव भगवान्‌ विष्णु ही संसारके दुःखोंका नाश करनेवाले तथा परोंसे भी पर हैं । उनसे भिन्न कोई नहीं है । वे ही सबकी सृष्टि, पालन और संहार करनेवाले हैं । भगवान्‌ विष्णु ही सबके सारभूत एवं सम हैं मोक्षसुख प्रदान करनेवाले जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्णमें यहाँ जिनकी भक्ति नहीं होती, उन्हें विद्यासे, अपने गुणोंसे तथा यज्ञ, दान और कदर तपस्यासे क्या लाभ हुआ ?  जिस पुरुषकी भगवान्‌ पुरुषोत्तमके प्रति भक्ति है, वही संसारमें धन्य पवित्र और विद्वान है । वही यज्ञ, तपस्या और गुणोंके कारण श्रेष्ठ है तथा वही ज्ञानी, दानी और सत्यवादी है ।

   ब्रह्मपुत्री मोहिनी ! इस प्रकार स्तुति करके राजाने सम्पूर्ण मनोवांछित फलोंको देनेवाले सनातन पुरुष जगन्नाथ भगवान्‌ वासुदेवको प्रणाम किया और चिन्तामग्न हो पृथ्वीपर कुश और वस्त्र बिछाकर भगवान्‌का चिन्तन करते हुए वे उसीपर  सो गये । सोते समय उनके मनमें यही संकल्प था कि सबकी पीड़ा दूर करनेवाले देवाधिदेव भगवान्‌ जनार्दन कैसे मुझे प्रत्यक्ष दर्शन देंगे । सो जानेपर चक्र धारण करनेवाले जगदूगुरु भगवान्‌ वासुदेवने राजाको स्वप्नमें अपने स्वरूपका दर्शन कराया । राजाने स्वप्नमें देवदेव जगन्नाथका दर्शन किया । वे शंख, चक्र धारण किये शान्तभावसे विराजमान थे । इनके दो हाथोंमें गदा और पद्म सुशोभित थे । शारंगधनुष, बाण और खड्ग भी उन्होंने धारण कर रखे थे । उनके सब ओर तेजका दिव्य मण्डल प्रकाशित हो रहा था प्रलयकालीन सूर्यके समान उनकी दिव्य प्रभा उंद्भासित हो रही थी। उनका श्रीअंग नीले  पुखराजके समान श्याम था । आठ भुजाओंसे  सुशोभित भगवान्‌ श्रीहरि गरुड़की पीठपर बैठे  हुए थे। दर्शन देकर भगवानने उनकी ओर देखते हुए कहा- ` परम बुद्धिमान नरेश ! तुम्हें साधुवाद  है । तुम्हारे इस दिव्य यज्ञसे,  भक्तिसे तथा श्रद्धासे  मैं बहुत संतुष्ट हूँ । महीपाल ! तुम व्यर्थ सोचमें क्यों पढ़े हो ?  राजन्‌ ! यहाँ जो जगत्पुज्य सनातनी प्रतिमा है, उसे तुम जिस प्रकार प्राप्त कर सकते हो, वह उपाय तुम्हें बताता हूँ । आजकी रात्रि बीतनेपर निर्मल प्रभातमें जब सुर्योदय हो, उस समय अनेक प्रकारके वृक्षोंसे सुशोभित समुद्रक जलप्रान्तमें जहाँ तरंगोसें व्याप्त महतीं जलराशि दिखायी देती है वहाँ तटपर ही एक बदुत बड़ा वृक्ष खड़ा है, जिसका कुछ भाग ता जलम और कुछ स्थलमें । वह समुद्रकी लहरोंका थपेड़े खाकर भी कम्पित नहीं होता । तुम हाथमे कुल्हाड़ी लेकर लहरोंके बीचसे होते हुए अकेले ही वहाँ चले जाना । तुम्हें वह वृक्ष दिखायी देगा मेरे बताये अनुसार उसे पहचानकर निःश्ङ्कघावसे उस वृक्षको काट डालना । उस ऊँचे वृक्षको काटते समय तुम्हें वहाँ कोई अद्भुत वस्तु दिखायी देगी । उसी वृक्षसे भलीभांति सोच-विचारकर तुम दिव्य प्रतिमाका निर्माण करो मोहमें डालनेवाली इस चिन्ताको छोड़ दो ।

   ऐसा कहकर महाभाग श्रीहरि अदृश्य हो गये । यह स्वप्न देखकर राजाकों बड़ा विस्सय हुआ । उस रात्रिके बीतनेकी प्रतीक्षा करते है । भगवानमें मन लगाकर उठ बैठे और ` वैष्णद-मन्त्र एवं विष्णुसूक्त ‘  का जप करने लगे । प्रधात होनेपर वे उठे और भगवान्‌का स्मरण करते हुए विधिपूर्वक उन्होंने समुद्रमें स्नान किया, फिर पूर्वाह्ककृत्य पूरा करके वे नृपश्रेष्ठ समुद्रके तटपर गये । महाराज इन्द्रदुम्नने अकेले ही समुद्कों महावेलामें प्रवेश किया और उस तेजस्वी महावृश्षको देखा, जिसको अन्तिम ऊपरी सीमा बहुत बड़ी थी । वह बहुत ऊँचेतक फैला हुआ था । वह पुण्यमय वृक्ष फलसे रहित था । स्त्रीग्ध मजीठके समान उसका लाल रंग था । उसका न तो कुछ नाम था और न यही पता था कि वह किस जातिका वृक्ष है । उस वृक्षको देखकर राजा इन्द्रदुम्न बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने दृढ़ एवं तीक्षण फरसेसे उस वृक्षको काट गिराया। उस समय इन्द्रदुम्नने जब काष्ठका भली भाँति निरीक्षण किया, तब उन्हें वहाँ एक अद्भुत बात दिखायी दी । विश्वकर्मा और भगवान्‌ विष्णु दोनों ब्राह्मणका रूप धारण करके वहाँ आये । दोनों ही उत्तम तेजसे प्रज्वलित हो रहे थे । राजा इन्द्रदुम्नसे उन्होंने पूछा- महाराज ! आप यहाँ कौन कार्य करेंगे ? इस परम दुर्गम, गहन एवं निर्जन वनमें इस महासागरके तटपर यह अकेला ही महान्‌ वृक्ष था । इसको आपने क्यों काट दिया ?’

   मोहिनी ! उन दोनोंकी बात सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुए । उन दोनों जगदीश्वरोंको देखकर राजाने पहले तो उन्हें नमस्कार किया और फिर विनीतभावसे नीचे मुँह किये खड़े होकर कहा- विप्रवरो ! मेरा विचार है कि मैं अनादि, अनन्त, अमेय तथा देवाधिदेव जगदीश्वरकी आराधना करनेके लिये प्रतिमा बनाऊँ । इसके लिये परमपुरुष देवदेव परमात्माने स्वप्नमें मुझे प्रेरित किया है ।’ राजा इन्द्रम्नका यह वचन सुनकर भगवान्‌ जगन्नाथने प्रसन्नतापूर्वक हँसकर उनसे कहा- ` महीपाल ! बहुत अच्छा, बहुत अच्छा; आपका यह विचार बहुत उत्तम है । यह भयंकर संसार-सागर केलेके पत्तेकी भाँति सारहीन है । इसमें दुःखकी ही अधिकता है । यह काम और क्रोधसे भरा हुआ है । इन्द्रियरूपी भँवर और कीचड़के कारण इसके पार जाना कठिन है । इसे देखकर रोमांच हो आता है । नाना प्रकारके सैकड़ों रोग भँवरके समान हैं तथा यह संसार पानीके ‘ क्षणभंगुर है । नृपश्रेष्ठ ! इसमें सुशोभित यह धरती धन्य है,  जहाँके शक्तिशाली प्रजापालक आप हैं । महाभाग ! आइये, आइये । इस वृक्षकी सुखद एवं शीतल छायामें हम दोनोंके साथ बैठिये और धार्मिक कथा-वार्ताद्वारा धर्मका सेवन कीजिये । ये मेरे साथी शिल्पियोंमें श्रेष्ठ हैं और प्रतिमाके निर्माणकार्यमें आपकी सहायता करनेके लिये यहाँ आये हैं । ये मेरे बताये अनुसार प्रतिमा अभी तैयार कर देते हैं ।’

   उन ब्राह्मणदेवकी ऐसी बात सुनकर राजा इन्द्रदुम्न समुद्रका तट छोड़कर उनके पास चले गये और वृक्षकी छायामें बैठे ।

   ब्रह्मपुत्री मोहिनी ! तदनन्तर ब्राह्मणरूपधारी विश्वात्मा भगवानने शिल्पियोंमें श्रेष्ठ विश्वकर्माको आज्ञा दी,  तुम प्रतिमा बनाओ । उसमें श्रीकृष्णका रूप परम शान्त हो । उनके नेत्र कमलदलके समान विशाल होने चाहिये । वे वक्ष:स्थलपर श्रीवत्सचिह्न तथा कौस्तुभमणि और हाथोंमें शंख, चक्र एवं गदा धारण किये हुए हों । दूसरी प्रतिमाका विग्रह गो-दूग्धके समान गौरवर्ण हो । उसमें स्वस्तिकका चिह्न होना चाहिये । वह अपने हाथमें हल धारण किये हुए है । वही महाबली भगवान्‌ अनन्तका स्वरूप है । देवता, दानव,गन्धर्व, यक्ष, विद्याधर तथा नागोंने भी उनका अन्त नहीं जाना है, इसलिये वे ‘ अनन्त ‘ कहलाते हैं । तीसरी प्रतिमा बलरामजीकी बहिन सुभद्रादेवीकी होगी । उनके शरीरका रंग सुवर्णके समान गौर एवं शोभासे सम्पन्न होना चाहिये । उनमें समस्त शुभ लक्षणोंका समावेश होना आवश्यक है ।’

   भगवान्‌का यह कथन सुनकर उत्तम कर्म करनेवाले विश्वकर्माने तत्काल शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न प्रतिमाएँ तैयार कर दीं । पहले उन्होंने बालभद्रजीकी मूर्ति बनायी । वे विचित्र कुण्डलमण्डित दोनों कानों तथा चक्र एवं हलके चिह्नसे युक्त हाथोंसे सुशोभित थे । उनका वर्ण शरत्कालके चंद्रमाके समान श्वेत था । नेत्रोंके कुछ-कुछ हालिया थी । उनका शरीर विशाल और मस्तक फणाकार होनेसे विकट जान पड़ता था । वे नील बस्तर धारण किये, बलके अभिमानसे उद्धत प्रतीत होते थे। उन्होंने हाथोंमें महान्‌ हल और महान मुसल धारण कर रखा था । उनका स्वरूप दिव्य था । द्वितीय विग्रह साक्षात्‌ भगवान्‌ वासुदेवका था । उनके नेत्र प्रफुल्ल कमलके समान सुशोभित थे । शरीरको कान्ति नील मेघके समान श्याम थी । वे तीसीके फूलके समान सुन्दर प्रभासे उद्धासित हो रहे थे । उनके बड़े-बड़े नेत्र कमलदलकी ज्ञोश्याको छोने लेते थे । श्रीअंगोपर पीताम्बर शोभा पाता था । वक्ष:स्थलमें श्रीवत्सका चिह्न तथा हाथोंमें शंख, चक्र सुशोभित थे । इस प्रकार वें सर्वपापहारी श्रीहरि दिव्य शोभासे सम्पन्न थे । तीसरी प्रतिमा सुभद्रादेवीकी थी, जिनके देहकी कान्ति सुवर्णके समान दमक रही थी, नेत्र कमलदलके समान विशाल थे । उनका अंग विचित्र वस्त्रसे आच्छादित था । वे हार और कैयूर आदि आभूषणोंसे विभूषित थीं । इस प्रकार विश्वकर्माने उनकी बड़ी रमणीय प्रतिमा बनायी ।

   राजा इन्द्रदुम्नने यह बड़ी अद्भुत बात देखी कि सब प्रतिमाएँ एक ही क्षणमें बनकर तैयार की गयीं । वे सभी दो दिव्य वस्त्रोंसे आच्छादित थीं । उन सबका भाँति-भाँतिके रतोंसे श्रद्धार किया गया था और वे सभी अत्यन्त मनोहर तथा समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थीं । उन्हें देखकर राजा अत्यन्त आश्चर्यमग्न होकर बोले- ‘ आप दोनों ब्राह्मणके रूपमें साक्षात्‌ ब्रह्मा और विष्णु तो नहीं हैं ?  आपके यथार्थ रूपको मैं नहीं जानता मैं आप दोनोंकी शरणमें आया हूँ, आप मुझे आपने स्वरूपका ठीक-ठीक परिचय दें ।`

   ब्राह्मण बोले- राजन्‌ ! तुम मुझे पुरुषोत्तम समझो । मै समस्त लोकोकी पीड़ा दूर करनेवाला अनन्त बल-पौरुषसे सम्पन्न तथा सम्पूर्ण भूतोका आराध्य हूँ । मेरा कभी अन्त नहीं होता । जिसका सब शास्त्रोंमें प्रतिपादन किया जाता है,  उपनिषदोंमें जिसके स्वरूपका वर्णन मिलता है, योगिजन जिसे ज्ञानगम्य वासुदेव कहते हैं, वह परमात्मा मैं ही हूँ । स्वयं मैं ही ब्रह्मा, मैं ही शिव और मैं ही विष्णु हूँ । देवताओंका राजा इन्द्र और सम्पूर्ण जगतका नियन्त्रण करनेवाला यम भी मैं ही हूँ । पृथ्वी आदि पाँच भूत, हविष्यका भोग लगानेवाले त्रिविध अग्रि, जलाधीश वरुण,सबको धारण करनेवाली धरती और धरतीकों भी धारण करनेवाले पर्वत भी मैं ही हूँ । संसारमें जो कुछ भी वाणीसे कहा जानेवाला स्थावर-जग्म भूत है, वह मेरा ही स्वरूप है । सम्पूर्ण विश्वके रूपमें मुझे ही प्रकट हुआ समझो । मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं है । नृपश्रेष्ठ ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ । सुव्रत ! मुझसे कोई वर माँगो । तुम्हारे हृदयको जो अभीष्ट हो, वह तुम्हें दूँगा । जो पुण्यात्मा नहीं हैं, उन्हें स्वप्नमें भी मेरा दर्शन नहीं होता । तुम्हारी तो मुझमें दृढ़ भक्ति है इसलिये तुमने मेरा प्रत्यक्ष दर्शन किया है ।

   मोहिनी ! भगवान्‌ वासुदेवका यह वचन सुनकर राजाके शरीरमें रोमाञ्च हो आया । वे इस प्रकार स्तोत्र-गान करने लगे-

   राजाने कहा- लक्ष्मीकान्त ! आपको नमस्कार है । श्रीपते ! आपके दिव्य विग्रहपर पीताम्बर शोभा पा रहा है; आपको नमस्कार है । आप श्रीद ( धन-सम्पत्तिके देनेवाले ), श्रीश ( लक्ष्मीके पति ), श्रीनिवास ( लक्ष्मीके आश्रय ) तथा श्रीनिकेतन ( लक्ष्मीके धाम ) हैं; आपको नमस्कार है । आप आदिपुरुष, ईशान, सबके ईश्वर, सब ओर मुखवाले सर्वज्ञ तथा सबके पालक हैं । आपके श्रीअंगोकी कान्ति नील कमलदलके समान श्याम है । आप क्षीरसागरके भीतर निवास करनेवाले तथा शेषनागकी शय्यापर सोनेवाले हैं । इन्द्रियोंके नियन्ता तथा सम्पूर्ण पापोंको हर लेनेवाले आप श्रीहरिको मैं नमस्कार करता हूँ । देवदेवेश्र ! आप सबको वर देनेवाले, सर्वव्यापी, समस्त लोकोंके ईश्वर, मोक्षके कारण तथा अविनाशी विष्णु हैं; मैं पुन: आपको प्रणाम करता हूँ । इस प्रकार स्तुति करके राजाने हाथ जोड़कर अभगवानको प्रणाम किया और विनीतभावसे धरतीपर मस्तक टेककर कहा- ‘ नाथ ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मोक्षमार्गके ज्ञाता पुरुष जिस निर्गुण, निर्मल एवं शान्त परमपदका ध्यान करते हैं, साक्षात्कार करते हैं, उस परम दुर्लभ पदको मैं आपके प्रसादसे प्रात करना चाहता हूँ ।’

    श्रीभगवान्‌ बोले- राजन्‌ ! तुम्हारा कल्याण  हो । तुम्हारी कही हुई सब बातें सफल हों । मेरे प्रसादसे तुम्हें अभिलषित वस्तुकी प्राप्ति होगी ।

    नृपश्रेष्ठ ! तुम दस हजार नौ सौ वर्षोतक अपने अखण्ड एवं विशाल साम्राज्यका उपभोग करो इसके बाद उस दिव्य पदको प्राप्त होओगे, जो और असरोंके लिये भी दुर्लभ है और पाकर सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं । जो अव्यक्त, अव्यय, परसे भी पर, विद्यमान हैं, तबतक इस भूतलपर सर्वव्र तुम्हारी अक्षय कीर्ति छायी रहेगी । तुम्हारे यज्ञके घृतसे प्रकट हुआ तालाब ‘ इन्द्रयुम्न-सरोवर ‘ के नामसे विख्यात होगा और उसमें एक बार भी स्नान कर लेनेपर मनुष्य इन्द्रलोकको प्राप्त होगा । सरोवरके दक्षिण भागमें नैत्रश्त्य कोणकी ओर जो बरगदका वृक्ष है, उसके समीप केवड़ेके वनसे आच्छादित एक मण्डप है, जो नाना प्रकारके वृक्षोंसे घिरा हुआ है । आषाढ़ मासके शुक्ल पक्षकी पश्रमीको मघा नक्षत्रमें भक्तजन हमारी इन प्रतिमाओंकी सवारी निकालेंगे और इन्हें ले जाकर उक्त मण्डपमें सात दिनोंतक रखेंगे । ब्रह्मचारी, संन्यासी, स्नातक, श्रेष्ठ ब्राह्मण, वानप्रस्थ, गृहस्थ, सिद्ध तथा अन्य द्विज नाना प्रकारके अक्षर और पदवाले स्तोत्रोंसे तथा ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदकी ध्वनियोंसे श्रीबलराम तथा श्रीकृष्णकी बारंबार स्तुति करेंगे ।

   भद्रे ! इस प्रकार राजाको वरदान दे और उनके लिये इस लोकमें रहनेका समय निर्धारित करके भगवान्‌ विष्णु विश्वकर्माके साथ अन्तर्धान हो गंये । उस समय राजा बड़े प्रसन्न थे । उनके शरीरमें रोमाञ्च हो आया था । भगवान्‌के दर्शनसे उन्होंने अपनेको कृतकृत्य माना । तत्पश्चात्‌ श्रीकृष्ण,बलराम तथा वरदायिनी सुभद्राको मणिकाज्जनजरित विमानाकार रथोंमें बिठाकर वे बुद्धिमान नरेश अमात्य और पुरोहितके साथ मज़लपाठ, जयें-जयकार, अनेक प्रकारके वैदिक मन्त्रोंके उच्चारण और भाँति-भाँतिके गाजे-बाजेके सहित ले आये और उन्हें परम मनोहर पवित्र स्थानमें पधराया ।  फिर शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र, शुभ समय और शुभ  मुहूर्तमें ब्राह्मणोंके द्वारा उनकी प्रतिष्ठा करायी । उत्तम प्रासाद ( मन्दिर )- में वेदोक्त विधिसे आचार्यकी आज्ञाके अनुसार प्रतिष्ठा करके विश्वकर्माकि द्वारा हुए उन सब विग्रहोंको विधिवत्‌ स्थापित किया । प्रतिष्ठासम्बन्धी सब कार्य पूरा करके राजाने आचार्य तथा दूसरे ऋत्विजोंको विधिपूर्वक दक्षिणा दे अन्य लोगोंको भी धनदान किया । तत्पश्चात्‌ भांति-भाँतिके सुगन्धित पुष्पोंसे तथा सुवर्ण, मणि, मुक्ता और नाना प्रकारके सुन्दर वस्त्रोंसे भगवद्धिग्रहोंकी विधिपूर्वक पूजा करके ब्राह्मणोंको ग्राम, नगर तथा राज्य आदि दान किया । फिर कृतकृत्य होकर समस्त परिग्रहोंका त्याग कर दिया और वे भगवान्‌ विष्णुके परम धाम―परम पदको प्राप्त हो गये ।

अध्याय १४८ पुरुषोत्तम क्षेत्रकी यात्राका समय, मार्कंडेश्वर शिव पूजनका माहात्म्य, वटवृक्ष पूजनका माहात्म्य, श्रीकृष्ण, बलभद्र, तथा सुभद्राके भगवान नृसिहंके दर्शन— पूजन आदिका माहात्म्य

मोहिनीने पूछा- द्विजश्रेष्ठ ! पुरुषोत्तमक्षेत्रकी यात्रा किस समय करनी चाहिये ? और मानद ! पाँचों तीर्थोंका सेवन भी किस विधिसे करना उचित है ?  एक-एक तीर्थके भीतर स्नान, दान और देव-दर्शन करनेका जो-जो फल है, वह सब पृथक-पृथक बताइये ।

   पुरोहित वसु बोले- श्रेष्ठ मनुष्यको उचित है कि ज्येष्ठ मासमें शुक्लपक्षकी द्वादशीको विधिपूर्वक तीथाँका सेवन करके श्रीपुरुषोत्तमका दर्शन करे । जो ज्येष्ठकी द्वादशीको अविनाशी देवता भगवान्‌ पुरुषोत्तमका दर्शन करते हैं, वे विष्णुलोकमें पहुँचकर वहाँसे कभी लौटकर वापस नहीं आते ।

   मोहिनी ! अत: ज्येष्ठमें प्रयत्रपूर्वक पुरुषोत्तमक्षेत्रकी यात्रा करनी चाहिये और वहाँ पञ्चतीर्थसेवनपूर्वक श्रीपुरुषोत्तमका दर्शन करना चाहिये। जो अत्यन्त दूर होनेपर भी प्रतिदिन प्रसन्नचित्त हो भगवान्‌ पुरुषोत्तमका चिन्तन करता है, अथवा जो श्रद्धापूर्वक एकाग्रचित्त हो पुरुषोत्तमक्षेत्रमें भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शनार्थ यात्रा करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान्‌ विष्णुके लोकमें जाता है । जो दूरसे भगवान्‌ पुरुषोत्तमके प्रासादशिखरपर स्थित नील चक्रका दर्शन करके उसे भक्तिपूर्वक प्रणाम करता है, वह सहसा पापसे मुक्त हो जाता है ।

   मोहिनी ! अब मैं पञ्चतीर्थोंके सेवनकी विधि बतलाता हूँ, सुनो ! उसके कर लेनेपर मनुष्य भगवान्‌ विष्णुका अत्यन्त प्रिय होता है । पहल मार्कण्डेय-सरोवरमें जाकर मनुष्य उत्तराभिमुख हो, तीन बार डुबकी लगाये और निम्नांकित मन्त्रका उच्चारण करे-

संसारसागरे मग्र पापग्रस्तमचेतनम्‌ ।

त्राहि मां भगनेत्रघ्न त्रिपुरारे नमोsस्तु ते ॥

नम: शिवाय शान्ताय सर्वपापहराय च।

स्नानं करोमि देवेश मम नश्यतु पातकम्‌॥

(ना० उत्तर० ५५। १४-१५)

   ‘ भगके नेत्रोंका नाश करनेवाले त्रिपुरनाशक भगवान्‌ शिव ! मैं संसार-सागरमें निमग्र, पापग्रस्त एवं अचेतन हूँ । आप मेरी रक्षा कीजिये, आपको नमस्कार है । समस्त पापोंको दूर करनेवाले शान्तस्वरूप शिवको नमस्कार है। देवेश्वर ! मैं यहाँ स्वप्न करता हूँ, मेरा सारा पातक नष्ट हो जाय ।’

   यों कहकर बुद्धिमान्‌ पुरुष नाभिके बराबर जलमें स्नान करनेके पश्चात्‌ देवताओं और ऋषियोंका विधिपूर्वक तर्पण करे । फिर तिल और जल लेकर पितरोंकी भी तृप्ति करे । उसके बाद आचमन करके शिवमन्दिरमें जाय । उसके भीतर प्रवेश करके तीन बार देवताकी परिक्रमा करे । तदनन्तर मार्कण्डेयेश्वराय नम:  इस मूल-मन्त्रसे शंकरजीकी पूजा करके उन्हें प्रणाम करे और निम्नांकित मन्त्र पढ़कर उन्हें प्रसन्न करे-

त्रिलोचन नमस्तेsस्तु नमस्ते शशिभूषण ।

ज्राहि मां त्वं विरूपाक्ष महादेव नमोsस्तु ते ।।

( नां० उत्तर० ५५। १९ )

    ` तीन नेत्रोंवाले शंकर ! आपको नमस्कार है। चन्द्रमाको भूषणरूपमें धारण करनेवाले ! आपको नमस्कार है । विकट नेत्रोंवाले शिवजी ! आप मेरी रक्षा कीजिये। महादेव ! आपको नमस्कार है।’

   इस प्रकार मार्कण्डेय-हृदमें स्नान करके भगवान्‌ शंकरका दर्शन करनेसे मनुष्य अश्वमेधयज्ञका फल पाता है तथा सब पापोंसे मुक्त हो भगवान्‌ शिवके लोकमें जाता है ।

   तत्पश्चात्‌ कल्पान्तस्थायी वट्वृक्षके पास जाकर उसकी तीन बार परिक्रमा करे; फिर निम्नांकित मन्त्रद्वारा बड़े भक्तिभावके साथ उस वटकी पूजा करे-

नमोsव्यक्तरूपाय महते नतपालिने।

महोदकोपविष्टाय न्यग्रोधाय नमोडस्तु ते॥

अवसस्त्वं सदा कल्पे हरेश्चायतनं वट।

न्यग्रोध हर मे पापं कल्पवृक्ष नमोsस्तु ते॥

(ना० उत्तर० ५५। र४-२५)

    अव्यक्तस्वरूप, महान्‌ एवं प्रणतजनोंका है, महान्‌ एकार्णवके जलमें जिसकी उस वटवृक्षको नमस्कार है । हे वट ! कल्पमें अक्षयरूपसे निवास करते है । आपकी शाखापर श्रीहरिका निवास है ।  न्यग्रोध ! मेरे पाप हर लीजिये । कल्पवृक्ष ! आपको नमस्कार है ।`

    इसके बाद भक्तिपूर्वक परिक्रमा करके उस कल्पान्तस्थायी वटवृक्षकों नमस्कार करना चाहिए । उस कल्पवृक्ष  छायामें पहुँच जानेपर मनुष्य ब्रह्महत्यासे भी मुक्त हो जाता है, फिर भगवान्‌ श्रीकृष्णके अंगसे प्रकट हुए ब्रह्मतेजोमय वटवृक्षरूपी विष्णुकों प्रणाम करके मानव राजसूय तथा अश्वमेधयज्ञसे भी अधिक फल पाता है और अपने कुलका उद्धार करके विष्णुलोकर्में जाता है । भगवान्‌ श्रीकृष्णके सामने खड़े हुए गरुड़को जो नमस्कार करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुके वैकुण्ठधाममें जाता है । जो वट्वृक्ष और गरुड़जीका दर्शन करनेके पश्चात्‌ पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण, बलभद्र और सुभद्रादेवीका दर्शन करता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है । जगन्नाथ श्रीकृष्णके मन्दिरमें प्रवेश करके उनकी तीन बार परिक्रमा करे, फिर नाम-मन्त्रसे बलभद्र और सुभद्रादेवीका भक्तिपूर्वक पूजन करके निम्नांकित रूपसे बलरामजीसे प्रार्थना करे―

नमस्ते हलधृग राम नमस्ते मुसलायुध।

नमस्ते रेवतीकान्त नमस्ते भक्तवत्सल ॥

नमस्ते बलिनां श्रेष्ठ नमस्ते धरणीधर।

प्रलम्बारे नमस्तेsस्तु त्राहि मां कृष्णपूर्वज ॥

(ना० उत्तर० ५५। रेड)

    ‘ हल धारण करनेवाले राम ! आपको नमस्कार है । मुसलको आयुधरूपमें रखनेवाले ! आपको नमस्कार है । रेवतीरमण ! आपको नमस्कार है । भक्तवत्सल ! आपको नमस्कार है । बलवानोंमें श्रेष्ठ ! आपको नमस्कार है । पृथ्वीको मस्तकपर धारण केरनेवाले शेषजी ! आपको नमस्कार है। प्रलम्बशत्रो ! आपको नमस्कार है। श्रीकृष्णके अग्रज ! मेरी रक्षा कीजिये ।’

   इस प्रकार कैलासशिखरके समान गौर शरीर तथा चन्द्रमासे भी कमनीय श्रेष्ठ मुखवाले, नीलवस्त्रधारी, देवपूजित, अनन्त, अज्ञेय, एक कुण्डलसे विभूषित और फणोंके द्वारा विकट मस्तकवाले रोहिणीनन्दन महाबली हलधरको भक्तिपूर्वक प्रसन्न करे । ऐसा करनेवाला पुरुष मनोवाज्छित फल पाता है और समस्त पापोंसे मुक्त हो भगवान्‌ विष्णुके धाममें जाता है । बलरामजीकी पूजाके पश्चात्‌ विद्वान्‌ पुरुष एकाग्रचित्त हो द्वादशाक्षर-मन्त्र ( ॐ नमो भगवते वासुदेवाय )- से भगवान्‌ श्रीकृष्णकी पूजा करे । जो धीर पुरुष  द्वादशाक्षर-मन्त्रसे भक्तिपूर्वक भगवान्‌ पुरुषोत्तमको सदा पूजा करते हैं, वे मोक्षको प्राप्त होते हैं । मोहिंनी ! देवता, योगी तथा सोमपान करनेवाले याज्ञिक भी उस गतिको नहीं पाते, जिसे द्वादशाक्षर-मन्त्रका जप करनेवाले पुरुष प्राप्त करते हैं । अतः उसी मन्त्रसे भक्तिपूर्वक गन्ध-पुष्प आदि सामग्रियोंद्वारा द्वाराजगद्गुरू श्रीकृष्णकी पूजा करके उन्हें प्रणाम करे । तत्पश्चात्‌ इस प्रकार प्रार्थना करे-

जय कृष्ण जगन्नाथ जय सर्वाधनाशन।

जय चाणुरकेशिघ्न जय कंसनिषूदन॥

जय पद्मपलाशाक्ष जय चक्रगदाधर।

जय नीलाम्बूदश्याम जय सर्वसुखप्रद॥

जय देव जगत्पूज्य जय संसारनाशन।

जय लोकपते नाथ जय वांछाफलप्रद॥

संसारसागरे घोरे निःसारे दुःखफेनीले॥

नानारोगोर्मिकलिले मोहावर्तसुदुस्तरे ।

निमग्नोsहं सुरश्रेष्ठ त्राहि मां पुरुषोत्तम ॥

(ना० उत्तर० ५५ । ४४-४८)

   ‘ जगन्नाथ श्रीकृष्ण ! आपकी जय हो । सब पापोंका नाश करनेवाले प्रभो ! आपकी जय हो । चाणुर और केशीके नाशक ! आपकी जय हो । कंसनाशन ! आपकी जय हो । कमललोचन ! आपकी जय हो । चक्रगदाधर ! आपकी जय हो । नील मेघके समान श्यामवर्ण ! आपकी जय हो । सबको सुख देनेवाले परमेश्वर ! आपकी जय हो । जगत्पूज्य देव ! आपकी जय हो । संसार संहारक आपकी जय हो । लोकपते ! नाथ ! आपकी जय हो । मनोवांछित फल देनेवाले देवता ! आपकी जय हो । यह भयंकर संसार-सागर सर्वथा नि:सार है । इसमें दुःखमय फेन भरा हुआ है । यह क्रोधरूपी ग्राहसे पूर्ण है । इसमें विषयरूपी जलराशि भरी हुई है । भाँति-भाँतिके रोग ही इसमें उठती हुई लहरें हैं । मोहरूपी भँवरोंके कारण यह अत्यन्त दुस्तर जान पड़ता है । सुरश्रेष्ठ ! मैं इस संसाररूपी घोर समुद्रमें डूबा हुआ हूँ । पुरुषोत्तम ! मेरी रक्षा कीजिये ।’

   मोहिनी ! इस प्रकार प्रार्थना करके जो देवेश्वर, वरदायक, भक्तवत्सल, सर्वपापहारी, दुतिमान्‌, सम्पूर्ण कमनीय फलोंके दाता, मोटे कंधे और दो भुजाओंवाले, श्यामवर्ण, कमलदलके समान विशाल नेत्रोंवाले, चौड़ी छाती, विशाल भुजा, पीत वस्त्र और सुन्दर मुखवाले, शंख-चक्र-गदाधर, मुकुटाज़द-भूषित, समस्त शुभलक्षणोंसे युक्त और वनमाला-विभूषित भगवान्‌ श्रीकृष्णका दर्शन करके हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम करता है, वह हजारों अश्वमेध यज्ञोंका फल पाता है सब तीर्थोंमें स्नान और दान करके अथवा संपूर्ण वेदों के स्वाध्याय तथा समस्त यज्ञो के अनुष्ठान का जब पल है उसी को मनुष्य भगवान श्री कृष्ण का दर्शन और प्रणाम करके पा लेता है । सब प्रकारके दान, व्रत और नियमोंका पालन करके मनुष्य जिस फलको पाता है, अथवा ब्रह्मचर्य-व्रतका विधिपूर्वक पालन करनेसे जो फल बताया गया है, उसी फलको मनुष्य भगवान्‌ श्रीकृष्णका दर्शन और प्रणाम करके प्राप्त कर लेता है । भामिनि ! भगवदर्शनके माहात्म्यके  सम्बन्धमें अधिक कहनेकी क्या आवश्यकता ?  भगवान्‌ श्रीकृष्णका भक्तिपूर्वक दर्शन करके मनुष्य दुर्लभ मोक्षतक प्राप्त कर लेता है ।

   ब्रह्मकुमारी मोहिनी ! तदनन्तर भक्तोंपर स्नेह रखनेवाली सुभद्रादेवीका भी नाम-मन्त्रसे पूजन करके उन्हें प्रणाम करे और हाथ जोड़कर इस प्रकार प्रार्थना करे-

नमस्ते सर्वगे देवि नमस्ते शुभसौख्यदे।

त्राहि मां पदापत्राक्षि कात्यायनि नमोस्तु ते ॥

(ना० उत्तर० ५५। ६७)

    ` देवि ! तुम सर्वत्र व्याप्त रहनेवाली और शुभ सौख्य प्रदान करनेवाली हो । तुम्हें बारम्बार नमस्कार है । पद्मपत्रोंके समान विशाल नेत्रोंवाली कात्यायनी-स्वरूपा सुभद्रे ! मेरी रक्षा करो । तुम्हें नमस्कार है ।’

   इस प्रकार सम्पूर्ण जगत्‌को धारण करनेवाली लोकहितकारिणी, वरंदायिनी एवं कल्याणमयी बलभद्रभगिनी सुभद्रादेवीको प्रसन्न करके मनुष्य-इच्छानुसार चलनेवाले विमानके द्वारा श्रीविष्णुलोकमें जाता है ।

   इस प्रकार बलराम, श्रीकृष्ण और सुभद्रादेवीको प्रणाम करके भगवान्‌के मन्दिरसे बाहर निकले। उस समय मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है । तत्पश्चात्‌ जगन्नाथजीके मन्दिरको प्रणाम करके एकाग्रचित्त गए संस्थानपर जाय जहाँ भगवान्‌ विष्णुकी इन्द्रनीलमयी प्रतिमा बालूके भीतर छिपी है । वहाँ रूपसे स्थित भगवान्‌ पुरुषोत्तमको प्रणाम करके मनुष्य श्रीविष्णुके धाममें जाता है । देवि ! जो भगवान्‌ सर्वदेवमय हैं, जिन्होंने आधा शरीर सिंहका बनाकर हिरण्यकशिपुका उद्धार किया था, वे भगवान्‌ नृसिंह भी पुरुषोत्तमतीर्थमें नित्य निवास करते हैं । शुभे ! जों भक्तिपूर्वक उन भगवान्‌ नृसिंहदेवका दर्शन करके उन्हें प्रणाम करता है, वह मनुष्य समस्त पातकोंसे मुक्त हो जाता है । जो मानव इस पृथ्वीपर भगवान्‌ नृसिंहके भक्त होते हैं, उन्हें कोई पाप छू नहीं सकता और मनोवांछित फलकी प्राप्ति होती है । अत: सब प्रकारसे यत्न करके भगवान्‌ न्रसिंहको शरण ले; क्योंकि वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्षसम्बन्धी फल प्रदान करते हैं । ब्रह्मपुत्री ! अत: सम्पूर्ण कामनाओं और फलोंके देनेवाले महापराक्रमी श्रीनृसिंहदेवकी सदा भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिये । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री, शूद्र और अन्त्यज आदि सभी मनुष्य भक्तिभावसे सुरश्रेष्ठ भगवान्‌ नृसिंहकी आराधना करके करोड़ों जन्मोंके अशुभ एवं दुःखसे छुटकारा पा जाते हैं ।

   विधिनन्दिनी ! मैं अजित, अप्रमेय तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले भगवान्‌ नृसिंहका प्रभाव बतलाता हूँ, सुनो ! सुव्रते ! उनके समस्त गुणोंका वर्णन कौन कर सकता है ? अतः मैं भी श्रीनृसिंहदेवके गुणों का संक्षेपसे ही वर्णन करूँगा ।

   इस लोकमें जो कोई देवी अथवा मानुषी सिद्धियाँ सुनी जाती हैं, वे सब भगवान्‌ नृसिंहके प्रसादसे ही सिद्ध होती हैं । भगवान्‌ नृसिंहदेवके कृपाप्रसादसे स्वर्ग, मर्त्यलोक, पाताल, अन्तरिक्ष, जल, असुरलोक तथा पर्वत- इन सब स्थानों में मनुष्यकी अबाध गति होती है । सुभगे ! इस सम्पूर्ण चराचर जगतमें कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है, जो भक्तोंपर निरन्तर कृपा करनेवाले भगवान नृसिंहके लिये असाध्य हो ।

   अब मैं श्रीनृसिंहदेवके पूजनकी विधि बतलाता हूँ, जो भक्तोंके लिये उपकारक है, जिससे वे भगवान्‌ नृसिंह प्रसन्न होते हैं । भगवान्‌ नृसिंहका  यथार्थ तत्व देवताओं और असुरोंको भी ज्ञात नहीं है । उत्तम साधकको चाहिये कि साग, जौकी लपसी, मूल, फल, खली अथवा सत्तूसे भोजनकी आवश्यकता पूरी करे अथवा भद्रे ! दूध पीकर रहे । घास-फूस या कौपीनमात्र वस्त्रसे अपने शरीरकों ढक ले । इन्द्रियोंको वशमें करके ( भगवान्‌ नरसिंहके ) ध्यानमें तत्पर रहे । वनमें, एकान्त प्रदेशमें, नदीके संगम या पर्वतपर, सिद्धिक्षेत्रमें,ऊसरमें तथा भगवान्‌ नृसिंहके आश्रममें जाकर अथवा जहाँ-कहीं भी स्वयं भगवान्‌ नृसिंहकी स्थापना करके जो विधिपूर्वक उनकी पूजा करता है, देवि ! वह उपपातकी हो या महापातकी, उन समस्त पातकोंसे वह साधक मुक्त हो जाता है । वहाँ नरसिंहजीकी परिक्रमा करके उनकी गन्ध,पुष्प और धूप आदि सामग्रियोंद्वारा पूजा करनी चाहिये । तत्पश्चात्‌ धरतीपर मस्तक टेककर भगवान्‌को प्रणाम करे और कर्पूर एवं चन्दन लगे हुए चमेलीके फूल भगवान्‌ नरसिंहके मस्तकपर चढ़ावे इससे सिद्धि प्राप्त होती है । भगवान्‌ नरसिंह किसी भी-कार्यमें कभी प्रतिहत नहीं होते । नृसिंह-कवचका एक बार जप करनेसे मनुष्य आगकी लपटद्वारा सम्पूर्ण उपद्रवोंका नाश कर सकता है । तीन-बार जप करनेपर वह दिव्य कवच दैत्यों से रक्षा करता है । तीन बार जप किया हुआ कवच भूत, पिशाच, लुटेर तथा देवताओं और असुरोंके लिये भी अभेद्य होता है । ब्रह्मपुत्री मोहिनी ! सम्पूर्ण कामनाओं और फलोंके दाता महापराक्रमी नृसिंहजीकी सदा भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिये । शुभे ! भगवान्‌ नरसिंहका दर्शन,स्तवन, नमस्कार और पुजन करके मनुष्य राज्य, स्वर्ग तथा दुर्लभ मोक्ष भी प्राप्त कर लेते हैं । भगवान्‌ नरसिहका दर्शन करके मनुष्यको मनोवांछित फलकी प्राप्ति होती है तथा वह सब पापस मुक्त हो भगवान्‌ विष्णुके लोकमें जाता है । जो भक्तिपुर्वक नृसिंहरूपधारी भगवान्‌का एक बार भी दर्शन कर लेता है, वह मन, वाणी और शरीरद्वारा होनेवाले सम्पूर्ण पातकोंसे मुक्त हो जाता है । दुर्गम संकटमें, चोर और व्याघ्र आदिकी पीड़ा उपस्थित होनेपर, दुर्गम प्रदेशमें, प्राणसंकटके समय, विष,अग्नि और जलसे भय होनेपर, राजा आदिसे भय प्राप्त होनेपर, घोर संग्राममें और ग्रह तथा रोग आदिकी पीड़ा प्राप्त होनेपर जो पुरुष भगवान्‌ नरसिंहका स्मरण करता है, वह संकटोंसे छूट जाता है । जैसे सूर्योदय होनेपर भारी अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार भगवान्‌ नृसिंहका दर्शन होनेपर सब प्रकारके उपद्रव मिट जाते हैं। भगवान्‌ नृसिंहके प्रसन्न होनेपर गुटिका, अज्जन, पातालप्रवेश, पैरोंमें लगाने योग्य दिव्यलेप, दिव्य रसायन तथा अन्य मनोवांछित पदार्थ भी मनुष्य प्राप्त कर लेता है । मानव जिन-जिन कामनाओंका चिन्तन करते हुए भगवान्‌ नरसिंहका भजन करता है, उन-उनको अवश्य प्राप्त कर लेता है ।

अध्याय १४९ श्वेतमाधव, मत्स्यमाधव, कल्पवृक्ष और अष्टाक्षर— मन्त्र, स्नान, तर्पण आदिकी महिमा

पुरोहित सु कहते हैंमहाभागे ! उस पुरुषोत्तमक्षेत्रमें तीर्थोंका समुदायरूप एक दूसरा तीर्थ है जो परम पुण्यमय तथा दर्शनमात्रसे पापोंका नाश करनेवाला है, उसका वर्णन करता हूँ, सुनो । उस तीर्थके आराध्य हैं—अनन्त नामक वासुदेव ! उनका भक्तिपूर्वक दर्शन और प्रणाम करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो परम पदको प्राप्त होता है । जो मनुष्य श्वेतगंगामें स्नान करके श्वेतमाधव तथा मत्स्यमाधवका दर्शन करता है, वह श्वेतद्वीपमें जाता है । जो हिमके समान गदा धारण कर रखे हैं, जो समस्त शुभ लक्षणोंसे संयुक्त तथा विकसित कमलके समान विशाल नेत्रवाले हैं, जिनका वक्ष:स्थल श्रीवत्सचिह्से सुशोभित है, जो अत्यन्त प्रसन्न एवं चार भुजाधारी हैं, जिनका वक्ष:स्थल वनमालासे अलंकृत है, जो माथेपर मुकुट और भुजाओंमें अंगद धारण करते हैं, जिनके कंधे हष्ट-पुष्ठ हैं और जो पीताम्बरधारी तथा कुण्डलोंसे अलंकृत हैं, उन भगवान्‌ ( श्वेतमाधव )- का जो लोग कुशके अग्रभागसे भी स्पर्श कर लेते हैं, वे एकाग्राचित्त विष्णुभक्त मानव दिव्यलोकमें जाते हैं । जो शंख, गोदुग्ध और चन्द्रमाके समान उज्ज्वल कान्तिवाली सर्वपापहारिणी माधव नामक प्रतिमाका दर्शन करता है तथा विकसित कमलके सदृश नेत्रवाली उस भगवनमुर्तिको एक बार भक्तिभावसे प्रणामकर लेता है, वह सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग हुए और वेदोंका उद्धार करनेके लिये रसातलमें स्थित थे । पहले पृथ्वीका चिन्तन करके प्रतिष्ठित हुए भगवान्‌ मत्स्यावतारका चिन्तन करना चाहिये । हर भगवान्‌ लक्ष्मीपति तरुणावस्थासे युक्त मत्स्यमाधवका रूप धारण करके विराज रहे हैं । जो पवित्रचित्त होकर उन्हें प्रणाम करता है, वह सब प्रकारके क्लेशोसे छूट जाता है और उस परम धाम को जाता है जहाँ साक्षात्‌ श्रीहरि विराजमान हैं ।

   शुभे ! अब मैं मार्कण्डेयसरोवर एवं समुद्रमें मार्जन आदिकी विधि बतलाता हूँ । तुम भक्तिभावसे तन्मय होकर पुण्य एवं मुक्ति देनेवाले इस पुराण-प्रसंगको सुनो । मार्कण्डेयसरोवरमें सब समय स्नान उत्तम माना गया है, किंतु चतुर्दशीको उसका विशेष माहात्म्य है, उस दिनका स्नान सब पापोंका नाश करनेवाला है । उसी प्रकार समुद्रका स्नान हर समय उत्तम बताया गया है, किन्तु पूर्णमाको उस स्नानका विशेष महत्त्व है । उस दिन समुद्र-स्नान करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है । जब ज्येष्ठ मासकी पूर्णिमाको ज्येष्ठा नक्षत्र हो उस समय परम कल्याणमय तीर्थराज समुद्रमें स्नान करनेके लिये विशेषरूपसे जाना चाहिये । समुद्र-स्नानके लिये जाते समय मन, वाणी, शरीरसे शुद्ध रहना चाहिये । भीतरका भाव भी शुद्ध हो, मन भगवत्‌-चिन्तनके सिवा अन्यत्र न जाय । सब प्रकारके द्वन्दोंसे मुक्त, वीतराग एवं ईष्यसि रहित होकर स्नान करना चाहिये ।

   कल्पवृक्ष नामक वट बड़ा रमणीय है । उसके ऊपर साक्षात्‌ भगवान्‌ बालमुकुन्द विराजते हैं । वहाँ स्नान करके एकाग्रचित्तसे तीन बार भगवान्‌की पीरिक्रम करें । मोहिनी ! उनके दर्शनसे साल जस्मोंका पाप नष्ट हो जाता है और प्रचुर पृण्य तथा अभीष्ट गतिकी प्राप्ति होती है । अब मैं उन वहस्वरूप भगवानके प्रत्येक युगके अनुसार प्रामाणिक नाम सतलाऊँगा । वट, वरे, कृष्ण तथा पुराणपुरुष- ये सत्य आदि युगोंगें क्रमश: वटके नाम कहे गये हैं । इसी प्रकार सत्ययुगमें वटका विस्तार एक योजन, त्रेतामें पौन योजन, हपरमें आधा योजन और कलियुगमें चौथाई योजनका माना गया है । पहले बताये हुए मल्रसे वटको नमस्कार करके वहाँसे तीन सौ धनुषकी दूरीपर दक्षिण दिशाकी ओर जाय । वहाँ भगवान्‌ विष्णुका दर्शन होता है । उसे मनोरम ‘ स्वर्गद्वार ‘ कहते हैं ।

   पहले उग्रसेनका दर्शन करके स्वर्गद्वारसे समुद्रतटपर जाकर आचमन करे; फिर पवित्र भावसे भगवान्‌ नारायणका ध्यान करे । मनीषी पुरुष ‘ ॐ नमो नारायणाय ‘  इस मन्त्रको ही ‘ अष्ठाक्षर-मन्त्र ‘ कहते हैं । मनको भुलावेमें डालनेवाले अन्य बहुत-से मन्त्रोंकी क्या आवश्यकता; ॐ नमो नारायणाय ‘ यह अष्टाक्षर मन्त्र ही सब मनोरथोंको सिद्ध करनेवाला है । नरसे प्रकट होनेके कारण जलको ‘ नार ‘ कहा गया है। वह पूर्वकालमें भगवान्‌ विष्णुका अयन ( निवासस्थान ) रहा है; इसलिये उन्हें ‘ नारायण ‘ कहते हैं । समस्त वेदोंका तात्पर्य भगवान्‌ नारायणमें ही है । सम्पूर्ण द्विज  भगवान्‌ नारायणकी ही उपासनामें तत्पर रहते है । ज्ञानके परम आश्रय भगवान्‌ नारायण ही है तथा यज्ञकर्म भी भगवान्‌ नारायणकी ही प्रीतिके लिये किये जाते है । धर्मके परम फल भगवान नारायण ही है । तापस्य भगवान नारायणकी ही प्राप्तिका उत्कृष्ट साधन है । दान भगवान नारायणकी प्रसन्नताके लिये ही किया जाता है और व्रतके चरम लक्ष्य भी भगवान नारायण ही है । सम्पूर्ण लोक भगवान नारायणक हीं उपासक हैं । देवता भगवान्‌ नारायणकी ही आश्रित हैं । सत्यका चरम फल भगवान्‌ नारायणकी ही प्राप्ति है तथा परम पद भी नारायणस्वरूप हीं है । पृथ्वी नारायणपरक है, जल नारायणपरक है, अग्नि नारायणपरक है और आकाश भी नारायणपरक है । वायुके परम आश्रय नारायण ही हैं । मनके आराध्यदेव नारायण ही हैं । अहंकार और बुद्धि दोनों नारायणस्वरूप हैं । भूत, वर्तमान तथा भविष्य जो कुछ भी जीव नामक तत्त्व हैं, जो स्थूल, सूक्ष्म तथा दोनोंसे विलक्षण है वह सब नारायणस्वरूप है । मोहिनी ! मैं नारायणसे बढ़कर यहाँ कुछ भी नहीं देखता । यह दुश्य-अदृश्य,चर-अचर सब उन्हींके द्वारा व्याप्त है । जल भगवान्‌ विष्णुका घर है और वे विष्णु ही जलके स्वामी हैं; अत: जलमें सर्वदा पापहारी नारायणका स्मरण करना चाहिये । विशेषत: स्नानके समय जलमें उपस्थित हो पवित्र भावसे भगवान्‌ नारायणका स्मरण एवं ध्यान करे । फिर विधिपूर्वक स्नान करना चाहिये । जिनके देवता जल हैं ऐसे वैदिक मन्त्रोंसं अभिषेक और मार्जन करके जलमें डुबकी लगा तीन बार अघमर्षण मन्त्रका जप करे । जैसे अश्वमेध-यज्ञ सब पापोंको दूर करनेवाला है वैसे ही ‘ अघमर्षण-सूक्त ‘ सब पापोंका नाशक है । स्नानके पश्चात्‌ जलसे निकलकर दो निर्मल वस्त्र धारण करे । फिर प्राणायाम, आचमन एवं संध्योपासन करके ऊपरकी ओर फूल और जलकी अञ्जलि दे, सूर्योपस्थान करे । उस समय अपनी दोनों भुजाएँ ऊपरकी ओर उठाये और सूर्यदेवता-सम्बन्धी मन्त्रोंका पाठ करे। सब को पवित्र करने वाले गायत्री देवी का एक सौ आठ बार जप करें । गायत्री के अतिरिक्त सूर्य देवता संबंधी अन्य मंत्रोंका भी एकाग्रचित्तसे खड़ा होकर जप करें । फिर सूर्यकी प्रदक्षिणा और उन्हें नमस्कार करके पूर्वाभिमुख बैठकर स्वाध्याय करे । उसके बाद देवता और ऋषियों का तर्पण करके दिव्य मनुष्यों और पितरोंका भी तर्पण करे । मन्त्रवेत्ता पुरुषको चाहिये कि चित्तको एकागय्र करके तिलमिश्रित जलके द्वारा नाम-गोत्रोच्चारणपूर्वक पितरोंकी विधिवत्‌ तृप्ति करे । श्राद्धमे और हवनकालमें एक हाथसे सब वस्तुएँ अर्पित करे, परंतु तर्पणमें दोनों हाथोंका उपयोग करना चाहिये । यही सनातन विधि है | बायें और दायें हाथकी सम्मिलित अज्जलिसे नाम और गोत्रके उच्चारणपूर्वक ` तृप्यताम्‌ ‘ कहे और मौनभावसे जल दे । यदि दाता जलमें स्थित होकर पृथ्वीपर जल दे अथवा पृथ्वीपर खड़ा होकर जलमें तर्पणका जल डाले तो वह जल पितरोंतक नहीं पहुँचता है । जो जल पृथ्वीपर नहीं दियां जाता वह पितरोंको नहीं प्राप्त होता । ब्रह्माजीने पितरोंके लिये अक्षय स्थानके रूपमें पृथ्वी ही दी है । अतः पितरोंकी प्रीति चाहनेवाले मनुष्योंको पृथ्वीपर ही जल देना चाहिये । पितर भूमिपर ही उत्पन्न हुए, भूमिपर ही रहे और भूमिमें ही उनके शरीरका लय हुआ; अत: भूमिपर ही उनके लिये जल देना चाहिये । अग्रभागसहित कुशोंको बिछाकर उसपर मन्त्रोंद्वारा देवताओं और पितरोंका आवाहन करना चाहिये । पूर्वाग्र कुशोंपर देवताओंका और दक्षिणाग्र कुशोंपर पितरोंका आवाहन करना उचित है ।

अध्याय १५० भगवान नारायणके पूजनकी विधि

पुरोहित वसु कहते हैं- ब्रह्मपुत्री मोहिनी ! देवताओं, ऋषियों, पितरों तथा अन्य प्राणियोंका तर्पण करनेके पश्चात्‌ मौनभावसे आचमन करके समुद्रके तटपर एक चौकोर मण्डप बनाये । उसमें चार दरवाजे रखे । उसकी लंबाई-चौड़ाई एक हाथकी होनी चाहिये । मण्डप बहुत सुन्दर बनाया जाय । इस प्रकार मण्डप बनाकर उसके भीतर कर्णिकासहित अष्टदल कमल अंकित करे । उसमें अष्टाक्षर-मन्त्रकी विधिसे अजन्मा भगवान्‌ नारायणका पूजन करे । हृदयमें उत्तम ज्योति:स्वरूप ॐ कारका चिन्तन करके कमलकी कर्णिकामें विराजमान ज्योति:स्वरूप सनातन विष्णुका ध्यान करे; फिर अष्टदल कमलके प्रत्येक दलमें क्रमश: मन्त्रके एक-एक अक्षरका न्यास करे । मन्त्रके एक-एक अक्षरद्वारा अथवा सम्पूर्ण मन्त्रद्वारा भी पूजन करना उत्तम माना गया है । सनातन परमात्मा विष्णुका द्वादशाक्षर-मन्त्रसे पूजन करें । तदनन्तर हृदय भीतर भगवानका ध्यान करके बाहर कमलकी कर्णिकार्मे भी उनकी भावना करें । भगवानकी चार भुजाएँ हैं । वे महान्‌ सत्त्वमय हैं । उनके श्री अंगोकी प्रभा कोटि-कोटि सुर्योके समान है । वे महायोगस्वरूप हैं । इस प्रकार उनका चिन्तन करके क्रमश: आवाहन आदि उपचारद्धारा पूजन करे ।

आवाहन-मन्त्र

मीनरूपो वराहश्र नरसिंहोSश्र वामन:॥

आयातु देवो वरदो मम नारायणोSग्रत:।

नमो नारायणाय नम:॥

( ना० उत्तर० ५७। २६-२७ )

   ‘ मीन, वराह, नृसिंह एवं वामन-अवतारधारी वरदायक देवता भगवान्‌ नारायण मेरे सम्मुख पधारें । सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीनारायणकों नमस्कार है ।’

आसन-मन्त्र

कर्णिकायां सुपीठेउत्र पदयाकल्पितमासनम्‌ ॥

सर्वसत्त्वहितार्थाय तिष्ठ त्वं मधुसूदन।

ॐ नमो नारायणाय नम: ॥।

(ना० उत्तर० ५७। २७-२८)

     ‘ यहाँ कमलकी कर्णिकामें सुन्दर पीठपर कमलका आसन बिछा हुआ है । मधुसूदन ! सब प्राणियोंका हित करनेके लिये आप इसपर विराजमान हों । सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीनारायणको नमस्कार है ।’

अर्घ्य-मन्त्र

ॐ त्रैलोक्यपतीनां पतये देवदेवाय हषीकेशाय विष्णवे नम: ।

नमो नारायणाय नम: ॥

    ‘ त्रिभुवनपतियोंके भी पति, देवताओंके भी देवता, इन्द्रियोंके स्वामी भगवान्‌ विष्णुको नमस्कार है । सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीनारायणको नमस्कार है ।’

पाद्य-मन्त्र

पाद्य ते पादयोर्दे पदानाभ सनातन ॥

विष्णो कमलपत्राक्ष गृहाण मधुसूदन।

नमो नारायणाय नम: ॥

(ना० उत्तर० ५७। २८-२९)

    ‘ देवपद्यानाभ ! सनातन विष्णो ! कमलनयन मधुसूदन ! आपके चरणोंमें यह पाद्य ( र्पाव पखारनेके लिये जल ) समर्पित है, आप इसे स्वीकार करें । सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीनारायणकों  नमस्कार है ।’

मधुपर्क-मन्त्

मधुपर्क महादेव ब्रह्माहै: कल्पित तव॥

मया निवेदितं भक्त्या गृहाण पुरुषोत्तम ।

  नमो नारायणाय नमः ॥

(ना० उत्तर० ५७। २९-३०)

 

    ` महादेव ! पुरुषोत्तम ! ब्रह्मा आदि देवताओने आपके लिये जिसकी व्यवस्था की थी, वही मधुपर्क मैं भक्तिपूर्वक आपको निवेदन करता हूँ । कृपया स्वीकार कीजिये । सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीनारायणकों नमस्कार है ।’

आचमनीय-मन्त्र

मन्दाकिन्या: सितं वारि सर्वपापहर शिवम्‌ ॥

गृहाणाचमनीय त्वं मया भक्त्या निवेदितम्‌।

नमो नारायणाय नम: ॥

( ना० उत्तर० ५७। ३०-३१ )

   ‘ भगवन्‌ ! मैंने गंगाजीका स्वच्छ जल जो सब पापोंको दूर करनेवाला तथा कल्याणमय है, आचमनके लिये भक्तिपूर्वक आपको अर्पित किया है, कृपया ग्रहण कीजिये । सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीनारायणको नमस्कार है ।’

स्नान-मन्त्र

त्वमाप: पृथिवी चैव ज्योतिस्त्व वायुरव च॥।

लोकेश वृत्तिमात्रेण वारिणा स्नरापयाम्यहम्‌।

नमो नारायणाय नम: ॥

(ना० उत्तर० ५७। ३१-३२)

‘ लोकेश्वर ! आप ही जल, पृथ्वी तथा अग्नि और वायुरूप हैं । मैं जीवनरूप जलके द्वारा आपको स्नान करता हूँ । सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीनारायणकों नमस्कार है ।’

वस्त्र-मन्त्र

देव तन्तुसमायुक्ते यज्ञवर्णसमन्विते ॥

स्वर्णवर्णप्रभे देव वाससी तव केशव।

नमो नारायणाय नम: ॥

(ना० उत्तर० ५७। ३२-३३)

     ‘ देव केशव ! यह दिव्य तन्तुओंसे युक्त यज्ञवर्णसमन्वित तथा सुनहरे रंग और सुनहली प्रभावाले दो वस्त्र आपकी आपकी सेवामें समर्पित है । सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीनारायण नमस्कार है ।`

विलेपन-मन्त्र

शरी ते न जानामि चेष्टां चैव न केशव ॥।

मया निवेदितो गन्ध: प्रतिगृहम विलिप्यताम्‌।

नमो नारायणाय नम: ॥।

(ना० उत्तर० ५७। ३३-३४)

   ‘ केशव ! मुझे आपके शरीर और चेष्टाका ज्ञान नहीं है । मैंने जो यह गन्ध ( रोली-चन्दन आदि ) निवेदन किया है, इसे लेकर अपने अंगमें लगायें । सच्चिदानन्दस्वरूप- श्रीनारायणको नमस्कार है ।

यज्ञोपवीत-मन्त्र

ऋग्यजु:साममन्त्रिण त्रिवृतं पदायोनिना ॥

सावित्रीग्रन्थिसंयुक्तमुपवीतं तवार्पये।

नमो नारायणाय नम: ॥

( ना० उत्तर० ५७। ३४-३५)

   ‘ भगवन्‌ ! ब्रह्माजीने ऋक, यजु: और सामवेदके मंन्त्रोंसे जिसको त्रिवृत्‌ (त्रिगुण) बनाया है, वह सावित्री ग्रन्थिसे युक्त यज्ञोपवीत मैं आपकी सेवामें अर्पित करता हूँ । सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीनारायणको नमस्कार है ।’

अलंकार-मन्त्र

दिव्यरत्नसमायुक्ता वह्निभानुसमप्रभा: ॥

गात्राणि शोभयिष्यन्ति अलंकारास्तु माधव।

नमो नारायणाय नम: ॥

(ना० उत्तेर० ५७। ३५-३६)

   माधव ! अग्नि और सूर्यके समान चमकीले तथा दिव्य रत्नोसे जटित ये दिव्य आभूषण आपके श्रीअंगोकी शोभा बढ़ायेंगे । सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीनारायणकों नमस्कार है ।

   पूर्वक्त अष्टलकमलके पूर्व दलमें भगवान्‌ वासुदेवका और दक्षिण दलमें श्रीसंकर्षणका न्यास करें । पश्चिम दलमें प्रादुम्नका तथा उत्तर दलमें अनिरुद्धका न्यास करे । अग्निभगवान्‌ वराहका तथा नैरितय दलमें नृसिंहका न्यास करे । वायव्य दलमें माधवका तथा ईशान दलमें भगवान्‌ त्रिविक्रमका न्यास करें । अक्षर देवस्वरूप भगवान्‌ विष्णुके सम्मुख गरुड़जीकी स्थापना करनी चाहिये । भगवान्‌के वामभागमें चक्र और दक्षिणभागमें शंखकी स्थापना करे । इसी प्रकार उनके दक्षिणभागमें महागदा कौमोदकी और वामभागमें शारंग नामक धनुषकों स्थापित करे । दक्षिणभागमें दो दिव्य तरकस और वामभागमें खड्गका न्यास करे । फिर दक्षिणभागमें श्रीदेवी और वामभागमें पुष्टिदेविकी स्थापना करे । भगवानके सम्मुख वनमाला, श्रीवत्स और कौस्तुभ रखे; फिर पूर्व आदि चारों दिशाओंमें हृदय आदिका न्यास करे । कोणमें देवदेव विष्णुके अस्त्रका न्यास करे । पूर्व आदि आठ दिशाओंमें तथा नीचे और ऊपर क्रमश: इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, वरुण, वायु, कुबेर, ईशान, अनन्त तथा ब्रह्माजीका उनके नाम-मन्त्रोंद्वारा पूजन करे । इसी विधिसे पूजित मण्डलस्थ भगवान्‌ जनार्दनका जों दर्शन करता है, वह भी अविनाशी विष्णुमें प्रवेश करता है । जिसने उपर्युक्त विधिसे एक बार भी श्रीकेशवका पूजन किया है, वह जन्म-मृत्यु और जरावस्थाको लॉघकर भगवान्‌ विष्णुके पदको प्राप्त होता है । जो आलंस्य छोड़कर निरन्तर भक्तिभावसे भगवान्‌ नारायणका स्मरण करता है, उसके नित्य निवासके लिये श्वेतद्वीप बताया गया है। ‘ नम: ‘ संहितकार जिसके आदिमें है और जो अन्तमें भी ‘ नम: ‘ पदसे सुशोभित है, ऐसा नारायणका ‘ नारायण ‘ नाम सम्पूर्ण तत्त्वोंका प्रकाशक मन्त्र कहलाता है । ( उसका स्वरूप है- ॐ नमो नारायणाय नमें: )- इसी विधिसे प्रत्येकको गन्ध-पुष्प आदि वस्तुएँ क्रमश: निवेदन करनी चाहिये । इसी क्रमसे आठ मुद्राएँ बाँधकर दिखावे । तदनन्तर मन्त्रवेत्ता पुरुष कोणवाले दलमें नृसिंहका  आठ बार या अट्टाइस बार अथवा आठ बार जप नमो नारायणाय इस मूलमन्त्रका एक सौ आठ बार या अठाईस बार अथवा आठ बार जप करे । किसी कामनाके लिये जप करना हो तो उसके लिये शास्त्रोंमें जितना बताया गया हो उतनी संख्यामे जप करे अतवा निष्कामभावसे जितना हो सके उतना एकाग्र चित्तसे जप करे । पद्म, श्रीवत्स, गदा, गरुड, चक्र, खड्ग  और शारंगधनुष- ये आठ मुद्राएँ बतायी गयी हैं ।

   शुभे ! जो लोग शास्त्रोक्त मन्त्रोंद्वारा श्रीहरिकी पूजाका विधान न जानते हों वे ` नमो नारायणाय ‘ इस मूलमन्त्रसे ही सदा भगवान्‌ अच्युतका पूजन करें ।

अध्याय १५१ समुन्द्र— स्नानकी महिमा, श्रीकृष्ण— बलराम आदिके दर्शन आदिकी महिमा, श्रीकृष्णसे जगत्सृष्टिका कथन एवं श्रीराधा— कृष्णके उत्कृष्ट स्वरुपका प्रतिपादन

   पुरोहित वसु कहते हैंमोहिनी ! इस प्रकार भक्तिपूर्वक भगवान्‌ पुरुषोत्तमकी विधिवत्‌ पूजा करके उनके चरणोंमें  मस्तक झुकाये । फिर समुद्रसे प्रार्थना करे―

प्राणस्त्वं सर्वभूतानां योनिश्च सरितां पते ।

तीर्थराज नमस्तेस्तु त्राहि मामच्युतप्रिय ॥

( ना० उत्तर० ५८। २ )

     ‘ सरिताओंके स्वामी तीर्थराज ! आप सम्पूर्ण भूतोंके प्राण और योनि हैं । आपको नमस्कार है। अच्युतप्रिय ! मेरी रक्षा कीजिये ।

    इस प्रकार उस उत्तम क्षेत्र समुद्रमें भलीभांति स्नान करके तटपर अविनाशी भगवान्‌ नारायणकी विधिपूर्वक पूजा करे । तदनन्तर समुद्रको प्रणाम करके बलराम, श्रीकृष्ण और सुभद्राके चरणों में मस्तक झुकाना चाहिये । ऐसा करनेवाला मानव सौ अश्वमेध यज्ञोंका फल पाता है और सब पापोंसे मुक्त हो सब प्रकारके दुःखोंसे छुटकारा पा जाता है । अन्तमें सूर्यके समान तेजस्वी विमानपर बैठकर श्रीविष्णुलोकमें जाता है । ग्रहण,संक्रान्ति, अयनारम्भ, विषुवयोग, युगादि तिथि, मन्वादि तिथि, व्यतीपातयोग, तिथिक्षय, आषाढ, कार्तिक और माघकी पुर्णिमा तथा अन्य शुभ तिथियोंमे जो उत्तम, बुद्धिवाले पुरुष वहाँ ब्राह्मणोंको दान देते हैं, वे अन्य तीर्थोंकी अपेक्षा हजार गुना फल पाते हैं, जो लोग वहाँ विधिपूर्वक पितरोंको पिण्डदान देते हैं, उनके पितर अक्षय तृप्ति-लाभ करते हैं।

   देवि ! इस प्रकार मैंने समुद्रमें स्नान, दान एवं पिण्डदान करनेका फल बतलाया । यह धर्म, अर्थ एवं मोक्षरूप फल देनेवाला, आयु, कोर्ति, तथा यशको बढ़ानेवाला, मनुष्योंको भोग और मोक्ष देनेवाला तथा उनके बुरे स्वप्नोंका नाश करनेवाला धन्य साधन है । यह सब पापोंको दूर करनेवाला,पवित्र तथा इच्छानुसार सब फलोंको देनेवाला है । इस पृथ्वीपर जितने तीर्थ, नदियाँ और सरोवर हैं वे सब समुद्रमें प्रवेश करते हैं, इसलिये वह सबसे श्रेष्ठ है । सरिताओंका स्वामी समुद्र सब तीर्थोंका राजा है, अत: वह सभी तीथोंसे श्रेष्ठ है । जैसे सूर्योदय होनेपर अन्धकारका नाश हो जाता है उसी प्रकार तीर्थराज समुद्रमें स्नान करनेपर सब पापोंका क्षय हो जाता है । जहाँ निन्‍यानबे करोड़ तीर्थ रहते हैं उस तीर्थराजके गुणोंका वर्णन कौन कर सकता है । अत: वहाँ स्नान, दान, होम जप तथा देवपूजन आदि जो कुछ सत्कर्म किया जाता है, वह अक्षय बताया गया है ।

   मोहिनीने पूछागुरुदेव ! पुराणों राधामाधवका वर्णन रहस्यरूप है । सुव्रत ! आप सब कुछ यथार्थरूपसे जानते हैं; अतः उसे बताइये ।

   वसिष्ठजी कहते हैंराजन्‌ ! मोहिनीका यह वचन सुनकर महात्मा वसु जो भगवान्‌ गोविन्दके अत्यन्त भक्त थे, उनके चिन्तनमें निमग्न हो गये । उनके सम्पूर्ण अंगोमें रोमाञ्च हो आया । हदयमें हर्षकी बाढ़-सी आ गयी; अतः वे द्विजश्रेष्ठ मुग्ध होकर मोहिनीसे प्रसन्नतापूर्वक बोले ।

   पुरोहित वसुने कहादेवि ! भगवान्‌ श्रीकृष्णका चरित्र परम गोपनीय तथा रहस्योंमें भी अत्यन्त रहस्यभूत है । मैं बताता हूँ, सुनो । जो प्रकृति और पुरुषके भी नियन्ता, विधाताके भी विधाता और संहारकारी कालके भी संहारक हैं उन भगवान्‌ श्रीकृष्णको मैं नमस्कार करता हूँ,। देवि ! ब्रह्म श्रीकृष्णस्वरूप है। सब अवतार उसीके हैं । स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही अवतारी हैं। वे स्वयं ही सगुण भी हैं और निर्गुण भी । वस्तुत: वे ही श्रीराम हैं और वे ही श्रीकृष्ण । सम्पूर्ण लोक प्राकृत गुणोंसे उत्पन्न हुए हैं । स्वयं गोलोकधाम निर्गुण है । भद्रे ! गोलोकमें जो ‘ गो ‘ शब्द है, उसका अर्थ है तेज अथवा किरण । ‘ वेदवेत्ता पुरुषोंने ऐसा ही निरूपण किया है । देवि ! वह तेजोमय ब्रह्म सदा निर्गुण है । गुणोंका उत्पादक भी वही माना गया है । प्रकृति उस परमात्माकी शक्ति मानी गयी है । प्रधान प्रकृतिको कार्यकारणरूप बताया गया है । पुरुषको साक्षी,सनातन एवं निर्गुण कहते हैं । पुरुषने प्रकृतिमें तेजका आधान किया । इससे सत्त्व आदि गुण उत्पन्न हुए । उन गुणोंसे महत्तत्त्वका प्रादुर्भाव हुआ । पुरुषके संकल्पसे वह महत्तत्व अहंकाररूपमें प्रकट हुआ । भद्रे ! वह अहंकार द्रव्य, ज्ञान और क्रियारूपसे तथा वैकारिक, तैजस और तामसरूपसे तीन प्रकारका है । वैकारिक अहंकारसे मन तथा दस वैकारिक देवता प्रकट हुए, जिनके नाम इस प्रकार हैं―दिशा, वायु, सूर्य, वरुण, अश्विनीकुमार, ब्रह्मा, इन्द्र, उपेन्द्र, मित्र और मृत्यु । तेजस अहंकारसे इन्द्रियोंकी उत्पत्ति बतायी गयी है । उनके दो भेद हैं―ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ । श्रोत्र, त्वचा, घ्राण, नेत्र तथा जिद्वा―ये ज्ञानेन्द्रियाँ हैं तथा सुभगे ! वाणी, हाथ, पैर, शिशन तथा गुदा―ये कर्मेन्द्रियाँ हैं । साध्वी मोहिनी ! तामस अहंकारसे शब्दकी उत्पत्ति हुई । उस शब्दसे आकाश प्रकट हुआ । आकाशसे स्पर्श हुआ और स्पर्शसे वायुतत्त्वका प्रादुर्भाव हुआ । वायुसे रूप प्रकट हुआ तथा रूपसे तेजकी उत्पत्ति हुई । सती ! तेजसे रस हुआ तथा रससे जलकी उत्पत्ति हुई । जलसे गन्धकी उत्पत्ति हुई और गन्धसे पृथ्वी उत्पन्न हुई । इस पृथ्वीपर ही चराचर प्राणियोंकी स्थिति देखी जाती है । आकाश आदि तत्त्वोंमें क्रमश: एक, दो, तीन और चार गुण हैं । भूमिमें पाँच गुण बताये गये हैं । अत: ये पाँचों भूत विशेष कहे गये हैं । काल और मायाके अंशसे प्रेरित हुए इन पाँच भूतोंसे अचेतन अण्डकी उत्पत्ति हुई । सती मोहिनी ! उसमें पुरुषके प्रवेश करनेसे वह सचेतन हो उठा । उस अण्डसे विराट पुरुष उत्पन्न हुआ और वह जलके भीतर शयन करने लगा । भामिनि ! जलमें सोये हुए विराट पुरुषकें बोलने आदि व्यवहारकी सिद्धिके लिये मुख आदि अंग तथा भिन्न-भिन्न अवयव प्रकट हुए । उस पुरुषको नाभिसे एक कमल उत्पन्न हुआ जो सहस्रो सूर्योसे भी अधिक प्रकाशमान था । उस कमलसे सम्पूर्ण जगत्‌के प्रपितामह स्वयम्भू ब्रह्माजी उत्पन्न हुए । उन्होंने तीव्र तपस्या करके परम पुरुष परमात्माकी आज्ञा ले लोकों और लोकपालोंकी रचना की । ब्रह्माजीने कटि आदि नीचेके अंगोसे सात पातालोंकी और ऊपरके अंगोसे भू: आदि सात लोकोंकी सृष्टि की । इन चौदह भुवनोंसे युक्त ब्रह्माण्ड बताया गया है । ब्रह्माजीने इस चतुर्दशभुवनात्मक ब्रह्माण्डमें समस्त चराचर भूतोंकी सृष्टि की है । ब्रह्माजीके मनसे चार सनकादि महात्मा उत्पन्न हुए हैं । देवि ! ब्रह्माजीके शरीरसे भृगु आदि पुत्र उत्पन्न हुए हैं, जिन्होंने इस जगत्‌को बढ़ाया है ।

   पुरोहित वसु कहते हैं―महाभागे ! वे जो निरज्ञन, सच्चिदानन्दस्वरूप, ज्योतिर्मय, जनार्द॑न भगवान्‌ श्रीकृष्ण हैं, उनका लक्षण सुनो । वे व्यापी हैं और ज्योतिर्मय गोलोकके भीतर नित्य निवास करते हैं । एकमात्र श्रीकृष्ण ही दृश्य तथा अदृश्यरूपधारी परब्रह्म हैं । मोहिनी ! गोलोकमें ही गौएँ, गोप और गोपियाँ हैं । वहाँ वृन्दावन, सैकड़ों शिखरोंवाला गोवर्धन पर्वत, विरजा नदी, नाना वृक्ष, भाँति-भाँतिके पक्षी आदि वस्तुएँ विद्यमान हैं । विधिनन्दिनी ! जबतक प्रकृति जागती है तबतक गोलोकमें सर्वव्यापी भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रत्यक्षरूपसे ही विराजमान होते हैं । प्रलयकालमें गौएँ आदि सो जाती हैं, अत: वे परमात्माको नहीं जान पातीं । वे परमात्मा तेज:पुंचके भीतर कमनीय शरीर धारण करके किशोररूपसे विराजमान होते हैं । उनके श्रीअंगोंकी कान्ति मेघके समान श्याम है । उन्होंने रेशमी पीताम्बर धारण कर रखा है । उनके दो हाथ हैं । हाथमें मुरली सुशोभित है । वे भगवान्‌ किरीट-कुण्डल आदिसे विभूषित हैं । श्रीराधा उन्हें प्राणोंसे भी अधिक प्यारी हैं । श्रीराधिकाजी उनकी आराधिका हैं । उनका वर्ण सुवर्णके समान उद्भासित होता है । देवी श्रीराधा प्रकृतिसे परे स्थित सच्चिदानन्दमयी हैं । वे दोनों भिन्न-भिन्न देह धारण करके स्थित हैं, तो भी उनमें कोई भेद नहीं है । उनका स्वरूप नित्य है । जैसे दूध और उसकी धवलता, पृथ्वी और उसकी गन्ध एक और अभिन्न हैं उसी प्रकार वे दोनों प्रिया-प्रियतम एक हैं । जो कारणका भी कारण है उसका निर्देश नहीं किया जा सकता । जो वेदके लिये भी अनिर्वचनीय है उसका वर्णन कदापि सम्भव नहीं है ।

अध्याय १५२ इंद्रद्युम्न सरोवरमें स्नानकी विधि, ज्येष्ठ मासकी पूर्णिमाको श्रीकृष्ण, बलराम तथा सुभद्राके अभिषेकका उत्सव

पुरोहित वसु कहते हैंब्रह्मपुत्री मोहिनी ! वहाँसे उस तीर्थमें जाय जो अश्वमेधयज्ञके अंगसे उत्पन्न हुआ है । उसका नाम है इन्द्रदुम्न-सरोवर वह पवित्र एवं शुभ तीर्थ है । बुद्धिमान पुरुष वहाँ जाकर पवित्रभावसे आचमन करे और मन-ही-मन भगवान्‌ श्रीहरिका ध्यान करके जलमें उतरे ।  उस समय इस मन्त्रका उच्चारण करे―

अश्वमेधांगसम्भूत तीर्थ सर्वानाशन।

स्नानं त्वयि करोम्यद्य पाप हर नमोअस्तु ते॥

(ना० उत्तर० ६०। ३)

   ` अश्वमेधयज्ञके अंगसे प्रकट हुए तथा सम्पूर्ण पापोंके विनाशक तीर्थ ! आज मैं तुम्हारे जलमें स्नान करता हूँ । मेरे पाप हर लो । तुमको नमस्कार है ।’

   इस प्रकार मन्त्रका उच्चारण करके विधिपूर्वक स्नान करे और देवताओं, ऋषियों, पितरों तथा अन्यान्य लोगोंका तिल और जलसे तर्पण करके मौनभावसे आचमन करे । फिर पितरोंको पिण्डदान दे भगवान्‌ पुरुषोत्तमका पूजन करे । ऐसा करनेवाला मानव दस अश्वमेधयज्ञोंका फल पाता है । इस प्रकार पञ्चतीर्थका सेवन करके एकादशीको उपवास करे । जो मनुष्य ज्येष्ठ शुक्ला पूर्णिमाको भगवान्‌ पुरुषोत्तमका दर्शन करता है वह पूर्वोक्त फलका भागी होकर दिव्यलोकमें क्रीडा करके उस परम पदको प्राप्त होता है, जहाँसे पुन: लौटकरं नहीं आता । पृथ्वीपर जितने तीर्थ, नदी,सरोवर, पुष्करिणी, तालाब, बावड़ी, कुआँ, हृद और समुद्र हैं, वे सब ज्येष्ठके शुक्लपक्षकी दशमीसे लेकर पूर्णिमातक एक सप्ताह प्रत्यक्षरूपसे पुरुषोत्तम-तीर्थमें जाकर रहते हैं । यह उनका सदाका नियम है । सती मोहिनी ! इसीलिये वहाँ स्नान, दान, देव-दर्शन आदि जो कुछ पुण्यकार्य उस समय किया जाता है, वह अक्षय होता है । मोहिनी ! ज्येष्ठ मासके शुक्लपक्षकी दशमी तिथि दस प्रकारके पापोंको हर लेती है । इसीलिये उसे ‘ दशहरा ‘ कहा गया है । जो उस दिन उत्तम व्रतका पालन करते हुए बलराम, श्रीकृष्ण एवं सुभद्रादेवीका दर्शन करता है वह सब पापोंसे मुक्त हो विष्णुलोकमें जाता है । जो मनुष्य फाल्गुनकी पूर्णिमाके दिन एकचित्त हो पुरुषोत्तम श्रीगोविन्दको झूलेपर विराजमान देखता है वह उनके धाममें जाता है । सुलोचने ! जिस दिन विषुव-योग हो, वह दिन प्राप्त होनेपर विधिपूर्वक पञ्चतीर्थका सेवन करके बलराम, श्रीकृष्ण और सुभद्राका दर्शन करनेवाला मनुष्य समस्त यज्ञोंका दुर्लभ फल पाता है और सब पापोंसे मुक्त हो विष्णुलोकमे जाता है । जो वैशाखके शुक्लपक्षमें श्रीकृष्णके चन्दनचर्चित स्वरूपका दर्शन करता है, वह उनके धाममें जाता है । ज्येष्ठ मासको पूर्णिमाको यदि वृषराशिके सूर्य और ज्येष्ठा नक्षत्रका योग हो तो उसे ‘ महाज्येष्ठी ‘ पूर्णिमा कहते हैं । उस समय मनुष्यों को प्रयत्नपूर्वक पुरुषोत्तम-क्षेत्रकी यात्रा करनी चाहिये । मोहिनी ! महाज्येष्ठी पर्वको श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्राका दर्शन करके मनुष्य बारह यात्राओंका फल पाता है। प्रयाग, कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य, पुष्कर, गया, हरिद्वार, कुशावर्त, गंगासागर-संगम, कोकामुख―शूकरतीर्थ, मथुरा, मरुस्थल, शालग्रामतीर्थ, वायुतीर्थ,मन्दराचल, सिन्धुसागरसंगम, पिण्डारक, चित्रकूट, प्रभास, कनखल, शंखोद्धार, द्वारका, बदरिकाश्रम,लोहकूट, सर्वपापमोचन―अश्वतीर्थ,  कर्दमाल,कोटितीर्थ, अमरकण्टक,  लोलार्क, जम्बूमार्ग,सोमतीर्थ, पृथूदक, उत्पलावर्तक, पृथुतुंग, कुब्जतीर्थ,एकाम्रक, केदार, काशी, विरज, कालजर, गोकर्ण, श्रीशैल, गन्धमादन, महेन्द्र, मलय, विन्ध्य, पारियात्र, हिमालय, सहम, शुक्तिमान, गोमान्‌, अर्बुद, गंगा,यमुना, सरस्वती, गोमती तथा ब्रह्मपुत्र आदि तीर्थमें जो पुण्य होता है और महाभागे ! गोदावरी, भीमरथी, तुड़भद्रा, नर्मदा, तापी, पयोष्णी, कावेरी, क्षिप्रा, चर्मण्यवती, वितस्ता ( झेलम ), चन्द्रभागा ( चनाव ), शत्द्रू ( शतलज ), बाहुदा, ऋषिकुल्या, मरुद्वृधा, विपाशा ( व्यास ), दृषद्वती, सरयू आकाशगंगा, गण्डकी, महानदी, कोशिकी ( कोसी ) करतोया, त्रिस्रोत्र, मधुवाहिनी तथा महानदी वैतरणी और अन्यान्य नदियाँ, जिनका नाम यहां नहीं लिया गया है, वे सभी पुण्यमें श्रीकृष्णदर्शनकी समानता नहीं कर सकती । सूर्य-ग्रहणके समय स्नान और दानसे जो फल होता है, महाज्येष्ठ पर्वको भगवान्‌ श्रीकृष्णका दर्शन करके मनुष्य उसी फलको प्राप्त कर लेता है ।

   वहाँ एक सजल कूप है जो बड़ा ही पवित्र और सर्वतीर्थमय है । ज्येष्ठकी पूर्णिमाको उसमें पातालगंगा, भोगवती निश्चितरूपसे प्रत्यक्ष हो जाती हैं । अत: मोहिनी ! ज्येष्ठकी पूर्णिमाको श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्राको स्नान करानेके लिये सुवर्ण आदिके कलशोंमें उस कूपसे जल निकाला जाता है । इसके लिये एक सुन्दर मंच बनवाकर उसे पताका आदिसे अलंकृत किया जाता है । वह सुदृढ़ और सुखपूर्वक चलने योग्य बना होता है । वस्त्र और फूलोंसे उसे सजाया जाता है । वह खूब विस्तृत होता है और धूपसे सुवासित किया जाता है । उसपर श्रीकृष्ण और बलरामको स्नान करानेके लिये पीत वस्त्र बिछाया जाता है । उसे सजानेके लिये मोतियोंके हार लटकाये जाते हैं । भाँति-भाँतिके वाद्योंकी ध्वनि होती रहती है । सती ! उस मंचपर एक ओर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और दूसरी ओर भगवान्‌ बलराम विराजते हैं । बीचमें सुभद्रादेवीको पधराकर जय-जयकार और मंगलघोषके साथ स्नान कराया जाता है । मोहिनी ! उस समय ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य, शूद्र और अन्य जातिके लाखों स्त्री-पुरुष उन्हें घेरे रहते हैं । गृहस्थ, स्नातक, संन्यासी और ब्रह्मचारी सभी मंचपर विराजमान भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामको स्नान कराते हैं । सुन्दरी ! पूर्वोक्त सभी तीर्थ अपने पुष्पमिश्रित जलोंसे पृथक्‌-पृथक भगवानकों स्नान कराते हैं । उस समय मुनिलोग वेद-पाठ और मन्त्रोच्चारण करते हैं । सामगानके साथ भाँति-भाँतिकी स्तुतियोंके पुण्यमय शब्द होते रहते हैं । आकाशमें यक्ष, विद्याधर, सिद्ध, किन्नर, अप्सराएँ, देव, गन्धर्व, चारण, आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य, विश्वेदेव, मरुदूण, लोकपाल तथा अन्य लोग भी भगवान्‌ पुरुषोत्तमकी स्तुति करते हैं―’ देवदेवेधर ! पुराणपुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है । जगत्पालक भगवान्‌ जगन्नाथ ! आप सृष्टि, स्थिति और संहार करनेवाले हैं । जो त्रिभुवनको धारण करनेवाले, ब्राह्मणभक्त, मोक्षके कारणभूत और समस्त मनोवांछित फलोंके दाता हैं, उन भगवान्‌को हम प्रणाम करते हैं ।’ मोहिनी ! इस प्रकार आकाशमें खड़े हुए देवता श्रीकृष्ण, महाबली बलराम और सुभद्रादेवीको स्तुति करते हैं । देवताओंके बाजे बजते और शीतल वायु चलती है । उस समय आकाशगें उमड़े हुए मेघ पुष्पमिश्रित जलकी वर्षा करते हैं । मुनि, सिद्ध और चारण जय-जयकार करते हैं । तत्पश्चात्‌ इन्द्र आदि समस्त देवता, ऋषि, पितर, प्रजापति, नाग तथा अन्य स्वर्गवासी मंगल समग्रियोंके साथ विधि और मन्त्रयुक्त अभिषेकोपयोगी द्रव्य लेकर भगवानका अभिषेक करते हैं ।

अध्याय १५३ अभिषेक कालमें देवताओं द्वारा जगन्नाथजीकी स्तुति, गुंडिचा यात्राका माहात्म्य तथा द्वादश यात्राकी प्रतिष्ठा— विधि

पुरोहित वसु कहते हैंब्रह्मपुत्री मोहिनी ! उस समय इस प्रकार श्रीकृष्ण, बलराम तथा सुभद्राका अभिषेक करके प्रसन्नतासे भरे हुए महाभाग देवगण उनकी स्तुति करते हैं ।

   देवता कहते हैंसम्पूर्ण लोकोंका पालन करनेवाले जगन्नाथ ! आपकी जय हो, जय हो । पद्यनाभ ! धरणीधर ! आदिदेव ! आपकी जय हो । वासुदेव ! दिव्य मत्स्यरूप धारण करनेवाले परमेश्वर ! आपकी जय हो । देवश्रेष्ठ ! समुद्रमें शयन करनेवाले माधव ! योगेश्वर ! आपकी जय हो । विश्वमूर्ते ! चक्रधर ! श्रीनिवास ! आपकी जय हो । कच्छपावतार ! आपकी जय हो । शेषशायिन्‌ ! धर्मवास ! गुणनिधान ! आपकी जय हो । शान्तिकर ! ज्ञानमूर्ते ! भाववेद्य ! मुक्तिकर! आपको जय हो, जय हो । विमलदेह ! सत्त्वगुणके निवासस्थान ! गुणसमूह ! आपकी जय हो, जय हो । निर्गुणरूप ! मोक्षसाधक ! आपकी जय हो । लोकशरण ! लक्ष्मीपते ! कमलनयन ! सृष्टिकर ! आपको जय हो, जय हो । आपका श्रीविग्रह तीसीके फूलकी भाँति श्याम एवं सुन्दर है; आपकी जय हो । आपका श्रीअंग शेषनागके शरीरपर शयन करता है; आपकी जय हो । भक्तिभावन ! आपकी जय हो, जय हो । परमशान्त ! आपको जय हो । नीलाम्बरधारी बलराम ! आपकी जय हो । सांख्यवन्दित ! आपकी जय हो । पापहारी हरे ! आपकी जय हो । जगन्नाथ श्रीकृष्ण ! आपकी जय हो। बलरामजीके अनुज ! आपकी जय हो । मनोवांछित फल देनेवाले देव ! आपकी जय हो । वनमालासे आवृत वक्षवाले नारायण ! आपकी जय हो । विष्णो! आपकी जय हो । आपको नमस्कार है ।

   इस प्रकार स्तुति करके इन्द्र आदि देवता, सिद्ध, चारण, गन्धर्व तथा अन्य स्वर्गवासी मन-ही-मन बड़े प्रसन्न होते हैं । वे तन्मय चित्तसे श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रादेवीका दर्शन, स्तवन एवं नमस्कार करके अपने-अपने निवासस्थानको चले जाते हैं । पुष्करतीर्थमें सौ बार कपिला गौका दान करनेसे अथवा सौ कन्याओंका दान करनेसे जो फल कहा गया है उसीको मनुष्य मंचपर विराजमान श्रीकृष्णका दर्शन करनेसे पा लेता है । सबका आतिथ्यसत्कार करनेसे, विधिपूर्वक वृषोत्सर्ग करनेसे, ग्रीष्मऋतुमें जलदान देनेसे, चान्द्रायण करनेसे, एक मासतक निराहार रहनेसे तथा सब तीर्थोंमें जाकर व्रत और दान करनेसे जो फल प्राप्त होता है, वह सब पर विराजमान सुभद्रासहित श्रीकृष्ण और बलरामका दर्शन करनेसे मिल जाता है । अत: स्त्री हो या पुरुष सबको उस समय पुरुषोत्तमका दर्शन करना चाहिये । मोहिनी ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके स्नान किये हुए शेष जलसे यदि विधिपूर्वक अभिषेक किया जाय तो वन्ध्या, मृतवत्सा, दुर्भगा, ग्रहपीड़िता, राक्षसगृहीता तथा रोगिणी स्त्रियाँ तत्काल शुद्ध हो जाती हैं । और सुप्रभे ! जिन-जिन मनोरथोंको वे चाहती हैं उन सबको शीघ्र प्राप्त कर लेती हैं । अत: जलशायी भगवान्‌ श्रीकृष्णके स्नानविशेष जलसे अपने सम्पूर्ण अंगोको सींचना चाहिये । जो लोग स्नानके पश्चात्‌ दक्षिणाभिमुख जाते हुए भगवान्‌ श्रीकृष्णका दर्शन करते हैं वे ब्रह्महत्या आदि पापोंसे मुक्त हो जाते हैं । पृथ्वीके सम्पूर्ण तीर्थोंकी यात्रा करनेका जो फल कहा गया है तथा गंगाद्वार, कुब्जाम्र तथा कुरुक्षेत्रमें एवं पुष्कर आदि अन्य तीर्थोंमें सूर्यग्रहणके समय स्नान करनेसे जो फल बताया गया है एवं वेद, शास्त्र, पुराण, महाभारत तथा संहिता आदि ग्रंथोमें पुण्यकर्मका जो फल बताया गया है, उसे मनुष्य दक्षिणाभिमुख जाते हुए श्रीकृष्ण, बलराम तथा सुभद्राका दर्शनमात्र करके पा लेता है ।

   भगवान्‌ श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा―ये रथपर विराजमान होकर जब गुण्डिचा मण्डपको यात्रा करते हैं उस समय जो उनका दर्शन करते हैं, वे श्रीहरिके धाममें जाते हैं । गुण्डिचा-यात्राके समय फाल्गुनकी पूर्णिमाको विषुव योगमें जो मनुष्य एक बार पुरुषोत्तमपुरीकी यात्रा करता है, वह-विष्णुलोकमें जाता है । ब्रह्मपुत्री ! जब वहाँकी बारह यात्राएँ पूर्ण हो जायँ उस समय विधिपूर्वक उसकी प्रतिष्ठा ( उद्यापन ) करनी चाहिये, जो सब पापोंका नाश करनेवाली है । ज्येष्ठ मासके शुक्लपक्षमें एकादशी तिथिको एकाग्रचित्तसे किसी पवित्र जलाशयपर जाकर आचमन करे और इन्द्रियसंयमपूर्वक पवित्र भावसे सब तीर्थोंका आवाहन करके भगवान्‌ नारायणका ध्यान करते हुए शास्त्रीय पद्धतिसे स्नान करे । स्नानके पश्चात्‌ विधिपूर्वक देवताओं, ऋषियों, अपने पितरों तथा अन्य लोगोंका उनके नाम और गोत्रका उच्चारण करते हुए तर्पण करे । फिर जलसे निकलकर दो स्वच्छ वस्त्र पहने और विधिसे आचमन करके सूर्योपस्थानके पश्चात्‌ पुण्यमयी वेदमाता गायत्रीका एक सौ आठ बार जप करे । साथ ही सूर्यदेवतासम्बन्धी अन्य मन्त्रों का जप करके तीन बार परिक्रमाके पश्चात्‌ सूर्यदेवको प्रणाम करे । ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य―इन तीन वर्णोके लिये वेदोक्त विधिसे स्नान और जपका विधान है । वरारोहे ! स्त्री और शूद्रोंके स्नान और जप वैदिक विधिसे रहित होते हैं ।

    इसके बाद भक्तिभावसे मन्दिरमें स्थित श्रीपुरुषोत्तमके समीप जाय । वहाँ हाथ-पैर धोकर विधिपूर्वक आचमन करके भगवान्‌को पहले घीसे स्नान करावे, उसके बाद दूधसे । तत्पश्चात्‌ मधुगन्धोदक एवं तीर्थचन्दनके जलसे उन्हें स्नान कराकर दो श्रेष्ठ वस्त्र भक्तिपूर्वक भगवान्‌को पहनावे । चन्दन, अगुरु, कर्पूर तथा कुंकुमका लेप लगावे । फिर कमलके फूलोंसे पराभक्तिपूर्वक भगवान्‌ पुरुषोत्तमकी पूजा करे । इस प्रकार भोग और मोक्ष देनेवाले जगन्नाथ श्रीहरिकी पूजा करके उनके समक्ष अगुरु, पवित्र गुग्गुल तथा अन्य सुगन्धित पदार्थों एवं घृतके साथ धूप जलाये । फिर अपनी शक्तिके अनुसार घीसे भक्तिपूर्वक दीपक जलाकर रखे । मोहिनी ! एकाग्रचित्त होकर गायके घी अथवा तिलके तेलसे बारह दीपक और जलाकर रखे । तदनन्तर नैवेद्यके रूपमें खीर, पूआ, पूड़ी, बड़ा, लड्ड, खाँड और फल निवेदन करे । इस प्रकार प्रश्नोपचारसे श्रीपुरुषोत्तमकी पूजा करके ‘ ॐ नमः पुरुषोत्तमाय ‘― इस मन्त्रका एक सौ आठ बार जप करे । तत्पश्चात्‌ दण्डकी भाँति पृथ्वीपर पड़कर भगवान्‌को प्रार्थना द्वारा प्रसन्न करे । फिर एकाग्रचित्त हो भगवान्‌के ऊपर भाँति-भाँतिके पुष्पोंसे एक सुन्दर एवं विचित्र शोभायुक्त मण्डलाकार पुष्पमण्डप बनावे और भगवच्चिन्तन करते हुए रातमें जागरण करे । भगवान्‌ वासुदेवकी कथा और गीतका भी आयोजन करे । इस प्रकार विद्वान पुरुष भगवान्‌का ध्यान, पाठ और स्तवन करते हुए रात बितावे । तदनन्तर निर्मल प्रभात-काल आनेपर द्वादशीको बारह ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे । वे ब्राह्मण स्नानतक, वेदोंके पारगामी, इतिहास-पुराणके ज्ञाता, श्रोत्रिय और जितेन्द्रिय होने चाहिये । इसके बाद स्वयं भी विधिपूर्वक स्नान करके धुला हुआ वस्त्र पहने और इन्द्रियसंयमपूर्वक भक्तिभावसे पहलेकी भाँति वहाँ विराजमान पुरुषोत्तमको स्नान करावे; फिर गन्ध, पुष्प, धूप,दीप, नैवेद्य, उपहार आदि नाना प्रकारके उपचारोंसे तथा प्रणाम, परिक्रमा, जप, स्तुति, नमस्कार और मनोहर गीत-वैद्योंद्वारा भगवान्‌ जगन्नाथकी पूजा करे । भगवतपूजनके पश्चात्‌ ब्राह्मणोंकी भी पूजा करे । उनके लिये बारह गौएँ दान करके भक्तिपूर्वक सुवर्ण, छतरी, जूते और कॉँसपात्र आदि समर्पित करे । तदनन्तर ब्राह्मणोंको खीरसहित पक्वान्न भोजन करावे । उन भोज्यपदार्थोमें गुड़ और शक्‍्करका मेल होना चाहिये । जब ब्राह्मण लोग भोजन करके भलीभाँति तृप्त एवं प्रसन्नचित्त हो जायें, तब उनके लिये जलसे भरे हुए बारह घट दान करे । उन घड़ोंके साथ लड्डू और यथाशक्ति दक्षिणा भी होनी चाहिये । ब्रह्मपुत्री ! तत्पश्चात्‌ विष्णुतुल्य ज्ञानदाता गुरुकी पूर्ण भक्तिके साथ पूजा करनी चाहिये । विद्वान्‌ पुरुष उन्हें सुवर्ण, वस्त्र, गौ, धान्य, द्रव्य तथा अन्य मनोवांछित वस्तुएँ देकर उनकी पूजा सम्पन्न करे; फिर नमस्कार करके निम्नलिखित मन्त्रका उच्चारण करे―

सर्वव्यापी जगन्नाथ: शड्भुचक्रगदाधर: ।

अनादिनिधनो देव: प्रीयतां पुरुषोत्तम: ॥

( ना० उत्तर० ६१। ७४ )

     ‘ शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले सर्वव्यापी, अनादि और अनन्त देवता जगदीश्वर भगवान्‌ पुरुषोत्तम मुझपर प्रसन्न हों ।’

   यों कहकर गुरु एवं ब्राह्मणोंकी आदरपूर्वक तीन बार परिक्रमा करे; फिर चरणोंमें भक्तिपूर्वक सिर नवाकर आचार्यसहित ब्राह्मणोंको विदा करे । तत्पश्चात्‌ गाँवकी सीमातक भक्तिपूर्वक उन ब्राह्मणोंके साथ-साथ जाय और उन्हें नमस्कार करके लौटे । फिर स्वजनों और बान्धवोंके साथ स्वयं भी मौन होकर भोजन करे । ऐसा करके स्त्री हो या पुरुष वह एक हजार अश्वमेध और सौ राजसूय-यज्ञोंका फल पाता है एवं सूर्यतुल्य विमानके द्वारा विष्णुलोकको जाता है । इस प्रकार मैंने तुम्हें श्रीपुरुषोत्तमक्षेत्रकी यात्राका फल बताय है, जो मनुष्योंको भोग और मोक्ष देनेवाला है ।

अध्याय १५४ प्रयाग— माहात्म्यके प्रसंगमें तीर्थयात्राकी सामान्य विधिका वर्णन

वसिष्ठजी कहते हैंभूपाल ! भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले इस पुरुषोत्तम-माहात्म्यको सुनकर ब्रह्मपुत्री मोहिनीने अपने पुरोहित विप्रवर वसुसे पुनः प्रश्न किया ।

   मोहिनी बोलीविप्रवर ! मैंने पुरुषोत्तमतीर्थका अद्भुत माहात्म्य सुना । सुव्रत ! अब प्रयागका भी माहात्म्य कहिये ।

   पुरोहित वसुने कहाभद्रे ! सुनो, मैं तीर्थयात्राकी विधि बतलाता हूँ, जिसका आश्रय लेनेपर मनुष्य यात्राका शास्त्रोक्त फल पा सकता है । तीर्थयात्रा पुण्यकर्म है । इसका महत्त्व यज्ञोंसे भी बढ़कर है । बहुत दक्षिणावाले अग्निष्टोमादि यज्ञोंका अनुष्ठान करके भी मनुष्य उस फलको नहीं पाता, जो तीर्थयात्रासे सुलभ होता है । जो अनजानमें भी कभी यहाँ तीर्थयात्रा कर लेता है, वह सम्पूर्ण कामनाओंसे सम्पन्न हो स्वर्गलोकमे प्रतिष्ठित होता है । उसे सदा धन-धान्यसे भरा हुआ स्थान प्राप्त होता है । वह भोगसम्पन्न और सदा ऐश्वर्य-ज्ञानसे परिपूर्ण होता है । उसने नरकसे अपने पितरों और पितामहोंका उद्धार कर दिया । जिसके हाथ, पैर और मन अपने वशभमें हैं तथा जो विद्या, तपस्या और कीर्तिसे सम्पन्न है, वही तीर्थके पूर्ण फलका भागी होता है । जो प्रतिग्रहसे दूर रहता है और जो कुछ मिल जाय, उसीसे संतुष्ट होता है तथा जिसमें अहंकारका सर्वथा अभाव है, वह तीर्थके फलका भागी होता है । जो संकल्परहित प्रवृत्तिशून्य, स्वल्पाहारी, जितेन्द्रिय तथा सब प्रकारकी आसक्तियोंसे युक्त है, वह तीर्थके फलका भागी होता है । धीर पुरुष श्रद्धा और एकाग्रतापूर्वक यदि तीर्थोंमें भ्रमण करता है तो वह पापी होनेपर भी उस पापसे शुद्ध हो जाता है । फिर जो शुद्ध कर्म करनेवाला है, उसके लिये तो कहना ही क्या है ?  अश्रद्धालु, पापपीड़ित, नास्तिक, संशयात्मा और केवल युक्तिवादी-अये पाँच प्रकारके मनुष्य तीर्थ-फलके भागी नहीं होते । पापी मनुष्योंके तीर्थमें जानेसे उनके पापकी शान्ति होती है। जिनका अन्तःकरण शुद्ध है, ऐसे मनुष्योंके लिये तीर्थ यथोक्त फलको देनेवाला है । जो काम, क्रोध और लोभको जीतकर तीर्थमें प्रवेश करता है, उसे उस तीर्थयात्रासे कोई भी वस्तु अलभ्य नहीं रहती । जो यथोक्त विधिसे तीर्थयात्रा करते हैं, सम्पूर्ण द्वद्धोंको सहन करनेवाले वे धीर पुरुष स्वर्गगामी होते हैं । गंगा आदि तीर्थोंमें मछलियाँ निवास करती हैं, पक्षीगण देवालयमें वास करते हैं;  किंतु उनके चित्त भक्तिभावसे रहित होनेके कारण तीर्थसेवन तथा श्रेष्ठ देवमन्दिरमें रहनेसे कोई फल नहीं पाते । अत: हृदयकमलमें भावका संग्रह करके एकाग्रचित्त हो तीर्थोंका सेवन करना चाहिये ।

   मुनीश्वरोंने तीन प्रकारकी तीर्थयात्रा बतायी है―कृत, प्रयुक्त तथा अनुमोदित । ब्रह्मचारी बालक संयमपूर्वक गुरुकी आज्ञामें संलग्न रहकर उक्त तीनों प्रकारकी तीर्थयात्राको विधिपूर्वक सम्पन्न कर लेता है । ( अर्थात्‌ ब्रह्मचर्यपालन, इन्द्रियसंयम तथा गुरु-सेवनसे उसको गुरुकुलमें ही तीर्थयात्राका पूरा फल मिल जाता है । ) जो कोई भी पुरुष तीर्थयात्राको जाय, वह पहले घरमें ही रहकर पूर्ण संयमका अभ्यास करे और पवित्र एवं सावधान होकर भक्तिभावसे विनम्र हो गणेशजीकी पूजा करे । तत्पश्चात्‌ देवताओं, पितरों, ब्राह्मणों तथा साधुपुरुषोंका भी अपने वैभव और शक्तिके अनुसार प्रयत्नपूर्वक सत्कार करे । बुद्धिमान्‌ ब्राह्मण तीर्थयात्रासे लौटनेपर भी पुन: पूर्ववत्‌ देवताओं, पितरों और ब्राह्मणोंका पूजन करे । ऐसा करनेपर उसे तीर्थसे जिस फलकी प्राप्ति बतायी गयी है, वह सब यहाँ प्राप्त होता है । प्रयागमें, तीर्थयात्रामें तथा माता-पिताकी मृत्यु होनेपर अपने केशोंका मुण्डन करा देना चाहिये । ऐसा कोई कारण न होनेपर व्यर्थ ही सिर न मुड़ावे । जो गया जानेको उद्यत हो, वह विधिपूर्वक श्राद्ध करके तीर्थयात्रीका वेश बना ले और अपने समूचे गाँवकी परिक्रमा करे । उसके बाद प्रतिदिन किसीसे प्रतिग्रह न लेकर पैदल यात्रा करे । गया जानेवाले पुरुषको पग-पगपर अश्वमेध-यज्ञका फल मिलता है । जो ऐश्वर्यके अभिमानसे अथवा लोभ या मोहसे किसी सवारी द्वारा यात्रा करता है, उसकी वह तीर्थयात्रा निष्फल हैं । इसलिये सवारीका त्याग करे । गोयान ( बैलगाडी आदि )-पर तीर्थमें जानेसे गोबंधका पाप कहा गया है । अश्वयान ( घोड़े या एक्के-तांगेआदि )- पर जानेसे वह यात्रा निष्फल होती है कथा नरयान ( पालको, रिक्शा आदि )- पर जानेसे तीर्थका आधा फल मिलता है; किंतु पैदल चलनेसे चौगुने फल प्राप्ती होती है । वर्षा और घुप आदिमें छाता लगाकर डंडा हाथमें लेकर चले और कंकड़ तथा काँटोंमें शरीरको कष्टसे बचानेकी इच्छासे मनुष्य सदा जूता पहनकर चले । जो दुसरेके धनसे तीर्थयात्रा करता है, उसे पुण्यका सोलहवाँ अंश प्राप्त होता है तथा जो दूसरे कार्यके प्रसंगसे तीर्थमें जाता है, उसे उसका आधा फल मिलता है । तीर्थमें ब्राह्मणकी कदापि परीक्षा न करें । वहाँ याचकरूपसे आये हुए ब्राह्मणकों भी भोजन कराना चाहिये, ऐसा मनुका कथन है । तीर्थमें किया हुआ श्राद्ध पितरोंके लिये वृश्चिकारक बताया गया है । समयमें या असमयमें मनुष्य जब भी तीर्थमें पहुँचे तभी उसे तीर्थश्राद्ध और पितृतर्पण अवश्य करना चाहिये ।

   पृथ्वीपर जो तीर्थ हैं, वे साधारण भूमिकी अपेक्षा अधिक पुण्यमय क्यों हैं ? इसका कारण सुनो-जैसे शरीरके कुछ अवयव प्रधान माने गये हैं, उसी प्रकार पृथ्वी, जल और तेजके प्रभावसे तथा मुनियोंके संगठनसे तीर्थोको अधिक पवित्र कहा गया है । देवि ! जो गंगाजीके समीप जाकर मुण्डन नहीं कराता, उसका समस्त शुभ कर्म नहीं किये हुएके समान हो जाता है । सरिताओंमें श्रेष्ठ गंगाजीके समीप जानेपर कल्पभरके पापोंका संग्रह मनुष्यके केशोंका आश्रय लेकर स्थित होता है । अत: उन केशोंका त्याग कर देना चाहिये । मनुष्यके जितने नख और रोएँ गंगाजीके जलमें गिरते हैं, उतने सहस्र वर्षोतक वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है । सती मोहिनी ! जिसके पिता जीवित हैं, वह विधिज्ञ पुरुष तीर्थमें जानेपर क्षौर तो करावे, परंतु मूँछ न मुड़ावे ।

अध्याय १५५ प्रयागके माघ महीनाके मकर राशिमें स्नान करनेकी महिमा, वहाँ भिन्न— भिन्न तीर्थोंका माहात्म्य

पुरोहित वसु कहते हैंमोहिनी ! सुनो, अब मैं प्रयागके वेदसम्मत माहात्म्यका वर्णन करता हूँ, जहाँ स्नान करके मानव सर्वथा शुद्ध हो जाता है । गंगामें जहाँ-कहीं भी स्नान किया जाय, यह कुरक्षेत्रे समान पुण्यदायिनी है । उससे दसगुना पुण्य देनेवाली गंगा वह बतायी गयी है, जहाँ वह विन्ध्यपर्वतसे संयुक्त होती है । काशीको उत्तरवाहिनी गंगा विन्ध्यपर्वतके निकटवर्तिनी गंगासे सौगुनी पुण्यदायिनी कही गयी है । काशीसे भी सौ गुना पुण्य वहाँ बताया गया है, जहाँ गंगा यमुनासे मिलती है । वह भी जहाँतक पश्चिमवाहिनी हैं, वहाँ उसमें सहस्रगुना पुण्य प्राप्त होता है । देंवि ! पश्चिमवाहिनी गंगा दर्शनमात्रसे ही ब्रह्महत्या आदि पापोंका निवारण करनेवाली है । देवि ! पश्चिमाभिमुखी गंगा यमुनाके साथ मिली हैं । वे सौ कल्पोंका पाप हर लेती हैं । माघ मासमें तो वे और भी दुर्लभ हैं । भद्रे ! पृथ्वीपर वे अमृतरूप कही जाती हैं । गंगा और यमुनाके संगमका जल वेणी के नामसे प्रसिद्ध है, जिसमें माघ मासमें दो घड़ीका स्नान देवताओंके लिये भी दुर्लभ हैं । सती ! पृथ्वीपर जितने तीर्थ तथा जितनी पुण्यपुरियाँ हैं, वे मकर राशिपर सूर्यके रहते हुए माघ मासमें वेणीमें स्नान करनेके लिये आती हैं । शुभे ! ब्रह्मपुत्री मोहिनी ! ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, रुद्र, आदित्य, मरुदूण, गन्धर्व, लोकपाल, यक्ष, किन्नर, गुहयक, अणिमादि गुणोंसे युक्त अन्यान्य तत्वदर्शी पुरुष, ब्रह्माणी, पार्वती, लक्ष्मी, शची, मेधा, अदिति, रति, समस्त देवपत्नियाँ, नागपत्नियों तथा समस्त पितृगण- ये सब-के-सब माघ मासमें त्रिवेणी-स्नानके लिये आते हैं । सत्ययुगमें तो उक्त सभी तीर्थ प्रत्यक्षरूप धारण करके आते थे, किंत कलियुगमें वे छिपे रूपसे आते हैं । पापियोंके संगदोषसे काले पड़े हुए सम्पूर्ण तीर्थ प्रयागमें माघ मासमें स्नान करनेसे श्वेत वर्णके हो जाते हैं ।

मकरस्थे रवौ माघे गोविन्दाच्युत माधव ॥

स्नानेनानेन मे देव यथोक्तफलदो भव।

( ना० उत्तर० ६३। १३-१४ )

     ‘ गोविन्द ! अच्युत ! माधव ! देव ! मकर राशिपर सूर्यके रहते हुए माघ मासमें त्रिवेणीके जलमें किये हुए मेरे इस स्नानसे संतुष्ट हो आप शास्त्रोक्त फल देनेवाले हों ।’

   -इस मन्त्रका उच्चारण करके मौनभावसे स्नान करे । ‘ वासुदेव, हरि, कृष्ण और माधव ‘ आदि नामोंका बार-बार स्मरण करे । मनुष्य अपने घरपर गरम जलसे साठ वर्षोतक जो स्त्रान करता है, उसके समान फलकी प्राप्ति सूर्यके मकर राशिपर रहते समय एक बारके स्नानसे हो जाती है । बाहर बावड़ी आदिमें किया हुआ स्नान बारह वर्षोके स्नानका फल देनेवाला है । पोखरेमें स्नान करनेपर उससे दूना और नदी आदिमें स्नान करनेपर चौगुना फल प्राप्त होता है । देवकुण्डमें वही फल दसगुना और महानदीमें सौगुना है । दो महानदियोंके संगममें स्नान करनेपर चार सौ गुने फलकी प्राप्ति होती है; किंतु सूर्यके मकर राशिपर रहते समय प्रयागकी गंगामें स्नान करनेमात्रसे वह सारा फल सहस्रगुना होकर मिलता है―ऐसा बताया गया है । इस प्रयाग तीर्थकों पूर्वकालमें ब्रह्माजीने प्रकट किया था । जिसके गर्भमे सरस्वती छिपी हैं, वह श्वेत और श्याम जलकी धारा ब्रह्मलोकमें जानेका मार्ग है । हिमालयकी घाटियोंमें जो तीर्थ हैं; उनमें माघ मासका स्नान सब पापोंका नाश करनेवाला है । सब मासोंमें उत्तम माघ मास यदि बदरीवनमें प्राप्त हो तो वह मोक्ष देनेवाला है । नर्मदाके जलमें माघका स्नान पापनाशक, दुःखहारी, सम्पूर्ण मनोवांछित फलोंका दाता तथा रुद्रलोककी प्राप्ति करानेवाला कहा गया है । सरस्वती जलमें वह सब पापराशियोंका नाशक तथा सम्पूर्ण लोकोंके सुखोंकी प्राप्ति करानेवाला बताया गया है । गंगाका जल यदि माघ मासमें सुलभ हो तो वह पापरूपी ईंधनको जलानेके लिये दावानल, गर्भवासके कष्टका नाश करनेवाला तथा विष्णुलोक एवं मोक्षकी प्राप्ति करानेवाला बताया गया है ।

   सरयू, गण्डकी, सिन्धु, चन्द्रभागा, कौशिकी, तापी, गोदावरी, भीमा, पयोष्णी, कृष्णवेणी, कावेरी, तुड्गभद्रा तथा अन्य जो समुद्रगामिनी नदियाँ हैं, उनमें स्रान करनेवाला मनुष्य पापरहित हो स्वर्गलोकमें जाता है । नैमिषारण्यमें माघ-स्नान करनेसे भगवान्‌ विष्णुका सारूप्य प्राप्त होता है । पुष्करमें नहानेसे ब्रह्माका सामीप्य मिलता है । विधिनन्दिनी ! गोमतीमें माघ नहानेसे फिर जन्म नहीं होता । हेमकूट, महाकाल, ऊँकार, नीलकण्ठ तथा अर्बुद तीर्थमें माघ मासका स्नान रुद्रलोककी प्राप्ति करानेवाला माना गया है । देवि ! सूर्यके मकर राशिपर रहते समय सम्पूर्ण सरिताओंके संगममें माघ-स्नान करनेसे सम्पूर्ण कामनाओंकी प्राप्ति होती है । स्वर्गवासी देवता सदा यह गाया करते हैं कि ‘ क्या प्रयागमें कभी माघ मास हमें मिलेगा, जहाँ स्रान करनेवाले मानव फिर कभी गर्भकी वेदनाका अनुभव नहीं करते और भगवान्‌ विष्णुके समीप स्थित होते हैं ।’ जल और वायु पीकर रहने, पत्ते चबाने, देह सुखाने, दीर्घकालतक घोर तपस्या करने और योग साधनेसे मनुष्य जिस गतिको प्राप्त होते हैं, उसे प्रयागके स्नानमात्रसे ही पा लेते हैं । प्रयागमण्डलका विस्तार पाँच योजन है । सुभगे ! वहाँ तीन कुण्ड हैं । उनके बीचमें गंगा हैं । प्रयागमें प्रवेश करनेमात्रसे पापोंका तत्काल नाश हो जाता है । जो पवित्र है, वह मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर, हिंसासे दूर हो यदि श्रद्धापूर्वक स्नान करता है तो पापमुक्त होता और परम पदको प्राप्त करता है । नैमिष, पुष्कर, गोतीर्थ, सिन्धुसागरसंगम, गया, धेनुक और गंगासागरसंगम―ये तथा और भी जो बहुत-से पुण्यमय पर्वत हैं, वे सब मिलकर तीन करोड़ दस हजार तीर्थ प्रयागमें विद्यमान हैं । सूर्यपुत्री यमुनादेवी तीनों लोकोंमें विख्यात हैं । वे लोकपावनी यमुना प्रयागमें गंगासे मिली हैं । गंगा और यमुनाके बीचका भू-भाग पृथ्वीपर सर्वोत्तम माना गया है । सुन्दरी ! तीनों लोकोंमें प्रयागसे बढ़कर परम पवित्र तीर्थ नहीं है । प्रयाग परम पद-स्वरूप है । उसका दर्शन करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं ।

   अत: सम्पूर्ण देवताओंसे सुरक्षित प्रयागतीर्थमें जाकर जो ब्रह्मचर्यका पालन तथा देवता और पितरोंका तर्पण करते हुए एक मासतक वहाँ निवास करता है, वह जहाँ-कहीं भी रहकर सम्पूर्ण मनोवांछित कामनाओंको प्राप्त कर लेता है । गंगा और यमुनाका संगम सम्पूर्ण लोकोंमें विख्यात है । वहाँ शक्तिपूर्वक स्नान करनेसे जिसके-जिसके मनमें जो-जो कामना होती है। उसकी वह कामना अवश्य पूर्ण हो जाती है । हरिद्वार, प्रयाग और गंगासागरसंगममें स्नान करनेमात्रसे मनुष्य अपनी रुचिके अनुसार ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवके धाममें चला जाता है । सुलोचने ! माघ मासमें सितासितसंगमके जलमें जो स्नान किया जाता है, वह सौ कोटि कल्पोंमें भी कभी पुनरावृत्तिका अवसर नहीं देता । जो सत्यवादी तथा क्रोधको जीतनेवाला है, जो उच्चकोटिकी अहिंसाका आश्रय ले चुका है, जो धर्मका अनुसरण करनेवाला, तत्त्वज्ञ, गौ-ब्राह्मणके हितमें तत्पर रहनेवाला है तथा गंगा-यमुनाके संगममें स्नान करनेवाला है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है।

   वहाँ प्रतिष्ठानपुर ( झूँसी )- में एक अत्यन्त विख्यात कूप है । वहाँ मनको संयममें रखकर स्नान करनेके पश्चात्‌ देवताओं और पितरोंका तर्पण करे और ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए क्रोधको जीते । इस प्रकार जो तीन रात वहाँ निवास करता है, वह सब पापोंसे शुद्धचित्त हो अश्वमेध-यज्ञका फल पाता है । प्रतिष्ठानसे उत्तर और भागीरथीसे पूर्व ‘ हंस-प्रतपन ‘ नामक लोकविख्यात तीर्थ है । वहाँ स्नान करनेमात्रसे अश्वमेध-यज्ञका फल प्राप्त होता है और जबतक चन्द्रमा और सूर्य रहते हैं, तबतक वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है । तदनन्तर वासुकिनागसे उत्तर भोगवतीके पास जाकर दशाश्वमेधतीर्थ है । वह परम उत्तम माना गया है । वहाँ स्नान करके मनुष्य अश्वमेध-यज्ञका फल पाता है और इहलोकमें धनाद्य, रूपवान्‌, दक्ष, दाता एवं धार्मिक होता है । चारों वेदोंका स्वाध्याय करनेवाले पुरुषोंको जो पुण्य प्राप्त होता है, सत्यवादियोंको जो फल मिलता है और अहिंसाके पालनसे जो धर्म होता है, उन सबका फल दशाश्वमेधतीर्थमें जानेमात्रसे मिल जाता है । पायतीके उत्तर और प्रयागके दक्षिण तटपर ‘ ऋणमोचन ‘ नामक तीर्थ है, जो परम उत्तम माना गया है । वहाँ स्नान करके एक रात रहनेसे मनुष्य सब ऋणोंसे मुक्त हो जाता है और देवता होकर स्वर्गलोकमें जाता है ।

   प्रयागमें सुण्डन करावे, गयामें पिण्डदान करें कुरुक्षेत्रमें दान दे और काशीमें शरीरका त्याग करे । मनुष्योंके सब पाप केशोंकी जड़का आश्रय लेकर टिके रहते हैं, अत: तीर्थमें स्नान करनेके पहले उन सबका वहाँ मुण्डन करा दे । यदि पौष और माघके महीनेमें श्रवण नक्षत्र, व्यतीपात तथा रविवारसे युक्त अमावास्या तिथि हो तो उसे ‘ अर्धोदय ‘ पर्व समझना चाहिये । इसका महत्त्व सौ सूर्यग्रहणोंसे भी अधिक है । विधिनन्दिनी ! इसमें कुछ कमी हो तो ‘ महोदय ‘ पर्व माना गया है । यदि प्रयागतीर्थमें अरुणोदयके समय माघ शुक्ला सप्तमी प्राप्त हो तो वह एक हजार सूर्यग्रहणोंके समान है । यदि अयनारम्भके दिन प्रयागका स्नान मिले तो कोटिगुना पुण्य होता है और विषुव योगमें लाखगुने फलकी प्राप्ति होती है । षडशीति तथा विष्णुपदीमें सहस्त्रगुना पुण्य प्राप्त होता है । अपने वैभव-विस्तारके अनुसार सबको प्रयागमें दान करना चाहिये । विधिनन्दिनी ! इससे तीर्थका फल बढ़ता है । भद्रे ! जो गंगा और यमुनाके बीचमें सुवर्ण, मणि, मोती या दूसरा कोई प्रतिग्रह देता है एवं जो वहां लाल या कपिल वर्णकी ऐसी गौ देता है, जिसकी सींग सोना, खुरोंमें चाँदी, गलेमें जो वस्त्र हो, जो दूध देती हो और बछड़ा उसके साथ हो; शुक्ल वस्त्र धारण करनेवाले, शांत, धर्मज्ञ, वेदज्ञ एवं श्रोत्रिय ब्राह्मणको विधिपूर्वक जो पूर्वोक्त गौ देकर स्वीकार कराता है तथा उसके साथ बहुमूल्य वस्त्र और नाना प्रकारके रत्न भी देता है; उस गौ तथा बछड़ेके शरीरमें जितने रोमकूप होते हैं, उतने सहस्त्र वर्षोतक वह दाता प्रतिष्ठित होता है । उस दानकर्मसे दाता लोग कभी नरकका दर्शन नहीं करते । सामान्य लाखों गौओंकी अपेक्षा एक ही दूध देनेवाली गौ दान करे वह एक ही गौ स्त्री-पुत्र तथा भृत्यवर्गका उद्धार कर देती है । इसलिये सब दानोंमें गोदानका महत्त्व अधिक है । दुर्गम स्थानमें, विषम परिस्थितिमें तथा घोर संकटके समय अथवा महापातकों के संक्रमणकालमें गौ ही मनुष्यकी रक्षा करती है अतः श्रेष्ठ ब्राह्मणको गौ देनी चाहिये ।

   तीर्थमें तथा पुण्यमय देवमन्दिरोंमें दान नहीं लेना चाहिये । ब्राह्मणको चाहिये कि वह सभी निमित्तोंमें सावधान रहे । अपने कामके लिये, पितरोंके श्राद्धके लिये अथवा देवताके पूजनके लिये भी किसीसे कुछ दान न ले । जबतक वह दूसरेके धनका उपभोग या ग्रहण करता है, तबतक उसका तीर्थसेवन व्यर्थ होता है । जो गंगा और यमुनाके संगमपर कन्यादान करता है, वह उस पुण्यकर्मके प्रभावसे कभी भयंकर नरकका दर्शन नहीं करता । प्रयाग-प्रतिष्ठानसे लेकर वासुकि-नागके तालाबसे आगेतक ‘ कम्बल ‘ और ‘ अश्वतर ‘ नामक जो दोनों नाग हैं, वहाँसे बहुमूलक नागतकका जो भूभाग है, यही प्रजापतिक्षेत्र है, जो तीनों लोकोंमें विख्यात है । इस क्षेत्रमें जो स्नान करते हैं, वे स्वर्गमें जाते हैं और मर जाते हैं, उनका फिर जन्म नहीं होता । सन्मार्गमें स्थित बुद्धिमान योगीको जो गति प्राप्त होती है, वही गंगा-यमुनाके संगममें प्राणत्याग करनेवालेको भी मिलती है ।

   प्रयागके दक्षिण यमुना-तटपर विख्यात अग्नितीर्थ है । पश्चिममे धर्मराजतीर्थ है । वहाँ जो स्नान करते हैं, वे स्वर्गमें जाते हैं और जो मरते हैं, उनका फिर संसारमें जन्म नहीं होता । मोहिनी ! यमुनाके उत्तर तटपर बहुत-से पापनाशक तीर्थ हैं, जो बड़े-बड़े मुनीश्रोंसे सेवित हैं, उनमें स्नान करनेवाले स्वर्ग-लोकको जाते हैं और जो मर जाते हैं, उनका मोक्ष हो जाता है । गंगा और यमुना दोनोंका पुण्यफल एक समान है । केवल जेठी होनेसे गंगा सर्वत्र पूजी जाती हैं ।

अध्याय १५६ कुरुक्षेत्रका माहात्म्य

मोहिनी बोलीपुरोहितजी ! आप बड़े कृपालु और धर्मज्ञ हैं । आपको बहुत-से विषयोंका ज्ञान है । आपने मुझे तीर्थराज प्रयागका माहात्म्य बताया है । समस्त मुख्य तीर्थोंमें जो शुभकारक कुरुक्षेत्र है, वह सम्पूर्ण लोकोंमें परम पवित्र है, अत: आप उसीका मुझसे वर्णन कीजिये ।

   पुरोहित वसुने कहामोहिनी ! सुनो; मैं उत्तम पुण्य देनेवाले कुरुक्षेत्रका वर्णन करता हूँ, जहाँ जाकर स्नान करनेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । कुरुक्षेत्रमें मुनीश्वरोंद्वारा सेवित अनेक तीर्थ हैं । उन सबका मैं तुम्हें परिचय देता हूँ । वे श्रोताओंको भी मोक्ष देनेवाले हैं । ब्रहमज्ञान, गयाश्राद्ध, गायको संकटसे बचाते समय मृत्युको प्राप्त होना और कुरुक्षेत्रमें निवास करना-इन चारों साधनोंसे मोक्ष प्राप्त होता है । सरस्वती और दृषद्वती―इन दोनों देवनदियोंके बीचका जो देश है, उसे देवसेवित ‘ ब्रह्मावर्त ‘ ( कुरुक्षेत्र ) कहते हैं । जो दूर रहकर भी ‘ मैं कुरुक्षेत्रमें जाऊंगा और वहीं निवास करूंगा ‘, इस प्रकार सदा कहा करता है, वह भी पापोंसे मुक्त हो जाता है । जो धीर पुरुष वहाँ सरस्वतीके तटपर निवास करेगा, उसे निसंदेह ब्रहमज्ञान प्राप्त होगा । देवी ! देवता महर्षि और सिद्धगण कुरुक्षेत्रका सेवन करते हैं; उसके सेवनसे मनुष्य अपने-आपमें ही ब्रह्म का साक्षात्कार करता है ।

   पहले स्थान पर पुण्य में ब्रह्मसरोवर प्रकट हुआ । तत्पश्चात्‌ वहां परशुरामकुण्ड हुआ और उसके बाद वह कुरुक्षेत्रके नामसे प्रसिद्ध हुआ । पूर्वकालमें ब्रह्माजीने जिसका निर्माण किया था, वह सरोवर आज भी वहाँ स्थित है । तदनन्तर जो यह ब्रह्मवेदी है, वह उसकी बाह्यदिशामें स्थित है । मुनिवर मार्कण्डेयने जहाँ उत्तम तपस्या की, वहाँ प्लक्ष ( पाकरके वृक्ष )- से प्रकट होकर सरस्वती नदी आयी है । धर्मात्मा मुनिने सरस्वतीका पूजन करके उनकी स्तुति की । वहाँ उनके समीप जो तालाब था, उसको अपने जलसे भरकर सरस्वती नदी पश्चिम दिशाकी ओर चली गयीं । तदनन्तर राजा कुरुने आकर चारों ओरसे उस क्षेत्रको हलसे जोता । उसका विस्तार पाँच योजनका था । वह दया, सत्य और क्षमा आदि गुणोंका उद्गम है तभीसे समन्त पञ्चक नामक क्षेत्रको कुरुक्षेत्र कह जाने लगा । देवि ! यहाँ स्नान करनेवाले मान अक्षय पुण्य लाभ करते हैं और वहाँ मरे हुए लोग विमानपर बैठकर ब्रह्मलोकमें जाते हैं कुरक्षेत्रं उपवास, दान, होम, जप और देवपूजन-ये सब अक्षयभावको प्राप्त होते हैं । कुरुक्षेत्र ब्रह्मवेदीमें मरे हुए मनुष्य फिर इस संसारमें जन्म नहीं लेते । मोहिनी ! जो कुरुक्षेत्रके वनों तीर्थों और सरिताओंकी पुण्यदायिनी यात्रा करता है, उसके लिए इहलोक और परलोकमें भी कोई कमी नहीं रहती ।

अध्याय १५७ कुरुक्षेत्रके वन, नदी और विभिन्न— विभिन्न तीर्थोंका माहात्म्य तथा यात्राविधिका क्रमिक वर्णन

मोहिनीने पूछा- विप्रवर ! कुरुक्षेत्रें कौन-कौन-से वन हैं और कौन-सी शुभकारक सरिताएँ हैं ? सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाली कुरुक्षेत्र-यात्राकी विधि मुझे क्रमसे बताइये । अत्यन्त पुण्यदायक कुरक्षेत्रें जो-जो तीर्थ हैं, उन सबका मुझसे वर्णन कीजिये ।

   पुरोहित वसु बोले- मोहिनी ! पवित्र काम्यकवन, महान्‌ अदितिवन, पुण्यदायक व्यासवन, फलकीवन, सुर्यवन, पुण्यमय मधुवन तथा सुविख्यात सीतावन-कुरक्षेत्रें ये सात वन हैं और उन वनोंमें अनेक तीर्थ हैं । पुण्यसलिला सरस्वती नदी, वैतरणी नदी, पुण्यमयी मन्दाकिनी गंगा, मधु्रवा, दृषद्वती, कौशिकी तथा पुण्यमयी हैरण्वती नदी- इनमें सरस्वती नदीकों छोड़कर शेष सब नदियाँ केवल वर्षाकालमें बहनेवाली हैं । इनका जल स्पर्श करने, पीने एवं नहानेके लिये सदा पवित्र माना गया है । पुण्यक्षेत्रके प्रभावसे इनमें रजस्वलापनका दोष नहीं आता । पहले महाबली द्वारपाल रन्तुकके समीप जाकर यक्षकों प्रणाम करके वहाँकी यात्रा लक्षणोंसे युक्त और महान्‌ शूरवीर पुत्रको जन्म देती है । वरारोहे ! वहाँसे भगवान्‌ विष्णुके परम उत्तम विमल नामसे विख्यात तीर्थस्थानको जाय, जहाँ भगवान्‌ श्रीहरि सदा विद्यमान रहते हैं । जो मनुष्य विमलतीर्थमें स्नान करके भगवान्‌ विमलेश्वरका दर्शन करता है, वह विमल होकर देवाधिदेव चक्रधारी भगवान्‌ विष्णुके लोकको प्राप्त कर लेता है । मोहिनी ! वहाँ भगवान्‌ श्रीहरि और बलदेवजीकों एक आसनपर बैठे देखकर मनुष्य सब पा्पोंसे तत्काल मुक्त हो जाता है ।

   फिर वहाँके लोकविख्यात पारिप्लतीर्थमें जाय; वहाँ स्नान और जलपान करके जो वेदोंके पारज्त विद्वान्‌ ब्राह्मणकों दक्षिणा आदिसे संतुष्ट करता है, वह ब्रह्मयज्ञका फल पाता है । भद्रे ! जहाँ कौशिकी नदीका पापनाशक संगम है, वहाँ भक्तिपूर्वक स्नान करके मनुष्य प्रियजनोंका संग पाता है । महाभागे ! तदनन्तर क्षमाशील मनुष्य पृथ्वीतीर्थमें जाकर भक्तिपूर्वक स्रान करे तो वह उत्तम गतिको पाता है । पुरुषके द्वारा इस पृथ्वीपर जितने अपराध किये गये हैं, उन सबको देहधारी जीवके वहाँ स्नान करनेपर पृथ्वीदेवी क्षमा कर देती हैं । तत्पश्चात्‌ परम पुण्यमय दक्षके आश्रममें दक्षेश्वर शिवका दर्शन करनेसे मनुष्यको अश्वमेध-यज्ञका फल प्राप्त होता है । उसके वाद शालकिनीतीर्थमें जाय और वहाँ अपने मनोरथकी सिद्धिके लिये भगवान्‌ शिवसे संयुक्त हुए श्रीहरिका पूजन करे । तत्पश्चात्‌ विधिको जाननेवाला पुरुष नागतीर्थमें जाकर स्नान करे और वहाँ घी तथा दही खाकर नागोंसे अभय प्राप्त कर । उसके बाद त्रिभुवनविख्यात पञ्चनदतीर्थकों जाय । वहाँ भगवान्‌ शंकरने असुरोंको डरानेवाले पाँच सिंहनाद किये थे; इससे वह सम्पूर्ण पातकोंका नाश करनेवाला तीर्थ ‘ पंचनद ‘ नामसे विख्यात हुआ । वहाँ स्नान और दानसे मनुष्य निर्भय हो जाता है । मोहिनी ! तत्पश्चात्‌ कोटि-तीर्थमें जाय, जहाँ महात्मा रुद्रने कोटि तीथोंको लाकर स्थापित किया था । उस तीर्थमें स्नान और कोटीश्वर शिवका दर्शन करके मनुष्य तभीसे पंचयज्ञजनित पुण्यका सदैव लाभ करता रहता है । वहीं सम्पूर्ण देवताओंने भगवान्‌ वामनकी भी स्थापना की है । अत: उनका पूजन करके मानव अग्निष्टोम-यज्ञका फल पा लेता है । वहाँसे अश्वितीर्थमें जाकर श्रद्धालु एवं जितेन्द्रिय पुरुष वहाँ स्नान करे । इससे वह यशस्वी तथा रूपवान्‌ होता है । वहाँसे भगवान्‌ विष्णुद्वारा निर्मित वाराहतीर्थमें जाकर श्रद्धापूर्वक डुबकी लगानेवाला मनुष्य उत्तम गतिको पाता है । वरानने ! वहाँसे सोमतीर्थमें जाय, जहाँ सोम तपस्या करके नीरोग हुए थे । वहाँ स्नान करना चाहिये । उस तीर्थमें एक गोदान करके मनुष्य राजसूय यज्ञका फल पाता है । वहीं भूतेश्वर, ज्वालामालेश्वर तथा ताण्डेश्वर शिव-लिंग हैं । उनकी पूजा करके मनुष्य फिर संसारमें जन्म नहीं लेता । एकहंस तीर्थमें स्नान करके मनुष्य सहस्र गोदानका फल पाता है और कृतशौचतीर्थमें स्नान करनेपर उसे पुण्डरीक-यज्ञका फल प्राप्त होता है । तदनन्तर भगवान्‌ शिवके मुंचवट नामक तीर्थमें जाकर वहाँ एक रात निवास करे । फिर दूसरे दिन भगवान्‌ शिवकी पूजा करके वह उनके गणोंका अधिपति होता है । तदनन्तर उस तीर्थमें परिक्रमा करके पुष्करतीर्थमें जाय । वहाँ स्नान और पितरोंका पूजन करके मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है । तदनन्तर रामहदकों जाय और वहाँ विधिपूर्वक स्नान करके देवताओं,ऋषियों तथा पितरोंका पूजन ( तर्पण ) आदि करे । इससे वह भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त कर लेता है । जो उत्तम श्रद्धापूर्वक परशुरामजीकी पूजा करके वहाँ सुवर्ण-दान करता है, वह धनी होता है । वंशमूलतीर्थमें जाकर स्नान करनेसे तीर्थयात्री अपने वंशका उद्धार करता है और कायशोधन-तीर्थमें स्नान करके शुद्धशरीर हो श्रीहरिमें प्रवेश करता है ।

   तत्पश्चात्‌ लोकोद्धारतीर्थमें जाकर वहाँ स्नान करके भगवान्‌ जनार्दनका पूजन करे । ऐसा करनेवाला पुरुष उस शाश्वत लोकको प्राप्त होता है, जहाँ सनातन भगवान्‌ विष्णु विराजमान हैं । वहाँसे श्रीतीर्थ एवं परम उत्तम शालग्रामतीर्थमें जाकर, जो वहाँ स्नान करके श्रीहरिका पूजन करता है, वह प्रतिदिन भगवान्‌को अपने समीप विद्यमान देखता है । कपिलाहदतीर्थमें जाकर वहाँ स्नान और देवता, पितरोंका पूजन करके मनुष्य सहस्र कपिलादानका पुण्य पाता है । भद्रे ! वहाँ जगदीश्वर कपिलका विधिपूर्वक पूजन करके मनुष्य देवताओंके द्वारा सत्कृत हो साक्षात्‌ भगवान्‌ शिवका पद प्राप्त कर लेता है । तदनन्तर सूर्यतीर्थमें जाकर उपवासपूर्वक भगवान्‌ सूर्यका पूजन करे । इससे यात्री अग्निष्टोम यज्ञका फल पाकर स्वर्गलोकमें जाता है । पृथ्वीके विवरद्वारपर साक्षात्‌ गणेशजी विराजमान हैं । उनका दर्शन और पूजन करके मनुष्य यज्ञानुष्ठानका फल पाता है । देवीतीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्यको उत्तम रूपकी प्राप्ति होती है और ब्रह्मावर्तमें स्नान करके वह ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेता है । सुतीर्थमें स्नान करके देवताओं, ऋषियों, पितरों तथा मनुष्योंका पूजन करनेपर मानव अश्वमेध-यज्ञका फल पाता है । कामे धरतीर्थमें श्रद्धापूर्वक स्रान करके सब व्याधियोंसे मुक्त पुरुष शाश्वत ब्रह्मको प्राप्त कर लेता है । देवि ! मातृतीर्थमें श्रद्धापूर्वक स्नान और पूजन करनेवाले पुरुषके घर सात पीढ़ियोंतक उत्तम लक्ष्मी बढ़ती रहती है । शुभे ! तदनन्तर सीतावन नामक महान्‌ तीर्थमें जाय । वहाँ अपना केश मुँड़ाकर मनुष्य पापसे शुद्ध हो जाता है । वहीं तीनों लोकोंमें विख्यात दशाश्वमेध नामक तीर्थ है, जिसके दर्शनमात्रसे मानव पापमुक्त हो जाता है ।

   विधिनन्दिनी ! यदि पुन: मनुष्य-जन्म पानेकी इच्छा हो तो मानुषतीर्थमें जाकर स्नान करना चाहिये । मानुषतीर्थसे एक कोसकी दूरीपर आपगा नामसे विख्यात एक महानदी है । वहाँ विधिपूर्वक स्नान करके श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको सावाँके चावलकी खीर भोजन करावे । ऐसा करनेवाले पुरुषके पापोंका नाश हो जाता है और वहाँ श्राद्ध करनेसे पितरोंकी सद्गति होती है । मासके कुष्णपक्षमें, जिसे ‘  पितृपक्ष ‘ एवं ‘ महालय ‘  भी कहते हैं, चतुर्दशीको मध्याह्ममें आपगाके तटपर पिण्डदान करनेवाला मनुष्य मोक्ष पाता है ।

   वहाँसे ब्रह्माजीके स्थान ब्राह्मोदुम्बरकतीर्थमें जाय । वहाँ ब्रह्मर्षियोंके कुण्डोंमें स्नान करके मनुष्य सोमयागका फल पाता है । वृद्धकेदारकतीर्थमें दण्डीसहित स्थाणुकी पूजा करके कलशीतीर्थमें जाय, जहाँ साक्षात्‌ अम्बिकादेवी विराजमान हैं । वहाँ स्नान करके अम्बिकाजीकी पूजा करनेसे मानव भवसागरके पार हो जाता है । सरकतीर्थमे कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको भगवान्‌ महेश्वरका दर्शन करके श्रद्धालु मनुष्य शिवधाममें जाता है । भामिनि ! सरकमें तीन करोड़ तीर्थ हैं । सरोवरके मध्यमें जो कूप है, उसमें कोटि रुद्रका निवास है । जो मानव उस सरोवरमें स्नान करके उन कोटि रुद्रोका स्मरण करता है, उसके द्वारा वे करोड़ों रुद्र पूजित होते हैं । वहीं ईहास्पद नामक तीर्थ है, जो सब पापोंका नाश करनेवाला है । उस तीर्थमें जाकर उसके दर्शनमात्रसे मानव मोक्ष प्राप्त कर लेता है । वहाँके देवताओं और पितरोंका पूजन करके वह कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता और मनचाही वस्तुओंको प्राप्त कर लेता है । केदार नामक महातीर्थ मनुष्यके सब पापोंका नाश कर देता है । वहाँ स्नान करके पुरुष सब दानोंका फल पाता है । सरकसे पूर्व दिशामें अन्यजन्म नामसे विख्यात तथा स्वच्छ जलसे भरा हुआ एक सरोवर है, जहाँ भगवान्‌ विष्णु और शिव दोनों स्थित हैं । भगवान्‌ विष्णु तो वहाँ चतुर्भुजरूपसे विराजमान हैं और भगवान्‌ शिव लिंग रूपमें स्थित हैं । वहाँ स्नान करके उन दोनोंका दर्शन और स्तवन करनेपर मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है । तदनन्तर नागहदमें जाकर स्नान करे । वहाँ चैत्र शुक्ला पूर्णिमाको श्रद्धाका दान करनेवाला पुरुष यमलोक नहीं देखता । उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है । तत्पश्चात्‌ देवसेवित त्रिविष्टपतीर्थमें जाय, जहाँ सब पापोंसे मुक्त करनेवाली वैतरणी नामकी पवित्र नदी है । उसमें स्नान करके शूलपाणि भगवान्‌ वृषध्वजका पूजन करनेपर सब पापोंसे शुद्धचित्त हो मनुष्य परम गति प्राप्त कर लेता है । रसावर्ततीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्यको परम उत्तम सिद्धि प्राप्त होती है । चैत्र मासके शुक्लपक्षकी चतुर्दशीको विलेपकतीर्थमें स्नान करके जो भक्ति-भावसे भगवान्‌ शिवकी पूजा करता है, वह सब पापोंसे छूट जाता है ।

   देवि ! तत्पश्चात्‌ मनुष्य परम उत्तम फलकीवनमें जाय, जहाँ देवता और गन्धर्व बड़ी भारी तपस्या करते हैं । वहाँ दृषद्वती नदीमें विधिपूर्वक स्नान करके मनुष्य देवताओं और पितरोंका तर्पण करनेपर अग्रिष्टोम और अतिरात्र यज्ञका फल पाता है । जो वहाँ अमावास्या तथा पूर्णिमाकों श्राद्ध करता है, उसे गयाश्राद्धके समान उत्तम फल प्राप्त होता है । श्राद्धमें फलकीवनके स्मरणका फल पितरोंको तृप्ति देनेवाला है । तदनन्तर पाणिघाततीर्थमें पितरोंका तर्पण करके मानव राजसूय-यज्ञका फल पाता और सांख्य एवं योगीको भी प्राप्त कर लेता है । तत्पश्चात्‌ मिश्रकतीर्थमें विधिपूर्वक स्नान करके मनुष्य सम्पूर्ण तीर्थोंके फलका भागी होता और उत्तम गति पाता है । वहाँसे व्यासवनमें जाकर जो मनोजवतीर्थमें स्नान और मनीषी प्रभुका दर्शन करता है, वह मनचाही वस्तु प्राप्त कर लेता है । तदनन्तर मधुवनमें जाकर देवीतीर्थमें स्नान करके शुद्ध हुआ मनुष्य देवताओं तथा ऋषियोंकी पूजा करके उत्तम सिद्धि ( मोक्ष ) प्राप्त कर लेता है । कौशिकी-संगमतीर्थमें जाकर दृषद्वती नदीमें स्नान करनेवाला पुरुष यदि नियमित आहार करके नियमपूर्वक रहे तो सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । वहाँसे व्यासस्थलीकों जाय, वहाँ जानेसे मनुष्य शोकका भागी नहीं होता । किन्दुशू कूपमें जाकर वहाँ सेरभर तिल दान करके मानव परम सिद्धि प्राप्त करता है और मरनेपर मुक्त हो जाता है । आह्न और मुदित-ये दो तीर्थ भूतलपर विख्यात हैं । इनमें स्नान करके शुद्धचित्त हुआ मानव सूर्यलोकको प्राप्त कर लेता है । तदनन्तर मृगमुच्यतीर्थमें जाकर जो गंगाको प्रणाम करके स्थित होता है, वह महादेवजीका पूजन करके अश्वमेध-यज्ञका फल पाता है । इसके बाद तीनों लोकोंमें विख्यात वामनतीर्थमें जाय, जहाँ बलिके यज्ञमें उनके राज्यको हर लेनेकी इच्छासे भगवान्‌ वामनका प्रादुर्भाव हुआ था । वहाँ विष्णुपदमें स्नान और वामनजीका पूजन करके सब पापोंसे शुद्धचित्त हुआ मनुष्य भगवान्‌ विष्णुके लोकमें प्रतिष्ठित होता है । वहीं सब पातकोंका नाश करनेवाला ज्येष्ठाश्रमतीर्थ है । ज्येष्ठ शुक्ला एकादशीको उपवास करके दूसरे दिन द्वादशीको वहाँ विधिपूर्वक स्नान करनेवाला पुरुष मनुष्यों में श्रेष्ठता प्राप्त कर लेता है । देवि ! उस तीर्थमें किया हुआ श्राद्ध पितरोंको अत्यन्त संतोष देनेवाला होता है । वहीं सूर्यतीर्थ है, उसमें स्नान करके मानव सूर्यलोकका भागी होता है । कुलोत्तारणतीर्थमें जाकर स्नान करनेवाला पुरुष अपने कुलका उद्धार करके कल्पपर्यन्त स्वर्गलोकमें निवास करता हैं । पवनकुण्डमें स्नान करके भगवान्‌ महेश्वरका दर्शन करनेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो भगवान्‌ शिवके धाममें जाता है । हनुमततीर्थमें स्नान करके मानव मोक्ष प्राप्त कर लेता है । राजर्षि शालहोत्रके तीर्थमें स्नान करनेसे सब पाप दूर हो जाते हैं । सरस्वतीके श्रीकुम्भ नामक तीर्थमें स्नान करके यज्ञका भागी होता है । नैमिषकुण्डमें स्नान करनेसे नैमिषारण्यमें स्नानका पुण्य प्राप्त होता है । वदवतीतीर्थमें स्नान करके नारी सतीधर्मके पालनका पुण्य प्राप्त कर लेती है । ब्रह्मती में स्नान करनेसे मनुष्य ब्राह्मणत्व प्राप्त करता है और ब्रह्माजीके उस परम धाममें जाता है, जहाँ जाकर कोई शोक नहीं करता । सोमतीर्थमें स्नान करके मनुष्य स्वर्गीय गति प्राप्त कर लेता है । सप्तसारस्वततीर्थमें जाकर स्नान करनेवाला मनुष्य मोक्षका भागी होता है । सप्तसारस्वततीर्थ वह स्थान है, जहाँ सातों सरस्वतीकी धाराओंका भलीभाँति संगम हुआ है । उन सबके नाम इस प्रकार हैं- सुप्रभा, काश्चनाक्षी, विशालाक्षी, मनोहरी, सुनन्दा, सुवेणु तथा सातवीं विमलोदका । उसी प्रकार औशनसतीर्थमें स्नान करके मनुष्य सब पापोंसे छूट जाता है । कपालमोचनमें स्नान करके ब्रह्महत्यारा भी शुद्ध हो जाता है । विश्वामित्र-तीर्थमें स्नान करनेवाला मानव ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लेता है । तदनन्तर पृथूदकतीर्थमें स्नान करके तीर्थसेवी पुरुष भवबन्धनसे मुक्त हो जाता है और अवकौर्णमें स्नान करनेसे उसे ब्रह्मचर्यका फल मिलता है । जो मधुस्रावमें जाकर स्नान करता हैं, वह पातकोंसे मुक्त हो जाता है । वसिष्ठतीर्थमें स्नान करनेसे वसिष्ठ-लोककी प्राप्ति होती है । अरुणा-संगममें स्नान करके तीन रात उपवास करनेवाला मनुष्य पुनः स्नान करके मोक्षका भागी होता है ।

   मोहिनी ! वहाँ दूसरा सोमतीर्थ है । उसमें स्नान करके चैत्र शुक्ला षष्ठीकों श्राद्ध करनेवाला पुरुष अपने पितरोंका उद्धार कर देता है । पश्चवटमें स्नान करके योगमुर्तिधारी भगवान्‌ शिवकी विधिपूर्वक पूजा करनेसे मानव देवताओंके साथ आनन्दका भागी होता है । कुरुतीर्थमें स्नान करनेवाला मनुष्य सम्पूर्ण सिद्धियोंकों पा लेता है । स्वर्गद्वारमें गोता लगानेवाला मानव स्वर्गलोकमें पूजित होता है । अनरकतीर्थमें स्नान करनेवाला पुरुष सब पापोंसे छूट जाता है । देवि ! तदनन्तर उत्तम काम्यकवनमें जाना चाहिये । जिसमें प्रवेश करते ही सब पापराशियोंसे छुटकारा मिल जाता है । फिर आदित्यवनमें जाकर आदित्यके दर्शनसे ही मानव मोक्षका भागी होता है । रविवारको वहाँ स्नान करके मनुष्य मनोवांछित फल पा लेता है और यज्ञोपवीतकतीर्थमें स्नान करके वह स्वधर्मफलका भागी होता है । तत्पश्चात्‌ श्रेष्ठ मानव चतुःप्रवाह नामक तीर्थमें स्नान करे । इससे वह सम्पूर्ण तीर्थोंका फल पाकर स्वर्गलोकमें देवताकी भाँति आनन्दित होता है । विहारतीर्थमें स्नान करनेवाला पुरुष सब प्रकारके सुख पाता है । दुर्गातीर्थमें स्नान करके मानव कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता । तदनन्तर पितृतीर्थ नामक सरस्वती कूपमें स्नान करके देवता आदिका तर्पण करनेवाला पुरुष उत्तम गतिकों पाता है । प्राची सरस्वतीमें स्नान और विधिपूर्वक श्राद्ध करके मनुष्य दुर्लभ कामनाओंको प्राप्त कर लेता है और शरीरका अन्त होनेपर वह स्वर्गलोकमें जाता है । शुक्रतीर्थमें स्नान करके श्राद्धदान करनेवाला पुरुष अपने पितरोका उद्धार कर देता है । विशेषत: चैत्र मासके कृष्णपक्षमें अष्टमी या चतुर्दशी तिथिको वहाँ श्राद्ध करना चाहिये । ब्रह्मतीर्थमें उपवास करनेवाला पुरुष नि:सन्देह मोक्षका भागी होता है । तदनन्तर स्थाणुतीर्थमें स्नान करके स्थाणुवटका दर्शन करनेसे कुरुक्षेत्रकी यात्रा पूरी हो जाती है ।

    देवि ! मैंने तुम्हें कुरुक्षेत्रका माहात्म्य ठीक-ठीक बताया है । कुरुक्षेत्रके समान दूसरा कोई तीर्थ न हुआ है, न होगा । वहाँ किया हुआ इटपूर्त कर्म, तप, विधिपूर्वक होम और दान आदि सब कुछ अक्षय होता है । मन्वादि तिथि, युगादि तिथि, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, महापात ( व्यतीपात ), संक्रान्ति तथा अन्य पुण्यपर्वोके दिन कुरुक्षेत्रें स्नान करनेवाला पुरुष अक्षय फलका भागी होता है । महात्मा पुरुषोंक कलियुगजनित पापोंका शोधन करनेके लिये ब्रह्माजीने सुखदायक कुरुक्षेत्रतीर्थका निर्माण किया है । जो मनुष्य इस पापनाशक पुण्यकथाका भक्तिभावसे कीर्तन अथवा श्रवण करता है, वह भी सब पापोंसे छूट जाता है । जो मनुष्य सूर्यग्रहणके समय कुरुक्षेत्रमें जो-जो वस्तुएँ देता है, उसी-उसीको वह सदा प्रत्येक जन्ममें पाता है । ब्रह्मपुत्री मोहिनी ! बहुत कहनेसे क्या लाभ ! मेरा निश्चित विचार सुनो, यदि कोई संसारबन्धनसे मुक्त होना चाहे तो उसे कुरक्षेत्रका सेवन करना ही चाहिये ।

अध्याय १५८ गंगाद्वार ( हरिद्वार ) और वहाँके विभिन्न तीर्थोंका माहात्म्य

मोहिनि बोली–द्विजत्रेष्ठ ! मैंने आपके मुखसे कुरुक्षेत्रका उत्तम माहात्म्य सुना है। गुरुदेव ! अब गंगाद्वार नामसे विख्यात जो पुण्यदायक तीर्थ है, उसका वर्णन कीजिये।

   पुरोहित सुने कहा–भद्रे ! राजा भगीरथके रथके पीछे चलनेवाली अलकनन्दा गड्रा सहसों पर्वतोंको विदीर्ण करती हुई जहाँ भूमिपर उतरी हैं, जहाँ पूर्वकालमें दक्ष प्रजापतिने यज्ञेधर भगवान्‌ विष्णुका यजन किया है, वह पुण्यदायक क्षेत्र (हरिद्वार) ही गड्ाद्वार है, जो मनुष्योंके समस्त पातकोंका नाश करनेवाला है । प्रजापति दक्षके उस यज्में इन्द्रादि सब देवता बुलाये गये थे और वे सब अपने-अपने गणोंके साथ यजमें भाग लेनेकी इच्छासे वहाँ आये थे । शुभे ! उसमें देवर्षि, शिष्य-प्रशिष्योंसहितू शुद्ध अन्त: करणवाले ब्रह्मार्षि तथा राजर्पि भी पधारे थे। पिनाकपाणि भगवान्‌ शंकरको छोड़कर अन्य सब दंवताआंको निमन्त्रित किया गया था। वे सब देवता विमानोंपर बैठकर अपनी प्रिय पत्रियोंके साथ दक्ष प्रजापतिके यज्ञोत्सवमें जा रहे थे और प्रसन्नतापूर्वक आपसमें उस उत्सवका वर्णन भी करते थे। कैलासपर रहनेवाली देवी सतीने उनकी बातें सुनीं। सुनकर वे पिताका यज्ञोत्सव देखनेके लिये उत्सुक हुईं । उस समय सतीने महादेवजीसे उस उत्सवमें चलनेकी प्रार्थथा की। उनकी बात सुनकर भगवान्‌ शिवने कहा- ‘ देवि ! वहाँ जाना कल्याणकर नहीं होगा।’ किंतु सतीजी अपने पिताका यज्ञोत्सव देखनेके लिये चल दीं। भद्रे ! सतीदेवी वहाँ पहुँच तो गयीं, किंतु किसीने उनका स्वागत-सत्कार नहीं किया। तब तन्वद्गी सतीने वहाँ अपने प्राण त्याग दिये। अत: वह स्थान एक उत्तम क्षेत्र बन गया हैं। जो उस तीर्थमें स्नान करके देवताओं तथा पितरोंका तर्पण करते हैं, वे देवीके अत्यन्त प्रिय होते हैं । वे भोग और मोक्षके प्रधान अधिकारी हो जाते हैं ।

   तदनन्तर देवर्षि नारदसे अपनी प्रिया सतीजीके प्राणत्यागका समाचार सुनकर भगवान्‌ शंकरने वीरभद्रको उत्पन्न किया । वीरभद्रने सम्पूर्ण प्रमधगणेकि साथ जाकर उस यज्ञका नाश कर दिया । फिर ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे तुरंत प्रसन्न होकर भगवान्‌ शंकरने उस विकृत यज्ञकों पुन: सम्पन्न किया । तबसे वह अनुपम तीर्थ सम्पूर्ण पातकोंका नाश करनेवाला हुआ । मोहिनी ! उस तीर्थमें विधिपूर्वक स्नान करके मनुष्य जिस-जिस कामनाका चिन्तन करता है, उसे अवश्य प्राप्त कर लेता है । जहाँ दक्ष तथा देवताओंने यज्ञोंके स्वामी साक्षात अविनाशी भगवान्‌ विष्णुका स्तवन किया था, वह स्थान ` हरितीर्थ ‘ के नामसे प्रसिद्ध हैं । सती मोहिनी ! जो मानव उस हरिपदतीर्थ ( हरिकी पैंड़ी ) में विधिपूर्वक स्नान करता है, वह भगवान्‌ विष्णुका प्रिय तथा भोग और मोक्षका प्रधान अधिकारी होता है । उससे पूर्व दिशामें त्रिगंग नामसे विख्यात क्षेत्र है, जहाँ सब लोग त्रिपथगा गंगाका साक्षातू दर्शन करते हैं । वहाँ स्नान करके देवताओं, ऋषियों,पितरों और मनुष्योंका श्रद्धापूर्वक तर्पण करनेवाले पुरुष स्वर्गलोकमें देवताकी भाँति आनन्दित होते हैं । वहाँसे दक्षिण दिशामें कनखलतीर्थमें जाय वहाँ दिन-रात उपवास और स्नान करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । देवि ! जो वहाँ वेदोंके पारंगत विद्वान्‌ ब्राह्मणकों गोदान देता है, वह कभी वैतरणी नदी और यमराजकों नहीं देखता है । वहाँ किये गये जप, होम, तप और दान अक्षय होते हैं ।

   सुमध्यमे ! वहाँसे पश्चिम दिशामें कोटितीर्थ है, जहाँ भगवान्‌ कोटीश्वरका दर्शन करनेसे कोटिगुना पुण्य प्राप्त होता है और एक रात वहाँ निवास करनेसे पुण्डरीक यज्ञका फल मिलता है । इसी प्रकार वहाँसे उत्तर दिशामें सप्तगंग ( सप्त सरोवर ) नामसे विख्यात उत्तम तीर्थ है । देवि ! वह सम्पूर्ण पातकोंका नाश करनेवाला है । परम बुद्धिमती मोहिनी ! वहाँ सप्तर्षियोंके पवित्र आश्रम हैं, उन सबमें पृथक्‌-पृथक्‌ स्नान और देवताओं एवं पितरोंका तर्पण करके मनुष्य ऋषिलोकको प्राप्त होता हैं । राजा भगीरथ जब देवनदी गंगाको ले आये, उस समय उन सप्तर्षियोंकी प्रसन्नताके लिये वे सात धाराओंमें विभक्त हो गयीं । तबसे पृथ्वीपर वह ‘ सप्तगंग ‘ नामक तीर्थ विख्यात हो गया । भद्रे ! वहाँसे परम उत्तम कपिलाहद नामक तीर्थमें जाकर जो श्रेष्ठ ब्राह्मणको धेनु दान करता है, उसे सहस्र गोदानका फल मिलता है । तदनन्तर शन्तनुके ललित नामक उत्तम तीर्थमें जाकर विधिवत्‌ स्नान और देवता आदिका तर्पण करके मनुष्य उत्तम गति पाता है, जहाँ राजा शन्तनुने मनुष्यरूपमें आयी हुई गंगाकों प्राप्त किया और जहाँ गंगाने प्रतिवर्ष एक-एक वसुको जन्म देकर अपनी धारामें उनके शरीरकों डलवा दिया था, उन वसुओंका शरीर जहाँ गिरा वहाँ वृक्ष पैदा हो गया । जो मनुष्य वहाँ स्नान करता और उस ओषधिको खाता है, वह गंगादेवीके प्रसादसे कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता । वहाँसे भीमस्थल  ( भीमगोड़ा )– में जाकर जो पुण्यात्मा पुरुष स्नान करता है, वह इस लोकमें उत्तम भोग भोगकर शरीरका अन्त होनेपर स्वर्गलोकमें जाता है । यह संक्षेपसे तुम्हें थोड़ेसे तीर्थोंका परिचय दिया गया है । जो इस क्षेत्रमें बृहस्पतिके कुम्भ राशिपर और सुर्यके मेषराशिपर रहते समय स्नान करता हैं, वह साक्षात्‌ बृहस्पति और दूसरे सूर्यके समान तेजस्वी होता हैं । प्रयाग आदि पुण्यतीर्थमें एवं पृथोदकतीर्थमें जानेपर जो वारुण, महावारुण तथा महामहावारुण योगमें वहाँ विधिपूर्वक स्नान करता है और भक्तिभावसे ब्राह्मणोंका पूजन करता है, वह ब्रह्मपदकों प्राप्त होता है। संक्रान्ति, अमावास्या, व्यतीपात, युगादि तिथि तथा और किसी पुण्य दिनको जो वहाँ थोड़ा भी दान करता है, वह कोटिगुना हो जाता है । यह मैंने तुमसे सच्ची बात बतायी है । जो मानव दूर रहकर भी गंगाद्वारका स्मरण करता है, वह उसी प्रकार सदगति पाता है, जैसे अन्तकालमें श्रीहरिको स्मरण करनेवाला पुरुष । मनुष्य शुद्धचित्त होकर हरिद्वारमें ‘ जिस-जिस देवताका पूजन करता है, वह-वह परम प्रसन्न होकर उसके मनोरथको पूर्ण करता है । जहाँ गंगा भूतलपर आयी हैं, वहीं तपस्याका स्थान है । यही जपका स्थल है और यही होमका स्थान है । जो मनुष्य नियमपूर्वक रहकर तीनों समय स्नान करके वहाँ गंगासहस्रनाम का पाठ करता है, वह अक्षय संतति पाता है । महाभागे ! जो नियमपूर्वक भक्तिभावसे गंगाद्वारमें पुराण सुनता है, वह अविनाशी पदको प्राप्त होता है । जो श्रेष्ठ मानव हरिद्वारका माहात्म्य सुनता है अथवा भक्तिभावसे उसका पाठ करता है, वह भी स्नानका फल पाता है ।

अध्याय १५९ बदरी आश्रमके विभिन्न तीर्थोंकी महिमा

   मोहिनी बोली- विप्रवर ! आपने गंगाद्वारका माहात्म्य बताया, अब बदरीतीर्थके पापनाशक माहात्म्यका वर्णन कीजिये  ।

   पुरोहित वसुने कहा- भद्रे ! सुनो; मैं बदरीतीर्थका माहात्म्य बतलाता हूँ; जिसे सुनकर जीव जन्म-मृत्युरूप संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है । भगवान्‌ विष्णुका ‘ बदरी ‘ नामक क्षेत्र सब पातकोंका नाश करनेवाला है और संसारभयसे डरे हुए मनुष्योंके कलिसम्बन्धी दोषोंका अपहरण करके उन्हें मुक्ति देनेवाला है; जहाँ भगवान्‌ नारायण तथा नर ऋषि, जिन्होंने धर्मसे उनकी पत्नी मूर्तिके गर्भसे अवतार ग्रहण किया है, गन्धमादन पर्वतपर तपस्याके लिये गये थे और जहाँ बहुत सुगन्धित फलसे युक्त बेरका वृक्ष है । महाभागे ! वे दोनों महात्मा उस स्थानपर कल्पभरके लिये तपस्यामें स्थित हैं । कलापग्रामवासी नारद आदि मुनिवर तथा सिद्धोंके समुदाय उन्हें घेरे रहते हैं और वे दोनों लोकरक्षाके लिये तपस्यामेंसंलग्न हैं । वहाँ सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाला सुविख्यात अप्रितीर्थ है । उसमें स्नान करके महापातकी भी पातकसे शुद्ध हो जाते हैं । सहसों चान्द्रायण और करोड़ों कृच्छव्रतसे मनुष्य जो फल पाता है, उसे अप्रितीर्थमें स्नान करनेमात्रसे पा लेता है । उसके तीर्थमें पाँच शिलाएँ हैं । जहाँ भगवान्‌ नारदने अत्यन्त भयंकर तपस्या की, वह शिला ‘ नारदी ‘ नामसे विख्यात है, जो दर्शनमात्रसे मुक्ति देनेवाली है । सुलोचने ! वहाँ भगवान्‌ विष्णुका नित्य निवास है । उस तीर्थमें नारदकुण्ड है, जहाँ स्नान करके पवित्र हुआ मनुष्य भोग, मोक्ष,भगवान्‌की भक्ति आदि जो-जो चाहता है, वही-वही प्राप्त कर लेता है । जो मानव भक्तिपूर्वक इस नारदी शिलाके समीप स्नान, दान, देवपूजन, होम,जप तथा अन्य शुभकर्म करता है, वह सब अक्षय होता है । इस क्षेत्रमें दूसरी शुभकारक शिला ` वैनतेय ‘ शिलाके नामसे विख्यात है, जहाँ महात्मा गरुड़ने भगवान्‌ विष्णुके दर्शनकी इच्छासे तीस हजार वर्षोतक कठोर तपस्या की थी । शुभे ! इससे प्रसन्न होकर भगवानने उन्हे श्रेष्ठ वर दिया- ‘ वत्स ! मैं तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हूँ । तुम दैत्यसमूहके लिये अजेय और नागोंको अत्यन्त भय देनेवाले मेरे वाहन होओ । यह शिला इस पृथ्वीपर तुम्हारे ही नामसे विख्यात होगी और दर्शनमात्रसे मनुष्योंके लिये पुण्यदायिनी होगी । महाभाग ! तुमने जहाँ तपस्या की है, उस मुख्यतम तीर्थमें मेरी प्रसन्नताके लिये स्नान करनेवालोंको पुण्य देनेवाली गंगा प्रकट होंगी । जो पंचगंगामें स्नान करके देवता आदिका तर्पण करेगा, उसकी सनातन ब्रह्मलोकसे इस लोकमें पुनरावृत्ति नहीं होगी ।’ ऐसा वरदान देकर भगवान्‌ विष्णु उसी समय अन्तर्धान हो गये । गरुड़जी भी भगवान्‌ विष्णुकी आज्ञासे उनके वाहन हो गये । तीसरी जो शुभकारक शिला है, वह ‘ बाराही ‘ शिलाके नामसे विख्यात है, जहाँ पृथ्वीपर रसातलसे उद्धार करके भगवान्‌ वाराहने हिरण्याक्षकों मार गिराया और शिलारूपसे वे पापनाशक श्रीहरि उस दैत्यको दबाकर बैठ गये । जो मानव वहाँ जाकर गंगाके निर्मल जलमें स्नान करता और भक्तिभावसे उस शिलाकी पूजा करता है, वह कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता । देवेश्वरि ! वहाँ चौथी ‘ नरसिंह ‘ शिला है, जहाँ हिरण्यकशिपुको मारकर नरसिंह विराजमान हुए थे । जो मनुष्य वहाँ स्नान और नरसिंह शिलाका पूजन करता है, वह पुनरावृत्तिरहित वैष्णवधामको प्राप्त कर लेता है । देवि ! वहाँ पाँचवीं ‘ नर-नारायण ‘ शिला है । सत्ययुगमें भोग और मोक्ष देनेवाले भगवान्‌ नर-नारायणावतार श्रीहरि सबके सामने प्रत्यक्ष निवास करते थे । शुभे ! त्रेता आनेपर वे केवल मुनियों, देवताओं और योगियोंको दिखायी देते थे । द्वापर आनेपर केवल ज्ञानयोगसे उनका दर्शन होने लगा । तब ब्रह्मा आदि देवताओं तथा तपस्वी ऋषियोंने अपनी विचित्र वाणीद्वारा स्तुति करके भगवान्‌ श्रीहरिको प्रसन्न किया । तदनन्तर उन ब्रह्मा आदि देवताओंसे आकाशवाणीने कहा-‘ देवेश्वरो ! यदि तुम्हें स्वरूपके दर्शनकी श्रद्धा है तो नारदकुण्डमें जो मेरी शिलामयी मूर्ति पड़ी हुई है, उसे ले लो ।’

   तब उस आकाशवाणीकों सुनकर ब्रह्मा आदि देवताओका चित्त प्रसन्न हो गया । उन्होंने नारदकुण्डमें पड़ी हुई उस शिलामयी दिव्य प्रतिमाको निकालकर वहाँ स्थापित कर दिया और उसकी पूजा करके अपने-अपने धामको चले गये । वे देवगण प्रतिवर्ष वैशाखमासमें अपने धामको जाते हैं और कार्तिकमें आकर फिर पूजा प्रारम्भ करते हैं । इसलिये वैशाखसे बर्फके कष्टका निवारण हो जानेसे पापकर्मरहित पुण्यात्मा मनुष्य वहाँ श्रीहरिके विग्रहका दर्शन पाते हैं । छः महीने देवताओं और छ; महीने मनुष्योंके द्वारा उस भगवद्विग्रहकी पूजा की जाती है । इस व्यवस्थाके साथ तबसे भगवान्‌की प्रतिमा प्रकट हुई । जो भगवान्‌ विष्णुकी उस शिलामयी प्रतिमाका भक्तिभावसे पूजन करता है और उसका नैवेद्य ( प्रसाद ) भक्षण करता है, वह निश्चय ही मोक्ष पाता है । इस प्रकार वहाँ ये पाँच पुण्य शिलाएँ स्थित हैं । श्रीहरिका नैवेद्य देवताओंके लिये भी दुर्लभ है, फिर मनुष्य आदिके लिये तो कहना ही क्या है । उस नैवेद्यका भक्षण कर लेनेपर वह मोक्षका साधक होता है । बदरीतीर्थमें भगवान्‌ विष्णुका सिक्थमात्र ( थोड़ा ) भी प्रसाद यदि खा लिया जाय तो वह पापका नाश करता है ।

   मोहिनी ! वहीं एक दूसरा महान्‌ तीर्थ है, उसका वर्णन सुनो; उसमें भक्तिपूर्वक स्नान करनेवाला पुरुष वेदोंका पारंगत विद्वान्‌ होता है । एक समय सोते हुए ब्रह्माजीके मुखसे निकले हुए मूर्तिमान्‌ वेदोंको हयग्रीव नामक असुरने हर लिया । वह देवता आदिके लिये बड़ा भयंकर था । तब ब्रह्माजीने भगवान्‌ विष्णुसे प्रार्थना की । अत: वे मत्स्यरूपसे प्रकट हुए । उस असुरको मारकर उन्होंने सब वेद ब्रह्माजीको लौटा दिये । तबसे वह स्थान महान पुण्यतीर्थ हो गया । वह सब विद्याओंका प्रकाशक है । महाभागे ! तैमिंगिलतीर्थ दर्शनमात्रसे सब पापोंका नाश करनेवाला है । तदनन्तर किसी समय अविनाशी भगवान्‌ विष्णुने पुनः वेदोंका अपहरण करनेवाले दो मतवाले असुर मधु और कैटभको हयग्रीवरूपसे मारकर फिर ब्रह्माजीकों वेद लौटाये । अत: ब्रह्मकुमारी ! वह तीर्थ स्नानमात्रसे सब पापोंका नाश करनेवाला है । भद्रे ! मत्स्य और हयमग्रीवतीर्थमें द्रवरूपधारी वेद सदा विद्यमान रहते हैं । अत: वहाँका जल सब पापोंका नाश करनेवाला है । वहीं एक दूसरा मनोरम तीर्थ है, जो मानसोद्भेदक नामसे विख्यात है । वह हृदयकी गँठिं खोल देता है, मनके समस्त संशयोंका नाश करता है और सारे पापोंकों भी हर लेता है । इसलिये वह मानसोद्भेदक कहलाता है । वरानने ! वहीं कामाकाम नामक दूसरा तीर्थ है, जो सकाम पुरुषोंकी कामना पूर्ण करनेवाला और निष्कामभाववाले पुरुषोंको मोक्ष देनेवाला है । भद्रे ! वहाँसे पश्चिम वसुधारातीर्थ है । वहाँ भक्तिपूर्वक स्नान करके मनुष्य मनोवांछित फल पाता है । इस वसुधायतीर्थमें पुण्यात्मा पुरुषोंको जलके भीतरसे ज्योति निकलती दिखायी देती है, जिसे देखकर मनुष्य फिर गर्भवासमें नहीं आता ।

   वहाँसे नैऋत्य कोणमें पाँच धाराएँ नीचे गिरती हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं-प्रभास, पुष्कर, गया, नैमिषारण्य और कुरुक्षेत्र । उनमें पृथक्‌-पृथक्‌ स्नान करके मनुष्य उन-उन तीर्थोंका फल पाता है । उसके बाद एक दूसरा विमलतीर्थ है, जो सोमकुण्डके नामसे भी विख्यात है, जहाँ तीव्र तपस्या करके सोम ग्रह आदिके अधीश्वर हुए हैं । भद्रे ! वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य दोषरहित हो जाता है । वहाँ एक दूसरा द्वादशादित्य नामक तीर्थ है, जो सब पापोंको हर लेनेवाला और उत्तम है । वहाँ स्नान करके मनुष्य सूर्यके समान तेजस्वी होता है । वहीं ‘ चतुःस्रोत ‘ नामका एक दूसरा तीर्थ है, जिसमें डुबकी लगानेवाला मानव धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारोंमेंसे जिसको चाहता है, उसीको पा लेता है । सती मोहिनी ! तदनन्तर वहीं सप्तपद नामक मनोहर तीर्थ है, जिसके दर्शनमात्रसे बड़े-बड़े पातक भी अवश्य नष्ट हो जाते हैं । फिर उसमें स्नान करनेकी तो बात ही क्या ! उस कुण्डके तीनों कोणोंपर ब्रह्मा, विष्णु और महेश स्थित रहते हैं । वहाँ मृत्यु होनेसे मनुष्य सत्यपद-स्वरूप भगवान्‌ विष्णुको प्राप्त करता है । शुभे ! वहाँसे दक्षिणभागमें परम उत्तम अस्त्रतीर्थ है, जहाँ भगवान्‌ नर और नारायण अपने अस्त्र-शस्त्र रखकर तपस्यामें संलग्र हुए थे । महाभागे ! वहाँ पुण्यात्मा पुरुषोंको शंख, चक्र आदि दिव्य आयुध मूर्तिमान्‌ दिखायी देते हैं । वहाँ भक्तिपूर्वक स्नान करनेसे मनुष्यकों शत्रुका भय नहीं प्राप्त होता । शुभे ! वहीं मेरुतीर्थ है, जहाँ स्नान और धनुर्धर श्रीहरिका दर्शन करके मनुष्य सम्पूर्ण मनोरथोंको प्राप्त कर लेता है । जहाँ भागीरथी और अलकनन्दा मिली हैं, वह पुण्यमय ( देवप्रयाग ) बदरिकाश्रममें सबसे श्रेष्ठ तीर्थ है । वहाँ स्नान, देवताओं और पितरोंका तर्पण तथा भक्तिभावसे भगवत्पूजन करके मनुष्य सम्पूर्ण देवताओंद्वारा वन्दित हो विष्णुधामको प्राप्त कर लेता है । शुभानने ! संगमसे दक्षिणभागमें धर्मक्षेत्र है । मैं उसे सब तीर्थोंमें परम उत्तम और पावन क्षेत्र मानता हूँ । भद्रे ! वहीं ‘ कर्मोद्धार ‘ नामक दूसरा तीर्थ है, जो भगवान्‌की भक्तिका एकमात्र साधन है । ‘ ब्रह्मावर्त ‘ नामक तीर्थ ब्रह्मलोककी प्राप्तिका प्रमुख साधन है । मोहिनी ! ये गंगाके आश्रित तीर्थ तुम्हें बताये गये हैं । बदरिकाश्रमके तीथोंका पूरा-पूरा वर्णन करनेमें ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हैं । जो मनुष्य भक्तिभावसे ब्रह्मचर्य आदि व्रतका पालन करते हुए एक मासतक यहाँ निवास करता है, वह नर-नारायण श्रीहरिका साक्षात्‌ दर्शन पाता है ।

अध्याय १६० सिद्धनाथके चरित्रसहित कामाक्षा— माहात्म्य

मोहिनी बोली—विप्रवर ! मैं कामाक्षा देवीका  तो सब लोग उन्हें प्रत्यक्ष देखते हैं, किंतु माहात्म्य सुनना चाहती हूँ ।

   पुरोहित वसुने कहा- मोहिनी ! कामाक्षा बड़ी उत्कृष्ट देवी हैं । वे पूर्व दिशामें रहती हैं । वे कलियुगमें मनुष्योंको सिद्धि प्रदान करनेवाली हैं । भद्रे ! जो वहाँ जाकर नियमित भोजन करते हुए कामाक्षा देवीका पूजन करता हैं और दृढ़ आसनसे बैठकर वहाँ एक रात व्यतीत करता है, वह साधक देवीका दर्शन कर लेता है । वह देवी भयंकर रूपसे मनुष्योंके सामने प्रकट होती है । उस समय उसे देखकर जो विचलित नहीं होता, वह मनोवांछित सिद्धिको पा लेता है । वरानने ! वहाँ पार्वतीजीके पुत्र सिद्धनाथ रहते हैं, जो उग्र तपस्यामें स्थित हैं । लोगोंको वे कभी दर्शन नहीं देते हैं । सत्ययुग, त्रेता, द्वापर- इन तीन यु्गोंमें कलियुगमें जबतक उसका एक चरण स्थित रहता है, वे अन्तर्धान हो जाते हैं । जो वहाँ जाकर भक्तिभावसे युक्त हो कामाक्षा देवीकी नित्य पूजा करते हुए एक वर्षतक सिद्धनाथजीका चिन्तन करता है, वह स्वप्नमें उनका दर्शन पाता है । दर्शनके अन्तमें एकाग्रचित्त होकर उनके द्वारा सूचित की हुई सिद्धिको पाकर इस पृथ्वीपर सिद्ध होता है । शुभे ! फिर वह सब लोगोंकी कामना पूर्ण करता हुआ सर्वत्र विचरता है । तीनों लोकोंमें जो-जो वस्तुएँ हैं, उन सबको वह वरदानके प्रभावसे खींच लेता है । भद्रे ! विज्ञानमें पारज्ञत योगी मत्स्यनाथ ही ‘ सिद्धनाथ ‘ के नामसे वहाँ विराजमान हैं । वे लोगोंको अभीष्ट वस्तुएँ देते हुए अत्यन्त घोर तपस्यामें लगे हैं ।

अध्याय १६१ प्रभासक्षेत्रका माहात्म्य तथा उसके अवान्तर तीर्थोंका महिमा

मोहिनी बोली- द्रिजश्रेष्ठ ! अब मुझे प्रभासक्षेत्रका माहात्म्य बताइये; जिसे सुनकर मेरा चित्त प्रसन्न हो जाय और मैं आपके कृपा-प्रसादसे अपनेको धन्य समझूँ ।

   पुरोहित सुने कहा— देवि ! सुनो, मैं उत्तम पुण्यदायक प्रभासतीर्थका वर्णन करता हूँ । वह मनुष्योंके सब पापोंकों हर लेनेवाला और भोग एवं मोक्ष देनेवाला है । विधिनन्दिनी ! जिसमें असंख्य तीर्थ हैं और जहाँ गिरिजापति भगवान्‌ विश्वनाथ सोमनाथके नामसे प्रसिद्ध हैं, उस ‘ प्रभासतीर्थमें ‘ स्नान करके सोमनाथकी पूजा करनेपर मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है । प्रभासमण्डलका विस्तार बारह योजनका है । उसके मध्यमें इस तीर्थकी पीठिका है, जो पाँच योजन विस्तृत कही गयी है । उसके मध्य भागमें तीर्थ है, जिसका महत्त्व कैलाससे भी अधिक है । वहीं एक परम दूसरा सुन्दर पुण्यतीर्थ है, जिसे अर्कस्थल कहते हैं । उस तीर्थमें सिद्धेश्वर आदि सहश्रों लिंग हैं । उसमें स्नान करके भक्तिभावसे देवता, पितरोंका तर्पण तथा शिवललिंगका पूजन करके मनुष्य भगवान्‌ रुद्रके लोकमें जाता है । इसके सिवा समुद्रतटपर दूसण् तीर्थ, जिसको अग्नितीर्थ कहते हैं, विद्यमान है । देवि ! उसमें स्नान करके मनुष्य अग्निलोकमें जाता है । वहाँ उपवासपूर्वक भगवान्‌ कपर्दीश्वरकी पूजा करके मानव इहलोकमें मनोवांछित भोगोंका उपभोग करता और अन्तमें शिवलोककों प्राप्त होता है । तदनन्तर केदारेश्वरके समीप जाकर विधिपूर्वक उनकी पूजा करके मनुष्य देवपूजित हो विमानद्वारा स्वर्गलोकमें जाता है । कपर्दीश्वर और केदारेश्वरके पश्चात्‌ क्रमश: भीमेश्वर, भैरवे, चण्डीश्वर, भास्करेश्वर, अंगारेश्वर, गुर्वीश्वर, सोमेश्वर, भृगृजेश्वर, शनीश्वर, राह्वीश्वर तथा केत्वीश्वरकी पूजा करे । इस प्रकार क्रमश: चौदह लिंगोकी यात्रा करनी चाहिये । विधिज्ञ पुरुष भक्तिभावसे उन सबकी पृथक-पृथक पूजा करके भगवान्‌ शिवका सालोक्य पाता और निग्रहानुग्रहमें समर्थ हो जाता है । वरारोहा, अजापाला, मज़ला तथा ललितेश्वरी- इन देवियोंका क्रमश: पूजन करके मनुष्य निष्पाप हो जाता है । लक्ष्मीधर, बाडवेश्वर, अर्घ्येश्वर तथा कामकेश्वरका भक्तिपूर्वक पूजन करके मानव लोकेश ब्रह्माजीका पद प्राप्त कर लेता है । गौरी-तपोवनमें जाकर गौरीश्वर, वरुणेश्वर तथा उपेश्वरका पूजन करके मानव स्वर्गलोक पाता है । जो मानव गणेश, कुमारेश, स्वाककेश, कुलेश्वर, उत्तट्लेश, वहीश, गौतम तथा दैत्यसूदनका विधिपूर्वक पूजन करता है, वह कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता । तदनन्तर चक्रतीर्थमें जाकर वहाँ विधिपूर्वक स्नान और गौरीदेवीकी पूजा करके मनुष्य मनोवांछित फल पाता है । वरानने ! सन्निहत्यतीर्थमें जाकर वहाँ स्नान तथा देवता आदिका तर्पण करके उसका पूरा फल पाता है । जो भूतेश्वर आदि ग्यारह लिंगोका पूजन करता है, वह इस लोकमें उत्तम भोग प्राप्त करके अन्तमें भगवान्‌ रुद्रके लोकमें जाता है । देवि ! जो श्रेष्ठ मानव भगवान्‌ आदिनारायणकी पूजा करता है, वह मोक्षका भागी होता है ।

   नरेश्वरि ! तत्पश्चात्‌ मानव बालब्रह्माके समीप जाकर सब देवताओंसे पूजित हो भोग एवं मोक्षका अधिकारी होता है । तदनन्तर गंगा-गणपतिके पास जाकर उनकी विधिपूर्वक पूजा करनेसे श्रद्धालु पुरुष इहलोक और परलोकमें मनोवांछित कामनाएँ प्राप्त कर लेता है । तत्पश्चात्‌ जाम्बवती नदीमें जाकर वहाँ भक्तिभावसे एकाग्रचित्त होकर स्नान और देवता आदिका पूजन करनेसे मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है । तदनन्तर पाण्डुकूपमें स्नान करके पाण्डवेश्वरकी पूजा करनी चाहिये । ऐसा करनेवाला मानव स्वर्गलोकमें जाता है । तत्पश्चात्‌ यादवस्थलमें जाकर मानव यदि वर्षेश्वरका पूजन करे तो वह देवराज इन्द्रसे सम्मानित होकर मनोवांछित सिद्धिलाभ करता है । हिरण्यासंगममें स्नान करके जो मानव भक्तिपूर्वक भगवान्‌ शिवकी प्रसन्नताके लिये ब्राह्मणकों सुवर्णयुक्त रथ दान करता है, वह अक्षय लोक पाता है । तत्पश्चात्‌ नगरादित्यकी पूजा करके मानव सूर्यलोक प्राप्त कर लेता है । नगरादित्यके समीप बलभद्र, श्रीकृष्ण और सुभद्राका दर्शन एवं विधिपूर्वक पूजन करनेसे मानव भगवान्‌ श्रीकृष्णका सायुज्य-लाभ करता है । तदनन्तर कुमारिकाके समीप जाकर विधिपूर्वक पूजा करके मनुष्य मनोवांछित कामनाओंको प्राप्त कर लेता है और इन्द्रलोकका अधिकारी होता है । जो सरस्वतीके तटपर स्थित ब्रह्मेश्वरका पूजन करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है । पिंगला नदीके समीप जाकर उसमें स्नान करके जो मनुष्य देवता आदिका तर्पण और श्राद्ध करता है, वह फिर इस संसारमें जन्म नहीं लेता । संगमेश्वरका पूजन करनेसे मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता । शंकरादित्य, घटेश तथा महेश्वरका पूजन करके मनुष्य निश्चय ही अपनी सम्पूर्ण कामनाएँ पा लेता है ।

   तदनन्तर ऋषितीर्थमें जाय; वहाँ स्नान करके मनकों संयममें रखते हुए ऋषियोंका पूजन करे । ऐसा करनेवालेको सम्पूर्ण तीर्थोंका फल प्राप्त होता है । तदनन्तर नन्दादित्यकी पूजा करके मनुष्य सब रोगोंसे मुक्त होता है । तत्पश्चात्‌ त्रित कूपके समीप जाकर वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाता है । तदनन्तर न्यूअङ्ग्कुमती नदीके समीप जाकर वहाँ विधिपूर्वक स्नान और सिद्धेधरका पूजन करे । ऐसा करनेवाला पुरुष अणिमा आदि सिद्धियोंका भागी होता है । वाराह स्वामीका दर्शन करके मनुष्य भवसागरसे मुक्त हो जाता है । पूजन करके पुरुषकों सम्पूर्ण पातकोंसे छुटकारा मिल जाता है । सती मोहिनी ! जो मानव कनकनन्दा देवीका भलीभाँति पूजन करता हैं, वह सम्पूर्ण कामनाओंको पाता और शरीरका अन्त होनेपर स्वर्गलोकमें जाता है । कुन्तीश्वरका पूजन करनेसे मनुष्य सब पातकोंसे छूट जाता है । जो मानव गंगाजीमें स्नान करके गंगेश्वरका पूजन करता है, वह तीन प्रकारके पापोसे मुक्त हो जाता है । जो चमसोद्भेदतीर्थमें स्नान करके पिण्डदान करता है, वह गयाकी अपेक्षा कोटिगुने पुण्यका भागी होता है । ब्रह्मकुमारी ! तत्पश्चात उत्तम विदुराश्रममें जाकर त्रिग और त्रिभुवनेश्वरका पूजन करनेसे मनुष्य सुखी होता है । मंकणेश्वरका पूजन करके मानव उत्तम गति पाता है । त्रैपुर और त्रिलिंगकी पूजा करनेपर सब पापोंसे छुटकारा मिल जाता है । जो मनुष्य षण्डतीर्थमें जाकर स्नान करके सुवर्ण दान करता है, वह सब पापोंसे शुद्धचित्त हो भगवान्‌ शिवके धाममें जाता है । त्रिलोचनमें स्नान करनेसे रुद्रलोककी प्राप्ति होती है । देविकामें उमानाथका पूजन करके श्रेष्ठ मानव मनोवांछित कामनाओंको पाता और शरीरका अन्त होनेपर स्वर्गलोकमें जाता है । भूद्वारकी पूजा करनेसे अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है । शूलस्थानमें वाल्मीकिको नमस्कार करके मनुष्य कवि होता है । तदनन्तर च्यवनादित्यका पूजन करके तीर्थसेवी पुरुष सम्पूर्ण भोगसामग्रियोंसे सम्पन्न होता है । च्यवनेश्वरके पूजनसे मानव भगवान्‌ शिवका अनुचर होता है । प्रजापालेधरकी पूजासे धन-धान्यकी वृद्धि होती है । बालादित्यकी पूजा करनेवाला मनुष्य विद्वान्‌ और धनवान्‌ होता है । कुबेरस्थानमें स्नान करके मानव निश्चय ही निधि पाता है । ऋषितोया नदीमें जाकर वहाँ स्नान करनेसे मानव पवित्र हो ब्राह्मणकों सुवर्ण दान करे तो सब पातकोंसे छूट जाता है । सड्गालेश्वरकी पूजा करनेसे रुद्रलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त होती है ।

   तदनन्तर नारायणदेवकी पूजा करनेसे मनुष्य मोक्षका भागी होता है । तप्तकुण्डोदकमें स्नान करके मूलचण्डीश्वरकी पूजा करे । इससे समस्त पापोसे मुक्त हुआ मानव मनोवाज्छित वस्तुको पा लेता है । चतुर्मुख विनायककी पूजा करनेसे भी अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है । क्षेमादित्यके पूजनसे मनुष्य क्षेमयुक्त, सफलमनोरथ तथा सत्यका भागी होता है। रुक्मिणी देवीकी पूजा की जाय तो वे मनुष्यको अभीष्ट वस्तु देती हैं । दुर्वासेश्वर और पिंगेश्वरकी पूजा करनेसे मनुष्य पापमुक्त हो जाता है । भद्रासंगममें स्नान करके मनुष्य सैकड़ों कल्याणकी बातें देखता है । मोक्षतीर्थमें स्नान करके मानव भवसागरसे मुक्त हो जाता है । नारायणगृहमें जाकर मानव फिर कभी शोक नहीं करता । हुंकारतीर्थमें स्नान करनेवाला पुरुष गर्भवासका कष्ट नहीं पाता तथा चण्डीश्वरका पूजन करनेसे सब तीर्थोंका फल मिल जाता है । आशापुरनिवासी विघ्नेश्वरका पूजन करनेसे विघ्नकी प्राप्ति नहीं होती । कलाकुण्डमें स्नान करनेवाला मानव निस्संदेह मोक्षका भागी होता है । नारदेश्वरका पूजक भगवान्‌ विष्णु और शंकरका भक्त होता है । भल्लतीर्थमें स्नान करके मानव समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है और कर्दमालतीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्यके समस्त पातक दूर हो जाते हैं । गुप्त सोमनाथका दर्शन करके मनुष्य फिर कभी शोकमें नहीं पड़ता । शृंगेश्वरका पूजन करनेवाला पुरुष दुःखोंसे पीड़ित नहीं होता । नारायणतीर्थमें स्नान करनेवाला मानव मोक्ष प्राप्त कर लेता है । मार्कण्डेयेश्वरके पूजनसे मनुष्य दीर्घायु होता है । कोटिहदमें स्नान करके कोटीश्वरका पूजन करनेसे मानव सुखी होता है । फिर सिद्धस्थानमें स्नान करके जो मनुष्य वहाँके असंख्य शिव-लिंगका पूजन करता है, वह इस पृथ्वीपर सिद्ध होता है । दामोदरगृहका दर्शन करके मनुष्य उत्तम सुख पाता है । शुभे ! प्रभासके नाभिस्थानमें वस्त्रापथतीर्थ है । वहाँ भगवान्‌ शंकरकी आराधना करनेसे मनुष्य स्वयं साक्षात्‌ शंकरके समान हो जाता है । दामोदरमें स्वर्णरेखातीर्थ, रैवतक पर्वतपर ब्रह्मकुण्ड, उज्जयन्ततीर्थनें कुन्तीश्वर और महातेजस्वी भीमेश्वर तथा वस्त्रापथक्षेत्रमें मृगीकुण्डतीर्थ सर्वस्व माना गया हैं । इनमें क्रमश: स्नान करके देवताओंका यत्नपूर्वक पूजन तथा जलसे पितरोंका तर्पण करनेसे मनुष्य सम्पूर्ण तीर्थोंका फल पाता है।  तदनन्तर गंगेश्वरका पूजन करनेसे मनुष्यको गंगास्नानका फल मिलता है । देवि ! रैवतक पर्वतपर बहुतसे तीर्थ हैं । उनमें स्नान करके भक्तिपूर्वक ब्रह्मा, विष्णु,  शिव और इन्द्र आदि लोकपालोंकी पूजा करनेसे  मनुष्य भोग और मोक्ष दोनों पा लेता है । सुन्दरि ! ये सब तीर्थ तुमसे बहुत थोड़ेमें बताये गये हैं । इनमें अवान्तरतीर्थ तो अनन्त हैं, जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता । मोहिनी ! तीनों लोकोंमें प्रभास-क्षेत्रके समान दूसरा कोई तीर्थ नहीं है ।

अध्याय १६२ पुष्करका माहात्म्य

मोहिनी बोली- द्रिजश्रेष्ठ ! प्रभासक्षेत्रका अत्यन्त पुण्यदायक माहात्म्य सुनो । अब पुष्करतीर्थका, जो कि मेरे पिता ब्रह्माजीका यज्ञसदन है, माहात्म्य विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ।

   पुरोहित वसुने कहा- भद्रे ! सुनो; मैं पुष्करके पवित्र माहात्म्यका, जो मनुष्योंको सदा अभीष्ट वस्तु देनेवाला है, वर्णन करता हूँ । इसमें अनेक तीर्थोंका माहात्म्य सम्मिलित है । जहाँ भगवान्‌ विष्णुके साथ इन्द्र आदि देवता, गणेश, रैवत और सूर्य विराजमान हैं, उस पुष्करवनमें जो बिना किसी साधनके भी निवास करता है, वह अष्ट्योग-साधनका पुण्य पाता है । पृथ्वीपर इससे बढ़कर दूसरा कोई क्षेत्र नहीं है । अत: श्रेष्ठ मानवोंको सर्वथा प्रयत्न करके इस उत्तम क्षेत्रका सेवन करना चाहिये । जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र इस क्षेत्रमें निवास करते हुए सर्वतोभावेन ब्रह्माजी में भक्ति रखते और सभी जीवोंपर दया करते हैं, वे ब्रह्माजीके लोकमें जाते हैं । पुष्करवनमें, जहाँ प्राची सरस्वती बहती हैं, जानेसे मनुष्यको मति ( मननशक्ति ), स्मृति ( स्मरणशक्ति ), दया, प्रज्ञा ( उत्कृष्ट ज्ञानशक्ति ), मेधा ( धारणाशक्ति ) और बुद्धि ( निश्चायात्मक वृत्ति ) प्राप्त होती है । जो वहाँ तटपर स्थित होकर प्राची सरस्वतीके उस जलकों पीते हैं, वे भी अश्वमेध-यज्ञका फल पाकर सुखस्वरूप ब्रह्मकों प्राप्त होते हैं । पुष्करमें तीन उज्वल शिखर हैं, तीन निर्मल झरने हैं तथा ज्येष्ठ, मध्य और कनिष्ठ- ये तीन सरोवर हैं । सती मोहिनी ! वहाँ नन्दासरस्वतीके नामसे सुप्रसिद्ध महान्‌ तीर्थ है, जो पुष्करसे एक योजन दूर पश्चिम दिशामें विद्यमान है । वहाँ विधिपूर्वक स्नान और वेदवेत्ता ब्राह्मणकों दूध देनेवाली गौका दान करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोकमें जाता है । इसके सिवा वहाँ कोटितीर्थ है, जहाँ करोड़ों ऋषियोंका आगमन हुआ था । वहाँ स्नान और ब्राह्मणोंका पूजन करके मनुष्य सब पातकोंसे मुक्त हो जाता हैं । उसके बाद अगस्त्याश्रममें जाकर स्नान और कुम्भज ऋषिका पूजन करके मनुष्य भोगसामग्रीसे सम्पन्न और दीर्घायु होता है तथा शरीरका अन्त होनेपर वह स्वर्गलोकमें जाता है । सप्तऋषियोंके आश्रममें जाकर वहाँ एकाग्रचित्त हो स्नान तथा भक्तिभावसे उनका पूजन करके मनुष्य सप्तर्षिलोकमें जाता है । मनुके आश्रममें स्नान करके मानव सर्वत्र पूजा प्राप्त करता है । गंगाके उद्गमस्थानमें स्नान करनेसे गंगास्नानका फल मिलता है । ज्येष्ठ पुष्करमें स्नान करके ब्राह्मणकों गोदान देनेसे मनुष्य इहलोकमें सम्पूर्ण भोगोंके पश्चात्‌ ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता हैं । मध्यम पुष्करमें स्नान करके ब्राह्मणकों भूदान करनेवाला पुरुष श्रेष्ठ विमानपर बैठकर भगवान्‌ विष्णुके लोकमें जाता है । कनिष्ठ पुष्करमें स्नान और ब्राह्मणकों सुवर्ण दान करके मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंको पाता और अन्तमें भगवान्‌ रुद्रके लोकमें प्रतिष्ठित होता है । तदनन्तर विष्णुपदमें स्नान और ब्राह्मणको कुछ दान करके मनुष्य भगवान्‌ विष्णुके प्रसादसे समस्त कामनाओंको प्राप्त कर लेता है । तत्पश्चात्‌ नागतीर्थमें स्नान और नागोंका पूजन करके ब्राह्मणोंको दान देनेसे मनुष्य एक युगतक स्वर्गमें आनन्द भोगता है । आकाशमें पुष्करका चिन्तन करके ‘ आपो हि ष्ठा ‘  इत्यादि मंत्रोद्वारा जो पुष्करवनमें स्नान करता है, वह शाश्वत ब्रह्मपदकों प्राप्त कर लेता है । जब कभी कार्तिककी पूर्णिमाको कृत्तिका नक्षत्र हो तो वह महातिथि समझी जाती है । उस समय आकाश पुष्करमें स्नान करना चाहिये । भरणी नक्षत्रसे युक्त कार्तिककी पूर्णिमाको मध्यम पुष्करमें स्नान करनेवाला मानव आकाश पुष्करमें स्नान करनेका पुण्यफल पाता है । रोहिणी नक्षत्रसे युक्त कार्तिककी पूर्णिमाको कनिष्ठ पुष्करमें स्नान करनेवाला पुरुष आकाश पुष्करजनित पुण्यफलका भागी होता है । जब सूर्य भरणी नक्षत्रपर, बृहस्पति कृत्तिकापर तथा चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्रपर हों और नन्दा तिथिका योग हो तो उस समय पुष्करमें स्नान करनेपर आकाश पुष्करका सम्पूर्ण फल प्राप्त होता है । जब विशाखा नक्षत्रपर सूर्य और कृत्तिका नक्षत्रपर चन्द्रमा हों, तब आकाश पुष्कर नामक योग होता है । उसमें स्नान करनेवाला पुरुष स्वर्गलोकमें जाता है । आकाशमें उतरे हुए इस कल्याणमय पितामहतीर्थमें जो मनुष्य स्नान करते हैं, उन्हें महान्‌ अभ्युदयकारी लोक प्राप्त होते हैं । सती मोहिनी ! पुष्करवनमें पश्नस्लोता सरस्वती नदीमें सिद्ध महर्षियोंने बहुत-से तीर्थ और देवस्थान स्थापित किये हैं । जो मनुष्य यहाँ श्रेष्ठ ब्राह्मणको धान्य और तिल दान करता है, वह इहलोक और परलोकमें परम गतिको प्राप्त होता है । जो गंगा-सरस्वतीके संगममें स्नान करके ब्राह्मणोंका पूजन करता है, वह इहलोकमें मनोवांछित भोग भोगनेके पश्चात्‌ श्रेष्ठ गतिको प्राप्त होता है । सती मोहिनी ! जो मानव अवियोगा बावड़ीमें स्नान करके विधिपूर्वक पिण्डदान देता है, वह अपने पितरोंको स्वर्गलोकमें पहुँचा देता है। जो अजगन्ध शिवके समीप जाकर उनकी विधिपूर्वक पूजा करता है, वह इहलोक और परलोकमें भी मनोवांछित भोग पाता है । पुष्करतीर्थमें सरोवरसे दक्षिण भागमें एक पर्वतशिखरपर सावित्री देवी विराजमान हैं । जो उनकी पूजा करता है, वह वेदके तत्त्वका ज्ञाता होता है । मोहिनी ! वहाँ भगवान्‌ वाराह, नृसिंह, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य,चन्द्रमा, कार्तिकेय, पार्वती तथा अग्निके पृथक-पृथक तीर्थ हैं । महाभागे ! जो मनुष्य एकाग्रचित्त होकर उनमें स्नान करके ब्राह्मणोंको दान देता है, वह उत्तम गति पाता है । पुष्करमें स्नान दुर्लभ है, पुष्करमें तपस्याका अवसर भी दुर्लभ है, पुष्करमें दान दुर्लभ है और पुष्करमें रहनेका सुयोग भी दुर्लभ है । सौ योजन दूर रहकर भी जो मनुष्य स्नानके समय भक्तिभावसे पुष्करका चिन्तन करता है, वह उसमें स्नानका फल पाता है ।

अध्याय १६३ गौतमाश्रमके माहात्म्यमें गोदावरीके प्राकट्यका तथा पंचवटीके माहात्मयका वर्णन

मोहिनी बोली-वसुजी ! मैंने पुष्करका पापनाशक माहात्म्य सुन लिया । प्रभो ! अब गौतम-मासक माहात्म्य कहिये ।

    पुरोहित वसने कहा देंवि ! महर्षि गौतमका आश्रम परम पवित्र तथा देवर्षियोंद्वारा सेवित है । वह सब पापोका नाशक तथा सब प्रकारके उपद्रवोंकी शान्ति करनेवाला है । जो मनुष्य भक्तिभावसे युक्त हो बारह वर्षोतक गौतम-आश्रमका सेवन करता है, वह भगवान्‌ शिवके धाममें जाता है, जहाँ जाकर मनुष्य शोकका अनुभव नहीं करता । ब्रह्मपुत्री मोहिनी ! महर्षि गौतमके तपस्या करते समय एक बार बारह वर्षोतक घोर अनावृष्टि हुई, जो समस्त जीवोंका संहार करनेवाली थी । शुभे ! उस भयानक दुर्भिक्षके आरम्भ होते ही सब मुनि अनेक देशोंसे गौतमके आश्रमपर आये । उन्होंने तपस्वी गौतमकों इस बातकी जानकारी करायी कि ‘ आप हमें भोजन दें, जिससे हमारे प्राण शरीरमें रह सकें ।’ उन मुनियोंके इस प्रकार सूचना देनेपर महर्षि गौतमकों बड़ी दया आयी । वे अपने ऊपर विश्वास करनेवाले उन ऋषियोंसे अपनी तपस्याके बलपर बोले ।

   गौतमने कहा- मुनियो ! आप सब लोग मेरे आश्रमके समीप ठहरें । जबतक यह दुर्भिक्ष रहेगा, तबतक मैं आदरपूर्वक आपको भोजन दूँगा ।

ऐसा कहकर गौतमने तपोबलसे गंगादेवीका ध्यान किया । उनके स्मरण करते ही गंगादेवी पृथ्वीतलसे प्रकट हुईं । महर्षिने गंगाजीको प्रकट हुई देख प्रात:काल पृथ्वीपर अगहनीके बीज रोपे और दोपहर होते-होते वे धानके पौधे बढ़कर उनमें फल लग गये । उसी समय वे पक भी गये; अत: मुनिने उन सबको काट लिया । फिर उसी अगहनीके चावलसे रसोई तैयार करके उन्होंने उन ऋषियोंको भोजन कराया । भद्रे ! इस प्रकार प्रतिदिन पके हुए अगहनी धानके चावलोंसे गौतमजीने भक्तिभावसे युक्त हो उन अतिथियोंका अतिथिसत्कार किया । तदनन्तर नित्यप्रति ब्राह्मण-भोजन कराते हुए मुनीश्वर गौतमके बारह वर्ष बीत जानेपर दुर्पिक्षकाल समाप्त हो गया । इसलिये वे सब मुनि मुनिश्रेष्ठ गौतमसे पूछकर अपने-अपने देशको चले गये । मोहिनी ! गौतम मुनि बहुत वर्षोतक वहाँ तपस्यामें लगे रहे ।

   तदनन्तर अम्बिकापति भगवान्‌ शिवने उनकी तपस्यासे संतुष्ट हो उन्हें अपने पार्षदगणोंके साथ दर्शन दिया और कहा- ‘ वर माँगो ।’ तब मुनिवर गौतमने भगवान्‌ त्र्यम्बकको साष्टांग प्रणाम किया और बोले- ‘ सबका कल्याण करनेवाले भगवन्‌ ! आपके चरणोंमें मेरी सदा भक्ति बनी रहे और मेंरे आश्रमके समीप इसी पर्वतके ऊपर आपको मैं सदा विराजमान देखूँ, यही मेरे लिये अभीष्ट वर है ।’ मुनिके ऐसा कहनेपर भक्तोंको मनोवांछित खर देनेवाले पार्वतीवल्लभ भगवान्‌ शिवने उन्हें अपना सामीप्य प्रदान किया । भगवान्‌ त्रयम्बक उसी रूपसे वहीं निवास करने लगे । तभीसे वह पर्वत त्रयम्बक कहलाने लगा । सुभगे ! जो मानव भक्तिभावसे गोदावरी-गंगामें जाकर स्नान करते हैं, वे भवसागरसे मुक्त हो जाते हैं । जो लोग गोदावरीके जलमें स्नान करके उस पर्वतपर विराजमान भगवान्‌ त्रयम्बकका विविध उपचारोंसे पूजन करते हैं, वे साक्षात्‌ महेश्वर हैं । मोहिनी ! भगवान्‌ त्र्यम्बकका यह माहात्म्य मैंने संक्षेपसे बताया है । तदनन्तर जहाँतक गोदावरीका साक्षात्‌ दर्शन होता है, वहाँतक बहुत-से पुण्यमय आश्रम हैं । उन सबमें स्नान करके देवताओं तथा पितरोंका विधिपूर्वक तर्पण करनेसे मनुष्य मनोवांछित कामनाओंको प्राप्त कर लेता है । भद्रे ! गोदावरी कहीं प्रकट हैं और कहीं गुप्त हैं; फिर आगे जाकर पुण्यमयी गोदावरी नदीने इस पृथ्वीको आप्लावित किया है । मनुष्योंकी भक्तिसे जहाँ वे महेश्वरी देवी प्रकट हुई हैं, वहाँ महान्‌ पुण्यतीर्थ है जो स्नानमात्रसे पापोंको हर लेनेवाला है । तदनन्तर गोदावरी देवी पंचवटीमें जाकर भली भाँति प्रकाशमें आयी हैं । वहाँ वे सम्पूर्ण लोकोको उत्तम गति प्रदान करती हैं । विधिनन्दिनी ! जो मनुष्य नियम एवं व्रतका पालन करते हुए पंचवटीकी गोदावरीमें स्नान करता है, वह अभीष्ट कामनाओंको प्राप्त कर लेता है । जब त्रेतायुगमें भगवान्‌ श्रीराम अपनी धर्मपत्नी सीता और छोटे भाई लक्ष्मणके साथ आकर रहने लगे, तबसे उन्होंने पंचवटीको और भी पुण्यमयी बना दिया । शुभे ! इस प्रकार यह सब गौतमाश्रमका माहात्म्य कहा गया है ।

अध्याय १६४ पुण्डरीकपुरका माहात्म्य, जैमनीद्वारा भगवान् शंकरकी स्तुति

मोहिनी बोली- गुरुदेव ! आपने जो गौतम-आश्रम तथा महर्षि गौतमका पवित्र उपाख्यान कहा है, उसे मैंने सुना । अब मैं पुण्डरीकपुरका माहात्म्य सुनना चाहती हूँ ।

   पुरोहित वसुने कहा- महादेवजी भक्तोंके वशमें रहते हैं और उन्हें तत्काल वर देते हैं । वे भक्तोंके सम्मुख प्रकट होते और उनकी इच्छाके अनुसार कार्य करते हैं । एक समयकी बात है, व्यासजीके शिष्य मुनीश्वर जैमिनि अग्रिवेश्य आदि शिष्योंके साथ तीथोंमें भ्रमण करते हुए पुण्डरीकपुरमें गये, जो साक्षात्‌ देवराज इन्द्रकी अमरावतीपुरीकेसमान सुशोभित था । उस नगरकी शोभा देखकर महर्षि जैमिनि बड़े प्रसन्न हुए । वहाँ सरोवरमें मुनिने स्नान करनेके पश्चात्‌ संध्या-वन्दन आदि नित्यकर्म तथा देवताओं, ऋषियों और पितरोंका तर्पण किया । फिर पार्थिव लिंगका निर्माण करके पादय, अर्घ्य आदि विविध उपचारोंसे विधिपूर्वक उसका पूजन किया । पूजनके समय उनका चित्त पूर्णत: शान्त था; मनमें कोई व्यग्रता नहीं थी । गन्ध, सुगन्धित पुष्प, धूप, दीप तथा भाँति-भाँतिके नैवेद्योंसे भलीभाँति पूजन करके ज्यों ही महर्षि जैमिनि स्थिर होकर बैठे त्यों ही प्रसन्न होकर भगवान्‌ शिव उनके नेत्रोंके समक्ष प्रकट हो गये ।

   तदनन्तर जैमिनि साक्षात्‌ भगवान्‌ उमापतिको प्रकट हुआ देख उनके आगे दण्डकी भाँति पृथ्वीपर पड़ गये । फिर सहसा उठकर हाथ जोड़ शरणागतोंकी पीड़ा दूर करनेवाले तथा आधे अब्गमें हरि और आधेमें हररूपसे प्रकट हुए भगवान्‌ शिवसे बोले ।

   जैमिनिने कहा- देवदेव जगत्पते! मैं धन्य हूँ, कृतकृत्य हूँ; क्योंकि आप ब्रह्मा आदिके भी ध्यान करनेयोग्य साक्षात्‌ महेश्वर मेरी दृष्टिक सम्मुख प्रकट हैं ।

   तब प्रसन्न होकर भगवान्‌ शिवने उनके मस्तकपर अपना हाथ रखा और कहा- ‘ बेटा ! बोलो, तुम क्या चाहते हो ?’ भगवान्‌ शिवका यह वचन सुनकर जैमिनिने उत्तर दिया- ‘ भगवन्‌ ! मैं माता पार्वती, विघ्नराज गणेश तथा कुमार कार्तिकेयजीके साथ आपका दर्शन करना चाहता हूँ ।’ तब पार्वती-देवी तथा अपने दोनों पुत्रोके साथ भगवान्‌ शंकरने उन्हें दर्शन दिया । तत्पश्चात्‌ प्रसन्नचित्त हो भगवान्‌ शिवने फिर पूछा- ‘ बेटा ! कहो, अब क्या चाहते हो ?’  जैमिनिने जगदूगुरु शंकरकी यह दयालुता देखकर मुसकराते हुए कहा- ‘ मैं आपके ताण्डवनृत्यकी झाँकी देखना चाहता हूँ ।’ तब उनकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये भगवान्‌ अम्बिकापतिने भाँति-भाँतिकी क्रीडामें कुशल समस्त प्रमथगणोंका स्मरण किया । उनके स्मरण करते ही वे नन्दी-भृंगी आदि सब लोग कौतूहलमें भरकर वहाँ आये और गणेश, कार्तिकेय तथा पार्वतीसहित भगवान्‌ शिवको नमस्कार करके देवदेव महादेवजीके आदेशकी प्रतीक्षा करते हुए चुपचाप हाथ जोड़कर खड़े हो गये । तदनन्तर भगवान्‌ रुद्र अद्भुत रूप बनाकर ताण्डवनृत्य करनेको उद्यत हुए । उस समय वे विचित्र वेश-भूषासे विभूषित हो अद्भुत शोभा पा रहे थे । उन्होंने चंचल नागरूपी बेलसे अपनी कमर कस ली थी । मुखपर कुछ-कुछ मुसकराहट खेल रही थी । ललाटमें आधे चन्द्रमाकी रेखा सुशोभित थी । सिरके बाल ऊपरकी ओर खड़े थे । उन्होंने अपने सुन्दर नेत्रकी तथा शरीरमें रमायी हुई विभूतिकी उज्जवल प्रभासे चन्द्रमा और उसकी चाँदनीको मात कर दिया था । नृत्यके समय उनके जटा-जूटसे झरती हुई गंगाके जलसे भगवान्‌का सारा अंग भीग रहा था । ताण्डवकालमें बार-बार अपने चरणारविन्दोंके आघातसे वे समूची पृथ्वीको कम्पित किये देते थे । उत्तम वाद बज रहे थे और हर्षातिरिकसे भगवान्‌के अंगोमें रोमाञ्च हो आया था । देवताओं तथा दैत्योंके अधिपतिगण अपने मुकुटकी मणियोंके प्रकाशसे भगवान्‌ शिवके चरणकमलोंकी शोभा बढ़ाते थे । गणेश, कार्तिकेय तथा गिरिराजनन्दिनी पार्वतीके नेत्र भगवानके मुखपर लगे थे । भक्तोंके हदयमें हर्षकी बाढ़-सी आ गयी थी और बड़े उत्साहसे जय-जयकार कर रहे थे । इस प्रकार भगवान्‌ शिव अपने ताण्डवनृत्यसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित करते हुए शोभा पा रहे थे ।

   तदनन्तर महेश्वरका ताण्डवनृत्य देखकर महर्षि जैमिनि आनन्दके समुद्रमें डूब गये और एकाग्रचित्त हो उनकी स्तुति करने लगे- ` काम्पिल्य देशमें निवास करनेवाली देवि ! ब्रह्मा, विष्णु और शिव तुम्हारे चरणारविन्दोंमें मस्तक झुकाते हैं । जगदम्ब ! तुम्हें नमस्कार है । विघ्नराज ! ब्रह्मा, सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्र और विष्णु आदि आपकी वन्दना करते हैं । गणपते ! आप ब्राह्मणों तथा ब्रह्माजीके अधिपति हैं, आपको नमस्कार है । उमादेवी अपने कोमल करारविन्दोंसे जिनके ललाटमें तिलक लगाती हैं, जो कानोंमें कुण्डल तथा गलेमें कमलपुष्पोंकी माला धारण करते हैं उन कुमार कार्तिकेयको मैं प्रणाम करता हूँ । ब्रह्मा आदिके लिये भी जिनका दर्शन करना अत्यन्त कठिन है उन भगवान्‌ शिवकी स्तुति नमस्कार है । आप आठ अंगोसे युक्त और अत्यन्त मनोरम स्वरूपवाले हैं, क्लेशमें पड़े हुए भक्तोंको अभीष्ट वस्तु प्रदान करनेवाले हैं; आप ( दक्ष ) यज्ञके नाशक और परम संतुष्ट हैं; आप पाँचों भूतोंके स्वामी, कालके नियन्ता, आत्माके अधीश्वर तथा सम्पूर्ण दिशाओंके पालक हैं; आपको बारंबार नमस्कार है । जो सम्पूर्ण विश्वके कर्ता, जगत्‌का भरण-पोषण करनेवाले तथा संसारका संहार करनेवाले हैं; अग्नि जिनका नेत्र और विश्व जिनका स्वरूप है; ईशान ! तत्पुरुष ! वामदेव ! सद्योजात ! आपको नमस्कार है । भस्म ही जिनका आभूषण है, जो भक्तोंका भय भंग करनेवाले हैं, जो भव ( जगत्‌की उत्पत्तिके कारण ), भर्ग ( तेजस्वरूप ), रुद्र ( दुःख-निवारण करनेवाले ) तथा मीढवान्‌ ( भक्तोंकी आशालताकों सींचनेवाले ) हैं, उन भगवान्‌ शिवको नमस्कार हैं । जिनके कपोल, ललाट, भौंहे तथा शरीर सभी परम सुन्दर हैं; जो सोमस्वरूप हैं; उन भगवान्‌ शिवकों नमस्कार है । भगवन्‌ ! सांसारिक क्लेशके कारण होनेवाले महान्‌ भयका सदाके लिये आप उच्छेद करनेवाले हैं । भक्तोंपर कृपाकी वर्षा करनेवाले ! आपको नमस्कार है । जो आनन्दके समुद्र तथा ताण्डवलास्यके द्वारा परम सुन्दर प्रतीत होते हैं उन सम्पूर्ण जगत्‌के स्वामी तथा देवसभाके अधीश्वर अद्भुत देवता महादेवको मैं नमस्कार करता हूँ । यक्षराज कुबेर जिन्हें अपना इष्टदेव मानते हैं उन अविनाशी परम प्रभु महेश्वरको मैं नमस्कार करता हूँ । जो एक बार भी प्रणाम करनेवाले भक्तको संसाररूपी महासागरसे तार देते हैं उन चराचर जगत्‌के स्वामी भगवान्‌ ईशानकों मैं प्रणाम करता हूँ । जो जगत्‌के धारण-पोषण करनेवाले और ईश्वर हैं; समस्त सम्पत्तियोंके दाता हैं; देवताओंके नेता, विजेता तथा स्वयं कभी पराजित न होनेवाले हैं उन भगवान्‌ शिवकी मैं वन्दना करता हूँ । जो मुझे और इन तीनों लोकोंको रचकर सबका धारण-पोषण करते हैं उन कालके भी नियन्ता आप भगवान्‌ गंगाधरकी मैं वन्दना करता हूँ । जिनसे यजुर्वेदके साथ ऋग्वेद और सामवेद भी प्रकट हुए हैं उन सर्वज्ञ, सर्वव्यापी,सर्वस्वरूप, विद्वान्‌ एवं ईश्वर शिवकी मैं वन्दना करता हूँ । जो सम्पूर्ण विश्वको सब ओरसे देखते रहते हैं तथा जिनके भयसे भूत, वर्तमान और भविष्य जगत्‌के जीव पापकर्माका त्याग करते हैं, उन सर्वोत्तम द्रष्टा आप भगवान्‌ शिवकी मैं वन्दना करता हूँ । जो देवताओंके नियन्ता और समस्त पापोंको हर लेनेवाले हर हैं उन भगवान्‌ शिवकों मैं प्रणाम करता हूँ । उत्तम ज्ञानसे सम्पन्न शान्त संन्यासी अपने हृदयकमलमें जिन कल्याणमय परमात्माकी उपासना करते हैं, उन ईशान देवकों मैं प्रणाम करता हूँ ।

   ` ईश ! मैं अज्ञानी, अत्यन्त क्षीण, अशिक्षित, असहाय, अनाथ, दीन, विपत्तिग्रस्त तथा दरिद्र हूँ; आप मेरी रक्षा कीजिये । मैं दुर्मुख, दुष्कर्मी, दुष्ट तथा दुर्दशाग्रस्त हूँ; मेरी रक्षा कीजिये । मैं आपके सिवा दूसरे किसीको ऐसा नहीं देखता, जिसको सिद्धिके लिये वरण करूँ । शम्भो ! राग, द्वेष तथा मदकी लपटोंसे प्रज्वलित संसाररूपी अग्निके द्वारा हम दग्ध हो रहे हैं; दयालो ! आप हमारी रक्षा कीजिये । आपके अनेक नाम हैं और बहुतोंने आपका स्तवन किया है । हर ! मैं परायी स्त्री,पराये घर, पराये वस्त्र, पराये अन्न तथा पराये आश्रयमें आसक्त हूँ; आप मेरी रक्षा करें । मुझे विश्वका भरण-पोषण करनेवाली धन-सम्पत्तिके साथ उत्तम विद्या दीजिये । देवेश ! अनिष्ट तो मुझे सहस्रों मिलते हैं, किंतु इष्ट वस्तुका सदा वियोग ही बना रहता है; आप मेरे मानसिक रोगका नाश कीजिये । भगवन्‌ ! आप महान्‌ हैं । देवेश ! आप ही हमारे रक्षक हैं, दूसरा कोई मेरी रक्षा करनेवाला नहीं है । आप ब्रह्माजीके भी अधिपति हैं, अत: मुझे स्वीकार करके मेरी रक्षा कौजिये । उमापते ! आप ही मेरे माता-पिता, पितामह, आयु, बुद्धि, लक्ष्मी, भ्राता तथा सखा हैं । देवेश ! आप ही सब कर्मके कर्ता हैं, अत: मैंने जो भी दुष्कर्म किया है, वह सब आप क्षमा करें । प्रभुतामें आपको समता करनेवाला कोई नहीं है और लघुतामें मैं भी अपना सानी नहीं रखता । अत: देव ! महादेव ! मैं आपका हूँ और आप मेरे हैं । आपके मुखपर सुन्दर मुसकान सुशोभित है । गोरे अंगोमें लगी हुई विभूति उनकी गौरताको और बढ़ा देती है । आपका श्रीविग्रह बालसूर्यके समान तेजस्वी तथा सौम्य है । आपका मुख सदा प्रसन्न रहता है तथा आप शान्तस्वरूप हैं । मैं मन और वाणीके द्वारा आपके गुणोंका गान करता हूँ । ताण्डवनृत्य करते और मेरी ओर देखते हुए आप भगवान्‌ उमाकान्तको हम सैकड़ों वर्षोतक निहारते रहें, यही हमारा अभीष्ट वर है । महाभाग ! भगवन्‌ ! हम आपके प्रसादसे नीरोग, विद्वान्‌ और बहुश्रुत होकर सैकड़ों वर्षोतक जीवित रहें । ईशान ! स्त्री तथा भाई-बन्धुओंके साथ आपके ताण्डवरूपी अमृतका यथेष्ट पान करते हुए सैकड़ों वर्षोतक आनन्दका अनुभव करते रहें । देवदेव ! महादेव ! हम इच्छानुसार आपके चरणारविन्दोंके मधुर मकरन्दका पान करते हुए सौ वर्षोतक आमोदमें मग्न रहें ।

   ` महादेव ! हम प्रत्येक जन्ममें कीट, नाग, पिशाच अथवा जो कोई भी क्यों न हों, सैकड़ों वर्षोतक आपके दास बने रहें । ईश ! देव ! महादेव ! हम सभामें अपने कानोंद्वारा आपके नृत्य, वाद्य तथा कण्ठकी मधुर ध्वनिका सैकड़ों वर्षोतक श्रवण करते रहें । जो स्मरणमात्रसे संसार-बन्धनका नाश करनेवाले हैं, आपके उन दिव्य नामोंका हम सैकड़ों वर्षोतक कीर्तन करते रहें । जो नित्य तरुण, सम्पूर्ण विश्वके अधिपति तथा त्रिकालदर्शी विद्वान हैं उन भगवान्‌ शिवका मैं कब दर्शन करूँगा । जिसमें बहुत-से पाप भरे हुए हैं, जिसने कभी लेशमात्र भी पुण्यका उपार्जन नहीं किया है तथा जिसकी बुद्धि अत्यन्त खोटी है ऐसे मुझ अधमकों भगवान्‌ महेश्वर क्या कभी अपना सेवक जानकर स्वीकार करेंगे ? गायको ! तुम गाओ;  यदि राग आदि प्राप्त करना चाहते हो तो कुबेरके सखा भगवान्‌ शिवकी महिमाका गान करो । सखी जिह्वे ! तेरा कल्याण हो । तू विद्यादाता उमापतिकी उच्च स्वरसे स्तुति बोला कर । अजन्मा जीव ! तू शान्तभावसे चेत जा, क्या तुझे यह ज्ञात नहीं है कि इन भगवान्‌ शिवकी तृप्तिसे ही यह सम्पूर्ण जगत्‌ तृप्त होता है । इसलिये इनके नामामृतका पान कर । ऐ मेरे चित्त ! जिनकी गन्ध मनोहर और स्पर्श सुखद है, जो सबकी इच्छा पूर्ण करनेवाले हैं तथा चन्द्रमा जिनका आभूषण है उन भगवान्‌ शंकरका गाढ़ आलिंगन कर । त्रिपुरासुरका अन्त करनेवाले भगवान्‌ शिवकों नमस्कार है । तीनों लोकोंके स्वामी दिगम्बर शिवकों नमस्कार है । भवकी उत्पत्तिके कारण भगवान्‌ शिवको नमस्कार है । प्रभो ! आपकी असंख्य प्रजाएँ हैं तथा आपका स्वरूप अत्यन्त विचित्र है । आपसे ही जगत्‌की उत्पत्ति हुई है । जिनका सुवर्णमय पादपीठ देवराज इन्द्रके महाकिरीटमें जड़े हुए नाना प्रकारके रत्नोसे आवृत होता है, भस्म ही जिनका अंगराग है तथा जिनसे भिन्न पर अथवा अपर किसी भी वस्तुकी सत्ता नहीं है, उन परमेश्वर शिवको नमस्कार है । जिन आपमें यह सम्पूर्ण जगत्‌ प्रकट होता और विलीन हो जाता है; जो छोटे-से-छोटे और बड़े-से-बड़े हैं; जिनका कहीं अन्त नहीं है; जो अव्यक्त, अचिन्त्य, एक, दिगम्बर, आकाशस्वरूप, अजन्मा, पुराणपुरुष तथा यज्ञयूपमय हैं उन भगवान्‌ हरको मैं प्रणाम करता हूँ । पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण तथा ऊपर-नीचे सब ओर वे ही तो हैं । जो चन्द्रमाका मुकुट धारण करते हैं तथा जो परमानन्दस्वरूप एवं शोक-दु:खसे रहित हैं; सबके हदयकमलमें परमात्मरूपसे जिनका निवास है; जिनसे सम्पूर्ण दिशाएँ और अवान्तर दिशाएँ प्रकट हुई हैं; उन शिवस्वरूप भगवान्‌ महेश्वरको मैं नमस्कार करता हूँ । चन्द्रमौले ! राग आदि कपट-दोषके कारण प्रकट हुई भवरूपी महारोगसे मैं बड़ी घबराहटमें हूँ । अपनी कृपादृष्टिसे मुझे देखकर आप मेरी रक्षा कीजिये; क्योंकि वैद्योंमे आप सबसे बड़े वैद्य हैं ।

   ` मेरे मनमें दु:खका महासागर उमड़ आया है, मैं लेशमात्र सुखसे भी वद्धित हूँ, पुण्यका तो मैंने कभी स्पर्श भी नहीं किया है और मेंर पातक असंख्य हैं; मैं मृत्युके हाथमें आ गया हूँ और बहुत डरा हुआ हूँ; भगवान्‌ भव ! आप आगे-पीछे, ऊपर-नीचे सब ओरसे मेरी रक्षा कीजिये । महेश ! मैं असार-संसाररूपी महासागरमें डूबकर जोर-जोरसे क्रन्दन कर रहा हूँ;  मेरा राग बहुत बढ़ गया है; मैं सर्वथा असमर्थ हो गया हूँ; आप अपनी कृपादृष्टिसे मेरी रक्षा कीजिये । जिनके मुखपर मनोहर मुसकानकी छटा छा रही है, चन्द्रमाकी कला जिनके मस्तकका आभूषण बनी हुई है तथा जो अन्धकारसे परे हैं, उन सूर्यके समान तेजस्वी भगवान्‌ शिवका माता पार्वतीके साथ कब दर्शन करूँगा ? अनादिकालसे मुक्तिकी इच्छा रखनेवाले जीवो ! तुम सब लोग यहाँ आओ और अपने हदयकमलमें भगवान्‌ शिवका चिन्तन करो; क्योंकि जिन्होंने वेदान्त-शास्त्र ( उपनिषद्‌ )- के विज्ञानद्वारा उसके अर्थभूत परमात्माकों पूर्ण निश्चययपूर्वक जान लिया है, वे ज्ञानीजन मोक्षके लिये सदा उन्हींका ध्यान करते हैं । जो उत्तम पुत्रकी इच्छा रखनेवाले हैं, वे मनुष्य भी इन नित्य तरुण भगवान्‌ शिवकी आराधना करें । इन्हीं से सृष्टिक आरम्भमें जगद्विधाता स्वयम्भू ब्रह्माजी प्रकट हुए थे । बहुत कहनेसे कया लाभ ? इन भगवान्‌ शिवकी शरणमें जानेसे समस्त कामनाएँ सिद्ध होती हैं । पूर्वकालमें इन्हींकी शरण लेकर महर्षि अगस्त्य दिन-रातमें वृद्धावस्थासे युवा हो गये थे । ऐ मेरे नेत्ररूपी भ्रमरो ! तुम और सब कुछ छोड़कर सदा इन भगवान्‌ शिवका ही आश्रय लो । ये आमोदवान्‌ ( सुगन्ध और आनन्दसे परिपूर्ण ) और मृदु ( कमलसे भी कोमल ) हैं । परम स्वादिष्ट एवं मधुर हैं; ये तुम्हारा कल्याण करेंगे । ओ मनुष्य ! तुम भगवान्‌ शिवकी शरण लेकर ऐसे हो जाओगे कि तुम्हारी किसीसे भी तुलना नहीं हो सकेगी । तुम समस्त मनुष्यों और देवताओंको भी अपने गुणोंसे परास्त कर दोगे । वाणी तुम्हें नमस्कार है; तुम हृदयगुफामें शयन करनेवाले इन नित्य-तरुण भगवान्‌ महेश्वरकी स्तुति करो । मन ! तू जिस-जिस अभीष्ट वस्तुका चिन्तन करेगा, वह सब तुझे अवश्य प्राप्त होगी । विषयोंमें कभी दुः:खसे छुटकारा नहीं मिल सकता । हम हृदयकी शुद्धिकि लिये भगवान्‌ रुद्रकी आराधना करेंगे । दयालु भगवन्‌ ! हमने पूर्वकालमें अज्ञानवश जो आपके विरुद्ध अपराध या दुष्कर्मका अनुष्ठान किया है, वह सब क्षमा करके जैसे पिता अपने पुत्रोंको आश्रय देता है उसी प्रकार आप हमें भी अपनाइये ।

   ` संसार नामक क्रोधमें भरे हुए सर्पने राग, द्वेष, उन्माद और लोभ आदिरूप तीखे दाँतोंसे मुझे डँस लिया है । इस अवस्थामें मुझे देखकर सबकी रक्षा करनेवाले दयालु देवता पिनाकधारी भगवान्‌ शिव मेरी रक्षा करें । रुद्रदेव ! जो लोग समाधिके अन्तमें उपर्युक्त वचन कहकर आपको नमस्कार करते हैं, वे जन्म-मृत्युरूपी सर्पसे डसे हुए लोग संत होकर आपको प्राप्त होते हैं । नीलग्रीव ! मैं जीवात्मारूपसे ब्रह्माजीके साथ आपकी वन्दना करता हुआ आपकी ही शरण आता हूँ । अनाथनाथ वसुस्वरूप ! महेश्वर ! हम सांसारिक चिन्ताके भीषण ज्वरसे पीडित हैं; बड़े-बड़े रोगोंसे ग्रस्त हो गये हैं; समस्त पातकोंके निवासस्थान बने हुए हैं;  कालकी दृष्टि हमसे दूर नहीं है; ऐसी दशामें आप अपने औषधरूप हाथसे हमारा स्पर्श करें । शूरवीर ! आपका करस्पर्श सब प्रकारकी सिद्धियोंका हेतु है । आप कालके भी काल हैं । संसारकी उत्पत्तिके हेतुभूत भगवान्‌ भवको नमस्कार है । भस्मभूषित वक्षवाले हरको नमस्कार है । संसारके पराभव और भयमें साथ देनेवाले पिनाकधारी रुद्रको नमस्कार है । विश्वके पालक कल्याणस्वरूप शिवको नमस्कार है । जीवके सनातन सखा उन महेश्वरको नमस्कार है, जिनके सखारूप जीवको न तो कोई मार सकता है और न कोई परास्त ही कर सकता है । देवताओंके पति, इन्द्रके भी स्वामी भगवान्‌ शिवको नमस्कार है । प्रजापतियोंकि और भूमिपतियोंकि भी अधिपति भगवान्‌ शिवको नमस्कार है तथा अम्बिकापति उमापतिको नमस्कार है, नमस्कार है । ` जो प्रणतजनोंकी पीड़ाका नाश करनेवाले, त्रिकालदर्शी, विद्वानोंमें भी सबसे श्रेष्ठ विद्वान्‌ और उत्तम यशवाले हैं उन भगवान्‌ गणेशको मैं नित्य नमस्कार करता हूँ । देवतालोग युद्धमें जिन स्कन्दस्वामीका आवाहन करके विजय पाते हैं उन सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान्‌ सुब्रह्मण्यकी मैं वन्दना करता हूँ । सुब्रह्मण्य- स्कन्दस्वामी सच्चिदानन्दमय हैं । कल्याणमयी जगदम्बिकाको नमस्कार है । कल्याणमय विग्रहवाली शिवप्रियाको नमस्कार है । जिनके शरीरकी कान्ति सुवर्णके समान है; जो अपने चरणोंमें मणिमय नूपुर धारण करती हैं; जिनका मुख सदा प्रसन्न रहता है;  जो अपने हाथोंमें कमल धारण किये रहती हैं;  जिनके नेत्र विशाल हैं, जो भाषाशास्त्रकी विदुषी तथा उत्तम वचन बोलनेवाली हैं, उन गौरीदेवीको मैं प्रणाम करता हूँ । मैं मेनाकी पुत्री उन उमादेवीको नमस्कार करता हूँ । जो अप्रमेय हैं- जिनकेसौन्दर्य आदि दिव्य गु्णोंका माप नहीं है तथा जो परम कान्तिमती हैं एवं जो सदा भगवान्‌ शंकरके पार्शवभागमें रहती हैं और समस्त भुवनोंको देखा करती हैं, उन पार्वतीदेवीको मैं नमस्कार करता हूँ । दीनजनोंकी रक्षा जिनके लिये मनोरंजनका कार्य है; जो मान और आनन्द देती हैं तथा जो विद्याओं और मधुर एवं मंगलमयी वाणीकी नायिका और सिद्धिकी स्वामिनी हैं, उन पार्वतीजीकों मैं प्रणाम करता हूँ । भवानी ! आप सांसारिक तापके महान्‌ भयका निवारण करनेवाली हैं । अन्न, वस्त्र और आभूषण आदि एकमात्र आपके ही उपभोग हैं । शिवे ! आप मुझे वह श्रेष्ठ बुद्धि प्रदान कीजिये जो कहीं भी कुण्ठित न होनेवाली हो तथा जिसके द्वारा हम समस्त पापोंको लाँघ जायँ । शिवे ! आपकी उपमा कैसे और कहाँ दी जाय ? सम्पूर्ण जगत्‌की सृष्टि आपके लिये खिलवाड़ है । कल्याणमय भगवान्‌ शिव आपके पति हैं । साक्षात्‌ भगवान्‌ विष्णु आपके सेवक हैं । लक्ष्मी, शची और सौभाग्यवती सरस्वती आपकी दासियाँ हैं तथा आप स्वयं ही वसु ( रत्न, धन, सुवर्ण आदि ) देनेवाली हैं ।’

  पुरोहित वसु कहते हैं- महामुनि जैमिनिने उपर्युक्त स्तुतिके द्वारा इस प्रकार भगवान्‌ शंकरका स्तवन करके प्रेमाश्रुपूर्ण नयनोंसे देखते हुए सभापति भगवान्‌ शिवको प्रणाम किया । उन्होंने बारम्बार भगवान्‌ शिवके ताण्डव नृत्यरूप मंगलमय अमृतका पान करके सम्पूर्ण कामनाएँ पा लीं और अन्तमें शिवगणोंका आधिपत्य प्राप्त कर लिया । जो प्रतिदिन इस स्तोत्रके एक श्लोक, आधे श्लोक, ‘ एक पाद अथवा आधे पादको भी धारण करता है, वह शिवलोकमें जाता है । शुभे ! जहाँ भगवान्‌ शिवने ताण्डवनृत्य किया था, वह स्थल पवित्रसे भी परम पवित्र तीर्थ बन गया । वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य मुक्त हो जाता है । जो श्रेष्ठ मानव वहाँ पितरोंका श्राद्ध करता है, वह अपने पूर्वजोंको स्वर्गलोक पहुँचा देता है । जो उस तीर्थमें ब्राह्मणकों गौ, सुवर्ण, भूमि, शय्या, वस्त्र, छाता, अन्न और पान ( पीनेयोग्य वस्तु ) देता है, उसका वह समस्त दान अक्षय होता है ।

अध्याय १६५ परशुरामजीके द्वारा गोकर्णक्षेत्रका उद्धार तथा उसका माहात्म्य

मोहिनी बोली- गुरुदेव ! आपके द्वारा कहे हुए पुण्डरीकपुरके माहात्म्यको मैंने सुना । अब  तीस योजन मुझे गोकर्णतीर्थका माहात्म्य बताइये ।

    पुरोहित वसुने कहा- मोहिनी ! पश्चिम समुद्रके तटपर ‘ गोकर्णतीर्थ ‘  है, जिसका विस्तार दो कोसका है। वह दर्शनमात्रसे भी मोक्ष देनेवाला है। देवि! सगरके पुत्रॉंने क्रमश: पृथ्वी खोद डाली तो वहाँतक समुद्र बढ़ आया और उसने आसपासकी तीस योजन विस्तृत तीर्थ, क्षेत्र और वनोसहित भूमिकों जलसे आप्लावित कर दिया । तब वहांके रहनेवाले देवता, असुर और मनुष्य सब-के-सब वीएच स्थान छोड़कर सह्य आदि पर्वतोपर जा बसे । तब गोकर्ण नमक उत्तम तीर्थ समुद्रके भीतर छिप गया । तब श्रेष्ठ मुनियोंने इस बातका विचार करके गोकर्णतीर्थके उद्धारमे मन लगाया ।           पर्वतपर ठहरे हुए वे सब महात्मा आपसमें सलाह करके महेन्द्रपर्वतपर रहनेवाले परशुरामजीके दर्शनके लिये वहाँ गये । उनकी यह यात्रा गोकर्णतीर्थके उद्धारकी इच्छासे हुई थी । महेन्द्रपर्वतपर आरूढ़ हो महर्षियोंने परशुरामजीका आश्रम देखा । वेदमंत्रोके उच्चघोषसे वह सारा आश्रम गूँज उठा था । महर्षियोंने प्रसन्नचित्त होकर उस समय उस आश्रममें प्रवेश किया। परशुरामजी ब्रह्मासन पर कोमल एवं काला मृगचर्म बिछाकर सुखपूर्वक बैठे थे । ऋषियोंने शान्तभावसे बैठे हुए तपस्वी परशुरामकों देखा । महर्षियोंने उनको विनयपूर्वक प्रणाम किया ।

   तदनन्तर भृगुवंशियोंमें श्रेष्ठ परशुरामजीने उन मुनियोंको आया देख अर्घ्य, पाद्य आदि सामग्रियों से उनका आदरपूर्वक पूजन किया । आतिथ्य ग्रहण करके जब वे सुखपूर्वक आसनपर बैठ गये तब भृगुनन्दन परशुरामजीने कहा- ‘ महाभाग महर्षिगण ! आपका स्वागत है । आपलोग जिस उद्देश्यसे यहाँ पधारे हुए हैं, उसे निर्भय होकर कहें । उसकी मैं पूर्ति करूँगा ।’ तब वे मुनिश्रेष्ठ जिस कार्यके लिये परशुरामजीके पास आये थे, उसे बताते हुए बोले- ‘ भृगुश्रेष्ठ ! आपको ज्ञात होना चाहिये कि हमलोग गोकर्णतीर्थमें निवास करनेवाले मुनि हैं । राजा सगरके पुत्रोंने पृथ्वी खोदकर हमें उस तीर्थसे बाहर निकाल दिया है । विप्रेन्द्र ! अब आप ही अपने प्रभावसे समुद्रका जल हटाकर वह उत्तम क्षेत्र हमें देनेके योग्य हैं ।’ उन्होंने उन महर्षियोंकी बात सुनकर निश्चय किया कि साधु पुरुषोंकी रक्षा धर्मका कार्य है; अत: इसे करना चाहिये। तब अपने धनुष-बाण लेकर वे उन मुनियोंके साथ चले । महेन्द्र पर्वतसे उतरकर मुनियोंके साथ समुद्रके तटपर जा पहुँचे । वहाँ वक्ताओंमें श्रेष्ठ परशुरामजीने मेघके समान गम्भीर वाणीद्वारा जल-जन्तुओंके स्वामी वरुणकों सम्बोधित करके कहा- ‘ प्रचेता वरुणदेव ! मैं भृगुवंशी परशुराम मुनियोंके साथ एक विशेष कार्यसे यहाँ आया हूँ, दर्शन दीजिये; आपसे अत्यन्त आवश्यक काम है ।’  परशुरामजीके इस प्रकार पुकारनेपर उनकी बात सुनकर भी वरुणदेव अहंकारवश उनके समीप नहीं आये । इस प्रकार बार-बार परशुरामजीके बुलानेपर भी जब वे नहीं आये तब भृगुवंशी परशुरामने अत्यन्त कुपित होकर धनुष उठाया और उसपर अग्निबाण रखकर समुद्रको सुखा देनेके लिये उसका संधान किया । भद्रे ! महात्मा परशुरामद्वारा उस आग्नेय अस्त्रके संधान करते ही जल-जन्तुओंसे भरा हुआ समुद्र क्षुब्ध हो उठा । परशुरामजीके उस अस्त्रकी आँचसे वरुण भी जलने लगे । तब भयभीत होकर वे प्रत्यक्षरूपसे वहाँ आये और उन्होंने परशुरामजीके दोनों पैर पकड़ लिये । यह देख परशुरामजीने अपना अस्त्र लौटा लिया और वरुणसे कहा- ‘ तुम अपना सारा जल शीघ्र हटा लो जिससे भगवान्‌ गोकर्णका दर्शन किया जाय ।’ तब परशुरामजीकी आज्ञासे वरुणने गोकर्ण-तीर्थका जल हटा लिया; परशुरामजी भी गोकर्णनाथ महादेवका पूजन करके फिर महेन्द्रपर्वतपर चले गये और वे ब्राह्मण ऋषि-मुनि वहीं रहने लगे । उन उत्तम व्रतका पालन करनेवाले सम्पूर्ण महर्षियोंने वहाँ तपस्या करके पुनरावृत्तिरहित परम निर्वाणरूप मोक्ष प्राप्त कर लिया । उस क्षेत्रके प्रभावसे प्रसन्न होकर पार्वती-देवी, भूतगण तथा सम्पूर्ण देवताओंके साथ भगवान्‌ शंकर वहाँ नित्य निवास करते हैं । उन गोकर्णनाथ महादेवके दर्शनसे सारे पाप मनुष्यको तत्काल छोड़कर चले जाते हैं । जिसके स्मरण करनेमात्रसे मनुष्य सब पा्पोंसे मुक्त हो जाता है, वह गोकर्ण नामक क्षेत्र सब तीर्थोंका निकेतन है । जो वहाँ काम-क्रोधादि दोषोंसे रहित होकर निवास करते हैं, वे थोड़े ही समयमें सिद्धि प्रात कर लेते हैं । सती मोहिनी ! उस तीर्थमें किये हुए दान, होम, जप, श्राद्ध, देवपूजन तथा ब्राह्मण-समादर आदि कर्म अन्य तीर्थोंकी अपेक्षा कोटिगुने होकर फल देते हैं ।

अध्याय १६६ श्रीराम— लक्ष्मणका संक्षिप्त चरित्र तथा लक्ष्माणचलका माहात्म्य

मोहिनी बोली— पुरोहितजी ! गोकर्णतीर्थका पापनाशक माहात्म्य मैंने सुना; अब लक्ष्मणतीर्थका माहात्म्य बतानेकी कृपा करें ।

   पुरोहित वसुने कहा- प्राचीन कालकी बात है, ब्रह्मा आदि देवताओंके प्रार्थना करनेपर साक्षात्‌ लक्ष्मीपति भगवान्‌ विष्णु ही राजा दशरथसे चार स्वरूपोंमें प्रकट हुए । वे ही राम-लक्ष्मण आदि नामसे प्रसिद्ध हुए । देवि ! तत्पश्चात्‌ कुछ कालके अनन्तर मुनीश्वर विश्वामित्र अयोध्यामें आये । उन्होंने अपने यज्ञकी रक्षाके लिये श्रीराम और लक्ष्मणको राजासे माँगा । तब राजा दशरथने मुनिके शापसे डरकर अपने प्राणोंसे भी प्रिय पुत्र श्रीराम और लक्ष्मणको उन्हें सौंप दिया । तब वे दोनों भाई मुनीश्वर विश्वामित्रके यज्ञमें जाकर रक्षा करने लगे । श्रीरामने ताड़कासहित सुबाहुकों मारकर मारीचकों मानवास्त्रसे दूर फेंक दिया; फिर मुनिने उनका बड़ा सत्कार किया । तदनन्तर विश्वामित्रजी उन्हें राजा विदेहके नगरमें ले गये । वहाँ महाराज जनकने विश्वामित्रजीका भलीभाँति सत्कार करके उनसे पूछा- ‘ महर्षे ! ये दोनों बालक किस क्षत्रिय-कुल-नरेशके पुत्र हैं ?’ तब मुनिवर विश्वामित्रने राजा जनकको यह बताया कि ` ये दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण महाराज दशरथके पुत्र हैं ।’ यह सुनकर विदेहराज जनक बड़े प्रसन्न हुए । फिर महर्षि विश्वामित्र जनकसे बोले- ` इन्हें वह धनुष दिखाओ जो महादेवजीकी धरोहर है और सीताके स्वयंवरके लिये तोड़नेकी शर्तके साथ रखा गया है ।’  विश्वामित्रजीका यह वचन सुनकर राजा जनकने तत्काल तीन सौ सेवकोंद्वारा उस धनुषकों मँगवाकर आदरपूर्वक उन्हें दिखाया । श्रीरामने महादेवजीके उस धनुषकों उसी क्षण बायें हाथसे उठा लिया और उसपर प्रत्यका चढ़ाकर खींचते हुए सहसा उसे तोड़ डाला । इससे मिथीला-नरेशको बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने श्रीराम और लक्ष्मणकी पूजा करके उन्हें वैदिक विधिके अनुसार अपनी दोनों कन्याएँ दे दीं मुनिवर विश्वामित्रसे यह जानकर कि राजा दशरथके बुलवाया और अपने भाईकी दो पुत्रियोंका उन दोनों भाइयेंकि साथ ब्याह कर दिया । तदनन्तर मिथिलानरेशके द्वारा भलीभाँति सम्मानित हो मुनिकी आज्ञा ले अपने चारों विवाहित पुत्रोके साथ महाराज दशरथ अयोध्यापुरीके लिये प्रस्थित हुए । मार्गमें श्रीरामचन्द्रजीने भृगुपति परशुरामजीके गर्वकों शान्त किया और पिता तथा भाइयोंकि साथ वे बहुत वर्षोतक आनन्दपूर्वक रहे । तदनन्तर राजा दशरथ यह देखकर कि मेंरे पुत्र श्रीराम जाननेयोग्य सभी तत्वोको जान चुके हैं, उन्हें प्रसन्नतापूर्वक युवराजपदपर अभिषिक्त करनेके लिये उद्यत हुए । यह जानकर राजाकी सबसे अधिक प्रियतमा छोटी रानी कैकेयीने हटपूर्वक रामके राज्याभिषेकको रोका और अपने पुत्र भरतके लिये उस अभिषेकको पसंद किया । शुभे ! तब माता कैकेयीकी प्रसन्नताके लिये पिताकी आज्ञा ले, श्रीरामचन्द्रजी अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मणके साथ चित्रकूट पर्वतपर चले गये और वहीं मुनिवेष धारण करके उन्होंने कुछ कालतक निवास किया ।

   इधर भरतजी पिताके मरनेका समाचार सुनकर अपने नानाके घरसे अयोध्या आये । यहाँ उन्हें मालूम हुआ कि पिताजी ` हा राम ! हा राम !!`- की रट लगाते हुए परलोकवासी हुए हैं; तब भरतजीने कैकेयीको धिक्कार देकर श्रीरामचन्द्रजीको लौटा  लानेके लिये वनको प्रस्थान किया;  किंतु वहाँसे श्रीरामने भरतकों अपनी चरण-पादुका देकर अयोध्या लौटा दिया । श्रीराम क्रमश: अत्रि, सुतीक्ष्ण तथा अगस्त्यके आश्रमोंपर गये । इन सब स्थानोंमें बारह वर्ष बिताकर श्रीरघुनाथजी भाई और पत्नीके साथ पंचवटीमें गये और वहाँ रहने लगे । जनस्थानमें शुर्पणखा नामकी राक्षसी रहती थी । श्रीरामका प्रेरणासे लक्ष्मणने उसकी नाक काटकर उसे विकृत बना दिया । तब उस राक्षसीसे प्रेरित होकर युद्धके लिये आये हुए चौदह हजार राषक्षसोंसहित खर, दूषण और त्रिशिराकों श्रीरामचन्द्रजीने नष्ट कर दिया । यह समाचार सुनकर राक्षसोंका राजा रावण वहाँ आया । उसने मारीचको सुवर्णमय मृगके रूपमें दिखाकर उसके पीछे दोनों भाइयोंको आश्रमसे दूर हटा दिया और सीताको हर लिया । उस समय जटायुने उसका मार्ग रोका, परंतु रावण उसे मारकर सीताकों लंकामें ले गया । दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण जब लौटकर आश्रमपर आये तो सीताका हरण हो चुका था । अब वे सब ओर उनकी खोज करने लगे । मार्गमें जटायुको गिरा देख उसके मरनेपर दोनों भाइयोंने उसका दाह-संस्कार किया । फिर कबन्धको मारकर शबरीपर कृपा की । वहाँसे ऋष्यमूक पर्वतपर आये । तत्पश्चात्‌ हनुमानूजीके कहनेसे अपने मित्र वानरराज सुग्रीवके शत्रु बालिका वध करके श्रीरामने सुग्रीवको राजा बनाया । फिर सुग्रीवकी आज्ञासे सीताकी खोजके सब ओर वानर गये । हनुमान्‌ आदि वानर सीताको ढूँढ़ते हुए दक्षिण समुद्रके तटपर गये । वहाँ सम्पातिके कहनेसे उन्हें यह निश्चय हो गया कि सीताजी लंकामें हैं । तदनन्तर अकेले हनुमानजी समुद्रके दूसरे तटपर बसी हुई लंकापुरीमें गये और वहाँ रामप्रिया सती सीताको उन्होंने देखा तथा श्रीरामचन्द्रजीकी अँगूठी उन्हें देकर अपने प्रति उनके मनमें विश्वास उत्पन्न किया; फिर उन दोनों भाइयोंका कुशल-समाचार सुनाकर उनसे चूड़ामणि प्राप्त की । तदनन्तर अशोकवाटिकाको उजाड़कर सेनासहित अक्षकुमारको मारा और मेघनादके बन्धनमें आकर रावणसे वार्तालाप किया । तत्पश्चात्‌ सम्पूर्ण लंकापुरीको जलाकर पुन: मिथिलेश-नन्दिनी सीताका दर्शन किया और उनकी आज्ञा ले समुद्र लॉँघकर श्रीरामचन्द्रजीसे उनका समाचार निवेदन किया । सीता राक्षसराज रावणके निवासस्थानमें रहती हैं- यह सुनकर श्रीरामचन्द्रजी भी वानर-सेनाके साथ समुद्रके तटपर पहुँचे । फिर समुद्रकी ही अनुमति लेकर उन्होंने महासागरपर पर्वतीय शिलाखण्डोंसे पुल बाँधा और उसके द्वारा दूसरे तटपर पहुँचकर सेनाकी छावनी डाली । तदनन्तर अपने छोटे भाई विभीषणके समझानेपर भी रावणकों यह बात नहीं रुची कि सीता अपने पतिकों वापस दे दी जाय । रावणने विभीषणको लातसे मारा और विभीषण श्रीरामचन्द्रजीकी शरणपमें गये । तब श्रीरामचन्द्रजीने लंकाकों चारों ओरसे घेर लिया । तदनन्तर रावणने क्रमश: अपने मन्त्रियों, अमात्यों, पुत्रों और सेवकोंको युद्धके लिये भेजा; किंतु वे सब श्रीराम-लक्ष्मण तथा कपीश्वरोंद्वारा नष्ट कर दिये गये । लक्ष्मणने इन्द्रविजयी मेघनादकों तीखे बाणोंसे मार डाला । इधर श्रीरामने भी कुम्भकर्ण तथा रावणकों मौतके घाट उतार दिया । इसके बाद श्रीरामने अपनी प्रियतमा सीताकी अग्निपरीक्षा ली और विभीषणकों राक्षसोंका आधिपत्य, लंका तथा एक कल्पकी आयु देकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करके सुग्रीव और विभीषणके साथ पुष्पक-विमानद्वारा अयोध्याको प्रस्थान किया । भरतजी नन्दिग्राममें रहते थे । उन्हें साथ लेकर श्रीरामचन्द्रजी अयोध्यामें गये । फिर चारों भाइयोंने अपनी सब माताओंको प्रणाम किया । तदनन्तर पुरोहित वसिष्ठकी आज्ञा लेकर भाइयोंने श्रीरामका राजाके पदपर अभिषेक किया । भगवान्‌ श्रीराम भी प्रजाका औरस पुत्रकी भाँति पालन करने लगे । धर्मके ज्ञाता श्रीरामने लोकनिन्दासे डरकर सीतादेवीको त्याग दिया । गर्भवती सीता वाल्मीकि मुनिके आश्रमपर जाकर सुखसे रहने लगीं । वहाँ उन्होंने दो पुत्र उत्पन्न किये, जिनके नाम थे कुश और लव । महर्षि वाल्मीकिने उन दोनेंकि जातकर्म आदि संस्कार शास्त्रोकत विधिसे किये । उन उदारबुद्धि महर्षिने रामायण महाकाव्यकी रचना करके उन दोनों बालकोंको पढ़ाया । वे दोनों बालक मुनियोंके यज्ञोंमें रामायणगान करते थे । इसके कारण उनकी सर्वत्र ख्याति फैल गयी । एक समय श्रीरामचन्द्रजीका अश्वमेध-यज्ञ प्रारम्भ होनेपर वे दोनों भाई कुश और लव उस यज्ञमें गये । वहाँ उन दोनोंके मुँहसे अपने चरित्रका गान सुनकर श्रीरामचन्द्रजी बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने यज्ञसभामें सीताके साथ महर्षि बाल्‍्मीकिको बुलवाया । जगदम्बा सीताने वहाँ आकर अपने दोनों पुत्र श्रीरामचन्द्रजीको सौंप दिये और स्वयं उन्होंने पृथ्वीके विवरमें प्रवेश किया । यह एक अद्भुत घटना हुई । तबसे श्रीरामचन्द्रजी केवल ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए इस पृथ्वीपर यज्ञानुष्ठानमें ही लगे रहे । तदनन्तर एक समय काल और दुर्वासा मुनि श्रीरामचन्द्रजीके पास आये । भद्रे ! कालकों ब्रह्माजीने भेजा था और श्रीरामसे वैकुण्ठ- धाममें पधारनेके लिये प्रार्थना करने आये थे । उन्होंने एकान्तमें आकर श्रीरामसे कहा- ‘ इस समय कोई भी यहाँ न आवे । यदि कोई आये तो आप उसका वध कर डालें ।’ श्रीरामने ऐसा करनेकी प्रतिज्ञा की । तत्पश्चात्‌ रघुनाथजीने लक्ष्मणको बुलाकर कहा- तुम यहाँ द्वारपर खड़े रहो । किसीको भीतर न आने देना । यदि कोई भीतर प्रवेश करेगा तो वह मेरा वध्य होगा ।’  तब लक्ष्मण ` बहुत अच्छा ‘ कहकर श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञाके पालनमें लग गये । इतनेहीमें महर्षि दुर्वासा राजद्वारपर लक्ष्मणके समीप आये । उन्हें आया देख लक्ष्मणने प्रणाम करके कहा- ‘  भगवन्‌ ! दो घड़ी प्रतीक्षा कीजिये । इस समय श्रीरघुनाथजी मन्त्रणामें लगे हैं ।’ उन्होंने लक्ष्मणकी बात सुनकर उनसे क्रोधपूर्वक कहा- ‘ मुझे भीतर जाने दो; नहीं तो मैं अभी तुम्हें भस्म कर दूँगा ।’ दुर्बासाका वचन सुनकर लक्ष्मणजी घबरा गये । वे मुनिसे भयभीत हो अपने बड़े भाईको सूचना देनेके लिये स्वयं भीतर चले गये । लक्ष्मणको आया देख कालदेव उठे । उनकी मन्त्रणा पूरी हो चुकी थी । वे श्रीरामसे बोले- ‘ आप अपनी प्रतिज्ञाका पालन कीजिये ।’ ऐसा कहकर श्रीरामसे विदा ले वे चले गये । तब धर्मात्माओमें श्रेष्ठ भगवान्‌ श्रीराम राजभवनसे निकले और दुर्वासा मुनिको संतुष्ट करके उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें भोजन कराया । भोजन कराकर उन्हें प्रणाम किया और विदा करके लक्ष्मणसे कहा- ‘ भैया लक्ष्मण ! धर्मके कारण बड़ा भारी संकट आ गया, क्योंकि तुम मे वध्य हो गये । दैव बड़ा प्रबल है । वीर ! मैंने तुझे त्याग दिया ( यही तुम्हारे लिये वध है )। अब तुम जहाँ चाहो, चले जाओ ।’  तब सत्य-धर्ममें स्थित रहनेवाले श्रीरामको प्रणाम करके लक्ष्मणजी दक्षिण दिशामें जाकर एक पर्वतके ऊपर तपस्या करने लगे । तदनन्तर भगवान्‌ श्रीराम भी ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे साकेतपुरी और कौसल्या-प्रान्तके समस्त प्राणियोंके साथ शान्तभावसे अपने परमधामकों चले गये । उस समय सरयूके गोप्रतारघाटमें श्रीरामका चिन्तन करके जिन लोगोंने गोता लगाया, वे दिव्य शरीर धारण करके योगिदुर्लभ श्रीराम-धाममें चले गये । लक्ष्मणजी कुछ कालतक तपमें लगे रहे;  फिर तपस्या एवं योगबलसे युक्त हो श्रीरामका अनुगमन करते हुए अविनाशी धाममें प्रवेश कर गये   सुमित्रानन्दन लक्ष्मणने उस पर्वतकों प्रतिदिन अपने सान्निध्यका वर दिया और उसपर अपना अधिकार रखा; अत: वह लक्ष्मणजीका उत्तम क्षेत्र है । जो मनुष्य लक्ष्मणपर्वतपर भक्तिभावसे लक्ष्मणजीका दर्शन करते हैं, वे कृतार्थ होकर श्रीहरिके धाममें जाते हैं । उस तीर्थमें सुवर्ण, गौ, भूमि तथा अश्वके दानकी प्रशंसा की जाती है । वहाँ किया हुआ दान, होम, जप और पुण्यकर्म सब अक्षय होता है ।

अध्याय १६७ सेतु— क्षेत्रके विभिन्न तीर्थोंकी महिमा

मोहिनी बोली- द्विजश्रेष्ठ ! आपको बार-बार साधुवाद है ! क्योंकि आपने मुझे पूरी रामायणकी कथा सुना दी, जो मनुष्योंके समस्त पापोंका नाश और उनके पुण्यकी वृद्धि करनेवाली है । अब मैं आपसे सेतु ( सेतुबन्ध रामेश्वर )- का उत्तम माहात्म्य सुनना चाहती हूँ ।

   पुरोहित वसुने कहा— देवि ! सुनो, मैं तुम्हें उस सेतुका उत्तम माहात्म्य बतलाता हूँ, जिसका दर्शन करके मनुष्य संसार-सागरसे मुक्त हो जाता है । सेतुतीर्थका दर्शन परम पुण्यमय है,  जहाँ भगवान्‌ रामेश्वर विराजमान हैं । वे दर्शनमात्रसे मनुष्योंको अमरत्व प्रदान करते हैं । जो मनुष्य अपने मनको वशमें करके श्रीरामेश्वरका पूजन करता है, वह समस्त ऐश्वर्योंका भागी होता है । यहाँ दूसरा चक्र-तीर्थ भी है, जो पापोंका नाश करनेवाला है । वहाँ स्नान, दान, जप और होम करनेपर वह अनन्तगुना हो जाता है । सुभगे ! यहाँसे पापविनाशनतीर्थमें जाकर स्नान करनेसे मनुष्यके सारे पाप धुल जाते हैं और वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है । इसके बाद सीताकुण्डमें जाकर वहाँ भलीभाँति स्नान करके जो देवताओं और पितरोंका तर्पण करता है, वह समस्त कामनाओंकों प्राप्त कर लेता है । फिर मंगलतीर्थमें जाकर वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य पापमुक्त होता है । अमृतवापीतीर्थमें स्नान करके मरणधर्मा मानव अमरत्व प्राप्त कर लेता है । ब्रह्मकुण्डमें स्नान करनेसे मनुष्यको ब्रह्मलोककी प्राप्ति होती है । लक्ष्मणतीर्थमें स्रान करनेसे मनुष्य योगगति पाता है । हनुमत्‌-कुण्डमें स्नान करके मनुष्य शत्रुओंके लिये दुर्जय हो जाता है । रामकुण्डमें स्नान करनेवाला मानव श्रीरामका सालोक्य प्राप्त करता है । अग्रितीर्थमें स्नान करके मनुष्य सब पापोंसे छूट जाता है । शिवतीर्थमें स्नान करनेसे शिवलोककी प्राप्ति होती है । शंखतीर्थमें स्नान करनेवाला मनुष्य दुर्गतिमें नहीं पड़ता । कोटितीर्थमें गोता लगाकर मानव सम्पूर्ण तीर्थोंका फल पाता है । धनुष्कोटितीर्थमें विधिपूर्वक स्नान करनेवाला पुरुष बन्धनोंसे मुक्त हो जाता है। गायत्री तथा सरस्वतीतीर्थमें स्नान करनेवाला पुरुष पापसे मुक्त हो जाता है । ऋणमोचनतीर्थ आदिमें स्नान करके मनुष्य सब प्रकारके ऋणसे छूट जाता है । शुभे ! इस प्रकार मैंने सेतु ( सेतुबन्ध रामेश्वर)- के तीर्थोंका माहात्म्य बताया है, जो पढ़ने और सुननेवाले पुरुषोंके सब पापोंका नाश कर देता है ।

अध्याय १६८ नर्मदाके तीर्थोंका दिग्ददर्शन तथा उनका माहात्म्य

मोहिनी बोलीद्विजश्रेष्ठ ! मैंने सेतुतीर्थका ! उत्तम माहात्म्य सुन लिया । अब नर्मदाके तीर्थ-समुदायका वर्णन सुनना चाहती हूँ ।

   पुरोहित वसुने कहा—मोहिनी ! मैं नर्मदाके दोनों तटोंपर विद्यमान तीर्थोंका वर्णन करता हूँ। उत्तर तटपर ग्यारह और दक्षिण तटपर तेईस तीर्थ हैं । नर्मदा और समुद्रके संगमको पैंतीसवाँ तीर्थ कहा गया है । ॐकार-तीर्थके दोनों ओर अमरकण्टक पर्वतसे दो कोस दूरतक सब दिशाओमें साढ़े तीन करोड़ तीर्थ विद्यमान हैं । एक करोड़ तीर्थ तो कपिलासंगममें हैं । अशोकवनिकामें एक लाख तीर्थ प्रतिष्ठीत हैं । आँगरगर्ताके सौ और कब्जाका दस हजार तीर्थ कहे गये हैं । वायुसंगममें सहस्र और सरस्वतीसंगममें सौ तीर्थ स्थित हैं । शुक्ल-तीर्थमें दो सौ, विष्णु-तीर्थमें एक हजार तीर्थ हैं माहिष्मतीमें एक सहस्त्र और शूलभेद-तीर्थमें दस हजार तीर्थोंकी स्थिति मानी गयी है । देवग्राममें एक सहस्र और उलूक-तीर्थमें सात सौ तीर्थ हैं । मणि नदीके संगममें एक सौ आठ तीर्थ हैं । वैद्यनाथमें एक सौ आठ और घटेश्वरमें भी उतने ही तीर्थ हैं। नर्मदा-समुद्र-संगममें डेढ़ लाख तीर्थोंका निवास बताया गया है । व्यासद्वीपमें अट्टासी हजार एक सौ तीर्थ हैं । करज्ञासंगममें दस हजार आठ तीर्थ हैं । एरण्डीसंगममें एक सौ आठ तीर्थ हैं । धूतपाप-तीर्थमें अड्सठ और कोकिलमें डेढ़ करोड़ तीर्थ हैं । नरेश्वरि ! रोमकेशमें सहस्र, द्वादशार्कमें सहस्र तथा शुक्ल-तीर्थमें आठ लाख दो हजार तीर्थ हैं । सभी संगमोंमें एक सौ आठ तीर्थोंकी स्थिति मानी गयी है । कावेरी-संगम या नन्द-तीर्थमें पाँच सौ अवान्तर तीर्थ हैं । भृगुक्षेत्रें एक करोड़ और भारभूतिमें एक सौ आठ तीर्थ विद्यमान हैं । अक्रूरेश्वरमें डेढ़ सौ और विमलेश्वरमें एक लाख तीर्थ हैं । शुभानने ! सूर्यके दस, कपिलके नौ, चन्द्रमाके आठ और नन्दीके एक करोड़ आठ तीर्थ हैं । स्तवकोंमें दो सौ चौदह तीर्थ हैं । ये सब शैवतीर्थ हैं । वैष्णवतीर्थ बाईस हैं । ब्राह्मतीर्थ तो सभी हैं । अठाइस शाक्ततीर्थ हैं । उनमें भी सात तीर्थ मातृकाओंके हैं । उनमेंसे तीन ब्राह्मीके हैं । भद्रे ! दो वैष्णवी और दो रौद्री-तीर्थ हैं । ब्राह्मी और वैष्णवीके सिवा शेष स्थानोंमें रुद्रशक्ति विद्यमान हैं । सुमुखि ! एक तीर्थ क्षेत्रपालका भी बताया गया है । मोहिनी ! नर्मदामें गुप्त और प्रकट बहुत-से अवान्तर तीर्थ हैं । वायुदेवताने भूतल, अन्तरिक्ष और द्युलोकमें जो साढ़े तीन करोड़ तीर्थ बताये हैं, वे सब नर्मदामें विद्यमान हैं । महाभागे ! जो मानव इनमें जहाँ-कहाँ भी स्नान करता है, वह शुद्धचित्त होकर उत्तम गति पाता है । नर्मदाके तटपर किया हुआ स्नान, दान, जप, होम, वेदाध्ययन और पूजन सब अक्षय हो जाता है । देवि ! इस प्रकार मैंने तुमसे नर्मदाके तीर्थ-समुदायका वर्णन किया है । यह स्मरण करनेवाले मनुष्योंकि भी महापातकका निवारण करनेवाला है । जो मानव नर्मदाके तीर्थोंका यह संग्रह सुन लेता है अथवा पढ़ता या सुनाता है, भद्रे ! वह भी पापोंसे मुक्त हो जाता है ।

अध्याय १६९ अवन्तिके महाकाल वनके तीर्थोंकी महिमा

मोहिनी बोली–विप्रवर ! आपने नर्मदाका जो माहात्म्य बताया है, यह मनुष्योंके पापका नाश करनेवाला है । महाभाग ! प्रभो ! अब मुझे अवन्तीतीर्थका तथा देववन्द्य भगवान्‌ महाकालका बताइये ।

   पुरोहित सुने कहा- भद्रे ! सुनो, मैं तुम्हें अवन्तीका माहात्म्य बतलाता हूँ, जो मनुष्योंको पुण्य देनेवाला है । महाकालवन पवित्र एवं परम उत्तम तपोभूमि है । महाकालवनसे दूसरा कोई क्षेत्र इस पृथ्वीपर नहीं है । वहाँ कपालमोचन नामक तीर्थ है जिसमें भक्तिपूर्वक स्नान करनेसे ब्रह्महत्यारा मनुष्य भी शुद्ध हो जाता है । रुद्र-सरोवरमें स्नान करनेवाला मानव रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है । स्वर्गद्वारमें जाकर स्नान और भगवान्‌ सदाशिवकी पूजा करनेवाला मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता;  वह स्वर्गलोकमें पूजित होता है । राजस्थलमें जाकर सामुद्रिकतीर्थमें नहानेवाला मनुष्य सब तीर्थोंमें स्नान करनेका उत्तम फल पाता है । शंकरवापीमें नियमपूर्वक स्नान करनेवाला मानव इहलोकमें मनोवांछित भोग भोगकर अन्तमें रुद्रलोकमें जाता है । जो मनुष्य नीरगंगामें नहाकर भक्तिभावसे  गन्धवतीदेवीकी पूजा करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । दशाश्वमेधिक-तीर्थमें स्नान करनेसे अश्वमेध-यज्ञका फल मिलता है । तदनन्तर मनुष्य देवेश्वरी एकानंशाके समीप जाकर गन्ध-पुष्प आदिसे उनकी पूजा करके सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है । जो मानव रुद्रसरोवरमें स्नान करके श्रद्धापूर्वक हनुमत्केश्वरका पूजन करता है, वह  सम्पूर्ण सम्पत्तियोंको पा लेता है । वालमीकेश्वरकी पूजा करनेसे मानव सम्पूर्ण विद्याओंकी निधि होता है । पंचेश्वकी पूजा करनेसे मानव समस्त सिद्धियोंका भागी होता है । कुशस्थलीकी परिक्रमा करनेसे मनोवांछित फलकी प्राप्ति होती हैं । मन्दाकिनीमें गोता लगानेसे गंगा स्नानका फल मिलता है । अङ्गपादका पूजन करके मनुष्य भगवान्‌ शिवका अनुचर होता है । यज्ञवापीमें स्नान और मार्कण्डेयेश्वरका पूजन करनेसे सम्पूर्ण यज्ञोंका फल पाकर मनुष्य एक युगतक स्वर्गमें निवास करता है । सती मोहिनी ! सोमवती अमावास्याकों स्नान और सोमेश्वरका पूजन करके मनुष्य इहलोक और परलोकमें मनोवांछित भोग पाता है । फिर केदारेश्वर,रामेश्वर, सौभाग्येश्वर तथा नगरादित्यकी पूजा करके मनुष्य मनोवांछित फल पाता है । केशवादित्यकी पूजा करनेसे मानव भगवान्‌ केशवका प्रिय होता है । शक्तिभेद-तीर्थमें स्नान करके बड़े भयंकर संकटोंसे छुटकारा मिल जाता है । जो मनुष्य ॐकारेश्वर आदि लिंगोकी विधिपूर्वक पूजा करता है, वह भगवान्‌ महेश्वरके प्रसादसे सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है ।

   देवि ! महाकालवनमें शिवलिंगकी कोई नियत संख्या नहीं है । जहाँ-कहीं भी विद्यमान शिवलिंगका पूजन करके मनुष्य भगवान्‌ शंकरका प्रिय होता है । अवन्तीके प्रत्येक कल्पमें भिन्न-भिन्न नाम होते हैं । यथा-कनकशृंगा, कुशस्थली, अवन्तिका, पद्मावती, कुमुद्रती, उज्जयिनी, विशाला और अमरावती । जो मनुष्य शिप्रा नदीमें स्नान करके भगवान्‌ महेश्वरका पूजन करता है, वह महादेवजी तथा महादेवीकी कृपासे सम्पूर्ण कामनाओंको पा लेता है । जो वामनकुण्डमें स्नान करके ‘ विष्णुसहस्त्रनामस्तोत्र ‘ के द्वारा सम्पूर्ण देवताओंके स्वामी भगवान्‌ श्रीधर ( विष्णु )– कि स्तुति करता है, वह इस पृथ्वीपर साक्षात्‌ श्रीहरिके समान हैं । जो देवप्रयाग-सरोवरमें स्नान करके भगवान्‌ माधवकी आराधना करता है, वह भगवान्‌ माधवकी भक्ति पाकर विष्णुधाममें जाता है । जो अन्तर्गृहकी यात्रामें विघ्नेश, भैरव,उमा, रूद्रादित्य तथा अन्यान्य देवताओंकी श्रद्धापूर्वक प्राप्त उपचारोंसे पूजा करता है, वह स्वर्गलोकका भागी होता है । भामिनि ! रुद्रसरोवर आदि स्थलोंमें जो अन्य बहुत-से तीर्थ हैं उन सबमें भगवान्‌ शंकरकी पूजा करके मनुष्य सुखी होता है । वहाँके आठ तीथोंमें स्नान करके मानव महाकालवनकी यात्राका सांगोपांग फल पाता है । इस प्रकार अवन्तीपुरीका यह सब माहात्म्य तुम्हें बताया गया है । इसे सुनकर मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ।

अध्याय १७० मथुराके भिन्न— भिन्न तीर्थोंका माहात्म्य

मोहिनी बोली—पुरोहितजी ! मैंने अवन्तीका माहात्म्य सुना, जो मनुष्योंके पाप दूर करनेवाला है। अब मैं मथुराका माहात्म्य सुनना चाहती हूँ।

   पुरोहित वसुने कहा- मोहिनी ! सुनो, मैं मथुराके कल्याणकारी वैभवका वर्णन करता हूँ जहाँ ब्रह्माजीके प्रार्थना करनेपर साक्षात्‌ भगवान्‌ अवतीर्ण हुए हैं । वहाँ प्रकट होकर भगवान्‌ नन्दके गोकुलमें गये और वहीं रहकर उन्होंने गोपोंके साथ सब लीलाएँ कीं । वनोंमें तथा मथुरामें जो तीर्थ हैं, उनका तुमसे इस समय वर्णन करता हूँ, सुनो । पहला मधुवन है, जहाँ स्नान करनेवाला श्रेष्ठ मानव देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंका तर्पण करके विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है । दूसरा उत्तम तालवन है, जहाँ भक्तिपूर्वक स्रान करनेवाला मानव कृतकृत्य होता है । तीसरा कुमुदवन है, जहाँ स्नान करके मनुष्य मनोवांछित भोगोंको पाता है और इहलोक तथा परलोकमें आनन्दित होता है । चौथेका नाम काम्यवन है; उसमें बहुत-से तीर्थ हैं; वहाँकी यात्रा करनेवाला पुरुष विष्णुलोकका भागी होता है । भद्रे ! वहाँ जो विमलकुण्ड है, वह सब तीथोंमें उत्तम-से-उत्तम है; वहाँ दान करनेवाला मनुष्य वैकुण्ठधाम है। पाँचवाँ बहुलावन है, जो सब पापोंका नाश करनेवाला है; वहाँ स्नान करनेवाला मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है । छठा भद्रवन नामक वन है, जहाँ स्नान करनेवाला मानव भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्रसादसे सब कल्याण-ही-कल्याण देखता है। वहाँ सातवाँ खदिरवन है, जिसमें स्नान करनेमात्रसे मनुष्य भगवान्‌ विष्णुके परम पदको प्राप्त कर लेता है । आठवाँ महावन है, जो भगवान्‌ श्रीहरिको सदैव प्रिय है; उसका भक्तिपूर्वक दर्शन करके मनुष्य इन्द्रलोकमे आदर पाता है । नवाँ लोहजंघवन है, जहाँ स्नान करके मनुष्य भगवान महाविष्णुके प्रसादसे भोग और मोक्ष मनुष्य अपनी इच्छाके अनुसार शिवलोक अथवा विष्णुलोकमें जाता है । ग्यारहवाँ भाण्डीरवन है, जो योगियोंको अत्यन्त प्रिय है; वहाँ भक्तिपूर्वक स्नान करनेवाला मनुष्य सब पापोंसे छूट जाता है । बारहवाँ वृन्दावन है, जो समस्त पापोंका उच्छेद करनेवाला है । सती मोहिनी ! इस पृथ्वीपर उसके समान दूसरा कोई वन नहीं है । वहाँ स्नान करनेवाला मानव देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंका तर्पण करके तीनों ऋणोंसे मुक्त हो विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है ।

   मधुरा-मण्डलका विस्तार बीस योजन है; उसमें जहाँ-कहीं भी स्नान करनेवाला पुरुष भगवान्‌ विष्णुकी भक्ति पाता है । उसके मध्यभागमें मधुरा नामकी पुरी है, जो सर्वोत्तम पुरियोंसे भी उत्तम है; जिसके दर्शनमात्रसे मनुष्य माधवकी भक्ति प्राप्त कर लेता है । नरेश्वरी ! वहाँ विश्रान्ति ( विश्रामघाट ) नामसे प्रसिद्ध एक तीर्थ है, जिसमें भक्तिपूर्वक स्नान करनेवाला मानव विष्णुधाममें जाता है । विश्रामघाटसे दक्षिण पास ही विमुक्त नामका उत्तम तीर्थ है, भक्तिपूर्वक स्नान करनेपर मनुष्य निश्चय ही मोक्ष पाता है । वहाँसे दक्षिण भागमें रामतीर्थ है, स्नान करनेवाला मनुष्य अज्ञानबन्धनसे मुक्त हो जाता है। वहाँसे दक्षिण संसारमोक्षण नामक उत्तम तीर्थ है, उसमें स्नान करके मनुष्य विष्णुलोकमें सम्मानित होता है । उससे दक्षिण भागमें देवदुर्लभ प्रयागतीर्थ है, जहाँ स्नान करनेवाला मानव आग्निष्टोम-यज्ञका फल पाता है । उससे दक्षिण तिन्दुक-तीर्थ है, जिसमें स्नान करनेवाला श्रेष्ठ मानव राजसूय यज्ञका फल पाकर देवलोकमें देवताकी भाँति प्रसन्न रहता है । उससे दक्षिण पटुस्वामितीर्थ है, जो सूर्यदेवको अत्यन्त प्रिय है । वहाँ स्नान करनेके पश्चात्‌ सूर्यदेवका दर्शन करनेसे मनुष्य भोग भोगनेके पश्चात्‌ देवलोकमें जाता है । भद्रे ! उससे दक्षिण परम उत्तम ध्रुव-तीर्थ है, जहाँ स्नान करके ध्रुवका दर्शन करनेसे मनुष्य विष्णुधामकों प्राप्त कर लेता है । ध्रुव-तीर्थसे दक्षिण भागमें सप्तर्षिसेविततीर्थ है, जहाँ स्नान करके मुनियोंका दर्शन करनेसे मनुष्य ऋषिलोकमें आनन्दका अनुभव करता है । ऋषितीर्थसे दक्षिण परम उत्तम मोक्ष-तीर्थ है, जहाँ स्नान करनेमात्रसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । उससे दक्षिण बोधिनी-तीर्थ है, जहाँ स्नान करके पितरोंको पिण्डदान देनेवाला पुरुष उन्हें स्वर्गलोकमें पहुँचा देता है । उससे दक्षिण कोटि-तीर्थ है, जहाँ स्नान करनेसे मानव सब पापोंसे छूटकर विष्णुलोक पाता है । विश्रामघाटके उत्तर भागमें असिकुण्ड-तीर्थ है, जहाँ स्नान करनेवाला मनुष्य बैष्णवपद प्राप्त कर लेता है । उससे उत्तर संयमन-तीर्थ है, जहाँ स्नान और दान करनेसे मनुष्यको यमलोकका दर्शन नहीं होता । उससे उत्तर घण्टाभरण नामक ब्रह्मलोक है, जो स्नान करनेमात्रसे समस्त पापोंका नाश करनेवाला और ब्रह्मलोककी प्राप्ति करानेवाला तीर्थ है । उससे उत्तर परम उत्तम सोम-तीर्थ है, जहाँ गोता लगानेवाला श्रेष्ठ मानव पापरहित हो चन्द्रलोकमें जाता है । उससे उत्तर प्राचीसरस्वती-तीर्थ है, जिसमें स्नान करनेमात्रसे मनुष्य वाणीका अधीश्वर होता है । उससे उत्तर दशाश्वमेध-तीर्थ है, जहाँ स्नान करनेसे अध्वमेध यज्ञका फल मिलता है । जो मनुष्य वहाँ गोपर्ण नामक शिवकी विधिपूर्वक पूजा करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओंको पाकर अन्तमें शिवलोकमें सम्मानित होता है । उससे उत्तर अनन्त-तीर्थ है, जहाँ स्नान करनेवाला मानव मथुराके चौबीस तीर्थोंका फल पाता है । महाभागे ! मथुरामें साक्षात्‌ विष्णु चतुर्व्यूहरूपसे विराजमान हैं,  जो मथुरावासियोंको मोक्ष प्रदान करते हैं । उन चार व्यूहोंमें पहली वाराह-मूर्ति है, दूसरी नारायणमूर्ति है, तीसरी वामन-मूर्ति है और चौथी हलधर-मूर्ति है । जो मनुष्य चतुर्व्यूहरूपधारी भगवानका दर्शन करके उनकी विधिपूर्वक पूजा करता है, वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है । रंगेश्वर,भूतेश्वर, महाविद्या तथा भैरवका विधिपूर्वक दर्शन और पूजन करके मनुष्य तीर्थयात्राका फल पाता है । चतुःसामुद्रिक-कूप, कुब्जा-कूप, गणेश-कूप तथा श्रीकृष्णगंगामें स्नान करके मनुष्य पापमुक्त हो जाता है । शुभानने ! समस्त मथुरा-मण्डलके अधिपति हैं भगवान्‌ केशव, जो सम्पूर्ण क्लेशोंका नाश करनेवाले हैं । पवित्र मथुरा-मण्डलमें जिसने भगवान्‌ केशवका दर्शन नहीं किया, उसका जन्म व्यर्थ है । मथुरामें और भी असंख्य तीर्थ हैं, उनमें स्नान करके वहाँ रहने-वाले ब्राह्मण पुरोहितको कुछ दान करना चाहिये । ऐसा करनेसे मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता ।

अध्याय १७१ वृंदावन— क्षेत्रके भिन्न— भिन्न तीर्थोंके सेवनका माहात्म्य

मोहिनी बोली- मथुरा और द्वादश वनोंका माहात्म्य मैंने सुना । अब कुछ वृन्दावनका रहस्य भी बताइये ।

   पुरोहित सुने कहा- देवि ! मुझसे वृन्दावनका रहस्य सुनो । मथुरामण्डलमें स्थित श्रीवृन्दावन जाग्रत आदि तीनों अवस्थाओंसे परे, चिन्मय तुरीयांश रूप है । वह गोपीवल्लभ श्यामसुन्दरकी एकान्त लीलाओंका निगूढ़ स्थल है;  जहाँ सखीस्थलके समीप गिरिराज गोवर्धन शोभा पाता है । वृन्दावन वृन्दा देवीका तपोवन है । वह नन्दरगाँवसे लेकर यमुनाके किनारे-किनारे दूरतक फैला हुआ है । यमुनाके सुरम्य तटपर रमणीय तथा पवित्र वृन्दावन सुशोभित है । वृन्दावनमें भी कुसुमसरोवर परम पुण्यमय स्थल है । उसके मनोहर तटपर वृन्दा देवीका अत्यन्त सुखदायक आश्रम है, जहाँ मध्याहकालमें सखाओंके साथ श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण नित्य विश्राम करते हैं ।

   मोहिनी ! जहाँ भगवान्‌ने तुम्हारे पिताकों तत्त्वका साक्षात्कार कराया था, वह पुण्यस्थान वृन्दावनमें ब्रह्ककुण्डके नामसे प्रसिद्ध है । जो मनुष्य वहाँ मूलवेशका चिन्तन करते हुए स्नान करता है, वह नित्यविहारी श्यामसुन्दरके वैभवका कुछ चमत्कार देखता है । जहाँ श्रीकृष्णका तत्त्व जानकर इन्द्रने उन गोविन्ददेवका चिन्तन किया था, उस स्थानकों गोविन्द-कुण्ड कहते हैं । वहाँ स्नान करके भी मनुष्य गोविन्दकों पा लेता है । जहाँ एक होकर भी अनेक रूप धारण करके कुंजविहारी श्यामसुन्दरने गोपाज़नाओंके साथ रासलीला की थी, उसका भी वैसा ही माहात्म्य है । जहाँ नन्द आदि गोपोंने भगवान्‌ श्रीकृष्णका वैभव देखा था, वह यमुनाजीके जलमें तत्त्वप्रकाश नामक तीर्थ कहा है । जहाँ गोपोंने कालियमर्दनकी लीला देखी थी, वह भी पुण्यतीर्थ बताया गया है, जो मनुष्योंके पापका नाश करनेवाला है । जहाँ स्त्री, बालक, गोधन और बछड़ों सहित गोपोंको श्रीकृष्णने दावानलसे मुक्त किया, वह पुण्यतीर्थ स्नानमात्रसे सब पापोंका नाश करनेवाला है । जहाँ भगवान्‌ श्रीकृष्णने घोड़ेका रूप धारण करनेवाले केशी नामक दैत्यको खेल-ही-खेलमें मार डाला था, वहाँ स्नान करनेवाला मानव विष्णुधामकों पाता है । जहाँ भगवानने दुष्ट वृषभासुरकों मारा था, वह पुण्यतीर्थ अरिष्टकुण्डके नामसे विख्यात है, जो स्नान करनेमात्रसे मुक्ति देनेवाला है । जहाँ भगवान्‌ने शयन, भोजन, विचरण, श्रवण, दर्शन तथा विलक्षण कर्म किया, वह पुण्य क्षेत्र है, जो स्नानमात्रसे दिव्य गति प्रदान करनेवाला है । जहाँ पुण्यात्मा पुरुषोंने भगवान्‌का श्रवण, चिन्तन, दर्शन, नमस्कार, आलिंगन, स्तवन और प्रार्थना की है, वह भी उत्तम गति देनेवाला तीर्थ है । जहाँ श्रीराधाने अत्यन्त कठोर तपस्या की थी, वह श्रीराधाकुण्ड स्नान, दान और जपके लिये परम पुण्यमय तीर्थ है । वत्स-तीर्थ, चन्द्रसरोवर, अप्सरातीर्थ, रुद्रकुण्ड तथा कामकुण्ड- ये भगवान्‌ श्रीहरिके उत्तम निवासस्थान हैं । विशाला, अलकनन्दा, मनोहर कदम्बखण्ड, विमलतीर्थ, धर्मकुण्ड, भोजन-स्थल, बलस्थान, बृहत्सानु ( बरसाना ), संकेतस्थान,नन्दिग्राम ( नन्दगाँव ), किशोरीकुण्ड, कोकिलवन,शेषशायी तीर्थ, क्षीरसागर, क्रीडादेश, अक्षयवट, रामकुण्ड, चीरहरण, भद्रवन, भाण्डीरवन, बिल्ववन, मानसरोवर, पुष्पपुलिन, भक्तभोजन, अक्रूरघाट, गरुडगोविन्द तथा बहुलावन- यह सब वृन्दावन नामक क्षेत्र है, जो सब ओरसे पाँच योजन विस्तृत है । वह परम पुण्यमय तीर्थ पुण्यात्मा पुरुषोंसे सेवित है और दर्शनमात्रसे ही मोक्ष देनेवाला है । वह अत्यन्त दुर्लभ है । देवतालोग भी उसका दर्शन चाहते हैं । वहाँकी आन्तरिक लीलाका दर्शन करनेमें देवतालोग तपस्यासे भी समर्थ नहीं हो पाते । जो सब ओरकी आसक्तियोंका त्याग करके वृन्दावनकी शरण लेते हैं, उनके लिये तीनों लोकोंमें कुछ भी दुर्लभ नहीं है । जो वृन्दावनके नामका भी उच्चारण करता है, उसकी भी नन्दनन्दन श्रीकृष्णके प्रति सदा भक्ति बनी रहती है । पवित्र वृन्दावनके नर, नारी, वानर, कृमि, कीट-पतंग, खग, मृग, वृक्ष और पर्वत भी निरन्तर श्रीराधाकृष्णका उच्चारण करते रहते हैं । जो श्रीकृष्णकी मायासे मोहित हैं और जिनका चित्त कामरूपी मलसे मलिन हो रहा है, ऐसे पुरुषोंको स्वप्नमें भी वृन्दावनका दर्शन दुर्लभ है । जिन पुण्यात्मा पुरुषोंने श्रीवृन्दावनका दर्शन किया है, उन्होंने अपना जन्म सफल कर लिया । वे श्रीहरिके कृपापात्र हैं । विधिनन्दिनि ! बहुत कहने-सुननेसे क्या लाभ, मुक्तिकी इच्छा रखनेवाले लोगोंको भव्य एवं पुण्य वृन्दावनका सेवन करना चाहिये । सदा वृन्दावनका दर्शन करना चाहिये, सदा वहाँकी यात्रा करनी चाहिये तथा सदैव उसका सेवन और ध्यान करना चाहिये । इस पृथ्वीपर वृन्दावनके समान किर्तिवर्धक स्थान दूसरा कोई नहीं है । प्राचीन कल्पकी बात है । वृन्दावनमें गोवर्धन नामके एक द्विजने बड़ी भारी तपस्या की । वह समस्त संसारसे विरक्त हो गया था । देवताओंके स्वामी अविनाशी भगवान्‌ विष्णु अपनी लीलाभूमिमें उस ब्राह्मणकों वर देनेके लिये गये । ब्राह्मणने देखा देवदेवेश्वर श्रीहरिने अपने हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण कर रखे हैं । उनका वक्ष:स्थल सुन्दर कौस्तुभमणिसे सुशोभित है । कानोंमें मकराकृति कुण्डल झलमला रहे हैं । माथेपर सुन्दर किरीट चमक रहा है।  हाथोंमें कड़े शोभा पाते हैं । पैरोंमें मधुर रुनझुन करनेवाले नूपुर शोभा दे रहे हैं । उनका आगेका पूरा अन्न वनमालासे घिर गया है । वक्ष:स्थल श्रीवत्सचिहनसे सुशोभित है । नूतन मेघके समान श्यामवर्ण शरीरपर विद्युतकी-सी कान्तिवाला रेशमी पीताम्बर प्रकाशित हो रहा है । नाभि और ग्रीवा सुन्दर हैं । कपोल और नासिका सुघर हैं । दाँतोंकी पंक्ति स्वच्छ है । मुखपर मनोहर मुसकानकी छटा छा रही है । जानु, ऊरु, भुजाएँ तथा शरीरका मध्यभाग सुन्दर हैं । कृपाके तो वे महासागर ही हैं । सदा आनन्दमें डूबे रहते हैं । इनके मुखारविन्दसे सदा प्रसन्नता बरसती रहती है । इस प्रकार भगवान्‌की झाँकी देखकर ब्राह्मण सहसा उठ खड़े हुए और पृथ्वीपर दण्डकी भाँति लेटकर उन्होंने भगवान्‌कों साष्टांग प्रणाम किया । फिर भगवान्‌के द्वारा वर माँगनेकी आज्ञा मिलनेपर गोवर्धन ब्राह्मण श्रीहरिसे बोले- ‘ प्रभो ! आप मुझे दोनों चरणोंसे दबाकर मेरी पीठपर खड़े रहें, यही मेरे लिये वर है ।’ गोवर्धनका यह वचन सुनकर भक्तवत्सल भगवान्‌ने बार-बार इसपर विचार किया; फिर वे उसकी पीठपर चढ़कर खड़े हो गये । तब ब्राह्मणने फिर कहा- ‘ देव ! जगत्पते ! मेरी पीठपर खड़े हुए आपको अब मैं उतार नहीं सकता, इसलिये इसी रूपमें स्थित हो जाइये ।’  तभीसे विश्वात्मा भगवान्‌ पर्वतरूपधारी गोवर्धन ब्राह्मणका त्याग न करके प्रतिदिन योगीवनमें जाते हैं । कृष्णावतारमें भगवानने गोवर्धन ब्राह्मणको अपने सारूप्यभावकों प्राप्त हुआ जानकर उसे नन्द आदिके द्वाण गिरिराज-पूजनके व्याजसे भोजन कराया । अन्नकूट तथा दुग्ध आदिके द्वारा पर्वतरूपधारी ब्राह्मणको तृप्त करनेके पश्चात्‌ उसे प्यासा जानकर भगवानने नूतन मेघोंका जल पिलाया । इस कार्यसे भगवान्‌ वासुदेवका वह मित्र हो गया । देवि ! जो मनुष्य भक्तिपूर्वक विभिन्न उपचारोंसे गोवर्धन पर्वतकी पूजा और प्रदक्षिणभावसे परिक्रमा करता है, उसका फिर इस संसारमें जन्म नहीं होता । भगवान्‌के निवाससे गोवर्धन पर्वत परम पवित्र हो गया है ।

   सुभगे ! तुम्हीं बताओ । इस पृथ्वीपर श्रीकृष्णकी विविध क्रीडाओसे सुशोभित यमुनाका रमणीय पुलिन वृन्दावनके सिवा और कहाँ है ? इसलिये सब प्रकारसे प्रयत्न करके दूसरे पवित्र तथा पुण्यदायक वनों, नदियों और पर्वतोंको छोड़कर मनुष्योंको सदा वृन्दावनका सेवन करना चाहिये । जहाँ यमुना-जैसी पुण्यदायिनी नदी हैं, जहाँ गिरिराज गोवर्धन-जैसा पुण्यमय पर्वत है, उस वृन्दावनसे बढ़कर पावन वन इस पृथ्वीपर दूसरा कौन है ?  उस वृन्दावनमें मोरपंखका मुकुट धारण किये, कनेरके फूलोसे कानोका शृंगार किये, नटवर-वेषधारी श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण गोपों, गौओं तथा गोपांगनाओंकि साथ नित्य विचरण करते हैं । उनकी वंशीकी मधुर ध्वनिके सामने हंसीका मधुर कलरव फीका लगता है । वैजयन्ती-माला उनके सारे अंगोको घेरे रहती है । जहाँ स्वभावसे ही क्रूर जीव-जन्तु अपना सहज वैर छोड़कर अकारण स्नेह करनेवाले सुहृदोंकी भाँति रहते हुए भगवत्सुखका ही आश्रय लेते हैं, उस वृन्दावनमें जाकर, जैसे जीव भगवान्‌को पा ले, उस प्रकार भगवत्सुखका अनुभव करके जो फिर वृन्दावनकों छोड़कर कहीं अन्यत्र चला जाता है, वह श्रीकृष्णकी मायाकी पिटारीरूप इस जगतमें कया कहाँ भी सुखी हो सकता है ?  वह वृन्दावनधाम समस्त वसुधाका पुण्यरूप है । उसका आश्रय लेकर मेरा चित्त इस अज्ञानान्धकारमय जगत्‌को नीचे करके स्वयं सदाके लिये सबके ऊपर स्थित है । भगवान्‌ गोपीनाथ यहाँ पग-पगपर प्रेमसे द्रवितचित्त हो नीच-ऊँचका विचार नहीं करते; अपने सब भक्तोंका उद्धार कर ही देते हैं । जो ब्रजके गोपों, गोपियों, खगों, मृगों, पर्वतों, गौओं, भूभागों तथा धूलक्णोंका भी दर्शन एवं स्मरण करके उन्हें प्रणाम करता है, उसके प्रेमपाशमें आबद्ध हो भगवान्‌ श्रीकृष्ण उस भक्तके अन्त:करणमें अपने प्रति दास्यभावका उदय करा देते हैं;  उन ब्रजराज श्यामसुन्दरके सिवा दूसरा कौन देवता सेवनके योग्य हो सकता है ?  मोहिनी ! यह वृन्दावनका माहात्म्य तुम्हें संक्षेपसे बताया गया है । संसार-भयसे डरे हुए पापहीन मनुष्योंको सदा इस वृन्दावनका ही श्रवण, कीर्तन, स्मरण तथा ध्यान करना चाहिये । जो मनुष्य पवित्रभावसे वृन्दावनके माहात्म्यका श्रवण करता है, वह भी निस्संदेह साक्षात्‌ विष्णुरूप ही है ।

अध्याय १७२ पुरोहित वसुका भागवत कृपासे वृंदावनमें वास, देवर्षि नारदके द्वारा शिव— सुरभि— संवादके रूपमें भावी श्रीकृष्णकेचरित्रका वर्णन

पुरोहित वसु कहत हैदेवी ! महाभाग ! यह जो तीर्थोंका उत्तम माहात्म्य बताया है, उसे तुम सब तीर्थोंमें घूमकर प्राप्त करो ।

   सूतजी बोलेब्राह्मणो ! मोहिनीसे ऐसा कहकर उसके पुरोहित वसु उसके द्वारा बारंबार किये हुए सत्कार और पूजाकों स्वीकार करके ब्रह्मलोकको चले गये । वहाँ जगत्स्रष्टा विधाता ब्रह्माजीके समीप जाकर उन्होंने प्रणाम किया और मोहिनीका सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया । ब्राह्मण वसुका वचन सुनकर ब्रह्माजी प्रसन्न हो गये और बोले- ‘ वत्स ! तुमने बड़े पुण्यका कार्य किया है । तुमने मुझे मोहिनीका उत्तम वृत्तान्त बताया है, उससे प्रसन्न होकर मैं तुम्हें कोई वर दूँगा । तुम इच्छानुसार कोई वर माँगो ।’  जगद्विधाता ब्रह्माजीके द्वारा ऐसा कहनेपर विप्रवर वसुने उन्हें प्रणाम करके वृन्दावनवासका वर माँगा ।

   मुनीश्वरो ! यह सुनकर जगत्‌की सृष्टि करनेवाले शरणागतक्लेशहारी ब्रह्माजी चारों मुखोंसे मुसकराते हुए बोले- ‘ तथास्तु―ऐसा ही हो ।’  वसुका मन प्रसन्न हो गया । उन्होंने विधाताकों प्रणाम करके वृन्दावनकों प्रस्थान किया और वहाँ एकाग्रचित्त हो वे तपस्या करने लगे । तपस्या करते-करते ब्राह्मण वसुके पाँच हजार वर्ष व्यतीत हो गये । इससे संतुष्ट होकर साक्षात्‌ भगवान्‌ श्यामसुन्दर अपने दो-तीन प्रिय सखाओंके साथ आकर उन श्रेष्ठ द्विजसे बोले- ‘ विप्रवर ! मैं तुम्हारी तपस्यासे संतुष्ट हूँ । बोलो क्या चाहते हो ?` तब वसुने उठकर भगवानको साष्टांग प्रणाम किया । वे बोले-‘ देव ! मैं सदा वृन्दावनमें निवास करना चाहता हूँ ।’  द्विजवरो ! तदनन्तर श्रीकृष्णने उन्हें मनोवांछित वर दिया । फिर वसुने उन्हें प्रणाम किया और भगवान्‌ पुन: अन्तर्धान हो गये । तभीसे ब्राह्मण वसु इच्छानुसार रूप धारण करके भगवान्‌ श्रीकृष्णकी वृन्दावनीय लीलाओंका चिन्तन करते हुए वहाँ सदा निवास करते हैं ।

एक दिनकी बात है, विप्रवर वसु भगवान्‌का चिन्तन करते हुए यमुनाजीके किनारे बैठे हुए थे । इतनेमें ही उन्होंने देखा―ब्रह्माजीके पुत्र नारदजी देखकर उन्होंने नमस्कार किया और भगवद्धक्ति बढ़ानेवाले नाना प्रकारके धर्म पूछे । उनके इस प्रकार पूछनेपर अध्यात्मदर्शी नारदजीने उनसे भगवान्‌ विष्णुके भावी चरित्रके विषयमें सब बातें इस प्रकार कहीं- ‘ ब्रह्मण ! एक दिन मैं कैलासवासी भगवान्‌ शंकरका दर्शन करने और वृन्दावनके भावी रहस्यके विषयमें पूछनेके लिये उनके समीप गया था । जिन्होंने अपनी महिमासे समस्त ब्रह्माण्डमण्डलकों व्याप्त कर रखा है;  सिद्धसमुदायसे घिरे हुए उन देवेश महेश्वरको प्रणाम करके मैंने अपना कल्याणमय अभीष्ट प्रश्न उनके सामने रखा । तब महादेवजी मुसकराते हुए मुझसे बोले- ‘ ब्रह्मकुमार ! तुमने भगवान्‌ श्रीहरिके भविष्य चरित्रके विषयमें जो बात पूछी है, उसे मैं बता रहा हूँ । एक समय मैंने गोलोकमें रहनेवाली सुरभिका दर्शन किया और गोमाता सुरभिसे भविष्यके विषयमें प्रश्न किया । मेरे प्रश्नके उत्तरमें सुरभिने श्रीहरिके भविष्य चरित्रके विषयमें इस प्रकार कहा- ‘ महेश्वर ! इस समय राधाके साथ भगवान्‌ श्रीकृष्ण इस गोलोकधाममें सुखपूर्वक रहते हैं और गोपों तथा गोपियोंको सुख देते हैं । शिव ! वे किसी समय भूलोकके भीतर मथुरा-मण्डलमें प्रकट हो वृन्दावनमें अद्भुत लीला करेंगे । तत्पश्चात्‌ ब्रह्माजीके द्वारा भूभारहरणके लिये प्रार्थना करनेपर श्रीहरि भी पृथ्वीपर वासुदेवरूपसे प्रकट होंगे । वसुदेवके घरमें जन्म लेकर, यादवनन्दन श्रीकृष्ण पीछे कंसासुरके भयसे नन्दके ब्रजमें चले जायँगे । वहाँ जाकर श्रीहरि अपने निकट आयी हुई बालघातिनी पूतनाकों प्राणहीन कर देंगे । दानव चक्रवात ( तृणावर्त )- को तथा देवपीडक महाकाय वत्सासुरको भी मौतके घाट उतार देंगे । कालियनागका दमन करके उसे यमुनासे उजाड़ देंगे । दुःसह धेनुकासुरको मारकर वकासुर और अघासुरके भी प्राण हर लेंगे । दाव,प्रदाव तथा प्रलम्बासुरका भी वध करेंगे । ब्रह्मा, इन्द्र, वरुण तथा मतवाले कुबेर-पुत्रोका भी दर्प चूर्ण करके श्रीहरि वृषासुरका वध करेंगे । तदनन्तर मथुरामें जाकर धनुष तोड़कर श्रेष्ह हाथी कुवलयापीडका वध करेंगे । तत्पश्चात्‌ चाणुर आदि मल्लों और अपने मामा कंसको भी श्रीकृष्ण मार गिरायेंगे । फिर कैदमें पड़े हुए माता-पिताको मुक्त करके कालयवनकों मारकर वे जरासन्धके भयसे द्वारकामें जा बसेंगे । तदनन्तर भगवान्‌ श्रीहरि क्रमश: रुक्मिणी, सत्यभामा,सत्या, जाम्बवती, केकयराजकुमारी भद्रा, लक्ष्मणा,मित्रवृन्दा तथा कालिन्दीके साथ विवाह करेंगे । फिर भौमासुरको मारकर सोलह हजार स्त्रियोंका पाणिप्रहण करेंगे । इसके बाद पौण्ड्रक, शिशुपाल, दन्तवक्‍्त्र,विदूरथ और शाल्वको मारकर बलभद्ररूपसे द्विविद बंदर और बल्वलका संहार करेंगे । फिर षट्पुरवासी दैत्योंके साथ बज़नाभ, सुनाभ और वरदानसे बढ़े हुए त्रिशरीर दैत्यका वध करेंगे । शिवजी ! फिर पृथ्वीका भार उतारनेको उत्सुक हो श्रीकृष्ण कौरव और पाण्डवपक्षके वीरोंको परस्पर एक-दूसरेको निमित्त बनाकर मार डालेंगे । इसी प्रकार यदुवंशियोंको यदुवंशियोंसे आपसभमें ही लड़ाकर श्रीहरि अपने कुलका संहार कर डालेंगे और अपने अनुगामी बलरामजीके साथ फिर अपने परम धाममें चले जायँगे । शम्भो ! इस प्रकार मैंने श्रीहरिकि भविष्य चरित्रका वर्णन किया है । जाओ, जब भूतलपर भगवान्‌ अवतार लेंगे, उस समय तुम वह सब कुछ देखोगे ।’ ब्रह्मकुमार नारद ! सुरभिका वह वचन सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई और मैं पुन: अपने स्थानपर आ गया । वही बात मैंने तुम्हें भी बतायी है । समय आनेपर तुम भी गोकुलपति श्रीकृष्णके चरित्रका अवलोकन करोगे ।’  वसुजी ! त्रिशूलधारी भगवान्‌ शंकरका यह वचन सुनकर मेरा रोम-रोम हर्षसे खिल उठा है । मैं वीणा बजाकर भगवानके गुण गाता और उसीमें मस्त रहता हुआ इस आतुर जगत्‌को आनन्द प्रदान करता रहता हूँ । द्विजश्रेष्ठ ! यह भविष्यमें होनेवाली बात है, जो मैंने तुझे बतायी है ।’

   सूतजी कहते हैं―विप्रवर वसुसे ऐसा कहकर देवर्षि नारदजी वीणा बजाते और यदुनन्दन श्रीकृष्णका चिन्तन करते हुए वहाँसे चले गये । ब्राह्मणों ! ब्रजमें नारदजीका वह वचन सुनकर विप्रवर वसुका चित्त प्रसन्न हो गया और वे भावी श्रीकृष्णलीलाके दर्शनके लिये उत्सुक हो सदा वृन्दावनमें रहने लगे ।

अध्याय १७३ मोहिनीके सब तीर्थोंमें घुमकर यमुनामें प्रवेशपूर्वक दशमीके अंतभागमें स्थित होना, नारदपुराणके पाठ एवं श्रवणकी महिमा

ऋषि बोले- साधु सूतजी ! आपने भगवान्‌ श्रीकृष्णके अमृतमय चरित्रका वर्णन किया और उसे हमने सुना । अत: आपकी कृपासे हम सब कृतार्थ हो गये । वसुके ब्रह्मलोक चले जानेपर ब्रह्मपुत्री मोहिनीने पीछे कौन-कौन-सा कार्य किया, यह हमें बतानेकी कृपा करें ।

   सूतजीने कहा- महर्षियो ! आप सब लोग मोहिनीका शुभ चरित्र सुनें। विप्रवर वसुने जिस प्रकार उपदेश दिया था, उसीके अनुसार विधि-पूर्वक तीर्थयात्रा करनेके लिये ब्रह्मपुत्री मोहिनी गंगाजीके तटपर गयी । वहाँ जाकर विधि-नन्दिनीने गंगा आदि तीथोंमें स्नान करके सब कार्य विधिपूर्वक सम्पन्न किया और हर्षमें भरकर उसने वहाँके महात्मा ब्राह्मणोंका सत्संग किया । पुरोहित वसुने जिस तीर्थकी जैसी विधि बतायी थी, उसी प्रकार उसका सेवन करती हुई वह तीर्थोंमें घूमने लगी । उन तीर्थोंमें वह विष्णु आदि देवताओंकी पूजा करती और ब्राह्मणोंको नाना प्रकारके दान देती थी । गयामें जाकर उसने पतिको विधिपूर्वक पिण्डदान किया; फिर काशीमें विश्वनाथजीकी पूजा करके वह पुरुषोत्तम-क्षेत्रमें गयी । उस क्षेत्रमें जगन्नाथजीका प्रसाद भोजन करके शुद्ध शरीर हो वहाँसे लक्ष्मणपर्वतपर गयी । वहाँ विधिपूर्वक लक्ष्मणजीकी पूजा करके सेतु-तीर्थमें जाकर उसने रामेश्वर शिवका पूजन किया और महेन्द्रपर्वतपर जाकर भृगुनन्दन परशुरामजीकी वन्दना की । तत्पश्चात्‌ शिवजीके क्षेत्र गोकर्णमें जाकर गोकर्णनाथ भगवान्‌ शिवका पूजन किया । ब्राह्मणों ! तदनन्तर उन श्रेष्ठ द्विजोंके साथ उसने प्रभासको प्रस्थान किया और वहाँ स्नान करके देवता आदिका तर्पण करनेके पश्चात्‌ उस तीर्थकी यात्रा पूरी करके द्वारकामें भगवान्‌ श्रीकृष्णका दर्शन किया । उसके बाद वह कुरुक्षेत्रमें गयी । वहाँ भी विधिपूर्वक यात्रा सम्पन्न करके महारानी मोहिनीने गंगाद्वारको प्रस्थान किया और उस तीर्थमें शास्त्रोक्त विधिके अनुसार स्नान, दान आदि कार्य किये । तदनन्तर कामोदाका दर्शन और नमस्कार करके वह बड़ी प्रसन्नताके साथ बदरिकाश्रम-तीर्थको गयी । वहाँ नर-नारायण ऋषिकी पूजा करके उसने बड़ी उतावलीके साथ कामाक्षी देवीका दर्शन करनेके लिये वहाँकी यात्रा की । उस तीर्थमें सिद्धनाथको प्रणाम करके ( आदियात्रा पूर्ण करनेके पश्चात ) वहाँसे अयोध्या आयी । वहाँ सरयूमें स्नान करके उसने विधिपूर्वक सीतापति श्रीरामचन्द्रजीकी पूजा की और वहाँसे मध्ययात्रा प्रारम्भ करके वह अमरकण्टक पर्वतपर गयी । वहाँ नर्मदाके स्रोतके समीप ॐकारेश्वर महादेवकी पूजा, सेवा और दर्शन करके मोहिनीने माहिष्मतीपुरीकी यात्रा की । वहाँके त्र्यम्बकेश्वरका पूजन करके वह त्रिपुष्कर-तीर्थमें आयी । तीनों पुष्करोंमें विधिपूर्वक अनेक प्रकारके दान दे वह सब तीथोंमें उत्तम मथुरा-पुरीको गयी । वहाँ बीस योजनकी आभ्यन्तरिक यात्रा सम्पन्न करके मथुरापुरीकी परिक्रमाके पश्चात्‌ उसने चार व्यूहोंका दर्शन किया । तदनन्तर बीस तीथोंमें स्नान करके पुन: प्रदक्षिणा की । वहाँ मथुराके ब्राह्मणोंको समस्त अलंकारोंसे अलंकृत दस हजार गौएँ दान दीं और उन्हें उत्तम अन्न भोजन कराकर भक्तिविह्नल चित्तसे नमस्कार करनेके पश्चात्‌ विदा किया । फिर यमुनाके तटपर जा बैठी । तदनन्तर मोहिनी पापनाशिनी यमुनादेवी के जलमें समा गयी और फ़िर आजतक नहीं निकली । उसने दशमी तिथिके अन्तिम भागमें अपना आसन जमा लिया । यदि सूर्योदयकालमें एकादशीका दशमीसे बेध हो तो स्मृतिके अनुसार चलनेवाले गृहस्थोंके पास पहुँचकर मोहिनी उनके व्रतकों दूषित कर देती है । इसी प्रकार अरुणोदयकालमें दशमीवेध होनेपर वह वैदिकोंके और निशीथकालमें दशमीसे वेध होनेपर वैष्णवोंके निकट पहुँचकर वह उनके व्रतकों दूषित करती है । अत: ब्राह्मणों ! जो मनुष्य मोहिनीके वेधसे रहित एकादशीकों उपवास करके द्वादशीकों भगवान्‌ विष्णुकी पूजा करता है, वह निश्चय ही वैकुण्ठधाममें जाता है । विप्रवरो ! इस प्रकार मैंने मोहिनीका चरित्र सुनाया है । नारदमहापुराणका यह उत्तरभाग भोग तथा मोक्ष देनेवाला है । यह मैंने तुम्हें सुना दिया । इस पद-पदपर मनुष्योंके लिये भगवान्‌ श्रीहरिका भक्तिका साधन होता है । जो मनुष्य भक्तिभावस इसका श्रवण करता है, वह वैकुण्ठधामकों जात है । सभी पुराणोंका यह सनातन बीज है । द्विजवरों इस पुराणमें परम बुद्धिमान्‌ पराशरनन्दन व्यासजीने प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्मका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है । नारदीय पुराण अलौकिक चरित्रसे भरा हुआ है । व्यासजीने मुझसे कहा था कि जिस-किसी व्यक्तिको इसका उपदेश नहीं देना चाहिये । पूर्वकालमें महाभाग सनकादि मुनियोंने विद्वान नारदजीके समक्ष यह पुराणसंहिता प्रकाशित की थी । हंसस्वरूपी भगवान्‌ श्रीहरिने जब शाश्वत ब्रह्मका उपदेश किया था, उसी समय उन्होंने इन सनकादिकों इस विस्तृत विज्ञानसे युक्त नारद-पुराणका भी उपदेश कर दिया था । वहीं यह है, जिसे अध्यात्मदर्शी साक्षात्‌ भगवान्‌ नारदने मुनिवर वेदव्यासकों रहस्यसहित सुनाया था । अब मैंने इस रहस्यमय पुराणकों आप लोगोंके समक्ष प्रकाशित किया है । पृथ्वीपर यह परम दुर्लभ है । जो मनुष्य सदा इसका श्रवण एवं पाठ करते हैं, उनके लिये यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चारों पुरुषार्थ देनेवाला है । इसके पाठ अथवा श्रवणसे ब्राह्मण वेदोंका भण्डार होता है, क्षत्रिय इस भूतलपर विजय पाता है, वैश्य धन-धान्यसे सम्पन्न होता है तथा शूद्र सब प्रकारके दुःखोंसे छूट जाता है । भगवान्‌ श्रीकृष्णद्वैपायनने इस संहिताका सम्पादन किया है । इसके सुननेपर सब प्रकारके संदेहोंका निवारण हो जाता है । यह सकाम भक्त पुरुषों तथा निष्काम पुरुषोंको भी मोक्ष देनेवाला है । ब्राह्मणो ! नैमिषारण्य, पुष्कर, गया, मथुरा, द्वारका, नर-नारायणाश्रम, कुरुक्षेत्र, नर्मदा तथा पुरुषोत्तमक्षेत्र आदि पुण्यक्षेत्रोमें जाकर जो मनुष्य हविष्यान्-भोजन और भूमि-शयन करते हुए अनासक्त और जितेंद्रिय-भावसे इस संहिताका पाठ करता है, वह भवसागरसे मुक्त हो जाता है । जैसे व्रतोंमें एकादशी, नदियोंमें गंगा, वनोमें वृन्दावन, क्षेत्रोमें कुरुक्षेत्र, पुरियोंमें काशी पुरी, तीथोंमें मथुरा तथा सरोवरोंमें पुष्कर श्रेष्ठ है, उसी प्रकार समस्त पुराणोंमें यह नारदपुराण श्रेष्ठ है । गणेशजीके भक्त, सूर्यदेवताके उपासक, विष्णुभक्त, शक्तिके उपासक तथा शिव-भक्त और सकाम अथवा निष्काम-ये सभी इस पुणाणके अधिकारी हैं । स्त्री हो या पुरुष, वह जिस-जिस कामनाका चिन्तन करते हुए आदरपूर्वक इस पुराणकों सुनता या सुनाता है, वह उस-उस कामनाकों निश्चय ही प्राप्त कर लेता है । नारदीय पुराणके अनुशीलनसे रोगसे पीड़ित मनुष्य रोगमुक्त हो जाता है । भयातुर मनुष्य निर्भय होता है और विजयकी इच्छावाला मनुष्य अपने शत्रुओंपर विजय पाता है ।

     जो सृष्टिके प्रारम्भमें रजोगुणद्वारा इस विश्वकी रचना करते हैं, मध्यमें सत्त्वगुणद्वारा इसका पालन करते हैं और अन्तमें तमोगुणद्वारा इस जगत्‌को ग्रस लेते हैं, उन सर्वात्मा परमेश्वरको नमस्कार है । जिन्होंने ऋषि, मनु, सिद्ध, लोकपाल एवं ब्रह्मा आदि प्रजापतियोंकी रचना की है, उन ब्रह्मात्माको नमस्कार है । जहाँसे वाणी निवृत्त हो जाती है और जहाँतक मन पहुँच नहीं पाता, वही रूपरहित सच्चिदानन्दघन परमात्माका स्वरूप जानना चाहिये । जिनकी सत्यतासे यह जगत्‌ सत्य-सा प्रतीत होता है, जो निर्गुण तथा अज्ञानान्धकारसे परे हैं, उन विचित्ररूप परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ । जो अजन्मा परमात्मा आदि, मध्य और अन्तमें भी एक एवं अविनाशी होते हुए भी नाना रूपोंमें प्रकाशित हो रहे हैं, उन निरञ्जन भगवानकी मैं वन्दना करता हूँ । जिन निरंजन परमात्मासे यह चराचर जगत्‌ उत्पन्न हुआ है, जिनमें यह स्थित है और जिनमें ही इसका लय होता है, वही सत्य तथा अद्वैत ज्ञान है । इन्हींको शिवोपासक शिव कहते हैं और सांख्यवेत्ता विद्वान्‌ प्रधान कहते हैं । ब्राह्मण ! योगी जिन्हें पुरुष कहते हैं, मीमांसक लोग कर्म मानकर जिनकी उपासना करते हैं, वैशेषिक मतावलम्बी जिन्हें विभु और शक्तिका चिन्तन करनेवाले जिन्हें चिन्मयी आद्याशक्ति कहते हैं, नाना प्रकारके रूप और क्रियाओंकि चरम आश्रय उन अद्वितीय ब्रह्माकी मैं वन्दना करता हूँ । भगवान्‌की भक्ति मनुष्योंको भगवत्स्वरूपकी प्राप्ति करानेवाली है। उसे पाकर पशुके सिवा दूसरा कौन होगा, जो अन्य किसी लाभकी इच्छा करता हो । ब्राह्मणो ! जो मनुष्य भगवानसे विमुख होकर संसारमें आसक्त होते हैं, उन्हें सत्संगके सिवा और किसी उपायसे इस भवरूपी गहन वनसे छुटकारा नहीं मिलता । विप्रवरो ! साधुपुरुष उत्तम आचारवाले, सर्वलोकहितैषी तथा दीन जनोपर कृपा रखनेवाले होते हैं । वे अपनी शरणमें आये हुए लोगोंका उद्धार कर देते हैं । मुनियो ! संसारमें आप लोग साधुपुरुषकि द्वारा सम्मान पानेयोग्य और परम धन्य हैं; क्योंकि आप भगवान्‌ वासुदेवकी नूतन पल्लवोसे युक्त कीर्तिलताका बारंबार सेवन करते हैं । आप लोगोंने समस्त कारणोके भी कारण तथा जगतका मंगल करनेवाले साक्षात्‌ भगवान्‌ श्रीहरिका मुझे स्मरण दिलाया है,  इसलिये मैं भी धन्य और अनुगृहीत हूँ ॥ ॐ ॥

 

॥ उत्तर भाग सम्पूर्ण ॥

॥ श्रीनारदमहापुराण समाप्त ॥

॥ उत्तर भाग सम्पूर्ण ॥ ॥ श्रीनारदमहापुराण समाप्त ॥