- अध्याय-01 सिद्धाश्रममें शौनकादि महर्षियोंका सूतजीसे प्रश्न तथा सूतजीके द्वारा नारदपुराणकी महिमा और विष्णुभक्तिके माहात्म्यका वर्णन
- अध्याय-02 नारदजीद्धारा भगवान विष्णुकी स्तुति
- अध्याय-03 सृष्टिक्रमका संक्षिप्त वर्णन; द्धीप, समुन्द्र और भारतवर्षका वर्णन, भारतमें सत्कर्मानुष्ठानकी महत्ता तथा भगवदपर्णपूर्वक कर्म करनेकी आज्ञा
- अध्याय-04 श्रद्धा— भक्ति, वर्णाश्रमोचित आचार तथा त्यसंगकी महिमा, मृकन्डु मुनिकी तपस्यासे संतुष्ट होकर भगवानका मुनिको दर्शन तथा वरदान देना
- अध्याय-05 मार्कण्डेयजीको पिताका उपदेश, समय—निरुपन, मार्कण्डेयद्वारा भगवानकी स्तुति और भगवानका मार्कंण्डेयजीको भगवद्भक्तोंके लक्षण बताकर वरदान देना
- अध्याय-06 गंगा— यमुना— संगम, प्रयाग, काशी तथा गंगा एवं गायत्रीकी महिमा
- अध्याय-07 असूया—दोषके कारण राजा बाहुकी अवनीत और पराजय तथा उनकी मृत्युके बाद रानीका और्व मुनिके आश्रममें रहना
- अध्याय-08 सगरका जन्म तथा शत्रुविजय, कपिलके क्रोधसे सगर— पुत्रोंका विनाश तथा भगीरथद्धारा लायी हुई गंगाजीके स्पर्शसे उन सबका उद्धार
- अध्याय-09 बलिके द्धारा देवताओंकी पराजय तथा अदितिकी तपस्या
- अध्याय-10 अदितिको भगवद्दर्शन और वरप्राप्ति, वामनजीका अवतार, बलि—वामन—संवाद, भगवानका तीन पैरसे समस्त ब्रह्माण्डको लेकर बलिको रसातलमें भेजना
- अध्याय - ११ दानका पात्र, निष्फल दान, उत्तम—माध्यम—अधम—दान, धर्मराज—भगीरथ—संवाद, ब्रहामणको जीविकादानका माहात्म्य तथा तडाग—निर्माणजनित पुण्यके विषयमें राजावीरभद्रकी कथा
- अध्याय - १२ तडाग और तुलसी आदिकी महिमा, भगवान विष्णु और शिवके स्नान— पूजनका महत्व एवं विविध दानों तथा देवमंदिरमें सेवा करनेका माहात्म्य
- अध्याय - १३ विविध प्राश्चितका वर्णन, इष्टापूर्तका फल और सूतक, श्राद्ध तथा तर्पणका विवेचन
- अध्याय - १४ पापियोंको प्राप्त होनेवाली नरकोंकी यातनाओंका वर्णन, भगवद्भक्तिका निरूपण तथा धर्मराजके उपदेशसे भगीरथका गंगाजीको लानेके लिय उधोग
- अध्याय - १५ राजा भगीरथका भृंगुजीके आश्रमपर जातक सत्यसंग—लाभ करना तथा हिमालयपर धोर तपस्या करके भगवान विष्णु और शिवकी कृपासे गंगाजीको लाकर पितरोंका उद्धार करना
- अध्याय - १६ मार्गशीर्ष माससे लेकर कार्तिक मासपर्यन्त उद्यापनसहित शुक्लपक्ष द्वदशीव्रत वर्णन
- अध्याय - १७ मार्गशीर्ष— पूर्णिमासे आरम्भ होनेवाले लक्ष्मीनारायण— व्रतकी उद्यापनसहित विधि और महिमा
- अध्याय - १८ श्रीविष्णुमंदिरमें ध्वजारोपणकी विधि और महिमा
- अध्याय - १९ हरिपञ्चक—व्रतकी विधि और माहात्म्य
- अध्याय - २० मासोपवास—व्रतकी विधि और महिमा
- अध्याय - २१ एकादशी— व्रतकी विधि और महिमा— भद्रशीलकी कथा
- अध्याय २२ चारो वर्णों और द्विजका परिचय तथा विभिन्न वर्णोंके विशेष और सामान्य धर्मका वर्णन
- अध्याय २३ संस्कारोंके नियत काल, ब्रह्मचारीके धर्म, अनध्याय और वेदाध्यनकी आवश्यकताका वर्णन
- अध्याय २४ विवाहके योग्य कन्या, विवाहके आठ भेद तथा गृहस्थोचित शिष्टाचारका वर्णन
- अध्याय २५ गृहस्थ— सम्बन्धी शौचाचार, स्नान, संध्योपासन आदि तथा वानप्रस्थ और संन्यास— आश्रमके धर्म
- अध्याय २६ श्राद्धकी विधि तथा उसके विषयमें अनेक ज्ञातव्य विषयोंका वर्णन
- अध्याय २७ व्रत, दान और श्राद्ध आदिके लिये तिथियोंका निर्णय
- अध्याय २८ विविध पापोके प्रायच्छितका विधान तथा भगवन् विष्णुके आराधनकी महिमा
- अध्याय २९ यमलोकके मार्गमें पपियोके कष्ट तथा पुन्यात्माओके सुखका वर्णन एवं कल्पान्तरमें भी कर्मोके भोगोका प्रतिपादन
- अध्याय ३० पापी जीवोंके स्थावर आदि योनियोंमें जन्म लेने और दुःख भोगनेकी अवस्थाका वर्णन
- अध्याय ३१ मोक्ष प्राप्तिका उपाय, भगवान विष्णु ही मोक्षदाता है इसका प्रतिपादन, योग तथा उसकेअंगोंक निरूपण
- अध्याय ३२ भवबंधनसे मुक्तिके लिय भगवान विष्णुके भजनका उपदेश
- अध्याय ३३ वेदमालीको जानन्ति मुनिका उपदेश तथा वेदमालीकी मुक्ति
- अध्याय ३४ भगवान विष्णुके भजनकी महिमा— सत्य संग, भगवानके चरणोदकसे एक व्याधका उद्धार
- अध्याय ३५ उत्तंगके द्धारा भगवान विष्णु की स्तुति, भगवानकी आज्ञासे उनका नारायणाश्रममें जाकर मुक्त होना
- अध्याय ३६ भगवान विष्णुके भजन पूजनकी महिमा
- अध्याय ३७ इन्द्र तथा सुधर्मका संवाद, विभिन्न मनवनतरोके इंद्र और देवताओंका वर्णन, भागवद्भजनका माहात्म्य
- अध्याय ३८ चारों युगोंकी स्थितिका संक्षेपसे तथा कलिधर्मका विस्तारसे वर्णन, भगवान्नामकी अद्भुत महिमाका प्रतिपादन
नारदपुराण पूर्वभाग
अध्याय-01 सिद्धाश्रममें शौनकादि महर्षियोंका सूतजीसे प्रश्न तथा सूतजीके द्वारा नारदपुराणकी महिमा और विष्णुभक्तिके माहात्म्यका वर्णन
ॐ वेदव्यासाय नमः
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत् ॥१॥
भगवान् नारायण, नरश्रेष्ठ नर तथा सरस्वतीदेवीको नमस्कार करके भगवदीय उत्कर्षका प्रतिपादन करनेवाले इतिहास—पुराणका पाठ करे ।
वन्दे वृन्दावनासीनमिन्दिरानन्दमन्दिरम् ।
उपेन्द्रं सान्द्रकारुण्यं परानन्दं परात्परम् ॥२॥
जो लक्ष्मीके आनन्द—निकेतन भगवान् विष्णुके अवतार—स्वरूप है, उस स्नेहयुक्त करुणाकी निधि परात्पर परमानन्दस्वरूप पुरुषोत्तम वृन्दावनवासी श्रीकृष्णको मैं प्रणाम करता हूँ ।
ब्रम्हाविष्णुमहेशाख्यं यस्यांशा लोकसाधकाः ।
तमादिदेवं चिद्रूपं विशुद्धं परमं भजे ॥३॥
ब्रह्म, विष्णु तथा शिव जिसके स्वरूप हैं तथा लोकपाल जिसके अंश हैं, उस विशुद्ध ज्ञानस्वरूप आदिदेव परमात्माकी मैं आराधना करता हूँ ।
नैमिषारण्य नामक विशाल वनमें महात्मा शौनक आदि ब्रम्हवदि मुनि मुक्तिकी इच्छासे तपस्यामें संलग्न थे । उन्होंने इन्द्रियोंको वशमें कर लिया था । उनका भोजन नियमित था । वे सच्चे संत थे और सत्यस्वरूप परमात्माकी प्राप्तिके लिये पुरुषार्थ करते थे । आदिपुरुष सनातन भगवान् विष्णुका वे बड़ी भक्तिसे यजन—पूजन करते रहते थे । उनमें ईर्ष्याका नाम नहीं था । वे संम्पूर्ण धर्मोंके ज्ञाता और समस्त लोकोंपर अनुग्रह करनेवाले थे । ममता और अहङ्कार उन्हें छू भी नहीं सके थे । उनका चित्त निरन्तर परमात्माके चिन्तनमें तत्पर रहता था । वे समस्त कामनाओंका त्याग करके सर्वथा निष्पाप हो गये थे । उनमें शम, दम आदि सद्गुणोंका सहज विकास था । काले मृगचर्मकी चादर ओढ़े, सिरपर जटा बढ़ाये तथा निरन्तर ब्रम्ह्चर्यका पालन करते हुए वे महर्षिगण सदा परब्रह्म परमात्माका जप एवं कीर्तन करते थे । सूर्यके समान प्रतापी, धर्मशास्त्रोंका यथार्थ तत्व जाननेवाले वे महात्मा नैमिषारण्यमें तप करते थे । उनमेंसे कुछ लोग यज्ञोंद्वारा यज्ञपति भगवान् विष्णुका यजन करते थे । कुछ लोग ज्ञानयोगके साधनोंद्वारा ज्ञानस्वरूप श्रीहरिकी उपासना करते थे और कुछ लोग भक्तिके मार्गपर चलते हुए परा—भक्तिके द्वारा भगवान् नारायणकी पूजा करते थे ।
एक समय धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका उपाय जाननेकी इच्छासे उन श्रेष्ठ महात्माओंने एक बड़ी भारी सभा की । उसमें छब्बीस हजार ऊर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचर्यका पालन करनेवाले) मुनि सम्मिलित हुए थे । उनके शिष्य— प्रशिष्योंकी संख्या तो बतायी ही नहीं जा सकती । पवित्र अन्तःकरणवाले वे महातेजस्वी महर्षि लोकोंपर अनुग्रह करनेके लिये ही एकत्र हुए थे । उनमें राग और मात्सर्यका सर्वथा अभाव था । वे शौनकजीसे यह पूछना चाहते थे कि इस पृथ्वीपर कौन—कौन—से पुण्यक्षेत्र एवं पवित्र तीर्थ हैं । त्रिविध तापसे पीड़ित चित्तवाले मनुष्योंको मुक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है । लोगोंको भगवान् विष्णुकी अविचल भक्ति कैसे प्राप्त होगी तथा सात्त्विक, राजस और तामस—भेदसे तीन प्रकारके कर्मोंका फल किसके द्वारा प्राप्त होता है । उन मुनियोंको अपनेसे इस प्रकार प्रश्न करनेके लिये उद्यत देखकर उत्तम बुद्धिवाले शौनकजी विनयसे झुक गये और हाथ जोड़कर बोले ।
शौनकजीने कहा—महार्षियो ! पवित्र सिद्धाश्रम—तीर्थमें पौराणिकोंमें श्रेष्ठ सूतजी रहते हैं । वे वहाँ अनेक प्रकारके यज्ञोंद्वारा विश्वरूप भगवान् विष्णुका यजन किया करते हैं । महामुनि सूतजी व्यासजीके शिष्य हैं । वे यह सब विषय अच्छी तरह जानते हैं । उनका नाम रोमहर्षण है । वे बड़े शान्त स्वभावके हैं और पुराणसंहिताके वक्ता हैं ।
भगवान् मधुसूदन प्रत्येक युगमें धर्मोंका ह्रास देखकर वेदव्यास—रूपसे प्रकट होते और एक ही वेदके अनेक विभाग करते हैं । विप्रगण ! हमने सब शास्त्रोंमें यह सुना है कि वेदव्यास मुनि साक्षात् भगवान् नारायण ही हैं । उन्हीं भगवान् व्यासने सूतजीको पुराणोंका उपदेश दिया है । परम बुद्धिमान् वेदव्यासजीके द्वारा भलीभाँति उपदेश पाकर सूतजी सब धर्मोंके ज्ञाता हो गये हैं । संसारमें उनसे बढ़कर दूसरा कोई पुराणोंका ज्ञाता नहीं है; क्योंकि इस लोकमें सूतजी ही पुराणोंके तात्त्विक अर्थको जाननेवाले, सर्वज्ञ और बुद्धिमान् हैं । उनका स्वभाव शान्त है । वे मोक्षधर्मके ज्ञाता तो हैं ही, कर्म और भक्तिके विविध साधनोंको भी जानते हैं । मुनीश्वरो ! वेद, वेदांग और शास्त्रोंका जो सारभूत तत्त्व है, वह सब मुनिवार व्यासने जगत्के हितके हितके लिये पुराणोंमें बता दिया है और ज्ञानसागर सूतजी उन सबका यथार्थ तत्त्व जाननेमें कुशल हैं, इसलिये हमलोग उन्हींसे सब बातें पूछें ।
इस प्रकार शौनकजीने मुनियोंसे जब अपना अभिप्राय निवेदन किया, तब वे सब महर्षि विद्वानोंमें श्रेष्ठ शौनकजीको आलिंगन करके बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें साधुवाद देने लगे ।
तदनन्तर सब मुनि वनके भीतर पवित्र सिद्धाश्रमतीर्थमें गये और वहाँ उन्होंने देखा कि सूतजी अग्निष्टोम यज्ञके द्वारा अनन्त अपराजित भगवान् नारायणका यजन कर रहे हैं । सूतजीने उन विख्यात तेजस्वी महात्माओंका यथोचित स्वागत—सत्कार किया । तत्पश्चात् उनसे नैमिषारण्यनिवासी मुनियोंने इस प्रकार पूछा—
ऋषि बोले—उत्तम व्रतका पालन करनेवाले सूतजी ! हम आपके यहाँ अतिथिरूपमें आये हैं, अतः आपसे आतिथ्य—सत्कार पानेके अधिकारी हैं । आप ज्ञान—दानरूपी पूजन—सामग्रीके द्वारा हमारा पूजन कीजिये ।
मुने ! देवतालोग चन्द्रमाकी किरणोंसे निकला हुआ अमृत पीकर जीवन धारण करते हैं; परंतु इस पृथ्वीके देवता ब्राह्मण आपके मुखसे निकले हुए ज्ञानरूपी अमृतको पीकर तृप्त होते हैं । तात ! हम यह जानना चाहते हैं कि यह सम्पूर्ण जगत् किससे उत्पन्न हुआ? इसका आधार और स्वरूप क्या है? यह किसमें स्थित है और किसमें इसका लय होगा? भगवान् विष्णु किस साधनसे प्रसन्न होते हैं? मनुष्योंद्वारा उनकी पूजा कैसे की जाती है? भिन्न—भिन्न वर्णों और आश्रमोंका आचार क्या है ! अतिथिकी पूजा कैसे की जाती है, जिससे सब कर्म सफल हो जाते हैं? वह मोक्षका उपाय मनुष्योंको कैसे सुलभ है, पुरुषोंको भक्तिसे कौन—सा फल प्राप्त होता है और भक्तिका स्वरूप क्या है? मुनिश्रेष्ठ सूतजी ! ये सब बातें आप हमें इस प्रकार समझाकर बतावें कि फिर इनके विषयमें कोई संदेह न रह जाय, आपके अमृतके समान वचनोंको सुननेके लिये किसके मनमें श्रद्धा नहीं होगी?
सूतजीने कहा—महर्षियो ! आप सब लोग सुनें । आप लोगोंको जो अभीष्ट है, वह मैं बतलाता हूँ । सनक़ादि मुनीश्वरोंने महात्मा नारदजीसे जिसका वर्णन किया था, वह नारदपुराण आप सुनें । यह वेदार्थसे परिपूर्ण है—इसमें वेदके सिद्धान्तोंका ही प्रतिपादन किया गया है । यह समस्त पापोंकी शान्ति तथा दुष्ट ग्रहोकी बाधाका निवारण करनेवाला है । दुःस्वप्नोंका नाश करनेवाला, धर्मसम्मत तथा भोग एवं मोक्षको देनेवाला है । इसमें भगवान् नारायणकी पवित्र कथाका वर्णन है । यह नारदपुराण सब प्रकारके कल्याणकी प्राप्तिका हेतु है । धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्षका भी कारण है । इसके द्वारा महान् फलोंकी भी प्राप्ति होती है, यह अपूर्व पुण्यफल प्रदान करनेवाला है । आप सब लोग एकाग्रचित्त होकर इस महापुराणको सुनें ।
महापातकों तथा उपपातकोंसे युक्त मनुष्य भी महर्षि व्यासप्रोक्त इस दिव्य पुराणका श्रवण करके शुद्धिको प्राप्त होते हैं । इसके एक अध्यायका पाठ करनेसे अश्वमेंध यज्ञका और दो अध्यायोंकें पाठसे राजसूय यज्ञका फल मिलता है । ब्रह्मणो ! ज्येष्ठके महीनेमें पूर्णिमा तिथिको मूल नक्षत्रका योग होनेपर मनुष्य इन्द्रिय—संयमपूर्वक मथुरापुरीकी यमुनाके जलमें स्नान करके निराहार व्रत रहे और विधिपूर्वक भगवान् श्रीकृष्णका पूजन करे तो इससे उसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, उसीको वह इस पुराणके तीन अध्यायोंका पाठ करके प्राप्त कर लेता है । इसके दस अध्यायोंका भक्तिभावसे श्रवण करके मनुष्य निर्वाण मोक्ष प्राप्त कर लेता है । यह पुराण कल्याण—प्राप्तिके साधनोंमें सबसे श्रेष्ठ है । पवित्र ग्रन्थोंमें इसका स्थान सर्वोत्तम है । यह बुरे स्वप्रोंका नाशक और परम पवित्र है । ब्रह्मर्षियो ! इसका यत्नपूर्वक श्रवण करना चाहिये । यदि मनुष्य श्रद्धापूर्वक इसके एक श्लोक या आधे श्लोकका भी पाठ कर ले तो वह महापातकोंके समूहसे तत्काल मुक्त हो जाता है ।
साधु पुरुषोंके समक्ष ही इस पुराणका वर्णन करना चाहिये; क्योंकि यह गोपनीयसे भी अत्यन्त गोपनीय है । भगवान् विष्णुके समक्ष, किसी पुण्य क्षेत्रमें तथा ब्राम्हन आदि द्विजातियोंके निकट इस पुराणकी कथा बाँचनी चाहिये । जिन्होंने काम—क्रोध आदि दोषोंको त्याग दिया है, जिनका मन भगवान् विष्णुकी भक्तिमें लगा है तथा जो सदाचारपरायण हैं, उन्हींको यह मोक्षसाधक पुराण सुनाना चाहिये ।
भगवान् विष्णु सर्वदेवमय हैं । वे अपना स्मरण करनेवाले भक्तोंकी समस्त पीड़ाओंका नाश कर देते हैं । श्रेष्ठ भक्तोंपर उनकी स्त्रेह—धारा सदा प्रवाहित होती रहती है । ब्रह्मणो ! भगवान् विष्णु केवल भक्तिसे ही संतुष्ट होते हैं, दूसरे किसी उपायसे नहीं । उनके नामका बिना श्रद्धाके भी कीर्तन अथवा श्रवण कर लेनेपर मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो अविनाशी वैकुण्ठ धामको प्राप्त कर लेता है । भगवान् मधुसूदन संसाररूपी भयङ्कर एवं दुर्गम वनको दग्ध करनेके लिये दावानलरूप हैं ।
महर्षियो ! भगवान् श्रीहरि अपना स्मरण करनेवाले पुरुषोंके सब पापोंका उसी क्षण नाश कर देते हैं । उनके तत्त्वका प्रकाश करनेवाले इस उत्तम पुराणका श्रवण अवश्य करना चाहिये । सुनने अथवा पाठ करनेसे भी यह पुराण सब पापोंका नाश करनेवाला है ।
ब्रह्मणो ! जिसकी बुद्धि भक्तिपूर्वक इस पुराणके सुननेमें लग जाती है, वही कृतकृत्य है । वही सम्पूर्ण शास्त्रोंका मर्मज्ञ पण्डित है तथा उसीके द्वारा किये हुए तप और पुण्यको मैं सफल मानता हूँ; क्योंकि बिना तप और पुण्यके इस पुराणको सुननेमें प्रेम नहीं हो सकता । जो संसारका हित करनेवाले साधु पुरुष हैं, वे ही उत्तम कथाओंके कहने—सुननेमें प्रवृत्त होते हैं । पापपरायण दुष्ट पुरूष तो सदा दूसरोंकी निन्दा और दूसरोंके साथ कलह करनेमें ही लगे रहते हैं । द्विजवरो ! जो नराधम पुराणोंमें अर्थवाद होनेकी शङ्का करते हैं, उनके किये हुए समस्त पुण्य नष्ट हो जाते हैं । विप्रवरो ! मोहग्रस्त मानव दूसरे—दूसरे कार्योंके साधनमें लगे रहते हैं, परंतु पुराणश्रवणरूप पुण्यकर्मका अनुष्ठान नहीं करते हैं । श्रेष्ठ ब्रह्मणो ! जो मनुष्य बिना किसी परिश्रमके यहाँ अनन्त पुण्य प्राप्त करना चाहता हो, उसको भक्तिभावसे निश्चय ही पुराणोंका श्रवण करना चाहिये । जिस पुरुषकी चित्तवृत्ति पुराण सुननेमें लग जाती है, उसके पूर्वजन्मोपार्जित समस्त पाप निस्संदेह नष्ट हो जाते हैं । जो मानव सत्यङ्, देवपूजा, पुराणकथा और हितकारी उपदेशमें तत्पर रहता है, वह इस देहका नाश होनेपर भगवान् विष्णुके समान तेजस्वी स्वरूप धारण करके उन्हींके परम धाममें चला जाता है ।
अतः विप्रवरो ! आपलोग इस परम पवित्र नारदपुराणका श्रवण करें । इसके श्रवण करनेसे मनुष्यका मन भगवान् विष्णुमें संलग्न होता है और वह जन्म—मृत्यु तथा जरा आदिके बन्धनसे छूट जाता है ।
आदिदेव भगवान् नारायण श्रेष्ठ, वरणीय, वरदाता तथा पुराणपुरुष हैं । उन्होंने अपने प्रभावसे सम्पूर्ण लोकोंको व्याप्त कर रखा है । वे भक्तजनोंके मनोवाञ्छित पदार्थको देनेवाले हैं । उनका स्मरण करके मनुष्य मोक्षपदको प्राप्त कर लेता है ।
ब्रह्मणो ! जो ब्रह्मा, शिव तथा विष्णु आदि भिन्न—भिन्न रूप धारण करके इस जगत्की सृष्टि, संहार और पालन करते हैं, उन आदिदेव परम पुरूष परमेंश्वरको अपने ह्रदयमें स्थापित करके मनुष्य मुक्ति पा लेता है । जो नाम और जाति आदिकी कल्पनाओंसे रहित हैं, सर्वश्रेष्ठ तत्त्वोंसे भी परम उत्कृष्ट हैं, परात्पर पुरुष हैं, उपनिषदोंके द्वारा जिनके तत्त्वका ज्ञान होता है तथा जो अपने प्रेमी भक्तोंके समक्ष ही सगुण—साकार रूपमें प्रकट होते हैं, उन्हीं परमेंश्वरकी समस्त पुराणों और वेदोंके द्वारा स्तुति की जाती है ।
अतः जो सम्पूर्ण जगत्के ईश्वर, मोक्षस्वरूप, उपासनाके योग्य, अजन्मा, परम रहस्यरूप, उपासनाके योग्य, अजन्मा, परम रहस्यरूप तथा समस्त पुरुषार्थोंके हेतु हैं, उन भगवान् विष्णुका स्मरण करके मनुष्य भवसागरसे पार हो जाता है । धर्मात्मा, श्रद्धालु, मुमुक्षु, यति तथा वीतराग पुरुष ही यह पुराण सुननेके अधिकारी हैं । उन्हींको इसका उपदेश करना चाहिये । पवित्र देशामें, देवमन्दिके सभामण्डपमें, पुण्यक्षेत्रमें, पुण्यतीर्थमें तथा देवताओं और ब्रह्मणोके समीप पुराणका प्रवचन करना चाहिये । जो मनुष्य पुराण—कथाके बीचमें दुसरेसे बातचीत करता है, वह भयङ्कर नरकमें पडता है । जिसका चित्त एकाग्र नहीं है, वह सुनकर भी कुछ नहीं समझता । अतः एकचित्त होकर भगवत्कथामृतका पान करना चाहिये । जिसका मन इधर—उधर भटक रहा हो, उसे कथा—रसका आस्वादन कैसे हो सकता है? संसारमें चञ्चल चित्तवाले मनुष्यको क्या सुख मिलता है? अतः दुःखकी साधनभूत समस्त कामनाओंका त्याग करके एकाग्रचित्त हो भगवान् विष्णुका चिन्तन करना चाहिये । जिस किसी उपायसे भी यदि अविनाशी भगवान् नारायणका स्मरण किया जाय तो वे पातकी मनुष्यपर भी निस्संदेह प्रसन्न हो जाते हैं । सम्पूर्ण जगत्के स्वामी तथा सर्वत्र व्यापक अविनाशी भगवान् विष्णुमें जिसकी भक्ति है, उसका जन्म सफल हो गया और मुक्ति उसके हाथमें है । विप्रवरो ! भगवान् विष्णुके भजनमें संलग्न रहनेवाले पुरुषोंको धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—चारों पुरुषार्थ प्राप्त होते हैं ।
अध्याय-02 नारदजीद्धारा भगवान विष्णुकी स्तुति
ऋषियोंने पूछा— सूतजी ! सनत्कुमारजीने महात्मा नारदको किस प्रकार सम्पूर्ण धर्मोंका उपदेश किया तथा उन दोनोंका समागम किस तरह हुआ? वे दोनों ब्रह्मवादी महात्मा किस स्थानमें स्थित होकर भगवान्की महिमाका गान करते थे? यह हमें बताइये।
सूतजी बोले— महात्मा सनक आदि ब्रह्माजीके मानस पुत्र हैं। उनमें न ममता है और न अहंकार। वे सभी नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं। उनके नाम बतलाता हूँ, सुनिये। सनक, सनन्दन, सनत्कुमार और सनातन— इन्हीं नामोंसे उनकी ख्याति है। वे चारों महात्मा भगवान् विष्णुके भक्त हैं तथा निरन्तर परब्रह्म परमात्माके चिन्तनमें तत्पर रहते हैं। उनका प्रभाव सहस्त्र सूर्योंके समान है। वे सत्यव्रती तथा मुमुक्षु हैं। एक दिनकी बात है, वे मेंरुगिरिके शिखरपर ब्रह्माजीकी सभामें जा रहे थे। मार्गमें उन्हें भगवान् विष्णुके चरणोंसे प्रकट हुई गंगाजीका दर्शन हुआ। यह उन्हें अभीष्ट था। गंगाजीका दर्शन करके वे चारों महात्मा उनकी सीता नामवाली धाराके जलमें स्नान करनेको उद्यत हुए। द्विजवरो! इसी समय देवर्षि नारदमुनि भी वहाँ आ पहुँचे और अपने बड़े भाइयोंको वहाँ स्नानके लिये उद्यत देख उन्हें हाथ जोड़कर नमस्कार किया। उस समय वे प्रेम— भक्तिके साथ भगवान् मधुसूदनके नामोंका कीर्तन करने लग— ‘ नारायण ! अच्युत ! अनन्त ! वासुदेव ! जनार्दन ! यज्ञेश ! यज्ञपुरुष ! कृष्ण ! विष्णु ! आपको नमस्कार है। कमलनयन ! कमलाकान्त ! गंगाजनक ! केशव ! क्षीरसमुद्रमें शयन करनेवाले देवेश्वर ! दामोदर ! आपको नमस्कार है। श्रीराम ! विष्णो ! नृसिंह ! वामन ! प्रद्मुम्र ! संकर्षण ! वासुदेव ! अज ! अनिरुद्ध ! निर्मल प्रकाशस्वरूप ! मुरारे ! आप सब प्रकारके भयसे निरन्तर हमारी रक्षा कीजिये।’ इस प्रकार उच्च स्वरसे हरिनामका उच्चारण करते हुए उन अग्रज मुनियोंको प्रणाम करके वे उनके पास बैठे और उन्हींके साथ प्रसन्नतापूर्वक वहाँ स्नान भी किया। सम्पूर्ण लोकोंका पाप दूर करनेवाली गंगाकी धारा सीताके जलमें स्नान करके उन निष्पाप मुनियोंने देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंका तर्पण किया। फिर जलसे बाहर आकर संध्योपासना आदि अपने नित्य— नियमका पालन किया। तत्पश्चात् वे भगवान् नारायणके गुणोंसे सम्बन्ध रखनेवाली नाना प्रकारकी कथा— वार्ता करने लगे। उस मनोरम गंगातटपर सनकादि मुनियोंने जब अपना नित्यकर्म समाप्त कर लिया, तब देवर्षि नारदने अनेक प्रकारकी कथा— वार्ताके बीच उनसे इस प्रकार प्रश्न किया।
नारदजी बोले— मुनिवरो ! आपलोग सर्वज्ञ हैं। सदा भगवान्के भजनमें तत्पर रहते हैं। आप सब— के— सब सनातन भगवान् जगदीश्वर हैं और जगत्के उद्धारमें तत्पर रहते हैं। दीन— दुःखियोंके प्रति मैत्रीभाव रखनेवाले आप महानुभावोंसे मैं कुछ प्रश्न पूछता हूँ, उसे बतायें। विद्वानो! मुझे भगवान्का लक्षण बताइये। यह सम्पूर्ण स्थावर— जङ्म जिनसे उत्पन्न हुआ है, भगवती गंगा जिनके चरणोंका धोवन हैं, वे भगवान् श्रीहरि कैसे जाने जाते हैं? मनुष्योंके मन, वाणी, शरीरसे किये हुए कर्म कैसे सफल होते हैं? सबको मान देनेवाले महात्माओ! ज्ञान और तपस्याका भी लक्षण बतलाइये। साथ ही अतिथि— पूजाका भी महत्त्व समझाइये, जिससे भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं। हे नाथ! इस प्रकारके और भी जो गुह्य सत्कर्म भगवान् विष्णुको प्रसन्न करनेवाले हैं, उन सबका मुझपर अनुग्रह करके यथार्थ रूपसे वर्णन कीजिये।
तदनन्तर नारदजी भगवान्की स्तुति करने लगे— ‘जो परसे भी परे परम प्रकाशस्वरूप परमात्मा सम्पूर्ण कार्य— कारणरूप जगत्में अन्तर्यामी— रूपसे निवास करते हैं तथा जो सगुण और निर्गुणरूप हैं, उनको नमस्कार है। जो मायासे रहित हैं, परमात्मा जिनका नाम हैं, माया जिनकी शक्ति है, यह सम्पूर्ण विश्न जिनका स्वरूप है, जो योगियोंके ईश्वर, योगस्वरूप तथा योगगम्य हैं, उन सर्वव्यापी भगवान् विष्णुको नमस्कार है। जो ज्ञानस्वरूप, ज्ञानगम्य तथा सम्पूर्ण ज्ञाता तथा विज्ञानसम्पतिरूप् हैं, उन परमात्माको नमस्कार है। जो ध्यानस्वरूप, ध्यानगम्य तथा ध्यान करनेवाले साधकोंके पापका नाश करनेवाले हैं; जो ध्येयस्वरूप हैं; उन परमेंश्वरको नमस्कार है। सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि तथा ब्रह्मा आदि देवता, सिद्ध, यक्ष, असुर और नागगण जिनकी शक्तिसे संयुक्त होकर ही कुछ करनेमें समर्थ होते हैं, जो अजन्मा, पुराणपुरुष, सत्यस्वरूप तथा स्तुतिके अधीश्वर हैं, उन परमात्माको मैं सर्वदा नमस्कार करता हूँ। ब्रह्मन्! जो ब्रह्माजीका रूप धारण करके संसारकी सृष्टि और विष्णुरूपसे जगत्का पालन करते तथा कल्पका अन्त होनेपर जो रुद्ररूप धारण करके संहारमें प्रवृत्त होते हैं और एकार्णवके जलमें अक्षयवटके पत्रपर शिशुरूपसे अपने चरणारविन्दका रसपान करते हुए शयन करते हैं, उन अजन्मा परमेंश्वरका मैं भजन करता हूँ। जिनके नामका संकीर्तन करनेसे गजराज ग्राहके भयानक बन्धनसे मुक्त हो गया, जो प्रकाशस्वरूप देवता अपने परम पदमें नित्य विराजमान रहते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् विष्णुकी मैं शरण लेता हूँ। जो शिवकी भक्ति करनेवाले पुरुषोंके लिये शिवस्वरूप और विष्णुका ध्यान करनेवाले भक्तोंके लिये विष्णुस्वरूप हैं, जो संकल्पपूर्वक अपने देहधारणमें स्वयं ही हेतु हैं, उन नित्य परमात्माकी मैं शरण लेता हूँ। जो केशी तथा नरकासुरका नाश करनेवाले हैं, जिन्होंने बाल्यावस्थामें अपने हाथके अग्रभागसे गिरिराज गोवर्धनको धारण किया था, पृथ्वीके भारका अपहरण जिनका स्वाभाविक विनोद है, उन दिव्या शक्तिसम्पन्न भगवान् वासुदेवको मैं सदा प्रणास करता हूँ। जिन्होंने खम्भमें भयङ्कर नृसिंहरूपसे अवतीर्ण हो पर्वतकी चट्टानके समान कठोर दैत्य हिरण्यकशिपुके वक्षःस्थलको विदीर्ण करके अपने भक्त प्रह्लादकी रक्षा की; उन अजन्मा परमेंश्वरको मैं नमस्कार करता हूँ। जो आकाश आदि तत्त्वोंसे विभूषित, परमात्मा नामसे प्रसिद्ध, निरञ्जन, नित्य, अमेंयतत्त्व तथा कर्मरहित हैं, उन विश्वविधाता पुराणपुरुष परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ। जो ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, अग्नि, वायु, मनुष्य, यक्ष, गन्धर्व, असुर तथा देवता आदि अपने विभिन्न स्वरूपोंके साथ स्थित हैं, जो एक अद्वितीय परमेंश्वर हैं, उन आदिपुरुष परमात्माका मैं भजन करता हूँ। यह भेदयुक्त स्म्पूर्ण जगत् जिनसे उत्पन्न हुआ है, जिनमें स्थित है और संहारकालमें जिनमें लीन हो जायगा, उन परमात्माकी मैं शरण लेता हूँ। जो विश्वरूपमें स्थित होकर यहाँ आसक्त— से प्रतीत होते हैं, परंतु वास्तवमें जो असङ् और परिपूर्ण हैं, उन परमेंश्वरकी मैं शरण लेता हूँ। जो भगवान् सबके ह्रदयमें स्थिर होकर भी मायासे मोहित चित्तवालोंके अनुभवमें नहीं आते तथा जो परम शुद्धस्वरूप हैं, उनकी मैं शरण लेता हूँ। जो लोग सब प्रकारकी आसक्तियोंसे दूर रहकर ध्यानयोगमें अपने मनको लगाये हुए हैं, उन्हें जो सर्वत्र ज्ञानस्वरूप प्रतीत होते हैं, उन परमात्माकी मैं शरण लेता हूँ। क्षीरसागरमें अमृतमन्थनके समय जिन्होंने देवताओंके हितके लिये मन्दराचलको अपनी पीठपर धारण किया था, उन कूर्म— रूपधारी भगवान् विष्णुकी मैं शरण लेता हूँ। जिन अनन्त परमात्माने अपनी दाढ़ोंके अग्रभागद्वारा एकार्णवके जलसे इस पृथ्वीका उद्धार करके सम्पूर्ण जगत्को स्थापित किया, उन वाराह— रूपधारी भगवान् विष्णुको मैं नमस्कार करता हुँ। अपने भक्त प्रह्लादकी रक्षा करते हुए जिन्होंने पर्वतकी शिलाके समान अत्यन्त कठोर वक्षवाले हिरण्यकशिपु दैत्यको विदीर्ण करके मार डाला था, उन भगवान् नृसिंहको मैं नमस्कार करता हूँ। विरोचनकुमार बलिसे तीन पग भूमि पाकर जिन्होंने दो ही पगोंसे ब्रह्मलोकपर्यन्त सम्पूर्ण विश्वको माप लिया और उसे पुनः देवताओंको समर्पित कर दिया, उन अपराजित भगवान् वामनको मैं नमस्कार करता हूँ। हैहयराज सहस्त्रबाहु अर्जुनके अपराधसे जिन्होंने समस्त क्षत्रियकुलका इक्कीस बार संहार किया, उन जमदग्निनन्दन भगवान् परशुरामको नमस्कार है। जिन्होंने राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न— इन चार रूपोंमें प्रकट हो वानरोंकी सेनासे घिरकर राक्षसदलका संहार किया था, उन भगवान् श्रीरामचन्द्रको मैं नमस्कार करता हूँ। जिन्होंने श्रीबलराम और श्रीकृष्ण— इन दो स्वरूपोंको धारण करके पृथ्वीका भार उतारा और अपने यादवकुलका संहार कर दिया, उन भगवान् श्रीकृष्णका मैं भजन करता हूँ। भूः, भुवः, स्वः— तीनों लोकोंमें व्याप्त अपने ह्रदयमें साक्षात्कार करनेवाले निर्मल बुद्धरूप परमेंश्वरका मैं भजन करता हूँ। कलियुगके अन्तमें अशुद्ध चित्तवाले पापियोंको तलवारकी तीखी धारसे मारकर जिन्होंने सत्ययुगके आदिमें धर्मकी स्थापना की है, उन कल्किस्वरूप भगवान् विष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ। इस प्रकार जिनके अनेक स्वरूपोंकी गणना बड़े— बड़े विद्वान् करोड़ों वर्षोंमें भी नहीं कर सकते, उन भगवान् विष्णुका मैं भजन करता हूँ। जिनके नामकी महिमाका पार पानेमें सम्पूर्ण देवता, असुर और मनुष्य भी समर्थ नहीं हैं, उन परमेंश्वरकी मैं एक क्षुद्र जीव किस प्रकार स्तुति करूँ। महापातकी मानव जिनके नामका श्रवण करनेमात्रसे ही पवित्र हो जाते हैं, उन भगवान्की स्तुति मुझ— जैसा अल्प— बुद्धिवाला व्यक्ति कैसे कर सकता है। जिनके नामका जिस किसी प्रकार कीर्तन अथवा श्रवण कर लेनेपर भी पापी पुरुष अत्यन्त शुद्ध हो जाते हैं और शुद्धात्मा मनुष्य मोक्षको प्राप्त कर लेते हैं, निष्पाप योगीजन अपने मनको बुद्धिमें स्थापित करके जिनका साक्षात्कार करते हैं, उन ज्ञानस्वरूप परमेंश्वरकी मैं शरण लेता हूँ। सांख्ययोगी स्म्पूर्ण भूतोंमें आत्मारूपसे परिपूर्ण हुए जिन जरारहित आदिदेव श्रीहरिका साक्षात्कार करते हैं, उन ज्ञानस्वरूप भगवान्का मैं भजन करता हुँ। सम्पूर्ण जीव जिनके स्वरूप हैं, जो शान्तस्वरूप हैं, सबके साक्षी, ईश्वर, सहस्त्रों मस्तकोंसे सुशोभित तथा भावरूप हैं, उन भगवान् श्रीहरिकी मैं वन्दना करता हूँ। भूत और भविष्य चराचर जगत्को व्याप्त करके जो उससे दस अङ्ल ऊपर स्थित हैं, उन जरा— मृत्युरहित परमेंश्वरका मैं भजन करता हूँ। जो सूक्ष्मसे भी अत्यन्त सूक्ष्म, महान्से भी अत्यन्त महान् तथा गुह्यसे भी बार— बार प्रणाम करता हूँ। जो परमेंश्वर ध्यान, चिन्तन, पूजन, श्रवण अथवा नमस्कारमात्र कर लेनेपर भी जीवको अपना परम पद दे देते हैं, उन भगवान् पुरुषोत्तमकी मैं वन्दना करता हूँ। इस प्रकार परम पुरुष परमेंश्वरकी नारदजीके स्तुति करनेपर नारदसहित वे सनन्दन आदि मुनीश्वर बड़ी प्रसन्नताको प्राप्त हुए। उनेक नेत्रोंमें आनन्दके आँसू भर आये थे। जो मनुष्य प्रातःकाल उठकर परम पुरुष भगवान् विष्णुके उपर्युक्त स्तोत्रका पाठ करता है, वह सब पापोंसे शुद्धचित्त होकर भगवान् विष्णुके लोकमें जाता है।
अध्याय-03 सृष्टिक्रमका संक्षिप्त वर्णन; द्धीप, समुन्द्र और भारतवर्षका वर्णन, भारतमें सत्कर्मानुष्ठानकी महत्ता तथा भगवदपर्णपूर्वक कर्म करनेकी आज्ञा
नारदजीने पूछा— सनकजी ! आदिदेव भगवान् विष्णुने पूर्वकालमें ब्रहमा आदिकी किस प्रकार सृष्टि की? यह बात मुझे बताइये; क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं।
श्रीसनकजीने कहा— देवर्षे ! भगवान् नारायण अविनाशी, अनन्त, सर्वव्यापी तथा निरञ्जन हैं। उन्होंने इस सम्पूर्ण चराचर जगत्को व्याप्त कर रखा है। स्वयंप्रकाश, जगन्मय महाविष्णुने आदिसृष्टिके समय भिन्न— भिन्न गुणोंका आश्रय लेकर अपनी तीन मूर्तियोंको प्रकट कया। पहले भगवान्ने अपने दाहिने अङ्से जगत्की सृष्टिके लिये प्रजापति ब्रहमाजीको प्रकट किया। फिर अपने मध्य अङ्से जगत्का संहार करनेवाले रुद्र— नामधारी शिवको उत्पन्न किया। साथ ही इस जगत्का पालन करनेके लिये उन्होंने अपने बायें अङ्से अविनाशी भगवान् विष्णुको अभिव्यक्त किया। जरा— मृत्युसे रहित उन आदिदेव परमात्माको कुछ लोग’शिव’ नामसे पुकारते हैं। कोई सदा सत्यरूप’विष्णु’ कहते हैं और कुछ लोग उन्हें ‘ ब्रहमा ’ बताते हैं। भगवान् विष्णुकी जो पराशक्ति है, वही जगत्रूपी कार्यका सम्पादन करनेवाली है। भाव और अभाव— दोनों उसीके स्वरूप हैं। वही भावरूपसे विद्या और अभावरूपसे अविद्या कहलाती है। जिस समय यह संसार महाविष्णुसे भिन्न प्रतीत होता है, उस समय अविद्या सिद्ध होती है; वही दुःखका कारण होती है। नारदजी! जब तुम्हारी ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय रूपकी उपाधि नष्ट हो जायगी और सब रूपोंमें एकमात्र भगवान् महाविष्णु ही हैं—— ऐसी भावना बुद्धिमें होने लगेगी, उस समय विद्याका प्रकाश होगा। वह अभेद— बुद्धि ही विद्या कहलाती है। इस प्रकार महाविष्णुकी मायाशक्ति उनसे भिन्न प्रतीत होनेपर जन्म— मृत्युरूप संसार— बन्धनको देनेवाली होती है और वही यदि अभेद— बुद्धिसे देखी जाय तो संसार— बन्धनका नाश करनेवाली बन जाती है। यह सम्पूर्ण चराचर जगत् भगवान् विष्णुकी शक्तिसे उत्पन्न हुआ है, इसलिये जङ्म— जो चेष्टा करता है और स्थावर— जो चेष्टा नहीं करता, वह सम्पूर्ण विश्व भिन्न— भिन्न प्रतीत होता होता है। जैसे घट, मठ आदि भिन्न— भिन्न उपाधियोंके कारण आकाश भिन्न— भिन्न रूपमें प्रतीत होता है, उसी प्रकार यह सम्मूर्ण जगत् अविद्यारूप उपाधिके योगसे भिन्न— भिन्न प्रतीत होता है। मुने! जैसे भगवान् विष्णु सम्पूर्ण जगत्में व्यापक हैं, उसी प्रकार उनकी शक्ति भी व्यापक है; जैसे अंगार में रहनेवाली दाहशक्ति अपने आश्रयमें व्याप्त होकर स्थित रह्ती है। कुछ लोग भगवान्की उस शक्तिको लक्ष्मी कहते हैं तथा कुछ लोग उसे उमा और भारती (सरस्वती) आदि नाम देते हैं। भगवान् विष्णुकी वह परा शक्ति जगत्की सृष्टि आदि करनेवाली है। वह व्यक्त और अव्यक्तरूपसे सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त करके स्थित है। जो भगवान् अखिल विश्वकी रक्षा करते हैं, वे ही परम पुरुष नारायण देव हैं। अतः जो परात्पर अविनाशी तत्त्व हैं, परमपद भी वही है; वही अक्षर, निर्गुण, शुद्ध, सर्वत्र परिपूर्ण एवं सनातन परमात्मा हैं; वे परसे भी परे हैं। परमानन्दस्वरूप परमात्मा सब प्रकारकी उपाधियोंसे रहित हैं। एकमात्र ज्ञानयोगके द्वार उनेक तत्वका बोध होता है। वे सबसे परे हैं। सत् चित् और आनन्द ही उनका स्वरूप है। वे स्वयं प्रकाशमय परमात्मा नित्य शुद्ध स्वरूप हैं तथापि तत्व आदि गुणोंके भेदसे तीन स्वरूप है तथापि तत्व आदि गुणोंके भेदसे तीन स्वरूप धारण करते हैं। उनके ये ही तीनों स्वरूप जगत्की सृष्टि, पालन और संहारके कारण होते हैं। मुने! जिस स्वरूपसे भगवान् इस जगत्की सृष्टि करते हैं, उसीका नाम ब्रह्मा है। ये ब्रहमाजी जिनके नाभिकमलसे उत्पन्न हुए हैं, वे ही आनन्दस्वरूप परमात्मा विष्णु इस जगत्का पालन करते हैं। उनसे बढ़्कर दूसरा कोई नहीं है। वे सम्पूर्ण जगत्के अन्तर्यामी आत्मा हैं। समस्त संसारमें वे ही व्याप्त हो रहे हैं। वे सबके साक्षी तथा निरञ्जन हैं। वे ही भिन्न और अभिन्न रूपमें स्थित परमेंश्वर हैं। उन्हींकी शक्ति महामाया है, जो जगत्की सत्ताका विश्वास धारण कराती है। विश्वकी उत्पत्तिका आदिकारण होनेसे विद्वान् पुरुष उसे प्रकृति कहते हैं। आदिसृष्टिके समय लोकरचनाके लिये उद्यत हुए भगवान् महाविष्णुके प्रकृति, पुरुष और काल— ये तीन रूप प्रकट होते हैं। शुद्ध अन्तः करणवाले ब्रहमरूपसे जिसका साक्षात्कार करते हैं, जो विशुद्ध परम धाम कहलाता है, वही विष्णुका परम पद है। इसी प्रकार वे शुद्ध, अक्षर, अनन्त परमेंश्वर ही कालरूपमें स्थित हैं। वे ही सत्व, रज, तम— रूप तीनों गुणोंमें विराज रहे हैं तथा गुणोंके आधार भी वे ही हैं। वे सर्वव्यापी परमात्मा ही इस जगत्के आदि— स्त्रष्टा हैं। जगद्गुरु पुरुषोत्तमके समीप स्थित हुई प्रकृति जब क्षोभ (चञ्चलता)— को प्राप्त हुई, तो उससे महत्तत्त्वका प्रादुर्भाव हुआ; जिसे समष्टि— बुद्धि (Macro-intelligence) भी कहते हैं। फिर उस महत्तत्त्वसे अहंकार उत्पन्न हुआ। अहंकारसे सूक्ष्म तन्मात्राएँ (अति सूक्ष्म जीव) और एकादश इन्द्रियाँ प्रकट हुईं। तत्पश्चत् तन्मात्राओंसे पञ्च महाभूत प्रकट हुए, जो इस स्थूल जगत्के कारण हैं। नारदजी! उन भूतोंके नाम हैं— आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। ये क्रमशः एक— एकके कारण होते हैं।
तदनन्तर संसारकी सृष्टि करनेवाले भगवान् ब्रह्माजीने तामस सर्गकी रचना की। तिर्यग् योनिवाले पशु— पक्षी तथा मृग आदि जन्तुओंको उत्पन्न किया। उस सर्गको पुरुषार्थका साधक न मानकर ब्रहमाने अपने सनातन स्वरूपसे देवताओंको (सात्त्विक सर्गको) उत्पन्न किया। तत्पश्चात् उन्होंने मनुष्योंकी (राजस सर्गकी) सृष्टि की। इसके बाद द्क्ष आदि पुत्रोंको जन्म दिया, जो सृष्टिके कार्यमें तत्पर हुए। ब्रहमाजीके इन पुत्रोंसे देवताओं, असुरों तथा मनुष्योंसहित यह सम्पूर्ण जगत् भरा हुआ है। भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपलोक तथा सत्यलोक— ये सात लोक क्रमशः एकके ऊपर एक स्थित हैं। विप्रवर! अतल, वितल, सुतल, तलातला, महातला, रसातल तथा पाताल— ये सात पाताल क्रमशः एकके नीचे एक स्थित हैं। इन सब लोकोंमें रहनेवाले लोकपालोंको भी ब्रहमाजीने उत्पन्न किया। भिन्न— भिन्न देशोंके कुल पर्वतों और नदियोंकी भी सृष्टि की तथा वहाँके निवासियोंके लिये जीविका आदि सब आवश्यक वस्तुओंकी भी यथायोग्य व्यवस्था की। इस पृथ्वीके मध्यभागमें मेंरु पर्वत है, जो समस्त देवताओंका निवासस्थान है। जहाँ पृथ्वीकी अन्तिम सीमा है, वहाँ लोकालोक पर्वतकी स्थिति है। मेंरु तथा लोकालोक पर्वतके बीचमें सात समुद्र और सात द्वीप् हैं। विप्रवर! प्रत्येक द्वीपमें सात— सात मुख्य पर्वत तथा निरन्तर जल प्रवाहित करनेवाली अनेक विख्यात नदियाँ भी हैं। वहाँके निवासी मनुष्य देवताओंके समान तेजस्वी होतें। जम्बू, प्लक्ष, शाल्मिल, कुश, क्रौत्र्च, शाक तथा पुष्कर— ये सात द्विपोंके नाम हैं। वे सब— की— सब देवभूमीयाँ है। ये सातों द्वीप् सात समुद्रोंसे घिरे हुए हैं। क्षारदो, इक्षुरसोद, सुरोद, घॄत दधि, दुग्ध तथा स्वादु जलसे भरे हुए ओए समुद्र उन्हीं नामोंसे प्रसिद्ध हैं। इन द्विपों और समुद्रोंको क्रमश: पुर्व— पूर्वकी अपेक्षा उत्तरोत्तर ने दूने विस्तरवाले जानना चाहीये। ये सब लोकालोक पर्वततक स्थित हैं क्षार समुद्रासे उत्तर और हिमालय पर्वतसे दक्षिणके प्रदेशको’भारतवर्ष’ समझना चाहिये। वह समस्त कर्मोका फल देनेवाला है।
नारदजी ! भारतवर्षमें मनुष्य जो सात्त्विक, राजासिक और तामासिक तीन प्रकारके कर्म करते हैं। उनका फल भोगभूमियोंमें क्रमश: भोगा जाता है। विप्रवर। भारतवर्षमें किया हुआ जो शुभ अथवा अशुभ कर्म है, उसका क्षणभड्गुर (बचा हुआ) फल जो जोवोंद्वारा अन्यत्र भोगा जाता है। आज भी देवतालोग भारतभूमीमें जन्म लेनेकी इच्छा करते हैं। वे सोचते है,’ हमलोग कब सांचित किये हुए महान् अक्षय, निर्मल एवं शुभ पुण्यके फलस्वरुप भारतवर्षकी भूमिपर जन्म लेंगे और कब वहाँ महान् पुण्य करके परम पद्को प्राप्त होगे। अथवा वहाँ नाना प्रकारके दान, भाँति— भाँतिके यज्ञ या तपस्याके द्वारा जगदीश्वर श्रीहरिकी आराधना करके उनके नित्यानन्दमय अनामय पदको कब प्राप्त कर लेंगे।’ नारदजी। जो भारतभूमिमें जन्म लेकर भगवान् विष्णुकी आराधनामें लग जाता है, उसके समान पुण्यात्मा तींनो लोकोंमें कोई नहीं हैं। भगवानके नाम और गुणोंका कीर्तन जिसका स्वाभव बन जाता हैं, जो भगवभ्द्क्तोंकी सेवा— शुश्रूषा करता है, वह देवताओंके लिये भी वन्दनीय है। जो नित्य भगवान् विष्णुकी आराधानामें तत्पर है अथवा हरि— भक्तोंके स्वागत— सत्कारमें संलग्न रहता है और उन्हें भोजन कराकर बचे हुए (श्रेष्ठ) अन्नका स्वयं सेवन करता है, वह भगवान विष्णुके परम पद्को प्राप्त होता है। जो आहिंसा आदि धर्मोके पालनमें तत्पर होकर शान्तभावसे रहता है और भगवानके’नारयण, कॄष्ण तथा वासुदेव’ आदि नामोंका उच्चारण करता है, वह श्रेष्ठ इन्द्रादि देवताओंके लिये भी वन्दनीय है। जो मानव द्वार भग्वान् शिवका स्मरण करता तथा सदा सम्पूर्ण जीवोंके हितमें संलग्न रहता है, वह (भी) देवताओंके लिये पूजनीय माना गया है। जो गुरुका भक्त, शिवका स्मरण करता तथा शंकर आदि नामोंद्वारा भगवान शिवका ध्यान करनेवाला, अपने आश्रम— धर्मके पालनमें तत्पर, दूसरोंके दोष न देखनेवाला, पवित्र तथा कार्यकुशल है, वह भी देवेश्वरोंद्वारा पूज्य होता है। जो ब्राह्मणोंका हित— साधन करता है, वर्णधर्म और आश्रमधर्ममें श्रद्धा रखता है तथा सदा वेदोंके स्वाध्यायमें तत्पर होता है, उसे’पड्क्तिपावन’ मानना चाहिये। जो देवेश्वर भगवान् नारायण तथा शिवमें कोई भेद नहीं देखता, वह ब्रह्माजीके लिये भी सदा वन्दनीय है: फिर हमलोगोंकी तो बात ही क्या है? नारदाजी। जो गोओंके प्राप्ति क्षामाशील— उनपर क्रोध न करनेवाला, ब्रह्मचारी, परयी निन्दासे दूर रहनेवाला तथा संग्रहसे रहित है, वह भी देवताओंके लिये पूजनीय है। जो चोरी आदि दोषोंसे पराड्मुख है, दुसरोंद्वारा किये हुए उपकारको याद रखता है, सत्य बोलता है, बाहर और भीतरसे पवित्र रहता है तथा दूसरोंकी भलाईके कार्यमें सदा संलग्न रहता है, वह देवता और असुर सबके लिये पूजनीय होता है। जिसकी बुध्दि वेदार्थ श्रवण करने, पुराणकी कथा सुनने तथा सत्संगमें लगी होती है। जो भारतवर्षमें रहकर श्राध्दापूर्वक पूर्वोक्त प्रकारके अनेकानेक सत्कर्म करता रहता है, वह हमलोगोंके लिये वन्दनीय है।
जो शीघ्न ही इन पुण्यात्माओंमेंसे किसी एककी श्रेणीमें अपने— आपको ले जानेकी चेष्टा नहीं करता, वह पापाचारी एवं मूढ ही है: उससे बढ्कर बुध्दिहीन दूसरा कोई नहीं है। जो भारतवर्षमें जन्म लेकर पुण्यकर्मसे विमुख होता है, वह अमॄतका घडा छोडकर विषके पात्रको अपनाता है। मुने ! जो मनुष्य वेदों और स्मॄतियोंमें बताये धर्मोका आचरण करके अपने— आपको पवित्र नहीं करता, वही अत्महत्यारा तथा पापियोंका अगुआ है। मुनीश्वर ! जो कर्मोभूमि भारतवर्षका आश्रय लेकर धर्मोका आचरण नहीं करता, वह वेदज्ञ महात्माओंद्वार सबसे’अधम’ कहा गया है। जो शुभ— कर्मोका परित्याग करके पाप— कर्मोक सेवन करता है, वह कामधेनुको छोडकर आकक दूध खोजता फिरता है। विप्रवर ! इस प्रकार ब्रह्मा आदि देवता भी अपने भोंगोंके नाशसे भयभीत होकर भारतवर्षके भूभागसकी प्राशंसा किया करते हैं। अत: भारतवर्षके भूभागकी प्रशंसा किया करते हैं। अत: भारतवर्षको सबसे अधिक पावित्र तथा उत्तम समझना चाहिये। यह देवताओंके लिये भी दुर्लभ तथा सब कर्मोका फल देनेवाला है। जो इस पुण्यमय भूखण्डमें सत्कर्म करनेके लिये उधत होता है, उसके समान भाग्यशाली तीनों लोकोंमें दुसरा कोई नहीं है। जो इस भारतवर्षमें जन्म लेकर अपने कर्मबन्धनको काट डालनेकी चेष्टा करता है, वह नररुपमें छिपा हुआ साक्षात्’नारायण’ है। जो परलोकमें उत्तम फल प्राप्त करनेकी इच्छा रखता है, उसे आलस्य छोडकर सत्कर्मोका अनुष्ठान करना चाहिये। उन कर्मोके भाक्तिपूर्वक भगवान् विष्णुको समार्पित कर देनेपर उनका फल अक्षय माना गया है। यदि कर्मफलोंकी ओरसे मनमें वैराग्य हो तो अपने पुण्यकर्मको भगवान् विष्णुमें प्रेम होनेके लिये उनके चरणोंमें समार्पित कर दे। ब्रह्मलोकतलके सभी लोक पुण्यक्षय होनेपर पुनर्जनम देनेवाले होते हैं। परतु जो कर्मोका फल नहीं चाहता, वह भगवान विष्णुके परम पदको प्राप्त कर लेता है। भगवानकी प्रसन्नताके लिये वेद— शास्त्रोंद्वार बताये हुए आश्रमानुकूल कर्मोका अनुष्ठान करना चाहिये। जिसने कर्म— फलकी कामना त्याग दी है, वह आविनाशी पद्को प्राप्त होता है। मनुष्य निष्काम हो या सकाम, उसे विधिपूर्वक कर्म अवश्य करना चाहिये। जो अपने वर्ण और आश्रमके कर्म छोड देता है, वह विद्वान् पुरुषोंद्वारा पतित कहा जाता है। नारदजी ! सदाचारपरायण ब्राह्मण अपने ब्रह्मतेकाजके साथ वृध्दिको प्राप्त होता है। यदि वह भगवानके चरणोंमें भक्ति रखता है तो उसपर भगवान् विष्णु बहुत प्रसन्न होते हैं। समस्त धर्मोके फल भगवान वासुदेव है, तपस्याका चरम लक्ष्य भी वासुदेव ही है, वासुदेवके तत्त्वको समझ लेना हि उत्तम ज्ञान है तथा वासूदेवको प्राप्त कर लेना हि उत्तमज्ञान है तथा वासुदेवको प्राप्त कर लेना ही उत्तम गति है। ब्रह्माजीसे लेकर कीटपर्यन्त यह सम्पूर्ण स्थावर— जड्गम जगत् वासुदेवस्वरुप है, उनसे भिन्न कुछ भी नहीं है वे ही ब्रह्मा और शिव हैं, वे ही देवता, असुर तथा यज्ञरुप हैं, वे ही यह ब्राह्माण्ड भी हैं। उनसे भिन्न अपनी पॄथक् सत्ता रखनेवाली दूसरी कोई वस्तु नहीं है। जिनसे पर या अपर कोई वस्तु नहीं है तथा जिनसे अत्यन्त लघु और महान भी कोई नहीं है। उन्हीं भगवान् विष्णुने इस विचित्र विश्वको व्याप्त कर रखा है, स्तुति करनेयोग्य उन देवाधिदेव श्रीहरिको सदा प्रणाम करना चाहिये।
अध्याय-04 श्रद्धा— भक्ति, वर्णाश्रमोचित आचार तथा त्यसंगकी महिमा, मृकन्डु मुनिकी तपस्यासे संतुष्ट होकर भगवानका मुनिको दर्शन तथा वरदान देना
श्रीसनकजी कहते हैं— नारद ! श्रद्धापूर्वक आचरणमें लाये हुए सब धर्म मनोवांछित फल देनेवाले होते हैं। श्रध्दासे सब कुछ सिध्द होता है और श्रध्दासे ही भगवान् श्रीहरि संतुष्ट होते हैं। भक्तियोगका साधन भक्तिपूर्वक ही करना चाहीये तथा सत्कार्मोका अनुष्ठान भी श्रधा— भक्तिसे ही करना चाहिये। विप्रवर नारद! श्रद्धाहीन कर्म कभी सिध्द नहीं होते। जैसे सूर्यका प्रकाश समस्त जीवोंकी चेष्टामें कारण होता है, उसी प्रकार भक्ति सम्पूर्ण सिध्दियोंका परम कारण है। जैसे जल सम्पूर्ण लोकोंका जीवन माना गया है, उसी प्रकार भक्ति सब प्रकारकी सिध्दियोंका जीवन है। जैसे सब जीव— जन्तु पॄथ्वीका आश्रय लेकर जीवन धारण करते हैं, उसी प्रकार भक्तिका सहारा लेकर सब कर्योका साधन करना चाहीये। श्रध्दालु ही धन पाता है, श्रध्दासे ही कामनाओंकी सिध्दि होती है तथा श्रध्दालु पुरुष ही मोक्ष पाता है मनिश्रेष्ठ। दान, तपस्या अथवा बहुत दक्षिणावाले यज्ञ भी यदी भक्तिसे रहित हैं तो उनके द्वारा भगवन् विष्णु संतुष्ट नहीं होते हैं। मेंरु पर्वतके बराबर सुवर्णकी करोडों सहस्त्र राशियोंका दान भी यदी बिना श्रध्दा— भक्तिके किया जाय तो वह निष्फल होता है। बिना भक्ति जो तपस्या की जाती है, वह केवल शरिरको सुखाना मात्र है; बिना भक्ती जो हविष्यका हवन किया जाता है, वह राखमें डाली हुई आहुतिके समान व्यर्थ है, श्रध्दा— भक्तिके साथ मनुष्य जो कुछ थोडा— सा भी सत्कर्म करता है, वह उसे अनन्त कालतक अक्षय सुख देनेवाला होता है। ब्रह्मन् ! वेदोक्त अश्वमेंध यज्ञका एक सहस्त्र बार अनुष्ठान क्यों न किया जाय, यदी वह श्रध्दा— भक्तिसे रहित है तो सब— का— सब निष्फल होता है। भगवानकी उत्तम भक्ति मनुष्योंके लिये कामधेनुके समान मानी गयी है; उसके रहते हुए भी अज्ञानी मनुष्य संसाररुपी विषका पान करते है, यह कितने आश्र्चर्यकी बात है। ब्रह्मपुत्र नारदजी! इस असार संसारमें ये तीन बातें ही सार हैं— ‘ भगवतभक्तोका संग, भगवान् विष्णुकी भक्ती और सुख— दु॑:ख आदि द्वन्द्वोंको सहन करनेका स्वाभाव। ब्रह्मन् ! जिनके मनमें दूसरोंके दोष देखनेकी प्रर्वत्ति है, उनके किये हुए भजन— दान आदि सभी कर्मोको निष्फल जानो। भगवान् विष्णु उनसे बहुत दूर हैं। जो दूसरोंकी सम्पत्ति देखकर मन— ही— मन संतप्त होते हैं, जिनका चित्त पाखण्ड्पूर्ण आचारोंमें ही लगता है, वे व्यर्थ कर्म करनेवाले हैं। भगवान् श्रीहरि उनसे बहुत दूर हैं। जो बडे— बडे धर्मोके विषयमें प्रश्न करते हैं, किंतु उन धर्मोको झूठा बताते हैं और धर्म— कर्मके विषयमें जिनका मन श्रध्दा— भक्तिसे रहित है, ऎसे लोगोंसे भगवान् विष्णु बहुत दूर हैं। धर्मका प्रतिपादन वेदामें किया गया है और वेद हैं। साक्षात् परम पुरुष नारायणका स्वरुप है। अत: वेदोंमें जो अश्रध्दा रखनेवाले हैं, उनसे भगवान बहुत दूर हैं। जिसके दिन धर्मानुष्ठानके बिना ही आते और चले जाते हैं, वह लहरकी धैंकनीके समान साँस लेता हुआ भी जीवित नहीं है। ब्रह्मनन्दन ! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ सनातन हैं। श्रध्दाहीनको नहीं। जो मानव अपने वर्णाश्रमोचित आचारका ऊलन्घ्न किये बिना ही भगवान विष्णुकी भाक्तिमें तत्पर है, वह उस वैकुण्ठधाममें जाता है, जिसका दर्शन बडे— बडे ज्ञानी भक्तोंको सुलभ होता है। मुनीश्वर ! जो अपने आश्रमके अनुकुल वेदोक्त धर्मोका पालन करते हुए भगवान विष्णुके भजन— ध्यानमें लगा रहता है, वह परम पद्को प्राप्त होता है। आचारसे धर्म प्रकट होता है और धर्मके स्वामी भगवान् विष्णु हैं। अत: जो अपने आश्रमके आचारमें संलग्न है, उसके द्वारा भगवान् श्रीहरि सर्वदा पूजित होते हैं। जो छहो अड्गोंसहित वेदों और उपनिषदोंका ज्ञात होकर भी अपने वर्णाश्रमोचित आचारसे गिरा हुआ है, उसीको पतित समझना चाहिये: क्योंकी वह धर्म— कर्मसे भ्रष्ट हो चुका है। भगवानकी भाक्तिमें तत्पर तथा भगवान विष्णुके ध्यानमें लीन होकर भी जो अपने वर्णाश्रमोचित आचारसे भ्रष्ट हो, उसे पतित कहा जाता है। द्विजश्रेष्ठ ! वेद, भगवान विष्णुकी भक्ति अथवा शिवभक्ति भी आचार— भ्रष्ट मूढ पुरुषको पवित्र नहीं करती है। ब्रह्मन ! पुण्यक्षेत्रोमें जाना, पवित्र तीथोंका सेवन करना अथवा भाँति— भाँतिके यज्ञोंका अनुष्ठान भी आचार— भ्रष्ट पुरुषकी रक्षा नहीं करता। आचारसे स्वर्ग प्राप्त होता है, आचारसे सुख मिलाता है और आचारसे ही मोक्ष सुलभ होता है: आचारसे क्या नहीं मिलता?
साधुश्रेष्ठ ! सम्पूर्ण आचारोंका, समस्त योगोंका तथा स्वयं हरिभक्तिका भी मूल कारण भक्ति ही मानी गयी है। सबको मनोक मनोवत्र्चित फल प्रदान करनेवाले भगवान् विष्णु भक्तिसे ही पूजित होते हैं। अत: भाक्ति सम्पर्ण लोकोंकी माता कही जातो है। जैसे सब जीव मातामा ही आश्रय लेकर जीवन धारण करते है, उसी प्रकार समस्त धार्मिक पुरुष भक्तिका आश्रय लेकर जीते हैं। नारदजी ! अपने वर्ण और आश्रमके आचारका पालन करनेमें लगे हुए पुरुषको यादि भगवान विष्णुकी भक्ति प्राप्त हो जाय तो तीनों लोकोंमें उसके समान दुसरा कोई नहीं है। भक्तिसे कर्मोकी सिध्दि होती है, उन कर्मोसे भगवान् विष्णु संतुष्ट होते है, उनके संतुष्ट होनेपर ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञानसे मोक्ष मिलता है। भक्ति तो भगवद्भाक्तिके सच्चे आभिलाषी तथा काम, क्रोध आदि दोषोंसे मुक्त हैं, किंतु भगवभ्द्क्तोंके संग मनुष्योंको पूर्वजन्मोंके सांचित पुण्यसे ही मिलता है। जो वार्णाश्रमोचित कर्तव्यके पालनमें तत्पर, भगवद्भक्तोंका सड्ग मनुष्योंको पूर्वजन्मोंके संचित पुण्यसे ही मिलता है। जो वार्णाश्रमोचित कर्तव्यके पालनमें तत्पर, भगवद्भक्तिके सच्चे आभिलाषी तथा काम, क्रोध आदि दोषोंसे मुक्त है, वे ही सम्पूर्ण लोकोंको शिक्षा देनेवाले संत है। ब्रह्मन् ! जो पुण्यात्मा अथवा जितेन्द्रिय नहीं है, उन्हें परम उत्तम सत्सङ्ग्की प्राप्ति नहीं होती। यदि सत्संग मिल जाय तो उसमें पूर्वजन्मोंके साचिंत पुण्यको ही कारण जानना चाहिये। जिसके पूर्वजन्मोंमें किये हुए समस्त पाप नष्ट हो जाते है, उसीको सत्संग सुलभ होता है; अन्यथा उसकी प्राप्ति असम्भव है। सूर्य अपनी किरणोंके समूहसे दिनमें बाहरके अन्धकारका नाश करते है, किंतु संत— महत्मा अपने उत्तम वचनरुपी किरणोंके समुदायसे सदा भीतरके अज्ञानान्धकारका नाश करते रहते है। संसारमें भगवद्भक्तिके लिये लालयित रहनेवाले पुरुष दुर्लभ है; उनका संग जिसे प्राप्त होता है, उसे सनातन शान्ति सुलभ होता है।
नारदजीने पूछा— भगवद्भक्त पुरुषोंका क्या लक्षण है? वे कैसी कर्म करते हैं तथा उन्हें कैसे लोककी प्राप्ति होती है? यह सब आप यथार्थरुपसे बताइये। सनकाजी। आप सुदर्शनचक्रधारी देवाधिदेव लक्ष्मीपाति भगवान् विष्णुके भक्त हैं। अत: आप ही ये सब बा्तें बतानेंमें समर्थ हैं। आपसे बढकर दूसरा कोई नहीं है।
सनकजीने कहा— ब्रह्मन् ! योगनिद्रासे मुक्त होनेपर जगदिश्वर भगवान् विष्णुने बुध्दिमान् महात्मा मार्कण्डेयजीको जिस परम गोपनीय रहस्यका उपदेश किया था, वही तुम्हे बतलाता हुँ, सुनो। वे जो परम ज्योति:स्वरुप देवाधिदेव सनातन भगवान् विष्णु है, वे ही जगत— रुपमें प्रकट होते है। इस जगतके स्त्रष्टा भी वे ही है भगवान् शिव तथा ब्रह्माजी भी उन्हीके स्वरुप हैं। वे प्रलयकालमें भयंकर रुद्र्रुपसे प्रकट होते हैं और समस्त ब्रह्माण्डको अपना ग्रास बनते हैं। स्थावर— जड्गमरुप सम्पूर्ण जगत् नष्ट होकर जब एकार्णवके जलमें विलीन हो जाता है, उस समय भगवान् विष्णु ही वटवॄक्षके पत्रपर शिशुरुपसे शयन करते हैं। उनका एक— एक रोम असंख्य ब्रह्मा आदिसे विभूषित होता है। महाप्रलयके समय जब भगवान वटपत्रपर सो रहे थे, उस समय उसी स्थानपर भगवान् नारायणके परम भक्त महाभाग मार्कण्डेयजी भगवानकी विविध लीलाओंका दर्शन करते हुए खडे थे।
ॠषियोंने पूछा— मुने ! हमने पहलेसे सुन रखा है कि उस महाभयंकर प्रलयकालमें स्थावर— जड्गम समस्त प्राणी नष्ट हो गये थे और एकमात्र भगवान् श्रीहरि ही विराजमान थे। जब समस्त चराचर जगत् नष्ट होकर एकार्णवमें विलीन हो चुका था, तब सबको अपना ग्रास बनानेवाले श्रीहरिने मार्कण्डेय मुनिको किसीलिये बचा रखा था? सूतजी ! इस विषयको लेकर हमारे मनमें बडा कोतूहल हो रहा है। अत: इसका निवारण कीजिये। भगवान् विष्णुकी सुयश— सुधाका पान करनेमें किसे आलस्य हो सकता है।
सूतजी बोले— ब्राह्मणो ! पूर्वकालमें मॄकण्डु नामसे विख्यार एक महाभाग मुनि हो गये हैं। उन महातपस्वी महर्षिने शालग्राम नामक महान तीर्थमें बडी भारी तपस्या की । ब्रह्मन् ! उन्होंने दस हजार युगोंतक सनातन ब्रह्मका गुणगान करते हुए उपवास किया। वे बडे क्षमाशील, सत्यप्रतिज्ञ तथा जितेंन्द्रिय थे। समस्त प्राणियोंको अपने समान देखते थे। उनके मनमें विषय— भोगोंके लिये तानिक भी कामना नहीं थी। वे सम्पूर्ण जीवोंके हितैषी तथा मन और इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले थे। उन्होंने उक्त तीर्थमें बडी भारी तपस्या की। उनकी तपस्यासे शंकित हो इन्द्र आदि सब देवता उस समय अनामय परमेंश्वर भगवान् नारायणकी शरणमें गये। क्षीरसागरके उत्तर तटपर जाकर देवताओंने देवदेवेश्वर जगदगुरु पद्मनाभका इस प्रकार स्तवन किया।
देवता बोले— हे अविनाशी नारायण ! हे अनन्त ! हे शरणागतपालक ! हम सब देवता मॄकण्डु मुनिकी तपस्यासे भयभीत हो आपकी शरणमें आये हैं। आप हमारी रक्षा कीजिये। देवाधिदेवेश्वर ! आपकी जय हो। शड्ख और गदा धारण करनेवाले देवता ! आपकी जय हो यह सम्पूर्ण जगत् आपका स्वरुप है। आपको नमस्कार है। आप ही ब्रम्ह्माण्डकी उत्पात्तिके आदि कारण हैं। आपको नमस्कार है। देवदेवेश्व ! आपको नमस्कार है। लोकपाल ! आपको नमस्कार है। सम्पूर्ण जगतकी रक्षा करनेवाले ! आपको नमस्कार है। लोकसाक्षिन् आपको नमस्कार है। ध्यानगम्य ! आपको नमस्कार है। ध्यानके हेतुभुत ! ध्यानस्वरुप तथा ध्यानके साक्षी परमेंश्वर ! आपको नमस्कार है। पृथ्वी आदि पाँच भूत आपके ही स्वरुप है; आपको नमस्कार है। आप चैतन्यरुप है: आपको नमस्कार है। आप सबसे ज्येष्ठ हैं, आपको नमस्कार है। आप शुध्दस्वरुप हैं, निर्गुण हैं तथा गुणरुप हैं, आपको नमस्कार है। निरकार— साकार तथा अनेक रुप धारण करनेवाले आपको नमस्कार है। गौओं तथा ब्राह्मणोंके हितैषी ! आपको नमस्कार है। जगतका हित— साधन करनेवाले साच्चिदानन्द्स्वरुप गोविन्द ! आपको बार— बार नमस्कार है।
इस प्रकार देवताओंद्वारा की हुई स्तुतिको सुनकर शड्ख, चक्र और गदा धाराण करनेवाले भगवान् लक्ष्मीपतिने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उनके नेत्र खिले हुए कमलदलके समान प्रभाव था। सब प्रकारके दिव्य आभूषणोंसे वे युक्त थे भगवानके वक्ष: स्थलपर श्रीवत्साचिह्र सुशोभित हो रहा था। वे पीताम्बर धारण किये हुए थे। उनकी आकॄति बडी सौम्य थी। बायें कंधेपर सुनहले रंगका यज्ञोपवीत चमक रहा था। बडे— बडे महर्षि उनकी स्तुति कर रहे थे तथा श्रेष्ठ पार्षद उन्हें सब ओरसे घेरकर खडे थे। उनका दर्शन करके वे सम्पूर्ण देवता उनके तेजके समक्ष फीके पड गये और बडी प्रसन्नताके साथ् पॄथ्वीपर लेटकर अपने आठॊं अड्गेंसे उन्हें प्रणाम किय। तब प्रसन्न हुए भगवान् विष्णु प्रणाम करनेवाले इन्द्रादि देवताओंको आनंदित करते हुए गम्भीर वाणिमें बोले।
श्रीभगवानने कहा— देवताओ ! मैं जानता हूँ, मॄकण्डु मुनिकी तपस्यासे तुम्हारे मनमें बडा खेद हो रहा है, परंतु वे महर्षि साधुपुरुषोंमें अग्रगण्य है। अत: तुम्हें कष्ट नहीं देगे। श्रेष्ठ देवताओ ! जो साधुपुरुष हैं, वे सम्पत्तिमें हो या विपात्तिमें किसी प्रकार भी दूसरेको कष्ट नहीं देते। वे स्वप्रेम भी ऎसा नहीं करते। सज्जनो ! जो मानव सम्पूर्ण जगतका हित करनेवाला, दूसरोंके दोष न देखनेवाला तथा ईर्ष्याराहित है, वह इहलोक और परलोकमें साधुपुरुषोंद्वारा ‘नि: शंक’ कहा जाता है। सशंक व्यक्ति सदा दु: खी रहता है और नि: शंक पुरुष सुख पाता है। अत: तुमलोग निश्चिन्त होकर अपने— अपने घर जाओ। मॄकण्डु मुनि तुम्हें कोई कष्ट नहीं देंगे। इसके सिवा तुम्हारी रक्षा करनेवाला मैं तो हूँ ही। अत: सुखपूर्वक विचरो।
इस प्रकार अलसीके फूलकी भाँति श्यामकान्तिवाले भगवान् विष्णु देवताओंको वर देकरर उनके देखते— देखते वहीं अन्तर्धान हो गये। देवताओंका मन प्रसन्न हो गया। वे जैसे आये थे, उसी प्रकार स्वर्गको लौट गये। भगवान् श्रीहरिने प्रसन्न होकर मॄकण्डुको भी प्रत्यक्ष दर्शन दिया। जो स्वयंप्रकाश, निरत्र्जन एवं निरकार परब्रह्म है, वही अलसीके फुलके समान श्यामसुन्दर विग्रह धारण करके प्रकट हो गये। दिव्य आयुधोंसे सुशोभित उन पीताम्बरधारी भगवान् विष्णुको देखकर मॄकण्डु मुनि आश्र्चर्यचकित हो गये। उन्होंने ध्यानसे आँखें खोलकर देखा, भगवान् विष्णु सम्मुख विराजमान हैं। उनके मुखसे प्रसन्नता टपक रही है, वे शान्तभावसे स्थित है। जगतका धारण— पोषण उन्हींके द्वारा होता है। यह सम्पूर्ण विश्व उन्हींका तेज है। भगवानका दर्शन करके मुनिका शरीर पुलकित हो उठा। उनके नेत्रोंसे आनन्द्के आँसू झरने लगे। उन्होंने पॄथ्वीपर दण्ड दण्डकी भाँति गिरकर उन देवाधिदेव सनातन परमात्माको प्रणाम किया। फिर हर्षजनक आँसुओंसे भगवानके दोनों चरण पखारते हुए वे सिरपर अत्र्जलि बाँधे उनकी स्तुति करने लगे।
मॄकण्डुजी बोले— परमात्मस्वरुप परमेंश्वरको नमस्कार है। जो परसे भी अति परे हैं, जिनका पार पाना असम्भव है, जो दूसरोंपर अनुग्रह करनेवाले तथा दूसरोंको संसार— सागरके उस पार पहुँचा देनेवाले है, उन भगवान् श्रीहरिको नमस्कार है। जो नाम और जाति आदिकी कल्पनाओंसे रहित है, जिनका स्वरुप शब्दादि विषयोंके दोषसे दूर है, जिनके अनेक स्वरुप हैं तथा जो तमोगुणसे सर्वथा शुन्य हैं, उन स्तुति करनेयोग्य परमेंश्वरका मैं भजन करता हूँ जो वेदान्तवेध और पुराणपुरुष हैं, ब्रह्मा आदिसे लेकर सम्पूर्ण जगत् जिनका स्वरुप है, जिनका कहीं भी उपमा नहीं है तथा जो भक्तजनोंपर अनुग्रह करनेवाले हैं, उन स्तवन करनेयोग्य आदिपरमेंश्वरकी मैं आराधना करता हूँ। जिनके समस्त दोष दूर हो गये हैं, जो एकमात्र ध्यानमें स्थित रहते हैं, जिनकी कामना निव्रत और मोह दूर हो गये हैं, ऎसे महात्मा पुरुष जिनका दर्शन करते है, संसार— बन्धनको नष्ट करनेवाले उन परम पवित्र परमात्माको मैं प्रणाम करता हूँ। जो स्मरणमात्रसे समस्त पीडाओंका नाश कर देते है, शरणमें आये हुए भक्तजनोंका पालन करते हैं, जो समस्त संसारके सेव्य हैं तथा सम्पूर्ण जगत् जिनके भीतर निवास करता है, उन कारुणासागर परमेंश्वर विष्णुको मैं नमस्कार करता हूँ।
महर्षि मॄकण्डुके इस प्रकार स्तुति करनेपर शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् विष्णुको बडी प्रसन्नता हुई। उन्होंने अपनी चार विशाल भुजाओंसे खीचकर मुनिको ह्र्दयसे लगा लिया और अत्यन्त प्रेमपूर्वक कहा— उत्तम व्रतका पालन करनेवाले मुने। तुम सर्वथा निष्पाप हो, तुम्हारी तपस्या और स्तुतिसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ तुम कोई वर माँगो। सुव्रत ! तुम्हारे मनको जो अभीष्ट हो, वही वर माँग लो।
मृकण्डुने कहा— देवदेव। जगन्नाथ। मैं कृतार्थ हो गया, इसमें तानिक भी संशय नहीं है, क्योंकि जो पुण्यात्मा नहीं है, उनके लिये आपका दर्शन सर्वथा दुर्लभ है। ब्रह्मा आदि देवता तथा तीक्ष्ण व्रतका पालन करनेवाले योगीजन भी जिनका दर्शन नहीं कर पाते, धर्मानिष्ठ, यज्ञोंकी दीक्षा लेनेवाले यजनाम, वीतराग साधक तथा ईर्ष्याराहित साधुओंकी भी जिनका दर्शन दुर्लभ है, उन्हीं परम तेजोमय आप श्रीहरिका मैं दर्शन कर रहा हूँ, इससे बढकर दुसरा क्या वर मांगूँ? जगदगुरु जनार्दन ! मैं इतनेसे ही कॄतार्थ हूँ। अच्युत महापातकी मनुष्य भी आपके नामोंका स्मरण करनेमात्रसे आपके परम पदाको प्राप्त कर लेते है; फिर जो आपका दर्शन कर लेता है, उसके लिये तो कहना ही क्या है?
श्रीभगवान् बोले— ब्रह्मन् ! तुमने ठीक कहा है। विद्वान् ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ, मेंरा दर्शन कदापि व्यर्थ नही होगा। अत: तुम्हारी तपस्यासे संतुष्ट होकर मैं तुम्हारे यहाँ (अंशरुपसे) समस्त गुणोंसे युक्त, रुपवान तथा दीर्घजीवी पुत्रके रुपमें उत्पन्न होऊँगा। मुनिश्रेष्ठ! जिसके कुलमें मेंरा जन्म होता है, उसका समस्त कुल मोक्षको प्राप्त कर लेता है। मेंरे प्रसन्न होनेपर तीनों लोकोंमें कोन— सा कार्य असाध्य है।
ऐसा कहकर देवदेवेश्वर भगवान् विष्णु मृकण्डु मुनिके देखते— देखते अन्तर्धान हो गयी। तदनन्तर वे मुनि तपस्यासे निवॄत्त हो गये।
अध्याय-05 मार्कण्डेयजीको पिताका उपदेश, समय—निरुपन, मार्कण्डेयद्वारा भगवानकी स्तुति और भगवानका मार्कंण्डेयजीको भगवद्भक्तोंके लक्षण बताकर वरदान देना
नारदजीने पूछा— ब्राम्हन ! पुराणोंमें यह सुना जाता है कि चिरत्र्जीवी महामुनी मार्कण्डेयने इस जगतके प्रलयकालमें भगवान् विष्णुकी मायाका दर्शन किया था, अत: इस विषयमें कहिये।
श्रीसनकजीने कहा— नारदाजी ! मै उस सनातन कथाका वर्णन करुँगा, आप सावधान होकर सुनें। मार्कंण्डेय मुनिसे सम्बन्ध रखनेवाली यह कथा भगवान् विष्णुकी भक्तिसे परिपूर्ण है। साधुशिरोमाणि मृकण्डुने तपस्याने निवॄत्त होनेके बाद विवाह करके प्रसन्नतापूर्वक गॄहस्थधर्मका पालन आरम्भ किया। वे मन और इन्द्रियोंका संयम करके सदा प्रसन्न रहते और कॄतार्थाताका अनुभव करते थे। उनकी पत्नी बडी पवित्र, कार्यकुशल तथा निरन्तर पातिकी सेवामें तत्पर रहनेवाली थीं। वे मन, वाणी और शरीरसे भी प्राप्तिव्रत— धर्मका पालन करती थी। समय अनेपर उन्होंने भगवानके तेजोमय अंशसे युक्त गर्भ धारण किया और द्स महीनके बाद एक परम तेजस्वी पुत्रको जन्म दिया। महर्षि मॄकण्डु उत्तम लक्षणोंसे सुशोभित पुत्रको देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने विधिपूर्वक मड्गलमय जातकर्म— संस्कार सम्पत्र कराया। मुनिका वह पुत्र शुक्लपक्षके चन्द्रमाकी भाँति दिन— दिन बढने लगा। विप्रवर ! तदनन्तर पाँचवें वर्षमें प्रसन्नतापूर्वक पुत्रका उपनयन— संस्कार करके मुनिने उसे वैदिक— धर्म— संहिताकी शिक्षा दी और कहा—’बेटा’! ब्राह्मणोंका दर्शन होनेपर सदा विधिपूर्वक उन्हें नमस्कार करना चाहिये। तीनों समय सूर्याको जलात्र्जलि देकरर उनकी पूजा करना और वेदोंके स्वाध्यायपूर्वक वेदोक्त कर्मका पालन करते रहना चाहिये। ब्रह्मचर्य तथा तपस्याके द्बारा सदा श्रीहरिकी पूजा करनी चाहिये। दुष्ट पुरुषोंसे वार्तालाप आदि निषिद्ध कर्मको त्याग देना चाहिये। भगवान् विष्णुके भजनमें लगे हुए साधुपुरुषोंके साथ रहना चाहिये। किसीसे भी द्वेष रखना उचित नहीं है। सबके हितका साधन करना चाहिये। वत्स ! यज्ञ, अध्ययन और दान— ये कर्म तुम्हें सदा करने चाहिये।
इस प्रकार पिताका आदेश पाकर मुनीश्वर मार्कण्डेय नित्य— निरन्तर भगवान् विष्णुका चिन्तन करते हुए स्वधर्मका पालन करने लगे। महाभाग मार्कण्डेय बड़े धर्मानुरागी और दयालु थे। वे मनको वशमें रखनेवाले और सत्यप्रतिज्ञ थे। वे जितेन्द्रिय, शान्त, महाज्ञानी और सम्पूर्ण तत्वके मर्मज्ञ थे। उन्होंने भगवान् विष्णुकी प्रसन्नताके लिये बड़ी भारी तपस्या की। बुद्धिमान् मार्कण्डेयके आराधना करनेपर जगदीश्वर भगवान् विष्णुने उन्हें पुराणसंहिता बनानेका वर दिया। चिरञ्जीवी मार्कण्डेयजी सुदर्शनचक्रधारी देवाधिदेव भगवान् विष्णुके महान् भक्त और उनके तेजके अंश (अ० ५ श्लोक ६) थे। ब्राह्मण ! यह संसार जब एकार्णवके जलमें विलीन हो गया, उस समय भी उन्हें अपना प्रभाव दिखानेके लिये भगवान् विष्णुने उनका संहार नहीं किया। मृकण्डुपुत्र मार्कण्डेय बड़े बुद्धिमान् और विष्णुभक्त थे। भगवान् श्रीहरि स्वयं जबतक सोते रहे, तबतक मार्कण्डेयजी वहाँ खड़े रहे। उस समयका माप मैं बतला रहा हूँ, सुनिये। पंद्रह निमेंषकी एक काष्ठा बतायी गयी है। नारदजी ! तीस काष्ठाकी एक कला समझनी चाहिये। तीस कलाका एक क्षण होता है और छः क्षणोंकी एक घड़ी मानी गयी है। दो घड़ीका एक मुहूर्त और तीस मुहूर्तका एक दिन होता है। तीस दिनका एक मास होता है और एक मासमें दो पक्ष होते हैं। दो मासका एक ऋतु और तीन ऋतुओंका एक अयन माना गया है। दो अयनसे एक वर्ष बनता है, जो देवताओंका एक दिन है। उत्तरायण देवताओंका दिन है और दक्षिणायन उनकी रात्रि है। मनुष्योंके एक मासके बराबर पितरोंका एक दिन कहा जाता है। इसलिये सूर्य और चन्द्रमाके संयोगमें अर्थात् अमावस्याके दिन उत्तम पितृकल्प जानना चाहिये। बारह हजार दिव्या वर्षोंका एक दैवत युग होता है। दो हजार दैवत युगके बराबर ब्रह्माके एक दिन— रात्रिका मान है। वह मनुष्योंके लिये सृष्टि और प्रलय दोनों मिलकर ब्रह्माका दिन— रात— रूप एक कल्प है। इकहत्तर दिव्य चतुर्युगका एक मन्वन्तर होता है और चौदह मन्वन्तरोंसे ब्रह्माजीका एक दिन पूरा होता है। मुने ! जितना बड़ा ब्रह्माजीका दिन होता है, उतनी ही बड़ी उनकी रात्रि भी बतायी गयी है। विप्रवर ! ब्रह्माजीकी रात्रिके समय तीनों लोकोंका नाश हो जाता है। मानव वर्ष— गणनाके अनुसार उसका जो प्रमाण है, वह सुनो। मुने ! एक हजार चतुर्युग (चार हजार युग)— का ब्रह्माजीका एक दिन होता है। ऐसे ही तीस दिनोंका एक मास और बारह महीनोंका उनका एक वर्ष समझना चाहिये। ऐसे सौ वर्षोंमें उनकी आयु पूरी होती है। उनके काल— मानके अनुसार उनकी सम्पूर्ण आयुका समय दो परार्धका होता है। ब्रह्माजीका दो परार्ध भगवान विष्णुके लिये एक दिन समझना चाहिये। इतनी ही बड़ी उनकी रात्रि भी बतायी गयी है। मृकण्डुनन्दन मार्कण्डेयजी उतने ही समयतक उस भयंकर एकार्णवके जलमें भगवान् विष्णुकी शक्तिसे बलवान् होकर सूखे पत्तेकी भाँति खड़े रहे। उस समय वे श्रीहरिके समीप परमात्मतत्वका ध्यान करते हुए स्थित थे।
तदनन्तर प्रलयकालका अन्त समय आनेपर योगनिद्रासे मुक्त हो श्रीहरिने ब्रह्माजीके रूपसे इस चराचर जगत्की रचना की। जलका उपसंहार और जगत्की नूतन सृष्टि देखकर मार्कण्डेयजी चकित हो गये। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर श्रीहरिके चरणोंमें प्रणाम किया। महामुनि मार्कण्डेयने सिरपर अञ्जलि बाँधे नित्यानन्दस्वरूप श्रीहरिका प्रिय वचनोंद्वारा इस प्रकार स्तवन किया।
मार्कण्डेयजी बोले— जिनके सहस्त्रों मस्तक हैं, रोग— शोक आदि विकारसे जो सर्वथा रहित हैं, जिनका कोई आधार नहीं है (स्वयं ही सबके आधार हैं) तथा जो सर्वत्र व्यापक हैं, मनुष्योंसे सदा प्रार्थित होनेवाले उन भगवान् नारायणदेवको मैं सदा प्रणाम करता हूँ। जो प्रमाणसे परे तथा जरावस्थासे रहित हैं, नित्य एवं सच्चिदानन्दस्वरूप हैं तथा जहाँ कोई तर्क या संकेत काम नहीं देता, उन भगवान् जनार्दनको मैं प्रणाम करता हूँ। जो परम अक्षर, तित्य, विश्वके आदिकारण तथा जगत्के उत्पत्तिस्थान हैं, उन सर्वतत्त्वमय शान्तस्वरूप भगवान् जनार्दनको मैं नमस्कार करता हूँ। जो पुरातन पुरुष सब प्रकारकी सिद्धियोंसे सम्पन्न और सम्पूर्ण ज्ञानके एकमात्र आश्रय हैं, जिनका स्वरूप परसे भी अति परे है, उन भगवान् जनार्दनको मैं नमस्कार करता हूँ। जो परम ज्योति, परम धाम तथा परम पवित्र पद हैं, जिनकी सबके साथ एकरूपता है, उन परमात्मा जनार्दनको मैं प्रणाम करता हूँ। सत्, चित् और आनन्द ही जिनका स्वरूप है, जो सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मादि देवताओंके लिये भी परम पद हैं, उन सर्वस्वरूप श्रेष्ठ सनातन भगवान् जनार्दनको मैं नमस्कार करता हूँ। जो सगुन, निर्गुण, शान्त, मायातीत और विशुद्ध मायाके अधिपति हैं तथा जो रूपरहित होते हुए भी अनेक रूपवाले हैं, उन भगवान् जनार्दनको मैं प्रणाम करता हूँ। जो भगवान् इस जगत्की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन आदिदेव भगवान् जनार्दनको मैं नमस्कार करता हूँ। परेश ! परमानन्द ! शरणागतवत्सल ! दयासागर ! मेंरी रक्षा कीजिये। मन— वाणीसे अतीत परमेंश्वर ! आपको नमस्कार है। विप्रवर नारदजी ! शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले जगद्गुरु भगवान् विष्णु इस प्रकार स्तुति करनेवाले मार्कण्डेयजीसे अत्यन्त प्रसन्नता— पूर्वक बोले।
श्रीभगवान्ने कहा— द्विजश्रेष्ठ ! संसारमें जो भक्त पुरुष मुझे भगवान्की भक्तिमें चित्त लगाये रहनेवाले हैं, उनपर संतुष्ट हो मैं सदा उनकी रक्षा करता हूँ, इसमें संदेह नहीं है। भगवद्भक्तरूपसे अपनेको छिपाकर मैं ही सदा सब लोकोंकी रक्षा करता हूँ।
मार्कण्डेयजीने पूछा— भगवन् ! भगवद्भक्तके क्या लक्षण हैं? किस कर्मसे मनुष्य भगवद्भक्त होते हैं, यह मैं सुनना चाहता हूँ; क्योंकि इस बातको जाननेके लिये मेंरे मनमें बड़ी उत्कण्ठा है।
श्रीभगवान्ने कहा— मुनिश्रेष्ठ ! भगवद्भक्तोंके लक्षण बतलाता हूँ, सुनो। उनके प्रभाव अथवा महिमाका वर्णन करोड़ों वर्षोंमें भी नहीं किया जा सकता। जो सम्पूर्ण जीवोंके हितैषी हैं, जिनमें दूसरोंके दोष देखनेकी आदत नहीं है, जो ईर्ष्यारहित, मन और इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले, निष्काम एवं शान्त हैं, वे ही भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ माने गये हैं। जो मन, वाणी तथा क्रियाद्वारा दूसरोंको कभी पीड़ा नहीं देते तथा जिनमें संग्रह अथवा कुछ ग्रहण करनेका स्वभाव नहीं है,
वे भगवद्भक्त माने गये हैं। जिनकी सात्तिक बुद्धि उत्तम भगवत्सम्बन्धी कथा— वार्ता सुननेमें स्वभावतः लगी रहती है तथा जो भगवान् और उनके भक्तोंके भी भक्त होते हैं, वे श्रेष्ठ भक्त समझे जाते हैं। जो श्रेष्ठ मानव माता और पिताके प्रति गंगा और विश्वनाथका भाव रखकर उनकी सेवा करते हैं, वे भी श्रेष्ठ भगवद्भक्त हैं। जो भगवान्के पूजनमें रत हैं, जो इसमें सहायक होते हैं तथा जो भगवान्की पूजा देखकर उसका अनुमोदन करते हैं, वे उत्तम भगवद्भक्त हैं। जो व्रतियों तथा यतियोंकी सेवामें संलग्न तथा परायी निन्दासे दूर रहते हैं, वे श्रेष्ठ भागवत हैं। जो श्रेष्ठ मनुष्य सबके लिये हितकारक वचन बोलते हैं और सबके गुणोंको ही ग्रहण करनेवाले हैं, वे इस लोकमें भगवद्भक्त माने गये हैं। जो श्रेष्ठ मानव सब जीवोंको अपने ही समान देखते तथा शत्रु और मित्रमें भी समान भाव रखते हैं, वे उत्तम भगद्भक्त हैं। जो धर्मशास्त्रके वक्ता, सत्यवादी तथा साधुपुरुषोंके सेवक हैं, वे भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ कहे गये हैं। जो पुराणोंकी व्याख्या करते, जो पुराण सुनते और पुराण— वक्तामें श्रद्धाभक्ति रखते हैं, वे श्रेष्ठ भगवद्भक्त है। जो मनुष्य सदा गौओं तथा ब्राह्मणोकी सेवा करते और तीर्थयात्रामें लगे रहते हैं, वे श्रेष्ठ भगवद्भक्त हैं। जो मनुष्य दूसरोंका अभ्युदय देखकर प्रसन्न होते और भगवन्नामका जप करते रहते हैं, वे उत्तम भागवत हैं। जो बगीचे लगाते, तालाब और पोखरोंकी रक्षा करते तथा बावड़ी और कुएँ बनवाते हैं, वे उत्तम भक्त हैं। जो तालाब और देवमन्दिर बनवाते बनवाते तथा गायत्री— मन्त्रके जपमें संलग्न रहते हैं, वे श्रेष्ठ भक्त हैं। जो हरिनामका आदर करते, उन्हें सुनकर अत्यन्त हर्षमें भर जाते और पुलकित हो उठते हैं, वे श्रेष्ठ भगवद्भक्त हैं। जो मनुष्य तुलसीका बगीचा देखकर उसको नमस्कार करते और कानोंमें तुलसी काष्ठ धारण करते हैं, वे उत्तम भगवद्भक्त हैं। जो तुलसीकी गन्ध सूँघकर तथा उसकी जड़्के समीपकी मिट्टीको सूँघकर प्रसन्न होते हैं, वे भी श्रेष्ठ भक्त हैं। जो वर्णाश्रम— धर्मके पालनमें तत्पर, अतिथियोंका सत्कार करनेवाले तथा वेदार्थके वक्ता होते हैं, वे श्रेष्ठ भागवत माने गये हैं। जो भगवान् शिवसे प्रेम रखनेवाले, शिवके चिन्तनमें ही आसक्त रहनेवाले तथा शिवके चरणोंकी पूजामें तत्पर एवं त्रिपुण्ड्र धारण करनेवाले हैं, वे भी श्रेष्ठ भक्त हैं। जो भगवान् विष्णु तथा परमात्मा शिवके नाम लेते तथा रुद्राक्षकी मालासे विभूषित होते हैं, वे श्रेष्ठ भगवद्भक्त हैं। जो बहुत दक्षिणावाले यज्ञोंद्वारा महादेवजी अथवा भगवान् विष्णुका उत्तम भक्तिसे यजन करते हैं, वे श्रेष्ठ भगवद्भक्त हैं। जो पढ़े हुए शास्त्रोंका दुसरोंके हितके लिये उपदेश करते और सर्वत्र गुण ही ग्रहण करते हैं, वे उत्तम भक्त माने गये हैं। परमेंश्वर शिव तथा परमात्मा विष्णुमें जो समबुद्धिसे प्रवृत्त होते हैं, वे श्रेष्ठ भक्त माने गये हैं। जो शिवकी प्रसन्नताके लिये अग्निहोत्रमें तत्पर पञ्चाक्षर मन्त्रके जपमें संलग्न तथा शिवके ध्यानमें अनुरक्त रहते हैं, वे उत्तम भागवत हैं। जो जलदानमें तत्पर, अन्नदानमें संलग्न तथा एकादशीव्रतके पालनमें लगे रहनेवाले हैं, वे श्रेष्ठ भक्त हैं। जो गोदान करते, कन्यादानमें तत्पर रहते और मेंरी प्रसन्नताके लिये सत्कर्म करते हैं, वे श्रेष्ठ भगवद्भक्त हैं। विप्रवर मार्कण्डेय ! यहाँपर कुछ ही भगवद्भक्तोंका वर्णन किया है। मैं भी सौ करोड़ वर्षोंमें भी उन सबका पूरा— पूरा वर्णन नहीं कर सकता। अतः विप्रवर ! तुम भी सदा उत्तम शीलसे युक्त होकर रहो। समस्त प्राणियोंको आश्रय दो। मन और इन्द्रियोंको वशमें रखो। सबके प्रति मैत्रीभाव रखते हुए धर्माचरणमें लगे रहो। पुनः महाप्रलय–कालतक सब धर्मोंका पालन करते हुए मेंरे स्वरूपके ध्यानमें तत्पर रहकर तुम परम मोक्ष प्राप्त कर लोगे।
देवताओंके स्वामी दयासिन्धु भगवान् विष्णु अपने भक्त मार्कण्डेयको इस प्रकार वरदान देकरर वहीं अन्तर्धान हो गये। महाभाग मार्कण्डेयजी सदा भगवान् भजनमें लगे रहकर उत्तर धर्मका पालन करने लगे। उन्होंने अनेक प्रकारके यज्ञोंद्वारा विधिपूर्वक भगवान्का पूजन किया। फिर महाक्षेत्र शालग्रामतीर्थमें उत्तम तपस्या की और भगवान्के ध्यानद्वारा कर्मबन्धनका नाश करके परम मोक्ष प्राप्त कर लिया। इसलिये भगवान्की आराधना करनेवाला भक्त पुरुष समस्त प्राणियोंका हितकारी होता है। वह मनसे जो— जो वस्तुएँ पाना चाहता है, वह सब निस्संदेह प्राप्त कर लेता है।
सनकजी कहते हैं— विप्रवर नारद ! तुमने जो कुछ पूछा था, उसके अनुसार यह सब भगवद्भक्तिका माहात्म्य मैंने तुम्हें बताया है। अब और क्या सुनना चाहते हो?
अध्याय-06 गंगा— यमुना— संगम, प्रयाग, काशी तथा गंगा एवं गायत्रीकी महिमा
सूतजी कहते हैं— भगवानकी भक्तिका यह माहात्म्य सुनकर नारदजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने ज्ञान— विज्ञानके पारगामी सनक मुनिसे पुनः इस प्रकार प्रश्न किया।
नारदजी बोले— मुने ! आप शास्त्रोंके पारदर्शी विद्वान् हैं। मुझपर बड़ी भारी दया करके यह ठीक— ठीक बताइये कि क्षेत्रोंमें उत्तम क्षेत्र तथा तीर्थोंमें उत्तर तीर्थ कोन है?
सनकजीने कहा— ब्राह्मण ! यह परम गोपनीय प्रसंग है, सुनो। उत्तम क्षेत्रोंका यह वर्णन सब प्रकारकी सम्पत्तियोंको देनेवाला, श्रेष्ठ, बुरे स्वप्रोंका नाशक, पवित्र, धर्मानुकूल, पापहारी तथा शुभ है। मुनियोंको नित्य— निरन्तर इसका श्रवण करना चाहिये। गंगा और यमुनाका जो संगम है, उसीको महर्षिलोग शास्त्रोंमें उत्तम क्षेत्र तथा तीर्थोंमें उत्तम तीर्थ कहते हैं। ब्रह्मा आदि समस्त देवता, मुनि तथा पुण्यकी इच्छा रखनेवाले सब मनुष्य श्वेत और श्याम जलसे भरे हुए उस संगम— तीर्थका सेवन करते हैं। गंगाको परम पवित्र नदी समझना चाहिये; क्योंकि वह भगवान् विष्णुके चरणोंसे प्रकट हुई है। इसी प्रकार यमुना भी साक्षात् सूर्यकी पुत्री हैं। ब्रह्मन् ! इन दोनोंका समागम परम कल्याणकारी है। मुने ! नदियोंमें श्रेष्ठ गंगा स्मरणमात्रसे समस्त क्लोशोंका नाश करनेवाली, सम्पूर्ण पापोंको दूर करनेवाली तथा सारे उपद्रवोंको मिटा देनेवाली है। महामुने ! समुद्रपर्यन्त पृथ्वीपर जो— जो पुण्यक्षेत्र हैं, उन सबसे अधिक पुण्यतम क्षेत्र प्रयागको ही जानना चाहिये। जहाँ ब्रह्माजीने यज्ञद्वारा भगवान् लक्ष्मीपतिका यजन किया है तथा सब महर्षियोंने भी वहाँ नाना प्रकारके य़ज्ञ किये हैं। सब तीर्थोंमें स्नान करनेसे जो पुण्य प्राप्त होते हैं, वे सब मिलकर गंगाजीके एक बूँद जलसे किये हुए अभिषेककी सोलहवीं कलाकी भी समता नहीं कर सकते। जो गंगासे सौ योजन दूर खड़ा होकर भी’गंगा— गंगा’ का उच्चारण करता है, वह भी सब पापोंसे मुक्त हो जाता है; फिर जो गंगामें स्नान करता है, उसके लिये तो कहना ही क्या है? भगवान् विष्णुके चरणकमलोंसे प्रकट होकर भगवान् शिवके मस्तकपर विराजमान होनेवाली भगवती गंगा मुनियों और देवताओंके द्वारा भी भलीभाँति सेवन करनेयोग्य हैं, फिर साधारण मनुष्योंके लिये तो बात ही क्या है? श्रेष्ठ मनुष्य अपने ललाटमें जहाँ गंगाजीकी बालूका तिलक लगाते हैं, वहीं अर्धचन्द्रके नीचे प्रकाशित होनेवाला तृतीय नेत्र समझना चाहिये। गंगामें किया हुआ स्नान महान् पुण्यदायक तथा देवताओंके लिये भी दुर्लभ है; वह भगवान् विष्णुका सारूप्य देनेवाला होता है— इससे बढ़्कर उसकी महिमाके विषयमें और क्या कहा जा सकता है? गंगा में स्नान करनेवाले पापी भी सब पापोंसे मुक्त हो श्रेष्ठ विमानपर बैठकर परम धाम वैकुण्ठको चले जाते हैं। जिन्होंने गंगामें स्नान किया है, वे महात्मा पुरुष पिता और माताके कुलकी बहुत— सी पीढ़ियोंको उद्धार करके भगवान् विष्णुके धाममें चले जाते हैं। ब्रह्मन् ! जो गंगाजीका स्मरण करता है, उसने सब तीर्थोंमें स्नान और सभी पुण्य— क्षेत्रोंमें निवास कर लिया— इसमें संशय नहीं है। गंगा— स्नान किये हुए मनुष्यको देखकर पापी भी स्वर्गलोकका अधिकारी हो जाता है। उसके अङ्गोका स्पर्श करनेमात्रसे वह देवताओंका अधिपतिहो जाता है। गंगा, तुलसी, भगवान्के चरणोंमें अविचल भक्ति तथा धर्मोपदेशक सद्गुरुमें श्रद्धा— ये सब मनुष्योंके लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं। उत्तम धर्मका उपदेश देनेवाले गुरुके चरणोंकी धूल, गंगाजीकी मृत्तिका तथा तुलसीवृक्षके मूलभागकी मिट्टीको जो मनुष्य भक्तिपूर्वक अपने मस्तकपर धारण करता है, वह वैकुण्ठ धामको जाता है। जो मनुष्य मन— ही— मन यह अभिलाषा करता है कि मैं कब गंगाजीके समीप जाऊँगा और कब उनका दर्शन करूँगा, वह भी वैकुण्ठ धामको जाता है। ब्रह्मन् ! दुसरी बातें बहुत कहनेसे क्या लाभ, साक्षत् भगवान् विष्णु भी सैकड़ों वर्षोंमें गंगाजीकी महिमाका वर्णन नहीं कर सकते।
अहो ! माया सारे जगत्को मोहमें डाले हुए है, यह कितनी अद्भुत बात है? क्योंकि गंगा और उसके नामके रहते हुए भी लोग नरकमें जाते हैं। गंगाजीका नाम संसार— दुःखका नाश करनेवाला बताया गया है। तुलसीके नाम तथा भगवान्की कथा कहनेवाले साधु पुरुषके प्रति की हुई भक्तिका भी यही फल है। जो एक बार भी’गंगा’ इस दो अक्षरका उच्चारण कर लेता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके लोकमें जाता है। परम पुण्यमयी इस गंगा नदीका यदि मेंष, तुला और मकरकी संक्रान्तियोंमें (अर्थात् वैशाख, कार्तिक और माघके महीनोंमें) भक्तिपूर्वक सेवन किया जाय तो सेवन करनेवाले सम्पूर्ण जगत्को यह पवित्र कर देती है। द्विजश्रेष्ठ ! गोदावरी, भीमरथी, कृष्णा, नर्मदा, सरस्वती, तुंगभद्रा, कावेरी, यमुना, बाहुदा, वेत्रवती, ताम्रपर्णी तथा सरयू आदि सब तीर्थोंमें गंगाजी ही सबसे प्रधान मानी गयी हैं। जैसे सर्वव्यापी भगवान् विष्णु सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त करके स्थित हैं, उसी प्रकार सब पापोंका नाश करनेवाली गंगादेवी सब तीर्थोंमें व्याप्त हैं। अहो ! महान् आश्चर्य है ! परम पावनी जगदम्बा गंगा स्नान— पान आदिके द्वारा सम्पूर्ण संसारको पवित्र कर रही हैं, फिर सभी मनुष्य इनका सेवन क्यों नहीं करते?
इसी प्रकार विख्यात काशीपुरी भी तीर्थोंमें उत्तम तीर्थ और क्षेत्रोंमें उत्तम क्षेत्र है। समस्त देवता उसका सेवन करते हैं। इस लोकमें कानवाले पुरुषोंके वे ही दोनों कान धन्य हैं और वे ही बहुत— से शास्त्रोंका ज्ञान धारण करनेवाले हैं, जिनके द्वारा बारम्बार काशीका नाम श्रवण किया गया है। द्विजश्रेष्ठ ! जो मनुष्य अविमुक्त क्षेत्र काशीका स्मरण करते हैं, वे सब पापोंका नाश करके भगवान् शिवके लोकमें चले जाते हैं। मनुष्य सौ योजन दूर रहकर भी यदि अविमुक्त क्षेत्रका स्मरण करता है तो वह बहुतेरे पातकोंसे भरा होनेपर भी भगवान् शिवके रोग— शोकरहित नित्यधामको चला जाता है। ब्राह्मण ! जो प्राण निकलते समय अविमुक्त क्षेत्रका स्मरण कर लेता है, वह भी सब पापोंसे छूटकर शिवधामको प्राप्त हो जाता है। काशीके गुणोंके विषयमें यहाँ बहुत कहनेसे क्या लाभ; जो काशीका नाम भी लेते हैं, उनसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष— ये चारों पुरुषार्थ दूर नहीं रहते। ब्राह्मण ! गंगा और यमुनाका संगम (प्रयाग) तो काशीसे भी बढ़्कर है; क्योंकि उसके दर्शनमात्रसे मनुष्य परम गतिको प्राप्त कर लेते हैं। सूर्यके मकर राशिपर रहते समय जहाँ कहीं भी गंगामें स्नान किया जाय, वह स्नान— पान आदिके द्वारा सम्पूर्ण जगत्को पवित्र करती और अन्तमें इन्द्रलोक पहुँचाती है। लोकका कल्याण करनेवाले लिंस्वरूप भगवान् शंकर भी जिस गंगाका सदा सेवन करते हैं, उसकी महिमाका पूरा— पूरा वर्णन कैसे किया जा सकता है? शिवलिंग साक्षात् श्रीहरिरूप है और श्रीहरि साक्षात् शिव— लिङरूप हैं। इन दोनोंमें थोड़ा भी अन्तर नहीं है। जो इनमें भेद करता है, उसकी बुद्धि खोटी है। अज्ञानके समुद्रमें डूबे हुए पापी मनुष्य ही आदि— अन्तरहित भगवान् विष्णु और शिवमें भेदभाव करते हैं। जो सम्पूर्ण जगत्के स्वामी और कारणोंके भी कारण हैं, वे भगवान् विष्णु ही प्रलयकालमें रुद्ररूप धारण करते हैं। ऐसा विद्वान पुरुषोंका कथन है। भगवान् रुद्र ही विष्णुरूपसे सम्पूर्ण जगत्का पालन करते हैं। वे ही ब्रह्माजीके रूपसे संसारकी सृष्टि करते हैं तथा अन्तमें हररूपसे वे ही तीनों लोकोंका संहार करते हैं। जो मनुष्य भगवान् विष्णु, शिव तथा ब्रह्माजीमें भेदबुद्धि करता है, वह अत्यन्त भयंकर नरकमें जाता है। जो भगवान् शिव, विष्णु और ब्रह्माजीको एक रूपसे देखता है, वह परमानन्दको प्राप्त होता है। यह शास्त्रोंका सिद्भान्त है। जो अनादि, सर्वज्ञ, जगत्के आदिस्त्रष्टा तथा सर्वत्र व्यापक हैं, वे भगवान् विष्णु ही शिवलिंग ज्योतिर्लिंग कहलाता है। श्रेष्ठ मनुष्य उसका दर्शन करके परम ज्योतिको प्राप्त होता है। जिसने त्रिभुवनको पवित्र करनेवाली काशीपुरीकी परिक्रमा कर ली, उसके द्वारा समुद्र, पर्वत तथा सात द्वीपोंसहित पृथ्वीकी परिक्रमा हो गयी। धातु, मिट्टी, लकड़ी, पत्थर अथवा चित्र आदिसे निर्मित जो भगवान् शिव अथवा विष्णुकी निर्मल प्रतिमाएँ हैं, उन सबमें भगवान् विष्णु विद्यमान हैं। जहाँ तुलसीका बगीचा, कमलोंका वन और पुराणोंका पाठ हो, वहाँ भगवान् विष्णु स्थित रहते हैं। ब्राह्मण ! पुराणकी कथा सुननेमें जो प्रेम होता है, वह गङ्गस्नानके समान है तथा पुराणकी कथा कहनेवाले व्यासके प्रति जो भक्ति होती है, वह प्रयागके तुल्य मानी गयी है। जो पुराणोक्त धर्मका उपदेश देकरर जन्म— मृत्युरूप संसार— सागरमें डूबे हुए जगत्का उद्धार करता है, वह साक्षात् श्रीहरिका स्वरूप बताया गया है। गंगाके समान कोई तीर्थ नहीं है, माताके समान कोई गुरु नहीं है, भगवान् विष्णुके समान कोई देवता नहीं है तथा गुरुसे बढ़्कर कोई तत्त्व नहीं है। जैसे चारों वर्णोंमें ब्राह्मण, नक्षत्रोंमें चन्द्रमा तथा सरोवरोंमें समुद्र श्रेष्ठ है, उसी प्रकार पुण्य तीर्थों और नदियोंमें गंगा सबसे श्रेष्ठ मानी गयी हैं। शान्तिके समान कोई बन्धु नहीं है, सत्यसे बढ़कर कोई तप नहीं है, मोक्षसे बड़ा कोई लाभ नहीं हैं और गंगाके समान कोई नदी नहीं है। गंगाजीका उत्तम नाम पापरूपी वनको भस्म करनेके लिये दावानलके समान है। गंगा संसाररूपी रोगको दूर करनेवाली हैं, इसलिये यत्नपूर्वक उनका सेवन करना चाहिये। गायत्री और गंगा दोनों समस्त पापोंको हर लेनेवाली मानी गयी हैं। नारदजी ! जो इन दोनोंके प्रति भक्तिभावसे रहित है, उसे पतित समझना चाहिये। गायत्री वेदोंकी माता हैं और जाह्लवी (गंगा) सम्पूर्ण जगत्की जननी हैं। वे दोनों समस्त पापोंके नाशका कारण हैं। जिसपर गायत्री प्रसन्न होती हैं, उसपर गंगा भी प्रसन्न होती हैं। वे दोनों भगवान् विष्णुकी शक्तिसे सम्पन्न हैं, अतः सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धि देनेवाली हैं। गंगा और गायत्री धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष— इन चारों पुरुषार्थोंके फलरूपमें प्रकट हुई हैं। ये दोनों निर्मल तथा परम उत्तम हैं और सम्पूर्ण लोकोंपर अनुग्रह करनेके लिये प्रवृत्त हुई हैं। मनुष्योंके लिये गायत्री और गंगा दोनों अत्यन्त दुर्लभ हैं। इसी प्रकार तुलसीके प्रति भक्ति और भगवान् विष्णुके प्रति सात्त्विक भक्ति भी दुर्लभ है। अहो ! महाभागा गंगा स्मरण करनेपर समस्त पापोंका नाश करनेवाली, दर्शन करनेपर भगवान् विष्णुका लोक देनेवाली तथा जल पीनेपर भगवान्का सारूप्य प्रदान करनेवाली हैं। उनमें स्नान कर लेनेपर मनुष्य भगवान् विष्णुके उत्तम धामको जाते हैं। जगत्का धारण— पोषण करनेवाले सर्वव्यापी सनातन भगवान् नारायण गंगा— स्नान करनेवाले मनुष्योंको मनोवाञ्छत फल देते हैं। जो श्रेष्ठ मानव गंगाजलके एक कणसे भी अभिषिक्त होता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो परम धामको प्राप्त कर लेता है। गंगाके जलविन्दुका सेवन करनेमात्रसे राजा सगरकी संतति परम पदको प्राप्त हुई।
अध्याय-07 असूया—दोषके कारण राजा बाहुकी अवनीत और पराजय तथा उनकी मृत्युके बाद रानीका और्व मुनिके आश्रममें रहना
नारदजीने पूछा— मुनिश्रेष्ठ ! राजा सगर कोन थे? वह सब मुझे बतानेकी कृपा करें।
सनकजीने कहा— मुनिवर ! गंगाजीका उत्तम माहात्म्य सुनिये, जिनके जलका स्पर्श होनेमात्रसे राजा सगरका कुला पवित्र हो गया और सम्पूर्ण लोकोंमें सबसे उत्तम वैकुण्ठ धामको चला गया। सूर्यवंशमें बाहु नामवाले एक राजा हो गये हैं। उनके पिताका नाम वृक था। बाहु बड़े धर्मपरायण राजा थे और सारी पृथीका धर्मपूर्वक पालन करते थे। उन्होंने ब्राह्मन, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्य जीवोंको अपने धर्मकी मर्यादामें स्थापित किया था। महाराज बाहुने सातों द्वीपोंमें सात अश्वमेंध यज्ञ किये और ब्राह्मणोको गाय, भूमि, सुवर्ण तथा वस्त्र आदि देकरर भलीभाँति तृप्त किया। नीतिशास्त्रके अनुसार उन्होंने चोर— डाकुओंको यथेष्ट दण्ड देकरर शासनमें रखा और दूसरोंका संताप दूर करके अपनेको कृतार्थ माना। पृथ्वीपर बिना जोते— बोये अन्न पैदा होता और वह फल— फूलसे भरी रहती भरी रहती थी। मुनीश्वर ! देवराज इन्द्र उनके राज्यकी राज्यकी भूमिपर समयानुसार वर्षा करते थे और पापाचारियोंका अन्त हो जानेके कारण वहाँकी प्रजा धर्मसे सुरक्षित रहती थी।
एक समय राजा बाहुके मनमें असूया (गुणोंमें दोष— दृष्टि)— के साथ बड़ा भारी अहंकार उत्पन्न हुआ, जो सब सम्पत्तियोंका नाश करनेवाला तथा अपने विनाशका भी हेतु है। वे सोचने लगे— मैं समस्त लोकोंका पालन करनेवाला बलवान् राजा हूँ। मैंने बड़े— बड़े यज्ञोंका अनुष्ठान किया है। मुझसे पूजनीय दूसरा कोन है? मैं विद्वान् हूँ, श्रीमान् हूँ। मैने सब शत्रूओंको जीत लिया है। मुझे वेद और वेदाङ्गोके तत्वका ज्ञान है और नीतिशास्त्रका तो मैं बहुत बड़ा पण्डित हूँ। मुझे कोई जीत नहीं सकता। मेंरे ऐश्वर्यको हानि नहीं पहुँचा सकता। इस पृथ्वीपर मुझसे बढ़कर दूसरा कोन है? इस प्रकार अहंकारके वशीभूत होनेपर उनके मनमें दूसरोंके प्रति दोषदृष्टि हो गयी। मुनीश्वर ! दोषदृष्टि होनेसे उस राजाके हृदयमें काम प्रबल हो उठा। इन सब दोषोंके स्थित होनेपर मनुष्यका विनाश होना निश्चित है। यौवन, धनसम्पत्ति, प्रभुता और अविवेक— इनमेंसे एक— एक भी अनर्थका कारण होता है, फिर जहाँ ये चारों मौजूद हो वहाँके लिये क्या कहना? विप्रवर ! उनके भीतर बड़ी भारी असूया पैदा हो गयी, जो लोकका विरोध, अपने देहका नाश तथा सब सम्पत्तियोंका अन्त करनेवाली होती है। सुव्रत ! असूयासे भरे हुए चित्तवाले पुरुषोंके पास यदि धन— सम्पत्ति मौजूद हो तो उसे भूसेकी आगमें वायुके संयोगके समान समझो। जिनका चित्त दूसरोंके दोष देखनेमें लगा होता है, जो पाखण्डपूर्ण आचारका पालन करते हैं तथा सदा कटुवचन बोला करते हैं, उन्हें इस लोकमें और परलोकमें भी सुख नहीं मिलता। जिनका मन असूया— दोषसे दूषित है तथा जो सदा निष्ठुर भाषण किया करते हैं, उनके प्रियजन, पुत्र तथा भाई— बन्धु भी शत्रु बन जाते हैं। जो परायी स्त्रीको देखकर मन— ही— मन उसे प्राप्त करनेकी अभिलाषा करता है, वह अपनी सम्पत्तिका नाश करनेके लिये स्वयं ही कुठार बन गया है— इसमें संशय नहीं है। मुने ! जो मनुष्य अपने कल्याणका नाश करनेके लिये प्रयत्न करता है, वही दूसरोंका कल्याण देखकर अपनी कुत्सित बुद्धिके कारण उनसे डाह करने लगता है। ब्राह्मण ! जो मित्र, संतान, गृह क्षेत्र, धन— धान्य और पशु— सबकी हानि देखना चाहता हो, वही सदा दूसरोंसे असूया करे।
तदनन्तर जब राजा बाहुका हृदय असूया— दोषसे दूषित हो जानेके कारण वे अत्यन्त उद्दण्ड हो गये, तब हैहय और तालजङ्— कुलके क्षत्रिय उनके प्रबल शत्रु बन गये। असूया होनेपर दूरसे जीवोंके साथ द्वेष बहुत बढ़ जाता है— इसमें संदेह नहीं है। असूयासे दूषित चित्तवाले उस राजाका अपने शत्रुओंके साथ लगातार एक मासतक भयंकर युद्ध होता रहा। अन्तमें वे अपने वैरी हैहय और तालजङ्घ नामवाले क्षत्रियोंसे परास्त हो गये। अतः दुःखी होकर राजा बाहु अपनी गर्भवती पत्नीके साथ वनमें चले गये। वहाँ एक बहुत बड़ा तालाब देखकर उन्हें बड़ा संतोष हुआ; परतु उनके मनमें तो असूया भरी हुई थी, इसलिये उनका भाव देखकर उस जलाशयके पक्षी भी इधर— उधर छिप गये। यह बड़े आश्चर्यकी बात हुई। उस समय बड़ी उतावलीके साथ अपने घोंसलोंमें समाते हुए वे पक्षी इस प्रकार कह रहे थे—’अहो ! बड़े कष्टकी बात है। यहाँ तो कोई भयानक पुरुष आ गया।’ राजाने अपनी दोनों पत्नियोंके साथ उस सरोवरमें प्रवेश करके जल पीया और वृक्षके नीचे उसकी सुखद छायामें जा बैठे। नारदजी ! गुणवान् मनुष्य कोई भी क्यों न हो, वह सबके लिये श्लाघ्य होता है और सब प्रकारकी सम्पत्तियोंसे युक्त होनेपर भी गुणहीन मनुष्य सदा लोगोंसे निन्दित ही होता है। द्विजश्रेष्ठ नारद ! उस समय बाहुकी बहुत निन्दा हुई थी। वे संसारमें अपने पुरुषार्थ और यशका नाश करके मरे हुएकी भाँति वनमें रहते थे। अकीर्तिके समान कोई मृत्यु नही है। क्रोधके समान कोई शत्रु नहीं है। निन्दाके समान कोई पाप नहीं है और मोहके समान कोई भय नहीं है। असूयाके समान कोई अपकीर्ति नहीं है, कामके समान कोई आग नहीं है, रागके समान कोई बन्धन नहीं है और संग अथवा आसक्तिके समान कोई विष नहीं है इस प्रकार बहुत विलाप करके राजा बाहु अत्यन्त दुःखित हो गये। मानसिक संताप और बुढ़ापेके कारण उनका शरीर जर्जरीभूत हो गया। मुनिश्रेष्ठ ! इस तरह बहुत समय बीतनेके पश्चात् और्व मुनिके आश्रमके निकट रोगसे ग्रस्त होकर राजा बाहु संसारसे चल बसे। उनकी छोटी पत्नी यद्यपिगर्भवती थी तो भी दुःखसे आतुर हो दीर्घकालतक विलाप करके उसने पतिके साथ चितापर जल मरनेका विचार किया। इसी बीचमें परम बुद्धिमान् और्व मुनि, जो महान् तेजकी निधि थे, वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने उत्तम समाधिके द्वारा यह सब वृत्तान्त जान लिया था। मुनीश्वरगण तीनों कालोंके ज्ञाता होते हैं। वे असूयारहित महात्मा अपनी ज्ञानदृष्टिसे भूत, भविष्य और वर्तमान महात्मा अपनी ज्ञानदृष्टिसे भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ देख लेते हैं। परम पुण्यात्मा और्व मुनि अपनी तपस्याके कारण तेजकी राशि जान पडते थे। वे उसी स्थानपर आये, जहाँ राजा बाहुकी प्यारी एवं पतिव्रता पत्नी खड़ी थी। मुनिश्रेष्ठ नारद ! रानीको चितापर चढ़्नेके लिये उद्यत देख मुनिवर और्व धर्ममूलक वचन बोले।
और्वने कहा— महाराज बाहुकी प्यारी पत्नी ! तू पतिव्रता है; किंतु चितापर चढ़्नेका अत्यन्त साहसपूर्ण कार्य न कर। तेरे गर्भमें शत्रुओंका नाश करनेवाला चक्रवर्ती बालक है। कल्याणमयी राजपुत्री ! जिनकी संतान बहुत छोटी हो, जो गर्भवती हो, जिन्होंने अभी ऋतुकाल न देखा हो तथा जो रजस्वला हो, ऐसी स्त्रियाँ पतिके साथ चितापर नहीं चढ़्तीं— उनके लिये चितारोहणका निषेध है। श्रेष्ठ पुरुषोंने ब्रह्महत्या आदि पापोंका प्रायश्चित बताया है, पाखण्डी और परनिन्दकका भी उद्धार होता है; किंतु जो गर्भके बालककी ह्त्या करता है, उसके उद्धारका कोई उपाय नहीं है। सुव्रते ! नास्तिक, कृतघ्न, धर्मत्यागी और विश्वासघातीके उद्धारका भी कोई उपाय नहीं है। अतः शोभने ! तुझे यह महान् पाप नहीं करना चाहिये।
मुनिके इस प्रकार कहनेपर पतिव्रता रानीको उनके वचनोंपर विश्वास हो गया और वह अत्यन्त दुःखसे पीड़ित हो अपने मरे हुए पतिके चरणकमलोंको पकड़्कर विलाप करने लगी। महात्मा और्व सब शास्त्रोंके ज्ञाता थे। वे रानीसे पुनः बोले—’ राजकुमारी ! तू रो मत, तुझे श्रेष्ठ राजलक्ष्मी प्राप्त होगी। महाभागे ! इस समय सज्जन पुरुषोंके सहयोगसे इस मृतक शरीरका दाह— संस्कार करना उचित है, अतः शोक त्यागकर तू समयोचित कार्य कर। पण्डित हो या मूर्ख, दरिद्र हो या धनवान् तथा दुराचारी हो या सदाचारी— सबपर मृत्युकी समान दृष्टि है। नगरमें हो या वनमें, समुद्रमें हो या पर्वतपर, जिस जीवने जो कर्म किया है, उसे उसका भोग अवश्य करना होगा। जैसे दुःख बिना बुलाये ही प्राणियोंके पास चले आते हैं, उसी प्रकार सुख भी आ सकते हैं— ऐसी मेंरी मान्यता है। इस विषयमें दैव ही प्रबल है। पूर्वजन्मके जो— जो कर्म हैं, उन्हीं— उन्हींको यहाँ भोगना पड़ता है। कमलानने ! जीव गर्भमें हो या बाल्यावस्थामें, जवानीमें हो या बुढ़ापेमें, उन्हें मृत्युके अधीन अवश्य होना पड़ता है। अतः सुव्रते ! इस दुःखको त्यागकर तू सुखी हो जा। पतिके अन्त्योष्टि— संस्कार कर और विवेकके द्वारा स्थिर हो जा। यह शरीर कर्मपाशमें बँधा हुआ तथा हजारों दुःख और व्याधियोंसे घिरा हुआ है। इसमें सुखका तो आभास ही मात्र है। क्लेश ही अधिक होता है।
परम बुद्धिमान् और्व मुनिने रानीको इस प्रकार समझा— बुझाकर उससे दाह— सम्बन्धी सब कार्य करवाये; फिर उसने शोक त्याग दिया और मुनीश्वरको प्रणाम करके कहा— भगवन् ! आप— जैसे संत दूसरोंकी भलाईकी ही अभिलाषा रखते हैं— इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं। पृथ्वीपर जितने भी वृक्ष हैं, वे अपने उपभोगके लिये नहीं फलते— उनका फल दूसरोंके ही काम आता है। इसलिये जो दूसरोंके दुःखसे दुःखी और दूसरोंकी प्रसन्नतासे प्रसन्न होता है, वही नर— रूपधारी जगदीश्वर नारायण है। संत पुरुष दूसरोंका दुःख दूर करनेके लिये शास्त्र सुनते हैं और अवसर आनेपर सबका दुःख दूर करनेके लिये शास्त्रोंके वचन कहते हैं। जहाँ संत रहते हैं, वहाँ दुःख नहीं सताता; क्योंकि जहाँ सूर्य है, वहाँ अन्धकार कैसे रह सकता है?
इस प्रकार कहकर रानीने उस तालाबके किनारे मुनिकी बतायी हुई विधिके अनुसार अपने पतिकी अन्य पारलौकिक क्रियाएँ सम्पन्न कीं। वहाँ और्व मुनिके स्थित होनेसे राजा बाहु तेजसे प्रकाशित होते हुए चितासे निकले और श्रेष्ठ विमानपर बैठकर मुनीश्वर और्वको प्रणाम करके परम धामको चले गये। जिनपर महापुरुषोंकी दृष्टि पड़्ती है, वे महापातक या उपपातकसे युक्त होनेपर भी अवश्य परम पदको प्राप्त हो जाते हैं। पुण्यात्मा पुरुष यदि किसीके शरीरको, शरीरके भस्मको अथवा उसके धुएँको भी देख ले तो वह परम पदको प्राप्त होता है। नारदजी ! पतिका श्राद्धकर्म करके रानी और्व मुनिके आश्रमपर गयी और अपनी सौतके साथ महर्षिकी सेवा करने लगी।
अध्याय-08 सगरका जन्म तथा शत्रुविजय, कपिलके क्रोधसे सगर— पुत्रोंका विनाश तथा भगीरथद्धारा लायी हुई गंगाजीके स्पर्शसे उन सबका उद्धार
श्रीसनकजी कहते हैं— मुनीश्वर ! इस प्रकार राजा बाहुकी वे दोनों रानियाँ और्व मुनिके आश्रमपर रहकर प्रतिदिन भक्तिभावसे उनकी सेवा— शुश्रूषा करती रहीं। नारदजी ! इस तरह छः महीने बीत जानेपर राजाकी जो जेठी रानी थी, उसके मनमें सौतकी समृद्धि देखकर पापपूर्ण विचार उत्पन्न हुआ। अतः उस पापिनीने छोटी रानीको जहर दे दिया; किंतु छोटी रानी प्रतिदिन आश्रमकी भूमि लीपने आदिके द्वारा मुनिकी भलीभाँति सेवा करती थीं, इसीलिये उस पुण्यकर्मके प्रभावसे रानीपर उस विषका असर नहीं हुआ। तत्पश्चात् तीन मास और व्यतीत होनेपर रानीने शुभ समयमें विषके साथ ही एक पुत्रको जन्म दिया। मुनिकी सेवासे रानीके सब पाप नष्ट हो चुके थे। अहो ! लोकमें सत्सङका कैसा माहात्म्य है? वह कोन— सा पाप नष्ट नहीं कर सकता और सत्सङके प्रभावसे पाप नष्ट हो जानेपर पुण्यात्मा मनुष्योंको कोन— सा सुख अधिक— से— अधिक नहीं मिल सकता? जानकर और अनजानमें किया हुआ तथा दूसरोंसे कराया हुआ जो पाप है, उस सबको महात्मा पुरुषोंकी सेवा तत्काल नष्ट कर देती है। संसारमें सत्सङके प्रभावसे जड भी पूज्य हो जाता है। जैसे भगवान् शंकरके द्वारा ललाटमें ग्रहण कर लिये जानेपर एक कलाका चन्द्रमा भी वन्दनीय हो गया। विप्रवर ! इहलोक और परलोकमें सत्सङ मनुष्योंको सदा उत्तम समृद्धि प्रदान करता है, इसलिये संत पुरुष परम पूजनीय हैं। मुनीश्वर ! महात्मा पुरुषोंके गुणोंका वर्णन करनेमें कोन समर्थ है? अहे ! उनके प्रथावसे गर्भमें पड़ा हुआ विष तीन मासतक पचता रहा। यह कैसी अद्भुत बात है? तेजस्वी मुनि और्वने गर (विष)— के सहित उत्पन्न हुए पुत्रको देखकर उसका जातकर्म— संस्कार किया और उस बालकका नाम सगर रखा। माताने बालक सगरका बड़े प्रेमसे पालन— पोषण किया। मुनीश्वर और्वने यथासमय उसके चूडाकर्म तथा यज्ञोपवीत— संस्कार किये तथा राजाके लिये उपयोगी शास्त्रोंका उसे अध्ययन कराया। मुनि सब मन्त्रोंके ज्ञाता थे। उन्होंने देखा, सगर अब बाल्यावस्थासे कुछ ऊपर उठ चुका है और मन्त्रग्रहण करनेमें समर्थ है, तब उसे अस्त्र— शस्त्रोंकी मन्त्रसहित शिक्षा दी। नारदजी ! महर्षि और्वसे शिक्षा पाकर सगर बड़ा बलवान्, धर्मात्मा, कृतज्ञ, गुणवान् तथा परम बुद्धिमान् हो गया। धर्मज्ञ सगर अब प्रतिदिन अमित तेजस्वी और्व मुनिके लिये समिधा, कुशा, जल और फूल आदि लाने लगा। बालक बड़ा विनीयी और सद्गुणोंका भण्डार था। एक दिन उसने अपनी माताको प्रणाम करके हाथ जोड़कर कहा।
सगरने कहा— माँ ! मेंरे पिताजी कहाँ चले गये हैं? उनका क्या नाम है और वे किसके कुलमें उत्पन्न हुए हैं? यह सब बातें मुझे बताओ। मेंरे मनमें यह सुननेके लिये बड़ी उत्कण्ठा है। संसारमें जिनके पिता नहीं हैं, वे जीवित होकर भी मरे हुएके समान हैं। जिसके माता— पिता जीवित नहीं हैं, उसे कोई सुख नहीं है। जैसे धर्महीन मूर्ख मनुष्य इस लोक और परलोकमें निन्दित होता है, वही दशा पितृहीन बालककी भी है। माता— पितासे रहित, अज्ञानी, अविवेकी, पुत्रहीन तथा ऋणग्रस्त पुरुषका जन्म व्यर्थ है। जैसे चन्द्रमाके बिना रात्रि, कमलके बिना तालाब और पतिके बिना स्त्रीकी शोभा नहीं होती, उसी प्रकार पितृहीन बालक भी शोभा नहीं पाता। जैसे धर्महीन मनुष्य, कर्महीन गृहस्थ और गौ आदि पशुओंसे हीन वैश्यकी शोभा नहीं होती, वैसे ही पिताके बिना पुत्र सुशोभित नहीं होता। जैसे सत्यरहित वचन, साधु पुरुषोंसे रहित सभा तथा दयाशून्य तप व्यर्थ है, वही द्शा पिताके बिना बालककी होती है। जैसे वृक्षके बिना वन, जलके बिना नदी और वेगहीन घोड़ा निरर्थक होता है, वैसी ही पिताके बिना बालककी दशा होती है। माँ ! जैसे याचक मनुष्य— लोकमें अत्यन्त लघु समझा जाता है, उसी प्रकार पितृहीन बालक बहुत दुःख उठाता है।
पुत्रकी यह बात सुनकर रानी लंबी साँस खींचकर दुःखमें डूब गयी। उसने सगरके पूछनेपर उसे सब बातें ठीक— ठीक बता दीं। यह सब वृत्तान्त सुनकर सगरको बड़ा क्रोध हुआ। उनके नेत्र लाल हो गये। उन्होंने उसी समय प्रतिज्ञा की, ‘मैं शत्रुओंका नाश कर डालूँगा।’ फिर और्व मुनिकी परिक्रमा करके माताको प्रणाम किया और मुनिसे आज्ञा लेकर वहाँसे प्रस्थान किया। और्वके आश्रमसे निकल आनेपर सत्यवादी एवं पवित्र राजकुमार सगरको उनके कुलपुरोहित महर्षि वसिष्ठ मिल गये। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। अपने कुलगुरु महात्मा वसिष्ठको प्रणाम करके सगरने अपना सब समाचार बताया; यद्यपि व ज्ञानदृष्टिसे सब कुछ पहलेसे ही जानते थे। राजा सगरने उन्हीं महर्षिसे ऐन्द्र, वारूण, ब्राह्म और आग्रेय— अस्त्र तथा उत्तम खङ् तथा वज्रके समान सुदृढ़ धनुष प्राप्त किया। तदनन्तर शुद्ध हृदयवाले सगरने मुनिकी आज्ञा ले उनके आशीर्वादसे समाप्त हो उन्हें प्रणाम करके तत्काल वहाँसे यात्रा की। शूरवीर सगरने एक ही धनुषसे अपने विरोधयोंको पुत्र— पौत्र और सेनासहित स्वर्गलोक पहुँचा दिया। उनके धनुषसे छूटे हुए अग्निसदृश बाणोंसे संतप्त होकर कितने ही शत्रु नष्ट हो गये और कितने ही भयभीत होकर भाग गये। शक, यवन तथा अन्य बहुत— से राजा प्राण बचानेकी इच्छासे तुरंत वसिष्ठ मुनिकी शरणमें गये। इस प्रकार भूमण्डलपर विजय प्राप्त करके बाहुपुत्र सगर शीघ्न ही आचार्य वसिष्ठके समीप आये। उन्हें अपने गुप्तचरोंसे यह बात मालूम हो गयी थी कि हमोर शत्रु गुरुजीकी शरणमें गये हैं। बाहुपुत्र सगरको आया हुआ सुनकर महर्षि वसिष्ठ शरणागत राजाओंकी रक्षा करने तथा अपने शिष्य सगरकी प्रसन्नताके लिये क्षणभर विचार करने लगे। फिर उन्होंने कितने ही राजाओंके सिर मुँड़्वा दिये और कितने ही राजाओंकी दाढ़ी— मूँछ मुँडवा दी। यह देखकर सगर हँस पड़े और अपने तपोनिधि गुरुसे इस प्रकार बोले।
सगरने कहा— गुरुदेव ! आप इन दुराचारियोंकी व्यर्थ रक्षा करते हैं। इन्होंने मेंरे पिताके राज्यका अपहरण कर लिया था, अतः मैं सब प्रकारसे इनका संहार कर डालूँगा। पापात्मा दुष्ट मनुष्य तबतक दुष्टता करते हैं, जबतक कि उनकी शक्ति प्रबल होती है। इसलिये शत्रु यदि दास बनकर आये, वेश्याएँ सौहार्द दिखायें और साँप साधुता प्रकट करें तो कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको उनपर विश्वास नहीं करना चाहिये। क्रूर मनुष्य पहले तो जीभसे बड़ी कठोर बातें बोलते हैं, किंतु जब निर्बल पड़ जाते हैं ओ उसी जीभसे बड़ी करुणाजनक बातें कहने लगते हैं। जिसको अपने कल्याणकी इच्छा हो, वह नीतिशास्त्रका ज्ञाता पुरुष दुष्टोंके दम्भपूर्ण साधुभाव और दासभावपर कभी विश्वास न करे। नम्रता दिखाते हुए दुर्जन, कपटी मित्र और दुष्टस्वभाववाली स्त्रीपर विश्वास करनेवाला पुरुष मृत्युतुल्य खतरेमें ही है। अतः गुरुदेव ! आप इनकी प्राणरक्षा न करें। ये रूप तो गौका— सा बनाकर आये हैं, परंतु इनका कर्म व्याघ्रोंके समान है। इन सब दुष्टोंका वध करके मैं आपकी कृपासे इस पृथ्वीका पालन करूँगा।
वसिष्ठ बोले— महाभाग ! तुम्हें अनेकानेक साधुवाद है। सुव्रत ! तुम ठीक कहते हो। फिर भी मेंरी बात सुनकर तुम्हें पूर्ण शान्ति मिलेगी। राजन् ! सभी जीव कर्मोंकी रस्सीमें बँधे हुए हैं, तथापि जो अपने पापोंसे ही मारे गये हैं, उन्हें फिर किसलिये मारते हो? यह शरीर पापसे उत्पन्न हुआ और पापसे हि बढ़ रहा है। इसे पापमूलक जानकर भी तुम क्यों इसका वध करनेको उद्यत हुए हो? तुम वीर क्षत्रिय हो। इस पापमूलक शरीरको मारकर तुम्हें कोन— सी कीर्ति प्राप्त होगी? ऐसा विचारकर इन लोगोंको मत मारो।
गुरु वसिष्ठका यह वचन सुनकर सगरका क्रोध शान्त हो गया। उस समय मुनि भी सगरके शरीरपर अपना हाथ फेरते हुए बहुत प्रसन्न हुए। तदनन्तर महर्षि वसिष्ठने उत्तम व्रतका पालन करनेवाले अन्य मुनियोंके साथ महात्मा सगरका राज्याभिषेक किया। सगरकी दो स्त्रियाँ थीं— केशिनी और सुमति। नारदजी ! ये दोनों विदर्भराज काश्यपकी कन्याएँ थीं। एक समय राजा सगरकी दोनों पत्नियोंद्वारा प्रार्थना करनेपर भृगुवंशी मन्त्रवेत्ता और्व मुनिने उन्हें पुत्र— प्राप्तिके लिये वर दिया। वे मुनीश्वर तीनों कालकी बातें जानते थे। उन्होंने क्षणभर ध्यानमें स्थित होकर केशिनी और सुमतिका हर्ष बढ़ाते हुए इस प्रकार कहा।
और्व बोले— महाभागे ! तुम दोनोंमेंसे एक रानी तो एक ही पुत्र प्राप्त करेगी; किंतु
वह वंशको चलानेवाला होगा। परंतु दूसरी केवल संतानविषक इच्छाकी पूर्तिके लिये साठ हजार पुत्र पैदा करेगी। तुमलोग अपनी— अपनी रुचिके अनुसार इनमेंसे एक— एक वर माँग लो।
और्व मुनिका यह वचन सुनकर केशिनीने वंशपरम्पराके हेतुभूत एक ही पुत्रका वरदान माँगा तथा रानी सुमतिके साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए। मुनिश्रेष्ठ ! केशिनीके पुत्रका नाम था असमञ्जस। दुष्ट असमञ्जस उन्मत्तकी— सी चेष्टा करने लगा। उसकी देखा— देखी सगरके सभी पुत्र भी बुरे आचरण करने लगे। इन सबके दूषित कर्मोंको देखकर बाहुपुत्र राजा सगर बहुत दुःखी हुए। उन्होंने अपने पुत्रोंके निन्दित कर्मपर भलीभाँति विचार किया। वे सोचने लगे— अहो ! इस संसारमें दुष्टोंका सङ अत्यन्त कष्ट देनेवाला है। तदनन्तर असमञ्जसके अंशुमान् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो बड़ा धर्मात्मा, गुणवान् और शास्त्रोंका ज्ञाता था। वह सदा अपने पितामह राजा सगरके हितमें संलग्न रह्ता था। सगरके सभी दुराचारी पुत्र लोकमें उपद्रव करने लगे। वे धार्मिक अनुष्ठान करनेवाले लोगोंके कार्यमें सदा विघ्न डाला करते थे। वे दुष्ट राजकुमार सदा मद्यपान करते और पारिजात आदि दिव्या वृक्षोंके फूल लाकर अपने शरीरको सजाते थे। उन्होंने साधु पुरुषोंकी जीविका छीन ली और सदाचारका नाश कर डाला। यह सब देखकर इन्द्र आदि देवता अत्यन्त दु:खसे पीड़ित हो इन सगरपुत्रोंके नाशके लिये कोई उत्तम उपाय सोचने लगे। सब देवता कुछ निश्चय करके पातालकी गुफामें रहनेवाले देवदेवेश्वर भगवान् कपिलके समीप गये। कपिलजी अपने मनसे परमानन्दस्वरूप आत्माका ध्यान कर रहे थे। देवताओंने भूमिपर दण्डकी भाँति लेटकर उन्हें साष्टाङ प्रणाम किया और इस प्रकार स्तुति की।
देवता बोले— भगवन् ! आप योगशक्तियोंसे सम्पन्न हैं, आपको नमस्कार है। आप सांख्ययोगमें रत रहनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। आप नररूपसे छिपे हुए नारायण हैं, आपको नमस्कार है। संसाररूपी वनको भस्म करनेके लिये आप दावानलके समान हैं तथा धर्मपालनके लिये सेतुरूप हैं, आपको नमस्कार है। प्रभो ! आप महान् वीतराग महात्मा हैं, आपको बारम्बार नमस्कार है। हम सब देवता सगरके पुत्रोंसे पीड़ित होकर आपकी शरणमें आये हैं। आप हमारी रक्षा करें।
कपिलजीने कहा— श्रेष्ठ देवगण ! जो लोग इस जगत्में अपने यश, बल, धन और आयुका नाश चाहते हैं, वे ही लोगोंको पीड़ा देते हैं। जो सर्वदा मन, वाणी और क्रियाद्वारा दूसरोंको पीड़ा देते हैं, उन्हें दैव ही शीघ्न नष्ट कर देता है। थोड़े ही दिनोंमें इन सगरपुत्रोंका नाश हो जायगा।
महात्मा कपिल मुनिके ऐसा कहनेपर देवता विधिपूर्वक उन्हें प्रणास करके स्वर्गलोकको चले गये। इसी बीचमें राजा सगरने वसिष्ठ आदि महर्षियोंके सहयोगसे परम उत्तम अश्वमेंध यज्ञका अनुष्ठान आरम्भ किया। उस यज्ञके लिये नियुक्त किये हुए घोड़ेको देवराज इन्द्रने चुरा लिया और पातालमें जहाँ कपिल मुनि रहते थे, वहीं ले जाकर बाँध दिया। इन्द्रके द्वारा चुराये हुए उस अश्वको खोजनेके लिये सगरके सभी पुत्र आश्चर्यचकित होकर भू आदि लोकोंमें घूमने लगे। जब ऊपरके लोकोंमें कहीं भी उन्हें वह अश्व दिखायी नहीं दिया, तब पातालमें जानेको उद्यत हुए। फिर तो सारी पृथ्वीको खोदना शुरू किया। एक— एकने अलग— अलग एक— एक योजन भूचि खोद डाली। खोदी हुई मिट्टीको उन्होंने समुद्रके तटपर बिखेर दिया और उसी द्वारसे वे सभी सगरपुत्र पाताललोकमें जा पहुँचे। वे सब अविवेकी मतसे उन्मत्त हो रहे थे। पातालमें सब ओर उन्होंने अश्वको ढूँढ़्ना आरम्भ किया। खोजते— खोजते वहाँ उन्हें करोड़ों सूर्योंके समान प्रभावशाली महात्मा कपिलका दर्शन हुआ। वे ध्यानमें तन्मय थे। उनेक पास ही वह घोड़ा भी दिखायी दिया। फिर तो वे सभी अत्यन्त क्रोधमें भर गये और मुनिको देखकर उन्हें मार डालनेका विचार करके वेगपूर्वक दौड़्ते हुए उनपर टूट पड़े। उस समय आपसमें एक— दूसरेसे वे इस प्रकार कह रहे थे— ‘ इसे मार डालो, मार डालो। बाँध लो, बाँध लो। पकड़ो, जल्दी पकड़ो। देखो न, घोड़ा चुराकर यहाँ साधुरुपमें बगुलेकी भाँति ध्यान लगाये बैठा है। अहो ! संसारमें ऐसे भी खल हैं, जो बड़े— बडे आडम्बर रचते हैं।’ इस तरहकी बातें बोलते हुए वे मुनीश्वर कपिलका उपहास करने लगे। कपिलजी अपने समस्त इन्द्रियवर्ग और बुद्धिको आत्मामें स्थिर करके ध्यानमें तत्पर थे; अतः उनकी इस करतूतका उन्हें कुछ भी पता नहीं चला। सगरपुत्रोंकी मृत्यु निकट थी, इसलिये उन लोगोंकी बुद्धि मारी गयी थी। वे मुनिको लातोंसे मारने लगे। कुछ लोगोंने उनकी बाहें पकड़ लीं। तब मुनिकी समाधि भङ हो गयी। उन्होंने विस्मित होकर लोकमें उपद्रव करनेवाले सगरपुत्रोंको लक्ष्य करके गम्भीरभावसे युक्त यह वचन कहा— ‘जो ऐश्वर्यके मदसे उन्मत्त हैं, जो भूखसे पीड़ित हैं, जो कामी हैं तथा जो अहंकारसे मूढ़ हो रहे हैं— ऐसे मनुष्योंको विवेक नहीं होता। यदि दुष्ट मनुष्य सज्जनोंको सताते हैं तो इसमें आश्चर्य क्या है? नदीका वेग किनारेपर उगे हुए वृक्षोंको भी गिरा देता है। जहाँ धन है, जवानी है तथा परायी स्त्री भी है, वहाँ सदा सब अन्धे और मूर्ख बने रहते हैं। दुष्टके पास लक्ष्मी हो तो वह लोकका विनाश करनेवाली ही होती है। जैसे वायु अग्निकी ज्वालाको बढ़ानेमें सहायक होता है और जैसे दूध साँपके विषको बढ़ानेमें कारण होता है, उसी प्रकार दुष्टकी लक्ष्मी उसकी दुष्टताको बढ़ा देती है। अहो ! धनके मदसे अन्धा हुआ मनुष्य देखते हुए भी नहीं देखता। यदि वह अपने हितको देखता है तभी वह वास्तवमें देखता है।’
ऐसा कहकर कपिलजीने कुपित हो अपने नेत्रोंसे आग प्रकट की। उस आगने समस्त सगरपुत्रोंको क्षणभरमें जलाकर भस्म कर डाला। उनकी नेत्राग्निको देखकर पातालनिवासी जीव शोकमें डूब गये और असमयमें प्रलय हुआ जानकर चीत्कार करने लगे। उस अग्निसे संसप्त हो सम्पूर्ण सर्प तथा राक्षस समुद्रमें शीघ्नतापूर्वक समा गये। अवश्य ही साधु—महात्माओंका कोप दुस्सह होता है।
तदनन्तर देवदूतने राजाके जज्ञमें आकर यजमान सगरको वह सब समाचार बताया। राजा सगर सब शास्त्रोंके ज्ञाता थे। यह सब वृत्तान्त सुनकर उन्होंने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक कहा— दैवने ही उन दुष्टोंको द्ण्ड दे दिया। माता, पिता, भाई अथवा पुत्र जो भी पाप करता है, वही शत्रु माना गया है। जो पापमें प्रवृत्त होकर सब लोगोंके साथ विरोध करता है, उसे महान् शत्रु समझना चाहिये— यही शास्त्रोंका निर्णय है। मुनीश्वर नारदजी ! राजा सगरने अपने पुत्रोंका नाश होनेपर भी शोक नहीं किया; क्योंकि दुराचारियोंकी मृत्यु साधु पुरुषोंके लिये संतोषका कारण होती है।’ पुत्रहीन पुरुषोंका यज्ञमें अधिकार नहीं है’ । धर्मशास्त्रकी ऐसी आज्ञा होनेके कारण महाराज सगरने अपने पौत्र अंशुमान्को ही दत्तक पुत्रके रूपमें गोद ले लिया। सारग्राही राजा सगरने बुद्धिमान् और विद्वानोंमें श्रेष्ठ अंशुमान्को अश्व ढूँढ़ लानेके कार्यमें नियुक्त किया। अंशुमान्ने उस गुफाके द्वारपर जाकर तेजोराशि मुनिवर कपिलको देखा और उन्हें साष्टाङ प्रणाम किया। फिर दोनों हाथोंको जोड़्कर वह विनयपूर्वक उनके सामने खड़ा हो गया और शान्तचित्त सनातन देवदेव कपिलसे इस प्रकार बोला।
अंशुमान्ने कहा— ब्रहान् ! मेंरे पिताके भाइयोंने यहाँ आकर जो दुष्टता की है, उसे आप क्षमा करें; क्योंकि साधु पुरुष सदा दूसरोंके उपकारमें लगे रहते हैं ओर क्षमा ही उनका बल है। संत— महात्मा दुष्ट जीवोंपर भी दया करते हैं। चन्द्रमा चाण्डलके घरसे अपनी चाँदनी खींच नहीं लेते हैं। सज्जन पुरुष दूसरोंसे सताये जानेपर भी सबके लिये सुखकारक ही होता है। देवताओंद्वारा अपनी अमृतमयी कलाके भक्षण किये जानेपर भी चन्द्रमा उन्हें परम संतोष ही देता है। चन्दनको काटा जाय या छेदा जाय, वह अपनी सुगन्धसे सबको सुवासित करता रहता है। साधु पुरुषोंका भी ऐसा ही स्वभाव होता है। पुरुषोत्तम ! आपके गुणोंको जाननेवाले मुनीश्वरगण ऐसा मानते हैं कि आप क्षमा, तपस्या तथा धर्माचरणद्वारा समस्त लोकोंको शिक्षा देनेके लिये इस भूतलपर अवतीर्ण हुए हैं। ब्राह्मण । आपको नमस्कार है। मुने ! आप ब्रह्मस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है। आप स्वभावतः ब्राह्मणोका हित करनेवाले है और सदा ब्रह्मचिन्तनमें लगे रहते हैं, आपको नमस्कार है।
अंशुमान्के इस प्रकार स्तुति करनेपर कपिल मुनिका मुख प्रसन्नतासे खिल उठ। उस समय वे बोले— ‘ निष्पाप राजकुमार ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, वर माँगो।’ मुनिके ऐसा कहनेपर अंशुमान्ने प्रणाम करके कहा— ‘ भगवन् ! हमारे इन पितरोंको ब्रह्मलोकमें पहुँचा दें।’ तब कपिल मुनि अंशुमान्पर अत्यन्त प्रसन्न हो आदरपूर्वक बोले—’ राजकुमार ! तुम्हारा पौत्र यहाँ गंगाजीको लाकर अपने पितरोंको स्वर्गलोक पहुँचायेगा। वत्स ! तुम्हारे पौत्र भगीरथद्वारा लायी हुई पुण्यसलिला गंगा नदी इन सगरपुत्रोंके पाप धोकर इन्हें परम पदकी प्राप्ति करा देगी। बेटा ! इस घोड़ेको ले जाओ, जिससे तुम्हारे पितामहका यज्ञ पूर्ण हो जाय।’ तब अंशुमान् अपने पितामहके पास लौट गये और उन्हें अश्वसहित सब समाचार निवेदन किया। सगरने उस पशुके द्वारा ब्राह्मणोके साथ वह यज्ञ पूर्ण किया और तपस्याद्वारा भगवान् विष्णुकी आराधना करके वे वैकुण्ठधामको चल गये। अंशुमान्के दिलीप नामक पुत्र हुआ। दिलीपसे भगीरथका जन्म हुआ, जो दिव्या लोकसे गंगाजीको इस भूतलपर ले आये। मुने ! भगीरथकी तपस्यासे संतुष्ट हो ब्रह्माजीने उन्हें गंगा दे दी; फिर भगीरथ, गंगाजीको धारण कोन करेना— इस विषयमें विचार करने लगे। तदनन्तर भगवान् शिवकी आराधना करके उनकी सहायतासे वे देवनदी गंगाको पृथ्वीपर ले आये और उनके जलसे स्पर्श कराकर पवित्र हुए पितरोंको उन्होंने दिव्य स्वर्गलोकमें पहुँचा दिया।
अध्याय-09 बलिके द्धारा देवताओंकी पराजय तथा अदितिकी तपस्या
नारदजीने कहा— भाईजी ! यदि मैं आपकी कृपाका पात्र होऊँ तो भगवान् विष्णुके चरणोंके अग्रभावसे उप्तन्न हुई जो गंगा बतायी जाती हैं, उनकी उत्पत्तिकी कथा मुझसे कहिये।
श्रीसनकजी बोले— निष्पाप नारदजी ! मैं गंगाकी उत्पत्ति बताता हूँ, सुनिये। वह कथा कहने और सुननेवालेके लिये भी पुण्यदायिनी है तथा सब पापोंका नाश करनेवाली है। कश्यप नामसे प्रसिद्ध एक मुनि हो गये हैं। वे ही इन्द्र आदि देवताओंके जनक हैं। दक्ष— पुत्री दिति और अदिति— ये दोनों उनकी पत्नियाँ हैं। अदिति देवताओंकी माता है और दिति दैत्योंकी जननी। ब्राह्मन् ! उन दोनोंके दो पुत्र हैं, वे सदा एक— दूसरेको जीतनेकी इच्छा रखते हैं। दितिका पुत्र आदिदैत्य हिरण्यकशिपु बड़ा बलवान् था। उसके पुत्र प्रह्लाद हुए। वे दैत्योंमें बड़े भारी संत थे। प्रह्लादका पुत्र विरोचन हुआ, जो ब्राह्मणभक्त था। विरोचनके पुत्र बलि हुए, जो अत्यन्त तेजस्वी और प्रतापी थे। मुने ! बलि ही दैत्योंके सेनापति हुए। वे बहुत बड़ी सेनाके साथ इस पृथ्वीका राज्य भोगते थे। समूची पृथ्वीको जीतकर स्वर्गको भी जीत लेनेका विचार कर वे युद्धमें प्रवृत्त हुए। उन्होंने विशाल सेनाके साथ देवलोकको प्रस्थान किया। देवशत्रु बलिने स्वर्गलोकमें पहुँचकर सिंहके समान पराक्रमी दैत्योंद्वारा इन्द्रकी राजधानीको घेर लिया। तब इन्द्र आदि देवता भी युद्धके लिये नगरसे बाहर निकले। तदनन्तर देवताओं और दैत्योंमें घोर युद्ध छिड़ गया। दैत्योंने देवताओंकी सेनापर बाणोंकी झड़ी लगा दी। इसी प्रकार देवता भी दैत्यसेनापर बाणवर्षा करने लगे। तदनन्तर दैत्यगण भी देवताओंपर नाना प्रकारके अस्त्र— शस्त्रोंद्वारा घातक प्रहार करने लगे। पत्थर, भिन्दिपाल, खङ, परशु, तोमर, परिघ, क्षुरिका, कुन्त, चक्र, शङ्कु, मूसल, अङ्कुश, लाङ्ल, पट्टिश, शक्ति, उपल, शतघ्नी, पाश, थप्पड़, मुक्के, शूल नालीक, नाराच, दूरसे फेंकनेयोग्य अन्यान्य अस्त्र तथा मुद्ररसे वे देवताओंको मारने लगे। रथ, अश्व, गज और पैदल सेनाओंसे खचाखच भरा हुआ वह युद्ध निरन्तर बढ़ने लगा। देवताओंने भी दैत्योंपर अनेक प्रकारके अस्त्र चलाये। इस प्रकार एक हजार वर्षोंतक वह युद्ध चलता रहा। अन्तमें दैत्योंका बल बढ़ जानेके कारण देवता परास्त हो गये और सब— के— सब भयभीत हो स्वर्गलोक छोड़कर भाग गये। वे मनुष्योंके रूपमें छिपकर पृथ्वीपर विचरने लगे। विरोचनकुमार बलि भगवान् नारायणकी शरण ले लव्याहत ऐश्वर्य, बढ़ी हुई लक्ष्मी और महान् बलसे सम्पन्न हो त्रिभुवनका राज्य भोगने लगे। उन्होंने भगवान् विष्णुकी प्रीतिके लिये तत्पर होकर अनेक अश्वमेंध जज्ञ किये। बलि स्वर्गमें रहकर इन्द्र और दिक्पाल— दोनों पदोंका— उपभोग करते थे। देवमाता अदिति अपने पुत्रोंकी यह दशा देखकर बहुत दुःखी हुईं। उन्होंने यह सोचकर कि अब मेंरा यहाँ रहना व्यर्थ है, हिमालयको प्रस्थान किया। वहाँ इन्द्राका ऐश्वर्य तथा दैत्योंकी पराजय चाह्ती हुई वे भगवान विष्णुके ध्यानमें तत्पर हो अत्यन्त कठोर तपस्या करने लगीं। कुछ कालतक वे निरन्तर बैठी हि रहीं। उसके बाद दीर्घकालतक दोनों पैरोंसे खड़ी रहीं। तदनन्तर बहुत समयतक एक पैरसे और फिर उस एक पैरकी अँगुलियोंके ही बलपर खड़ी रहीं। फिर सूखे पत्ते खाकर रहने लगीं। उसके बाद बहुत दिनोंतक जल पीकर रहीं, फिर वायुके आहारपर रहने लगीं और अन्तमें उन्होंने सर्वथा आहार त्याग दिया। नारदजी ! अदिति अपने अन्तःकरणद्वारा सच्चिदानन्दघन परमात्माका ध्यान करती हुई एक हजार दिव्या वर्षोंतक तपस्यामें लगी रहीं।
तदनन्तर दैत्योंने अदितिको ध्यानसे विचलित करनेके लिये अपनी दाड़ोंके अग्रभागसे अग्नि प्रकट की, जिसने उस वनको क्षणभरमें जला दिया। उसका विस्तार सौ योजन था और वह नाना प्रकारके जीव— जन्तुओंसे भरा हुआ था। जो दैत्य अदितिका अपमान करनेके लिये गये थे, वे सब उसी अग्निसे जलकर भस्म हो गये। केवल देवमाता अदिति ही जीवित बची थीं, क्योंकि दैत्योंका विनाश और स्वजनोंपर अनुकम्पा करनेवाले भगवान् विष्णुके सुदर्शन चक्रने उनकी रक्षा की थी।
अध्याय-10 अदितिको भगवद्दर्शन और वरप्राप्ति, वामनजीका अवतार, बलि—वामन—संवाद, भगवानका तीन पैरसे समस्त ब्रह्माण्डको लेकर बलिको रसातलमें भेजना
नारदजीने पूछा— भाईजी ! आपने यह बड़ी अद्धत बात बतायी है। मैं जानना चाहता हूँ कि उस अग्निने अदितिको छोड़कर उन दैत्योंको ही क्षणभरमें कैसे जला दिया। आप अदितिके महान् सत्त्वका वर्णन कीजिये, जो विशेष आश्चर्यका कारण है; क्योंकि मुनीश्वर साधु पुरुष सदा दूसरोंको उपदेश देनेमें तत्पर रहते हैं।
सनकजीने कहा— नारदजी ! जिनका मन भगवान्के भजनमें लगा हुआ है, ऐसे संतोंकी महिमा सुनिये। भगवान्के चिन्तनमें लगे हुए साधु परुषोंको बाधा देनेमें कोन समर्थ हो सकता है? जहाँ भगवान्का भक्त रहता है, वहाँ ब्रह्मा, विष्णु, शिव, देवता, सिद्ध, मुनीश्वर और साधु— संत नित्य निवास करते हैं। महाभागा ! शान्तचित्तवाले हरिनामपरायण भक्तोंके भी हृदयमें भगवान् विष्णु सदा विराजते हैं, फिर जो निरन्तर उन्हींके ध्यानमें लगे हुए हैं, उनके विषयमें तो कहना ही क्या है? भगवान् शिवकी पूजामें लगा हुआ अथवा भगवान् विष्णुकी आराधनामें तत्पर हुआ भक्त पुरुष जहाँ रहता है, वहीं लक्ष्मी तथा सम्पूर्ण देवता निवास करते हैं। जहाँ भगवान् विष्णुकी उपासनामें संलग्न भक्त पुरुष वास करता है, वहाँ अग्नि बाधा नहीं पहुँचा सकती। राजा, चोर अथवा रोग— व्याधि भी कष्ट नहीं दे सकते हैं। प्रेत, पिशाच, कूष्माण्ड, ग्रह, बालग्रह, डाकिनी तथा राक्षस— ये भगवान् विष्णुकी आराधना करनेवाले पुरुषको पीड़ा नहीं दे सकते। जितेन्द्रिय, सबका हितकारी तथा धर्म— कर्मका पालन करनेवाला पुरुष जहाँ रहता है, वहीं सम्पूर्ण तीर्थ और देवता वास करते हैं। जहाँ एक या आधे पल भी योगी महात्मा पुरुष ठहरते हैं, वही सब श्रेय हैं, वहीं तीर्थ है, वही तपोवन है। जिनके नामकीर्तनसे, स्तोत्रपाठसे अथवा पूजनसे भी सब उपद्र्व नष्ट हो जाते हैं, फिर उनके ध्यानसे उपद्रवोंका नाश हो, इसके लिये कहना ही क्या है? ब्रह्मन् ! इस प्रकार दैत्योंद्वारा प्रकट की हुई उस अग्निसे दैत्योंसहित सारा वन दग्ध हो गया, किंतु देवमाता अदिति नहीं जलीं; क्योंकि वे भगवान् विष्णुके चक्रसे सुरक्षित थीं।
तदनन्तर कमलदलके समान विकसित नेत्र और प्रसन्न मुखवाले शङ्ख, चक्र, गदाधारी भगवान् विष्णु अदितिके समीप प्रकट हुए। उनके मुखपर मन्द— मन्द मुसकानकी छटा छा रही थी और चमकीले दाँतोंकी प्रभासे सम्पूर्ण दिशाएँ उद्भासित हो रही थीं। उन्होंने अपने पवित्र हाथसे कश्यपजीकी प्यारी पत्नी अदितिका स्पर्श करते हुए कहा।
श्रीभगवान् बोले— देवमाता ! तुमने तपस्याद्वारा मेंरी आराधना की है, इसलिये मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। तुमने बहुत समयतक कष्ट उठाया है। अब तुम्हारा कल्याण होगा, इसमें संदेह नहीं नहीं है। तुम्हारे मनमें जैसी रुचि हो, वह वर माँगो, मैं अवश्य दूँगा। भद्रे ! भय न करो। महाभागे ! तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा।
देवाधिदेव भगवान् विष्णुके ऐसा कहनेपर देवमाता अदितिने उनके चरणोंमें प्रणाम किया और सम्पूर्ण जगत्को सुख देनेवाले उन परमेंश्वरकी स्तुति की।
अदिति बोलीं— देवदेवेश्वर ! सर्वव्यापी जनार्दन ! आपको नमस्कार है। आप ही सत्त्व आदि गुणोंके भेदसे जगत्के पालन आदि व्यवहार चलानेके कारण हैं। आप रूपरहित होते हुए भी अनेक रूप धारण करते हैं। आप परमात्माको नमस्कार है। सबसे एकरूपता (अभिन्नता) ही आपका स्वरूप है। आप निर्गुण एवं गुणस्वरूप हैं। आपको नमस्कार है। आप स्म्पूर्ण जगत्के स्वामी और परम ज्ञानरूप हैं। श्रेष्ठ भक्तजनोंके प्रति वात्सल्यभाव सदा आपकी शोभा बढ़ाता रहता है। आप मङलमय परमात्माको नमस्कार है। मुनीश्वरगण जिनके अवतार— स्वरूपोंकी सदा पूजा करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान्को मैं अपने मनोरथकी सिद्धिके लिये प्रणाम करती हूँ। जिन्हें श्रुतियाँ नहीं जानतीं, उनके ज्ञाता विद्वान् पुरुष भी नहीं जानते, जो इस जगत्के कारण हैं तथा मायाको साथ रखते हुए भी मायासे सर्वथा पृथक् है, उन भगवानको नमस्कार करती हूँ। जिनकी अद्धुत कृपादृष्टि मायाको दूर भगा देनेवाली है, जो जगत्के कारण तथा जगत्स्वरूप हैं, उन विश्ववन्दित भगवान्की मैं वन्दना करती हूँ।जिनके चरणारविन्दोंकी धूलके सेवनसे सुशोभित मस्तकवाले भक्तजन परम सिद्धिको प्राप्त हो चुके हैं, उन भगवान् कमलाकान्तको मैं नमस्कार करती हूँ। ब्रह्मा आदि देवता भी जिनकी महिमाको पूर्णरूपसे नहीं जानते तथा जो भक्तोंके अत्यन्त निकट रहते हैं, उन भक्तसङ भगवान्को मैं प्रणाम करती हूँ। वे करुणासागर भगवान् जगत्के सङका त्याग करके शान्तभावसे रहनेवाले भक्तजनोंको अपना सङ प्रदान करते हैं, जो यज्ञोंके स्वामी, यज्ञोंके भोक्ता, यज्ञकर्मोंमें स्थित रहनेवाले यज्ञकर्मके बोधक तथा यज्ञोंके फलदाता हैं, उन भगवान्को मैं नमस्कार करती हूँ। पापात्मा अजामिल भी जिनके नामोच्चारणके पश्चात् परम धामको प्राप्त हो गया, उन लोकसाक्षी भगवान्को मैं प्रणाम करती हूँ। जो विष्णुरूपी शिव और शिवरूपी विष्पु होकर इस जगत्के संचालक है, उन जगद्गुरु भगवान् नारायणको मैं नमस्कार करती हूँ। ब्रह्मा आदि देवेश्वर भी जिनकी मायाके पाशमें बँधे होनेके कारण जिनके परमात्मभावको नहीं समझ पाते, उन भगवान् सर्वेश्वरको मैं प्रणाम करती हूँ। जो सबके हृदयकमलमें स्थित होकर भी अज्ञानी पुरुषोंको दूरस्थ— से प्रतीत होते हैं तथा जिनकी सत्ता प्रमाणोंसे परे है, उन ज्ञानसाक्षी परमेंश्वरको मैं नमस्कार करती हूँ। जिनके मुखसे ब्राह्मण प्रकट हुआ है, दोनों भुजाओंसे क्षत्रियकी उत्पत्ति हुई है, ऊरुओंसे वैश्य उत्पन्न हुआ है और दोनों चरणोंसे शूद्रका जन्म हुआ है; जिनके मनसे चन्द्रमा प्रकट हुआ है, नेत्रसे सूर्यका प्रादुर्भाव हुआ है; मुखसे अग्नि और इन्द्रकी तथा कानोंसे वायुकी उत्पत्ति हुई है; ऋवेद, यजुर्वेद और सामवेद जिनके स्वरूप हैं, जो सांगीतविषयक सातों स्वरोंके भी आत्मा हैं, व्याकरण आदि छः अङ भी जिनके स्वरूप हैं, उन्हीं आप परमेंश्वरको मेंरा बारम्बार नमस्कार है। भगवन् ! आप ही इन्द्र, वायु और चन्द्रमा हैं। आप ही ईशान (शिव) और आप ही यम हैं। अग्नि और निऋति भी आप ही हैं। आप ही वरुण एवं सूर्य हैं। देवता, स्थावर वृक्ष आदि, पिशाच, राक्षस, सिद्ध, गन्धर्व, पर्वत, नदी, भूमि और समुद्र भी आपके स्वरूप हैं। आप ही जगदीश्वर हैं, जिनसे परात्पर तत्त्व दूसरा कोई नहीं है। देव ! सम्पूर्ण जगत् आपका ही स्वरूप है, इसलिये सदा आपको नमस्कार है। नाथनाथ ! सर्वज्ञ ! आप ही सम्पूर्ण भूतोंके आदिकारण हैं। वेद आपका ही स्वरूप है। जनार्दन ! दैत्योंद्वारा सताये हुए मेंरे पुत्रोंकी रक्षा कीजिये।
इस प्रकार स्तुति करके देवमाता अदितिने भगवान्को बारम्बार प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा। उस समय आनन्दके आँसुओंसे उनका वक्षःस्थल भींग रहा था। (वे बोलीं)—’ देवेश ! आप सबके आदिकारण हैं। मैं आपकी कृपाकी पात्र हूँ। मेंरे देवलोकवासी पुत्रोंको अकण्टक राज्यलक्ष्मी दीजिये। अन्तर्यामिन् ! विश्वरूप ! सर्वज्ञ ! परमेंश्वर ! लक्ष्मीपते ! आपसे क्या छिपा हुआ है? प्रभो ! आप मुझसे पूछकर मुझे क्यों मोहमें डाल रहे हैं? तथा आपकी आज्ञाका पालन करनेके लिये मेंरे मनमें जो अभिलाषा है, वह आपको बताऊँगी। देवेश्वर ! मैं दैत्योंसे पीड़ित हो रही हूँ। मेंरे पुत्र इस समय मेंरी रक्षा न कर सकनेके कारण व्यर्थ हो गये हैं। मैं दैत्योंका भी वध करना नहीं चाहती, क्योंकि वे भी मेंरे पुत्र ही हैं। सुरेश्वर ! उन दैत्योंको मारे बिना ही मेंरे पुत्रोंको सम्पत्ति दे दीजिये।’ नारदजी ! अदितिके ऐसा कहनेपर देवदेवेश्वर भगवान् विष्णु पुनः बहुत प्रसन्न हुए और देवमाताको आनन्दित करते हुए आदरपूर्वक बोले।
श्रीभगवान्ने कहा— देवि ! मैं प्रसन्न हूँ। तुम्हारा कल्याण हो। मैं स्वयं ही तुम्हारा पुत्र बनूँगा; क्योंकि सौतके पुत्रोंपर इतना वात्सल्य तुम्हारे सिवा अन्यत्र दुर्लभ है। तुमने जो स्तुति की है, उसको जो मनुष्य पढ़ेंगे, उन्हें श्रेष्ठ सम्पत्ति प्राप्त होगी और उनके पुत्र कभी हीन दशामें नहीं पड़ेंगे। जो अपने तथा दूसरेके पुत्रपर समानभाव रखता है, उसे कभी पुत्रका शोक नहीं होता— यह सनातन धर्म है।
अदिति बोलीं— देव ! आप सबके आदिकारण और परम पुरुष हैं। मैं आपको अपने गर्भमें धारण करनेमें असमर्थ हूँ। आपके एक— एक रोममें असंख्य ब्रह्माण्ड हैं। आप सबके ईश्वर तथा कारण हैं। प्रभो ! सम्पूर्ण देवता और श्रुतियाँ भी जिनके प्रभावको नहीं जानतीं, उन्ही देवाधिदेव भगवान्को मैं गर्भमें कैसे धारण करूँगी? आप सूक्ष्मसे भी अत्यन्त सूक्ष्म, अजन्मा तथा परात्पर परमेंश्वर हैं। देव ! आप पुरुषोत्तमको मैं कैसे गर्भमें धारण करूँगी? महापातकी मनुष्य भी जिनके नाम— स्मरणमात्रसे मुक्त हो जाता है, वे परमात्मा ग्राम्यजनोंके बीच जन्म कैसे धारण कर सकते हैं? प्रभो ! जैसे आपके मत्स्य और शूकर अवतार हो गये हैं, वैसा ही यह भी होगा। विश्वेश ! आपकी लीलाको कोन जानता है? देव ! मैं आपके चरणारविन्दोंमें प्रणत होकर आपके ही नाम— स्मरणमें लगी हुई सदा आपका ही चिन्तन करती हूँ। आपकी जैसी रुचि हो, वैसा करें।
श्रीसनकजीने कहा— अदितिका वचन सुनकर देवताओंके भी देवता भगवान् जनार्दनने देवमाताको अभयदान दिया और इस प्रकार कहा।
श्रीभगवान् बोले— महाभागे ! तुमने सत्य कहा है। इसमें संशय नहीं है। शुभे ! तथापि मैं तुम्हें एक गोपनीयसे भी गोपनीय रहस्य बतलाता हूँ, सुनो। जो राग— द्वेषसे शून्य, दूसरोंमें कभी दोष नहीं देखनेवाले और दम्भसे दूर रहनेवाले मेंरे शरणागन भक्त हैं, वे सदा मुझे धारण कर सकते हैं। जो दूसरोंको पीड़ा नहीं देते, भगवान् शिवके भजनमें लगे रहते और मेंरी कथा सुननेमें अनुराग रखते हैं, वे सदा मुझे अपने हृदयमें धारण करते हैं। देवि ! जिन्होंने पति— भक्तिका आश्रय लिया है, पति ही जिनका प्राण है और जो आपसमें कभी डाह नहीं रखतीं, ऐसी पतिव्रता स्त्रियाँ भी सदा मुझे अपने भीतर धारण कर सकती हैं। जो माता— पिताका सेवक, गुरुभक्त, अतिथियोंका प्रेमी और ब्राह्मणोका हितकारी है, वह सदा मुझे धारण करता है। जो सदा पुण्यतीर्थोंका सेवन करते, सत्सङमें लगे रहेगे और स्वभावसे ही सम्पूर्ण जगत्पर कृपा रखते हैं, वे मुझे सदा अपने हृदयमें धारण करते हैं। जो परोपकारमें तत्पर, पराये धनके लोभसे विमुख और परायी स्त्रियोंके प्रति नपुंसक होते हैं, वे भी सदा मुझे अपने भीतर धारण करते हैं। जो तुलसीकी उपासनामें लगे हैं, सदा भगवन्नामके जपमें तत्पर हैं और गौओंकी रक्षामें संलग्न रहते हैं, वे सदा मुझे हृदयमें धारण करते हैं। जो दान नहीं लेते, पराये अन्नका सेवन नहीं करते और स्वयं दूसरोंको अन्न और जलका दान देते हैं, वे भी सदा मुझे धारण करते हैं। देवि ! तुम तो सम्पूर्ण भूतोंके हितमें तत्पर पतिप्राणा साध्वी स्त्री हो, अतः मैं तुम्हारा पुत्र होकर तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा।
देवमाता अदितिसे ऐसा कहकर देवदेवेश्वर भगवान् विष्णुने अपने कण्ठकी माला उतारकर उन्हें दे दी और अभयदान देकरर वे वहाँसे अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर द्क्षकुमारी देवमाता अदिति प्रसन्नचित्तसे भगवान् कमलाकान्तको पुनः प्रणाम करके अपने स्थानपर लौट आयीं। फिर समय आनेपर विश्ववन्दित महाभागा अदितिने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक सर्वलोकनमस्कृत पुत्रको जन्म दिया। वह बालक चन्द्रमण्डलके मध्य विराजमान और परम शान्त था। उसने एक हाथमें शङ्ख और दूसरेमें चक्र ले रखा था। तीसरे हाथमें अमृतका कलश और चौथेमें दधिमिश्रित अन्न था। यह भगवान्का सुप्रसिद्ध वामन अवतार था। भगवान् वामनकी कान्ति सहस्त्रों सूर्योंके समान शोभा पा रहे थे। वे पीताम्बरधारी श्रीहरि सब प्रकारके दिव्या आभूषणोंसे विभूषित थे। सम्पूर्ण लोकोंके एकमात्र नायक, स्तोत्रोंद्वारा स्तवन करने योग्य तथा ऋषि— मुनियोंके ध्येय भगवान् विष्णुको प्रकट हुए जानकर महर्षि कश्यप हर्षसे विह्लल हो गये।उन्होंने भगवान्को प्रणाम करके हाथ जोड़्कर इस प्रकार स्तुति करना आरम्भ किया।
कश्यपजी बोले— सम्पूर्ण विश्वकी सृष्टिके कारणभृत ! आप परमात्माको नमस्कार है, नमस्कार है। समस्त जगत्का पालन करनेवाले ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। देवताओंके स्वामी ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। दैत्योंका नाश करनेवाले देव ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। भक्तजनोंके प्रियतम ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। साधु पुरुष आपको अपनी चेष्टाओंसे प्रसन्न करते है; आपको नमस्कार है, नमस्कार हैं। दुष्टोंका नाश करनेवाले भगवान्को नमस्कार हैं, नमस्कार है। उन जगदीश्वरको नमस्कार हैं, नमस्कार है। कारणवश वामनस्वरूप धारण करनेवाले अमित पराक्रमी भगवान् नारायणको नमस्कार है, नमस्कार है। धनुष चक्र, खङ् और गदा धारण करनेवाले पुरुषोत्तमको नमस्कार है। क्षीरसागरमें निवास करनेवाले भगवान्को नमस्कार है। साधु— पुरुषोंके ह्रदयकमलमें विराजमान परमात्माको नमस्कार है। जिनकी अनन्त प्रभाकी सूर्य आदिसे तुलना नहीं की जा सकती, जो पुण्याकथामें आते और स्थित रहते हैं, उन भगवान्को नमस्कार है, नमस्कार है। सूर्य और चन्द्रमा आपके नेत्र हैं, आपको नमस्कार है, नमस्कार है। आप यज्ञोंका फल देनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। आप यज्ञके सम्पूर्ण अङ्गोमें विराजित होते हैं, आपको नमस्कार है। साधु पुरुषोंके प्रियतम ! आपको नमस्कार है। जगत्के कारणोंके भी कारण आपको नमस्कार है। प्राकृत शब्द, रूप आदिसे रहित आप परमेंश्वरको नमस्कार है। दिव्य सुख प्रदान करनेवाले आपको नमस्कार है। भक्तोंके हृदयमें वास करनेवाले आपको नमस्कार है। मत्य्यरूप धारण करके अज्ञानान्धकारका नाश करनेवाले आपको नमस्कार है। कच्छपरूपसे है। यज्ञवराह— नामधारी आपको नमस्कार है। हिरण्याक्षको विदीर्ण करनेवाले आपको नमस्कार है। वामन— रूपधारी आपको नमस्कार है। क्षत्रिय— कुलका संहार करनेवाले परशुरामरूपधारी आपको नमस्कार है। रावणका संहार करनेवाले श्रीराम— रूपधारी आपको नमस्कार है। नन्दसुत बलराम जिनके ज्येष्ठ भ्राता हैं, उन श्रीकृष्णावतारधारी आपको नमस्कार है। कमलाकान्त ! आपको नमस्कार है। आप सबकी पीड़ाओंका नाश करनेवाले हैं। आपको बारम्बार नमस्कार है। यज्ञेश ! जज्ञस्थापक ! यज्ञविघ्न— विनाशक ! यज्ञरूप ! और यजमानरूप परमेंश्वर ! आप ही यज्ञके सम्पूर्ण अङ् हैं। मैं आपका यजन करता हूँ।
कश्यपजीके इस प्रकार स्तुति करनेपर सम्पूर्ण लोकोंको पवित्र करनेवाले देवेश्वर वामन हँसकर कश्यपजीका हर्ष बढ़ाते हुए बोले।
श्रीभगवान्ने कहा— तात ! तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। देवपूजित महर्षे? थोड़े ही दिनोंमें तुम्हारा सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध करूँगा। मैं पहले भी दो जन्मोंमें तुम्हारा पुत्र हुआ हूँ तथा अब इस जन्ममें भी तुम्हारा पुत्र होकर तुम्हें उत्तम सुखकी प्राप्ति कराऊँगा।
इधर दैत्यराज बलिने भी अपने गुरु शुक्राचार्य तथा अन्य मुनीश्वरोंके साथ दीर्घकालतक चलनेवाला बहुत बड़ा यज्ञ प्रारम्भ किया। उस यज्ञमें ब्रह्मवादी महर्षियोंने हविष्य ग्रहण करनेके लिये लक्ष्मीसहित भगवान् विष्णुका आवाहन किया। जिसका ऐश्वर्य बहुत बढ़ा— चढ़ा था, उस दैत्यराज बलिके महायज्ञमें माता— पिताकी आज्ञा ले ब्रह्मचारी वामनजी भी गये। वे अपनी मन्द मुसकानसे सब लोगोंका मन मोह लेते थे। भक्तवत्सल वामनके रूपमें भगवान् विष्णु मानो बलिके हविष्यका प्रत्यक्ष भोग लगानेके लिये आये थे। दुराचारी हो या सदाचारी, मूर्ख हो या पण्डित, जो भक्तिभावसे युक्त है, उसके अन्तःकरणमें भगवान् विष्णु सदा विराजमान रहते हैं। वामनजीको आते देख ज्ञानदृष्टिवाले महर्षिगण उन्हें साक्षात् भगवान् नारायण जानकर सभासदोंसहित उनकी अगवानीमें गये। यह जानकर दैत्यगुरु शुक्राचार्य एकान्तमें बलिको कुछ सलाह देने लगे।
शुक्राचार्य बोले— दैत्यराज ! सौम्य ! तुम्हारी राजलक्ष्मीका अपहरण करनेके लिये भगवान् विष्णु वामनरूपसे अदितिके पुत्र हुए हैं। वे तुम्हारे यज्ञमें आ रहे हैं। असुरेश्वर ! तुम उन्हें कुछ न देना। तुम तो स्वयं विद्वान् हो। इस समय मेंरा जो मत है, उसे सुनो। अपनी बुद्धि ही सुख देनेवाली होती है। गुरुकी बुद्धि विशेषरूपसे सुखद होती है। दूसरेकी बुद्धि विनाशका कारण होती है और स्त्रीकी बुद्धि तो प्रलय करनेवाली होती है।
बलिने कहा— गुरुदेव ! आपको इस प्रकार धर्ममार्गका विरोधी वचन नहीं कहना चाहिये। यदि साक्षात् भगवान् विष्णु मुझसे दान ग्रहण करते हैं तो इससे बढ़कर और क्या होगा? विद्वान् पुरुष भगवान् विष्णुकी प्रसन्नताके लिये यज्ञ करते हैं, यदि साक्षत् विष्णु ही आकर हमारे हविष्यका भोग लगाते हैं तो संसारमें मुझसे बढ़्कर भाग्यशाली कोन होगा? पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु जीवको उत्तम भक्तिभावसे स्मरण कर लेनेसे ही पवित्र कर देते हैं। जिस किसी भी वस्तुसे उनकी पूजा की जाय, वे परम गति दे देते हैं। दूषित चित्तवाले पुरुषोंके स्मरण करनेपर भी भगवान् विष्णु उनके पापको वैसे ही हर लेते हैं, जैसे अग्निको बिना इच्छा किये भी छू दिया जाय तो भी वह जला ही देती है।जिसकी जिह्वाके अग्रभागपर’हरि’ यह दो अक्षर वास करता है, वह पुनरावृत्तिरहित श्रीविष्णुधामको प्राप्त होता है। जो राग आदि दोषोंसे दूर रहकर सदा भगवान् गोविन्दका ध्यान करता है, वह वैकुण्ठधाममें जाता है— यह मनीषी पुरुषोंका कथन है। महाभाग गुरुदेव ! अग्नि अथवा ब्राह्मणके मुखमें भगवान् विष्णुके प्रति भक्ति— भाव रखते हुए जो हविष्यकी आहुति दी जाती है, उससे वे भगवान् प्रसन्न होते हैं। मैं तो केवल भगवात् विष्णुकी प्रसन्नताके लिये ही उत्तम यज्ञका अनुष्ठान करता हूँ। यदि स्वयं भगवान् यहाँ आ रहे हैं, तब तो मैं कृतार्थ हो गया— इसमें संशय नहीं है।
दैत्यराज बलि जब ऐसी बातें कह रहे थे, उसी समय वामनरूपधारी भगवान् विष्णुने यज्ञशालामें प्रवेश किया। वह स्थान होमयुक्त प्रज्वलित अग्निके कारण बड़ा मनोरम जान पडता था। करोड़ों सूर्योंके समान प्रकाशमान तथाअ सुडौल अङ्गोके कारण परम सुन्दर वामनजीको देखकर राजा बलि सहर्ष खड़े हो गये और हाथ जोड़कर उनका स्वागत किया। बैठनेके लिये आसन देकरर उन्होंने वामनरूपधारी भगवान्के चरण पखारे और उस चरणोदकको कुटुम्बसहित मस्तकपर धारण करके बड़े आनन्दका अनुभव किया। जगदाधार भगवान् विष्णुको विधिपूर्वक अर्घ्य देते— देते बलिके शरीरमें रोमाञ्च हो आया, नेत्रोंसे आनन्दके आँसू झरने लगे और वे इस प्रकार बोले।
बलिने कहा— आज मेंरा जन्म सफल हुआ। आज मेंरा यज्ञ सफल हुआ और मेंरा यह जीवन भी सफल हो गया। मैं कृतार्थ हो गया— इसमें संदेह नहीं है। भगवन् ! आज मेंरे यहाँ अत्यन्त दुर्लभ अमोघ अमृतकी वर्षा हो गयी। आपके शुभागमनमात्रसे अनायास महान् उत्सव छा गया। इसमें संदेह नहीं कि ये सब ऋषि कृतार्थ हो गये । प्रभो ! इन्होंने पहले जो तपस्या की थी, वह आज सफल हो गयी। मैं कृतार्थ हूँ, कृतार्थ हूँ, कृतार्थ हुँ— इसमें संशय नहीं है। अतः भगवन् ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है और बारम्बार नमस्कार है। आपकी आज्ञासे आपके आदेशका पालन करूँ— ऐसा विचार मेंरे मनमें हो रहा है। अतः प्रभो ! आप पूर्ण उत्साहके साथ मुझे अपनी सेवाके लिये आज्ञा दें। यज्ञमें दीक्षित यजमान बलिके ऐसा कहनेपर भगवान् वामन हँसकर बोले— ‘राजन् ! मुझे तपस्याके निमित्त रहनेके लिये तीन पग भूमि दे दो। भूमिदानका माहात्म्य महान् है। वैसा दान न हुआ है, न होगा। भूमिदान करनेवाला मनुष्य निश्चय ही परम मोक्ष पाता है। जिसने अग्निकी स्थापना की हो, उस श्रोत्रिय ब्राह्मणणके लिये थोड़ी— सी भी भूमि दान करके मनुष्य पुनरावृत्तिरहित ब्रह्मलोकको प्राप्त कर लेता है। भूमिदाता सब कुछ देनेवाला कहा गया है। भूमिदान करनेवाला मोक्षका भागी होता है। भूमिदानको अतिदान समझना चाहिये। वह सब पापोंका नाश करनेवाला है। कोई महापातकसे युक्त अथवा समस्त पातकोंसे दूषित हो तो भी द्स हाथ भूमिका दान करके सब पापोंसे छूट जाता है। जो सत्पात्रको भूमिदान करता है, वह सम्पूर्ण दानोंका फल पाता है। तीनों लोकोंमें भूमिदानके समान दूसरा कोई दान नहीं है। दैत्यराज ! जो जीविकारहित ब्राह्मणको भूमिदान करता है, उसके पुण्यफलका वर्णन मैं सौ वर्षोंमें भी नहीं कर सकता। जो ईख, गेहूँ, धान और सुपारीके वृक्ष आदिसे युक्त भूमिका दान करता है, वह निश्च्य ही श्रीविष्णुके समान है। जीविकाहीन, दरिद्र एवं कुटुम्बी ब्राह्मणणको थोड़ी— सी भी भूमि देकरर मनुष्य भगवान् विष्णुका सायुज्य प्राप्त कर लेता है। भूमिदान बहुत बड़ा दान है। उसे अतिदान कहा गया है। वह सम्पूर्ण पापोंका नाशक तथा मोक्षरूप फल देनेवाला है। इसलिये दैत्यराज ! तुम सब धर्मोंके अनुष्ठानमें लगे रहकर मुझे तीन पग पृथ्वी दे दो। वहाँ रहकर मैं तपस्या करूँगा।’
भगवान्के ऐसा कहनेपर विरोचनकुमार बलि बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने ब्रह्मचारी वामनजीको भूमिदान करनेके लिये जलसे भरा कलश हाथमें लिया। सर्वव्यापी भगवान् विष्णु यह जान गये कि शुक्राचार्य इस कलशमें घुसकर जलकी धाराको रोक रहे हैं। अतः उन्होंने अपने हाथमें लिये हुए कुशके अग्रभागको उस कलशके मुखमें घुसेड़ दिया जिसने शुक्राचार्यके एक नेत्रको नष्ट कर दिया। इसके बाद उन्होंने शस्त्रके समान उस कुशके अग्रभागको आँखसे अलग किया। इतनेमें राजा बलिने भगवान् महाविष्णुको तीन पग पृथ्वीका दान कर दिया। तदनन्तर विश्वात्मा भगवात् उस समय बड़ने लगे। उनका मस्तक ब्रह्मलोकतक पहुँच गया। अत्यन्त तेजस्वी विश्वरूप श्रीहरिने अपने दो पैरसे सारी भूमि नाप ली। उस समय उनका दूसरा पैर ब्रह्माण्डकटाह (शिखर)— को छू गया और अँगूठेके अग्रभागके आघातसे फूटकर वह ब्रह्माण्ड दो भागोंमें बँट गया। उस छिद्रके द्वारा ब्रह्माण्डसे बाहरका जल अनेक धाराओंमें बहकर आने लगा। भगवान् विष्णुके चरणोंको धोकर निकला हुआ वह निर्मल गंगाजल सम्पूर्ण लोकोंको पवित्र करनेवाला था। ब्रह्माण्डके बाहर जिसका उद्गमस्थान है, वह श्रेष्ठ एवं पावन गंगाजल धारारूपमें प्रवाहित हुआ और ब्रह्मा आदि देवताओंको उसने पवित्र किया। फिर सप्तर्षियोंसे सेवित हो वह मेंरुपर्वतके शिखरपर गिरा। वामनजीका यह अद्भुत कर्म देखकर ब्रह्मा आदि देवता, ऋषि तथा मनुष्य हर्षसे विह्लल हो उनकी स्तुति करने लगे।
देवता बोले— आप परमात्मस्वरूप परमेंश्वरको नमस्कार है। आप परात्पर होते हुए भी अपरा प्रकृतिसे उत्पन्न जगत्का रूप धारण करते हैं। आपको नमस्कार है। आप ब्रह्मरूप हैं, आपकी मन— बुद्धि अपने ब्रह्मरूपमें ही रमण करती है। आप कहीं भी कुण्ठित न होनेवाले अद्भुत कर्मसे सुशोभित होते हैं। आपको नमस्कार है। परेश ! परमानन्द ! परमात्मन् ! परात्पर विश्वमूतें ! प्रमाणातीत ! आप सर्वात्माको नमस्कार है। आपके सब ओर नेत्र हैं, सब ओर भुजाएँ हैं, सब ओर मस्तक हैं और सब ओर गति है, आपको नमस्कार है। ब्रह्मा आदि देवताओंद्वारा इस प्रकार स्तुति की जानेपर भगवान् महाविष्णुने स्वर्गवासी देवताओंको अभयदान दिया और वे देवाधिदेव सनातन श्रीहरि बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने एक परा भूमिकी पूर्तिके लिये विरोचनपुत्र दैत्यराज बलिको बाँध लिया, फिर उसे अपनी शरणमें आया जान रसातलका राज्य दे दिया और स्वयं भक्तके वशीभूत होकर बलिके द्वारपाल होकर रहने लगे।
नारदजीने पूछा— मुने ! रसातल तो सर्पोंके भयसे परिपूर्ण भयंकर स्थान है। वहाँ भगवान् महाविष्णुने विरोचनपुत्र बलिके लिये भोजन आदिकी क्या व्यवस्था की।
श्रीसनकजीने कहा— नारदजी ! अग्निमें बिना मन्त्रके जो आहुति डाली जाती है और अपात्रको जो दान दिया जाता है, वह सब कर्ताके लिये भयंकर होता है और वही राजा बलिके भोगका साधन बनता है। अपवित्र मनुष्यके द्वारा जो हविष्यका होम, दान और सत्कर्म किया जाता है, वह सब रसातलमें बलिके उपभोगके योग्य होता है और कर्ताको अधः पातरूप फल देनेवाला है। इस प्रकार भगवान् विष्णुने बलिदैत्यको रसातल— लोक और अभयदान देकरर सम्पूर्ण देवताओंको स्वर्गका राज्य दे दिया। उस समय देवता उनका पूजन, महर्षिगण स्तवन और गन्धर्वलोग गुणगान कर रहे थे। वे विराट् महाविष्णु पुनः वामनरूप हो गये। ब्रह्मवादी मुनियोंने भगवानका यह महान् कर्म देखकर परस्पर मुसकराते हुए उन पुरुषोत्तमको प्रणाम किया। सम्पूर्ण भूतस्वरूप भगवान् विष्णु वामनरूप धारण करके सब लोगोंको मोहित करते हुए तपस्याके लिये वनमें चले गये। भगवान् विष्णुके चरणोंसे निकली हुई गंगादेवीका ऐसा प्रभाव है कि जिनके स्मरणमात्रसे मनुष्य सम्पूर्ण पातकोंसे मुक्त हो जाता है। जो इस गंगा— माहात्म्यको देवालय अथवा नदीके तटपर पढ़ता या सुनता है, वह अश्वमेंधयज्ञका फल पाता है।
अध्याय - ११ दानका पात्र, निष्फल दान, उत्तम—माध्यम—अधम—दान, धर्मराज—भगीरथ—संवाद, ब्रहामणको जीविकादानका माहात्म्य तथा तडाग—निर्माणजनित पुण्यके विषयमें राजावीरभद्रकी कथा
नारदजी बोले— भाईजी ! मुझे गंगा— माहात्म्य सुननेकी इच्छा थी, सो तो सुन ली। वह सब पापोंका नाश करनेवाला है। अब मुझे दान एवं दानके पात्रका लक्षण बताइये।
श्रीसनकजीने कहा— देवर्षे ! ब्राह्मण सभी वर्णोंका श्रेष्ठ गुरु है। जो दिये हुए दानको अक्षय बनाना चाहता हो, उसे ब्राह्मणको ही दान देना चाहिये। सदाचारी ब्राह्मण निर्भय होकर सबसे दान ले सकता है, किंतु क्षत्रिय और वैश्य कभी किसीसे दान ग्रहण न करें। जो ब्राह्मण क्रोधी, पुत्रहीन, दम्भाचार— परायण तथा अपने कर्मका त्याग करनेवाला है, उसको दिया हुआ दान निष्फल हो जाता है। जो परायी स्त्रीमें आसक्त, पराये धनका लोभी तथा नक्षत्रसूचक (ज्योतिषी) है, उसे दिया हुआ दान भी निष्फल होता है। जिसके मनमें दूसरोंके दोष देखनेका दुर्गुण भरा है, जो कृतघ्न, कपटी और यज्ञके अनधिकारियोंसे यज्ञ करानेवाला है, उसको दिया हुआ दान भी निष्फल होता है। जो सदा माँगनेमें ही लगा रहता है, जो हिंसक, दुष्ट और रसका विक्रय करनेवाला है, उसे दिया हुआ दान भी निष्फल होता है। ब्रह्मन् ! जो वेद, स्मृति तथा धर्मका विक्रय करनेवाला है, उसको दिया हुआ दान भी निष्फल होता है। जो गीत गाकर जीविका चलाता है, जिसकी स्त्री व्यभिचारिणी है तथा जो दूसरोंको कष्ट देनेवाला है, उसको दिया हुआ दान भी निष्फल होता है। जो तलवारसे जीविका चलाता है, जो स्याहीसे जीवन— निर्वाह करता है, जो जीविकाके लिये देवताकी पूजा स्वीकार करता है, जो समूचे गाँवका पुरोहित है तथा जो धावनका काम करता है, ऐसे लोगोंको दिया हुआ दान निष्फल होता है। जो दूसरोंके लिये रसोई बनानेको काम करता है, जो कविताद्वारा लोगोंकी झूठी प्रशंसा किया करता है, जो वैद्य एवं अभक्ष्य वस्तुओंका भक्षण करनेवाला है, उसको दिया हुआ दान भी निष्फल होता है। जो शूद्रोंका अन्न खाता, शूद्रोंके मुर्दे जलाता और व्यभिचारिणी स्त्रीकी संतानका अन्न भोजन करता है, उसको दिया हुआ दान भी निष्फल होता है। जो भगवान् विष्णुके नाम— जपको बेचता है, संध्याकर्मको त्यागनेवाला है तथा दूषित दान— ग्रहणसे दग्ध हो चुका है, उसे दिया हुआ दान भी निष्फल होता है। जो दिनमें सोता, दिनमें मैथुन करता और संध्याकालमें खाता है, उसे दिया हुआ दान भी निष्फल होता है। जो महापातकोंसे युक्त है, जिसे जाति— भाइयोंने समाजसे बाहर कर दिया है तथा जो कुण्ड (पतिके रहते हुए भी व्यभिचारसे उत्पन्न हुआ) और गोलक (पतिके मर जानेपर व्यभिचारसे पैदा हुआ)है, उसे दिया हुआ दान भी निष्फल होता है। जो परिवित्ति (छोटे भाईके विवाहित हो जानेपर भी स्वयं अविवाहित), शठ, परिवेत्ता (बड़े भाईके अविवाहित रहते हुए स्वयं विवाह करनेवाला), स्त्रीके वशमें रहनेवाला और अत्यन्त दुष्ट है, उसको दिया हुआ दान भी निष्फल होता है। जो शराबी, मांसखोर, स्त्रीलम्पट, अत्यन्त लोभी, चोर और चुगली खानेवाला है, उसको दिया हुआ दान भी निष्फल होता है। दिविज श्रेष्ठ ! जो कोई भी पापपरायण और सज्जन पुरुषोंद्वारा सदा निन्दित हो, उनसे न तो दान लेना चाहिये और न दान देना ही चाहिये।
नारदजी ! जो ब्राह्मण सत्कर्ममें लगा हुआ हो, उसे यत्नपूर्वक दान देना चाहिये। जो दान श्रद्धपूर्वक तथा भगवान् विष्णुके समर्पणपूर्वक दिया गया हो एवं जो उत्तम पात्रके याचना करनेपर दिया गया हो, वहा दान अत्यन्त उत्तम है। नारदजी ! इहलोक या परलोकके लाभका उद्देश्य रखकर जो सुपात्रको दान दिया जाता है, वह सकाम दान मध्यम माना गया है। जो दम्भसे, दूसरोंकी हिंसाके लिये, अविधिपूर्वक, क्रोधसे, अश्रद्धासे और अपात्रको दिया जाता है, वह दान अधम माना गया है। राजा बलिको संतुष्ट करनेके लिये यानी अपवित्र भावसे तथा अपात्रको किया हुआ दान अधम, स्वार्थ— सिद्धिके लिये किया हुआ दान मध्यम तथा भगवान्की प्रसन्नताके लिये किया हुआ दान उत्तम है— यह वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ज्ञानी पुरुष कहते हैं। दान, भोग और नाश— ये धनकी तीन प्रकारकी गतियाँ हैं। जो न दान करता है और न उपभोगमें लाता है, उसका धन केवल उसके नाशका कारण होता है। ब्राह्मन् ! धनका फल है धर्म और धर्म वही है जो भगवान् विष्णुको प्रसन्न करनेवाला है। क्या वृक्ष जीवन धारण नहीं करते? वे भी इस जगत्में दूसरोंके हितके लिये जीते हैं। विप्रवर नारद ! जहाँ वृक्ष भी अपनी जड़ों और फलोंके द्वारा दूसरोंका हित— साधन करते हैं, वहाँ यदि मनुष्य परोपकारी न हो तो वे मरे हुएके ही समान हैं। जो मरणशील मानव शरीरसे, धनसे अथवा मन और वाणीसे भी दुसरोंका उपकार नहीं करते, उन्हें महान् पापी समझना चाहिये। नारदजी ! इस विषयमें मैं एक यथार्थ इतिहास सुनाता हूँ सुनिये। उसमें दान आदिका लक्षण भी बताया जायगा, साथ ही उसमें गंगाजीका माहात्म्य भी आ जायगा, जो सब पापोंका नाश करनेवाला है। इस इतिहासमें भगीरथ और धर्मका पुण्यकारक संवाद है।
सगरके कुलमें भगीरथ नामवाले राजा हुए, जो सातों द्वीपों और समुद्रोंसहित इस पृथ्वीका शासन करते थे। वे सदा सब धर्मोंमें तत्पर, सत्य— प्रतिज्ञ और प्रतापी थे। कामदेवके समान रूपवान्, महान् यज्ञकर्ता और विद्वान् थे। वे राजा भगीरथ धैर्यमें हिमायल और धर्ममें धर्मराजकी समानता करते थे। उनमें सभी प्रकारके शूभ लक्षण भरे थे। मुने ! वे सम्पूर्ण शास्त्रोंके पारगामी विद्वान्, सब सम्पत्तियोंसे युक्त और सबको आनन्द देनेवाले थे। अतिथियोंके सत्कारमें यत्नपूर्वक लगे रहते और सदा भगवान् वासुदेवकी आराधनामें तत्पर रहते थे। वे बड़े पराक्रमी, सद्गुणोंके भण्डार, सबके प्रति मैत्रीभावसे युक्त, दयालु तथा उत्तम बुद्धिवाले थे। द्विजश्रेष्ठ ! राजा भगीरथको ऐसे सद्गुणोंसे युक्त जानकर एक दिन साक्षात् धर्म्रराज उनका दर्शन करनेके लिये आये। राजाने अपने घरपर पधारे हुए धर्मराजका शास्त्रीय विधिसे पूजन किया। तत्पश्चात् धर्मराज प्रसन्न होकर राजासे बोले।
धर्मराजने कहा— धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ राजा भगीरथ ! तुम तीनों लोकमें प्रसिद्ध हो। मैं धर्मराज होकर भी तुम्हारी कीर्ति सुनकर तुम्हारे दर्शनके लिये आया हूँ। तुम सन्मार्गमें तत्पर, सत्यवादी और सम्पूर्ण भूतोंके हितैषी हो। तुम्हारे उत्तम गुणोंके कारण देवता भी तुम्हारा दर्शन करना चाहते हैं। भूपाल ! जहाँ कीर्ति, नीति और सम्पत्ति है, वहाँ निश्चय ही उत्तम गुण, साधु पुरुष तथा देवता निवास करते हैं। राजन् ! महाभाग ! समस्त प्रणियोंके हितमें लगे रहना आदि तुम्हारा चरित्र बहुत सुन्दर है। वह मेंरे— जैसे लोगोंके लिये भी दुर्लभ है। ऐसा कहनेवाले धर्मराजको प्रणाम करके राजा भगीरथ प्रसन्न एवं विनीत भावसे मधुर वाणीमें बोले।
भगीरथने कहा— भगवन् ! आप सब धर्मोंके ज्ञाता हैं। परेश्वर ! आप समदर्शी भी हैं। मैं जो कुछ पूछता हूँ, उसे मुझपर बड़ी भारी कृपा करके बताइये। धर्म कितने प्रकारके कहे गये हैं? धर्मात्मा पुरुषोंके कोन— से लोक हैं? यमलोकमें कितनी यातनाएँ बतायी गयी हैं और वे किन्हें प्राप्त होती हैं? महाभाग ! कैसे लोग आपके द्वारा सम्मानित होते हैं और कोन लोग किस प्रकार आपके द्वारा दण्डनीय हैं? यह सब मुझे विस्तारपूर्वक बतानेकी कृपा करें।
धर्मराजने कहा— महाबुद्धे ! बहुत अच्छा, बहुत अच्छा। तुम्हारी बुद्धि निर्मल तथा ओजस्विनी है। मैं धर्म और अधर्मका यथार्थ वर्णन करता हूँ, तुम भक्तिपूर्वक सुनो ! धर्म अनेक प्रकारके बताये गये हैं, जो पुण्यलोक प्रदान करनेवाले हैं। इसी प्रकार अधर्मजनित यातनाएँ भी असंख्य कही गयी हैं, जिनका दर्शन भी भयंकर है। अतः मैं संक्षेपसे ही धर्म और अधर्मका दिग्दर्शन कराऊँगा। ब्राह्मणोको जीविका देना अत्यन्त पुण्यमय कहा गया है। इसी प्रकार अध्यात्मतत्त्वके ज्ञाता पुरुषको दिया हुआ दान अक्षय होता है। ब्राह्मण सम्पूर्ण देवताओंका स्वरूप बताया गया है, उसको जीविका देनेवाले मनुष्य्के पुण्यका वर्णन करनेमें कोन समर्थ है? जो नित्य (सदाचारी) ब्राह्मणका हित करता है, उसने सम्पूर्ण यज्ञोंका अनुष्ठान कर लिया, वह सब तीर्थोंमें नहा चुका और उसने सब तपस्या पूरी कर ली। जो ब्राह्मणको जीविका देनेके लिये’ दो’ कहकर दूसरेको प्रेरित करता है, वह भी उसके दानका फल प्राप्त कर लेता है। जो स्वयं अथवा दूसरेके द्वारा तालाब बनवाता है, उसके पुण्यकी संख्या बताना असम्भव है। राजन् ! यदि एक राही भी पोखरेका जल पी ले तो उसके बनानेवाले पुरुषके सब पाप अवश्य नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य एक दिन भी भूमिपर जलका संग्रह एवं संरक्षण कर लेता है, वह सब पापोंसे छूटकर सौ वर्षोंतक स्वर्गलोकमें निवास करता है। जो मानव अपनी शक्तिभर तालाब खुदानेमें सहायता करता है, जो उससे संतुष्ट होकर उसको प्रेरणा देता है, वह भी पोखरे बनानेको पुण्यफल पा लेता है। जो सरसों बराबर मिट्टी भी तालाबसे निकालकर बाहर फेंकता है, वह अनेकों पापोंसे मुक्त हो सौ वर्षोंतक स्वर्गमें निवास करता है। नृपश्रेष्ट ! जिसपर देवता अथवा गुरुजन संतुष्ट होते हैं, वह पोखरा खुदानेके पुण्यका भागी होता है— यह सनातन श्रुति है।
नृपश्रेष्ठ ! इस विषयमें मैं तुम्हें एक इतिहास बतलाता हूँ, जिसे सुनकर मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है— इसमें संशय नहीं है। गौड़देशमें अत्यन्त विख्यात वीरभद्र नामके एक राजा हो गये हैं। व बड़े प्रतापी, विद्वान तथा सदैव ब्राह्मणोकी पूजा करनेवाले थे। वेद और शास्त्रोंकी आज्ञाके अनुसार कुलोचित सदाचारका वे सदा पालन करते और मित्रोंके अभ्युदयमें योग देते थे। उनकी परम सौभाग्यवती रानीका नाम चम्पकमञ्जरी था। उनके मुख्य मन्त्रीगण कर्तव्य और अकर्तव्यके विचारमें कुशल थे। वे सदा धर्मशास्त्रोंद्वारा धर्मका निर्णय किया करते थे।’ जो प्रायश्चित्त, चिकित्सा, ज्यौतिष तथा धर्मका निर्णय बिना शास्त्रके करता है, उसे ब्राह्मणघाती बताया गया है’— मन— ही— मन ऐसा सोचकर राजा सदा अपने आचार्योंसे मनु आदिके बताये हुए धर्मोंका विधिपूर्वक श्रवण आदिके बताये हुए धर्मोंका विधिपूर्वक श्रवण किया करते थे। उनके राज्यमें कोई छोटे— से— छोटा मनुष्य भी अन्यायका आचरण नहीं करता था। उस राजाका धर्मपूर्वक पालित होनेवाला देश स्वर्गकी समता धारण करता था। वह शुभकारक उत्तम राज्यका आदर्श था।
एक दिन राजा वीरभद्र मन्त्री आदिके साथ शिकार खेलनेके लिये बहुत बड़े वनमें गये और दोपहरतक इधर— उधर घूमते रहे। व अत्यन्त थक गये थे। भगीरथ ! उस समय वहाँ राजाको एक छोटी— सी पोखरी दीखायी दी। वह भी सूखी हुई थी। उसे देखकर मन्त्रीने सोचा— पृथ्वीके ऊपर इस शिखरपर यह पोखरी किसने बनायी है? यहाँ कैसे जल सुलभ होग, जिससे ये राजा वीरभद्र प्यास बुझाकर जीवन धारण करेंगे। नृपश्रेष्ठ ! तदनन्तर मन्त्रीके मनमें उस पोखरीको खोदनेका विचार हुआ। उसने एक हाथका गङ्ढा खोदकर उसमेंसे जल प्राप्त किया। राजन् ! उस जलको पीनेसे राजा और उनके बुद्धिसागर नामक मन्त्रीको भी तृप्ति हुई। तब धर्म— अर्थके ज्ञाता बुद्धिसागरने राजासे कहा—’ राजन् ! यह पोखरी पहले वर्षाके जलसे भरी थी। अब इसके चारों ओर बाँध बना दें— ऐसी मेंरी सम्मति है। देव ! निष्पाप राजन् ! आप इसका अनुमोदन करें और इसके लिये मुझे आज्ञा दें।’ नृपश्रेष्ठ वीरभद्र अपने मन्त्रीकी यह बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और इस कामको करनेके लिये तैयार हो गये। उन्होंने अपने मन्त्री बुद्धिसागरको ही इस शुभ कार्यमें नियुक्त किया। तब राजाकी आज्ञासे अतिशय पुण्यात्मा बुद्धिसागर उस पोखरीको सरोवर बनानेके कार्यमें लग गये। उसकी लंबाई और चौड़ाई चारों ओरसे पचास धनुषकी हो गयी। उसके चारों ओर पत्थरके घाट बन गये और उसमें अगाध जलराशि संचित हो गयी। ऐसी पोखरी बनाकर मन्त्रीने राजाको सब समाचार निवेदन किया। तबसे सब वनचर जीव और प्यासे पथिक उस पोखरीसे उत्तम जल पान करने लगे। फिर आयुकी समाप्ति होनेपर किसी समय मन्त्री बुद्धिसागरकी मृत्यु हो गयी। राजन् ! वे मुझ धर्मराजके लोकमें गये। उनके लिये मैंने चित्रगुप्तसे धर्म पूछा, तब चित्रगुप्तने उनके पोखरी बनानेका सब कार्य मुझे बताया। साथ ही यह भी कहा कि ये राजाको धर्म— कार्यका स्वयं उपदेश करते थे, इसलिये इस धर्मविमानपर चढ़नेके अधिकारी हैं। राजन् ! चित्रगुप्तके ऐसा कहनेपर मैंने बुद्धिसागरको धर्मविमानपर चढ़नेकी आज्ञा दे दी। भगीरथ ! फिर कालान्तरमें राजा वीरभद्र भी मृत्युके पश्चात् मेंरे स्थानपर गये और प्रसन्नतापूर्वक मुझे नमस्कार किया। तब मैंने वहाँ उनके सम्पूर्ण धर्मोंके विषयमें भी प्रश्न किया राजन् !मेंरे पूछनेपर चित्रगुप्तने राजाके लिये भी पोखरे खुदानेसे होनेवाले धर्मकी बात बतायी। तब मैंने राजाको जिस प्रकार भलीभाँति समझाया, वह सुनो। (मैंने कहा—)
‘भूपाल भगीरथ ! पूर्वकालमें सैकतगिरिके शिखरपर उस लावक (एक प्रकारकी चिड़िया) पक्षीने जलके लिये अपनी चोंचसे दो अङ्ल भूमि खोद ली थी। नृपश्रेष्ठ ! तत्पश्चात् कालान्तरमें उस वाराहने अपनी थूथुनसे एक हाथ गहरा गड्ढा खोदा। तबसे उसमें हाथभर जल रहता था। उसके बाद किसी समय उस काली (एक पक्षी)— ने उसे पानीमें खोदकर दो हाथ गहरा कर दिया। महाराज ! तबसे उसमें दो महीनेतक जल टिकने लगा। वनके छोटे— छोटे जीव प्याससे व्याकुल होनेपर उस जलको पीते थे। सुव्रत ! उसके तीन वर्षके बाद इस हाथीने उस गड्ढेको तीन हाथ गहरा कर दिया। अब उसमें अधिक जल संचित होकर तीन महीनेतक टिकने लगा। जंगली जीव— जन्तु उसको पीया करते थे। फिर जल सूक जानेके बाद आप उस स्थानपर आये। वहाँ एक हाथ मिट्टी खोदकर आपने जल प्राप्त किया। नरपते ! तदनन्तर मन्त्री बुद्धिसागरके उपदेशसे आपने पचास धनुषकी लंबाई— चौड़ाईमें उसे उतना ही गहरा खुदवाया। फिर तो उसमें बहुत जल संचित हो गया। इसके बाद पत्थरोंसे दृढ़तापूर्वक घाट बँध जानेपर वह महान् सरोवर बन गया। वहाँ किनारेपर सब लोगोंके लिये उपकारी वृक्ष लगा दिये गये। उस पोखरेके द्वारा अपने— अपने पुण्यसे ये पाँच जीव धर्मविमानपर आरूढ़ हुए हैं। अब छठे तुम भी उसपर चढ़ जाओ।’ भगीरथ ! मेंरा यह वचन सुनकर छठे राजा वीरभद्र भी उन पाँचके समान ही पुण्याभागी होकर उस धर्मविमानपर जा बैठे। राजन् ! इस प्रकार मैंने पोखरे बनवानेसे होनेवले सम्पूर्ण फलका वर्णन किया। इसे सुनकर मनुष्य जन्मसे लेकर मृत्युतकके पापसे मुक्त हो जाता है। जो मानव श्रद्धापूर्वक इस कथाको सुनता अथवा पढ़ता है, वह भी तालाब बनानेके सम्पूर्ण पुण्यको प्राप्त कर लेता है।
अध्याय - १२ तडाग और तुलसी आदिकी महिमा, भगवान विष्णु और शिवके स्नान— पूजनका महत्व एवं विविध दानों तथा देवमंदिरमें सेवा करनेका माहात्म्य
धर्मराज कहते हैं— राजन् ! कासार (कच्चे पोखरे) बनानेपर तडाग (पक्के पोखरे) बनानेकी अपेक्षा आधा फल बताया गया है। कुएँ बनानेपर एक चौथाई फल जानना चाहिये। बावड़ी बनानेपर कमलोंसे भरे हुए सरोवरके बराबर पुण्य प्राप्त होता है। भूपाल ! नहर निकालनेपर बावड़ीकी अपेक्षा सौगुना फल प्राप्त होता है। धनी पुरुष पत्थरसे मन्दिर या तालाब बनावे और दरिद्र पुरुष मिट्टीसे बनावे तो उन दोनोंको समान फल प्राप्त होता है। यह ब्रह्माजीका कथन है। धनी पुरुष एक नगर दान करे और गरीब एक हाथ भूमि दे; इन दोनोंके दानका समान फल है। ऐसा वेदवेत्ता पुरुष कहते हैं। जो धनी पुरुष उत्तम फलके साधनभूत तडागका निर्माण करता है और दरिद्र एक कुआँ बनवाता है; उन दोनोंका पुण्य समान कहा गया है। जो बहुत— से प्राणियोंका उपकार करनेवाला आश्रम या धर्मशाला बनवाता है, वह तीन पीढ़ियोंके साथ ब्रह्मलोकमें जाता है। राजन् ! धेनु अथवा ब्राह्मण या जो कोई भी आधे क्षण भी उस आश्रमकी छायामें स्थित होता है, वह उसके बनवानेवालेको स्वर्गलोकमें पहुँचाता है। राजन् ! जो बगीचे लगाते, देवमन्दिर बनवाते, पोखरा खुदाते अथवा गाँव बसाते हैं, वे भगवान् विष्णुके साथ पूजित होते हैं। जो तुलसीके मूलभागकी मिट्टीसे, गोपीचन्दनसे, चित्रकूटकी मिट्टीस अथवा गंगाजीकी मृत्तिकासे ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक लगाता है, उसे प्राप्त होनेवाले पुण्यफलका वर्णन सुनो। वह श्रेष्ट विमानपर बैठकर गन्धर्वों और अप्सराओंके समूहद्वारा अपने चरित्रका गान सुनता हुआ भगवान् विष्णुके धाममें आनन्द भोगता है। जो तुलसीके पौधेपर चुल्लूभर भी पानी डालता है, वह क्षीरसागर— निवासी भगवान् विष्णुके साथ तबतक निवास करता है, जबतक चन्द्रमा और तारे रहते हैं, तदनन्तर विष्णुमें लय हो जाता है। जो ब्राह्मणोको कोमल तुलसीदल अर्पित करता है, वह तीन पीढ़ियोंके साथ ब्रह्मलोकमें जाता है। जो तुलसीके लिये काँटोंका आवरण या चहारदीवारी बनवाता है, वह भी इक्कीस पीढ़ियोंके साथ भगवान् विष्णुके धाममें आनन्दका अनुभव करता है। नरेश्वर ! चरणकमलोंकी पूजा करता है, वह विष्णुलोकको प्राप्त होता है, उसका वहाँसे कभी पुनरागमन नहीं होता। पुष्प तथा चन्दनके जलसे भगवान् गोविन्दको भक्तिपूर्वक नहलाकर मनुष्य विष्णुधाममें जाता है। जो कपड़ेसे छाने हुए जलके द्वारा भगवान् लक्ष्मीपतिको स्नान कराता है, वह सब पापोंसे छूटकर भगवान् विष्णुके साथ सुखी होता है। जो सूर्यकी संक्रान्तिके दिन दूध आदिसे श्रीहरिको नहलाता है, वह इक्कीस पीढ़ियोंके साथ विष्णुलोकमें वास करता है। शुक्लपक्षमें चतुर्दशी, अष्टमी, पूर्णिमा, एकादशी, रविवार, द्वादशी, पञ्चमी तिथि, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, मन्वादि तिथि, युगादितिथि, सूर्यके आधे उदयके समय, सूर्यके पुष्यनक्षत्रपर रहते समय रोहिणी और बुधके योगमें, शनि और रोहिणी तथा मङ्ल और अश्विनीके योगमें, शनि— अश्विनी, बुध— अश्विनी, शुक्र— रेवती योग, बुध— अनुराधा, श्रवण— सूर्य, सोमवार— श्रवण, हस्त— बृहस्पति, बुध— अष्टमी तथा बुध और आषाढ़ाके योगमें और दूसरे— दूसरे पवित्र दिनोंमेंजो पुरुष शान्तचित्त, मौन और पवित्र होकर दूध, दही, घी और शहदसे श्रीविष्णुको स्नान कराता है, उसको प्राप्त होनेवाले फलका वर्णन सुनो। वह सब पापोंसे छूटकर सम्पूर्ण यज्ञोंका फल पाता और इक्कीस पीढ़ियोंके साथ वैकुण्ठधारममें निवास करता है। राजन् ! फिर वहीं ज्ञान प्राप्त करके वह पुनरावृत्तिरहित और योगियोंके लिये भी दुर्लभ हरिका सायुज्य प्राप्त कर लेता है। भूपते ! जो कृष्णपक्षमें चतुर्दशी तिथि और सोमवारके दिन भगवान् शङ्करको दूधसे नहलाता है, शिवका सायुज्य प्राप्त कर लेता है।अष्टमी अथवा सोमवारको भक्तिपूर्वक नारियलके जलसे भगवान् शिवको स्नान कराकर मनुष्य शिव— सायुज्यका अनुभव करता है। भूपते ! शुक्लपक्षकी चतुर्दशी अथवा अष्टमीको घृत और मधुके द्वारा भगवान् शिवको स्नान कराकर मनुष्य उनका सारूप्य प्राप्त कर लेता है। तिलके तेलसे भगवान् विष्णु अथवा शिवको स्नान कराकर मनुष्य सात पीढ़ियोंके साथ उनका सारूप्य प्राप्त कर लेता है। जो शिवको भक्तिपूर्वक ईखके रससे स्नान कराता है, वह सात पीढ़ियोंके साथ एक कल्पतक भगवान् शिवके लोकमें निवास करता है। (फिर शिवका सायुज्य प्राप्त कर लेता है।)
नरेश ! एकादशीके दिन सुगन्धित फूलोंसे भगवान् विष्णुकी पूजा करके मनुष्य दस हजार जन्मके पापोंसे छूट जाता और उनके परम धामको प्राप्त कर लेता है। महाराज ! चम्पाके फूलोंसे भगवान् विष्णुकी और आकके फूलोंसे भगवान् शङ्करकी पूजा करके मनुष्य उन— उनका सालोक्य प्राप्त करता है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक भगवान् शङ्कर अथवा विष्णुको धूपमें घृतयुक्त गुग्गुल मिलाकर देता है, वह सब पापोंसे छूट जाता है। नृपश्रेष्ठ ! जो भगवान् विष्णु अथवा शङ्करको तिलके तेलसे युक्त दीपदान करता है, वह समस्त कामनाओंको प्राप्त कर लेता है। जो भगवान् शिव अथवा विष्णुको घीका दीपक देता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो गंगा— स्नानका फल पाता है।
जो— जो अभीष्ट वस्तुएँ हैं, वह सब ब्राह्मणको दान कर दे— ऐसा मनुष्य पुनर्जन्मसे रहित भगवान् विष्णुके धाममें जाता है। अन्न और जलके समान दूसरा कोई दान न हुआ है; न होगा। अन्नदान करनेवाला प्राणदाता कहा गया है और जो प्राणदाता है, वह सब कुछ देनेवाला है। नृपश्रेष्ठ ! इसलिये अन्नदान करनेवालेको सम्पूर्ण दानोंका फल मिलता है। जलदान तत्काल संतुष्ट करनेवाला माना गया है। नृपषेष्ठ ! इसलिये ब्रह्मवादी मनुष्योंने जलदानको अन्नदानसे श्रेष्ठ बताया है। महापातक अथवा उपपातकोंसे युक्त मनुष्य भी यदि जलदान करनेवाला है तो वह उन सब पापोंसे मुक्त हो जाता है, यह ब्रह्माजीका कथन है। शरीरको अन्नसे उत्पन्न कहा गया है। प्राणोंको भी अन्नजनित ही मानते हैं; अतः पृथ्वीपते ! जो अन्नदान देनेवाला है, उसे प्राणदाता समझना चाहिये; क्योंकि जो— जो तृप्तिकारक दान है, वह समस्त मनोवाञ्छत फलोंको देनेवाला है; अतः भूपाल ! इस पृथ्वीपर अन्नदानके समान दूसरा कोई दान नहीं है। जो दरिद्र अथवा रोगी मनुष्यकी रक्षा करता है, उसपर प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु उसकी सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण कर देते हैं। जो मन, वाणी और क्रियाद्वारा रोगीकी रक्षा करता है, वह सब पापोंस छूटकर सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है। महीपाल ! जो ब्राह्मणको निवास— स्थान देता है, उसपर प्रसन्न हो देवेश्वर भगवान् विष्णु उसे अपना लोक देते हैं। जो ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म लोकमें जाता है तथा जो वेदवेत्ता ब्राह्मणको कपिला गाय दान देता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो रुद्रस्वरूप हो जाता है। जो भयसे व्याकुलचित्तवाले पुरुषोंको अभय दान देता है, राजन् ! उसके पुण्यफलका यथार्थ वर्णन करता हूँ, सुनो; एक ओर तो पूर्णरूपसे उत्तम दक्षिणा देकरर सम्पन्न किये हुए सभी यज्ञ हैं और दूसरी ओर भयभीय मनुष्यकी प्राणरक्षा है (ये दोनों समान हैं)। महीपाल ! जो भयविह्लल ब्राह्मणकी रक्षा करता है, वह सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान कर चुका और सम्पूर्ण यज्ञोंकी दीक्षा ले चुका। वस्त्रदान करनेवाला रुद्रलोकमें और कन्यादाता ब्रहालोकमें जाता है।
भूपते ! कार्तिक अथवा आषाढ़की पूर्णिमाको जो मानव भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये वृषोत्सर्ग कर्म करता है, उसका फल सुनो— वह सात जन्मोंके पापोंसे मुक्त हो सेको शिवलिंसे चिह्रित करके छोड़्ता है, उसे कभी यमयातना (नरक) नहीं प्राप्त होती है। नृपसत्तम ! जो शक्तिके अनुसार ताम्बूल दान करता है, उसपर प्रसन्न हो भगवान् विष्णु उसे आयु यश तथा लक्ष्मी प्रदान करते हैं। दूध, दही, घी और मधुका दान करनेवाला मनुष्य दस हजार दिव्य वर्षोंतक स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। नृपोत्तम ! ईख दान करनेवाला मनुष्य ब्रह्मलोकमें जाता है। गन्ध एवं पवित्र फल देनेवाला पुरुष भी ब्रह्मधाममें जाता है। गुड़ और ईखका रस देनेवाला मनुष्य क्षीरसागरको प्राप्त होता है। विद्यादान करनेसे मनुष्यको भगवान् विष्णुका सायुज्य प्राप्त होता है। विद्यादान, भूमिदान और गोदान— ये उत्तम— से— उत्तम तीन दान क्रमशः जप, जोतने— बोनेकी सुविधा और दूध दुहनेके कारण नरकसे उद्धार करनेवाले होते हैं। नृपोत्तम ! सम्पूर्ण भगवान् विष्णुका सायुज्य प्राप्त कर लेता है। ईंधन दान करनेसे मनुष्यको उपपातकोंसे छुटकारा मिलता है। शालग्राम शिलाका दान महादान बताया गया है। उसका दान करके मनुष्य मोक्ष प्राप्त करता है। शिवलिं— दान भी ऐसा ही माना गया है। प्रभो ! जो मनुष्य श्रेष्ठ पुरुषोंको घर दान देता है, राजन् ! उसे गंगास्नानका फल अवश्य प्राप्त होता है।
नृपश्रेष्ठ ! जो रत्नयुक्त सुवर्णका दान करता है, वह भोग और मोक्ष— दोनों प्राप्त कर लेता है; क्योंकि स्वर्णदान महादान माना गया है। माणिक्यदान करनेसे मनुष्य परममोक्षको प्राप्त होता है। वज्रमणिके दानसे मानव ध्रुवलोकमें जाता है। मूँगा दान करनेसे स्वर्ग एवं रुद्रलोककी प्राप्ति होती है। सवारी देने और मुक्तादान करनेसे दाता चन्द्रलोक प्राप्त करता है। वैदूर्य और पद्मरागमणि देनेवाला मनुष्य रुद्रलोकमें जाता है। पद्मरागमणिके दानसे सर्वत्र सुखकी प्राप्ति होती है। राजन् ! घोड़ा दान करनेवाला दीर्घकालके लिये अश्विनीकुमारोंके समीप जाता है। हाथी— दान महादान है। उससे मनुष्य सब कामनाओंको प्राप्त कर लेता है। सवारी दान करनेसे मनुष्य स्वर्गीय विमानमें बैठकर स्वर्गलोकमें जाता है। भैंस देनेवाला निस्संदेह अपमृत्युको जीत लेता है। गौओंको घास देनेसे रुद्रलोककी प्राप्ति होती है। महीपते ! नमक देनेवाला पुरुष वरुणलोकमें जाता है।
जो अपने आश्रमोचित आचारके पालनमें संलग्न, सम्पूर्ण भूतोंके हितमें तत्पर तथा दम्भ और असूयासे रहित हैं, वे ब्रह्मलोकमें जाते हैं। जो वीतराग और ईर्ष्यारहित हो दूसरोंको परमार्थका उपदेश देते और स्वयं भी भगवान्के चरणोंकी आराधनामें लगे रहते हैं, वे वैकुण्ठधाममें जाते हैं। जो सत्सङ्में आनन्दका अनुभव करते, सत्कर्म करनेके लिये सदा उद्यत रहते और दूसरोंके अपवादसे मुँह मोड़ लेते हैं, वे विष्णुधाममें जाते हैं। जो सदा ब्राह्मणो और गौओंका हित साधन करते और परायी स्त्रियोंके सङ्से विमुख होते हैं, वे यमलोकका जीत लिया है, जो गायोंके प्रति क्षमाभाव रखनेवाले और सुशील हैं तथा जो ब्राह्मणोपर भी क्षमाभाव रखते हैं, वे वैकुण्ठधाममें जाते हैं। जो अग्निका सेवन करनेवाले गुरुसेवक पुरुष हैं तथा जो पतिकी सेवामें तत्पर रहनेवाली स्त्रियाँ हैं, वे कभी जन्म— मरणरूप संसार— बन्धनमें नहीं पड़तीं। जो सदा देव— पूजामें तत्पर, हरिनामकी शरण लेनेवाले तथा प्रतिग्रहसे दूर रहते हैं, वे परम पदको प्राप्त होते हैं। नृपश्रेष्ठ ! जो ब्राह्मणके अनाथ शवका दाह करते हैं, वे सहस्त्र अश्वमेंध यज्ञोंका फल भोगते हैं। मनुजेश्वर ! जो पूजारहित शिवलिंका पत्र, पुष्प, फल अथवा जलसे पूजन करता है, उसका फल सुनो— वह विमानपर बैठकर भगवान् शिवके समीप जाता है। जनेश्वर ! जो भक्ष्य— भोज्य और फलोंद्वारा निर्जन स्थानमें स्थित शिवलिंका पूजन करता है, वह पुनरावृत्तिरहित शिव— सायुज्यको प्राप्त करता है। सूर्यवंशी भगीरथ ! जो पूजारहित विष्णु— प्रतिमाका जलसे भी पूजन करता है, उसे विष्णुका सालोक्य प्राप्त होता है। राजन् ! जों देवालयमें गोचर्मके बराबर भू— भागको भी जलसे सींचता है, वह स्वर्गलोक पाता है। जो देवमन्दिरकी भूमिको चन्दनमिश्रत जलसे सींचता है, वह जितने कणोंको भिगोता है, उतने कल्पतक उस देवताके समीप निवास करता है। जो मनुष्य पत्थरके चूनेसे देवमन्दिरको लीपता है या उसमें स्वस्तिक आदिके चिहृ बनाता है, उसको अनन्त पुण्य प्राप्त होता है। जो भगवान् विष्णु या शङ्करके समीप अखण्ड दीपकी व्यवस्था करता है, उसको एक— एक क्षणमें अश्वमेंध यज्ञका फल सुलभ होता है। भूमिपाल ! जो देवीके मन्दिरकी एक बार, सूर्यके मन्दिरकी सात बार, गणेशके मन्दिरकी तीन बार और विष्णु— मन्दिरकी चार बार परिक्रमा करता है, वह उन— उनके धाममें जाकर लाखों युगोंतक सुख भोगता है। जो भक्तिभावसे भगवान् विष्णु, गौ तथा ब्राह्मणकी प्रदक्षिणा करता है, उसे पग— पगपर अश्वमेंध यज्ञका फल मिलता है। जो काशीमें भगवान् शिवके लिंगका पूजन करके प्रणाम करता है, उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता, उसका फिर संसारमें जन्म नहीं होता। जो विधिपूर्वक भगवान् शङ्करकी दक्षिण और वाम परिक्रमा करता है, वह मनुष्य उनकी कृपासे स्वर्गसे नीचे नहीं आता। जो रोग— शोकसे रहित भगवान् नारायणकी स्तोत्रोंद्वारा स्तुति करता है, वह मनसे जो— जो चाहता है, उन सब कामनाओंको प्राप्त कर लेता है। भूपाल ! जो भक्तिभावसे युक्त हो देवमन्दिरमें नृत्य अथवा गान करता है, वह रुद्रलोकमें जाकर मोक्षका भागी होता है। जो मनुष्य देवमन्दिरमें बाजा बजाते हैं, वे हंसयुक्त विमानपर आरूढ़ हो ब्रह्माजीके धाममें जाते हैं। जो लोग देवालयमें करताल बजते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त हो द्स हजार युगोंतक विमानचारी होते हैं। जो लोग भेरी, मृदङ्, पटह, मुरज और डिंडिम आदि बाजोंद्वारा देवेश्वर भगवान् शिवको प्रसन्न करते हैं, उन्हें प्राप्त होनेवाले पुण्यफलका वर्णन सुनो। वे सम्पूर्ण कामनाओंसे पूजित हो स्वर्गलोकमें जाकर पाँच कल्पोंतक सुख भोगते हैं। राजन् ! जो मनुष्य देवमन्दिरमें शड्खध्वनि करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके साथ सुख भोगता है। जो भगवान् विष्णुके मन्दिरमें ताल और झाँझ आदिका शब्द करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके लोकमें जाता है। जो सबके साक्षी, निरञ्जन एवं ज्ञानस्वरूप भगवान् विष्णु हैं, वे संतुष्ट होनेपर सब धर्मोंका यथायोग्य सम्पूर्ण फल देते हैं। भूपते ! जिन देवाधिदेव सुदर्शनचक्रधारी श्रीहरिके स्मरण मात्रसे सम्पूर्ण कर्म सफल होते हैं, वे जगदीश्वर परमात्मा ही समस्त कर्मोंके फल हैं। पुण्यकर्म करनेवाले पुरुषोंद्वारा सदा स्मरण किये जानेपर वे भगवान् उनकी सब पीड़ाओंका नाश करते हैं। भगवान् विष्णुके उद्देश्यसे जो कुछ किया जाता है, वह अक्षय मोक्षका कारण होता है। भगवान् विष्णु ही हैं। इसी प्रकार कर्म, कर्मोंके फल और उनके भोक्ता भी भगवान् विष्णु ही हैं। कार्य भी विष्णु हैं, करण भी विष्णु हैं। उनसे भिन्न कोई भी वस्तु नहीं है।
अध्याय - १३ विविध प्राश्चितका वर्णन, इष्टापूर्तका फल और सूतक, श्राद्ध तथा तर्पणका विवेचन
धर्मराज कहते हैं— नृपश्रेष्ठ ! अब मैं चारों वर्णोंके लिये वेदों और स्मृतियोंमें बताये हुए धर्मका क्रमशः वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। जो भोजन करते समय क्रोधमें या अज्ञानवश किसी अपवित्र वस्तुको या चाण्डाल एवं पतितको छू लेता है, उसके लिये प्रायश्चित बतलाता हूँ। वह क्रमानुसार अर्थात् अपवित्र वस्तुके स्पर्श करनेपर तीन रात और चाण्डाल या पतितका स्पर्श कर लेनेपर छः राततक पञ्चगव्यसे तीनों समय स्नान करे तो शुद्ध होता है। यदि कदाचित भोजन करते समय ब्राह्मणके गुदासे मलस्नाव हो जाय अथवा जूठे मुँह या अपवित्र रहनेपर ऐसी बात हो जाय तो उसकी शुद्धिका उपाय बतलाता हूँ। पहले वह ब्राह्मण शौच जाकर जलसे पवित्र होवे (अर्थात् शौच जाकर जलसे हाथ— पैरकी शुद्धि करके कुल्ला और स्नान करे) तदनन्तर दिन— रात उपवास करके पञ्चगव्य पीनेसे शुद्ध होता है। यदि भोजन करते समय पेशाब हो जाय अथवा पेशाब करनेपर बिना शुद्ध हुए ही भोजन कर ले तो दिन— रात उपवास करे और अग्निमें घीकी आहुति दे। यदि भोजनके समय ब्राह्मण किसी भी निमित्तसे अपवित्र हो जाय तो उस समय ग्रासको जमीनपर रखकर स्नान करनेके पश्चात् शुद्ध होता है। यदि उस ग्रासको खा ले तो उपवास करनेपर शुद्ध होता है और यदि अपवित्र अवस्थामें वह सारा अन्न भोजन करके उठे तो तीन राततक वह अशुद्ध रहता है (अर्थात् तीन रात्रितक उपवास करनेसे शुद्ध होता है)। यदि भोजन करते— करते वमन हो जाय तो अस्वस्थ मनुष्य तीन सौ गायत्री— मन्त्रका जप करे और स्वस्थ मनुष्य तीन हजार गायत्री जपे, यही उसके लिये उत्तम प्रायश्चित्त है। यदि द्विज मल— मूत्र करनेपर चाण्डाल या डोमसे छू जाय तो वह त्रिरात्र व्रत करे और यदि भोजन करके जूठे मुँह छू जाय तो छः राततक व्रत करे। यदि रजस्वला और सूतिका स्त्रीको चाण्डाल छू ले तो तीन राततक व्रत करनेपर उसकी शुद्धि होती है— यह शातातप मुनिका वचन है। यदि रजस्वला स्त्री कुत्तों, चाण्डालों अथवा कोओंसे छू जाय तो वह अशुद्ध अवस्थातक निराहार रहे; फिर समयपर (चौथे दिन) स्नान करनेसे वह शुद्ध होती है। यदि दो रजस्वलाएँ आपसमें एक दूसरीका स्पर्श कर लेती हैं तो ब्रह्मकूर्च पीनेसे उनकी शुद्धि होती है और ऊपरसे भी ब्रह्मकूर्चद्वारा उन्हें स्नान कराना चाहिये। जो जूठेसे छू जानेपर तुरंत स्नान नहीं कर लेता, उसके लिये भी यही प्रायश्चित्त है। ऋतुकालमें मैथुन करनेवाले पुरुषको गर्भाधान होनेकी आशंकासे स्नान करनेका विधान है। बिना ऋतुके स्त्रीसङ्गम करनेपर मल— मूत्रकी ही भाँति शुद्धि मानी गयी है। अर्थात् हाथ, मुँह आदि धोकर कुल्ला चाहिये। मैथुनकर्ममें लगे हुए पति— पत्नी दोनों ही अशुद्ध होते हैं, परंतु शय्यासे उठनेपर स्त्री तो शुद्ध हो जाती है, किंतु पुरुष स्नानके पूर्वतक अशुद्ध ही बना रहता है। जो लोग पतित न होनेपर भी अपने बन्धुजनोंका त्याग करते हैं, (राजाको उचित है कि) उन्हें उत्तम साहस का दण्ड दे। यदि पिता पतित हो जाय तो उसके साथ इच्छानुसार बर्ताव करे। अर्थात् अपनी रुचिके अनुसार उसका त्याग और ग्रहण दोनों कर सकते हैं; किंतु माताका त्याग कभी न करे। जो रस्सी आदि साधनोंद्वारा फाँसी लगाकर आत्मघात करता है, वह यदि मर जाय तो उसके शरीरमें पवित्र वस्तुका लेप करा दे और यदि जीवित बच जाय तो राजा उससे दो सौ मुद्रा दण्ड ले। उसके पुत्र और मित्रोंपर एक— एक मुद्रा दण्ड लगावे और व लोग शास्त्रीय विधिके अनुसार प्रायश्चित्त करें। जो मनुष्य मरनेके लिये जलमें प्रवेश करके अथवा फाँसी लगाकर मरनेसे बच जाते हैं, जो संन्यास ग्रहण करके और उपवास व्रत प्रारम्भ करके उसे त्याग देते हैं, जो विष पीकर अथवा ऊँचे स्थानसे गिरकर मरनेकी चेष्टा करनेपर भी जीवित बच जाते हैं तथा जो शस्त्रका अपने ऊपर आघात करके भी मृत्युसे वञ्चित रह जाते हैं, वे सब सम्पूर्ण लोकसे बहिष्कृत हैं। इनके साथ भोजन या निवास नहीं करना चाहिये। ये सब— के— सब एक चान्द्रायण अथावा दो तप्तकृच्छव्रत करनेसे शुद्ध होते हैं। कुत्ते, सियार और वानर आदि जन्तुओंके काटनेपर तथा मनुष्यद्वारा दाँतसे काटे जानेपर भी मनुष्य दिन रात अथवा संध्या कोई भी समय क्यों न हो, तुरंत स्नान कर लेनेपर शुद्ध हो जाता है। जो ब्राह्मण अज्ञानसे— अनजानमें किसी प्रकार चाण्डालाक अन्न खा लेता है, वह गोमूत्र और यावकका आहार करके पंद्रह दिनमें शुद्धु होता है। गौ अथवा ब्राह्मणका घर जलाकर, फाँसी आदि लगाकर मरे हुए मनुष्यका स्पर्श करके तथा उसके बन्धनोंको काटकर ब्राह्मण अपणी शुद्धिके लिये एक कृच्छव्रतका आचरण करे। माता, गुरुपत्नी, पुत्री, बहिन और पुत्रवधूसे समागम करनेवाला तो प्रज्वलित अग्निमें प्रवेश कर जाय। उसके लिये दूसरा कोई शुद्धिका उपाय नहीं है। रानी, संन्यासिनी, धाय, अपनेसे श्रेष्ठ वर्णकी स्त्री तथा समान गोत्रवाली स्त्रीके साथ समागम करनेपर मनुष्य दो कृच्छव्रतका अनुष्ठान करे। पिताके गोत्र अथवा माताके गोत्रमें उत्पन्न होनेवाली अन्यान्य स्त्रियों तथा सभी परस्त्रियोंसे अनुचित सम्बन्ध रखनेवाला पुरुष उस पापसे हटकर अपनी शुद्धिके लिये कृच्छशान्तपनव्रत करे। द्विजगण खूब तपाये हुए कुशोदकको केवल एक बार पाँच राततक पीकर वेश्यागमनके पापका निवारण करते हैं। गुरुतल्पगामीके लिये जो व्रत है, वही कुछ लोग गोघातकके लिये भी बताते हैं और कुछ विद्वान् अवकीर्णी (धर्मभ्रष्ट)— के लिये भी उसी व्रतका विधान करते हैं। जो डंडेसे गौके ऊपर प्रहार करके उसे मार गिराता है, उसके लिये गोवधका जो सामान्य प्रायश्चित्त है, उससे दूना व्रत करनेका विधान है। तभी वह व्रत उसके पापको शुद्ध कर सकता है। गौको हाँकनेके लिये अँगूठेके बराबर मोटी, बाँहके बराबर बड़ी पल्लवयुक्त और गीली पतली डालका डंडा उचित बताया गया है। यदि गौओंके मारनेपर उनका गर्भ भी हो और वह मर जाय तो उनके लिये पृथक्— पृथक् एक— एक कृच्छव्रत करे। यदि कोई काठ, ढेला, पत्थर अथवा किसी प्रकारके शस्त्रद्वारा गौओंको मार डाले तो भिन्न— भिन्न शस्त्रके लिये शास्त्रमें इस प्रकार प्रायश्चित्त बताया गया है। काष्ठसे मारनेपर शान्तपनव्रतका विधान है। ढेलेसे मारनेपर प्राजापत्यव्रत करना चाहिये। पत्थरसे आघात करनेपर तप्तकृच्छव्रत और किसी शस्त्रसे मारनेपर अतिकृच्छव्रत करना चाहिये। यदि कोई गौओं और ब्राह्मणोके लिये (अच्छी नीयतसे) ओषधि, तेल एवं भोजन दे और उसके देनेके बाद उसकी मृत्यु हो जाय तो उस दशामें कोई प्रायाश्चित्त नहीं है। तेल और दवा पीनेपर अथवा दवा खानेपर या है। तेल और दवा पीनेपर अथवा दवा खानेपर या शरीरमें धँसे हुर लोहे या काँटे आदिको निकालनेका प्रयत्न करनेपर मृत्यु हो जाय तो भी कोई प्रायश्चित्त नहीं है। चिकित्सा या दवा करनेके लिये बछड़ोंका कण्ठ बाँधनेसे अथवा शामको उनकी रक्षाके लिये उन्हें घरमें रोकने या बाँधनसे भी कोई दोष नहीं होता।
(उपर्युक्त पापोंका प्रायश्चित्त करते समय मनुष्यको इस विधिसे मुण्डन कराना चाहिये)—एक पाद (चौथाई) प्रायश्चित्त करनेपर कुछ रोममात्र कटा देने चाहिये। दो पादके प्रायश्चित्तमें केवल दाढ़ी—मूँछ मुड़ा ले, तीन पादका प्रायश्चित्तमें करते समय शिखाके सिवा और सब बाल बनवा दे और पूरा प्रायश्चित्त करनेपर सब कुछ मुड़ा देना चाहिये। यदि स्त्रियोंको प्रायश्चित्त करना पड़े तो उनके सब केश समेंटकर दो अंगुल कटा देना चाहिये। इसी प्रकार स्त्रियोंके सिर मुड़ानेका विधान है। स्त्रीके लिये सारे बाल कटाने और वीरासनसे बैठनेका नियम नहीं है। उनके लिये गोशालामें निवास करनेकी विधि नहीं है। यदि गौ कहीं जाती हो तो उसके पीछे नहीं जाना चाहिये। राजा, राजकुमार अथवा बहुत—से शास्त्रोंका ज्ञाता ब्राह्मण हो तो उन सबके लिये केश मुड़ाये बिना ही प्रायश्चित्त बाताना चाहिये। उन्हें केशोंकी रक्षाके लिये दूने व्रतका पालन करनेकी आज्ञा दे। दूना व्रत करनेपर उसके लिये दक्षिणा भी दूनी ही होनी चाहिये। यदि ऐसा न करे तो हत्या करनेवालेका पाप नष्ट नहीं होता और दाता नरकमें पड़ता है। जो लोग वेद और स्मृतिके विरुद्ध व्रत—प्रायश्चित्त बताते हैं, वे धर्मपालनमें विघ्न डालनेवाले हैं। राजा उन्हें दण्डद्वारा पीड़ित करे, परंतु किसी कामना या स्वार्थसे मोहित होकर राजा उन्हें कदापि दण्ड न दे; नहीं तो उनका पाप सौगुना होकर उस राजापर ही पडता है। तदनन्तर प्रायश्चित्त पूरा कर लेनेपर ब्राह्मणोको भोजन करावे। बीस गाय और एक बैल उन्हें दक्षिणामें दे। यदि गौओंके अंकोंमें घाव होकर उसमें कीड़े पड़ जायँ अथवा मक्खी आदि लगने लगें और इन कारणोंसे उन गौओंकी मृत्यु हो जाय तो उन गायोंको रखनेवाला पुरुष आधे कृच्छव्रतका अनुष्ठान करे और अपनी शक्तिके अनुसार दक्षिणा दे। इस प्रकार प्रायश्चित्त करके श्रेष्ठ ब्राह्मणोको भोजन कराकर कम—से—कम एक माशा सुवर्ण दान करे तो शुद्धि होती है। जलके भीतरकी, बाँवीकी, चूहोके बिलकी, ऊसर भूमिकी, रास्तेकी, श्मशान—भूमिकी तथा शौचसे बची हुई—ये सात प्रकारकी मृत्तिका काममें नहीं लानी चाहिये। ब्राह्मणको प्रयत्नपूर्वक इष्टापूर्त कर्म करने चाहिये। इष्ट (यज्ञ—याग आदि) से वह स्वर्ग पाता है और पूर्त कर्मसे वह मोक्षसुखका भागी होता है। धनकी अपेक्षा रखनेवाले यज्ञ, दान आदि कर्म इष्ट कहलाते हैं और जलाशय बनवाना आदि कार्य पूर्त कहा जाता है। विशेषतः बगीचा, किसी देवताके लिये बने हुए तालाब, बावड़ी, कुआँ, पोखरा और देवमन्दिर—ये यदि गिरते या नष्ट होते हो तो जो इनका उद्धार करता है, वह पूर्त कर्मका फल भोगता है; क्योंकि ये सब पूर्त कर्म हैं। सफेद गायका मूत्र, काली गौका गोबर, ताँबेके रंगवाली गायका दूध, सफेद गायदा दही और कपिला गायका घी—इन सब वस्तुओंको लेकर एकत्र करे तो वह पञ्चगव्य बड़े— बड़े पातकोंका नाश करनेवाला होता है। कुशोंद्वारा लाये हुए तीर्थ—जल और नदी—जलके साथ उक्त सभी द्र्व्योंको पृथक्—पृथक् प्रणवमन्त्रसे लाकर प्रणवद्वारा ही उन्हेम उठावे, प्रणव—जप करते हुए ही उनका आलोडन करे और प्रणवके उच्चारणपूर्वक ही पीये। पलाश वृक्षके बिचले पत्तेमें अथवा ताँबेके शुभ पात्रमें अथवा कमलके पत्तेमें या मिट्टीके बर्तनमें कुशोदकसहित उस पञ्चगव्यको पीना चाहिये। एक सूतकमें दूसरा सूतक उपस्थित हो जाय तो दूसरेमें दोष नहीं लगता। पहले सूतकके साथ ही उसकी शुद्धि हो जाती है। एक जननाशौचके साथ दूसरा जननाशौच और एक मरणाशौचके साथ दूसरा मरणाशौच भी शुद्ध हो जाता है। एक मासके भीतर गर्भस्नाव हो तो तीन दिनका अशौच बताये। दो माससे ऊपर होनेपर जितने महीनेमें गर्भस्नाव हो, उतनी ही रात्रियोंमें उसके अशौचकी निवृत्ति होती है। साध्वी रजस्वला स्त्री रज बंद हो जानेपर स्नानमात्रसे शुद्ध होती है। विवाहसे सातवें पदपर अर्थात् सप्तपदीकी क्रिया पूरी होनेपर अपने पितृ—सम्बन्धी गोत्रसे च्युत हो जाती है यानी उसके पतिका गोत्र हो जाता है; अतः उसके लिये श्राद्ध और तर्पण पतिके गोत्रसे ही करने चाहिये। पिण्डदानमें पति और पत्नी दोनोंका उद्देश्य होता है; अतः प्रत्येक पिण्डमें दो नामसे संकल्प होना चाहिये। तात्पर्य यह है कि पिता या पितामह आदिको सपत्नीक विशेषण लगाकर पिण्डदान करना चाहिये। इस प्रकार छः व्यक्तियोंके लिये तीन पिण्ड देने योग्य हैं। ऐसा दाता मोहमें नहीं पड़ता। माता अपने पतिके साथ विश्वेदेवपूर्वक श्राद्धका उपभोग करती है। इसी प्रकार पितामही और प्रपितामही भी अपने— अपने पतिके ही साथ श्राद्ध— भोग करती हैं। प्रत्येक वर्षमें माता— पिताका एकोद्दिष्टश्राद्धद्धारा सत्कार करे। उस वार्षिक श्राद्धमें विश्वेदेवका पूजन नहीं किया जाता। अतः उनके बिना ही वह श्राद्धभोजन करावे। उसमें एक ही पिण्ड दे। नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धिश्राद्ध तथा पार्वण— विद्वान् पुरुषोंको ये पाँच प्रकारके श्राद्ध जानने चाहिये। ग्रहण, संक्रान्ति, पूर्णिमा या अमावास्या पर्व, उत्सवकाल तथा महालयके अवसरपर मनुष्य तीन पिण्ड दे और मृत्युतिथिको एक ही पिण्ड दे। जिस कन्याका विवाह नहीं हुआ है, वह पिण्ड, गोत्र और सूतकके विषयमें पिताके गोत्रसे पृथक् नहीं है। पाणिग्रहण और मन्त्रोंद्वारा वह अपने पिताके गोत्रसे पृथक् होती है। जिस कन्याका विवाह जिस वर्णके साथ होता है, उसके समान उसे सूतक भी लगता है। उसके लिये पिण्ड और तर्पण भी उसी वर्णके अनुसार होने चाहिये। विवाह हो जानेपर चौथी रातमें वह पिण्ड, गोत्र और सूतकके विषयमें अपने पतिके साथ एक हो जाती है। मृत व्यक्तिके प्रति हितबुद्धि रखनेवाले बन्धुजनोंको शवदाहके प्रथम, द्वितीय, तृतीय अथवा चतुर्थ दिन अस्थि— संचय करना चाहिये अथवा ब्राह्मण आदि चारों वर्णोंका अस्थि— संचय क्रमशः चौथे, पाँचवें, सातवें और नवें दिन भी कर्तव्य बताया गया है। जिस मृत व्यक्तिके लिये ग्यारहवें दिन वृषोत्सर्ग किया जाता है, वह प्रेतलोकसे मुक्त और स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। नाभिके बराबर जलमें खड़ा होकर मन— ही— मन यह चिन्तन करे कि मेंरे पितर आवें और यह जलाञ्जलि ग्रहण करें। दोनों हाथोंको संयुक्त करके जलसे पूर्ण करे और गोश्रृङ्मात्र जल उठाकर उसे पुनः जलमें डाल दे। जलमें दक्षिणकी ओर मुँह करके खड़ा हो आकाशमें जल गिराना चाहिये; क्योंकि पितरोंका स्थान आकाश और दिशा दक्षिण है। देवता आप (जल) कहे गये हैं और पितरोंका नाम भी आप है; अतः पितरोंके हितकी इच्छा रखनेवाला पुरुष उनके लिये जलमें ही जल दे। जो दिनमें सूर्यकी किरणोंसे तपता है, रातमें नक्षत्रोंके तेज तथा वायुका स्पर्श पाता है और दोनों संध्याओंके समय भी उक्त दोनों वस्तुओंका सम्पर्क लाभ करता है, वह जल सदा पवित्र माना गया है। जो अपने स्वाभाविक रूपमें हो, जिसमें किसी अपवित्र वस्तुका मेंल न हुआ हो, वह जल सदा पवित्र है। ऐसा जल किसी पात्रमें हो या पृथ्वीपर, सदा शुद्ध माना गया है। देवताओं और पितरोंके लिये जलमें ही जलाञ्जलि दे और जो बिना संस्कारके ही मरे हैं, उनके लिये विद्वान् पुरुष भूमिपर जलाञ्जलि दे। श्राद्ध और होमके समय एक हाथसे पिण्ड एवं आहुति दे; किंतु तर्पणमें दोनों हाथोंसे जल देना चाहिये। यह शास्त्रोंद्वारा निश्चित धर्म है।
अध्याय - १४ पापियोंको प्राप्त होनेवाली नरकोंकी यातनाओंका वर्णन, भगवद्भक्तिका निरूपण तथा धर्मराजके उपदेशसे भगीरथका गंगाजीको लानेके लिय उधोग
धर्मराज कहते हैं— राजा भगीरथ ! अब मैं पापोंके भेद औ स्थूल यातनाओंका वर्णन करूँगा। तुम धैर्य धारण करके सुनो; क्योंकि नरक बड़े भयंकर होते हैं। जो दुरात्मा पापी सदा जिन नरकान्गियोंमें पकाये जाते हैं, वे नरक पापका भयंकर फल देनेवाले हैं। मैं उन सबका वर्णन करता हूँ। उनेक नाम इस प्रकार हैं— तपन, बालुका, रौरव, महारौरव, कुम्भ, कुम्भीपाक, निरुच्छ्वास, कालसूत्र, प्रमर्दन, भयंकर असिपत्रवन, लालाभक्ष, हिमोत्कट, मूषावस्था, वसारूप, वैतरणी नदी, श्वभक्ष्य, मूत्रपान, पुरीषह्लद, तप्तशूल, तप्तशिला, शाल्मली वृक्ष, शोणित कूप, भयानक शोणितभोजन, वह्लिज्वालानिवेशन, शिलावृष्टि, शस्त्रवृष्टि, अग्निवृष्टि, क्षारोदक, उष्णतोय, तप्तायः पिण्डभक्षण, अधःशिरः— शोषण, मरुप्रतपन, पाषाणवर्षा, कृमिभोजन, क्षारोदपान, भ्रमन, क्रकचदारण, पुरीष— लेपन, पुरीष— भोजन, महाघोर रेतःपान, सर्वसन्धिदाहन, धूमपान, पाशबन्ध, नानाशूलानुलेपन, अङ्रार— शयन, मुसलमर्दन, विविधकाष्ठयन्त्र, कर्षण, छेदन, पतनोत्पतन, गदादण्डादिपीडन, गजदन्तप्रहरण, नानासर्पदंशन, नासामुखशीताम्बुसेचन, घोरक्षाराम्बुपान, लवणभक्षण, स्नायुच्छेद, स्नायुबन्ध, अस्थिच्छेद, क्षाराम्बुपूर्णरन्ध्रप्रवेश, मांस— भोजन, महाघोर पित्तपान, श्लोष्म— भोजन, वृक्षाग्रापातन, जलान्तर्मज्जन, पाषाणधारण, कण्टकोपरिशयन, पिपीलिकादंशन, वृश्चिकपीडन, व्याघ्रपीडा, श्रृगालीपीडा, महिष— पीडन, कर्दमशयन, दुर्गन्धपरिपूर्ण, बहुशस्नास्त्रशयन, महातिक्तनिषेवण, अत्युष्णतैलपान, महाकटुनिषेवण, कषायोदक— पान, तप्तपाषाण— तक्षण, अत्युष्णशीत— स्नान, दशनशीर्णन, तप्ताय:शयन और अयोभार— बन्धन। महाभाग ! इस तरह करोड़ों प्रकारकी नरक— यातनाएँ होती हैं। जिनका सहस्रो वर्षोंमें भी मैं वर्णन नहीं कर सकता।
भूपाल ! इन नरकोंमेंसे जिस पापीको जो प्राप्त होता है, वह सब मैं बतलाऊँगा। यह सब मेंरे मुखसे सुनो। ब्रह्महत्यारा, शराबी, सुवर्णकी चोरी करनेवाला, गुरुपत्नीगामी— ये महापातकी हैं। इनसे संसर्ग रखनेवाला पाँचवाँ महापातकी है। जो पङ्क्तिभेद करता, बलिवैश्वदेवहीन होनेके कारण व्यर्थ (केवल शरीरपोषणके लिये ही) पाक बनाता, सदा ब्राह्मणोको लाञ्छित करता, ब्राह्मणो या गुरुजनोंपर हुक्म चलाता और वेद बेचता है, ये पाँच प्रकारके पापी ब्रह्मघातक कहे गये हैं। ‘मैं आपको धन आदि दूँगा’ यह आज्ञा देकरर जो ब्राह्मणको बुलाता है और पीछे’ नहीं है’ ऐसा कहकर उसे सूखा जवाब दे देता है, उसे ब्रह्म— ह्त्यारा कहा गया है। जो स्नान अथवा पूजनके लिये जाते हुए ब्राह्मणके कार्यमें विघ्न डालता है, उसे भी ब्रह्मघाती कह्ते हैं। जो परायी निन्दा और अपनी प्रशंसामें लगा रहता है तथा जो असत्यभाषणमें रत रहता है, वह ब्रह्महत्यारा कहा गया है। अधर्मका अनुमोदन करनेवालेको भी ब्रह्मघाती कहते हैं। जो दूसरोंको उद्वेगमें डालता, दूसरोंके दोषोंकी चुगली खाता और पाखण्डपूर्ण आचारमें तत्पर रहता है, उसे ब्रह्महत्यारा बताया गया है। जो प्रतिदिन दान लेता, प्राणियोंके वधमें तत्पर रहता तथा अधर्मका अनुमोदन करता है, उसे भी ब्रह्मघाती कहा गया है। राजन् ! इस तरह नाना प्रकारके पाप ब्रह्महत्याके तुल्य बताये गये हैं। अब मदिरापानके समान पापका संक्षेपसे वर्णन करता हूँ। गणान्न— भोजन (कई जगहसे भोजन लेकर खाना), वेश्यासेवन करना और पतित पुरुषोंका अन्न भोजन करना सुरापानके तुल्य माना गया है। उपासनाका त्याग, देवल पुरुष (मन्दिरके पुजारी)— का अन्न खाना तथा शराब पीनेवाली स्त्रीसे सम्बन्ध रखना मदिरापानके समान माना गया है। जो द्विज शूद्रके यहाँ भोजन करता है, उसे सब धर्मोंसे बहिष्कृत शराबी ही समझना चाहिये। जो शूद्रके आज्ञानुसार दासका कर्म करता है, वह नराधन ब्राह्मण मदिरापानके समान पापका भागी होता है। इस तरह अनेक प्रकारके पाप मदिरापानके तुल्य माने गये हैं।
अब मैं सुवर्णकी चोरीके समान पापका वर्णन करता हूँ, सुनो। कंद, मूल, फल, कस्तूरी, रेशमी वस्त्र तथा रत्नोंकी चोरीको सदा सुवर्णकी चोरीके ही समान माना गया है। ताँबा, लोहा, राँगा, काँस, घी, शहद और सुगन्धित द्रव्योंका अपहरण करना सुवर्णकी चोरीके समान माना गया है। सुपारी, जल, चन्दन तथा कपूरका अपहरण भी सुवर्णकी चोरीके समान है। श्राद्धका त्याग, धर्मकार्यका लोप करना और यति पुरुषोंकी निन्दा करना भी सुवर्णकी चोरीके समान माना गया है। भोजनके योग्य पदार्थोंका अपहरण, विविध प्रकारके अनाजोंकी चोरी तथा रुद्राक्षका अपहरण भी सुवर्णकी चोरीके समान माना गया है।
अब गुरुपत्नीगमनके समान पापका वर्णन किया जाता है। भगिनी, पुत्र— वधू तथा रजस्वला स्त्रीके साथ संगम करना गुरुपत्नीगमनके समान माना गया है। नीच जातिकी स्त्रीसे सम्बन्ध रखना, मदिरा पीनेवाली स्त्रीसे सहवास करना तथा परायी स्त्रीके साथ सम्भोग करना गुरुतल्पगमनके समान माना गया है। भाईकी स्त्रीके साथ गमन, मित्रकी स्त्रीका सेवन तथा अपनेपर विश्वास करनेवाली स्त्रीके सतीत्वका अपहरण भी गुरुतल्पगमनके समान माना गया है। असमयमें मैथुन कर्म करना, पुत्रीगमन करना तथा धर्मका लोप और शास्त्रकी निन्दा करना— यह सब गुरुपत्नीगमनके समान माना गया है। राजन् !इस प्रकारके पाप महापातक कहे गये हैं। इनमेंसे किसी एकके साथ भी संसर्ग रखनेवाला पुरुष उसके समान हो जाता है। शान्तचित्त महर्षियोंने जिस किसी प्रकार प्रायश्चित्त आदिकी व्यवस्थाद्वारा इन पापोंके निवारणका उपाय देखा है।
भूपते ! जो पाप प्रायश्चित्तसे रहित हैं, उनका वर्णन सुनो। वे पाप समस्त पापोंके तुल्य तथा बड़े भारी नरक देनेवाले हैं। ब्रह्महत्या आदि पापोंके निवारणका उपाय तो किसी प्रकार हो सकता है; परंतु जो ब्राह्मणसे द्वेष करता है, उसका कहीं भी निस्तार नहीं होता। नरेश्वर ! जो विश्वासघाती, कृतघ्न तथा शूद्रजातीय स्त्रीका सङ् करनेवाले हैं, उनका उद्धार कभी नहीं होता। जिनका चित्त वेदोंकी निन्दामें ही रत है और जो भगवत्— कथा— वार्ता आदिकी निन्दा करते हैं, उनका इहलोक तथा परलोकमें कहीं भी उद्धार नहीं होता। प्रायश्चित्तहीन और भी बहुत— से पाप हैं, उनका परिच्य मेंरे नरक— वर्णनके साथ सुनो। जो महापातकी बताये गये हैं, वे उन प्रत्येक नरकमें एक— एक युग रहते हैं और अन्तमें इस पृथ्वीपर आकर वे सात जन्मोंतक गदहे होते हैं, तदनन्तर वे पापी दस जन्मोंतक घावसे भरे शरीरवाले कुत्ते होते हैं, फिर सौ वर्षोंतक उन्हें विष्ठाका कीड़ा होना पडता है। तदनन्तर बारह जन्मोंतक वे सर्प होते हैं। राजन् ! इसके बाद एक हजार जन्मोंतक वे मृग आदि पशु होते हैं। फिर सौ वर्षोंतक स्थावर (वृक्ष आदि) योनिमें जन्म लेते हैं। तत्पश्चात् उन्हें गोधा (गोह)— का शरीर प्राप्त होता है। फिर सात जन्मोंतक वे पापाचारी चाण्डाल होते हैं। इसके बाद सोलह जन्मोंतक उन्हें नीच जातियोंमें जन्म लेना पड़ता है। फिर दो जन्मतक वे दरिद्र, रोगपीड़ित तथा सदा प्रतिग्रह लेनेवाले होते हैं, इससे उन्हें फिर नरकगामी होना पड़ता है। जिनका चित्त असूया (गुणोंमें दोषदृष्टि)— से व्याप्त है, उनके लिये रौरव नरककी प्राप्ति बतायी गयी है। वहाँ दो कल्पोंतक स्थित रहकर वे सौ जन्मोंतक चाण्डाल होते हैं। जो गाय, अग्नि और ब्राह्मणके लिये ‘न दो’ ऐसा कहकर बाधा डालते हैं, वे सौ बार कुत्तोंकी योनिमें जन्म लेकर अन्तमें चाण्डालोंके घर उत्पन्न होते हैं। इसके बाद वे विष्ठाके कीड़े होते हैं। फिर तीन जन्मोंतक व्याघ्र होकर अन्तमें इक्कीस युगोंतक नरकमें पड़े रहते हैं। जो परायी निन्दामें तत्पर, कटु भाषी और दानमें विघ्न डालनेवाले होते हैं, उनके पापका यह फल है। चोर मुसल और ओखलीके द्वारा चूर्ण किये जाते हैं। उसके बाद उन्हें तीन वर्षोंतक तपाया हुआ पत्थर उठाना पड़ता है, तदनन्तर वे सात वर्षोंतक कालसूत्रसे विदीर्ण किये जाते हैं। उस समय पराये धनका अपहरण करनेवाले वे चोर अपने पाप— कर्मके लिये शोक करते हुए कर्मके फलसे निरन्तर नरकाग्रिमें पकाये जाते हैं। जो दूसरोंके दोष बताते या चुगुली खाते हैं, उन्हें जिस भयंकर नरककी प्राप्ति होती है, वह सुनो। उन्हें एक सहस्त्र युगतक तपाये हुए लोहेका पिण्ड भक्षण करना पड़ता है। अत्यन्त भयानक सँड़सोंसे उनकी जीभको पीड़ा दी जाती है और वे अत्यन्त घोर निरुच्छ्वास नामक नरकमें आधे कल्पतक निवास करते हैं। अब पर— स्त्री— लम्पट पुरुषोंको प्राप्त होनेवाले नरकका तुमसे वर्णन करता हूँ। तपाये हुए ताँबेकी स्त्रियाँ सुन्दर रूप और आभरणोंसे युक्त होकर उनके साथ हठपूर्वक दीर्घकालतक रमण करती हैं। उनका रूप वैसा ही होता है, जैसी स्त्रियोंके साथ वे इस लोकमें सम्बन्ध रखते रहे हैं। वह पुरुष उनके भयसे भागता है और वे बलपूर्वक उसे पकड़ लेती हैं तथा उसके पाप— कर्मका परिचय देती हुई उन्हें क्रमशः विभिन्न नरकोंमें पहुँचाती हैं। भूपाल ! इस लोकमें जो स्त्रियाँ अपने पतिको त्यागकर दूसरे पुरुषकी सेवा स्वीकार करती है, उन्हें यमलोकमें तपाये हुए लोहेके बलवान् पुरुष लोहेकी तपी हुई शय्यापर बलपूर्वक गिराकर उनके साथ बहुत समयतक रमण करते हैं। उनसे छूटनेपर वे स्त्रियाँ अग्निके समान प्रज्वलित लोहेके खंभेका आलिङ्न करके एक हजार वर्षतक खड़ी रहती हैं। तत्पश्चात् उन्हें नमक मिलाये जलसे नहलाया जाता है और खारे पानीका ही सेवन कराया जाता है। उसके बाद वे सौ वर्षोंतक सभी नरकोंकी यातनाएँ भोगती है। जो मनुष्य ब्राह्मण, गौ और श्रेष्ठ क्षत्रिय राजाका इस लोकमें वध करता है, वह भी पाँच कल्पोंतक सम्पूर्ण यातनाओंको भोगता है। जो महापुरुषोंकी निन्दाको आदरपूर्वक सुनता है, उसका फल सुनो; ऐसे लोगोंके कानोंमें तपाये हुए लोहेकी बहुत— सी कीलें ठोंक दी जाती हैं। तत्पश्चात् कानोंके उन छिद्रोंमें अत्यन्त गरम किया हुआ तेल भर दिया जाता है। फिर वे कुम्भीपाक नरकमें पडते हैं। जो लोग भगवान् शिव और विष्णुसे विमुख एवं नास्तिक हैं, उनको मिलनेवाले फलोंका वर्णन करता हूँ। वे यमलोकमें करोड़ों बर्षोंतक केवल नमक खाते हैं। उसके बाद एक कल्पतक तपी हुई बालूसे पूर्ण रौरव नरकमें डाले जाते हैं। राजन् ! इसी प्रकार अन्य नरकोंमें भी वे पापाचारी जीव अपने पापोंका फल भोगते हैं। जो नराधम कोपपूर्ण दृष्टिसे ब्राह्मणोकी ओर देखते हैं, उनकी आँखमें हजारों तपी हुई सूइयाँ चुभो दी जाती हैं। नृपश्रेष्ठ ! तदनन्तर वे नमकीन पानीकी धारासे भिगोये जाते हैं, इसके बाद उन पापकर्मियोंको भयंकर क्रकचों (आरों) से चीरा जाता है। राजन् ! जो लोग विश्वासघाती, मर्यादा तोड़नेवाले तथा पराये अन्नके लोभी हैं, उन्हें जिस भयंकर नरककी प्राप्ति होती है, वह सुनो। वे अपना ही मांस खाते हैं और उनके शरीरको वहाँ प्रतिदिन कुत्ते नोच खाते हैं। उन्हें सभी नरकोंमें एक— एक वर्ष निवास करना पड़ता है। जो सदा दान ही लिया करते हैं, जो केवल नक्षत्रोंके ही पढ़नेवाले (नक्षत्र— विद्यासे जीविका करनेवाले) हैं तथा जो सदा देवलक (पुजारी)— का अन्न भोजन करते हैं, उनकी क्या दशा होती है, वह भी मुझसे सुनो। राजन् ! वे पापसे पूर्ण जीव एक कल्पतक इन सभी यातनाओंमें पकाये जाते हैं और वे सदा दुःखी रहकर निरन्तर कष्ट भोगते रहते हैं। तत्पश्चात् कालसूत्रसे पीड़ित हो तेलमें डुबोये जाते हैं। फिर उन्हें नमकीन जलसे नहलाया जाता है और उन्हें मल— मूत्र खाना पड़ता है। इसके बाद वे पृथ्वीपर आकर म्लेच्छ जातिमें जन्म लेते हैं। जो सदा दूसरोंको उद्वेगमें डालनेवाले हैं, वे वैतरणी नदीमें जाते हैं। पञ्च महायज्ञोंका त्याग करनेवाले पुरुष लालाभक्ष नरकमें पडते हैं। वहाँ उन्हें लार खाना पड्ता है। उपासनाका त्याग करनेवाला पुरुष रौरव नरकमें जाता है। भूपाला ! जो ब्राह्मणोके गाँवसे ‘कर’ लेते हैं, वे जबतक चन्द्रमा और तारोंकी स्थिति रहती है, तबतक इन नरकयातनाओंमें पकाये जाते हैं। जो राजा गाँवोंमें अधिक’ कर’ लगात है, वह पाँच कल्पोंतक सहस्त्रों पीढ़ियोंके साथ नरक भोगता है। राजन् ! जो पापी ब्राह्मणोके गाँवसे’कर’ लेनेकी अनुमति देता है, उसने मानो सहत्रों ब्रह्महत्याएँ कर डालीं। वह दो चतुर्युगीत महाघोर कालसूत्रमें निवास करता है। जो महापापी अयोनि (योनिसे भिन्न स्थान), वियोनि (विजातीय योनि) और पशुयोनिमें वीर्यत्याग करता है, वह यमलोकमें वीर्य ही भोजनके लिये पाता है। तप्तश्चात् चर्बीसे भरे हुए कुएँमें डाला जाकर वहाँ सात दिव्य वर्षोंतक केवल वीर्य भोजन करके रहता है। उसके बाद मनुष्य होकर सम्पूर्ण लोकोंमें निन्दाका पात्र बनता है। राजन् ! जो उपवासके दिन दाँतुन करता है, वह चार युगोंतक व्याघ्रभक्ष नामक घोर नरकमें पड़ा रहता है; जिसमें व्याघ्र उसका मांस खाते हैं। जो अपने कर्मोंका परित्याग करनेवाला है, उसे विद्वान् पुरुष पाखण्डी कहते हैं। उसका साथ करनेवाला भी उसीके समान हो जाता है। वे दोनों अत्यन्त पापी हैं और सहस्त्रों कल्पोंतक क्रमशः नरक— यातनाएँ भोगते हैं। राजन् ! जो देवता— सम्बन्धी द्रव्यका अपहरण करनेवाले और गुरुका धन चुरानेवाले हैं, वे ब्रह्महत्याके समान पापका फल भोगते हैं। जो अनाथका धन हड़प लेते और अनाथसे द्वेष करते हैं, वे कोटिकल्पसहस्त्रोंतक नरकमें निवास करते हैं। जो स्त्रियों और शूद्रोंके समीप वेदाध्ययन करते हैं, उनके पापका फल बतलाता हूँ, ध्यान देकर सुनो। उनका सिर नीचे करके पैर ऊपर कर दिया जाता है और दोनों पैरोंको दो खंभोंमें काँटेसे जड़ दिया जाता है। फिर वे ब्रह्माजीके एक वर्षतक प्रतिदिन धुआँ पीकर रहते हैं। जो जल और देवमन्दिरमें तथा उनके समीप अपने शारीरिक मलका त्याग करता है, वह भ्रूणहत्याके समान अत्यन्त भयानक पापको प्राप्त होता है। जो ब्राह्मणका धन तथा सुगन्धित काष्ठ चुराते हैं, वे चन्द्रमा और तारोंकी स्थितिपर्यन्त घोर नरकमें पड़े रहते हैं। राजन् ! ब्राह्मणके धनका अपहरण इहलोक और परलोकमें भी दुःख देनेवाला है। इस लोकमें तो वह धनका नाश करता है और परलोकमें नरककी प्राप्ति कराता है। जो झूठी गवाही देता है, उसके पापका फल सुनो। वह जबतक चौदह इन्द्रोंका राज्य समाप्त होता है, तबतक सम्पूर्ण यातनाओंको भोगता रहता है। इस लोकमें उसके पुत्र— पौत्र नष्ट हो जाते हैं और परलोकमें वह रौरव तथा अन्य नरकोंको क्रमशः भोगता है। जो मनुष्य अत्यन्त कामी और मिथ्यावादी हैं, उनके मुँहमें सर्पके समान जोकें भर दी जाती हैं। इस अवस्थामें उन्हें साठ हजार वर्षोंतक रहना पड़ता है। तत्पश्चात् उन्हें खारे पानीसे नहलाया जाता है। मनुजेश्वर ! जो ऋतुकालमें अपनी स्त्रीसे सहवास नहीं करते, वे ब्रह्महत्याका फल पाते और घोर नरकमें जाते हैं। जो किसीको अत्याचार करते देखकर शक्ति होते हुए भी उसका निवारण नहीं करता, वह भी उस अत्याचारके पापका भागी होता है और वे दोनों नरकमें पडते हैं। जो लोग पापियोंके पापोंकी गिनती करके दूसरोंको बताते हैं, वे पाप सत्य होनेपर भी उनके पापके भागी होते हैं। राजन् ! यदि वे पाप झूठे निकले तो कहनेवालेको दूने पापका भागी होना पड़ता है। जो पापहीन पुरुषमें पापका आरोप करके उसकी निन्दा करता है, वह चन्द्रमा और तारोंके स्थितिकालतक घोर नरकमें रहता है। जो व्रत लेकर उन्हें पूर्ण किये बिना ही त्याग देता है, वह असिपत्रवनमें पीड़ा भोगकर पृथ्वीपर किसी अड्रसे हीन होकर जन्म लेता है। जो मनुष्य दूसरोंद्वारा किये जानेवाले व्रतोंमें विघ्न डालता है, वह मनुष्य अत्यन्त दुःखदायक और भयंकर श्लोष्म भोजन नामक नरकमें, जहाँ कफ भोजन करना पडता है, जाता है। जो न्याय करने तथा धर्मकी शिक्षा देनेमें पक्षपात करता है, वह दस हजार प्रायश्चित्त कर ले तो भी उस पापसे उसका उद्धार नहीं होता। जो अपने कटुवचनोंसे ब्राह्मणोका अपमान करता है, वह ब्रह्महत्याको प्राप्त होता है और सम्पूर्ण नरकोंकी यातनाएँ भोगकर दस जन्मोंतक चाण्डाल होता है। जो ब्राह्मणको कोई चीज देते समय विघ्न डालता है, उसे ब्रह्महत्याके समान प्रायश्चित्त करना चाहिये। जो दूसरेका धन चुराकर दूसरोंको दान देता है, वह चुरानेवाला तो नरकमें जाता है और जिसका धन होता है, उसीको उस दानका फल मिलता है। जो कुछ देनेकी प्रतिज्ञा करके नहीं देता है, वह लालाभक्ष नरकमें जाता है। राजन् ! जो संन्यासीकी निन्दा करता है, वह शिलायन्त्र नामक नरकमें जाता है। बगीचा काटनेवाले लोग इक्कीस युगोंतक श्वभोजन नामक नरकमें रहते हैं, जहाँ कुत्ते उनका मांस नोचकर खाते हैं। फिर क्रमशः वह सभी नरकोंकी यातनाएँ भोगता है।
भूपते ! जो देवमन्दिर तोड़्ते, पोखरा नष्ट करते और फुलवारी उजाड़ देते हैं, वे जिस गतिको प्राप्त होते हैं, वह सुनो। वे इन सब यातनाओं (नरकों)— में पृथक्— पृथक् पकाये जाते हैं। अन्तमें इक्कीस कल्पोंतक वे विष्ठाके कीड़े होते हैं। राजन् ! उसके बाद वे सौ बार चाण्डालकी योनिमें जन्म लेते हैं। जो जूठा खाते और मित्रोंसे द्रोह करते हैं, उन्हें चन्द्रमा और सूर्यके स्थितिकालतक भयंकर नरकयातनाएँ भोगनी पड़ती हैं। जो पितृयज्ञ और देवयज्ञका उच्छेद करते तथा वैदिक मार्गसे बाहर हो जाते हैं, वे पाखण्डीके नामसे प्रसिद्ध हैं। उन्हें सब प्रकारकी यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं। राजा भगीरथ ! इस प्रकार पापियोंके लिये अनेक प्रकारकी यातनाएँ हैं। प्रभो ! मैं नरकों और उनकी प्रकारकी यातनाएँ हैं। प्रभो ! मैं नरकों और उनकी यातनाओंकी गणना करनेमें असमर्थ हूँ। भूपते ! पापों, यातनाओं तथा धर्मोंकी संख्या बतलानेके लिये संसारमें भगवान विष्णुके सिवा दूसरा कोन समर्थ है ? इन सब पापोंका धर्मशास्त्रकी विधिसे प्रायश्चित्त कर लेनेपर पापराशि नष्ट हो जाती है। धार्मिक कृत्योंमें जो न्यूनाधिकता रह जाती है, उसकी पूर्तिके लिये लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुके समीप पूर्वोक्त पापोंके प्रायश्चित्त करने चाहिये। गंगा, तुलसी, सत्संग, हरिकीर्तन, किसीके दोष न देखना और हिंसासे दूर रहना— ये सब बातें पापोंका नाश करनेवाली होती हैं। भगवान् विष्णुको अर्पित किये हुए कर्म निश्चय ही सफल होते हैं। जो कर्म उन्हें अर्पित नहीं किये जाते, वे राखमें डाली हुई आहुतिके समान व्यर्थ होते हैं। नित्य, नैमित्तिक, काम्य तथा जो मोक्षके साधनभूत कर्म हैं, वे सब भगवान् विष्णुके समर्पित होनेपर सात्त्विक और सफल होते हैं।
भगवान् विष्णुकी उत्तम भक्ति सब पापोंका नाश करनेवाली है। नृपश्रेष्ठा ! सात्त्विक, राजस और तामस आदि भेदोंसे भक्ति दस प्रकारकी जाननी चाहिये। वह पापरूपी वनको जलानेके लिये दावानलके समान है। राजन् ! जो दूसरेका विनाश करनेके लिये भगवान् लक्ष्मीपतिका भजन किया जाता है, वह ‘अधमा तामसी’ भक्ति है; क्योंकि वह दुष्टभाव धारण करनेवाली है। जो मनमें कपटबुद्धि रखकर, जैसे व्यभिचारिणी स्त्री अपने पतिकी सेवा करती है, उस प्रकार जगदीश्वर भगवान् नारायणका पूजन करता है, उसकी वह ‘मध्यमा तामसी’ भक्ति है। पृथ्वीपाल ! जो दूसरोंको भगवान्की आराधनामें तप्तर देखकर ईर्ष्यावश स्वयं भी भगवान् श्रीहरिकी पूजा करता है, उसकी वह क्रिया ’ उत्तमा तामसी ’ भक्ति मानी गयी है। जो धन—धान्य आदिकी याचना करते हुए परम श्रद्धाके साथ श्रीहरिकी अर्चना करता है, वह पूजा ’ अधमा राजसी ’ भक्ति मानी गयी है। जो सम्पूर्ण लोकोंमें विख्यात कीर्तिका उद्देश्य रखकर परम भक्तिभावसे भगवानकी आराधना करता है, उसकी वह क्रिया’ मध्यमा राजसी’ भक्ति कही गयी है। पृथ्वीपते ! जो सालोक्य और सारूप्य आदि पद प्राप्त करनेकि इच्छासे भगवान् विष्णुकी अर्चना करता है, उसके द्वारा की हुई वह पूजा ’ उत्तमा राजसी ’ भक्ति कही गयी है। जो अपने किये हुए पापोंका नाश करनेके लिये पूर्ण श्रद्धाके साथ श्रीहरिकी पूजा करता है, उसकी की हुई वह पूजा ’ अधमा सात्त्विकी ’ भक्ति मानी गयी है।’ यह भगवान् विष्णुको प्रिय है’ ऐसा मानकर जो श्रद्धापूर्वक सेवा— शुश्रूषा करता है, उसकी वह सेवा’ मध्यमा सात्त्विकी’ भक्ति है। राजन् !’ शास्त्रकी ऐसी ही आज्ञा है’ यह मानकर जो दासकी भाँति भगवान् लक्ष्मीपतिकी पूजा— अर्चा करता है, उसकी वह भक्ति सब प्रकारकी भक्तियोंमें श्रेष्ठ ’ उत्तमा सात्त्विकी ’ भक्ति मानी गयी है। जो भगवान् विष्णुकी थोड़ी— सी भी महिमा सुनकर परम संतुष्ट हो उनके ध्यानमें तन्मय हो जाता है, उसकी वह भक्ति ’ उत्तमोत्तमा ’ मानी गयी है।’ मैं ही परम विष्णुरूप हूँ, मुझमें यह सम्पूर्ण जगत् स्थित है।’ इस प्रकार जो सदा भगवान्से अपनेको अभिन्न देखता है, उसे उत्तमोत्तम भक्त समझना चाहिये। यह द्स प्रकारकी भक्ति संसार— बन्धनका नाश करनेवाली है। उसमें भी सात्त्विकी भक्ति सम्पूर्ण मनोवाञ्छत फल देनेवाली है। इसलिये भूपाल ! सुनो— संसारको जीतनेकी इच्छावाले उपासकको अपने कर्मका त्याग न करते हुए भगवान् जनार्दनकी भक्ति करनी चाहिये। जो स्वधर्मका परित्याग करके भक्तिमात्रसे जीवन धारण करता है, उसपर भगवान् विष्णु संतुष्ट नहीं होते। वे तो धर्माचरणसे संतुष्ट होते हैं। सम्पूर्ण आगमोंमें आचारको प्रथम स्थान दिया गया है। आचारसे धर्म प्रकट होता है और धर्मके स्वामी साक्षात् भगवान् विष्णु हैं। इसलिये स्वधर्मका विरोधन करते हुए श्रीहरिकी भक्ति करनी चाहिये। सदाचारशून्य मनुष्योंके धर्म भी सुख देनेवाले नहीं होते। स्वधर्मपालनके बिना की हुई भक्ति भी नहीं की हुईके समान कही गयी है। राजन् ! तुमने जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने कह दिया। अतः तुम अपने धर्ममें तत्पर रहकर सूक्ष्म— से— सूक्ष्म स्वरूपवाले जनार्दन भगवान् नारायणका पूजन करो। इससे तुम्हें सनातन सुखकी प्राप्ति होगी। भगवान् शिव ही साक्षात् श्रीहरि हैं और श्रीहरि ही स्वयं शिव हैं। इन दोनोंमें भेद देखनेवाला दुष्ट पुरुष करोड़ों नरकोंमें जाता है। इसलिये भगवान् विष्णु और शिवको समान समझकर उनकी आराधना करो। इनमें भेददृष्टि करनेवाला मनुष्य इहलोक और परलोकमें भी दुःख पाता है। जनेश्वर ! मैं जिस कार्यके लिये तुम्हारे पास आया था, वह तुम्हें बतलाता हूँ। सुमते ! सावधान होकर सुनो। राजन् ! आत्मघातका पाप करनेवाले तुम्हारे पितामहगण महात्मा कपिलके क्रोधसे दग्ध हो गये हैं और इस समय वे नरकमें निवास करते हैं। महाभाग ! गंगाजीको लानेका पराक्रम करके तुम उनका उद्धार करो। भूपते ! गंगाजी निश्चय ही सब पापोंका नाश कर देती हैं। नृपश्रेष्ठ ! मनुष्यके केश, हड्डी, नख, दाँत तथा शरीरकी भस्म भी यदि गंगाजीके शरीरसे छू जायँ तो वे भगवान् विष्णुके धाममें पहुँचा देती हैं। राजन् ! जिसकी हड्डी अथवा भस्मको मनुष्य गंगाजीमें डाल देते हैं, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् श्रीहरिके धाममें चला जाता है। भूपते ! अबतक जितने भी पाप तुम्हें बताये गये हैं, वे सब गंगाजीके एक बिन्दुका अभिषेक होनेसे नष्ट हो जाते हैं।
श्रीसनकजी कहते हैं— मुनिश्रेष्ठ नारद ! धर्मात्मा महाराज भगीरथसे ऐसा कहकर धर्मराज तत्काल अन्तर्धान हो गये। तब सब शास्त्रोंके पारगामी महाबुद्धिमान् राजा भगीरथ सम्पूर्ण पृथ्वीका राज्य मन्त्रियोंको सौंपकर स्वर्य वनको चले गये। वहाँसे हिमालयपर जाकर नर— नारयणके आश्रमसे पश्चिमकी तरफ बर्फसे ढ़के हुए एक शिखरपर, जो सोलह योजन विस्तृत है, उन्होंने तपस्या की और त्रिभुवनपावनी गंगाको वे इस भूतलपर ले आये।
अध्याय - १५ राजा भगीरथका भृंगुजीके आश्रमपर जातक सत्यसंग—लाभ करना तथा हिमालयपर धोर तपस्या करके भगवान विष्णु और शिवकी कृपासे गंगाजीको लाकर पितरोंका उद्धार करना
नारदजीने पूछा— मुने ! हिमालय पर्वतपर जाकर राजा भगीरथने क्या किया? वे गंगाजीको किस प्रकार ले आये? यह मुझे बतानेकी कृपा करें।
श्रीसनकजीने कहा— मुने ! महाराज भगीरथ जटा और चीर धारण करके तपस्याके लिये हिमालयपर जाते हुए गोदावरी नदीके तटपर पहूँचे। वहाँ उन्होंने महान् वनमें महर्षि भृगुका उत्तम आश्रम देखा, जो कृष्णसार मृगोंसे भरा हुआ था और चमरी गायोंका समुदाय अपनी पूँछ हिलाकर मानो उस आश्रमको चँवर डुला रहा था। मालती, जूही, कुन्द, चम्पा और अश्वत्थ— उस आश्रमको विभूषित कर रहे थे। वहाँ चारों ओर भाँति—भाँतिके फूल खिले हुए थे। ऋषि— मुनियोंका समुदाय वहाँ निवास करता था। वेदों और शास्त्रोंका महान् घोष आकाशमें गूँज रहा था। महर्षि भृगुजी परब्रह्मके स्वरूपका प्रतिपादन कर रहे थे। शिष्योंकी मण्डली उन्हें घेरकर बैठी थी। तेजमें वे भगवान् सूर्यके समान थे। राजा भगीरथने वहाँ उनका दर्शन किया और उनके चरण— ग्रहण आदि विधिसे उन ब्राह्मणशिरोमणिकी वन्दना की; साथ ही भृगुजीने भी सम्मानपूर्वक राजाका आतिथ्य— सत्कार किया। महर्षि भृगुके द्वारा आतिथ्य— सत्कार हो जानेपर राजा भगीरथ उन मुनीश्वरसे हाथ जोड़कर विनयपूर्वक बोले।
भगीरथने कहा— भगवन् ! आप सब धर्मोंके ज्ञाता तथा सम्पूर्ण शास्त्रोंके विद्वान् हैं। मैं संसार— बन्धनके भयसे डरकर आपसे मनुष्योंके उद्धारका उपाय पूछता हूँ। सर्वज्ञ मुनिसत्तम ! यदि मैं आपका कृपापात्र होऊँ तो जिस कर्मसे भगवान संतुष्ट होते हैं, वह मुझे बताइये।
भृगुने कहा— राजन् ! तुम्हारी अभिलाषा क्या है, यह मुझे मालूम हो गयी। तुम पुण्यात्माओंमें श्रेष्ठ हो। अन्यथा अपने समस्त कुलका उद्धार करनेकी योग्यता तुममें कैसे आती। भूपाल ! जो कोई भी क्यों न हो, यदि वह शुभ कर्मके द्वारा अपने कुलके उद्धारकी इच्छा रखता है तो उसे नररूपमें साक्षत् नारायण ही समझना चाहिये। राजेन्द्र ! जिस कर्मसे प्रसन्न होकर देवेश्वर भगवान् विष्णु मनुष्योंको अभीष्ट फल प्रदान करते हैं, वह बतलाता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। राजन् ! तुम सदा सत्यका पालन करो और अहिंसाधर्ममें स्थित रहो। सदा सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें लगे रहकर कभी भी झूठ न बोलो। दुष्टोंका साथ छोड़ दो। सत्यङ्का सेवन करो। पुण्य करो और दिन— रात सनातन भगवान् विष्णुका स्मरण करते रहो। भगवान् महविष्णुकी पूजा करो और उत्तम शान्तिका आश्रय लो। द्वादशाक्षर अथवा अष्टाक्षर— मन्त्र जपो। इससे तुम्हारा कल्याण होगा।
भगीरथने पूछा— मुने? सत्य कैसा कहा गया है? सम्पूर्ण भूतोंका हित क्या है? अनृत (झूठ) किसे कहते हैं? दुष्ट कैसे होते हैं? कैसे लोगोंको साधु कहा गया है? तथा पुण्य कैसा होता है? भगवान् विष्णुका स्मरण कैसे करना चाहिये और उनकी पूजा कैसे होती है? मुने ! शान्ति किसे कहा गया है? अष्टाक्षर— मन्त्र क्या है? तत्त्वार्थके ज्ञाता महर्षि ! द्वादशाक्षर— मन्त्र क्या होता है? मुझपर बड़ी भारी कृपा करके इन सबकी व्याख्या करें।
भृगुने कहा— महाप्राज्ञ ! बहुत अच्छा, बहुत अच्छा। तुम्हारी बुद्धि बहुत उत्तम है। भूपाल ! तुमने मुझसे जो कुछ पूछा है, वह सब तुम्हें बतलाता हूँ। विद्वान् पुरुष यथार्थ कथनको ’ सत्य ’ कहते हैं। धर्मपरायण मनुष्योंको इस प्रकार सत्य बोलना चाहिये कि धर्मका विरोध न होने पाये। इसलिये साधु पुरुष देश, काल आदिका विचार करके स्वधर्मका विरोध न करते हुए जो यथार्थ वचन बोलते हैं, वह ’ सत्य ’ कहलाता है। राजन् ! सम्पूर्ण जीवोंमेंसे किसीको भी जो क्लेश न देना है, उसीका नाम’ अहिंसा’ है। वह सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाली बतायी गयी है। धर्मके कार्यमें सहायता पहुँचाना और अधर्मके कार्यका विरोध करना— इसे धर्मज्ञ पुरुष सम्पूर्ण लोकोंका हितसाधन कहते हैं। धर्म और अधर्मका विचार न करके केवल अपनी इच्छाके अनुसार कहना असत्य है। उसे सब प्रकारके कल्याणका विरोधी समझना चाहिये। राजन् ! जिनकी बुद्धि सदा कुमार्गमें लगी रहती है, जो सब लोगोंसे द्वेष रखनेवाले और मूर्ख हैं, उन्हें सम्पूर्ण धर्मोंसे बहिष्कृत दुष्ट पुरुष जानना चाहिये। जो लोग धर्म और अधर्मका विवेक करके वेदोक्त मार्गपर चलते हैं तथा सब लोगोंके हितमें संलग्न रहते हैं उन्हें ’ साधु ’ कहा गया है। जो भगवान्की भक्तिमें सहायक है, साधु पुरुष जिसका पालन करते हैं तथा जो अपने लिये भी आनन्ददायक है, उसे ’ धर्म ’ कहते हैं। यह सम्पूर्ण जगत् भगवान् विष्णुका स्वरूप है, विष्णु सबके कारण हैं और मैं भी विष्णु हूँ— यह जो ज्ञान है, उसीको’ भगवान् विष्णुका स्मरण’ समझना चाहिये। भगावन् विष्णु सर्वदेवमय हैं, मैं विधिपूर्वक उनकी पूजा करूँगा; इस प्रकारसे जो श्रद्धा होती है, वह उनकी’ भक्ति’ कही गयी है। श्रीविष्णु सर्वभूतस्वरूप हैं, सर्वत्र परिपूर्ण सनातन परमेंश्वर हैं; इस प्रकार जो भगवान्के प्रति अभेद बुद्धि होती है, उसीका नाम’ समता’ है। राजन् ! शत्रु और मित्रोंके प्रति समान भाव हो, सम्पूर्ण इन्द्रियाँ अपने वशमें हो और दैववश जो कुछ मिल जाय, उसीमें संतोष रहे तो इस स्थितिको’ शान्ति’ कहते हैं। राजन् ! इस प्रकार तुम्हारे इन सभी प्रश्नोंकी व्याख्या हो गयी। ये सब विषय मनुष्योंको सिद्ध प्रदान करनेवाले हैं और समस्त पापराशियोंका वेगपूर्वक नाश करनेके साधन हैं। अष्टाक्षर— मन्त्र सब पापोंका नाश करनेवाला है। राजेन्द्र ! मैं उसका स्वरूप तुम्हें बतलाता हूँ। वह समस्त पुरुषार्थोंका एकमात्र साधन, भगवान् विष्णुको प्रसन्न करनेवाला तथा सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाला है। ’ ॐ नमो नारायणाय ’ यही अष्टाक्षर— मन्त्र है। इसका जप करना चाहिये। महाराज ! ’ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ यह द्वादशाक्षर— मन्त्र कहा गया है। राजन् ! इन अष्टाक्षर और द्वादशाक्षर— दोनों मन्त्रोंका समान फल है। इनकी प्रवृत्ति और निवृत्ति— इन दोनों मार्गवालोंके लिये समता बतायी गयी है। इन दोनों मन्त्रोंके जपके लिये भगवान्का ध्यान इस प्रकार करना चाहिये। भगवान् नारायण अपने हाथोंमें शङ्ख और चक्र धारण किये शान्तभावसे विराजमान हैं। रोग और शोक उनका कभी स्पर्श नहीं करते। उनके वामाङ्कमें लक्ष्मीजी विराज रही हैं। वे सर्वशाक्तिमान् प्रभू सबको अभयदान कर रहे हैं। उनके मस्तकपर किरीट और कानोंमें कुण्डल शोभा पाते हैं। वे नाना प्रकारके अलंकारोंसे सुशोभित हैं। गलेमें कोस्तुभमणि और वनमाला धारण किये हुए हैं। उनका वक्षःस्थल श्रीवत्सचिहृसे चिह्लित है। वे पीताम्बरधारी भगवान् देवताओं और दानवोंसे भी वन्दित हैं। उनका आदि और अन्त नहीं है। वे सम्पूर्ण मनोवाञ्छत फलोंके देनेवाले हैं। इस प्रकार भगवान्का ध्यान करना चाहिये। वे अन्तर्यामी, ज्ञान्स्वरूप, सर्वव्यापी तथा सनातन हैं। राजा भगीरथ ! तुमने जो कुछ पूछा, वह सब इस रूपमें बताया गया है। तुम्हारा कल्याण हो। अब सुखपूर्वक तपस्यामें सिद्धि प्राप्त करनेके लिये जाओ।
महर्षि भृगुके ऐसा कहनेपर राजा भगीरथ बहुत प्रसन्न हुए और तपस्याके लिये वनमें गये। हिमालय पर्वतपर पहुँचकर वहाँके मनोहर पावन प्रदेशमें स्थित नादेश्वर महाक्षेत्रमें उन्होंने अत्यन्त दुष्कर तपस्या की। राजा तीनों काल स्नान करते। कन्द, मूल तथा फल खाकर रहते और उसीसे आये हुए अतिथियोंका सत्कार भी करते थे। वे प्रतिदिन होममें तत्पर रहते। सम्पूर्ण भूतोंके हितैषी होकर शान्तभावसे स्थित थे। पत्र, पुष्य, फल और जलसे वे तीनों काल श्रीहरिकी आराधना करते थे। इस प्रकार अत्यन्त धैर्यपूर्वक भगवान् नारायणका ध्यान करते हुए वे सूखे पत्ते खाकर रहने लगे। तदनन्तर परम धर्मात्मा राजा भगीरथने प्राणायाम करते हुए श्वास बंद करके तपस्या करना प्रारम्भ किया। जिनका कहीं अन्त नहीं है या जो किसीसे पराजित नहीं होते, उन्हीं श्रीनारायणदेवका चिन्तन करते हुए वे साठ हजार वर्षोंतक श्वास रोके रहे। उस समय राजाकी नासिकाके छिद्रसे भयंकर अग्नि प्रकट हुई। उसे देखकर सब देवता थर्रा उठे और उस अग्निसे संतप्त होने लगे। फिर वे देवेश्वरगण क्षीरसागरके उत्तर तटपर जहाँ जगदीश्वर श्रीहरि निवास करते हैं, पहुँचकर भगवान् महाविष्णुकी शरणमें गये और शरणागतोंकी रक्षा करनेवाले देवदेवेश्वर भगवान्की इस प्रकार स्तुति करने लगे।
देवताओंने कहा— जो जगत्के एकमात्र स्वामी तथा स्मरण करनेवाले भक्तजनोंकी समस्त पीड़ा दूर कर देनेवाले हैं, उन परमेंश्वर श्रीविष्णुको हम नमस्कार करते हैं, ज्ञानी पुरुष उन्हें स्वभावतः शुद्ध, सर्वत्र परिपूर्ण एवं ज्ञानस्वरूप कहते हैं। श्रेष्ठ योगीजन जिनका सदा ध्यान करते हैं, जो परमात्मा अपनी इच्छाके अनुसार शरीर धारण करके देवताओंका कार्य सिद्ध करते हैं, यह सम्पूर्ण जगत् जिनका स्वरूप है तथा जो जगत्के आदिस्वामी हैं, उन भगवान् पुरुषोत्तमको हम प्रणास करते हैं। जिनके नामोंका संकीर्तन करनेमात्रसे दुष्ट पुरुषोंके भी समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं; जो सबके शासक, स्तवन करने योग्य एवं पुराणपुरुष हैं, उन भगवान् विष्णुको हम पुरुषार्थसिद्धिके लिये नमस्कार करते हैं। सूर्य आदि जिनके तेजसे प्रकाशित होते हैं और कभी भी जिनकी आज्ञाका उल्लङ्घन नहीं करते, जो सम्पूर्ण देवताओंके अधीश्वर तथा पुरुषार्थरूप हैं, उन कालस्वरूप श्रीहरिको हम नमस्कार करते हैं। जिनकी आज्ञाके अनुसार ब्रह्माजी इस जगत्की सृष्टि करते हैं, रुद्र संहार करते हैं और ब्राह्मणलोग श्रुतियोंके द्वारा सब लोगोंको पवित्र करते हैं, जो गुणोंके भण्डार और सबके उपदेशक गुरु हैं, उन आदिदेव भगवान् विष्णुकी हम शरणमें आये हैं। जो सबसे श्रेष्ठ, वरण करने योग्य तथा मधु और कैटभको मारनेवाले हैं, देवता और दैत्य भी जिनकी चरणपादुकाका पूजन करते हैं, जो श्रेष्ठ भक्तोंकी मनोवाञ्छित कामनाओंकी सिद्धिके कारण हैं तथा एकमात्र ज्ञानद्वारा जिनके तत्त्वका बोध होता है, उन दिव्यशक्तिसम्पन्न भगवान्को हम प्रणाम करते हैं। जो आदि, मध्य और अन्तसे रहित, अजन्मा, अनादि, अविद्या नामक अन्धकारका ना करनेवाले, सत्, चित्, परमानन्दघन स्वरूप तथा रूप आदिसे रहित हैं, उन भगवान् परमेंश्वरको हम प्रणाम करते हैं। जो जलमें शयन करनेके कारण नारायण, सर्वव्यापी होनेसे विष्णु, अविनाशी होनेसे अनन्त और सबके शासक होनेसे ईश्वर कहलाते हैं, ब्रह्मा तथा रुद्र आदि जिनकी सेवामें लगे रहते हैं, जो जज्ञके प्रेमी, जज्ञ करनेवाले, विशुद्ध, सर्वोत्तम एवं अव्यय हैं, उन भगवान् विष्णुको हम नमस्कार करते हैं, ।
इन्द्र आदि देवताओंके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान् महाविष्णुने देवताओंको राजर्षि भगीरथका चरित्र बतलाया। नारदजी ! फिर उन सबको आश्वासन तथा अभय देकरर निरञ्जन भगवान् विष्णु उस स्थानपर गये, जहाँ राजर्षि भगीरथ तपस्या करते थे। सम्पूर्ण जगत्के गुरु शंख— चक्रधारी सच्चिदानन्दस्वरूष भगवान् श्रीहरिने राजा भगीरथको प्रत्यक्ष दर्शन दिया। राजाने देखा, सामने कमलनयन भगवान् विराजमान हैं। उनकी प्रभासे सम्पूर्ण दिग्दिगन्त उद्भासित हो रहा है। उनके अङ्गोकी कान्ति अलसीके फूलकी भाँति श्याम है। कानोंमें झलमलाते हुए कुण्डल उनकी शोभा बढ़ा रहे हैं। चिकने घुँघराले केशोंवाले मुखारविन्दसे सुशोभित हैं। मस्तकपर जगमगाता हुआ मुकुट उनके स्वरूपको और भी प्रकाशपूर्ण किये देता है। वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिहृ और कोस्तुभमणि है। वे वनमालासे विभूषित हैं। उनकी भुजाएँ बड़ी— बड़ी हैं। अङ्— अङ्से उदारता टपक रही है। उनके चरणारविन्द लोकेश ब्रह्माजीके द्वारा पूजित हैं। भगवान्की यह झाँकी देखकर राजा भगीरथ भूतलपर द्ण्डकी भाँति पड़ गये। उनका कंधा झुक गया और वे बार— बार प्रणाम करने लगे। उनका हृदय अत्यन्त हर्षसे भरा हुआ था। शरीरमें रोमाञ्च हो आया था और वे गद्गद कण्ठसे’ कृष्ण, कृष्ण, श्रीकृष्ण’— इस प्रकार उच्चारण कर रहे थे। अन्तर्यामी जगद्गुरु भगवान् विष्णु भगीरथपर प्रसना थे। उन भूतभावन भगवान्ने करुणासे भरकर कहा।
श्रीभगवान् बोले— महाभाग भगीरथ ! तुम्हारा अभीष्ट सिद्ध होगा, तुम्हारे पूर्व पितामह मेंरे लोकमें जायँगे। राजन् ! भगवान् शिव मेंरे दूसरे स्वरूप हैं। तुम यथाशक्ति स्तुति— पाठ करके उनका स्तवन करो। वे तुम्हारा सम्पूर्ण मनोरथ तत्काल सिद्ध करेंगे। जिन्होंने अपनी शरणमें आये हुए चन्द्रमाको स्वीकार किया है, वे बड़े शरणागतवत्सल हैं। अतः स्तोत्रोंद्वारा स्तवन करने योग्य उन सुखदाता ईशानकी तुम आराधना करो। अनादि अनन्तदेव महेश्वर सम्पूर्न कामनाओं तथा फलोंके दाता हैं। राजन् ! तुमसे भलीभाँति पूजित होकर वे शीघ्न तुम्हारा कल्याण करेंगे।
मुनिश्रेष्ठ नारद ! तीनों लोकोंके स्वामी देवदेवेश्वर भगवान् अच्युत ऐसा कहकर अन्तर्धान हो गये। फिर वे राजा भगीरथ भी उठे। द्विजश्रेष्ठ ! राजाके मनमें बड़ा आश्चर्य हुआ। वे सोचने लगे— क्या यह सब स्वप्र था अथवा साक्षात् सत्यका ही दर्शन हुआ है। अब मैं क्या करूँ? इस प्रकार भ्रान्तचित्त हुए राजा भगीरथसे आकाशवाणीने उच्च स्वरसे कहा—’ राजन् ! यह सब अवश्य ही सत्य है। तुम चिन्ता न करो।’ आकाशवाणी सुनकर भूपाल भगीरथने हम सबके कारण तथा समस्त देवताओंके स्वामी भगवान् शिवका भक्तिपूर्वक स्तवन किया।
भगीरथने कहा— मैं प्रणतजनोंकी पीड़ाका नाश करनेवाले विश्वनाथ शिवको प्रणाम करता हूँ। जो प्रमाणसे परे तथा प्रमाणरूप हैं, उन भगवान् ईशानकी मैं नमस्कार करता हूँ। जो जगत्स्वरूप होते हुए भी नित्य और अजन्मा हैं, संसारकी सृष्टि, संहार और पालनके एकमात्र कारण हैं, उन भगवान् शिवको मैं प्रणाम करता हूँ। योगीश्वर, महात्मा जिनका आदि, मध्य और अन्तसे रहित अनन्त, अजन्मा एवं अव्ययरूपसे चिन्तन करते हैं, उन पुष्टिवर्धक शिवको मैं प्रणाम करता हूँ। पशुपति भगवान् शिवको नमस्कार है।
चैतन्यस्वरूप भगवान् शंकरको नमस्कार है। असमर्थोंको सामर्थ्य देनेवाले शिवको नमस्कार है। समस्त प्राणियोंके पालक भगवान् भूतनाथकी नमस्कार है। प्रभो ! आप हाथमें पिनाक धारण करते हैं। आपको नमस्कार है। त्रिशूलसे शोभित हाथवाले आपको नमस्कार है। सम्पूर्ण भूत आपके स्वरूप हैं, आपको नमस्कार है। जगतके अनेक रूप आपके ही रूप हैं आप निर्गुण परमात्माको नमस्कार है। ध्यानस्वरूप आपको नमस्कार है। ध्यानके साक्षी आपको नमस्कार है ध्यानमें सम्यक् रूपसे स्थित आपको नमस्कार है तथा ध्यानसे ही अनुभवमें आनेवाले आपको नमस्कार है। जो अपने ही प्रकाशसे प्रकाशित होनेवाले, महात्मा, परमज्योतिःस्वरूप तथा सनातन हैं, तत्त्वज्ञ पुरुष जिन्हें मानवनेत्रोंको प्रकाश देनेवाले सूर्य कहते हैं, जो उमाकान्त, नन्दिकेश्वर, नीलकण्ठ, सदाशिव, मृत्युञ्जय, महादेव, परात्पर एवं विभु कहे जाते हैं, परब्रह्म और शब्दब्रह्म जिनके स्वरूप हैं, उन समस्त जगत्के कारणभूत परमात्माको मैं प्रणाम करता हूँ। प्रभो ! आप जटाजूट धारण करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। जिनसे समुद्र, नदियाँ, पर्वत, गन्धर्व, यक्ष, असुर, सिद्ध— समुदाय, स्थावर— जङ्म, बड़े— छोटे, सत्— असत् तथा जड और चेतन— सबका प्रादुर्भाव हुआ है, योगी पुरुष जिनके चरणारविन्दोंमें नमस्कार करते हैं, जो सबके अन्तरात्मा, रूपहीन एवं ईश्वर हैं, उन स्वतन्न एक तथा गुणियोंके गुणस्वरूप भगवान् शिवको मैं बार— बार प्रणाम करता हूँ, बार— बार मस्तक झुकाता हूँ।
सब लोगोंका कल्याण करनेवाले महादेव भगवान् शंकर इस प्रकार अपनी स्तुति सुनकर, जिनकी तपस्या पूर्ण हो चुकी है, उन राजा भगीरथके आगे प्रकट हुए। उनके पाँच मुख और द्स भुजाएँ हैं। उन्होंने अर्धचन्द्रका मुकुट धारण कर रखा है। उनके तीन नेत्र हैं। एक— एक अङ्से उदारता टपकती है। उन्होंने सर्पका यज्ञोपवीत पहन रखा है। उनका वक्षःस्थल विशाल तथा कान्ति हिमालयके समान उज्ज्वल है। गजचर्मका वस्त्र पहने हुए उन भगवान् शिवके चरणारविन्द समस्त देवताओंद्वारा पूजित हो रहे हैं। नारदजी ! भगवान् शिवकी इस रूपमें उपस्थित देख राजा भगीरथ उनके चरणोंके आगे द्ण्डकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़े। फिर सहसा उठकर उन्होंने भगवान्के सम्मुख हाथ जोड़े और उनके महादेव तथा शंकर आदि नामोंका कीर्तन करते हुए प्रणाम किया। राजाकी भक्ति जानकर चन्द्रशेखर भगवान् शिव उनसे बोले—’ राजन् ! मैं बहुत प्रसन्न हूँ। तुम इच्छानुसार वर माँगो। तुमने स्तोत्र और तपस्याद्वारा मुझे भलीभाँति संतुष्ट किया है।’ भगवान् शिवके ऐसा कहनेपर राजाका हृदय प्रसन्नतासे खिल उठा और वे हाथ जोड़कर जगदीश्वर शिवसे इस प्रकार बोले।
भगीरथने कहा— महेश्वर ! यदि मैं वरदान देकरर अनुगृहीत करने योग्य होऊँ तो हमारे पितरोंकी मुक्तिके लिये आप हमें गंगा प्रदान करें।
भगवान् शिव बोले— राजन् ! मैंने तुम्हें गंगा दे दी। इससे तुम्हारे पितरोंको उत्तम गति प्राप्त होगी और तुम्हें भी परम मोक्ष मिलेगा। यों कहकर भगवान् शिव अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात् जटाजूट्धारी भगवान् शिवकी जटासे नीचे आकर जगत्को एकमात्र पावन करनेवाली गंगा समस्त जगत्को पवित्र करती हुई राजा भगीरथके पीछे— पीछे चलीं। मुने ! तबसे परम निर्मल पापहारिणी गंगादेवी तीनों लोकोंमें’ भागीरथी’ के नामसे विख्यात हुईं। सगरके पुत्र पूर्वकालमें अपने ही पापके कारण जहाँ दग्ध हुए थे, उस स्थानको भी सरिताओंमें श्रेष्ठ गंगाने अपने जलसे प्लावित कर दिया। सगर— पुत्रोंकी भस्म ज्यों ही गंगाजलसे प्रवाहित हुई, त्यों ही वे निषपाण हो गये। पहले जो नरकमें डूबे हुए थे, उनका गंगाने उद्धार कर दिया। पूर्वकालमें यमराजने अत्यन्त कुपित होकर जिन्हें बड़ी भारी पीड़ा दी थी, वे ही गंगाजीके जलसे (उनके शरीरकी भस्म) आप्लावित होनेके कारण उन्हीं यमराजके द्वारा पूजित हुए। सगर— पुत्रोंको निष्पाप समझकर यमराजने उन्हें प्रणाम किया और विधिपूर्वक उनकी पूजा करके प्रसन्नतापूर्वक कहा—’ राजकुमारी ! आपलोग अत्यन्त भयंकर नरकसे उद्धार पा गये। अब इस विमानपर बैठकर भगवान् विष्णुके धाममें जाइये।’ यमराजके ऐसा कहनेपर वे पापरहित महात्मा दिव्या देह धारण करके भगवान् विष्णुके लोकमें चले गये। भगवान् विष्णुके चरणोंके अग्रभागसे प्रकट हुई गंगाजीका ऐसा प्रभाव है। महापातकोंका नाश करनेवाली गंगा सम्पूर्ण लोकोंमें विख्यात हैं। यह पवित्र आख्यान महापातकोंका नाश करनेवाला है। जो इसे पढ़ता अथवा सुनता है, वह गंगास्नानका फल पाता है। जो इस पवित्र आख्यानको ब्राह्मणके सम्मुख कहता है, वह भगवान् विष्णुके पुनरावृत्तिरहित धाममें जाता है।
अध्याय - १६ मार्गशीर्ष माससे लेकर कार्तिक मासपर्यन्त उद्यापनसहित शुक्लपक्ष द्वदशीव्रत वर्णन
ऋषि बोले— महाभाग सूतजी ! आपको साधुवाद है। आपका हृदय अत्यन्त दयालु है। आपने कृपा करके सब पापोंका नाश करनेवाला उत्तम गंगा माहात्म्य हमें सुनाया है। यह गंगा— माहात्म्य सुनकर देवर्षि नारदजीने मुनिश्रेष्ठ सनकजीसे कोन— सा प्रश्न किया? यह बताइये
सूतजीने कहा— आप सब ऋषि सुनें। देवर्षि नारदने फिर जिस प्रकार प्रश्न किया था, वह बतलाऊँगा।
नारदजी बोले— मुने ! आप भगवान् विष्णुके उन व्रतोंका वर्णन कीजिये, जिनका अनुष्ठान करनेसे भगवान् प्रसन्न होते हैं। जो भगवत्— सम्बन्धी व्रत, पूजन और ध्यानमें तत्पर हो भगवानका भजन करते हैं, उनको भगवान् विष्णु मुक्ति तो अनायास ही दे देते हैं, पर वे जल्दी किसीको भक्तियोग नहीं देते। मुनिश्रेष्ठ ! आप भगवान् विष्णुके भक्त हैं। प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग— सम्बन्धी जो कर्म भगवान् श्रीहरिको प्रसन्न करनेवाला हो, उसका मुझसे वर्णन कीजिये।
श्रीसनकजीने कहा— मुनिश्रेष्ठ ! बहुत अच्छा, बहुत अच्छा। तुम भगवान् पुरुषोत्तमके भक्त हो, इसीलिये बार— बार उन शार्ङगधन्वा— श्रीहरिका चरित्र पूछ्ते हो। मैं तुम्हें उन लोकोपकारी व्रतोंका उपदेश करता हूँ, जिनसे भगवान् श्रीहरि प्रसन्न होते हैं और साधकको अभय— दान देते हैं। जिस पुरुषपर यज्ञस्वरूप भगवान् जनार्दनकी प्रसन्नता हो जाती है, उसे इहलोक और परलोकमें सुख मिलता है तथा उसके तपकी वृद्धि होती है। महर्षिगण कहते हैं कि जिस किसी उपायद्वारा भी जो लोग भगवान् विष्णुकी आराधनामें लगे रहते हैं, वे परम पदको प्राप्त होते हैं, । मार्गशीर्ष मासमें शुक्लपक्षकी द्वादशीको उपवास करके मनुष्य श्रद्धापूर्वक जलशायी भगवान् नारायणकी पूजा करे। मुनिश्रेष्ठ ! पहले दन्तधावन करके स्नान करे, फिर श्वेतवस्त्र धारण करके मौन हो गन्ध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप और नैवेद्य आदि उपचारोंद्वारा भक्ति— भावसे श्रीहरिका पूजन करना चाहिये। ‘ केशवाय नमस्तुभ्यम्’ (केशव ! आपको नमस्कार है।)— इस मन्त्रद्वारा श्रीविष्णुकी पूजा करनी चाहिये। उसी मन्त्रसे प्रज्वलित अग्निमें घृतमिश्रित तिलकी एक सौ आठ आहुति देकरर भगवान् शालग्रामके समीप रातमें जागरण करे। उस रात्रिमें ही सेरभर दूधसे रोग— शोकरहित भगवान् श्रीनारायनको स्नान करावे और गीत— वाद्य, नैवेद्य, भक्ष्य तथा भोज्यपदार्थोंद्वारा महालक्ष्मीसहित उन भगवान् नारायणका भक्तिपूर्वक तीन समय पूजन करे। फिर सबेरे उठकर यथावश्यक शौच— स्नानादि कर्म करके पूर्ववत् मन— इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए मौनभावसे पवित्रतापूर्वक भगवान्की पूजा करे। उसके बाद निमनाङ्कित मन्त्रसे दक्षिणासहित घृतमिश्रित खीरऔर नारियलका फल भक्तिपूर्वक ब्राह्मणको अर्पित करे—
केशवः केशिहा देवः सर्वसम्पत्प्रदायक: ॥
परमान्नप्रदानेन मम स्यादिष्टदायक:।
(ना० पूर्व० १७।२१— २२)
‘ जिन्होंने केशी दैत्यको मारा है तथा जो सब प्रकारकी सम्पत्ति देनेवाले हैं, वे भगवान् केशव यह उत्तम अन्न दान करनेसे मेंरे लिये अभीष्ट वस्तुको देनेवाले हो।’
तदनन्तर अपनी शक्तिके अनुसार ब्राह्मणभोजन करावे। उसके बाद भगवान् नारायणका चिन्तन करते हुए मौन होकर स्वयं भी भाई— बन्धुओंसहित भोजन करे। इस प्रकार जो भक्ति— भावसे भगवान् केशवकी उत्तम पूजा करता है, वह आठ पौण्डरीक यज्ञ्के समान फल पाता है। पौष मासके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिको उपवास करके’ नमो नारायणाय’ इस मन्त्रसे पवित्रतापूर्वक श्रीहरिका पूजन करे। दूधसे भगवान्को नहलाकर खीरका नैवेद्य अर्पण करे। रातमें तीनों समय श्रीहरिकी पूजामें संलग्न रहकर जागता रहे। गन्ध, मनोरम पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, नृत्य, गीत— वाद्य आदि तथा स्तोत्रोंद्वारा श्रीहरिकी अर्चना करे। सबेरेकी पूजाके पश्चात् घृत और दक्षिणासहित खिचड़ी ब्राह्मणको दे। (उस समय निमनाङ्कित मन्त्र पढ़ना चाहिये—)
सर्वात्मा सर्वलोकेश: सर्वव्यापी सनातनः।
नारायणः प्रसन्नः स्यात् कृशरात्रप्रदानतः ॥
(ना० पूर्व० १७।२८)
‘ जो सबके आत्मा, सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वर तथा सर्वत्र व्यापक हैं, वे सनातन भगवान् श्रीनारायण यह खिचड़ी दान करनेसे मुझपर प्रसन्न हो।’
इस मन्त्रसे ब्राह्मणको उत्तम दान देकरर यथाशक्ति ब्राह्मणोको भोजन करावे। फिर स्वयं बन्धु— बान्धवोंसहित भोजन करे। जो इस प्रकार भक्तिपूर्वक भगवान् नारायणदेवका पूजन करता है, वह आठ अग्निष्टोम यज्ञोंका सम्पूर्ण फल प्राप्त कर लेता है। माघ शुक्ला द्वादशीको भी पूर्ववत् उपवास करके’ नमस्ते माधवाय’ इस मन्त्रसे अग्निमें आठ बार घीकी आहुति दे। उस दिन पूर्ववत् सेरभर दूधसे भगवान् माधवको स्नान करावे। फिर चित्तको एकाग्र करके गन्ध, पुष्प और अक्षत आदिसे पहलेकी तरह तीनों समय भक्तिपूर्वक पूजन करते हुए रातमें जागरण करे। तत्पश्चात् प्रातःकालका कृत्य समाप्त करके पुनःश्रीमाधवकी अर्चना करे। अन्तमें सब पापोंसे छुटकारा पानेके लिये वस्त्र और दक्षिणासहित सेरभर तिल ब्राह्मणको इस मंत्र्से दान करे—
माधवः सर्वभूतात्मा सर्वकर्मफलप्रदः।
तिलदानेन महता सर्वान् कामान् प्रयच्छतु ॥
(ना० पूर्व० १७।३५)
‘ सम्पूर्ण कर्मोंका फल देनेवाले तथा समस्त भूतोंके आत्मा भगवान् लक्ष्मीपति तिलके इस महादानसे प्रसन्न होकर मेंरी सब कामनाएँ पूरी करें।’
इस मन्त्रसे भक्तिपूर्वक ब्राह्मणको तिल दान देकर भगवान् माधवका स्मरण करते हुए यथाशक्ति ब्राह्मणोकी भोजन कराये। मुने ! जो इस प्रकार भक्ति— भावसे तिलदानयुक्त व्रत करता है, वह सौ वाजपेय यज्ञके सम्पूर्ण फलको प्राप्त कर लेता है। फाल्गुनके शुक्लपक्षमें द्वादशीको उपवास करके व्रती पुरुष’गोविन्दाय नमस्तुभ्यम्’ इस मन्त्रसे भगवान्का पूजन करे और घृतमिश्रित तिलकी एक सौ आठ आहुति देकरर पूर्वोक्त मानके अनुसार एक सेर दूधसे पवित्रतापूर्वक भगवान्स गोविन्दको स्नान करावे। पूर्ववत् रातमें जागरण और तीनों समय पूजा करे। फिर प्रातःकालका शौच, स्नान आदि कर्म पूरा करके पुनः भगवान् गोविन्दकी पूजा करनी चाहिये। तत्पश्चात् वस्त्र और दक्षिणासहित एक आढक (चार सेर) धान ब्राह्मणको दे और निमनाङ्कित मन्त्रका पाठ करे—
नमो गोविन्द सर्वेश गोपिकाजनवल्लभ ॥
अनेन धान्यदानेन प्रीतो भव जगद्गुरो।
(ना० पूर्व० १७।४१— ४२)
‘ गोविन्द ! सर्वेश्वर ! गोपाङ्नाओंके प्राणवल्लभ ! जगदुगुरो ! इस धान्यके दानसे आप मुझपर प्रसन्न हो।’
इस प्रकार भलीभाँति व्रतका पालन करके मनुष्य सम्यूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है और महान् यज्ञका पूरा पुण्य प्राप्त कर लेता है। चैत्र मासके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिको उपवास करके पहले बताये अनुसार’ नमोऽस्तु विष्णवे तुभ्यम्’— इस मन्त्रसे भगनान्की पूजा करे। पूर्ववत् एक सेर दूधसे भगवान् विष्णुको स्नान करावे। विप्रवर ! यदि शक्ति हो तो उसी प्रकार सेरभर घीसे भी आदरपूर्वक भगवान्को नहलावे तथा रातमें भी पहलेकी तरह जागरण और पूजन करे। तदनन्तर सबेरे उठकर प्रातः— कालके आवश्यक कर्म पूरा करके मधु, घी और तिलमिश्रित हवन— सामग्रीकी एक सौ आठ आहुति दे। उसके बाद बाह्यणको दक्षिणासहित एक आढक (चार सेर) चावल दान करे। (मन्त्र इस प्रकार है—)
प्राणरूपी महाविष्णुः प्राणदः सर्ववल्लभः ॥
तण्डुलाढकदानेन प्रीयतां में जनार्दनः।
(१७।४७— ४८)
‘ भगवान् महाविष्णु प्राणस्वरूप हैं। वे ही सबके प्रियतम और प्राणदाता है। इस एक आढक चावलके दानसे वे भगवान् जनार्दन मुझपर प्रसन्न हो।’
इस प्रकार भक्तिभावसे व्रतका पालन करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है और अत्यग्निष्टोम यज्ञके आठगुने फलको पाता है।
वैशाख शुक्ला द्वादशीको उपवास करके भक्तिपूर्वक देवेश्वर मधुसूदनको द्रोण (कलश) परिमित दूधसे स्नान करावे तथा रातमें तीन समय पूजन करते हुए जागरण करे। मधुसूदनकी विधिपूर्वक पूजा करके’नमस्ते मधुहन्त्रे’— इस मन्त्रसे घीकी एक सौ आठ आहुतिका होम करे। घीका उपयोग अपनी शक्तिके अनुसार करे। इससे पापहित होकर मनुष्य आठ अश्चमेंध यज्ञोंका फल पाता है। ज्येष्ठ मासके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिको उपवास करके एक आढक (चार सेर) दूधसे भगवान् त्रिविक्रमको स्नान करावे और’नमस्त्रिविक्रमाय’ इस मन्त्रसे भक्तिपूर्वक भगवान्का पूजन करे। खीरकी एक सौ आठ आहुति देकरर होम करे। फिर रातमें जागरण करके भगवान्की पूजा करे। फिर प्रातःकृत्य करके पूजनके पश्चात् ब्राह्मणको दक्षिणासहित बीस पूआ दान करे। (दानका मन्त्र इस प्रकार है—)
देवदेव जगन्नाथ प्रसीद परमेंश्वर ॥
उपायनं च संगृह्य ममाभीष्टप्रदो भव।
(ना० पूर्व० १७।५५— ५६)
‘ देवदेव ! जगन्नाथ ! परमेंश्वर ! आप मुझपर प्रसन्न होइये और यह भेंट ग्रहण करके मेंरे अभीष्टकी सिद्धि कीजिये।’
तत्पश्चात् यथाशक्ति ब्राह्मणोको भोजन करावे और उसके बाद स्वयं भी मौन होकर भोजन करे। ब्रह्मन् ! जो इस प्रकार भगवान् त्रिविक्रमका व्रत करता है, वह निष्पाप हो आठ यज्ञोंका फल पाता है।
आषाढ़ शुक्ला द्वादशीको उपवास— व्रत करनेवाला जितेन्द्रिय पुरुष पूर्ववत् एक आढक (चार सेर) दूधसे वामनजीको स्नान करावे।’ नमस्ते वामनाय’— इस मन्त्रसे दूर्वा और घीकी एक सौ आठ आहुति देकरर रातमें जागरण और वामनजीला पूजन करे। दक्षिणासहित दही, अन्न और नारियलका फल वामनजीकी पूजा करनेवाले ब्राह्मणको भक्तिपूर्वक अर्पण करे। (मन्त्र इस प्रकार है—)
वामनो बुद्धिदो होता द्र्व्यस्थो वामनः सदा।
वामनस्तारकोऽस्माच्च वामनाय नमो नमः ॥
(ना० पूर्व० १७।६१)
‘ वामन बुद्धिदाता हैं। वे ही होता हैं और द्रव्यमें भी सदा वामनजी स्थित रहते हैं। वामन ही इस संसार— सागरसे तारनेवाले हैं। वामनजीको बार— बार नमस्कार है।’
इस मन्त्रसे दही— अन्नका दान करके यथाशक्ति ब्राह्मणोको भोजन करावे। ऐसा करके मनुष्य सौ अग्निष्टोम यज्ञोंका फल पा लेता है।
श्रावण मासके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिको उपवास करनेवाला व्रती मधुमिश्रित दूधसे भगवान् श्रीधरको स्नान करावे और’ नमोऽस्तु श्रीधराय’— इस मन्त्रसे गन्ध, पुष्प, धूप, दीप आदि सामगिरियोंद्वारा क्रमशः पूजन करे। मुने ! तत्पश्चात् दही मिले हुए घीसे एक सौ आठ आहुति दे। फिर रातमें जागरण करके पूजाकी व्यवस्था करे और ब्राह्मणको परम उत्तम एक आढक (चार सेर) दूध दान करे। विप्रवर ! साथ ही सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धिके लिये वस्त्र और दक्षिणासहित सोनेके दो कुण्डल भी मन्त्रसे अर्पण करे।
क्षीराब्धिशायिन् देवेश रमाकान्त जगत्पते।
क्षीरदानेने सुप्रीतो भव सर्वसुखप्रदः ॥
(ना० पूर्व० १७।६७)
‘ क्षीरसागरमें शयन करनेवाले देवश्वर ! लक्ष्मीकान्त ! जगत्पते ! इस दुग्धदानसे आप अत्यन्त प्रसन्न हो सम्पूर्ण सुखोंके दाता होइये।’
ब्राह्मणभोजन सुख देनेवाला है, इसलिये व्रती पुरुष यथाशक्ति भोजन करावे। ऐसा करनेसे एक हजार अश्चमेंध यज्ञोंका फल प्राप्त होता है।
भाद्रपद मासके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिको उपवास करके एक द्रोण (कलश) दूधसे जगद्गुरु भगवान् हृषीकेशको स्नान करावे।’ हृषीकेश नमस्तुभ्यम्’ इस मन्त्रसे मनुष्य भगवान्का पूजन करे। फिर पूर्ववत् जागरण आदि कार्य सम्पन्न करके आत्मज्ञानी ब्राह्मणको डेढ़ आढक (छः सेर) गेहूँ और यथाशक्ति सुवर्णकी दक्षिणा दे। (मन्त्र इस प्रकार है—)
हृषीकेश नमस्तुभ्यं सर्वलोकैकहेतवे।
मह्यं सर्वसुखं देहि गोधूमस्य प्रदानतः ॥
(ना० पूर्व० १७।७२)
‘ इन्द्रियोंके स्वामी भगवान् हृषीकेश ! आप सम्पूर्ण लोकोंके एकमात्र कारण हैं। आपको नमस्कार है। इस गोधूम— दानसे प्रसन्न हो आप मुझे सब प्रकारके सुख दीजिये।
‘तत्पश्चात् यथाशक्ति ब्राह्मणोको भोजन कराकर स्वयं भी मौन होकर भोजन करे। ऐसा करनेवाला पुरुष सब पापोंसे मुक्त हो महान् यज्ञका फल पाता है।
आश्विन मासकी शुक्ला द्वादशीको उपवास करके पवित्र हो भक्तिपूर्वक भगवान् पद्मनाभको दूधसे स्नान करावे। फिर ‘ नमस्ते पद्मनाभाय’—इस मन्त्रसे यथाशक्ति तिल, चावल, जौ और घृतद्वारा होम एवं विधिपूर्वक पूजन करे। रातमें जागरनका कार्य सम्पन्न करके पुनः पूजन करे और ब्राह्मणको दक्षिणासहित एक पाव मधु दान करे। (मन्त्र इस प्रकार है—)
पद्मनाभ नमस्तुभ्यं सर्वलोकपितामह।
मधुदानेन सुप्रीतो भव सर्वसुखप्रदः ॥
(ना० पूर्व० १७।७७)
‘सम्पूर्ण लोकोंके पितामह पद्मनाभ ! आपको नमस्कार है। इस मधुदानसे अत्यन्त प्रसन्न हो आप हमें सम्पूर्ण सुख प्रदान करें।’
जो उत्तम बुद्धिवाला पुरुष इस प्रकार भक्तिभावसे पद्मनाभ— व्रतका पालन करता है, उसे निश्चय ही एक हजार महान् यज्ञोंका फल प्राप्त होता है। कार्तिक शुक्ला द्वादशीको उपवास करके जितेन्द्रिय पुरुष एक आढक (चार सेर) दूध, दही अथवा उतने ही घीसे भक्तिपूर्वक भगवान् दामोदरको स्नान करावे। स्नान करानेका मन्त्र है— ‘ ॐ नमो दामोदराय।’ उसीसे मधु और घी मिलाये हुए तिलकी एक सौ आठ आहुति दे। फिर संयम— नियमपूर्वक तीनों समय श्रीहरिकी पूजामें तत्पर हो रातमें जागर्ण करे और प्रातःकाल आवश्यक कृत्योंसे निवृत्त हो मनोरम कमलके फूलोंद्वारा भगवान्की पूजा करे। उसके बाद घृतमिश्रित तिलोंके द्वारा पुनः एक सौ आठ आहुति दे औ पाँच प्रकारके भक्ष्य पदार्थोंसे युक्त अन्न ब्राह्मणको भक्तिपूर्वक दे। (मन्त्र इस प्रकार है—)
दामोदर जगन्नाथ सर्वकारणकारण।
त्राहि मां कृपया देव शरणागतपालक ॥
(ना० पूर्व० १७।८३)
‘दामोदर ! जगन्नाथ ! आप समस्त कारणोंके भी कारण हैं। शरणागतोंकी रक्षा करनेवाले देव ! कृपया मेंरी रक्षा कीजिये।’
इस प्रकार कुटुम्बयुक्त श्रोत्रिय ब्राह्मणको दान और यथाशक्ति दक्षिणा देकर ब्राह्मणोको भी भोजन करावे। इस प्रकार व्रतका विधिपूर्वक पालन करके अपने बन्धुजनोंके साथ स्वयं भी भोजन करे। इससे वह दो हजार अश्वमेंधयज्ञोंका फल पाता है।
मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार व्रतका पालन करनेवाला जो पुरुष परम उत्तम द्वादशी— व्रतका एक वर्षतक पूर्वोक्त विधिसे अनुष्ठान करता है, वह परम पदको प्राप्त होता है। जो एक मास या दो मासमें भक्तिपूर्वक उक्त व्रतका पालन करता है, वह उस— उस महीनेके बताये हुए फलको पाता है और हरिके परम पदको प्राप्त हो जाता है। मुनीश्वर ! व्रती पुरुषको चाहिये कि वह एक वर्ष पूरा करके मार्गशीर्ष मासके शुक्लपक्षमें द्वादशी तिथिको व्रतका उद्यापन करे। प्रातःकाल शौचादिसे निवृत्त हो दन्तधावन और स्नान करके नित्य कृत्य करे। फिर श्वेत वस्त्र तथा श्वेत पुष्पोंकी माला धारण करे। श्वेत चन्दनका अनुलेपन करे। घरके आँगनमें एक दिव्य चौकोर एवं परम सुन्दर मण्डप बनावे। उसमें घण्टा और चँवर यथास्थान लगा दे। छोटी— छोटी घण्टियोंकी ध्वनिसे उस मण्डपको सुशोभित करे। फूलोंकी मालाओंसे उसको सजावे। ऊपरसे चँदोवा लगा दे और ध्वजा— पताकासे भी उस मण्डपको विभूषित करे। वह मण्डप श्वेत वस्त्रसे आच्छादित तथा दीपमालाओंसे आच्छादित होना चाहिये। उसके मध्यभागमें सर्वतोभद्रमण्डल बनाकर उसे विविध रंगोंसे भलीभाँति अलंकृत करे। सर्वतोभद्रके ऊपर जलसे भरे हुए बारह घड़े रखे। भलीभाँति शुद्ध किये हुए एक ही श्वेत वस्त्रसे उन सभी कलशोंको ढँक दे। वे सब कलश पञ्चरत्न्से युक्त होने चाहिये। ब्रह्मन् ! व्रती पुरूष अपनी शक्तिके अनुसार सोने, चाँदी अथवा ताँबेकी भगवान् लक्ष्मीनारायणकी प्रतिमा बनावे और उसे मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए कलशके ऊपर स्थापित करे। द्विजश्रेष्ठ ! जो प्रतिमा न बना सके, वह अपनी शक्तिके अनुसार सुवर्ण अथवा उसका मूल्य वहाँ चढ़ा दे। बुद्धिमान् पुरुष सभी व्रतोंमें उदार रहे। धनकी कंजूसी न करे। यदि वह कृपणता करता है तो उसकी आयु और धन— सम्पत्तिका क्षय होता है। पहले शेषनागकी शय्यापर शयन करनेवाले रोग— शोकसे रहित भगवान् लक्ष्मीनारायणका ध्यान करके उन्हें भक्तिपूर्वक पञ्चामृतसे स्नान करावे। फिर केशव आदि नामोंसे उनके लिये भिन्न— भिन्न उपचार चढ़ावे। रातमें पुराण— कथा— श्रवण आदिके द्वारा जागरण करे। निद्राको जीते और उपवासपूर्वक जितेन्द्रिय— भावसे रहकर अपने वैभवके अनुसार रातके प्रथम, द्वितीय और तृतीय प्रहरके अन्तमें तीन बार भगवान्की पूजा करे। तदनन्तर प्रातःकाल उठकर सबेरेके शौच— स्नान आदि आवश्यक कृत्य पूरे करके ब्राह्मणोद्वारा व्याहृतिमन्त्रसे तिलकी एक हजार आहुतियाँ दिलावे। उसके बाद क्रमशः गन्ध, पुष्प आदि उपचारोंसे पुनः भगवान्की पूजा करे तथा भगवान्के समक्ष पुराणकी कथा भी सुने। फिर बारह ब्राह्मणोमेंसे प्रत्येकको दस— दस पूजा, घृत, दधिसहित अन्न तथा खीर दान करे। उसके साथ दक्षिणा भी दे। (दानका मन्त्र इस प्रकार है—)
देवदेव जगन्नाय भक्तानुग्रहविग्रह।
गृहाणोपायनं कृष्ण सर्वाभीष्टप्रदो भव ॥
(ना० पूर्व० १७।१०३)
‘ भक्तोंपर कृपा करके अवतार— शरीर धारण करनेवाले देवेदव ! जगदीश्वर ! श्रीकृष्ण ! आप यह भेंट ग्रहण कीजिये और मुझे सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुएँ दीजिये।
‘ इस मन्त्रसे भगवान्को भेंट अर्पण करके दोनों घुटने पृथ्वीपर टेककर व्रती पुरुष विनयसे नतमस्तक हो हाथ जोड़कर इस प्रकार प्रार्थना करे—
नमो नमस्ते सुरराजराज नमोऽस्तु ते देव जगन्निवास।
कुरुष्व सम्पूर्णफलं ममाद्य नमोऽस्तु तुभ्यं पुरुषोत्तमाय ॥
(ना० पूर्व० १७।१०५)
‘ देवताओंके राजाधिराज ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। सम्पूर्ण जगत्के निवासस्थान नारायणदेव ! आपको नमस्कार है। आज मेंरे इस व्रतको पूर्णतः सफल बनाइये। आप पुरुषोत्तमको नमस्कार है।
‘ इस प्रकार ब्राह्मणो तथा भगवान् पुरुषोत्तमसे प्रार्थना करे। तत्पश्चात् महालक्ष्मीसहित भगवान् विष्णुको निमन्कित मन्त्रसे अर्घ्य दे।
लक्ष्मीपते नमस्तुभ्यं क्षीरार्णवनिवासिने।
अर्घ्यं गृहाण देवेश लक्ष्म्या च सहितः प्रभो ॥
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु।
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम् ॥
(ना० पूर्व० १७।१०७— १०८)
‘ लक्ष्मीपते ! क्षीरसागरमें निवास करनेवाले आपको नमस्कार है। देवेश्वर ! प्रभो ! आप लक्ष्मीजीके साथ यह अर्घ्य स्वीकार करें। जिनके स्मरण तथा नामोच्चारण करनेसे तप तथा यज्ञकर्म आदिमें जो त्रुटि रह गयी हो, उसकी पूर्ति हो जाती है, उन भगवान् अच्युतको मैं शीघ्र मस्तक झुकाता हूँ।’
इस प्रकार देवेश्वर भगवान् विष्णुसे वह सब कुछ निवेदन करके संयमशील व्रती पुरुष दक्षिणासहित प्रतिमा आचार्यको समर्पित करे। उसके बाद ब्राह्मणोको भोजन करावे और यथाशक्ति दक्षिणा दे। फिर स्वयं भी बन्धुजनोंके साथ मौन होकर भोजन करे। फिर सायंकालतक विद्वानोंके साथ बैठकर भगवान् विष्णुकी कथा सुने। नारदजी ! जो मनुष्य इस प्रकार द्वादशी— व्रत करता है, वह इहलोक और परलोकमें सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है तथा सब पापोंसे मुक्त हो अपनी इक्कीस पीढ़ियोंके साथ भगवान् विष्णुके धाममें जाता है, जहाँ जाकर कोई शोकका सामना नहीं करता। ब्रह्मन् ! जो इस उत्तम द्वादशी— व्रतको पढ़ता अथवा सुनता है, वह मनुष्य वाजपेय यज्ञका फल पाता है।
अध्याय - १७ मार्गशीर्ष— पूर्णिमासे आरम्भ होनेवाले लक्ष्मीनारायण— व्रतकी उद्यापनसहित विधि और महिमा
श्रीसनकजी कहते है— मुनिश्रेष्ठ ! अब मैं दूसरे उत्तम व्रतका वर्णन करता हूँ, सुनिये। वह सब पापोंको दूर करनेवाला, पुण्यजनक तथा सम्पूर्ण दुःखोंका नाशक है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा स्त्री— इन सबकी समस्त मनोवाञ्छित कामनाओंको सफल करनेवाला तथा सम्पूर्ण व्रतोंका फल देनेवाला है। उस ब्रतसे बुरे— बुरे स्वप्नोंका नाश हो जाता है। वह धर्मानुकूल व्रत दुष्ट ग्रहोकी बाधाका निवारण करनेवाला है, उसका नाम है पूर्णिमाव्रत। वत परम उत्तम तथा सम्पूर्ण जगत्में विख्यात है। उसके पालनसे पापोंकी करोड़ों राशियाँ नष्ट हो जाती हैं।
मार्गशीर्ष मासके शुक्लपक्षकी पूर्णिमा तिथिको संयम— नियमपूर्वक पवित्र हो शास्त्रीय आचारके अनुसार दन्तधावनपूर्वक स्नान करे; फिर श्वेत वस्त्र धारण करके शुद्ध हो मौनपूर्वक घर आवे। वहाँ हाथ— पैर धोकर आचमन करके भगवान् नारायणका स्मरण करे और संध्या— वन्दन, देवपूजा आदि नित्यकर्म करके संकल्पपूर्वक भक्तिभावसे भगवान् लक्ष्मीनारायणकी पूजा करे। व्रती पुरुष ’ नमो नारायणाय’— इस मन्त्रसे आवाहन, आसन तथा गन्ध, पुरुष आदि उपचारोंद्वारा भक्ति— तत्पर हो भगवान्की अर्चना करे और एकाग्रचित हो वह गीत, वाद्य, नृत्य, पुराण— पाठ तथा स्तोत्र आदिके द्वारा श्रीहरिकी आराधना करे। भगवान्के सामने चौकोर वेदी बानवे, जिसकी लंबाई— चौड़ाई लगभग एक हाथ हो। उसपर गृहा— सूत्रमें बतायी हुई पद्धतिके अनुसार अग्निकी स्थापना करे और उसमें आज्यभागान्त होम करके पुरुषसूक्तके मन्त्रोंसे चरु, तिल तथा घृतद्वारा यथाशक्ति एक दो, तीन बार होम करे। सम्पूर्ण पापोंकी निवृत्तिके लिये प्रयत्नपूर्वक होमकार्य सम्पन्न करना चाहिये। अपनी शाखाके गृह्यसूत्रमें बतायी हुई विधिके अनुसार प्रायश्चित्त आदि सब कार्य करे। फिर विधिवत् होमकी समाप्ति करके विद्वान् पुरुष शान्तिसूक्तका जप करे। तत्पश्चात् भगवान्के समीप आकर पुनः उनकी पूजा करे और अपना उपवासव्रत भक्तिभावसे भगवान्को अर्पण करे।
पौर्णमास्यां निराहारः स्थित्वा देव तवाज्ञया।
भोक्ष्यामि पुण्डरीकाक्ष परेऽह्लि शरणं भव ॥
(ना० पूर्व० १८।१३)
‘ देव ! पुण्डरीकाक्ष ! मैं पूर्णिमाको निराहार रहकर दूसरे दिन आपकी आज्ञासे भोजन करूँगा। आप मेंरे लिये शरण हो।’
इस प्रकार भगवान्को व्रत निवेदन करके संध्याको चन्द्रोदय होनेपर पृथ्वीपर दोनों घुटने टेककर श्वेत पुष्प, अक्षत, चन्दन और जलसहित अर्घ्य हाथमें ले चन्द्रदेवको समर्पित करे—
क्षीरोदार्ण्वसम्भूत अत्रिगोत्रसमुद्भव।
गृहाणार्घ्यं मया दत्तं रोहिणीनायक प्रभो ॥
(ना० पूर्व० १८।१५)
‘ भगवन् रोहिणीपते ! आपका जन्म अत्रिकुलमें हुआ है और आप क्षीरसारगरसे प्रकट हुए हैं। मेंरे दिये हुए इस अर्घ्यको स्वीकार कीजिये।
‘ नारदजी ! इस प्रकार चन्द्रदेवको अर्घ्य देकरर पूर्वभिमुख खड़ा हो चन्द्रमाकी ओर देखते हुए हाथ जोड़कर प्रार्थना करे—
नमः शुक्लांशवे तुभ्यं द्विजराजाय ते नमः।
रोहिणीपतये तुभ्यं लक्ष्मीभ्रात्रे नमोऽस्तु ते ॥
(ना० पूर्व० १८।१७)
‘ भगवन् ! आप श्वेत किरणोंसे सुशोभित होते हैं, आपको नमस्कार है। आप द्विजोंके राजा हैं, आपको नमस्कार है। आप रोहिणीके पति हैं, आपको नमस्कार है। आप लक्ष्मीजीके भाई हैं, आपको नमस्कार है।’
तदनन्तर पुराण— श्रवण आदिके द्वारा जितेन्द्रिय एवं शुद्ध भावसे रातभर जागरण करे। पाखण्डियोंकी दृष्टिसे दूर रहे। फिर प्रातःकाल उठकर अपने नित्य— नियमका विधिपूर्वक पालन करे। उसके बाद अपने वैभवके अनुसार पुनः भगवान्की पूजा करे। तत्पश्चात् यथाशक्ति ब्राह्मणोको भोजन करावे और स्वय़ं भी शुद्धचित्त हो अपने भाई— बन्धुओं तथा भृत्य आदिके साथ भोजन करे। भोजनके समय मौन रहे। इसी प्रकार पौष आदि महीनोंमें भी पूर्णिमाको उपवास करके भक्तियुक्त हो रोग— शोकरहित भगवान् नारयणकी पूजा— अर्चा करे। इस तरह एक वर्ष पूरा करके कार्तिककी पूर्णिमाके दिन उद्यापन करे। उद्यापनका विधान तुम्हें बतलाता हूँ ! व्रती पुरुष एक परम सुन्दर चौकोर मङ्लमय मण्डप बनवावे, जो पुष्प— लताओंसे सुशोभित तथा चँदोवा और ध्वजा— पताकासे सुसज्जित हो। वह मण्डप अनेक दीपकोंके प्रकाशसे व्याप्त होना चाहिये। उसकी शोभा बढ़ानेके लिये छोटी— छोटी घण्टिकाओंसे सुशोभित झालर लगा देनी चाहिये। उसमें किनारे— किनारे बड़े— बड़े शीशे और चँवर लगा देने चाहिये। कलशोंसे वह मण्डप घिरा रहे। मण्डपके मध्य भागमें पाँच रंगोंसे सुशोभित सर्वतोभद्र मण्डल बनावे। नारदजी ! उस मण्डलपर जलसे भरा हुआ एक कलश स्थापित करे। फिर सुन्दर एवं महीन वस्त्रसे उस कलशको ढक दे। उसके ऊपर सोने, चाँदी अथवा ताँबेसे भगवान् लक्ष्मीनारायणकी परम सुन्दर प्रतिमा बनाकर स्थापित करे। तदनन्तर जितोन्द्रिय पुरुष भक्तिभावसे भगवान्को पञ्चामृतद्वार स्नान करावे और क्रमशः गन्ध, पुष्प, धूप, दीप आदि सामग्रियो तथा भक्ष्य, भोज्य आदि नैवेद्योंद्वारा उनकी पूजा करके उत्तम श्रद्धापूर्वक रातमें जारगरण करे दूसरे दिन प्रातःकाल पूर्ववत् भगवान् विष्णुकी विधिपूर्वक अर्चना करे। फिर दक्षिणासहित प्रतिमा आचार्यको दान कर दे और धन— वैभव हो तो ब्राह्मणोको यथाशक्ति अवश्य भोजन करावे। उसके बाद एकाग्रचित्त हो विद्वान् पुरुष यथाशक्ति तिल दान करे और तिलका ही विधिपूर्वक अग्निमें होम करे। जो मनुष्य इस प्रकार भलीभाँति लक्ष्मीनारायणका व्रत करता है, वह इस लोकमें पुत्र— पौत्रोंके साथ महान् भोग भोगकर सब पापोंसे मुक्त हो अपनी बहुत— सी पीढ़ियोंके साथ भगवान्के वैकुण्ठधाममें जाता है, जो योगियोंके लिये भी दुर्लभ है।
अध्याय - १८ श्रीविष्णुमंदिरमें ध्वजारोपणकी विधि और महिमा
श्रीसनकजी कहते हैं-नारदजी ! अब मैं ध्वजारोपण नामक दूसरे व्रतका वर्णन करूँगा, जो सब पापोंको हर लेनेवाला, पुण्यस्वरूप तथा भगवान् विष्णुकी प्रसन्नताका कारण है । जो भगवान् विष्णुके मन्दिरमें ध्वजारोपणका उत्तम कार्य करता है, वह ब्रह्मा आदि देवताओंद्वारा पूजित होता है । बहुत-सी दूसरी बातें कहनेसे क्या लाभ ! जो कुटुम्बयुक्त ब्राह्मणको सुवर्णका एक हजार भार दान देता है, उसके उस दानका फल ध्वजारोपण-कर्मके बराबर ही होता है । परम उत्तम गंगा-स्नान, तुलसीकी सेवा अथवा शिवलिंगका पूजन-ये सब कर्म ही ध्वजारोपणकी समानता कर सकते हैं । ब्रह्मन् ! यह ध्वजारोपण नामक कर्म अद्भुत है, अपूर्व है और आश्चर्यजनक है । यह सब पापोंको दूर करनेवाला है । ध्वजारोपण कार्यमें जो-जो कार्य आवश्यक हैं, उन सबको बतलाता हूँ, आप मेरे मुखसे सुनें ।
कार्तिक मासके शुक्लपक्षमें दशमी तिथिको मनुष्य अपने मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए, प्रयत्नपूर्वक दातुन करके स्नानन करे । व्रत करनेवाला ब्राह्मण उस दिन एक समय भोजन करे, ब्रह्यचर्यसे रहे और धुले हुए शुद्ध वस्त्र धारण करके शुद्धतापूर्वक भगवान् नारायणके सामने उन्हींका स्मरण करते हुए रातमें शयन करे । तत्पश्चात् प्रातःकाल उठकर विधिपूर्वक स्नान और आचमन करके नित्यकर्म पूर्ण करनेके अनन्तर भगवान् विष्णुकी पूजा करे । चार ब्राह्मणोंके साथ स्वस्तिवाचन करके ध्वजारोपणके निमित्त नान्दीमुख-श्राद्ध करे । वस्त्रसहित ध्वज और स्तम्भका गायत्री-मन्त्रद्वारा प्रोक्षण ( जलसे अभिषेक ) करे । फिर उस ध्वजके वस्त्रमें सूर्य, गरुड और चन्द्रमाकी पूजा करे । ध्वजके द्ण्डमें धाता और विधाताका पूजन करे । हल्दी अक्षत और गन्ध आदि सामग्रियोंसे विशेषतः श्वेत पुष्पोंसे पूजन करना चाहिये । तदनन्तर गोचर्म बराबर एक वेदी बनाकर उसे जल और गोबरसे लीपे । फिर अपनी शाखाके गृह्यसूत्रमें बतलायी हुई विधिके अनुसार पञ्चभू-संस्कारपूर्वक अग्रिकी स्थापना करके क्रमशः आघार और आज्य-भाग आदि होमकार्य करे । फिर घृतमिश्रित खीरकी एक सौ आठ आहुति दे । यह आहुति प्रधान देवता भगवान् विष्णुके अष्टाक्षर-मन्त्रसे देनी चाहिये । ( यथा ’ॐ नमो नारायणाय स्वाहा ।’) ब्रह्मन् ! इसके बाद पुरुषसूक्तके प्रथम मन्त्र, विष्णोर्नुकम्, इरावत, वैनतेयाय स्वाहा, सोमो धेनुम् और उदुत्यं जातवेदसम्- इन मन्त्रोंसे क्रमशः आठ-आठ आहुति अग्रिमें डाले । तत्पश्चात् वहाँ यथाशक्ति ’बिभ्राड् बृहत् पिबतु सोम्यं मधु ’ इत्यादि ( यजु० ३३ ।३० ) सूर्यदेवतासम्बन्धी मन्त्रों तथा ’शं नो मित्रः शं वरुणः ’ (यजु० ३६ ।९) इत्यादि शान्तिसूक्तके मन्त्रोंका पाठ या जप करे और पवित्रतापूर्वक भगवान् विष्णुके समीप रात्रिमें जागरण करे । दूसरे दिन प्रातःकाल नित्यकर्म समाप्त करके गन्ध, पुष्प आदिके द्वारा क्रमशः पहलेकी तरह ही भगवान्कि पूजा करनी चाहिये । तदनन्तर उस सुन्दर ध्वजको मंगलवाद्य , सूक्तपाठ , स्तोत्रगान और नृत्य आदि उत्सवके साथ भगवान् विष्णुके मन्दिमें ले जाय । नारदजी ! भगवान्के द्वारपर अथवा मन्दिरके शिखरपर खम्भेसहित उस ध्वजको प्रसन्नतापूर्वक दृढ़ताके साथ स्थापित करे । फिर गन्ध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप आदि मनोहर उपचारों तथा भक्ष्य-भोज्य आदि पदार्थयुक्त नैवेद्योंसे भगवान् विष्णुकी पूजा करे । इस प्रकार उत्तम एवं सुन्दर ध्वजको देवालयमें स्थापित करके परिक्रमा करे ।
इसके बाद भगवान्के सामने इस स्तोत्रका पाठ करे । पुण्डरीकाक्ष ! कमलनयन ! आपको नमस्कार है । विश्वभावन ! आपको नमस्कार है । हृषीकेश ! महापुरुष ! सबके पूर्वज ! आपको नमस्कार है । जिनसे यह सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ है, जिनमें यह सब प्रतिष्ठित है और प्रलयकाल आनेपर जिनमें ही इसका लय होगा, उन भगवान् विष्णुकी मैं शरण लेता हूँ । ब्रह्मा आदि देवता भी जिनके परम भाव ( यथार्थ स्वरूप )- को नहीं जानते और योगी भी जिन्हें नहीं देख पाते, उन ज्ञानस्वरूप श्रीहरिकी मैं वन्दना करता हूँ । अन्तरिक्ष जिनकी नाभि है, द्युलोक जिनका मस्तक है और पृथ्वी जिनका चरण है, उन विश्वरूप भगवान्को मैं प्रणाम करता हूँ । सम्पूर्ण दिशाएँ जिनके कान हैं, सूर्य और चन्द्रमा जिनके नेत्र हैं तथा ऋक्, साम और यजुर्वेद जिनसे प्रकाशित हुए हैं, उन ब्रह्मस्वरूप भगवान् विष्णुको मैं नमस्कार करता हूँ । जिनके मुखसे ब्राह्यण उत्पन्न हुए हैं, जिनकी भुजासे क्षत्रियोंकी उत्पत्ति हुई है, जिनके ऊरुसे वैश्य प्रकट हुए हैं और जिनके चरणोंसे शूद्रका जन्म हुआ है, विद्वान् लोग मायाके संयोगमात्रसे जिन्हें पुरूष कहते हैं, जो स्वभावतः निर्मल, शुद्ध, निर्विकार तथा दोषोंसे निर्लिप्त हैं, जिनका कहीं अन्त नहीं है, जो किसीसे पराजित नहीं होते और क्षीरसागरमें शयन करते हैं, श्रेष्ठ भक्तोंपर जिनकी स्नेहधारा सदा प्रवाहित होती रह्ती है तथा जो भक्तिसे ही सुलभ होते हैं, उन भगवान् विष्णुको मैं प्रणास करता हूँ । पृथ्वी आदि पाँच भूत, तन्मात्रएँ, इन्द्रियाँ तथा सूक्ष्म और स्थूल सभी पदार्थ जिनसे अस्तित्व लाभ करते हैं, सब ओर मुखवाले उन सर्वव्यापी परमेश्वरको मैं नमस्कार करता हूँ । जिन्हें सम्पूर्ण लोकोंमें उत्तम-से-उत्तम, निर्गुण, अत्यन्त सूक्ष्म, परम प्रकाशमय परब्रह्म कहा गया है, उन श्रीहरिको मैं बारम्बार प्रणाम करता हूँ । योगीश्वरगण जिन्हें निर्विकार, अजन्मा, शुद्ध, सब ओर बाँहवाले तथा ईश्वर मानते हैं, जो समस्त कारणतत्वोके भी कारण हैं, जो भगवान् सम्पूर्ण प्राणियोंके अन्तर्यामी आत्मा हैं, यह जगत् जिनका स्वरूप विष्णु मुझपर प्रसन्न हों । जो मायासे मोहित चित्तवाले अज्ञानी पुरुषोंके लिये हृदयमें रहकर भी उनसे दूर बने हुए हैं और ज्ञानियोंके लिये जो सर्वत्र प्राप्त हैं, वे भगवान् विष्णु मुझपर प्रसन्न हों । चार, दो, पाँच और दो अक्षरवाले मन्त्रोंसे जिनके लिये आहुति दी जाती है, वे विष्णुभगवान् मुझपर प्रसन्न हों । जो ज्ञानियों, कर्मयोगियों तथा भक्त पुरुषोंकी उत्तम गति प्रदान करनेवाले हैं, वे विश्वपालक भगवान् मुझपर प्रसन्न हों । जगत्का कल्याण करनेके लिये श्रीहरि लीलापूर्वक जिन शरीरोंकी धारण करते हैं, विद्वान् लोग उन सबकी पूजा करते हैं, वे लीलाविग्रहधारी भगवान् मुझपर प्रसन्न हों । ज्ञानी महात्मा जिन्हें सच्चिदानन्दस्वरूप निर्गुण तथा गुणोंके अधिष्ठान मानते हैं, वे भगवान् विष्णु मुझपर प्रसन्न हों ।
इस प्रकार स्तुति करके भगवान् विष्णुको प्रणाम और ब्राह्मणोंका पूजन करे । तत्पश्चात दक्षिणा और वस्त्र आदिके द्वारा आचार्यकी भी पूजा करे । विप्रवर ! उसके बाद भक्तिभावसे पूर्ण होकर यथाशक्ति ब्राह्यणोंको भोजन करावे । फिर स्त्री-पुत्र और मित्र आदि बन्धुजनोंके साथ स्वयं भी भोजन करे तथा निरन्तर भगवान् नारायणके चिन्तनमें लगा रहे । नारदजी ! जितने क्षणोंतक उस ध्वजाकी पताका वायुसे फहराती रहती है, आरोपण करनेवाले मनुष्यकी उतनी ही पाप-राशियाँ निस्संदेह नष्ट हो जाती हैं । महापातकोंसे युक्त अथवा सम्पूर्ण पातकोंसे दूषित पुरुष भी भगवान् विष्णुके मन्दिरमें ध्वजा फहराकर सब पातकोंसे मुक्त हो जाता है । जो धार्मिक पुरुष ध्वजाको आरोपित देखकर उसका अभिनन्दन करते हैं, वे सभी अनेकों महापातकोंसे मुक्त हो जाते हैं । भगवान् विष्णुके मन्दिरमें स्थापित किया हुआ ध्वज जब अपनी पताका फहराने लगता है, उस समय आधे पलमें ही वह उसे आरोपित करनेवाले पुरुषके सम्पूर्ण पापोंको नष्ट कर देता है ।
अध्याय - १९ हरिपञ्चक—व्रतकी विधि और माहात्म्य
श्रीसनकजी कहते हैं—नारदजी ! अब मैं दूसरे व्रतका यथार्थरूपसे वर्णन करता हूँ, सुनिये । यह व्रत हरिपञ्चक नामसे प्रसिद्ध है और सम्पूर्ण लोकोंमें दुर्लभ है । मुनिश्रेष्ठ ! स्त्रियों तथा पुरुषोंके सम्पूर्ण दुःखोंका इससे निवारण हो जाता है तथा यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्ति करानेवाला एवं सम्पूर्ण मनोरथों और समस्त व्रतोंके फलको देनेवाला है । मार्गशीर्ष मासके शुक्लपक्षकी दशमी तिथिको मनुष्य अपने मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए शौच, दन्तधावन और स्नान करके शास्त्रविहित नित्यकर्म करे । फिर भलीभाँति देवपूजन तथा पञ्च महायज्ञोंका अनुष्ठान करके उस दिन नियमपूर्वक रहकर केवल एक समय भोजन करे । मुनीश्वर ! दूसरे दिन एकादशीको प्रातः—काल उठकर स्नान और नित्यकर्मसे निवृत्त होकर अपने घरपर भगवान् विष्णुकी पूजा करे । पञ्चामृतकी विधिसे देवदेवेश्वर श्रीहरिको स्नान करावे । तत्पश्चात् गन्ध, पुष्प आदिसे तथा धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल और परिक्रमाद्वारा उत्तम भक्तिभावके साथ क्रमशः भगवान्की अर्चना करे । देवदेवेश्वर भगवान्की भलीभाँति पूजा करके इस मन्त्रका उच्चारन करे—
नमस्ते ज्ञानरूपाय ज्ञानदाय नमोऽस्तु ते ॥ नमस्ते सर्वरूपाय सर्वसिद्धिप्रदायिने । (ना० पूर्व० २१ ।८—९)
‘प्रभो ! आप ज्ञानस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है । आप ज्ञानदाता हैं, आपको नमस्कार है । आप सर्वरूप तथा सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाले हैं, आपको नमस्कार है ।’
इस प्रकार सर्वव्यापी देवेश्वर भगवान् जनार्दनको प्रणास करके आगे बताये जानेवाले मन्त्रके द्वारा अपना उपवास—व्रत भगवान्को समर्पित करे—
पञ्चरात्रं निराहारो ह्यद्यप्रभृति केशव ॥ त्वदाज्ञया जगत्स्वामिन् ममाभीष्टप्रदो भव । (ना० पूर्व० २१ ।१० ।११)
‘सम्पूर्ण जगत्के स्वामी केशव ! आपकी आज्ञासे मैं आजसे पाँच राततक निराहार रहूँगा । आप मुझे मेंरी अभीष्ट वस्तु प्रदान करें ।
‘इस प्रकार भगवान्को उपवास समर्पित करके जितेन्द्रिय पुरुष रातमें जागरण करे । मुने ! एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमाको इन्द्रियसंयम एवं उपवासपूर्वक इसी प्रकार भगवान् विष्णुका पूजन करना चाहिये । विप्रवर ! एकादशी तथा पूर्णिमाकी रात्रिमें ही जागरण करना चाहिये । पञ्चामृत आदि सामग्रियोंसे की जानेवाली पूजा तो पाँचों दिन समानरूपसे आवश्यक है; परंतु पूर्णिमाके दिन यथाशक्ति दूधके द्वारा भगवान् विष्णुको स्नान कराना चाहिये । साथ ही तिलका होम और दान भी करना चाहिये । तत्पश्चात् छठा दिन आनेपर अपना आश्रमोचित कर्म करके पञ्चगव्य पीकर विधिपूर्वक श्रीहरिकी पूजा करे । यदि अपने पास धन हो तो ब्राह्मणोको बेरोक—टोक भोजन करावे । तदनन्तर भाई— बन्धुओंके साथ स्वयं भी मौन होकर भोजन करे । नारदजी ! इस प्रकार पौषसे लेकर कार्तिकतकके महीनोंमें भी शुक्लपक्षमें मनुष्य पूर्वोक्त विधिसे इस व्रतको करे । इस प्रकार इस पापनाशक व्रतको एक वर्षतक करे । फिर मार्गशीर्ष मास आनेपर व्रती पुरुष उसका उद्यापन करे । ब्रह्मन् ! एकादशीको पहलेकी ही भाँति निराहार रहना चाहिये और द्वादशीको एकाग्रचित्त हो पञ्चगव्य पीना चाहिये । फिर गन्ध, पुष्प आदि सामग्रियोंसे देवदेव जनार्दनकी भलीभाँति पूजा करके जितेन्द्रिय पुरुष ब्राह्मणको भेंट दे । मुनीश्वर ! मधु और घृतयुक्त खीर, फल, सुगन्धित जलसे भरा और वस्त्रसे ढका हुआ पञ्चरत्न और दक्षिणासहित कलश अध्यात्मतत्त्वके ज्ञाता ब्राह्मणको दान करे । (उस समय निमनाङ्कितरूपसे प्रार्थना करे—)
सर्वात्मन् सर्वभूतेश सर्वव्यापिन् सनातन । परमान्नप्रदानेन सुप्रीतो भव माधव ॥ (ना० पूर्व० २१ ।२३)
‘सबके आत्मा, सम्पूर्ण भूतोंके स्वामी, सर्वव्यापी, सनातन माधव ! आप इस उत्तम अन्नके दानसे अत्यन्त प्रसन्न हो ।’
इस मन्त्रसे खीर दान करके यथाशक्ति ब्राह्मण—भोजन करावे और स्वयं भी मौन होकर भाई—बन्धुओंके साथ भोजन करे । जो इस हरिपञ्चक नामक व्रतका पालन करता है, उसका ब्रह्मलोक अर्थात् परमात्माके परम धामसे कभी पुनरागमन नहीं होता । उत्तम मोक्षकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको यह व्रत अवश्य करना चाहिये । ब्रह्मन् ! यह व्रत सम्पूर्ण पापरूपी दुर्गम वनको जलानेके लिये दावानलके समान है । जो मानव भगवान् नारायणके चिन्तनमें तत्पर हो भक्तिपूर्वक इस प्रसंगको सुनता है, वह महाघोर पातकोंसे मुक्त हो जाता है ।
अध्याय - २० मासोपवास—व्रतकी विधि और महिमा
श्रीसनकजी कहते हैं—नारदजी ! अब मैं मासोपवास नामक दूसरे श्रेष्ठ व्रतका वर्णन करूँगा; एकाग्रचित्त होकर सुनिये । वह सब पापोंको हर लेनेवाला, पवित्र तथा सब लोकोंका उपकार करनेवाला है । विप्रवर ! आषाढ़, श्रावण, भादों अथवा आश्विन मासमें इस व्रतको करना चाहिये । इनमेंसे किसी एक मासके शुक्ल पक्षमें जितेन्द्रिय पुरुष पञ्चगव्य पीये और भगवान् विष्णुके समीप शयन करे । तदनन्तर प्रातःकाल उठकर नित्यकर्म समाप्त करनेके पश्रात् मन और इन्द्रियोंको वशमें करके क्रोधरहित हो, श्रद्धापूर्वक भगवान् विष्णुकी पूजा करे । विद्वानोंके साथ भगवान् विष्णुका यथोचित पूजन करके स्वस्तिवाचनपूर्वक यह संकल्प करे—
मासमेंकं निराहारो ह्यद्यप्रभृति केशव । मासान्ते पारणं कुर्वे देवदेव तवाज्ञया॥ तपोरूप नमस्तुभ्यं तपसां फलदायक । ममाभीष्टफलं देहि सर्वविघ्नान् निवारय॥ (ना० पूर्व० २२ ।६—७)
देवदेव ! केशव ! आजसे एक मासतक मैं निराहार रहकर मासके अन्तमें आपकी आज्ञासे पारण करूँगा । प्रभो ! आप तपस्यारूप हैं और तपस्याके फल देनेवाले हैं । आपको नमस्कार है । आप मुझे अभीष्ट फल दें और मेंरे सम्पूर्ण विघ्रोंका निवारण करें ।’
इस प्रकार भगवान् विष्णुको शुभ मासव्रत समर्पण करके उस दिनसे लेकर महीनेके अन्ततक भगवान् विष्णुके मन्दिरमें निवास करे और प्रतिदिन पञ्चामृतकी विधिसे भगवानको स्नान करावे । उस महीनेमें निरन्तर भगवान्के मन्दिरमें दीप जलावे । नित्यप्रति अपामार्ग (ऊँगा—चिरचिरा)—की दातुन करे और भगवान् नारायणके चिन्तनमें रत हो विधिपूर्वक स्नान करे । तदनन्तर पहलेकी भाँति संयमपूर्वक भगवान् विष्णुको स्नान करावे और उनकी पूजा करे । इस प्रकार मासोपवास पूरा होनेपर भगवत्पूजनपूर्वक यथाशक्ति ब्राह्मणोको भोजन करावे और भक्तिपूर्वक उन्हें दक्षिणा दे । फिर स्वयं भी इन्द्रियोंको वशमें करके बन्धुजनोंके साथ भोजन करे । इस प्रकार व्रती पुरुष तेरह बार मासोपवास अर्थात् प्रतिवर्ष एक मासोपवास—व्रत करता हुआ तेरह वर्षतक व्रत करे । उसके अन्तमें वेदवेत्ता ब्राह्मणको दक्षिणासहित गोदान करे । बारह ब्राह्मणोको विधिपूर्वक भोजन करावे और अपनी शक्तिके अनुसार उन्हें वस्त्र, आभूषण तथा दक्षिणा दे । इस प्रकार जो मनुष्य इन्द्रियसंयमपूर्वक तेरह पराक पूर्ण कर लेता है, वह परमानन्द पदको प्राप्त होता है, जहाँ जाकर कोई शोक नहीं करता । मासोपवास—व्रतमें लगे हुए, गङ्गास्नानमें तत्पर तथा धर्ममार्गका उपदेश करनेवाले मनुष्य निस्संदेह मुक्त ही हैं । विधवा स्त्रियों, संन्यासियों, ब्रह्मचारियों और विशेषतः वानप्रस्थियोंको यह मासोपवास—व्रत करना चाहिये । स्त्री हो या पुरुष, इस परम दुर्लभ व्रतका अनुष्ठान करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है, जो योगियोंके लिये भी दुर्लभ है । गृहस्थ हो या वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी हो या संन्यासी तथा मूर्ख हो या पण्डित—इस प्रसंगको सुनकर कल्याणका भागी होता है । जो भगवान् नारायणकी शरण होकर इस पुण्यमय व्रतका वर्णन सुनता अथवा पढ़ता है, वह पापोंसे मुक्त हो जाता है ।
अध्याय - २१ एकादशी— व्रतकी विधि और महिमा— भद्रशीलकी कथा
श्रीसनकजी कहते हैं—नारदजी ! अब मैं इस अन्य व्रतका, जो तीनों लोकोंमें विख्यात है, वर्णन करूँगा । यह सब पापोंका नाश करनेवाला तथा सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलोंको देनेवाला है । इसका नाम है—एकादशी—व्रत । यह भगवान् विष्णुको विशेष प्रिय है । ब्रह्मन् ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और स्त्री—जो भी भक्तपूर्वक इस व्रतका पालन करते हैं, उनको यह मोक्ष देनेवाला है । यह मनुष्योंको उनकी समस्त अभीष्ट वस्तुएँ प्रदान करता है । विप्रवर ! सब प्रकारसे इस व्रतका पालन करना चाहिये; क्योंकि यह भगवान् विष्णुको प्रसन्न करनेवाला है । दोनों पक्षकी एकादशीको भोजन न करे । जो भोजन कर लेता है, वह इस लोकमें बड़ा भारी पापी है । परलोकमें उसे नरककी प्राप्ति होती है । मुनीश्वर ! मनुष्य यदि मुक्तिकी अभिलाषा रखता है तो वह दशमी और द्वादशीको एक समय भोजन करे और एकादशीको सर्वथा निराहार रहे । महापातकों अथवा सब प्रकारके पातकोंसे युक्त मनुष्य भी यदि एकादशीको निराहार रहे तो वह परम गतिको प्राप्त होता है । एकादशी परम पुण्यमयी तिथि है । यह भगवान् विष्णुको बहुत प्रिय है । संसार—बन्धनका उच्छेद करनेकी इच्छावाले ब्राह्मणोको सर्वथा इसका सेवन करना चाहिये । दशमीको प्रातःकाल उठकर दन्तधावनपूर्वक स्नान करे और इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए विधिपूर्वक भगवान् विष्णुका पूजन करे । रातमें भगवान् नारायणका चिन्तन करते हुए उन्हींके समीप शयन करे । एकादशीको सबेरे उठकर शौच—स्नानके अनन्तर गन्ध, पुष्प आदि सामग्रियोंद्वारा भगवान् विष्णुकी विधिपूर्वक पूजा करके इस प्रकार कहे—
एकादश्यां निराहारः स्थित्वाद्याहं परेऽहनि । भोक्ष्यामि पुण्डरीकाक्ष शरणं में भवाच्युत ॥ (ना० पूर्व० २३ ।१५)
कमलनयन अच्युत ! आज एकादशीको निराहार रहकर मैं दूसरे दिन भोजन करूँगा । आप मेंरे लिये शरणदाता हो ।’
सुदर्शनचक्रधारी देवदेव भगवान् विष्णुके समीप भक्तिभावसे उक्त मन्त्रका उच्चारण करके संतुष्टचित्त हो उन्हें एकादशीका उपवास समर्पित करे । व्रती पुरुष नियमपूर्वक रहकर भगवान् विष्णुके समक्ष गीत, वाद्य, नृत्य तथा पुराणश्रवण आदिके द्वारा रातमें जागरण करे । तदनन्तर द्वादशीके दिन प्रातःकाल उठकर व्रतधारी पुरुष स्नान करे और इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए विधिपूर्वक भगवान् विष्णुकी पूजा करे । विप्रवर ! जो एकादशीके दिन भगवान् जनार्दनको पञ्चामृतसे स्नान कराकर द्वादशीको दूधसे नहलाता है, वह श्रीहरिका सारूप्य प्राप्त कर लेता है । (पूजनके पश्चात् इस प्रकार प्रार्थना करे—)
अज्ञानतिमिरान्धस्य व्रतेनानेन केशव । प्रसीद सुमुखो भूत्वा ज्ञानदृष्टिप्रदो भवा ॥ (ना० पूर्व० २३ ।२०)
‘केशव ! मैं अज्ञानरूपी तिमिर रोगसे अन्धा हो रहा हूँ । मेंरे इस व्रतसे आप प्रसन्न हो और प्रसन्नमुख होकर मुझे ज्ञानदृष्टि प्रदान करें ।’
विप्रवर ! इस प्रकार द्वारशीके दिन भगवान् लक्ष्मीपतिसे निवेदन करके एकाग्रचित्त हो यथाशक्ति ब्राह्मणोको भोजन करावे और उन्हें दक्षिणा दे । तत्पश्चात् अपने भाई—बन्धुओंके साथ भगवान् नारायणका चिन्तन करते हुए पञ्चमहायज्ञ (बलिवैश्वदेव) करके स्वयं भी मौनभावसे भोजन करे । जो इस प्रकार संयमपूर्वक पवित्र एकादशी—व्रतका पालन करता है, वह पुनरावृत्तिरहित वैकुण्ठधाममें जाता है । उपवास—व्रतमें तत्पर तथा धर्मकार्यमें संलग्न मनुष्य चाण्डालों और पतितोंकी ओर कभी न देखे । जो नास्तिक हैं, जिन्होंने मर्यादा भङ्ग की है तथा जो निन्दक और चुगले हैं, ऐसे लोगोंसे उपवास—व्रत करनेवाला पुरुष कभी बातचीत न करे । जो यज्ञके अनधिकारियोंसे यज्ञ करानेवाला है, उससे भी व्रती पुरुष कभी न बोले । जो कुण्ड (पतिके जीते—जी परपुरुषसे उत्पन्न किये हुए पुरुष)—का अन्न खाता, देवता और ब्राह्मणसे विरोध रखता, पराये अन्नके लिये लालायित रहता और परायी स्त्रियोंमें आसक्त होता है, ऐसे मनुष्यका व्रती पुरुष वाणीमात्रसे भी आदर न करे । जो इस प्रकारके दोषोंसे रहित, शुद्ध, जितेन्द्रिय तथा सबके हितमें तत्पर है, वह उपवासपरायण होकर परम सिद्धिको प्राप्त कर लेता है । गङ्गाके समान कोई तीर्थ नहीं है । माताके समान कोई गुरु नहीं है । भगवान् विष्णुके समान कोई देवता नहीं है और उपवाससे बढ़कर कोई तप नहीं है । क्षमाके समान कोई माता नहीं है । कीर्तिके समान कोई धन नहीं है । ज्ञानके समान कोई लाभ नहीं है । धर्मके समान कोई पिता नहीं है । विवेकके समान कोई बन्धु नहीं है और एकादशीसे बढ़कर कोई व्रत नहीं है ।
इस विषयमें लोग भद्रशील और गालवमुनिके पुरातन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं । पूर्वकालकी बात है, नर्मदाके तटपर गालव नामसे प्रसिद्ध एक सत्यपरायण मुनि रहते थे । वे शम (मनोनिग्रह) और दम (इन्द्रियसंयम)—से सम्पन्न तथा तपस्याकी निधि थे । सिद्ध, चारण, गन्धर्व, यक्ष और विद्याधर आदि देवयोनिके लोग भी वहाँ विहार करते थे । वह स्थान कंद, मूल, फलोंसे परिपूर्ण था । वहाँ मुनियोंका बहुत बड़ा समुदाय निवास करता था । विप्रवर गालव वहाँ चिरकालसे निवास करते थे । उनके एक पुत्र हुआ, जो भद्रशील नामसे विख्यात हुआ । वह बालक अपने मन और इन्द्रियोंको वशमें रखता था । उसे अपने पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण थी । वह महान् भाग्यशाली ऋषिकुमार निरन्तर भगवान् नारायणके भजन—चिन्तनमें ही लगा रहता था । महामति भद्रशील बालोचित्त क्रीड़ाके समय भी मिट्टीसे भगवान् विष्णुकी प्रतिमा बनाकर उसकी पूजा करता और अपने साथियोंको समझाता कि ‘मनुष्योंको सदा भगवान् विष्णुकी आराधना करनी चाहिये और विद्वानोंको एकादशी—व्रतका भी पालन करना चाहिये ।’मुनीश्वर ! भद्रशीलद्वारा इस प्रकार समझाये जानेपर उसके साथी शिशु भी मिट्टीसे भगवान्की प्रतिमा बनाकर एकत्र या अलग—अलग बैठ जाते और प्रसन्नतापूर्वक उसकी पूजा करते थे । इस तरह वे परम सौभाग्य़शाली बालक भगवान् विष्णुके भजनमें तत्पर हो गये । भद्रशील भगवान् विष्णुको नमस्कार करके यही प्रार्थना करता था कि ‘सम्पूर्ण जगत्का कल्याण हो|’खेलके समय वह दो घड़ी य एक घडी भी ध्यानस्थ हो एकादशी—व्रतका संकल्प करके भगवान् विष्णुको समर्पित करता था । अपने पुत्रको इस प्रकार उत्तम चरित्रसे युक्त देखकर तपोनिधि गालव मुनि बड़े विस्मित हुए और उसे ह्रदयसे लगाकर पूछने लगे ।
गालव बोले—उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महाभाग भद्रशील ! तुम अपने कल्याणमय शील—स्वभावके कारण सचमुच भद्रशील हो । तुम्हारा जो मङ्लमय चरित्र है, वह योगियोंके लिये भी दुर्लभ है । तुम सदा भगवान्की पूजामें तत्पर, सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें संलग्र तथा एकादशी—व्रतके पालनमें लगे रहनेवाले हो । शास्त्रनिषिद्ध कर्मोंसे तुम सदा दूर रहते हो । तुमपर सुख— दुःख आदि द्वन्द्वोंका प्रभाव नहीं पड़ता । तुममें ममता नहीं दिखायी देती और तुम शान्तभावसे भगवान्के ध्यानमें मग्र रहते हो । बेटा ! अभी तुप बहुत छोटे हो तो भी तुम्हारी बुद्धि ऐसी किस प्रकार हुई; क्योंकि महापुरुषोंकी सेवाके बिना भगवान्की भक्ति प्रायः दुर्लभ होती है । इस जीवकी बुद्धि स्वभावतः अज्ञानयुक्त सकाम कर्मोंमें लगती है । तुम्हीरी सब क्रिया अलौकिक कैसे हो रही है? सत्यंग होनेपर भी पूर्व पुण्यकी अधिकतासे ही मनुष्योंमें भगवद्भक्तिका उदय होता है । अतः तुम्हारी अद्भुत स्थिति देखकर मैं बड़े विस्मयमें पड़ा हूँ और प्रसन्नतापूर्वक इसका कारण पूछता हूँ । अतः तुम्हें यह बताना चाहिये ।
मुनिश्रेष्ठ ! पिताके द्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर पूर्वजन्मका स्मरण रखनेवाला पुण्यात्मा भद्रशील बहुत प्रसन्न हुआ । उसके मुखपर हास्यकी छटा छा गयी । उसने अपने अनुभवमें आयी हुई सब बातें पिताको ठीक—ठीक कह सुनायीं ।
भद्रशील बोला—पिताजी ! सुनिये । पूर्वजन्ममें मैंने जो कुछ अनुभव किया है, वह जातिस्मर होनेके कारण अब भी जानता हूँ । मुनिश्रेष्ठ ! मैं पूर्वजन्ममें चन्द्रवंशी राजा था । मेंरा नाम धर्मकीर्ति था और महर्षि दत्तात्रेयने मुझे शिक्षा दी थी । मैंने नौ हजार वर्षोंतक सम्पूर्ण पृथ्वीका पालन किया । पहले मैंने पुण्यकर्म भी बहुत—से किये थे, परंतु पीछे पाखण्डियोंसे बाधित होकर मैंने वैदिकमार्गको त्याग दिया । पाखण्डियोंकी कूट युक्तिका अवलम्बन करके मैंने भी सब यज्ञोंका विध्वंस किया । मुझे अधर्ममें तत्पर देख मेंरे देशकी प्रजा भी सदैव पाप—कर्म करने लगी । उसमेंसे छठा अंश और मुझे मिलने लगा । इस प्रकार मैं सदा पापाचारपरायण हो दुर्व्यसनोंमें रुचिसे मैं सेनासहित एक वनमें गया और वहाँ भूख—प्याससे पीड़ित हो थका—माता नर्मदाके तटपर आया । सूर्यकी तीखी धूपसे संतप्त होनके कारण मैंने नर्मदाजीके जलमें स्नान किया । सेना किधर गयी, यह मैंने नहीं देखा । अकेला ही वहाँ भूखसे बहुत कष्ट पा रहा था । संध्याके समय नर्मदा—तटके निवासी, जो एकादशी—व्रत करनेवाले थे, वहाँ एकत्र हुए । उन सबको मैंने देखा । उन्हीं लोगोंके साथ निराहार रहकर बिना सेनाके ही मैं अकेला रातमें वहाँ जागरण करता रहा । और हे तात ! जागरण समाप्त होनेपर मेंरी वहीं मृत्यु हो गयी । तब बड़ी—बड़ी दाढ़ोंसे भय़ उत्पन्न करनेवाले यमराजके दूतोंने मुझे बाँध लिया और अनेक प्रकारके क्लोशसे भरे हुए मार्गद्वारा यमराजके निकट पहुँचाया । वहाँ जाकर मैंने यमराजको देखा, जो सबके प्रति समान बर्ताव करनेवाले हैं । तब यमराजने चित्रगुप्तको बुलाकर कहा—‘विद्वन् ! इसको द्ण्ड—विधान कैसे करना है, बताओ । ‘साधुशिरोमणे ! धर्मराजके ऐसा कहनेपर चित्रगुप्तने देरतक विचार किया; फिर इस प्रकार कहा—‘ धर्मराज ! यद्यपि यह सदा पापमें लगा रहा है, यह ठीक है, तथापि एक बात सुनिये । एकादशीको उपवास करनेवाला मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । नर्मदाके रमणीय तटपर एकादशीके दिन यह निराहार रहा है । वहाँ जागरण और उपवास करके यह सर्वथा निष्पाप हो गया है । इसने जो कोई भी बहुत—से पाप किये थे, वे सब उपवासके प्रभावसे नष्ट हो चुके हैं ।’बुद्धिमान् चित्रगुप्तके ऐसा कहनेपर धर्मराज मेंरे सामने काँपने लगे । उन्होंने भूमिपर दण्डकी भाँति पड़कर मुझे साष्टाङ् प्रणाम किया और भक्तिभावसे मेंरी पूजा की । तदनन्तर धर्मराजने अपने सब दूतोंको बुलाकर इस प्रकार कहा ।
धर्मराज बोले—‘दूतो ! मेंरी बात सुनो । मैं तुम्हारे हितकी बड़ी उत्तम बात बतलाता हूँ । धर्ममार्गमें लगे हुए मनुष्योंको मेंरे पास न लाया करो । जो भगवान् विष्णुके पूजनमें तत्पर, संयमी, कृतज्ञ, एकादशी—व्रतपरायण तथा जितेन्द्रिय हैं और जो ‘हे नारायण ! हे अच्युत ! हे हरे ! मुझे शरण दीजिये’ इस प्रकार शान्तभावसे निरन्तर कहते रहते हैं, ऐसे लोगोंको तुम तुरंत छोड़ देना । मेंरे दूतो ! जो सम्पूर्ण लोकोंके हितैषी तथा परम शान्तभावसे रहनेवाले हैं और जो नारायण ! अच्युत ! जनार्दन ! कृष्ण ! विष्णो ! कमलाकान्त ! ब्रह्माजीके पिता ! शिव ! शंकर ! इत्यादि नामोंका नित्य कीर्तन किया करते हैं, उन्हें दूरसे ही त्याग दिया करो । उनपर मेंरा शासन नहीं चलता । मेंरे सेवको ! जो अपना सम्पूर्ण कर्म भगवान् विष्णुको समर्पित कर देते हैं, उन्हींके भजनमें लगे रहते हैं, अपने वर्णाश्रमोचित आचारके मार्गमें स्थित हैं, गुरुजनोंकी सेवा किया करते हैं, सत्पात्रको दान देते, दीनोंकी रक्षा करते और निरन्तर भगवन्नामके जप—कीर्तनमें संलग्र रहते हैं, उनको भी त्याग देना । दूतगण ! जो पाखण्डियोंके संगसे रहित, ब्राह्मणोके प्रति भक्ति रखनेवाले, सत्संगके लोभी, अतिथि—सत्कारके प्रेमी, भगवान् शिव और विष्णुमें समानता रखनेवाले तथा लोगोंके उपकारमें तत्पर हो, उन्हें त्याग देना । मेंरे दूतो ! जो लोग भगवान्की कथारूप अमृतके सेवनसे वञ्चित हैं, भगवान् विष्णुके चिन्तनमें मन लगाये रखनेवाले साधु—महात्माओंसे जो दूर रहते हैं, उन पापियोंको ही मेंरे घरपर लाया करो । मेंरे किङ्करो ! जो माता और पिताको डाँटनेवाले, लोगोंसे द्वेष रखनेवाले, हितैषी—जनोंका भी अहित करनेवाले, देवताकी सम्पत्तिके लोभी, दूसरे लोगोंका नाश करनेवाले तथा सदैव दूसरोंके अपराधमें हि तत्पर रहनेवाले हैं, उनको यहाँ पकड़कर लाओ । मेंरे दूतो ! जो एकादशी—व्रतसे विमुख, क्रूर स्वभाववाले, लोगोंको कलङ्क लगानेवाले, परनिन्दामें तत्पर, ग्रामका विनाश करनेवाले, श्रेष्ठ पुरुषोंसे वैर रखनेवाले तथा ब्राह्मणके धनका लोभ करनेवाले हैं उनको यहाँ ले आओ । जो भगवान् विष्णुकी भक्तिसे मुँह मोड़ चुके हैं, शरणागतपालक भगवान् नारायणको प्रणाम नहीं करते हैं तथा जो मूर्ख मनुष्य कभी भगवान् विष्णुके मन्दिरमें नहीं जाते हैं, उन अतिशय पापमें रत रहनेवाले दुष्ट लोगोंको ही तुम बलपूर्वक पकड़कर यहाँ ले आओ ।
इस प्रकार जब मैंने यमराजकी कही हुई बातें सुनीं तो पश्चात्तापसे दग्ध होकर अपने किये हुए उस निन्दित कर्मको स्मरण किया । पापकर्मके लिये पश्चात्ताप और श्रेष्ठ धर्मका श्रवण करनेसे मेंरे सब पाप वहीं नष्ट हो गये । उसके बाद मैं उस पुण्यकर्मके प्रभावसे इन्द्रलोकमें गया । वहाँपर मैं सब प्रकारके भोगोंसे सम्पन्न रहा । सम्पूर्ण देवता मुझे नमस्कार करते थे । बहुत कालतक स्वर्गमें रहकर फिर वहाँसे मैं भूलोकमें आया । यहाँ भी आप—जैसे विष्णु—भक्तोंके कुलमें मेंरा जन्म हुआ । मुनीश्वर ! जातिस्मर होनेके कारण मैं यह सब बातें जानता हूँ । इसलिये मैं बालकोंके साथ भगवान् विष्णुके पूजनकी चेष्टा करता हूँ । पूर्वजन्ममें एकादशी—व्रतका ऐसा माहात्म्य है, यह बात मैं नहीं जान सका था । इस समय पूर्वजन्मकी बातोंकी स्मृतिके प्रभावसे मैने एकादशी— व्रतको जान लिया है । पहले विवश होकर भी जो व्रत किया गया था, उसका यह फल मिला है । प्रभो ! फिर जो भक्तिपूर्वक एकादशी—व्रत करते हैं, उनको क्या नहीं मिल सकता । अतः विप्रेन्द्र !’ मैं शूभ एकादशी—व्रतका पालन तथा प्रतिदिन भगवान् विष्णुकी पूजा करूँगा । भगवान्के परम धामको पानेकी आकाड्क्षा ही इसमें हेतु है । जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक एकादशी—व्रत करते हैं, उन्हें निश्चय ही परमानन्ददायक वैकुण्ठधाम प्राप्त होता है ।’अपने पुत्रका ऐसा वचन सुनकर गालव मुनि बहुत प्रसन्न हुए । उन्हें बड़ा संतोष प्राप्त हुआ । उनका हृदय अत्यन्त हर्षसे भर गया । वे बोले—‘वत्स ! मेंरा जन्म सफल हो गया । मेंरा कुल भी पवित्र हो गया; क्योंकि तुम्हारे—जैसा विष्णुभक्त पुरुष मेंरे घरमें पैदा हुआ है ।’इस प्रकार पुत्रके उत्तम कर्मसे मन—ही—मन संतुष्ट होकर महर्षि गालवने उसे भगवान्की पूजाका विधान ठीक—ठीक समझाया । मुनिश्रेष्ठ नारद ! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार मैंने ये सब बातें कुछ विस्तारके साथ तुम्हें बता दी हैं । तुम और क्या सुनना चाहते हो ?
अध्याय २२ चारो वर्णों और द्विजका परिचय तथा विभिन्न वर्णोंके विशेष और सामान्य धर्मका वर्णन
सूतजी कहते हैं— महर्षियो ! सनकजीके मुखसे एकादशी— व्रतका यह माहत्म्य जो अप्रमेंय, पवित्र, सर्वोत्तम तथा पापराशिको शान्त करनेवाला है, सुनकर ब्रह्मपुत्र नारदजी बड़े प्रसन्न हुए और फिर इस प्रकार बोले।
नारदजीने कहा— महर्षे ! आप बड़े तत्त्वज्ञ हैं। आपने भगवान्की भक्ति देनेवाले तथा परम पुण्यमय व्रत— सम्बन्धी इस आख्यानका यथार्थरूपसे पूरा— पूरा वर्णन किया है। मुने ! अब मैं चारों वर्णोंके आचारकी विधि और सम्पूर्ण आश्रमोंके आचार तथा प्रायश्चित्तकी विधि सुनना चाहता हूँ। महाभाग ! मुझपर बड़ी भारी कृपा करके यह सब मुझे यथार्थरूपसे बताइये।
श्रीसनकजी बोले— मुनिश्रेष्ठ ! सुनिये। भक्तोंका प्रिय करनेवाले अविनाशी श्रीहरि वर्णाश्रम— धर्मका पालन करनेवाले पुरुषोंद्वारा जिस प्रकार पूजित होते हैं, वह सब बतलाता हूँ। मनु आदि स्मृतिकारोंने वर्ण और बतलाता हूँ। मनु आदि स्मृतिकारोंने वर्ण और आश्रम— सम्बन्धी धर्मका जैसा वर्णन किया है, वह सब आपको विधिपूर्वक बतलाता हूँ; क्योंकि आप भगवान्के भक्त हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र— ये चार ही वर्ण कहे गये हैं। इन सबमें ब्राह्मण श्रेष्ठ है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य— ये तीन द्विज कहे गये हैं। पहला जन्म मातासे और दूसरा उपनयन— संस्कारसे होता है। इन्हीं दो कारणोंसे तीनों वर्णोंके लोग द्विजत्व प्राप्त करते हैं। इन वर्णोंके लोगोंको अपने— अपने वर्णके अनुरूप सब धर्मोंका पालन करना चाहिये। अपने वर्णधर्मका त्याग करनेसे विद्वान् पुरुष उसे पाखण्डी कहते हैं। अपनी शाखाके गृह्यसूत्रमें बताये हुए कर्मका अनुष्ठान करनेवाला द्विज कृतकृत्य होता है, अन्यथा वह सब धर्मोंसे बहिष्कृत एवं पतित हो जाता है। इन वर्णोंको यथोचित युगधर्मका धारण करना चाहिये तथा स्मृतिधर्मके विरुद्ध न होनेपर देशाचार भी अवश्य ग्रहण करना चाहिये। मन, वाणी और क्रियाद्वारा यत्नपूर्वक धर्मका पालन करना चाहिये।
द्विजश्रेष्ठ ! अब मैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंके सामान्य कर्तव्योंका वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। ब्राह्मण ब्राह्मणोको दान दे, यज्ञोंद्वारा देवताओंका यजन करे, जीविकाके लिये दूसरोंका यज्ञ करावे तथा दूसरोंको पढ़ावे। जो यज्ञके अधिकारी हो, उन्हींका यज्ञ करावे। ब्राह्मणको नित्य जलसम्बन्धी क्रिया— स्नान— संध्या और तर्पण करना चाहिये। वह वेदोंका स्वाध्याय तथा अग्निहोत्र करे। सम्पूर्ण लोकोंका हित करे, सदा मीठे वचन बोले और सदा भगवान् विष्णुकी पूजामें तत्पर रहे। द्विजश्रेष्ठ ! क्षत्रिय भी ब्राह्मणोको दान दे। वह भी वेदोंका स्वाध्याय और यज्ञोंद्वारा देवताओंका यजन करे। वह शस्त्रग्रहणके द्वारा जीविका चलावे और धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन करे। दुष्टोंको दण्ड दे और शिष्ट पुरुषोंकी रक्षा करे। द्विजसत्तम। वैश्यके लिये भी वेदोंका अध्ययन आवश्यक बताया गया है। इसके सिवा वह पशुओंका पालन, व्यापार तथा कृषिकर्म करे। सजातीय स्त्रीसे विवाह करे और धर्मोंका भलीभाँति पालन करता रहे। वह क्रय— विक्रय अथवा शिल्पकर्मद्वारा प्राप्त हुए धनसे जीविका चलावे। शूद्र भी ब्राह्मणोको दान दे, किंतु पाकयज्ञोंद्वारा यजन न करे। वह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंकी सेवामें तत्पर रहे और अपनी स्त्रीसे ऋतुकालमें सहवास करे।
सब लोगोंका हित चाहना, सबका मंगल— साधन करना, प्रिय वचन बोलना, किसीको कष्ट न पहुँचाना, मनको प्रसन्न रखना, सहनशील होना तथा घमंड न करना— यह सब मुनियोंने समस्त वर्णोंका सामान्य धर्म बतलाया है। अपने आश्रमोचित कर्मके पालनसे सब लोग मुनितुल्य हो जाते हैं। ब्रह्मन् ! आपत्तिकालमें ब्राह्मण क्षत्रियोचित आचारका आश्रय ले सकता है। इसी प्रकार अत्यन्त आपत्ति आनेपर क्षत्रिय भी वैश्यवृत्तिको ग्रहण कर सकता है; परंतु भारी— से— भारी आपत्ति आनेपर भी ब्राह्मण कभी शूद्रवृत्तिका आश्रय न ले। यदि कोई मूढ़ ब्राह्मण शूद्रवृत्ति ग्रहण करता है तो वह चाण्डालभावको प्राप्त होता है। मुनिश्रेष्ठ ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य— इन तीनों वर्णोंके लिये ही चार आश्रम बताये गये हैं। कोई पाँचवाँ आश्रम सिद्ध नहीं होता। साधुशिरोमणे ! ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास— ये ही चार आश्रम हैं। विप्रवर ! इन्हीं चार आश्रमोंद्वारा उत्तम धर्मका आचरण किया जाता है। जिसका चित्त कर्मयोगमें लगा हुआ है, उसपर भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं। जिनके मनमें कोई कामना नहीं है, जिनका चित्त शान्त है तथा जो अपने वर्ण— आश्रमोचित कर्तव्यके पालनमें लगे रहते हैं, वे उस परम धामको प्राप्त होते हैं, जहाँसे पुनः इस संसारमें लौटकर आना नहीं पड़ता।
अध्याय २३ संस्कारोंके नियत काल, ब्रह्मचारीके धर्म, अनध्याय और वेदाध्यनकी आवश्यकताका वर्णन
श्रीसनकजी कहते हैं——मुनिश्रेष्ठ ! अब मैं विशेष—रूपसे वर्ण और आश्रम—सम्बन्धी आचार और विधिका वर्णन करता हूँ, तुम सावधान होकर सुनो । जो स्वधर्मका त्याग करके परधर्मका पालन करता है, उसे पाखण्डी समझना चाहिये । द्विजोंके गर्भाधान आदि संस्कार वैदिक मन्त्रोक्त विधिसे करने चाहिये । स्त्रियोंके संस्कार यथासमय बिना मन्त्रके ही विधिपूर्वक करने चाहिये । प्रथम बार गर्भाधान होनेपर चौथे मासमें सीमन्तकर्म करना उत्तम माना गया है अथवा उसे छ्ठे, सातवें या आठवें महीनेमें कराना चाहिये । पुत्रका जन्म होनेपर पिता वस्त्रसहित स्त्रान करके स्वस्तिवाचनपूर्वक नान्दीश्राद्ध तथा जातकर्म—संस्कार करे । पुत्र—जन्मके अवसरपर किया जानेवाला वृद्धिश्राद्ध सुवर्ण या रजतसे करना चाहिये । सूतक व्यतीत होनेपर पिता मौन होकर आभ्युदयिक श्राद्ध करनेके अनन्तर पुत्रका विधिपूर्वक नामकरण—संस्कार करे । विप्रवर ! जो स्पष्ट न हो, जिसका कोई अर्थ न बनता हो, जिसमें अधिक गुरु अक्षर आते हो अथवा जिसमें अक्षरोंकी संख्या विषय होती हो, ऐसा नाम न रखे । तीसरे वर्षमें चूड़ा—संस्कार उत्तम है । यदि उस समय न हो तो पाँचवें, छठे, सातवें अथवा आठवें वर्षमें भी गृह्यसूत्रमें बतायी हुई विधिके अनुसार उसे सम्पन्न कर लेना चाहिये । गर्भसे आठवें वर्षमें अथवा जन्मसे आठवें वर्षमें ब्राह्मणका उपनयन—संस्कार करना चाहिये । विद्वान् पुरुष सोलहवें वर्षतक उपनयनका गौणकाल बतलाते हैं ।
गर्भसे ग्यारहवें वर्षमें क्षत्रियके उपनयनका मुख्यकाल है । उसके लिये बाईसवें वर्षतक गौणकाल निश्चित करते हैं । गर्भसे बारहवें वर्षमें वैश्यका उपनयन—संस्कार उचित कहा गया है । उसके लिये चौबीसवें वर्षतक गौणकाल बतलाते हैं । ब्रह्म मकी मेंखला मूँजकी और क्षत्रियकी मेंखला धनुषकी प्रत्यञ्चासे बनी हुई (सूतकी) तथा वैश्यकी मेंखला भेड़के ऊनकी बनी होती है । ब्रह्म मके लिये पलाशका और क्षत्रियके लिये गूलरका तथा वैश्यके लिये बिल्वदण्ड विहित है । ब्राह्मणका द्ण्ड केशतक, क्षत्रियका ललाटके बराबर और वैश्यके दण्डकी लंबाई नासिकाके अग्रभागतककी बतायी है । ब्राह्मण आदि ब्रह्मचारियोंके लिये क्रमशः गेरुए, लाल और पीले रंगका वस्त्र बाताया गया है । विप्रवर ! जिसका उपनयन—संस्कार किया गया हो, वह द्विज गुरुकी सेवामें तत्पर रहे और जबतक वेदाध्ययन समाप्त न हो जाय, तबतक गुरुके ही घरमें निवास करे । मुनीश्वर ! ब्रह्मचारी प्रातःकाल स्त्रान करे और प्रतिदिन सबेरे ही गुरुके लिये समिधा, कुशा और फल आदि ले आवे । मुनिश्रेष्ठ ! यज्ञोपवीत, मृगचर्म अथवा दण्ड जब नष्ट या अपवित्र हो जाय तो मन्त्रसे नूतन यज्ञोपवीत आदि धारण करके नष्ट—भ्रष्ट हुए पुराने यज्ञोपवीत आदिको जलमें फेंक दे । ब्रह्मचारीके लिये केवल भिक्षाके अन्नसे ही जीवन—निर्वाह करना बताया गया है । वह मन—इन्द्रियोंको संयममें रखकर श्रोत्रिय पुरुषके घरसे भिक्षा ले आवे । भिक्षा माँगते समय ब्राह्मण वाक्यके आदिमें, क्षत्रिय वाक्यके मध्यमें और वैश्य वाक्यके अन्तमें ‘ भवत्’ शब्दका प्रयोग करे । जैसे – ब्राह्मण ’ भवति ! भिक्षां में देहि’ (पूजनीय देवि ! मुझे भिक्षा दीजिये), क्षत्रिय ‘ भिक्षां भवति ! में देहि’ और वैश्य ’ भिक्षां में देहि भवति’ कहे । जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी प्रतिदिन सायंकाल और प्रातःकाल शास्त्रीय विधिके अनुसार अग्रिहोत्र (ब्रह्मयज्ञ) तथा तर्पण करे । जो अग्रिहोत्रका परित्याग करता है, उसे विद्वान् पुरुष पतित कहते हैं । ब्रह्मयज्ञ्से रहित ब्रह्मचारी ब्रह्मह्त्यारा कहा गया है । वह प्रतिदिन देवताकी पूजा और गुरुकी उत्तम सेवा करे । ब्रह्मचारी नित्यप्रति भिक्षाका ही अन्न भोजन करे । किसी एक घरका अन्न कभी न खाय । वह इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके घरसे भिक्षा लाकर गुरुको समर्पित कर दे और उनकी आज्ञासे मौन होकर भोजन कर । ब्रह्मचारी मधु मांस, स्त्री, नमक, पान, दन्तधावन, उच्छिष्ट—भोजन दिनका सोना तथा छाता लगाना आदि न करे । पादुका, चन्दन, माला, अनुलेपन, जलक्रीड़ा, नृत्य, गीत, वाद्य, परनिन्दा, दूसरोंको सताना, बहकी—बहकी बातें करना, अंजन लगाना, पाखण्डी लोगोंका साथ करना और शूद्रोंकी संगतिमें रहना आदि न करे ।
वृद्ध पुरुषोंको क्रमशः प्रणाम करे । वृद्ध तीन प्रकारके होते हैं । एक ज्ञानवृद्ध, दूसरे तपोवृद्ध और तीसरे वयोवृद्ध हैं । जो गुरु वेद—शास्त्रोंके उपदेशसे आध्यात्मिक आदि दुःखोंका निवारण करते हैं, उन्हें पहले प्रणाम करे । प्रणाम करते समय द्विज बालक’ मैं अमुक हूँ, इस प्रकार अपना परिचय भी दे । ब्रह्म ण किसी प्रकार क्षत्रिय आदिको प्रणाम न करे । जो नास्तिक, धर्ममर्यादाको तोड़नेवाला, कृतघ्र, ग्राम—पुरोहित, चोर और शठ हो, उसे ब्राह्मण होनेपर भी प्रणाम न करे । पाखण्डी, पतित, संस्कार—भ्रष्ट, नक्षत्रजीवी (ज्यौतिषी) तथा पातकीको भी प्रणाम न करे । पागल, शठ, धूर्त, दौड़ते हुए, अपवित्र, सिरमें तेल लगाये हुए तथा मन्त्र—जप करते हुए पुरुषको भी प्रणाम नहीं करना चाहिये । जो झगड़लू और क्रोधी हो, वमन कर रहा हो, पानीमें खड़ा हो, हाथमें भिक्षाका अन्न लिये हो और सो रहा हो, उसको भी प्रणाम न करे । स्त्रियोंमें जो पतिकी हत्या करनेवाली, रजस्वला, परपुरुषसे सम्बन्ध रखनेवाली, सूतिका, गर्भपात करनेवाली, कृतघ्र और क्रोधिनी हो, उसे कभी प्रणाम न करे । सभा, यज्ञशाला और देवमन्दिरमें भी एक—एक व्यक्तिके लिये किया जानेवाला नमस्कार पूर्वकृत पुण्यका नाश करता है । श्राद्ध, व्रत, दान, देवपूजा, यज्ञ और तर्पण करते हुए पुरुषको प्रणाम न करे; क्योंकि प्रणाम करनेपर जो शास्त्रीय विधिसे आशीर्वाद न दे सके, वह प्रणाम करने योग्य नहीं। बुद्धिमान् शिष्य दोनों पैर धोकर आचमन करके सदा गुरुके सामने बैठे और उनके चरण पकड़कर नमस्कार करे। फिर अध्ययन करे । अष्टमी, चतुर्दशी, प्रतिपदा, अमावास्या, पूर्णिमा, महाभरणी (भरणी—नक्षत्रके योगसे होनेवाले पर्वविशेष) श्रवणयुक्त द्वादशी, पितृपक्षकी द्वितीया, माघशुक्ला सप्तमी, आश्विन शुक्ला नवमी——इन तिथियोंमें तथा सूर्यके चारों ओर घेरा लगनेपर एवं किसी श्रोत्रिय विद्वान्के अपने यहाँ पधारनेपर अध्ययन बंद रखना चाहिये । जिस दिन किसी श्रेष्ठ ब्रह्म णका स्वागत—सत्कार किया गया हो या किसीके साथ कलह बढ़ गया हो, उस दिन भी अनध्याय रखना चाहिये । देवर्षे ! संध्याके समय, अकालमें मेंघकी गर्जना होनेपर, असमयमें वर्षा होनेपर, उल्कापात तथा वज्रपात होनेपर, अपने द्वारा किसी ब्राह्मणका अपमान हो जानेपर, मन्वादि तिथियोंके आनेपर तथा युगादि चार तिथियोंके उपस्थित होनेपर सब कर्मोंके फलकी इच्छा रखनेवाला कोई भी द्विज अध्ययन न करे । वैशाख शुक्ला तृतीया, भाद्र कृष्णा त्रयोदशी, कार्तिक शुक्ला नवमी तथा माघकी पूर्णिमा——ये तिथियाँ युगादि कही गयी हैं । इनमें जो दान दिया जाता है, उसके पुण्यको य अक्षय बनानेवाली हैं । नारदजी ! आश्विन शुक्ला नवमी, कार्तिक शुक्ला द्वादशी, चैत्र तथा भाद्रपदमासकी तृतीया, आषाढ़ शुक्ला दशमी, माघ शुक्ला सप्तमी, श्रावण कृष्णा अष्टमी, आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा, फाल्गुनकी अमावास्या, पौष शुक्ला एकादशी तथा कार्तिक, फाल्गुन, चैत्र और ज्येष्ठकी पूर्णिमा तिथियाँ—ये मन्वन्तरकी आदितिथियाँ बतायी गयी हैं, जो दानके पुण्यको अक्षय बनानेवाली हैं । द्विजोंको मन्वादि और युगादि तिथियोंमें श्राद्ध करना चाहिये । श्राद्धका निमन्त्रण हो जानेपर, चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहणके दिन, उत्तरायण और दक्षिणायन प्रारम्भ होनेके दिन, भूकम्प होनेपर, गलग्रहमें और बादलोंके आनेसे अँधेरा हो जानेपर कभी अध्ययन न करे । नारदजी ! इन सब अनध्यायोंमें जो अध्ययन करते हैं, उन मूढ़ पुरुषोंकी संतति, बुद्धि, यश, लक्ष्मी, आयु, बल तथा आरोग्यका साक्षात् यमराज नाश करते हैं । जो अनध्यायकालमें अध्ययन करता है, उसे ब्रह्म—ह्त्यारा समझना चाहिये । जो ब्राह्मण वेद—शास्त्रोंका अध्ययन न करके अन्य कर्मोंमें परिश्रम करता है, उसे शूद्रके तुल्य जानना चाहिये, वह नरकका प्रिय अतिथि है । वेदाध्ययनरहित ब्रह्म णके नित्य, नैमित्तिक, काम्य तथा दूसरे जो वैदिककर्म हैं, वे सब निष्फल होते हैं । भगवान् विष्णु शब्द—ब्रह्ममय हैं और वेद साक्षात् श्रीहरिका स्वरूप माना गया है । जो ब्रह्मण वेदोंका अध्ययन करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है ।
अध्याय २४ विवाहके योग्य कन्या, विवाहके आठ भेद तथा गृहस्थोचित शिष्टाचारका वर्णन
श्रीसनकजी कहते हैं— नारदजी ! वेदाध्ययन—कालतक ब्रह्मचारी निरन्तर गुरुकी सेवामें लगा रहे, उसके बाद उनकी आज्ञा लेकर अग्रिपरिग्रह (गार्हपत्य—अग्निकी स्थापना) करे | द्विज वेद, शास्त्र और वेदाङ्गोका अध्ययन करके गुरुको दक्षिणा देकर अपने घर जाय । वहाँ उत्तम कुलमें उत्पन्न, रूप और लावण्यसे युक्त, सद्गुणवती तथा सुशीला और धर्मपरायणा कन्याके साथ विवाह करे । जो कन्या रोगिणी हो अथवा किसी विशेष रोगसे युक्त कुलमें उप्तन्न हुई हो, जिसके केश बहुत बोलनेवाली हो, उससे विद्वान् पुरुष विवाह न करे । जो क्रोध करनेवाली, बहुत नाटी, बहुत बड़े शरीरवाली, कुरूपा, किसी अङ्गंसे हीन या अधिक अङ्गवाली, उन्मादिनी और चुगली करनेवाली हो तथा जो कुबड़ी हो, उससे भी विवाह न करे । जो सदा दूसरेके घरमें रहती हो, झगड़ालू हो, जिसकी मति भ्रान्त हो तथा जो निष्ठुर स्वभावकी हो, जो बहुत खानेवाली हो, जिसके दाँत और ओठ मोटे हो, जिसकी नाकसे घुर्घुराहटकी आवाज होती हो और जो धूर्त हो, उससे विद्वान् पुरुष विवाह न करे। जो सदा रोनेवाली हो, जिसके शरीरकी आभा श्वेत रंगकी हो, जो निन्दित, खाँसी और दमें आदिके रोगसे पीड़ित तथा अधिक सोनेवाली हो, जो अनर्थकारी वचन बोलती हो, लोगोंसे द्वेष रखती हो और चोरी करती हो, उससे विद्वान् पुरुष विवाह न करे । जिसकी नाक बड़ी हो, जो छल—कपट करनेवाली हो, जिसके शरीरमें अधिक रोएँ बढ़ गये हो तथा जो बहुत घमंडी और बगुलावृत्तिवाली (ऊपरसे साधु और भीतरसे दुष्ट हो), उससे भी विद्वान् पुरुष विवाह न करे ।
मुनिश्रेष्ठ ! ब्रह्मा आदि आठ प्रकारके विवाह होते हैं, यह जानना चाहिये । इनमें पहला—पहला श्रेष्ठ है । पहलेवालेके अभावमें दूसरा श्रेष्ठ एवं ग्राह्य माना गया है । ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस तथा आठवाँ पैशाच विवाह है । श्रेष्ठ द्विजको ब्रह्म विवाहकी विधिसे विवाह करना चाहिये । अथवा दैवविवाहकी रीतिसे भी विवाह किया जा सकता है । कोई—कोई आर्ष—विवाहको भी श्रेष्ठ बतलाते हैं । ब्रह्मन् ! शेष प्राजापत्य आदि पाँच विवाह निन्दित हैं ।
( अब गृहस्थ पुरुषका शिष्टाचार बताया जाता है- ) दो यज्ञोपवीत तथा एक चादर धारण करे । कानोंमे सोनेके दो कुण्डल पहने । धोती दो रखे । सिरके बाल और नख कटाता रहे । पवित्रतापूर्वक रहे । स्वच्छ पगड़ी , छाता तथा चरणपादुका धारण करे । वेष ऐसा रखे जो देखनेमें प्रिय लगे । प्रतिदिन वेदोंका स्वाध्याय करे । शास्त्रोक्त आचारका पालन करे । दूसरोंका अन्न न खाय । दूसरोंकी निन्दा छोड़ दे । पैरसे पैरको न दबाये, जूठी चीजको न लाँघे । दोनों हाथोंसे अपना सिर न खुजलाये । पूज्य पुरुष तथा देवालयको बायें करके न चले । देवपूजा, स्वाध्याय, आचमन, स्त्रान, व्रत तथा श्राद्धकर्म आदिमें शिखाको खुली न रखे और एक वस्त्र धारण करके न रहे । गदहे आदिकी सवारी न करे । सूखा वाद—विवाद त्याग दे । परायी स्त्रीके पास कभी न जाय । ब्रह्मन् ! गौ, पीपल तथा अग्रिको भी अपनेसे बायें करके न जाय । इसी प्रकार चौराहेको, देववृक्षको, देवसम्बन्धी कुण्ड या सरोवरको तथा राजाको भी अपनेसे बायें करके न चले । दूसरोंके दोष देखना, डाह रखना और दिनमें सोना छोड़ दे । दूसरोंके पाप न कहे । अपना पुण्य प्रकट न करे। अपने नामको, जन्म—नक्षत्रको तथा मानको अत्यन्त गुप्त रखे । दुष्टोंके साथ निवास न करे । अशास्त्रीय बात न सुने । द्विजको मद्य, जूआ तथा गीतमें कभी आसक्ति नहीं रखनी चाहिये । गीली हड्डी, जूठी वस्तु, पतित तथा मुर्दा और कुत्तेको छूकर मनुष्य वस्त्रसहित स्त्रान कर ले । चिता, चिताकी लकड़ी, यूप, चाण्डालका स्पर्श कर लेनेपर मनुष्य वस्त्रसहित जलमें प्रवेश करे । दीपककी, खाटकी और शरीरकी छाया, केशका, वस्त्रका और चटाईका जल तथा बकरीके, झाड़ूके और बिल्लीके नीचेका धूल—ये सब शुभ प्रारब्धको हर लेते हैं । सूपकी हवा, प्रेतके दाहका धुआँ, शूद्रके अन्नका भोजन तथा वृषलीके पतिका साथ दूरसे ही त्याग दे । असत् शास्त्रोंके अर्थका विचार, नख और केशोंका दाँतोंसे चबाना तथा नंगे होकर सोना सर्वदा छोड़ दे । सिरमें लगानेसे बचे हुए तेलको शरीरमें न लगावे । अपवित्र ताम्बूल (बाजारके लगाये हुए पान) न खाय तथा सोतेको न जगाये । अशुद्ध हुआ मनुष्य अग्रिकी सेवा, देवताओं और गुरुजनोंका पूजन न करे । बायें हाथसे अथवा केवल मुखसे जल न पीये । मुनीश्वर ! गुरुकी छायापर पैर न रखे । उनकी आज्ञा भी न टाले योगी, ब्राहमन और यति पुरुषोंकी कभी निन्दा न करे । द्विजको चाहिये कि वह आपसकी गुप्त (रहस्य)—की बातें कभी न कहे । अमावास्या तथा पूर्णिमाको विधिपूर्वक याग करे । द्विजोंको सुबह—शाम उपासना और होम अवश्य करने चाहिये । जो उपासनाका परित्याग करता, है, उसे विद्वान् पुरुष’ शराबी’ कहते हैं । अयन आरम्भ होनेके दिन, विषुवयोगमें (जब दिन—रात बराबर होते हैं), चार युगादि तिथियोंमें, अमावास्याको और प्रेतपक्षमें गृहस्थ द्विजको अवश्य श्राद्ध करना चाहिये । नारदजी ! मन्वादि तिथियोंमेंं, मृत्युकी तिथिको, तीनों अष्टकाओंमें तथा नूतन अन्न घरमें आनेपर गृहस्थ पुरुष अवश्य श्राद्ध करे । कोई श्रोत्रिय ब्रह्म ण घरपर आ जाय या चन्द्रमा और सूर्यका ग्रहण लगा हो अथवा पुण्यक्षेत्र एवं तीर्थ्में पहुँच जाय तो गृहस्थ पुरुष निश्चय ही श्राद्ध करे । जो उपर्युक्त सदाचारमें तत्पर हैं, उनपर भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं । द्विजश्रेष्ठ ! भगवान् विष्णुके प्रसन्न हो जानेपर क्या असाध्य रह जाता है ?
अध्याय २५ गृहस्थ— सम्बन्धी शौचाचार, स्नान, संध्योपासन आदि तथा वानप्रस्थ और संन्यास— आश्रमके धर्म
श्रीसनकजी कहते हैं—मुनिश्रेष्ठ ! अब मैं गृहस्थका सदाचार बतलाता हूँ, सुनो । उन सदाचारोंके पालन करनेवाले पुरुषोंके सब पाप नष्ट हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है । ब्राह्मण ! गृहस्थ पुरुष ब्राह्ममुहूर्त (सूर्योदयसे पूर्वकी चार घड़ी)—में उठकर जो पुरुषार्थ (मोक्ष) साधनकी विरोधिनी न हो, ऐसी जीविकाका चिन्तन करे । दिनमें या संध्याके समय कानपर जनेऊ चढ़ाकर उत्तरकी ओर मुँह करके मल—मूत्रका त्याग करना चाहिये । यदि रातमें इसका अवसर आवे तो दक्षिणकी ओर मुँह करके बैठना चाहिये । द्विज सिरको वस्त्रसे ढककर और भूमिपर तृण बिछाकर शौचके लिये बैठे और उसके होनेतक मौन रहे । मार्गमें, गोशालामें, नदीके तटपर, पोखरे और घरके समीप, देवालयके निकट, बगीचेमें, जोते हुए खेतमें, चौराहेपर; ब्राह्मण, गाय, गुरुजन तथा स्त्रियोंके समीप; भूसी, अंगार, खप्पर या खोपड़ीमें तथा जलके भीतर—इत्यादि स्थानोंमें मल—मूत्र न करे । शौच (शुद्धि)—के लिये सदा यत्र करना चाहिये । शौच ही द्विजत्वका मूल है । जो शौचाचारसे रहित है उसके सब कर्म निष्फल होते हैं । शौच दो प्रकारका कहा गया है—एक बाह्य शौच और दूसरा आभ्यन्तर—शौच । मिट्टी और जलसे जो ऊपर—ऊपरकी शुद्धि की जाती है, वही बाह्य—शौच है और भीतरके भावोंकी जो पवित्रता है उसे ही आभ्यन्तर—शौच कहा गया है । मलत्यागके पश्चात् उठकर शुद्धिके लिये मिट्टी लावे । चूहे आदिकी खोदी हुई, फारसे उलाटी हुई तथा बावड़ी, कुँआ और पोखरेसे निकाली हुई मिट्टी शौचके लिये न लावे । अच्छी मिट्टी लेकर यत्नसे शुद्धिका सम्पादन करे । लिङमें एक बार या तीन बार मिट्टी लगाकर धोये और अण्डकोषोंमें दो बार मिट्टी लगाकर जलसे धोये । मनीषी पुरुषोंने मूत्रत्यागके पश्चात् इस प्रकार शुद्धिका विधान किया है । लिङमें एक बार, गुदाद्वारमें पाँच बार, बायें हाथमें द्स बार, फिर दोनों हाथोंमें सात बार तथा दोनों पैरोंमें तीन बार पृथक् मिट्टी लगानी और धोनी चाहिये । यह मल—त्यागके पश्चात उसके लेप और दुर्गन्धको दूर करनेके लिये शुद्धिका विधान किया गया है । ब्रह्यचारियोंके लिये इससे दुगुने शौचका विधान है । वानप्रस्थियोंके लिये तिगुना और संन्यासियोंके लिये गृहस्थकी अपेक्षा चौगुना शौच बताया गया है । मुनिश्रेष्ठ ! कहीं रास्तेमें हो तो आधा ही पालन करे । रोगीके लिये या बड़ी भारी विपत्ति पड़नेपर भी नियमका बन्धन नहीं रहता । स्त्रियों और उपनयनरहित द्विजकुमारोंके लिये भी लेप और दुर्गन्ध दूर होनेतक ही शौचकी सीमा है । उसके बाद किसी श्रेष्ठ वृक्षकी छिलकेसहित लकड़ी लेकर उससे दाँतुन करे । बेल, असना, अपामार्ग (ऊँगा या चिरचिरा) नीम, आम और अर्क आदि वृक्षोंका दाँतुन होना चाहिये । पहले उसे जलसे धोकर निम्नांकित मन्त्रसे अभिमन्त्रित करे—
आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च ।
ब्रह्य प्रज्ञां च मेंधां च त्वं नो देहि वनस्पते ॥
(ना० पूर्व० २७।२५)
’ वनस्पते ! तुम हमें आय, यश, बल, तेज, प्रजा, पशु, धन, वेद, बुद्धि तथा धारणाशक्ति प्रदान करो । ’
कनिष्ठिकाके अग्रभागके समान मोटा और दस अंगुल लंबा दाँतुन ब्राह्मण करे । क्षत्रिय नौ अंगुल, वैश्य आठ अंगुल, शूद्र और स्त्रियोंको चार अंगुलका दाँतुन करना चाहिये । दाँतुन न मिलनेपर बारह कुल्लोंसे मुख शुद्धि कर लेनी चाहिये । उसके बाद नदी आदिके निर्मल जलमें स्त्रान करे । वहाँ तीर्थोंको प्रणाम करके सूर्यमण्डलमें भगवान् नारायणका आवाहन करे । फिर गन्ध आदिसे मण्डल बनाकर उन्हीं भगवान् जनार्दनका ध्यान करे । नारदजी ! तदनन्तर पवित्र मन्त्रों और तीर्थोंका स्मरण करते हुए स्नान करना चाहिये-
गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् संनिधिं कुरु ॥
पुष्कराद्यानि तीर्थानि गङ्राद्याः सरितस्तथा ।
आगच्छन्तु महाभागाः स्त्रानकाले सदा मम ॥
अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची ह्यवन्तिका ।
पुरी द्वारावती ज्ञेयाः सप्तैता मोक्षदायिकाः ॥
(ना० पूर्व० २७।३३—३५)
’गङ्रा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिन्धु तथा कावेरी नामवाली नदियाँ इस जलमें निवास करें । पुष्कर आदि तीर्थ और गङ्रा आदि परम सौभाग्यवती नदियाँ सदा मेंरे स्त्रानकालमें यहाँ पधारें । अयोध्या, मथुरा, हरद्वार, काशी, काञ्ची, अवन्ती (उज्जैन) और द्बारकापुरी—इन सातोंको मोक्षदायिनी समझना चाहिये ।’
तदनन्तर श्वासको रोके हुए पानीमें डुबकी लगावे और अघमर्षण सूक्तका जप करे । फिर स्त्रानाङ—तर्पण करके आचमनके पश्चात् सूर्यभगवान्का ध्यान करके जलसे बाहर निकलकर बिना फटा हुआ शुद्ध धौतवस्त्र धारण करे । ऊपरसे दूसरा वस्त्र (चादर) भी ओढ़ ले । तत्पश्चात् कुशासनपर बैठकर संध्याकर्म प्रारम्भ करे । ब्राह्मण ! ईशानकोणकी ओर मुख करके गायत्री—मन्त्रसे आचमन करे, फिर ’ ऋतञ्च ’ इत्यादि मन्त्रका उच्चारण करके विद्वान् पुरुष दुबारा आचमन करे । तदनन्तर अपने चारों ओर जल छिड़कर अपने—आपको उस जलसे आवेष्टित करे । अपने शरीरपर भी जल सींचे । फिर प्राणायामका संकल्प लेकर प्रणवका उच्चारण करनेके बाद प्रणवसहित सातों व्याहृतियोंके तथा गायत्री—मन्त्रके ऋषि, छन्द और देवताओंका स्मरण करते हुए (विनियोग करते हुए) भूः आदि सात व्याह्रतियोंद्वारा मस्तकपर जलसे अभिषेक करे । तत्पश्चात् मन्त्रज्ञ पुरुष पृथक्—पृथक् करन्यास और अङन्यास करे । पहले ह्रदयमें प्रणवका न्यास करके मस्तकपर भूःका न्यास करे । फिर शिखामें भूवःका, कवचमें स्वःका, नेत्रोंमें भूर्भुवःका तथा दिशाओंमें भूर्भुवः स्वः—इन तीनों व्याहृतियोंका और अस्त्रका न्यास करे । तीन बार हथेलीपर ताल देना ही अस्त्रन्यास है ।
तदनन्तर प्रातःकाल कमलके आसनपर विराजमान संध्या ( गायत्री )- देवीका आवाहन करे । सबको वर देनेवाली तीन अक्षरोंसे युक्त ब्रह्यवादिनी गायत्रीदेवी ! तुम वेदोंकी माता तथा ब्रह्मयोनि हो ! तुम्हें नमस्कार है । मध्याहृकालमें वृषभपर आरूढ़ हुई , श्वेतवस्त्रसमावृत सावित्रीका आवाहन करे । जो रुद्रयोनि तथा रुद्रवादिनी है । सायंकालके समय गरुड़पर चढ़ी हुई पीताम्बरसे आच्छादित विष्णुयोनि एवं विष्णुवादिनी सरस्वतीदेवीका आवाहन करना चाहिये । प्रणव, सात व्याह्रति, त्रिपदा गायत्री तथा शिरःशिखा मन्त्र—इन सबका उच्चारण करते हुए क्रमशः पूरक, कुम्भक और विरेचन करे । प्राणायाममें बायीं नासिकाके छिद्रसे वायुको धीरे—धीरे अपने भीतर भरना चाहिये । फिर क्रमशः कुम्भक करके विरेचनद्वारा उसे बाहर निकालना चाहिये । तत्पश्चत् प्रातःकालकी संध्यामें’ सूर्यश्च मा’ इत्यादि मन्त्र पढ़कर दो बार आचमन करे । मध्याह्रकालमें ’ आपः पुनन्तु’ इत्यादिसे और सायं संध्यामें’ अग्रिश्च मा’ इत्यादि मन्त्रसे आचमन करना चाहिये । इसके बाद ’ आपो हि ष्ठा मयो भुवः’ इत्यादि तीन ऋचाओंद्वारा मार्जन करे । फिर——सुमित्रिया न आप ओषधयः सन्तु । दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान्द्वेष्टि । यं च वयं द्विष्मः ।
—इस मन्त्रको पढ़ते हुए हथेलीमें जल लेकर नासिकासे उसका स्पर्श कराये और भीतरके काम—क्रोधादि शत्रु उस जलमें आ गये, ऐसी भावना करके दूर फेंक दे । इस प्रकार शत्रुवर्गको दूर भगाकर’ द्रुपदादिव मुमुचानः’ इत्यादि मन्त्रसे अभिमन्त्रित जलको अपने सिरपर डाले । उसके बाद’ ऋतञ्च सत्यम् ’ इत्यादि मन्त्रसे अघमर्षण करके’ अन्तश्चरसि’ इत्यादि मन्त्रद्वारा एक ही बार जलका आचमन करे । देवर्षे ! तदनन्तर सूर्यदेवको विधिपूर्वक गन्ध, पुष्प और जलकी अञ्जलि दे । प्रातःकाल स्वस्तिकाकार अञ्चलि बाँधकर भगवान् सूर्यका उपस्थान करे । मध्याहृकालमें दोनों भुजाओंको ऊपर उठाकर और सायंकाल बाँहें नीचे करके उपस्थान करे । इस प्रकार प्रातः आदि तीनों समयके लिये पृथक्—पृथक् विधि है । नारदजी ! सूर्योपस्थानके समय’ उदुत्यं जातवेदसम् ’, चित्रं देवानामुदगादनीकम् ’,’ तच्चक्षुर्देवहितम ’ इन तीन ऋचाओंका जप करे । इसके सिवा सूर्यदेवता—सम्बन्धी अन्य मन्त्रोंका, शिव—सम्बन्धी मन्त्रींका तथा विष्णुदेवता—सम्बन्धी मन्त्रोंका भी जप किया जा सकता है । सूर्योपस्थानके बाद’ तेजोऽसि’तथा’ गायत्र्यस्येकपदी’ इत्यादि मन्त्रोंको पढ़कर भगवान् सविताके तेजःस्वरूप गायत्रीकी अथवा परमात्म—तेजकी सुतति—प्रार्थना करे । तदनन्तर पुनः तीन बार अङन्यास करके ब्रह्या, रुद्र तथा विष्णुकी स्वरूपभूता शक्तियोंका चिन्तन करे (प्रातःकाल ब्रह्याकी, मध्याह्रमें रुद्रकी और सायंकाल विष्णुकी शक्तिरुपसे क्रमशः गायत्री, सावित्री और सरस्वतीका चिन्तन करना चाहिये । उनका क्रमशः ध्यान इस प्रकार है——)
ब्रह्याणी चतुराननाक्षवलयं कुम्भं करैः स्त्रुक्स्त्रुवौ बिभ्रणा त्वरुणेन्दुकान्तिवदना ऋग्रूपिणी बालिका ।
हंसारोहणकेलिखण्खण्मणेर्बिम्बार्चिता भूषिता गायत्री परिभाविता भवतु नः संपत्समृद्धयै सदा ॥
(ना० पूर्व० ।२७।५५)
’प्रातः कालमें गायत्रीदेवी ऋग्वेदस्वरूपा बालिकाके रूपमें विराज रही हैं । ये ब्रह्याजीकी शक्ति हैं । इनके चार मुख हैं । इन्होंने अपने हाथोंमें अक्षवलय, कलश, स्त्रुक् और स्त्रुवा धारण कर रखा है । इनके मुखकी कान्ति अरूण चन्द्रमाके समान कमनीय़ है । ये हंसपर चढ़नेकी क्रीड़ा कर रही हैं । उस समय इनके मणिमय आभूषण खनखन करने लगते हैं । मणिके बिम्बोंसे ये कूजित और विभूषित हैं । ऐसी गायत्रीदेवी हमारे ध्यानकी विषय होकर दैवी सम्पत्ति बढ़ानेमें सहायक हो ।’
रुद्राणी नवयौवना त्रिनयना वैयाघ्रचर्माम्बरा खट्वाङत्रिशिखाक्षसूत्रवलयाऽभीतिः श्रियै चास्तु नः ।
विद्युद्दामजटाकलापविलसद्बालेन्दुमौलिर्मुदा सावित्री वृषवाहना सिततनुर्ध्येया यजूरूपिणी ॥
(ना० पूर्व० ।२७।५६।
’मध्याह्रकालमें वही गायत्री’ सावित्री’ नाम धारण करती है । ये रुद्रकी शक्ति हैं । नूतन यौवनसे सम्पन्न हैं । इनके तीन नेत्र हैं । व्याघ्रका चर्म इन्होंने वस्त्रके रूपमें धारण कर रखा है । इनके हाथोंमें खट्वाङ, त्रिशूल, अक्षवलय और अभयकी मुद्रा है । तेजोमयी विद्युत्के समान देदीप्यमान जटामें बालचन्द्रमाका मुकुट शोभा पा रहा है । ये आनन्दमें मग्र हैं । वृषभ इनका वाहन है । शरीरका रंग (कपूरके समान) गौर है और यजुर्वेद इनका स्वरूप है । इस रूपमें ध्यान करने योग्य़ सावित्री हमोर ऐश्वर्यकी वृद्धि करें ।’
ध्येया सा च सरस्वती भगवती पीताम्बरालड्कृता श्यामा श्यामतनुर्जश परिलसद् गात्राञ्चिता वैष्णवी ।
तार्क्ष्यस्था मणिनूपुराङदलसद्ग्रैवेयभूषोज्ज्वला हस्तालड्कृतशड्खचक्रसुगदापद्या श्रियै चास्तु नः ॥
(ना० पूर्व० २७।५७)
’सायंकालमें वही गायत्री विष्णुशक्ति भगवती सरस्वतीका रूप धारण करती हैं । उनके श्रीअङ है । शरीरका एक—एक अवयव श्याम है । विभिन्न अङ्गोमें जरावस्थाके लक्षण प्रकट होकर उनकी शोभा बढ़ा रहे हैं । वे गरुड़पर बैठी हैं । मणिमय नूपुर, भुजबंद और सुन्दर हार, हमेंल आदि भूषणोंसे उनकी स्वाभाविक प्रभा और बढ़ गयी है । उनके हाथोंमें शङख, चक्र और उत्तम गदा तथा पद्म सुशोभित हैं । इस रूपमें ध्यान करने योग्य सरस्वतीदेवी हमारी श्रीवृद्धि करें ।’
इस प्रकार ध्यान करके गायत्री—मन्त्रका जप करे । प्रातः और मध्याह्रकालमें खड़े होकर तथा साय़ंकालमें बैठकर भक्तिभावसे गायत्रीके ध्यानमें ही मनको लगाये हुए जप करना चाहिये । प्रति समयकी संध्योपासनामें गायत्रीदेवीका एक हजार जप उत्तम, एक सौ जप मध्य्म तथा कम—से—कम दस बार जप साधारण माना गया है । आरम्भमें प्रणव फिर’ भूर्भुवःस्वः’ उसके बाद’ तत्सवितुः’ इत्यादि त्रिपदा गायत्री—यही जपने योग्य़ गायत्री—मन्त्रका स्वरूप है । मुने ! ब्रह्यचारी, वानप्रस्थ और यतिके द्वारा जो गायत्री—मन्त्रका जप होता है, उसमें छः प्रणव लगावे अथवा आदि—अन्तमें प्रणव लगाकर मन्त्रको उसमें सम्पुटित कर दे । परंतु गृहस्थके लिये केवल आदिमें एक प्रणव लगानेका नियम है । ऐसा ही मन्त्र उसके लिये जपने योग्य है । तदनन्तर यथाशक्ति जप करके उसे भगवान् सूर्यको निवेदित करे । फिर गायत्री तथा सूर्यदेवताके लिये एक—एक अञ्जलि जल छोड़े । तत्पश्चत ’उत्तरे शिखरे देवि’ इत्यादि मन्त्रसे गायत्रीदेवीका विसर्जन करते हुए कहे—’ देवि ! श्रीब्रह्या, शिव तथा भगवान् विष्णुकी अनुमति लेकर सादर पधारो ।’ इसके बाद दिशाओं और दिग्देवताओंको हाथ जोड़कर प्रणाम करनेके अनन्तर प्रातःकाल आदिका दूसरा कर्म भी विधिपूर्वक सम्पन्न करे । देवर्षे ! गृहस्थ पुरुष तो प्रातःकाल और मध्याह्लकालमेंं स्त्रान करे । परंतु वानप्रस्थी तथा संन्यासीको तीनों समय स्त्रान करना चाहिये । जो रोग आदिसे कष्ट पा रहे हों उनके लिये तथा पथिकोंके लिये एक ही बार स्त्रानका विधान किया गया है । मुनीश्वर ! संध्योपासनके अनन्तर द्विज हाथमेंं कुश धारण करके ब्रह्ययज्ञ करे । यदि दिनमेंं बताये गये कर्म प्रमादवश न किये गये हों तो रातके पहले पहरमेंं उन्हें क्रमशः पूर्ण कर लेना चाहिये । जो धूर्त बुद्धिवाला द्विज आपत्तिकाल न होनेपर भी संध्योपासन नहीं करता, उसे सब धर्मोंसे भ्रष्ट एवं पाखण्डी समझना चाहिये । जो कपटपूर्ण झूठी युक्ति देनेमें चतुर होनेके कारण संध्या आदि कर्मोंको अनावश्यक बताते हुए उनका त्याग करता है, उसे महापातकियोंका सिरमौर समझना चाहिये ।
संध्योपासनाके बाद विधिपूर्वक देवपूजा तथा बलिवैश्वदेव—कर्म करना चाहिये । उस समय आये हुए अतिथिका अन्न आदिसे भलीभँति सत्कार करना चाहिये । उनके आनेपर मीठे वचन बोलना चाहिये । उन्हें घरमें ठहरनेके लिये स्थान देकर अन्न—जल अथवा कन्द—मूल—फलसे उनकी पूजा करनी चाहिये । जिसके घरसे अतिथि निराश होकर लौटता है, वह उसे अपना पाप दे बदलेमें उसका पुण्य लेकर चला जाता है । जिसका नाम और गोत्र पहलेसे ज्ञात न हो और जो दूसरे गाँवसे आया हो, ऐसे व्यक्तिको विद्वान् पुरुष’ अतिथि’ कहते हैं । उसका श्रीविष्णुकी भाँति पूजन करना चाहिये । ब्राह्मण ! प्रतिदिन पितरोंकी तृप्तिके उद्देश्यसे अपने ग्रामके निवासी एक श्रोत्रिय एवं वैष्णव ब्राह्मणको अन्न आदिसे तृप्त करना चाहिये । जो पञ्चमहायज्ञोंका त्यागी है, उसे विद्वान् लोग ब्रह्यहत्यारा कहते हैं । इसलिये प्रतिदिन प्रयत्नपूर्वक पञ्चमहायज्ञोंका अनुष्ठान करना चाहिये । देवयज्ञ, भूतयज्ञ, पितृयज्ञ, मनुष्ययज्ञ तथा ब्रह्ययज्ञ—इनको पञ्चयज्ञ कहते हैं । भृत्य और मित्रादिवर्गके साथ स्वयं मौन होकर भोजन करना चाहिये । द्विज कभी अभक्ष्य पदार्थको न खाय । सुपात्र व्यक्तिका त्याग न करे, उसे अवश्य भोजन करावे । जो अपने आसनपर पैर रखकर अथवा आधा वस्त्र पहनकर भोजन करता है या मुखसे उगले हुए अन्नको खाता है, विद्वान, पुरुष उसे’ शराबी’ कहते हैं । जो आधा खाये हुए मोदक, फल और प्रत्यक्ष नमकको पुनः खाता है, वह गोमांसभोजी कहा जाता है । द्विजको चाहिये कि वह पानी पीते, आचमन करते तथा भक्ष्य पदार्थोंका भोजन करते समय मुखसे आवाज न करे । यदि वह उस समय मुँहसे आवाज करता है तो नरकगामी होता है । मौन होकर अन्नकी निन्दा न करते हुए हितकर अन्नका भोजन करना चाहिये । भोजनके पहले एक बार जलका आचमन करे और इस प्रकार कहे’ अमृतोपस्तरणमसि’—(हे अमृतरूप जल ! तू भोजनका आश्रय अथवा आसन है) । फिर भोजनके अन्तमें एक बार जल पीये और कहे—’अमृतापिधानमसि’ (हे अमृत ! तू भोजनका आवरण—उसे ढकनेवाला है) । पहले प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान—इनके निमित्त अन्नकी पाँच आहुतियाँ अपने मुखमें डालकर आचमन कर ले । उसके बाद भोजन आरम्भ करे । विप्रवर नारदजी ! इस प्रकार भोजनके पश्चात् आचमन करके शास्त्रचिन्तनमेंं तत्पर होना चाहिये । रातमेंं भी आये हुए अतिथिका यथाशक्ति भोजन, आसन तथा शयनसे अथवा कन्द—मूल—फ्ल आदिसे सत्कार करे । मुने ! इस प्रकार गृहस्थ पुरुष सदा सदाचारका पालन करे । जिस समय वह सदाचारको त्याग देता है, उस समय प्रायश्चित्तका भागी होता है ।
साधुशिरोमणे ! अपने शरीरको सफेद बाल आदि दोषोंसे युक्त देखकर अपनी पत्नीको पुत्रोंके संरक्षणमेंं छोड़ दे । स्वयं घरसे विरक्त होकर वनमेंं चला जाय अथवा पत्नीको भी साथ ही लेता जाय । वहाँ तीनों समय स्त्रान करे । नख, दाढ़ी, मूँछ और जटा धारण किये रहे । नीचे भूमिपर सोये । ब्रह्यचर्यका पालन करे और पञ्चमहायज्ञोंके अनुष्ठानमें तत्पर रहे । प्रतिदिन फल—मूलका भोजन करे और स्वाध्यायमें लगा रहे । भगवान् विष्णुके भजनमें संलग्र होकर सब प्राणियोंके प्रति दयाभावा रखे । गाँवमें पैदा हुए फल—मूलको त्याग दे । प्रतिदिन आठ ग्रास भोजन करे तथा रातमें उपवासपूर्वक रहे । वानप्रस्थ—आश्रममें रहनेवाला द्विज उबटन, तेल, मैथुन, निद्रा और आलस्य त्याग दे । वानप्रस्थी पुरुष शड्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् नारायणका चिन्तन तथा चान्द्रायण आदि तपोमय ब्रत करे । सर्दी—गरमी आदि द्वन्द्वोंको सहन करे । सदा अग्रिकी सेवा (अग्रिहोत्र)—में संलग्र रहे । जब मनमें सब वस्तुओंकी ओरसे वैराग्य हो जाय तभी संन्यास ग्रहण करे, अन्यथा वह पतित हो जाता है । संन्यासीको वेदान्तके अभ्यासमें तत्पर, शान्त, संयमी और जितेन्द्रिय, द्वन्द्वोंसे रहित तथा ममता और अहंकारसे शून्य रहना चाहिये । वह शम—दम आदि गुणोंसे युक्त तथा काम—क्रोधादि दोषोंसे दूर रहे । संन्यासी द्विज नग्र रहे या पुराना कोपीन पहने । उसे अपना मस्तक मुँड़ाये रहना चाहिये । वह शत्रु—मित्र तथा मान—अपमानमें समान भाव रखे । गाँवमें एक रात और नगरमें अधिक—से—अधिक तीन रात रहे । संन्यासी सदा भिक्षासे ही जीवन—निर्वाह करे । किसी एकके घरका अन्न खानेवाला न हो । जब चूल्हेकी आग बुझ जाय, घरके लोगोंका खाना—पीना हो गया हो, कोई बाकी न हो, उस समय किसी उत्तम द्विजके घरमें, जहाँ लड़ाई—झगड़ा न हो, भिक्षाके लिये संन्यासीको जाना चाहिये । संन्यासी तीनों काल स्त्रान और भगवान् नाराय़णका ध्यान करे । और मनको जीतकर इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए प्रतिदिन प्रणवका जप करता रहे । अगर कोई लम्पट संन्यासी कभी एक व्यक्तिका अन्न खाकर रहने लगे तो दस हजार प्रायश्चित्त करनेपर भी उसका उद्धार नहीं दिखायी देता । ब्राह्मण ! यदि संन्यासी लोभवश केवल शरीरके ही पालन—पोषणमें लगा रहे तो उसे चाण्डालके समान समझना चाहिये । सभी वर्णों और आश्रमोंमें उसकी निन्दा होती है । संन्यासी अपने आत्मस्वरूप भगवान् नारायणका चिन्तन करे । जो रोग—शोकसे रहित, द्वन्द्वोंसे परे, ममताशून्य, शान्त, मायातीत, ईर्ष्यारहित, अव्यय, परिपूर्ण, सच्चिदानन्दस्वरूप ज्ञानमय, निर्मल, परम ज्योतिर्मय, सनातन, अधिकारी, अनादि, अनन्त जगत्की चिन्मयताके कारण गुणातीत तथा परात्पर परमात्मा हैं, उन्हींका नित्य ध्यान करना चाहिये । वह उपनिषद्—वाक्योंका पाठ एवं वेदान्तशास्त्रके अर्थका विचार करता रहे । जितेन्द्रिय रहकर सदा सहस्त्रों मस्तकवाले भगवान् श्रीहरिका ध्यान करे । जो ईर्ष्या छोड़कर इस प्रकार भगवान्के ध्यानमें तत्पर रह्ता है, वह परमानन्दस्वरूप उत्कृष्ट सनातन ज्योतिको प्राप्त होता है । जो द्विज इस तरह क्रमशः आश्रमसम्बन्धी आचारोंका पालन करता है, वह परम धाममें जाता है । वहाँ जाकर कोई शोक नहीं करता । वर्ण और आश्रम—सम्बन्धी धर्मके पालनमें तत्पर एवं सब पापोंसे रहित भगवद्भक्त भगवान् विष्णुके परम धामको प्राप्त होते हैं ।
अध्याय २६ श्राद्धकी विधि तथा उसके विषयमें अनेक ज्ञातव्य विषयोंका वर्णन
श्रीसनकजी कहते है—मुनिश्रेष्ठ ! मैं श्राद्धकी उत्तम विधिका वर्णन करता हूँ, सुनो । उसे सुनकर मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । पिताकी क्षयाह तिथिके पहले दिन स्त्रान करके एक समय भोजन करे । जमीनपर सोये, ब्रह्मचर्यका पालन करे तथा रातमें ब्राह्मणोंको निमन्त्रण दे । श्राद्धकर्ता पुरुष दाँतुन करना, पान खाना, तेल और उबटन लगाना, मैथुन, औषध—सेवन तथा दूसरोंके अन्नका भोजन अवश्य त्याग दे । रास्ता चलना, दूसरे गाँव जाना, कलह, क्रोध और मैथुन करना, बोझ ढोना तथा दिनमें सोना—ये सब कार्य श्राद्धकर्ता और श्राद्धभोक्ताको छोड़ देने चाहिये । यदि श्राद्धमें निमन्त्रित पुरुष मैथुन करता है तो वह ब्रह्महत्याको प्राप्त होता और नरकमें जाता है । श्राद्धमें वेदके ज्ञाता और वैष्णव ब्राह्मणको नियुक्त करना चाहिये । जो अपने वर्ण और आश्रमधर्मके पालनमें तत्पर, परम शान्त, उत्तम कुलमें उत्पन्न, राग—द्वेषसे रहित, पुराणोंके अर्थज्ञानमें निपुण, सब प्राणियोंपर दया करनेवाला, देवपूजापरायण, स्मृतियोंका तत्त्व जाननेमें कुशल, वेदान्त—तत्त्वका ज्ञाता, सम्पूर्ण लोकोंके हितमें संलग्र, कृतज्ञ, उत्तम गुणयुक्त, गुरुजनोंकी सेवामें तप्तर तथा उत्तम शास्त्रवचनोंद्वारा धर्मका उपदेश देनेवाला हो, उसे श्राद्धमें निमन्त्रित करे ।
किसी अङ्गसे हीन अथवा अधिक अङवाला, कदर्य, रोगी, कोढ़ी, बुरे नखोंवाला, अपने व्रतको खण्डित करनेवाला, ज्योतिषी, मुर्दा जलानेवाला, कुत्सित वचन बोलनेवाला, परिवेत्ता (बड़े भाईके अविवाहित रह्ते हुए स्वयं विवाह करनेवाला), देवल, दुष्ट, निन्दक, असहनशील, धूर्त, गाँवभरका पुरोहित असत्—शास्त्रोंमें अनुराग रखनेवाला, वृषलीपति, कुण्डगोलक, यज्ञके अनधिकारियोंसे यज्ञ करानेवाला, पाखण्डपूर्ण आचरणवाला, अकारण सिर मुँड़ानेवाला, परायी स्त्री और पराये धनका लोभ रखनेवाला, भगवान् विष्णुकी भक्तिसे रहित, भगवान् शिवकी भक्तिसे विमुख, वेद बेचनेवाला, व्रतका विक्रय करनेवाला, स्मृतियों तथा मन्त्रोंको बेचनेवाला, गवैया, मनुष्योंकी झूठी प्रशंसाके लिये कविता करनेवाला, वैद्यक—शास्त्रसे जीविका चलानेवाला, वेदनिन्दक, गाँक और वनमें आग लगानेवाला, अत्यन्त कामी, रस बेचनेवाला, झूठी युक्ति देनेमें तत्पर रहनेवाला—ये सब ब्राह्मण यत्नपूर्वक श्राद्धमें त्याग देने योग्य हैं । श्राद्धसे एक दिन पहले या श्राद्धके दिन बाह्यणोंकी निमन्त्रित करे । श्राद्धकर्ता पुरुष हाथमें कुश लेकर इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए विद्वान् ब्राह्मणको निमन्त्रण दे और इस प्रकार कहे’ हे साधुशिरोमणे ! श्राद्धमेंं अपना समय देकर मुझपर कृपा प्रसाद करें ।’ तदनन्तर प्रातःकाल उठकर सबेरेका नित्यकर्म समाप्त करके विद्वान् पुरुष कुतपकालमें श्राद्ध प्रारम्भ करे । दिनके आठवें मुहूर्तमें जब सूर्यका तेज कुछ मन्द हो जाता है, उस समयको’ कुतपकाल’ कहते हैं । उसमें पितरोंकी तृप्तिके लिये दिया हुआ दान अक्षय होता है । ब्रह्याजीने पितरोंको अपराह्लकाल ही दिया है । मुनिश्रेष्ठ ! विभिन्न द्रव्योंके साथ जो कव्य असमयमेंं पितरोंके लिये दिया जाता है, उसे राक्षसका भाग समझना चाहिये । वह पितरोंके पास नहीं पहुँच पाता है । सायंकालमें दिया हुआ कव्य राक्षसका भाग हो जाता है । उसे देनेवाला नरकमें पड़ता है और उसको भोजन करनेवाला भी नरकगामी होता है । ब्रह्मन् ! यदि निधनतिथिका मान पहले दिन एक दण्ड ही हो और दूसरे दिन वह अपराह्लतक व्याप्त हो तो विद्वान् पुरुषको दूसरे ही दिन श्राद्ध करना चाहिये । किंतु मृत्युतिथि यदि दोनों दिन अपराह्लकालमें व्याप्त हो तो क्षयपक्षमें पूर्वतिथिको श्राद्धमें ग्रहण करना चाहिये और वृद्धिपक्षमें परतिथिको । यदि पहले दिन क्षयाहतिथि चार घड़ी हो और दूदरे दिन वह सायंकालतक व्याप्त हो तो श्राद्धके लिये दूसरे दिनवाली तिथि ही उत्तम मानी गयी है । द्विजोत्तम ! निमन्त्रित ब्राह्मणोंके एकत्र होनेपर प्रायश्चित्तसे शुद्ध ह्रदयवाला श्राद्धकर्ता पुरुष उनसे श्राद्धके लिये आज्ञा ले । ब्राह्मणोंसे श्राद्धके लिये आज्ञा मिल जानेपर श्राद्धकर्ता पुरुष फिर उनमेंसे दोको विश्वेदेव श्राद्धके लिये और तीनको विधिपूर्वक पितृश्राद्धके लिये पुनःनिमन्त्रित करे । अथवा देवश्राद्ध तथा पितृश्राद्धके लिये एक—एक ब्राह्मणको ही निमन्त्रित करे । श्राद्धके लिये आज्ञा लेकर एक—एक मण्डल बनावे । ब्राह्मणके लिये चौकोर, क्षत्रियके लिये त्रिकोण तथा वैश्यके लिये गोल मण्डल बनाना आवश्यक समझना चाहिये और शुद्रको मण्डल न बनाकर केवल भूमिको सींच देना चाहिये । योग्य़ ब्राह्मणोंके अभावमें भाईको, पुत्रको अथवा अपने—आपको ही श्राद्धमें नियुक्त करे । परंतु वेदशास्त्रके ज्ञानसे रहित ब्राह्मणको श्राद्धमें नियुक्त न करे । ब्राह्मणोंके पैर धोकर उन्हें आचमन करावे और नियत आसनपर बैठाकर भगवान् विष्णुका स्मरण करते हुए उनकी विधिपूर्वक पूजा करे । ब्राह्मणोंके बीचमें तथा श्राद्धमण्डपके द्वारदेशमें श्राद्धकर्ता पुरुष ’ अपहता असुरा रक्षाँसि वेदिषदः ।’ इस ऋचाका उच्चारण करते हुए तिल बिखेरे । जौ और कुशोंद्वारा विश्वेदेवोंको आसन दे । हाथमें जौ और कुश लेकर कहे—’ विश्वेषां देवनाम् इदम् आसनम् ’ ऐसा कहकर विश्वेदेवोंके बैठनेके लिये आसनरूपसे उस कुशाको रख दे और प्रार्थना करे- हे विश्वेदेवो ! आपलोग इस देवश्राद्धमें अपना क्षण ( समय ) दें और प्रतीक्षा करें । अक्षय्योदक और आसन समर्पणके वाक्यमें विश्वेदेवों और पितरोंके लिये षष्ठी विभक्तिका प्रयोग करना चाहिये । आवाहन—वाक्यमें द्वितीया विभक्ति बतायी गयी है । अन्न समर्पणके वाक्यमें चतुर्थी विभक्तिका प्रयोग होना चाहिये । शेष कार्य सम्बोधनपूर्वक करना चाहिये । कुशकी पवित्रीसे युक्त दो पात्र लेकर उनमें ’ शं नो देवी ’ इत्यादि ऋचाका उच्चारण करके जल डाले । फिर ’ यवोऽसि ’ इत्यादि मन्त्र बोलकर उसमें जव डाले । उसके बाद चुपचाप बिना मन्त्रके ही गन्ध और पुष्प छोड़ दे । इस प्रकार अर्घ्यपात्र तैयार हो जानेपर’ विश्वेदेवाः स’ इत्यादि मन्त्रसे विश्वेदेवोंका आवाहन करे । तदनन्तर’ या दिव्या आपः’ इत्यादि मन्त्रसे अर्घ्यको अभिमन्त्रित करके एकाग्रचित्त हो पितृ और मातामह—सम्बन्धी विश्वेदेवोंको संकल्पपूर्वक क्रमशः अर्घ्य दे । उसके बाद गन्ध, पत्र, पुष्प, यज्ञोपवीत, धूप, दीप आदिके द्वारा उन देवताओंका पूजन करे । तत्पश्चात् विश्वेदेवोंसे आज्ञा लेकर पितृगणोंका पूजन करे । उनके लिये सदा तिलयुक्त कुशोंवाला आसन देना चाहिये । उन्हें अर्घ्य देनेके लिये द्विज पूर्ववत् तीन पात्र रखे ।’ तिलोऽसि सोमदैवत्यो’ इत्यादि मन्त्रसे तिल डाले । फिर’ उशन्तस्त्वा’ इत्यादि मन्त्रद्वारा पितरोंका आवाहन करके ब्राह्मण एकाग्रचित्त हो’ या दिव्या आपः’ इत्यादि मन्त्रसे अर्घ्यको अभिमन्त्रित करके पूर्ववत् संकल्पपूर्वक पितरोंको समर्पित करे (अर्घ्यपात्रको उलटकर पितरोंके वामभागमें रखना चाहिये) । साधुशिरोमणे ! तदनन्तर गन्ध, पत्र, पुष्प, धूप, दीप, वस्त्र और आभूषणसे अपनी शक्तिके अनुसार उन सबकी पूजा करे । तत्पश्चात विद्वान् पुरुष घृतसहित अन्नका ग्रास ले ’अग्नौ करिष्ये’ (अग्रिमें होम करूँगा) ऐसा कहकर उन ब्राह्मणोंसे इसके लिये आज्ञा ले । मुने ! ’करवै’—अथवा ’करवाणि’ (करूँ ?) ऐसा कहकर श्राद्धकर्ताके पूछनेपर ब्राह्मण लोग ’कुरुष्व’ ’क्रियताम्’ अथवा ’कुरु’ (करो) ऐसा कहें । इसके बाद अपनी शाखाके गृह्यसूत्रमें बतायी हुई विधिके अनुसार उपासनाग्रिकी स्थापना करके उसमें पूर्वोक्त अन्नके ग्रासकी दो आहुतियाँ डाले । उस समय ’सोमाय पितृमते स्वधा नमः’ ऐसा उच्चारण करे । फिर ’अग्रये कव्यवाहनाय स्वधा नमः’ ऐसा उचारण करे । विद्वान् पुरुष अन्तमें स्वधाकी जगह स्वाहा लगाकर भी पितृयज्ञकी भाँति आहुति दे सकते हैं । इन्हीं दो आहुतियोंसे पितरोंको अक्षय तृप्ति प्राप्त होती है । अग्रिके अभवामें अर्थात् यजमानके अग्रिहोत्री न होनेपर ब्राह्मणके हाथमें दानरूप होम करनेका विधान है । ब्रह्मन् ! जैसा आचार हो, उसके अनुसार ब्राह्मणके हाथ या अग्रिमें उक्त होम करना चाहिये । पार्वण उपस्थित होनेपर अग्रिको दूर नहीं करना चाहिये । विप्रवर ! यदि पार्वण उपस्थित होनेपर अपनी उपास्य अग्रि दूर हो तो पहले नूतन अग्रिकी स्थापना करके उसमें होम आदि आवश्यक कार्य करनेके पश्चात् विद्वान् पुरुष उस अग्रिका विसर्जन कर दे । यदि क्षयाह (निधनदिन) तिथि प्राप्त हो और उपासनाग्रि दूर हो तो अपने अग्रिहोत्री द्विज भाइयोंसे विधिपूर्वक श्राद्धकर्म सम्पन्न करावे । द्विजश्रेष्ठ ! श्राद्धकर्ता प्राचीनावीती होकर (जनेऊको दाहिने कंधेपर करके) अग्रिमें होम करे और होमावशिष्ट अन्नको ब्राह्मणके पात्रोंमें भगवत्स्मरणपूर्वक डाले । फिर स्वादिष्ट भक्ष्य, भोज्य, लेह्य आदिके द्वारा ब्राह्मणोंका पूजन करे । तदनन्तर एकाग्रचित्त हो विश्वेदेव और पितर—दोनोंके लिये अन्न परोसे । उस समय इस प्रकार प्रार्थना करे—
आगच्छन्तु महाभागा विश्वेदेवा महाबलाः ।
ये यत्र विहिताः श्राद्धे सावधाना भवन्तु ते ॥
(ना० पूर्व० २८।५७—५८)
‘महान् बलवान् महाभाग विश्वेदेवगण यहाँ पधारें और जो जिस श्राद्धमें विहित हो वे उसके लिये सावधान रहें ।’
इस प्रकार विश्वेदेवोंसे प्रार्थना करे । ’ये देवासः’ इत्यादि मन्त्रसे भी उनकी अभ्यर्थना करनी चाहिये । देवपक्षके ब्राह्मणोंसे भी ऐसी ही प्रार्थना करे । उसके बाद ’ये चेह पितरो’ इत्यादि मन्त्रसे पितरोंकी अभ्यर्थना करके निमङ्गित मन्त्रसे उनको नमस्कार करे—
अमूर्तानां च मूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम् ।
नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां योगचक्षुषाम् ॥ (ना० पूर्व० २८।५९—६०)
‘ जिनका तेज सब ओर प्रकाशित हो रहा है, जो ध्यानपरायण तथा योगदृष्टिसे सम्पन्न हैं, उन मूर्त पितरोंको तथा अमूर्त पितरोंको भी मैं सदा नमस्कार करता हूँ ।’ इस प्रकार पितरोंको प्रणाम करके श्राद्धकर्ता पुरुष भगवान् नारायणका चिन्तन करते हुए दिये हुए हविष्य तथा श्राद्धकर्मको भगवान् विष्णुकी सेवामें समर्पित कर दे । इसके बाद वे सब ब्राह्मण मौन होकर भोजन प्रारम्भ करें । यदि कोई ब्राह्मण उस समय हँसता या बात करता है तो वह हविष्य राक्षसका भाग हो जाता है । पाक आदिकी प्रशंसा (या निद्ना) न करे । सर्वथा मौन रहे । भोजनपात्रको हाथसे स्पर्श किये हुए ही भोजन करे । यदि कोई श्राद्धमें नियुक्त हुआ ब्राह्मण पात्रको सर्वथा छोड़ देता है तो उसे श्राद्धहन्ता जानना चाहिये । वह नरकमें पड़ता है । भोजन करनेवाले ब्राह्मणोंमेंसे कुछ लोग यदि एक—दूसरेका स्पर्श कर लें और अन्नका त्याग न करके उसे खा लें तो उस स्पर्शजनित दोषका निवारण करनेके लिये उन्हें आठ सौ गायत्री—मन्त्रका जप करना चाहिये । जब ब्राह्मणलोग भोजन करते हो उस समय श्राद्धकर्ता पुरुष श्रद्धापूर्वक कभी पराजित न होनेवाले अविनाशी भगवान् नारायणका स्मरण करे । रक्षोघ्नमन्त्र, वैष्णवसूक्त तथा विशेषतः पितृसम्बन्धी मन्त्रोंका पाठ करे । इसके सिवा पुरुषसूक्त, त्रिणाचिकेत, त्रिमधु, त्रिसुपर्ण, पवमानसूक तथा यजुर्वेद और सामवेदके मन्त्रोंका जप करे । अन्यान्य पुण्यदायक प्रसंगोंका चिन्तन करे । इतिहास, पुराण तथा धर्मशास्त्रोंका भी पाठ करे । नारदजी ! जबतक ब्राह्मणलोग भोजन करें, तबतक इन सबका जप या पाठ करता चाहिये । जब बे भोजन कर लें, उस समय परोसनेवाले पात्रमें बचा हुआ उच्छिष्टके समीप भूमिपर बिखेर दे । यह विकिरान्न कहलाता उस समय ’ मधुवाता ऋतायते ’ इत्यादि सूक्तका जप करे । नारदजी ! इसके बाद श्राद्धकर्ता पुरुष स्वयं दोनों पैर धोकर भलीभाँति आचमन कर ले । फिर ब्राह्मणोंके आचमन कर लेनेपर पिण्डदान करे । स्वस्तिवाचन कराकर अक्षय्येदक दे ( तर्पण करें ) । जो द्विज अर्घ्यपात्रको हिलाये या सीधा किये बिना (दक्षिणा लेते और) स्वस्तिवाचन करते हैं, उनके पितर एक वर्षतक उच्छिष्ट भोजन करते हैं । स्मृति—कथित ’ गोत्रं नो वर्धताम् ’ ’ दातारो नोऽभिवर्धन्ताम् ’ इत्यादि वचन कहकर ब्रह्मणोंसे आशीर्वाद ग्रहण करे । तदनन्तर उन्हें प्रणाम करे और उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा, गन्ध एवं ताम्बूल अर्पित करे । उलटे हुए अर्घ्यपात्रको उत्तान करनेके बाद हाथमें लेकर’ स्वधा’ का उच्चारण करे । फिर ’ वाजे वाजे ’ इत्यादि ऋचाको पढ़्कर पितरोंका, देवताओंका विसर्जन करे ।
श्राद्ध का भोजन करनेवाला ब्राह्मण तथा श्राद्धकर्ता यजमान दोनों उस रातमें मैथुनका त्याग करें । उस दिन स्वाध्याय तथा रास्ता चलनेका कार्य यत्नपूर्वक छोड़ दें । जो कहीं जानेके लिये यात्रा कर रहा हो, जिसे कोई रोग हो तथा जो धनहीन हो, वह पुरुष पाक न बनाकर कच्चे अन्नसे श्राद्ध करे और जिसकी पत्नी रजस्वला होनेसे स्पर्श करने योग्य़ न हो, वह दक्षिणारूपसे सुवर्ण देकर श्राद्धकार्य सम्पन्न करे । यदि धनका अभाव हो और ब्राह्मण भी न मिलें तो बुद्धिमान् पुरुष केवल अन्नका पाक बनाकर पितृसूक्तके मन्त्रसे उसका होम करे । ब्रह्यन् ! यदि उसके पास अन्नमय हविष्यका अभाव हो तो यथाशक्ति घास ले आकर पितरोंकी तृप्तिके उद्देश्यसे गौओंको अर्पण करे । अथवा स्नान करके विधिपूर्वक तिल और जलसे पितरोंका तर्पण करे । अथवा विद्वान् पुरुष निर्जन वनमें चला जाय और मैं महापापी दरिद्र हूँ- यह कहते हुए उच्चस्वरसे रुदने करे । मुनीश्वर ! जो मनुष्य श्रद्धपूर्वक श्राद्ध करते हैं, वे सम्पत्तिशाली होते हैं और उनकी संतानपरम्पराका नाश नहीं होता । जो श्राद्धमें पितरोंका पूजन करते हैं, उनके द्वारा साक्षात् भगवान् विष्णु पूजित होते हैं और जगदीश्वर भगवान् विष्णुके पूजित होनेपर सब देवता संतुष्ट हो जाते हैं । देवता, पितर, गन्धर्व, अप्सरा, यक्ष, सिद्ध और मनुष्यके रूपमें सनातन भगवान् विष्णु ही विराजमान हैं । उन्हींसे यह स्थावर—जंगमरूप जगत् उत्पन्न हुआ है । अतः दाता और भोक्ता सब भगवान् विष्णु ही हैं । भगवान् विष्णु सम्पूर्ण जनत्के आधार सर्वभूतस्वरूप तथा अविनाशी हैं । उनके स्वभावकी कहीं भी तुलना नहीं है, वे ही हव्य और कव्यके भोक्ता हैं । एकमात्र भगवान् जनार्दन ही परब्रहा परमात्मा कहलाते हैं । मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार तुमसे श्राद्धकी उत्तम विधिका वर्णन किया गया । इस विधिसे श्राद्ध करनेवालोंका पाप तत्काल नष्ट हो जाता है । जो श्रेष्ठ द्विज श्राद्धकालमें भक्तिपूर्वक इस प्रसंगका पाठ करता है , उसके पितर संतुष्ट होते हैं और संतति बढ़ती है ।
अध्याय २७ व्रत, दान और श्राद्ध आदिके लिये तिथियोंका निर्णय
श्रीसनकजी कहते हैं– ब्रह्मन् ! श्रुतियों और स्मृतियोंमें कहे हुए जो व्रत जो व्रत , दान और अन्य वैदिक कर्म हैं वे यदि अनिर्णित ( अनिश्चित ) तिथियोंमें किये जायँ तो उनका कोई फल नहीं होता । एकादशी, अष्टमी, षष्ठी, पूर्णिमा, चतुर्दशी, अमावास्या और तृतीया-ये पर-तिथिसे विद्ध ( संयुक्त ) होनेपर उपवास और व्रत आदिमे श्रेष्ठ मनी जाती है । पूर्व-तिथिसे संयुक्त होनेपर ये व्रत आदिमें ग्राह्य नहीं होती हैं । कोई-कोई आचार्य कृष्णपक्षमें सप्तमी, चतुर्दशी, तृतीया और नवमीको पूर्वतिथिसे विद्ध होनेपर भी श्रेष्ठ कहते हैं । परंतु सम्पूर्ण व्रत आदिमें शुक्लपक्ष ही उत्तम माना गया है और अपराह्लकी अपेक्षा पूर्वाह्लको व्रतमें ग्रहण करने योग्य काल बताया गया है; क्योंकि वह उससे अत्यन्त श्रेष्ठ है । रात्रि-व्रतमें सदा वही तिथि ग्रहण करनी चाहिये जो प्रदोषकालतक मौजूद रहे । दिनके व्रतमें दिनव्यापिनी तिथियाँ ही व्रतादि कर्म करनेके लिये पवित्र मानी गयी हैं । इसी प्रकार रात्रि-व्रतोंमें तिथियोंके साथ रात्रिका संयोग बड़ा श्रेष्ठ माना गया है । श्रवण द्वादशीके व्रतमें सूर्योदयव्यापिनी द्वादशी ग्रहण करनी चाहिये । सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहणमें जबतक ग्रहण लगा रहे , तबतककी तिथि जप आदिमें गहण करने योग्य़ है ।
अब सम्पूर्ण संक्रान्तियोंमें होनेवाले पुण्यकालका वर्णन किया जाता है । सूर्यकी संक्रान्तियोंमें स्नान, दान और जप आदि करनेवालोंको अक्षय फल प्राप्त होता है । इन संक्रान्तियोंमें कर्ककी संक्रान्तिको दक्षिणायन संक्रम जानना चाहिये । कर्ककी संक्रान्तिमें विद्वान् लोग पहलेकी तीस घड़ीको पुण्यकाल मानते हैं । वृष, वृश्चिक, सिंह और कुम्भ राशिकी संक्रान्तियोंमें पहलेके आठ मुहूर्त ( सोलह घड़ी ) स्नान और जप आदिमें ग्राह्य हैं । और तुला तथा मेषकी संक्रान्तियोंमें पूर्व और परकी दस-दस घड़िय़ाँ स्नान आदिक्दे लिये श्रेष्ठ मानी गयी हैं । इनमें दिया हुआ दान अक्षय होता है । ब्रह्मन् ! कन्या , मिथुन , मीन और धनकी संक्रान्तियोंमें बादकी सोलह घटिकाएँ पुण्यदायक जाननी चाहिये । मकर-संक्रान्तिको उत्तरायण संक्रम कहा गया है । इसमें पूर्वकी चालीस और बादकी तीस घड़ियाँ स्नान-दान आदिदे लिये पवित्र मानी गयी हैं । विप्रवर ! यदि सूर्य और चन्द्रमा ग्रहण लगे हुए ही अस्त हो जायँ तो दूसरे दिन उनका शुद्ध मण्डल देखकर ही भोजन करना चाहिये ।
धर्मकी इच्छा रखनेवाले विद्वानोंने अमावास्या दो प्रकारकी बतायी है- सिनीवाली और कुहू । जिसमें चन्द्रमाकी कला देखी जाती है, वह चतुर्दशीयुक्त अमावास्या सिनीवाली कही जाती है और जिसमें चन्द्रमाकी कलाका सर्वथा क्षय हो जाता है, वह चतुर्दशीयुक्त अमावास्या कुहू मानी गय़ी है । अग्रिहोत्री द्विजोंको श्राद्धकर्ममें सिनीवाली अमावास्याको ही ग्रहण करना चाहिये तथा स्त्रियों, शूद्रों और अग्रिरहित द्विजोंको कुहूमें श्राद्ध करना चाहिये । यदि अमावास्या तिथि अपराह्लकालमें व्याप्त हो तो क्षय ( मृत्युकर्म )-में पूर्व-तिथि और वृद्धि ( जन्म-कर्म )-में उत्तर-तिथिको ग्रहण करना चाहिये । यदि अमावास्या मध्याह्नकालके बाद प्रतीत हो तो शास्त्रकुशल साधु पुरुषोंने उसे भूतविद्धा ( चतुर्दशीसे संयुक्त ) कहा है । जब तिथिका अत्यन्त क्षय होनेसे दूसरे दिन वह अपराह्लव्यापिनी न हो तब ( पूर्व दिनकी ) सायंकालव्यापिनी सिनीवाली तिथिको ही श्राद्धमें ग्रहण करना चाहिये । यदि तिथिकी अतिशय वृद्धि होनेपर वह दूसरे दिन अपराह्लकालतक चली गयी हो तो चतुर्दशी-विद्धा अमावास्याको त्याग दे और कुहूको ही श्राद्धकर्ममें ग्रहण करे । यदि अमावास्या तिथि एक मध्याहृसे लेकर दूसरे मध्याहृतक व्याप्त हो तो इच्छनुसार पूर्व या पर- दिनकी तिथिको ग्रहण करे ।
मुनिश्रेष्ठ ! अब मैं सम्पूर्ण पर्वोंपर होनेवाले अन्वाधान ( अग्रिस्थापन )- का वर्णन करता हूँ । प्रतिपदाके दिन याग करना चाहिये । पर्वके अन्तिम चतुर्थांश और प्रतिपदाके प्रथम तीन अंशको मनीषी पुरुषोंने यागका समय बताया है । यागका आरम्भ प्रातःकाल करना चाहिये । विप्रवर ! यदि अमावास्या और पूर्णिमा दोनों मध्याहृकालमें व्याप्त हों तो दूसरे ही दिन यागका मुख्य काल नियत किया जाता है । यदि अमावास्या और पूर्णिमा दूसरे दिन संगवकाल ( प्रातःकालसे छः घड़ी )- के बाद हो तो दूसरे ही दिन पुण्यकाल होता है । तिथियोंमें भी ऐसी ही व्यवस्था जाननी चाहिये । सभी लोगोंको दशमीरहित एकादशी तिथि व्रतमें ग्रहण करनी चाहिये । दशमीयुक्त एकादशी तीन जन्मोंके कमाये हुए पुण्यका नाश कर देती है । यदि एकादशी द्वादशीमें एक कला भी प्रतीत हो और सम्पूर्ण दिन द्वादशी हो और द्वादशी भी त्रयोदशीमें मिली हुई हो तो दूसरे दिनकी तिथि ( द्वादशी ) हो उत्तम मानी गयी है । यदि सम्पूर्ण दिन शुद्ध एकादशी हो और द्वादशीमें भी उसका संयोग प्राप्त होता हो तथा रात्रिके अन्तमें त्रयोदशी आ जाय तो उस विषयमें निर्णय बतलाता हूँ । पहले दिनकी एकादशी गृहस्थोंको करनी चाहिये और दूसरे दिनकी विरक्तोंको । यदि कलाभर भी द्वादशी न रहनेसे पारणाका अवसर न मिलता हो तो उस दशामें दशमीविद्धा एकादशीको भी उपवास-व्रत करना चाहिये । यदि शुक्ल या कृष्णपक्षमें दो एकादशियाँ हों तो पहली गृहस्थोंके लिये और दूसरी विरक्त यतियोंके लिये ग्राह्य मानी गयी है । यदि दिनभर दशमीयुक्त एकादशी हो और दिनकी समाप्तिके समय द्वादशीमें भी कुछ एकादशी हो तो सबके लिये दूसरे ही दिन ( द्वादशी ) व्रत बाताया गया है । यदि दूसरे दिन द्वादशी न हो तो पहले दिनकी दशमीविद्ध एकादशी भी व्रतमें ग्राह्य है । और यदि दूसरे दिन द्वादशी है तो पहले दिनकी दशमीविद्ध एकादशी भी निषिद्ध ही है ( इसलिये ऐसी परिस्थितिमें द्वादशीको व्रत करना चाहिये ) यदि एक ही दिन एकादशी, द्वादशी तथा रातके अन्तिम भागमें त्रयोदशी भी आ जाय तो त्रयोदशीमें पारणा करनेपर बारह द्वादशियोंका पुण्य होता है । यदि द्वादशीके दिन कलामात्र ही एकादशी हो और त्रयोदशीमें द्वादशीका योग हो या न हो तो गृहस्थोंके पहले दिनकी विद्धा एकादशी भी व्रतमें ग्रहण करनी चाहिये । और विरक्त साधुओं तथा विधवाओंको दूसरे दिनकी तिथि ( द्वादशी ) स्वीकार करनी चाहिये । यदि पूरे दिनभर शुद्ध एकादशी हो, द्वादशीमें उसका तनिक भी योग न हो तथा द्वादशी त्रयोदशीमें संयुक्त हो तो वहाँ कैसे व्रत रहना चाहिये-इसका उत्तर देते हैं-गृहस्थोंको पूर्वकी ( एकाद्शी ) तिथिमें व्रती रहना चाहिये और विरक्त साधुओंको दूसरे दिनकी ( द्वादशी ) तिथिमें । कोई-कोई विद्वान् ऐसा कहते हैं कि सब लोगोंको दूसरे दिनकी तिथिमें ही भक्तिपूर्वक उपवास करना चाहिये । जब एकादशी दशमीसे विद्ध हो, द्वादशीमें उसकी प्रतीति न हो और द्वादशी त्रयोदशीसे संयुक्त हो तो उस दशामें सबको शुद्ध द्वादशी तिथिमें उपवास करना चाहिये- इसमें संशय नहीं है । कुछ लोग पूर्व तिथिमें व्रत कहते हैं; किंतु उनका मत ठीक नहीं है ।
जो रविवारको दिनमें , अमावास्या और पूर्णिमाको रातमें , चतुर्दशी और अष्टमी तिथिको दिनमें तथा एकादशी तिथिको दिन और रात दोनोंमें भोजन कर लेता है, उसे प्रायश्चित्तरूपमें चान्द्रायण-व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये । सूर्यग्रहण प्राप्त होनेपर तीन पहर पहलेसे ही भोजन न करे । यदि कोई कर लेता है तो वह मदिरा पीनेवालेके समान होता है । मुनिश्रेष्ठ ! यदि अग्न्याधान और दर्शपौर्णमास आदि यागके बीच चन्द्रग्रहण अथवा सूर्यग्रहण हो जाय तो यज्ञकर्ता पुरुषोंको प्रायश्चित्त करना चाहिये । ब्रह्मन् ! चन्द्रग्रहणमें ’ द्शमे सोमः ’ ’ आप्यायस्व ’ तथा ’ सोमपास्ते ’ इन तीन मन्त्रोंसे हवन करें । और सूर्यग्रहण होनेपर हवन करनेके लिये ’ उदुत्यं जातवेदसम् ’,’ आसत्येन ’,’ उद्वयं तमसः ’- ये तीन मन्त्र बताये गये हैं । जो पण्डित इस प्रकार स्मृतिमार्गसे तिथिका निर्णय करके व्रत आदि करता है उसे अक्षय फल प्राप्त होता है । वेदमें जिसका प्रतिपादन किया गया है वह धर्म है । धर्मसे भगवान् विष्णु संतुष्ट होते हैं । अतः धर्मपरायन मनुष्य भगवान् विष्णुके परम धाममें जाते हैं । जो धर्माचरण करना चाहते हैं , वे साक्षात् भगवान् कृष्णके स्वरूप हैं । अतः संसाररूपी रोग उन्हें कोई बाधा नहीं पहुँचाता ।
अध्याय २८ विविध पापोके प्रायच्छितका विधान तथा भगवन् विष्णुके आराधनकी महिमा
श्रीसनकजी कहते हैं– नारदजी ! अब मैं प्रायश्चित्तकी विधिका वर्णन करूँगा, सुनिये ! सम्पूर्ण धर्मोंका फल चाहनेवाले पुरुषोंको काम-क्रोधसे रहित धर्मशास्त्रविशारद ब्राह्यणोंसे धर्मकी बात पूछनी चाहिये । विप्रवर ! जो लोग भगवान् नारायणसे विमुख हैं, उनके द्वारा किये हुए प्रायश्चित्त उन्हें पवित्र नहीं करते; ठीक उसी तरह जैसे मदिराके पात्रको नदियाँ भी पवित्र नहीं कर सकतीं । ब्रह्महत्यारा, मदिरा पीनेवाला, स्वर्ण आदि वस्तुओंकी चोरी करनेवाला तथा गुरुपत्नीगामी—ये चार महापातकी कहे गये हैं । तथा इनके साथ सम्पर्क करनेवाला पुरुष पाँचवाँ महापातकी है । जो इनके साथ एक वर्षतक सोने, बैठने और भोजन करने आदिका सम्बन्ध रखते हुए निवास करता है, उसे भी सब कर्मोंसे पतित समझना चाहिये । अज्ञातवश ब्राह्मणहत्या हो जानेपर चीर—वस्त्र और जटा धारण करे और अपने द्वारा मारे गये ब्राह्मणकी कोई वस्तु ध्वज—दण्डमें बाँधकर उसे लिये हुए वनमें घूमें । वहाँ जंगली फल—मूलोंका आहार करते हुए निवास करे । दिनमें एक बार परिमित भोजन करे । तीनों समय स्त्रान और विधिपूर्वक संध्या करता रहे । अध्ययन और अध्यापन आदि कार्य छोड़ दे ।
निरन्तर भगवान् विष्णुका चिन्तन करता रहे । नित्य ब्रह्यचर्यका पालन करे और गन्ध एवं माला आदि भोग्य वस्तुओंको छोड़ दे । तीथों तथा पवित्र आश्रमोंमें निवास करे । यदि वनमें फल—मूलोंसे जीविका न चले तो गाँवोंमें जाकर भिक्षा माँगे । इस प्रकार श्रीहरिका चिन्तन करते हुए बारह वर्षका व्रत करे । इससे ब्रह्यहत्यारा शुद्ध होता और ब्राह्मणोचित कर्म करनेके योग्य़ हो जाता है । व्रतके बीचमें यदि हिंसक जन्तुओं अथवा रोगोंसे उसकी मृत्यु हो जाय तो वह शुद्ध हो जाता है । यदि गौओं अथवा ब्रह्मणोंके लिये प्राण त्याग दे या श्रेष्ठ ब्रह्मणोंको दस हजार उत्तम गायोंका दान करे तो इससे भी उसकी शुद्धि होती है । इनमेंसी भी प्रायश्चित्त करके ब्रह्महत्यारा पापसे मुक्त हो सकता है । यज्ञमें दीक्षित क्षत्रियका वध करके भी ब्रह्महत्याका ही व्रत करे अथवा प्रज्वलित अग्रिमें प्रवेश कर जाय या किसी ऊँचे स्थानसे वायुके झोंके खाकर गिर जाय । यज्ञमें दीक्षित ब्राह्मणकी हत्या करनेपर दुगुने व्रतका आचरण करे । आचार्य आदिकी हत्या हो जानेपर चौगुना व्रत बतलाया गया है । नाममात्रके ब्राह्मणकी ह्त्या हो जाय तो एक वर्षतक व्रत करे । ब्राह्मण ! इस प्रकार ब्राह्मणके लिये प्रायश्चित्तकी विधि बतलायी गयी है । यदि क्षत्रियके द्वारा उपर्युक्त पाप हो जाय तो उसके लिये दुगुना और वैश्यके लिये तीनगुना प्रायश्चित्त बाताया गया है । जो शूद्व बाह्यणका वध करता है, उसे विद्वान् पुरुष मुशल्य ( मूसलसे मार डालने योग्य ) मानते हैं । राजाको ही उसे दण्ड देना चाहिये । यही शास्त्रोंका निर्णय है । ब्राह्मणीके वधमें आधा और ब्राह्मण—कन्याके वधमें चौथाई प्रायश्चित्त कहा गया है । जिनका यज्ञोपवीत—संस्कार न हुआ हो, ऐसे ब्राह्मण बालकोंका वध करनेपर भी चौथाई व्रत करे । यदि ब्राह्मण क्षत्रियका वध कर डाले तो वह छः वर्षोंतक कृच्छ्रव्रतका आचरण करे । वैश्यको मारनेपर तीन वर्ष और शुद्रको मारनेपर एक वर्षतक व्रत करे । यज्ञमें दीक्षित ब्राह्मणकी धर्मपत्नीका वध करनेपर आठ वर्षोंतक ब्रह्यहत्याका व्रत करे । मुनिश्रेष्ठ ! वृद्ध, रोगी, स्त्री और बालकोंके लिये सर्वत्र आधे प्रायश्चित्तका विधान बताया गया है ।
सुरा मुख्य तीन प्रकारकी जाननी चाहिये । गौड़ी ( गुड़्से तैयार की हुई ), पैष्टी ( चावलों आदिके आटेसे बनायी हुई ) तथा माध्वी ( फूलके रस, अंगूर या महुवेसे बनायी हुई ) । नारदजी ! चारों वर्णोंके पुरुषों तथा स्त्रियोंको इनमेंसे कोई भी सुरा नहीं पीनी चाहिये । मुने ! शराब पीनेवाला द्विज स्नान करके गीले वस्त्र पहने हुए मनको एकाग्र करके भगवान् नारायणका निरन्तर स्मरण करे और दूध, घी अथवा गोमूत्रको तपाये हुए लोहेके समान गरम करके पी जाय, फिर ( जीवित रहे तो ) जल पीवे । वह भी लौहपात्र अथवा आयसपात्रसे पीये या ताँबेके पात्रसे पीकर मृत्युको प्राप्त हो जाय । ऐसा करनेपर ही मदिरा पीनेवाला द्विज उस पापसे मुक्त होता है । अनजानमें पानी समझकर जो द्विज शराब पी ले तो विधिपूर्वक ब्रह्यहत्याका व्रत करे; किंतु उसके चिह्न को न धारण करे । यदि रोग—निवृत्तिके लिये औषध—सेवनकी दृष्टिसे कोई द्विज शराब पी ले तो उसका फिर उपनयन—संस्कार करके उससे दो चान्द्रयण—व्रत कराने चाहिये । शराबसे छुवाये हुए पात्रमें भोजन करना, जिसमें कभी शराब रखी गयी हो उस पात्रका जल पीना तथा शराबसे भीगी हुई वस्तुको खाना यह सब शराब पीनेके ही समान बताया गया है । ताड़, कटहल, अंगूर, खजूर और महुआसे तैयार की हुई तथा पत्थरसे आटेको पीसकर बनायी हुई अरिष्ट, मैरेय और नारियलसे निकाली हुई, गुड़की बनी हुई तथा माध्वी—ये ग्यारह प्रकारकी मदिराएँ बतायी गय़ी हैं । ( उपर्युक्त तीन प्रकारकी मदिराके ही ये ग्यारह भेद हैं। ) इनमेंसे किसी भी मद्यको ब्राह्मण कभी न पीवे । यदि द्विज ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ) अज्ञानवश इनमेंसे किसी एकको पी ले तो फिरसे अपना उपनयन—संस्कार कराकर तप्तकृच्छ्र—व्रतका आचरण करे । जो सामने या परोक्षमें बलपूर्वक या चोरीसे दूसरोंके धनको ले लेता है, उसका यह कर्म विद्वान् पुरुषोंद्वारा स्तेय ( चोरी ) कहा गया है । मनु आदिने सुवर्णके मापकी परिभाषा इस प्रकार की है । विप्रवर ! वह मान ( माप ) आगे कहे जानेवाले प्रायश्चित्तकी उक्तिका साधन है । अतः उसका वर्णन करता हूँ; सुनिये ! झरोखेके छिद्रसे घरमें आयी हुई सूर्यकी जो किरणें हैं , उनमेंसे जो उत्पन्न सूक्ष्म धूलिकण उड़ता दिखायी देता है, उसे विद्वान् पुरुष त्रसरेणु कहते हैं । वही त्रसरेणुका माप है । आठ त्रसरेणुओंका एक निष्क होता है और तीन निष्कोंका एक राजसर्षप ( राई ) बताया गया है । तीन राजसर्षपोंका एक गौरसर्षप ( पीली सरसों ) होता है और छः गौरसर्षपोंका एक यव कहा जाता है । तीन यवका एक कृष्णल होता है । पाँच कृष्णलका एक माष (माशा) माना गया है । नारदजी ! सोलह माशेके बराबर एक सुवर्ण होता है । यदि कोई मूर्खतासे सुवर्णके बराबर ब्राह्यणके धनका अर्थात सोलह माशा सोनेका अपहरण कर लेता है तो उसे पूर्ववत् बारह वर्षोंतक कपाल और ध्वजके चिह्नोसे रहित ब्रह्यहत्या-व्रत करना चाहिये । गुरुजनों, यज्ञ करनेवाले धर्मनिष्ठ पुरुषों तथा श्रोत्रिय ब्राह्मणोंके सुवर्णको चुरा लेनेपर इस प्रकार प्रायश्चित्त करे । पहले उस पापके कारण बहुत पश्चात्ताप करे, फिर सम्पूर्ण शरीरमें घीका लेप करे और कंडेसे अपने शरीरको ढककर आग लगाकर जल मरे । तभी वह उस चोरीसे मुक्त होता है । यदि कोई क्षत्रिय ब्राह्मणके धनको चुरा ले और पश्चात्ताप होनेपर फिर उसे वहीं लौटा दे तो उसके लिये प्रायश्चित्तकी विधि मुझसे सुनिये । ब्रह्यर्षे ! वह बारह दिनोंतक उपवासपूर्वक सान्तपन—व्रत करके शुद्ध होता है । रत्न, सिंहासन, मनुष्य, स्त्री, दूध देनेवाली गाय तथा भूमि आदि पदार्थ भी स्वर्णके ही समान माने गये हैं । इनकी चोरी करनेपर आधा प्रायश्चित्त कहा है । राजसर्षप (राई) बराबर सोनेकी चोरी करनेपर चार प्राणायाम करने चाहिये । गौरसर्षप बराबर स्वर्णका अपहरण कर लेनेपर विद्वान् पुरुष स्त्रान करके विधिपूर्वक ८००० गायत्रीका जप करे । जौ बराबर स्वर्णको चुरानेपर द्विज यदि प्रातःकालसे लेकर सायंकालतक वेदमाता गायत्रीका जप करे तो उससे शुद्ध होता है । कृष्णल बराबर स्वर्णकी चोरी करनेपर मनुष्य सान्तपन—व्रत करे । यदि एक माशाके बराबर सोना चुरा ले तो वह एक वर्षतक गोमूत्रमें पकाया हुआ जौ खाकर रहे तो शुद्ध होता है । मुनीश्वर ! पूरे सोलह माशा सोनेकी चोरी करनेपर मनुष्य एकाग्रचित्त हो बारह वर्षोंतक ब्रह्यहत्याका व्रत करे । अब गुरुपत्नीगामी पुरुषोंके लिये प्रायश्चित्तका वर्णन किया जाता है । यदि मनुष्य अज्ञानवश माता अथवा सौतेली मातासे समागम कर ले तो लोगोंपर अपना पाप प्रकट करते हुए स्वयं ही अपने अण्डकोशको काट डाले । और हाथमें उस अण्डकोशको लिये हुए नैरऋत्य कोणमें चलता जाय । जाते समय मार्गमें कभी सुख—दुखका विचार न करे । जो इस प्रकार किसी यात्रीकी ओर न देखते हुए प्राणान्त होनेतक चलता जाता है, वह पापसे शुद्ध होता है अथवा अपने पापको बताते हुए किसी ऊँचे स्थानसे हवाके झोंकेके साथ कूद पड़े । यदि बिना विचारे अपने वर्णकी या अपनेसे उत्तम वर्णकी स्त्रीके साथ समागम कर ले तो एकाग्रचित हो बारह वर्षोंतक ब्रह्यहत्याका व्रत करे । द्विजश्रेष्ठ ! जो बिना जाने हुए कई बार समान वर्ण या उत्तम वर्णवाली स्त्रीसे समागम कर ले तो वह कंडेकी आगमेंं जलकर शुद्धिको प्राप्त होता है । यदि वीर्यपातसे पहले ही माताके साथ समागमसे निवृत्त हो जाय तो ब्रह्यहत्याका व्रत करे और यदि वीर्यपात हो जाय तो अपने शरीरको अग्रिमें जला दे । यदि अपने वर्णकी तथा अपनेसे उत्तम वर्णकी स्त्रीके साथ समागम करनेवाला पुरुष वीर्यपातसे पहले ही निवृत्त हो जाय तो भगवान् विष्णुका चिन्तन करते हुए नौ वर्षोंतक ब्रह्यहत्याका व्रत करे । मनुष्य यदि कामसे मोहित होकर मौसी, बूआ, गुरुपत्नी, सास, चाची, ममी और पुत्रीसे समागम कर ले तो दो दिनतक समागम करनेपर उसे विधिपूर्वक ब्रह्यहत्याका व्रत करना चाहिये और तीन दिनतक सम्भोग करनेपर वह आगमें जल जाय, तभी शुद्ध होता है, अन्यथा नहीं । मुनीश्वर ! जो कामके अधीन हो चाण्डाली ,
पुष्कसी ( भीलजातिकी स्त्री ), पुत्रवधू , बहिन , मित्रपत्नी तथा शिष्यकी स्त्रीसे समागम करता है , वह छः वर्षोंतक ब्रह्यहत्याका व्रत करें । अब महापातकी पुरुषोंके साथ संसर्गका प्रायश्चित्त बतलाया जाता है । ब्रह्यहत्यारे आदि चार प्रकारके महापातकियोंसे जिसके साथ जिस पुरुषका संसर्ग होता है, वह उसके लिये विहित प्रायश्चित्त व्रतका पालन करके निश्चय ही शुद्ध हो जाता है । जो बिना जाने पाँच राततक इनके साथ रह लेता है, उसे विधिपूर्वक प्राजापत्य कृच्छ्र नामक ब्रत करना चाहिये । बारह दिनोंतक उनके साथ संसर्ग हो जाय तो उसका प्रायश्चित्त महासान्तपन—व्रत बताया गया है । और पंद्रह दिनोंतक महापातकियोंका साथ कर लेनेपर मनुष्य बारह दिनतक उपवास करे । एक मासतक संसर्ग करनेपर पराक—व्रत और तीन मासतक संसर्ग हो तो चान्द्रय़न—व्रतका विधान है । छः महीनेतक महापातकी मनुष्योंका संग करके मनुष्य दो चान्द्रायण—व्रतका अनुष्ठान करे । एक वर्षसे कुछ कम समयतक उनका सङ करनेपर छः महीनेतक चान्द्रायण—व्रतका पालन करे और यदि जान—बूझकर महापातकी पुरुषोंका सङ किया जाय तो क्रमशः इन सबका प्रायश्चित्त ऊपर बताये हुए प्राश्चित्तसे तीनगुना बताया गया है । मेंढ़क, नेवला, कोआ, सूअर, चूहा, बिल्ली, बकरी, भेड़, कुत्ता और मुर्गा—इनमेंसे किसीका वध करनेपर ब्राह्मण अर्धकृच्छ्र—व्रतका आचरण करे और घोड़ेकी हत्या करनेवाला मनुष्य अतिकृच्छ्र—व्रतका पालन करे । हाथीकी हत्या करनेपर तप्तकृच्छ्र और गोहत्या करनेपर पराक—व्रत करनेका विधान है । यदि स्वेच्छासे जान—बूझकर गौओंका वध किया जाय तो मनीषी पुरुषोंने उसकी शुद्धिका कोई भी उपाय नहीं देखा है । पीनेयोग्य़ वस्तु, शय्या, आसन, फूल, फल, मूल तथा भक्ष्य और भोज्य पदार्थोंकी चोरीके पापका शोधन करनेवाला प्रायश्चित पञ्चगव्यका पान कहा गया है । सूखे काठ, तिनके, वृक्ष, गुड़, चमड़ा, वस्त्र और मांस—इनकी चोरी करनेपर तीन रात उपवास करना चाहिये । टिटिहरी, चकवा, हंस, कारण्डव, उल्लू, सारस, कबूतर, जलमुर्गा, तोता, नीलकण्ठ, बगुला, सूँस और कछुआ इनमेंसे किसीको भी मारनेपर बारह दिनोंतक उपवास करना चाहिये । वीर्य, मल और मूत्र खा लेनेपर प्राजापत्य—व्रत करे । शूद्रका जूठा खानेपर तीन चान्द्रायण—व्रत करनेका विधान है । रजस्वला स्त्री, चाण्डाल, महापातकी, सूतिका, पतित, उच्छिष्ट वस्तु आदिका स्पर्श कर लेनेपर वस्त्रसहित स्त्रान करे और घृत पीवे । नारदजी ! इसके सिवा आठ सौ गायत्रीका जप करे, तब वह शुद्धचित्त होता है । ब्राह्मणों और देवताओंकी निन्दा सब पापोंसे बड़ा पाप है । विद्वानोंने जो—जो पाप महापातकके समान बताये हैं, उन सबका इसी प्रकार विधिपूर्वक प्रायश्चित्त करना चाहिये । जो भगवान् नारायणकी शरण लेकर प्रायश्चित्त करता है, उसके सब पाप नष्ट हो जाते हैं । जो राग—द्वेष आदिसे मुक्त हो पापोंके लिये प्रायश्चित्त करता है, समस्त प्राणियोंके प्रति दयाभाव रखता है और भगवान् विष्णुके स्मरणमें तत्पर रहता है, वह महापातकोंसे अथवा सम्पूर्ण पातकोंसे युक्त हो तो भी उसे सब पापोंसे मुक्त ही समझना चाहिये । क्योंकि वह भगवान् विष्णुके भजनमें लगा हुआ है । जो मानव अनादि, अनन्त, विश्वरूप तथा रोग—शोकसे रहित भगवान् नारायणका चिन्तन करता है, वह करोड़ों पापोंसे मुक्त हो जाता है । साधु पुरुषोंके ह्रदयमें विराजमान भगवान् विष्णुका स्मरण, पूजन, ध्यान अथवा नमस्कार किया जाय तो वे सब पापोंका निश्चय ही नाश कर देते हैं । जो किसीके सम्पर्कसे अथवा मोहवश भी भगवान् विष्णुका पूजन करता, है, वह सब पापोंसे मुक्त हो उनके वैकुण्ठधाममें जाता है । नारदजी ! भगवान् विष्णुके एक बार स्मरण करनेसे सम्पूर्ण क्लेशोंकी राशि नष्ट हो जाती है तथा उसी मनुष्यको स्वर्गादि भोगोंकी प्राप्ति होती है—यह स्वयं ही अनुमान हो जाता है । मनुष्य—जन्म बड़ा दुर्लभ है । जो लोग इसे पाते हैं, वे धन्य हैं । मानव—जन्म मिलनेपर भी भगवान्की भक्ति और भी दुर्लभ बतायी गयी है, इसलिये बिजलीकी तरह चञ्चल (क्षणभङर) एवं दुर्लभ मानव—जन्मको पाकर भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णुका भजन करना चाहिये । वे भगवान् ही अज्ञानी जीवोंको अज्ञानमय बन्धनसे छुड़ानेवाले हैं । भगवान्के भजनसे सब विघ्न नष्ट हो जाते हैं तथा मनकी शुद्धि होती है । भगवान् जनार्दनके पूजित होनेपर मनुष्य परम मोक्ष प्राप्त कर लेता है । भगवान्की आराधनामें लगे हुए मनुष्योंके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक सनातन पुरुषार्थ अवश्य सिद्ध होते हैं । इसमें संशय नहीं है ।
अरे ! पुत्र, स्त्री, घर, खेत, धन और धान्य नाम धारण करनेवाली मानवी वृत्तिको पाकर तू घमण्ड न कर । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, परापवाद और निन्द्राका सर्वथा त्याग करके भक्तिपूर्वक भगवान् जनार्दनकी आराधनामें लग जा । यमपुरीके वे वृक्ष समीप ही दिखायी देते हैं । जबतक बुढ़ापा नहीं आता, मृत्यु भी जबतक नहीं आ पहुँचती है और इन्द्रियाँ जबतक शिथिल नहीं हो जातीं तभीतक भगवान् विष्णुकी आराधना कर लेनी चाहिये । यह शरीर नाशवान् है । बुद्धिमान् पुरुष इसपर कभी विश्वास न करे । मौत सदा निकट रहती है । धन—वैभव अत्यन्त चञ्चल है और शरीर कुछ ही समयमें मृत्युका ग्रास बन जानेवाला है । अतः अभिमान छोड़ दे । महाभाग ! संयोगका अन्त वियोग ही है । यहाँ सब कुछ क्षणभङर है—यह जानकर भगवान् जनार्दनकी पूजा कर । मनुष्य आशासे कष्ट पाता है । उसके लिये मोक्ष अत्यन्त दुर्लभ है । जो भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णुका भजन करता है, वह महापातकी होनेपर भी उस परम धामको जाता है, जहाँ जाकर किसीको शोक नहीं होता । साधुशिरोमणे ! सम्पूर्ण तीर्थ, समस्त जज्ञ और अङ्गोसहित सब वेद भी भगवान् नारायणके पूजनकी सोलहवी कलाके बराबर भी नहीं हो सकते । जो लोग भगवान् विष्णुकी भक्तिसे वञ्चित हैं, उन्हें वेद, यज्ञ और शास्त्रोंसे क्या लाभ हुआ ? उन्होंने तीर्थोंकी सेवा करके क्या पाया तथा उनके तप और व्रतसे भी क्या होनेवाला है ? जो अनन्तस्वरूप, निरीह, ॐकारबोध्य, वरेण्य, वेदान्तवेद्य तथा संसाररूपी रोगके वैद्य भगवान् विष्णुका यजन करते हैं, वे मनुष्य उन्हीं भगवान् अच्युतके वैकुण्ठधाममें जाते हैं । जो अनादि, आत्मा, अनन्तशक्तिसम्पन्न, जगत्के आधार, देवताओंके आराध्य तथा जोतिःस्वरूप परम पुरुष भगवान् अच्युतका स्मरण करता है, वह नर अपने नित्यसखा नारायणको प्राप्त कर लेता है ।
अध्याय २९ यमलोकके मार्गमें पपियोके कष्ट तथा पुन्यात्माओके सुखका वर्णन एवं कल्पान्तरमें भी कर्मोके भोगोका प्रतिपादन
श्रीसनकजी बोले— ब्राह्मण ! सुनिये । मैं अत्यन्त दुर्गम यमलोकके मार्गका वर्णन करता हूँ । वह पुण्यात्माओंके लिये सुखद और पापियोंके लिये भयदायक है । मुनीश्वर ! प्राचीन ज्ञानी पुरुषोंने यमलोकके मार्गका विस्तार छियासी हजार योजन बताया है । जो मनुष्य यहाँ दान करनेवाले होते हैं, वे उस मार्गमें सुखसे जाते हैं; और जो धर्मसे हीन हैं, वे अत्यन्त पीड़ित होकर बड़े दुःखसे यात्रा करते हैं । पाणी मनुष्य उस मार्गपर दीनभावसे जोर—जोरसे रोते—चिल्लाते जाते हैं—वे अत्यन्त भयभीत और नंगे होते हैं । उनके कण्ठ, ओठ और तालु सूख जाते हैं । यमराजके दूत चाबुक आदिसे तथा अनेक प्रकारके आयुधोंसे उनपर आघात करते रहते हैं । और वे इधर—उधर भागते हुए बड़े कष्टसे उस पथपर चल पाते हैं । वहाँ कहीं कीचड़ है, कहीं जलती हुई आग है, कहीं तपायी हुई बालू बिछी है, कहीं तीखी धारवाली शिलाएँ हैं । कहीं काँटेदार वृक्ष हैं और कहीं ऐसे—ऐसे पहाड़ हैं, जिनकी शिलाओंपर चढ़ना अत्यन्त दुःखदायक होता है । कहीं काँटोंकी बहुत बड़ी बाड़ लगी हुई है, कहीं—कहीं कन्दरामें प्रवेश करना पड़ता है । उस मार्गमें कहीं कंकड़ हैं, कहीं ढेले हैं और कहीं सुईके समान काँटे बिछे हैं तथा कहीं बाघ गरजते रहते हैं । नारदजी ! इस प्रकार पापी मनुष्य—भाँति—भाँतिके क्लेश उठाते हुए यात्रा करते हैं । कोई पाशमें बँधे होते हैं, कोई अङ्कुशोंसे खींचे जाते हैं और किन्हींकी नाक छेदकर उसमें नकेल डाल दी जाती है और उसीको पकड़कर खींचा जाता है । कोई आँतोंसे बँधे रहते हैं और कुछ पाणी अपने शिश्नके अग्रभागसे लोहेका भारी भार ढोते हुए यात्रा करते हैं । कोई नासिकाके अग्रभागद्वारा लोहेका दो भार ढोते हैं और कोई पाणी दोनों कानोंसे दो लौहभार वहन करते हुए उस मार्गपर चलते हैं । कोई अत्यन्त उच्छ्रवास लेते हैं और किन्हींकी आँखें ढक दी जाती हैं । उस मार्गमें कहीं विश्रामके लिये छाया और पीनेके लिये जलतक नहीं है । अतः पापी लोग जानकर या अनजानमें किये हुए अपने पापकर्मोंके लिये शोक करते हुए अत्यन्त दुःखसे यात्रा करते हैं ।
नारदजी ! जो उत्तम बुद्धिवाले मानव धर्मनिष्ठ और दानशील होते हैं, वे अत्यन्त सुखी होकर धर्मराजके लोककी यात्रा करते हैं । मुनिश्रेष्ठ ! अन्न देनेवाले स्वादिष्ट अन्नका भोजन करते हुए जाते हैं । जिन्होंंने जल दान किया है, वे भी अत्यन्त सुखी होकर उत्तम दूध पीते हुए यात्रा करते हैं । मठ्ठा और दही दान करनेवाले तत्सम्बन्धी भोग प्राप्त करते हैं । द्विजश्रेष्ठ ! घृत, मधु और दूधका दान करनेवाले पुरुष सुधापान करते हुए धर्ममन्दिरको जाते हैं । साग देनेवाला खीर खाता है और दीप देनेवाला सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित करते हुए जाता है । मुनिप्रवर ! वस्त्र—दान करनेवाला पुरुष दिव्य वस्त्रोंसे विभूषित होकर यात्रा करता है । जिसने आभूषण दान किया है, वह उस मार्गपर देवताओंके मुखसे अपनी स्तुति सुनता हुआ जाता है । गोदानके पुण्यसे मनुष्य सब प्रकारके सुख—भोगसे सम्पन्न होकर जाता है । द्विजश्रेष्ठ ! घोड़े, हाथी तथा रथकी सवारीका दान करनेवाला पुरुष सम्पूर्ण भोगोंसे युक्त विमानद्वारा धर्मराजके मन्दिरको जाता है । जिस श्रेष्ठ पुरुषने माता—पिताकी सेवा—शुश्रूषा की है, वह देवताओंसे पूजित हो प्रसन्नचित्त होकर धर्मराजके घर जाता है । जो यतियों, व्रतधारियों तथा श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी सेवा करता है, वह बड़े सुखसे धर्मलोकको जाता है । जो सम्पूर्ण भूतोंके प्रति दयाभाव रखता है, वह द्विज देवताओंसे पूजित हो सर्वभोगसमन्वित विमानद्वारा यात्रा करता है । जो विद्यादानमें तत्पर रहता है, वह ब्रह्माजीसे पूजित होता हुआ जाता है । पुराण—पाठ करनेवाला पुरुष मुनीश्वरोंद्वारा अपनी स्तुति सुनता हुआ यात्रा करता है । इस प्रकार धर्मपरायण पुरुष सुखपूर्वक धर्मराजके निवासस्थानको जाते हैं । उस समय धर्मराज चार भूजाओंसे युक्त हो शङ्ख, चक्र, गदा और खङ धारण करके बड़े स्त्रेहसे मित्रकी भाँति उस पुण्यात्मा पुरुषकी पूजा करते हैं और इस प्रकार कहते हैं— ’हे बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ पुण्यात्मा पुरुषो ! जो मानव—जन्म पाकर पुण्य नहीं करता है, वही पापियोंमें बड़ा है और वह आत्मघात करता है । जो अनित्य मानव—जन्म पाकर उसके द्वारा नित्य वस्तु (धर्म)—का साधन नहीं करता, वह घोर नरकमें जाता है । उसेसे बढ़कर जड और कोन होगा ? यह शरीर यातनारूप (दुःखरूप) है और मल आदिके द्वारा अपवित्र है । जो इसपर (इसकी स्थिरतापर) विश्वास करता है, उसे आत्मघाती समझना चाहिये । सब भूतोंमें प्राणधारी श्रेष्ठ हैं । उनमें भी जो (पशु—पक्षी आदि) बुद्धिसे जीवन—निर्वाह करते हैं, वे श्रेष्ठ हैं । उनसे भी मनुष्य श्रेष्ठ हैं । मनुष्योंसें ब्राह्मण, ब्राह्मणोंमें विद्वान् और विद्वानोंमें अचञ्चल बुद्धिवाले पुरुष श्रेष्ठ हैं । अचञ्चल बुद्धिवाले पुरुषोंमें कर्तव्यका पालन करनेवाले श्रेष्ठ हैं और कर्तव्य—पालकोंमें भी ब्रह्मवादी (वेदका कथन करनेवाले) पुरुष श्रेष्ठ हैं । ब्रह्मवादियोंमें भी वह श्रेष्ठ कहा जाता है, जो ममता आदि दोषोंसे रहित हो । इनकी अपेक्षा भी उस पुरुषको श्रेष्ठ समझना चाहिये, जो सदा भगवान्के ध्यानमें तत्पर रहता है । इसलिये सर्वथा प्रयत्न करके (सदाचार और ईश्वरकी भक्तिरूप) धर्मका संग्रह करना चाहिये । धर्मात्मा जीव सर्वत्र पूजित होता है इसमें संशय नहीं है । तुम लोग सम्पूर्ण भोगोंसे सम्पन्न पुण्यलोकमें जाओ । यदि कोई पाप है तो पीछे यहीं आकर उसका फल भोगना।’
ऐसा कहकर यमराज उन पुण्यात्माओंकी पूजा करके उन्हें सद्गतिको पहुँचा देते हैं और पापियोंको बुलाकर उन्हें कालदण्डसे डराते हुए फटकरते हैं । उस समय उनकी आवाज प्रलयकालके मेंघके समान भयंकर होती है और उनके शरीरकी कान्ति कज्जलगिरिके समान जान पड़ती है । उनके अस्त्र—शस्त्र बिजलीकी भाँति चमकते हैं, जिनके कारण वे बड़े भयंकर जान पड़ते हैं । उनके बत्तीस भुजाएँ हो जाती हैं । शरीरका विस्तार तीन योजनका होता है । शरीरका विस्तार तीन योजनका होता है । उनकी लाल—लाल और भयंकर आँखें बावड़ीके समान जान पड़्ती हैं । सब दूत यमराजके समान भयंकर होकर गरजने लगते हैं । उन्हें देखकर पाणी जीव थर—थर काँपने लगते हैं और अपने—अपने कर्मोंका विचार करके शोकग्रस्त हो जाते हैं । उस समय यमकी आज्ञासे चित्रगुप्त उन सब पापियोंसे कहते है— ’अरे, ओ दुराचारी पापात्माओ ! तुम सब लोग अभिमानसे दूषित हो रहे हो । तुप अविवेकियोंने काम, क्रोध आदिसे दूषित अहंकारयुक्त चित्तसे किसलिये पापका आचरण किया है । पहले तो बड़े हर्षमें भरकर तुम लोगोंने पाप किये हैं, अब उसी प्रकार नरककी यातनाएँ भी भोगनी चाहिये । अपने कुटुम्ब, मित्र और स्त्रीके लिये जैसा पाप तुमने किया है, उसीके अनुसार कर्मवश तुम यहाँ आ पहुँचे हो । अब अत्यन्त दुःखी क्यों हो रहे हो ? तुम्हीं सोचो, यब पहले तुमने पापाचार किया था, उस समय यह भी क्यों नहीं विचार लिया कि यमराज इसका दण्ड अवश्य देंगे । कोई दरिद्र हो या धनी, मूर्ख हो या पण्डित और कायर हो या वीर—यमराज सबके साथ समान बर्ताव करनेवाले हैं ।’ चित्रगुप्तका यह वचन सुनकर वे पाणी भयभीत हो अपने कर्मोंके लिये शोक करते हुए चुपचाप खड़े रह जाते हैं । तब्र यमराजकी आज्ञाका पालन करनेवाले क्रूर, क्रोधी और भयंकर दूत इन पापियोंको बलपूर्वक पकड़कर नरकोंमें फेंक देते हैं । वहाँ अपने पापोंका फल भोगकर अन्तमें शेष पापके फलस्वरूप वे भूतलपर आकर स्थावर आदि योनियोंमें जन्म लेते हैं ।
नारदजीने कहा—भगवन् ! मेंरे मनमेंं एक संदेह पैदा हो गया है । आपने ही कहा है कि जो लोग ग्राम—दान आदि पुण्यकर्म करते हैं, उन्हें कोटिसहस्त्र कल्पोंतक उनका महान् भोग प्राप्त होता रह्ता है । दूसरी ओर यह भी आपने बताया है कि प्राकृत प्रलयमें सम्पूर्ण लोकोंका नाश हो जाता हैं । अतः मुझे यह संशय हुआ है कि प्रलयकाल्तक जीवके पुण्य और पापभोगकी क्या समाप्ति नहीं होती ? आप इस संदेहका निवारण करने योग्य़ हैं ।
श्रीसनकजी बोले— महाप्राज्ञ ! भगवान् नारायण अविनाशी, अनन्त, परमप्रकाशस्वरूप और सनातन पुरुष हैं । वे विशुद्ध, निर्गुण नित्य और माया—मोहसे रहित हैं । परमानन्दस्वरूप श्रीहरि निर्गुण होते हुए भी सगुण—से प्रतीत होते हैं । ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि रूपोंमें व्यक्त होकर भेदवान्—से दिखायी देते हैं । वे ही मायाके संयोगसे सम्पूर्ण जगत्का कार्य करते हैं । वे ही श्रीहरि ब्रह्याजीके रूपसे सृष्टि और विष्णुरूपसे जगत्का पालन करते हैं और अन्दमें भगवान् रुद्रके रूपसे वे ही सबको अपना ग्रास बनाते हैं । यह निश्चित सत्य है । प्रलयकाल व्यतीत होनेपर भगवान् जनार्दनने शेषशय्यासे उठकर ब्रह्माजीके रूपसे सम्पूर्ण चराचर विश्वकी पूर्व कल्योंके अनुसार सृष्टि की है । विप्रवर ! पूर्व कल्पोंमेंं जो—जो स्थावर—जङम जीव जहाँ—जहाँ स्थित थे, नूतन कल्पमें ब्रह्माजी उस सम्पूर्ण जगत्की पूर्ववत् सृष्टि कर देते हैं । अतः साधुशिरोमणे ! किये हुए पापों और पुण्योंका अक्षय फल अवश्य भोगना पड़ता है
(प्रलय हो जानेपर जीवके जिन कर्मोंका फल शेष रह जाता है, दूसरे कल्पमें नयी सृष्टि होनेपर वह जीव पुनः अपने पुरातन कर्मोंका भोग भोगता है ।) कोई भी कर्म सौ करोड़ कल्पोंमें भी बिना भोगे नष्ट नहीं होता । अपने किये हुए शुभ और अशुभ कर्मोंका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है ।
अध्याय ३० पापी जीवोंके स्थावर आदि योनियोंमें जन्म लेने और दुःख भोगनेकी अवस्थाका वर्णन
श्रीसनकजी कहते हैं— इस प्रकार कर्मपाशमें बँधे हुए जीव स्वर्ग आदि पुण्यस्थानोंमें पुण्यकर्मोंका फल भोगकर तथा नरक—यातनाओंमें पापोंका अत्यन्त दुःखमय फल भोगकर क्षीण हुए कर्मोंके अवशेष भागसे इस लोकमें आकर स्थावर आदि योनियोंमें जन्म लेते हैं । वृक्ष, गुल्म, लता, वल्ली और पर्वत तथा तृण—ये स्थावरके नामसे विख्यात हैं । स्थावर जीव महामोहसे आच्छन्न होते हैं । स्थावर योनियोंमें उनकी स्थिति इस प्रकार होती है। पहले वे बीजरूपसे पृथ्वीमें बोये जाते हैं । फिर जलसे सींचनेके पश्चात् मूलभावको प्राप्त होते हैं । उस मूलसे अङ्कुरकी उत्पत्ति होती है । अङ्कुरसे पत्ते, तने और पतली डाली आदि प्रकट होते हैं । उन शाखाओंसे कलियाँ और कलियोंसे फूल प्रकट होते हैं । उन फूलोंसे ही वे धान्य वृक्ष फलवान् होते हैं । स्थावर योनिमें जो बड़े—बड़े वृक्ष होते हैं, वे भी दीर्घकालतक काटने, दावानलमें जलने तथा सर्दी—गरमी लगने आदिके महान् दुःखका अनुभव करके मर जाते हैं । तदनन्तर वे जीव कीट आदि योनियोंमें उत्पन्न होकर सदा अतिशय दुख उठाते रहते हैं । अपनेसे बलवान् प्राणियोंद्वारा पीड़ा प्राप्त होनेपर वे उसका निवारण करनेमें असमर्थ होते हैं । शीत और वायु आदिके भारी क्लेश भोगते हैं और नित्य भूखसे पीड़ित हो मल—मूत्र आदिमें विचरते हुए दुःख—पर—दुःख उठाते रह्ते हैं । तदनन्तर इसी क्रमसे पशुयोनिमें आकर अपनेसे बलवान् पशुओंकी बाधासे भयभीत रहते हुए वे जीव अकारण भी भारी उद्वेगसे कष्ट पाते रह्ते हैं । उन्हें हवा, पानी आदिका महान् कष्ट सहन करना पड़ता है ।
अण्डज (पक्षी)—की योनिमें भी वे कभी वायु पीकर रहते हैं और कभी मांस तथा अपवित्र वस्तुएँ खाते हैं । ग्रामीण पशुओंकी योनिमें आनेपर भी उन्हें कभी भार ढोने, रस्सी आदिसे बाँधे जाने, डंडोंसे पीटे जाने तथा हल आदि धारण करनेके समस्त दुःख भोगने पड़्ते हैं । इस प्रकार बहुत—सी योनियोंमें क्रमशः भ्रमण करके वे जीव मनुष्य—जन्म पाते हैं । कोई पुण्यविशेषके कारण बिना क्रमके भी शीघ्र मनुष्य—योनि प्राप्त कर लेते हैं । मनुष्य—जन्म पाकर भी नीची जातियोंमें नीच पुरुषोंकी टहल बजानेवाले, दरिद्र, अङहीन तथा अधिक अङवाले इत्यादि होकर वे कष्ट और अपमान उठाते हैं तथा अत्यन्त दुःखसे पूर्ण ज्वर, ताप, शीत, गुल्मरोग, पादरोग, नेत्ररोग, सिरदर्द, गर्भ—वेदना तथा पसलीमें दर्द होने आदिके भारी कष्ट भोगते हैं ।
मनुष्य—जन्ममें भी जब स्त्री और पुरुष मैथुन करते हैं, उस समय वीर्य निकलकर जब जरायु (गर्भाशय)—में प्रवेश करता है, उसी समय जीव अपने कर्मोंके वशीभूता हो उस वीर्यके साथ गर्भाशयमें प्रविष्ट हो रज—वीर्यके कललमें स्थित होता है । वह वीर्य जीवके प्रवेश करनेके पाँच दिन बाद कललरूपमें परिणत होता है । फिर पंद्रह दिनके बाद वह पलल (मांसपिण्डकी—सी स्थिति) भागको प्राप्त हो एक महीनेमें प्रादेशमार बड़ा हो जाता है । तबसे लेकर पूर्ण चेतनाका अभाव होनेपर भी माताके उदरमें दुस्सह ताप और क्लेश होनेसे वह एक स्थानपर स्थिर न रह सकनेके कारण वायुकी प्रेरणासे इधर—उधर भ्रमण करता है । फिर दूसरा महीना पूर्ण होनेपर वह मनुष्य्के—से आकारको पाता है । तीसरे महीनेकी पूर्णता होनेपर उसके हाथ—पैर आदि अवयव प्रकट होते हैं और चार महीने बीत जानेपर उसके सब अवयवोंकी सन्धिका भेद ज्ञात होने लगता है । पाँच महीनेपर अँगुलियोंमें नख प्रकट होते हैं । छः मास पूरे हो जानेपर नखोंकी सन्धि स्पष्ट हो जाती है । उसकी नाभिमें जो नाल होती है, उसीके द्वारा अन्नका रस पाकर वह पुष्ट होता है । उसके सारे अङ अपवित्र मल—मूत्र आदिसे भीगे रहते हैं । जरायुमें उसका शरीर बँधा होता है और वह माताकेरक्त, हड्डी, कीड़े, वसा, मज्जा, स्त्रायु और केश आदिसे दूशित तथा घृणित शरीरमें निवास करता है । माताके खाये हुए कड़वे, खट्टे, नमकीन तथा अधिक गरम भोजनसे वह अत्यन्त दग्ध होता रहता है । इस दुरवस्थामें अपने—आपको देखकर वह देहधारी जीव पूर्वजन्मोंकी स्मृतिके प्रभावसे पहलेके अनुभव किये हुए नरकके दुःखोंको भी स्मरण करता और आन्तरिक दुःखसे अधिकाधिक जलने लगता है । अहो ! मैं बड़ा पापी हूँ ! कामसे अन्धा होनेके कारण परायी स्त्रियोंको हरकर उनके साथ सम्भोग करके मैंने बड़े—बड़े पाप किये हैं । उन पापोंसे अकेला मैं ही ऐसे—ऐसे नरकोंका कष्ट भोगता रहा । फिर स्थावर आदि योनियोंमें महान्दुःख भोगकर अब मानवयोनिमें आया हूँ । आन्तरिक दुःख तथा बाह्य संतापसे दग्ध हो रहा हूँ । अहो ! देहधारियोंको कितना दुःख उठाना पड़ता है । शरीर पापसे ही उत्पन्न होता है । इसलिये पाप नहीं करना चाहिये । मैंने कुटुम्ब, मित्र और स्त्रीके लिये दूसरोंका धन चुराया है । उसी पापसे आज गर्भकी झिल्लीमें बँधा हुआ जल रहा हूँ । पूर्वजन्ममें दूसरोंका धन देखकर ईर्ष्यावश जला करता था; इसीलिये मैं पापी जीव इस समय भी गर्भकी आगसे निरन्तर दग्ध हो रहा हूँ । मन, वाणी और शरीरस मैंने दूसरोंको बहुत पीड़ा दी थी । उस पापसे आज मैं अकेला ही अत्यन्त दुःखी होकर जल रहा हूँ । ‘इस प्रकार वह गर्भस्थ जीव नाना प्रकारसे विलाप करके स्वयं ही अपने—आपको इस प्रकार आश्वासन देता है— ‘अब मैं जन्म लेनेके बाद सत्सङ तथा भगवान् विष्णुकी कथाका श्रवण करके विशुद्ध—चित्त हो सत्कर्मोंका अनुष्ठान करूँगा और सम्पूर्ण जगत्के अन्तरात्मा तथा अपनी शक्तिके प्रभावसे अखिल विश्वकी सृष्टि करनेवाले सत्य—ज्ञानानन्दस्वरूप लक्ष्मीपति भगवान् नारायणके उन युगल—चरणारविन्दोंका भक्तिपूर्वक पूजन करूँगा । जिनकी समस्त देवता, असुर, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, नाग, मुनि तथा किन्नरसमुदाय आराधना करते रह्ते हैं । भगवान्के वे चरण दुस्सह संसार—बन्धनके मूलोच्छेदके हेतु हैं । वेदोंके रहस्यभूत उपनिषदोंद्वारा उनकी महिमाका स्पष्ट ज्ञान होता है । वे ही सम्पूर्ण जगत्के आश्रय हैं । मैं उन्हीं भगवच्चरणारविन्दोंको अपने हृदयमें रखकर अत्यन्त दुःखसे भरे हुए संसारको लाँघ जाऊँगा । ‘इस प्रकार वह मनमें भावना करता है । नारदजी ! जब माताके प्रसवका समय आता है, उस समय वह गर्भस्थ जीव वायुसे अत्यन्त पीड़ित हो माताको भी दुःख देता हुआ कर्मपाशसे बँधकर जबरदस्ती योनिमार्गसे निकलता है । निकलते समय सम्पूर्ण नरक—यातनाओंका भोग उसे एक ही साथ भोगना पड़ता है । बाहरकी वायुका स्पर्श होते ही उसकी स्मरणशक्ति नष्ट हो जाती है । फिर वह जीव बाल्यावस्थाको प्राप्त होता है । उसमें भी अपने ही मल—मूत्रमें उसका शरीर लिपटा रहता है । आध्यात्मिक आदि त्रिविध दुःखोंसे पीड़ित होकर भी वह कुछ नहीं बता सकता । उसके रोनेपर लोग यह समझते हैं कि यह भूख—प्याससे कष्ट पा रहा है, इसे दूध आदि देना चाहिये और इसी मान्यताके अनुसार वे लोग प्रयत्न करते हैं । इस प्रकार वह अनेक प्रकारके शारीरिक कष्ट—भोगका अनुभव करता है । मच्छरों और खटमलोंके काट लेनेपर वह उन्हें हटानेमें असमर्थ होता है । शैशवसे बाल्यावस्थामें पहुँचकर वहाँ माता—पिता और गुरुकी डाँट सुनता और चपत खाता है । वह बहुत—से निरर्थक कार्योंमें लगा रहता है । उन कार्योंके सफल न होनेपर वह मानसिक कष्ट पाता है । इस प्रकार बाल्य—जीवनमें अनेक प्रकारके कष्टोंका अनुभव करता है । तत्पश्चात् तरुणावस्थामें आनेपर जीव धनोपार्जन करते हैं कमाये हुए धनकी रक्षा करनेमें लगे रह्ते हैं । उस धनके नष्ट या खर्च हो जानेपर अत्यन्त दुःखी होते हैं । मायासे मोहित रहते हैं । उनका अन्तःकरण काम—क्रोधादिसे दूषित हो जाता है । ये सदा दूसरोंके गुणोंमें भी दोष ही देखा करते हैं । पराये धन और परायी स्त्रीको हड़प लोनेके प्रयत्नमें लगे रहते हैं । पुत्र, मित्र और स्त्री आदिके भरण—पोषणके लिये क्या उपाय किया जाय ? अब इस बढ़े हुए कुटुम्बका कैसे निर्वाह होगा ? मेंरे पास मूल—धन नहीं है (अतः व्यापार नहीं हो सकता), इधर वर्षा भी नहीं हो रही है (अतः खेतीसे क्या आशा की जाय), इधर मैं भी रोगी हो चला और निर्धन ही रह गया । मेंरे विचार न करनेसे खेती—बारी नष्ट हो गयी । बच्चे रोज रोया करते हैं । मेंरा घर टूट—फूट गया । कोई जीविका भी नहीं मिलती । राजाकी ओरसे भी अत्यन्त दुःसह दुःख प्राप्त हो रहा है । शत्रु रोज मेंरा पीछा करते हैं । मैं इन्हें कैसे जीतूँगा । इस प्रकार चिन्तासे व्याकुल तथा अपने दुःखको दूर करनेमें असमर्थ हो, वे कहते है——विधाताको धिक्कार है । उसने मुझ भाग्यहीनको पैदा ही क्यों किया? इसी तरह जीव जब बृद्धावस्थाको प्राप्त होता है तो उसका बल घटने लगता है । बाल सफेद हो जाते हैं और जरावस्थाके कारण सारे शरीरमें झुर्रियाँ पड़ जाती हैं । अनेक प्रकारके रोग उसे पीड़ा देने लगते हैं । उसका एक—एक अङ काँपता रहता है । दमा और खाँसी आदिसे वह पीड़ित होता है । कीचड़से मलिन हुई आँखें चञ्चल एवं कातर हो उठती हैं । कफसे कण्ठ भर जाता है । पुत्र और पत्नी आदि भी उसे ताड़ना करते हैं । मैं कब मर जाऊँगा—इस चिन्तासे वह व्याकुल हो उठता है और सोचने लगता है कि मेंरे मर जानेके बाद यदि दूसरोंने मेंरा धन हड़प लिया तो मेंरे पुत्र आदिका जीवन—निर्वाह कैसे होगा? इस प्रकार ममता और दुःखमें डूबा हुआ बह लंबी साँस खींचता है और अपनी आयुमें किये हुए कर्मोंको बार—बार स्मरण करता है तथा क्षण—क्षणमें भूल जाता है । फिर जब मृत्युकाल निकट आता है तो वह रोगसे पीड़ित हो आन्तरिक संतापसे व्याकुल हो जाता है । मेंरे कमाये हुए धन आदि किसके अधिकारमें होगे—इस चिन्तामें पड़कर उसकी आँखोंमें आँसू भर आते हैं । कण्ठ घुरघुराने लगता है और इस दशामें शरीरसे प्राण निकल जाते हैं । फिर यमदूतोंकी डाँट—फटकार सुनता हुआ वह जीव पाशमें बँधकर पूर्ववत् नरक आदिके कष्ट भोगता है । जिस प्रकार सुवर्ण आदि धातु तबतक आगमें तपाये जाते हैं, जबतक कि उनकी मैल नहीं जल जाती । उसी प्रकार सब जीवधारी कर्मोंके क्षय होनेतक अत्यन्त कष्ट भोगते हैं। द्विजश्रेष्ठ ! इसलिये संसाररूपी दावानलके तापसे संतप्त मनुष्य परम ज्ञानका अभ्यास करे । ज्ञानसे वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है । ज्ञानशून्य मनुष्य पशु कहे गये हैं । अतः संसार—बन्धनसे मुक्त होनेके लिये परम ज्ञानका अभ्यास करे । सब कर्मोंको सिद्ध करनेवाले मानव—जन्मको पाकर भी जो भगवान् वष्णुकी सेवा नहीं करता, उससे बढ़कर मूर्ख कोन हो सकता है ? मुनिश्रेष्ठ ! सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलोंके दाता जगदीश्वर भगवान् विष्णुके रहते हुए भी मनुष्य ज्ञानरहित होकर नरकोंमें पकाये जाते हैं—यह कितने आश्चर्यकी बात है । जिससे मल—मूत्रका स्त्रोत बहता रहता है, ऐसे इस क्षणभङर शरीरमें अज्ञानी पुरुष महान् मोहसे आच्छन्न होनेके कारण नित्यताकी भावना करते हैं। जो मनुष्य मांस तथा रक्त आदिसे भरे हुए उस घृणित शरीरको पाकर संसार—बन्धनका नाश करनेवाले भगवान् विष्णुका भजन नहीं करता, वह अत्यन्त पातकी है । ब्रह्मन् ! मूर्खता या अज्ञान अत्यन्त कष्टकारक है, महान् दुःख देनेवाला है, परंतु भगवान्के ध्यानमें लगा हुआ चाण्डाल भी ज्ञान प्राप्त करके महान् सुखी हो जाता है । मनुष्यका जन्म दुर्लभ है । देवता भी उसके लिये प्रार्थना करते हैं । अतः उसे पाकर विद्वान् पुरुष परलोक सुधारनेका यत्न करे । जो अध्यात्मज्ञानसे सम्पन्न तथा भगवान्की आराधनामें तत्पर रहनेवाले हैं, वे पुनरावृत्तिरहित परम धामको पा लेते हैं । जिनसे यह सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न हुआ है, जिनसे चेतना पाता है और जिनमें ही इसका लय होता है, वे भगवान् विष्णु ही संसार—बन्धनसे छुड़ानेवाले हैं । जो अनन्त परमेंश्वर निर्गुण होते हुए भी सगुण—से प्रतीत होते हैं, उन देवेश्वर श्रीहरिकी पूजा—अर्चा करके मनुष्य संसार—बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।
अध्याय ३१ मोक्ष प्राप्तिका उपाय, भगवान विष्णु ही मोक्षदाता है इसका प्रतिपादन, योग तथा उसकेअंगोंक निरूपण
नारदजीने पूछा— भगवन् ! कर्मसे देह मिलता है । देहधारी जीव कामनासे बँधता है । कामसे वह लोभके वशीभूत होता है और लोभसे क्रोधके अधीन हो जाता है । क्रोधसे धर्मका नाश होता है । धर्मके नाशसे बुद्धि बिगड़ जाती है और जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह मनुष्य पुनः पाप करने लगता है । अतः देह ही पापकी जड़ है तथा उसीकी पापकर्ममें प्रवृत्ति होती है, इसलिये मनुष्य इस देहके भ्रमको त्यागकर जिस प्रकार मोक्षका भागी हो सके, वह उपाय बताइये ।
श्रीसनकजीने कहा— महाप्राज्ञ ! सुव्रत ! जिनकी आज्ञासे ब्रह्माजी सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि, विष्णु पालन तथा रुद्र संहार करते हैं, महत्तत्त्वसे लेकर विशेषपर्यन्त सभी तत्त्व जिनके प्रभावसे उत्पन्न हुए है, उन रोग—शोकसे रहित सर्वव्यापी भगवान् नारायणको ही मोक्षदाता जानना चाहिये । सम्पूर्ण चराचर जगत् जिनसे भिन्न नहीं है तथा जो जरा और मृत्युसे परे हैं, उस तेज प्रभाववाले भगवान् नारायणका ध्यान करके मनुष्य दुःखसे मुक्त हो जाता है । जो विकाररहित, अजन्मा, शुद्ध, स्वयंप्रकाश, निरञ्जन, ज्ञानरूप तथा सच्चिदानन्दमय हैं, ब्रह्मा आदि देवता जिनके अवतारस्वरूपोंकी सदा आराधना करते हैं, वे श्रीहरि ही सनातन स्थान (परम धाम या मोक्ष)—के दाता हैं । ऐसा जानना चाहिये । जो जिर्गुण होकर भी सम्पूर्ण गुणोंके आधार हैं, लोकोंपर अनुग्रह करनेके लिये विविध रूप धारण करते हैं और सबके हृदयाकाशमें विराजमान तथा सर्वत्र परिपूर्ण हैं, जिनकी कहीं भी उपमा नहीं है तथा जो सबके आधार हैं, उन भगवान्की शरणमें जाना चाहिये । जो कल्पके अन्तमें सबको अपने भीतर समेंटकर स्वयं जलमें शयन करते हैं, वेदार्थके ज्ञाता तथा कर्मकाण्डके विद्वान् नाना प्रकारके यज्ञोंद्वारा जिनका यजन करते हैं, वे ही भगवान् कर्मफलके दाता हैं और निष्कामभावसे कर्म करनेवालोंको वे ही मोक्ष देते हैं । जो ध्यान, प्रणाम अथवा भक्तिपूर्वक पूजन करनेपर अपना सनातन स्थान वैकुण्ठ प्रदान करते हैं, उन दयालु भगवान्की आराधना करनी चाहिये । मुनीश्वर ! जिनके चरणारविन्दोंकी पूजा करके देहाभिमानी जीव भी शीघ्र ही अमृतत्व (मोक्ष) प्राप्त कर लेते हैं, उन्हींको ज्ञानीजन पुरुषोत्तम मानते हैं । जो आनन्दस्वरूप, जरारहित, परमज्योतिर्मय, सनातन एवं परात्पर ब्रह्म हैं, वही भगवान् विष्णुका सुप्रसिद्ध परम पद है । जो अद्वैत, निर्गुण, नित्य, अद्वितीय, अनुपम, परिपूर्ण तथा ज्ञानमय ब्रह्य है, उसीको साधु पुरुष मोक्षका साधन मानते हैं । जो योगी पुरुष योगमार्गकी विधिसे ऐसे परम तत्त्वकी उपासना करता है, वह परम पदको प्राप्त होता है । जो सब प्रकारकी आसक्तियोंका त्याग करनेवाला, शम—दम आदि गुणोंसे युक्त और काम आदि दोषोंसे रहित है, वह योगी परम पदको पाता है ।
नारदजीने पूछा— वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! किस कर्मसे योगियोंके योगकी सिद्धि होती है? वह उपाय यथार्थरूपसे मुझे बताइये।
श्रीसनकजीने कहा— तत्त्वार्थका विचार करनेवाले ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि परम मोक्ष ज्ञानसे ही प्राप्त होने योग्य है । उस ज्ञानका मूल है भक्ति और भक्ति प्राप्त होती है (भगवदर्थ) कर्म करनेवालोंको । भक्तिका लेशमात्र होनेसे भी अक्षय परम धर्म सम्पन्न होता है । उत्कृष्ट श्रद्धासे सब पाप नष्ट हो जाते हैं । सब पापोंका नाश होनेपर निर्मल बुद्धिका उदय होता है । वह निर्मल बुद्धि ही ज्ञानी पुरुषोंद्वारा ज्ञानके नामसे बतायी गयी है । वैसा ज्ञान योगियोंको होता है । कर्मयोग और ज्ञानयोग—इस प्रकार दो प्रकारका योग कहा गया है । कर्मयोगके बिना मनुष्योंका ज्ञानयोग सिद्ध नहीं होता; अतः क्रिया (कर्म)—योगमें तत्पर होकर श्रद्धापूर्वक भगवान् श्रीहरिकी पूजा करनी चाहिये । ब्राह्मण, भूमि, अग्रि, सूर्य, जल, धातु, हृदय तथा चित्र नामवाली—ये भगवान् केशवकी आठ प्रतिमाएँ हैं । इनमें भक्तिपूर्वक भगवानका पूजन करना चाहिये । अतः मन, वाणी और क्रियाद्वारा दूसरोंको पीड़ा न देते हुए भक्तिभावसे संयुक्त हो सर्वव्यापी भगवान् विष्णुकी पूजा करे । अहिंसा, सत्य, क्रोधका अभवा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, ईर्ष्याका त्याग तथा दया—ये सद्गुण ज्ञानयोग और कर्मयोग—दोनोंमें समानरूपसे आवश्यक हैं । यह चराचर विश्व सनातन भगवान् विष्णुका ही स्वरूप है । ऐसा मनसे निश्चय करके उक्त दोनों योगोंका अभ्यास करे । जो मनीषी पुरुष समस्त प्राणियोंको अपने आत्माके ही समान मानते हैं, वे ही देवाधिदेव चक्रसुदर्शनधारी भगवान् विष्णुके परम भावको जानते हैं । जो असूया (दूसरोंके दोष देखने)—में संलग्र हो तपस्या, पूजा और ध्यानमें प्रवृत्त होता है, उसकी वह तपस्या, पूजा और ध्यान सब व्यर्थ होते हैं । इसलिये शम, दम आदि गुणोंके साधनमें लगकर विधिपूर्वक क्रियायोगमें तत्पर हो मनुष्य अपनी मुक्तिके लिये सर्वस्वरूप भगवान् विष्णुकी पूजा करे । जो सम्पूर्ण लोकोंके हितसाधनमेंं तत्पर हो मन, वाणी और क्रियाद्वारा देवेश्वर भगवान् विष्णुका भलीभाँति पूजन करता है, जो जगत्के कारणभूत, सर्वान्तर्यामी एवं सर्वपापहारी सर्वव्यापी भगवान् विष्णुकी स्तोत्र आदिके द्वारा स्तुति करता है, वह कर्मयोगी कहा जाता है । उपवास आदि व्रत, पुराणश्रवण आदि सत्कर्म तथा पुष्प आदि सामग्रियोंसे जो भगवान् विष्णुकी पूजा की जाती है, उसे क्रियायोग कहा गया है । इस प्रकार जो भगवान् विष्णुमें भक्ति रखकर क्रियायोगमें मन लगानेवाले हैं, उनके पूर्वजन्मोंके किये हुए समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं । पापोंके नष्ट होनेसे जिसकी बुद्धि शुद्ध हो जाती है, वह उत्तम ज्ञानकी इच्छा रखता है; क्योंकि ज्ञान मोक्ष देनेवाला है——ऐसा जानना चाहिये । अब मैं तुम्हें ज्ञान—प्राप्तिका उपाय बतलाता हूँ । बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह शास्त्रार्थविशारद साधुपुरुषोंके सहयोगसे इस चराचर विश्वमें स्थित नित्य और अनित्य वस्तुका भलीभाँति विचार करे । संसारके सभी पदार्थ अनित्य हैं । केवल भगवान् श्रीहरि नित्य माने गये हैं । अतः अनित्य वस्तुओंका परित्याग करके नित्य श्रीहरिका ही आश्रय लेना चाहिये । इहलोक और परलोकके जितने भोग हैं, उनकी ओरसे विरक्त होना चाहिये । जो भोगोंसे विरक्त नहीं होता, वह संसारमें फँस जाता है । जो मानव जगत्के अनित्य पदार्थोंमें आसक्त होता है, उसके संसार—बन्धनका नाश कभी नहीं होता । अतः शम, दम आदि गुणोंसे सम्पन्न हो मुक्तिकी इच्छा रखकर ज्ञान—प्राप्तिके लिये साधन करे । जो शम (दम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा और समाधान) आदि गुणोंसे शून्य है, उसे ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती । जो राग—द्वेषसे रहित, शमादि गुणोंसे सम्पन्न तथा प्रतिदिन भगवान् विष्णुके ध्यानमें तत्पर है, उसीको’ मुमुक्षु’ कहते हैं । इन चार (नित्यानित्यवस्तुविचार, वैराग्य, षट् सम्पत्ति और मुमुक्षुत्व—) साधनोंसे मनुष्य विशुद्धबुद्धि कहा जाता है । ऐसा पुरुष सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति दयाभाव रखते हुए सदा सर्वव्यापी भगवान् विष्णुका ध्यान करे । ब्रह्मन् ! क्षर—अक्षर (जड—चेतन) स्वरूप सम्पूर्ण विश्वको व्याप्त करके भगवान् नारायण विराजमान हैं । ऐसा जो जानता है, उसका ज्ञान योगज माना गया है । अतः मैं योगका उपाय बतलाता हूँ । जो संसार—बन्धनको दूर करनेवाला है ।
पर और अपर—भेदसे आत्मा दो प्रकारका कहा गया है । अथर्ववेदकी श्रुति भी कहती है कि दो ब्रह्म जानने योग्य हैं । पर आत्मा अथवा परब्रह्मको निर्गुण बताया गया है तथा अपर आत्मा या अपरब्रह्म अहंकारयुक्त (जीवात्मा) कहा गया है । इन दोनोंके अभेदका ज्ञान’ ज्ञानयोग’ कहलाता है । इस पाञ्चभौतिक शरीरके भीतर हृदयदेशमें जो साक्षीरूपमें स्थित है, उसे साधु पुरुषोंने अपरात्मा कहा है तथा परमात्मा पर (श्रेष्ठ) माने गये हैं । शरीरको क्षेत्र कहते हैं । जो क्षेत्रमें स्थित आत्मा है, वह क्षेत्रज्ञ कहलाता है । परमात्मा अव्यक्त, शुद्ध एवं सर्वत्र परिपूर्ण कहा गया है । मुनिश्रेष्ठ ! जब जीवात्मा और परमात्माके अभेदका ज्ञान हो जाता है, तब अपरात्माके बन्धनका नाश होता है । परमात्मा एक, शुद्ध, अविनाशी, नित्य एवं जगन्मय हैं । वे मनुष्योंके बुद्धिभेदसे भेदवान्—से दिखायी देते हैं । ब्रह्यन ! उपनिषदोंद्वारा वर्णित जो एक अद्वितीय सनातन परब्रह्म परमात्मा हैं, उनसे भिन्न कोई वस्तु नहीं है । उन निर्गुण परमात्माका न कोई रूप है, न रंग है, न कर्तव्य कर्म है और न कर्तुत्व या भोक्तृत्व ही है । वे सब कारणोंके भी आदिकारण हैं, सम्पूर्ण तेजोंके प्रकाशक परम तेज हैं । उनसे भिन्न दूसरी कोई वस्तु नहीं है । मुक्तिके लिये उन्हीं परमात्माका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये । ब्रह्मन् ! शब्दव्रह्ममय जो महावाक्य आदि हैं अर्थात् वेदवर्णित जो’ तत्त्वमसि’,’ सोऽमस्मि’ इत्यादि महावाक्य हैं, उनपर विचार करनेसे जीवात्मा और परमात्माका अभेद ज्ञान प्रकाशित होता है, वह मुक्तिका सर्वश्रेष्ठ साधन है । नारदजी ! जो उत्तम ज्ञानसे हीन हैं, उन्हें यह जगत् नाना भेदोंसे युक्त दिखायी देता है, परंतु परम ज्ञानियोंकी दृष्टिमें यह सब परब्रह्मरूप है । परमानन्दस्वरूप, परात्पर, अविनाशी एवं निर्गुण परमात्मा एक ही हैं, किंतु बुद्धिभेदसे वे भिन्न—भिन्न अनेक रूप धारण करनेवाले प्रतीत होते हैं । द्विजश्रेष्ठ ! जिनके ऊपर मायाका पर्दा पड़ा है, वे मायाके कारण परमात्मामें भेद देखते हैं, अतः मुक्तिकी इच्छा रखनेवाला पुरुष योगके बलसे मायाको निस्सार समझकर त्याग दे । माया न सद्रूप है, न असद्रूप, न सद्—असद् उभयरूप है, अतः उसे अनिर्वाच्य (किसी रूपमें भी न कहने योग्य) समझना चाहिये । वह केवल भेदबुद्धि प्रदान करनेवाली है । मुनिश्रेष्ठ ! अज्ञान शब्दसे मायाका ही बोध होता है, अतः जो मायाको जीत लेते हैं, उनके अज्ञानका नाश हो जाता है । ज्ञान शब्दसे सनातन परब्रह्नका ही प्रतिपादन किया जाता है, क्योंकि ज्ञानियोंके हृदयमें ! योगी पुरुष योगके द्वारा अज्ञानका नाश करे । योग आठ अङ्गोसे सिद्ध होता है; अतः मैं उन आठों अङ्गोका यथार्थरूपसे वर्णन करता हूँ ।
मुनिवर नादरद ! यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि—ये योगके आठ अङ हैं । मुनीश्वर ! अब क्रमशः संक्षेपसे इनके लक्षण बतलाता हूँ । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अक्रोध और अनसूया—ये संक्षेपसे यम बताये गये हैं । सम्पूर्ण प्राणियोंमेंसे किसीको (कभी किंचिन्मात्र) भी जो कष्ट न पहुँचानेका भाव है, उसे सत्पुरुषोंने’ अहिंसा’ कहा है ।’ अहिंसा’ योगमार्गमें सिद्धि प्रदान करनेवाली है । मुनिश्रेष्ठ ! धर्म और अधर्मका विचार रखते हुए जो वथार्थ बात कही जाती है, उसे श्रेष्ठ पुरुष’ सत्य’ कहते हैं । चोरीसे या बलपूर्वक जो दूसरेके धनको ह्ड़प लेना है, वह साधु पुरुषोंद्वारा’ स्तेय’ कहा गया है । इसके विपरीत किसीकी वस्तुको न लेना’ अस्तेय’ है । सब प्रकारसे मैथुनका त्याग ’ब्रह्नचर्य’ कहा गया है । मुनीश्वर ! आपत्तिकालमेंं भी द्वव्योंका संग्रह न करना ’अपरिग्रह’ कहा गया है । वह योगमार्गमें उत्तम सिद्धि प्रदान करनेवाला है । जो अपना उत्कर्ष जताते हुए किसीके प्रति अत्यन्त कठोर वचन बोलता है, उसके उस क्रूरतापूर्ण भावको धर्मज्ञ पुरुष ’क्रोध’ कहते हैं, इसके विपरीत शान्तभावाका नाम ’अक्रोध’ है। धन आदिके द्वारा किसीको बढ़्ते देखकर डाहके कारण जो मनमें संताप होता है, उसे साधु पुरुषोंने ’असूया’ (ईर्ष्या) कहा है; इस ’असूया’ का त्याग ही ’अनसूया’ है । देवर्षे ! इसा प्रकार संक्षेपसे का त्याग ही ’अनसूया’ है । देवर्षे ! इस प्रकार संक्षेपरे ’यम’ बताये गये हैं । नारदजी ! अब मैं तुम्हें ’नियम’ बतला रहा हूँ, सुनो । तप, स्वाध्याय, संतोष, शौच, भगवान् विष्णुकी आराधना तथा संध्योपासन आदि नियम कहे गये हैं । जिसमें चान्द्रायण आदि व्रतोंके द्वारा शरीरको कृश किया जाता है, उसे साधु पुरुषोंने ’तप’ कहा है । वह योगका उत्तम साधन है । ब्रह्मन् (ॐ कार, उपनिषद्, द्वादशाक्षर—मन्त्र (ॐ नमो भगवाते वासुदेवाय), अष्टाक्षर—मन्त्र (ॐ नमो नारायणाय)तथा तत्त्वमसि आदि महावाक्योंके समुदायका जो जप, अध्ययन एवं विचार है, उसे’ स्वाध्याय’ कहा गया है । वह भी योगका उत्तम साधन है । जो मूढ़ उपर्युक्त स्वाध्याय छोड़ देता है, उसका योग सिद्ध नहीं होता । किंतु योगके बिना भी केवल स्वाध्यायमात्रसे मनुष्योंके पापका नाश हो जाता है । स्वाध्यायसे संतुष्ट किये हुए इष्टदेवता प्रसन्न होते हैं । विप्रवर ! जप तीन प्रकारका कहा गया है—वाचिक, उपांशु और मानस । इन तीन भेदोंमें भी पूर्व—पूर्वकी अपेक्षा उत्तर—उत्तर श्रेष्ठ है । विधिपूर्वक अक्षर और पदको स्पष्ट बोलते हुए जो मन्त्रका उच्चारण किया जाता है, उसे’ वाचिक’ जप बताया गया है । वह सम्पूर्ण यज्ञोंका फल देनेवाला है । कुछ मन्द स्वरमें मन्त्रका उच्चारण करते समय एक पदसे दूसरे पदका विभाग करते जाना’ उपांशु’ जप कहा गया है । वह पहलेकी अपेक्षा दूना महत्त्व रखता है । मन—ही—मन अक्षरोंकी श्रेणीका चिन्तन करते हुए उसके अर्थपर विचार किया जाता है, वह’ मानस’ जप कहा गया है । मानस जप योगसिद्धि देनेवाला है । जपसे स्तुति करनेवाले पुरुषपर इष्टदेव नित्य प्रसन्न रहते हैं, इसलिये स्वाध्यायपरायण मनुष्य सम्पूर्ण मनोरथोंको पा लेता है । प्रारब्धके अनुसार जो कुछ मिल जाय, उसीसे प्रसन्न रहना’ संतोष’ कहलाता है । संतोषहीन पुरुष कहीं सुख नहीं पाता । भोगोंकी कामना भोग्य वस्तुओंको भोग लेनेसे शान्त नहीं होती, अपितु इससे भी अधिक भोग मुझे कब मिलेगा—इस प्रकार कामना बढ़्ती रहती है । अतः कामनाका त्याग करके दैवात् जो कुछ मिले, उसीसे संतुष्ट रहकर मनुष्यको धर्मके पालनमें लगे रहना चाहिये । बाह्यशौच और आभ्यन्तर शौचके भेदसे’ शौच’ दो प्रकारका माना गया है । मिट्टी और जलसे जो शरीरको शुद्ध किया जाता है, वह बाह्मशौच है और अन्तःकरणाके भावकी जो शुद्धि है, उसे आभ्यन्तरशौच कहा गया है । मुनिश्रेष्ठ ! आन्तरिक शुद्धिसे हीन पुरुषोंद्वारा जो नाना प्रकारके यज्ञ किये जाते हैं, वे राखमें डाली हुई आहुतिके समान निष्फल होते हैं । अतः राग आदि सब दोषोका त्याग करके सुखी होना चाहिये । हजारों भार मिट्टी और करोड़ों घड़े जलसे शरीरकी शुद्धि कर लेनेपर भी जिसका अन्तःकरण दूषित है, वह चाण्डालके ही समान अपवित्र माना गया है । जो आन्तरिक शुद्धिसे रहित होकर केवल बाहरसे शरीरको शुद्ध करता है, वह ऊपरसे सजाये हुए मदिरापात्रकी भाँति अपवित्र ही है, उसे शान्ति नहीं मिलती । जो मानसिक शुद्धिसे हीन होकर तीर्थयात्रा करते हैं, उन्हें वे तीर्थ उसी तरह पवित्र नहीं करते जैसे मदिरासे भरे हुए पात्रको नदियाँ । मुनिश्रेष्ठ ! जो वाणीसे धर्मोंका उपदेश करता और मनसे पापकी इच्छा रखता है, उसे महापातकियोंका सिरमौर समझना चाहिये । जिनका अन्तःकरण शुद्ध है, वे यदि परम उत्तम धर्ममार्गका आचरण करते हैं तो उसका फल अक्षय एवं सुखदायक जानन चाहिये । मन, वाणी और क्रियाद्वारा स्तुति, कथाश्रवण तथा पूजा करनेसे भगवान् विष्णुमें जिसकी दृढ भक्ति हो गयी है, उसकी वह भक्ति भी भगवान् विष्णुकी’ आराधना’ कही गयी है (तथा संध्योपासना तो प्रसिद्ध ही है) नारदजी ! इस प्रकार मैंने यम और नियमोंको संक्षेपसे समझाया । इनके द्वारा जिनका चित्त शुद्ध हो गया है, उनके मोक्ष हस्तगत ही है—ऐसा माना जाता है । यम और नियमोंद्वारा बुद्धिको स्थिर करके जितेन्द्रिय पुरुष योग—साधनाके अनुकूल उत्तम आसनका विधिपूर्वक अभ्यास करे ।
पद्मासन, स्वस्तिकासन, पीठासन, सिंहासन, कुक्कुटासन, कुञ्जरासन, कूर्मासन, वज्रासन, वाराहासन, मृगासन, चैलिकासन, क्रौञ्चासन, नालिकासन, सर्वतोभद्रासन, वृषभासन, नागासन, मत्स्यासन, व्याघ्रासन, अर्धचन्द्रासन, दण्डवातासन, शैलासन, खङ्रासन, मुद्ररासन, मकरासन, त्रिपथासन, काष्ठासन, स्थाणु—आसन, वैकर्णिकासन, भौमासन और वीरासन—ये सब योगसाधनके हेतु हैं । मुनीश्वरोंने ये तीस आसन बनाये हैं । साधन पुरूष शीत—उष्ण आदि द्वन्द्वोंसे पृथक् हो ईर्ष्या—द्वेष छोड़कर गुरुदेवके चरणोंमें भक्ति रखते हुए उपर्युक्त आसनोंमेंसे किसी एकको सिद्ध करके प्राणोंको जीतनेका अभ्यास करे । जहाँ मनुष्योंकी भीड़ न हो और किसी प्रकारका कोलाहल न होता हो, ऐसे एकान्त स्थानमें पूर्व, उत्तर अथवा पश्चिमकी ओर मुँह करके अभ्यासपूर्वक प्राणोंको जीते—प्राणायामका अभ्यास करे । शरीरके भीतर स्थित वायुका नाम प्राण है । उसके विग्रह (वशमें करनेकी चेष्टा)—को आयाम कह्ते हैं। यही’ प्राणायाम’ कहा गया है । उसके दो भेद बताये गये हैं—एक अगर्भ प्राणायाम और दूसरा सगर्भ प्राणायाम, इनमें दूसरा श्रेष्ठ है । जप और ध्यानके बिना जो प्राणायाम किया जाता है, वह अगर्भ है और जप तथा ध्यानके सहित किये जानेवाले प्राणायामको सगर्भ कहते हैं । मनीषी पुरुषोंने इस दो भेदोंवाले प्राणायामको रेचक, पूरक, कुम्भक और शून्यकके भेदसे चार प्रकारका बताया है । जीवोंकी दाहिनी नाड़ीका नाम पिङला है । उसके देवता सूर्य हैं । उसे पितृयोनि भी कहते हैं । इसी प्रकार बायीं नाड़ीका नाम इडा है, जिसे देवयोनि भी कह्ते हैं । मुनिश्रेष्ठ ! चन्द्रमाको उसका अधिदेवता समझो । इन दोनोंके मध्यभागमेंं सुषुम्ना नाड़ी है । यह अत्यन्त सूक्ष्म और परम गुह्य है । ब्रह्मजीको इसका अधिदेवता जानना चाहिये। नासिकाके बायें छिद्रसे वायुको बाहर निकाले । रेचन करने (निकालने)—के कारण इसका नाम’ रेचक’ है, फिर नासिकाके दाहिने छिद्रसे वायुको अपने भीतर भरे । वायुको पूर्ण करने (भरने)—के कारण इसे ’पूरक’ कहा गया है । अपने देहमें भरी हुई वायुको रोके रहे, छोड़े नहीं और भरे हुए कुम्भ (घड़े)—की भाँति स्थिरभावसे बैठा रहे । कुम्भकी भाँति स्थित होनेके कारण इस प्राणायामका नाम ’कुम्भक’ है । बाहरकी वायुको न तो भीतरकी ओर ग्रहण करे और न भीतरकी वायुको बाहर निकाले । जैसे हो, वैसे ही स्थित रहे । इस तरहके प्राणायामको ’शून्यक’ समझो । जैसे मतवाले गजराजको धीरे—धीरे वशमें किया जाता है, उसी प्रकार प्राणको धीरे—धीरे जीतना चाहिये। अन्यथा बड़े—बड़े भयङ्कर रोग हो जाते हैं । जो योगी क्रमशः वायुको जीतनेका अभ्यास करता है, वह निष्पाप हो जाता है और सब पापोंसे मुक्त होनेपर वह ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है ।
मुनीश्वर ! जो विषयोंमेंं फँसी हुई इन्द्रियोंको विषयोंसे सर्वथा समेंटकर अपने भीतर रोके रह्ता है, उसके इस प्रयत्नका नाम ’प्रत्याहार’ है । ब्राह्मण ! जिन्होंने प्रत्याहारद्वारा अपनी इन्द्रियोंको जीत लिया है, वे महात्मा पुरुष ध्यान न करनेपर भी पुनरावृत्तिरहित परब्रह्म पदको प्राप्त कर लेते हैं । जो इन्द्रियसमुदायको वशमें किये बिना ही ध्यानमें तत्पर होता है, उसे मूर्ख समझो; क्योंकि उसका ध्यान सिद्ध नहीं होता । मनुष्य जिस—जिस वस्तुको देखता है, उसे अपने आत्मामें आत्मस्वरूप समझे और प्रत्याहारद्वारा वशमें की हुई इन्द्रियोंको अपने आत्मामें ही अन्तर्मुख करके धारण करे । इस प्रकार इन्द्रियोंको जो आत्मामें धारण करना है, उसीको ’धारण’ कहते हैं । योग (प्रत्याहार)—से इन्द्रियोंके समुदायको जीतकर धारणाद्वारा उन इन्द्रियोंको दृढ़तापूर्वक हृदयमें धारण कर लेनेके पश्चात् साधक उन परमात्माका ध्यान करे, जो सबका धारण—पोषण करनेवाले हैं और जो कभी अपनी महिमासे च्युत नहीं होते । सम्पूर्ण विश्व उन्हींका स्वरूप है । वे सर्वत्र व्यापक होनेसे विष्णु कहलाते हैं । समस्त लोकोंके एकमात्र कारण वे ही हैं । उनके नेत्र विकसित कमलदलके समान सुशोभित हैं । मनोहर कुण्डल उनके कानोंकी शोभा बढ़ाते हैं । उनकी भुजाएँ विशाल हैं । अङ—अङसे उदारता सूचित होती है । सब प्रकारके आभूषण उनके सुन्दर विग्रहकी शोभा बढ़ाते हैं । उन्होंने पीताम्बर धारण कर रखा है । वे दिव्यशक्तिसे सम्पन्न हैं । गलेमें तुलसीकी माला पहन रखी है । कोस्तुभमणिसे उनकी शोभा और बढ़ गयी है । वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्र सुशोभित है । देवता और असुर सभी भगवान्के चरणोंमें मस्तक नवा रहे हैं । बारह अंगुल विस्तृत तथा आठ दलोंसे विभूषित अपने हृदयकमलके आसनपर विराजमान सर्वव्यापी अव्यक्तस्वरूप परात्पर परमात्माका उपर्युक्तरूपसे ध्यान करना चाहिये । ध्येय वस्तुमें चित्तकी वृत्तिका एकाकार हो जाना ही साधु पुरुषोंद्वारा ’ध्यान’ कहा गया है । दो घड़ी ध्यान करके भी मनुष्य परम मोक्षको प्राप्त कर लेता है । ध्यानसे पाप नष्ट होते हैं । ध्यानसे मोक्ष मिलता है । ध्यानसे भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं तथा ध्यानसे सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि हो जाती है । भगवान् महाविष्णुके जो—जो स्वरूप हैं, उनमेंसे किसीका भी एकाग्रतापूर्वक ध्यान करे । उस ध्यानसे संतुष्ट होकर भगवान् विष्णु निश्चय ही मोक्ष देते हैं । साधुशिरोमणे ! ध्येय वस्तुमेंं मनको इस प्रकार स्थिर कर देना चाहिये कि ध्याता, ध्यान और ध्येयकी त्रिपुटीका तनिक भी भान न रह जाय । तब ज्ञानरूपी अमृतके सेवनसे अमृतत्व (परमात्मा)—को प्राप्त होता है । निरन्तर ध्यान करनेसे ध्येय वस्तुके साथ अपना अभेदभाव स्पष्ट अनुभव हो जाता है । जिसकी सब इन्द्रियाँ विषयोंसे निवृत्त हो जाती हैं और वह परमानन्द्से पूर्ण हो वायुशून्य स्थानमें जलते हुए दीपककी भाँति अविचलभावसे ध्यानमें स्थित हो जाता है, तो उसकी इस ध्येयाकार स्थितिको ’समाधि’ कह्ते हैं । नारदजी ! योगी पुरुष समाधि—अवस्थामें न देखता है, न सुनता है, न सूँघता है, न स्पर्श करता है और न वह कुछ बोलता ही है । उस अवस्थामें योगियोंको सम्पूर्ण उपाधियोंसे मुक्त, शुद्ध, निर्मल, सच्चिदानन्दस्वरूप तथा अविचल आत्माका साक्षात्कार होता है । विद्वान् नारदजी ! यह आत्मा परम ज्योतिर्मय तथा अमेंय है । जो मायाके अधीन हैं, उन्हींको वह मायायुक्त—सा प्रतीत होता है । उस मायाका निवारण होनेपर वह निर्मल ब्रह्मरूपसे प्रकाशित होता है । वह ब्रह्म एक, अद्वितीय, परमज्योतिःस्वरूप, निरञ्जन तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके अन्तर्यामी आत्मारूपसे स्थित है । परमात्मा सूक्ष्मसे भी अत्यन्त सूक्ष्म और महान्से भी अत्यन्त महान् है । वह सनातन परमेंश्वर समस्त विश्वका कारण है । ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ पुरुष परम पवित्र परात्पर ब्रह्मरूपमें उसका दर्शन करते हैं । अकारसे लेकर हकारतकके भिन्न—भिन्न वर्णोंके रूपमें स्थित अनादि पुराणपुरुष परमात्माको ही शब्दब्रह्म कहा गया है और जो विशुद्ध, अक्षर, नित्य, पूर्ण, हृदयाकाशके मध्य विराजमान अथवा आकाशमें व्याप्त, आनन्दमय, निर्मल एवं शान्त तत्त्व है, उसीको ’परमात्मा’ कहते हैं, योगीलोग अपने हृदयमें जिन अजन्मा, शुद्ध, विकाररहित, सनातन परमात्माका दर्शन करते हैं, उन्हींका नाम परब्रह्म है । मुनिश्रेष्ठ ! अब दूसरा ध्यान बतलाता हूँ, सुनो । परमात्माका यह ध्यान संसार—तापसे संतप्त मनुष्योंको अमृतकी वर्षाके समान शान्ति प्रदान करनेवाला है । परमानन्दस्वरूप भगवान् नारायण प्रणवमें स्थित हैं—ऐसा चिन्तन करे । उनकी कहीं उपमा नहीं है । वे प्रणवकी अर्धमात्राके ऊपर विराजमान नादस्वरूप हैं । अकार ब्रह्माजीका रूप है, उकार भगवान् विष्णुका स्वरूप है, मकार रुद्ररूप है तथा अर्धमात्रा निर्गुण परब्रह्म परमात्मस्वरूप है । अकार, उकार और मकार—ये प्रणवकी तीन मात्राएँ कही गयी हैं । ब्रह्मा, विष्णु और शिव—ये तीन क्रमशः उनके देवता हैं । इन सबका समुच्चयरूप जो ॐ उकार है, वह परब्रह्म परमात्माका बोध करानेवाला है । परब्रह्म परमात्मा वाच्य हैं और प्रणव उनका वाचक माना गया है । नारदजी ! इन दोनोंमेंं वाच्य—वाचक—सम्बन्ध उपचारसे ही कहा गया है । जो प्रतिदिन प्रणवका जप करते हैं, वे सम्पूर्ण पातकोंसे मुक्त हो जाते हैं तथा जो निरन्तर उसीके अभ्यासमें लगे रहते हैं, वे परम मोक्ष पाते हैं । जो ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप प्रणव—मन्त्रका जप करता है, उसे अपने अन्तःकरणमें कोटि—कोटि सूर्योंके समान निर्मल तेजका ध्यान करना चाहिये अथवा प्रणव—जपके समय शालग्रामशिला य किसी भगवत्प्रतिमाके स्वरूपका ध्यान करना चाहिये । अथवा जो—जो पापनाशक तीर्थादिक वस्तु है, उसी—उसीका अपने हृदयमें चिन्तन करना चाहिये । मुनीश्वर ! यह वैष्णवाज्ञान तुम्हें बताया गया है । इसे जानकर योगीश्वर पुरुष उत्तम मोक्ष पा लेता है । जो एकाग्रचित्त होकर इस प्रसंगको पढ़ता अथवा सुनता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुका सालोक्य प्राप्त कर लेता है ।
अध्याय ३२ भवबंधनसे मुक्तिके लिय भगवान विष्णुके भजनका उपदेश
नारदजीने कहा—हे सर्वज्ञ महामुने ! सबके स्वामी देवदेव भगवान् जनार्दन जिस प्रकार संतुष्ट होते हैं, वह उपाय मुझे बताइये ।
श्रीसनकजी बोले—नारदजी ! यदि मुक्ति चाह्ते हो तो सच्चिदानन्दस्वरूप परमदेव भगवान् नारायणका सम्पूर्ण चित्तसे भजन करो । भगवान् विष्णुकी शरण लेनेवाले मनुष्यको शत्रु मार नहीं सकते, ग्रह पीड़ा नहीं दे सकते तथा राक्षस उसकी ओर आँख उठाकर देख नहीं सकते । भगवान् जनार्दनमें जिसकी दृढ़ भक्ति है, उसके सम्पूर्ण श्रेय सिद्ध हो जाते हैं । अतः भक्त पुरुष सबसे बढ़कर है । मनुष्योंके उन्हीं पैरोंको सफल जानना चाहिये, जो भगवान् विष्णुके मन्दिरमें दर्शनके लिये जाते हैं । उन्हीं हाथोंको सफल समझना चाहिये, जो भगवान् विष्णुकी पूजामें तत्पर होते हैं । पुरुषोंके उन्हीं नेत्रोंको पूर्णतः सफल जानना चाहिये, जो भगवान् जनार्दनका दर्शन करते हैं । साधुपुरुषोंने उसी जिह्लाको सफल बताया है, जो निरन्तर हरिनामके जप और कीर्तनमें लगी रहती है । मैं सत्य कहता हूँ, हितकी बात कहता हूँ और बार—बार सम्पूर्ण शास्त्रोंका सार बतलाता हूँ—इस असार संसारमें केवल श्रीहरिकी आराधना ही सत्य है। यह संसारबन्धन अत्यन्त दृढ़ है और महान् मोहमें डालनेवाला है । भगवद्भक्तिरूपी कुठारसे इसको काटकर अत्यन्त सुखी हो जाओ । वही मन सार्थक है, जो भगवान् विष्णुके चिन्तनमें लगता है, तथा वे ही दोनों कान समस्त जगतके लिये वन्दनीय हैं, जो भगवत्कथाकी सुधाधारासे परिपूर्ण रहते हैं । नारदजी ! जो आनन्दस्वरूप, अक्षर एवं जाग्रत आदि तीनों अवास्थाओंसे रहित तथा हृदयमें विराजमान हैं, उन्हीं भगवान् तुम निरन्तर भजन करो । मुनिश्रेष्ठ ! जिनका अन्तःकरण शुद्ध नहीं है—ऐसे लोग भगवान्के स्थान या स्वरूपका न तो वर्ण्न कर सकते हैं और न दर्शन ही । विप्रवर ! यह स्थावर—जंगमरूप जगत् केवल भावनामय है और बिजलीके समान चञ्च्ल है । अतः इसकी ओरसे विरक्त होकर भगवान् जनार्दनका भजन करो । जिनमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्यचर्य और अपरिग्रह विद्यमान हैं, उन्हींपर जगदीश्वर श्रीहरि संतुष्ट होते हैं । जो सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति दयाभाव रखता है और ब्राह्मणोंके आदर—सत्कारमें तत्पर रहता है, उसपर जगदीश्वर भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं । जो भगवान् और उनके भक्तोंकी कथामें प्रेम रखता है, स्वयं भगवान्की कथा कहता है, साधु—महात्माओंका संग करता है और मनमें अहङ्कार नहीं लाता, उसपर भगवान् विष्णु प्रसन्न रह्ते हैं । जो भूख—प्यास और लड़खड़ाकर गिरने आदिके अवसरोंपर भी सदा भगवान् विष्णुके नामका उच्चारण करता है, उसपर भगवान् अधोक्षज (विष्णु) प्रसन्न होते हैं । मुने ! जो स्त्री पतिको प्राणके समान समझकर उनके आदर—सक्तारमें सदा लगी रहती है, उसपर प्रसन्न हो जगदीश्वर श्रीहरि उसे अपना परम धाम दे देते हैं । जो ईर्ष्या तथा दोषदृष्टिसे रहित होकर अहङ्क्रारसे दूर रह्ते हैं और सदा देवाराधन किया करते हैं, उनपर भगवान् केशव प्रसन्न होते हैं । अतः देवर्षे ! सुनो, तुम सदा श्रीहरिका भजन करो । शरीर मृत्युसे जुड़ा हुआ है । जीवन अत्यन्त चञ्चल है । धनपर राजा आदिके द्वारा बराबर बाधा आती रहती है और सम्पत्तियाँ क्षणभरमें नष्ट हो जावेवाली हैं । देवर्षे ! क्या तुम नहीं देखते कि आधी आयु तो नींदसे ही नष्ट हो जाती है और कुछ आयु भोजन आदिमें समाप्त हो जाती है । आयुका कुछ भाग बचपनमें, कुछ विषय—भोगोंमें और कुछ बुढ़ापेमें व्यर्थ बीत जाता है । फिर तुम धर्मका आचरण कब करोगे ? बचपन और बुढ़ापेमें भगवान्की आराधना नहीं हो सकती, अतः अहङ्कार छोड़कर युवावस्थामें ही धर्मोंका अनुष्ठान करना चाहिये । मुने ! यह शरीर मृत्युका निवासस्थान और आपत्तियोंका सबसे बड़ा अड्डा है । शरीर रोगोंका घर है । यह मल आदिसे सदा दूषित रहता है । फिर मनुष्य इसे सदा रहनेवाला समझकर व्यर्थ पाप क्यों करते हैं । यह संसार असार है । इसमें नाना प्रकारके दुःख भरे हुए हैं । निश्चय ही यह मृत्युसे व्याप्त है, अतः इसपर विश्वास नहीं करना चाहिये । इसलिये विप्रवर ! सुनो, मैं यह सत्य कहता हूँ—देह—बन्धनकी निवृत्तिके लिये भगवान् विष्णुकी ही पूजा करनी चाहिये । अभिमान और लोभ त्यागकर काम—क्रोधसे रहित होकर सदा भगवान् विष्णुका भजन करो; क्योंकि मनुष्यजन्म अत्यन्त दुर्लभ है ।
सत्तम ! (अधिकांश) जीवोंको कोटि सह्स्त्र जन्मोंतक स्थावर आदि योनियोंमें भटकनेके बाद कभी किसी प्रकार मनुष्य—शरीर मिलता है । साधु—शिरोमणे मनुष्य !—जन्ममें भी देवाराधनकी बुद्धि, दानकी बुद्धि और योगसाधनाकी बुद्धिका प्राप्त होना मनुष्योंके पूर्वजन्मकी तपस्याका फल है । जो दुर्लभ मानव—शरीर पाकर एक बार भी श्रीहरिकी पूजा नहीं करता, उससे बढ़कर मूर्ख, जड़बुद्धि कोन है? दुर्लभ मानव—जन्म पाकर जो भगवान् विष्णुकी पूजा नहीं करते, उन महामूर्ख मनुष्योंमें विवेक कहाँ है? ब्रह्मन ! जगदीश्वर भगवान् विष्णु आराधना करनेपर मनोवाञ्छित फल देते हैं । फिर संसार—रूप अग्रिमें जला हुआ कोन मानव उनकी पूजा नहीं करेगा? मुनिश्रेष्ठ ! विष्णुभक्त चाण्डाल भी भक्तिहीन द्विजसे बढ़कर है । अतः काम, क्रोध आदिको त्यागकर अविनाशी भगवान् नारायणका भजन करना चाहिये । उनके प्रसन्न होनेपर सब संतुष्ट होते हैं; क्योंकि वे भगवान् श्रीहरि ही सबके भीतर विद्यमान हैं । जैसे सम्पूर्ण स्थावर—जङम जगत् आकाशसे व्याप्त हैं, उसी प्रकार इस चराचर विश्वको भगवान् विष्णुने व्याप्त कर रखा है । भगवान् विष्णुके भजनसे जन्म और मृत्यु दोनोंका नाश हो जाता है । ध्यान, स्मरण, पूजन अथवा प्रणाममात्र कर लेनेपर भगवान् जनार्दन जीवके संसारबन्धनको काट देते हैं । ब्रह्मर्षे ! उनके नामका उच्चारण करनेमात्रसे महापातकोंका नाश हो जाता है और उनकी विधिपूर्वक पूजा करके तो मनुष्य मोक्षका भागी होता है । ब्रह्मन ! यह बड़े आश्चर्यकी बात है , बड़ी अद्भुत बात है और बड़ी विचित्र बात है कि भगवान् विष्णुके नामके रहते हुए भी लोग जन्म-मृत्युरूप संसारमें चक्कर काटते हैं । जबतक इन्द्रियाँ शिथिल नहीं होतीं और जबतक रोग-व्याधि नहीं सताते, तभीतक भगवान् विष्णुकी आराधना कर लेनी चाहिये । जीव जब माताके गर्भसे निकलता है, तभी मृत्यु उसके साथ हो लेती है । अतः सबको धर्मपालनमें लग जाना चाहिये । अहो ! बड़े कष्टकी बात है कि यह जीव इस शरीरको नाशवान् समझकर भी धर्मका आचरण नहीं करता ।
नारदजी ! बाँह उठाकर यह सत्य-सत्य और पुनः सत्य बात दुहरायी जाती है कि पाखण्ड्पूर्ण आचरणका त्याग करके मनुष्य भगवान् वासुदेवकी आराधनामें लग जाय । क्रोध मानसिक संतापका कारण है । क्रोध संसारबन्धनमें डालनेवाला है और क्रोध सब धर्मोंका नाश करनेवाला है । अतः क्रोधको छोड़ देना चाहिये । काम इस जन्मका मूल कारण है, काम पाप करानेमें हेतु है और काम यशका नाश करनेवाला है । अतः कामको भी त्याग देना चाहिये । मात्सर्य समस्त दु:ख—समुदायक कारण माना गया है, वह नरकोंका भी साधन है, अतः उसे भी त्याग देना चाहिये । मन ही मनुष्योंके बन्धन और मोक्षका कारण है । अतः मनको परमात्मामें लगाकर सुखी हो जाना चाहिये । अहो ! मनुष्योंका धैर्य कितना अद्भुत, कितना विचित्र तथा कितना आश्चर्यजनक है कि जगदिश्वर भगवान् विष्णुके होते गुए भी वे मद्से उन्मत्त होकर उनका भजन नहीं करते हैं । सबका धारण—पोषण करनेवाले जगदीश्वर भगवान् अच्युतकी आराधना किये बिना संसार—सागरमें डूबे हुए मनुष्य कैसे पार जा सकेंगे? अच्युत, अनन्त और गोविन्द—इन नामोंके उच्चारणरूप औषधसे सब रोग नष्ट हो जाते हैं । यह मैं सत्य कहता हूँ, सत्य कहता हूँ । जो लोगा नारायण ! जगन्नाथ ! वासुदेव ! जनार्दना ! आदि नामोंका नित्य उच्चारण किया करते हैं, वे सर्वत्र वन्दनीय हैं । देवर्षे ! दुष्ट चित्तवाले मनुष्योंकी कितनी भारी मूर्खता है कि वे अपने ह्रदयमें विराजमान भगवान् विष्णुको नहीं जानते हैं । मुनिश्रेष्ठ ! नारद ! सुनो, मैं बार—बार इस बातको दुह्रराता हूँ, भगवान् विष्णु श्रद्धालु जनोंपर ही संतुष्ट होते हैं, अधिक धन और भाई बन्धुवालोंपर नहीं । इहलोक और परलोकमें सुख चाहनेवाला मनुष्य सदा श्रीहरिकी पूजा करे तथा इहलोक और परलोंकमें दुःख चाहनेवाला मनुष्य दूसरोंकी निन्दामें तत्पर रहे । जो देवाधिदेव भगवान् जनार्दनकी भक्तिसे रहित हैं, ऐसे मनुष्योंके जन्मको धिक्कार है । जिसे सत्पात्रके लिये दान नहीं दिया जाता, उस धनको बारम्बार धिक्कार है । मुनिश्रेष्ठ ! जो शरीर भगवान् विष्णुको नमस्कार नहीं करता, उसे पापकी खान समझना चाहिये । जिसने सुपात्रको दान न देकर जो कुछ द्वव्य जोड़ रखा है, वह लोकमें चोरीसे रखे हुए धनकी भाँति निन्दनीय है । संसारी मनुष्य बिजलीके समान चञ्चल धन—सम्पत्तिसे मतवाले हो रहे हैं । वे जीवोंके अज्ञनमय पाशको दूर करनेवाले जगदीश्वर श्रीहरिकी आराधना नहीं करते हैं ।
दैव और आसुरी सृष्टिके भेदसे सृष्टि दो प्रकारकी बतायी गयी है । जहाँ भगवान्की भक्ति (और सदाचार) है, वह दैवी सृष्टि है और जो भक्ति (और सदाचार)—से हीन है, वह आसुरी सृष्टि है । अतः विप्रवर नारद ! सुनो, भगवान् विष्णुके भजनमें लगे हुए मनुष्य सर्वत्र श्रेष्ठ कहे गये हैं; क्योंकि भक्ति अत्यन्त दुर्लभ है । जो ईर्ष्या और द्वेषसे रहित, ब्राह्मणोंकी रक्षामें तत्पर तथा काम आदि दोषोंसे दूर है, उनपर भगवान् विष्णु संतुष्ट होते हैं ।
अध्याय ३३ वेदमालीको जानन्ति मुनिका उपदेश तथा वेदमालीकी मुक्ति
श्रीसनकजी कहते हैं —नारद ! जिन्होने योगके द्वारा कम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और मात्सर्यरूपी छः शत्रुओंको जीत लिया है तथा जो अहंकारशून्य और शान्त हैं, ऐसे ज्ञानी महात्मा ज्ञानस्वरूप अविनाशी श्रीहरिका ज्ञानयोगके द्वारा यजन करते हैं । जो व्रत, दान, परस्या, यज्ञ तथा तीर्थस्त्रन करके विशुद्ध हो गये हैं, वे कर्मयोगी महापुरुष कर्मयोगके द्वारा भगवान् अच्युतका पूजन करते हैं । जॊ लोभी, दुर्व्यसनोंमें आसक्त और अज्ञानी हैं, वे जगदीश्वर श्रीहरिकी आराधना नहीं करते । वे मूढ़ अपनेको अजर—अमर समझते हैं; किंतु वास्तवमें मनुष्योंमें वे कीड़ेके समान जीवन बिताते हैं । जो बिजलीकी लकीरके समान क्षणभरमें चमककर लुप्त हो जानेवाली है, ऐसी लक्ष्मीके मद्से उन्मत्त हो व्यर्थ अहंकारसे दूषित चित्तवाले मनुष्य सब प्रकारसे कल्याण करनेवाले जगदीश्वर भगवान् विष्णुको पूजा नहीं करते हैं । जो भगवद्धर्मके पालनमें तत्पर, शान्त, श्रीहरिके चरणारविन्दोंकी सेवा करनेवाले तथा सम्पूर्ण जगतपर अनुग्रह रखनेवाले हैं, ऐसे तो कोई बिरले महात्मा ही दैवयोगसे उत्पन्न हो जाते हैं । जो मन, वाणी और क्रियाद्वारा भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णुकी आराधना करता है, वह समस्त लोकोंमें …………………………..
इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, जिसे पढ़्ने और सुननेवालोंके समस्त पापोंका नाश हो जाता है ।
नारदजी ! प्राचीन कल की बात है । रैवतमन्वन्तरमें वेदमाली नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण रह्ते थे, जो वेदों और वेदंगोके पारदर्शी विद्वान् थे । उनके मनमें सम्पूर्ण प्राणियोंके प्राणियोंके प्रति दया भरी हुई थी । वे सदा भगवान्की पूजामें लगे रहते थे; किंतु आगे चलकर वे स्त्री, पुत्र और मित्रोंके लिये धनोपार्जन करनेमें संलग्र हो गये । जो वस्तु नहीं बेचनी चाहिये, उसको भी वे बेचने लगे । उन्होंने रसका भी विक्रय किया । वे चाण्डाल आदिसे भी बात करत और उनका दिया हुआ दान ग्रहण करते थे । उन्होंने पैसे लेकर तपस्या और व्रतोंका विक्रय किया और तीर्थयात्रा भी वे दूसरोंके लिये ही करते थे । यह सब उन्होंने अपनी स्त्रीको संतुष्ट करनेके लिये ही किया । विप्रवर ! इसी तरह कुछ समय बीत जानेपर ब्राह्मणके दो जुड़्वे पुत्र हुए, जिनका नाम था—यज्ञमाली और सुमाली । वे दोनों बड़े सुन्दर थे । तदनन्तर पिता उन दोनों बालकोंका बड़े स्नेह और वात्सल्यसे अनेक प्रकारके साधनोंद्वारा पालन—पोषण करने लगे । वेदमालिने अनेक उपायोंसे यत्नपूर्वक धन एकत्र किया और एक दिन मेंरे पास कितना धन है यह जाननेके लिये उन्होंने अपने धनको गिनना प्रारम्भ किया । धन संख्यामें बहुत ही अधिक था । इस प्रकार धनकी स्वयं गणना करके वे हर्षसे फूल उठे । साथ ही उस अर्थकी चिन्तासे उन्हें बड़ा विस्मय भी हुआ । वे सोचने लगे—मैंने नीच पुरुषोंसे दान लेकर, न बेचने योग्य वस्तुओंका विक्रय करके तथा तपस्या आदिको भी बेचकर यह प्रचुर धन पैदाअ किया है । किंतु मेंरी अत्यन्त दुःसह तृष्णा अब भी शान्त नहीं हुई । अहो ! मै तो समजता हूँ, यह तृष्णा बहुत बड़ा कष्ट है, समस्त क्लेशोंका कारण भी यही है । इसके कारण मनुष्य यदि समस्त कामनाओंको प्राप्त कर लेतो भी पुनः दूसरी वस्तुओंकी अभिलाषा करने लगता है । जरावस्था (बुढ़ापे)—में आनेपर मनुष्यके केश पक जाते हैं, दाँत गल जाते हैं, आँख और कान भी जीर्ण हो जाते हैं; किंतु एक तृष्णा ही तरुण—सी होती जाती है । मेंरी सारी इन्द्रियाँ शिथिल हो रही हैं, बुढ़ापेने मेंरे बलको भी नष्ट कर दिया, किंतु तृष्णा तरुणी हो और भी प्रबल हो उठी है । जिसके मनमें कष्टदायिनी तृष्णा मौजूद है, वह विद्वान होनेपर भी मूर्ख हो जाता है । परम शान्त होनेपर भी अत्यन्त क्रोधीहो जाता है और बुद्धिमान् होनेपर भी अत्यन्त मूढ़्बुद्धि हो जाता है । आशा मनुष्योंके लिये अजेय शत्रुकी भाँति भयंकर है । अतः विद्वान् पुरुष यदि शाश्वत सुख चाहे तो आशाको त्याग दे । बल हो, तेज हो, विद्या हो, यश हो, सम्मान हो, नित्य वृद्धि हो रही हो और उत्तम कुलमें जन्म हुआ हो तो भी यदि मनमें आशा, तृष्णा बनी हुई है तो वह बड़े वेगसे इन सबपर पानी फेर देती है । मैंने बड़े क्लेशसे यह धन कमाया है । अब मेंरा शरीर भी गल गया । बुढ़ापेने मेंरे बलको नष्ट कर दिया । अतः अब मैं उत्साहपूर्वक परलोक सुधारनेका यत्न करूँगा । विप्रवर ! ऐसा निश्चय करके वेदमालि धर्मके मार्गपर चलने लगे । उन्होंने उसी क्षण उस सारे धनको चार भागोंमें बाँटा । अपने द्वारा पैदा किये उस धनमेंसे दो भाग तो ब्राह्मणने स्वयं रख लिये और शेष दो भाग दोनों पुत्रोंको दे दिये । तदनन्तर अपने किये हुए पापोंका नाश करनेकी इच्छासे उन्होंने जगह—जगह पौसले, पोखरे, बगीचे और बहुत—से देवमन्दिर बनाये तथा गङ्गाजीके तटपर अन्न आदिका दान भी किया ।
इस प्रकार सम्पूर्ण धनका दान करके भगवान् विष्णुके प्रति भक्तिभावसे युक्त हो वे तपस्याके लिये नर—नारायणके आश्रम बदरीवनमें गये । वहाँ उन्होंने एक अत्यन्त रमणीय आश्रम देखा, जहाँ बहुत—से ऋषि—मुनि रहते थे । फल और फूलोंसे भरे उए वृक्षसमूह उस आश्रमकी शोभा बढ़ा रहे थे । शास्त्र—चिन्तनमें तत्पर भगवत्सेवापरायण तथा परब्रह्न परमेंश्वरकी स्तुतिमें संलग्र अनेक वृद्ध महर्षि उस आश्रमकी श्रीवृद्धि कर रहे थे । वेदमालिने वहाँ जाकर जानन्ति नामवाले एक मुनिका दर्शन किया, जो शिष्योंसे घिरे बैठे थे और उन्हें परब्रह्म तत्त्वका उपदेश कर रहे थे । वे मुनि महान् तेजके पुञ्ज—से जान पड़ते थे । उनमें शम, दम आदि सभी गुण विरायमान थे । राग आदि दोषोंका सर्वथा अभाव था । वे सूखे पत्ते खाकर रहा करते थे । वेदमालिने मुनिके देखकर उन्हें प्रणाम किया । मुनि जानन्तिने कन्द, मूल और फल आदि सामग्रियोंद्वारा नारायण—बुद्धिसे अतिथि वेदमालिका पूजन किया । आतिथ्य—सत्कार हो जानेपर वेदमालिने हाथ जोड़ विनयसे मस्तक झुकाकर वक्ताओंमें श्रेष्ठ महर्षिसे कहा—भगवान् ! मैं कृतकृत्य हो गया । आज मेंरे सब पाप दूर हो गये । महागाग ! आप विद्वान् हैं । ज्ञान देकर मेंरा उद्धार कीजिये । ऐसा कहनेपर मुनिश्रेष्ठ जानन्ति बोले—ब्रह्नन ! तुम प्रतिदिन सर्वश्रेष्ठ भगवान् विष्णुका भजन करो । सर्वशक्तिमान् श्रीनारायणका चिन्तन करते रहो । दूसरोंकी निन्दा और चुगली कभी न करो । महामते ! सदा परोपकारमेंं लगे रहो । भगवान् विष्णुकी पूजामें मन लगाओ और मूर्खोंए मिलना—जुलना छोड़ दो । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य छोड़कर लोकको अपने आत्माके समान देखो—इससे तुम्हें शान्ति मिलेगी । ईर्ष्या, दोषदृष्टि तथा दूसरेकी निन्दा भूलकर भी न करो । पाखण्डपूर्ण आचार, अहङ्कार और क्रूरताका सर्वथा त्याग करो । सब प्राणियोंपर दया तथा साधु पुरुषोंकी सेवा करते रहो । अपने किये हुए धर्मोंको पूछनेपर भी दूसरोंपर प्रकट्न करो । दूसरोंको अत्याचार करते देखो, यदि शक्ति हो तो उन्हें रोको, लापरवाही न करो । अपने कुटुम्बका विरोध न करते हुए सदा अतिथियोंका स्वागत—सत्कार करो । पत्र, पुष्प, फल, दूर्वा अथवा पल्लवोंद्वारा निष्कामभावसे जगदीश्वर भगवान् नारायणकी पूजा करो । देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंका विधिपूर्वक तर्पण करो । विप्रवर ! विधिपूर्वक अग्रिकी सेवा भी करते रहो । देवमन्दिरमें प्रतिदिन झाडू लगाया करो और एकाग्रचित्त होकर उसकी लिपाई—पुताई भी किया करो । देवमन्दिरकी दीवारमें जहाँ—कहीं कुछ टूट—फूट गया हो, उसकी मरम्मत कराते रहो । मन्दिरमें प्रवेशका जो मार्ग हो उसे पताका और पुष्प आदिसे सुशोभित करो तथा भगवान् विष्णुके गृहमें दीपक जलाया करो । प्रतिदिन यथाशक्ति पुराणकी कथा सुनो । उसका पाठ करो और वेदान्तका स्वाध्याय करते रहो । ऐसा करनेपर तुम्हें परम उत्तम ज्ञान प्राप्त होगा । ज्ञानसे समस्त पापोंका नि्श्चय ही निवारण एवं मोक्ष हो जाता है । जानन्ति मुनिके इस प्रकार उपदेश देनेपर परम बुद्धिमान वेदमालि उसी प्रकार ज्ञानके साधनमें लगे रहे । वे अपने—आपमें ही परमात्मा भगवान् अच्युतका दर्शन करके बहुत प्रसन्न हुए । मैं ही उपाधिरहित स्वयंप्रकाश निर्मल ब्रह्म हूँ—ऐसा निश्चय करनेपर उन्हें परम शान्ति प्राप्त हुई ।
अध्याय ३४ भगवान विष्णुके भजनकी महिमा— सत्य संग, भगवानके चरणोदकसे एक व्याधका उद्धार
श्रीसनकजी कहते हैं —विप्रवर ! भगवान लक्ष्मीपति विष्णुके माहात्म्यका वर्णन फिर सुनो । भगवानकी अमृतमयी कथा सुननेके लिये किसके मनमें प्रेम और उत्साह नहीं होता ? जो विषयभोगमें अन्धे हो रहे हैं, जिनका चित्त ममतासे व्याकुल है, उन मनुष्योंके सम्पूर्ण पापोंका नाश भगवान्के एक ही नामका स्मरण कर देता है । जो भगवान्की पूजासे दूर रह्ते, वेदोंका विरोध करते और गौ तथा ब्राह्मणोंसे द्वेष रखते हैं, वे राक्षस कहे गये हैं । जो भगवान् विष्णुकी आराधनामें लगे रहकर सम्पूर्ण लोकोंपर अनुग्रह रखते तथा धर्मकार्यमें सदा तत्पर रह्ते हैं, वे साक्षात् भगवान विष्णुके स्वरूप माने गये हैं । जिनका चित्त भगवान् विष्णुकी आराधनामें लगा हुगा है, उनके करोड़ों जन्मोंका पाप क्षणभरमें नष्ट हो जाता है; फिरा उनके मनमें पापका विचार कैसे उठ सकता है? भगवान् विष्णुकी आराधना विषयान्ध मनुष्योंके भी सम्पूर्ण दुःखोंका नाश करनेवाली है । जो मनुष्य किसीके संगसे, स्नेहसे, भयसे, लोभसे अथवा अज्ञानसे भी भगवान् विष्णुकी उपासना करता है, वह अक्षय सुखका भागी होता है । जो भगवान् विष्णुके चरणोद्कका एक कण भी पी लेता है, वह सब तीर्थोंमें स्नान कर चुका । भगवानको वह अत्यन्त प्रिय होता है । भगवान् विष्णुका चरणोदक अकालमृत्युका निवारण, समम्त रोगोंका नाश और सम्पूर्ण दुःखोंकी शान्ति करनेवाला माना गया है । इस विषयमें भी ज्ञानी पुरुष यह प्राचीन इतिहास कहा करते हैं, इसे पढ़ने और सुननेवालोंके सम्पूर्ण पापोंका नाश हो जाता है । प्राचीन सत्ययुगकी बात है, गुलिक नामसे प्रसिद्ध एक व्याध था; वह परायी स्त्री और पराये धनको हड़प लेनेके लिये सदा उद्यत रहता था । वह सदा दूसरोंकी निन्दा किया करता था । जीव—जन्तुओंको भारी संकटमें डालना उसका नित्यका काम था । उसने सैकड़ों गौओं और हजारों ब्राह्मणोंकी हत्या की थी । नारदजी ! व्याधोंका सरदार गुलिक देवसम्पत्ति को हड़पने तथा दूसरोंका धन लूट लेनेके लिये सदा कमर कसे रहता था । उसने बहुत—से बड़े भारी—भारी पाप किये थे । जीव—जन्तुओंके लिये वह यमराजके समान था । एक दिन वह महापापी व्याध सौवीर नरेशके नगरमें गया, जो सम्पूर्ण ऐश्वर्योंसे भरा—पूरा था । उसके उपवनमें भगवान् विष्णुका एक बड़ा सुन्दर मन्दिर था, जो सोनेके कलशोंसे छाय गया था । उसे देखकर व्याधको बड़ी प्रसन्नता हुई । उसने निश्चय किया, यहाँ बहुत—से सुवर्ण—कलश हैं, उन सबको चुराऊँगा । ऐसा विचारकर व्याध चोरीके लिये लोलुप हो उठा और मन्दिरके भीतर गया । वहाँ उसने एक श्रेष्ठ ब्राह्मणको देखा, जो परम शान्ता और तत्वार्थज्ञानमें निपुण थे । उनका काम उत्तङ्क तपस्याकी निधि थे । वे एकान्तवासी, दयालु, निःस्पृह तथा भगवान्के ध्यानमें परायण थे । मुने ! उस व्याधने उन्हें अपनी चोरीमें विघ्र डालनेवाला समझा । वह देवताका सम्पूर्ण धन हड़प लेनेके लिये आया हुआ अत्यन्त साहसी लुटेरा था और मदसे उन्मत्त हो रहा था । उसने हाथमें तलवार उठा ली और उत्तङ्कजीको मार डालनेका उद्योग आरम्भ किया । मुनि (—को भूमिपर गिराकर उन)— की छातीको एक पैरसे दबाकर उसने एक हाथसे उनकी जटाएँ पकड़ लों और उन्हें मार डालनेका विचार किया । इस अवस्थामें उस व्याधको देखकर उत्तङ्कजीने कहा ।
उत्तङ्क बोले— अरे, ओ साधु पुरुष ! तुम व्यर्थ ही मुझे मार रहे हो । मैं तो निरपराध हूँ । महामते ! बताओ तो सही, मैंने तुम्हारा क्या अपराध किया है । लोकमें शक्तिशाली पुरुष अपराधियोंको दण्ड देते हैं, किंतु सज्जन पुरुष पापियोंको भी अकारण नहीं मारते हैं । जिनके चित्तमें शान्ति विराज रही है, वे साधु पुरुष अपनेसे विरोध रखनेवाले मूर्खोंमें भी जो गुण विद्यमान हैं, उन्हींपर दृष्टि रखकर उनका विरोध नहीं करते हैं । जो मनुष्य अनेक बार सताये जानेपर भी क्षमा करता है, उसे उत्तम कहा गया है । वह भगवान् विष्णुको सदा ही अत्यन्त प्रिय है । वह भगवान् विष्णुको सदा ही अत्यन्त प्रिय है । जिनकी बुद्धि सदा दूसरोंके हितमें लगी हुई है, वे साधु पुरुष मृत्युकाल आनेपर भी किसीसे वैर नहीं करते । चन्दनका वृक्ष काटे जानेपर भी कुठारकी धारको सुगन्धित ही करता है । मृग तृणसे, मछलियाँ जलसे तथा सज्जन पुरुष संतोषसे जीवन—निर्वाह करते हैं, परंतु संसारमें क्रमशः तीन प्रकारके व्यक्ति इनके साथ भी अकारण वैर रखनेवाले होते हैं—व्याध, धीवर और चुगलखोर । अहो ! माया बड़ी प्रबल है । वह समस्त जगतको मोहमें डाल देती है । तभी तो लोग पुत्र—मित्र और स्त्रीके लिये सबको दुःखी करते रह्ते हैं । तुमने दूसरोंका धन लूटकर अपनी स्त्रीका पालना—पोषण किया है, परंतु अन्तकालमें मनुष्य सबको छोड़कर अकेला ही परलोककी यात्रा करता है । मेंरी माता, मेंरे पिता, मेंरी पत्नी, मेंरे पुत्न और मेंरी यह वस्तु—इस प्रकारकी ममता प्राणियोंको व्यर्थ पीड़ा देती रहती है । पुरुष जबतक धन कमाता हैं, तभीतक भाई—बन्धु उससे सम्बन्ध रखते हैं, परंतु इहलोक और परलोकमें केवल धर्म और अधर्म ही सदा उसके साथ रहते हैं, वहाँ दुसरा कोई साथी नहीं है । धर्म और अधर्मसे कमाये हुए धनके द्वारा जिसने जिन लोगोंका पालन—पोषण किया है, वे ही मरनेपर उसे आगके मुखमें झोंककर स्वयं घी मिलाया हुआ अन्न खाते हैं । पापी मनुष्योंकी कामना रोज बढ़ती है और पुण्यात्मा पुरुषोंकी कामना प्रतिदिन क्षीण होती है । लोग सदा धन आदिके उपार्जनमें व्यर्थ ही व्याकुल रहते हैं ।’ जो होनेवाला है, वह होकर ही रहता है और जो नहीं होनेवाला है, वह कभी नहीं होता ’जिनकी बुद्धिमें ऐसा निश्चय होता है, उन्हें चिन्ता कभी नहीं सताती । यहा सम्पूर्ण चराचर जगत दैवके अधीन है; अतः दैव ही जन्म और मृत्युको जानता है, दूसरा नहीं । अहो ! ममतासे व्याकुल चित्तवाले मनुष्योंका दुःख महान् है; क्योंकि वे बड़े—बड़े पाप करके भी दूसरोंका यत्नपूर्वक पालन करते हैं । मनुष्यके कमाये हुए सम्पूर्ण धनको सदा सब भाई—बन्धु भोगते हैं, किंतु वह मूर्ख अपने पापोंका फल स्वयं अकेला ही भोगता है ।
ऐसा कहते हुए महार्षि उत्तङ्कको गुलिकने छोड़ दिया । फिर वह भयसे व्याकुल हो उठा और हाथा जोड़कर बार—बार कहने लगा— ’ मेंरा अपराध क्षमा कीजिये ।’ सत्संगके प्रभावसे तथा भगवद्विग्रहका सामीप्य मिल जानेसे व्याधका सारा पाप नष्ट हो गया । उसे अपनी करनीपर बड़ा पश्चात्ताप हुआ और वह इस प्रकार बोला— ’ विप्रवर ! मैंने बहुल बड़े—बड़े पाप किये हैं । वे सब आपके दर्शनसे नष्ट हो गये । अहो ! मेंरी बुद्धि सदा पापमें ही लगी रही और मैं शरीरसे भी सदा महान् पापोंका ही आचरण करता रहा । अब मेंरा उद्धार कैसे होगा ? भगवन ! मैं किसकी शरणमें जाऊँ ? पूर्वजन्ममें किये हुए पापोंके कारण मेंरा व्याधके कुलमें जन्म हुआ। अब इस जीवनमें भी ढेर—के—ढेर पाप करके मैं किसे गतिको प्राप्त होऊँगा? अहो ! मेंरी आयु शीघ्रतापूर्वक नष्ट हो रही है । मैंने पापोंके निवारणके लिये कोई प्रायश्चित्त नहीं किया, अतः उन पापोंका फल मैं कितने जन्मोंतक भोगूँगा ?’— इस प्रकार स्वयं ही अपनी निन्दा करते हुए उस व्याधने आन्तरिक संतापकी अग्रिसे झुलसकर तुरंत प्राण त्याग दिये । व्याधको गिरा हुआ देख महर्षि उत्तङ्को बड़ी दया आती और उन महाबुद्धिमान मुनिने भगवान् विष्णुके चरणोदकसे उसके शरीरको सींच दिया । भगवान्के चरणोदकका स्पर्श पाकर उसके पाप नष्ट हो गये और वह व्याध दिव्य शरीरसे दिव्य विमानपर बैठकर मुनिसे इस प्रकार बोला ।
गुलिकने कहा— उत्तम व्रतका पालन करनेवाले मुनिश्रेष्ठ उत्तङ्कजी ! आप मेंरे गुरु हैं । आपके ही प्रसादसे मुझे इन महापातकोंसे छुटकारा मिला है । मुनीश्वर ! आपके उपदेशसे मेंरा संताप दूर हो गया और सम्पूर्ण पाप भी तुरंत नष्ट हो गये । मुने ! आपने मेंरे ऊपर जो भगवान्का चरणोदक छिड़का है, उसके प्रभावसे आज मुझे आपने भगवान् विष्णुके परम पदको पहुँचा दिया । विप्रवर ! आपके द्वारा इस पापमय शरीरसे मेंरा उद्धार हो गया; इसलिये मैं आपके चरणोंमें मस्तक नवाता हूँ । विद्वन् ! मेंरे किये हुए अपराधको आप क्षमा करें । ऐसा कहकर उसने मुनिवर उत्तङ्कपर दिव्य पुष्पोंकी वर्षा की और विमानसे उतरकर तीन बार परिक्रमा करके उन्हें नमस्कार किया । तदनन्तर पुनः उस दिव्य विमानपर चढ़्कर गुलिक भगवान् विष्णुके धामको चला गया । यह सब प्रत्यक्ष देखकर तपोनिधि उत्तङ्कजी बड़े विस्मयमें पड़े और उन्होंने सिरपर अञ्जलि रखकर लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुका स्तवन किया। उनके द्वारा स्तुति करनेपर भगवान् महाविष्णुने उन्हें उत्तम वर दिया और उस वरसे उत्तङ्कजी भी परम पदको प्राप्त हो गये ।
अध्याय ३५ उत्तंगके द्धारा भगवान विष्णु की स्तुति, भगवानकी आज्ञासे उनका नारायणाश्रममें जाकर मुक्त होना
नारदजीने पूछा- महाभाग ! वह कौन-सा स्तोत्र था और उसके द्वारा भगवान विष्णु किस प्रकार संतुस्त हुए ? पुण्यात्मा पुरुष उतंकजीने भगवानसे कैसा वर प्राप्त किया ?
श्रीसनकजीने कहा— भगवान् विष्णुके ध्यानमें तत्पर रहनेवाले विप्रवर उत्तङ्कने उस समय भगवान्के चरणोदकका माहात्म्य देखकर उनकी भक्तिभावसे स्तुति की ।
उत्तङ्कजी बोले— जो सम्पूर्ण जगत्के निवासस्थान और उसके एकमात्र बन्धु हैं, उन आदिदेव भगवान् नारायणको मैं नमस्कार करता हूँ । जो स्मरण करनेमात्रसे भक्तजनोंकी सारी पीड़ा नष्ट कर देते हैं, अपने हाथोंमें चक्र, कमल, शार्ङ्रधनुष और खङ धारण करनेवाले उन महाविष्णुकी मैं शरण लेता हूँ । जिनकी नाभिसे प्रकट हुए कमलसे उत्पन्न होकर ब्रह्माजी इन सम्पूर्ण लोकोंके समुदायकी सृष्टि करते हैं और जिनके क्रोधसे प्रकट हुए भगवात् रुद्र इस जगत्का संहार किया करते हैं, उन आदिदेव भगवान् विष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ । जो लक्ष्मीजीके पति हैं, जिनके कमलदलके समान विशाल नेत्र हैं, जिनकी शक्ति अद्भुत है, जो सम्पूर्ण जगत्के एकमात्र कारण तथा वेदान्तवेद्या पुराणपुरुष हैं, । जो सबके आत्मा, अविनाशी और सर्वव्यापी हैं, जिनका नाम अच्युत है, जो ज्ञानस्वरूप तथा ज्ञानियोंको शरण देनेवाले हैं, एकमात्र ज्ञानसे ही जिनके तत्त्वका बोध होता है, जिनका कोई आदि नहीं है, यह व्यष्टि और समष्टि जगत् जिनका ही स्वरूप है, वे भगवान् विष्णु मुझपर प्रसन्न हो । जिनके बल और पराक्रमका अन्त नहीं है, जो गुण और जातिसे हीन तथा गुणस्वरूप हैं, ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ, नित्य तथा शर्णागतोंकी पीड़ा दूर करनेवाले हैं, वे दयासागर परमात्मा मुझे वर प्रदान करें । जो स्थूल और सूक्ष्म आदि विशेष भेदोंसे युक्त जगत्की यथायोग्य रचाना करके अपने बनाये हुए उस जगत्में स्वयं ही अन्तर्यामीरूपसे प्रविष्ट हुए हैं, वह परमेंश्वर आप ही हैं । हे अनन्त शक्ति—सम्पन्न परमात्मन् ! वह सब जगत् आप ही हैं; क्योंकि अपसे भिन्न दूसरी कोई वस्तु नहीं है । भगवन् ! आपका जो शुद्ध स्वरूप है वह इन्द्रियातीत, मायाशून्य, गुण और जाति आदिसे रहित, निरञ्जन, निर्मल और अप्रमेंय है । ज्ञानी संत—महात्मा उस परमार्थस्वरूपका दर्शन करते हैं । जैसे एक ही सुवर्णसे अनेक आभूषण बनते हैं और उपाधिके भेदसे उनके नाम और रूपमें भेद हो जाता है, उसी प्रकार सबके आत्मस्वरूप एक ही सर्वेश्वर उपाधि—भेदसे मानो भिन्न—भिन्न रूपोंमें दृष्टिगोचर होते हैं । जिनकी मायासे मोहित चित्तवाले अज्ञानी पुरुष आत्मारूपसे प्रसिद्ध होते हुए भी उनका दर्शन नहीं कर पाते और मायासे रहित होनेपर वे ही उन सर्वात्मा परमेंश्वरको अपने ही आत्माके रुपमें देखने लगते हैं, जो सर्वत्र व्यापक, ज्योतिः—स्वरूप तथा उपमारहित हैं, उन विष्णुभगवान्को मैं प्रणाम करता हूँ । यहा सारा जगत् जिनसे प्रकट हुआ है, जिनके ही आधारपर स्थित है और जिनसे ही इसे चेतनता प्राप्त हुई है और जिनका ही यह स्वरूप है, उनको नमस्कार है । जो प्रमाणकी पहुँचसे परे हैं, जिनका दूसरा कोई आधार नहीं है, जो स्वयं ही आधार और आधेयरूपा हैं, उन परमानन्दमय चैतन्यस्वरूप भगवान् वासुदेवको मैं नमस्कार करता हूँ । सबकी हृदयगुहामें जिनका निवास है, जो देवस्वरुप तथा योगियोंद्वाराअ सेवित हैं और प्रणवमें उसके अर्थ एवं अधिदेवतारूपमें जिनकी स्थिति है, उन योगमार्गके आदिकारण परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ । जो नादस्वरूप, नादके बीज, प्रणवरूप, सत्स्वरूप अविनाशी तथा सच्चिदानन्दमय हैं, उन तीक्ष्ण चक्र धारण करनेवाले भगवान् विष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ । जो जरा आदिसे रहित, इस जगत्के साक्षी, मन—वाणीके अगोचर, जिरञ्जन तथा अनन्त नामसे प्रसिद्ध हैं, उन विष्णुरूप भगवान्को मैं प्रणाम करता हूँ । इन्द्रिय, मन, बुद्धि, सत्त्व, तेज, बल, धृति, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ—इन सबको भगवान् वासुदेवका स्वरूप कहा गया है । विद्या और अविद्या भी उन्हींके रूप हैं । वे ही परात्पर परमात्मा कहे गये हैं । जिनका आदि और अन्त नहीं है तथा जो सबका धारण—पोषण करनेवाले हैं, उन शान्तस्वरूप भगवान् अच्युतकी जो महात्मा शरण लेते हैं, उन्हें सनातन मोक्ष प्राप्त होता है । जो श्रेष्ठ, वरण करनेयोग्य़, वरदाता, पुराण, पुरुष, सनातन, सर्वगत तथा सर्वस्वरूप हैं, उन भगवान्को मैं पुनः प्रणाम करता हूँ, पुन: प्रणाम करता हूँ, पुनः प्रणाम करता हूँ, पुन: प्रणाम करता हूँ । जिनका चरणोदक संसाररूपी रोगको दूर करनेवाला वैद्य है, जिनके चरणोंकी धूल निर्मलता (अन्तः—शुद्धि) का साधन है तथा जिनका नाम समस्त पापोंका निवारण करनेवाला है, उन अप्रमेंय पुरुष श्रीहरिकी मैं आराधना करता हूँ । जो सद्रूप, असद्रूप, सद्सद्रूप और उन सबसे विलक्षण हैं तथा जो श्रेष्ठ एवं श्रेष्ठसे भी श्रेष्ठतर हैं, उन अविवाशी भगवान् विष्णुका मैं भजन करता हूँ ।जो निरञ्जन, निराकार, सर्वत्र परिपूर्ण परमव्योममें विराजमान, विद्या और अविद्यासे परे तथा ह्रदयकमलमें अन्तर्यामीरूपसे निवास करनेवाले हैं, जो स्वयंप्रकाश, अनिर्देश्य (जाति, गुण और क्रिया आदिसे रहित), महानसे भी परम महान्, सूक्ष्मसे भी अत्यन्त सूक्ष्म, अजन्मा, सब प्रकारकी उपाधियोंसे रहित, नित्य, परमानन्द और सनातन परब्रह्म हैं, उन जगन्निवास भगवान् विष्णुकी मै शरण लेता हूँ, योगीजन समाधिमें जिनका भजन करते है, योगीजन समाधिमें जिनका दर्शन करते हैं तथा जो पूज्यसे भी परम पूज्य एवं शान्त हैं, उन भगवान् श्रीहरिकी मैं शरण लेता हूँ । विद्वान पुरुष भी जिन्हें देख नहीं पाते, जो इस सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त करके स्थित और सबसे श्रेष्ठ हैं, उन नित्य अविनाशी विभुको मैं प्रणाम करता हूँ । अन्तः करणके संयोगसे जिन्हें जीव कहा जाता है अविद्या भी उन्हींके रूप हैं । वे ही परात्पर परमात्मा कहे गये हैं । जिनका आदि और अन्त नहीं है तथाअ जो सबका धारण—पोषण करनेवाले हैं, उन शान्तस्वरूप भगवान् अच्युतकीजो महात्मा शरण लेते हैं, उन्हें सनातन मोक्ष प्राप्त होता है । जो श्रेष्ठ, वरण करनेयोग्य़, वरदाता, पुराण, पुरुष, सनातन, सर्वगत तथा सर्वस्वरूप हैं, उन भगवानूको मैं पुनः प्रणाम करता हूँ, पुनः प्रणाम करता हूँ पुनः प्रणाम करता हूँ, पुन: प्रणाम करता हूँ । जिनका चरणोदक संसाररूपी रोगको दूर करनेवाला वैद्य है, जिनके चर्णोंकी धूल निर्मलता (अन्तः—शुद्धि) का साधन है तथा जिनक नाम समस्त पापोंका निवारण करनेवाला है, उन अप्रमेंय़ पुरुष श्रीहरिकी मैं आराधना करता हूँ । जो सद्रूप, असद्रूप, सदसद्रूप और उन सबसे विलक्षण हैं तथा जो श्रेष्ठ एवं श्रेष्ठसे भी श्रेष्ठतर हैं, उन अविनाशी भगवान् विष्णुका मैं भजन करता हूँ । जो निरञ्जन, निराकार , सर्वत्र परिपूर्ण परमव्योममें विराजमान, विद्या और अविद्यासे परे तथा ह्रदयकमलमें अन्तर्यामीरूपसे निवास करनेवाले हैं, जो स्वयंप्रकाश, अनिर्देश्य (जाति, गुण और क्रिया आदिसे रहित), महान्से भी परम महान्, सूक्ष्मसे भी अत्यन्त सूक्ष्म, अजन्मा, सब प्रकारकी उपाधियोंसे रहित, नित्य, परमानन्द और सनातन परब्रह्म हैं, उन जगन्निवास भगवान विष्णुकी मैं शरण लेता हूँ । क्रियानिष्ठ भक्त जिनका दर्शन करते हैं तथा जो पूज्यसे भी परम पूज्य एवं शान्त हैं, उन भगवान् श्रीहरिकी मैं शरण लेता हूँ । विद्वान् पुरुष भी जिन्हें देख नहीं पाते, जो इस सम्पूर्ण जगत्के व्याप्त करके स्थित और सबसे श्रेष्ठ हैं, उन नित्य अविनाशी विष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ । अन्तःकरणके संयोगसे जिन्हें जीव कहा जाता है और अविद्याके कार्यसे रहित होनेपर जो परमात्मा कहलाते हैं, यह सम्पूर्ण जगत् जिनका स्वरूप है, जो सबके कारण, समस्त कर्मोंके फलदाता, श्रेष्ठ, वरण करनेयोग्य तथा अजन्मा हैं, उन परात्पर भगवान्को मैं प्रणाम करता हूँ । जो सर्वज्ञ, सर्वगत, सर्वान्तर्यामी, ज्ञानके आश्रय तथा ज्ञानमें स्थित हैं, उन सर्वव्यापी श्रीहरिका मैं भजन करता हूँ । जो वेदोंके निधि हैं, वेदान्तके विज्ञानद्वारा जिनके परमार्थस्वरूपका भलीभाँति निश्चय होता है, सूर्य और चन्द्रमाके तुल्य जिनके प्रकाशमान नेत्र हैं, जो ऐश्वर्यशाली इन्द्ररूप हैं, आकाशमें विचरनेवाले पक्षी एवं ग्रह—नक्षत्र आदि जिनके स्वरूप हैं तथा जो खगपति (गरुड़)—स्वरूप हैं, उन भगवान् मुरारिको मैं प्रणाम करता हूँ । जो सबके ईश्वर, सबमें व्यापक, महान् वेदस्वरूप, वेद—वेत्ताओंमें श्रेष्ठ, वाणी और मनकी पहुँचसे परे, अनन्त शक्तिसम्पन्न तथा एकमात्र ज्ञानके ही द्वारा जाननेयोग्य़ हैं, उन परम पुरुष श्रीहरिका मैं भजन करता हूँ । जिनकी सत्ता सर्वत्र परिपूर्ण है, जो इन्द्र, अग्रि, यम, निऋति, वरुण, वायु, सोम, ईशान, सुर्य तथा पुरन्दर आदिके द्वारा स्वयं ही सब लोकोंकी रक्षा करते हैं, उन अप्रमेंय परमेंश्वरकी मैं शरण लेता हूँ । जिनके सहस्त्रों मस्तक, सहस्त्रों पैर, सहस्त्रों भुजाएँ और सहस्त्रों नेत्र हैं, जो सम्पूर्ण यज्ञोंसे सेवित तथा सबको संतोष प्रदान करनेवाले हैं, उन उग्रशक्तिसम्पन्न आदिपुरुष श्रीहरिको मैं प्रणाम करता हूँ । जो कालस्वरूप, काल—विभागके हेतु, तीनों गुणोंसे अतीत, गुणज्ञ, गुणप्रिय, कामना पूर्ण करनेवाले, निरीह, श्रेष्ठ, मनके द्वारा भी अगम्य, मनोमय और अन्नमय स्वरूप, सबमें व्याप्त, विज्ञानसे सम्पन्न तथा शक्तिशाली हैं, जो वाणीके विषय नहीं हो सकते तथा जो सबके प्राणस्वरूप हैं, उन भगवान्का मैं भजन करता हूँ । जिनके रूपको, जिनके बल और और प्रभावको, जिनके विविधा कर्मोंको तथा जिनके प्रमाणको ब्रह्या आदि देवता भी नहीं जानते, उन आत्मस्वरूप श्रीहरिकी स्तुति मैं कैसे कर सकता हूँ ? मैं संसार—समुद्रमें गिरा हुआ एक दीन मनुष्य हूँ, मोहसे व्याकुल हूँ, सैकड़ों कामनाओंने मुझे बाँध रखा है । मैं अकीर्तिभागी, चुगला, कृतघ्र, सदा अपवित्र, पापपरायाण तथा अत्यन्त क्रोधी हूँ । दयासागर ! मुझ भयभीतकी रक्षा कीजिये । मैं बार—बार आपकी शरण लेता हूँ।
महर्षि उत्तङ्के द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जानेपर परम दयालू तथा तेजोनिधि भगवान् लक्ष्मीपतिने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया । उनके श्रीअङ्गोकी कान्ति अलसीके फूलकी भाँति श्याम थी । दोनों नेत्र खिले हुए कमलकी शोभा धारण करते थे । मस्तकपर किरीट, दोनों कानोंमें कुण्डल, गलेमें हार और भुजाओंमें केयूरकी अपूर्व शोभा हो रही थी । उन्होंने वक्ष: स्थलपर श्रीवत्सचिह्र और कोस्तुभमणि धारण कर रखी थी । सुवर्णमय यज्ञोपवीत उनके बायें कंधेपर सुशोभित हो रहा था । नाकमें पहनी हुई मुक्तामणिकी प्रभासे उनके श्रीअङ्गोकी श्याम कान्ति और बढ गयी थी । वे श्रीनारायणदेव पीताम्बर धारण करके वनमालासे विभूषित हो रहे थे । तुलसीके कोमल दलोंसे उनके चरणारविन्दोंकी अर्चना की गयी थी । उनके श्रीविग्रहका महान् प्रकाश सब ओर छा रहा था । कटिप्रदेशमें किंकिणी और चरणोंमें नूपुर आदि आभूषण उनकी शोभा बढ़ा रहे थे । उनकी फहराती हुई ध्वजामें गरुड़का चिह्ल सुशोभित था । इस रूपमें भगवान्का दर्शन करके विप्रवर उत्तङ्कने पृथ्वीपर दण्डकी भाँति पड़्कर उन्हें साष्टाङ प्रणाम किया और आनन्दके आँसुओंसे श्रीहरिके दोनों चरणोंको नहला दिया । फिर वे एकाग्रचित्त होकर बोले— ‘मुरारे ! मेंरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ।’ तब परम दयाअलु भगवान् महाविष्णुने मुनिश्रेष्ठ उत्तङ्कको उठाकर छातीसे लगा लिया और कहा—’ वत्स ! कोई वर माँगो । साधुशिरोमणे ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, अतः तुम्हारे लिये कुछ भी असम्भव नहीं है ।’ भगवान् चक्रपाणिके इस कथनको सुनकर महार्षि उत्तङ्कने पुन: प्रणाम किया और उन देवाधिदेव जनार्दनसे इस प्रकार कहा—’भगवन् ! मुझे मोहमेंं क्यों डालते हैं? देव ! मुझे दूसरे वरोंसे क्या प्रयोजन है ? मेंरी तो जन्म—जन्मान्तरोंमें भी आपके चरणोंमें ही अविचल भक्ति बनी रहे ।’ तब जगदीश्वर भगवान् विष्णुने ’एवमस्तु’ (ऐसा ही होगा) यह कहकर शङ्खके सिरेसे उत्तङ्कजीके शरीरका स्पर्श कराया और उन्हें वह दिव्य ज्ञान दे दिया जो योगियोंके लिये भी दुर्लभ है। तदनन्तर पुन: स्तुति करते हुए विप्रवर उत्तङ्कसे देवदेव जनार्दनने उनके सिरपर हाथ रखकर मुसकराते हुए कहा ।
श्रीभगवान् बोले— जो मनुष्य तुम्हारे द्वारा किये हुए स्तोत्रका सदा पाठ करेगा, वह सम्पूर्ण कामनाओंको पाप्त करके अन्तमें मोक्षका भागी होगा ।
नारदजी ! ब्राह्मणसे ऐसा कहकर भगवान् लक्ष्मीपति वहीं अन्तर्धान हो गये । फिर उत्तङ्कजी भी वहाँसे बदरिकाश्रमको चले गये । अतः सदा देवाधिदेव भगवान् विष्णुकी भक्ति करनी चाहिये । हरिभक्ति श्रेष्ठ कही गयी है । वह सम्पूर्ण मनोवाञ्छत फलोंको देनेवाली है । मुने ! नरनारायणके आश्रममेंं जाकर उत्तङ्कजी क्रियायोगमेंं तत्पर हो प्रतिदिना भक्तिभावसे भगवान् माधवकी आराधान करने लगे । वे ज्ञान—विज्ञानसे सम्पन्न थे । उनका द्वैतभ्रम नाश हो चुका था । अतः उन्होंने भगवान् विष्णुके दुर्लभ परम पदको प्राप्त्कर लिया । भक्तोंकाअ सम्मान बढ़ानेवाले जगदीश्वर भगवान् नारायण पूजन, नमस्कार अथवा स्मरण कर लेनेपर भी जीवको मोक्ष प्रदान करते हैं । अतः इहलोक और परलोकमें सुख चाहनेवाला मनुष्य अनन्त, अपराजित श्रीनारायणदेवका भक्तिपूर्वक पूजन करे । जो इस उपाख्यानको पढ़्ता अथवा एकाग्रचित्त होकरा सुनता है, वह भी सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके धाममें जाता है ।
अध्याय ३६ भगवान विष्णुके भजन पूजनकी महिमा
श्रीसनकजी कहते हैं— विप्रवर नारद ! अब पुनः भगवान् विष्णुका माहात्म्य सुनो; वह सर्व—पापहारी, पवित्र तथा मनुष्योंको भोग और मोक्षा देनेवाल है । अहो ! संसारमे भगवान् विष्णुकी कथा अद्भुत है । वह श्रोता, वक्ता तथा विशेषत: भक्तजनोंके पापोंका नाश और पुण्यका सम्पादन करनेवाली है । जो श्रेष्ठ मानव भगवद्भक्तिका रसास्वादन करके प्रसन्न होते हैं, उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ । उनका संग करनेसे साधारण मनुष्य भी मोक्षका भागी होता है । मुनिश्रेष्ठ ! जो संसार—सागारके पार जाना चाहता हो, वह भगवद्भक्तोंके भक्तोंकी सेवा करे, क्योंकि वे सब पापोंको हर लेनेवाले हैं । दर्शन, स्मरण, पूजन, ध्यान अथवा प्रणाममात्र कर लेनेपर भगवान् गोविन्द दुस्तर भवसागरसे उद्धार कर देते हैं । जो सोते, खाते, चलते, ठहरते, उठते और बोलेते हुए भी भगवान् विष्णुके नामका चिन्तन करता, है, उसे प्रतिदिन बारम्बार नमस्कार है । जिनका मन भगवान् विष्णुकी भक्तिमें अनुरक्त है, उनका अहोभाग्य है, अहोभाग्य है; क्योंकि योगियोंके लिये भी दुर्लभ मुक्ति उन भक्तोंके हाथमें ही रहती है ।
विप्रवर नारद ! जानकर या बिना जाने भी जो लोग भगवानकी पूजा करते हैं, उन्हें अविनाशी भगवान् नारायण अवश्य मोक्ष देते हैं । सब भाई—बन्धु अनित्य हैं । धन—वैभाव भी सदा रहनेवाला नहीं है और मृत्यु सदा समीप खड़ी रहतो है—यहा सोचकरा धर्मका संचय करना चाहिये ।मूर्खलोग मदसे उन्मत्त होकर व्यर्थ गर्व करते हैं । जब शरीरका ही विनाश निकट है तो धन आदिकी तो बात ही क्या कही जाय ? तुलसीकी सेवा दुर्लभ है, साधु पुरुषोंका सङ दुर्लभ हैं और सम्पूर्ण भूतोंके प्रति दयाभाव भी किसी विरलेको ही सुलभ होता है । सत्संग तुलसीकी सेवा तथा भगवान् विष्णुकी भक्ति—ये सभी दुर्लभ हैं । दुर्लभ मनुष्य—शरीरको पाकर विद्वान् पुरुष उस व्यर्थ न गँवाये । जगदीश्वर श्रीहरिकी पूजा करे । द्विजोत्तम ! इस संसारमें यही सार है । मनुष्य यदि दुस्तर भवसागरके पार जाना चाहता है तो वह भगवानके भजनमें तत्पर हो जाय । यही रसायन है । भैया ! भगवान् गोविन्दका आश्रय लो । प्रिय मित्र ! इस कार्यमें विलम्ब न करो; क्योंकि यमराजका नगर निकट ही है । जो महात्मा पुरुष सबके आधार, सम्पूर्ण जगत्के कारण तथा समस्त प्राणियोंके अन्तर्यामी भगवान् विष्णुकी शरण ले चुके हैं, वे निस्संदेह कृतार्थ हो गये हैं । जो लोग प्रणतजनोंकी पीड़ाका नाश करनेवाले भगवान् महाविष्णुकी पूजा करते हैं, वे वन्दनीय हैं । जो विष्णुभक्त पुरुष निष्कामभावसे परमेंश्वर श्रीहरिका यजन करते हैं, वे इक्कीस पीढ़ियोंके साथ वैकुण्ठधाममें जाते हैं । जो कुछ भी न चाहनेवाले महात्मा भगवद्भक्तको जल अथवा फल देते हैं, वे हि भगवान्के प्रेमी हैं । जो कामनारहित होकर भगवान् विष्णुके भक्तों तथा भगवान् विष्णुक भी पूजन करते हैं, वे ही अपने चरणोंकी धूलसे सम्पूर्ण विश्वको पवित्र करते हैं । जिकसे घरमें सदा भगवत्पूजापरायण पुरुष निवास करता है, वहीं सम्पूर्ण देवता तथा साक्षात् श्रीहरि विराजमान होते हैं । ब्रह्मन् ! जिकसे घरमें तुलसी पूजित होती हैं, वहाँ प्रतिदिन सब प्रकारके श्रेयकी वृद्धि होती है । जहाँ शालग्रामशिलारूपमें भगवान् केशव निवास करते हैं, वहाँ भूत, वेताल आदि ग्रह बाधा नहीं पहुँचाते। जहाँ शालग्रामशिला विद्यमान है, वह स्थान तीर्थ है, तपोवन है, क्योंकि शालग्रामशिलामें साक्षात भगवान् मधुसूदन निवास करते हैं । ब्रह्मन् ! पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र तथा छः अङ्गोसहित बेद—ये सब भगवान् विष्णुके स्वरूप कहे गये हैं । जो भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णुकी चार बार परिक्रमा कर लेते हैं, वे भी उस परम पदको प्राप्त होते हैं, जहाँ समस्त कर्मबन्धनोंका नाश हो जाता है ।
अध्याय ३७ इन्द्र तथा सुधर्मका संवाद, विभिन्न मनवनतरोके इंद्र और देवताओंका वर्णन, भागवद्भजनका माहात्म्य
श्रीसनकजी कह्ते हैं— मुने ! इसके बाद मैं भगवान् विष्णुकी विभूतिस्वरूप मनु और इन्द्र आदिका वर्णन करूँगा । इस वैष्णवी विभूतिका श्रवण अथवा कीर्तन करनेवाले पुरुषोंका पाप तत्काल नष्ट हो जाता है।
एक समय वैवस्वत मन्वन्तरके इन्द्र सुधर्मके निवास—स्थानपर गये । देवर्षे ! बृहस्पतिजीके साथ देवराजको आया देख सुधर्मने आदरपूर्वक उनकी यथायोग्य पूजा की । सुधर्मसे पूजित हो इन्द्रने विनयपूर्वक कहा ।
इन्द्र बोले— विद्वन् ! यदि आप बीते हुए ब्रह्मकल्पका वृत्तान्त जानते हैं तो बताइये । मैं यही पूछनेके लिये गुरुजीके साथ आया हूँ । देवराज इन्द्रके ऐसा कहनेपर सुधर्म हँस पड़ा और उसने विनयपूर्वक पूर्वकल्पकी सब बातोंका विधिवत् वर्णन किया ।
सुधर्मने कहा—इन्द्र ! एक सहस्त्र चतुर्युगीका ब्रह्माजीका एक दिन होता है और उनके एक दिनमें चौदह मनु, चौदह इन्द्र तथा पृथक्—पृथक अनेक प्रकारके देवता हुआ करते हैं । वासव ! सभी इन्द्र और मनु आदि तेज, लक्ष्मी, प्रभाव और बलमें समान ही होते हैं । मैं उन सबके नाम बतलाता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो । सबसे पहले स्वायम्भुव मनु हुए । तदनन्तर क्रमश: स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, सातवें वैवस्तत मनु, आठवें सूर्यसावर्णि और नवें दक्षसावर्णि हैं । दसवें मनुका नाम ब्रह्यसावर्णि और ग्यारहवेंका धर्मसावर्णि है । तदनन्तर बारहर्वे रुद्रसावर्णि तथा तेरहवें रोचमान हुए । चौदहवें मनुका नाम भौत्य बताया गया है । ये चौदह मनु हैं ।
देवराज ! अब मैं देवताओं और इन्द्रोंका वर्णन करता हूँ, सुनो । स्वयम्भू मन्वन्तरमें देवतालोग यामके नामसे विख्यात थे । उनके परम बुद्धिमान् इन्द्रकी शचीपति नामसे प्रसिद्धि थी । स्वारोचिष मन्वन्तरमें पारावत और तृषित नामके देवता थे । उनके स्वामी इन्द्रका नाम विपश्चित था । वे सब प्रकारकी सम्पदाओंसे समृद्ध थे । तीसरे उत्तम नामक मन्वन्तरमें सुधामा, सत्य, शिव तथा प्रतर्दन नामवाले देवता थे । उनके इन्द्र सुशानि नामसे प्रसिद्ध थे । चौथे तामस मन्वन्तरमें सुपार, हरि, सत्य और सुधी—ये देवता हुए थे । शक्र ! उन देवताओंके इन्द्रका नाम उस समय शिबि था । पाँचवें (रैवत) मन्वन्तरमें अमिताभ आदि देवता थे और पाँचवें देवराजका नाम विभु कहा गया है । छठे (चाक्षुष) मन्वन्तरमें आर्य आदि देवता बताये गये हैं । उन सबके इन्द्रका नाम मनोजव था । इस सातवें वैवस्वत मन्वन्तरमें आदित्य, वसु तथा रुद्र आदि देवता हैं और सम्पूर्ण भोगोंसे सम्पन्न आप ही इन्द्र हैं । आपका विशेष नाम पुरन्दर बताया गया है । आठवें सूर्यसावर्णि मन्वन्तरमें अप्रमेंय तथा सुतप आदि होनेवाले देवता बताये जाते हैं । भगवान् विष्णुकी आराधनाके प्रभावसे राजा बलि उनके इन्द्र होगे । नवें दक्षसावर्णि मन्वन्तरमें पार आदि देवता होगे और उनके इन्द्रका नाम अद्भुत बताया जाता है । दसवें ब्रह्मसावर्णि मन्वन्तरमें सुवासन आदि देवता कहे गये हैं । उनके इन्द्रका नाम शान्ति होगा । ग्यारगवें धर्मसावर्णि मन्वन्तरमें विहङम आदि देवता होगे और उनके इन्द्र वृष नामसे प्रसिद्ध होगे । बारहवें रुद्रसावर्णि मन्वन्तरमें हरित आदि देवता तथा ऋतुधामा नामवाले इन्द्र होगे । तेरहवें रोचमान या रौच्य नामक मन्वन्तरमें सुत्रामा आदि देवता होगे । उनके महापराक्रमी इन्द्रका नाम दिवस्पति कहा जाता है । चौदहवें भौत्य मन्वन्तरमें चाक्षुष आदि देवता होगे और उनके इन्द्रकी शुचि नामसे प्रसिद्धि होगी । देवराज ! इस प्रकार मैंने भूत और भविष्य मनु, इन्द्र तथा देवताओंका तथार्थ वर्णन किया है । ये सब ब्रह्माजीके एक दिनमें अपने अधिकारका उपभोग करते हैं । सम्पूर्ण लोकों तथा सभी स्वर्गोंमें एक ही तरहकी सृष्टि कही गयी है । उस सृष्टिके विधाता बहुत हैं । उनकी संख्या यहाँ कोन जानता है? देवराज ! मेंरे ब्रह्मलोकमें रह्ते समय बहुत—से ब्रह्मा आये और चले गये । आज मैं उनकी संख्या बतानेमें असमर्थ हूँ । इस स्वर्गलोकमें आकर भी मेंरा जितना समय बीता है, उसको सुनो— ’अबतक चार मनु बीत गये, किंतु मेंरी समृद्धिका विस्तार बढ़ता ही गया । प्रभो ! अभी मुझे सौ करोड़ा युगोंतक यहीं रहना है । तत्पश्चात् मैं कर्मभूमिको जाऊँगा ।’ महात्मा सुधर्मके ऐसा कहनेपर देवराज मन—ही—मन बड़े प्रसन्न हुए और निरन्तर भगवान् विष्णुकी आराधनामें लग गये । यद्यपि देवतालोग स्वर्गका सुख भोगते हैं तथापि वे सब इस भारतवर्षमें जन्म पानेके लिये लालायित रहते हैं । जो भगवान् नारायणकी पूजा करते हैं, उन महात्माओंकी पूजा सदा ब्रह्म आदि देवता किया करते हैं । जो महात्मा सब प्रकारके संग्रह—परिग्रहका त्याग करके निरन्तर भगवान् नारायणके चिन्तनमें लगे रह्ते हैं, उन्हें भयङ्कर संसारका बन्धन कैसे प्राप्त हो सकता है? यदि कोई उन महापुरुषोंके सङका लोभ रखते हैं तो वे भी मोक्षके भागी हो जाते हैं । जो मानव प्रतिदिन सब प्रकारकी आसक्तियोंका त्याग करके गरुड़वाहन भगवान् नारायणकी अर्चना करते हैं, वे सम्पूर्ण पापराशियोंसे सर्वथा मुक्त होकर हर्षपूर्ण हृदयसे भगवान् विष्णुके कल्याणमय पदको प्राप्त होते हैं । जो मनुष्य आसक्तिरहित तथा पर—अवर (उत्तम—मध्यम, शुभ—अशुभ)—के ज्ञाता हैं और निरन्तर देवगुरु भगवान् नारायणका चिन्तन करते रह्ते हैं, उस ध्यानसे उनके अन्त: करणकी सारी पापराशि नष्ट हो जाती है और वे फिर कभी माताके स्तनोंका दूध नहीं पीते । जो मानव भगवान्की कथा श्रवण करके अपने समस्त दोष—दुर्गुण दूर कर चुके हैं और जिनका चित्त भगवान् श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंकी आराधनामें अनुरक्त है, वे अपने शरीरके सङ अथवा सम्भाषणसे भी संसारको पवित्र करते हैं, अतः सदा श्रीहरिकी ही पूजा करनी चाहिये । ब्रह्मन् ! जैसे नीचि भूमिमेंं इधर—उधरका सारा जल (सिमट—सिमटकर) एकत्र हो जाता है, उसी प्रकार जहाँ भगवत्पूजापरायण शुद्धचित्त महापुरुष रहते हैं, वहीं सम्पूर्ण कल्याणका वास होता है । भगवान् विष्णु हि सबसे श्रेष्ठ बन्धु हैं । वे ही सर्वोत्तम गति हैं । अतः उन्हींकी निरन्तर पूजा करनी चाहिये, क्योंकि वे ही सबकी चेतनाके कारण हैं । मुनिश्रेष्ठ ! तुम स्वर्ग और मोक्षफलके दाता सदानन्दस्वरूप निरामय भगवान् श्रीहरिकी पूजा करो । इससे तुम्हें परम कल्याणकी प्राप्ति होगी ।
अध्याय ३८ चारों युगोंकी स्थितिका संक्षेपसे तथा कलिधर्मका विस्तारसे वर्णन, भगवान्नामकी अद्भुत महिमाका प्रतिपादन
नारदजीने कहा— मुने ! आप तात्त्विक अर्थोंके ज्ञानमें निपुण हैं। अब मैं युगोंकी स्थितिका परिचय सुनना चाहता हूँ।
श्रीसनकजीने कहा— महाप्राज्ञ ! साधुवाद, तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है । मुने ! तुम सम्पूर्ण लोकोंका उपकार करनेवाले हो । अच्छा, अब मैं समस्त जगत्के लिये उपकारी युग—धर्मका वर्णन आरम्भ करता हूँ । किसी समय तो पृथ्वीपर उत्तम धर्मकी वृद्धि होती है और किसी समय वही विनाशको प्राप्त होने लगता है । साधुशिरोमणे ! सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग—ये चार युग माने गये हैं; इनकी आयु बारह हजार दिव्य वर्षोकी समझनी चाहिये । वे चारों युग उतने ही सौ वर्षोंकी संध्या और संध्यांशसे युक्त होते हैं । इनकी कला—संख्या सदा एक—सी ही जाननी चाहिये । पहले युगको सत्ययुग कहते हैं, दूसरेका नाम त्रेता है, तीसरेका नाम द्वापर है और अन्तिम युगको कलियुग कहते हैं । इसी क्रमसे इनका आगमन होता है । विप्रवर ! सत्ययुगमें देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस तथा सर्पोंका भेद नहीं था । उस समय सब—के—सब देवताओंके समान स्वभाववाले थे । सब प्रसन्न और धर्मनिष्ठ थे । कृतयुगमें क्रय—विक्रयका व्यापार और वेदोंका विभाग नहीं था । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र—सभी अपने—अपने कर्तव्यके पालनमें तत्पर रहकर सदा भगवान् नाराय़णकी उपासना करते थे । सभी अपनी योग्यताके अनुसार तपस्या और ध्यानमें लगे रह्ते थे । उनमें काम, क्रोध आदि दोष नहीं थे । सब लोग शम—दम आदि सद्गुणोंमें तत्पर थे । सबका मन धर्मसाधनमें लगा रहता था । किसीमें ईर्ष्या तथा दूसरोंके दोष देखनेका स्वभाव नहीं था । सभी लोग दम्भ और पाखण्ड दूर रह्ते थे । सत्ययुगके सभी द्विज सत्यवादी, चारों आश्रमोंके धर्मका पालन करनेवाले, वेदाध्ययनसम्पन्न तथा सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञानमें निपुन थे । चारों आश्रमोंके अपने—अपने कर्मोंके द्वारा कामना और फलासक्तिका त्याग करके परम गतिको प्राप्त होते थे । सत्ययुगमें भगवान् नारायणका श्रीविग्रह अत्यन्त निर्मल एवं शुक्लवर्णका होता है । मुनिश्रेष्ठ ! त्रेतामें धर्म एक पाद्से हीन हो जाता है । (सत्ययुगकी अपेक्षा एक चौथाई कम लोग धर्मका पालन करते हैं ।) भगवान्के शरीरका वर्ण लाल हो जाता है । उस समय जनताको कुछ क्लेश भी होने लगता है । त्रेतामें सभी द्विज क्रियायोगमें तत्पर रह्ते हैं । जज्ञ—कर्ममें उनकी निष्ठा होती है । वे नियमपूर्वक सत्य बोलते, भगवान्का ध्यान करते, दान देते और न्याययुक्त प्रतिग्रह भी स्वीकार करते हैं । मुनीश्वर ! द्वापरमें धर्मके दो ही पैर रह जाते हैं । भगवान् विष्णुका वर्ण पीला हो जाता है और वेदके चार विभाग हो जाते हैं । द्विजोत्तम ! उस समय कोई—कोई असत्य भी बोलने लगते हैं । ब्राह्मण आदि वर्णोंमेंसे कुछ लोगोंमें राग—द्वेष आदि दुर्गुण आ जाते हैं । विप्रवर ! कुछ लोग स्वर्ग और अपवर्गके लिये यज्ञ करते हैं, कोई धनादिकी कामनाओंमें आसक्त हो जाते हैं और कुछ लोगोंका ह्रुदय पापसे मलिन हो जाता है । द्विजश्रेष्ठ ! द्वापरमें धर्म और अधर्म दोंनोंकी स्थिति समान होती है । अधर्मके प्रभावसे उस समयकी प्रजा क्षीण होने लगती है । मुनीश्वर ! कितने ही लोग दूसरोंको पुण्यमें तत्पर देखकर उनसे डाह करने लगेंगे । कलियुग आनेपर धर्मका एक ही पैर शेष रह जाता है । इस तामस युगके प्राप्त होनेपर भगवान् श्रीहरि श्याम रंगके हो जाते हैं । उसमें कोई बिरला ही धर्मात्मा यज्ञोंका अनुष्ठन करता है और कोई महान पुण्यात्मा ही क्रियायोगमें तत्पर रहता है । उस समय धर्मपरायण मनुष्यको देखकर सबलोग ईर्ष्या और निन्दा करते हैं । कलियुगए में व्रत और सदाचार नष्ट हो जाते हैं । ज्ञान और यज्ञ आदिकी भी यही दशा होती है । उस समय सधर्मका प्रचार होनेसे जगत्में उपद्रव होते रहते हैं । सब लोग दूसरोंके दोष बतानेवाले और स्वयं पाखण्डपूर्ण आचारमें तत्पर होते हैं ।
नारदजीने कहा— मुने ! आपने संक्षेपसे ही युगधर्मोंका वर्णन किया है, कृपया कलिका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये; क्योंकि आप धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ हैं । मुनिश्रेष्ठ ! कलियुगमेंं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्रोंका खान—पान और आचार—व्यवहार कैसा होगा ?
श्रीसनकजीने कहा— सब लोकोंका उपकार करनेवाले मुनिश्रेष्ठ ! सुनो, मैं कलि—धर्मोंका यथार्थ एवं विस्तारपूर्वक वर्णन करता हूँ । कलि बड़ा भयङ्कर युग है । उसमें सब प्रकारके पातकोंका सम्मिश्रण होता है अर्थात् पापोंकी बहुलता होनेके कारण एक पापमें दूसरा पाप शामिल हो जाता है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र धर्मसे मुँह मोड़ लेते हैं । घोर कलियुग प्राप्त होनेपर सभी द्विज वेदोंसे विमुख हो जाते हैं । सभी किसी—न—किसी बहानेसे धर्ममेंम लगते हैं । सब दूसरोंके दोष बताया करते हैं । सबका अन्त: करण व्यर्थ अहङ्कारसे दूषित होता है । पण्डित लोग भी सत्यसे दूर रहते हैं । ’मैं ही सबसे बड़ा हूँ’ इस प्रकार सभी परस्पर विवाद करते हैं । सब मनुष्य अधर्मम आसक्त और वितण्डावादी होते हैं । इन्हीं कारणोंसे कलियुगमें सब लोग स्वल्पायु होगे । ब्रह्मन् ! थोड़ी आयु होनेके कारण मनुष्य शास्त्रोंका अध्ययन नहीं कर सकेंगे और विद्याध्ययनशून्य होंगे । उनके द्वारा बार—बार अधर्मपूर्ण बर्ताव होता है । उस समयकी समस्त पापपरायण प्रजा अवस्था—क्रमके विपरीत मरने लगेगी । ब्राह्मण आदि सभी वर्णके लोगोंमें परस्पर संकरता आ जायगी । मूढ़ मनुष्य काम—क्रोधके वशीभूत हो व्यर्थके संतापसे पीड़ित होगे । कलियुगमें सब वर्णोंके लोग शूद्रके समान हो जायँगे । उत्तम नीच हो जायँगे और नीच उत्तम । शसकगण केवल धन—संग्रहमें लग जायँगे और अन्यायपूर्ण बर्ताव करेंगे । वे अधिक कर लगाकर प्रजाको पीड़ा देंगे । द्विज लोग शुद्रोंके मुर्दे ढोने लगेंगे और पति अपनी धर्मपत्नियोंके होते हुए भी व्यभिचारमें फँसकर परायी स्त्रियोंसे संगमन करेंगे । पुत्र पितासे और सारी स्त्रियाँ पतिसे द्वेष करेंगी । सब लोग परस्त्रीलम्पट और पराये धनमें आसक्त होगे । मछलीके मांससे जीवन—निर्वाह करेंगे और बकरी तथा भेड़्का भी दूध दुहेंगे । नारदजी ! घोर कलियुगमेंं सब मनुष्य पापपरायन हो जायँगे । सभी लोग श्रेष्ठ पुरुषोंमेंं दोष देखेंगे और उनका उपहास करेंगे । नदियोंके तटपर भी कुदालसे खोदकर अनाज बोयेंगे । पृथ्वी फलहीन हो जायगी । बीज और फूल भी नष्ट हो जायँगे । युवतियाँ प्राय: वेश्याओंके लावण्य और स्वभावको अपने लिये आदर्श मानकर उसकी अभिलाषा करेंगी । ब्राह्मण धर्म बेचनेवाले होगे, स्त्रियाँ अपना शरीर बेचेंगी अर्थात् वेश्यावृत्ति करेंगी तथा दूसरे द्विज वेदोंका विक्रय करनेवाले और शुद्रोंके—से आचरणमें तत्पर होगे । लोग श्रेष्ठ पुरुषोंऔर विधवाओंके भी धन चुरा लेंगे । ब्राह्मण धनके लिये लोलुप होकर व्रतोंका पालन नहीं करेंगे । लोग व्यर्थके वाद—विवादमें फँसकर धर्मका आचरण छोड़ बैठेंगे । द्विजलोग केवल दम्भके लिये पितरोंका श्राद्ध आदि कार्य करेंगे । नीच मनुष्य अपात्रोंको ही दान देंगे और केवल दूधके लोभसे गौओंसे प्रेम करेंगे । विप्रगण स्त्रान—शौच आदि क्रिया छोड़ देंगे । अधम द्विज असमयमें (मुख्यकाल बिताकर) संध्या आदि कर्म करेंगे । मनुष्य साधुओं तथा ब्राह्मणोंकी निन्दामें तत्पर रहेंगे ।
नारदजी ! प्राय: किसीका मन भगवान् विष्णुके भजनमें नहीं लगेगा । द्विजलोग यज्ञ नहीं करेंगे तथा दुष्ट राजकर्मचारी धनके लिये द्विजोंको भी पीटेंगे । मुने ! घोर कलियुगमें सब लोग दानसे मुँह मोड़ लेंगे और ब्राह्मण पतितोंका दिया हुआ दान भी ग्रहण कर लेंगे । कलिके प्रथम पादमें भी मनुष्य भगवान् विष्णुकी निन्दा करेंगे और युगके अन्तिम भागमें तो कोई भगवान्का नामतक नहीं लेगा । कलिमें द्विजलोग शूद्रोंकी स्त्रियोंसे संगम करेंगे, विधवाओंसे व्यभिचारके लिये ललायित होगे और शुद्रोंके घरकी बनी हुई रसोई भोजन करेंगे । वेदोक्त सन्मार्गका त्याग करके कुमार्गपर चलने लगेंगे और चारों आश्रमोंकी निन्दा करते हुए पाखण्डी हो जायँगे । शूद्रलोग द्विजोंकी सेवा नहीं करेंगे और पाखण्ड—चिह्न धारण करके वे द्विजातियोंके धर्मको अपनायेंगे । गेरुआ वस्त्र पहने, जटा बढ़ाये और शरीरमें भस्म रमाये शूद्रलोग झूठी युक्तियाँ देकर धर्मका उपदेश करेंगे । दूषित अन्तःकरणवाले शूद्र संन्यासी बनेंगे । मुने ! कलियुगमें लोग केवल सूदसे जीवना—निर्वाह करनेवाले होगे । धर्महीन अधम मनुष्य पाखण्डी, कापालिक एवं भिक्षु बनेंगे । द्विजश्रेष्ठ ! शूद्र ऊँचे आसनपर बैठकर द्विजोंको धर्मका उपदेश करेंगे । ये तथा और भी बहुत—से पाखण्डमत प्रचलित होगे, जो प्राय: वेदोंकी निन्दा करेंगे । कलिमें प्राय: धर्मके विध्वंसक मनुष्य गाने—बजानेमें कुशल तथा शूद्रोंके धर्मका आश्रय लेनेवाले होगे । सबके पास थोड़ा धन होगा । प्रायः सभी व्यर्थ्के चिह्ल धारण करनेचाले और वृथा अहंकारसे दूषित होगे कलिके नीच मनुष्य दूसरोंका धन ह्ड़पनेवाले होगे प्राय: सभी सदा दान लेंगे और उनका स्वभाव जगतको बुरे मार्गपर ले जानेवाला होगा । सभी अपनी प्रशंसा और दूसरोंकी निन्दा करनेवाले होगे । नारदजी ! कलियुगमें अधर्म ही लोगोंका भाई—बन्धु होगा । वे सब—के—सब विश्वासघाती, क्रूर और दयाधर्मसे शून्य होगे । विप्रवर ! घोर कलियुगमें बड़ी—से—बड़ी आयु सोलह बर्षकी होगी और पाँच वर्षकी कन्याके बच्चा पैदा होगा । लोग सात या आठ वर्षकी अवस्थामें जवाना कहलायेंगे । सभी धर्मयुक्त आजीविकाको भंग करनेवाले होगे । कलियुगमें द्विज प्रतिदिन भीख माँगनेवाले होगे । वे दूसरोंका अपमान करेंगे और दूसरोंके ही घरमें रहकरा प्रसन्न होगे । इसी प्रकार दूसरोंकी निन्दामें तत्पर तथा व्यर्थ विश्वास दिलानेवाले लोग सदा पिता, माता और पुत्रोंकी निन्दा करेंगे । वाणीसे धर्मकी बात करेंगे, किंतु उनका मन पापमें आसक्त होगा । धन, विद्या और जवानीके नशेमें मतवालेहो सब लोग दु:ख भोगते रहेंगे । रोग—व्याधि, चोर—डाकू तथा अकालसे पीड़ित होगे । सबके मनमें अत्यन्त कपट भरा होगा और अपने अपराधका विचार न करकए व्यर्थ ही दुस्रोंपर दोषरोपण करेंगे । पापी मनुष्य धर्ममार्गका संचालन करनेचाले धर्मपरायण पुरुषका तिरस्कार करेंगे । कलियुग आनेपर म्लेच्छ जातिके राजा होगे । शूद्व लोग भिक्षासे जीवन—निर्वाह करनेवाले होगे और द्विज उनकी सेवा—शुश्रूषामें संलग्न रह्रेंगे । इस सङ्कटकालमें न कोई शिष्य होगा, न गुरु; न पुत्र होगा, पिता और न पत्नी होगी न पति । कलियुगमें धनीलोग भी याचक होगे और द्विजलोग रसका विक्रय करेंगे । धर्मका चोला पहने हुए मुनिवेषधारी द्विज नहीं बेचनेयोग्य वस्तुओंका विक्रय तथा अगम्या स्त्रीके साथ समागम करेंगे । मुने ! नरकके अधिकारी द्विज वेदों और धर्मशास्त्रोंकी निन्दा करते हुए शूद्रवृत्तिसे ही जीवन—निर्वाह करेंगे ।
कलियुगमें सभी मनुष्य अनावृष्टिसे भयभीत होकर आकाशकी ओर आँखें लगाये रहेंगे और क्षुधाके भयसे कातर बने रहेंगे । उस अकालके समय मनुष्य कन्द, पत्ते और फ्ल खाकर रहेंगे और अनावृष्टिसे अत्यन्त दु: खित होकर आत्मघात कर लेंगे । कलियुगमें अब लोग कामवेदनसे पीड़ित, नाटे शरीरवाले, लोभी, अधर्मपरायण, मन्दभाग्य तथा अधिक संतानवाले होगे । स्त्रियाँ अपने शरीरका ही पोषण करनेवाली तथा वेश्याओंके सौन्दर्य और स्वभावको अपनानेवाली होगी । वे पतिके वमनोंका अनादर करके सदा दूसरोके घरमें निवास करेंगी । अच्छे कुलोंकी स्त्रियाँ भी दुराचारिणी होकर सदा दुराचारियोंसे ही स्नेह करेंगी और अपने पुरुषोंके प्रति असद्व्यवहार करनेवाली होगी । चोर आदिके भयसे डरे हुए लोग अपनी रक्षाके लिये काष्ठ—यन्त्र अर्थात् काठके मजबूत किवाड़ बनायेंगे । दुर्भिक्ष और करकी पीड़ासे अत्यन्त पीड़ित हुप मनुष्य दु: खी होकर गेहूँ और जौ आदि अन्नसे सम्पन्न देशमें चले जायँगे । लोग हृदयमें निषिद्ध कर्मका संकल्प लेकर ऊपरसे शुभ वचन बोलेंगे । अपने कार्यकी सिद्धि होनेतक ही लोग बन्धुता (सौहार्द) प्रकट करेंगे । संन्यासी भी मित्र आदिके स्त्रेह—सम्बन्धसे बँधे रहेंगे और अन्न—संग्रहके लिये लोगोंको चेले बनायेंगे । स्त्रियाँ दोनों हाथोंसे सिर खुजलाती हुई बड़ोंकी तथा पतिकी आज्ञाका उलाड्घन करेंगी । जिस समय द्विज पाखण्डी लोगोंका साथ करके पाखण्डपूर्ण बातें करनेवाले हो जायँगे, उस समय कलियुगका वेग और बढ़ेगा । जब द्विज—जातिकी प्रजा यज्ञ और होम करना छोड़ देगी, उसी समयसे बुद्धिमान् पुरुषोंको कलियुगकी वृद्धिका अनुमान कर लेना चाहिये ।
नारदजी ! कलियुगके बढ़नेसे पापकी वृद्धि होगी और छोटे बालकोंकी भी मृत्यु होने लगेगी । सम्पूर्ण धर्मोंके नष्ट हो जानेपर यह जगत् श्रीहीन हो जायगा । विप्रवर ! इस प्रकार मैने तुम्हें कलिका स्वरूप बतलाया है । जो लगे भगवान् विष्णुकी भक्तिमें तत्पर हैं, उन्हें यह कलियुग कभी बाधा नहीं देता । सत्ययुगमें तपस्याको, त्रेतामें भगवान्के ध्यानको, द्वापरमें यज्ञको और कलियुगमें एकमात्र दानको ही श्रेष्ठ बताया गया है । सत्ययुगमें जो पुण्यकर्म द्स वर्षोंमें सिद्ध होता है, त्रेतामें एक वर्ष और द्वापरमें एक मासमें जो धर्म सफल होता है, वही कलियुगमें एक ही दिन—रातमें सिद्ध हो जाता है । सत्ययुगमें ध्यान, त्रेताएं यज्ञोंद्वारा यजन और द्वापरमें भगवान्का पूजन करके मनुष्य जिस फलको पाता है, उसे ही कलियुगमें केवल भगवान् केशवका कीर्तन करके पा लेता है । जो मनुष्य दिन—रात भगवान् विष्णुके नामका कीर्तन अथवा उनकी पूजा करते हैं, उन्हें कलियुग बाधा नहीं देता है । जो मानव निष्काम अथवा सकामभावसे ’ नमो नारायणाय ’ का कीर्तन करते हैं, उनको कलियुग बाधा नहीं देता । घोर कलियुग आनेपर भी सम्पूर्ण जगतके आधार एवं परमर्थस्वरूप भगवान् विष्णुका ध्यान करनेवाला कभी कष्ट नहीं पाता । अहो ! सम्पूर्ण धर्मोंसे रहित भय़ंकर कलियुग प्राप्त होनेपर जिन्होंने एक बार भी भगवान् केशवका पूजन कर लिया है, वे बड़े सौभाग्यशाली हैं । कलियुगमें वेदोक्त कर्मोंका अनुष्ठान करते समय जो कमी—वेशी रह जाती है, उस दोषके निवारणपूर्वक कर्ममें पूर्णता लानेवाला यहाँ केवल भगवान्का स्मरण ही है । जो लोग प्रतिदिन ’ हरे ! केशव ! गोविन्द ! जगन्मय ! वासुदेव !’ इस प्रकार कीर्तन करते हैं, उन्हें कलियुग बाधा नहीं पहूँचाता । अथवा जो ’ शिव ! शङ्कर ! रुद्र ईश ! नीलकण्ठ ! त्रिलोचन ! इत्यादि महादेवजीके नामोंका उच्चारण करते हैं, उन्हें भी कलियुग बाधा नहीं देता । नारदजी ! ’महादेव ! विरूपाक्ष ! गङ्राधर ! मृड ! और अव्यय !’ इस प्रकार जो शिव—नामोंका कीर्त्न करते हैं, वे कृतार्थ हो जाते हैं—अथवा जो ’जनार्दन ! जगन्नाथ ! पीताम्बरधर ! अच्युत !’ इत्यादि विष्णु—नामोंका उच्चारन करते हैं, उन्हें इस संसारमें कलियुगसे भय नहीं है । विप्रवर ! घोर कलियुग आनेपर संसारमें मनुष्योंको पुत्र, स्त्री और धन आदि तो सुलभ हैं, किंतु भगवान् विष्णुकी भक्ति दुर्लभ है । जो वेदमार्गसे बहिष्कृत, पापकर्मपरायण तथा मानसिक शुद्धिसे रहित हैं, ऐसे लोगोंका उद्धार केवल भगवान्के नामसे ही होता है । मनुष्यको चाहिये कि अपने अधिकारके अनुसार यथाशक्ति सम्पूर्ण वैदिक कर्मोंका अनुष्ठान करके उन्हें—भगवान् महाविष्णुको समर्पित कर दे और स्वयं उन्हीं नारायणदेवकी शरण होकर रहे । परमात्मा महाविष्णुको समर्पित किये हुए कर्म उनके स्मरणमात्रसे निश्चय ही पूर्ण हो जाते हैं । नारदजी ! जो भगवान् विष्णुके स्मरणमें लगे हैं और जिनका चित्त भगवान् शिवके नाममें अनुरक्त है, उनके समस्त कर्म अवश्य पूर्ण हो जाते हैं । भगवन्नाममें अनुरक्तचित्तवाले पुरुषोंका अहोभाग्य है, अहोभाग्य है । वे देवताओंके लिये भी पूज्य हैं । इसके अतिरिक्त अन्य अधिक बातें करनेसे क्या लाभ? अतः मैं सम्पूर्ण लोकोंके हितकी ही बात कहता हूँ कि भगवन्नामपरायण मनुष्योंको कलियुग कभी बाधा नहीं दे सकता । भगवान् विष्णुका नाम ही, नाम ही मेंरा जीवन है । कलियुगमें दूसरी कोई गति नहीं है, नहीं है नहीं है ।