Shree Naval Kishori

नारदपुराण पूर्वभाग चतुर्थपाद

अध्याय ६९ नारद— सनातन— संवाद, ब्रह्माजीका मरीचिको ब्रह्मपुराणकी अनुक्रमणिका तथा उसके पाठश्रवण एवं दानका फल बताना

देवर्षि नारद विनीतभावसे सनातनजीको प्रणाम करके बोले-ब्राह्मण ! आप पुराणवेत्ताओमें श्रेष्ठ और ज्ञान-विज्ञान में तत्पर हैं, अतः मुझे पुराणोंके विभागका पूर्ण रूप से परिचय कराइए, जिसके श्रवण करनेपर सब कुछ सुन लिया जाता है, जिसका ज्ञान होनेपर सब कुछ ज्ञात हो जाता है और जिसे कर लेनेपर सब कुछ किया हुआ हो जाता है। पुराणों के स्वाध्यायसे वर्णों और आश्रमों के आचार-धर्म का साक्षात्कार हो जाता है। प्रभो ! पुराण कितने हैं ? उनकी संख्या कितनी है ? और उनके श्लोकोंका मान क्या है ? उन पुराणों में कौन-कौन से आखयान वर्णित है ? यह सब मुझे  बताइये । चारों वर्णोंसे संबंध रखनेवाली नाना प्रकारके व्रत आदिकी कथाएँ भी कहिये । सृष्टिक्रमसे विभिन्न वंशोंमें उत्पन्न हुए  सत्पुरुषों की जीवन कथाको भी भलीभाँति प्रकाशित कीजिये; क्योंकि भगवन ! आपसे अधिक दूसरा कोई पौराणिक उपाख्यानोंका जानकार नहीं है । इसलिए सब संदेहोंका निराकरण करनेवाले पुराणोंका आप मुझसे वर्णन कीजिये ।

    सूतजी बोले—ब्राह्मणों ! तदनंतर नारदजीका वचन सुनकर वक्ताओंमें श्रेष्ठ सनातनजी एक क्षण भगवान नारायणका ध्यान करके बोले।

    सनातनजीने कहा—मुनिश्रेष्ठ तुम्हें बार-बार साधुवाद है।  पुराणों का उपाख्यान जानने के लिए जो तुम्हें निष्ठायुक्त बुद्धि प्राप्त हुई है, वह संपूर्ण  लोकोंका उपकार करने वाली है । पूर्वकालमें ब्रह्माजीने पुत्रस्नेहसे परिपूर्ण चित्त होकर मरीची आदि ऋषियोंसे इस विषयमें जो कुछ कहा था, उसी का तुमसे वर्णन करता हूं। एक समय ब्रह्माजीके पुत्र मरीचीने, जो स्वाध्याय और शास्त्रज्ञानसे संपन्न तथा वेद-वेदांगोके परांगत विद्वान है, अपने पिता लोकस्रष्टाके पास जाकर उन्हें भक्ति पूर्वक प्रणाम किया। दूसरोंको मान देनेवाले मुनीश्वर ! प्रणामके पश्चात उन्होंने भी निर्मल पौराणिक उपाख्यानके विषयमें, जैसा कि तुम पूछते हो यही प्रश्न किया था ।

    मरीचिने कहा—भगवन ! देवदेवेश्वर ! आप संपूर्ण लोगोंकी उत्पत्ति और लयके कारण है । सर्वज्ञ, सबका कल्याण करनेवाले तथा सबके साक्षी हैं, आपको नमस्कार है। पिताजी ! मुझे पुराणों के बीज, लक्षण, प्रमाण, वक्ता और श्रोता बताइए। मैं वह सब सुननेको उत्सुक हूँ ।

    ब्रह्माजीने कहा— वत्स ! सुनो, मै पुराणोंका संग्रह बतला रहा जिनमें जान लेने पर चर और अचरसहित संपूर्ण वाङ्मयका ज्ञान हो जाता है । मानद ! सब कल्पोमें एक ही पुराण था, जिसका विस्तार सौ करोड़ श्लोकोंमें था । वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चारों पुरुषार्थोंका बीज माना गया है । सब शास्त्रोंकी प्रवृत्ति पुराणसे ही हुई है, अतः समयानुसार लोकमें पुराणोंका ग्रहण न होता देख परम बुद्धिमान भगवान विष्णु प्रत्येक युगमें व्यासरूपसे प्रकट होते   हैं । वे प्रत्येक द्वापर में चार लाख शलोकोके पुराणका संग्रह करके उसके आठारह विभाग कर देते हैं और भूलोकमें उन्हींका प्रचार करते हैं । आज भी देवलोकमें सौ करोड़ शलोकोका विस्तृत पुराण विद्यमान है।  उसी के सारभागका चार लाख शलोकोद्वारा वर्णन किया जाता है । ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, वायुपुराण, भागवतपुराण, नारदपुराण, मार्कंडेयपुराण, अग्निपुराण, भविष्यपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, लिंगपुराण, वाराहपुराण, स्कंदपुराण, वामनपुराण, कूर्मपुराण, मत्स्यपुराण, गरुड़पुराण तथा ब्रह्मांडपुराण—ये अठारह पुराण है । अब सूत्ररूपसे एक-एकका कथानक तथा उसके वक्ता और श्रोता के नाम संछेप से बतलाता हूँ । एकाग्रचित होकर सुनो । वेदवेता महात्मा व्यासजीने संपूर्ण लोगोंके हितके लिए पहले ब्रह्मपुराण का संकलन किया । वह सब पुराणोंमें प्रथम और धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष देने वाला है । उसमें नाना प्रकार के आख्यान और इतिहास है । इसकी श्लोक-संख्या दस हजार बताई जाती है । मुनीश्वर ! उसमें देवताओं, असुरों और दक्ष आदि प्रजापतियोंकी उत्पत्ति कहीं गई है । तदनंतर उसमें लोकेश्वर भगवान सूर्य के पुण्यमय वंश का वर्णन किया गया है, जो महापातकोका नाश करनेवाला है । उसी वंशमें परमानंदस्वरूप तथा चतुर्व्यूहावतारी भगवान श्रीरामचंद्रके अवतारकी कथा कही गई है । तदनंतर उस पुमें चंद्रवंशका वर्णन आया है और जगदीश्वर श्रीकृष्णके पापनाशक चरित्रका वर्णन किया गया है । संपूर्णद्वीपों, समस्त वर्षों तथा पाताल और स्वर्गलोकका वर्णन भी उस पुराण में देखा जाता है । नरकों का वर्णन, सूर्य देव की स्तुति और कथा एवं पार्वती जीका जन्म तथा विवाहका प्रतिपादन किया गया है। तदनंतर दक्ष प्रजापतिकी कथा और एकमक्रक्षेत्रका वर्णन है । नारद ! इस प्रकार इस ब्रह्मपुराण के पूर्व भागका निरूपण किया गया है । इसके उत्तर भागमें तीर्थयात्रा-विधिपूर्वक पुरुषोत्तम क्षेत्रका विस्तारके साथ वर्णन किया गया है । इसीमें श्रीकृष्णचरित्रका विस्तारपूर्वक उल्लेख हुआ है । यमलोकका वर्णन तथा पितरोंके श्राद्धकी विधि है । इस उत्तर भागमें ही वर्णों और आश्रमोंके धर्मोंका विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया है । वैष्णव-धर्मका प्रतिपादन, युगोंका निरूपण तथा प्रलयका भी वर्णन आया है । योगोका निरूपण, संख्यसिद्धांतोंका प्रतिपादन, ब्रहवादका दिगदर्शन तथा पुराणकी प्रशंसा आदि विषय है । इस प्रकार दो भागोसे ब्रह्मपुराणका वर्णन किया गया है, जो सब पापोंका नाशक और सब प्रकारके सुख देनेवाला है । इसमें सूत और शोनकका संवाद है । यह पुराण भोग और मोक्ष देनेवाला है । जो इस पुराणको लिखकर वैशाखकी पूर्णिमाको अन्न, वस्त्र और आभूषणोंद्वारा पौराणिक ब्राह्मणकी पूजा करके उसे सुवर्ण और जलधेनुसहित इस लिखे हुए पुराणका भक्तिपूर्वक दान करता है, वह चंद्रमा, सूर्य और तारोंकी स्थिति-कालतक ब्रह्मलोकमें वास करता है । ब्राह्मण ! जो ब्रह्मपुराणकी इस अनुक्रमाणिका (विषय-सूची)—का पाठ अथवा श्रवण करता है, वह भी समस्त पुराणके पाठ और श्रवणका फल पाता है । जो अपनी इंद्रियोंको वशमें करके हविष्यान्न भोजन करते हुए नियमपूर्वक समूचे ब्रह्मपुराणका श्रवण करता है, वह ब्रह्मपदको प्राप्त होता है । वत्स ! इस विषयमें अधिक कहनेसे क्या लाभ?  इस पुराणके कीर्तनसे मनुष्य जो-जो चाहता है, वह सब पा लेता है ।

अध्याय ७० पद्मपुराणका लक्षण तथा उसमें वर्णित विषयोंकी अनुक्रमणिका

ब्रह्माजी कहते हैंबेटा सुनो ! अब मैं पद्मपुराणका वर्णन करता हूँ । जो मनुष्य प्रसन्नतापूर्वक पाठक श्रवण करते हैं, उन्हें यह महान पुण्य देने वाला है । जैसे सम्पूर्ण देहधारी मनुष्य पाँच ज्ञानेंद्रियों से युक्त बताया जाता है, उसी प्रकार यह पापनाशक पद्मपुराण पाँच खण्डोंसे युक्त कहा गया है । ब्राह्मन ! जिसमें महर्षि पुलस्त्यने भीष्मको सृष्टि आदिके क्रमसे नाना प्रकारके उपाख्यान इतिहास आदिके साथ विस्तारपूर्वक धर्मका उपदेश किया है । जहाँ पुष्करतीर्थका माहात्म्य विस्तारपूर्वक कहा गया है, जिसमें ब्रह्म-यज्ञकी विधि, वेदपाठ आदिका लक्षण, नाना प्रकारके दानों और व्रतोंका पृथक-पृथक निरूपण, पार्वतीका विवाह, तारकासुरका विस्तृत उपाख्यान तथा गौ आदिका माहात्म्य है, जो सबको पुण्य देनेवाला है, जिसमें कालकेय आदि देत्यौंके वधकी पृथक-पृथक कथा दी गयी है तथा द्विजश्रेष्ठ ! जहाँ ग्रहोंम के पूजन और दानकी विधि भी बताई गई है, वह महात्मा श्रीव्यासजीके द्वारा कहा हुआ ‘सृष्टिखंड’  है ।

    पिता-माता आदिकी पूजनीयताके विषयमें शिवशर्माकी प्राचीन कथा, सुव्रतकी कथा वृत्रासुरके वधकी कथा, पृथु, वेन और सुनीथाकी कथा, सुक्लाका उपाख्यान, धर्मका  आख्यान, पिताकी सेवाके विषयमें उपाख्यान, नहुषकी कथा ययातीचरित्र, गुरुतीर्थका निरूपण, राजा और जैमिनीके संवादमें अत्यंत आश्चर्यमयी कथा, अशोक सुंदरीकी कथा, हुण्ड  दैत्यका वध, कामोदाकी कथा, विहुण्ड दैत्यका वध, महात्मा च्यवनके साथ कुन्चलका संवाद, तदनंतर सिद्धोंपाख्यान और इस खण्डके फलका विचार-ये सब विषय जिसमें कहे गये हो, वह सूत-शौनक-संवादरुप ग्रन्थ `भूमिखण्ड` कहा गया है ।

    जहाँ सौति तथा महर्षियोंके संवादरुपसे ब्रह्मांडकी उत्पत्ति बतायी गयी है, पृथ्वीसहित सम्पूर्ण लोकोकी स्थिति और तीर्थोका वर्णन किया गया है । तदनंतर जहाँ नर्मदाजीकी उत्पत्ति-कथा और उनके तीर्थोंका पृथक-पृथक वर्णन है, जिसमें कुरुक्षेत्र आदि तीर्थोंकी पुण्यमयी कथा कही गयी है, कालिन्दीकी पुण्यकथा, काशी-महात्मा-वर्णन तथा गया और प्रयागके पुण्य माहात्म्यका निरूपण है, वर्ण और आश्रमके अनुकूल कर्मयोगका निरूपण, पुण्यकर्मकी कथा को लेकर व्यास-जैमिनी-संवाद, समुद्र-मन्थनकी कथा, व्रतसंबंधी उपाख्यान, तदनंतर कार्तिकके अंतिम पाँच दिन (भीष्मपन्नचक)- का माहात्म्य तथा सर्वपराधनिवारक स्तोत्र—ये सब विषय जहाँ आये हैं, वह `स्वर्गखंड` कहा गया है । ब्रह्मन ! यह सब पातकोंका नाश करनेवाला है ।

   रामाश्वमेधके प्रसंगमें प्रथम रामका राज्यभिषेक, अगस्त्य आदि महर्षियोंका आगमन, पुलस्त्यवंशका वर्णन, अश्वमेधका उपदेश, अश्वमेधीय अश्वका पृथ्वीपर विचरण, अनेक राजाओंकी पुण्यमयी कथा, जगन्नाथजीकी महिमाका निरूपण, वृंदावनका सर्वपापनाशक माहात्म्य, कृष्णावतारधारी श्रीहरिकी नित्य लीलाओंका कथन, वैशाखस्नानकी महिमा, स्नान-दान और पूजनका फल, भूमि-वाराह-संवाद, यम और ब्राह्मणकी कथा, राजदूतोका संवाद, श्रीकृष्णस्तोत्रका निरूप, दधीचिकी कथा, भस्मका अनुपम माहात्म्य, उत्तम शिव-माहात्म्य, देवरातसुतोपाख्यान, पुराणवेताकी प्रशंसा, गौतमका रूपण, शिवशम्भू-समागम उपाख्यान और शिवगीता तथा कल्पांतरमें भारद्वाज-आश्रममें श्रीरामकथा आदि विषय `पातालखंड` के अंतर्गत है । जो सदा इसका श्रवण पाठ करते हैं, उनके सब पापोंका नाश करके यह उन्हें संपूर्ण अभीष्ट फलोकी प्राप्ति कराता है ।

   पाँचवे खण्डमें पहले भगवान शिवके द्वारा गौरीदेवीके प्रति कहा हुआ पर्वतोंपाख्यान है । तत्पश्चात जालंधरकी कथा, श्रीशैल आदिका माहातम्यकीर्तन और राजा सगरकी पुण्यमयी कथा है । उसके क्षबाद गंगा, प्रयाग, काशी और गयाका अधिक पुण्यदायक माहात्म्य कहा गया है । फिर अन्नादि दानका माहात्म्य और महाद्वादशीव्रतका उल्लेख है । तत्पश्चात चौबीस एकादशियोंका पृथक-पृथक महात्मा कहा गया है । फिर विष्णुधर्मका निरूपण और विष्णुसहस्त्रनामका वर्णन है । उसके बाद कार्तिकव्रतका माहात्म्य, माघ-स्नानका फल तथा जम्बूद्वीपके तीर्थोंकी पापनाशक महिमाका वर्णन है । फिर साभ्ररमती (साबरमती)-का माहात्म्य, नृसिंहोत्पातीकथा, देवशर्मा आदिका उपाख्यान और गीतामाहात्म्यका वर्णन है । तदनंतर भक्तिका आख्यान, श्रीमद्भागवतका माहात्म्य और अनेक तीर्थोंकी कथासे युक्त इंद्रप्रस्थकी महिमा है । इसके बाद मंत्ररत्नका कथन, त्रिपादविभूतिका वर्णन तथा मत्स्य आदि अवतारोंकी पुण्यमयी अवतार-कथा है । तत्पश्चात अष्टोत्तरशत दिव्य राम-नाम और उसके माहात्म्यका वर्णन है । वाडव ! फिर महर्षि भृगुद्वारा भगवान विष्णुके वैभवकी परीक्षाका उल्लेख है । इस प्रकारका पांचवा ‘ उतरखण्ड ‘  कहां गया है, जो सब प्रकारके पुण्य देने वाला है । जो श्रेष्ठ मानव पांच खण्डोसे युक्त पद्मपुराणका श्रवन करता है, वह इस लोकमें मनोवांछित भोगोंका भोगकर वैष्णव धामको प्राप्त कर लेता है । यह पद्मपुराण पचपन हजार श्लोकोसे युक्त है । मानद ! जो इस पुराणको लिखवाकर पुराणज्ञ ब्राह्मणका भली-भांति सत्कार करके ज्येष्ठकी पूर्णिमाको स्वर्णमय कमलके साथ इस लिखित पुराणका पुराणवेता ब्राह्मणको दान करता है, वह संपूर्ण देवताओंसे वंदित होकर वैष्णव धामको चला जाता है । जो पद्मपुराणकी इस अनुक्रमणिकाका पाठ तथा श्रवण करता है, वह भी संपूर्ण पद्मपुराणके श्रवणजनित फलको प्राप्त कर लेता है।

अध्याय ७१ विष्णुपुराणका स्वरुप और विषयानुक्रमणिका

श्रीब्रह्माजी कहते हैं- वत्स ! सुनो, अब मैं वैष्णव महापुराणका वर्णन करता हूं । इसकी श्लोक- संख्या तेईस हज़ार है । यह सब पातकोंका नाश करनेवाला है । इसके पूर्वभागमें शक्तिनंदन पराशरजीने मैत्रेयको छ अंश सुनाएं हैं, उनमेंसे प्रथम अंशमें इस पुराणकी अवतरणिका दी गयी है । आदिकारण सर्ग, देवता आदिकी उत्पत्ति, समुद्रमंथनकी कथा, दक्ष आदिके वंशका वर्णन, ध्रुव तथा पृथुके चरित्र, प्राचेतसका उपाख्यान, प्रल्हादकी कथा और ब्रह्माजीके द्वारा देव, तिर्यक, मनुष्य आदि वर्गोंके प्रधान-प्रधान व्यक्तियोंको पृथक-पृथक राज्याधिकार दिए जानेका वर्णन- इन सब विषयोंको प्रथम अंश कहा गया है।

    प्रियव्रतके वंशका वर्णन, द्वीपों और वर्षोंका वर्णन, पाताल और नरकोंका वर्णन, सात स्वर्गोका निरूपण, पृथक-पृथक लक्षणोंसे युक्त सूर्य आदि ग्रहोकी गतिका प्रतिपादन,  भरत-चरित्र, मुक्तिमार्ग-निर्देशन तथा निदाघ एवं ऋभूका संवाद यह सब विषय द्वितीय अंशके अंतर्गत कहे गए हैं।

    मन्वंतरोंका वर्णन, वेदव्यासका अवतार तथा इसके बाद नरकसे उद्धार करनेवाला कर्म कहां गया है । सगर और ओर्वके संवादमें सब धर्मोंका निरूपण, श्राद्धकल्प तथा वर्णाश्रमधर्म, सदाचार-निरूपण तथा मायामोहकी कथा यह सब विषय तीसरे अंशमें बताया गया है, जो सब पापोंका नाश करने वाला है।

    मुनिश्रेष्ठ ! सूर्यवंशकी पवित्र कथा, चंद्रवंशका वर्णन तथा नाना प्रकारके राजाओंका वृतांत चतुर्थ अंशके अंतर्गत है।

    श्रीकृष्णावतारविषयक प्रश्न, गोकुलकी कथा, बाल्यावस्थामें श्रीकृष्ण द्वारा पूतना आदिका वध, कुमारावस्थामें अघासुर आदिकी हिंसा, किशोरावस्थामें उनके द्वारा कंसका वध, मथुरापुरीकी लीला, तदनंतर युवावस्थामें द्वारकाकी लीलाएं, समस्त देत्योंका वध, भगवानके पृथक-पृथक विवाह, द्वारकामें रहकर शत्रुओके वध आदिके साथ-साथ पृथ्वीका भार उतारा जाना और अष्टावक्रजीका उपाख्यान- ये सब बातें पांचवे अंशके अंतर्गत है।

    कलियुगका चरित्र, चार प्रकारके महाप्रलय तथा केशिध्वजके द्वारा खंडीक्या जनकको ब्रह्मज्ञानका उपदेश इत्यादि विषयोंको अच्छा छठा अंश कहा गया है।

    इसके बाद विष्णुपुराणका उत्तर भाग प्रारंभ होता है, जिसमें शौनक आदिके द्वारा आदरपूर्वक पूछे जानेपर सूतजीने सनातन ` विष्णुधर्मोत्तर ` नामसे प्रसिद्ध नाना प्रकारके धर्मकी कथाएं कही है । अनेकानेक पुण्य-व्रत, यम-नियम, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, वेदान्त, ज्योतिष, वंशवर्णनके प्रकरण, स्तोत्र, मंत्र तथा सब लोगोंका उपकार करनेवाली नाना प्रकारकी विद्या सुनायी है । यह विष्णुपुराण है, जिसमें सब शास्त्रोंके सिद्धांतका संग्रह हुआ है । इसमें वेदव्यासजीने वाराहकल्पका वृतांत कहा है । जो मनुष्य भक्ति और आदरके साथ विष्णुपुराणको पढ़ते और सुनते हैं, वे दोनों यहां मनोवांछित भोगकर विष्णुलोक में चले जाते हैं । जो इस पुराणको लिखवाकर या स्वयं लिखकर आषाढ़की पूर्णिमाको घृतमयी धेनुके साथ पुरणार्थवेत्ता विष्णुभक्त ब्राह्मणको दान करता है, वह सूर्यके समान तेजस्वी विमान द्वारा वैकुंठधाममें जाता है । ब्रह्मण ! जो विष्णुपुराणकी इस विषय अनुक्रमणिकाको सुनता है, वह  समूचे पुराणके पठन एवं श्रवणका फल पाता है।

अध्याय ७२ वायुपुराणका परिचय तथा उसके दान एवं श्रवण आदिका फल

ब्रह्माजी कहते हैं- ब्राह्मण ! सुनो, अब मैं वायुपुराणका लक्षण बतलाता हूं, जिसके श्रवन करनेपर परमात्मा भगवान शिवका धाम प्राप्त होता है । यह पुराण चोबीस हज़ार श्लोकोका बतलाया गया है । जिसमें वायुदेवने श्वेतकल्पके प्रसंगसे धर्मोका उपदेश किया है, उसे वायुपुराण कहा गया है । वह पूर्व और उत्तर दो भागोंसे युक्त है । ब्राह्मण ! जिसमें सर्ग आदिका लक्षण विस्तारपूर्वक बताया गया है, जहां भिन्न-भिन्न मन्वंतरोंमें राजाओंके वंशका वर्णन है और जहां गयासुरके वधकी कथा विस्तारके साथ कहीं गयी है जिसमें सब मासोंका माहात्म्य बताकर माघमासका अधिक फल कहा गया है, जहां दानधर्म तथा राजधर्म अधिक विस्तारसे कहे गए हैं, जिसमें पृथ्वी, पाताल, दिशा और आकाशमें विचारने वाले जीवोके और व्रत आदिके संबंधमें निर्णय किया गया है,  वह वायुपुराणका पूर्वभाग कहा गया है ।

    मुनीश्वर ! उसके उत्तरभागमें नर्मदाके तीर्थोंका वर्णन है और विस्तारके साथ शिवसंहिता कही गई है । जो भगवान संपूर्ण देवताओंके लिए दुर्ज्ञेय और सनातन है, जिसके तटपर सदा सर्वतोभावेन निवास करते हैं, वही यह नर्मदाका ब्रह्मा है, यही विष्णु है और यही सर्वोत्कृष्ट साक्षात शिव है । यह नर्मदाजल ही निराकार ब्रह्म तथा कैवल्य मोक्ष है। निश्चय ही भगवान शिवने समस्त लोकोका हित करनेके लिए अपने शरीरसे इस नर्मदा नदीके रूपमें किसी दिव्य शक्तिको ही धरतीपर उतारा है । जो नर्मदाके उत्तर तटपर निवास करते हैं, वह भगवान रुद्रके अनुचर होते है और जिनका दक्षिण तटपर निवास है, वे भगवान विष्णुके लोकमे जाते हैं। ॐकारेश्वरसे लेकर पश्चिम समुद्रतक नर्मदा नदीमें दूसरी नदियोंके पेंतीस  पापनाशक संगम है, उनमेंसे ग्यारह तो उत्तर तट पर है और तेईस दक्षिण तटपर । पेंतिसवां  तो स्वयं नर्मदा और समुद्रका संगम कहा गया है । नर्मदाके दोनों तटोंपर इन संगमोंके साथ चार सो  प्रसिद्ध तीर्थ है । मुनीश्वर ! इनके सिवा अन्य साधारण तीर्थ तो रेवाके दोनों तटोंपर पग-पगपर विद्यमान है, जिनकी संख्या साठ करोड़ साठ हजार  है । यह परमात्मा शिवकी सहिंता परम पुण्यमयी है, जिसमें वायुदेवताने नर्मदाके चरित्रका वर्णन किया है । जो इस पुराणको लिखकर गुडमयी धेनूके साथ श्रावणकी पूर्णिमाको भक्तिपूर्वक कुटुम्बी ब्राह्मणके हाथमें दान देता है,  वह चौदह इन्द्रोंके राज्यकालतक रुद्रलोकमें निवास करता है । जो मनुष्य नियमपूर्वक हविष्य भोजन करते हुए इस वायुपुराणको सुनाता अथवा सुनाता है, वह साक्षात रुद्र है, इसमें संशय नहीं है । जो इस अनुक्रमणिकाको सुनता है और सुनाता है, वह भी समस्त पुराणके श्रवणका फल पा लेता है ।

अध्याय ७३ श्री मदभागवतका परिचय, माहात्म्य तथा दान— जनित फल

ब्रह्माजी कहते हैं- मरीजे ! सुनो, वेदव्यासजीने जो वेदतुल्य श्रीमद्भागवत नामक महापुराणका संपादन किया है, वह अठारह हज़ार श्लोकोका बतलाया गया है । वह पुराण सब पापोंका नाश करनेवाला है । यह बारह शाखाओंसे युक्त कल्पवृक्षस्वरुप है । विप्रवर ! इसमें विश्वरूप भगवानका ही प्रतिपादन किया गया है । इसके पहले स्कंधमें सूत और शौनकादि ऋषियोंके समागमका प्रसंग उठाकर व्यासजी तथा पांडवोंका पवित्र चरित्रका वर्णन किया गया है । इसके बाद परीक्षितके जन्मसे लेकर प्रायोपवेशनतककी कथा कही गई है । यहीतक प्रथम स्कंधका विषय है । फिर परीक्षित-शुकसंवादमें स्थूल और सूक्ष्म दो प्रकारकी धारणाओंका निरूपण है । तदनंतर ब्रह्म-नारद-संवादमें भगवानके अवतारसंबंधी अमृतोपम चरित्रोंका वर्णन है । फिर पुराणका लक्षण कहा गया है । बुद्धिमान व्यासजीने यह द्वितीय स्कन्धका विषय बताया है, जो सृष्टिके कारणतत्वोंकी उत्पत्तिका प्रतिपादक है। तत्पश्चात विदुरका चरित्र, मैत्रेयजीके साथ विदुरका समागम, परमात्मा ब्रह्मसे सृष्टिक्रमका निरूपण और महर्षि कपिलद्वारा कहां हुआ सांख्य- यह सब विषय तृतीय स्कंधके अंतर्गत बताया गया है । तदनंतर पहले सतीचरित्र, फिर धुर्वका चरित्र, तत्पश्चात राजापृथुका पवित्र उपाख्यान, राजा प्राचीनबह्रिषकी कथा- यह सब विसर्गविषयक परम उत्तम चौथा स्कन्ध कहा गया है । राजा प्रियव्रत और उनके पुत्रोंका पुण्यदायक चरित्र, ब्रह्मांडके अंतर्गत विभिन्न लोकोंका वर्णन तथा नरकोंकी स्थिति- यह संस्थानविषयक पांचवा स्कन्ध है । अजामिलका चरित्र, दक्ष प्रजापतिद्वारा की हुई सृष्टिका निरूपण, वृत्रासुरकी कथा और मरुद्गणोका पुण्यदायक जन्म- यह सब व्यासजीके द्वारा छठा स्कन्ध कहा गया है। वत्स ! प्रहलादका पुण्यचरित्र और वर्णाश्रमधर्मका निरूपण यह सांतवा स्कन्ध बताया गया है। यह ` ऊती ` अथवा कर्मवासनविषयक कहा गया है । इसमें उसीका प्रतिपादन किया गया है । तत्पश्चात मन्वंतरनिरूपणके प्रसंगमें गजेंद्रमोक्षकी कथा, समुद्रमंथन, बलिके ऐश्वर्यकी विधि और उनका बंधन तथा मत्स्यवताचरित्र- यह आठवां स्कन्ध कहा गया है । महामते ! सूर्यवंशका वर्णन और चंद्रवंशका निरूपण- वंशानुचरितविषयक नवाँ स्कन्ध बताया गया है । श्रीकृष्णका बालचरित्र, कुमारवस्थाकी लीलाएं, मथुरामें निवास, युवावस्था, द्वारकामें निवास और भूभारहरण- यह निरोधविषयक दसवां स्कन्ध है । नारद-वासुदेव-संवाद, यदु-दत्तात्रेय-संवाद और श्रीकृष्णके साथ उद्धवका संवाद, आपसके कल्हणसे यादवोंका संहार- यह सब मुक्तिविषयक ग्यारहवां स्कन्ध है। भविष्य राजाओंका वर्णन, कलीधर्मका निर्देश, राजा परीक्षितके मोक्षका प्रसंड्ग, वेदोंकी शाखाओंका विभाजन, मारकंडेयजीकी तपस्या, सूर्यदेवकी विभूतियोंका वर्णन, तत्पश्चात भागवती विभूतिका वर्णन और अंतमें पुराणोंकी श्लोक-संख्याका प्रतिपादन- यह सब आश्रयविषयक बाहरवा स्कन्ध है । वत्स ! इस प्रकार तुम्हें श्रीमद्भागवतका परिचय दिया गया है । वह वक्ता, श्रोता, उपदेशक, अनुमोदक और सहायक- सबको भक्ति, भोग और मोक्ष देनेवाला है । जो भगवानकी भक्ति चाहता हो, वह भाद्रपदकी पूर्णिमाको सोनेके सिंहासनके साथ जिस भागवतका भागवतभक्त ब्राह्मणको प्रेमपूर्वक दान करें । उसके पहले वस्त्र और सुवर्ण आदिके द्वारा ब्राह्मणकी पूजा कर लेनी चाहिए । जो मनुष्य भागवतकि इस विषयानुक्रमणिकाका दूसरेको श्रवण कराते अथवा स्वयं सुनता है, वह समस्त पुराणके श्रवनका उत्तम फल प्राप्त कर लेता है।

अध्याय ७४ नारदपुराणकी विषय— सूचि, इसके पाठ, श्रवण और दानका फल

ब्रह्माजी कहते हैं- ब्राह्मण ! सुनो, अब मैं नारदीय पुराणका वर्णन करता हूँ । इसमें पचीस हज़ार श्लोक हैं । इसमें बृहत्क्ल्पकी कथाका आश्रय लिया गया है । इसमें पूर्वभागके प्रथम पादमें पहले सूत-शौनक-संवाद है; फिर सृष्टिका संक्षेपसे वर्णन है । फिर महात्मा सनकके द्वारा नाना प्रकारके धर्मोंकी पुण्यमयी कथाएँ कही गई है । पहले पादका नाम `प्रवृत्तिधर्म` है । दूसरे पाद `मोक्षधर्म` के नामसे प्रसिद्ध है । उसमें मोक्षके उपायोंका वर्णन है । वेदाङ्गोंका वर्णन और शुकदेवजीकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग विस्तारके साथ आया है । सनन्दनजीने महात्मा नारदको इस द्वितीय पादका उपदेश दिया है | फिर गणेश, सूर्य, विष्णु, शिव और शक्ति आदिके मंत्रोका शोधन, दीक्षा, मंत्रोंद्धार, पूजन, प्रयोग, कवच, सहस्त्रनाम और स्तोत्रका क्रमशः वर्णन किया है । तद्नंतर चतुर्थ पादमें सनातन मुनिने नारदजीसे पुराणका लक्षण, उनके श्लोक-संख्या तथा दानका पृथक-पृथक फल बताया है। साथ ही उन दानोंका अलग-अलग समय भी नियत किया है । इसके बाद चैत्र आदि सब मासोंमें पृथक-पृथक प्रतिपदा आदि तिथियोंका सर्वपापनाशक व्रत बताया है । यह `बृहदाखयान` नामक पूर्वभाग बताया गया है । इसके उत्तर भागमें एकादशी व्रतके संबंधमें किए हुए प्रश्नके उत्तरमें महर्षि वशिष्ठके साथ राजा मांधाताका संवाद उपस्थित किया गया है । तत्पश्चात राजा रुक्मांगदकी पुण्यमयी कथा, मोहिनीकी उत्पत्ति, उसके कर्म, पुरोहित वसुका मोहिनीके लिए शाप, फिर शापसे उसके उद्धारका कार्य, गंगाकी पुण्यतम कथा, गयायात्रावर्णन, काशीका अनुपम महात्मा, पुरुषोत्तमक्षेत्रका वर्णन, उस क्षेत्रकी यात्राविधि, तत्संबंधी अनेक उपाख्यान, प्रयाग, कुरुक्षेत्र और हरिद्वारका महात्मय, कामोदकी कथा, बद्रीतीर्थका महत्व, कामाक्षा और प्रभासक्षेत्रकी महिमा, पुष्करक्षेत्रका महात्मा, गौतममुनिका आख्यान, वेदपादस्तोत्र, गोकर्णक्षेत्रका महत्व, लक्ष्मणजीकी कथा, सेतुमहात्मयकथन, नर्मदाके तीर्थोंका वर्णन, अवंतीपुरीकी महिमा, तदनंतर मथुरा-महात्मय, वृंदावनकी महिमा, वसुका ब्रह्माके निकट जाना, तत्पश्चात मोहिनीका तीर्थमें भ्रमण आदि विषय है। इस प्रकार यह सब नारदमहापुराण है । जो मनुष्य भक्तिपूर्वक एकाग्रचित हो इस पुराणको सुनता अथवा सुनाता है, वह ब्रह्मलोकमें जाता है । जो अश्विनीकी पूर्णिमाके दिन साथ धेनुओके साथ इस पुराणका श्रेष्ठ ब्राह्मणको दान करता है, वह निश्चय ही मोक्ष पाता है । जो एकचित्त होकर नारदपुराणकि इस अनुक्रमणिकाका वर्णन अथवा श्रवण करता है, वह भी स्वर्गलोकमें जाता है।

अध्याय ७५ मार्कण्डेयपुराणका परिचय तथा उसके श्रवण एवं दानका माहात्म्य

श्रीब्रह्माजी कहते हैं- मुने ! अब मैं तुम्हें मार्कंडेयपुराणका परिचय देता हूं । यह महापुराण पढ़ने और सुननेवाले पुरुषोंके लिए सदा पुण्यदायक है । जिसमें पक्षियोंको प्रवचनका अधिकारी बनाकर उनके द्वारा सब धर्मोंका निरूपण किया गया है, वह मार्कंडेयपुराण नौ हजार श्लोकोंका है, ऐसा कहा जाता है । इसमें पहले मार्कंडेयमुनिके समीप जैमिनीके प्रश्नका वर्णन है । फिर धर्मसंज्ञक पक्षियोंके जन्मकी कथा कही गई है । फिर उनके पूर्वजन्मकी कथा और देवराज इंद्रके कारण उन्हें शापरूप विकारकी प्राप्तिका कथन है । तदनंतर बलभद्रजीकी तीर्थयात्रा, द्रोपदीके पांच पुत्रोंकी कथा, हरिश्चंद्रकी पुण्यमयी कथा, आडी और बक पक्षियोंका युद्ध, पिता और पुत्रका उपाख्यान, दत्तात्रेयजी कथा, महान आख्यानसहित हैहयचरित्र, अलर्कचरित्रके साथ मदालसाकी कथा, नौ प्रकारकी सृष्टिका पुण्यमय वर्णन, कल्पांतकालका निर्देश, सृष्टि-निरूपण, रुद्र आदिकी सृष्टि, द्वीपचर्याका वर्णन, मन्नूओकी अनेक पापनाशक कथाओंका कीर्तन और उन्हींमें दुर्गाजीकी अत्यंत पुण्यदायिनी कथा है, जो आठवे मन्वंतरके प्रसंगमें कहीं गई है । तत्पश्चात तीन वेदोंके तेजसे प्रणवकी उत्पत्ति, सूर्यदेवके जन्मकी कथा, उनका महात्म्य, वैवस्वत मनुके वंशका वर्णन, वत्सप्रीका चरित्र, तदनंतर महात्मा खनित्रकी पुण्यमयी कथा, राजा अविक्षितका चरित्र, किमिच्छिक व्रतका वर्णन, नरिष्यन्त-चरित्र,  इक्ष्वाकु-चरित्र, नल-चरित्र, श्रीरामचंद्रजीकी उत्तम कथा, कुशके वंशका वर्णन, सोमवंशका वर्णन, पुरुरवाकी पुण्यमयी कथा, नहुषका अद्भुत वृतांत, ययातिका पवित्र चरित्र, यदुवंशका वर्णन, श्रीकृष्णकी बाललीला,  उनके मथुरा और द्वारकाकी लीलाएं, सब अवतारोंकी कथा, संख्यामतका वर्णन, प्रपंचके मिथ्यातत्वका वर्णन, मारकंडेयजीकी चरित्र तथा पुराणश्रवण आदिका फल-यह सब विषय है। वत्स ! जो मनुष्य इस मार्कंडेयपुराणका भक्ति भावसे आदर पूर्वक श्रवण करता है, वह परम गतिको पाता है । जो इसकी व्याख्या करता है, वह भगवान शिवके लोकमें जाता है । जो इसे लिखकर हाथीकी स्वर्णमयी प्रतिमाके साथ कार्तिककी पूर्णिमाके दिन श्रेष्ठ ब्राह्मणको दान देता है, वह ब्रह्मपदको प्राप्त कर लेता है । जो मार्कंडेयपुराणकी इस विषय-सूचीको सुनता अथवा सुनाता है, वह मनोवांछित फल पाता है।

अध्याय ७६ अग्निपुराणकी अनुक्रमणिका तथा उसके पाठ, श्रवण एवं दानका फल

श्रीब्रह्माजी कहते हैं—अब मैं अग्निपुराणका वर्णन करता हूं । जिसमें अग्निदेवने महर्षि वशिष्ठसे ईशान-कल्पका वर्णन किया है, वह अग्निपुराण पंद्रह हजार श्लोकोसे पूर्ण है । उसमें अनेक प्रकारके चरित्र है । यह पुराण अद्भुत है । जो लोग इसका पाठ और श्रवण करते हैं, उनके समस्त पापोंको यह हर लेनेवाला है । इसमें पहले पुरानविषयक प्रश्न है, फिर सब अवतारोंकी कथा कही गई है । तत्पश्चात सृष्टिका प्रकरण और विष्णुपूजा आदिका वर्णन है । तदनंतर अग्निकार्य, मंत्र, मुद्रादिलक्षण, सर्वदीक्षाविधान और अभिषेकनिरूपण है । इसके बाद मंडल आदिका लक्षण, कुशापामार्जन, पवित्रारोपणविधि, देवालयविधि,  शालग्राम आदिकी पूजा तथा मूर्तियोंके पृथक-पृथक चिह्नका वर्णन । फिर न्यास आदिका विधान, प्रतिष्ठा, पुर्तकर्म, विनायक आदिका पूजन, नाना प्रकारकी दीक्षाओकी विधि, सर्वदेवप्रतिष्ठा, ब्रह्मांडका वर्णन, गंगादि तीर्थोका माहात्म्य, द्वीप और वर्षका वर्णन, ऊपर और नीचेके लोकोकी रचना, ज्योतिषचक्रका निरूपण, ज्योतिः- शास्त्र, युद्धजयार्णव, षटकर्म, मंत्र, यंत्र, औषधसमूह, कुब्जिका आदिकी पूजा, छ प्रकारकी न्यासविधि, कोटिहोमविधि, मन्वंतरनिरूपण, ब्रह्मचर्यादी आश्रमोंके धर्म, श्रद्धाकल्पविधि, ग्रहयज्ञ, श्रोतस्मार्तकर्म, प्रायश्चितवर्णन तीर्थ, तीर्थ-व्रत आदिका वर्णन, वार-व्रतका कथन, नक्षत्रव्रतकी विधिका प्रतिपादन, मासिक व्रतका निर्देश, उत्तम दीपदानविधि, नवव्यूहपूजन, नरक-निरूपण, व्रतों और दानोंकी विधिका प्रतिपादन, नाडीचक्रका संक्षिप्त वर्णन, संध्याकी उत्तम विधि, गायत्रीके अर्थका निर्देश, लिंगस्तोत्र, राज्याभिषेकके मंत्रका प्रतिपादन, राजाओंके धार्मिक कृत्य, स्वप्नसंबंधी विचारका अध्याय ( या प्रसंग ), शकुन आदिका निरूपण, मण्डल आदिका निर्देश, रत्नदीक्षाविधि, रामोक्तनीतिका वर्णन, रत्नोंके लक्षण, धनुर्विद्या, व्यवहारदर्शन, देवासुरसंग्रामकी कथा, आयुर्वेद-निरूपण, गज आदिकी चिकित्सा, उनके रोगोंकी शांति, गौचिकित्सा, मनुष्यादि चिकित्सा, नाना प्रकारकी पूजा-पद्धति, विविधि प्रकारकी शांति, छन्द शास्त्र, साहित्य, एकाक्षर आदि कोष, सिद्ध शब्दानुशासन ( व्याकरण ), स्वर्गादी वर्गोंसे युक्त कोश, प्रलयका लक्षण, शारीरिक ( वेदांत )-का निरूपण, नरक-वर्णन, योगशास्त्र, ब्रह्मज्ञान तथा पुराणश्रवणका फल-इन विषयों का प्रतिपादन हुआ है। ब्राह्मण ! यही अग्निपुराण कहा गया है। जो अग्निपुराणको लिखकर सुवर्णमय कमल और तिलमयी धेनुके साथ मार्गशीर्षकी पूर्णिमाके दिन पौराणिक ब्राह्मणको विधिपूर्वक दान लेता है, वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। इस प्रकार तुम्हें अग्निपुराणकी अनुक्रमाणिका बताई गई है, जो इसे पढ़ने और सुननेवाले मनुष्यको इहलोक और परलोकमें भी मोक्षदेने वाली है।

अध्याय ७७ भविष्यपुराणका परिचय तथा उसके पाठ, श्रवण एवं दानका माहात्म्य

ब्रह्माजी कहते हैं—अब मैं तुम्हें सब प्रकारकी सिद्धि प्रदान करनेवाले भविष्यपुराणका वर्णन करता हूं, जो सब लोगोंके अभीष्ट मनोरथको शुद्ध करने वाला है; जिसमें मैं ब्रह्मा संपूर्ण देवताओंका आदि स्रष्टा बताया गया हूं। पूर्वकालमें सृष्टिके लिए स्वयंभू मनु उत्पन्न हुए। उन्होंने मुझे प्रणाम करके सर्वार्थसाधक धर्मके विषयमें प्रश्न किया। तब मैंने प्रश्न होकर उन्हें धर्मसंहिताका उपदेश किया। परम बुद्धिमान व्यास जब पुराणोंका विस्तार करने लगे तो उन्होंने उस धर्मसहिंताके पांच विभाग किए। उनमें नानक प्रकारकी आश्चर्यजनक कथाओंसे युक्त अघोरकल्पका वृतांत है। उस पुराणमें पहला पर्व पर्व  ‘ब्रह्मपर्व ‘ के नामसे प्रसिद्ध है। इसीमें ग्रंथका उपक्रम है। सूत-शोनक-संवादमें पुराणविषयक प्रश्न है। इसमें अधिकतर सूर्यदेवका ही चरित्र है। अन्य सब उपाख्यान भी इसमें आये हैं। इसमें सृष्टि आदिके लक्षण बताए गए हैं। शास्त्रोंका तो यहां सर्वस्वरूप है। इसमें पुस्तक, लेखक और लेख्यका भी लक्षण दिया गया है। सब प्रकारके संस्कारोंका भी लक्षण बताया गया है। पक्षकी आदिसात तिथियोंके साथ कल्प कहे गए हैं। अष्टमी आदि तिथियोंके आठ कल्प ‘ वैष्णव पर्व ‘ में बताए गए हैं। ‘ शेवपर्व ‘ में ब्रह्मपर्वसे भिन्न कथाएं हैं। ‘ सौरपर्व ‘ में अंतिम कथाओंका संबंध देखा जाता है। तत्पश्चात ‘ प्रतिसर्ग पर्व ‘ है, जिसमें पुराणके उपसंहार का वर्णन है। यह नाना प्रकारके  उपाख्यानोंसे युक्त पांचवा पर्व है। इन पांच पर्वोंमेंसे पहलेमें मुझे ब्रह्माकी महिमा अधिक है। दूसरे और तीसरे पर्वोंमें धर्म, काम और मोक्ष विषयको लेकर क्रमशः भगवान विष्णु तथा शिवकी महिमाका वर्णन है। चौथे पर्वमें सूर्यदेवकी महिमाका प्रतिपादन किया गया है। अंतिम या पांचवा पर्व प्रतिसर्ग नामसे प्रसिद्ध है। इसमें सब प्रकार की कथाएं हैं। बुद्धिमान व्यासजीने इस पर्वका भविष्यकी कथाओंके साथ उल्लेख किया है। भविष्यपुराणके श्लोक संख्या चौदह हज़ार बताई गई है। इसमें ब्रह्मा, विष्णु आदि सब देवताओंकी क्षमताका प्रतिपादन किया गया है। ब्रह्म सर्वत्र सम है। गुणोंके तारतम्यसे उसमें विषमता प्रतीत होती है। ऐसा श्रुति का कथन है। जो विद्वान ईर्ष्या-द्वेष छोड़कर सुवर्ण, वस्त्र, माला, आभूषण, गंध, पुष्प, धुप दीप और भक्ष भोजन आदि नैवेद्यसे विधिपूर्वक वाचक पुस्तककी पूजा करता है और भविष्यपुराणकी पुस्तकको लिखकर गुडधेनुके साथ पौषकी पूर्णिमाको उसका दान करता है तथा जो जितेंद्रिय, निराहार अथवा एक समय भविष्यभोजी एवं एकाग्रचित होकर इस पुराणका पाठ श्रवण करता है, वह भयंकर पतकोसे मुक्त होकर ब्रह्मलोकमें चला जाता है। जो भविष्यपुराणकी इस अनुक्रमाणिकाका पाठ अथवा श्रवण करता है, वह भी भोग एवं मोक्ष प्राप्त कर लेता है।

अध्याय ७८ ब्रहावैवर्तपुराणका परिचय तथा उसके पाठ, श्रवण एवं ज्ञान आदिकी महिमा

   ब्रह्माजी कहते हैं—वत्स ! सुनो, अब मैं तुम्हें दसवें पुराण ब्रह्मवैवर्तका परिचय देता हूं, जो वेदमार्गका साक्षात्कार करनेवाला है। जहां देवर्षि नारदको उनके प्रार्थना करने पर भगवान सवर्णीने संपूर्ण पुरणौकत विषयका उपदेश किया था। यह पुराना अलौकिक एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका सारभूत है। इसके पाठ और श्रवणसे भगवान विष्णु और शिवमें प्रीति होती है। उन दोनोंमें अभेद-सिद्धिके लिए इस उत्तम ब्रह्मवैवर्तपुराणका उपदेश किया गया है। मैंने रथनतर कल्पका जो वृतांत बताया था, उसीको वेदवेता व्यासने संक्षिप्त करके शतकोटिपुराणमें कहा है। व्यासजीने ब्रह्मवैवर्तपुराणके चार भाग किए हैं, जिनके नाम है—’ ब्रह्मखंड ‘,’ प्रकृतिखंड ‘,’ गणेशखंड ‘ और ‘ श्रीकृष्णखंड ‘। इन चारों खंडोंसे युक्त यह पुराण आठारह हजार स्लोकका बताया गया है। उसमें सूत और महर्षियोंके संवादमें पुराणका उपक्रम है। उसमें पहला प्रकरण सृष्टिवर्णनका है। फिर नारदके और मेंरे महान विवादका वर्णन है, जिसमें दोनोंका पराभव हुआ था। मरीचे ! फिर नारदका शिवलोकगमन और भगवान शिवसे नारदमुनिको ज्ञानकी प्राप्तिका कथन है। तदनंतर शिवजीके कहनेसे ज्ञानलाभके लिए सावर्णिके सबसे सिद्धसेवित आश्रममें, जो परम पुण्यमय तथा त्रिलोकीको आश्चर्यमें डालनेवाला था, नारदजीके जानेकी बात कही गई है। यह ‘ ब्रह्मखंड ‘ है। जो श्रवण करनेपर सब पापोंका नाश कर देता है। तदनंतर नाराद-सावर्णि-संवादका वर्णन है। इसमें श्रीकृष्णका महात्म्य तथा नाना प्रकारके आख्यान और कथाएं है। प्रकृतिकी अंशभूत कलाओंके महत्म्य और पूजन आदिका विस्तारपूर्वक यथावत वर्णन किया गया है। यह ‘ प्रकृतिखंड ‘  है, श्रवण करनेपर  ऐश्वर्या प्रदान करता है। तदनंतर गणेशजन्मके विषयमें प्रश्न किया गया है। पार्वतीजीके द्वारा पुण्यक नामक महाव्रतके अनुष्ठानकी चर्चा है। तत्पश्चात कार्तिकेय और गणेशजीकी उत्पत्ति कही गई है। इसके बाद कार्तवीर्य अर्जुन और जमदगिरीनंदन परशुरामजीके अद्भुत चरित्रका वर्णन है, फिर गणेश और परशुरामजीमें जो महान विवाद हुआ था, उसका उल्लेख किया गया है। यह ‘ गणेशखंड ‘ है, जो सब विघ्नोंका नाश करनेवाला है। तदनंतर श्रीकृष्णजन्मके विषयमें प्रश्न और उनके जन्मकी अदभुत कथा है। फिर गोकुलमें गमन तथा पूतना आदिके वधकी आश्चर्यम्य कथा है। तत्पश्चात श्रीकृष्णकी  बाल्यावस्था और  कुमारावस्थाकी  विविध लीलाओंका वर्णन है। उसके बाद शरतपूर्णिमाकी रात्रिमें गोपसुंदरियोंके साथ श्रीकृष्णकी रासक्रीडाका वर्णन है। रहस्यमें श्रीराधाके साथ उनकी क्रीडाका बहुत विस्तारके साथ प्रतिपादन किया गया है। तत्पश्चात अक्रूरजीके साथ श्रीकृष्णके मथुरा गमनकी कथा है। कंस आदिका वध हो जानेके बाद श्रीकृष्णके  द्वीजोचित संस्कारका उल्लेख है। फिर काश्य गोत्रोतपन्न सांदीपनि मुनिसे उनके विद्याग्रहणकी अद्भुत कथा है। तदनंतर कालयवनका वध, श्रीकृष्णका द्वारकागमन तथा वहां उनके द्वारा कि हुई नरकासुर आदिके वधकी अद्भुत लीलाओंका वर्णन है।ब्राह्मण ! यह ‘ श्रीकृष्णखंड ‘ है, जो पढ़ने, सुनने, ध्यान करने, पूजा करने अथवा नमस्कार करने पर भी मनुष्यके संसार-दुखका खंडन करनेवाला है। व्यासजीके द्वारा कहे हुए इस प्राचीन और अलौकिक ब्रह्मवैवर्त पुराणका पाठ है अथवा श्रवण करनेवाला मनुष्य ज्ञान-विज्ञानका नाश करनेवाले भयंकर संसार-सागरसे मुक्त हो जाता है। जो इस पुराणको लिखकर माघकी पूर्णिमाको प्रत्यक्ष धेनुके साथ इसका दान करता है, वह अज्ञानबंधनसे मुक्त हो और  ब्रह्मलोकको प्राप्त कर लेता है। जो इस विषय सूची को पढ़ता अथवा सुनता है, वह भी भगवान श्रीकृष्णकी कृपासे मनोवांछित फल पा लेता है।

अध्याय ७९ लिंगपुराणका परिचय तथा उसके पाठ श्रवण एवं दानका फल

   ब्रह्माजी कहते हैं बेटा ! सुनो, अब मै लिंगपुराणका वर्णन करता हूं,  जो पढ़ने तथा सुनने वालों को भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है। भगवान शंकरने अग्निलिंगमें स्थित होकर अग्नि-कल्पकी कथाका आश्रय ले धर्म आदिकी सिद्धिके लिए मुझे जिस लिंगपुराणका उपदेश किया था, उसी व्यासदेवने दो भागोंमें बांटकर कहा है। अनेक प्रकारके  उपाख्यानोंसे विचित्र प्रतीत होनेवाला यह लिंगपुराण ग्यारह हजार श्लोकोंसे युक्त है और भगवान शिवकी महिमाका सूचक है। यह सब पुराणमें श्रेष्ठ तथा त्रिलोकीका सारभूत है। पुराण के आरंभमें पहले प्रश्न है।  फिर संक्षेपसे सृष्टिका वर्णन किया गया है। तत्पश्चात योगाख्यन और कल्पाख्यान का वर्णन है। इसके बाद लिंगके प्रादुर्भाव और उसकी पूजाकी विधि बताई गई है। फिर सनतकुमार और शेल आदिका पवित्र संवाद है। तदनंतर दाधिजी-चरित्र, युगधर्मनिरूपण, भुवन-कोश-वर्णन तथा सूर्यवंश और चंद्रवंश का परिचय है। तत्पश्चात विस्तारपूर्वक सृष्टिवर्णन, त्रिपुरकी कथा, लिंगप्रतिष्ठा तथा पशुपाश-विमोक्षका प्रसंग है, भगवान शिवके व्रत, सदाचार-निरूपण, प्रायश्चित, आरिष्ट, काशी तथा श्रीशैल का वर्णन है। फिर अंधकासुरकी कथा, वाराह-चरित्र, नृसिंह-चरित्र और जालंधर-वधकी कथा है।  तदनंतर शिवसहस्त्रनाम, दक्ष-यज्ञ-विध्वंस, मदन-दहन और पार्वतीके पाणीग्रहणकी कथा है। तत्पश्चात विनायककी कथा, भगवान शिवके तांडव-नृत्य-प्रसंग तथा उपमन्युकी कथा है। यह सब विषय लिंगपुराणके पूर्वभागमें कहे गए हैं। मुने ! इसके बाद विष्णुके महात्मयका कथन अंबरीषकी कथा तथा सन्तकुमार और नंदीश्वरके संवाद है। फिर शिव-महात्म्यके साथ स्नान, याग आदिका वर्णन, सूर्यपूजाकी विधि तथा  मुक्तिदायिनी शिवपूजाका वर्णन है। तदंनतर अनेक प्रकारके दान कहे गए हैं। फिर श्रद्धा-प्रकरण और प्रतिष्ठातंत्रका वर्णन है। तत्पश्चात अघोरकीर्तन, ब्रजेश्वरी महाविद्या, गायत्री-महिमा, त्र्यंबक-महत्म्य और पुराणश्रवणके फलका वर्णन है। इस प्रकार मैंने तुम्हें व्यासरचित लिंगपुराणके उत्तरभागका परिचय दिया है। यह भगवान रुद्रके महात्म्यका सूचक है। जो इस पुराणको लिखकर फाल्गुनकी पूर्णिमाको तिलधेनुके साथ ब्राह्मणको भक्तिपूर्वक इसका दान करता है। वह जरा-मृत्युरहित शिवसायुज्य प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य पापनाशक लिंगपुराणका पाठ या श्रवण करता है, वह इस लोकमें उत्तम भोग भोगकर अंतमें  शिवलोकको चला जाता है। वे दोनों भगवान शिवके भक्त हैं और गिरिजावल्लभ शिवके प्रशादसे इहलोक और परलोकका यथावत उपभोग करते हैं, इसमें तनिक भी संश्य नहीं है।

अध्याय ८० वाराहपुराणका लक्षण तथा उसके पाठ श्रवण एवं दानका माहात्म्य

श्रीब्रह्माजी कहते हैं— वत्स ! सुनो, अब मैं वाराहपुराणका वर्णन करता हूं। यह दो भागोंसे युक्त है और सनातन भगवान विष्णुके महात्म्यका सूचक है। पूर्वकालमें मेंरे द्वारा निर्मित जो मानव-कल्पका प्रसंग है, उसीको विद्वानोंमें श्रेष्ठ साक्षात नारायणस्वरूप वेदव्यासने भूतलपर इस पुराणमें लिपिबध किया है। वाराहपुराणकी श्लोक संख्या चौबीस हजार है। इसमें सबसे पहले पृथ्वी और वाराहभगवानका शुभ संवाद है। तदनंतर आदि सत्युगके वृतांतमें रेभ्यका चरित्र है। फिर दूर्ज्यके चरित्र और श्राद्धकल्पका वर्णन है। तत्पश्चात महातपाका आख्यान, गौरीकी उत्पत्ति, विनायक,नागगण, सेनानी ( कार्तिकेय ), आदित्यगन, देवी, धनद तथा दृश्य का आख्यान है। उसके बाद सत्यतपाके व्रतकी कथा दी गई है। तदनंतर अगस्त्यगीता तथा रूद्रगीता कहीं गई है। महिषासुरके विध्वंसमें ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र—तीनोंकी शक्तियोंका महत्व प्रकट किया गया है। तत्पश्चात पूर्वाध्याय,  श्वेतपाख्यान, गोप्रदानिका इत्यादि सतयुगका वृतांत मैंने प्रथम भागमें दिखाया है। फिर भगवर्द्धममें व्रत और तिर्थोकी कथाएं है। बतिस अपराधोका शारीरिक प्रायश्चित बताया गया है। प्रायः सभी तीर्थोंके पृथक-पृथक महात्मा का वर्णन है। मथुराकी महिमा विशेषरूपसे दी गई है। उसके बाद श्राद्ध आदिकी विधि है। तदनंतर ऋषिपुत्रके प्रसंगसे यमलोकका वर्णन, कर्मविपाक एवं विष्णुव्रतका निरूपण है। गोकर्णके पापनाशक महात्म्यका भी वर्णन किया गया है। इस प्रकार वाराहपुराणका यह पूर्वभाग कहा गया है। उत्तर भागमें पुलस्त्य और पुरुराजके संवादमें विस्तारके साथ सब तीर्थोंके महात्माका पृथक-पृथक वर्णन है। फिर संपूर्ण धर्मोकी व्याख्या और पुष्कर नामक पुण्य-पर्वका भी वर्णन है। इस प्रकार मैंने तुम्हें पापनाशक वाराहपुराणका परिचय दिया है। यह पढ़ने और सुननेवालोंके मनमें भगवदभक्ति बढ़ाने वाला है। जो मनुष्य इस पुराणको लिखकर और सोनेके गरुड़-प्रतिमा बनवाकर तिलधेनुके साथ चैत्रकी पूर्णिमाके दिन भक्ति पूर्वक ब्राह्मणको दान देता है, यह देवताओं तथा महर्षियों से बंधित होकर भगवान विष्णुका धाम प्राप्त कर लेता है। जो वाराहपुराणकि इस अनुक्रमाणिकाका श्रवण या पाठ करता है, वह भी भगवान विष्णुके चरणोंमें संसार-बंधनका नाश करने वाली भक्ति प्राप्त कर लेता है।

अध्याय ८१ स्कन्दपुराणकी विषयानुक्रमणिका, इस पुराणके पाठ श्रवण एवं दानका माहात्म्य

श्रीब्रह्माजी कहते हैं वत्स ! सुनो, अब मैं स्कन्दपुराणका वर्णन करता हैं, जिसके पद-पदमें साक्षात् महादेवजी स्थित हैं। मैंने शतकोटि पुराणमें शिवकी महिमका वर्णन किया, उसके सारभूत अर्थका व्यासजीने स्कन्दपुराणमें वर्णन किया है। उसमें सात खण्ड किये गये हैं। सब पापोंका नाश करनेवाला स्कन्दपुराण इक्यासी हजार श्लोकोंसे युक्त है। जो इसका श्रवण अथवा पाठ करता है, वह साक्षात् भगवान् शिव ही है। इसमें स्कन्दके द्वारा उन शैव धमका प्रतिपादन किया गया है, जो तत्पुरुष कल्पमें प्रचलित थे। वे सब प्रकारकी सिद्धि प्रदान करनेवाले हैं। इसके पहले खण्डका नाम ‘माहेश्वरखण्ड’ है, जो सब पापोंका नाश करनेवाला है। इसमें बारह हजारसे कुछ कम श्लोक हैं। यह परम पवित्र तथा विशाल कथाओंसे परिपूर्ण है। इसमें सैकड़ों उत्तम चरित्र हैं तथा यह खण्ड स्कन्दस्वामीके माहात्म्यका सूचक है। माहेश्वरखण्डके भीतर केदारमाहात्म्यमें पुराणका आरम्भ हुआ है। इसमें पहले दक्षयज्ञकी कथा है। इसके बाद शिवलित पूजनका फल बताया गया है। इसके बाद समुद्र मथनकी कथा और देवराज इन्द्रके चरित्रका वर्णन है। फिर पार्वतीका उपाख्यान और उनके विवाहका प्रसत है। तत्पश्चात् कुमारस्कन्दकी उत्पत्ति और तारकासुरके साथ उनके युद्धका वर्णन है। फिर पाशुपतका उपाख्यान और चण्डकी कथा है। फिर दूतकी नियुक्तिका कथन और नारदजीके साथ समागमका वृत्तान्त है। उसके बाद कुमार-माहात्म्यके प्रसमें पशतीर्थको कथा है। धर्मवर्मा राजाकी कथा तथा नदियों और समुद्रका वर्णन है। तदनन्तर इन्द्रद्युम्न और नाड़ीजदूकी कथा है। फिर महीनदी के प्रादुर्भाव और दमनककी कथा है। तत्पश्चात् मही-सागर-संगम और कुमारेशका वृत्तान्त है। इसके बाद नाना प्रकारके उपाख्या—सहित ताकयुद्ध और तारकासुरके वधका वर्णन है। फिर पच्चलितू-स्थापनकी कथा आयी है। तदनन्तर द्वीपोंका पुण्यमय वर्णनऊपरके लोकोंकी स्थिति ब्रह्माण्डकी स्थिति और उसका मान तथा वर्करेशकी कथा है। महाकालका प्रादुर्भाव और उसकी परम अद्भुत कथा है। फिर वासुदेवका माहात्म्य और कोटितीर्थका वर्णन है। तदनन्तर गुप्तक्षेत्रमें नाना तीथका आख्यान कहा गया है। पाण्डवोंकी पुण्यमयी कथा और बर्बरीककी सहायतासे महाविद्याके साधनका प्रसत है। तत्पश्चात् तीर्थयात्राकी समाप्ति है। तदनन्तर अरुणाचलका माहात्म्य तथा सनक और ब्रह्माजीका संवाद है। गौरीकी तपस्याका वर्णन तथा वहाँ भिन्न-भिन्न तीर्थाका वर्णन है। महिषासुरकी कथा और उसके वधका परम अद्भुत प्रसन कहा गया है। द्रोणाचल पर्वतपर भगवान् शिवका नित्य निवास बताया गया है। इस प्रकार स्कन्दपुराणमें यह अद्भुत ‘माहेश्वरखण्ड’ कहा गया है।

    दूसरा ‘वैष्णवखण्ड’  है। अब उसके आख्यानोंका मुझसे श्रवण करो। पहले भूमि वाराह-संवादका वर्णन है, जिसमे वेङ्कटाचलका पापनाशक माहात्म्य बताया गया है। फिर कमलाकी पवित्र कथा और श्रीनिवासकी स्थितिका वर्णन है। तदनन्तर कुम्हारकी कथा तथा सुवर्णमुखरी नदीके माहात्म्यका वर्णन है। फिर अनेक उपाख्यानोंसे युक्त भरद्वाजकी अद्भुत कथा है। इसके बाद मतन और अजनके पापनाशक संवादका वर्णन है । फिर उत्कलप्रदेशके पुरुषोत्तम का माहात्म्य कहा गया है। तत्पश्चात् मार्कण्डेयजीकी कथा राजा अम्बरीषका वृत्तान्त, इन्द्रद्युम्रका आख्यान और विद्यापतिकी शुभ कथाका उल्लेख है। ब्रह्मान् ! इसके बाद जैमिनि और नारदका आख्यान है,फिर नीलकण्ठ और नृसिंहका वर्णन है । तदनन्तर अश्वमेंध यज्ञकी कथा और राजाका ब्रह्मलोकमें गमन कहा गया है । तत्पश्चात् रथयात्रा विधि और जप तथा स्नानकी विधि कही गयी है। फिर दक्षिणामूर्तिका उपाख्यान और गुण्डिचाकी कथा है। रथरक्षाकी विधि और भगवान्के शयनोत्सवका वर्णन है। इसके बाद राजा श्वेतका उपाख्यान कहा गया है। फिर पृथउत्सवका निरूपण है। भगवान्के दोलोत्सव तथा सांवत्सरिक व्रतका वर्णन है। तदनन्तर उद्दालकके नियोगसे भगवान् विष्णुकी निष्काम पूजाका प्रतिपादन किया गया है। फिर मोक्ष-साधन बताकर नाना प्रकारके योगोंका निरूपण किया गया है। तत्पश्चात् दशावतारकी कथा और स्नान आदिका वर्णन है। इसके बाद बदरिकाश्रम तीर्थका पापनाशक माहात्म्य बताया गया है। उस प्रसंगमें अग्नि आदि तीर्थों और गरुड़शिलाकी महिमा है। वहाँ भगवान्के निवासका कारण बताया गया है। फिर कपालमोचन-तीर्थपच्चधारा तीर्थ और मेंरुसंस्थानकी कथा है। तदनन्तर कार्तिकमासका माहात्म्य प्रारम्भ होता है। उसमें मदनालसके माहात्म्यका वर्णन है। धूम्रकेशका उपाख्यान और कार्तिकमासमें प्रत्येक दिनके कृत्यका वर्णन है। अन्तमें भीष्मपचकतिका प्रतिपादन किया है, जो भोग और मोक्ष देनेवाला है।

   तत्पश्चात् मार्गशीर्षक माहात्यमें नानकी वि, बतायी गयी है। फिर पुण्ड्रादि-कीर्तन और मालाधारणका पुण्य कहा गया है। भगवान्को पछामृत स्नान करानेका तथा घण्टा बजाने आदिका प्र फल बताया गया है। । नाना प्रकारके फूलोंसे भगवत्पूजनका फल और तुलसीदलका माहा कहा गया है। भगवान्को नैवेद्य लगानेकी महिमा एकादशीके दिन कीर्तन, अखण्ड एकादशी व्रत हनेका पुण्य और एकादशीकी रातमें जागरण करनेका फल बताया गया है। इसके बाट मत्स्योत्सवका विधान और नाममाहात्म्यका कीर्तन है। भगवान्के ध्यान आदिका पुण्य तथा मथुराका माहात्म्य बताया गया है। मथुरातीर्थका उत्तम माहात्म्य अलग कहा गया है और वहाँक बारह वनोंकी महिमाका वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् इस पुराणमें श्रीमद्भागवतके उत्तम माहात्म्यका प्रतिपादन किया गया है। इस प्रसंगमें वज़नाभ और शाण्डिल्यके संवादका उल्लेख किया गया है, जो व्रजकी आन्तरिक लीलाओंका प्रकाशक है। तदनन्तर माघमासमें स्नान, दान और जप करनेका माहात्म्य बताया गया है, जो नाना प्रकारके आख्यानोंसे युक्त है। माघ माहात्म्यका दस अध्यायोंमें प्रतिपादन किया गया है। तत्पश्चात् वैशाख माहात्म्यमें शय्यादान आदिका फल कहा गया है। फिर जलदानका विधि, कामोपाख्यान, शुकदेवचरितव्याधकी अद्भुत कथा और अक्षयतृतीया आदिके पुण्यका विशेषरूपसे वर्णन है। इसके बाद अयोध्या-माहात्म्य प्रारम्भ करके उसमें चक्रतीर्थ, ब्रह्मतीर्थ, ऋणमोचनतीर्थ, पापमोचनतीर्थ, सहस्रधारातीर्थ, स्वर्गद्वारतीर्थ, चन्द्रहरितीर्थ, धर्महरितीर्थ, स्वर्णवृष्टितीर्थकी कथा और तिलोदा-सरयू-संगमका वर्णन है। तदनन्तर सीताकुण्ड, गुप्तहरितीर्थ, सरयू-घाघरा-संगम, गोप्रचारतीर्थ, क्षीरोदकतीर्थ और बृहस्पतिकुण्ड आदि पाँच तीर्थोंकी महिमाका प्रतिपादन किया गया है। तत्पश्चात् घोषार्क आदि तेरह तीर्थोंका वर्णन है। फिर गयापके सर्वपापनाशक माहात्म्यका कथन है। तदनन्तर माण्डव्याश्रम आदि, अजित आदि तथा मानस आदि तीर्थाका वर्णन किया गया है। इस प्रकार यह दूसरा ‘वैष्णवखण्ड’ कहा गया है।

   मरीचे ! इसके बाद परम पुण्यदायक `ब्रह्म-खण्ड’ का वर्णन सुनो, जिसमें पहले सेतुमाहात्म्य प्रारम्भ करके वहाँके ज्ञान और दर्शनका फल बताया गया है। फिर गालवकी तपस्या तथा राक्षसकी कथा है। तत्पश्चात् देवीपत्तनमें चक्रतीर्थ आदिकी महिमा, वेतालतीर्थका माहात्म्य और पापनाश आदिका वर्णन है। मर्केल आदि तीर्थाका माहात्म्य, ब्रह्मकुण्ड आदिका वर्णन, हनुमतकुण्डकी महिमा तथा अगस्त्यतीर्थके फलका कथन है । रामतीर्थ आदिका वर्णनलक्ष्मीतीर्थका निरूपण शद्ध आदि तीकी महिमा तथा साक्ष्यामृत आदि तीर्थके प्रभावका वर्णन है। इसके बाद धनुषकोटि आदिका माहात्म्य, क्षीरकुण्ड आदिकी महिमा तथा गायत्री आदि माहात्म्य कथाका वर्णन है। फिर रामेंश्वरकी महिमातत्त्वज्ञानका उपदेश तथा सेतु-यात्रा विधिका वर्णन है, जो मनुष्योंको मोक्ष देनेवाला है। तत्पश्चात् धर्मारण्यका उत्तम माहात्म्य बताया गया है, जिसमें भगवान् शिवने स्कन्दको तत्त्वका उपदेश किया है। फिर धमरण्यका प्रादुर्भावउसके पुण्यका वर्णन कर्मसिद्धिका उपाख्यान तथा ऋषिवंशका निरूपण है। तदनन्तर वहाँ अप्सरासम्बन्धी मुख्य तीर्थका माहात्म्य कहा गया है। इसके बाद वर्णाश्रम धर्मके तत्त्वका निरूपण किया गया है। तदनन्तर देवस्थानविभाग और बकुलादित्यकी शुभ कथाका वर्णन है। वहाँ छत्रानन्दा, शान्ता, श्रीमाता, मतङ्गिनी और पुण्यदा-ये पाँच देवियाँ सदा स्थित बतायी गयी हैं । इसके बाद वहाँ इन्देश्वर आदिको महिमा तथा द्वारका आदिका निरूपण है । लोहासुरक्री कथा, गंगाकूपका वर्णन, श्रीरामचन्द्रजीका चरित्र तथा सत्यमन्दिरका वर्णन है । फिर जीर्णोद्धारको महिमाका कथन, आसनदान, जातिभेद-वर्णन तथा स्मृति-धर्मका निरूपण है । तत्पश्चात् अनेक उपाख्यानोंसे युक्त वैष्णवधर्मोंका वर्णन है । तदनन्तर पुण्यमय चातुर्मास्यका माहात्स्य प्रारम्भ करके उसमें पालन करने योग्य सब धर्मोंका निरूपण किया गया है । फिर दानकी प्रशंसा, व्रतको महिमा, तपस्या और पूजाका माहात्स्य तथा सव्यूद्रका कथन है । तदनन्तर प्रकृतियोंके भेदका वर्णन, शालग्रामके तत्त्वका निरूपण, तास्कासुरके वधका उपाय, गरुड-पूज़नकी महिमा, विष्णुका शाप, बृक्षभावकी प्राप्ति, पार्वतीका अनुनय, भगवानशिवका ताण्डवनृत्य, राम-नामका महिमाका निरूपण, शिव-लिङ्गपतनकी कथा, पैजवन शूद्रको कथा, पार्वतीजीका जन्म और चरित्र, तारकासुरका अद्भुत वध, प्रणवके ऐश्वर्यका कथन, तारकासुरके चरित्रका पुनरवर्णन, दक्ष-यज्ञकी समासि, द्धादशाक्षरमन्त्रका निरूपण, ज्ञानयोगका वर्णन, द्वादश सूर्योकी महिमा तथा चातुमस्थिन्माहात्स्यके श्रवण आदिके पुण्यका वर्णन किया गया है जो मनुष्योंकेलिये कल्यापदायक है । तदनन्तर ब्राहमेंत्तर भागमेँ भगवान् शिवको अद्भुत महिमा, पँचाक्षर-मन्त्रके माहात्स्य तथा मोकर्णको महिमाका वर्णन है । तत्पआत्शिवराविको महिमा, प्रदोषव्रतका वर्णन तथा सोमवार-व्रतको महिमा एवं सीमन्तिनीको कथा है । फिर भद्राथुको उत्पत्तिका वर्णन, सदाचार-निरूपण, शिवकवचका उपदेश, भद्रायुके विवाहका वर्णन, भद्रायुको महिमा, भस्म-माहात्म्य-वर्णन शबरका उपाख्यान उमा-महेश्वर-व्रतकी महिमा, रुद्राक्षका माहत्म्य रुद्राध्यायके पुण्य तथा ब्रह्मखंडके श्रवण आदिका पुण्यमयी महिमा का वर्णन है। इस प्रकार यह ‘ब्रह्मखण्ड’ बताया गया है ।

   इसके बाद चौथा परम उत्तम ‘काशीखण्ड’ है, जिसमें विनध्यपर्वत और नारदजीके संवादका वर्णन है । फिर सत्यलोकका प्रभाव, अगस्त्यके आश्रममें देवताओंका आगमन, पतिव्रताचरित्र तथा तीर्थयात्राकी प्रशंसा है । तदनन्तर सप्तपुरीका वर्णन, संयमिनीका निरूपण, शिवशर्माको सूर्य, इन्द्र और अग्निके लोककी प्राप्तिका उल्लेख है । अग्निका प्रादुर्भाव, निऋति तथा वरुणक्री उत्पत्ति, गन्थवती, अलकापुरी और ईंशानपुरीके उद्भवका वर्णन, चन्द्र, सूर्य, बुध, मङ्गल तथा बृहस्पतिके लोक, ब्रह्मलोक, विष्णुलोक, ध्रुवलोक और तपोलोकका वर्णन है । तत्पश्चात् ध्रुवलोककी पुण्यमयी कथा, सत्यलोकका निरीक्षण, स्कन्द-अगस्त्य-संवाद, मणिकणिकाक्री उत्पति, गंगाजी प्राकट्य, गंगासहस्त्रनाम, काशीपुरीक्री प्रशंसा, भैरवका आविर्भाव, दण्डपाणि तथा ज्ञानचापीका उद्भव, कलावतीकी कथा, सदाचारनिरूपण, ब्रह्मचारीका आख्यान, स्त्रीके लक्षण, कर्तव्याकर्तव्यका निर्देश, अवीमुक्तेश्वरका वर्णन, गृहस्थ योगीके धर्म, कालज्ञान, दिवोदासककी पुण्यमयो कथा, काशीका वर्णन, भूतलपर मायागणपतिका प्रादुर्भाव, विष्णुमायाका प्रपञ्च, दिवोदासका मोक्ष, पच्चनदतीर्धकी उत्पत्ति, विन्दुमाधवका प्राकट्य, तदनन्तर काशीका वैष्णवतीर्थ कहलाना; फिर शूलघारी शङ्करका काशीमेँ आगमन, जेगीषव्यके साथ संवाद, महेश्वरका ज्येष्ठेश्वर नाम होना, क्षेत्राख्यान, कन्दुकेश्वर और व्याघेश्वरका प्रादुर्भाव, शैलेश्वर, रलेश्वर तथा कृत्तिवासेश्वरका प्राकट्य, देवताओँका अधिष्ठान, दुर्गासुरका पराक्रम, दुर्गाजीकी विजय, ॐकारेश्र्वरकी वर्णन, पुन: ॐकारका माहात्म्य, त्रिलोचनका प्रादुर्भाव, केदरेश्वरका आख्यान, धर्मेश्वरकी कथा, विष्णुभुजाका प्राकट्य, वीरेश्वरका आख्यान, गंगा-माहात्म्यकीर्तन, विश्वकर्मेश्वरकी महिमा, दक्षयज्ञोंद्भव, सतीश और अमृतेश आदिका माहात्म्य, पराशरनन्दन व्यासजीकी भुजाओंका स्तम्भन, क्षेत्रके तीर्थोंका समुदाय, मुक्तिमण्डपको कथा, विश्वनाथजीका वैभव, तदनन्तर काशीकी यात्रा और परिक्रमाका वर्णन-ये  ‘काशीखण्ड’ के विषय हैं ।

   तदनन्तर पाँचवें ‘अवन्तीखण्ड’ का वर्णन सुनो । इसमें महाकालवनका आख्यान, ब्रह्माजीके मस्तकका छेदन, प्रायश्चितविधि, अग्निकी उत्पति, देवताओँका आगमन, देवदीक्षा, नाना प्रकारके पातकोंका नाश करनेवाला शिवस्तोत्र, कपालमोचनको कथा, महाकालवनकी स्थिति, कलकलेश्वस्का सर्वपापनाशक़ तीर्थ, अप्सराकुण्ड, पुण्यदायक रुद्रसरोवर, कुटुम्बेश, विद्याधरेश्वर तथा मर्कटेश्वर तीर्थका वर्णन है । तत्पश्चात् स्वर्गद्वार, चतु:सिन्धुतीर्थ, शङ्करवापिका, शङ्करादित्य, पापनाशक गंधवतीतीर्थ, दशाश्वमेंधिकतीर्थ, अनंशतीर्थ, हरिसिद्धिप्रदतीर्थ, पिशाचादियात्रा, हनुमदीश्वर, कवचेश्वर, महाकालेश्वरयात्रा, वल्मीकेश्वरतीर्थ, शुक्रेश्वर और नक्षत्रेश्वरतीर्थका उपाख्यान, कुशस्थलीकी परिक्रमा, अक्रूरतीर्थ, एकपादतीर्थ, चन्द्रगर्कवैभवतीर्ध, करभेशतीर्थ, लडुकेश आदि तीर्थ, मार्कण्डेश्वरतौर्थ, यज्ञवापीतीर्थ, सोमेश्वरतीर्थ, नरकान्तकतीर्थ, केदारेश्वर, रामेश्वर, सौभागेश्वर तथा नरादित्यतीर्थ, केशवादित्य, शक्तिभेदतीर्थ, स्वर्णसारमुखतीर्थ, ॐकरेश्वर आदि तीर्थ, अन्थकासुरके द्वारा स्तुति-कीर्तन, कालवनमेँ शिवलिंगोकी संख्या तथा स्वर्णश्रृंङ्गश्वस्तीर्थका वर्णन है । फिर कुशस्थली, अवन्ती एवं उज्जयिनीपुरीके पद्मावती, कुमुद्वती, अमरावती, विशाला तथा प्रतिकल्प-इन नामो का उल्लेख है । इनका उच्चारण ज्वरक्री शान्ति करनेवाला है । तत्पश्चात् शिप्रामें स्नान आदिका फल, नागोंद्वारां की हुईं भगवान् शिवको स्तुति, हिरण्याक्षवधकी कथा, सुन्दरकुण्डकतीर्थ, नीलगंगा, पुष्करतीर्घ, विनध्यवासनतीर्थ, पुरुषोत्तमतीर्थ, अघनाशनतीर्थ, गोमतीतीर्थ, वामनकुण्ड, विष्णुसहस्त्रनाम, वीरेश्वर सरोवर, कालभैरवतीर्ध, नागपञ्चमीको महिमा, नरसिंहजयन्ती, कुटुम्बेश्वरयात्रा, देवसाधककीर्तन, कर्कराज नामक तीर्थ, विष्नेशादितीर्थ और सुरोहनतीर्थका वर्णन किया गया है। रुद्रकुण्ड आदिमें अनेक तीर्थका निरूपण किया गया है। तदनन्तर आठ तीर्थोंकी पुण्यमयी यात्राका वर्णन है। इसके बाद नर्मदानदीका माहात्म्य बतलाया गया है, जिसमें धर्मपुत्र युधिष्ठिरके वैराग्य तथा मार्कण्डेयजीके साथ उनके समागमका वर्णन है।

   तदनन्तर पहलेके प्रलयकालीन अनुभवका वर्णन,अमृत-कीर्तन, कल्प-कल्पमें नर्मदाके पृथक्-पृथक् नामोंका वर्णन, नर्मदाजीका आर्षस्तोत्र, कालरात्रिकी कथा, महादेवजीकी स्तुति, पृथक कल्पकी अद्भुत कथा, विशल्याकी कथा, जालेश्वरकी कथा, गौरीव्रतका वर्णन, त्रिपुरदाहकी कथा, देहपातविधि, कावेरीसंगम, दारुतीर्थ, ब्रह्मावर्त ईश्वरकथा, अग्नितीर्थ, सूर्यतीर्थ, मेंघनादादितीर्थ, दारुकतीर्थ, देवतीर्थ, नर्मदेशतीर्थ, कपिलातीर्थ, करनचकतीर्थ, कुण्डलेशतीर्थ, पिप्पलादतीर्थ, विमलेश्वरतीर्थ, शूलभेदनतीर्थ, शचीहरणकी कथा, अभ्रकका वध, शूलभेदोद्भवतीर्थ, पृथक्-पृथक दानधर्म, दीर्घतपाकी कथा, ऋष्यशृंगाका उपाख्यान, चित्रसेनकी पुण्यमयी कथा, काशिराजका मोक्ष, देवशिलाकी कथा, शबरीतीर्थपवित्र व्याधोपाख्यान, पुष्करिणीतीर्थ, अर्कतीर्थ, आदित्येश्वरतीर्थ, शक्रतीर्थ, करोटिकतीर्थ, कुमारेश्वरतीर्थ, अगस्त्येश्वरतीर्थ, आनन्देश्वरतीर्थ, मातृतीर्थ, लोकेश्वर, धनदेश्वर, मङ्गलेश्वर तथा कामजतीर्थ, नागेश्वरतीर्थ, गोपारतीर्थ, गौतमतीर्थ, शंखचूडतीर्थ, नारदेश्वरतीर्थ, नन्दिकेश्वरतीर्थ, वरणेश्वरतीर्थ, दधिस्कन्दादितीर्थ, हनुमदीश्वरतीर्थ, रामेश्वर आदि तीर्थ, सोमेश्वर पिन्गलेश्वर, ऋणमोक्षेश्वर, कपिलेश्वर, पूतिकेश्वर जलेशय, चण्डार्क, यमतीर्थ, काल्होडीश्वर, नन्दिकेश्वर नारायणेश्वर, कोटीश्वर, व्यासतीर्थ, प्रभासतीर्थ, नागेश्वरतीर्थ, संकर्षणतीर्थ, प्रश्रयेश्वरतीर्थ, पुण्यमय एरण्डी-सलूमतीर्थ, सुवर्णशिलतीर्थ, करन्चतीर्थ, कामरतीर्थ, भाण्डीरतीर्थ, रोहिणीभवतीर्थ, चक्रतीर्थ, धोतपापतीर्थ, अंगीरसतीर्थ, कोटितीर्थ, अन्योन्यतीर्थ, अंगारतीर्थ, त्रिलोचनतीर्थ, इन्देशतीर्थ, कम्बुकेशतीर्थ, सोमेंशतीर्थ, कोहलेशतीर्थ, नर्मदातीर्थ, अर्कतीर्थ, आग्नेयतीर्थ, उत्तम भार्गवेश्वरतीर्थ, ब्राह्मतीर्थ, देवतीर्थ, मार्गशतीर्थ, आदिवाराहेश्वर, रामेंश्वरतीर्थ, सिद्धेश्वरतीर्थ, अहल्यातीर्थ, कंकटेश्वरतीर्थ, शक्रतीर्थ, सोमतीर्थ, नादेशतीर्थ, कोयेश तीर्थ, रुक्मिणीसम्भवतीर्थ, योजनेशतीर्थ, वराहेशतीर्थ, द्वादशीतीर्थ, शिवतीर्थ, सिद्धेश्वरतीर्थ, मङ्गलेश्वरतीर्थ, लिङ्गवाराहतीर्थ, कुण्डेशतीर्थ, श्वेतवाराहतीर्थ, भार्गवेशतीर्थ, रवीश्वरतीर्थ, शुक्ल आदि तीर्थ, हुकारस्वामितीर्थ, संगमेश्वरतीर्थ, नहुषेश्वरतीर्थ, मोक्षणतीर्थ, पंचगोपदतीर्थ, नागशावकतीर्थ, सिद्धेशतीर्थ, मार्कण्डेयतीर्थ, अक्रूरतीर्थ, कामोदतीर्थ, शूलारोपतीर्थ, माण्डव्यतीर्थ, गोपकेश्वरतीर्थ, कपिलेश्वरतीर्थ, पिङ्गलेश्वरतीर्थ, भूतेश्वरतीर्थ, गंगातीर्थ, गौतमतीर्थ, अश्वमेंधतीर्थ, भृगुकच्छतीर्थ, पापनाशक केदारेशतीर्थ, कलकलेश (या कनखलेश) तीर्थ, जालेशतीर्थ, शालग्रामतीर्थ, वराहतीर्थ, चन्द्रप्रभासतीर्थ, आदित्यतीर्थ, श्रीपदतीर्थ, हंसतीर्थ, मूलस्थानतीर्थ, शूलेश्वरतीर्थ, उग्रतीर्थ, चित्रदेवकतीर्थ, शिखीश्वरतीर्थ, कोटितीर्थ, दशकन्यतीर्थ, सुवर्णतीर्थ, ऋणमोचनतीर्थ, भारभूतितीर्थ, पुन्खमुण्डित तीर्थ, आमलेशतीर्थ, कपालेशतीर्थ, श्रीङ्गरण्डीतीर्थ, कोटितीर्थ और लोटलेशतीर्थ आदिका वर्णन है। इसके बाद फलस्तुति कही गयी है। तदनन्तर कृमिजङ्ग्लमाहात्म्यके प्रसंगमें रोहिताश्वकी कथा, धुन्धुमारका उपाख्यान, उसके वधका उपाय, धुन्धु-वध, चित्रवहका उद्भव, उसकी महिमा, चण्डीशका प्रभाव, रतीश्वर, केदारेश्वर, लक्षतीर्थ, विष्णुपदी तीर्थ, मुखारतीर्थ, च्यवनान्धतीर्थ, ब्रह्मसरोवर, चक्रतीर्थ, ललितोपाख्यान, बहुगोमुखतीर्थ, रुद्रावर्ततीर्थ, मार्कण्डेयतीर्थ, पापनाशकतीर्थ, श्रवणेशतीर्थ, शुद्धपटतीर्थ, देवान्धुप्रेततीर्थ, जिहोदतीर्थका प्राकट्य, शिवोद्भेदतीर्थ और फल-श्रुति-इन विषयोंका वर्णन है। यह सब `अवन्ती-खण्ड` का वर्णन किया गया है, जो श्रोताओंके पापका नाश करनेवाला है।

   इसके अनन्तर ‘नागरखण्ड’ का परिचय दिया जाता है। इसमें लिंगोत्पत्तिका वर्णन, हरिश्चन्द्रकी शुभ कथा, विश्वामित्रका माहात्म्य, त्रिशंकुका स्वर्गलोकमें गमन, हाटकेश्वर-माहात्म्यके प्रसंगमें वृत्रासुरका वध, नागबिल, शंखतीर्थ, अचलेश्वरका वर्णन, चमत्कारपुरकी चमत्कारपूर्ण कथा, गयशीर्षतीर्थ, बालशतीर्थ, बालमण्डतीर्थ, मृगतीर्थ, विष्णुपाद, गोकर्ण, युगरूप, समाश्रय तथा सिद्देश्वरतीर्थ, नागसरोवर, सप्तर्षितीर्थ, अगस्त्यतीर्थ, भ्रूणगर्त, नलेशतीर्थ, भीष्मतीर्थ, वैडूरमरकततीर्थ, शर्मिष्ठातीर्थ, सोमनाथतीर्थ, दुर्गातीर्थ, आनर्तकेश्वरतीर्थ, जमदग्निवधकी कथा, परशुरामद्वारा क्षत्रियोंके संहारका कथानक, रामहद, नागपुरतीर्थ, षइलिंगतीर्थ, यज्ञभूतीर्थ, मुण्डीरादितीर्थ, त्रिकार्कतीर्थ, सतीपरिणयतीर्थ, रुद्रशीर्षतीर्थ, योगेशतीर्थ, बालखिल्यतीर्थ, गरुड़तीर्थ, लक्ष्मीजीका शाप, सतविंशतीर्थ, सोमप्रासादतीर्थ, अम्बावृद्धतीर्थ, अमितीर्थ, ब्रह्मकुण्ड, गोमुखतीर्थ, लोहयष्टितीर्थ, अजापालेश्वरीदेवी, शनैश्चरतीर्थ, राजवापी, रामेंश्वर, लक्ष्मणेश्वर, कुशेश्वर, लवेश्वरलिंग, सर्वोत्तमोत्तम अड़सठ तीर्थोंके नाम, दमयन्तीपुत्र त्रिजातकी कथा, रेवती अम्बाकी स्थापना, भक्तिकातीर्थका आविर्भाव, क्षेमकरीदेवी, केदारक्षेत्रका प्रादुर्भाव, शुक्लतीर्थ, मुखारकतीर्थ, सत्यसन्ध्येश्वरका आख्यान, कर्णोत्पलाकी कथा, अटेश्वरतीर्थ, याज्ञवल्क्यतीर्थ गौरीगणेशतीर्थ, वास्तुपदतीर्थका आख्यान, अजागृहादेवीको कथा, सौभाग्यान्धतीर्थ, शूलेश्वरलिंग, धर्मराजकी कथा, मिष्टान्न देवेश्वरका आख्यान, तीन गणपतिका आविर्भाव, जावालिचरित, मकरेशकी कथा, कालेश्वरी और अन्धकका आख्यान, आप्सरसकुण्ड, पुष्पादित्यतीर्थ, रोहिताश्वतीर्थ, नागर ब्राह्मणोंकी उत्पत्तिका कथन, विश्वामित्रचरित्र, सारस्वततीर्थ, पिप्पलादतीर्थ, कंसारीश्वरतीर्थ, पिण्डकतीर्थ, ब्रह्माका यज्ञानुष्ठा, सावित्रीकी कथा, रैवतका आख्यान, भ्रतृयज्ञका वृत्तान्त, मुख्य तीर्थोंका निरीक्षण, कुरुक्षेत्र, हाटकेश्वरक्षेत्र और प्रभासक्षेत्र-इन तीनों क्षेत्रोंका वर्णन, पुष्करारण्य, नैमिषारण्य तथा धर्मारण्य-इन तीन अरण्यों वर्णन, वाराणसी, द्वारका तथा अवन्ती- इन तीन, पुरियोंका वर्णन, वृन्दावन, खाण्डववन और अद्वैतवन-इन तीन वनोंका उल्लेख, कल्पग्राम, शालग्राम तथा नन्दिग्राम-इन तीन उत्तम ग्रामोंका प्रतिपादन, असितीर्थ, शुक्लतीर्थ और पितृतीर्थ इन तीन तीर्थोंका निरूपण, श्रीशैल, अबुरदगिरि तथा रैवतगिरि-इन तीन पर्वतोंका वर्णन, गंगा, नर्मदा और सरस्वती-इन तीन नदियोंका नाम उच्चारण, इनमेंसे एक-एकका कीर्तन साढ़े तीन करोड़ तीर्थोंका फल देनेवाला है-इत्यादि विषयोंका प्रतिपादन किया गया है। कूपिकातीर्थ,शंखतीर्थ, चामरतीर्थ और बालमण्डनतीर्थ-इन चारोंका उच्चारण, हाटकेश्वरक्षेत्रका फल देनेवाला है। इन सब तीर्थके वर्णनके पश्चात् साम्बादित्यकी महिमा, श्राद्धकल्पका निरूपण, युधिष्ठिर-भीष्म-संवाद, अन्धक (अन्धकारपूर्ण नरक), जलशायीका माहात्म्य, चातुर्मास्य-व्रत, अशून्यशयनव्रत, मड्कणेशकी महिमा, शिवरात्रिका माहात्म्य, तुलापुरुषदान, पृथ्वीदान, बालकेश्वर, कपालमोचनेश्वर, पापपिण्ड, सातलिंग्म, युगमान आदिका वर्णन, निम्बेश्वर और शाकम्भरीकी कथा, ग्यारह रुद्रोंके प्राकट्यका वर्णन, दानमाहात्म्य तथा द्वादशादित्यका कीर्तन-इन सब विषयोंका प्रतिपादन किया गया है। इस प्रकार यह ‘नागरखण्ड’ कहा गया ।

   अब ‘प्रभासखण्ड का वर्णन किया जाता है, जिसमें सोमनाथ, विश्वनाथ, महान् पुण्यप्रद अर्कस्थल तथा सिद्देश्वर आदिका आख्यान पृथक्-पृथक कहा गया है। तत्पश्चात् अग्नितीर्थ, कपर्दीश्वर, उत्तम गतिदायक केदारेश्वर, भीमेश्वर, भैरवेश्वर, चण्डीश्वर, भास्करेश्वर, चद्रेश्वर, मङ्गलेश्वर, बुधेश्वर, बृहस्पतीश्वर, शुक्रेश्वर, शनैश्चरेश्वर, राहीश्वर, केत्वीश्वर आदि शिवविग्रहोका वर्णन है । तत्पश्चात् सिद्धेश्वर आदि अन्य पाँच रुदोंकी स्थितिका वर्णन किया गया है । वरारोहा, अजापाला, मङ्गला, ललितेश्वरी, लद्रमीश्वर, जाडवेश्वर, उर्वीश्वर, कामेंश्वर, गोरीश्वर, वरुणेश्वर, दुर्बासेश्वर, गणेश्वर, कुमरिश्वर, चण्डक्रल्प, शकुलीश्वर, क्रोटीश्वर तथा बालरूपधारी ब्रह्मा आदिक्री उत्तम कथा है । तत्पश्चात् नरकेश्वर, संवर्तेंश्वर, निधीश्वर, बलभद्वेश्वर, गंगा, गणपति, जाम्बवती नदी, पांडुकूप, शतमेध, लक्षमेध और कोटिमेधकी श्रेष्ठ कथा है । दुर्वासादित्य, घटस्थान, हिरण्यासङ्गम, नागरादित्य, श्रीकृष्ण, संकर्षण, समुद्र, कुमारी, क्षेत्रपाल, ब्रहोश्वर, पिङ्गग्लासङ्गमेश्वर, शङ्करादित्य, घटेश्वर, त्रदृषितीर्थ, नन्दादित्य, त्रितकूप, सोमपान, पर्णादित्य और न्यड्कुमतीकी भी अद्भुत कथाका उल्लेख है । तदनन्तर वाराहस्वामीका वृत्तान्त, छायालिङ्ग, गुल्फ, कनकनन्दा, कुन्ती और गंगेशकी कथा है । फिर चमसोर्द्धदेश्वर, विदुरेश्वर, त्रिलोकेश्वर, मङ्कणेश्वर, त्रैपुरेश्वर तथा षण्डतीर्थकी कथा है । फिर सूर्यप्राची, त्रीक्षण और उमानाथकी कथा है । पृथिव्यूद्धार, शूलस्थल, च्यवनादित्य और च्यवनेश्वस्का वृत्तान्त है । उसके बाद अजापालेश्वर, बालादित्य, कुबेरस्थल तथा ऋषितोयाकी पुण्यमयी कथा एवं शृगालेश्वस्का माहात्म्यकीर्तन है । फिर नारदादित्यकी कथा, नारायणके स्वरूपका निरूपण, तप्तकुण्डकी महिमा तथा मूलचण्डीश्वस्का वर्णन है । चतुर्मुख गणेश और क्लम्बेश्वरकी कथा, गोपालस्वामी, बकुलस्वामी और मरुद्गणकी भी कथा है । तत्पश्चात् क्षेमादित्य, उन्नतविघ्नेश, तलस्वामी, कालमेंघ, रुक्मणी, दूर्वासेश्वर, भद्रेश्वर, शंखावर्त, मोक्षतीर्घ, गोष्पदतीर्ध, अच्युतगृह, जालेश्वर, ॐकारेश्वर, चण्डीश्वर, आशापुरनिवासो विघ्नेश और कलाकुण्डको अद्भुत कथा है । कपिलेश्वर और जरद्गव शिवको भी विचित्र कथाका उल्लेख है । नलेश्वर, कर्कोंटकेश्वर, हाटकेश्वर, नारदेश्वर, यन्त्रभूषा, दुर्गकूट और गणेशकी कथाका भी उल्लेख है । सुपर्णभैरवी और एलाभैरवी तथा भल्लतीर्थकी भी महिमा है । तत्पश्चात् कर्दमालतीर्घ और गुप्त सोमनाथका वर्णन है । इसके बाद बहुस्वर्पोश्वर, शृङ्गश्वर, कोटीश्वर, मार्कण्डेश्वर, कोटीश तथा दामोदरगृहकी माहात्म्य-कथा है । तदनन्तर स्वर्णरेखा, ब्रह्मकुण्ड, कुन्तीश्वर, भीमेंश्वर, मृगीकुण्ड तथा सर्वस्व-ये वस्त्रपथक्षेत्रमें कहे गये हैँ । तत्पश्चात दुर्गाभिल्लेश, गंगेश, रैवतेश, अबुंदेश्वर, अचलेश्वर, नागतीर्थ, वसिष्ठाश्रम, भद्रकर्ण, त्रिनेत्र, केदार, तीर्थागमन, कोटीश्वर, रूपतीर्थ और हृषीकेश-ये अद्भुत माहात्म्यकथाएँ हैं । इसके चाद सिर्द्धश्वर, शुक्रेश्वर, मणिकर्णीश्वर, पङ्गुतीर्थ, यमतीर्थ और वाराहीतीर्थ आदिके माहात्म्यका वर्णन है । फिर चन्द्रप्रभास, पिण्डोदक, श्रीमाता, शुक्लतीर्थ, कात्यायनीदेवी, पिण्डारकतीर्थ, कनखलतीर्ध, चक्रतीर्थ, मानुषतीर्थ, कपिलाप्रितीर्थ तथा रक्तानुबन्ध आदि माहात्म्यका उल्लेख है । तदनन्तर गणेशतीर्थ, पार्थेश्वस्तीर्थ और उज्वलतीर्थकी यात्रायें चण्डीस्थान, नागोद्भव, शिवकुण्ड, महेशतीर्थ तथा कमेश्वरका माहात्म्यवर्णन और मार्कण्डेयजीकी उत्पत्तिकथा है । फिर उद्दालकेश और सिद्धेशके समीपवर्ती तीर्थोंको पृथक-पृथक कथाएँ हैं । इसके बाद श्रीदेवमाताकी उत्पत्ति, व्यास और गौतमतीर्थको कथा, कुलसन्तारतीर्थका माहात्म्य तथा रामतीर्थ एवं कोटितीर्थकी महिमा है । चन्द्रोद्भेदतीर्थ, ईंशानतीर्थ और ब्रह्मस्थानकी उत्पत्तिका अद्भुत माहात्म्य तथा त्रिपुष्कर, रुद्रह्रद और गुहेश्वरकी शुभ कथा है । तत्पश्चात् अविमुक्तकी महिमा, उमामहेश्वरका माहात्स्य, महौजाका प्रभाव और जम्बूतीर्थका महत्त्व कहा गया है । गंगाधर और मिश्रककी कथा एवं फंलस्तुतिका भी वर्णन है । तदनन्तर द्वारकामाहात्म्यके प्रसङ्गमें चन्द्रशर्माकी कथा है । जागरण और पूजन आदिका आख्यगन, एकादशीव्रतक्री महिमा, महाद्वादशीका आखयान, प्रहाद और त्रदृषिर्योका समागम, दूर्वासाका उपाख्यान, यात्राक्री प्रारम्भिक विधि, गोमतीकी उत्पत्तिकथा, उसमें स्नान आदिका फल, चक्रतीर्थका माहात्म्य, गोमतीसागर-संगम, सनकादि कुण्डका आख्यान, नृगतीर्थकी कथा, गोप्रचारक्री पुण्यमयी कथा, गोपियोंका द्वारकामें आगमन, गोपीसरोवरका आख्यान, ब्रह्मतीर्थ आदिका कीर्तन, पाँच नदियोंके आगमनकी कथा, अनेक प्रकारके उपाख्यान, शिवलिङ्ग, गदातीर्थ और श्रीकृष्णपूजन आदिका वर्णन है । त्रिविध-मूर्तिका वर्णन, दुर्वासा और श्रीकृष्णसंवाद, कुश दैत्यक्रै वधकी कथा, बिशेष, पूजनका फल, गोमती और द्वारकामें तीर्थोंके आगमनका वर्णन, श्रीकृष्णमन्दिरका दर्शन, द्वारवतीमें अभिषेक, वहाँ तीर्थोंके निवासकी कथा और द्वारकाके पुण्यका वर्णन है । ब्राह्मणो ! इस प्रकार सर्वोत्तम कथाओंसे युक्त शिवमाहात्म्य-प्रतिपादक स्कन्दपुराणमें यह सातवाँ प्रभासखण्ड बताया गया है। जो इसे लिखकर सुवर्णमय त्रिशूलके सात माघकी पूर्णिमा के दिन सत्कारपूर्वक ब्राह्मणको दान देता है, वह सदा भगवान शिवके लोकमें आनंदका भागी होता है।

अध्याय ८२ वामनपुराणकी विषय— सूचि और उस पुराणके श्रवण पठान एवं दानका माहात्म्य

ब्रह्माजी कहते हैं—वत्स ! सुनो, अब मैं त्रिविक्रमचरित्रसे युक्त वामनपुराणका वर्णन करता हूं। इसकी श्लोक-संख्या दस हजार है। इसमें कूर्म कल्पके वृतांतका वर्णन है और त्रिवर्णकी कथा है। यह पुराण दो भागोंसे युक्त है और वक्ता-श्रोता दोनोंके लिए शुभकारक है। इसमें पहले पुराणके विषयमें प्रश्न है। फिर ब्रह्माजीके शिरशछेदकी कथा, कपालमोचनका आख्यान दक्ष-यज्ञ-विध्वंसका वर्णन है। तत्पश्चात भगवान हरकी कालरूप संज्ञा, मदनदहन, प्रह्लादनारायणयुद्ध, देवासुर-संग्राम, सुकेशी और सूर्यकी कथा, काम्यव्रतका वर्णन, श्रीदुर्गाचरित्र, तपतिचरित्र, कुरुक्षेत्रवर्णन, अनुपम सत्य-माहात्मय, पार्वती-जन्मकी कथा, तपतीका विवाह, गौरी-उपाख्यान, कोशिकी-उपाख्यान, कुमारचरित्र, अन्ध्कवधकी कथा, साध्योंपाख्यान, जाबालीचरित्त, अरज़ाकी अद्भुत कथा, अंधकासुर और भगवान शंकरका युद्ध, अंधकको गणत्वकी प्राप्ति, मरुद्रणोंके जन्मकी कथा, राजा बलिका चरित्र, लक्ष्मी-चरित्र, त्रिविक्रमचरित्रके, प्रह्लादकी तीर्थयात्रा और उसमें अनेक मंगलमय कथाएं, धुन्ध-चरित, प्रेतोपाखयान, नक्षत्र पुरुषकी कथा, श्रीदामाका चरित्र, त्रिविक्रमचरित्रके अंतमें ब्रह्माजीके द्वारा कहा हुआ उत्तम स्तोत्र तथा प्रह्लाद और बलिके संवादमें सूतलोकमें श्रीहरि की प्रशंसाका उल्लेख है। ब्रह्मण ! इस प्रकार मैंने तुम्हें इस पुराणका पूर्वभाग बताया है। अब इस वामनपुराणके उत्तरभागका श्रवण करो। उत्तर भागमें चार सहिताए हैं। वे पृथक-पृथक एक-एक सहस्त्र श्लोकोंसे युक्त है। उनके नाम इस प्रकार है- माहेश्वरी, भागवती, सौरी और गणेश्वरी। माहेश्वरी संहितामें श्रीकृष्ण तथा उनके भक्तोंका वर्णन है। भागवती संहितामें जगदंबाके अवतारकी अद्भुत कथा दी गई है। ‘सौरीसंहिता’ में भगवान सूर्यकी पाप-नाशक महिमाका वर्णन है। ‘गाणेश्वरीसंहिता’ में भगवान शिव तथा गणेशजीके चरित्रका वर्णन किया गया है। यह वामन नामक अत्यंत विचित्र पुराण महर्षि पुलस्त्यने महात्मा नारादजीसे कहा है। फिर नारादजीसे महात्मा व्यासको प्राप्त हुआ है और व्यासजीसे उनके शिष्य रोमहर्षण को मिला है। रोमहर्षणजी नैमिषारण्यनिवासी शौनकादि ब्रह्मर्षियोंसे  यह पुराण कहेंगे। इस प्रकार यह मंगलमय वामनपुराण परंपरासे प्राप्त हुआ है। जो इसका पाठ और श्रवण करते हैं, वे भी परम गतिको प्राप्त होते हैं। जो इस पुराणको लिखकर शरतकालके विषुव योगमें वेदवेता ब्राह्मणको घृतधेनुके साथ इसका दान करता है, वह अपने पितरोंको नरकसे निकालकर स्वर्गमें पहुंचा देता है और स्वयं भी अनेक प्रकारके भोगोंका उपभोग करके देह त्यागके पश्चात वह भगवान विष्णुके परम पदको प्राप्त कर लेता है।

अध्याय ८३ कूर्मपुराणकी संक्षिप्त विषय— सूचि और उसके पाठ, श्रवण तथा दानका माहात्म्य

   ब्रह्माजी कहते हैं- वत्स मरीचे ! अब तुम कर्मपुराणका परिचय सुनो। इसमें लक्ष्मी-कल्पका वृत्तान्त है। इस पुराणमें कूर्मरूपधारी दयामय श्रीहरिने इन्द्रद्युमके प्रसंगसे महर्षियोंको धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका पृथक्-पृथक् माहात्म्य सुनाया है। यह शुभ पुराण चार संहिताओंमें विभक्त है। इसकी श्लोक-सख्या सतरह हजार है। मुने ! इसमें अनेक प्रकारकी कथाओंके प्रसङ्गसे मनुष्योंको सद्गति प्रदान करनेवाले नाना प्रकारके ब्राह्मणधर्म बताये गये हैं। इसके पूर्वभागमें पहले पुराणका उपक्रम है। तत्पश्चात् लक्ष्मी और इन्द्रद्युम्नमका संवादकूर्म और महर्षियोंकी वार्ता, वर्णाश्रमसम्बन्धी आचारका कथनजगत्की उत्पत्तिका वर्णनसंक्षेपसे काल-संख्याका निरूपण, प्रलयके अन्तमें भगवान्का स्तवन, संक्षेपसे सृष्टिका वर्णन, शंकरजीका चरित्र, पार्वती सहस्त्रनाम, योगनिरूपण, भृगुवंशवर्णन, स्वायभुव मनु तथा देवता आदिकी उत्पत्ति, दक्षयज्ञका विध्वंस दक्षसृष्टि-कथनकश्यपके वंशका वर्णन अत्रिवंशका परिचय श्रीकृष्णका शुभ चरित्रमार्कण्डेय-श्रीकृष्ण-संवाद,  व्यास-पाण्डव-संवाद, युगधर्मका वर्णन, व्यास-जैमिनिकी कथा, काशी एवं प्रयागका माहात्म्य, तीनों लोकोंका वर्णन और वैदिक शाखाका निरूपण है। इस पुराणके उत्तरभागमें पहले ईश्वरीय-गीता फिर व्यास-गीता है, जो नाना प्रकारके धर्मका उपदेश देनेवाली है। इसके सिवा नाना प्रकारके तीथका पृथक्-पृथक् माहात्म्य बताया गया है। तदनन्तर प्रतिसर्गका वर्णन है। यह ‘ ब्राह्मीसंहिता ‘ कही गयी है। इसके बाद ‘ भागवतीसंहिता ‘ के विषयोंका निरूपण है, जिसमें वकी पृथक-पृथक वृत्ति बतायी गयी है। इसके प्रथम पादमें ब्राह्मणोंकी सदाचाररूप स्थिति बतायी गयी है, जो भोग और सुख बढ़ानेवाली है। द्वितीय पादमें क्षत्रियोंकी वृत्तिका भलीभाँति निरूपण किया गया है, जिसका आश्रय लेकर मनुष्य अपने पापोंका यहीं नाश करके स्वर्गलोकमें चला जाता है। तृतीय पादमें वैश्योंकी चार प्रकारकी वृत्ति कही गयी है, जिसके सम्यक् आचरणसे उत्तम गतिकी प्राप्ति होती है। उसी प्रकार इसके चतुर्थ पादमें शूद्रोंकी वृत्ति कही गयी है, जिससे मनुष्योंके कल्याणकी वृद्धि करनेवाले भगवान् लक्ष्मीपति संतुष्ट होते हैं। तदनन्तर भागवतीसंहिताके पाँचवें पादमें संकरजातियोंकी वृत्ति कही गयी है, जिसके आचरणसे वह भविष्यमें उत्तम गतिकोपा लेता है। मुने ! इस प्रकार द्वितीय संहिता पाँच पादोंसे युक्त कही गयी है। इस उत्तरभागमें तीसरी संहिता ‘ सौरीसंहिता ‘ कहलाती है, जो मनुष्योंका कार्य सिद्ध करनेवाली है। वह सकामभाववाले मनुष्योंको छ: प्रकारसे षट्कर्मसिद्धिका बोध कराती है। चौथी ‘ वैष्णवीसंहिता ‘ है, जो मोक्ष देनेवाली कही गयी है। यह चार पदोंवालीसंहिता द्विजातियोंके लिये ब्रह्मस्वरूप है। वे क्रमश: छ:, चार, दो और पाँच हजार श्लोकोंकी बतायी गयी हैं। यह कूर्मपुराण धर्मअर्थकाम और मोक्षरूप फल देनेवाला है, जो पढ़ने और सुननेवाले मनुष्योंको सर्वोत्तम गति प्रदान करता है। जो मनुष्य इस पुराणको लिखकर अयनारम्भके दिन सोनेकी कच्छपमूर्तिके साथ ब्राह्मणको। भक्तिपूर्वक इसका दान करता है, वह परम गति को प्राप्त होता हैं।

अध्याय ८४ मत्स्यपुराण की विषय सूचि तथा इस पुराण के पाठ श्रवण और दान का माहात्म्य

ब्रह्माजी कहते हैं- द्विजश्रेष्ठ ! अब मैं तुम्हें मत्स्यपुराणका परिचय देता हूं, जिसमें वेदवेत्ता व्यासजीने इस भूतलपर सात कल्पोंके वृत्तान्तको संक्षित करके कहा है। नृसिंहवर्णन आरम्भ करके चौदह हजार श्लोकोंका मत्स्यपुराण कहा गया है। मनु और मत्स्यका संवाद, ब्रह्माण्डका वर्णन ब्रह्मा, देवता और असुरोंकी उत्पत्ति, मरुद्णका प्रादुर्भाव, मदनद्वादशी, लोकपालपूजा, मन्वन्तर-वर्णन, राजा पृथुके राज्यका वर्णन, सूर्य और वैवस्वत मनुकी उत्पत्ति, बुध-संगमन, पितृवंशका वर्णन, श्राद्धकाल, पितृतीर्थ-प्रचार, सोमकी उत्पत्ति, सोमवंशका कथन, राजा ययातिका चरित्र, कार्तवीर्य अर्जुनका चरित्र, सृष्टिवंश-वर्णनभृगुशाप, भगवान् विष्णुका पृथ्वीपर दस बार जन्म (अवतार), पूरुवंशका कीर्तन, हताशनवंशका वर्णन, पहले क्रियायोगफिर पुराणकीर्तन, नक्षत्रव्रत, पुरुषव्रत, मार्तण्डशयनव्रत, श्रीकृष्णाष्टमीव्रत,रोहिणीचन्द्र नामक व्रत, तड़ागविधिकी महिमा, वृक्षोत्सर्ग, सोभाग्यशयनव्रत, अगस्त्यव्रत, अनन्ततृतीयाव्रत, रसकल्याणिनीव्रत, आनन्दकरीव्रत, सारस्वतव्रत, उपरागाभिषेक (ग्रहणस्नान) विधि, सप्तमीशयनव्रत भीमद्वादशी, अनड्ंगशयनव्रत, अशून्यशयनव्रत, अंगारकव्रत, सप्तमीसप्तकव्रत, विशोकद्वादशीव्रत, दस प्रकारका मेंरुप्रदान, ग्रहशान्ति, ग्रहस्वरूपकथा, शिवचतुर्दशी, सर्वफलत्याग, रविवारव्रत, संक्रान्तिस्नान, विभूतिद्वादशीव्रत, षष्ठीव्रत-माहात्म्य, स्नानविधिका वर्णन, प्रयागका माहात्म्य, द्वीप और लोकोंका वर्णन, अन्तरिक्षमें गमन, ध्रुवकी महिमा, देवेश्वरोंके भवनत्रिपुरका प्रकाशन, श्रेष्ठ पितरोंकी महिमा, मन्वन्तर-निर्णय, चारों युगोंकी उत्पत्ति, युगधर्म-निरूपण, वज्राङ्गकी उत्पत्ति, तारकासुरकी उत्पति, तारकासुरका माहात्म्य, ब्रह्मदेवानुकीर्तन, पार्वतीका प्राकट्य, शिवतपोवन, मदनदेहदाह, रतिशोक, गौरी-तपोवन, शिवका गौरीको प्रसन्न करना, पार्वती तथा ऋषियोंक्रा संवाद, पार्वतीविचाहमङ्गल, कुमार कार्तिकेयका जन्म, कुमारर्का विजय, तास्कासुस्का भयंकर वध, नृसिंहभगचान्की कथा, ब्रह्माजीकी सृष्टि, अन्थकासुरका वध, वाराणसी-माहात्म्य, नर्मदा-माहात्म्य, प्रवर-गणना, पितृगाथाका कीर्तन, उभयमुखी गौका दान, काले मृगचर्मका दान, सावित्रीकी कथा, राज़धर्मका वर्णन, नाना प्रकारके उत्पातोका कथन, ग्रहणान्त, यात्रानिमित्तक वर्णन, स्वप्नमङ्गलकीर्तन, ब्राह्मण और वाराहका महात्मय, समुद्र-मन्थन, कालकूटकी शान्ति, देवासुर-संग्राम, वास्तुविद्या, प्रतिमालक्षण, देवमन्दिर-निर्माण, प्रासादलक्षण, मण्डपलक्षण, भविष्य राजाओका वर्णन, महादानवर्णन तथा कल्पक्रीर्तन-इन सब विषयोका इस  पुरांणमेँ वर्णन किया गया है । जो पवित्र, कल्याणकारी तथा आयु और कीर्ति बढानेवाले इस पुराणका पाठ अथवा श्रवण करता है, वह भगतवान् विष्णुके धाममेँ जाता है । जो इस पुराणको लिखकर सुवर्णमय मत्स्य और गोंके साथ विषुव योगमें ब्राह्मणको सत्कारपूर्वक दान देता है, वह परम पदको प्राप्त होता है ।

अध्याय ८५ गरुडपुराणकी विषय— सूचि और पुराणके पाठ श्रवण और दानकी महिमा

ब्रह्माजी कहते है- मरीचे ! सुनो, अब मैं मङ्गलमय गरुडपुराणका वर्णन करता हूँ । गरूडके पूछनेपर गरुडासन भगवान् विष्णुने उन्हें तार्क्ष्य-कल्पकी कथासे युक्त उन्नीस हजार श्लोकोंका गरुडपुराण सुनाया था । इसमें पहले पुराण को आरम्भ करनेके लिये प्रश्न किया गया है । फिर संक्षेपसे सृष्टिका वर्णन है । तत्पश्चात् सूर्य आदिके पूजनकी विधि, दीक्षाविधि, श्राद्ध-पूजा, नवव्यूहपूजाकी विधि, वैष्ण-पञ्चर, योगाध्याय,  विष्णुसहस्रनामकीर्तन, विष्णुध्यान, सूर्यपूजा, मृत्युञ्जय-पूजा, मालामन्त्र, शिवार्च, गोपालपूजा, त्रैलोक्यमोहन श्रीधरपूजा, विष्णु-अर्चा, पञ्चतत्वार्चा, चक्रार्चा, देवपूजा, न्यास आदि, संध्योपासन, दुर्गार्चन, सुरार्चन, महेश्वर-पूजा, पवित्रारोपणपूजन, मूर्तिध्यान, वास्तुमान, प्रासादलक्षण, सर्वदेवप्रतिष्ठा, पृथक पूजाविधि, अष्टाङ्गयोग, दानधर्म, प्रायश्चित्तविधि, द्वीपेश्वरों और नरकोंका वर्णन, सूर्यव्यूह, जौतिष, सामुद्रिकशास्त्र, स्वरज्ञान, नूतनरत्नपरीक्षा,  तीर्थ-माहात्स्य, गयाका उत्तम माहात्स्य, पृथकृ-पृथकृ विभागपूर्वक मन्वन्तरवर्णन, पित्तरोंका उपाख्यान, वर्णधर्म, द्गव्यशुद्धि, समर्पण, श्राद्धकर्म, विनायकपूजा, ग्रहयज्ञ, आश्रम, जननाशौच, प्रेतशुद्धि, नीति-शास्त्र, व्रत-कथा, सूर्यवंश, स्रोमवंश, श्रीहरिकी अबतारकथा, रामायण, हरिवंश, भारताख्यान, आयुर्वेदनिदान, चिकित्सा, द्गव्यगुणनिरूपण, रोगनाशक विष्णुक्रवच, गरुडकबच, त्रैपुर मन्त्र, प्रश्चचूडामणि, अश्वायुर्वेदक्रीर्तन, ओषधियोंके नामका कीर्तन, व्याकरणका ऊहापोह, छन्दत्सास्त्र, सदाचार, स्नानविथि, तर्पण, बलिबैश्वदेब, संध्या, घार्वणकर्म, नित्यश्राद्ध, सपिण्डन, धर्मसार, यापोंका प्रायश्चित्त, प्रतिसंक्रम, युगधर्म, कर्मफल, योगशास्त्र, विष्णुभक्ति, श्रीहरिक्रो नमस्कार करनेका फल, विष्णुमहिमा, नृसिंहस्तोत्र, ज्ञानामृत, गुहाष्टकस्तोत्र, विखावचंनस्तोत्र, वेदान्त और सांख्यका सिद्धान्त, ब्रह्मज्ञान, आत्मानन्द, गीतासार तथा पल्लवर्णन-ये विषय क्यो गये हैं । यह गरुडपुराणका पूर्वखण्ड बताया गया है ।

   इसीके उत्तरखण्डमें सबसे पहले प्रेतकल्पका वर्णन है । मरीचे ! उसमें गरुडके पूछनेपर भगवान् विष्णुने पहले धर्मके महत्त्वकों प्रकट किया है, जो योगियोंकी उत्तम गतिका कारण है । फिर दान आदिका फल तथा और्ध्वदेहिक कर्म बताया गया है । तत्पश्चात् यमलोकके मार्गका वर्णन किया गया है । इसी प्रसंगमें षोडश श्राद्धृके फलको सूचित करनेवाले वृत्तान्तका वर्णन है । यमलोकके मार्गसे छूटनेका उपाय और धर्मराजके वैभवका कथन है । इसके बाद प्रेतकी पीड़ाओका वर्णन, प्रेतचिह्न-निरूपण, प्रेतचरितवर्णन तथा प्रेतत्वप्राप्तिके कारणका उल्लेख किया गया है । तदनन्तर प्रेतकृत्यका विचार, सपिण्डीकरणका कथन, प्रेतत्वसे मुक्त होनेका कथन, मोक्षसाधक दान, आवश्यक एवं उत्तम दान, प्रेतको सुख देनेवाले कार्योंका ऊहापोह, शारीरक निर्देश, यमलोक-वर्णन, प्रेतत्वसे उद्धारका कथन, कर्म करनेके अधिकारीका निर्णय, मृत्युरसे पहलेके कर्तव्यका वर्णन, मृत्युसे पीछेके कर्मका निरूपण, मध्यषोडश श्राद्ध, स्वर्गप्राप्ति करानेवाले कर्तव्यका ऊहापोह, सूतककी दिन-संख्या,  नारायणबलि कर्म, वृषोत्सर्गका माहात्म्य, निषिद्ध कर्मका त्याग,  दुर्मृत्युके अवसरपर किये जानेवाले कर्मका वर्णन, मनुष्योंके कर्मका फल, विष्णुध्यान और मोक्ष के लिये कर्तव्य और अकर्तव्यका विचार, स्वर्गकी प्राप्तिके लिए विहित कर्मका वर्णन, स्वर्गीय सुखका निरूपण, भूलोकवर्णन, नीचेके सात लोकोंका वर्णन, ऊपरके पाँच लोकोंका वर्णन, ब्रह्माण्डकी स्थितिका निरूपण, ब्रह्माण्डके अनेक चरित्र, ब्रह्म और जीवका निरूपण, आत्यन्तिक प्रलयका वर्णन तथा फलस्तुतिका निरूपण है । यही गरुड नामक पुराण है, जौ कीर्तन और श्रवण करनेपर वक्ता और श्रोता मनुष्योंके पापका शमन करके उन्हें भोग और मोक्ष देनेवाला है । जो इस पुराणको लिखकर दो सुवर्णमयी हंसप्रतिमके साथ विषुव योगमें ब्राह्मणकों दान देता है, वह स्वर्गलोकमेँ जाता है ।

अध्याय ८६ ब्रह्माण्डपुराणका परिचय, संक्षिप्त विषय— सूचि पुराण— परम्परा उसके पाठ श्रवण एवं दानका फल

ब्रह्माजी कहते हैं- वत्स ! सुनो, अब मैं ब्रह्मांडपुराण का वर्णन करता हूँ, जो भविष्यकल्पोंकी कथा संयुक्त और बारह हजार श्लोकोंसे परिपूर्ण है | इसके चार पाद है | पहला ‘प्रक्रियापाद’ दूसरा ‘अनुषंङ्गपाद’, तीसरा ‘उपोद्घातपाद’ और चौथा ‘उपसंघारपाद’ है | पहलेके दो पदोंको पूर्वभाग कहा गया है | तृतीय पाद ही मध्यम भाग है और चतुर पाद उत्तर भाग माना गया है। पूर्वभागके प्रक्रियापादमें पहले कर्तव्यका उपदेश, नैमिषका आख्यान, हिरण्यगर्भकी उत्पत्ति और लोकरचना इत्यादि विषय वर्णित हैं । मानद ! यह पूर्वभागका प्रथम पाद (प्रक्रियापाद) है ।

   अब द्वितीय (अनुषङ्ग) पादका वर्णन सुनो,  इसमें कल्प तथा मन्वन्तरका वर्णन है । तत्पश्चात् लोकज्ञान, मानुषी-सृष्टिकथन, रुद्रसृष्टिवर्णन, महादेवविभूति, ऋषिसर्ग, अग्निविजय, कालसद्भाववर्णन, प्रियव्रत-वंशका परिचय, पृथ्वीका दैर्घ्य और विस्तार, भारतवर्षका वर्णन, फिर अन्य वर्षोंका वर्णन, जम्बू आदि सात द्वीपोंका परिचय, नीचेके लोकों-पातालोंका वर्णन, भ्रूर्मुव: आदि ऊपरके लोकोंका वर्णन, ग्रहोंकी गतिका विश्लेषण, आदित्यव्यूहका कथन, देवग्रहानुक्रीर्तन, भगवान् शिवके नीलकंठ नाम पड़नेका कथन, महादेवजीका वैभव, अमावास्याका वर्णन, युगतत्त्वनिरूपण, यज्ञप्रवर्त्तन, अन्तिम दो युगोंका कार्य, युगके अनुसार प्रजाका लक्षण, ऋषिप्रवर-वर्णन, वेदव्यसन-वर्णन, स्वायम्मुव मन्वन्तरका निरूपण, शेषमन्वन्तरका कथन, पृथ्वीदोहन, चाक्षुष और वर्तमान मन्वन्तरके सर्गका वर्णन है । इस प्रकार यह पूर्वभागका द्वितीय पाद कहा गया ।

   अब मथ्यभागके उपोद्घातपादमें वर्णित विषय कहे जाते हैं । उसमें पहले सप्तर्षियोंका वर्णन, प्रजापतिवंशका निरूपण, उससे देवता आदिकी उत्पत्तिका, तदनन्तर विजयकी अभिलाषा और मरूद्गणोंको उत्पत्तिका कथन है । कश्यपकी संतानोंका वर्णन, ऋषिवंशनिरूपण, पितृकल्पका कथन, श्राद्धकल्पका वर्णन, वैवस्वतमनुकी उत्पत्ति, उनकी सृष्टि, मनुपुत्रोंका वंश, गान्धर्वनिरूपण, इक्ष्वाकुवंशवर्णन, महात्मा अत्रिके वंशका कथन, अमावसुके वशका वर्णन, रजिका अद्भुत चरित्र, ययातिचरित, यदुवंशनिरूपण, कार्तवीर्यचरित, परशुरामचरित वृष्णिवंशका वर्णन, सगरकी उत्पत्ति, भार्गवका चिरित्र, कार्तवीर्यवधसम्बन्धी कथा, सगरका चरित्र भार्गव (और्व)-की कथा, देवासुर-संग्रामकी कथा, कृष्णावतारवर्णन, शुक्राचार्यकृत इन्द्रका पवित्रस्तीत्र, विष्णुमाहात्स्यकथन, बलिवंश-निरूपण तथा कलियुगमें होनेवाले राजाओँका चरित्र-यह मध्यमभागका तीसरा उपोटूघातपाद है ।

   अब उत्तरभागके चौथे उपसंहारपादका वर्णन करता हूँ। इसमें वैवस्वत मन्वन्तरकी कथा विस्तारके साथ ज्यों-की-त्यों दी गयी है । जो कथा पहले ही कह दी गयी है, वह यहाँ संक्षेपसे बतायी जाती है । भविष्यमें होनेवाले मनुओँका चरित्र भी कहा गया है । तदनन्तर कल्पके प्रलयका निर्देश किया गया है । कालमान बताया गया है । तत्पश्चात् प्रात लक्षणोंके अनुसार चौदह भुवनोंका वर्णन किया गया है । फिर विपरीत कर्मकिं आचरणसे नरकोंको प्रासिका कथन है । मनोमयपुस्का आख्यान और प्राकृत प्रलयका प्रतिपादन किया गया है । तदनन्तर शिवधामका वर्णन है और सत्त्व आदि गुणोंके संबंधसे जीवोंको त्रिविध गतिका निरूपण किया गया है । इसके बाद अन्वय तथा व्यतिरेकदृष्टिसे अनिर्देश्य एवं अतवर्य परब्रह्म परमात्माके स्वरूपका प्रतिपादन किया गया है । इस प्रकार यह उत्तर-भागसहित उपसंहारपादका वर्णन किया गया है । मरीचे ! मैँने तुम्हें चार पादवाले ब्रह्माण्डपुराणका परिचय दिया । यह अठारहवाँ पुराण सारसे भी सारतर वस्तु है । इसकी कहीं भी उपमा नहीं है । मानदा ! ब्रह्माण्डपुराण जो चार लाख श्लोकमें कहा गया है, वास्तवमें उसीकों भावितात्मा मुनियोंके उपदेशक परांशरनन्दन व्यासमुनिने अठारह भागोंमेँ विभक्त करके पृथकृ-पृथकु कहा है । दीनोंपर अनुग्रह करनेवाले धर्मशील मुनियोंने मुझसे सभी पुराण सुनकर उनका सम्पूर्ण लोकोंके लिये प्रकाशन किया है । पूर्वकालमें मैंने वसिष्ठकों इस पुराणका उपदेश दिया था । वसिष्ठने शक्तिनन्दन पराशरको और पराशरने जातूकर्ण्यको यह पुराण सुनाया । फिर जातूकर्ण्यसे वायुदेवके मुखसे प्रकट हुए इस उत्तम पुराणकों पाकर व्यासदेवने इसे प्रमाणभूत माना और इस लोकमेँ इसका प्रचार किया | वत्स ! जो एकाग्रचित्त हो इस पुराणका पाठ एवं श्रवण करता है, वह इस लोकमें सारे पोपोंका नाश करके अनामय लोक ( रोग-शोकसे रहित परम धाम ) -में जाता है । जो इस पुराणको लिखकर सोनेके सिंहासनपर रखता और वस्त्रसे आच्छादित करके ब्राह्मणकों दान कर देता है, वह ब्रह्माजीके लोकमें जाता है । इसमें अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये । मरीचे ! मैँने तुमसे जो ये अठारह पुराण संक्षेपसे कहे हैँ, उन सबको विस्तारसे सुनना चाहिये । जो श्रेष्ठ मानव इन अठारह पुराणोंकों विधिपूर्वक सुनता अथवा कहता है, वह फिर इस संसारमेँ जन्म नहीं लेता । मैंने इस समय जो कुछ कहा है, यह पुराणोंका सूत्ररूप है । पुराणका फल चाहनेवाले पुरुषको इसका नित्य अनुशीलन करना चाहिये । जो दाम्भिक, पापाचारी, देवता और गुरुकी निन्दा करनेवाला, साधुमहात्माओं से द्वेष रखनेवाला और शठ है, उसे इस पुराणका उपदेश कदापि नहीं देना चाहिये । जो शान्त, मनोनिग्रहसे युक्त, सेचापरायण, द्वेषरहित तथा पवित्र हो, उस श्रेष्ठ वैष्णव पुरुषकों ही इसका उपदेश देना चाहिये।

अध्याय ८७ बारह मासोंकी प्रतिपदाके व्रत एवं आवश्यक कृत्योंका वर्णन

श्रीनारदजी बोले- प्रभो ! मैँने आपके मुखसे समस्त पुराणोंका सूत्र, जैसा कि परमेंष्ठी ब्रह्माजीने महर्षि मरौचिस्ने कहा था, सुन लिया । महाभाग ! अब मुझसे क्रमश: तिथियोंके विषयमें निरूपण कीजिये, जिससे व्रतका ठोक-ठोक निश्चय हो जाय । जिस मासमेँ, जिस पुण्य तिथिको जिसने उपासना क्री है और उसकी पूजा आदिका जो विधान है, वह सब इस समय बताइये ।

   श्रीसनातनजीने कहते नारद ! सुनो, अब मैं तुमसे तिथियोंके पृथक-पृथक व्रत्तका वर्णन करता हूँ । तिथियोंके जो स्वामी हैं, उन्हींके क्रमसे पृथक-पृथक व्रत बताया जाता है, जो सम्पूर्ण सिद्धिर्योक्री प्रासि करानेवाला है । चैत्रमासके शुक्ल पक्षमें प्रथम दिन सूर्योदयकालमेँ ब्रह्माजीने सम्पूर्ण जगतकी सृष्टि की थी, इसलिये वर्ष और वसन्त-त्रदृतुके आदिमें बलिराज्य-सम्बन्धी-तिथि अमावास्याकों जो प्रतिपदा तिथि प्राप्त होती है, उसीमें सदा विद्वानोंको व्रत करना चाहिये । प्रतिपदा तिथि पूर्वविद्धा होनेपर ही व्रत आदिमें ग्रहण करने योग्य है । उस दिन महाशान्ति कानी चाहिये । वह समस्त पापोंका नाश, सब प्रकारके उत्पातोंकी शान्ति तथा कलियुगके दुष्कर्मोंका निवारण करनेवाली होती है । साथ ही वह आयु देनेवाली, पुष्टिकारक तथा धन और सौभाग्यकों बढानेवाली है । वह परम मङ्गलमयी, शान्ति, पवित्र होनेके साथ ही इहलोक और परलोकमेँ भी सुख देनेवाली है । उस तिथिकों पहेले अग्निरूपधारी भगवान् ब्रह्माकी पूजा करनी चाहिये, फिर क्रमश: सब देवताओंकी पृथक-पृथक पूजा को । इस तरह पूजा और ॐकारपूर्वक नमस्कार करके कुश, जल, तिल और अक्षतके साथ सुवर्ण और वस्त्रसहित्त दक्षिणा लेकर वेदवेता ब्राह्मणको व्रतकी पूर्तिके लिये दान करना चाहिये । इस प्रकार पूजा-विशेषसे ` सौरि ‘ नामक व्रत सम्पन्न होता है । ब्रह्मन् ! यह मनुष्योंकों आरोग्य प्रदान करनेवाला है । मुने ! उसी दिन विद्याव्रत भी बताया गया है तथा इसी तिथिको श्रीकृष्णने अजातशत्रु युधिष्ठिरको ‘ तिलकव्रत ‘ करनेका उपदेश दिया है ।

   तदनन्तर ज्येष्ठ मासके शुक्ल पक्षकी प्रतिपदाकों सूर्योदयकालमें देवमन्दिरसम्बन्धों वाटिकामें उगे हुए मनोहर कनेरवृक्षका पूजन को । कनेरके वृक्षमेँ लाल डोरा लपेटकर उसपर गन्ध, चन्दन, धूप आदि चढावे, उगे हुए सप्तधान्यके अंकुर, नारंगी और बिजौरा नीबू आदिसे उसकी पूजा को । फिर अक्षत और जलसे उस वृक्षकों सींचकर निम्नांकित मन्त्रसे क्षमा प्रार्थना करे-

करबीरबृषावास नमस्ते भानुवल्लभ ।

मौलिमण्डन दुर्गादिदेबानां सततं प्रिय ।।

(ना० पूर्ब० ११०। १०७)

 

   ‘ करवीर ! आप धर्मके निवास-स्थान और भगवान सूर्यके पुत्र हैँ । दुर्गादि देवताओके मस्तककों विभूषित करनेवाले तथा उनके सदैव प्रिय हैँ । आपको नमस्कार है । ‘

   तत्पश्चात् आ कृष्योंन० ३ इत्यादि वेदोक्त मन्त्रका उच्चारण करके इसी प्रकार क्षमा प्रार्थना करे । इस प्रकार भक्तिपूर्वक पूजन करके ब्राह्मणोंकों दक्षिणा दे और वृक्षकी परिक्रमा करके अपने घर जाय । श्रावण शुक्ला प्रतिपदाक्रो परम उत्तम ‘ रोटकव्रत ‘ होता है, जो लक्ष्मी और बुद्धिकों देनेवाला है तथा धर्म, अर्थ, काम एव मोक्षका कारण है । ब्रह्मन् ! सोमवारयुक्त श्रावण शुक्ल प्रतिपदा या श्रवणके प्रथम सोमवारसे लेकर साढे तीन मासतक यह व्रत किया जाता है । इसमें प्रतिदिन सोमेंश्वर भगवान् शिवकी बिल्वपत्रसे पूजा की जाती है । कार्तिक शुक्ला चतुर्दशीतक इस नियमसे पूजा करके उस दिन उपवासपूर्वक रहे और व्रतपरायण पुरुष पूणिमाके दिन मुन: भगवान् शङ्करकी पूजा करे । फिर बाँसके पात्रमें सुवर्णसहित्त पवित्र एवं अधिक वायन, जो देवताकी प्रस्रन्नताकों बढानेवाला हो, लेकर संकल्पपूर्वक ब्राह्यणकों दान को । मुनीश्वर ! यह दान धनकी बृद्धि करनेवाला है । भाद्रपदके शुक्ल पक्षकी प्रतिपदाकों कोई ` महत्तमव्रत ‘ एवं कोई ‘ मौनव्रत ‘ बतलाते हैं । इसमें भगवान् शिवकी पूजा की जाती है । उस दिन मौन रहकर नैवेद्य तैयार करे । अड़तालीस फल और पूए एकत्र करके उनमेँसे सोलह तो ब्राह्मणकों दे और सोलह देवताकों भोग लगावे एवं शेष सोलह अपने उपयोगमें लावे । सुवर्णमयी शिवकी प्रतिमाकों बिधानवेत्ता पुरुष कलशके ऊपर स्थगपित करके उसको पूजा को । फिर वह सब कुछ एक धेनुके सहित आचार्यकों दान कर दे । ब्रह्मन् ! देवदेव महादेवके इस व्रतका चौदह वर्षोंतक पालन करके नाना प्रकारके भोग भोगनेके पश्चात् देहावसान होनेपर शिवलोकमेँ जाता है ।

   ब्रह्मन् ! आश्विन शुक्ला प्रतिप्रदाको ‘ अशोकव्रत ` का पालन करके मनुष्य शोकरहिंत तथा धनधान्यसे सम्पन्न हो जाता है । उसमें नियमपूर्वक रहकर अशोक वृक्षकी पूजा करनी चाहिये। बारहवें वर्ष व्रत्तके अन्तमें अशोक वृक्षकी सुवर्णमयी मूर्ति बनाकर उसे भक्तिपूर्वक गुरुको समर्पित करनेपर मनुष्य शिवलोकमेँ प्रतिष्ठित होता है । इसी प्रतिपदाकों ` नवरात्रव्रत ` आरम्भ करे । पूर्वह्रकालमेँ कलशस्थापनपूर्वक देवीकी पूजा करे । गेहूं और जौके बीजसे अंकुर आरोपण करके प्रतिदिन अपनी शक्तिके अनुसार उपवास, अयाचित अथवा एकभुक्त करके रहे और पूजा, पाठ, जप आदि करता रहे । ब्रह्मन् ! मार्कण्डेयपुराणमेँ देवीके जो तीन चरित्र कहे गये हैं, उनका भोग और मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाला पुरुष दिनोंतक पाठ करे । नवरात्रमेँ भोजन, वस्त्र आदिके द्वारा कुमारीपूजन उत्तम माना गया है । ब्रह्मन् ! इस प्रकार व्रतका आचरण करके मनुष्य इस पृथ्वीपर दुर्गाजीकी कृपासे सम्पूर्ण सिंद्धियोंका आश्रय हो जाता हैँ । कार्तिक शुक्ला प्रतिपदाकों नवरात्रमें बताये अनुसार नियमोंका पालन करे । विशेषत: अन्नकुट नामक कर्म भगवान् विष्णुकी प्रसन्नताकों बढ़ानेवाला है । उस दिन गोवर्धनपूजनके लिये सब तरहके पाक और सब गोरसोंका संग्रह करके सबको अन्नकूट करना चाहिये । इससे सब मनोरथोंकी सिद्धि होती है । सायंकालमें गौओंसहित श्रीगोवर्धन पर्वतका पूजन करके जो उसको प्रदक्षिणा करता है, वह भोग और मोक्ष पात है ।

   मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदाकों परम उत्तम ‘ धनव्रत ‘ का पालन करना चाहिये । रातमें भगवान् विष्णुका पूजन और होम करके अग्निदेवकी सुवर्णमयी प्रतिमाकों दो लाल वस्त्रोसे आच्छादित करके ब्राह्मणकों दान दे । ऐसा करके मनुष्य इस पृथ्वीपर धनधान्यसे सम्पन्न होता है । अग्निदेवके द्वारा उसके समस्त पाप दग्ध हो जाते हैं और वह विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है ।

   पोष शुक्ला प्रतिपदाकों भक्तिपूर्वक सूर्यदेवकी पूजा करके एकभुक्तव्रत करनेवाला मनुष्य सूर्यलोकमेँ जाता है । माघ शुक्ला प्रतिपदाके दिन अग्निस्वरूप साक्षात् महेश्वरकी विधिपूर्वक पूजा करके मनुष्य इस पृथ्वीपर समृद्धिशाली होता है । फाल्गुन शुक्ला प्रतिपदाकों धूलिधूसरित अङ्गोंवाले देवदेव दिगम्बर शिवको सब ओरसे जलद्वारा स्नान करावे । भगवान् महेश्वर इस लौकिक कर्मसे भी संतुष्ट होकर अपना सायुज्य प्रदान करते हैँ । फिर भक्तिपूर्वक भलीभाँति पूजित होनेपर वे क्या नहीं दे सकते ! वैशाख शुक्ला प्रतिपदाकों विश्वव्यापक भगवान् विष्णुकी विधिपूर्वक पूजा करके व्रती पुरुष ब्राहाणोंकों भोजन करावे । इसी प्रकार आषाढ शुक्ला प्रतिपदाकों जगदुरु ब्रह्मा एवं विष्णुका पूजन करके ब्राह्मण-भोजन करावे । ऐसा करनेसे विष्णुसहित्त सर्वलोकेश्वरेश्वर ब्रह्माजी अपना सायुज्य प्रदान करते हैँ और वह सम्पूर्ण सिद्धियोंकों प्राप्त कर लेता है । द्विजश्रेष्ठ ! बारह महीनोंकी प्रतिपदा तिथिर्थोंमें होनेवाले जो व्रत तुम्हें बताये गये हैं, वे भोग और मोक्ष देनेवाले हैँ । इन सब व्रतोंमे ब्रह्मचर्यपालनका विधान है । भोजनके लिये सामान्यत: हविष्यान्न बताया गया है ।

अध्याय ८८ बारह मासोंके द्वितीया— सम्बन्धी व्रतों और आवश्यक कृत्योंका निरूपण

सनातनजी कहते हैं- ब्रह्मन् ! सुनो, अब मैं तुम्हें द्वितीयाके व्रत बतलाता हूँ, जिनका भक्तिपूर्वक पालन करके मनुष्य ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है । चैत्र शुक्ला द्वितीयाकों ब्राही शक्तिके साथ ब्रह्माजीका हविष्यान्न तथा गन्थ आदिसे पूजन करके व्रती पुरुष सम्पूर्ण यज्ञोंका फल पाता है और समस्त मनोवाच्छित कामनाओकों पाकर अन्तमें ब्रह्मपद प्राप्त करता है । विप्रवर ! इसी दिन सायंकाल उगे हुए बालचन्द्रमाका पूजन करनेसे भोग और मोक्षरूप फलकी प्राप्ति होती है । अथवा उस दिन भक्तिपूर्वक अश्विनीकुमारोंकी यत्नपूर्वक पूजा करके ब्राह्मणको सोने और चाँदीके नेत्रोंका दान करें’ । इस व्रतमें दही अथवा घीसे प्राणयात्राका निर्वाह किया जाता है । द्विजेन्द्र ! बारह वर्षोतक ‘ नेत्रव्रत ‘ का अनुष्ठान करके मनुष्य पृथ्वीका अधिपति होता है । वैशाख शुक्ला द्वितीयाकों सप्तधान्ययुक्त कलशके ऊपर विष्णुरूपी ब्रह्माका विधिपूर्वक पूजन करके मनुष्य मनोवाच्छित भोग भोगनेके पश्चात् विष्णुलोक प्राप्त कर लेता है । ज्येष्ठ शुक्ला द्वितीयाकों सम्पूर्ण भुवनोंके अधिपति व्रह्मस्वरूप भगवान् भास्करका विधिपूर्वक पूजन करके जो भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंको भोजन कराता है वह सूर्यलोकमें जाता है । आषाढ़मासके शुक्ल पक्षमें जो पुष्यनक्षत्रसे युक्त  द्वितीया तिथि आती हैँ, उसमेँ सुभद्रादेवीके साथ श्रीबलराम और श्रीकृष्णकों रथपर बिठाकर व्रती पुरुष ब्राह्मण आदिके साथ नगर आदिमें भ्रमण करावे और किसी ज़लाशयके निकट जाकर बड़ भारी उत्सव मनावे । तदनन्तर देवविग्रहोकों विधिपूर्वक पुन: मंदिरमें विराजमान करके उक्त व्रतकी पूर्तिके लिये ब्राह्मणोंकों भोजन करावे । श्रावण कृष्णा द्वितीयाक्रो प्रजापति विश्वकर्मा शयन करते हैँ। अत: वह पुण्यमयी तिथि ‘ अशून्यशयन ’ नामसे प्रसिद्ध है । उस दिन अपनी शक्तिके साथ शय्यापर शयन किये हुए नारायणस्वरूप चतुर्मुख ब्रहमाजीकी पूजा करके उन जगदीश्वरकों प्रणाम करे ।

   तदनन्तर सायंकालमेँ चन्द्रमाके लिये अर्घदान भी आवश्यक बताया गया है, जो सम्पूर्ण सिद्धिर्योकी प्राप्ति करानेवाला है । भाद्रपद शुक्ला द्वितीयाको इन्द्ररूपधारी जगद्विधाता ब्रह्माकी विधिपूर्वक पूजा करके मनुष्य सम्पूर्ण यज्ञोंका फल पाता है । आश्विन मासके शुक्लपक्षमें जो पुण्यमयी द्वितीया तिथि आती है, उसमें दिया हुआ दान अनन्त फल देनेवाला कहा जाता है । कार्तिक शुक्ला द्वितीयाको पूर्वकालमें यमुनाजीने यमराज़कों अपने घर भोजन कराया था, इसलिये यह ‘ यमद्वितीया ‘ कहलाती है । इसमें बहिनके घर भोजन करना पुष्टिवर्धक बताया गया है । अत: बहिनको उस दिन वस्त्र और आभूषण देने चाहिये। उस तिथिको जो बहिनके हाथसे इस लोकमें भोजन करता है, वह सर्वोत्तम रत्न, धन और धान्य पाता है । मार्गशीर्ष शुक्ला द्वितीयाको श्राद्धके द्वारा पितरोंका पूजन करनेवाला पुरुष पुत्र-पोत्रोंसहित्त आरोग्य लाभ करता है । पौष शुक्ला द्वितीयाको गायके सींगमें लिये हुए जलके द्वारा मार्जन करना और संध्याकालमेँ बालचन्द्रमाका दर्शन करना मनुष्योंके लिये सम्पूर्ण कामनाओँकों देनेवाला है । जो हविष्यान्न भोजन करके इन्दियसंयमपूर्वक रहकर अर्घ्यदानसे तथा घृतसहित पुष्प आदिसे बालचन्द्रमाका पूजन करता है, वह धर्म, काम और अर्थको सिद्धि लाभ करता है । माघशुक्ला द्वितीयाको भानुरूपी प्रजापतिकी विधिपूर्वक अर्चना करके लाल फूल और लाल चन्दन आदिसे उनकी पूजा करनी चाहिये । अपनी शक्तिके अनुसार सोनेको सूर्यंमूंर्तिका निर्माण कराकर ताँबेके पात्रकों गेहूँ या चावलसे भर दे और वह पात्र भक्तिपूर्वक देवताकों समर्पित करके मूतिंसहित उसे ब्राह्मणकों दान कर दे । ब्रह्मन् ! इस प्रकार व्रतका पालन करनेपर वह मनुष्य उदित हुए साक्षात् सूर्यके समान इस पृथ्वीपर दुर्जय एवं दुर्धर्ष हो जाता है । इस लोकमेँ श्रेष्ठ कामनाओका उपभोग करके अन्तमेँ वह ब्रह्मपदकों प्राप्त होता है । फाल्गुन शुक्ला द्वितीयाकों श्रेष्ठ द्विज श्वेत एवं सुगन्धित पुष्पोंसे भगवान् शिवकी पूजा करे । फूलोंसे चदोवा बनाकर सुन्दर पुष्पमय आभूषणोंसे उनका श्रृंङ्गर करे । फिर धूप, दीप, नाना प्रकारके नैवेद्य और आरती आदिके द्वारा भगवानकों प्रसन्न करके पृथ्वीपर पड़कर उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम को । इस प्रकार देवेश्वर शिवकी आराधना करके मनुष्य रोगसे रहित तथा धनधान्यसे सम्पन्न हो निश्चय ही सौ वर्षोंतक जीवित रहता है । शुक्लपक्षकों द्वितीया तिथियोंमें जो विधान बताया गया है, वही विधिज्ञ पुरुषोंकों कृष्णपक्षको द्वितीयामेँ भी करना चाहिए पृथक-पृथक महीना में नाना रूप धारण करने वाले अग्निदेव ही द्वितीय तिथियोंमे पूजित होते हैं । इसमें भी पूर्वत ब्रह्मचर्य आदि का पालन आवश्यक है।

अध्याय ८९ बारह महीनोंके तृतीया— सम्बन्धी व्रतोंका परिचय

सनातनजी कहते हैँ नारद ! सुनो, अब मैं तुम्हें तृतीयाके व्रत बतलाता हूँ जिनका विधिपूर्वक पालन करके नारी शीघ्र सौभाग्य लाभ करती है । ब्रह्मन् ! वर प्रसंगकी इच्छा रखनेवाली कन्या तथा सौभाग्य, पुत्र एवं पतिकी मङ्गलकामना करनेवाली विवाहिता नारी चैत्र शुक्ला तृतीयाकों उपवास करके गौरीदेवी तथा भगवान् शङ्करकी सोने, चाँदी, ताँबे या मिट्टीकी प्रतिमा बनावे और उसे गंध-पुष्प, दूर्वाकाण्ड आदि आचारों तथा सुन्दर वस्त्राभूषणोंसे विधिपूर्वक पूजित करके सधवा ब्राह्मण पत्नीयों अथवा सुलक्षणा ब्राह्मण-कन्याओँकों सिन्दूर, काजल और वस्त्रभूषणों आदिसे संतुष्ट करे । तदनन्तर उस प्रतिमाकों जलाशयमेँ विसर्जन कर दे । स्त्रियोंकों सौभाग्य देनेवाली जैसी गौरीदेवी हैं, वैसी तीनों लोकोंमें दूसरी कोई शक्ति नहीं है । वैशाख शुक्ल पक्षकी जो तृतीया है, उसे ‘ अक्षयतृतीया ‘ कहते हैं । वह त्रेतायुगकी आदि तिथि है । उस दिन जो सत्कर्म किया जाता है, उसे वह अक्षय बना देती है । वैशाख शुक्ला तृतीयाकों लक्ष्मीसहित जगदूगुरु भगवान् नारायणका पुष्प, धूप और चन्दन आदिसे पूजन करना चाहिये अथवा गंगाजीके जलमें स्नान करना चाहिये । ऐसा करनेवाला मनुष्य समस्त पापोसे मुक्त हो जाता हैँ तथा सम्पूर्ण देवताओँसे वन्दित हो भगवान् विष्णुके लोकमेँ जाता है ।

   ज्येष्ठ मासके शुक्ल पक्षक्री जो तृतीया है, वह ‘ रम्भा-तृतीया ‘ के नामसे प्रसिद्ध है । उस दिन सपत्नीक श्रेष्ठ ब्राह्मणकी गन्ध, पुष्प और वस्त्र आदिसे विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिये । यह व्रत धन, पुत्र और धर्मविषयक शुभकारक बुद्धि प्रदान करता है । आषाढ शुक्ला तृतीयाकों सपत्नीक ब्राह्मणमें लक्ष्मीसहित्त भगवानविष्णुकी भावना करके वस्त्र, आभूषण, भोजन और धेनुदानके द्वारा उनकी पूजा करे; फिर प्रिय वचनोंसे उन्हें अधिक संतुष्ट को । इस प्रकार सौभाग्यकी इच्छासे प्रेमपूर्वक इस व्रतका पालन करके नारी धन-धान्यसे सम्पन्न हो देवदेव श्रीहरिके प्रसादसे विष्णुलोक प्राप्त कर लेती है । श्रावण शुक्ला तृतीयाकों ‘ स्वर्णगौरीव्रत ‘ का आचरण करना चाहिये । उस दिन स्त्रीको चाहिये कि वह षोडश उपचारोंसे भवानीकी पूजा करे ।

   भाद्रपद शुक्ला तृतीयाकों सौभाग्यवती स्त्री विधिपूर्वक पाद्य-अर्घ्य आदिके द्वारा भक्ति भावसे पूजा करती हुईं  ` हरितालिकावत ‘ का पालन करे । सोने, चांदी, ताँबे, बाँस अथवा मिट्ठीके मात्रमें दक्षिणासहित पकवान रखकर फल और वस्त्रके साथ ब्राह्मणकों दान को । इस प्रकार व्रतका पालन करनेवाली नारी मनोरम भोगोंका उपभोग करके इस व्रतके प्रभावरने गौरीदेवीको सहचरी होती है । आश्विन शुक्ला तृतीयाकों ‘ बृहद गौरीव्रत ‘- का आचरण करे । नारद ! इससे सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धि होती है ।

   कार्तिक शुक्ला तृतीयाकों ` विष्णु गौरीवत ‘ का आचरण करे । उसमें भांति-भांतिके उपचारोंरपे जगदवनद्या लक्ष्मीकी पूजा करके सुवासिनी स्त्रीका मङ्गल-द्रव्योंसे पूजन करनेके पश्चात् उसे भोजन करावे और प्रणाम करके विदा करे । मार्गशीर्ष शुक्ला तृतीयाकों मङ्गलमय ‘ हरगौरीव्रत ‘ करके पुवोंक्तविधीसे जगदम्बाका पूजन करे । इस व्रतके प्रभावसे स्त्री मनोरम भोगोंका उपभोग करके देवीलोकमे जाती और गौरीके साथ आनन्दका अनुभव करती है । पौष शुक्ला तृतीयाकों ‘ ब्रह्मगौरीव्रत ‘ का आचरण करे । द्विजश्रेष्ठ ! इसमें भी पूर्वोक्त विधिसे पूजन करके नारी ब्रह्मगौरीके प्रसादसे उनके लोकमे जाकर आनंद भोगती है । माघ शुक्ला तृतीयाकों व्रत रखकर पूर्वोक्त विधिसे सौभाग्यसुन्दरीकी पूजा करनी चाहिये और उनके लिये नारियलके साथ अर्व्य देना चाहिये । इससे प्रसन्न होकर व्रतसे संतुष्ट हुईं देवी अपना लोक प्रदान करती है । फाल्गुनक्रैशुक्ल पक्षमें चूब्लसोख्यदाड तृतीयाका व्रत होता है, उसमें गन्थ, पुष्प आदिवेठ द्वारा पूजित होनेपर देवी सबके लिये मङ्गलदायिवी होती हैं । मुने ! सम्पूर्ण तृतीयाव्रतोंमेँ देवीपूजा, ब्राह्मणपूजा, दान, होम और विसर्जन-यह साधारण विधि है । इस प्रकार तुम्हें तृतीयाके व्रत बताये गये हैं, जो भक्तिपूर्वक पालित होनेपर मनको अभीष्ट वस्तुएँ देते हैँ ।

अध्याय ९० बारह महीनोंके चतुर्थी— व्रतोंकी विधि और उनके माहात्म्य

सनातनजी कहते हैँ- ब्रह्मन् ! सुनो, अब मैं तुम्हें चतुर्थी के व्रत बतलाता हूँ जिनका पालन करेंके स्त्री और पुरुष मनोवांच्छित कामनाओँको प्राप्त कर लेते हैँ । चैत्रमासकी चतुर्थीकों वासुदेवस्वरूप गणेशजीकी भलीभाँति पूजा करके ब्राह्मणकों सुवर्ण दक्षिणा देनेसे मनुष्य सम्पूर्ण देवताओकों वन्दनीय हो भगवान् विष्णुके लोकमें जाता है । वैशाखकी चतुर्थीकों संकर्षण गणेशकी पूजा करके विधिज्ञ पुरुष गृहस्थ ब्राह्मणोकों शंख दान करे तो वह संकर्षणलोकमें जाकर अनेक कल्पोंतक आनन्दका अनुभव करता है । ज्येष्ठ मासकों चतुर्थीकों प्रद्युमरूपी गणेशका पूजन करके ब्राहाणसमूहकों फल-मूलका दान करनेसे मनुष्य स्वर्गलोक प्रात कर लेता है । आषाढ़की चतुर्थीकों अनिरुद्धस्वरूप गणेशकी पूजा करके संन्यासियोंकों तूँबीका यात्र दान करनेसे मनुष्य मनोवाच्छित फल पाता है । ज्येष्ठकी चतुर्थीकों एक दूसरा परम उत्तम व्रत होता है, जिसे ‘ सतीव्रत कहते हैं । इस व्रतका पालन करके स्त्री गणेशमाता पार्वतीके लोकमें जाकर उन्होंके समान आनन्दको भागिनी होती है । इसी प्रकार आषाढ़की चतुर्थीको एक दूसरा कल्याणकारी व्रत होता है, क्योंकि वह तिथि रथन्तर कल्पका प्रथम दिन है । उस दिन मनुष्य श्रद्धापूत हदयसे विधिपूर्वक गणेशजीक्री पूजा करके देवताओँके लिये दुर्लभ फल भी प्राप्त कर लेता हे । मुने ! श्रावणकी चतुथींकों चंद्रोदय होनेपर विधिज्ञोंमे श्रेष्ठ विद्वान् गणेशजीकों अर्व्य प्रदान करे । उस समय गणेशजीके स्वरूपका ध्यान करना चाहिये । ध्यानके पश्चात् आवाहन आदि सम्पूर्ण उपचारोंसे उनका पूजन को । फिर लइडूका नैवेद्य अर्पण क़रे, जो गणेशजीके लिये प्रीतिदायक है । इस प्रकार व्रत पूरा करके स्वयं भी प्रसादस्वरूप लडडू खाय तथा रांतमें गणेशजीका पूजन करके भूमिपर ही सुखपूर्वक सोये । इस व्रतके ग्रभाबसे वह लोकमें मनोचाच्छित क्रामनाओक्रो प्राप्त कर लेता है और परलोकमेँ भी गणेशजीका पद पाता है । तीनों लोकोंमे इसके समान दूसरा कोई व्रत नहीं ‘है ।  

   तदनंतर भाद्रपद कृष्णा चतुर्थीकों बहुलागणेशका गन्ध, पुष्प, माला और घास आदिके द्वारा यत्नपूर्वक पूजन करना चाहिये । तत्पश्चात परिक्रमा करके सामर्थ्य हो तो दान करे । दानकी शक्ति न हो तो इस बहुला गौको नमस्कार करके विसर्जन करे । इस प्रकार पॉच, दस या सोलह वर्षोंतक इस व्रतका पालन करके उद्यापन करे । उस समय दूध देनेवाली गौका दान करना चाहिये । इस व्रतके प्रभावसे मनुष्य मनोरम भोगोंका उपभोग करके देवताओद्वारा सत्कृत हो गोलोकधाममे जाता है । भाद्रपद शुक्ल चतुर्थीकों सिद्धिविनायक-व्रतका पालन करे । इसमें आवाहन आदि समस्त उपचारोंद्वारा गणेशजीका पूजन करना चाहिये । पहले एकाग्रचित्त होकर सिद्धिविनायकका ध्यान करें । उनके एक दाँत है । कान सूपके समान जान पडता है । उनका मुँह हाथीके मुखके समान है । वे चार भुजाओसे सुशोभित हैं । उन्होंने हाधोंमे पाश और अंकुश धारण कर रखे हैं । उनकी अङ्गकान्ति तपाये हुए सुवर्णके समान देदीप्यमान है । उनके इक्कीस नाम लेकर उन्हें भक्तिपूर्वक इक्लीस पत्ते समर्पित करे । अब तुम उन नामोको श्रवण करो । सुमुखाय नम: कहकर शमीपत्र, गणाधीशाय नम: से भग्रेयाका पत्ता, उमापुत्राय नम: से बिल्वपत्र,   गजमुखाय नम: से दूर्बादल, लंबोदराय नम:  से जेरका पत्ता, हरसूनवे नम: से धतूरका पत्ता, शूर्पकर्णानमः  से तुलसीदल, ‘ वक्रतुण्डग्य नम: से सैमका पैला, गुहाग्रजाय नमः  से अपामार्गका पत्ता, एकदन्तीय नम:  से बनभंटा या भटकटैयाका पत्ता, हेरम्बाय नम: से सिंदूर (सिंदूरचर्व अथवा सिंदूर-वृक्षका पता), तुहोत्रे नम: से तेज़पात और सर्वेश्वरा नमः से अगस्तयका पत्ता चढावे  । यह सब गणेशजीकी प्रसन्नताको बढानेवाला है । तत्पश्चात् दो दूर्बादल लेकर गन्ध , पुष्प और अक्षतके साथ गणेशजीपर चढाते । इस प्रकार पूजा करके भक्तिभावसे नैवेद्यरूपमें पाँच लडडू निवेदन करे । फिर आचमन कराकर नमस्कार और प्रार्थना करके देवताका विसर्जन करे । मुने ! सब सामप्रियोंसहित गणेशजीकी स्वर्णमयी प्रतिमा आचार्यको अर्पित करे और ब्राह्मणोंकों दक्षिणा दे । नारद ! इस प्रकार पाँच वर्षोंतक भक्तिपूर्वक गणेशजीकी पूजा और उपासना करनेवाला पुरुष इस लोक और परलोकके शुभ भोगोंको प्राप्त कर लेता है । इस चतुर्थीकी रातमें कभी चन्द्रमाकी ओर न देखे । जो देखता है उसे झूठा कलङ्क प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है । यदि चन्द्रमा दीख जाय तो उस दोषकी शान्तिके लिये इस पौराणिक मन्त्रका पाठ करे—

सिंह: प्रसैनमवधीत् सिंहो जाम्बवता हत: ।

सुकुमारक मा रीदीस्तव होष स्यमन्तक: ।।

(ना० पूर्व० ११३ | ३९)

   ‘सिंहने प्रसेनको मारा और सिंहको जाम्बवान्ने मार गिराया । सुकुमार बालक ! तू रो मत । यह स्यमन्तक अब तेरा ही है ।‘

   आश्विन शुक्ला चतुर्थीको पुरुषसूक्तद्वारा षोड़शोपचारसे कपर्दीश विनायककी पूजा करे । कार्तिक कृष्ण चतुर्थीको ‘ कर्काचतुर्थी ‘ (करवा चौथ)-का व्रत बताया गया है । इस व्रतमें केवल स्त्रियोंका ही अधिकार है । इसलिये उसका विधान बताया है-स्त्री स्नान करके वस्त्राभूषणोंसे विभूषित हो गणेशजीकी पूजा करे । उनके आगे पववानसे भरे हुए दस करवे रखे और भक्तिसे पवित्रचित होकर उन्हें देवदेव गणेशजीको समर्पित करे । समर्पणके समय यह कहना चाहिये कि’ भगवान कपर्दि गणेश मुझपर प्रसन्न हों । ‘ तत्पश्चात् सुवासिनी स्त्रियों और ब्राह्मणोंको इच्छानुसार आदरपूर्वक उन करवोंको बाँट दे । इसके बाद रातमें चनद्रोदय होनेपर चन्द्रमाक्रो विधिपूर्वक अर्घ्य दे । व्रतकी पूर्तिके लिये स्वयं भी मिष्टान्न भोजन को । इस व्रतक्रो सोलह या बारह वर्षोंतक करके नारी इसका उद्यापन करे । उसके बाद इसे छोड़ दे अथवा स्त्रीको चाहिये कि सौभाग्यकी इच्छासे वह जीवनभर इस व्रतक्रो करतो रहे; क्योंकि स्त्रीयोंके लिये इस व्रतकेसमान सोभाग्यदायक व्रत तीनों लोकोंमें दूसरा कोई नहीँ है ।

   मुनीश्वर ! मार्गशीर्ष शुक्ला चतुर्थीसे लेकर एक वर्षतकका समय प्रत्येक चतुर्थीको एकभुक्त (एक समय भोजन) करके बितावे और द्वितीय वर्ष उक्त तिथिको केवल रातमें एक बार भोजन करके व्यतीत करे । तृतीय वर्षमेँ प्रत्येक चतुर्थीको अयाचित (बिना माँगे मिले हुए) अन्न एक चार खाकर रहे और चौथा वर्ष उक्त तिथिको उपवासपूर्वक रहकर बितावे । इस प्रकार विधिपूर्वक व्रतका पालन करते हुए क्रमश: चार वर्ष  करके अन्तमेँ व्रत-स्नान करे । उस समय महाव्रती मानव सोनेकी गणेशमूतिं बनवावे । यदि असमर्थ हो तो वर्णक (हल्दी-चूर्ण)-द्वारा ही गणेश-प्रतिमा बना ले । तदनन्तर विविध रंगोंसे धरतीपर सुन्दर दलोंसहित कमल अङ्कित करके उसके ऊपर कलश स्थापित करे । कलशके ऊपर तौंबेका पात्र रखे । उस पात्रको सफेद चावलसे भर दे । चावलके ऊपर युगल वस्त्रसे आच्छादित गणेशजीको विराजमान करे । तदनन्तर गन्ध आदि सामग्रियोंद्वारा उनकी पूजा करे । फिर गणेशजी प्रसन्न हों, इस उद्देश्यसे लड्डूका नैवेद्य अर्पण करे । रातमें गीत, वाद्य और पुराण-कथा आदिके द्वारा जागरण करे । फिर निर्मल प्रभात होनेपर स्नान करके तिल, चावल, जौ, पीली सरसों, घी और खाँड़ मिली हवनसामग्रीसे विधिपूर्वक होम करे । गण, गणाधिप, कूष्माण्ड, त्रिपुरान्तक, लम्बोदर, एकदन्त, रुक्मदष्ट्र, विघ्नप, ब्रह्मा, यम, वरुण, सोम, सूर्य, हुताशन, गन्धमादी तथा परमेंष्ठी-इन सोलह नामोंद्वारा प्रत्येकके आदिमें प्रणव और अन्तमें चतुर्थी विभक्ति और ‘नम:’  पद लगाकर अग्निमें एक-एक आहुति दे । इसके बाद ‘वक्रतुण्ड् हुम्’ इस मन्त्रके द्वारा एक-सौ आठ आहुति दे । तत्पश्चात् व्याहतियोंद्वारा यथाशक्ति होम करके पूर्णाहुति दे । दिक्पालोंका पूजन करके चौबीस ब्राह्मणोंको लडडू और खीर भोजन करावे । इसके बाद आचार्यको दक्षिणासहित सवत्सा गौ दान को एवं दूसरे ब्राह्मणोंको यथाशक्ति भूयसी दक्षिणा दे । फिर प्रणाम और परिक्रमा करके उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको विदा करनेके पश्चात् स्वयं भी प्रसन्नचित होकर भाई-बन्धुओंके साथ भोजन   करे । मनुष्य इस व्रतका पालन करके गणेशजीके प्रसादसे इहलोकमें उत्तम भोग भोगता और परलोकमें भगवान् विष्णुका सायुज्य लाभ करता है । नारद ! कुछ लोग इसका नाम ‘वरव्रत’ कहते हैँ । इसका विधान भी यही है और फल भी उसके समान ही है । पौष मासकी चतुर्थीको भक्तिपूर्वक विघ्नेश्वर गणेशकी प्रार्थना करके एक ब्राह्मणको लडडु  भोजन करावे और दक्षिणा दे । मुने ! ऐसा करनेसे व्रती पुरुष धन-सम्पत्तिका भागी होता है ।

   माघ कृष्णा चतुर्थीको ‘ संकष्टव्रत ‘ बतलाया जाता है । उसमें उपवासका संकल्प लेकर व्रती पुरुष सबेरेसे चन्द्रोदयकालतक नियमपूर्वक रखे । मनको काबूमें रखे । चन्दोदय होनेपर मिट्टीकी गणेशमूर्ति बनाकर उसे पीढेपर स्थापित करे । गणेशजीके साथ उनके आयुध और वाहन भी होने चाहिये । मूर्तिमें गणेशजीकी स्थापना करके षोडशोपचारसे विधिपूर्वक उनका पूजन करे । फिर मोदक तथा गुड़में बने हुए तिलके लडूडूका नैवेद्य अर्पण करे । तत्पश्चात् ताँबेके पात्रमें लाल चन्दन, कुश, दूर्वा, फूल, अक्षत, शमीपत्र, दधि और जल एकत्र करके चन्द्रमाको अर्घ्य दे । उस समय निम्राड्कित मन्त्रका उच्चारण करे—

गगनार्णमाणिक्य चन्द्र दाक्षायाणिपते ।

गृहाणार्घ्य मया दत्तं गणेशप्रतिरूपक ।।

(ना० मूर्व० ११३ । ७७)

   ‘गगनरूपी समुद्रके माणिक्य चन्द्रमा ! दक्षकन्या रोहिणीके प्रियतम ! गणेशके प्रतिबिम्ब ! आप मेरा दिया हुआ यह अर्घ्य स्वीकार कीजिये ।

   ‘ इस प्रकार गणेशजीको यह दिव्य तथा पापनाशक अर्घ्य देकर यथाशक्ति उत्तम ब्राह्मणों भोजन करानेके पश्चात् स्वयं भी उनकी आज्ञा लेकर भोजन करे । ब्रह्मन् ! इस प्रकार कल्याणकारी ‘संकष्टव्रत ‘ का पालन करके मनुष्य धनधान्यसे सम्पन्न होता है । वह कभी कष्टमें नहीं पड़ता । माघ शुक्ला चतुर्थीको परम उत्तम गौरीव्रत किया जाता है । उस दिन योगिनी-गणोंसहित गौरीजीकी पूजा करनी चाहिये । मनुष्यों और उनमें भी विशेषत: स्त्रियोंको कुन्द, पुष्प, कुड्डम, लाल सूत्र, लाल फूल, महावर, धूप, दीप, बलि, गुड़, अदरख, दूध, खीर, नमक और पालक आदिसे गौरीजीकी पूजा करनी चाहिये । अपनी सौभाग्यवृद्धिके लिये सौभाग्यवती स्त्रियों  और उत्तम ब्राह्मणोंकी भी पूजा करनी चाहिये । उसके बाद बन्धु-बान्धवोंके साथ स्वयं भी भोजन करे । विप्रवर ! यह सौभाग्य तथा आरोग्य बढानेवाला ‘गौरीव्रत’ है । स्त्रियों और पुरुषोंको प्रतिवर्ष इसका पालन करना चाहिये । कुछ लोग इसे ‘ढुपिढव्रत’ कहते हैं । किन्हीं-किन्हींके मतमें इसका नाम ‘ कुण्डव्रत’ है । कुछ दूसरे लोग इसे ‘ललिताव्रत’ अथवा ‘शान्तिव्रत’ भी कहते हैं । मुने ! इस तिथिमें किया हुआ स्नान, दान, जप और होम सब कुछ गणेशजीकी कृपासे सदाके लिये सहस्त्रगुना हो जाता है । फाल्गुन मासकी चतुर्थीको मङ्गलमय ‘ ढूंढीराज़व्रत’ बताया गया है | उस दिन तिलके पीठसे ब्राह्मणोंको भोजन कराकर मनुष्य स्वयं भी भोजन करे । गणेशजीकी आराधनामें संलग्न होकर तिलोंसे ही दान, होम और पूजन आदि करनेपर मनुष्य गणेशके प्रसादसे सिद्धि प्राप्त कर लेता है । मनुष्यको चाहिये कि सोनेकी गणेशमूर्ति बनाकर यत्नपूर्वक उसकी पूजा करे और श्रेष्ठ ब्राह्मणको उसका दान कर दे । इससे समस्त सम्पदाओँकी वृद्धि होती है । विप्रेन्द्र ! जिस किसी मासमें भी चतुर्थी तिथि रविवार या मङ्गलवारसे युक्त हो तो वह विशेष फल देनेवाली होती है । शुक्ल या कृष्ण पक्षकी सभी चतुर्थी तिथियोंमेँ भक्तिपरायण पुरुषोंको देवेश्वर गणेशका ही पूजन करना चाहिये ।

अध्याय ९१ बारह मासोंके पंचमी तिथियोंमें करने योग्य व्रत— पूजन आदिका वर्णन

सनातनजी कहते हैब्रह्मन ! सुनो, अब मैं तुम्हें पञ्चमीके व्रत कहता हूँ, जिनका भक्तिपूर्वक पालन करनेपर मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है । चैत्रके शुक्लपक्षको पञ्च्मी तिथिको ‘मत्स्यजयन्ती ‘ कहते हैं । इसमें भक्तोंको मत्स्यावतार विग्रहकी पूजा और तत्सम्बन्धी महोत्सव करने चाहिये । इसे ‘ श्रीपञ्चमी ‘ भी कहते हैं । अत: उस दिन गन्ध आदि उपचारों तथा खीर आदि नैवेद्योद्वारा श्रीलस्यीजीका भी पूजन करना चाहिये । जो उस दिन लक्ष्मीजीकी पूजा करता है, उसे लक्ष्मी कभी नहीं छोड़तीं । उसी दिन ‘पृथ्वीव्रत ‘,’ चान्द्र-व्रत ‘ तथा ‘हयग्रीवव्रत ‘ भी होता है । अत: उनकी पृथकृ-पृथकृ सिद्धि चाहनेवाले पुरुषोंको शास्त्रोक्त विधिसे उन-उन व्रतोंका पालन करना चाहिये । जो मनुष्य वैशाखकी पञ्चमीको सम्पूर्ण नागगणोंसे युक्त शेषनागकी पूजा करता है, वह मनोवाच्छित फ़ल पाता है । इसी प्रकार विद्वान् पुरुष ज्येष्ठकी पञ्चमी तिथिको पितरोंका पूजन करे । उस दिन ब्राह्मण-भोजन करानेसे सम्पूर्ण कामनाओं और अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है । मुने ! आषाढ शुक्ल पञ्च्मीको सर्वव्यापी वायुकी परीक्षा की जाती है । गाँवसे बाहर निकलकर धरतीपर खड़ा रहे और वहाँ एक बाँस खड़ा करे । बाँसके डंडेके अग्रभागमें पञ्चाङगी पताका लगा ले । तदनन्तर बाँसके मूल भागमें सब दिशाओंकी और लोकपालोंको स्थापना एवं पूजा करके वासुकी परीक्षा करे । प्रथम आदि यामों (प्रहरों)-में जिस-जिस दिशाकी ओरसे वायु चलती है, उसी-उसी दिक्पाल या लोकपालकी भलीभाँति पूजा करे । इस प्रकार चार प्रहरतक वहाँ निराहार रहकर सायंकाल अपने घर आवे और थोड़ा भोजन करके एकाग्रचित्त हो लोकपालोंको नमस्कार करके पवित्र भूमिपर सो जाय । उस दिन रातके चौथे प्रहरमें जो स्वप्न होता है, वह निश्चय ही सत्य होता है-यह भगवान् शिवका कथन है । यदि अशुभ स्वप्न हो तो भगवान् शिवकी पूजामें तत्पर हो उपवासपूवक आठ पहर वितावे । फिर आठ ब्राह्मणोंको भोजन कराकर मनुष्य शुभ फलका भागी होता है । यह ‘ शुभाशुभ-निदर्शनव्रत’ कहा गया है, जो मनुष्योंके इहलोक और परलोकमें भी सौभाग्यज़नक होता है ।

   श्रावण मासके कृष्णपक्षकी चतुर्थीको जब थोड़ा दिन शेष रहे तो कच्चा अन्न (जितना दान देना हो) पृथक-पृथकृ पात्रोंमें रखकर विद्वान् पुरुष उन पात्रोंमें जल भर दे । तदनन्तर वह सब जल निकाल दे । फिर दूसरे दिन सबेरे सूर्योदय होनेपर विधिवत् स्नान करके देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंका भलीभाँति पूजन करे । उनके आगे नैवेद्य स्थापित को और वह पहले दिनका धोया हुआ कच्चा अन्न प्रसन्नतापूर्वक याचकोंको देवे । तत्पश्चात प्रदोषकालमें शिवमन्दिरमें जाकर लिङ्गस्वरूप भगवान् शिवका गन्ध, पुष्प आदि सामग्रियोंके द्वारा सम्यक पूजन करे । फिर सहस्त्र या सौ बार पञ्चाक्षरी विद्या (नम: शिवाय मन्त्र)-का जप करे । तदनन्तर उनका स्तवन करे । फिर सदा अन्नकी सिद्धिके लिये भगवान् शिवसे प्रार्थना करे । इसके बाद अपने घर आकर ब्राह्मण आदिक्रो पकवान देकर स्वयं भी मौनभावसे भोजन करे । विप्रवर ! यह ‘ अन्नव्रत’ है, मनुष्योंद्वारा विधिपूर्वक इसका पालन होनेपर यह सम्पूर्ण अन्नसम्पत्तियोंका उत्पादक और परलोकमें सद्रति देनेवाला होता है ।

   श्रावण मासके शुक्लपक्षको पञ्चमीके दिन आस्तिक मनुष्योंको चाहिये कि वे अपने दरवाजेके दोनों ओर गोबरसे सर्पोको आकृति बनावे और गन्ध, पुष्प आदिसे उनकी पूजा करें । तत्पश्चात् इन्द्राणीदेवीकी पूजा करें । सोने, चाँदी, दही, अक्षत, कुश, जल, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य आदिसे उन सबकी पूजा करके परिक्रमा करे और उस द्रव्यक्रो प्रणाम करके भक्तिभावसे प्रार्थनापूर्वक श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको समर्पित करे । नारद ! इस प्रकार भक्तिभावसे द्रव्य दान करनेवाले पुरुषपर स्वर्ण आदि समृद्धियोंके दाता धनाध्यक्ष कुबेर प्रसन्न होते हैं । फिर भक्तिभावसे ब्राह्मणोंको भोजन करानेके पश्चात स्वयं भी स्त्री-पुत्र और सगे-सम्बन्धियोंके साथ भोजन करे ।

   भाद्रपद मासके कृष्ण पक्षकी पञ्च्मीको दूधसे नागोंक्रो तृप्त करे । जो ऐसा करता है उसकी सात पीढियोंतकके लोग साँपसे निर्भय हो जाते हैं । भाद्रपदके शुक्ल पक्षकी पञ्च्मी श्रेष्ठ ऋषियोंकी पूजा करनी चाहिये । प्रात:काल नदी आदिके तटपर जाकर सदा आलस्यरहित हो स्नान करे । फिर घर आकर यत्नपूर्वक मिट्टीकी वेदी बनावे । उसे गोबरसे लीपकर पुष्पोंसे सुशोभित करे । इसके बाद कुशा बिछाकर उसके ऊपर गन्ध, नाना प्रकारके पुष्य, धूप और सुन्दर दीप आदिके द्वारा सात ऋषियोंका पूजन करे । कश्यप, अत्रि, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वसिष्ठ-ये सात ऋषि माने गये हैं । इनके लिये विधिवत् अर्घ्य तैयार करके अर्घ्यदान दे । बुद्धिमान पुरुषको चाहिये कि उनके लिये बिना जोते-बोये उत्पन्न हुए श्यामाक (साँवाके चावल) आदिसे नैवेद्य तैयार करे । वह नैवेद्य उन्हें अर्पण करके उन ऋषियोंका विसर्जन करनेके पश्चात् स्वयं भी वही प्रसादस्वरूप अन्न भोजन करे । इस व्रतका पालन करके मनुष्य मनोवाच्छित्त फल भोगता और सप्तर्षियोंके प्रसादसे श्रेष्ठ विमानपर बैठकर दिव्यलोकमेँ जाता है ।

   आश्विन शुक्ला पच्चमीको ‘उपाङ्गललिताव्रत’ होता है । नारद ! यथाशक्ति ललिताजीकी स्वर्णमयी मूर्ति बनाकर षोडशोपचारसे उनकी विधिवत् पूजा करे । व्रतकी पूर्तिके लिये श्रेष्ठ ब्राह्मणको पकवान, फल, घी और दक्षिणा दान करे । तत्पश्चात निम्नाङकितरूपसे प्रार्थना एवं विसर्जन करे-

सवाहना शक्तिथुता वरदा पूजिता मया

मातर्मामनुगृह्यागम्यतां निजमन्दिरम् ।।

(ना० पूर्व० ११४ । ५२)

   ‘मैंने वाहन और शक्तियोंसे युक्त वरदायिनी ललितादेवीका पूजन किया है । माँ ! तुम मुझपर अनुग्रह करके अपने मन्दिरको पधारो ।’

   द्विज़श्रेष्ठ ! कार्तिक शुक्ला पञ्च्मीको सब पापोंका नाश करनेके लिये श्रद्धापूर्वक परम उत्तम ‘ जयाव्रत ‘  करना चाहिये । ब्रह्मन् ! एकाग्रचित्त हो विधिपूर्वक षोडशोपचारसे जयादेवीकी पूजा करके पवित्र तथा वस्त्रभूषणोंसे अलंकृत हो एक ब्राह्मणको भोजन करावे और दक्षिणा देकर उसे विदा करे । तत्पश्चात् स्वयं मौन होकर भोजन करे । जो भक्तिपूर्वक जयाके दिन स्नान करता है, उसके सब पाप नष्ट हो जाते हैँ । विप्रवर ! अश्वमेध यज्ञके अन्तमेँ स्नान करनेसे जो फल बताया गया है, वही जयाके दिन भी स्नान करनेसे प्राप्त होता है । मार्गशीर्ष शुक्ला पञ्चमीको विधिपूर्वक नागोंकी पूजा करके मनुष्य उनसे अभय पाकर बन्धु-बान्धवोंके साथ प्रसन्न रहता है । पौष मासके शुक्ल पक्षकी पञ्चमीको भगवान् मधुसूदनकी पूजा करके मनुष्य मनोवाञ्छित कामनाओंको प्राप्त कर लेता है । (इसी प्रकार माघ और फाल्गुनके लिये समझना चाहिये ) नारद ! प्रत्येक मासके शुक्ल और कृष्णपक्षमें भी पञ्चमीको पितरों और नागोंकी पूजा सर्वथा उत्तम मानी गयी है ।

अध्याय ९२ वर्ष भरकी षष्ठी तिथियोंमें पालनीय व्रत एवं देवपूजन आदिकी विधि और महिमा

सनातनजी कहते हैविप्रवर ! सुनो, अब मैं तुमसे षष्ठीके व्रतोंका वर्णन करता हूँ, जिनका यथार्थरूपसे अनुष्ठान करके मनुष्य यहाँ सम्पूर्ण मनोरथोंको प्राप्त कर लेता है । चैत्र शुक्ला षष्ठीको परम उत्तम ‘कुमारव्रता१ ‘ का विधान किया गया है । उसमें नाना प्रकारकी पूजा-विधिसे भगवान् षडाननकी२ आराधना करके मनुष्य सर्वगुणसम्पन्न एवं चिरंजीवी पुत्र प्राप्त कर लेता है । वैशाख शुक्ला षष्ठीको कार्तिकेयजीकी पूजा करके मनुष्य मातृसुखलाभ करता है । ज्येष्ठ मासके शुक्ल पक्षकी षष्ठीको विधिपूर्वक सूर्यदेवकी पूजा करके उनकी कृपासे मनुष्य मनोवाच्छित भोग पाता   है । आषाढ शुक्ला षष्ठीको परम उत्तम ‘स्कन्दव्रत१ ‘ करना चाहिये । उस दिन उपवास करके शिव तथा पार्वतीके प्रिय पुत्र स्कन्दजीकी पूजा करनेसे मनुष्य पुत्र-पौत्रादि सन्तानों और मनोचाच्छित भोगोंको प्राप्त  कर लेता है । श्रावण शुक्ला षष्ठीको उत्तम भक्तिभावसे युक्त हो षोडशोपचारद्वारा शरजन्मा भगवान् स्कन्दकी आराधना करनी चाहिये । ऐसा करनेवाला पुरुष षडाननकी कृपासे अभीष्ट मनोरथ प्राप्त कर लेता है । भाद्रपद मासके कृष्ण पक्षकी षष्ठीको ‘ललिताव्रत’ बताया गया है । उस दिन नारी विधिपूर्वक प्रात:काल स्नान करनेके पश्चात श्वेत वस्त्र धारण करके श्वेत मालासे अलंकृत हो नदी-संगमकी बालुका लेकर उसके पिण्ड बनाकर बाँसके पात्रमें रखे । इस प्रकार पाँच पिण्ड रखकर उसमें वन-विलासिनी ललितादेवीका ध्यान करे । फिर कमल, कनेर, नेवारी (वनमल्लिका), मालती, नील कमल, केतकी और तगरका संग्रह करके इनमेंसे एक-एकके एक सौ आठ या अट्ठाईस फूल ग्रहण करे । उन फूलोंकी अक्षत-कलिकाएँ ग्रहण करके उन्हींसे देवीकी पूजा करनी चाहिये । पूजनके पश्चात् सामने खड़े होकर उन शिवप्रिया ललितादेवीकी इस प्रकार प्रार्थना करे-

गङ्गारद्वरे कृशावर्ते बिल्वके नीलपर्वते

स्नात्वा कनखले देवि हरं लब्धवती पतिम् ।।

ललिते सुभगे देवि सुखसोभाग्यदायिनि ।

अनन्तं देहि सौभाग्यं महां तुभ्यं नमो नम: ।।

(ना० पूर्व० ११५ | १३-१५)

   ‘देवि ! आपने गङ्गाद्वार, कुशावर्त, बिल्वक, नीलपर्वत और कनखल तीर्थमें स्नान करके भगवान् शिवको पतिरूपमें  प्राप्त किया है । सुख और सौभाग्य देनेवाली सुन्दरी ललितादेवी ! आपको बारम्बार नमस्कार है, आप मुझे अक्षय सौभाग्य प्रदान कीजिये ।‘

   इस मन्त्रसे चम्पाके सुन्दर फूंलोंद्धारा ललितादेवीकी विधिपूर्वक पूजा करके उनके आगे नैवेद्य रखे । खीरा, ककड़ी, कृम्हड़ा, नारियल, अनार, बिजौरा नीबू तुंडीर, कारवेल्ल और चिर्भट आदि सामयिक फलोंसे देवीके आगे शोभा करके बढे हुए धानके अङ्ग्कुर  दीपोंकी पंक्ति, अगुरु, धूप, सौहालक, करञ्जक, गुड़, पुष्प, कर्णवेष्ट (कानके आभूषण), मोदक, उपमोदक तथा अपने वैभवके अनुसार अनेक प्रकारके नैवेद्य आदिद्वारा विधिवत् पूजा करके रातमें जागरणका उत्सव मनावे । इस प्रकार जागरण करके सप्तमीको सवेरे ललिताजीको नदीके तटपर ले जाय । द्विजोत्तम ! वहाँ गन्ध, पुष्पसे गाजे-बाजेके साथ पूजा करके वह नैवेद्य आदि सामग्री श्रेष्ठ ब्राह्मणको दे । फिर स्नान करके घर आकर अग्निमें होम   करे । देवताओं, पितरों और मनुष्योंका पूजन करके सुवासिनी स्त्रियों, कन्याओँ तथा पन्द्रह ब्राह्मणोंको भोजन करावे । भोज़नके पश्चात् बहुत-सा दान देकर उन सबको विदा करे । अनेकानेक व्रत, तपस्या, दान और नियमसे जो फल प्राप्त  होता है, वह इसी व्रतसे यहीं उपलब्ध हो जाता है । तदनन्तर नारी मृत्युके पश्चात् सनातन शिवधाममें पहुँचकर ललितादेवीके साथ उनकी सखी होकर चिरकालतक आनन्द भोगती है और पुरुष भगवान् शिवके समीप रहकर सुखी होता है ।

   भाद्रपद मासके शुक्ल पक्षमें जो षष्ठी आती है, उसे ‘चन्दनषष्ठी’ कहते हैं । उस दिन देवीकी पूजा करके मनुष्य देवीलोकको प्राप्त कर लेता है । यदि वह षष्ठी रोहिणी नक्षत्र, व्यतीपात योग और मङ्गलवारसे संयुक्त हो तो उसका नाम ‘कपिलाषष्ठी’ होता है । कपिलाषष्ठीके दिन व्रत एवं नियममें तत्पर होकर सूर्यदेवकी पूजा करके मनुष्य भगवान् भास्करके प्रसादसे मनोवाच्छित कामनाओँको पा लेता है । देवर्षिप्रवर ! उस दिन किया हुआ अन्नदान, होम, जप तथा देवताओं, ऋषियों और पितरोंका तर्पण आदि सब कुछ अक्षय जानना चाहिये । कपिलाषष्ठीको भगवान् सूर्यकी प्रसन्नताके लिये वस्त्र, माला और चन्दन आदिसे दूध देनेवाली कपिला गायकी पूजा करके उसे वेदज्ञ ब्राह्मणको दान कर देना चाहिये । ब्रह्मन् ! आश्विन शुक्ला पष्ठीको गन्ध आदि माङ्गलिक द्रव्यों और नाना प्रकारके नैवेद्योंसे  कात्यायनीदेवीकी पूजा करनी चाहिये | पूजाके पश्चात् देवेश्वरी कात्यायनीदेवीसे क्षमा-प्रार्थना और उन्हें प्रणाम करके उनका विसर्जन करे । यहाँ बालूकी मूर्तिमें कात्यायनीकी प्रतिष्ठा करके उनकी पूजा करनी चाहिये । ऐसा करके कात्यायनीदेवीकी कृपासे कन्या मनके अनुरूप वर पाती है और विवाहिता नारी मनोवाच्छित पुत्र प्राप्त करती है । कार्तिक शुक्ला षष्ठीको महात्मा षडाननने सम्पूर्ण देवताओँद्वारा दी हुई महाभागा देबसेनाको प्राप्त किया था । अत: इस तिथिको सम्पूर्ण मनोहर उपचारोंद्वारा सुरश्रेष्ठा देवसेना और षडानन कार्तिकेयकी भलीभाँति पूजा करके मनुष्य अपने मनके अनुकूल अनुपम सिद्धि प्रात करता है । द्विजोत्तम ! उसी तिथिको, अग्निपूजा बतायी गयी है । पहले अग्निदेवकी पूजा करके नाना प्रकारके द्रवियोंसे होम करना चाहिये । मार्गशीर्ष शुक्ला षष्ठीक्रो गन्ध, पुष्प, अक्षत, फल, वस्त्र, आभूषण तथा भाँतिभौंतिके नैवेद्योद्वारा स्कन्दका पूजन करना चाहिये । मुनिश्रेष्ठा यदि वह षष्ठी रविवार तथा शतभिषा नक्षत्रसे युक्त हो तो उसे ‘ चम्पाषष्ठी ‘ कहते हैं । उस दिन सुख चाहनेवाले पुरुषको पापनाशक भगवान विश्वेश्वरका दर्शन, पूजन, ज्ञान और स्मरण करना चाहिये । उस दिन किया हुआ स्नान-दान आदि सब शुभ कर्म अक्षय होता है । विप्रवर ! पौष मासके शुक्ल पक्षकी षष्ठीको सनातन विष्णुरूपी जगत्पालक भगवान् दिनेश प्रकट हुए थे । अत: सब प्रकारका सुख चाहनेवाले पुरुषोंको उस दिन गन्ध आदि  द्रव्यों, नैवेद्यों तथा वस्त्राभूषण आदिके द्वारा ‘ उनका पूजन करना चाहिये । माघ मासमें जो शुक्ल पक्षकी षष्ठी आती हैं,  उसे ‘ वरुणषष्ठी ‘ कहते हैं । उसमें रक्त चन्दन, रक्त वस्त्र, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्यद्वारा विष्णु-स्वरूप सनातन वरुणदेवताकी पूजा करनी चाहिये । इस प्रकार विधिपूर्वक पूजन करके मनुष्य जो-जो चाहता है, वही-वही फल वरुणदेवकी कृपासे प्राप्त करके प्रसन्न होता है । नारद ! फाल्युन मासके शुक्ल पक्षकी षष्ठीको विधिपूर्वक भगवान् पशुपतिकी मृण्ययी मूर्ति बनाकर विविध उपचारोंसे उनकी पूजा करनी चाहिये । शतरुद्रीके मंत्रों पृथक-पृथक पञ्चामृत एवं जलद्वारा नहलाकर श्वेत चन्दन लगावे; फिर अक्षत, सफेद फूल, बिल्वपत्र, धतूरके फूल, अनेक प्रकारके फल और भाँति-भाँतिके नैवेद्योंसे भलीभाँति पूजा करके विधिवत् आरती उतारे । तदनन्तर क्षमा-प्रार्थना करके प्रणामपूर्वक उन्हें कैलासके लिये विसर्जन करे । मुने ! जो स्त्री अथवा पुरुष इस प्रकार भगवान् शिवकी पूजा करते हैं, वे इहलोकमें श्रेष्ठ भोगोंका उपभोग करके अन्तमेँ भगवान् शिवके स्वरूपको प्राप्त होते हैं ।

अध्याय ९३ बारह मासोंके सप्तमी— सम्बन्धी व्रत और उनके माहात्म्य

सनातनजी कहते हैसुनो, अब मैं तुम्हे सप्तमीके व्रत बतलाता हूँ । चैत्र शुक्ला सप्तमीको गाँवसे बाहर किसी नदी या जलाशयमें स्नान करे | फिर घर आकर एक वेदी बनावे और उसे गोबरसे लीपकर उसके ऊपर सफेद बालू फैला दे | उसपर अष्टदल कमल लिखकर उसकी कार्णीकामें भगवान् सूर्यकी स्थापना करे । पूर्वके दलमें यज्ञसाधक दो देवताओंका न्यास करे । अग्निकोणके दलमें यज्ञसाधक दो देवताओंका न्यास करे | अग्निकोणके दलमें दो यज्ञसाधक गन्धर्वोका न्यास करे | दक्षिणदलमें दो अप्सराओंका न्यास करे | मुनिश्रेष्ठ ! नैऋत्य-दलमें दो राक्षसोंको स्थापित करे | पश्चिमदलमें यज्ञमें सहायता पहुँचानेवाले काद्रवेयसंज्ञक दो माहानागोंका न्यास करे | द्विजोत्त्म ! वायव्यदलमें  यातुधानोंका, उत्तरदलमें दो ऋषियोंका और ऐशान्यदलमें एक ग्रहका न्यास को । इन सबका गन्ध, माला, चन्दन, धूप, दीप, नैवेद्य और पान-सुपारी आदिके द्वारा पूजन करना चाहिये । इस प्रकार पूजा करके सूर्यदेवके लिये घीसे एक सौ आठ आहुति दे तथा अन्य लोगोंके लिये नाम-मन्त्रसे वेदीपर ही क्रमश: आठ-आठ आहुतियाँ दे । द्विजश्रेष्ठ ! तदनन्तर पूर्णाहुति दे और ब्राह्मणोंको अपनी शक्तिके अनुसार दक्षिणा अर्पित करे । इस प्रकार सब विधान करके मनुष्य पूर्ण सौख्य लाभ करता हैं और शरीरका अन्त होनेपर सूर्यमण्डल भेदकर परम पदको प्राप्त होता है ।

   वैशाख शुक्ला सप्तमीको राजा जहुने स्वयं क्रोधवश गंगाजीको पी लिया था और पुन: अपने दाहिने कानके छिद्रसे उनका त्याग किया था । अत: वहाँ प्रात:काल स्नान करके निर्मल जलमें गन्ध, पुष्प, अक्षत आदि सम्पूर्ण उपचारोंद्वारा गंगाजीका पूजन करना चाहिये । तदनन्तर एक सहस्त्र घट दान करना चाहिये । ‘ गंगाव्रत ‘ मे यही कर्तव्य है । यह सब भक्तिपूवंक किया जाय तो गंगाजी सात पीढियोंको नि:संदेह स्वर्गमें पहुँचा देती हैं । इसी तिथिको ‘ कमलव्रत ‘ भी बताया गया है । तिलसे भरे हुए पात्रमें सुवर्णमय सुन्दर कमल रखकर उसे दो वस्त्रोसे ढंक्कर गन्ध, धूप आदिके द्वारा उसकी पूजा करे । तत्पश्चात्

मस्ते पद्यहस्ताय नमस्ते विश्वधारिणे ।

दिवाकर नमस्तुप्यं प्रभाकर नमोठस्तु ते ।।

(ना० पूर्व० ११६ । १५-१६)

   ‘ हाथमें कमल धारण करनेवाले भगवानसुर्यंको नमस्कार है । सम्पूर्ण विश्वको धारण करनेवाले भगवानसविताको नमस्कार है । दिवाकर ! आपको नमस्कार है । प्रभाकरा आपको नमस्कार है ।’

   इस प्रकार देवेश्वर सूर्यको नमस्कार करके सूर्यास्तके समय जलसे भरे हुए घड़ेके साथ वह कमल और एक कपिला गाय ब्राह्मणको दान दे । उस दिन अखण्ड उपवास और दूसरे दिन भोजन करना चाहिये । ब्राह्मणोंको भक्तिभावसे भोजन करानेसे व्रत सफ़ल होता है । उसी दिन ‘ निम्बसप्तमी ‘ का व्रत बताया जाता है । द्विजश्रेष्ठ नारद ! उसमें ‘ ॐ ख़स्वील्काय नम: ‘ इस मन्त्रद्वारा नीमके पत्तेसे भगवान् भास्करकी पूजाका विधान है । पूजनके पश्चात् नीमका पत्ता खाय और मौन होकर भ्रूमिपर शयन करे । दूसरे दिन ब्राहाणोंको भोजन कराकर स्वयं भी भाई बन्धुओके साथ भोजन को । यह ‘ निम्बपत्रव्रत ‘ है, जो इसका पालन करनेवाले षुरुषोंको सब प्रकारका सुख देनेवाला है । इसी दिन ‘ शर्करासप्तमी ‘ भी कही गयी है । शर्करासप्तमी अश्वमेंध यज्ञका फल देनेवाली, सव दु:खोंको शान्त करनेवाली और सनातनपरम्पराको बढानेवाली है । इसमें दान करना, शक्कर खाना और खिलाना कर्तवय है । यह व्रत भगवान् सूर्यको विशेष प्रिय है । जो ज्ञान परम भक्तिभत्वसे इसका पालन करता है, वह सद्गतिको प्राप्त होता है ।

   ज्येष्ठ शुक्ला सप्तमीको साक्षात् भगवान सूर्यस्वरूप इन्द्र उत्पन्न हुए हैं। ब्रह्मन् ! जो उपवासपूर्वक जितेन्दियभावसे विधि-विधानके साथ उनकी पूजा करता है, वह देवराज इन्द्रके प्रसादसे स्वर्गलोकमें स्थान पाता है । विप्रेन्द्र ! आषाढ़ शुक्ला सप्तमीको विवस्वान् नामक सूर्य प्रकट हुँए थे; अत: उस तिथिमे गन्ध, पुष्प आदि पृथक-पृथकृ समग्रियोंद्वारा उनकी भलीभांति पूजा करके मनुष्य भगवान् सूर्यका सायुज्य प्राप्त कर लेता है ।

  श्रावण शुक्ला सप्तमीको ‘ अव्यङ्ग ‘ नामक शुभ व्रत करना चाहिये । इसमें सूर्यदेवकी पुजाके अन्तमे उनकी प्रसन्नताके लिये कपासके सूतका बना हुआ साढे चार हाथका वस्त्र दान करना चाहिये । यह व्रत विशेष कल्याणकारी है । यदि यह सप्तमी हस्त नक्षत्रसे युक्त हो तो पापनाशिनी कही गयी है । इसमें किया हुआ दान, जप और होम सब अक्षय होता है । भाद्रपद शुक्ल सप्तमीको ‘ आमुक्ताभरणव्रत ‘ बतलाया गया है । इसमें उमासहित्त भगवान् महेश्वरकी पूजाका विधान है । गंगाजल आदि षोडशोपचारसे भगवानका पूजन, प्रार्थना और नमस्कार करके सम्पूर्ण कामनाओँकी सिद्धिके लिये उनका विसर्जन करना चाहिये। इसीको ‘ फलसप्तमी ‘ भी कहते हैँ । नारियल, बैगन, नारंगी, बिजौरा नीबू, कुम्हडा, बनभंटा और सुपारी-इन सात फलको महादेवजीके आगे रखकर सात तन्तुओँ और सात गाँठोसे युक्त एक डोरा भी चढाते । फिर पराभक्तिरपे उनका पूजन करके उस डोरेको स्त्री बायें हाथमें बाँध ले और पुरुष दाहिने हाथमें जबतक वर्ष पूरा न हो जाय तबतक उसे धारण किये रहे । सात ब्राह्मणोंको खीर भोजन कराकर उन्हें विदा करे । उसके बाद बुद्धिमान् पुरुष व्रतकी पूर्णताके लिये स्वयं भी भोजन करे । पहले बताये हुए सातों फल सात ब्राहाणोंको देने चाहिये । विप्रवर ! इस प्रकार सात वर्षोंतक व्रतका पालन करके विधिवत् उपासना करनेपर व्रतधारी मनुष्य महादेवजीका सायुज्य प्राप्त कर लेता है । आश्विनके शुक्ल पक्षमें जो सप्तमी आती है, उसे ‘ शुभ सप्तमी ‘ जानना चाहिये । उसमें स्नान और पूजा करके तथा श्रेष्ठ ब्राहाणोंकी आज्ञा ले व्रतका आरम्भ करके कपिला गायका पूजन एवं प्रार्थना करे-

 त्वामहं दधि क्लारणि प्रीयतामर्यंमा स्वयम्।

पालय त्वं जगत्कृत्स्नं यतोसि धर्मसम्भचा ।।

(ना० मूर्व० ११६। ४९-४२)

   ‘ कल्याणी ! मैं तुम्हारा दान करता हूँ, इस साक्षात् भगचान सूर्य प्रसन्न हो । तुम सम्पूर्ण जगतका पालन करो; क्योंकि धर्मसे उत्पन्न हई हो।”

   ऐसा कहकर वेदवेत्ता ब्राहाणको नमस्कार करके उसे गाय और दक्षिणा दे । ब्रह्मन् ! फिर स्वयं पाँचगव्य पान करके रहे । इस प्रकार व्रत करके दूसरे दिन उत्तम ब्राह्मणोंको भोजन करावे और उनसे शेष बचे हुए प्रसादस्वरूप अन्नको स्वयं भोजन करे । जिसने श्रद्धापूर्वक इस शुभ सप्तमी नामक व्रतको किया है, वह देवदेव महादेवजीके प्रसादसे भोग और मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।

   कार्तिकके शुक्ल पक्षमें ‘ शाकसप्तमी ‘  नामक व्रत करना चाहिये। उस दिन स्वर्णकमलसहित सात प्रकारके शाक सात ब्राह्मणोंको दान को और स्वयं शाक भोजन करके ही रहे । दूसरे दिन ब्राह्मणोंको भोजन कराकर उन्हें भोजन-दक्षिणा दे और स्वयं भी मौन होकर भाईं-बन्धुओँके साथ भोजन को । मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमीको ‘मित्र-व्रत` बताया गया है । भगवान् विष्णुका जो दाहिना नेत्र है, वही साकार होकर कश्यपके तेज और अदितिके गर्भसे ‘ मित्र ‘ नामधारी दिवाकरके रूपमें प्रकट हूआ है । अत: ब्रह्मन् ! इस तिथिमें शास्त्रोंक्त विधिसे उन्हींका पूजन करना चाहिये । पूजन करके मधुर आदि सामग्रियोंसे सात ब्राह्यणोंको भोजन करावे और उन्हें सुवर्ण-दक्षिणा देकर विदा करे । तत्पश्चात् स्वयं भी भोजन करे । विधिपूर्वक इस व्रतका पालन करके मनुष्य निश्चय ही सूर्यके लोकमें जाता है । पोष शुक्ला सप्तमीको ‘ अभयव्रत ‘ होता है । उस दिन उपवास करके पृथ्वीपर खड़ा हो तीनों समय सूर्यदेवको पूजा करे । तत्पश्चात् दूधमिधित अन्नसे बँधा हुआ एक सेर मोदक ब्राह्मणको दान करके सात ब्राह्मणोंको भोजन करावे और उन्हें सुवर्णको दक्षिणा दे विदा करके स्वयं भी भोजन को । यह सबको अभय देनेवाला माना गया है । दूसरे ब्राह्मण उसी दिन ‘ मार्तण्डव्रत ‘ का उपदेश करते हैं । दोनों एक ही देवता होनेके कारण विद्वानोंने उन्हे  एक ही व्रत कहा है । माघ मासके कृष्ण पक्षकी सप्तमीको ‘ सर्वासि ‘  नामक व्रत होता है । उस दिन उपवास करके सुवर्णके बने हुए सूर्यबिम्बको गन्ध, पुष्प आदिसे पूजा करे तथा रात्रिमे जागरण करके दूसरे दिन सात ब्राहाणोंको खीर भोजन करावे । उन ब्राह्मणोंको दक्षिणा, नारियल और अगुरु अर्पण करके दूसरी दक्षिणाके साथ सुवर्णमय सूर्यविम्ब आचार्यको समर्पित को । फिर विशेष प्रार्थनापूर्वक उन्हें विदा करके स्वयं भोजन करे । यह व्रत सम्पूर्ण कामनाओको देनेवाला कहा गया है । इस व्रतके प्रभावसे सर्वथा अद्वेतज्ञान सिद्ध होता है ।

   माघ शुक्ला सप्तमीको ‘ अचलाव्रत्त ‘ बताया गया है । यह ` त्रिलोचनजयन्ती ‘ है । इसे सर्वपापहारिणी माना गया है । इसीको ` रथसप्तमी ‘ भी कहते हैं, जो ` चक्रवर्ती ‘ पद प्रदान करनेवाली है । उस दिन सूर्यकी सुवर्णमयी प्रतिमाको सुवर्णमय घोड़े जुते हुए सुवर्णके ही रथपर बिठाकर जो सुवर्ण दक्षिणाके साथ भावभक्तिपूर्वक उसका दान करता है, वह भगवान् शङ्करके लोकमें जाकर आनन्द भोगता है । यही ‘ भास्करसप्तमी ‘ भी कहलाती है, जो करोडों सूर्य-ग्रहणोंके समान है । इसमें अरुणोदयके समय स्नान किया जाता है । आक और बेरके सात-सात पत्ते सिरपर रखकर स्नान करना चाहिये । इससे सात जन्मोके पापोंका नाश होता है । इसी सप्तमीको ‘ पुत्रदायक ‘ व्रत भी बताया गया है । स्वयं भगवान् सूर्यने कहा हैँ- ‘ जो माघ शुक्ला सप्तमीको विधिपूर्वक मेरी पूजा करेगा, उसपर अधिक सन्तुष्ट होकर में अपने अंशसे उसका पुत्र होऊँगा ‘ इसलिये उस दिन इद्रियसंयमपूर्वक दिनरात उपवास करे और दूसरे दिन होम करके ब्राह्मणोंको दही, भात, दूध और खीर आदि भोजन करावे । फाल्गुन शुक्ला सप्तमीको ‘ अर्कपुट ‘ नामक व्रतका आचरण करे । आर्कके पत्तोंरपे अर्क ( सूर्य) का पूजन करे और अर्कके पत्ते ही खाय तथा ‘ अर्क ‘ नामका सदा जप करे । इस प्रकार किया हुआ यह ‘ अर्कपुटव्रत ‘ धन और पुत्र देनेवाला तथा सब पापोंका नाश करनेवाला है । कोईं-कोई विधिपूर्वक होम करनेसे इसे ‘ यज्ञव्रत ‘ मानते हैं । द्विजश्रेष्ठ ! सब मासोंकी सम्पूर्ण सप्तमी तिथिर्योमें भगवान् सूर्यंकी आराधना समस्त कामनाओँको पूर्ण करनेवाली बतायी गयी है ।

अध्याय ९४ बारह महीनोंके अष्टमी— सम्बन्धी व्रतोंकी विधि और महिमा

सनातनजी कहते हैँ नारद ! चैत्र मासके शुक्ल पक्षकी अष्टमीको भवानीका जन्म बताया जाता है । उस दिन सौं परिक्रमा करके उनकी यात्राका महान् उत्सव मनाना चाहिये । उस दिन जगदम्बाका दर्शन मनुष्योंके लिये सर्वथा आनन्द देनेवाला है । उसी दिन अशोककलिका खानेका विधान है । जो लोग चैत्र मासके शुक्ल पक्षकी अष्टमीको पुनर्वसु नक्षत्रमें अशोककी आठ कलिकाओके। पान करते हैं, वे कभी शोक नहीं पाते । उस दिन रातमेँ देवीकी पूजाका विधान होनेसे वह तिथि ‘ महाष्टमी ‘ भी कही गयी है । वैशाख मासके शुक्ल पक्षकी अष्टम तिथिको उपवास करके स्वयं जलसे स्नान करे और अपराजिता-देवीको जटामाँसी तथा उशीर (खस)- मिश्रित जलसे स्नान कराकर गन्ध आदिसे उनकी पूजा करे । फिर शर्करासे तैयार किसा हुआ नैवेद्य भोग लगावे । दूसरे दिन नवमीको पारणासे पहले कुमारी कन्याओँको देवीका शर्करामय प्रसाद भोजन करावे । ब्रह्मन् ! ऐसा करनेवाला मनुष्य देवीके प्रसादसे ज्योतिर्मय विमानमें बैठकर प्रकाशमान सूर्यंकी भाँति दिव्य लोकोंमें विचरता है ।

   ज्येष्ठ मासके कृष्ण पक्षकी अष्टमीको भगवान् त्रिलोचनकी पूजा करके मनुष्य सम्पूर्ण देवताओँसे वंदित हो एक कल्पतक शिवलोकमें निवास करता है । जो मनुष्य ज्येष्ठ शुक्ला अष्टमीको  देवीकी पूजा करता है, वह गन्धर्वो और अप्सराओँके साथ विमानपर विचरण करता है । आषाढ मासके शुक्ल पक्षकी अष्टमीको हल्दीमिश्रित जलसे स्नान करके वैसे ही जलसे देवीको भी स्नान करावे और विधिपूर्वक उनकी पूजा को । तदनन्तर शुद्ध जलसे स्नान कराकर कपूर और चन्दनका लेप लगावे । तत्पश्चात् शर्करायुक्त नैवेद्य अर्पण करके आचमन करावे । फिर ब्राह्मणोंको भोजन कराकर उन्हें सुवर्ण और दक्षिणा दे । तदनन्तर उन्हे विदा करके स्वयं मौन होकर भोजन करे । इस व्रतका पालन करके मनुष्य देवीलोकमें जाता है । श्रावण शुक्ला अष्टमीक्रो विधिपूर्वक देवीका यजन करके दूधसे उन्हें नहलावे और मिष्ठान्न निवेदन को, तत्पश्चात् दूसरे दिन ब्राहाणोंको भोजन कराकर स्वयं भी भोजन करके व्रत समाप्त करे । यह संतान बढानेवाला व्रत है । श्रावण मासके कृष्ण पक्षका अष्टमीको ‘ दशाफ़ल ‘ नामका व्रत होता हैँ । उस दिन उपवास-व्रतका संकल्प लेकर स्नान ओर नित्यकर्म करके कालो तुलसीके दस पत्तोंसे कृष्णाय नम: ‘, ‘ विष्णवे नम: ‘, ‘ अनन्ताय की: ‘, ‘ गोविन्दाय नम: ‘, ‘ गरुडथ्वजाय नम: ‘, ‘ प्लामोदराय नम: ‘, ‘ हृषीकेशाय नम: ‘, ‘ पद्यनाभाय नमः ‘, ‘ हरये नम: ‘, ‘ प्रभवे नम: -इन दस नामोका उच्चारण करके प्रतिदिन भगवान् श्रीकृष्णका पूजन करे । तदनन्तर परिक्रमापूर्वक नमस्कार करे । इस प्रकार इस उत्तम व्रतको दस दिनतक करता रहे । इसके आदि, मध्य और अन्तमें श्रीकृष्ण-मन्त्रद्वारा चरुसे एक सौ आठ चार विधिपूर्वक होम को । होमके अन्तमें विद्वान् पुरुष विधिके अनुसार भलीभाँति आचार्यकी पूजा को । सोने, ताँबे, मिट्टी अथवा बाँसके पात्रमें सोनेका सुन्दर तुलसीदल बनवाकर रखे । साथ ही भगवान् श्रीकृष्णकी सुवर्णमयी प्रतिमा भी स्थापित करके उसको विधिपूर्वक पूजा करे और वस्त्र तथा आभूषणोंसे विभूषित बछड़ेसहित्त गौका दान भी करे । दस दिनोंतक प्रतिदिन भगवान् श्रीकृष्णको दस-दस पूरी अर्पण करे । उन पूरियोंको व्रती पुरुष विधिज्ञ ब्राह्मणको दे डाले अथवा स्वयं भोजन करे । द्विजोत्तम ! दसवें दिन यथाशक्ति शय्यादान को । तत्पश्चात् द्रव्यसहित सुवर्णमयी मूर्ति आचार्यको समर्पित करे । व्रतके अन्तमें दस ब्राहाणोंको प्रत्येकके लिये दस-दस पूरियाँ देवे । इस प्रकार दस वर्षोंतक उत्तम व्रतका पालन करके विधिपूर्वक उपवासका निर्वाह कर लेनेपर मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओँसे सम्पन्न होता है और अन्तमें भगवान् श्रीकृष्णका सायुज्य प्राप्त कर लेता है ।

   यही ‘ कृष्ण-जन्माष्टमी ‘ तिथि है, जो मनुष्योंके सब पापोंको हर लेनेवाली कही गयी है । श्रीकृष्णके जन्मके दिन केवल उपवास करनेमात्रसे मनुष्य सात जन्मोके पापोंसे मुक्त हो जाता है । विद्वान् पुरुष उपवास करके नदी आदिके निर्मल ज़लमें तिलमिश्रित जलसे स्नान करे । फिर उत्तम स्थानमें बने हुए मण्डपके भीतर मण्डल बनावे । मण्डलके मध्यभागमें ताँबे या मिट्टीका कलश स्थापित को । उसके ऊपर तांबेका पात्र रखे । उस पात्रके ऊपर दो वस्त्रोंसे ढकी हुई श्रीकृष्णकी सुवर्णमयी सुन्दर प्रतिमा स्थापित करे। फिर वाद्य आदि उपचारोंद्वारा स्नेहपूर्ण हदयसे उसकी पूजा को । कलशके सब ओर पूर्व आदि क्रमरपे देवकी, वसुदेव, यशोदा, नन्द, व्रज, गोपगण, गोपीघृन्द तथा गोसमुदायकी पूजा को । तत्पश्चात् आरती करके अपराध क्षमा कराते हुए भक्तिपूर्वक प्रणाम करे । उसके बाद आधी राततक वहीँ रहे । आधी रातमें पुन: श्रीहरिको पद्यामृत तथा शुद्ध जलसे स्नान कराये और गन्ध-पुष्प आदिसे पुन: उनकी पूजा को । नारद ! धनिया, अजवाइन, सोंठ, खाँड़ और घीके मेंलसे नैवेद्य तैयार करके उसे चाँदीके पात्रमेँ रखकर भगवानको अर्पण करे । फिर दशाव्रतारधारी श्रीहरिका चिन्तन करते हुए पुन: आरती करके चंद्रोदय होनेपर चन्द्रमाको अर्घ्य दे । उसके बाद देवेश्वर श्रीकृष्णरपे क्षमा-प्रार्थना करके व्रती पुरुष पौराणिक स्तोत्रमात्र और गीत-वाद्य आदि अनेक कार्यक्रमोंद्वारा रात्रिका शेष भाग व्यतीत को । तदनन्तर प्रात:काल श्रेष्ठ ब्राह्मणोको मिष्ठान्न भोजन करावे और उन्हें प्रसन्नतापूर्वक दक्षिणा देकर विदा करे । तत्पश्चात् भगवानकी सुंवर्णमयी प्रतिमाको स्वर्ण, धेनु और भूमिसहित आचार्यको दान करे । फिर और भी दक्षिणा देकर उन्हें विदा करनेके पश्चात् स्वयं भी स्त्री, पुत्र, सुहदृ तथा भृत्यवर्गके साथ भोजन को । इस प्रकार व्रत करके मनुष्य श्रेष्ठ विमानपर बैठकर साक्षात् गोलोकमें जाता है । इस जन्माष्टमीके समान दूसरा कोई व्रत तीनों लोकोंमें नहीं है, जिसके करनेसे करोडों एकादशियोंका फल प्राप्त हो जाता है । भाद्रपद शुक्ला अष्टमीको मनुष्य ‘ राधाव्रत ‘ करे । इसमें भी पूर्ववत कलशके ऊपर स्थापित श्रीराधाको स्वर्णमयी प्रतिमाका पूजन करना चाहिये । मध्याह्रकालमें श्रीराधाजीका पूजन करके एकभुक्त व्रत करे । यदि शक्ति हो तो भक्त पुरुष पूरा उपवास को । फिर दूसरे दिन भक्तिपूर्वक सुचासिनी स्त्रियॉंको भोजन कराकर आचार्यको प्रतिमा दान करे । तत्पश्चात् स्वयं भी भोजन करे । इस प्रकार इस व्रतको समाप्त करना चाहिये। ब्रह्मष्रे ! व्रती पुरुष विधिपूर्वक इस ‘ राधाष्टमीव्रत ‘ के करनेसे व्रज़का रहस्य जान न लेता तथा राधापरिकरोंमेँ निवास करता है ।

   इसी तिथिको ‘ दूर्वाष्टमीव्रत ‘ भी बताया गया है । पवित्र स्थानमेँ उगी हुई दूबपर शिवलिङ्गकी स्थापना करके गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य दही, अक्षत और फल आदिके द्वारा भक्तिपूर्वक उसकी पूजा करे । पूजाके अन्तमेँ एकाग्रचित्त होकर अर्घ्य दे । अर्घ्य देनेके पश्चात् परिक्रमा करके वहीं ब्राह्मणोंको भोजन करावे और उन्हें दक्षिणा, उत्तम फल तथा सुगन्धित मिष्ठान्न देकर विदा करे; फिर स्वयं भी भोजन करके अपने घर जाय । विप्रवर ! इस प्रकार यह ‘ दूर्वाष्टमी ‘ मनुष्योंके लिये पुण्यदायिनी तथा उनका पाप हर लेनेवाली है । यह चारों वर्णो और विशेषत: स्त्रियोंके लिये अवश्यकर्तव्य व्रत है । ब्रह्मन् ! जब वह अष्टमी ज्येष्ठा नक्षत्रसे संयुक्त हो तो उसे ‘ ज्येष्ठा अष्टमी ‘ के नामसे जानना चाहिये । वह पूजित होनेपर सब पापोंका नाश करनेवालो है । इस तिथिसे लेकर सोलह दिनोंतक महालक्ष्मीका व्रत बताया गया है । पहले इस प्रकार संकल्प करे-

करिध्येठहं महालस्यीव्रतं ते त्वत्यरायण: ।

तदविघेन में यातु समार्सिं त्यतासादत: ।।

(ना० मूवं० ११७। ५५)

   ` देवि ! में आपकी सेवामे तत्पर होकर आपके इस महालक्ष्मीव्रतका पालन करूँगा । आपकी कृपासे यह व्रत बिना किसी विघ्न-बाधाके परिपूर्ण हो ।’

   ऐसा कहकर दाहिने हाथमें सोलह तन्तु और सोलह गाँठोंसे युक्त डोरा बाँध ले । तबसे व्रती पुरुष प्रतिदिन गन्ध आदि ठपचारोंद्वारा महालक्ष्मीकी पूजा को । पूजाका यह क्रम आश्विन कृष्णा अष्टमीतक चलाता रहे । व्रत पूरा हो जानेपर विद्वान् पुरुष उसका उद्यापन करे । वस्त्र घेरकर एक मण्डप बना ले । उसके भीतर सर्वतोभद्रमण्डलकी रचना करें और उस मण्डलमें कलशको प्रतिष्ठा करके दीपक जला दे । फिर अपनी बाहसे डोरा उतारकर कलशके नीचे रख दे । इसके बाद सोनेकी चार प्रतिमाएँ बनवाए, वे सब-की-सब महालक्ष्मीस्वरूपा हो । फिर पंचामृत और जलसे उन सबको स्नान करावे तथा षोडशोपचारसे विधिपूर्वक पूजा करके वहाँ जागरण करे । तदनन्तर आधी रातके समय चंद्रोंदय होनेपर श्रीखण्ड आदि द्रव्योंसे विधिपूर्वक अर्घ्य अर्पण करे । यह अर्घ्य चन्द्रमण्डलमें स्थित महालक्ष्मीके उद्देश्यसे देना चाहिये। अर्घ्य देनेके पश्चात महालश्मीकी प्रार्थना करे और फिर व्रत करनेवाली स्त्री श्रोत्रिय ब्राह्मर्णोकी पत्नियोंका रोली, महावर और काजल आदि सौभाग्यसूचक द्रव्योंद्वारा भलीभांति पूजन करके उन्हें भोजन करावे । तत्पश्चात् बिल्व, कमल और खीरसे अग्निमें आहुति दे । ब्रह्मन् ! उक्त वस्तुओंके अभावमें केवल घीकी आहुति दे । ग्रहोके लिये समिधा और तिलका हवन करे । सब रोगोंका शान्तिके उद्येश्यसे भगवान् मृत्युञ्जयके लिये भी आहुति देनी चाहिये । चन्दन, तालपत्र, पुष्पमाला, अक्षत, दूर्वा, लाल सूत, सुपारी, नारियल तथा नाना प्रकारके भक्ष्य पदार्थ सबको नये सूपेमें रखे । प्रत्येक वस्तु सोलहकी संख्यामें हो । उन सब वस्तुओको दूसरे सूपसे ढक दे । तदनन्तर व्रती पुरुष निमंकित मन्त्र पढते हुए उपर्युक्त सब वस्तुएँ महालश्मीक्रो समर्पित करे-

क्षीरीदापबिसम्मूता लद्रमीश्चन्द्रसहोदरां ।

 व्रतेनानेन संतुष्ट? भवताद्विष्णुवल्लभा ।।

(ना० पूर्व० ११७। ७०-७१)

   ‘ क्षीरसागरसे प्रकट हुई चन्द्रमाकी सहोदर भगिनी श्रीविष्णुवल्लभा महालक्ष्मी इस व्रतसे सन्तुष्ट हो ।’

   पूर्वोक्त चार प्रतिमाएँ श्रोत्रिय ब्राह्मणको अर्पितब करे । इसके बाद चार ब्राह्मणों और सोलह सुवासिनी स्त्रीयोंको मिष्ठान्न भोजन कराकर दक्षिणा देकर उन्हें विदा करे । फिर नियम समाप्त करके इष्ट भाई-बन्धुओँके साथ भोजन करे । विप्रवर ! यह महालक्ष्मीका व्रत है । इसका विधिपूर्वक पालन करके मनुष्य इहलोकके इष्ट भोगोंका उपभोग करनेके बाद चिरकालतक लक्ष्मीपतिलोकमें निवास करता है ।

   विप्रवर ! आश्विन मासके शुक्लपक्षमें जो अष्टमी आती है, उसे ‘ महाष्टमी ‘ कहा गया है । उसमें सभी उपचारोसे दुर्गाजीके पूजनका विधान है । जो ` महाष्टमी ‘ को उपवास अथवा एकभुक्त व्रत करता है, वह सब ओरसे वैभव पाकर देवताकी भाँति चिरकालतक आनन्दमग्न रहता हैं । कार्तिक कृष्णपक्षमें अष्टमीको ` कर्काष्टमी ‘ नामक व्रत कहा गया है । उसमें यत्नपूर्वक उमासहित भगवान् शङ्करकी पूजा करनी चाहिये । जो सर्वगुणसम्पन्न पुत्र और नाना प्रकारके सुखकी अभिलाषा रखते हैँ, उन व्रती पुरुषोंका चंद्रोंदय होनेपर सदा चन्द्रमाके लिये अर्घ्यदान करना चाहिये । कार्तिकके शुक्लपक्षमेँ गोपाष्टमीका व्रत बताया गया है । उसमें गोऔकी पूजा करना, गोग्रास देना, गौओँक्री परिक्रमा करना, गौओंके पोछे-पीछे चलना और गोदान करना आदि कर्तव्य है । जो समस्त सम्यत्तियोंकी इच्छा रखता हो, उसे उपर्युक्त कार्य अवश्य करने चाहिये । मार्गशीर्ष मासके कृष्णपक्षकी अष्टमीको ` अनघाष्टमीव्रत ‘ कहा गया है । उसमें अनेक पुत्रोंसे युक्त अनघ और अनघा-इन दोनों पति-पत्नीकी कुशमयी प्रतिमा बनायी जाती है । उस युगल जोडीको गोबरसे लीपे हुए शुभ स्थानमें स्थापित करके गंध-पुष्प आदि विविध उपचारोंसे उनकी पूजा क्ररे । फिर ब्राह्मण पति-पत्नीको भोजन कराकर दक्षिणा देकर विदा को । स्त्री हो या पुरुष विधिपूर्वक इस व्रतका अनुष्ठान करके उत्तम लक्षणोंसे युक्त पुत्र पाता है ।

   मार्गशीर्ष शुक्ला अष्टमीको कालभैरवके समीप उपवासपूर्वक जागरण करके मनुष्य बड़े-बड़े पापोंसे मुक्त हो जाता है । पौष शुक्ल अष्टमीको अष्टकासंज्ञक श्राद्ध पितरोंको एक वर्षतक तृप्ति देनेवाला और कुल-संततिको बढानेवाला है । उस दिन भक्तिपूर्वक शिवकी पूजा करके केवल भक्तिका आचरण करते हुए मनुष्य भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त कर लेता है । माघ मासके कृष्णपक्षको अष्टमीको सम्पूर्ण कामनाओँको पूर्ण करनेवाली भद्रकाली देवीकी भक्तिभावसे पूजा करे । जो अविच्छिन्न संतति और विजय चाहता हो, वह माघ मासके शुक्लपक्षकी अष्टमीको भीष्मजीका तर्पण करे । ब्रह्मन् ! फाल्गुन मासके कृष्णपक्षकी अष्टमीको व्रतपरायण पुरुष समस्त कामनाओँकी सिद्धिके लिये भीमादेवीकी आराधना करे । फाल्युन शुक्ला अष्टमीको गन्ध आदि उपचारोंसे शिव और शिवाकी भलीभाँति पूजा करके मनुष्य सम्पूर्ण सिद्धिर्योका अधीश्वर हो जाता है । सभी मासोंके दोनों पक्षोंमेँ अष्टमीके दिन विधिपूर्वक शिव और पार्वतीकी पूजा करके मनुष्य मनोवांछित फल प्राप्त कर लेता है ।

अध्याय ९५ नवमी— सम्बन्धी व्रतोंकी विधि और महिमा

सनातनजी कहते हैं- विप्रेन्द्र ! अब मैं तुमसे नवमीके व्रत्तोंका वर्णन करता हूँ, लोकमेँ जिनका पालन करके मनुष्य मनोवाच्छित फल पाते हैं । चैत्रके शुक्लपक्षमेँ नवमीको ‘ श्रीरामनवमी ‘ का व्रत होता है । उसमें भक्तियुक्त पुरुष यदि शक्ति हो तो विधिपूर्वक उपवास करे । जो अशक्त हो, वह मध्याह्रकालीन जन्मोत्सवके बाद एक समय भोजन करके रहे । ब्राह्मणोंकों मिष्ठान्न भोजन कराकर भगवान् श्रीरामकों प्रसन्न को । गो, भूमि, तिल, सुवर्ण, वस्त्र और आभूषण आदिके दानसे भी श्रीरामप्रीतिका सम्पादन करे । जो मनुष्य इस प्रकार भक्तिपूर्वक ‘ श्रीरामनवमीव्रत ‘ का पाला करता है, वह सम्पूर्ण पापोंका नाश करके भगवान विष्णुके परम धामकों जाता है । वैशाखमेँ दोनों पक्षोंकी नवमीकों जो विधिपूर्वक चण्डिका पूजन करता है, वह विमानसे विचरण करता हुआ देवताओंके साथ आनन्द भोगता है । ज्येष्ठ शुक्ला नवमीको श्रेष्ठ मनुष्य उपवासपूर्वक उमादेविका वीधिवत् पूजन करके कुमारी कन्याओँ तथा ब्राह्मणोंका भोजन करावे और उन्हें अपनी शक्तिके अनुसार दक्षिणा देकर अगहनीके चावलका भात दूधके साथ खाय । जो मनुष्य इस ‘ उमाव्रत ‘ का विधिपूर्वक पालन करता है, वह हम लोकमें श्रेष्ठ भोगोंको भोगकर अन्तमें स्वर्गलोकमे स्थान पाता है। विप्रेन्द्र ! जो आषाढ मासके दोनो पक्षोमें नवमीकों रांतमें ऐरावतपर विराजमान शुक्लवर्णा इन्द्ररुणीका भलीभांति पूजन करता है, वह देवलोकमें दिव्य विमानपर विचरता हुआ दिव्य भोगोंका उपभोग करता है । विप्रवर ! जो श्रावण मासके दोनों पक्षोंकी नवमीको उपवास अथवा केवल रातमें भोजन करता और कोमारी चण्डिका की आराधना करता है, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, भाँति भांतिके नैवेद्य अर्पण करके और कुमारी कन्याओँको भोजन कराकर जो उस पापहारिणी देवीकी परिचर्यामें तत्पर रहता हैँ तथा इस प्रकार भक्तिपूर्वक उस उत्तम ‘ कौमारीव्रत ‘ का पालन करता है, वह विमानद्वारा सनातन देवीलोकमें जाता है ।

   भाद्रपद शुक्ला नवमीको ` नन्दानवमी ’ कहते हैं । उस दिन जो नाना प्रकारके उपचारोंद्वारा दुर्गादेवीकी विधिवत् पूजा करता है, वह अश्वमेंध-यज्ञका पालन पाकर विष्णुलोकमेँ प्रतिष्ठित होता है । कार्तिक मासके शुक्लपक्षमेँ जो नवमी आती है, उसे ‘ अक्षयनवमी ‘ कहते हैँ । उस दिन पीपलवृक्षकी जड़के समीप देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंका विधिपूर्वक तर्पण करे और सूर्यदेवताकों अर्घ्य दे । तत्पश्चात् ब्राह्मणोंको मिष्ठान्न भोजन कराकर उन्हें दक्षिणा दे और स्वयं भी भोजन को । इस प्रकार जो भक्तिपूर्वक ` अक्षयनवमी ‘ कों जप, दान, ब्राह्मणपूजन और होम करता है, उसका वह सब कुछ अक्षय होता है, ऐसा ब्रह्माजीका कथन है । मार्गशीर्ष शुक्ला नवमीको ‘ नन्दिनीनवमी ‘ कहते हैं । जो उस दिन उपवास करके गन्ध आदिसे जगदम्बाका पूजन करता है, वह निश्चय ही अश्वमेंधयज्ञके फलका भागी होता है । विप्रवर ! पौष मासके शुक्लपक्षकी नवमीकों एक समय भोजनके व्रतका पालन करते हुए महामायाका पूजन करे । इससे वाजपेय यज्ञके फलकी प्राप्ति होती है । माघ शुक्ला नवमी लोकपूजित ‘ महानन्दा ‘ के नामसे विख्यात है, जो मानवोंके लिये सदा आनन्ददायिनी होती हैँ । उस दिन किया हुआ स्नान, दान, जप, होम और उपवास सब अक्षय होता है । द्विजोत्तम ! फाल्गुन मासके शुक्लपक्षकी जो नवमी तिथि है, वह परम पुण्यमयी ‘ अग्रनन्दा नवमी ‘ कहलाती है । वह सब पापोंका नाश करनेवाली मानी गयी है । जो उस दिन उपवास करके ‘ आनन्दा ‘ का पूजन करता है, वह मनोवाच्छित कामनाओँको प्राप्त कर लेता है ।

अध्याय ९६ बारह महीनोंके दशमी— सम्बन्धी व्रतोंकी विधि और महिमा

सनातनजी कहते हैं- नारद ! अब मैं तुम्हें दशमीके व्रत बतलाता हूँ, जिनका भक्तिपूर्वक पालन करके मनुष्य धर्मराजका प्रिय होता है । चैत्र शुक्ला दशमीकों सामयिक फल, फूल और गन्ध आदिसे धर्मराजका पूजन करना चाहिये । उस दिन पूरा उपवास या एक समय भोजन करके रहे । व्रतके अन्तमें चौदह ब्राह्मणोंकों भोजन करावे और अपनी शक्तिके अनुसार दक्षिणा दे । विप्रवर ! जो इस प्रकार धर्मराजकी पूजा करता है, वह धर्मकी आज्ञासे देवताओकी समता प्राप्त कर लेता है और फिर उससे च्युत नहीं होता । जो मानव वैशाख शुक्ला दशमीकों गन्ध आदि उपचारों तथा श्वेत और सुगन्धित पुष्पोसे भगवान् विष्णुकी पूजा करके उनकी सौं परिक्रमा करता और यत्नपूर्वक ब्राह्मणोंको भोजन कराता है, वह भगवान् विष्णुके लोकमेँ स्थान पाता हें । सरिताओँमें श्रेष्ठ जहुपुत्री गंगा ज्येष्ठ शुक्ला दशमीकों स्वर्गसे इस पृथ्वीपर उतरी थीं, इसलिये वह तिथि पुण्यदायिनी मानी गयी है । ज्येष्ठ मास, शुक्लपक्ष, हस्त नक्षत्र, बुध दिन, दशमी तिथि, गर करण, आनन्द योग, व्यतीपात, कन्याराशिके चन्द्रमा और वृषराशिके सूर्य-इन दसोंका योग महान् पुण्यमय बताया गया है । इन दस योगोंसे युक्त दशमी तिथि दस पाप हर लेती है । इसलिये उसे ‘ दशहरा ‘ कहते हैँ । जो इस ‘ दशहरा ‘ में गंगाजीके मास पहुँचकर प्रसन्नचित्त हो विधिपूर्वक गंगाजीके जलमें स्नान करता है, वह भगवान् विष्णुके धाममें जाता है । मनु आदि स्मृतिकारोंने आषाढ शुक्ला दशमीकों पुण्य-तिथि कहा है, अत: उसमें किये जानेवाले स्नान, जप, दान और होम स्वर्गलोककी प्राप्ति करानेवाले हैँ । श्रावण शुक्ला दशमी सम्पूर्ण आशाओँको पूर्ति करनेवाली है । इसमें गन्ध आदि उपचारोंसे भगवान् शङ्करकी पूजा उत्तम मानी गयी है । उस दिन किया हुआ उपवास या नक्तव्रत, ब्राह्मणर्भत्का, जप, सुवर्णदान तथा धेनु आदिका दान क्या पापोंका नाशक बताया गया है ।

   द्विजश्रेष्ठ ! भाद्रपद शुक्ला दशमीक्रो ‘ दशावतारव्रत ` किया जाता है । उस दिन जलाशयमें स्नान करके संध्यावन्दन तथा देवता, ऋषि और पित्तरोका तर्पण करनेके पश्चात् एकाग्रचित्त हो दशावत्तार विग्रहोकी पूजा करनी चाहिये । मत्स्य, कृर्मं, वराह, नृसिंह, त्रिविक्रम (वामन), परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध तथा कल्कि- इन दसोंका सुवर्णमयी मूर्ति बनवाकर विधिपूर्वक पूजा को और दस ब्राह्मणोंका सत्कार करके उन्हे उन मूर्तियोंका दान कर दे । नारद ! उस दिन उपवास या एक समय भोजनका व्रत करके ब्राह्मणोंको भोजन करावे और उन्हें विदा करके एकाग्रचित्त हो स्वयं इष्टजनोंके साथ भोजन को । जो भक्तिपूर्वक इस व्रतका पालन करता है, वह इस लोकमेँ उत्तम भोग भोगकर अन्तमें विमानद्वारा सनातन विष्णुलोकको जाता है । आश्विन शुक्ला दशमीको ` विजयादशमी ‘ कहते हैं । उस दिन प्रात:काल घरके आँगनमें गोबरके चार पिण्ड मण्डलाकार रखे । उनके भीतर श्रीराम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न-इन चारोंकी पूजा को । गोबरके ही बने हुए चार ढक्कनदार पात्रोंमें भीगा हुआ धान और चाँदी रखकर उसे घुले हुए वस्त्र्से ढक देना चाहिये । फिर पिता, माता, भाई, पुत्र, स्त्री और भृत्यसहित गन्ध, पुष्प और नैवेद्य आदिसे उस धान्यकी विधिपूर्वक पूजा करके नमस्कार करे । फिर पूजित ब्राह्मणोंकों भोजन कराकर स्वयं भी भोजन करे । इस प्रकारकी विधिका पालन करके मनुष्य निक्षय ही एक वर्षतक सुखी और धन-धान्यसे सम्पन्न होता है । नारद ! कार्तिक शुक्ला दशमीकों ` सार्वभौम-व्रत ‘ का पालन करे । उस दिन उपवास या एक समय भोजनका व्रत करके आधी रातके समय घर अथवा गाँवसे बाहर पूए आदिके द्वारा दसों दिशाओंमें बलि दे । गोबरसे लिपी हुईं भूमिपर मण्डल बनाकर उसीमे अष्टदल कमल अहित को और उसमें गणेश आदि देवताओकी पूजा करे ।

   मार्गशीर्ष शुक्ला दशमीकों ‘ आरोग्यव्रत ‘ का आचार्या को ! दस ब्राह्मणोंका गन्ध आदिसे पूजन करे और उन्हें दक्षिणा देकर विदा करे । स्वयं उस दिन एक समय भोजन करके रहे । इस प्रकार व्रत करके मनुष्य इस भूतलपर आरोग्य पाता और धर्मराजके प्रसादसे देवलोकमें देवताकी भाँति आनन्दका अनुभव करता है । पोष शुक्ला दशमीकों विश्वेदेवोंकी पूजा करनी चाहिये । विश्वेदेव दस हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैँ-क्रतु दक्ष, बसु सत्य, काल, काम, मुनि, गुरु, विप्र और राम । इन सबमें भगवानविष्णु भलीभाँति विराजमान हैं । विश्वेदेवोंकी कुशमयी प्रतिमाएँ बनाकर उन्हें कुशके ही आसनोंपर स्थठपित करे । आसनोंपर स्थित हो जानेपर उनमेँसे प्रत्येकका गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य आदिके द्वारा पूजन को । प्रत्येककों दक्षिणा देकर प्रणाम करनेके अनन्तर उन सबका विसर्जन करे । उनपर चढी हुई दक्षिणाकों श्रेष्ठ द्विजों अथवा गुरुकों समर्पित को । विप्रवर ! इस प्रकार एक समय भोजनका व्रत करके जो व्रती पुरुष उक्त विधिका पालन करता है, वह उभय लोकके उत्तम भोगोंका अधिकारी होता है । नारद ! माघ शुक्ला दशमीकों इन्दियसंयमपूर्वक उपवास करके अंगीरा नामवाले दस देवताआँको स्वंर्णमयी प्रतिमा बनाकर गन्ध आदि उपचारोंसे उनकी भलीभाँति पूजा करनी चाहिये । आत्मा, आयू मन, दक्ष, मद, प्राण, बर्हीष्मान्, गविष्ठ, दत्त और सत्य- ये दस अंगिरा हैं । उनकी पूजा करके दस ब्राह्मणोंकों मिष्ठान्न भोजन करावे और उक्त स्वंर्णमयी मूर्तियाँ उन्हींको अर्पित कर दे । इससे स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है । फाल्गुन शुक्ला दशमीको चौदह वर्षोकी पूजा को । यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतक्षय, औदुम्बर, दघ्न, नील, परमेंष्ठी, वृकोदर, चित्र और चित्रगुप्तये चौदह यम हैं । गन्ध आदि उपचारोसे इनकी भलीभाँति पूजा करके कुशसहित तिलमिश्रित्त जलकी तीन-तीन अञ्जलियोंसे प्रत्येकका तर्पण करे । तदनन्तर तांबेके पात्रमें लाल चन्दन, तिल, अक्षत, जौ और जल रखकर उन सबके द्वारा सूर्यकों अर्घ्य दे । अर्घ्यका मन्त्र इस प्रकार है-

एहि सूर्यं सहस्त्रगैशो तेजोराशे जगत्पते ।

गृहाणार्ध्व मया दर्त्त अक्वा मामत्रुकप्पय ।।

(ना० १९१० १९९। ६३)

   ‘स्रहत्रो किरणोंसे सुशोभित तेजोराशि जगदीश्वर सूर्यदेव आइये, भक्तिपूर्वक मेंरा दिया दुआ अर्घ्य स्वीकार कीजिये । साथ ही मुझे अपनी सहज कृपासे अपनाइये ।’

 

   इस मन्त्रसे अर्घ्य देकर चौदह ब्राह्मणोंकों भोजन करावे तथा रजतमयी दक्षिणा दे । उन्हे विदा करके स्वयं भी भोजन करे । ब्रहान् ! इस प्रकार विधिका पालन करके मनुष्य धर्मराजकी कृपासे इहलोकमे धन, पुत्र आदि देवदुर्लभ भोर्गोंकों भोगता है और देहावसान होनेपर श्रेष्ठ विमानपर बैठकर भगवान् विष्णुके लोकका भागी होता है ।

अध्याय ९७ द्वादश मासका एकादशी— व्रतोंकी विधि और महिमा, दशमी आदि तीन दिनोंके पालनीय विशेष नियम

सनातनजी कहते हैँ– मुने ! दोनों पक्षोंकी एकादशीको मनुष्य निराहार रहे और एकाग्रचित्त हो नाना प्रकारके पुप्योंसे शुभ एवं विचित्र मण्डप बनावे । फिर शास्वीक्त विधिसे भलीभस्लिं स्नान करके उपवास और इन्दियसंयमपूर्वक श्रद्धा ओंर एकाग्रताके साथ नाना प्रकारके उपचार जप, होम, प्रदक्षिणा, स्तोंत्रपाठ, दण्डवत्-प्रणाम तथा मनको प्रिय लगनेवाले जय-जयकारके शब्दोंसे विधिवत् श्रीविष्णुकी पूजा करे तथा रात्रिमें जागरण करे । ऐसा करनेसे मनुष्य भगवान् विष्णुके परम पदकों प्राप्त होता है । चैत्र शुक्ला एकादशीकों उपवास करके श्रेष्ठ मनुष्य तीन दिनके लिये आगे बताये जानेवाले सभी नियमोंका पालन करनेके पश्चात् द्वादशीकों भक्तिपूर्वक सनातन वासुदेवकी षोडशोपचारसे पूजा करे । तदनन्तर ब्रह्मणोंको भोजन कराकर उन्हें दक्षिणा दे और उनको विदा करके स्वयं भी भोजन को । यह ‘ कामदा ‘ नामक एकादशी है, जो सब पापोंका नाश करनेवाली है । यदि भक्तिपूर्वक इस तिथिको उपवास किया जाय तो यह भोग और मोक्ष देनेवाली होती है । वैशाख कृष्णा एकादृशीको ‘ वरुथिनी ‘ कहते हैं। उस दिन उपवास करके दूसरे दिन भगवान् मधुसूदनकी पूजा करनी चाहिये । इसमें सुवर्ण, अत्र, कन्या और धेनुका दान उत्तम माना गया है । वरूथिनीका व्रत करके नियमपरायण मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो वैष्णवपद प्राप्त कर लेता है । वैशाख शुक्ला एकादशीको ‘ मोहिनी’ कहते हैं । उस दिन उपवास करके दूसरे दिन स्नानके पश्चात् गन्ध आदिसे भगवान् पुरुषोत्तमकी पूजा करे । तदनन्तर ब्राह्मणभोज़न कराकर वह सब पातकोंसे मुक्त हो जाता है ।

   ज्येष्ठ कृष्णा एकादशीको ‘ अपरा ‘ कहते हैं । उस दिन नियमपूर्वक उपवास करके द्वादशीको प्रात:- काल नित्यकर्मसे निवृत्त हो भगवान त्रिविक्रमकी विधिवत् पूजा करे । तदनन्तर श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको भोजन कराकर उन्हें दक्षिणा दे । ऐसा करनेवाला मानव सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके लोकमेँ जाता है । ज्येष्ठ शुक्ला एकादशीको  ‘ निर्जला ‘ एकादशी कहते हैं । द्विजोत्तम ! सूर्योदयसे लेकर सूर्योदयतक निर्जल उपवास करके दूसरे दिन द्वादशीके प्रात:- काल नित्यकर्म करनेके अनन्तर विविध उपचारोंसे भगवान हृषीकेशका पूजन करे । तदनन्तर भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंको भोजन कराकर मनुष्य चौबीस एकादशियोंका फल प्राप्त कर लेता है । आषाढ कृष्ण एकादशीको ‘ योगिनी ‘ कहते हैं । उस दिन उपवास करके द्वादशीको नित्यकर्मके पश्चात् भगवान् नारायणकी पूजा करे । तत्पश्चात श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको भोजन कराकर उन्हें दक्षिणा दे । ऐसा करनेवाला पुरुष सम्पूर्ण दानोंका फल पाकर भगवान् विष्णुके धाममें आनन्दका अनुभव करता है | आषाढ शुक्ला एकादशीको उपवास करके सुन्दर मण्डप बनाकर उसमें विधिपूर्वक भगवान् विष्णुकी प्रतिमा स्थापित करे । वह प्रतिमा सोने या चाँदीकी बनी हुई अत्यन्त सुन्दर हो । उसकी चारों भुजाएँ शङ्ख, चक्र, गदा और पद्मसे सुशोभित हो । उसे पीताम्बर धारण कराया गया हो और वह अच्छी तरह बिछे हुए सुन्दर पलंगपर विराज रही हो । तदनन्तर मन्त्रपाठपूर्वक पञ्चामृत एवं शुद्ध जलसे स्नान कराकर पुरुषसूक्तके सोलह मन्त्रोंसे  षोडशोपचार पूजन करे । पाद्यसमर्पणसे लेकर आरती उतारनेतक सोलह उपचार होते हैं । तत्पश्चात् श्रीहरिकी इस प्रकार प्रार्थना करे-

सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जगत्सुप्तं भवेदिदम् ।

विबुध्दे त्वयि बुद्ध च जगत्सर्व चराचरम् ।।

(ना० पूर्व १२०। २३)

   ” जगन्नाथ ! आपके सो जानेपर यह सम्पूर्ण जगत् सो जाता है और आपके जाग्रत् होनेपर यह सम्पर्ण चराचर जगत् भी जाग्रत् रहता है ।’

   इस प्रकार प्रार्थना करके भक्त पुरुष चातुर्मास्यके लिये शास्त्रबिहित नियमोंको यथाशक्ति ग्रहण करे । तदनन्तर द्वादशीको प्रात:काल षोडशोपचारद्वारा भगवात् शेपशायीकी पुजा करे । तत्पश्चात् ब्राह्मणोंको भोजन कराकर उन्हें दक्षिणासे संतुष्ट करे । फिर स्वयं भी मीनभावसे भोजन करे । इस विधिसे भगवानकी ‘ शयनी ‘ एकादशीका व्रत करके मनुष्य भगवान विष्णुकी कृपासे भोग एवं मोक्षका भागी होता है । द्विजश्रेष्ठ ! श्रावणके कृष्णपक्षमेँ एकादशीको ‘ कामिका ‘ व्रत होता है । उस दिन श्रेष्ठ मनुष्य नियमपूर्वक उपवास करके द्वादशीको नित्यकर्मका सम्पादन करनेके अनन्तर षोडशोपचारसे भगवान् श्रीधरका पूजन करे । तदनन्तर ब्राह्मणोंको भोजन करा उन्हें दक्षिणा देकर विदा करनेके पश्चात् स्वयं भी भाई-बन्धुओँके साथ भोजन करे । जो इस प्रकार उत्तम ‘ कामिकव्रत ‘ करता है, वह इस लोकमें सम्पूर्ण कामनाओँको प्राप्तकर भगवान् विष्णुके परम धाममेँ जाता है । श्रावण शुक्ला एकादशीको ‘ पुत्रदा ‘ कहते हैं । उस दिन उपवास करके द्वादशीको नियमपूर्वक रहकर षोडशोपचारसे भगवान् जनार्दनकी पूजा करे । तदनन्तर ब्राह्मणभोजन कराकर उन्हें दक्षिणा दे । इस प्रकार करनेवाला इहलोकमेँ उनसे सदृगुणसम्पन्न पुत्र पाकर सम्पूर्ण देवताओँसे वन्दित हो साक्षात् भगवान् विष्णुके धाममेँ जाता है ।

   भाद्रपद कृष्णा एकादशीको ‘ अजा ‘ कहते हैं । उस दिन उपवास करके द्वादशीके दिन विभिन्न उपचारोंसे भगवान  उपेन्द्रकी पूजा करनी चाहिये । फिर ब्राह्मणोंको मिष्ठान्न भोजन कराकर दक्षिणा दे विदा करे । इस प्रकार भक्तिपूर्वक एकाग्रभावसे ‘ अजा ‘ एकादशीका व्रत करके मनुष्य इहलोकमें सम्पूर्ण उत्तम भोगोंको भोगता और अन्तमें वैष्णवधामको जाता है । भाद्रपद शुक्ला एकादशीका नाम ` पद्मा ‘ है । उस दिन उपवास करके नित्य पूजन करनेके अनन्तर ब्राह्मणको जलसे भरा घट दान करे । द्विजोत्तम ! पहलेसे स्थापित प्रतिमाका उत्सव करके उसे जलाशयके निकट ले जाय और जलसे स्पर्श कराकर उसकी विधिपूर्वक पूजा करे । फिर उसे घरमें लाकर बायीं करवटसे सुला दे । तदनन्तर प्रात:काल द्वादशीको गन्ध आदि उपचारोंद्वारा भगवान् वामनकी पूजा करे । तत्पश्चात् ब्राह्मणोंको भोजन कराकर दक्षिणा दे विदा करे । जो इस प्रकार ‘ पद्मा ‘ का परम उत्तम व्रत करता है, वह इस लोकमेँ भोग पाकर अन्तमें इस प्रपञ्चसे मुक्त हो जाता है । आश्विन कृष्णा एकादशीको ‘ इन्दिरा ‘ कहते हैं । उस दिन उपवास करके शालग्राम शिलाके सम्मुख मध्याह्रकालमें श्राद्ध करे । ब्रह्मन् ! यह भगवान् विष्णुको प्रसन्न करनेवाला होता हैँ । तदनन्तर द्वादशीको प्रात:काल भगवान् पद्मनाभकी पूजा करके विद्वान् पुरुष ब्राह्मणोंको भोजन करावे और दक्षिणा देकर उन्हें विदा करनेके पश्चात् स्वयं भी भोजन करे । इस प्रकार इन्दिरा एकादशी का व्रत करनेवाला मनुष्य इस लोकमेँ मनोवाञ्छित भोगोंको भोगकर करोडों पितरोंका उद्धार करके अन्तमें भगवान् विष्णुके धाममें जाता है । विप्रवर ! आश्विन शुक्ला एकादशीको ‘ पापाङकुशा ‘ कहते हैं । उस दिन विधिपूर्वक उपवास करके द्वादशीके दिन भगवान् विष्णुकी पूजा करे । तदनन्तर श्रेष्ठ ब्राहामणोको भोजन करा उन्हें दक्षिणा दे भक्तिभावसे प्रणाम करके विदा करे । फिर स्वयं भी भोजन करे । जो मनुष्य इस प्रकार भक्तिपूर्वकपापांकुशा एकादशीका व्रत करता है, वह इस लोकमेँ उत्तम भोगोंको भोगकर भगवान् विष्णुके लोकमेँ जाता है ।

   द्विजश्रेष्ठ ! कार्तिक कृष्णपक्षमें ‘ रमा ‘ नामकी एकादशीको विधिवत् स्नान करके द्वादशीको प्रात:- काल केशी दैत्यका वध करनेवाले, देवताओकि भी देवता सनातन भगवान् केशवकी पूजा करे । तदनन्तर ब्राह्मणोंको भोजन करावे और उन्हें दक्षिणा देकर विदा करे । इस प्रकार व्रत करके मनुष्य इस लोकमेँ मनोवाच्छित भोग भोगनेके पश्चात् विमानद्वारा वैकुण्ठमेँ जाकर भगवान लक्ष्मीपतिका सामीप्य लाभ करता है । कार्तिक शुक्ला एकादशीको ‘ प्रबोधिनी ‘ कहते हैं । उस दिन उपवास करके रातमें सोये हुए भगवानको गीत आदि माङ्गलिक उत्सवोंद्वारा जगाये । उस समय ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके विविध मंत्रो और नाना प्रकारके वादृमेंके द्वारा भगवानको जगाना चाहिये । द्राक्षा, ईख, अनार, केला औऱ सिंघाड़ा आदि वस्तुएँ भगवानको अर्पित करनी चाहिये । तत्पश्चात् रात बीतनेपर दूसरे दिन सवेरे स्नान और नित्यकर्म करके पुरुषसूक्तके मंत्रोद्वारा भगवान गदादामोदरकी षोडशोपचारसे पूजा करनी चाहिये। फिर ब्राह्मणोंको भोजन करा उन्हें दक्षिणासे संतुष्ट करके विदा करे । इसके बाद आचार्यको भगवानकी स्वर्णमयी प्रतिमा और धेनुका दान करना चाहिये । इस प्रकार जो भक्ति और आदरपूर्वक ‘ प्रबोधिनी एकादशी ‘ का व्रत करता है, वह इस लोकमेँ श्रेष्ठ भोगोंका उपभोग करके अन्तमें वैष्णवपद प्राप्त कर लेता है । मार्गशीर्ष मासके कृष्णपक्षकी एकादशीको ‘ उत्पन्ना ‘ एकादशी कहते हैँ । उस दिन उपवास करके द्वादशीको गंध आदि उपचारोंसे भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा करे । तत्पश्चात् श्रेष्ठ ब्राह्मणोको भोजन करा उन्हें दक्षिणा दे विदा करके स्वयं भी इष्टजनोंके साथ एकाग्र होकर भोजन करे । इस प्रकार जो भक्तिभावसे ` उत्पन्ना ‘ का व्रत करता है, वह अन्तकालमें श्रेष्ठ विमानपर बैठकर भगवान विष्णुके लोकमेँ चला जाता है । मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशीको ‘ मोक्षा ‘ (मोक्षदा) एकादशी कहते हैँ । उस दिन उपवास करके द्वादशीको प्रात:काल सम्पूर्ण उपचारोंसे विश्वरूपधारी भगवान् अनन्तकी पूजा करे । फिर ब्राह्मणोंको भोजन कराये और दक्षिणा देकर विदा करनेके पश्चात् स्वयं भाई बन्धुओंके साथ भोजन करें । इस प्रकार व्रत करके मनुष्य इहलोकमे मनोवाच्छित भोगोको भोगकर पहले और पीछेकी दस-दस पोढिर्योंका उद्धार करके भगवान् श्रीहरिके धाममें जाता है । पौष मासके कृष्णपक्षकी एकादशीको ‘ सफला ‘ कहते हैं । उस दिन उपवास करके द्वादशीको सभी उपचारोंसे भगवान् अच्युतकी पूजा को । फिर ब्राह्मणोंको मिष्ठान्न भोजन करावे और दक्षिणा देकर विदा को । ब्रह्मन् ! इस प्रकार ‘ सफला ‘ एकादशीका विधिपूर्वक व्रत करके मनुष्य इहलोकमें सम्पूर्ण भोगोंका उपभोग करके अन्तमें वैष्णवपदको प्राप्त होता है । पौष शुक्ला एकादशीको ` पुत्रदा ‘ कहा गया है । उस दिन उपवास करके द्वादशीके दिन अर्घ्य आदि उपचारोंसे भगचान् चक्रधारी विष्णुकी पूजा करे । फिर श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको भोजन करा दक्षिणा दे विदा करके अपने इष्ट भाईबन्धुओँके साथ शेष अन्न स्वयं भोजन करे । विप्रवर ! इस प्रकार व्रत करनेवाला मनुष्य इहलोकमेँ मनोवाच्छित भोग भोगकर अन्तमें श्रेष्ठ विमानपर आरूढ हो भगवान् विष्णुके धाममें जाता है ।

   द्विजश्रेष्ठ ! माघके कृष्णपक्षमेँ ‘ षटतिला ‘ एकादशीको उपवास करके तिलोंसे ही स्नान, दान, तर्पण, हवन, भोजन एवं पूजनका काम ले । फिर द्वादशीको प्रात:काल सब उपचारोंसे भगवान् वैकुण्ठकी पूजा करे । फिर ब्राह्मणोंको भोजन करा उन्हें दक्षिणा देकर विदा करे । इस प्रकार एकाग्रचित्त हो विधिपूर्वक व्रत करके मनुष्य इहलोकमें मनोवाच्छित भोग भोगकर अन्तमें विष्णुपद प्राप्तकर लेता है । माघ शुक्ला एकादशीका नाम ‘ जया ‘ है । उस दिन उपवास करके द्वादशीको प्रात:काल परम पुरुष भगवान् श्रीपतिकी अर्चना करे। तदनन्तर ब्राह्मणोंको भोजन करा दक्षिणा दे विदा करके शेष अन्न अपने भाई-बन्धुओंके साथ स्वयं एकाग्रचित्त होकर भोजन करे । विप्रवर ! जो इस प्रकार भगवान् केशवको संतुष्ट करनेवाला व्रत करता है । वह इहलोकमें श्रेष्ठ भोगोंको भोगकर अन्तमें भगवानविष्णुके धाममें जाता है । फल्गुन कृष्णा एकादशीका नाम ‘ विजया ‘ है । उस दिन उपवास करके द्वादशीको प्रात:काल गन्ध आदि उपचारोंसे भगवान योगीश्वरकी पूजा करे । तदनन्तर ब्राह्मणोंको भोजन करा दक्षिणासे संतुष्ट करके उन्हें विदा करनेके पश्चात् स्वयं मौन होकर भाईबंधुओके साथ भोजन करे । इस प्रकार व्रत करनेवाला मानव इहलोकमें अभीष्ट भोगोको भोगकर देहान्त होनेके बाद देवताओँसे सम्मानित हो भगवान् विष्णुके लोकमें जाता है । द्विजोत्तम फाल्गुनके शुक्लपक्षमें ‘ आमलकी ‘ एकादशीको उपवास करके द्वादशीको प्रात:काल सम्पूर्ण उपचारोंसे भगवान् पुंण्डरीकाक्षका भक्तिपूर्वक पूजन करे । तदनन्तर ब्राह्मणोंको उत्तम अन्न भोजन कराकर उन्हे दक्षिणा दे । इस प्रकार फाल्गुनके शुक्लपक्षमें ‘ आमलकी ‘ नामवाली एकादशीको विधिपूर्वक पूजन आदि करके मनुष्य भगवान् विष्णुके परम पदको प्राप्त होता है । ब्रह्मन ! चैत्रके कृष्णपक्षमेँ ‘ पापमोचनी ‘ नामवाली एकादशीको उपवास करके द्वादशीको प्रात:काल षोडशोपचारसे भगवान् गोविन्दकी पूजा करे । तत्पश्चात् ब्राह्मणोंको भोजन करा दक्षिणा दे उन्हें विदा करके स्वयं भाईबन्धुओँके साथ भोजन करे । जो इस प्रकार इस ‘ पापमोचनी ‘ का व्रत करता है, वह तेजस्वी विमानद्वारा भगवान् विष्णुके लोकमेँ जाता है ।

   ब्रह्मन् ! इस प्रकार कृष्ण तथा शुक्लपक्षमें एकादशीका व्रत मोक्षदायक कहा गया है । एकादशी व्रत तीन दिनमें साध्य होनेवाला बताया गया है । वह सब व्रतोंमें उत्तम और पापोंका नाशक है, अत: उसका महान् फल जानना चाहिये । नारद ! इन तीन दिनके भीतर चार समयका भोजन त्याग देना चाहिये । प्रथम और अन्तिम दिनमें एक-एक वारका और निचले दिनमें दोनों समयका भोजन त्याज्य है। अब मैँ तुम्हें इस तीन दिनके व्रतमें पालन करने योग्य नियम बतलाता है । काँसका बर्तन, मांस, मसूर, चना, कोदो, शाक, मधु पराया अन्न, पुनर्थोंजन (दो बार भोजन) और मैथुन-दशमीके दिन इन दस वस्तुओसे वैष्णव पुरुष दूर रहे । जुआ खेलना, नींद लेना, पान खाना, दाँतुन करना, दूसरेका निन्दा करना, चुगली खाना, चोरी करना, हिंसा करना, मैथुन करना, क्रोध करना और झूठ बोलना-एकादशीको ये ग्यारह बाते न को । काँस, मांस, मदिरा, मधु तेल, झूठ बोलना, व्यायाम करना, परदेशमें जाना, दुबारा भोजन, मैथुन, जो स्पर्श करने याग्य नहीं है उनका स्पर्श करना और मसूर खान- द्वादशीको इन बारह वस्तुओंको न करे । विप्रवर ! इस प्रकार नियम करनेवाला पुरुष यदि शक्ति हो तो उपवास करे । यदि शक्ति न हो तो बुद्धिमान्पुरुष एक समय भोजन करके रहे ,किंतु रातमें भोजन न करे । अथवा अयाचित वस्तु (बिना माँगे मिली हुईं चीज)- को उपयोग करे, किंतु ऐसे महत्त्वपूर्ण व्रतका त्याग न करे ।

अध्याय ९८ बारह महीनोंके द्वादशी— सम्बन्धी व्रतोंकी विधि और महिमा आठ महाद्वादशियोंका निरूपण

सनातनजी कहत हैअनघ ! अब मैं तुमस द्वादशीके व्रतोंका वर्णन करता हूँ, जिनका पालन करके मनुष्य भगवान् विष्णुका अत्यन्त प्रिय होता है । चैत्र शुक्ला द्वादशीको ‘ मदनव्रत ‘ का आचरण करे । सफेद चावलसे भरे हुए एक नूतन कलशकी स्थापना करे, जिसमें कोई छेद न हो । वह अनेक प्रकारके फलोंसे युक्त इक्षुदण्डसंयुक्त दो श्वेत वस्त्रोसे आच्छादित, श्वेत चन्दनसे चर्चित, नाना प्रकारके भक्ष्य पदार्थोंसे सम्पन्न तथा अपनी शक्तिके अनुसार सुवर्णसे सुशोभित हो । उसके ऊपर गुड़सहित ताँबेका पात्र रखे । उस पात्रमें कामस्वरूप भगवान् अच्युतका गन्ध आदि उपचारोंसे पूजन को । द्वादशीको उपवास करके दूसरे दिन प्रात:- काल पुन: भगवानकी पूजा करे । वहाँ चढी हुई वस्तुएँ ब्राह्मणको दे दे । फिर ब्राह्मणोंको भोजन करावे और उन्हे दक्षिणा दे । इस प्रकार एक वर्षतक प्रत्येक द्वादशीको यह व्रत करके आचार्यको घृतधेनुसहित सब सामयियोंसे युक्त शय्यादान दे । तदनन्तर वस्त्र आदिसे ब्राह्मण दम्पतिकी पूजा करके उन्हें सुवर्णमय कामदेव तथा दूध देनेवाली श्वेत गौ दान करे । दान करते समय यह कहे कि कामरूपी श्रीहरि मुझपर प्रसन्न हो । ‘ जो इस विधिसे ‘ मदनद्वादशीव्रत ‘ का पालन करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुकी समता प्राप्त कर लेता है । इसी तिथिको ‘ भवृंद्वादशी ‘ का व्रत बताया गया है । इसमें सुंन्दर शय्या बिछाकर उसपर लख्मीसहित भगवान् विष्णुको स्थापित करके उनके ऊपर फूलोंसे मण्डप बनावे । तत्पश्चात् व्रती पुरुष गन्ध आदि उपचारोंसे भगवानकी पूजा को । माङ्गलिक गीत, वाद्य आदिके द्वारा रातमेँ जागरण करे, फिर दूसरे दिन प्रात:काल शय्यासहित भगवान विष्णुकी सुवर्णमयी प्रतिमाका श्रेष्ठ ब्राह्मणको दान करें। ब्राह्मणोको भोजन कराकर दक्षिणाद्वारा उन्हें संतुष्ट करके विदा को ! इस तरह व्रत करनेवाले पुरुषका दाम्पत्यसुख चिरस्थायी होता है और वह सात जन्मोतक इहलोक और परलोकके अभीष्ट भोगोंको भोगता रहता है ।

   वैशाख शुक्ला द्वादशीको उपवास और इंद्रियसंयमपूर्वक गंध आदि उपचारोंद्वारा भक्तिभावसे भगवान् माधवकी पूजा करे । फिर तृप्तिजनक मधुर पकवान और एक घड़ा जल ब्राह्मणको विधिपूर्वक देवे । ` भगबान् माधव मुझपर प्रसन्न हो ‘, यही उसका उद्देश्य होना चाहिये। ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशीको गन्ध आदि उपचारोंके द्वारा भगवान् त्रिविक्रमकी पूजा करके व्रती पुरुष ब्राह्मणको मिष्ठान्नसे भरा हुआ करवा निवेदन को । तत्पश्चात् एक समय भोजनका व्रत को । इस व्रतसे संतुष्ट होकर देवदेव भगवान् त्रिविक्रम जीवनमेँ विपुल भोग और अन्तमेँ मोक्ष भी देते हैँ । आषाढ शुक्ला द्वादशीको गन्ध आदिसे पृथक-पृथक बारह ब्राह्मणोंकी पूजा करके उन्हें मिष्ठान्न भोजन करावे। फिर उनके लिये वस्त्र छडी, यज्ञोंपवीत, अँगूठी और जलपात्र- इन वस्तुओको भक्तिपूर्वक दान करे । ‘ भगवान् विष्णु मुझपर प्रसन्न हो ‘- यही उस दानका उद्देश्य होना चाहिये । श्रावण शुक्ला द्धादशीक्रो व्रती पुरुष भगवत्परायण हो गन्ध आदि उपचारोंसे भक्तिपूर्वक भगवान् श्रीधरकी पूजा करे । फिर उत्तम ब्राह्मणोंको दही-भात भोजन कराकर चाँदीकी दक्षिणा दे, उन्हें नमस्कार करके विदा करे । मन-ही-मन यह भावना करे कि ‘ मेंरे इस व्रतसे देवेश्वर भगवान् श्रीधर प्रसन्न हो । ‘ भाद्रपद शुक्ला द्वादशीको व्रती पुरुष भगवान् वामनकी पूजा करके उनके आगे बारह ब्राह्मणोंको खीर भोजन करावे। तत्पश्चात् स्वर्णमयी दक्षिणा दे । वह भगवान् विष्णुकी प्रसन्नताको करनेवाला होता है । आश्विन शुक्ला द्वादशीको गन्ध आदि उपचारोंसे भगवात् पद्मनाभकी पूजा करे और उनके आगे ब्राह्मणोंको मिष्ठान्न भोजन करावे। साथ ही वस्त्र और सुवर्ण-दक्षिणा दे । द्विजोत्तम ! इस व्रतसे संतुष्ट होकर भगवान् पद्मनाभ श द्वीपकी प्रासिं कराते हैं और इहलोकमें भी मनोवाठिछत भोग प्रदान करते हैं । कार्तिक भासके कृष्णपक्षमें ‘ गोवत्सद्वादशी ‘ का व्रत होता है । उसमें बछड़ेसहित गौकी आकृति लिखकर सुगन्धित चन्दन आदिके द्वारा तथा पुष्पमालाओँसे उसकी पूजा करे । फिर ताम्रपात्रमेँ फूल, अक्षत और तिल रखकर उन सबके द्वारा विधिपूर्वक अर्घ्य दान करे । नारद ! निम्नांकित मन्त्रसे उसके चरणोंमेँ अर्घ्य देना चाहिये—

क्षोरोदार्णवसम्भूते सुरासुरनमसकृते

सर्वदेमये देवि सर्वेदेवैरलंकृते

मातर्मातर्गवां मातगृर्हाणार्घ्य नमोsस्तु ते ॥

(ना० मूर्व० १२१ । ३०५३१)

   ‘ क्षीरसागरसे प्रकट हुईं, सर्वदेवभूषिता, देव-दानववंदिता, सम्पूर्ण देवस्वरूपा देवी ! तुम्हें नमस्कार है । मात: ! गोमात: ! यह अर्घ्य ग्रहण कीजिये । “

   तदनन्तर उड़द आदिसे बने हुए बड़े निवेदन करे । इस प्रकार अपने वैभवके अनुसार दस, पाँच या एक बडा अर्पण करना चाहिये। उस समय इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये-

सुरभे त्वं जगन्माता नित्यं विष्णुपदे स्थिता ।

सर्वदेवमयि ग्रासं मया दत्तमिमं ग्रस।

सर्वदेमये देवि सर्वदेवैरलंकृते ।

मातर्ममाभिषितं सफलं कुरु नन्दिनि ।।

(ना० पूर्व० १२१। ३२-३४)

   ‘ सुरभी ! तुम सम्पूर्ण ज़गतकी माता हो और सदा भगवान् विष्णुके धाममें निवास करती हो । सर्वदेवमयी देवि ! मेंरे दिये हुए इस ग्रासको ग्रहण करो । देवि ! तुम सवंदेवस्वरूपा हो । सम्पूर्ण देवता तुम्हें विभूषित करते हैं । माता नन्दिनी ! मेंरी अभिलाषा सफ़ल करो ।’

    द्विजोत्तम ! उस दिन तेलका पका हुआ और बटलोईका पका हुआ अन्न न खाय । गायका दूध, दही, घी और तक भी त्याग दे । ब्रह्मन् ! कार्तिक शुक्ला द्वादशीको गन्ध आदि उपचारोंसे एकाग्रचित्त हो भगवान दामोदरकी पूजा करे और उनके आगे बारह ब्राह्मणोंको पकवान भोजन करावे । तदनन्तर जलसे भरे हुए घडोंको वस्त्रसे आच्छादित और पूजित करके सुपारी, लडूडू और सुवर्णके साथ उन सबको प्रसन्नतापूर्वक अर्पण करे । ऐसा करनेपर मनुष्य भगवान् विष्णुका प्रिय भक्त और सम्पूर्ण भोगोंका भोक्ता होता है और शरीरका अन्त होनेपर वह भगवान विष्णुका सायुज्य प्राप्त कर लेता है ।

   मार्गशीर्ष शुक्ला द्वादशीको परम उत्तम ‘ साध्य-व्रत ‘ का अनुष्ठान करना चाहिये । मनोभाव, प्राण, नर, अपान, वीर्यवान, चिति, हय, नय, हंस, नारायण, विभु और प्रभु- ये बारह साध्यगण कहे गये हैँ । चावलोंपर इनका आवाहन करके गन्ध-पुष्प आदिके द्वारा पूजन करना चाहिये । तदनन्तर ‘ भगवान् नारायण प्रसन्न हो ‘, इस भावनासे बारह श्रेष्ठ बाह्मणोंको भोजन कराकर उन्हें उत्तम दक्षिणा दे विदा करे । उसी दिन ‘ द्वादशादित्य ‘ नामक व्रत भी विख्यात है । उस दिन बुद्धिमान पुरुष बारह आदित्योंका पूजा करे । धाता, मित्र, अर्यमा, पूषा, शक्र, अंश, वरुण, भग, त्वष्टा, विवस्वानू सविता और विष्णु-ये बारह आदित्य बताये गये हैँ । प्रत्येक मासके शुक्लपक्षकी द्वादशीको यत्नपूर्वक बारह आदित्योंकी पूजा करते हुए एक वर्ष व्यतीत करे । व्रतके अन्तमें सोनेकी बारह प्रतिमाएँ बनवाये और विधिपूर्वक उनकी पूजा करके बारह श्रेष्ठ बाह्मनको सत्कारपूर्वक मिष्ठान्न भोजन करावे । तत्पश्चात् व्रती पुरुष प्रत्येक बाह्मणको एकाएक प्रतिमा दे । इस प्रकार द्वादशादित्य नामक व्रत करके मनुष्य सूर्यंलोकमें जा वहॉके भोगोका चिरकालतक उपभोग करनेके पश्चात् पृथ्वीपर धर्मात्मा मनुष्य होता है । मनुष्ययोनिमें उसे रोग नहीं होते । उस व्रतके पुण्यसे वह पुन: उसी व्रतको पाता है और पुन: उसके पुण्यसे सूर्यमण्डलको भेदकर निरज्जन, निराकार एवं निद्वंन्हु ब्रह्मको प्राप्त होता है ।

   द्विजोत्तम ! उक्त तिथिको ही ‘ अखण्ड ‘ नामक व्रत कहा गया है । उसमें भगवान जनार्दन सुवर्णमयी मूर्ति बनाकर गन्ध, पुष्प आदिसे उसकी पूजा करके भगवानके आगे बारह ब्राह्मणोंको भोजन करावे। प्रत्येक मासकी द्वादशीको ऐसा करके स्वयं रातमें भोजन को और जितेंद्रिय भावसे रहे । तत्पश्चात् वर्ष पूरा होनेपर उस स्वर्ण-मूर्तिका विधिपूर्वक पूजन करके दूध देनेवाली गायके साथ उसका आचार्यको दान करे । तदनन्तर बारह श्रेष्ठ ब्राहाणोंको खाँड और खीर भोजन कराकर उम्हें बारह सुवर्णखण्डकी दक्षिणा दे नमस्कार करे । इस प्रकार व्रत पूरा करके जो भगवान् जनार्दनको प्रसन्न करता है, वह सुवर्णमय विमानसे श्रीविष्णुके परम धाममेँ जाता है ।

   पौष मासके कृष्णपक्षकी द्वादशीक्रो ‘ रूपव्रत ‘ बताया गया है । ब्रह्मन् ! व्रती षुरुषको चाहिये कि वह दशमीको विधिपूर्वक स्नान करके सफेद या किसी एक रंगवाली गायके गोबरको धरतीपर गिरनेसे पहले आकाशमेँसे ही ले ले । उस गोबरसे एक सौ आठ पिण्ड बनाकर उन्हे ताँबे या मिट्टीके पात्रमें रखकर धूपमें सुखा ले । फिर एकादशीको उपवास करके भगवान् विष्णुकी स्वर्णमयी प्रतिमाका विधिपूर्वक पूजन और रात्रिमें जागरण को । सुन्दर मङ्गलमय गीतवाद्य, स्तोत्र-पाठ और जप आदिके द्वारा जागरणका कार्य सफल बनावे । तत्पश्चात् प्रात:काल जलसे भरे हुए कलशपर तिलरपे भरा पात्र रखकर उसके ऊपर उस स्वर्णमयी प्रतिमाको रखे और विभिन्न उपचारोंसे उसकी पूजा करे । इसके बाद दो काष्ठोंके रगड़ने आदिके द्वारा नूतन अग्नि उत्पन्न करके उसकी पूजा करे और विद्वान् पुरुष उस प्रज्वलित अग्निमेँ तिल और घीसहित एकएक गोमय-पिण्डका विष्णुसम्बन्धों द्वादशाक्षर मन्त्रसे होम करें । तत्पश्चात् पूर्णाहुति करके प्रेमपूर्ण हदयसे प्रसन्नतापूर्वक एक सौ आठ बाह्मणोंको खीर भोजन करावे । फिर कलशसहित वह प्रतिमा आचार्यको अर्पित कर । तदनन्नर दूसरे बाह्मणोंको यथाशक्ति दक्षिणा दे । पुरुष हो या स्त्री, इस व्रतका आदरपूर्वक स्नान करके वह रूप और सौभाग्य प्राप्त कर लेती है ।

   माघ शुक्ला द्वादशीको शालग्रामशीलाकी विधिपूर्वक भक्तिभावसे पूजा करके उनके मुख्यभागमें सुवर्ण रखे । फिर उसे चाँदीके पात्रमेँ रखकर दो श्वेत वस्त्रोसे ढक दे । तत्पश्चात् वेदवेत्ता बाह्मणको उसका दान दे । दान देनेके पश्चात् उस बाह्मणको खाँड़ और घीके साथ हितकर खीरका भोजन करावे, यह करके स्वयं एक समय भोजनका व्रत करते हुए भगवान् विष्णुके चिन्तनमें लगा रहे । ऐसा करनेवाला पुरुष यहाँ मनोचाच्छित भोग भोगनेके पश्चात् विष्णुधाम प्राप्त कर लेता है । ब्रह्मन् ! फाल्गुन मासके शुक्लपक्षको द्वादशीको श्रीहरिकी सुवर्णमयी प्रतिमाका गन्ध-पुष्प आदिसे पूजन करके उसे वेदवेत्ता ब्राह्मणको दान कर दे । फिर बारह ब्राह्मणोंको भोजन करा उन्हें दक्षिणा देकर विदा करे । उसके बाद स्वयं भाईबन्धुओँके साथ भोजन को । त्रिस्पृशा, उन्मीलनी, पक्षवर्धीनी, वंचूली, जया, विजया, जयन्ती तथा अपराजिता-ये आठ प्रकारकी द्वादशी तिथियाँ सब पापोंका नाश करनेवाली हैँ । इनमें सदा उपवासपूर्वक व्रत रहना चाहिये ।

    श्रीनारदजीने पूछा- ब्रह्मत् ! इन सब द्वादशियोंका लक्षण कैसा है ? और उनका फल कैसा होता है, वह सब मुझे बताइये। इसके सिवा अन्य पुण्यदायक विधियोंका भी परिचय दीजिये।

   सूतजी कहते हैँ- महर्षियो ! देवर्षि नारदने द्विजश्रेष्ठ सनातनजीसे जब इस प्रकार प्रश्न किया तो सनातन मुनिने अपने भाई महाभागवत नारदजीकी प्रशंसा करके कहा ।

   सनातनजी बोले- भैया ! तुम तो साधु पुरुषोंके संशयका निवारण करनेवाले हो । तुमने यह बहुत सुन्दर प्रश्न किया है । मैं तुम्हें महाद्वादशिर्योंके पृथक-पृथक लक्षण और फल बतलाता हूँ । जिस दिन एकादशी सूर्योदयसे पहले अरुणोदयकालमेँ ही निवृत्त हो गयी हो, (दिनभर द्वादशी हो और रातके अन्तिम भागमें त्रयोदशी आ गयी हो) उस दिन  ` त्रिस्मृशा ‘ नामवाली द्वादशी होती है । उसका महान् फल होता हें । नारद ! जो मनुष्य उसमें उपवास करके भगवान् गोविन्दका पूजन करता है, वह निक्षय हो एक हजार अश्वमेंध-यज्ञका फल पाता है । जब अरुणोदयकालमें एकादशी तिथि दशमीसे विधि हो (और एकादशी पूरे दिन रहकर दूसरे दिन भी कुछ कालतक विद्यमान हो) तो उस प्रथम दिनकी एकादशीको छोड़कर दूसरे दिन महाद्वादशीको उपवास को (उसे ‘ उम्मीलनी ‘ द्वादशी कहते हैँ) । उस उम्मीलनी व्रतमें उत्तम पूजाकी विधिसे भगवान् वासुदेवका यजन करके मनुष्य एक सहस्त्र राजसूय-यज्ञका फल पाता है । जब सूर्योदयकालमेँ दशमी एकादशीका स्पर्श करती हो (और द्वादशीकी वृद्धि हुईं हो ) तो उस एकादशीको त्यागकर ` वंजुली ‘ नामवाली उस महाद्वादशीको ही सदा उपवास करना चाहिये । उसमें सबको सदा अभयदान करनेवाले परम पुरुष संकर्षणद्रेवका गन्ध आदि उपचारोंसे भक्तिपूर्वक पूजन करे । यह महाद्वादशी सम्पूर्ण यज्ञोंका फ़ल देनेवाली, सब पापोंको हर लेनेवाली तथा समस्त सम्पदाओंको देनेवाली कही गयी है । विप्रवर ! जब पुर्णिमा अथवा अमावास्या नामकी तिथियाँ बढ जाती हैं, तो उस पक्षकी द्वादशीका नाम ‘ पक्षवर्धीनी ‘ होता है, जो महान् फल देनेवाली है । उसमें सम्पूर्ण ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले तथा पुत्र और पौत्रोंको बढानेवाले जगदीश्वर भगवानप्रद्युम्नका पूजन करना चाहिये। जब शुक्लपक्षमें द्वादशी तिथि मघा नक्षत्रसे युक्त हो तो उसका नाम ‘ जया ‘ होता है । वह सम्पूर्ण शत्रुओँका विनाश करनेवाली है । उसमें समस्त कामनाओंके दाता और मनुष्योंको सम्पूर्ण सौभाग्य प्रदान करनेवाले लश्मीपति भगवान् अनिरुद्धकी आराधना करनी चाहिये । जब शुक्लपक्षमें द्वादशी तिथि श्रवण नक्षत्रसे युक्त हो तो वह ‘ विजया ’ नामसे प्रसिद्धि होती है । उसमें सदा समस्त भोगोंके आश्रय तथा सम्पूर्ण सौख्य प्रदान करनेवाले भगवान् गदाधरकी पूजा करनी चाहिये । विप्रवर ! ‘ विजया ‘ में उपवास करके मनुष्य सम्पूर्ण तीर्थोंका फल पाता है । जब शुक्लपक्षमेँ द्वादशी रोहिणी नक्षत्रसे युक्त होती है, तब वह महापुण्यमयो ‘ जयन्ती ‘ नामसे प्रसिद्ध होती है । उसमें मनुष्योंको सिद्धि देनेवाले भगवान् वामनकी अर्चना करनी चाहिये। यह तिथि उपवास करनेपर सम्पूर्ण व्रत्तोंका फल देती है, समस्त दानोंका फल प्रस्तुत करती है और भोग तथा मोक्ष देनेवाली होती है । जब शुक्लपक्षमेँ द्वादशी तिथि पुष्य नक्षत्रसे युक्त हो तो उसे ‘ अपराजिता ‘ कहा गया है । वह सम्पूर्ण ज्ञान देनेवाली है । उसमें संसार-बन्धनका नाश करनेवाले, जानके समुद्र तथा रोग-शोकरपे रहित भगवान् नारायणकी आराधना करनी चाहिये । उस तिथिको उपवास करके ब्रहम्नभोज़न करानेवाला मनुष्य उस व्रतके पुण्यसे ही संसर-बन्धनसे मुक्त हो जाता है । जब आषाढ शुक्ला द्वादशीको अनुराधा नक्षत्र हो, तब दो व्रत करने चाहिये। यहाँ एक ही देवता है, इसलिये दो व्रत करनेमें दोष नहीं है । जब भाद्रपद शुक्ला द्वादशीको श्रवण नक्षत्रका योग हो और कार्तिक शुक्ला द्वादशीको रेवती नक्षत्रका संयोग हो तो एकादशी और द्वादशी दोनों दिन व्रत रहने चाहिये । विप्रवर ! इनके सिवा अन्यत्र द्वादशीको एक समय भोजन करके व्रत रहना चाहिये । यह व्रत स्वभावसे ही सब पातकोंका नाश करनेवाला बताया गया ह । द्वादशीसहित एकादशीका व्रत नित्य माना गया है, अत: यहाँ उसका उद्यापन नहीं कहा गया । इसे जीवनपर्यन्त करते रहना चाहिये ।

अध्याय ९९ त्रयोदशी— सम्बन्धी व्रतोंकी विधि और महिमा

सनातनजी कहते हैँ- नारद ! अब मैं तुम्हें त्रयोदशीके व्रत बतलाता दूँ जिनका भक्तिपूर्वक पालन कस्के मनुष्य इस पृथ्वीपर सौभाग्यशाली होता है । चैत्र कृष्णपक्षक्री त्रयोदशी शनिवारसे युक्त हो तो ‘ महावारुणी ‘ मानी गयी है । यदि उसमें गंगा-स्नानका अवसर मिले तो वह कोटि सुर्यग्रहणसे अधिक फल देनेवाली है । चैत्रके कृष्णषक्षमे त्रयोदशीको शुभ योग, शतभिषा नक्षत्र और शनिवारका योग हो तो वह ` महामहावारुणी ‘- के नामसे विख्यात होती है। ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशीक्रो ‘ दौर्भाग्यशमनव्रत ‘ होता है । उस दिन नदीके जलमें स्नान करके पवित्र स्थाऩमें उत्पन्न हुए सफेद मदार, आक और लाल कनेरकी पूजा करे । उस समय आकाशमेँ सूर्यके ओर देखकर निम्नांकित मन्त्रका उच्चारण करते हुए प्रार्थना करे-

मन्दारकरवीरार्का भवन्तो भास्करांशजा: ।

पूजिता मम दौर्भाग्य्म नाशयन्तु नमोsस्तु व: ।।

(ना० मूर्व० १२२। २०…२१)  

  ` मदार ! कनेर ! और आक ! आप लोग भगवान् भास्करके अंशसे उत्पन्न हुए हैं । अतः पूजित होकर मेंरे दुर्भाग्यका नाश करें, आपको नमस्कार है । ‘

   इस प्रकार जो भक्तिपूर्वक एक-एक वर्षतक इन तीनों वृक्षोंको पूजा करता हैँ, उसका दुर्भाग्य नष्ट हो जाता है । आषाढ शुक्ला त्रयोदशीको और समय भोजनका व्रत करे । भगवती पार्वती भगवान् शङ्कर-इन दोनों जगदीश्वरोंकी यथाशक्ति सोने, चाँदी अथवा मिट्टीको मूर्ति बनाकर उनकी पूजा करे । भगवती उमा सिंहपर बैठी हो और भगवान् शङ्कर वृषभपर । नारद ! इन दोनों प्रतिमाओँको देवमन्दिर, गोशाला अथवा ब्राह्मणके घरमें वेदमन्त्रद्वारा स्थापित करके लगातार पाँच दिनतक नित्य पूजन तथा एक समय भोज़नकर व्रत्तका पालन करे । तदनन्तर अन्तिम दिन प्रात:काल स्नान करके पुन: उन दोनों प्रतिमाओँकी पूजा करे । फिर वेद-वेदाङ्गके ज्ञानसे सुशोभित ब्राह्मणको वे दोनो विग्रह समर्पित कर दे । पॉच वर्षोंतक प्रतिवर्ष इसी प्रकार करना चाहिये । पाँचवा वर्ष बीतनेपर दूध देनेवाली दो गौओँके साथ उन दोनो प्रतिमाओका दान करे । स्त्री हो या पुरुष- जो इस प्रकार इस शुभ व्रतका पालन करता है, वह सात जन्मोतक दाम्पत्यसुखसे वंचित नहीं होता-उसका दाम्पत्य-सम्बन्थ बीचमें खण्डित नहीं होता ।

   भाद्रपद शुक्ला त्रयोदशीको ‘ गोत्रिरात्रव्रत ‘ बताया गया है । उस दिन भगवान लक्ष्मीनारायणकी सोने या चाँदीकी प्रतिमा बनवाकर उसे पँचामृतसे स्नान करावे। तत्पश्चात् शुभ अष्टदल मण्डलमें पीठपर उस भगवद्विग्रहको स्थापित करके सुन्दर वस्त्र चढाकर ग्रंथ आदिसे उसकी पूजा करे । तत्पश्चात् आरती करके अन्न और जलसहित घटदान करे । नारद ! इस प्रकार तीन दिनतक सब विधिका पालन करके व्रतके अन्तमेँ गोका पूजन करे और भलीभाँति धनकी दक्षिणा देकर निम्नांकित मन्त्रसे गौको नमस्कारपूर्वक दान दे-

पञ्च गावः समुत्न्ना मध्यमाने महोदधौ ।

तासां मध्ये तु या नंदा तस्मै धेन्वै नमो नम: ।।

(ना० पूर्ब० १२२। ३६ ३७)

   ‘ जब क्षीरसमुद्रका मन्थन होने लगा, उस समय उससे पाँच गौएँ उत्पन्न हुईं । उनके मध्यमें जो नन्दा नामवाली गौ है, उस धेनुको बारम्बार नमस्कार है । ‘

   तदनन्तर नीचे लिखे मन्त्रसे गायकी प्रदक्षिणा करके उसे ब्राह्मणको दान दे । ( मन्त्र इस प्रकार है)

गावो ममाग्रत: सन्तु गावो में सन्तु पृष्ठत: ।

गावोमें पार्श्वत: सन्तु गवां मध्ये वसाम्यहम्।।

(ना० पूर्व० १२२। ३८)

   ‘ गौएँ मेंरे आगे रहें, गौएँ मेंरे पीछे रहें, गौएँ मेंरे बगलमें रहें और मैं गौओँके बीचमेँ निवास करूँ ।’     

   तत्पश्चात ब्राह्मणदम्पतिका पूर्णत: सत्कार करके उन्हें भोजन करावे और उन्हें आदरपूर्वक लक्ष्मीनारायणकी प्रतिमा दान करे । सहसत्रों अश्वमेंध और सैंकडों राजसूय यज्ञोंका जिस फ़लको पाता है, उसीको ‘ गोत्रिरात्रव्रत ‘ से पा लेता है । आश्विन शुक्ला त्रयोदशीको तीन राततक ` अशोकव्रत ` करे । उस दिन नारी उक्पवासपरायण हो अशोककी सुवर्णमयी प्रतिमा बनवाकर शास्त्रीय विधिसे उसकी प्रतिदिन पूजा और आदरपूर्वक एक सौ आठ परिक्रमा करे । उस समय इस मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये-

रेण निर्मितः पूर्व त्वमशोक कृपालुना ।

लोकोपकारकरणस्तत्प्रसीद शिपिय ।।

(ना० पूर्व० १२२। ४३)

   ‘ अशोक ! तुम्हें पूर्वकालमें परम कृपालु भगवान् शङ्करने उत्पन्न किया हैँ । तुम सम्पूर्ण ज़गतका उपकार करनेवाले हो; अत: शिवप्रिय अशोका तुम मुझपर प्रसन्न होओ ।’

   तदनन्तर तीसरे दिन, उस अशोकवृक्षमें भगवान् शङ्करकी विधिवत् पूजा करके ब्राह्मणको भोजन करावे और उसे अशोक-प्रतिमाका दान करे । इस प्रकार व्रत करनेवाली नारी कभी वैधव्यका कष्ट नहीं पाती । वह पुत्र-पौत्र आदिके साथ रहकर अपने पतिकी अत्यन्त प्रियतमा होती है । कार्तिक कृष्णा त्रयोदशीको एकाग्रचित्त हो एक समय भोज़नका व्रत करे । प्रदोषकालमें तेलका दीपक जलाकर उसकी यत्नपूर्वक पूजा और घरके द्वारपर बाहरके भागमें उस दीपकको इस उद्देश्यसे रखे कि इसके दानसे यमराज मुझपर प्रसन्न हो । विप्रेन्द्र ! ऐसा करनेपर मनुष्यको यमराज़की पीड़ा नहीं प्राप्त होती । द्विजोत्तम ! कार्तिक शुक्ला त्रयोदशीको मनुष्य एक समय भोजन करके व्रत रखे । प्रदोषकालमें पुन: स्नान करके मौन और एकाग्रचित्त हो बत्तीस दीपकोंकी पडक्तिसे भगवान् शिवको आलोकित करे । घीसे दोपकोंको जलाये और गन्थ आदिसे भगवान् शिवकी पूजा करे। फिर नाना प्रकारके फलों और नैवेद्योद्वारा उन्हे संतुष्ट करे । तदनन्तर निम्नलिखित नामोसे देवेश्वर शिवकी स्तुति करे-

   रुद्र, भीम, नीलकंठ और वेधा (स्त्रष्टा)- को नमस्कार है । कपर्दी (जटा-जूटधारी), सुरेश तथा व्योमकेशको नमस्कार है । वृषध्वज, सोम तथा सोमनाथको नमस्कार है । दिगम्बर, भृङ्ग, उमाकान्त और वर्धी (वृद्धि करनेवाले) शिवको नमस्कार है । तपोमय, व्याप्त और शिपिंविष्ट (तेजस्वी) भगचान शंकरको नमस्कार है । व्यालप्रिय (सर्योंको पसंद करनेवाले), व्याल (सर्पस्वरूप) और व्यालपति शिवको नमस्कार है । महीधर (पर्वतस्य), व्योम (आकाशस्वरूप) औरपशुपतिको नमस्कार है । त्रिपूरहन्ता, सिंह, शार्दूल तथा वृषभको नमस्कार है । मित, मितनाथ, सिद्ध, परमेष्ठी, वेदगीत, गुप्त और वेदगुहा शिवको नमस्कार है । दीर्घ, दीर्घरूप, दीर्घार्थ, महीयानू जगदाधार और व्योमस्वरूप शिवको नमस्कार है । कल्याणस्वरूप, विशिष्ट-पुरुष, शिष्ट (साधुमहात्मा), परमात्मा, गजकृत्तिधर (वस्त्ररूपसे हाथीका चमडा धारण करनेवाले), अन्धकासुरहन्ता भगवान् शिवको नमस्कार है । नील, लोहित एवं शुक्ल वर्णवाले, चण्डमुण्डप्रिय, भक्तिप्रिय, देवस्वरूप, दक्षयज्ञनाशक तथा अविनाशी शिवको नमस्कार है । महेश आपको नमस्कार है । महादेव ! सबका संहार करनेवाले आपको नमस्कार है । आपके तीन नेत्र हैँ। आप तीनों वेदोंके आश्रय है । वेदांग आपको बार-बार नमस्कार है । आप अर्थ हैं, अर्थस्वरूप हैँ और परमार्थ हैँ, आपकी नमस्कार है । विश्वरूप, विश्वमय तथा विश्वनाथ भगवान् शिवको नमस्कार है । जो सबका कल्याण करनेवाले शङ्कर हैं, क्या हैं तथा फालके कला-काष्ठा आदि छोटे-छोटे अवयवरूप हैं ; जिनका कोई रूप नहीं है, जिनके विविध रूप हैँ तथा जो सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म हैं, उन भगवानशिवको नमस्कार है । प्रभो ! आप श्मशानमें निवास करनेवाले हैं, आप चर्ममय वस्त्र धारण करते हैं; आपको नमस्कार है । आपके मस्तकपर चन्द्रमाका मुकुट सुशोभित है, आप भयंकर भूमिमेँ निवास करते हैँ, आपको नमस्कार है । आप दुर्ग (कठिनतासे प्राप्त होने योग्य), दुर्गपार (कठिनाइयोंसे पार लगानेवाले), दुर्गावयवसाक्षी (पार्वतीजीके अङ्ग-प्रत्यङ्गका दर्शन करनेवाले), लिङ्गरूप, लिङ्गमय और लिंगोके अधिपति हैं, आपको नमस्कार है । आप प्रभावरूप हैं । प्रभावरूप प्रयोजनके साधक हैं, आपको बारम्बार नमस्कार है । आप कारणोंके भी कारण, मृत्युञ्जय तथा स्वयम्भूस्वरूप हैँ, आपको नमस्कार है, नमस्कार है । आपके तीन नेत्र हैं । शितिकण्ठ ! आप तेजकी निधि हैं । गौरीजीके साथ नित्य संयुक्त रहनेवाले और मङ्गलके हेतुभूत हैं, आपको नमस्कार है ।

   विप्रवर ! पिनाकधारी महादेवजीके गुणोंका प्रतिपादन करनेवाले इन नामोंका पाठ करके महादेवजीकी परिक्रमा करनेसे मनुष्य भगवानके निज धाममें जाता है । ब्रह्मन् ! इस प्रकार व्रत करके मनुष्य महादेवजीके प्रसादसे इहलोकके सम्पूर्ण भोग भोगकर अन्तमें शिवधाम प्रात कर लेता है । पोष शुक्ला त्रयोदशीको अच्युत श्रीहरिका पूजन करके सब मनोरथोकी सिद्धिके लिये श्रेष्ठ बाह्मणको घीसे भरा हुआ पात्र दान करे । ब्रह्मन् ! माघ शुक्ला त्रयोदशीसे लेकर तीन । दिनतक ‘ माघ-स्नान ‘ का व्रत होता है, जो नाना प्रकारके मनोवाच्छित फ़लको देनेवाला है । माघ मासमें प्रयागमें तीन दिन स्नान करनेवाले पुरुषको जो फल प्राप्त होता है, वह एक हजार अश्वमेंध यज्ञ करनेसे भी इस पृथ्वीपर सुलभ नहीं होता । वहाँ किया हुआ स्नान, जप, होम और दान अनन्तगुना अथवा अक्षय हो जाता है । फाल्गुन मासके शुक्ल पक्षकी त्रयोदशीको उपवास करके भगवान् जगन्नाथको प्रणाम करे । तत्पश्चात् ` धनदव्रत ‘ प्रारम्भ करे । नाना प्रकारके रंगोंसे एक पट्टपर यक्षपति महाराज कुबेरकी आकृति अंकित कर ले और भक्तिभावसे गन्ध आदि उपचारोंद्वारा उसकी पूजा करे ।

   द्विजोतम ! इस प्रकार प्रत्येक मासके शुक्लपक्षकी त्रयोदशीको मनुष्य कुबेरकी पूजा करे । उस दिन वह उपवास करके रहे या एक समय भोजन करे। तदनन्तर एक वर्षमें व्रतकी समाप्ति होनेपर पुन: सुवर्णमयी निधियोंके साथ धनाध्यक्ष कुबेरकी भी सुवर्णमयी प्रतिमा बनाकर पँचामृत आदि स्नानों, षोडश उपचारों और भाँति-भाँतिके नैवेद्योसे  भक्ति एवं एकाग्रताके साथ पूजन कर । तात्पश्चात वस्त्र, माला, गन्ध और आभूषणोंसे बछड़ेसहित शुभ गौको अलंकृत करके वेदवेत्ता ब्राह्मणके लिये विधिपूर्वक दान करे । फिर बारह या तेरह ब्राह्मणोंको मिष्ठान्न भोजन कराकर वस्त्र आदिसे आचार्यकी पूजा करके पूर्वोक्त प्रतिमा उन्हें अर्पण करे । फिर ब्राह्मणोंको यथाशक्ति दक्षिणा दे, उन्हें नमस्कार करके विदा करे । इसके बाद बुद्धिमान पुरुष इष्ट-बन्धुओँके साथ एकाग्रचित्त हो स्वयं भोजन करे । विप्रवर ! इस प्रकार व्रत पूर्ण करनेपर निर्धन मनुष्य धन पाकर इस पृथ्वीपर दूसरे कुबेरकी भाँति विख्यात हो आनन्दका अनुभव करता है ।

अध्याय १०० वर्षभरके चतुर्दर्शी— व्रतोंकी विधि और महिमा

सनातनजी कहते है- नारद ! सुनो, अब मैं तुम्हें चतुर्दशीके व्रत बतलाता हूँ, जिनका पालन करके मनुष्य इस लोकमें  सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है । चैत्र शुक्ला चतुर्दशीको कुंकुम, अगुरु, चन्दन, गन्ध आदि उपचार, वस्त्र तथा मणियोंद्वारा भगवान् शिवकी बड़ी भारी पूजा करनी चाहिये । चंदोवा, ध्वज एवं छत्र आदि देकर मातृकाओंका भी पूजन करना चाहिये । विप्रवर ! जो उपवास अथवा एक समय भोजन करके इस प्रकार पूजन करता है, वह मनुष्य इस पृथ्वीपर अश्वमेंध-यज्ञसे भी अधिक पुण्यलाभ करता है । इसी तिथिको गन्ध, पुष्प आदिके द्वारा दमनक-पूजन करके पुर्णिमाको कल्याणस्वरूप भगवान् शिवकी सेवामें समर्पित करना चाहिये । वैशाख कृष्णा चतुर्दशीको उपवास करके प्रदोषकालमें स्नान करे और श्वेत वस्त्र धारण करके विद्वान् पुरुष गन्ध आदि उपचारों तथा बिल्वपत्रोंसे शिवलिङ्गकी पूजा करे । श्रेष्ठ ब्राह्मणको निमन्त्रण देकर उसे भोजन कराने के बाद दूसरे दिन स्वयं भोजन करे । द्विजश्रेष्ठ ! इसी प्रकार समस्त कृष्णा चतुर्दशियोंमेँ धन और संतानकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको यह शिवसम्बन्धी व्रत करना चाहिये । वैशाख शुक्ला चतुर्दशीको ‘ श्रीनृसिंहव्रत ‘का अनुष्ठान करे । यदि शक्ति हो तो उपवासपूर्वक व्रत करना चाहिये और यदि शक्ति न हो तो एक समय भोजन करके करना चाहिये । सायंकालमें  दैत्यसूदन भगवान् नृसिंहको पञ्चामृत आदिसे  स्नान कराकर षोडशोपचारसे उनकी पूजा करे । तत्पश्चात इस मन्त्रका उच्चारण करते हुए भगवानसे क्षमा-प्रार्थना करे-

त्तप्तहाटककेशान्त ज्वलत्पावकलोचन ।

वद्याधिकनखस्पर्श दिव्यसिंह नमोsस्तु ते ।।

(ना० पूर्व० १२३। ११)

   ‘दिव्यसिंह` आपके अयाल तपाये हुए सोनेके समान दमक रहे हैं, नेत्र प्रज्वलित अग्निके समान दहक रहे हैं और आपके नखोंका स्पर्श वज्रसे भी अधिक कठोर है, आपको नमस्कार है ।’  

   देवेश्वर भगवान् नृसिंहसे इस प्रकार प्रार्थना करके व्रती पुरुष मिट्टीकी वेदीपर सोये । इन्द्रियों और क्रोधको काबूमें रखे और सब प्रकारके भोगोंसे अलग रहे । जो इस प्रकार प्रत्येक वर्षमें विधिपूर्वक उत्तम व्रतका पालन करता है, वह सम्पूर्ण भोगोंको भोगकर अन्तमें श्रीहरिके पदको प्राप्त कर लेता है । मुनीश्वर ! इसी तिथिको ॐ कारेश्वरकी यात्रा करनी चाहिये । वहाँ ॐ कारेश्वरके पूज़नका अवसर दुर्लभ है । उनका दर्शन पापोंका नाश करनेवाला है । ॐ कारेश्वरका पूजन, ध्यान, जप और दर्शन जो भी हो जाय, वह मनुष्योंके लिये ज्ञान और मोक्ष देनेवाला बताया गया है ।  इस तिथिको पापनाशक ‘लिङ्गव्रत’ भी करना चाहिये । आटेका शिवलिङ्ग बनाकर उसे पञ्चामृतसे स्नान करावे । फिर उसपर कुंकुमका लेप करे और वस्त्र, आभूषण, धूप, दीप तथा नैवेद्यके द्वारा उसकी पूजा करे । जो इस प्रकार सब  मनोरथोंकी सिद्धि प्रदान करनेवाले पिष्टमय शिवलिङ्गका पूजन करता है, वह महादेवजीकी कृपासे भोग और मोक्ष प्राप्त कर लेता है । ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्दशीको दिनमें पच्चाग्रिका सेवन करे और सायंकाल सुवर्णमयी धेनुका दान करे । यह ‘रुद्र-व्रत’ कहा गया है । जो मनुष्य आषाढ शुक्ला चतुर्दशीको देश-कालमें उत्पन्न हुए फूलोंद्वारा भगवान् शिवका पूजन करता है, वह समस्त सम्पदाओंको प्राप्त कर लेता है । द्विजश्रेष्ठ ! श्रावण शुक्ला चतुर्दशीको अपनी शाखामें बतायी हुई विधिके अनुसार पवित्रारोपण करना चाहिये । पहले पवित्रकको सौ बार करना अभिमन्त्रित करके देवीको समर्पित करे । स्त्री हो या पुरुष यदि वह पवित्रारोपण करता है तो महादेवजीके प्रसादसे भोग एवं मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।

   भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशीको उत्तम ‘अनन्तव्रत’ का पालन करना चाहिये । इसमें एक समय भोजन किया जाता है । एक सेर गेहूँका आटा लेकर उसे शक्कर और घीमें मिलाकर पकावे-पूआ तैयार करे और वह भगवान् अनन्तको अर्पण करे । इससे पहले कपास अथवा रेशमके सुन्दर सूतको चौदह गाँठोंसे युक्त करके उसका गन्ध आदि उपचारोंसे पूजन करे । फिर पुराने सूतको बाँहमेंसे उतारकर उसे किसी जलाशयमें डाल दे और नये अनन्त सूत्रको नारी बायीं भुजामें और पुरुष दायीं भुजामेँ बाँध ले । आटेका पूआ या पिट्ठी पकाकर दक्षिणासहित उसका दान करे । फिर स्वयं भी परिमित मात्रामें उसे भोजन करे । इस प्रकार इस उत्तम व्रतका चौदह वर्षोतक पालन करना चाहिये । इसके बाद विद्वान् पुरुष उसका उद्यापन करे । मुने ! रँगे हुए चावलोंसे सुन्दर सर्वतोभद्रमण्डल बनाकर उसमें ताँबेका कलश स्थापित करे । उस कलशके ऊपर रेशमी  पोताम्बरसे आच्छादित भगवान अनन्तकी सुन्दर सुवर्णमयी प्रतिमा स्थापित करे और उसका विधिपूर्वक यजन करे । इसके सिवा गणेश, मातृका, नवग्रह तथा लोकपालोंका भी पृथक-पृथक पूजन  करे । फिर हविष्यसे होम करके पूर्णाहुति दे । द्विजोतम ! तत्पश्चात् आवश्यक सामग्रियोंसहित शय्या, दूध देनेवाली गाय तथा अनन्तजीको प्रतिमा आचार्यको भक्तिपूर्वक अर्पण करे और दूसरे चौदह ब्राहाणोंको मीठे पकवान भोजन कराकर उन्हें दक्षिणाद्वारा संतुष्ट करे । इस प्रकार किये गये ‘अनन्तव्रत’ का जो आदरपूर्वक प्रत्यक्ष दर्शन करता है, वह भी भगवान् अनन्तके प्रसादसे भोग और मोक्षका भागी होता है ।

   आश्विन कृष्णा चतुर्दशीको विष, शस्त्र, जल, अग्नि, सर्प, हिंसक जीव तथा वज्रपात आदिके द्वारा मरे हुए मनुष्यों तथा ब्रह्महत्यारे पुरुषोंके लिये एकोद्दिष्टकी विधिसे श्राद्ध करना चाहिये और ब्राह्मणवर्गको मिष्टान्न भोजन कराना चाहिये । उस दिन तर्पण, गोग्रास, कुक्कुरबलि और काकबलि आदि देकर आचमन करनेके पश्चात् स्वयं भी भाई-बन्धुओंके साथ भोजन करे । जो इस प्रकार दक्षिणा देकर श्राद्ध करता है, वह पितरोंका उद्धार करके सनातन देवलोकमें जाता है । द्विजश्रेष्ठ ! आश्विन शुक्ला चतुर्दशीको धर्मराजकी सुवर्णमयी प्रतिमा बनाकर गन्ध आदिसे उनकी विधिवत् पूजा करे और ब्राह्मणको भोजन कराकर उसे वह प्रतिमा दान कर दे । नारद ! इस पृथ्वीपर धर्मराज उस दाता पुरुषकी रक्षा करते हैँ । जो इस प्रकार धर्मराजकी प्रतिमाका उत्तम दान करता है, वह इस लोकमें श्रेष्ठ भोगोंको भोगकर धर्मराजकी आज्ञासे स्वर्गलोकमें जाता हैँ । कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीको सबेरे चन्द्रोदय होनेपर शरीरमें तेल और उबटन लगाकर स्नान करे । स्नानके पश्चात् वह धर्मराजकी पूजा करे । ऐसा करनेसे उस मनुष्यको नरकसे अभय प्राप्त होता है । प्रदोषकालमें तेलके दीपक जलाकर यमराजकी प्रसन्नताके लिये चौराहेपर या घरसे बाहरके प्रदेशमें एकाग्रचित्त हो करे |  हेमलम्ब नामक संवत्सरमेँ श्रीसम्पन्न कार्तिक मास आनेपर शक्लपक्षकी चतुर्दशीको अरुणोदयकालमें भगवान विश्वनाथजीने अन्य देवताओँके साथ मणिकर्णिका-तीर्थमें स्नान करके भस्मसे त्रिपुण्ड्र तिलक लगाया और स्वयं अपने-आपकी पूजा करके ‘ पाशुपत-व्रत ‘ का पालन किया था; अत: वहाँ गन्ध आदिके द्वारा शिवलिङ्गकी महापूजा करनी चाहिये । द्रोणपुष्प, बिल्वपत्र, अर्कपुष्प, केतकीपुष्प, भाँति-भाँतिके फल, मीठे पकवान एवं नाना प्रकारके नैवेद्योद्वारा उस शिवलिङ्गकी पूजा करनी चाहिये । नारद ! ऐसा करके भगवान् विश्वनाथके संतोषके लिये जो एक समय भोजनका व्रत करता है, वह इहलोक और परलोकमेँ मनोवाच्छित भोगोंको प्राप्त करता है । समृद्धिकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको उस दिन ‘ब्रह्मकूर्चव्रत’ भी करना चाहिये । दिनमें उपवास करके रातमें पञ्चगव्य पान करे और जितेन्द्रिय रहे । कपिला  गायका मूत्र, काली गौका गोबर, सफेद गौका दूध, लाल गायका दही और कबरी गायका घी लेकर एकमेँ मिला दे । अन्तमें कुशोदक पिलावे (यही ‘पञ्चगव्य’ एवं ‘ ब्रह्मकूर्च ‘ है, जिसको व्रतके दिन उपवास करके रातमें पीया जाता है) । तदनन्तर प्रात:काल कुशयुक्त जलसे स्नान करके देवताओंका तर्पण करे और ब्राह्मणोंको भोजन आदिसे संतुष्ट करके स्वयं मौन होकर भोजन करे । यह ‘ब्रह्मकूर्चव्रत’ सब पातकोंका नाश करनेवाला है । बाल्यावस्था, कुमारावस्था और वृद्धावस्थामें भी जो पाप किया गया है, वह ‘ब्रह्मकूर्चव्रत’से तत्काल नष्ट हो जाता है । नारद ! उसी दिन ‘पाषाणव्रत’ भी बताया गया है । उसका परिचय सुनो, दिनमें उपवास करके रातमेँ भोजन करे । गन्ध आदिसे गौरी देवीकी पूजा करे और उन्हें धीमें पकायी हुई पाषाणके आकारकी पिट्ठी अर्पण करे । (उसी प्रसादको स्वयं भी ग्रहण करे ।) द्विजश्रेष्ठ ! शास्त्रोक्त विधिसे इस व्रतका आचरण करके मनुष्य ऐश्वर्य, सुख, सौभाग्य तथा रूप प्राप्त करता हैं ।

   मार्गशीर्ष शुक्ला चतुर्दशीको शिवजीका व्रत किया जाता है । इसमें पहले दिन एक समय भोजन करना चाहिये और व्रतके दिन निराहार रहकर सुवर्णमय वृषकी पूजा करके उसे ब्राहाणको दान देना चाहिये । तदनन्तर दूसरे दिन प्रात:काल उठकर स्नानके पश्चात् कमलके फूल, गन्ध, माला और अनुलेपन आदिके द्वारा उमासहित भगवान् महेश्वरकी  पूजा करे । उसके बाद ब्राह्मणोंको मिष्टान्न भोजन कराकर उन्हें दक्षिणा आदिसे संतुष्ट करे । विप्रवर ! यह शिवव्रत जो करते हैं, जो इसका उपदेश देते हैं, जो इसमें सहायक होते या अनुमोदन करते हैं, उन सबको यह भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है । पौष शुक्ला चतुर्दशीको ‘ विरूपाक्षव्रत’ बताया गया है । उस दिन यह चिन्तन करके कि ‘मैं भगवान् कपर्दीश्वरका सामीप्य प्राप्त करूँगा’  अगाध जलमें स्नान करे । विप्रवर ! स्नानके पश्चात् गन्ध, माल्य, नमस्कार, धूप, दीप तथा अन्न-सम्पत्तिके द्वारा विरूपाक्ष शिवका पूजन करे । वहाँ चढी हुई सब वस्तुएँ ब्राह्मणको देकर मनुष्य देवलोकमें देवताको भाँति आनन्दका अनुभव करता है । माघ कृष्णा चतुर्दशीको ‘यमतर्पण’ बताया गया   है । उस दिन सूर्योदयसे पूर्व स्नान करके सब पापोंसे छुटकारा पानेके लिये शास्त्रोक्त चौदह नामोंसे यमका तर्पण करे । तिल, कुशा और जलसे तर्पण करना चाहिये । उसके बाद ब्राह्मणोंको खिचड़ी खिलावे और स्वयं भी मौन होकर वही भोजन करे | द्विजश्रेष्ठ ! फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशीको ‘ शिवरात्रिव्रत’ बताया गया है । उसमें दिन-रात निर्जल उपवास करके एकाग्रचित्त हो गन्ध आदि उपचारोंसे तथा जल, बिल्वपत्र, धूप, दीप, नैवेद्य, स्तोत्रपाठ और जप आदिसे किसी स्वयम्भू आदि लिङ्गको अथवा पार्थिक लिङ्गकी पूजा करनी चाहिये | फिर दूसरे दिन उन्हीं उपचारोंसे पुन: पूजन करके ब्राह्मणोंको मिष्टान्न भोजन करावे और दक्षिणा देकर विदा करे । इस प्रकार व्रत करके मनुष्य महादेवजीकी कृपासे देवताओंद्वारा सम्मानित हो दिव्य भोग प्राप्त करता है । फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशीको भक्तिपूर्वक गन्ध आदि उपचारोंसे दुर्गाजीकी पूजा करके ब्राह्मणोंको भोजन करावे और स्वयं एक समय भोजन करके रहे । नारद ! जो इस प्रकार दुर्गाका व्रत करता है, वह इस लोक और परलोकमें भी मनोवाच्छित्त भोगोंको प्राप्त कर लेता है । चैत्र कृष्णा चतुर्दशीको उपवास करके केदारतीर्थका जल पोनेसे अश्वमेंध-यज्ञका फल प्राप्त होता है । सम्पूर्ण चतुर्दशीव्रतोंके उद्यापनकी सामान्य विधि बतायी जाती है | इसमें चौदह कलश रखे जाते हैं और सबके साथ सुपारी, अक्षत, मोदक, वस्त्र और दक्षिणा-द्रव्य होते हैं । घट ताँबेके हो या मिट्टोके, नये हों | टूटे-फूटे नहीं होने चाहिये । बाँसके चौदह डंडों और उतने ही पवित्रक, आसन, पात्र तथा यज्ञोंपवीतोंकी भी व्यवस्था करनी चाहिये । शेष बातें उन-उन व्रतोंके साथ जैसी कही गयी हैँ, उसी प्रकार करे ।

अध्याय १०१ बारह महीनोंकी पूर्णिमा तथा अमावस्यासे सम्बन्ध रखनेवाले व्रतों, सत्यकर्मोंकी विधि और महिमा

सनातनजी कहते हैनारद ! सुनो, अब मैं तुमसे पूर्णिमाके व्रतोंका वर्णन करता हूँ, जिनका पालन करके स्त्री और पुरुष सुख और संतति प्राप्त करते हैं । विप्रवर ! चैत्रकी पुर्णिमा मन्वादि तिथि कही गयी है । उसमें चन्द्रमाकी प्रसन्नताके लिये कच्चे अन्नसहित जलसे भरा हुआ घट दान करना चाहिये । वैशाखकी पूणिमाको ब्राह्मणको जो-जो द्रव्य दिया जाता है, वह सब दाताको निश्चितरूपसे प्राप्त होता है । उस दिन ‘धर्मराजव्रत’ कहा गया है । वैशाखकी पुर्णिमाको श्रेष्ठ ब्राह्मणके लिये जलसे भरा हुआ घट और पकवान दान करना चाहिये । वह गोदानका फल देनेवाला होता है और उससे धर्मराज संतुष्ट होते हैं । जो स्वच्छ जलसे भरे हुए कलशोंका श्रेष्ठ ब्राहमणको सुवर्णके साथ दान करता है, वह कभी शोकमेँ नहीं पड़ता । ज्येष्ठकी पूणिमाको ‘वट-सावित्री’ का व्रत होता हैँ । उस दिन स्त्री उपवास करके अमृतके समान मधुर जलसे वटवृक्षको सींचे और सूतसे उस वृक्षको एक सौ आठ बार प्रदक्षिणापूर्वक लपेटे । तदनन्तर परम पतिव्रता सावित्रीदेवीसे इस प्रकार प्रार्थना करे-

जगम्पूज्ये जगन्मात: सावित्रि पतिदेते ।

पत्या सहावियोगं मे वटस्थे कुरु ते नम: ।।

(ना० पूर्व० १२४। ११)

‘जगन्माता सावित्री ! तुम सम्पूर्ण जगतके लिये पूजनीय तथा पतिको ही इष्टदेव माननेवाली पतिव्रता हो । वटवृक्षपर निवास करनेवाली देवि ! तुम ऐसी कृपा करो, जिससे मेरा अपने पतिके साथ नित्यसंयोग बना रहे । कभी वियोग न हो । तुम्हें मेंरा सादर नमस्कार है ।’

जो नारी इस प्रकार प्रार्थना करके दूसरे दिन सुवासिनी स्त्रियोंको भोजन करानेके पश्चात् स्वयं भोजन करती है, वह सदा सौभाग्यवती बनी रहती है । आषाढ़की पुर्णिमाको ‘ गोपद्मव्रत ‘ का विधान है । उस दिन स्नान करके भगवान् श्रीहरिके स्वरूपका इस प्रकार ध्यान करे भगवानके चार भुजाएँ हैं । उनका शरीर विशाल है । उनकी अङ्गकान्ति जाम्बूनद सुवर्णके समान श्याम है । शङ्क, चक्र, गदा, पद्म, लस्सी तथा गरुड़ उनकी शोभा बढा रहे हैँ तथा देवता, मुनि, गन्धर्व, यक्ष और किन्नर उनकी सेवामेँ लगे हैं । इस प्रकार श्रीहरिका चिन्तन करके गन्ध आदि उपचारोंद्वारा  पुरुषसूक्तके मन्त्रोंसे उनकी पूजा करे । तत्पश्चात् वस्त्र और आभूषण आदिके द्वारा आचार्यको संतुष्ट करे और स्नेहयुक्त हृदयसे आचार्य तथा अन्यान्य ब्राह्मणोंको यथाशक्ति मीठे पकवान भोजन करावे । विप्रवर ! इस प्रकार व्रत करके मनुष्य कमलापतिके प्रसादसे इहलोक और परलोकके भोगोंको प्राप्त कर लेता है ।

श्रावण मासकी पुर्णिमाको ‘ वेदोंका उपाकर्म ‘ बताया गया है । उस दिन यजुर्वेदी द्विजोंको देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंका तर्पण करना चाहिये । अपनी शाखामेँ बतायी हुई विधिके अनुसार ऋषियोंका पूजन भी करना चाहिये । ऋग्वेदियोंको चतुर्दशीके दिन तथा सामवेदियोंको भाद्रपद मासके हस्त नक्षत्रमेँ विधिपूर्वक ‘ रक्षा-विधान ‘ करना चाहिये । लाल कपड़ेके एक भागमेँ सरसों तथा अक्षत रखकर उसे लाल रंगके डोरेसे बाँध दे, इस प्रकार बनी हुईं पोटली ही रक्षा है, उसे जलसे सींचकर काँसके पात्रमे रखे | उसीमें गन्थ आदि उपचारोंद्वारा श्रीविष्णु आदि देवताओँको पूजा करके उनकी प्रार्थना करे । फिर ब्राह्मणको नमस्कार करके उसीके हाथसे प्रसन्नतापूर्वक अपनी कलाईमेँ उस रक्षापोटलिकाको बँधा  ले । तदनन्तर ब्राहाणोंको दक्षिणा दे वेदोंका स्वाध्याय करे तथा सप्तर्षियोंका विसर्जन करके अपने हाथसे बनाकर कुंकुम आदिसे रंगे हुए नूतन यज्ञोंपवीतको धारण करे । यथाशक्ति श्रेष्ठ ब्राह्मणोको भोजन कराकर स्वयं एक समय भोजन करे । विप्रवर ! इस व्रतके कर लेनेपर वर्षभर वैदिक कर्म यदि भूल गया हो, विधिसे हीन हुआ हो या नहीं किया गया हो तो वह सब भलीभाँति सम्पादित हो जाता है । भाद्रपद मासकी पूर्णिमाको ‘उमामाहेश्वरव्रत’ किया जाता है । उसके लिये एक दिन पहले एक समय भोजन करके रहे और शिव-पार्वतीका यत्नपूर्वक पूजन करके हाथ जोड़ प्रार्थना करे- ‘ प्रभो ! मैं कल व्रत करूँगा ।’ इस प्रकार भगवानसे निवेदन करके उस उत्तम व्रतको ग्रहण करे । रातमें देवताके समीप शयन करके रातके पिछले पहरमें उठे । फिर संध्या-वन्दन आदि नित्यकर्म करके भस्म तथा रुद्राक्षकी माला धारण  करे । तत्पश्चात् उत्तम गन्थ, बिल्वपत्र, धूप, दीप और नैवेद्य आदि विभिन्न उपचारोंद्वारा विधिपूर्वक भगवान् शङ्करकी पूजा करे । उसके बाद सबेरेसे लेकर प्रदोषकालतक विद्वान् पुरुष उपवास करे । चन्द्रोदय होनेपर मुन: पूजा करके वहीं देवताके समीप रातमें जागरण करे ।

   इस प्रकार प्रतिवर्ष आलस्य छोडकर पंद्रह वर्षोंत्तक इस व्रतका निर्वाह करे । उसके बाद विधिपूर्वक व्रतका उद्यापन करना चाहिये । उस समय भगबती उमा और भगवान् शङ्कस्कॉ सुवर्णमयी दो प्रतिमाएँ बनवावे । यथाशक्ति सोने, चाँदी, ताँबे अथवा मिट्टीके पंद्रह उत्तम क्लश स्थाक्ति करे । वहाँ एक कलशके ऊपर वस्त्रसहित दोनों प्रतिमाओँकी स्थापना करनी चाहिये । उन प्रतिमाओको पँचामृतसे स्नान कराकर फिर शुद्ध जलसे नहलाना चाहिये । तदनन्तर षोडशोपचारसे उनकी पूजा करनी चाहिये। इसके बाद पंद्रह ब्राहाणोंको मिष्ठान्न भोजन करावे और उन्हें दक्षिणा तथा एक-एक कलश दे । भगवान् शङ्करकी मूर्तिसे युक्त कलश आचार्यको अर्पण करे । इस प्रकार ‘ उमामाहेश्वरव्रत ‘ का पालन करके मनुष्य इस पृथ्वीपर विख्यात होता है । वह समस्त सम्पत्तियोंकी निधि बन जाता है । उसी दिन ` शक्रव्रत ‘ का भी विधान किया गया है । उसमें प्रात:काल स्नान करके विधिपूर्वक गन्ध आदि उपचारों तथा नैवेद्य-राशियोंरनै देवराज इन्द्रक्री पूजा को । फिर निमन्धित ब्राह्मणोंक्रो विधिवत् भोजन कराकर वहाँ आये हुए दूसरे लोगोंको तथा दीनों और अनाथोंको भी उसी प्रकार भोजन करावे। बिप्रवर ! धन-धान्यक्री सिद्धि चाहनेवाले राजाको अथवा दूसरे धनी लोगोंको प्रतिवर्ष यह ‘ शकव्रत ‘ करना चाहिये।

   आश्विन मासकी पूणिमाको ‘ कोजागरव्रत ‘  कहा गया है । उसमें विधिपूर्वक स्नान करके उपवास करे और जितेन्दिय भावसे रहे । ताँबे अथवा मिट्टोके कलशपर वस्त्रसे ढकी हुईं सुवर्णमयी लक्ष्मीप्रतिमाको स्थापित करके भिन्न-भिन्न उपचारोंसे उनकी पूजा करे । तदनन्तर सायंकालमें चन्दोदय होनेपर सोने, चाँदी अथवा मिट्टीके घृतपूर्ण एक सो दीपक जलावे । इसके बाद घी और शक्कर मिलायी हुई बहूत-सी खीर तैयार करे और बहुत-से पात्रोंमें उसे डालकर चन्द्रमाकी चाँदनीमेँ रखे । जब एक पहर बीत जाय तो लश्मीजीको वह सब अर्पण करे । तत्पश्चात् भक्तिपूर्वक ब्राहाणोंको वह खीर भोजन करावे और उनके साथ ही माङ्गलिक गीत तथा मङ्गलमय कार्योंद्वारा जागरण करे । तदनन्तर अरुणोदय-कालमें स्नान करके लक्ष्मीजीकी वह स्वर्णमयी मूर्ति आचार्यको अर्पित को । उस रातमेँ देवी महालक्ष्मी अपने कर-कमलोमेँ वर और अभय लिये निशीथ कालमें संसारमें विचरती हैँ और मन-ही-मन संकल्प करती हैँ कि ` इस समय भ्रूतलपर कोन जाग रहा है ? जागकर मेंरी पूजामें लगे हुए उस मनुष्यको मैं आज धन दूँगी । ‘ प्रतिवर्ष किया जानेवाला यह व्रत लक्ष्मीजीको संतुष्ट करनेवाला है । इससे प्रसन्न हुई लक्ष्मी इस लोकमेँ समृद्धि देती हैं और शरीरका अन्त होनेपर परलोकमें सद्गति प्रदान करती हैँ । कार्तिककी पूणिमाको ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति और सम्पूर्ण शत्रुओँपर विजय पानेके लिये कार्तिकेयजीका दर्शन करे । उसी तिथिको प्रदोषकालमें दीपदानके द्वारा सम्पूर्ण जीवोंके लिये सुखदायक ‘ त्रिपुरोत्सव ‘ करना चाहिये। उस दिन दीपका दर्शन करके कीट, पतंग, मच्छर, वृक्ष तथा जल और स्थलमेँ विचरनेचाले दूसरे जीव भी पुनर्जन्म नहीं ग्रहण करते; उन्हे अवश्य मोक्ष होता है । ब्रह्मन ! उस दिन चंद्रोदयके समय छहो कृत्तिकाओका, खइगधारी कार्तिकेयकी तथा वरुण और अग्निकी गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, प्रचुर नैवेद्य, उत्तम अन्न, फल तथा शाक आदिके द्वारा एवं होम और ब्राह्मणभोजनके द्वारा पूजा करनी चाहिये। इस प्रकार देवताओकी पूजा करके घरसे बाहर दीप-दान करना चाहिये। दीपकोंके यास ही एक सुन्दर चौकोर गड्ढा खोदे। उसकी लंबाई-चौड़ाईं और गहराई चौदह अंगुलकी रखे । फिर उसे चन्दन और जलसे सींचे । तदनन्तर उस गड्ढेको गाययके दूधसे भरकर उसमें सर्वाङ्गसुन्दर सुवर्णमय मत्स्य डाले । उस मत्स्यके नेत्र मोतीके बने होने चाहिये । फिर ‘ महामत्स्याय नम: ‘ इस मन्त्रका उच्चारण करते हुए गन्ध आदिसे उसकी पूजा करके ब्राह्मणका उसका दान कर दे । द्विजश्रेष्ठ ! यह मैंने तुमसे क्षीरसागर-दानको विधि बतायी है । इस दानके प्रभावसे मनुष्य भगवान विष्णुके समीप आनन्द भोगता है । नारद ! इस पूणिमाको ‘ वृषोसर्गव्रत ‘ तथा ‘ नक्तव्रत ‘ काके मनुष्य रुद्रलोक प्राप्त कर लेता है ।

   मार्गशीर्ष मासकी पूणिमाके दिन शान्त स्वभाववाले ब्राह्मणको सुवर्णसहित एक आढक नमक दान को । इससे सम्पूर्ण कामनाओँको सिद्धि होती हैँ । मनुष्य पूर्णिमाको पुष्यका योग होनेपर सम्पूर्ण सौभाग्यकी वृद्धिके लिये पीली सरसोंके उबटनसे अपने शरीरको मलकर सर्वोषधियुक्त जलसे स्नान करे । स्नानके पश्चात् दो नूतन वस्त्र धारण करे । फिर माङ्गलिक द्रव्यका दर्शन और स्पर्श कर विष्णु, इन्द्र, चन्द्रमा, पुष्य और बृहस्पतिको नमस्कार करके गन्ध आदि उपचारोंद्वारा उनकी पूजा को । तदनन्तर होम करके ब्राह्मणोंको खीरके भोजनसे तृप्त करे । विप्रवर ! लक्ष्मीजीको प्रीति बढानेवाले और दरिद्रताका नाश करनेवाले इस व्रतको करके मनुष्य इहलोक और परलोकमें आनन्द भोगता है । माघक्री पूणिमाके दिन तिल, सूती कपड़े, कम्बल, रत्न, क्रंचुक, पगडी, जूते आदिका अपने वैभवके अनुसार दान करके मनुष्य स्वर्गलोकमें सुखी होता है । जो उस दिन भगवान् शङ्करको विधिपूर्वक पूजा करता है, वह अश्वमेंध-यज्ञका फल पाकर भगवान् विष्णुके लोकमेँ प्रतिष्ठित होता है । फाल्युनकी पूणिमाको सब प्रकारके काष्ठों और उपलों ( कंडों )- का संग्रह करना चाहिये । वहाँ रक्षोघ्न-मत्रोंद्वारा अग्रिमें विधिपूर्वक होम करके होलिकापर काठ आदि फेंककर उसमें आग लगा दे । इस प्रकार दाह करके होलिकाकी परिक्रमा करते हुए उत्सव मनावे । यह होलिका प्रहलादको भय देनेवाली राक्षसी है ! इसीलिये गीत-मङ्गलपूर्वक काष्ठ आदिके द्वारा लोग उसका दाह करते हैं । विप्रेन्द्र ! मतान्तरमें यह ‘ कामदेवका दाह ‘ है ।

   पक्षान्त-तिथियाँ दो होती हैं-पूणिमा तआ अमावास्या । दोनोंके देवता पृथक-पृथक हैँ । अत: अमावास्याका व्रत पृथक बतलाया जाता है । नारद ! इसे सुनो। यह पितरोंको अत्यन्त प्रिय है। चैत्र और वैशाखकी अमावास्याको पितरोंका पूजा, पार्वणविधिसे धन-वैभवके अनुसार श्राद्ध, ब्राहाणभोजन, विशेषत: गौ आदिका दान- ये सब कार्य सभी महीनोंकी अमावास्याको अत्यन्त पुण्यदायक बताये गये हैं । नारद ! ज्येष्ठकी अमावास्याको ब्रहत्सावित्रीका व्रत बताया गया है । इसमें भी ज्येष्ठकी पूणिमाके समान ही सब विधि कही गयी है । आषाढ, श्रावण और भाद्रपद मासमें पितृश्राद्ध, दान, होम और देवपूजा आदि कार्य अक्षय होते हैं । भाद्रपदकी अमावास्याको अपराह्रमें तिलके खेतमें पैदा हुए कुशोंको ब्रह्माजीके मन्त्रसे आमन्वित करके ‘हुं फट’ का उच्चारण करते हुए उखाड़ ले और उन्हें सदा सब कार्योंमेँ नियुक्त को और दूसरे कुशोंको एक ही समय काममें लाना चाहिये । आश्विनको अमावास्याको विशेषरूपसे गंगाजीके जलमेँ या गंगाजीमें पितरोंका श्राद्ध- तर्पण करना चाहिये; वह मोक्ष देनेवाला है । कार्तिककी अमावास्याको देवमन्दिर, घर, नदी, बगीचा, पोखरा, चैत्य वृक्ष, गोशाला तथा बाजारमेँ दीपदान और श्रीलक्ष्मीजीका पूजन करना चाहिये । उस दिन गौके सींग आदि अंगोमेँ रंग लगाकर उन्हें घास और अन्न देकर तथा नमस्कार और प्रदक्षिणा करके उनकी पूजा की जाती है । मार्गशीर्षकी अमावास्याको भी श्राद्ध और ब्राहाणभोजनके द्वारा तथा ब्रह्मचर्य आदि नियमों और जप, होम तथा पूजनादिके द्वारा पितरोंकी पूजा की जाती है । विप्रवर ! पौष और माघमे भी पितृश्राद्धका फल अधिक कहा क्या है । फाल्गुनके अमावास्यामें श्रवण, व्यतीपात और सूर्यका योग होनेपर केवल श्राद्ध और ब्राह्मणभोजन गयासे अधिक फल देनेवाला होता है । सोमवती अमावास्याको किया हुआ दान आदि सम्पूर्ण फलोको देनेवाला है । उसमें किये हुए श्राद्धका अधिक फल है । मुने ! इस प्रकार मेंने तुम्हें संक्षेपसे तिथिकृत्य बताया है । सभी तिथियोंमें कुछ विशेष विधि है, जो अन्य पुरार्णोमें वर्णित है ।

अध्याय १०२ सनकादि और नारदजीका प्रस्थान, नारदपुराणके माहात्म्यका वर्णन और पूर्वभागकी समाप्ति

श्रीसूतजी कहते हैं- महर्षियो ! देवर्षि नारदजीके प्रश्न करनेपर उन्हें इस प्रकार उपदेश देकर वे सनकादि चारों कुमार, जो शास्त्रवेत्ताओँमें श्रेष्ठ हैं, नारदजीसे पूजित हो, संध्या आदि नित्यकर्म करके भगवान् शङ्करके लोकमे चले गये । वहाँ देवताओं और दानवोके अधीश्वर जिनके चरणारविन्दोमें मस्तक झुकाते हैं, उन महेश्वरको प्रणाम करके उनकी आज्ञासे वे भूमिपर बैठे । तदनन्तर सम्पूर्ण शास्त्रोके सारको, जो अज्ञानी जीवोंके अज्ञानमय बन्धनको खोलनेवाला है, सुनकर वे ज्ञानघनस्वरूप कुमार भगवान् शिवको नमस्कार करके अपने पिताके समीप चले गये । पिताके चरणकमलोंमें प्रणाम करके और उनका आशीर्वाद लेकर वे आज भी सम्पूर्ण लोकोंके तीर्थोंमें सदा विचरते रहते हैं । वास्तवमेँ वे स्वयं ही तीर्थस्वरूप हैँ । ब्रह्मलोकसे वे बदरिकाश्रम-तीर्थमें गये और देवेश्वरसमुदायसे सेवित भगवान् विष्णुके उन अविनाशी चरणारविन्दोका चिरकालतक चिन्तन करते रहे; जिनका वीतराग संन्यासी ध्यान करते हैं । ब्राह्मणो ! तत्पश्चात् नारदजी भी सनकादि कुमारोंसे मनोवाच्छित ज्ञान-विज्ञान पाकर उस गंगातटसे उठकर पिताके निकट गये और प्रणाम करके खडे रहे । फिर पिता ब्रह्माजीके द्वारा आज्ञा मिलनेपर वे बैठे । उन्होंने कुमारोंसे जो ज्ञानविज्ञान श्रवण किया था, उसका ब्रहमजीके समीप यथार्थरूपसे वर्णन किया । उसे सुनकर ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए । इसके बाद ब्रह्माजीके चरणोंमें मस्तक झुकाकर आशीर्वाद ले मुनिवर नारद मुनिसिद्ध-सेवित कैलास पर्वतपर आये । वह पर्वत नाना प्रकारके आश्चर्यजनक दृश्योंसे भरा हुआ था । सिद्ध और किन्नरोंने उस पर्वतको व्याप्त कर रखा था । जहाँ सुन्दर स्वर्णमय कमल लिखे हुए हैं, ऐसे स्वच्छ जलसे भरे हुए सरोवर उस शैलशिखरकी शोभा बढाते हैँ । गंगाजीके प्रपातकी कलकल ध्वनि वहाँ सब और गूँजती रहती है । कैलासका एक-एक शिखर सफेद बादलोंके समान जान पड़ता है । उसी शिखरपर काले मेंघके समान श्यामवर्णका एक वटवृक्ष है, जो सौं योजन विस्तृत है । उसके नीचे योगियोकी मण्डलीके मध्यभागमें जटाजूटधारी भगवान् त्रिलोचन बाघाम्बर ओढे हुए बैठे थे । उनका सारा अङ्ग भस्माङ्गरागसे विभूषित हो रहा था । नागोंके आभूषण उनकी शोभा बढाते थे । ब्राह्मणो ! रुद्राक्षकी मालासे सदा शोभामान भगवानचन्द्रशेखरको देखकर नारदजीने भक्तिभावसे नतमस्तक हो उन जगदीश्वरके चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया और प्रसन्न मनसे उन श्रीवृषध्वज शिवक स्तवन किया, तदनंतर भगवन शिवकी आज्ञासे वे आसनपर बैठे। सव समय योगियोने उनका बड़ा सत्कार किया । जगदगुरु सदाशिवने नारदजीकी कुशल पूछी । नारदजीने कहा―भगवन् ! आपके प्रसादसे सब कुशल है । ब्राह्मणो ! फिर सब योगियोंके सुनते हुए नारदजीने पशुओं (जीवों) के अज्ञानमय पाशको छुडानेचाले पाशुपत (शाम्भव) जानके विषयमें प्रश्न किया । तब शरणागतवत्सल भगवान् शिवने उनकी भक्तिसे संतुष्ट हो उनसे आदरपूर्वक अष्टाङ्ग शिव-योगका वर्णन किया । लोककल्याणकारो भगवानशंकरसे शाम्भव ज्ञान प्राप्त करके प्रसन्नचित्त हो नारदजी बदरिकाश्रममें भगवान् नारायणके निकट गये । सदा आने-जानेचाले देवर्षि नारदने वहाँ भी सिद्धों और योगियोंसे सेवित भगवान् नारायणको बारम्बार संतुष्ट किया ।

   ब्राह्मणी ! यह नारदमहापुराण है, जिसका मैंने तुम्हारे समक्ष वर्णन किया है । सम्पूर्ण शास्त्रका दिग्दर्शन करानेवाला यह उपाख्यान वेदके समान मान्य है । यह श्रोताओँके ज्ञानकी वृद्धि करनेवाला है । विप्रगण ! जो इस नारदीय महापुराणका शिवालयमेँ, श्रेष्ठ द्विजोंके समाजमें, भगवान् विष्णुके मन्दिरमें, मथुरा और प्रयागमें, पुरुषोत्तम जगन्नाथजीके समीप, सेतुबन्थ रामेंश्वरमें, कांची, द्वारका, हरद्वार और कुशस्थलमें, त्रिपुष्कर तीर्थमें, किसी नदीके तटपर अथवा ‘ जहाँ-कहीं भी भक्तिभावसे कीर्तन करता है, वह सम्पूर्ण लोको और तीर्थोंका महान् फल पाता है ‘ सम्पूर्ण दानी और समस्त तपस्याओँका भी पूरा-पूरा फल प्राप्त कर लेता है । जो उपवास करके या हविष्य भोजन करके इन्द्रियों को काबूमें रखते हुए भगवान नारायण या शिवकी भक्तिमें तत्पर हो इस पुराणका श्रवण अथवा प्रवचन करता है, वह सिद्धि पाता है । इस पुराणमें सब प्रकारके पुण्यों और सिद्धियोंके उद्भवका वर्णन किया गया है, जो सदा पढने और सुननेवाले पुरुषोंके समस्त पापोंका नाश करनेवाला है । यह मनुष्योंके कलिसम्बन्धी दोषको हर लेता है और सब सम्पत्तियोंको बृद्धि करता है । यह सभीको अभीष्ट है ‘। यह तपस्या, व्रत और उनके फलका प्रकाशक है । मन्त्र, यन्त्र, पृथक पृथकृ वेदाङ्ग, आगम, सांख्य और वेद-सबका इसमें संक्षेपसे संग्रह किया गया है । इस वेदसम्मित नारदीय महापुराणका श्रवण करके धन, रत्न और वस्त्र आदिके द्वारा भक्तिभावसे पुराणवाचक आचार्यकी पूजा करनी चाहिये। भूमिदान, गोदान, रत्नदान तथा हाथी, घोड़े और रथके दानसे आचार्यको सदैव संतुष्ट करना चाहिये । ब्राह्मणों ! यह पुराण धर्मका संग्रह करनेवाला तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- चारों पुरुषार्थोंको देनेवाला है । जो इसकी व्याख्या करता है, उसके समान मनुष्योंका गुरु दूसरा कौन हो सकता है । शरीर, मन, वाणी और धन आदिके द्वारा सदा धर्मोपदेशक गुरुका प्रिय करना चाहिये । इस पुराणको विधिपूर्वक सुनकर देवपूजन और हवन करके सौ ब्राह्मणोंको मिठाई और खीरका भोजन कराना चाहिये तथा भक्तिभाक्से उन्हें दक्षिणा देनी चाहिये; क्योंकि भगवान् माधव भक्तिसे ही संतुष्ट होते हैं । जैसे नदियोंमें गंगा, सरोवरोंमें पुष्कर, पुरियोंमें काशीपुरी, पर्वतोंमें मेंरु, तीनों देवताओँमें सबका पाप हरनेवाले भगवान् नारायण, युगोंमेँ सत्ययुग, वेदोंमें सामवेद, पशुओँमें धेनु, वणोंमें ब्राह्मण, देने योग्य तथा पोषक वस्तुओंमेँ अन्न और जल, मासोंमेँ मार्गशीर्ष, मृगोंमें सिंह, देहधारियोंमेँ पुरुष,घृक्षोंमें पीपल, देत्योंमें प्रहलाद, अंगोमे मुख, अश्वोमें उच्चे: श्रवा, ऋतूओँमें वसन्त, यज्ञोंमें जपयज्ञ, नागोंमें शेष, पितरोंमें अर्यमा, अस्वीमेँ धनुष, वसओँमें पावक, आदित्योंमें विष्णु, देवताओँमें इद्ध सिद्धोंमेँ कपिल, पुरोहितोंमें बृहस्पति, कवियोंमें शुक्राचार्य, पाण्डवोंमें अर्जुन, दास्य-भक्तोंमें हनुमान, तृणोंमें कुश, इंद्रियोंमेँ मन (चित्त), गन्धर्वोमें चित्ररथ, पुष्पोमें कमल, अप्सराओँमे उर्वशी तथा धातुओँमें सुवर्ण श्रेष्ठ है । जिस प्रकार ये सब वस्तुएँ अपने सजातीय पदार्थोंमेँ श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार पुराणोंमें श्रीनारदमहापुराण श्रेष्ठ कहा गया है । द्विजवरो ! आप सब लोगोंको शान्ति प्राप्त हो, आपका कल्याण हो । अब मैं अमित तेजस्वी व्यासजीके समीप जाऊँगा।

   ऐसा कहकर सूतजी शौनक आदि महात्मा पूजित हो उन सबकी आज्ञा लेकर चले गये । वे शौनक आदि द्विज श्रेष्ठ महात्मा भी जो यज्ञानुष्ठानमें लगे हुए थे, एकाग्रचित्त हो सुने हुए समस्त धर्मोंके अनुष्ठानमेँ तत्पर हो, वहीं रहने लगे । जो कलिके पाप-विषका नाश करनेवाले श्रीहरिके जप और पूजन-विधिरूप औषधका सेवन करता है, वह निर्मल चित्तसे भगवानके ध्यानमें लगकर सदा मनोवाच्छित लोक प्राप्त करता है ।

 श्रीपरमात्मने नमः

 श्रीगणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय