Shree Naval Kishori

श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कंध

अध्याय 1 यदुवंशको ऋषियोंका शाप

व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजी कहते है – परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने बलरामजी तथा अन्य यदुवंशियोंके साथ मिलकर बहुत-से दैत्योंका संहार किया तथा कौरव और पाण्डवोंमें भी शीघ्र मार-काट मचानेवाला अत्यन्त प्रबल कलह उत्पन्न करके पृथ्वीका भार उतार दिया 1 ॥ कौरवोंने कपटपूर्ण जूएसे तरह-तरहके अपमानोंसे तथा द्रौपदीके केश खींचने आदि अत्याचारोंसे पाण्डवोंको अत्यन्त क्रोधित कर दिया था। उन्हीं पाण्डवोको निमित्त बनाकर भगवान् श्रीकृष्णने दोनों पक्षोंमें एकत्र हुए राजाओंको मरवा डाला और इस प्रकार पृथ्वीका भार हलका कर दिया। अपने बाल सुरक्षित वंशियों द्वारा पृथ्वीके भार – राजा और उनकी सेनाका विनाश करके, प्रमाणोंके द्वारा ज्ञानके विषय न होनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने विचार किया कि लोकदृष्टिसे पृथ्वीका भार दूर हो जानेपर भी वस्तुतः मेरी दृष्टिसे अभीतक दूर नहीं हुआ; क्योंकि जिसपर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता, वह यदुवंश अभी पृथ्वीपर विद्यमान है ॥ 3 ॥ यह यदुवंश मेरे आश्रित है और हाथी, घोड़े, जनबल, घनवल आदि विशाल वैभवके कारण उच्छृंखल हो रहा है। अन्य किसी देवता आदिसे भी इसकी किसी प्रकार पराजय नहीं हो सकती। बॉसके वनमें परस्पर संघर्षसे उत्पन्न अनिके समान इस यदुवंशमें भी परस्पर कलह खड़ा करके मैं शान्ति प्राप्त कर सकूँगा और इसके बाद अपने धाममें जाऊँगा 4 ॥ राजन् ! भगवान् सर्वशक्तिमान् और सत्यसङ्कल्प हैं। उन्होंने इस प्रकार अपने मनमें निश्चय करके ब्राह्मणोंके शापके बहाने अपने ही वंशका संहार कर डाला, सबको समेटकर अपने धाममे ले गये ॥ 5 ॥ परीक्षित्! भगवान्को वह मूर्ति त्रिलोकीके सौन्दर्यका तिरस्कार करनेवाली थी। उन्होंने अपनी सौन्दर्य-माधुरीसे सबके नेत्र अपनी ओर आकर्षित कर लिये थे। उनकी वाणी, उनके उपदेश परम मधुर, दिव्यातिदिव्य थे। उनके द्वारा उन्हें स्मरण करनेवालोंके चित उन्होंने छोन लिये थे। उनके चरणकमल त्रिलोकसुन्दर थे जिसने उनके एक चरण चिह्नका भी दर्शन कर लिया, उसको बहिर्मुखता दूर भागगयी, वह कर्मप्रपञ्चसे ऊपर उठकर उन्हींकी सेवामें लग गया। उन्होंने अनायास ही पृथ्वीमें अपनी कीर्तिका विस्तार कर दिया, जिसका बड़े-बड़े सुकवियोंने बड़ी ही सुन्दर भाषामें वर्णन किया है। वह इसलिये कि मेरे चले जानेके बाद लोग मेरी इस कीर्तिका गान, श्रवण और स्मरण करके इस अज्ञानरूप अन्धकारसे सुगमतया पार हो जायँगे। इसके बाद परमैश्वर्यशाली भगवान् श्रीकृष्णने अपने धामको प्रयाण किया ।। 6-7 ॥

राजा परीक्षितने पूछा-भगवन्! यदुवंशी बड़े ब्राह्मणभक्त थे। उनमें बड़ी उदारता भी थी और वे अपने कुलवृद्धोंकी नित्य निरन्तर सेवा करनेवाले थे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि उनका चित्त भगवान् श्रीकृष्णमें लगा रहता था; फिर उनसे ब्राह्मणोंका अपराध कैसे बन गया ? और क्यों ब्राह्मणोंने उन्हें शाप दिया ? ॥ 8 ॥ भगवान्‌के परम प्रेमी विप्रवर! उस शापका कारण क्या था तथा क्या स्वरूप था ? समस्त यदुवंशियोंके आत्मा स्वामी और प्रियतम एकमात्र भगवान् श्रीकृष्ण ही थे; फिर उनमें फूट कैसे हुई? दूसरी दृष्टिसे देखें तो वे सब ऋषि अद्वैतदर्शी थे, फिर उनको ऐसी भेददृष्टि कैसे हुई ? यह सब आप कृपा करके मुझे बतलाइये ॥ 9 ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा- भगवान् श्रीकृष्णने वह शरीर धारण करके जिसमे सम्पूर्ण सुन्दर पदार्थोंका सन्निवेश था (नेत्रों में मृगनयन, कन्धों में सिंहस्कन्ध, करोगे करि-कर, चरणोंमें कमल आदिका विन्यास था) पृथ्वीमें मङ्गलमय कल्याणकारी कमका आचरण किया। वे पूर्णकाम प्रभु द्वारकाधाममें रहकर क्रीडा करते रहे और उन्होंने अपनी उदार कीर्तिकी स्थापना की। (जो कीर्ति स्वयं अपने आश्रयतकका दान कर सके वह उदार है।) अन्तमें श्रीहरिने अपने कुलके | संहार – उपसंहारकी इच्छा की; क्योंकि अब पृथ्वीका भार उतरनेमें इतना ही कार्य शेष रह गया था ॥ 10 ॥ भगवान् श्रीकृष्णने ऐसे परम मङ्गलमय और पुण्य प्रापक कर्म किये, जिनका गान करनेवाले लोगोंके सारे कलिमल नष्ट हो जाते हैं। अब भगवान् श्रीकृष्ण महाराज उग्रसेनकी राजधानी द्वारकापुरीमें वसुदेवजीके घर यादवोंका संहार करनेके लिये कालरूपसे ही निवास कर रहे थे। उस समय उनके विदा कर | देनेपर-विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा, भृगु, अङ्गिरा, कश्यप, वामदेव, अत्रि, वसिष्ठ और नारद आदि बड़े-बड़े ऋषि द्वारकाके पास ही पिण्डारक क्षेत्रमें जाकर निवास करने लगे थे ।। 11-12 ।।

एक दिन यदुवंशके कुछ उद्दण्ड कुमार खेलते-खेलते उनके पास जा निकले। उन्होंने बनावटी नम्रतासे उनकेचरणों प्रणाम करके प्रश्न किया ।। 13 ।। वे जाम्बवतीनन्दन साम्बको खीके वेपमें सजाकर ले गये और कहने लगे, ‘ब्रह्मणो यह कजरारी आँखोंवाली सुन्दरी गर्भवती है। यह आपसे एक बात पूछना चाहती है परन्तु स्वयं पूछने सकुचाती है आपलोगोंका न अमोध अवाध है, आप सर्वश है। इसे पुत्रकी बड़ी लालसा है और अब प्रसवका समय निकट आ गया है। आपलोग बताइये, यह कन्या जनेगी या पुत्र ?’ ।। 14-15 ॥ परीक्षित् । जब उन कुमाररोंने इस प्रकार उन ऋषि-मुनियोंको धोखा देना चाहा, तब वे भगवत्प्रेरणा से क्रोधित हो उठे। उन्होंने कहा- ‘मूर्खो। यह एक ऐसा मूसल पैदा करेगी, जो तुम्हारे कुलका नाश करनेवाला होगा ॥ 16 ॥ मुनियोंकी यह बात सुनकर वे बालक बहुत ही डर गये। उन्होंने तुरंत साम्बका पेट खोलकर देखा तो सचमुच उसमें एक लोहेका मूसल मिला ॥ 17 ॥ अब तो वे पछताने लगे और कहने लगे-‘हम बड़े अभागे हैं। देखो, हमलोगोंने यह क्या अनर्थ कर डाला ? अब लोग हमें क्या कहेंगे ?’ इस प्रकार वे बहुत ही घबरा गये तथा मूसल लेकर अपने निवासस्थानमें गये ।। 18 ।। उस समय उनके चेहरे फीके पड़ गये थे। मुख कुम्हला गये थे। उन्होंने भरी सभामें सब यादवोंके सामने ले जाकर वह मूसल रख दिया और राजा उग्रसेनसे सारी घटना कह सुनायी ॥ 19 ॥ राजन्। जब सब लोगोंने ब्राह्मणोंके शापकी बात सुनी और अपनी आँखोंसे उस मूसलको देखा, तब सब-के-सब द्वारकावासी विस्मित और भयभीत हो गये; क्योंकि वे जानते थे कि ब्राह्मणोंका शाप कभी झूठा नहीं होता ॥ 20 ॥ यदुराज उग्रसेनने उस मूसलको चूरा-चूरा करा डाला और उस चूरे तथा लोहेके बचे हुए छोटे टुकड़ेको समुद्रमें फेंकवा दिया। (इसके सम्बन्धमें उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णसे कोई सलाह न ली; ऐसी ही उनकी प्रेरणा थी ) ॥ 21 ॥

परीक्षित् | उस लोहेके टुकड़ेको एक मछली निगल गयी और चूरा तरङ्गों के साथ बह-बहकर समुद्र के किनारे आ लगा। वह थोड़े दिनोंमें एरक (बिना गाँठकी एक घास) के रूपमें उग आया ॥ 22 ॥ मछली मारनेवाले मछुओने समुद्रमें दूसरी मछलियोंके साथ उस मछलीको भी पकड़ लिया। उसके पेटमें जो लोहेका टुकड़ा था, उसको जरा नामक व्याधने अपने बाणके नोकमे लगा लिया ।। 23 ।।| भगवान् सब कुछ जानते थे। वे इस शापको उलट भी सकते थे। फिर भी उन्होंने ऐसा करना उचित न समझा। कालरूपधारी प्रभुने ब्राह्मणोंके शापका अनुमोदन ही किया ॥ 24 ॥

अध्याय 2 वसुदेवजी को श्रीनारदजीका राजा जनक और नौ योगेश्वरों का संवाद सुनना

श्रीशुकदेवजी कहते हैं— कुरुनन्दन ! देवर्षि नारदके मनमें भगवान् श्रीकृष्णकी सन्निधिमें रहनेको बड़ी लालसा थी। इसलिये वे श्रीकृष्णके निज बाहुओंसे सुरक्षित द्वारकामें जहाँ दक्ष आदिके शापका कोई भय नहीं था, विदा कर देनेपर भी पुनः पुनः आकर प्रायः रहा ही करते थे ॥ 1 ॥ राजन् ! ऐसा कौन प्राणी है, जिसे इन्द्रियाँ तो प्राप्त हो और वह भगवान्‌के ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवताओंके भी उपास्य चरणकमलोकी दिव्य गन्ध, मधुर मकरन्द-रस, अलौकिक रूपमाधुरी, सुकुमार स्पर्श और मङ्गलमय ध्वनिका सेवन करना न चाहे ? क्योंकि यह बेचारा प्राणी सब ओरसे मृत्युसे ही घिरा हुआ है ।। 2 ।। एक दिनकी बात है, देवर्षि नारद वसुदेवजीके यहाँ पधारे। वसुदेवजीने उनका अभिवादन किया तथा आरामसे बैठ जानेपर विधिपूर्वक उनकी पूजा की और इसके बाद पुनः प्रणाम करके उनसे यह बात कही ।। 3 ।।

वसुदेवजीने कहा- संसारमें माता-पिताका आगमन पुत्रोंके लिये और भगवान्‌को ओर अग्रसर होनेवाले साधु-संतोंका पदार्पण प्रपञ्चमें उलझे हुए दीन-दुखियोंके लिये बड़ा ही सुखकर और बड़ा ही मङ्गलमय होता है। परन्तु भगवन्! आप तो स्वयं भगवन्मय, भगवत्स्वरूप है। आपका चलना-फिरना तो समस्त प्राणियोंके कल्याणके लिये ही होता है ॥ 4 ॥ देवताओंके चरित्र भी कभी प्राणियोंके लिये दुःखके हेतु, तो कभी सुखके हेतु बन जाते हैं। परन्तु जो आप जैसे भगवत्प्रेमी पुरुष हैं-जिनका हृदय, प्राण, जीवन, सब कुछ भगवन्मय हो गया है उनकी तो प्रत्येक चेष्टा समस्त प्राणियोंके कल्याण के लिये हो | होती है 5 ॥ जो लोग देवताओंका जिस प्रकार भजन करते हैं, देवता भी परछाईके समान ठीक उसी रोतिसे भजनकरनेवालोको फल देते है; क्योंकि देवता कर्मके मन्त्री है, अधीन है। परन्तु सत्पुरुष दीनवत्सल होते है अर्थात् जो सांसारिक सम्पत्ति एवं साधनसे भी होन हैं, उन्हें अपनाते हैं 6 ॥ ब्रह्मन् ! (यद्यपि हम आपके शुभागमन और शुभ दर्शनसे हो कृतकृत्य हो गये हैं) तथापि आपसे उन धर्मकि—साधनोंके सम्बन्धमें प्रश्न कर रहे हैं, जिनको मनुष्य श्रद्धासे | सुन भर ले तो इस सब ओरसे भयदायक संसारसे मुक्त हो जाय ॥ 7 ॥ पहले जन्ममें मैंने मुक्ति देनेवाले भगवान्‌की आराधना तो की थी, परन्तु इसलिये नहीं कि मुझे मुक्ति मिले। मेरी आराधनाका उद्देश्य था कि वे मुझे पुत्ररूपमें प्राप्त हो। उस समय मैं भगवान्‌की लीलासे मुग्ध हो रहा था ॥ 8 ॥ सुव्रत ! अब आप मुझे ऐसा उपदेश दीजिये। जिससे मैं इस जन्म-मृत्युरूप भयावह संसारसे – जिसमें दुःख भी सुखका विचित्र और मोहक रूप धारण करके सामने आते हैं- अनायास ही पार हो जाऊँ ॥ 9 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन् ! बुद्धिमान् वसुदेवजीने भगवान् के स्वरूप और गुण आदिके श्रवणके अभिप्रायसे ही यह प्रश्न किया था। देवर्षि नारद उनका प्रश्न सुनकर भगवान्के अचिन्त्य अनन्त कल्याणमय गुणोंके स्मरणमें तन्मय हो गये और प्रेम एवं आनन्दमें भरकर वसुदेवजी से बोले ।। 10 ।।

नारदजीने कहा – यदुवंशशिरोमणे ! तुम्हारा यह निश्चय बहुत ही सुन्दर है; क्योंकि यह भागवत धर्मके सम्बन्धमें है, जो सारे विश्वको जीवन दान देनेवाला है, पवित्र करनेवाला है ॥ 11 ॥ वसुदेवजी ! यह भागवतधर्म एक ऐसी वस्तु है, जिसे कानोंसे सुनने, वाणीसे उच्चारण करने, चित्तसे स्मरण करने, हृदयसे स्वीकार करने या कोई इसका | पालन करने जा रहा हो तो उसका अनुमोदन करनेसे ही मनुष्य उसी क्षण पवित्र हो जाता है— चाहे वह भगवान्का एवं सारे संसारका द्रोही ही क्यों न हो ।। 12 ।। जिनके गुण, लीला और नाम आदिका श्रवण तथा कीर्तन पतितोंको भी पावन करनेवाला है, उन्हीं परम कल्याणस्वरूप मेरे आराध्यदेव भगवान् नारायणका तुमने आज मुझे स्मरण कराया है ।। 13 ।। वसुदेवजी ! तुमने मुझसे जो प्रश्न किया है, इसके सम्बन्धमें संत पुरुष एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास है— ऋषभके पुत्र नौ योगीश्वरों और महात्मा विदेहका शुभ संवाद ।। 14 ।। तुम जानते ही हो कि स्वायम्भुव मनुके एक प्रसिद्ध पुत्र थे प्रियव्रत प्रियव्रतके आग्नीध, आग्नीधके नाभि और नाभिके पुत्र हुए ऋषभ ॥ 15 ॥ शास्त्रोंने उन्हें भगवान् वासुदेवका अंश कहा है। मोक्षधर्मका उपदेश करनेके लिये उन्होंने अवतार ग्रहण किया था। उनके सौ पुत्र थे और सब-के-सब वेदोंके पारदर्शी विद्वान् थे ।। 16 ।।उनमें सबसे बड़े थे राजर्षि भरत वे भगवान् नारायणके परम प्रेमी भक्त थे। उन्हींके नामसे यह भूमिखण्ड, जो पहले ‘अजनाभवर्ष’ कहलाता था, ‘भारतवर्ष’ कहलाया। यह भारतवर्ष भी एक अलौकिक स्थान है ।। 17 ।। राजर्षि भरतने सारी पृथ्वीका राज्य-भोग किया, परन्तु अन्तमें इसे छोड़कर वनमें चले गये। वहाँ उन्होंने तपस्याके द्वारा भगवान्को उपासना की और तीन जन्मोंमें वे भगवान्‌को प्राप्त हुए ॥ 18 ॥ भगवान् ऋषभदेवजीके शेष निन्यानबे पुत्रोंमें नौ पुत्र तो इस भारतवर्षके सब ओर स्थित नौ द्वीपोंके अधिपति हुए और इक्यासी पुत्र कर्मकाण्डके रचयिता ब्राह्मण हो गये ॥ 19 ॥ शेष नौ संन्यासी हो गये। वे बड़े ही भाग्यवान् थे। उन्होंने आत्मविद्याके सम्पादनमें बड़ा परिश्रम किया था और वास्तवमें वे उसमें बड़े निपुण थे। वे प्रायः दिगम्बर ही रहते थे और अधिकारियोंको परमार्थ वस्तुका उपदेश किया करते। थे। उनके नाम थे— कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र दुमिल, चमस और करभाजन ॥ 20-21 ॥ वे इस कार्य-कारण और व्यक्त-अव्यक्त भगवद्रूप जगत्को अपने आत्मासे अभिन्न अनुभव करते हुए पृथ्वीपर स्वच्छन्द विचरण करते थे ॥ 22 ॥ उनके लिये कहीं भी रोक-टोक न थी। वे जहाँ चाहते, चले जाते। देवता, सिद्ध, साध्य गन्धर्व, यक्ष, मनुष्य, किन्नर और नागोके लोकोंमें तथा मुनि, चारण, भूतनाथ, विद्याधर, ब्राह्मण और गौओंके स्थानोंमें वे स्वछन्द विचरते थे। वसुदेवजी ! वे सब-के-सब जीवन्मुक्त थे ॥ 23 ॥

एक बारकी बात है, इस अजनाभ (भारत) वर्षमें विदेहराज महात्मा निमि बड़े-बड़े ऋषियोंके द्वारा एक महान् यज्ञ करा रहे थे। पूर्वोक्त नौ योगीश्वर स्वच्छन्द विचरण | करते हुए उनके यज्ञमें जा पहुँचे 24 ॥ वसुदेवजी ! वे योगीश्वर भगवान्के परम प्रेमी भक्त और सूर्यके समान तेजस्वी थे। उन्हें देखकर राजा निमि, आहवनीय आदि मूर्तिमान् अग्नि और ऋत्विज् आदि ब्राह्मण सब-के-सब उनके स्वागतमें खड़े हो गये || 25 || विदेहराज निमिने उन्हें | भगवान्के परम प्रेमी भक्त जानकर यथायोग्य आसनोंपर बैठाया और प्रेम तथा आनन्दसे भरकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की ॥ 26 ॥ वे नवों योगीश्वर अपने अङ्गोंकी कान्तिसे इस प्रकार चमक रहे थे, मानो साक्षात् ब्रह्माजीके पुत्र सनकादि मुनीश्वर ही हो। राजा निमिने विनयसे झुककर परम प्रेमके साथ उनसे प्रश्न किया ॥ 27 ॥विदेहराज निमिने कहा- भगवन्! मैं ऐसा समझता हूँ कि आपलोग मधुसूदन भगवान्‌ के पार्षद ही है, क्योंकि भगवान्‌के पार्षद संसारी प्राणियोंको पवित्र करनेके लिये विचरण किया करते हैं ॥ 28 ॥ जीवोंके लिये मनुष्य शरीरका प्राप्त होना दुर्लभ है। यदि यह प्राप्त भी हो जाता है तो प्रतिक्षण मृत्युका भय सिरपर सवार रहता है, क्योंकि यह क्षणभर है। इसलिये अनिश्चित मनुष्य जीवनमे भगवानके प्यारे और उनको प्यार करनेवाले भक्तजनोंका, संतोंका दर्शन तो और भी दुर्लभ है ।। 29 ।। इसलिये त्रिलोकपावन महात्माओ ! हम आपलोगोंसे यह प्रश्न करते हैं कि परम कल्याणका स्वरूप क्या है ? और उसका साधन क्या है ? इस संसारमें आधे क्षणका सत्सङ्ग भी मनुष्योंके लिये परम निधि है ॥ 30 ॥ योगीश्वरो ! यदि हम सुननेके अधिकारी हो तो आप कृपा करके भागवत धर्मोंका उपदेश कीजिये, क्योंकि उनसे जन्मादि विकारसे रहित, एकरस भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और उन धर्मोका पालन करनेवाले शरणागत भक्तोंको अपने आपतकका दान कर डालते हैं ॥ 31 ॥

देवर्षि नारदजीने कहा- वसुदेवजी ! जब राजा निमिने उन भगवत्प्रेमी संतोंसे यह प्रश्न किया, तब उन लोगोंने बड़े प्रेमसे उनका और उनके प्रश्नका सम्मान किया और सदस्य तथा ऋत्विजोंके साथ बैठे हुए राजा निमिसे बोले ॥ 32 ॥

पहले उन नौ योगीश्वरोंमेंसे कविजीने कहा राजन् ! भक्तजनोंके हृदयसे कभी दूर न होनेवाले अच्युत भगवान्के चरणोंकी नित्य निरन्तर उपासना ही इस संसारमें |परम कल्याण-आत्यन्तिक क्षेम है और सर्वथा भयशून्य है, ऐसा मेरा निश्चित मत है। देह, गेह आदि तुच्छ एवं असत् पदार्थोंमें अहंता एवं ममता हो जानेके कारण जिन लोगोंकी चित्तवृत्ति उद्विग्न हो रही है, उनका भय भी इस उपासनाका अनुष्ठान करनेपर पूर्णतया निवृत्त हो जाता है ।। 33 ।। भगवान्‌ने भोले-भाले अज्ञानी पुरुषों को भी सुगमतासे साक्षात् अपनी प्राप्तिके लिये जो उपाय स्वयं श्रीमुखसे बतलाये हैं, उन्हें ही ‘भागवत धर्म’ समझो 34 राजन् ! इन भागवतधर्मोका अवलम्बन करके मनुष्य कभी विघ्नोंसे पीड़ित नहीं होता और नेत्र बंद करके दौड़नेपर भी अर्थात् विधि-विधान त्रुटि हो जानेपर भी न तो मार्गसे स्खलित ही होता है और न तो पतित-फलसे | वञ्चित ही होता है ।। 35 ।।(भागवतधर्मका पालन करनेवालेके लिये यह नियम नहीं है कि वह एक विशेष प्रकारका कर्म ही करे) वह शरीरसे, वाणीसे, मनसे, इन्द्रियोंसे, बुद्धिसे, अहङ्कारसे, अनेक जन्मों अथवा एक जन्मकी आदतोंसे स्वभाववश जो-जो करे, वह सब परमपुरुष भगवान् नारायणके लिये ही है—इस भावसे उन्हें समर्पण कर दे। (यही सरल-से-सरल, सीधा-सा भागवतधर्म है ) || 36 | ईश्वरसे विमुख पुरुषको उनकी मायासे अपने स्वरूपकी विस्मृति हो जाती है और इस विस्मृतिसे ही ‘मैं देवता हूँ, मैं मनुष्य हूँ, इस प्रकारका भ्रम – विपर्यय हो जाता है। इस देह आदि अन्य वस्तुमें अभिनिवेश, तन्मयता होनेके कारण ही बुढ़ापा, मृत्यु, रोग आदि अनेकों भय होते हैं। इसलिये अपने गुरुको ही आराध्यदेव परम प्रियतम मानकर अनन्य भक्तिके द्वारा उस ईश्वरका भजन करना चाहिये ॥ 37 ॥ राजन् ! सच पूछो तो भगवान् के अतिरिक्त, आत्माके अतिरिक्त और कोई वस्तु है ही नहीं। परन्तु न होनेपर भी इसकी प्रतीति इसका चिन्तन करनेवालेको उसके चिन्तनके कारण, उधर मन लगने के कारण ही होती है-जैसे स्वप्रके समय स्वप्रद्रष्टाकी कल्पनासे अथवा जायत अवस्थामें नाना प्रकारके मनोरथोसे एक विलक्षण हो सृष्टि दीखने लगती है। इसलिये विचारवान् पुरुषको चाहिये कि सांसारिक कर्मक सम्बन्धमें सङ्कल्प विकल्प करनेवाले मनको रोक दे—कैद कर ले। बस, ऐसा करते ही उसे अभय पदकी, परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी ॥ 38 ॥ संसारमें भगवान्‌के जन्मकी और लीलाकी बहुत सी मङ्गलमयी कथाएँ प्रसिद्ध हैं। उनको सुनते रहना चाहिये। उन गुणों और लीलाओंका स्मरण दिलाने वाले भगवान्‌के बहुत से नाम भी प्रसिद्ध है। लाज-संकोच छोड़कर उनका गान करते रहना चाहिये। इस प्रकार किसी भी व्यक्ति, वस्तु और स्थानमें आसक्ति न करके विचरण करते रहना चाहिये ॥ 39 ॥ जो इस प्रकार विशुद्ध व्रत-नियम ले लेता है, उसके हृदयमें अपने परम प्रियतम प्रभुके नाम कीर्तनसे अनुरागका, प्रेमका अङ्कर उग आता है। उसका चित्त द्रवित हो जाता है। अब वह साधारण लोगों की स्थितिसे ऊपर उठ जाता है। लोगोंकी मान्यताओं, धारणाओंसे परे हो जाता है। दम्भसे नहीं, स्वभावसे ही | मतवाला-सा होकर कभी खिलखिलाकर हँसने लगता है तो कभी फूट-फूटकर रोने लगता है। कभी ऊंचे स्वरसे भगवान्‌को पुकारने लगता है, तो कभी मधुर स्वरसे उनके गुणोंका गान करने लगता है। कभी-कभी जब वह अपने प्रियतमको अपने नेत्रोंके सामने अनुभव करता है, तब उन्हें | रिझानेके लिये नृत्य भी करने लगता है ॥ 40राजन् यह आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, प्राणी, दिशाएँ, वृक्ष-वनस्पति, नदी, समुद्र-सब-के-सब भगवान् के शरीर है। सभी रूपोंमें स्वयं भगवान् प्रकट है। ऐसा समझकर वह जो कोई भी उसके सामने आ जाता है चाहे वह प्राणी हो या अप्राणी-उसे अनन्यभावसे. भगवद्भावसे प्रणाम करता है ॥ 41 जैसे भोजन करनेवालेको प्रत्येक ग्रासके साथ ही तुष्टि (तृप्ति अथवा सुख), पुष्टि (जीवनशक्तिका सञ्चार) और क्षुधा निवृत्ति ये तीनों एक साथ होते जाते हैं; वैसे ही जो मनुष्य भगवान्की शरण लेकर उनका भजन करने लगता है, उसे भजनके प्रत्येक क्षणमें भगवान के प्रति प्रेम, अपने प्रेमास्पद प्रभुके स्वरूपका अनुभव और उनके अतिरिक्त अन्य वस्तुओंमें वैराग्य- इन तीनोंकी एक साथ ही प्राप्ति होती जाती है ॥ 42 ॥ राजन् ! इस प्रकार जो प्रतिक्षण एक-एक वृत्तिके द्वारा भगवान्के चरणकमलोंका ही भजन करता है, उसे भगवान के प्रति प्रेममयी भक्ति, संसारके प्रति वैराग्य और अपने प्रियतम भगवान के रूपकी स्फूर्ति ये सब अवश्य ही प्राप्त होते हैं, वह भागवत हो जाता है और जब ये सब प्राप्त हो जाते हैं, तब वह स्वयं परम शान्तिका अनुभव करने लगता है ।। 43 ।।

राजा निमिने पूछा- योगीश्वर ! अब आप कृपा करके भगवद्भक्तका लक्षण वर्णन कीजिये। उसके क्या धर्म हैं ? और कैसा स्वभाव होता है ? वह मनुष्योंके साथ व्यवहार करते समय कैसा आचरण करता है ? क्या बोलता है ? और किन लक्षणोंके कारण भगवान्का प्यारा होता है ? ।। 44 ।।

अब नौ योगीश्वरोमेंसे दूसरे हरिजी बोले राजन् ! आत्मस्वरूप भगवान् समस्त प्राणियोंमें आत्मारूपसे – नियन्तारूपसे स्थित हैं। जो कहीं भी न्यूनाधिकता न देखकर सर्वत्र परिपूर्ण भगवत्सत्ताको ही देखता है और साथ ही समस्त प्राणी और समस्त पदार्थ आत्मस्वरूप भगवान्में ही आधेयरूपसे अथवा अध्यस्त रूपसे स्थित हैं, अर्थात् वास्तवमें भगवत्स्वरूप ही हैं—इस प्रकारका जिसका अनुभव है, ऐसी जिसकी सिद्ध दृष्टि है, उसे भगवान्का परमप्रेमी उत्तम भागवत समझना चाहिये ।। 45 ।। जो भगवान् से प्रेम, उनके भक्तोंसे मित्रता, दुःखी और अज्ञानियोंपर कृपा तथा भगवान्‌ द्वेष करनेवालोंकी उपेक्षा करता है, वह मध्यम कोटिका भागवत है 46 और जो भगवान्‌के अर्चा-विग्रह – मूर्ति आदिकी पूजा तो श्रद्धासे करता है, परन्तु भगवान्‌के भक्तों या दूसरे लोगोंकी विशेष सेवा-शुश्रूषा नहीं करता, वह साधारण श्रेणीका भगवद्भक्त है ।। 47 ।।जो श्रोत्र-नेत्र आदि इन्द्रियोंके द्वारा शब्द-रूप आदि विषयोंका ग्रहण तो करता है; परन्तु अपनी इच्छाके प्रतिकूल विषयोंसे द्वेष नहीं करता और अनुकूल विषयोंके मिलनेपर हर्षित नहीं होता — उसकी यह दृष्टि बनी रहती है कि यह सब हमारे भगवान्की माया है—वह पुरुष उत्तम भागवत है ।। 48 ।। संसारके धर्म हैं— जन्म-मृत्यु, भूख-प्यास, श्रम-कष्ट, भय और तृष्णा। ये क्रमशः शरीर, प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धिको प्राप्त होते ही रहते हैं। जो पुरुष भगवान्की स्मृतिमें इतना तन्मय रहता है कि इनके बार-बार होते-जाते रहनेपर भी उनसे मोहित नहीं होता, पराभूत नहीं होता, वह उत्तम भागवत है ॥ 49 ॥ जिसके मनमें विषय-भोगकी इच्छा, कर्म-प्रवृत्ति और उनके बीज वासनाओंका उदय नहीं होता और जो एकमात्र भगवान् वासुदेवमे ही निवास करता है, वह उत्तम भगवद्भक्त है ॥ 50 ॥ जिनका इस शरीरमें न तो सत्कुलमें जन्म, तपस्या आदि कर्मसे तथा न वर्ण, आश्रम एवं जातिसे ही अहंभाव होता है, वह निश्चय ही भगवान्का प्यारा है ॥ 51 ॥ जो धन-सम्पत्ति अथवा शरीर आदिमें ‘यह अपना है और यह पराया’ – इस प्रकारका भेद-भाव नहीं रखता, समस्त पदार्थोंमें समस्वरूप परमात्माको देखता रहता है, समभाव रखता है तथा किसी भी घटना अथवा सङ्कल्पसे विक्षिप्त न होकर शान्त रहता है, वह भगवान्‌का उत्तम भक्त है ।। 52 ।। राजन्! बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि भी अपने अन्तःकरणको भगवन्मय बनाते हुए जिन्हें ढूँढ़ते रहते. हैं भगवान के ऐसे चरणकमलोसे आधे क्षण, आधे पलके लिये भी जो नहीं हटता, निरन्तर उन चरणोंकी सन्निधि और सेवामें ही संलग्न रहता है; यहांतक कि कोई स्वयं उसे त्रिभुवनकी राज्यलक्ष्मी दे तो भी वह भगवत्स्मृतिका तार नहीं तोड़ता, उस राज्यलक्ष्मीकी ओर ध्यान ही नहीं देता; वही | पुरुष वास्तवमें भगवद्भक्त वैष्णवोंमें अग्रगण्य है, सबसे श्रेष्ठ है ।। 53 ।। रासलीलाके अवसरपर नृत्य-गतिसे भाँति भाँतिके पाद-विन्यास करनेवाले निखिल सौन्दर्य-माधुर्य निधि भगवान्‌के चरणोंके अङ्गलि नसकी मणि चन्द्रिकासे जिन शरणागत भक्तजनो के हृदयका विरहजन्य संताप एक बार दूर हो चुका है, उनके हृदयमें वह फिर कैसे आ सकता है, जैसे चन्द्रोदय होनेपर सूर्यका ताप नहीं लग | सकता ॥ 54 ॥ विवशतासे नामोच्चारण करनेपर भी सम्पूर्ण अघ राशिको नष्ट कर देनेवाले स्वयं भगवान् श्रीहरि जिसके | हृदयको क्षणभरके लिये भी नहीं छोड़ते हैं, क्योंकि उसने प्रेमकी रस्सीसे उनके चरण-कमलोको बाँध रखा है, वास्तवमें । ऐसा पुरुष ही भगवान्‌के भक्तोमे प्रधान है ॥ 55 ॥

अध्याय 3 माया, मायासे पार होनेके उपाय

राजा निमिने पूछा-भगवन्! सर्वशक्तिमान् परमकारण विष्णुभगवान्‌की माया बड़े-बड़े मायावियोंको भी मोहित कर देती है, उसे कोई पहचान नहीं पाता; (और आप कहते हैं कि भक्त उसे देखा करता है।) अतः अब मैं उस मायाका स्वरूप जानना चाहता हूँ, आपलोग कृपा करके बतलाइये ॥ 1 ॥ योगीश्वरो मैं एक मृत्युका शिकार मनुष्य हूँ। संसारके तरह-तरहके तापने मुझे बहुत दिनोंसे तपा रखा है। आपलोग जो भगवत्कथारूप अमृतका पान करा रहे हैं, यह उन तापोंको मिटानेकी एकमात्र औषधि है; इसलिये मैं आपलोगोंकी इस वाणीका सेवन करते-करते तृप्त नहीं होता। आप कृपया और कहिये ॥ 2 ॥

अब तीसरे योगीश्वर अन्तरिक्षजीने कहा राजन्। (भगवान्‌की माया स्वरूपतः अनिर्वचनीय है, इसलिये उसके कार्यकि द्वारा ही उसका निरूपण होता है।) आदि पुरुष परमात्मा जिस शक्तिसे सम्पूर्ण भूतोंके कारण बनते हैं और उनके विषय भोग तथा मोक्षकी सिद्धिके लिये अथवा अपने उपासकोंकी उत्कृष्ट सिद्धिके लिये स्वनिर्मित पञ्चभूतोंके द्वारा नाना प्रकारके देव, मनुष्य आदि शरीरोंकी सृष्टि करते हैं, उसीको माया कहते हैं ॥ 3 ॥ इस प्रकार पञ्चमहाभूतोंके द्वारा बने हुए प्राणिशरीरोंमें उन्होंने अन्तर्यामीरूपसे प्रवेश किया और अपनेको ही पहले एक मनके रूपमें और इसके बाद पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा पाँच कर्मेन्द्रिय- इन दस रूपोंमें विभक्त कर दिया तथा उन्होंके द्वारा विषयोंका भोग कराने लगे ॥ 4 ॥ वह देहाभिमानी जीव अन्तर्यामीके द्वारा प्रकाशित इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका भोग करता है और इस पञ्चभूतोंके द्वारा निर्मित शरीरको आत्मा-अपना स्वरूप मानकर उसीमें आसक्त हो जाता है। (यह भगवान्की माया है ॥ 5 ॥ अब वह कर्मेन्द्रियोंसे सकाम कर्म करता है और उनके अनुसार शुभ कर्मका फल सुख और अशुभ कर्मका फल दुःख भोग करने लगता है और शरीरधारी होकर इस संसारमें भटकने लगता है। यह भगवान्की माया है ॥ 6 ॥ इस प्रकार यह जीव ऐसी अनेक अमङ्गलमय कर्मगतियोंको, उनके फलोंको प्राप्त होता है और महाभूतों के प्रलयपर्यन्त विवश होकर जन्मके बाद मृत्यु और मृत्युके बाद जन्मको प्राप्त होता रहता है—यह भगवान्‌की माया है 7 जब पञ्चभूतोंके प्रलयका समय आता है, तब अनादि और अनन्त काल स्थूल तथा सूक्ष्म द्रव्य एवं गुणरूप इस समस्त व्यक्त सृष्टिको अव्यक्तकी ओर, उसके मूल | कारणकी ओर खींचता है—यह भगवान्‌को माया है ॥ 8 ॥उस समय पृथ्वीपर लगातार सौ वर्षतक भयङ्कर सूखा पड़ता है. वर्ष बिलकुल नहीं होती; प्रलयकालकी शक्ति सूर्यकी उष्णता और भी बढ़ जाती है तथा वे तीनों लोकोंको तपाने लगते हैं—यह भगवान्‌की माया है ॥ 9 ॥ उस समय शेषनाग सङ्कर्षणके मुँहसे आपकी प्रचण्ड लपटें निकलती हैं और वायुकी प्रेरणासे वे लपटें पाताललोकसे जलाना | आरम्भ करती हैं तथा और भी ऊँची-ऊँची होकर चारों ओर फैल जाती हैं – यह भगवान्‌की माया है ॥ 10 ॥ इसके बाद प्रलयकालीन सांवर्तक मेघगण हाथीकी सूँडके समान मोटी-मोटी धाराओंसे सौ वर्षतक बरसता रहता है। उससे यह विराट् ब्रह्माण्ड जलमें डूब जाता है—यह भगवान्की माया है ॥ 11 ॥ राजन् ! उस समय जैसे बिना ईंधनके आग बुझ जाती है, वैसे ही विराट् पुरुष ब्रह्मा अपने ब्रह्माण्ड-शरीरको छोड़कर सूक्ष्मस्वरूप अव्यक्तमें लीन हो जाते हैं—यह भगवान्‌की माया है ॥ 12 ॥ वायु पृथ्वीकी गन्ध खींच लेती है, जिससे वह जलके रूपमें हो जाती है और जब वही वायु जलके रसको खींच लेती है, तब वह जल अपना कारण अग्नि बन जाता है—यह भगवान्की माया | है || 13 || जब अन्धकार अनिका रूप छीन लेता है, तब वह अग्नि वायुमें लीन हो जाती है और जब अवकाशरूप आकाश वायुकी स्पर्श-शक्ति छीन लेता है, तब वह आकाशमें लीन हो जाता है- यह भगवान्‌की माया है ॥ 14 ॥ राजन् ! तदनन्तर कालरूप ईश्वर आकाशके शब्द गुणको हरण कर लेता है जिससे वह तामस अहङ्कारमें लीन हो जाता है। इन्द्रियाँ और बुद्धि राजस अहङ्कारमें लीन होती हैं। मन सात्त्विक अहङ्कारसे उत्पन्न देवताओंके साथ सात्त्विक अहङ्कारमें प्रवेश कर जाता है तथा अपने तीन प्रकारके कार्य के साथ अहङ्कार महत्त्वमें लीन हो जाता है। महत्तत्त्व प्रकृतिमें और प्रकृति ब्रह्ममे लीन होती है। फिर इसीके उलटे क्रमसे सृष्टि होती है। यह भगवान्‌को माया है ॥ 15 ॥ यह सृष्टि, स्थिति और संहार करनेवाली त्रिगुणमयी माया है। इसका हमने आपसे वर्णन किया। अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ll 16 ll

राजा निमिने पूछा- महर्षिजी! इस भगवान्‌की | मायाको पार करना उन लोगोंके लिये तो बहुत ही कठिन है, जो अपने मनको वशमें नहीं कर पाये हैं। अब आप कृपा करके यह बताइये कि जो लोग शरीर आदिमें आत्मबुद्धि रखते हैं तथा जिनकी समझ मोटी है, वे भी अनायास ही इसे कैसे पार कर सकते हैं ? ।। 17 ।।अब चौथे योगीश्वर प्रबुद्धजी बोले- राजन् स्त्री-पुरुष सम्बन्ध आदि बन्धनोंमें वैधे हुए संसारी मनुष्य सुखकी प्राप्ति और दुःखकी निवृत्तिके लिये बड़े-बड़े कर्म करते रहते हैं। जो पुरुष मायाके पार जाना चाहता है, उसको विचार करना चाहिये कि उनके कर्मोंका फल किस प्रकार विपरीत होता जाता है। वे सुखके बदले दुःख पाते हैं और दुःख निवृत्तिके स्थानपर दिनोदिन दुःख बढ़ता ही जाता है ॥ 18 ॥ एक धनको ही लो। इससे दिन-पर-दिन दुःख बढ़ता ही है, इसको पाना भी कठिन है और यदि किसी प्रकार मिल भी जाय तो आत्माके लिये तो यह मृत्युस्वरूप ही है। जो इसकी उलझनोंमें पड़ जाता है, वह अपने आपको भूल जाता है। इसी प्रकार घर, पुत्र, स्वजन सम्बन्धी, पशुधन आदि भी अनित्य और नाशवान् ही है; यदि कोई इन्हें जुटा भी ले तो इनसे क्या सुख-शान्ति मिल सकती है ? ।। 19 इसी प्रकार जो मनुष्य मायासे पार जाना चाहता है, उसे यह भी समझ लेना चाहिये कि मरनेके बाद प्राप्त होनेवाले लोक परलोक भी ऐसे ही नाशवान् हैं। क्योंकि इस लोककी वस्तुओंके समान वे भी कुछ सीमित कर्मोक सीमित फलमात्र हैं। वहाँ भी पृथ्वीके छोटे-छोटे राजाओंके समान बराबरवालोंसे होड़ अथवा लाग-डाँट रहती है, अधिक ऐश्वर्य और सुखवालोंके प्रति छिद्रान्वेषण तथा ईर्ष्या-द्वेषका भाव रहता है, कम सुख और ऐश्वर्यवालोंके प्रति घृणा रहती है एवं कर्मोंका फल पूरा हो जानेपर वहाँसे पतन तो होता ही है। उसका नाश निश्चित है। नाशका भय वहाँ भी नहीं छूट पाता ॥ 20 ॥ इसलिये जो परम कल्याणका जिज्ञासु हो , उसे गुरुदेवकी शरण लेनी चाहिये। गुरुदेव ऐसे हों, जो शब्दब्रह्म वेदोंके पारदर्शी विद्वान् हो, जिससे वे ठीक-ठीक समझा सकें; और साथ ही परब्रह्ममें परिनिष्ठित तत्त्वज्ञानी भी हों, ताकि अपने अनुभवके द्वारा प्राप्त हुई रहस्यकी बातोंको बता सके। उनका चित्त शान्त हो, व्यवहारके प्रपञ्चमें विशेष प्रवृत्त न हो ॥ 21 ॥ जिज्ञासुको चाहिये कि गुरुको ही अपना परम प्रियतम आत्मा और इष्टदेव माने। उनकी निष्कपटभावसे सेवा करे और उनके पास रहकर भागवतधर्मकी- भगवान्‌को प्राप्त करानेवाले भक्तिभावके साधनोंकी क्रियात्मक शिक्षा ग्रहण करे। इन्हीं साधनोंसे सर्वात्मा एवं भक्तको अपने आत्माका दान करनेवाले भगवान् प्रसन्न होते हैं ॥ 22 ॥ पहले शरीर, सन्तान आदिमें मनकी अनासक्ति सीखे। फिर भगवान्के भक्तोंसे प्रेम कैसा करना चाहिये यह सीखे। इसके पश्चात् प्राणियों के प्रति यथायोग्य दया, मैत्री और विनयकी निष्कपट भावसे शिक्षा ग्रहण करे ॥ 23 ॥ मिट्टी, जल आदिसे बाह्य शरीरकी पवित्रता, छल-कपट आदिके त्यागसे भीतरकी पवित्रता, अपने धर्मका अनुष्ठान, सहनशक्ति, मौन,स्वाध्याय, सरलता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा तथा शीत-उष्ण, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंमें हर्ष-विषादसे रहित होना सीखे ॥ 24 ॥ सर्वत्र अर्थात् समस्त देश, काल और वस्तुओंमें चेतनरूपसे आत्मा और नियन्तारूपसे ईश्वरको देखना, एकान्तसेवन, ‘यही मेरा घर है-ऐसा भाव न रखना, गृहस्थ हो तो पवित्र वस्त्र पहनना और त्यागी हो तो फटे-पुराने पवित्र चिथड़े, जो कुछ प्रारब्धके अनुसार मिल जाय, उसीमें सन्तोष करना सीखे ॥ 25 ॥ भगवान‌की प्राप्तिका मार्ग बतलानेवाले शास्त्रोंमें श्रद्धा और दूसरे किसी भी शास्त्रकी निन्दा न करना, प्राणायामके द्वारा मनका, मौनके द्वारा वाणीका और वासनाहीनताके अभ्याससे कमका संयम करना, सत्य बोलना, इन्द्रियोंको अपने अपने गोलकोंमें स्थिर रखना और मनको कहीं बाहर न जाने देना सीखे ॥ 26 ॥ राजन् । भगवान्‌की लीलाएँ अद्भुत हैं। उनके जन्म, कर्म और गुण दिव्य है। उन्होंका श्रवण, कीर्तन और ध्यान करना तथा शरीरसे जितनी भी चेष्टाएँ हों, सब भगवान् के लिये करना सीखे ॥ 27 ॥ यज्ञ, दान, तप अथवा जप, सदाचारका पालन और स्त्री, पुत्र, घर, अपना जीवन, प्राण तथा जो कुछ अपनेको प्रिय लगता हो सब का सब भगवान्के चरणोंमें निवेदन करना उन्हें सौंप देना सीखे ॥ 28 ॥ जिन संत पुरुषोंने सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णका अपने आत्मा और स्वामी के रूपमें साक्षात्कार कर लिया हो, उनसे प्रेम और स्थावर, जङ्गम दोनों प्रकारके प्राणियोंकी सेवा; विशेष करके मनुष्योंकी, मनुष्यों में भी परोपकारी सज्जनोंकी और उनमें भी भगवत्प्रेमी संतोंकी करना सीखे ॥ 29 ॥ भगवान्‌के परम पावन यशके सम्बन्धमें ही एक-दूसरेसे बातचीत करना और इस प्रकारके साधकोंका इकट्ठे होकर आपसमें प्रेम करना, आपसमें सन्तुष्ट रहना और प्रपञ्चसे निवृत्त होकर आपसमें ही आध्यात्मिक शान्तिका अनुभव करना सीखे ॥ 30 ॥ राजन् ! श्रीकृष्ण राशि राशि पापोंको एक क्षण भस्म कर देते हैं। सब उन्हींका स्मरण करें और एक-दूसरेको स्मरण करावें। इस प्रकार साधन-भक्तिका अनुष्ठान करते-करते प्रेम-भक्तिका उदय हो जाता है और वे प्रेमाद्रेकसे पुलकित शरीर धारण करते हैं ।। 31 । उनके हृदयकी बड़ी विलक्षण स्थिति होती है। कभी-कभी वे इस प्रकार चिन्ता करने लगते हैं कि अबतक भगवान् नहीं मिले, क्या करूँ, कहाँ जाऊं, किसे पूछें कौन मुझे उनको प्राप्ति करावे ? इस तरह सोचते-सोचते वे रोने लगते हैं तो कभी भगवान‌की लीलाकी स्फूर्ति हो जानेसे ऐसा देखकर कि परमैश्वर्यशाली भगवान् गोपियोंके डरसे छिपे हुए हैं.खिलखिलाकर हँसने लगते हैं। कभी-कभी उनके प्रेम और दर्शनकी अनुभूति से आनन्दमय हो जाते हैं तो कभी लोकातीत भावमें स्थित होकर भगवान् के साथ बातचीत करने लगते हैं कभी मानो उन्हें सुना रहे हों, इस प्रकार उनके गुणोंका गान छेड़ देते हैं और कभी नाच-नाचकर उन्हें रिझाने लगते हैं। कभी-कभी उन्हें अपने पास न पाकर इधर उधर ढूँढ़ने लगते हैं तो कभी-कभी उनसे एक होकर, उनकी सन्निधिमें स्थित होकर परम शान्तिका अनुभव करते और चुप हो जाते हैं ॥ 32 ॥ राजन् ! जो इस प्रकार भागवतधर्मोकी शिक्षा ग्रहण करता है, उसे उनके द्वारा प्रेम-भक्तिकी प्राप्ति हो जाती है और वह भगवान् नारायणके परायण होकर उस मायाको अनायास ही पार कर जाता है, जिसके पंजेसे निकलना बहुत ही कठिन है ॥ 33 ॥

राजा निमिने पूछा- महर्षियो आपलोग परमात्माका वास्तविक स्वरूप जाननेवालोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। इसलिये मुझे यह बतलाइये कि जिस परब्रह्म परमात्माका ‘नारायण’ नामसे वर्णन किया जाता है, उनका स्वरूप क्या है ? ।। 34 ।।

अब पाँचवें योगीश्वर पिप्पलायनजीने कहा राजन् जो इस संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयका निमित्त कारण और उपादान कारण दोनों ही है, बननेवाला भी है और बनानेवाला भी – परन्तु स्वयं कारणरहित है; जो स्वप्र जाग्रत् और सुषुप्ति अवस्थाओंमें उनके साक्षीके रूपमें विद्यमान रहता है और उनके अतिरिक्त समाधिमें भी ज्यों का-त्यों एकरस रहता है; जिसकी सत्तासे ही सत्तावान् होकर शरीर, इन्द्रिय, प्राण और अन्तःकरण अपना-अपना काम करनेमें समर्थ होते हैं, उसी परम सत्य वस्तुको आप ‘नारायण’ समझिये ।। 35 ।। जैसे चिनगारियाँ न तो अग्निको प्रकाशित ही कर सकती हैं और न जला ही सकती हैं, वैसे ही उस परमतत्त्वमें आत्मस्वरूपमें न तो मनकी गति है और न वाणीकी, नेत्र उसे देख नहीं सकते और बुद्धि सोच नहीं सकती, प्राण और इन्द्रियाँ तो उसके पासतक नहीं फटक पार्ती। ‘नेति नेति’ – इत्यादि श्रुतियोंके शब्द भी वह यह है— इस रूपमें उसका वर्णन नहीं करते, बल्कि उसको बोध करानेवाले जितने भी साधन हैं, उनका निषेध करके तात्पर्यरूपसे अपना मूल-निषेधका मूल लक्षित करा देते हैं; क्योंकि यदि निषेधके आधारकी, आत्माकी सत्ता न हो तो निषेध कौन कर रहा है, निषेधकी वृत्ति किसमें है— इन प्रश्नोंका कोई उत्तर ही न रहे, निषेधकी ही सिद्धि न हो || 36 || जब सृष्टि नहीं थी, तब केवल एक वही था। सृष्टिका निरूपण करनेके लिये उसीको त्रिगुण (सत्त्व-रज-तम) मयी प्रकृति कहकर वर्णन किया गया। फिर उसीको ज्ञानप्रधान होनेसे महत्तत्त्व, क्रियाप्रधान होनेसेसूत्रात्मा और जीवकी उपाधि होनेसे अहङ्कारके रूपमें वर्णन किया गया। वास्तवमें जितनी भी शक्तियाँ हैं— चाहे वे इन्द्रियोंके अधिष्ठातृदेवताओंके रूपमें हों, चाहे इन्द्रियोंके, उनके विषयोंके अथवा विषयोंके प्रकाशके रूपमें हों सब का सब वह ब्रह्म ही है; क्योंकि ब्रह्मकी शक्ति अनन्त है। कहाँतक कहूँ ? जो कुछ दृश्य-अदृश्य, कार्य-कारण, सत्य और असत्य है सब कुछ ब्रह्म है। इनसे परे जो कुछ है है, वह भी ब्रह्म ही है ॥ 37 ॥ वह ब्रह्मस्वरूप आत्मा न तो कभी जन्म लेता है और न मरता है। वह न तो बढ़ता है और न घटता ही है। जितने भी परिवर्तनशील पदार्थ है— चाहे वे क्रिया, सङ्कल्प और उनके अभाव के रूपमें ही क्यों न हों सबकी भूत, भविष्यत् और वर्तमान सत्ताका वह साक्षी हैं। सबमें है। देश, काल और वस्तुसे अपरिच्छिन है, अविनाशी है वह उपलब्धि करनेवाला अथवा उपलब्धिका विषय नहीं है। केवल उपलब्धिस्वरूप- ज्ञानस्वरूप है। जैसे प्राण तो एक ही रहता है, परन्तु स्थानभेदसे उसके अनेक नाम हो जाते हैं—वैसे ही ज्ञान एक होनेपर भी इन्द्रियोंके सहयोगसे उसमें अनेकताकी कल्पना हो जाती है 38 जगत्में चार प्रकारके जीव होते हैं— अंडा फोड़कर पैदा होनेवाले पक्षी साँप आदि, नालमें बँधे पैदा होनेवाले पशु-मनुष्य, धरती | फोड़कर निकलनेवाले वृक्ष-वनस्पति और पसीनेसे उत्पन्न होनेवाले खटमल आदि। इन सभी जीव शरीरोंमें प्राणशक्ति जीवके पीछे लगी रहती है। शरीरोंके भिन्न-भिन्न होनेपर भी प्राण एक ही रहता है। सुषुप्ति अवस्थामें जब इन्द्रियाँ निश्चेष्ट हो जाती हैं, अहङ्कार भी सो जाता है— लीन हो जाता है, अर्थात् लिङ्गशरीर नहीं रहता, उस समय यदि कूटस्थ आत्मा भी न हो तो इस बातकी पीछेसे स्मृति ही कैसे हो कि मैं सुखसे सोया था । पीछे होनेवाली यह स्मृति ही उस समय आत्माके अस्तित्वको प्रमाणित करती है 39 जब भगवान् कमलनाभके चरणकमलोंको प्राप्त करनेकी इच्छासे तीव्र भक्ति की जाती है तब वह भक्ति ही अफ्रिकी भाँति गुण और कर्मोंसे उत्पन्न हुए चित्तके सारे मलोंको जला डालती है। जब चित्त शुद्ध हो जाता है, तब आत्मतत्त्वका साक्षात्कार हो जाता है— जैसे नेत्रोंके निर्विकार हो जानेपर सूर्यके प्रकाशकी प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगती है 40 ॥

राजा निमिने पूछा- योगीश्वरो ! अब आपलोग हमें | कर्मयोगका उपदेश कीजिये, जिसके द्वारा शुद्ध होकर मनुष्य शीघ्रातिशीघ्र परम नैष्कर्म्य अर्थात् कर्तुत्व, कर्म और कर्मफलकी निवृत्ति करनेवाला ज्ञान प्राप्त करता है ।। 49 ।।एक बार यही प्रश्न मैने अपने पिता महाराज इक्ष्वाकुके सामने ब्रह्माजीके मानस पुत्र सनकादि ऋषियोंसे पूछा था, परन्तु उन्होंने सर्वज्ञ होनेपर भी मेरे प्रश्नका उत्तर न दिया। इसका क्या कारण था ? कृपा करके मुझे बतलाइये ॥ 42 ॥

अब छठे योगीश्वर आविहोंजीने कहा राजन्! कर्म (शास्त्रविहित ), अकर्म ( निषिद्ध) और विकर्म (विहितका उल्लङ्घन) – ये तीनों एकमात्र वेदके द्वारा जाने जाते हैं, इनकी व्यवस्था लौकिक रीतिसे नहीं होती। वेद अपौरुषेय हैं— ईश्वररूप हैं; इसलिये उनके तात्पर्यका निश्चय करना बहुत कठिन है। इसीसे बड़े-बड़े विद्वान् भी उनके अभिप्रायका निर्णय करनेमें भूल कर बैठते हैं। (इसीसे तुम्हारे बचपनकी ओर देखकर – तुम्हें अनधिकारी समझकर सनकादि ऋषियोंने तुम्हारे प्रथका उत्तर नहीं दिया) ।। 43 ।। यह वेद परोक्षवादात्मक * है। यह कर्मोंकी निवृत्तिके लिये कर्मका विधान करता है, जैसे बालकको मिठाई आदिका लालच देकर औषध खिलाते हैं, वैसे ही यह अनभिज्ञोंको स्वर्ग आदिका प्रलोभन देकर श्रेष्ठ कर्ममें प्रवृत्त करता है ।। 44 ।। जिसका अज्ञान निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं है, वह यदि मनमाने ढंगसे वेदोक्त कमौका परित्याग कर देता है, तो वह विहित कर्मोंका आचरण न करनेके कारण विकर्मरूप अधर्म ही करता है। इसलिये वह मृत्युके बाद फिर मृत्युको प्राप्त होता है ।। 45 ।। इसलिये फलकी अभिलाषा छोड़कर और विश्वात्मा भगवान्‌को समर्पित कर जो वेदोक्त कर्मका ही अनुष्ठान करता है, उसे कमकी निवृत्तिसे प्राप्त होनेवाली ज्ञानरूप सिद्धि मिल जाती है जो वेदोंमें स्वर्गादिरूप फलका वर्णन है, उसका तात्पर्य फलकी सत्यतामें नहीं है, वह तो कर्मोंमें रुचि उत्पन्न करानेके लिये है ।। 46 ।।

राजन् ! जो पुरुष चाहता है कि शीघ्र से शीघ्र मेरे ब्रह्मस्वरूप आत्माकी हृदय ग्रन्थि- मैं और मेरेकी कल्पित गाँठ खुल जाय, उसे चाहिये कि वह वैदिक और तान्त्रिक दोनों ही पद्धतियोंसे भगवान्‌की आराधना करे ।। 47 ।। पहले सेवा आदिके द्वारा गुरुदेवकी दीक्षा प्राप्त करे, फिर उनके द्वारा अनुष्ठानकी विधि सीखे; अपनेको भगवान्की जो मूर्ति प्रिय लगे, अभीष्ट जान पड़े, उसीके द्वारा पुरुषोत्तम भगवान्‌की पूजा करे ।। 48 ।।पहले स्नानादिसे शरीर और सन्तोष आदिसे अन्तःकरणको शुद्ध करे, इसके बाद भगवान्‌की मूर्तिके सामने बैठकर प्राणायाम आदिके द्वारा भूतशुद्धि- नाडी शोधन करे, तत्पश्चात् विधिपूर्वक मन्त्र, देवता आदिके न्याससे अङ्गरक्षा करके भगवान्‌की पूजा करे ॥ 49 ॥ पहले पुष्प आदि पदार्थोंका जन्तु आदि निकालकर, पृथ्वीको सम्मार्जन आदिसे, अपनेको अव्यग्र होकर और | भगवान्‌की मूर्तिको पहलेहीकी पूजाके लगे क्षालन आदिसे पूजाके योग्य बनाकर फिर आसनपर मन्त्रोच्चारणपूर्वक जल छिड़ककर पाद्य, अर्घ्य आदि पात्रोंको स्थापित करे। तदनन्तर एकाग्रचित्त होकर हृदयमें भगवान्‌का ध्यान करके फिर उसे सामनेकी श्रीमूर्तिमें चिन्तन करे तदनन्तर हृदय, सिर, शिखा (हृदयाय नमः, शिरसे स्वाहा ) इत्यादि मन्त्रोंसे न्यास करे और अपने इष्टदेवके मूलमन्त्रके द्वारा देश, काल आदिके अनुकूल प्राप्त पूजा सामग्रीसे प्रतिमा आदिमें अथवा हृदयमें भगवान् की पूजा करे ।। 50-51 ॥ अपने-अपने उपास्य | देवके विग्रहकी हृदयादि अङ्ग, आयुधादि उपाङ्ग और पार्षदोंसहित उसके मूलमन्त्रद्वारा पाद्य, अर्घ्य, आचमन, मधुपर्क, स्नान, वस्त्र, आभूषण, गन्ध, पुष्प, दधि अक्षतके * तिलक, माला, धूप, दीप और नैवेद्य आदि विधिवत् पूजा करे तथा फिर स्तोत्रोंद्वारा स्तुति करके सपरिवार भगवान् श्रीहरिको नमस्कार करे ।। 52-53 ।। अपने-आपको भगवन्मय ध्यान करते हुए ही भगवान्की मूर्तिका पूजन करना चाहिये। निर्माल्यको अपने सिरपर रखे और आदरके साथ भगवद्विग्रहको यथास्थान स्थापित कर पूजा समाप्त करनी चाहिये ॥ 54 ॥ इस प्रकार जो पुरुष अग्नि, सूर्य, जल, अतिथि और अपने हृदयमें आत्मरूप श्रीहरिकी पूजा करता है, वह शीघ्र ही मुक्त हो जाता है ।। 55 ।।

अध्याय 4 भगवान् के अवतारोंका वर्णन

श्रीसूतजी कहते हैं-सृष्टिके आदिमें भगवान्ने लोकोंके निर्माणकी इच्छा की। इच्छा होते ही उन्होंने महत्तत्त्व आदिसे निष्पन्त्र पुरुषरूप ग्रहण किया। उसमें दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच भूत- ये सोलह कलाएँ थीं ॥ 1 ॥ उन्होंने कारण जलमें शयन करते हुए जब योगनिद्राका विस्तार किया, तब उनके नाभि-सरोवरमेंसे एक कमल प्रकट हुआ और उस कमलसे प्रजापतियोंके अधिपति ब्रह्माजी उत्पन्न हुए ॥ 2 ॥ भगवान्‌के उस विराट्रूपके अङ्ग-प्रत्यङ्गमें ही समस्त लोकोंकी कल्पना की गयी है, वह भगवान्‌का विशुद्ध सत्त्वमय श्रेष्ठ रूप है ॥ 3 ॥ योगीलोग दिव्यदृष्टिसे भगवान्‌के उस रूपका दर्शन करते हैं। भगवान्‌का वह रूप हजारों पैर, जाँघें, भुजाएँ और मुखोंके कारण अत्यन्त विलक्षण हैं; उसमें सहस्रों सिर, हजारों कान, हजारों आँखें और हजारों नासिकाएँ हैं हजारों मुकुट, वस्त्र और कुण्डल आदि आभूषणोंसे वह उल्लसित रहता है ॥ 4 ॥ भगवान्‌का यही पुरुषरूप जिसे नारायण कहते हैं, अनेक अवतारोंका अक्षय कोष है— इसीसे सारे अवतार प्रकट होते है। इस रूपके छोटे-से-छोटे अंशसे देवता, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियोंकी सृष्टि होती है ॥ 5 ॥उन्हीं प्रभुने पहले कौमारसर्गमे सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार- इन चार ब्राह्मणोंके रूपमें अवतार ग्रहण करके अत्यन्त कठिन अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन किया ॥ 6 ॥ दूसरी बार इस संसारके कल्याणके लिये समस्त यज्ञोंके स्वामी उन भगवान्ने हो रसातलमें गयी हुई पृथ्वीको निकाल लाने के विचारसे सूकररूप ग्रहण किया ॥ 7 ॥ ऋषियोंकी सृष्टिमें उन्होंने देवर्षि नारदके रूपमें तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वत तन्त्रका (जिसे ‘नारद-पाञ्चरात्र’ कहते हैं) उपदेश किया; उसमें कर्मोंक द्वारा किस प्रकार कर्मबन्धनसे मुक्ति मिलती है, इसका वर्णन है ॥ 8 ॥ धर्मपत्नी मूर्तिके गर्भ से उन्होंने नर-नारायणके रूपमें चौथा अवतार ग्रहण किया। इस अवतारमें उन्होंने ऋषि बनकर मन और इन्द्रियोंका सर्वथा संयम करके बड़ी कठिन तपस्या की ॥ 9 ॥ पांचवे अवतारमें वे सिद्धोंक स्वामी कपिलके रूपमें प्रकट हुए और तत्त्वोंका निर्णय करनेवाले सांख्य-शास्त्रका, जो समयके फेरसे लुप्त हो गया था, आसुरि नामक ब्राह्मणको उपदेश किया ॥ 10 ॥ अनसूयाके वर माँगनेपर छठे अवतारमें वे अत्रिकी सन्तान – दत्तात्रेय हुए। इस अवतारमें उन्होंने अलर्क एवं प्रह्लाद आदिको ब्रह्मज्ञानका उपदेश किया ॥ 11 ॥ सातवीं बार रुचि प्रजापतिकी आकृति नामक पत्नीसे यज्ञके रूपमें उन्होंने अवतार ग्रहण किया और अपने पुत्र याम आदि देवताओंके साथ स्वायम्भुव मन्वन्तरकी रक्षा की ॥ 12 ॥ राजा नाभिकी पत्नी मेरु देवीके गर्भसे ऋषभदेवके रूपमें भगवान्ने आठवाँ अवतार ग्रहण किया। इस रूपमें उन्होंने परमहंसोका वह मार्ग, जो सभी आश्रमियोंके लिये वन्दनीय है, दिखाया ॥ 13 ॥ ऋषियोंकी प्रार्थनासे नवीं बार वे राजा पृथुके रूपमें अवतीर्ण हुए। शौनकादि ऋषियो ! इस अवतार में उन्होंने पृथ्वीसे समस्त ओषधियोंका दोहन किया था, इससे यह अवतार सबके लिये बड़ा ही कल्याणकारी हुआ ।। 14 । चाक्षुष मन्वन्तरके अन्तमें जब सारी त्रिलोकी समुद्रमें डूब रही थी, तब उन्होंने मत्स्यके रूपमें दसवाँ अवतार ग्रहण किया और पृथ्वीरूपी नौकापर बैठाकर अगले मन्वन्तरके अधिपति वैवस्वत मनुको रक्षा की ।। 15 ।। जिस समय देवता और दैत्य समुद्र मन्थन कर रहे थे, उस समय ग्यारहवाँ अवतार धारण करके कच्छपरूपसे भगवान्ने मन्दराचलको अपनी पीठपर धारण किया ।। 16 ।। बारहवीं बार धन्वन्तरिके रूपमें अमृत लेकर समुद्रसे प्रकट हुए. और तेरहवीं बार मोहिनीरूप धारण करके दैत्योंको मोहित करते हुए देवताओंको अमृत पिलाया ॥ 17 ॥ चौदहवे अवतारमे उन्होंने नरसिंहरूप धारण किया और अत्यन्त चलवा दैत्यराज हिरण्यकशिपुकी छाती अपने नखोसे अनायास इस प्रकार फाइ | डाली, जैसे चटाई बनानेवाला सीकको चीर डालता है ।। 18 ।।पंद्रहवीं बार वामनका रूप धारण करके भगवान् दैत्यराज बलिके यज्ञमें गये। वे चाहते तो थे त्रिलोकीका राज्य, परन्तु | माँगी उन्होंने केवल तीन पग पृथ्वी ॥ 19 ॥ सोलहवें परशुराम अवतारमें जब उन्होंने देखा कि राजालोग ब्राह्मणोंके द्रोही हो गये हैं, तब क्रोधित होकर उन्होंने पृथ्वीको इक्कीस बार क्षत्रियोंसे शून्य कर दिया ॥ 20 ॥ इसके बाद सत्रहवें अवतारमें सत्यवतीके गर्भसे पराशरजीके द्वारा वे व्यासके रूपमें अवतीर्ण हुए, उस समय लोगोंकी समझ और | धारणाशक्ति कम देखकर आपने वेदरूप वृक्षकी कई शाखाएँ बना दीं ॥ 21 ॥ अठारहवीं बार देवताओंका कार्य सम्पन्न करनेकी इच्छासे उन्होंने राजाके रूपमें रामावतार ग्रहण किया और सेतु बन्धन, रावणवध आदि वीरतापूर्ण बहुत-सी लीलाएँ कीं ॥ 22 ॥ उन्नीसवें और बीसवें अवतारोंमें उन्होंने यदुवंशमें बलराम और श्रीकृष्णके नामसे प्रकट होकर पृथ्वीका भार उतारा ॥ 23 ॥ उसके बाद कलियुग आ जानेपर मगधदेश (बिहार) में देवताओंके द्वेषी दैत्योंको मोहित करनेके लिये अजनके पुत्ररूपमें आपका बुद्धावतार होगा ॥ 24 ॥ इसके भी बहुत पीछे जब कलियुगका अन्त समीप होगा और राजालोग प्रायः लुटेरे हो जायँगे, तब जगत्के रक्षक भगवान् विष्णुयश नामक ब्राह्मणके घर कल्किरूपमें अवतीर्ण होंगे * ॥ 25 ॥

शौनकादि ऋषियो! जैसे अगाध सरोवरसे हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते हैं, वैसे ही सत्त्वनिधि भगवान् श्रीहरिके असंख्य अवतार हुआ करते हैं ॥ 26 ॥ ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी महान् शक्तिशाली हैं, वे सब-के-सब भगवान् के ही अंश है॥ 27 ॥ ये सब | अवतार तो भगवान्‌के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परंतु भगवान् श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान् (अवतारी) ही हैं। जब लोग दैत्योंके अत्याचारसे व्याकुल हो उठते हैं, तब युग युगमें अनेक रूप धारण करके भगवान् उनकी रक्षा करते हैं ॥ 28 ॥ भगवान्‌के दिव्य जन्मोंकी यह कथा अत्यन्तगोपनीय – रहस्यमयी है; जो मनुष्य एकाग्रचित्तसे नियमपूर्वक | सायङ्काल और प्रातःकाल प्रेमसे इसका पाठ करता है, वह सब दुःखोंसे छूट जाता है ॥ 29 ॥

प्राकृत स्वरूपरहित चिन्मय भगवान्का जो यह स्थूल जगदाकार रूप है, यह उनकी मायाके महत्तत्त्वादि गुणोंसे भगवान्में ही कल्पित है ।। 30 ।। जैसे बादल वायुके आश्रय रहते हैं और धूसरपना धूलमें होता है, परन्तु अल्पबुद्धि मनुष्य बादलोंका आकाशमें और धूसरपनेका वायुमें आरोप करते हैं—वैसे ही अविवेकी पुरुष सबके साक्षी आत्मामें स्थूल दृश्यरूप जगत्का आरोप करते हैं॥ 31 ॥ इस स्थूलरूपसे परे भगवान्का एक सूक्ष्म अव्यक्त रूप है—जो न तो स्थूलकी तरह | आकारादि गुणोंवाला है और न देखने, सुननेमें ही आ सकता है; वही सूक्ष्मशरीर है। आत्माका आरोप या प्रवेश होनेसे यही जीव कहलाता है और इसीका बार-बार जन्म होता है ॥ 32 ॥ उपर्युक्त सूक्ष्म और स्थूल शरीर अविद्यासे ही आत्मामें आरोपित हैं। जिस अवस्थामें आत्मस्वरूपके ज्ञानसे यह आरोप दूर हो जाता है, उसी समय ब्रह्मका साक्षात्कार होता है ॥ 33 ॥ तत्त्वज्ञानी लोग जानते हैं कि जिस समय यह बुद्धिरूपा परमेश्वरकी माया निवृत्त हो जाती है, उस समय जीव परमानन्दमय हो जाता है और अपनी स्वरूप-महिमामें प्रतिष्ठित होता है ।। 34 । वास्तवमें जिनके जन्म नहीं हैं और कर्म भी नहीं हैं, उन हृदयेश्वर भगवान्के अप्राकृत जन्म और कर्मोंका तत्त्वज्ञानी लोग इसी प्रकार वर्णन करते हैं, क्योंकि उनके जन्म और कर्म वेदोंके अत्यन्त गोपनीय रहस्य ॥ 35 ॥

भगवान की लीला अमोघ है। वे लीलासे ही इस संसारका सृजन, पालन और संहार करते हैं, किंतु इसमें आसक्त नहीं होते। प्राणियोंके अन्तःकरणमें छिपे रहकर ज्ञानेन्द्रिय और मनके नियन्ताके रूपमें उनके विषयोंको ग्रहण भी करते हैं, परंतु उनसे अलग रहते हैं, वे परम स्वतन्त्र हैं—ये विषय कभी उन्हें लिप्त नहीं कर सकते ॥ 36 ॥ जैसे अनजान मनुष्य जादूगर अथवा नटके संकल्प और वचनोंसे की हुई करामातको नहीं समझ पाता, वैसे ही अपने संकल्प और वेदवाणीके द्वारा भगवान्‌के प्रकट किये हुए इन नाना नाम और रूपोंको तथा उनकी लीलाओंको कुबुद्धि जीव बहुत-सी तर्क- युक्तियोंके द्वारा नहीं पहचान सकता ॥ 37 ॥ चक्रपाणि भगवान्की शक्ति और पराक्रम अनन्त है— उनकी कोई थाह नहीं पा सकता। वे सारे जगत्के निर्माता होनेपर भी उससे सर्वथा हैं। उनके स्वरूपको अथवा उनकी लीलाके रहस्यको वही जान सकता है, नित्य-निरन्तर निष्कपट भावसे उनके चरणकमलोंकी दिव्य गन्धका सेवन करता है—सेवाभावसे उनके चरणोंका चिन्तन करता रहता है ॥ 38 ॥ शौनकादि ऋषियो ! आपलोग बड़े ही सौभाग्यशाली तथा धन्य है जो इस जीवनमें औरविघ्न-बाधाओंसे भरे इस संसारमें समस्त लोकोंके स्वामी भगवान् श्रीकृष्णसे वह सर्वात्मक आत्मभाव, वह अनिर्वचनीय अनन्य प्रेम करते हैं, जिससे फिर इस जन्म-मरणरूप संसारके भयंकर चक्रमें नहीं पड़ना होता ॥ 39 ॥

भगवान् वेदव्यासने यह वेदोंके समान भगवच्चरित्रसे | परिपूर्ण भागवत नामका पुराण बनाया है ॥ 40 ॥ उन्होंने इस श्लाघनीय, कल्याणकारी और महान् पुराणको लोगोंके परम कल्याणके लिये अपने आत्मज्ञानिशिरोमणि पुत्रको ग्रहण कराया ॥ 41 ॥ इसमें सारे वेद और इतिहासोंका सार-सार संग्रह किया गया है। शुकदेवजीने राजा परीक्षित्को यह | सुनाया ॥ 42 ॥ उस समय वे परमर्षियोंसे घिरे हुए आमरण अनशनका व्रत लेकर गङ्गातटपर बैठे हुए थे। भगवान् श्रीकृष्ण जब धर्म, ज्ञान आदिके साथ अपने परमधामको पधार गये, तब इस कलियुगमें जो लोग अज्ञानरूपी अन्धकारसे अंधे हो रहे हैं, उनके लिये यह पुराणरूपी सूर्य इस समय प्रकट हुआ है। शौनकादि ऋषियो ! जब महातेजस्वी श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ इस पुराणकी कथा कह रहे थे, तब मैं भी वहाँ बैठा था वहीं मैंने उनकी कृपापूर्ण अनुमतिसे इसका अध्ययन किया। मेरा जैसा अध्ययन है और मेरी बुद्धिने जितना जिस प्रकार इसको ग्रहण किया है, उसीके अनुसार इसे मैं आपलोगोंको सुनाऊँगा 43-45 ।।

अध्याय 5 भक्तिहीन पुरुषोंकी गति और भगवान्‌की पूजाविधि

राजा निमिने पूछा- योगीश्वरो ! आपलोग तो श्रेष्ठ आत्मज्ञानी और भगवान् के परमभक्त हैं। कृपा करके यह बतलाइये कि जिनकी कामनाएँ शान्त नहीं हुई हैं, लौकिक पारलौकिक भोगोंकी लालसा मिटी नहीं है और मन एवं इन्द्रियाँ भी वशमें नहीं है तथा जो प्रायः भगवान्का भजन भी नहीं करते, ऐसे लोगोंकी क्या गति होती है ? ॥ 1 ॥

अब आठवें योगीश्वर चमसजीने कहा- राजन् ! विराट् पुरुषके मुखसे सत्त्वप्रधान ब्राह्मण, भुजाओंसे सत्त्व रजप्रधान क्षत्रिय, जाँघोंसे रज-तमप्रधान वैश्य और चरणोंसे तमः प्रधान शूद्रकी उत्पत्ति हुई है। उन्हींकी जाँघोंसे गृहस्थाश्रम, हृदयसे ब्रह्मचर्य, वक्षःस्थलसे वानप्रस्थ और मस्तक से संन्यास – ये चार आश्रम प्रकट हुए हैं। इन चारों वर्णों और आश्रमोंके जन्मदाता स्वयं भगवान् ही हैं। वही इनके स्वामी, नियन्ता और आत्मा भी हैं। इसलिये इन वर्ण और आश्रममें रहनेवाला जो मनुष्य भगवान्‌का भजन नहीं करता, बल्कि उलटा उनका अनादर करता है, वह अपने स्थान, वर्ण, आश्रम और मनुष्य योनिसे भी च्युत हो जाता है; उसका अधःपतन हो जाता है 2-3 ॥ बहुत-सी खियाँ और शूद्र आदि भगवान्की कथा और उनके नामकीर्तन आदिसे कुछ दूर पड़ गये हैं। वे आप जैसे भगवद्भक्तोंकी दयाके पात्र हैं। आपलोग उन्हें कथा-कीर्तनकी सुविधा देकर उनका उद्धार करें 4 ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जन्मसे, वेदाध्ययनसे तथा यज्ञोपवीत आदि संस्कारोंसे भगवान्‌के चरणोंके निकटतक पहुँच चुके हैं। फिर भी वे वेदोंका असली तात्पर्य न समझकर अर्थवादमें लगकर मोहित हो जाते हैं 5 उन्हें कर्मका रहस्य मालूम नहीं है। मूर्ख होनेपर भी वे अपनेको पण्डित मानते हैं और अभिमानमें अकड़े रहते हैं। वे मीठी-मीठी बातोंमें भूल जाते हैं और केवल वस्तु शून्य शब्द- माधुरीके मोहमे पड़कर चटकीली भड़कीली बातें कहा करते हैं ॥ 6 ॥ रजोगुणको अधिकता के कारण उनके सङ्कल्प बड़े घोर होते हैं। कामनाओंकी तो सीमा ही नहीं रहती, उनका क्रोध भी ऐसा होता है जैसे साँपका, बनावट और घमंडसे उन्हें प्रेम होता है। वे पापी । लोग भगवान्के प्यारे भक्तोंकी हँसी उड़ाया करते हैं॥ 7 ॥वे मूर्ख बड़े-बूढ़ोंकी नहीं, स्त्रियोंकी उपासना करते हैं। यही नहीं, वे परस्पर इकट्ठे होकर उस घर-गृहस्थीके सम्बन्धमें ही बड़े-बड़े मनसूबे बाँधते हैं, जहाँका सबसे बड़ा सुख स्त्री सहवासमें ही सीमित है। वे यदि कभी यज्ञ भी करते हैं तो अन्न-दान नहीं करते, विधिका उल्लङ्घन करते और दक्षिणातक नहीं देते। वे कर्मका रहस्य न जाननेवाले मूर्ख केवल अपनी जीभको सन्तुष्ट करने और पेटकी भूख मिटाने- शरीरको पुष्ट करनेके लिये बेचारे पशुओंकी हत्या करते हैं ॥ 8 ॥ धन-वैभव, कुलीनता, विद्या, दान, सौन्दर्य, बल और कर्म आदिके घमंडसे अंधे हो जाते हैं तथा वे दुष्ट उन भगवत्प्रेमी संतों तथा ईश्वरका भी अपमान करते रहते हैं ॥ 9 ॥ राजन् ! वेदोंने इस बातको बार-बार दुहराया है कि भगवान् आकाशके समान नित्य-निरन्तर समस्त शरीर धारियोंमें स्थित हैं। वे ही अपने आत्मा और प्रियतम हैं। परन्तु वे मूर्ख इस वेदवाणीको तो सुनते ही नहीं और केवल बड़े-बड़े मनोरथोंकी बात आपसमें कहते-सुनते रहते हैं ॥ 10 ॥ (वेद विधिके रूपमें ऐसे ही कर्मेकि करनेकी आज्ञा देता है कि जिनमें मनुष्यकी स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं होती।) संसारमें देखा जाता है कि मैथुन, मांस और मद्यकी ओर प्राणीकी स्वाभाविक प्रवृति हो जाती है। तब उसे उसमें प्रवृत्त करनेके लिये विधान तो हो ही नहीं सकता। ऐसी स्थितिमें विवाह, यज्ञ और सौत्रामणि यज्ञके द्वारा ही जो उनके सेवनकी व्यवस्था दी गयी है, उसका अर्थ है लोगोंकी उच्छृङ्खल प्रवृत्तिका नियन्त्रण, उनका मर्यादामें स्थापन । वास्तवमें उनकी ओरसे लोगोंको हटाना ही श्रुतिको अभीष्ट ॥ 11 ॥ धनका एकमात्र फल है धर्म; क्योंकि धर्मसे ही परमतत्त्वका ज्ञान और उसकी निष्ठा अपरोक्ष अनुभूति सिद्ध होती है और निष्ठामें ही परम शान्ति है। परन्तु यह कितने खेदकी बात है कि लोग उस धनका उपयोग घर गृहस्थीके स्वार्थो में या कामभोगमें ही करते हैं और यह नहीं देखते कि हमारा यह शरीर मृत्युका शिकार है और वह मृत्यु | किसी प्रकार भी टाली नहीं जा सकती ॥ 12 ॥ सौत्रामणि यज्ञमें भी सुराको सूँघनेका ही विधान है, पीनेका नहीं। यज्ञमें | पशुका आलभन (स्पर्शमात्र) ही विहित है, हिंसा नहीं। इसी प्रकार अपनी धर्मपत्नीके साथ मैथुनकी आज्ञा भी |विषयभोगके लिये नहीं, धार्मिक परम्पराकी रक्षाके निमित्त | सन्तान उत्पन्न करनेके लिये ही दी गयी है। परन्तु जो लोग अर्थवादके वचनोंमें फँसे हैं, विषयी हैं, वे अपने इस विशुद्ध धर्मको जानते ही नहीं ।। 13 ।।जो इस विशुद्ध धर्मको नहीं जानते, वे घमंडी वास्तवमें तो दुष्ट हैं, परन्तु समझते हैं अपनेको श्रेष्ठ । वे धोखेमें पड़े हुए लोग पशुओंकी हिंसा करते हैं और मरनेके बाद वे पशु ही उन मारनेवालोंको खाते हैं॥ 14 ॥ यह शरीर मृतक शरीर है। इसके सम्बन्धी भी इसके साथ ही छूट जाते हैं। जो लोग इस शरीरसे तो प्रेमकी गाँठ बाँध लेते हैं और दूसरे शरीरोंमें रहनेवाले अपने ही आत्मा एवं सर्वशक्तिमान् भगवान्से द्वेष करते हैं, उन मूर्खोका अधःपतन निश्चित है ॥ 15 ॥ जिन लोगोंने आत्मज्ञान सम्पादन करके कैवल्य-मोक्ष नहीं प्राप्त किया है और जो पूरे-पूरे मूढ़ भी नहीं हैं, वे अधूरे न इघरके हैं और न उधरके। वे अर्थ, धर्म, काम इन तीनों पुरुषार्थोंमें फँसे – रहते हैं, एक क्षणके लिये भी उन्हें शान्ति नहीं मिलती। वे अपने हाथों अपने पैरोंमें कुल्हाड़ी मार रहे हैं। ऐसे ही लोगोंको आत्मघाती कहते हैं ॥ 16 ॥ अज्ञानको ही ज्ञान माननेवाले इन आत्मघातियोंको कभी शान्ति नहीं मिलती, इनके कर्मोकी परम्परा कभी शान्त नहीं होती। काल भगवान् सदा-सर्वदा इनके मनोरथोंपर पानी फेरते रहते हैं। इनके हृदयकी जलन, विषाद कभी मिटनेका नहीं 17 ॥ राजन्! जो लोग अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णसे विमुख हैं, वे अत्यन्त परिश्रम करके गृह, पुत्र, मित्र और धन-सम्पत्ति इकट्ठी करते हैं; परन्तु उन्हें अन्तमें सब कुछ छोड़ देना पड़ता है और न चाहनेपर भी विवश होकर घोर नरकमें जाना पड़ता है। (भगवान्‌का भजन न
करनेवाले विषयी पुरुषोंकी यही गति होती है) ॥ 18 ॥ राजा निमिने पूछा- योगीश्वरो ! आपलोग कृपा करके यह बतलाइये कि भगवान् किस समय किस रंगका, कौन -सा आकार स्वीकार करते हैं और मनुष्य किन नामों और विधियोंसे उनकी उपासना करते हैं ॥ 19 ॥

अब नवें योगीश्वर करभाजनजीने कहा राजन् ! चार युग है— सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि । इन युगमें भगवान्के अनेकों रंग, नाम और आकृतियाँ होती हैं तथा विभिन्न विधियोंसे उनकी पूजा की जाती ॥ 20 ॥ सत्ययुग में भगवान्‌के श्रीविग्रहका रंग होता है। श्वेत। उनके चार भुजाएँ और सिरपर जटा होती है तथा वे वल्कलका ही वस्त्र पहनते हैं। काले मृगका चर्म, यज्ञोपवीत, रुद्राक्षकी माला, दण्ड और कमण्डलु धारण करते हैं 21 ॥ सत्ययुगके मनुष्य बड़े शान्त, परस्पर वैररहित, सबके हितैषी और समदर्शी होते हैं। वे लोग इन्द्रियों और मनको वशमें रखकर ध्यानरूप तपस्याके द्वारा | सबके प्रकाशक परमात्माकी आराधना करते हैं ।॥ 22 ॥वे लोग हंस, सुपर्ण, वैकुण्ठ, धर्म, योगेश्वर, अमल, ईश्वर, पुरुष, अव्यक्त और परमात्मा आदि नामोंके द्वारा भगवान्‌के गुण, लीला आदिका गान करते हैं ॥ 23 ॥ राजन् ! त्रेतायुगमें भगवान् के श्रीविग्रहका रंग होता है लाल । चार भुजाएँ होती हैं और कटिभागमें वे तीन मेखला धारण करते हैं। उनके केश सुनहले होते हैं और वे वेदप्रतिपादित यज्ञके रूपमें रहकर स्रुक्, स्रुवा आदि यज्ञ-पात्रोंको धारण किया करते हैं ॥ 24 ॥ उस युगके मनुष्य अपने धर्ममें बड़ी निष्ठा रखनेवाले और वेदोंके अध्ययन-अध्यापनमें बड़े प्रवीण होते हैं। वे लोग ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदरूप वेदत्रयीके द्वारा सर्वदेवस्वरूप देवाधिदेव भगवान् श्रीहरिकी आराधना करते हैं ॥ 25 ॥ त्रेतायुगमें अधिकांश लोग, विष्णु, यज्ञ, पृष्निगर्भ, सर्वदेव, उरुक्रम, वृषाकपि, जयन्त और उरुगाय आदि नामोंसे उनके गुण और लीला आदिका कीर्तन करते हैं। ॥ 26 ॥ राजन् ! द्वापरयुगमें भगवान्‌के श्रीविग्रहका रंग होता है साँवला वे पीताम्बर तथा शङ्ख, चक्र, गदा आदि अपने आयुध धारण करते हैं। वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न, भृगुलता, कौस्तुभमणि आदि लक्षणोंसे वे पहचाने जाते हैं। ॥ 27 ॥ राजन् ! उस समय जिज्ञासु मनुष्य महाराजोंके चिह्न छत्र, चंवर आदिसे युक्त परमपुरुष भगवान्‌की वैदिक और तान्त्रिक विधिसे आराधना करते हैं ॥ 28 ॥ वे लोग इस प्रकार भगवान्‌की स्तुति करते हैं— ‘हे ज्ञानस्वरूप भगवान् वासुदेव एवं क्रियाशक्तिरूप सङ्कर्षण ! हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं भगवान् प्रद्युम्न और अनिरुद्ध के रूपमें हम आपको नमस्कार करते हैं। ऋषि नारायण, महात्मा नर विश्वेश्वर, विश्वरूप और सर्वभूतात्मा भगवान्‌को हम नमस्कार करते हैं ।। 29-30 राजन् ! द्वापरयुगमें इस प्रकार लोग जगदीश्वर भगवान्‌की स्तुति करते हैं। अब कलियुगमें अनेक तन्त्रोंके विधि-विधान से भगवान्की जैसी पूजा की जाती है, उसका वर्णन सुनो- ॥ 31 ॥

कलियुगमें भगवान्‌का श्रीविग्रह होता है कृष्ण वर्ण-काले रंगका। जैसे नीलम मणिमेंसे उज्ज्वल कान्तिधारा निकलती रहती है, वैसे ही उनके अङ्गकी छटा भी उज्ज्वल होती है। वे हृदय आदि अङ्ग, कौस्तुभ आदि उपाङ्ग, सुदर्शन आदि अस्त्र और सुनन्द प्रभृति पार्षदों से संयुक्त रहते हैं। कलियुगमें श्रेष्ठ बुद्धिसम्पन्न पुरुष ऐसे यज्ञोंके द्वारा उनकी आराधना करते हैं जिनमें नाम गुण, लीला आदिके कीर्तनकी प्रधानता रहती है ॥ 32 ॥वे लोग भगवान्‌को स्तुति इस प्रकार करते हैं- प्रभो। आप शरणागत रक्षक है। आपके चरणारविन्द सदा-सर्वदा ध्यान करनेयोग्य, माया-मोहके कारण होनेवाले सांसारिक पराजयोंका अन्त कर देनेवाले तथा भक्तोंको समस्त अभीष्ट वस्तुओंका दान करनेवाले कामधेनुखरूप है। वे तीर्थोको भी तीर्थ बनानेवाले स्वयं परम तीर्थवरूप है; शिव, ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता उन्हें नमस्कार करते हैं और चाहे जो कोई उनकी शरणमें आ जाय, उसे स्वीकार कर लेते हैं। सेवकोंको समस्त आर्ति और विपत्तिके नाशक तथा संसार सागर से पार जानेके लिये जहाज है। महापुरुष मैं आपके उन्हीं चरणारविन्दोंकी वन्दना करता हूँ ॥ 33 ॥ भगवन् ! आपके चरणकमलोकी महिमा कौन कहे ? रामावतारमें अपने पिता दशरथजीके वचनोंसे देवताओंके लिये भी वाञ्छनीय और दुस्त्यज राज्यलक्ष्मीको छोड़कर आपके चरण कमल वन वन घूमते फिरे ! सचमुच आप धर्मनिष्ठताकी सीमा हैं। और महापुरुष! अपनी प्रेयसी सीताजीके चाहनेपर जान-बूझकर आपके चरण कमल मायामृगके पीछे दौड़ते रहे। सचमुच आप प्रेमकी सीमा है। प्रभो। मैं आपके उन्हीं चरणारविन्दोंकी वन्दना करता हूँ ॥ 34 ॥

राजन्! इस प्रकार विभिन्न युगोके लोग अपने-अपने युगके अनुरूप नाम-रूपोंद्वारा विभिन्न प्रकारसे भगवान्‌को आराधना करते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष – सभी पुरुषार्थोके एकमात्र स्वामी भगवान् श्रीहरि ही है 35 कलियुग में केवल सङ्कीर्तनसे ही सारे स्वार्थ और | परमार्थ बन जाते हैं। इसलिये इस युगका गुण जाननेवाले सारपाही श्रेष्ठ पुरुष कलियुगको यही प्रशंसा करते हैं, इससे बड़ा प्रेम करते हैं॥ 36 देहाभिमानी जीव संसारचक्रमें अनादि कालसे भटक रहे हैं। उनके लिये भगवान्‌को लोला, गुण और नामके कीर्तनसे बढ़कर और कोई परम लाभ नहीं है; क्योंकि इससे संसारमें भटकना मिट जाता है और परम शान्तिका अनुभव होता है ॥ 37 ॥ राजन् । सत्ययुग, त्रेता और द्वापरकी प्रजा चाहती है कि हमारा जन्म कलियुगमें हो; क्योंकि कलियुगमें कहीं-कहीं भगवान् नारायण के शरणागत उन्होंके आश्रय में रहनेवाले बहुत से भक्त उत्पन्न होंगे। महाराज विदेह कलियुगमे द्रविड़देशमे अधिक भक्त पाये जाते हैं जहाँ ताम्रपणी, कृतमाला, पयस्विनी, परमपवित्र कावेरी, महानदी और प्रतीची नामकी नदियाँ बहती है राजन् जो मनुष्य इन नदियोंका जल पीते हैं, प्रायः उनका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और वे भगवान् वासुदेवके भक्त हो जाते हैं ।। 38-40 ।।राजन् । जो मनुष्य ‘यह करना बाकी है, वह करना आवश्यक है’ इत्यादि कर्म-वासनाओंका अथवा भेद बुद्धिका परित्याग करके सर्वात्मभावसे शरणागतवत्सल, प्रेमके वरदानी भगवान् मुकुन्दकी शरण में आ गया है, वह देवताओं, ऋषियों, पितरों, प्राणियों, कुटुम्बियों और अतिथियों के ऋणसे उऋण हो जाता है; वह किसीके अधीन, किसीका सेवक, किसीके बन्धनमें नहीं रहता ॥ 41 ॥ जो प्रेमी भक्त अपने प्रितयतम भगवान्के चरणकमलोका अनन्यभावसे—दूसरी ‘भावनाओं, आस्थाओं, वृत्तियों और प्रवृत्तियोंको छोड़कर – भजन करता है, उससे पहली बात तो यह है कि पापकर्म होते ही नहीं; परन्तु यदि कभी किसी प्रकार हो भी जायें तो परमपुरुष भगवान् श्रीहरि उसके हृदयमें बैठकर वह सब धोबहा देते और उसके हृदयको शुद्ध कर देते हैं ।। 42 ।।

नारदजी कहते हैं-वसुदेवजी ! मिथिलानरेश राजा निमिनी योगीश्वरोंसे इस प्रकार भागवतधर्मीका वर्णन सुनकर बहुत ही आनन्दित हुए। उन्होंने अपने ऋत्विज् और आचार्योंकि साथ ऋषभनन्दन नव योगीश्वरोंकी पूजा की ।। 43 ।। इसके बाद सब लोगोंके सामने ही वे सिद्ध अन्तर्धान हो गये। विदेहराज निमिने उनसे सुने हुए भागवतधर्मोका आचरण किया और परमगति प्राप्त की ।। 44 ।। महाभाग्यवान् वसुदेवजी मैंने तुम्हारे आगे जिन भागवतचमौका वर्णन किया है, तुम भी यदि श्रद्धाके साथ इनका आचरण करोगे तो अन्तमें सब आसक्तियोंसे छूटकर भगवान्का परमपद प्राप्त कर लोगे ।। 45 ।। वसुदेवजी तुम्हारे और देवकीके यशसे तो सारा जगत् भरपूर हो रहा है; क्योंकि सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारे पुत्रके रूपमें अवतीर्ण हुए हैं ॥ 46 ॥ तुमलोगोंने भगवान के दर्शन, आलिङ्गन तथा बातचीत करने एवं उन्हें सुलाने, बैठाने खिलाने आदिके द्वारा वात्सल्य स्नेह करके अपना हृदय शुद्ध कर लिया है; तुम परम पवित्र हो गये हो ।। 47 ।। वसुदेवजी शिशुपाल, पौण्ड्रक और शाल्व आदि राजाओंने तो वैरभावसे श्रीकृष्णकी चाल-ढाल, लीला-विलास, चितवन बोलन आदिका स्मरण किया था। वह भी नियमानुसार नहीं, सोते, बैठते, चलते-फिरते स्वाभाविकरूपसे ही। फिर भी उनकी चित्तवृत्ति श्रीकृष्णाकार हो गयी और वे सारूप्य मुक्तिके अधिकारी हुए। फिर जो लोग प्रेमभाव और अनुराग श्रीकृष्णका चिन्तन करते हैं, | उन्हें श्रीकृष्णकी प्राप्ति होने में कोई सन्देह है क्या ? ।। 48 ।।वसुदेवजी ! तुम श्रीकृष्णको केवल अपना पुत्र ही मत | समझो। वे सर्वात्मा, सर्वेश्वर, कारणातीत और अविनाशी हैं। उन्होंने लीलाके लिये मनुष्यरूप प्रकट करके अपना ऐश्वर्य छिपा रखा है ॥ 49 ॥ वे पृथ्वीके भारभूत राजवेषधारी असुरोंका नाश और संतोंकी रक्षा करनेके लिये तथा जीवोंको परम शान्ति और मुक्ति देनेके लिये ही | अवतीर्ण हुए हैं और इसीके लिये जगत्में उनकी कीर्ति भी गायी जाती है ॥ 50 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- प्रिय परीक्षित्! नारदजीके मुखसे यह सब सुनकर परम भाग्यवान् वसुदेवजी और परम भाग्यवती देवकीजीको बड़ा ही विस्मय हुआ। उनमें जो कुछ माया-मोह अवशेष था, उसे उन्होंने तत्क्षण छोड़ दिया ॥ 51 ॥ राजन् ! यह इतिहास परम पवित्र है। जो एकाग्रचित्तसे इसे धारण करता है, वह अपन सारा शोक-मोह दूर करके ब्रह्मपदको प्राप्त होता है ॥ 52 ॥

अध्याय 6 देवताओंकी भगवान्‌ले स्वधाम सिधारनेके लिये प्रार्थना करना

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित् । जब देवर्षि नारद वसुदेवजीको उपदेश करके चले गये, तब अपने पुत्र सनकादिकों, देवताओं और प्रजापतियोंके साथ ब्रह्माजी, भूतगणोंके साथ सर्वेश्वर महादेवजी और मरुद्रणोंके साथ देवराज इन्द्र द्वारकानगरीमें आये। साथ ही सभी आदित्यगण, आठों वसु, अश्विनीकुमार, प्रभु अङ्गिराकेश ऋषि ग्यारहों रुद्र, विश्वेदेव, साध्यगण, गन्धर्व, अप्सराएँ, नाग, सिद्ध, चारण, गुह्यक, ऋषि, पितर, विद्याधर और किन्नर भी वहाँ पहुँचे। इन लोगोंके आगमनका उद्देश्य यह था कि मनुष्यका-सा मनोहर वेष धारण करनेवाले और अपने श्यामसुन्दर विग्रहसे सभी लोगोका मन अपनी ओर खींचकर रमा लेनेवाले भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन करे; क्योंकि इस समय उन्होंने अपना श्रीविग्रह प्रकट करके उसके द्वारा तीनों लोकोंमें ऐसी पवित्र कीर्तिका विस्तार किया है, जो समस्त लोकोंके पाप-तापको सदाके लिये मिटा देती है ॥ 1-4 ॥द्वारकापुरी सब प्रकारकी सम्पत्ति और ऐश्वर्योंसे समृद्ध तथा अलौकिक दीप्तिसे देदीप्यमान हो रही थी। वहाँ आकर उन लोगोंने अनूठी छबिसे युक्त भगवान् श्रीकृष्णके दर्शन किये। भगवान्‌की रूप-माधुरीका निर्निमेष नयनोंसे पान करनेपर भी उनके नेत्र तृप्त न होते थे। वे एकटक बहुत देरतक उन्हें देखते ही रहे ॥ 5 ॥ उन लोगोंने स्वर्गके उद्यान नन्दन-वन, चैत्ररथ आदिके दिव्य पुष्पोंसे जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्णको ढक दिया और चित्र-विचित्र पदों तथा | अर्थोंसे युक्त वाणीके द्वारा उनकी स्तुति करने लगे ॥ 6 ॥

देवताओंने प्रार्थना की-स्वामी ! कर्मोक विकट | फंदोंसे छूटनेकी इच्छावाले मुमुक्षुजन भक्ति भावसे अपने हृदयमें जिसका चिन्तन करते रहते हैं, आपके उसी चरणकमलको हमलोगोंने अपनी बुद्धि, इन्द्रिय, प्राण, मन और वाणी से साक्षात् नमस्कार किया है। अहो ! आश्चर्य है ! * ॥ 7 ॥ अजित ! आप मायिक रज आदि गुणोंमें स्थित होकर इस अचिन्त्य नाम-रूपात्मक प्रपञ्चकी त्रिगुणमयी मायाके द्वारा अपने-आपमें ही रचना करते हैं, पालन करते और संहार करते हैं। यह सब करते हुए भी इन कर्मोंसे आप लिप्त नहीं होते हैं; क्योंकि आप राग-द्वेषादि दोषोंसे सर्वथा मुक्त हैं और अपने निरावरण अखण्ड स्वरूपभूत परमानन्दमें मग्न रहते हैं ॥ 8 ॥ स्तुति करनेयोग्य परमात्मन्! जिन मनुष्योंकी चित्तवृत्ति राग-द्वेषादिसे कलुषित हैं, वे उपासना, वेदाध्ययन, दान, तपस्या और यज्ञ आदि कर्म भले ही करें; परंतु उनकी वैसी शुद्धि नहीं हो सकती, जैसी श्रवणके द्वारा सम्पुष्ट शुद्धान्तःकरण सज्जन पुरुषोंकी आपकी लीलाकथा, कीर्तिके विषयमें दिनोंदिन बढ़कर परिपूर्ण होनेवाली श्रद्धासे होती है ॥ 9 ॥ मननशील मुमुक्षुजन मोक्ष प्राप्तिके लिये अपने प्रेमसे पिघले हुए हृदयके द्वारा जिन्हें लिये-लिये फिरते हैं, पाञ्चरात्र विधिसे उपासना करनेवाले भक्तजन समान ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध – इस चतुर्व्यूहके रूपमें जिनका पूजन करते हैं और जितेन्द्रिय धीरपुरुष स्वर्गलोकका अतिक्रमण करके भगवद्धामकी प्राप्तिके लिये तीनों समय जिनकी पूजा किया करते हैं, याज्ञिक लोग तीनों वेदोंके द्वारा बतलायी हुई विधिसे अपने संयत हाथोंमें हविष्य लेकर यज्ञकुण्ड मेंआहुति देते और उन्हींका चिन्तन करते हैं। आपकी आत्म स्वरूपिणी मायाके जिज्ञासु योगीजन हृदयके अन्तर्देशमें | दहरविद्या आदिके द्वारा आपके चरणकमलोंका ही ध्यान करते हैं और आपके बड़े-बड़े प्रेमी भक्तजन उन्होंको अपना परम इष्ट आराध्यदेव मानते हैं। प्रभो! आपके वे ही चरणकमल हमारी समस्त अशुभ वासनाओं—विषय वासनाओंको भस्म करनेके लिये अग्निस्वरूप हो। वे अनिके समान हमारे पाप तापको भस्म कर दें ।। 10-11 ॥ प्रभो ! यह भगवती लक्ष्मी आपके वक्षःस्थलपर मुरझायी हुई बासी वनमालासे भी सौतकी तरह स्पर्द्धा रखती हैं। फिर भी आप उनकी परवा न कर भक्तोंके द्वारा इस बासी मालासे की हुई पूजा भी प्रेमसे स्वीकार करते हैं। ऐसे भक्तवत्सल प्रभुके चरणकमल सर्वदा हमारी विषय-वासनाओंको जलानेवाले अग्निस्वरूप हो ।। 12 ।। अनन्त ! वामनावतारमें दैत्यराज बलिकी दी हुई पृथ्वीको नापनेके लिये जब आपने अपना पग |उठाया था और वह सत्यलोकमें पहुँच गया था, तब यह ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई बहुत बड़ा विजयध्वज हो । ब्रह्माजीके पखारनेके बाद उससे गिरती हुई गङ्गाजीके जलकी तीन धाराएँ ऐसी जान पड़ती थीं, मानो उसमें लगी हुई तीन पताकाएँ फहरा रही हों। उसे देखकर असुरोंकी सेना भयभीत हो गयी थी और देवसेना निर्भय आपका वह चरणकमल सभाय पुरुषोंके लिये आपके धाम लोककी प्राप्तिका और दुष्टोंके लिये अधोगतिका कारण है। भगवन् ! आपका वही पादपद्म हम भजन करनेवालोंके सारे पाप ताप धो वहा दे ।। 13 ।। ब्रह्मा आदि जितने भी शरीरधारी हैं, वे सत्त्व, रज, तम – इन तीनों गुणोंके परस्पर-विरोधी त्रिविध भावोंकी टक्करसे जीते-मरते रहते हैं। वे सुख-दुःखके थपेड़ोंसे बाहर नहीं हैं और ठीक वैसे ही आपके वशमें हैं, | जैसे नथे हुए बैल अपने स्वामीके वशमें होते हैं। आप उनके “लिये भी कालस्वरूप हैं। उनके जीवनका आदि, मध्य और अन्त आपके ही अधीन है। इतना ही नहीं, आप प्रकृति और पुरुषसे भी परे स्वयं पुरुषोत्तम हैं। आपके चरणकमल हमलोगोका कल्याण करें ।। 14 ।। प्रभो। आप इस जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके परम कारण है; क्योंकि शास्त्रोंने ऐसा कहा है कि आप प्रकृति, पुरुष और महत्तत्त्वके भी नियन्त्रण करनेवाले काल हैं। शीत, प्रोष्म और वर्षाकालरूप तीन नाभियोवाले संवत्सरके रूपमें सबको क्षयकी ओर ले जानेवाले काल आप ही हैं। आपकी गति अबाध और गम्भीर है। आप स्वयं पुरुषोत्तम है ।। 15 ।।| यह पुरुष आपसे शक्ति प्राप्त करके अमोघवाय हो जाता है और फिर मायाके साथ संयुक्त होकर विश्वके महत्तत्त्वरूप गर्भका स्थापन करता है। इसके बाद वह महत्तत्त्व त्रिगुणमयी मायाका अनुसरण करके पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अहङ्कार और मनरूप सात आवरणों (परतों) वाले इस सुवर्णवर्ण ब्रह्माण्डकी रचना करता है ॥ 16 ॥ इसलिये हृषीकेश! आप समस्त चराचर जगत् के अधीश्वर हैं। यही कारण है कि मायाकी -विषमताके कारण बननेवाले विभिन्न पदार्थोंका गुण-1 उपभोग करते हुए भी आप उनमें लिप्त नहीं होते। यह केवल आपकी ही बात है आपके अतिरिक्त दूसरे तो स्वयं उनका त्याग करके भी उन विषयोंसे डरते रहते हैं ॥ 17 ॥ सोलह हजारसे अधिक रानियाँ आपके साथ रहती हैं। वे सब अपनी मन्द मन्द मुसकान और तिरछी चितवनसे युक्त मनोहर भौहोंके इशारेसे और सुरतालापोंसे प्रौढ़ सम्मोहक कामबाण चलाती हैं और कामकलाकी विविध रीतियोंसे आपका मन आकर्षित करना चाहती है; परंतु फिर भी वे अपने परिपुष्ट कामवाणोंसे आपका मन तनिक भी न डिगा सकीं, वे असफल ही रहीं ।। 18 ।। आपने त्रिलोकीकी पाप राशिको धो बहाने के लिये दो प्रकारकी पवित्र नदियाँ बहा रखी हैं—एक तो आपकी अमृतमयी लीलासे भरी कथानदी और दूसरी आपके पाद प्रक्षालनके जलसे भरी गङ्गाजी अतः सत्सङ्गसेवी विवेकीजन कानों के द्वारा आपकी कथा नदीमें और शरीरके द्वारा गङ्गाजीमें गोता लगाकर दोनों ही तीथका सेवन करते हैं और अपने पाप-ताप मिटा देते हैं ।। 19

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! समस्त देवताओं और भगवान् शङ्करके साथ ब्रह्माजीने इस प्रकार भगवान्की स्तुति की। इसके बाद वे प्रणाम करके अपने धाममें जानेके लिये आकाशमें स्थित होकर भगवान्से इस प्रकार कहने लगे ॥ 20 ॥

ब्रह्माजीने कहा- सर्वात्मन् प्रभो ! पहले हमलोगोंने आपसे अवतार लेकर पृथ्वीका भार उतारनेके लिये प्रार्थना की थी सो वह काम आपने हमारी प्रार्थनाके 1 अनुसार ही यथोचितरूपसे पूरा कर दिया ।। 21 ।। आपने सत्यपरायण साधुपुरुषोंके कल्याणार्थ धर्मको स्थापना भी कर दी और दसों दिशाओंमें ऐसी कीर्ति फैला दी, जिसे सुन सुनाकर सब लोग अपने मनका मैल मिटा देते हैं ।। 22 ।।आपने यह सर्वोत्तम रूप धारण करके यदुवंशमें अवतार लिया और जगत्के हितके लिये उदारता और पराक्रमसे भरी अनेकों लीलाएँ कीं ।। 23 ।। प्रभो। कलियुगमें जो साधुस्वभाव मनुष्य आपकी इन लीलाओंका श्रवण कीर्तन करेंगे, वे सुगमतासे ही इस अज्ञानरूप अन्धकारसे पार हो जायेंगे ।। 24 ।। पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान् प्रभो । | आपको यदुवंशमें अवतार ग्रहण किये एक सौ पचीस वर्ष बीत गये हैं ।। 25 ।। सर्वाधार । अब हमलोगोंका ऐसा कोई काम बाकी नहीं है, जिसे पूर्ण करनेके लिये आपके यहाँ रहनेकी आवश्यकता हो। ब्राह्मणोंके शापके कारण आपका यह कुल भी एक प्रकारसे नष्ट हो ही चुका है ॥ 26 ॥ इसलिये वैकुण्ठनाथ! यदि आप उचित समझें तो अपने परमधाममें पधारिये और अपने सेवक हम लोकपालोंका तथा हमारे लोकोंका पालन-पोषण कीजिये ॥ 27 ॥

भगवान् श्रीकृष्णने कहा-ब्रह्माजी! आप जैसा कहते हैं, मैं पहलेसे ही वैसा निश्चय कर चुका हूँ। मैंने आपलोगोंका सब काम पूरा करके पृथ्वीका भार उतार | दिया ॥ 28 ॥ परन्तु अभी एक काम बाकी है; वह यह कि यदुवंशी बल-विक्रम, वीरता शूरता और धन-सम्पत्ति से -शूरता उन्मत हो रहे हैं। ये सारी पृथ्वीको ग्रस लेनेपर तुले हुए हैं। इन्हें मैंने ठीक वैसे ही रोक रखा है, जैसे समुद्रको उसके तटकी भूमि ॥ 29 ॥ यदि मैं घमंडी और उच्छृंखल यदुवंशियोंका यह विशाल वंश नष्ट किये बिना ही चला जाऊँगा तो ये सब मर्यादाका उल्लङ्घन करके सारे लोकोंका संहार कर डालेंगे ।। 30 ।। निष्पाप ब्रह्माजी ! अब ब्राह्मणोंके शापसे इस वंशका नाश प्रारम्भ हो चुका है इसका अन्त हो जानेपर मैं आपके धाममें होकर जाऊँगा ।। 31 ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्। जब अखिललोकाधिपति भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार कहा, तब ब्रह्माजीने उन्हें प्रणाम किया और देवताओंके साथ वे अपने धामको चले गये ॥ 32 ॥ उनके जाते ही द्वारकापुरीमें बड़े-बड़े अपशकुन, बड़े-बड़े उत्पात उठ खड़े हुए उन्हें देखकर यदुवंशके बड़े-बूढ़े भगवान् श्रीकृष्णके पास आये। भगवान् श्रीकृष्णने उनसे यह | बात कही ।। 33 ।।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा— गुरुजनो ! आजकल द्वारकामें जिधर देखिये, उधर ही बड़े-बड़े अपशकुन और उत्पात हो रहे हैं आपलोग जानते ही हैं। कि ब्रह्मणोंने हमारे वंशको ऐसा शाप दे दिया है, जिसे टाल सकना बहुत ही कठिन है। मेरा ऐसा विचार है कि यदि हमलोग अपने प्राणोंकी रक्षा चाहते हो तो हमें यहाँ नहीं रहना चाहिये। अब विलम्ब करनेकी आवश्यकता नहीं है। हमलोग आज ही परम पवित्र प्रभासक्षेत्रके लिये निकल पड़े ।। 34-35 ॥ प्रभासक्षेत्रकी महिमा बहुत प्रसिद्ध है। जिस समय दक्ष प्रजापतिके शापसे चन्द्रमाको राजयक्ष्मा रोगने ग्रस लिया था, उस समय उन्होंने प्रभास क्षेत्रमें जाकर स्नान किया और वे तत्क्षण उस पापजन्य रोगसे छूट गये। साथ ही उन्हें कलाओंकी अभिवृद्धि भी प्राप्त हो गयी ।। 36 ।। हमलोग भी प्रभासक्षेत्रमें चलकर स्नान करेंगे, देवता एवं पितरोंका तर्पण करेंगे और साथ ही अनेकों गुणवाले पकवान तैयार करके श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको भोजन करायेंगे। वहाँ हमलोग उन सत्पात्र ब्राह्मणोंको पूरी श्रद्धासे बड़ी-बड़ी दान-दक्षिणा देंगे और इस प्रकार उनके द्वारा अपने बड़े-बड़े सङ्कटोंको वैसे ही पार कर जायँगे, | जैसे कोई जहाजके द्वारा समुद्र पार कर जाय !॥ 37-38 ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-कुलनन्दन! जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार आज्ञा दी, तब यदुवंशियोंने एक मतसे प्रभास जानेका निश्चय कर लिया और सब अपने-अपने रथ सजाने जोतने लगे 39 ॥ परीक्षित् | उद्धवजी भगवान् श्रीकृष्णके बड़े प्रेमी और सेवक थे। उन्होंने जब यदुवंशियोंको यात्राकी तैयारी करते देखा, भगवान्‌को आज्ञा सुनी और अत्यन्त घोर अपशकुन देखे, तब वे जगत्‌ के एकमात्र अधिपति भगवान् श्रीकृष्ण के पास एकान्तमें गये, उनके चरणोंपर अपना सिर रखकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना करने लगे ।। 40-41 ॥

उद्धवजीने कहा- योगेश्वर! आप देवाधिदेवों के भी अधीश्वर है। आपकी लीलाओंके श्रवण-कीर्तनसे जीव पवित्र हो जाता है। आप सर्वशक्तिमान परमेश्वर है। आप चाहते तो मानोंके शापको मिटा सकते थे। परन्तु आपने वैसा किया नहीं। इससे मैं यह समझ गया कि अब आप यदुवंशका संहार करके, इसे समेटकर अवश्य हो इस लोकका परित्याग कर देंगे ।। 42 ।।परन्तु पराली अलकोवाले श्यामसुन्दर मैं आधे क्षण के लिये भी आपके चरणकमलोंके त्यागकी बात सोच भी नहीं सकता। मेरे जीवनसर्वस्व, मेरे स्वामी! आप मुझे भी अपने धाममें ले चलिये ।। 43 ।। प्यारे कृष्ण ! आपकी एक-एक लीला मनुष्योंके लिये परम मङ्गलमयी और कानोंके लिये अमृतस्वरूप है। जिसे एक बार उस रसका चसका लग जाता है, उसके मनमें फिर किसी दूसरी वस्तुके लिये लालसा ही नहीं रह जाती। प्रभो! हम तो उठते-बैठते, सोते-जागते, घूमते फिरते आपके साथ रहे हैं, हमने आपके साथ स्नान किया, खेल खेले, भोजन किया; कहाँतक गिनावें, हमारी एक-एक चेष्टा आपके साथ होती रही। आप हमारे प्रियतम हैं; और तो क्या आप हमारे आत्मा ही हैं। ऐसी स्थितिमें हम आपके प्रेमी भक्त आपको कैसे छोड़ सकते हैं ? ।। 44-45।। हमने | आपकी धारण की हुई माला पहनी, आपके लगाये हुए चन्दन लगाये, आपके उतारे हुए वस्त्र पहने और आपके धारण किये हुए गहनोंसे अपने-आपको सजाते रहे। हम आपकी जूठन खानेवाले सेवक हैं। इसलिये हम आपकी मायापर अवश्य ही विजय प्राप्त कर लेंगे। (अतः प्रभो ! हमें आपकी मायाका डर नहीं है, डर है तो केवल आपके वियोगका) ॥ 46 ॥ हम जानते हैं कि मायाको पार कर लेना बहुत ही कठिन है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि दिगम्बर रहकर और आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचर्यका पालन करके अध्यात्मविद्याके लिये अत्यन्त परिश्रम करते हैं। इस प्रकारकी कठिन साधनासे उन संन्यासियोंके हृदय निर्मल हो पाते हैं और तब कहीं वे समस्त वृत्तियोंकी शान्तिरूप नैष्कर्म्य अवस्थामें स्थित होकर आपके ब्रह्मनामक धामको प्राप्त होते हैं 47 ॥ महायोगेश्वर ! | हमलोग तो कर्ममार्गमें ही भ्रम-भटक रहे हैं। परन्तु इतना निश्चित है कि हम आपके भक्तजनोंके साथ आपके गुणों और लीलाओंकी चर्चा करेंगे तथा मनुष्यकी-सी लीला करते हुए आपने जो कुछ किया या कहा है, उसका स्मरण-कीर्तन करते रहेंगे। साथ ही आपकी चाल-ढाल, मुसकान चितवन और हास-परिहासको स्मृतिमें तल्लीन हो जायेंगे। केवल इसे हम दुस्तर मायाको पार कर लेंगे। (इसलिये हमें मायासे पार जानेकी नहीं, आपके विरहकी चिन्ता है। आप हमें छोड़िये नहीं, साथ ले चलिये) ॥। 48-49 ।।श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् जब उद्धवजीने देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब उन्होंने अपने अनन्यप्रेमी सखा एवं सेवक उद्धवजीसे कहा ॥ 50 ॥

अध्याय 7 अवधूतोपाख्यान – पृथ्वीसे लेकर कबूतर तक आठ गुरु

भगवान् श्रीकृष्णने कहा- महाभाग्यवान् उद्धव ! तुमने मुझसे जो कुछ कहा है, मैं वही करना चाहता हूँ। ब्रह्मा, शङ्कर और इन्द्रादि लोकपाल भी अब यही चाहते हैं कि मैं उनके लोकोंमें होकर अपने धामको चला जाऊँ ॥ 1 ॥ पृथ्वीपर देवताओंका जितना काम करना था, उसे मैं पूरा कर चुका। इसी कामके लिये ब्रह्माजीको प्रार्थनासे मैं बलरामजी के साथ अवतीर्ण हुआ था ॥ 2 ॥ अब यह यदुवंश, जो ब्राह्मणोंके शापसे भस्म हो चुका है, पारस्परिक फूट और युद्धसे नष्ट हो जायगा। आजके सातवें दिन समुद्र इस पुरी द्वारकाको डुबो देगा || 3 || प्यारे उद्धव ! जिस क्षण मैं मर्त्यलोकका परित्याग कर दूंगा, उसी क्षण इसके सारे मङ्गल नष्ट हो जायँगे और थोड़े ही दिनोंमें पृथ्वीपर कलियुगका बोलबाला हो जायगा ॥ 4 ॥ जब मैं इस पृथ्वीका त्याग कर दूँ, तब तुम इसपर मत रहना; क्योंकि साधु उद्धव ! कलियुगमें अधिकांश लोगोंकी रुचि अधर्ममें ही होगी ॥ 5 ॥ अब तुम अपने आत्मीय स्वजन और बन्धु बान्धवोंका स्नेह-सम्बन्ध छोड़ दो और अनन्यप्रेमसे मुझमें। अपना मन लगाकर समदृष्टिसे पृथ्वीमें स्वच्छन्द विचरण करो ।। 6 ।। इस जगत्में जो कुछ मनसे सोचा जाता है, वाणीसे कहा जाता है, नेत्रोंसे देखा जाता है और श्रवण आदि इन्द्रियोंसे अनुभव किया जाता है, वह सब नाशवान् है। सपने की तरह मनका विलास है। इसलिये मायामात्र है, मिथ्या है ऐसा समझ लो ॥ 7 ॥ जिस पुरुषका मन अशान्त है, असंयत है, उसीको पागलकी तरह अनेकों वस्तुएँ मालूम पड़ती हैं; वास्तवमें यह चित्तका भ्रम ही है। नानात्वका भ्रम हो जानेपर ही ‘यह गुण है’ और ‘यह दोष इस प्रकारकी कल्पना करनी पड़ती है । जिसकी बुद्धिमें गुण और दोषका भेद बैठ गया है, दृढमूल हो गया है, उसीके लिये कर्म * अकर्म + और विकर्मरूप भेदका प्रतिपादन हुआ है ॥ 8 ॥ इसलिये उद्धव ! तुम पहले अपनी समस्त इन्द्रियोंको अपने वशमें कर लो, उनकी बागडोर अपने हाथमें ले लो और केवल इन्द्रियोंको ही नहीं, चित्तको समस्त वृत्तियों को भी रोक लो और फिर ऐसा अनुभव करो कि यह सारा जगत् अपने आत्मामें ही फैला हुआ है और आत्मा मुझ सर्वात्मा इन्द्रियातीत ब्रह्मसे एक है, अभिन्न है ॥ 9 ॥जब वेदोंके मुख्य तात्पर्य- निश्चयरूप ज्ञान और अनुभवरूप विज्ञानसे भलीभाँति सम्पन्न होकर तुम अपने आत्मा के अनुभव में ही आनन्दमन रहोगे और सम्पूर्ण देवता आदि शरीरधारियोंके आत्मा हो जाओगे। इसलिये किसी भी विघ्नसे तुम पीडित नहीं हो सकोगे; क्योंकि उन विनों और विघ्न करनेवालोंकी आत्मा भी तुम्हीं होगे ॥ 10 जो पुरुष गुण और दोष बुद्धिसे अतीत हो जाता है, वह बालकके समान निषिद्ध कर्मसे निवृत्त होता है, परन्तु दोष-बुद्धिसे नहीं। वह विहित कर्मका अनुष्ठान भी करता है, परन्तु गुणबुद्धिसे नहीं ॥ 11 ॥ जिसने श्रुतियोंके तात्पर्यका यथार्थ ज्ञान ही नहीं प्राप्त कर लिया, बल्कि उनका साक्षात्कार भी कर लिया है और इस प्रकार जो अटल निश्चयसे सम्पन्न हो गया है, वह समस्त प्राणियोंका हितैषी सुहृद् होता है और उसकी वृत्तियाँ सर्वथा शान्त रहती हैं। वह समस्त प्रतीयमान विश्वको मेरा ही स्वरूप कभी जन्म -आत्मस्वरूप देखता है; इसलिये उसे फिर – मृत्युके चक्करमें नहीं पड़ना पड़ता ॥ 12 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार आदेश दिया, तब भगवान्के परम प्रेमी उद्धवजीने उन्हें प्रणाम करके तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिकी इच्छासे यह प्रश्न किया ।। 13 ।।

उद्धवजीने कहा- भगवन्! आप ही समस्त योगियोंकी गुप्त पूँजी योगोंके कारण और योगेश्वर हैं। आप ही समस्त योगोंके आधार, उनके कारण और योगस्वरूप भी हैं 1 आपने मेरे परम कल्याणके लिये उस संन्यासरूप त्यागका उपदेश किया है ।। 14 ।। परन्तु अनन्त ! जो लोग विषयोंके चिन्तन और सेवनमें घुल-मिल गये हैं, विषयात्मा हो गये हैं, उनके लिये विषय-भोगों और कामनाओंका त्याग अत्यन्त कठिन है। सर्वस्वरूप ! उनमें भी जो लोग आपसे विमुख है, उनके लिये तो इस प्रकारका त्याग सर्वथा असम्भव ही है ऐसा मेरा निश्चय है ।। 15 ।। प्रभो मैं भी ऐसा ही हूँ, मेरी मति इतनी मूढ़ हो गयी है कि ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है’ इस भावसे मैं आपकी मायाके खेल, देह और देहके सम्बन्धी स्त्री, पुत्र, धन आदिमें डूब रहा हूँ। अतः भगवन् ! आपने जिस संन्यासका उपदेश किया है, उसका तत्त्व मुझ सेवकको इस प्रकार समझाइये कि मैं सुगमतापूर्वक उसका साधन कर सकूँ ॥ 16 ॥ मेरे प्रभो आप भूत, भविष्य, वर्तमान इन तीनों कालोंसे अबाधित, एकरस सत्य हैं। आप दूसरेके द्वारा प्रकाशित नहीं, स्वयंप्रकाश आत्मस्वरूप हैं। प्रभो! मैं समझता हूँ कि मेरे लिये आत्मतत्त्वत्का उपदेश करनेवाला आपके अतिरिक्त देवताओंमें भी कोई नहीं है। ब्रह्मा आदि जितने बड़े-बड़े देवता है, वे सब शरीराभिमानी होनेके कारण आपकी मायासे मोहित हो रहे हैं। उनकी बुद्धि मायाके वशमेंहो गयी है। यही कारण है कि वे इन्द्रियोंसे अनुभव किये जानेवाले बाह्य विषयोंको सत्य मानते हैं। इसीलिये मुझे तो आप ही उपदेश कीजिये ॥ 17 ॥ भगवन् ! इसीसे चारों ओरसे दुःखोंकी दावानिसे जलकर और विरक्त होकर मैं आपकी शरणमें आया हूँ। आप निर्दोष देश-कालसे अपरिच्छिन्न, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् और अविनाशी वैकुण्ठलोकके निवासी एवं नरके नित्य सखा नारायण हैं। (अतः आप ही मुझे उपदेश कीजिये) ॥ 18 ॥

भगवान् श्रीकृष्णने कहा -उद्धव ! संसारमें जो मनुष्य ‘यह जगत् क्या है ? इसमें क्या हो रहा है ?’ इत्यादि बातोंका विचार करनेमें निपुण हैं, वे चित्तमें भरी हुई अशुभ वासनाओंसे अपने आपको स्वयं अपनी विवेक शक्तिसे ही प्रायः बचा लेते हैं ॥ 19 ॥ समस्त प्राणियोंका विशेषकर मनुष्यका आत्मा अपने हित और अहितका उपदेशक गुरु है। क्योंकि मनुष्य अपने प्रत्यक्ष अनुभव और अनुमानके द्वारा अपने हित-अहितका निर्णय करनेमें पूर्णतः समर्थ है ॥ 20 ॥ सांख्ययोगविशारद धीर पुरुष इस मनुष्ययोनिमें इन्द्रियशक्ति, मनःशक्ति आदिके आश्रयभूत मुझे आत्मतत्त्वको पूर्णतः प्रकटरूपसे साक्षात्कार कर लेते हैं ॥ 21 ॥ मैंने एक पैरवाले, दो पैरवाले, तीन पैरवाले, चार पैरवाले, चारसे अधिक पैरवाले और बिना पैरकेइत्यादि अनेक प्रकारके शरीरोंका निर्माण किया है। उनमें मुझे सबसे अधिक प्रिय मनुष्यका ही शरीर है ॥ 22 ॥ इस मनुष्य – -शरीरमें एकाग्रचित्त तीक्ष्णबुद्धि पुरुष बुद्धि आदि ग्रहण किये जानेवाले हेतुओंसे जिनसे कि अनुमान भी होता है, अनुमानसे अग्राह्य अर्थात् अहङ्कार आदि विषयोंसे भिन्न मुझ सर्वप्रवर्तक ईश्वरको साक्षात् अनुभव करते है * ।। 23 ।। इस विषय में महात्मालोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास परम तेजस्वी अवधूत | दत्तात्रेय और राजा यदुके संवादके रूपमें है॥ 24 ॥ एक बार धर्मके मर्मज्ञ राजा यदुने देखा कि एक त्रिकालदर्शी तरुण अवधूत ब्राह्मण निर्भय विचर रहे हैं। तब उन्होंने उनसे यह प्रश्न किया ॥ 25 ॥राजा यदुने पूछा- ब्रह्मन् ! आप कर्म तो करते नहीं, फिर आपको यह अत्यन्त निपुण बुद्धि कहाँसे प्राप्त हुई? जिसका आश्रय लेकर आप परम विद्वान् होनेपर भी बालकके समान संसारमें विचरते रहते हैं ।। 26 ।। ऐसा देखा जाता है कि मनुष्य आयु, यश अथवा सौन्दर्य | सम्पत्ति आदिकी अभिलाषा लेकर ही धर्म, अर्थ, काम अथवा तत्त्व- जिज्ञासामें प्रवृत्त होते हैं; अकारण कहीं किसीकी प्रवृत्ति नहीं देखी जाती ।। 27 ।। मैं देख रहा हूँ कि आप कर्म करनेमें समर्थ विद्वान और निपुण हैं। आपका भाग्य और सौन्दर्य भी प्रशंसनीय है। आपकी | वाणीसे तो मानो अमृत टपक रहा है। फिर भी आप जड, उन्मत्त अथवा पिशाचके समान रहते हैं; न तो कुछ करते हैं और न चाहते ही हैं ।। 28 । संसारके अधिकांश लोग काम और लोभके दावानलसे जल रहे हैं। परन्तु आपको | देखकर ऐसा मालूम होता है कि आप मुक्त हैं, आपतक उसकी आँच भी नहीं पहुंच पाती ठीक वैसे ही जैसे कोई हाथी वनमें दावामि लगनेपर उससे छूटकर गङ्गाजल में खड़ा हो ।। 29 ।। ब्रह्मन्! आप पुत्र, स्त्री, धन आदि संसारके स्पर्शसे भी रहित हैं। आप सदा-सर्वदा अपने केवल स्वरूपमें ही स्थित रहते हैं। हम आपसे यह पूछना चाहते हैं कि आपको अपने आत्मामें ही ऐसे अनिर्वचनीय आनन्दका अनुभव कैसे होता है? आप कृपा करके अवश्य बतलाइये ॥ 30 ॥

भगवान् श्रीकृष्णने कहा- उद्धव ! हमारे पूर्वज महाराज यदुकी बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदयमें ब्राह्मण भक्ति थी। उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेयजीका अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्न पूछा और बड़े विनम्रभावसे सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये। अब दत्तात्रेयजीने कहा ॥ 31 ॥

ब्रह्मवेत्ता दत्तात्रेयजीने कहा- राजन् ! मैंने अपनी बुद्धिसे बहुत-से गुरुओका आश्रय लिया है, उनसे शिक्षा ग्रहण करके मैं इस जगत् में मुक्तभावसे स्वच्छन्द विचरता हूँ । तुम उन गुरुओंके नाम और उनसे ग्रहण की हुई शिक्षा सुनो ॥ 32 मेरे गुरुओके नाम है- पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंग, भौंरा या मधुमक्खी, हाथी, शहद निकालनेवाला, हरिन, मछली, पिङ्गला वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुंआरी कल्या बाण बनानेवाला, सर्प, मकड़ी और भृङ्गी कीट । 33-34राजन्। मैने इन चौबीस गुरुओंका आश्रय लिया है और इन्हींके आचरणसे इस लोकमें अपने लिये शिक्षा ग्रहण की है ।। 35 ।। वीरवर ययातिनन्दन। मैंने जिससे जिस प्रकार जो कुछ सीखा है, वह सब ज्यों-का-त्यों तुमसे कहता हूँ, सुनो ॥ 36 ॥

मैंने पृथ्वीसे उसके धैर्यकी, क्षमाकी शिक्षा ली है। लोग पृथ्वीपर कितना आघात और क्या- क्या उत्पात नहीं करते; परन्तु वह न तो किसीसे बदला लेती है और न रोती चिल्लाती है। संसारके सभी प्राणी अपने-अपने प्रारब्धके अनुसार चेष्टा कर रहे हैं, वे समय-समयपर भिन्न-भिन्न प्रकारसे जान या अनजानमें आक्रमण कर बैठते हैं। धीर पुरुषको चाहिये कि उनकी विवशता समझे, न तो अपना धीरज खोवे और न क्रोध करे। अपने मार्गपर ज्यों-का-त्यों | चलता रहे ॥ 37 ॥ पृथ्वीके ही विकार पर्वत और वृक्षसे मैंने यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे उनकी सारी चेष्टाएँ सदा सर्वदा दूसरोंके हितके लिये ही होती है, बल्कि यों कहना चाहिये कि उनका जन्म ही एकमात्र दूसरोंका हित करनेके लिये ही हुआ है, साधु पुरुषको चाहिये कि उनकी शिष्यता स्वीकार करके उनसे परोपकारकी शिक्षा ग्रहण करे ।। 38 ।।

मैंने शरीरके भीतर रहनेवाले वायु प्राणवायु यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वह आहारमात्रकी इच्छा रखता है और उसकी प्राप्तिसे ही सन्तुष्ट हो जाता है, वैसे ही साधकको भी चाहिये कि जितनेसे जीवन-निर्वाह हो जाय, उतना भोजन कर ले। इन्द्रियोंको तृप्त करनेके लिये बहुत-से विषय न चाहे। संक्षेपमें उतने ही विषयोंका उपयोग करना चाहिये, जिनसे बुद्धि विकृत न हो, मन चञ्चल न हो और वाणी व्यर्थकी बातोंमें न लग जाय ॥ 39 ॥ शरीरके बाहर रहनेवाले वायुसे मैंने यह सीखा है कि जैसे वायुको अनेक स्थानोंमें जाना पड़ता है, परन्तु वह कहीं भी आसक्त नहीं होता, किसीका भी गुण-दोष नहीं अपनाता, वैसे ही साधक पुरुष भी आवश्यकता होनेपर विभिन्न प्रकारके धर्म और स्वभाववाले विषयोंमें जाय, परन्तु अपने लक्ष्यपर स्थिर रहे। किसीके गुण या दोषकी ओर झुक न जाय, किसीसे आसक्ति या द्वेष न कर बैठे ॥ 40 ॥ गन्ध वायुका गुण नहीं, पृथ्वीका गुण है। परन्तु वायुको गन्धका वहन करना पड़ता है। ऐसा करनेपर भी वायु शुद्ध ही रहता है, गन्धसे | उसका सम्पर्क नहीं होता। वैसे ही साधकका जबतक इस पार्थिव शरीरसे सम्बन्ध है, तबतक उसे इसकी व्याधि पीड़ा और भूख-प्यास आदिका भी वहन करना पड़ता है। परन्तु अपनेको शरीर नहीं, आत्माके रूपमें देखनेवाला | साधक शरीर और उसके गुणोंका आश्रय होनेपर भी उनसे सर्वथा निर्लिप्त रहता है ।। 41 ।।राजन् ! जितने भी घट मठ आदि पदार्थ है, वे चाहे चल हो या अचल, उनके कारण भिन्न-भिन्न प्रतीत होनेपर भी वास्तवमें आकाश एक और अपरिच्छिन्न (अखण्ड) ही है। वैसे ही चर-अचर जितने भी सूक्ष्म-स्थूल शरीर है, उनमें आत्मारूपये सर्वत्र स्थित होनेके कारण महा सभी है। साधकको चाहिये कि सूतके मनिया के समान आत्माको अखण्ड और असङ्गरूपसे देखे। वह इतना विस्तृत है कि उसकी तुलना कुछ-कुछ आकाशसे ही की जा सकती है। इसलिये साधकको आत्माकी आकाशरूपताकी भावना करनी चाहिये ॥ 42 ॥ आग लगती है, पानी बरसता है, अन आदि पैदा होते और नष्ट होते हैं, वायुकी प्रेरणासे बादल आदि आते और चले जाते हैं; यह सब होनेपर भी आकाश अछूता रहता है। आकाशकी दृष्टिसे यह सब कुछ है ही नहीं। इसी प्रकार भूत, वर्तमान और भविष्यके चकरमें न जाने किन-किन नामरूपोंकी सृष्टि और प्रलय होते हैं; परन्तु आत्माके साथ उनका कोई संस्पर्श नहीं है ।। 43 ।।

जिस प्रकार जल स्वभावसे ही स्वच्छ, चिकना, मधुर और पवित्र करनेवाला होता है तथा गङ्गा आदि तीर्थकि दर्शन, स्पर्श और नामोचारणसे भी लोग पवित्र हो जाते हैं— वैसे ही साधकको भी स्वभावसे ही शुद्ध, स्रिग्ध, मधुरभाषी और लोकपाजन होना चाहिये। जलसे शिक्षा ग्रहण करनेवाला अपने दर्शन, स्पर्श और नामोशारणसे लोगोंको पवित्र कर देता है ।। 44 ।।

राजन् ! मैंने अग्निसे यह शिक्षा ली है कि जैसे वह तेजस्वी और ज्योतिर्मय होती है, जैसे उसे कोई अपने तेजसे दबा नहीं सकता, जैसे उसके पास संग्रह परिग्रहके लिये कोई पात्र नहीं – सब कुछ अपने पेटमें रख लेती है, और जैसे सब कुछ खा-पी लेनेपर भी विभिन्न वस्तुओंके दोषोंसे वह लिप्त नहीं होती वैसे ही साधक भी परम तेजस्वी, तपस्यासे देदीप्यमान इन्द्रियोंसे अपराभूत, भोजनमात्रका संग्रही और यथायोग्य सभी विषयोंका उपभोग करता हुआ भी अपने मन और इन्द्रियोंको वशमें रखे, किसीका दोष अपने में न आने दे ।। 45 ।। जैसे अग्नि कहीं (लकड़ी आदिमें) अप्रकट रहती है और कहीं प्रकट, वैसे ही साधक भी कहीं गुप्त रहे और कहीं प्रकट हो जाय। वह कहीं-कहीं ऐसे रूपमें भी प्रकट हो जाता है, जिससे कल्याणकामी पुरुष उसकी उपासना कर सके। वह अग्निके समान ही भिक्षारूप हवन करनेवालोंके अतीत और भावी अशुभको भस्म कर है। देता है तथा सर्वत्र अन्न ग्रहण करता है ।। 46 ।। साधक पुरुषको इसका विचार करना चाहिये कि जैसे अग्नि लम्बी चौड़ी, टेढ़ी-सीधी लकड़ियोंमें रहकर उनके समान ही सीधी-देवी या लम्बी-चौड़ी दिखायी पड़ती है-वास्तवमें वह वैसी है नहीं; वैसे ही सर्वव्यापक आत्मा भी अपनीमायासे रचे हुए कार्य-कारणरूप जगत्में व्याप्त होनेके कारण उन उन वस्तुओंके नाम-रूपसे कोई सम्बन्ध न होनेपर भी उनके रूपमें प्रतीत होने लगता है ।। 47 ।।

मैंने चन्द्रमासे यह शिक्षा ग्रहण की है कि यद्यपि जिसकी गति नहीं जानी जा सकती, उस कालके प्रभावसे चन्द्रमाकी कलाएँ घटती-बढ़ती रहती है, तथापि चन्द्रमा तो चन्द्रमा ही है, वह न घटता है और न बढ़ता ही है; वैसे ही जन्मसे लेकर मृत्यु पर्यन्त जितनी भी अवस्थाएँ हैं, सब शरीरकी है, आत्मासे उनका कोई भी सम्बन्ध नहीं है ।। 48 ।। जैसे आगकी लपट अथवा दीपककी लौ क्षण-क्षणमें उत्पन्न और नष्ट होती रहती है—उनका यह क्रम निरन्तर चलता रहता है, परन्तु दीख नहीं पड़ता-वैसे ही जलप्रवाहके समान वेगवान् कालके द्वारा क्षण-क्षणमें प्राणियोंके शरीरकी उत्पत्ति और विनाश होता रहता है, परन्तु अज्ञानवश वह दिखायी नहीं पड़ता ।। 49 ।।

राजन् मैंने सूर्यसे यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वे अपनी किरणोंसे पृथ्वीका जल खींचते और समयपर उसे बरसा देते हैं, वैसे ही योगी पुरुष इन्द्रियोंके द्वारा समयपर विषयोंका ग्रहण करता है और समय आनेपर उनका त्याग — उनका दान भी कर देता है। किसी भी समय उसे इन्द्रियके किसी भी विषयमें आसक्ति नहीं होती ।। 50 स्थूलबुद्धि पुरुषोंको जलके विभिन्न पात्रोंमें प्रतिबिम्बित हुआ सूर्य उन्होंमें प्रविष्ट सा होकर भिन्न-भिन्न दिखायी पड़ता है। परन्तु इससे स्वरूपतः सूर्य अनेक नहीं हो जाता; वैसे ही चल-अचल उपाधियोंके भेदसे ऐसा जान पड़ता है कि प्रत्येक व्यक्तिमें आत्मा अलग-अलग है। परन्तु जिनको ऐसा मालूम होता है, उनकी बुद्धि मोटी है। असल बात तो यह है कि आत्मा सूर्यके समान एक ही है। स्वरूपतः उसमें कोई भेद नहीं है ।। 51 ।।

राजन् कहीं किसीके साथ अत्यन्त स्नेह अथवा आसक्ति न करनी चाहिये, अन्यथा उसकी बुद्धि अपना स्वातन्त्र्य खोकर दीन हो जायगी और उसे कबूतरकी तरह अत्यन्त क्लेश उठाना पड़ेगा ॥ 52 ॥ राजन् किसी जंगलमें एक कबूतर रहता था, उसने एक पेड़पर अपना घोंसला बना रखा था। अपनी मादा कबूतरीके साथ वह कई वर्षोंतक उसी घोंसले रहा। 53 ।। उस कबूतर के जोड़के हृदयमें निरन्तर एक-दूसरेके प्रति स्नेहकी वृद्धि होती जाती थी। वे गृहस्थधर्म इतने आसक्त हो गये थे कि उन्होंने एक-दूसरेकी दृष्टि से दृष्टि, अङ्ग-से-अङ्ग और बुद्धि-से-बुद्धिको बाँध रखा था ।। 54 ।।उनका एक-दूसरेपर इतना विश्वास हो गया था कि वे निःश | होकर वहाँकी वृक्षावलीमें एक साथ सोते, बैठते, घूमते फिरते, ठहरते, बातचीत करते, खेलते और खाते-पीते थे ॥ 55 ॥ राजन् | कबूतरीपर कबूतरका इतना प्रेम था कि वह जो कुछ चाहती, कबूतर बड़े-से-बड़ा कष्ट उठाकर | उसकी कामना पूर्ण करता; वह कबूतरी भी अपने कामुक | पतिकी कामनाएँ पूर्ण करती ॥ 56 ॥ समय आनेपर कबूतरीको पहला गर्भ रहा। उसने अपने पतिके पास ही घोंसलेमें अंडे दिये ।। 57 ॥ भगवान्‌की अचिन्त्य शक्तिसे समय आनेपर वे अंडे फूट गये और उनसे हाथ-पैरवाले बच्चे निकल आये। उनका एक-एक अङ्ग और रोएँ अत्यन्त कोमल थे ॥ 58 ॥ अब उन कबूतर कबूतरीकी आँखें अपने बच्चोंपर लग गयीं, वे बड़े प्रेम और आनन्दसे अपने बच्चोंका लालन-पालन, लाड़-प्यार करते और उनकी मीठी बोली, उनकी गुटर-गूँ सुन-सुनकर आनन्दमय हो जाते ॥ 59 ॥ बच्चे तो सदा-सर्वदा प्रसन्न रहते ही हैं; वे जब अपने सुकुमार पंखोंसे माँ-बापका स्पर्श करते, कूजते, भोली-भाली चेष्टाएँ करते और फुदक-फुदककर अपने माँ आपके पास दौड़ आते तब कबूतर कबूतरी आनन्दमन हो जाते ॥ 60 ॥ राजन् ! सच पूछो तो वे कबूतर कबूतरी भगवान्की मायासे मोहित हो रहे थे। उनका हृदय एक दूसरेके स्नेहबन्धनसे वैध रहा था। ये अपने नन्हें-नन्हें बच्चोंके पालन-पोषण में इतने व्यय रहते कि उन्हें दीन दुनिया, लोक-परलोककी याद ही न आती ।। 61 ।। एक दिन दोनों नर-मादा अपने बच्चेक लिये चारा लाने जंगलमें गये हुए थे। क्योंकि अब उनका कुटुम्ब बहुत बढ़ गया था। ये चारेके लिये चिरकालतक जंगलमें चारों ओर विचरते रहे ।। 62 ।। इधर एक बहेलिया घूमता-घूमता संयोगवश उनके घोसलेकी ओर आ निकला। उसने देखा कि घोंसलेके आस-पास कबूतरके बसे फुदक रहे हैं; उसने जाल फैलाकर उन्हें पकड़ लिया ।। 63 ।। कबूतर कबूतरी | बशको खिलाने-पिलाने के लिये हर समय उत्सुक रहा करते थे। अब वे चारा लेकर अपने घोंसलेके पास आये ॥ 64 ॥ कबूतरीने देखा कि उसके नन्हें-नन्हें बच्चे, उसके हृदयके | टुकड़े जाल में फँसे हुए है और दुःखसे थेथे कर रहे हैं। उन्हें ऐसी स्थितिमें देखकर कबूतरीके दुःखकी सीमा न रही। वह रोती-चिल्लाती उनके पास दौड़ गयी ॥ 65 ॥भगवान्‌की मायासे उसका चित्त अत्यन्त दीन-दुःखी हो रहा था। वह उमड़ते हुए स्नेहकी रस्सीसे जकड़ी हुई थी; अपने बच्चोंको जालमें फँसा देखकर उसे अपने शरीरकी भी सुध-बुध न रही। और वह स्वयं ही जाकर जालमें फँस गयी ॥ 66 ॥ जब कबूतरने देखा कि मेरे प्राणोंसे भी प्यारे बच्चे जालमें फँस गये और मेरी प्राणप्रिया पत्नी भी उसी दशामें पहुँच गयी, तब वह अत्यन्त दुःखित होकर विलाप करने लगा। सचमुच उस समय उसकी दशा अत्यन्त दयनीय थी ॥ 67 ॥ ‘मैं अभागा हूँ, दुर्मति हूँ। हाय, हाय ! मेरा तो सत्यानाश हो गया। देखो, देखो, न मुझे अभी तृप्ति हुई और न मेरी आशाएँ ही पूरी हुईं। तबतक मेरा धर्म, अर्थ और कामका मूल यह गृहस्थाश्रम ही नष्ट हो गया ॥ 68 ॥ हाय ! मेरी प्राणप्यारी मुझे ही अपना इष्टदेव समझती थी; मेरी एक-एक बात मानती थी, मेरे इशारेपर नाचती थी, सब तरहसे मेरे योग्य थी। आज वह मुझे सूने घरमें छोड़कर हमारे सीधे-सादे निश्छल बच्चोंके साथ स्वर्ग सिधार रही है ।। 69 ।। मेरे बच्चे मर गये। मेरी पत्नी जाती रही। मेरा अब संसारमें क्या काम है ? मुझ दीनका यह विधुर जीवन बिना गृहिणीका जीवन जलनका- -व्यथाका जीवन है। अब मैं इस सूने घरमें किसके लिये जीऊँ ? ॥ 70 ॥ राजन् ! कबूतरके बच्चे जाल में फँसकर तड़फड़ा रहे थे, स्पष्ट दीख रहा था कि वे मौतके पंजे में हैं, परन्तु वह मूर्ख कबूतर यह सब देखते हुए भी इतना दीन हो रहा था कि स्वयं जान बूझकर जालमें कूद पड़ा ॥ 71 ॥ राजन् ! वह बहेलिया बड़ा क्रूर था। गृहस्थाश्रमी कबूतर कबूतरी और उनके बच्चोंके मिल जानेसे उसे बड़ी प्रसन्नता हुई; उसने समझा मेरा काम बन गया और वह उन्हें लेकर चलता बना ॥ 72 ॥ जो कुटुम्बी है विषयों और लोगोंके सङ्ग-साथमें ही जिसे सुख मिलता है एवं अपने कुटुम्बके भरण-पोषणमें ही जो सारी सुध-बुध खो बैठा है, उसे कभी शान्ति नहीं मिल सकती। वह उसी कबूतरके समान अपने कुटुम्बके साथ कष्ट पाता है ।। 73 ।। यह मनुष्य शरीर मुक्तिका खुला हुआ द्वार है। इसे पाकर भी जो कबूतरकी तरह अपनी घर-गृहस्थीमें ही फँसा हुआ है, वह बहुत ऊँचेतक चढ़कर गिर रहा है। शास्त्रकी भाषामें वह ‘आरूढ़च्युत’ है ॥ 74 ॥

अध्याय 8 अवधूतोपाख्यान अजगरसे लेकर पिंगला तक नौ गुरु

अवधूत दत्तात्रेयजी कहते हैं-राजन्! प्राणियोंको जैसे बिना इच्छाके, बिना किसी प्रयत्नके, रोकनेकी चेष्टा करनेपर भी पूर्वकर्मानुसार दुःख प्राप्त होते हैं, वैसे ही स्वर्गमें या नरकमें कहीं भी रहें, उन्हें इन्द्रियसम्बन्धी सुख भी प्राप्त होते ही हैं। इसलिये सुख और दुःखका रहस्य जाननेवाले बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि इनके लिये इच्छा अथवा किसी प्रकारका प्रयत्न न करे ॥ 1 ॥ बिना माँगे, बिना इच्छा किये स्वयं ही अनायास जो कुछ मिल जाय- – वह चाहे रूखा सूखा हो, चाहे बहुत मधुर और स्वादिष्ट अधिक हो या थोड़ा-बुद्धिमान् पुरुष अजगरके समान उसे ही खाकर जीवन-निर्वाह कर ले और उदासीन रहे ॥ 2 ॥ यदि भोजन न मिले तो उसे भी प्रारब्ध भोग समझकर किसी प्रकारकी चेष्टा न करे, बहुत दिनोंतक भूखा ही पड़ा रहे। उसे चाहिये कि अजगरके समान केवल प्रारब्धके अनुसार प्राप्त हुए भोजनमें ही सन्तुष्ट रहे || 3 | उसके शरीरमें मनोबल, इन्द्रियबल और देहबल तीनों हों तब भी वह निश्चेष्ट ही रहे। निद्रारहित होनेपर भी सोया हुआ-सा रहे और कर्मेन्द्रियोंके होनेपर भी उनसे कोई चेष्टा न करे। राजन्! मैंने अजगरसे यही शिक्षा ग्रहण की है ।। 4 ।

समुद्रसे मैंने यह सोखा है कि साधकको सर्वदा प्रसन्न और गम्भीर रहना चाहिये, उसका भाव अथाह, अपार और असीम होना चाहिये तथा किसी भी निमित्तसे उसे क्षोभ न होना चाहिये। उसे ठीक वैसे ही रहना चाहिये, जैसे ज्वार भाटे और तरङ्गोंसे रहित शान्त समुद्र ॥ 5 ॥ देखो, समुद्र वर्षाऋतुमें नदियोंकी बाढ़ के कारण बढ़ता नहीं और न ग्रीष्म ऋतुमें घटता ही है; वैसे ही भगवत्परायण साधकको भी सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्तिसे प्रफुल्लित न होना चाहिये और न उनके घटनेसे उदास ही होना चाहिये ॥ 6 ॥

राजन् ! मैंने पतिंगेसे यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वह रूपपर मोहित होकर आगमें कूद पड़ता है और जल मरता है, वैसे ही अपनी इन्द्रियोंको वशमें न रखनेवाला पुरुष जब स्त्रीको देखता है तो उसके हाव-भावपर लट्टू हो जाता है और घोर अन्धकारमें, नरकमें गिरकर अपना सत्यानाश कर लेता है। सचमुच स्त्री देवताओंकी वह माया है, जिससे जीव भगवान् या मोक्षकी प्राप्तिसे वञ्चित रह जाता है ॥ 7 ॥ जो मूढ़ कामिनी-कञ्चन, गहने-कपड़े आदि नाशवान् मायिक पदार्थों में फँसा हुआ है और जिसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्ति उनके उपभोगके लिये ही लालायित है, वह अपनी बुद्धि खोकर पतिगेके समान नष्ट हो जाता है 8 ॥राजन् ! संन्यासीको चाहिये कि गृहस्थोंको किसी प्रकारका कष्ट न देकर भौंरेकी तरह अपना जीवन-निर्वाह करे। वह अपने शरीरके लिये उपयोगी रोटीके कुछ टुकड़े कई घरोंसे माँग ले * ॥ 9 ॥ जिस प्रकार भौरा विभिन्न पुष्पोंसे—चाहे वे छोटे हों या बड़े-उनका सार संग्रह करता है, वैसे ही बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि छोटे-बड़े सभी शास्त्रोंसे उनका सार—उनका रस निचोड़ ले ॥ 10 ॥ राजन् ! मैंने मधुमक्खीसे यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासीको सायङ्काल अथवा दूसरे दिनके लिये भिक्षाका संग्रह न करना चाहिये। उसके पास भिक्षा लेनेको कोई पात्र हो तो केवल हाथ और रखनेके लिये कोई बर्तन हो तो पेट। वह कहीं संग्रह न कर बैठे, नहीं तो मधुमक्खियोंके समान उसका जीवन ही दूभर हो जायगा ॥ 11 ॥ यह बात खूब समझ लेनी चाहिये कि संन्यासी सबेरे-शामके लिये किसी प्रकारका संग्रह न करे; यदि संग्रह करेगा, तो मधुमक्खियोंके समान अपने संग्रहके साथ ही जीवन भी गँवा बैठेगा ॥ 12 ॥

राजन् ! मैंने हाथीसे यह सीखा कि संन्यासीको कभी पैरसे भी काठकी बनी हुई स्त्रीका भी स्पर्श न करना चाहिये । यदि वह ऐसा करेगा तो जैसे हथिनीके अङ्ग सङ्गसे हाथी बँध जाता है, वैसे ही वह भी बँध जायगा + ॥ 13 ॥ विवेकी पुरुष किसी भी स्त्रीको कभी भी भोग्यरूपसे स्वीकार न करे; क्योंकि यह उसकी मूर्तिमती मृत्यु है। यदि वह स्वीकार करेगा तो हाथियोंसे हाथीकी तरह अधिक बलवान् अन्य पुरुषोंके द्वारा मारा जायगा ।। 14 ।।

मैंने मधु निकालनेवाले पुरुषसे यह शिक्षा ग्रहण की है कि संसारके लोभी पुरुष बड़ी कठिनाईसे धनका सञ्चय तो करते रहते हैं, किन्तु वह सञ्चित धन न किसीको दान करते हैं और न स्वयं उसका उपभोग ही करते हैं। बस, जैसे मधु निकालनेवाला मधुमक्खियोंद्वारा सञ्चित रसको निकाल ले जाता है, वैसे ही उनके सञ्चित धनको भी उसकी टोह रखनेवाला कोई दूसरा पुरुष ही भोगता है ॥ 15 ॥तुम देखते हो न कि मधुहारी मधुमक्खियोंका जोड़ा हुआ मधु उनके खानेसे पहले ही साफ कर जाता है; वैसे ही गृहस्थोंके बहुत कठिनाईसे सञ्चित किये पदार्थोंको, जिनसे वे सुखभोगकी अभिलाषा रखते हैं, उनसे भी पहले संन्यासी और ब्रह्मचारी भोगते हैं। क्योंकि गृहस्थ तो पहले अतिथि अभ्यागतोंको भोजन कराकर ही स्वयं भोजन करेगा ॥ 16 ॥

मैंने हरिनसे यह सीखा है कि वनवासी संन्यासीको कभी विषय सम्बन्धी गीत नहीं सुनने चाहिये। वह इस बातकी शिक्षा उस हरिनसे ग्रहण करे, जो व्याचके गीतसे मोहित होकर बंध जाता है ॥ 17 ॥ तुम्हें इस बातका पता है कि हरिनीके गर्भ से पैदा हुए ऋष्यशृङ्ग मुनि स्त्रियोंका विषय-सम्बन्धी गाना बजाना, नाचना आदि देख-सुनकर उनके वशमें हो गये थे और उनके हाथकी कठपुतली बन गये थे ॥ 18 ॥

अब मैं तुम्हें मछलीको सौख सुनाता हूँ। जैसे मछली काँटेमें लगे हुए मांसके टुकड़ेके लोभसे अपने प्राण गँवा देती है, वैसे ही स्वादका लोभी दुर्बुद्धि मनुष्य भी मनको मथकर व्याकुल कर देनेवाली अपनी जिलाके वशमें हो जाता है और मारा जाता है ॥ 19 ॥ विवेकी पुरुष भोजन बंद करके दूसरी इन्द्रियोंपर तो बहुत शीघ्र विजय प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु इससे उनकी रसना इन्द्रिय वशमें नहीं होती। वह तो भोजन बंद कर देनेसे और भी प्रबल हो जाती है ॥ 20 ॥ मनुष्य और सब इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर लेनेपर भी तबतक जितेन्द्रिय नहीं हो सकता, जबतक रसनेन्द्रियको अपने वशमें नहीं कर लेता और यदि रसनेन्द्रियको वशमें कर लिया, तब तो मानो सभी इन्द्रियाँ ” वशमें हो गयीं ॥ 21 ॥

नृपनन्दन। प्राचीन कालकी बात है, विदेहनगरी मिथिलामें एक वेश्या रहती थी। उसका नाम था पिङ्गला मैंने उससे जो कुछ शिक्षा ग्रहण की, वह मैं तुम्हे सुनाता हूँ सावधान होकर सुनो ॥ 22 ॥ वह स्वेच्छाचारिणी तो थी ही, रूपवती भी थी। एक दिन रात्रिके समय किसी पुरुषको अपने रमणस्थानमे लानेके लिये खूब बन उनकर उत्तम वस्त्राभूषणोंसे सजकर बहुत देरतक अपने घर के बाहरी दरवाजेपर खड़ी रही ।। 23 ॥ नररत्न ! उसे पुरुषकी नहीं, धनकी कामना थी और उसके मनमे यह कामना इतनी दृढमूल हो गयी थी कि वह किसी भी पुरुषको उधरसे आते-जाते देखकर यही सोचती कि यह कोई धनी है और मुझे धन देकर उपभोग करनेके लिये ही आ रहा है ।। 24 ।।जब आने-जानेवाले आगे बढ़ जाते, तब फिर वह सङ्केतजीविनी वेश्या यही सोचती कि अवश्य ही अबकी बार कोई ऐसा धनी मेरे पास आवेगा जो मुझे बहुत-सा धन | देगा ॥ 25 ॥ उसके चित्तकी यह दुराशा बढ़ती ही जाती थी। | वह दरवाजेपर बहुत देरतक टँगी रही। उसकी नींद भी जाती रही। वह कभी बाहर आती तो कभी भीतर जाती। इस प्रकार | आधी रात हो गयी ॥ 26 ॥ राजन् ! सचमुच आशा और सो भी धनकी— बहुत बुरी है। धनीकी बाट जोहते-जोहते | उसका मुँह सूख गया, चित्त व्याकुल हो गया। अब उसे इस वृत्तिसे बड़ा वैराग्य हुआ। उसमें दुःख बुद्धि हो गयी। इसमें सन्देह नहीं कि इस वैराग्यका कारण चिन्ता ही थी। परन्तु ऐसा वैराग्य भी है तो सुखका ही हेतु ॥ 27 ॥ जब पिङ्गलाके चित्तमें इस प्रकार वैराग्यकी भावना जाग्रत् हुई, तब उसने एक गीत गाया। वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ। राजन् ! मनुष्य आशाकी फाँसी पर लटक रहा है। इसको तलवारकी तरह काटनेवाली यदि कोई वस्तु है तो वह केवल वैराग्य है ॥ 28 ॥ प्रिय राजन् ! जिसे वैराग्य नहीं हुआ है, जो इन बखेड़ोंसे ऊबा नहीं है, वह शरीर और इसके बन्धनसे उसी प्रकार मुक्त नहीं होना चाहता, जैसे अज्ञानी पुरुष ममता छोड़नेकी इच्छा भी नहीं करता ॥ 29 ॥

पिङ्गलाने यह गीत गाया था – हाय! हाय! मैं इन्द्रियोंके अधीन हो गयी। भला ! मेरे मोहका विस्तार तो देखो, मैं इन दुष्ट पुरुषोंसे, जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है, विषयसुखकी लालसा करती हूँ। कितने दुःखकी बात है ! मैं सचमुच मूर्ख हूँ ॥ 30 ॥ देखो तो सही, मेरे निकट-से निकट हृदयमें ही मेरे सच्चे स्वामी भगवान् विराजमान हैं। वे वास्तविक प्रेम, सुख और परमार्थका सच्चा धन भी देनेवाले हैं। जगत्के पुरुष अनित्य हैं और वे नित्य हैं। हाय ! हाय ! मैंने उनको तो छोड़ दिया और उन तुच्छ मनुष्योंका सेवन किया, जो मेरी एक भी कामना पूरी नहीं कर सकते; उलटे दुःख-भय, आधि-व्याधि, शोक और मोह ही देते हैं। यह मेरी मूर्खताकी हद है कि मैं उनका सेवन करती हूँ ॥ 31 ॥ बड़े खेदकी बात है, मैंने अत्यन्त निन्दनीय आजीविका वेश्यावृत्तिका आश्रय लिया और व्यर्थमें अपने शरीर और मनको क्लेश दिया, पीड़ा पहुँचायी। मेरा यह शरीर बिक गया । लम्पट, लोभी और निन्दनीय मनुष्योंने इसे खरीद लिया है और मैं इतनी मूर्ख हूँ कि इसी शरीरसे धन और रति-सुख चाहती हूँ। मुझे धिक्कार है ! ॥ 32 ॥यह शरीर एक घर है। इसमें हड्डियोंके टेढ़े-तिरछे बाँस और खंभे लगे हुए हैं, चाम, रोएँ और नाखूनोंसे यह छाया गया है। इसमें नौ दरवाजे हैं, जिनसे मल निकलते ही रहते हैं। इसमें सञ्चित सम्पत्तिके नामपर केवल मल और मूत्र हैं। मेरे अतिरिक्त ऐसी कौन स्त्री है, जो इस स्थूल शरीरको अपना प्रिय समझकर सेवन करेगी ॥ 33 ॥ यों तो यह विदेहोंकी – जीवन्मुक्तोंकी नगरी है, परन्तु इसमें मैं ही सबसे मूर्ख और दुष्ट हूँ, क्योंकि अकेली मैं ही तो आत्मदानी, अविनाशी एवं परमप्रियतम परमात्माको छोड़कर दूसरे | पुरुषकी अभिलाषा करती हूँ ।। 34 ।। मेरे हृदयमें विराजमान प्रभु, समस्त प्राणियोंके हितैषी, सुहृद, प्रियतम, स्वामी और आत्मा हैं। अब मैं अपने-आपको देकर इन्हें खरीद लूँगी और इनके साथ वैसे ही विहार करूंगी, जैसे लक्ष्मीजी करती हैं ।। 35 ।। मेरे मूर्ख चित्त! तू बतला तो सही, जगत्के विषयभोगोंने और उनको देनेवाले पुरुषोंने तुझे कितना सुख दिया है। अरे! वे तो स्वयं ही पैदा होते और मरते रहते हैं। मैं केवल अपनी ही बात नहीं कहती, केवल मनुष्योंकी भी नहीं; क्या देवताओंने भी भोगोंके द्वारा अपनी पत्नियोंको सन्तुष्ट किया है ? वे बेचारे तो स्वयं कालके गालमें पड़े-पड़े कराह रहे हैं ॥ 36 ॥ अवश्य ही मेरे किसी शुभकर्मसे विष्णु भगवान् मुझपर प्रसन्न हैं, तभी तो दुराशासे मुझे इस प्रकार वैराग्य हुआ है ।। अवश्य ही मेरा यह वैराग्य सुख | देनेवाला होगा ॥ 37 ॥ यदि मैं मन्दभागिनी होती तो मुझे ऐसे दुःख ही न उठाने पड़ते, जिनसे वैराग्य होता है। मनुष्य वैराग्यके द्वारा ही घर आदिके सब बन्धनोंको काटकर शान्तिलाभ करता है ।। 38 ।। अब मैं भगवान्‌का यह उपकार आदरपूर्वक सिर झुकाकर स्वीकार करती हूँ और विषयभोगोंकी दुराशा छोड़कर उन्हीं जगदीश्वरको शरण | ग्रहण करती हूँ ।। 39 ।। अब मुझे प्रारब्धके अनुसार जो कुछ मिल जायगा, उसीसे निर्वाह कर लूँगी और बड़े सन्तोष तथा श्रद्धाके साथ रहूँगी। मैं अब किसी दूसरे पुरुषकी ओर न ताककर अपने हृदयेश्वर, आत्मस्वरूप प्रभुके साथ ही विहार करूँगी ॥ 40 ॥ यह जीव संसारके कूएँमें गिरा हुआ है। विषयोंने इसे अंधा बना दिया है, कालरूपी अजगरने इसे अपने मुँहमें दबा रखा है। अब भगवान्‌को छोड़कर इसकी रक्षा करनेमें दूसरा कौन समर्थ है । 41 ।। जिस समय जीव समस्त विषयोंसे विरक्त हो जाता है, उस समय वह स्वयं ही अपनी रक्षा कर लेता है। इसलिये बड़ी सावधानीके साथ यह देखते रहना चाहिये कि सारा जगत् कालरूपी अजगरसे ग्रस्त है ।। 42 ।।अवधूत दत्तात्रेयजी कहते हैं- राजन् ! पिङ्गला वेश्याने ऐसा निश्चय करके अपने प्रिय धनियोंकी दुराशा, उनसे मिलनेकी लालसाका परित्याग कर दिया और शान्तभावसे जाकर वह अपनी सेजपर सो रही ॥ 43 ॥ सचमुच आशा ही सबसे बड़ा दुःख है और निराशा ही सबसे बड़ा सुख है; क्योंकि पिङ्गला वेश्याने जब पुरुषकी आशा त्याग दी, तभी वह सुखसे सो सकी ॥ 44 ॥

अध्याय 9 अवधूतोपाख्यान – क्रूररसे लेकर भृङ्गीतक सात गुरु

अवधूत दत्तात्रेयजीने कहा- राजन्। मनुष्यों को जो वस्तुएँ अत्यन्त प्रिय लगती है, उन्हें इकट्ठा करना हो उनके दुःखका कारण है। जो बुद्धिमान् पुरुष यह बात समझकर अकिञ्चनभावसे रहता है— शरीरकी तो बात ही अलग, मनसे भी किसी वस्तुका संमह नहीं करता- तसे अनन्त सुखस्वरूप परमात्माकी प्राप्ति होती है ।। 1 ।। एक कुररपक्षी अपनी चोंच मांसका टुकड़ा लिये हुए था। उस समय दूसरे बलवान् पक्षी, जिनके पास मोस नहीं था, उससे छीननेके लिये उसे घेरकर चौथे मारने लगे। जब कुररपक्षीने अपनी चोंचसे मांसका टुकड़ा फेंक दिया, तभी उसे सुख मिला ॥ 2 ॥

मुझे मान या अपमानका कोई ध्यान नहीं है और घर एवं परिवारवालोंको जो चिन्ता होती है, वह मुझे नहीं है। मैं अपने आत्मामें ही रमता हूँ और अपने साथ ही क्रीडा करता हूँ। यह शिक्षा मैंने बालकसे ली है। अतः उसीके समान मैं भी मौजसे रहता हूँ ॥ 3 ॥ इस जगत्‌में दो ही प्रकारके व्यक्ति निश्चिन्त और परमानन्दमें मम रहते हैं एक तो भोलाभाला निक्षेष्ट नन्हा सा बालक और दूसरा वह पुरुष जो गुणातीत हो गया हो ॥ 4 ॥

एक बार किसी कुमारी कन्याके घर उसे वरण करनेके लिये कई लोग आये हुए थे। उस दिन उसके घरके लोग कहीं बाहर गये हुए थे। इसलिये उसने स्वयं ही | उनका आतिथ्यसत्कार किया ॥ 5 ॥राजन्। उनको भोजन करानेके लिये वह घरके भीतर एकान्तमें धान कूटने लगी। उस समय उसकी कलाईमें पड़ी शंखकी चूड़ियाँ जोर-जोर से बज रही थीं ॥ 6 ॥ इस शब्दको निन्दित समझकर कुमारीको बड़ी लज्जा मालूम हुई और उसने एक-एक करके सब चूड़ियाँ तोड़ डाली और दोनों हाथोंमें केवल दो-दो चूड़ियाँ रहने दीं ॥ 7 ॥ अब वह फिर धान कूटने लगी। परन्तु वे दो-दो चूड़ियाँ भी बजने लगीं, तब उसने एक-एक चूड़ी और तोड़ दी। जब दोनों कलाइयोंमें केवल एक-एक चूड़ी रह गयी, तब किसी प्रकारकी आवाज नहीं हुई ॥ 8 ॥ रिपुदमन ! उस समय लोगोंका आचार-विचार निरखने-परखनेके लिये इधर-उधर घूमता घामता में भी वहाँ पहुँच गया था। मैंने उससे यह शिक्षा ग्रहण की कि जब बहुत लोग एक साथ रहते हैं तब कलह होता है और दो आदमी साथ रहते हैं तब भी बातचीत तो होती ही है; इसलिये कुमारी कन्याकी यूँडीके समान अकेले ही विचरना चाहिये ।। 9-10 ।। राजन् ! मैने बाण बनानेवालेसे यह सीखा है कि आसन और श्वासको जीतकर वैराग्य और अभ्यासके द्वारा अपने मनको वशमें कर ले और फिर बड़ी सावधानी के साथ उसे एक लक्ष्यमें लगा दे ॥ 11 ॥ जब परमानन्दस्वरूप परमात्मामें मन स्थिर हो जाता है, तब वह धीरे-धीरे कर्मवासनाओंकी धूलको घो बहाता है। सत्त्वगुणकी वृद्धिसे रजोगुणी और तमोगुणी वृत्तियोका त्याग करके मन वैसे ही शान्त हो जाता है, जैसे ईंधनके बिना अभि ।। 12 ।। इस प्रकार जिसका चित्त अपने आत्मामें ही स्थिर — निरुद्ध हो जाता है, उसे बाहर-भीतर कहीं किसी पदार्थका भान नहीं होता। मैंने देखा था कि एक बाण बनानेवाला कारीगर बाण बनानेमें इतना तन्मय हो रहा था कि उसके पाससे ही दलबल के साथ राजाकी सवारी निकल गयी और उसे पतातक न चला ॥ 13 ॥

राजन्! मैंने साँपसे यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासीको सर्पकी भांति अकेले ही विचरण करना चाहिये, उसे मण्डली नहीं बाँधनी चाहिये, मठ तो बनाना ही नहीं चाहिये। वह एक स्थानमें न रहे, प्रमाद न करे, गुहा आदिमें पड़ा रहे, बाहरी आचारोंसे पहचाना न जाय। किसीसे सहायता न ले और बहुत कम बोले || 14 || इस अनित्य | शरीरके लिये घर बनानेके बड़े पड़ना व्यर्थ और दुःखको जड़ है। साँप दूसरोंके बनाये घरमें घुसकर बड़े आरामसे अपना समय काटता है ।। 15 ।।अब मकड़ीसे ली हुई शिक्षा सुनो। सबके प्रकाशक और अन्तर्यामी सर्वशक्तिमान् भगवान्ने पूर्वकल्पमें बिना | किसी अन्य सहायकके अपनी ही मायासे रचे हुए जगत्‌को कल्पके अन्तमें (प्रलयकाल उपस्थित होनेपर) कालशक्तिके द्वारा नष्ट कर दिया—उसे अपनेमें लीन कर लिया और सजातीय, विजातीय तथा स्वगतभेदसे शून्य अकेले ही शेष रह गये। वे सबके अधिष्ठान हैं, सबके आश्रय हैं; परन्तु स्वयं अपने आश्रय- अपने ही आधारसे रहते हैं, उनका कोई दूसरा आधार नहीं है। वे प्रकृति और पुरुष दोनोंके नियामक, कार्य और कारणात्मक जगत्के आदिकारण परमात्मा अपनी शक्ति कालके प्रभावसे सत्त्व-रज आदि समस्त शक्तियोंको साम्यावस्थामें पहुँचा देते हैं और स्वयं कैवल्यरूपसे एक और अद्वितीय रूपसे विराजमान रहते हैं। वे केवल अनुभवस्वरूप और आनन्दघन मात्र हैं। किसी भी प्रकारकी उपाधिका उनसे सम्बन्ध नहीं है। वे ही प्रभु केवल अपनी शक्ति कालके द्वारा अपनी त्रिगुणमयी मायाको क्षुब्ध करते हैं और उससे पहले क्रियाशक्ति प्रधान सूत्र (महत्तत्त्व ) की रचना करते हैं। यह सूत्ररूप महत्तत्त्व ही तीनों गुणोंकी पहली अभिव्यक्ति है, वही सब प्रकारकी सृष्टिका मूल कारण है। | उसीमें यह सारा विश्व, सूतमें ताने-बानेकी तरह ओतप्रोत है और इसीके कारण जीवको जन्म-मृत्युके चक्करमें पड़ना पड़ता है ॥ 16-20 ॥ जैसे मकड़ी अपने हृदयसे मुँहके द्वारा जाला फैलाती है, उसीमें विहार करती है और फिर उसे निगल जाती है, वैसे ही परमेश्वर भी इस जगत्को अपनेमेंसे उत्पन्न करते हैं, उसमें जीवरूपसे विहार करते हैं और फिर उसे अपनेमें लीन कर लेते हैं ॥ 21 ॥

राजन्। मैंने भृङ्गी (बिलनी) कीड़ेसे यह शिक्षा ग्रहण की है कि यदि प्राणी स्नेहसे, द्वेषसे अथवा भयसे भी जान-बूझकर एकाग्ररूपसे अपना मन किसीमें लगा दे तो उसे उसी वस्तुका स्वरूप प्राप्त हो जाता है ॥ 22 ॥ राजन्। जैसे भृङ्गी एक कीड़ेको ले जाकर दीवारपर अपने रहनेकी जगह बंद कर देता है और वह कीड़ा भयसे उसीका चिन्तन करते-करते अपने पहले शरीरका त्याग | किये बिना ही उसी शरीरसे तद्रूप हो जाता है * ॥ 23 ॥राजन् ! इस प्रकार मैंने इतने गुरुओंसे ये शिक्षाएँ ग्रहण की। अब मैंने अपने शरीरसे जो कुछ सीखा है, वह तुम्हें बताता हूँ, सावधान होकर सुनो ॥ 24 ॥ यह शरीर भी मेरा गुरु ही है; क्योंकि यह मुझे विवेक और वैराग्यकी शिक्षा देता है। मरना और जीना तो इसके साथ लगा ही रहता है। इस शरीरको पकड़ रखनेका फल यह है कि दुःख-पर दुःख भोगते जाओ। यद्यपि इस शरीरसे तत्त्वविचार करनेमें सहायता मिलती है, तथापि मैं इसे अपना कभी नहीं समझता; सर्वदा यही निश्चय रखता हूँ कि एक दिन इसे सियार कुत्ते खा जायेंगे। इसीलिये मैं इससे असङ्ग होकर विचरता हूँ ।। 25 । जीव जिस शरीरका प्रिय करनेके लिये ही अनेकों प्रकारकी कामनाएँ और कर्म करता है तथा स्त्री पुत्र, धन-दौलत, हाथी-घोड़े, नौकर-चाकर, घर-द्वार और भाई-बन्धुओंका विस्तार करते हुए उनके पालन-पोषण में लगा रहता है। बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ सहकर धनसञ्चय करता है। आयुष्य पूरी होनेपर वही शरीर स्वयं तो नष्ट होता ही है, वृक्षके समान दूसरे शरीर के लिये बीज बोकर उसके लिये भी दुःखकी व्यवस्था कर जाता है ।। 26 । जैसे बहुत-सी सौतें अपने एक पतिको अपनी-अपनी ओर खींचती हैं, वैसे ही जीवको जीभ एक ओर – स्वादिष्ट पदार्थोंकी ओर खींचती है तो प्यास दूसरी ओर जलकी ओर; जननेन्द्रिय एक ओर स्त्रीसंभोगकी ओर ले जाना चाहती है तो त्वचा, पेट और कान दूसरी ओर कोमल स्पर्श, भोजन और मधुर शब्दकी ओर खींचने लगते हैं नाक कहीं सुन्दर गन्ध सूँघनेके लिये ले जाना चाहती है तो चञ्चल नेत्र कहीं दूसरी ओर सुन्दर रूप देखनेके लिये। इस प्रकार कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ दोनों ही इसे सताती रहती हैं॥ 27 ॥ वैसे तो भगवान् ने अपनी अचिन्त्य शक्ति मायासे वृक्ष, सरीसृप ( रेंगनेवाले जन्तु) पशु, पक्षी, डाँस और मछली आदि अनेकों प्रकारकी योनियाँ रचीं, परन्तु उनसे उन्हें सन्तोष न हुआ। तब उन्होंने मनुष्यशरीरकी सृष्टि की। यह ऐसी बुद्धिसे युक्त है, जो अाका साक्षात्कार कर सकती है। इसकी रचना करके वे बहुत आनन्दित हुए ॥ 28 ॥ यद्यपि यह मनुष्यशरीर है तो अनित्य ही मृत्यु सदा इसके पीछे लगी रहती है। परन्तु इससे परमपुरुषार्थकी प्राप्ति हो सकती है; इसलिये अनेक जन्मोंके बाद यह अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य शरीर पाकर बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि शीघ्र से शीघ्र, मृत्युके पहले ही मोक्ष प्राप्तिका प्रयत्न कर ले। इस जीवनका मुख्य उद्देश्य मोक्ष ही है। विषय भोग तो सभी योनियोंमे प्राप्त हो सकते हैं, इसलिये उनके संग्रहमें यह अमूल्य जीवन नहीं खोना चाहिये ॥ 29 ॥राजन् ! यही सब सोच-विचारकर मुझे जगत्से वैराग्य हो गया। मेरे हृदयमें ज्ञान-विज्ञानकी ज्योति जगमगाती रहती है। न तो कहीं मेरी आसक्ति है और न कहीं अहङ्कार ही। अब मैं स्वच्छन्दरूपसे इस पृथ्वीमें विचरण करता हूँ ॥ 30 ॥ राजन् ! अकेले गुरुसे ही यथेष्ट और सुदृढ़ बोध नहीं होता, उसके लिये अपनी बुद्धिसे भी बहुत कुछ सोचने-समझनेकी आवश्यकता है। देखो! ऋषियोंने एक ही अद्वितीय ब्रह्मका अनेकों प्रकारसे गान किया है। (यदि तुम स्वयं विचारकर निर्णय न करोगे, तो ब्रह्मके वास्तविक स्वरूपको कैसे जान सकोगे ? ) ॥ 31 ॥

भगवान् श्रीकृष्णने कहा- प्यारे उद्धव ! गम्भीरबुद्धि अवधूत दत्तात्रेयने राजा यदुको इस प्रकार उपदेश किया। यदुने उनकी पूजा और वन्दना की, दत्तात्रेयजी उनसे अनुमति लेकर बड़ी प्रसन्नतासे इच्छानुसार पधार गये ॥ 32 ॥ हमारे पूर्वजोंके भी पूर्वज राजा यदु अवधूत दत्तात्रेयकी यह बात सुनकर समस्त आसक्तियोंसे छुटकारा पा गये और समदर्शी हो गये। (इसी प्रकार तुम्हें भी समस्त आसक्तियोंका परित्याग करके समदर्शी हो जाना चाहिये) ॥ 33 ॥

अध्याय 10 लौकिक तथा पारलौकिक भोगोंकी असारताका निरूपण

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-प्यारे उद्धव । साधकको चाहिये कि सब तरहसे मेरी शरणमे रहकर (गीता पाञ्चरात्र आदिमें) मेरे द्वारा उपदिष्ट अपने धर्मोका सावधानीसे पालन करे। साथ ही जहाँतक उनसे विरोध न हो वहाँतक निष्कामभाव से अपने वर्ग आश्रम और कुलके अनुसार सदाचारका भी अनुष्ठान करे ॥ 1 ॥ निष्काम होनेका उपाय यह है कि स्वधर्मोका पालन करनेसे शुद्ध हुए अपने चित्तमें यह विचार करे कि जगत्‌केविषयी प्राणी शब्द, स्पर्श, रूप आदि विषयोंको सत्य समझकर उनकी प्राप्तिके लिये जो प्रयत्न करते हैं, उसमें उनका उद्देश्य हो यह होता है कि सुख मिले, परन्तु मिलता है दुःख ॥ 2॥इसके सम्बन्धमें ऐसा विचार करना चाहिये कि स्वप्न अवस्थामें और मनोरथ करते समय जाग्रत अवस्थामें भी मनुष्य मन-ही मन अनेकों प्रकारके विषयोंका अनुभव करता है, परन्तु उसकी वह सारी कल्पना वस्तुशून्य होनेके कारण व्यर्थ है। वैसे ही इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाली भेदबुद्धि भी व्यर्थ ही है, क्योंकि यह भी इन्द्रियजन्य और नाना वस्तुविषयक होनेके कारण पूर्ववत् असत्य ही है ॥ 3 ॥ जो पुरुष मेरी शरणमें है, उसे अन्तर्मुख करनेवाले निष्काम अथवा नित्यकर्म ही करने चाहिये। उन कर्मोंका बिलकुल परित्याग कर देना चाहिये, जो बहिर्मुख बनानेवाले अथवा सकाम हो। जब आत्मज्ञानकी उत्कट इच्छा जाग उठे, तब तो कर्मसम्बन्धी विधि-विधानोंका भी आदर नहीं करना चाहिये ॥ 4 ॥ अहिंसा आदि यमोंका तो आदरपूर्वक सेवन करना चाहिये, परन्तु शौच (पवित्रता) आदि नियमोंका पालन शक्तिके अनुसार और आत्मज्ञानके विरोधी न होनेपर ही करना चाहिये जिज्ञासु पुरुषके लिये यम और नियमोंके पालनसे भी बढ़कर आवश्यक बात यह है कि वह अपने गुरुकी, जो मेरे स्वरूपको जाननेवाले और शान्त हो, मेरा ही स्वरूप समझकर सेवा करे ॥ 5 ॥ शिष्यको अभिमान न करना चाहिये। वह कभी किसीसे डाह न करे-किसीका बुरा न सोचे। वह प्रत्येक कार्यमें कुशूल हो—उसे आलस्य छू न जाय। उसे कहीं भी ममता न हो, गुरुके चरणोंमें दृढ़ अनुराग हो। कोई कार्म हड़बड़ाकर न करे—उसे सावधानीसे पूरा करे। सदा परमार्थके सम्बन्धमें ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छा बनाये रखे। किसीके गुणोंमें दोष न निकाले और व्यर्थकी बात न | करे ॥ 6 ॥ जिज्ञासुका परम धन है आत्मा; इसलिये वह स्त्री पुत्र, घर-खेत, स्वजन और धन आदि सम्पूर्ण पदार्थोंमें एक सम आत्माको देखे और किसीमें कुछ विशेषताका आरोप करके उससे ममता न करे, उदासीन रहे ॥ 7 ॥ उद्धव ! जैसे जलनेवाली लकड़ीसे उसे जलाने और प्रकाशित करनेवाली आग सर्वथा अलग है। ठीक वैसे ही विचार करनेपर जान पड़ता है कि पञ्चभूतोंका बना स्थूलशरीर और मन-बुद्धि आदि सत्रह तत्त्वोका बना सूक्ष्मशरीर दोनों ही दृश्य और जड़ हैं। तथा उनको जानने और प्रकाशित करनेवाला आत्मा साक्षी एवं स्वयंप्रकाश है। शरीर अनित्य, अनेक एवं जड हैं। आत्मा नित्य, एक एवं चेतन है। इस प्रकार देहको अपेक्षा आत्मामे महान् विलक्षणता है। अतएव देहसे आत्मा भिन्न है ॥ 8 ॥ जब आग लकड़ीमें प्रज्वलित होती है, तब लकड़ीके उत्पत्ति विनाश, बड़ाई-छोटाई और अनेकता आदि सभी गुण वह स्वयं ग्रहण कर लेती है। परन्तु सच पूछो तो लकड़ीके उन गुणोंसे आगका कोई सम्बन्ध नहीं है। वैसे ही जब आत्मा अपनेको शरीर मान लेता है, तब वह देहके जडता, अनित्यता, स्थूलता, अनेकता आदि गुणोंसे सर्वथा रहित होनेपर भी उनसे युक्त जान पड़ता है ।। 9 ।।ईश्वरके द्वारा नियन्त्रित माया के गुणोंने ही सूक्ष्म और स्थूलशरीरका निर्माण किया है। जीवको शरीर और शरीरको जीव समझ लेनेके कारण ही स्थूलशरीरके जन्म मरण और सूक्ष्मशरीरके आवागमनका आत्मापर आरोप किया जाता है। जीवको जन्म-मृत्युरूप संसार इसी भ्रम अथवा अध्यासके कारण प्राप्त होता है। आत्माके स्वरूपका ज्ञान होनेपर उसकी जड़ कट जाती है ।। 10 ।। प्यारे उद्भव। इस जन्म-मृत्युरूप संसारका कोई दूसरा कारण नहीं, केवल अज्ञान ही मूल कारण है। इसलिये अपने वास्तविक स्वरूपको, आत्माको जानने की इच्छा करनी चाहिये। अपना यह वास्तविक स्वरूप समस्त प्रकृति और प्राकृत जगत्से अतीत, द्वैतकी गन्धसे रहित एवं अपने-आपमें ही स्थित है। उसका और कोई आधार नहीं है। उसे जानकर धीरे-धीरे स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर आदिमें जो सत्यत्वबुद्धि हो रही है, उसे क्रमशः मिटा देना चाहिये ॥ 11 ॥ (यज्ञमें जब अरणिमन्थन करके अग्नि उत्पन्न करते हैं, तो उसमें नीचे-ऊपर दो लकड़ियाँ रहती हैं और बीचमें मन्थनकाष्ठ रहता है; वैसे ही) विद्यारूप अग्निकी उत्पत्तिके लिये आचार्य और शिष्य तो नीचे ऊपरकी अरणियाँ हैं तथा उपदेश मन्थनकाष्ठ है। इनसे जो ज्ञानाग्नि प्रज्वलित होती है, वह विलक्षण सुख देनेवाली है। इस यज्ञमें बुद्धिमान् शिष्य सद्गुरुके द्वारा जो अत्यन्त विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करता है, वह गुणोंसे बनी हुई विषयोंकी मायाको भस्म कर देता है। तत्पश्चात् वे गुण भी भस्म हो जाते हैं, जिनसे कि यह संसार बना हुआ है। इस प्रकार है सबके भस्म हो जानेपर जब आत्माके अतिरिक्त और कोई वस्तु शेष नहीं रह जाती, तब वह ज्ञानाग्नि भी ठीक वैसे ही अपने वास्तविक स्वरूपमें शान्त हो जाती है, जैसे समिधा न रहनेपर आग बुझ जाती है * ॥ 12-13 ॥

प्यारे उद्भव ! यदि तुम कदाचित् कर्मोक कर्ता और सुख-दुखोंके भोक्ता जीवोंको अनेक तथा जगत्, काल, वेद और आत्माओंको नित्य मानते हो; साथ ही समस्त | पदार्थों की स्थिति प्रवाहसे नित्य और यथार्थ स्वीकार करते हो तथा यह समझते हो कि घट-पट आदि बाह्य आकृतियोंके भेदसे उनके अनुसार ज्ञान ही उत्पन्न होता और बदलता रहता है; तो ऐसे मतके माननेसे बड़ा अनर्थहो जायगा (क्योंकि इस प्रकार जगतके कर्ता आपकी नित्य सत्ता और जन्म-मृत्युके चक्करसे मुक्ति भी सिद्ध न हो सकेगी।) यदि कदाचित ऐसा स्वीकार भी कर लिया जाय तो देह और संवत्सरादि कालावयवोंक सम्बन्ध होनेवाली जीवोंकी जन्म-मरण आदि अवस्थाएँ भी नित्य होनेके कारण दूर न हो सकेंगी, क्योंकि तुम देहादि पदार्थ और काली नित्यता स्वीकार करते हो। इसके सिवा, यहाँ भी कमका कर्ता तथा सुख-दुःखका भोक्ता जीव परतन्त्र ही दिखायी देता है; यदि वह स्वतन्त्र हो तो दुःखका फल क्यों भोगना चाहेगा? इस प्रकार सुख भोगकी समस्या सुलझ जानेपर भी | दुःख भोगकी समस्या तो उलझी ही रहेगी। अतः इस मतके अनुसार जीवको कभी मुक्ति या स्वतन्त्रता प्राप्त न हो सकेगी। जब जीव स्वरूपतः परतन्त्र है, विवश है, तब तो | स्वार्थ या परमार्थ कोई भी उसका सेवन न करेगा। अर्थात् वह स्वार्थ और परमार्थ दोनोंसे ही यञ्चित रह जायगा ॥। 14 – 17॥ (यदि यह कहा जाय कि जो भलीभाँति कर्म करना जानते हैं, वे सुखी रहते हैं, और जो नहीं जानते उन्हें दुःख भोगना पड़ता है तो यह कहना भी ठीक नहीं; क्योंकि) ऐसा देखा जाता है कि बड़े-बड़े कर्मकुशल विद्वानोंको भी कुछ सुख नहीं मिलता और मूढ़ोंका भी कभी दुःखसे पाला नहीं पड़ता। इसलिये जो लोग अपनी बुद्धि या कर्मसे सुख पानेका घमंड करते हैं, उनका वह अभिमान व्यर्थ है ॥ 18 यदि यह स्वीकार कर लिया जाय कि वे लोग सुखकी प्राप्ति और दुःखके नाशका ठीक-ठीक उपाय जानते हैं, तो भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि उन्हें भी ऐसे उपायका पता नहीं है, जिससे मृत्यु उनके ऊपर कोई प्रभाव न | डाल सके और वे कभी मरें ही नहीं ॥ 19 ॥ जब मृत्यु उनके सिरपर नाच रही है, तब ऐसी कौन-सी भोग-सामग्री या भोग-कामना है जो उन्हें सुखी कर सके ? भला, जिस मनुष्यको फाँसी पर लटकानेके लिये वधस्थानपर ले जाया जा रहा है, उसे क्या फूल-चन्दन-स्त्री आदि पदार्थ सन्तुष्ट कर सकते हैं? कदापि नहीं (अतः पूर्वोक्त मत माननेवालोंकी दृष्टिसे न सुख ही सिद्ध होगा और न जीवका कुछ पुरुषार्थ ही रहेगा ) ॥ 20 ॥

प्यारे उद्धव लौकिक सुखके समान पारलौकिक सुख भी दोषयुक्त ही है; क्योंकि वहाँ भी बराबरीवालोंसे होड़ चलती है, अधिक सुख भोगनेवालोंके प्रति असूया होती है-उनके गुणोंमें दोष निकाला जाता है और छोटोसे घृणा होती है। प्रतिदिन पुण्य क्षीण होनेके साथ ही वहाँके सुख भी क्षपके निकट पहुँचते रहते हैं और एक दिन नष्ट हो जाते है। वहाँकी कामना पूर्ण होनेमें भी यजमान, ऋत्वि और कर्मआदिकी त्रुटियोंके कारण बड़े-बड़े विघ्नोंकी सम्भावना रहती है। जैसे हरी-भरी खेती भी अतिवृष्टि- अनावृष्टि आदिके कारण नष्ट हो जाती है, वैसे ही स्वर्ग भी प्राप्त होते होते विघ्नोंके कारण नहीं मिल पाता ।। 21 । यदि यज्ञ यागादि धर्म बिना किसी विघ्नके पूरा हो जाय, तो उसके द्वारा जो स्वर्गादि लोक मिलते हैं, उनकी प्राप्तिका प्रकार मैं बतलाता हूँ, सुनो ॥ 22 ॥ यज्ञ करनेवाला पुरुष यज्ञोंके द्वारा देवताओंकी आराधना करके स्वर्गमें जाता है और वहाँ अपने पुण्यकर्मोंक द्वारा उपार्जित दिव्य भोगोंको | देवताओंके समान भोगता है ॥ 23 ॥ उसे उसके पुण्योंके अनुसार एक चमकीला विमान मिलता है और वह उसपर सवार होकर सुर-सुन्दरियोंके साथ विहार करता है। गन्धर्वगण उसके गुणोंका गान करते हैं और उसके रूप लावण्यको देखकर दूसरोंका मन लुभा जाता है ।। 24 ।। उसका विमान वह जहाँ ले जाना चाहता है, वहीं चला जाता है और उसकी घंटियाँ घनघनाकर दिशाओंको गुञ्जारित करती हैं। वह अप्सराओंके साथ नन्दनवन आदि देवताओंकी विहार स्थलियोंमें क्रीड़ाएँ करते-करते इतना बेसुध हो जाता है कि उसे इस बातका पता ही नहीं चलता कि अब मेरे पुण्य समाप्त हो जायेंगे और मैं यहाँसे ढकेल दिया जाऊँगा || 25 ॥ जबतक उसके पुण्य शेष रहते हैं, तबतक वह स्वर्गमें चैनकी वंशी बजाता रहता है; परन्तु पुण्य क्षीण होते ही इच्छा न रहनेपर भी उसे नीचे गिरना पड़ता है, क्योंकि कालकी चाल ही ऐसी है ॥ 26 ॥

यदि कोई मनुष्य दुष्टोंकी संगतिमें पड़कर अधर्मपरायण हो जाय, अपनी इन्द्रियोंके वशमें होकर मनमानी करने लगे, लोभवश दाने-दानेमें कृपणता करने लगे, लम्पट हो जाय अथवा प्राणियोंको सताने लगे और विधि-विरुद्ध पशुओंकी बलि देकर भूत और प्रेतोंकी उपासनामें लग जाय, तब तो वह पशुओंसे भी गया-बीता हो जाता है और अवश्य ही नरकमे जाता है। उसे अन्तमें | घोर अन्धकार, स्वार्थ और परमार्थसे रहित अज्ञानमें ही भटकना पड़ता है ।। 27-28 ॥ जितने भी सकाम और बहिर्मुख करनेवाले कर्म हैं, उनका फल दुःख ही है। जो जीव शरीरमें अहंता-ममता करके उन्होंने लग जाता है, उसे बार-बार जन्म पर जन्म और मृत्यु-पर-मृत्यु प्राप्त होती रहती है। ऐसी स्थितिमें मृत्युधर्मा जीवको क्या सुख हो सकता है ? ।। 29 ।।सारे लोक और लोकपालोंकी आयु भी केवल एक कल्प है, इसलिये मुझसे भयभीत रहते हैं। औरोंकी तो बात ही क्या, स्वयं ब्रह्मा भी मुझसे भयभीत रहते है; क्योंकि उनकी आयु भी कालसे सीमित – केवल दो परार्द्ध है ॥ 30 ॥ सत्त्व, रज और तम ये तीनों गुण इन्द्रियोंको उनके कर्मोंमें प्रेरित करते हैं और इन्द्रियाँ कर्म करती हैं। जीव अज्ञानवश सत्त्व, रज आदि गुणों और इन्द्रियोंको अपना स्वरूप मान बैठता है और उनके किये हुए कर्मका फल सुख-दुःख भोगने लगता है ॥ 31 ॥ जबतक गुणोंकी विषमता है अर्थात् शरीरादिमें में और मेरेपनका अभिमान है; तभीतक आत्माके एकत्वकी अनुभूति नहीं होती वह अनेक जान पड़ता है; और जबतक आत्माकी अनेकता है, तबतक तो उन्हें काल अथवा कर्म किसीके अधीन रहना ही पड़ेगा ।। 32 ॥ जबतक परतन्त्रता है, तबतक ईश्वरसे भय बना ही रहता है। जो मैं और मेरेपनके भावसे ग्रस्त रहकर आत्माकी अनेकता, परतन्त्रता आदि मानते हैं और वैराग्य न ग्रहण करके बहिर्मुख करनेवाले कमका ही सेवन करते रहते हैं, उन्हें शोक और मोहकी प्राप्ति होती है ॥ 33 ॥ प्यारे उद्धव ! जब मायाके गुणों में क्षोभ होता है, तब मुझ आत्माको ही काल, जीव, वेद, लोक, स्वभाव और धर्म आदि अनेक नामोंसे निरूपण करने लगते हैं। (ये सब मायामय हैं। वास्तविक सत्य मैं आत्मा ही हूँ ।। 34 ।।

उद्धवजीने पूछा-भगवन्! यह जीव देह आदि रूप गुणोंमें ही रह रहा है। फिर देहसे होनेवाले कर्मों या सुख-दुःख आदि रूप फलोंमें क्यों नहीं बँधता है ? अथवा यह आत्मा गुणोंसे निर्लिप्त है, देह आदिके सम्पर्कसे सर्वथा रहित है. फिर इसे बन्धनको प्राप्ति कैसे होती है ? ॥ 35 ॥ बद्ध अथवा मुक्त पुरुष कैसा बर्ताव करता है, वह कैसे विहार करता है, या वह किन लक्षणोंसे पहचाना जाता है, कैसे भोजन करता है ? और मल-त्याग आदि कैसे करता है ? कैसे सोता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है ? ॥ 36 ॥ अच्युत प्रश्नका मर्म जाननेवालोंमें आप श्रेष्ठ है। इसलिये आप मेरे इस प्रश्नका उत्तर दीजिये -एक ही आत्मा अनादि | गुणोंके संसर्गसे नित्यबद्ध भी मालूम पड़ता है और अस होने के कारण नित्यमुक्त भी। इस बातको लेकर मुझे भ्रम हो रहा है ॥ 37 ॥

अध्याय 11 बद्ध, मुक्त और भक्तजनोंके लक्षण

भगवान् श्रीकृष्णने कहा- प्यारे उद्धव ! आत्मा बद्ध है या मुक्त है, इस प्रकारकी व्याख्या या व्यवहार मेरे अधीन रहनेवाले सत्वादि गुणोंकी उपाधिसे ही होता है। वस्तुतः तत्त्वदृष्टिसे नहीं सभी गुण मायामूलक है इन्द्रजाल हैं- जादूके खेलके समान हैं। इसलिये न मेरा मोक्ष है, न तो मेरा बन्धन ही है ॥ 1 ॥ जैसे स्वप्न बुद्धिका विवर्त है—उसमें बिना हुए ही भासता है—मिथ्या है, वैसे ही शोकमोह, सुख-दुःख, शरीरको उत्पत्ति और मृत्यु –
यह सब संसारका बखेड़ा माया (अविद्या) के कारण प्रतीत होनेपर भी वास्तविक नहीं है । 2 ॥ उद्धव ! शरीरधारियोंको मुक्तिका अनुभव करानेवाली आत्मविद्या और बन्धनका अनुभव करानेवाली अविद्या- ये दोनों ही मेरी अनादि शक्तियाँ हैं। मेरी मायासे ही इनकी रचना हुई है। इनका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है ॥ 3 ॥ भाई ! तुम तो स्वयं बड़े बुद्धिमान् हो, विचार करो जीव तो एक ही है। वह व्यवहारके लिये ही मेरे अंशके रूपमें कल्पित हुआ है, वस्तुतः मेरा स्वरूप ही है। आत्मज्ञानसे सम्पन्न होनेपर उसे मुक्त कहते हैं और आत्माका ज्ञान न होनेसे बद्ध। और यह अज्ञान अनादि होनेसे बन्धन भी अनादि कहलाता है ॥ 4 ॥ इस प्रकार मुझ एक ही धर्मीमें रहनेपर भी जो शोक और आनन्दरूप विरुद्ध धर्मवाले जान पड़ते हैं, उन बद्ध और मुक्त जीवका भेद मैं बतलाता हूँ ॥ 5 ॥ (वह भेद दो प्रकारका है—एक तो नित्यमुक्त ईश्वरसे जीवका भेद, और दूसरा मुक्त-बद्ध जीवका भेद। पहला सुनो). -जीव और ईश्वर बद्ध और मुक्तके भेदसे भिन्न-भिन्न होनेपर भी एक ही शरीरमे नियन्ता और नियन्त्रितके रूपसे स्थित हैं। ऐसा समझो कि शरीर एक वृक्ष है, इसमें हृदयका घोंसला बनाकर जीव और ईश्वर नामके दो पक्षी रहते हैं वे दोनों चेतन होनेके कारण समान हैं और कभी न बिछुड़नेके कारण सखा हैं। इनके निवास करनेका कारण केवल लीला ही है। इतनी समानता होनेपर भी जीव तो शरीररूप वृक्षके फल सुख-दुःख आदि भोगता है, परन्तु ईश्वर उन्हें न भोगकर कर्मफल सुख-दुःख आदिसे असङ्ग और उनका साक्षीमात्र रहता है। अभ होनेपर भी ईश्वरकी यह विलक्षणता है कि वह ज्ञान, ऐश्वर्य, आनन्द और सामर्थ्य आदिमें भोक्ता जीवसे बढ़कर है ।। 6 ।।साथ ही एक यह भी विलक्षणता है कि अभोक्ता ईश्वर तो अपने वास्तविक स्वरूप और इसके अतिरिक्त जगत्‌को भी जानता है, परन्तु भोक्ता जीव न अपने वास्तविक रूपको जानता है और न अपनेसे अतिरिक्तको । इन दोनोंमें जीव तो अविद्यासे युक्त होनेके कारण नित्यबद्ध है और ईश्वर विद्यास्वरूप होनेके कारण नित्यमुक्त है ॥ 7 ॥ प्यारे उद्धव । ज्ञानसम्पन्न पुरुष भी मुक्त ही है; जैसे स्वप्न टूट जानेपर जगा हुआ पुरुष स्वप्रके स्मर्यमाण शरीरसे कोई सम्बन्ध नहीं रखता, वैसे ही ज्ञानी पुरुष सूक्ष्म और स्थूल शरीरमें रहनेपर भी उनसे किसी प्रकारका सम्बन्ध नहीं रखता, परन्तु अज्ञानी पुरुष वास्तवमें शरीरसे कोई सम्बन्ध न रखनेपर भी अज्ञानके कारण शरीरमें ही स्थित रहता है, जैसे स्वप्र देखनेवाला पुरुष स्वप्न देखते समय स्वामिक शरीरमें बंध जाता है ॥ 8 ॥ व्यवहारादिमें इन्द्रियां शब्द स्पर्शादि विषयोंको ग्रहण करती है; क्योंकि यह तो नियम हो है कि गुण ही गुणको ग्रहण करते हैं, आत्मा नहीं। इसलिये जिसने अपने निर्विकार आत्मस्वरूपको समझ लिया है, वह उन विषयोंके ग्रहण त्यागमें किसी प्रकारका अभिमान नहीं । यह शरीर प्रारब्धके अधीन है। इससे शारीरिक और मानसिक जितने भी कर्म होते हैं, सब गुणोंकी प्रेरणासे ही होते हैं। अज्ञानी पुरुष झूठमूठ अपनेको उन ग्रहण त्याग आदि कर्मोंका कर्ता मान बैठता है और इसी अभिमानके कारण वह बंध जाता है ॥ 10 ॥

प्यारे उद्धव ! पूर्वोक्त पद्धतिसे विचार करके विवेकी पुरुष समस्त विषयोंसे विरक्त रहता है और सोने-बैठने, घूमने-फिरने, नहाने, देखने, छूने, सूँघने, खाने और सुनने आदि क्रियाओंमें अपनेको कर्ता नहीं मानता, बल्कि गुणों को ही कर्ता मानता है। गुण ही सभी कर्मकि कर्ता भोक्ता हैं—ऐसा जानकर विद्वान् पुरुष कर्मवासना और फलोंसे नहीं बँधते वे प्रकृतिमें रहकर भी वैसे ही असङ्ग रहते हैं, जैसे स्पर्श आदिसे आकाश, जलकी आर्द्रता आदिसे सूर्य और गन्ध आदिसे वायु उनकी विमल बुद्धिकी तलवार असङ्ग-भावनाकी सानसे और भी तीखी हो जाती है, और वे उससे अपने सारे संशय-सन्देहोंको काट-कूटकर फेंक देते हैं। जैसे कोई स्वप्रसे जाग उठा हो, उसी प्रकार वे इस भेदबुद्धिके भ्रमसे मुक्त हो जाते हैं ।। 11 – 13 ।। जिनके प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धिकी समस्त चेष्टाएँ बिना सङ्कल्पके होती हैं, वे देहमें स्थित रहकर भी उसके गुणोंसे मुक्त हैं ।। 14 ।।उन तव मुक्त पुरुषों शरीरको चाहे हिंसक लोग पीड़ा पहुँचायें और चाहे कभी कोई दैवयोगसे पूजा करने लगे बैन तो किसीके सतानेसे दुःखी होते हैं और न पूजा करनेसे सुखी ।। 15 ।। जो समदर्शी महात्मा गुण और दोष की भेददृष्टिसे ऊपर उठ गये हैं, वे न तो अच्छे काम करनेवालेकी स्तुति करते हैं और न बुरे काम करनेवालेको निन्दा न वे किसीकी अच्छी बात सुनकर उसकी सराहना करते हैं और न बुरी बात सुनकर किसीको झिड़कते ही हैं ।। 16 जीवन्मुक्त पुरुष न तो कुछ भला या बुरा काम करते हैं, न कुछ भला या बुरा कहते है और न सोचते ही हैं। वे व्यवहारमें अपनी समान वृत्ति रखकर आत्मानन्दमें ही मग्न रहते हैं और जड़के समान मानो कोई मूर्ख हो इस प्रकार विचरण करते रहते हैं ॥ 17 ॥

प्यारे उद्धव ! जो पुरुष वेदोंका तो पारगामी विद्वान् हो, परन्तु परब्रह्मके ज्ञानसे शून्य हो, उसके परिश्रमका कोई फल नहीं है वह तो वैसा ही है, जैसे बिना दूधकी गायका | पालनेवाला ॥ 18 ॥ दूध न देनेवाली गाय, व्यभिचारिणी स्त्री, पराधीन शरीर, दुष्ट पुत्र, सत्पात्र के प्राप्त होनेपर भी दान न किया हुआ धन और मेरे गुणोंसे रहित वाणी व्यर्थ है। इन वस्तुओंकी रखवाली करनेवाला दुःख-पर-दुःख ही भोगता रहता है ॥ 19 ॥ इसलिये उद्धव ! जिस वाणीमें जगत्को उत्पत्ति, स्थिति और प्रलवरूप मेरी लोक-पावन लीलाका वर्णन न हो और लीलावतारोंमें भी मेरे लोकप्रिय राम कृष्णादि अवतारोंका जिसमें यशोगान न हो, वह वाणी वन्ध्या है। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि ऐसी वाणीका उच्चारण एवं श्रवण न करे ।। 20 ।

प्रिय उद्धव ! जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है, आत्मजिज्ञासा और विचारके द्वारा आत्मामें जो अनेकताका भ्रम है उसे दूर कर दे और मुझ सर्वव्यापी परमात्मामें अपना निर्मल मन लगा दे तथा संसारके व्यवहारोंसे उपराम हो जाय ॥ 21 ॥ यदि तुम अपना मन परब्रह्ममें स्थिर न कर सको, तो सारे कर्म निरपेक्ष होकर मेरे लिये ही करो ॥ 22 ॥ मेरी कथाएँ समस्त लोकोको पवित्र करनेवाली एवं कल्याणस्वरूपिणी है। श्रद्धा के साथ उन्हें सुनना चाहिये। बार-बार मेरे अवतार और लीलाओंका गान, स्मरण और अभिनय करना चाहिये ॥ 23 ॥ मेरे आश्रित रहकर मेरे ही लिये धर्म, काम और अर्थका सेवन करना चाहिये। प्रिय उद्धव जो ऐसा करता है, उसे मुझ अविनाशी पुरुषके प्रति अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाती है । 24 ॥भक्तिकी प्राप्ति सत्सङ्गसे होती है; जिसे भक्ति प्राप्त हो जाती है, वह मेरी उपासना करता है, मेरे सान्निध्यका अनुभव करता है। इस प्रकार जब उसका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, तब वह संतोंके उपदेशोंके अनुसार उनके द्वारा बताये हुए मेरे परमपदको वास्तविक स्वरूपको सहजहीमें प्राप्त हो जाता है ।। 25 ।।

उद्धवजीने पूछा-भगवन्! बड़े-बड़े संत आपको कीर्तिका गान करते हैं। आप कृपया बतलाइये कि आपके विचारसे संत पुरुषका क्या लक्षण है ? आपके प्रति कैसी भक्ति करनी चाहिये, जिसका संतलोग आदर करते हैं ? ॥ 26 ॥ भगवन् ! आप ही ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवता, सत्यादि लोक और चराचर जगत्के स्वामी हैं। मैं आपका विनीत, प्रेमी और शरणागत भक्त हूँ। आप मुझे भक्ति और भक्तका रहस्य बतलाइये ॥ 27 ॥ भगवन् ! मैं जानता हूँ कि आप प्रकृति से परे पुरुषोत्तम एवं चिदाकाशस्वरूप ब्रह्म है। आपसे भिन्न कुछ भी नहीं है; फिर भी आपने लीलाके लिये स्वेच्छासे ही यह अलग शरीर धारण करके अवतार लिया है। इसलिये वास्तवमें आप ही भक्ति और भक्तका रहस्य बतला सकते हैं ॥ 28 ॥

भगवान् श्रीकृष्णने कहा- प्यारे उद्धव ! मेरा भक्त कृपाकी मूर्ति होता है। वह किसी भी प्राणीसे वैरभाव नहीं रखता और घोर से घोर दुःख भी प्रसन्नतापूर्वक सहता है। उसके जीवनका सार है सत्य, और उसके मनमें किसी प्रकारकी पापवासना कभी नहीं आती। वह समदर्शी और सबका भला करनेवाला होता है ।। 29 ।। उसकी बुद्धि कामनाओंसे कलुषित नहीं होती। वह संयमी, मधुरस्वभाव और पवित्र होता है। संग्रह परिग्रहसे सर्वथा दूर रहता है। किसी भी वस्तुके लिये वह कोई चेष्टा नहीं करता। परिमित भोजन करता है और शान्त रहता है। उसकी बुद्धि स्थिर होती है। उसे केवल मेरा ही भरोसा होता है और वह आत्मतत्त्वके चिन्तनमें सदा संलग्न रहता है ॥ 30 ॥ वह प्रमादरहित, गम्भीरस्वभाव और धैर्यवान् होता है। भूख-प्यास, शोक-मोह और जन्म-मृत्यु – ये छहों उसके वशमें रहते हैं। वह स्वयं तो कभी किसीसे किसी प्रकारका सम्मान नहीं चाहता, परन्तु दूसरोंका सम्मान करता रहता है। मेरे सम्बन्धकी बातें दूसरोंको समझाने में बड़ा निपुण होता है और सभीके साथ मित्रताका व्यवहार करता है। उसके हृदयमें करुणा भरी होती है। मेरे तत्त्वका उसे यथार्थ ज्ञान होता है ।। 31 ।।प्रिय उद्धव ! मैंने वेदों और शास्त्रोंके रूपमें मनुष्योंके धर्मका उपदेश किया है, उनके पालनसे अन्तःकरणशुद्धि आदि गुण और उल्लङ्घनसे नरकादि दुःख प्राप्त होते हैं; परन्तु मेरा जो भक्त उन्हें भी अपने ध्यान आदिमें विक्षेप समझकर त्याग देता है और केवल मेरे ही भजनमें लगा रहता है, वह परम संत है ॥ 32 ॥ मैं कौन हूँ, कितना बड़ा हूँ, कैसा हूँ-इन वातोंको जाने, चाहे न जाने; किन्तु जो अनन्यभावसे मेरा भजन करते हैं, वे मेरे विचारसे मेरे परम भक्त हैं ।। 33 ।।

प्यारे उद्धव मेरी मूर्ति और मेरे भक्तजनोंका दर्शन, स्पर्श, पूजा, सेवा-शुश्रूषा, स्तुति और प्रणाम करे तथा मेरे गुण और कर्मोंका कीर्तन करे ।। 34 ।। उद्धव ! मेरी कथा सुनने में श्रद्धा रखे और निरन्तर मेरा ध्यान करता रहे। जो कुछ मिले, वह मुझे समर्पित कर दे और दास्यभावसे मुझे आत्मनिवेदन करे || 35 || मेरे दिव्य जन्म और कर्मोकी चर्चा करे। जन्माष्टमी, रामनवमी आदि पर्वापर आनन्द मनावे और संगीत, नृत्य, बाजे और समाजोंद्वारा मेरे मन्दिरोंमें उत्सव करे करावे ।। 36 ।। वार्षिक त्योहारोंके दिन मेरे स्थानोंकी यात्रा करे, जुलूस निकाले तथा विविध उपहारोंसे मेरी पूजा करे। वैदिक अथवा तान्त्रिक पद्धतिसे दीक्षा ग्रहण करे। मेरे व्रतोंका पालन करे ॥ 37 ॥ मन्दिरों में मेरी मूर्तियोको स्थापनामें श्रद्धा रखे। यदि यह काम अकेला न कर सके, तो औरोंके साथ मिलकर उद्योग करें। मेरे लिये पुष्पवाटिका, बगीचे, क्रीडाके स्थान, नगर और मन्दिर बनवावे ॥ 38 ॥ सेवककी भाँति श्रद्धाभक्तिके साथ निष्कपट भावसे मेरे मन्दिरोंकी सेवा-शुश्रूषा करे झाडे-बुहारे, लीपे-पोते, छिड़काव करे और तरह तरहके चौक पूरे ।। 39 ।। अभिमान न करे, दम्भ न करे। साथ ही अपने शुभ कर्मोंका दोरा भी न पीटे प्रिय उद्धव मेरे चढ़ावेकी, अपने काममें लगानेकी बात तो दूर रही, मुझे समर्पित दीपकके प्रकाशसे भी अपना काम न ले। किसी दूसरे देवताकी चढ़ायी हुई वस्तु मुझे न चढ़ावे ॥ 40 ॥ संसारमें जो वस्तु अपनेको सबसे प्रिय, सबसे अभीष्ट जान पड़े वह मुझे समर्पित कर दे। ऐसा करनेसे वह वस्तु अनन्त फल देनेवाली हो जाती है ।। 41 ।।

भद्र सूर्य, अग्नि, ब्राह्मण, गौ, वैष्णव, आकाश, वायु, जल, पृथ्वी, आत्मा और समस्त प्राणी- – ये सब मेरी पूजाके स्थान हैं ॥ 42 प्यारे उद्भव ! ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके मल्लोंद्वारा सूर्यमें मेरी पूजा करनी चाहिये। हवनके द्वारा अग्निमें आतिथ्यद्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणमें और | हरी-हरी घास आदिके द्वारा गौमें मेरी पूजा करे ।। 43 ।।भाई-बन्धुके समान सत्कारके द्वारा वैष्णव, निरन्तर ध्यानमें लगे रहने से हृदयाकाशमें, मुख्य प्राण समझनेसे वायुमें और जल-पुष्प आदि सामग्रियोंद्वारा जलमे मेरी आराधना की जाती है ।। 44 ।। गुप्त मन्त्रोंद्वारा न्यास करके मिट्टीकी वेदीमें, उपयुक्त भोगोंद्वारा आत्मा और समदृष्टिद्वारा सम्पूर्ण प्राणियोंमें मेरी आराधना करनी चाहिये, क्योंकि मैं सभी क्षेत्रज्ञ आत्माके रूपसे स्थित हूँ ।। 45 ।। इन सभी स्थानों में शङ्ख-चक्र-गदा-पद्म धारण किये चार भुजाओंवाले शान्तमूर्ति श्रीभगवान् विराजमान हैं, ऐसा ध्यान करते हुए एकाग्रताके साथ मेरी पूजा करनी चाहिये॥ 46 इस प्रकार जो मनुष्य एकाग्र चित्तसे यज्ञ यागादि इष्ट और कुआँ बावली बनवाना आदि पूर्तकमकि द्वारा मेरी पूजा करता है, उसे मेरी श्रेष्ठ भक्ति प्राप्त होती है तथा संत पुरुषोंकी सेवा करनेसे मेरे स्वरूपका ज्ञान भी हो जाता है ॥ 47 ॥ प्यारे उद्भव ! मेरा ऐसा निश्चय है कि सत्सङ्ग और भक्तियोग- इन दो साधनोंका एक साथ ही अनुष्ठान करते रहना चाहिये। प्रायः इन दोनोंके अतिरिक्त संसारसागरसे पार होनेका और कोई उपाय नहीं है, क्योंकि संतपुरुष मुझे अपना आश्रय मानते हैं और मैं सदा-सर्वदा उनके पास बना रहता हूँ ।। 48 ।। प्यारे उद्धव अब मैं तुम्हें एक अत्यन्त गोपनीय परम रहस्यकी बात बतलाऊँगा; क्योंकि तुम मेरे प्रिय सेवक, हितैषी, सुहृद और प्रेमी सखा हो; साथ ही सुननेके भी इच्छुक हो ।। 49 ।।

 

अध्याय 12 सत्सङ्गकी महिमा और कर्म तथा कर्मत्यागकी विधि

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव ! जगत् में जितनी आसक्तियाँ हैं, उन्हें सत्सङ्ग नष्ट कर देता है। यही कारण है कि सत्सङ्ग जिस प्रकार मुझे वशमें कर लेता है वैसा साधन न योग है न सांख्य, न धर्मपालन और न स्वाध्याय। तपस्या, त्याग, इष्टापूर्त और दक्षिणासे भी मैं वैसा प्रसन्न नहीं होता। कहाँतक कहूँ-व्रत, यज्ञ, वेद,तीर्थ और यम-नियम भी सत्सङ्गके समान मुझे वशमे करनेमें समर्थ नहीं है ।। 1-2 ।। निष्पाप उद्धवजी यह एक युगकी नहीं, सभी युगों की एक सी बात है। सत्सङ्गके द्वारा ही दैत्य-राक्षस, पशु-पक्षी, गन्धर्व-अप्सरा, नाग सिद्ध. चारण-गुहाक और विद्याधरोको मेरी प्राप्ति हुई है। मनुष्यों में वैश्य, शूद्र, स्त्री और अन्त्यज आदि रजोगुणी तमोगुणी प्रकृतिके बहुत-से जीवोंने मेरा परमपद प्राप्त किया है। वृत्रासुर, प्रह्लाद, वृषपर्वा, बलि, बाणासुर, मयदानव, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान्, जाम्बवान्, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधार वैश्य, धर्मव्याध, कुब्जा, व्रजकी गोपियाँ, यज्ञपलियाँ और दूसरे लोग भी सत्सङ्गके प्रभावसे ही मुझे प्राप्त कर सके हैं ।। 3- -6 ॥ उन लोगोंने न तो वेदोंका स्वाध्याय किया था और न विधिपूर्वक महापुरुषोंकी उपासना की थी। इसी प्रकार उन्होंने कृच्छ्रचान्द्रायण आदि व्रत और कोई तपस्या भी नहीं की थी बस, केवल सत्सङ्गके प्रभावसे ही वे मुझे प्राप्त हो गये ॥ 7 ॥ गोपियाँ, गायें, यमलार्जुन आदि वृक्ष, व्रजके हरिन आदि पशु, कालिय आदि नाग -ये तो साधन साध्यके सम्बन्धमें सर्वथा ही मुदबुद्धि थे। इतने ही नहीं, ऐसे-ऐसे और भी बहुत हो गये हैं, जिन्होंने केवल प्रेमपूर्ण भावके द्वारा ही अनायास मेरी प्राप्ति कर ली और कृतकृत्यः हो गये ॥ 8 ॥ उद्धव ! बड़े-बड़े प्रयत्नशील साधक योग, सांख्य, दान, व्रत, तपस्या, यज्ञ, श्रुतियोंकी व्याख्या, स्वाध्याय और संन्यास आदि साधनोंके द्वारा मुझे नहीं प्राप्त कर सकते; परन्तु सत्सङ्गके द्वारा तो मैं अत्यन्त सुलभ हो जाता हूँ ॥ 9 ॥ उद्धव ! जिस समय अक्रूरजी भैया बलरामजीके साथ मुझे व्रजसे मथुरा ले आये, उस समय गोपियोंका हृदय गाढ़ प्रेमके कारण मेरे अनुरागके रंगमें रंगा हुआ था। मेरे वियोगकी तीव्र व्याधिसे वे व्याकुल हो रही थीं और मेरे अतिरिक्त कोई भी दूसरी वस्तु उन्हें सुखकारक नहीं जान पड़ती थी ॥ 10 ॥ तुम जानते हो कि मैं ही उनका एकमात्र प्रियतम हूँ। जब मैं वृन्दावनमें था, तब उन्होंने बहुत-सी रात्रियाँ – वे रासकी रात्रियाँ मेरे साथ आधे क्षणके समान बिता दी थी परन्तु प्यारे उद्धव मेरे बिना वे ही रात्रियाँ उनके लिये एक-एक कल्पके समान हो गयीं ।। 11 ।। जैसे बड़े-बड़े ऋषि-मुनि समाधिमें स्थित होकर तथा गङ्गा आदि बड़ी-बड़ी नदियाँ समुद्रमे मिलकर अपने नाम-रूप खो देती है, वैसे ही वे गोपियाँ परम प्रेमके द्वारा मुझमें इतनी तन्मय हो गयी थीं कि उन्हें लोक परलोक, शरीर और अपने कहलानेवाले पति पुत्रादिकीभी सुध-बुध नहीं रह गयी थीं ।। 12 ।। उद्धव ! उन गोपियोंमें बहुत सी तो ऐसी थीं, जो मेरे वास्तविक स्वरूपको नहीं जानती थीं। वे मुझे भगवान् न जानकर केवल प्रियतम ही समझती थीं और जारभावसे मुझसे मिलने की आकांक्षा किया करती थीं। उन साधनहीन सैकड़ों, हजारों अबलाओंने केवल सङ्गके प्रभावसे ही मुझ परब्रह्म परमात्माको प्राप्त कर लिया ।। 13 ।। इसलिये उद्धव! तुम श्रुति स्मृति, विधि निषेध, प्रवृत्तिनिवृत्ति और सुननेयोग्य तथा सुने हुए विषयका भी परित्याग करके सर्वत्र मेरी ही भावना करते हुए समस्त प्राणियोंके आत्मस्वरूप मुझ एककी ही शरण सम्पूर्ण रूपसे ग्रहण करो; क्योंकि मेरी शरणमें आ जाने से तुम सर्वथा निर्भय हो जाओगे ।। 14-15 ।।

उद्धवजीने कहा- सनकादि योगेश्वरीके भी परमेश्वर प्रभो ! यों तो मैं आपका उपदेश सुन रहा हूँ, परन्तु इससे मेरे मनका सन्देह मिट नहीं रहा है। मुझे स्वधर्मका पालन करना चाहिये या सब कुछ छोड़कर आपकी शरण ग्रहण करनी चाहिये, मेरा मन इसी दुविधामें लटक रहा है। आप कृपा करके मुझे भली-भाँति समझाइये ॥ 16 ॥

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्भव ! जिस परमात्माका परोक्षरूपसे वर्णन किया जाता है, वे साक्षात् अपरोक्ष — प्रत्यक्ष ही हैं, क्योंकि वे ही निखिल वस्तुओंको सत्ता-स्फूर्ति जीवनदान करनेवाले है, वे ही पहले अनाहत नादस्वरूप परा वाणी नामक प्राणके साथ मूलाधार चक्रमे प्रवेश करते हैं। उसके बाद मणिपूरकचक्र (नाभि स्थान) में आकर पश्यन्ती वाणीका मनोमय सूक्ष्मरूप धारण करते हैं। तदनन्तर कण्ठदेशमें स्थित विशुद्ध नामक चक्रमें आते हैं और वहाँ मध्यमा वाणीके रूपमें व्यक्त होते हैं। फिर क्रमशः मुखमें आकर हस्व-दीर्घादि मात्रा, उदात्त अनुदात्त आदि स्वर तथा ककारादि वर्णरूप स्थूल-वैखरी वाणीका रूप ग्रहण कर लेते हैं ।। 17 ।। अनि आकाशमें ऊष्मा अथवा विद्युत् के रूपसे अव्यक्तरूपमें स्थित है। जब बलपूर्वक काष्ठमन्थन किया जाता है, तब वायुकी सहायतासे वह पहले अत्यन्त सूक्ष्म चिनगारीके रूपमें प्रकट होती है और फिर आहुति देनेपर प्रचण्ड रूप धारण कर लेती है, वैसे ही मैं भी शब्दब्रह्मस्वरूपसे क्रमशः परा पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी वाणीके रूपमें प्रकट होता हूँ ।। 18 ।। इसी प्रकार बोलना, हाथोंसे काम करना, पैरोंसे चलना, मूत्रेन्द्रिय तथा गुदासे मल-मूत्र त्यागना, सूँघना, चखना, देखना, छूना, सुनना, मनसे संकल्प-विकल्प करना, बुद्धिसे समझना, अहङ्कारके द्वारा अभिमान करना, महत्तत्त्वके रूपमें सबका ताना-बाना बुनना तथा सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकेसारे विकार कहाँतक कहूँ-समस्त कर्ता, करण और कर्म मेरी ही अभिव्यक्तियाँ है ।। 19 । यह सबको जीवित करनेवाला परमेश्वर ही इस त्रिगुणमय ब्रह्माण्ड- कमलका कारण है। यह आदि पुरुष पहले एक और अव्यक्त था। जैसे उपजाऊ खेतमें बोया हुआ बीज शाखा पत्र पुष्पादि अनेक रूप धारण कर लेता है, वैसे ही कालगतिसे मायाका आश्रय लेकर शक्ति-विभाजनके द्वारा परमेश्वर ही अनेक रूपोंमें प्रतीत होने लगता है ॥ 20 ॥ जैसे तागोंके ताने-बानेमें वस्त्र ओतप्रोत रहता है, वैसे ही यह सारा विश्व परमात्मामें ही ओतप्रोत है। जैसे सूतके बिना वस्त्रका अस्तित्व नहीं है; किन्तु सूत वस्तके बिना भी रह सकता है, वैसे ही इस जगत्के न रहनेपर भी परमात्मा रहता है; किन्तु यह जगत् परमात्मस्वरूप ही है—परमात्माके बिना इसका कोई अस्तित्व नहीं है। यह संसारवृक्ष अनादि और प्रवाहरूपसे नित्य है। इसका स्वरूप ही है | कर्मकी परम्परा तथा इस वृक्षके फल-फूल हैं— मोक्ष और भोग ॥ 21 ॥

इस संसारवृक्षके दो बीज हैं— पाप और पुण्य असंख्य वासनाएं जड़े हैं और तीन गुण तने हैं पाँच भूत इसकी मोटी-मोटी प्रधान शाखाएँ हैं और शब्दादि पाँच विषय रस हैं, ग्यारह इन्द्रियाँ शाखा है तथा जीव और ईश्वरदो पक्षी इसमें घोंसला बनाकर निवास करते हैं। इस वृक्षमें वात, पित्त और कफरूप तीन तरहकी छाल है। इसमें दो तरहके फल लगते हैं—सुख और दुःख। यह विशाल वृक्ष सूर्यमण्डलतक फैला हुआ है (इस सूर्यमण्डलका भेदन कर जानेवाले मुक्त पुरुष फिर संसार चक्रमें नहीं पड़ते) ॥ 22 ॥ जो गृहस्थ शब्द-रूप-रस आदि विषयोंमें फँसे हुए हैं, वे कामनासे भरे हुए होनेके कारण गीधके समान है। वे इस वृक्षका दुःखरूप फल भोगते हैं, क्योंकि वे अनेक प्रकारके कर्मकि बन्धनमें फँसे रहते हैं जो अरण्यवासी परमहंसोंसे विरक्त हैं, वे इस वृक्षमें राजहंसके समान हैं और वे इसका सुखरूप फल भोगते हैं। प्रिय उद्धव । वास्तवमें मैं एक ही हूँ। यह मेरा जो अनेकों प्रकारका रूप है, वह तो केवल मायामय है जो इस बातको गुरुओके द्वारा समझ लेता है, वहीं वास्तवमे समस्त वेदोंका रहस्य जानता है ।। 23 ।।अतः उद्धव ! तुम इस प्रकार गुरुदेवकी उपासनारूप अनन्य भक्तिके द्वारा अपने ज्ञानकी कुल्हाड़ीको तीखी कर लो और उसके द्वारा धैर्य एवं सावधानीसे जीवभावको काट डालो । फिर परमात्मस्वरूप होकर उस वृत्तिरूप अस्त्रोंको भी छोड़ दो और अपने अखण्ड स्वरूपमें ही स्थित हो रहो ।। 24 ।। *

अध्याय 13 हंसरूपसे सनकादिको दिये हुए उपदेशका वर्णन

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव । सत्त्व, रज और तम ये तीनों बुद्धि (प्रकृति) के गुण हैं, आत्माके नहीं सत्त्वके द्वारा रज और तम – -इन दो गुणोंपर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिये। तदनन्तर सत्त्वगुणकी शान्तवृत्तिके द्वारा उसकी दया आदि वृत्तियोंको भी शान्त कर देना चाहिये ॥ 1 ॥ जब सत्त्वगुणको वृद्धि होती है, तभी जीवको मेरे भक्तिरूप स्वधर्मकी प्राप्ति होती है। निरन्तर साविक वस्तुओका सेवन करनेसे ही की वृद्धि होती है और तब मेरे भक्तिरूप स्वधर्ममें प्रवृत्ति होने लगती है ॥ 2 ॥ जिस धर्मके पालनसे सत्त्वगुणकी वृद्धि हो, वही सबसे श्रेष्ठ है। वह धर्म रजोगुण और तमोगुणको नष्ट कर देता है। जब वे दोनों नष्ट हो जाते हैं, तब उन्होंके कारण होनेवाला अधर्म भी शीघ्र ही मिट जाता है ॥ 3 ॥ शाल जल, प्रजाजन, देश, समय, कर्म, जन्म, ध्यान, मन्त्र और संस्कार — ये दस वस्तुएँ यदि सात्त्विक हों तो सत्त्वगुणकी, राजसिक हों तो रजोगुणकी और तामसिक हो तो तमोगुणकी वृद्धि करती हैं ॥ 4 ॥ इनमेंसे शास्त्रज्ञ महात्मा जिनकी प्रशंसा करते हैं, वे सात्त्विक हैं, जिनकी निन्दा करते हैं, वे तामसिक हैं और जिनकी उपेक्षा करते हैं, वे वस्तुएँ राजसिक है ॥ 5 ॥जबतक अपने आत्माका साक्षात्कार तथा स्थूल सूक्ष्म शरीर और उनके कारण तीनों गुणोंकी निवृत्ति न हो, तबतक मनुष्यको चाहिये कि सत्वगुणको वृद्धिके लिये सात्विक शास्त्र आदिका ही सेवन करे; क्योंकि उससे धर्मकी वृद्धि होती है और धर्मकी वृद्धिसे अन्तःकरण शुद्ध | होकर आत्मतत्त्वका ज्ञान होता है ॥ 6 ॥ बाँसोंकी रगड़से आग पैदा होती है और वह उनके सारे वनको जलाकर शान्त हो जाती है। वैसे ही यह शरीर गुणोंके वैषम्यसे उत्पन्न हुआ है। विचारद्वारा मन्थन करनेपर इससे ज्ञानाग्नि प्रज्वलित होती है और वह समस्त शरीरों एवं गुणोंको भस्म करके स्वयं भी शान्त हो जाती है ॥ 7 ॥

उद्धवजीने पूछा- भगवन् ! प्रायः सभी मनुष्य इस बातको जानते हैं कि विषय विपत्तियोंके घर हैं; फिर भी वे कुत्ते, गधे और बकरेके समान दुःख सहन करके भी उन्हींको ही भोगते रहते हैं। इसका क्या कारण है? ।। 8 ।।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा -प्रिय उद्धव ! जीव जब अज्ञानवश अपने स्वरूपको भूलकर हृदयसे सूक्ष्म-स्थूलादि शरीरोंमें अहंबुद्धि कर बैठता है—जो कि सर्वथा भ्रम हो है तब उसका सत्त्वप्रधान मन घोर रजोगुणकी ओर झुक जाता है; उससे व्याप्त हो जाता है ।। 9 । बस, जहाँ मनमें रजोगुणकी प्रधानता हुई कि उसमें संकल्प-विकल्पोंका ताँता बंध जाता है। अब वह विषयोंका चिन्तन करने लगता है। और अपनी दुर्बुद्धिके कारण कामके फंदेमें फँस जाता है, जिससे फिर छुटकारा होना बहुत ही कठिन है ॥ 10 ॥ अब वह अज्ञानी कामवश अनेकों प्रकारके कर्म करने लगता है। और इन्द्रियोंके वश होकर, यह जानकर भी कि इन कर्मोका अन्तिम फल दुःख ही है, उन्हींको करता है, उस समय वह रजोगुणके तीव्र वेगसे अत्यन्त मोहित रहता है ।। 11 ।। यद्यपि विवेकी पुरुषका चित्त भी कभी-कभी रजोगुण और तमोगुणके वेगसे विक्षिप्त होता है, तथापि उसकी विषयोंमें दोषदृष्टि बनी रहती है; इसलिये वह बड़ी सावधानीसे अपने चित्तको एकाग्र करनेकी चेष्टा करता रहता है, जिससे उसकी विषयोंमें आसक्ति नहीं होती ॥ 12 ॥ साधकको चाहिये कि आसन और प्राणवायुपर विजय प्राप्त कर अपनी शक्ति और समयके अनुसार बड़ी सावधानीसे धीरे-धीरे मुझमें अपना मन लगावे और इस प्रकार अभ्यास करते समय अपनी असफलता देखकर तनिक भी ऊबे नहीं, बल्कि और भी | उत्साहसे उसीमें जुड़ जाय ।। 13 ।।प्रिय उद्धव ! मेरे शिष्य सनकादि परमर्षियोंने योगका यही स्वरूप बताया है कि साधक अपने मनको सब ओरसे खींचकर विराट् आदिमें नहीं, साक्षात् मुझमें ही पूर्णरूपसे लगा दें ll 14 ll

उद्धवजीने कहा— श्रीकृष्ण ! आपने जिस समय जिस रूपसे, सनकादि परमर्षियोंको योगका आदेश दिया था, उस रूपको मैं जानना चाहता हूँ ।। 15 ।।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव । सनकादि परमर्षि ब्रह्माजीके मानस पुत्र हैं। उन्होंने एक बार अपने पितासे योगकी सूक्ष्म अन्तिम सीमाके सम्बन्धमें इस प्रकार प्रश्न किया था ॥ 16 ॥

सनकादि परमर्षियोंने पूछा-पिताजी चित गुणों अर्थात् विषयोंमें घुसा ही रहता है और गुण भी चित्तकी एक-एक वृत्तिमें प्रविष्ट रहते ही हैं। अर्थात् चित्त और गुण आपसमे मिले-जुले ही रहते हैं। ऐसी स्थितिमें जो पुरुष इस संसारसागरसे पार होकर मुक्तिपद प्राप्त करना चाहता है, वह इन दोनोंको एक-दूसरेसे अलग कैसे कर सकता है ? ॥ 17 ॥

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव । यद्यपि ब्रह्माजी सब देवताओंके शिरोमणि, स्वयम्भू और प्राणियों के जन्मदाता है। फिर भी सनकादि परमर्षियोंके इस प्रकार पूछनेपर ध्यान करके भी वे इस प्रश्नका मूलकारण न समझ सकें; क्योंकि उनकी बुद्धि कर्मप्रवण थी ।। 18 ।। उद्धव उस समय ब्रह्माजीने इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिये भक्तिभावसे मेरा चिन्तन किया तब मैं हंसका रूप धारण करके उनके सामने प्रकट हुआ ।। 19 । मुझे देखकर सनकादि ब्रह्माजीको आगे करके मेरे पास आये और उन्होंने मेरे चरणोंकी वन्दना करके मुझसे पूछा कि ‘आप कौन हैं ?’ 20 ॥ प्रिय उद्धव सनकादि परमार्थतत्वके जिज्ञासु थे, इसलिये उनके पूछनेपर उस समय मैंने जो कुछ कहा वह तुम मुझसे सुनो ॥ 21 ॥ ब्राह्मणो यदि परमार्थरूप वस्तु नानात्वसे सर्वथा रहित है, तब आत्माके सम्बन्धमें आपलोगोंका ऐसा प्रश्न कैसे युक्तिसंगत हो सकता है ? अथवा मैं यदि उत्तर देनेके लिये बोलू भी तो किस जाति, गुण, क्रिया और सम्बन्ध आदिका आश्रय लेकर उत्तर दूँ ? ॥ 22 ॥देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभी शरीर पञ्चभूतात्मक होने के कारण अभि ही है और परूपसे भी अभिन्न हैं। ऐसी स्थितिमें ‘आप कौन है?’ आपलोगोंका यह प्रश्न ही केवल वाणीका व्यवहार है। विचारपूर्वक नहीं है, निरर्थक है ।। 23 ।। मनसे, वाणीसे, दृष्टिसे तथा अन्य इन्द्रियोंसे भी जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ, मुझसे भिन्न और कुछ नहीं है। यह सिद्धान्त आपलोग तत्त्व विचारके द्वारा समझ लीजिये ।। 24 ।। पुत्रो ! यह चित्त चिन्तन करते-करते विषयाकार हो जाता है और विषय चित्तमें प्रविष्ट हो जाते हैं, यह बात सत्य है, तथापि विषय और चित्त ये दोनों ही मेरे स्वरूपभूत जीवके देह हैं—उपाधि हैं। अर्थात् आत्माका चित्त और विषयके साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है ॥ 25 ॥ इसलिये बार-बार विषयोंका सेवन करते रहनेसे जो चित्त विषयोंमें आसक्त हो गया है और विषय भी चित्तमें प्रविष्ट हो गये हैं, इन दोनोंको अपने वास्तविकसे अभिन्न मुझ परमात्माका साक्षात्कार करके त्याग देना चाहिये। ॥ 26 ॥ जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति – ये तीनों अवस्थाएँ सत्यादि गुणों के अनुसार होती है और बुद्धिकी वृत्तियाँ है, सच्चिदानन्दका स्वभाव नहीं। इन वृत्तियोंका साक्षी होनेके कारण जीव उनसे विलक्षण है। यह सिद्धान्त श्रुति, युक्ति और अनुभूति से युक्त है ।। 27 ।। क्योंकि बुद्धि-वृतियोंके द्वारा होनेवाला यह बन्धन ही आत्मामें त्रिगुणमयी वृत्तियोंका दान करता है। इसलिये तीनों अवस्थाओंसे विलक्षण और उनमें अनुगत मुझ तुरीय तत्त्वमें स्थित होकर इस बुद्धिके बन्धनका परित्याग कर दे। तब विषय और चित्त दोनोंका युगपत् त्याग हो जाता है ॥ 28 ॥ यह बन्धन अहङ्कारकी ही रचना है और यही आत्माके परिपूर्णतम सत्य, अखण्डज्ञान और परमानन्दस्वरूपको छिपा देता है। इस बातको जानकर विरक्त हो जाय और अपने तीन अवस्थाओंमें अनुगत तुरीयस्वरूपमें होकर संसारकी चिन्ताको छोड़ दे ॥ 29 ॥ जबतक पुरुषकी भिन्न-भिन्न पदार्थोंमें सत्यत्वबुद्धि, अहंबुद्धि और ममबुद्धि युक्तियोंके द्वारा निवृत्त नहीं हो जाती, तबतक वह अज्ञानी यद्यपि जागता है तथापि सोता हुआ सा रहता है— जैसे स्वप्नावस्थामें जान पड़ता है कि मैं जाग रहा हूँ ।। 30 ।। आत्मासे अन्य देह आदि प्रतीयमान नाम रूपात्मक प्रपशका कुछ भी अस्तित्व नहीं है। इसलिये उनके कारण होनेवाले वर्णाश्रमादिभेद, स्वर्गादिफल और उनके कारणभूत कर्मये सब-के-सब इस आत्माके लिये वैसे ही मिथ्या है; जैसे स्वप्रदर्शी पुरुषके द्वारा देखे हुए सब-के-सब पदार्थ 31 ॥जो जाग्रत्-अवस्थामें समस्त इन्द्रियोंके द्वारा बाहर दीखनेवाले सम्पूर्ण क्षणभङ्गर पदार्थोंको अनुभव करता है और स्वप्रावस्थामें हृदयमे ही जातमें देखे हुए पदार्थोक समान ही वासनामय विषयोंका अनुभव करता है और सुपति अवस्थामें उन सब विषयोंको समेटकर उनके लयको भी अनुभव करता है, वह एक ही है। जाग्रत् अवस्थाके इन्द्रिय, स्वप्रावस्थाके मन और सुषुप्तिकी संस्कारवती बुद्धिका भी वही स्वामी है। क्योंकि वह त्रिगुणमयी तीनों अवस्थाओंका साक्षी है। ‘जिस मैंने स्वप्न देखा, जो मैं सोया, वही मैं जाग रहा हूँ’ – इस स्मृतिके बलपर एक ही आत्माका समस्त अवस्थाओं में होना सिद्ध हो जाता है ॥ 32 ॥ ऐसा विचारकर मनकी ये तीनों अवस्थाएँ गुणोंके द्वारा मेरी मायासे मेरे अंशस्वरूप जीवमें कल्पित की गयी हैं और आत्मामें ये नितान्त असत्य हैं, ऐसा निश्चय करके तुमलोग अनुमान, सत्पुरुषोंद्वारा किये गये उपनिषदोंके श्रवण और तीक्ष्ण ज्ञानखड्गके द्वारा सकल संशयोंके आधार अहंकारका छेदन करके हृदयमें स्थित मुझ परमात्माका भजन करो ॥ 33 ॥

यह जगत् मनका विलास है, दीखनेपर भी नष्टप्राय है, अलातचक्र (लुकारियोंकी बनेठी) के समान अत्यन्त चञ्चल है और भ्रममात्र है—ऐसा समझे। ज्ञाता और ज्ञेयके भेदसे रहित एक ज्ञानस्वरूप आत्मा ही अनेक-सा प्रतीत हो रहा है। यह स्थूल शरीर इन्द्रिय और अन्तःकरणरूप तीन प्रकारका विकल्प गुणोंके परिणामकी रचना है और स्वप्रके समान मायाका खेल है, अज्ञानसे कल्पित है ॥ 34 इसलिये उस देहादिरूप दृश्यसे दृष्टि हटाकर तृष्णारहित इन्द्रियोंके व्यापारसे हीन और निरीह होकर आत्मानन्दके अनुभवमें मन हो जाय। यद्यपि कभी-कभी आहार आदिके समय यह देहादिक प्रपञ्च देखनेमें आता है, तथापि यह पहले ही आत्मवस्तुसे अतिरिक्त और मिथ्या समझकर छोड़ा जा चुका है। इसलिये वह पुनः भ्रान्तिमूलक मोह उत्पन्न करनेमें समर्थ नहीं हो सकता देहपातपर्यन्त केवल संस्कारमात्र उसकी प्रतीति होती है ॥ 35 ॥ जैसे मदिरा पीकर उन्मत्त पुरुष यह नहीं देखता कि मेरे द्वारा पहना हुआ वस्त्र शरीरपर है या गिर गया, वैसे ही सिद्ध पुरुष जिस शरीरसे उसने अपने स्वरूपका साक्षात्कार किया है, वह प्रारब्धवश खड़ा है, बैठा है या दैववश कहीं गया या आया है-नश्वर शरीरसम्बन्धी इन बातोंपर दृष्टि नहीं डालता ॥ 36 ॥प्राण और इन्द्रियोंके साथ यह शरीर भी प्रारब्धके अधीन है। इसलिये अपने आरम्भक (बनानेवाले) कर्म जबतक हैं, तबतक उनकी प्रतीक्षा करता ही रहता है। परन्तु आत्मवस्तुका साक्षात्कार करनेवाला तथा समाधिपर्यन्त योगमें आरूढ़ पुरुष स्त्री, पुत्र, धन आदि प्रपञ्चके सहित उस शरीरको फिर कभी स्वीकार नहीं करता, अपना नहीं मानता, जैसे जगा हुआ पुरुष स्वप्नावस्थाके शरीर आदिको ॥ 37 ॥ सनकादि ऋषियो ! मैंने तुमसे जो कुछ कहा है, वह सांख्य और योग दोनोंका गोपनीय रहस्य है। मैं स्वयं भगवान् हूँ, तुमलोगोंको तत्त्वज्ञानका उपदेश करनेके लिये ही यहाँ आया हूँ, ऐसा समझो ॥ 38 ॥ विप्रवरो ! मैं योग, सांख्य, सत्य, ऋत (मधुरभाषण), तेज, श्री, कीर्ति और दम (इन्द्रियनिग्रह) – इन सबका परम गति | परम अधिष्ठान हूँ ॥ 39 ॥ मैं समस्त गुणोंसे रहित हूँ और किसीकी अपेक्षा नहीं रखता। फिर भी साम्य, असङ्गता आदि सभी गुण मेरा ही सेवन करते हैं, मुझमें ही प्रतिष्ठित हैं; क्योंकि मैं सबका हितैषी, सुहृद्, प्रियतम और आत्मा हूँ। सच पूछो तो उन्हें गुण कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि वे सत्त्वादि गुणोंके परिणाम नहीं हैं और नित्य हैं ॥ 40 ॥

प्रिय उद्धव ! इस प्रकार मैंने सनकादि मुनियोंके संशय मिटा दिये। उन्होंने परम भक्तिसे मेरी पूजा की और स्तुतियों द्वारा मेरी महिमाका गान किया ॥ 41 ॥ जब उन परमर्षियोंने भली-भाँति मेरी पूजा और स्तुति कर ली, तब मैं ब्रह्माजीके | सामने ही अदृश्य होकर अपने धाममें लौट आया ॥ 42 ॥

अध्याय 14 भक्तियोगकी महिमा तथा ध्यानविधिका वर्णन

उद्धवजीने पूछा— श्रीकृष्ण ! ब्रह्मवादी महात्मा आत्मकल्याणके अनेकों साधन बतलाते हैं। उनमें अपनी-अपनी दृष्टिके अनुसार सभी श्रेष्ठ हैं अथवा किसी एककी प्रधानता है ? ॥ 1 ॥ मेरे स्वामी ! आपने तो अभी-अभी भक्तियोगको ही निरपेक्ष एवं स्वतन्त्र साधन बतलाया है; क्योंकि इसीसे सब ओरसे आसक्ति छोड़कर मन आपमें ही तन्मय हो जाता है ॥ 2 ॥भगवान् श्रीकृष्णने कहा-प्रिय उद्धव ! यह वेदवाणी समयके फेरसे प्रलयके अवसरपर लुप्त हो गयी थी; फिर जब सृष्टिका समय आया, तब मैंने अपने सङ्कल्पसे ही इसे ब्रह्माको उपदेश किया, इसमें मेरे भागवतधर्मका ही वर्णन है ॥ 3 ॥ ब्रह्माने अपने ज्येष्ठ पुत्र स्वायम्भुव मनुको उपदेश किया और उनसे भृगु, अङ्गिरा, मरीचि, पुलह, अत्रि, पुलस्त्य और क्रतु—इन सात प्रजापति महर्षियोंने ग्रहण किया ॥ 4 ॥ तदनन्तर इन ब्रह्मर्षियोंकी सन्तान देवता, दानव, गुह्यक, मनुष्य, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर, चारण, किन्देव *, किन्नर, नाग, राक्षस और किम्पुरुष # आदिने इसे अपने पूर्वज इन्हीं ब्रह्मर्षियोंसे प्राप्त किया। सभी जातियों और व्यक्तियोंके स्वभाव — उनकी वासनाएँ सत्व, रज और तमोगुणके कारण भिन्न-भिन्न है; इसलिये उनमें और उनकी बुद्धि वृत्तियोंमें भी अनेकों भेद हैं। इसीलिये वे सभी अपनी अपनी प्रकृतिके अनुसार उस वेदवाणीका भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण करते हैं। वह वाणी ही ऐसी अलौकिक है कि उससे विभिन्न अर्थ निकलना स्वाभाविक ही है ।। 5- 7 इसी प्रकार स्वभावभेद तथा परम्परागत उपदेशके भेदसे मनुष्योकी बुद्धिमें भिन्नता आ जाती है और कुछ लोग तो बिना किसी विचारके वेदविरुद्ध पाखण्डमतावलम्बी हो जाते हैं ॥ 8 ॥ प्रिय उद्धव सभीकी बुद्धि मेरी मायासे मोहित हो रही है; इसीसे वे अपने-अपने कर्म संस्कार और अपनी-अपनी रुचिके अनुसार आत्मकल्याणके साधन भी एक नहीं, अनेकों बतलाते हैं ॥ 9 ॥ पूर्वमीमांसक धर्मको, साहित्याचार्य यशको, कामशास्त्री कामको, योगवेत्ता सत्य और शमदमादिको दण्डनीतिकार ऐश्वर्यको त्यागी त्यागको और लोकायतिक भोगको ही मनुष्य जीवनका स्वार्थ परम लाभ बतलाते हैं ॥ 10 ॥ कर्मयोगी लोग यज्ञ, तप, दान, व्रत तथा यम-नियम आदिको पुरुषार्थ बतलाते हैं। परन्तु ये सभी कर्म हैं; इनके फलस्वरूप जो लोक मिलते हैं, वे उत्पत्ति और नाशवाले हैं। कर्मोंका फल समाप्त हो जानेपर उनसे दुःख ही मिलता है और सच पूछो तो उनकी अन्तिम गति घोर अज्ञान ही है उनसे जो सुख मिलता है, वह तुच्छ हैं—नगण्य है और वे लोग भोगके समय भी असूयाआदि दोषोंके कारण शोकसे परिपूर्ण है (इसलिये इन विभिन्न साधनों के फेर में न पड़ना चाहिये) ॥ 11 ॥

प्रिय उद्धव । जो सब ओरसे निरपेक्ष-बेपरवाह हो गया है, किसी भी कर्म या फल आदिकी आवश्यकता नहीं रखता और अपने अन्तःकरणको सब प्रकारसे मुझे ही समर्पित कर चुका है, परमानन्दस्वरूप मैं उसकी आत्माके रूपमें स्फुरित होने लगता हूँ। इससे वह जिस सुखका अनुभव करता है, वह विषयलोलुप प्राणियोंको किसी प्रकार मिल नहीं सकता ॥ 12 ॥ जो सब प्रकारके संग्रह-परिग्रहसे रहित अकिञ्चन है, जो अपनी इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके शान्त और समदर्शी हो गया है, जो मेरी प्राप्तिसे ही मेरे सान्निध्यका अनुभव करके ही सदा-सर्वदा पूर्ण सन्तोषका अनुभव करता है, उसके लिये आकाशका एक-एक कोना आनन्दसे भरा हुआ है॥ 13 ॥ जिसने अपनेको मुझे सौंप दिया है, वह मुझे छोड़कर न तो ब्रह्माका पद चाहता है और न देवराज इन्द्रका, उसके मनमें न तो सार्वभौम सम्राट् बननेकी इच्छा होती है और न वह स्वर्गसे भी श्रेष्ठ रसातलका ही स्वामी होना चाहता है वह योगकी बड़ी-बड़ी सिद्धियों और मोक्षतककी अभिलाषा नहीं करता ।। 14 ।। उद्धव ! मुझे तुम्हारे जैसे प्रेमी भक्त जितने प्रियतम है, उतने प्रिय मेरे पुत्र ब्रह्मा, आत्मा शङ्कर, सगे भाई बलरामजी, स्वयं अर्धाङ्गिनी लक्ष्मीजी और मेरा अपना आत्मा भी नहीं है ।। 15 ।। जिसे किसीकी अपेक्षा नहीं, जो जगत्के चिन्तनसे सर्वथा उपरत होकर मेरे ही मनन-चिन्तनमें तल्लीन रहता है और राग-द्वेष न रखकर सबके प्रति समान दृष्टि रखता है, उस महात्माके पीछे-पीछे मैं निरन्तर वह सोचकर घूमा करता हूँ कि उसके चरणोंकी धूल उड़कर मेरे ऊपर पड़ जाय और मैं पवित्र हो जाऊँ ॥ 16 ॥ जो सब प्रकारके संग्रह परिग्रहसे रहित हैं—यहाँतक कि शरीर आदिमें भी अहंता ममता नहीं रखते, जिनका चित्त मेरे ही प्रेमके रंगमें रंग गया है, जो संसारकी वासनाओंसे शान्त-उपरत हो चुके हैं और जो अपनी महत्ता उदारताके कारण स्वभावसे ही समस्त प्राणियोंके प्रति दया और प्रेमका भाव रखते हैं, किसी प्रकारकी कामना जिनकी बुद्धिका स्पर्श नहीं कर पाती, उन्हें मेरे जिस परमानन्दस्वरूपका अनुभव होता है, उसे और कोई नहीं जान सकता; क्योंकि वह परमानन्द तो केवल निरपेक्षतासे ही प्राप्त होता है ।। 17 ।।

उद्धवजी | मेरा जो भक्त अभी जितेन्द्रिय नहीं हो सका है और संसारके विषय बार-बार उसे बाधा पहुँचाते रहते हैं— अपनी ओर खींच लिया करते हैं, वह भी क्षण-क्षणमें बढ़नेवाली मेरी प्रगल्भ भक्तिके प्रभावसे प्रायः विषयोंसेपराजित नहीं होता ॥ 18 ॥ उद्धव । जैसे धधकती हुई आग लकड़ियोंके बड़े ढेरको भी जलाकर खाक कर देती है, वैसे ही मेरी भक्ति भी समस्त पाप राशिको पूर्णतया जला डालती है ॥ 19 ॥ उद्धव योग-साधन, ज्ञान विज्ञान, धर्मानुष्ठान, जप-पाठ और तप त्याग मुझे प्राप्त करानेमें उतने समर्थ नहीं हैं, जितनी दिनों-दिन बढ़नेवाली अनन्य प्रेममयी मेरी भक्ति ॥ 20 ॥ मैं संतोंका प्रियतम आत्मा हूँ, मैं अनन्य श्रद्धा और अनन्य भक्तिसे ही पकड़में आता हूँ। मुझे प्राप्त करनेका यह एक ही उपाय है। मेरी अनन्य भक्ति उन लोगोंको भी पवित्र – जातिदोषसे मुक्त कर देती है, जो जन्मसे ही चाण्डाल हैं ॥ 21 ॥ इसके विपरीत जो मेरी भक्तिसे वञ्चित हैं, उनके चित्तको सत्य और दयासे युक्त, धर्म और तपस्यासे युक्त विद्या भी भलीभाँति पवित्र करनेमें असमर्थ है ॥ 22 ॥ जबतक सारा शरीर पुलकित नहीं हो जाता, चित्त पिघलकर गद्गद नहीं हो जाता, आनन्दके आँसू आँखोंसे छलकने नहीं लगते तथा अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग भक्तिकी बचत डूबने-उतराने नहीं लगता, तबतक इसके शुद्ध होनेकी कोई सम्भावना नहीं है ॥ 23 ॥ जिसकी वाणी प्रेमसे गद्गद हो रही है, चित्त पिघलकर एक ओर बहता रहता है, एक क्षणके लिये भी रोनेका ताँता नहीं टूटता, परन्तु जो कभी-कभी खिलखिलाकर हँसने भी लगता है, कहीं लाज छोड़कर ऊँचे स्वरसे गाने लगता है, तो कहीं नाचने लगता है, भैया उद्धव ! मेरा वह भक्त न केवल अपनेको बल्कि सारे संसारको पवित्र कर देता है ।। 24 ।। जैसे आगमें तपानेपर सोना मैल छोड़ देता है—निखर जाता है और अपने असली शुद्ध रूपमें स्थित हो जाता है, वैसे ही मेरे भक्तियोगके द्वारा आत्मा कर्म-वासनाओंसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त हो जाता है, क्योंकि मैं ही उसका वास्तविक स्वरूप हूँ ॥ 25 ॥ उद्धवजी। मेरी परमपावन लीला कथाके श्रवण-कीर्तनसे ज्यों-ज्यों चित्तका मैल धुलता जाता है, त्यों-त्यों उसे सूक्ष्मवस्तुके वास्तविक तत्त्वके दर्शन होने लगते है-जैसे अंजनके द्वारा नेत्र दोष मिटनेपर उनमें सूक्ष्म वस्तुओंको देखनेकी शक्ति आने लगती है ।। 26 ।।

जो पुरुष निरन्तर विषय चिन्तन किया करता है, उसका चित्त विषयोंमें फँस जाता है और जो मेरा स्मरण करता है, उसका चित्त मुझमें तल्लीन हो जाता है ।। 27 ।।इसलिये तुम दूसरे साधनों और फलोंका चिन्तन छोड़ दो। अरे भाई! मेरे अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं, जो कुछ जान पड़ता है, वह ठीक वैसा ही है जैसे स्वप्र अथवा मनोरथका राज्य । इसलिये मेरे चिन्तनसे तुम अपना चित शुद्ध कर लो और उसे पूरी तरहसे-एकाग्रतासे मुझमें ही लगा दो ॥ 28 ॥ संयमी पुरुष स्त्रियों और उनके प्रेमियोंका सङ्ग दूरसे ही छोड़कर, पवित्र एकान्त स्थानमें बैठकर बड़ी सावधानीसे मेरा ही चिन्तन करे ।। 29 ।। प्यारे उद्धव ! स्त्रियोंके सङ्गसे और स्त्रीसङ्गियोंके – लम्पटोंके सङ्गसे पुरुषको जैसे क्लेश और बन्धनमें पड़ना पड़ता है, वैसा क्लेश और फैसावट और किसीके भी सहसे नहीं होती ॥ 30 ॥ उद्धवजीने पूछा- कमलनयन श्यामसुन्दर ! आप कृपा करके यह बतलाइये कि मुमुक्षु पुरुष आपका किस रूपसे, किस प्रकार और किस भावसे ध्यान करे ? ।। 31 ।।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव ! जो न तो बहुत ऊँचा हो और न बहुत नीचा ही ऐसे आसनपर शरीरको सीधा रखकर आरामसे बैठ जाय, हाथोंको अपनी गोद में रख ले और दृष्टि अपनी नासिकाके अग्रभागपर जमावे ॥ 32 ॥ इसके बाद पूरक, कुम्भक और रेचक तथा रेचक, कुम्भक और पूरक-इन प्राणायाम के द्वारा नाडियोंका शोधन करे। प्राणायामका अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिये और उसके साथ-साथ इन्द्रियोंको जीतनेका भी अभ्यास करना चाहिये ॥ 33 ॥ हृदयमें कमलनालगत पतले सूतके समान ॐकारका चिन्तन करे, प्राणके द्वारा उसे ऊपर ले जाय और उसमें घण्टानादके समान स्वर स्थिर करे। उस स्वरका ताँता टूटने न पावे ।। 34 ।। इस प्रकार प्रतिदिन तीन समय दस-दस बार ॐकारसहित प्राणायामका अभ्यास करे। ऐसा करनेसे एक महीनेके अंदर ही प्राणवायु वशमें हो जाता है ।। 35 ।। इसके बाद ऐसा चिन्तन करे कि हृदय एक कमल है, वह शरीरके भीतर इस प्रकार स्थित है मानो उसकी डंडी तो ऊपरकी ओर है और मुँह नीचेकी ओर। अब ध्यान करना चाहिये कि उसका मुख ऊपरकी ओर होकर खिल गया है, उसके आठ दल (पंखुड़ियाँ) हैं और उनके बीचोबीच पीली-पीली अत्यन्त सुकुमार कर्णिका (गद्दी) है ॥ 36 ॥ कर्णिकापर क्रमशः सूर्य, चन्द्रमा और अग्निका न्यास करना चाहिये। तदनन्तर अनिके अंदर मेरे | इस रूपका स्मरण करना चाहिये। मेरा यह स्वरूप ध्यानके लिये बड़ा ही मङ्गलमय है ।। 37 ।।मेरे अवयवोंकी गठन बड़ी ही सुडौल है। रोम-रोमसे शान्ति टपकती है। मुखकमल अत्यन्त प्रफुल्लित और सुन्दर है। घुटनोंतकबी मनोहर चार भुजाएँ है बड़ी ही सुन्दर और मनोहर गरदन है। मरकतमणिके समान मुस्निग्ध कपोल हैं। मुखपर मन्द मन्द मुसकानकी अनोखी ही छटा है। दोनों ओरके कान बराबर हैं और उनमें मकराकृत कुण्डल झिलमिल झिलमिल कर रहे हैं। वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल शरीरपर पीताम्बर फहरा रहा है। श्रीवत्स एवं लक्ष्मीजीका चिह्न वक्षःस्थलपर दायें-बायें विराजमान है। हाथोंमें क्रमशः शङ्ख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण किये हुए हैं। गलेमें वनमाला लटक रही है। चरणोंमें नूपुर शोभा दे रहे हैं, गलेमें कौस्तुभमणि जगमगा रही है। अपने-अपने स्थानपर चमचमाते हुए किरीट, कंगन, करधनी और बाजूबंद शोभायमान हो रहे हैं। मेरा एक-एक अङ्ग अत्यन्त सुन्दर एवं हृदयहारी है। सुन्दर मुख और प्यारभरी चितवन कृपा प्रसादकी वर्षा कर रही है। उद्धव ! मेरे इस सुकुमार रूपका ध्यान करना चाहिये और अपने मनको एक-एक अङ्गमें लगाना चाहिये ।। 38 – 41 ॥

बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि मनके द्वारा इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे खींच ले और मनको बुद्धिरूप सारथिकी सहायतासे मुझमें ही लगा दे, चाहे मेरे किसी भी अङ्ग क्यों न लगे ।। 42 ।। जब सारे शरीरका ध्यान होने लगे, तब अपने चित्तको खींचकर एक स्थानमें स्थिर करे और अन्य अङ्गका चिन्तन न करके केवल मन्द मन्द मुसकानकी छटासे युक्त मेरे मुखका ही ध्यान करे ।। 43 । जब चित्त मुखारविन्दमें ठहर जाय, तब उसे वहाँसे हटाकर आकाशमें स्थिर करे। तदनन्तर आकाशका चिन्तन भी त्यागकर मेरे स्वरूपमें आरूढ हो जाय और मेरे सिवा किसी भी वस्तुका चिन्तन न करे ।। 44 ।। जब इस प्रकार चित्त समाहित हो जाता है, तब जैसे एक ज्योति दूसरी ज्योतिसे मिलकर एक हो जाती है, वैसे ही अपने मुझे और मुझ सर्वात्मामें अपनेको अनुभव करने लगता है ।। 45 ।। जो योगी इस प्रकार तीव्र ध्यानयोगके द्वारा मुझमें ही अपने चित्तका संयम करता है, उसके चित्तसे वस्तुकी अनेकता, तत्सम्बन्धी ज्ञान और उनकी प्राप्तिके लिये होनेवाले कमका भ्रम शीघ्र ही निवृत्त हो जाता है ।। 46 ।।

अध्याय 15 भिन्न-भिन्न सिद्धियोंके नाम और लक्षण

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव। जब साधक इन्द्रिय, प्राण और मनको अपने वशमें करके अपना चित्त मुझमें लगाने लगता है, मेरी धारणा करने लगता है, तब उसके सामने बहुत-सी सिद्धियाँ उपस्थित होती हैं ॥ 1 ॥ उद्धवजीने कहा- अच्युत । कौन-सी धारणा करनेसे किस प्रकार कौन-सी सिद्धि प्राप्त होती है और उनको संख्या कितनी है, आप ही योगियोंको सिद्धियाँ देते हैं, अतः आप इनका वर्णन कीजिये ॥ 2 ॥

भगवान् श्रीकृष्णने कहा-प्रिय उद्धव ! धारणायोगके पारगामी योगियोंने अठारह प्रकारकी सिद्धियाँ बतलायी हैं। उनमें आठ सिद्धियाँ तो प्रधानरूपसे मुझमें हो रहती हैं और दूसरोंमें न्यून; तथा दस सत्त्वगुणके विकाससे भी मिल जाती है ॥ 3 ॥ उनमें तीन सिद्धियाँ तो शरीरकी हैं— ‘अणिमा’, ‘महिमा’ और ‘लघिमा’। इन्द्रियोंकी एक सिद्धि है— ‘प्राप्ति’। लौकिक और पारलौकिक पदार्थोंका इच्छानुसार अनुभव करनेवाली सिद्धि प्राकाम्य’ है। माया और उसके कार्योंको इच्छानुसार सञ्चालित करना ‘ईशिता’ नामकी सिद्धि है ॥ 4 ॥ विषयोंमें रहकर भी उनमें आसक्त न होना ‘वशिता’ है और जिस-जिस सुखकी कामना करे, उसकी सीमातक पहुँच जाना ‘कामावसायिता’ नामकी आठवीं सिद्धि है। ये आठों सिद्धियाँ मुझमें स्वभावसे ही रहती है और जिन्हें मैं देता हूँ, उन्हींको अंशतः प्राप्त होती हैं ॥ 5 ॥ इनके अतिरिक्त और भी कई सिद्धियाँ हैं। शरीरमें भूख-प्यास आदि वेगोंका न होना, बहुत दूरकी वस्तु देख लेना और बहुत दूरकी बात सुन लेना, मनके साथ ही शरीरका उस स्थानपर पहुँच जाना, जो इच्छा हो वही रूप बना लेना; दूसरे शरीरमें प्रवेश करना, जब इच्छा हो तभी शरीर छोड़ना, अप्सराओके साथ होनेवाली देवक्रीड़ाका दर्शन, सङ्कल्पकी सिद्धि, सब जगह सबके द्वारा बिना ननु नचके आज्ञापालन — ये दस सिद्धियाँ सत्त्वगुणके विशेष विकाससे होती हैं ।। 6-7 ॥ भूत, भविष्य और वर्तमानकी बात जान लेना; शीत-उष्ण, सुख-दुःख और राग-द्वेष आदि इन्द्रोंके वशमे न होना, दूसरेके मन आदिको बात जान लेना; अग्नि, सूर्य, जल, विष आदिको शक्तिको स्तम्भित कर देना और किसीसे भी पराजित न होना ये पाँच सिद्धियाँ भी योगियोको प्राप्त होती है ॥ 8 ॥प्रिय उद्धव । योग धारणा करनेसे जो सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, उनका मैंने नाम-निर्देशके साथ वर्णन कर दिया। अब किस धारणा कौन-सी सिद्धि कैसे प्राप्त होती है, यह
बतलाता हूँ, सुनो ॥ 9 ॥

प्रिय उद्धव पञ्चभूतोंकी सूक्ष्मतम मात्राएँ मेरा ही शरीर है। जो साधक केवल मेरे उसी शरीरकी उपासना करता है और अपने मनको तदाकार बनाकर उसीमें लगा देता है अर्थात् मेरे तन्मात्रात्मक शरीरके अतिरिक्त और किसी भी वस्तुका चिन्तन नहीं करता, उसे ‘अणिमा’ नामकी सिद्धि अर्थात् पत्थरकी चट्टान आदिमें भी प्रवेश करनेकी शक्ति- अणुता प्राप्त हो जाती है ॥ 10 ॥ महत्तत्त्वके रूपमें भी मैं ही प्रकाशित हो रहा हूँ और उस रूपमें समस्त व्यावहारिक ज्ञानोंका केन्द्र हूँ जो मेरे उस रूपमें अपने मनको महत्तत्त्वाकार करके तन्मय कर देता है, उसे ‘महिमा’ नामकी सिद्धि प्राप्त होती है, और इसी प्रकार | आकाशादि पञ्चभूतोंमें जो मेरे ही शरीर हैं- अलग अलग मन लगानेसे उन-उनकी महत्ता प्राप्त हो जाती है, यह भी ‘महिमा’ सिद्धिके ही अन्तर्गत है ॥ 11 ॥ जो योगी वायु आदि चार भूतोंके परमाणुओंको मेरा ही रूप समझकर चित्तको तदाकार कर देता है, उसे लघिमा ‘ सिद्धि प्राप्त हो जाती है—उसे परमाणुरूप कालके * समान सूक्ष्म वस्तु बननेका सामर्थ्य प्राप्त हो जाता है 12 ॥ जो सात्त्विक अहङ्कारको मेरा स्वरूप समझकर मेरे उसी रूपमें चित्तकी धारणा करता है, वह समस्त इन्द्रियोंका अधिष्ठाता हो जाता है। मेरा चिन्तन करनेवाला भक्त इस प्रकार ‘प्राप्ति’ नामकी सिद्धि प्राप्त कर लेता है ॥ 13 जो पुरुष मुझ महत्तत्त्वाभिमानी सूत्रात्मामें अपना चित्त स्थिर करता है, उसे मुझ अव्यक्तजन्मा (सूत्रात्मा) की ‘प्राकाम्य’ नामकी सिद्धि प्राप्त होती है— जिससे इच्छानुसार सभी भोग प्राप्त हो जाते हैं ।। 14 ।। जो त्रिगुणमयी मायाके स्वामी मेरे कालस्वरूप विश्वरूपकी धारणा करता है, वह शरीरों और जीवोंको अपने इच्छानुसार प्रेरित करनेकी सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है। इस सिद्धिका नाम ‘ईशित्व’ है ॥ 15 जो योगी मेरे नारायण-स्वरूपमें जिसे तुरीय और भगवान् भी कहते हैं-मनको लगा देता है, मेरे स्वाभाविक गुण उसमें प्रकटहोने लगते हैं और उसे ‘वशिता’ नामकी सिद्धि प्राप्त हो जाती है ।। 16 ।। निर्गुण ब्रह्म भी में ही हूँ। जो अपना निर्मल मन मेरे इस ब्रह्मस्वरूपमें स्थित कर लेता है, उसे परमानन्द-स्वरूपिणी ‘कामावसायिता’ नामकी सिद्धि प्राप्त होती है। इसके मिलनेपर उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं, समाप्त हो जाती हैं ।। 17 । प्रिय उद्धव ! मेरा वह रूप, जो श्वेतद्वीपका स्वामी है, अत्यन्त शुद्ध और धर्ममय है। जो उसकी धारणा करता है, वह भूख-प्यास, जन्म मृत्यु और शोक-मोह – इन छः ऊर्मियोंसे मुक्त हो जाता है और उसे शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति होती है ॥ 18 ॥ मैं ही समष्टि-प्राणरूप आकाशात्मा हूँ। जो मेरे इस स्वरूपमें मनके द्वारा अनाहत नादका चिन्तन करता है, वह ‘दूरश्रवण’ नामकी सिद्धिसे सम्पन्न हो जाता है और आकाशमें उपलब्ध होनेवाली विविध प्राणियोंकी बोली सुन-समझ सकता है ॥ 19 ॥ जो योगी नेत्रोंको सूर्यमें और सूर्यको नेत्रोंमें संयुक्त कर देता है और दोनोंके संयोगमें मन-ही-मन मेरा ध्यान करता है, उसकी दृष्टि सूक्ष्म हो जाती है, उसे ‘दूरदर्शन’ नामकी सिद्धि प्राप्त होती है और वह सारे संसारको देख सकता है ॥ 20 ॥ मन और | शरीरको प्राणवायुके सहित मेरे साथ संयुक्त कर दे और मेरी धारणा करे तो इससे ‘मनोजव’ नामकी सिद्धि प्राप्त हो जाती है। इसके प्रभावसे वह योगी जहाँ भी जानेका संकल्प करता है, वहीं उसका शरीर उसी क्षण पहुँच जाता है ॥ 21 ॥ जिस समय योगी मनको उपादान कारण बनाकर किसी देवता आदिका रूप धारण करना चाहता है तो वह अपने मनके अनुकूल वैसा ही रूप धारण कर लेता है। इसका कारण यह है कि उसने अपने चित्तको मेरे साथ जोड़ दिया है ॥ 22 ॥ जो योगी दूसरे शरीरमें प्रवेश करना चाहे, | वह ऐसी भावना करे कि मैं उसी शरीरमें हैं। ऐसा करनेसे उसका प्राण वायुरूप धारण कर लेता है और वह एक फूलसे दूसरे फूलपर जानेवाले भौरके समान अपना शरीर छोड़कर दूसरे शरीरमें प्रवेश कर जाता है । 23 ॥ योगीको यदि शरीरका परित्याग करना हो तो एड़ीसे गुदाद्वारको | दबाकर प्राणवायुको क्रमशः हृदय, वक्षःस्थल, कण्ठ और मस्तकमें ले जाय। फिर ब्रहारन्धके द्वारा उसे ब्रह्ममें लीन करके शरीरका परित्याग कर दे ॥ 24 ॥ यदि उसे | देवताओंके विहारस्थलोंमें क्रीड़ा करनेकी इच्छा हो, तो मेरे शुद्ध सत्त्वमय स्वरूपकी भावना करे। ऐसा करनेसे सत्त्वगुणकी अंशस्वरूपा सुर-सुन्दरियाँ विमानपर चढ़कर | उसके पास पहुँच जाती हैं ।। 25 ।।जिस पुरुषने मेरे सत्यसङ्कल्पस्वरूपमें अपना चित्त स्थिर कर दिया है, उसीके ध्यानमें संलग्र है, वह अपने मनसे जिस समय जैसा सङ्कल्प करता है, उसी समय उसका वह सङ्कल्प सिद्ध हो जाता है ॥ 26 ॥ मैं ‘ईशित्व’ और ‘वशित्व’ – इन दोनों सिद्धियोंका स्वामी हूँ, इसलिये कभी कोई मेरी आज्ञा टाल नहीं सकता। जो मेरे उस रूपका चिन्तन करके उसी भावसे युक्त हो जाता है, मेरे समान उसकी आज्ञाको भी कोई टाल नहीं सकता ॥ 27 ॥ जिस योगीका चित्त मेरी धारणा करते-करते मेरी भक्तिके प्रभावसे शुद्ध हो गया है, उसकी बुद्धि जन्म-मृत्यु आदि अदृष्ट विषयोंको भी जान लेती है। और तो क्या भूत, भविष्य और वर्तमानकी सभी बातें उसे मालूम हो जाती हैं ।। 28 ।। जैसे जलके द्वारा जलमें रहनेवाले प्राणियोंका नाश नहीं होता, वैसे ही जिस योगीने अपना चित्त मुझमें लगाकर शिथिल कर दिया है, उसके योगमय शरीरको अग्नि, जल आदि कोई भी पदार्थ नष्ट नहीं | कर सकते ॥ 29 ॥ जो पुरुष श्रीवत्स आदि चिह्न और शङ्ख गदा चक्र पद्म आदि आयुधोंसे विभूषित तथा ध्वजा-छत्र चॅवर आदिसे सम्पन्न मेरे अवतारोंका ध्यान करता है, वह अजेय हो जाता है ॥ 30 ॥

इस प्रकार जो विचारशील पुरुष मेरी उपासना करता है और योगधारणाके द्वारा मेरा चिन्तन करता है, उसे वे सभी सिद्धियाँ पूर्णतः प्राप्त हो जाती है, जिनका वर्णन मैने किया है ।। 31 ।। प्यारे उद्धव ! जिसने अपने प्राण, मन और इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर ली है, जो संयमी है और मेरे ही स्वरूपको धारणा कर रहा है, उसके लिये ऐसी कोई भी सिद्धि नहीं, जो दुर्लभ हो उसे तो सभी सिद्धियाँ प्राप्त 1 ही हैं ।। 32 ।। परन्तु श्रेष्ठ पुरुष कहते हैं कि जो लोग भक्तियोग अथवा ज्ञानयोगादि उत्तम योगोंका अभ्यास कर रहे हैं, जो मुझसे एक हो रहे हैं उनके लिये इन सिद्धियोंका प्राप्त होना एक विघ्न ही है; क्योंकि इनके कारण व्यर्थ ही | उनके समयका दुरुपयोग होता है ॥ 33 ॥ जतग्में जन्म, ओषधि, तपस्या और मन्त्रादिके द्वारा जितनी सिद्धियाँ प्राप्त होती है, वे सभी योगके द्वारा मिल जाती है, परन्तु योगकी अन्तिम सीमा मेरे सारूप्य, सालोक्य आदिकी प्राप्ति बिना मुझमें चित्त लगाये किसी भी साधनसे नहीं प्राप्त हो सकती ।। 34 ।। ब्रह्मवादियोंने बहुत-से साधन बतलाये हैं—योग, सांख्य और धर्म आदि। उनका एवं समस्त सिद्धियोंका एकमात्र मैं ही हेतु स्वामी और प्रभु हूँ। 35 ।।जैसे स्थूल पञ्चभूतों में बाहर, भीतर – सर्वत्र सूक्ष्म पञ्च महाभूत ही हैं, सूक्ष्म भूतोंके अतिरिक्त स्थूल भूतोंकी कोई सत्ता ही नहीं है, वैसे ही मैं समस्त प्राणियोंके भीतर द्रष्टारूपसे और बाहर दृश्यरूपसे स्थित हूँ। मुझमें बाहर-भीतरका भेद भी नहीं है; क्योंकि मैं निरावरण, एक-अद्वितीय आत्मा हूँ ||36||

अध्याय 16 भगवान्‌की विभूतियोंका वर्णन

उद्धवजीने कहा- भगवन्! आप स्वयं परब्रह्म हैं, न आपका आदि है और न अन्त। आप आवरण रहित, अद्वितीय तत्त्व हैं। समस्त प्राणियों और पदार्थोंकी उत्पत्ति, स्थिति, रक्षा और प्रलयके कारण भी आप ही हैं। आप ऊँचे-नीचे सभी प्राणियों में स्थित है; परन्तु जिन लोगोंने अपने मन और इन्द्रियोंको वशमें नहीं किया है, वे आपको नहीं जान सकते। आपकी यथोचित उपासना तो ब्रह्मवेत्ता पुरुष ही करते है 1-2 बड़े-बड़े ऋषि महर्षि आपके जिन रूपों और विभूतियोंकी परम भक्तिके साथ उपासना करके सिद्धि प्राप्त करते हैं, आप मुझसे कहिये || 3 || समस्त प्राणियोंके जीवनदाता प्रभो! आप समस्त प्राणियोंके अन्तरात्मा हैं। आप उनमें अपनेको गुप्त रखकर लीला करते रहते हैं। आप तो सबको देखते हैं, परन्तु जगत्के प्राणी आपकी मायासे ऐसे मोहित हो रहे हैं कि वे आपको नहीं देख पाते 4 अचिन्त्य ऐश्वर्यसम्पन्न प्रभो! पृथ्वी, स्वर्ग, पाताल तथा दिशा-विदिशाओंमें आपके प्रभावसे युक्त जो-जो भी विभूतियों है, आप कृपा करके मुझसे उनका वर्णन कीजिये। प्रभो! मैं आपके उन चरण कमलोंकी वन्दना करता हूँ, जो समस्त तीर्थोंको भी तीर्थ बनानेवाले हैं ॥ 5 ॥

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव ! तुम प्रश्रका मर्म समझनेवालोंमें शिरोमणि हो जिस समय कुरुक्षेत्रमें कौरव पाण्डवोंका युद्ध छिड़ा हुआ था, उस समय शत्रुओंसे युद्धके लिये तत्पर अर्जुनने मुझसे यही प्रश्न किया था ॥ 6 ॥अर्जुनके मनमें ऐसी धारणा हुई कि कुटुम्बियोंको मारना, और सो भी राज्यके लिये बहुत हो निन्दनीय अधर्म है। साधारण पुरुषोंके समान वह यह सोच रहा था कि में मारनेवाला हूँ और ये सब मरनेवाले हैं। यह सोचकर वह युद्धसे उपरत हो गया ॥ 7 ॥ तब मैंने रणभूमिमें बहुत-सी युक्तियाँ देकर वीर शिरोमणि अर्जुनको समझाया था। उस समय अर्जुनने भी मुझसे यही प्रश्न किया था, जो तुम कर रहे हो ॥ 8 ॥ उद्धवजी ! मैं समस्त प्राणियोंका आत्मा, हितेषी सुदद और ईश्वर – नियामक हूँ। मैं ही इन समस्त प्राणियों और पदार्थोंके रूपमें हूँ और इनकी उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलयका कारण भी हूँ ॥ 9 ॥ गतिशील पदार्थोंमें मैं गति हूँ। अपने अधीन करनेवालोंमें मैं काल हूँ। गुणोंमें मैं उनकी मूलस्वरूपा साम्यावस्था हूँ और जितने भी गुणवान् पदार्थ हैं, उनमें उनका स्वाभाविक गुण हूँ ॥ 10 ॥ गुणयुक्त वस्तुओं में क्रिया शक्तिप्रधान प्रथम कार्य सूत्रात्मा हूँ और महानोंमें ज्ञान शक्तिप्रधान प्रथम कार्य महत्तत्त्व हूँ। सूक्ष्म वस्तुओं में जीन हूँ और कठिनाईसे वशमें होनेवालोंमें मन हूँ ॥ 11 ॥ मैं वेदोंका अभिव्यक्तिस्थान हिरण्यगर्भ हूँ और मन्त्रोंमें तीन मात्राओं (अ+उ+म). वाला ओंकार हूँ। मैं अक्षरोंमें अकार, छन्दोंमें त्रिपदा गायत्री हूँ ॥ 12 ॥ समस्त देवताओंमें इन्द्र, आठ वसुओंमें अधि, द्वादश आदित्योंमें विष्णु और एकादश रुद्रोंमें नीललोहित नामका रुद्र हूँ ।। 13 ।। मैं ब्रह्मर्षियों में भृगु, राजमनु देवर्थियोंमें नारद और गौओमें कामधेनु ॥ 14 ॥ सिद्धेश्व कपिल, पक्षियोंमें गरुड़, प्रजापतियोंमें दक्ष प्रजापति और पितरोंमें अर्यमा हूँ ।। 15 ।। प्रिय उद्धव मे दैत्यों यराज प्रह्लाद नक्षत्रोंमें चन्द्रमा, ओषधियोंमें सोमरस एवं यक्ष-राक्षसोंमें कुबेर हूँ — ऐसा समझो ।। 16 ।। मैं गजराजोंमें ऐरावत, जलनिवासियोंमें उनका प्रभु वरुण, तपने और चमकने वालोंमें सूर्य तथा मनुष्यों राजा हूँ ॥ 17 में घोड़ उसैःश्रवा धातुओं सोना, दण्डधारियोंमें यम और सम वासुकि ॥ 18 ॥ निष्पाप उद्धवजी मे नागराजोमे शेषनाग, सींग और दाढ़वाले प्राणियोंमें उनका राजा सिंह, आश्रमोंमें संन्यास और वर्णोंमें ब्राह्मण हूँ ॥ 19 ॥मैं तीर्थ और नदियोंमें गङ्गा, जलाशयोंमें समुद्र, अस्त्र शस्त्रोंमें धनुष तथा धनुर्धरोंमें त्रिपुरारि शङ्कर हूँ ॥ 20 ॥ मैं निवासस्थानोंमें सुमेरु, दुर्गम स्थानोंमें हिमालय, वनस्पतियोंमें पीपल और धान्योंमें जौ हूँ ॥ 21 ॥ मैं पुरोहितोंमें वसिष्ठ, वेदवेत्ताओंमें बृहस्पति, समस्त सेनापतियोंमें स्वामिकार्तिक और सन्मार्गप्रवर्तकों में भगवान् ब्रह्मा हूँ ।। 22 ॥ पञ्चमहायज्ञों में ब्रह्मयज्ञ ( स्वाध्याययज्ञ) हूँ, व्रतोंमें अहिंसाव्रत और शुद्ध करनेवाले पदार्थों में नित्यशुद्ध वायु, अग्नि, सूर्य, जल, वाणी एवं आत्मा हूँ ।। 23 ।। आठ प्रकारके योगों में मैं मनोनिरोधरूप समाधि हैं। विजयके इच्छुकोंमें रहनेवाला मै मन्त्र (नीति) बल हूँ, कौशलोंमें आत्मा और अनात्माका विवेकरूप कौशल तथा ख्यातिवादियोंमें विकल्प हूँ ।। 24 ।। मैं स्त्रियोंमें मनुपत्नी शतरूपा, पुरुषोंमें स्वायम्भुव मनु, मुनीश्वरोंमें नारायण और ब्रह्मचारियोंमें सनत्कुमार हूँ ॥ 25 ॥ मैं धर्मेोगं कर्मसंन्यास अथवा एषणात्रय के त्यागद्वारा सम्पूर्ण प्राणियोंको अभयदानरूप सच्चा संन्यास हूँ। अभयके साधनोंमें आत्मस्वरूपका अनुसन्धान हूँ, अभिप्राय गोपनके साधनोंमें मधुर वचन एवं मौन हैं और स्त्री-पुरुष के जोड़ोंगे मैं प्रजापति जिनके शरीरके दो भागों से पुरुष और स्त्रीका पहला जोड़ा पैदा हुआ ।। 26 ।। सदा सावधान रहकर जागनेवालोंमें संवत्सररूप काल मैं हूँ, ऋतुओंमें वसन्त, महीनों में मार्गशीर्ष और नक्षत्रों में अभिजित् ॥ 27 ॥ मैं युगोमें सत्ययुग, विवेकियोंमें महर्षि देवल और असित, व्यासोंमें श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास तथा कवियोंमें मनस्वी शुक्राचार्य हूँ ।। 28 । सृष्टिकी उत्पत्ति और लय, प्राणियोंके जन्म और मृत्यु तथा विद्या और अविद्याके जाननेवाले भगवानोंमें (विशिष्ट महापुरुषोंमें) मैं वासुदेव हूँ। मेरे प्रेमी भक्तोंमें तुम (उद्धव), किम्पुरुषों में हनुमान्, विद्याधरोंगे सुदर्शन (जिसने अजगरके रूपमें नन्दबाबाको यस लिया था और फिर भगवान्‌के पादस्पर्शसे मुक्त हो गया था) मैं हूँ ॥ 29 ॥ रत्नोंमें पद्मराग (लाल), सुन्दर वस्तुओंमें कमलकी कली, तृणोंमें कुश और हविष्यों में गायका घी हूँ ॥ 30 ॥ मैं व्यापारियोंमें रहनेवाली लक्ष्मी, | छल-कपट करनेवालोंमें द्यूतक्रीडा, तितिक्षुओंकी तितिक्षा (कष्टसहिष्णुता) और साविक पुरुषोंमें रहनेवालासत्त्वगुण हूँ ॥ 31 ॥ मैं बलवानोंमें उत्साह और पराक्रम | तथा भगवद्भक्तो भक्तियुक्त निष्काम कर्म हूँ। वैष्णवोंकी पूज्य वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्र, अनिरुद्ध, नारायण, हयामीव, वराह, नृसिंह और ब्रह्मा इन नौ मूर्तियों में पहली एवं श्रेष्ठ मूर्ति वासुदेव हूँ ॥ 32 ॥ मैं गन्धर्वों में विश्वावसु और अप्सराओमें ब्रह्माजी के दरबारकी अप्सरा पूर्वचिति हूँ। पर्वतोंमें स्थिरता और पृथ्वीमें शुद्ध अविकारी गन्ध मैं ही हूँ ।। 33 ।। मैं जलमें रस, तेजस्वियोंमें परम तेजस्वी अग्नि; सूर्य, चन्द्र और तारोंमें प्रभा तथा आकाशमें | उसका एकमात्र गुण शब्द हूँ ॥ 34 ॥ उद्धवजी ! मैं ब्राह्मणभतोंमें बलि, बीरोगे अर्जुन और प्राणियोंमें उनकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय हूँ ॥ 35 ॥ मैं ही पैरोंमें चलनेकी शक्ति, वाणीमें बोलनेकी शक्ति, पायुमै मल त्यागकी शक्ति, हाथोंमें पकड़ने की शक्ति और जननेन्द्रियमें आनन्दोपभोगकी शक्ति है। त्वचा स्पर्शको, नेत्रोंमें दर्शनकी, रसनामें स्वाद लेनेकी, कानोंमें श्रवणकी और नासिकामे सूपनेकी शक्ति भी मैं ही हूँ। समस्त इन्द्रियोंकी इन्द्रिय शक्ति मैं ही हूँ ।। 36 । पृथ्वी, वायु आकाश, जल, तेज, अहङ्कार, महत्तत्त्व, पञ्चमहाभूत, जीव, अव्यक्त, प्रकृति, सत्त्व, रज, तम और उनसे परे रहनेवाला ब्रह्म-ये सब मैं ही हूँ ॥ 37 ॥ इन तत्त्वोंकी गणना, लक्षणोंद्वारा उनका ज्ञान तथा तत्त्वज्ञानरूप उसका फल भी मैं ही हूँ। मैं ही ईश्वर हूँ, मैं ही जीव हूँ, मैं ही गुण हूँ और मैं ही गुणी हूँ। मैं ही सबका आत्मा हूँ और मैं ही सब कुछ हूँ। मेरे अतिरिक्त और कोई भी पदार्थ कहीं भी नहीं है ॥ 38 ॥ यदि मैं गिनने लगें तो किसी समय परमाणुओंकी गणना तो कर सकता हूँ, परन्तु अपनी विभूतियोंकी गणना नहीं कर सकता। क्योंकि जब मेरे रचे हुए कोटि-कोटि ब्रह्माण्डोंकी भी गणना नहीं हो सकती, तब मेरी विभूतियोंकी गणना तो हो ही कैसे सकती है ॥ 39 ॥ ऐसा समझो कि जिसमें भी तेज, श्री, कीर्ति, ऐश्वर्य, लज्जा, त्याग, सौन्दर्य, सौभाग्य, पराक्रम, तितिक्षा और विज्ञान आदि श्रेष्ठ गुण हों, वह मेरा ही अंश है ।। 40 उद्धवजी। मैंने तुम्हारे प्रश्नके अनुसार संक्षेपसे विभूतियोंका वर्णन किया। ये सब परमार्थ वस्तु नहीं है, मनोविकारमात्र है; क्योंकि मनसे सोची और वाणी से कही हुई कोई भी वस्तु परमार्थ (वास्तविक) नहीं होती। उसकी एक कल्पना ही होती है ।। 41 ।।इसलिये तुम वाणीको स्वच्छन्दभाषणसे रोको, मनके सङ्कल्प विकल्प बंद करो। इसके लिये प्राणोंको वशमें करो और इन्द्रियोंका दमन करो। सात्त्विक बुद्धिके द्वारा प्रपञ्चाभिमुख बुद्धिको शान्त करो। फिर तुम्हें संसारके जन्म-मृत्युरूप बीहड़ मार्गमें भटकना नहीं पड़ेगा ॥ 42 ॥ जो साधक बुद्धिके द्वारा वाणी और मनको पूर्णतया वशमें नहीं कर लेता, उसके व्रत, तप और दान उसी प्रकार क्षीण हो जाते हैं, जैसे कच्चे घड़े में भरा हुआ जल ॥ 43 ॥ इसलिये मेरे प्रेमी भक्तको चाहिये कि मेरे परायण होकर भक्तियुक्त बुद्धिसे वाणी, मन और प्राणोंका संयम करे। ऐसा कर लेनेपर फिर उसे कुछ करना शेष नहीं रहता। वह कृतकृत्य हो जाता है ॥ 44 ॥

अध्याय 17 वर्णाश्रम धर्म-निरूपण

उद्धवजीने कहा – कमलनयन श्रीकृष्ण ! आपने पहले वर्णाश्रम धर्मका पालन करनेवालोंके लिये और सामान्यतः मनुष्यमात्रके लिये उस धर्मका उपदेश किया था, जिससे आपकी भक्ति प्राप्त होती है। अब आप कृपा करके यह बतलाइये कि मनुष्य किस प्रकारसे अपने धर्मका अनुष्ठान करे, जिससे आपके चरणोंमें उसे भक्ति प्राप्त हो जाय ॥ 1-2 ॥ प्रभो ! महाबाहु माधव ! पहले आपने हंसरूपसे अवतार ग्रहण करके ब्रह्माजीको अपने परमधर्मका उपदेश किया था ॥ 3 ॥ रिपुदमन ! बहुत समय बीत जानेके कारण वह इस समय मर्त्यलोकमें प्रायः नहीं-सा रह गया है, क्योंकि आपको उसका उपदेश किये बहुत दिन हो गये हैं ॥ 4 ॥ अच्युत ! पृथ्वीमें तथा ब्रह्माकी उस सभामें भी, जहाँ सम्पूर्ण वेद मूर्तिमान् होकर विराजमान रहते हैं, आपके अतिरिक्त ऐसा कोई भी नहीं है, जो आपके इस धर्मका प्रवचन, प्रवर्तन अथवा संरक्षण कर सके ॥ 5 ॥इस धर्मके प्रवर्तक, रक्षक और उपदेशक आप ही हैं। आपने पहले जैसे मधु दैत्यको मारकर वेदोंकी रक्षा की थी, वैसे ही अपने धर्मकी भी रक्षा कीजिये। स्वयंप्रकाश परमात्मन् ! जब आप पृथ्वीतलसे अपनी लीला संवरण कर लेंगे, तब तो इस धर्मका लोप ही हो जायगा तो फिर उसे कौन बतावेगा ? || 6 || आप समस्त धर्मक मर्मज्ञ हैं; इसलिये प्रभो ! आप उस धर्मका वर्णन कीजिये, जो आपकी भक्ति प्राप्त करानेवाला है और यह भी बतलाइये कि किसके लिये उसका कैसा विधान है ॥ 7॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! जब इस प्रकार भक्तशिरोमणि उद्धवजीने प्रश्न किया, तब भगवान् श्रीकृष्णने अत्यन्त प्रसन्न होकर प्राणियोंके कल्याणके लिये उन्हें सनातन धर्मोका उपदेश दिया ॥ 8 ॥

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव ! तुम्हारा पत्र धर्म है, क्योंकि इससे वर्णाश्रमम मनुष्योंको परमकल्याणस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति होती है। अतः मैं तुम्हें उन धर्मोंका उपदेश करता हूँ, सावधान होकर सुनो ॥ 9 ॥ जिस समय इस कल्पका प्रारम्भ हुआ था और पहला सत्ययुग चल रहा था, उस समय सभी मनुष्योंका ‘हंस’ नामक एक ही वर्ण था। उस युगमें सब लोग जन्मसे ही कृतकृत्य होते थे; इसीलिये उसका एक नाम कृतयुग भी है ।। 10 ।। उस समय केवल प्रणव ही वेद था और तपस्या, शौच, दया एवं सत्यरूप चार चरणोंसे युक्त मैं ही वृषभरूपधारी धर्म था। उस समयके निष्पाप एवं परमतपस्वी भक्तजन मुझ हंसस्वरूप शुद्ध परमात्माकी उपासना करते थे ।। 11 । परम भाग्यवान् उद्धव ! सत्ययुगके बाद प्रतायुगका आरम्भ होनेपर मेरे हृदयसे श्वास-प्रश्वासके द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयोविद्या प्रकट हुई और उस विद्यासे होता, अध्वर्यु और उद्गाताके कर्मरूप तीन भेदोंवाले यज्ञके रूपसे मैं प्रकट हुआ || 12 | विराट् पुरुषके मुखसे ब्राह्मण, भुजासे क्षत्रिय, जेपासे वैश्य और चरणोंसे शूद्रोकी उत्पत्ति हुई। उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरणसे होती है ।। 13 ।। उद्धवजी विराट् पुरुष भी में हो इसलिये मेरे ही ऊरुस्थलसे गृहस्थाश्रम, हृदयसे ब्रह्म चर्याश्रम, वक्षःस्थलसे वानप्रस्थाश्रम और मस्तकसे संन्यासाश्रमको उत्पत्ति हुई है ।। 14 ।।इन वर्ण और आश्रमोंके पुरुषोंके स्वभाव भी इनके जन्मस्थानोंके अनुसार उत्तम, मध्यम और अधम हो गये। अर्थात् उत्तम स्थानोंसे उत्पन्न होनेवाले वर्ण और आश्रमोंके स्वभाव उत्तम और अधम स्थानोंसे उत्पन्न होनेवालोंके अधम हुए ॥ 15 ॥ शम, दम, तपस्या, पवित्रता, सन्तोष, क्षमाशीलता, सीधापन, मेरी भक्ति, दया और सत्य — ये ब्राह्मण वर्णके स्वभाव हैं ॥ 16 ॥ तेज, बल, धैर्य, वीरता, सहनशीलता, उदारता, उद्योगशीलता, स्थिरता, ब्राह्मण-भक्ति और ऐश्वर्य ये क्षत्रिय वर्णके स्वभाव है ।। 17 ।। आस्तिकता, दानशीलता, दम्भहीनता, ब्राह्मणोंकी सेवा करना और धनसञ्चयसे सन्तुष्ट न होना—ये वैश्य वर्णके स्वभाव हैं ।। 18 ।। ब्राह्मण, गौ और देवताओंकी निष्कपटभावसे सेवा करना और उसीसे जो कुछ मिल जाय, उसमें सन्तुष्ट रहना – ये शूद्र वर्णके स्वभाव हैं ।। 19 ।। अपवित्रता, झूठ बोलना, चोरी करना, ईश्वर और परलोककी परवा न करना, झूठमूठ झगड़ना और काम, क्रोध एवं तृष्णाके वशमें रहना – ये अन्त्यजोंके स्वभाव हैं ॥ 20 ॥ उद्धवजी ! चारों वर्णों और चारों आश्रमोंके लिये साधारण धर्म यह है कि मन, वाणी और शरीरसे किसीकी हिंसा न करें; सत्यपर दृढ़ रहें; चोरी “न करें; काम, क्रोध तथा लोभसे बचें और जिन कामोंके करनेसे समस्त प्राणियोंकी प्रसन्नता और उनका भला हो, वही करें ॥ 21 ॥

ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य गर्भाधान आदि संस्कारोंके क्रमसे यज्ञोपवीत संस्काररूप द्वितीय जन्म प्राप्त करके गुरुकुलमें रहे और अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखे। आचार्यके बुलानेपर वेदका अध्ययन करे और उसके अर्थका भी विचार करे॥ 22 ॥ मेखला, मृगचर्म, वर्णक अनुसार दण्ड, रुद्राक्षकी माला, यज्ञोपवीत और कमण्डलु धारण करे। सिरपर जटा रखे, शौकीनीके लिये दाँत और वस्त्र न धोवे, रंगीन आसनपर न बैठे और कुश धारण करे ॥ 23 ॥ स्नान, भोजन, हवन, जप और मल-मूत्र त्यागके समय मौन रहे। और कक्ष तथा गुप्तेन्द्रियके बाल और नाखूनों को कभी न काटे ।। 24 ।। पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन करे। स्वयं तो कभी वीर्यपात करे ही नहीं। यदि स्वप्न आदिमे वीर्य स्खलित हो जाय, तो जलमें | स्नान करके प्राणायाम करे एवं गायत्रीका जप करे ।। 25 ।।ब्रह्मचारीको पवित्रताके साथ एकाग्रचित्त होकर अनि, सूर्य, आचार्य, गौ, ब्राह्मण, गुरु, वृद्धजन और देवताओंकी उपासना करनी चाहिये तथा सायङ्काल और प्रातः काल मौन होकर सन्ध्योपासन एवं गायत्रीका जप करना चाहिये ॥ 26 ॥ आचार्यको मेरा ही स्वरूप समझे, कभी उनका तिरस्कार न करे। उन्हें साधारण मनुष्य समझकर दोषदृष्टि न करे; क्योंकि गुरु सर्वदेवमय होता है ॥ 27 ॥ सायङ्काल और प्रातःकाल दोनों समय जो कुछ भिक्षामें मिले वह लाकर गुरुदेवके आगे रख दें। केवल भोजन ही नहीं, जो कुछ हो सब। तदनन्तर उनके आज्ञानुसार बड़े संयमसे भिक्षा आदिका यथोचित उपयोग करे ।। 28 ।। आचार्य यदि जाते हों तो उनके पीछे-पीछे चले, उनके सो जानेके बाद बड़ी सावधानीसे उनसे थोड़ी दूरपर सोवे। थके हों, तो पास बैठकर चरण दबावे और बैठे हों, तो उनके आदेशकी प्रतीक्षामें हाथ जोड़कर पासमें ही खड़ा रहे। इस प्रकार अत्यन्त छोटे व्यक्तिकी भाँति सेवा-शुश्रूषाके द्वारा सदा-सर्वदा आचार्यकी आज्ञामें तत्पर रहे ।। 29 ॥ जबतक विद्याध्ययन समाप्त न हो जाय, तबतक सब प्रकारके भोगों से दूर रहकर इसी प्रकार गुरुकुलमें निवास करे और कभी अपना ब्रह्मचर्यव्रत खण्डित न होने दे ॥ 30 ॥

यदि ब्रह्मचारीका विचार हो कि में मूर्तिमान् वेदोक निवासस्थान ब्रह्मलोकमें जाऊँ, तो उसे आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लेना चाहिये। और वेदोंके स्वाध्यायके लिये अपना सारा जीवन आचार्यकी सेवामें ही समर्पित कर देना चाहिये ॥ 31 ॥ ऐसा ब्रह्मचारी सचमुच ब्रह्मतेजसे सम्पन्न हो जाता है और उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। उसे चाहिये कि अग्नि, गुरु, अपने शरीर और समस्त प्राणियोंमें मेरी ही उपासना करे और यह भाव रखे कि मेरे तथा सबके हृदयमें एक ही परमात्मा विराजमान हैं ॥ 32 ॥ ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासियोंको चाहिये कि वे स्त्रियोंको देखना, स्पर्श करना, उनसे बातचीत या हँसी-मसखरी आदि करना दूरसे ही त्याग दें; मैथुन करते हुए प्राणियोंपर तो दृष्टिपाततक न करें ।। 33 ।। प्रिय उद्धव । शौच, आचमन, स्नान, सन्ध्योपासन, सरलता, तीर्थसेवन, जप, समस्त प्राणियोंमें मुझे ही देखना, मन, वाणी और शरीरका संयम- यह ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी-सभीके लिये एक-सा नियम है। अस्पृश्योंको न छूना, अभक्ष्य वस्तुओंको न खाना और जिनसे बोलना नहीं चाहिये उनसे न बोलना – ये नियम भी सबके लिये हैं ।। 34-35 ।।नैटिक ब्रह्मचारी ब्राह्मण इन नियमों का पालन करनेसे अधिके समान तेजस्वी हो जाता है। तीव्र तपस्याके कारण उसके कर्म संस्कार भस्म हो जाते हैं, अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और वह मेरा भक्त होकर मुझे प्राप्त कर लेता है ।। 36 ।।

प्यारे उद्धव यदि नैष्ठिक ब्रह्मचर्य ग्रहण करनेकी इच्छा न हो गृहस्थाश्रममें प्रवेश करना चाहता हो, तो विधिपूर्वक वेदाध्ययन समाप्त करके आचार्यको दक्षिणा देकर और उनकी अनुमति लेकर समावर्तन संस्कार करावे – स्नातक बनकर ब्रह्मचर्याश्रम छोड़ दे ॥ 37 ॥ ब्रह्मचारीको चाहिये कि ब्रह्मचर्य आश्रमके बाद गृहस्थ अथवा वानप्रस्थ आश्रममें प्रवेश करें। यदि ब्राह्मण हो तो संन्यास भी ले सकता है। अथवा उसे चाहिये कि क्रमशः एक आश्रमसे दूसरे आश्रममें प्रवेश करे। किन्तु मेरा आज्ञाकारी भक्त बिना आश्रमके रहकर अथवा विपरीत क्रमसे आश्रम परिवर्तन कर स्वेच्छाचारमें न प्रवृत्त हो ।। 38 ।।

प्रिय उद्धव ! यदि ब्रह्मचर्याश्रमके बाद गृहस्थाश्रम स्वीकार करना हो तो ब्रह्मचारीको चाहिये कि अपने अनुरूप एवं शास्त्रोक्त लक्षणोंसे सम्पन्न कुलीन कन्यासे विवाह करे वह अवस्थामें अपनेसे छोटी और अपने ही वर्णकी होनी चाहिये। यदि कामवश अन्य वर्णकी कन्यासे। और विवाह करना हो तो क्रमशः अपनेसे निम्न वर्णकी कन्यासे विवाह कर सकता है ॥ 39 ॥ यज्ञ-यागादि, अध्ययन और दान करनेका अधिकार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्योंको समानरूपसे है। परन्तु दान लेने, पढ़ाने और यज्ञ करानेका अधिकार केवल ब्राह्मणोंको ही है ॥ 40 ॥ ब्राह्मणको चाहिये कि इन तीनों वृत्तियोंमें प्रतिग्रह अर्थात् दान लेनेकी वृत्तिको तपस्या, तेज और यशका नाश करने वाली समझकर पढ़ाने और यज्ञ करानेके द्वारा ही अपना जीवन निर्वाह करे और यदि इन दोनो वृतियोंमें भी दोषदृष्टि हो—परावलम्बन, दीनता आदि दोष दीखते हों – तो | अ कटने के बाद खेतों में पड़े हुए दाने बीनकर ही अपने जीवनका निर्वाह कर ले ।। 41 ।। उद्धव ! ब्राह्मणका शरीर अत्यन्त दुर्लभ है। यह इसलिये नहीं है कि इसके द्वारा तुच्छ विषय भोग ही भोगे जायें। यह तो जीवन पर्यन्त कष्ट भोगने, तपस्या करने और अन्तमें अनन्त आनन्दखरूप मोक्षकी प्राप्ति करनेके लिये है ।। 42 ।।जो ब्राह्मण घरमें रहकर अपने महान् धर्मका निष्कामभावसे पालन करता है और खेतोंमें तथा बाजारोंमें गिरे पड़े दाने चुनकर सन्तोषपूर्वक अपने जीवनका निर्वाह करता है, साथ ही अपना शरीर, प्राण, अन्तःकरण और आत्मा मुझे समर्पित कर देता है और कहीं भी अत्यन्त आसक्ति नहीं करता, वह बिना संन्यास लिये ही परम शान्तिस्वरूप परमपद प्राप्त कर लेता है ॥ 43 ॥ जो लोग विपत्तिमें पड़े कष्ट पा रहे मेरे भक्त ब्राह्मणको विपत्तियोंसे बचा लेते हैं, उन्हें मैं शीघ्र ही समस्त आपत्तियोंसे उसी प्रकार बचा लेता हूँ, जैसे समुद्रमे डूबते हुए प्राणीको नौका बचा लेती है ।। 44 ।। राजा पिताके समान सारी प्रजाका कष्टसे उद्धार करे उन्हें बचावे, जैसे गजराज दूसरे गजोंकी रक्षा करता है और धीर होकर स्वयं अपने-आपसे अपना उद्धार करे ।। 45 ।। जो राजा इस प्रकार प्रजाकी रक्षा करता है, वह सारे पापोंसे मुक्त होकर अन्त समयमें सूर्यके समान तेजस्वी विमानपर चढ़कर स्वर्गलोकमें जाता है और इन्द्रके साथ सुख भोगता है 46 ॥ यदि ब्राह्मण अध्यापन अथवा यज्ञ-यागादिसे अपनी जीविका न चला सके, तो वैश्य-वृत्तिका आश्रय ले ले और जबतक विपत्ति जाय तबतक करे। यदि बहुत बड़ी आपत्तिका सामना दूर न हो करना पड़े तो तलवार उठाकर क्षत्रियोंकी वृत्तिसे भी अपना काम चला ले, परन्तु किसी भी अवस्थामें नीचोंकी सेवा जिसे ‘धानवृत्ति कहते हैं न करे ।। 47 ।। इसी प्रकार यदि क्षत्रिय भी प्रजापालन आदिके द्वारा अपने जीवनका निर्वाह न कर सके तो वैश्यवृत्ति व्यापार आदि कर ले। बहुत बड़ी आपत्ति हो तो शिकारके द्वारा अथवा विद्यार्थियोंको पढ़ाकर अपनी आपसिके दिन काट दे, परन्तु नीचोंकी सेवा, ‘श्वानवृत्ति का आश्रय कभी न ले ।। 48 ।। वैश्य भी आपतिके समय शूद्रोंकी वृत्ति सेवासे अपना जीवन-निर्वाह कर ले और शूद्र चटाई बुनने आदि कारुवृत्तिका आश्रय ले ले; परन्तु उद्धव । ये सारी बातें आपत्तिकालके लिये ही है। आपत्तिका समय बीत जानेपर निम्रवर्णोंकी वृत्तिसे जीविकोपार्जन करनेका लोभ न करे ।। 49 ।। गृहस्थ पुरुषको चाहिये कि वेदाध्ययनरूप ब्रह्म तर्पणरूप पितृयज्ञ रूप देवयज्ञ, काकबलि आदि और अन्नदानरूप अतिथियज्ञ आदिके द्वारा भूतयज्ञ मेरे स्वरूपभूत ऋषि, देवता, पितर, मनुष्य एवं अन्य समस्त प्राणियोको यथाशक्ति प्रतिदिन पूजा करता रहे।। 50 ।।गृहस्थ पुरुष अनायास प्राप्त अथवा शास्त्रोक्त रीतिसे उपार्जित अपने शुद्ध धनसे अपने भृत्य, आश्रित प्रजाजनको किसी प्रकारका कष्ट न पहुँचाते हुए न्याय और विधिके साथ ही यज्ञ करे ।। 51 ।।

प्रिय उद्भव ! गृहस्थ पुरुष कुटुम्बमें आसक्त न हो। बड़ा कुटुम्ब होनेपर भी भजनमें प्रमाद न करे। बुद्धिमान् पुरुषको यह बात भी समझ लेनी चाहिये कि जैसे इस लोककी सभी वस्तुएँ नाशवान् हैं, वैसे ही स्वर्गादि परलोकके भोग भी नाशवान् ही हैं ।। 52 ।। यह जो स्त्री पुत्र, भाई- बन्धु और गुरुजनोंका मिलना-जुलना है, यह वैसा ही है, जैसे किसी प्याऊपर कुछ बटोही इकट्ठे हो गये हों। सबको अलग-अलग रास्ते जाना है। जैसे स्वप्न नींद टूटनेतक ही रहता है, वैसे ही इन मिलने-जुलनेवालोंका सम्बन्ध ही बस, शरीरके रहनेतक ही रहता है; फिर तो कौन किसको पूछता है ॥ 53 ॥ गृहस्थको चाहिये कि इस प्रकार विचार करके घर-गृहस्थीमें फँसे नहीं, उसमें इस प्रकार अनासक्तभावसे रहे मानो कोई अतिथि निवास कर रहा हो। जो शरीर आदिमें अहङ्कार और घर आदिमें ममता नहीं करता, उसे घर-गृहस्थीके फंदे बाँध नहीं सकते ॥ 54 ॥ भक्तिमान् पुरुष गृहस्थोचित शास्त्रोक्त कर्मेकि द्वारा | मेरी आराधना करता हुआ घरमें ही रहे, अथवा यदि पुत्रवान् हो तो वानप्रस्थ आश्रममें चला जाय या संन्यासाश्रम स्वीकार कर ले || 55|| प्रिय उद्धव ! जो लोग इस प्रकारका गृहस्थजीवन न बिताकर घर-गृहस्थीमें ही आसक्त हो जाते हैं, स्त्री, पुत्र और धनकी कामनाओं में फँसकर हाय-हाय करते रहते और और कृपण मूढ़तावश स्त्रीलम्पट होकर मैं मेरेके फेरमें पड़ जाते हैं, वे बँध जाते हैं ।। 56 ।। वे सोचते रहते हैं—हाय हाय। मेरे माँ-बाप बूढ़े हो गये; पत्नीके बाल-बच्चे अभी छोटे-छोटे हैं, मेरे न रहनेपर ये दीन, अनाथ और दुःखी हो जायँगे; फिर इनका जीवन कैसे रहेगा? ‘।। 57 ।। इस प्रकार घर-गृहस्थीकी वासनासे जिसका चित्त विक्षिप्त हो रहा है, वह मूढबुद्धि पुरुष विषयभोगोंसे कभी तृप्त नहीं होता, उन्हींमें उलझकर अपना जीवन खो बैठता है और मरकर घोर तमोमय नरकमें जाता है ।। 58 ॥

अध्याय 18 वानप्रस्थ और संन्यासीके धर्म

‘भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव । यदि गृहस्थ मनुष्य वानप्रस्थ आश्रममें जाना चाहे, तो अपनी पत्नीको पुत्रोंके हाथ सौंप दे अथवा अपने साथ ही ले ले और फिर शान्त चित्तसे अपनी आयुका तीसरा भाग वनमें ही रहकर व्यतीत करे ।। 1 ।। उसे वनके पवित्र कन्द-मूल और फलोंसे ही शरीर निर्वाह करना चाहिये; वस्त्रकी जगह वृक्षोंकी छाल पहिने अथवा घास-पात और मृगछालासे ही काम निकाल ले ॥ 2 ॥ केश, रोएँ, नख और मूँछ दाढ़ीरूप शरीरके मलको हटावे नहीं दातुन न करे। जलमें घुसकर त्रिकाल स्नान करे और धरतीपर ही पड़ रहे ।। 3 ।। ग्रीष्म ऋतु पञ्चाग्नितपे, वर्षा ऋतुमें खुले मैदानमें रहकर वर्षाकी बौछार सहे। जाड़ेके दिनोंमें गलेतक जलमें डूबा रहे। इस प्रकार घोर तपस्यामय जीवन व्यतीत करे ॥ 4 कन्द-मूलोको केवल आगमें भूनकर खा ले अथवा समयानुसार पके हुए फल आदिके द्वारा ही काम चला ले। उन्हें कूटने की आवश्यकता हो तो ओखलीमें या सिलपर कूट ले, अन्यथा दाँतोंसे ही चबा चबाकर खा ले ॥ 5 ॥ वानप्रस्थाश्रमीको चाहिये कि कौन-सा पदार्थ कहाँसे लाना चाहिये, किस समय लाना। चाहिये, कौन-कौन पदार्थ अपने अनुकूल हैं—इन बातोंको जानकर अपने जीवन निर्वाहके लिये स्वयं ही सब प्रकारके कन्द-मूल-फल आदि ले आवे। देश-काल आदिसे अनभिज्ञ लोगोंसे लाये हुए अथवा दूसरे समय सञ्चित पदार्थोंको अपने काममें न ले * 6 ॥ नीवार आदि जंगली अन्नसे ही चरु पुरोडाश आदि तैयार करे और उन्हींसे समयोचित आग्रयण आदि वैदिक कर्म करे। वानप्रस्थ हो जानेपर वेदविहित पशुओद्वारा मेरा यजन न करे || 7 || वेदवेत्ताओंने वानप्रस्थीके लिये अग्रिहोत्र, दर्श, पौर्णमास और चातुर्मास्य आदिका वैसा ही विधान किया है, जैसा गृहस्थोंके लिये है ।। 8 ।। इस प्रकार घोर तपस्या करते-करते मांस सूख जानेके कारण वानप्रस्थीकी एक-एक नस दीखने लगती है। वह इस तपस्याके द्वारा मेरी आराधना करके पहले तो ऋषियोंके लोकमें जाता है।और हाँ फिर मेरे पास आ जाता है; क्योंकि तप मेरा ही स्वरूप है ।। 9 ।। प्रिय उद्धव । जो पुरुष बड़े कष्टसे किये हुए और मोक्ष देनेवाले इस महान तपस्याको स्वर्ग, महालोक आदि छोटे-मोटे फलोंकी प्राप्तिके लिये करता है, उससे बढ़कर मूर्ख और कौन होगा ? इसलिये तपस्याका | अनुष्ठान निष्कामभावसे ही करना चाहिये ॥ 10 ॥

प्यारे उद्भव । वानप्रस्थी जब अपने आश्रमोचित नियमोंका पालन करनेमें असमर्थ हो जाय, बुढ़ापेके कारण उसका शरीर काँपने लगे, तब यज्ञानियोंको भावनाके द्वारा अपने अन्तःकरणमें आरोपित कर ले और अपना मन मुझमें लगाकर अग्निमें प्रवेश कर जाय। (यह विधान केवल उनके लिये है, जो विरक्त नहीं हैं) ॥ 11 ॥ यदि उसकी समझमें यह बात आ जाय कि काम्य कमसे उनके फलस्वरूप जो लोक प्राप्त होते हैं, वे नरकोंके समान ही दुःखपूर्ण है और मनमें लोक-परलोक पूरा वैराग्य हो जाय तो विधिपूर्वक यज्ञानियों का परित्याग करके संन्यास | ले ले ॥ 12 ॥ जो वानप्रस्थी संन्यासी होना चाहे, वह पहले वेदविधिके अनुसार आठों प्रकारके श्राद्ध और प्राजापत्य यज्ञसे मेरा यजन करे। इसके बाद अपना सर्वस्व को दे दे। यात्रियोंको अपने प्राणोंमें लीन कर ले और फिर किसी भी स्थान, वस्तु और व्यक्तियोंकी अपेक्षा न रखकर स्वच्छन्द विचरण करे ॥ 13 ॥ उद्धवजी ! जब ब्राह्मण संन्यास लेने लगता है, तब देवतालोग स्त्री-पुत्रादि सगे-सम्बन्धियोंका रूप धारण करके उसके संन्यास ग्रहणमें विघ्न डालते हैं। वे सोचते हैं कि ‘अरे! यह तो हमलोगोंकी अवहेलना कर, हमलोगोंको लाँघकर परमात्माको प्राप्त होने जा रहा है’ ॥ 14 ॥

यदि संन्यासी वस्त्र धारण करे तो केवल लँगोटी लगा ले और अधिक-से-अधिक उसके ऊपर एक ऐसा छोटा-सा टुकड़ा लपेट ले कि जिसमें लँगोटी ढक जाय। तथा आश्रमोचित दण्ड और कमण्डलुके अतिरिक्त और कोई भी वस्तु अपने पास न रखे। यह नियम आपत्ति कालको छोड़कर सदाके लिये है ।। 15 ।। नेत्रोंसे धरती देखकर पैर रखे, कपड़े से छानकर जल पिये, मुँहसे प्रत्येक बात सत्यपूत – सत्यसे पवित्र हुई ही निकाले और शरीरसे जितने भी काम करे, बुद्धिपूर्वक – सोच-विचार | कर ही करे ।। 16 ।। वाणीके लिये मौन, शरीरके लिये निश्चेष्ट स्थिति और मनके लिये प्राणायाम दण्ड हैं। जिसके पास ये तीनों दण्ड नहीं हैं, वह केवल शरीरपर बाँसके दण्ड धारण करनेसे दण्डी स्वामी नहीं हो जाता ॥ 17 ॥संन्यासीको चाहिये कि जातिच्युत और गोघाती आदि पतितोंको छोड़कर चारों वर्णोंकी भिक्षा ले केवल अनिश्चित सात घरोंसे जितना मिल जाय, उतनेसे ही सन्तोष कर ले ।। 18 ।। इस प्रकार भिक्षा लेकर बस्तीके बाहर जलाशयपर जाय, वहाँ हाथ-पैर धोकर जलके द्वारा भिक्षा पवित्र कर ले; फिर शास्त्रोक्त पद्धतिसे जिन्हें भिक्षाका भाग देना चाहिये, उन्हें देकर जो कुछ बचे उसे मौन होकर खा ले। दूसरे समयके लिये बचाकर न रखे और न अधिक माँगकर ही लाये ॥ 19 संन्यासीको पृथ्वीपर अकेले ही विचरना चाहिये। उसकी कहीं भी आसक्ति न हो, सब इन्द्रियाँ अपने वशमें हो वह अपने-आपमें ही मस्त रहे, आत्म प्रेममे ही तन्मय रहे, प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थितियोंमें भी धैर्य रखे और सर्वत्र समानरूपसे स्थित परमात्माका अनुभव करता रहे ॥ 20 ॥ संन्यासीको निर्जन और निर्भय एकान्त स्थानमें रहना चाहिये। उसका हृदय | निरन्तर मेरी भावनासे विशुद्ध बना रहे। वह अपने-आपको मुझसे अभिन्न और अद्वितीय, अखण्ड के रूपमें चिन्तन करे ॥ 21 ॥ वह अपनी ज्ञाननिष्ठासे चित्तके बन्धन और मोक्षपर विचार करे तथा निशय करे कि इन्द्रियोंका विषयोंके लिये विक्षिप्त होना – चञ्चल होना बन्धन है और उनको संयममें रखना ही मोक्ष है ॥ 22 ॥ इसलिये संन्यासीको चाहिये कि मन एवं पांच ज्ञानेन्द्रियोंको जीत ले, भोगोकी क्षुद्रता समझकर उनकी ओरसे सर्वथा मुँह मोड़ ले और अपने-आपमें ही परम आनन्दका अनुभव करे। इस प्रकार वह मेरी भावनासे भरकर पृथ्वीमें विचरता रहे ॥ 23 ॥ केवल भिक्षाके लिये ही नगर गाँव, अहीरों की बस्ती या यात्रियोंकी टोलीमें जाय। पवित्र देश, नदी, पर्वत, वन और आश्रमों से पूर्ण पृथ्वी में बिना कहीं ममता जोड़े घूमता फिरता रहे ॥ 24 ॥ भिक्षा भी अधिकतर वानप्रस्थियोंके आश्रमसे ही ग्रहण करे; क्योंकि कटे हुए खेतोंके दानेसे बनी हुई भिक्षा शोध ही चितको शुद्ध कर देती है और उससे बचा खुचा मोह दूर होकर सिद्धि प्राप्त हो जाती है ।। 25 ।।

विचारवान् संन्यासी दृश्यमान जगत्‌को सत्य वस्तु कभी न समझे; क्योंकि यह तो प्रत्यक्ष ही नाशवान् है। इस है जगत्में कहीं भी अपने चित्तको लगाये नहीं। इस लोक और परलोकमें जो कुछ करने-पानेकी इच्छा हो, उससे विरक्त हो जाय ॥ 26 ॥संन्यासी विचार करे कि आत्मामें जो मन, वाणी और प्राणोंका सङ्घातरूप यह जगत् हैं, वह सारा का सारा माया ही है। इस विचारके द्वारा इसका बाध करके अपने स्वरूपमें स्थित हो जाय और फिर कभी उसका स्मरण भी न करे॥ 27॥ ज्ञाननिष्ठ, विरक्त, मुमुक्षु और मोक्षकी भी अपेक्षा न रखनेवाला मेरा भक्त आश्रमोंकी मर्यादामें बद्ध नहीं है। वह चाहे तो आश्रमों और उनके चिह्नोंको छोड़ छाड़कर, वेद-शास्त्रके विधि-निषेधोंसे परे होकर स्वच्छन्द विचरे ॥ 28 ॥ वह बुद्धिमान् होकर भी बालकोंके समान खेले। निपुण होकर भी जड़वत् रहे, विद्वान् होकर भी | पागलकी तरह बातचीत करे और समस्त वेद-विधियोंका जानकार होकर भी पशुवृत्तिसे (अनियत आचारवान्) रहे ।। 29 ।। उसे चाहिये कि वेदोंके कर्मकाण्ड-भागकी व्याख्यामें न लगे, पाखण्ड न करे, तर्क-वितर्कसे बचे और जहाँ कोरा वाद-विवाद हो रहा हो, वहाँ कोई पक्ष न ले ॥ 30 ॥ वह इतना धैर्यवान् हो कि उसके मनमें किसी भी प्राणीसे उद्वेग न हो और वह स्वयं भी किसी प्राणीको उद्वि न करे। उसकी कोई निन्दा करे, तो प्रसन्नतासे सह ले; किसीका अपमान न करे। प्रिय उद्धव ! संन्यासी इस शरीरके लिये किसीसे भी वैर न करे। ऐसा वैर तो पशु करते हैं ।। 31 ।। जैसे एक ही चन्द्रमा जलसे भरे हुए विभिन्न पात्रोंमें अलग-अलग दिखायी देता है, वैसे ही एक ही परमात्मा समस्त प्राणियोंमें और अपनेमें भी स्थित है। सबकी आत्मा तो एक है ही, पञ्चभूतोंसे बने हुए शरीर भी सबके एक ही हैं, क्योंकि सब पाञ्चभौतिक ही तो हैं। (ऐसी अवस्थामें किसीसे भी वैर-विरोध करना अपना ही वैर-विरोध है) ।। 32 ।।

प्रिय उद्धव संन्यासीको किसी दिन यदि समयपर भोजन न मिले, तो उसे दुःखी नहीं होना चाहिये और यदि बराबर मिलता रहे, तो हर्षित न होना चाहिये। उसे चाहिये कि वह धैर्य रखे। मनमें हर्ष और विषाद दोनों प्रकारके विकार न आने दे; क्योंकि भोजन मिलना और न मिलना दोनों ही प्रारब्धके अधीन हैं ।। 33 ।। भिक्षा अवश्य माँगनी चाहिये, ऐसा करना उचित ही है; क्योंकि भिक्षासे ही प्राणोंकी रक्षा होती है। प्राण रहनेसे ही तत्त्वका विचार होता है और तत्त्वविचारसे तत्त्वज्ञान होकर मुक्ति मिलती है ।। 34 ।। संन्यासीको प्रारब्धके अनुसार अच्छी या बुरी जैसी भी भिक्षा मिल जाय, उसीसे पेट भर ले। वस्त्र और बिछौने भी जैसे मिल जायँ, उन्हींसे काम चला ले। उनमें अच्छेपन या बुरेपनकी कल्पना न करे ॥ 35 ॥जैसे मैं परमेश्वर होनेपर भी अपनी लीलासे ही शौच आदि शास्त्रोक्त नियमोंका पालन करता हूँ, वैसे ही ज्ञाननिष्ठ पुरुष भी शौच, आचमन, स्नान और दूसरे नियमोंका लीलासे ही आचरण करे वह शास्त्रविधिके अधीन होकर—विधि किङ्कर होकर न करे ।। 36 ।। क्योंकि ज्ञाननिष्ठ पुरुषको भेदकी प्रतीति ही नहीं होती। जो पहले थी, वह भी मुझ सर्वात्माके साक्षात्कारसे नष्ट हो गयी। यदि कभी-कभी मरणपर्यन्त बाधित भेदकी प्रतीति भी होती है, तब भी देहपात हो जानेपर वह मुझसे एक हो जाता है ।। 37 ।।

उद्धवजी (यह तो हुई ज्ञानवान्की बात, अब केवल वैराग्यवान्की बात सुनो।) जितेन्द्रिय पुरुष, जब यह निश्चय हो जाय कि संसारके विषयोंके भोगका फल दुःख-ही-दुःख है, तब वह विरक्त हो जाय और यदि वह मेरी प्राप्तिके साधनोंको न जानता हो तो भगवच्चिन्तनमें तन्मय रहनेवाले ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरुकी शरण ग्रहण करे ।। 38 ।। वह गुरुकी दृढ़ भक्ति करे, श्रद्धा रखे और उनमें दोष कभी न निकाले । जबतक ब्रह्मका ज्ञान हो, तबतक बड़े आदरसे मुझे ही गुरुके रूपमें समझता हुआ उनको सेवा करे ।। 39 ।। किन्तु जिसने पाँच इन्द्रियाँ और मन, इन छहाँपर विजय नहीं प्राप्त की है, जिसके इन्द्रियरूपी घोड़े और बुद्धिरूपी सारधि बिगड़े हुए। और जिसके हृदयमें न ज्ञान है और न तो वैराग्य, वह यदि त्रिदण्डी संन्यासीका वेष धारणकर पेट पालता है तो वह संन्यासधर्मका सत्तानाश ही कर रहा है और अपने देवताओंको, अपने-आपको और अपने हृदयमें स्थित मुझको ठगने की चेष्टा करता है। अभी उस वेषमात्र के संन्यासीकी वासनाएँ क्षीण नहीं हुई है; इसलिये वह इस लोक और परलोक दोनोंसे हाथ धो बैठता है ।। 40-41 ।। संन्यासीका मुख्य धर्म है- शान्ति और अहिंसा वानप्रस्थीका मुख्य धर्म है— तपस्या और भगवद्भाव । गृहस्थका मुख्य धर्म है— प्राणियोंकी रक्षा और यज्ञ-याग तथा ब्रह्मचारीका मुख्य धर्म है- आचार्यकी सेवा ।। 42 ।। गृहस्थ भी केवल ऋतुकालमें ही अपनी स्वीका सहवास करे। उसके लिये भी ब्रह्मचर्य, तपस्या, शौच, सन्तोष और समस्त प्राणियों के प्रति प्रेमभाव – ये मुख्य धर्म है। मेरी उपासना तो सभीको करनी चाहिये ॥ 43 ॥ जो पुरुष इस प्रकार अनन्यभावसे अपने वर्णाश्रमधर्मके द्वारा मेरी सेवामे लगा रहता है और समस्त प्राणियोंमें मेरी भावना करता रहता है, उसे मेरी अविचल भक्ति प्राप्त हो जाती है ।। 44 ।।उद्धवजी ! मैं सम्पूर्ण लोकोंका एकमात्र स्वामी, सबकी उत्पत्ति और प्रलयका परम कारण ब्रह्म हूँ । नित्य-निरन्तर बढ़नेवाली अखण्ड भक्तिके द्वारा वह मुझे प्राप्त कर लेता है ॥ 45 ॥ इस प्रकार वह गृहस्थ अपने धर्मपालनके द्वारा अन्तःकरणको शुद्ध करके मेरे ऐश्वर्यको— मेरे स्वरूपको जान लेता है और ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न होकर शीघ्र ही मुझे प्राप्त कर लेता है ॥ 46 ॥ मैंने तुम्हें यह सदाचाररूप वर्णाश्रमियोंका धर्म बतलाया है। यदि इस धर्मानुष्ठानमें मेरी भक्तिका पुट लग जाय, तब तो इससे अनायास ही परम कल्याणस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति हो जाय ॥ 47 ॥ साधुस्वभाव उद्धव ! तुमने मुझसे जो प्रश्न किया था, उसका उत्तर मैंने दे दिया और यह बतला दिया कि अपने धर्मका पालन करनेवाला भक्त मुझ परब्रह्मस्वरूपको किस प्रकार प्राप्त होता है ॥ 48 ॥

अध्याय 19 भक्ति, ज्ञान और यम-नियमादि साधनोंका वर्णन

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-उद्धवजी ! जिसने उपनिषदादि शास्त्रोंके श्रवण, मनन और निदिध्यासनके द्वारा आत्मसाक्षात्कार कर लिया है, जो श्रोत्रिय एवं ब्रह्मनिष्ठ है, जिसका निश्चय केवल युक्तियों और अनुमानोंपर ही निर्भर नहीं करता, दूसरे शब्दोंमें—जो केवल परोक्षज्ञानी नहीं है, वह यह जानकर कि सम्पूर्ण द्वैतप्रपञ्च और इसकी निवृत्तिका साधन वृत्तिज्ञान मायामात्र है, उन्हें मुझमें लीन कर दे, वे दोनों ही मुझ आत्मामें अध्यस्त हैं, ऐसा जान ले ॥ 1 ॥ ज्ञानी पुरुषका अभीष्ट पदार्थ मैं ही हूँ, उसके साधन-साध्य, स्वर्ग और अपवर्ग भी मैं ही हूँ, मेरे अतिरिक्त और किसी भी पदार्थसे वह प्रेम नहीं करता ॥ 2 ॥ जो ज्ञान और विज्ञानसे सम्पन्न सिद्धपुरुष हैं, वे ही मेरे वास्तविक स्वरूपको जानते हैं। इसीलिये ज्ञानी पुरुष मुझे सबसे प्रिय है। उद्धवजी ! ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञानके द्वारा निरन्तर मुझे अपने अन्तःकरणमें धारण करता है ॥ 3 ॥ तत्त्वज्ञानके लेशमात्रका उदय होनेसे जो सिद्धि प्राप्त होती है, वह तपस्या, तीर्थ, जप, दान अथवा अन्तःकरणशुद्धिके और किसी भी साधनसे पूर्णतया नहीं हो सकती ॥ 4 ॥इसलिये मेरे प्यारे उद्धव । तुम ज्ञानके सहित अपने आत्मस्वरूपको जान लो और फिर ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न होकर भक्तिभावसे मेरा भजन करो ॥ 5 ॥ बड़े-बड़े ऋषि मुनियन ज्ञान-विज्ञानरूप यज्ञके द्वारा अपने अन्तःकरणमें मुझ सब यज्ञोंके अधिपति आत्माका यजन करके परम सिद्धि प्राप्त की है ।। 6 ।। उद्धव आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक इन तीन विकारोंकी समष्टि ही शरीर है और वह सर्वथा तुम्हारे आश्रित है। यह पहले नहीं था और अन्तमें नहीं रहेगा; केवल बीचमे ही दीख रहा है इसलिये इसे जादूके खेलके समान माया ही समझना चाहिये। इसके जो जन्मना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट होना-ये छः भावविकार हैं, इनसे तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं है। यही नहीं, ये विकार उसके भी नहीं हैं; क्योंकि वह स्वयं असत् है। असत् वस्तु तो पहले नहीं थी, बादमें भी नहीं रहेगी; इसलिये बीचमें भी उसका कोई अस्तित्व नहीं होता ॥ 7 ॥

उद्धवजीने कहा- विश्वरूप परमात्मन्! आप ही विश्वके स्वामी हैं। आपका यह वैराग्य और विज्ञानसे युक्त सनातन एवं विशुद्ध ज्ञान जिस प्रकार सुदृढ़ हो जाय, उसी प्रकार मुझे स्पष्ट करके समझाइये और उस अपने भक्तियोगका भी वर्णन कीजिये, जिसे ब्रह्मा आदि महापुरुष भी ढूंढ़ा करते हैं ॥ 8 ॥ मेरे स्वामी! जो पुरुष इस संसार के विकट मार्गमें तीनों तापोंके थपेड़े खा रहे हैं और भीतर-बाहर जल-भुन रहे हैं, उनके लिये आपके अमृतवर्षी युगल चरणारविन्दोंकी छत्र-छायाके अतिरिक्त और कोई भी आश्रय नहीं दीखता ।। 9 ।। महानुभाव! आपका यह अपना सेवक अधेरे कुएं पड़ा हुआ है, कालरूपी सर्पने इसे इस रखा है; फिर भी विषयों के क्षुद्र सुख भोगोकी तीव्र तृष्णा मिटती नहीं, बढ़ती ही जा रही है। आप कृपा करके इसका उद्धार कीजिये और इससे मुक्त करनेवाली वाणीकी सुधा धारासे इसे सराबोर कर दीजिये ll 10 ll

भगवान् श्रीकृष्णने कहा- उद्धवजी जो प्रश्न तुमने मुझसे किया है, यही प्रश्न धर्मराज युधिष्ठिरने धार्मिकशिरोमणि भीष्मपितामहसे किया था। उस समय हम सभी लोग वहाँ विद्यमान थे ॥ 11 ॥ जब भारतीय महायुद्ध समाप्त हो चुका था और धर्मराज युधिष्ठिर अपने स्वजन सम्बन्धियोंके संहारसे क-विह्वल हो रहे थे, तब उन्होंने भीष्मपितामहसे बहुत-से धर्मोका विवरण सुननेके पश्चात् मोक्षके साधनोंके सम्बन्धमें प्रश्न किया था ।। 12 ।।उस समय भीष्मपितामहके मुखसे सुने हुए मोक्षधर्म मैं तुम्हे सुनाऊँगा क्योंकि वे ज्ञान, वैराग्य, विज्ञान, श्रद्धा और भक्तिके भावोंसे परिपूर्ण हैं ॥ 13 ॥ उद्धवजी । जिस ज्ञानसे प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व, अहङ्कार और पक्ष तन्मात्राये नौ पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक मन – ये ग्यारह, पाँच महाभूत और तीन गुण अर्थात् इन अट्ठाईस तत्त्वोंको ब्रह्मासे लेकर तृणतक सम्पूर्ण कार्यम देखा जाता है और इनमें भी एक परमात्मतत्त्वको अनुगत रूपसे देखा जाता है वह परोक्षज्ञान है, ऐसा मेरा निव है ।। 14 ।। जब जिस एक तत्त्वसे अनुगत एकात्मक तत्त्वोंको पहले देखता था, उनको पहले समान न देखे, किन्तु एक परम कारण अझको ही देखे, तब यही निश्चित विज्ञान (अपरोक्षज्ञान) कहा जाता है। (इस ज्ञान और विज्ञानको प्राप्त करने की युक्ति यह है कि यह शरीर आदि जितने भी त्रिगुणात्मक सावयव पदार्थ हैं, उनकी स्थिति, उत्पत्ति और प्रलयका विचार करे ॥ 15 ॥ जो तत्त्ववस्तु सृष्टिके प्रारम्भमें और अन्तमें कारणरूपसे स्थित रहती है, वही मध्यमें भी रहती है और वही प्रतीयमान कार्यसे प्रतीयमान कार्यान्तरमे अनुगत भी होती है। फिर उन कार्योंका प्रलय अथवा बाघ होनेपर उसके साक्षी एवं अधिष्ठान रूपसे शेष रह जाती है। वही सत्य परमार्थ वस्तु है, ऐसा समझे ॥ 16 श्रुति प्रत्यक्ष ऐतिहा (महापुरुषोंमें प्रसिद्धि) और अनुमान प्रमाणों में यह चार मुख्य है। इनकी कसौटीपर कसनेसे दृश्य प्रपञ्च अस्थिर, नश्वर एवं विकारी होनेके कारण सत्य सिद्ध नहीं होता, इसलिये विवेकी पुरुष इस विविध कल्पनारूप अथवा शब्दमात्र प्रपञ्चसे विरक्त हो जाता है॥ 17॥ विवेकी पुरुषको चाहिये कि वह स्वर्गादि फल देनेवाले यज्ञादि कम क परिणामी नश्वर होनेके कारण ब्रह्मलोकपर्यन्त स्वर्गादि सुख-अदृष्टको भी इस प्रत्यक्ष विषय-सुखके समान ही अमङ्गल, दुःखदायी एवं नाशवान् समझे ॥ 18 ॥

– निष्पाप उद्धवजी | भक्तियोगका वर्णन में तुम्हें पहले ही सुना चुका हूँ परन्तु उसमें तुम्हारी बहुत प्रोति है.. इसलिये मैं तुम्हें फिरसे भक्ति प्राप्त होनेका श्रेष्ठ साधन बतलाता हूँ ॥ 19 ॥ जो मेरी भक्ति प्राप्त करना चाहता हो, वह मेरी अमृतमयी कथामें श्रद्धा रखे निरन्तर मेरे गुण लीला और नामोका सङ्कीर्तन करे मेरी पूजामें अत्यन्त निष्ठा रखे और स्तोत्रोंके द्वारा मेरी स्तुति करे 20 ॥मेरी सेवा पूजामें प्रेम रखे और सामने साष्टाङ्ग लोटकर प्रणाम करे; मेरे भक्तोंकी पूजा मेरी पूजासे बढ़कर करे और समस्त प्राणियोंमें मुझे ही देखे ॥ 21 ॥ अपने एक-एक अङ्गकी चेष्टा केवल मेरे ही लिये करे, वाणीसे मेरे ही गुणोंका गान करे और अपना मन भी मुझे ही अर्पित कर दे तथा सारी कामनाएँ छोड़ दे ।। 22 ।। मेरे लिये धन, भोग और प्राप्त सुखका भी परित्याग कर दे और जो व कुछ यज्ञ, दान, हवन, जप, व्रत और तप किया जाय, वह सब मेरे लिये ही करे ।। 23 । उद्धवजी! जो मनुष्य इन धर्मोका पालन करते हैं और मेरे प्रति आत्म-निवेदन कर देते हैं, उनके हृदयमें मेरी प्रेममयी भक्तिका उदय होता है। और जिसे मेरी भक्ति प्राप्त हो गयी, उसके लिये और किस दूसरी वस्तुका प्राप्त होना शेष रह जाता है? ।। 24 ।।

इस प्रकारके धर्मोका पालन करनेसे चित्तमें जब सत्त्वगुणकी वृद्धि होती है और वह शान्त होकर आत्मामें लग जाता है, उस समय साधकको धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य स्वयं ही प्राप्त हो जाते हैं ।। 25 ।। यह संसार विविध कल्पनाओंसे भरपूर है। सच पूछो तो इसका नाम तो है, किन्तु कोई वस्तु नहीं है। जब चित्त इसमें लगा दिया जाता है, तब इन्द्रियोंके साथ इधर-उधर भटकने लगता है। इस प्रकार चित्तमें रजोगुणकी बाढ़ आ जाती है, वह असत् वस्तुमें लग जाता है और उसके धर्म, ज्ञान आदि तो लुप्त हो ही जाते हैं, वह अधर्म, अज्ञान और मोहका भी घर बन जाता है ॥ 26 ॥ उद्धव ! जिससे मेरी भक्ति हो, वही धर्म है; जिससे ब्रह्म और आत्माकी एकताका साक्षात्कार हो, वही ज्ञान है; विषयोंसे असङ्ग – निर्लेप रहना ही वैराग्य है और अणिमादि सिद्धियाँ ही ऐश्वर्य हैं ॥ 27 ॥

उद्धवजीने कहा- रिपुसूदन ! यम और नियम कितने प्रकारके हैं ? श्रीकृष्ण ! राम क्या है ? दम क्या है? प्रभो। तितिक्षा और धैर्य क्या है ? ॥ 28 ॥ आप मुझे दान, तपस्या, शूरता, सत्य और ऋतका भी स्वरूप बतलाइये। त्याग क्या है ? अभीष्ट धन कौन-सा है ? यज्ञ किसे कहते हैं? और दक्षिणा क्या वस्तु है ? ॥ 29 ॥ श्रीमान् केशव। पुरुषका सच्चा बल क्या है ? भग किसे कहते हैं? और लाभ क्या वस्तु है ? उत्तम विद्या, लज्जा, श्री तथा सुख और दुःख क्या है ? ॥ 30 ॥ पण्डित और मूर्ख लक्षण क्या है? मार्ग और कुमार्गका क्या लक्षण है ? स्वर्ग और नरक क्या है? भाई-बन्धु किसे मानना चाहिये ? और घर क्या है ? ।। 31 ।धनवान् और निर्धन किसे कहते हैं? कृपण कौन है ? और ईश्वर किसे कहते है ? भक्तवत्सल प्रभो। आप मेरे इन प्रश्नोंका उत्तर दीजिये और साथ ही इनके विरोधी भावोंकी भी व्याख्या कीजिये ॥ 32 ॥ भगवान् श्रीकृष्णने कहा- ‘यम’ बारह हैं l

अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), असङ्गता, लज्जा, असक्षय (आवश्यकतासे अधिक धन आदि न जोड़ना), आस्तिकता, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमा और अभय । नियमोंकी संख्या भी बारह ही हैं। शौच (बाहरी पवित्रता और भीतरी पवित्रता), जप, तप, हवन, श्रद्धा, अतिथिसेवा, मेरी पूजा, तीर्थयात्रा, परोपकारकी चेष्टा, सन्तोष और गुरुसेवा इस प्रकार ‘यम’ और ‘नियम’ दोनोंकी संख्या बारह-बारह हैं। ये सकाम और निष्काम दोनों प्रकारके साधकोंके लिये उपयोगी हैं। उद्धवजी जो पुरुष इनका ! पालन करते हैं, वे यम और नियम उनके इच्छानुसार उन्हें भोग और मोक्ष दोनों प्रदान करते है ।। 33-35 ।। बुद्धिका मुझमें लग जाना ही ‘शम’ है। इन्द्रियोंके संयमका नाम ‘दम’ है। न्यायसे प्राप्त दुःखके सहनेका नाम ‘तितिक्षा’ है। जिह्वा और जननेन्द्रियपर विजय प्राप्त करना ‘धैर्य’ है ॥ 36 ॥ किसीसे द्रोह न करना सबको अभय देना ‘दान’ है। कामनाओंका त्याग करना ही ‘तप’ है। अपनी वासनाओंपर विजय प्राप्त करना ही ‘शूरता’ है। सर्वत्र समस्वरूप, सत्यस्वरूप परमात्माका दर्शन ही ‘सत्य’ है ॥ 37 ॥ इसी प्रकार सत्य और मधुर भाषणको ही महात्माओंने ‘ऋत’ कहा है। कर्मों में आसक्त न होना ही ‘शौच’ है। कामनाओंका त्याग ही सच्चा ‘संन्यास’ है ॥ 38 ॥ धर्म ही मनुष्योंका अभीष्ट ‘धन’ है। मैं परमेश्वर ही ‘यज्ञ’ हूँ। ज्ञानका उपदेश ‘देना ही ‘दक्षिणा’ है। प्राणायाम ही श्रेष्ठ ‘बल’ है ।। 39 ।। मेरा ऐश्वर्य ही ‘भग’ है, मेरी श्रेष्ठ भक्ति ही उत्तम ‘लाभ’ है, सची ‘विद्या’ वही है जिससे ब्रह्म और आत्माका भेद मिट जाता है। पाप करनेसे घृणा होनेका नाम ही ‘लज्जा’ है ॥ 40 ॥ निरपेक्षता आदि गुण ही शरीरका सच्चा सौन्दर्य ‘श्री’ है, दुःख और सुख दोनोंकी भावनाका सदाके लिये नष्ट हो जाना ही ‘सुख’ है। विषयभोगोंकी कामना ही ‘दुःख’ है। जो बन्धन और मोक्षका तत्त्व जानता है, वही ‘पण्डित’ है । 41 ।। शरीर आदिमें जिसका मैंपन है, वही ‘मूर्ख’ है जो संसारकी ओरसे निवृत्त करके मुझे प्राप्त करा देता है, वही सच्चा ‘सुमार्ग’ है। चितकी बहिर्मुखता ही ‘कुमार्ग’ है। सत्त्वगुणकी वृद्धि ही ‘स्वर्ग’ और सखे !तमोगुणकी वृद्धि ही ‘नरक’ है। गुरु ही सच्चा ‘भाई-बन्धु’ है और वह गुरु मैं हूँ। यह मनुष्य-शरीर ही सच्चा ‘घर’ है तथा सच्चा ‘धनी’ वह है, जो गुणोंसे सम्पन्न है, जिसके पास गुणों का खजाना है ।। 42-43 ॥ जिसके चित्तमें असन्तोष है, अभावका बोध है, वही ‘दरिद्र’ है। जो जितेन्द्रिय नहीं है, वही ‘कृपण’ है। समर्थ, स्वतन्त्र और ‘ईश्वर’ वह है, जिसकी चित्तवृत्ति विषयोंमें आसक्त नहीं है। इसके विपरीत जो विषयोंमें आसक्त है, वही सर्वथा ‘असमर्थ ‘ है ॥ 44 ॥ प्यारे उद्धव ! तुमने जितने प्रश्न पूछे थे, उनका उत्तर मैंने दे दिया; इनको समझ लेना मोक्ष-मार्गके लिये सहायक है। मैं तुम्हें गुण और दोषोंका लक्षण अलग-अलग कहाँतक बताऊँ ? सबका सारांश इतनेमें ही समझ लो कि गुणों और दोषोंपर दृष्टि जाना ही सबसे बड़ा दोष है और गुणदोषोंपर दृष्टि न जाकर अपने शान्त निःसङ्कल्प स्वरूपमें स्थित रहे- -वही सबसे बड़ा गुण है ॥ 45 ॥

अध्याय 20 ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग

उद्धवजीने कहा- कमलनयन श्रीकृष्ण ! आप सर्वशक्तिमान् हैं। आपकी आज्ञा ही वेद है; उसमें कुछ कर्मोंको करनेकी विधि है और कुछके करनेका निषेध है। यह विधि-निषेध कर्मोके गुण और दोषकी परीक्षा करके ही तो होता है ॥ 1 ॥ वर्णाश्रम-भेद, प्रतिलोम और अनुलोमरूप वर्णसंकर, कर्मोक उपयुक्त और अनुपयुक्त द्रव्य, देश, आयु और काल तथा स्वर्ग और नरकके भेदोंका बोध भी वेदोंसे ही होता है ॥ 2 ॥ इसमें सन्देह नहीं कि आपकी वाणी ही वेद है, परन्तु उसमें विधि-निषेध ही तो भरा पड़ा है। यदि उसमें गुण और दोषमें भेद करनेवाली दृष्टि न हो, तो वह प्राणियोंका कल्याण करनेमें समर्थ ही कैसे हो ? ॥ 3 ॥ सर्वशक्तिमान् परमेश्वर ! आपकी वाणी वेद ही पितर देवता और मनुष्योंके लिये श्रेष्ठ मार्ग-दर्शकका काम करता है; क्योंकि उसीके द्वारा स्वर्ग-मोक्ष आदि अदृष्ट वस्तुओंका बोध होता है और इस लोकमें भी किसका कौन-सा साध्य है और क्या साधन—इसका निर्णय भी उसीसे होता है ॥ 4 ॥प्रभो ! इसमें सन्देह नहीं कि गुण और दोषोंमें भेददृष्टि आपकी वाणी वेदके ही अनुसार है, किसीकी अपनी कल्पना नहीं; परन्तु प्रश्न तो यह है कि आपकी वाणी ही | भेदका निषेध भी करती है। यह विरोध देखकर मुझे भ्रम हो रहा है। आप कृपा करके मेरा यह भ्रम मिटाइये ॥ 5 ॥

भगवान् श्रीकृष्णने कहा-प्रिय उद्धव मैंने ही वेदोंमें एवं अन्यत्र भी मनुष्योंका कल्याण करनेके लिये अधिकारिभेदसे तीन प्रकारके योगों का उपदेश किया है। वे हैं – ज्ञान, कर्म और भक्ति। मनुष्यके परम कल्याणक लिये इनके अतिरिक्त और कोई उपाय कहीं नहीं है ॥ 6 ॥ उद्धवजी ! जो लोग कर्मों तथा उनके फलोंसे विरक्त हो गये हैं और उनका त्याग कर चुके हैं, वे ज्ञानयोगके अधिकारी हैं। इसके विपरीत जिनके चित्तमें कर्मों और उनके फलोसे वैराग्य नहीं हुआ है, उनमें दुःखबुद्धि नहीं हुई है, वे सकाम व्यक्ति कर्मयोगके अधिकारी हैं ॥ 7 ॥ जो पुरुष न तो अत्यन्त विरक्त है और न अत्यन्त आसक्त ही है तथा किसी पूर्वजन्मके शुभकर्म से सौभाग्यवश मेरी लीला-कथा आदिमें उसकी श्रद्धा हो गयी है, वह भक्ति योगका अधिकारी है। उसे भक्तियोगके द्वारा ही सिद्धि मिल सकती है ॥ 8 ॥ कर्मके सम्बन्धमें जितने भी विधि-निषेध है, उनके अनुसार तभीतक कर्म करना चाहिये, जबतक कर्ममय जगत् और उसे प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि सुखोंसे वैराग्य न हो जाय अथवा जबतक मेरी लीला-कथाके श्रवण-कीर्तन आदिमें श्रद्धा न हो जाय ॥ 9 ॥ उद्धव ! इस प्रकार अपने वर्ण और आश्रमके अनुकूल धर्ममें स्थित रहकर यज्ञोंके द्वारा बिना किसी आशा और कामनाके मेरी आराधना करता रहे और निषिद्ध कमसे दूर रहकर केवल विहित कमौका ही आचरण करे तो उसे स्वर्ग या नरकमें नहीं जाना पड़ता ॥ 10 ॥ अपने धर्ममें निष्ठा रखनेवाला पुरुष इस शरीरमें रहते-रहते ही निषिद्ध कर्मका परित्याग कर देता है और रागादि मलोंसे भी मुक्त पवित्र हो जाता है। इसीसे अनायास ही उसे आत्मसाक्षात्काररूप विशुद्ध तत्त्वज्ञान अथवा द्रुत-चित्त होनेपर मेरी भक्ति प्राप्त होती है ॥ 11 ॥ यह विधि-निषेधरूप कर्मका अधिकारी मनुष्य शरीर बहुत ही दुर्लभ है। स्वर्ग और नरक दोनों ही लोकों में रहनेवाले जीव इसकी अभिलाषा करते रहते हैं; क्योंकि इसी शरीरमें अन्तःकरणकी शुद्धि होनेपर ज्ञान अथवा भक्तिकी प्राप्ति हो सकती है, स्वर्ग अथवा नरककाभोगप्रधान शरीर किसी भी साधनके उपयुक्त नहीं है। बुद्धिमान् पुरुषको न तो स्वर्गकी अभिलाषा करनी चाहिये और न नरककी ही और तो क्या इस मनुष्य शरीरकी भी कामना न करनी चाहिये; क्योंकि किसी भी शरीरमें गुणबुद्धि और अभिमान हो जानेसे अपने वास्तविक स्वरूपकी प्राप्तिके साधनमें प्रमाद होने लगता है ।। 12-13 ।। यद्यपि यह मनुष्य शरीर है तो मृत्युधस्त ही, परन्तु इसके द्वारा परमार्थकी – सत्य वस्तुकी प्राप्ति हो सकती है। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि यह बात जानकर मृत्यु होनेके पूर्व ही सावधान होकर ऐसी साधना कर ले, जिससे वह जन्म-मृत्युके चकरसे सदाके लिये छूट जाय – मुक्त हो जाय 14 ॥ यह शरीर एक वृक्ष है। इसमें घोंसला बनाकर जीवरूप पक्षी निवास करता है। इसे यमराजके दूत प्रतिक्षण काट रहे हैं। जैसे पक्षी कटते हुए वृक्षको छोड़कर उड़ जाता है, वैसे ही अनासक्त जीव भी इस शरीरको छोड़कर मोक्षका भागी बन जाता है। परन्तु आसक्त जीव दुःख ही भोगता रहता है ॥ 15 ॥ प्रिय उद्धव ये दिन और रात क्षण-क्षणमें शरीरकी आयुको क्षीण कर रहे हैं। यह जानकर जो भयसे काँप उठता है, वह व्यक्ति इसमें आसक्ति छोड़कर परमतत्त्वका ज्ञान प्राप्त कर लेता है और फिर इसके जीवन-मरणसे निरपेक्ष होकर अपने आत्मामें ही शान्त हो जाता है ॥ 16 ॥ यह मनुष्य शरीर समस्त शुभ फलोंकी प्राप्तिका मूल है और अत्यन्त दुर्लभ होनेपर भी अनायास सुलभ हो गया है। इस संसार सागरसे पार जानेके लिये यह एक सुदृढ़ नौका है। शरण ग्रहणमात्र से ही गुरुदेव इसके केवट बनकर पतवारका सञ्चालन करने लगते हैं और स्मरणमात्रसे ही मैं अनुकूल वायुके रूपमें इसे लक्ष्यकी ओर बढ़ाने लगता हूँ। इतनी सुविधा होनेपर भी जो इस शरीरके द्वारा संसार सागरसे पार नहीं हो जाता, वह तो अपने हाथों अपने आत्माका हनन – अधःपतन कर रहा है ॥ 17 ॥

प्रिय उद्धव ! जब पुरुष दोषदर्शनके कारण कमसे उद्विग्न और विरक्त हो जाय, तब जितेन्द्रिय होकर वह योगमें स्थित हो जाय और अभ्यास आत्मानुसन्धानके द्वारा अपना मन मुझ परमात्मामें निश्चलरूपसे धारण करे 18 ॥ जब स्थिर करते समय मन चञ्चल होकर इधर-उधर भटकने लगे, तब झटपट बड़ी सावधानीसे उसे मनाकर, समझा बुझाकर, फुसलाकर अपने वशमे कर ले ॥ 19 ॥इन्द्रियों और प्राणोंको अपने वशमें रखे और मनको एक क्षणके लिये भी स्वतन्त्र न छोड़े। उसकी एक-एक चाल, एक-एक हरकतको देखता रहे। इस प्रकार सत्त्वसम्पत्र बुद्धिके द्वारा धीरे-धीरे मनको अपने वशमें कर लेना चाहिये ॥ 20 ॥ जैसे सवार घोड़ेको अपने वशमें करते समय उसे अपने मनोभावकी पहचान कराना चाहता है-अपनी इच्छाके अनुसार उसे चलाना चाहता है और बार-बार फुसलाकर उसे अपने वशमें कर लेता है, वैसे ही मनको फुसलाकर, उसे मीठी-मीठी बातें सुनाकर वशमें कर लेना भी परम योग है ॥ 21 ॥ सांख्यशास्त्रमें प्रकृतिसे लेकर शरीरपर्यन्त सृष्टिका जो क्रम बतलाया गया है, उसके अनुसार सृष्टि चिन्तन करना चाहिये और जिस क्रमसे शरीर आदिका प्रकृतिमें लय बताया गया है, उस प्रकार लय-चिन्तन करना चाहिये। यह क्रम तबतक जारी रखना चाहिये, जबतक मन शान्त-स्थिर न हो जाय ॥ 22 ॥ जो पुरुष संसारसे विरक्त हो गया है और जिसे संसारके पदार्थों में दुःख बुद्धि हो गयी है, वह अपने गुरुजनोंके उपदेशको भलीभाँति समझकर बार-बार अपने स्वरूपके ही चिन्तनमें संलग्न रहता है। इस अभ्याससे बहुत शीघ्र ही उसका मन अपनी वह चञ्चलता, जो अनात्मा शरीर आदिमें आत्मबुद्धि करनेसे हुई है, छोड़ देता है ॥ 23 ॥ यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि आदि योगमार्गेसे, वस्तुतत्वका निरीक्षण-परीक्षण करनेवाली आत्मविद्यासे तथा मेरी प्रतिमाकी उपासनासे अर्थात् कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोगसे मन परमात्माका चिन्तन करने लगता है; और कोई उपाय नहीं है ॥ 24 ॥

उद्धवजी वैसे तो योगी कभी कोई निन्दित कर्म करता ही नहीं; परन्तु यदि कभी उससे प्रमादवश कोई अपराध बन जाय तो योगके द्वारा ही उस पापको जला डाले, कृच्छ्र-चान्द्रायण आदि दूसरे प्रायश्चित कभी न करे ॥ 25 ॥ अपने-अपने अधिकारमें जो निष्ठा है, वही गुण कहा गया है। इस गुण-दोष और विधि-निषेधके विधानसे यही तात्पर्य निकलता है कि किसी प्रकार विषयासक्तिका परित्याग हो जाय; क्योंकि कर्म तो जन्मसे ही अशुद्ध हैं, अनर्थके मूल हैं। शास्त्रका तात्पर्य उनका नियन्त्रण, नियम ही है जहाँतक हो सके प्रवृत्तिका संकोच 1 ही करना चाहिये ।। 26 ।।जो साधक समस्त कर्मोंसे विरक्त हो गया हो, उनमें दुःखबुद्धि रखता हो, मेरी लीलाकथाके प्रति श्रद्धालु हो और यह भी जानता हो कि सभी भोग और भोगवासनाएँ दुःखरूप है, किन्तु इतना सब जानकर भी जो उनके परित्यागमें समर्थ न हो, उसे चाहिये कि उन भोगोंको तो भोग ले; परन्तु उन्हें सच्चे हृदयसे दुःखजनक समझे और मन-ही-मन उनकी निन्दा करे तथा उसे अपना दुर्भाग्य ही समझे। साथ ही इस दुविधाकी स्थिति से छुटकारा पानेके लिये श्रद्धा, दृढ़ निश्चय और प्रेमसे मेरा भजन करे ।। 27-28 ॥ इस प्रकार मेरे बतलाये हुए भक्तियोगके द्वारा निरन्तर मेरा भजन करनेसे मैं उस साधकके हृदयमें आकर बैठ जाता हूँ और मेरे विराजमान होते ही उसके हृदयकी सारी वासनाएँ अपने संस्कारोंके साथ नष्ट हो जाती हैं ॥ 29 ॥ इस तरह जब उसे मुझ सर्वात्माका साक्षात्कार हो जाता है, तब तो उसके हृदयकी गाँठ टूट जाती है, उसके सारे संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और कर्म-वासनाएँ सर्वथा क्षीण हो जाती हैं 30 इसीसे जो योगी मेरी भक्तिसे युक्त और मेरे चिन्तनमें मन रहता है, उसके लिये ज्ञान अथवा वैराग्यकी आवश्यकता नहीं होती। उसका कल्याण तो प्रायः मेरी भक्तिके द्वारा ही हो जाता है 39 ॥ कर्म, तपस्या, ज्ञान, वैराग्य, योगाभ्यास, दान, धर्म और दूसरे कल्याणासाधनोंसे जो कुछ स्वर्ग, अपवर्ग, मेरा परम धाम अथवा कोई भी वस्तु प्राप्त होती है, वह सब मेरा भक्त मेरे भक्तियोगके प्रभावसे ही, यदि चाहे तो, अनायास प्राप्त कर लेता है ।। 32-33 ॥ मेरे अनन्यप्रेमी एवं धैर्यवान् साधु भक्त स्वयं तो कुछ चाहते ही नहीं; यदि मैं उन्हें देना चाहता हूँ और देता भी हूँ तो भी दूसरी वस्तुओंकी तो बात ही क्या—वे कैवल्य-मोक्ष भी नहीं लेना चाहते ॥ 34 ॥ उद्धवजी ! सबसे श्रेष्ठ एवं महान् निःश्रेयस (परम कल्याण) तो निरपेक्षताका ही दूसरा नाम है। इसलिये जो निष्काम और निरपेक्ष होता है, उसीको मेरी भक्ति प्राप्त होती है ॥ 35 मेरे अनन्यप्रेमी भक्तोंका और उन समदर्शी महात्माओंका जो बुद्धिसे अतीत परमतत्त्वको प्राप्त हो चुके हैं, इन विधि और निषेधसे होनेवाले पुण्य और पापसे कोई सम्बन्ध ही नहीं होता ॥ 36 ॥ इस प्रकार जो लोग मेरे बतलाये हुए इन ज्ञान, भक्ति और कर्ममागका आश्रय लेते है, वे मेरे परम कल्याणस्वरूप धामको प्राप्त होते है, क्योंकि वे परब्रह्मतत्त्वको जान लेते हैं ॥ 37 ॥

अध्याय 21 गुण-दोष-व्यवस्थाका स्वरूप और रहस्य

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव ! मेरी प्राप्तिके तीन मार्ग है- भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग। जो इन्हें छोड़कर चञ्चल इन्द्रियोंके द्वारा शुद्र भोग भोगते रहते हैं, वे बार-बार जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्कर में भटकते रहते हैं ॥ 1 ॥ अपने-अपने अधिकारके अनुसार धर्ममें दृढ़ निष्ठा रखना ही गुण कहा गया है और इसके विपरीत अनधिकार चेष्टा करना दोष है। तात्पर्य यह कि गुण और दोष दोनोंकी व्यवस्था अधिकारके अनुसार की जाती है, किसी वस्तु के अनुसार नहीं ॥ 2 ॥ वस्तुओंके समान होनेपर भी शुद्धि अशुद्ध, गुण-दोष और शुभ-अशुभ आदिका जो विधान किया जाता है, उसका अभिप्राय यह है कि पदार्थका ठीक ठीक निरीक्षण-परीक्षण हो सके और उनमें सन्देह उत्पन्न करके ही यह योग्य है कि अयोग्य, स्वाभाविक प्रवृत्तिको नियन्त्रित—संकुचित किया जा सके ॥ 3 ॥ उनके द्वारा धर्म सम्पादन कर सके, समाजका व्यवहार ठीक-ठीक चला सके और अपने व्यक्तिगत जीवन के निर्वाह भी सुविधा हो। इससे यह लाभ भी है कि मनुष्य अपनी वासनामूलक सहज प्रवृत्तियों के द्वारा इनके जाल में न फंसकर शाखानुसार अपने जीवनको नियन्त्रित और मनको वशीभूत कर लेता है। निष्पाप उद्धव ! यह आचार मैंने ही मनु आदिका रूप धारण करके धर्मका भार ढोनेवाले कर्म अहाँके लिये उपदेश किया है ॥ 4 ॥ पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश —ये पञ्चभूत ही ब्रह्मासे लेकर पर्वत वृक्षपर्यन्त सभी प्राणियोंके शरीरों के मूलकारण हैं। इस तरह वे सब शरीरकी दृष्टिसे तो समान हैं। ही, सबका आत्मा भी एक ही है ॥ 5 ॥ प्रिय उद्धव ! यद्यपि | सबके शरीरोंके पञ्चभूत समान हैं, फिर भी वेदोंने इनके वर्णाश्रम आदि अलग-अलग नाम और रूप इसलिये बना दिये हैं कि ये अपनी वासना मूलक प्रवृत्तियोंको संकुचित करके-नियन्त्रित करके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थीको सिद्ध कर सके ।। 6 ।। साधुश्रेष्ठ देश काल, फल, निमित्त, अधिकारी और धान्य आदि वस्तुओंके गुण-दोषोंका विधान भी मेरे द्वारा इसीलिये किया गया है कि कर्ममें लोगोंकी उच्छृङ्खल प्रवृत्ति न हो, मर्यादाका भङ्ग न होने पावे ॥ 7 ॥ देशोंमें वह देश अपवित्र है, जिसमें कृष्णसार मृग न हों और जिसके निवासी ब्राह्मणभक्त न हों। कृष्णसार मृगके होनेपर भी, केवल उन प्रदेशोंको छोड़कर जहाँ संत पुरुष रहते हैं, कीकट देश अपवित्र ही है।संस्काररहित और ऊसर आदि स्थान भी अपवित्र ही होते हैं ॥ 8 ॥ समय वही पवित्र है, जिसमें कर्म करनेयोग्य सामग्री मिल सके तथा कर्म भी हो सके। जिसमें कर्म करनेकी सामग्री न मिले, आगन्तुक दोषोंसे अथवा स्वाभाविक दोषके कारण जिसमें कर्म ही न हो सके, वह समय अशुद्ध है ॥ 9 ॥ पदार्थोंकी शुद्धि और अशुद्धि द्रव्य वचन, संस्कार, काल, महत्त्व अथवा अल्पत्वसे भी होती है। (जैसे कोई पात्र जलसे शुद्ध और मूत्रादिसे अशुद्ध हो जाता है किसी वस्तुकी शुद्धि अथवा अशुद्धि शंका होनेपर ब्राह्मणोंके वचनसे वह शुद्ध हो जाती है अन्यथा अशुद्ध रहती है। पुष्पादि जल छिड़कने से शुद्ध और सूँघनेसे अशुद्ध माने जाते हैं। तत्कालका पकाया हुआ अन्न शुद्ध और बासी अशुद्ध माना जाता है। बड़े सरोवर और नदी आदिका जल शुद्ध और छोटे गड्ढों का अशुद्ध माना जाता है। इस प्रकार क्रमसे समझ लेना चाहिये। ॥ 10 ॥ शक्ति, अशक्ति, बुद्धि और वैभवके अनुसार भी पवित्रता और अपवित्रताकी व्यवस्था होती है। उसमें भी स्थान और उपयोग करनेवालेकी आयुका विचार करते हुए ही अशुद्ध वस्तुओंके व्यवहारका दोष ठीक तरहसे आँका जाता है (जैसे धनी दरिद्र, बलवान्-निर्बल, बुद्धिमान् मूर्ख, उपद्रवपूर्ण और सुखद देश तथा तरुण एवं वृद्धावस्थाक भेदसे शुद्धि और अशुद्धिकी व्यवस्थामें अन्तर पड़ जाता है।) ॥ 11 ॥ अनाज, लकड़ी, हाथीदांत आदि हड्डी, सूत, मधु, नमक, तेल, घी आदि रस, सोना-पारा आदि तैजस पदार्थ, चाम और घड़ा आदि मिट्टीके बने पदार्थ समयपर अपने-आप हवा लगनेसे, आगमें जलानेसे मिट्टी लगानेसे अथवा जलमे धोनेसे शुद्ध हो जाते हैं। देश, काल और अवस्थाके अनुसार कहीं जल-मिट्टी आदि शोधक सामग्री के संयोगसे शुद्धि करनी पड़ती है तो कहीं-कहीं एक-एकसे भी शुद्धि हो जाती है ॥ 12 ॥ यदि किसी वस्तु कोई अशुद्ध पदार्थ लग गया हो तो छीलनेसे या मिट्टी आदि मलनेसे जब उस पदार्थको गन्ध और लेप न रहे और वह वस्तु अपने पूर्वरूपमें आ जाय, तब उसको शुद्ध समझना चाहिये ॥ 13 ॥ स्नान, दान, तपस्या, वय, सामर्थ्य, संस्कार, कर्म और मेरे स्मरणसे चित्तकी शुद्धि होती है। इनके द्वारा शुद्ध होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यको विहित कमका आचरण करना चाहिये ।। 14 ।। गुरुमुखसे सुनकर भलीभाँति हृदयङ्गम कर लेनेसे मन्त्रकी और मुझे समर्पित कर देनेसे कर्म की शुद्धि होती है। उद्धवजी इस प्रकार देश, काल, पदार्थ, कर्ता, मन्त्र और कर्म-इन उहाँके शुद्ध होनेसे धर्म और अशुद्ध होनेसे अधर्म होता है ।। 15 ।।कहीं-कहीं शास्त्रविधिसे गुण दोष हो जाता है और दोष गुण। (जैसे ब्राह्मणके लिये सन्ध्या-वन्दन, गायत्री जप आदि गुण हैं; परन्तु शूद्रके लिये दोष हैं। और दूध आदिका व्यापार वैश्यके लिये विहित है; परन्तु ब्राह्मणके लिये अत्यन्त निषिद्ध है।) एक ही वस्तुके विषयमें किसीके लिये गुण और किसीके लिये दोषका विधान गुण और दोषोंकी वास्तविकताका खण्डन कर देता है और इससे यह निश्चय होता है कि गुण-दोषका यह भेद कल्पित है ॥ 16 ॥ जो लोग पतित हैं, वे पतितोंका-सा आचरण करते हैं तो उन्हें पाप नहीं लगता, जब कि श्रेष्ठ पुरुषोंके लिये वह सर्वथा त्याज्य होता है। जैसे गृहस्थोंके लिये स्वाभाविक होनेके कारण अपनी पत्नीका सङ्ग पाप नहीं है; परन्तु संन्यासीके लिये घोर पाप है। उद्धवजी ! बात तो यह है कि जो नीचे सोया हुआ है, वह गिरेगा कहाँ ? वैसे ही जो पहलेसे ही पतित हैं, उनका अब और पतन क्या होगा ? ॥ 17 ॥ जिन-जिन दोषों और गुणोंसे मनुष्यका चित्त उपरत हो जाता है, उन्हीं वस्तुओंके बन्धनसे वह मुक्त हो जाता है। मनुष्योंके लिये यह निवृत्तिरूप धर्म ही परम कल्याणका साधन है; क्योंकि यही शोक, मोह और भयको मिटानेवाला है ॥ 18 ॥ उद्धवजी ! विषयोंमें कहीं भी गुणोंका आरोप करनेसे उस वस्तुके प्रति आसक्ति हो जाती है। आसक्ति होनेसे उसे अपने पास रखनेकी कामना हो जाती है और इस कामनाकी पूर्तिमें किसी प्रकारकी बाधा पड़नेपर लोगोंमें परस्पर कलह होने लगता है ॥ 19 ॥ कलहसे असह्य क्रोधकी उत्पत्ति होती है और क्रोधके समय अपने हित-अहितका बोध नहीं रहता, अज्ञान छा जाता है। इस अज्ञानसे शीघ्र ही मनुष्यकी कार्याकार्यका निर्णय करनेवाली व्यापक चेतनाशक्ति लुप्त हो जाती है ॥ 20 ॥ साधो ! चेतनाशक्ति अर्थात् स्मृतिके लुप्त हो जानेपर मनुष्य में मनुष्यता नहीं रह जाती, पशुता आ जाती है और वह शून्यके समान अस्तित्वहीन हो जाता है। अब उसकी अवस्था वैसी ही हो जाती है, जैसे कोई मूच्छित या मुर्दा हो। ऐसी स्थितिमें न तो उसका स्वार्थ बनता है और न तो परमार्थ ॥ 21 ॥ विषयोंका चिन्तन करते-करते वह विषयरूप हो जाता है। उसका जीवन वृक्षोंके समान जड हो जाता है। उसके शरीरमें उसी प्रकार व्यर्थ श्वास चलता रहता है, जैसे लुहारकी धौकनीकी हवा । उसे न अपना ज्ञान रहता है और न किसी दूसरेका। वह सर्वथा आत्मवञ्चित हो जाता है ॥ 22 ॥उद्धवजी ! यह स्वर्गादिरूप फलका वर्णन करनेवाली श्रुति मनुष्योंके लिये उन-उन लोकोंको परम पुरुषार्थ नहीं बतलाती; परन्तु बहिर्मुस पुरुषोंके लिये अन्तःकरणशुद्धिके द्वारा परम कल्याणमय मोक्षकी विवक्षासे ही कर्म में रुचि उत्पन्न करनेके लिये वैसा वर्णन करती है। जैसे बच्चोंसे ओषधिमें रुचि उत्पन्न करनेके लिये रोचक वाक्य कहे जाते हैं (बेटा प्रेमसे गिलोयका काढ़ा पी लो तो तुम्हारी चोटी बढ़ जायगी) || 23 | इसमें सन्देह नहीं कि संसारके विषयभोगोंमें, प्राणोंमें और सगे-सम्बन्धियोंमें सभी मनुष्य जन्मसे ही आसक्त हैं और उन वस्तुओंकी आसक्ति उनकी आत्मोन्नतिमें बाधक एवं अनर्थका कारण है ।। 24 ।। वे अपने परम पुरुषार्थको नहीं जानते, इसलिये स्वर्गादिका जो वर्णन मिलता है, वह ज्यों-का-त्यों सत्य है—ऐसा विश्वास करके देवादि योनियों में भटकते रहते हैं और फिर वृक्ष आदि योनियों के घोर अन्धकारमें आ पड़ते हैं। ऐसी अवस्थामें कोई भी विद्वान् अथवा वेद फिरसे उन्हें उन्हीं विषयोंमें क्यों प्रवृत्त करेगा ? ।। 25 दुर्बुद्धिलोग (कर्मवादी) वेदोंका यह अभिप्राय न समझकर कर्मासक्तिवश पुष्पोंकि समान स्वर्गादि लोकोंका वर्णन देखते हैं और उन्हींको परम फल मानकर भटक जाते हैं। परन्तु वेदवेत्ता लोग श्रुतियों का ऐसा तात्पर्य नहीं बतलाते ।। 26 ।। विषय-वासनाओमे फँसे हुए दीन-हीन, लोभी पुरुष रंग-बिरंगे पुष्पोंके समान स्वर्गादि लोकोंको ही सब कुछ समझ बैठते हैं, अग्रिके द्वारा सिद्ध होनेवाले यज्ञ-यागादि कम ही मुग्ध हो जाते हैं। उन्हें अन्तमें देवलोक, पितृलोक आदिकी ही प्राप्ति होती है। दूसरी ओर भटक जानेके कारण उन्हें अपने निजधाम आत्मपदका पता नहीं लगता ॥ 27 ॥ प्यारे उद्धव ! उनके पास साधना है तो केवल कर्मकी और उसका कोई फल है। तो इन्द्रियोंकी तृप्ति उनकी आँखें धुंधली हो गयी है; इसीसे वे यह बात नहीं जानते कि जिससे इस जगत्की उत्पत्ति हुई है, जो स्वयं इस जगत्के रूपमें है, वह परमात्मा मैं उनके हृदयमें ही हूँ 28 यदि हिंसा और उसके फल मांस भक्षणमें राग ही हो, उसका त्याग न किया जा सकता हो, तो यज्ञमें ही करे यह परिसंख्या विधि है, स्वाभाविक प्रवृत्तिका संकोच है, सन्ध्यावन्दनादिके समान अपूर्व विधि नहीं है। इस प्रकार मेरे परोक्ष अभिप्रायको न जानकर विषयलोलुप पुरुष हिंसाका खिलवाड़ खेलते हैं और दुष्टतावश अपनी इन्द्रियोंकी के लिये व किये हुए पशुओंके मोससे यज्ञ करके देवता पितर तथा भूतपतियोंके यजनका ढोंग करते हैं ll 29-30 llउद्धवजी स्वर्गादि परलोक स्वत्रके दृश्योंकि समान हैं, वास्तवमें वे असत् हैं, केवल उनकी बातें सुननेमें व मीठी लगती है। सकाम पुरुष वहकि भोगोंके लिये म ही मन अनेकों प्रकारके संकल्प कर लेते हैं और ये | व्यापारी अधिक लाभकी आशासे मूलधनको भी खो बैठता है, वैसे ही वे सकाम यशोद्वारा अपने धनका न | करते हैं ।। 31 ।। वे स्वयं रजोगुण, सत्त्वगुण या तमोगुणमे | | स्थित रहते हैं और रजोगुणी, सत्त्वगुणी अथवा तमोगुणी इन्द्रादि देवताओंकी उपासना करते हैं। वे उन्हीं साम उतने ही परिश्रमसे मेरी पूजा नहीं करते ।। 32 ।। वे जब इस प्रकारकी पुष्पिता वाणी रंग-बिरंगी मीठी-मीठी ब सुनते हैं कि ‘हमलोग इस लोकमें यज्ञोंके द्वारा देवताओंका यजन करके स्वर्गमें जायेंगे और वहां दिव्य आनन्द भोगे उसके बाद जब फिर हमारा जन्म होगा, तब हम बड़े कुलीन परिवारमें पैदा होंगे, हमारे बड़े-बड़े महल होंगे और हमारा कुटुम्ब बहुत सुखी और बहुत बड़ा होगा’ तब उनका चि क्षुब्ध हो जाता है और उन हेकड़ी जतानेवाले घमंडियोको मेरे सम्बन्धकी बातचीत भी अच्छी नहीं लगती ॥ 33-34 ॥

उद्धवजी वेदोंमें तीन काण्ड है-कर्म, उपासना और ज्ञान। इन तीनों काण्डोंके द्वारा प्रतिपादित विषय है ब्रह्म और आत्माकी एकता, सभी मन्त्र और मन्त्रद्रष्टा ऋषि इस विषयको खोलकर नहीं, गुप्तभावसे बतलाते हैं और मुझे भी इस बातको गुप्तरूपसे कहना ही अभीष्ट है * 35 ॥ वेदोंका नाम है शब्दब्रह्म। वे मेरी मूर्ति हैं। इसीसे उनका रहस्य समझना अत्यन्त कठिन है। वह शब्दब्रह्म परा, पश्यन्ती और मध्यमा वाणीके रूपमें प्राण मन और इन्द्रियमय है। समुद्रके समान सीमारहित और गहरा है। उसकी थाह लगाना अत्यन्त कठिन है। (इसीसे | जैमिनि आदि बड़े-बड़े विद्वान् भी उसके तात्पर्यका ठीक ठीक निर्णय नहीं कर पाते) ॥ 36 उद्भव मैं अनन्त शक्ति-सम्पन्न एवं स्वयं अनन्त ब्रह्म हूँ। मैंने ही वेदवाणीका विस्तार किया है। जैसे कमलनालमें पतला-सा सूत होता है, वैसे ही वह वेदवाणी प्राणियोंके अन्तःकरणमे अनाहतनादके रूपमें प्रकट होती है ॥ 37 ॥ भगवान् हिरण्यगर्भ स्वयं वेदमूर्ति एवं अमृतमय है। उनको उपाधि है प्राण और स्वयं अनाहत शब्दके द्वारा ही उनकी। अभिव्यक्ति हुई है। जैसे मकड़ी अपने हृदयसे मुखद्वारा | जाला उगलती और फिर निगल लेती है, वैसे ही वे स्पर्शआदि वर्णोंका संकल्प करनेवाले मनरूप निमित्तकारणके द्वारा हृदयाकाशसे अनन्त अपार अनेकों मार्गोंवाली वैखरीरूप वेदवाणीको स्वयं ही प्रकट करते हैं और फिर उसे अपनेमें लीन कर लेते हैं। वह वाणी हृद्गत सूक्ष्म ओंकारके द्वारा अभिव्यक्त स्पर्श (‘क’ से लेकर ‘म’ तक-25), स्वर ( ‘अ’ से ‘औ’ तक -9), ऊष्मा (श, ष, स, ह) और अन्तःस्थ ( य, र, ल, व ) – इन वर्णोंसे विभूषित है। उसमें ऐसे छन्द हैं, जिनमें उत्तरोत्तर चार-चार वर्ण बढ़ते जाते हैं और उनके द्वारा विचित्र भाषाके रूपमें वह विस्तृत हुई है ॥ 38-40 ॥ ( चार-चार अधिक वर्णोंवाले छन्दोंमेंसे कुछ ये हैं -) गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप् जगती, अतिच्छन्द, अत्यष्टि, अतिजगती और विराट् ॥ 41 ॥ वह वेदवाणी कर्मकाण्डमें क्या विधान करती है, उपासनाकाण्डमें किन देवताओंका वर्णन करती है और ज्ञानकाण्डमें किन प्रतीतियोंका अनुवाद करके उनमें अनेकों प्रकारके विकल्प करती है— इन बातोंको इस सम्बन्धमें श्रुतिके रहस्यको मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं जानता ॥ 42 ॥ मैं तुम्हें स्पष्ट बतला देता हूँ, सभी श्रुतियाँ कर्मकाण्डमें मेरा ही विधान करती हैं, उपासनाकाण्डमें उपास्य देवताओंके रूपमें वे मेरा ही वर्णन करती हैं और ज्ञानकाण्डमें आकाशादिरूपसे मुझमें ही अन्य वस्तुओंका आरोप करके उनका निषेध कर देती हैं। सम्पूर्ण श्रुतियोंका बस, इतना ही तात्पर्य है कि वे मेरा आश्रय लेकर मुझमें भेदका आरोप करती हैं, मायामात्र कहकर उसका अनुवाद करती हैं और अन्तमें सबका निषेध करके मुझमें ही शान्त हो जाती हैं और केवल अधिष्ठानरूपसे मैं ही शेष रह जाता हूँ ॥ 43 ॥

अध्याय 22 तत्त्वोंकी संख्या और पुरुष प्रकृति-विवेक

उद्धवजीने कहा – प्रभो! विश्वेश्वर! ऋषियोंने तत्त्वोंकी संख्या कितनी बतलायी है? आपने तो अभी उन्नीसवें अध्यायमें नौ ग्यारह पाँच और तीन अर्थात् कुल अट्ठाईस तत्त्व गिनाये हैं। यह तो हम सुन चुके हैं ॥ 1 ॥किन्तु कुछ लोग छब्बीस तत्त्व बतलाते है तो कुछ पचीस; कोई सात, नौ अथवा छः स्वीकार करते हैं, कोई चार बतलाते हैं तो कोई ग्यारह ॥ 2 ॥ इसी प्रकार किन्हीं किन्हीं ऋषि मुनियोंके मतमें उनकी संख्या सग्रह है, कोई सोलह और कोई तेरह बतलाते हैं। सनातन श्रीकृष्ण ऋषि-मुनि इतनी भिन्न संख्याएँ किस अभिप्रायसे बतलाते हैं? आप कृपा करके हमें बतलाइये || 3 ||

भगवान् श्रीकृष्णने कहा-उद्धवजी वेदश ब्राह्मण इस विषयमें जो कुछ कहते हैं, वह सभी ठीक है; क्योंकि सभी तत्व सबमें अन्तर्भूत है मेरी मायाको स्वीकार करके क्या कहना असम्भव है ? ॥ 4 ॥ ‘जैसा तुम कहते हो, वह ठीक नहीं है, जो मैं कहता हूँ, वही यथार्थ है’-इस प्रकार जगत्के कारणके सम्बन्धमें विवाद इसलिये होता है कि मेरी शक्तियों— सत्त्व, रज आदि गुणों और उनकी -सत्त्व, बुतियोंका रहस्य लोग समझ नहीं पाते; इसलिये वे अपनी अपनी मनोवृत्तिपर ही आग्रह कर बैठते हैं ॥ 5 ॥ सत्य आदि गुणोंके क्षोभसे ही यह विविध कल्पनारूप प्रपञ्च – जो वस्तु नहीं केवल नाम है— उठ खड़ा हुआ है। यही वाद-विवाद करनेवालोंके विवादका विषय है। जब इन्द्रियाँ अपने वशमें हो जाती हैं तथा चित्त शान्त हो जाता है, तब यह प्रपञ्च भी निवृत्त हो जाता है और उसकी निवृत्तिके साथ ही सारे बाद विवाद भी मिट जाते है ॥ 6 ॥ पुरुषशिरोमणे! त एक-दूसरेमें अनुप्रवेश है, इसलिये वक्ता तत्वोंकी जितनी संख्या बतलाना चाहता है, उसके अनुसार कारणको कार्यमें अथवा कार्यको कारणमें मिलाकर अपनी इच्छित संख्या सिद्ध कर लेता है ॥ 7 ॥ ऐसा देखा जाता है कि एक ही तत्त्वमें बहुत-से दूसरे तक अन्तर्भाव हो गया है। इसका कोई बन्धन नहीं है कि किसका किसमें अन्तर्भाव हो। कभी घट-पट आदि कार्य वस्तुओंका उनके कारण मिट्टी सूत आदिमें, तो कभी मिट्टी-सूत आदिका घट-पट आदि कार्योंमें अन्तर्भाव हो जाता है ॥ 8 ॥ इसलिये वादी-प्रतिवादियोंमेसे जिसकी वाणीने जिस कार्यको जिस कारणमें अथवा जिस कारणको जिस कार्यमें अन्तर्भूत करके तत्वोंकी जितनी संख्या स्वीकार की है, वह हम निश्चय ही स्वीकार करते हैं; क्योंकि उनका वह उपपादन युक्तिसङ्गत ही है ॥ 9 ॥

उद्धवजी ! जिन लोगोंने छब्बीस संख्या स्वीकार की है, वे ऐसा कहते हैं कि जीव अनादि कालसे अविद्यासे प्रस्त हो रहा है। वह स्वयं अपने-आपको नहीं जान सकता। उसे आत्मज्ञान करानेके लिये किसी अन्य सर्वज्ञकी आवश्यकता है (इसलिये प्रकृतिके कार्यकारणरूप चौबीस तत्व पचीसवाँ पुरुष और छब्बीसवाँ ईश्वरइस प्रकार कुलछब्बीस तत्त्व स्वीकार करने चाहिये) ॥ 10 ॥ पचीस तत्त्व माननेवाले कहते हैं कि इस शरीरमें जीव और ईश्वरका अणुमात्र भी अन्तर या भेद नहीं है, इसलिये उनमें भेदकी कल्पना व्यर्थ है। रही ज्ञानकी बात, सो तो सत्त्वात्मिका प्रकृतिका गुण है ॥। 11 ॥ तीनों गुणोंकी साम्यावस्था ही प्रकृति है इसलिये सत्त्व, रज आदि गुण आत्मा नहीं, प्रकृतिके ही हैं। इन्होंके द्वारा जगत्‌की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय हुआ करते हैं। इसलिये ज्ञान आत्माका गुण नहीं, प्रकृतिका ही गुण सिद्ध होता है ।। 12 ।। इस प्रसङ्गमे सत्त्वगुण ही ज्ञान है, रजोगुण ही कर्म है और तमोगुण ही अज्ञान कहा गया है और गुणोंमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाला ईश्वर ही काल है और सूत्र अर्थात् महत्तत्व ही स्वभाव है। (इसलिये पचीस और छब्बीस तत्वोंकी दोनों ही संख्या युक्तिसंगत है) ॥ 13 ॥

उद्धवजी (यदि तीनों गुणोंको प्रकृतिसे अलग मान लिया जाय, जैसा कि उनकी उत्पत्ति और प्रलयको देखते हुए मानना चाहिये, तो तत्त्वोंको संख्या स्वयं ही अट्ठाईस हो जाती है। उन तीनोंके अतिरिक्त पचीस ये हैं ) पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहङ्कार, आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी- ये नौ तत्त्व मैं पहले ही गिना चुका हूँ ।। 14 ।। श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, नासिका और रसना – ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ—ये पाँच कमन्द्रया तथा मन, जो कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दोनों ही हैं। इस प्रकार कुल ग्यारह इन्द्रियाँ तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये ज्ञानेन्द्रियोंके पाँच विषय। इस प्रकार तीन, नौ, ग्यारह और पाँच सब मिलाकर अट्ठाईस तत्त्व होते हैं। कर्मेन्द्रियोंके द्वारा होनेवाले पाँच कर्म― चलना, बोलना, मल त्यागना, पेशाब करना और काम करना इनके द्वारा तत्त्वोंकी संख्या नहीं बढ़ती। इन्हें कर्मेन्द्रियस्वरूप ही मानना चाहिये ।। 15-16 ॥ सृष्टिके आरम्भमें कार्य (ग्यारह इन्द्रिय और पञ्चभूत) और कारण (महत्तत्त्व आदि) के रूपमें प्रकृति ही रहती है। वही सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी सहायतासे जगत्की स्थिति, उत्पत्ति और संहारसम्बन्धी अवस्थाएँ धारण करती है। अव्यक्त पुरुष तो प्रकृति और उसकी अवस्थाओंका केवल साक्षीमात्र बना रहता है ।। 17 ।। महत्तत्त्व आदि कारण धातुएँ विकारको प्राप्त होते हुए पुरुष के ईक्षणसे शक्ति प्राप्त करके परस्पर मिल जाते हैं और प्रकृतिका आश्रय लेकर उसीके बलसे ब्रह्माण्डको सृष्टि करते हैं । ll 18 llउद्धवजी ! जो लोग तत्त्वोंकी संख्या सात स्वीकार करते हैं, उनके विचारसे आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी – ये पाँच भूत, छठा जीव और सातवाँ परमात्मा जो साक्षी जीव और साक्ष्य जगत् दोनोंका अधिष्ठान है— ये ही तत्त्व हैं। देह, इन्द्रिय और प्राणादिकी उत्पत्ति तो पञ्चभूतोंसे ही हुई है [इसलिये वे इन्हें अलग नहीं गिनते] ॥ 19 ॥ जो लोग केवल छः तत्त्व स्वीकार करते हैं, वे कहते हैं कि पाँच भूत हैं और छठा है परमपुरुष परमात्मा । वह परमात्मा अपने बनाये हुए पञ्चभूतोंसे युक्त होकर देह आदिकी सृष्टि करता है और उनमें जीवरूपसे प्रवेश करता है (इस मतके अनुसार जीवका परमात्मामें और शरीर आदिका पञ्चभूतोंमें समावेश हो जाता है) ॥ 20 ॥ जो लोग कारण के रूपमें चार ही तत्त्व स्वीकार करते हैं, वे कहते हैं कि आत्मासे तेज, जल और पृथ्वीको उत्पत्ति हुई है और जगत्में जितने पदार्थ हैं, सब इन्हींसे उत्पन्न होते हैं। वे सभी कार्योंका इन्हीं समावेश कर लेते हैं ॥ 21 ॥ जो लोग तत्त्वोंकी संख्या सत्रह बतलाते हैं, वे इस प्रकार गणना करते हैं—पाँच भूत, पाँच तमात्राएँ पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, एक मन और एक आत्मा ॥ 22 ॥ जो लोग तत्त्वोंकी संख्या | सोलह बतलाते हैं, उनकी गणना भी इसी प्रकार है। अन्तर केवल इतना ही है कि वे आत्मामें मनका भी समावेश कर लेते हैं और इस प्रकार उनकी तत्त्वसंख्या सोलह रह जाती है। जो लोग तेरह तत्त्व मानते हैं, वे कहते हैं कि आकाशादि पाँच भूत, श्रोत्रादि पाँच ज्ञानेन्द्रियां, एक मन, एक जीवात्मा और परमात्मा – ये तेरह तत्त्व हैं ॥ 23 ॥ ग्यारह संख्या माननेवालोंने पाँच भूत, पाँच ज्ञानेन्द्रियां और इनके अतिरिक्त एक आत्माका अस्तित्व स्वीकार किया है। जो लोग नौ तत्त्व मानते हैं, वे आकाशादि पाँच भूत और मन बुद्धि, अहंकार ये आठ प्रकृतियाँ और नवां पुरुष इन्हींको तत्त्व मानते हैं ॥ 24 ॥ उद्धवजी ! इस प्रकार ऋषि-मुनियोंने भिन्न-भिन्न प्रकारसे तत्त्वोंकी गणना की है।

सबका कहना उचित ही है, क्योंकि सबकी संख्या युक्तियुक्त है। जो लोग तत्त्वज्ञानी हैं, उन्हें किसी भी मतमें बुराई नहीं दीखती। उनके लिये तो सब कुछ ठीक ही है ॥ 25 ॥ उद्धवजीने कहा- श्यामसुन्दर ! यद्यपि स्वरूपतः प्रकृति और पुरुष दोनों एक-दूसरेसे सर्वथा भिन्न है, तथापि वे आपसमें इतने घुल-मिल गये हैं कि साधारणतः उनका भेद नहीं जान पड़ता। प्रकृतिमें पुरुष और पुरुषमें प्रकृति अभिन्न-से प्रतीत होते हैं। इनकी भिन्नता स्पष्ट कैसे हो ? ।। 26 ।।कमलनयन श्रीकृष्ण मेरे हृदयमें इनकी भिन्नता और अभिन्नताको लेकर बहुत बड़ा सन्देह है। आप तो सर्वज्ञ हैं, अपनी युक्तियुक्त वाणीसे मेरे सन्देहका निवारण कर दीजिये ॥ 27 ॥ भगवन्! आपकी ही कृपासे जीवोंको ज्ञान होता है और आपकी मायाशक्तिसे ही उनके ज्ञानका नाश होता है। अपनी आत्मस्वरूपिणी मायाकी विचित्र गति आप ही जानते हैं और कोई नहीं जानता। अतएव आप ही मेरा सन्देह मिटानेमें समर्थ हैं ॥ 28 ॥

भगवान् श्रीकृष्णने कहा- उद्धवजी ! प्रकृति और पुरुष, शरीर और आत्मा-इन दोनोंमें अत्यन्त भेद है। इस प्राकृत जगत् में जन्म-मरण एवं वृद्धि ह्रास आदि विकार लगे ही रहते हैं। इसका कारण यह है कि यह गुणोंके क्षोभसे ही बना है ।। 29 । प्रिय मित्र ! मेरी माया त्रिगुणात्मिका है। वही अपने सत्त्व, रज आदि गुणोंसे अनेकों प्रकारकी भेदवृत्तियाँ पैदा कर देती है। यद्यपि इसका विस्तार असीम है, फिर भी इस विकारात्मक सृष्टिको तीन भागोंमें बाँट सकते हैं। वे तीन भाग हैं—अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत ॥ 30 ॥ उदाहरणार्थ – नेत्रेन्द्रिय अध्यात्म है, उसका विषय रूप अधिभूत है और नेत्र गोलक में स्थित सूर्यदेवताका अंश अधिदैव है। ये तीनों परस्पर एक-दूसरेके आश्रयसे सिद्ध होते हैं। और इसलिये अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत—ये तीनों ही परस्पर | सापेक्ष हैं। परन्तु आकाशमें स्थित सूर्यमण्डल इन तीनोंकी अपेक्षासे मुक्त है, क्योंकि वह स्वतः सिद्ध है। इसी प्रकार आत्मा भी उपर्युक्त तीनों भेदोंका मूलकारण, उनका साक्षी और उनसे परे है। वही अपने स्वयंसिद्ध प्रकाशसे समस्त | सिद्ध पदार्थोंकी मूलसिद्धि है। उसीके द्वारा सबका प्रकाश होता है। जिस प्रकार चक्षुके तीन भेद बताये गये, उसी प्रकार त्वचा, श्रोत्र, जिह्वा, नासिका और चित्त आदिके भी तीन-तीन भेद हैं * ॥ 31 ॥ प्रकृतिसे महत्तत्त्व बनता है और महत्तत्त्वसे अहङ्कार। इस प्रकार यह अहङ्कार गुणोंके क्षोभसे उत्पन्न हुआ प्रकृतिका ही एक विकार है। अहङ्कारके तीन भेद हैं- सात्त्विक, तामस और राजस। यह अहङ्कार ही अज्ञान और सृष्टिकी विविधताका मूलकारण है ॥ 32 ॥आत्मा ज्ञानस्वरूप है; उसका उन पदार्थोंसे न तो कोई सम्बन्ध है और न उसमें कोई विवादकी ही बात है। अस्ति नास्ति (है-नहीं), सगुण-निर्गुण, भाव-अभाव, सत्य मिध्या आदि रूपसे जितने भी वाद-विवाद हैं सबका मूलकारण भेददृष्टि ही है। इसमें सन्देह नहीं कि इस विवादका कोई प्रयोजन नहीं है; यह सर्वथा व्यर्थ है तथापि जो लोग मुझसे अपने वास्तविक स्वरूपसे विमुख हैं, वे इस विवादसे मुक्त नहीं हो सकते ॥ 33 ॥

उद्धवजीने पूछा- भगवन्! आपसे विमुख जीव अपने किये हुए पुण्य-पापोके फलस्वरूप ऊँची-नीची योनियोंमें जाते-आते रहते हैं। अब प्रश्न यह है कि व्यापक | आत्माका एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जाना, अकर्ताका कर्म करना और नित्य वस्तुका जन्म-मरण कैसे सम्भव है? ।। 34 ।। गोविन्द ! जो लोग आत्मज्ञानसे रहित हैं, वे तो इस विषयको ठीक-ठीक सोच भी नहीं सकते और इस विषयके विद्वान् संसारमें प्रायः मिलते नहीं, क्योंकि सभी | लोग आपकी मायाकी भूल-भुलैयामें पड़े हुए हैं। इसलिये आप ही कृपा करके मुझे इसका रहस्य समझाइये || 35 ।।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव ! मनुष्योंका मन कर्म-संस्कारोंका पुञ्ज है। उन संस्कारकि अनुसार भोग प्राप्त करने के लिये उसके साथ पाँच इन्द्रियाँ भी लगी हुई है। इसीका नाम है लिङ्गशरीर वही कर्मकि अनुसार एक शरीरसे दूसरे शरीरमें एक लोकसे दूसरे लोकमें आता-जाता रहता है। आत्मा इस लिङ्गशरीरसे सर्वथा पृथक् है। उसका आना-जाना नहीं होता; परन्तु जब वह अपनेको लिङ्गशरीर ही समझ बैठता है, उसीमें अहङ्कार कर लेता है, तब उसे भी अपना जाना-आना प्रतीत होने लगता है। ॥ 36 ॥ मन कर्मो के अधीन है। वह देखे हुए या सुने हुए विषयोंका चिन्तन करने लगता है और क्षणभरमें ही उनमें तदाकार हो जाता है तथा उन्हीं पूर्वचिन्तित विषयोंमें लीन हो जाता है। धीरे-धीरे उसकी स्मृति, पूर्वापरका अनुसन्धान भी नष्ट हो जाता है ।। 37 ।। उन देवादि शरीरोंमें इसका इतना अभिनिवेश, इतनी तल्लीनता हो जाती है कि जीवको अपने पूर्व शरीरका स्मरण भी नहीं रहता। किसी भी कारणसे शरीरको सर्वथा भूल जाना ही मृत्यु है ।। 38 ।। उदार उद्धव ! जब यह जीव किसी भी शरीरको अभेद-भावसे’मैं’ के रूपमें स्वीकार कर लेता है, तब उसे ही जन्म कहते हैं, ठीक वैसे ही जैसे स्वाकालीन और मनोरथकालीन शरीरमें अभिमान करना ही स्वप्न और मनोरथ कहा जाता है ।। 39 ।। यह वर्तमान देहमें स्थित जीव जैसे पूर्व देहका स्मरण नहीं करता, वैसे ही स्वप्न या मनोरथमे स्थित जीव भी पहले स्वत्र औरमनोरथको स्मरण नहीं करता, प्रत्युत उस वर्तमान स्वप्र और मनोरथमें पूर्व सिद्ध होनेपर भी अपनेको नवीन-सा ही समझता है ॥ 40 ॥ इन्द्रियोंके आश्रय मन या शरीरको सृष्टिसे आत्मवस्तुमें यह उत्तम, मध्यम और अधमकी त्रिविधता भासती है। उनमें अभिमान करनेसे ही आत्मा बाह्य और आभ्यन्तर भेदोंका हेतु मालूम पड़ने लगता है, जैसे दुष्ट पुत्रको उत्पन्न करनेवाला पिता पुत्रके शत्रु-मित्र आदिके लिये भेदका हेतु हो जाता है 41 ॥ प्यारे उद्धव ! कालकी गति है। सूक्ष्म है। उसे साधारणतः देखा नहीं जा सकता। उसके द्वारा प्रतिक्षण ही शरीरोंकी उत्पत्ति और नाश होते रहते हैं। सूक्ष्म होनेके कारण ही प्रतिक्षण होनेवाले जन्म-मरण नहीं दीख पड़ते ।। 42 ।। जैसे कालके प्रभावसे दियेकी लौ, नदियोंके प्रवाह अथवा वृक्षके फलोंकी विशेष विशेष अवस्थाएँ बदलती रहती हैं, वैसे ही समस्त प्राणियोंके शरीरोंकी आयु, अवस्था आदि भी बदलती रहती है ।। 43 ।। जैसे यह उन्हीं ज्योतियोंका वही दीपक है, प्रवाहका यह वही जल है ऐसा समझना और कहना मिथ्या है, वैसे ही विषय -चिन्तनमें व्यर्थ आयु बितानेवाले अविवेकी पुरुषोंका ऐसा कहना और समझना कि यह वही पुरुष है, सर्वथा मिथ्या है ॥ 44 ॥ यद्यपि वह भ्रान्त पुरुष भी अपने कर्मोक बीजद्वारा न पैदा होता है और न तो मरता ही है; वह भी अजन्मा और अमर ही है, फिर भी भ्रान्तिसे वह उत्पन्न होता है और मरता-सा भी है, जैसे कि कासे युक्त अधि पैदा होता और नष्ट होता दिखायी पड़ता है ॥ 45 ॥

उद्धवजी ! गर्भाधान, गर्भवृद्धि, जन्म, बाल्यावस्था, कुमारावस्था, जवानी, अधेड़ अवस्था, बुढ़ापा और मृत्यु — ये नौ अवस्थाएँ शरीरकी ही हैं ॥ 46 ॥ यह शरीर जीवसे भिन्न है और ये ऊँची-नीची अवस्थाएँ उसके मनोरथके अनुसार ही हैं; परन्तु वह अज्ञानवश गुणोंके सङ्गसे इन्हें अपनी मानकर भटकने लगता है और कभी-कभी विवेक हो जानेपर इन्हें छोड़ भी देता है ॥ 47 पिताको पुत्रके जन्मसे और पुत्रको पिताको मृत्युसे अपने-अपने जन्म-मरणका अनुमान कर लेना चाहिये। जन्म-मृत्युसे युक्त देहोंका द्रष्टा जन्म और मृत्युसे युक्त शरीर नहीं है 48 ॥ जैसे जौ-गेहूँ आदिकी फसल बोनेपर उग आती है और पक जानेपर काट दी जाती है, किन्तु जो पुरुष उनके उगने और काटनेका जाननेवाला साक्षी है, वह उनसे सर्वथा पृथक् है; वैसे ही जो शरीर और उसकी अवस्थाओंका साक्षी है, वह शरीरसे सर्वथा पृथक् है ।। 49 ।। अज्ञानी पुरुष इस प्रकार प्रकृति और शरीरसे आत्माका विवेचन नहीं करते। वे उसे उनसे तत्त्वतः अलग अनुभव नहीं करते और विषयभोगमेंसच्चा सुख मानने लगते हैं तथा उसीमें मोहित हो जाते हैं। इसीसे उन्हें जन्म-मृत्युरूप संसारमें भटकना पड़ता है ।। 50 । जब अविवेकी जीव अपने कर्मोक अनुसार जन्म-मृत्युके चक्रमे भटकने लगता है, तब सात्विक कर्मोकी आसक्तिसे वह ऋषिलोक और देवलोकमें राजसिक कर्मोकी आसक्तिसे मनुष्य और असुरयोनियोंमें तथा तामसी कमकी आसक्तिसे भूत-प्रेत एवं पशु-पक्षी आदि योनियोंमें जाता है ॥ 51 ॥ जब मनुष्य किसीको नाचते-गाते देखता है, तब वह स्वयं भी उसका अनुकरण करने तान तोड़ने लगता है। वैसे ही जब जीव बुद्धिके गुणोंको देखता है, तब स्वयं निष्क्रिय होनेपर भी उसका अनुकरण करनेके लिये बाध्य हो जाता है ।। 52 ।। जैसे नदी तालाब आदिके जलके हिलने या चञ्चल होनेपर उसमें प्रतिबिम्बित तटके वृक्ष भी उसके साथ हिलते डोलते से जान पड़ते हैं, जैसे घुमाये जानेवाले नेत्रके साथ-साथ पृथ्वी भी घूमती हुई-सी दिखायी देती है, जैसे मनके द्वारा सोचे गये तथा स्वप्रमें देखे गये भोग पदार्थ सर्वथा अलीक ही होते हैं. वैसे ही हे दाशार्ह ! आत्माका विषयानुभवरूप संसार भी सर्वथा असत्य है। आत्मा तो नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव ही है ।। 53-54 ।। विषयोंके सत्य न होनेपर भी जो जीव विषयोंका ही चिन्तन करता रहता है, उसका यह जन्म मृत्युरूप संसार-चक्र कभी निवृत्त नहीं होता, जैसे स्वप्रमें प्राप्त अनर्थ परम्परा जागे बिना निवृत्त नहीं होती ॥ 55 ॥ |

प्रिय उद्धव ! इसलिये इन दुष्ट (कभी तृप्त न होनेवाली) इन्द्रियोंसे विषयोंको मत भोगो। आत्म विषयक अज्ञानसे प्रतीत होनेवाला सांसारिक भेदभाव भ्रममूलक ही है, ऐसा समझो ॥ 56 ॥ असाधु पुरुष गर्दन | पकड़कर बाहर निकाल दें, वाणीद्वारा अपमान करें, उपहास करें, निन्दा करें, मारे-पीटें, बांधे, आजीविका छोन लें, ऊपर थूक दें. मृत दें अथवा तरह-तरहसे विचलित करें, निष्ठासे डिगानेकी चेष्टा करें; उनके किसी भी उपद्रवसे क्षुब्ध न होना चाहिये; क्योंकि वे तो बेचारे अज्ञानी हैं, उन्हें परमार्थका तो पता ही नहीं है। अतः जो अपने कल्याणका इच्छुक है, उसे सभी कठिनाइयोंसे अपनी विवेक-बुद्धिद्वारा ही- किसी बाह्य साधनसे नहीं-अपनेको बचा लेना चाहिये। वस्तुतः आत्मदृष्टि ही समस्त विपत्तियोंसे बचनेका एकमात्र साधन है ।। 57-58 ।।

उद्धवजीने कहा- भगवन्! आप समस्त वक्ताओंके शिरोमणि हैं। मैं इस दुर्जनोसे किये गये तिरस्कारको अपने मनमें अत्यन्त असह्य समझता हूँ। अतः जैसे मैं इसको समझ सकूँ, आपका उपदेश जीवनमें धारण कर सकूँ, वैसे हमें बतलाइये ।। 59 ।।विश्वात्मन् ! जो आपके भागवतधर्मके आचरणमें प्रेमपूर्वक संलग्न हैं, जिन्होंने आपके चरणकमलोंका ही आश्रय ले लिया है, उन शान्त पुरुषोंके अतिरिक्त बड़े-बड़े विद्वानोंके लिये भी दुष्टोंके द्वारा किया हुआ तिरस्कार सह लेना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि प्रकृति अत्यन्त बलवती है । 60 ।।

अध्याय 23 एक तितिक्षु ब्राह्मणका इतिहास

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्। वास्तवमे भगवान‌की लीलाकथा ही श्रवण करनेयोग्य है। वे ही प्रेम और मुक्तिके दाता हैं। जब उनके परमप्रेमी भक्त उद्धवजीने इस प्रकार प्रार्थना की, तब यदुवंशविभूषण श्रीभगवान् ने उनके प्रभकी प्रशंसा करके उनसे इस प्रकार कहा- ॥ 1 ॥

भगवान् श्रीकृष्णने कहा- देवगुरु बृहस्पतिके शिष्य उद्धवजी इस संसारमें प्रायः ऐसे संत पुरुष नहीं मिलते, जो दुर्जनको कटुवाणीसे विधे हुए अपने हृदयको संभाल सके ॥ 2 ॥ मनुष्यका हृदय मर्मभेदी बाणोंसे बिधनेपर भी उतनी पीड़ाका अनुभव नहीं करता, जितनी पीडा उसे दुष्टजनों के मर्मान्तक एवं कठोर वाग्बाण पहुँचाते हैं॥ 3 ॥ उद्धवजी ! इस विषयमें महात्मालोग एक बड़ा पवित्र प्राचीन इतिहास कहा करते हैं; मैं वही तुम्हें सुनाऊँगा, तुम मन लगाकर उसे सुनो ॥ 4 ॥ एक भिक्षुकको दुष्टोंने बहुत सताया था। उस समय भी उसने अपना धैर्य न छोड़ा और उसे अपने पूर्वजन्मके कर्मोंका फल समझकर कुछ अपने मानसिक उद्गार प्रकट किये थे। उन्होंका इस इतिहास वर्णन है ॥ 5॥

प्राचीन समयकी बात है, उज्जैनमें एक ब्राह्मण रहता था। उसने खेती-व्यापार आदि करके बहुत-सी धन-सम्पत्ति इकट्ठी कर ली थी। वह बहुत ही कृपण, कामी और लोभी था। क्रोध तो उसे बात-बातमें आ जाया करता था ।। 6 ।।उसने अपने जाति-बन्धु और अतिथियोंको कभी मीठी बातसे भी प्रसन्न नहीं किया, खिलाने-पिलानेकी तो बात ही क्या है। वह धर्म-कर्मसे रीते घरमें रहता और स्वयं भी अपनी धन सम्पत्तिके द्वारा समयपर अपने शरीरको भी सुखी नहीं करता था ॥ 7 ॥ उसकी कृपणता और बुरे स्वभावके कारण उसके बेटे-बेटी, भाई-बन्धु, नौकर-चाकर और पत्नी आदि सभी दुःखी रहते और मन-ही-मन उसका अनिष्टचिन्तन किया करते थे। कोई भी उसके मनको प्रिय लगनेवाला व्यवहार नहीं करता था ॥ 8 ॥ वह लोक-परलोक दोनोंसे ही गिर गया था। बस, यक्षोंके समान धनकी रखवाली करता रहता था। उस धनसे वह न तो धर्म कमाता था और न भोग ही भोगता था। बहुत दिनोंतक इस प्रकार जीवन बितानेसे उसपर पञ्चमहायज्ञके भागी देवता बिगड़ उठे ॥ 9 ॥ उदार उद्धवजी ! पञ्चमहायज्ञके भागियोंके तिरस्कारसे उसके पूर्व पुण्योंका सहारा – जिसके बलसे अबतक धन टिका हुआ था -जाता रहा और जिसे उसने बड़े उद्योग और परिश्रमसे इकट्ठा किया था, वह धन उसकी आँखोंके सामने ही नष्ट भ्रष्ट हो गया ॥ 10 ॥ उस नीच ब्राह्मणका कुछ धन तो उसके कुटुम्बियोंने ही छीन लिया, कुछ चोर चुरा ले गये। कुछ आग लग जाने आदि दैवी कोपसे नष्ट हो गया, कुछ समयके फेरसे मारा गया। कुछ साधारण मनुष्योंने ले लिया और बचा खुचा कर और दण्डके रूपमें शासकोंने हड़प लिया। 11 ॥ उद्धवजी ! इस प्रकार उसकी सारी सम्पत्ति जाती रही। न तो उसने धर्म ही कमाया और न भोग ही भोगे। इधर उसके सगे-सम्बन्धियोंने भी उसकी ओरसे मुँह मोड़ लिया। अब उसे बड़ी भयानक चिन्ताने घेर लिया ॥ 12 ॥ धनके नाशसे उसके हृदयमें बड़ी जलन हुई। उसका मन खेदसे भर गया। आँसुओंके कारण गला रुँध गया। परन्तु इस तरह चिन्ता करते-करते ही उसके मनमें संसारके प्रति महान् दुःखबुद्धि और उत्कट वैराग्यका उदय हो गया ।। 13 ।।

अब वह ब्राह्मण मन-ही-मन कहने लगा- ‘हाय ! हाय !। बड़े खेदकी बात है, मैंने इतने दिनोंतक अपनेको व्यर्थ ही इस प्रकार सताया। जिस धनके लिये मैंने सरतोड़ परिश्रम किया, वह न तो धर्मकर्ममें लगा और न मेरे सुखभोगके ही काम आया ॥ 14 ॥ प्रायः देखा जाता है कि कृपण पुरुषोंको धनसे कभी सुख नहीं मिलता। इस लोकमें तो वे धन कमाने और रक्षाकी चिन्तासे जलते रहते हैं और मरनेपर धर्म न करनेके कारण नरकमें जाते हैं ।। 15 ।जैसे थोड़ा-सा भी कोढ़ सर्वाङ्गसुन्दर स्वरूपको बिगाड़ देता है, वैसे ही तनिक-सा भी लोभ यशस्वियोंके शुद्ध यश और गुणियोंके प्रशंसनीय गुणोंपर पानी फेर देता है । 16 ॥ धन कमानेमें, कमा लेनेपर उसको बढ़ाने, रखने एवं खर्च करनेमें तथा उसके नाश और उपभोगमें-जहाँ देखो वहीं निरन्तर परिश्रम, भय, चिन्ता और भ्रमका ही सामना करना पड़ता है॥ 17 ॥ चोरी, हिंसा, झूठ बोलना, दम्भ, काम, क्रोध, गर्व, अहङ्कार, भेदबुद्धि, वैर, अविश्वास, स्पर्द्धा, लम्पटता, जुआ और शराब – ये पन्द्रह अनर्थ मनुष्योंमें धनके कारण ही माने गये हैं। इसलिये कल्याणकामी पुरुषको चाहिये कि स्वार्थ एवं परमार्थके विरोधी अर्थनामधारी अनर्थको दूरसे ही छोड़ दे ॥ 18-19 ॥ भाई-बन्धु, स्त्री-पुत्र, माता-पिता, सगे-सम्बन्धी जो स्नेहबन्धनसे बंधकर बिलकुल एक हुए रहते हैं—सब-के-सब कौड़ीके कारण इतने फट जाते हैं कि तुरंत एक-दूसरेके शत्रु बन जाते हैं ॥ 20 ॥ ये लोग थोड़े-से धनके लिये भी क्षुब्ध और क्रुद्ध हो जाते हैं। बात की बात में सौहार्द सम्बन्ध छोड़ देते हैं, लाग-डॉट रखने लगते हैं और एकाएक प्राण लेने-देनेपर उतारू हो जाते हैं। यहाँतक कि एक-दूसरेका सर्वनाश कर डालते हैं ॥ 21 ॥ देवताओंके भी प्रार्थनीय मनुष्य जन्मको और उसमें भी श्रेष्ठ ब्राह्मण शरीर प्राप्त करके जो उसका अनादर करते हैं और अपने सच्चे स्वार्थ परमार्थका नाश करते हैं, वे अशुभ गतिको प्राप्त होते है ।। 22 ।। यह मनुष्यशरीर मोक्ष और स्वर्गका द्वार है, इसको पाकर भी ऐसा कौन बुद्धिमान् मनुष्य है जो अन धाम धनके चक्करमें फँसा रहे ।। 23 ।। जो मनुष्य देवता, ऋषि, पितर, प्राणी, जाति-भाई, कुटुम्बी और धनके दूसरे भागीदारोंको उनका भाग देकर सन्तुष्ट नहीं रखता और न स्वयं ही उसका उपभोग करता है, वह यक्षके समान धनकी रखवाली करनेवाला कृपण तो अवश्य हो अधोगतिको प्राप्त होता है ।। 24 ।। मैं अपने कर्तव्यसे च्युत हो गया हूँ। मैंने प्रमादमे अपनी आयु, धन और बल-पौरुष खो दिये। विवेकीलोग जिन साधनोंसे मोक्षतक प्राप्त कर लेते हैं, उन्हींको मैंने धन इकट्ठा करनेकी व्यर्थ चेष्टामें खो दिया। अब बुढ़ापे में कौन-सा साधन ॥ 25 मुझे मालूम नहीं होता कि बड़े-बड़े विद्वान् भी धनको व्यर्थ तृष्णासे निरन्तर क्यों दुःखी रहते हैं ? हो न हो, अवश्य ही यह संसार किसीकी मायासे अत्यन्त मोहित हो रहा है ।। 26 ।।यह मनुष्य-शरीर कालके विकराल गाल में पड़ा हुआ है। इसको धनसे, धन देनेवाले देवताओं और लोगों, भोगवासनाओं और उनको पूर्ण करनेवालोंसे तथा पुनः-पुनः जन्म-मृत्युके चक्करमें डालनेवाले सकाम कर्मोंसे लाभ ही क्या है ? ।। 27 ।।

इसमें सन्देह नहीं कि सर्वदेवस्वरूप भगवान् मुझपर प्रसन्न हैं। तभी तो उन्होंने मुझे इस दशामें पहुँचाया है और मुझे जगत्के प्रति यह दुःख-बुद्धि और वैराग्य दिया है। वस्तुतः वैराग्य ही इस संसार सागरसे पार होनेके लिये नौका के समान है।। 28 ।। मैं अब ऐसी अवस्थामें पहुँच गया हूँ। यदि मेरी आयु शेष हो तो मैं आत्मलाभमें ही सन्तुष्ट रहकर अपने परमार्थके सम्बन्धमें सावधान हो जाऊंगा और अब जो समय बच रहा है, उसमें अपने शरीरको तपस्याके | द्वारा सुखा डालूँगा ॥ 29 ॥ तीनों लोकोंके स्वामी देवगण मेरे इस सङ्कल्पका अनुमोदन करें। अभी निराश होने की कोई बात नहीं है, क्योंकि राजा खट्वाङ्गने तो दो घड़ीमें ही प्राप्ति कर ली थी ॥ 30 ॥

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-उद्धवजी उस उज्जैननिवासी ब्राह्मणने मन ही मन इस प्रकार निश्चय करके ‘मैं’ और ‘मेरे’ पनकी गाँठ खोल दी। इसके बाद वह शान्त होकर मौनी संन्यासी हो गया ॥ 31 ॥ अब उसके चित्तमें किसी भी स्थान, वस्तु या व्यक्तिके प्रति आसक्ति न रही। उसने अपने मन, इन्द्रिय और प्राणोंको वशमें कर लिया। वह पृथ्वीपर स्वच्छन्दरूपसे विचरने लगा। वह भिक्षाके लिये नगर और गाँवोंमें जाता अवश्य था, परन्तु इस प्रकार जाता था कि कोई उसे पहचान न पाता था ।। 32 ।। उद्धवजी ! वह भिक्षुक अवधूत बहुत बूढ़ा हो गया था दुष्ट उसे देखते ही टूट पड़ते और तरह-तरहसे उसका तिरस्कार करके उसे तंग करते ।। 33 ।। कोई उसका दण्ड छीन लेता, तो कोई भिक्षापात्र ही झटक ले जाता। कोई कमण्डलु उठा ले जाता तो कोई आसन, रुद्राक्षमाला और कन्था ही लेकर भाग जाता। कोई तो उसकी लँगोटी और वस्त्रको ही इधर-उधर डाल देते ।। 34 ।। कोई-कोई वे वस्तुएं देकर और कोई दिखला दिखलाकर फिर छीन लेते। जब वह अवधृत मधुकरी माँगकर लाता और बाहर नदी तटपर भोजन करने बैठता, तो पापीलोग कभी उसके सिरपर मूत देते, तो कभी थूक देते। वे लोग उस मौनी अवधूतको तरह-तरहसे बोलनेके लिये विवश करते और जब वह इसपर भी न बोलता तो उसे पीटते ।। 35-36 ।।कोई उसे चोर कहकर डाँटने-डपटने लगता। कोई कहता ‘इसे बाँध लो बाँध लो’ और फिर उसे रस्सीसे बांधने लगते ॥ 37 ॥ कोई उसका तिरस्कार करके इस प्रकार ताना कसते कि ‘देखो-देखो, अब इस कृपणने धर्मका ढोंग रचा है। धन-सम्पत्ति जाती रही, स्त्री-पुत्रोंने घरसे निकाल दिया; तब इसने भीख माँगनेका रोजगार लिया है।। 38 ।। ओहो ! | देखो तो सही, यह मोटा-तगड़ा भिखारी धैर्यमें बड़े भारी पर्वतके समान है। यह मौन रहकर अपना काम बनाना चाहता है। सचमुच यह बगुलेसे भी बढ़कर ढोंगी और ढ़नी है ।। 39 ।। कोई उस अवधूतकी हँसी उड़ाता, तो कोई उसपर अधोवायु छोड़ता। जैसे लोग तोता-मैना आदि पालतू पक्षियोंको बाँध लेते या पिंजड़ेमें बंद कर लेते हैं, वैसे हो उसे भी वे लोग बाँध देते और परोंमें बंद कर देते ॥ 40 ॥ किन्तु वह सब कुछ चुपचाप सह लेता। उसे कभी ज्वर आदिके कारण दैहिक पीड़ा सहनी पड़ती, कभी गरमी सर्दी आदिसे देवी कष्ट उठाना पड़ता और कभी दुर्जन लोग अपमान आदिके द्वारा उसे भौतिक पीड़ा पहुँचाते; | परन्तु भिक्षुकके मनमें इससे कोई विकार न होता। वह समझता कि यह सब मेरे पूर्वजन्मके कर्मोंका फल है और इसे मुझे अवश्य भोगना पड़ेगा 41 यद्यपि नीच मनुष्य तरह- तरहके तिरस्कार करके उसे उसके धर्मसे गिरानेकी चेष्टा किया करते, फिर भी वह बड़ी दृढ़तासे अपने धर्ममें स्थिर रहता और सात्विक धैर्यका आश्रय लेकर कभी-कभी ऐसे उद्गार प्रकट किया करता ॥ 42 ॥

ब्राह्मण कहता – मेरे सुख अथवा दुःखका कारण न ये मनुष्य हैं, न देवता हैं, न शरीर है और न ग्रह, कर्म एवं काल आदि ही हैं। श्रुतियाँ और महात्माजन मनको ही इसका परम कारण बताते हैं और मन ही इस सारे संसार-चक्रको चला रहा है ।। 43 ।। सचमुच यह मन बहुत बलवान् है । इसीने विषयों, उनके कारण गुणों और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली वृत्तियोंकी सृष्टि की है। उन वृत्तियों के अनुसार ही सात्विक, राजस और तामस अनेकों प्रकारके कर्म होते हैं और कर्मोंक अनुसार ही जीवको विविध गतियाँ होती हैं ।। 44 ।। मन ही समस्त चेष्टाएँ करता है। उसके साथ रहनेपर भी आत्मा निष्क्रिय ही है। वह ज्ञानशक्तिप्रधान है, मुझ जीवा सनातनखा है और अपने अलुम ज्ञानसे सब कुछ देखता रहता है। मनके द्वारा ही उसकी अभिव्यक्ति होती है। जब वह मनको स्वीकार करके उसके द्वारा विषयोंका भोक्ता बन बैठता है, तब कमकि साथ आसक्ति होनेके कारण वह उनसे बँध जाता है ।। 45 ।।दान, अपने धर्मका पालन, नियम, यम, वेदाध्ययन, सत्कर्म और ब्रह्मचर्यादि श्रेष्ठ व्रत- इन सबका अन्तिम फल यही है कि मन एकाग्र हो जाय, भगवान्‌में लग जाय। मनका समाहित हो जाना ही परम योग है ॥ 46 ॥ जिसका मन शान्त और समाहित है, उसे दान आदि समस्त सत्कर्मों का फल प्राप्त हो चुका है। अब उनसे कुछ लेना बाकी नहीं है और जिसका मन चञ्चल है अथवा 1 आलस्यसे अभिभूत हो रहा है, उसको इन दानादि शुभकमोंसे अबतक कोई लाभ नहीं हुआ ॥ 47 ॥ सभी इन्द्रियाँ मनके वशमें हैं। मन किसी भी इन्द्रियके वशमें नहीं है। यह मन बलवान्से भी बलवान्, अत्यन्त भयङ्कर | देव है। जो इसको अपने वशमें कर लेता है, वही देव देव-इन्द्रियोंका विजेता है ॥ 48 ॥ सचमुच मन बहुत बड़ा शत्रु है। इसका आक्रमण असह्य है। यह बाहरी शरीरको ही नहीं, हृदयादि मर्मस्थानों को भी बेचता रहता है। इसे जीतना बहुत ही कठिन है। मनुष्योंको चाहिये कि सबसे पहले इसी शत्रुपर विजय प्राप्त करे; परन्तु होता है। | यह कि मूर्ख लोग इसे तो जीतनेका प्रयत्न करते नहीं, दूसरे मनुष्योंसे झूठमूठ झगड़ा बखेड़ा करते रहते हैं और इस जगत् के लोगोंको ही मित्र-शत्रु-उदासीन बना लेते हैं ।। 49 ।। साधारणतः मनुष्योंकी बुद्धि अंधी हो रही है। तभी तो वे इस मनः कल्पित शरीरको ‘मैं’ और ‘मेरा’ मान बैठते हैं और फिर इस भ्रमके फंदे में फँस जाते है कि ‘यह मैं हूँ और यह दूसरा ।’ इसका परिणाम यह होता है कि वे इस अनन्त अज्ञानान्धकारमें ही भटकते रहते हैं ॥ 50 ॥

यदि मान लें कि मनुष्य ही सुख-दुःखका कारण है, तो भी उनसे आत्माका क्या सम्बन्ध ? क्योंकि सुख-दुःख पहुँचानेवाला भी मिट्टीका शरीर है और भोगनेवाला भी। कभी भोजन आदिके समय यदि अपने दाँतोंसे ही अपनी जीभ कट जाय और उससे पीड़ा होने लगे, तो मनुष्य किसपर क्रोध करेगा ? ॥ 51 ॥ यदि ऐसा मान लें कि | देवता ही दुःखके कारण हैं, तो भी इस दुःखसे आत्माकी क्या हानि ? क्योंकि यदि दुःखके कारण देवता है, तो इन्द्रियाभिमानी देवताओंके रूपमें उनके भोक्ता भी तो ये ही है और देवता सभी शरीरोंमें एक है; जो देवता एक | शरीरमें है; वे ही दूसरेमें भी हैं ऐसी दशामें यदि अपने 1 ही शरीरके किसी एक अङ्गसे दूसरे अङ्गको चोट लग जाय तो भला किसपर क्रोध किया जायगा ? ।। 52 ।।यदि ऐसा मानें कि आत्मा ही सुख-दुःखका कारण है तो वह तो अपना आप ही है, कोई दूसरा नहीं क्योंकि आत्मासे भिन्न कुछ और है ही नहीं यदि दूसरा कुछ प्रतीत होता है, तो वह मिथ्या है। इसलिये न सुख है, न दुःख; फिर क्रोध कैसा ? क्रोधका निमित्त ही क्या ? 53 ॥ यदि ग्रहको सुख दुःखका निमित्त मानें, तो उनसे भी अजन्मा आत्माकी क्या हानि ? उनका प्रभाव भी जन्म-मृत्युशील शरीरपर ही होता है। ग्रहोंकी पीड़ा तो उनका प्रभाव ग्रहण करनेवाले शरीरको ही होती है और आत्मा उन ग्रहों और शरीरोंसे सर्वथा परे है। तब भला वह किसपर क्रोध करे ? ॥ 54 ॥ यदि कमको ही सुख-दुःखका कारण मानें, तो उनसे आत्माका क्या प्रयोजन? क्योंकि वे तो एक पदार्थके जड़ और चेतन उभयरूप होनेपर ही हो सकते हैं। (जो वस्तु विकारयुक्त और अपना हिताहित जाननेवाली होती है, उसीसे कर्म हो सकते है; अतः वह विकारयुक्त होनेके कारण जड होनी चाहिये और हिताहितका ज्ञान रखनेके कारण चेतन) किन्तु देह तो अचेतन है और उसमें पक्षीरूपसे रहनेवाला आत्मा सर्वथा निर्विकार और साक्षीमात्र है। इस प्रकार कर्मोंका तो कोई आधार ही सिद्ध नहीं होता। फिर क्रोध किसपर करें ? ॥ 55 ॥ यदि ऐसा मानें कि काल ही सुख-दुःखका कारण है, तो आत्मापर उसका क्या प्रभाव ? क्योंकि काल तो आत्मस्वरूप ही है। जैसे आग आगको नहीं जला सकती और बर्फ बर्फको नहीं गला सकता, वैसे ही आत्मस्वरूप काल अपने आत्माको ही सुख-दुःख नहीं पहुँचा सकता। फिर किसपर क्रोध किया जाय ? आत्मा शीत-उष्ण, सुख दुःख आदि द्वन्द्वोंसे सर्वथा अतीत है ॥ 56 ॥ आत्मा प्रकृतिके स्वरूप, धर्म, कार्य, लेश, सम्बन्ध और गन्धसे भी रहित है। उसे कभी कहीं किसीके द्वारा किसी भी प्रकारसे द्वन्द्वका स्पर्श ही नहीं होता। वह तो जन्म-मृत्युके चक्रमें भटकनेवाले अहङ्कारको ही होता है। जो इस बातको जान लेता है, वह फिर किसी भी भयके निमित्तसे भयभीत नहीं होता 57 ॥ बड़े-बड़े प्राचीन ऋषि-मुनियोंने इस परमात्मनिष्ठाका आश्रय ग्रहण किया है। मैं भी इसीका आश्रय ग्रहण करूंगा और मुक्ति तथा प्रेमके दाता भगवान्के चरणकमलोंकी सेवाके द्वारा ही इस दुरन्त अज्ञानसागरको अनायास ही पार कर लूँगा ।। 58 ।।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-उद्धवजी उस ब्राह्मणका धन क्या नष्ट हुआ, उसका सारा क्लेश ही दूर हो गया। अब वह संसारसे विरक्त हो गया था और संन्यास लेकर पृथ्वीमें स्वच्छन्द विचर रहा था। यद्यपि दुष्टोंने उसे बहुत सताया, फिर भी वह अपने धर्ममे अटल रहा, तनिक भी विचलित न हुआ। उस समय वह मौनी अवधूत मन-ही-मन इस प्रकारका गीत गाया करता था ॥ 59 ॥उद्धवजी ! इस संसारमें मनुष्यको कोई दूसरा सुख या दुःख नहीं देता, यह तो उसके चित्तका भ्रममात्र है। यह सारा संसार और इसके भीतर मित्र, उदासीन और शत्रुके भेद अज्ञानकल्पित हैं ॥ 60 ॥ इसलिये प्यारे उद्धव ! अपनी वृत्तियोंको मुझमें तन्मय कर दो और इस प्रकार अपनी सारी शक्ति लगाकर मनको वशमें कर लो और फिर मुझमें ही नित्ययुक्त होकर स्थित हो जाओ। बस, सारे योगसाधनका इतना ही सार-संग्रह है ॥ 61 ॥ यह भिक्षुकका गीत क्या है, मूर्तिमान् ब्रह्मज्ञान-निष्ठा ही है। जो पुरुष एकाग्रचित्तसे इसे सुनता, सुनाता और धारण करता है वह कभी सुख दुःखादि द्वन्द्वोंके वशमें नहीं होता। उनके बीचमें भी वह | सिंहके समान दहाड़ता रहता है ॥ 62 ॥

अध्याय 24 सांख्ययोग

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-प्यारे उद्भव ! अब मैं तुम्हें सांख्यशास्त्रका निर्णय सुनाता हूँ। प्राचीन कालके बड़े-बड़े ऋषि-मुनियोंने इसका निश्चय किया है। जब जीव इसे भलीभाँति समझ लेता है, तो वह भेदबुद्धिमूलक सुख-दुःखादिरूप भ्रमका तत्काल त्याग कर देता है ॥ 1 ॥ युगोंसे पूर्व प्रलयकालमें आदिसत्ययुगमें और जब कभी मनुष्य विवेकनिपुण होते हैं—इन सभी अवस्थाओंमें यह सम्पूर्ण दृश्य और द्रष्टा, जगत् और जीव विकल्पशून्य किसी प्रकारके भेदभावसे रहित केवल ब्रह्म ही होते हैं ॥ 2 ॥ इसमें सन्देह नहीं कि ब्रह्ममें किसी प्रकारका विकल्प नहीं है, वह केवल — अद्वितीय सत्य है; मन और वाणीकी उसमें गति नहीं है। वह ब्रह्म ही माया और उसमें प्रतिबिम्बित जीवके रूपमें— दृश्य और द्रष्टाके रूपमें दो भागोंमें विभक्त-सा हो गया ॥ 3 ॥ उनमेंसे एक वस्तुको प्रकृति कहते हैं। उसीने जगत्‌में कार्य और कारणका रूप धारण किया है। दूसरी वस्तुको, जो ज्ञानस्वरूप है, पुरुष कहते हैं ॥ 4 ॥ उद्धवजी! मैंने ही जीवोंके शुभ-अशुभ कर्मो के अनुसार प्रकृतिको क्षुब्ध किया। तब उससे सत्त्व, रज और तम ये तीन गुण प्रकट हुए ॥ 5 ॥उनसे क्रिया शक्तिप्रधान सूत्र और ज्ञानशक्तिप्रधान महत्तत्त्व प्रकट हुए। वे दोनों परस्पर मिले हुए ही हैं। महत्तत्त्वमें विकार होनेपर अहङ्कार व्यक्त हुआ । यह अहङ्कार ही जीवोंको मोहमें डालनेवाला है ॥ 6 ॥ वह तीन प्रकारका है— सात्त्विक, राजस और तामस अहङ्कार पञ्चतन्मात्रा, इन्द्रिय और मनका कारण है; इसलिये वह जड-चेतन उभयात्मक है ॥ 7 ॥ तामस अहङ्कारसे पञ्चतन्मात्राएँ और उनसे पांच भूतोकी उत्पत्ति हुई तथा राजस अहङ्कारसे इन्द्रियाँ और सात्विक अहङ्कारसे इन्द्रियोंके अधिष्ठाता ग्यारह देवता * प्रकट हुए ॥ 8 ॥ ये सभी पदार्थ मेरी प्रेरणासे एकत्र होकर परस्पर मिल गये और इन्होंने यह ब्रह्माण्डरूप अण्ड उत्पन्न किया। यह अण्ड मेरा उत्तम निवासस्थान है ।। 9 ।। जब वह अण्ड जलमें स्थित हो गया, तब मैं नारायणरूपसे इसमें विराजमान हो गया। मेरी नाभिसे विश्वकमलको उत्पत्ति हुई। उसपर ब्रह्माका आविर्भाव हुआ ॥ 10 ॥ विश्वसमष्टिके अन्तःकरण ब्रह्माने पहले बहुत बड़ी तपस्या की। उसके बाद मेरा कृपा प्रसाद प्राप्त करके रजोगुणके द्वारा भूः भुवः स्वः अर्थात् पृथ्वी अन्तरिक्ष और स्वर्ग-इन तीन लोकोंकी और इनके लोकपालोंकी रचना की ।। 11 ।। देवताओंके निवासके लिये स्वर्लोक, भूत-प्रेतादिके लिये भुवर्लोक (अन्तरिक्ष) और मनुष्य आदिके लिये भूलोक (पृथ्वीलोक) का निश्चय किया गया। इन तीनों लोकोंसे ऊपर महर्लोक, तपलोक आदि सिद्धों के निवासस्थान हुए । 12 ॥ सृष्टिकार्यमें समर्थ ब्रह्माजीने असुर और नागोंके लिये पृथ्वीके नीचे अतल, वितल, सुतल आदि सात पाताल बनाये। इन्हीं तीनों लोकोंमें त्रिगुणात्मक कमौके अनुसार विविध गतियाँ प्राप्त होती हैं ॥ 13 ॥ योग, तपस्या और संन्यासके द्वारा महलोंक, जनलोक, तपलोक और सत्यलोकरूप उत्तम गति प्राप्त होती है तथा भक्तियोगसे मेरा परम धाम मिलता। है || 14 | यह सारा जगत् कर्म और उनके संस्कारोंसे युक्त है। मैं ही कालरूपसे कर्मोंक अनुसार उनके फलका विधान करता हूँ। इस गुणप्रवाहमें पड़कर जीव कभी डूब जाता है और कभी ऊपर आ जाता है—कभी उसकी अधोगति होती है और कभी उसे पुण्यवश उच्चगति प्राप्त हो जाती है ।। 15 ।। जगत्में छोटे-बड़े, मोटे-पतले- जितने भी पदार्थ बनते हैं, सब प्रकृति और पुरुष दोनोंके संयोग ही सिद्ध होते है ।। 16 ।।जिसके आदि और अन्तमें जो है, वही बीचमें भी है और वहीं सत्य है। विकार तो केवल व्यवहारके लिये की कल्पनामात्र है। जैसे कंगन-कुण्डल आदि सोनेके विकार और पड़े सकोरे आदि मिट्टीके विकार पहले सोना या मिट्टी ही थे, बादमें भी सोना या मिट्टी ही रहेंगे। अतः बीचमें भी वे सोना या मिट्टी ही हैं। पूर्ववर्ती कारण (महत्तत्त्व आदि) भी जिस परम कारणको उपादान बनाकर अपर ( अहंकार आदि) कार्य वर्गको सृष्टि करते हैं, वही उनकी अपेक्षा भी | परम सत्य है। तात्पर्य यह कि जब जो जिस किसी भी कार्यक आदि और अन्तमें विद्यमान रहता है, वही सत्य है ॥ 17-18 ॥ इस प्रपञ्चका उपादान कारण प्रकृति है, परमात्मा अधिष्ठान है और इसको प्रकट करनेवाला काल है। व्यवहार-कालकी यह त्रिविधता वस्तुतः ब्रह्म-स्वरूप है और मैं वही शुद्ध ब्रह्म हूँ ॥ 19 ॥ जबतक परमात्माकी ईक्षणशक्ति अपना काम करती रहती है, जबतक उनकी पालन- प्रवृत्ति बनी रहती है, तबतक जीवोंके कर्मभोगके लिये कारण-कार्यरूपसे अथवा पिता-पुत्रादिके रूपसे यह सृष्टिचक्र निरन्तर चलता रहता है ॥ 20 ॥

यह विराट् ही विविध लोकोंकी सृष्टि, स्थिति और संहारको लीलाभूमि है। जब मैं कालरूपसे इसमें व्याप्त होता हूँ, प्रलयका संकल्प करता हूँ, तब यह भुवनोंके साथ विनाशरूप विभागके योग्य हो जाता है ।। 21 ।। उसके लीन होनेकी प्रक्रिया यह है कि प्राणियोंके शरीर अनमें, अन बीजमें, बीज भूमिमें और भूमि गन्ध तन्मात्रामें लीन हो जाती है ।। 22 ।। गन्ध जलमें, जल अपने गुण रसमें, रस तेजमें और तेज रूपमें लीन हो जाता है ॥ 23 ॥ रूप वायुमें, वायु स्पर्शम, स्पर्श आकाशमें तथा आकाश शब्दतमात्रामें लीन हो जाता है। इन्द्रियाँ अपने कारण देवताओंगे और अन्ततः 1 | राजस अहङ्कारमें समा जाती हैं ॥ 24 ॥ हे सौम्य ! राजस अहङ्कार अपने नियन्ता सात्त्विक अहङ्काररूप मनमें, शब्दतन्मात्रा पञ्चभूतोंके कारण तामस अहङ्कारमें और सारे जगत्‌को मोहित करने में समर्थ त्रिविध अहङ्कार महत्तत्त्वमें | लीन हो जाता है ।। 25 ।। ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्तिप्रधान महत्तत्त्व अपने कारण गुणोंमें लीन हो जाता है। गुण अव्यक्त प्रकृतिमें और प्रकृति अपने प्रेरक अविनाशी कालमें लीन हो जाती है ।। 26 ।। काल मायामय जीवमें और जीव मुझ अजन्मा आत्मामें लीन हो जाता है। आत्मा किसीमें लीन नहीं होता, वह उपाधिरहित अपने स्वरूपमें ही स्थित रहता है। वह जगत्को सृष्टि और लयका अधिष्ठान एवं अवधि है ॥ 27 ॥उद्धवजी ! जो इस प्रकार विवेकदृष्टिसे देखता है, उसके चित्तमें यह प्रपञ्चका भ्रम हो ही नहीं सकता। यदि कदाचित् उसकी स्फूर्ति हो भी जाय तो वह अधिक कालतक हृदयमें ठहर कैसे सकता है ? क्या सूर्योदय होनेपर भी आकाशमें अन्धकार ठहर सकता है ॥ 28 ॥ उद्धवजी ! मैं कार्य और कारण दोनोंका ही साक्षी हूँ। मैंने तुम्हें सृष्टिसे प्रलय और प्रलयसे सृष्टितककी सांख्यविधि बतला दी। इससे सन्देहकी गाँठ कट जाती है और पुरुष अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है ॥ 29 ॥

अध्याय 25 तीनों गुणोंकी वृत्तियोंका निरूपण

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं— पुरुषप्रवर उद्धवजी ! प्रत्येक व्यक्तिमें अलग-अलग गुणोंका प्रकाश होता है। उनके कारण प्राणियोंके स्वभावमें भी भेद हो जाता है। अब मैं बतलाता हूँ कि किस गुणसे कैसा कैसा स्वभाव बनता है। तुम सावधानीसे सुनो ॥ 1 ॥ सत्त्वगुणकी वृत्तियाँ हैं— शम (मनः संयम), दम (इन्द्रियनिग्रह), तितिक्षा (सहिष्णुता), विवेक, तप, सत्य, दया, स्मृति, सन्तोष, त्याग, विषयोंके प्रति अनिच्छा, श्रद्धा, लज्जा (पाप करनेमें स्वाभाविक सङ्कोच), आत्मरति, दान, विनय और सरलता आदि ॥ 2 ॥ रजोगुणकी वृत्तियाँ हैं— इच्छा, प्रयत्न, घमंड, तृष्णा (असन्तोष), ऐंठ या अकड़, देवताओंसे धन आदिकी याचना, भेदबुद्धि, विषयभोग, युद्धादिके लिये मदजनित उत्साह, अपने यशमें प्रेम, हास्य, पराक्रम और हठपूर्वक उद्योग करना आदि ॥ 3 ॥ तमोगुणकी वृत्तियाँ हैं— क्रोध (असहिष्णुता), लोभ, मिथ्याभाषण, हिंसा, याचना, पाखण्ड, श्रम, कलह, शोक, मोह, विषाद, दीनता, निद्रा, आशा, भय और अकर्मण्यता आदि ॥ 4 ॥ इस प्रकार क्रमसे सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी अधिकांश वृत्तियोंका पृथक्-पृथक् वर्णन किया गया। अब उनके मेलसे होनेवाली वृत्तियोंका वर्णन सुनो ॥ 5 ॥ उद्धवजी ! ‘मैं हूँ और यह मेरा है’ इस प्रकारकी बुद्धिमें तीनों गुणोंका मिश्रण है। जिन मन, शब्दादि विषय, इन्द्रिय और प्राणोंके कारण पूर्वोक्त वृत्तियोंका उदय होता है, वे सब-के-सब सात्त्विक,राजस और तामस हैं ॥ 6 ॥ जब मनुष्य धर्म, अर्थ और काममें संलग्न रहता है, तब उसे सत्त्वगुणसे श्रद्धा, रजोगुणसे रति और तमोगुणसे धनकी प्राप्ति होती है। यह भी गुणोंका मिश्रण ही है ॥ 7 ॥ जिस समय मनुष्य सकाम कर्म, गृहस्थाश्रम और स्वधर्माचरणमें अधिक प्रीति रखता है, उस समय भी उसमें तीनों गुणोंका मेल ही समझना चाहिये ॥ 8 ॥

मानसिक शान्ति और जितेन्द्रियता आदि गुणोंसे सत्त्वगुणी पुरुषकी, कामना आदिसे रजोगुणी पुरुषकी और क्रोध-हिंसा आदिसे तमोगुणी पुरुषकी पहचान करे ॥ 9 ॥ पुरुष हो, चाहे स्त्री- जब वह निष्काम होकर अपने नित्य नैमित्तिक कर्मोद्वारा मेरी आराधना करे, तब उसे सत्त्वगुणी जानना चाहिये ॥ 10 ॥ सकामभावसे अपने कर्मोक द्वारा मेरा भजन-पूजन करनेवाला रजोगुणी है और जो अपने शत्रुकी मृत्यु आदिके लिये मेरा भजन-पूजन करे, उसे तमोगुणी समझना चाहिये ॥ 11 ॥ सत्त्व, रज और तम — इन तीनों गुणोंका कारण जीवका चित्त है। उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। इन्हीं गुणोंके द्वारा जीव शरीर अथवा धन आदिमें आसक्त होकर बन्धनमें पड़ जाता है ॥ 12 ॥ सत्त्वगुण प्रकाशक, निर्मल और शान्त है। जिस समय वह रजोगुण और तमोगुणको दबाकर बढ़ता है, उस समय पुरुष सुख, धर्म और ज्ञान आदिका भाजन हो जाता है ॥ 13 ॥ रजोगुण भेदबुद्धिका कारण है। उसका स्वभाव है आसक्ति और प्रवृत्ति। जिस समय तमोगुण और सत्त्वगुणको दबाकर रजोगुण बढ़ता है, उस समय मनुष्य दुःख, कर्म, यश और लक्ष्मीसे सम्पन्न होता है ॥ 14 ॥ तमोगुणका स्वरूप है अज्ञान। उसका स्वभाव है आलस्य और बुद्धिकी मूढ़ता। जब वह बढ़कर सत्त्वगुण और रजोगुणको दबा लेता है, तब प्राणी तरह-तरहकी आशाएँ करता है, शोक मोहमें पड़ जाता है, हिंसा करने लगता है अथवा निद्रा आलस्यके वशीभूत होकर पड़ रहता है ॥ 15 ॥ जब चित्त प्रसन्न हो, इन्द्रियाँ शान्त हों, देह निर्भय हो और मनमें आसक्ति न हो, तब सत्त्वगुणकी वृद्धि समझनी चाहिये। सत्त्वगुण मेरी प्राप्तिका साधन है ।। 16 ।। जब काम करते-करते जीवकी बुद्धि चञ्चल, ज्ञानेन्द्रियाँ असन्तुष्ट, कर्मेन्द्रियाँ विकारयुक्त, मन भ्रान्त और शरीर अस्वस्थ हो जाय, तब समझना चाहिये कि रजोगुण जोर | पकड़ रहा है ।। 17 ।।जब चित्त ज्ञानेन्द्रियोंके द्वारा शब्दादि विषयोंको ठीक-ठीक समझनेमें असमर्थ हो जाय और खिन्न होकर लीन होने लगे, मन सूना-सा हो जाय तथा अज्ञान और विषादकी वृद्धि हो, तब समझना चाहिये कि तमोगुण वृद्धिपर है ॥ 18 ॥

उद्धवजी ! सत्त्वगुणके बढ़नेपर देवताओंका, रजोगुणके बढ़ने पर असुरोंका और तमोगुणके बढ़नेपर राक्षसोंका बल बढ़ जाता है। (वृत्तियोंमें भी क्रमशः सत्त्वादि गुणोंकी अधिकता होनेपर देवत्व, असुरत्व और राक्षसत्व प्रधान निवृत्ति, प्रवृत्ति अथवा मोहकी प्रधानता हो जाती है) ।। 19 ।। सत्त्वगुणसे जाग्रत् अवस्था, रजोगुणसे स्वप्रावस्था और तमोगुणसे सुषुप्ति अवस्था होती है। तुरीय इन तीनोंमें एक-सा व्याप्त रहता है। वही शुद्ध और एकरस आत्मा है ॥ 20 ॥ वेदोंके अभ्यासमें तत्पर ब्राह्मण सत्त्वगुणके द्वारा उत्तरोत्तर ऊपरके लोकोंमें जाते हैं। तमोगुणसे जीवोंको वृक्षादिपर्यन्त अधोगति प्राप्त होती है और रजोगुणसे मनुष्य शरीर मिलता है || 21 || जिसकी मृत्यु सत्त्वगुणोंकी वृद्धिके समय होती है, उसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है; जिसकी रजोगुणकी वृद्धिके समय होती है, उसे मनुष्य-लोक मिलता है और जो तमोगुणकी वृद्धिके समय मरता है, उसे नरककी प्राप्ति होती है। परन्तु जो पुरुष त्रिगुणातीत-जीवन्मुक्त हो गये हैं, उन्हें मेरी ही प्राप्ति होती है ।। 22 ।। जब अपने धर्मका आचरण मुझे समर्पित करके अथवा निष्कामभावसे किया जाता है, तब वह सात्त्विक होता है। जिस कर्मके अनुष्ठानमें किसी फलकी कामना रहती है, वह राजसिक होता है और जिस कर्ममें किसीको सताने अथवा दिखाने आदिका भाव रहता है, वह तामसिक होता है 23 ॥ शुद्ध आत्माका ज्ञान सात्त्विक है। उसको कर्ता-भोक्ता समझना राजस ज्ञान है और उसे शरीर समझना तो सर्वथा तामसिक है। इन तीनोंसे विलक्षण मेरे स्वरूपका वास्तविक ज्ञान निर्गुण ज्ञान है 24 ॥ वनमें रहना सात्त्विक निवास है, गाँवमें रहना राजस है और जुआघरमें रहना तामसिक है। इन सबसे बढ़कर मेरे मन्दिरमें रहना निर्गुण निवास है ।। 25 ।। अनासक्तभावसे कर्म करनेवाला सात्त्विक है, रागान्ध होकर कर्म करनेवाला राजसिक है और पूर्वापरविचारसे रहित होकर करनेवाला तामसिक है। इनके अतिरिक्त जो पुरुष केवल मेरी शरणमें रहकर बिना अहङ्कारके कर्म करता है, वह निर्गुण कर्ता है 26 ॥ आत्मज्ञानविषयक श्रद्धा सात्त्विक श्रद्धा है, कर्मविषयक श्रद्धा राजस है और जो श्रद्धा अधर्ममें होती है, वह तामस है तथा मेरी सेवामें जो श्रद्धा है, वह निर्गुण श्रद्धा है ॥ 27 ॥आरोग्यदायक, पवित्र और अनायास प्राप्त भोजन सात्त्विक है। रसनेन्द्रियको रुचिकर और स्वादकी दृष्टिसे युक्त आहार राजस है तथा दुःखदायी और अपवित्र आहार तामस है ॥ 28 ॥ अन्तर्मुखतासे– आत्मचिन्तनसे प्राप्त होनेवाला सुख सात्त्विक है। बहिर्मुखतासे विषयोंसे प्राप्त होनेवाला राजस है तथा अज्ञान और दीनतासे प्राप्त होनेवाला सुख तामस है और जो सुख मुझसे मिलता है, वह तो गुणातीत और अप्राकृत है ।। 29 ।।

उद्धवजी द्रव्य (वस्तु), देश (स्थान), फल, काल, ज्ञान, कर्म, कर्ता, श्रद्धा, अवस्था, देव-मनुष्य तिर्यगादि व-मनुष्य-तिर्यगादि शरीर और निष्ठा- सभी त्रिगुणात्मक हैं ॥ 30 ॥ नररत्न ! पुरुष और प्रकृतिके आश्रित जितने भी भाव है, सभी गुणमय हैं वे चाहे नेत्रादि इन्द्रियोंसे अनुभव किये हुए हों, शास्त्रोंके द्वारा लोक-लोकान्तरोंके सम्बन्धमें सुने गये हों अथवा बुद्धिके द्वारा सोचे-विचारे गये हों ॥ 31 ॥ जीवको जितनी भी योनियाँ अथवा गतियाँ प्राप्त होती हैं, वे सब उनके गुणों और कर्मोंक अनुसार ही होती है। हे सौम्य ! सब के सब गुण चित्तसे ही सम्बन्ध रखते हैं (इसलिये जीव उन्हें अनायास ही जीत सकता है) जो जीव उनपर विजय प्राप्त कर लेता है, वह भक्तियोगके द्वारा मुझमें ही परिनिष्ठित हो जाता है और अन्ततः मेरा वास्तविक स्वरूप, जिसे मोक्ष भी कहते हैं, प्राप्त कर लेता है ॥ 32 ॥ यह मनुष्यशरीर बहुत ही दुर्लभ है इसी शरीरमें तत्त्वज्ञान और उसमें निष्ठारूप विज्ञानकी प्राप्ति सम्भव है; इसलिये इसे पाकर बुद्धिमान् पुरुषोंको गुणोंकी आसक्ति हटाकर मेरा भजन करना चाहिये ॥ 33 ॥ विचारशील पुरुषको चाहिये कि बड़ी सावधानीसे सत्त्वगुणके सेवनसे रजोगुण और तमोगुणको जीत ले, इन्द्रियोंको वशमें कर ले और मेरे स्वरूपको समझकर मेरे भजनमें लग जाय । आसक्तिको लेशमात्र भी न रहने दे 34 योगयुक्तिसे चित्तवृत्तियोंको शान्त करके निरपेक्षताके द्वारा सत्त्वगुणपर भी विजय प्राप्त कर ले। इस प्रकार गुणोंसे मुक्त होकर जीव अपने जीवभावको छोड़ देता है और मुझसे एक हो जाता है ॥ 35 जीव लिङ्गशरीररूप अपनी उपाधि जीवत्व तथा अन्तःकरणमे उदय होनेवाली सत्त्वादि गुणोंकी वृत्तियोंसे मुक्त होकर मुझ ब्रह्मको अनुभूति से एकत्वदर्शनसे पूर्ण हो जाता है और वह फिर बाह्य अथवा आन्तरिक किसी भी विषयमें नहीं जाता ॥ 36 ॥

अध्याय 26 पुरूरवाकी वैराग्योक्ति

भगवान् श्रीकृष्ण कहते है-उद्धवजी! यह मनुष्यशरीर मेरे स्वरूपज्ञानकी प्राप्तिका – मेरी प्राप्तिका मुख्य साधन है। इसे पाकर जो मनुष्य सच्चे प्रेमसे मेरी भक्ति करता है, वह अन्तःकरणमें स्थित मुझ आनन्दस्वरूप परमात्माको प्राप्त हो जाता है ॥ 1 ॥ जीवोंकी सभी योनियाँ, सभी गतियाँ त्रिगुणमयी है। जीवज्ञाननिष्ठा के द्वारा उनसे सदाके लिये मुक्त हो जाता है। सत्त्व-रज आदि गुण जो दीख रहे हैं, वे वास्तविक नहीं हैं, मायामात्र हैं। ज्ञान हो जानेके बाद पुरुष उनके बीचमें रहनेपर भी, उनके द्वारा व्यवहार करनेपर भी उनसे बँधता नहीं। इसका कारण यह है कि उन गुणकी वास्तविक सत्ता ही नहीं है ॥ 2 ॥ साधारण लोगोंको इस बातका ध्यान रखना चाहिये कि जो लोग विषयोंके सेवन और उदरपोषण में ही लगे हुए हैं, उन असत् पुरुषका सङ्ग कभी न करें; क्योंकि उनका अनुगमन करनेवाले पुरुषकी वैसी ही दुर्दशा होती है, जैसे अंधेके सहारे चलनेवाले अंधेकी। उसे तो घोर अन्धकारमें ही भटकना पड़ता है ॥ 3 ॥ उद्धवजी ! पहले तो परम यशस्वी सम्राट् इलानन्दन पुरूरवा उर्वशीके विरहसे अत्यन्त बेसुध हो गया था। पीछे शोक हट जानेपर उसे बड़ा वैराग्य हुआ और तब उसने यह गाथा गायी 4 ॥ राजा पुरूरवा नग्न होकर पागलकी भाँति अपनेको छोड़कर भागती हुई उर्वशीके पीछे अत्यन्त विह्वल होकर दौड़ने लगा और कहने लगा ‘देवि ! निष्ठुर हृदये ! थोड़ी देर ठहर जा, भाग मत’ ॥ 5 ॥ उर्वशीने उनका चित्त आकृष्ट कर लिया था। उन्हें तृप्ति नहीं हुई थी। ये क्षुद्र विषयोंके सेवनमें इतने डूब गये थे कि उन्हें वर्षोंकी रात्रियाँ न जाती मालूम पड़ीं और न तो आतीं ॥ 6 ॥

पुरूरवाने कहा – हाय-हाय भला, मेरी मूढ़ता तो देखो, कामवासना मेरे चित्तको कितना कलुषित कर दिया ! उर्वशीने अपनी बाहुओंसे मेरा ऐसा गला पकड़ा कि मैंने आयुके न जाने कितने वर्ष खो दिये। आह। विस्मृतिकी भी एक सीमा होती है ॥ 7 ॥ हाय-हाय इसने मुझे लूट लिया। सूर्य अस्त हो गया या उदित हुआ-यह भी मैं न जान सका। बड़े खेदकी बात है कि बहुत से वर्षोंके दिन पर-दिन बीतते गये और मुझे मालूमतक न पड़ा ॥ 8 ॥अहो आश्चर्य है। मेरे मनमें इतना मोह बढ़ गया, जिसने 1 नरदेव-शिखामणि चक्रवर्ती सम्राट् मुझ पुरूरवाको भी स्त्रियोंका क्रीडामृग (खिलौना) बना दिया ।। 9 ।। देखो, मैं प्रजाको मर्यादामें रखनेवाला सम्राट हैं। वह मुझे और मेरे राजपाटको तिनकेकी तरह छोड़कर जाने लगी और मैं पागल होकर नंग धडंग रोता-बिलखता उस स्त्रीके पीछे दौड़ पड़ा। हाय हाय यह भी कोई जीवन है ॥ 10 ॥ मैं गयेकी तरह दुलतियाँ सहकर भी स्त्रीके पीछे-पीछे दौड़ता रहा फिर मुझमें प्रभाव, तेज और स्वामित्व भला कैसे रह सकता है ॥ 11 ॥ स्त्रीने जिसका मन चुरा लिया, उसकी विद्या व्यर्थ है। उसे तपस्या, त्याग और शास्त्राभ्याससे भी कोई लाभ नहीं। और इसमें सन्देह नहीं कि उसका एकान्तसेवन और मौन भी निष्फल है ॥ 12 ॥ मुझे अपनी ही हानि लाभका पता नहीं, फिर भी अपने को बहुत बड़ा पण्डित मानता हूँ। मुझे मूर्खको धिक्कार है! हाय! हाय! मैं चक्रवर्ती सम्राट् होकर भी गधे और बैलकी तरह स्त्रीके फंदे में फँस गया ॥ 13 ॥ मै वर्षोंतक उर्वशीके होठोंकी मादक मदिरा पीता रहा, पर मेरी कामवासना तृप्त न हुई। सच है, कहीं आहुतियोंसे अफ्रिकी तृप्ति हुई है ।। 14 ।। उस कुलटाने मेरा चित्त चुरा लिया। आत्माराम जीवन्मुक्तोंके स्वामी इन्द्रियातीत भगवान्‌को छोड़कर और ऐसा कौन है, जो मुझे उसके फंदेसे निकाल सके ॥ 15 ॥ उर्वशीने तो मुझे वैदिक सूक्तके वचनोंद्वारा | यथार्थ बात कहकर समझाया भी था; परन्तु मेरी बुद्धि ऐसी मारी गयी कि मेरे मनका वह भयङ्कर मोह तब भी मिटा नहीं। जब मेरी इन्द्रियाँ ही मेरे हाथके बाहर हो गयीं, तब मैं समझता भी कैसे ।। 16 ।। जो रस्सीके स्वरूपको न जानकर उसमें सर्पकी कल्पना कर रहा है और दुखी हो रहा है, रस्सीने उसका क्या बिगाड़ा है? इसी प्रकार इस उर्वशीने भी हमारा क्या बिगाड़ा ? क्योंकि स्वयं में ही अजितेन्द्रिय होनेके कारण | अपराधी हूँ ।। 17 । कहाँ तो यह मैला-कुचैला, दुर्गन्धसे भरा अपवित्र शरीर और कहाँ सुकुमारता, पवित्रता, सुगन्ध आदि पुण्योचित गुण परन्तु मैने अज्ञानवश अमुन्दरमें सुन्दरका आरोप कर लिया ॥ 18 ॥ यह शरीर माता-पिताका सर्वस्व है अथवा पत्नीकी सम्पत्ति ? यह स्वामीकी मोल ली हुई वस्तु है, आगका ईंधन है अथवा कुत्ते और गीधोंका भोजन ? इसे अपना कहें अथवा सुहृद् सम्बन्धियोंका ? | बहुत सोचने-विचारनेपर भी कोई निश्चय नहीं होता ॥ 19 ॥यह शरीर मल-मूत्रसे भरा हुआ अत्यन्त अपवित्र है। इसका अन्त यही है कि पक्षी खाकर विष्ठा कर दें, इसके सड़ जानेपर इसमें कीड़े पड़ जायँ अथवा जला देनेपर यह राखका ढेर हो जाय। ऐसे शरीरपर लोग लट्टू हो जाते हैं और कहने लगते हैं— ‘अहो इस स्त्रीका मुखेड़ा कितना सुन्दर है ! नाक कितनी सुघड़ है और मन्द मन्द मुसकान कितनी मनोहर है ॥ 20 ॥ यह शरीर त्वचा, मांस, रुधिर, स्नायु, मेदा, मज्जा और हड्डियोंका ढेर और मल-मूत्र तथा पीबसे भरा हुआ है। यदि मनुष्य इसमें रमता है, तो मल-मूत्रके कीड़ोंमें और उसमें अन्तर ही क्या है ॥ 21 ॥ इसलिये अपनी भलाई समझनेवाले विवेकी मनुष्यको चाहिये कि स्त्रियों और स्त्री लम्पट पुरुषोंका सङ्ग न करे। विषय और इन्द्रियोंके संयोगसे ही मनमें विकार होता है; अन्यथा विकारका कोई अवसर ही नहीं है ॥ 22 ॥ जो वस्तु कभी देखी या सुनी नहीं गयी है, उसके लिये मनमें विकार नहीं होता। जो लोग विषयोंके साथ इन्द्रियोंका संयोग नहीं होने देते, उनका मन अपने-आप निश्चल होकर शान्त हो जाता है ॥ 23 ॥ अतः वाणी, कान और मन आदि इन्द्रियोंसे स्त्रियों और स्त्रीलम्पटोंका सङ्ग कभी नहीं करना चाहिये। मेरे-जैसे लोगोंकी तो बात ही क्या, बड़े-बड़े विद्वानोंके लिये भी अपनी इन्द्रियाँ और मन विश्वसनीय नहीं हैं 24 ॥

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- उद्धवजी ! राजराजेश्वर पुरूरवाके मनमें जब इस तरहके उद्गार उठने लगे, तब उसने उर्वशीलोकका परित्याग कर दिया। अब ज्ञानोदय होनेके कारण उसका मोह जाता रहा और उसने अपने हृदयमें ही आत्मस्वरूपसे मेरा साक्षात्कार कर लिया और वह शान्तभावमें स्थित हो गया ॥ 25 ॥ इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि पुरूरवाकी भाँति कुसङ्ग छोड़कर सत्पुरुषोंका सङ्ग करे। संत पुरुष अपने सदुपदेशों से उसके मनकी आसक्ति नष्ट कर देंगे ॥ 26 ॥ संत पुरुषोंका लक्षण यह है कि उन्हें कभी किसी वस्तुकी अपेक्षा नहीं होती। उनका चित्त मुझमें लगा रहता है। उनके हृदयमें शान्तिका अगाध समुद्र लहराता रहता है। वे सदा-सर्वदा सर्वत्र सबमें सब रूपसे स्थित भगवान्का ही दर्शन करते हैं। उनमें अहङ्कारका लेश भी नहीं होता, फिर ममताकी तो सम्भावना ही कहाँ है। वे सर्दी गरमी, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंमें एकरस रहते हैं तथा बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक और पदार्थ सम्बन्धी किसी प्रकारका भी परिग्रह नहीं रखते ॥ 27 ॥ परमभाग्यवान् उद्धवजी। संतोंके सौभाग्यकी महिमा कौन कहे ? उनके पास सदा-सर्वदा मेरी लीला कथाएँ हुआ करती हैं। मेरी कथाएँ मनुष्योंके लिये परमहितकर हैं; जो उनका सेवन करते हैं, उनके सारे पाप तापोंको वे धो डालती हैं ॥ 28 ॥ जो लोग आदर और श्रद्धासे मेरी लीला-कथाओंका श्रवण, गान और अनुमोदन करते हैं, वे मेरे परायण हो जाते हैं और मेरी अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त कर लेते हैं ॥ 29 ॥ उद्धवजी ! मैं अनन्त अचिन्त्य कल्याणमय गुणगणोंका आश्रय हूँ। मेरा स्वरूप है—केवल आनन्द, केवल अनुभव, विशुद्ध आत्मा । मैं साक्षात् परब्रह्म हूँ। जिसे | मेरी भक्ति मिल गयी, वह तो संत हो गया। अब उसे कुछ भी पाना शेष नहीं है ॥ 30 ॥ उनकी तो बात ही क्या जिसने उन संत पुरुषोंकी शरण ग्रहण कर ली उसकी भी कर्मजडता, संसारभय और अज्ञान आदि सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं। भला, जिसने अग्निभगवान्‌का आश्रय ले लिया | उसे शीत, भय अथवा अन्धकारका दुःख हो सकता है ? ॥ 31 ॥ जो इस घोर संसारसागरमें डूब-उतरा रहे हैं, उनके लिये ब्रह्मवेत्ता और शान्त संत ही एकमात्र आश्रय हैं, जैसे जलमें डूब रहे लोगोंके लिये दृढ़ नौका ॥ 32 ॥ जैसे अन्नसे प्राणियोंके प्राणकी रक्षा होती है, जैसे मैं ही दीन-दुखियोंका परम रक्षक हूँ, जैसे मनुष्यके लिये परलोकमें धर्म ही एकमात्र पूँजी है—वैसे ही जो लोग संसारसे भयभीत हैं, उनके लिये संतजन ही परम आश्रय | हैं | 33 || जैसे सूर्य आकाशमें उदय होकर लोगोंको | जगत् तथा अपनेको देखनेके लिये नेत्रदान करता है, वैसे ही संत पुरुष अपनेको तथा भगवान्‌को देखनेके लिये अन्तर्दृष्टि देते हैं। संत अनुग्रहशील देवता हैं। संत अपने हितैषी सुहृद् हैं। संत अपने प्रियतम आत्मा हैं। और अधिक क्या कहूँ, स्वयं मैं ही संतके रूपमें विद्यमान हूँ ।। 34 ।। प्रिय उद्धव ! आत्मसाक्षात्कार होते ही इलानन्दन पुरूरवाको उर्वशीके लोककी स्पृहा न रही। उसकी सारी आसक्तियाँ मिट गयीं और वह आत्माराम होकर स्वच्छन्दरूपसे इस पृथ्वीपर विचरण करने लगा ।। 35 ।।

अध्याय 27 क्रियायोगका वर्णन

उद्धवजीने पूछा- भक्तवत्सल श्रीकृष्ण ! जिस क्रियायोगका आश्रय लेकर जो भक्तजन जिस प्रकारसे जिस उद्देश्यसे आपकी अर्चा-पूजा करते हैं, आप अपने उस आराधनरूप क्रियायोगका वर्णन कीजिये ॥ 1 ॥ देवर्षि नारद भगवान् व्यासदेव और आचार्य बृहस्पति आदि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि यह बात बार-बार कहते हैं कि क्रियायोगके द्वारा आपकी आराधना ही मनुष्योंके परम कल्याणकी साधना है ।। 2 । यह क्रियायोग पहले-पहल आपके मुखारविन्दसे ही निकला था। आपसे ही ग्रहण करके इसे ब्रह्माजीने अपने पुत्र भृगु आदि महर्षियोंको और भगवान् शङ्करने अपनी अर्द्धाङ्गिनी भगवती पार्वतीजीको उपदेश किया था ॥ 3॥ मर्यादारक्षक प्रभो ! यह क्रियायोग ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि वर्णों और ब्रह्मचारी गृहस्थ आदि आश्रमोंके लिये भी परम कल्याणकारी है मैं तो ऐसा समझता हूँ कि स्त्री शूद्रादिके लिये भी यही सबसे श्रेष्ठ साधना पद्धति है ॥ 4 ॥ कमलनयन श्यामसुन्दर! आप शङ्कर आदि जगदीश्वरोंके भी ईश्वर हैं और मैं आपके चरणोंका प्रेमी भक्त हूँ। आप कृपा करके मुझे यह कर्मबन्धनसे मुक्त करनेवाली विधि बतलाइये ॥ 5 ॥

भगवान् श्रीकृष्णने कहा- उद्धवजी ! कर्मकाण्डका इतना विस्तार है कि उसकी कोई सीमा नहीं है; इसलिये मैं उसे थोड़ेमें ही पूर्वापर-क्रमसे विधिपूर्वक वर्णन करता हूँ ।। 6 ।। मेरी पूजाकी तीन विधियाँ हैं—वैदिक, तान्त्रिक और मिश्रित इन तीनोंमेंसे मेरे भक्तको जो भी अपने अनुकूल जान पड़े, उसी विधिसे मेरी आराधना करनी चाहिये 7 पहले अपने अधिकारानुसार शास्त्रोक्त विधिसे समयपर यज्ञोपवीत संस्कारके द्वारा संस्कृत होकर द्विजत्व प्राप्त करे, फिर श्रद्धा और भक्तिके साथ वह किस प्रकार मेरी पूजा करे, इसकी विधि तुम मुझसे सुनी ॥ 8 ॥ भक्तिपूर्वक निष्कपट भावसे अपने पिता एवं गुरुरूप मुझ परमात्माका पूजाकी सामग्रियोंके द्वारा मूर्ति में वेदीमें, अभिनें, सूर्यमें, जलमें, हृदयमे अथवा ब्राह्मणमें—चाहे किसीमें भी आराधना करे ॥ 9 ॥उपासकको चाहिये कि प्रातःकाल दतुअन करके पहले शरीरशुद्धिके लिये स्नान करे और फिर वैदिक और तान्त्रिक दोनों प्रकारके मन्त्रोंसे मिट्टी और भस्म आदिका लेप करके पुनः स्नान करे ॥ 10 ॥ इसके पश्चात् वेदोक्त सन्ध्या वन्दनादि नित्यकर्म करने चाहिये। उसके बाद मेरी आराधनाका ही सुदृढ़ सङ्कल्प करके वैदिक और तान्त्रिक विधियोंसे कर्मबन्धनोंसे छुड़ानेवाली मेरी पूजा करे ॥ 11 ॥ मेरी मूर्ति आठ प्रकारकी होती है—पत्थरकी, लकड़ीकी, धातुकी, मिट्टी और चन्दन आदिकी, चित्रमयी, बालुकामयी, मनोमयी और मणिमयी ॥ 12 ॥ चल और अचल भेदसे दो प्रकारकी प्रतिमा ही मुझ भगवान्का मन्दिर है उद्धवजी अचल प्रतिमाके पूजनमें प्रतिदिन आवाहन और विसर्जन नहीं करना चाहिये ॥ 13 ॥ चल प्रतिमाके सम्बन्धमें विकल्प है। चाहे करे और चाहे न करे। परन्तु वालुकामयी प्रतिमा तो आवाहन और विसर्जन प्रतिदिन करना ही चाहिये। मिट्टी और चन्दनकी तथा चित्रमयी प्रतिमाओंको स्नान न करावे, केवल मार्जन कर दे; परन्तु और सबको स्नान कराना चाहिये ॥ 14 ॥ प्रसिद्ध प्रसिद्ध पदार्थोंसे प्रतिमा आदिमें मेरी पूजा की जाती है, परन्तु जो निष्काम भक्त है, वह अनायास प्राप्त पदार्थोंसे और भावनामात्रसे ही हृदयमें मेरी पूजा कर ले ॥ 15 ॥ उद्धवजी ! स्नान, वस्त्र, आभूषण आदि तो पाषाण अथवा धातुको प्रतिमा के पूजनमें ही उपयोगी हैं। बालुकामयी मूर्ति अथवा मिट्टीकी वेदीमें पूजा करनी हो, तो उसमें मन्त्रो द्वारा अङ्ग और उसके प्रधान देवताओंकी यथास्थान पूजा करनी चाहिये। तथा अग्निमें पूजा करनी हो, तो घृतमिश्रित हवन सामग्रियों से आहुति देनी चाहिये ॥ 16 ॥ सूर्यको प्रतीक मानकर की जानेवाली उपासनामें मुख्यतः अर्घ्यदान एवं उपस्थान ही प्रिय है और जलमें तर्पण आदिसे मेरी उपासना करनी चाहिये। जब मुझे कोई भक्त हार्दिक श्रद्धासे जल भी चढ़ाता है, तब मैं उसे बड़े प्रेमसे स्वीकार करता हूँ ॥ 17 ॥ यदि कोई अभक्त मुझे बहुत-सी सामग्री निवेदन करे, तो भी मैं उससे सन्तुष्ट नहीं होता। जब मैं भक्ति श्रद्धापूर्वक समर्पित जलसे ही प्रसन्न हो जाता हूँ, तब गन्ध पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य आदि वस्तुओंके समर्पणसे तो कहना ही क्या है ll 18 ॥

उपासक पहले पूजाकी सामग्री इकट्ठी कर ले। फिर | इस प्रकार कुश बिछाये कि उनके अगले भाग पूर्वकी ओर रहें। तदनन्तर पूर्व या उत्तरकी ओर मुँह करके पवित्रतासे उन कुशोंके आसनपर बैठ जाय। यदि प्रतिमा अचल होतो उसके सामने ही बैठना चाहिये। इसके बाद पूजाकार्य प्रारम्भ करे ।। 19 ।। पहले विधिपूर्वक अङ्गन्यास और करन्यास कर ले। इसके बाद मूर्तिमें मन्त्रन्यास करे और हाथसे प्रतिमापरसे पूर्वसमर्पित सामग्री हटाकर उसे पोछ दे इसके बाद जलसे भरे हुए कलश और प्रोक्षणपात्र आदिकी पूजा गन्ध-पुष्प आदिसे करे ।। 20 ।। प्रोक्षणपात्रके जलसे पूजासामग्री और अपने शरीरका प्रोक्षण कर ले। तदनन्तर पाद्य, अर्घ्य और आचमनके लिये तीन पात्रोंमें कलशमैसे जल भरकर रख ले और उनमें पूजा-पद्धतिके अनुसार सामग्री डाले (पाद्यपात्रमे श्वामाक सविके दाने, दूब, कमल, विष्णुक्रान्ता और चन्दन, तुलसीदल आदि; अर्घ्यपात्र गन्ध, पुष्प, अक्षत, जो, कुश, तिल, सरसों और दूब तथा आचमनपात्रमें जायफल, लौंग आदि डाले।) इसके बाद पूजा करनेवालेको चाहिये कि तीनों पात्रोंको क्रमशः हृदयमन्त्र, शिरोमन्त्र और शिखामन्त्रसे अभिमन्त्रित करके अन्तमें गायत्रीमन्त्रसे तीनोंको अभिमन्त्रित करे ॥ 21-22 ॥ इसके बाद प्राणायामके द्वारा प्राणवायु और भावनाओंद्वारा शरीरस्थ अधिके शुद्ध हो जानेपर हृदयकमलमें परम सूक्ष्म और श्रेष्ठ दीपशिखाके समान मेरी जीवकलाका ध्यान करें। बड़े-बड़े सिद्ध ऋषि-मुनि ॐकारके अकार, उकार, मकार, बिन्दु और नाद – इन पाँच कलाओंके अन्तमें उसी जीवकलाका ध्यान करते हैं । 23 ॥ वह जीवकला आत्मस्वरूपिणी है। जब उसके तेजसे सारा अन्तःकरण और शरीर भर जाय, तब मानसिक उपचारोंसे मन-ही-मन उसकी पूजा करनी चाहिये। तदनन्तर तन्मय होकर मेरा आवाहन करे और प्रतिमा आदिमें स्थापना करे। फिर मन्त्रोंके द्वारा अङ्गन्यास करके उसमें मेरी पूजा | करे ।। 24 ।। उद्धवजी ! मेरे आसनमें धर्म आदि गुणों और विमला आदि शक्तियोंकी भावना करे। अर्थात् आसनके चारों कोनो धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्यरूप चार पाये हैं; अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और अनैश्वर्यये चार चारों दिशाओंमें डंडे हैं; सत्त्व-रज-तम रूप तीन पटरियोंकी बनी हुई पीठ है; उसपर विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्णी, सत्या, ईशाना और अनुग्रहा—ये नौ शक्तियाँ विराजमान हैं। उस आसनपर एक अष्टदल कमल है, उसकी कर्णिका अत्यन्त प्रकाशमान है और पीली-पीली केसरोकी छटा निराली ही है। आसनके सम्बन्धमें ऐसी भावना करके पाद्य, आचमनीय और अर्घ्य आदि उपचार प्रस्तुत करे। तदनन्तर भोग और मोक्षकी सिद्धिके लिये वैदिक और तान्त्रिक विधिसे मेरी पूजा करे ।। 25-26 ।।सुदर्शनचक्र, पाञ्चजन्य शङ्ख, कौमोदकी गदा, खड्ग, बाण, धनुष, हल, मूसल इन आठ आयुधों की पूजा आठ दिशाओंमें करे और कौस्तुभमणि, वैजयन्तीमाला तथा श्रीवत्सचिह्नकी वक्षःस्थलपर यथास्थान पूजा करे ॥ 27 ॥ नन्द, सुनन्द, प्रचण्ड, चण्ड, महाबल, बल, कुमुद और कुमुदेक्षण इन आठ पार्षदोंकी आठ दिशाओंमें; गरुड़की, सामने; दुर्गा, विनायक, व्यास और विष्वक्सेनकी चारों कोनोंमें स्थापना करके पूजन करे। बायीं ओर गुरुकी और यथाक्रम पूर्वादि दिशाओंमें इन्द्रादि आठ लोकपालोंकी स्थापना करके प्रोक्षण, अर्घ्यदान आदि क्रमसे उनकी पूजा करनी चाहिये ॥ 28-29 ॥

प्रिय उद्धव । यदि सामर्थ्य हो तो प्रतिदिन चन्दन, खस, कपूर, केसर और अरगजा आदि सुगन्धित वस्तुओंद्वारा सुवासित जलसे मुझे स्नान कराये और उस समय ‘सुवर्ण धर्म’ इत्यादि स्वर्णघर्मानुवाक, ‘जितं ते पुण्डरीकाक्ष’ इत्यादि महापुरुषविद्या, ‘सहस्त्रशीर्षा पुरुष:’ इत्यादि पुरुषसूक्त और ‘इन्द्रं नरो नेमधिता हवन्त’ इत्यादि मन्त्रोक्त राजनादि सामगायनका पाठ भी करता रहे ।। 30-31 ॥ मेरा भक्त वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, पत्र, माला, गन्ध और चन्दनादिसे प्रेमपूर्वक यथावत् मेरा शृङ्गार करे ।। 32 ।। उपासक श्रद्धाके साथ मुझे पाद्य, आचमन, चन्दन, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप आदि सामग्रियाँ समर्पित करे ॥ 33 ॥ यदि हो सके तो गुड़, खीर, घृत, पूड़ी, पूए, लड्डू, हलुआ, दही और दाल आदि विविध व्यञ्जनोंका नैवेद्य लगावे || 34 || भगवान्‌के विग्रहको दतुअन कराये, उबटन लगाये, पञ्चामृत आदिसे स्नान कराये, सुगन्धित पदार्थोंका लेप करे, दर्पण दिखाये, भोग लगाये और शक्ति हो तो प्रतिदिन अथवा पर्वोक अवसरपर नाचने-गाने आदिका भी प्रबन्ध करे ॥ 35 ॥

उद्धवजी । तदनन्तर पूजाके बाद शास्त्रोक्त विधिसे बने हुए कुण्डमें अफ्रिकी स्थापना करे। वह कुण्ड मेखला, गर्ल और वेदीसे शोभायमान हो उसमें हाथकी हवासे अनि प्रज्वलित करके उसका परिसमूहन करे, अर्थात् उसे एक कर दे || 36 || वेदीके चारों ओर कुशकण्डिका करके अर्थात् चारों ओर बीस-बीस कुरा बिछाकर मन्त्र पढ़ता हुआ उनपर जल छिड़के। इसके बाद विधिपूर्वक समिधाओंका आधानरूप अन्वाधान कर्म करके अग्निके उत्तर भागमें होमोपयोगी सामग्री रखे और प्रोक्षणीपात्रके जलसे प्रोक्षण करे। तदनन्तर अग्निमें मेरा इस प्रकार ध्यान करे ।। 37 ।।’मेरी मूर्ति तपाये हुए सोनेके समान दम दम दमक रही है। रोम-रोमसे शान्तिकी वर्षा हो रही है। लंबी और विशाल चार भुजाएँ शोभायमान है। उनमें शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म विराजमान है। कमलकी केसरके समान पीला पीला वस्त्र फहरा रहा है ।। 38 ।। सिरपर मुकुट, कलाइयोंमें कंगन, कमरमें करधनी और बाँहोने बाजूबंद झिलमिला रहे हैं। वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न है गलेमें कौस्तुभमणि जगमगा रही है। घुटनोंतक वनमाला लटक रही है ।। 39 ।। अनि मेरी इस मूर्तिका ध्यान करके पूजा करनी चाहिये। इसके बाद सूखी समिधाओंको घृतमें डुबोकर आहुति दे और आन्यभाग और आधार नामक दो-दो आहुतियोंसे और भी हवन करे। तदनन्तर घीसे भिगोकर अन्य हवन-सामग्रियोंसे आहुति दे ॥ 40 ॥ इसके बाद अपने इष्टमन्त्रसे अथवा ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस अष्टाक्षर मन्त्रसे तथा पुरुषसूक्तके सोलह मन्त्रोंसे हवन करे। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि धर्मादि देवताओंके लिये भी विधिपूर्वक मन्त्रोंसे हवन करे और स्विष्टकृत् आहुति भी दे ॥ 41 ll

इस प्रकार अनि अन्तर्यामीरूपसे स्थित भगवान्‌की पूजा करके उन्हें नमस्कार करे और नन्द-सुनन्द आदि पार्षदोंको आठों दिशाओंमें हवनकर्माङ्ग बलि दे। तदनन्तर प्रतिमाके सम्मुख बैठकर परब्रह्मस्वरूप भगवान् नारायणका स्मरण करे और भगवत्स्वरूप मूलमन्त्र ‘ॐ नमो नारायणाय’ का जप करे ।। 42 ।। इसके बाद भगवान्‌को आचमन करावे और उनका प्रसाद विष्वक्सेनको निवेदन करे। इसके पश्चात् अपने इष्टदेवकी सेवा सुगन्धित ताम्बूल आदि मुखवास उपस्थित करे तथा पुष्पाञ्जलि समर्पित करे ॥ 43 मेरी लीलाओको गावे, उनका वर्णन करे और मेरी ही लीलाओंका अभिनय करे। यह सब करते समय प्रेमोन्मत्त होकर नाचने लगे। मेरी लीला-कथाएँ स्वयं सुने और दूसरोंको सुनावे। कुछ समयतक संसार और उसके रगड़ों-झगड़ोंको भूलकर मुझमें ही तन्मय हो जाय ॥ 44 प्राचीन ऋषियोंके द्वारा अथवा प्राकृत भक्तोंके द्वारा बनाये हुए छोटे-बड़े स्तव और स्तोत्रसे मेरी स्तुति करके प्रार्थना करे- ‘भगवन्! आप मुझपर प्रसन्न हों। मुझे अपने कृपाप्रसादसे सराबोर कर दें।’ तदनन्तर दण्डवत् प्रणाम करे ।। 45 ।। अपना सिर मेरे चरणोंपर रख दे और अपने दोनों हाथोंसे दायें से दाहिना और बासे बायाँ चरण पकड़कर कहे- ‘भगवन् ! इस संसार सागरमें मैं डूब रहा हूँ। मृत्युरूप मगर मेरा पीछा कर रहा है। मैं डरकर आपकी शरणमें आया हूँ। प्रभो! आप मेरी रक्षा कीजिये ॥ 46इस प्रकार स्तुति करके मुझे समर्पित की हुई माला आदरके साथ अपने सिरपर रखे और उसे मेरा दिया हुआ प्रसाद समझे। यदि विसर्जन करना हो तो ऐसी भावना करनी चाहिये कि प्रतिमामेंसे एक दिव्य ज्योति निकली है और वह मेरी हृदयस्थ ज्योतिमें लीन हो गयी है। बस, यही विसर्जन है ॥ 47 ॥ उद्धवजी ! प्रतिमा आदिमें जब जहाँ श्रद्धा हो तब, तहाँ मेरी पूजा करनी चाहिये, क्योंकि मैं सर्वात्मा हूँ और समस्त प्राणियों में तथा अपने हृदयमें भी स्थित हूँ ॥ 48 ॥

उद्धवजी ! जो मनुष्य इस प्रकार वैदिक, तान्त्रिक क्रियायोगके द्वारा मेरी पूजा करता है, वह इस लोक और परलोकमें मुझसे अभीष्ट सिद्धि प्राप्त करता है ।। 49 ।। यदि शक्ति हो, तो उपासक सुन्दर और सुदृढ़ मन्दिर बनवाये और उसमें मेरी प्रतिमा स्थापित करे। सुन्दर-सुन्दर फूलोंके | बगीचे लगवा दे; नित्यकी पूजा, पर्वकी यात्रा और बड़े-बड़े | उत्सवोंकी व्यवस्था कर दे ॥ 50 ॥ जो मनुष्य पर्वोंके उत्सव और प्रतिदिनकी पूजा लगातार चलनेके लिये खेत, बाजार, नगर अथवा गाँव मेरे नामपर समर्पित कर देते हैं, उन्हें मेरे समान ऐश्वर्यकी प्राप्ति होती है ॥ 51 ॥ मेरी मूर्तिकी प्रतिष्ठा करनेसे पृथ्वीका एकच्छत्र राज्य, मन्दिर निर्माणसे त्रिलोकीका राज्य, पूजा आदिकी व्यवस्था करनेसे ब्रह्मलोक और तीनोंके द्वारा मेरी समानता प्राप्त होती है ॥ 52 ॥ जो निष्कामभावसे मेरी पूजा करता है, उसे मेरा भक्तियोग प्राप्त हो जाता है और उस निरपेक्ष भक्तियोगके द्वारा वह स्वयं मुझे प्राप्त कर लेता है ॥ 53 ॥ जो अपनी दी हुई या दूसरोंकी दी हुई देवता और ब्राह्मणकी जीविका हरण कर लेता है, वह करोड़ों वर्षोंतक विष्ठाका कीड़ा होता है ॥ 54 ॥ जो लोग ऐसे कामोंमें सहायता, प्रेरणा अथवा अनुमोदन करते हैं, वे भी मरनेके बाद प्राप्त करनेवालेके समान ही फलके भागीदार होते हैं। यदि उनका हाथ अधिक रहा, तो फल भी उन्हें अधिक ही मिलता है ॥ 55 ॥

अध्याय 28 परमार्थनिरूपण

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-उद्धवजी यद्यपि व्यवहारमें पुरुष और प्रकृति द्रष्टा और दृश्यके भेदसे प्रकृति-द्रष्टा दो प्रकारका जगत् जान पड़ता है, तथापि परमार्थ-दृष्टिसे देखनेपर यह सब एक अधिष्ठान स्वरूप ही है; इसलिये किसीके शान्त, घोर और मूढ़ स्वभाव तथा उनके अनुसार कर्मोंकी न स्तुति करनी चाहिये और न निन्दा सर्वदा अद्वैत दृष्टि रखनी चाहिये ॥ 1 जो पुरुष दूसरे के स्वभाव और उनके कर्मोकी प्रशंसा अथवा निन्दा करते हैं, वे शीघ्र ही अपने यथार्थ परमार्थ साधनसे च्युत हो जाते हैं; क्योंकि साधन तो द्वैतके अभिनिवेशका- -उसके प्रति सत्यत्व-बुद्धिका निषेध करता है और प्रशंसा तथा निन्दा | उसकी सत्यताके भ्रमको और भी दृढ़ करती हैं ॥ 2 ॥ उद्धवजी। सभी इन्द्रियाँ राजस अहङ्कारके कार्य हैं। जब वे निद्रित हो जाती हैं, तब शरीरका अभिमानी जीव चेतनाशून्य हो जाता है अर्थात् उसे बाहरी शरीरकी स्मृति नहीं रहती। उस समय यदि मन बच रहा, तब तो वह सपनेके झूठे दृश्योंमें भटकने लगता है और वह भी लीन हो गया, तब तो जीव मृत्युके समान गाढ़ निद्रा —सुषुप्तिमें लीन हो जाता है। वैसे ही जब जीव अपने अद्वितीय आत्मरुपको भूलकर नाना वस्तुओंका दर्शन करने लगता है, तब वह स्वप्रके समान झूठे दृश्योंमें फँस जाता है अथवा मृत्युके समान अज्ञानमें लीन हो जाता है ।। 3 ।। उद्धवजी ! जब द्वैत नामकी कोई वस्तु ही नहीं है, तब उसमें अमुक वस्तु भली है और अमुक बुरी, अथवा इतनी भली और इतनी बुरी है—यह प्रश्न ही नहीं उठ सकता। विश्वकी सभी वस्तुएँ वाणीसे कही जा सकती हैं अथवा मनसे सोची जा सकती हैं; इसलिये दृश्य एवं अनित्य होनेके कारण उनका मिथ्यात्व तो स्पष्ट ही है ।। 4 ।। परछाई, प्रतिध्वनि और सीपी आदिमें चाँदी आदिके आभास यद्यपि हैं तो सर्वथा मिथ्या, परन्तु उनके द्वारा मनुष्यके हृदयमें भय-कम्प आदिका सञ्चार हो जाता है। वैसे ही देहादि सभी वस्तुएँ हैं तो सर्वथा मिथ्या ही, परन्तु जबतक ज्ञानके द्वारा इनकी असत्यताका बोध नहीं हो जाता, इनकी आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं हो जाती, तबतक ये भी अज्ञानियोंको भयभीत करती रहती है।॥5॥उद्धवजी। जो कुछ प्रत्यक्ष या परोक्ष वस्तु है, वह आत्मा ही है। वही सर्वशक्तिमान् भी है जो कुछ विश्व सृष्टि प्रतीत हो रही है, इसका वह निमित्त कारण तो है ही, उपादान-कारण भी है। अर्थात् वही विश्व बनता है और वही बनाता भी है, वही रक्षक है और रक्षित भी वही है। सर्वात्मा भगवान् ही | इसका संहार करते हैं और जिसका संहार होता है, वह भी वे ही है ।। 6 ।। अवश्य ही व्यवहारदृष्टिसे देखनेपर आत्मा इस विश्वसे भिन्न है; परन्तु आत्मदृष्टिसे उसके अतिरिक्त और कोई वस्तु ही नहीं है। उसके अतिरिक्त जो कुछ प्रतीत हो रहा है, उसका किसी भी प्रकार निर्वचन नहीं किया जा सकता और अनिर्वचनीय तो केवल आत्मस्वरूप ही है; इसलिये आत्मामें सृष्टि स्थिति संहार अथवा अध्यात्म, अधिदेव और अधिभूतये तीन-तीन प्रकारकी प्रतीतियाँ सर्वधा निर्मूल ही हैं न होनेपर भी यों ही प्रतीत हो रही है। यह सत्त्व, रज और तमके कारण प्रतीत होनेवाली द्रष्टा दर्शन दृश्य आदिकी त्रिविधता मायाका खेल है ॥ 7 ॥ उद्धवजी ! तुमसे मैंने ज्ञान और विज्ञानकी उत्तम स्थितिका वर्णन किया है। जो पुरुष मेरे इन वचनोंका रहस्य जान लेता है, वह न तो किसीकी प्रशंसा करता है और न निन्दा। वह जगत्में सूर्यके समान समभावसे विचरता रहता है ॥ 8 ॥ प्रत्यक्ष, अनुमान, शास्त्र और आत्मानुभूति आदि सभी प्रमाणोंसे यह सिद्ध है कि यह जगत् उत्पत्ति-विनाशशील होनेके कारण अनित्य एवं असत्य है। यह बात जानकर जगत्मे असङ्गभावसे विचरना चाहिये ॥ 9 ॥

उद्धवजीने पूछा-भगवन् ! आत्मा है द्रष्टा और | देह है दृश्य। आत्मा स्वयंप्रकाश है और देह है जड़। ऐसी स्थिति में जन्म-मृत्युरूप संसार न शरीरको हो सकता है और न आत्माको। परन्तु इसका होना भी उपलब्ध होता है। तब यह होता किसे है ?॥ 10 ॥ आत्मा तो अविनाशी, प्राकृत अप्राकृत गुणोंसे रहित, शुद्ध, स्वयंप्रकाश और सभी प्रकारके आवरणोंसे रहित है तथा शरीर विनाशी, सगुण, अशुद्ध, प्रकाश्य और आवृत है। आत्मा अग्रिके समान प्रकाशमान है, तो शरीर काठकी तरह अचेतन। फिर यह जन्म-मृत्युरूप संसार है किसे ? ।। 11 ।।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा- वस्तुतः प्रिय उद्भव ! संसारका अस्तित्व नहीं है तथापि जबतक देह, इन्द्रिय और प्राणोंके साथ आत्माकी सम्बन्ध-भ्रान्ति है, तबतक अविवेकी पुरुषको वह सत्य-सा स्फुरित होता है ॥ 12 ॥जैसे स्वप्रमें अनेकों विपत्तियाँ आती हैं पर वास्तवमें वे हैं नहीं, फिर भी स्वप्र टूटनेतक उनका अस्तित्व नहीं मिटता, वैसे ही संसारके न होनेपर भी जो उसमें प्रतीत होनेवाले विषयोंका चिन्तन करते रहते हैं, उनके जन्म-मृत्युरूप संसारकी निवृत्ति नहीं होती ॥ 13 ॥ जब मनुष्य स्वप्न देखता रहता है, तब नींद टूटनेके पहले उसे बड़ी-बड़ी विपत्तियों का सामना करना पड़ता है; परन्तु जब उसकी नींद टूट जाती है, वह जग पड़ता है, तब न तो स्वप्रकी विपत्तियाँ रहती हैं और न उनके कारण होनेवाले मोह आदि विकार || 14 || उद्धवजी ! अहङ्कार ही शोक, हर्ष, भय, क्रोध, लोभ, मोह, स्पृहा और जन्म-मृत्युका शिकार बनता है। आत्मासे तो इनका कोई सम्बन्ध ही नहीं है ॥ 15 ॥ उद्धवजी ! देह, इन्द्रिय, प्राण और मनमें स्थित आत्मा ही जब उनका अभिमान कर बैठता है—उन्हें अपना स्वरूप मान लेता है— तब उसका नाम ‘जीव’ हो जाता है। उस सूक्ष्मातिसूक्ष्म आत्माकी मूर्ति है— गुण और कर्मोंका बना हुआ लिङ्गशरीर। उसे ही कहीं सूत्रात्मा कहा जाता है और कहीं महत्तत्त्व। उसके और भी बहुत-से नाम हैं। वही कालरूप परमेश्वरके अधीन होकर जन्म मृत्युरूप संसारमें इधर-उधर भटकता रहता है ॥ 16 वास्तवमें मन, वाणी, प्राण और शरीर अहङ्कारके ही कार्य हैं। यह है तो निर्मूल, परन्तु देवता, मनुष्य आदि अनेक रूपोंमें इसीकी प्रतीति होती है। मननशील पुरुष उपासनाकी शानपर चढ़ाकर ज्ञानकी तलवारको अत्यन्त तीखी बना लेता है और उसके द्वारा देहाभिमानका— अहङ्कारका मूलोच्छेद करके पृथ्वीमें निर्द्वन्द्व होकर विचरता है। फिर उसमें किसी प्रकारकी आशा तृष्णा नहीं रहती ॥ 17 ॥ आत्मा और अनात्माके स्वरूपको पृथक् पृथक् भलीभाँति समझ लेना ही ज्ञान है, क्योंकि विवेक होते ही द्वैतका अस्तित्व मिट जाता है। उसका साधन है। तपस्याके द्वारा हृदयको शुद्ध करके वेदादि शास्त्रोंका श्रवण करना। इनके अतिरिक्त श्रवणानुकूल युक्तियाँ, महापुरुषोंके उपदेश और इन दोनोंसे अविरुद्ध स्वानुभूति भी प्रमाण है। सबका सार यही निकलता है कि इस संसारके आदिमें जो था तथा अन्तमें जो रहेगा, जो इसका मूल कारण और प्रकाशक है, वही अद्वितीय, उपाधिशून्य परमात्मा बीचमें भी है। उसके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है ।। 18 ।।उद्धवजी सोनेसे कंगन, कुण्डल आदि बहुत-से आभूषण ! बनते हैं; परन्तु जब वे गहने नहीं बने थे, तब भी सोना था और जब नहीं रहेंगे, तब भी सोना रहेगा। इसलिये जब बीचमें उसके कंगन कुण्डल आदि अनेकों नाम रखकर व्यवहार करते हैं, तब भी वह सोना ही है। ठीक ऐसे ही जगत्‌का आदि, अन्त और मध्य मैं ही हूँ। वास्तवमे में ही | सत्य तत्त्व हूँ ॥ 19 ॥ भाई उद्धव ! मनकी तीन अवस्थाएँ होती हैं— जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति; इन अवस्थाओंके कारण तीन ही गुण हैं सत्त्व, रज और तम और जगत्के तीन भेद हैं-अध्यात्म (इन्द्रियाँ), अधिभूत (पृथिव्यादि) और अधिदैव (कर्ता)। ये सभी त्रिविधताएँ जिसकी सत्तासे सत्यके समान प्रतीत होती हैं और समाधि आदिमें यह त्रिविधता न रहनेपर भी जिसकी सत्ता बनी रहती है, वह तुरीयतत्त्व- इन तीनोंसे परे और इनमें अनुगत चौधा ब्रह्मतत्त्व ही सत्य है ॥ 20 ॥ जो उत्पत्तिसे पहले नहीं था और प्रलयके पश्चात् भी नहीं रहेगा, ऐसा समझना चाहिये कि बीचमें भी वह है नहीं—केवल कल्पनामात्र, नाममात्र ही है। यह निश्चित सत्य है कि जो पदार्थ जिससे बनता है। और जिसके द्वारा प्रकाशित होता है, वही उसका वास्तविक स्वरूप है, वही उसकी परमार्थ सत्ता है – यह मेरा दृढ़ निश्चय है ॥ 21 ॥ यह जो विकारमयी राजस सृष्टि है, यह न होनेपर भी दीख रही है। यह स्वयंप्रकाश ब्रह्म ही है। इसलिये इन्द्रिय, विषय, मन और पञ्चभूतादि जितने चित्र विचित्र नामरूप हैं उनके रूपमें ब्रह्म ही प्रतीत हो रहा है ।। 22 ।। ब्रह्मविचारके साधन हैं— श्रवण, मनन, निदिध्यासन और स्वानुभूति। उनमें सहायक हैं— आत्मज्ञानी गुरुदेव ! इनके द्वारा विचार करके स्पष्टरूपसे देहादि अनात्म पदार्थोका निषेध कर देना चाहिये। इस प्रकार निषेधके द्वारा आत्मविषयक सन्देहोंको छिन्न-भिन्न करके अपने आनन्दस्वरूप आत्मामें ही मन हो जाय और सब प्रकारकी विषयवासनाओंसे रहित हो जाय ॥ 23 ॥ निषेध करनेकी प्रक्रिया यह है कि पृथ्वीका विकार होनेके कारण शरीर आत्मा नहीं है। इन्द्रिय, उनके अधिष्ठातृ देवता, प्राण, वायु, जल, अग्नि एवं मन भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि इनका धारण-पोषण शरीरके समान ही अन्नके द्वारा होता है बुद्धि, चित्त, अहङ्कार, आकाश, पृथ्वी, शब्दादि विषय और गुणोंकी साम्यावस्था प्रकृति भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि ये सब के सब दृश्य एवं जड हैं ।। 24 ।।उद्धवजी जिसे मेरे स्वरूपका भलीभांति ज्ञान हो गया है, उसकी वृत्तियाँ और इन्द्रियाँ यदि समाहित रहती है तो उसे उनसे लाभ क्या है ? और यदि वे विक्षिप्त रहती हैं, तो उनसे हानि भी क्या है? क्योंकि अन्तःकरण और बाह्यकरण सभी गुणमय हैं और आत्मासे इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। भला, आकाशमें बादलोंके छा जाने अथवा तितर-बितर हो जानेसे सूर्यका क्या बनता बिगड़ता है ? ।। 25 ।। जैसे वायु आकाशको सुखा नहीं सकती, आग जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं सकता, धूल-धुएँ मटमैला नहीं कर सकते और ऋतुओंके गुण गरमी-सर्दी आदि उसे प्रभावित नहीं कर सकते—क्योंकि ये सब आने-जानेवाले क्षणिक भाव हैं और आकाश इन सबका एकरस अधिष्ठान है वैसे ही सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी वृत्तियाँ तथा कर्म अविनाशी आत्माका स्पर्श नहीं कर पाते; वह तो इनसे सर्वथा परे है। इनके द्वारा तो केवल वही संसारमें भटकता है, जो इनमें अहङ्कार कर बैठता है ।। 26 ।। उद्धवजी ऐसा होनेपर भी तबतक इन मायानिर्मित गुणों और उनके कार्योंका सह सर्वथा त्याग सङ्ग देना चाहिये, जबतक मेरे सुदृढ़ भक्तियोगके द्वारा मनका रजोगुणरूप मल एकदम निकल न जाय ॥ 27 ॥

उद्धवजी जैसे भलीभांति चिकित्सा न करनेपर रोगका समूल नाश नहीं होता, वह बार-बार उभरकर मनुष्यको सताया करता है, वैसे ही जिस मनकी वासनाएं और कर्मेकि संस्कार मिट नहीं गये हैं, जो स्त्री- पुत्र आदिमें आसक्त है, वह बार-बार अधूरे योगीको बेधता रहता है और उसे कई बार योगभ्रष्ट भी कर देता है ॥ 28 ॥ देवताओंके द्वारा प्रेरित शिष्य-पुत्र आदिके द्वारा किये हुए विनोंसे यदि कदाचित् अधूरा योगी मार्गच्युत हो जाय तो भी वह अपने पूर्वाभ्यासके कारण पुनः योगाभ्यासमें ही लग जाता है। कर्म आदिमें उसकी प्रवृत्ति नहीं होती ॥ 29 ॥ उद्धवजी जीव संस्कार आदिसे प्रेरित होकर जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त कर्ममें ही लगा रहता है और उनमें इष्ट-अनिष्ट बुद्धि करके हर्ष-विषाद आदि विकारोंको प्राप्त होता रहता है। परन्तु जो तत्त्वका साक्षात्कार कर लेता है, वह प्रकृतिमें स्थित रहनेपर भी, संस्कारानुसार कर्म होते रहनेपर भी उनमें इष्ट-अनिष्ट बुद्धि करके हर्ष-विषाद आदि विकारोंसे युक्त नहीं होता; क्योंकि आनन्दस्वरूप आत्माके साक्षात्कारसे उसकी संसारसम्बन्धी सभी आशा तृष्णाएँ पहले ही नष्ट हो चुकी होती हैं ॥ 30 ॥जो अपने स्वरूपमें स्थित हो गया है, उसे इस बातका भी पता नहीं रहता कि शरीर खड़ा है या बैठा, चल रहा है या रहा है, मल-मूत्र त्याग रहा है, भोजन कर रहा है अथवा और कोई स्वाभाविक कर्म कर रहा है; क्योंकि उसकी वृत्ति तो आत्मस्वरूपमें स्थित — ब्रह्माकार रहती है ॥ 31 ॥ यदि ज्ञानी पुरुषकी दृष्टिमें इन्द्रियोंके विविध बाह्य विषय, जो कि असत् हैं, आते भी है तो वह उन्हें अपने आत्मासे भिन्न नहीं मानता, क्योंकि वे युक्तियों, प्रमाणों और स्वानुभूतिसे सिद्ध नहीं होते। जैसे नींद टूट जानेपर स्वप्रमें देखे हुए और जागनेपर तिरोहित हुए पदार्थोंको कोई सत्य नहीं मानता, वैसे ही ज्ञानी पुरुष भी अपनेसे भिन्न प्रतीयमान पदार्थोंको सत्य नहीं मानते ॥ 32 ॥ उद्धवजी ! (इसका यह अर्थ नहीं है कि अज्ञानीने आत्माका त्याग कर दिया है और ज्ञानी उसको ग्रहण करता है। इसका तात्पर्य केवल इतना ही है कि) अनेकों प्रकारके गुण और कर्मोंसे युक्त देह, इन्द्रिय | आदि पदार्थ पहले अज्ञानके कारण आत्मासे अभिमान लिये गये थे, उनका विवेक नहीं था। अब आत्मदृष्टि होनेपर अज्ञान और उसके कार्योंकी निवृत्ति हो जाती है। इसलिये अज्ञानकी निवृत्ति ही अभीष्ट है। वृत्तियोंके द्वारा न तो आत्माका ग्रहण हो सकता है और न त्याग ॥ 33 ॥ जैसे सूर्य उदय होकर मनुष्योंके नेत्रोंके सामनेसे अन्धकारका परदा हटा देते हैं, किसी नयी वस्तुका निर्माण नहीं करते, वैसे ही मेरे स्वरूपका दृढ़ अपरोक्षज्ञान पुरुषके बुद्धिगत अज्ञानका आवरण नष्ट कर देता है। वह इदंरूपसे किसी वस्तुका अनुभव नहीं कराता ॥ 34 ॥ उद्धवजी! आत्मा नित्य अपरोक्ष है, उसकी प्राप्ति नहीं करनी पड़ती। वह स्वयंप्रकाश है। उसमें अज्ञान आदि किसी प्रकारके विकार नहीं हैं। वह जन्मरहित है अर्थात् कभी किसी प्रकार भी वृत्तिमें आरूद नहीं होता। इसलिये अप्रमेय है। ज्ञान आदिके द्वारा उसका संस्कार भी नहीं किया जा सकता। आत्मामें देश, काल और वस्तुकृत परिच्छेद न होनेके कारण अस्तित्व वृद्धि, परिवर्तन, ह्रास और विनाश उसका स्पर्श भी नहीं कर सकते। सबकी और सब प्रकारकी अनुभूतियाँ आत्मस्वरूप ही हैं। जब मन और वाणी आत्माको अपना अविषय समझकर निवृत्त हो जाते हैं, तब वही सजातीय, विजातीय और स्वगत भेदसे शून्य एक अद्वितीय रह जाता है। व्यवहारदृष्टिसे उसके स्वरूपका वाणी और प्राण आदिके प्रवर्तक के रूपमें निरूपण किया जाता है ।। 35 ।।उद्धवजी ! अद्वितीय आत्मतत्त्वमें अर्थहीन नामोंके द्वारा विविधता मान लेना ही मनका भ्रम है, अज्ञान है। सचमुच यह बहुत बड़ा मोह है, क्योंकि अपने आत्माके अतिरिक्त उस भ्रमका भी और कोई अधिष्ठान नहीं है। अधिष्ठान सत्तामें अध्यस्तकी सत्ता है ही नहीं इसलिये सब कुछ आत्मा ही है ।। 36 ।। बहुत-से पण्डिताभिमानी लोग ऐसा कहते हैं कि यह पाचभौतिक द्वैत विभिन्न नामों और रूपोंके रूपमें इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण किया जाता है, इसलिये सत्य है। परन्तु यह तो अर्थहीन वाणीका आडम्बरमात्र है; क्योंकि तत्त्वतः तो इन्द्रियोंकी पृथक् सत्ता ही सिद्ध नहीं होती, फिर वे किसीको प्रमाणित कैसे करेंगी ? ॥ 37 ॥

उद्धवजी यदि योगसाधना पूर्ण होनेके पहले ही किसी साधकका शरीर रोगादि उपद्रवोंसे पीड़ित हो, तो उसे इन उपायोंका आश्रय लेना चाहिये ।। 38 ।। गरमी-ठंडक आदिको चन्द्रमा सूर्य आदिको धारणाके द्वारा, वात आदि ग्रह-सर्पादिकृत रोगोंको वायुधारणायुक्त आसनोंके द्वारा और ग्रह सर्वादिकृत विघ्नोंको तपस्या, मन्त्र एवं ओषधिके द्वारा नष्ट कर डालना चाहिये ॥ 39 ॥ काम-क्रोध आदि विघ्नोंको मेरे चिन्तन और नाम संकीर्तन आदिके द्वारा नष्ट करना चाहिये। तथा पतनकी ओर ले जानेवाले दम्भ-मद आदि विघ्नोंको धीरे-धीरे महापुरुषोंकी सेवाके द्वारा दूर कर देना चाहिये 40 कोई कोई मनस्वी योगी विविध उपायोंके द्वारा इस शरीरको सुदृढ़ और युवावस्थामें स्थिर करके फिर अणिमा आदि सिद्धियोंके लिये योगसाधन करते हैं, परन्तु बुद्धिमान् पुरुष ऐसे विचारका समर्थन नहीं करते, क्योंकि यह तो एक व्यर्थ प्रयास है। वृक्षमें लगे हुए फलके समान इस शरीरका नाश तो अवश्यम्भावी है ॥ 41-42 ।। यदि कदाचित् बहुत दिनोंतक निरन्तर और आदरपूर्वक योगसाधना करते रहनेपर शरीर सुदृढ़ भी हो जाय तब भी बुद्धिमान् पुरुषको अपनी साधना छोड़कर उतने ही सन्तोष नहीं कर लेना चाहिये। उसे तो सर्वदा मेरी प्राप्तिके लिये ही संलग्न रहना चाहिये 43 ॥ जो साधक मेरा आश्रय लेकर मेरे द्वारा कही हुई योगसाधनामें संलग्न रहता है, उसे कोई भी बाधा डिगा नहीं सकती। उसकी सारी कामनाएँ नष्ट हो जाती हैं। और वह आत्मानन्दकी अनुभूति मन हो जाता है॥44॥

अध्याय 29 भागवतधर्मोका निरूपण और उद्धवजीका बदरिकाश्रम गमन

उद्धवजीने कहा- अच्युत ! जो अपना मन वशमें नहीं कर सका है, उसके लिये आपकी बतलायी हुई इस | योगसाधनाको तो मैं बहुत ही कठिन समझता हूँ। अतः अब आप कोई ऐसा सरल और सुगम साधन बतलाइये, जिससे मनुष्य अनायास ही परमपद प्राप्त कर सके ॥ कमलनयन ! आप जानते ही हैं कि अधिकांश योगी जब अपने मनको एकाग्र करने लगते हैं, तब वे बार-बार चेष्टा करनेपर भी सफल न होनेके कारण हार मान लेते हैं और उसे वशमें न कर पानेके कारण दुःखी हो जाते हैं ॥ 2 ॥ पद्मलोचन ! आप विश्वेश्वर हैं! आपके हो द्वारा सारे संसारका नियमन होता है। इसीसे सारासार विचारमें चतुर मनुष्य आपके आनन्दवर्षी चरणकमलोंकी शरण लेते हैं और अनायास ही सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। आपकी माया उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती, क्योंकि उन्हें योगसाधन और कर्मानुष्ठानका अभिमान नहीं होता। परन्तु जो आपके चरणोंका आश्रय नहीं लेते, वे योगी और कर्मी अपने साधनके घमंडसे फूल जाते हैं; अवश्य ही आपकी मायाने उनकी मति हर ली है ॥ 3 ॥ प्रभो! आप सबके हितैषी सुहृद हैं। आप अपने अनन्य शरणागत बलि आदि सेवकोंके अधीन हो जायँ, यह आपके लिये कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; क्योंकि आपने रामावतार ग्रहण करके प्रेमवश वानरोंसे भी मित्रताका निर्वाह किया। यद्यपि ब्रह्मा आदि लोकेश्वरगण भी अपने दिव्य किरीटोंको आपके चरणकमल रखनेकी चौकीपर रगड़ते रहते हैं ॥ 4 ॥ प्रभो! आप सबके प्रियतम, स्वामी और आत्मा है। आप अपने अनन्य शरणागतोंको सब कुछ दे देते हैं। आपने बलि-प्रह्लाद आदि अपने भक्तोंको जो कुछ दिया है, उसे जानकर ऐसा कौन पुरुष होगा जो आपको छोड़ | देगा ? यह बात किसी प्रकार बुद्धिमें ही नहीं आती कि भला, कोई विचारवान् विस्मृतिके गर्तमें डालनेवाले तुच्छ विषयोंमें ही फँसा रखनेवाले भोगोको क्यों चाहेगा ? हमलोग आपके चरणकमलोंकी रजके उपासक हैं। हमारे लिये दुर्लभ ही क्या है ? ॥ 5 ॥ भगवन् ! आप समस्त प्राणियोंके अन्तःकरणमें अन्तर्यामीरूपसे और बाहर गुरुरूपसे स्थित होकर उनके सारे पाप-ताप मिटा देते हैं और अपने वास्तविक स्वरूपको उनके प्रति प्रकट कर देते हैं। बड़े-बड़े ब्रह्मज्ञानी ब्रह्माजीके समान लंबी आयु पाकर भी आपके उपकारोंका बदला नहीं चुका सकते। इसीसे वे आपके उपकारोंका स्मरण करके क्षण-क्षणअधिकाधिक आनन्दका अनुभव करते रहते हैं 6 ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण ब्रह्मादि ईश्वरोके भी ईश्वर हैं वे ही सत्त्वरज आदि गुणोंके द्वारा ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रका रूप धारण करके जगत्की उत्पत्ति-स्थिति आदिके खेल खेला करते है जब उद्धवजीने अनुरागभरे चितसे उनसे यह प्रश्न किया, तब उन्होंने मन्द मन्द मुसकराकर बड़े प्रेमसे कहना प्रारम्भ किया ॥ 7 ॥

श्रीभगवान्‌ने कहा – प्रिय उद्धव ! अब मैं तुम्हें अपने उन मङ्गलमय भागवतधर्मो का उपदेश करता हूँ, जिनका श्रद्धापूर्वक आचरण करके मनुष्य संसाररूप दुर्जय मृत्युको अनायास ही जीत लेता है ॥ 8 ॥ उद्धवजी ! मेरे भक्तको चाहिये कि अपने सारे कर्म मेरे लिये ही करे और धीर-धीरे उनको करते समय मेरे स्मरणका अभ्यास बढ़ाये कुछ ही दिनोंमें उसके मन और चित्त मुझमें समर्पित हो जायँगे। उसके मन और आत्मा मेरे ही धर्मो में रम जायँगे ॥ 9 ॥ मेरे भक्त साधुजन जिन पवित्र स्थानोंमें निवास करते हों, उन्हींमें रहे और देवता, असुर अथवा मनुष्यों जो मेरे अनन्य भक्त हो, उनके आचरणोंका अनुसरण करे ॥ 10 ॥ पर्वके अवसरोंपर सबके साथ मिलकर अथवा अकेला ही नृत्य, गान, वाद्य आदि महाराजोचित ठाट-बाटसे मेरी यात्रा आदिके महोत्सव करे ॥ 11 ॥ शुद्धान्तःकरण पुरुष आकाशके समान बाहर और भीतर परिपूर्ण एवं आवरणशून्य मुझ परमात्माको ही समस्त प्राणियों और अपने हृदयमें स्थित देखे ॥ 12 ॥ निर्मलबुद्धिजी। जो साधक केवल इस ज्ञानदृष्टिका आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्राणियों और पदार्थों में मेरा दर्शन करता है और उन्हें मेरा ही रूप मानकर सत्कार करता है। तथा ब्राह्मण और चाण्डाल, चोर और ब्राह्मणभक्त, सूर्य और चिनगारी तथा कृपालु और क्रूरमें समानदृष्टि रखता है, उसे ही सच्चा ज्ञानी समझना चाहिये ।। 13-14 जब निरन्तर सभी नर-नारियोंमें मेरी ही भावना की जाती है, तब थोड़े ही दिनोंमें साधकके चित्तसे स्पर्द्धा (होड़), ईर्ष्या, तिरस्कार और अहङ्कार आदि दोष दूर हो जाते हैं ।। 15 ।। अपने ही लोग यदि हँसी करें तो करने दे, उनकी परवा न करे, ‘मैं अच्छा हूँ, वह बुरा है’ ऐसी देहदृष्टिको और लोक- लज्जाको छोड़ दे और कुत्ते, चाण्डाल, गौ एवं गधेको भी पृथ्वीपर गिरकर साष्टाङ्ग दण्डवत् प्रणाम करे ।। 16 ।।जबतक समस्त प्राणियोंमें मेरी भावना -भगवद्भावना न होने लगे, तबतक इस प्रकारसे मन, वाणी और शरीर के सभी संकल्पों और कमद्वारा मेरी उपासना करता रहे ॥ 17 ॥ उद्धवजी! जब इस प्रकार सर्वत्र आत्मबुद्धि-ब्रह्मबुद्धिका अभ्यास किया जाता है, तब थोड़े ही दिनोंमें उसे ज्ञान होकर सब कुछ ब्रह्मस्वरूप दीखने लगता है। ऐसी दृष्टि हो जानेपर सारे संशय-सन्देह | अपने-आप निवृत्त हो जाते हैं और वह सब कहीं मेरा साक्षात्कार करके संसारदृष्टिसे उपराम हो जाता है ॥ 18 ॥ मेरी प्राप्तिके जितने साधन हैं, उनमें में तो सबसे श्रेष्ठ साधन यही समझता हूँ कि समस्त प्राणियों और पदार्थों में मन वाणी और शरीर की समस्त वृत्तियोंसे मेरी ही भावना की जाय ॥ 19 ॥ उद्धवजी ! यही मेरा अपना भागवत धर्म है; इसको एक बार आरम्भ कर देनेके बाद फिर किसी प्रकारकी विघ्न-बाधासे इसमें रत्तीभर भी अन्तर नहीं पड़ता क्योंकि यह धर्म निष्काम है और स्वयं मैंने ही इसे निर्गुण होनेके कारण सर्वोत्तम निश्चय किया है॥ 20 ॥ भागवत धर्म में किसी प्रकारकी त्रुटि पड़नी तो दूर रही यदि इस धर्मका साधक भय-शोक आदिके अवसरपर होनेवाली भावना और रोने-पीटने भागने जैसा निरर्थक कर्म भी निष्कामभावसे मुझे समर्पित कर दे तो वे भी मेरी प्रसन्नताके कारण धर्म बन जाते हैं ॥ 21 ॥ विवेकियोंके विवेक और चतुरोंकी चतुराईकी पराकाष्ठा इसी है कि वे इस विनाशी और असत्य शरीरके द्वारा मुझ अविनाशी एवं सत्य तत्त्वको प्राप्त कर लें ॥ 22 ॥

उद्धवजी यह सम्पूर्ण ब्रह्मविद्याका रहस्य मैने संक्षेप और विस्तारसे तुम्हें सुना दिया। इस रहस्यको समझना मनुष्योंकी तो कौन कहे, देवताओंके लिये भी अत्यन्त कठिन है ॥ 23 ॥ मैने जिस सुस्पष्ट और | युक्तियुक्त ज्ञानका वर्णन बार-बार किया है, उसके मर्मको जो समझ लेता है, उसके हृदयकी संशय-ग्रन्थियाँ छिन्न भिन्न हो जाती हैं और वह मुक्त हो जाता है ॥ 24 ॥ मैने तुम्हारे प्रश्नका भलीभाँति खुलासा कर दिया जो पुरुष हमारे प्रश्नोत्तरको विचारपूर्वक धारण करेगा, वह वेदोके भी परम रहस्य सनातन परब्रहाको प्राप्त कर लेगा ।। 25 ।। जो पुरुष मेरे भक्तोंको इसे भलीभाँति स्पष्ट करके समझायेगा, उस ज्ञानदाताको मैं प्रसन्न मनसे अपना | स्वरूपतक दे डालूँगा, उसे आत्मज्ञान करा दूँगा || 26 ॥उद्धवजी ! यह तुम्हारा और मेरा संवाद स्वयं तो परम पवित्र है ही, दूसरोंको भी पवित्र करनेवाला है जो प्रतिदिन इसका पाठ करेगा और दूसरोंको सुनायेगा, वह इस ज्ञानदीपके द्वारा दूसरोंको मेरा दर्शन करानेके कारण पवित्र हो जायगा ॥। 27 ॥ जो कोई एकाग्र चित्तसे इसे श्रद्धापूर्वक नित्य सुनेगा, उसे मेरी पराभक्ति प्राप्त होगी और वह कर्मबन्धनसे मुक्त हो जायगा ॥ 28 ॥ प्रिय सखे ! | तुमने भलीभाँति ब्रह्मका स्वरूप समझ लिया न ? और तुम्हारे चित्तका मोह एवं शोक तो दूर हो गया न ? ॥ 29 ॥ तुम इसे दाम्भिक, नास्तिक, शठ, अश्रद्धालु भक्तिहीन और उद्धत पुरुषको कभी मत देना ॥ 30 ॥ जो इन दोषोंसे रहित हो, ब्राह्मणभक्त हो, प्रेमी हो, साधुस्वभाव हो और जिसका चरित्र पवित्र हो, उसीको यह प्रसङ्ग सुनाना चाहिये। यदि शूद्र और स्त्री भी मेरे प्रति प्रेम भक्ति रखते हों तो उन्हें भी इसका उपदेश करना चाहिये ॥ 31 ॥ जैसे दिव्य अमृतपान कर लेनेपर कुछ भी पीना शेष नहीं रहता, | वैसे ही यह जान लेनेपर जिज्ञासुके लिये और कुछ भी जानना शेष नहीं रहता ।। 32 ।। प्यारे उद्धव ! मनुष्योंको ज्ञान, कर्म, योग, वाणिज्य और राजदण्डादिसे क्रमशः मोक्ष, धर्म, काम और अर्थरूप फल प्राप्त होते हैं; परन्तु तुम्हारे जैसे अनन्य भक्तोंके लिये वह चारों प्रकारका फल केवल मैं ही हूँ ॥ 33 जिस समय मनुष्य समस्त कर्मोका परित्याग करके मुझे आत्मसमर्पण कर देता है, उस समय वह मेरा विशेष माननीय हो जाता है और मैं उसे उसके जीवत्वसे छुड़ाकर अमृतस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति करा देता हूँ और वह मुझसे मिलकर मेरा स्वरूप हो जाता है ।। 34 ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् अब उद्धवजी योगमार्गका पूरा-पूरा उपदेश प्राप्त कर चुके थे। भगवान् श्रीकृष्णकी बात सुनकर उनकी आँखोंमें आँसू उमड़ आये। प्रेमकी बाढ़से गला रुंध गया, चुपचाप हाथ जोड़े रह गये और वाणीसे कुछ बोला न गया ।। 35 ।। उनका चित्त प्रेमावेशसे विह्वल हो रहा था, उन्होंने धैर्यपूर्वक उसे रोका और अपनेको अत्यन्त सौभाग्यशाली अनुभव करते हुए सिरसे यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण के चरणोंको स्पर्श किया तथा हाथ जोड़कर उनसे यह प्रार्थना की ।। 36 ।।उद्धवजीने कहा- प्रभो! आप माया और ब्रह्मा आदिके भी मूल कारण हैं। मैं मोहके महान् अन्धकारमें भटक रहा था। आपके सत्सङ्गसे वह सदाके लिये भाग गया। भला, जो अग्निके पास पहुँच गया उसके सामने क्या शीत, अन्धकार और उसके कारण होनेवाला भय | ठहर सकते हैं ? ॥ 37 ॥ भगवन्! आपकी मोहिनी | मायाने मेरा ज्ञानदीपक छीन लिया था, परन्तु आपने कृपा करके यह फिर अपने सेवकको लौटा दिया। आपने मेरे ऊपर महान् अनुग्रहकी वर्षा की है। ऐसा कौन होगा, जो आपके इस कृपा प्रसादका अनुभव करके भी आपके चरणकमलोंकी शरण छोड़ दे और किसी दूसरेका सहारा ले ? ॥ 38 ॥ आपने अपनी मायासे सृष्टिवृद्धि के लिये दाशार्ह, वृष्णि, अधक और सात्वतवंशी यादवोंके साथ मुझे सुदृढ़ स्नेहपाशसे बाँध दिया था। आज आपने आत्मबोधकी तीखी तलवारसे उस बन्धनको अनायास ही काट डाला ॥ 39 ॥ महायोगेश्वर ! मेरा आपको नमस्कार है। अब आप कृपा करके मुझ शरणागतको ऐसी आज्ञा दीजिये, जिससे आपके चरणकमलोंमें मेरी अनन्य भक्ति बनी रहे ॥ 40 ॥

भगवान् श्रीकृष्णने कहा- उद्धवजी अब तुम
मेरी आज्ञासे बदरीवनमें चले जाओ। वह मेरा ही आश्रम है वहाँ मेरे चरणकमलोके धोवन गङ्गाजलका खान | पानके द्वारा सेवन करके तुम पवित्र हो जाओगे ॥ 41 ॥ अलकनन्दा के दर्शनमात्रसे तुम्हारे सारे पाप ताप नष्ट हो जायँगे। प्रिय उद्धव ! तुम वहाँ वृक्षोंकी छाल पहनना, वनके कन्द-मूल-फल खाना और किसी भोगकी अपेक्षा न रखकर निःस्पृह वृत्तिसे अपने-आपमें मस्त रहना ।। 42 ।। सर्दी गरमी, सुख-दुःख-जो कुछ आ पड़े, उसे सम रहकर सहना। स्वभाव सौम्य रखना, इन्द्रियोंको वशमे रखना ति शान्त रहे। बुद्धि समाहित रहे और तुम स्वयं मेरे स्वरूपके ज्ञान और अनुभवमें डूबे रहना ।। 43 ।। मैंने तुम्हें जो कुछ शिक्षा दी है, उसका | एकान्तमें विचारपूर्वक अनुभव करते रहना। अपनी वाणी और चित्त मुझमें ही लगाये रहना और मेरे बतलाये हुए भागवतधर्ममें प्रेमसे रम जाना। अन्तमें तुम त्रिगुण और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली गतियोंको पार करके उनसे परे मेरे परमार्थस्वरूपमें मिल जाओगे ।। 44 ।।श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण के स्वरूपका ज्ञान संसारके भेदभ्रमको छिन्न-भिन्न कर देता है। जब उन्होंने स्वयं उद्धवजीको ऐसा उपदेश किया तो उन्होंने उनकी परिक्रमा की और उनके चरणोंपर सिर रख दिया। इसमें सन्देह नहीं कि उद्धवजी संयोग-वियोगसे होनेवाले सुख-दुःखके जोड़ेसे परे थे, क्योंकि वे भगवान्के निर्द्वन्द्व चरणोंकी शरण ले चुके थे फिर भी वहाँसे चलते समय उनका चित्त प्रेमावेशसे भर गया। उन्होंने अपने नेत्रोंकी झरती हुई अश्रुधारासे भगवान्‌के चरणकमलोंको भिगो दिया ॥ 45 ॥ परीक्षित् ! भगवान्के प्रति प्रेम करके उसका त्याग करना सम्भव नहीं है। उन्होंके वियोगकी कल्पनासे उद्धवजी कातर हो गये, उनका त्याग करनेमें समर्थ न हुए। बार-बार विल होकर मूर्च्छित होने लगे। कुछ समय बाद उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंकी पादुकाएँ अपने सिरपर रख लीं और बार-बार भगवान्‌के चरणोंमें प्रणाम करके वहाँसे प्रस्थान किया ॥ 46 ॥ भगवान्‌के परमप्रेमी भक्त उद्धवजी हृदयमें उनकी दिव्य छबि धारण किये बदरिकाश्रम पहुँचे और वहाँ उन्होंने तपोमय जीवन व्यतीत करके जगत्के एकमात्र हितैषी भगवान् श्रीकृष्णके उपदेशानुसार उनकी स्वरूपभूत परमगति प्राप्त की ॥ 47 ॥ भगवान् शङ्कर आदि योगेश्वर भी सचिदानन्दरूप भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंकी सेवा किया करते हैं। उन्होंने स्वयं श्रीमुखसे अपने परमप्रेमी भक्त उद्धवके लिये इस ज्ञानामृतका वितरण किया। यह ज्ञानामृत आनन्दमहासागरका सार है। जो श्रद्धाके साथ इसका सेवन करता है, वह तो मुक्त हो ही जाता है, उसके सङ्गसे सारा जगत् मुक्त हो जाता है ॥ 48 ॥ परीक्षित् ! जैसे भौरा विभिन्न पुष्पोंसे उनका सार-सार मधु संग्रह कर लेता है, वैसे ही स्वयं वेदोको प्रकाशित करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने भक्तोंको संसारसे मुक्त करनेके लिये यह ज्ञान और विज्ञानका सार निकाला है। उन्होंने जरा रोगादि भयकी निवृतिके लिये क्षीरसमुद्रसे अमृत भी निकाला था तथा इन्हें क्रमशः अपने निवृत्तिमाग और प्रवृत्तिमार्गी भक्तोको पिलाया, वे ही पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण सारे जगत्के मूल कारण हैं। मैं उनके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ ।। 49 ।।

अध्याय 30 यदुकुलका संहार

राजा परीक्षितने पूछा-भगवन् ! जब महाभागवत उद्धवजी बदरीवनको चले गये, तब भूतभावन भगवान् श्रीकृष्णने द्वारकामें क्या लीला रची ? ॥ 1 ॥ प्रभो ! यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णने अपने कुलके ब्रह्मशापग्रस्त होनेपर सबके नेत्रादि इन्द्रियोंके परम प्रिय अपने दिव्य श्रीविग्रहकी लीलाका संवरण कैसे किया ? ॥ 2 ॥ भगवन्! जब स्त्रियोंके नेत्र उनके श्रीविग्रहमें लग जाते थे, तब वे उन्हें वहाँसे हटाने में असमर्थ हो जाती थीं। जब संत पुरुष उनकी रूपमाधुरीका वर्णन सुनते हैं, तब वह श्रीविग्रह कानोंके रास्ते प्रवेश करके उनके चित्तमें गड़-सा जाता है, वहाँसे हटना नहीं जानता। | उसकी शोभा कवियोंकी काव्यरचनामें अनुरागका रंग भर देती है और उनका सम्मान बढ़ा देती है, इसके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है। महाभारत युद्धके समय जब वे हमारे दादा अर्जुनके रथपर बैठे हुए थे, उस समय जिन योद्धाओंने उसे देखते-देखते शरीर त्याग किया; उन्हें सारूप्यमुक्ति मिल गयी। उन्होंने अपना ऐसा अद्भुत श्रीविग्रह किस प्रकार अन्तर्धान किया ? ॥ 3 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि आकाश, पृथ्वी और अन्तरिक्षमें बड़े-बड़े उत्पात-अशकुन हो रहे हैं, तब उन्होंने सुधर्मा सभामें उपस्थित सभी यदुवंशियोंसे यह बात कही – ॥ 4 श्रेष्ठ यदुवंशियो यह देखो, द्वारका में बड़े-बड़े भयङ्कर उत्पात होने लगे हैं। ये साक्षात् यमराजकी ध्वजाके समान हमारे महान् अनिष्टके सूचक हैं। अब हमें यहाँ घड़ी दो घड़ी भी नहीं ठहरना चाहिये ॥ 5 ॥ स्त्रियाँ, बच्चे और बढ़े यहाँसे शंखोद्धारक्षेत्रमें चले जायें और हमलोग प्रभासक्षेत्रमें चलें। आप सब जानते हैं कि वहाँ सरस्वती पश्चिमकी ओर बहकर समुद्रमें जा मिली हैं ॥ 6 वहाँ हम स्नान करके पवित्र होंगे, उपवास करेंगे और एकाग्रचित्तसे स्नान एवं चन्दन आदि सामग्रियों से देवताओंकी पूजा करेंगे || 7 | वहाँ स्वस्तिवाचनके बाद हमलोग गौ, भूमि, सोना, वस्त्र, हाथी, घोड़े, रथ और घर आदिके द्वारा महात्मा ब्राह्मणोंका सत्कार करेंगे ॥ 8 ॥यह विधि सब प्रकारके अमङ्गलोंका नाश करनेवाली और परम मङ्गलकी जननी है श्रेष्ठ यदुवंशियो देवता, ब्राह्मण और गौओकी पूजा ही प्राणियोंके जन्मका परम लाभ है ॥ 9 ॥

परीक्षित्! सभी वृद्ध यदुवंशियोने भगवान् श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर ‘तथास्तु’ कहकर उसका अनुमोदन किया और तुरंत नौकाओंसे समुद्र पार करके रथोंद्वारा प्रभासक्षेत्रकी यात्रा की ॥ 10 ॥ वहाँ पहुंचकर यादवने यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णके आदेशानुसार बड़ी श्रद्धा और भक्तिसे शान्तिपाठ आदि तथा और भी सब प्रकारके मङ्गलकृत्य किये ॥ 11 ॥ यह सब तो उन्होंने किया; परन्तु दैवने उनकी बुद्धि हर ली और वे उस मैरेयक नामक मदिराका पान करने लगे, जिसके नशेसे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। वह पीनेमें तो अवश्य मीठी लगती है, परन्तु परिणाममें सर्वनाश करनेवाली है ॥ 12 ॥ उस तीव्र मदिराके पानसे सब-के-सब उन्मत्त हो गये और ये मी वर एक-दूसरेसे लड़ने-झगड़ने लगे। सच पूछो तो श्रीकृष्णकी मायासे वे मूढ़ हो रहे थे ॥ 13 ॥ उस समय वे क्रोधसे भरकर एक-दूसरेपर आक्रमण करने लगे और धनुष-बाण, तलवार, भाले, गदा, तोमर और ऋष्टि आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे वहाँ समुद्रतटपर ही एक-दूसरेसे भिड़ गये ॥ 14 ॥ मतवाले यदुवंशी रथों, हाथियों, घोड़ों, गधों, ऊँटों, खच्चरों, बैलों, भैंसों और मनुष्योंपर भी सवार होकर एक-दूसरेको बाणोंसे घायल करने लगे-मानो जंगली हाथी एक दूसरेपर दाँतोंसे चोट कर रहे हों। सबकी सवारियोंपर ध्वजाएँ फहरा रही थीं, पैदल सैनिक भी आपसमें उलझ रहे थे ॥ 15 प्रद्युम्न साम्बसे, अक्रूर भोजसे, अनिरुद्ध सात्यकिसे, सुभद्र संग्रामजित्से, भगवान् श्रीकृष्णके भाई गद उसी नामके उनके पुत्रसे और सुमित्र सुरथसे युद्ध करने लगे। ये सभी बड़े भयङ्कर योद्धा थे और क्रोधमें भरकर एक-दूसरेका नाश करनेपर तुल गये थे ।। 16 ।। इनके अतिरिक्त निशठ, उल्मुक, सहस्रजित् शतजित् और भानु आदि यादव भी एक-दूसरेसे गुँथ गये। भगवान् श्रीकृष्णकी मायाने तो इन्हें अत्यन्त मोहित कर ही रखा था, इधर मदिराके नशेने भी इन्हें अंधा बना दिया था ॥ 17 ॥ दाशार्ह, वृष्णि, अन्धक, भोज, सात्वत, मधु, अर्बुद, माथुर, शूरसेन, विसर्जन, कुकुर और कुन्ति आदि वंशोंके लोग सौहार्द और प्रेमको भुलाकर आपसमें मार-काट करने लगे ।। 18 ।।मूढ़तावश पुत्र पिताका, भाई भाईका, भानजा मामाका, नाती नानाका, मित्र मित्रका, सुहृद् सुहृद्का, चाचा भतीजेका तथा एक गोत्रवाले आपसमें एक-दूसरेका खून करने लगे ॥ 19 ॥ अन्तमें जब उनके सब बाण समाप्त हो गये, धनुष टूट गये और शस्त्रास्त्र नष्ट-भ्रष्ट हो गये तब उन्होंने अपने हाथोंसे समुद्रतटपर लगी हुई एरका नामकी घास उखाड़नी शुरू की। यह वही घास थी, जो ऋषियोंके शापके कारण उत्पन्न हुए लोहमय मूसलके चूरेसे पैदा हुई थी ॥ 20 ॥ हे राजन् ! उनके हाथोंमें आते ही वह घास वज्रके समान कठोर मुद्गरोंके रूपमें परिणत हो गयी। अब वे रोषमें भरकर उसी घासके द्वारा अपने विपक्षियोंपर प्रहार करने लगे। भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें मना किया, तो उन्होंने उनको और बलरामजीको भी अपना शत्रु समझ लिया। उन आततायियोंकी बुद्धि ऐसी मूढ़ हो रही थी कि वे उन्हें मारनेके लिये उनकी ओर दौड़ पड़े ॥ 21-22 ।। कुरुनन्दन ! अब भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी भी क्रोधमें भरकर युद्धभूमिमें इधर-उधर विचरने और मुट्ठी की मुट्ठी एरका घास उखाड़ उखाड़कर उन्हें मारने लगे। एरका घासकी मुट्ठी ही मुद्गरके समान चोट करती थी ॥ 23 ॥ जैसे बाँसोंकी रगड़से उत्पन्न होकर दावानल बाँसोंको ही भस्म कर देता है, वैसे ही ब्रह्मशापसे ग्रस्त और भगवान् श्रीकृष्णकी मायासे मोहित यदुवंशियोंके | स्पर्द्धामूलक क्रोधने उनका ध्वंस कर दिया ॥ 24 ॥ जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि समस्त यदुवंशियोंका संहार हो चुका, तब उन्होंने यह सोचकर सन्तोषकी साँस ली कि पृथ्वीका बचा खुचा भार भी उतर गया ॥ 25 ॥

परीक्षित्! बलरामजीने समुद्रतटपर बैठकर एकाग्रचित्तसे परमात्मचिन्तन करते हुए अपने आत्माको आत्मस्वरूपमें ही स्थिर कर लिया और मनुष्यशरीर छोड़ दिया ॥ 26 ॥ जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि मेरे बड़े भाई बलरामजी परमपदमें लीन हो गये, तब वे एक पीपल के पेड़के तले जाकर चुपचाप धरतीपर ही बैठ गये ॥ 27 ॥ भगवान् श्रीकृष्णने उस समय अपनी अङ्गकान्तिसे देदीप्यमान चतुर्भुज रूप धारण कर रखा था और धूमसे रहित अनिके समान दिशाओंको अन्धकार रहित – प्रकाशमान बना रहे थे ॥ 28 ॥ वर्षाकालीन | मेघके समान साँवले शरीरसे तपे हुए सोनेके समान ज्योति निकल रही थी। वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न शोभायमान था। वे रेशमी पीताम्बरकी धोती और वैसा ही दुपट्टा धारण किये हुए थे। बड़ा ही मङ्गलमय रूप था ॥ 29 ॥मुखकमलपर सुन्दर मुसकान और कपोलॉपर नीली नीली अलकें बड़ी ही सुहावनी लगती थीं कमलके समान सुन्दर सुन्दर एवं सुकुमार नेत्र थे। कानोंमें मकराकृत कुण्डल झिलमिला रहे थे ॥ 30 ॥ कमरमें करधनी, कंधेपर यज्ञोपवीत, माथेपर मुकुट, कलाइयोंमें कंगन, बाँहोंमें बाजूबंद, वक्षःस्थलपर हार, चरणोंमें नूपुर, अंगुलियोंमें अंगूठियाँ और गलेमें कौस्तुभमणि शोभायमान हो रही थी ॥ 31 घुटनोंतक वनमाला लटकी हुई थी। शङ्ख, चक्र, गदा आदि आयुध मूर्तिमान् होकर प्रभुकी सेवा कर रहे थे। उस समय भगवान् अपनी दाहिनी जाँघपर बायाँ चरण रखकर बैठे हुए थे, लाल लाल तलवा रक्त कमलके समान चमक रहा था ।। 32 ।।

परीक्षित्! जरा नामका एक बहेलिया था। उसने मूसलके बचे हुए टुकड़ेसे अपने बाणकी गाँसी बना ली थी। उसे दूरसे भगवान्‌का लाल-लाल तलवा हरिनके मुखके समान जान पड़ा। उसने उसे सचमुच हरिन समझकर अपने उसी बाणसे बींध दिया 33 ॥ जब वह पास आया, तब उसने देखा कि ‘अरे! ये तो चतुर्भुज पुरुष हैं।’ अब तो वह अपराध कर चुका था, इसलिये डरके मारे काँपने लगा और दैत्यदलन भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंपर सिर रखकर धरतीपर गिर पड़ा ।। 34 ।। उसने कहा- ‘हे मधुसूदन ! मैंने अनजानमें यह पाप किया है। सचमुच मैं बहुत बड़ा पापी हूँ, परन्तु आप परमयशस्वी और निर्विकार हैं। आप कृपा करके मेरा अपराध क्षमा कीजिये ।। 35 ।। सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् प्रभो ! महात्मालोग कहा करते | हैं कि आपके स्मरणमात्रसे मनुष्योंका अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है। बड़े खेदकी बात है कि मैंने स्वयं आपका ही अनिष्ट कर दिया ॥ 36 ॥ वैकुण्ठनाथ! मैं निरपराध हरिणको मारनेवाला महापापी हूँ। आप मुझे अभी-अभी मार डालिये, क्योंकि मर जानेपर मैं फिर कभी आप जैसे महापुरुषोंका ऐसा अपराध न करूँगा ॥ 37 ॥ भगवन् ! सम्पूर्ण विद्याओंके पारदर्शी ब्रह्माजी और उनके पुत्र रुद्र आदि भी आपकी योगमायाका विलास नहीं समझ पाते; क्योंकि उनकी दृष्टि भी आपकी मायासे आवृत है। ऐसी अवस्थामें हमारे जैसे पापयोनि लोग उसके विषयमें कह ही क्या सकते हैं ? ।। 38 ।।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा- हे जरे! तू डर मत, उठ उठ यह तो तूने मेरे मनका काम किया है। जा, मेरी आज्ञासे तू उस स्वर्गमें निवास कर, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े पुण्यवानोको होती है ।। 39 ।।श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण तो अपनी इच्छासे शरीर धारण करते हैं। जब उन्होंने जरा व्याधको यह आदेश दिया, तब उसने उनकी तीन बार परिक्रमा की, नमस्कार किया और विमानपर सवार होकर स्वर्गको चला गया ॥ 40 ॥

भगवान् श्रीकृष्णका सारथि दारुक उनके स्थानका पता लगाता हुआ उनके द्वारा धारण की हुई तुलसीकी गन्धसे युक्त वायु सूपकर और उससे उनके होनेके स्थानका अनुमान लगाकर सामनेकी ओर गया ॥ 41 ॥ दारुकने वहाँ जाकर देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण पीपलके वृक्षके नीचे आसन लगाये बैठे हैं। असह्य तेजवाले आयुध मूर्तिमान् होकर उनकी सेवामें संलग्न हैं। उन्हें | देखकर दारुकके हृदयमें प्रेमकी बाढ़ आ गयी नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बहने लगी। वह रथसे कूदकर भगवान्‌के चरणोंपर गिर पड़ा ।। 42 ।। उसने भगवान्से प्रार्थना की— ‘प्रभो! रात्रिके समय चन्द्रमाके अस्त हो जानेपर राह चलनेवालेकी जैसी दशा हो जाती है, आपके चरणकमलोंका दर्शन न पाकर मेरी भी वैसी ही दशा हो गयी है। मेरी दृष्टि नष्ट हो गयी है, चारों ओर अंधेरा छा गया है। अब न तो मुझे दिशाओंका ज्ञान है और न मेरे हृदयमें शान्ति ही है ॥ 43 ॥ परीक्षित्! अभी दारुक इस प्रकार कह ही रहा था कि उसके सामने ही भगवान्का गरुड़ध्वज रथ पताका और घोड़ोंके साथ आकाशमें उड़ गया ॥ 44 ॥ उसके पीछे पीछे भगवान्‌के दिव्य आयुध भी चले गये। यह सब देखकर दारुकके आश्चर्यकी सीमा न रही। तब भगवान्ने उससे कहा- ॥। 45 ।। दारुक ! अब तुम द्वारका चले जाओ और वहाँ यदुवंशियोंके पारस्परिक संहार, भैया बलरामजीकी परम गति और मेरे स्वधाम गमनकी बात कहो ॥ 46 ॥ उनसे कहना कि ‘अब तुमलोगोंको अपने परिवारवालोंके साथ द्वारकामें नहीं रहना चाहिये। मेरे न रहनेपर समुद्र उस नगरीको डुबो देगा ।। 47 ।। सब लोग अपनी-अपनी धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब और मेरे माता-पिताको लेकर अर्जुनके संरक्षणमें | इन्द्रप्रस्थ चले जायें 48 ॥ दारुक तुम मेरे द्वारा उपदिष्ट भागवतधर्मका आश्रय लो और ज्ञाननिष्ठ होकर सबकी उपेक्षा कर दो तथा इस दृश्यको मेरी मायाकी रचना समझकर शान्त हो जाओ’ ।। 49 ।।भगवान्‌का यह आदेश पाकर दारुकने उनकी परिक्रमा की और उनके चरणकमल अपने सिरपर रखकर बारम्बार प्रणाम किया । तदनन्तर वह उदास मनसे द्वारकाके लिये चल पड़ा ॥ 50 ॥

अध्याय 31 श्रीभगवान्का स्वधामगमन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! दारुकके चले जानेपर ब्रह्माजी, शिव-पार्वती, इन्द्रादि लोकपाल, मरीचि आदि प्रजापति, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, पितर सिद्ध, गन्धर्व-विद्याधर, नाग चारण, यक्ष-राक्षस, किन्नर – अप्सराएँ तथा गरुड़लोकके विभिन्न पक्षी अथवा मैत्रेय आदि ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्णके परमधाम प्रस्थानको देखनेके लिये बड़ी उत्सुकतासे वहाँ आये । वे सभी भगवान् श्रीकृष्णके जन्म और लीलाओंका गान अथवा वर्णन कर रहे थे। उनके विमानोंसे सारा आकाश भर-सा गया था। वे बड़ी भक्तिसे भगवान्पर पुष्पोंकी वर्षा कर रहे थे ॥ 1-4 ॥

सर्वव्यापक भगवान् श्रीकृष्णने ब्रह्माजी और अपने विभूतिस्वरूप देवताओंको देखकर अपने आत्माको स्वरूपमें स्थित किया और कमलके समान नेत्र बंद कर लिये ॥ 5 ॥

भगवान्का श्रीविग्रह उपासकोंके ध्यान और धारणाका मङ्गलमय आधार और समस्त लोकोंके लिये परम रमणीय आश्रय है; इसलिये उन्होंने (योगियोंके समान) अग्निदेवतासम्बन्धी योगधारणाके द्वारा उसको जलाया नहीं, सशरीर अपने धाममें चले गये ॥ 6 ॥ उस समय स्वर्गमें नगारे बजने लगे और आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा होने लगी। परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्णके पीछे-पीछे इस लोकसे सत्य, धर्म, धैर्य, कीर्ति और श्रीदेवी भी चली गयीं ॥ 7 ॥भगवान् श्रीकृष्णकी गति मन और वाणीके परे है; तभी तो जब भगवान् अपने धाममें प्रवेश करने लगे, तब ब्रह्मादि , | देवता भी उन्हें न देख सके। इस घटनासे उन्हें बड़ा ही विस्मय हुआ || 8 | जैसे बिजली मेघमण्डलको छोड़कर जब आकाशमें प्रवेश करती है, तब मनुष्य उसकी चाल नहीं देख पाते, वैसे ही बड़े-बड़े देवता भी श्रीकृष्णकी गतिके सम्बन्धमें कुछ न जान सके ॥ 9 ॥ ब्रह्माजी और भगवान् शङ्कर आदि देवता भगवान्‌की यह परमयोगमयी गति देखकर बड़े विस्मयके साथ उसकी प्रशंसा करते अपने-अपने लोकमें चले गये ॥ 10 ॥

परीक्षित् जैसे नट अनेकों प्रकारके स्वाँग बनाता है, परन्तु रहता है उन सबसे निर्लेप; वैसे ही भगवान्‌का मनुष्योंके समान जन्म लेना, लीला करना और फिर उसे संवरण कर लेना उनकी मायाका विलासमात्र है अभिनयमात्र है। वे स्वयं ही इस जगत्की सृष्टि करके इसमें प्रवेश करके बिहार करते हैं और अन्तमें संहार लीला करके अपने अनन्त महिमामय स्वरूपमें ही स्थित हो जाते हैं ॥ 11 ॥ सान्दीपनि गुरुका पुत्र यमपुरी चला गया था, परन्तु उसे वे मनुष्य-शरीरके साथ लौटा लाये। तुम्हारा ही शरीर ब्रह्मास्त्रसे जल चुका था; परन्तु उन्होंने तुम्हें जीवित कर दिया। वास्तवमें उनकी शरणागत वत्सलता ऐसी ही है और तो क्या कहें, उन्होंने कालोक महाकाल भगवान् शङ्करको भी युद्धमें जीत लिया और अत्यन्त अपराधी – अपने शरीरपर ही प्रहार करनेवाले व्याधको भी सदेह स्वर्ग भेज दिया। प्रिय परीक्षित्! ऐसी स्थितिमें क्या वे अपने शरीरको सदाके लिये यहाँ नहीं रख सकते थे ? अवश्य ही रख सकते थे ॥ 12 ॥ यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत्की स्थिति, उत्पत्ति और संहारके निरपेक्ष कारण है और सम्पूर्ण शक्तियोंके धारण करनेवाले हैं तथापि उन्होंने अपने शरीरको इस संसारमें बचा रखनेकी इच्छा नहीं की। इससे उन्होंने यह दिखाया कि इस मनुष्य शरीरसे मुझे क्या प्रयोजन है ? आत्मनिष्ठ पुरुषोंके लिये यही आदर्श है कि वे शरीर रखनेकी चेष्टा न करें ॥ 13 ॥ जो पुरुष प्रातः काल उठकर भगवान् श्रीकृष्णके परमधामगमनकी इस कथाका एकाग्रता और भक्ति के साथ कीर्तन करेगा, उसे भगवान्‌का वही सर्वश्रेष्ठ परमपद प्राप्त होगा ।। 14 ।।

इधर दारुक भगवान् श्रीकृष्णके विरहसे व्याकुल होकर द्वारका आया और वसुदेवजी तथा उग्रसेनके चरणोंपर गिर गिरकर उन्हें आँसुओंसे भिगोने लगा 15 ॥परीक्षित्! उसने अपनेको सँभालकर यदुवंशियोंके विनाशका पूरा-पूरा विवरण कह सुनाया। उसे सुनकर लोग बहुत ही दुःखी हुए और मारे शोकके मूर्च्छित हो गये ॥ 16 ॥ भगवान् श्रीकृष्णके वियोगसे विह्वल होकर वे लोग सिर पीटते हुए वहाँ तुरंत पहुँचे, जहाँ उनके भाई-बन्धु निष्प्राण होकर पड़े हुए थे ॥ 17 ॥ देवकी, रोहिणी और वसुदेवजी अपने प्यारे पुत्र श्रीकृष्ण और बलरामको न देखकर शोककी पीड़ासे बेहोश हो गये॥ 18॥ उन्होंने भगवद्विरहसे व्याकुल होकर वहीं अपने प्राण छोड़ दिये स्त्रियोंने अपने-अपने पतियोंके शव पहचानकर उन्हें हृदयसे लगा लिया और उनके साथ चितापर बैठकर भस्म हो गयीं ॥ 19 ॥ बलरामजीकी पत्नियाँ उनके शरीरको वसुदेवजीकी पत्नियाँ उनके शवको और भगवान्‌की पुत्रवधुएँ अपने पतियोंकी लाशोंको लेकर अग्रिमें प्रवेश कर गयीं। भगवान् श्रीकृष्णकी रुक्मिणी आदि पटरानियाँ उनके ध्यानमें मन होकर अभिमें प्रविष्ट हो गयीं ॥ 20 ॥

परीक्षित्! अर्जुन अपने प्रियतम और सखा भगवान् श्रीकृष्णके विरहसे पहले तो अत्यन्त व्याकुल हो गये; फिर उन्होंने उन्होंके गीतोक्त सदुपदेशोंका स्मरण करके अपने मनको संभाला ॥ 21 ॥ यदुवंशके मृत व्यक्तियोंमें जिनको कोई पिण्ड देनेवाला न था, उनका श्राद्ध अर्जुनने क्रमशः विधिपूर्वक करवाया ॥ 22 ॥ महाराज! भगवान्के न रहनेपर समुद्रने एकमात्र भगवान् श्रीकृष्णका निवास स्थान छोड़कर एक ही क्षणमें सारी द्वारका डुबो दी ॥ 23 ॥ भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ अब भी सदा-सर्वदा निवास करते हैं। वह स्थान स्मरणमात्रसे ही सारे पाप तापका नाश करनेवाला और सर्वमङ्गलोंको भी मङ्गल बनानेवाला है ॥ 24 ॥ प्रिय परीक्षित्। पिण्डदानके अनन्तर बची-खुची स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ोंको लेकर अर्जुन इन्द्रप्रस्थ आये। वहाँ सबको यथायोग्य बसाकर अनिरुद्ध के पुत्र वज्रका राज्याभिषेक कर दिया ।। 25 ॥ राजन् तुम्हारे दादा युधिष्ठिर आदि पाण्डवको अर्जुनसे ही यह बात मालूम हुई कि यदुवंशियोंका संहार हो गया है। तब उन्होंने अपने वंशधर तुम्हें राज्यपदपर अभिषिक्त करके हिमालयकी वीरयात्रा की ।। 26 ।।मैंने तुम्हें देवताओंके भी आराध्यदेव भगवान् श्रीकृष्णकी जन्मलीला और कर्मलीला सुनायी। जो मनुष्य श्रद्धाके साथ इसका कीर्तन करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 27 ॥ परीक्षित्! जो मनुष्य इस प्रकार भक्तभयहारी निखिल सौन्दर्यमाधुर्यनिधि श्रीकृष्णचन्द्रके अवतार-सम्बन्धी रुचिर पराक्रम और इस श्रीमद्भागवत महापुराणमें तथा दूसरे पुराणोंमें वर्णित परमानन्दमयी बाललीला, कैशोरलीला आदिका सङ्कीर्तन करता है, वह परमहंस मुनीन्द्रोंके अन्तिम प्राप्तव्य श्रीकृष्णके चरणोंमें पराभक्ति प्राप्त करता है ॥ 28 ॥