Shree Naval Kishori

श्रीमद्भागवत महापुराण नवमं स्कंध

अध्याय 1 वैवस्वत मनुके पुत्र राजा सुद्युनकी कथा

राजा परीक्षितने पूछा-भगवन्! आपने सब मन्वन्तरों और उनमें अनन्त शक्तिशाली भगवान्के द्वारा किये हुए ऐश्वर्यपूर्ण चरित्रोंका वर्णन किया और मैने उनका श्रवण भी किया ॥ 1 ॥ आपने कहा कि पिछले कल्पके अन्तमें द्रविड़ देशके स्वामी राजर्षि सत्यव्रतने भगवान्की सेवासे ज्ञान प्राप्त किया और वही इस कल्पमें वैवस्वत मनु हुए। आपने उनके इक्ष्वाकु आदि नरपति पुत्रोंका भी वर्णन किया ।। 2-3 ॥ ब्रह्मन् ! अब आप कृपा करके उनके वंश और वंशमें होनेवालोका अलग-अलग चरित्र वर्णन कीजिये। महाभाग ! हमारे हृदयमें सर्वदा ही कथा सुननेकी उत्सुकता बनी रहती है ॥ 4 ॥ वैवस्वत मनुके वंशमें जो हो चुके हों, इस समय विद्यमान हों और आगे होनेवाले हो— उन सब पवित्रकीर्ति पुरुषोंके पराक्रमका वर्णन कीजिये ।। 5 ।।

सूतजी कहते हैं- शौनकादि ऋषियो ! ब्रह्मवादी ऋषियोंको सभामें राजा परीक्षित्ने जब यह प्रश्न किया, तब धर्मके परम मर्मज्ञ भगवान् श्रीशुकदेवजीने कहा ॥ 6 ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित्! तुम मनुवंशका वर्णन संक्षेपसे सुनो। विस्तारसे तो सैकड़ों वर्ष भी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता ॥ 7 ॥। जो परम पुरुष परमात्मा छोटे-बड़े सभी प्राणियोंके आत्मा हैं, प्रलयके समय केवल वही थे; यह विश्व तथा और कुछ भी नहीं था ॥ 8 ॥ महाराज! उनकी नाभिसे एक सुवर्णमय कमलकोष प्रकट हुआ। उसीमें चतुर्मुख ब्रह्माजीका आविर्भाव हुआ ।। 9 ।। ब्रह्माजीके मनसे मरीचि और मरीचिके पुत्र कश्यप हुए। उनकी धर्मपत्नी दक्षनन्दिनी अदितिसे विवस्वान् (सूर्य) का जन्म हुआ ॥ 10 ॥ विवस्वान्की संज्ञा नामक पत्नीसे श्राद्धदेव मनुका जन्म हुआ। परीक्षित्! परम मनस्वी राजा श्राद्धदेवने अपनी पत्नी श्रद्धाके गर्भसे दस पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम थे— इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट, धृष्ट, करूष, नरिष्यन्त, पृषभ, नभग और कवि ।। 11-12 ।।

वैवस्वत मनु पहले सन्तानहीन थे उस समय सर्वसमर्थ भगवान् वसिष्ठने उन्हें सन्तान प्राप्ति करानेके लिये मित्रावरुणका यज्ञ कराया था ॥ 13 ॥ यज्ञके आरम्भ में केवल दूध पीकर रहनेवाली वैवस्वत मनुकी धर्मपत्नी श्रद्धाने अपने होताके पास जाकर प्रणामपूर्वक याचना की कि मुझे कन्या ही प्राप्त हो 14 तब अध्वर्युकी प्रेरणासे होता बने हुए ब्राह्मणने श्रद्धाके कथनका स्मरण करके एकाग्र चित्तसे वषट्कारका उच्चारण | करते हुए यज्ञकुण्डमें आहुति दी ।। 15 । जब होताने इस प्रकार विपरीत कर्म किया, तब यज्ञके फलस्वरूप पुत्रके स्थानपर इला नामकी कन्या हुई। उसे देखकर श्राद्धदेव मनुका मन कुछ विशेष प्रसन्न नहीं हुआ। उन्होंने अपने गुरु वसिष्ठजीसे कहा- | 16 || ‘भगवन्! आपलोग तो ब्रह्मवादी हैं, आपका कर्म इस प्रकार विपरीत फल देनेवाला कैसे हो गया ? अरे, यह तो बड़े दुःखकी बात है। वैदिक कर्मका ऐसा विपरीत फल तो कभी नहीं होना चाहिये 17 ॥ आप लोगोंका मन्त्रज्ञान तो पूर्ण है ही इसके अतिरिक्त आपलोग जितेन्द्रिय भी है तथा तपस्याके कारण निष्पाप हो चुके है देवताओगे असत्यकी प्राप्तिके समान आपके संकल्पका यह उलटा | फल कैसे हुआ ?’ ।। 18 ।।परीक्षित् | हमारे वृद्धमपितामह भगवान् वस्ने उनकी यह बात सुनकर जान लिया कि होताने विपरीत संकल्प किया है। इसलिये उन्होंने चैवस्वत मनुसे कहा- ॥ 19 ॥ ‘राजन् ! तुम्हारे होताके विपरीत संकल्पसे ही हमारा संकल्प ठीक-ठीक पूरा नहीं हुआ। फिर भी अपने तपके प्रभावसे मैं तुम्हें श्रेष्ठ पुत्र दूँगा’ ॥ 20 ॥

परीक्षित्! परम यशस्वी भगवान् वसिष्ठने ऐसा निश्चय करके उस इला नामकी कन्याको ही पुरुष बना देनेके लिये पुरुषोत्तम भगवान् नारायणको स्तुति की ॥ 21 ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरिने सन्तुष्ट होकर उन्हें मुँहमाँगा वर दिया, जिसके प्रभावसे वह कन्या ही सुद्युम्न नामक श्रेष्ठ पुत्र बन गयी ॥ 22 ॥

महाराज! एक बार राजा सुद्युन शिकार खेलनेके लिये सिन्धुदेशके घोड़ेपर सवार होकर कुछ मन्त्रियोंके साथ वनमें गये ॥ 23 ॥ वीर सुद्युम्न कवच पहनकर और हाथमें सुन्दर धनुष एवं अत्यन्त अद्भुत वाण लेकर हरिनोंका पीछा करते हुए उत्तर दिशामें बहुत आगे बढ़ गये ।। 24 । अन्तमें सुधुम्र मेरुपर्वतकी तलहटीके एक वनमें चले गये। उस वनमें भगवान् शङ्कर पार्वतीके साथ विहार करते रहते हैं ।। 25 । उसमें प्रवेश करते ही वीरवर सुद्युम्नने देखा कि मैं स्त्री हो गया हूँ और घोड़ा घोड़ी हो गया है ।। 26 ॥ परीक्षित् । साथ ही उनके सब अनुचरोंने भी अपनेको स्त्रीरूपमें देखा। वे सब एक-दूसरेका मुँह देखने लगे, उनका चित्त बहुत उदास हो गया ।। 27 ।।

राजा परीक्षितने पूछा- भगवन्! उस भूखण्ड में ऐसा विचित्र गुण कैसे आ गया ? किसने उसे ऐसा बना दिया था ? आप कृपा कर हमारे इस प्रश्नका उत्तर दीजिये; क्योंकि हमें बड़ा कौतूहल हो रहा है ।। 28 ।।श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित्! एक दिन भगवान् शङ्करका दर्शन करनेके लिये बड़े-बड़े व्रतधारी ऋषि अपने तेजसे दिशाओंका अन्धकार मिटाते हुए उस वनमें गये ॥ 29 ॥ उस समय अम्बिका देवी वस्त्रहीन थीं। ऋषियोंको सहसा आया देख वे अत्यन्त लज्जित हो गयीं। झटपट उन्होंने भगवान् शङ्करकी गोदसे उठकर वस्त्र धारण कर लिया ॥ 30 ॥

ऋषियोंने भी देखा कि भगवान् गौरी-शङ्कर इस समय विहार कर रहे हैं, इसलिये वहाँसे लौटकर वे भगवान् नर-नारायणके आश्रमपर चले गये ॥ 31 ॥ उसी समय भगवान् शङ्करने अपनी प्रिया भगवती अम्बिकाको प्रसन्न करनेके लिये कहा कि ‘मेरे सिवा जो भी पुरुष इस स्थानमें प्रवेश करेगा, वहीं स्त्री हो जायेगा’ ॥ 32 ॥ परीक्षित्! तभीसे पुरुष उस स्थानमें प्रवेश नहीं करते। अब सुन स्त्री हो गये थे। इसलिये वे अपने स्त्री बने हुए अनुचरोंके साथ एक वनसे दूसरे वनमें विचरने लगे ॥ 33 ॥

उसी समय शक्तिशाली बुधने देखा कि मेरे आश्रमके पास ही बहुत-सी स्त्रियोंसे घिरी हुई एक सुन्दरी स्त्री विचर रही है। उन्होंने इच्छा की कि यह मुझे प्राप्त हो जाय 34 ॥ उस सुन्दरी स्त्रीने भी चन्द्रकुमार बुधको पति बनाना चाहा। इसपर बुधने उसके गर्भसे पुरूरवा नामका पुत्र उत्पन्न किया ।। 35 ।। इस प्रकार मनुपुत्र राजा सुद्युन स्त्री हो गये। ऐसा सुनते हैं कि उन्होंने उस अवस्थामें अपने कुलपुरोहित वसिष्ठजीका स्मरण किया ।। 36 ।।

सुधुनकी यह दशा देखकर वसिष्ठजीके हृदयमें कृपा अत्यन्त पीड़ा हुई। उन्होंने सुसुको पुनः पुरुष बना देनेके लिये भगवान् शङ्करकी आराधना की ।। 37 ।। भगवान् शङ्कर वसिष्ठजीपर प्रसन्न हुए। परीक्षित् । उन्होंने उनकी अभिलाषा पूर्ण करनेके लिये अपनी वाणीको सत्य रखते हुए ही यह बात कही- ll 38 ll’वसिष्ठ ! तुम्हारा यह यजमान एक महीनेतक पुरुष रहेगा और एक महीनेतक स्त्री। इस व्यवस्थासे सुद्युम्न इच्छानुसार पृथ्वीका पालन करे’ ॥ 39 ॥ इस प्रकार वसिष्ठजीके अनुग्रहसे व्यवस्थापूर्वक अभीष्ट पुरुषत्व लाभ करके सुद्युम्न पृथ्वीका पालन करने लगे । परंतु प्रजा उनका अभिनन्दन नहीं करती थी ॥ 40 ॥ उनके तीन पुत्र हुए- उत्कल, गय और विमल । परीक्षित्! वे सब दक्षिणापथके राजा हुए ॥ 41 ॥ बहुत दिनोंके बाद वृद्धावस्था आनेपर प्रतिष्ठान नगरीके अधिपति सुद्युम्नने अपने पुत्र पुरूरवाको राज्य दे दिया और स्वयं तपस्या करनेके लिये वनकी यात्रा की ॥ 42 ॥

अध्याय 2 पृषध, आदि मनुके पाँच पुत्रोंका वंश

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! इस प्रकार जब सुद्युम्न तपस्या करनेके लिये वनमें चले गये, तब वैवस्वत मनुने पुत्रकी कामनासे यमुनाके तटपर सौ वर्षतक तपस्या की ॥ 1 ॥ इसके बाद उन्होंने सन्तानके लिये सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरिकी आराधना की और अपने ही समान दस पुत्र प्राप्त किये, जिनमें सबसे बड़े इक्ष्वाकु थे ॥ 2 ॥

उन मनुपुत्रोंमेंसे एकका नाम था पृषध। गुरु वसिष्ठजीने उसे गायोंकी रक्षामें नियुक्त कर रखा था, अतः वह रात्रिके समय बड़ी सावधानीसे वीरासनसे 3 बैठा रहता और गायोंकी रक्षा करता ॥ 3 ॥ एक दिन रातमें वर्षा हो रही थी। उस समय गायोंके झुंडमें एक बाघ घुस आया। उससे डरकर सोयी हुई गौएँ उठ खड़ी 4 हुईं। वे गोशालामें ही इधर-उधर भागने लगीं ॥ 4 ॥बलवान् बाघने एक गायको पकड़ लिया। वह अत्यन्त भयभीत होकर चिल्लाने लगी। उसका वह क्रन्दन सुनकर पृषध गायके पास दौड़ आया ॥ 5 ॥ एक तो रातका समय और दूसरे घनघोर घटाओंसे आच्छादित होनेके कारण तारे भी नहीं दीखते थे। उसने हाथमें तलवार उठाकर अनजानमें ही बड़े वेगसे गायका सिर काट दिया। वह समझ रहा था कि यही बाघ है॥ 6 ॥ तलवारकी नोकसे बाधका भी कान कट गया, वह अत्यन्त भयभीत होकर रास्तेमें खून गिराता हुआ वहाँसे निकल भागा ॥ 7 ॥ शत्रुदमन पृषधने यह समझा कि बाघ मर गया। परंतु रात बीतनेपर उसने देखा कि मैंने तो गायको ही मार डाला है, इससे उसे बड़ा दुःख हुआ ॥ 8 ॥ यद्यपि पृषधने जान-बूझकर अपराध नहीं किया था, फिर भी कुलपुरोहित वसिष्ठजीने उसे शाप दिया कि ‘तुम इस कर्मसे क्षत्रिय नहीं रहोगे; जाओ, शूद्र हो जाओ ॥ 9 ॥ पृषधने अपने गुरुदेवका यह शाप अञ्जलि बाँधकर स्वीकार किया और इसके बाद सदाके लिये मुनियोंको प्रिय लगनेवाले नैष्ठिक ब्रह्मचर्य व्रतको धारण किया ।। 10 । वह समस्त प्राणियोंका अहैतुक हितैषी एवं सबके प्रति समान भावसे युक्त होकर भक्तिके द्वारा परम विशुद्ध सर्वात्मा भगवान् वासुदेवका अनन्य प्रेमी हो गया ।। 11 ।। उसकी सारी आसक्तियाँ मिट गयीं। वृत्तियाँ शान्त हो गयीं। इन्द्रियाँ वशमें हो गयीं। वह कभी किसी प्रकारका संग्रह परिग्रह नहीं रखता था जो कुछ दैववश प्राप्त हो जाता, उसीसे अपना जीवन निर्वाह कर लेता ॥ 12 ॥ वह आत्मज्ञानसे सन्तुष्ट एवं अपने चित्तको परमात्मामें स्थित करके प्रायः समाधिस्थ रहता। कभी-कभी जद, अंधे और बहरेके समान पृथ्वीपर विचरण करता ॥ 13 ॥ इस प्रकारका जीवन व्यतीत करता हुआ वह एक दिन वनमें गया। वहाँ उसने देखा कि दावानल धधक रहा है। मननशील पृषध अपनी इन्द्रियोंको उसी अनिमें भस्म करके परब्रह्म परमात्माको प्राप्त हो गया ।। 14 ।।

मनुका सबसे छोटा पुत्र था कवि विषयोंसे वह अत्यन्त निःस्पृह था। वह राज्य छोड़कर अपने बन्धुओंके साथ वनमें चला गया और अपने हृदयमें स्वयंप्रकाशपरमात्माको विराजमान कर किशोर अवस्थामें ही परम पदको प्राप्त हो गया ll 15 ll

मनुपुत्र करूषसे कारूष नामक क्षत्रिय उत्पन्न हुए। वे बड़े ही ब्राह्मणभक्त, धर्मप्रेमी एवं उत्तरापथके रक्षक थे ॥ 16 ॥ धृष्टके धार्ष्ट नामक क्षत्रिय हुए। अन्तमें वे इस शरीर से ही ब्राह्मण बन गये। नृगका पुत्र हुआ सुमति, उसका पुत्र भूतज्योति और भूतज्योतिका पुत्र वसु था ॥ 17 ॥ वसुका पुत्र प्रतीक और प्रतीकका पुत्र ओघवान्। ओघवान्‌के पुत्रका नाम भी ओघवान् ही था। उनके एक ओघवती नामकी कन्या भी थी, जिसका विवाह सुदर्शनसे हुआ ॥ 18 ॥ मनुपुत्र नरिष्यन्तसे चित्रसेन, उससे ऋक्ष, ऋक्षसे मीढ्वान्, मीवान्से कुर्च और उससे इन्द्रसेनकी उत्पत्ति हुई ॥ 19 ॥ इन्द्रसेनसे वीतिहोत्र, उससे सत्यश्रवा, सत्यश्रवासे उरुश्रवा और उससे देवदत्तकी उत्पत्ति हुई ॥ 20 ॥

देवदत्तके अग्निवेश्य नामक पुत्र हुए, जो स्वयं अग्निदेव ही थे। आगे चलकर वे ही कानीन एवं महर्षि जातूकर्ण्यके नामसे विख्यात हुए ॥ 21 ॥ परीक्षित्! ब्राह्मणोंका ‘आमिवेश्यायन गोत्र उन्हींसे चला है। इस प्रकार नरिष्यन्तके वंशका मैंने वर्णन किया, अब दिष्टका वंश सुनो ॥ 22 ॥

दिष्टके पुत्रका नाम था नाभाग। यह उस नाभागसे अलग है, जिसका मैं आगे वर्णन करूंगा। वह अपने कर्मके कारण वैश्य हो गया। उसका पुत्र हुआ भलन्दन और उसका वत्सप्रीति ॥ 23 ॥ वत्सप्रीतिका प्रांशु और प्रांशुका पुत्र हुआ प्रगति प्रमतिके खनित्र, सत्रिके चाक्षुष और उनके विविंशति हुए ॥ 24 विविंशतिके पुत्र रम्भ और रम्भके पुत्र सनिनेत्र दोनों ही परम धार्मिक हुए उनके पुत्र कथम और कथमके अवीक्षित् महाराज परीक्षित् अवीक्षित्के पुत्र मरुत चक्रवर्ती राजा हुए। उनसे अङ्गिराके पुत्र महायोगीसंवर्त ऋषिने यज्ञ कराया था ।। 25-26 ॥ मरुत्तका यज्ञ जैसा हुआ, वैसा और किसीका नहीं हुआ। उस यज्ञके समस्त छोटे-बड़े पात्र अत्यन्त सुन्दर एवं सोनेके | बने हुए थे ॥ 27 ॥ उस यज्ञमें इन्द्र सोमपान करके मतवाले हो गये थे और दक्षिणाओंसे ब्राह्मण तृप्त हो गये थे उसमें परसनेवाले थे मरुद्गण और विश्वेदेव सभासद् थे ॥ 28 ॥

मरुतके पुत्रका नाम था दम दमसे राज्यवर्धन, उससे सुधृति और सुधृतिसे नर नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई ।। 29 ।। नरसे केवल, केवलसे बन्धुमान्, बन्धुमान्से वेगवान्, वेगवान्से बन्धु और बन्धुसे राजा तृणविन्दुका जन्म हुआ ॥ 30 ॥ तृणबिन्दु आदर्श गुणोंके भण्डार थे। अप्सराओंमें श्रेष्ठ अलम्बुषा देवीने उनको वरण किया, जिससे उनके कई पुत्र और इडविडा नामकी एक कन्या उत्पन्न हुई ॥ 31 ॥ मुनिवर विश्रवाने अपने योगेश्वर पिता पुलस्त्यजीसे उत्तम विद्या प्राप्त करके इडविडाके गर्भसे लोकपाल कुबेरको पुत्ररूपमें उत्पन्न किया ।। 32 ।। महाराज तृणविन्दुके अपनी धर्मपत्नीसे तीन पुत्र हुए- विशाल, शून्यबन्धु और धूम्रकेतु उनमेंसे राजा विशाल वंशधर हुए और उन्होंने वैशाली नामकी नगरी बसायी ॥ 33 ॥ विशालसे हेमचन्द्र, हेमचन्द्र से भूम्राक्ष, धूम्राक्षसे संयम और संयमसे दो पुत्र हुए- कृशाश्च और देवज ।। 34 ।। कृशाश्वके पुत्रका नाम था सोमदत्त। उसने अश्वमेध यज्ञोंके द्वारा यज्ञपति भगवान्‌की आराधना की और योगेश्वर संतोंका आश्रय लेकर उत्तम गति प्राप्त की ।। 35 ।। सोमदत्तका पुत्र हुआ सुमति और सुमतिसे जनमेजय। ये सब तृणबिन्दुकी कीर्तिको बढ़ानेवाले विशालवंशी राजा हुए ।। 36 ।।

अध्याय 3 महर्षि च्यवन और सुकन्याका चरित्र, राजा शर्याति

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् । मनुपुत्र राजा शर्याति वेदोंका निष्ठावान् विद्वान् था। उसने अङ्गिरा गोत्रके ऋषियोंके यज्ञमें दूसरे दिनका कर्म बतलाया था ॥ 1 ॥ उसकी एक कमललोचना कन्या थी उसका नाम था 1 सुकन्या एक दिन राजा शर्याति अपनी कन्याके साथ वनमें घूमते-घूमते च्यवन ऋषिके आश्रमपर जा पहुँचे || 2 || सुकन्या अपनी सखियोंके साथ वनमें घूम-घूमकर वृक्षोंका सौन्दर्य देख रही थी। उसने एक स्थानपर देखा कि बॉबी ( दीमकोंकी एकत्रित की हुई मिट्टी) के छेदमेंसे जुगनूकी तरह दो ज्योतियाँ दीख रही हैं ।। 3 । दैवकी कुछ ऐसी ही प्रेरणा थी, सुकन्याने बालसुलभ चपलतासे एक काँटेके द्वारा उन ज्योतियोंको बेध दिया। इससे उनमेसे बहुत सा खून बह चला ॥ 4 ॥ उसी समय राजा शर्यातिके सैनिकोंका मल-मूत्र रुक गया। राजर्षि शर्यातिको यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, उन्होंने अपने सैनिकोंसे कहा ॥ 5 ॥ ‘अरे, तुमलोगोने कहीं महर्षि च्यवनजीके प्रति कोई अनुचित व्यवहार तो नहीं कर दिया ? मुझे तो यह स्पष्ट जान पड़ता है कि हमलोगों से किसी-न-किसीने उनके आश्रम में कोई अनर्थ किया है ॥ 6 ॥ तब सुकल्याने अपने पितासे डरते-डरते कहा कि ‘पिताजी! मैंने कुछ अपराध अवश्य किया है। मैंने अनजानमें दो ज्योतियोंको काँटेसे छेद दिया है ॥ 7 ॥ अपनी कन्याकी यह बात सुनकर शर्याति घबरा गये। उन्होंने धीरे-धीरे स्तुति करके बॉबीमे छिपे हुए च्यवन मुनिको प्रसन्न किया 8 ॥ तदनन्तर च्यवन मुनिका अभिप्राय जानकर उन्होंने अपनी कन्या उन्हें समर्पित कर दी और इस संकटसे छूटकर बड़ी सावधानीसे उनकी अनुमति लेकर वे अपनी राजधानी में चले आये ॥ 9 ॥

इधर सुकन्या परम क्रोधी च्यवन मुनिको अपने पतिके रूपमें प्राप्त करके बड़ी सावधानीसे उनकी सेवा करती हुई उन्हें प्रसन्न करने लगी। वह उनकी मनोवृत्तिको जानकर उसके अनुसार ही बर्ताव करती थी ll 10 llकुछ समय बीत जानेपर उनके आश्रमपर दोनों अश्विनीकुमार आये। च्यवन मुनिने उनका यथोचित सत्कार किया और कहा कि ‘आप दोनों समर्थ है, | इसलिये मुझे युवा अवस्था प्रदान कीजिये मेरा रूप एवं अवस्था ऐसी कर दीजिये, जिसे युवती स्त्रियाँ चाहती हैं। मैं जानता हूँ कि आपलोग सोमपानके अधिकारी नहीं है, फिर भी मैं आपको यज्ञमें सोमरसका भाग दूँगा ॥ 11-12 ॥ वैद्यशिरोमणि अश्विनीकुमारोंने महर्षि च्यवनका अभिनन्दन करके कहा, ‘ठीक है।’ और इसके बाद उनसे कहा कि ‘यह सिद्धोंके द्वारा बनाया हुआ कुण्ड है, आप इसमें स्नान कीजिये ॥ 13 ॥ च्यवन मुनिके शरीरको बुढ़ापेने घेर रखा था। सब ओर नसें दीख रही थीं, झुर्रियाँ पड़ जाने एवं बाल पक जानेके कारण वे | देखनेमें बहुत भद्दे लगते थे। अश्विनीकुमारोंने उन्हें अपने साथ लेकर कुण्डमें प्रवेश किया ।। 14 ।। उसी समय कुण्डसे तीन पुरुष बाहर निकले। वे तीनों ही कमलोंकी माला, कुण्डल और सुन्दर वस्त्र पहने एक से मालूम होते. थे वे बड़े ही सुन्दर एवं स्त्रियोंको प्रिय लगनेवाले थे ॥ 15 ॥ परम साध्वी सुन्दरी सुकन्याने जब देखा कि ये तीनों ही एक आकृतिके तथा सूर्यके समान तेजस्वी हैं, तब अपने पतिको न पहचानकर उसने अश्विनीकुमारोंकी शरण ली ।। 16 ।। उसके पातिव्रत्य से अश्विनीकुमार बहुत सन्तुष्ट हुए। उन्होंने उसके पतिको बतला दिया और फिर च्यवन मुनिसे आज्ञा लेकर विमानके द्वारा वे स्वर्गको चले गये ॥ 17 ॥

कुछ समयके बाद यज्ञ करनेकी इच्छासे राजा शर्याति च्यवन मुनिके आश्रमपर आये। वहाँ उन्होंने देखा कि उनकी कन्या सुकन्याके पास एक सूर्यके समान तेजस्वी पुरुष बैठा हुआ है ।। 18 ।। सुकन्याने उनके चरणोंकी वन्दना की। शर्यातिने उसे आशीर्वाद नहीं दिया और कुछ अप्रसन्न से होकर बोले ॥ 19 ॥ ‘दुष्टे ! यह | तूने क्या किया ? क्या तूने सबके वन्दनीय च्यवन मुनिको धोखा दे दिया ? अवश्य ही तूने उनको बूढ़ा और अपने कामका न समझकर छोड़ दिया और अब तू इस राह चलते जार पुरुषकी सेवा कर रही है ॥ 20 ॥ तेरा जन्म तो | बड़े ऊँचे कुलमें हुआ था। यह उलटी बुद्धि तुझे कैसे प्राप्त हुई? तेरा यह व्यवहार तो कुलमें कलङ्क लगानेवाला है। अरे राम-राम । तू निर्लज्ज होकर जार पुरुषकी सेवा कररही है और इस प्रकार अपने पिता और पति दोनोंक वंशको घोर नरकमें ले जा रही है’ ॥ 21 ॥ राजा शर्यातिके इस प्रकार कहनेपर पवित्र मुसकानवाली सुकन्याने मुसकराकर कहा- ‘पिताजी! ये आपके जामाता स्वयं भृगुनन्दन महर्षि च्यवन ही हैं’ ॥ 22 ॥ इसके बाद उसने अपने पितासे महर्षि च्यवनके यौवन और सौन्दर्यकी प्राप्तिका सारा वृत्तान्त कह सुनाया। वह सब सुनकर राजा शर्याति अत्यन्त विस्मित हुए। उन्होंने बड़े प्रेमसे अपनी पुत्रीको गलेसे लगा लिया ॥ 23 ॥

महर्षि च्यवनने वीर शर्यातिसे सोमयज्ञका अनुष्ठान करवाया और सोमपानके अधिकारी न होनेपर भी अपने प्रभावसे अश्विनीकुमारोंको सोमपान कराया ॥ 24 ॥ इन्द्र | बहुत जल्दी क्रोध कर बैठते हैं। इसलिये उनसे यह सहा न गया। उन्होंने चिढ़कर शर्यातिको मारनेके लिये वज्र उठाया। महर्षि च्यवनने वज्रके साथ उनके हाथको वहीं स्तम्भित कर दिया ॥ 25 ॥ तब सब देवताओंने अश्विनीकुमारोंको सोमका भाग देना स्वीकार कर लिया। उन लोगोंने वैद्य होनेके कारण पहले अश्विनीकुमारोंका सोमपानसे बहिष्कार कर रखा था ।। 26 ।।

परीक्षित् शर्वातिके तीन पुत्र थे— उत्तान वर्हि आनर्त और भूरिषेण आनर्तसे रेवत हुए ।। 27 ।। महाराज ! रेवतने समुद्रके भीतर कुशस्थली नामकी एक नगरी बसायी थी। उसीमें रहकर वे आनर्त आदि देशोंका राज्य करते थे ॥ 28 उनके सौ श्रेष्ठ पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़े थे ककुद्मी ककुधी अपनी कन्या रेवतीको लेकर उसके लिये वर पूछने के उद्देश्यीपास गये। उस समय ब्रह्मलोकका रास्ता ऐसे लोगोंके लिये बेरोक-टोक था। ब्रह्मलोकमें गाने-बजानेकी धूम मची हुई थी। बातचीत के लिये अवसर न मिलनके कारण वे कुछ क्षण वहीं ठहर गये ।। 29-30 ।। उत्सवके अन्तमें ब्रह्माजीको नमस्कार करके उन्होंने अपना अभिप्राय निवेदन किया। उनकी बात सुनकर भगवान् ब्रह्माजीने हँसकर उनसे कहा – ॥ 31 ॥’महाराज ! तुमने अपने मनमें जिन लोगोंके विषयमें सोच रखा था, वे सब तो कालके गालमें चले गये। अब उनके पौत्र अथवा नातियोंकी तो बात ही क्या है, पुत्र, गोत्रोंके नाम भी नहीं सुनायी पड़ते ॥ 32 ॥ इस बीचमें सत्ताईस चतुर्युगीका समय बीत चुका है। इसलिये तुम जाओ। इस समय भगवान् अंशावतार महाबली बलदेवजी पृथ्वीपर विद्यमान हैं ॥ 33 ॥ राजन् ! उन्हीं नररत्नको यह कन्यारत्न तुम समर्पित कर दो। जिनके नाम, लीला आदिका श्रवण-कीर्तन बड़ा ही पवित्र है – वे ही प्राणियोंके जीवनसर्वस्व भगवान् पृथ्वीका भार उतारनेके लिये अपने अंशसे अवतीर्ण हुए हैं।’ राजा ककुद्मीने ब्रह्माजीका यह आदेश प्राप्त करके उनके चरणोंकी वन्दना की और अपने नगरमें चले आये। उनके वंशजोंने यक्षोंके भयसे वह नगरी छोड़ दी थी और जहाँ-तहाँ यों ही निवास कर रहे थे ॥ 34-35 ॥ राजा ककुद्मीने अपनी | सर्वाङ्गसुन्दरी पुत्री परम बलशाली बलरामजीको सौंप दी | और स्वयं तपस्या करनेके लिये भगवान् नर-नारायणके आश्रम बदरीवनकी ओर चल दिये ॥ 36 ॥

अध्याय 4 नाभाग और अम्बरीषकी कथा

श्रीशुकदेवजी कहते हैं— परीक्षित्! मनुपुत्र नभगका पुत्र था नाभाग। जब वह दीर्घकालतक ब्रह्मचर्यका पालन करके लौटा, तब बड़े भाइयोंने अपनेसे छोटे किन्तु विद्वान् भाईको हिस्सेमें केवल पिताको ही दिया (सम्पत्ति तो उन्होंने पहले ही आपसमें बाँट ली थी) ॥ 1 ॥ उसने अपने भाइयोंसे पूछा – ‘भाइयो! आपलोगोंने मुझे हिस्से में क्या दिया है ?’ तब उन्होंने उत्तर दिया कि ‘हम तुम्हारे हिस्से में पिताजीको ही तुम्हें देते हैं।’ उसने अपने पितासे जाकर कहा- ‘पिताजी! मेरे बड़े भाइयोंने हिस्सेमें मेरे लिये आपको ही दिया है।’ पिताने कहा- ‘बेटा! तुम उनकी बात न मानो ॥ 2 ॥ देखो, ये बड़े बुद्धिमान् आङ्गिरस-गोत्रके ब्राह्मण इस समय एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे हैं। परन्तु मेरेविद्वान् पुत्र । वे प्रत्येक छठे दिन अपने कर्ममें भूल कर बैठते हैं ॥ 3 ॥ तुम उन महात्माओंके पास जाकर उन्हें वैश्वदेवसम्बन्धी दो सूक्त बतला दो; जब वे स्वर्ग जाने लगेंगे, तब यज्ञसे बचा हुआ अपना सारा धन तुम्हें दे देंगे। इसलिये अब तुम उन्होंके पास चले जाओ।’ उसने अपने पिताके आज्ञानुसार वैसा ही किया। उन आङ्गिरस गोत्री ब्राह्मणोंने भी यज्ञका बचा हुआ धन उसे दे दिया और वे स्वर्गमें चले गये 4-5 ॥

जब नाभाग उस धनको लेने लगा, तब उत्तर दिशासे एक काले रंगका पुरुष आया। उसने कहा- ‘इस यज्ञ भूमिमें जो कुछ बचा हुआ है, वह सब घन मेरा है ‘॥ 6 ॥
नाभागने कहा -‘ऋषियोंने यह धन मुझे दिया है, इसलिये मेरा है। इसपर उस पुरुषने कहा- ‘हमारे विवादके विषयमें तुम्हारे पितासे ही प्रश्न किया जाय।’ तब नाभागने जाकर पितासे पूछा ॥ 7 ॥ पिताने कहा- ‘एक बार दक्षप्रजापतिके यज्ञमें ऋषिलोग यह निश्चय कर चुके हैं कि यज्ञभूमिमें जो कुछ बच रहता है, वह सब रुद्रदेवका हिस्सा है। इसलिये वह धन तो महादेवजीको ही मिलना चाहिये ॥ 8 ॥ नाभागने जाकर उन काले रंगके पुरुष रुद्रभगवान्‌को प्रणाम किया और कहा कि ‘प्रभो! यज्ञभूमिकी सभी वस्तुएँ आपकी हैं, मेरे पिताने ऐसा ही कहा है। भगवन्! मुझसे अपराध हुआ, मैं सिर झुकाकर आपसे क्षमा माँगता हूँ’ ॥ 9 ॥ तब भगवान् रुद्रने कहा—’तुम्हारे पिताने धर्मके अनुकूल निर्णय दिया है। और तुमने भी मुझसे सत्य ही कहा है। तुम वेदोंका अर्थ तो पहलेसे ही जानते हो अब मैं तुम्हें सनातन ब्रह्मतत्त्वका ज्ञान देता हूँ || 10 | यहाँ यज्ञमें बचा हुआ मेरा जो अंश है, यह धन भी मैं तुम्हें ही दे रहा हूँ तुम इसे स्वीकार करो।’ इतना कहकर सत्यप्रेमी भगवान् रुद्र अन्तर्धान हो गये ॥ 11 जो मनुष्य प्रातः और सायंकाल एकाग्रचित्तसे इस आख्यानका स्मरण करता है, वह प्रतिभाशाली एवं वेदश तो होता ही है, साथ ही अपने स्वरूपको भी जान लेता है ।। 12 ।। नाभागके पुत्र हुए अम्बरीष। वे भगवान्के बड़े प्रेमी एवं उदार धर्मात्मा थे। जो ब्रह्मशाप कभी कहीं रोका नहीं जा सका, वह भी अम्बरीषका स्पर्श न कर सका ।। 13 ।।

राजा परीक्षितने पूछा- भगवन्। मैं परमज्ञानी राजर्षि अम्बरीषका चरित्र सुनना चाहता हूँ। ब्राह्मणने क्रोधित होकर उन्हें ऐसा दण्ड दिया, जो किसी प्रकार टालानहीं जा सकता; परन्तु वह भी उनका कुछ न बिगाड़ सका ।। 14 ।।

श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित्! अम्बरीष बड़े भाग्यवान् थे। पृथ्वीके सातों द्वीप, अचल सम्पत्ति और अतुलनीय ऐश्वर्य उनको प्राप्त था। यद्यपि ये सब साधारण मनुष्योंके लिये अत्यन्त दुर्लभ वस्तुएँ हैं, फिर भी वे इन्हें स्वप्रतुल्य समझते थे क्योंकि वे जानते थे कि जिस धन-वैभवके लोभ में पड़कर मनुष्य घोर नरकमें जाता है, वह केवल चार दिनकी चांदनी है उसका दीपक तो बुझा-बुझाया है ।। 15-16 ॥ भगवान् श्रीकृष्ण और उनके प्रेमी साधुओंमें उनका परम प्रेम था। उस प्रेमके प्राप्त हो जानेपर तो यह सारा विश्व और इसकी समस्त सम्पत्तियाँ मिट्टीके ढेलेके समान जान पड़ती हैं ॥ 17 ॥ उन्होंने अपने मनको श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्दयुगलमे, वाणीको भगवद्गुणानुवर्णनमें, हाथोंको श्रीहरिमन्दिरके मार्जन सेचनमें और अपने कानोंको भगवान् अच्युतकी मङ्गलमयी कथाके श्रवणमें लगा रखा था ॥ 18 ॥ उन्होंने अपने नेत्र मुकुन्दमूर्ति एवं मन्दिरों के दर्शनोंमें, अक्ष सङ्ग भगवद् भक्तोंके शरीर स्पर्शमें, नासिका उनके चरणकमलोंपर चढ़ी श्रीमती तुलसीके दिव्य गन्धमें और रसना (जिल्हा) को भगवान्‌के प्रति अर्पित नैवेद्य-प्रसादमे संलग्न कर दिया था ।। 19 ।। अम्बरीषके पैर भगवान्‌के क्षेत्र आदिको पैदल यात्रा करनेमें ही लगे रहते और वे सिरसे भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी वन्दना किया करते। राजा अम्बरीषने माला, चन्दन आदि भोग सामग्रीको भगवान्‌की सेवामें समर्पित कर दिया था। भोगनेकी इच्छासे नहीं, बल्कि इसलिये कि इससे वह भगवत्प्रेम प्राप्त हो, जो पवित्रकीर्ति भगवान् के निज-जनोंमें ही निवास करता है | 20 | इस प्रकार उन्होंने अपने सारे कर्म यज्ञपुरुष, इन्द्रियातीत भगवान्‌ के प्रति उन्हें सर्वात्मा एवं सर्वस्वरूप समझकर समर्पित कर दिये थे और भगवद्भक्त ब्राह्मणोंकी आज्ञाके अनुसार वे इस पृथ्वीका शासन करते थे । 21 । उन्होंने ‘धन्व’ नामके निर्जल देशमें सरस्वती नदीके प्रवाहके सामने वसिष्ठ, असित, गौतम आदि भिन्न-भिन्न आचार्योंद्वारा महान् ऐश्वर्यक कारण सर्वाङ्गपरिपूर्ण तथा बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले अनेकोंअश्वमेध यज्ञ करके यज्ञाधिपति भगवान्‌को आराधना की थी ॥ 22 ॥ उनके यज्ञोंमें देवताओंके साथ जब सदस्य और ऋत्विज बैठ जाते थे, तब उनकी पलके नहीं पड़ती थीं और वे अपने सुन्दर वस्त्र और वैसे ही रूपके कारण देवताओंके समान दिखायी पड़ते थे || 23 | उनकी प्रजा महात्माओंके द्वारा गाये हुए भगवान्के उत्तम चरित्रोंका किसी समय बड़े प्रेमसे श्रवण करती और किसी समय उनका गान करती। इस प्रकार उनके राज्यके मनुष्य देवताओंके अत्यन्त प्यारे स्वर्गकी भी इच्छा नहीं करते ।। 24 ।। वे अपने हृदयमें अनन्त प्रेमका दान करनेवाले श्रीहरिका नित्य-निरन्तर दर्शन करते रहते थे। इसलिये उन लोगोंको वह भोग सामग्री भी हर्षित नहीं कर पाती थी, जो बड़े-बड़े सिद्धों को भी दुर्लभ है। ये वस्तुएँ उनके आत्मानन्दके सामने अत्यन्त तुच्छ और तिरस्कृत थीं 25 ॥ राजा अम्बरीष इस प्रकार तपस्यासे युक्त भक्तियोग और प्रजापालनरूप स्वधर्मके द्वारा भगवान्‌को प्रसन्न करने लगे और धीरे-धीरे उन्होंने सब प्रकारकी आसक्तियोंका परित्याग कर दिया ॥ 26 ॥ घर, स्त्री, पुत्र, भाई-बन्धु, बड़े-बड़े हाथी, रथ, घोड़े एवं पैदल चतुरङ्गिणी सेना, अक्षय रत्न, आभूषण और आयुध आदि समस्त वस्तुओं तथा कभी समाप्त न होनेवाले कोशोंके सम्बन्धमें उनका ऐसा दृढ़ निश्चय था कि वे सब-के-सब असत्य हैं ॥ 27 ॥ उनकी अनन्य प्रेममयी भक्तिसे प्रसन्न होकर भगवान्ने उनकी रक्षाके लिये सुदर्शन चक्रको नियुक्त कर दिया था, जो विरोधियोंको भयभीत करनेवाला एवं भगवद्भक्तोंकी रक्षा करनेवाला है 28॥

राजा अम्बरीषकी पत्नी भी उन्हींके समान धर्मशील, संसारसे विरक्त एवं भक्तिपरायण थीं। एक बार उन्होंने अपनी पत्नीके साथ भगवान् श्रीकृष्णकी आराधना करनेके लिये एक वर्षतक द्वादशीप्रधान एकादशी व्रत करनेका नियम ग्रहण किया ॥ 29 ॥ व्रतकी समाप्ति होनेपर कार्तिक महीने में उन्होंने तीन रातका उपवास किया और एक दिन यमुनाजीमें स्नान करके मधुवनमें भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा की ll 30 llउन्होंने महाभिषेककी विधिसे सब प्रकारकी सामग्री और सम्पत्तिद्वारा भगवान्का अभिषेक किया और हृदयसे तन्मय होकर वस्त्र, आभूषण, चन्दन, माला एवं अर्घ्य आदिके द्वारा उनकी पूजा की। यद्यपि महाभाग्यवान् ब्राह्मणोंको इस पूजाकी कोई आवश्यकता नहीं थी, स्वयं ही उनकी सारी कामनाएं पूर्ण हो चुकी थीं—वे सिद्ध थे—तथापि राजा अम्बरीषने भक्तिभावसे उनका पूजन किया। तत्पश्चात् पहलेब्राह्मणोंको स्वादिष्ट और अत्यन्त गुणकारी भोजन कराकर उन लोगोंके घर साठ करोड़ गौएँ सुसज्जित करके भेज दीं। उन गौओंके सींग सुवर्णसे और खुर चाँदीसे मढ़े हुए थे। सुन्दर सुन्दर वस्त्र उन्हें ओढ़ा दिये गये थे। वे गौएँ बड़ी सुशील, छोटी अवस्थाकी, देखनेमें सुन्दर, बछड़ेवाली और खूब दूध देनेवाली थीं। उनके साथ दुहनेकी उपयुक्त सामग्री भी उन्होंने भेजवा दी थी । 31 – 34 ॥ जब ब्राह्मणोंको सब कुछ मिल चुका, तब राजाने उन लोगों से आज्ञा लेकर व्रतका पारण करनेकी तैयारी की। उसी समय शाप और वरदान देनेमें समर्थ स्वयं दुर्वासाजी भी उनके यहाँ अतिथिके रूपमें पधारे ॥ 35 ॥

राजा अम्बरीष उन्हें देखते ही उठकर खड़े हो गये, आसन देकर बैठाया और विविध सामग्रियोंसे अतिथिके रूपमें आये हुए दुर्वासाजीकी पूजा की। उनके चरणोंमें प्रणाम करके अम्बरीषने भोजनके लिये प्रार्थना की ॥ 36 ॥ दुर्वासाजीने अम्बरीषकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और इसके बाद आवश्यक कर्मोंसे निवृत्त होनेके लिये वे नदीतटपर चले गये। वे ब्रह्मका ध्यान करते हुए यमुनाके पवित्र जलमें स्नान करने लगे ॥ 37 ॥ इधर द्वादशी केवल घड़ीभर शेष रह गयी थी। धर्मज्ञ अम्बरीषने धर्म-सङ्कटमें पड़कर ब्राह्मणोंके साथ परामर्श किया ॥ 38 ॥ उन्होंने कहा- ‘ब्राह्मणदेवताओ ! ब्राह्मणको बिना भोजन कराये स्वयं खा लेना और द्वादशी रहते पारण न करना—दोनों ही दोष हैं। इसलिये इस समय जैसा करनेसे मेरी भलाई हो और मुझे पाप न लगे, ऐसा काम करना चाहिये || 39 ॥ तब ब्राह्मणोंके साथ विचार करके उन्होंने कहा – ‘ब्राह्मणो ! श्रुतियोंमें ऐसा कहा गया है कि जल पी लेना भोजन करना भी है, नहीं भी करना 1 इसलिये इस समय केवल जलसे पारण किये लेता हूँ 40 ऐसा निश्चय करके मन-ही-मन भगवान्‌का चिन्तन करते हुए राजर्षि अम्बरीषने जल पी लिया और परीक्षित्! वे केवल दुर्वासाजीके आनेकी बाट देखने लगे ॥ 41 ॥ दुर्वासाजी आवश्यक कर्मोसे निवृत्त होकर यमुनातटसे लौट आये। जब राजाने आगे बढ़कर उनका अभिनन्दन किया तब उन्होंने अनुमानसे ही समझ लिया कि राजाने पारण कर लिया है । 42 ।। उस समय दुर्वासाजी बहुत भूखे थे। इसलिये यह जानकर कि राजाने पारण कर लिया है, वे क्रोधसे थर-थर काँपने लगे। भौहोंके चढ़ जानेसे उनका मुँह विकट हो गया। उन्होंने | हाथ जोड़कर खड़े अम्बरीषसे डॉटकर कहा ।। 43 ।।’अहो देखो तो सही, यह कितना क्रूर है। यह धनके मदमें मतवाला हो रहा है। भगवान्‌की भक्ति तो इसे छूतक नहीं गयी और यह अपनेको बड़ा समर्थ मानता है। आज इसने धर्मका उल्लङ्घन करके बड़ा अन्याय किया है ।। 44 ।। देखो, मैं इसका अतिथि होकर आया हूँ। इसने अतिथि सत्कार करनेके लिये मुझे निमन्त्रण भी दिया है, | किन्तु फिर भी मुझे खिलाये बिना ही खा लिया है। अच्छा देख, ‘तुझे अभी इसका फल चखाता हूँ’ ।। 45 ।। यों कहते-कहते वे क्रोधसे जल उठे। उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़ी और उससे अम्बरीषको मार डालनेके लिये एक कृत्या उत्पन्न की। वह प्रलयकालकी आगके समान दहक रही थी ॥ 46 ॥ वह आगके समान जलती हुई, हाथमें तलवार लेकर राजा अम्बरीषपर टूट पड़ी। उस समय उसके पैरोंकी धमकसे पृथ्वी काँप रही थी। परन्तु राजा अम्बरीष उसे देखकर उससे तनिक भी विचलित नहीं हुए। वे एक पग भी नहीं हटे, ज्यों-के-त्यों खड़े रहे ।। 47 ।। परमपुरुष परमात्माने अपने सेवककी रक्षाके लिये पहलेसे ही सुदर्शन चक्रको नियुक्त कर रखा था। जैसे आग क्रोधसे गुर्राते हुए साँपको भस्म कर देती है, वैसे ही चक्रने दुर्वासाजीकी कृत्याको जलाकर राखका ढेर कर दिया ॥ 48 ॥ जब दुर्वासाजीने देखा कि मेरी बनायी हुई कृत्या तो जल रही है और चक्र मेरी ओर आ रहा है, तब वे भयभीत हो अपने प्राण बचाने के लिये जी छोड़कर एकाएक भाग निकले ॥ 49 ॥ जैसे ऊँची-ऊँची | लपटोवाला दावानल साँपके पीछे दौड़ता है, वैसे ही भगवान्का चक्र उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। जब दुर्वासाजीने देखा कि चक्र तो मेरे पीछे लग गया है, तब सुमेरु पर्वतकी गुफामें प्रवेश करनेके लिये वे उसी ओर दौड़ पड़े ॥ 50 ॥ दुर्वासाजी दिशा, आकाश, पृथ्वी, अतल-वितल आदि नीचेके लोक, समुद्र, लोकपाल और उनके द्वारा सुरक्षित लोक एवं स्वर्गतकमे गये; परन्तु जहाँ-जहाँ वे गये, वहीं-वहीं उन्होंने असह्य तेजवाले | सुदर्शन चक्रको अपने पीछे लगा देखा ॥ 51 ॥ जब उन्हें कहीं भी कोई रक्षक न मिला, तब तो वे और भी डर गये। अपने लिये त्राण ढूँढ़ते हुए वे देवशिरोमणि ब्रह्माजीके पास गये और बोले- ‘ब्रह्माजी। आप स्वयम्भू है। भगवान् के इस तेजोमय चक्रसे मेरी रक्षा कीजिये ॥ 52 ॥ब्रह्माजीने कहा- ‘जब मेरी दो परार्धकी आयु समाप्त होगी और कालस्वरूप भगवान् अपनी यह सृष्टिलीला समेटने लगेंगे और इस जगत्‌को जलाना चाहेंगे, उस समय उनके भ्रूभङ्गमात्रसे यह सारा संसार और मेरा यह लोक भी लीन हो जायगा ।। 53 ।।

मैं शङ्करजी, दक्ष भृगु आदि प्रजापति, भूतेश्वर, देवेश्वर आदि सब जिनके बनाये नियमोंमें बँधे हैं तथा जिनकी आज्ञा शिरोधार्य करके हमलोग संसारका हित करते हैं, उनके भक्तके द्रोहीको बचानेके लिये हम समर्थ नहीं हैं) ‘ 54 जब ब्रह्माजीने इस प्रकार दुर्वासाको निराश कर दिया, तब भगवान्के चसे संतप्त होकर वे कैलासवासी भगवान् शङ्करकी शरणमें गये ll 55 ll

श्रीमहादेवजीने कहा- ‘दुर्वासाजी ! जिन अनन्त परमेश्वरमें ब्रह्मा जैसे जीव और उनके उपाधिभूत कोश, इस ब्रह्माण्डके समान ही अनेकों ब्रह्माण्ड समयपर पैदा होते हैं और समय आनेपर फिर उनका पता भी नहीं चलता, जिनमें हमारे जैसे हजारों चक्कर काटते रहते हैं-उन प्रभुके सम्बन्धमें हम कुछ करनेकी सामर्थ्य नहीं रखते ll 56 ll

मैं, सनत्कुमार, नारद, भगवान् ब्रह्मा, कपिलदेव, अपान्तरतम, देवल, धर्म, आसुरि तथा मरीचि आदि दूसरे सर्व सिद्धेश्वरये हम सभी भगवान्की मायाको नहीं जान सकते! क्योंकि हम उसी मायाके घेरे में हैं ॥ 57-58 यह चक्र उन विश्वेश्वरका शस्त्र है। यह हमलोगोंके लिये असह्य है। तुम उन्हींकी शरणमे जाओ वे भगवान् ही तुम्हारा म करेंगे ॥ 59 ॥ वहाँसे भी निराश होकर दुर्वासा भगवान के परमधाम वैकुण्ठ गये। लक्ष्मीपति भगवान् | लक्ष्मीके साथ वहीं निवास करते हैं ॥ 60 ॥ दुर्वासाजी भगवानके चक्की आग जल रहे थे। वे कांपते हुए भगवान के चरणों गिर पड़े। उन्होंने कहा है अच्युत ! हे अनन्त । आप संतोंके एकमात्र वाञ्छनीय हैं। प्रभो! विश्वके जीवनदाता ! मैं अपराधी हूँ आप मेरी रक्षा कीजिये ।। 61 ।। आपका परम प्रभाव न जाननेके कारण ही मैंने आपके प्यारे भक्तका अपराध किया है। प्रभो। आप मुझे उससे बचाइये आपके तो नामका ही उच्चारण करनेसे नारकी जीव भी मुक्त हो जाता है’ ॥ 62 ॥

श्रीभगवान् ने कहा- दुर्वासाजी मैं सर्वथा भक्तोंके अधीन हूँ। मुझमें तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे सीधे-सादे सरल भक्तोंने मेरे हृदयको अपने हाथमें कर रखा है। भक्तजन मुझसे प्यार करते हैं और मैं उनसे ॥ 63 ॥ ब्रह्मन् ! अपने भक्तोंका एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ। इसलिये अपने साधुस्वभाव भक्तोंको छोड़कर मैं न तो अपने-आपको चाहता हूँ और न अपनी अर्द्धाङ्गिनी विनाशरहित लक्ष्मीको 64 जो भक्त स्त्री, पुत्र, गृह, गुरुजन, प्राण, धन, इहलोक और परलोक- सबको छोड़कर केवल मेरी शरण में आ गये हैं, उन्हें छोड़नेका सङ्कल्प भी मैं कैसे कर सकता हूँ ? ॥ 65 ॥ जैसे सती स्त्री अपने पातिव्रत्य से सदाचारी पतिको वशमें कर लेती है, वैसे ही मेरे साथ अपने हृदयको प्रेम-बन्धनसे बाँध | रखनेवाले समदर्शी साधु भक्तिके द्वारा मुझे अपने वशमें कर लेते हैं ।। 66 ।। मेरे अनन्यप्रेमी भक्त सेवासे ही अपनेको परिपूर्ण-कृतकृत्य मानते हैं। मेरी सेवाके फलस्वरूप जब उन्हें सालोक्य, सारूप्य आदि मुक्तियाँ प्राप्त होती हैं, तब वे उन्हें भी स्वीकार करना नहीं चाहते; फिर समयके फेरसे नष्ट हो जानेवाली वस्तुओंकी तो बात ही क्या है ॥ 67 दुर्वासाजी ! मैं आपसे और क्या कहूँ, मेरे प्रेमी भक्त तो मेरे हृदय हैं और उन प्रेमी भक्तोंका हृदय स्वयं मैं हूँ। वे मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते तथा मैं उनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं जानता ॥ 68 ॥ दुर्वासाजी सुनिये, मैं आपको एक उपाय बताता हूँ जिसका अनिष्ट करनेसे आपको इस विपत्तिमें पड़ना पड़ा है, आप उसीके पास जाइये। निरपराध साधुओंके अनिष्टकी चेष्टासे अनिष्ट करनेवाले ही अमङ्गल होता है ।। 69 ।।इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्मणोंके लिये तपस्या और विद्या परम कल्याणके साधन हैं। परन्तु यदि ब्राह्मण उद्दण्ड और अन्यायी हो तो वे ही दोनों उलटा फल देने लगते हैं ॥ 70 दुर्वासाजी आपका कल्याण हो। आप नाभागनन्दन परम भाग्यशाली राजा अम्बरीषके पास जाइये और उनसे क्षमा माँगिये। तब आपको शान्ति मिलेगी ॥ 71 ॥

अध्याय 5 दुर्वासाजीकी दुःखनिवृत्ति

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! जय भगवान्ने इस प्रकार आज्ञा दी, तब सुदर्शन चक | ज्वालासे जलते हुए दुर्वासा लौटकर राजा अम्बरीषके पास आये और उन्होंने अत्यन्त दुःखी होकर राजाके पैर पकड़ | लिये ॥ 1 ॥ दुर्वासाजीकी यह चेष्टा देखकर और उनके चरण पकड़नेसे लज्जित होकर राजा अम्बरीष भगवान् चक्रकी स्तुति करने लगे। उस समय उनका हृदय दयावश अत्यन्त पीड़ित हो रहा था ॥ 2 ॥

अम्बरीषने कहा – प्रभो सुदर्शन! आप अग्निस्वरूप हैं। आप ही परम समर्थ सूर्य हैं। समत नक्षत्रमण्डलके अधिपति चन्द्रमा भी आपके स्वरूप हैं। जल, पृथ्वी, आकाश, वायु, पञ्चतन्मात्रा और सम्पूर्ण इन्द्रियोंके रूपमें भी आप ही हैं ॥ 3 ॥ भगवान्के प्यारे हजार दाँतवाले चक्रदेव! मैं आपको नमस्कार करता समस्त अस्त्र-शस्त्रोंको नष्ट कर देनेवाले एवं पृथ्वीके रक्षक ! आप इन ब्राह्मणकी रक्षा कीजिये ॥ 4 आप ही धर्म हैं, मधुर एवं सत्य वाणी हैं; आप ही समस्त यज्ञोंके अधिपति और स्वयं यज्ञ भी हैं। आप समस्त लोकोंके रक्षक एवं सर्वलोकस्वरूप भी हैं। आप परमपुरुष | परमात्माके श्रेष्ठ तेज हैं ॥ 5 ॥ सुनाभ ! आप समस्त धर्मोकी मर्यादाके रक्षक हैं। अधर्मका आचरण करनेवाले अमुरोको भस्म करनेके लिये आप साक्षात् अप्रि है। आप ही तीनों लोकोंके रक्षक एवं विशुद्ध तेजोमय है। आपकी गति मनके वेगके समान है और आपके कर्म अद्भुत है।मैं आपको नमस्कार करता हूँ, आपकी स्तुति करता हूँ ॥ 6 ॥ वेदवाणीके अधीश्वर ! आपके धर्ममय तेजसे अन्धकारका नाश होता है और सूर्य आदि महापुरुषोंके प्रकाशकी रक्षा होती है। आपकी महिमाका पार पाना अत्यन्त कठिन है। ऊँचे-नीचे और छोटे-बड़ेके भेदभावसे युक्त यह समस्त कार्यकारणात्मक संसार | आपका ही स्वरूप है ॥ 7 ॥ सुदर्शन चक्र ! आपपर | कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता। जिस समय निरञ्जन भगवान् आपको चलाते हैं और आप दैत्य एवं दानवोंकी सेनामें प्रवेश करते हैं, उस समय युद्धभूमिमें उनकी भुजा, उदर, जंघा, चरण और गरदन आदि निरन्तर काटते हुए आप अत्यन्त शोभायमान होते हैं ॥ 8 ॥ विश्वके रक्षक ! आप रणभूमिमें सबका प्रहार सह लेते हैं, आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। गदाधारी भगवान्ने दुष्टोंके नाशके लिये ही आपको नियुक्त किया है। आप कृपा करके हमारे कुलके भाग्योदयके लिये दुर्वासाजीका कल्याण कीजिये। हमारे ऊपर यह आपका महान् अनुग्रह होगा ॥ 9 ॥ यदि मैंने कुछ भी दान किया हो, यज्ञ किया हो अथवा अपने धर्मका पालन किया हो, यदि हमारे वंशके लोग ब्राह्मणोंको ही अपना आराध्यदेव समझते रहे हों, तो दुर्वासाजीकी जलन मिट जाय ॥ 10 ॥ भगवान् समस्त गुणोंके एकमात्र आश्रय हैं। यदि मैंने समस्त प्राणियोंके आत्माके रूपमें उन्हें देखा हो और वे मुझपर प्रसन्न हों तो दुर्वासाजीके हृदयकी सारी जलन मिट जाय ॥ 11 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब राजा अम्बरीषने दुर्वासाजीको सब ओरसे जलानेवाले भगवान्‌के सुदर्शन चक्रकी इस प्रकार स्तुति की, तब उनकी प्रार्थनासे चक्र शान्त हो गया ॥ 12 ॥ जब दुर्वासा चक्रकी आगसे मुक्त हो गये और उनका चित्त स्वस्थ हो गया, तब वे राजा अम्बरीषको अनेकानेक उत्तम आशीर्वाद देते उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ 13 ॥दुर्वासाजीने कहा – धन्य है ! आज मैंने भगवान् के प्रेमी भक्तोंका महत्त्व देखा। राजन्! मैंने आपका अपराध किया, फिर भी आप मेरे लिये मङ्गल कामना ही कर रहे हैं ॥ 14 ॥ जिन्होंने भक्तवत्सल भगवान् श्रीहरिकेचरणकमलीको दृढ प्रेमभावसे पकड़ लिया है उन साधुपुरुषोंके लिये कौन-सा कार्य कठिन है ? जिनका हृदय उदार है, वे महात्मा भला, किस वस्तुका परित्याग नहीं कर सकते ? ॥ 15 ॥ जिनके मङ्गलमय नामोंके श्रवणमात्रसे जीव निर्मल हो जाता है— उन्हीं तीर्थपाद भगवान्के चरणकमलोके जो दास है, उनके लिये कौन-सा कर्तव्य शेष रह जाता है ? ॥ 16 ॥ महाराज अम्बरीष! आपका हृदय करुणाभावसे परिपूर्ण है। आपने मेरे ऊपर महान् अनुग्रह किया। अहो, आपने मेरे अपराधको भुलाकर मेरे प्राणोंकी रक्षा की है ! ॥ 17 ॥

परीक्षित् । जबसे दुर्वासाजी भागे थे, तबसे अबतक | राजा अम्बरीषने भोजन नहीं किया था। वे उनके लौटनेकी बाट देख रहे थे। अब उन्होंने दुर्वासाजीके चरण पकड़ लिये और उन्हें प्रसन्न करके विधिपूर्वक भोजन कराया। ॥ 18 ॥ राजा अम्बरीष बड़े आदरसे अतिथिके योग्य सब प्रकारको भोजन सामग्री ले आये दुर्वासाजी भोजन करके तृप्त हो गये। अब उन्होंने आदरसे कहा- ‘राजन् ! अब आप भी भोजन कीजिये ।। 19 ।। अम्बरीष ! आप भगवान् के परम प्रेमी भक्त है आपके दर्शन, स्पर्श, 1 बातचीत और मनको भगवान्‌की ओर प्रवृत्त करनेवाले आतिथ्यसे मैं अत्यन्त प्रसन्न और अनुगृहीत हुआ हूँ ।। 20 ।। स्वर्गकी देवाङ्गनाएँ बार-बार आपके इस | उज्ज्वल चरित्रका गान करेंगी। यह पृथ्वी भी आपकी परम पुण्यमयी कीर्तिका संकीर्तन करती रहेगी’ ॥ 21 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—दुर्वासाजीने बहुत ही सन्तुष्ट होकर राजा अम्बरीषके गुणोंकी प्रशंसा की और उसके बाद उनसे अनुमति लेकर आकाशमार्गसे उस महालोककी यात्रा की, जो केवल निष्काम कर्मसे ही प्राप्त होता है ॥ 22 ॥ परीक्षित् जब सुदर्शन चक्रसे भयभीत होकर दुर्वासाजी भगे थे, तबसे लेकर उनके लौटनेतक एक वर्षका समय बीत गया। इतने दिनोंतक राजा अम्बरीष उनके दर्शनकी आकाङ्क्षासे केवल जल पीकर ही रहे ll 23 ll जब दुर्वासाजी चले गये, तब उनके भोजनसे बचे हुए अत्यन्त पवित्र अन्नका उन्होंने भोजन किया। अपने कारण दुर्वासाजीका दुःखमें पड़ना और फिर अपनी ही प्रार्थनासे उनका छूटना -इन दोनों बातोंको उन्होंने अपनेद्वारा होनेपर भी भगवान्‌की ही महिमा समझा ॥ 24 ॥ राजा अम्बरीषमें ऐसे-ऐसे अनेकों गुण थे। अपने समस्त कर्मोंक द्वारा वे परब्रह्म परमात्मा श्रीभगवान्‌में भक्तिभावकी अभिवृद्धि करते रहते थे। उस भक्तिके प्रभावसे उन्होंने ब्रह्मलोकतकके समस्त भोगोंको नरकके समान समझा ll 25 ll

तदनन्तर राजा अम्बरीषने अपने ही समान भक्त पुत्रोंपर राज्यका भार छोड़ दिया और स्वयं वे वनमें चले गये। वहाँ वे बड़ी धीरताके साथ आत्मस्वरूप भगवान् में अपना मन लगाकर गुणोंके प्रवाहरूप संसारसे मुक्त हो गये ॥ 26 ॥ परीक्षित्! महाराज अम्बरीषका यह परम पवित्र आख्यान है। जो इसका सङ्कीर्तन और स्मरण करता है, वह भगवान्का भक्त हो जाता है ||27||

अध्याय 6 इक्ष्वाकु वंशका वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषिकी कथा

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! अम्बरीषके तीन पुत्र थे – विरूप, केतुमान् और शम्भु विरूपसे पूषद और उसका पुत्र रथीतर हुआ ॥ 1 ॥

रथीतर सन्तानहीन था वंश परम्पराकी रक्षाके लिये उसने अङ्गिरा ऋषिसे प्रार्थना की, उन्होंने उसकी पत्नीसे ब्रह्मतेजसे सम्पन्न कई पुत्र उत्पन्न किये ॥ 2 ॥यद्यपि ये सब रथीतरकी भार्यासे उत्पन्न हुए थे, इसलिये इनका गोत्र वही होना चाहिये था जो रथीतरका था, फिर भी वे आङ्गिरस ही कहलाये। ये ही रथीतर वंशियोंक प्रवर (कुलमें सर्वश्रेष्ठ पुरुष ) कहलाये। क्योंकि ये क्षत्रोपेत ब्राह्मण थे— क्षत्रिय और ब्राह्मण दोनों गोत्रोंसे इनका सम्बन्ध था ॥ 3 ॥

परीक्षित्! एक बार मनुजीके छींकनेपर उनकी नासिकासे इक्ष्वाकु नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। इक्ष्वाकुके सौ पुत्र थे। उनमें सबसे बड़े तीन थे— विकुक्षि, निमि और दण्डक ॥ 4 ॥ परीक्षित् ! उनसे छोटे पचीस पुत्र आर्यावर्तके पूर्वभागके और पचीस पश्चिमभागके तथा उपर्युक्त तीन मध्यभागके अधिपति हुए। शेष सैंतालीस दक्षिण आदि अन्य प्रान्तोंके अधिपति हुए ।। 5 ।। एक बार राजा इक्ष्वाकुने अष्टका श्राद्धके समय अपने बड़े पुत्रको आज्ञा दी – ‘विकुक्षे! शीघ्र ही जाकर श्राद्धके योग्य पवित्र पशुओंका मांस लाओ’ ॥ 6 ॥ वीर विकुक्षिने ‘बहुत अच्छा’ कहकर वनकी यात्रा की। वहाँ उसने श्राद्धके योग्य बहुत से पशुओंका शिकार किया। वह थक तो गया ही था, भूख भी लग आयी थी; इसलिये यह बात भूल गया कि श्राद्धके लिये मारे हुए पशुको स्वयं न खाना चाहिये। उसने एक खरगोश खा लिया ॥ 7 ॥ विकुक्षिने बचा हुआ मांस लाकर अपने पिताको दिया। इक्ष्वाकुने अब अपने गुरुसे उसे प्रोक्षण करनेके लिये कहा, तब गुरुजीने बताया कि यह मांस तो दूषित एवं श्राद्धके अयोग्य है ॥ 8 ॥ परीक्षित्! गुरुजीके कहनेपर राजा इक्ष्वाकुको अपने पुत्रकी करतूतका पता चल गया। उन्होंने शास्त्रीय विधिका उल्लन करनेवाले पुनको क्रोधवश अपने देशसे निकाल दिया ॥ 9 ॥ तदनन्तर राजा याकुने अपने गुरुदेव से ज्ञानविषयक चर्चा की। फिर योगके द्वारा शरीरका परित्याग करके उन्होंने परमपद प्राप्त किया ॥ 10 ॥ पिताका देहान्त हो जानेपर विकुक्षि | अपनी राजधानीमें लौट आया और इस पृथ्वीका शासन करने लगा। उसने बड़े-बड़े यज्ञोंसे भगवान्‌को आराधना की और संसारमें शशादके नामसे प्रसिद्ध हुआ ॥ 11 ॥ विकुक्षिके पुत्रका नाम था पुरञ्जय। उसीको कोई ‘इन्द्रवाह’ और कोई ‘ककुत्स्थ’ कहते हैं। जिन कर्मक कारण उसके ये नाम पड़े थे, उन्हें सुनो ॥ 12 ॥ सत्ययुगके अन्तमें देवताओंका दानवोंके साथ घोर संग्राम हुआ था। उसमें सब-के-सब देवता दैत्योंसे हार गये। तब उन्होंने वीर पुरञ्जयको सहायताके लिये अपनामित्र बनाया || 13 || पुरञ्जयने कहा कि ‘यदि देवराज इन्द्र मेरे वाहन बनें तो मैं युद्ध कर सकता हूँ। पहले तो इन्द्रने अस्वीकार कर दिया, परन्तु देवताओंके आराध्यदेव सर्वशक्तिमान् विश्वात्मा भगवान्‌की बात मानकर पीछे वे एक बड़े भारी बैल बन गये ॥ 14 ॥ सर्वान्तर्यामी भगवान् विष्णुने अपनी शक्तिसे पुरञ्जयको भर दिया। उन्होंने कवच पहनकर दिव्य धनुष और तीखे बाण ग्रहण किये। इसके बाद बैलपर चढ़कर वे उसके ककुद् (डील) के पास बैठ गये। जब इस प्रकार वे युद्धके लिये तत्पर हुए, तब देवता उनकी स्तुति करने लगे। देवताओंको साथ लेकर उन्होंने पश्चिमकी ओरसे दैत्योंका नगर घेर लिया ।। 15-16 ।। वीर पुरञ्जयका दैत्योंके साथ अत्यन्त रोमाञ्चकारी घोर संग्राम हुआ। युद्धमें जो-जो दैत्य उनके सामने आये, पुरञ्जयने बाणोंके द्वारा उन्हें यमराजके हवाले कर दिया ॥ 17 ॥ उनके बाणोंकी वर्षा क्या थी, प्रलयकालकी धधकती हुई आग थी। जो भी उसके सामने आता, छिन्न भिन्न हो जाता। दैत्योंका साहस जाता रहा। वे रणभूमि छोड़कर अपने-अपने घरोंमें घुस गये ॥ 18 ॥ पुरञ्जयने उनका नगर, धन और ऐश्वर्य-सब कुछ जीतकर इन्द्रको दे दिया इसीसे उन राजर्षिको पुर जीतनेके कारण ‘पुरञ्जय’, इन्द्रको वाहन बनानेके कारण ‘इन्द्रवाह’ और बैलके ककुदपर बैठनेके कारण ‘ककुस्त्थ’ कहा जाता है ।। 19 ।।

पुरञ्जयका पुत्र था अनेना। उसका पुत्र पृथु हुआ। पृथुके विश्वरन्धि, उसके चन्द्र और चन्द्रके युवनाश्व ॥ 20 ॥ युवनाश्वके पुत्र हुए शाबस्त, जिन्होंने शाबस्तीपुरी बसायी। शाबस्तके बृहदश्व और उसके कुवलयाश्व हुए 21 ॥ ये बड़े बली थे। इन्होंने उतङ्क ऋषिको प्रसन्न करनेके लिये अपने इक्कीस हजार पुत्रोंको साथ लेकर धुन्धु नामक दैत्यका वध किया ॥ 22 ॥ इसीसे उनका नाम हुआ ‘धुन्धुमार’। धुन्धु दैत्यके मुखकी आगसे उनके सब पुत्र जल गये। केवल तीन ही बच रहे थे ॥ 23 ॥ परीक्षित् बचे हुए पुत्रोंके नाम थे— दृढाश्व, कपिलाश्च और भद्राश्व दृढाश्वसे हर्यश्व और उससे निकुम्भका जन्म हुआ ॥ 24 ॥निकुम्भके बर्हणाच, उसके कृशाश्व, कृशाश्वके सेनजित् और सेनजितके युवनाश्च नामक पुत्र हुआ। युवनाश्व सन्तानहीन था, इसलिये वह बहुत दुःखी होकर अपनी सौ स्त्रियोंके साथ वनमें चला गया। वहाँ अपने बड़ी करके युवनाथसे पुत्रप्राप्ति के लिये बड़ी एकाग्रताके साथ इन्द्रदेवताका यज्ञ कराया ।। 25-26 ।। एक दिन राजा युवनाश्वको रात्रिके समय बड़ी प्यास लगी। वह यज्ञशाला में गया, किन्तु यहाँ देखा कि ऋषिलोग तो सो रहे हैं। तब जल मिलनेका और कोई उपाय न देख उसने वह मलसे अभिमन्त्रित जल ही पी लिया ॥ 27 ॥ परीक्षित्! जब प्रातःकाल ऋषिलोग सोकर उठे और उन्होंने देखा कि कलशमैं तो जल ही नहीं है, तब उन लोगोंने पूछा कि “यह किसका काम है ? पुत्र उत्पन्न करनेवाला जल किसने पी लिया ?’ ॥ 28 ॥ अन्तमें जब उन्हें यह मालूम हुआ कि भगवान्को प्रेरणासे राजा युवनाश्वने ही उस जलको पी लिया है, तो उन लोगोंने भगवान्‌के चरण में नमस्कार किया और कहा- ‘धन्य है! भगवान्का बल ही वास्तवमें बल है’ ।। 29 ।। इसके बाद प्रसवका समय आनेपर युवनाश्वकी दाहिनी कोख फाड़कर उसके एक चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ 30 ॥ उसे रोते देख ऋषियोंने कहा- ‘यह बालक दूधके लिये बहुत रो रहा है; अतः किसका दूध पियेगा ?’ तब इन्द्रने कहा, ‘मेरा पियेगा’ ‘ (मां धाता)’ ‘बेटा! तू रो मत।’ यह कहकर इन्द्रने अपनी तर्जनी अंगुली उसके मुँहमें डाल दी ।। 31 ।। ब्राह्मण और देवताओंके प्रसादसे उस बालकके पिता युकी भी मृत्यु नहीं हुई। वह वहीं तपस्या करके मुक्त हो गया । 32 ॥ परीक्षित्! इन्द्रने उस बालकका नाम रखा त्रसदस्यु, क्योंकि रावण आदि दस्यु (लुटेरे) उससे उद्विन एवं भयभीत रहते थे । 33 ॥ युवनाश्वके पुत्र मान्धाता (त्रसदस्यु) चक्रवर्ती राजा हुए। भगवान्के तेजसे तेजस्वी होकर उन्होंने अकेले ही सालों प पृथ्वीका शासन किया ।। 34 । वे यद्यपि आत्मज्ञानी थे, उन्हें कर्मकाण्डकी कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी फिर भी उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यशोसे उन यज्ञस्वरूप प्रभुकी आराधनाकी जो स्वयंप्रकाश, सर्वदेवस्वरूप सर्वात्मा एवं इन्द्रियातीत है ॥ 35॥भगवान्के अतिरिक्त और है ही क्या ? की सामग्री, मन्त्र, विधि-विधान, यज्ञ, यजमान, ऋत्विज, धर्म, देश और काल- यह सब का सब भगवान्‌का ही स्वरूप तो है ॥ 36 ॥ परीक्षित् जहाँसे सूर्यका उदय होता है और जहाँ वे अस्त होते है, यह सारा का सारा भूभाग युवनाथ के पुत्र ताके ही अधिकारमें था ll 37 ll

राजा मान्धाताकी पत्नी शशविन्दुकी पुत्री बिन्दुमती थी। उसके गर्भ से उनके तीन पुत्र हुए पुरुकुत्स, अम्बरीष (ये दूसरे अम्बरीष हैं) और योगी मुचुकुन्द इनकी पचास बहनें थीं। उन पचासैनि अकेले सौभरि अधिक पतिके रूपमें वरण किया ॥ 38 ॥ परम तपस्वी सौभरिजी एक बार यमुनाजलमें डुबकी लगाकर तपस्या कर रह थे। वहाँ उन्होंने देखा कि एक मत्स्यराज अपनी पत्रियोंके साथ बहुत सुखी हो रहा है ॥ 39 ॥ उसके इस सुखको देखकर ब्राह्मण सौभरिके मनमें भी विवाह करनेकी इच्छा जग उठी और उन्होंने राजा मान्धाताके पास आकर उनकी पचास कन्याओंसे एक कन्या माँगी। राजाने कहा- ‘ब्रह्मन् ! कन्या स्वयंवरमें आपको चुन ले तो आप उसे ले लीजिये ॥ 40 सौभरि ऋषि राजा मान्धाताका अभिप्राय समझ गये। उन्होंने सोचा कि ‘राजाने इसलिये मुझे ऐसा सूखा जवाब दिया है कि अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ, शरीरमें झुर्रियाँ पड़ गयी हैं, बाल पक गये हैं और सिर काँपने लगा है ! अब कोई स्त्री मुझसे प्रेम नहीं कर सकती ॥। 41॥ अच्छी बात है। मैं अपनेको ऐसा सुन्दर बनाऊँगा कि राजकन्याएँ तो क्या, देवाङ्गनाएँ भी मेरे लिये लालायित हो जायेंगी।’ ऐसा सोचकर समर्थ सौभरिजीने वैसा ही किया ।। 42 ।।

फिर क्या था, अन्तःपुरके रक्षकने सौभरि मुनिको कन्याओंके सजे-सजाये महलमें पहुंचा दिया। फिर तो उन पचासों राजकन्याओंने एक सौभरिको ही अपना पति चुन लिया ॥ 43 ॥ उन कन्याओंका मन सौभरिजीमें इस प्रकार आसक्त हो गया कि वे उनके लिये आपसके प्रेमभावको तिलाञ्जलि देकर परस्पर कलह करने लगीं और एक-दूसरीसे कहने लगी कि ‘ये तुम्हारे योग्य नहीं, मेरे योग्य है ।। 44 ।। सवेदी सौभरिने उन सभीका पाणिग्रहण कर लिया। वे अपनी अपार तपस्या के प्रभावसे बहुमूल्य सामग्रियोंसे सुसज्जित, अनेकों उपवनों और निर्मल जलसे परिपूर्ण सरोवरोंसे युक्त एवं सौगन्धिक पुष्पोंके बगीचोंसे परे महलोंमें बहुमूल्य शय्या, आसन वस्त्र, आभूषण, स्नान, अनुलेपन, सुस्वादु भोजन औरपुष्पमालाओंके द्वारा अपनी पलियोंके साथ विहार करने लगे। सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किये स्त्री-पुरुष सर्वदा उनकी सेवामें लगे रहते। कहीं पक्षी चहकते रहते तो कहीं भरे गुजार करते रहते और कहीं-कहीं वन्दोजन उनकी विरदावलीका बखान करते रहते ।। 45-46 ॥ सप्तद्वीपवती पृथ्वीके स्वामी मान्धाता सौभरिजोकी इस गृहस्थीका सुख देखकर आश्चर्यचकित हो गये। उनका यह गर्व कि, मैं सार्वभौम सम्पत्तिका स्वामी हूँ, जाता रहा ।। 47 ।। इस प्रकार सौभरिजी गृहस्थीके सुखमे रम गये और अपनी नीरोग इन्द्रियोंसे अनेकों विषयोका सेवन करते रहे। फिर भी जैसे घीकी बूंदोंसे आग तृप्त नहीं होती, वैसे ही उन्हें सन्तोष नहीं हुआ ॥ 48 ॥

ऋग्वेदाचार्य सौभरिजी एक दिन स्वस्थ चित्तसे बैठे हुए । उस समय उन्होंने देखा कि मत्स्यराजके क्षणभरके सङ्गसे मैं किस प्रकार अपनी तपस्या तथा अपना आपातक स्वो बैठा ।। 49 ।। वे सोचने लगे- ‘अरे, मैं तो बड़ा तपस्वी था। मैंने भलीभांति अपने व्रतोका अनुष्ठान भी किया था। मेरा यह अधःपतन तो देखो! मैंने दीर्घकालसे अपने ब्रह्मतेजको अक्षुण्ण रखा था, परन्तु जलके भीतर विहार करती हुई एक मछलीके संसर्गसे मेरा वह ब्रह्मतेज नष्ट हो गया ।। 50 ।। अतः जिसे मोक्षकी इच्छा है, उस पुरुषको चाहिये कि वह भोगी प्राणियोंका सङ्ग सर्वथा छोड़ दे और एक क्षणके लिये भी अपनी इन्द्रियोको बहिर्मुख न होने दे। अकेला ही रहे और एकान्तमें अपने चित्तको सर्वशक्तिमान् भगवान्‌में ही लगा दे। यदि सङ्ग करनेकी आवश्यकता ही हो तो भगवान् के अनन्यप्रेमी निष्ठावान् महात्माओंका ही सङ्ग करे ।। 51 । मैं पहले एकान्तमें अकेला ही तपस्यामें संलग्न था। फिर जलमें मछलीका सङ्ग होनेसे विवाह करके पचास हो गया और फिर सन्तानोंके रूपमें पाँच हजार। विषयोंमें सत्यबुद्धि होनेसे मायाके गुणोंने मेरी बुद्धि हर ली। अब तो लोक और परलोकके सम्बन्धमें मेरा मन इतनी लालसाओंसे भर गया है कि मैं किसी तरह उनका पार ही नहीं पाता ।। 52 ।। इस प्रकार विचार करते हुए वे कुछ दिनोंतक तो घरमें हो रहे। फिर विरक्त होकर उन्होंने संन्यास ले लिया और वे वनमें चले गये। अपने पतिको ही सर्वस्व माननेवाली उनकी पलियोने भी उनके साथ ही वनकी यात्रा की ।। 53 । वहाँ जाकर | परम संयमी सौभरिजीने बड़ी घोर तपस्या की, शरीरको सुखा दिया तथा आहवनीय आदि अग्नियोंके साथ ही अपने-आपको परमात्मामें लीन कर दिया ।। 54 ॥परीक्षित् ! उनकी पत्नियोंने जब अपने पति सौभरि मुनिकी आध्यात्मिक गति देखी, तब जैसे ज्वालाएँ शान्त अग्निमें लीन हो जाती हैं— वैसे ही वे उनके प्रभावसे सती होकर उन्हीं में लीन हो गयीं, उन्हींकी गतिको प्राप्त हुईं ॥ 55 ॥

अध्याय 7 राजा त्रिशत्रु और हरिचन्द्रकी कथा

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! मैं वर्णन कर चुका हूँ कि मान्धाताके पुत्रोंमें सबसे श्रेष्ठ अम्बरीष थे। उनके दादा युवनाश्वने उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकार कर लिया। उनका पुत्र हुआ यौवनाश्व और यौवनाश्वका हारीत । मान्धाताके वंशमें ये तीन अवान्तर गोत्रोंके प्रवर्तक हुए ॥ 1 ॥ नाग अपनी बहिन नर्मदाका विवाह पुरुकुत्ससे कर दिया था नागराज वासुकिको आज्ञासे नर्मदा अपने पतिको रसातलमें ले गयी ॥ 2 ॥ वहाँ भगवान्को शक्तिसे सम्पन्न होकर पुरुकुत्सने वध करनेयोग्य गन्धर्वोको मार डाला। इसपर नागराजने प्रसन्न होकर पुरुकुत्सको वर दिया कि जो इस प्रसङ्गका स्मरण करेगा, वह सर्पोंसे निर्भय हो जायगा || 3 || राजा पुरुकुत्सका पुत्र त्रसदस्यु था। उसके पुत्र हुए अनरण्य अनरण्यके हर्यश्व, उसके अरुण और अरुणके त्रिबन्धन हुए ।। 4 ।। त्रिबन्धन के पुत्र सत्यव्रत हुए। यही सत्यव्रत त्रिशङ्कुके नामसे विख्यात हुए। यद्यपि त्रिशङ्क अपने पिता और गुरुके शापसे चाण्डाल हो गये थे, परन्तु विश्वामित्रजीके प्रभावसे वे सशरीर स्वर्गमें चले गये। देवताओंने उन्हें वहाँसे केल दिया और वे नीचेको सिर किये हुए गिर पड़े; परन्तु विश्वामित्रजीने अपने तपोबलसे उन्हें आकाशमें ही स्थिर कर दिया। वे अब भी आकाशमें लटके हुए दीखते हैं ।। 5-6 ।।

त्रिशङ्कके पुत्र थे हरिचन्द्र उनके लिए विश्वामित्र और वसिष्ठ एक-दूसरेको शाप देकर | पक्षी हो गये और बहुत वर्षोंतक लड़ते रहे ॥ 7 ॥हरिचन्द्रके कोई सन्तान न थी। इससे वे बहुत उदास रहा करते थे। नारदके उपदेशसे वे वरुणदेवताकी शरण में गये और उनसे प्रार्थना की कि ‘प्रभो ! मुझे पुत्र प्राप्त हो ॥ 8 ॥ महाराज यदि मेरे वीर पुत्र होगा तो मैं उसीसे आपका यजन करूँगा।’ वरुणने कहा— ‘ठीक है।’ तब वरुणको कृपासे हरिश्चन्द्रके रोहित नामका पुत्र हुआ ॥ 9 ॥ पुत्र होते ही वरुणने आकर कहा-‘हरिश्चन्द्र ! तुम्हें पुत्र प्राप्त हो गया। अब इसके द्वारा मेरा यज्ञ करो।’ हरिश्चन्द्रने कहा— ‘जब आपका यह यज्ञपशु (रोहित) दस दिनसे अधिकका हो जायगा, तब यज्ञके योग्य होगा’ ॥ 10 ॥ दस दिन बीतनेपर वरुणने आकर फिर कहा- ‘अब मेरा यज्ञ करो।’ हरिश्चन्द्रने कहा- ‘जब आपके यज्ञपशुके मुँह में दाँत निकल आयेंगे, तब वह यज्ञके योग्य होगा’ ॥ 11 ॥ दाँत उग आनेपर वरुणने कहा- ‘अब इसके दाँत निकल आये, मेरा यज्ञ करो।’ हरिश्चन्द्रने कहा- ‘जब इसके दूधके दाँत गिर जायेंगे, तब यह यज्ञके योग्य होगा’ ॥ 12 ॥ दूधके दाँत गिर जानेपर वरुणने कहा ‘अब इस यज्ञपशुके दाँत गिर गये, मेरा यज्ञ करो।’ हरिश्चन्द्र ने कहा- ‘जब इसके दुबारा दाँत आ जायेंगे, तब यह पशु यज्ञके योग्य हो जायगा ॥ 13 ॥ दाँतोंके फिर उग आनेपर वरुणने कहा ‘अब मेरा यज्ञ करो।’ हरिश्चन्द्रने कहा— ‘वरुणजी महाराज ! क्षत्रिय पशु तब यज्ञके योग्य होता है, जब वह कवच धारण करने लगे’ ॥ 14 परीक्षित्! इस प्रकार राजा हरिश्चन्द्र पुत्रके प्रेमसे हीला हवाला करके समय टालते रहे। इसका कारण यह था कि पुत्र स्नेहकी फाँसीने उनके हृदयको जकड़ लिया था। वे जो-जो समय बताते वरुणदेवता उसीकी बाट | देखते ॥ 15 ॥ जब रोहितको इस बातका पता चला कि | पिताजी तो मेरा बलिदान करना चाहते हैं, तब वह अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये हाथमें धनुष लेकर वनमें चला | गया ।। 16 ।। कुछ दिनके बाद उसे वरुणदेवताने रुष्ट होकर मेरे आक्रमण किया मालूम हुआ कि है-जिसके कारण वे महोदर रोगसे पीड़ित हो रहे हैं, तब रोहित अपने नगरकी ओर चल पड़ा। परन्तु इन्द्रने आकर उसे रोक दिया ॥ 17 ॥ उन्होंने कहा- ‘बेटा रोहित । पशु बनकर मरने की अपेक्षा तो पवित्र तीर्थ और क्षेत्रका सेवन करते हुए पृथ्वीमें विचरना ही अच्छा है।’ इन्द्रकी । बात मानकर वह एक वर्षतक और वनमें ही रहा ॥ 18 ॥इसी प्रकार दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवें वर्ष भी रोहितने अपने पिताके पास जानेका विचार किया; परन्तु बूढ़े ब्राह्मणका वेश धारण कर हर बार इन्द्र आते और उसे रोक देते ॥ 19 ॥ इस प्रकार छः वर्षतक रोहित वनमें ही रहा। सातवें वर्ष जब वह अपने नगरको लौटने लगा, तब उसने अजीगर्तसे उनके मझले पुत्र शुनःशेपको मोल ले लिया और उसे यज्ञपशु बनानेके लिये अपने पिताको सौंपकर उनके चरणोंमें नमस्कार किया। तब परम यशस्वी एवं श्रेष्ठ चरित्रवाले राजा हरिश्चन्द्रने महोदर रोगसे छूटकर पुरुषमेध यज्ञद्वारा वरुण आदि देवताओंका यजन किया। उस यज्ञमें विश्वामित्रजी होता हुए। परम संयमी जमदग्निने अध्वर्युका काम किया। वसिष्ठजी ब्रह्मा बने और अयास्य मुनि सामगान करनेवाले उद्गाता बने। उस समय इन्द्रने प्रसन्न होकर हरिश्चन्द्रको एक सोनेका रथ दिया था ll 20 – 23 ll

परीक्षित्! आगे चलकर मैं शुनःशेपका माहात्म्य वर्णन करूँगा। हरिश्चन्द्रको अपनी पत्नीके साथ सत्यमें दृढ़तापूर्वक स्थित देखकर विश्वामित्रजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उन्हें उस ज्ञानका उपदेश किया, जिसका कभी नाश नहीं होता। उसके अनुसार राजा हरिश्चन्द्रने अपने मनको पृथ्वीमें, पृथ्वीको जलमें, जलको तेजमें, तेजको वायुमें और वायुको आकाशमें स्थिर करके, आकाशको अहङ्कारमें लीन कर दिया। फिर अहङ्कारको महत्तत्त्वमें लीन करके उसमें ज्ञान-कलाका ध्यान किया और उससे अज्ञानको भस्म कर दिया ।। 24 – 26 । इसके बाद निर्वाण सुखकी अनुभूतिसे उस ज्ञान- कलाका भी परित्याग कर दिया और समस्त बन्धनोंसे मुक्त होकर वे अपने उस स्वरूपमें स्थित हो गये, जो न तो किसी प्रकार बतलाया जा सकता है और न उसके सम्बन्धमें किसी प्रकारका अनुमान ही किया जा सकता है ॥ 27 ॥

अध्याय 8 सगर-चरित्र

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- रोहितका पुत्र था हरित। हरितसे चम्प हुआ। उसीने चम्पापुरी बसायी थी। चम्पसे सुदेव और उसका पुत्र विजय हुआ ॥ 1 ॥ विजयका भरुक, भरुकका वृक और वृकका पुत्र हुआ बाहुक शत्रुओने बाहुकसे राज्य छीन लिया, तब वह अपनी पत्नीके साथ वनमें चला गया ॥ 2 ॥ वनमें जानेपर बुढ़ापेके कारण जब बाहुककी मृत्यु हो गयी, तब उसकी | पत्नी भी उसके साथ सती होनेको उद्यत हुई। परन्तु महर्षि और्वको यह मालूम था कि इसे गर्भ है। इसलिये उन्होंने उसे सती होनेसे रोक दिया || 3 || जब उसकी सौतोंको यह बात मालूम हुई, तो उन्होंने उसे भोजनके साथ गर (विष) दे दिया। परन्तु गर्भपर उस विषका कोई प्रभाव नहीं पड़ा बल्कि उस विषको लिये हुए ही एक बालकका जन्म हुआ, जो गरके साथ पैदा होनेके कारण ‘सगर’ कहलाया सगर बड़े यशस्वी राजा हुए ।। 4 ।।

सगर चक्रवर्ती सम्राट् थे । उन्होंके पुत्रोंने पृथ्वी खोदकर समुद्र बना दिया था। सगरने अपने गुरुदेव और्वकी आज्ञा मानकर तालजङ्घ, यवन, शक, हैहय और बर्बर जातिके लोगोंका वध नहीं किया, बल्कि उन्हें विरूप बना दिया। उनमेंसे कुछके सिर मुड़वा दिये कुछ मैदाढ़ी रखवा दी कुछको खुले बालोंवाला बना दिया तो कुछको आधा मुँडवा दिया ।। 5-6 ।। कुछ लोगोंको सगरने केवल वस्त्र ओढ़ने की ही आज्ञा दी पहननेकी नहीं और कुछको केवल लंगोटी पहननेको ही कहा, ओड्नेको नहीं। इसके बाद राजा सगरने और्व ऋषिके उपदेशानुसार अश्वमेध यज्ञके द्वारा सम्पूर्ण वेद एवं देवतामय, आत्मस्वरूप, सर्वशक्तिमान भगवान्को आराधना की। उसके यज्ञमें जो घोड़ा छोड़ा गया था, उसे इन्द्रने चुरा लिया ॥ 7-8 ॥ उस समय महारानी सुमतिके गर्भ से उत्पन्न सगर के पुत्रोने अपने पिताके अनुसार घोड़ेके लिये सारी पृथ्वी छान डाली। जब उन्हें कहीं घोड़ा न मिला, तब उन्होंने | बड़े घमण्डसे सब ओरसे पृथ्वीको खोद डाला ॥ 9 ॥खोदते खोदते उन्हें पूर्व और उत्तरके कोनेपर कपिलमुनिके पास अपना घोड़ा दिखायी दिया। घोड़ेको देखकर वे साठ हजार राजकुमार शस्त्र उठाकर यह कहते हुए उनकी ओर दौड़ पड़े कि ‘यही हमारे घोड़ेको चुरानेवाला चोर है। देखो तो सही, इसने इस समय कैसे आँखें मूंद रखी हैं! यह पापी है। इसको मार डालो, मार डालो!’ उसी समय कपिलमुनिने अपनी पलकें खोलीं ॥ 10-11 ॥ इन्द्रने राजकुमारोंकी बुद्धि हर ली थी, इसीसे उन्होंने कपिलमुनि जैसे महापुरुषका तिरस्कार किया। इस तिरस्कारके फलस्वरूप उनके शरीरमें ही आग जल उठी, जिससे क्षणभरमें ही वे सब-के-सब जलकर खाक हो गये ॥ 12 ॥ परीक्षित् | सगरके लड़के कपिलमुनिके क्रोध से जल गये, ऐसा कहना उचित नहीं है। वे तो शुद्ध सत्त्वगुणके परम आश्रय हैं। उनका शरीर तो जगत्को पवित्र करता रहता है उनमें भला, क्रोधरूप तमोगुणकी सम्भावना कैसे की जा सकती है। भला, कहीं पृथ्वीकी धूलका भी आकाशसे सम्बन्ध होता है ? ॥ 13 यह संसार-सागर एक मृत्युमय पथ है। इसके पार जाना अत्यन्त कठिन है परन्तु कपिलमुनिने इस जगत् में सांख्यशास्त्रकी एक ऐसी दृढ़ नाव बना दी है, जिससे मुक्तिकी इच्छा रखनेवाला कोई भी व्यक्ति उस समुद्रके पार जा सकता है। वे केवल परम ज्ञानी ही नहीं, स्वयं परमात्मा हैं। उनमें भला, यह यात्रु है और यह मित्र इस प्रकारकी भेदबुद्धि कैसे हो सकती है ? ll 14 llसगरकी दूसरी पत्नीका नाम था केशिनी। उसके गर्भसे उन्हें असमञ्जस नामका पुत्र हुआ था। असमञ्जसके पुत्रका नाम था अंशुमान्। वह अपने दादा सगरकी आज्ञाओंके पालन तथा उन्होंकी सेवामें लगा रहता ॥ 15 ॥ असमञ्जस पहले जन्ममें योगी थे। सङ्गके कारण वे योगसे विचलित हो गये थे, परन्तु अब भी उन्हें अपने पूर्वजन्मका स्मरण बना हुआ था। इसलिये वे ऐसे काम किया करते थे, जिनसे भाई-बन्धु उन्हें प्रिय न समझें। वे कभी-कभी तो अत्यन्त निन्दित कर्म कर बैठते और अपनेको पागल-सा दिखलाते यहाँतक कि खेलते हुए बच्चोंको सरबूमें डाल देते। इस प्रकार उन्होंने लोगोंको उद्विग्न कर दिया था ।। 16-17 ।। अन्तमें उनकी ऐसी करतूत देखकर पिताने पुत्र-स्नेहको तिलाञ्जलि दे दी और उन्हें त्याग दिया। तदनन्तर असमञ्जसने अपने योगबलसे उन सब बालकोंको जीवित कर दिया और अपने पिताको दिखाकर वे वनमें चले गये || 18 | अयोध्या नागरिकाने जब देखा कि हमारे बालक तो फिर लौट आये, तब उन्हें असीम आश्चर्य हुआ और राजा सगरको भी बड़ा पश्चात्ताप हुआ ॥ 19 ॥इसके बाद राजा सगरकी आशासे अंशुमान् पोडेको ढूंढनेके लिये निकले। उन्होंने अपने चाचाओंके द्वारा खोदे हुए समुद्र के किनारे-किनारे चलकर उनके शरीरके भामके पास ही घोड़ेको देखा ॥ 20 ॥ वहीं भगवान्‌के अवतार कपिलमुनि बैठे हुए थे। उनको देखकर उदारहृदय अने उनके चरणोंमें प्रणाम किया और हाथ जोड़कर एकाग्र मनसे उनकी स्तुति की ॥ 21 ॥

अंशुमान्ने कहा- भगवन्! आप अजन्मा ब्रह्माजीसे भी परे हैं। इसीलिये वे आपको प्रत्यक्ष नहीं देख पाते। देखनेकी बात तो अलग रही वे समाधि करते करते एवं युक्ति लड़ाते लड़ाते हार गये, किन्तु आजतक आपको समझ भी नहीं पाये। हमलोग तो उनके मन, शरीर और बुद्धिसे होनेवाली सृष्टिके द्वारा बने हुए अज्ञानी जीव हैं। तब भला, हम आपको कैसे समझ सकते हैं ॥ 22 ॥ संसारके शरीरधारी सत्त्वगुण, रजोगुण या तमोगुण प्रधान हैं। वे जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाओंमें केवल गुणमय पदार्थों विषयोंको और सुषुप्ति अवस्थामें केवल अज्ञान ही अज्ञान देखते हैं। इसका कारण यह है कि वे आपकी मायासे मोहित हो रहे हैं। वे बहिर्मुख होने के कारण बाहरको वस्तुको तो देखते हैं, पर अपने ही हृदयमें स्थित आपको नहीं देख पाते ॥ 23 ॥ आप एकरस, ज्ञानघन हैं। सनन्दन आदि मुनि, जो आत्मस्वरूपके अनुभवसे मायाके गुणके | द्वारा होनेवाले भेदभावको और उसके कारण अज्ञानको नष्ट कर चुके हैं, आपका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं। मायाके गुणोंमें ही भूला हुआ मैं मूढ़ किस प्रकार आपका चिन्तन करूँ ? ॥ 24 ॥ माया, उसके गुण और गुणोंके कारण होनेवाले कर्म एवं कर्मकि संस्कारसे बना हुआ लिङ्गशरीर आपमें है ही नहीं। न तो आपका नाम है और न तो रूप। आपमें न कार्य है और न तो कारण। आप सनातन आत्मा है ज्ञानका उपदेश करनेके लिये ही आपने यह शरीर धारण कर रखा है। हम आपको नमस्कार करते हैं ।। 25 ।। प्रभो! यह संसार आपकी मायाकी करामात है। इसको सत्य समझकर काम, लोभ, ईर्ष्या और मोहसे लोगों का चित्त, शरीर तथा घर आदिमें भटकने लगता है। लोग इसीके चकरमें फँस जाते हैं ॥ 26 ॥ समस्त प्राणियोंके आत्मा प्रभो! आज आपके दर्शनसे मेरे मोहकी वह दृढ़ फाँसी कट गयी जो कामना, कर्म और इन्द्रियों को | जीवनदान देती है ॥ 27 ॥श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! जब अंशुमान्ने भगवान् कपिलमुनिके प्रभावका इस प्रकार गान किया, तब उन्होंने मन-ही-मन अंशुमान्पर बड़ा अनुग्रह किया और कहा — ॥ 28 ॥

श्रीभगवान्ने कहा – ‘बेटा! यह घोड़ा तुम्हारे पितामहका यज्ञपशु है। इसे तुम ले जाओ। तुम्हारे जले हुए चाचाओंका उद्धार केवल गङ्गाजलसे होगा, और कोई उपाय नहीं है’ ॥ 29 ॥ अंशुमान्ने बड़ी नम्रतासे उन्हें प्रसन्न करके उनकी परिक्रमा की और वे घोड़ेको ले आये। सगरने उस यज्ञपशुके द्वारा यज्ञकी शेष क्रिया समाप्त की ॥ 30 ॥

तब राजा सगरने अंशुमान्‌को राज्यका भार सौंप दिया और वे स्वयं विषयोंसे निःस्पृह एवं बन्धनमुक्त हो गये। उन्होंने महर्षि और्वके बतलाये हुए मार्गसे परमपदकी प्राप्ति की ॥ 31 ॥

अध्याय 9 भगीरथ चरित्र और गङ्गावतरण

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! अंशुमान्ने गङ्गाजीको लानेकी कामनासे बहुत वर्षोंतक घोर तपस्या की। परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली, समय आनेपर उनकी मृत्यु हो गयी ॥ 1 ॥ अशुंमान्के पुत्र दिलीपने भी वैसी ही तपस्या की। परन्तु वे भी असफल ही रहे, समयपर उनकी भी मृत्यु हो गयी। दिलीपके पुत्र थे भगीरथ । उन्होंने बहुत बड़ी तपस्या की ॥ 2 ॥ उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवती गङ्गाने उन्हें दर्शन दिया और कहा कि- ‘मैं तुम्हें वर देनेके लिये आयी हूँ।’ उनके ऐसा कहनेपर राजा भगीरथने बड़ी नम्रतासे अपना अभिप्राय प्रकट किया कि ‘आप मर्त्यलोकमें चलिये’ ॥ 3 ॥[गङ्गाजीने कहा-] ‘जिस समय मैं स्वर्गसे पृथ्वीतलपर गिरूँ, उस समय मेरे वेगको कोई धारण करनेवाला होना चाहिये। भगीरथ ऐसा न होनेपर मैं पृथ्वीको फोड़कर रसातलमें चली जाऊँगी ॥ 4 ॥ इसके अतिरिक्त इस कारणसे भी मैं पृथ्वीपर नहीं जाऊंगी कि लोग मुझमें अपने पाप धोयेंगे। फिर मैं उस पापको कहाँ घोऊँगी। भगीरथ । इस विषयमें तुम स्वयं विचार कर लो’ ॥ 5 ॥

भगीरथने कहा- ‘माता ! जिन्होंने लोक परलोक, धन-सम्पत्ति और स्त्री पुत्रकी कामनाका संन्यास कर दिया है, जो संसारसे उपरत होकर अपने-आपमें शान्त हैं, जो ब्रह्मनिष्ठ और लोकोंको पवित्र करनेवाले परोपकारी सज्जन हैं—वे अपने अङ्गस्पर्शसे तुम्हारे पापोंको नष्ट कर देंगे। क्योंकि उनके हृदयमें अधरूप अघासुरको मारनेवाले भगवान् सर्वदा निवास करते हैं॥ 6 ॥ समस्त प्राणियोंके आत्मा रुद्रदेव तुम्हारा वेग धारण कर लेंगे। क्योंकि जैसे साड़ी सूतोंमें ओतप्रोत है, वैसे ही यह सारा विश्व भगवान् रुद्रमें ही ओतप्रोत है’ 7 ॥ परीक्षित्! गङ्गाजीसे इस प्रकार कहकर राजा भगीरथने तपस्याके द्वारा भगवान् शङ्करको प्रसन्न किया। थोड़े ही दिनोंमें महादेवजी उनपर प्रसन्न हो गये ॥ 8 ॥ भगवान् शङ्कर तो सम्पूर्ण विश्वके हितैषी हैं, राजाकी बात उन्होंने ‘तथास्तु’ कहकर स्वीकार कर ली। फिर शिवजीने सावधान होकर गङ्गाजीको अपने सिरपर धारण किया। क्यों न हो, भगवान्के चरणोंका सम्पर्क होनेके कारण गङ्गाजीका जल परम पवित्र जो है ॥ 9 ॥ इसके बाद राजर्षि भगीरथ त्रिभुवनपावनी गङ्गाजीको वहाँ ले गये, जहाँ उनके पितरोंके शरीर राखके ढेर बने पड़े थे 10 वे वायुके समान वेगसे चलनेवाले रथपर सवार होकर आगे आगे चल रहे थे और उनके पीछे-पीछे मार्गमें पड़नेवाले देशोंको पवित्र करती हुई गङ्गाजी दौड़ रही थीं। इस प्रकार गङ्गासागर-सङ्गमपर पहुँचकर उन्होंने सगरके जले हुए पुत्रोंको अपने जलमें डुबा दिया ॥ 11 ॥ यद्यपि सगरके पुत्र ब्राह्मणके तिरस्कारके कारण भस्म हो गये थे, इसलिये उनके उद्धारका कोई उपाय न था—फिर भी केवल शरीरकी) राखके साथ गङ्गाजलका स्पर्श हो जानेसे ही वे स्वर्गमें चले गये ॥ 12 ॥ परीक्षित् ! जब गङ्गाजलसे शरीरकी राखका स्पर्श हो जानेसे सगर के पुत्रको स्वर्गकी प्राप्ति हो गयी तब जो लोग श्रद्धा साथ नियम लेकर श्रीजीका सेवन करते हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ॥ 13 ॥मैने गङ्गाजीकी महिमाके सम्बन्धमें जो कुछ कहा है, उसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं है। क्योंकि गङ्गाजी भगवान्के उन चरणकमलोंसे निकली है, जिनका श्रद्धा के साथ चिन्तन करके बड़े-बड़े मुनि निर्मल हो जाते हैं और तीनों गुणोंके कठिन बन्धनको काटकर तुरन्त भगवत्स्वरूप बन जाते हैं। फिर गङ्गाजी संसारका बन्धन काट दें, इसमें कौन बड़ी बात है ll 14-15 ll

भगीरथका पुत्र था श्रुत, श्रुतका नाभ। यह नाभ पूर्वोक्त नामसे भिन्न है। नाभका पुत्र था सिन्धुद्वीप और सिन्धुद्वीपका अयुतायु अयुतायुके पुत्रका नाम था ऋतुपर्ण। वह नलका मित्र था। उसने नलको पासा फेंकनेकी विद्याका रहस्य बतलाया था और बदलेमें उससे अश्वविद्या सीखी थी ऋतुपर्णका पुत्र सर्वकाम हुआ ।। 16-17 ॥ परीक्षित् । सर्वकामके पुत्रका नाम था सुदास । सुदासके पुत्रका नाम था सौदास और सौदासकी पत्नीका नाम था मदयन्ती सौदासको ही कोई-कोई मित्रसह कहते हैं और कहीं-कहीं उसे कल्माषपाद भी कहा गया है। वह वसिष्ठके शापसे राक्षस हो गया था और फिर अपने कर्मोंक कारण सन्तानहीन हुआ ॥ 18 ॥

राजा परीक्षित्ने पूछा भगवन्! हम यह जानना चाहते हैं कि महात्मा सौदासको गुरु वसिष्ठजीने शाप क्यों दिया। यदि कोई गोपनीय बात न हो तो कृपया बतलाइये ॥ 19 ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित्! एक बार राजा सौदास शिकार खेलने गये हुए थे। वहाँ उन्होंने किसी राक्षसको मार डाला और उसके भाईको छोड़ दिया। उसने राजाके इस कामको अन्याय समझा और उनसे भाईको मृत्युका बदला लेनेके लिये वह रसोइयेका रूप धारण करके उनके घर गया। जब एक दिन भोजन करनेके लिये गुरु वसिष्ठजी राजाके यहाँ आये, तब उसने मनुष्यका मांस राँधकर उन्हें परस दिया । 20-21 ॥ जब सर्वसमर्थ वसिष्ठजीने देखा कि परोसी जानेवाली वस्तु तो नितान्त अभक्ष्य है, तब उन्होंने क्रोधित होकर राजाको शाप दिया कि ‘जा, इस कामसे तू राक्षस हो जायगा ॥ 22 ॥जब उन्हें यह बात मालूम हुई कि यह काम तो राक्षसका है राजाका नहीं, तब उन्होंने उस शापको केवल बारह वर्ष के लिये कर दिया। उस समय राजा सौदास भी अपनी अञ्जलिमें जल लेकर गुरु वसिष्टको शाप देनेके लिये उद्यत हुए ।। 23 ।। परन्तु उनकी पत्नी मदयन्तीने उन्हें ऐसा करनेसे रोक दिया। इसपर सौदासने विचार किया कि ‘दिशाएँ, आकाश और पृथ्वी सब-के-सब तो जीवमय ही हैं। तब यह तीक्ष्ण जल कहाँ छोड़े ?’ अन्तमें उन्होंने उस जलको अपने पैरोंपर डाल लिया। [इसीसे उनका नाम ‘मित्रसह’ हुआ] ॥ 24 ॥ उस जलसे उनके पैर काले पड़ गये थे, इसलिये उनका नाम ‘कल्माषपाद’ भी हुआ। अब ये राक्षस हो चुके थे। एक दिन राक्षस बने हुए राजा कल्माषपादने एक वनवासी ब्राह्मण-दम्पतिको सहवासके समय देख लिया ।। 25 ।। कल्माषपादको भूख तो लगी ही थी, उसने ब्राह्मणको पकड़ लिया। ब्राह्मण-पत्रीकी कामना अभी पूर्ण नहीं हुई थी। उसने कहा- ‘राजन्! आप राक्षस नहीं हैं। आप महारानी मदयन्ती के पति और इक्ष्वाकुवंश और महारथी हैं। आपको ऐसा अधर्म नहीं करना चाहिये। मुझे सन्तानकी कामना है और इस ब्राह्मणकी भी कामनाएं अभी पूर्ण नहीं हुई है इसलिये आप मुझे मेरा यह ब्राह्मण पति दे दीजिये ॥ 26-27 ॥ राजन्| यह मनुष्य शरीर जीवको धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थोकी प्राप्ति करानेवाला है। इसलिये बीर । इस शरीरको नष्ट कर देना सभी पुरुषार्थोंकी हत्या कही जाती है ।। 28 । फिर यह ब्राह्मण तो विद्वान् है। तपस्या, शील और बड़े-बड़े गुणोंसे सम्पन्न है। यह उन पुरुषोत्तम परब्रह्मकी समस्त प्राणियोंके आत्माके रूपमें आराधना करना चाहता है, जो समस्त पदार्थों में विद्यमान रहते हुए भी उनके पृथक्-पृथक् गुणोंसे छिपे हुए हैं ।। 29 ।। राजन् | आप शक्तिशाली हैं। आप धर्मका मर्म भलीभांति जानते है। जैसे पिके हाथों पुत्रकी मृत्यु उचित नहीं, वैसे ही आप जैसे श्रेष्ठ राजर्षि हाथों मेरे श्रेष्ठ ब्रह्मर्षिपतिका यथ किसी प्रकार उचित नहीं है ॥ 30 ॥ आपका साधु-समाजमें बड़ा सम्मान है। भला आप मेरे परोपकारी, निरपराध, श्रोत्रिय एवं वादी पतिका मकैसे ठीक समझ रहे हैं? ये तो मौके समान निरीह है ।। 31 ।। फिर भी यदि आप इन्हें खा ही डालना चाहते हैं, तो पहले मुझे खा डालिये। क्योंकि अपने पतिके बिना मैं मुर्देके समान हो जाऊँगी और एक क्षण भी जीवित न रह ॥ 32 ॥नी बड़ी ही करुणापूर्ण वाणीमें इस | प्रकार कहकर अनाथकी भाँति रोने लगी। परन्तु सौदासने | शापसे मोहित होनेके कारण उसकी प्रार्थनापर कुछ भी ध्यान न दिया और यह उस ब्राह्मणको वैसे ही रखा गया, जैसे बाघ किसीपशुको खा जाय ॥ 33 ॥ जब ब्राह्मणीने देखा कि राक्षसने | मेरे गर्भाधानके लिये उद्यत पतिको खा लिया, तब उसे बड़ा शोक हुआ। सती ब्राह्मणीने क्रोध करके राजाको शाप दे दिया ॥ 34 ॥ रे पापी! मैं अभी कामसे पीड़ित हो रही थी। ऐसी अवस्थामें तूने मेरे पतिको खा डाला है। इसलिये मूर्ख ! जब तू स्त्रीसे सहवास करना चाहेगा, तभी तेरी मृत्यु हो जायगी, यह बात मैं तुझे सुझाये देती हूँ’ ॥ 35 ॥ इस प्रकार मित्रसहको शाप देकर ब्राह्मणी अपने पतिकी अस्थियोंको धधकती हुई चितामें डालकर स्वयं भी सती हो गयी और उसने वही गति प्राप्त की, जो उसके पतिदेवको मिली थी। क्यों न हो, वह अपने पतिको छोड़कर और किसी लोकमें जाना भी तो नहीं चाहती थी ॥ 36 ॥

बारह वर्ष बीतनेपर राजा सौदास शापसे मुक्त हो गये । जब वे सहवासके लिये अपनी पत्नीके पास गये, तब उसने इन्हें रोक दिया। क्योंकि उसे उस ब्राह्मणीके शापका पता था ॥ 37 ॥ इसके बाद उन्होंने स्त्री-सुखका बिलकुल परित्याग ही कर दिया। इस प्रकार अपने कर्मके फलस्वरूप वे सन्तानहीन हो गये। तब वसिष्ठजीने उनके कहनेसे मदयन्तीको गर्भाधान कराया ।। 38 ।। मदयन्ती सात वर्षतक गर्भ धारण किये रही, परन्तु बच्चा पैदा नहीं हुआ। तब वसिष्ठजीने पत्थरसे उसके पेटपर आघात किया। इससे जो बालक हुआ, वह अश्म (पत्थर) की चोटसे पैदा होनेके कारण ‘अश्मक’ कहलाया ॥ 39 ॥ अश्मकसे मूलकका जन्म हुआ। जब परशुरामजी पृथ्वीको क्षत्रियहीन कर रहे थे, तब स्त्रियोंने उसे छिपाकर रख लिया था। इसीसे उसका एक नाम ‘नारीकवच’ भी हुआ। उसे मूलक इसलिये कहते हैं कि वह पृथ्वीके क्षत्रियहीन हो जानेपर उस वंशका मूल (प्रवर्तक) बना ॥ 40 ॥ मूलकके पुत्र हुए दशरथ, दशरथके ऐडविड और ऐडविडके राजा विश्वसह। विश्वसहके पुत्र ही चक्रवर्ती सम्राट् खट्वाङ्ग हुए 41 ॥ युद्धमें उन्हें कोई जीत नहीं सकता था। उन्होंने देवताओंकी प्रार्थनासे दैत्योंका वध किया था। जब उन्हें देवताओंसे यह मालूम हुआ कि अब मेरी आयु केवल दो ही घड़ी बाकी है, तब वे अपनी राजधानी लौट आये और अपने मनको उन्होंने भगवान्‌में लगा दिया ।। 42 ।। वे मन-ही-मन सोचने लगे कि ‘मेरे कुलके इष्ट देवता हैं ब्राह्मण ! उनसे बढ़कर मेरा प्रेम अपने प्राणोंपर भी नहीं है। पत्नी, पुत्र, लक्ष्मी, राज्य और पृथ्वी भी मुझे उतने प्यारे नहीं लगते ॥ 43 || मेरा मन बचपनमें भी कभी अधर्मकी ओर नहीं गया। मैंने पवित्रकीर्ति भगवान्के अतिरिक्त और कोई भी वस्तु कहीं नहीं देखी ॥। 44 ।।तीनों लोकोंके स्वामी देवताओंने मुझे मुँहमाँगा वर देने को कहा। परन्तु मैने उन भोगोंकी लालसा बिलकुल नहीं की। क्योंकि समस्त प्राणियोंके जीवनदाता श्रीहरिकी भावनामें ही मैं मग्न हो रहा था ॥ 45 ॥ जिन देवताओंकी इन्द्रियाँ और मन विषयोंमें भटक रहे हैं, वे सत्त्वगुणप्रधान होनेपर भी अपने हृदयमें विराजमान, सदा-सर्वदा प्रियतमके रूपमें रहनेवाले अपने आत्मस्वरूप भगवान्‌को नहीं जानते। फिर भला जो रजोगुणी और तमोगुणी हैं, वे तो जान ही कैसे सकते हैं 46 इसलिये अब इन विषयोंमें मैं नहीं रमता। ये तो मायाके खेल हैं। आकाशमें झूठ-मूठ प्रतीत होनेवाले गन्धर्वनगरोंसे बढ़कर इनकी सत्ता नहीं है। ये तो अज्ञानवश चित्तपर चढ़ गये थे। संसारके सच्चे रचयिता भगवान्की भावनामें लीन होकर मैं विषयोंको छोड़ रहा हूँ और केवल उन्हींकी शरण ले रहा हूँ ॥ 47 ॥ परीक्षित्! भगवान्ने राजा खट्वाङ्गकी बुद्धिको पहलेसे ही अपनी ओर आकर्षित कर रखा था। इसीसे वे अन्तसमय में ऐसा निश्चय कर सके। अब उन्होंने शरीर आदि अनात्म पदार्थोंमें जो अज्ञानमूलक आत्मभाव था, उसका परित्याग कर दिया और अपने वास्तविक आत्मस्वरूपमें स्थित हो गये ॥ 48 ॥ वह स्वरूप साक्षात् परब्रह्म है। वह सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म, शून्यके समान ही है। परन्तु वह शून्य नहीं, परम सत्य है । भक्तजन उसी वस्तुको | ‘भगवान् वासुदेव’ इस नामसे वर्णन करते हैं ॥ 49 ॥

अध्याय 10 भगवान् श्रीरामकी लीलाओंका वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! खट्वाङ्गके पुत्र दीर्घबाहु और दीर्घबाहुके परम यशस्वी पुत्र रघु हुए। रघुके अज और अजके पुत्र महाराज दशरथ हुए ॥ 1 ॥ | देवताओंकी प्रार्थनासे साक्षात् परमब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीहरि ही अपने अंशांशसे चार रूप धारण करके राजा दशरथ के पुत्र हुए। उनके नाम थे-राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न ॥ 2 ॥परीक्षित् । सीतापति भगवान् श्रीरामका चरित्र तो तत्त्वदर्शी ऋषियोंने बहुत कुछ वर्णन किया है और तुमने अनेक बार उसे सुना भी है ॥ 3 ॥

भगवान् श्रीरामने अपने पिता राजा दशरथके सत्यकी
रक्षाके लिये राजपाट छोड़ दिया और वे वन-वनमें फिरते रहे। उनके चरणकमल इतने सुकुमार थे कि परम सुकुमारी श्रीजानकीजीके करकमलोंका स्पर्श भी उनसे सहन नहीं होता था। वे ही चरण जब वनमें चलते-चलते थक जाते, तब हनूमान् और लक्ष्मण उन्हें दबा दबाकर उनकी थकावट मिटाते। शूर्पणखाको नाक-कान काटकर विरूप कर देनेके कारण उन्हें अपनी प्रियतमा श्रीजानकीजीका वियोग भी सहना पड़ा। इस वियोग के कारण क्रोधवश उनकी भौंहे तन गयीं, जिन्हें देखकर समुद्रतक भयभीत हो गया। इसके बाद उन्होंने समुद्रपर पुल बांधा और लङ्कामें जाकर दुष्ट राक्षसोंके जंगलको दावानिके समान दग्ध कर दिया। वे कोसलनरेश हमारी रक्षा करें ॥ 4 ॥ भगवान् श्रीरामने विश्वामित्र के यज्ञमें लक्ष्मणके सामने ही मारीच आदि राक्षसोंको मार डाला। वे सब बड़े-बड़े राक्षसोकी गिनती में थे ॥ 5 ॥ परीक्षित्! जनकपुरमें सीताजीका स्वयंवर हो रहा था। संसारके चुने हुए वीरोंकी सभामें भगवान् शङ्करका वह भयङ्कर धनुष रखा हुआ था। वह इतना भारी था कि तीन सौ वीर बड़ी कठिनाईसे उसे स्वयंवरसभामें ला सके थे। भगवान् श्रीरामने उस धनुषको बात की जातमें उठाकर उसपर डोरी चढ़ा दी और खींचकर बीचोबीचसे उसके दो टुकड़े कर दिये-ठीक वैसे ही जैसे हाथी का बच्चा खेलते-खेलते ईख तोड़ डाले ॥ 6 ॥ भगवान्‌ने जिन्हें अपने वक्षःस्थलपर स्थान देकर सम्मानित किया है, वे श्रीलक्ष्मीजी ही सीता के नामसे जनकपुरमें अवतीर्ण हुई थीं। वे गुण, शील, अवस्था, शरीरकी गठन और सौन्दर्यमें सर्वथा भगवान् श्रीरामके अनुरूप थीं। भगवान्‌ने धनुष तोड़कर उन्हें प्राप्त कर लिया। अयोध्याको लौटते समय मार्गमें उन परशुरामजी से भेंट हुई, जिन्होंने इक्कीस बार पृथ्वीको राजवंशके बीजसे भी रहित कर दिया था। भगवान्‌ने उनके बढ़े हुए गर्वको नष्ट कर दिया ॥ 7 ॥ इसके बाद पिताके वचनको सत्य करनेके लिये उन्होंने वनवास स्वीकार किया। यद्यपि महाराज दशरथने अपनी पत्नीके अधीन होकर ही उसे वैसा वचन दिया था, फिर भी वे सत्यके बन्धनमें बंध गये थे। इसलिये भगवान्ने अपने पिताकी आज्ञा शिरोधार्य की। उन्होंने प्राणों के समान प्यारे राज्य लक्ष्मी, प्रेमी, हितैषी मित्र और महलोंको वैसे ही छोड़कर अपनी पलीके साथ यात्रा की, जैसे मुक्तसंग योगी प्राणोंको छोड़ देता है ॥ 8 ॥वनमें पहुँचकर भगवान्ने राक्षसराज रावणकी बहिन शूर्पणखाको विरूप कर दिया। क्योंकि उसकी बुद्धि बहुत हो कलुषित, कामवासनाके कारण अशुद्ध थी। उसके पक्षपाती खर, दूषण, त्रिशिरा आदि प्रधान प्रधान भाइयोंको— जो संख्यामें चौदह हजार थे— हाथमें महान् धनुष लेकर भगवान् श्रीरामने नष्ट कर डाला, और अनेक प्रकारकी कठिनाइयोंसे परिपूर्ण वनमें वे इधर-उधर विचरते हुए निवास करते रहे ॥ 9 ॥ परीक्षित् ! जब रावणने सीताजीके रूप, गुण, सौन्दर्य आदिकी बात सुनी तो उसका हृदय कामवासनासे आतुर हो गया। उसने अद्भुत हरिनके वेषमें मारीचको उनकी पर्णकुटीके पास भेजा। वह धीरे-धीरे भगवान्‌को वहाँसे दूर ले गया। अन्तमें भगवान्ने अपने बाणसे उसे बात-की- बातमें वैसे ही मार डाला, जैसे दक्षप्रजापतिको वीरभद्रने मारा था ॥ 10 ॥ जब भगवान् श्रीराम जंगलमें दूर निकल गये, तब (लक्ष्मणकी अनुपस्थितिमें) नीच राक्षस रावणने भेड़ियेके समान विदेहनन्दिनी सुकुमारी श्रीसीताजीको हर लिया। तदनन्तर वे अपनी प्राणप्रिया सीताजीसे बिछुड़कर अपने भाई लक्ष्मणके साथ वन-वनमें दीनकी भाँति घूमने लगे। और इस प्रकार उन्होंने यह शिक्षा दी कि ‘जो स्त्रियोंमें आसक्ति रखते हैं, उनकी यही गति होती है’ ॥ 11 ॥ इसके बाद भगवान्ने उस जटायुका दाह संस्कार किया, जिसके सारे कर्मबन्धन भगवत्सेवारूप कर्मसे पहले ही भस्म हो चुके थे। फिर भगवान्ने कबन्धका संहार किया और इसके अनन्तर सुग्रीव आदि वानरोंसे मित्रता करके वालिका वध किया, तदनन्तर वानरोंके द्वारा अपनी प्राणप्रियाका पता लगवाया। ब्रह्मा और शङ्कर जिनके चरणोंकी वन्दना करते हैं, वे भगवान् श्रीराम मनुष्यकी-सी लीला करते हुए बंदरोंकी सेनाके साथ समुद्रतटपर पहुँचे ॥ 12 ॥ (वहाँ उपवास और प्रार्थनासे जब समुद्रपर कोई प्रभाव न पड़ा, तब) भगवान्ने क्रोधकी लीला करते हुए अपनी उम्र एवं टेढ़ी नजर समुद्रपर डाली। उसी समय समुद्रके बड़े-बड़े मगर और मच्छ खलबला उठे। डर | जानेके कारण समुद्रकी सारी गर्जना शान्त हो गयी। तब समुद्र शरीरधारी बनकर और अपने सिरपर बहुत-सी भेंटें लेकर भगवान के चरणकमलोंकी शरणमें आया और इस प्रकार कहने लगा ॥ 13 ॥ ‘अनन्त | हम मूर्ख हैं; इसलिये आपके वास्तविक स्वरूपको नहीं जानते। जानें भी कैसे ? आप समस्त जगत्के एकमात्र स्वामी, आदिकारण एवं जगत्के समस्त परिवर्तनोंमें एकरस रहनेवाले हैं। आप समस्त गुणोंके स्वामी हैं। इसलिये जब आप सत्त्वगुणको स्वीकार कर लेते हैं तब देवताओंकी, रजोगुणको स्वीकार कर लेते हैं तब प्रजापतियोंकी और तमोगुणको स्वीकार कर लेते हैं तब आपके क्रोधसेरुद्रगणकी उत्पत्ति होती है ।। 14 वीरशिरोमणे | आप अपनी इच्छाके अनुसार मुझे पार कर जाइये और त्रिलोकीको रुलाने वाले विश्रवा कुपूत रावणको मारकर अपनी पत्नीको फिरसे प्राप्त कीजिये। परन्तु आपसे मेरी एक प्रार्थना है। आप यहाँ मुझपर एक पुल बाँध दीजिये। इससे आपके यशका विस्तार होगा और आगे चलकर जब बड़े-बड़े नरपति दिग्विजय करते हुए यहाँ आयेंगे, तब वे आपके यशका गान करेंगे ‘ ॥ 15 ॥

भगवान् श्रीरामजीने अनेकानेक पर्वतोंके शिखरोसे समुद्रपर पुल बांधा। जब बड़े-बड़े बन्दर अपने हाथोंसे पर्वत उठा-उठाकर लाते थे, तब उनके वृक्ष और बड़ी-बड़ी चट्टानें थर-थर काँपने लगती थीं। इसके बाद विभीषणकी सलाहसे भगवान्ने सुग्रीव, नील, हनूमान् आदि प्रमुख वीरों और वानरीसेनाके साथ लङ्कामें प्रवेश किया। वह तो श्रीहनूमान्जीके द्वारा पहले ही जलायी जा चुकी थी ।। 16 ।। उस समय वानरराजकी सेनाने लङ्काके सैर करने और खेलने के स्थान, अन्नके गोदाम, खजाने, दरवाजे, फाटक, सभाभवन, छज्जे और पक्षियोंक रहनेके स्थानको घेर लिया। उन्होंने वेदी, ध्वजाएँ सोनेके कलश और चौराहे तोड़-फोड़ डाले। उस समय लङ्का ऐसी मालूम पड़ रही थी जैसे झुंड के झुंड हाथियो किसी नदीको मथ डाला हो ॥ 17 ॥ यह देखकर राक्षसराज रावणने निकुम्भ, कुम्भ, धूम्राक्ष, दुर्मुख, सुरान्तक, नाक, प्रहस्त, अतिकाय, विकम्पन आदि अपने सब अनुचरों, पुत्र मेघनाद और अन्तमे भाई कुम्भकर्णको भी युद्ध करने के लिये भेजा ॥ 18 ॥ राक्षसोंकी वह विशाल सेना तलवार, त्रिशूल, धनुष, प्रास, ऋष्टि, शक्ति, बाण, भाले, खड्ग आदि शस्त्र अस्त्रोंसे सुरक्षित और अत्यन्त दुर्गम थी। भगवान् श्रीरामने सुग्रीव, लक्ष्मण, हनूमान् गन्धमादन, नील, अङ्गद, जाम्बवान् और पनस आदि वीरोंको अपने साथ लेकर राक्षसोंकी सेनाका सामना किया 19 रघुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीरामके अङ्गद आदि सब सेनापति राक्षसोंकी चतुरङ्गिणी सेना – हाथी, रथ, घुड़सवार और पैदलोंके साथ द्वन्द्वयुद्धकी रीतिसे भिड़ गये और राक्षसोंको वृक्ष, पर्वतशिखर, गदा और बाणोंसे मारने लगे। उनका मारा जाना तो स्वाभाविक ही था। क्योंकि वे उसी रावणके अनुचर थे, जिसका मङ्गल श्रीसीताजीको स्पर्श करने के कारण पहले ही नष्ट हो चुका था ll 20 ll

जब राक्षसराज रावणने देखा कि मेरी सेनाका तो नाश हुआ जा रहा है, तब वह क्रोधमें भरकर पुष्पक विमानपर आरूढ़ हो भगवान् श्रीरामके सामने आया उस समय इन्द्रका सारथि मातलि बड़ा ही तेजस्वी दिव्य रथ लेकर आया और उसपर भगवान् श्रीरामजी विराजमान हुए। रावण अपने तीखे बाणोंसे उनपर प्रहार करने लगा ॥ 21 ॥भगवान् श्रीरामजीने रावणसे कहा – ‘नीच राक्षस! तुम कुत्तेकी तरह हमारी अनुपस्थितिमें हमारी प्राणप्रिया पत्नीको हरये तुमने तो हद कर दी तुम्हारे जैसा निर्ल तथा निन्दनीय और कौन होगा। जैसे कालको कोई टाल नहीं सकता — कर्तापनके अभिमानीको वह फल दिये बिना रह हुए नहीं सकता, वैसे ही आज मैं तुम्हें तुम्हारी करनीका फल चखाता हूँ’ ॥ 22 ॥ इस प्रकार रावणको फटकारते भगवान् श्रीरामने अपने धनुषपर चढ़ाया हुआ बाण उसपर छोड़ा। उस वाणने वज्रके समान उसके हृदयको विदीर्ण कर दिया। वह अपने दसों मुखोंसे खून उगलता हुआ विमानसे गिर पड़ा-ठीक वैसे ही, जैसे पुण्यात्मालोग भोग समाप्त होनेपर स्वर्गसे गिर पड़ते हैं। उस समय उसके पुरजन परिजन ‘हाय हाय’ करके चिल्लाने लगे ॥ 23 ॥

तदनन्तर हजारों राक्षसियाँ मन्दोदरीके साथ रोती हुई लासे निकल पड़ी और रणभूमिमें आयीं ॥ 24 ॥ उन्होंने देखा कि उनके स्वजन सम्बन्धी लक्ष्मणजीके वाणोंसे छित्र भिन्न होकर पड़े हुए हैं। वे अपने हाथों अपनी छाती पीट पीटकर और अपने सगे-सम्बन्धियोंको हृदयसे लगा लगाकर ऊँचे स्वरसे विलाप करने लगीं ॥ 25 ॥ हाय-हाय ! स्वामी ! आज हम सब बेमौत मारी गयीं। एक दिन वह था, जब आपके भयसे समस्त लोकोंमें त्राहि-त्राहि मच जाती थी। आज वह दिन आ पहुँचा कि आपके न रहनेसे हमारे शत्रु लाको दुर्दशा कर रहे हैं और यह प्रश्न उठ रहा है कि अब लङ्का किसके अधीन रहेगी ॥ 26 ॥ आप सब प्रकारसे सम्पन्न थे, किसी भी बातकी कमी न थी। परन्तु आप कामके वश हो गये और यह नहीं सोचा कि सीताजी कितनी तेजस्विनी हैं और उनका कितना प्रभाव है। आपकी यही भूल आपकी इस दुर्दशाका कारण बन गयी ॥। 27 ॥ कभी आपके कामोंसे हम सब और समस्त राक्षसवंश आनन्दित होता था और आज हम सब तथा यह सारी लङ्का नगरी विधवा हो गयी। आपका वह शरीर, जिसके लिये आपने सब कुछ कर डाला, आज गोधोंका आहार बन रहा है और अपने आत्माको आपने नरकका अधिकारी बना डाला। यह सब आपकी ही नासमझी और कामुकताका फल है ।। 28 ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! कोसलाधीश भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञासे विभीषणने अपने स्वजन सम्बविधिसे शास्त्र के अनुसार अन्त्येष्टि कर्म किया ॥ 29 ॥ इसके बाद भगवान् श्रीरामने | अशेकत्वाटिका आश्रममे अशोक वृक्षके नीचे बैठी हुईश्रीसीताजीको देखा। वे उन्होंके विरहकी व्याधिसे पीड़ित एवं अत्यन्त दुर्बल हो रही थीं ॥ 30 ॥ अपनी प्राणप्रिया अर्धाङ्गिनी श्रीसीताजीको अत्यन्त दीन अवस्थामें देखकर श्रीरामका हृदय प्रेम और कृपासे भर आया। इधर भगवान्‌का दर्शन पाकर सीताजीका हृदय प्रेम और आनन्दसे परिपूर्ण हो गया, उनका मुखकमल खिल उठा ॥ 31 ॥ भगवान्‌ने विभीषणको राक्षसोंका स्वामित्व, लङ्कापुरीका राज्य और एक कल्पकी आयु दी और इसके बाद पहले सीताजीको विमानपर बैठाकर अपने दोनों भाई लक्ष्मण तथा सुग्रीव एवं सेवक हनूमान्जीके साथ स्वयं भी विमानपर सवार हुए। इस प्रकार चौदह वर्षका व्रत पूरा हो जानेपर उन्होंने अपने नगरकी यात्रा की। उस समय मार्गमें ब्रह्मा आदि लोकपालगण उनपर बड़े प्रेमसे पुष्पोंकी वर्षा कर रहे थे ll 32-33 ॥

इधर तो ब्रह्मा आदि बड़े आनन्दसे भगवान्‌की लीलाओंका गान कर रहे थे और उधर जब भगवान्‌को यह | मालूम हुआ कि भरतजी केवल गोमूत्रमें पकाया हुआ जौका दलिया खाते हैं, वल्कल पहनते हैं और पृथ्वीपर डाभ बिछाकर सोते हैं एवं उन्होंने जटाएँ बढ़ा रखी हैं, तब वे बहुत दुःखी हुए। उनकी दशाका स्मरण कर परम करुणाशील भगवान्‌का हृदय भर आया। जब भरतको मालूम हुआ कि मेरे बड़े भाई भगवान् श्रीरामजी आ रहे हैं, तब वे पुरवासी, मन्त्री और पुरोहितोंको साथ लेकर एवं भगवान्‌की पादुकाएँ सिरपर रखकर उनकी अगवानीके लिये चले। जब भरतजी अपने रहनेके स्थान नन्दिग्रामसे चले, तब लोग उनके साथ-साथ मङ्गलगान करते, बाजे बजाते चलने लगे। वेदवादी ब्राह्मण बार-बार वेदमन्त्रोंका उच्चारण करने लगे और उसकी ध्वनि चारों ओर गूँजने लगी। सुनहरी कामदार पताकाएँ फहराने लगीं। सोनेसे मढ़े हुए तथा रंग-बिरंगी ध्वजाओंसे सजे हुए रथ, सुनहले साजसे सजाये हुए सुन्दर | घोड़े तथा सोनेके कवच पहने हुए सैनिक उनके साथ-साथ चलने लगे। सेठ साहूकार, श्रेष्ठ वाराङ्गनाएँ, पैदल चलनेवाले सेवक और महाराजाओंके योग्य छोटी-बड़ी सभी वस्तुएँ उनके साथ चल रही थीं। भगवान्को देखते ही प्रेमके उद्रेकसे भरतजीका हृदय गद्गद हो गया, नेत्रोंमें आँसू छलक आये, वे भगवान के चरणोंपर गिर पड़े ।। 34-39 ॥ उन्होंने प्रभुके सामने उनकी पादुकाएँ रख दीं और हाथ जोड़कर खड़े हो गये। नेत्रोंसे आँसूकी धारा बहती जा रही थी। भगवान्ने अपने दोनों हाथोंसे पकड़कर बहुत देरतक भरतजीको हृदयसे लगाये रखा । भगवान्के नेत्रजलसे भरतजीका स्नान हो गया ।। 40 ।। इसके बाद सीताजी और लक्ष्मणजीके साथभगवान् श्रीरामजीने ब्राह्मण और पूजनीय गुरुजनोंको नमस्कार किया तथा सारी प्रजाने बड़े प्रेमसे सिर झुकाकर भगवान्‌के चरणों में प्रणाम किया ॥ 41 ॥ उस समय उत्तरकोसल देशकी रहनेवाली समस्त प्रजा अपने स्वामी भगवान्‌को बहुत दिनोंके बाद आये देख अपने दुपट्टे हिला-हिलाकर पुष्पोंकी वर्षा करती हुई आनन्दसे नाचने लगी ॥ 42 ॥ भरतजीने भगवान्‌को पादुकाएं लीं विभीषणने श्रेष्ठ चैवर, सुग्रीवने या और श्रीहनुमानजीने श्वेत छत्र ग्रहण किया ॥ 43 ॥ परीक्षित् शत्रुजीने धनुष और तरकर, सीताजीने तीर्थोक जलसे भरा कमण्डल अङ्गदने सोनेका खड्ग और | जाम्बवान्‌ने ढाल ले ली ॥ 44 ॥ इन लोगोंके साथ भगवान् पुष्पक विमानपर विराजमान हो गये, चारों तरफ यथास्थान स्त्रियाँ बैठ गयीं, वन्दीजन स्तुति करने लगे। उस समय पुष्पक विमानपर भगवान् श्रीरामकी ऐसी शोभा हुई, मानो यहाँक साथ चन्द्रमा उदय हो रहे हों ।। 45 ।।

इस प्रकार भगवान्ने भाइयोंका अभिनन्दन स्वीकार करके उनके साथ अयोध्यापुरीमें प्रवेश किया। उस समय वह पुरी आनन्दोत्सवसे परिपूर्ण हो रही थी। राजमहलमें प्रवेश करके उन्होंने अपनी माता कौसल्या, अन्य माताओं, गुरुजनों, बराबरके मित्रों और छोटोका यथायोग्य सम्मान किया तथा उनके द्वारा किया हुआ सम्मान स्वीकार किया। श्रीसीताजी और लक्ष्मणजीने भी भगवान् के साथ-साथ सबके प्रति | यथायोग्य व्यवहार किया ॥। 46-47 ।। उस समय जैसे मृतक शरीरमें प्राणोंका सञ्चार हो जाय, वैसे ही माताएँ अपने पुत्रोंके आगमनसे हर्षित हो उठीं। उन्होंने उनको अपनी गोद में बैठा लिया और अपने से उनका अभिषेक किया। उस समय उनका सारा शोक मिट गया ॥ 48 ॥ इसके बाद वसिष्ठजीने दूसरे गुरुजनोंके साथ विधिपूर्वक भगवान्‌की जटा उतरवायी और बृहस्पतिने जैसे इन्द्रका अभिषेक किया था, वैसे ही चारों समुद्रोंके जल आदिसे उनका अभिषेक किया ।। 49 ।। इस प्रकार सिरसे स्नान करके भगवान् श्रीरामने सुन्दर वस्त्र, पुष्पमालाएँ और अलङ्कार धारण किये। सभी भाइयों और श्रीजानकीजीने भी सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और | अलङ्कार धारण किये। उनके साथ भगवान् श्रीरामजी अत्यन्त शेोभायमान हुए 50 भरतजीने उनके चरणोंमें गिरकर उन्हें प्रसन्न किया और उनके आग्रह करनेपर भगवान् श्रीरामने राजसिंहासन स्वीकार किया। इसके बाद वे अपने-अपने धर्ममें तत्पर तथा वर्णाश्रमके आचारको निभानेवाली प्रजाका पिताके समान पालन करने लगे। उनकी प्रजा भी उन्हें अपना पिता ही मानती थी ॥ 51 ॥ परीक्षित्! जब समस्त | प्राणियों को सुख देनेवाले परम धर्मज्ञ भगवान् श्रीराम राजा हुएतब था तो त्रेतायुग, परन्तु मालूम होता था मानो सत्ययुग ही है ॥ 52 ॥ परीक्षित् ! उस समय वन, नदी, पर्वत, वर्ष, द्वीप और समुद्र – सब-के-सब प्रजाके लिये कामधेनुके समान समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले बन रहे थे ॥ 53 ॥ इन्द्रियातीत भगवान् श्रीरामके राज्य करते समय किसीको मानसिक चिन्ता या शारीरिक रोग नहीं होते थे। बुढ़ापा, दुर्बलता, दुःख, शोक, भय और थकावट नाममात्रके लिये भी नहीं थे । यहाँतक कि जो मरना नहीं चाहते थे, उनकी मृत्यु भी नहीं होती थी ॥ 54 ॥ भगवान् श्रीरामने एकपत्नीका व्रत धारण कर रखा था, उनके चरित्र अत्यन्त पवित्र एवं राजर्षियोंके से थे। वे गृहस्थोचित स्वधर्मकी शिक्षा देनेके लिये स्वयं उस धर्मका आचरण करते थे ॥ 55 ॥ सतीशिरोमणि सीताजी अपने पतिके हृदयका भाव जानती रहतीं। वे प्रेमसे, सेवासे, शीलसे, अत्यन्त विनयसे तथा अपनी बुद्धि और लज्जा आदि गुणोंसे अपने पति भगवान् श्रीरामजीका चित्त चुराती रहती थीं ॥ 56 ॥

अध्याय 11 भगवान् श्रीरामकी शेष लीलाओंका वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! भगवान् श्रीरामने गुरु वसिष्ठजीको अपना आचार्य बनाकर उत्तम सामग्रियोंसे युक्त यज्ञोंके द्वारा अपने आप ही अपने सर्वदेवस्वरूप स्वयंप्रकाश आत्माका यजन किया ॥ 1 ॥ उन्होंने होताको पूर्व दिशा, ब्रह्माको दक्षिण, अध्वर्युको पश्चिम और उद्गाताको उत्तर दिशा दे दी ॥ 2 ॥ उनके बीचमें जितनी भूमि वच रही थी, वह उन्होंने आचार्यको दे दी। उनका यह निश्चय था कि सम्पूर्ण भूमण्डलका एकमात्र अधिकारी निःस्पृह ब्राह्मण ही है ॥ 3 ॥ इस प्रकार सारे भूमण्डलका दान करके उन्होंने अपने शरीरके वस्त्र और अलङ्कार ही अपने पास रखे । इसी प्रकार महारानी सीताजीके पास भी केवल माङ्गलिक वस्त्र और आभूषण ही बच रहे ॥ 4 ॥जब आचार्य आदि ब्रह्मणोने देखा कि भगवान् श्रीराम ब्राह्मणोंको ही अपना इष्टदेव मानते हैं, उनके हृदय ब्राह्मणोंके प्रति अनन्त स्नेह है, तब उनका हृदय प्रेमसे द्रवित हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर सारी पृथ्वी भगवान्‌को लौटा दी और कहा ।। 5 ।। ‘प्रभो ! आप सब लोकोंके एकमात्र स्वामी हैं। आप तो हमारे हृदयके भीतर रहकर अपनी ज्योतिसे अज्ञानान्धकारका नाश कर रहे हैं। ऐसी स्थितिमें भला, आपने हमें क्या नहीं दे रखा है ।। 6 ।। आपका ज्ञान अनन्त है। पवित्र कीर्तिवाले पुरुषोंमें आप सर्वश्रेष्ठ हैं। उन महात्माओंको, जो किसीको किसी प्रकारकी पीड़ा नहीं पहुंचाते, आपने अपने चरणकमल दे रखे हैं। ऐसा होनेपर भी आप ब्राह्मणोंको अपना इष्टदेव मानते हैं। भगवन्! आपके इस रामरूपको हम नमस्कार करते हैं ॥ 7 ॥

परीक्षित्! एक बार अपनी प्रजाकी स्थिति जाननेके लिये भगवान् श्रीरामजी रातके समय छिपकर बिना किसीको बतलाये घूम रहे थे। उस समय उन्होंने किसीकी यह बात सुनी। वह अपनी पत्नीसे कह रहा था || 8 || ‘अरी ! तू दुष्ट और कुलटा है तू पराये घरमें रह आयी है। स्त्री-लोभी राम भले ही सीताको रख लें, परन्तु मैं तुझे फिर नहीं रख सकता’ ॥ 9 ॥ सचमुच सब लोगोंको प्रसन्न रखना टेढ़ी खीर है। क्योंकि मूर्खोकी तो कमी नहीं है। जब भगवान् श्रीरामने बहुतोंके मुँहसे ऐसी बात सुनी तो वे लोकापवादसे कुछ भयभीत से हो गये। उन्होंने श्रीसीताजीका परित्याग कर दिया और वे वाल्मीकिमुनिके आश्रम में रहने लगीं ॥ 10 ॥ सीताजी उस समय गर्भवती थीं। समय आनेपर उन्होंने एक साथ ही दो पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम हुए-कुश और लव । वाल्मीकि मुनिने उनके जातकर्मादि संस्कार किये 11 ॥ लक्ष्मणजीके दो पुत्र हुए- अङ्गद और चित्रकेतु। परीक्षित् ! इसी प्रकार भरतजीके भी दो ही पुत्र थे-तक्ष और पुष्कल 12 ॥ तथा शत्रुके भी दो पुत्र हुए- सुबाहु और श्रुतसेन। भरतजीने दिग्विजयमें करोड़ों गन्धर्वोका संहार किया ॥ 13 ॥ उन्होंने उनका सब धन लाकर अपने बड़े भाई भगवान् श्रीरामको सेवामे निवेदन किया। शत्रुजीने मधुवनमे मधुके पुत्र लवण नामक राक्षसको मारकर यहाँ मथुरा नामकी पुरी बसायी ॥ 14 ॥ भगवान् श्रीरामके द्वारा निर्वासित सीताजीने अपने पुत्रोंको वाल्मीकिजी के हाथोंमें सौंप दिया और भगवान् श्रीराम के चरणकमलोका ध्यान करती हुई वे पृथ्वीदेवीके लोकमें चली गयीं ॥ 15 ॥यह समाचार सुनकर भगवान् श्रीरामने अपने शोकावेशको बुद्धिके द्वारा रोकना चाहा, परन्तु परम समर्थ होनेपर भी वे उसे रोक न सके। क्योंकि उन्हें जानकीजीके पवित्र गुण बार-बार स्मरण हो आया करते थे ॥ 16 ॥ परीक्षित् ! यह स्त्री और पुरुषका सम्बन्ध सब कहीं इसी प्रकार दुःखका कारण है। यह बात बड़े-बड़े समर्थ लोगोंके विषयमें भी ऐसी ही है, फिर गृहासक्त विषयी पुरुषके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ॥ 17 ॥

इसके बाद भगवान् श्रीरामने ब्रह्मचर्य धारण करके तेरह हजार वर्षतक अखण्डरूपसे अग्निहोत्र किया ॥ 18 ॥ तदनन्तर अपना स्मरण करनेवाले भक्तोंके हृदयमें अपने उन चरणकमलोको स्थापित करके, जो दण्डकवनके काँटोंसे विध गये थे, अपने स्वयंप्रकाश परम ज्योतिर्मय धाममें चले गये ॥ 19 ॥

परीक्षित्! भगवान्‌के समान प्रतापशाली और कोई नहीं है, फिर उनसे बढ़कर तो हो ही कैसे सकता है। उन्होंने देवताओंकी प्रार्थनासे ही यह लीला-विग्रह धारण किया था। ऐसी स्थितिमें रघुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीरामके लिये यह कोई बड़े गौरवकी बात नहीं है कि उन्होंने अस्त्र-शस्त्रोंसे राक्षसोंको मार डाला या समुद्रपर पुल बाँध दिया। भला, उन्हें शत्रुओंको मारनेके लिये बंदरोंकी सहायताकी भी आवश्यकता थी क्या ? यह सब उनकी लीला ही है ॥ 20 ॥

भगवान् श्रीरामका निर्मल यश समस्त पापोंको नष्ट कर देनेवाला है। वह इतना फैल गया है कि दिग्गजोंका श्यामल शरीर भी उसकी उज्ज्वलतासे चमक उठता है। आज भी बड़े-बड़े ऋषि महर्षि राजाओंकी सभामें उसका गान करते रहते हैं स्वर्गके देवता और पृथ्वीके नरपति अपने कमनीय किरीटोंसे उनके चरणकमलोंकी सेवा करते रहते हैं। मैं उन्हीं रघुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीरामचन्द्रकी शरण ग्रहण करता हूँ ॥ 21 ॥ जिन्होंने भगवान् श्रीरामका दर्शन और स्पर्श किया, उनका सहवास अथवा अनुगमन किया वे सब-के-सब तथा कोसलदेशके निवासी भी उसी लोकमें गये, जहाँ बड़े-बड़े योगी योगसाधनाके द्वारा जाते हैं ॥ 22 ॥ जो पुरुष अपने कानोंसे भगवान् श्रीरामका चरित्र सुनता है—उसे सरलता, कोमलता आदि गुणोंकी प्राप्ति होती है। परीक्षित्! केवल इतना ही नहीं, वह समस्त कर्म बन्धनोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 23 ॥

राजा परीक्षितने पूछा भगवान् श्रीराम स्वयं अपने भाइयोंके साथ किस प्रकारका व्यवहार करते थे ? तथा भरत आदि भाई, प्रजाजन और अयोध्यावासीभगवान् श्रीरामके प्रति कैसा बर्ताव करते थे ? ।। 24 ।।

श्रीशुकदेवजी कहते है-त्रिभुवनपति महार श्रीरामने राजसिंहासन स्वीकार करनेके बाद अपने भाइयोंको दिग्विजयकी आज्ञा दी और स्वयं अपने निजजनोंको दर्शन देते हुए अपने अनुचरोंके साथ वे पुरीकी देख-रेख करने लगे ॥ 25 ॥ उस समय अयोध्यापुरीके मार्ग सुगन्धित जल और हि मदकणोंसे सिंचे रहते। ऐसा जान पड़ता, मानो यह नगरी अपने स्वामी भगवान् श्रीरामको देखकर अत्यन्त मतवाली हो रही है । 26 ॥ उसके महल, फाटक, सभाभवन, विहार और देवालय आदिमें सुवर्णके कलश रखे हुऐ थे और स्थान-स्थानपर पताकाएँ फहरा रही थीं 27 ॥ वह डंठलसमेत सुपारी, केलेके खंभे और सुन्दर वस्त्रोंके पट्टोंसे सजायी हुई थी। दर्पण, वस्त्र और पुष्पमालाओंसे | तथा माङ्गलिक चित्रकारियों और बंदनवारोंसे सारी नगरी जगमगा रही थी ॥ 28 ॥ नगरवासी अपने हाथोंमें तरह-तरहकी भेंट लेकर भगवान्‌के पास आते और उनसे प्रार्थना करते कि ‘देव! पहले आपने ही वराहरूपसे पृथ्वीका उद्धार किया था; अब आप ही इसका पालन कीजिये ॥ 29 ॥ परीक्षित्! उस समय जब प्रजाको मालूम होता कि बहुत दिनोंके बाद भगवान् श्रीरामजी इधर पधारे हैं, तब सभी स्त्री-पुरुष उनके दर्शनकी लालसा से घर-द्वार छोड़कर दौड़ पड़ते। वे ऊँची-ऊँची अटारियोंपर चढ़ जाते और अतृप्त नेत्रोंसे कमलनयन भगवान्‌को देखते | हुए उनपर पुष्पोंकी वर्षा करते ॥ 30 ॥

इस प्रकार प्रजाका निरीक्षण करके भगवान् फिर अपने महलोंमें आ जाते । उनके वे महल पूर्ववर्ती राजाओंके द्वारा सेवित थे। उनमें इतने बड़े-बड़े सब प्रकारके खजाने थे, जो कभी समाप्त नहीं होते थे। वे बड़ी-बड़ी बहुमूल्य बहुत-सी सामग्रियोंसे सुसज्जित थे ॥ 31 ॥ महलोंके द्वार तथा देहलियाँ मूँगेकी बनी हुई थीं। उनमें जो खंभे थे, वे वैदूर्य थे। मरकतमणिके बड़े सुन्दर सुन्दर फ तथा स्फटिकमणिकी दीवारें चमकती रहती थीं ॥ 32 ॥ रंग-बिरंगी मालाओं, पताकाओं, मणियोंकी चमक, शुद्ध चेतनके समान उज्ज्वल मोती, सुन्दर-सुन्दर भोग सामग्री, सुगन्धित धूप-दीप तथा फूलोंके गहनोंसे वे महल खूब हुए थे। आभूषणों को भी भूषित करनेवाले | देवताओंके समान स्त्री-पुरुष उसकी सेवामें लगे रहतेथे ॥ 33-34 ॥ परीक्षित् ! भगवान् श्रीरामजी आत्माराम जितेन्द्रिय पुरुषोंके शिरोमणि थे। उसी महलमें वे अपनी प्राणप्रिया प्रेममयी पत्नी श्रीसीताजीके साथ विहार करते थे ॥ 35 ॥ सभी स्त्री-पुरुष जिनके चरणकमलोंका ध्यान करते रहते हैं, वे ही भगवान् श्रीराम बहुत वर्षोंतक धर्मकी मर्यादाका पालन करते हुए समयानुसार भोगोंका उपभोग करते रहे ॥ 36 ॥

अध्याय 12 इक्ष्वाकुवंशके शेष राजाओंका वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! कुशका पुत्र हुआ अतिथि, उसका निषध, निषधका नभ, नभका पुण्डरीक और पुण्डरीकका क्षेमधन्वा ॥ 1 ॥ क्षेमधन्याका देवानीक, देवानीकका अनीह, अनीहका पारियात्र, पारियात्रका बलस्थल और बलस्थलका पुत्र हुआ वज्रनाभ। यह सूर्यका अंश था ॥ 2 ॥

वज्रनाभसे खगण, स्वगणसे विभूति और विभूतिसे हिरण्यनाभकी उत्पत्ति हुई। वह जैमिनिका शिष्य और योगाचार्य था ॥ 3 ॥ कोसलदेशवासी याज्ञवल्क्य ऋषिने | उसकी शिष्यता स्वीकार करके उससे अध्यात्मयोगकी शिक्षा ग्रहण की थी। वह योग हृदयकी गाँठ काट देनेवाला तथा परम सिद्धि देनेवाला है ॥ 4 ॥

हिरण्यनाभका पुष्य, पुष्यका धुवसन्धि, ध्रुवसन्धिका सुदर्शन, सुदर्शनका अभिवर्ण, अग्निवर्णका शीघ्र और शीघ्रका पुत्र हुआ मरु ॥ 5 ॥ मरुने योगसाधना से सिद्धि प्राप्त कर ली और वह इस समय भी कलाप नामक ग्राममें रहता है। कलियुगके अन्तमें सूर्यवंशके नष्ट हो जानेपर वह उसे फिरसे चलायेगा ॥ 6 ॥मरुसे प्रसुश्रुत, उससे सन्धि और सन्धिसे अमर्षणका जन्म हुआ। अमर्षणका महस्वान् और महस्वान्‌का विश्वसा ॥ 7 ॥ विश्वसाहका प्रसेनजित्, प्रसेनजित्का तक्षक और तक्षकका पुत्र बृहद्बल हुआ। परीक्षित्! इसी बृहद्बलको तुम्हारे पिता अभिमन्युने युद्ध में मार डाला था ॥ 8 ॥

परीक्षित् ! इक्ष्वाकुवंशके इतने नरपति हो चुके हैं। अब आनेवालोंके विषयमें सुनो। बृहद्बलका पुत्र होगा बृहद्रण ॥ 9 ॥ बृहद्रणका उरुक्रिय, उसका वत्सवृद्ध, वत्सवृद्धका प्रतिव्योम, प्रतिव्योमका भानु और भानुका पुत्र होगा सेनापति दिवाक ॥ 10 ॥ दिवाकका वीर सहदेव, सहदेवका बृहदश्व, बृहदश्वका भानुमान्, भानुमान्‌का प्रतीकाश्व और प्रतीकाश्वका पुत्र होगा सुप्रतीक ॥ 11 ॥ सुप्रतीकका मरुदेव, मरुदेवका सुनक्षत्र, सुनक्षत्रका पुष्कर, पुष्करका अन्तरिक्ष, अन्तरिक्षका सुतपा और उसका पुत्र होगा अमित्रजित् ॥ 12 ॥ अमित्रजित्से बृहद्राज, बृहद्राजसे बर्हि, बर्हिसे कृतञ्जय, कृतञ्जयसे रणञ्जय और उससे सञ्जय होगा ॥ 13 ॥ सञ्जयका शाक्य, उसका शुद्धोद और शुद्धोदका लाङ्गल, लाङ्गलका प्रसेनजित् और प्रसेनजित्का पुत्र क्षुद्रक होगा ॥ 14 ॥ क्षुद्रकसे रणक, रणकसे सुरथ और सुरथसे इस वंशके अन्तिम राजा सुमित्रका जन्म होगा। ये सब बृहद्बलके वंशधर होंगे ॥ 15 ॥ इक्ष्वाकुका यह वंश सुमित्रतक ही रहेगा। क्योंकि सुमित्रके राजा होनेपर कलियुगमें यह वंश समाप्त हो जायगा ॥ 16 ॥

अध्याय 13 राजा निमिके वंशका वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! इक्ष्वाकुके पुत्र थे निमि। उन्होंने यज्ञ आरम्भ करके महर्षि वसिष्ठको ऋत्विजके रूपमें वरण किया। वसिष्ठजीने कहा कि ‘राजन् ! इन्द्र अपने यज्ञके लिये मुझे पहले ही वरण कर चुके हैं ॥ 1 ॥ उनका यज्ञ पूरा करके मैं तुम्हारे पास आऊँगा। तबतक तुम मेरी प्रतीक्षा करना।’ यह बात सुनकर राजा निमि चुप हो रहे और वसिष्ठजी इन्द्रका यज्ञ कराने चले गये ॥ 2 ॥ विचारवान् निमिने यह सोचकर कि जीवन तो क्षणभर है, विलम्ब करना उचित न समझा और यज्ञ प्रारम्भ कर दिया। जबतक गुरु वसिष्ठजी न लौटे तबतकके लिये उन्होंने दूसरे ऋत्विजोंको वरण कर लिया || 3 || गुरु वसिष्ठजी जब इन्द्रका यज्ञ सम्पन्न करके लौटे, तो उन्होंने देखा कि उनके शिष्य निमिने तो उनकी बात न मानकर यज्ञ प्रारम्भ कर दिया है। उस समय उन्होंने शाप दिया कि ‘निमिको अपनी विचारशीलता और पाण्डित्यका बड़ा घमंड है, इसलिये इसका शरीरपात हो जाय 4 निमिकी दृष्टिमें गुरु वसिष्ठका यह शाप धर्मके अनुकूल नहीं, प्रतिकूल था । इसलिये उन्होंने भी शाप दिया कि ‘आपने लोभवश अपने धर्मका आदर नहीं किया, इसलिये आपका शरीर भी गिर जाय ॥ 5 ॥ यह कहकर आत्मविद्यामें निपुण निमिने अपने शरीरका त्याग कर दिया। परीक्षित् इधर हमारे वृद्ध प्रपितामह वसिष्ठजीने भी अपना शरीर त्यागकर मित्रावरुणके द्वारा उर्वशीके गर्भसे जन्म ग्रहण किया ॥ 6 ॥ राजा निमिके यज्ञमें आये हुए श्रेष्ठ मुनियोंने राजाके शरीरको सुगन्धित वस्तुओंमें रख दिया। जब सत्रयागकी समाप्ति हुई और देवतालोग आये, तब उन लोगोंने उनसे प्रार्थना की ॥ 7 महानुभावो! आपलोग समर्थ हैं। यदि आप प्रसन्न हैं तो राजा निमिका यह शरीर पुनः जीवित हो उठे।’ देवताओंने कहा— ‘ऐसा ही हो।’ उस समय निमिने कहा-

‘मुझे देहका बन्धन नहीं चाहिये ॥ 8 ॥ विचारशील मुनिजन अपनी बुद्धिको पूर्णरूपसे श्रीभगवान् में ही लगा देते हैं और उन्होंके चरणकमलोंका भजन करते हैं। एक न एक दिन यह शरीर अवश्य ही छूटेगा – इस भयसे भीत होने के कारण वे इस शरीरका कभी संयोग ही नहीं चाहते; वे तो मुक्त ही होना चाहते हैं॥ 9 ॥ अतः मैं अब दुःख, शोक और भयके मूल कारण इस शरीरको धारण करना नहीं चाहता। | जैसे जलमें मछलीके लिये सर्वत्र ही मृत्युके अवसर हैं, वैसेही इस शरीरके लिये भी सब कहाँ मृत्यु-हा-मृत्यु है’ ॥ 10 ॥

देवताओंने कहा ‘ -‘मुनियो ! राजा निमि बिना शरीरके ही प्राणियोंके नेत्रोंमें अपनी इच्छाके अनुसार निवास करें। वे वहाँ रहकर सूक्ष्मशरीरसे भगवान्‌का चिन्तन करते रहें। पलक उठने और गिरनेसे उनके | अस्तित्वका पता चलता रहेगा ॥ 11 ॥ इसके बाद महर्षियोंने यह सोचकर कि ‘राजाके न रहनेपर लोगों में अराजकता फैल जायगी’ निमिके शरीरका मन्थन किया। उस मन्थनसे एक कुमार उत्पन्न हुआ ॥ 12 ॥ जन्म लेनेके कारण उसका नाम हुआ जनक। विदेहसे उत्पन्न होने के कारण ‘वैदेह’ और मन्थनसे उत्पन्न होनेके कारण उसी बालकका नाम ‘मिथिल’ हुआ। बसायी ॥ 13 ॥ उसीने मिथिलापुरी
परीक्षित्! जनकका उदावसु, उसका नन्दिवर्धन, नन्दिवर्धनका सुकेतु, उसका देवरात, देवरातका बृहद्रथ, बृहद्रथका महावीर्य, महावीर्यका सुधृति, सुधृतिका धृष्टकेतु, धृष्टकेतुका हर्यश्व और उसका मरु नामक पुत्र हुआ ।। 14-15 ।। मरुसे प्रतीपक, प्रतीपकसे कृतिरथ, कृतिरथसे देवमीढ, देवमीढसे विश्रुत और विश्रुतसे महाधृतिका जन्म हुआ ॥ 16 ॥ महाधृतिका कृतिरात, कृतिरातका महारोमा, महारोमाका स्वर्णरोमा और स्वर्णरोमाका पुत्र हुआ ह्रस्वरोमा ॥ 17 ॥ इसी ह्रस्वरोमाके पुत्र महाराज सीरध्वज थे। वे जब यज्ञके लिये धरती जोत रहे थे, तब उनके सीर (हल) के अग्रभाग (फाल) से सीताजीकी उत्पत्ति हुई इसीसे उनका नाम ‘सीरध्वज’ पड़ा ॥ 18 ॥ सीरध्वजके कुशध्वज, कुशध्वजके धर्मध्वज और धर्मध्वजके दो पुत्र हुए- कृतध्वज मितध्वज ।। 19 ।। और कृतध्वजके केशिध्वज और मितध्वजके खाण्डिक्य हुए। परीक्षित्! केशिध्वज आत्मविद्यामें बड़ा प्रवीण था ॥ 20 ॥खाण्डिक्य था कर्मकाण्डका मर्मज्ञ। वह केशिध्वजसे भयभीत होकर भाग गया। केशिध्वजका पुत्र भानुमान् और भानुमान्‌का शतद्युम्न था ॥ 21 ॥ शतद्युम्नसे शुचि, शुचिसे सनद्वाज, सनद्वाजसे ऊर्ध्वकेतु, ऊर्ध्वकेतुसे अज, अजसे पुरुजित्, पुरुजित्से अरिष्टनेमि, अरिष्ट नेमिसे श्रुतायु, श्रुतायुसे सुपार्श्वक, सुपार्श्वकसे चित्ररथ और चित्ररथसे मिथिलापति क्षेमधिका जन्म हुआ ॥ 22-23 ॥ क्षेमधिसे समरथ, समरथसे सत्यरथ, सत्यरथसे उपगुरु और उपगुरुसे उपगुप्त नामक पुत्र हुआ। यह अग्निका अंश था ॥ 24 ॥ उपगुप्तका वस्वनन्त, वस्वनन्तका युयुध, युयुधका सुभाषण, सुभाषणका श्रुत, श्रुतका जय, जयका विजय और विजयका ऋत नामक पुत्र हुआ ॥ 25 ॥ ऋतका शुनक, शुनकका वीतहव्य, वीतहव्यका धृति, धृतिका बहुलाश्व, बहुलाश्वका कृति | और कृतिका पुत्र हुआ महावशी ॥ 26 ॥

परीक्षित् ! ये मिथिलके वंशमें उत्पन्न सभी नरपति ‘मैथिल’ कहलाते हैं। ये सब-के-सब आत्मज्ञानसे सम्पन्न एवं गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंसे मुक्त थे। क्यों न हो, याज्ञवल्क्य आदि बड़े-बड़े योगेश्वरोंकी इनपर महान् कृपा जो थी || 27 ॥

अध्याय 14 चन्द्रवंशका वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! अब मैं तुम्हें चन्द्रमाके पावन वंशका वर्णन सुनाता हूँ। इस वंशमें पुरूरवा आदि बड़े-बड़े पवित्रकीर्ति राजाओंका कीर्तन किया जाता है ॥ 1 ॥सहस्त्रों वाले विराट् पुरुष नारायणके नाभिसर काजीकी उत्पत्ति हुई। ब्रह्माजीक पुत्र हुए। वे अपने गुणांक कारण ब्रह्माजीके समान ही थे॥ 2 ॥ उन्हें अत्रिके नेत्रोंसे अमृतमय चन्द्रमाका जन्म हुआ। ब्रह्माजीने चन्द्रमाको ब्राह्मण, ओषधि और नक्षत्रोंका अधिपति दिया ॥ 3 ॥ उन्होंने तीनों लोकोंपर विजय प्राप्त की और राजसूय यज्ञ किया। इससे उनका घमंड बढ़ गया और उन्होंने बलपूर्वक बृहस्पतिकी पत्नी ताराको हर लिया ॥ 4 ॥ देवगुरु बृहस्पतिने अपनी पत्नीको लौटा देनेके लिये उनसे बार-बार याचना की, परन्तु वे इतने मतवाले हो गये थे उन्होंने किसी प्रकार उनकी पत्नीको नहीं लौटाया। ऐसी परिस्थितिमें उसके लिये देवता और दानवमें घोर संग्राम छिड़ गया ॥ 5 ॥ शुक्राचार्यजीने बृहस्पतिजीके द्वेषसे असुरोके साथ चन्द्रमाका पक्ष ले लिया और महादेवजीने स्नेहवश समस्त भूतगणों के साथ अपने विद्यागुरु अङ्गिराजीके पुत्र बृहस्पतिका पक्ष लिया || 6 || देवराज इन्द्रने भी सम देवताओंके साथ अपने गुरु बृहस्पतिजीका ही पक्ष लिया। इस प्रकार ताराके निमित्तसे देवता और असुरोंका संहार करनेवाला घोर संग्राम हुआ ।। 7 ।।

तदनन्तर अङ्गिरा ऋषिने ब्रह्माजीके पास जाकर यह युद्ध बंद कराने की प्रार्थना की। इसपर ब्रह्माजीने चन्द्रमाको बहुत डाँटा-फटकारा और ताराको उसके पति बृहस्पतिजीके हवाले कर दिया। जब बृहस्पतिजीको यह मालूम हुआ कि तारा तो गर्भवती है, तब उन्होंने कहा- ॥ 8 ॥ दुष्टे ! मेरे क्षेत्रमें यह तो किसी दूसरेका गर्भ है। इसे तू अभी त्याग दे, तुरन्त त्याग दे। डर मत, मैं तुझे जलाऊँगा नहीं। क्योंकि एक तो तू स्त्री है और दूसरे मुझे भी सन्तानकी कामना है। देवी होने के कारण तू निर्दोष भी है ही ।। 9 ।। अपने पतिकी बात सुनकर तथ अत्यन्त लज्जित हुई। उसने सोनेके समान चमकता हुआ एक बालक अपने गर्भसे अलग कर दिया। उस बालकको देखकर बृहस्पति और चन्द्रमा दोनों ही मोहित हो गये और चाहने लगे कि यह हमें मिल जाय ॥ 10 ॥ अब वे एक दूसरेसे इस प्रकार जोर-जोर से झगड़ा करने लगे कि यह तुम्हारा नहीं, मेरा है।’ ऋषियों और देवताओंने तारासे पूछा कि ‘यह किसका लड़का है।’ परन्तु ताराने लज्जावश कोई उत्तर न दिया ॥ 11 ॥ बालकने अपनी माताको झूठी लजासे क्रोधित होकर कहा-‘दुष्टे तू बतलाती क्यों नहीं? तू अपना कुकर्म मुझे शीघ्र से शीघ्र बतला दे ॥ 12 ॥उसी समय ब्रह्माजीने ताराको एकान्तमें बुलाकर बहुत कुछ समझा-बुझाकर पूछा। तब ताराने धीरेसे कहा कि ‘चन्द्रमाका।’ इसलिये चन्द्रमाने उस बालकको ले लिया ॥ 13 ॥ परीक्षित् ! ब्रह्माजीने उस बालकका नाम रखा ‘बुध’, क्योंकि उसकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी। ऐसा पुत्र प्राप्त करके चन्द्रमाको बहुत आनन्द हुआ ll 14 ll

परीक्षित्! बुधके द्वारा इलाके गर्भसे पुरूरवाका जन्म हुआ। इसका वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ। एक दिन इन्द्रकी सभा में देवर्षि नारदजी पुरूरवाके रूप, गुण, उदारता, शील स्वभाव, धन-सम्पत्ति और पराक्रमका गान कर रहे थे। उन्हें सुनकर उर्वशीके हृदयमें कामभावका उदय हो आया और उससे पीड़ित होकर वह देवाङ्गना पुरूरवाके पास चली आयी ।। 15-16 ॥ यद्यपि उर्वशीको मित्रावरुणके शापसे ही मृत्युलोकमें आना पड़ा था, फिर भी पुरुषशिरोमणि पुरूरवा मूर्तिमान् कामदेवके समान सुन्दर हैं—यह सुनकर सुर-सुन्दरी उर्वशीने धैर्य धारण किया और वह उनके पास चली आयी ॥ 17 ॥ देवाङ्गना उर्वशीको देखकर राजा पुरूरवाके नेत्र हर्षसे खिल उठे। उनके शरीरमें रोमाञ्च हो आया। उन्होंने बड़ी मीठी वाणीसे कहा ।। 18 ।।

राजा पुरूरवाने कहा – सुन्दरी ! तुम्हारा स्वागत है। बैठो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ ? तुम मेरे साथ विहार करो और हम दोनोंका यह विहार अनन्त कालतक चलता रहे ॥ 19 ॥

उर्वशीने कहा- ‘राजन्! आप सौन्दर्यके मूर्तिमान् स्वरूप है भला ऐसी कौन कामिनी है जिसकी दृष्टि और मन आपमें आसक्त न हो जाय ? क्योंकि आपके समीप आकर मेरा मन रमणकी इच्छासे अपना धैर्य खो बैठा है ॥ 20 ॥ राजन् ! जो पुरुष रूप गुण आदिके कारण प्रशंसनीय होता है, वही स्त्रियों को अभीष्ट होता है। अतः मैं आपके साथ अवश्य विहार करूँगी। परन्तु मेरे प्रेमी महाराज मेरी एक शर्त है मैं आपको धरोहरके रूपमें भेड़के दो बच्चे सौंपती हूँ आप इनकी रक्षा करना ॥ 21 ॥वीरशिरोमणे । मैं केवल घी खाऊँगी और मैथुनके अतिरिक्त और किसी भी समय आपको वस्त्रहीन न देख सकूंगी।’ परम मनस्वी पुरुरवाने ठीक है—ऐसा कहकर उसकी शर्त स्वीकार कर ली ।। 22 ।। और फिर उर्वशीसे कहा- तुम्हारा यह सौन्दर्य अद्भुत है। तुम्हारा भाव अलौकिक है। यह तो साम | मनुष्यसृष्टिको मोहित करनेवाला है। और देवि । कृपा करके तुम स्वयं यहाँ आयी हो। फिर कौन ऐसा मनुष्य है जो सेवन न करेगा ? ॥ 23 ॥ तुम्हारा परीक्षित् | तब उर्वशी कामशास्त्रोक्त पद्धतिसे पुरुषश्रेष्ठ पुरूरवाके साथ विहार करने लगी। वे भी देवताओंकी विहार स्थली चैत्ररथ, नन्दनवन आदि उपवनोंमें उसके साथ स्वच्छन्द विहार करने लगे ॥ 24 ॥ देवी उर्वशीके शरीरसे कमलकेसरकी-सी सुगन्ध निकला करती थी। उसके साथ राजा पुरूरवाने बहुत वर्षतक आनन्द विहार किया। वे उसके मुखकी सुरभिसे अपनी सुध-बुध खो बैठते थे ॥ 25 ॥ इधर जब इन्द्रने उर्वशीको नहीं देखा, तब उन्होंने गन्धर्वोको उसे लानेके लिये भेजा और कहा- ‘उर्वशीके बिना मुझे यह स्वर्ग फीका जान पड़ता है’ ॥ 26 ॥ वे गन्धर्व आधी रातके समय घोर अन्धकारमें वहाँ गये और उर्वशीके दोनों भेड़ोंको, जिन्हें उसने राजाके पास धरोहर रखा था, चुराकर चलते बने || 27 || उर्वशीने जब गन्धर्वोंक द्वारा ले जाये जाते हुए अपने पुत्रके समान प्यारे भेड़ोंकी ‘बें-बें’ सुनी, तब वह कह उठी कि ‘अरे, इस कायरको अपना स्वामी बनाकर मैं तो मारी गयी। यह नपुंसक अपनेको बड़ा वीर मानता है। यह मेरे भेड़ोंको भी न बचा सका ।। 28 । इसीपर विश्वास करनेके कारण लुटेरे मेरे बच्चोंको लूटकर लिये जा रहे हैं। मैं तो मर गयी। देखो तो सही, यह दिनमें तो मर्द बनता है और रातमें स्त्रियोंकी तरह डरकर सोया रहता है’ ॥ 29 ॥ परीक्षित् ! जैसे कोई हाथीको अंकुशसे बेध डाले, वैसे ही उर्वशीने अपने वचन-बाणोंसे राजाको बींध दिया। राजा पुरूरवाको बड़ा क्रोध आया और हाथमें तलवार लेकर वस्त्रहीन अवस्थामें ही वे उस | ओर दौड़ पड़े ॥ 30 ॥ गन्धवनेि उनके झपटते ही भेड़ोंको तो वहीं छोड़ दिया और स्वयं बिजलीकी तरह चमकने लगे। जब | राजा पुरूरवा भेड़ोंको लेकर लौटे, तब उर्वशीने उस प्रकाशमें उन्हें वस्त्रहीन अवस्थामें देख लिया। (बस, वह उसी समय उन्हें छोड़कर चली गयी ॥ 31 ॥ परीक्षित् राजा पुरूरवाने जब अपने शयनागारमें अपनी | प्रियतमा उर्वशीको नहीं देखा तो वे अनमने हो गये। उनका | चित्त उर्वशीमें ही बसा हुआ था। वे उसके लिये शोकसे विह्वल । हो गये और उन्मत्तकी भाँति पृथ्वीमें इधर-उधर भटकनेलगे ॥ 32 ॥ एक दिन कुरुक्षेत्रमें सरस्वती नदीके तटपर उन्होंने उर्वशी और उसकी पाँच प्रसन्नमुखी सखियोंको | देखा और बड़ी मीठी वाणीसे कहा- ॥ 33 ॥ ‘प्रिये ! तनिक ठहर जाओ। एक बार मेरी बात मान लो । निष्ठुरे ! अब आज तो मुझे सुखी किये बिना मत जाओ। क्षणभर ठहरो; आओ हम दोनों कुछ बातें तो कर लें ॥ 34 ॥ देवि! अब इस शरीरपर तुम्हारा कृपा प्रसाद नहीं रहा, इसीसे तुमने इसे दूर फेंक दिया है। अतः मेरा यह सुन्दर शरीर अभी ढेर हुआ जाता है और तुम्हारे देखते-देखते इसे भेड़िये और गीध रखा जायेंगे ॥ 35 ॥

उर्वशीने कहा- राजन् ! तुम पुरुष हो । इस प्रकार मत मरो देखो, सचमुच ये भेड़िये तुम्हें खा न जाये ! स्त्रियोंकी किसीके साथ मित्रता नहीं हुआ करती। स्त्रियाँका हृदय और भेड़ियोंका हृदय बिलकुल एक जैसा होता है ॥ 36 ॥ स्त्रियाँ निर्दय होती हैं। क्रूरता तो उनमें स्वाभाविक ही रहती है। तनिक सी बातमें चिढ़ जाती है और अपने सुखके लिये बड़े-बड़े साहसके काम कर बैठती हैं, थोड़े-से स्वार्थके लिये विश्वास दिलाकर अपने पति और भाईतकको मार डालती हैं ॥ 37 ॥ इनके हृदयमें सौहार्द तो है ही नहीं भोले-भाले लोगोंको झूठ-मूठका विश्वास दिलाकर फाँस लेती हैं और नये-नये पुरुषकी चाटसे कुलटा और स्वच्छन्दचारिणी बन जाती हैं ॥ 38 ॥ तो फिर तुम धीरज धरो। तुम राजराजेश्वर हो । घबराओ मत। प्रति एक वर्षके बाद एक रात तुम मेरे साथ रहोगे। तब तुम्हारे और भी सन्तानें होंगी ॥ 39 ॥

राजा पुरूरवाने देखा कि उर्वशी गर्भवती है, इसलिये वे अपनी राजधानीमें लौट आये एक वर्षके बाद फिर वहाँ गये। तबतक उर्वशी एक वीर पुत्रकी माता हो चुकी थी ॥ 40 ॥ उर्वशीके मिलनेसे पुरूरवाको बड़ा सुख मिला और वे एक रात उसीके साथ रहे। प्रातः काल जब वे विदा होने लगे, तब विरहके दुःखसे वे अत्यन्त दीन हो गये। उर्वशीने उनसे कहा- ॥ 41 ॥ तुम इन गन्धवकी स्तुति करो, ये चाहें तो तुम्हें मुझे दे सकते हैं। तब राजा पुरूरवाने गन्धर्वोकी स्तुति की। परीक्षित् ! राजा पुरूरवाकी स्तुतिसे प्रसन्न होकर गन्धवनि उन्हें एक अग्निस्थाली (अग्निस्थापन करनेका पात्र) दी। राजाने समझा यही उर्वशी है, इसलिये उसको हृदयसे लगाकर वे एक वनसे दूसरे वनमें घूमते रहे ॥ 42 ॥जब उन्हें होश हुआ, तब वे स्थालीको वनमें छोड़कर अपने महलमें लौट आये एवं रातके समय उर्वशीका ध्यान करते रहे। इस प्रकार जब त्रेतायुगका प्रारम्भ हुआ, तब उनके हृदयमें तीनों वेद प्रकट हुए ॥ 43 ॥ फिर वे उस स्थानपर गये, जहाँ उन्होंने वह अग्निस्थाली छोड़ी थी। अब उस स्थानपर शमीवृक्षके गर्भ में एक पीपलका वृक्ष उग आया था, उसे देखकर उन्होंने उससे दो अरणियाँ (मन्थनकाष्ठ) बनायीं। फिर उन्होंने उर्वशीलोककी कामनासे नीचेकी अरणिको उर्वशी, ऊपरकी अरणिको पुरूरवा और बीचके काष्ठको पुत्ररूपसे चिन्तन करते हुए अग्नि प्रज्वलित करनेवाले मन्त्रोंसे मन्थन किया ।। 44-45 ॥ उनके मन्थनसे ‘जातवेदा’ नामका अग्नि प्रकट हुआ। राजा पुरूरवाने अग्निदेवताको त्रयीविद्याके द्वारा आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि – इन तीन भागों में विभक्त करके पुत्ररूपसे स्वीकार कर लिया ॥ 46 ॥ फिर उर्वशीलोककी इच्छासे पुरूरवाने उन तीनों अग्नियोंद्वारा सर्वदेवस्वरूप इन्द्रियातीत यज्ञपति भगवान् श्रीहरिका यजन किया ॥ 47 ॥

परीक्षित्! त्रेताके पूर्व सत्ययुगमें एकमात्र प्रणव (ॐ कार) ही वेद था। सारे वेद-शास्त्र उसीके अन्तर्भूत थे। थे देवता थे एकमात्र नारायण; और कोई न था। अग्नि भी तीन नहीं, केवल एक था और वर्ण भी केवल एक ‘हंस’ ही था ॥ 48 ॥ परीक्षित् ! त्रेताके प्रारम्भमें पुरूरवासे ही वेदत्रयी और अग्नित्रयीका आविर्भाव हुआ। राजा पुरूरवाने अग्निको सन्तानरूपसे स्वीकार करके गन्धर्वलोककी प्राप्ति की ।। 49 ।।

अध्याय 15 ऋचीक, जमदग्नि और परशुरामजीका चरित्र

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित् ! उर्वशीके गर्भसे पुरूरवाके छः पुत्र हुए — आयु, श्रुतायु, सत्यायु, रय, विजय और जय ॥ 1 ॥श्रुतायुका पुत्र था वसुमान्, सत्यायुका श्रुतञ्जय, रयका एक और जयका अमित ॥ 2 ॥ विजयका भीम, भीमका काञ्चन, काञ्चनका होत्र और होत्रका पुत्र था जह्नु। ये जह्नु वही थे, जो गङ्गाजीको अपनी अञ्जलिमें लेकर पी गये थे। जह्रुका पुत्र था पूरु, पूरुका बलाक और बलाकका अजक || 3 || अजकका कुश था। कुशके चार पुत्र थे— कुशाम्बु, तनय, वसु और कुशनाभ। इनमें से कुशाम्बुके पुत्र गाधि हुए ॥ 4 ॥

परीक्षित्! गाधिकी कन्याका नाम था सत्यवती । ऋचीक ऋषिने गाधिसे उनकी कन्या माँगी। गाधिने यह समझकर कि ये कन्याके योग्य वर नहीं है, ऋचीकसे कहा- ॥ 5 ॥ मुनिवर ! हमलोग कुशिक-वंशके हैं। हमारी कन्या मिलनी कठिन है। इसलिये आप एक हजार ऐसे घोड़े लाकर मुझे शुल्करूपमें दीजिये, जिनका सारा शरीर तो श्वेत हो, परन्तु एक-एक कान श्याम वर्णका हो’ || 6 || जब गाधिने यह बात कही, तब ऋचीक मुनि उनका आशय समझ गये और वरुणके पास जाकर वैसे ही घोड़े ले आये तथा उन्हें देकर सुन्दरी सत्यवतीसे विवाह कर लिया ॥ 7 ॥ एक बार महर्षि ऋचीकसे उनकी पत्नी और सास दोनोंने ही पुत्रप्राप्तिके लिये प्रार्थना की। महर्षि ऋचीकने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके दोनोंके लिये अलग-अलग मन्त्रोंसे चरु पकाया और स्नान करनेके लिये चले गये ॥ 8 ॥ सत्यवतीकी माँने यह समझकर कि ऋषिने अपनी पत्नीके लिये श्रेष्ठ चरु पकाया होगा, उससे वह चरु माँग लिया। इसपर सत्यवतीने अपना चरु तो माँको दे दिया और माँका चरु वह स्वयं खा गयी ॥ 9 ॥ | जब ऋचीक मुनिको इस बातका पता चला, तब उन्होंने अपनी पत्नी सत्यवतीसे कहा कि ‘तुमने बड़ा अनर्थ कर डाला। अब तुम्हारा पुत्र तो लोगोंको दण्ड देनेवाला घोर प्रकृतिका होगा और तुम्हारा भाई होगा एक श्रेष्ठ ब्रह्मवेत्ता’ ॥ 10 ॥ सत्यवतीने ऋचीक मुनिको प्रसन्न किया और प्रार्थना की कि ‘स्वामी। ऐसा नहीं होना चाहिये।’ तब उन्होंने कहा- ‘अच्छी बात है। पुत्रके बदले तुम्हारा पौत्र वैसा (घोर प्रकृतिका) होगा।’ समयपर सत्यवतीके गर्भसे जमदग्निका जन्म हुआ ॥ 11 ॥ सत्यवती समस्त लोकोंको पवित्र करनेवाली परम पुण्यमयी ‘कौशिकी’ नदी बन गयी। रेणु ऋषिकी कन्या थी रेणुका । जमदग्निने उसका पाणिग्रहण किया ॥ 12 ॥रेणुकाके गर्भसे जमदग्नि ऋषिके वसुमान् आदि कई पुत्र हुए। उनमें सबसे छोटे परशुरामजी थे। उनका यश सारे संसारमें प्रसिद्ध है ।। 13 ।। कहते हैं कि हैहयवंशका अन्त करनेके लिये स्वयं भगवान्‌ने ही परशुरामके रूपमें अंशावतार ग्रहण किया था। उन्होंने इस पृथ्वीका इक्कीस बार क्षत्रियहीन कर दिया ।। 14 ।। यद्यपि क्षत्रियोंने उनका थोड़ा-सा ही अपराध किया था फिर भी वे लोग बड़े दुष्ट, ब्राह्मणकि अभक्त, रजोगुणी और विशेष करके तमोगुणी हो रहे थे। यही कारण था कि वे पृथ्वीके भार हो। गये थे और इसीके फलस्वरूप भगवान् परशुरामने उनका नाश करके पृथ्वीका भार उतार दिया ।। 15 ।।

राजा परीक्षितने पूछा- भगवन् ! अवश्य हो उस समयके क्षत्रिय विषयलोलुप हो गये थे; परन्तु उन्होंने परशुरामजीका ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया, | जिसके कारण उन्होंने बार-बार क्षत्रियोंके वंशका संहार किया ? ॥ 16 ॥

श्रीशुकदेवजी कहने लगे – परीक्षित् ! उन दिनों हैहयवंशका अधिपति था अर्जुन। वह एक श्रेष्ठ क्षत्रिय था। उसने अनेकों प्रकारकी सेवा-शुश्रूषा करके भगवान् नारायणके अंशावतार दत्तात्रेयजीको प्रसन्न कर लिया और उनसे एक हजार भुजाएँ तथा कोई भी शत्रु युद्धमें पराजित न कर सके—यह वरदान प्राप्त कर लिया। साथ ही इन्द्रियोंका अबाध बल, अतुल सम्पत्ति, तेजस्विता, वीरता, कीर्ति और शारीरिक बल भी उसने उनकी कृपासे प्राप्त कर लिये थे ।। 17-18 ॥ वह योगेश्वर हो गया था। उसमें ऐसा ऐश्वर्य था कि वह सूक्ष्म से सूक्ष्म, स्थूल से स्थूल रूप धारण कर लेता। सभी सिद्धियाँ उसे प्राप्त थीं। वह संसारमें वायुकी तरह सब जगह बेरोक-टोक विचरा करता ॥ 19 ॥ एक बार गलेमें वैजयन्ती माला पहने सहस्रबाहु अर्जुन बहुत-सी सुन्दरी स्त्रियोंके साथ नर्मदा नदीमें जल-विहार कर रहा था। उस समय मदोन्मत्त सहस्रबाहुने अपनी बाँहोंसे नदीका प्रवाह रोक दिया ॥ 20 ॥ दशमुख रावणका शिविर भी वहीं कहीं पासमें ही था। नदीकी धारा उलटी बहने लगी, जिससे उसका शिविर डूबने लगा। रावण | अपनेको बहुत बड़ा वीर तो मानता ही था, इसलिये | सहस्रार्जुनका यह पराक्रम उससे सहन नहीं हुआ ॥ 21 ॥ जब रावण सहस्रबाहु अर्जुनके पास जाकर बुरा-भला कहने लगा, तब उसने स्त्रियोंके सामने ही खेल-खेलमें रावणको पकड़ लिया और अपनी राजधानी माहिष्मतीमें ले | जाकर बंदरके समान कैद कर लिया। पीछे पुलस्त्यजीकेकहनेसे सहस्रबाहुने रावणको छोड़ दिया ॥ 22 ॥

एक दिन सहस्रबाहु अर्जुन शिकार खेलनेके लिये बड़े घोर जंगलमें निकल गया था। दैववश वह जमदग्नि मुनिके आश्रमपर जा पहुँचा ॥ 23 ॥ परम तपस्वी जमदग्नि मुनिके आश्रममें कामधेनु रहती थी। उसके प्रतापसे उन्होंने सेना, मन्त्री और वाहनोंके साथ हैहयाधिपतिका खूब स्वागत-सत्कार किया ॥ 24 ॥ वीर हैहयाधिपतिने | देखा कि जमदग्नि मुनिका ऐश्वर्य तो मुझसे भी बढ़ा-चढ़ा है इसलिये उसने उनके स्वागत-सत्कारको कुछ भी आदर न देकर कामधेनुको ही ले लेना चाहा ॥ 25 ॥ | उसने अभिमानवश जमदग्नि मुनिसे माँगा भी नहीं, अपने सेवकोंको आज्ञा दी कि कामधेनुको छीन ले चलो। उसकी आज्ञासे उसके सेवक बछड़ेके साथ ‘बाँ-बाँ’ डकराती हुई कामधेनुको बलपूर्वक माहिष्मतीपुरी ले गये । 26 ।। जब वे सब चले गये, तब परशुरामजी आश्रमपर आये और उसकी दुष्टताका वृत्तान्त सुनकर चोट खाये हुए साँपकी तरह क्रोधसे तिलमिला उठे ॥ 27 ॥ वे अपना भयङ्कर फरसा, तरकस, ढाल एवं धनुष लेकर बड़े वेग से उसके पीछे दौड़े—जैसे कोई किसीसे न दबनेवाला सिंह हाथीपर टूट पड़े ॥ 28 ॥

सहस्रबाहु अर्जुन अभी अपने नगरमें प्रवेश कर ही रहा था कि उसने देखा परशुरामजी महाराज बड़े वेग से उसीकी ओर झपटे आ रहे हैं। उनकी बड़ी विलक्षण झाँकी थी। वे हाथमें धनुष-बाण और फरसा लिये हुए थे, शरीरपर काला मृगचर्म धारण किये हुए थे और उनकी जटाएँ सूर्यकी किरणोंके समान चमक रही थीं ॥ 29 ॥ उन्हें देखते ही उसने गदा, खड्ग, बाण, ऋष्टि, शतघ्नी और शक्ति आदि आयुधोंसे सुसज्जित एवं हाथी, घोड़े, रथ तथा पदातियोंसे युक्त अत्यन्त भयङ्कर सत्रह अक्षौहिणी सेना भेजी। भगवान् परशुरामने बात की बातमें अकेले ही उस सारी सेनाको नष्ट कर दिया ॥ 30 ॥ भगवान् परशुरामजीकी गति मन और वायुके समान थी। बस, बे शत्रुकी सेना काटते ही जा रहे थे जहाँ-जहाँ वे अपने फरसेका प्रहार करते, वहाँ-वहाँ सारथि और वाहनोंके साथ बड़े-बड़े वीरोंकी बाँहें, जाँघें और कंधे कट-कटकर पृथ्वीपर गिरते जाते थे ॥ 31 ॥हैहयाधिपति अर्जुनने देखा कि मेरी सेनाके सैनिक, उनके धनुष, ध्वजाएँ और ढाल भगवान् परशुराम के फरसे और बाणोंसे कट कटकर खूनसे लथपथ रणभूमिमें गिर गये। हजार हैं, तब उसे बड़ा क्रोध आया और वह स्वयं भिड़नेके लिये। आ धमका ॥ 32 ॥ उसने एक साथ ही अपनी भुजाओंसे पाँच सौ धनुषोंपर बाण चढ़ाये और परशुरामजीपर छोड़े। परन्तु परशुरामजी तो समस्त | शस्त्रधारियोंके शिरोमणि ठहरे। उन्होंने अपने एक धनुषपर छोड़े हुए बाणोंसे ही एक साथ सबको काट डाला ॥ 33 ॥ अब हैहयाधिपति अपने हाथोंसे पहाड़ और पेड़ उखाड़कर बड़े वेग से युद्धभूमिमें परशुरामजीकी और झपटा। परन्तु परशुरामजीने अपनी तीखी धारवाले फरसेसे बड़ी फुर्तीक साथ उसको साँपोके समान भुजाओंको काट डाला ॥ 34 ॥ जब उसकी वाहे कट गर्यो, तब उन्होंने पहाड़की चोटीकी तरह उसका ऊँचा | सिर घड़से अलग कर दिया। पिताके मर जानेपर उसके | दस हजार लड़के डरकर भाग गये || 35 ॥

परीक्षित्! विपक्षी वीरोंके नाशक परशुरामजीने बछड़े के साथ कामधेनु लौटा ली। वह बहुत ही दुःखी हो रही थी। उन्होंने उसे अपने आश्रमपर लाकर पिताजी को सौंप दिया ॥ 36॥ और माहिष्मती | सहबाहुने तथा उन्होंने जो कुछ किया था, सब अपने पिताजी तथा पाइको कह सुनाया। सब कुछ सुनकर जमदग्नि मुनिने कहा – ॥37॥ ‘हाय, हाय, परशुराम ! तुमने बड़ा पाप किया। राम राम ! तुम बड़े वीर हो; परन्तु सर्वदेवमय नरदेवका तुमने व्यर्थ हो | वध किया ॥ 38 ॥ बेटा ! हमलोग ब्राह्मण हैं। क्षमाके प्रभाव से ही हम संसारमे पूजनीय हुए हैं। और तो क्या सबके दादा मयाजी भी क्षमाके बलसे ही ब्रह्मपदको प्राप्त हुए हैं ॥ 39 ॥ ब्राह्मणोंकी शोभा क्षमाके द्वारा ही सूर्यको प्रभाके समान चमक उठती है। सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि भी क्षमावानोंपर ही शीघ्र प्रसन्न होते हैं ।। 40 ।।बेटा ! सार्वभौम राजाका वध ब्राह्मणकी हत्यासे भी बढ़कर है। जाओ, भगवान्‌का स्मरण करते हुए तीर्थोंका सेवन करके अपने पापोंको धो डालो’ ॥ 41 ॥

अध्याय 16 क्षत्रवृद्ध, रजि आदि राजाओंके वंशका वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित् राजेन्द्र पुरूरवाका एक पुत्र था आयु। उसके पाँच लड़के हुए नहुष, क्षत्रवृद्ध, रजि, शक्तिशाली रम्भ और अनेना। अब वृद्ध वंश वृद्ध पुत्र सुत्र सुहोत्र के तीन पुत्र हुए- काश्य, कुश और गृत्समद । गृत्समदका पुत्र हुआ शुनक इसी शुनकके पुत्र ऋग्वेदियोंमें श्रेष्ठ मुनिवर शौनकजी हुए ।। 1-3 ॥

काश्यका पुत्र काशि, काशिका राष्ट्र, राष्ट्रका दीर्घतमा और दीर्घतमा धन्वन्तरि यही आयुर्वेदके प्रवर्तक हैं ॥ 4 ॥ ये यज्ञभागके भोक्ता और भगवान् वासुदेवके अंश हैं। इनके स्मरणमात्रसे ही सब प्रकारके रोग दूर हो जाते हैं। धन्वन्तरिका पुत्र हुआ केतुमान् और केतुमान्‌का भीमरथ ॥ 5 ॥

भीमरथका दिवोदास और दिवोदासका घुमान्– जिसका एक नाम प्रतर्दन भी है। यही घुमान् शत्रुजित् वत्स, ऋतध्वज और कुवलयाश्वके नामसे भी प्रसिद्ध है। घुमान्के ही पुत्र अलर्क आदि हुए ॥ 6 ॥ परीक्षित् ! अलर्कके सिवा और किसी राजाने छाछठ हजार (66,000) वर्षतक युवा रहकर पृथ्वीका राज्य नहीं भोगा ॥ 7 ॥ अलर्कका पुत्र हुआ सन्तति, सन्ततिका सुनीथ, सुनीथका सुकेतन, सुकेतनका धर्मकेतु और धर्मकेतुका सत्यकेतु ॥ 8 ॥

सत्यकेतुसे धृष्टकेतु, धृष्टकेतुसे राजा सुकुमार, सुकुमारसे वीतिहोत्र, वीतिहोत्रसे भर्ग और भर्गसे राजा भार्गभूमिका जन्म हुआ ॥ 9 ॥ये सब-के-सब क्षत्रवृद्धके वंशमें काशिसे उत्पन्न नरपति हुए। रम्भके पुत्रका नाम था रभस, उससे गम्भीर और गम्भीरसे अक्रियका जन्म हुआ ॥ 10 ॥ अक्रियकी पत्नीसे ब्राह्मणवंश चला। अब अनेनाका वंश सुनो। अनेनाका पुत्र था शुद्ध, शुद्धका शुचि, शुचिका त्रिककुद् |और त्रिककुदका धर्मसारथि ॥ 11 ॥ धर्मसारथिके पुत्र थे शान्तरय । शान्तरय आत्मज्ञानी होनेके कारण कृतकृत्य थे, उन्हें सन्तानकी आवश्यकता न थी। परीक्षित् ! आयुके पुत्र रजिके अत्यन्त तेजस्वी पाँच सौ पुत्र थे ।। 12 ।।

देवताओंकी प्रार्थनासे रजिने दैत्योंका वध करके इन्द्रको स्वर्गका राज्य दिया। परन्तु वे अपने प्रह्लाद आदि शत्रुओंसे भयभीत रहते थे, इसलिये उन्होंने वह स्वर्ग फिर रजिको लौटा दिया और उनके चरण पकड़कर उन्हींको अपनी रक्षाका भार भी सौंप दिया। जब रजिकी मृत्यु हो गयी, तब इन्द्रके माँगनेपर भी रजिके पुत्रोंने स्वर्ग नहीं लौटाया। वे स्वयं ही यज्ञोंका भाग भी ग्रहण करने लगे। तब गुरु बृहस्पतिजीने इन्द्रकी प्रार्थनासे अभिचार विधिसे हवन किया। इससे वे धर्मके मार्गसे भ्रष्ट हो गये । तब इन्द्रने अनायास ही उन सब रजिके पुत्रोंको मार डाला। उनमें से कोई भी न बचा। क्षत्रवृद्धके पौत्र कुशसे प्रति, प्रतिसे सञ्जय और सज्जयसे जयका जन्म हुआ ॥ 13 – 16 ॥ जयसे कृत, कृतसे राजा हर्यवन, हर्यवनसे सहदेव, सहदेवसे हीन और होनसे जयसेन | नामक पुत्र हुआ || 17 ॥ जयसेनका सङ्कति, सङ्कृतिका पुत्र हुआ महारथी वीरशिरोमणि जय। क्षत्रवृद्धकी वंश-परम्परामें इतने ही नरपति हुए। अब नहुषवंशका वर्णन सुनो ॥ 18 ॥

अध्याय 17 ययाति चरित्र

श्रीशुकदेवजी कहते है-परीक्षित जैसे शरीरधारियोंके छः इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही नहुषके छः पुत्र थे। उनके नाम थे— यति, ययाति, संयाति, आयति, वियति और कृति ॥ 1 ॥ नहुष अपने बड़े पुत्र यतिको राज्य देना चाहते थे परन्तु उसने स्वीकार नहीं किया; क्योंकि वह राज्य पानेका परिणाम जानता था। राज्य एक ऐसी वस्तु है कि जो उसके दाव पेंच और प्रबन्ध आदिमें भीतर प्रवेश कर जाता है, वह अपने आत्मस्वरूपको नहीं समझ सकता ।। 2 । जब इन्द्रपत्नी शचीसे सहवास करने की चेष्टा करनेके कारण नहुषको ब्राह्मणोंने इन्द्रपदसे गिरा दिया और अजगर बना दिया, तब राजाके पदपर ययाति बैठे ॥ 3 ॥ ययातिने अपने चार छोटे भाइयोको चार दिशाओंमें नियुक्त कर दिया और स्वयं शुक्राचार्यकी पुत्री देवयानी और दैत्यराज वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाको पत्नीके रूपमें स्वीकार करके पृथ्वीकी रक्षा करने लगा ॥ 4 ॥

राजा परीक्षितने पूछा- भगवन्! भगवान् शुक्राचार्यजी तो ब्राह्मण थे और ययाति क्षत्रिय । फिर ब्राह्मण कन्या और क्षत्रिय-वरका प्रतिलोम (उलटा ) विवाह कैसे हुआ
श्रीशुकदेवजीने कहा- राजन्! दानवराज वृषपर्वाकी एक बड़ी मानिनी कन्या थी। उसका नाम था शर्मिष्ठा। वह एक दिन अपनी गुरुपुत्री देवयानी और हजारों सखियोंके साथ अपनी राजधानीके श्रेष्ठ उद्यानमें टहल रही थी। उस उद्यानमें सुन्दर-सुन्दर पुष्पोंसे लदे हुए अनेकों वृक्ष थे। उसमें एक बड़ा ही सुन्दर सरोवर था । सरोवरमें कमल खिले हुए थे और उनपर बड़े ही मधुर स्वरसे भर गुंजार कर रहे थे। उसकी ध्वनिसे सरोवरका तट गूँज रहा था ।। 6-7 ।। जलाशयके पास पहुँचनेपर उन सुन्दरी कन्याओंने अपने-अपने वस्त्र तो घाटपर रख दिये और उस तालाब में प्रवेश करके वे एक-दूसरेपर जल उलीच उलीचकर क्रीडा करने लगीं ॥ 8 ॥उसी समय उधरसे पार्वतीजीके साथ बैलपर चढ़े हुए भगवान् शङ्कर आ निकले । उनको देखकर सब की सब कन्याएँ सकुचा गयीं और उन्होंने झटपट सरोवरसे निकलकर अपने-अपने वस्त्र पहन लिये ॥ 9 ॥ शीघ्रताके कारण शर्मिष्ठाने अनजानमें देवयानीके वस्त्रको अपना समझकर पहन लिया। इसपर देवयानी क्रोधके मारे आग-बबूला हो गयी। उसने कहा- ॥ 10 ॥ ‘अरे, देखो तो सही, इस दासीने कितना अनुचित काम कर डाला! राम-राम, जैसे कुतिया यज्ञका हविष्य उठा ले जाय, वैसे ही इसने मेरे वस्त्र पहन लिये हैं ॥ 11 ॥ जिन ब्राह्मणोंने अपने तपोबलसे इस संसारकी सृष्टि की है, जो परम पुरुष परमात्माके मुखरूप है, जो अपने हृदयमे निरन्तर ज्योतिर्मय परमात्माको धारण किये रहते हैं और जिन्होंने सम्पूर्ण प्राणियों के कल्याण के लिये वैदिक मार्गका निर्देश किया है, बड़े-बड़े लोकपाल तथा देवराज इन्द्र ब्रह्मा आदि भी जिनके चरणोंकी वन्दना और सेवा करते हैं, और तो क्या, लक्ष्मीजीके एकमात्र आश्रय परम पावन विश्वात्मा भगवान् भी जिनकी वन्दना और स्तुति करते हैं उन्हीं ब्राह्मणोंमें हम सबसे श्रेष्ठ भृगुवंशी है। और इसका पिता प्रथम तो असुर है, फिर हमारा शिष्य है। इसपर भी इस दुष्टाने जैसे शूद्र वेद पढ़ ले, उसी तरह हमारे कपड़ोंको पहन लिया है’ ।। 12 – 14 ।। जब देवयानी इस प्रकार गाली देने लगी, तब शर्मिष्ठा क्रोधसे तिलमिला उठी। वह चोट खायी हुई नागिनके समान लंबी साँस लेने लगी। उसने अपने दाँतोंसे होठ दबाकर कहा- ॥ 15 ॥ भिखारिन ! तू इतना बहक रही है। तुझे कुछ अपनी बातका भी पता है ? जैसे कौए और कुत्ते हमारे दरवाजेपर रोटी के टुकड़ोंके लिये प्रतीक्षा करते हैं, वैसे ही क्या तुम भी हमारे घरों की ओर नहीं ताकती रहतीं ।। 16 ।। शर्मिष्ठाने इस प्रकार बड़ी कड़ी कड़ी बात कहकर गुरुपुत्री देवयानीका तिरस्कार किया और क्रोधवश उसके वस्त्र छीनकर उसे कूऍमें ढकेल दिया ।। 17 ।।

शर्मिष्ठाके चले जानेके बाद संयोगवश शिकार खेलते हुए राजा ययाति उधर आ निकले। उन्हें जलकी आवश्यकता थी, इसलिये कुएँगे पड़ी हुई देवयानीको उन्होंने देश | लिया ॥ 18 ॥ उस समय वह वस्त्रहीन थी। इसलिये उन्होंने अपना दुपट्टा उसे दे दिया और दया करके अपने हाथसे उसका हाथ पकड़कर उसे बाहर निकाल लिया ॥ 19 ॥देवयानीने प्रेमभरी वाणीसे वीर ययातिसे कहा ‘वीरशिरोमणे राजन् ! आज आपने मेरा हाथ पकड़ा है। अब जब आपने मेरा हाथ पकड़ लिया, तब कोई दूसरा इसे न पकड़े वीरश्रेष्ठ कूएँगे गिर जानेपर मुझे जो आपका अचानक दर्शन हुआ है, यह भगवान्का ही किया हुआ सम्बन्ध समझना चाहिये। इसमें हमलोगोंकी या और किसी मनुष्यकी कोई चेष्टा नहीं है । 20-21 ॥ वीरश्रेष्ठ ! पहले मैंने बृहस्पतिके पुत्र कचको शाप दे दिया था, इसपर उसने भी मुझे शाप दे दिया। इसी कारण ब्राह्मण मेरा पाणिग्रहण नहीं कर सकता * ॥ 22 ॥ ययातिको शास्त्रप्रतिकूल होनेके कारण यह सम्बन्ध अभीष्ट तो न था; परन्तु उन्होंने देखा कि प्रारब्धने स्वयं ही मुझे यह उपहार दिया है और मेरा मन भी इसकी ओर खिंच रहा है। इसलिये ययातिने उसकी बात मान ली ॥ 23 ॥

वीर राजा ययाति जब चले गये, तब देवयानी रोती पोटती अपने पिता शुक्राचार्य के पास पहुंची और शर्मिष्ठा जो कुछ किया था, वह सब उन्हें कह सुनाया ।। 24 ।। शर्मिष्ठाके व्यवहारसे भगवान् शुक्राचार्यजीका भी मन उचट गया। वे पुरोहिताईको निन्दा करने लगे। उन्होंने सोचा कि इसकी अपेक्षा तो खेत या बाजारमेंसे कबूतरकी तरह कुछ बीनकर खा लेना अच्छा है। अतः अपनी कन्या देवयानीको साथ लेकर वे नगरसे निकल पड़े ।। 25 ।। जब वृषपर्वाको यह मालूम हुआ, तो उनके मनमें यह शङ्का हुई कि गुरुजी कहीं शत्रुओंकी जीत न करा दें अथवा मुझे शाप न दे दें। अतएव वे उनको प्रसन्न करनेके लिये पीछे-पीछे गये और रास्तेमें उनके चरणोंपर सिरके बल गिर गये ।। 26 ।। भगवान् शुक्राचार्यजीका क्रोध तो आधे ही क्षणका था। उन्होंने वृषपर्वासे कहा- ‘राजन्! मैं अपनी पुत्री देवयानीको नहीं छोड़ सकता। इसलिये इसकी जो इच्छा हो, तुम पूरी कर दो। फिर मुझे लौट चलनेमें कोई आपत्ति न होगी ।। 27 ।। जब वृषपर्वाने ‘ठीक है’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली, तब देवयानीने अपने मनकी बात कही। उसने कहा- ‘पिताजी मुझे जिस किसीको दे दें और मैं जहाँ कहीं जाऊँ, शर्मिष्ठा अपनी सहेलियोंके साथ मेरी सेवाके लिये वहीं चले’ ।। 28 ।। दशर्मिष्ठाने अपने परिवारवालोंका सङ्कट और उनके कार्यका गौरव देखकर देवयानीकी बात स्वीकार कर ली। वह अपनी एक हजार सहेलियोंके साथ दासीके समान उसकी सेवा करने लगी ।। 29 ।।शुक्राचार्यजीने देवयानीका विवाह राजा ययातिके साथ कर दिया और शर्मिष्ठाको दासीके रूपमें देकर उनसे कह दिया- ‘राजन् इसको अपनी सेजपर कभी न आने देना’ ॥ 30 परीक्षित् कुछ ही दिनों बाद देवयानी पुत्रवती हो गयी। उसको पुत्रवती देखकर एक दिन शर्मिष्ठाने भी अपने ऋतुकालमें देवयानीके पति ययातिसे एकान्तमें सहवासकी याचना की ।। 31 ।। शर्मिष्ठाकी पुत्रके लिये प्रार्थना धर्मसंगत है—यह देखकर धर्मश राजा ययातिने शुक्राचार्यकी बात याद रहनेपर भी यही निश्चय किया कि समयपर प्रारब्धके अनुसार जो होना होगा, हो जायगा ॥ 32 ॥ देवयानीके दो पुत्र हुए- यदु और तुर्वसु तथा वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाके तीन पुत्र हुए — द्रुह्यु, अनु और पूरु ।। 33 ।। जव मानिनी देवयानीको यह मालूम हुआ कि शर्मिष्ठाको भी मेरे पतिके द्वारा ही गर्भ रहा था, तब वह क्रोधसे बेसुध होकर अपने पिताके घर चली गयी ॥ 34 ॥ कामी ययातिने मीठी-मीठी बातें, अनुनय-विनय और चरण दबाने आदिके द्वारा देवयानीको मनानेकी चेष्टा की, उसके पीछे-पीछे वहाँतक गये भी; परन्तु मना न सके ।। 35 शुक्राचार्यजीने भी क्रोधमें भरकर ययातिसे कहा- ‘तू अत्यन्त स्त्रीलम्पट मन्दबुद्धि और झूठा है जा तेरे शरीरमें वह बुढ़ापा आ जाय, जो मनुष्योंको कुरूप कर देता है’ ।। 36 ।।

ययातिने कहा- ‘ब्रह्मन्! आपकी पुत्रीके साथ विषय-भोग करते-करते अभी मेरी तृप्ति नहीं हुई है। इस शापसे तो आपकी पुत्रीका भी अनिष्ट ही है।” इसपर शुक्राचार्यजीने कहा- ‘अच्छा जाओ; जो प्रसन्नतासे तुम्हें अपनी जवानी दे दे, उससे अपना बुढ़ापा बदल लो’ ॥ 37 ॥ शुक्राचार्यजीने जब ऐसी व्यवस्था दे दी, तब अपनी राजधानीमें आकर ययातिने अपने बड़े पुत्र यदुसे | कहा- ‘बेटा! तुम अपनी जवानी मुझे दे दो और अपने | नानाका दिया हुआ यह बुढ़ापा तुम स्वीकार कर लो। | क्योंकि मेरे प्यारे पुत्र मैं अभी विषयोंसे तृप्त नहीं हुआ हूँ । | इसलिये तुम्हारी आयु लेकर मैं कुछ वर्षोंतक और आनन्द भोगूँगा ।। 38-39 ।।यदुने कहा- ‘पिताजी! बिना समयके ही प्राप्त हुआ आपका बुढ़ापा लेकर तो मैं जीना भी नहीं चाहता। क्योंकि कोई भी मनुष्य जबतक विषय-सुखका अनुभव नहीं कर लेता, तबतक उसे उससे वैराग्य नहीं होता’ ॥ 40 ॥ परीक्षित् ! इसी प्रकार तुर्वसु, द्रुह्यु और अनुने भी पिताकी आज्ञा अस्वीकार कर दी। सच पूछो तो उन पुत्रोंको धर्मका तत्त्व मालूम नहीं था। वे इस अनित्य शरीरको ही नित्य माने बैठे थे । 41 । अब ययातिने अवस्थामें सबसे छोटे किन्तु गुणोंमें बड़े अपने पुत्र पूरुको बुलाकर पूछा और कहा ‘बेटा! अपने बड़े भाइयोंके समान तुम्हें तो मेरी बात नहीं टालनी चाहिये ॥ 42 ॥

पूरुने कहा- ‘पिताजी पिताकी कृपासे मनुष्यको परमपदकी प्राप्ति हो सकती है। वास्तवमें पुत्रका शरीर पिताका ही दिया हुआ है। ऐसी अवस्थामें ऐसा कौन है, जो इस संसार में पिताके उपकारोंका बदला चुका सके ? ॥ 43 ॥ उत्तम पुत्र तो वह है, जो पिताके मनकी बात बिना कहे ही कर दे। कहनेपर श्रद्धाके साथ आज्ञापालन करनेवाले पुत्रको मध्यम कहते हैं। जो आज्ञा प्राप्त होनेपर भी अश्रद्धासे उसका पालन करे, वह अधम पुत्र है। और जो किसी प्रकार भी पिताकी आज्ञाका पालन नहीं करता, उसको तो पुत्र कहना ही भूल है। वह तो पिताका मल-मूत्र ही है ।। 44 ।। परीक्षित् ! इस प्रकार कहकर पूरुने बड़े आनन्दसे अपने पिताका बुढ़ापा स्वीकार कर लिया। राजा ययाति भी उसकी जवानी लेकर पूर्ववत् विषयका सेवन करने लगे 45 वे सातों द्वीपोंके एकच्छत्र सम्राट् थे पिताके समान भलीभाँति प्रजाका पालन करते थे। उनकी इन्द्रियोंमें पूरी शक्ति थी और वे यथावसर यथाप्राप्त विषयोंका यथेच्छ उपभोग करते थे । 46 । देवयानी उनकी प्रियतमा पत्नी थी। वह अपने प्रियतम ययातिको अपने मन, वाणी, शरीर और वस्तुओंके द्वारा दिन-दिन और भी प्रसन्न करने लगी और एकान्तमें सुख देने लगी ।। 47 ।। राजा ययातिने समस्त वेदोंके प्रतिपाद्य सर्वदेवस्वरूप यज्ञपुरुष भगवान् श्रीहरिका बहुत से बड़ी बड़ी दक्षिणावाले यज्ञोंसे यजन किया ।। 48 ।। जैसे आकाशमें दल-के-दल बादल दीखते हैं और कभी नहीं भी दीखते, वैसे ही परमात्माके स्वरूपमें यह जगत् स्वप्न, माया और मनोराज्यके समान कल्पित है। यह कभी अनेक नाम और रूपोंके रूपमें प्रतीत होता है और कभी नहीं भी ।। 49 ।।वे परमात्मा सबके हृदयमें विराजमान हैं। उनका स्वरूप सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म है। उन्हीं सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापी भगवान् श्रीनारायणको अपने हृदयमें स्थापित करके राजा ययातिने निष्काम भावसे उनका यजन किया ।। 50 ।। इस प्रकार एक हजार वर्षतक उन्होंने अपनी उच्छृङ्खल इन्द्रियोंके साथ मनको | जोड़कर उसके प्रिय विषयोंको भोगा। परन्तु इतनेपर भी चक्रवर्ती सम्राट् ययातिकी भोगोंसे तृप्ति न हो सकी ॥ 51 ॥

अध्याय 18 ययातिका गृहत्याग

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! राजा ययाति इस प्रकार स्त्रीके वशमें होकर विषयोंका उपभोग करते रहे। एक दिन जब अपने अधःपतनपर दृष्टि गयी तब उन्हें बड़ा वैराग्य हुआ और उन्होंने अपनी प्रिय पत्नी देवयानीसे इस गाथाका गान किया ॥ 1 ॥ ‘भृगुनन्दिनी ! तुम यह गाथा सुनो। पृथ्वीमें मेरे ही समान विषयीका यह सत्य इतिहास है। ऐसे ही ग्रामवासी विषयी पुरुषोंके सम्बन्धमें वनवासी | जितेन्द्रिय पुरुष दुःखके साथ विचार किया करते हैं कि इनका कल्याण कैसे होगा ? ॥ 2 ॥ एक था बकरा । वह वनमें अकेला ही अपनेको प्रिय लगनेवाली वस्तुएँ ढूँढ़ता हुआ घूम रहा था। उसने देखा कि अपने कर्मवश एक बकरी कुएँ में गिर पड़ी है ॥ 3 ॥ वह बकरा बड़ा कामी था। वह सोचने लगा कि इस बकरीको किस प्रकार कूऍसे निकाला जाय। उसने अपने सींगसे कूएँके पासकी धरती खोद डाली और रास्ता तैयार कर लिया ॥ 4 ॥ जब वह सुन्दरी बकरी कूऍसे निकली, तो उसने उस बकरेसे ही प्रेम करना चाहा। वह दाढ़ी-मूँछमण्डित बकरा हृष्ट-पुष्ट, जवान, बकरियोंको सुख देनेवाला, विहारकुशल और बहुत प्यारा था। जब दूसरी बकरियोंने देखा कि कूऍमें गिरी हुई बकरीने उसे अपना प्रेमपात्र चुन लिया है, तब उन्होंने भी उसीको अपना पति बना लिया। वे तो पहलेसे ही पतिकी तलाशमें थीं। उस बकरेके सिरपर कामरूप पिशाच सवार था। वह अकेला ही बहुत-सी बकरियोंके साथ विहार करने लगा और अपनी सब सुध-बुध खो बैठा ।। 5-6 ।।जब उसकी कुएँमेसे निकाली हुई प्रियतमा बकरीने देखा कि मेरा पति तो अपनी दूसरी प्रियतमा बकरीसे बिहार कर रहा है, तो उसे बकरेकी यह करतूत सहन न हुई ।। 7 ।। उसने देखा कि यह तो बड़ा कामी है, इसके प्रेमका कोई भरोसा नहीं है और यह मित्रके रूपमें शत्रुका काम कर रहा है। अतः वह बकरी उस इन्द्रियलोलुप बकरे को छोड़कर बड़े दुःखसे अपने पालनेवालेके पास चली गयी ॥ 8 ॥ यह दीन कामी बकरा उसे मनानेके लिये ‘में में’ करता हुआ उसके पीछे-पीछे चला परन्तु उसे मार्गमें मना न सका । 9 । उस बकरीका स्वामी एक ब्राह्मण था उसने क्रोधमें आकर बकरेके लटकते हुए अण्डकोषको काट दिया। परन्तु फिर उस बकरीका ही भला करनेके लिये फिरसे उसे जोड़ भी दिया। उसे इस प्रकारके बहुत से उपाय मालूम थे ॥ 10 ॥ प्रिये। इस प्रकार अण्डकोष जुड़ जानेपर वह बकरा फिर कूएँसे निकली हुई बकरीके साथ बहुत दिनोंतक विषयभोग करता रहा, परन्तु आजतक उसे सन्तोष न हुआ ।। 11 ।। सुन्दरी। मेरी भी यही दशा है। तुम्हारे प्रेमपाशमें बँधकर मैं भी अत्यन्त दीन हो गया। तुम्हारी मायासे मोहित होकर मैं अपने-आपको भी भूल गया हूँ ।। 12 ।।

“प्रिये । पृथ्वीमें जितने भी धान्य (चावल, जौ आदि), सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं वे सब-के-सब मिलकर भी उस पुरुषके मनको सन्तुष्ट नहीं कर सकते, जो कामनाओके प्रहारसे जर्जर हो रहा है ॥ 13 ॥ विषयोंके भोगनेसे भोगवासना कभी शान्त नहीं हो सकती बल्कि जैसे घीकी आहुति डालनेपर आग और भड़क उठती है, वैसे ही भोगवासनाएँ भी भोगोंसे प्रबल हो जाती है ।। 94 ।। जब मनुष्य किसी भी प्राणी और किसी भी वस्तु के साथ राग- ग-द्वेपका भाव नहीं रखता, तब वह समदर्शी हो जाता है तथा उसके लिये सभी दिशाएँ सुखमयी बन जाती है ॥ 15 ॥ विषयोंकी तृष्णा ही दुःखोंका उद्गम स्थान है। मन्दबुद्धि लोग बड़ी कठिनाईसे उसका त्याग कर सकते हैं। शरीर बूढ़ा हो जाता है, पर तृष्णा नित्य नवीन ही होती जाती है। अतः जो अपना कल्याण चाहता है, उसे शीघ्र से शीघ्र इस तृष्णा (भोग वासना) का त्याग कर देना चाहिये ।। 16 ।। और तो क्या अपनी मा बहिन और कन्याके साथ भी अकेले एक आसनपर सटकर नहीं बैठना चाहिये। इन्द्रियाँ इतनी बलवान् है कि वे बड़े-बड़े विद्वानोंको भी विचलित कर देती है ।। 17 ।।विषयोंका बार-बार सेवन करते-करते मेरे एक हजार वर्ष पूरे हो गये, फिर भी क्षण-प्रति-क्षण उन भोगों की लालसा बढ़ती ही जा रही है ॥ 18 ॥ इसलिये मैं अब भोगोंकी वासना तृष्णाका परित्याग करके अपना अन्तःकरण परमात्माके प्रति समर्पित कर दूंगा और शीत-उष्ण, सुख-दुःख आदिके भावोंसे ऊपर उठकर अहङ्कारसे मुक्त हो हरिनोंके साथ वनमें विचरूँगा ॥ 19 ॥ लोक-परलोक दोनोंके ही भोग असत् हैं, ऐसा समझकर न तो उनका चिन्तन करना चाहिये और न भोग ही समझना चाहिये कि उनके चिन्तनसे ही जन्म-मृत्युरूप संसारकी प्राप्ति होती है और उनके भोगसे तो आत्मनाश ही हो जाता है। वास्तवमें इनके रहस्यको जानकर इनसे अलग रहनेवाला ही आत्मज्ञानी है’ ॥ 20 ॥

परीक्षित्! ययातिने अपनी पत्नीसे इस प्रकार कहकर पुस्की जवानी उसे लौटा दो और उससे अपना बुढ़ापा ले लिया। यह इसलिये कि अब उनके चित्तमें विषयोंकी वासना नहीं रह गयी थी॥ 21 ॥ इसके बाद उन्होंने दक्षिण-पूर्व दिशामें हुडा, दक्षिणमें यदु, पश्चिममें तुर्वसु और उत्तरमें अनुको राज्य दे दिया ॥ 22 ॥ सारे भूमण्डलकी समस्त सम्पत्तियों के योग्यतम पात्र पूरुको अपने राज्यपर अभिषिक्त करके तथा बड़े भाइयोंको उसके अधीन बनाकर वे वनमें चले गये ॥ 23 ॥ यद्यपि राजा ययातिने बहुत वर्षोतक इन्द्रियोंसे विषयोंका सुख भोगा था परन्तु जैसे पॉस निकल आनेपर पक्षी अपना घोंसला छोड़ देता है, वैसे ही उन्होंने एक क्षणमें ही सब कुछ छोड़ दिया ॥ 24 ॥ वनमें जाकर राजा ययातिने समस्त आसक्तियोंसे छुट्टी पा ली। आत्म-साक्षात्कारके द्वारा उनका त्रिगुणमय लिङ्गशरीर नष्ट हो गया। उन्होंने माया-मलसे रहित परब्रह्म परमात्मा वासुदेवमें | मिलकर वह भागवती गति प्राप्त की, जो बड़े-बड़े भगवान्‌के प्रेमी संतोंको प्राप्त होती है ।। 25 ।।

जब देवयानीने वह गाथा सुनी, तो उसने समझा कि ये मुझे निवृत्तिमार्गके लिये प्रोत्साहित कर रहे हैं। क्योंकि स्त्री पुरुषमें परस्पर प्रेमके कारण विरह होनेपर विकलता होती है, यह सोचकर ही इन्होंने यह बात हँसी-हँसीमें कही है ॥ 26 ॥ स्वजन सम्बन्धियोंका – जो ईश्वरके अधीन है- एक स्थानपर इकट्ठा हो जाना वैसा ही है, जैसा प्याऊपर | पथिकोंका। यह सब भगवान्‌को मायाका खेल और स्वप्नके सरीखा ही है। ऐसा समझकर देवयानीने सब पदार्थोंकी आसक्ति त्याग दी और अपने मनको भगवान् श्रीकृष्ण में तन्मय करके बन्धनके हेतु लिङ्गशरीरका परित्याग कर दिया – वह भगवान्‌को प्राप्त हो गयी ।। 27-28 ।।उसने भगवान्‌को नमस्कार करके कहा- ‘समस्त जगत्के रचयिता, सर्वान्तर्यामी, सबके आश्रयस्वरूप सर्वशक्तिमान् भगवान् वासुदेवको नमस्कार है। जो परम शान्त और अनन्त तत्त्व है, उसे मैं नमस्कार करती हूँ’ ।। 29 ।।

अध्याय 19 पूरुके वंश, राजा दुष्यन्त और भरतके चरित्रका वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते है परीक्षित् अब मैं राजा पूरुके वंशका वर्णन करूँगा। इसी वंशमें तुम्हारा | जन्म हुआ है। इसी वंशके वंशघर बहुत-से राजर्षि और ब्रह्मर्षि भी हुए . हैं ॥ 1 ॥ पूरुका पुत्र हुआ जनमेजय । जनमेजयका प्रचिन्वान्, प्रचिन्वान्‌का प्रवीर, प्रवीरका नमस्यु और नमस्युका पुत्र हुआ चारुपद 2 ॥ चारुपदसे से बहुगव, बहुगवसे संयाति, संयातिसे अहंयाति और अहंयातिसे रौद्राश्व हुआ 3 ॥

परीक्षित्! जैसे विश्वात्मा प्रधान प्राणसे दस इन्द्रियाँ होती है, वैसे ही मृताची अप्सरा गर्भसे रौद्राश्वके दस पुत्र हुए — ऋतेयु, कुक्षेयु, स्थण्डिलेयु, कृतेयु, जलेयु, सन्ततेयु, धर्मेयु, सत्येयु, व्रतेयु और सबसे छोटा वनेयु 4-5 ॥

परीक्षित्! उनमेंसे ऋतेयुका पुत्र रन्तिभार हुआ और रतिभारके तीन पुत्र हुए- सुमति, ध्रुव, और अप्रतिरथ । अप्रतिरथके पुत्रका नाम था कण्व 6 ॥ कण्वका पुत्र मेधातिथि हुआ। इसी मेधातिथिसे प्रस्कण्व आदि ब्राह्मण उत्पन्न हुए। सुमतिका पुत्र रैभ्य हुआ, इसी | रैभ्यका पुत्र दुष्यन्त था ॥ 7 ॥एक बार दुष्यन्त वनमें अपने कुछ सैनिक सा शिकार खेलनेके लिये गये हुए थे। उधर हो वे कण्व मुनिके आश्रमपर जा पहुँचे। उस आश्रमपर देवमायाके | सम्मान मनोहर एक स्त्री बैठी हुई थी। उसकी लक्ष्मीके समान अङ्गकान्तिसे वह आश्रम जगमगा रहा था। उस सुन्दरीको देखते ही दुष्यन्त मोहित हो गये और उये बातचीत करने लगे ।। 8-9 ।। उसको देखने से उनको ब आनन्द मिला। उनके मनमें कामवासना जाग्रत हो गयी। थकावट दूर करनेके बाद उन्होंने बड़ी मधुर वाणीसे मुसकराते हुए उससे पूछा- ॥ 10 ॥ कमलदलके समान सुन्दर नेत्रोंवाली देवि! तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो ? मेरे हृदयको अपनी ओर आकर्षित करनेवाली सुन्दरी! तुम इस निर्जन वनमें रहकर क्या करना चाहती हो ? ॥ 11 ॥ सुन्दरी ! मैं स्पष्ट समझ रहा हूँ कि तुम किसी क्षत्रियकी कन्या हो। क्योंकि पुरुवंशियोंका चित्त कभी अधर्मकी ओर नहीं झुकता’ ।। 12 ।।

शकुन्तलाने कहा- ‘आपका कहना सत्य है। मैं विश्वामित्र की पुत्री हूँ। मेनका अप्सराने मुझे बनमें छोड़ दिया था। इस बातके साक्षी हैं मेरा पालन-पोषण करनेवाले महर्षि कण्व वीरशिरोमणे ! मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? ॥ 13 ॥ कमलनयन ! आप यहाँ बैठिये और हम जो कुछ आपका स्वागत सत्कार करें, उसे स्वीकार कीजिये। आश्रममें कुछ नीवार (तिनीका भात) है। आपकी इच्छा हो तो भोजन कीजिये और जँचे तो यहाँ ठहरिये ।। 14 ।।

दुष्यन्तने कहा- ‘सुन्दरी तुम कुशिकवंशमें उत्पन्न हुई हो, इसलिये इस प्रकारका आतिथ्य सत्कार तुम्हारे योग्य ही है। क्योंकि राजकन्याएँ स्वयं ही अपने योग्य पतिको वरण कर लिया करती हैं ॥ 15 ॥ शकुन्तलाको स्वीकृति मिल जानेपर देश, काल और शास्त्रकी आज्ञाको जाननेवाले राजा दुष्यन्तने गान्धर्व विधिसे धर्मानुसार उसके साथ विवाह कर लिया ।। 16 ।। राजर्षि दुष्यन्तका वीर्य अमोघ था। रात्रिमें वहाँ रहकर दुष्यन्तने शकुन्तलाका सहवास किया और दूसरे दिन सबेरे वे अपनी राजधानीमें चले गये। समय आनेपर शकुन्तलाको एक पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ 17 ॥महर्षि कण्वने वनमें ही राजकुमारके जातकर्म आदि | संस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न किये। वह बालक बचपन में ही इतना बलवान् था कि बड़े-बड़े सिंहोंको बलपूर्वक बाँध लेता और उनसे खेला करता ॥ 18 ॥

वह बालक भगवानका अंशांशावतार था। उसका बल-विक्रम अपरिमित था। उसे अपने साथ लेकर रमणीरत्न शकुन्तला अपने पतिके पास गयी ।। 19 ॥ जब राजा दुष्यन्तने अपनी निर्दोष पत्नी और पुत्रको स्वीकार नहीं किया, तब जिसका वक्ता नहीं दीख रहा था और जिसे सब लोगोंने सुना, ऐसी आकाशवाणी हुई ॥ 20 ॥ पुत्र उत्पन्न करनेमें माता तो केवल धौकनीके समान है। वास्तवमें पुत्र पिताका ही है। क्योंकि पिता ही पुत्रके रूपमें उत्पन्न होता है। इसलिये दुष्यन्त ! तुम शकुन्तलाका तिरस्कार न करो, अपने पुत्रका भरण-पोषण करो ॥ 21 ॥ राजन् ! वंशकी वृद्धि करनेवाला पुत्र अपने पिताको नरकसे उबार लेता है। शकुन्तलाका कहना बिलकुल ठीक है। इस गर्भको धारण करानेवाले तुम्हीं हो’ ॥ 22 ॥

परीक्षित् ! पिता दुष्यन्तकी मृत्यु हो जानेके बाद वह परम यशस्वी बालक चक्रवर्ती सम्राट् हुआ। उसका जन्म भगवान् के अंशसे हुआ था। आज भी पृथ्वीपर उसकी महिमाका गान किया जाता है | 23 | उसके दाहिने हाथमें चक्रका चिह्न था और पैरोंमें कमलकोषका। महाभिषेककी विधिसे राजाधिराजके पदपर उसका अभिषेक हुआ। भरत बड़ा शक्तिशाली राजा था ॥ 24 ॥ भरतने ममताके पुत्र दीर्घतमा मुनिको पुरोहित बनाकर गङ्गातटपर गङ्गासागरसे लेकर गङ्गोत्रीपर्यन्त पचपन पवित्र अश्वमेध यज्ञ किये। और इसी प्रकार यमुनातटपर भी प्रयागसे लेकर यमुनोत्रीतक उन्होंने अठहत्तर अश्वमेध यज्ञ किये। इन सभी यज्ञोंमें उन्होंने अपार धनराशिका दान किया था। दुष्यन्तकुमार भरतका यज्ञीय अग्निस्थापन बड़े ही उत्तम गुणवाले स्थानमें किया गया था। उस स्थानमें भरतने इतनी गौएँ दान दी थीं कि एक हजार ब्राह्मणोंमें प्रत्येक ब्राह्मणको एक-एक बद्ध (13084) गौएँ मिली थीं ।। 25-26 | इस प्रकार राजा भरतने उन यज्ञोंमें एक सौ तैंतीस (55+78) घोड़े बाँधकर (133 यज्ञ करके) समस्त नरपतियोंको असीम आश्चर्यमें डाल दिया। इन यज्ञोंके द्वारा इस लोकमें तो राजा भरतको परम यश मिला ही, अन्तमें उन्होंने मायापर भी विजय प्राप्त की और देवताओंके परमगुरु भगवान् श्रीहरिको प्राप्त कर लिया ॥ 27 ॥ यज्ञमें एक कर्म होता है ‘मष्णार’। उसमें भरतनेसुवर्णसे विभूषित, श्वेत दाँतोंवाले तथा काले रंगके चौदह लाख हाथी दान किये ॥ 28 ॥ भरतने जो महान् कर्म किया, वह न तो पहले कोई राजा कर सका था और न तो आगे ही कोई कर सकेगा। क्या कभी कोई हाथसे स्वर्गको छू सकता है ? ॥ 29 ॥ भरतने दिग्विजयके समय किरात, हूण, यवन, अन्ध, कडू, खश, शक और म्लेच्छ आदि समस्त ब्राह्मणद्रोही राजाओंको मार डाला ॥ 30 पहले युगमें बलवान् असुरोंने देवताओंपर विजय प्राप्त कर ली थी और वे रसातलमें रहने लगे थे। उस समय वे बहुत-सी देवाङ्गनाओंको रसातलमें ले गये थे। राजा | भरतने फिरसे उन्हें छुड़ा दिया ॥ 31 ॥ उनके राज्यमें पृथ्वी और | आकाश प्रजाकी सारी आवश्यकताएँ पूर्ण कर देते थे। भरतने सत्ताईस हजार वर्षतक समस्त दिशाओंका एकछत्र शासन किया ॥ 32 ॥ अन्तमें सार्वभौम सम्राट् भरतने यहां निश्चय किया कि लोकपालोंको भी चकित कर देनेवाला ऐश्वर्य, सार्वभौम सम्पत्ति, अखण्ड शासन और यह जीवन भी मिथ्या हो है। यह निश्चय करके वे संसारसे उदासीन हो गये ॥ 33 ॥

परीक्षित्! विदर्भराजकी तीन कन्याएँ सम्राट् भरतको पत्त्रियाँ थीं। वे उनका बड़ा आदर भी करते थे। परन्तु जब भरतने उनसे कह दिया कि तुम्हारे पुत्र मेरे अनुरूप नहीं हैं, तब वे डर गयीं कि कहीं सम्राट् हमें त्याग न दें। इसलिये उन्होंने अपने बच्चोंको मार डाला ।। 34 ।। इस प्रकार सम्राट् भरतका वंश वितथ अर्थात् विच्छिन्न होने लगा। तब उन्होंने सन्तानके लिये ‘मरुत्स्तोम’ नामका यज्ञ किया। इससे मरुद्गणनि प्रसन्न होकर भरतको भरद्वाज नामका पुत्र दिया ॥ 35 भरद्वाजकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग यह है कि एक बार बृहस्पतिजीने अपने भाई उतथ्यकी गर्भवती पत्नीसे मैथुन करना चाहा। उस समय गर्भमें जो बालक (दीर्घतमा) था, उसने मना किया। किन्तु बृहस्पतिजीने उसकी बातपर ध्यान न दिया और उसे ‘तू अंधा हो जा’ यह शाप देकर बलपूर्वक गर्भाधान कर दिया 36 उतथ्यकी पत्नी ममता इस बातसे डर गयी कि कहीं मेरे पति मेरा त्याग न कर दें। इसलिये उसने बृहस्पतिजीके द्वारा होनेवाले लड़केको त्याग देना चाहा। उस समय देवताओंने गर्भस्थ शिशुके नामका निर्वचन करते हुए यह कहा 37 ॥ बृहस्पतिजी कहते हैं कि ‘अरी मूढे ! यह मेरा औरस और मेरे भाईका क्षेत्रज – इस प्रकार दोनोंका पुत्र (द्वाज) है; इसलिये तू डर मत, इसका भरण-पोषण कर (भर)। इसपर ममताने कहा- ‘बृहस्पते यह मेरे पतिका नहीं, हम दोनोंका ही पुत्र है; इसलिये तुम्हीं इसका भरण-पोषण करो।’ इस प्रकार आपसमें विवाद करते हुए माता-पिता दोनों ही इसको छोड़कर चले गये। इसलिये इस लड़केका नाम ‘भरद्वाज’ हुआ 38 ॥देवताओंके द्वारा नामका ऐसा निर्वचन होनेपर भी ममताने यही समझा कि मेरा यह पुत्र वितथ अर्थात् अन्यायसे पैदा हुआ । अतः उसने उस बच्चेको छोड़ दिया। अब मरुद्गणोंने उसका पालन किया और जब राजा भरतका वंश नष्ट होने लगा, तब उसे लाकर उनको दे दिया। यही वितथ (भरद्वाज) भरतका दत्तक पुत्र हुआ ।। 39 ।।

अध्याय 20 भरतवंशका वर्णन, राजा रन्तिदेवकी कथा

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित् । वितथ अथवा भरद्वाजका पुत्र था मन्यु। मन्युके पाँच पुत्र हुए बृहत्क्षत्र, जय, महावीर्य, नर और गर्ग नरका पुत्र था संकृति ॥ 1 ॥ संकृतिके दो पुत्र हुए- गुरु और रन्तिदेव । परीक्षित्! रन्तिदेवका निर्मल यश इस लोक और परलोकमें सब जगह गाया जाता है॥ 2 ॥ रन्तिदेव आकाशके समान बिना उद्योगके ही दैववश प्राप्त वस्तुका उपभोग करते और दिनोंदिन उनकी पूँजी घटती जाती। जो कुछ मिल जाता उसे भी दे डालते और स्वयं भूखे रहते। वे संग्रह परिग्रह, ममतासे रहित तथा बड़े धैर्यशाली थे और अपने कुटुम्बके साथ दुःख भोग रहे थे || 3 || एक बार तो लगातार अड़तालीस दिन ऐसे बीत गये कि उन्हें पानीतक पीनेको न मिला। उनचासवें दिन प्रातःकाल ही उन्हें कुछ घी, खीर, हलवा और जल मिला ॥ 4 ॥ उनका परिवार बड़े सङ्कटमें था। भूख और प्यासके मारे थे लोग काँप रहे थे। परन्तु ज्यों ही उन लोगोंने भोजन करना चाहा, त्यों ही एक ब्राह्मण अतिथिके रूपमें आ गया ॥ 5 ॥ रन्तिदेव सबमें श्रीभगवान्‌ के ही दर्शन करते थे। अतएव उन्होंने बड़ी श्रद्धासे आदरपूर्वक उसी आपसे ब्राह्मणको भोजन कराया। ब्राह्मणदेवता भोजन करके चले गये ॥ 6 ॥

परीक्षित्! अब बचे हुए अन्नको रन्तिदेवने आपसमें बाँट लिया और भोजन करना चाहा। उसी समय एक दूसरा शूद्र-अतिथि आ गया। रन्तिदेवने भगवान्का स्मरण करते हुए उस बचे हुए अनमेंसे भी कुछ भाग शूद्रके रूपमें आये अतिथिको खिला दिया ॥ 7 ॥जब शूद्र खा-पीकर चला गया, तब कुत्तोंको लिये हुए एक और अतिथि आया। उसने कहा- ‘राजन्! मैं और मेरे | ये कुत्ते बहुत भूखे हैं। हमें कुछ खानेको दीजिये ॥ 8 ॥ रन्तिदेवने अत्यन्त आदरभावसे, जो कुछ बच रहा था, सब का सब उसे दे दिया और भगवन्मय होकर उन्होंने कृते और कुत्तोंके स्वामीके रूपमें आये हुए भगवान्को नमस्कार किया ।। ।। अब केवल जल ही बच रहा था और वह भी | केवल एक मनुष्यके पीनेभरका था। वे उसे आपस में वॉटकर पीना ही चाहते थे कि एक चाण्डाल और आ पहुँचा। उसने कहा- ‘मैं अत्यन्त नीच हूँ। मुझे जल पिला दीजिये ॥ 10 ॥ चाण्डालकी वह करुणापूर्ण वाणी जिसके उच्चारणमें भी वह अत्यन्त कष्ट पा रहा था, सुनकर रन्तिदेव दयासे अत्यन्त सन्तप्त हो उठे और ये अमृतमय वचन कहने लगे ॥ 11 ॥ ‘मैं भगवान् से आठों सिद्धियोंसे युक्त परम गति नहीं चाहता। और तो क्या, मैं मोक्षको भी कामना नहीं करता। मैं चाहता हूँ तो केवल यही कि मैं सम्पूर्ण प्राणियोंकि हृदयमें स्थित हो जाऊँ और उनका सारा दुःख में ही सहन करूँ, जिससे और किसी भी प्राणीको दुःख न हो ॥ 12 ॥ यह दीन प्राणी जल पी करके जीना चाहता था। जल दे देनेसे इसके जीवनकी रक्षा हो गयी। अब मेरी भूख-प्यासकी पीड़ा, शरीरको शिथिलता, दीनता, ग्लानि, शोक, विपाद और मोह-ये सब-के-सब जाते रहे। मैं सुखी हो गया ॥ 13 ॥ इस प्रकार कहकर रन्तिदेवने वह बचा हुआ जल भी उस चाण्डालको दे दिया। यद्यपि जलके बिना वे स्वयं मर रहे थे, फिर भी स्वभावसे ही उनका हृदय इतना करुणापूर्ण था कि वे अपनेको रोक न सके। उनके धैर्यकी भी कोई सीमा है ? 14 परीक्षित् ये अतिथि वास्तवमे भगवान्‌को रची हुई मायाके ही विभिन्न रूप थे। परीक्षा पूरी हो जानेपर अपने अभिलाषा पूर्ण करनेवाले त्रिभुव ब्रह्मा, विष्णु और महेश- तीनों उनके सामने प्रकट हो गये ॥ 15 रन्तिदेवने उनके चरणोंमें नमस्कार किया। उन्हें कुछ लेना तो था नहीं। भगवान्‌की कृपासे वे आसक्ति और स्पृहासे भी रहित हो गये तथा परम प्रेममय भक्तिभावसे | अपने मनको भगवान् वासुदेवमें तन्मय कर दिया। कुछ भी माँगा नहीं ॥ 16 ॥ परीक्षित्! उन्हें भगवान्‌के सिवा और किसी भी वस्तुकी इच्छा तो थी नहीं, उन्होंने अपने मनको पूर्वरूपसे भगवान लगा दिया। इसलिये त्रिगुणमयी मा जागनेपर स्वप्न दृश्यके समान नष्ट हो गयी ॥ 17 ॥रन्तिदेवके अनुयायी भी उनके सदके प्रभावसे योगी हो गये और सब भगवान्‌के ही आश्रित परम भक्त बन गये ।। 18 ।।

मन्युपुत्र गर्गसे शिनि और शिनिसे गार्ग्यका जन्म हुआ यद्यपि गार्ग्य क्षत्रिय था, फिर भी उससे ब्राह्मणवंश चला। महावीर्यका पुत्र था दुरितक्षय दुरितक्षयके तीन पुत्र हुए — त्रय्यारुणि, कवि और पुष्करारुणि। ये तीनों ब्राह्मण हो गये। बृहत्क्षत्रका पुत्र हुआ हस्ती, उसीने हस्तिनापुर बसाया था । 19-20 ॥ हस्तीके तीन पुत्र थे— अजमीढ, द्विमीढ और पुरुमीढ अजमीढके पुत्रों में प्रियमेध आदि ब्राह्मण हुए ॥ 21 ॥ इन्हीं अजमीढके एक पुत्रका नाम था बृहदिषु। बृहदिषुका पुत्र हुआ बृहद्धनु, बृहद्धनुका बृहत्काय और बृहत्कायका जयद्रथ हुआ ॥ 22 ॥ जयद्रथका पुत्र हुआ विशद और विशदका सेनजित्। सेनजितके चार पुत्र हुए— रुचिराश्व, दृढहनु, | काश्य और वत्स ।। 23 ॥ रुचिराश्वका पुत्र पार था और पारका पृथुसेन । पारके दूसरे पुत्रका नाम नीप था। उसके सौ पुत्र थे ।। 24 ।। इसी नीपने (छाया) शुककी कन्या कृत्वीसे विवाह किया था। उससे ब्रह्मदत्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। ब्रह्मदत्त बड़ा योगी था। उसने अपनी पत्नी सरस्वतीके गर्भसे विष्वक्सेन नामक पुत्र उत्पन्न किया ॥ 25 ॥ इसी विष्वक्सेनने जैगीषव्यके उपदेशसे योगशास्त्रकी रचना की। विष्वक्सेनका पुत्र था उदक्स्वन और उदकस्वनका भल्लाद। ये सब बृहदिषुके वंशज हुए ।। 26 ।। । *

द्विमीढका पुत्र था यवीनर, यवीनरका कृतिमान्, कृतिमान्का सत्यधृति, सत्यधृतिका दृढनेमि और दृढनेमिका पुत्र सुपार्थ हुआ ॥ 27 ॥ सुपार्थसे सुमति, सुमतिसे सप्रतिमान् और सत कृतिका जन्म हुआ। उसने हिरण्यनाभसे योगविद्या प्राप्त की थी और’प्राच्यसाम’ नामक ऋचाओंकी छः संहिताएँ कही थीं। कृतिका पुत्र नीप था, नीपका उग्रायुध, उग्रायुधका क्षेम्य, क्षेम्यका सुवीर और सुवीरका पुत्र था रिपुञ्जय ।। 28-29 ॥ | रिपुञ्जयका पुत्र था बहुरथ । द्विमीढके भाई पुरुमीढको कोई सन्तान न हुई। अजमीढकी दूसरी पत्नीका नाम था | नलिनी। उसके गर्भसे नीलका जन्म हुआ। नीलका शान्ति, शान्तिका सुशान्ति, सुशान्तिका पुरुज, पुरुजका ‘अर्क और अर्कका पुत्र हुआ भर्म्याश्व । भर्म्याश्वके पाँच पुत्र थे- मुद्गल, यवीनर, बृहदिषु काम्पिल्य और सञ्जय । भर्म्याश्वने कहा- ‘ये मेरे पुत्र पाँच देशोंका शासन करनेमें समर्थ (पञ्च अलम्) हैं।’ इसलिये ये ‘पञ्चाल’ नामसे प्रसिद्ध हुए। इनमें मुद्गलसे ‘मौद्गल्य’ नामक ब्राह्मणगोत्रकी प्रवृत्ति हुई । 30 – 33 ॥

भर्म्याश्वके पुत्र मुद्गलसे यमज (जुड़वाँ) सन्तान हुई। उनमें पुत्रका नाम था दिवोदास और कन्याका अहल्या । अहल्याका विवाह महर्षि गौतमसे हुआ। गौतमके पुत्र हुए शतानन्द ॥ 34 ॥ शतानन्दका पुत्र सत्यधृति था, वह धनुर्विद्यामें अत्यन्त निपुण था। सत्यधृतिके पुत्रका नाम था शरद्वान्। एक दिन उर्वशीको देखनेसे शरद्वान्का वीर्य मूँजके झाड़पर गिर पड़ा, उससे एक शुभ लक्षणवाले पुत्र और पुत्रीका जन्म हुआ। महाराज शन्तनुकी उसपर दृष्टि पड़ गयी, क्योंकि वे उधर | शिकार खेलनेके लिये गये हुए थे। उन्होंने दयावश दोनोंको उठा लिया। उनमें जो पुत्र था, उसका नाम कृपाचार्य हुआ और जो कन्या थी, उसका नाम हुआ कृपी यही कृपी द्रोणाचार्यकी पत्नी हुई ।। 35-36 ॥

अध्याय 21 पाञ्चाल, कौरव और मगधदेशीय राजाओंके वंशका वर्ण

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! दिवोदासका पुत्र था मित्रेयु मित्रेयुके चार पुत्र हुए च्यवन, सुदास, सहदेव और सोमक सोमकके सौ पुत्र थे, उनमें सबसे बड़ा जन्तु और सबसे छोटा पृषत था। पृपतके पुत्र द्रुपद थे, द्रुपदके द्रौपदो नामको पुत्री और भृष्टयुष आदि पुत्र हुए ।। 1-2 ॥ धृष्टद्युप्रका पुत्र था धृष्टकेतु। भर्म्याश्वके वंशमें उत्पन्न हुए ये नरपति ‘पाञ्चाल’ कहलाये। अजमीढका दूसरा पुत्र था ऋक्ष उनके पुत्र हुए संवरण ॥ 3 ॥ संवरणका विवाह सूर्यको कन्या तपती से हुआ। उन्होंके गर्भसे कुरुक्षेत्र के स्वामी कुरुका जन्म हुआ। कुरुके चार पुत्र हुए- परीक्षित, सुधन्वा, जह्रु और निपधाव ll 4 ll

सुधन्वासे सुहोत्र, सुहोत्रसे च्यवन, च्यवनसे कृती, कृतीसे उपरिचरवसु और उपरिचरवसुसे बृहद्रथ आदि कई पुत्र उत्पन्न हुए 5 उनमें वृहद्रथ, कुशाम्ब, मत्स्य, प्रत्यय और चेदिप आदि चेदिदेशके राजा हुए। बृहद्रथका पुत्र था कुशाग्र, कुशाप्रका ऋषभ, ऋषभका सत्यहित, सत्यहितका पुष्पवान् और पुष्पवान् के जहु नामक पुत्र हुआ। बृहद्रथकी दूसरी पत्नीके गर्भसे एक शरीरके दो टुकड़े उत्पन्न हुए ।। 6-7 ॥

उन्हें माताने बाहर फेंकवा दिया। तब ‘जरा’ नामको राक्षसीने ‘जियो, जियो’ इस प्रकार कहकर खेल-खेल में उन दोनों टुकड़ोंको जोड़ दिया। उसी जोड़े हुए बालकका नाम हुआ जरासन्ध ॥ 8 ॥ जरासन्धका सहदेव, सहदेवका सोमापि और सोमापिका पुत्र हुआ श्रुतश्रवाः। कुरुके ज्येष्ठ पुत्र परीक्षितके कोई सन्तान न हुई। जह्रुका पुत्र था सुरथ 9 सुरथका विदूरथ, विदूरथका सार्वभौम, सार्वभौमका जयसेन, जयसेनका राधिक और राधिकका पुत्र हुआ अयुत ॥ 10 ॥अयुतका क्रोधन, क्रोधनका देवातिथि, देवातिथिका ऋष्य, ऋष्यका दिलीप और दिलीपका पुत्र प्रतीप हुआ ॥ 11 ॥ प्रतीपके तीन पुत्र थे – देवापि, शन्तनु और बाह्रीक। देवापि अपना पैतृक राज्य छोड़कर वनमें चला गया ॥ 12 ॥ इसलिये उसके छोटे भाई शन्तनु राजा हुए। पूर्वजन्ममें शन्तनुका नाम महाभिष था। इस जन्ममें भी वे अपने हाथोंसे जिसे छू देते थे, वह बूढ़ेसे जवान हो जाता था ॥ 13 ॥ उसे परम शान्ति मिल जाती थी। इसी करामातके कारण उनका नाम ‘शन्तनु’ हुआ। एक बार शन्तनुके राज्यमें बारह वर्षतक इन्द्रने वर्षा नहीं की। इसपर ब्राह्मणोंने शन्तनुसे कहा कि ‘तुमने अपने बड़े भाई देवापिसे पहले ही विवाह, अग्रिहोत्र और राजपदको स्वीकार कर लिया, अतः तुम परिवेत्ता हो; इसीसे तुम्हारे राज्यमें वर्षा नहीं होती। अब यदि तुम अपने नगर और राष्ट्रकी उन्नति चाहते हो, तो शीघ्र से शीघ्र अपने बड़े भाईको राज्य लौटा दो’ ।। 14-15 ।। जब ब्राह्मणोने शन्तनुसे इस प्रकार कहा, तब उन्होंने वनमें जाकर अपने बड़े भाई देवापिसे राज्य स्वीकार करनेका अनुरोध किया। परन्तु शन्तनुके मन्त्री अश्मरातने पहलेसे ही उनके पास कुछ ऐसे ब्राह्मण भेज दिये थे, जो वेदको दूषित करनेवाले वचनोंसे देवापिको वेदमार्गसे विचलित कर चुके थे। इसका फल यह हुआ कि देवापि वेदोंके अनुसार गृहस्थाश्रम स्वीकार करनेकी जगह उनकी निन्दा करने लगे। इसलिये वे राज्य के अधिकारसे वञ्चित हो गये और तब शन्तनुके राज्यमें वर्षा हुई। देवापि इस समय भी योगसाधना कर रहे हैं और योगियोंके प्रसिद्ध निवासस्थान कलापग्राममें रहते हैं 16-17 ।। जब कलियुगमें चन्द्रवंशका नाश हो जायगा, तब सत्ययुगके प्रारम्भ में वे फिर उसकी स्थापना करेंगे। शन्तनुके छोटे भाई बाह्रोकका पुत्र हुआ सोमदत्त सोमदत्त के तीन पुत्र हुए- भूरि, भूरिश्रवा और शल। शन्तनुके द्वारा गङ्गाजीके गर्भसे नैष्ठिक ब्रह्मचारी भीष्मका जन्म हुआ। वे समस्त धर्मज्ञोंके सिरमौर, भगवान्के परम प्रेमी भक्त और परम ज्ञानी थे ।। 18-19 ॥ वे संसार के समस्त वीरोंके अग्रगण्य नेता थे। औरोकी तो बात हो क्या, उन्होंने अपने गुरु भगवान्परशुरामको भी युद्धमें सन्तुष्ट कर दिया था। शन्तनुके द्वारा दाशराजकी कन्या के गर्भ से दो पुत्र हुए- चित्राङ्गद और विचित्रवीर्य चित्राङ्गदको चित्राङ्गद नामक गन्धर्वने मार डाला। इसी दाशराजकी कन्या सत्यवतीसे पराशरजीके द्वारा मेरे पिता, भगवान्‌के कलावतार स्वयं थे। हुए भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजी अवतीर्ण उन्होंने वेदोंकी रक्षा की परीक्षित् मैंने उन्होंसे इस श्रीमद्भागवत पुराणका अध्ययन किया था। यह पुराण परम गोपनीय – अत्यन्त रहस्यमय है। इसीसे मेरे पिता भगवान् व्यासजीने अपने पैल आदि शिष्योंको इसका अध्ययन नहीं कराया, मुझे ही इसके योग्य अधिकारी समझा। एक तो मैं उनका पुत्र था और दूसरे शान्ति आदि गुण भी मुझमें विशेषरूपसे थे। शन्तनुके दूसरे पुत्र विचित्रवीर्यन काशिराजकी कन्या अम्बिका और अम्बालिकासे विवाह किया। उन दोनोंको भीष्मजी स्वयंवरसे बलपूर्वक ले आये थे। विचित्रवीर्य अपनी दोनों पत्रियोंमें इतना आसक्त हो गया कि उसे राजयक्ष्मा रोग हो गया और उसको मृत्यु हो गयी । 20- 24 ॥ माता | सत्यवतीके कहने से भगवान् व्यासजीने अपने सन्तानहीन भाईकी स्त्रियोंसे धृतराष्ट्र और पाण्डु दो पुत्र उत्पन्न किये। | उनकी दासीसे तीसरे पुत्र विदुरजी हुए ।। 25 ।।

परीक्षित्! धृतराष्ट्रकी पत्नी थी गान्धारी। उसके गर्भसे सौ पुत्र हुए, उनमें सबसे बड़ा था दुर्योधन । कन्याका नाम था दुःशला ॥ 26 ॥ पाण्डुकी पत्नी थी कुन्ती। शापवश पाण्डु स्त्री-सहवास नहीं कर सकते थे। इसलिये उनको पत्नी कुन्तीके गर्भसे धर्म, वायु और इन्द्रके द्वारा क्रमशः युधिष्ठिर, भीमसेन और अर्जुन नामके तीन पुत्र उत्पन्न हुए। ये तीनों के तीनों महारथी थे ॥ 27 ॥

पाण्डुकी दूसरी पत्नीका नाम था माद्री। दोनों अश्विनीकुमारोंके द्वारा उसके गर्भसे नकुल और सहदेवका जन्म हुआ। परीक्षित्! इन पाँच पाण्डवोंके द्वारा द्रौपदीके गर्भसे तुम्हारे पाँच चाचा उत्पन्न हुए ॥ 28 ॥ इनमेंसे |युधिष्ठिरके पुत्रका नाम था प्रतिविन्ध्य, भीमसेनका पुत्र था श्रुतसेन, अर्जुनका श्रुतकीर्ति, नकुलका शतानीक और सहदेवका श्रुतकर्मा। इनके सिवा युधिष्ठिरके पौरवी नामकी पत्नीसे देवक और भीमसेनके हिडिम्बासे घटोत्कच और कालीसे सर्वगत नामके पुत्र हुए। सहदेवकेपर्वतकुमारी विजयासे सुहोत्र और नकुलके करेणुमतीसे निरमित्र हुआ। अर्जुनद्वारा नागकन्या उलूपीके गर्भसे इरावान् और मणिपुर नरेशकी कन्यासे बभ्रुवाहनका ज हुआ। बभ्रुवाहन अपने नानाका ही पुत्र माना गया। क्योंकि पहलेसे ही यह बात तय हो चुकी थी । 29 – 32 ॥ | अर्जुनकी सुभद्रा नामकी पत्नीसे तुम्हारे पिता अभिमन्युका जन्म हुआ वीर अभिमन्युने सभी अतिरधियोंको जीत लिया था। अभिमन्युके द्वारा उत्तराके गर्भसे तुम्हारा जन्म हुआ ॥ 33 ॥ परीक्षित्! उस समय कुरुवंशका नाश हो चुका था । अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे तुम भी जल ही चुके थे, परन्तु भगवान् श्रीकृष्णने अपने प्रभावसे तुम्हें उस मृत्युसे जीता-जागता बचा लिया ॥ 34 ॥ परीक्षित्! तुम्हारे पुत्र तो सामने ही बैठे हुए हैं इनके नाम हैं— जनमेजय, श्रुतसेन, भीमसेन और उग्रसेन। ये सब-के-सब बड़े पराक्रमी हैं ।। 35 ।

जब तक्षक काटनेसे तुम्हारी मृत्यु हो जायगी, तब इस बातको जानकर जनमेजय बहुत क्रोधित होगा और यह सर्प यज्ञकी आगमें सर्पोंका हवन करेगा ॥ 36 ॥ यह कायपेय तुरको पुरोहित बनावर अश्वमेध यज्ञ करेगा और सब ओरसे सारी पृथ्वीपर विजय प्राप्त करके यज्ञोंके द्वारा भगवान्की आराधना करेगा ॥ 37 ॥

प्राप्त जनमेजयका पुत्र होगा शतानीक। वह याज्ञवल्क्य ऋषिसे तीनों वेद और कर्मकाण्डकी तथा कृपाचार्यसे अस्त्रविद्याकी शिक्षा प्राप्त करेगा एवं शौनकजीसे आत्मज्ञानका सम्पादन करके परमात्माको होगा ।। 38 ।। शतानीकका सहस्रानीक, सहस्रानीकका | अश्वमेधज, अश्वमेधजका असीमकृष्ण और असीम कृष्णका पुत्र होगा नेमिचक्र ॥ 39 ॥ जब हस्तिनापुर | गङ्गाजी में बह जायगा, तब वह कौशाम्बीपुरीमें सुखपूर्वक | निवास करेगा। नेमिचक्रका पुत्र होगा चित्ररथ, चित्ररथका कविरथ, कविरयका दृष्टिमान् वृष्टिमान्‌का राज सुषेण सुपेगका सुनीथ, सुनीथका नृचक्षु नृचशुकसुखीनल, सुखीनलका परिप्लव, परिप्लवका सुनय, सुनयका मेधावी, मेधावीका नृपञ्जय, नृपञ्जयका दूर्व और | दूर्वका पुत्र तिमि होगा ।। 40-42 ।। तिमिसे बृहद्रथ, बृहद्रथसे सुदास, सुदाससे शतानीक, शतानीकसे दुर्दमन, दुर्दमनसे वहीनर, वहीनरसे दण्डपाणि, दण्डपाणिसे निमि और निमिसे राजा क्षेमकका जन्म होगा। इस प्रकार मैंने तुम्हें ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनोंके उत्पत्तिस्थान सोमवंशका वर्णन सुनाया। बड़े-बड़े देवता और ऋषि इस वंशका सत्कार करते हैं ॥ 43-44 ॥ यह वंश कलियुगमें राजा क्षेमकके साथ ही समाप्त हो जायगा। अब मैं भविष्य में होनेवाले मगध देशके राजाओंका वर्णन सुनाता हूँ ।। 45 ।।

जरासन्धके पुत्र सहदेवसे मार्जारि, मार्जारिसे श्रुतश्रवा, श्रुतश्रवासे अयुतायु और अयुतायुसे निरमित्र नामक पुत्र होगा ।। 46 । निरमित्रके सुनक्षत्र, सुनक्षत्रके बृहत्सेन, बृहत्सेनके कर्मजित् कर्मजितके सृतञ्जय, सृतञ्जयके विप्र और विप्रके पुत्रका नाम होगा शुचि ॥ 47 ॥ शुचिसे क्षेम, क्षेमसे सुव्रत, सुव्रतसे धर्मसूत्र, धर्मसूत्रसे शम, शमसे द्युमत्सेन, द्युमत्सेनसे सुमति और सुमतिसे सुबलका जन्म होगा ।। 48 ।। सुबलका सुनीथ, सुनीथका सत्यजित् सत्यजित्का विश्वजित् और विश्वजित्‌का पुत्र रिपुञ्जय होगा। ये सब बृहद्रथवंशके राजा होंगे। इनका शासनकाल एक हजार वर्षके भीतर ही होगा ।। 49 ।।

अध्याय 22 अनु, ह्यु, तुर्वसु और यदुके वंशका वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! ययाति नन्दन अनुके तीन पुत्र हुए— सभानर, चक्षु और परोक्ष सभानरका कालनर, कालनरका सृञ्जय, सुपका जनमेजय, जनमेजयका महाशील, महाशीलका पुत्र हुआ महामना । महामना के दो पुत्र हुए- उशीनर एवं तितिक्षु ॥ 1-2 ॥ उशीनरके चार पुत्र थे— शिवि, वन, शमी और दक्ष। शिविके चार पुत्र हुए-वृषादर्भ, सुवीर, मद्र और कैकेय। उशीनरके भाई तितिक्षुके रुशद्रथ, रुशद्रथके हेम, हेमके सुतपा और सुतपाके बलि नामक पुत्र हुआ ।। 3-4 ।।

राजा बलिकी पत्नीके गर्भसे दीर्घतमा मुनिने छः पुत्र उत्पन्न किये – अङ्ग, वङ्ग, कलिङ्ग, सुह्म, पुण्ड्र और अन्य ॥ 5 ॥ इन लोगोंने अपने-अपने नामसे पूर्व दिशामें छः देश बसाये। अङ्गका पुत्र हुआ खनपान, खनपानका दिविरथ, दिविरथका धर्मरथ और धर्मरथका चित्ररथ। यह चित्ररथ ही रोमपादके नामसे प्रसिद्ध था। इसके मित्र थे अयोध्याधिपति महाराज दशरथ । रोमपादको कोई सन्तान न थी। इसलिये दशरथने उन्हें अपनी शान्ता नामकी कन्या गोद दे दी। शान्ताका वाह ऋष्यश्रृङ्ग मुनिसे हुआ। ऋष्यश्रृङ्ग विभाण्डक षिके द्वारा हरिणीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। एक बार राजा रोमपादके राज्यमें बहुत दिनोंतक वर्षा नहीं हुई। तब गणिकाएँ अपने नृत्य, संगीत, वाद्य, हाव-भाव, अलिङ्गन और विविध उपहारोसे मोहित करके वहाँ ले आयी उनके आते ही व हो गयी। उन्होंने ही इन्द्र देवताका यज्ञ कराया, तब सन्तानहीन राजा रोमपादको भी पुत्र हुआ और पुम्हीन दशरथने भी उन्होंने प्रथनसे चार पुत्र प्राप्त किये रोमपादका पुत्र हुआ चतुरङ्ग और चतुरङ्गका पृथुलाक्ष ।। 6-10पृथुलाक्षके वृहद्रथ, बृहत्कर्मा और बृहद्धनु-तीन पुत्र हुए। बृहद्रथका पुत्र हुआ बृहन्मना और बृहन्मनाका जयद्रथ ॥ 11 ॥ जयद्रथकी पत्नीका नाम था सम्भूति। उसके गर्भ से विजयका जन्म हुआ। विजयका धृति, भूतिका भूत भूतता सत्कर्मा और सत्कर्मका पुत्र था अधिरथ ।। 12 ।।

अधिरथको कोई सन्तान न थी। किसी दिन वह गङ्गातटपर क्रीडा कर रहा था कि देखा एक पिटारीमें नन्हा सा शिशु बहा चला जा रहा है। वह बालक कर्ण था, जिसे कुन्तीने कन्यावस्थामें उत्पन्न होनेके कारण उस प्रकार बहा दिया था। अधिरथने उसीको अपना पुत्र बना लिया ॥ 13 ॥ परीक्षित्! राजा कर्णके पुत्रका नाम था वृषसेन । ययातिके पुत्र द्रुह्युसे बभ्रुका जन्म हुआ। बभ्रुका सेतु, सेतुका आरब्ध, आरब्धका गान्धार, गान्धारका धर्म, धर्मका भूत भूतका दुर्मना और दुर्मनाका पुत्र प्र पुत्र हुए, ये उत्तर दिशामे म्लेच्छोंके राजा हुए। यथतिके पुत्र सुका वहि वहिका भर्ग, भर्गका भानुमान्, भानुमान्का त्रिभानु, त्रिभानुका उदारबुद्धि करन्धम और करन्धमका पुत्र हुआ मरुत । मरुत सन्तानहीन था। इसलिये उसने पूरुवंशी दुष्यन्तको अपना पुत्र बनाकर रखा था । 14 – 17 ॥ परन्तु दुष्यन्त राज्यको कामनासे अपने ही वंशमें लौट गये। परीक्षित्! अब मैं राजा ययातिके बड़े पुत्र यदुके वंशका वर्णन हुआ। प्रचेताके सौ करता हूँ ।। 18 ।।

परीक्षित्! महाराज यदुका वंश परम पवित्र और मनुष्योंके समस्त पापोंको नष्ट करनेवाला है। जो मनुष्य इसका श्रवण करेगा, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जायगा ॥ 19 ॥ इस वंशमें स्वयं भगवान् परब्रहा श्रीकृष्णने मनुष्यके से रूपमें अवतार लिया था। यदुके चार पुत्र थे- साहस्रजित् नल और रिपु सहस्त्रजित्से शतजितका जन्म हुआ। शतजित्के तीन पुत्र थे—महाहय, वेणुहय और हैहय ॥ 20-21 ॥हैहयका धर्म, धर्मका नेत्र, नेत्रका कुन्ति, कुन्तिका सोहजि सोहजिका महिष्यान् और महिष्मानका पुत्र हुआ ॥ 22 ॥ भद्रसेन के दो पुत्र थे- दुर्मद और धनक। | धनकके चार पुत्र हुए- कृतवीर्य, कृताधि, कृतवर्मा और कुतौजा ।। 23 ।। कृतवीर्यका पुत्र अर्जुन था। वह सातो | द्वीपका एकछत्र सम्राट् था। उसने भगवान के अंशावतार दत्ताजी योगविद्या और अणिमा लघिमा आदि बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं ॥ 24 ॥ इसमें सन्देह नहीं कि संसारका कोई भी सम्राट् यज्ञ, दान, तपस्या, योग, शस्त्रज्ञान, पराक्रम और विजय आदि गुणोंमें कार्तवीर्य | अर्जुनको बराबरी नहीं कर सकेगा ।। 25 । सहस्रबाहु अर्जुन पचासी हजार वर्षतक छहों इन्द्रियोंसे अक्षय विषयोंका भोग करता रहा। इस बीचमें न तो उसके शरीरका बल ही क्षीण हुआ और न तो कभी उसने यही स्मरण किया कि मेरे धनका नाश हो जायगा। उसके धनके नाशकी तो बात ही क्या है, उसका ऐसा प्रभाव था कि उसके स्मरणसे दूसरोंका खोया हुआ धन भी मिल जाता था ॥ 26 ॥ उसके हजारों पुत्रोंसे केवल पाँच ही जीवित रहे। शेष सब परशुरामजीकी क्रोधाग्निमें भस्म हो गये। बचे हुए पुत्रों के नाम जयध्वज, शूरसेन, वृषभ, मधु और ऊर्जित ॥ 27 ॥

जयध्वजके पुत्रका नाम था तालजङ्घ तालजङ्घके सौ पुत्र हुए। वे ‘तालजङ्घ’ नामक क्षत्रिय कहलाये। महर्षि और्वकी शक्तिसे राजा सगरने उनका संहार कर डाला ॥ 28 उन सौ पुत्रोंमें सबसे बड़ा था वीतिहोत्र यतिका पुत्र मधु हुआ। मधुके सौ पुत्र थे। उनमें वीतिहोत्रका सबसे बड़ा था वृष्णि 29 ॥ परीक्षित्! इन्हीं मधु, वृष्णि और यदुके कारण यह वंश माधव, वाष्र्णेय और यादव के नामसे प्रसिद्ध हुआ। यदुनन्दन क्रोष्टुके पुस्का नाम था वृजिनवान् ॥ 30 ॥ वृजिनवान्का पुत्र श्वाहि वाहिका रुशेकु, रुशेकुका चित्ररथ और चित्ररथके पुत्रका नाम था शशबिन्दु वह परम योगी, महान् भोगैश्वर्यसम्पन्न और अत्यन्त पराक्रमी था ॥ 31 ॥ वह चौदह रत्नों * का स्वामी चक्रवर्ती और युद्धमें अजेय था। परम यशस्वी शशविन्दुके दस हजार पत्रियों थीं। उनमेंसे एक एकके लाख-लाख सन्तान हुई थीं। इस प्रकार उसके सौकरोड़ – एक अरब सन्तानें उत्पन्न हुईं। उनमें पृथुश्रवा | आदि छः पुत्र प्रधान थे। पृथुश्रवाके पुत्रका नाम था धर्म । धर्मका पुत्र उशना हुआ। उसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे। | उशनाका पुत्र हुआ रुचक। रुचकके पाँच पुत्र हुए, उनके नाम सुनो ॥ 32-34 ॥ पुरुजित्, रुक्म, रुक्मेषु, पृथु और ज्यामघ । ज्यामघकी पत्नीका नाम था शैब्या । ज्यामघके बहुत दिनोंतक कोई सन्तान न हुई। परन्तु उसने अपनी पत्नीके भयसे दूसरा विवाह नहीं किया। एक बार वह अपने शत्रुके घरसे भोज्या नामकी कन्या हर लाया। जब शैब्याने पतिके रथपर उस कन्याको देखा, तब वह चिढ़कर अपने पतिसे बोली- ‘कपटी ! मेरे बैठनेकी जगहपर आज किसे बैठाकर लिये आ रहे हो ?’ ज्यामघने कहा—’यह तो तुम्हारी पुत्रवधू है।’ शैब्याने मुसकराकर अपने पतिसे कहा ।। 35- -37 ॥

‘मैं तो जन्मसे ही बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है। फिर यह मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती है ?’ ज्यामघने कहा- ‘रानी ! तुमको जो पुत्र होगा, उसकी यह पत्नी बनेगी’ ॥ 38 ॥ राजा ज्यामघके इस वचनका विश्वेदेव और पितरोंने अनुमोदन किया। फिर क्या था, समयपर शैव्याको गर्भ रहा और उसने बड़ा ही सुन्दर बालक उत्पन्न किया। उसका नाम हुआ विदर्भ। उसीने शैब्याकी साध्वी पुत्रवधू भोज्यासे विवाह किया ॥ 39 ॥

अध्याय 23 विदर्भके वंशका वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! राजा विदर्भकी भोज्या नामक पत्नीसे तीन पुत्र हुए — कुश, क्रथ और रोमपाद रोमपाद विदर्भवंशमें बहुत ही श्रेष्ठ पुरुष हुए ॥ 1 ॥रोमपादका पुत्र बभ्रु, बभ्रुका कृति, कृतिका उशिक और उशिकका चेदि । राजन्! इस चेदिके वंशमे ही दमघोष एवं शिशुपाल आदि हुए ॥ 2 ॥ क्रथका पुत्र हुआ कुन्ति कुन्तिका धृष्टि, धृष्टिका निर्वृति, निर्वृतिका दशाह और. दशार्हका व्योम ॥ 3 ॥

व्योमका जीमूत, जीमूतका विकृति, विकृतिका भीमरथ, भीमरथका नवरथ और नवरथका दशरथ हुआ ॥ 4 ॥ दशरथसे शकुनि, शकुनिसे करम्भ, करम्भि देवरात, देवरातसे देवक्षत्र, देवक्षत्रसे मधु, मधुसे कुरुवश और कुरुवशसे अनु हुए5॥ अनुसे पुरुहोत्र, लोक्सो आयु और आयुसे सात्वतका जन्म हुआ। परीक्षित्! सात्वतके सात पुत्र हुए— भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक और महाभोज । भजमानकी दो पत्त्रियाँ यो एकसे तीन पुत्र हुए निम्लोपि किङ्किण और भृष्टि दूसरी पत्नीसे भी तीन पुत्र हुए- शताजित, सहस्राजित् और अयुताजित् 6-8 ॥

देवावृधके पुत्रका नाम था व देवावृध और बभ्रुके सम्बन्धमें यह बात कही जाती है— ‘हमने दूरसे जैसा सुन रखा था, अब वैसा ही निकटसे देखते भी है ॥ 9 ॥

वधु मनुष्यों में श्रेष्ठ है और देवावृध देवताओके समान है। इसका कारण यह है कि बभ्रु और देवावृधसे | उपदेश लेकर चौदह हजार पैंसठ मनुष्य परम पदको प्राप्त कर चुके हैं।’ सात्वतके पुत्रोंमें महाभोज भी बड़ा धर्मात्मा था। उसीके वंशमें भोजवंशी यादव हुए ।। 10-11 ॥

परीक्षित् वृष्णि के दो पुत्र हुए- सुमित्र और युधाजित्। युधाजितके शिनि और अनमित्र – ये दो पुत्र थे। अनमित्रसे निनका जन्म हुआ ॥ 12 ॥सत्राजित् और प्रसेन नामसे प्रसिद्ध यदुवंशी निनके ही पुत्र थे। अनमित्रका एक और पुत्र था, जिसका नाम था शिनि ।
शिनिसे ही सत्यकका जन्म हुआ ।। 13 ।।

इसी के पुत्र युयुधान थे, जो सात्यकिके नामसे प्रसिद्ध हुए। सात्यकिका जय, जयका कुणि और कुणिका पुत्र युगन्धर हुआ। अनमित्रके तीसरे पुत्रका नाम वृष्णि था। वृष्णिके दो पुत्र हुए- श्वफल्क और चित्ररथ । श्वफल्ककी पत्नीका नाम था गान्दिनी। उनमें सबसे श्रेष्ठ अक्रूरके अतिरिक्त बारह पुत्र उत्पन्न हुए आसङ्ग, सारमेय, मृदुर, मृदुविद्, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रोपेक्ष, अरिमर्दन, शत्रुघ्न, गन्धमादन और प्रतिबाहु । इनके एक बहिन भी थी, जिसका नाम था सुचीरा । अकूर के दो पुत्र थे देववान् और उपदेव फल्कके भाई चित्ररथके पृथु विदूरथ आदि बहुत-से पुत्र -से हुए जो वृष्णिवंशियोंमे श्रेष्ठ माने जाते हैं ।। 14-18 ।।

सालत के पुत्र अन्धकके चार पुत्र हुए कुकुर भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि। उनमें कुकुरका पुत्र वह्नि, वहिका विलोमा, विलोमाका कपोतरोमा और | कपोतरोमाका अनु हुआ। तुम्बुरु गन्धर्वके साथ अनुकी बड़ी मित्रता थी। अनुका पुत्र अन्धक, अन्धकका दुन्दुभि, दुन्दुभिका अरिद्योत अरिद्योतका पुनर्वसु और पुनर्वसुके आहुक नामका एक पुत्र तथा आहुकी नामकी एक कन्या हुई। आहुकके दो पुत्र हुए— देवक और उग्रसेन । | देवकके चार पुत्र हुए। 19-21 ।।

देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन। इनकी सात बहिनें भी थीं—धृत, देवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा,
देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी। वसुदेवजीने इन सबके
साथ विवाह किया था ।। 22-23 ।।उग्रसेनके नौ लड़के थे कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कडू, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान् ॥ 24 ॥ कङ्का, उपसेनके पाँच कन्याएँ भी थीं कंसा, कंसवती, कहा शूरभू और राष्ट्रपालिका इनका विवाह देवभाग आदि वसुदेवजीके छोटे भाइयोंसे हुआ था ॥ 25 ॥

चित्ररथके पुत्र विदूरथसे शूर, शूरसे भजमान, भजमानसे शिनि, शिनिसे स्वयम्भोज और स्वयम्भोजसे हृदीक हुए ।। 26 ।। हृदीकसे तीन पुत्र हुए- देवबाहु, शतधन्वा और कृतवर्मा देवमीढके पुत्र शूरकी पत्रीका नाम था मारिया ।। 27 ।। उन्होंने उसके गर्भसे दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये – वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृञ्जय, श्यामक, कङ्क, शमीक, वत्सक और वृक ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेवजीके जन्मके समय देवताओंके नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे अतः वे ‘आनकदुन्दुभि’ भी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण के पिता हुए। वसुदेव आदिको पाँच बहने भी थीं— पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी। वसुदेवके पिता शूरसेनके एक मित्र थे कुन्तिभोज कुन्तिभोजके कोई सन्तान न थी इसलिये शूरसेनने उन्हें पृथा नामकी अपनी सबसे बड़ी कन्या गोद दे दी ।। 28-31 ॥ |

पृथाने दुर्वासा ऋषिको प्रसन्न करके उनसे | देवताओंको बुलानेकी विद्या सीख ली। एक दिन उस विद्या प्रभावको परीक्षा लेनेके लिये पृथाने परम पवित्र भगवान् सूर्यका आवाहन किया ।। 32 ।। उसी समय भगवान् सूर्य वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखकर कुन्तीका हृदय विस्मयसे भर गया। उसने कहा- ‘भगवन्! मुझे क्षमा कीजिये। मैंने तो परीक्षा करनेके लिये ही इस विद्या प्रयोग किया था। अब आप पधार सकते हैं’ ॥ 33 ॥ सूर्यदेवने कहा- ‘देवि ! मेरा दर्शन निष्फल नहीं हो सकता। इसलिये हे सुन्दरी। अब मैं तुझसे एक पुत्र उत्पन्न करना चाहता हूँ। हां, अवश्य ही तुम्हारी योनि दुषित न हो, इसका उपाय मैं कर दूंगा ॥ 34 ॥यह कहकर भगवान् सूर्यने गर्भ स्थापित कर दिया और इसके बाद वे स्वर्ग चले गये। उसी समय उससे एक बड़ा सुन्दर एवं तेजस्वी शिशु उत्पन्न हुआ। वह देखनेमें दूसरे सूर्यके समान जान पड़ता था ॥ 35 ॥ पृथा लोकनिन्दासे डर गयी। इसलिये उसने बड़े दुःखसे उस बालकको नदीके जलमें छोड़ दिया। परीक्षित् । उसी पृथाका विवाह तुम्हारे परदादा पाण्डुसे हुआ था, जो वास्तवमें बड़े सच्चे वीर थे ।। 36 ।।

परीक्षित् । पृथाकी छोटी बहिन श्रुतदेवाका विवाह करूप देशके अधिपति वृद्धशर्मासे हुआ था। उसके गर्भसे दन्तवक्त्रका जन्म हुआ। यह वही दन्तवक्त्र है, जो पूर्वजन्ममें सनकादि ऋषियोंके शापसे हिरण्याक्ष हुआ था ॥ 37 ॥ केकय देशके राजा धृष्टकेतुने श्रुतकीर्तिसे विवाह किया था। उससे सन्तर्दन आदि पाँच कैकय राजकुमार हुए ।। 38 ।। राजाधिदेवीका विवाह जयसेनसे हुआ था। उसके दो पुत्र हुए -विन्द और अनुविन्द । वे दोनों ही अवन्तीके राजा हुए। चेदिराज दमघोषने श्रुतश्रवाका पाणिग्रहण किया ।। 39 ।। उसका पुत्र था शिशुपाल, जिसका वर्णन मैं पहले (सप्तम स्कन्धमें) कर चुका हूँ। वसुदेवजीके भाइयोंमेंसे देवभागकी पत्नी कंसाके गर्भसे दो पुत्र हुए- चित्रकेतु और — बृहद्वल ॥ 40 ॥ | देवश्रवाकी पत्नी कंसवतीसे सुवीर और इषुमान् नामके दो पुत्र हुए। आनककी पत्नी कङ्काके गर्भसे भी दो पुत्र हुए सत्यजित् और पुरुजित् ॥ 41 ॥ सृञ्जयने अपनी पत्नी राष्ट्रपालिकाके गर्भसे वृष और दुर्मर्षण आदि कई पुत्र उत्पन्न किये। इसी प्रकार श्यामकने शूरभूमि (शूरभू) नामकी पत्नीसे हरिकेश और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र उत्पन्न किये ।। 42 ।। मिश्रकेशी अप्सराके गर्भसे वत्सकके भी वृक आदि कई पुत्र हुए। वृकने दुर्वाक्षीके गर्भसे तक्ष, पुष्कर और शाल आदि कई पुत्र उत्पन्न किये ॥ 43 ॥ शमीककी पत्नी सुदामिनीने भी सुमित्र और अर्जुनपाल आदि कई बालक उत्पन्न किये। कङ्ककी पत्नी कर्णिकाके गर्भसे दो पुत्र हुए- ऋतधाम और जय ॥ 44 ll

आनकदुन्दुभि वसुदेवजीकी पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी आदि बहुत-सी पलियाँ थीं ।। 45 ।। रोहिणीके गर्भसे वसुदेवजीके बलराम, गद, सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव और कृत आदि पुत्र हुए थे ।। 46 ।।पौरवीके गर्भसे उनके बारह पुत्र हुए—भूत, सुखद, भद्रवाह, दुर्मद और भद्र आदि ।। 47 ।। नन्द, उपनन्द, कृतक, शूर आदि मदिराके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। कौसल्याने एक ही वंश उजागर पुत्र उत्पन्न किया था। उसका नाम था केशी ॥ 48 ॥ उसने रोचनासे हस्त और | हेमाङ्गद आदि तथा इलासे उरुवल्क आदि प्रधान यदुवंशी पुत्रोंको जन्म दिया ॥ 49 ॥ परीक्षित्! वसुदेवजीके धृतदेवाके गर्भसे विपृष्ठ नामका एक ही पुत्र | हुआ और शान्तिदेवासे श्रम और प्रतिश्रुत आदि कई पुत्र हुए ॥ 50 ॥ उपदेवाके पुत्र कल्पवर्ष आदि दस राजा हुए और श्रीदेवाके वसु, हंस, सुवंश आदि छः पुत्र हुए ॥ 51 ॥ देवरक्षिता गर्भसे गद आदि नौ पुत्र हुए तथा जैसे स्वयं धर्मने आठ वसुओंको उत्पन्न किया था, वैसे ही वसुदेवजीने सहदेवाके गर्भसे पुरुविश्रुत आदि आठ पुत्र उत्पन्न किये। परम उदार वसुदेवजीने देवकीके गर्भसे भी आठ पुत्र उत्पन्न किये, जिनमें सातके नाम हैं— कीर्तिमान्, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, संमर्दन, भद्र और शेषावतार श्रीबलरामजी ॥ 52 – 54 ॥ उन दोनोंके आठवें पुत्र स्वयं श्रीभगवान् ही थे। परीक्षित् ! तुम्हारी परम सौभाग्यवती दादी सुभद्रा भी देवकीजीकी ही कन्या थीं ॥ 55 ॥

जब-जब संसारमें धर्मका ह्रास और पापकी वृद्धि होती है, तब-तब सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि अवतार ग्रहण करते हैं ॥ 56 ॥ परीक्षित्! भगवान् सबके द्रष्टा और वास्तवमें असङ्ग आत्मा ही हैं। इसलिये उनकी आत्मस्वरूपिणी योगमायाके अतिरिक्त उनके जन्म अथवा कर्मका और कोई भी कारण नहीं है ॥ 57 ॥ उनकी मायाका विलास ही जीवके जन्म, जीवन और मृत्युका कारण है। और उनका अनुग्रह ही मायाको अलग करके आत्मस्वरूपको प्राप्त है ॥ 58 ॥ जब असुरोंने राजाओंका वेष धारण कर लिया और कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके वे सारी पृथ्वीको रौंदने लगे, तब पृथ्वीका भार उतारनेके लिये भगवान् मधुसूदन बलरामजीके साथ अवतीर्ण हुए। उन्होंने ऐसी-ऐसी लीलाएँ कीं, जिनके सम्बन्धमें बड़े बड़े देवता मनसे अनुमान भी नहीं कर सकते – शरीरसे करनेकी बात तो अलग रही ।। 59-60 ॥पृथ्वीका भार तो उतरा ही, साथ ही कलियुगमें पैदा होनेवाले भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये भगवान्‌ने ऐसे परम पवित्र यशका विस्तार किया, जिसका गान और श्रवण करनेसे ही उनके दुःख, शोक और अज्ञान सब-के-सब नष्ट हो जायेंगे ।। 61 ।। उनका यश क्या है, लोगोंको पवित्र करनेवाला श्रेष्ठ तीर्थ है। संतोंके कानोंके लिये तो वह साक्षात् अमृत ही है। एक बार भी यदि कानकी अञ्जलियोंसे उसका आचमन कर लिया जाता है, तो कर्मको वासनाएँ निर्मूल हो जाती हैं ।। 62 ।। परीक्षित्! भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन, दशार्ह, कुरु, सुजय और पण्टुवेशी बीर निरन्तर भगवानकी लीलाओ आदरपूर्वक सराहना करते रहते थे ।। 63 ।। उनका श्यामल शरीर सर्वाङ्गसुन्दर था। उन्होंने उस मनोरम विग्रहसे तथा अपनी प्रेमभरी मुसकान, मधुर चितवन, प्रसादपूर्ण वचन और पराक्रमपूर्ण लीलाके द्वारा सारे मनुष्यलोकको आनन्दमें सराबोर कर दिया था ।। 64 ।। भगवान्‌के मुखकमलकी शोभा तो निराली ही थी। मकराकृति कुण्डलोंसे उनके कान बड़े कमनीय मालूम पड़ते थे उनको आभासे कपोलोका सौन्दर्य और भी खिल उठता था। जब वे विलासके साथ हँस देते, तो उनके मुखपर निरन्तर रहनेवाले आनन्दमें मानो बाढ़ सी आ जाती। सभी नर-नारी अपने नेत्रोंके प्यालोंसे उनके मुखकी माधुरीका निरन्तर पान करते रहते, परन्तु तृप्त नहीं होते। वे उसका रस ले-लेकर आनन्दिता तो होते ही, परन्तु पलकें गिरनेसे उनके गिरानेवाले निमिपर खीझते भी ॥ 65 ॥ लीलापुरुषोत्तम भगवान् अवतीर्ण हुए मथुरामै वसुदेवजीके घर, परन्तु वहाँ रहे नहीं, वहाँसे गोकुलमें नन्दबाबाके घर चले गये। वहाँ अपना प्रयोजन – जो ग्वाल, गोपी और गौओको सुखी करना था पूरा करके मथुरा लौट आये जमें, मधुरा तथा द्वारकामें रहकर अनेकों शत्रुओंका संहार किया। बहुत-सी बियोंसे विवाह करके हजारों पुत्र उत्पन्न किये। साथ ही लोगों में अपने स्वरूपका साक्षात्कार करानेवाली अपनी वाणीस्वरूप श्रुतियोंकी मर्यादा स्थापित करनेके लिये अनेक यज्ञोंके द्वारा स्वयं अपना ही यजन किया ॥ 66 ॥ कौरव और पाण्डवोंके बीच उत्पन्न हुए आपस के कलहसे उन्होंने पृथ्वी बहुत-सा भार हलका कर दिया तथा युद्धमें अपनी दृष्टिसे ही राजाओंकी बहुत-सी अशीतिषियोंको ध्वंस करके संसार अर्जुनको जीतका डंका पिटवा दिया। फिर उद्भवको आत्मतत्त्वका उपदेश किया और इसके बाद वे अपने परम धामको सिधार गये || 67 ||

अध्याय 24 परशुरामजीके द्वारा क्षत्रियसंहार

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! अपने पिताकी यह शिक्षा भगवान् परशुरामने ‘जो आज्ञा’ कहकर स्वीकार की। इसके बाद वे एक वर्षतक तीर्थयात्रा करके अपने आश्रमपर लौट आये ॥ 1 ॥ एक दिनकी बात है, परशुरामजीकी माता रेणुका गङ्गातटपर गयी हुई थीं। वहाँ उन्होंने देखा कि गन्धर्वराज चित्ररथ कमलोंकी माला पहने अप्सराओंके साथ विहार कर रहा है ॥ 2 ॥ वे जल लानेके लिये नदीतटपर गयी थीं, परन्तु वहाँ जलक्रीडा करते हुए गन्धर्वको देखने लगीं और पतिदेवके हवनका समय हो गया है— इस बातको भूल गयीं। उनका मन कुछ-कुछ चित्ररथकी ओर खिंच भी गया था ॥ 3 ॥ हवनका समय बीत गया, यह जानकर वे महर्षि जमदग्निके शापसे भयभीत हो गयीं और तुरंत वहाँसे आश्रमपर चली आयीं। | वहाँ जलका कलश महर्षिके सामने रखकर हाथ जोड़ खड़ी हो गयीं ॥ 4 ॥ जमदग्नि मुनिने अपनी पत्नीका | मानसिक व्यभिचार जान लिया और क्रोध करके कहा ‘मेरे पुत्रो ! इस पापिनीको मार डालो।’ परन्तु उनके किसी भी पुत्रने उनकी वह आज्ञा स्वीकार नहीं की ॥ 5 ॥ इसके बाद पिताकी आज्ञासे परशुरामजीने माताके साथ सब भाइयोंको भी मार डाला। इसका कारण था। वे अपने पिताजीके योग और तपस्याका प्रभाव भलीभांति जानते थे || 6 || परशुरामजीके इस काम से सत्यवतीनन्दन महर्षि जमदग्नि बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा- ‘बेटा! तुम्हारी जो इच्छा हो, वर मांग लो। परशुरामजीने कहा “पिताजी मेरी माता और सब भाई जीवित हो जायें तथा उन्हें इस बातकी याद न रहे कि मैंने उन्हें मारा था’ ॥ 7 ॥परशुरामजीके इस प्रकार कहते ही जैसे कोई सोकर उठे, सब-के-सब अनायास ही सकुशल उठ बैठे। | परशुरामजीने अपने पिताजीका तपोबल जानकर ही तो अपने सुहृदोंका वध किया था ॥ 8 ॥ परीक्षित् ! सहस्रबाहु अर्जुनके जो लड़के परशुरामजी से हारकर भाग गये थे, उन्हें अपने पिताके वधकी याद निरन्तर बनी रहती थी। कहीं एक क्षणके लिये भी उन्हें चैन नहीं मिलता था ॥ 9 ॥ एक दिनकी बात है, परशुरामजी अपने भाइयोंके साथ आश्रमसे बाहर वनकी ओर गये हुए थे। यह अवसर पाकर वैर साधनेके लिये सहस्रबाहुके लड़के वहाँ आ पहुँचे ॥ 10 ॥ उस समय महर्षि जमदग्नि अग्निशाला में बैठे हुए थे और अपनी समस्त वृत्तियोंसे पवित्रकीर्ति भगवान् के ही चिन्तनमें मग्न हो रहे थे। उन्हें बाहरकी कोई सुध न थी। उसी समय उन पापियोंने जमदग्नि ऋषिको मार डाला। उन्होंने पहलेसे ही ऐसा पापपूर्ण निश्चय कर रखा था ॥ 11 ॥ परशुरामकी माता रेणुका बड़ी दीनतासे उनसे प्रार्थना कर रही थीं, परन्तु उन सबने उनकी एक न सुनी। वे बलपूर्वक महर्षि जमदग्निका सिर काटकर ले गये। परीक्षित् ! वास्तवमें वे नीच क्षत्रिय अत्यन्त क्रूर थे ॥ 12 सती रेणुका दुःख और शोकसे आतुर हो गयीं। वे अपने हाथों अपनी छाती और सिर पीट-पीटकर जोर-जोर से रोने लगीं— ‘परशुराम ! बेटा परशुराम ! शीघ्र आओ ॥ 13 ॥ परशुरामजीने बहुत दूरसे माताका ‘हा राम !’ यह करुण क्रन्दन सुन लिया। वे बड़ी शीघ्रतासे आश्रमपर आये और वहाँ आकर देखा कि पिताजी मार डाले गये हैं ।। 14 परीक्षित् ! उस समय परशुरामजीको बड़ा दुःख हुआ। साथ ही क्रोध, असहिष्णुता, मानसिक पीड़ा और शोकके वेगसे वे अत्यन्त मोहित हो गये। ‘हाय पिताजी! आप तो बड़े | महात्मा थे। पिताजी ! आप तो धर्मके सच्चे पुजारी थे। आप हमलोगोंको छोड़कर स्वर्ग चले गये’ ॥ 15 ॥ इस प्रकार विलापकर उन्होंने पिताका शरीर तो भाइयोंको सौंप दिया और स्वयं हाथमें फरसा उठाकर क्षत्रियोंका संहार कर डालनेका निश्चय किया ।। 16 ।।

परीक्षित् । परशुरामजीने माहिष्मती नगरीमें जाकर सहस्रबाहु अर्जुनके पुत्रोंके सिरोंसे नगरके बीचो-बीच एक बड़ा भारी पर्वत खड़ा कर दिया। उस नगरकी शोभा तो उन ब्रह्मघाती नीच क्षत्रियोंके कारण ही नष्ट हो चुकी थी ॥ 17 ॥ उनके रक्तसे एक बड़ी भयङ्कर नदी बह निकली, जिसे देखकर ब्राह्मणद्रोहियोंका हृदय भयसे काँप उठता था। | भगवान्ने देखा कि वर्तमान क्षत्रिय अत्याचारी हो गये हैं।इसलिये राजन् ! उन्होंने अपने पिताके वधको निमित्त बनाकर इक्कीस बार पृथ्वीको क्षत्रियहीन कर दिया और कुरुक्षेत्रके समन्तपञ्चकमें ऐसे-ऐसे पाँच तालाब बना दिये, जो रक्तके जलसे भरे हुए थे ।। 18-19 ।। परशुरामजीने अपने पिताजीका सिर लाकर उनके धड़से जोड़ दिया और यज्ञोंद्वारा सर्वदेवमय आत्मस्वरूप भगवान्‌का यजन किया ॥ 20 ॥ यज्ञोंमें उन्होंने पूर्व दिशा होताको, दक्षिण दिशा ब्रह्माको, पश्चिम दिशा अध्वर्युको और उत्तर दिशा सामगान करनेवाले उद्गाताको दे दी ।। 21 ।। इसी प्रकार अग्निकोण आदि विदिशाएँ ऋत्विजोंको दीं, कश्यपजीको मध्यभूमि दी, उपद्रष्टाको आर्यावर्त दिया तथा दूसरे सदस्योंको अन्यान्य दिशाएँ प्रदान कर दीं ।। 22 ।। इसके बाद यज्ञान्त-स्नान करके वे समस्त पापोंसे मुक्त हो गये और ब्रह्मनदी सरस्वतीके तटपर मेघरहित सूर्यके समान शोभायमान हुए ॥ 23 ॥ महर्षि जमदग्निको स्मृतिरूप सङ्कल्पमय शरीरकी प्राप्ति हो गयी। परशुरामजीसे सम्मानित होकर वे सप्तर्षियोंके मण्डलमें सातवें ऋषि हो गये ॥ 24 ॥ परीक्षित्! कमललोचन जमदग्नि-नन्दन भगवान् परशुराम आगामी मन्वन्तरमें सप्तर्षियोंके मण्डलमें रहकर वेदोंका विस्तार करेंगे ॥ 25 ॥ वे आज भी किसीको किसी प्रकारका दण्ड न देते चित्तसे महेन्द्र पर्वतपर निवास करते हैं। वहाँ सिद्ध, गन्धर्व और चारण उनके चरित्रका मधुर स्वरसे गान करते रहते हैं ॥ 26 ॥ सर्वशक्तिमान् विश्वात्मा भगवान् श्रीहरिने इस प्रकार भृगुवंशियोंमें अवतार ग्रहण करके पृथ्वीके भारभूत राजाओंका बहुत बार वध हुए शान्त किया ।। 27 ।।

कर महाराज गाधिके पुत्र हुए प्रज्वलित अग्निके समान परम तेजस्वी विश्वामित्रजी। इन्होंने अपने तपोबलसे क्षत्रियत्वका त्याग करके ब्रह्मतेज प्राप्त लिया ॥ 28 ॥ परीक्षित्! विश्वामित्रजीके सौ पुत्र थे । उनमें बिचले पुत्रका नाम था मधुच्छन्दा। इसलिये सभी पुत्र ‘मधुच्छन्दा’ के ही नामसे विख्यात हुए ।। 29 ।।विश्वामित्रजीने भृगुवंशी अजीगर्तके पुत्र अपने भानजे शुनःशेपको, जिसका एक नाम देवरात भी था, पुत्ररूपमें स्वीकार कर लिया और अपने पुत्रोंसे कहा कि ‘तुमलोग इसे अपना बड़ा भाई मानो’ ॥ 30 ॥ यह वही प्रसिद्ध भृगुवंशी शुनःशेप था, जो हरिश्चन्द्रके यज्ञमें यज्ञपशुके रूपमें मोल लेकर लाया गया था। विश्वामित्रजीने प्रजापति वरुण आदि | देवताओंकी स्तुति करके उसे पाशबन्धनसे छुड़ा लिया था। देवताओंके यज्ञमें यही शुनःशेप देवताओंद्वारा विश्वामित्रजी को दिया गया था; अतः ‘देवैः रात:’ इस व्युत्पत्तिके अनुसार गाधिवंशमें यह तपस्वी देवरातके नामसे विख्यात हुआ ।। 31-32 ॥ विश्वामित्रजीके पुत्रोंमें जो बड़े थे, उन्हें शुनःशेपको बड़ा भाई माननेकी बात अच्छी न लगी । इसपर विश्वामित्रजीने क्रोधित होकर उन्हें शाप दे दिया कि ‘दुष्टो ! तुम सब म्लेच्छ हो जाओ’ ॥ 33 ॥ इस प्रकार जब उनचास भाई म्लेच्छ हो गये, तब विश्वामित्रजीके बिचले पुत्र मधुच्छन्दाने अपनेसे छोटे पचासों भाइयोंके साथ कहा ‘पिताजी ! आप हमलोगोंको जो आज्ञा करते हैं, हम उसका पालन करनेके लिये तैयार हैं ॥ 34 ॥ यह कहकर मधुच्छन्दाने मन्त्रद्रष्टा शुनःशेपको बड़ा भाई स्वीकार कर लिया और कहा कि ‘हम सब तुम्हारे अनुयायी-छोटे भाई हैं।’ तब विश्वामित्रजीने अपने इन आज्ञाकारी पुत्रोंसे कहा ‘तुम लोगोंने मेरी बात मानकर मेरे सम्मानकी रक्षा की है, इसलिये तुमलोगों-जैसे सुपुत्र प्राप्त करके मैं धन्य हुआ। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हें भी सुपुत्र प्राप्त होंगे ॥ 35 ॥ मेरे प्यारे पुत्रो ! यह देवरात शुनःशेप भी तुम्हारे ही गोत्रका है। तुमलोग इसकी आज्ञामें रहना।’ परीक्षित् ! विश्वामित्रजीके अष्टक, हारीत, जय और क्रतुमान् आदि और भी पुत्र थे ।। 36 ।। इस प्रकार विश्वामित्रजीकी सन्तानोंसे कौशिकगोत्रमें कई भेद हो गये और देवरातको बड़ा भाई माननेके कारण उसका प्रवर ही दूसरा हो गया ।। 37 ।।