- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय १ भगवान् वराहके प्रति पृथ्वीका प्रश्न और भगवान्के उदरमें विश्वब्रह्माण्डका दर्शनकर भयभीत हुई पृथ्वीद्वारा उनकी स्तुति
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय २ विभिन्न सर्गोंका वर्णन तथा देवर्षि नारदको वेदमाता सावित्रीका अद्भुत कन्याके रूपमें दर्शन होनेसे आश्चर्यकी प्राप्ति
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ३ देवर्षि नारदद्वारा अपने पूर्वजन्मवर्णनके प्रसङ्गमें ब्रह्मपारस्तोत्रका कथन
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ४ महामुनि कपिल और जैगीषव्यद्वारा राजा अश्वशिराको भगवान् नारायणकी सर्वव्यापकताका प्रत्यक्ष दर्शन कराना
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ५ रैभ्य मुनि और राजा वसुका देवगुरु बृहस्पतिसे संवाद तथा राजा अश्वशिराद्वारा यज्ञमूर्ति भगवान् नारायणका स्तवन एवं उनके श्रीविग्रहमें लीन होना
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ६ पुण्डरीकाक्षपार - स्तोत्र, राजा वसुके जन्मान्तरका प्रसङ्ग तथा उनका भगवान् श्रीहरिमें लय होना
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ७ रैभ्य- सनत्कुमार-संवाद, गयामें पिण्डदानकी महिमा एवं रैभ्य मुनिका ऊर्ध्वलोक गमन
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ८ भगवान्का मत्स्यावतार तथा उनकी देवताओं द्वारा स्तुति
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ९ राजा दुर्जयके चरित्र - वर्णनके प्रसङ्गमें मुनिवर गौरमुखके आश्रमकी शोभाका वर्णन
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय १० राजा दुर्जयका चरित्र तथा नैमिषारण्यकी प्रसिद्धिका प्रसङ्ग
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ११ राजा सुप्रतीककृत भगवान्की स्तुति तथा श्रीविग्रहमें लीन होना
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय १२ पितरोंका परिचय, श्राद्धके समयका निरूपण तथा पितृगीत
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय १३ श्राद्ध-कल्प
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय १४ गौरमुखके द्वारा दस अवतारोंका स्तवन तथा उनका ब्रह्ममें लीन होना
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय १५ महातपाका उपाख्यान
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय १६ प्रतिपदा तिथि एवं अग्निकी महिमाका वर्णन
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय १७ अश्विनीकुमारोंकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग और उनके द्वारा भगवत्स्तुति
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय १८ गौरीकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग, द्वितीया तिथि एवं रुद्रद्वारा जलमें तपस्या, दक्षके यज्ञमें रुद्र और विष्णुका संघर्ष
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय १९ तृतीया तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें हिमालयकी पुत्रीरूपमें गौरीकी उत्पत्तिका वर्णन और भगवान् शंकरके साथ उनके विवाहकी कथा
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय २० गणेशजीकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग और चतुर्थी तिथिका माहात्म्य
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय २१ सर्पोकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग और पञ्चमी तिथिकी महिमा
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय २२ षष्ठी तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें स्वामी कार्तिकेयके जन्मकी कथा
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय २३ सप्तमी तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें आदित्योंकी उत्पत्तिकी कथा
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय २४ अष्टमी तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें मातृकाओं की उत्पत्तिकी कथा
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय २५ नवमी तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें दुर्गादेवीकी उत्पत्ति-कथा
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय २६ दशमी तिथिके माहात्म्यके प्रसङ्गमें दिशाओंकी उत्पत्तिकी कथा
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय २७ एकादशी तिथिके माहात्म्यके प्रसङ्गमें कुबेरकी उत्पत्ति -
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय २८ द्वादशी तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें उसके अधिष्ठाता श्रीभगवान् विष्णुकी उत्पत्ति - कथा
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय २९ त्रयोदशी तिथि एवं धर्मकी उत्पत्तिका वर्णन
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ३० चतुर्दशी तिथिके माहात्म्यके प्रसङ्गमें रुद्रकी उत्पत्तिका वर्णन
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ३१ अमावास्या तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें पितरोंकी उत्पत्तिका कथन
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ३२ पूर्णिमा तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें उसके स्वामी चन्द्रमाकी उत्पत्तिका वर्णन
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ३३ प्राचीन इतिहासका वर्णन
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ३४ आरुणि और व्याधका प्रसङ्ग, नारायण-मन्त्र- श्रवणसे बाघका शापसे उद्धार
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ३५ सत्यतपाका प्राचीन प्रसङ्ग
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ३६ मत्स्यद्वादशीव्रत का विधान तथा फल - कथन
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ३७ कूर्म - द्वादशीव्रत
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ३८ वराह- द्वादशीव्रत
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ३९ नृसिंह- द्वादशीव्रत
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ४० वामन द्वादशीव्रत
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ४१ जामदग्न्य- द्वादशीव्रत
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ४२ श्रीराम एवं श्रीकृष्ण - द्वादशीव्रत
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ४३ बुद्ध द्वादशीव्रत
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ४४ कल्कि - द्वादशीव्रत
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ४५ पद्मनाभ - द्वादशीव्रत
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ४६ धरणीव्रत
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ४७ अगस्त्य - गीता
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ४८ अगस्त्य - गीतामें पशुपालका चरित्र
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ४९ उत्तम पति प्राप्त करनेका साधनस्वरूप व्रत
- संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ५० शुभ-व्रत
श्री वाराह पुराण 1-50 अध्याय
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय १ भगवान् वराहके प्रति पृथ्वीका प्रश्न और भगवान्के उदरमें विश्वब्रह्माण्डका दर्शनकर भयभीत हुई पृथ्वीद्वारा उनकी स्तुति
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥
नमस्तस्मै वराहाय लीलयोद्धरते महीम् ।
खुरमध्यगतो यस्य मेरुः खणखणायते ॥
दंष्ट्राग्रेणोद्धता गौरुदधिपरिवृता पर्वतैर्निम्नगाभिः
साकं मृत्पिण्डवत्प्राग्वृहदुरुवपुषाऽनन्तरूपेण येन ।
सोऽयं कंसासुरारिर्मुरनरकदशास्यान्तकृत्सर्वसंस्थः
कृष्णो विष्णुः सुरेशो नुदतु मम रिपूनादिदेवो वराहः ॥
अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् वराह, नररत्न नरऋषि उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता भगवान् व्यासको नमस्कार करके आसुरी सम्पत्तियोंका नाश करके अन्तःकरणपर विजय प्राप्त करानेवाले वराहपुराणका पाठ करना चाहिये ।
जिनके लीलापूर्वक पृथ्वीका उद्धार करते समय उनके खुरोंमें फँसकर सुमेरु पर्वत खन- खन शब्द करता है, उन भगवान् वराहको नमस्कार है।
जिन अनन्तरूप भगवान् विष्णुने प्राचीन कालमें समुद्रोंसे घिरी, वन पर्वत एवं नदियोंसहित पृथ्वीको अत्यन्त विशाल शरीरके द्वारा अपनी दाढ़के अग्रभागपर मिट्टीके ढेलेकी भाँति उठा लिया था, वे कंस, मुर नरक तथा रावण आदि असुरोंका अन्त करनेवाले कृष्ण एवं विष्णुरूपसे सबमें व्याप्त देवदेवेश्वर आदिदेव भगवान् वराह मेरी सभी बाधाओं को नष्ट करें।
सूतजी कहते हैं – पूर्वकालमें जब सर्वव्यापी भगवान् नारायणने वराह रूप धारण करके अपनी शक्तिद्वारा एकार्णवकी अनन्त जलराशिमें निमग्न पृथ्वीका उद्धार किया, उस समय पृथ्वीने उनसे पूछा ।
पृथ्वीने कहा- प्रभो! आप प्रत्येक कल्पमें सृष्टिके आदिकालमें इसी प्रकार मेरा उद्धार करते रहते हैं; परंतु केशव ! आपके स्वरूप एवं सृष्टिके प्रारम्भके विषयमें मैं आजतक न जान सकी। जब वेद लुप्त हो गये थे, उस समय आप मत्स्यरूप धारण कर समुद्र में प्रविष्ट हो गये थे और वहाँसे वेदोंका उद्धार करके आपने ब्रह्माको दे दिया था।
मधुसूदन ! इसके अतिरिक्त जब देवता और दानव एकत्र होकर समुद्रका मन्थन करने लगे, तब आपने कच्छपावतार ग्रहण करके मन्दराचल पर्वतको धारण किया था। भगवन्! आप सम्पूर्ण जगत् के स्वामी हैं। जब मैं जलमें डूब रही थी, तब आपने रसातलसे, जहाँ सब ओर जल ही जल था, अपनी एक दाढ़पर रखकर मेरा उद्धार किया है। इसके अतिरिक्त जब वरदानके प्रभावसे हिरण्यकशिपुको असीम अभिमान हो गया था और वह पृथ्वीपर भाँति-भाँति के उपद्रव करने लगा था, उस समय वह आपके द्वारा ही मारा गया था। देवाधिदेव ! प्राचीन कालमें आपने ही जमदग्निनन्दन परशुरामके रूपमें अवतीर्ण होकर मुझे क्षत्रियरहित कर दिया था। भगवन्! आपने क्षत्रियकुलमें दाशरथि श्रीरामके रूपमें अवतीर्ण होकर क्षत्रियोचित पराक्रमसे रावणको नष्ट कर दिया था तथा वामनरूपसे आपने ही बलिको बाँधा था। प्रभो ! मुझे जलसे ऊपर उठाकर आप सृष्टिकी रचना किस प्रकार करते हैं तथा इसका क्या कारण है? आपकी इन लीलाओंके रहस्यको मैं कुछ भी नहीं जानती।
विभो ! मुझे एक बार जलके ऊपर स्थापित करनेके अनन्तर आप किस प्रकार सृष्टिके पालनकी व्यवस्था करते हैं? आपके निरन्तर सुलभ रहनेका कौन-सा उपाय है ? सृष्टिका किस प्रकार आरम्भ और अवसान होता है ? चारों युगोंकी गणनाका कौन-सा प्रकार है तथा युगोंका क्रम किस प्रकार चलता है ? महेश्वर ! उन युगोंमें किस युगकी प्रधानता है तथा किस युगमें आप कौन-सी लीला किया करते हैं? यज्ञमें सदा संलग्न रहनेवाले कितने राजा हो चुके हैं और उनमेंसे किन- किनको सिद्धि सुलभ हुई है ? प्रभो! आप मुझपर प्रसन्न हों और ये सब विषय संक्षेपसे बतानेकी कृपा करें।
पृथ्वीके ऐसा कहने पर शूकररूपधारी भगवान् आदिवराह हँस पड़े हँसते समय उनके उदरमें जगद्धात्री पृथ्वीको महर्षियोंसहित रुद्र, वसु, सिद्ध एवं देवताओंका समुदाय दीखने लगा। साथ ही उसने वहाँ अपने-अपने कर्तव्यपालनमें तत्पर सूर्य, चन्द्रमा, ग्रहों और सातों लोकोंको भी देखा। यह सब देखते ही भय एवं विस्मयसे पृथ्वीके सभी अङ्ग काँपने लगे। इस प्रकार पृथ्वीको भयभीत देखकर भगवान् वराहने अपना मुख बंद कर लिया। तब पृथ्वीने उनको चतुर्भुज रूप धारणकर महासागरमें शेषनागकी शय्यापर सोये देखा। उनकी नाभिसे कमल निकला हुआ था। फिर तो चार भुजाओंसे सुशोभित उन परमेश्वरको देखकर देवी पृथ्वीने हाथ जोड़ लिया और उनकी स्तुति करने लगी।
पृथ्वीने कहा – कमलनयन ! आपके श्रीअङ्गों में पीताम्बर फहरा रहा है, आप स्मरण करते ही भक्तोंके पापोंका हरण करनेवाले हैं, आपको बारम्बार नमस्कार है। देवताओंके द्वेषी दैत्योंका दलन करनेवाले आप परमात्माको नमस्कार है। जो शेषनागकी शय्यापर शयन करते हैं, जिनके वक्षःस्थलपर लक्ष्मी शोभा पाती हैं तथा भक्तोंको मुक्ति प्रदान करना ही जिनका स्वभाव है, ऐसे सम्पूर्ण देवताओंके ईश्वर आप प्रभुको बारम्बार नमस्कार है। प्रभो! आपके हाथमें खड्ग, चक्र और शार्ङ्ग धनुष शोभा पाते हैं, आपपर जन्म एवं मृत्युका प्रभाव नहीं पड़ता तथा आपके नाभिकमलपर ब्रह्माका प्राकट्य हुआ है, ऐसे आप प्रभुके लिये बारम्बार नमस्कार है। जिनके अधर और करकमल लाल विद्रुममणिके समान सुशोभित होते हैं, उन जगदीश्वरके लिये नमस्कार है। भगवन्! मैं निरुपाय नारी आपकी शरणमें आयी हूँ, मेरी रक्षा करनेकी कृपा करें। जनार्दन ! सघन नील अञ्जनके समान श्यामल आपके इस वराहविग्रहको देखकर मैं भयभीत हो गयी हूँ। इसके अतिरिक्त चराचर सम्पूर्ण जगत्को आपके शरीरमें देखकर भी मैं पुनः भयको प्राप्त हो रही हूँ। नाथ! अब आप मुझपर दया कीजिये। महाप्रभो ! मेरी रक्षा आपकी कृपापर निर्भर है।
भगवान् केशव मेरे पैरोंकी, नारायण मेरे कटिभागकी तथा माधव दोनों जङ्घाओंकी रक्षा करें। भगवान् गोविन्द गुह्याङ्गकी रक्षा करें। विष्णु मेरी नाभिकी तथा मधुसूदन उदरकी रक्षा करें। भगवान् वामन वक्षःस्थल एवं हृदयकी रक्षा करें। लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु मेरे कण्ठकी, हृषीकेश मुखकी, पद्मनाभ नेत्रोंकी तथा दामोदर मस्तककी रक्षा करें।
इस प्रकार भगवान् श्रीहरिके नामोंका अपने अङ्गोंमें न्यास करके पृथ्वीदेवी ‘भगवन् ! विष्णो! आपको नमस्कार है’ ऐसा कहकर मौन हो गयीं ।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय २ विभिन्न सर्गोंका वर्णन तथा देवर्षि नारदको वेदमाता सावित्रीका अद्भुत कन्याके रूपमें दर्शन होनेसे आश्चर्यकी प्राप्ति
सूतजी कहते हैं – सभी जीवधारियोंके शरीरोंमें आत्मारूपसे स्थित भगवान् श्रीहरि पृथ्वीकी भक्तिसे परम संतुष्ट हो गये। उन्होंने वराह रूप धारण करके पृथ्वीको अपनी योगमायाका दर्शन कराया और फिर उसी रूपमें स्थित रहकर बोले- ‘सुश्रोणि! तुम्हारा प्रश्न यद्यपि बहुत कठिन है एवं यह पुरातन इतिहासका विषय है, तथापि मैं सभी शास्त्रोंसे सम्मत इस विषयका प्रतिपादन करता हूँ। पृथ्वीदेवि ! साधारणतः सभी पुराणोंमें यह प्रसङ्ग आया है।’
भगवान् वराहने कहा—सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित – जहाँ ये पाँच लक्षण विद्यमान हों, उसे पुराण समझना चाहिये। वरानने! पुराणों में सर्गका स्थान प्रथम है। अतः मैं पहले उसीका वर्णन करता हूँ। इसके आरम्भसे ही देवताओं और राजाओंके चरित्रका ज्ञान होता है। परमात्मा सनातन हैं। उनका कभी किसी कालमें नाश नहीं होता। वे परमात्मा सृष्टिकी इच्छासे चार भागों में विभक्त हुए, ऐसा वेदज्ञ पुरुष जानते हैं। सृष्टिके आदिकालमें सर्वप्रथम परमात्मासे अहंतत्त्व, फिर आकाश आदि पञ्च महाभूत उत्पन्न हुए। उसके पश्चात् महत्तत्त्व प्रकट हुआ और फिर अणुरूपा प्रकृति और इसके बाद समष्टि बुद्धिका प्रादुर्भाव हुआ । सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणोंसे युक्त होकर वह बुद्धि पृथक् पृथक् तीन प्रकारके भेदोंमें विभक्त हो गयी। इस गुणत्रयमेंसे तमोगुणका संयोग प्राप्त करके महद्ब्रह्मका प्रादुर्भाव हुआ, इसको सभी तत्त्वज्ञ प्रधान अर्थात् प्रकृति कहते हैं। इस प्रकृतिसे भी क्षेत्रज्ञ अधिक महिमायुक्त है। उस परब्रह्मसे सत्त्वादि गुण, गुणोंसे आकाश आदि तन्मात्राएँ और फिर इन्द्रियोंका समुदाय बना। इस प्रकार जगत्की सृष्टि व्यवस्थित हुई। भद्रे ! पाँच महाभूतोंसे स्वयं मैंने स्थूल शरीरका निर्माण किया। देवि! पहले केवल शून्य था। फिर उसमें शब्दको उत्पत्ति हुई। शब्दसे आकाश हुआ। आकाशसे वायु, वायुसे तेज एवं तेजसे जलकी उत्पत्ति हुई। इसके बाद प्राणियोंको अपने ऊपर धारण करनेके लिये तुम्हारी रचना हुई।
पृथ्वी और जलका संयोग होनेपर बुबुदाकार कलल बना और वही अण्डेके आकारमें परिणत हो गया। उसके बढ़ जानेपर मेरा जलमय रूप दृष्टिगोचर हुआ। मेरे इस रूपको स्वयं मैंने ही बनाया था। इस प्रकार नारकी सृष्टि करके मैं उसीमें निवास करने लगा। इसीसे मेरा नाम ‘नारायण’ हुआ। वर्तमान कल्पके समान ही मैं प्रत्येक कल्पमें जलमें शयन करता हूँ और मेरे सोते समय सदैव मेरी नाभिसे इसी प्रकार कमल उत्पन्न होता है, जैसा कि आज तुम देख रही हो। देवि ! ऐसी स्थितिमें मेरे नाभिकमलपर चतुर्मुख ब्रह्मा उत्पन्न हुए। तब मैंने उनसे कहा- ‘महामते! तुम प्रजाकी रचना करो।’ ऐसा कहकर मैं अन्तर्धान हो गया और ब्रह्मा भी सृष्टिरचनाके चिन्तनमें लग गये । वसुन्धरे ! इस प्रकार चिन्तन करते हुए ब्रह्माको जब कोई मार्ग नहीं सूझ पड़ा, तो फिर उन अव्यक्तजन्माके मनमें क्रोध उत्पन्न हुआ। उनके इस क्रोधके परिणामस्वरूप एक बालकका प्रादुर्भाव हुआ। जब उस बालकने रोना प्रारम्भ किया, तब अव्यक्तरूप ब्रह्माने उसे रोनेसे मना किया। इसपर उस बालकने कहा- ‘मेरा नाम तो बता दीजिये।’ तब ब्रह्माने रोनेके कारण उसका नाम ‘रुद्र’ रख दिया। शुभे ! उस बालकसे भी ब्रह्माने कहा – ‘लोकोंकी रचना करो।’ परंतु इस कार्यमें अपनेको असमर्थ जानकर उस बालकने जलमें निमग्न होकर तप करनेका निश्चय किया।
उस रुद्र नामक बालकके तपस्याके लिये जलमें निमग्न हो जानेपर ब्रह्माने फिर दूसरे प्रजापतिको उत्पन्न किया। दाहिने अँगूठेसे उन्होंने प्रजापतिकी तथा बायें अंगूठेसे प्रजापतिके लिये पत्नीकी सृष्टि की। प्रजापतिने उस स्त्रीसे स्वायम्भुव मनुको उत्पन्न किया। इस प्रकार पूर्वकालमें ब्रह्माने स्वायम्भुव मनुके द्वारा प्रजाओंकी वृद्धि की ।
पृथ्वी बोली- देवेश्वर ! प्रथम सृष्टिका और विस्तारसे वर्णन करनेकी कृपा करें तथा नारायण ब्रह्मारूपसे कैसे विख्यात हुए? मुझे यह सब भी बतलानेकी कृपा करें।
वराह भगवान् कहते हैं— देवि पृथ्वि ! नारायणने ब्रह्मारूपसे जिस प्रकार प्रजाओंकी सृष्टि की, उसे मैं विस्तृत रूपसे कहता हूँ, सुनो। शुभे ! पिछले कल्पका अन्त हो जानेपर रात्रि व्याप्त हो गयी । भगवान् श्रीहरि उस समय सो गये । प्राणोंका नितान्त अभाव हो गया। फिर जगनेपर उनको यह जगत् शून्य दिखायी पड़ा। भगवान् नारायण दूसरोंके लिये अचिन्त्य हैं। वे पूर्वजोंके भी पूर्वज, ब्रह्मस्वरूप, अनादि और सबके स्रष्टा हैं। ब्रह्माका रूप धारण करनेवाले वे परम प्रभु जगत् की उत्पत्ति और प्रलयकर्ता हैं। उन नारायणके विषयमें यह श्लोक कहा जाता है—
आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः ।
अयनं तस्य ताः पूर्वं ततो नारायणः स्मृतः ॥
पुरुषोत्तम नरसे उत्पन्न होनेके कारण जलको ‘नार’ कहा जाता है, क्योंकि जल भी नार अर्थात् पुरुषोत्तम परमात्मासे उत्पन्न हुआ है। सृष्टिके पूर्व वह नार ही भगवान् हरिका अयन – निवास रहा, अतएव उनकी नारायण संज्ञा हो गयी। फिर पूर्व- कल्पोंकी भाँति उन श्रीहरिके मनमें सृष्टिरचनाका संकल्प उदित हुआ। तब उनसे बुद्धिशून्य तमोमयी सृष्टि उत्पन्न हुई। पहले उन परमात्मासे तम, मोह, महामोह, तामिस्र और अन्धतामिस्र – यह पाँच पर्वोवाली अविद्या उत्पन्न हुई। उनके फिर चिन्तन करनेपर तमोगुणप्रधान चेतनारहित जड़ (वृक्ष, गुल्म, लता, तृण और पर्वत) – रूप पाँच प्रकारकी सृष्टि उत्पन्न हुई। सृष्टि रचनाके रहस्यको जाननेवाले विद्वान् इसे मुख्य सर्ग कहते हैं। फिर उन परम पुरुषके चिन्तन करनेपर दूसरी पहलेकी अपेक्षा उत्कृष्ट सृष्टि रचनाका कार्य आरम्भ हो गया। यह सृष्टि वायुके समान वक्र गतिसे या तिरछी चलनेवाली हुई, जिसके फलस्वरूप इसका नाम तिर्यक्त्रोत पड़ गया। इस सर्गके प्राणियोंकी पशु आदिके नामसे प्रसिद्धि हुई। इस सर्गको भी अपनी सृष्टि रचनाके प्रयोजनमें असमर्थ जानकर ब्रह्माद्वारा पुनः चिन्तन किये जानेपर एक और दूसरा सर्ग उत्पन्न हुआ। यह ऊर्ध्वस्रोत नामक तीसरा धर्मपरायण सात्त्विक सर्ग हुआ, जो देवताओंके रूपमें ऊर्ध्व स्वर्गादि लोकोंमें रहने लगा। ये सभी देवता ऊर्ध्वगामी एवं स्त्री-पुरुष- संयोगके फलस्वरूप गर्भसे उत्पन्न हुए थे। इस प्रकार इन मुख्य सृष्टियोंकी रचना कर लेनेपर भी जब ब्रह्माने पुन: विचार किया, तो उनको ये भी परम पुरुषार्थ (मोक्ष) – के साधनमें असमर्थ दीखे तब फिर उन्होंने सृष्टिरचनाका चिन्तन करना प्रारम्भ किया और पृथ्वी आदि नीचेके लोकोंमें रहनेवाले अर्वाक्स्रोत सर्गकी रचना की। इस अर्वाक्स्रोतवाली सृष्टिमें उन्होंने जिनको बनाया, वे मनुष्य कहलाये और वे परम पुरुषार्थके साधनके योग्य थे। इनमें जो सत्त्वगुणविशिष्ट थे, वे प्रकाशयुक्त हुए। रज एवं तमोगुणकी जिनमें अधिकता थी, वे कर्मोंका बारंबार अनुष्ठान करनेवाले एवं दुःखयुक्त हुए। सुभगे ! इस प्रकार मैंने इन छः सर्गोका तुमसे वर्णन किया। इनमें पहला महत्तत्त्वसम्बन्धी सर्ग, दूसरा तन्मात्राओंसे सम्बन्धित भूतसर्ग और तीसरा वैकारिक सर्ग है, जो इन्द्रियोंसे सम्बन्ध रखता है। इस प्रकार समष्टि बुद्धिके संयोगसे ( प्रकृतिसे) उत्पन्न होनेके कारण यह प्राकृत सर्ग कहलाया। चौथा मुख्य सर्ग है। पर्वत – वृक्ष आदि स्थावर पदार्थ ही इस मुख्य सर्गके अन्तर्गत हैं। वक्र गतिवाले पशु-पक्षी तिर्यस्त्रोतमें उत्पन्न होनेसे तिर्यग्योनि या तैर्यक स्रोतके प्राणी कहे जाते हैं।
विधाताकी सभी सृष्टियोंमें उच्च स्थान रखनेवाली छठी सृष्टि देवताओंकी है। मानव उनकी सातवीं सृष्टिमें आता है। सत्त्वगुण और तमोगुणमिश्रित आठवाँ अनुग्रहसर्ग माना गया है; क्योंकि इसमें प्रजाओंपर अनुग्रह करनेके लिये ऋषियोंकी उत्पत्ति होती है। इनमें बादके पाँच वैकृत सर्ग और पहलेके तीन प्राकृत सर्गके नामसे जाने जाते हैं। नवाँ कौमार सर्ग प्राकृत- वैकृतमिश्रित है। प्रजापतिके ये नौ सर्ग कहे गये हैं । संसारकी सृष्टिमें मूल कारण ये ही हैं। इस प्रकार मैंने इन सर्गका वर्णन किया। अब तुम दूसरा कौन-सा प्रसङ्ग सुनना चाहती हो ?
पृथ्वी बोली- भगवन्! अव्यक्तजन्मा ब्रह्माद्वारा रचित यह नवधा सृष्टि किस प्रकार विस्तारको प्राप्त हुई ? अच्युत! आप मुझे यह बतानेकी कृपा करें।
भगवान् वराह कहते हैं – सर्वप्रथम ब्रह्माद्वारा रुद्र आदि देवताओंकी सृष्टि हुई। इसके बाद सनकादि कुमारों तथा मरीचि – प्रभृति मुनियोंकी रचना हुई। मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलह, क्रतु, महान् तेजस्वी पुलस्त्य, प्रचेता, भृगु, नारद एवं महातपस्वी वसिष्ठ – ये दस ब्रह्माजीके मानस पुत्र हुए। उन परमेष्ठीने सनकादिको निवृत्तिसंज्ञक धर्ममें तथा नारदजीके अतिरिक्त मरीचि आदि सभी ऋषियोंको प्रवृत्तिसंज्ञक धर्म में नियुक्त कर दिया। ये जो आदि प्रजापति हैं, इनका ब्रह्माके दाहिने अँगूठेसे प्राकट्य हुआ है (इसी कारण ये दक्ष कहलाते हैं) और इन्हींके वंशके अन्तर्गत यह सारा चराचर जगत् है । देवता, दानव, गन्धर्व, सरीसृप तथा पक्षिगण – ये सभी दक्षकी कन्याओंसे उत्पन्न हुए हैं। इन सबमें धर्मकी विशेषता थी ।
ब्रह्माके जो रुद्र नामक पुत्र हैं, उनका प्रादुर्भाव क्रोधसे हुआ था। जिस समय ब्रह्माकी भाँहें रोषके कारण तन गयी थीं, तब उनके ललाटसे इनका प्रादुर्भाव हुआ। उस समय इनका शरीर अर्धनारीश्वरके रूपमें था । ‘तुम स्वयं अपनेको अनेक भागों में बाँटो’ – इनसे यों कहकर ब्रह्मा अन्तर्धान हो गये। यह आज्ञा पाकर उन महाभागने स्त्री और पुरुष – इन दो भागों में अपनेको विभाजित कर दिया। फिर अपने पुरुष- रूपको उन्होंने ग्यारह भागों में विभक्त किया। तभीसे ब्रह्मासे प्रकट होनेवाले इन ग्यारह रुद्रोंकी प्रसिद्धि हुई। अनघे ! तुम्हारी जानकारीके लिये मैंने इस रुद्रसृष्टिका वर्णन कर दिया।
अब मैं संक्षेपसे युगमाहात्म्यका वर्णन करता हूँ । सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलि-ये चार युग हैं। इन चारों युगों में परम पराक्रमी तथा प्रचुर दक्षिणा देनेवाले जो राजा हो चुके हैं एवं जिन देवताओं और दानवोंने ख्याति प्राप्त की है तथा जिन धर्म-कर्मोंका उन्होंने अनुष्ठान किया है; वह मुझसे सुनो।
पूर्वकालकी बात है, प्रथम कल्पमें स्वायम्भुव मनु हुए। उनके दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनके लोकोत्तर कर्म मनुष्योंके लिये असम्भव ही थे। धर्ममें श्रद्धा रखनेवाले वे महाभाग प्रियव्रत और उत्तानपाद नामसे विख्यात हुए। प्रियव्रतमें तपोबल था और वे महान् यज्ञशाली थे। उन्होंने पुष्कल (अधिक) दक्षिणावाले अनेक महायज्ञोंद्वारा भगवान् श्रीहरिका यजन किया था। उन्होंने सातों द्वीपोंमें अपने भरत आदि पुत्रोंको अभिषिक्त कर दिया था और स्वयं वे महातपस्वी राजा वरदायिनी विशाला नगरी – बदरिकाश्रममें जाकर तपस्या करने लगे थे।
महाराज प्रियव्रत चक्रवर्ती नरेश थे। धर्मका अनुष्ठान करना उनका स्वाभाविक गुण था। अतएव उनके तपस्यामें लीन होनेपर उनसे मिलनेकी इच्छासे वहाँ स्वयं नारदजी पधारे। नारदमुनिका आगमन आकाश मार्गसे हुआ था। उनका तेज सूर्यके समान छिटक रहा था। उन्हें देखकर महाराज प्रियव्रतको बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने आसन, पाद्य एवं नैवेद्यसे नारदजीका भलीभाँति सत्कार किया। तत्पश्चात् उन दोनोंमें परस्पर वार्ता प्रारम्भ हो गयी । अन्तमें वार्तालापकी समाप्तिके समय राजा प्रियव्रतने ब्रह्मवादी नारदजीसे पूछा ।
राजा प्रियव्रत बोले- नारदजी! आप महान् पुरुष हैं। इस सत्ययुगमें आपने कोई अद्भुत घटना देखी या सुनी हो, तो उसे बतानेकी कृपा करें।
नारदजीने कहा- महाराज ! अवश्य ही मैंने एक आश्चर्यजनक बात देखी है, वह सुनो। कल मैं श्वेतद्वीप गया था, मुझे वहाँपर एक सरोवर दिखलायी पड़ा। उस सरोवरमें बहुत-से कमल खिले हुए थे। उसके तटपर विशाल नेत्रोंवाली एक कन्या खड़ी थी। उस कन्याको देखकर मैं अत्यन्त आश्चर्यमें पड़ गया। उसकी वाणी भी बड़ी मधुर थी। मैंने उससे पूछा- ‘भद्रे ! तुम कौन हो, इस स्थानपर कैसे निवास करती हो और यहाँ तुम्हारा क्या काम है?’ मेरे इस प्रकार पूछनेपर उस कुमारीने एकटक नेत्रोंसे मुझे देखा, पर न जाने क्या सोचकर वह चुप ही रही। उसके देखते ही मेरा सारा ज्ञान पता नहीं, कहाँ चला गया ? राजन् ! सम्पूर्ण वेद, समस्त शास्त्र, योगशास्त्र और वेदोंके शिक्षादि अङ्गोंकी मेरी सारी स्मृतियाँ उस किशोरीने मुझपर दृष्टिपात करके ही अपहृत कर लीं। तब मैं शोक और चिन्तासे ग्रस्त होकर महान् विस्मयमें पड़ गया । राजन् ! ऐसी स्थितिमें मैंने उस कुमारीकी शरण ग्रहण की। इतनेमें ही मुझे उस कुमारीके शरीरमें एक दिव्य पुरुष दृष्टिगोचर हुआ। फिर उस पुरुषके भी हृदयमें दूसरे और उस दूसरे पुरुषके हृदयमें तीसरेका दर्शन हुआ, जिसके नेत्र लाल थे और वह बारह सूर्योके समान तेजस्वी था। इस प्रकार उन तीनों पुरुषोंको मैंने वहाँ देखा, जो उस कन्याके शरीरमें स्थित थे। सुव्रत। फिर क्षणभरके बाद देखा, तो वहाँ केवल वह कन्या ही रह गयी थी एवं अन्य तीनों पुरुष अदृश्य हो गये थे। तत्पश्चात् मैंने उस दिव्य किशोरीसे पूछा- भद्रे ! मेरा सम्पूर्ण वेदज्ञान कैसे नष्ट हो गया ? इसका कारण बताओ।
कुमारी बोली- ‘मैं समस्त वेदोंकी माता हूँ। मेरा नाम सावित्री है। तुम मुझे नहीं जानते। इसीके फलस्वरूप मैंने तुमसे वेदोंको अपहृत कर लिया है।’ तपरूपी धनका संचय करनेवाले राजन् ! उस कुमारीके इस प्रकार कहनेपर मैंने विस्मय – विमुग्ध होकर पूछा—’ शोभने ! ये पुरुष कौन थे, मुझे यह बतानेकी कृपा करो।’
कुमारी बोली- मेरे शरीरमें विराजमान इन पुरुषोंकी जो तुम्हें झाँकी मिली है, इनमेंसे जिसके सभी अङ्ग परम सुन्दर हैं, इसका नाम ऋग्वेद है। यह स्वयं भगवान् नारायणका स्वरूप है। यह अग्निमय है। इसके सस्वर पाठ करनेसे समस्त पाप तुरंत भस्म हो जाते हैं। इसके हृदयमें यह जो दूसरा पुरुष तुम्हें दृष्टिगोचर हुआ है, जिसकी उसीसे उत्पत्ति हुई है, वह यजुर्वेदके रूपमें स्थित महाशक्तिशाली ब्रह्मा हैं। फिर उसके वक्षःस्थलमें भी प्रविष्ट, जो यह परम पवित्र और उज्ज्वल पुरुष दीख रहा है, इसका नाम सामवेद है। यह भगवान् शंकरका स्वरूप माना गया है। स्मरण करनेपर सूर्यके समान सम्पूर्ण पापोंको यह तत्काल नष्ट कर देता है। ब्रह्मन् ! तुमको दृष्टिगोचर हुए ये दिव्य पुरुष तीनों वेद ही हैं। नारद! तुम ब्रह्मपुत्रोंके शिरोमणि और सर्वज्ञानसम्पन्न हो ! यह सारा प्रसङ्ग मैंने तुम्हें संक्षेपसे बता दिया। अब तुम पुनः सभी वेदों और शास्त्रोंको तथा अपनी सर्वज्ञताको पुनः प्राप्त करो। इस वेद- सरोवरमें तुम स्नान करो। इसमें स्नान करनेसे तुम्हें अपने पूर्वजन्मकी स्मृति हो जायगी । राजन्! यह कहकर वह कन्या अन्तर्धान हो गयी। तब मैंने उस सरोवरमें स्नान किया और तदनन्तर आपसे मिलनेकी इच्छासे यहाँ चला आया ।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ३ देवर्षि नारदद्वारा अपने पूर्वजन्मवर्णनके प्रसङ्गमें ब्रह्मपारस्तोत्रका कथन
प्रियव्रत बोले- भगवन्! आपके द्वारा पूर्व जन्मोंमें जो-जो कार्य सम्पन्न हुए हों, उन सबको मुझे बतानेकी कृपा करें, क्योंकि देवर्षे! उन्हें सुननेकी मुझे बड़ी उत्कण्ठा है।
नारदजीने कहा- राजेन्द्र ! कुमारी सावित्रीकी बात सुनकर उस वेद-सरोवरमें मैंने ज्यों ही स्नान किया, उसी क्षण मुझे अपने हजारों जन्मोंकी बातें स्मरण हो आयीं । अब तुम मेरे पूर्वजन्मकी बात सुनो। अवन्ती नामकी एक पुरी है। मैं पूर्वजन्ममें उसमें निवास करनेवाला एक श्रेष्ठ ब्राह्मण था
उस जन्ममें मेरा नाम सारस्वत था और सभी वेद-वेदाङ्ग मुझे सम्यक् अभ्यस्त थे। राजन् ! यह दूसरे सत्ययुगकी बात है। उस समय मेरे पास बहुत-से सेवक थे, धन-धान्यकी अटूट राशि थी, भगवान् उत्तम बुद्धि भी दी थी। एक बार मैं एकान्तमें बैठकर विचार करने लगा कि संसार द्वन्द्वस्वरूप है; इसमें सुख-दुःख, हानि-लाभ आदिका चक्र सदा चलता रहता है। मुझे ऐसे संसारसे क्या लेना-देना है? अतः मुझे अब अपनी सारी सांसारिक धन-सम्पदा पुत्रोंको सौंपकर तपस्या करनेके लिये तुरंत सरस्वती नदीके तटपर चल देना चाहिये। यह विचार करनेके पश्चात् क्या यह तत्काल करना उचित होगा, इस जिज्ञासाको लेकर मैंने भगवान्से प्रार्थना की। फिर भगवान्के आज्ञानुसार मैंने श्राद्धद्वारा पितरोंको, यज्ञद्वारा देवताओंको तथा दानद्वारा अन्य लोगोंको भी संतुष्ट किया। राजन् ! तत्पश्चात् सभी ओरसे निश्चिन्त होकर मैं सारस्वत नामक सरोवरपर, जो इस समय पुष्करतीर्थके नामसे विख्यात है, चला गया। वहाँ जाकर परम मङ्गलमय पुराणपुरुष भगवान् विष्णुके नारायणमन्त्र (ॐ नमो नारायणाय ) – का जप एवं ब्रह्मपार नामक उत्तम स्तोत्रका पाठ करता हुआ मैं भक्तिपूर्वक आराधना करने लगा। तब परम प्रसन्न होकर स्वयं भगवान् श्रीहरि मेरे सम्मुख प्रत्यक्ष रूपसे प्रकट हो गये।
प्रियव्रत बोले- महाभाग देवर्षे ! ब्रह्मपारस्तोत्र कैसा है ? इसे मैं सुनना चाहता हूँ। आप मुझपर सदा प्रसन्न रहते हैं, अतएव कृपापूर्वक मुझे इसका उपदेश करें।
नारदजीने कहा- जो परात्पर, अमृतस्वरूप, सनातन, अपार शक्तिशाली एवं जगत् के परम आश्रय हैं, उन पुराणपुरुष भगवान् महाविष्णुको मैं निरन्तर नमस्कार करता हूँ। जो पुरातन, अतुलनीय, श्रेष्ठसे भी श्रेष्ठ एवं प्रचण्ड तेजस्वी हैं, जो गहन – गम्भीर बुद्धि-विचार करनेवालोंमें प्रधान तथा जगत् के शासक हैं, उन श्रीहरिको मैं प्रणाम करता हूँ। जो परसे भी पर हैं, जिनसे परे दूसरा कोई है ही नहीं, जो दूसरोंको आश्रय देनेवाले एवं महान् पुरुष हैं, जिनका धाम विशुद्ध एवं विशाल है, ऐसे पुराणपुरुष भगवान् नारायणकी परम शुद्धभावसे मैं स्तुति करता हूँ। सृष्टिके पूर्व जब केवल शून्यमात्र था, उस समय पुरुषरूपसे जिन्होंने प्रकृतिकी रचना की, वे भक्तजनोंमें प्रसिद्ध, शुद्धस्वरूप पुराणपुरुष भगवान् नारायण मेरे लिये शरण हों। जो परात्पर, अपारस्वरूप, पुरातन, नीतिज्ञोंमें श्रेष्ठ, क्षमाशील, शान्तिके आगार तथा जगत् के शासक हैं, उन कल्याणस्वरूप भगवान् नारायणकी मैं सदा स्तुति करता हूँ । जिनके हजारों मस्तक हैं, असंख्य चरण और भुजाएँ हैं, चन्द्रमा और सूर्य जिनके नेत्र हैं, क्षीरसागरमें जो शयन करते हैं, उन अविनाशी सत्यस्वरूप परम प्रभु भगवान् नारायणकी मैं स्तुति करता हूँ। जो वेदत्रयीके अवलम्बनद्वारा जाने जाते हैं, जो परब्रह्मरूप एक मूर्तिसे द्वादश आदित्यरूप बारह मूर्तियोंमें अभिव्यक्त होते हैं, जो ब्रह्मा, विष्णु और महेशरूप तीन परमोज्ज्वल मूर्तियोंमें स्थित हैं, जो अग्निरूपमें दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य और आहवनीय – इन तीन भेदोंमें विभक्त होते हैं, जो स्थूल सूक्ष्म तथा कारण- इन तीन तत्त्वोंके अवलम्बनद्वारा लक्षित होते हैं, जो भूत, वर्तमान और भविष्यरूपसे त्रिकालात्मक हैं तथा सूर्य, चन्द्रमा एवं अग्निरूप तीन नेत्रोंसे युक्त हैं, उन अप्रमेयस्वरूप भगवान् नारायणको मैं प्रणाम करता हूँ। जो अपने श्रीविग्रहको सत्ययुगमें शुक्ल, त्रेतामें रक्त, द्वापरमें पीतवर्णसे अनुरञ्जित और कलियुगमें कृष्णवर्णमें प्रकाशित करते हैं, उन पुराणपुरुष श्रीहरिको मैं नमस्कार करता हूँ। जिन्होंने अपने मुखसे ब्राह्मणोंका, भुजाओंसे क्षत्रियोंका, दोनों जङ्घाओंसे वैश्योंका एवं चरणोंके अग्रभागसे शूद्रोंका सृजन किया है, उन विश्वरूप पुराणपुरुष भगवान् नारायणको में प्रणाम करता हूँ। जो परेसे भी परे, सर्वशास्त्रपारंगत, अप्रमेय और योद्धाओंमें श्रेष्ठ हैं, साधुओंके परित्राणरूप कार्यके निमित्त जिन्होंने श्रीकृष्ण अवतार धारण किया है तथा जिनके हाथ ढाल, तलवार, गदा और अमृतमय कमलसे सुशोभित हैं, उन अप्रमेय स्वरूप भगवान् नारायणको मैं प्रणाम करता हूँ।
राजन् ! इस प्रकार स्तुति करनेपर देवाधिदेव भगवान् नारायण प्रसन्न होकर मेघके समान गम्भीर वाणीमें मुझसे बोले – ‘ वर माँगो ।’ तब मैंने उन प्रभुके शरीरमें लय होनेकी इच्छा व्यक्त की। मेरी बात सुनकर उन सनातन देवेश्वरने मुझसे कहा – ‘ब्रह्मन् ! अभी तुम शरीर धारण करो, क्योंकि इसकी आवश्यकता है। तुमने अभी जो तपस्या प्रारम्भ करनेके पूर्व पितरोंको नार (जल) दान किया है, अतः अबसे तुम्हारा नाम नारद होगा। *
ऐसा कहकर भगवान् नारायण तुरंत ही मेरी आँखोंसे ओझल हो गये। समय आनेपर मैंने वह शरीर छोड़ दिया। तपस्याके प्रभावसे मृत्युके पश्चात् मुझे ब्रह्मलोककी प्राप्ति हुई। राजन्! तदनन्तर ब्रह्माजीके प्रथम दिवसका आरम्भ होनेपर मेरी भी उनके दस मानस पुत्रोंमें उत्पत्ति हुई । सम्पूर्ण देवताओंकी भी सृष्टिका वह प्रथम दिन है – इसमें कोई संशय नहीं । इसी प्रकार भगवद्धर्मानुसार सारे जगत्की सृष्टि होती है।
राजन् ! यह मेरे प्राकृत जन्मका प्रसङ्ग है, जिसके विषयमें तुमने प्रश्न किया था। राजेन्द्र ! भगवान् नारायणका ध्यान करनेसे ही मुझे लोकगुरुका पद प्राप्त हुआ, अतएव तुम भी उन श्रीहरिके परायण हो जाओ।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ४ महामुनि कपिल और जैगीषव्यद्वारा राजा अश्वशिराको भगवान् नारायणकी सर्वव्यापकताका प्रत्यक्ष दर्शन कराना
पृथ्वी बोली- भगवन्! जो सनातन, देवाधिदेव परमात्मा नारायण हैं, वे भगवान्के परिपूर्णतम स्वरूप हैं या नहीं ? आप इसे स्पष्ट बतानेकी कृपा करें।
भगवान् वराह कहते हैं- समस्त प्राणियोंको आश्रय देनेवाली पृथ्वि ! मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि – ये दस उन्हीं सनातन परमात्माके स्वरूप कहे जाते हैं। शोभने ! उनके साक्षात् दर्शन पानेकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषोंके लिये ये सोपानरूप हैं। उनका जो परिपूर्णतम स्वरूप है, उसे देखनेमें तो देवता भी असमर्थ हैं। वे मेरे एवं पूर्वोक्त अन्य अवतारोंके रूपका दर्शन करके ही अपनी मनः कामना पूर्ण करते हैं। ब्रह्मा उन्हींकी रजोगुण और तमोगुण- मिश्रित मूर्ति हैं, उनके माध्यमसे ही श्रीहरि संसारकी सृष्टि एवं संचालन करते हैं।
धरणि! तुम उन्हीं भगवान् नारायणकी आदि मूर्ति हो, उनकी दूसरी मूर्ति जल और तीसरी मूर्ति तेज है। इसी प्रकार वायुको चौथी और आकाशको पाँचवीं मूर्ति कहते हैं। ये सभी उन्हीं परब्रह्म परमात्माकी मूर्तियाँ हैं। इनके अतिरिक्त क्षेत्रज्ञ, बुद्धि एवं अहंकार – ये उनकी तीन मूर्तियाँ और हैं। इस प्रकार उनकी आठ मूर्तियाँ हैं। देवि ! यह सारा जगत् भगवान् नारायणसे ओत-प्रोत है। मैंने तुम्हें ये सभी बातें बता दीं। अब तुम दूसरा कौन सा प्रसङ्ग सुनना चाहती हो ?
पृथ्वी बोली- भगवन् ! नारदजीके द्वारा भगवान् श्रीहरिके परायण होनेके लिये कहनेपर राजा प्रियव्रत किस कार्यमें प्रवृत्त हुए? मुझे यह बतानेकी कृपा करें।
भगवान् वराह कहते हैं- पृथ्वि। मुनिवर नारदकी विस्मयजनक बात सुनकर राजा प्रियव्रतको महान् आश्चर्य हुआ। उन्होंने अपने राज्यको सात भागोंमें बाँटकर पुत्रोंको सौंप दिया और स्वयं तपस्यामें संलग्न हो गये। परब्रह्म परमात्माके ‘नारायण’ नामका जप करते-करते उनकी मनोवृत्ति भगवान् नारायणमें स्थिर हो गयी; अतः उन्हें देहत्यागके पश्चात् भगवान् के परमधामकी प्राप्ति हुई । सुन्दरि ! अब ब्रह्माजीसे सम्बन्ध रखनेवाला एक दूसरा प्रसङ्ग है, उसे सुनो।
प्राचीन कालमें अश्वशिरा नामके एक परम धार्मिक राजा थे। उन्होंने अश्वमेध यज्ञके द्वारा भगवान् नारायणका यजन किया था, जिसमें उन्होंने बहुत बड़ी दक्षिणा बाँटी थी। यज्ञकी समाप्तिपर उन राजाने अवभृथ स्नान किया। इसके पश्चात् वे ब्राह्मणोंसे घिरे हुए बैठे थे, उसी समय भगवान् कपिलदेव वहाँ पधारे। उनके साथ योगिराज जैगीषव्य भी थे। अब महाराज अश्वशिरा बड़ी शीघ्रतासे उठे, अत्यन्त हर्षके साथ उनका सत्कार किया और तत्काल दोनों मुनियोंके विधिवत् स्वागतकी व्यवस्था की। जब दोनों मुनिश्रेष्ठ भलीभाँति पूजित होकर आसनपर विराजमान हो गये, तब महापराक्रमी राजा अश्वशिराने उनकी ओर देखकर पूछा- ‘आप दोनों अत्यन्त तीक्ष्ण बुद्धिवाले और योगके आचार्य हैं। आपने कृपापूर्वक स्वयं अपनी इच्छासे यहाँ आकर मुझे दर्शन दिया है। आप मनुष्यों में श्रेष्ठ ब्राह्मणदेवता हैं। आप दोनों मेरे इस संशयका समाधान करें कि भगवान् नारायणकी आराधना मैं कैसे करूँ ?’
दोनों ऋषियोंने कहा- राजन् ! तुम नारायण किसे कहते हो ? महाराज! हम दो नारायण तो तुम्हारे सामने प्रत्यक्षरूपसे उपस्थित हैं।
राजा अश्वशिरा बोले- आप दोनों महानुभाव ब्राह्मण हैं, आपको सिद्धि सुलभ हो चुकी है। तपस्यासे आपके पाप भी नष्ट हो गये- यह मैं मानता हूँ, किंतु ‘हम दोनों नारायण हैं,’ ऐसा आपलोग कैसे कह रहे हैं? भगवान् नारायण तो देवताओंके भी देवता हैं। शङ्ख, चक्र और गदासे उनकी भुजाएँ अलङ्कृत रहती हैं। वे पीताम्बर धारण करते हैं। गरुड़ उनका वाहन है भला, संसारमें उनकी समानता कौन कर सकता है ?
(भगवान् वराह कहते हैं— ) कपिल और जैगीषव्य- ये दोनों ऋषि कठोर व्रतका पालन करनेवाले थे। वे राजा अश्वशिराकी बात सुनकर हँस पड़े और बोले- ‘राजन् ! तुम विष्णुका दर्शन करो।’ इस प्रकार कहकर कपिलजी उसी क्षण स्वयं विष्णु बन गये और जैगीषव्यने गरुड़का रूप धारण कर लिया। अब तो उस समय राजाओंके समूहमें हाहाकार मच गया। गरुड़वाहन सनातन भगवान् नारायणको देखकर महान् यशस्वी राजा अश्वशिरा हाथ जोड़कर कहने लगे – ‘विप्रवरो! आप दोनों शान्त हों। भगवान् विष्णु ऐसे नहीं हैं। जिनकी नाभिसे उत्पन्न कमलपर प्रकट होकर ब्रह्मा अपने रूपसे विराजते हैं, वह रूप परमप्रभु भगवान् विष्णुका है।’
कपिल एवं जैगीषव्य – ये दोनों मुनियोंमें श्रेष्ठ थे। राजा अश्वशिराकी उक्त बात सुनकर उन्होंने योगमायाका विस्तार कर दिया। अब कपिलदेव पद्मनाभ विष्णुके तथा जैगीषव्य प्रजापति ब्रह्माके रूपमें परिणत हो गये। कमलके ऊपर ब्रह्माजी सुशोभित होने लगे और उनके श्रीविग्रहसे कालाग्निके तुल्य लाल नेत्रोंवाले परम तेजस्वी रुद्रका प्राकट्य हो गया । राजाने सोचा- ‘ हो – न हो यह इन योगीश्वरोंकी ही माया है; क्योंकि जगदीश्वर इस प्रकार सहज ही दृष्टिगोचर नहीं हो सकते, वे सर्वशक्तिसम्पन्न श्रीहरि तो सदा सर्वत्र विराजते हैं। भूत-प्राणियोंको धारण करनेवाली पृथ्वि ! राजा अश्वशिरा अपनी सभामें इस प्रकार कह ही रहे थे कि उनकी बात समाप्त होते न होते खटमल, मच्छर, जूँ, भौरे, पक्षी, सर्प, घोड़े, गाय, हाथी, बाघ, सिंह, श्रृंगाल, हरिण एवं इनके अतिरिक्त और भी करोड़ों ग्राम्य एवं वन्य पशु राजभवनमें चारों ओर दिखायी पड़ने लगे। उस समय झुंड के झुंड प्राणियोंके समूहको देखकर राजाके आश्चर्यकी सीमा न रही। राजा अश्वशिरा यह विचार करने लगे कि अब मुझे क्या करना चाहिये। इतनेमें ही सारी बात उनकी समझमें आ गयी। अहो ! यह तो परम बुद्धिमान् कपिल और जैगीषव्य मुनिका ही माहात्म्य है। फिर तो राजा अश्वशिराने हाथ जोड़कर उन ऋषियोंसे भक्तिपूर्वक पूछा— ‘विप्रवरो ! यह क्या प्रपञ्च है ?’
कपिल और जैगीषव्यने कहा- राजन्! हम दोनोंसे तुम्हारा प्रश्न था कि भगवान् श्रीहरिकी आराधना एवं उनको प्राप्त करनेका क्या विधान है ? महाराज ! इसीलिये हम लोगोंने तुमको यह दृश्य दिखलाया है। राजन्! सर्वज्ञ भगवान् श्रीहरिकी यह त्रिगुणात्मिका सृष्टि है, जो तुम्हें दृष्टिगोचर हुई है। भगवान् नारायण एक ही हैं। वे अपनी इच्छाके अनुसार अनेक रूप धारण करते रहते हैं। किसी कालमें जब वे अपनी अनन्त तेजोराशिको आत्मसात् करके सौम्यरूपमें सुशोभित होते हैं, तभी मनुष्योंको उनकी झाँकी प्राप्त होती है। अतएव उन नारायणकी अव्यक्त रूपमें आराधना सद्यः फलवती नहीं हो पाती। * वे जगत्प्रभु परमात्मा ही सबके शरीरमें विराजमान हैं। भक्तिका उदय होनेपर अपने शरीरमें ही उन परमात्माका साक्षात्कार हो सकता है। वे परमात्मा किसी स्थानविशेषमें ही रहते हों, ऐसी बात नहीं है; वे तो सर्वव्यापक हैं। महाराज ! इसी निमित्त हम दोनोंके प्रभावसे तुम्हारे सामने यह दृश्य उपस्थित हुआ है। इसका प्रयोजन यह है कि भगवान्की सर्वव्यापकतापर तुम्हारी आस्था दृढ़ हो जाय। राजन् ! इसी प्रकार तुम्हारे इन मन्त्रियों एवं सेवकोंके सभीके शरीरमें भगवान् श्रीहरि विराजमान हैं। राजन् ! हमने जो देवता एवं कीट- पशुओंके समूह तुमको अभी दिखलाये, वे सब- के सब विष्णुके ही रूप हैं। केवल अपनी भावनाको दृढ़ करनेकी आवश्यकता है; क्योंकि भगवान् श्रीहरि तो सबमें व्याप्त हैं ही। उनके समान दूसरा कोई भी नहीं है, ऐसी भावनासे उन श्रीहरिकी सेवा करनी चाहिये। राजन् ! इस. प्रकार मैंने सच्चे ज्ञानका तुम्हारे सामने वर्णन कर दिया। अब तुम अपनी परिपूर्ण भावनासे भगवान् नारायणका, जो सबके परम गुरु हैं, स्मरण करो । धूप-दीप आदि पूजाकी सामग्रियोंसे ब्राह्मणोंको तथा तर्पणद्वारा पितरोंको तृप्त करो। इस प्रकार ध्यानमें चित्तको समाहित करनेसे भगवान् नारायण शीघ्र ही सुलभ हो जाते हैं।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ५ रैभ्य मुनि और राजा वसुका देवगुरु बृहस्पतिसे संवाद तथा राजा अश्वशिराद्वारा यज्ञमूर्ति भगवान् नारायणका स्तवन एवं उनके श्रीविग्रहमें लीन होना
राजा अश्वशिरा बोले- ‘मुनिवरो! मेरे मनमें एक संदेह है, उसे दूर करनेमें आप दोनों पूर्ण समर्थ हैं। उसके फलस्वरूप मुझे मुक्ति सुलभ हो सकती है।’ उनके इस प्रकार कहनेपर योगीश्वर, परम धर्मात्मा कपिलमुनिने यज्ञ करनेवालोंमें श्रेष्ठ उस राजासे कहा।
कपिलजीने कहा- राजन् ! तुम परम धार्मिक हो। तुम्हारे मनमें क्या संदेह है ? बताओ, उसे सुनकर दूर कर दूँगा ।
राजा अश्वशिरा बोले- मुने! मोक्ष पानेका अधिकारी कर्मशील पुरुष है या ज्ञानी ? – मेरे मनमें यह संदेह उत्पन्न हो गया है। यदि मुझपर आपकी दया हो तो इसे दूर करनेकी कृपा करें।
कपिलजीने कहा- महाराज ! प्राचीन कालकी बात है, यही प्रश्न ब्रह्माजीके पुत्र रैभ्य तथा राजा वसुने बृहस्पतिसे पूछा था । पूर्वकालमें चाक्षुष मन्वन्तरमें एक अत्यन्त प्रसिद्ध राजा थे, जिनका नाम था वसु । वे बड़े विद्वान् और विख्यात दानी थे। ब्रह्माजीके वंशमें उनका जन्म हुआ था। राजन् ! वे महाराज वसु ब्रह्माजीका दर्शन करनेके विचारसे ब्रह्मलोकको चल पड़े। मार्गमें ही चित्ररथ नामक विद्याधरसे उनकी भेंट हो गयी। राजाने प्रेमपूर्वक चित्ररथसे पूछा – ‘प्रभो ! ब्रह्माजीका दर्शन किस समय हो सकता है?” चित्ररथने कहा- ‘ब्रह्माजीके भवनमें इस समय देवताओंकी सभा हो रही है।’ ऐसा सुनकर वे नरेश ब्रह्मभवनके द्वारपर ठहर गये। इतनेमें महान् तपस्वी रैभ्य भी वहीं आ गये । उनको देखकर राजा वसुके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई। उनका रोम-रोम आनन्दसे खिल उठा। तदनन्तर रैभ्य मुनिकी पूजा करके राजाने उनसे पूछा – ‘मुने! आप कहाँ चल पड़े?”
रैभ्य मुनि बोले- ‘ महाराज! मैं देवगुरु बृहस्पतिके पाससे आ रहा हूँ। किसी कार्यके विषयमें पूछनेके लिये मैं उनके पास चला गया था।’ रैभ्य मुनि इस प्रकार बोल ही रहे थे कि इतनेमें ब्रह्माजीकी वह विशाल सभा विसर्जित हो गयी। सभी देवता अपने-अपने स्थानको चले गये। अतः अब बृहस्पतिजी भी वहीं आ गये। राजा वसुने उनका स्वागत-सत्कार किया। तत्पश्चात् तीनों ही एक साथ बृहस्पतिके भवनपर गये। राजेन्द्र ! वहाँ रैभ्य, बृहस्पति एवं राजा वसु – तीनों बैठ गये। सबके बैठ जानेपर देवताओंके गुरु बृहस्पतिने रैभ्य मुनिसे कहा – ‘महाभाग ! तुम्हें तो स्वयं वेद एवं वेदाङ्गोंका पूर्ण ज्ञान है। कहो, तुम्हारा मैं कौन-सा कार्य करूँ ?’
रैभ्य मुनि बोले- बृहस्पतिजी ! कर्मशील और ज्ञानसम्पन्न – इन दोनोंमें कौन मोक्ष पानेका अधिकारी है ? इस विषयमें मुझे संदेह उत्पन्न हो गया है। प्रभो! आप इसका निराकरण करनेकी कृपा करें।
बृहस्पतिजीने कहा- मुने! पुरुष शुभ या अशुभ जो कुछ भी कर्म करे, वह सब का सब भगवान् नारायणको समर्पण कर देनेसे कर्मफलोंसे लिप्त नहीं हो सकता। द्विजवर! इस विषयमें एक ब्राह्मण और व्याधका संवाद सुना जाता है। अत्रिके वंशमें उत्पन्न एक ब्राह्मण थे। उनकी वेदाभ्यासमें बड़ी रुचि थी। वे प्रातः, मध्याह्न तथा सायं- त्रिकाल स्नान करते हुए तपस्या करते थे। संयमन नामसे उनकी प्रसिद्धि थी। एक दिनकी बात है – वे ब्राह्मण धर्मारण्यक्षेत्रमें परम पुण्यमयी गङ्गानदीके तटपर स्नान करनेके उद्देश्यसे गये । वहाँ मुनिने निष्ठुरक नामके व्याधको देखकर उसे
मना करते हुए कहा—’भद्र ! तुम निन्द्य कर्म मत करो।’ तब मुनिपर दृष्टि डालकर वह व्याध मुस्कुराते हुए बोला- ‘द्विजवर! सभी जीवधारियोंमें आत्मारूपसे स्थित होकर स्वयं भगवान् ही इन जीवोंके वेशमें क्रीडा कर रहे हैं। जैसे माया जाननेवाला व्यक्ति मन्त्रोंका प्रयोग करके माया फैला देता है, ठीक वैसे ही यह प्रभुकी माया है, इसमें कोई संदेह नहीं करना चाहिये। विप्रवर! मोक्षकी इच्छा करनेवाले पुरुषोंको चाहिये कि वे कभी भी अपने मनमें अहंभावको न टिकने दें। यह सारा संसार अपनी जीवनयात्राके प्रयत्नमें संलग्न रहता है। हाँ, इस कार्यके विषयमें ‘अहम्’ अर्थात् ‘मैं कर्ता हूँ’—इस भावका होना उचित नहीं है। जब विप्रवर संयमनने निष्ठुरक व्याधकी बात सुनी तो वे अत्यन्त आश्चर्ययुक्त होकर उसके प्रति यह वचन बोले- ‘भद्र! तुम ऐसी युक्तिसंगत बात कैसे कह रहे हो ?’
ब्राह्मणकी बात सुनकर धर्मके मर्मज्ञ उस व्याधने पुनः अपनी बात प्रारम्भ की। उसने सर्वप्रथम लोहेका एक जाल बनाया। उसे फैलाकर उसके नीचे सूखी लकड़ियाँ डाल दीं। तदनन्तर ब्राह्मणके हाथमें अग्नि देकर उसने कहा- ‘आर्य इस लकड़ीके ढेरमें आग लगा दीजिये।’
तत्पश्चात् ब्राह्मणने मुखसे फूँककर अग्नि प्रज्वलित कर दी और शान्त होकर बैठ गये। जब आग धधकने लगी, तो वह लोहेका जाल भी गरम हो उठा। साथ ही उसमें जो गायकी आँखके समान छिद्र थे, उनमेंसे निकलती हुई ज्वाला इस प्रकार शोभा पाने लगी, मानो हंसके बच्चे श्रेणीबद्ध होकर निकल रहे हों। उस जलती हुई अग्निसे हजारों ज्वालाएँ अलग-अलग फूट पड़ीं। आगके एक जगह रहनेपर भी उस लौहमय जालके छिद्रोंसे ऐसा दृश्य प्रतीत होने लगा। तब व्याधने उन ब्राह्मणसे कहा – ‘मुनिवर ! आप इनमेंसे कोई भी एक ज्वाला उठा लें, जिससे मैं शेष ज्वालाओंको बुझाकर शान्त कर दूँ । ‘
इस प्रकार कहकर उस व्याधने जलती हुई आगपर जलसे भरा एक घड़ा तुरंत फेंका। फिर तो वह आग एकाएक शान्त हो गयी। सारा दृश्य पूर्ववत् हो गया। अब व्याधने तपस्वी संयमनसे कहा- ‘भगवन्! आपने जो जलती आग ले रखी है, वह उसी अग्निपुञ्जसे प्राप्त हुई है। उसे मुझे दे दें, जिसके सहारे मैं अपनी जीवनयात्रा सम्पन्न कर सकूँ।’ व्याधके इस प्रकार कहनेपर जब ब्राह्मणने लोहेके जालकी ओर दृष्टि डाली तो वहाँ अग्नि थी ही नहीं। वह तो पुञ्जीभूत अग्निके समाप्त होते ही शान्त हो गयी थी। तब कठोर व्रतका पालन करनेवाले संयमनकी आँखें मुँद गयीं और वे मौन होकर बैठ गये। ऐसी स्थितिमें व्याधने उनसे कहा- ‘विप्रवर! अभी थोड़ी देर पहले आग धधक रही थी, ज्वालाओंका ओर- छोर नहीं था; किंतु मूलके शान्त होते ही सब- की सब ज्वालाएँ शान्त हो गयीं। ठीक यही बात इस संसारकी भी है।’
‘परमात्मा ही प्रकृतिका संयोग प्राप्त करके समस्त भूत-प्राणियोंके आश्रयरूपमें विराजमान होते हैं। यह जगत् तो प्रकृतिमें विक्षोभ – विकार उत्पन्न होनेसे प्रादुर्भूत होता है, अतएव संसारकी यही स्थिति है।’
‘यदि जीवात्मा शरीर धारण करनेपर अपने स्वाभाविक धर्मका अनुष्ठान करता हुआ हृदयमें सदा परमात्मासे संयुक्त रहता है तो वह किसी प्रकारका कर्म करता हुआ भी विषादको प्राप्त नहीं होता।’
बृहस्पतिजीने कहा- राजेन्द्र ! निष्ठुरक व्याध और संयमन ब्राह्मणकी उपर्युक्त बातें समाप्त होते ही उस व्याधके ऊपर आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा होने लगी। साथ ही द्विजश्रेष्ठ संयमनने देखा कि कामचारी अनेक दिव्य विमान वहाँ पहुँच गये हैं। वे सभी विमान बड़े विशाल एवं भाँति-भाँतिके रत्नोंसे सुसज्जित थे, जो निष्ठुरकको लेने आये थे। तत्पश्चात् विप्रवर संयमनने उन सभी विमानोंमें निष्ठुरक व्याधको मनोनुकूल उत्तम रूप धारण करके बैठे हुए देखा। क्योंकि निष्ठुरक व्याध अद्वैत ब्रह्मका उपासक था, उसे योगकी सिद्धि सुलभ थी, अतएव उसने अपने अनेक शरीर बना लिये। यह दृश्य देखकर संयमनके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई और वे अपने स्थानको चले गये । अतः द्विजवर रैभ्य एवं राजा वसु ! अपने वर्णाश्रम धर्मके अनुसार कर्म करनेवाला कोई भी व्यक्ति निश्चय ही ज्ञान प्राप्त करके मुक्तिका अधिकारी हो सकता है।
राजन् ! यह प्रसङ्ग सुनकर रैभ्य और वसुके मनमें जो संदेह था, वह समाप्त हो गया। अतः वे दोनों बृहस्पतिजीके लोकसे अपने-अपने आश्रमोंको चले गये। अतएव राजेन्द्र ! तुम भी परमप्रभु भगवान् नारायणकी उपासना करते हुए अभेदबुद्धिसे उन परमप्रभु परमेश्वरकी अपने शरीरमें स्थितिका अनुभव करते रहो।
(भगवान् वराह कहते हैं— ) पृथ्वि ! मुनिवर कपिलजीकी यह बात सुनकर राजा अश्वशिराने अपने यशस्वी ज्येष्ठ पुत्रको, जिसका नाम स्थूलशिरा था, बुलाया और उसे अपने राज्यपर अभिषिक्त कर वे स्वयं वनमें चले गये। नैमिषारण्य पहुँचकर वहाँ यज्ञमूर्ति भगवान् नारायणका स्तवन करते हुए उन्होंने उनकी उपासना आरम्भ कर दी।
पृथ्वी बोली – परम शक्तिशाली प्रभो ! राजा अश्वशिराने यज्ञपुरुष भगवान् नारायणकी किस प्रकार स्तुति की और वह स्तोत्र कैसा है ? यह भी मुझे बतानेकी कृपा करें।
भगवान् वराह कहते हैं – राजा अश्वशिराद्वारा यज्ञमूर्ति भगवान् नारायणकी स्तुति इस प्रकार हुई—
जो सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, इन्द्र, रुद्र तथा वायु आदि अनेक रूपोंमें विराजमान हैं, उन यज्ञमूर्ति भगवान् श्रीहरिको मेरा नमस्कार है। जिनके अत्यन्त भयंकर दाढ़ हैं, सूर्य एवं चन्द्रमा जिनके नेत्र हैं, संवत्सर और दोनों अयन जिनके उदर हैं, कुशसमूह ही जिनकी रोमावली है, उन प्रचण्ड शक्तिशाली यज्ञस्वरूप सनातन श्रीहरिको मैं प्रणाम करता हूँ।
स्वर्ग और पृथ्वीके बीचका सम्पूर्ण आकाश तथा सभी दिशाएँ जिनसे परिपूर्ण हैं, उन परम आराध्य, सर्वशक्तिसम्पन्न एवं सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्तिके कारण सनातन श्रीहरिको मैं प्रणाम करता हूँ।
जिनपर कभी देवताओं और दानवोंका प्रभुत्व स्थापित नहीं होता, जो प्रत्येक युगमें विजयी होनेके लिये प्रकट होते हैं, जिनका कभी जन्म नहीं होता, जो स्वयं जगत्की रचना करते हैं, उन यज्ञरूपधारी परम प्रभु भगवान् नारायणको मैं नित्य नमस्कार करता हूँ। जो महातेजस्वी श्रीहरि शत्रुओंपर विजय प्राप्त करनेके लिये महामायामय परम प्रकाशयुक्त जाज्वल्यमान सुदर्शनचक्र धारण करते हैं तथा शार्ङ्गधनुष एवं शङ्ख आदिसे जिनकी चारों भुजाएँ सुशोभित होती हैं, उन यज्ञरूपधारी भगवान् नारायणको मैं नित्य नमस्कार करता हूँ ।
जो कभी हजार सिरवाले, कभी महान् पर्वतके समान शरीर धारण करनेवाले तथा कभी त्रसरेणुके समान सूक्ष्म शरीरवाले बन जाते हैं, उन यज्ञपुरुष भगवान् नारायणको मैं सदा प्रणाम करता हूँ। जिनकी चार भुजाएँ हैं, जिनके द्वारा अखिल जगत् की सृष्टि हुई हैं, अर्जुनकी रक्षाके निमित्त जिन्होंने हाथमें रथका चक्र उठा लिया था तथा जो प्रलयके समय कालाग्निका रूप धारण कर लेते हैं, उन यज्ञस्वरूप भगवान् नारायणको मैं नित्य नमस्कार करता हूँ।
संसारके जन्म-मरणरूप चक्रसे मुक्ति पानेके लिये जिन सर्वव्यापक पुराणपुरुष परमात्माकी मानव पूजा किया करते हैं तथा जिन अप्रमेय परम प्रभुका दर्शन योगियोंको केवल ध्यानद्वारा प्राप्त होता है, उन यज्ञमूर्ति भगवान् नारायणको मैं नित्य नमस्कार करता हूँ ।
भगवन्! जिस समय मुझे अपने शरीरमें आपके वास्तविक स्वरूपकी झाँकी प्राप्त हुई, उसी क्षण मैंने मन-ही-मन अपनेको आपके अर्पण कर दिया। मेरी बुद्धिमें यह बात भलीभाँति प्रतीत होने लगी कि जगत् में आपके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। तभीसे मेरी भावना परम पवित्र बन गयी है।
इस प्रकार राजा अश्वशिरा यज्ञमूर्ति भगवान् नारायणकी स्तुति कर रहे थे। इतनेमें यज्ञवेदीसे निकलकर उनके सामने अग्निशिखाके तुल्य एक महान् तेज उपस्थित हो गया। अब इस शरीरका त्याग करनेकी इच्छासे राजा अश्वशिरा उसीमें समा गये और यज्ञपुरुष भगवान् नारायणके उस तेजोमय श्रीविग्रहमें लीन हो गये।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ६ पुण्डरीकाक्षपार - स्तोत्र, राजा वसुके जन्मान्तरका प्रसङ्ग तथा उनका भगवान् श्रीहरिमें लय होना
पृथ्वी बोली- भगवन् ! जब बृहस्पतिकी बात सुनकर राजा वसु और महाभाग रैभ्यका संदेह दूर हो गया, तब उन लोगोंने फिर कौन-सा कार्य किया ?
भगवान् वराह कहते हैं— पृथ्वि ! राजा वसुने अपने राज्यका पालन करते हुए पुष्कल दक्षिणावाले अनेक विशाल यज्ञोंद्वारा भगवान् श्रीहरिका यजन किया। उन्होंने देवदेवेश्वर भगवान् नारायणको यज्ञादि कर्मोंके अनुष्ठानद्वारा तथा सभी प्राणियोंमें अभेद-दर्शनकी साधना करके प्रसन्न कर लिया। इस प्रकार बहुत समय बीत जानेपर राजा वसुके मनमें राज्यका उपभोग करनेकी इच्छा निवृत्त हो गयी और उनके मनमें इस द्वन्द्वमय संसारसे मुक्त होनेकी कामना जाग उठी अतः उन्होंने अपने सौ पुत्रोंमें सबसे बड़े राजकुमार विवस्वान्को राजसिंहासनपर अभिषिक्त कर दिया और स्वयं तपस्या करनेके विचारसे वनमें चले गये। वे सभी तीर्थोंमें श्रेष्ठ पुष्कर तीर्थमें जा पहुँचे, जहाँ भगवत्परायण पुरुषोंद्वारा पुण्डरीकाक्ष भगवान् केशवकी सदा उपासना होती रहती है। वहाँ जाकर काश्मीर- नरेश राजर्षि वसुने कठिन तपस्याद्वारा अपने शरीरको सुखाना प्रारम्भ कर दिया। उन परम बुद्धिमान् राजर्षिका मन शुद्धस्वरूप भगवान् नारायणकी आराधनाके लिये अत्यन्त उत्सुक था; अतः वे परम अनुरागपूर्वक ‘पुण्डरीकाक्षपार’ नामक स्तोत्रका जप करनेमें संलग्न हो गये। दीर्घ कालतक उस स्तोत्रका जप करके महाराज वसु पुण्डरीकाक्ष भगवान् श्रीहरिमें विलीन हो गये ।
पृथ्वीने पूछा – देव! इस ‘पुण्डरीकाक्षपार’- स्तोत्रका स्वरूप क्या है? परमेश्वर ! आप इसे मुझे बतानेकी कृपा करें।
भगवान् वराह कहते हैं- पृथ्वि! (राजा वसुके द्वारा अनुष्ठित पुण्डरीकाक्षपार स्तोत्र इस प्रकार है)
पुण्डरीकाक्ष ! आपको नमस्कार है। मधुसूदन ! आपको नमस्कार है। सर्वलोकमहेश्वर! आपको नमस्कार है। तीक्ष्ण सुदर्शनचक्र धारण करनेवाले श्रीहरिको मेरा बारंबार नमस्कार है। महाबाहो ! आप विश्वरूप हैं, आप भक्तोंको वर देनेवाले और सर्वव्यापक हैं, आप असीम तेजोराशिके निधान हैं, विद्या और अविद्या – इन दोनोंमें आपकी ही सत्ता विलसित होती है, ऐसे आप कमलनयन भगवान् श्रीहरिको मैं प्रणाम करता हूँ। प्रभो! आप आदिदेव एवं देवताओंके भी देवता हैं। आप वेद-वेदाङ्गमें पारङ्गत, समस्त देवताओंमें सबसे गहन एवं गम्भीर हैं। कमलके समान नेत्रोंवाले आप श्रीहरिको मैं नमस्कार करता हूँ। भगवन्! आपके हजारों मस्तक हैं, हजारों नेत्र हैं और अनन्त भुजाएँ हैं। आप सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हैं, ऐसे आप परम प्रभुकी मैं वन्दना करता हूँ। जो सबके आश्रय और एकमात्र शरण लेने योग्य हैं, जो व्यापक होनेसे विष्णु एवं सर्वत्र जयशील होनेसे जिष्णु कहे जाते हैं, नीले मेघके समान जिनकी कान्ति है, उन चक्रपाणि सनातन देवेश्वर श्रीहरिको मैं प्रणाम करता हूँ। जो शुद्धस्वरूप, सर्वव्यापी, अविनाशी, आकाशके समान सूक्ष्म, सनातन तथा जन्म-मरणसे रहित हैं, उन सर्वगत श्रीहरिका मैं अभिवादन करता हूँ। अच्युत! आपके अतिरिक्त मुझे कोई भी वस्तु प्रतीत नहीं हो रही है। यह सम्पूर्ण चराचर जगत् मुझे आपका ही स्वरूप दिखलायी पड़ रहा है। *
(भगवान् वराह कहते हैं -) राजा वसु इस प्रकार स्तोत्रपाठ कर ही रहे थे कि एक नीलवर्ण पुरुष मूर्तिमान् होकर उनके शरीरके बाहर निकल आया, जो देखनेमें अत्यन्त प्रचण्ड एवं भयंकर प्रतीत होता था। उसके नेत्र लाल थे और वह ह्रस्वकाय पुरुष ऐसा प्रतीत होता था, मानो कोई जलता हुआ अंगार हो । वह दोनों हाथ जोड़कर बोला- ‘राजन् ! मैं क्या करूँ ?’
राजा वसु बोले- अरे! तुम कौन हो और तुम्हारा क्या काम है? तुम कहाँसे आये हो ? व्याध ! मुझे बताओ, मैं ये सब बातें जानना चाहता हूँ।
व्याधने कहा- राजन् ! प्राचीन कालकी बात है; कलियुगके समय तुम दक्षिण दिशामें जनस्थान नामक प्रदेशके राजा थे। वीरवर! एक समय तुम वन्य पशुओंका शिकार करनेके लिये जंगलमें गये थे। उस समय तुम्हारे पास बहुत से घोड़े थे। यद्यपि तुम्हारा उद्देश्य हिंस्र जन्तुओंका वध करनामात्र ही था, किंतु मृगका रूप धारण कर वनमें विचरण करनेवाले एक मुनि तुम्हारे न चाहते हुए भी बाणोंके शिकार होकर भूमिपर गिर पड़े और गिरते ही चल बसे। तुम्हारे मनमें यह सोचकर बड़ा हर्ष हुआ कि एक हरिण मारा गया। किंतु जब तुमने पास जाकर देखा तो मृगरूप धारण करनेवाले वे मृतक ब्राह्मण दिखलायी पड़े। यह घटना प्रस्रवण पर्वतपर घटित हुई थी। महाराज ! उस समय ब्राह्मणको मृत देखकर तुम्हारी इन्द्रियाँ और मन सब के सब क्षुब्ध हो उठे। तुम वहाँसे घर लौट आये। तुमने यह घटना किसी औरको भी बतला दी। राजन्! कुछ समय बीत जानेपर सहसा एक रातको ब्रह्महत्याके भयसे तुम आतङ्कित हो उठे; अतः तुमने विचार किया कि इस ब्रह्महत्याकी शान्तिके लिये मैं कोई ऐसा प्रयत्न करूँ, जिसके परिणामस्वरूप इस पापसे मुक्त हो जाऊँ । महाराज ! तदनन्तर समय आनेपर भगवान् नारायणका अनवरत चिन्तन करते हुए तुमने परम पवित्र द्वादशीपर्यन्त व्याप्त शुद्ध एकादशीका उपवासपूर्वक व्रत किया। फिर दूसरे दिन तुमने ‘भगवान् नारायण मुझपर प्रसन्न हों’, इस संकल्पके साथ विधिपूर्वक गोदान किया। इसके बाद किसी दिन उदर शूलकी असह्य पीड़ासे तुम्हारे प्राण पखेरू उड़ गये। किंतु द्वादशीव्रत पुण्यके होते हुए भी तुमको मुक्ति प्राप्त न हो सकी। इसका कारण मैं बताता हूँ, सुनो। तुम्हारी सौभाग्यवती रानीका नाम नारायणी था। मृत्युके समय जब तुम्हारे प्राण कण्ठमें आ गये थे, उस समय तुम्हारे मुखसे उसके नामका उच्चारण हुआ, उसीसे तुम्हें उत्तम गतिकी प्राप्ति हुई और तुमको एक कल्पपर्यन्त विष्णुलोकमें निवास प्राप्त हुआ। * विष्णुलोकमें गमन करनेके पूर्व मैं तुम्हारे शरीरमें स्थित था। अतः ये सब बातें मैं जानता हूँ। मैं उस समय एक भयंकर ब्रह्मराक्षसके रूपमें था और तुमको अपार कष्ट देना चाहता था। इतनेमें भगवान् विष्णुके पार्षद आ गये और उन्होंने मूसलोंसे मुझे मारा, जिससे मैं संक्षीण होकर तुम्हारे रोमकूपोंके मार्गसे निकलकर बाहर गिर पड़ा। महाभाग ! इसके पश्चात् ब्रह्माका एक अहोरात्र – कल्पकी अवधि समाप्त होनेपर महाप्रलय हो गया। तदनन्तर सृष्टिके आरम्भ होनेपर इस कल्पमें तुम काश्मीरके राजा सुमनाके पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए हो। इस जन्ममें भी मैं तुम्हारे शरीरमें रोमकूपोंके मार्गसे पुनः प्रविष्ट हो गया। तुमने इस जन्ममें भी प्रभूत दक्षिणावाले अनेक यज्ञोंका अनुष्ठान किया; किंतु ये सभी यज्ञजनित पुण्य मुझे तुम्हारे शरीरसे बाहर निकालनेमें असमर्थ रहे; क्योंकि इनमें भगवान् विष्णुके नामका उच्चारण नहीं हुआ था। अब जो तुमने इस पुण्डरीकाक्षपार – स्तोत्रका पाठरूप अनुष्ठान किया है, इसके प्रभावसे तुम्हारे शरीरसे मैं रोमकूपोंके मार्गसे बाहर आ गया हूँ। राजेन्द्र ! मैं वही ब्रह्मराक्षस अब व्याध बनकर पुनः प्रकट हुआ हूँ। पुण्डरीकाक्ष भगवान् नारायणके इस स्तोत्रके सुननेके प्रभावसे पहले जो मेरी पापमयी मूर्ति थी, वह अब समाप्त हो गयी। मैं उससे अब मुक्त हो गया। राजन्! अब मेरी बुद्धिमें धर्मका उदय हो गया है।
यह प्रसङ्ग सुनकर महाराज वसुके मनमें आश्चर्यकी सीमा न रही। फिर तो बड़े आदरके साथ वे उस व्याधसे बात करने लगे ।
राजा वसुने कहा- व्याध ! जैसे तुम्हारी कृपासे आज मुझे अपने पूर्वजन्मकी बात याद आ गयी, वैसे ही तुम भी मेरे प्रभावसे अब व्याध न कहलाकर धर्मव्याधके नामसे प्रसिद्ध होओगे । जो पुरुष इस ‘पुण्डरीकाक्षपार’ नामक उत्तम स्तोत्रका श्रवण करेगा, उसे भी पुष्कर क्षेत्रमें विधिपूर्वक स्नान करनेका फल सुलभ होगा।
भगवान् वराह कहते हैं— जगद्धात्रि पृथ्वि ! राजा वसु धर्मव्याधसे इस प्रकार कहकर एक परम उत्तम विमानपर आरूढ़ हुए और भगवान् नारायणके लोकमें जाकर उनकी अनन्त तेजोराशिमें विलीन हो गये।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ७ रैभ्य- सनत्कुमार-संवाद, गयामें पिण्डदानकी महिमा एवं रैभ्य मुनिका ऊर्ध्वलोक गमन
पृथ्वीने पूछा – भगवन्! मुनिवर रैभ्यने राजा वसुके सिद्धि प्राप्त होनेकी बातको सुनकर क्या किया ? इस विषयमें मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है। आप उसे शान्त करनेकी कृपा करें।
भगवान् वराहने कहा- पृथ्वि! तपोधन रैभ्यमुनिने जब राजा वसुके सिद्धि प्राप्त होनेकी बात सुनी तो वे पवित्र पितृतीर्थ गया जा पहुँचे। वहाँ जाकर उन्होंने भक्तिपूर्वक पितरोंके लिये पिण्डदान किया। इस प्रकार पितरोंको तृप्त करके उन्होंने अत्यन्त कठिन तपस्या आरम्भ कर दी। परम मेधावी रैभ्यके इस प्रकार दुष्कर तपका आचरण करते समय एक महायोगी विमानपर आरूढ़ होकर उनके पास पधारे। उनका शरीर तेजसे देदीप्यमान था। उन महायोगीका वह परम उज्ज्वल विमान सूर्यके समान उद्भासित हो रहा था। त्रसरेणुके समान सूक्ष्म उस विमानपर विराजमान वह तेजोमय पुरुष भी आकार में परमाणुके तुल्य प्रतीत होता था ।
उस तेजोमय पुरुषने कहा – ‘सुव्रत ! तुम किस प्रयोजनसे इतनी कठिन तपस्या कर रहे हो ?’ इतना कहकर वह दिव्य पुरुष बढ़ने लगा ।
और उसने अपने शरीरसे पृथ्वी एवं आकाशके मध्यभागको व्याप्त कर लिया। सूर्यके समान देदीप्यमान उसके विमानने भी सम्पूर्ण भूगोल और खगोलको एवं साथ ही साथ विष्णुलोकको भी व्याप्त कर लिया। तब रैभ्यने अत्यन्त आश्चर्ययुक्त होकर उस योगीसे पूछा – ‘योगीश्वर ! आप कौन हैं? मुझे बतानेकी कृपा करें।’
उस तेजोमय पुरुषने कहा- रैभ्य ! मैं ब्रह्माजीका मानस पुत्र सनत्कुमार हूँ । रुद्र मेरे ज्येष्ठ भ्राता हैं। मेरा जनलोकमें निवास है। तपोधन! तुम्हारे पास प्रेमके वशीभूत होकर मैं आया हूँ। वत्स! तुमने ब्रह्माजीकी सृष्टिका विस्तार किया है। तुम धन्य हो !
मुनिवर रैभ्यने पूछा- योगिराज ! आपको मेरा नमस्कार है। यह सारा विश्व आपका ही रूप है। आप प्रसन्न हों और मुझपर दया करें। योगीश्वर ! कहिये, मैं आपके लिये क्या करूँ ? अभी आपने मुझे जो धन्य कहा है, इसका क्या रहस्य है? सनत्कुमारजीने कहा – रैभ्य! तुमने गयातीर्थमें जाकर वेदमन्त्रों का उच्चारण करते हुए विधिपूर्वक पिण्डदानके द्वारा पितरोंको तृप्त किया है, श्राद्धकर्मके अङ्गभूत व्रत, जप एवं हवनकी भी विधि तुम्हारे द्वारा सम्पन्न हुई है। अतएव तुम ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ तथा धन्यवादके पात्र हो । इस विषयमें एक आख्यान है, वह मुझसे सुनो। विशाल नामसे विख्यात एक राजा हो चुके हैं। उनके नगरका नाम भी विशाल ही था। वे राजा निःसंतान थे, इससे शत्रुओंको पराजित करनेवाले उन परम धैर्यशाली राजा विशालके मनमें पुत्र प्राप्तिकी इच्छा हुई। अतः उन्होंने श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको बुलाकर उनसे पुत्र प्राप्तिका उपाय पूछा। उन उदारचेता ब्राह्मणोंने कहा-‘ राजन् ! तुम पुत्र प्राप्तिके निमित्त गयामें जाकर पुष्कल अन्नदान करके पितरोंको तृप्त करो। ऐसा करनेसे तुम्हें अवश्य ही पुत्र प्राप्त होगा। वह महान् दानी एवं सम्पूर्ण भूमण्डलपर शासन करनेवाला होगा।’
ब्राह्मणोंके ऐसा कहनेपर विशाल नरेशके अङ्ग-प्रत्यङ्ग हर्षसे खिल उठे। तदनन्तर सूर्य जब मघा नक्षत्रपर आये, उस समय प्रयत्नपूर्वक गयातीर्थ में जाकर उन नरेशने विधि-विधानके साथ भक्तिपूर्वक पितरोंके लिये पिण्डदान किया। सहसा उन्होंने आकाशमें श्वेत, पीत एवं कृष्ण वर्णके तीन श्रेष्ठ पुरुषोंको देखा। उनको देखकर राजाने पूछा- ‘आपलोग कौन हैं ?’
श्वेत पुरुषने कहा- राजन् ! मैं तुम्हारा पिता सित हूँ। मेरा नाम तो सित है ही, मेरे शरीरका वर्ण भी सित (श्वेत) है, साथ ही मेरे कर्म भी सित ( उज्ज्वल) हैं। (मेरे साथ) ये जो लाल रंगके पुरुष दिखायी देते हैं, मेरे पिता हैं। इन्होंने बड़े निष्ठुर कर्म किये हैं। ये ब्रह्महत्यारे और पापाचारी रहे हैं और इनके बाद ये जो तीसरे सज्जन हैं, ये तुम्हारे प्रपितामह हैं। इनका नाम अधीश्वर है। ये कर्म और वर्णसे भी कृष्ण हैं। इन्होंने पूर्वजन्ममें अनेक वयोवृद्ध ऋषियोंका वध किया है। ये दोनों पिता और पुत्र अवीचि नामक नरकमें पड़े हुए हैं; अतः ये मेरे पिता और ये दूसरे इनके पिता जो दीर्घ कालतक काले मुखसे युक्त हो नरकमें रहे हैं और मैं, जिसने अपने शुद्ध कर्मके प्रभावसे इन्द्रका परम दुर्लभ सिंहासन प्राप्त किया था – तुझ मन्त्रज्ञ पुत्रके द्वारा गयामें पिण्डदान करनेसे तीनों ही बलात् मुक्त हो गये। शत्रुदमन ! पिण्डदानके समय मैं अपने पिता, पितामह और प्रपितामहको तृप्त करनेके लिये यह जल देता हूँ’ – ऐसा कहकर जो तुमने जल दिया है, उसीके प्रभावसे हमलोग यहाँ एक साथ एकत्र होकर तुम्हारे समक्ष वार्तालाप कर सके हैं। अब मैं इस गया तीर्थके प्रभावसे पितृलोकमें जा रहा हूँ। इस तीर्थमें पिण्डदान करनेके माहात्म्यसे ही ये तुम्हारे पितामह और प्रपितामह, जो पापी होनेके कारण दुर्गतिको प्राप्त हो चुके थे एवं जिनके अङ्ग प्रत्यङ्ग विकृत हो चुके थे, वे भी अब उत्तम लोकोंको प्राप्त हो रहे हैं। यह इस गयातीर्थका ही प्रताप है कि यहाँ पिण्डदान करनेके प्रभावसे पुत्र अपने ब्रह्मघाती पिताका भी पुनः उद्धार कर सकता है। वत्स ! इसी कारण मैं इन दोनों- तुम्हारे पितामह और प्रपितामहको लेकर तुम्हें देखनेके लिये आ गया हूँ।
(सनत्कुमारजी कहते हैं— ) महाभाग रैभ्य! यही कारण है कि मैंने तुमको धन्य कहा है। गयातीर्थमें एक बार जाना और पिण्डदान करना ही दुर्लभ है। फिर तुम तो प्रतिदिन यहाँ इस उत्तम कार्यका सम्पादन करते हो। मुनिवर ! तुमने गदाधररूपमें विराजमान साक्षात् भगवान् नारायणका दर्शन कर लिया है। तुम्हारे इस पुण्यके विषयमें और अधिक क्या कहा जाय? द्विजवर ! इस गयाक्षेत्रमें भगवान् गदाधर सदा साक्षात् विराजते हैं। इसी कारण सम्पूर्ण तीर्थोंमें यह विशेष प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ है।
भगवान् वराह कहते हैं— पृथ्वि ! ऐसा कहकर महायोगी सनत्कुमारजी वहीं अन्तर्धान हो गये। तब मुनिवर रैभ्यने भगवान् गदाधरको स्तुति करनी प्रारम्भ कर दी।
विप्रवर रैभ्य बोले- देवता जिनका स्तवन करते रहते हैं, जो क्षमाके धाम हैं, जो क्षुधा ग्रस्त आर्तजनोंके दुःखोंको दूर करनेवाले हैं, जो विशाल नामक दैत्यकी सेनाओंका मर्दन करनेवाले हैं तथा जो स्मरण करनेसे समस्त अशुभोंका विनाश कर देते हैं, उन मङ्गलमय भगवान् गदाधरको मैं प्रणाम करता हूँ। जो पूर्वजोंके भी पूर्वज, पुराणपुरुष, स्वर्गलोकमें पूजित एवं मनुष्योंके एकमात्र परम आश्रय हैं, जिन्होंने वामन अवतार ग्रहण करके दैत्यराज बलिके चंगुलसे पृथ्वीका उद्धार किया है, उन महाबलशाली शुद्धस्वरूप भगवान् गदाधरको मैं एकान्तमें नमस्कार करता हूँ। जो परम शुद्ध स्वभाववाले एवं अनन्त वैभवसम्पन्न हैं, लक्ष्मीने जिनका स्वयं वरण किया है, जो अत्यन्त निर्मल एवं विशिष्ट विचारशील हैं तथा पवित्र अन्तः करणवाले भूपाल जिनका स्तवन करते हैं, ऐसे भगवान् गदाधरको जो प्रणाम करता है, वह जगत्में सुखसे रहनेका अधिकारी होता है। देवता और दानव जिनके चरणकमलोंकी अर्चना करते हैं, जो हार, केयूर, बाजूबंद एवं किरीट धारण किये हुए हैं तथा समुद्रमें शयन करते हैं, उन चक्रधारी भगवान् गदाधरकी जो वन्दना करता है, वही जगत् में सुखपूर्वक रहनेका अधिकारी है। जो भगवान् अच्युत सत्ययुगमें श्वेत, त्रेतामें अरुण, द्वापरमें पीत- वर्णसे अनुरञ्जित श्याम तथा कलियुगमें भँरिके समान कृष्णवर्णयुक्त विग्रह धारण करते हैं, उन भगवान् गदाधरको जो प्रणाम करता है, वह जगत् में सुखपूर्वक निवास करता है। जिनसे सृष्टिके बीजरूप चतुर्मुख ब्रह्माका प्राकट्य हुआ है तथा जो नारायण विष्णुरूप धारण करके जगत् का पालन और रुद्ररूपसे संहार करते हैं एवं इस प्रकार जो ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश- इन तीन मूर्तियोंमें विलसित होते हैं, उन भगवान् गदाधरकी जय हो। सत्त्व, रज और तम – इन तीन गुणोंका संयोग ही विश्वकी सृष्टिमें कारण बतलाया जाता है; किंतु इस प्रकार जो एक होकर भी इन तीन गुणोंके रूपमें अभिव्यक्त होते हैं, वे भगवान् गदाधर धर्म एवं मोक्षकी कामनासे अधीर हुए मुझको धैर्य प्रदान करनेकी कृपा करें। जिस दयामय प्रभुने दुःखरूपी जल जन्तुओं एवं मृत्युरूप ग्राहके भयंकर आक्रमणोंसे संसार सागरमें थपेड़े खाकर डूबते हुए मुझ दीन-हीन प्राणीका विशाल जलपोत बनकर उद्धार कर दिया, उन भगवान् गदाधरको मैं प्रणाम करता हूँ। जो स्वयं महाकाशमें घटाकाशकी व्याप्तिकी भाँति अपने द्वारा अपनेमें ही तीन मूर्तियोंमें अभिव्यक्त होते हैं तथा अपनी मायाशक्तिका आश्रय लेकर इस ब्रह्माण्डकी सृष्टि करते हैं एवं उसीमें कमलासन ब्रह्माके रूपमें प्रकटित होकर तेजस् आदि तत्त्वोंका प्रादुर्भाव करते हैं, उन जगदाधार भगवान् गदाधरको मैं प्रणाम करता हूँ। जो मत्स्य- कच्छप आदि अवतार ग्रहण करके देवताओंकी रक्षा करते हैं, जिनकी जगत्में ‘वृषाकपि’ के नामसे प्रसिद्धि है, वे यज्ञवराहरूपी भगवान् गदाधर मुझे सद्गति प्रदान करें। *
भगवान् वराह कहते हैं – पृथ्वि ! मुनिवर रैभ्य महान् बुद्धिमान् थे। जब उन्होंने इस प्रकार भक्तिपूर्वक श्रीहरिकी स्तुति की तो भगवान् गदाधर सहसा उनके सामने प्रकट हो गये। उनका श्रीविग्रह पीताम्बरसे शोभायमान था । वे गरुडपर स्थित थे तथा उनकी भुजाएँ शङ्ख, चक्र, गदा एवं पद्मसे अलंकृत थीं। वे भगवान् पुरुषोत्तम आकाशमें ही स्थित रहकर मेघके समान गम्भीर वाणीमें बोले- ‘द्विजवर रैभ्य ! तुम्हारी भक्ति, स्तुति एवं तीर्थ स्नानसे मैं संतुष्ट हो गया हूँ। अब तुम्हारी जो अभिलाषा हो, वह मुझसे कहो। ‘
रैभ्यने कहा- देवेश्वर ! अब मुझे उस लोकमें निवास प्रदान कीजिये, जहाँ सनक – सनन्दन आदि मुनिजन रहते हैं। भगवन्! आपकी कृपासे मैं उसी लोकमें जाना चाहता हूँ ।
श्रीभगवान् बोले- ‘विप्रश्रेष्ठ! बहुत ठीक, ऐसा ही होगा।’ ऐसा कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये। फिर तो प्रभुके कृपाप्रसादसे उसी क्षण रैभ्यको दिव्य ज्ञान प्राप्त हो गया और वे परम सिद्ध सनकादि महर्षि जहाँ निवास करते हैं, उस लोकको चले गये ।
भगवान् श्रीहरिका यह गदाधर स्तोत्र रैभ्य मुनिके मुखसे उच्चरित हुआ है। जो मनुष्य गयातीर्थमें जाकर इसका पाठ करेगा, उसे पिण्डदानसे बढ़कर फलको प्राप्ति होगी ।
‘गदाधरं विबुधजनैरभिष्टुतं भूतक्षमं क्षुधितजनार्तिनाशनम् ।
शिवं विशालासुरसैन्यमर्दनं नमाम्यहं इतसकलाशुभं स्मृतौ ॥
पुराणपूर्वं पुरुषं पुरुष्टुतं पुरातनं विमलमलं नृणां गतिम् ।
त्रिविक्रमं इतधरणि बलोर्जितं गदाधरं रहसि नमामि केशवम् ॥
विशुद्धभावं विभवैरुपावृतं श्रिया वृतं विगतमलं विचक्षणम् ।
क्षितीश्वरैरपगतकिल्मिषैः स्तुतं गदाधरं प्रणमति यः सुखं वसेत् ॥
सुरासुरैरचितपादपङ्कजं केयूरहाराङ्गदमौलिधारिणम् ।
अब्धौ शयानं च रथाङ्गपाणिनं गदाधरं प्रणमति यः सुखं वसेत् ॥
सितं कृते युगेऽरुणं विभुं तथा तृतीये नीलसुवर्णमच्युतम् ।
कलौ युगेऽलिप्रतिमं महेश्वरं गदाधरं प्रणमति यः सुखं वसेत् ॥
बोजोद्भवो यः सृजते चतुर्मुखं तथैव नारायणरूपतो जगत् ।
प्रपालयेद् रुद्रवपुस्तथान्तकृद्गदाधरो जयतु षडर्द्धमूर्तिमान् ॥
सत्वं रजश्चैव तमो गुणास्त्रयस्त्वेतेषु विश्वस्य समुद्भवः किल ।
स चैक एवं त्रिविधो गदाधरो दधातु धैर्य मम धर्ममोक्षयोः ॥
संसारतोयार्णवदुःखतन्तुभिर्वियोगनक्रक्रमणैः सुभीषणैः ।
मज्जन्तमुचैः सुतरां महाप्लवो गदाधरो मामुदधौ तु योऽतरत् ॥
स्वयं त्रिमूर्तिः खमिवात्मनात्मनि स्वशक्तिताण्डमिदं ससर्ज ह।
तस्मिञ्जलोत्थासनमाप तैजसं ससर्ज यस्तं प्रणतोऽस्मि भूधरम् ॥
मत्स्यादिनामानि जगत्सु चाश्नुते सुरादिसंरक्षणतो वृषाकपिः ।
मखस्वरूपेण स संततो विभुर्गदाधरो मे विदधातु सद्गतिम् ॥
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ८ भगवान्का मत्स्यावतार तथा उनकी देवताओं द्वारा स्तुति
पृथ्वीने पूछा- प्रभो! सत्ययुगके आरम्भ में विश्वात्मा भगवान् नारायणने कौन-सी लीला की ? वह सब मैं भलीभाँति सुनना चाहता हूँ।
भगवान् वराह कहते हैं- पृथ्वि ! सृष्टिके पूर्वकालमें एकमात्र नारायण ही थे। उनके अतिरिक्त दूसरा कुछ भी नहीं था । एकाकी होनेसे उनका रमण – आनन्द – विलास नहीं हो रहा था। वे प्रभु समस्त कर्मोके सम्पादनमें स्वतन्त्र हैं। जब उनको दूसरेकी इच्छा हुई, तो उनसे अभावसंज्ञक ज्ञानमय संकल्पकी उत्पत्ति हुई । क्षणभरमें ही उनका वह सृष्टिरचनाका संकल्प सूर्यके समान उद्भासित हो उठा। उसके फिर दो भाग हुए, जिनमें पहली ब्रह्मवादियोंद्वारा चिन्तनीय ब्रह्मविद्या थी, जो उमा नामसे प्रसिद्ध हुईं। ये ही मनुष्योंमें सदा श्रद्धाके रूपमें निवास करती हैं। दूसरी ॐकारद्वारा वाच्य एकाक्षरी विद्या प्रकटित हुई। तदनन्तर उसीने इस भूलोककी रचना की । भूलोककी रचना करनेके पश्चात् उसने भुवर्लोक एवं स्वर्लोकका निर्माण किया। तत्पश्चात् क्रमशः महर्लोक तथा जनलोककी सृष्टि करके वह प्रणवात्मिका विद्या अपने द्वारा रचित इस सृष्टिमें अन्तर्हित हो गयी और धागेमें पिरोये हुए मणियोंके समान वह सबमें ओतप्रोत हो गयी। इस प्रकार प्रणवसे जगत् की रचना तो हो गयी, किंतु यह नितान्त शून्य ही रहा। भगवान् की यह जो शिवमूर्ति है, वे स्वयं श्रीहरि ही हैं। इन लोकोंको शून्य देखकर उन परम प्रभुने एक परमोत्तम श्रीविग्रहमें अभिव्यक्त होनेकी इच्छा की और अपने मनोधाममें क्षोभ उत्पन्न करके अपने अभिलषित आकारमें अभिव्यक्त हो गये। इस प्रकार ब्रह्माण्डका आकार व्यक्त हुआ फिर वह ब्रह्माण्ड दो भागों में विभक्त हुआ; इसमें जो नीचेका भाग था, वह भूलोक बना, ऊपरका खण्ड भुवर्लोक हुआ, जो मध्यवर्ती लोकोंके अन्तरालमें सूर्यके समान प्रकाशमान हो गया। पूर्वकल्पके समान महासिन्धु में कमलकोशका उसी भाँति प्रादुर्भाव हो गया और देवाधिदेव नारायणने प्रजापति ब्रह्माके रूपमें प्रकटित होकर अकारसे लेकर हकारपर्यन्त समस्त स्वर एवं व्यञ्जन वर्णोंकी सृष्टि कर दी।
इस प्रकार अमूर्त सृष्टिकी रचना हो जानेपर श्रीभगवान् ने चारों वेदोंका गान प्रारम्भ किया। इस प्रकार लोकोंकी सृष्टि करनेके पश्चात् अपरिमेय शक्तिशाली प्रभुके मनमें जगत् के धारण-पोषणकी चिन्ता हुई और चिन्तन करते ही उनके नेत्रोंसे महान् तेज निकला। उनके दक्षिण नेत्रसे निकला हुआ तेज अग्निके समान उष्ण और वाम नेत्रसे प्रादुर्भूत तेज हिमके समान शीतल था। भगवान् श्रीहरिने उनको सूर्य और चन्द्रमाके रूपमें प्रतिष्ठित कर दिया। फिर उन विराट् पुरुषसे जगत्का प्राणरूप वायु प्रकट हुआ। ये ही वायुदेवता आज भी हम सबके हृदयमें प्राणरूपसे व्याप्त हैं। तत्पश्चात् उसी वायुसे अग्निका प्रादुर्भाव हुआ। अग्निसे जलतत्त्व उत्पन्न हुआ। जो वह अग्नितत्त्व उत्पन्न हुआ, वही परब्रह्म परमात्माका तेज है और वही मूर्त सृष्टिका परम कारण बना। विराट् पुरुषने इसी तेजसम्पन्न अपनी भुजाओंसे क्षत्रिय जातिकी जाँघोंसे वैश्य जातिकी और पैरोंसे शूद्रजातिकी रचना की। फिर उन परमेश्वरने यक्षों और राक्षसोंका सृजन किया । तदनन्तर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र प्रभृति मानवोंसे भूर्लोकको तथा आकाशमें विचरण करनेवाले प्राणियोंसे भुवर्लोकको भर दिया। अपने पुण्योंके फलस्वरूप स्वर्गका अर्जन करनेवाले भूत-प्राणियोंसे स्वर्लोकको एवं सनकादि ऋषि-मुनियोंसे महर्लोकको परिपूरित कर दिया।
विराट् परमात्माकी हिरण्यगर्भके रूपमें उपासना करनेवालोंसे उन्होंने जनलोकको भर दिया और तपोनिष्ठ देवताओंसे तपोलोकको पूर्ण कर दिया सत्यलोकको उन देवताओंसे परिपूर्ण किया, जो मरणधर्मा नहीं थे।
इस प्रकार भूतभावन भगवान् श्रीहरिने सृष्टिकी रचना सम्पन्न कर दी । परमेश्वरके संकल्पसे इस जगत् की रचना होनेके कारण ही सृष्टिको कल्प कहा जाता है। फिर भगवान् नारायण रात्रिकल्पके आनेपर निद्रामग्न हो गये। उनके सो जानेपर ये तीनों लोक भी प्रलयको प्राप्त हो गये। जब रात्रि समाप्त हो गयी, तब कमलनयन भगवान् श्रीहरि जाग उठे और उन्होंने पुनः चारों वेदों तथा उनकी स्वरूपभूता मातृकाओंका चिन्तन किया, किंतु योगनिद्राजनित अज्ञानसे मोहित हुए देवदेवेश्वर श्रीहरिको लोकमर्यादाओंको स्थिर करनेके लिये वेद उपलब्ध नहीं हुए। उन्होंने देखा उनके ही आत्मस्वरूप वेद जलमें डूबे हुए हैं। अब उन्हें वेदोंके उद्धारकी चिन्ता हुई; अतएव तत्काल मत्स्यके रूपमें अवतरित होकर सागरकी विशाल जलराशिको क्षुब्ध करते हुए उसमें प्रविष्ट हो गये।
मत्स्यमूर्ति श्रीहरि महासिन्धुके अगाध जलसमूहमें प्रवेश करते ही महान् पर्वताकार रूपमें प्रकाशित हो उठे। इस प्रकार उन देवश्रेष्ठके मत्स्यावतार ग्रहण करनेपर देवता उत्तम स्तोत्रोंसे उनकी स्तुति करने लगे –
‘मत्स्यरूप धारण करनेवाले भगवान् नारायण! वेदोंके अतिरिक्त अन्य शास्त्रोंके पारगामी पुरुषोंके लिये भी आप अगम्य हैं, यह सारा विश्व आपका ही अङ्ग है। आप अत्यन्त मधुर स्वरमें वेदोंका गान करते हैं, विद्या और अविद्या दोनों आपके रूप हैं, आपको हमारा बारंबार नमस्कार है। आपके अनेक रूप हैं, चन्द्र और सूर्य आपके सुन्दर नेत्र हैं। प्रलयकालीन समुद्र जब सम्पूर्ण विश्वको आप्लावित कर लेता है, उस समय भी आप स्थित रहते हैं। विष्णो! आपको प्रणाम है। हमलोग आपकी शरणमें आये हैं, आप इस मत्स्य शरीरका त्याग कर हमारी रक्षा करनेकी कृपा करें। अनन्त रूप धारण करनेवाले प्रभो ! सारा संसार आपसे ही व्याप्त है। आपके अतिरिक्त इस जगत्में कुछ है ही नहीं और न इस जगत् के अतिरिक्त आप अव्यक्तमूर्तिकी कोई दूसरी मूर्ति ही है। इसीलिये हमलोग आपकी शरणमें आये हैं। पुण्डरीकाक्ष ! यह आकाश आप पुराणपुरुषका आत्मा है, चन्द्रमा आपके मन और अग्नि मुख हैं। देवाधिदेव शम्भो ! यह सारा जगत् आपसे ही प्रकाशित है। यद्यपि हमलोग आपकी भक्तिसे रहित हैं, तो भी आप हमें क्षमा करनेकी कृपा करें। देवेश्वर! आप सम्पूर्ण जगत् के आश्रय हैं, आप सनातन पुरुषके मधुरभाषी सुन्दर स्वरयुक्त दिव्य रूपसे इस पर्वताकार विग्रहका कोई मेल ही नहीं है। अच्युत! आपके सूर्यसे भी अधिक तीव्र तेजसे हमलोग संतप्त हो रहे हैं, अतएव आप अपने इस रूपका संवरण कर लीजिये। भगवन्! हमलोग आपकी शरणमें आये हैं; क्योंकि आपको इस रूपसे सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करते देखकर हमारा मन भयभीत हो उठा है। आज आपको पूर्वरूपमें न पाकर आपसे हीन हुए हमलोगोंको ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे हमारे शरीरोंमें आत्मा ही न रह गया हो।’ देवताओंके इस प्रकार स्तुति करनेपर मत्स्यरूपी भगवान् नारायणने जलमें निमग्न हुए उपनिषदों और शास्त्रोंसहित वेदोंका उद्धार कर दिया। इसके पश्चात् उन्होंने अपने नारायण रूपमें स्थित होकर देवताओंको सान्त्वना प्रदान की। भगवान् नारायण जबतक सगुण- साकार रूपमें स्थित रहते हैं, तभीतक इस संसारकी सत्ता रहती है। उनके अपने निर्गुण निराकार रूपमें स्थित हो जानेपर संसारका प्रलय हो जाता है और उनमें इच्छारूप विक्रिया उत्पन्न होनेपर जगत्की सृष्टि पुनः प्रारम्भ हो जाती है।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ९ राजा दुर्जयके चरित्र - वर्णनके प्रसङ्गमें मुनिवर गौरमुखके आश्रमकी शोभाका वर्णन
सत्ययुगकी बात है। सुप्रतीक नामसे प्रसिद्ध एक महान् पराक्रमी राजा थे। उनकी दो रानियाँ थीं। वे दोनों परम मनोरम रानियाँ किसी बातमें एक दूसरीसे कम न थीं। उनमें एकका नाम विद्युत्प्रभा और दूसरीका कान्तिमती था। दो रानियोंके होते हुए भी उन शक्तिशाली नरेशको किसी संतानकी प्राप्ति न हुई तब राजा सुप्रतीक पर्वतों में श्रेष्ठ चित्रकूट पर्वतपर गये। वहाँ जाकर उन्होंने सर्वथा निष्पाप अत्रिनन्दन दुर्वासाकी विधिपूर्वक आराधना की । वरप्राप्तिकी इच्छा रखनेवाले राजा सुप्रतीकके बहुत समयतक यत्नपूर्वक सेवा करनेपर वे ऋषि प्रसन्न हो गये। राजाको वर देनेके लिये उद्यत होकर वे मुनिवर कुछ कह ही रहे थे, तबतक ऐरावत हाथीपर चढ़े हुए देवराज इन्द्र वहाँ पहुँच गये। वे चारों ओर देवसेनासे घिरे हुए थे। वे वहाँ आकर चुपचाप खड़े हो गये। महर्षि दुर्वासा देवराज इन्द्रके प्रति स्नेह रखते थे; किंतु इन्द्रको अपने प्रति प्रीतिका प्रदर्शन न करते देखकर वे क्रुद्ध हो उठे और उन अत्रिनन्दनने देवराज इन्द्रको अत्यन्त कठोर शाप दे दिया- ‘ अरे मूर्ख देवराज! तुमने मेरा जो अपमान किया है, इसके फलस्वरूप तुम्हें अपने राज्यसे च्युत हो दूसरे लोकमें जाकर निवास करना होगा।’ देवेन्द्रसे इस प्रकार कहकर उन क्रुद्ध मुनिने राजा सुप्रतीकसे कहा- ‘राजन् ! तुम्हें एक अत्यन्त बलवान् पुत्र प्राप्त होगा। वह इन्द्रके समान रूपवान् श्रीसम्पन्न, महाप्रतापी, विद्याके प्रभाव और तत्त्वको भलीभाँति जाननेवाला होगा। उसके कर्म क्रूर होंगे। वह सदैव शस्त्रोंसे सन्नद्ध रहेगा और वह परम शक्तिशाली बालक राजा दुर्जयके नामसे प्रसिद्ध होगा।’
इस प्रकार वर देकर मुनिवर दुर्वासा अन्यत्र चले गये। राजा सुप्रतीक भी अपने राज्यको वापस लौट आये। धर्मज्ञ राजाने अपनी रानी विद्युत्प्रभाके उदरमें गर्भाधान किया। रानीके समय आनेपर प्रसव हुआ। उस महाबली पुत्रकी दुर्जय नामसे प्रसिद्धि हुई। उसके जन्मके अवसरपर दुर्वासा मुनि पधारे और उन्होंने स्वयं उस बालकके जातकर्म आदि संस्कार किये। साथ ही उन महर्षिने अपने तपोबलसे उस बालकके स्वभावको भी सौम्य बना दिया तथा उसको वेदशास्त्रोंका पारगामी विद्वान्, धर्मात्मा एवं परम- पवित्र बना दिया।
राजा सुप्रतीककी जो दूसरी सौभाग्यवती पत्नी थी, जिसका नाम कान्तिमती था, उसके भी सुद्युम्न नामक एक पुत्र हुआ। वह भी वेद और वेदाङ्गका पूर्ण विद्वान् हुआ। भामिनि ! महाराज सुप्रतीककी राजधानी वाराणसीमें थी। एक बार उनका पुत्र दुर्जय पासमें बैठा हुआ था। उस समय उसे परम योग्य देखकर तथा अपनी वृद्धावस्थापर दृष्टिपात करके राजा उसे ही राज्य साँप देनेका विचार करने लगे। फिर भलीभाँति विचार करके उन धर्मात्मा नरेशने अपना राज्य राजकुमार दुर्जयको सौंप दिया और वे स्वयं चित्रकूट नामक पर्वतपर चले गये ।
इधर राजा दुर्जय भी राज्यके प्रबन्धमें लग गया। यद्यपि उसका राज्य विशाल था; फिर भी वह हाथी, घोड़े एवं रथ आदिसे युक्त चतुरङ्गिणी सेना सजाकर राज्य बढ़ानेकी चिन्तामें पड़ गया। राजा दुर्जय परम मेधावी था। उसने सम्यक् प्रकारसे विचार करके हाथी, घोड़े एवं रथपर बैठकर युद्ध करनेवाले वीरों तथा पैदल सैनिकोंसे अपनी सेना तैयार की और सिद्ध पुरुषों एवं महात्माजनोंद्वारा सेवित उत्तर दिशाके लिये प्रस्थान कर दिया। राजा दुर्जयने क्रमशः इसी प्रकार सम्पूर्ण भारतपर विजय प्राप्त करके किम्पुरुष नामक वर्षको भी जीत लिया। तदनन्तर उसने परवर्ती हरिवर्षमें भी अपनी विजय पताका फहरा दी। फिर रम्यक, रोमावृत, कुरु, भद्राश्व और इलावृत नामसे प्रसिद्ध वर्षोंपर भी उसका शासन स्थापित हो गया। यह सारा स्थान सुमेरुपर्वतका मध्यवर्ती भाग है।
इस प्रकार जब राजा दुर्जयने सम्पूर्ण जम्बूद्वीपपर अपना अधिकार जमा लिया, तब वह देवताओंके सहित इन्द्रको भी जीतनेके लिये आगे बढ़ा। सुमेरुपर्वतपर जाकर उसने वहाँ अनेक देवता, गन्धर्व, दानव, गुह्यक, किंनर और दैत्योंको भी परास्त किया। तबतक ब्रह्मापुत्र नारदजीने दुर्जयकी विजयके विषयमें देवराज इन्द्रको सूचना दे दी । देवराज उसी क्षण लोकपालोंको साथ लेकर उसका वध करनेके लिये चल पड़े। किंतु जल्दी ही राजा दुर्जयके शस्त्रोंके सामने उन्होंने घुटने टेक दिये। तदनन्तर देवराज इन्द्र सुमेरुपर्वतको छोड़कर मर्त्यलोकमें आ बसे और पूर्वदिशामें वे लोकपालोंके साथ रहने लगे। राजा दुर्जयके चरित्रका विस्तारपूर्वक वर्णन आगे किया जायगा।
जब देवताओंने अपनी हार मान ली तो राजा दुर्जय वापस लौटा और लौटते समय गन्धमादन- पर्वतकी तलहटीमें उसने अपनी सेनाओंकी छावनी डाली। जब उसने छावनीकी सारी व्यवस्था कर ली, तब उसके पास दो तपस्वी आ पहुँचे। आते ही उन तपस्वियोंने दुर्जयसे कहा-‘राजन् ! तुमने सम्पूर्ण लोकपालोंका अधिकार छीन लिया है। अब उनके बिना लोकयात्रा चलनी सम्भव नहीं दीखती है, अतएव तुम ऐसी व्यवस्था करो, जिससे इस संसारको उत्तम सुखकी प्राप्ति हो ।’
इस प्रकार तपस्वियोंके कहनेपर धर्मज्ञ राजा दुर्जयने उनसे कहा- आप दोनों कौन हैं ?’ उन शत्रुदमन तपस्वियोंने कहा – ‘हम दोनों असुर हैं। हमारे नाम विद्युत और सुविद्युत हैं। महाराज दुर्जय! हम चाहते हैं कि अब तुम्हारे द्वारा सत्पुरुषोंके समाजमें सुसंस्कृत धर्म बना रहे; अतएव तुम हम दोनोंको लोकपालोंके स्थानपर नियुक्त कर दो। हम उनके सभी कार्य सम्पादन कर सकते हैं।’ उनके ऐसा कहनेपर राजा दुर्जयने स्वर्गमें लोकपालोंके स्थानपर विद्युत और सुविद्युतकी तुरंत नियुक्ति कर दी। वे दोनों तपस्वी वहाँसे तत्काल अन्तर्धान हो गये ।
एक बार राजा दुर्जय मन्दराचल पर्वतपर गया। वहाँ उसने कुबेरके अत्यन्त मनोरम वनको देखा। वह वन इतना सुन्दर था, मानो दूसरा नन्दनवन ही हो। राजा दुर्जय प्रसन्नतापूर्वक उस रमणीय विपिनमें घूमने लगा। इतनेमें एक चम्पकवृक्षके नीचे उसे दो सुन्दरी कन्याएँ दीख पड़ीं देखनेमें उनका रूप अत्यन्त सुन्दर एवं अद्भुत था। उन कन्याओंको देखकर राजा दुर्जयका मन बड़े आश्चर्यमें पड़ गया। वह सोचने लगा- ‘ये सुन्दर नेत्रोंवाली कन्याएँ कौन हैं?’ यों विचार करते हुए राजा दुर्जयको एक क्षण भी नहीं बीता होगा कि उसने देखा कि उस वनमें दो तपस्वी भी विराजमान हैं। उन्हें देखकर
दुर्जयके मनमें अपार हर्ष उमड़ आया। उसने तुरंत हाथीसे उतरकर उन तपस्वियोंको प्रणाम किया। तपस्वियोंने राजा दुर्जयको बैठनेके लिये कुशाओंद्वारा निर्मित एक सुन्दर आसन दिया। राजा दुर्जय उसपर बैठ गया। उसके बैठ जानेपर तपस्वियोंने उससे पूछा – ‘तुम कौन हो, तुम्हारा कहाँसे आगमन हुआ है, किसके पुत्र हो और यहाँ किस लिये आये हो ?’ इसपर राजा दुर्जयने हँसकर उन तपस्वियोंको अपना परिचय देते हुए कहा- ‘महानुभावो ! सुप्रतीक नामसे प्रसिद्ध एक राजा हैं। मैं उनका पुत्र दुर्जय हूँ और भूमण्डलके सभी राजाओंको जीतनेकी इच्छासे यहाँ आया हुआ हूँ। कभी-कभी आप कृपा कर मुझे स्मरण अवश्य करें। तपोधनो! आप दोनों कौन हैं? मुझपर कृपा कर यह बतला दें।’
दोनों तपस्वी बोले- “राजन् ! हमलोग हेतु और प्रहेतृ नामके स्वायम्भुव मनुके पुत्र हैं। हम देवताओंको जीतकर सर्वथा नष्ट कर देनेके विचारसे सुमेरुपर्वतपर गये थे। उस समय हमारे पास बड़ी विशाल सेना थी, जिसमें हाथी, घोड़े एवं रथ भरे हुए थे। देवता भी सैकड़ों एवं हजारोंकी संख्या में थे। उनके पास महान् सेना भी थी; किंतु असुरोंके प्रहारसे उनके सभी सैनिक अपने प्राणोंसे हाथ धो बैठे। यह स्थिति देखकर देवता – क्षीरसागरमें, जहाँ भगवान् श्रीहरि शयन करते हैं- पहुँचे और उनकी शरणमें गये। वहाँ देवगण भगवान्को प्रणाम कर अपनी आप बीती बातें यों सुनाने लगे – ‘भगवन्! आप हम सभी देवताओंके स्वामी हैं। पराक्रमी असुरोंने हमारी सारी सेनाको परास्त कर दिया है। भयके कारण हमारे नेत्र कातर हो रहे हैं। अतः आप हमारी रक्षा करनेकी कृपा करें। केशव ! पहले भी आपने देवासुर संग्राममें क्रूरकर्मा कालनेमि एवं सहस्रभुजसे हमारी रक्षा की है। देवेश्वर ! इस समय भी हमारे सामने वैसी ही परिस्थिति आ गयी है। हेतु और प्रहेतृ नामके दो दानव देवताओंके लिये कण्टक बने हुए हैं। इनके सैनिकों तथा शस्त्रास्त्रोंकी संख्या असीम है। देवेश्वर! आपका सम्पूर्ण जगत् पर शासन है, अतः उन दोनों असुरोंको मारकर हम सभीकी रक्षा करनेकी कृपा करें।’
“इस प्रकार जब देवताओंने भगवान् नारायणसे प्रार्थना की, तब वे जगत् प्रभु श्रीहरि बोले – ‘उन असुरोंका संहार करनेके लिये मैं अवश्य आऊँगा ।’ भगवान् विष्णुके यह कहनेपर देवता मन-ही-मन भगवान् जनार्दनका स्मरण करते हुए सुमेरु- पर्वतपर गये। वहाँ उनके चिन्तन करते ही सुदर्शनचक्र एवं गदा धारण किये हुए भगवान् नारायण हमलोगोंकी सेनाका भेदन करते हुए उसमें प्रविष्ट हो गये। उन सर्वलोकेश्वरने अपने योगेश्वर्यका आश्रय लेकर उसी क्षण अपने एकसे- दस, सौ, फिर हजार, लाख तथा करोड़ों रूप बना लिये। उन देवेश्वरके आते ही सेनामें जो भी महान् पराक्रमी वीर हमारे बलके सहारे लड़ रहे थे, वे अचेत होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। राजन् ! अधिक क्या उसी समय उनके प्राण पखेरू उड़ गये। इस प्रकार विश्वरूप धारण करनेवाले भगवान् नारायणने अपनी योगमायासे हमारी सम्पूर्ण चतुरङ्गिणी सेनाका – जो हाथी, घोड़े, रथ एवं पैदल वीरों एवं ध्वजाओंसे भरी हुई थी, संहार कर डाला। बस, केवल हम दो दानवोंको बचे देखकर वे सुदर्शनचक्रधारी श्रीहरि अन्तर्धान हो गये। शार्ङ्ग धनुष धारण करनेवाले भगवान् श्रीहरिका ऐसा अद्भुत कर्म देखकर हम दोनोंने भी उन प्रभुकी आराधना करनेके लिये उनकी शरण ग्रहण कर ली। राजन्! राजा सुप्रतीक हमारे मित्र थे और तुम उनके पुत्र हो। ये दोनों कन्याएँ हमारी पुत्री हैं। मुझ हेतृकी कन्याका नाम सुकेशी और इस प्रहेतुकी कन्याका नाम मिश्रकेशी है। इन्हें तुम अपनी अर्द्धाङ्गिनीके रूपमें स्वीकार करो। “
हेतृके इस प्रकार कहने पर राजा दुर्जयने उन दोनों मङ्गलमयी कन्याओंके साथ विधिपूर्वक विवाह कर लिया। सहसा ऐसी दिव्य कन्याओंको प्राप्तकर दुर्जयके हर्षकी सीमा न रही। वह सैनिकोंके साथ अपनी राजधानीमें लौट आया। बहुत समयके बाद राजा दुर्जयके दो पुत्र हुए। सुकेशीसे जो बालक उत्पन्न हुआ, उसका नाम प्रभव पड़ा और मिश्रकेशीके पुत्रका नाम सुदर्शन रखा गया। राजा दुर्जय महान् वैभवशाली तो था ही, उसे परमश्रेष्ठ दो पुत्रोंकी प्राप्ति भी हो गयी कुछ समयके पश्चात् वह राजा शिकार खेलनेके लिये जंगलमें गया। वहाँ जाकर उसने भयंकर जंगली जानवरोंको पकड़कर बाँधना शुरू कर दिया। इस प्रकार वनमें विचरण करते हुए राजा दुर्जयको जंगलमें कुटी बनाकर रहनेवाले एक पुण्यात्मा मुनि दिखायी पड़े। वे महाभाग मुनि तपस्या कर रहे थे। उनका नाम गौरमुख था। वे ऋषियोंके परिवारोंकी रक्षा तथा पापियोंके उद्धार कार्यमें लगे रहते थे। उनके आश्रम में विशिष्ट गुणोंसे युक्त एक पवित्र सरोवर था। वहाँ एक ऐसा उत्तम वृक्ष भी था, जिसकी सुगन्धसे सारे वनका वायुमण्डल सुगन्धित हो उठता था । वे मुनि अपने आश्रम में स्थित होकर ऐसे जान पड़ते थे, मानो कोई मेघ उत्तम विमानपर आरूढ़ होकर आकाशसे पृथ्वीपर उतर आया हो। मुनिवर गौरमुखके देदीप्यमान मुखसे छिटकता हुआ प्रकाश आकाशको जगमगा देता था। वे पवित्र वस्त्रोंसे सुशोभित थे। उनके शिष्योंकी मण्डली उच्चस्वरसे सामवेदका गान कर रही थी। उनके आश्रम में मुनि कन्याएँ तथा मुनि- पत्नियाँ भी अत्यन्त सात्त्विक वेष धारण किये हुए थीं। सुन्दर पुष्पोंसे लदे हुए अगणित वृक्ष उस आश्रमकी शोभा बढ़ा रहे थे। इस प्रकार उस आश्रममें मुनिवर गौरमुखकी यज्ञशाला अद्भुत शोभाको प्राप्त हो रही थी ।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय १० राजा दुर्जयका चरित्र तथा नैमिषारण्यकी प्रसिद्धिका प्रसङ्ग
भगवान् वराह कहते हैं- पृथ्वि ! उस समय मुनिवर गौरमुखके परम उत्तम आश्रमको देखकर राजा दुर्जयने सोचा- ‘इस परम मनोहर आश्रम में चलूँ और इसमें रहनेवाले अनुपम ऋषियोंके दर्शन करूँ।’ यह विचार करके राजा दुर्जय आश्रमके भीतर चले गये। मुनिवर गौरमुख धर्मके साक्षात् स्वरूप थे। आश्रममें राजा दुर्जयके आनेपर मुनिका हृदय आनन्दसे भर उठा। उन्होंने राजाका भलीभाँति सम्मान किया। स्वागत-सत्कारके पश्चात् परस्पर कुछ वार्तालाप प्रारम्भ हुआ। मुनिवरने कहा – ‘महाराज ! मैं यथाशक्ति अनुयायियोंसहित आपको भोजन-पान कराऊँगा । आप हाथी, घोड़े आदि वाहनोंको मुक्त कर दें और यहाँ पधारें।’
ऐसा कहकर मुनिवर गौरमुख मौन हो गये। मुनिके प्रति श्रद्धा होनेसे राजा दुर्जयके मनमें भी आतिथ्य स्वीकार करनेकी बात जँच गयी। अतः अनुचरोंके साथ वे वहीं रह गये। उनके पास पाँच अक्षौहिणी सेना थी। राजा दुर्जय सोचने लगे- ‘ये तपस्वी ऋषि मुझे यहाँ क्या भोजन देंगे ?” इधर राजाको भोजनके लिये निमन्त्रित करनेके पश्चात् विप्रवर गौरमुख भी बड़ी चिन्तामें पड़ गये। वे सोचने लगे- ‘मैं अब राजाको क्या
खिलाऊँ ?’ महर्षि गौरमुख निरन्तर भगवद्भावमें तल्लीन रहते थे। अतएव उनके मनमें चिन्ता उत्पन्न होनेपर उन्हें देवेश्वर जगत्प्रभु भगवान् नारायणकी याद आयी। मन-ही-मन उन्होंने भगवान् नारायणका स्मरण किया और गङ्गाके तटपर जाकर उन जगदीश्वर प्रभुकी स्तुति करने लगे।
पृथ्वीने पूछा – भगवन्! विप्रवर गौरमुखने भगवान् विष्णुकी किस प्रकार स्तुति की, इसको सुननेके लिये मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है।
भगवान् वराह बोले- पृथ्वि ! गौरमुखने भगवान्की इस प्रकार प्रार्थना की-
जो पीताम्बर धारण करते हैं, आदिरूप हैं तथा जलके रूपमें जो अभिव्यक्त होते हैं, उन सनातन भगवान् विष्णुको मेरा बारंबार नमस्कार है। जो घट-घट वासी हैं, जलमें शयन करते हैं, पृथ्वी, तेज, वायु एवं आकाश आदि महाभूत जिनके स्वरूप हैं, उन भगवान् नारायणको मेरा बारंबार नमस्कार है भगवन्! आप सम्पूर्ण प्राणियोंके आराध्य और सबके हृदयमें स्थित हैं, अन्तर्यामी परमात्माके रूपमें विराजमान हैं। आप ही ॐकार तथा वषट्कार हैं। प्रभो! आपकी सत्ता सर्वत्र विद्यमान है। आप समस्त देवताओंके आदिकारण हैं, पर आपका आदि कोई नहीं हैं। भगवन्! भूः भुवः स्वः, जन, मह, तप और सत्य- ये सभी लोक आपमें स्थित हैं। अतः चराचर जगत् आपमें ही आश्रय पाता है। आपसे ही सम्पूर्ण प्राणिसमुदाय, चारों वेदों तथा सभी शास्त्रोंकी उत्पत्ति हुई है। यज्ञ भी आपमें ही प्रतिष्ठित हैं। जनार्दन ! पेड़- पौधे, वनौषधियाँ, पशु-पक्षी और सर्प — इन सबकी उत्पत्ति आपसे ही हुई है। देवेश्वर ! यह दुर्जय नामका राजा मेरे यहाँ अतिथिरूपसे प्राप्त हुआ है। मैं इसका आतिथ्यसत्कार करना चाहता हूँ। भगवन्! आप देवताओंके भी आराध्य और जगत् के स्वामी हैं, मैं नितान्त निर्धन हूँ। फिर भी आपसे मेरी भक्ति और विनयपूर्ण प्रार्थना है कि आप मेरे यहाँ अन्न आदि भोज्य पदार्थोंका संचय कर दें। मैं अपने हाथसे जिस-जिस वस्तुका स्पर्श करूँ और आँखसे जिस-जिस पदार्थको देख लूँ, वह चाहे काठ अथवा तृण ही क्यों न हो, वह तत्काल चार प्रकारके सुपक्व अन्नके रूपमें परिणत हो जाय। परमेश्वर! आपको मेरा नमस्कार है। भगवन्! इसके अतिरिक्त यदि मैं किसी दूसरे पदार्थका भी मनमें चिन्तन करूँ तो वह सब- का सब मेरे लिये सद्यः प्रस्तुत हो जाय। *
भगवान् वराह कहते हैं – पृथ्वि ! इस प्रकार जब मुनिवर गौरमुखने जगत् प्रभु भगवान् श्रीहरिकी स्तुति की तो वे अत्यन्त प्रसन्न हो गये और उन महाभाग केशवने अपना श्रेष्ठ रूप गौरमुखको प्रत्यक्ष दिखलाया और कहा – ‘विप्रवर ! जो चाहो, वर माँग लो।’ यह सुनकर मुनिने ज्यों ही अपने नेत्र खोले, त्यों ही उनको भगवान् श्रीहरिके परम आश्चर्यमय रूपका दर्शन हुआ। उन्होंने देखा भगवान् जनार्दन अपने हाथोंमें गदा और शङ्ख लिये हुए हैं और उनका श्रीविग्रह पीताम्बरसे सुशोभित है। वे गरुडपर बैठे हुए हैं और तेजस्वी तो इतने हैं कि बारह सूर्योका प्रकाश भी उनके सामने कुछ भी नहीं है। अधिक क्या, यदि आकाशमें एक हजार सूर्य एक साथ उदित हो जायँ तो कदाचित् उनका वह प्रकाश उन विश्वरूप परमात्माके प्रकाशके सदृश हो जाय! अनेक रूपों में विभक्त सम्पूर्ण जगत् उन श्रीहरिके श्रीविग्रहमें एकाकार रूपमें स्थित था। देवि! भगवान् श्रीहरिके ऐसे अद्भुत रूपको देखते ही मुनिवर गौरमुखके नेत्र आश्चर्यसे खिल उठे। मुनिने उनको सिर झुकाकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहने लगे- ‘भगवन् ! अब मुझे आपसे किसी प्रकारके वरकी इच्छा शेष नहीं रह गयी है। मैं केवल यही चाहता हूँ कि इस समय राजा दुर्जयको जिस किसी भी भाँति मेरे आश्रमपर अपने सैनिकों एवं वाहनोंके साथ भोजन प्राप्त हो जाय। कल तो वह अपने घर चला ही जायगा ।’
इस प्रकार मुनिवर गौरमुखके प्रार्थना करनेपर देवेश्वर श्रीहरि द्रवित हो गये और चिन्तन करनेमात्र से सिद्धि प्रदान करनेवाला एक महान् कान्तिमान् ‘चिन्तामणि’ रत्न उन्हें देकर वे अन्तर्धान हो गये। इधर गौरमुख भी अपने अनेक ऋषि महर्षियोंसे सेवित पवित्र आश्रम में पधारे। वहाँ पहुँचकर मुनिने उस ‘चिन्तामणि के सम्मुख विशाल प्रासाद एवं हिमालयके शिखर तथा महान् मेघके समान ऊँचे एवं चन्द्र-किरणोंके सदृश चमकसे युक्त सैकड़ों तलोंके महलका चिन्तन किया। फिर तो एककी कौन कहे, हजारों एवं करोड़ोंकी संख्यामें वैसे विशाल भवन तैयार हो गये। कारण, गौरमुखको भगवान् श्रीहरिसे वर मिल चुका था। महलोंके आस-पास चहारदीवारियाँ बन गयीं । उनके बगलमें सटे ही उपवन उन महलोंकी शोभा बढ़ाने लगे। उन उद्यानोंमें कोकिलें तथा अनेक प्रकारके पक्षी भी आ बसे । चम्पा, अशोक, जायफल और नागकेसर आदि अनेक प्रकारके बहुत से वृक्ष उन उद्यानोंमें सब ओर दृष्टिगत होने लगे। हाथियोंके लिये हथसार तथा घोड़ोंके लिये घुड़सारका निर्माण हो गया। इन सबका संचय हो जानेपर गौरमुखने सब प्रकारके भोज्य पदार्थोंका चिन्तन किया। फिर उस मणिने भक्ष्य, भोज्य, लेह्य एवं चोष्य प्रभृति अनेक प्रकारके अन्न तथा परोसनेके लिये बहुत से स्वर्ण पात्र भी प्रस्तुत कर दिये। ऐसी सूचना मुनिवर गौरमुखको मिल गयी। तब उन्होंने परम तेजस्वी राजा दुर्जयसे कहा – ‘महाराज ! अब आप अपने सैनिकोंके साथ महलोंमें पधारें।’ मुनिकी आज्ञा पाकर राजा दुर्जयने उस परम विशाल गृहमें प्रवेश किया, जो पर्वतके समान ऊँचा जान पड़ता था। राजाके भीतर चले जानेपर अन्य सेवकगण भी यथाशीघ्र अपने-अपने गृहोंमें प्रविष्ट हो गये ।
तदनन्तर जब सब-के-सब महलमें चले गये, तब फिर मुनिवर गौरमुखने उस दिव्य चिन्तामणिको हाथमें लेकर राजा दुर्जयसे कहा- ‘राजन् ! यदि अब आप स्नान भोजन करना चाहते हों तो मैं दास-दासियोंको आपकी सेवामें भेज दूँ।’ इस प्रकार कहकर द्विजवर गौरमुखने राजाके देखते- देखते हो भगवान् विष्णुसे प्राप्त ‘चिन्तामणि’ को एकान्त स्थानमें स्थापित किया। शुद्ध एवं प्रभापूर्ण उस चिन्तामणिके वहाँ रखते-न-रखते हजारों दिव्य रूपवाली स्त्रियाँ प्रकट हो गयीं । उन स्त्रियोंके सभी अङ्ग बड़े सुन्दर, सुकुमार तथा अनुलेपनोंसे अलङ्कृत थे। उनके कपोल, केश और आँखें बड़ी सुन्दर थीं। वे सोनेके पात्रोंको लेकर चल पड़ीं। इसी प्रकार कार्य करनेमें कुशल अनेकों पुरुष भी एक साथ ही राजा दुर्जयकी सेवाके लिये अग्रसर हुए। अब तुरही आदि अनेक प्रकारके बाजे बजने लगे। जिस समय राजा दुर्जय स्नान करने लगे तो कुछ स्त्रियाँ इन्द्रके स्नानकालके समान ही उनके सामने भी नाचने और गाने लगीं। इस प्रकार दिव्य उपचारोंके साथ महाभाग दुर्जयका स्नानकार्य सम्पन्न हुआ ।
अब राजा दुर्जय बड़े आश्चर्यमें पड़ गया। वह सोचने लगा- ‘अहो ! यह मुनिकी तपस्याका प्रभाव हैं अथवा इस चिन्तामणिका ?’ फिर उसने स्नान किया, उत्तम वस्त्र पहने और भाँति- भाँतिके अन्नोंसे बने भोजनको ग्रहण किया। उस समय मुनिवर गौरमुखने जिस प्रकार राजा दुर्जयकी सेवा एवं सत्कार किया, वैसे ही वे राजाके सेवकोंकी सेवामें भी संलग्न रहे। राजा अपने सेवकों, सैनिकों और वाहनोंके साथ भोजनपर बैठा ही था कि इतनेमें भगवान् भास्कर अस्ताचलको पधारे। आकाश लाल हो गया। अब शरद् ऋतुके स्वच्छ चन्द्रमासे मण्डित रात्रि आयी। ऐसा जान पड़ता था, मानो सभी श्रेष्ठ गुणोंसे सम्पन्न रोहिणीनाथ उस रात्रिसे अनुराग कर रहे हों उनके साथ ही हरित किरणोंसे युक्त शुक्र और बृहस्पति भी उदित हो गये। पर चन्द्रमाके साथ उनकी शोभा अधिक नहीं हो रही थी। क्योंकि प्राणियोंकी ऐसी धारणा है कि दूसरेके पक्षमें गया हुआ कोई भी व्यक्ति अपने भिन्न स्वभावके कारण शोभा नहीं पाता । चन्द्रमाकी चमकती हुई किरणें सबको प्रसन्न करनेमें पूर्ण समर्थ हैं; किंतु उनसे भी सभी प्रेम नहीं करते।
अबतक उन नरेशके सभी सेवक एवं वे स्वयं भी भोजन वस्त्र और आभूषणोंसे सत्कृत हो चुके थे। अब उनके सोनेके लिये बहुत-से रत्नजटित पलंग भी भिन्न-भिन्न कक्षोंमें उपस्थित हो गये। उनपर सुन्दर गद्दे और चादरें भी बिछी थीं। अपने हाव-भावसे प्रसन्न करनेवाली मनोहारिणी दिव्य स्त्रियाँ भी वहाँ सपर्याके लिये तत्पर थीं। राजा दुर्जय उस महलमें गया। साथ ही अपने भृत्योंको भी जानेकी आज्ञा दी। जब सभी महलोंमें चले गये, तब वह प्रतापी राजा भी स्त्रियोंसे घिरा सुखपूर्वक शयन करनेवाले इन्द्रकी तरह सो गया।
इस प्रकार महात्मा गौरमुखके स्वागत-सत्कारसे प्रभावित, परम प्रसन्न राजा तथा उनके सभी सेवक सो गये। रात बीत जानेपर राजा दुर्जयने जगकर जब नेत्र खोले तो वे सुन्दर स्त्रियाँ, सभी बहुमूल्य महल तथा उत्तम उत्तम पलंग सब-के- सब लुप्त हो गये थे। यह स्थिति देखकर दुर्जयको बड़ा आश्चर्य हुआ। मनमें चिन्ताके बादल उमड़ आये और दुःखकी लहरें उठने लगीं। यह मणि कैसे प्राप्त हो, इस प्रकारकी चिन्ताकी लहरियाँ उसके मनमें बार-बार उठने लगीं। अन्तमें उसने निश्चय किया कि इस गौरमुख ब्राह्मणकी यह मणि मैं हठपूर्वक छीन लूँ। फिर वहाँसे चलनेके लिये सबको आज्ञा दे दी। जब मुनिके आश्रमसे निकलकर वह थोड़ी दूर गया और उसके वाहन तथा सैनिक सभी बाहर चले आये, तब दुर्जयने विरोचन नामके अपने मन्त्रीको मुनिके पास भेजकर कहलवाया कि गौरमुखके पास जो मणि है, उसे वे मुझे दे दें। मन्त्रीने मुनिसे कहा – ‘ रत्नोंके रखनेका उचित पात्र राजा ही होता है, इसलिये यह मणि आप राजा दुर्जयको दे दें।’ मन्त्रीके ऐसा कहनेपर गौरमुखने क्रोधमें आकर उससे कहा- ‘मन्त्री ! तुम उस दुराचारी राजा दुर्जयसे स्वयं मेरी बात कह दो। साथ ही मेरा यह भी संदेश कहना- ‘अरे दुष्ट! तू अभी यहाँसे भाग जा, क्योंकि यह स्थान दुर्जय-जैसे दुष्टोंके रहने योग्य नहीं है।’
इस प्रकार द्विजवर गौरमुखके कहनेपर दुर्जयका मन्त्री विरोचन, जो दूतका काम कर रहा था, राजाके पास गया और ब्राह्मणकी कही हुई सारी बातें उसे अक्षरशः सुना दीं। गौरमुखके वचन सुनते ही दुर्जयकी क्रोधाग्नि भभक उठी। उसने उसी क्षण नील नामक मन्त्रीसे कहा- ‘तुम अभी जाओ और चाहे जैसे भी हो उस ब्राह्मणसे मणि छीनकर शीघ्र यहाँ आ जाओ।’
इसपर नील बहुत-से सैनिकोंको साथ लेकर गौरमुखके आश्रमकी और चल पड़ा। फिर वह रथसे नीचे उतरकर जमीनपर आया । तदनन्तर अग्निशालामें पहुँचकर उसने मणिको रखे हुए देखा । परम दारुण क्रूर बुद्धि नीलके पृथ्वीपर उतरते ही उस मणिसे भी अस्त्र-शस्त्र लिये हुए अपरिमित शक्तिशाली असंख्य शूर-वीर निकल पड़े, जो रथ, ध्वजा और घोड़ोंसे सुसज्जित थे तथा ढाल, तलवार, धनुष और तरकस लिये हुए थे। (भगवान् वराह कहते हैं -) परम भाग्यवति पृथ्वि ! उनमें पंद्रह तो प्रमुख वीर सेनापति थे, जिनके नाम इस प्रकार हैं- सुप्रभ, दीप्ततेजा सुरश्मि, शुभदर्शन, सुकान्ति, सुन्दर, सुन्द, प्रद्युम्न, सुमन, शुभ, सुशील, सुखद, शम्भु, सुदान्त और सोम इन वीर पुरुषोंने विरोचनको बहुत-सी सेनाके साथ डटा देखा। तब ये सभी शूर-वीर अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लेकर बड़ी सावधानीसे युद्ध करने लगे। उनके धनुष सुवर्णके समान देदीप्यमान थे। उनके पङ्खधारी बाण शुद्ध सोनेसे बने हुए थे। अब वे परम प्रसिद्ध तथा अत्यन्त भयंकर तलवारों एवं त्रिशूलोंसे प्रहार करने लगे। उस युद्धमें विरोचनके रथ, हाथी, घोड़े और पैदल लड़नेवाले सैनिकोंके आगे मणिसे प्रकट हुए वीरोंके रथ, हाथी, घोड़े एवं पदाति सैनिक डट गये और उनमें भयंकर द्वन्द्वयुद्ध छिड़ गया । छल-बल आदि अनेक प्रकारके युद्धोंके बावजूद विरोचनके सैनिक भयसे कम्पित हो उठे और वे भाग चले। घोर रक्तप्रवाहसे मार्ग बड़े भयंकर हो गये। दुर्जयके मन्त्री विरोचनकी तो जीवन- लीला ही समाप्त हो गयी। उसके बहुतसे अनुयायी भी सैनिकोंसहित यमराजके लोकको प्रस्थान कर गये।
मन्त्री विरोचनके मर जानेपर अब स्वयं राजा दुर्जय चतुरङ्गिणी सेना लेकर युद्धक्षेत्रमें आया और मणिसे प्रकट हुए शूर-वीरोंके साथ उसका युद्ध प्रारम्भ हो गया। इस युद्धमें राजा दुर्जयकी सैन्यशक्तिका भयंकर विनाश हुआ। इधर हेतृ और प्रहेतृको खबर मिली कि मेरा जामाता दुर्जय संग्राममें लड़ रहा है तो वे दोनों असुर भी एक विशाल सेनाके साथ वहाँ आ गये। उस युद्धभूमिमें जो पंद्रह प्रमुख मायावी दैत्य आये थे, उनके नाम सुनो- प्रघस, विघस, संघ, अशनिप्रभ, विद्युत्प्रभ, सुघोष, भयंकर, उन्मत्ताक्ष, अग्निदत्त, अग्नितेज, बाहु, शक्र, प्रतर्दन, विरोध और भीमकर्मा विप्रचित्ति। इनके पास भी उत्तम अस्त्र- शस्त्रोंका संग्रह था । प्रत्येक वीरके साथ एक-एक अक्षौहिणी सेना थी। ये सभी दुष्ट दुर्जयकी ओरसे युद्धभूमिमें डटकर मणिसे प्रकट हुए वीरोंके साथ लड़नेके लिये उद्यत हो गये। सुप्रभने तीन बाणोंसे विघसको बींध डाला और सुरश्मिने दस बाणोंसे प्रघसको उस मोर्चेपर सुदर्शनके पाँच बाणोंसे अशनिप्रभके अङ्ग छिद गये। इसी प्रकार सुकान्तिने विद्युत्प्रभको तथा सुन्दरने सुघोषको धराशायी कर डाला। सुन्दने अपने शीघ्रगामी पाँच बाणोंसे उन्मत्ताक्षपर प्रहार किया। साथ ही चमचमाते हुए बाणोंसे शत्रुके धनुषके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। इस प्रकार सुमनका अग्निदत्तसे, सुवेदका अग्नितेजसे, सुनलका बाहु एवं शक्रसे तथा सुवेदका प्रतर्दनसे युद्ध छिड़ गया।
यों अपने अस्त्र-शस्त्रोंकी कुशलता दिखाते हुए सैनिक आपसमें युद्ध करने लगे, पर अन्तमें मणिसे प्रकट हुए योद्धाओंके हाथ सभी दैत्य मार डाले गये। अब मुनिवर गौरमुख भी हाथमें कुशा आदि लिये वनसे आश्रममें पहुँचे। दुर्जय अब भी बहुतसे सैनिकोंके साथ खड़ा था। यह देखकर गौरमुख आश्रमके दरवाजेपर रुक गये और मन ही मन विचार करने लगे-‘अहो, इस मणिके कारण ही यह सब कुछ हुआ और हो रहा है। अरे! यह भयंकर संग्राम इस मणिके लिये ही आरम्भ हुआ है।’
इस प्रकार सोचते-सोचते मुनिवर गौरमुखने देवाधिदेव भगवान् श्रीहरिका स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही पीताम्बर धारण किये हुए भगवान् नारायण गरुडपर विराजमान हो मुनिके सामने प्रकट हो गये और बोले- ‘कहो ! मैं तुम्हारे लिये क्या करूँ ?’ तब मुनिवर गौरमुखने हाथ जोड़कर पुरुषोत्तम भगवान् श्रीहरिसे कहा- ‘प्रभो! आप इस पापी दुर्जयको इसकी सेनाके सहित मार डालें।’ मुनिके ऐसा कहते ही अग्निके समान प्रज्वलित भगवान् के सुदर्शनचक्रने सेनासहित दुर्जयको भस्म कर डाला। यह सब कार्य एक निमेषके भीतर- पलक मारते सम्पन्न हो गया। फिर भगवान् ने गौरमुखसे कहा- ‘मुने! इस वनमें दानवोंका परिवार एक निमेषमें ही नष्ट हो गया है। अतः इस स्थानकी ‘नैमिषारण्य क्षेत्र’ के नामसे प्रसिद्धि होगी। इस तीर्थमें ब्राह्मणोंका समुचित निवास होगा। इस वनके भीतर मैं यज्ञपुरुषके रूपमें निवास करूँगा । ये पंद्रह दिव्य पुरुष, जो मणिसे प्रकट हुए हैं, सत्ययुगमें याज्य नामसे विख्यात राजा होंगे।’
इस प्रकार कहकर भगवान् श्रीहरि अन्तर्धान हो गये और मुनिवर गौरमुख भी अपने आश्रममें आनन्दपूर्वक निवास करने लगे ।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ११ राजा सुप्रतीककृत भगवान्की स्तुति तथा श्रीविग्रहमें लीन होना
भगवान् वराह कहते हैं- पृथ्वि ! जब राजा सुप्रतीकने इतने बली पुरुषोंके चक्रकी आगमें भस्म होनेकी बात सुनी तो उनके सर्वाङ्गमें चिन्ता व्याप्त हो गयी और वे सोचमें पड़ गये। फिर सहसा उनके अन्तःकरणमें आध्यात्मिक ज्ञानका उदय हो गया। उन्होंने सोचा- ‘चित्रकूट पर्वतपर भगवान् विष्णु, जो राघवेन्द्र ‘श्रीराम’ नामसे कहे जाते हैं, अत्यन्त विख्यात हैं। अब मैं वहीं चलूँ और भगवान्के नामोंका उच्चारण करते हुए उनकी स्तुति करूँ ।’ मनमें ऐसा निश्चय कर राजा सुप्रतीक परम पवित्र चित्रकूट पर्वतपर पहुँचे और भगवान्की इस प्रकार स्तुति करने लग गये।
राजा सुप्रतीक बोले- जो राम नरनाथ, अच्युत, कवि, पुराण, देवताओंके शत्रु असुरोंका नाश करनेवाले, प्रभव, महेश्वर, प्रपन्नार्तिहर एवं श्रीधर नामसे सुप्रसिद्ध हैं, उन मङ्गलमय भगवान् श्रीहरिको मैं निरन्तर नमस्कार करता हूँ। प्रभो! पृथ्वीमें (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध – इन) पाँच प्रकारसे, जलमें (शब्द, स्पर्श रूप, रस- इन ) चार प्रकारसे, अग्निमें (शब्द, स्पर्श और रूप – इन ) तीन प्रकारसे वायुमें (शब्द एवं स्पर्श – इन ) दो प्रकारसे तथा आकाशमें केवल शब्दरूपसे विराजने वाले परम पुरुष एकमात्र आप ही हैं। सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि तथा यह सारा संसार आपका ही रूप है – आपसे ही यह विश्व प्रकट होता तथा आपमें ही लीन हो जाता है-ऐसा शास्त्रोंका कथन है। आपका आश्रय पाकर विश्व आनन्दका अनुभव करता है। इसीलिये तो समस्त संसारमें आपकी ‘राम’ नामसे प्रतिष्ठा हो रही है। भगवन्! यह संसार-समुद्र भयंकर दुःखरूपी तरङ्गोंसे व्याप्त है। इस भयंकर समुद्रमें इन्द्रियाँ ही घड़ियाल और नाक आदि क्रूर जल-जन्तु हैं। पर जिस मनुष्यने आपके नामस्मरणरूपी नौकाका आश्रय ले लिया है, वह इसमें नहीं डूबता अतएव संतलोग तपोवनमें आपके राम-नामका स्मरण करते हैं। प्रभो! वेदोंके नष्ट होनेपर आपने मत्स्यावतार धारण किया। विभो ! प्रलयके अवसरपर आप अत्यन्त प्रचण्ड अग्निका रूप धारण कर लेते हैं, जिससे सारी दिशाएँ भस्ममय रूपसे रञ्जित हो जाती हैं। माधव! समुद्र मन्थनके समय युग-युगमें आप ही स्वयं कच्छपके रूपसे पधारे थे । भगवन्! आप जनार्दन नामसे विख्यात हैं। जब आपकी तुलना करनेवाला दूसरा कोई कहीं भी नहीं मिला तो आपसे अधिककी बात ही क्या है। महात्मन्! आपसे यह सम्पूर्ण संसार, वेद एवं समस्त दिशाएँ ओत-प्रोत हैं। आप आदिपुरुष एवं परमधाम हैं। फिर आपके अतिरिक्त मैं दूसरे किसकी शरणमें जाऊँ। सर्वप्रथम केवल आप ही विराजमान थे। इसके बाद महत्तत्त्व, अहंतत्त्वमय जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन-बुद्धि एवं सभी गुण- इनका भी क्रमशः आविर्भाव हुआ। आपसे ही इन सबकी उत्पत्ति हुई है। मेरी समझसे आप सनातन पुरुष हैं। यह अखिल विश्व आपसे भलीभाँति विरचित एवं विस्तृत है। सम्पूर्ण संसारपर शासन करनेवाले प्रभो! विश्व आपकी मूर्ति है। आप हजार भुजाओंसे शोभा पाते हैं। ऐसे देवताओंके भी आराध्य आप प्रभुकी जय हो। परम उदार भगवन्! आपके ‘राम’ रूपको मेरा नमस्कार है।
राजा सुप्रतीकके स्तुति करनेपर प्रभु प्रसन्न हो गये। भगवान् ने अपने स्वरूपका इस प्रकार उन्हें दर्शन कराया और कहा- सुप्रतीक! वर माँगो’ श्रीहरिकी अमृतमयी वाणी सुनकर एक बार राजाको बड़ा आश्चर्य हुआ। फिर उन देवाधिदेव प्रभुको प्रणाम कर वे बोले-‘भगवन् ! आपका जो यह सर्वोत्तम विग्रह है, इसमें मुझे स्थान मिल जाय – आप मुझे यह वर देनेकी कृपा करें।’ इस प्रकारकी बातें समाप्त होते ही महाराज सुप्रतीककी चित्तवृत्ति भगवान् गदाधरकी दिव्यमूर्ति में लग गयी। ध्यानस्थ होकर वे भगवान्के नामोंका उच्चारण करने लगे। फिर उसी क्षण अपने अनेक उत्तम कर्मोंके प्रभावसे वे पाञ्चभौतिक शरीर छोड़कर श्रीहरिके विग्रहमें लीन हो गये ।
भगवान् वराह कहते हैं – पृथ्वि ! तुम्हारे सामने मैंने इस समय जिसे प्रस्तुत किया है, वह यह वराहपुराण बहुत प्राचीन है। पूर्व सत्ययुगमें मैंने ब्रह्माजीको इसका उपदेश किया था। यह उसीका एक अंश है। कोई हजारों मुखोंसे भी इसे कहना चाहे तो नहीं कह सकता। कल्याणि ! प्रसङ्ग छिड़ जानेपर पूर्णरूपसे जो कुछ स्मरणमें आ गया है, वही प्राचीन चरित्र तुम्हें सुनाया है। कुछ लोग इसकी समुद्रके बूँदोंसे उपमा देते हैं, पर यह ठीक नहीं है। स्वयम्भू ब्रह्माजी, सर्वतन्त्र – स्वतन्त्र भगवान् नारायण तथा मैं- सभी समस्त चरित्रका वर्णन करनेमें असमर्थ हैं। अतः उन परम प्रभु परमात्माके आदिस्वरूपका तुम्हें सदा स्मरण करना चाहिये । समुद्रके रेतोंकी तथा पृथ्वीके रजःकणोंकी तो गणना हो सकती है; किंतु परब्रह्म परमात्माकी कितनी लीलाएँ हैं – इसकी संख्या असम्भव है। शुचिस्मिते! तुम्हें मैंने जो प्रसङ्ग सुनाया है, यह उन भगवान् नारायणके केवल एक अंशसे सम्बन्ध रखता है। यह लीला सत्ययुगमें हुई थी। अब तुम दूसरा कौन प्रसङ्ग सुनना चाहती हो, यह बतलाओ ।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय १२ पितरोंका परिचय, श्राद्धके समयका निरूपण तथा पितृगीत
पृथ्वीने पूछा- प्रभो ! मुनिवर गौरमुखने भगवान् श्रीहरिके अद्भुत कर्मको देखकर फिर क्या किया ?
भगवान् वराह कहते हैं- पृथ्वि ! भगवान् श्रीहरिने निमेषमात्रमें ही वह सब अद्भुत कर्म कर दिखाया था। उसे देखकर मुनिश्रेष्ठ गौरमुखने भी नैमिषारण्यक्षेत्रमें जाकर जगदीश्वर श्रीहरिकी आराधना आरम्भ कर दी। उस क्षेत्रमें प्रभास नामसे प्रसिद्ध एक तीर्थ हैं। वह परम दुर्लभ तीर्थ चन्द्रमासे सम्बन्धित है। तीर्थके विशेषज्ञोंका कथन है कि वहाँके स्वामी भगवान् श्रीहरि दैत्योंका संहार करनेवाले ‘दैत्यसूदन’ नामसे सदा विराजते हैं। मुनिकी चित्तवृत्ति उन प्रभुकी आराधनामें स्थिर हो गयी। अभी वे उन भगवान् नारायणकी उपासना कर ही रहे थे- इतनेमें परम योगी मार्कण्डेयजी वहाँ आ गये। उन्हें अतिथिके रूपमें प्राप्तकर गौरमुखने दूरसे ही बड़े हर्षके साथ भक्तिपूर्वक उनकी पाद्य एवं अर्घ्य आदिसे पूजा आरम्भ कर दी। उन प्रतापी मुनिको कुशके आसनपर विराजित कर गौरमुखने सविनय पूछा – ‘महाव्रती मुनिश्रेष्ठ मुझे पितरों एवं श्राद्धतत्त्व का उपदेश करें’ गौरमुखके यों पूछनेपर महान् तपस्वी द्विजवर मार्कण्डेयजी बड़े मीठे स्वरमें उनसे कहने लगे ।
मार्कण्डेयजी बोले- मुने! भगवान् नारायण समस्त देवताओंके आदि प्रवर्तक एवं गुरु हैं। उन्हींसे ब्रह्मा प्रकट हुए हैं और उन ब्रह्माजीने फिर सात मुनियोंकी सृष्टि की है। मुनियोंकी रचना करके ब्रह्माजीने उनसे कहा- ‘तुम मेरी उपासना करो।’ सुनते हैं, उन लोगोंने स्वयं अपनी ही पूजा कर ली। अपने पुत्रोंद्वारा इस प्रकार कर्म विकृति देखकर ब्रह्माजीने उन्हें शाप दे दिया- ‘तुमलोगोंने (ज्ञानाभिमानसे) मेरी जगह अपनी पूजा कर विपरीत आचरण किया है। अतः तुम्हारा ज्ञान नष्ट हो जायगा ।’
इस प्रकार शापग्रस्त हो जानेपर उन सभी ब्रह्मपुत्रोंने अपने वंशके प्रवर्तक पुत्रोंको उत्पन्न किया और फिर स्वयं स्वर्गलोक चले गये। उन ब्रह्मवादी मुनियोंके परलोकवासी होनेपर उनके पुत्रोंने विधिपूर्वक श्राद्ध करके उन्हें तृप्त किया। उन पितरोंकी ‘वैमानिक’ संज्ञा है। वे सभी ब्रह्माजीके मनसे प्रकट हुए हैं। पुत्र मन्त्रका उच्चारण करके पिण्डदान करता है – यह देखते हुए वे वहाँ निवास करते हैं।
गौरमुखने पूछा- ब्रह्मन् ! जितने पितर हैं और उनके श्राद्धका जो समय है, वह मैं जानना चाहता हूँ तथा उस लोकमें रहनेवाले पितरोंके गण कितने हैं, यह सब भी मुझे बतानेकी कृपा करें।
मार्कण्डेयजी कहने लगे-द्विजवर ! देवताओंके लिये सोम रसकी वृद्धि करनेवाले कुछ स्वर्गनिवासी पितर मरीचि आदि नामोंसे विख्यात हैं। उन श्रेष्ठ पितरोंमें चारको मूर्त (मूर्तिमान् ) और तीनको अमूर्त (बिना मूर्तिका) कहा गया है। इस प्रकार उनकी संख्या सात है। उनके रहनेवाले लोकको तथा उनके स्वभावको बताता हूँ, सुनो। सन्तानक नामक लोकोंमें ‘भास्वर’ नामक पितृगण निवास करते हैं, जो देवताओंके उपास्य हैं। ये सभी ब्रह्मवादी हैं। ब्रह्मलोकसे अलग होकर ये नित्य-
लोकों में निवास करते हैं सौ युग व्यतीत हो जानेपर इनका पुनः प्रादुर्भाव होता है। उस समय अपनी पूर्वस्थितिका स्मरण होनेपर सर्वोत्तम योगका चिन्तन करके परम पवित्र योग सम्बन्धी अनिवृत्ति लक्षण मोक्षको वे प्राप्त कर लेंगे ये सभी पितर श्राद्धमें योगियोंके योगद्वारा तृप्त किये जानेपर योगी पुरुषोंके हृदयोंमें पुनः योगकी वृद्धि करते हैं। क्योंकि भगवद्भक्तके भक्तियोगसे इन्हें बड़ा संतोष होता है। अतएव योगिवर ! भगवान्को अपना सर्वस्व अर्पण करनेवाले योगी पुरुषको श्राद्धकी वस्तुएँ देनी चाहिये ।
सोम रस पीनेवाले सोमप पितरोंका यह प्रधान प्रथम सर्ग है। ये पितर उत्तम वर्णवाले ब्राह्मण हैं। इन सबका एक-एक शरीर है। ये स्वर्गलोकमें रहते हैं। भूलोकके निवासी इनकी पूजा करते हैं। कल्पपर्यन्तजीवी मरीचि आदि पितर ब्रह्माजीके पुत्र हैं। वे अपने परिवारोंके साथ मरुतोंकी उपासना करते हैं – मरुद्गण उनके उपास्य हैं। सनक आदि तपस्वी ‘वैराज’ नामक पितृगण उन मरुद्गणोंके भी पूज्य हैं। वैराजसंज्ञक पितरोंके गणकी संख्या सात कही जाती है। यह पितरोंकी संतानका परिचय हुआ।
भिन्न-भिन्न वर्णवाले सभी लोग उन पितरोंकी पूजा कर सकते हैं – यह नियम है। ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य – इन तीनों वर्णोंसे अनुमति पाकर द्विजेतर भी उक्त सभी पितरोंकी पूजा कर सकता है। उसके पितर इन पितृगणोंसे भिन्न हैं। ब्रह्मन् ! पितरोंमें भी मुक्त और चेतनक-दो प्रकारके पितर नहीं देखे जाते हैं। विशिष्ट शास्त्रोंको देखने पुराणोंका अवलोकन करने तथा ऋषियोंके बनाये हुए शास्त्रोंका अध्ययन करनेसे अपने पूज्य पितरोंका परिचय प्राप्त कर लेना चाहिये ।
सृष्टि रचनेके समय ही फिर ब्रह्माजीको स्मृति प्राप्त हुई। तब उन्हें पूर्व पुत्रोंका स्मरण हुआ। वे पुत्र तो ज्ञानके प्रभावसे परम पदको प्राप्त हो गये हैं- यह बात उन्हें विदित हो गयी। वसु आदिके कश्यप आदि ब्राह्मणादि वर्णोंके वसु आदि और गन्धर्व-प्रभृति पितर हैं – यह बात साधारणरूपसे समझ लेनी चाहिये। इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं है। मुनिवर ! यह पितरोंकी सृष्टिका प्रसङ्ग है। प्रकरणवश तुम्हारे सामने इसका वर्णन कर दिया। वैसे यदि करोड़ वर्षोंतक इसे कहा जाय, तो भी इसके विस्तृत प्रसङ्गका अन्त नहीं दीखता ।
द्विजवर ! अब मैं श्राद्धके लिये उचित कालका विवेचन करता हूँ सुनो। श्राद्धकर्ता जिस समय श्राद्धयोग्य पदार्थ या किसी विशिष्ट ब्राह्मणको घरमें आया जाने अथवा उत्तरायण या दक्षिणायनका आरम्भ, व्यतीपात योग हो, उस समय काम्य श्राद्धका अनुष्ठान करे। विषुव योगमें* सूर्य और चन्द्रमाके ग्रहणके समय, सूर्यके राश्यन्तर- प्रवेशमें, नक्षत्र अथवा ग्रहोंद्वारा पीडित होनेपर, बुरे स्वप्न दीखने तथा घरमें नवीन अन्न आनेपर काम्य- श्राद्ध करना चाहिये। जो अमावास्या अनुराधा, विशाखा एवं स्वाती नक्षत्रसे युक्त हो, उसमें श्राद्ध करनेसे पितृगण आठ वर्षोंतक तृप्त रहते हैं। इसी प्रकार जो अमावास्या पुष्य, पुनर्वसु या आर्द्रा नक्षत्रसे युक्त हो, उसमें पूजित होनेसे पितृगण बारह वर्षोंतक तृप्त रहते हैं। जो पुरुष देवताओं एवं पितृगणको तृप्त करना चाहते हैं, उनके लिये धनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपद अथवा शतभिषासे युक्त अमावास्या अत्यन्त दुर्लभ है। ब्राह्मणश्रेष्ठ ! जब अमावास्या इन उपर्युक्त नौ नक्षत्रोंसे युक्त होती है उस समय किया हुआ श्राद्ध पितृगणको अक्षय तृप्तिकारक होता है। वैशाखमासके शुक्ल पक्षकी तृतीया, कार्तिकके शुक्ल पक्षकी नवमी, भाद्रपदके कृष्ण पक्षकी त्रयोदशी, माघमासकी अमावास्या, चन्द्रमा अथवा सूर्य ग्रहणके समय तथा चारों अष्टकाओंमें * अथवा उत्तरायण या दक्षिणायनके आरम्भके समय जो मनुष्य एकाग्रचित्तसे पितरोंको तिलमिश्रित जल भी दान कर देता है, वह मानो सहस्र वर्षोंके लिये श्राद्ध कर देता है। यह परम रहस्य स्वयं पितृगणोंका बतलाया हुआ है। कदाचित् माघकी अमावास्याका यदि शतभिषा नक्षत्रसे योग हो जाय तो पितृगणकी तृप्तिके लिये यह परम उत्कृष्ट काल होता है। द्विजवर! अल्प पुण्यवान् पुरुषोंको ऐसा समय नहीं मिलता और यदि उस दिन धनिष्ठा नक्षत्रका योग हो जाय तो उस समय अपने कुलमें उत्पन्न पुरुषद्वारा दिये हुए अन्न एवं जलसे पितृगण दस हजार वर्षके लिये तृप्त हो जाते हैं तथा यदि माघी अमावास्याके साथ पूर्वाभाद्रपद नक्षत्रका योग हो और उस अवसरपर पितरोंके लिये श्राद्ध किया जाय तो इस कर्मसे पितृगण अत्यन्त तृप्त होकर पूरे युगतक सुखपूर्वक शयन करते हैं। गङ्गा, शतद्रु, विपाशा, सरस्वती और नैमिषारण्यमें स्थित गोमती नदीमें स्नानकर पितरोंका आदरपूर्वक तर्पण करनेसे मनुष्य अपने समस्त पापोंको नष्ट कर देता है। पितृगण सर्वदा यह गान करते हैं कि वर्षाकालमें (भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशीके) मघानक्षत्रमें तृप्त होकर फिर माघकी अमावास्याको अपने पुत्र-पौत्रादिद्वारा दी गयी पुण्यतीर्थोकी जलाञ्जलिसे हम कब तृप्त होंगे। विशुद्ध चित्त, शुद्ध धन, प्रशस्त काल, उपर्युक्त विधि, योग्य पात्र और परम भक्ति- ये सब मनुष्यको मनोवाञ्छित फल प्रदान करते हैं।
पितृगीत
विप्रवर! इस प्रसङ्गमें पितरोंद्वारा गाये हुए कुछ श्लोकोंका श्रवण करो। उन्हें सुनकर तुमको आदरपूर्वक वैसा ही आचरण करना चाहिये ।
पितृगण कहते हैं— कुलमें क्या कोई ऐसा बुद्धिमान् धन्य मनुष्य जन्म लेगा जो वित्तलोलुपताको छोड़कर हमारे निमित्त पिण्डदान करेगा। सम्पत्ति होनेपर जो हमारे उद्देश्यसे ब्राह्मणोंको रत्न, वस्त्र, यान एवं सम्पूर्ण भोग- सामग्रियोंका दान करेगा अथवा केवल अन्न-वस्त्रमात्र वैभव होनेपर श्राद्धकालमें भक्तिविनम्र – चित्तसे श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको यथाशक्ति भोजन ही करायेगा या अन्न देनेमें भी असमर्थ होनेपर ब्राह्मणश्रेष्ठोंको वन्य फल- मूल, जंगली शाक और थोड़ी-सी दक्षिणा ही देगा, यदि इसमें भी असमर्थ रहा तो किसी भी द्विजश्रेष्ठको प्रणाम करके एक मुट्ठी काला तिल ही देगा अथवा हमारे उद्देश्यसे पृथ्वीपर भक्ति एवं नम्रतापूर्वक सात-आठ तिलोंसे युक्त जलाञ्जलि ही देगा, यदि इसका भी अभाव होगा तो कहीं- न कहींसे एक दिनका चारा लाकर प्रीति और श्रद्धापूर्वक हमारे उद्देश्यसे गौको खिलायेगा तथा इन सभी वस्तुओंका अभाव होनेपर वनमें जाकर अपने कक्षमूल (बगल ) – को दिखाता हुआ सूर्य आदि दिक्पालोंसे उच्चस्वरसे यह कहेगा-
न मेऽस्ति वित्तं न धनं न चान्य- च्छ्राद्धस्य योग्यं स्वपितृन्नतोऽस्मि ।
तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मयैतौ भुजौ ततौ वर्त्मनि मारुतस्य ॥
(१३/५८)
‘मेरे पास श्राद्धकर्मके योग्य न धन-सम्पत्ति है और न कोई अन्य सामग्री, अतः मैं अपने पितरोंको प्रणाम करता हूँ। वे मेरी भक्तिसे ही तृप्ति-लाभ करें। मैंने अपनी दोनों बाँहें आकाशमें उठा रखी हैं।’
द्विजोत्तम! धनके होने अथवा न होनेकी अवस्थामें पितरोंने इस प्रकारकी विधियाँ बतलायी हैं जो पुरुष इसके अनुसार आचरण करता है, उसके द्वारा श्राद्ध समुचित रूपसे ही सम्पन्न माना जाता है।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय १३ श्राद्ध-कल्प
मार्कण्डेयजी कहते हैं – विप्रवर ! प्राचीन समयमें यह प्रसङ्ग ब्रह्माजीके पुत्र सनन्दनने, जो सनकजीके छोटे भाई एवं परम बुद्धिमान् हैं, मुझसे कहा था। अब ब्रह्माजीद्वारा बतलायी वह बात सुनो। त्रिणाचिकेत’, त्रिमधु’, त्रिसुपर्ण’, छहों वेदाङ्गों के जाननेवाले, यज्ञानुष्ठानमें तत्पर, भानजे, दौहित्र, श्वशुर, जामाता, मामा, तपस्वी ब्राह्मण, पञ्चाग्नि तपनेवाले, शिष्य, सम्बन्धी तथा अपने माता एवं पिताके प्रेमी—इन ब्राह्मणोंको श्राद्धकर्ममें नियुक्त करना चाहिये। मित्रघाती, स्वभावसे ही विकृत नखवाला, काले दाँतवाला, कन्यागामी, आग लगानेवाला, सोमरस बेचनेवाला, जनसमाजमें निन्दित, चोर, चुगलखोर, ग्रामपुरोहित, वेतन लेकर पढ़ने तथा पढ़ानेवाला, पुनर्विवाहिता स्त्रीका पति, माता-पिताका परित्याग करनेवाला हीन वर्णकी संतानका पालन-पोषण करनेवाला, शूद्रा स्त्रीका पति तथा मन्दिरमें पूजा करके जीविका चलानेवाला – ऐसे ब्राह्मण श्राद्धके अवसरपर निमन्त्रण देने योग्य नहीं हैं।
ब्राह्मणको निमन्त्रित करनेकी विधि
विचारशील पुरुषको चाहिये कि एक दिन पूर्व ही संयमी श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको निमन्त्रण दे दे। पर श्राद्धके दिन कोई अनिमन्त्रित तपस्वी ब्राह्मण घरपर पधारें तो उन्हें भी भोजन कराना चाहिये। श्राद्धकर्ता घरपर आये हुए ब्राह्मणोंका चरण धोये, फिर अपना हाथ धोकर उन्हें आचमन कराये। तत्पश्चात् उन्हें आसनोंपर बैठाये एवं भोजन कराये।
ब्राह्मणोंकी संख्या आदि
पितरोंके निमित्त अयुग्म अर्थात् एक, तीन इत्यादि तथा देवताओंके निमित्त युग्म अर्थात् दो, चार- इस क्रमसे ब्राह्मण भोजनकी व्यवस्था करे । अथवा देवताओं एवं पितरों— दोनोंके निमित्त एक-एक ब्राह्मणको भोजन करानेका भी विधान है। नानाका श्राद्ध वैश्वदेवके साथ होना चाहिये । पितृपक्ष और मातामहपक्ष- दोनोंके लिये एक ही वैश्वदेव- श्राद्ध करे। देवताओंके निमित्त ब्राह्मणोंको पूर्वमुख बैठाकर भोजन कराना चाहिये तथा पितृपक्ष एवं मातामहपक्षके ब्राह्मणोंको उत्तरमुख बिठाकर भोजन कराये। द्विजवर ! कुछ आचार्य कहते हैं, पितृपक्ष और मातामह – इन दोनोंके श्राद्ध अलग-अलग होने चाहिये। अन्य कुछ महर्षियोंका कथन है-दोनोंका श्राद्ध एक साथ एक ही पाकमें होना समुचित हैं।
श्राद्धका प्रकार
बुद्धिमान् पुरुष श्राद्धमें आसनके लिये सर्वप्रथम कुशा दे। फिर देवताओंका आवाहन करे। तदनन्तर अर्घ्य आदिसे विधिपूर्वक उनकी पूजा करे।
ब्राह्मणोंकी आज्ञासे जल एवं यवसे देवताओंको अर्घ्य देना चाहिये। फिर श्राद्धविधिको जाननेवाला श्राद्धकर्ता विधिपूर्वक उत्तम चन्दन, धूप और दीप उन विश्वेदेव आदि देवताओंको अर्पण करे। पितरोंके निमित्त इन सभी उपचारोंका अपसव्य’- भावसे निवेदन करे। फिर ब्राह्मणकी अनुमतिसे दो भाग किये हुए कुश पितरोंके लिये दे। विवेकी पुरुषको चाहिये, मन्त्रका उच्चारण करके पितरोंका आवाहन करे । अपसव्य होकर तिल और जलसे अर्घ्य देना उचित है।
श्राद्ध करते समय अतिथिके आ जानेपर कर्तव्यका विधान
मार्कण्डेयजी कहते हैं-द्विजवर ! श्राद्ध करते समय यदि कोई भोजन करनेकी इच्छासे भूखा पथिक अतिथिरूपमें आ जाय तो ब्राह्मणोंसे आज्ञा लेकर उसे भी यथेच्छ भोजन कराना चाहिये। अनेक अज्ञातस्वरूप योगिगण मनुष्योंका उपकार करनेके लिये नाना रूप धारणकर इस धराधामपर विचरण करते रहते हैं। इसलिये विज्ञ पुरुष श्राद्धके समय आये हुए अतिथिका सत्कार अवश्य करे। विप्रवर! यदि उस समय वह अतिथि सम्मानित नहीं हुआ तो श्राद्ध करनेसे प्राप्त होनेवाले फलको नष्ट कर देता है।
श्राद्धके समय हवन करनेकी विधि
(मार्कण्डेयजी कहते हैं ) – पुरुषप्रवर! श्राद्धके अवसरपर ब्राह्मणको भोजन करानेके पहले उनसे आज्ञा पाकर शाक और लवणहीन अन्नसे अग्निमें तीन बार हवन करना चाहिये। उनमें ‘अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा’ इस मन्त्रसे पहली आहुति, ‘सोमाय पितृमते स्वाहा’ – इससे दूसरी एवं ‘वैवस्वताय स्वाहा’ कहकर तीसरी आहुति देनेका समुचित विधान है। तत्पश्चात् हवन करनेसे बचे हुए अन्नको थोड़ा-थोड़ा सभी ब्राह्मणोंके पात्रोंमें दे ।
१. यज्ञोपवीतको दायें कंधेपर रखना।
श्राद्धमें भोजन करानेका नियम
भोजनके लिये उपस्थित अन्न अत्यन्त मधुर, भोजनकर्ताकी इच्छाके अनुसार तथा अच्छी प्रकार सिद्ध किया हुआ हो। पात्रोंमें भोजन रखकर श्राद्धकर्ता अत्यन्त सुन्दर एवं मधुर वचन कहे- ‘महानुभावो ! अब आप लोग अपनी इच्छाके अनुसार भोजन करें।’ ब्राह्मणोंको भी तद्गतचित्त और मौन होकर प्रसन्नमुखसे सुखपूर्वक भोजन करना चाहिये। यजमानको क्रोध तथा उतावलेपनको छोड़कर भक्तिपूर्वक भोजन परोसते रहना चाहिये।
अभिश्रवण (वैदिक श्राद्धमन्त्रका पाठ )
श्राद्धमें ब्राह्मणोंके भोजन करते समय रक्षोघ्न मन्त्र का पाठ करके भूमिपर तिल बिखेर दे तथा अपने पितृरूपमें उन द्विजश्रेष्ठोंका ही चिन्तन करे। साथ ही यह भी भावना करे इन ब्राह्मणोंके शरीरमें स्थित मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह आदि आज भोजनसे तृप्त हो जायें ।’ भूमिपर पिण्ड देते समय प्रार्थना करे – ‘मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह इस पिण्डदानसे तृप्ति लाभ करें। होमद्वारा सबल होकर मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह आज तृप्ति लाभ करें।’ सबके बाद फिर प्रार्थना करनी चाहिये- ‘मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह -ये महानुभाव मैंने भक्तिपूर्वक उनके लिये जो कुछ किया या कहा है-उससे तृप्त होनेकी कृपा करें। मातामह, प्रमातामह, वृद्धप्रमातामह और विश्वेदेव तृप्त हो जायँ एवं समस्त राक्षसगण नष्ट हों। यहाँ सम्पूर्ण हव्य कव्यके भोक्ता यज्ञेश्वर भगवान् श्रीहरि विराजमान हैं। अतः उनकी संनिधिके कारण समस्त राक्षस और असुरगण यहाँसे तुरंत भाग जायें।’
अन्न आदिके विकिरणका नियम
जब निमन्त्रित ब्राह्मण भोजनसे तृप्त हो जायँ, तो भूमिपर थोड़ा-सा अन्न डाल देना चाहिये। आचमनके लिये उन्हें एक-एक बार शुद्ध जल देना आवश्यक है। तदनन्तर भलीभाँति तृप्त हुए ब्राह्मणोंसे आज्ञा लेकर भूमिपर सभी उपस्थित अन्नोंसे पिण्डदान करनेका विधान है।
पिण्डदानका नियम
श्राद्धकालमें भलीभाँति सावधान होकर तिलके साथ उन्हें पिण्ड अर्पण करे। पितृतीर्थसे तिलयुक्त जलाञ्जलि दे तथा मातामह आदिके लिये भी पितृतीर्थसे ही पिण्डदान करना चाहिये। फिर ब्राह्मणोंके उच्छिष्टके निकट ही दक्षिण दिशामें अग्रभाग करके बिछाये हुए कुशाओंपर पहले अपने पिताके लिये पुष्प और धूप आदिसे पूजित पिण्ड दान करे। फिर पितामह और प्रपितामहके लिये एक-एक पिण्ड अर्पण करना चाहिये। तदनन्तर ‘लेपभागभुजस्तृप्यन्ताम्’ – ऐसा उच्चारण करते हुए लेपभागभोजी (पिण्डसे बचे अन्न पानेवाले) पितरोंके निमित्त कुशाके मूलसे अपने हाथमें लगे अन्नको गिरावे । विवेकी पुरुषको चाहिये कि इसी प्रकार गन्ध और मालादियुक्त पिण्डोंसे मातामह आदिका पूजन करके फिर द्विजश्रेष्ठोंको आचमन करावे। द्विजवर ! पितरोंका चिन्तन करते हुए भक्तिके साथ पहले पिता प्रभृतिको पिण्ड देना आवश्यक है। फिर स्वस्ति वाचन करनेवाले ब्राह्मणोंको अपनी शक्तिके अनुसार दक्षिणा देनेके पश्चात् विश्वेदेवके निमित्त प्रार्थनाके मन्त्रोंका पाठ होना चाहिये। जो विश्वेदेव यहाँ पधारे हैं, वे प्रसन्न हो जायें-यों श्राद्धकर्ता प्रार्थना करे। वहाँ उपस्थित ब्राह्मण उसका अनुमोदन कर दें। फिर आशीर्वादके लिये प्रार्थना करना समुचित है। महामते ! पहले पितृपक्षके ब्राह्मणों का विसर्जन करे। तत्पश्चात् देवपक्षके ब्राह्मण विदा किये जायें। विश्वेदेवगणके सहित मातामह आदिमें भी ब्राह्मण भोजन, दान और विसर्जन आदिको यही विधि बतलायी गयी है। पितृ और मातामह – दोनों ही पक्षोंके श्राद्धों में पाद- शौच आदि सभी कर्म पहले देवपक्षके ब्राह्मणोंका करे। परंतु बिदा पहले पितृपक्षीय अथवा मातृपक्षीय ब्राह्मणोंको ही करे। मातामह आदि तीन पितरोंके श्राद्धमें ज्ञानी ब्राह्मण प्रथम स्थान पानेका अधिकारी है। ब्राह्मणोंको प्रीतिवचन और सम्मानपूर्वक बिदा करे। उनके जानेके समय द्वारतक पीछे-पीछे जाय। जब वे आज्ञा दें, तब लौट आवे ।
श्राद्धके अन्तमें बलिवैश्वदेवका विधान
श्राद्ध करनेके पश्चात् वैश्वदेव नामक नित्य- क्रिया करनी चाहिये। इस प्रकार सबका सत्कार करके अपने घरके बड़े लोगों तथा बन्धु-बान्धवों एवं सेवकोंसहित स्वयं भोजन करना चाहिये। विवेकी पुरुषका कर्तव्य है कि इसी प्रकार पिता, पितामह प्रपितामह तथा मातामह, प्रमातामह एवं वृद्धप्रमातामहका श्राद्ध सम्पन्न करे । श्राद्धद्वारा अत्यन्त तृप्त होकर ये पितर सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण कर देते हैं। काला तिल, कुतप मुहूर्त और दौहित्र – ये तीन श्राद्धमें परम पवित्र माने जाते हैं। चाँदीका दान तथा उसका दर्शन भी श्रेष्ठ है। श्राद्धकर्ताके लिये क्रोध करना, उतावलापना तथा उस दिन कहीं जाना मना है। ये तीनों बातें श्राद्धमें भोजन करनेवालेके लिये भी वर्ज्य हैं। द्विजवर ! विधिपूर्वक श्राद्ध करनेवाले पुरुषोंसे विश्वेदेवगण, पितृगण, मातामह एवं कुटुम्बीजन सभी संतुष्ट रहते हैं। द्विजवर ! पितृगणों का आधार चन्द्रमा है और चन्द्रमाका आधार योग है। अतः श्राद्धमें योगिजनको नियुक्त करना अति उत्तम है। विप्रवर! श्राद्धभोजी एक सहस्र ब्राह्मणोंके सम्मुख यदि एक भी योगी उपस्थित हो जाय तो वह यजमानके सहित उन सबका उद्धार कर देता है। सामान्यरूपसे सभी पुराणोंमें इस पितृक्रियाका वर्णन किया गया है। इस क्रमसे कर्मकाण्ड होना चाहिये।
यह जानकर भी मनुष्य संसारके बन्धनसे छूट जाता है। गौरमुख ! श्रेष्ठ व्रतवाले बहुतसे ऋषि श्राद्धका आश्रय लेकर मुक्त हो चुके हैं। अतएव तुम भी इसके अनुष्ठानमें यथाशीघ्र तत्पर हो जाओ। द्विजवर ! तुमने भक्तिपूर्वक इस प्रसङ्गको पूछा है, अतः तुम्हारे सामने मैं इसका वर्णन कर चुका। जो पितृयज्ञ करके भगवान् श्रीहरिका ध्यान करता है, उससे बढ़कर कोई कार्य नहीं है और उस यज्ञसे बढ़कर दूसरा कोई पितृतन्त्र भी नहीं है— इसमें कोई संदेह नहीं ।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय १४ गौरमुखके द्वारा दस अवतारोंका स्तवन तथा उनका ब्रह्ममें लीन होना
पृथ्वीने पूछा— भगवन्! मुनिवर गौरमुखने मार्कण्डेयजीके मुखसे श्राद्धसम्बन्धी ऐसी विधि सुनकर फिर क्या किया ?
भगवान् वराह बोले- वसुंधरे ! मार्कण्डेयजीकी बुद्धि अपरिमित थी। उनके द्वारा इस प्रकार पितृकल्प सुनते ही मुनिवरकी कृपासे गौरमुखको सौ जन्मोंकी बातें याद आ गयीं।
पृथ्वीने पूछा – भगवन् ! गौरमुख पूर्वजन्ममें कौन थे, उनका क्या नाम था, बातें याद आनेकी शक्ति उनमें कैसे आयी और उन महाभागने उन्हें जानकर फिर क्या किया ?
भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! ये गौरमुख पूर्वके एक- दूसरे कल्पमें स्वयं भृगु मुनि थे। श्रीब्रह्माजीने अपने पुत्रोंको जो यह शाप दिया था कि पुत्रोंद्वारा ही उपदेश प्राप्त करके तुमलोग सद्गति प्राप्त करोगे । इसीलिये श्रीमार्कण्डेयजीने भी इन्हें ज्ञान प्रदान किया। मुनिवर मार्कण्डेयजी भी उन्हींके वंशमें उत्पन्न हुए थे। श्रेष्ठ अङ्गोंसे शोभा पानेवाली पृथ्वी! इस प्रकार उपदिष्ट होनेपर उन्हें सम्पूर्ण जन्मोंकी बातें याद हो आयीं। फिर पूर्वजन्मकी बातको स्मरण करके उन्होंने जो कुछ किया है, वह संक्षेपमें कहता हूँ, सुनो। उस समय गौरमुख पूर्व कथनानुसार पितरोंके लिये बारह वर्षोंतक श्राद्ध करते रहे। तत्पश्चात् श्रीहरिकी आराधनाके लिये वे उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे। तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध जो प्रभासतीर्थ है, वहीं जाकर गौरमुखने दैत्यदलन परमप्रभुकी स्तुति आरम्भ कर दी।
दशावतारस्तोत्र
गौरमुख बोले- जो शत्रुओंका दर्प दूर करनेवाले, ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ, सूर्य, चन्द्रमा, अश्विनीकुमाररूपमें प्रतिष्ठित, युगमें स्थित, परमपुराण, आदिपुरुष, सदा विराजमान तथा देवाधिदेव भगवान् नारायण नामसे विख्यात हैं, उन मङ्गलमय श्रीहरिकी अब मैं स्तुति करता हूँ। प्राचीन समयमें जब वेद नष्ट हो चुके थे, उस अवसरपर इस विशाल वसुंधराका भरण-पोषण करनेवाले जिन आदिपुरुषने पर्वतके समान विशाल मत्स्यका शरीर धारण किया था तथा जिनके पुच्छके अग्रभागसे चमचमाती हुई तेज छटा विकीर्ण हो रही थी, उन शत्रुसूदन भगवान् श्रीहरिकी मैं स्तुति करता हूँ। समुद्र मन्थनके निमित्त सबका हित करनेके विचारसे कच्छपका रूप धारणकर जिन्होंने महान् पर्वत मन्दराचलको आश्रय दिया था, वे दैत्योंके संहार करनेवाले पुराण पुरुष देवेश्वर भगवान् श्रीहरि मेरी सभी प्रकार रक्षा करें। जिन महापुरुषने महावराहका रूप धारणकर रसातलमें प्रवेश किया और वहाँसे पृथ्वीको ले आये तथा देवताओं एवं सिद्धोंने जिनकी ‘यज्ञपुरुष’ संज्ञा दी है, वे असुरसंहर्ता सनातन श्रीहरि मेरी रक्षा करें। जो प्रत्येक युगमें भयंकर नृसिंहरूपसे विराजते हैं, जिनका मुख अत्यन्त भयावह है, कान्ति सुवर्णके समान है तथा जिनका दैत्योंका दलन करना स्वाभाविक गुण है, वे योगिराज जगत् के परम आश्रय भगवान् श्रीहरि हमारी रक्षा करें। जिनका कोई माप नहीं है, फिर भी बलिका यज्ञ नष्ट करनेके लिये जिन योगात्माने योगके बलसे दण्ड और मृगचर्मसे सुशोभित वामन रूपसे बढ़ते हुए त्रिलोकीतक नाप ली, वे परम प्रभु हमारी रक्षा करें। जिन्होंने परमपराक्रमी परशुरामजीका रूप धारण करके इक्कीस बार सम्पूर्ण भूमण्डलपर विजय प्राप्त की और उसे कश्यपजीको सौंप दिया तथा जो सज्जनोंके रक्षक एवं असुरोंके संहारक हैं, वे हिरण्यगर्भ भगवान् श्रीहरि हमारी रक्षा करें। हिरण्यगर्भ जिनकी संज्ञा है, सर्वसाधारण जन जिन्हें देख नहीं सकते तथा जो राम आदि रूपोंसे चार प्रकारके शरीर धारण कर चुके हैं एवं अनेक प्रकारके रूपोंसे राक्षसोंका विनाश करते हैं, वे आदिपुरुष भगवान् श्रीहरि हमारी रक्षा करें। चाणूर और कंस नामधारी दानव दर्पसे भर गये थे। उनके भयसे देवताओंके हृदयमें आतङ्क छा गया था । अतः उन्हें निर्भय करनेके लिये जो प्रत्येक युग एवं कल्पमें वसुदेवके पुत्र श्रीकृष्णरूपसे विराजते हैं, वे प्रभु हमारी रक्षा करें। जो सनातन, ब्रह्ममय एवं महान् पुरुष होकर भी वर्णकी व्यवस्था करनेके लिये प्रत्येक युगमें कल्किके नामसे विख्यात हैं, देवता, सिद्ध और दैत्योंकी आँखें जिनके रूपको देख नहीं सकतीं एवं जो विज्ञानमार्गका त्याग करके यम-नियम आदिके प्रवर्तक बुद्धरूपसे सुपूजित होते हैं और मत्स्य आदि अनेक रूपोंमें विचरते हैं, वे भगवान् श्रीहरि हमारी रक्षा करें। भगवन्! आप पुरुषोत्तम हैं तथा समस्त कारणोंके भी कारण हैं। आपको मेरा अनेकशः प्रणाम है। प्रभो ! अब आप मुझे मुक्ति-पद प्रदान करनेकी कृपा कीजिये। *
इस प्रकार महर्षि गौरमुखके द्वारा भक्तिभावसे संस्तुत एवं नमस्कृत होते-होते चक्र एवं गदाधारी श्रीहरि स्वयं उनके सामने प्रत्यक्षरूपसे प्रकट हो गये। उस समय गौरमुखने देखा कि प्रभुके विग्रहसे दिव्य विज्ञान भी प्रकट हो रहा है। उसे पाकर मुनिकी अन्तरात्मा पूर्ण शान्त हो गयी। गौरमुखके शरीरसे विज्ञानात्मा निकली और श्रीहरिको पाकर उनके मुक्तिसंज्ञक सनातन श्रीविग्रहमें सदाके लिये शान्त हो गयी।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय १५ महातपाका उपाख्यान
पृथ्वीने पूछा – भगवन् ! मणिसे जो प्रधान पुरुष निकले थे तथा जिन्हें भगवान् श्रीहरिने वर दिया था—’तुम सभी त्रेतायुगमें राजा बनोगे, उनकी उत्पत्ति कैसे हुई ? उनके नाम क्या हुए तथा उन्होंने कौन-कौनसे काम किये ? आप मुझे यह प्रसङ्ग बतानेकी कृपा करें।
भगवान् वराह कहते हैं – प्राणियोंको प्रश्रय -देनेवाली पृथ्वी देवि ! मणिसे प्रकट जो सुप्रभ नामका प्रधान पुरुष था, वह त्रेतायुगमें एक महान् उदार राजा हुआ। उसके प्रादुर्भावका प्रसङ्ग सुनो। प्रथम सत्ययुगमें महाबाहु नामसे एक प्रसिद्ध राजा हो चुके हैं। वे ही पुनः त्रेतायुगमें राजा श्रुतकीर्ति हुए। उस समय त्रिलोकीमें महान् पराक्रमियोंमें उनकी गणना थी । मणिसे उत्पन्न हुआ सुप्रभ उन्हींके घर पुत्ररूपसे उत्पन्न हुआ। उस समय प्रजापाल नामसे जगत् में उसकी ख्याति हुई। एक दिनकी बात है – राजा प्रजापाल शिकारके लिये किसी ऐसे सघन वनमें गया, जहाँ बहुत से हिंस्र जन्तु निवास करते थे। वहाँ उसे एक सुन्दर आश्रम दिखायी पड़ा, जहाँ परम धार्मिक महातपा ऋषि निवास करते थे। वे निराहार रहकर सदा परब्रह्म परमात्माका ध्यान करते थे। तप करना ही उनका मुख्य काम था। वहाँ जाकर राजाको आश्रममें प्रवेश करनेकी इच्छा हुई, अतः वह आश्रमके भीतर गया। जंगली वृक्षोंसे उस आश्रमके प्रवेश मार्गकी बड़ी आकर्षक शोभा हो रही थी। सघन लताएँ गृहके रूपमें परिणत होकर ऐसी चमक रही थीं, मानो चन्द्रमा चाँदनी बिखेरता हो । वहाँ भ्रमरोंको बिना प्रयास ही परितृप्ति प्राप्त होती थी। लाल कमलकी पंखुड़ियोंके समान कोमल नखवाली वराङ्गनाएँ वहाँ यत्र-तत्र सुन्दर राग आलाप रही थीं, मानो इन्द्रकी अप्सराएँ स्वर्गलोक छोड़कर पृथ्वीपर आ गयी हों। वहीं पासमें ही अनेक प्रकारके मत पक्षी आनन्दमें भरकर चीं-चीं-चूँ-चूँ शब्द कर रहे थे तथा भौर भी गूँज रहे थे। भाँति-भाँतिके प्रामाणिक (आकार-प्रकारवाले) कदम्ब, नीप, अर्जुन और साखू नामके वृक्ष शाखाओं तथा सामयिक सुन्दर फूलोंसे सम्पन्न होकर उस आश्रमकी शोभा बढ़ाते थे। आश्रमके ऊपर बैठे हुए पक्षियोंकी मधुर ध्वनिसे उसकी शोभा अनुपम हो रही थी । वहाँ रहकर सुचारु रूपसे काम करनेवाले सज्जन पुरुष धैर्यपूर्वक अपने कार्यमें तत्पर थे। प्रायः सर्वत्र यज्ञकुण्डोंसे यज्ञके धुएँ उठ रहे थे। हवन करनेसे आगकी प्रचण्ड लपटें निकल रही थीं तथा गृहस्थ ब्राह्मणोंद्वारा यज्ञ आरम्भ था । अतः ऐसा जान पड़ता था, मानो पापरूपी हाथीको शान्त करनेके विचारसे अत्यन्त तीखे दाँतवाले मतवाले सिंह ही यहाँ आ गये हों।
इस प्रकार सर्वत्र दृष्टि डालते हुए राजा प्रजापालने अनेक उपायोंका आश्रय लेकर उस उत्तम आश्रमके भीतर प्रवेश किया। वहाँ चले जानेपर सामने अत्यन्त तेजस्वी मुनिवर महातपा दिखायी पड़े। उस समय पुण्यात्माओं एवं ब्रह्मवेत्ताओंमें शिरोमणि वे ऋषि कुशाके आसनपर बैठे थे। उनका तेज ऐसा था, मानो अनन्त सूर्योने एक रूप धारण कर लिया हो। महातपाका दर्शन पाकर प्रजापालको मृगकी बात ही भूल गयी। ऋषिके सत्सङ्गसे उसके विचार शुद्ध हो गये थे । धर्मके प्रति उसकी दृढ़ एवं अद्भुत आस्था हो गयी। ऐसे पवित्र अन्तःकरणवाले राजा प्रजापालको देखकर महातपामुनिने उसका आसन एवं पाद्य आदिसे आतिथ्य सत्कार किया और उस नरेशने भी मुनिको प्रणाम किया। वसुधे! साथ ही मुनिसे उसने यह पवित्र प्रश्न किया- ‘भगवन्! दुःखरूपी संसार – सागरमें डूबते हुए मनुष्योंके मनमें यदि दुस्तर संसारके तरने (विजय पाने) की इच्छा हो तो उन्हें जो कार्य करना उचित हो, वह आप मुझ शरणागतको बतानेकी कृपा करें।’
महातपाजी बोले – राजन् ! संसाररूपी समुद्रमें डूबनेवाले मनुष्योंके लिये कर्तव्य यह है कि वे पूजा, होम, दान, ध्यान एवं अनेक यज्ञ आदि उपकरणरूपी दृढ़ नौकाका आश्रय लें। नाव बनानेमें कीलोंकी आवश्यकता होती है। ये उपर्युक्त पूजा आदि, जिनसे मोक्ष मिलना निर्विवाद है, कीलोंका काम देती हैं। देवसमाजसे बड़ी रस्सियोंकी आवश्यकता पूरी हो जाती है। अतः अब तुम प्राण आदिके सहयोगसे त्रिलोकेश्वररूपी नौका तैयार कर लो। भगवान् नारायण ही त्रिलोकेश्वर हैं। उनकी कृपासे नरकमें नहीं जाना पड़ता। राजन्! जो बड़भागीजन उन देवेश्वरको भक्तिपूर्वक प्रणाम करते हैं, उनकी चिन्ताएँ शान्त हो जाती हैं और वे उनके उस परम पदको पा लेते हैं, जो कभी नष्ट नहीं होता।
राजा प्रजापालने पूछा- भगवन्! आप सम्पूर्ण धर्मोको भलीभाँति जानते हैं। मोक्षकी इच्छा करनेवाले पुरुषको सनातन श्रीहरिकी विभूतियोंका किस प्रकार चिन्तन करना चाहिये ? इसे बतानेकी कृपा करें।
मुनिवर महातपाने कहा- राजन् ! तुम बड़े विज्ञ पुरुष हो । सम्पूर्ण योगियोंके स्वामी श्रीविष्णु स्त्रियों एवं पुरुषोंपर जिस प्रकार प्रसन्न होते हैं, उसे सुनो। पितरोंके सहित सभी देवता तथा ब्राह्मणके भीतर विचरनेवाले ब्रह्मा प्रभृति – ये सब के सब श्रीविष्णुसे ही उत्पन्न हुए हैं- ऐसी वेदकी श्रुति प्रसिद्ध है। अग्नि, अश्विनीकुमार, गौरी, गजानन, शेषनाग, कार्तिकेय, आदित्यगण, दुर्गासहित चौंसठ मातृकाएँ, दस दिशाएँ, कुबेर, वायु, यम, रुद्र, चन्द्रमा और पितृगण – इन सबकी उत्पत्तिमें जगत्प्रभु श्रीहरिकी ही प्रधानता है। हिरण्यगर्भ श्रीहरिके श्रीविग्रहमें इनका स्थान बना रहता है और वहींसे निकलकर ये चारों ओर पृथक्-पृथक् परिलक्षित होते हैं, पर अहंता (मैं हूँ) – का अभिमान उनका साथ नहीं छोड़ता ।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय १६ प्रतिपदा तिथि एवं अग्निकी महिमाका वर्णन
महातपा बोले- राजन् ! प्रसङ्गवश भगवान् विष्णुकी विभूतिका वर्णन कर दिया। अब तिथियोंका माहात्म्य कहता हूँ, सुनो। जब ब्रह्माके क्रोधसे अग्निका प्राकट्य हुआ तो उन्होंने ब्रह्माजीसे कहा – ‘विभो ! मेरे लिये तिथि निश्चय करनेकी कृपा कीजिये, जिसमें पूजित होकर सम्पूर्ण जगत् के समक्ष मैं प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकूँ।’
ब्रह्माजी बोले- परम श्रेष्ठ अग्निदेव ! देवताओं, यक्षों और गन्धर्वोके भी पूर्व तुम सर्वप्रथम प्रतिपदाको उत्पन्न हुए हो और तुम्हारे पश्चात् इन सबका यहाँ प्राकट्य हुआ है। अतः प्रतिपद् नामकी यह तिथि तुम्हारे लिये विहित होगी। इस तिथिमें प्रजापतिकी मूर्तिभूत हविष्यसे जो तुममें हवन करेंगे, उन्हें सम्पूर्ण देवताओं और पितरोंकी प्रसन्नता प्राप्त होगी। चार प्रकारके प्राणी- अण्डज, पिण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज तथा देवता, दानव, मानव, पशु एवं गन्धर्व – ये सभी तुममें हवन करनेपर तृप्त हो सकते हैं। तुम्हारे प्रति श्रद्धा रखनेवाला जो पुरुष प्रतिपदा तिथिके दिन उपवास करेगा अथवा केवल दूधके आहारपर ही रहेगा, उसके महान् फलका वर्णन सुनो- ‘छब्बीस चतुर्युगीतक वह स्वर्गलोकमें सम्मानपूर्वक पूजित होगा। इस जन्ममें वह पुरुष प्रतापी, धनवान् एवं सुन्दर रूपवाला राजा होता है और मरनेपर स्वर्गमें उसे परम प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।’ इस प्रकार ब्रह्माजीके बतानेपर अग्निदेव मौन हो गये और उनकी आज्ञाके अनुसार दिये हुए | लोक (अग्निलोक) को पधारे। जो मनुष्य प्रतिदिन प्रातः काल उठकर अग्निके जन्मसे सम्बन्धित इस प्रसङ्गको सुनेगा, वह सम्पूर्ण पापोंसे छूट जायगा – इसमें कोई संशय नहीं ।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय १७ अश्विनीकुमारोंकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग और उनके द्वारा भगवत्स्तुति
राजा प्रजापालने पूछा— ब्रह्मन् ! इस प्रकार महात्मा अग्निदेवका जन्म तो हो गया; किंतु विराट् पुरुषके प्राण अपानरूप अश्विनीकुमारोंकी उत्पत्ति कैसे हुई ?
मुनिवर महातपाने कहा- राजन्! मरीचि मुनि ब्रह्माजीके पुत्र हैं। स्वयं ब्रह्माजीने ही (अपने पुत्रोंके रूपमें) चौदह स्वरूप धारण किये थे। उनमें मरीचि सबसे बड़े थे । उन मरीचिके पुत्र महान् तेजस्वी कश्यप मुनि हुए। ये प्रजापतियोंमें सबसे अधिक श्रीसम्पन्न थे; क्योंकि ये देवताओंके पिता थे। राजन् ! बारहों आदित्य उन्हींके पुत्र हैं। ये बारह आदित्य भगवान् नारायणके ही तेजोरूप हैं- ऐसा कहा गया है। इस प्रकार ये बारह आदित्य बारह मासके प्रतीक हैं और संवत्सर भगवान् श्रीहरिका रूप है। द्वादश आदित्योंमें मार्तण्ड महान् प्रतापशाली हैं। देवशिल्पी विश्वकर्माने अपनी परम तेजोमयी कन्या संज्ञाका विवाह मार्तण्डसे कर दिया। उससे इनकी दो संतानें उत्पन्न हुई, जिनमें पुत्रका नाम यम और कन्याका नाम यमुना हुआ। संज्ञासे सूर्यका तेज सहा नहीं जा रहा था, अतः उसने मनके समान गतिवाली वडबा ( घोड़ी) का रूप धारण किया और अपनी छायाको सूर्यके घरमें स्थापितकर उत्तर- कुरुमें चली गयी। अब उसकी प्रतिच्छाया वहाँ रहने लगी और सूर्यदेवकी उससे भी दो संतानें हुईं, जिनमें पुत्र शनि नामसे विख्यात हुआ और कन्या तपती नामसे प्रसिद्ध हुई। जब छाया संतानोंके प्रति विषमताका व्यवहार करने लगी तो सूर्यदेवकी आँखें क्रोधसे लाल हो उठीं।
उन्होंने छायासे कहा- ‘भामिनि ! तुम्हारा अपनी इन संतानोंके प्रति विषमताका व्यवहार करना उचित नहीं है।’ सूर्यके ऐसा कहनेपर भी जब छायाके विचारमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ तो एक दिन अत्यन्त दुःखित होकर यमराजने अपने पितासे कहा- ‘तात! यह हमलोगोंकी माता नहीं है; क्योंकि अपनी दोनों संतानों- शनि और तपतीसे तो यह प्यार करती है और हमलोगोंके प्रति शत्रुता रखती है। यह विमाताके समान हमलोगोंसे विषमतापूर्ण व्यवहार करती है।’
उस समय यमकी ऐसी बात सुनकर छाया क्रोधसे भर उठी और उसने यमको शाप दे दिया- ‘तुम शीघ्र ही प्रेतोंके राजा होओगे।’ जब छायाके ऐसे कटु वचन सूर्यने सुने तो पुत्रके कल्याणकी कामनासे वे बोल उठे-‘बेटा! चिन्ताकी कोई बात नहीं- तुम वहाँ मनुष्योंके धर्म और पापका निर्णय करोगे और लोकपालके रूपमें स्वर्गमें भी तुम्हारी प्रतिष्ठा होगी।’ उस अवसर पर छायाके प्रति क्रोध हो जानेके कारण सूर्यका चित्त चञ्चल हो उठा था । अतः उन्होंने बदलेमें शनिको शाप दे डाला – ‘पुत्र ! माताके दोषसे तुम्हारी दृष्टिमें भी क्रूरता भरी रहेगी।’
ऐसा कहकर भगवान् सूर्य उठे और संज्ञाको ढूँढ़नेके लिये चल पड़े। उन्होंने देखा, उत्तर- कुरुदेशमें संज्ञा घोड़ीका वेष बनाकर विचर रही है। तत्पश्चात् वे भी अश्वका रूप धारण करके वहाँ पहुँच गये। वहाँ जाकर उन्होंने अपनी आत्मरूपा संज्ञासे सृष्टिरचनाके उद्देश्यसे समागम किया। जब प्रचण्ड तेजसे उद्दीप्त सूर्यने वडबारूपिणी संज्ञामें गर्भाधान किया तो उनका तेज अत्यन्त प्रज्वलित हो दो भागों में विभक्त होकर गिर पड़ा। आत्मविजयी प्राण और अपान पहलेसे ही संज्ञाकी योनिमें अव्यक्तरूपसे स्थित थे। सूर्यदेवके तेजके सम्बन्धसे वे दोनों मूर्तिमान् हो गये। इस प्रकार घोड़ीका रूप धारण करनेवाली विश्वकर्माकी पुत्री संज्ञासे इन दोनों पुरुषरत्नोंका जन्म हुआ। इसी कारण ये दोनों देवता सूर्यपुत्र अश्विनीकुमारोंके नामसे प्रसिद्ध हुए। सूर्य स्वयं प्रजापति कश्यपके पुत्र हैं और विश्वकर्माकी पुत्री संज्ञा उनकी पराशक्ति हैं। संज्ञाके शरीरमें ये दोनों पहले अमूर्त थे। अब सूर्यका अंश मिल जानेसे मूर्तिमान् हो गये। उत्पन्न होनेके बाद वे दोनों अश्विनीकुमार सूर्यके निकट गये और उन्होंने अपने मनकी अभिलाषा व्यक्त की— ‘भगवन्! हम दोनोंके लिये आपकी क्या आज्ञा है ?”
सूर्यने कहा- पुत्रो ! तुम दोनों देवश्रेष्ठ प्रजापति भगवान् नारायणकी भक्तिपूर्वक आराधना करो। वे देवाधिदेव तुम्हें अवश्य वर प्रदान करेंगे।
इस प्रकार भगवान् सूर्यके कहनेपर अश्विनीकुमार- अत्यन्त कठिन तप करनेमें तत्पर हो गये। वे चित्तको समाहितकर ‘ब्रह्मपार’ नामक स्तोत्रका निरन्तर जप करने लगे। बहुत समयतक तपस्या करनेपर नारायणस्वरूप ब्रह्मा उनसे संतुष्ट हो गये और बड़े प्रेमसे उन्हें वर दे दिया।
राजा प्रजापालने कहा- ब्रह्मन् ! अश्विनी कुमारोंने अव्यक्तजन्मा भगवान् श्रीहरिकी जिस स्तोत्र द्वारा आराधना की थी, उसे मैं सुनना चाहता हूँ। आप उसे बतानेकी कृपा करें।
मुनिवर महातपा कहते हैं-राजन् ! अश्विनी- कुमारोंने जिस प्रकार अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजीकी स्तुति की और जिस स्तोत्रके परिणामस्वरूप उन्हें ऐसा फल प्राप्त हुआ, वह मुझसे सुनो। वह स्तुति इस प्रकार है-
भगवन्! आप निष्क्रिय, निष्प्रपञ्च और निराश्रय हैं। आपको किसीकी अपेक्षा एवं अवलम्ब नहीं है। आप गुणातीत, स्वप्रकाश, सर्वाधार, ममताशून्य और किसी दूसरे आलम्बकी अपेक्षासे रहित हैं। ऐसे ॐ कारस्वरूप आप प्रभुको मेरा नमस्कार है। भगवन्! आप ब्रह्मा, महाब्रह्मा, ब्राह्मणोंके प्रेमी तथा पुरुष, महापुरुष एवं पुरुषोत्तम हैं। महादेव! देवोत्तम स्थाणु- ये आपकी संज्ञाएँ हैं। सबका पालन करना आपका स्वभाव है। भूत, महाभूत, भूताधिपति; यज्ञ, महायज्ञ, यज्ञाधिपति; गुह्य, महागुह्य, गुह्याधिपति तथा सौम्य, महासौम्य और सौम्याधिपति – ये सभी शब्द आपमें ही सार्थक होते हैं। पक्षी, महापक्षी और पक्षिपति; दैत्य, महादैत्य एवं दैत्यपति तथा विष्णु, महाविष्णु और विष्णुपति – ये सभी आपके नाम हैं। आप प्रजाओंके एकमात्र अधिपति हैं। ऐसे परमेश्वर भगवान् नारायणको हमारा नमस्कार है।’
इस प्रकार अश्विनीकुमारोंके स्तुति करनेपर प्रजापति ब्रह्मा संतुष्ट हो गये। उन्होंने अत्यन्त प्रेमके साथ कहा- ‘ वर माँगो तुम लोगोंको मैं अभी वह वर देता हूँ, जो देवताओंके लिये भी परम दुर्लभ है तथा जिसके प्रभावसे तीनों लोकों में सुखपूर्वक विचरण कर सकोगे।’
अश्विनीकुमार बोले- भगवन्! हमें यज्ञों में देवभाग देनेकी कृपा करें। प्रजापते ! हम चाहते हैं कि देवताओंके समान सदा सोमपान करनेका अधिकार हमें प्राप्त हो। इसके अतिरिक्त देवताओंके रूपमें हमलोगोंकी शाश्वत प्रतिष्ठा हो ।
ब्रह्माजीने कहा- रूप, कान्ति, अनुपम आयुर्वेदशास्त्रका ज्ञान तथा सोम रस पीनेका अधिकार- ये सब तुम्हें सभी लोकोंमें सुलभ होंगे।
मुनिवर महातपा कहते हैं – राजन् ! ब्रह्माजीने अश्विनीकुमारोंको ये सब वरदान द्वितीया तिथिको दिये थे, इसलिये यह परम श्रेष्ठ तिथि उनकी मानी गयी है। सुन्दर रूपकी अभिलाषा रखनेवाले मनुष्यको इस तिथिमें व्रत करना चाहिये। यह व्रत एक वर्षमें पूरा होता है। इसमें सदा पवित्र रहकर पुष्पोंका आहार करनेकी विधि है। इससे व्रतीको सुन्दरता प्राप्त होती है। साथ ही अश्विनीकुमारोंके जो गुण कहे गये हैं, वे भी उसे सुलभ हो जाते हैं। अश्विनीकुमारोंके जन्मके इस उत्तम प्रसङ्गको सदा श्रवण करनेवाला मनुष्य पुत्रवान् होता है तथा वह सभी पापोंसे मुक्त भी हो जाता है।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय १८ गौरीकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग, द्वितीया तिथि एवं रुद्रद्वारा जलमें तपस्या, दक्षके यज्ञमें रुद्र और विष्णुका संघर्ष
राजा प्रजापालने पूछा- महाप्राज्ञ ! परम पुरुष परमात्माकी शक्तिरूपा गौरीने, जिनका सभी देव-दानव स्तवन करते रहते हैं, किस वरदानके प्रभावसे सगुण विग्रह धारण किया ?
मुनिवर महातपाने कहा- जब अनेक रूपोंवाले रुद्रकी उत्पत्ति हो गयी तो उनके पिता प्रजापति ब्रह्माने स्वयं भगवान् नारायणके श्रीविग्रहसे प्रकटित हुई परममङ्गलमयी गौरीको भार्यारूपमें वरण करनेके लिये दे दिया। इन गौरीदेवीको ‘भारती’ भी कहा जाता है। परम सुन्दरी गौरीको पाकर रुद्रकी प्रसन्नताकी सीमा न रही। तदनन्तर ब्रह्माजीने कहा – ‘रुद्र ! तुम तपके प्रभावसे प्रजाओंकी सृष्टि करो।’ इसपर रुद्र मौन हो गये। फिर ब्रह्माने जब बार-बार प्रेरणा की तो रुद्रने उत्तर दिया- ‘इस कार्यमें मैं असमर्थ हूँ।’ इसपर ब्रह्माजीने कहा- ‘तब तुम तपरूपी धनका संचय करो। क्योंकि कोई भी तपोहीन पुरुष प्रजाओंकी सृष्टि नहीं कर सकता।’ यह सुनकर परम शक्तिशाली रुद्र जलमें निमग्न हो गये।
जब देवाधिदेव रुद्र जलमें प्रविष्ट हो गये तो ब्रह्माजीने उस परम सुन्दरी कन्या गौरीको पुनः अपने शरीरके भीतर अन्तर्हित कर लिया। तत्पश्चात् उनके मनमें पुनः सृष्टिका संकल्प होनेपर सात मानस पुत्रोंकी उत्पत्ति हुई । प्रजापति दक्ष भी उनके साथ प्रकट हुए। इसके बाद प्रजाओंकी सृष्टि सम्यक् प्रकारसे बढ़ने लगी। इन्द्रसहित समस्त देवता, आठ वसु, रुद्र, आदित्य और मरुद्गण – ये सभी प्रजापति दक्षकी कन्याओंके वंशज विख्यात हुए। इन गौरीके विषयमें पहले भी कहा जा चुका है। कालान्तरमें ब्रह्माजीने उन्हें दक्षप्रजापतिको पुत्रीके रूपमें प्रदान किया। ब्रह्माजीने पूर्व कालमें इन्हीं गौरीका विवाह महात्मा रुद्रके साथ किया था। नृपवर! भगवान् श्रीहरिके विग्रहसे प्रकट हुई वही गौरी दक्षकी पुत्री होकर ‘दाक्षायणी’ कहलायीं। दक्षप्रजापतिने जब अपनी कन्याओंसे उत्पन्न हुए दौहित्रों-देवताओंके समाजको देखा तो उनका अन्तःकरण प्रसन्नतासे भर उठा। साथ ही अपने कुलकी समृद्धि- कामनासे प्रजापति ब्रह्माको प्रसन्न करनेके लिये उन्होंने यज्ञ आरम्भ कर दिया।
उस यज्ञमें मरीचि आदि सभी ब्रह्माके पुत्र अपने-अपने विभागमें व्यवस्थित होकर ऋत्विजोंका कार्य करने लगे। स्वयं मुनिवर मरीचि ब्रह्मा बने । दूसरे ब्रह्मपुत्र अन्य अन्य स्थानोंपर नियुक्त हुए । अत्रि ऋषिको यज्ञमें अन्य स्थान प्राप्त हुआ । अङ्गिरा मुनि इस यज्ञमें आग्नीध्र बने, पुलस्त्य होता हुए और पुलह उद्गाता। उस यज्ञमें महान् तपस्वी क्रतु प्रस्तोता बने। प्रचेतामुनि प्रतिहर्ताका स्थान सुशोभित कर रहे थे। महर्षि वसिष्ठ उस यज्ञमें सुब्रह्मण्य-पदपर अधिष्ठित थे। चारों सनत्कुमार यज्ञके सभासद थे।
इस प्रकार ब्रह्माजी से सभी लोकोंकी सृष्टि हुई है। अतएव वे सभीके द्वारा यजन करने योग्य हैं। इसी कारण यज्ञके आराध्य ब्रह्माजी स्वयं उस यज्ञमें उपस्थित थे। पितृगण भी प्रत्यक्ष रूप धारण करके वहाँ पधारे थे। उन लोगोंकी प्रसन्नतासे जगत् मे प्रसन्नता छा जाती है। वहाँ अपना भाग चाहनेवाले सभी देवता, आदित्य, वसुगण, विश्वेदेव, पितर, गन्धर्व और मरुद्गण – सबको निर्दिष्ट यथोचित भाग प्राप्त हो गये। ठीक उसी समय वे रुद्र, जो बहुत पहले ब्रह्माजीके कोपसे प्रकट हुए थे और जिन्होंने अगाध जलमें मग्न होकर तप आरम्भ कर दिया था – पुनः जलसे बाहर निकल पड़े। उस समय उनका श्रीविग्रह ऐसा उद्दीप्त हो रहा था, मानो हजारों सूर्य प्रकाशित हो उठे हों। वे भगवान् रुद्र सम्पूर्ण ज्ञानके निधान हैं। समस्त देवता उनके अङ्गभूत हैं। वे परम विशुद्ध प्रभु तपोबलके प्रभावसे सारे सृष्टि-प्रपञ्चको प्रत्यक्ष देखनेकी सामर्थ्यसे युक्त थे ।
नरश्रेष्ठ! तत्काल ही उनसे पाँच दिव्य सर्ग उत्पन्न हुए। इसके अतिरिक्त चार भौम सर्गोंकी भी उनसे उत्पत्ति हुई, जिनमें मरणधर्मा जीव भी थे। राजन् ! अब तुम इस रुद्र – सृष्टिका प्रसङ्ग सुनो। जब एकादश रुद्रोंके अधिपति भगवान् महारुद्र दस हजार वर्षोंतक तप करके उस अगाध जलके ऊपर आये तो उन्होंने देखा – वन उपवनोंसे युक्त सस्यश्यामला पृथ्वी परम रमणीय प्रतीत हो रही है। उसपर मनुष्यों और पशुओंकी भरमार हो रही है। उन्हें दक्षप्रजापतिके भवनमें गूँजते हुए ऋत्विजोंके शब्द भी सुनायी पड़े। साथ ही यज्ञशालामें याज्ञिक पुरुषोंके द्वारा उच्चस्वरसे किया जाता हुआ वेदगान भी सुनायी पड़ा। तत्पश्चात् उन महान् तेजस्वी एवं सर्वज्ञ परम प्रभु रुद्रके मनमें अपार क्रोध उमड़ पड़ा। वे कहने लगे- ‘अरे ! ब्रह्माजीने सर्वप्रथम अपनी सम्पूर्ण अन्तः शक्तिका प्रयोग करके मेरी सृष्टि की और मुझसे कहा कि तुम प्रजाओंकी सृष्टि करो। फिर वह सृष्टि कार्य दूसरे किस व्यक्तिने सम्पन्न कर दिया?’ ऐसा कहकर परम प्रभु भगवान् रुद्र क्रोधित होकर बड़े जोरसे गरज उठे । उस समय उनके कानोंसे तीव्र ज्वालाएँ निकल पड़ीं। उन ज्वालाओंसे भूत, वेताल, अग्निमय प्रेत एवं पूतनाएँ करोड़ोंकी संख्यामें प्रकट हो गयीं। वे सभी अपने-अपने हाथोंमें अनेक प्रकारके आयुध लिये हुए थे। जब उन भूतगणोंने भगवान् रुद्रकी ओर दृष्टि डाली तो स्वयं उन परमेश्वरने एक अत्यन्त सुन्दर रथकी भी रचना कर ली। उस रथमें दो सुन्दर मृग अश्वोंके स्थानपर कल्पित हुए थे। तीनों तत्त्व ही रथके तीन दण्डों का काम कर रहे थे। धर्मराज उस रथके अक्षदण्ड बने तथा पवन उसकी घरघराहट थे। दिन-रात – ये दो उस रथकी पताकाएँ थीं। धर्म और अधर्म उसके ध्वजदण्ड थे। उस वेदविद्यामय रथपर सारथिका कार्य स्वयं ब्रह्माजी कर रहे थे। गायत्री ही धनुष हुई और प्रणवने धनुषकी डोरीका स्थान ग्रहण किया। राजन् ! उन देवेश्वरके लिये सातों स्वर सात बाण बन गये थे। इस प्रकार युद्धसामग्री एकत्रित करके परम प्रतापी रुद्र क्रोधयुक्त हो दक्षका यज्ञ विध्वंस करनेके लिये चल पड़े। जब भगवान् शंकर वहाँ पहुँचे तो ऋत्विजोंके मन्त्र विस्मृत हो गये। यज्ञके विपरीत इस अशुभ लक्षणको देखकर उन सभी ऋत्विजोंने कहा-‘देवतागण ! आप लोग शीघ्र सावधान हो जायें। आप सभीके सामने कोई महान् भय उपस्थित होनेवाला है । सम्भवतः ब्रह्माद्वारा निर्मित कोई बलवान् असुर यहाँ आ रहा है। मालूम होता है कि इस परम दुर्लभ यज्ञमें भाग पानेके लिये उसके मनमें विशेष इच्छा जाग्रत् हो गयी है।’ इसपर देवतागण अपने मातामह दक्षप्रजापतिसे बोले – ‘ तात ! इस अवसरपर हमलोगोंको क्या करना चाहिये ? आप जो उचित हो, वह बतानेकी कृपा करें।’
दक्षप्रजापतिने कहा- आप सभी लोग तुरंत शस्त्र उठा लें और युद्ध प्रारम्भ कर दें।
उनके ऐसा कहते ही अनेक प्रकारके आयुध धारण करनेवाले देवताओं एवं रुद्रके अनुचरोंमें घोर संग्राम छिड़ गया। उस युद्धमें वेताल, भूत, कूष्माण्ड, पूतनाएँ और अनेक ग्रह आयुध हाथमें लेकर लोकपालोंके साथ भिड़ गये। रुद्रके अनुचर भूतगण आकाशमें जाकर भयंकर बाण, तलवार और फरसे चलाने लगे। उस समरभूमिमें उन भयंकर भूतोंके पास उल्काएँ, अस्थिसमूह तथा बाण प्रचुरमात्रामें थे। युद्धभूमिमें रुद्रदेवके देखते-देखते वे क्रोधपूर्वक देवताओंपर प्रचण्ड प्रहार करने लगे। तदनन्तर संग्रामका रूप अत्यन्त भयावह हो गया। रुद्रने भगदेवताके दोनों नेत्र एक ही बाणसे छेद दिये। उनके बाणोंसे भग नेत्रहीन हो गये। यह देखकर तेजस्वी पूषाको क्रोध आ गया और वे रुद्रसे जा भिड़े। उस महान् युद्धमें पूषाने बाणोंका जाल – सा बिछा दिया। यह देखकर शत्रुहन्ता रुद्रने पूषाके सभी दाँत तोड़ डाले । रुद्रद्वारा पूषाका दन्तभङ्ग देखकर देवसेनामें सब ओर भगदड़ मच गयी। फिर तो ग्यारहों रुद्र वहाँ आ गये। तदनन्तर आदित्योंमें सबसे कनिष्ठ परम प्रतापी भगवान् विष्णु सहसा वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने देवसेनाको इस प्रकार हतोत्साहित हो दिशा विदिशाओंमें भागते देखकर कहा- ‘वीरो! पुरुषार्थका परित्याग करके तुमलोग कहाँ भागे जा रहे हो ? तुम वीरोचित दर्प, महिमा, दृढ़निश्चय, कुलमर्यादा और ऐश्वर्यभाव – इतनी जल्दी कैसे भुला बैठे? तुम्हारे भीतर ब्रह्माके सभी गुण विराजमान हैं। तुम्हें दीर्घायु भी प्राप्त हो चुकी है। अतएव भूमिपर गिरकर उन पद्मयोनि प्रजापतिको साष्टाङ्ग प्रणाम करो । यह प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जायगा और युद्धके लिये सन्नद्ध हो जाओ।’
उस समय भगवान् जनार्दनके श्रीअङ्गों में पीताम्बर सुशोभित हो रहा था। उनके हाथों में शङ्ख, चक्र एवं गदा विद्यमान थे। देवताओंसे ऐसा कहकर भगवान् श्रीहरि गरुडपर आरूढ़ हो गये। फिर तो भगवान् रुद्रसे उनका रोमाञ्चकारी युद्ध छिड़ गया। रुद्रने पाशुपतास्त्रसे विष्णुको और विष्णुने कुपित होकर रुद्रपर नारायणास्त्रका प्रयोग किया। उनके द्वारा प्रयुक्त नारायणास्त्र और पाशुपतास्त्र – दोनों आकाशमें परस्पर टकराने लगे। एक हजार दिव्य वर्षोंतक उनका यह भीषण युद्ध चलता रहा। उस संग्राममें एकके मस्तकपर मुकुट सुशोभित हो रहा था तो दूसरेका सिर जटाजालसे भूषित था। एक शङ्ख बजा रहे थे तो दूसरेके हाथमें मङ्गलमय डमरूका वादन हो रहा था। एक तलवार लिये हुए थे तो दूसरे दण्ड। एकका सर्वाङ्ग कण्ठहारमें संलग्न कौस्तुभमणिसे उद्भासित हो रहा था तो दूसरेके श्रीअङ्ग भस्मद्वारा भूषित हो रहे थे। एक पीताम्बर धारण किये हुए थे, तो दूसरे सर्पकी मेखला। ऐसे ही उनके रौद्रास्त्र और नारायणास्त्रमें भी परस्पर होड़ मची हुई थी। उन हरि और हर – दोनोंमें बलकी एक-से-एक अधिकता प्रतीत होती थी ।
यह देखकर पितामह ब्रह्माजीने उनसे अनुरोध किया- ‘आप दोनों उत्तम व्रतोंके पालन करने वाले हैं; अतएव अपने-अपने स्वभावके अनुसार अस्त्रोंको शान्त कर दें।’
ब्रह्माजीके इस प्रकार कहनेपर विष्णु और शिव – दोनों शान्त हो गये। तत्पश्चात् ब्रह्माजीने उन दोनोंसे कहा- ‘आप दोनों महानुभाव हरि और हरके नामसे जगत्में प्रतिष्ठा प्राप्त करेंगे। यद्यपि दक्षका यह यज्ञ विध्वंस हो चुका है, फिर भी यह सम्पूर्णताको प्राप्त होगा। दक्षकी इन देव संतानोंसे संसार भी यशस्वी होगा।’
लोकपितामह ब्रह्माजी विष्णु और रुद्रसे कहकर वहाँ उपस्थित देवमण्डलीसे इस प्रकार बोले—’देवताओ ! आपलोग इस यज्ञमें भगवान् रुद्रको भाग अवश्य दें; क्योंकि वेदकी ऐसी आज्ञा है कि यज्ञमें रुद्रका भाग परम प्रशस्त है। इन रुद्रदेवका तुम सभी स्तवन करो। जिनके प्रहारसे भग देवताके नेत्र नष्ट हुए हैं तथा जिन्होंने पूषाके दाँत तोड़ डाले हैं, उन भगवान् रुद्रकी इस लीलासे सम्बद्ध नामोंसे स्तुति करनी चाहिये। इसमें विलम्ब करना ठीक नहीं है। इसके फलस्वरूप ये प्रसन्न होकर तुमलोगोंके लिये वरदाता हो जायँगे।’
जब ब्रह्माजीने देवताओंसे इस प्रकार कहा तो वे आत्मयोनि ब्रह्माजीको प्रणाम करके परम अनुरागपूर्वक परमात्मा भगवान् शिवकी स्तुति करने लगे ।
देवगण बोले—‘भगवन्! आप विषम नेत्रोंवाले त्र्यम्बकको मेरा निरन्तर नमस्कार है। आपके सहस्र (अनन्त) नेत्र हैं तथा आप हाथमें त्रिशूल धारण करते हैं। आपको बार-बार नमस्कार है। खट्वाङ्ग और दण्ड धारण करनेवाले आप प्रभुको मेरा बारंबार नमस्कार है। भगवन् ! आपका रूप अग्निकी प्रचण्ड ज्वालाओं एवं करोड़ों सूर्योके समान कान्तिमान् है। प्रभो ! आपका दर्शन प्राप्त न होनेसे हमलोग जड़ विज्ञानका आश्रय लेकर पशुत्वको प्राप्त हो गये थे। त्रिशूलपाणे! तीन नेत्र आपकी शोभा बढ़ाते हैं। आर्तजनोंका दुःख दूर करना आपका स्वभाव है। आप विकृत मुख एवं आकृति बनाये रहते हैं। सम्पूर्ण देवता आपके शासनवर्ती हैं। आप परम शुद्धस्वरूप, सबके स्रष्टा तथा रुद्र एवं अच्युत नामसे प्रसिद्ध हैं। आप हमपर प्रसन्न हों। इन पूषाके दाँत आपके हाथोंसे भग्न हुए हैं। आपका रूप भयावह है। बृहत्काय वासुकिनागको धारण करनेसे आपका कण्ठदेश अत्यन्त मनोरम प्रतीत हो रहा है। अच्युत! आप विशाल शरीरवाले हैं। हम देवताओंपर अनुग्रह करनेके लिये आपने जो कालकूट विषका पान किया था, उसीसे आपका कण्ठ-भाग नील वर्णका हो गया है। सर्वलोकमहेश्वर ! विश्वमूर्ते! आप हमपर प्रसन्न होनेकी कृपा करें। भगके नेत्रको नष्ट करनेमें पटु देवेश्वर ! आप इस यज्ञका प्रधान भाग स्वीकार करनेकी कृपा कीजिये। नीलकण्ठ! आप सभी गुणोंसे सम्पन्न हैं। प्रभो! आप प्रसन्न हों और हमारी रक्षा करें। भगवन्! आपका स्वतः सिद्ध स्वरूप गौरवर्णसे शोभा पाता है। कपाली, त्रिपुरारि और उमापति- ये आपके ही नाम हैं। पद्मयोनि ब्रह्मासे प्रकट होनेवाले भगवन्! आप सभी भयोंसे हमारी रक्षा करें। देवेश्वर आपके श्रीविग्रहके अन्तर्गत हम अनेक सर्ग एवं अङ्गसहित सम्पूर्ण वेद, विद्याओं, उपनिषदों तथा सभी अग्नियोंको भी देख रहे हैं। परम प्रभो! भव, शर्व, महादेव, पिनाकी, हर और रुद्र- ये सभी आपके ही नाम हैं। विश्वेश्वर ! हम आपको प्रणाम करते हैं। आप हम सबकी रक्षा कीजिये।”
इस प्रकार देवताओंके स्तुति करनेपर देवाधिदेव भगवान् रुद्र प्रसन्न होकर उनके प्रति बोले—
भगवान् रुद्रने कहा— देवताओ ! भगको नेत्र तथा पूषाको दाँत पुनः प्राप्त हो जायें। दक्षका यज्ञ पूर्ण हो जाय। देवताओ! तुमलोगों में पशुत्व आ गया था, उसे भी मैं दूर कर दूँगा। मेरे दर्शनके प्रभावसे देवता उस पशुत्वसे मुक्त होकर शीघ्र ही पशुपतित्वको प्राप्त होंगे। मैं आदि सनातनकालसे सम्पूर्ण विद्याओंका अधीश्वर हूँ पशुओं (बद्धजीवों)- में मैं उनके अधीश्वररूपमें था, अतः लोकमें मेरा नाम पशुपति होगा। जो मेरी उपासना करेंगे, वे पाशुपतदीक्षासे युक्त होंगे।
भगवान् रुद्रके ऐसा कहनेपर लोकपितामह ब्रह्माजी अत्यन्त स्नेहपूर्वक हँसते हुए उनसे बोले- ‘रुद्रदेव! आप निश्चय ही जगत् में पशुपति नामसे प्रसिद्ध होंगे। साथ ही यह दक्ष भी आपके सम्बन्धसे शुद्ध होकर संसार में ख्याति प्राप्त करेगा। सम्पूर्ण संसारद्वारा इसका सम्मान होगा।
परम मेधावी ब्रह्माजी रुद्रसे ऐसा कहकर दक्षसे बोले- ‘वत्स! मैंने गौरीको तुम्हें पहलेसे सौंप रखा है। उसे तुम इन रुद्रको दे दो।’ परम सुन्दरी गौरीने दक्षके घरमें कन्यारूपसे जन्म ग्रहण किया था। ब्रह्माजीके कहनेपर उन्होंने महाभाग रुद्रके साथ उनका विवाह कर दिया। दक्षकन्या गौरीका रुद्रके पाणिग्रहण कर लेनेपर दक्षका सम्मान उत्तरोत्तर बढ़ता गया। जब ब्रह्माजीने रुद्रको निवासके लिये कैलासपर्वत प्रदान किया, तब रुद्र अपने गणोंके साथ कैलासपर्वतपर चले गये। ब्रह्माजी भी दक्षप्रजापतिको साथ लेकर अपनी पुरीमें पधारे।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय १९ तृतीया तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें हिमालयकी पुत्रीरूपमें गौरीकी उत्पत्तिका वर्णन और भगवान् शंकरके साथ उनके विवाहकी कथा
मुनिवर महातपा कहते हैं- राजन् ! जब भगवान् रुद्र कैलासपर निवास करने लगे तो कुछ समय बाद अपने पिता दक्षसे प्राणपति महादेवके साथ वैरका प्रसङ्ग गौरीको स्मरण हो आया। अब सहसा उनके मनमें रोषका भाव उत्पन्न हो गया। वे सोचने लगीं- ‘मेरे पिता दक्षने इन देवाधिदेवको यज्ञमें भाग न देकर कितना बड़ा अपराध किया था, जिसके फलस्वरूप मेरे पिताका यज्ञके निमित्त बनाया हुआ नगर तथा उनके यज्ञका भी विध्वंस करना पड़ा। अतएव शिवके अपराधी पितासे उत्पन्न शरीरका मुझे त्याग कर देना चाहिये और तपस्याद्वारा इन महेश्वरकी आराधना कर दूसरा जन्म ग्रहण कर इनकी अर्धाङ्गिनी बनकर मुझे इन्हें प्राप्त करना चाहिये। पिता दक्षमें तो बान्धवोचित प्रेमका लेश भी नहीं रह गया है। अतएव अब उनके घर मेरा जाना भी नहीं हो सकता।’
इस प्रकार भलीभाँति विचार करके परम सुन्दरी गौरी तप करनेके उद्देश्यसे गिरिराज हिमालयपर चली गयीं। दीर्घकालतक तपस्या करके उन्होंने अपने शरीरको सुखा डाला। फिर योगाग्निके द्वारा अपने शरीरको दग्धकर वे पर्वतराज हिमालयकी पुत्रीके रूपमें प्रकट हुईं और उमा तथा महाकाली आदि उनके नाम हुए। हिमवान्के घरमें परम सुन्दररूपसे सुशोभित होकर वे अवतीर्ण हुई कि फिर ‘भगवान् रुद्र ही मुझे पतिरूपसे प्राप्त हों।’ इस संकल्पसे त्रिलोचन भगवान् शंकरका स्मरण करते हुए उन्होंने पुनः कठोर तपस्या आरम्भ कर दी। इस प्रकार जब गिरिराज हिमालयपर दीर्घकालतक तपद्वारा उन्होंने आराधना की तब ब्राह्मणका वेष धारण करके भगवान् शिव वहाँ पधारे। उस समय उनका वृद्ध शरीर था और सभी अङ्ग शिथिल हो रहे थे। साथ ही वे पग- पगपर गिरते पड़ते चल रहे थे। बड़ी कठिनाईसे वे पार्वतीके पास पहुँचकर बोले—’ भद्रे ! मैं अत्यन्त भूखा ब्राह्मण हूँ, मुझे कुछ खाने योग्य पदार्थ दो।’
उनके इस प्रकार कहनेपर परम कल्याणमयी शैलेन्द्रनन्दिनी उमाने उन ब्राह्मणसे कहा- ‘विप्रवर! मैं आपको भोजनार्थ फल आदि पदार्थ दे रही हूँ। आप यथाशीघ्र स्नानकर इच्छानुसार उन्हें ग्रहण करें।’ उनके यों कहनेपर वे ब्राह्मणदेवता पासमें ही बहती हुई गङ्गाके जलमें स्नान करनेके लिये उतरे । उन ब्राह्मण वेषधारी शिवने स्नान करते समय ही स्वयं मायास्वरूप एक भयंकर मकरका रूप धारण कर उन ब्राह्मणका (अपना) पैर पकड़ लिया। फिर पार्वतीको यह सब लीला दिखाते हुए कहने लगे- ‘दौड़ो-दौड़ो, मैं भारी विपत्तिमें पड़ गया हूँ। इस मकरसे तुम मेरे प्राणोंकी रक्षा करो और जबतक इसके द्वारा मैं नष्ट-भ्रष्ट नहीं कर दिया जाता, तभीतक तुम मुझे बचा लो।’
ब्राह्मणके ऐसा कहनेपर पार्वतीने सोचा- ‘गिरिराज हिमालय तो मेरे पिता हैं। उनका मैं पितृभावसे स्पर्श करती हूँ और भगवान् शंकरका पति भावसे! पर मैं तपस्विनी कैसे इन ब्राह्मणदेवताको स्पर्श करूँ ? परंतु इस समय जलमें ग्राहद्वारा पकड़े जानेपर भी यदि मैं इन्हें बाहर नहीं खींचती तो नि:संदेह मुझे ब्रह्महत्याका दोष लगेगा। दूसरी बात यह है कि अन्य धर्मजनित त्रुटियों या प्रत्यवायोंका प्रायश्चित्तद्वारा शोधन भी सम्भव है; किंतु इस ब्रह्महत्यादोषका तो शोधक कोई प्रायश्चित्त भी नहीं दीखता।’ इस प्रकार मन ही मन कह वे तुरंत दौड़कर वहाँ पहुँच गयीं और हाथसे पकड़कर ब्राह्मणको जलसे बाहर खींचने लगीं। इतनेमें वे देखती क्या हैं कि जिन भूतभावन शंकरकी आराधनाके लिये वे तपस्या कर रही थीं, स्वयं वे शंकर ही उनके हाथमें आ गये हैं। इस प्रकार उन्हें देखकर वे लज्जित हो गयीं और पूर्वसमयका त्याग उन्हें स्मरण हो आया। अत्यन्त लज्जाके कारण उन परम सुन्दरी उमाके मुखसे भगवान् शंकरके प्रति कोई वचन नहीं निकल रहा था। वे बिल्कुल मौन हो गयीं। इसपर भगवान् रुद्र मुसकराते हुए कहने लगे- ‘भद्रे ! तुम मेरा हाथ पकड़ चुकी हो, फिर मेरा त्याग करना तुम्हारे लिये उपयुक्त नहीं है। कल्याणि ! तुम यदि मेरा पाणिग्रहण निष्फल कर दोगी तो मुझे अब अपने भोजनके लिये ब्रह्मपुत्री सरस्वतीसे कहना पड़ेगा।’
‘यह उपहासकी परम्परा आगे न बढ़े ‘ – ऐसा सोचकर कुछ लज्जित-सी हुई पार्वती कहने लगीं— ‘देवाधिदेव ! महेश्वर। आप तीनों लोकोंके स्वामी हैं। आपको पानेके लिये मेरा यह प्रयत्न है। पूर्वजन्ममें भी आप ही मेरे पतिदेव थे। इस जन्ममें भी आप ही मेरे पति होंगे, कोई दूसरा नहीं। किंतु अभी मेरे संरक्षक पिता पर्वतराज हिमालय हैं, अब मैं उनके पास जाती हूँ। उन्हें जताकर आप विधिपूर्वक मेरा पाणिग्रहण करें।’
इस प्रकार कहकर परम सुन्दरी भगवती उमा अपने पिता हिमालयके पास गयीं और हाथ जोड़कर उनसे कहा- ‘पिताजी! मुझे अनेक लक्षणोंसे प्रतीत होता है कि पूर्वजन्ममें भगवान् रुद्र ही मेरे पति रहे हैं। उन्होंने ही दक्षके यज्ञका विध्वंस किया था। वे ही संसारके संरक्षक रुद्र ब्राह्मणका वेष धारण कर तपोवनमें मेरे पास आये और मुझसे भोजनकी याचना की। ‘आप स्नान कर आइये’ – मेरी इस प्रेरणापर वे वृद्ध ब्राह्मणका वेष बनाये हुए गङ्गामें गये। फिर वहाँ मकरद्वारा ग्रस्त हो जानेपर उन्होंने मुझे सहायताके लिये पुकारा । परंतु पिताजी! मुझे ब्रह्महत्या न लग जाय, इस भयसे मैंने अपने हाथसे उन्हें पकड़ लिया। मेरे पकड़ते ही वे अपने वास्तविक रूपमें प्रकट हो गये और कहने लगे- ‘देवि ! यह तो पाणिग्रहण है । तपोधने ! इसमें तुम्हें अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये।’ उनके ऐसा कहनेपर उनसे स्वीकृति लेकर मैं आपसे पूछने आयी हूँ। अतः इस अवसरपर मेरा जो कर्तव्य हो, उसे आप शीघ्र बतानेकी कृपा कीजिये । ‘
पार्वतीकी ऐसी बात सुनकर हिमालय बड़े प्रसन्न हुए और अपनी पुत्रीसे कहने लगे- ‘सुमुखि ! मैं आज संसारमें अत्यन्त धन्य हूँ, जो स्वयं भगवान् शंकर मेरे जामाता होनेवाले हैं।
तुम्हारे द्वारा मैं सचमुच संततिवान् बन गया । पुत्रि ! तुमने मुझको देवताओंका सिरमौर बना दिया है; पर क्षणभर रुकना। मेरे आनेतक थोड़ी प्रतीक्षा करना।’
इस प्रकार कहकर पर्वतराज हिमालय सम्पूर्ण देवताओंके पितामह ब्रह्माजीके पास गये। वहाँ उनका दर्शनकर गिरिराजने नम्रतापूर्वक कहा- ‘भगवन्! उमा मेरी पुत्री है। आज मैं उसे भगवान् रुद्रको देना चाहता हूँ।’ इसपर श्रीब्रह्माजीने भी उन्हें ‘दे दो’ कहकर अनुमति दे दी।
ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर पर्वतराज हिमालय अपने घरपर गये और तुरंत ही तुम्बुरु, नारद, हाहा और हूहूको बुलाया। फिर किन्नरों, असुरों और राक्षसोंको भी सूचना दी। अनेक पर्वत, नदियाँ, वृक्ष, ओषधिवर्ग तथा छोटे-बड़े अन्य पाषाण भी मूर्ति धारणकर भगवान् शंकरके साथ होनेवाले पार्वतीके विवाहको देखनेके लिये वहाँ आये उस विवाहमें पृथ्वी ही वेदी बनी और सातों समुद्र ही कलश सूर्य एवं चन्द्रमा उस शुभ अवसरपर दीपकका कार्य कर रहे थे तथा नदियाँ जल ढोने परसनेका काम कर रही थीं। जब इस प्रकार सारी व्यवस्था हो गयी, तब गिरिराज हिमालयने मन्दराचलको भगवान् शंकरके पास भेजा। भगवान् शंकरकी स्वीकृतिसे मन्दराचल तत्काल वापस आ गये। फिर तो भगवान् शंकरने विधिपूर्वक उमाका पाणिग्रहण किया। उस विवाहके उत्सवपर पर्वत और नारद – ये दोनों गान कर रहे थे। सिद्धोंने नाचनेका काम पूरा किया था। वनस्पतियाँ अनेक प्रकारके पुष्पोंकी वर्षा कर रही थीं तथा सुन्दर रूपवती अप्सराएँ उच्च स्वरसे गा-गाकर नृत्य करनेमें संलग्न थीं। उस विवाह महोत्सवमें लोकपितामह चतुर्मुख ब्रह्माजी स्वयं ब्रह्माके स्थानपर विराजमान थे। उन्होंने प्रसन्न होकर उमासे कहा – ‘पुत्रि ! संसारमें तुम जैसी
पत्नी और शंकर-सरीखे पति सबको सुलभ हों।’ भगवान् शंकर और भगवती उमा-दोनों एक साथ बैठे थे। उनसे इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी अपने धामको लौट आये।
भगवान् वराह कहते हैं— पृथ्वि ! रुद्रका प्राकट्य गौरीका जन्म तथा विवाह-यह सारा प्रसङ्ग राजा प्रजापालके पूछनेपर परम तपस्वी महातपा ऋषिने उन्हें जैसे सुनाया था, वह सम्पूर्ण वृत्तान्त मैंने तुम्हें बता दिया। देवी गौरीके जन्म विवाहादि – सभी कार्य तृतीया तिथिको ही सम्पन्न हुए थे, अतएव तृतीया उनकी तिथि मानी जाती है। उस तिथिको नमक खाना सर्वथा निषिद्ध है। जो स्त्री उस दिन उपवास करती है, उसे अचल सौभाग्यकी प्राप्ति होती है। दुर्भाग्यग्रस्त स्त्री या पुरुष तृतीया तिथिको लवणके परित्यागपूर्वक इस प्रसङ्गका श्रवण करे तो उसको सौभाग्य, धन-सम्पत्ति और मनोवाञ्छित पदार्थोंकी प्राप्ति होती है, उसे जगत् मे उत्तम स्वास्थ्य, कान्ति और पुष्टिका भी लाभ होता है।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय २० गणेशजीकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग और चतुर्थी तिथिका माहात्म्य
राजा प्रजापालने पूछा— महामुने ! गणपतिका जन्म कैसे हुआ, उन्होंने सगुणरूप कैसे धारण किया? यह संशय मेरे हृदयके लिये कष्टप्रद बन गया है। अतः आप इसे दूर करनेकी कृपा कीजिये ।
महातपा बोले- पूर्व समयकी बात है सम्पूर्ण देवता और तपको ही धन माननेवाले ऋषिगण कार्य आरम्भ करते थे और उसमें उन्हें निश्चय ही सिद्धि प्राप्त हो जाती थी। फिर ऐसी स्थिति आ गयी कि अच्छे मार्गपर चलनेवाले लोग विघ्नका सामना करते हुए किसी प्रकार कार्यमें सफलता पाने लगे, पर निकृष्ट कार्यशील व्यक्तिकी कार्य सिद्धिमें कोई विघ्न नहीं आता। तब पितरोंसहित सम्पूर्ण देवताओंके मनमें यह चिन्ता उत्पन्न हुई कि विघ्न तो असत् कार्योंमें होना चाहिये। अतः इस विषयपर वे परस्पर विचार करने लगे। इस प्रकार मन्त्रणा करते-करते उन देवताओंके मनमें भगवान् शंकरके पास चलकर इस गुत्थीको सुलझानेकी इच्छा हुई। अतएव कैलास पहुँचकर उन्होंने परम गुरु शंकरको प्रणामकर विनयपूर्वक इस प्रकार प्रार्थना की ।
देवता बोले- देवाधिदेव ! महादेव ! शूलपाणि ! त्रिलोचन ! भगवन्! हम देवताओंसे भिन्न असुरोंके कार्यमें ही विघ्न उपस्थित करना आपके लिये उचित है, हमारे कार्योंमें नहीं। देवताओंके इस प्रकार कहनेपर भगवान् शंकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और वे निर्निमेष दृष्टिसे भगवती उमाको देखने लगे। देवता भी वहीं थे। पार्वतीकी ओर देखते हुए वे मन-ही-मन सोचने लगे- ‘अरे, इस आकाशका कोई स्वरूप क्यों नहीं दीखता ? पृथ्वी, जल, तेज और वायुकी मूर्ति तो चक्षुगोचर होती है; किंतु आकाशकी मूर्ति क्यों नहीं दीखती ?’ ऐसा सोचकर ज्ञानशक्तिके भण्डार परम पुरुष भगवान् रुद्र हँस पड़े आकाशकी मूर्ति न देखकर शम्भुने जो हँस दिया, इसका अभिप्राय था – ‘बहुत पहले ब्रह्माजीके मुखसे वे सुन चुके थे कि शरीरधारी व्यक्तियोंकी ही मूर्ति होती है आकाशके शरीरधारी न होनेके कारण इसकी मूर्ति असम्भव है। फिर तो उन परब्रह्म रुद्रके द्वारा पृथ्वी, जल, तेज और वायु- इन चारोंके सहयोगसे यह एक अद्भुत कार्य सम्भव हो गया। अभी हँसी बंद भी नहीं हुई थी, इतनेमें एक परम तेजस्वी कुमार प्रकट हो गया। उसका मुख तेजसे चमक रहा था। उस तेजसे दिशाएँ चमकने लगीं। भगवान् शिवके सभी गुण उसमें संनिहित थे। ऐसा जान पड़ता था, मानो साक्षात् दूसरे रुद्र ही हों। वह कुमार एक महान् आत्मा था । वह प्रकट होकर अपनी सस्मित दृष्टि, अद्भुत कान्ति, दीप्त मूर्ति तथा रूपके कारण देवताओंके मनको मोहित कर रहा था। उसका रूप बड़ा ही आकर्षक था। भगवती उमा उसे निर्निमेष दृष्टिसे देखने लगीं। यह अद्भुत कार्य देखकर तथा ‘स्त्रीका स्वभाव चञ्चल होता है, सम्भवतः उमाकी आँखें भी इस अनुपम सुन्दर बालकपर मुग्ध हो गयी हैं’ यह मानकर भगवान् रुद्रके मनमें क्रोधका आविर्भाव हो गया । अतः उन परम प्रभुने गणेशजीको शाप दे दिया—’कुमार! तुम्हारा मुख हाथीके मुख-जैसा और पेट लम्बा होगा। सर्प ही तुम्हारे यज्ञोपवीतका काम देंगे – यह नितान्त सत्य है।’
इस प्रकार गणेशजीको शाप देनेपर भी भगवान् शंकरका रोष शान्त नहीं हुआ। उनका शरीर क्रोधसे काँप रहा था। वे उठकर खड़े हो गये। त्रिशूलधारी रुद्रका शरीर जैसे-जैसे हिलता, वैसे-वैसे उनके श्रीविग्रहके रोमकूपोंसे तेजोमय जल निकलकर बाहर गिरने लगा। उससे दूसरे अनेक विनायक उत्पन्न हो गये। उन सभीके मुख हाथीके मुख-जैसे थे तथा उनके शरीरकी आभा काले खैर वृक्ष या अञ्जनके समान थी। वे हाथोंमें अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लिये हुए थे। अब देवता व्यग्र मनसे सोचने लगे-‘अरे, यह क्या हो गया ? एक ही बालक ऐसा अतुलित महान् कार्य कर रहा है। हम देवताओंकी अभिलाषा अनायास ही पूरी हो गयी। पर इसके चारों ओर ये वैसे ही गण कहाँसे आ पहुँचे ?’
उस समय उन विनायकोंके कारण देवताओंकी चिन्ता अत्यधिक बढ़ गयी। पृथ्वीमें क्षोभ उत्पन्न हो गया। तब चार मुखोंसे शोभा पानेवाले ब्रह्माजी अनुपम विमानपर विराजमान होकर आकाशमें आये और यों कहा – ‘देवताओ ! तुम लोग धन्य हो। यों तुम सभी तीन नेत्रवाले अद्भुत रूपधारी भगवान् रुद्रके कृपापात्र हो। साथ ही तुमने असुरोंके कार्यमें विघ्न उत्पन्न करनेवाले गणेशजीको प्रणाम करनेका सौभाग्य प्राप्त किया है। उनसे इस प्रकार कहनेके पश्चात् ब्रह्माजीने भगवान् रुद्रसे कहा- ‘विभो ! आपके मुखसे प्रकट हुआ जो यह बालक है, इसे ही आप इन विनायकोंका स्वामी बना दें। ये शेष दूसरे विनायक इनके अनुगामी – अनुचर बनकर रहें। प्रभो। साथ ही मेरी प्रार्थना है कि आपके वरप्रभावसे आकाशको भी शरीरधारी बनकर पृथ्वी आदि चारों महाभूतोंमें रहनेका सुअवसर मिल जाय। इससे एक ही आकाश अनेक प्रकारसे व्यवस्थित हो सकता है।’
इस प्रकार भगवान् रुद्र और ब्रह्माजी बातें कर ही रहे थे कि विनायक वहाँसे चले गये । फिर पितामहने शम्भुसे कहा – ‘देव ! आपके हाथमें अनेक समुचित अस्त्र हैं । आप ये अस्त्र तथा वर अब इस बालकको प्रदान करें, यह मेरी प्रार्थना है।’ ऐसा कहकर ब्रह्माजी वहाँसे चले गये। तब भगवान् शंकरने अपने सुपुत्र गणेशजीसे कहा – ‘पुत्र ! विनायक, विघ्नहर, गजास्य और भवपुत्र – इन नामोंसे तुम प्रसिद्ध होगे। क्रूर- दृष्टिवाले ये विनायक बड़े उग्र स्वभावके हैं। पर ये सब तुम्हारी सेवा करेंगे। प्रकृष्ट यज्ञ, दान आदि शुभ कर्मके प्रभावसे शक्तिशाली बनकर ये कार्योंमें सिद्धि प्रदान करेंगे। देवताओं, यज्ञों तथा अन्य कार्योंमें भी सबसे श्रेष्ठ स्थान तुम्हें प्राप्त होगा। सर्वप्रथम पूजा पानेका अधिकार तुम्हारा है। यदि ऐसा न हुआ तो तुम्हारे द्वारा उस कार्यकी सफलता बाधित होगी।’
महाराज ! जब ये बातें समाप्त हो गयीं तो भगवान् शंकरने देवताओंके साथ जलपूर्ण सुवर्ण-कलशोंके विभिन्न तीर्थोके जलसे उन गणेशजीका अभिषेक किया। राजन्! इस प्रकार जलसे अभिषिक्त होकर विनायकोंके स्वामी भगवान् गणेशकी अद्भुत शोभा होने लगी। उन्हें अभिषिक्त देखकर सभी देवता भगवान् शंकरके सामने ही उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे ।
देवता बोले- गजानन ! आप गणोंके स्वामी हैं। आपका एक नाम विनायक है। आप प्रचण्ड पराक्रमी हैं। आपको हमारा निरन्तर नमस्कार है। भगवन्! विघ्न दूर करना आपका स्वभाव है। आप सर्पकी मेखला पहनते हैं । भगवान् शंकरके मुखसे आपका प्रादुर्भाव हुआ है। लम्बे पेटसे आपकी आकृति उद्भासित होती है। हम सम्पूर्ण देवता आपको प्रणाम करते हैं। आप हमारे सभी विघ्न सदाके लिये शान्त कर दें। *
राजन् ! जब इस प्रकार भगवान् रुद्रने महान् पुरुष श्रीगणेशजीका अभिषेक कर दिया और देवताओंद्वारा उनकी स्तुति सम्पन्न हो गयी, तब वे भगवती पार्वतीके पुत्रके रूपमें शोभा पाने लगे। गणाध्यक्ष गणेशजीकी (जन्म एवं अभिषेक आदि) सारी क्रियाएँ चतुर्थी तिथिके दिन ही सम्पन्न हुई थीं। अतएव तभीसे यह तिथि समस्त तिथियोंमें परम श्रेष्ठ स्थानको प्राप्त हुई । राजन् ! जो भाग्यशाली मानव इस तिथिको तिलोंका आहारकर भक्तिपूर्वक गणपतिकी आराधना करता है, उसपर वे अत्यन्त शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं- इसमें कोई संशय नहीं है। महाराज! जो व्यक्ति इस स्तोत्रका पठन अथवा श्रवण करता है, उसके पास विघ्न कभी नहीं फटकते और न उसके पास लेशमात्र पाप ही शेष रह जाता है।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय २१ सर्पोकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग और पञ्चमी तिथिकी महिमा
पृथ्वीने पूछा- मेरा उद्धार करनेवाले भगवन्! आपके श्रीविग्रहका स्पर्श पाकर महान् विक्रमशाली सर्प कैसे मूर्तिमान् बन गये तथा उन्हें आपने क्यों बनाया?
भगवान् वराह बोले- वसुंधरे ! गणपतिके जन्मका वृत्तान्त सुननेके पश्चात् राजा प्रजापालने यही प्रसङ्ग बड़ी मीठी वाणीमें उत्तमव्रती महातपासे पूछा था ।
राजा प्रजापालने पूछा- भगवन्! कश्यपजीके वंशसे सम्बन्धित नाग तो बड़े ही दुष्ट प्रकृतिके थे। फिर उन्हें विशाल शरीर धारण करनेका अवसर कैसे मिल गया? यह प्रसङ्ग आप मुझे बतानेकी कृपा कीजिये ।
मुनिवर महातपाजी कहते हैं – राजन् ! मरीचि ब्रह्माजीके प्रथम मानस पुत्र थे। उनके पुत्र कश्यपजी हुए। मन्द मुसकानवाली दक्षकी पुत्री कद्रू उनकी भार्या हुई। उससे कश्यपजीके अनन्त, वासुकि, महाबली कम्बल, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शङ्ख, कुलिक और पापराजिल आदि नामोंसे विख्यात अनेक पुत्र हुए। राजेन्द्र ! ये प्रधान सर्प कश्यपजीके पुत्र हैं। बादमें इन सर्पोंकी संतानों से यह सारा संसार ही भर गया। वे बड़े कुटिल और नीच कर्ममें रत थे। उनके मुँहमें अत्यन्त तीखा विष भरा था। वे मनुष्योंको अपनी दृष्टिमात्रसे या काटकर भी भस्म कर सकते थे। राजन् ! उनका दंश शब्दकी ही तरह तीव्रगामी था। उससे भी मनुष्योंकी मृत्यु हो जाती। इस प्रकार प्रजाका प्रतिदिन दारुण संहार होने लगा । यों अपना भीषण संहार देखकर प्रजावर्ग एकत्र होकर सबको शरण देनेमें समर्थ परम प्रभु भगवान् ब्रह्माजीकी शरण में गये। राजन् ! इसी उद्देश्यको सामने रखकर प्रजाओंने कमलपर प्रकट होनेवाले ब्रह्माजीसे कहा- ‘भगवन्! आपमें असीम शक्ति है। इन तीखे दाँतोंवाले सर्पोंसे आप हमारी रक्षा करें। इनकी दृष्टि पड़ते ही मनुष्य तथा पशुसमूह भस्म हो जाते हैं – यह प्रतिदिनकी बात हो गयी है। भगवन्! इन सर्पोद्वारा आपकी सृष्टिका संहार हो रहा है। महामते! आप इसकी जानकारी प्राप्तकर ऐसा प्रयत्न करें कि यह दुःखद परिस्थिति शीघ्र दूर हो जाय।’
ब्रह्माजी बोले- प्रजापालो ! तुम भयसे घबड़ा गये हो। मैं तुम्हारी रक्षा अवश्य करूँगा। पर अब तुम सभी अपने-अपने स्थानपर चलो।
अव्यक्तमूर्ति ब्रह्माजीकें इस प्रकार कहनेपर वे प्रजाएँ वापस आ गयीं। उस समय ब्रह्माजीके मनमें असीम क्रोध उत्पन्न हो गया। उन्होंने वासुकि प्रभृति प्रमुख सर्पोंको बुलाया और उन्हें शाप दे दिया।
ब्रह्माजीने कहा- नागो! तुम मेरे द्वारा उत्पन्न किये हुए मनुष्योंकी मृत्युके कारण बन गये हो। अतः आगे स्वायम्भुव मन्वन्तरमें तुम्हारा अपनी ही माताके शापद्वारा घोर संहार होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।
जब ब्रह्माजीने इस प्रकार उन श्रेष्ठ सर्पोंसे कहा तब सर्पोंके शरीरमें भयसे कँपकँपी मच गयी। वे उन प्रभुके पैरोंपर गिर पड़े और ये वचन कहे।
नाग बोले- भगवन्! आपने ही तो कुटिल जातिमें हमारा जन्म दिया है। विष उगलना, दुष्टता करना, किसी वस्तुको देखकर उसे नष्ट कर देना- यह हमारा अमिट स्वभाव आपके द्वारा ही निर्मित है। अब आप ही उसे शान्त करनेकी कृपा करें।
ब्रह्माजीने कहा- मैं मानता हूँ, तुम्हें मैंने उत्पन्न किया है और तुममें कुटिलता भी भर दी है, पर इसका अभिप्राय यह नहीं है कि तुम निर्दय होकर नित्य मनुष्योंको खाया करो।
सर्पोने कहा – भगवन्! आप हमें अलग- अलग रहनेके लिये कोई सुनिश्चित स्थानकी व्यवस्था कर दीजिये और हमारे द्वारा डँसे जानेकी स्थिति एवं नियम भी बता दें।
राजन् ! नागोंकी यह बात सुनकर ब्रह्माजीने कहा – सर्पो ! तुमलोग मनुष्योंके साथ भी रह सको इसके लिये मैं स्थानका निर्णय कर देता हूँ। तुम सबलोग मनको एकाग्रकर मेरी आज्ञा सुनो- ‘सुतल, वितल और पाताल- ये तीन लोक कहे गये हैं । तुम्हें रहनेकी इच्छा हो तो वहीं निवास करो। वहाँ मेरी आज्ञा तथा व्यवस्थासे अनेक प्रकारके भोग तुम्हें भोगनेके लिये प्राप्त होंगे। रातके सातवें पहरतक तुम्हें वहाँ रहना है। फिर वैवस्वत मन्वन्तरके आरम्भमें कश्यपजीके यहाँ तुम्हारा जन्म होगा। देवतालोग तुम्हारे बन्धु- बान्धव होंगे। बुद्धिमान् गरुडसे तुम्हारा भाईपनेका सम्बन्ध होगा। उस समय कारणवश तुम्हारी सारी संतान ( जनमेजयके यज्ञमें) अग्निके द्वारा जलकर स्वाहा हो जायगी। इसमें निश्चय ही तुम्हारा कोई दोष न होगा। जो सर्प अत्यन्त दुष्ट और उच्छृङ्खल होंगे, उन्हींकी उस शापसे जीवनलीला समाप्त होगी जो ऐसे न होंगे, वे जीवित रहेंगे। हाँ, अपकार करनेपर या जिनका काल ही आ गया हो, उन मनुष्योंको समयानुसार निगलने या काटनेके लिये तुम स्वतन्त्र हो । गरुडसम्बन्धी मन्त्र, औषध और बद्ध गारुडमण्डलद्वारा दाँत कुण्ठित करनेकी कलाएँ जिन्हें ज्ञात होंगी, उनसे निश्चय ही तुम्हें डरकर रहना चाहिये, अन्यथा तुम लोगोंका विनाश निश्चित है।’
ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर वे सम्पूर्ण सर्प पृथ्वीके नीचे पाताललोकमें चले गये। इस प्रकार ब्रह्माजीसे शाप एवं वरदान पाकर वे पातालमें आनन्दपूर्वक निवास करने लगे। ये सारी बातें उन नाग महानुभावोंके साथ पञ्चमी तिथिके दिन ही घटित हुई थीं। अतः यह तिथि धन्य, प्रिय, पवित्र और सम्पूर्ण पापोंका संहारक सिद्ध हो गयी। इस तिथिमें जो खट्टे पदार्थके भोजनका परित्याग करेगा और दूधसे नागोंको स्नान करायेगा, सर्प उसके मित्र बन जायेंगे।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय २२ षष्ठी तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें स्वामी कार्तिकेयके जन्मकी कथा
राजा प्रजापालने कहा— द्विजवर ! मेरा एक प्रश्न यह भी है कि अहंकारसे कार्तिकेयकी उत्पत्ति कैसे हुई ? महामते ! आप मेरे संदेहको दूर करनेकी कृपा कीजिये ।
मुनिवर महातपा बोले- राजन् ! सम्पूर्ण तत्त्वोंमें जिन्हें प्रधान स्थान प्राप्त है, उन्हें परम पुरुष परमात्मा कहा जाता है। सबके आरम्भमें उन्हींसे अव्यक्ततत्त्वकी उत्पत्ति हुई। ये तत्त्व तीन प्रकारके हैं। परम पुरुष और अव्यक्तके योगसे महत्तत्त्वका प्रादुर्भाव हुआ। इसी महत्तत्त्वको अहंकार भी कहते हैं। इनमें जो पुंस्तत्त्व है, वह भगवान् विष्णु अथवा शिव नामसे प्रसिद्ध है । अव्यक्तप्रकृति भगवती उमादेवी या कमलनयना लक्ष्मी हैं। उन्हीं भगवान् शंकर और उमाके संयोगसे अहंकारकी उत्पत्ति हुई। वे ही सेनापति कार्तिकेय हैं। महामते राजन्! मैं अब उन कार्तिकेयकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग कहता हूँ, तुम उसे सुनो।
सर्वप्रथम एकमात्र भगवान् नारायण ही विराजमान थे, फिर उनसे ब्रह्माजीकी उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् स्वायम्भुव मनु तथा मरीचि और सूर्य आदि प्रकट हुए। फिर इन देवताओं, दानवों, गन्धव, मनुष्यों, पशुओं और पक्षियोंकी सृष्टि हुई। यही सम्पूर्ण प्राणियोंकी सृष्टि कही गयी है।
सृष्टिका विस्तार हो जानेपर देवताओं और दानवोंमें एक-दूसरेको परास्त करनेकी इच्छासे सदा युद्ध होने लगा; क्योंकि उन दोनों दलोंमें अपार बल था और उनमें सदा वैरकी भावना बनी रहती थी । दैत्योंके सेनाध्यक्ष बड़े बलवान् थे, जिन्हें युद्धमें कोई हरा नहीं सकता था। उनके नाम इस प्रकार हैं- हिरण्यकशिपु हिरण्याक्ष, महासुर विप्रचित्ति, विचित्र, भीमाक्ष और क्रौञ्च । इन सभी वीरोंके बलकी सीमा न थी। उस घोर संग्रामके अवसरपर देवसेनामें उपस्थित देवता दानवोंके तीक्ष्ण बाणोंसे प्रतिदिन हार रहे थे। उनकी पराजय देखकर बृहस्पतिजीने कहा – ‘देवताओ ! तुम्हारी सेनामें कोई सेनाध्यक्ष नहीं है। केवल एक इन्द्रसे इस सेनाकी रक्षा हो सके – यह नितान्त असम्भव है। अतः तुमलोग अपने लिये किसी सेनाध्यक्षका अन्वेषण करो। अब इसमें देर करना ठीक नहीं है।’
बृहस्पतिजीके ऐसा कहनेपर देवता ब्रह्माजीके पास गये। उन्होंने व्याकुल होकर उनसे कहा- ‘भगवन्! हमें आप कोई सेनाध्यक्ष देनेकी कृपा करें।’ इसपर ब्रह्माजीने ध्यान लगाकर देखा- ‘इन देवताओंके लिये मुझे क्या करना चाहिये ?’ इतनेमें उनका ध्यान भगवान् शंकरकी ओर गया और फिर सभी देवता गन्धर्व, ऋषि, सिद्ध एवं चारण ब्रह्माजीको आगे करके कैलास पर्वतको चले। वहाँ पशुपति भगवान् शंकरका दर्शनकर अनेक प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा सभीने उनकी स्तुति आरम्भ कर दी।
देवता बोले- महेश्वर ! हम समस्त देवता आपकी शरणमें आये हैं। भूतभावन! आप त्रिनेत्र, भगवान् शंकर, उमापति, विश्वपति, मरुत्पति और जगत्पति नामसे विख्यात हैं। आपको हमारा प्रणाम है। प्रभो! आप हमारी रक्षा करें। भगवन्! आपके जटापुञ्जके अग्रभागपर बैठे हुए चन्द्रमाकी किरणोंके प्रकाशसे तीनों जगत् स्वच्छ हो रहे हैं! आप ही अच्युत, त्रिशूलपाणि और पुरुषोत्तम कहलाते हैं। दैत्योंद्वारा उत्पन्न भय हमारे ऊपर आ गया है। आप उससे हमारी रक्षा करनेकी कृपा कीजिये। श्रेष्ठ देवताओंमें भी परम श्रेष्ठ प्रभो! आदिदेव, पुरुषोत्तम, हर, भव, महेश, त्रिपुरान्तक, विभु, भगदेवताके नेत्र हरनेवाले, दैत्यरिपु, पुरातन और वृषभध्वज – इस प्रकार आपके अनन्त नाम हैं। भगवन्! हमारी रक्षामें आप ही सक्षम हैं। गिरिजापति प्रभो! पर्वतपत्नी मैनाके आप वात्सल्य भाजन हैं! देवेश्वर! अच्युत, गणेश, भूतेश, शिव अक्षय, अयन और दैत्यवरान्तक आपकी संज्ञाएँ हैं। भगवन्! आप हमारी रक्षा करें। पृथ्वी आदि पाँच तत्त्वोंमें आप प्रतिष्ठित हैं। आपके प्रधान गुण भी पाँच हैं। विशेषता यह है कि आप आकाशमें तो केवल ध्वनिरूपसे लीन रहते हैं, अग्निमें शब्द एवं रूप- इन दो गुणोंसे, वायुमें तीन रूपोंसे, जलमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस- इन चार रूपोंसे और पृथ्वीमें गन्धसहित पाँच रूपोंसे विराजते हैं। भगवन्! अग्नि आपका स्वरूप है। वृक्ष, पत्थर और तिल आदिमें आप साररूपसे स्थित हैं। भगवन्! आप महान् शक्तिशाली पुरुष हैं। इस समय दैत्योंद्वारा हमें अत्यन्त दुःख भोगना पड़ रहा है। अतः आप हमारी रक्षा करें। त्रिलोचन ! जिस समय यह सारा विश्व सृष्टिशून्य था तथा ये सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्र आदि भी नहीं थे, उस समय त्रिनेत्र! सभी प्रमाणोंसे परे, समस्त बाधाओंसे वर्जित केवल आपकी ही सत्ता विराजित थी। भगवन्! आप कपालकी माला पहनते हैं। द्वितीयाके चन्द्रमा आपके मस्तककी शोभा बढ़ाते हैं। श्मशानभूमिमें आप निवास करते हैं। भस्मसे आपकी अनुपम शोभा होती है। आप शेषनागका यज्ञोपवीत पहनते हैं। देवेश्वर ! मृत्युञ्जय ! आप अपनी तीव्र बुद्धिके सहारे हमारी रक्षा करें। भगवन्! आप पुरुष हैं और ये श्रीगिरिजा अर्द्ध- देहरूपमें आपकी शक्ति हैं। आपमें ही यह जगत् स्थित है। आहवनीय आदि अग्नियोंने आपके तीनों नेत्रोंमें स्थान पाया है। समस्त सागर तथा पर्वतोंसे निकलकर समुद्रतक जानेवाली नदियाँ आपकी जटाएँ हैं। आप विशुद्ध ज्ञानघन हैं। जिनकी दृष्टि दूषित है, वे ही आपको भौतिकरूपमें देखते हैं। जगत् के उत्पत्तिकर्ता भगवान् नारायण तथा चार मुखोंसे शोभा पानेवाले ब्रह्मा भी आप ही हैं। सत्त्व आदि तीनों गुणों, आहवनीय, आवसथ्य आदि तीनों अग्नियों तथा कृत-त्रेता आदि युगोंके भेदसे आप त्रिमूर्ति बन जाते हैं। प्रभो! ये प्रधान देवता आपकी सहायता चाहते हैं। ये आपको अपना तोषक एवं रक्षक कहते हैं। क्योंकि रुद्र ! विश्वका भरण-पोषण करना आपका स्वभाव है। अतः भस्मको भूषणरूपमें धारण करनेवाले प्रभो! आप हमारी रक्षा करें।
मुनिवर महातपा कहते हैं—- राजन् ! देवताओंके इस प्रकार स्तुति करनेपर पशुपति भगवान् शंकर स्थिर होकर बोले- ‘देवताओ! आपका क्या कार्य है ? शीघ्र बतलाएँ।’
देवगण बोले- देवेश! दानवोंके वधके लिये आप हमें एक सेनापति प्रदान करनेकी कृपा कीजिये । ब्रह्माजीकी अध्यक्षतामें रहनेवाले हम सभी देवताओंका इस समय इसीमें कल्याण है ।
भगवान् रुद्रने कहा- देवगण! आपलोग स्वस्थ एवं निश्चिन्त हो जायें। अभी थोड़ी देरमें मैं आपलोगोंको सेनापति देता हूँ।
राजन् ! यों कहकर भगवान् रुद्रने देवताओंको जानेकी आज्ञा दे दी और पुत्रोत्पत्तिके निमित्त अपने विग्रहमें रहनेवाली शक्तिको प्रेरित किया। उनके द्वारा शक्तिके क्षुब्ध होते ही एक कुमार प्रकट हो गया। उसकी प्रभा ऐसी थी, मानो तपता हुआ सूर्य ही हो वह अपनी जन्मजात शक्तिको इस प्रकार प्रकाशित कर रहा था, मानो वह शक्ति ज्ञानमय बनकर एकमात्र उसीके पास पुञ्जीभूत हो गयी है। राजेन्द्र ! उस कुमारकी उत्पत्तिसे सम्बन्धित अनेक प्रकारकी कथाएँ हैं। बहुत से मन्वन्तरों तथा कल्पों में देवताओंके सेनापति होनेके विविध प्रसङ्ग हैं। भगवान् शंकरके शरीरमें अहंकाररूपसे जिन देवताओंकी प्रसिद्धि थी, वे सभी देवता प्रयोजनवश देवसेनापति बनकर शोभा पाने लगे। उस कुमारके उत्पन्न हो जानेपर स्वयं ब्रह्माजी देवताओंके साथ आये और उन देवाधिदेव भगवान् शंकरकी पूजा की। समस्त देवताओं, ऋषियों, सिद्धों और भगवान् शंकरने उस सेनापति होनेवाले बालकको पाल-पोसकर बड़ा किया। तब उस बालकने देवताओंसे कहा- ‘आपलोग मुझे दो सहायक तथा कुछ खिलौने दें।’ उस समय भगवान् रुद्रने उस बालककी बात सुनकर यह वचन कहा- ‘पुत्र! तुम्हें खेलनेके लिये कुक्कुट तथा सेवा सहयोगके लिये शाख एवं विशाख नामवाले दो अनुचर देता हूँ। कुमार! तुम भूत ग्रह एवं विनायकोंके नेता बनो और देवताओंकी सेनाके
सेनापति हो जाओ।’ राजन्! भगवान् शंकरके ऐसा कहनेपर सभी देवगण प्रसन्न हो अभिलषित वाक्योंका उच्चारण करके सेनाध्यक्ष भगवान् स्कन्दकी स्तुति करने लगे ।
देवगण बोले- प्रभो! आप भगवान् शंकरके सुपुत्र हैं। आप हमारी सेनाकी अध्यक्षता स्वीकार करनेकी कृपा करें। आप षण्मुख, स्कन्द, विश्वेश, कुक्कुटध्वज, पावकि, शत्रुओंको कम्पित करनेवाले, कुमारेश, बालग्रहानुग, शत्रुओंको परास्त करनेवाले, क्रौञ्चविध्वंसक, कृत्तिकानन्दन, शिवकुमार, भूतों तथा ग्रहोंके स्वामी, अग्निनन्दन तथा भूतभावन भगवान् शंकरकी संतान हैं। त्रिलोचन! आपको हमारा नमस्कार है।
राजन् ! देवताओंके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर रुद्रकुमार भगवान् स्कन्दकी आकृति तेजीसे बढ़ने लगी। फिर तो वे बारह आदित्योंके समान तेजस्वी एवं पराक्रमी हो गये और उनके तेजसे तीनों लोकोंमें ताप छा गया।
राजा प्रजापालने पूछा—-गुरो ! आपने स्कन्दको कृत्तिका पुत्र कैसे कहा है ? अथवा वे कुमार, पावकि और षण्मातृनन्दन क्यों कहे जाते हैं? इसका कारण मुझे बतानेकी कृपा करें ।
मुनिवर महातपा कहते हैं- राजन् ! मन्वन्तरके प्रारम्भमें कार्तिकेयकी जिस प्रकार उत्पत्ति हुई थी, वह प्रसङ्ग मैंने बताया है। देवतालोग तो भूत और भविष्यकी बातें भी जानते हैं। अतएव उनके द्वारा इन गुणद्योतक नामोंका उच्चारण हुआ है। अग्निके पुत्र होनेसे इनका नाम ‘पावकि’ हुआ है। यद्यपि इनकी माता गौरी हैं, किंतु जन्ममें कृत्तिकादि छः माताओंने इन्हें दुग्ध-पान कराकर पाला था, अतः ये ‘कार्तिकेय’ कहलाये। महाराज ! तुम्हारे प्रश्नका इस प्रकार समाधान हो गया।
आत्मविद्यारूपी अमृतका यह विषय अत्यन्त गुह्य है। भगवान् शंकरके अहंकारका यह मूर्तरूप है। सम्पूर्ण पापोंके प्रशमन करनेवाले स्वयं भगवान् शंकर ही स्कन्दरूपमें प्रकट हुए थे।
पितामह ब्रह्माजीने इनके अभिषेकके समय इन्हें षष्ठी तिथि प्रदान की थी। अतः जो व्यक्ति इस तिथि में संयमपूर्वक केवल फलके आहारपर रहकर इनकी पूजा करता है, उसे यदि पुत्र न हो। तो पुत्रकी प्राप्ति अथवा निर्धन हो तो धनकी प्राप्ति हो जाती है। इतना ही नहीं, मनुष्य मनसे भी जिन-जिन वस्तुओंकी इच्छा करेगा, वह उसे सुलभ हो जायगी। जो पुरुष स्वामी कार्तिकेयके उपर्युक्त गुणनामपूर्ण स्तोत्रका पाठ करता है, उसके घरमें बच्चोंका सदा कल्याण होता है और वे नीरोग रहते हैं।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय २३ सप्तमी तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें आदित्योंकी उत्पत्तिकी कथा
राजा प्रजापालने पूछा- ब्राह्मणश्रेष्ठ ! दिव्य ज्योतिःपुञ्जका शरीर धारण बड़े आश्चर्यकी बात है। कृपया मुझ शरणागतकी इस शङ्काका आप निराकरण करें।
मुनिवर महातपाजी कहने लगे- राजन् ! विज्ञानात्मा, सनातन ज्ञानशक्तिको जब किसी दूसरी शक्तिकी अपेक्षा हुई तो उसके शरीरसे एक प्रकाशमान तेज निकल पड़ा, जो सूर्य कहलाया। यह उन महान् पुरुषका ही एक दूसरा रूप है फिर उस मूर्तिमें सम्पूर्ण तेज स्थान पा गये। तब उससे तीनों लोकों में प्रकाश फैल गया। उस तेजमें अखिल महर्षियोंसहित सम्पूर्ण देवता और सिद्ध अधिष्ठित हैं। इसीलिये उन प्रभुको स्वयम्भू कहा जाता है। उन्हींसे सूर्यका प्राकट्य हुआ। वे ही स्वयं सूर्यरूपसे लक्षित हैं। उस विग्रहमें तुरंत तेजोंका समावेश हो गया। अतः वे परम तेजस्वी शरीरवाले बन गये। वेदवादी मुनिगण इसी तेजको सूर्य आदि नामोंसे व्यवहृत करते हैं। जब वे आकाशमें ऊपर उठकर सभी लोकोंको प्रकाशित करने लगे, तब उनका अनुगुण नाम ‘भास्कर’ पड़ गया। इसी प्रकार चारों ओर प्रकाश फैलानेके कारण इनकी ‘प्रभाकर’ नामसे भी प्रसिद्धि हुई। दिवा और दिवस – ये दोनों शब्द एक ही अर्थके बोधक हैं। इनके द्वारा दिवसका निर्माण हुआ, अतः ये दिवाकर कहलाये । सम्पूर्ण संसारके आदिमें ये विराजते थे, अतः इन्हें आदित्य कहते हैं। फिर इन्हीं भगवान् सूर्यके तेजसे भिन्न-भिन्न बारह आदित्य उत्पन्न हुए। वैसे प्रधानतया एक ही रूपमें ये जगत्में घूमते रहते हैं। जब इनके शरीरमें स्थान पाये हुए देवताओंने देखा कि ये ही परब्रह्म परमेश्वर जगत् में व्याप्त होकर तेज फैला रहे हैं, तब वे श्रीविग्रहसे बाहर निकल आये और भगवान्की इस प्रकार स्तुति करने लगे ।
देवता बोले- भगवन्! आपसे जगत् की सृष्टि होती है। आपके द्वारा ही इस विश्वका पालन और संहार होता है। आप आकाशमें ऊँचे जाकर निरन्तर विश्वमें चक्कर लगाते हैं। ऐसे प्रभुकी हम सदा उपासना करते हैं। जगत् की रचना हो जानेपर प्रतापी सूर्यका रूप धारणकर आप सर्वत्र तेज भर देते हैं। जिसे सात घोड़े खींचते हैं, जिसकी कालरूपी धुरी है और जो बड़े वेगसे चलता है, ऐसा रथ आपकी सवारी है। प्रभो ! आप प्रभाकर और रवि कहलाते हैं। चर और अचर – सम्पूर्ण संसारकी आत्मा आप ही हैं। सिद्ध पुरुष कहते हैं कि ब्रह्मा, वरुण, यम, भूत और भविष्य – सब कुछ आप ही हैं। भगवन्! वेद आपकी मूर्ति हैं। अन्धकार दूर करना आपका स्वभाव है। आप वेदान्त आदि शास्त्रोंकी सहायतासे ही जाने जाते हैं। यज्ञोंमें विष्णुके रूपसे आपके ही निमित्त हवन होता है। हम सभी देवता आपकी शरणमें आये हैं। आप प्रसन्न होकर सदा हमारी रक्षा करें। देवेश्वर ! अब हमलोगोंके द्वारा भक्तिपूर्वक की हुई आपकी स्तुति सम्पन्न हो गयी । प्रभो ! विशेष आग्रह है कि आप हमारी रक्षाका प्रबन्ध करें।
इस प्रकार देवताओंके स्तुति करनेपर भगवान् सूर्यने तेजोमयी मूर्तिको सौम्य बना लिया और उनके सामने शीघ्र ही साधारण प्रकाश फैलाने लगे। (उस अवसरपर देवताओंने कहा — ) ‘भगवन्! इस सम्पूर्ण देवगणमें बेचैनी उत्पन्न हो गयी थी । अब आपकी कृपासे सभी शान्तिका अनुभव कर रहे हैं।’ (महातपा मुनि कहते हैं- राजन् ! ) सप्तमी तिथिके दिन भगवान् सूर्यका प्राकट्य हुआ था, अतः इस तिथिको उपवास करके जो पुरुष भक्तिपूर्वक सूर्यकी पूजा करता है, भास्कररूपधारी प्रभु उसकी इच्छाके अनुसार फल प्रदान कर देते हैं। राजन् ! सूर्यसे सम्बन्धित यह कथा बहुत पुरानी है, जिसे तुम सुन चुके । अब आदि मन्वन्तरमें हुई (मातृकाओं की उत्पत्तिसम्बन्धी) एक अन्य आख्यान कहता हूँ, उसे सुनो।’
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय २४ अष्टमी तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें मातृकाओं की उत्पत्तिकी कथा
मुनिवर महातपा कहते हैं- राजन् ! पूर्व समयकी बात है, भूमण्डलपर एक महान् पराक्रमी राक्षस था, जिसकी अन्धक नामसे ख्याति थी। ब्रह्माजीके द्वारा वर प्राप्तकर उसका अहंकार चरम सीमापर पहुँच गया था। सभी देवता उसके अधीन हो गये थे। उसकी सेवा असह्य होनेके कारण देवताओंने सुमेरु पर्वत छोड़ दिया और उस दानवके भयसे दुःखी होकर वे ब्रह्माजीकी शरणमें गये। उस समय वहाँ आये हुए प्रधान देवताओंसे पितामहने कहा- ‘सुरगणो! कहो, तुम्हारे आनेका क्या प्रयोजन है? तुम क्या चाहते हो ?’
देवताओंने कहा- जगत्पते ! आप चतुर्मुख एवं जगत् पितामह हैं। भगवन्! आपको हमारा नमस्कार है। अन्धकासुरके द्वारा हम सभी देवता महान् दुःखी हैं। आप हम सबकी रक्षा करें।
ब्रह्माजी बोले- श्रेष्ठ देवताओ ! अन्धकासुरसे रक्षा करना मेरे वंशकी बात नहीं है। हाँ, महाभाग शंकरजी अवश्य सर्वसमर्थ हैं। हम सभी उनकी ही शरणमें चलें; क्योंकि मैंने ही उसे वर दिया था कि तुम्हें कोई भी मार न सकेगा और तुम्हारा शरीर भी पृथ्वीका स्पर्श नहीं करेगा। फिर भी उस परम पराक्रमी असुरको शत्रुओंके संहार करनेवाले भगवान् शंकर मार सकते हैं; अतः हम सबलोग उन्हीं कैलासवासी प्रभुके पास चलें।
राजन्! इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी सभी देवताओंके साथ भगवान् शंकरके पास गये। उन्हें देखकर भगवान् शंकरने प्रत्युत्थानादिद्वारा स्वागत- कर उनसे कहा- आप सभी देवता किस कारण से यहाँ पधारे हैं ? आप शीघ्र आज्ञा दें, जिससे मैं आपलोगोंका कार्य तुरंत सम्पन्न कर दूँ।’
इसपर देवताओंने कहा- ‘भगवन्! दुष्टचित्त, महाबली अन्धकासुरसे आप हमारी रक्षा करें’ अभी वे ऐसा कह ही रहे थे कि विशाल सेना लिये अन्धकासुर वहीं आ धमका। उस समय वह दानव पूरे साधनोंके साथ आया था। उसकी इच्छा थी कि वह युद्धमें चतुरङ्गिणी सेनाके सहारे शंकरजीको मारकर उनकी पत्नी पार्वतीका अपहरण कर ले। उसे सहसा इस प्रकार प्रहारके लिये उद्यत देखकर रुद्र भी युद्धके लिये उद्यत हो गये।
सभी देवता भी उनका साथ देनेको तैयार हुए। फिर उन प्रभुने वासुकि, तक्षक और धनञ्जयको स्मरण किया और उन्हें क्रमसे अपना कङ्कण और करधनी बनाया। इतनेमें नील नामसे प्रसिद्ध एक प्रधान दैत्य हाथीका रूप धारणकर भगवान् शंकरके पास आया । नन्दी उसकी माया जान गये और वीरभद्रको बतलाया। बस ! क्या था, वीरभद्रने भी सिंहका रूप धारणकर उसे तत्काल मार डाला। उस हाथीका चर्म अञ्जनके समान काला था। वीरभद्रने उसकी चमड़ी उधेड़कर उसे भगवान् शंकरको समर्पित कर दिया। तब रुद्रने उसे वस्त्रके स्थानपर पहन लिया। तभीसे वे गजाजिनधारी हुए। इस प्रकार गजचर्म पहनकर उन्होंने श्वेत सर्पका भूषण भी धारण कर लिया। फिर हाथमें त्रिशूल लेकर अपने गणोंके साथ उन्होंने अन्धकासुरपर धावा बोल दिया। अब देवता एवं दानवोंमें भीषण संग्राम प्रारम्भ हो गया। उस अवसरपर इन्द्र आदि सभी लोकपाल, सेनापति स्कन्द एवं अन्य सभी देवता भी समराङ्गणमें उतर आये। यह स्थिति देखकर नारदजी तुरंत भगवान् नारायणके पास गये और बोले- ‘भगवन्! कैलासपर देवताओंका दानवोंके साथ घोर युद्ध हो रहा है। ‘
यह सुनना था कि भगवान् जनार्दन भी हाथमें चक्र लेकर गरुडपर बैठे और युद्ध स्थलमें पहुँचकर दानवोंके साथ युद्ध करने लगे। उनके वहाँ आ जानेपर देवताओंका उत्साह कुछ बढ़ा अवश्य, किंतु उस समरमें उनका मन एक प्रकारसे म्लान हो चुका था, अतः वे सभी भाग चले। जब देवताओंकी शक्ति समाप्त हो गयी तो स्वयं भगवान् रुद्र अन्धकासुरके सामने गये। उसके साथ उनका रोमाञ्चकारी युद्ध आरम्भ हो गया। उस समय उन प्रभुने उस दानवपर त्रिशूलसे भीषण प्रहार किया। फिर तो घायल हो जानेपर अन्धकासुरके शरीरसे जो रक्त जमीनपर गिरा, उससे उसी क्षण दूसरे असंख्य अन्धकासुर उत्पन्न हो गये। युद्धभूमिमें ऐसा अत्यन्त आश्चर्यपूर्ण दृश्य देखकर परम प्रभु भगवान् रुद्रने प्रधान अन्धकासुरको त्रिशूलके अग्रभागसे बींध दिया और उसे लिये हुए नाचने लगे। शेष मायामय अन्धकासुरोंको भगवान् विष्णुने अपने चक्रसे काट डाला। शूल- प्रोत प्रधान अन्धकासुरके शरीरसे रक्तकी धाराएँ अब भी निरन्तर प्रवाहित हो रही थीं; अतः रुद्रके मनमें भीषण क्रोधाग्नि भड़क उठी, जिससे उनके मुखसें अग्निकी ज्वाला बाहर निकलने लगी। उस ज्वालाने एक देवीका रूप धारण कर लिया, जिसे लोग योगेश्वरी कहने लगे।
इसी प्रकार भगवान् विष्णुने भी अपने रूपके सदृश (ज्वालाद्वारा) अन्य शक्तिका निर्माण किया। ऐसे ही ब्रह्मा, कार्तिकेय, इन्द्र, यम, वराह, महादेव, विष्णु और नारायण – इनके प्रभावसे आठ मातृकाएँ प्रकट हो गयीं। जब श्रीहरिने पृथ्वीका उद्धार करनेके लिये वराहका रूप धारण किया था, उस समय जिन्हें अपनाया वे वाराही हैं। इस प्रकार ब्राह्मी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, यमी, योगेश्वरी, माहेश्वरी और माहेन्द्री – ये आठ मातृकाएँ हैं। क्षेत्रज्ञ श्रीहरिने जिनका जिस कारणसे निर्माण हुआ था, उसपर विचार करके उनका वही नाम रख दिया। ऐसे ही काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मात्सर्य, पैशुन्य और असूया – इनकी आठ शक्तियाँ मातृका नामसे प्रसिद्ध हुई। काम ‘योगेश्वरी’, क्रोध ‘माहेश्वरी’, लोभ ‘वैष्णवी’, मद ‘ब्रह्माणी’, मोह ‘कौमारी’, मात्सर्य ‘इन्द्राणी’, पैशुन्य ‘यमदण्डधरा’ और असूया ‘वाराही’ नामसे कही गयी हैं-ऐसा जानना चाहिये। ये कामादिगण भी भगवान् नारायणके शरीर कहे जाते हैं। उन प्रभुने जैसी मूर्ति धारण की, उनका वैसा नाम तुम्हें बता दिया।
तदनन्तर इन मातृ-देवियोंकि प्रयाससे अन्धकासुरकी रक्तधाराका प्रवाह सूख गया। उसकी आसुरी माया समाप्त हो गयी। फिर अन्धकासुर भी सिद्ध हो गया। राजन्! मैंने तुमसे यह आत्मविद्यामृत- तत्त्वका वर्णन किया है। मातृकाओंकी उत्पत्तिका यह कल्याणकारी प्रसङ्ग जो सदा सुनता है, ये माताएँ उसकी प्रतिदिन सभी प्रकार रक्षा करती हैं।
राजेन्द्र ! जो मुखसे इन मातृकाओंके जन्मचरित्रका पाठ करता है, वह इस लोकमें सर्वथा धन्यवादका पात्र माना जाता है। अन्तमें उसको भगवान् शिवके लोककी प्राप्ति सुलभ हो जाती है। महाभाग ब्रह्माने उन मातृकाओंके लिये उत्तम अष्टमी तिथि प्रदान की है। मनुष्यको चाहिये कि इस तिथिमें बिल्वके आहारपर रहकर भक्तिपूर्वक सदा इनकी पूजा करे। इससे परम संतुष्ट होकर ये मातृकाएँ उसको कल्याण एवं आरोग्य प्रदान करती हैं।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय २५ नवमी तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें दुर्गादेवीकी उत्पत्ति-कथा
राजा प्रजापालने पूछा- मुने! सृष्टिके आदिमें सूक्ष्म रूपमें स्थित निर्गुणा एवं अव्यक्त-ब्रह्मस्वरूपा कल्याणी भगवती महामाया, दुर्गा भगवती सगुण स्वरूप धारणकर पृथक् रूपमें कैसे प्रकट हुईं?
महातपाजी कहते हैं— राजन् ! प्राचीन समयकी बात है। वरुणके अंशसे उत्पन्न सिन्धुद्वीप नामका एक प्रबल प्रतापी नरेश था। वह इन्द्रको मारनेवाले पुत्रकी कामनासे जंगलमें जाकर तप करने लगा। सुव्रत ! इस प्रकार एक ही आसनसे भीषण तप करते हुए उसने अपने शरीरको सुखा दिया।
राजा प्रजापालने पूछा— द्विजवर ! उसका इन्द्रने कौन-सा अपकार किया था, जिससे वह उनके मारनेवाले पुत्रकी इच्छासे तपमें लग गया ?
महातपाजी बोले- राजन् ! सिन्धुद्वीप पिछले जन्ममें विश्वकर्माका पुत्र नमुचि नामक दैत्य था, जो वीरोंमें प्रधान था। वह सम्पूर्ण शस्त्रोंद्वारा अवध्य था। अतः इन्द्रद्वारा जलके फेनसे उसकी मृत्यु हुई थी (युद्धके अन्तमें इन्द्रने उसे जलके फेनसे मारा था)। वही पुनः ब्रह्माजीके वंशमें सिन्धुद्वीपके नामसे उत्पन्न हुआ। इन्द्रके उसी वैरको स्मरणकर वह अत्यन्त कठिन तपस्या करनेके लिये बैठ गया था।
इस प्रकार बहुत समय बीत जानेपर पवित्र नदी वेत्रवती (मध्यप्रदेशकी बेतवा नदी) – ने अत्यन्त सुन्दर मानुषी स्त्रीका रूप धारणकर एवं अनेक अलंकारोंसे सज-धजकर सिन्धुद्वीप जहाँ बैठकर महान् तप कर रहा था, वहाँ पहुँची। उस सुन्दरी स्त्रीको देखकर राजाका मन क्षुब्ध हो उठा, अतः उसने पूछा- ‘सुन्दर कटिभागवाली भामिनि ! तुम कौन हो? सब सच्ची बात बतानेकी कृपा करो। “”
नदीने उत्तर दिया मेरा नाम वेत्रवती है। मेरे मनमें आपको प्राप्त करनेकी इच्छा हो गयी है। अतः मैं यहाँ आ गयी हूँ। महाराज ! इस बातपर तथा मेरे भावोंका विचारकर आप मुझ दासीको स्वीकार करनेकी कृपा करें।
राजन्! वेत्रवतीके इस प्रकार कहनेपर राजा सिन्धुद्वीपने भी उसे स्वीकार कर लिया। समय पाकर शीघ्र ही उससे पुत्रकी उत्पत्ति हुई। उस बालकमें बारह सूर्यो जैसा तेज था। वेत्रवतीके उदरसे जन्म होनेके कारण वह वेत्रासुरके नामसे प्रसिद्ध हुआ। उसमें पर्याप्त बल था। उसके तेजकी सीमा न थी । धीरे-धीरे वह प्राग्ज्योतिषपुर ( कामरूप – आसाम) – का नरेश बन गया और युवा होनेपर तो उसके बल – विक्रम बहुत बढ़ गये । उसने अब महायोगशक्तिद्वारा सात द्वीपोंवाली इस सम्पूर्ण पृथ्वीको जीत लिया। बादमें कालकेयोंको जीतनेके लिये उसने मेरु-पर्वतपर चढ़ाई की। जब वह असुर इन्द्रके पास गया तो वे भयसे वहाँसे भाग चले। अग्निने तो उसे देखते ही अपना स्थान छोड़ दिया। ऐसे ही यम, निर्ऋति और वरुण ये सब के सब उसके आनेपर अपने स्थानसे हटते गये। अन्तमें इन्द्र- प्रभृतिको साथ लेकर वरुणदेवता वायुदेवताके संनिकट गये। फिर पवनदेव भी इन्द्र आदि समस्त देवताओंके सहित धनाध्यक्ष कुबेरके पास पहुँचे। शंकरजी कुबेरके मित्र हैं; अतः धनाध्यक्ष कुबेर देवताओंको साथ लेकर शंकरजीके पास पधारे। राजन् ! इतनेमें बलाभिमानी वेत्रासुर भी गदा लिये हुए कैलासपर जा पहुँचा। इधर भगवान् शिव उसे अवध्य समझकर देवताओंके साथ ब्रह्मलोक पहुँचे थे। वहाँ पुण्यकर्म करनेवाले बहुत-से देवता और सिद्धोंका समाज उनकी स्तुति कर रहा था। उस समय जगत् की रचना करनेमें कुशल ब्रह्माजी भगवान् विष्णुके चरणसे प्रकट हुई गङ्गाके पावन जलमें प्रविष्ट होकर क्षेत्रज्ञ परमात्माकी माया गायत्रीका नियमपूर्वक जप कर रहे थे। अब देवता बड़े जोरसे चिल्लाकर कहने लगे- ‘प्रजाओंकी रक्षा करनेवाले भगवन्! हमें बचाइये । वेत्रासुरसे हम समस्त देवता और ऋषि अत्यन्त भयभीत हो गये हैं। आप हमारी रक्षा करें! रक्षा करें!’
देवताओंके इस प्रकार पुकार मचानेपर ब्रह्माजीकी दृष्टि वहाँ आये हुए उन देवताओंकी ओर गयी । वे सोचने लगे-‘अहो ! भगवान् नारायणकी माया बड़ी विचित्र है । इस विश्वका कोई भी स्थान उससे रिक्त नहीं है। असुरों और राक्षसोंसे भला मेरा क्या सम्बन्ध ?’ वे इस प्रकार अभी चिन्तन कर ही रहे थे कि तबतक वहाँ एक अयोनिजा कन्या प्रकट हो गयी। उसका शरीर श्वेतवस्त्रोंसे सुशोभित हो रहा था। उसके गलेमें माला तथा मस्तकपर किरीट उद्भासित हो रहा था। उसकी कान्ति अत्यन्त उज्ज्वल थी तथा उसकी आठ भुजाएँ थीं, जिनमें क्रमसे शङ्ख, चक्र, गदा, पाश (शक्ति), तलवार, घण्टा और धनुष – ये दिव्य आयुध सुशोभित हो रहे थे। वह देवी तूणीर आदि अन्य सभी युद्धोपकरणोंसे भी सुसज्जित होकर जलसे बाहर निकल पड़ी। वह महायोगेश्वरी परब्रह्म परमात्माकी शक्ति सिंहपर समासीन थी। अब सहसा वह अनेक रूप धारणकर सभी असुरोंके साथ युद्ध करने लगी। उस देवीमें अपार शक्ति थी। उसके पास बहुत से दिव्य अस्त्र थे । इस प्रकार देवताओंके वर्षसे यह युद्ध एक हजार वर्षोंतक चलता रहा और अन्तमें इस संग्राममें देवीद्वारा भयंकर वेत्रासुर मार डाला गया। अब देवताओंकी सेनामें बड़े जोरसे आनन्दको ध्वनि होने लगी। उस दैत्यकी मृत्यु हो जानेपर सभी देवता युद्धभूमिमें ही — ‘भगवती ! आपकी जय हो! जय हो !’ कहकर स्तुति प्रणाम करने लगे। साथ ही भगवान् शंकरने उनकी इस प्रकार स्तुति की-
भगवान् शंकर बोले- महामाये ! महाप्रभे ! गायत्री देवि ! आपकी जय हो ! महाभागे ! आपके सौभाग्य, बल, आनन्द – सभी असीम हैं। दिव्य गन्ध एवं अनुलेपन आपके श्री अङ्गोंकी शोभा बढ़ाते हैं। परमानन्दमयी देवि ! दिव्य मालाएँ एवं गन्ध आपके श्रीविग्रहकी छवि बढ़ाती हैं। महेश्वरि ! आप वेदोंकी माता हैं। आप ही वर्णोंकी मातृका हैं। आप तीनों लोकोंमें व्याप्त हैं। तीनों अग्नियों में जो शक्ति है, वह आपका ही तेज है। त्रिशूल धारण करनेवाली देवि! आपको मेरा नमस्कार है। देवि ! आप त्रिनेत्रा, भीमवक्त्रा और भयानका आदि अर्थानुरूप नामोंसे व्यवहत होती हैं। आप ही गायत्री और सरस्वती हैं। आपके लिये हमारा नमस्कार है। अम्बिके! आपकी आँखें कमलके समान हैं। आप महामाया हैं। आपसे अमृत्की वृष्टि होती रहती है। सर्वगे ! आप सम्पूर्ण प्राणियोंकी अधिष्ठात्री हैं। स्वाहा और स्वधा आपकी ही प्रतिकृतियाँ हैं; अतः आपको मेरा नमस्कार है। महान् दैत्योंका दलन करनेवाली देवि ! आप सभी प्रकारसे परिपूर्ण हैं। आपके मुखकी आभा पूर्ण चन्द्रके समान है। आपके शरीरसे महान् तेज छिटक रहा है। आपसे ही यह सारा विश्व प्रकट होता है। आप महाविद्या और महावेद्या हैं। आनन्दमयी देवि ! विशिष्ट बुद्धिका आपसे ही उदय होता है। आप समयानुसार लघु एवं बृहत् शरीर भी धारण कर लेती हैं। महामाये ! आप नीति, सरस्वती, पृथ्वी एवं अक्षरस्वरूपा हैं। देवि! आप श्री धी तथा ॐकारस्वरूपा हैं। परमेश्वरि ! तत्त्वमें विराजमान होकर आप अखिल प्राणियोंका हित करती हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार है।
राजन् ! इस प्रकार परम शक्तिशाली भगवान् शंकरने उन देवीकी स्तुति की और देवतालोग भी बड़े उच्च स्वरसे उन परमेश्वरीकी जयध्वनि करने लगे। अबतक ब्रह्माजी जलमें जप ही कर रहे थे। अब जब (जयध्वनि उन्हें श्रवणगोचर हुई तो) वे जलसे बाहर निकले और देखा, परम कुशल देवी सम्पूर्ण कार्य सम्पन्न करके सामने विराजमान हैं। अब उन्होंने यह तो भलीभाँति जान लिया कि देवताओंका कार्य सिद्ध हो गया, परंतु भविष्यके कार्यको परिलक्ष्यकर उन्होंने ये वचन कहे-
ब्रह्माजी बोले – देवताओ ! अनुपम अङ्गोंसे शोभा पानेवाली ये देवी अब हिमालय पर्वतपर पधारें और आपलोग भी अब तुरंत वहाँ चलकर आनन्दसे रहें। नवमी तिथिके दिन इन देवीकी सदा स्थिरचित्त एवं ध्यान-समाधिद्वारा आराधना करनी चाहिये। ऐसा करनेसे ये सम्पूर्ण प्राणियोंको वर देंगी, इसमें लेशमात्र संदेह नहीं। इस (नवमी) तिथिको जो पुरुष अथवा स्त्री पक्वान्न प्रसादरूपसे भोजन करेंगे, उनके सभी मनोरथ सिद्ध हो जायेंगे ।
राजन् ! फिर ब्रह्माने भगवान् शंकरसे कहा- ‘देव! स्वयं आपद्वारा कहे गये इस स्तोत्रका जो पुरुष प्रातःकाल नित्य पाठ करेगा, उसे आप भी इस देवीके समान ही वर प्रदान करें और सम्पूर्ण संकटोंसे उसका उद्धार कर दें – यह प्रार्थना है।’
इस प्रकार भगवान् शंकरसे कहकर उन्होंने पुनः देवीसे कहा- ‘देवि! आपके द्वारा यहाँ कार्य सम्पन्न हुआ। किंतु अभी हमारा एक दूसरा बहुत बड़ा कार्य शेष है। वह यह कि आगे महिषासुर नामका एक राक्षस उत्पन्न होगा, जिसका विनाश भी आपके ही द्वारा सम्भव है। ‘
राजन्! इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी तथा सम्पूर्ण देवता देवीको हिमालय पर्वतपर प्रतिष्ठित- कर यथास्थान प्रस्थित हो गये। हिमवान् पर्वतपर आनन्दसे विराजनेके कारण उनका नाम ‘नन्दादेवी’ हुआ। जो व्यक्ति भगवतीके इस प्रकट होनेकी कथाको स्वयं पढ़ेगा अथवा सुनेगा, वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर कैवल्य मोक्षका अधिकारी होगा।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय २६ दशमी तिथिके माहात्म्यके प्रसङ्गमें दिशाओंकी उत्पत्तिकी कथा
मुनिवर महातपा कहते हैं – राजन् ! अब जिस प्रकार भगवान् श्रीहरिके कानोंसे दिशाएँ उत्पन्न हुई, वह कथा मैं कहता हूँ, तुम उसे ध्यानपूर्वक सुनो।
आदिसर्गके आरम्भ में ब्रह्माजीको सृष्टि करते हुए यह चिन्ता हुई कि ‘मेरी उत्पन्न प्रजाका आधार क्या होगा ?’ अतः उन्होंने संकल्प किया कि ‘अब आभ्यन्तर-स्थान उत्पन्न हों।’ उनके इस प्रकार विचार करते ही उन परम प्रभुके कानोंसे दस तेजस्वी कन्याओंका प्रादुर्भाव हुआ। राजन्! उनमें वे पूर्वा, दक्षिणा, पश्चिमा, उत्तरा, ऊर्ध्वा और अधरा- ये छः कन्याएँ तो मुख्य मानी गयीं साथ ही उन कन्याओंके मध्यमें और चार कन्याएँ, जो परम सुन्दर रूपवाली गम्भीर भावोंवाली तथा महा- भाग्यशालिनी थीं, उत्पन्न हुईं। उस समय उन सभी कन्याओंने बड़ी नम्रताके साथ शुद्धस्वरूप ब्रह्माजीसे प्रार्थना की- ‘देवेश्वर ! आप प्रजाके पालक हैं। हमें स्थान देनेकी कृपा कीजिये स्थान ऐसा चाहिये, जहाँ हम सभी अपने पतियोंके साथ सुखपूर्वक निवास कर सकें। अव्यक्तजन्मा प्रभो! हमें आप महान् भाग्यशाली पति प्रदान करनेकी कृपा करें।’
ब्रह्माजी बोले – कमनीय कटिभागसे शोभा पानेवाली दिशाओ ! यह ब्रह्माण्ड सौ करोड़का विस्तारवाला है। इसके अन्तर्गत तुम संतुष्ट होकर यथेष्ट स्थानोंपर निवास करो। मैं शीघ्र ही तुम्हारे अनुरूप सुन्दर एवं नवयुवक पतियोंका भी निर्माण करके देता हूँ। तदनन्तर इच्छानुसार तुम सभी अपने-अपने स्थानपर चली जाओ।
राजन् ! जब ब्रह्माजीने इस प्रकार कहा तो वे सभी कन्याएँ इच्छित स्थानोंको चल पड़ीं। फिर उन प्रभुने उसी क्षण महान् पराक्रमी लोकपालोंकी रचनाकर एक बार उन कन्याओंको पुनः अपने पास वापस बुलाया। उनके आ जानेपर लोकपितामह ब्रह्माजीने उन कन्याओंका उन लोकपालोंके साथ विवाह कर दिया। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले राजन् ! उस अवसरपर उन परम प्रभुने पूर्वा नामवाली कन्याका विवाह इन्द्रके साथ, आग्नेयीदिक्का अग्निदेवके साथ, दक्षिणाका यमके साथ, नैर्ऋत्रीका निर्ऋतिके साथ, पश्चिमाका वरुणके साथ, वायव्यीदिक्का वायुके साथ, उत्तराका कुबेरके साथ तथा ईशानीदिक्का भगवान् शंकरके साथ विवाहका प्रबन्ध कर दिया। ऊर्ध्व दिशाके अधिष्ठाता वे स्वयं बने और अधोलोककी अध्यक्षता उन्होंने शेषनागको दी। इस प्रकार उन दिशाओंको पति प्रदान करनेके बाद ब्रह्माजीने उनके लिये दशमी तिथि निर्धारित कर दी। वही तिथि उन्हें अत्यन्त प्रिय बन गयी। राजन्! जो उत्तम व्रतका पालक पुरुष दशमी तिथिके दिन केवल दही खाकर व्रत करता है, उसके पापका नाश करनेके लिये वे देवियाँ सदा तत्पर रहती हैं। जो मनुष्य मनको वशमें करके दिशाओंके जन्मादिसे सम्बन्ध रखनेवाले इस प्रसङ्गको सुनता है, वह इस लोकमें प्रतिष्ठा पाता है और अन्तमें ब्रह्माजीका लोक प्राप्त करता है, इसमें कोई संशय नहीं ।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय २७ एकादशी तिथिके माहात्म्यके प्रसङ्गमें कुबेरकी उत्पत्ति -
मुनिवर महातपा कहते हैं- राजन्! अब एक दूसरी कथा कहता हूँ। इसमें धनके स्वामी कुबेरकी उत्पत्तिका वर्णन है। यह प्रसङ्ग पापका कथा नाश करनेवाला है। पहले कुबेरजी वायुके रूपमें अमूर्त ही थे । पश्चात् वे मूर्तिमान् बनकर उपस्थित हुए। परब्रह्म परमात्माका जो शरीर है, उसीके अन्तर्गत वह वायु विराजता था। आवश्यकताके अनुसार वह क्षेत्रदेवता बनकर बाहर निकला। उसकी उत्पत्तिकी कथा मैं तुम्हें संक्षेपमें बता चुका हूँ। महाभाग ! तुम बड़े पवित्रात्मा पुरुष हो, अतः वही प्रसङ्ग पुनः कुछ विस्तारसे कहता हूँ, सुनो।
एक समयकी बात है— ब्रह्माजीके मनमें सृष्टि रचनेकी इच्छा हुई। तब उनके मुखसे वायु निकला। वह बड़े वेग से स्थूल बनकर बह चला और उससे धूलकी प्रचण्ड वर्षा होने लगी। फिर ब्रह्माजीने उसे रोका और साथ ही कहा- ‘वायो ! तुम शरीर धारण करो और शान्त हो जाओ।’ उनके ऐसा कहनेपर वायु मूर्तिमान् बनकर कुबेरके रूपमें उनके सामने उपस्थित हुए। तब ब्रह्माजीने कहा – ‘सम्पूर्ण देवताओंके पास जो धन है, वह केवल फलमात्र है। उन सबकी रक्षाका भार तुम्हारे ऊपर है। इस रक्षा कार्यके कारण जगत्में ‘धनपति’ नामसे तुम्हारी प्रसिद्धि होगी।’ फिर अत्यन्त संतुष्ट होकर ब्रह्माजीने उन्हें एकादशीका अधिष्ठाता बना दिया। राजन् ! उस तिथिके अवसरपर जो व्यक्ति बिना अग्निमें पकाये स्वयं पके हुए फल आदिके आहारपर रहकर नियमके साथ व्रत करता रहता है, उसपर कुबेर अत्यन्त प्रसन्न होते हैं और वे उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण कर देते हैं।
धनाध्यक्ष कुबेरके मूर्तिमान् बननेकी यह कथा सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाली है। जो व्यक्ति भक्तिपूर्वक इसका श्रवण अथवा पठन करता है, उसके सारे मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। अन्तमें वह स्वर्गलोकको प्राप्त करता है।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय २८ द्वादशी तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें उसके अधिष्ठाता श्रीभगवान् विष्णुकी उत्पत्ति - कथा
मुनिवर महातपा कहते हैं – राजन् ! यह जो मनुका नाम और मनुत्व (मन्त्र) पढ़ा जाता है तथा उसमें जो मन्त्र शक्ति है ( वह चाहे वैदिक या तान्त्रिक कुछ भी हो) प्रयोजनवश स्वरूपतः मूर्तिमान् विष्णु ही है। राजन् ! भगवान् नारायण सर्वश्रेष्ठ परम पुरुष हैं। उन परम प्रभुके मनमें सृष्टि विषयक संकल्प उत्पन्न हुआ। उन्होंने सोचा- ‘मैंने जगत् की रचना तो कर दी, फिर पालन भी तो मुझे ही करना है। यह सारा कर्म प्रपञ्च है। सम्यक् रूपसे स्वरूप धारण किये बिना यह कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता है। अतः एक ऐसी सगुण मूर्तिका निर्माण करूँ, जिससे इस जगत्की रक्षा हो सके।’
राजन् ! परब्रह्म परमात्माका संकल्प सत्य होकर रहता है। वे प्रभु इस प्रकार विचार कर ही रहे थे, इतनेमें एक प्राक्तनी विशिष्ट स्वरूप धारिणी सृष्टि उनके सामने प्रकट हो गयी। इसमें स्वयं पुराणपुरुष भगवान् नारायण ही प्रकट हो गये और उन्होंने लोकत्रयको अपने वैष्णव शरीरमें प्रविष्ट होते देखा। फिर वह प्रभुके शरीरसे बाहर आया। उस अवसरपर उन्हें अपने प्राचीन वरदानकी बात याद आयी, जो भगवान् ने संतुष्ट होकर वाणी आदिको दिया था। यह बहुत पुराना प्रसङ्ग है। भगवान् नारायणने वर देते हुए कहा था- ‘तुम्हें सभी वस्तुएँ विदित होंगी। तुम सबके कर्ता होओगे। सम्पूर्ण प्राणिवर्ग तुम्हें नमस्कार करेगा। तुम्हारे द्वारा तीनों लोकोंकी रक्षा होगी। अतः तुम ‘विष्णु’ नाम धारण करो। तुम सनातन पुरुष हो । देवताओं और ब्राह्मणोंकी सम्यक् प्रकारसे सदा रक्षा करना तुम्हारा कर्तव्य है। देव! तुम्हें सर्वज्ञता प्राप्त हो जाय – इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं है।’
इस प्रकार वर देकर भगवान् नारायण अपने प्राकृत रूपमें स्थित हो गये। फिर अब विष्णुको भी पहलेकी बात ध्यानमें आ गयी। सोचा- ‘अरे! मैं तो वही शक्तिसम्पन्न पुरुष हूँ।’ तब उन महान् तपस्वी प्रभुने ऐश्वर्यके प्रभावसे योगनिद्राका स्मरण किया। वे देवी आ गयीं। स्त्री-पुरुषके संयोगसे उत्पन्न होनेवाली प्रजाओंका भार उनपर सौंप दिया। ‘मैं उन परम प्रभु भगवान् नारायणका ही तो रूप हूँ’ – ऐसा विचारकर वे फिर सो गये। सो जानेपर उनकी नाभिसे एक बड़ा-सा कमल निकला। सात द्वीपोंवाली पृथ्वी, समुद्र और वन – ये सब के सब उस कमलपर विराजमान थे। उस कमलके रूपका विस्तार आकाशसे पातालतक फैला था। उसकी कर्णिकापर सुमेरु पर्वत सुशोभित हो रहा था। सबके बीचमें ब्रह्माजी थे। अपने ऐसे वैराज रूपको प्रत्यक्ष देखकर परम पुरुष परमात्माको बड़ा हर्ष हुआ। फिर उनके भीतर जो पवनदेव थे, उन्होंने व्यवहारके लिये वायुका सृजन किया। साथ ही कहा – ‘तुम अज्ञानपर विजय करनेवाले ज्ञानस्वरूप इस शङ्खका रूप धारण करो।’ फिर श्रीहरिसे कहा – ‘अज्ञानका नाश करनेके लिये तुम्हारे हाथमें यह तलवार सदा शोभा पाती रहे। अच्युत ! भयंकर काल चक्रको काटनेके लिये यह चक्र धारण कर लो। केशव! पापराशि नष्ट हो जाय, एतदर्थ यह गदा धारण करना आवश्यक है। समस्त भूतोंको उत्पन्न करनेवाली यह वैजयन्ती माला तुम्हारे कण्ठमें सदा सुशोभित होती रहे । चन्द्रमा और सूर्य – ये दोनों श्रीवत्स और कौस्तुभके स्थानपर शोभा पायें। पवन चलनेमें सबसे पराक्रमी कहा गया है। वह तुम्हारे लिये गरुड बन जाय । तीनों लोकोंमें विचरनेवाली देवी लक्ष्मी सदा आपकी आश्रिता रहें। आपकी तिथि द्वादशी हो और आप अपने अभीष्टरूपसे विराजें। इस द्वादशी तिथिके दिन स्त्री अथवा पुरुष- जो कोई भी आपके प्रति श्रद्धा रखते हुए घृतके आहारपर रहे, वह स्वर्गमें स्थान पानेका अधिकारी हो जाय।’
( मुनिवर महातपा कहते हैं — राजन् ! ) वही परम पुरुष भगवान् नारायण ‘विष्णु’ इस नामसे विख्यात हुए। देवता और दानव – ये सब उन्हीं की मूर्तियाँ हैं। स्वयं वे ही अपने-आप विभिन्न रूप धारण करते हैं। उनके द्वारा किसीका संहार होता है तो किसीकी रक्षा होती है। उन्हें ‘वेदान्तपुरुष’ कहा जाता है। वे ही प्रभु प्रत्येक युगमें सब जगह विचरते हैं। जो उन्हें मनुष्य मानता है, उसे बुद्धिहीन समझना चाहिये । पापका नाश करनेवाला यह प्रसङ्ग वैष्णव- सर्ग कहलाता है। जो इसका पठन करता है, वह स्वर्गलोकमें जाकर परम पूज्य बन जाता है
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय २९ त्रयोदशी तिथि एवं धर्मकी उत्पत्तिका वर्णन
महातपाजी कहते हैं— राजन् ! धर्म बड़े आदरके पात्र हैं। नरेन्द्र ! उनकी उत्पत्ति, महिमा और तिथिका प्रसङ्ग कहता हूँ सुनो। जिन्हें परब्रह्म परमात्मा कहते हैं तथा जिन शुद्धस्वरूप प्रभुकी सत्ता सदा बनी रहती है, पहले केवल वे ही थे। उनके मनमें प्रजाओंकी रचना करनेका विचार उत्पन्न हुआ। फिर उन प्रजाओंकी रक्षाका उपाय सोचने लगे। वे इस चिन्तामें लगे ही थे कि इतनेमें उनके दक्षिण अङ्गसे एक पुरुष प्रकट हो गया। उसके कानोंमें श्वेत कुण्डल, गलेमें श्वेत माला थी और वह सफेद रङ्गका अनुलेपन लगाये हुए था। उसके चार पैर थे तथा उसकी आकृति बैलकी थी। फिर उस पुरुषको देखकर परम प्रभुने कहा – ‘साधो ! तुम इन प्रजाओंकी रक्षा करो। मेरे द्वारा तुम जगत् में प्रधान बना दिये जाते हो।’
भगवान् नारायणकी आज्ञासे वह पुरुष वैसा ही हो गया । सत्ययुगमें उसके सत्य, शौच, तप और दान – ये चार पैर थे, त्रेतामें तीन तथा द्वापरमें दो । कलियुगमें वह दानरूपी एक पैरसे ही प्रजाओंका पालन करने लगा। ब्राह्मणोंके लिये उसने अध्ययन-अध्यापन एवं यजनयाजनादि छः रूप बनाये । क्षत्रियोंके लिये दान, यजन एवं अध्ययन – इन तीन रूपोंसे, वैश्योंके लिये दो रूपोंसे तथा शूद्रोंके लिये केवल एक सेवारूपसे ही सम्पन्न होकर वह सर्वत्र विराजने लगा। यह शक्तिशाली पुरुष सम्पूर्ण द्वीपों तथा तलातलोंमें व्याप्त हो गया। प्रकारान्तरसे द्रव्य, गुण, क्रिया और जाति – ये चार इसके पैर कहे गये हैं। वेदमें कहा गया है – संहिता, पद और क्रम- ये तीन उसके सींग हैं। आदि और अन्तमें स्थान पाये हुए दो सिरोंसे वह शोभा पाता है। उसके सात हाथ हैं। उदात्त, अनुदात्त और स्वरित- इन तीन स्वरोंसे वह सदा बद्ध रहता है। इस प्रकारसे वह धर्म व्यवस्थित हुआ ।
राजन्! कुछ समयके बाद उस धर्मको विचित्र कर्म करनेवाले चन्द्रमाके कारण महान् दुःख हुआ। बृहस्पति चन्द्रमाके भाई हैं। चन्द्रमाके मनमें बृहस्पतिकी स्त्री ताराको ग्रहण करनेकी इच्छा जग उठी। इस निन्दित कर्मसे धर्मका मन उद्विग्न हो गया। अतः वह वहाँसे चला और एक गहन वनमें पहुँचकर वहीं रहने लगा। धर्मके वनमें चले जानेपर सम्पूर्ण देवता तथा दानवोंके सैनिक धर्महीन हो गये। फिर देवता दानवोंको मारनेके लिये घूमने लगे तथा वैसे ही दानवोंका भी देवताओंके घरपर चक्कर लगाना आरम्भ हो गया। राजन् ! उस समय धर्मके न रहनेसे सभी मर्यादाएँ छिन्न-भिन्न हो गयीं। महाभाग ! चन्द्रमाके दोषसे देवता और दानव – सभी परस्पर द्वेषके भाजन बन गये। उन्होंने अनेक प्रकारके आयुधोंको हाथमें ले लिया और वे परस्पर युद्ध करने लगे। उस संग्रामका कारण केवल स्त्री थी। नारदजी बड़े विनोदी हैं। दानवोंके साथ लड़ते हुए क्रोधी देवताओंको देखकर वे तुरंत अपने पिता ब्रह्माजीके पास गये और इसकी सूचना दी। ब्रह्माजी सम्पूर्ण प्राणियोंके पितामह हैं। अतः हंसपर आरूढ़ हो युद्धस्थलमें जाकर उन्होंने सबको मना किया। फिर उन्होंने उनसे पूछा – ‘ इस समय तुमलोगों का यह युद्ध किसलिये हो रहा है?’ तब उन सबने उत्तर दिया- ‘भगवन्! यह चन्द्रमा ही सभी अनर्थोका कारण है। यह अपनी बुद्धिसे इस लड़केको अपना बताता है । इस दूषित कर्मसे दुःखी होनेके कारण धर्म गहन वनमें जाकर निवास कर रहे हैं।’ तब ब्रह्माजीने उसी क्षण देवताओं और दानवोंको साथ लिया तथा वनकी ओर चल पड़े। वहाँ जाकर देखा कि धर्म वृषभका वेष बनाकर चार पैरोंसे विराजमान हैं। चन्द्रमाके समान सफेद उनके सींग हैं और वे इधर-उधर विचर रहे हैं। फिर ब्रह्माजीने उपस्थित देवताओंसे कहा-
ब्रह्माजी बोले – ‘देवताओ! यह मेरा प्रथम पुत्र है। इस महामुनिको लोग धर्म कहते हैं। भाईकी भार्यासे अवैध राग करनेवाले चन्द्रमाके व्यवहारसे इसे अत्यन्त व्यथा हो रही है। अत: तुम सभी देवता और दानव अब इसे संतुष्ट करनेका प्रयत्न करो, जिसके फलस्वरूप पुनः सम्पूर्ण सुरों एवं असुरोंकी सम स्थिति हो जाय।’ राजन् ! उस समय ब्रह्माजीके वचनसे देवताओं और दानवोंको धर्मकी बातें विदित हो गयीं। उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। अतएव सबलोग चन्द्रमाके समान स्वच्छ वर्णवाले धर्मकी स्तुति करनेमें तत्पर हो गये ।
देवताओंने कहा- जगत्की रक्षा करनेवाले महाभाग ! तुम्हारा वर्ण चन्द्रमाके समान उज्ज्वल है। तुम्हें बार-बार नमस्कार है। देवरूप धारण करनेवाले प्रभो! तुम्हारी कृपासे स्वर्गका मार्ग दीख जाता है। तुम कर्ममार्गके स्वरूप हो तथा सब जगह विराजते हो। तुम्हें बार-बार नमस्कार है। पृथ्वीके पालक तथा तीनों लोकोंके रक्षक एकमात्र तुम्हीं हो। जनलोक, तपोलोक तथा सत्यलोक सभी तुमसे सुरक्षित रहते हैं। स्थावर एवं जङ्गम – कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है, जो तुम्हारे बिना स्थित रह सके। तुम्हारे अभावमें तो यह जगत् तुरंत ही नष्ट हो सकता है। तुम सम्पूर्ण प्राणियोंकी आत्मा हो । सज्जन पुरुषोंके हृदयमें सत्त्वस्वरूप धारणकर तुम शोभा पाते हो। राजस पुरुषोंमें राजस और तामस पुरुषोंमें तामसरूप तुम्हारा ही है। तुम्हारे चार चरण हैं। चारों वेद तुम्हारे सींग हैं। तीन नेत्र तुम्हारी शोभा बढ़ाते हैं हाथोंकी संख्या सात है। तुम तीन बन्धवाले हो। ऐसे वृषभरूपी प्रभो ! तुम्हें नमस्कार है।* देव! तुम्हारी अनुपस्थितिमें हम विपथगामी एवं मूर्ख बन गये हैं। तुम हमारे परम आश्रय हो । अतः हमें सन्मार्ग बतानेकी कृपा करो।
जब इस प्रकार देवताओंने स्तुति की तो प्रजापालक धर्म, जो वृषभके रूपसे पधारे थे, संतुष्ट हो गये। उनका मन प्रसन्न हो गया। फिर तो उनके शान्तस्वरूप नेत्रने ही उन्हें सन्मार्ग बता दिया। उनकी केवल दृष्टि पड़नेसे ही वे देवता धार्मिक नेत्रसे देखने लगे। एक क्षणमें ही उनका अज्ञान नष्ट हो गया। वे सम्यक् प्रकारसे सद्धर्म- सम्पन्न हो गये। असुरोंकी स्थिति भी वैसी ही हो गयी। तब ब्रह्माजीने धर्मसे कहा- ‘धर्म ! आजसे तुम्हारे लिये त्रयोदशी तिथि निश्चित कर देता हूँ। जो पुरुष इस तिथिके दिन उपवास करके तुम्हारी पूजा करेगा, वह पापी होनेपर भी पापमुक्त हो जायगा । धर्म! तुममें प्रभूत सामर्थ्य है। तुम इस अरण्यमें बहुत समयतक निवास कर चुके हो, इसलिये यह वन ‘धर्मारण्य’ नामसे विख्यात होगा। प्रभो! चार, तीन, दो और एक चरणसे युक्त होकर तुम कृत, त्रेता आदि युगमें जिस प्रकार लक्षित होते हो, उसी प्रकार पृथ्वी और आकाशमें रहकर विश्वको अपना घर मानते हुए उसकी रक्षा करो।’
राजन्! इतनी बातें कहकर लोकपितामह ब्रह्माजी देवताओं और दानवोंके देखते-देखते अन्तर्धान हो गये। देवताओंका शोक दूर हो गया। वे वृषभका वेष धारण करनेवाले धर्मके साथ अपने लोकको चले गये। जो पुरुष त्रयोदशीके दिन श्राद्ध करते समय धर्मकी उत्पत्तिका यह प्रसङ्ग पितरोंको सुनायेगा एवं भक्तिके साथ दूधसे तर्पण करेगा, वह स्वर्गमें जाकर देवताओंके साथ सुखपूर्वक निवास करनेका अधिकारी होगा।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ३० चतुर्दशी तिथिके माहात्म्यके प्रसङ्गमें रुद्रकी उत्पत्तिका वर्णन
महातपा मुनि कहते हैं— राजन् ! इसके अतिरिक्त सृष्टिके आरम्भ में रुद्रके उत्पन्न होनेकी एक कथा और है। अब वह प्रसङ्ग कहता हूँ, यत्नपूर्वक सुनो-
जब तपोरूप धर्ममय वृक्ष नष्टप्राय हो गया था, उस समय प्रचण्ड तेजस्वी ब्रह्माजी क्षमारूपी अस्त्र धारण किये प्रकट हुए। उन परम प्रतापी प्रभुके आनेका प्रयोजन था परम ज्ञान और तत्त्वको जानकर प्रजाओंकी रक्षा करना । सृष्टि करनेकी इच्छावाले उन महाप्रभुने चाहा – ‘प्रजाएँ उत्पन्न हों और इच्छानुसार जगत् की वृद्धि हो ।’ किंतु इसमें प्रतिबन्ध पड़ गया। अतः क्रोधसे उनका मन क्षुब्ध हो उठा। फिर वे समाधिस्थ हो गये। अब उनके सामने एक ऐसा श्रेष्ठ पुरुष प्रकट हुआ, जिसका अन्त:करण अत्यन्त पवित्र था। उसके रजोगुण और तमोगुण सर्वथा नष्ट हो चुके थे। उसकी कीर्ति अचल थी। उस पुरुषमें वर देनेकी पूर्ण शक्ति थी एवं अपार बल था। उसके शरीरकी कान्ति काले और लाल रंगसे सम्पन्न थी तथा नेत्र पीले रंगके थे। वह उत्पन्न होते ही रोने लगा। तब ब्रह्माजीने कहा – ‘ त्वं मा रुद’ – तुम रोओ मत। इस कारण उस पुराणपुरुषका नाम रुद्र हो गया। पुनः ब्रह्माजी बोले- ‘तुम एक महान् पुरुष हो! तुममें सब कुछ करनेकी शक्ति है। तुम मेरी ऐसी सृष्टिका विस्तार करो, जिसका रूप तुम्हारे ही अनुरूप हो ।’
ब्रह्माजीके इतना कहते ही वे तप करनेके विचारसे जलके भीतर चले गये। फिर उन देवेश्वर रुद्रके जलमें चले जानेपर ब्रह्माजीने दक्षप्रजापतिकी सृष्टि की। ब्रह्माजीके अन्य मानस पुत्रोंने भी प्रजाओंका सृजन किया। सृष्टि पर्याप्त रूपसे फैल गयी। फिर देवेश्वरकी अध्यक्षतामें दक्षप्रजापतिका ब्रह्मयज्ञ आरम्भ हो गया।
राजन्! इतनेमें रुद्रदेव, जो तप करनेके लिये जलके भीतर गये थे, संसार और सुरगणकी सृष्टि करनेके विचारसे जलसे बाहर निकले। उन्होंने सुना-‘ यज्ञ हो रहा है और उसमें देवता, सिद्ध एवं यक्ष आये हुए हैं।’ फिर तो उन्हें क्रोध हो आया । अतः सोचा और कहा- ‘अरे, तेजस्विनी अपनी कन्या तथा मेरा तिरस्कार करके मूर्खता वश इसने किस प्रकार जगत्की सृष्टि कर ली ? |
हा, हा – इसे ऐसा नहीं करना चाहिये’ यों कहते-कहते रोषसे उनका शरीर चतुर्दिक् उद्दीप्त हो उठा। साथ ही उनके मुँहसे ज्वालाएँ निकलने लगीं। वे ही अनेक भूत, पिशाच, वेताल एवं योगियोंके झुंड बनकर विचरने लगीं। जब समस्त आकाश, पृथ्वी, सारी दिशाएँ तथा लोक आदि उन भूतोंसे भर गये तो उन रुद्रने सर्वज्ञताके प्रभावसे चौबीस हाथ लम्बा एक धनुष बनाया। तेहरी बटी रस्सीसे उसकी प्रत्यचा बनायी और क्रोधके कारण दो दिव्य तरकस तथा बाणोंको ले लिया और उससे उन्होंने पूषाके दाँत तोड़ डाले, भग नामक मुनिकी आँखें निकाल लीं और क्रतु देवताके अण्डकोष काटकर गिरा दिये। बाणविद्ध होकर क्रतु देवता यज्ञवाट्से (यज्ञशालासे) भाग चले। वायुने उनका मार्ग रोक दिया। यज्ञ नष्ट-भ्रष्ट हो गया। देवता यज्ञके पशु- से बन गये। तब सबने भगवान् रुद्रकी शरण ली। ब्रह्माजीने वहाँ पहुँचकर रुद्रको गलेसे लगाया । वहाँ वे देवता भी उन्हें दिखायी पड़े, जिनका रुद्रने अपकार किया था और जो भक्तिके साथ उनकी शरणमें पहुँचे थे। बातें विदित हो जानेपर देवाधिदेव ब्रह्माजी रुद्रकी ओर देखते हुए बोले- ‘तात! अब क्रोध करना ठीक नहीं है; क्योंकि क्रतु – यज्ञदेवता तो यहाँसे भाग गये हैं।’ ब्रह्माजीकी यह बात सुनकर रुद्र क्रोधसे भर गये और कहने लगे- ‘देवेश्वर ! आपने सर्वप्रथम मुझे बनाया है; किंतु ये लोग इस यज्ञमें मुझे भाग नहीं दे रहे हैं; इसीलिये मैंने इन्हें विकृत कर दिया तथा इनका ज्ञान हर लिया है।’
ब्रह्माजीने कहा – ‘देवताओ! तुमलोग तथा समस्त असुर ज्ञान प्राप्त करनेके लिये उच्च स्वरसे स्तोत्रोंको पढ़कर इन महाभाग शम्भुकी ऐसी आराधना करो, जिसके फलस्वरूप भगवान् रुद्र प्रसन्न हो जायें। इनकी प्रसन्नता मात्रसे सर्वज्ञता सुलभ हो जाती है।’ ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर वे देवता भगवान् रुद्रकी स्तुति करने लगे ।
देवगण बोले- महात्मन्! आप देवताओंके अधिष्ठाता, तीन नेत्रवाले, जटा मुकुटसे सुशोभित तथा महान् सर्पका यज्ञोपवीत पहनते हैं। आपके नेत्रों का रंग कुछ पीला और लाल है। भूत और वेताल सदा आपकी सेवामें संलग्न रहते हैं । ऐसे आप प्रभुको हमारा नमस्कार है। भगके नेत्रको बींधनेवाले भगवन्! आपके मुखसे भयंकर अट्टहास होता है। कपर्दी और स्थाणु आपके नाम हैं। पूषाके दाँत तोड़नेवाले भगवन्! आपको हमारा नमस्कार है। महाभूतोंके संरक्षक प्रभो! आपको हम नमस्कार करते हैं। प्रभो ! भविष्यमें वृषभ या धर्म आपकी ध्वजाका चिह्न होगा और त्रिपुरका आप विनाश करेंगे। साथ ही आप अन्धकासुरका भी हनन करेंगे। भगवन्! आपका कैलासपर सुन्दर निवास स्थान है। आप हाथीका चर्म वस्त्ररूपसे धारण करते हैं। आपके सिरका ऊपर उठा हुआ केश सबको भयभीत कर देता है अतः आपका ‘भैरव’ नाम है। प्रभो! आपको हमारा बारंबार नमस्कार है। देवेश्वर! आपके तीसरे नेत्रसे आगकी भयंकर ज्वाला निकलती रहती है। आपने चन्द्रमाको मुकुट बना रखा है। आगे आप कपाल धारण करनेका नियम पालन करेंगे। ऐसे आप सर्वसमर्थ प्रभुको हमारा नमस्कार है। प्रभो! आपके द्वारा ‘दारुवन’ का विध्वंस होगा। नीले कण्ठ एवं तीखे त्रिशूलसे शोभा पानेवाले भगवन्! आपने महान् सर्पको कङ्कण बना रखा है, ऐसे तिग्म त्रिशूली (तेज त्रिशूलवाले) आप देवेश्वरको नमस्कार है। यज्ञमूर्ते! आप हाथमें प्रचण्ड दण्ड धारण करते हैं। आपके मुखमें वडवानलका निवास है । वेदान्तके द्वारा आपका रहस्य जाना जा सकता है। ऐसे आप प्रभुको बारंबार नमस्कार है। शम्भो ! आपने दक्षके यज्ञका विध्वंस किया है। शिव ! जगत् आपसे भय मानता है। भगवन्! आप विश्वके शासक हैं। विश्वके उत्पादक तथा कपर्दी नामके जटाजूटको धारण करनेवाले महादेव! आपको नमस्कार है।
इस प्रकार देवताओं द्वारा स्तुति किये जानेपर प्रचण्ड धनुषधारी सनातन शम्भु बोले- ‘सुरगणो! मैं देवताओंका अधिष्ठाता हूँ। मेरे लिये जो भी काम हो, वह बताओ।’
देवताओंने कहा – प्रभो! आप यदि प्रसन्न हैं तो हमें वेदों एवं शास्त्रोंका सम्यक् प्रकारसे ज्ञान यथाशीघ्र प्रदान करनेकी कृपा करें। साथ ही रहस्यसहित यज्ञोंकी विधि भी हमें ज्ञात हो जाय ।
महादेवजी बोले- देवताओ! आप सब- के सब एक ही साथ पशुका रूप धारण कर ले और मैं सबका स्वामी बन जाता हूँ, तब आप सभी अज्ञानसे मुक्ति पा जायँगे। फिर देवताओंने भगवान् शम्भुसे कहा- ‘बहुत ठीक, ऐसा ही होगा। अब आप सर्वथा पशुपति हो गये।’ उस समय ब्रह्माजीका अन्तःकरण प्रसन्नतासे भर गया। अतः उन्होंने उन पशु- पतिसे कहा – ‘देवेश ! आपके लिये चतुर्दशी तिथि निश्चित है-इसमें कोई संशय नहीं। जो द्विज उस चतुर्दशी तिथिके दिन श्रद्धापूर्वक आपकी उपासना करें, गेहूँसे तैयार किये पक्वान्नद्वारा अन्य ब्राह्मणोंको भोजन करायें, उनपर आप परम संतुष्ट हों और उन्हें उत्तम स्थानका अधिकारी बना दें।’
इस प्रकार अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजीके कहनेपर भगवान् रुद्रने पूषाके दाँत तथा भगके नेत्र पूर्ववत् कर दिये। फिर सभीको यज्ञकी समाप्तिका फल भी प्रदान किया तथा देवताओंके अन्तःकरणमें परम विशुद्ध सम्पूर्ण ज्ञान भर दिया। इस प्रकार परब्रह्म परमात्माने पूर्वकालमें रुद्रको प्रकट किया था। इसी कार्यका सम्पादन करनेसे वे देवताओंके अधिष्ठाता कहलाते हैं।
जो मनुष्य प्रातः काल उठकर प्रतिदिन इस कथाका श्रवण करता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे छूटकर भगवान् रुद्रके लोकको प्राप्त करता है।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ३१ अमावास्या तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें पितरोंकी उत्पत्तिका कथन
महातपाजी कहते हैं— राजन् ! अब मैं पितरोंकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग कहता हूँ, तुम उसे सुनो। पूर्व समयकी बात है – प्रजापति ब्रह्माजी अनेक प्रकारकी प्रजाओंका सृजन करनेके विचारसे मनको एकाग्र करके बैठ गये। फिर उनके मनसे तन्मात्राएँ * बाहर निकलीं। उन्होंने उन सबको प्रधानता दी और ‘इनको किन रूपोंसे सुशोभित करें’- यों विचारने लगे। कारण, वे सभी ब्रह्माजीके शरीरमें पहलेसे ही थीं और वहींसे पुनः ये धूम्रवर्णवाली तन्मात्राएँ प्रकट हुई थीं। फिर वे चमककर देवताओंसे कहने लगीं – ‘हम सोमरस पीना चाहती हैं।’ साथ ही उनके मनमें ऊपरके लोकमें जानेकी इच्छा हुई। उन सबोंने सोचा ‘हम आकाशमें आसन जमाकर वहीं तपस्या करें।’ ऊपर जानेके लिये वे मुख उठाकर तिरछे मार्गका अवलम्बन करना ही चाहती थीं, इतनेमें उन्हें देखकर ब्रह्माजीने कहा – ‘समस्त गृहाश्रमियोंका कल्याण करनेके लिये आपलोग पितर होकर रहें।’ ये जो ऊपर मुख करके जाना चाहते हैं, इनका नाम ‘नान्दीमुख’ होगा। इस प्रकार कहकर ब्रह्माजीने उनके मार्गका भी निरूपण कर दिया। राजन् ! उस समय ब्रह्माजीने उन पितरोंके लिये मार्ग सूर्यका दक्षिणायनकाल बता दिया। इस प्रकार प्रजाकी सृष्टि कर वे जब मौन हो गये, तब पितरोंने उनसे कहा- ‘भगवन्! हमें जीविका देनेकी कृपा कीजिये, जिससे सुख प्राप्त कर सकें।’
ब्रह्माजी बोले- तुम्हारे लिये अमावास्याकी तिथि ही दिन हो। उस तिथिमें मनुष्य जल, तिल और कुशसे तुम्हारा तर्पण करेंगे। इससे तुम परम तृप्त हो जाओगे। इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। उस अमावास्या तिथिमें तिल देनेका विधान है। पितरोंके प्रति श्रद्धा रखनेवाला जो पुरुष तुम्हारी उपासना करेगा, उसपर अत्यन्त संतुष्ट होकर यथाशीघ्र वर देना तुम्हारा परम कर्तव्य है।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ३२ पूर्णिमा तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें उसके स्वामी चन्द्रमाकी उत्पत्तिका वर्णन
महातपाजी कहते हैं— राजन् ! यशस्वी अत्रि मुनि ब्रह्माजीके मानस पुत्र हैं। उन्होंके यहाँ पुत्ररूपसे चन्द्रमाका प्राकट्य हुआ था। दक्षप्रजापतिने उन्हें अपना जामाता बना लिया। दक्षको जो सत्ताईस दाक्षायणी कन्याएँ कही गयी हैं, वे सभी परम माननीया कन्याएँ चन्द्रमाकी पत्नी हुई। उन कन्याओंमें रोहिणी सबसे श्रेष्ठ थीं। सुनते हैं, चन्द्रमा अकेली उस रोहिणीसे ही अधिक प्रेम करते थे, दूसरी अन्य कन्याओंसे नहीं। तब अन्य सभी कन्याएँ पिता दक्षके पास आयीं और उन्होंने चन्द्रमाके विषम व्यवहारका वृत्तान्त सुनाया। दक्ष भी चन्द्रमाके समीप आये और ऐसा न करनेके लिये बार-बार समझाया; किंतु चन्द्रमाने उनकी समतावाली बातपर विशेष ध्यान नहीं दिया। तब दक्षने चन्द्रमाको शाप दे दिया- ‘तुम अस्त हो जाओ।’
इस प्रकार दक्षके कहनेपर उनके शापसे चन्द्रमाको क्षय हो गया और अन्तमें वे अमावास्याको सर्वथा अस्त हो गये। उनके अभावमें देवता, मनुष्य, पशु, वृक्ष और विशेषतः ओषधियाँ – प्रायः सब-के-सब नष्ट से हो गये। जब ओषधियोंका अत्यन्त अभाव हो गया, तो मुख्य देवताओंकी आतुरता बढ़ गयी। वे कहने लगे -‘ चन्द्रमा वृक्षोंकी जड़में स्थित हो गया।” अब वे चिन्तातुर देवता भगवान् विष्णुकी शरण गये। श्रीहरिने उनसे पूछा- ‘आप बतलायें, एतदर्थ मैं क्या करूँ?’ तब देवताओंने उनसे कहा- ‘भगवन्! दक्षने चन्द्रमाको शाप दे दिया है, जिससे वे तिरोहित हो गये हैं।’
उस समय उन प्रभुने देवताओंसे कहा- ‘सुरगणो! तुमलोग गर्जनेवाले समुद्रमें चारों ओर ओषधियाँ डाल दो और बड़ी सावधानीसे उसका मन्थन आरम्भ कर दो।’ देवताओंसे ऐसा कहकर स्वयं भगवान् श्रीहरिने फिर महाभाग शंकर एवं ब्रह्माजीको स्मरण किया, साथ ही रस्सीकी जगह प्रयुक्त होनेके लिये वासुकिनागको आज्ञा दी। फिर तो वे सभी एकत्र होकर समुद्रका मन्थन करने लगे। राजन्! जब समुद्र भलीभाँति मथा गया तो चन्द्रमा पुनः प्रकट हो गये। जिन परम पुरुष परमात्माका क्षेत्रज्ञ नाम है, उन्हें ही प्राणियोंका जीवात्मा चन्द्रमा समझना चाहिये। अब परोक्ष मूर्तिके अतिरिक्त वे सुन्दर सोमका स्वरूप धारण करके पृथक् रूपसे भी प्रकाशित होने लगे। सभी देवता, मानव, वृक्ष और ओषधियाँ इन्हीं सोलह कलावाले परम प्रभुका आश्रय पाकर जीवन धारण करनेमें समर्थ हैं। उस समय सोमको उन्हीं प्रभुका स्वरूप समझकर रुद्रने उनकी द्वितीया तिथिकी (अमृता) कलाको अपने मस्तकपर धारण कर लिया। जल उन्हीं (शिव – परमात्मा ) – का स्वरूप है। इसीसे उन्हें विश्वमूर्ति कहा गया है। चन्द्रमापर प्रसन्न होकर ब्रह्माजीने इन्हें पूर्णमासी तिथि प्रदान की। राजन् ! इस तिथिमें उपवास रहकर चन्द्रमाकी उपासना एवं ध्यान करना चाहिये। व्रतीको अन्नका आहार करना चाहिये। इस व्रतके फलस्वरूप चन्द्रमा उसे ज्ञान, कान्ति, पुष्टि, धन, धान्य और मोक्ष सुलभ कर देते हैं।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ३३ प्राचीन इतिहासका वर्णन
महातपा कहते हैं— राजन् ! त्रेतायुगके आदिमें जो वीर मणिसे उत्पन्न हुए थे तथा जिनमेंसे एक तुम भी हो, अब उनका वृत्तान्त बताता हूँ, सुनो। नरेन्द्र! सत्ययुगमें जिसका नाम सुप्रभ था, वह तुम ही हो । यहाँ ‘प्रजापाल’ के नामसे भी तुम्हारी प्रसिद्धि हुई है। राजन्! शेष महाबली नरेश त्रेतायुगमें होंगे। जो दीप्ततेजा था, उसका नाम शान्त कहा गया है। सुरश्मि महाबली राजा शशकर्णके नामसे ख्याति प्राप्त करेगा । शुभदर्शन ही पाश्चाल राजा होगा- इसमें संदेह नहीं है सुशान्ति अङ्गवंशमें जन्म लेकर सुन्दर नामसे विख्यात होगा। सुन्द ही (सत्ययुगके अन्तमें) मुचुकुन्द हुआ। इसी प्रकार सुद्युम्न तुरु नामसे सुमना सोमदत्त नामसे तथा शुभ संवरण नामसे विख्यात हुए। सुशील वसुदान हुआ और सुखद असुपति नामक राजा हुआ । शम्भु सेनापतिके नामसे प्रसिद्ध हुआ । कान्त दशरथके नामसे विख्यात राजा हुए और सोमकी राजा जनक नामसे प्रसिद्धि हुई। राजन्! ये सभी नरेश त्रेतायुगमें हुए थे। वे इस भूमण्डलके राज्य- सुखको भोगकर अनेक प्रकारके यज्ञोंद्वारा भगवान्की आराधना करके नि:संदेह स्वर्गको प्राप्त करेंगे।
भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! यह उत्तम ‘ब्रह्मविद्यामृत’ नामक आख्यान है। इसे सुनकर राजर्षि प्रजापालको अत्यन्त आनन्द हुआ और वे अन्तमें तपस्या करनेके लिये वनमें चले गये। इस प्रकार तप एवं ब्रह्मका चिन्तन करते हुए उन्होंने पाचभौतिक शरीरका परित्याग कर दिया और अन्तमें ब्रह्ममें ही लीन हो गये। राजा प्रजापालने यह तपस्या वृन्दावनमें की थी। वहाँ तपस्या करते हुए उन्होंने भगवान् गोविन्दकी इस प्रकार स्तुति की थी।
राजा प्रजापालने कहा- जो सम्पूर्ण जगत् के रूपमें विराजमान हैं, गोपेन्द्र एवं उपेन्द्र जिनके नाम हैं, जिनकी किसीसे तुलना नहीं की जा सकती, जो एकमात्र संसार चक्रको चलानेमें कुशल हैं तथा पृथ्वी जिनके आश्रयपर टिकी हैं, उन देवेश्वर भगवान् गोविन्दको मैं नमस्कार करता हूँ। श्रीकृष्ण ! आप गौओंके रक्षक हैं। जो दुःखरूपी सैकड़ों लहरोंके उठनेसे भयंकर बन गया है तथा जिसमें वृद्धावस्थारूपी जलकी भँवरियाँ उठ रही हैं एवं जो पातालतक गहरा है, ऐसे संसार- समुद्रमें मैं गोते खाता हूँ। ऐसी स्थितिमें मुझे सुख देनेमें समर्थ एकमात्र आप अप्रमेयस्वरूप प्रभु ही हैं। विभो ! आपको मेरा नमस्कार है। भगवन्! आधि-व्याधियों तथा ग्रहोंके द्वारा मैं बार-बार इधर-उधर घसीटा जा रहा हूँ। उपेन्द्र ! आप सम्पूर्ण प्राणियोंके बन्धु हैं। जनार्दन ! दुःखी एवं व्याकुल व्यक्तिपर कृपा करना आपका स्वाभाविक गुण है। अतः महाभाग ! आपको मेरा नमस्कार है। सुरेश ! सर्वज्ञोंमें आपका सबसे श्रेष्ठ स्थान है। यह अखिल विश्व आपके प्रयत्नसे ही विस्तृत है। प्रभो! आपकी छत्र-छायामें गोप आनन्द करते हैं। चक्रधर प्रभो ! मैं संसारसे भयभीत हो गया हूँ । अतः मेरी रक्षा करनेकी कृपा कीजिये। अच्युत ! आप परम देवता हैं। सुरसमाजमें आपकी प्रधानता है। आप पुराणपुरुष हैं। चन्द्रमामें प्रकाश आपका ही तेज है। अग्नि आपका मुख है। गोपेन्द्र ! मैं संसारमें भटक रहा हूँ। मेरी रक्षा आप करें। सुरेश! भला इस सुख-दुःख आदि द्वन्द्वमय संसारमें रहनेवाला कौन ऐसा प्राणी हैं, जो आपकी मायाको पार कर सके। गोपेन्द्र ! आप अगोत्र, अस्पर्श, अरूप, अगन्ध, अनिर्देश्य और अज हैं। जो विद्वान् व्यक्ति ऐसे आप पूजनीय पुरुषकी उपासना करते हैं, उन्हें मुक्तिका पात्र माना जाता है। आपकी न कोई मूर्ति है और न कोई कर्म । आप परम कल्याणमय हैं। आप शङ्ख, चक्र, एवं कमल धारण करते हैं – यह पुराणोंका कथन या सारी स्तुति औपचारिकमात्र है। मैं आपको निरन्तर नमस्कार करता हूँ। आप वामनका अवतार धारण करके तीनों लोकोंपर विजय पा चुके हैं। आप कृष्णादि चतुर्व्यूहसे शोभा पाते हैं। शम्भु विभु, भूतपति और सुरेश – ये सब आपके ही नाम हैं। ऐसे अनन्त एवं विष्णुनामधारी आप प्रभुको मैं प्रणाम करता हूँ। भगवन्! आप स्थावर-जङ्गम अखिल जगत्को सृष्टि, पालन और संहार करते हैं। प्रभो ! मैं मुक्ति चाहता हूँ। अतः आप अभी मुझे उस स्थानपर ले चलें, जहाँ गये हुए योगी पुरुष पुनः वापस नहीं आते। विश्वमूर्ते! गोविन्द! आपकी जय हो! सर्वज्ञ, अप्रमेय एवं विश्वेश्वर! आपकी जय हो, जय हो !
भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! उस समय राजा प्रजापालने इस प्रकार भगवान् गोविन्दकी स्तुति की और अपने शरीरको उनमें लीन कर दिया और वे शाश्वत धामको पधार गये ।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ३४ आरुणि और व्याधका प्रसङ्ग, नारायण-मन्त्र- श्रवणसे बाघका शापसे उद्धार
पृथ्वीने पूछा- भगवन्! आप सम्पूर्ण प्राणियोंका सृजन करते हैं। प्रभो ! मैं आपकी उपासनाकी विधि जानना चाहती हूँ – अर्थात् श्रद्धालु स्त्रियाँ अथवा पुरुष आपकी उपासना किस प्रकार करते हैं ? विभो ! आप मुझे यह सब बतानेकी कृपा कीजिये।
भगवान् वराह कहते हैं-देवि ! मैं भावसे ही वशीभूत होता हूँ। मैं न तो प्रचुर धनोंसे सुलभ हूँ और न जपादि अन्य उपासनासे ही साथ ही भक्त लोग मुझे तपद्वारा भी प्राप्त करते हैं- एतदर्थ मैं तुमसे कुछ साधनोंका निर्देश करता हूँ। जो मनुष्य मन, वाणी और कर्मसे मुझमें अपना चित्त लगाये रहता है, उसके लिये अनेक प्रकारके (तपोरूप) व्रत हैं। उन्हें मैं बताता हूँ, सुनो। अहिंसा, सत्यभाषण, चोरी न करना और ब्रह्मचर्यका पालन करना – ये मानसिक व्रत कहे जाते हैं। दिनमें एक समय भोजन करना अथवा केवल एक बार रातमें भोजन करना पुरुषोंके लिये शारीरक व्रत ( या तप ) हैं। इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। वेद पढ़ना, भगवान् विष्णुके नाम यशका कीर्तन करना, सत्य बोलना, किसीकी चुगली न करना, हितकारी मधुर बात कहना, सबका हित सोचना, धर्मपर आस्था रखना और धर्मयुक्त बातें बोलना – ये वाणीके उत्तम व्रत हैं।
वसुंधरे ! इस विषयमें एक प्रसङ्ग सुना जाता है— पूर्वकल्पमें आरुणि नामसे विख्यात एक महान् तपस्वी ब्राह्मण पुत्र थे। वे ब्राह्मण श्रेष्ठ किसी उद्देश्यसे तप करनेके लिये वनमें गये और वहाँ वे उपवासपूर्वक तपस्या करने लगे । उन ब्राह्मणने देविका नदी के सुन्दर तटपर अपने रहनेका आश्रम बनाया था। एक बार किसी दिन वे ब्राह्मण देवता स्नान-पूजा करनेके विचारसे उस नदीके तटपर गये। स्नान करके ये जब जप कर रहे थे तो उन्होंने सामनेसे आते हुए एक भयंकर व्याधको देखा, जो हाथमें बड़ा-सा धनुष लिये हुए था। उसकी आँखें बड़ी क्रूर थीं। वह उन ब्राह्मणके वल्कल वस्त्र छीनने और उन्हें मारनेके विचारसे आया था। उस ब्रह्मघातीको देखकर आरुणिके मनमें घबड़ाहट उत्पन्न हो गयी और वे भयसे थरथर काँपने लगे। किंतु ब्राह्मणके अन्तः शरीरमें भगवान् नारायणको देखकर वह व्याध डर सा गया। उसने उसी क्षण धनुष और बाण हाथसे गिरा दिये और कहा ।
व्याधने कहा—ब्रह्मन् ! मैं आपको मारनेके विचारसे ही यहाँ आया था; किंतु आपको देखते ही पता नहीं मेरी वह क्रूर – बुद्धि अब कहाँ चली गयी। विप्रवर! मेरा जीवन सदा पाप करनेमें ही बीता है। अबतक मेरे द्वारा हजारों ब्राह्मण मृत्युके मुखमें प्रविष्ट हो गये। प्रायः दस हजार साध्वी स्त्रियोंका भी मैंने अन्त कर डाला है। अहो, ब्राह्मणकी हत्या करनेवाला मै पापी पता नहीं, किस गतिको प्राप्त करूँगा ? महाभाग ! अब आपके पास रहकर मैं भी तप करना चाहता हूँ। आप कृपया उपदेश देकर मेरा उद्धार करें।
व्याधके इस प्रकार कहनेपर उसे ब्रह्मघाती एवं महान् पापी समझकर द्विजश्रेष्ठ आरुणिने उसे कोई उत्तर नहीं दिया; परंतु हृदयमें धर्मकी अभिलाषा जग जानेके कारण ब्राह्मणके कुछ न कहनेपर भी वह व्याध वहीं ठहर गया । ब्राह्मण भी नदीमें स्नानकर वृक्षके नीचे बैठे हुए तप करते रहे। इस प्रकार अब उन दोनोंका नियमित धार्मिक कार्यक्रम चलने लगा। इसी प्रकार कुछ दिन बीत गये। एक दिनकी बात है- आरुणि स्नान करने नदीके जलमें भीतर गये थे। इधर कोई भूखसे व्याकुल बाघ तबतक उन शान्तस्वरूप मुनिको मारनेके लिये आ पहुँचा। पर इसी बीच व्याधने बाघको मार डाला। मरनेपर उस बाघके शरीरसे एक पुरुष निकला। बात ऐसी थी – जिस समय आरुणि जलमें थे और बाघ उनपर झपटा, उस समय घबड़ाहटके कारण मुनिके मुँहसे सहसा ‘ॐ नमो नारायणाय’ यह मन्त्र निकल गया। बाघके प्राण तबतक उसके कण्ठमें ही थे और उसने यह मन्त्र सुन लिया। प्राण निकलते समय केवल इस मन्त्रको सुनलेनेसे वह एक दिव्य पुरुषके रूपमें परिणत हो गया। तब उसने कहा- ‘द्विजवर ! जहाँ भगवान् विष्णु विराजमान हैं, मैं वहीं जा रहा हूँ। आपकी कृपासे मेरे सारे पाप धुल गये। अब मैं शुद्ध एवं कृतार्थ हो गया।’
इस प्रकार उस पुरुषके कहनेपर विप्रवर आरुणिने उससे पूछा—’ नरश्रेष्ठ! तुम कौन हो ?’ राजेन्द्र ! तब पूर्वजन्ममें जो बात बीती थी, उसे बतलाते हुए वह कहने लगा- ‘इसके पहले जन्ममें मैं ‘दीर्घबाहु’ नामसे प्रसिद्ध एक राजा था । समस्त वेद, सम्पूर्ण धर्मशास्त्र मुझे सम्यक् प्रकारसे अभ्यस्त थे । अन्य शास्त्र भी मुझसे अपरिचित नहीं थे। पर अन्य ब्राह्मणोंसे मेरा कोई प्रयोजन न था । मैं प्राय: ब्राह्मणोंका अपमान भी कर देता था। मेरे इस व्यवहारसे सभी ब्राह्मण क्रुद्ध हो गये और उन्होंने मुझे भीषण शाप दे दिया- ‘तू अत्यन्त निर्दयी बाघ होगा; क्योंकि तेरे द्वारा ब्राह्मणोंका भीषण अनादर हो रहा है। तुझे किसी बातका स्मरण भी न रहेगा। अरे प्रचण्ड मूर्ख ! मृत्युके समय भगवान् नारायणका नाम तेरे कानोंमें पड़ेगा।’
विप्रवर! वे सभी ब्राह्मण वेदके पारगामी विद्वान् थे। उनका भीषण शाप मुझे लग गया। मुने! जब ब्राह्मणोंने शाप दिया तो मैं उनके पैरोंपर गिर पड़ा तथा उनसे कृपापूर्वक क्षमाकी भीख माँगी। मुझपर उनकी कृपादृष्टि हो गयी। अतएव उन्होंने मेरे उद्धारकी भी बात बता दी और कहा-‘ राजन् ! प्रत्येक छठे दिन मध्याह्नकालमें तुझे जो कोई मिले, उसे तू खा जाना – वह तेराआहार होगा। जब तुझे बाण लगेगा और उसके आघातसे तेरे प्राण कण्ठमें आ जायें, उस समय किसी ब्राह्मणके मुखसे जब ‘ॐ नमो नारायणाय’ यह मन्त्र तेरे कानोंमें पड़ेगा, तब तुझे स्वर्गकी प्राप्ति हो जायगी – इसमें कोई संशय नहीं।’ मुने! मैंने दूसरेके मुखसे भगवान् विष्णुका यह नाम सुना है। परिणामस्वरूप मुझ ब्रह्मद्वेषीको भी भगवान् नारायणका दर्शन सुलभ हो गया। फिर जो ब्राह्मणोंका सम्मानपूर्वक अपने मुँहसे ‘ॐ हरये नमः ‘ इस मन्त्रका उच्चारण करते हुए प्राणोंका त्याग करता है तो वह परमपवित्र पुरुष जीतेजी ही मुक्त है। मैं भुजा उठाकर बार-बार कहता हूँ- यह सत्य है, सत्य है और निश्चय ही सत्य है। ब्राह्मण चलते-फिरते देवता हैं। भगवान् पुरुषोत्तम कूटस्थ पुरुष हैं।’
ऐसा कहकर शुद्ध अन्तःकरणवाला वह बाघ (दिव्य पुरुष) स्वर्ग चला गया और ब्राह्मण आरुणि भी बाघके पंजेसे छूटकर व्याधसे कहने लगे- आज बाघ मुझे खानेके लिये उद्यत हो गया था। ऐसे अवसरपर तुमने मेरी रक्षा की है। अतएव उत्तम व्रतका पालन करनेवाले वत्स! मैं तुमपर संतुष्ट हूँ, तुम वर माँगो ।
व्याधने कहा— ब्राह्मणदेवता! मेरे लिये यही वर पर्याप्त है, जो आप प्रेमपूर्वक मुझसे बातें कर रहे हैं। भला, आप ही बताइये इससे अधिक वरसे मुझे करना ही क्या है ?
आरुणिने कहा- व्याध! तुम्हारी तपस्या करनेकी इच्छा थी, अतएव तुमने मुझसे प्रार्थना की थी। किंतु अनघ ! उस समय तुममें अनेक प्रकारके पाप थे। तुम्हारा रूप बड़ा भयंकर था। परंतु अब तुम्हारा अन्तःकरण परम पवित्र हो गया है; क्योंकि देविका नदीमें स्नान करने, मेरे दर्शन करने तथा चिरकालतक भगवान् विष्णुके नाम सुननेसे तुम्हारे पाप नष्ट हो गये हैं, इसमें कोई संशय नहीं । साधो ! अब मेरा एक वर स्वीकार कर लो, वह यह कि तुम अब यहीं रहकर तपस्या करो। तुम इसके लिये बहुत पहलेसे इच्छुक भी थे।
व्याध बोला- ऋषे! आपने जिन परम प्रभु भगवान् नारायण और विष्णुकी चर्चा की है, उन्हें मानव कैसे प्राप्त कर सकते हैं? यह बतानेकी कृपा करें – यही मेरा अभीष्ट वर है।
ऋषिने कहा- व्याध ! कोई भी पुरुष सनातन श्रीहरिके उद्देश्यसे जिस किसी व्रतको भक्तिपूर्वक करनेमें संलग्न हो जाय तो वह उन्हें प्राप्त कर लेता है। पुत्र! तुम ऐसा जानकर भगवान् नारायणका यह व्रत करो। ( व्रतका रूप यह है) कभी भी गणान्न – ब्राह्मणसंघके लिये निर्मित अन्न नहीं खाना चाहिये और झूठ भी नहीं बोलना चाहिये । व्याध ! मैंने तुमसे जो इस उत्तम व्रतकी बात बतायी है, यह बिलकुल सत्य है। अब तुम तपस्वी बनकर जबतक इच्छा हो, यहाँ रहो ।
भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! आरुणिको यह निश्चय हो गया कि यह व्याध मोक्ष पानेके लिये अत्यन्त चिन्तित है। अतः उन वरदाता ब्राह्मणने उसे इच्छित वर दे दिया। फिर एक दिन वे वहाँसे उठकर सहसा कहीं चले गये।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ३५ सत्यतपाका प्राचीन प्रसङ्ग
भगवान् वराह कहते हैं- पृथ्वि ! अब वह व्याध साधुओंके मार्गका अवलम्बनकर मन ही मन गुरुका ध्यान करते हुए निराहार रहकर तपस्या करने लगा। भिक्षा लेनेका समय आनेपर वह वृक्षसे गिरे सूखे पत्ते खा लिया करता था। एक दिनकी बात है, उसे भूख लगी तो किसी वृक्षके नीचे गया। भूखके कारण पेड़के पाससे उसे सूखे पत्ते उठाकर खानेकी इच्छा हुई। पर वैसा करते ही आकाशवाणी हुई- ‘अरे, ये शाखोटके निकृष्ट पत्ते हैं, इन्हें मत खाओ।’ यह शब्द पर्याप्त उच्च स्वरसे हुआ था। अतः वह व्याध उसे छोड़कर हट गया। अब वह किसी दूसरे वृक्षका पत्ता उठाकर लेने लगा। अब पुनः वहाँ भी वैसी ही ध्वनि हुई। इस प्रकारकी आपत्ति मानकर व्याधने उस दिन कुछ भी न खाया और निराहार रहकर बड़ी सावधानीके साथ गुरुदेव आरुणिको स्मरण करते हुए वह तप करनेमें तत्पर रहा।
इस प्रकार वह तप कर ही रहा था कि इतनेमें महर्षि दुर्वासा उस व्याधके पास पधारे उन ऋषिने देखा – व्याधके प्राणमात्र शरीरमें हैं, पर तपस्याके तेजसे यह ऐसा चमक रहा है, मानो घी डालनेसे अग्नि प्रदीप्त हो रही हो उस व्याधने उन मुनिवर दुर्वासाजीको सिर झुकाकर प्रणाम किया और बोला- ‘भगवन्! आपके दर्शनसे मैं कृतार्थ हो गया। आज श्राद्धका दिन है। आप अतिथि देवता मेरे पास पधारे हैं। सूखे पत्ते आदिसे श्राद्ध करके आप द्विजवरको मैं तृप्त करना चाहता हूँ।’ इधर इसमें कितनी पवित्र भावनाएँ हैं, इन्द्रियाँ कितनी वशमें हो गयी हैं तथा इसने तपसे कितना बल प्राप्त कर लिया है – यह जाननेके लिये वे मुनि भी उद्यत थे ही अतः उन्होंने उच्च स्वरसे व्याधसे कहा – ‘ठीक है, तुम अपने पास आये मुझ अतिथिको यव, गेहूँ एवं धान्यसे भलीभाँति सिद्ध किया हुआ अन्न दो। मैं भूखसे अत्यन्त पीडित हो रहा हूँ ।’ दुर्वासाजीके ऐसा कहनेपर व्याध बड़ी चिन्तामें पड़ गया। वह सोचने लगा- ‘यह सब सामग्री कहाँसे मिलेगी।’ वह इस प्रकार सोच ही रहा था इतनेमें एक सोनेका पवित्र पात्र आकाशसे गिरा । वह पात्र सिद्ध अन्नोंसे पूर्ण था। व्याधने उसे हाथमें उठा लिया और उसे लेकर वह डरता हुआ दुर्वासा मुनिसे कहने लगा- ‘ब्रह्मन् ! आप परम ब्रह्मज्ञ पुरुष हैं। जबतक मैं भिक्षा लाने जाता हूँ, तबतक आप यहीं रहनेकी कृपा करें। मुझपर किसी प्रकार आपकी इतनी कृपा अवश्य होनी चाहिये।’
इस प्रकार कहकर वह साधु व्याध भिक्षा माँगनेके लिये जैसे ही आगे बढ़ा – इतनेमें उसे बहुत से उपवन एवं अहीरकी बस्तियोंसे युक्त एक नगर दिखायी पड़ा। वहाँ पहुँचनेपर वृक्षोंमेंसे दूसरे अनेक पुरुष सुवर्णपात्र लिये निकल पड़े और विविध दिव्यान्नोंसे उसकी थालीको भर दिया। व्याध उसे लेकर अपनेको कृतार्थ -सा मानता हुआ अपने स्थानपर लौट आया। वहाँ आकर उसने जापकोंमें श्रेष्ठ महर्षि दुर्वासाको बैठे देखा। मुनिको देखकर उसने प्रसन्नतापूर्वक भिक्षाको एक पवित्र स्थानपर रख दिया और उन्हें प्रणाम कर कहा – ‘ब्रह्मन् ! यदि आपकी मुझपर दया है तो कृपा करें, यह आसन लें और पैर धोकर पवित्र आसनपर बैठ जायें।’ व्याधके ऐसा कहनेपर उसके पवित्र तपोबलकी परीक्षा करनेके विचारसे महर्षिने कहा- ‘व्याध ! मैं नदी जानेमें असमर्थ हूँ। मेरे पास जलपात्र भी नहीं है; फिर मेरा पैर कैसे धुल सकता है?’ मुनिके ऐसा कहनेपर व्याध सोचने लगा—’क्या अब करूँ ? मुनिजीका मेरे यहाँ भोजन कैसे हो सकेगा ?’ फिर उस चतुर व्याधने मन-ही-मन अपने गुरु आरुणिको स्मरण किया। साथ ही उस सुन्दर बुद्धिवाले व्याधने उस देविका नदीकी भी स्तुतिपूर्वक शरण ली।
व्याध बोला- नदियोंमें श्रेष्ठ देविके ! मैं व्याध हूँ। मैंने सदा पाप-ही-पाप किये हैं। ब्राह्मण-हत्या- जैसा महापाप भी कर चुका हूँ। देवि ! फिर भी मैं आपको स्मरण कर आपकी शरण आया हूँ। आप मेरी रक्षा करें। देवता, मन्त्र और पूजनका विधान- यह सब मैं कुछ भी नहीं जानता। देवि! आप नदियोंमें प्रधान हैं। केवल गुरुके उत्तम चरणोंका ध्यान करनेसे मेरा सदा कल्याण होता आया है। अब आप मुझ पापीपर कृपा करें। आपगे ! दुर्वासा ऋषि अपना पैर धो सकें, इस निमित्तसे आप उनके संनिकट पधारनेकी कृपा कीजिये।
इस प्रकार व्याधके प्रार्थना करनेपर पापनाशिनी देविका नदी वहीं पहुँच गयीं, जहाँ उत्तम व्रतका पालन करनेवाले दुर्वासा मुनि विराजमान थे। यह देखकर मुनिको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे विस्मयविमुग्ध रह गये। साथ ही उन विद्वान् मुनिवर दुर्वासाके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने हाथ-पैर धोकर उसके श्रद्धापूर्वक दिये हुए अन्नको खाया तथा आचमन किया। उस समय व्याधके शरीरमें केवल हड्डी ही शेष रह गयी थी। भूखके कारण वह अत्यन्त दुर्बल हो गया था। दुर्वासा ऋषिने उससे कहा – ‘अङ्गोंसहित वेद तथा रहस्यके साथ पद एवं क्रम, ब्रह्म-विद्या और पुराण- सभी तुम्हें प्रत्यक्ष हो जायें।’ इस प्रकारका वर देकर दुर्वासाजीने उसका नवीन नामकरण किया। उन्होंने कहा – ‘तुम अब ऋषियोंमें अग्रगण्य सत्यतपा नामक ऋषि होओगे।”
मुनिवर दुर्वासाजीने जब इस प्रकार व्याधको वर दिया तो उसने मुनिसे कहा- ‘ब्रह्मन् ! मैं व्याध होकर वेदोंका अध्ययन कैसे कर सकूँगा ।’
ऋषि बोले- साधु व्याध ! निराहार रहकर तपस्या करनेसे अब तुम्हारे पहलेके शरीरके संस्कार समाप्त हो गये हैं। तुम्हारा यह तपोमय शरीर उससे सर्वथा भिन्न है— इसमें कोई संशय नहीं । पूर्वकालीन अज्ञान भी शेष नहीं रह गया है। इस समय तुम्हारे अन्तःकरणमें शुद्धरूप अविनाशी परमात्मा निवास कर रहे हैं। अतः तुम परम पवित्र शरीरवाले बन गये हो – यह मैं तुमसे बिलकुल सच्ची बात बता रहा हूँ। मुने! इस कारण तुम्हें वेद और शास्त्र भलीभाँति प्रतिभासित – ज्ञात होंगे।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ३६ मत्स्यद्वादशीव्रत का विधान तथा फल - कथन
सत्यतपाने कहा – भगवन्! आप ब्रह्म- ज्ञानियोंके शिरोमणि हैं। आपने जो दो शरीरोंकी बात कही है, यह शरीरभेद कैसे हैं? आप यह मुझे बतलानेकी कृपा कीजिये ।
दुर्वासाजी बोले- दो ही नहीं, किंतु शरीरके तीन भेद हैं- ऐसा कहना चाहिये। प्राणियोंको ये शरीर इसलिये मिलते हैं कि उनको पाकर वह पूर्वकृत भोग भोगे। तुम्हारी पूर्वकी अवस्था भले ही पापपूर्ण थी, क्योंकि उस समय तुममें ज्ञानका नितान्त अभाव था । पर वही तुम अब उत्तम व्रतका पालन करनेके कारण दूसरी अवस्थामें आ गये हो – ऐसा समझना चाहिये। ब्रह्मवेत्ता ‘विद्वानोंने बताया है कि एक तीसरा भी शरीर है, जिसे इन्द्रियाँ अपना विषय नहीं बना सकतीं तथा जो धर्म और अधर्मको भोगनेके लिये मिलता है। इस प्रकार इसके तीन भेद हैं। धर्म एवं अधर्मके भोग तथा सांसारिक पदार्थोंके भोगका साधन होनेसे भी शरीरके तीन भेद सिद्ध होते हैं। पूर्व समयमें तुम्हारे द्वारा जो प्राणियोंका बंध हुआ करता था, उससे वैसे तुम्हारे संस्कार भी बन गये थे। इसीलिये तुम्हें पापमय शरीरवाला कहा जाता था। लोग तुमको पापी कहते थे। किंतु अब निरन्तर तप और दया करनेके कारण तुम्हारी प्रवृत्ति परम पवित्र बन गयी है। इस समय तुम्हें यह धर्ममय दूसरा शरीर सुलभ हो गया है। इस शरीरसे वेदों और पुराणोंकी जानकारी प्राप्त करनेके तुम पूर्ण अधिकारी हो- इसमें कोई संशय नहीं। जैसे जबतक बालककी अवस्था आठ वर्षतककी रहती है, तबतक उसकी मानसिक वृत्तिमें कुछ और ही भाव भरे रहते हैं। वही जब आठ वर्षकी सीमा पार कर जाता है, तो उसकी चेष्टा दूसरी ही बन जाती है। अतः ब्रह्मका विवेचन करनेवाले महापुरुषोंने बताया है कि इसी प्रकार एक ही शरीर अवस्थाओंके भेदसे तीन भेदवाला कहा गया है। भेद केवल नाममें है— जैसे मिट्टी और घड़ा। इन वर्णोंके क्रमसे कर्मकाण्डके भी चार भेद बतलाये गये हैं । ‘
सत्यतपाने कहा – मुनिवरजी ! आपने जिन परब्रह्म परमात्माकी बात कही हैं, उनके रूपको तो महात्मा एवं योगी पुरुष भी जाननेमें असमर्थ हैं। क्योंकि उन प्रभुमें नाम, गोत्र और आकारका अभाव है। जब उन परब्रह्म परमात्माकी कोई संज्ञा ही नहीं है तो वे जाने भी कैसे जा सकते हैं। गुरो ! आप उनकी कोई ऐसी संज्ञा बतानेकी कृपा कीजिये, जिससे मैं उन्हें जान सकूँ। जिनका नाम वेदों एवं शास्त्रोंमें पढ़ा जाता है, क्या वे ही तो ये परब्रह्म परमात्मा नहीं हैं। उन्हें तो वेदोंमें पुरुष, पुण्डरीकाक्ष तथा स्वयं भगवान् नारायण एवं श्रीहरि कहा गया है। मुनिवर ! उन्हें पानेके साधन अनेक प्रकारके यज्ञ तथा उचित प्रचुर दान हैं। वे भगवान् इन उपर्युक्त साधनों तथा श्रद्धा, भक्ति एवं तप द्वारा प्राप्त होते हैं। अथवा भगवन् ! प्रचुर सम्पत्तिसे तथा बहुत-से अन्य श्रेष्ठ सत्कर्मोंके प्रभावसे वेदके पारगामी विद्वान् तथा पुण्यात्मा पुरुष उन्हें पा सकते हैं। पर मैं एक निर्धन व्यक्ति उन्हें पा सकूँ – आप वैसा उपाय मुझे बतानेकी कृपा कीजिये । विप्रवर! धनके अभावमें दान देना सम्भव नहीं है। धन रहते हुए भी यदि परिवारमें अधिक आसक्ति है, तो उसके मनमें दान करनेकी रुचि नहीं होती। मेरा अनुमान है कि उससे तो भगवान् नारायण सर्वथा दूर ही रहते हैं क्योंकि वे सनातन श्रीहरि अत्यन्त प्रयासद्वारा ही प्राप्त हो सकते हैं। इसलिये दयापूर्वक आप मुझे कोई ऐसा सुगम साधन बतानेकी कृपा कीजिये, जिससे सर्वसाधारण व्यक्ति भी उन्हें सुगमतासे प्राप्त कर सके ।
दुर्वासाजी बोले- साधो ! मैं तुम्हें एक अत्यन्त गोपनीय व्रत बताता हूँ। भगवान् नारायण ही इसके प्रवर्तक हैं। पूर्व समयमें जब पृथ्वी पातालमें डूबी या धँसी जा रही थी तो उसने इस व्रतको किया था। उस समय जलके बहुत बढ़ जानेसे पृथ्वीका पार्थिव अंश प्रायः जलद्वारा नष्ट कर दिया गया था। इस प्रकार जब सर्वत्र जल ही जल रह गया तो पृथ्वी रसातलमें चली गयी। वहाँ जाकर प्राणीवर्गको धारण करनेवाले पृथ्वी- देवीने, जो सर्वव्यापी परम प्रभु भगवान् नारायण हैं, उनकी व्रत एवं उपवासद्वारा आराधना की थी। उसने अनेक प्रकारके नियमोंका पालन करते हुए यह व्रत किया था। बहुत समयतक व्रत करनेपर जिनकी ध्वजापर गरुडका चित्र अङ्कित है, वे भगवान् श्रीहरि उसपर प्रसन्न हो गये। तब उन सनातन प्रभुकी कृपाके फलस्वरूप यह पृथ्वी पातालसे ऊपर लायी गयी और समतलरूपमें सुशोभित हुई।
सत्यतपाने पूछा – मुनिवर ! पृथ्वीने जो व्रत- उपवास किये थे, वे कौन-से व्रत तथा कितने नियम थे ? यह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये ।
दुर्वासाजी कहते हैं— जब मार्गशीर्ष मासकी दशमी तिथि आ जाय, तब बुद्धिमान् पुरुष नियमपूर्वक रहकर भगवान् श्रीहरिकी पूजा करे। उस समय विधिपूर्वक हवनका कार्य भी सम्पन्न करना चाहिये तथा पवित्र वस्त्र धारण करना चाहिये । प्रसन्न मनसे रहकर व्रती पुरुष भलीभाँति सिद्ध किया हुआ यव आदि हविष्यान्न भोजन करे। फिर कम-से-कम पाँच पग दूर जाकर अपने पैर धोये । पुनः प्रातः काल उठकर शौचके बाद आठ अंगुलकी लम्बी दतुअनसे मुखको शुद्ध करना चाहिये । दन्तधावनका काष्ठ किसी दूधवाले वृक्षका होना आवश्यक है। इसके बाद विधिपूर्वक आचमन करना चाहिये। शरीरके नौ द्वार हैं, उन सभी द्वारोंको स्पर्श कर फिर भगवान् जनार्दनका ध्यान करे। ध्यानका प्रकार यह है- ‘भगवान् श्रीहरि सर्वत्र विराजमान हैं। उनकी भुजाओं में शङ्ख, चक्र, गदा एवं पद्म सुशोभित हो रहे हैं। वे पीताम्बर धारण किये हैं तथा उनके मुँहपर मंद मुसकान विराजित है। वे सभी शुभ लक्षणोंसे सुशोभित हैं।’ इस प्रकार उनका ध्यान कर पुनः भगवान् जनार्दनको स्मरण करते हुए हाथमें जल ले और उन प्रभुके लिये एक अञ्जलि अर्घ्य दे । महामुने ! अर्घ्य देते समय निम्नलिखित मन्त्र पढ़ना चाहिये – कमलके समान नेत्रसे शोभा पानेवाले भगवान् अच्युत! आज एकादशी तिथि है। अतः मैं निराहार रहकर दूसरे दिन भोजन करूँगा । आप ही मेरे शरण हैं।’
इस प्रकार कहकर दिनमें नियमपूर्वक उपवास करे। रात्रिके समय देवाधिदेव भगवान् नारायणके समीप बैठकर ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस मन्त्रका जप करे। प्रायः एक सहस्र जप कर व्रतीको सो जाना चाहिये। फिर प्रातः काल होनेपर व्रती पुरुष समुद्रतक जानेवाली नदी अथवा दूसरी भी किसी नदी या तालाबपर जाकर अथवा घरपर संयमपूर्वक रहकर हाथमें पवित्र मिट्टी लेकर यह मन्त्र पढ़े- ‘देवि! समस्त प्राणियोंका धारण और पोषण सदा तुमपर ही अवलम्बित है। सुव्रते ! यदि यह सत्य है तो इसके फलस्वरूप मेरे सम्पूर्ण पापोंको तुम दूर करनेकी कृपा करो। कश्यपतनये ! पूरे ब्रह्माण्डके भीतर रहनेवाले जितने तीर्थ हैं, वे सभी तुमसे स्पृष्ट हैं। उन सबको तुमने ही अपनी पीठपर स्थान दिया है। भगवती पृथ्वि! इसी भावसे भरकर मैं तुमसे यह मृत्तिका ले आज अपने ऊपर धारण करता हूँ।”
फिर जलके देवता वरुणसे प्रार्थना करे- ‘महाभाग वरुण! आपमें सभी रस सदा स्थान पाये हुए हैं। उनसे इस मृत्तिकाको गीला करके मुझे यथाशीघ्र पवित्र करनेकी कृपा करें। *
बुद्धिमान् पुरुष इस प्रकारका विधान सम्पन्नकर मिट्टी और जल हाथमें ले अपने सिरपर आलेपन करे। साथ ही शेष बची हुई मृत्तिकाको तीन बार समस्त अङ्गोंमें लगाये। फिर उपर्युक्त वारुणमन्त्र पढ़कर विधिपूर्वक स्नान करे। स्नान करनेके पश्चात् संध्या-तर्पण आदि नित्य नियम सम्पन्नकर देवालयमें जाय । वहाँ लक्ष्मीसहित भगवान् नारायणकी षोडशोपचारकी विधिसे सर्वाङ्ग पूजा करे ।
पूजाका प्रकार यह है- ‘भगवान् केशवको नमस्कार’ ऐसा कहकर भगवान्के दोनों चरणोंकी पूजा करे और ‘दामोदरको नमस्कार’ यह कहकर उनके कटिभागकी पूजा करे । ‘भगवान् नृसिंहको नमस्कार’ ऐसा कहकर उनके दोनों ऊरुओंकी तथा ‘श्रीवत्सका चिह्न धारण करनेवाले प्रभुको नमस्कार’ कहकर उनके वक्षःस्थलकी पूजा करनी चाहिये। ‘कौस्तुभमणिधारी भगवान्को नमस्कार’ कहकर उनके कमरकी पूजा करे तथा ‘लक्ष्मीपतिको नमस्कार’ कहकर उनके हृदय- देशकी पूजा करे । ‘तीनों लोकोंपर विजय पानेवाले प्रभुको नमस्कार’ कहकर उनकी दोनों भुजाओंका तथा ‘सर्वात्मा श्रीहरिको नमस्कार’ कहकर उनके सिरका पूजन करे । ‘रथका चक्र धारण करनेवाले भगवान्को नमस्कार’ कहकर चक्रकी पूजा करे तथा ‘कल्याणकारी प्रभुको प्रणाम’ कहकर शङ्खकी पूजा करे । ‘गम्भीरस्वरूप श्रीहरिको नमस्कार’ कहकर उनकी गदाका तथा ‘शान्तिस्वरूप भगवान्को प्रणाम है’ —यह कहकर पद्मकी पूजा करनी चाहिये।
भगवान् नारायण सम्पूर्ण देवताओंके स्वामी हैं। उक्त प्रकारसे उनकी अर्चना करनेके उपरान्त ज्ञानी पुरुष फिर उनके सामने जलपूर्ण चार कलश स्थापित करे। उन कलशोंको मालाओंसे अलंकृतकर उनपर तिलसे भरे पात्र रखे। इन चार कलशोंको चार समुद्र मानकर उनके मध्यभागमें एक मङ्गलमय पीठ या चौकी स्थापित करनी चाहिये, जिसके मध्यमें वस्त्र बिछा हो। फिर एक सोने, चाँदी, ताँबा अथवा लकड़ीके पात्रमें या कुछ न मिल सके तो पलाशके पत्तेमें ही जल रखकर उसपर सभी अवयवोंसे अङ्कित तथा आभूषणोंसे अलंकृत भगवान् जनार्दनकी मत्स्याकार सुवर्ण प्रतिमा स्थापित करनी चाहिये। फिर उस भगवत्प्रतिमाकी अनेक प्रकारके गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, वस्त्र एवं नैवेद्य आदिके द्वारा विधिपूर्वक षोडशोपचारसे पूजा करनी चाहिये। पूजाके उपरान्त यों प्रार्थना करनी चाहिये – ‘भगवन् ! जिस प्रकार पातालमें प्रविष्ट हुए वेदोंका आपने उद्धार किया था, केशव ! आप वैसे ही मेरा भी उद्धार करनेकी कृपा कीजिये।’
इस प्रकार पूजा सम्पन्न हो जानेके पश्चात् प्रार्थना करके रातमें भगवत्प्रतिमाके सामने जागरण करना चाहिये । पुनः प्रातः काल होनेपर उपर्युक्त स्थापित किये हुए चारों कलशोंको चार ब्राह्मणोंको अर्पण कर दे। पूर्वका कलश ऋग्वेदके ज्ञाता ब्राह्मणको दे। दक्षिणका कलश सामवेदी ब्राह्मणको देना चाहिये। यजुर्वेदके ज्ञाता ब्राह्मणको पश्चिमका कलश देना चाहिये। उत्तरका कलश अपनी इच्छाके अनुसार जिस किसी ब्राह्मणको दे सकते हैं, ऐसी विधि है। कलश वितरण करनेके पश्चात् इस प्रकार प्रार्थना करे – ‘पूर्वकी ओरसे मेरी ऋग्वेद, दक्षिणकी ओरसे सामवेद, पश्चिमकी ओरसे यजुर्वेद तथा उत्तरकी ओरसे अथर्ववेद रक्षा करें। व्रतके अन्तमें भगवान् मत्स्यकी सुवर्णनिर्मित प्रतिमा आचार्यको समर्पण करनेकी विधि है। जो पुरुष इस विधिके अनुसार वस्त्र, गन्ध, पुष्प, धूप आदि उपचारोंसे भगवान् की भलीभाँति पूजा करता है, जिसके मुखसे भगवन्नामरूपी मन्त्र उच्चरित होते रहते हैं, जिसे उन मन्त्रोंका गुणानुपूर्वी अभिप्राय भी अवगत होता रहता है तथा जिसने दानका विधान भी सम्पन्न कर दिया है, उसे करोड़गुना अधिक फल मिलता है। साथ ही जिसने गुरुको अर्पण तो कर दिया, परंतु आसक्ति एवं मोहके वश हो जानेसे उसके मनमें अश्रद्धा उत्पन्न हो गयी तो ऐसे व्रती पुरुषके फलमें न्यूनता भी आती है। विद्वान् लोग कहते हैं कि विधिका प्रकार बतानेवाला आप्तपुरुष ही गुरुके पदका अधिकारी है।’
इस प्रकार द्वादशीके दिन विधिसहित दान करके पुनः भगवान् विष्णुका पूजन करना चाहिये। अपनी शक्तिके अनुसार ब्राह्मणोंको भोजन कराये और उन्हें उत्तम दक्षिणा दे। भोज्य पदार्थ उत्तम अन्नसे निर्मित होना चाहिये। इसके बाद मनुष्य स्वयं भोजन करे- ऐसा विधान है। फिर संयतेन्द्रिय एवं मौन हो बच्चोंको साथ लेकर भोजन करे इस व्रतको सर्वप्रथम पृथ्वीने किया था जो मनुष्य उक्त विधानसे यह व्रत करता है, परम बुद्धिमान् सत्यतपा ! उसका पवित्र फल बताता हूँ, सुनो। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महाभाग यदि मुझे अनेक हजार मुख मिल जायँ तथा ब्रह्माकी आयु-जैसी लंबी आयु सुलभ हो जाय तो सम्भव है कि इस धर्मका फल किसी प्रकार बतला सकूँ। ब्रह्मन् ! फिर भी कुछ परिचय प्राप्त हो जाय – इस उद्देश्यसे कहता हूँ, सुनो-मुने! तैंतालीस लाख, बीस हजार वर्षोंकी एक चतुर्युगी होती है। ऐसे एकहत्तर युगोंका एक मन्वन्तर होता है। चौदह मन्वन्तरोंका ब्रह्माका एक दिन और इतनी ही संख्याकी रात होती है। इस प्रकार तीस दिनोंका एक मास और बारह महीनोंका उनका एक वर्ष कहा गया है। ऐसे सौ वर्षोंकी ब्रह्मा की आयु मानी गयी है – इसमें कोई संशयकी बात नहीं। जो पुरुष उक्त विधानके अनुसार इस द्वादशी व्रतको करता है, वह ब्रह्माजीके लोकमें पहुँच जाता है और वह वहाँ तबतक रहता है, जबतक ब्रह्माकी आयु समाप्त नहीं हो जाती । जब ब्रह्मा अपने शरीरका संवरण करने लगते हैं तो उसी क्षण उनके विग्रहमें वह भी समा जाता है। पुनः ब्राह्मी सृष्टि आरम्भ होनेपर वह एक महान् दिव्य पुरुष होता है। तपस्वी अथवा राजाका पद उसे प्राप्त होता है। सकाम अथवा निष्काम किसी भी भावसे जो इस व्रतका अनुष्ठान करता है, उसके इस लोकमें किये गये कठिन से कठिन जितने पाप हैं, वे सभी उसी क्षण नष्ट हो जाते हैं। इस लोकमें जो दरिद्र है। अथवा अपने राज्यसे च्युत हो गया है, वह विधानके साथ इस व्रतके करनेसे अवश्य ही राजा बन सकता है। यदि कोई सौभाग्यवती स्त्री है और उसे संतान नहीं होती हो तो वह इस कथित विधानसे यह व्रत करे। फलस्वरूप वह स्त्री परम धार्मिक पुत्र प्राप्त कर सकती है। यदि दूसरेका सम्मान करनेवाले किसी व्यक्तिका अगम्या स्त्रीके साथ सम्बन्ध हो गया हो तो वह उक्त विधिके अनुसार प्रायश्चित्तरूपमें यह व्रत करे तो वह भी उस पापसे मुक्त हो सकता है। जिसने बहुत वर्षोंसे ब्रह्म-सम्बन्धी क्रियाका त्याग कर दिया है, वह यदि एक बार भी भक्तिपूर्वक इस व्रतका अनुष्ठान करे तो वह वैदिकसंस्कारसे सम्पन्न हो सकता है। महामुने! इसके विषयमें अब अधिक कहनेसे क्या प्रयोजन! इसकी तुलना करनेवाला अन्य कोई भी व्रत नहीं है। ब्रह्मन् ! अप्राप्य वस्तुको प्राप्य बनानेकी जिसमें सामर्थ्य है, वैसी इस मत्स्य- द्वादशीव्रतको निरन्तर करे। जिस समय पृथ्वी पातालमें जलमग्न थी, उस समय उक्त विधानके अनुसार स्वयं उसने इस व्रतका अनुष्ठान किया था। तात ! इस विषय में और कुछ विचार करना अनावश्यक है। जिसने दीक्षा नहीं ली है और जो नास्तिक है, उसे यह विधान बताना अवाञ्छनीय है। जो देवता अथवा ब्राह्मणसे द्वेष करता है, उसको इसे कभी नहीं सुनाना चाहिये। पापोंको तुरंत प्रशमन करनेवाला यह व्रत गुरुमें श्रद्धा रखनेवाले व्यक्तिको बताना चाहिये। जो मनुष्य यह व्रत करता है, वह इस जन्ममें धन धान्य और सौभाग्य प्राप्त करता है। उसे अनेक प्रकारकी श्रेष्ठ स्त्रियाँ प्राप्त होती हैं। यह उत्तम प्रसङ्ग द्वादशीकल्प कहलाता है। जो इसे भक्तिपूर्वक सुनाता है अथवा स्वयं पढ़ता – सुनता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे छूट जाता है।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ३७ कूर्म - द्वादशीव्रत
दुर्वासाजी कहते हैं—मुने! [ जिस प्रकार मार्गशीर्षका यह मत्स्य द्वादशीव्रत है, ] प्रायः ऐसा ही पौषमासका कूर्म – द्वादशीव्रत है। इसी मासमें देवताओंने समुद्रका मन्थनकर अमृत प्राप्त किया था। उस समय भक्तोंको अभिलषित पदार्थ देनेमें कुशल स्वयं भगवान् नारायण कच्छप- रूपसे अवतरित हुए थे। उस दिन यही महान् पवित्र तिथि थी । अतः पौषमासके शुक्लपक्षकी यह दशमी – इन कूर्मरूप धारण करनेवाले परम प्रभु परमात्माकी तिथि है। व्रतीको चाहिये कि पूर्वकथनानुसार दशमी तिथिके दिन स्नान आदि सम्पूर्ण क्रियाएँ सम्पन्नकर एकादशी तिथिमें भक्तिके साथ भगवान् श्रीजनार्दनकी आराधना करे। मुनिवर ! पूजाके मन्त्र अलग-अलग हैं। उन मन्त्रोंसे भगवान् श्रीहरिका पूजन होना आवश्यक है। ‘ॐ कूर्माय नमः’, ‘ॐ नारायणाय नमः’, ‘ॐ सङ्कर्षणाय नमः’, ‘ॐ विशोकाय नमः’ ‘ॐ भवाय नमः’,‘ॐ सुबाहवे नमः’ तथा ‘ॐ विशालाय नमः ।’ इन वाक्योंका उच्चारणकर क्रमशः भगवान् श्रीहरिके चरण, कटिभाग, उदर, वक्षःस्थल, कण्ठ, भुजाएँ एवं सिरकी भलीभाँति (पूर्वोक्त प्रकारसे भी) पूजा करनी चाहिये। फिर ‘भगवन्! आपके लिये नमस्कार है’ ऐसा कहना चाहिये। पुनः नाम-मन्त्रका उच्चारणकर सुन्दर चन्दन, पुष्प, धूप, फल और नैवेद्य आदि अद्भुत उपचारोंसे परम प्रभु भगवान् श्रीहरिकी पूजा करे।
फिर सामने एक कलश रखकर उसपर अपनी शक्तिके अनुसार भगवान् कूर्मकी सुवर्णमयी प्रतिमा स्थापित करे । साथमें मन्दराचलकी भी प्रतिमा रखे। कलश माला और स्वच्छ वस्त्रसे सुसज्जित एवं अलंकृत हो। कलशके भीतर रत्न डाले तथा ऊपर घृतसे भरा हुआ ताँबेका एक पात्र रखकर उसीमें प्रतिमाका अभिधारण करे। फिर ब्राह्मणकी पूजाकर उसे दान कर दे। उस समय मनमें संकल्प करे- ‘मैं कल अपनी शक्तिके अनुरूप दक्षिणा आदिसे ब्राह्मणोंकी पूजा करूँगा । इससे कूर्म रूपमें प्रकट होनेवाले देवाधिदेव भगवान् नारायणको में प्रसन्न करना चाहता हूँ।’ इसके पश्चात् अपने सेवकवर्गके साथ बैठकर भोजन करे।
विप्र ! इस प्रकार कार्यसम्पन्न करनेपर व्रतकर्ताके पाप नष्ट हो जाते हैं। इसमें कुछ अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। वह पुरुष संसार-चक्रका त्यागकर भगवान् श्रीहरिके सनातन- लोकको चला जाता है। उसके पाप तत्काल विलीन हो जाते हैं। और वह शोभा तथा लक्ष्मीसम्पन्न होकर सत्यधर्मका भाजन बन जाता है। भक्तिके साथ व्रत करनेवाले उस पुरुषके अनेक जन्मोंसे – सञ्चित पाप दूर भाग जाते हैं। पहले जो मत्स्य द्वादशीका फल बताया गया है, इसके उपासकको भी वहीं फल प्राप्त होता है, तथा भगवान् श्रीनारायण उसपर शीघ्र ही प्रसन्न होते हैं।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ३८ वराह- द्वादशीव्रत
दुर्वासाजी कहते हैं – व्याध ! तुम एक महान् भक्तशील धार्मिक पुरुष हो! जिस प्रकार मार्गशीर्ष में भगवान् नारायणने मत्स्यका रूप तथा पौषमासमें कच्छपका रूप धारण किया था, वैसे ही माघ- मासके शुक्लपक्षमें द्वादशीके दिन पृथ्वीका उद्धार करनेके लिये वे प्रभु वराहके रूपसे प्रकट हुए हैं। अतः इस तिथि के अवसरपर भी पहले कही हुई विधिके अनुसार संकल्प एवं स्थापन आदि करके विद्वान् पुरुष उनकी पूजा करे। उन अविनाशी प्रभुकी चन्दन, धूप एवं नैवेद्य आदिसे अर्चना होनी चाहिये। पूजनके उपरान्त उनके सामने जलसे भरा एक कलश रखे। फिर ‘ॐ वराहाय नमः ‘से दोनों पैरोंकी, ‘ॐ माधवाय नमः ‘से कटिकी, ‘ॐ क्षेत्रज्ञाय नमः ‘से उदरकी, ‘ॐ विश्वरूपाय नमः ‘ से हृदयकी ‘ॐ सर्वज्ञाय नमः ‘से कण्ठकी, ‘ॐ प्रजानां पतये नमः ‘से सिरकी, ॐ प्रद्युम्नाय नमः ‘से दोनों भुजाओंकी ॐ दिव्यास्त्राय नमः ‘से चक्रकी तथा ॐ अमृतोद्भवाय नमः ‘से शङ्खकी अर्चना करनी चाहिये। इस प्रकार पूजाकर विवेकी पुरुष वराह भगवान् की प्रतिमाको कलशपर स्थापित करे। अपने वैभवके अनुसार सोने, चाँदी अथवा ताँबेका पात्र निर्माण कराकर उसपर प्रतिमा स्थापित करे। यदि शक्ति हो तो चतुर पुरुष भगवान् वराहकी स्वर्णमयी ऐसी प्रतिमा बनवाये जिसमें उन प्रभुके दाढ़पर पर्वत, वन और वृक्षोंके सहित पृथ्वी विराज रही हो। फिर इस प्रकार भावना करनी चाहिये – ‘जो भगवती लक्ष्मीके प्राणपति हैं, जिन्होंने मधुनामक दैत्यको मारा है, अखिलबीज जिनमें सुरक्षित रहते हैं तथा जो रत्नोंके भाजन हैं, वे ही परम प्रभु साकार होनेके विचारसे वराहरूप धारणकर यहाँ स्थित हैं।’ फिर उन्हें कलशपर विराजमान कर दे।
मुने! वह कलश दो सफेद वस्त्रोंसे आच्छादित होना चाहिये। उसपर ताँबेका एक पात्र रहना आवश्यक है। मूर्ति स्थापितकर चन्दन, फूल और नैवेद्य प्रभृति अनेक पवित्र उपचारोंसे अर्चना करे और फूलोंके द्वारा मण्डल बना ले। रात में स्वयं जगे और दूसरोंको जगनेकी प्रेरणा करे। पण्डित पुरुषका कर्तव्य है— ‘इस शुभ समयमें भगवान् श्रीहरि वराहरूपसे अवतरित हुए हैं’- इस विचारसे दूसरेके द्वारा भी पूजा एवं पद्य गान कराये। इस प्रकार पूजा समाप्तकर प्रात: काल सूर्यके उदय हो जानेपर शौचादिसे निवृत्त हो स्नान करे। तत्पश्चात् भगवान्की पुनः पूजा करके वह प्रतिमा ब्राह्मणको अर्पण कर दे। ग्रहीता ब्राह्मण वेद एवं वेदाङ्गका विद्वान्, साधु-स्वभाववाला, बुद्धिमान्, भगवान् विष्णुका भक्त, शान्त चित्तवाला, श्रोत्रिय तथा परिवारवाला होना चाहिये।
इस प्रकार वराहरूपी भगवान्की प्रतिमा कलशके सहित दान करनेका जो फल प्राप्त होता है, वह तुम्हें बताता हूँ, सुनो – इस जन्ममें तो उसे सुन्दर भाग्य, लक्ष्मी, कान्ति और सन्तोषकी प्राप्ति होती है और यदि दरिद्र हो तो वह शीघ्र ही धनवान् हो जाता है। सन्तानहीनको पुत्रकी प्राप्ति हो जाती है। दरिद्रता तुरंत भाग जाती है। बिना बुलाये स्वयं लक्ष्मी घरमें आ जाती हैं। वह पुरुष इस लोकमें सौभाग्यसम्पन्न तो रहता ही है, अब उसके परलोककी बात भी कहता हूँ, सुनो। इस सम्बन्धमें यहाँ एक पुरानी ऐतिहासिक घटनाका उल्लेख मिलता है।
पहले प्रतिष्ठानपुर (पैठण) – में वीरधन्वा नामसे प्रसिद्ध एक राजा हो चुके हैं। एक समयकी बात है – शत्रुओंको तपानेवाला, वह राजा शिकार खेलनेके अभिप्रायसे वनमें गया। उसी वनमें संवर्त ऋषिका भी आश्रम था। राजाने मृगोंको मारनेके साथ ही अनजाने मृगका रूप बनाये हुए पचास ब्राह्मणपुत्रोंका भी वध कर दिया। वे सभी परस्पर – भाई थे तथा वेदके अध्ययनमें उन ब्राह्मणोंकी बड़ी तत्परता थी। किंतु उस समय वे मृगका स्वाँग बनाये हुए थे।
सत्यतपाने पूछा— ब्रह्मन् ! वे ब्राह्मण मृगका रूप धारण करके वनमें क्यों रहते थे? इस विषयमें मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। मैं आपके शरणागत हूँ। मुझपर प्रसन्न होकर इसका कारण बताने की कृपा करें।
दुर्वासाजी कहते हैं – महाराज ! किसी समयकी बात है – वे सभी ब्राह्मण वनमें गये। वहाँ उन्होंने हिरनके पाँच बच्चोंको देखा। वे बच्चे अभी अभी पैदा हुए थे। उन बच्चोंकी माता वहाँ नहीं थी। उन ब्राह्मणोंने एक-एक बच्चेको हाथोंमें ले लिया और गुफामें चले गये। वहीं उन बच्चोंकी चेतना समाप्त हो गयी। तब उन सभी ब्राह्मणोंके मनमें महान् दुःख हुआ। अतः वे अपने पिता संवर्तके पास चले गये। वहाँ जाकर उन लोगोंने मृगहिंसा-सम्बन्धी यह सच्ची घटना कहना आरम्भ कर दी।
ऋषिकुमार बोले- मुने! तुरंत उत्पन्न हुए पाँच मृग हमारे द्वारा मर गये हैं। हमलोग यह काण्ड नहीं चाहते थे। फिर भी घटना घट गयी, अतः हमें प्रायश्चित्त बतानेकी कृपा कीजिये ।
संवर्त ऋषिने कहा- प्रिय पुत्रो ! मेरे पितामें हिंसाकी वृत्ति थी और उनसे बढ़कर मैं हिंसासे प्रेम रखता था। फिर तुमलोग मेरे पुत्र होकर पाप कर्मसे अछूते रह जाओ – यह असम्भव है। किंतु इससे छूटनेका उपाय यह है कि अब तुमलोग संयमशील बनकर मृगोंका चर्म अपने ऊपर डाल लो और पाँच वर्षोंतक वनमें विचरो ऐसा करनेसे तुम्हारी शुद्धि हो जायगी ।
इस प्रकार संवर्त मुनिके कहनेपर उनके पुत्रोंने अपने पूरे शरीरपर मृगचर्म डाल लिया और शान्तभावसे वनमें जाकर परब्रह्म परमात्माके नामका जप करने लगे। उन्हें ऐसा करते हुए पाँच वर्ष व्यतीत हो गये। उसी समय राजा वीरधन्वा वहाँ आया, जहाँ मृगचर्म लपेटे हुए वे ब्राह्मण वृक्षके नीचे सावधानीके साथ बैठे थे। जपमें उनकी वृत्ति एकाग्र थी। उन्हें देखकर राजा वीरधन्वाने समझा कि ये मृग हैं। अतः उन सभी ब्रह्मवादी ब्राह्मणोंपर बाण चला दिया और वे सब-के-सब एक साथ ही प्राणोंसे हाथ धो बैठे। जब उत्तम व्रतका आचरण करनेवाले उन मृत ब्राह्मणोंपर राजा वीरधन्वाकी दृष्टि पड़ी, तो वे भयसे काँप उठे। अब वे देवरातनामक मुनिके आश्रममें गये और उनसे पूछा – ‘मुनिवरजी! मुझे ब्रह्महत्या लग गयी है, इसके निवारणार्थ मुझे क्या करना चाहिये ?’ उस समय वीरधन्वाने आदिसे अन्ततककी सभी बातें मुनिसे बता दीं और वे फिर अत्यन्त शोकसे व्याकुल होकर जोर-जोरसे रोने लगे । यों उन्हें रोते देखकर ऋषिने कहा- ‘राजन् ! डरो मत, मैं तुम्हारा पाप दूर कर दूँगा । जिस समय पृथ्वी सुतलनामक पातालमें डूब रही थी, तो देवाधिदेव भगवान् विष्णुने स्वयं वराहका रूप धारणकर उसका उद्धार किया था। राजेन्द्र ! वैसे ही ब्रह्महत्याके पापमें डूबते हुए तुम्हारा भी वे प्रभु उद्धार कर दें।’ इस प्रकार देवरात ऋषिके कहनेपर राजा वीरधन्वा शान्त एवं प्रसन्न हो गये और उन्होंने मुनिसे पूछा- ‘महानुभाव! किस प्रकार भगवान् श्रीहरि मुझपर प्रसन्न हो सकते हैं, जिससे मेरे सब पातक नष्ट होंगे ?’
दुर्वासाजी बोले- मुनिवर ! जब इस प्रकार वीरधन्वाने देवरात ऋषिसे पूछा तो उन्होंने उस राजाको यह व्रत बतला दिया और नरेशने इस व्रतका अनुष्ठान किया। इसके प्रभावसे राजा वीरधन्वा ब्रह्महत्याके पापसे मुक्त होकर अपार भोगोंको भोगनेके पश्चात् सुवर्णके सुन्दर विमानपर चढ़कर स्वर्ग चला गया। वहाँ इन्द्र उठकर उसके स्वागत के लिये अर्घ्य लिये हुए आगे बढ़े। इन्द्रको आते देखकर भगवान् श्रीहरिके पार्षदोंने उनसे कहा – ‘देवराज! आप इधर न देखें। कारण, आपकी तपस्या इनसे न्यून है। इसी प्रकार एक एक करके सभी लोकपाल आये और तपहीन होनेके कारण भगवान् विष्णुके सेवकोंने उनमेंसे किसीको भी स्वागतका अवसर नहीं दिया; क्योंकि राजा वीरधन्वाके तेजप्रतापके सामने वे फीके पड़ रहे थे। महामुने! इस प्रकार वह राजा सत्यलोकतक पहुँच गया। वहाँ पहुँचनेपर जन्म- मरणकी शृङ्खला समाप्त हो जाती है। वह सत्यलोक न तो अग्निसे भस्म होता है और न जलमें लीन ही होता है। आज भी महाराज वीरधन्वा देवताओं द्वारा प्रशंसित होते हुए वहीं विराजमान हैं। यज्ञस्वरूप धारण करनेवाले भगवान् श्रीहरिके प्रसन्न हो जानेपर कौन सा ऐसा आश्चर्यकारी कर्म है, जो सम्पन्न न हो सके। उनके प्रसन्न होनेपर इस जन्ममें भी आयु, आरोग्य और सौभाग्य सुलभ हो सकते हैं। इस एक-एक द्वादशीव्रत में ऐसी शक्ति है कि विधिके साथ उनका आचरण करनेसे मानव उत्तम सौभाग्य पानेका अधिकारी हो जाता है। फिर जो सभी व्रतोंको सम्पन्न करे, उसके लिये तो कहना ही क्या है। उसे तो भगवान् नारायण स्वयं अपना स्थान देनेको तत्पर हो जाते हैं। भगवान् नारायणकी एक-से-एक श्रेष्ठ चार मूर्तियाँ हैं, इसमें कोई संशयकी बात नहीं है। जैसे उनका जलशायी नारायणरूप है, वैसे ही उन प्रभुने मत्स्यका रूप धारण कर वेदोंका उद्धार किया। फिर उसी प्रकार कूर्मरूपसे क्षीरसागरको मन्दराचलके सहारे मथनेको योजना बनायी । मन्दराचलको पीठपर धारण किया था। यह उनकी दूसरी मूर्ति है। पुनः पृथ्वी रसातलमें चली गयी थी। वैसे ही उसे ऊपर लानेके लिये उन परम प्रभुने वराहका रूप धारण किया था। यह उन भगवान् नारायणकी तीसरी मूर्ति है (चौथी सम्मूर्ति भगवान् नृसिंहकी है, जो आगे कही जायगी।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ३९ नृसिंह- द्वादशीव्रत
दुर्वासाजी कहते हैं— मुनिवर ! पहले कहे हुए व्रतकी भाँति फाल्गुनमासके शुक्ल पक्षमें नृसिंह- द्वादशीव्रत होता है। विद्वान् पुरुष उस दिन उपवास करके विधिके साथ भगवान् श्रीहरिकी आराधना करे । ‘ ॐ नरसिंहाय नमः’ कहकर भगवान् नृसिंहके चरणोंकी, ‘ॐ गोविन्दाय नमः ‘ से ऊरुओंकी, ‘ॐ विश्वभुजे नमः’ से कटिप्रदेशकी ‘ॐ अनि रुद्धाय नमः ‘से वक्षःस्थलकी, ॐ शितिकण्ठाय नमः ‘ से कण्ठकी, ‘ॐ पिङ्गकेशाय नमः’ कहकर पूजा करनेके उपरान्त भगवान्की वह प्रतिमा वेदके शिरोदेशकी ‘ॐ असुरध्वंसनाय नमः ‘ से चक्रकी तथा ‘ॐ तोयात्मने नमः’ कहकर शङ्खकी चन्दन, फूल एवं फल आदिके द्वारा सम्यक् प्रकारसे पूजा करनी चाहिये। तत्पश्चात् भगवान्के सामने दो सफेद वस्त्रोंसे सम्पन्न एक कलश रखनेका विधान है। उस कलशपर एक ताँबेका पात्र अथवा अपने वित्तके अनुसार काठ या बाँसका पात्र रखकर उसके ऊपर भगवान् नृसिंहकी स्वर्णमयी मूर्ति पधरानी चाहिये। घड़ेमें रत्न डालकर द्वादशीके दिन विशेषज्ञ ब्राह्मणको अर्पण कर दे ।
महामुने! इस प्रकारका व्रत करनेपर एक राजाको जो फल मिला था, उसे मैं कहता हूँ, सुनो – किम्पुरुष वर्षमें भारत नामसे विख्यात एक धार्मिक राजा रहते थे। उन्हें एक पुत्र हुआ, जिसका नाम वत्स था। किसी युद्धमें शत्रुओंसे हारकर वह केवल अपनी स्त्रीके साथ पैदल ही वसिष्ठजीके आश्रमपर गया और वहीं रहने लगा इस प्रकार वहाँ उनके आश्रमपर रहते कुछ दिन बीत गये। एक दिन मुनिने उससे पूछा- ‘राजन् ! तुम किस प्रयोजनसे इस महान् आश्रममें निवास कर रहे हो?”
राजा वत्सने कहा- भगवन्! शत्रुओंने मुझे परास्तकर मेरा राज्य तथा खजाना छीन लिया है। अतः असहाय होकर मैं आपकी शरणमें आया हूँ। आप अपने उपदेश-प्रदानद्वारा मेरे चित्तको शान्त करनेकी कृपा कीजिये ।
दुर्वासाजी कहते हैं – मुने! राजा वत्सके इस प्रकार कहनेपर वसिष्ठजीने उसे विधिपूर्वक इस द्वादशीको ही करनेका उपदेश दिया तथा उस राजाने भी सब कुछ वैसा ही किया । व्रत पूर्ण होनेपर भगवान् नृसिंह उस राजापर प्रसन्न हुए और उन परम प्रभुने उस राजाको एक ऐसा चक्र दिया, जो समराङ्गणमें शत्रुओंका संहार कर सके। उस अस्त्रके प्रभावसे महाराज वत्सने शत्रुओंको परास्तकर अपना राज्य फिर जीत लिया। राज्यपर आसीन होकर उस नरेशने एक हजार अश्वमेध यज्ञ किये और अन्तमें वह धर्मात्मा राजा भगवान् विष्णुके परम धामको प्राप्त हुआ। मुने! पापोंका नाश करनेवाली यह नृसिंह- द्वादशी धन्य है। तुम्हारे पूछनेपर मैंने इसका वर्णन कर दिया। अब तुम इसे सुनकर अपनी इच्छाके अनुसार जैसा चाहे करो।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ४० वामन द्वादशीव्रत
दुर्वासाजी कहते हैं – मुने! इसी प्रकार चैत्र मासके शुक्लपक्षमें वामन द्वादशीव्रत होता है। इसमें भी संकल्पकर रातमें उपवास करके भक्तिके साथ देवाधिदेव भगवान् श्रीहरिकी पूजा करनी चाहिये। पूजाकी विधि यह है कि ‘ॐ वामनाय नम:’ इस मन्त्रसे भगवान् के दोनों चरणोंकी, ‘ॐ विष्णवे नमः’ कहकर उनके कटिभागकी, ‘ॐ वासुदेवाय नमः ‘से उदरकी, ॐ संकर्षणाय नमः’ कहकर हृदयकी ॐ विश्वभृते नमः ‘से कण्ठकी, ‘ॐ व्योमरूपिणे नमः ‘से शिरोदेशकी ॐ विश्वजिते नम:’ तथा ‘ॐ वामनाय नमः’ कहकर दोनों भुजाओंकी और पाञ्चजन्याय नमः’ कहकर शङ्खकी एवं ‘सुदर्शनाय नमः’ कहकर चक्रकी पूजा करनी चाहिये। फिर पूर्वोक्त नरसिंह – व्रतके विधानके अनुसार अर्चनाकर उन सनातन वामन भगवान्की प्रतिमाको रत्नगर्भित कलशपर स्थापित करे। चतुर साधक पहले बताये हुए पात्रपर भगवान् वामनकी शक्तिके अनुसार सुवर्णमयी मूर्ति स्थापित करे और सब कृत्य करे, भगवान्को यज्ञोपवीत पहनाये। उन भगवान् वामनके पास कमण्डलु, छाता, खड़ाऊँ, कमलकी माला तथा आसन या चटाई भी रखनी चाहिये। द्वादशीके दिन प्रातः काल इन उपकरणोंके साथ वह प्रतिमा ब्राह्मणको दान कर दे। उस समय भगवान् वामनकी इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये – ‘लघुरूप धारण करनेवाले भगवान् विष्णु मुझपर प्रसन्न हों।’ फिर यों कहे- ‘भगवन्! आप चैत्रमासके शुक्लपक्षको द्वादशीके दिन प्रकट हुए हैं। मैं आपकी प्रसन्नता चाहता हूँ।’ सब अन्य व्रतोंकी तरह इसकी भी विधि है।
सुनते हैं पहले हर्यश्च नामसे प्रसिद्ध एक राजा थे, जिन्हें कोई पुत्र न था, अतः वे संतान- प्राप्तिके लिये यज्ञ एवं तपस्या कर रहे थे, इसी बीच भगवान् श्रीहरि ब्राह्मणका वेष धारणकर वहाँ आये और बोले—’ राजन्! आपका यह सब उपक्रम किस लक्ष्यको लेकर है ?’ राजा बोले- ‘मैं यह सब पुत्र प्राप्तिके लिये ही कर रहा हूँ।’ तब ब्राह्मणने राजासे कहा- ‘राजन् ! तुम वामन द्वादशीव्रतका अनुष्ठान करो।’ फिर वे अन्तर्धान हो गये । राजाने यथाशीघ्र व्रतका अनुष्ठान किया और तेजस्वी, बुद्धिमान् एवं ब्राह्मणको रत्नगर्भित प्रतिमा दान कर दी। और भगवान् वामनसे प्रार्थना की- भगवन्! अपुत्रा अदितिकी प्रार्थनापर आप स्वयं पुत्ररूपसे उनके यहाँ प्रकट हुए थे ‘ यदि यह बात सत्य है तो मुझे भी संतान प्राप्त हो ।
मुने! इस विधानसे व्रत एवं प्रार्थना करनेपर उस राजाको उग्राश्व नामक पुत्रकी प्राप्ति हुई थी, जो आगे चलकर महाबली चक्रवर्ती सम्राट् हुआ। इस व्रतमें ऐसी शक्ति है कि जिसे पुत्र न हो, वह पुत्रवान् तथा निर्धन व्यक्ति धनवान् बन जाता है। जिसका राज्य छिन गया हो, वह पुनः अपना राज्य वापस पा जाता है। व्रत करनेवाला मनुष्य मरनेपर भगवान् विष्णुके लोकको प्राप्त होता है। फिर स्वर्गमें बहुत समय प्रमोदकर वह मर्त्यलोकमें बुद्धिमान् नहुषकुमार ययातिके समान चक्रवर्ती राजा होता है
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ४१ जामदग्न्य- द्वादशीव्रत
दुर्वासाजी कहते हैं- इसी प्रकार मनुष्य (परशुराम द्वादशीका व्रती साधक) वैशाखमासके शुक्लपक्षमें पूर्वोक्त नियमानुसार संकल्पकर विधिके साथ मृत्तिका लगाकर स्नान करे और फिर देवालयमें जाय । व्रती पुरुषको भक्तिपूर्वक भगवान् श्रीहरिके अवतार परशुरामकी – ॐ जामदग्न्याय नमः’ से चरण, ‘ॐ सर्वधारिणे नमः ‘से उदर, ॐ मधुसूदनाय नमः ‘से कटिप्रदेश, ॐ श्रीवत्सधारिणे नमः ‘ से जङ्घा, ‘ॐ क्षत्रान्तकाय नमः ‘से भुजाओं, ‘ॐ शितिकण्ठाय नमः ‘से केहुनी, ॐ पाञ्चजन्याय नमः ‘से शङ्ख, ॐ सुदर्शनाय नमः ‘ से चक्र तथा ‘ॐ ब्रह्माण्डधारिणे नमः ‘से शिरोदेशकी पूजा करे। इसके बाद पहले की ही तरह सामने एक कलश स्थापित करे। उसके ऊपर भगवान् परशुरामकी मूर्ति स्थापितकर पूर्वोक्त नियमानुसार दो वस्त्रोंसे उसे आच्छादित करे। कलशपर बाँसके बने पात्रमें परशुरामजीकी आकृतिवाली सुवर्णकी प्रतिमा| स्थापित करे। प्रतिमाके दाहिने हाथमें फरसा धारण कराये, फिर उसकी पुष्प, चन्दन एवं अर्घ्य आदि उपचारोंसे पूजा करे। भगवान्के सामने श्रद्धा भक्तिपूर्वक पूरी रात जागरण करे। प्रातः काल सूर्योदय होनेपर स्वच्छ वेलामें वह प्रतिमा ब्राह्मणको दे दे। इस प्रकार नियमपूर्वक व्रत करनेसे जो फल प्राप्त होता है, उसे सुनो।
प्राचीन समयकी बात है- वीरसेन नामके एक पराक्रमी तथा भाग्यशाली राजा थे, जो पुत्रप्राप्तिके लिये तीव्र तपस्या कर रहे थे। महर्षि याज्ञवल्क्यका आश्रम वहाँसे निकट ही था, अतः एक दिन वे उन्हें देखने आये। उन तेजस्वी ऋषिको पास आते देखकर राजा वीरसेन हाथ जोड़कर खड़े हो गये और उनका विधिवत् स्वागत किया। तत्पश्चात् याज्ञवल्क्यमुनिने पूछा- ‘धर्मज्ञ राजन्! तुम्हारे तप करनेका क्या प्रयोजन है ? तुम कौन-सा कार्य करना चाहते हो ?’
राजा वीरसेनने कहा- महर्षे! मैं पुत्रहीन हूँ । मुझे कोई संतान नहीं है। द्विजवर ! इस कारण तपस्याद्वारा अपने शरीरको मैं सुखाना चाहता हूँ।
याज्ञवल्क्यजी बोले – राजन् ! तपस्यामें बड़ा क्लेश उठाना पड़ता है, अत: तुम यह विचार छोड़ दो। मैं तुम्हें अत्यन्त सरल उपाय बताता हूँ। उसे करनेसे तुम्हें अवश्य पुत्र प्राप्त हो जायगा । फिर उन्होंने उस यशस्वी राजाको इस वैशाख मासके शुक्लपक्षमें होनेवाला यही परशुराम द्वादशीव्रत बतलाया । पुत्रकी अभिलाषा रखनेवाले राजा वीरसेनने भी पूर्ण विधिके साथ यह व्रत सम्पन्न किया। फलस्वरूप उन्हें राजा नल-जैसा परम धार्मिक पुत्र प्राप्त हुआ, जिन ‘पुण्यश्लोक’ राजाकी कीर्ति अबतक संसारमें गायी जाती है।
यह तो इस व्रतके फलका प्रासङ्गिक उल्लेखमात्र हुआ, वस्तुतः जो यह व्रत करता है, उसे सुपुत्र तथा जीवनभर विद्या, श्री और कान्ति सब सुलभ हो जाती है और परलोकमें उसे जो सुख होता है, वह कहता हूँ, सुनो। इस व्रतको करनेवाले व्यक्ति एक कल्पतक, अप्सराओंके साथ आनन्द करते हुए ब्रह्माजीके लोकमें रहते हैं। फिर जब पुनः सृष्टि आरम्भ होती है तब वे चक्रवर्ती राजा होते हैं और तीस हजार वर्षोंकी उन्हें लम्बी आयु प्राप्त होती है।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ४२ श्रीराम एवं श्रीकृष्ण - द्वादशीव्रत
दुर्वासाजी कहते हैं – इसी प्रकार ज्येष्ठमासके शुक्लपक्षमें श्रीराम- द्वादशी व्रत होता है। मनुष्यको चाहिये कि वह संकल्प करके विधिके साथ विविध प्रकारके पवित्र पुष्पोंसे परम प्रभु परमात्माकी पूजा करे। ॐ रामाभिरामाय नमः’ कहकर श्रीभगवान्के दोनों चरणोंकी, ‘ॐ त्रिविक्रमाय नमः’ कहकर कटिदेशकी ‘ॐ धृतविश्वाय नमः’ कहकर उनके उदरकी, ॐ संवत्सराय नमः’ से हृदयकी, ‘ॐ संवर्तकाय नमः ‘से कण्ठकी, ॐ सर्वास्त्रधारिणे नमः’ से भुजाओंकी, ‘ॐ पाञ्चजन्याय नमः ‘से शङ्खकी तथा ‘ॐ सुदर्शनचक्राय नमः ‘ से चक्रकी एवं ‘ॐ सहस्त्रशिरसे नमः ‘ से भगवान्के शिरः प्रदेशकी पूजा करे। इस प्रकार विधिवत् पूजाकर पूर्वोक्त विधिद्वारा एक कलश स्थापितकर उसे वस्त्रसे आच्छादित करे। फिर उस कलशपर भगवान् राम एवं लक्ष्मणकी सुवर्णमयी प्रतिमा रखकर विधिपूर्वक पूजन करे और पुत्रकी इच्छावाला व्रती प्रातः काल उन प्रतिमाओंको ब्राह्मणोंको दे दे।
पहले पुत्र न होनेपर महाराज दशरथने भी पुत्रकी कामनासे वसिष्ठजीकी बड़ी आराधनाकर जब पुत्रोत्पत्तिका उपाय पूछा तो मुनिने उन्हें यही विधान बतलाया था। इस व्रतके रहस्यको जानकर राजा दशरथने इसका अनुष्ठान किया, जिसके फलस्वरूप स्वयं भगवान् श्रीहरि महान् शक्तिशाली रामरूपमें उनके पुत्र हुए। महामुने! उस समय सनातन श्रीहरिने अपनेको (राम, लक्ष्मणादि) चार रूपोंमें विभक्त कर लिया था। यह तो यहाँकी बात हुई, अब परलोककी बात सुनो। जबतक इन्द्र और सम्पूर्ण देवता स्वर्गमें रहते हैं, तबतक इस व्रतका करनेवाला पुरुष स्वर्गमें विविध भोगोंको भोगता है। वहाँकी अवधि समाप्त हो जानेपर वह पुनः मर्त्यलोकमें आता है। यहाँ आनेपर वह सौ यज्ञ करनेवाला राजा होता है जो इस व्रतको निष्कामभावसे करता है, उस पुरुषके समस्त पाप समाप्त हो जाते हैं। साथ ही उसे भगवान् श्रीहरिका कैवल्य पद भी प्राप्त हो जाता है, जो स्वच्छ एवं सनातन है।
दुर्वासाजी कहते हैं – इसी प्रकार आषाढ़ मासके शुक्लपक्षमें श्रीकृष्ण द्वादशीव्रत होता है। व्रतीको चाहिये कि संकल्प करके विधिके साथ ‘ॐ चक्रपाणये नमः’, ‘ॐ भूपतये नमः, ॐ पाञ्चजन्याय नमः’, ‘ॐ सुदर्शनाय नमः’, ‘ॐ पुरुषाय नमः’ कहकर श्रीकृष्णरूपधारी भगवान् श्रीहरिकी क्रमशः भुजा, कण्ठ, शङ्ख, चक्र एवं सिरका पूजन करे। पूजा करनेके बाद इसी प्रकार अग्रभागमें वह पूर्ववत् कलश स्थापितकर उसे वस्त्रसे आच्छादित कर दे। फिर उसके ऊपर सनातन श्रीहरिके चतुर्व्यूहरूपमें अवतरित स्वर्णनिर्मित श्रीकृष्णकी प्रतिमा स्थापित करे। फिर चन्दन एवं पुष्प आदिसे उसकी विधिवत् पूजा करे। तदनन्तर पूर्वकी भाँति वह प्रतिमा वेद पाठी ब्राह्मणको दान कर दे। इस प्रकार नियमके साथ व्रत करनेवालेको जो पुण्य प्राप्त होता है, उसे सुनो- यदुवंशमें वसुदेव नामक एक श्रेष्ठ कुशल पुरुष हुए हैं। उनकी पत्नीका नाम देवकी था देवकी पतिके साथ-ही-साथ सभी व्रतोंका अनुष्ठान करती थीं। साथ ही वे पातिव्रत धर्मका भी पूर्णरूपसे पालन करती थीं । परंतु उन साध्वीको कोई पुत्र न था । बहुत समय व्यतीत हो जानेपर एक बार श्रीनारदजी वसुदेवजीके घर आये। उन्होंने भक्तिपूर्वक मुनिकी पूजा की। फिर नारदजीने कहा- ‘वसुदेव! मैं यह देवताओंसे सम्बन्धित एक कार्य बताता हूँ, उसे सुनो।
अनघ! मैंने स्वयं देखा है, देवताओंकी सभा में जाकर पृथ्वीने कहा है-‘देवताओ ! अब मैं भार ढोनेमें असमर्थ हो गयी हूँ। दुर्जन दल बाँधकर मुझे दुःख दे रहे हैं। अतः आपलोग उनका संहार करें।’
‘इस प्रकार पृथ्वीके कहनेपर उन देवताओंने भगवान् नारायणका ध्यान किया। ध्यान करते ही भगवान् श्रीहरिने उनके सामने प्रकट होकर कहा – ‘देवताओ! यह कार्य मैं स्वयं करनेके लिये उद्यत हूँ, इसमें कोई संशय नहीं। मैं मनुष्यके रूपमें मर्त्यलोकमें जाऊँगा, किंतु जो स्त्री अपने पतिके साथ आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष में द्वादशीव्रतका अनुष्ठान करेगी, मैं उसीके गर्भ में निवास करूँगा।’ भगवान् श्रीहरिके ऐसा कहनेपर देवता तो अपने स्थानपर चले गये, पर मैं (नारदजी ) यहाँ आ गया हूँ। मेरे आनेका विशेष कारण यह है कि आपकी कोई संतान (जीवित) नहीं है। अतः आपको यह बतला दूँ।’ इसी द्वादशीव्रत के करने से वसुदेवजीको श्रीकृष्ण-जैसे पुत्रकी प्राप्ति हुई। साथ ही उन यदुश्रेष्ठको विशाल वैभव भी प्राप्त हो गया । जीवनमें सुख भोगकर अन्तमें वे भगवान् श्रीहरिके परम धामको गये। मुने! आषाढ़ मासमें होनेवाली द्वादशीव्रतकी यह विधि मैंने तुम्हें बतला दी।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ४३ बुद्ध द्वादशीव्रत
दुर्वासाजी कहते हैं— मुने! श्रावणमासके शुक्लपक्षमें एकादशीके दिन बुद्धव्रत करनेका विधान है। पूर्वकथित विधिके अनुसार चन्दन एवं फूल आदिसे भगवान् श्रीहरिकी पूजा करनी चाहिये। ‘ॐ दामोदराय नमः, ॐ हृषीकेशाय नमः’, ‘ॐ सनातनाय नमः, श्रीवत्सधारिणे नमः, ॐ चक्रपाणये नमः’, ॐ ‘ॐ हरये नमः’, ‘ॐ मञ्जुकेशाय नमः ‘ तथा ‘ॐ भद्राय नमः ‘ – इन मन्त्रोंके द्वारा क्रमशः भगवान् बुद्धरूपी श्रीहरिके चरण, कटिभाग, उदर, छाती, भुजाएँ, कण्ठ, सिर एवं शिखाकी क्रमशः अर्चना करनी चाहिये।
इस प्रकार सम्यक् रीतिसे पूजाकर पहलेके ही समान कलश स्थापित करे और दो वस्त्रोंसे उसे आच्छादितकर उसके ऊपर सम्पूर्ण संसारको अपने उदरमें धारण करनेकी शक्तिवाले देवेश्वर भगवान् श्रीहरिकी सुवर्णमयी प्रतिमा स्थापित करे । फिर विधानके अनुसार गन्ध, पुष्प आदिसे क्रमशः पूजन करे। तत्पश्चात् पहले जैसे ही वेद और वेदाङ्गके पारगामी ब्राह्मणको वह प्रतिमा दे दे। मुने! यह विधि श्रावणमासकी एकादशी- व्रतकी कही गयी है। इस प्रकार नियमके साथ यदि व्रत किया जाय तो उसका जो प्रभाव होता है, वह कहता हूँ, सुनो।
प्राचीन समयकी बात है— सत्ययुगमें नृग नामसे प्रसिद्ध एक प्रतापी नरेश थे जिन्हें आखेटका (शिकार) बड़ा शौक था। अतः प्रायः वे गहन वनोंमें घूमते रहते थे। एक समयकी बात है, वे घोड़ेपर चढ़कर किसी वनमें बहुत दूर चले गये, जहाँ सिंह, बाघ, हाथी, सर्प और डाकुओंका निवास था। राजा नृगके पास इस समय अन्य कोई सहायक भी न था। वे घोड़ेको खोलकर एक वृक्षके नीचे श्रमसे थककर सो गये। इतनेमें ही रात हो गयी और चौदह हजार व्याधोंका एक दल मृगोंको मारनेके विचारसे वहाँ आ गया । व्याधोंने देखा राजा सोये हैं। उनका शरीर सोने और रत्नोंसे सुशोभित है। लक्ष्मी उनके अङ्ग अङ्गकी शोभा बढ़ा रही हैं। अतः वे सभी वधिक तुरंत अपने सरदारके पास गये और उसे इसकी सूचना दी। सुवर्ण और रत्नके लोभमें पड़कर वह सरदार भी राजा नृगको मारनेके लिये उद्यत हो गया और वे व्याध हाथमें तलवार लेकर उन सोये हुए राजाके पास पहुँच गये। वे उन्हें पकड़ना ही चाहते थे कि राजाके शरीरसे सहसा चन्दन- माल्यादिसे विभूषित एक स्त्री प्रकट हो गयी। उसने चक्र उठाकर सभी व्याधों तथा म्लेच्छोंको मार डाला। उनका वधकर वह देवी उसी क्षण पुनः राजा नृगके शरीरमें समा गयी। इतनेमें राजा भी जग गये और देखा कि म्लेच्छ नष्ट हो गये हैं और देवी शरीरमें प्रविष्ट हो रही है। अब राजा घोड़ेपर सवार होकर वामदेवजीके आश्रमपर गये और उन्होंने भक्तिपूर्वक उनसे पूछा- ‘भगवन् ! वह स्त्री कौन थी तथा वे मरे हुए व्याध कौन थे? आप मुझपर प्रसन्न होकर इस आश्चर्यजनक घटनाका रहस्य बतानेकी कृपा कीजिये ।’
वामदेवजी बोले – राजन् ! इसके पूर्वजन्ममें शूद्रजातिमें तुम्हारा जन्म हुआ था। उस समय ब्राह्मणोंके मुखसे तुमने श्रावणमासके शुक्ल- पक्षकी द्वादशीव्रतके अनुष्ठानकी बात सुनी और राजन्! बड़ी श्रद्धाके साथ विधिपूर्वक तुमने उस दिन उपवास भी किया। अनघ! उसीका परिणाम है कि इस समय तुम्हें राज्य उपलब्ध हुआ है। वही द्वादशीदेवी सम्पूर्ण आपत्तियोंमें साकार होकर तुम्हारी रक्षा करती हैं। उसीके प्रयाससे ये घोर पापी एवं निर्दयी म्लेच्छ जीवनसे हाथ धो बैठे हैं। राजन् ! श्रावण मासकी यह द्वादशी ही तुम्हारी रक्षिका है। इसमें इतनी अपार शक्ति है कि सहसा प्राप्त विपत्ति – कालमें भी तुम्हारी रक्षा हो जाती है और इसकी कृपासे तुम्हें राज्य भी सुलभ हो गया है। अब जो बारह मासोंकी द्वादशी करते हैं, उनके पुण्यका तो कहना ही क्या है। उनके प्रभावसे तो मानव इन्द्रलोकतक पहुँच जाता है।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ४४ कल्कि - द्वादशीव्रत
दुर्वासाजी कहते हैं— मुने! पूर्वकथित व्रतोंकी भाँति ही भाद्रपदमासके शुक्लपक्षमें जो एकादशी होती है, उस तिथिमें कल्कि व्रत करना चाहिये। इसमें विधिपूर्वक संकल्पकर देवाधिदेव भगवान् श्रीहरिकी इस प्रकार अर्चना करनी चाहिये। ‘ॐ कल्कये नमः’, ‘ॐ हृषीकेशाय नमः, ॐ म्लेच्छविध्वंसनाय नमः, ॐ शितिकण्ठाय नमः’, ‘ॐ खड्गपाणये नमः’ ‘ॐ चतुर्भुजाय नमः’, तथा ‘ॐ विश्वमूर्तये नमः’ कहकर क्रमशः भगवान् कल्किके चरण, कमर, उदर, कण्ठ, भुजा, हाथ एवं सिरकी पूजा करनी चाहिये। इसके बाद बुद्धिमान् पुरुष पहलेके समान ही सामने कलश स्थापितकर उसपर भगवान् कल्किकी सुवर्णनिर्मित प्रतिमा स्थापित कर उसके ऊपर एक स्वच्छ वस्त्र लपेटकर चन्दन और पुष्पसे उस प्रतिमाको अलङ्कृत करे । पुनः प्रातः काल उसे किसी शास्त्रके ज्ञाता ब्राह्मणको दान कर दे।
मुनिवर ! इस प्रकार यह व्रत करनेपर जो फल प्राप्त होता है, उसे सुनो-बहुत पहले काशीपुरीमें विशाल नामक एक पराक्रमी राजा थे। बादमें उनके गोत्रके व्यक्तियोंने ही उनके राज्यको छीन लिया। अब वे गन्धमादन पर्वतके पवित्र बदरीवनके क्षेत्रमें चले गये और तप करने लगे। इसी समय किसी दिन श्रीनर नारायण नामक पुराण एवं परम प्रसिद्ध ऋषि वहाँ पधारे उन दोनों देवताओंने, जिन्हें सम्पूर्ण देवगण नमस्कार करते हैं और जिनके आगे किसीकी शक्ति काम नहीं देती, उस समय राजा विशालको देखा और मनमें विचार किया कि यह राजा बहुत पहलेसे यहाँ आया है और परब्रह्म परमात्मा विष्णुका निरन्तर ध्यान कर रहा है। अतः नर-नारायणने प्रसन्न होकर उन निष्पाप नरेशसे कहा- ‘राजेन्द्र ! हमलोग तुम्हारी कल्याणकामनासे वर देने आये हैं। तुम हमसे कोई वर माँग लो।’
राजा विशालने कहा- आप दोनों कौन हैं, यह मैं नहीं जानता। फिर किसके सामने वर पानेकी प्रार्थना करूँ। मैं जिनकी आराधना करता हूँ, मेरी उन्हींसे वर प्राप्तिकी हार्दिक इच्छा है।
राजाके इस प्रकार कहनेपर नर-नारायणने उनसे पूछा- ‘राजन् ! तुम किसकी आराधना करते हो ? अथवा कौन सा वर पानेकी तुम्हें इच्छा है ? हमलोग जानना चाहते हैं, तुम इसे बताओ’ ऐसा पूछनेपर राजा विशाल बोले- ‘मैं भगवान् विष्णुकी आराधना करता हूँ और फिर वे चुपचाप बैठ गये। तब नर-नारायणने पुनः उनसे कहा- ‘राजन् ! उन्हीं देवेश्वरकी कृपासे हम तुम्हें वर देनेके लिये आये हैं। तुम वर माँगो- तुम्हारे मनमें क्या अभिलाषा है ?”
राजा विशालने कहा- अनेक प्रकारकी दक्षिणासे सम्पन्न होनेवाले यज्ञ करके मैं भगवान् यज्ञेश्वरकी उपासना करना चाहता हूँ। आप वर देकर इसी मनोरथको पूर्ण करें।
उस समय राजाके पास नर और नारायण- दोनों महाभाग विराजमान थे। उनमेंसे नरने कहा-ये भगवान् नारायण हैं। अखिल जगत् को मार्ग दिखाना इनका प्रधान काम है । संसारकी सृष्टि करनेमें निपुण ये प्रभु मेरे साथ तपस्या करनेके विचारसे इस बदरीवनमें आ गये हैं। मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह, वामन और परशुराम- इन सब रूपोंसे पूर्वसमयमें इनका अवतार हो चुका है। इनकी शक्ति अपरिमेय है। | फिर ये ही महाराज दशरथजीके घर राजा राम हुए। उस समय इनका रूप महान् आकर्षक था। उस समय म्लेच्छ राक्षसोंको मार पृथ्वीका भार दूर कर सुखी किया था। कभी पापियोंसे भयभीत होकर नरसमुदायने इनकी स्तुति की थी। उस अवसरपर इन्होंने नरसिंहरूपसे अवतार लिया था। बलिको मोहनेके निमित्त वामन तथा क्षत्रियोंके हाथसे राज्य वापस करनेके लिये परशुराम ये बन चुके हैं। दुष्ट शत्रुओंको दमन करनेके लिये इन्होंने कृष्णका अवतार धारण किया है। अतः पण्डितजन इनकी उपासना करते हैं। यदि पुत्र प्राप्तिकी कामना हो तो बुद्धिमान् पुरुष इनके बालकृष्ण रूपकी उपासना करे। रूपकी इच्छा करनेवाला इनके बुद्धावतारकी तथा शत्रुका संहार चाहनेवाला कल्कि अवतारकी उपासना करे यह संशय- शून्य सिद्धान्त है।
इस प्रकारकी बातें स्पष्ट करके मुनिवर नरने राजा विशालको भगवान् हरिकी यह द्वादशी बतला दी। वे राजा इस व्रतको सम्पन्न करनेमें संलग्न भी हो गये। फलस्वरूप वे चक्रवर्ती राजा हुए। मुने! उन्हीं राजा विशालसे सम्बन्ध रखनेके कारण यह बदरीवन ‘विशाल’ नामसे प्रसिद्ध हुआ। वे नरेश इस जन्ममें सुखपूर्वक राज्यकर अन्तमें बदरीवनमें गये, जहाँ अनेक प्रकारके यज्ञ करके भगवान् नारायणके परम पदको प्राप्त किया ।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ४५ पद्मनाभ - द्वादशीव्रत
दुर्वासाजी कहते हैं- मुने! पूर्वकथित द्वादशीव्रतकी भाँति आश्विनमासके शुक्लपक्षमें यह व्रत भी है। उस तिथिमें पद्मनाभ भगवान्की अर्चना करनेकी विधि है। ‘ॐ पद्मनाभाय नमः, ‘ॐ पद्मयोनये नमः’, ‘ॐ सर्वदेवाय नमः’, ‘ॐ पुष्कराक्षाय नमः, ॐ अव्ययाय नमः’, ‘ॐ प्रभवाय नमः ‘ – इन मन्त्रोंको पढ़कर क्रमशः भगवान् पद्मनाभके दोनों चरणों, कटिभाग, उदर, हृदय, हाथ एवं सिरकी पूजा करनी चाहिये। फिर ‘सुदर्शनाय नमः’ एवं ‘कौमोदक्यै नमः’ आदि कहकर भगवान्के आयुधोंकी पूजा करनी चाहिये। इसमें भी पूर्ववत् सामने कलश रखना चाहिये, उसपर भगवान् पद्मनाभकी सुवर्णमयी प्रतिमा स्थापित करे, चन्दन- पुष्प आदिसे उसके अङ्गोंको पूजा करनी चाहिये। रात बीत जानेपर प्रातः काल फिर वह प्रतिमा ब्राह्मणको दे दे। महामते। इस प्रकार व्रत करनेसे जो पुण्य प्राप्त होता है, वह बताता हूँ, सुनो।
सत्ययुगकी बात है — भद्राश्व नामसे विख्यात एक शक्तिशाली राजा थे, जिनके नामपर ‘भद्राश्ववर्ष’ प्रसिद्ध हुआ है। एक बार कभी अगस्त्य मुनि उनके घर आये और कहने लगे- ‘राजन्! मैं सात रातोंतक तुम्हारे घरपर निवास करना चाहता हूँ।’ राजा भद्राश्वने सिर झुकाकर मुनिको प्रणाम किया और कहा -‘मुनिवर ! आप अवश्य निवास करें।’ राजा भद्राश्वकी सुन्दरी रानीका नाम कान्तिमती था । उसका तेज ऐसा था मानो बारहों सूर्य एक साथ प्रकाश फैला रहे हों। इसी प्रकार राजाकी पाँच सौ सुन्दरियाँ भी थीं जिनका व्रत संयमित था। सुन्दर स्वभाववाली वे सौतें दासीकी भाँति प्रतिदिन कार्यमें संलग्न रहती थीं। कान्तिमतीको ही राजाकी पटरानी होनेका सौभाग्य प्राप्त था। एक बार उस (रूप और तेजसे सम्पन्न कल्याणी कान्तिमती) पर अगस्त्य मुनिकी दृष्टि पड़ी। साथ ही उसके भय से कार्यमें तत्पर रहनेवाली उन सुन्दरी सौतोंको भी उन्होंने देखा ।
राजा भद्राश्व तो रानी कान्तिमतीके प्रसन्न मुखको प्रतिक्षण देखता ही रहता था। ऐसी परम सुन्दरी रानीको देखनेके कुछ समय बाद अगस्त्यजी आनन्दमें विह्वल होकर बोले- ‘राजन् ! आप धन्य हैं, धन्य हैं।’ इसी प्रकार दूसरे दिन रानीको देखकर अगस्त्य मुनिने कहा- ‘अरे! यह तो सारा विश्व वञ्चित रह गया। फिर तीसरे दिन उस रानीको देखकर यों कहने लगे-‘अहो ! ये मुर्ख गोविन्द भगवान्को भी नहीं जानते, जिन्होंने केवल एक दिनकी प्रसन्नतासे इस राजाको सब कुछ प्रदान किया था।’ चौथे दिन अगस्त्य मुनिने अपने दोनों हाथोंको ऊपर उठाकर फिर कहा- ‘जगत्प्रभो! आपको साधुवाद- धन्यवाद है, स्त्रियाँ धन्य हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य! तुम्हें पुनः पुनः धन्यवाद है। भद्राश्व! तुम्हें धन्यवाद है। ऐ अगस्त्य ! तुम भी धन्य हो । प्रह्लाद एवं महाव्रती ध्रुव ! तुम सभी धन्य हो ।’
इस प्रकार उच्च स्वरसे कहकर अगस्त्य मुनि राजा भद्राश्वके सामने नाचने लगे। फिर तो ऐसे कार्यमें संलग्न अगस्त्य मुनिको देखकर रानीसहित उस नरेशने मुनिसे पूछा- ‘ब्रह्मन् ! आपके इस हर्षका क्या कारण है? आप क्यों इस प्रकार नृत्य कर रहे हैं।’
मुनिवर अगस्त्यने कहा— राजन् ! बड़े आश्चर्यकी बात है। तुम कितने अज्ञानी हो; साथ ही तुम्हारा अनुगमन करनेवाले ये मन्त्री, पुरोहित और अन्य अनुजीवी भी मूर्ख ही हैं, जो मेरी बात समझ नहीं पाते।
इस प्रकार अगस्त्य मुनिके कहनेपर राजा भद्राश्वने हाथ जोड़कर कहा- ‘ब्रह्मन् ! आपके मुखसे उच्चरित पहेलीको हम नहीं समझ पा रहे हैं। अतः महाभाग ! यदि आप अनुग्रह करना चाहते हों तो मुझे बतानेकी कृपा करें।’
अगस्त्यजी बोले – राजन् ! पूर्वजन्ममें यह रानी किसी नगरमें हरिदत्त नामक एक वैश्यके घरमें दासीका काम करती थी। उस समय भी तुम्हीं इसके पति थे। हरिदत्तके ही यहाँ तुम भी सेवावृत्तिसे एक कर्मचारीका काम करते थे। एक समयकी बात है, आश्विनमासके शुक्लपक्षकी द्वादशीका व्रत नियमपूर्वक करनेके लिये वह वैश्य तत्पर हुआ। स्वयं भगवान् विष्णुके मन्दिरमें जाकर पुष्प एवं धूप आदिसे उन प्रभुकी पूजा की। तुम दोनों – स्त्री एवं पुरुष उस वैश्यकी सुरक्षाके लिये साथ थे। पूजनोपरान्त वह वैश्य तो अपने घर लौट आया। महामते! दीपक बुझ न जायँ, इसलिये तुम दोनोंको वहीं रहनेकी आज्ञा दे दी। उस वैश्यके चले जानेपर तुमलोग दीपकोंको भलीभाँति जलाकर वहीं बैठे रहे। राजन् ! तुमलोग पूरी एक रात – जबतक सबेरा न हुआ, तबतक वहाँसे नहीं हटे। कुछ दिनोंके बाद आयु समाप्त हो जानेके कारण तुम दोनों स्त्री- पुरुषोंकी मृत्यु हो गयी। उस पुण्यके प्रभावसे राजा प्रियव्रतके घर तुम्हारा जन्म हुआ और तुम्हारी यह पत्नी, जो उस जन्ममें वैश्यके यहाँ दासीका काम करती थी, अब रानी हुई है। वह दीपक दूसरेका था। भगवान् विष्णुके मन्दिरमें केवल उसे प्रज्वलित रखनेका काम तुम्हारा था। यह उसीका ऐसा फल है। फिर जो अपने द्रव्यसे श्रीहरिके सामने दीपक प्रज्वलित करे, उसका जो पुण्य है, उसकी संख्या तो की ही नहीं जा सकती। इसीसे मैंने कहा- ‘राजन्! आप धन्य हैं!’ आप धन्य हैं!’ सत्ययुगमें पूरे वर्षतक, त्रेतायुगमें आधे वर्षतक तथा द्वापरयुगमें तीन महीनोंतक भक्तिपूर्वक श्रीहरिकी पूजा करनेसे विद्वान् पुरुष जो फल प्राप्त करते हैं, कलियुगमें उतना फल केवल ‘नमो नारायणाय’ कहकर प्राप्त किया जा सकता है। इसमें कोई संशय नहीं। इसीलिये मेरे मुखसे निकल गया, ‘यह सारा जगत् वञ्चित हो गया है।’ मैंने केवल भक्तिकी बात कही है। भगवान् विष्णुके सम्मुख दूसरेके जलाये दीपकको प्रज्वलित कर देनेमात्रसे ऐसा फल प्राप्त हुआ है। अब जो मैंने मूर्ख होनेकी बात कही, इसका अभिप्राय इतना ही है कि भगवान् के मन्दिरमें दीप दान करनेके महत्त्वको ये लोग नहीं जानते। मैंने ब्राह्मणों और राजाओंको धन्यवाद इसलिये दिया है कि जो अनेक प्रकारके यज्ञोंद्वारा भक्तिके साथ उक्त विधिसे श्रीहरिकी उपासना करते हैं, वे धन्यवादके पात्र होते हैं। मुझे उन प्रभुके अतिरिक्त इस जगत् में अन्य कुछ भी नहीं दीखता, अतः मैंने अपनेको भी धन्य कहा। इस स्त्रीको तथा तुम्हें धन्य बतानेका कारण यह है कि यह एक वैश्यके घर सेविका थी और तुम भी सेवाका ही कार्य करते थे। स्वामीके चले जानेपर तुमलोगोंने भगवान्के मन्दिरमें दीपकको प्रज्वलित रखा। अतः यह स्त्री और इससे बढ़कर तुमधन्यवादके पात्र हो। प्रह्लादके शरीरमें आसुर भावनाके बीज थे, फिर भी परमपुरुष परमात्माको छोड़कर उनकी दृष्टिमें अन्य कोई सत्ता न थी, अतः मैंने उन्हें धन्य कहा है। ध्रुवका जन्म राजाके घरमें हुआ था। बचपनमें ही वे वनमें चले गये और वहाँ भगवान् विष्णुकी आराधनाकर सर्वोत्कृष्ट सुन्दर स्थान प्राप्त किया। महाराज ! इसलिये मैंने ध्रुवको भी साधु कहा है।
अगस्त्यजीसे राजा भद्राश्वने संक्षेपरूपसे उपदेश देनेकी प्रार्थना की थी; अतः मुनिने कहा- ‘राजन्! अब कार्तिककी पूर्णिमाका पर्व आ गया है। मैं पुष्करक्षेत्र जा रहा हूँ’- यों कहकर वे चल पड़े। पुष्कर जाते समय ही वे राजा भद्राश्वके महलपर रुके थे और उन मुनिवरने राजाको वहीं द्वादशीव्रत करनेका उपदेश दिया था । चलते समय मुनि राजाको पुत्र प्राप्तिका आशीर्वाद दे गये ।
राजा भद्राश्वने भी भगवान् पद्मनाभकी द्वादशीका व्रत किया। फलतः वे पुत्र-पौत्र और उत्तम-से- उत्तम भोगोंसे सम्पन्न होकर अन्तमें भगवान् पद्मनाभके धामको प्राप्त हुए।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ४६ धरणीव्रत
दुर्वासाजी कहते हैं— अगस्त्यजी पुष्कर तीर्थमें जाकर पुनः राजा भद्राश्वके भवनपर ही वापस आ गये। मुनिको अपने यहाँ आये देखकर उन राजाके मनमें महान् हर्ष हुआ। उन धार्मिक नरेशने उन्हें आसनपर बैठाया और पाद्य एवं अर्घ्यं आदिसे पूजा कर कहने लगे- ‘भगवन्! आपके आदेशानुसार आश्विनमासकी द्वादशीकी व्रतविधिका मैंने अनुष्ठान किया। अब कार्तिक- मासमें यह व्रत करनेसे जो पुण्य होता है, वह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये।’
अगस्त्यजी बोले – राजन्! कार्तिकमासकी विधिपूर्वक द्वादशी व्रतके और फलकी बात मैं तुमसे कहता हूँ, तुम उसे सावधान होकर सुनो। व्रतीको मेरे द्वारा पहले बताये विधानके अनुसार संकल्प करके स्नान करना चाहिये। फिर भगवान् नारायणकी ॐ सहस्रशिरसे नमः’, ‘ॐ पुरुषाय नमः’, ‘ॐ विश्वरूपिणे नमः’, ‘ॐ ज्ञानास्वाय नमः’, ‘ॐ श्रीवत्साय नमः, ॐ जगद्ग्रसिष्णवे नमः’, ‘ॐ दिव्यमूर्तये नमः ‘ तथा ‘ॐ सहस्रपादाय नमः ‘ – इन मन्त्रोंद्वारा क्रमशः शिर, भुजा, कण्ठ, अस्त्रों, हृदयदेश, उदर, कटिभाग तथा चरणदेशकी पूजा करनी चाहिये। विद्वान् पुरुष अनुलोम-क्रमसे भी पूजन करें। फिर ‘ॐ दामोदराय नमः’ कहकर
सभी अङ्गोंकी एक साथ पूजा करनी चाहिये ।
इस प्रकार पूजाकर प्रतिमाके सामने चार कलश रखकर उनमें रत्न डालकर उन्हें उजले चन्दनसे लेपकर पुष्पमालासे अलङ्कृत तथा श्वेत वस्त्रसे आवेष्टितकर और उनपर तिलपूर्ण ताँबेका पात्र रखे। महाराज ! फिर उनमें चारों समुद्रकी कल्पना करे। फिर उनके मध्यभागमें भगवान् श्रीहरिकी प्रतिमा स्थापितकर विधिवत् पूजा करनी चाहिये। उस दिन रातमें जागरणकर भगवान्की मानसिक पूजाकर वैष्णव यज्ञका अनुष्ठान करे। बहुत-से योगी पुरुष सोलह दलवाले चक्रमें योगीश्वर प्रभुकी अर्चना करते हैं। इस प्रकार पूजनका कार्य समाप्त हो जानेपर प्रातः चार समुद्रोंकी भवनासे कलशोंको चार ब्राह्मणको दान कर दे। प्रतिमा पाँचवें वेदज्ञ ब्राह्मणोंको देनी चाहिये। दो अथवा चार प्रतिमाएँ भी देनेकी विधि है। यदि दान ग्रहण करनेवाले ब्राह्मण पञ्चरात्र – आगमके आचार्य हों तो सर्वोत्तम है; उन्हें देनेपर हजार व्रतोंका फल प्राप्त होता है। जो इस व्रतके रहस्यको स्पष्ट बतानेमें कुशल हैं तथा मन्त्रोच्चारणपूर्वक विधि सम्पन्न कराते हैं, ऐसे व्यक्तिको दान करनेसे वह करोड़ गुणा फल देता है। अपने गुरुके रहते दूसरेका आश्रय लेनेवाले और उसकी पूजा करनेवालेकी दुर्गति होती है। उसके किये हुए किसी दानका कोई फल नहीं अतः प्रयत्न करके सर्वप्रथम गुरुका सम्मान करना चाहिये। इसके बाद दूसरेको दे। गुरु पढ़ा-लिखा हो अथवा कुछ भी न जानता हो, फिर भी उसे भगवान् श्रीहरिका स्वरूप जानना चाहिये। गुरु चाहे उत्तम मार्गका अनुसरण करता है अथवा अधम मार्गका; किंतु शिष्यके लिये एकमात्र वही गति है। जो व्यक्ति पहले गुरुका सम्मानकर फिर मूर्खताके कारण पीछे उसके प्रतिकूल व्यवहार करता है, वह पतित होता है और करोड़ युगोंतक उसे नरककी यातना भोगनी पड़ती है।
इस प्रकार दानकर द्वादशीके दिन भगवान् विष्णुकी पुनः विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिये । फिर ब्राह्मणोंको भोजन कराये और उन्हें अपनी शक्तिके अनुसार दक्षिणा दे। इसका नाम ‘धरणीव्रत’ है। पूर्वकालमें दक्षप्रजापतिने इस व्रतका आचरण किया था। फलस्वरूप वे प्रजापतिके पदपर प्रतिष्ठित हुए और अन्तमें मुक्त होकर सनातन श्रीहरिमें लीन हो गये। हैहयवंशी कृतवीर्य नामक नरेशने भी यह व्रत किया था, जिसके प्रभावसे उसे कार्तवीर्य नामक पुत्र प्राप्त हुआ । अन्तमें वह भी सनातन श्रीहरिके लोकमें चला गया। शकुन्तलाने भी इसी प्रकार यह व्रत किया था, जिससे वह चक्रवर्ती राजा भरतको माता बनी यों ही प्राचीन समयमें अनेक चक्रवर्ती राजाओंने उक्त विधिसे यह व्रत किया है और इसके प्रतापसे वे प्रमुख चक्रवर्ती हो गये हैं- यह बात वेदोंमें बतायी गयी है। प्राचीन समयमें पातालमें डूबकर कालक्षेप करती हुई पृथ्वीने भी इस उत्तम व्रतको किया था । तभीसे यह व्रत धरणीव्रतके नामसे प्रसिद्ध हुआ। पृथ्वीद्वारा यह व्रत सम्पन्न होते ही भगवान् श्रीहरिने परम संतुष्ट होकर उसी समय वराहका रूप धारण किया और इस प्रकार उसे ऊपर उठा लाये, जैसे नौका जलमें डूबते हुए प्राणीको बचा लेती है। मुने! इस धरणीव्रतका स्वरूप मैंने तुम्हें बता दिया। जो श्रेष्ठ पुरुष इस प्रसङ्गको सुनेगा अथवा भक्तिके साथ इस व्रतको करेगा, वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो अन्तमें भगवान् विष्णुके परम धामको ही प्राप्त होगा।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ४७ अगस्त्य - गीता
[ नासदीय सूक्त – व्याख्या ]
भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! दुर्वासा मुनिके कहे हुए इस उत्तम धरणीव्रतको सुनकर सत्यतपा उसी क्षण हिमालयके संनिकट एक ऐसे पवित्र स्थानपर चले गये, जहाँ पुष्पभद्रा नामकी नदी, चित्रशिला नामक प्रसिद्ध पहाड़ तथा भद्रवटसंज्ञक वटका वृक्ष था। उन मुनिने वहीं अपना सुन्दर आश्रम बना लिया। भविष्यमें सत्यतपाके द्वारा वहाँ एक बहुत बड़ी विचित्र लीला सम्पन्न होगी।
भगवती पृथ्वीने कहा – प्रभो! आप सनातन पुरुष हैं। तपोमय ! इस व्रतको मैंने कई हजार कल्प पहले किया था। मैं तो उसे सर्वथा भूल ही गयी थी। परंतु आज आपकी कृपासे वह पुरानी बात मुझे याद आ गयी। परम प्रभो ! जातिस्मरता प्राप्त होने — पूर्वजन्मोंकी बात स्मरण आ जानेके कारण मेरे मनको बड़ी शान्ति मिल रही है। भगवन्! मैं जानना चाहती हूँ कि अगस्त्य मुनि राजा भद्राश्वके भवनपर पुनः कब आये और उनकी आज्ञासे राजाने फिर क्या किया ? वह सब आप मुझे बतानेकी कृपा करें।
भगवान् वराह बोले- राजा भद्राश्व सदा श्वेत अश्व पर ही चढ़ते थे। जब अगस्त्य ऋषि दूसरी बार उनके यहाँ आये तो उन्होंने उन्हें उत्तम आसनपर बैठाया और पहलेसे भी बढ़कर उनकी पूजा की और पूछा- ‘भगवन्! वह कौन सा ऐसा कर्म है, जिसे करनेसे संसारसे मुक्ति मिल सकती है। अथवा देहधारी एवं बिना देहवाले सभी प्राणियोंके लिये कौन सा कर्म वैध है, जिसका सम्पादन कर लेनेपर उनके सामने शोक नहीं आ सकता।’
अगस्त्यजी कहते हैं— राजन् ! सावधानीसे सुनो। यह कथा दृष्ट एवं अदृष्ट- दोनों लोकोंसे सम्बद्ध है। यह बात उस समयकी है, जब कि दिन रात, नक्षत्र, दिशाएँ, आकाश, देवता एवं सूर्य – इन सबका नितान्त अभाव था। उस क्षण पशुपाल नामक एक पुरुष शासन कर रहे थे। एक समयकी बात है – पशुओंकी रक्षा करते समय उनके मनमें पूर्वी समुद्र देखनेकी उत्कण्ठा जगी और वे तुरंत चल पड़े। उस महासागरके तटपर एक वन था और वहाँ बहुत से सर्प निवास करते थे। वहाँ आठ वृक्ष थे और एक स्वच्छन्दगामिनी नदी थी। तिरछे एवं ऊपरकी ओर गमन करनेवाले अन्य प्रधान पाँच पुरुष भी थे। एक विशिष्ट पुरुष था, जिसके प्रसादसे तेजके कारण चमकनेवाली एक स्त्री शोभा पा रही थी। उस समय हजार सूर्यो जैसी आकृतिवाले उस महान् पुरुषको उस स्त्रीने अपने वक्षःस्थलपर स्थान दे रखा था। उस पुरुषके अधरपर तीन रंगवाले तीन विकार विराजमान थे। वही पुरुष उसका संचालक था । उसकी गति कहीं रुकती न थी। उसे देखकर वह स्त्री मौन हो गयी। तब वह प्रबन्धक पुरुष भी उस वनमें चला गया। उसके वनमें प्रविष्ट होते ही क्रूर स्वभाववाले आठ सर्प राजाके पास पहुँचे और उन प्रभुके चारों ओर लिपट गये। सर्पों के आक्रमणसे राजा चिन्तित होकर सोचने लगे कि इनका संहार कैसे हो ?
इतनेमें उनके सामने तीन वर्णवाला एक दूसरा पुरुष प्रकट हो गया। उसने श्वेत रक्त एवं पीत— इन तीन रूपोंको धारण कर रखा था। उसने अपना नाम जानना चाहा और कहा- ‘मेरे लिये दूसरा स्थान चाहिये।’ तब प्रधान पुरुषने पूछा-‘कहाँ जानेका विचार करते हो ? साथ ही उस पुरुषका नाम ‘महत्’ रख दिया। अब उस पुरुषने उन जगन्नियन्ता प्रभुके साथ रहनेकी स्वीकृति भी प्राप्त कर ली। तब राजाने कहा – ‘ तुम्हें जगत् की जानकारी रखना आवश्यक है।’ इसपर उस स्त्रीने कहा – ‘ इस जगत् में तो मैं ओतप्रोत हूँ।’ तब जो दूसरा पुरुष प्रकट हुआ था, उसने कहा- ‘तुम डरो मत।’ इसके बाद वह वीर पुरुष राजाके पास जाकर स्वयं स्थित हो गया।
तदनन्तर दूसरे पाँच पुरुष आये और प्रधान राजाके चारों ओर खड़े हो गये। राजन्! उन डाकुओंने शस्त्र उठाकर प्रधान राजाको मारनेकी तैयारी कर ली। फिर डर जानेके कारण एक दूसरेमें वे लीन हो गये। उनके लीन होनेपर भी राजाका भवन विशेषरूपसे सुशोभित होने लगा राजन्! फिर पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश – इन पाँच महाभूतोंने अपना एक समूह बनाया। उस समय वायुका रूप शीतल एवं साथ ही उस सुखदायी था। अन्य भी चारों उत्तम गुण एवं प्रकाशसे सम्पन्न थे। ये भी राजभवनमें आये। तब उन प्रधान पुरुष पशुपालके सूक्ष्म रूपको देखकर तीन वर्णवाले पुरुषने उनसे कहा – ‘महाराज ! मेरे कोई पुत्र नहीं है।’ उस समय पशुपालने पूछा-‘बतलाइये आपके लिये मैं क्या करूँ ?’ फिर तीन वर्णवाले पुरुषने उत्तर दिया- ‘हमलोग आपको बन्धनमें डालना चाहते थे। यद्यपि हमने प्रयत्न भी किया, किंतु असफल रहे। राजन् ! ऐसी स्थितिमें अब हम आपके शरीरमें आश्रय पाना चाहते हैं। मुझपर आपकी पुत्र भावना होनी चाहिये।’
राजन् ! इस प्रकार तीन वर्णवाले पुरुषके कहनेपर राजा पशुपालने उससे फिर कहा- ‘मैं पुत्र ऐसा चाहता हूँ, जो दूसरोंका भी प्रबन्धक हो।’ और उस तीन वर्णवाले पुरुषको अपना पुत्र मान लिया। पर उसमें उनकी आसक्ति न हुई ।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ४८ अगस्त्य - गीतामें पशुपालका चरित्र
अगस्त्यजी कहते हैं— राजन् ! इस प्रकार पशुपालसंज्ञक परम प्रभुने एक पुरुषका सृजन किया और उसे शासनकी आज्ञा दे दी। स्वतन्त्र होनेके कारण वह पुरुष राजा बन गया। उस पुत्रमें दीन रंग थे। उसने अहंकार नामक पुत्र उत्पन्न किया। उस पुत्रसे अवबोधस्वरूपिणी एक कन्या उत्पन्न हुई। उस कन्याने ज्ञान प्रदान करनेकी योग्यतावाले एक सुन्दर पुत्रको जन्म दिया। उस पुत्रके पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें सभी रूपोंका समावेश था और वे विषयोंको भोगनेकी रुचि रखते थे, जो इन्द्रिय कहलाये । अब सबने रहनेका एक सुन्दर भवन बना लिया। उनका वह मन्दिर ऐसा था, जिसमें नौ दरवाजे हुए और चारों ओर जानेवाला एक स्तम्भ हुआ। जलसे सम्पन्न हजारों नदियाँ उसे सुशोभित कर रही थीं। राजा पशुपाल साकार रूप धारणकर अब पुरुषके रूपमें विराजने लगे । वेद और छन्द उन्हें स्मरण हो आये। फिर उन वेदोंमें प्रतिपादित नियम एवं यज्ञ-इन सबकी उन्होंने व्यवस्था की ।
राजन् ! किसी समयकी बात है- राजा पशुपालके मनमें आनन्दके अभावका अनुभव हुआ। अब उन्होंने संसारकी सृष्टि करनेकी इच्छा की और योगमायाका आश्रय लेकर एक ऐसा पुत्र प्रकट किया, जिसके चार मुख, चार भुजाएँ, चार वेद और चार पथ हुए । महामते! समुद्र, वन और तृणसे लेकर हाथीप्रभृति पशुतकमें उनका प्रवेश है।
अगस्त्यजी कहते हैं- राजन् ! प्रस्तुत कथा प्रायः मेरे, तुम्हारे तथा अखिल जन्तुओंके शरीरमें समान रूपसे चरितार्थ होती है। ‘पशुपालसे जिसकी उत्पत्ति हुई, उसके चार चरण और चार मुख थे। उन्हींको इस कथाका उपदेष्टा एवं प्रवर्तक कहा गया है। सत्यस्वरूप स्वर ही उसका पुत्र है। उसने जो कुछ कहा है, वह धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष—इन चारोंका साधन है। पुरुषोंका इन चारोंसे सम्बन्ध है । भक्तिपूर्वक उपासना करनेवालेको ये सुलभ हो जाते हैं। इनमें जो प्रथम धर्म है, उसका दूसरा रूप वृषभका है। उसके चार सींग हैं। उसीका अर्थ और काम भी अनुसरण करते हैं। चौथी मुक्ति है। जो भक्तिके साथ उसका आदर करता है, उसे वह परब्रह्म परमात्मा सुलभ हो जाता है। इस ब्रह्मका ही सनातन अंश मनुष्योंमें व्यक्त रूपसे विराजमान है। अतः मनुष्य प्रथम अवस्थामें ब्रह्मचारीके रूपमें रहे। दूसरी अवस्थामें धर्मका आश्रय लेकर सेवक वर्गका भरण-पोषण करना चाहिये। तीसरी अवस्था वानप्रस्थ बतायी गयी है। इस अवस्थामें भी उसका अन्तःकरण धर्मयुक्त होना आवश्यक है।
इसके पश्चात् उस परब्रह्मने—’ अहमस्मि’ केवल मैं ही हूँ-यों कहा। फिर वह एक दूसरे ही चार, एक एवं दो प्रकारके रूपसे विराजने लगा। भिन्न प्रकारके उत्पन्न होनेके कारण उसकी भुजाएँ भी उसीका अनुसरण करने लगीं। सर्वप्रथम चार मुखवाले ब्रह्माने देखा कि कुछ प्रजाएँ नित्य और कुछ अनित्य हैं। राजन् ! तब ब्रह्माके मनमें विचार उठा कि मैं कैसे पिताजीसे मिलूँ। क्योंकि मेरे पिताजी एक महान् पुरुष हैं। उनमें जो गुण हैं, वे उनकी इन संतानोंमें किसीमें भी दृष्टिगोचर नहीं होते हैं। स्वरकी दृष्टिके प्रकरणमें एक ऐसी श्रुति है कि जो पिताके पुत्रका पुत्र है, उसे अपने पितामहके नामका संरक्षक होना चाहिये। इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं है। कहीं भी ऐसा अवसर मिलना आवश्यक है, जहाँ पिताका भाव दीख पड़े।
अब मुझे क्या करना चाहिये – ब्रह्माजी यह सोच ही रहे थे कि परमपिता परमात्माके मनमें रोष आ गया। अब ब्रह्माने स्वर मथना आरम्भ किया, जिससे स्वरका सिर प्रकट हो गया । उसकी आकृति नारियलके फलके समान थी। ब्रह्माजीके प्रयाससे वह स्वर फिर विभक्त हो गया। अब वे प्राण, अपान, उदान, समान एवं व्यान रूपसे सामने आ गये। अब ब्रह्माने उन्हें ठहरनेका स्थान बता दिया।
इस प्रकार अथक परिश्रम करनेके पश्चात् जब समर्थ ब्रह्माने पुनः प्राणि शरीरपर दृष्टि डाली तो उन्हें शरीरके भीतर अपने पिता परब्रह्म परमात्माकी झाँकी दृष्टिगोचर हुई। सम्पूर्ण प्राणियोंमें त्रसरेणुके समान सूक्ष्म रूप धारण कर वे सर्वत्र विराजमान थे। वे ही सर्वोपरि विराजमान एवं सर्वव्यापक हैं। सम्पूर्ण जगत् की सृष्टिसे सम्बन्ध रखनेवाला यह इतिहास अपना प्रथम स्थान रखता है जो इसे तत्त्वसे जानता है, उसे उत्तम कर्म करनेकी योग्यता प्राप्त हो जाती है।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ४९ उत्तम पति प्राप्त करनेका साधनस्वरूप व्रत
राजा भद्राश्वने पूछा- विप्रवर! विशुद्ध ज्ञानकी प्राप्तिके लिये पुरुषको किस देवताकी आराधना करनी चाहिये और उनके आराधनकी कौन-सी विधि है? मुझे यह बतानेकी कृपा कीजिये ।
अगस्त्यजी कहते हैं— राजन् ! भगवान् विष्णु ही सदा सभीके द्वारा – किमधिकं देवताओं द्वारा भी आराध्य हैं। अब इनके पूजनका प्रकार बताता हूँ, जिससे वर प्राप्ति हो सकती है। देवताओं, मुनियों एवं मानवों – प्रायः सभीके लिये यह रहस्यकी बात है – भगवान् नारायण ही सर्वोपरि देवता हैं। उन्हें प्रणाम करनेपर प्राणी क्लेश नहीं पाता। राजन्! सुना जाता है-महात्मा नारदजीने पूर्वकालमें भगवान् विष्णुके इस व्रतको अप्सराओंको बतलाया था।
अप्सराओंने पूछा- नारदजी ! आप ब्रह्माजीके पुत्र हैं। हमें उत्तम पति पानेकी अभिलाषा है। भगवान् नारायण हमारे प्राणपति हो सकें, इसके लिये आप हमलोगोंको कोई व्रत बतानेकी कृपा करें।
नारदजी कहते हैं— प्रायः सबके लिये कल्याणदायक नियम है कि प्रश्न करनेके पहले विनयपूर्वक प्रणाम करे। पर तुमलोगोंने इस नियमका पालन नहीं किया; क्योंकि तुम्हें युवावस्थाका गर्व है। फिर भी तुमलोग देवाधिदेव भगवान् विष्णुके नामका कीर्तन करो। उनसे वर माँगो – ‘प्रभो! आप हमारे स्वामी होनेकी कृपा करें।’ इससे तुम्हारा सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध होगा- इसमें कोई संशय नहीं करना चाहिये। एक व्रत भी बताता हूँ, जिसे करनेसे भगवान् श्रीहरि स्वयं वर देनेके लिये उद्यत हो जाते हैं। चैत्र और वैशाखमासके शुक्लपक्षमें जो द्वादशी तिथि है, उस दिन यह व्रत करना चाहिये। रातमें विधिवत् भगवान् श्रीहरिकी पूजा करे। बुद्धिमान् व्यक्तिको चाहिये कि भगवान्की प्रतिमाके ऊपर लाल फूलोंसे एक मण्डल बनवाये । नृत्य, गीत एवं वाद्यके साथ रातमें जागरण करे ।
ॐ भवाय नमः, ॐ अनङ्गाय नमः’, ॐ कामाय नमः ॐ सुशास्त्राय नमः’, ‘ॐ मन्मथाय नमः’ तथा ‘ॐ हरये नमः’ कहकर क्रमशः भगवान्के सिर, कटि, भुजा, उदर एवं चरण आदिकी पूजा करे। फिर भगवान्को प्रणामकर रात्रि जागरणकी विधि सम्पन्न करके प्रातः काल भगवान् की वह प्रतिमा वेद-वेदाङ्गके जानकार ब्राह्मणको दान कर दे।
अप्सराओ! इस प्रकार व्रत करनेपर इच्छानुकूल भगवान् विष्णु अवश्य पतिरूपमें तुम्हें प्राप्त होंगे। इसके पश्चात् ईखके पवित्र रस तथा मल्लिका आदिके फूलोंसे उन देवेश्वरकी पूजा करना। सुन्दरियो ! तुमने मुझे प्रणाम किये बिना जो प्रश्न किया है, उससे अष्टावक्रद्वारा तुम्हारे उपहासपर शाप भी मिलेगा। फलस्वरूप गोपलोग तुम्हें हर लेंगे।
अगस्त्यजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार कहकर देवर्षि नारदजी उसी क्षण वहाँसे चले गये। उन अप्सराओंने व्रतकी विधि सम्पन्न की। फलस्वरूप स्वयं भगवान् श्रीहरि उनपर संतुष्ट होकर उनके पति हुए।
संक्षिप्त श्रीवराहपुराण - अध्याय ५० शुभ-व्रत
[ कुब्जाम्रेश्वर ऋषीकेश माहात्म्य ]
अगस्त्यजी कहते हैं—राजन् ! अब मैं व्रतोंमें उत्तम शुभसंज्ञक व्रतका वर्णन करता हूँ, तुम उसे सुनो। महाभाग ! इसके प्रभावसे भगवान् विष्णुका दर्शन सुलभ हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं मार्गशीर्षमासके प्रथम दिन इस व्रतको आरम्भ करना चाहिये। इसमें दशमीको एक समय भोजन करनेका नियम है। उस दिन स्नान करके दोपहरमें भगवान् विष्णुकी पूजा करे। एकादशीके दिन उपवासकर ब्राह्मणोंको विधिके साथ यव देना चाहिये। उस समय दान, होम एवं अर्चन- इन सभी क्रियाओंमें सदा भगवान् श्रीहरिके नामोंका कीर्तन करना चाहिये। राजेन्द्र अगहन, पूस, माघ एवं फाल्गुन-इन चार महीनों में ऐसे ही नियमोंका पालन करना समुचित है। उपवास करके पूजा सम्पन्न करे। फिर विद्वान् पुरुष चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ एवं आषाढ़ – इन चार महीनोंमें उसी तरह संयमपूर्वक व्रत करे। इस चौमासेमें ब्राह्मणोंके लिये प्रीतिपूर्वक पात्रसहित सत्तू दान करना चाहिये । श्रावण, भाद्रपद और आश्विन इन तीन महीनोंमें अगहनमासमें तैयार होनेवाले धानको बाँटनेका विधान है। इन तीन मासोंकी अवधि कार्तिक आरम्भ होनेके पूर्वतक मानी जाती है। इन महीनोंमें भी पूर्व जैसे ही उपवास करके पूजा करनेका नियम है। दशमीकै दिन संयमशील एवं पवित्र रहे। एकादशीके दिन बुद्धिमान् व्यक्ति मासके नामका उच्चारण करके भक्तिके साथ भगवान् श्रीहरिकी पूजा करे। द्वादशीके दिन व्रतको समाप्त करे।
राजन् ! एकादशीके दिन पर्वत एवं पातालके रूपसे अङ्कित पृथ्वीकी सुवर्णमयी प्रतिमाके पूजन एवं दानका विशेष महत्त्व है। भगवान् श्रीहरिके सामने उस प्रतिमाको स्थापितकर उसे दो सफेद वस्त्रोंसे ढक दे, पासमें बीज बिखेर दे और रातमें जागरण करे। फिर प्रातः काल चौबीस ब्राह्मणोंको आमन्त्रितकर प्रत्येक ब्राह्मणको गाय, दो वस्त्र, सुवर्णमयी अँगूठी तथा कुण्डल आदि आभूषण दे । राजन् ! यदि व्रती पुरुष राजा है तो वह प्रत्येक ब्राह्मणको अपनी शक्तिके अनुसार भरण-पोषणकी व्यवस्था कर दे और दक्षिणामें सुवर्णसे बनी हुई पृथ्वीकी प्रतिमा, दो गौ और दो वस्त्र दे। अथवा अपनी सम्पत्तिके अनुसार चाँदीकी पृथ्वी बनवाये और भगवान् श्रीहरिको स्मरण करते हुए उसे ब्राह्मणोंको अर्पण कर दे। निमन्त्रित ब्राह्मणोंको भोजन, छाता और खड़ाऊँ भी दे। तत्पश्चात् प्रार्थना करे – ‘भगवान् कृष्ण, दामोदर, श्रीहरि मुझपर प्रसन्न हो जायें।’ राजन् ! इस व्रतके अनुष्ठानसे जो फल मिलता है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। फिर भी एक प्रसङ्ग सुनाता हूँ ।
सत्ययुगमें एक ब्रह्मवादी राजा थे। उन्होंने ब्रह्माजीसे पुत्र प्राप्तिका उपाय पूछा। तब ब्रह्माजीने उन्हें यह व्रत बता दिया और राजा इस व्रतको करनेमें संलग्न हो गये। राजन् ! व्रत समाप्त हो जानेपर विश्वात्मा श्रीहरि राजाके सामने पधारे और कहा- ‘राजन् ! तुम मुझसे वर माँगो ।’
राजाने कहा – ‘देवेश ! मुझे ऐसा पुत्र देनेकी कृपा कीजिये, जो वैदिक मन्त्रोंका पूर्ण जानकार, दूसरोंका यज्ञ करानेवाला, स्वयं यज्ञ करनेमें तत्पर, कीर्तिसम्पन्न, दीर्घायु असंख्य सद्गुणोंसे युक्त, ब्राह्मणोंमें निष्ठा रखनेवाला तथा शुद्ध अन्तःकरणसम्पन्न हो तथा जहाँ पहुँच जानेपर फिर सोच करनेका अवसर सामने नहीं आता, वह मोक्ष प्रदान कर दे।’ इसपर श्रीहरि ‘एवमस्तु’- कहकर अन्तर्धान हो गये। अब राजाके घर समयानुसार पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम ‘वत्सश्री’ रखा गया। वह वेद-वेदाङ्गका पूर्ण जानकार था। भगवान् विष्णुके प्रसादस्वरूप उस प्रतापी पुत्रको पाकर राजा तपस्या करनेके विचारसे निकल पड़े। वे हिमालय पर्वतपर इन्द्रियोंको वशमें करके तथा निराहार रहकर भगवान् विष्णुकी आराधना करते हुए इस प्रकार स्तुति करने लगे।
राजाने कहा –क्षर एवं अक्षर- अखिल जगत् जिनका रूप है, जो क्षीरसागरमें शयन करते हैं, देहधारियोंके लिये परम पद, इन्द्रियोंके अविषय, विश्वकी रक्षा करनेवालोंमें सर्वश्रेष्ठ तथा जलमय आकृति बनाये हुए हैं, उन भक्तोंकी याचना पूर्ण करनेवाले प्रभुकी मैं स्तुति करता हूँ। देवताओं एवं दानवोंके निरन्तर प्रार्थना करनेपर सृष्टि करनेके विचारसे आपने इस जगत्की रचना की है। भगवन्! आप सदा एक कूटस्थ रूपसे आसीन रहकर इच्छामात्रसे संसारकी सृष्टि करते हैं। प्रभो !आप कच्छप एवं नृसिंह आदि अनेक अवतार
धारण कर चुके हैं। पर आपके अवतार लेनेकी यह बात भी मायिक ही है, तथ्य नहीं। नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि, वरेश, शम्भु एवं विबुधारिनाशन आदि नामोंसे सम्बोधित होनेवाले भगवन्! आपको मेरा निरन्तर प्रणाम है। विष्णो! आप स्वयं आदि यज्ञपुरुष हैं। यज्ञकी सामग्री हवि आदि आपका ही रूप है। पशु, ऋत्विक् और घृत- ये सब आप ही हैं। कमलनेत्र ! मैं आपकी शरणमें आया हूँ, इस संसारसागरसे मेरा उद्धार कीजिये।
स्तुति अन्तमें परम प्रभु प्रसन्न हुए। वे एक कुबड़े ब्राह्मणका वेष धारणकर वहाँ आये। उनके वहाँ पधारते ही आमका वृक्ष भी वैसा ही कुबड़ा बन गया। उन राजाको बड़ा आश्चर्य हुआ कि ऐसे विशाल वृक्षका यह छोटा रूप कैसे हो गया— फिर सोचा कि परम प्रभुकी संनिधिका यह परिणाम है। फिर उन्होंने ब्राह्मण वेषधारी प्रभुको प्रणाम किया। साथ ही कहा- ‘भगवन्! आप परम पुरुष परमात्मा हैं। अवश्य ही मुझपर कृपा करनेके लिये आपका यहाँ पधारना हुआ है। हरे अब आप अपने वास्तविक स्वरूपका दर्शन करानेकी कृपा कीजिये ।’
जब राजाने इस प्रकार भगवान् श्रीहरिसे प्रार्थना की, तो वे शङ्ख, चक्र एवं गदा हाथमें लिये हुए सौम्य रूप धारणकर उनके सामने विराजमान हो गये और यह वचन कहा-‘राजेन्द्र! तुम्हारे मनमें जो भी इच्छा हो, वह मुझसे माँग लो।’ भगवान् श्रीहरिके यों कहनेपर राजाकी आँखें प्रसन्नतासे खिल उठीं। साथ ही कहा- ‘देवेश! आप मुझे मोक्ष देनेकी कृपा करें।’ राजाकी ऐसी बात सुनकर पुनः श्रीभगवान् बोले-‘राजन् ! मेरे यहाँ आनेपर इस विशाल आम्रके वृक्षमें जो कुब्जत्व आ गया है, इसके परिणामस्वरूप यह स्थान कुब्जाम्रक (ऋषिकेशका नामान्तर) तीर्थके नामसे प्रसिद्ध होगा। इस उत्तम तीर्थमें ब्राह्मण अथवा पशु-पक्षी आदि योनिवाले भी यदि अपने शरीरका त्याग करेंगे तो उनको ले जानेके लिये पाँच सौ दिव्य विमान उपस्थित होंगे और वहाँके उन योगियोंकी मुक्ति हो जायगी।’
महाराज ! इस प्रकार कहकर भगवान् जनार्दनने शङ्खके अग्रभागसे राजाका स्पर्श किया। केवल स्पर्श होते ही उन नरेशको परम निर्वाण पद प्राप्त हो गया। अतएव तुम भी उन परम प्रभुकी शरण ग्रहण करो, जिससे शोक करनेके योग्य पद तुम्हें पुनः प्राप्त न हो सके। जो मनुष्य प्रातःकाल उठकर यह चरित्र पढ़ेगा, उसे भगवान् श्रीहरि धर्म एवं मोक्ष प्रदान करेंगे। राजन्! जो इस परम पवित्र शुभ- व्रतको करेगा, उसे इस संसारमें सम्पूर्ण सुख- सम्पत्ति और भोग सुलभ होंगे एवं आयु समाप्त होनेपर वह भगवान्में लीन हो जायगा ।