Shree Naval Kishori

श्री वाराह पुराण 101-169 अध्याय

अध्याय १०१ मुक्तिके साधन

भगवान् वराह कहते हैं- वसुंधरे ! अब जिस कर्मके प्रभावसे प्राणीको पुनः गर्भमें नहीं जाना पड़ता, उसे बताता हूँ, तुम सुनो! यह सम्पूर्ण शास्त्रों एवं धर्मोका निचोड़ है जो बड़ा से बड़ा कार्य करके भी अपनी प्रशंसा नहीं करता और जो सदा शुद्ध अन्तःकरणसे शास्त्रीय सत्कर्मोंका अनुष्ठान करता रहता है, वह उन सत् कर्मोंके प्रभावसे भी पुनः जन्म नहीं पाता। जो मेरा सामर्थ्यशाली भक्त होकर सबपर कृपा करता है तथा कार्य और अकार्यके विषयमें जिसे पूर्ण ज्ञान है एवं जिसकी सम्पूर्ण धर्मोमें श्रद्धा है, वह पुनः गर्भमें नहीं आता। जो सर्दी गरमी, वात- वर्षा और भूख-प्यासको सहता है, जो गरीब होनेपर भी लोभ, मोह एवं आलस्यसे दूर रहता है, कभी झूठ नहीं बोलता, किसीकी निन्दा नहीं करता, जो अपनी ही स्त्रीसे संतुष्ट रहता है, दूसरेकी स्त्रियोंसे दूर रहता है तथा जो सत्यवादी, पवित्र आत्मा एवं निरन्तर भगवान्का प्रिय भक्त है, वह मेरे लोकको प्राप्त होता है। जो संवि भाग (बाँट)-कर खाता है, जो ब्राह्मणोंका भक्त हैं और जो सबसे मधुर वाणी बोलता है, वह कुत्सित योनियोंमें न जाकर मेरे लोकका अधिकारी होता है।

वसुंधरे ! अब मैं तुम्हें एक दूसरा उपाय बतलाता हूँ, सुनो ! जिसके प्रभावसे मेरी निरंतर उपासना करनेवाला पुरुष विकृत योनियोंमें नहीं जाता। जो कभी किसी जीवकी हिंसा नहीं करता, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें लगा रहता है और जो मन, कर्म, वचनसे पवित्र है, वह विकृत योनियोंमें नहीं पड़ता। जिसके मनमें सदा सर्वत्र समता है, जो मिट्टीके ढेले, पत्थर और सुवर्णको समान समझता है, जो बाल्यकालमें भी शान्तस्वभावसे रहनेवाला, इन्द्रियविजयी और सदा शुभ कार्यमें रत रहता है, उसे नीच योनि नहीं प्राप्त होती। जो दूसरे द्वारा किये अपकारोंपर कभी किंचिन्मात्र भी ध्यान नहीं देता, जिसे सदा कर्तव्य कर्म ही स्मृत रहते हैं और जो सब कुछ यथार्थ बोलता है, वह नीच योनियोंमें नहीं पड़ता। जो व्यर्थ बातोंसे सदा दूर रहता है, जिसकी तत्त्वज्ञानमें अटल निष्ठा है, जो सदा अपनी वृत्तिमें तत्पर रहकर परोक्षमें भी कभी किसीकी निन्दा नहीं करता, उसे हीन योनियोंमें नहीं जाना पड़ता । भद्रे ! जो ऋतुकालमें ही संतान प्राप्तिकी इच्छासे अपनी स्त्रीसे सहवास करता और सदा मेरी उपासनामें लगा रहता है, वह साधक हीन योनिमें नहीं जाता।

वसुंधरे ! अब एक दूसरी बात बताता हूँ, तुम उसे सुनो। जो सदा संयत रहनेवाले पुरुषोंका धर्म है और जिसको मनु, अङ्गिरा, शुक्राचार्य, गौतम मुनि, चन्द्रमा, रुद्र, शङ्ख-लिखित, कश्यप, धर्मदेव अग्निदेव, पवनदेव, यमराज, इन्द्र, वरुण, कुबेर, शाण्डिल्यमुनि, पुलस्त्य, आदित्य, पितृगण और स्वयम्भू ब्रह्मा आदि वेद-धर्म-द्रष्टाओंने पृथक्- पृथक् रूपसे देखा और वर्णन किया है, उस धर्मके पालनमें जो मनुष्य निश्चितरूपसे तत्पर रहकर अपने-आपमें परमात्माको देखता है, वह विकृत योनिमें न जाकर मेरे लोकमें जानेका अधिकारी है। जो अपने धर्मका पालन करता है तथा अपनी बुद्धिके अनुसार ठीक बोलता है, दूसरेकी निन्दासे दूर रहता है, सम्पूर्ण धर्मोंमें जिसकी निश्चित बुद्धि रहती है, जो दूसरोंके धर्मोकी निन्दा नहीं करता तथा जो अपने धार्मिक मार्गपर अटल रहता है, ऐसे उत्तम गुणोंसे युक्त एवं मेरे कर्मोंका सम्पादन करनेवाला पुरुष विकृत योनिमें न जाकर मेरे लोकको ही प्राप्त होता है।

जिनकी इन्द्रियाँ वशमें हैं, जिन्होंने क्रोधपर पूरा नियन्त्रण कर लिया है, जो लोभ और मोहसे सदा दूर रहते हैं, जो विश्वके उपकारमें तत्पर हैं, जो देवता, अतिथि तथा गुरुमें श्रद्धा रखते हैं, जो कभी किसीकी हिंसा नहीं करते, मद्य-मांसका कभी सेवन नहीं करते, जो अनुचित भाव-बन्धन करनेकी चेष्टा नहीं करते, जो ब्राह्मणको ‘कपिला’ धेनुका दान करते हैं- ऐसे धर्मसे युक्त पुरुष गर्भमें नहीं पड़ते; वे मेरे लोकको ही प्राप्त होते हैं।

जो अपने सभी पुत्रोंके प्रति समता रखता है, क्रोधमें भरे हुए ब्राह्मणको देखकर भी उसे प्रसन्न करनेकी ही चेष्टा करता हैं, जो भक्तिपूर्वक कपिला गौका स्पर्श करता है, जो कुमारी कन्याके प्रति कभी अपवित्र भाव नहीं करता, जो कभी अग्निका लङ्घन नहीं करता, जो जलमें शौच नहीं करता एवं गुरुमें श्रद्धा-बुद्धि रखता है, जो उनकी तथा ईश्वरकी कभी निन्दा नहीं करता, इस प्रकारका धर्ममें तत्पर पुरुष निश्चय ही मुझे प्राप्त कर लेता है और वह पुरुष माताके गर्भ में न जाकर मेरे ही लोकको प्राप्त होता है।

अध्याय १०२ कोकामुखतीर्थ (वराहक्षेत्र * ) - का माहात्म्य

भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! अब मैं तुम्हें गोपनीयोंमें भी एक परम गोपनीय रहस्य बतलाता हूँ, जिसके प्रभावसे पशु-योनिमें गये हुए प्राणी भी पापसे मुक्त हो जाते हैं, इसे तुम ध्यानसे सुनो। जो मानव अष्टमी और चतुर्दशी तिथिमें स्त्रीसङ्ग नहीं करता तथा दूसरेके अन्नको खाकर उसकी निन्दा नहीं करता, वह मेरे लोकको प्राप्त होता है। बाल्यकालमें भी जो सदा मेरे व्रतका पालन करता है, जो जिस किसी प्रकारसे भी सदा संतुष्ट रहता है तथा जो माता-पिताकी पूजा करता है, वह मेरे लोकमें जाता है जो परिश्रमसे भी प्राप्त सामग्रीको बाँटकर खाता-पीता है, जो गुणी, दाता तथा संयतभोक्ता है तथा जो सभी कर्तव्य कार्यों में स्वतः लगा रहता है एवं अपने मनको सदा वशमें किये रहता है, वह मेरे लोकको प्राप्त होता है। जो कुत्सित कर्म नहीं करता, जो ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करता है, समर्थ होकर भी जो सम्पूर्ण प्राणियों पर क्षमा दया करता है, वह मेरे लोकको प्राप्त होता है जो निःस्पृह रहकर दूसरोंकी सम्पत्तिके प्रति कभी लोभ नहीं करता, ऐसा पुरुष मेरे लोकमें जाता है। वरारोहे! एक गोपनीय विषय जो देवताओंके लिये भी दुष्प्राप्य एवं दुर्ज्ञेय है, उसे अब मैं तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो। जरायुज, अण्डज, उद्भिज्ज और स्वेदज- इन चार प्रकारके प्राणियोंकी जो हिंसा नहीं करता, जो पवित्रात्मा एवं दयाशील है और जो ‘कोकामुख’ नामक तीर्थमें अपने प्राणोंका परित्याग करता है, वह मुझे परम प्रिय है। मेरी कृपादृष्टिसे वह कभी वियुक्त नहीं होता।’

पृथ्वी बोली- माधव! मैं आपकी शिष्या, दासी और आपमें अटल श्रद्धा रखनेवाली हूँ, आपमें भक्ति रखनेके बलपर आपसे पूछती हूँ कि वाराणसी, चक्रतीर्थ, नैमिषारण्य, अट्टहासतीर्थ, भद्रकर्णहद, द्विरण्ड, मुकुट, मण्डलेश्वर, केदारक्षेत्र, देवदारुवन, जालेश्वर, दुर्ग, गोकर्ण, कुब्जाम्रेश्वर, एकलिङ्ग- ऐसे प्रसिद्ध एवं पवित्र तीर्थस्थानोंको छोड़कर आप ‘कोकामुख’ क्षेत्रकी ही इतनी प्रशंसा क्यों करते हैं?

भगवान् वराह बोले- भीरु ! तुम्हारा कहना ठीक है, बात ऐसी ही है, ‘कोकामुख’ मुझे अत्यन्त ही प्रिय है। अब ‘कोकामुख’ क्षेत्र जिन कारणोंसे अधिक प्रसिद्ध है, वह मैं तुम्हें बताता हूँ। तुमसे जिन क्षेत्रोंका वर्णन किया है, वे सभी भगवान् रुद्रसे सम्बन्ध रखनेवाले ‘पाशुपततीर्थ’ हैं, जिन्हें ‘पाशुपत क्षेत्र’ कहते हैं, किंतु यह ‘कोकामुख- क्षेत्र’ मुझ श्रीहरिका है। वरानने! इसी विषयमें मैं तुम्हें एक परम प्रसिद्ध उपाख्यान बताता हूँ, इसमें ‘कोकामुख’ क्षेत्रकी प्रसिद्धिका हेतु संनिहित है।

एक बार इस ‘कोकामुख’ क्षेत्रमें मांसके लोभमें एक व्याध घूम रहा था। वहीं एक अल्प जलवाले सरोवरमें एक मत्स्य भी रहता था । उसको देखकर व्याधने तुरंत ही बंसी-से उसे बाहर खींच लिया, तथापि वह बलवान् मत्स्य उसके हाथसे तुरंत निकल गया। इतनेमें एक बाजकी दृष्टि, जो आकाशमें चक्कर लगा रहा था, उस मत्स्यपर पड़ी और वह उसको पकड़नेके लिये नीचे उतरा और फिर उसे पकड़कर तेजीसे उड़ चला। परंतु वह भी उसके बोझको न सँभाल सका और उस मछलीके साथ ही इसी ‘कोकामुख’ क्षेत्रमें गिर पड़ा। किंतु आश्चर्य! वह गिरते ही इस तीर्थके प्रभावसे रूप

गुण एवं वयसे युक्त एक कुलीन राजपुत्रके रूपमें परिणत हो गया। कुछ समय बाद उसी व्याधकी स्त्री भी मांस लिये हुए वहाँ जा पहुँची। इतनेमें ही मांसके लिये लालायित रहनेवाली एक मादा चील भी उसके हाथसे मांस छीननेके लिये आयी, जो मांस छीननेके लिये बार-बार झपाटा मारने लगी। उसी क्षण बलपूर्वक मांस लेनेकी इच्छा रखनेवाली उस मादा चीलपर व्याधने बाण मारा, जिससे वह मेरे इस ‘कोकामुख क्षेत्र’ में गिर पड़ी और उसके प्राण निकल गये ।

तदनन्तर उस चीलने चन्द्रपुर नामक नगरमें सुन्दरी राजपुत्रीके रूपमें जन्म ग्रहण किया। उसका यश बड़ी तेजीसे चारों ओर फैलने लगा । वह कन्या धीरे-धीरे बढ़ती गयी और शनैः-शनैः रूप, गुण, अवस्था एवं सभी कलाओंके ज्ञानसे सम्पन्न हो गयी, परंतु वह पुरुषोंकी सदा निन्दा करती। उसे रूपवान् गुणवान्, शूर-वीर तथा सौम्य स्वभावके पुरुषोंकी चर्चा भी अच्छी न लगती थी और वह उनकी भी निन्दा किया करती थी। युवती होनेपर उसका ‘आनन्दपुर’ नगरके एक शकजातिके पुरुषके साथ विवाह हुआ। विवाहके बाद दोनों पति-पत्नी गार्हस्थ्यधर्मका पालन करते हुए साथ रहने लगे। फिर वे परस्पर प्रेमके बन्धनमें इस प्रकार बँध गये कि एक मुहूर्त भी कोई किसीको छोड़ना न चाहता था। अब वही कन्या अत्यन्त नम्र होकर अपने स्वामीकी सब प्रकार सेवा करने लगी।

एक दिन मध्याह्नके समय राजकुमारके सिरमें तीव्र वेदना उत्पन्न हुई। अनेक कुशल वैद्य चिकित्सामें लगे; किंतु उसकी शिरोव्यथा दूर न हो सकी। अन्य मन्त्र-यन्त्र भी विफल हुए। इस प्रकार पर्याप्त समय बीत जानेके बाद एक दिन उस राजकुमारीने अपने स्वामीसे यह जिज्ञासा की – ‘प्रभो! आपके सिरमें जो यह वेदना है, यह क्या और कैसे है? यदि मुझपर आपका तनिक भी स्नेह हो तो आप मुझे इसे तत्त्वतः बतानेकी कृपा कीजिये अनेक कुशल वैद्य आपका उपचार कर रहे हैं, पर उन्हें वेदना दूर करनेमें सफलता नहीं मिलती है। इसपर राजकुमारने कहा- ‘भद्रे ! क्या तुम यह भूल गयी कि यह मनुष्य शरीर व्याधियोंका ही मन्दिर है ? यह मनुष्य शरीर रोग और दुःखोंसे ही भरा है, संसाररूपी सागरमें पड़े हुए मुझसे तुम्हें बार-बार ऐसा प्रश्न करना उचित नहीं है।’ राजकुमारके ऐसा कहनेपर उस राजकन्याके मनमें उत्सुकता अब और बढ़ गयी।

कुछ दिन बाद पुनः उस राजपुत्रीने अत्यन्त आग्रहपूर्वक उस प्रश्नको राजकुमारसे पूछा । इसपर शक नरेशने अपनी भार्यासे कहा- ‘भद्रे ! तुम इस मानुषी भावका त्याग करो और अपने पूर्वजन्मकी बातें स्मरण करो। अथवा यदि तुम्हें पूर्वजन्मकी बातें जाननी हों तो कल्याणि ! तुम चलकर मेरे माता-पिताको प्रसन्न करो। तुम उनकी पूजा करो; क्योंकि उन्होंने मुझे अपने उदरमें धारण किया था। उनका सम्मान करके और उनकी आज्ञा लेनेके पश्चात् मैं ‘कोकामुख’ क्षेत्रमें चलकर तुम्हें निःसंदेह यह प्रसङ्ग सुनाऊँगा । अनिन्दिते! अपने पूर्वजन्मोंका ज्ञान देवताओंके लिये भी दुर्लभ है। सारा वृत्तान्त मैं तुम्हें वहीं बताऊँगा।’

तदनन्तर वह राजकुमारी अपने सास और श्वशुरके सामने गयी और उनके चरणोंको पकड़कर बोली- ‘मुझे आप दोनोंसे कुछ निवेदन करना है। मैं इस विषयमें आपलोगोंसे अनुमति प्राप्त करना चाहती हूँ। फिर उसने कहा कि ‘हम दोनों स्त्री- पुरुष आपकी आज्ञासे पवित्र ‘कोकामुख’ नामक क्षेत्रमें जाना चाहते हैं। आपलोग ही हमारे गुरु हैं। इस कार्यकी गरिमाको देखकर आप हमलोगोंको रोकें नहीं। आजतक मैंने कभी कुछ भी आपलोगोंसे नहीं माँगा है। यह प्रथम अवसर है कि हम आपके सामने याचना करने आये हैं। अतः आपलोग मेरी इस याचनाको पूर्ण करनेकी कृपा करें। समस्या यह है कि आपके ये कुमार निरन्तर सिरकी वेदनासे पीड़ित रहते हैं और दोपहरके समयमें तो ये मृतकके तुल्य हो जाते हैं। कोई भी उपचार सफल नहीं हो रहा है। ये सब सुख भोगोंको छोड़कर सदा पीड़ासे दुःखी रहते हैं। इनका यह दुःख ‘कोकामुख क्षेत्रमें गये बिना दूर होनेका नहीं है।’

उस समय शकजातियोंके अध्यक्ष उन नरेशने पुत्रवधूकी बात सुनकर अपने हाथसे पुत्र एवं पुत्रवधूके सिरको सहलाकर कहा – ‘पुत्र ! ‘कोकामुख’ क्षेत्रमें जानेकी बात तुमलोगोंके मनमें कैसे आयी ? हाथी, घोड़े, सवारियाँ, अप्सराओंकी तुलना करनेवाली स्त्रियाँ, कोष और रत्नभंडार तथा सात अङ्गसहित हमारी यह सम्पूर्ण राज्य सम्पत्ति आदि सभी तुम्हारे अधीन हैं। तुम इन सबको ले लो। सारी सम्पत्तियोंका उत्तराधिकारी पुत्र ही होता है। मेरे प्राण तुम्होंमें सदा बसे रहते हैं। तुम ‘कोकामुख’ क्षेत्र मत जाओ।’ पिताके इस प्रकार कहनेपर राजकुमारने उनके चरण पकड़ लिये और नम्रतापूर्वक कहने लगा- ‘पिताजी! राज, कोष, सवारी अथवा सेनासे मेरा क्या प्रयोजन ? मैं तो अभी उस ‘कोकामुख’- क्षेत्रमें ही जाना चाहता हूँ। मैं सिरकी वेदनासे नितान्त पीड़ित हूँ । यदि मैं जीवित रहा, तब राज्य, सेना और कोष भी मेरे ही होंगे, इसमें कोई संशय नहीं, पर इस पीड़ासे मुक्ति तो मुझे वहाँ जानेसे ही मिलेगी।

अन्तमें शक नरेशने पुत्रकी बातपर विचार करके उसे जानेकी आज्ञा दे दी। जब राजकुमारने ‘कोकामुख’ की यात्रा आरम्भ की तो उसके साथ बहुत से व्यापारीवर्ग और नागरिक स्त्री- – पुरुष चल पड़े। बहुत समयके बाद वे सभी इस ‘कोकामुख ‘क्षेत्रमें पहुँचे। वहाँ पहुँचकर राजकुमारीने अपने स्वामीसे ये वचन कहे — ‘स्वामिन्! आपसे मैंने जो पहले प्रश्न किया था, उस समय आपने मुझे ‘कोकामुख- क्षेत्र’ में पहुँचकर बतलानेका आश्वासन दिया था, अतः अब बतानेकी कृपा कीजिये।’ इसपर राजकुमारने अपनी भार्यासे स्नेहपूर्वक कहा – ‘प्रिये ! अब रात्रि हो गयी है। इस समय तुम सुखपूर्वक सो जाओ। वह सब मैं प्रातःकाल बताऊँगा।’ प्रातः काल वे दोनों स्नान करके रेशमी वस्त्र धारण करके बैठे। राजकुमारने सर्वप्रथम सिर झुकाकर भगवान् विष्णुको प्रणाम किया। तत्पश्चात् वह अपनी पत्नीको पकड़कर, पूर्व उत्तर भागमें अस्थियोंको दिखाकर कहने लगा- ‘प्रिये ! ये मेरे पूर्व शरीरकी हड्डियाँ हैं । पूर्वजन्ममें मैं मत्स्य था । एक बार जब मैं इस ‘कोकामुख’ क्षेत्रके जलमें विचर रहा था कि एक व्याधने बंसीसे मुझे पकड़ लिया। उस समय मैं अपनी शक्ति लगाकर उसके हाथसे तो निकल गया; पर एक चील मुझे लेकर फिर उड़ गयी और नखोंसे मेरे शरीरको क्षत- विक्षत कर दिया। इतनेमें उससे छूटकर मैं गिर गया। उसीके किये हुए प्रहारके कारण अब भी मेरे सिरमें वेदना बनी रहती है। इस प्रसङ्गको केवल मैं ही जानता हूँ। मेरे बिना इस रहस्यको कोई दूसरा नहीं जानता। भद्रे ! तुमने जो बात पूछी थी, मैंने उसका रहस्य बतला दिया। सुन्दरि ! तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम्हारा मन जहाँ लगे, वहाँ जा सकती हो।’

वसुंधरे ! अब राजकुमारी भी करुण स्वरमें अपने पतिसे कहने लगी- भद्र! इसी कारण मैं भी अपनी गुप्त बात आपको नहीं बतला सकी थी । पूर्वजन्ममें मैं जैसी जो कुछ थी, अब वह आपसे बतलाती हूँ, आप सुनें। मैं पूर्वजन्ममें आकाशमें विचरनेवाली एक चील थी भूख और प्याससे मुझे महान् कष्ट हो रहा था। खानेके योग्य पदार्थका अन्वेषण करती हुई मैं एक पेड़पर बैठी थी, इतनेमें मुझे एक व्याध दिखायी दिया। वह वनके बहुत-से पशुओंको मारकर उनके मांसोंको लेकर उसी मार्गसे गुजर रहा था। वह भी भूखसे व्याकुल था, अतः मांस भारको अपनी पत्नीके पास रखकर उसे पकानेके विचारसे लकड़ी ढूँढ़ने निकला। काष्ठोंको एकत्रकर वह आग जलाने ही जा रहा था कि मैंने झपटकर अपने वज्रमय कठोर नखोंसे उस मांसपिण्डको उठा लिया। पर वह मांस भार मेरे लिये दुर्वह था, अतः उसे दूर न ले जाकर वहीं समीप ही बैठी रही। इधर वह व्याध शिकारकी खोजमें लगा ही था। अब उसकी दृष्टि मांस खाती हुई मुझ चीलपर पड़ी। फिर तो उसने धनुष उठाया और मुझपर बाणका संधान कर मार गिराया। मैं वहाँसे लुढ़ककर चक्कर काटती हुई प्राणहीन और निश्चेष्ट होकर पृथ्वीपर गिरी और मेरी जीवनलीला समाप्त हो गयी। किंतु इस ‘कोकामुख’ क्षेत्रकी महिमासे मेरे मनमें कोई कामना न रहनेपर भी मेरा जन्म राजाके घर हुआ। इस प्रकार मुझे आपकी स्त्री होनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ। मेरे पूर्वजन्मकी ही ये हड्डियाँ हैं। अब इनका थोड़ा-सा भाग ही अवशेष है।’ इस ‘कोकामुख’ तीर्थकी ही यह महिमा है जिसके फलस्वरूप तिर्यक् योनिके जीवका भी उत्तम कुलमें जन्म हो जाता है। राजकुमारने भी साधु| साधु कहकर उसका बड़ा सम्मान किया। साथ ही उसे उस क्षेत्रमें होनेवाले कुछ धार्मिक कर्मोंका भी निर्देश किया और उन्हें राजकुमारीने सम्पन्न किया। अन्य लोगोंने भी जिन्हें जो प्रिय जान पड़ा, उस धर्मका आचरण किया। उस समय उस दम्पतिने प्रसन्नतासे आदरपूर्वक ब्राह्मणोंको यथोचित द्रव्य अन्न और रत्न भी दिये। वसुंधरे ! उस समय अन्य भी जितने लोग वहाँ आये थे, उन सबने भी अपनी सामर्थ्यके अनुसार स्वयं व्रतका पालन करते हुए भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंको धन दिया। इस प्रकार वे लोग कुछ दिनोंतक वहीं रुके रहे और इसके फलस्वरूप वे श्वेतद्वीपको प्राप्त हुए। उस पुण्यमय धाममें पहुँचनेपर सभी पुरुष शुक्ल वस्त्र एवं दिव्य भूषणोंसे अलंकृत होकर सुशोभित – प्रकाशित होने लगे। वहाँ रहनेवाली स्त्रियाँ भी दिव्य वस्त्र एवं अलौकिक आभूषणोंसे आभूषित होकर रूप, तेज एवं सत्त्वसे युक्त होकर प्रकाशित होने लगीं।

देवि! यह मैंने तुमसे ‘कोकामुख ‘क्षेत्रकी महिमा बतलायी, जहाँ मत्स्य और चील आदि कामनामुक्त जीवोंने भी उत्तम गति प्राप्त की थी, जिसे चान्द्रायणव्रत करने, जलमें शयन करने तथा भगवद्धमौका आचरण करनेवाले भी बड़ी कठिनतासे प्राप्त कर पाते हैं। फिर वहाँ राजकुमार और राजकुमारी- इन दोनों व्यक्तियोंने बहुतसे उत्तम धान्य और रत्न दान किये। अन्य श्रद्धालु व्यक्तियोंने भी धर्माचरणकर प्रारब्धके अनुसार वाञ्छनीय मृत्यु प्राप्त की और उन्हें श्वेतद्वीप सुलभ हो गया। वह राजकुमार भी मनुष्यलोकके सभी श्रेष्ठ भोगोंको भोगकर सबसे उत्तम मेरे लोकको प्राप्त हुआ। सुमध्यमे ! वहाँकी सभी सुवासिनी स्त्रियाँ भी मायाके प्रभावसे मुक्त हो गयीं। सबपर धर्म तथा मेरी भक्तिभावनाको गहरी छाप पड़ी थी।

मेरी कृपासे वे सब श्वेतद्वीप पहुँचीं। यह प्रसङ्ग धर्म, कीर्ति, शक्ति और महान् यशका उन्नायक है। यह सभी तपस्याओंमें महान् तप, आख्यानोंमें उत्तम आख्यान, कृतियोंमें सर्वोत्तम कृति तथा धर्मोमें सर्वोत्कृष्ट धर्म है, जिसका वर्णन मैंने तुमसे किया। भद्रे ! जो क्रोधी, मूर्ख, कृपण, अभक्त, अश्रद्धालु तथा शठ व्यक्ति हैं, उन्हें यह प्रसङ्ग नहीं सुनाना चाहिये, जो दीक्षित तथा सदसद्विचारशील हैं, यह प्रसङ्ग उन्हें ही सुनाना चाहिये। जो शास्त्र – पारगामी पुरुष मृत्युकाल उपस्थित होनेपर मनको सावधान करके इस प्रसङ्गको मनमें धारण करता है, वह जन्म- मरणके बन्धनसे छूट जाता है। जो इस विधिके अनुसार ‘कोकामुख ‘क्षेत्रमें जाकर संयमपूर्वक जीवन व्यतीत करता है, वह भी उस परम सिद्धिको पाता है, जिसे पूर्वकालमें चील और मत्स्यने प्राप्त किया था।

अध्याय १०३ पुष्पादिका माहात्म्य

पृथ्वी बोली- प्रभो ! ‘कोकामुख’ तीर्थकी अद्भुत महिमा सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। माधव ! अब मैं यह जानना चाहती हूँ कि किस धर्म, तप अथवा कर्मके अनुष्ठानसे मनुष्य आपका दर्शन पा सकते हैं? प्रभो! कृपया प्रसन्न होकर आप मुझसे यह सारा प्रसङ्ग बतलाइये, यह मेरी प्रार्थना है।

भगवान् वराह बोले- देवि! पावस ऋतुके बाद जलाशयोंके जल स्वच्छ हो जाते हैं, जब आकाश और चन्द्रमण्डल निर्मल दीखने लगते हैं, उस समय न अधिक शीत रहता है और न गर्मी। जब हंसोंका कलरव आरम्भ हो जाता है, कुमुद, रक्त कमल, नीले एवं अन्य कमलोंकी सुरभि सर्वत्र फैलने लगती है, उस समय कार्तिक मासके शुक्लपक्षको द्वादशी तिथि मुझे अत्यन्त प्रिय है। उस अवसरपर जो मेरी पूजा करता है, मैं उसका फल बताता हूँ, सुनो-वसुंधरे ! मेरा वह भक्त कल्पपर्यन्त धनी – लक्ष्मीका पात्र बना रहता है, जो दूसरे देवताके उपासकके लिये असम्भव है। माधवि ! उस अवसरपर साधकको चाहिये कि मेरी आराधना कर इस स्तोत्रका पाठ करे। स्तोत्रका भाव यह है – ‘ जगत्प्रभो ! ब्रह्मा, रुद्र और ऋषि जिसकी पूजा एवं वन्दना करते हैं, लोकनाथ ! उन आपकी आराधना करनेके उपयुक्त यह द्वादशी तिथि प्राप्त हुई है। आपसे मैं प्रार्थना करता हूँ, आप उठिये और निद्राका परित्याग कीजिये। मेघ चले गये, चन्द्रमाकी कलाएँ पूर्ण हो गयी हैं। शरद् ऋतुमें विकसित होनेवाले पुष्प मैं आपको समर्पित करूँगा। अब आप जागनेकी कृपा करें। यशस्विनि ! इस प्रकार द्वादशीको पुष्पाञ्जलि अर्पित कर मेरी उपासना करनेवाले भक्तोंको परमगति प्राप्त होती है।

शिशिर ऋतुमें वनस्पतियाँ नवीन हो जाती हैं। उस समयके पुष्पोंसे मेरी अर्चना करनेके लिये पृथ्वीपर घुटनोंके बल बैठकर हाथोंमें फूल लेकर मेरा उपासक कहे- ‘तीनों लोकोंकी रक्षा करनेवाले प्रभो! आप संसारके स्रष्टा हैं। यह शिशिर ऋतु भी आपका ही स्वरूप है। यह शीत-समय सबके लिये दुस्तर एवं दुःसह है। इस समय मैं आपकी आराधना करता हूँ। आप इस संसारसे मेरा उद्धार करनेकी कृपा कीजिये।’

वसुंधरे ! जो पुरुष भक्तिसहित इस भावनाके साथ शिशिर ऋतुमें मेरी पूजा करता है, उसे परम सिद्धि प्राप्त होती है। अब मैं तुम्हें एक दूसरी बात बताता हूँ, तुम उसे सुनो। मार्गशीर्ष और वैशाख मास भी मुझे बहुत प्रिय हैं। उन मासोंमें मुझे पुष्पादि अर्पण करनेसे जो फल प्राप्त होता है, उसे मैं बतलाता हूँ। जो भाग्यशाली व्यक्ति मुझे पवित्र गन्ध-पुष्पादि पदार्थ अर्पित करता है, वह नौ हजार नौ सौ वर्षोंतक विष्णुलोक में स्थिरतापूर्वक सुखसे निवास करता है – इसमें कोई संदेह नहीं। एक-एक गन्धयुक्त पुष्प – पत्र (या तुलसीपत्र* ) देनेका यह महान् फल है। सदा श्रद्धासे सम्पन्न होकर चन्दन एवं पुष्पोंसे मेरी पूजा करनी चाहिये। जो पुरुष नियमपूर्वक रहकर कार्तिक, मार्गशीर्ष एवं वैशाख इन तीन महीनोंकी द्वादशी तिथियोंके दिन खिले हुए पुष्पोंकी वनमाला तथा चन्दन आदिको मुझपर चढ़ाता है, उसने मानो बारह वर्षोंतक मेरी पूजा कर ली। कार्तिक मासकी द्वादशी तिथिमें साखू वृक्षके फूल तथा चन्दनसे मेरी पूजा करनेका विधान है। भद्रे इसी प्रकार मार्गशीर्ष मासमें चन्दन एवं कमलके पुष्पको एक साथ मिलाकर जो मुझे अर्पण करता है, उसे महान् फल प्राप्त होता है।

पृथ्वीदेवी भगवान्‌की बातोंको सुनकर हँस पड़ीं। पुनः वे नम्रतापूर्वक बोलीं- ‘प्रभो! वर्षमें तीन सौ साठ दिन तथा बारह मास होते हैं। उनमें आप केवल दो ही महीनोंकी द्वादशी तिथिकी ही मुझसे क्यों प्रशंसा करते हैं?’ जब पृथ्वीदेवीने भगवान् वराहसे यह प्रश्न किया तब वराहभगवान् ने मुस्कुराते हुए कहा- देवि! जिस कारण ये दोनों मास मुझे अधिक प्रिय हैं, वह धर्मयुक्त वचन सुनो! तिथियोंमें द्वादशी तिथि सबसे श्रेष्ठ मानी जाती है, क्योंकि इसकी उपासनासे सम्पूर्ण यज्ञोंके अनुष्ठानसे भी अधिक फल प्राप्त होता है। हजारों ब्राह्मणोंको दान देनेका जो फल होता है, वह इस कार्तिक और वैशाख मासकी द्वादशीमें एकको ही दान देनेसे प्राप्त हो जाता है। क्योंकि इस कार्तिक मासकी द्वादशीके दिन मैं जगता हूँ और वैशाख मासकी द्वादशीमें सर्वशक्तिसम्पन्न हो जाता हूँ। वसुंधरे ! इसके योगसे विपुल चिन्ता समाप्त हो जाती है। इसीसे मैंने इसकी महिमाका वर्णन किया है। इसलिये मेरे भक्त पुरुषको चाहिये कि मनको संयत रखकर वैशाख और कार्तिक मासकी द्वादशीके दिन हाथमें चन्दन, गन्ध और (तुलसी) पत्र लिये हुए इस मन्त्रका उच्चारण करे । मन्त्रका अर्थ यह है— ‘भगवन् ! ये वैशाख और कार्तिक मास सदा सभी मासोंमें श्रेष्ठ माने जाते हैं। इस अवसरपर आप मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं चन्दन और तुलसीपत्रोंको अर्पित करूँ और आप इन्हें स्वीकार करें। साथ ही मुझमें धर्मकी वृद्धि कीजिये।’ फिर ‘ॐ नमो नारायणाय’ कहकर चन्दन एवं तुलसीपत्र अर्पित करना चाहिये। अब मैं गन्धयुक्त पत्र- पुष्पोंके गुण और उन्हें चढ़ानेके फलका वर्णन करता हूँ। मानव पवित्र होकर हाथमें चन्दन, गन्ध (तुलसी) पत्र और फूल लेकर ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’- का उच्चारण करते हुए उन्हें अर्पित करे। साथ ही यह मन्त्र कहे- ‘भगवन्! आप मुझे आज्ञा देनेकी कृपा करें। इन सुन्दर फूलों और मलयचन्दनसे मैं आपकी अर्चना करना चाहता हूँ। प्रभो! आपको मेरा नमस्कार है। इसे स्वीकार करें; मेरा मन परम पवित्र हो जाय – यह आपसे प्रार्थना है।’ मेरे कर्ममें संलग्न रहनेवाला पुरुष, इन गन्ध-पुष्पोंको मुझे देता हुआ जो फल प्राप्त करता है, वह यह है कि उसका न पुनर्जन्म होता है और न मरण । उसके पास ग्लानि और क्षुधा भी नहीं फटक पाती। वह देवताओंके वर्षसे एक हजार वर्षतक मेरे लोकमें स्थान पाता है। चन्दनयुक्त एक-एक पुष्प अर्पित करनेका ऐसा फल है।

अध्याय १०४ वसन्त आदि ऋतुओंमें भगवान्‌की पूजा करनेकी विधि और माहात्म्य

भगवान् वराह कहते हैं-वसुंधरे ! फाल्गुन मासके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिके दिन पवित्र होकर शान्त मनसे भगवान् श्रीहरिकी पूजा करनेका विधान है। इस वसन्त ऋतुमें क्रमशः कुछ श्वेत, कुछ पाण्डुरङ्गके जो अत्यन्त प्रशंसनीय गन्धसे युक्त सुन्दर पुष्प हैं, उनके द्वारा प्रसन्न – अन्तःकरण होकर मन्त्रद्वारा पूजा करनी चाहिये। सभी वस्तुएँ भगवान् से सम्बन्ध रखनेवाली एवं पवित्र हों पूजाके पहले ‘ॐ नमो नारायणाय’ कहकर बादमें यह मन्त्र पढ़े – जिसका भाव है, ‘देवेश्वर! आप ॐ कारस्वरूप हैं। शङ्ख, चक्र एवं गदासे आपकी भुजाएँ शोभा पाती हैं। जगत्प्रभो! आप महान् पराक्रमी पुरुष हैं। आपके लिये मेरा बारंबार नमस्कार है। प्रभो ! वसन्त ऋतुमें वृक्ष फूलोंसे लदे हैं। सर्वत्र गन्धयुक्त रस भरा है। अब आप इस पुष्प- युक्त वृक्ष, वन और पर्वतों तथा मुझपर अपनी कृपादृष्टि डालनेकी दया कीजिये ।

सुमध्यमे ! जो पुरुष फाल्गुन मासमें इस प्रकार मेरी पूजा करता है, उसे दुःखमय संसारमें आनेका संयोग नहीं प्राप्त होता, अपितु वह मेरे लोकको प्राप्त होता है। अब तुम जो श्रेष्ठ वैशाख मासके शुक्लपक्षकी द्वादशीके फलकी बात मुझसे पूछ चुकी हो, उसे कहता हूँ, सुनो। शालवृक्ष तथा अन्य भी बहुत से वृक्ष जब फूलोंसे परिपूर्ण हो जायँ तो साधक उनके फूलोंको हाथमें लेकर मेरी आराधनाके लिये तत्पर हो जाय। उस अवसरपर मेरे प्रह्लाद, नारद आदि भागवतोंको भी पूज्य मानकर पूजा करे। माधवि ! ऋषिलोग वेदोंमें कहे हुए मन्त्रोंद्वारा सदा मेरी स्तुति करते हैं। अप्सराओंद्वारा गीतों, वाद्यों एवं नृत्योंसे मैं सुपूजित होता रहता हूँ। अलौकिक दिव्य पुरुष मुझ पुराणपुरुषोत्तमका स्तवन करनेमें संलग्न रहते हैं। मैं सम्पूर्ण प्राणियोंका आराध्यदेव एवं सम्पूर्ण लोकोंका स्वामी हूँ। अतः सिद्ध, विद्याधर, किन्नर, यक्ष- पिशाच, उरग, राक्षस, आदित्य, वसु, रुद्रगण, मरुद्गण, विश्वेदेवता, अश्विनीकुमार, ब्रह्मा, सोम, इन्द्र, अग्नि, नारद- पर्वत, असित देवल, पुलह, पुलस्त्य, भृगु, अङ्गिरा, मित्रावसु और परावसु- ये सब के सब मेरी स्तुतिमें सदा तत्पर रहते हैं।

उसी समय महान् ओजस्वी देवताओंके मुखसे निकली हुई प्रतिध्वनिको सुनकर भगवान् नारायणने पृथ्वीसे कहा – ‘महाभागे ! देखो! देव-समुदाय वेदध्वनि कर रहा है। उनके मुखसे निकले हुए इस महान् शब्दको क्या तुम नहीं सुन रही हो ?’ इसपर पृथ्वीने भगवान् नारायणसे कहा- ‘भगवन्! आप जगत्‌की सृष्टि करनेमें परम कुशल हैं। देवतालोग वराहके रूपमें विराजमान आप प्रभुके दर्शनकी आकाङ्क्षा करते हैं, क्योंकि वे आपके द्वारा ही बनाये गये हैं।’

इसपर भगवान् नारायणने पृथ्वीको उत्तर दिया- ‘वसुंधरे ! मैं अपने मार्गका अनुसरण करनेवाले उन देवताओंसे पूर्ण परिचित हूँ। एक हजार दिव्य वर्षोंतक मैंने केवल लीलामात्रसे तुम्हें अपने एक दाँतके ऊपर धारण कर रखा है। ब्रह्मासहित आदित्य, वसु एवं रुद्रगण तथा स्कन्द और इन्द्र आदि देवता मुझे देखनेके लिये यहाँ आना चाहते हैं।

वसुंधरा अब प्रभुके चरणोंपर गिर गयी। वह कहने लगी- ‘भगवन्! मैं रसातलमें पहुँच गयी थी। आपने ही मेरा वहाँसे उद्धार किया है। मैं आपकी शरण में आयी हूँ। आपमें मेरी अचल श्रद्धा है। आप सर्वसमर्थ एवं मेरे लिये परम आश्रय हैं। भगवन्! मैं आपसे पूछना चाहती हूँ कि कर्मका स्वरूप क्या है ? किस कर्मके प्रभावसे आप प्राप्त होते हैं तथा नर जन्मकी सफलता किसमें है? भगवन्! शेष ऋतुओंमें किन पुष्पोंसे किस प्रकार आपकी पूजा करनेसे अथवा किस कर्मसे आप प्रसन्न होते हैं, उसे भी बतानेकी कृपा कीजिये ।

श्रीवराह भगवान् बोले- वसुंधरे ! मोक्षमार्गमें अटल रहनेवाले मेरे भक्तोंने जिसका जप किया है, अब मैं उस मन्त्रका वर्णन करता हूँ, सुनो। उसमें ऐसी शक्ति है कि इसके निरन्तर पाठ करनेसे मेरी अवश्य तुष्टि होती है। मन्त्रका भाव यह है— ‘भगवन्! आप सम्पूर्ण मासोंमें मुख्य माधव (वैशाख) मास हैं, अतः ‘माधव’ नामसे आपकी भी प्रसिद्धि है । वसन्त ऋतु चन्दन, रस और पुष्पादिसे अलंकृत आपकी प्रतिष्ठित प्रतिमाका दर्शन करके पुण्य प्राप्त करना चाहिये जो सातों लोकोंमें शूरवीर और नारायण नामसे प्रसिद्ध हैं, ऐसे आप प्रभुका यज्ञोंमें निरन्तर यजन किया जाता है।’

इस प्रकार ग्रीष्म ऋतुमें भी मेरे कथनका पालन करते हुए सम्पूर्ण विधियोंका आचरण करना चाहिये। उस समय भगवान् में  श्रद्धा रखनेवाले सम्पूर्ण प्राणियोंको प्रिय आगे कहे जानेवाले मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये। मन्त्रका भाव यह है- ‘भगवन् ! सम्पूर्ण मासोंमें प्रधानरूपसे आप ज्येष्ठ मासका रूप धारण करके शोभा पा रहे हैं। इस ग्रीष्म ऋतुमें विराजमान आप प्रभुका दर्शन करना चाहिये, जिसके फलस्वरूप सारा दुःख दूर हो जाय।’

वरारोहे ! इसी प्रकार तुम भी ग्रीष्म ऋतुमें मेरी पूजा करो। इससे प्राणी जन्म और मृत्युके चक्करमें नहीं पड़ता तथा उसे मेरा लोक प्राप्त होता है। वसुंधरे ! भूमण्डलपर शाल आदि जितने भी फूलवाले वृक्ष हैं तथा उस समय जितने गन्धपूर्ण उपलब्ध पुष्प हैं, उन सबसे मुझ श्रीहरिकी अर्चना करनेकी विधि है। ऐसे ही वर्षा ऋतुके श्रावण आदि मासोंमें भी मुझसे सम्बन्ध रखनेवाले कर्मोंका अनुष्ठान करना चाहिये ।

देवि ! अब दूसरा वह कर्म तुम्हें बता रहा हूँ, जिसके प्रभावसे संसारसे मुक्ति मिल सकती है। कदम्ब, मुकुल, सरल और अर्जुन आदि देव – वृक्ष हैं। मेरी प्रतिमाकी स्थापना करके विधि-निर्दिष्ट कर्मके अनुसार इन वृक्षोंके फूलोंसे ‘ॐ नमो नारायणाय’ कहकर मेरा आदरपूर्वक अर्चन करना चाहिये। फिर प्रार्थना करे –’लोकनाथ ! मेघके समान आपकी कान्ति है। आप अपनी महिमामें स्थित हैं। ध्यानमें परायण रहनेवाले आश्रित जन आपके जिस रूपका दर्शन करते हैं, वे इस वर्षा ऋतुमें योगनिद्रामें अभिरुचि रखनेवाले एवं मेघवर्णसे सुशोभित आप प्रभुके दिव्य स्वरूपका दर्शन करें। आषाढ़ मासकी शुक्ल द्वादशी तिथिके दिन इस विधानसे जो पुरुष शान्ति प्रदान करनेवाले मेरे इस पवित्र कर्मका अनुष्ठान करता है, वह जन्म और मरणके बन्धनसे मुक्त हो जाता है। देवि! ये ऋतुओंके अनुसार उत्तम कर्म हैं, जिनका मैंने तुमसे वर्णन किया है। महाभागे ! यह वृत्त सर्वथा गोपनीय है। इसके प्रभावसे मेरे कर्मपरायण रहनेवाले मनुष्य संसारसागरको तर जाते हैं। देवता भी इसे नहीं जानते; क्योंकि मैं भगवान् नारायण यहाँ स्वयं वराहके रूपमें विराजमान हूँ। इस प्रकारके ज्ञानका उन्हें भी अभाव है। यह विषय दीक्षा-हीन, मूर्ख, चुगली करनेवाले, निन्दित शिष्य एवं शास्त्र के अर्थों में दोषारोपण करनेवालेसे नहीं कहना चाहिये। गोघाती एवं धूर्तोंके बीच भी इसका कथन अनुचित है; क्योंकि उनके मध्य इसको कहनेसे लाभके बदले हानि ही होती है। जो भगवान्‌में श्रद्धा रखनेवाले हैं तथा जिन्होंने धार्मिक दीक्षा ली है, उनके सामने ही इसकी व्याख्या करनी चाहिये।

अध्याय १०५ माया चक्रका वर्णन तथा मायापुरी (हरिद्वार ) - का माहात्म्य

सूतजी कहते हैं- पवित्र व्रतोंका अनुष्ठान करनेवाली भगवती वसुंधराने छः ऋतुओंके वैष्णव- कृत्योंका वर्णन सुनकर भगवान् नारायणसे पुनः पूछा- ‘भगवन्! आपने मङ्गल एवं पवित्रमय जिन विषयोंका वर्णन किया है, जिनकी स्वर्गादि लोकों तथा मेरे भूलोकमें प्रसिद्धि हो चुकी है, वे आपके – वैष्णव- धर्मके कृत्य मेरे मनको आनन्दित कर रहे हैं। माधव ! आपके मुखारविन्दसे निकले हुए इन कर्मोंको सुनकर मेरी बुद्धि निर्मल हो गयी। पर मेरे मनमें एक सूक्ष्म कौतूहल उत्पन्न हो गया है। मेरा हित करनेके विचारसे उसे आप बतलानेकी कृपा कीजिये। भगवन्! आप अपनी जिस मायाका सर्वदा वर्णन किया करते हैं, उसका स्वरूप क्या है तथा उसे ‘माया’ क्यों कहा जाता है? मैं इसे तथा इसके आन्तरिक रहस्योंको जानना चाहती हूँ।’

इसपर मायापति भगवान् नारायण हँसकर बोले- ‘पृथ्वी देवि! तुम जो मुझसे यह मायाकी बात पूछ रही हो, इसे न पूछनेमें ही तुम्हारी भलाई है। तुम व्यर्थमें यह कष्ट क्यों मोल लेना चाहती हो? इसे देखनेसे तो तुम्हें कष्ट ही होगा। ब्रह्मासहित रुद्र एवं इन्द्र आदि देवता भी आजतक मुझे तथा मेरी मायाको जाननेमें असफल रहे हैं, फिर तुम्हारी तो बात ही क्या ?

विशालाक्षि ! जब मेघ पानी बरसाते हैं तो जलसे सारा जगत् भर उठता है पर कभी वही सारा देश फिर शुष्कबंजर बन जाता है। कृष्णपक्षमें चन्द्रदेव क्षीण होते हैं और शुक्लपक्षमें बढ़ते हैं, यह सब मेरी मायाका ही तो प्रभाव है। सुन्दरि ! अमावास्याकी रात्रिमें चन्द्रमा दृष्टिगोचर नहीं होते, हेमन्त ऋतुमें कुएँका जल गर्म हो जाता है— विचारकी दृष्टिसे देखें तो यह सब मेरी माया ही है। इसी प्रकार ग्रीष्म ऋतुमें जल ठंडा हो जाता है। पश्चिम दिशामें जाकर सूर्य अस्त हो जाते हैं। पुनः वे प्रातः काल पूरबमें उदित होते हैं। प्राणियोंके शरीरमें रक्त और शुक्र – इन दोनोंका समावेश रहता है, वस्तुतः यह सब मेरी माया ही तो है। सुन्दरि ! प्राणी गर्भमें आता है, उसे वहाँ सुख और दुःखका अनुभव होता है, पुनः उत्पन्न हो जानेपर उसे वह बात भूल जाती है। अपने कर्ममें रचा- पचा जीव अपने स्वरूपको भूल जाता है, उसकी स्पृहा समाप्त हो जाती है, वस्तुतः यह सब मेरी मायाका ही प्रताप है। कर्मके प्रभावसे जीव दूसरी जगह पहुँच जाता है। शुक्र और रक्तके संयोगसे जीवधारियोंकी उत्पत्ति होती है, दो भुजाएँ, दो पैर, बहुत-सी अँगुलियाँ, मस्तक, कटि पीठ पेट, दाँत, ओंठ, नाक, कान, नेत्र, कपोल, ललाट और जीभ इत्यादिसे संगठित प्राणीकी उत्पत्ति मेरी मायाका ही चमत्कार है। वही प्राणी जब खाता-पीता है तो जठराग्निके द्वारा उसका पाचन होता है। तत्पश्चात् जीवके शरीरसे वही अधोमार्गसे बाहर निकल जाता है, यह सब मेरी प्रबल मायाकी ही करामात है शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध – इन पाँच विषयोंमें अन्न खानेसे प्रवृत्ति होती है, ये सभी कार्य मेरी मायाकी ही देन है। देवि! कुछ जल आकाशस्थ बादलोंमें लटके रहते हैं और कुछ जलराशि भूमिपर नदी, सरोवर आदिमें रहती है। पर जिन नदियों आदिमें इस जलकी प्रतिष्ठा है, वे नदियाँ भी कभी बढ़ती और कभी घटती हैं – यह सब मेरी मायाका ही प्रभाव है। वर्षा ऋतु सभी नदियोंमें अथाह जल हो जाता है, बावलियाँ और तालाब जलसे भर जाते हैं, पर ग्रीष्म ऋतुमें वे ही सब सूख जाते हैं, यह सब मेरी मायाका ही तो बल है। मेघ ‘लवणसमुद्र’ से खारा जल लेकर मधुर जलके रूपमें उसे भूलोकमें बरसाते हैं, यह मेरी मायाका ही प्रभाव है। रोगसे दुःखी हुए कितने प्राणी रसायन तथा ओषधियाँ खाते हैं और उस ओषधिके प्रभावसे नीरोग हो जाते हैं, किंतु कभी उसी ओषधिके देनेपर प्राणीकी मृत्यु भी हो जाती है, उस समय मैं ही कालका रूप धारण कर ओषधिकी शक्तिका हरण कर लेता हूँ, यह सब मेरी मायाका ही प्रभाव है। पहले गर्भकी रचना होती है, इसके उपरान्त पुरुष उत्पन्न हो जाता है, फिर युवावस्था होती है, बुढ़ापा भी आ जाता है, जिसमें सभी इन्द्रियोंकी शक्ति समाप्त हो जाती है- यह सब मेरी मायाका बल है। भूमिमें बीज गिराया जाता है और उससे अङ्कुरकी उत्पत्ति हो जाती है।| तत्पश्चात् वह अङ्कुर अद्भुत पत्तोंसे सम्पन्न हो जाता है – यह विचित्रता मेरी मायाका ही स्वरूप है। एक ही बीज गिरानेसे वैसे ही अनेक अन्नके दाने निकल जाते हैं, वस्तुतः मैं ही अपनी मायाके सहयोगसे उसमें अमृत शक्तिकी उत्पत्ति कर देता हूँ ।

जगत्को विदित है कि गरुड़ मुझ भगवान् विष्णुका वहन करते हैं। वस्तुतः मैं ही स्वयं गरुड़ बनकर वेगसे अपने-आपको वहन करता हूँ। जितने देवता जो यज्ञका भाग पाकर संतुष्ट होते हैं, उस अवसरपर मैं ही अपनी इस मायाका सृजनकर उन अखिल देवताओंको तृप्त करता हूँ, किंतु सभी प्राणी यही जानते हैं कि ये देवता ही सदा यज्ञका भाग ग्रहण करते हैं। पर वस्तुतः मैं ही मायाकी रचना कर देवताओंके लिये यज्ञ कराता हूँ । बृहस्पतिजी यज्ञ कराते हैं- यह जानकर संसारमें सभी लोग उनकी सेवा करते हैं। पर आङ्गिरसी मायाका सृजन करना और देवताओंके लिये यज्ञकी व्यवस्था करना मेरा ही काम है। सम्पूर्ण संसार जानता है कि वरुण देवताकी कृपासे समुद्रकी रक्षा होती है, किंतु वरुणसे सम्बन्ध रखनेवाली इस मायाका निर्माण कर मैं ही महान् समुद्रकी रक्षा करता हूँ। सारा विश्व यही जानता है कि कुबेरजी धनाध्यक्ष हैं। परंतु रहस्य यह है कि मैं ही मायाका आश्रय लेकर कुबेरके भी धनकी रक्षा करता हूँ। ‘इन्द्रने ही वृत्रासुरको मारा था, इस प्रकारकी बात संसार जानता है, किंतु वज्रसे वस्तुतः मैंने ही उसे मारा था। सूर्य, ध्रुव आदि तपते हैं- ऐसी बात सर्वविदित है किंतु तथ्य यह है कि इनमें मेरा ही तेज है । संसारमें लोग कहते हैं, अरे! जल कहाँ चला गया ? पर बात यह है कि बड़वानलका रूप धारणकर सम्पूर्ण जलका शोषण मैं ही करता हूँ। मायासे ओत-प्रोत वायुरूप बनकर मेघोंको संचालित करना मेरा ही कार्य है। अमृतका निवास कहाँ है ? इस गहन विषयको देवता भी नहीं जानते हैं, पर तथ्य यह है कि मेरी मायाके शासनसे वह ओषधिमें निवास करता है। संसार जानता है कि राजा ही प्रजाओंकी रक्षा करता है। किंतु तथ्य यह है कि राजाका रूप धारण करके मैं ही स्वयं पृथ्वीका पालन करता हूँ। युगकी समाप्तिके अवसरपर ये जो बारह सूर्य उदित होते हैं, उनमें मैं ही अपनी शक्तिका आधान करके वह कार्य सम्पन्न करता रहता हूँ। वसुंधरे ! संसारमें मायाकी सृष्टि करना मुझपर निर्भर है। देवि ! सूर्य अपने किरणसे सम्पूर्ण जगत्‌में निरन्तर ताप पहुँचाता है। ऐसी स्थितिमें किरणमयी मायाकी सृष्टि करना और सम्पूर्ण संसारमें उसका प्रसारण करना मेरे ही हाथका खेल है। जिस समय संवर्तक मेघ मूसल जैसी धाराओंसे जल बरसाते हैं, उस अवसरपर मायाका आश्रय लेकर संवर्तक मेघोंद्वारा मैं ही समस्त जगत् को जलसे भर देता हूँ। वरारोहे! मैं जो शेषनागकी शय्यापर सोता हूँ, यह मेरी मायाका ही पराक्रम है। शेषनागका रूप धारण करना और उनपर शयन करना यह सब एकमात्र मेरी योगमायाका ही कार्य है। वसुंधरे ! वाराही मायाका आश्रय लेकर मैंने तुम्हें ऊपर उठाया था- क्या तुम यह भूल गयी ?

तुम भी वैष्णवी मायाका लक्ष्य हुई हो, क्या इस बातको नहीं जानती हो । सुश्रोणि! सत्रह बार तो तुम मेरे दाढ़ोंपर नित्य प्रलयकालमें आश्रय पा चुकी हो। उस समय मेरे द्वारा मायाका सृजन हुआ था और तुम ‘एकार्णव’ – समुद्रमें डूब रही थी। मैं मायाके ही योगसे जलमें रहता हूँ। ब्रह्मा और रुद्रका सृजन करना और भरण-पोषण करना मेरी ही मायाका कार्य है। फिर भी मेरी मायासे मोहित हो जानेके कारण वे मेरी इस मायाको नहीं जानते हैं। पितरोंका समुदाय जो सूर्यके समान तेजस्वी है, वह भी वस्तुतः मैं ही हूँ तथा पितृमयी मायाका आश्रय लेकर पितरोंका रूप धारण कर मैं ही पितृभाग कव्यको ग्रहण करता हूँ । अधिक क्या,

एक दूसरी विचित्र बात सुनो, जो एक बार एक ऋषि भी मायाद्वारा स्त्रीके स्वरूपमें परिणत कर दिये गये थे ।

पृथ्वी बोली- भगवन् ! उस ऋषिने कौन- सा अपकर्म किया था, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें स्त्रीकी योनि प्राप्त हुई ? इस बातसे तो मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। आप यह सारा प्रसङ्ग बतानेकी कृपा कीजिये। उस ब्राह्मणश्रेष्ठने फिर स्त्रीरूप धारण कर कौन-से पापयुक्त कर्म किये, यह सब भी विस्तारसे बतायें। पृथ्वीकी बात सुनकर श्रीभगवान् अत्यन्त प्रसन्न हो गये और मधुर वचनमें कहने लगे, देवि! यह विषय अत्यन्त गूढ़ और महत्त्वपूर्ण है। सुन्दरि ! तुम यह धर्मयुक्त कथा सुनो।

देवि ! मेरी माया ज्ञान एवं विश्वकी सभी वस्तुओंको आच्छादित किये है, उसकी बात सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इस मायाके प्रभावसे सोमशर्मा नामक ऋषि भी प्रभावित हुए थे। इससे वे उत्तम, मध्यम और अधम- अनेक प्रकारकी स्थितियोंके चक्कर में घूमते रहे। फिर मेरी मायाकी प्रेरणासे उन्हें पुनः ब्राह्मणत्व सुलभ हुआ। सोमशर्मा उत्तम ब्राह्मण होकर भी स्त्रीकी योनिमें परिवर्तित हो गये, यद्यपि उसमें भी उनके द्वारा कोई विकृत कर्म नहीं हुआ और न कोई अपराध ही किया । वसुंधरे ! बात यह है कि वे सदा मेरी आराधना, उपासनादि कर्मोंमें ही लगे रहते थे। वे निरन्तर मेरी रमणीय आकृति – मेरे सुन्दर स्वरूपका ही चिन्तन करते रहते। भामिनि। इस प्रकार पर्याप्त समयतक उनकी भक्ति, तपश्चर्या, अनन्यभावसे स्तुति करते रहनेपर मैं उनपर प्रसन्न हुआ। देवि! मैंने उस समय उन्हें अपने स्वरूपका दर्शन कराया और कहा – ‘ब्राह्मणदेवता! मैं तुम्हारी तपस्यासे संतुष्ट हूँ, तुम मुझसे जो चाहो वर माँग लो। रत्न, सुवर्ण, गौएँ तथा अकण्टक राज्य – जो कुछ तुम्हारे हृदयमें हो माँगो, मैं सब कुछ तुम्हें दे सकता हूँ। अथवा विप्रवर उस स्वर्गका सुख, जहाँ वाराङ्गनाएँ तथा आनन्दका अनुभव करनेकी अनन्त सामग्रियाँ हैं तथा जो सुवर्णके भाण्डोंसे सुशोभित एवं धन और रत्नोंसे परिपूर्ण है, जहाँ अप्सराएँ दिव्य रूप धारण किये रहती हैं, उसे ही माँग लो। अथवा जो भी इष्ट वस्तु तुम्हारे ध्यानमें आती हो, वह सब मेरे वरसे तुम्हें सुलभ हो सकती है।’

वसुंधरे ! उस समय मेरी बात सुनकर उन श्रेष्ठ ब्राह्मणने भूमिपर पड़कर मुझे साष्टाङ्ग प्रणाम किया और मधुर शब्दोंमें कहने लगे- ‘देव आप मुझपर यदि रुष्ट न हों तो मैं आपसे जो वर माँग रहा हूँ, वही दीजिये। भगवन्! आपके द्वारा निर्दिष्ट वरदानों – सुवर्ण, गौएँ, स्त्री, राज्य, ऐश्वर्य एवं अप्सराओंसे सुशोभित स्वर्ग आदिसे माधव! मेरा कोई भी प्रयोजन नहीं है। मैं तो केवल आपकी मायाका—जिसकी सहायतासे आप सारी क्रीडाएँ करते हैं, रहस्य ही जानना चाहता हूँ।’

वसुंधरे ! ब्राह्मणकी बात सुनकर मैंने कहा- ‘द्विजवर ! मायासे तुम्हारा क्या प्रयोजन है ? ब्राह्मणदेव! तुम अनुचित तथा अकार्यकी कामना कर रहे हो।’ पर मेरी मायासे प्रेरित होकर उस ब्राह्मणने मुझसे पुनः यही कहा- ‘भगवन्! आप यदि मेरे किसी कर्म अथवा तपस्यासे तनिक भी संतुष्ट हैं तो मुझे बस वही वर दें ।’

अब मैंने उस तपस्वी ब्राह्मणसे कहा- ‘द्विजवर ! तुम ‘कुब्जाम्रक’ तीर्थमें जाओ और वहाँ गङ्गामें स्नान करो, इससे तुम्हें मायाका दर्शन होगा।’ देवि ! मेरी इस बातको सुनकर ब्राह्मणने मेरी प्रदक्षिणा की और दर्शनकी अभिलाषासे वह ऋषिकेश चला गया। वहाँ उसने बड़ी सावधानीसे अपनी कुण्डी, दण्ड और भाण्डको गङ्गातटपर एक ओर रखकर विधिपूर्वक तीर्थकी पूजा की और उसके बाद वह गङ्गामें स्नान करनेके लिये उतरा। वह स्नानार्थ अभी डूबा ही था और उसके अङ्ग बस भींग ही रहे थे कि इतनेमें देखता है कि वह किसी निषादके घरमें उसकी स्त्रीके गर्भमें प्रविष्ट हो गया है। उस समय गर्भके क्लेशसे जब उसे असह्य वेदना होने लगी तो वह अपने मनमें सोचने लगा- ‘मेरे द्वारा अवश्य ही कोई बुरा कर्म बन गया है, जिससे मैं इस निषादीके गर्भमें आकर नरक यातना भोग रहा हूँ। अहो ! मेरी तपस्या एवं जीवनको धिक्कार है, जो इस हीन स्त्रीके गर्भ में वास कर रहा हूँ और नौ द्वारों तथा तीन सौ हड्डियोंसे पूर्ण विष्ठा और मूत्रसे सने रक्त-मांसके कीचड़में पड़ा हुआ हूँ। यहाँकी दुर्गन्ध असह्य है तथा कफ, पित्त, वायुसे उत्पन्न रोगों-दुःखोंकी तो कोई गणना ही नहीं। बहुत कहनेसे क्या प्रयोजन ? मैं इस गर्भमें महान् दुःख पा रहा हूँ? अरे! देखो तो कहाँ तो वे भगवान् विष्णु, कहाँ मैं और कहाँ वह गङ्गाजीका जल ? किसी प्रकार इस गर्भसे मेरा छुटकारा हो जाय तो फिर मैं उसी भक्तिकार्य – गङ्गा स्नानादिमें लग जाऊँगा।’

इस प्रकार सोचते-सोचते वह ब्राह्मण शीघ्र ही निषादीके गर्भसे बाहर आया। पर भूमिपर गिरते ही उसने जो गर्भमें निश्चय किया था, वह सब विस्मृत हो गया। अब वह धन-धान्यसे परिपूर्ण निषादके घरमें एक कन्याके रूपमें रहने लगा भगवान् विष्णुकी मायासे मुग्ध होनेके कारण पूर्वकी कुछ भी बातें उसे याद न रहीं। इस प्रकार बहुत दिन बीत गये। फिर उस कन्याका विवाह हुआ । मायाके प्रभावसे ही उसके बहुतसे पुत्र और पुत्रियाँ उत्पन्न हुई। अब कन्यारूपमें वह सभी भक्ष्य एवं अभक्ष्य वस्तुओंको भी खा लेता तथा पेय एवं अपेय वस्तुएँ भी पी लेता। वह निरन्तर जीवोंकी हिंसामें निरत रहता तथा कर्तव्याकर्तव्यज्ञानसे भी शून्य हो गया।

वसुंधरे ! इस प्रकार जब निषादी स्त्रीरूपमें रहते उस ब्राह्मणके पचास वर्ष बीत गये, तब मैंने उसे पुनः स्मरण किया। वह घड़ा लेकर विष्ठालिप्त वस्त्रोंको धोनेके लिये पुनः गङ्गाके तटपर गया और उसे एक ओर रखकर स्नान करनेके लिये गङ्गाके जलमें प्रविष्ट हुआ। कड़ी धूपसे संतप्त होनेके कारण उसका शरीर पसीनेसे लथपथ सा हो रहा था। अतः उसकी इच्छा हुई कि सिर डुबाकर स्नान कर लूँ। पर ऐसा करते ही वह तपस्याका धनी ब्राह्मण उसी क्षण पूर्ववत् तपस्वी बन गया। स्नान करके बाहर निकलते ही उसकी दृष्टि पूर्वके रखे हुए दण्ड, कमण्डलु और वस्त्रोंपर पड़ी, जिन्हें देखते ही उसे पहले जैसा ज्ञान उत्पन्न हो गया। पूर्व समयमें उस ब्राह्मणने जिस प्रकार विष्णुकी माया जाननेकी कामना की थी, वह भी उसे याद हो आयी; गङ्गासे बाहर निकलकर अब उसने अपने वस्त्र पहने और लज्जित होकर वह वहीं पुनः बालुकापर बैठकर योग एवं तपके विषयमें विचार करने लगा और कहने लगा- अरे! मुझ पापीद्वारा कितने निन्दनीय अकार्य कर्म बन गये।’

इस प्रकार उसने अपनेको निन्दनीय मानकर बहुत धिक्कारा और कहने लगा साधु पुरुषोंद्वारा निन्दित कर्म करनेवाले मुझको धिक्कार है। मैं सदाचारसे सर्वथा भ्रष्ट हो गया था, जिस कारण मुझे निषादकी योनिमें जाना पड़ा। इस कुलमें उत्पन्न होनेपर मैंने कितने ही भक्ष्य और अभक्ष्य वस्तुओंका सेवन किया और सभी प्रकारके जीवोंका वध किया, अभक्ष्य भक्षण तथा अपेय वस्तुओंका पान किया और न बेचने योग्य वस्तुओंका विक्रय किया, मुझे वाच्यावाच्यका भी ध्यान न रहा। निषादके सम्पर्कसे मैंने अनेक पुत्रों और पुत्रियोंकी भी उत्पत्ति की किस दुष्कर्मके फलस्वरूप मुझे निषादकी पत्नी होना पड़ा, यह भी विचार करने योग्य है।’

वसुंधरे ! इधर तो वह ब्राह्मण इस प्रकार यहाँ ऐसा सोच रहा था, उधर निषाद क्रोध एवं दुःखसे पागल हो रहा था। वह उसी समय अपने पुत्रोंसे घिरा अपनी भार्याको खोजता हुआ हरिद्वार पहुँचा और वहाँ प्रत्येक तपस्वीसे अपनी उस स्त्रीके विषयमें पूछने लगा। फिर वह विलाप सा करता हुआ कहने लगा- ‘प्रिये! तुम मुझे तथा अपने सभी पुत्रोंको छोड़कर कहाँ चली गयी? अभी दूध पीनेवाली तुम्हारी छोटी बालिका भूखसे व्याकुल होकर रो रही है। फिर वह वहाँ उपस्थित तपस्वियोंसे पूछने लगा- ‘तपस्वियो! मेरी पत्नी जल लेनेके लिये हाथमें घड़ा लेकर गङ्गाके तटपर आयी थी । क्या आपलोगोंने उसे देखा है ? उस समय सभी मनुष्य जो हरिद्वारमें आये हुए थे, वे उस तपस्वी ब्राह्मण तथा उसके घड़ेको यथापूर्व उपस्थित देख रहे थे। इसके पश्चात् दुःखसे संतप्त उस निषादने जब अपनी प्रिय भार्याको नहीं देखा तो उसकी दृष्टि वस्त्र और घड़ेपर पड़ी। अब वह अत्यन्त करुण विलाप करने लगा – ‘अहो ! मेरी स्त्रीके ये वस्त्र और घड़ा तो नदीके तटपर ही पड़े हैं, किंतु गङ्गामें स्नान करनेके लिये आयी हुई मेरी पत्नी नहीं दिखायी पड़ रही है। लगता है, जब वह बेचारी दुःखी अबला स्नान कर रही होगी उस समय जिह्वालोलुप किसी ग्राहने उसे पानीमें पकड़ लिया होगा अथवा वह पिशाचों, भूतों या राक्षसोंका आहार बन गयी। प्रिये मैंने कभी जाग्रत् या स्वप्नमें भी तुमसे कोई अप्रिय बात नहीं कही। लगता है किसी रोगसे वह उन्मत्त- सी होकर गङ्गाके तटपर चली आयी थी। पूर्वजन्ममें मैंने कौन-सा पापकर्म किया था, जो मेरे इस महान् संकटका कारण बन गया, जिसके फलस्वरूप मेरी पत्नी मेरे देखते-ही-देखते आँखोंसे ओझल हो गयी और अब उसका कहीं कुछ पता नहीं चल रहा है। फिर वह प्रलापमें कहने लगा – ‘प्रिये ! तुम सदा मेरे चित्तका अनुसरण करती रही हो । सुभगे ! मेरे पास आ जाओ। देखो, ये बालक डर गये हैं, इधर-उधर भटक रहे हैं और इन्हें अनाथ जैसे क्लेशोंका सामना करना पड़ता है। सुन्दरि ! तुम मुझे तथा इन तीन नन्हे नन्हे बालकोंको तो देखो! चारों कन्याएँ और सभी बच्चे बड़ा कष्ट पा रहे हैं, इनपर ध्यान दो। मेरे ये छोटे-छोटे पुत्र तुम्हें पानेके लिये लालायित हो रो रहे हैं। मुझ पापीकी इन संतानोंकी तुम रक्षा करो। मुझे भी क्षुधा सता रही है, मैं प्याससे भी अत्यन्त व्याकुल हूँ। तुम्हें इसका पता होना चाहिये।’

(भगवान् वराह कहते हैं— ) कल्याणि ! उस समय जो ब्राह्मण स्त्रीका जन्म पाकर निषादकी पत्नी बना था और जो अब मेरी उस मायासे मुक्त होकर बैठा हुआ था, निषादके इस प्रकार कहनेपर लज्जाके साथ उससे कहने लगा- ‘अब तुम जाओ। तुम्हारी वह भार्यां यहाँ नहीं है। वह तुम्हारा सुख और संयोग लेकर चली गयी और अब कभी न लौटेगी।’ इधर वह निषाद जहाँ-तहाँ भटककर विलाप ही करता रहा। अब उस ब्राह्मणका हृदय करुणासे भर गया और कहने लगा- ‘जाओ, अब क्यों इतना कष्ट पा रहे हो । अनेक प्रकारके आहार हैं, उनसे बच्चोंकी रक्षा करना। ये बच्चे दयाके पात्र हैं। तुम कभी भी इनका परित्याग मत करना।’

संन्यासीकी बात सुनकर उनके सामने दुःख एवं शोकसे भरे हुए निषादने उनसे मधुर वाणीमें कहा – ‘निश्चय ही आप प्रधान मुनिवरोंमें भी श्रेष्ठ एवं धर्मात्माओंमें भी परम धर्मात्मा पुरुष हैं। विप्रवर! तभी तो आपके मीठे वचनोंसे मुझे सान्त्वना मिल गयी।’ उस समय निषादकी बात सुनकर श्रेष्ठ व्रतका पालन करनेवाले मुनिके मनमें भी दुःख एवं शोक छा गया। उन्होंने मधुर वचनमें कहा – ‘निषाद ! तुम्हारा कल्याण हो । अब विलाप करना बंद करो। मैं ही तो तुम्हारी प्रिय पत्नी बना था। वही मैं यहाँ गङ्गातटपर आया और स्नान करते हुए मैं एक मुनिके रूपमें परिवर्तित हो गया।’

फिर तो संन्यासीकी बात सुनकर निषादकी भी चिन्ताएँ दूर हो गयीं। उसने उन श्रेष्ठ ब्राह्मणसे कहा – ‘विप्रवर! आप यह क्या कह रहे हैं, आजतक कभी ऐसी घटना नहीं घटी है। अथवा ऐसी घटना तो सर्वथा असम्भव है कि कोई स्त्री होकर पुनः पुरुष हो जाय।’ अब दुःखके कारण ब्राह्मणके मनमें भी घबराहट उत्पन्न हो गयी। उस गङ्गाके तटपर ही ब्राह्मणने निषादसे मीठी बात कही- ‘धीवर ! अब यथाशीघ्र इन बालकोंको लेकर अपने देशमें चले जाइये और क्रमानुसार सभी बच्चोंपर यथायोग्य स्नेह रखकर इनकी देखभाल रखिये।’

ब्राह्मणके इस प्रकार कहनेपर भी निषाद वहाँसे नहीं गया, उसने मीठे स्वरमें उनसे पूछा- ‘विप्रवर! आपके द्वारा कौन-सा पाप बन गया था, जिससे आप स्त्री बन गये थे और अब फिर पुरुष हो गये ? यह मुझे बतानेकी कृपा करें।’ इसपर ऋषिने कहा- ‘मैं हरिद्वार तीर्थके तटवर्ती क्षेत्रोंमें भ्रमण करता और एक ही बार भोजन कर जगदीश्वर जनार्दनकी पूजा करता रहता था। उन प्रभुके दर्शनकी आकाङ्क्षासे मैंने बहुत-से उत्तम धर्म-कर्म किये। बहुत समय बीत जानके पश्चात् मुझे भगवान् श्रीहरिने दर्शन दिया और मुझसे वर माँगनेको कहा। मैंने प्रार्थना की — ‘प्रभो! आप भक्तोंपर कृपा करनेवाले सर्वव्यापक पुरुष हैं। आप मुझे अपनी मायाका दर्शन कराइये।’

इसपर भगवान् विष्णुने कहा था- ‘ब्राह्मणदेव ! माया देखनेकी इच्छा छोड़ दो।’ किंतु मैंने बार बार उनसे वही आग्रह किया, तब भगवान् ने कहा—’अच्छा, नहीं मानते हो तो ‘कुब्जाम्रक’ क्षेत्र ( ऋषिकेश) – में जाओ। वहाँ गङ्गामें स्नान करनेपर तुम्हें माया दिखलायी पड़ेगी और वे अन्तर्धान हो गये। मैं भी माया दर्शनकी लालसासे गङ्गातटपर गया और वहाँ अपने दण्ड, कमण्डलु एवं वस्त्रको यत्नसे एक ओर रखकर स्नान करनेके लिये निर्मल जलमें पैठा। इसके बाद मैं कुछ भी न जान सका कि कहाँ क्या है और क्या हो रहा है? तत्पश्चात् मैं किसी मल्लाहिनके उदरसे कन्याके रूपमें उत्पन्न होकर तुम्हारी पत्नी बन गया। वही मैं आज फिर किसी कारण जब गङ्गाके जलमें पैठकर स्नान करने लगा तो पहले जैसे ही ऋषिके रूपमें परिणत हो गया हूँ। निषाद ! देखो, पहले जैसे ही यहाँ मेरी कुण्डी और मेरे वस्त्र भी विराजमान हैं। पचास वर्षोंतक मैं तुम्हारे घरमें रह चुका हूँ, परंतु मेरे पास जो दण्ड एवं वस्त्र थे, जिन्हें गङ्गाके तटपर मैंने रखा था, अभी जीर्ण-शीर्ण नहीं हुए हैं और न वे गङ्गाके प्रवाहोंद्वारा प्रवाहित ही हुए हैं।

ब्राह्मणके इस प्रकार कहते ही वह निषाद सहसा गायब हो गया। उसके साथ जो बालक थे, वे भी तिरोहित हो गये। देवि! यह देखकर वह ब्राह्मण भी चकित होकर पुनः तपमें संलग्न हो गया। उसने अपनी भुजाओंको ऊपर उठाकर साँसकी गति भी रोक ली और केवल वायुके आहारपर रहने लगा। इस तरह अपराह्न हो गया। इस प्रकार कुछ समय तपस्या कर जब वह जलसे बाहर आया तो श्रद्धापूर्वक पूजाके लिये कुछ पुष्पोंको तोड़कर विधिपूर्वक भगवान्‌की पूजा करनेके लिये वीरासनसे बैठ गया। अब बहुत- से प्रधान तपस्वी ब्राह्मणोंने जो वहाँ गङ्गामें स्नान करनेके लिये आये थे, उसे घेर लिया और उससे कहने लगे- ‘द्विजवर ! आपने आज पूर्वाह्नमें अपने दण्ड, कमण्डलु और अन्य उपकरण यहाँ रख दिये थे और स्नान कर मल्लाहोंके पास गये थे, फिर क्या आप यह स्थान भूलकर कहीं अन्यत्र चले गये थे ? आपके आनेमें इतनी देर कैसे हुई ?”

देवि! जब उस मुनिने ब्राह्मणोंकी बात सुनी तो वह मौन हो गया। साथ ही बैठकर वह मन- ही मन ब्राह्मणोंद्वारा निर्दिष्ट बातपर सोचने लगा। “एक ओर तो उधर पचास वर्षका समय व्यतीत हो गया है और इधर अमावस्या भी आज ही है। ये सब ब्राह्मण मुझसे कह रहे हैं ‘तुमने पूर्वाह्नमें अपने वस्त्रोंको यहाँ स्नानके लिये रखा तो अब अपराह्नमें इन्हें लेने क्यों आये हो? तुम्हें इतनी देर कैसे हो गयी,’ यह सब क्या बात है ?'” देवि ! ठीक इसी समय मैंने ब्राह्मणको पुनः अपना रूप दिखलाया और कहा—’ब्राह्मणदेव ! आप कुछ घबड़ाये-से क्यों दीखते हैं? क्या आपने कुछ विशेष बात देखी है? आप कुछ मुझे व्यग्र से दीख रहे हैं। अस्तु ! जो कुछ हो, अब आप पूर्ण सावधान हो जाइये!’

मेरे इस प्रकार कहने पर उस ब्राह्मणने अपना मस्तक भूमिपर टेक दिया और दुःखी होकर बार-बार दीर्घ श्वास लेता हुआ कहने लगा-

“जगद्गुरो ! ये ब्राह्मण मुझसे कह रहे हैं कि ‘तुमने पूर्वाह्नकी वेलामें वस्त्र, दण्ड और कमण्डलु आदि वस्तुएँ यहाँ रखीं और फिर अपराह्नमें यहाँ आये हो? क्या तुम इस स्थानको भूल गये थे ?’ माधव ! इधर समस्या यह है कि निषादकी योनिमें कन्यारूपसे उत्पन्न होकर मैं एक निषादकी स्त्रीके रूपमें पचास वर्षोंतक रहा। उस शरीरसे उस कुकर्मी निषादद्वारा मेरे तीन पुत्र और चार पुत्रियाँ उत्पन्न हुई। फिर एक दिन जब मैं गङ्गामें स्नान करनेके लिये यहाँ आकर तटपर अपना वस्त्र रखकर निर्मल जलमें स्नान करने लगा और डुबकी लगायी तो पुनः मुझे मुनियोंद्वारा अभिलषित तपस्वीका रूप प्राप्त हो गया। माधव! मैं तो सदा आपकी सेवामें लगा रहता था, किंतु पता नहीं मेरे किस विकृत कर्मका ऐसा फल हो गया, जिसके परिणामस्वरूप मुझे निषादके यहाँ नरककी यातना भोगनी पड़ी? मैंने तो केवल माया- दर्शनका वर माँगा था, परंतु मेरे ध्यानमें और कोई पाप नहीं आता, जिसके फलस्वरूप आपने मुझे नरकमें गिरा दिया।”

वसुंधरे ! उस समय वह ब्राह्मण बड़ी करुणाके साथ ग्लानि प्रकट कर रहा था। इसपर मैंने उससे कहा – ” ब्राह्मणश्रेष्ठ ! आप चिन्ता न करें। मैंने आपसे पहले ही कहा था कि ब्राह्मणदेवता! आप मुझसे अन्य वर माँग लें; किंतु आपने मुझसे वरके रूपमें माया- दर्शनकी ही याचना की । द्विजवर ! आपने वैष्णवी माया देखनेकी इच्छा की थी, उसे ही तो देखा है। विप्रवर! दिन, अपराह्न, पचास वर्ष और निषादका घर-तत्त्वतः यह सब कहीं कुछ भी नहीं है। यह सब केवल वैष्णवी मायाका ही प्रभाव है। आपने कोई भी अशुभ कर्म नहीं किया है। आश्चर्यमें पड़कर आप जो पश्चात्ताप कर रहे हैं, वह सब भी मायाके अतिरिक्त कुछ नहीं है। न तुम्हारे द्वारा किया हुआ अर्चन भ्रष्ट हुआ है, न तुम्हारी तपस्या ही नष्ट हुई है। द्विजवर! पूर्वजन्ममें तुमने कुछ ऐसे कर्म अवश्य किये थे, जिसके फलस्वरूप यह परिस्थिति तुम्हें प्राप्त हुई। हाँ! पूर्वजन्ममें तुमने मेरे एक शुद्ध ब्राह्मण भक्तका अभिवादन नहीं किया था। यह उसीका फल है कि तुम्हें इस दुःखपूर्ण प्रारब्धका भोग भोगना पड़ा। मेरे शुद्ध भक्त मेरे ही स्वरूप हैं। ऐसे ब्राह्मणोंको जो लोग प्रणाम करते हैं, वे वस्तुतः मुझे ही प्रणाम करते हैं और वे तत्त्वतः मुझे जान जाते हैं – इसमें कोई संदेह नहीं जो ब्राह्मण मेरे दर्शनकी अभिलाषा करते हैं, वे ब्राह्मण मेरे भक्त, शुद्धस्वरूप एवं पूज्य हैं। विशेषरूपसे कलियुगमें मैं ब्राह्मणका ही रूप धारण करके रहता हूँ, अतएव जो ब्राह्मणका भक्त है, वह निःसंदेह मेरा ही भक्त है। ब्राह्मण ! अब तुम सिद्ध हो चुके हो, अतः अपने स्थानपर पधारो जिस समय तुम अपने प्राणोंका त्याग करोगे, उस समय तुम मेरे उत्तम स्थान- श्वेतद्वीपको प्राप्त करोगे, इसमें कोई संदेह नहीं।”

वरारोहे! इस प्रकार कहकर मैं वहीं अन्तर्धान हो गया और उस ब्राह्मणने फिर कठोर तपस्या आरम्भ की। अन्तमें वह ‘मायातीर्थ ‘* में अपना शरीर त्यागकर श्वेतद्वीपमें पहुँचा, जहाँ वह धनुष, वाण, तलवार और तूणीर (तरकस ) धारणकर मेरा सारूप्य प्राप्तकर मुझ मायाके आश्रयदाताका सदा दर्शन करता रहता है। अतः वसुंधरे ! तुम्हें भी इस मायासे क्या प्रयोजन ? माया देखनेकी इच्छा करना ठीक नहीं देवता, दानव और राक्षस भी मेरी मायाका रहस्य नहीं जानते । वसुंधरे ! यह ‘माया चक्र’ नामक मायाकी आश्चर्यमयी कथा मैंने तुम्हें सुनायी। यह आख्यान पुण्योंसे युक्त तथा सुखप्रद है। जो पुरुष भक्तों के सामने इसकी व्याख्या करता है और भक्तिहीनों तथा शास्त्रोंमें दोषदृष्टि रखनेवालोंसे नहीं कहता, उसकी जगत् में प्रतिष्ठा होती है। देवि ! जो व्रती पुरुष इसका प्रातः काल उठकर पाठ करता है, उसने मानो बारह वर्षोंतक तपपूर्वक मेरे सामने इसका पाठ किया। वसुंधरे ! इस महान् आख्यानको जो सदा श्रवण करता है, उसकी बुद्धि कभी मायासे लिप्त नहीं होती और न उसे निकृष्ट योनियोंमें ही जाना पड़ता है।

अध्याय १०६ कुब्जाम्रकतीर्थ (हृषीकेश ) - का माहात्म्य, रैभ्यमुनिपर भगवत्कृपा

इस प्रकार मायाके पराक्रमकी बातको सुनकर पृथ्वीने भगवान् से फिर पूछा ।

पृथ्वी बोली- ‘भगवन्! आपने जिस ‘कुब्जाम्रक’ – तीर्थकी चर्चा की, उसमें रहने तथा स्नानादि करनेसे जो पुण्य होता है, आप अब उसे मुझे बतानेकी कृपा कीजिये ।

भगवान् वराह बोले- पृथ्वीदेवि ! ‘कुब्जाम्रक’ तीर्थका जो सार तत्त्व है, अब उसे मैं तुम्हें विस्तारसे बतला रहा हूँ। सुन्दरि ! ‘कुब्जाम्रक’ तीर्थकी जैसे उत्पत्ति हुई, जिस क्रमसे यह ‘तीर्थ’ बना, वहाँ जो अनुष्ठेय धर्म है तथा वहाँ प्राणत्याग करनेपर जिस लोककी प्राप्ति होती है, यह सब तुम ध्यान देकर सुनो। वसुंधरे ! आदि सत्ययुगमें जब पृथ्वी जलमग्न थी, तब ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे मैंने मधु और कैटभ नामक राक्षसोंका वध किया और ब्रह्मदेवकी रक्षा की। उसी समय मेरी दृष्टि अपने आश्रित भक्त रैभ्यमुनिपर पड़ी। वे अत्यन्त निष्ठासे सदा मेरी स्तुति-आराधनामें निरत रहते थे। वे युक्तिमान्, गुणी, परम पवित्र, कार्यकुशल और जितेन्द्रिय पुरुष थे और ऊपर बाँहें उठाकर दस हजार वर्षोंतक तपस्यामें संलग्न रहे। वे एक हजार वर्षोंतक केवल जल पीकर तथा पाँच सौ वर्षोंतक शैवाल खाकर तपस्या करते रहे। देवि! महात्मा रैभ्यकी इस तपस्यासे मेरा हृदय करुणासे अत्यन्त विह्वल हो उठा। उस समय हरिद्वारके कुछ उत्तर पहुँचकर मैंने एक आम्रके वृक्षका आश्रय लिया और उन मुनिको तपस्या करते देखा। मेरे आश्रय लेनेसे वह आम्रवृक्ष थोड़ा कुबड़ा हो गया । मनस्विनि ! इस प्रकार वह स्थान ‘कुब्जाम्रक’ नामसे प्रसिद्ध हो गया। यहाँपर (स्वत:) मरनेवाला व्यक्ति भी मेरे लोकमें ही रह जाता है।

मैंने रैभ्यमुनिको कुबड़े आम्रवृक्षका रूप धारण कर दर्शन दिया था, फिर भी वे मुझे पहचान गये और घुटनोंके बल भूमिपर गिरकर मेरी स्तुति की। वसुंधरे ! अपने व्रतमें अडिग रहनेवाले उन मुनिको इस प्रकार अपनी स्तुति तथा प्रणाम करते देखकर मैंने प्रसन्न मनसे उन्हें वर माँगनेके लिये कहा। मेरी बात सुनकर उन तपस्वीने मीठी वाणीमें कहा- ‘भगवन्! आप जगत् के स्वामी हैं और याचना करनेवालोंकी आशा पूर्ण करते हैं। भगवन्! मधुसूदन !! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मैं यह चाहता हूँ कि जबतक यह संसार रहे तथा अन्य लोक रहें, तबतक आपका यहाँ निवास हो और जनार्दन जबतक आप यहाँ स्थित रहें, तबतक आपमें मेरी निष्ठा बनी रहे। प्रभो ! यदि आप मुझपर संतुष्ट हैं। तो मेरा यह मनोरथ पूर्ण करनेकी कृपा कीजिये।’

वसुंधरे ! उस समय ऋषिवर रैभ्यकी बात सुनकर पुन: मैंने कहा- ‘ब्रह्मषें ! बहुत ठीक ऐसा ही होगा।’

फिर उन ब्राह्मणने बड़े हर्षके साथ मुझसे कहा- ‘प्रभो! आप इस प्रधान तीर्थकी महिमा भी बतलानेकी कृपा करें और मैं उसे सुनूँ। यही नहीं, इस क्षेत्रमें अन्य भी जितने क्षेत्र हैं, उनका भी आप माहात्म्य बतलायें।’

देवि! तब मैंने कहा – ‘ब्रह्मन् ! तुम मुझसे जो पूछ रहे हो, वह विषय तत्त्वत्पूर्वक सुनो। मेरा ‘कुब्जाम्रक ‘तीर्थ परम पवित्र स्थान है। इसका सेवन करनेसे सभी सुख सुलभ हो जाते हैं। यह ‘कुब्जाम्रक’ तीर्थ कुमुदपुष्पकी आकृतिमें स्थित है। यहाँ केवल स्नान करनेसे मानव स्वर्ग प्राप्त कर लेता है। कार्तिक, अगहन एवं वैशाख मासके शुभ अवसरपर जो पुरुष यहाँ दुष्कर धर्मोका अनुष्ठान करता है, वह स्त्री, पुरुष अथवा नपुंसक ही क्यों न हो-अपने प्राणोंका त्याग कर मेरे लोकको प्राप्त होता है।’

वसुंधरे ! ‘कुब्जाम्रक ‘तीर्थमें जो दूसरा तीर्थ है, उसे भी बतलाता हूँ, सुनो।

सुन्दरि ! यहाँ ‘मानस’ नामसे मेरा एक प्रसिद्ध तीर्थ है। सुनयने ! वहाँ स्नान कर मनुष्य इन्द्रके नन्दनवनमें जाता है और अप्सराओंके साथ देवताओंके वर्षसे एक हजार वर्षोंतक वह आनन्दका उपभोग करता रहता है। वसुंधरे ! अब यहाँके एक दूसरे तीर्थका वर्णन करता हूँ सुनो – वह स्थान ‘मायातीर्थ’ के नामसे विख्यात है, जिसके प्रभावसे मायाकी जानकारी प्राप्त हो जाती है। उस तीर्थमें स्नान करनेवाला  पुरुष दस हजार वर्षोंतक मेरी भक्तिमें रत रहता है यशस्विनि! ‘मायातीर्थ’ में जो प्राण छोड़ता है, महान् योगियोंके समान वह मेरे लोकको प्राप्त होता है।

देवी पृथ्वि ! अब यहाँका एक दूसरा तीर्थ बतलाता हूँ-उस तीर्थका नाम ‘सर्वकामिक’ है। वैशाख मासकी द्वादशी तिथिके दिन जो कोई वहाँ स्नान करता है, वह पंद्रह हजार वर्षोंतक स्वर्गमें निवास करता है। यदि इस ‘सर्वकामिक’ तीर्थमें वह प्राण त्याग करता है तो सभी आसक्तियोंसे मुक्त होकर मेरे लोकको प्राप्त होता है।

सुलोचने! अब एक ‘पूर्णमुख’ नामक तीर्थकी महिमा बतलाता हूँ, जिसे कोई नहीं जानता। गङ्गाका जल इधर प्रायः सर्वत्र शीतल रहता है, किंतु यहाँ जिस स्थानपर गङ्गामें गर्म जल मिले, उसे ही ‘पूर्णतीर्थ’ समझना चाहिये। देवि ! वहाँ स्नान करनेवाला मनुष्य चन्द्रलोकमें प्रतिष्ठा पाता है और पंद्रह हजार वर्षोंतक उसे चन्द्र-दर्शनका आनन्द मिलता है। फिर जब वह स्वर्गसे नीचे गिरता है तो ब्राह्मणके घर उत्पन्न होता है और मेरा पवित्र भक्त, कार्य कुशल और सम्पूर्ण धर्म एवं गुणोंसे सम्पन्न होता है और अगहन महीनेके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिके दिन प्राण त्यागकर वह मेरे लोकमें पहुँचता है, जहाँ वह सदा मुझे चतुर्भुजरूपमें प्रकाशित देखता है तथा पुनः कभी जन्म और मृत्युके चक्कर में नहीं पड़ता।

वसुंधरे ! मैं अब पुनः एक दूसरे तीर्थका वर्णन करता हूँ। यहाँ वैशाख मासके शुक्लपक्षकी द्वादशीके दिन तप तथा धर्मके अनुष्ठानके पश्चात् अपने शरीरका त्याग करनेवाला पुरुष मेरे लोकको प्राप्त करता है, जहाँ जन्म-मृत्यु, ग्लानि, आसक्ति, भय तथा अज्ञानजनित अभिनिवेशादिसे उसे किसी प्रकारका क्लेश नहीं होता।

अब मैं एक दूसरे तीर्थकी बात बतलाता हूँ। वह ‘करवीर’ नामसे प्रसिद्ध है एवं सम्पूर्ण लोकोंको सुखी करनेवाला है। शुभे ! अब उसका चिह्न भी बतलाता हूँ, जिसकी सहायतासे ज्ञानी पुरुष इसे पहचान सकें। सुन्दरि ! माघ मासके शुक्ल पक्षकी द्वादशी तिथिके दिन मध्याह्न कालके समय इस ‘करवीर’ तीर्थमें कनेरके फूल खिल जाते हैं – यह निश्चय है उस तीर्थमें स्नान करनेवाला मनुष्य स्वतन्त्रतापूर्वक सर्वत्र अव्याहत गमन करनेमें पूर्ण समर्थ हो जाता है। यदि माघ मासकी द्वादशी तिथिके दिन उस क्षेत्रमें किसीकी मृत्यु हो जाती है तो उसे ब्रह्मा, रुद्र और मेरे दर्शनका सौभाग्य प्राप्त होता है।

वसुंधरे ! अब एक दूसरे तीर्थका प्रसङ्ग सुनो। भद्रे ! उस ‘कुब्जाम्रकक्षेत्र’ का यह स्थान मुझे बहुत प्रिय है। इस स्थानका नाम ‘पुण्डरीकतीर्थ’ है, जो महान् फल देनेकी शक्तिवाला है। सुमुखि ! उस तीर्थका विशेष चिह्न बतलाता हूँ, सुनो- ‘सुन्दरि ! द्वादशी तिथिके दिन मध्याह्नकालमें वहाँ रथके चक्केकी आकृतिवाला एक कछुआ विचरण करता है।’ वसुमति ! अब तुमसे इसके विषयमें एक दूसरी बात बताता हूँ, उसे सुनो – ‘सुन्दरि ! वहाँ अवगाहन करनेपर ‘पुण्डरीकयज्ञ’ के अनुष्ठानका फल मिलता है। यदि वहाँ किसीकी मृत्यु होती है तो उसे दस ‘पुण्डरीक’ यज्ञोंके अनुष्ठानका फल प्राप्त होता है।’

अब मैं ‘कुब्जाम्रक’ (ऋषिकेश) में स्थित एक दूसरे – ‘ अग्नितीर्थ’ की बात बतलाता हूँ, उसे सुनो- ‘देवि! द्वादशी तिथिके दिन पुण्यात्मा लोगोंको ही इस तीर्थकी स्थिति ज्ञात होती है। कार्तिक, अगहन, आषाढ़ एवं वैशाख मासके शुक्ल पक्षकी द्वादशीके दिन जो पुरुष उस तीर्थमें यत्नपूर्वक निवास करता है, वह उस तीर्थका रहस्य जान सकता है।’ वसुंधरे ! उस तीर्थका चिह्न यह है कि हेमन्त ऋतुमें तो वहाँका जल उष्ण रहता है, पर ग्रीष्म ऋतुमें वह शीतल हो जाता है। महाभागे ! इसी विचित्रताके कारण इस स्थानका नाम ‘अग्नितीर्थ’ पड़ गया है।

देवि ! अब एक दूसरे तीर्थका परिचय देता हूँ, उसका नाम ‘वायव्य तीर्थ’ है। उस तीर्थमें जो स्नान करके तर्पण आदि कार्य करता है, उसे वाजपेय यज्ञका फल प्राप्त होता है। यह वायव्यतीर्थ एक ‘सरोवर’ के रूपमें है। वहाँ केवल पंद्रह दिनोंतक रहकर मेरी उपासना करते हुए जिसकी मृत्यु हो जाती है, उसका इस पृथ्वीपर पुनः जन्म या मरण नहीं होता। वह चार भुजाओंसे युक्त होकर मेरा सारूप्य प्राप्तकर मेरे लोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। उस ‘वायव्य ‘तीर्थकी पहचान यह है कि वहाँ वनमें पीपलके ऐसे वृक्ष हैं, जिनके पत्ते चौबीसों द्वादशियोंको निरन्तर हिलते ही रहते हैं।

पृथ्वि! अब ‘कुब्जाम्रक’ तीर्थके अन्तर्वर्ती ‘शक्रतीर्थ’ का परिचय देता हूँ। वसुंधरे ! वहाँ इन्द्र हाथमें वज्र लिये हुए सुशोभित रहते हैं। महातपे उस तीर्थमें दस रात्रि उपवास रहकर जो मनुष्या मर जाता है, वह मेरे लोकको प्राप्त कर लेता है। इस शक्रतीर्थके दक्षिण भागमें पाँच वृक्ष खड़े हैं, यही उसकी पहचान है। देवि! वरुणदेवने बारह- हजार वर्षोंतक इस ‘कुब्जाम्रक’ तीर्थमें तपस्या की थी। अतः यहाँ स्नान करनेसे व्यक्ति आठ हजार वर्षोंतक वरुणलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है । वहाँ ऊपरसे पानीकी एक धारा निरन्त गिरती रहती है, यही उस तीर्थकी पहचान है।

पृथ्वि ! उक्त ‘कुब्जाम्रक’ तीर्थ में ‘सप्तसामुद्रक’ नामका भी एक श्रेष्ठ स्थान है उस तीर्थमें स्नान करनेवाला धर्मात्मा मनुष्य तीन अश्वमेध यज्ञोंका फल पा लेता है। यदि आसक्तिरहित होकर कोई प्राणी सात रातोंतक यहाँ निवास कर प्राणत्याग करता है तो वह मेरे लोकमें चला जाता है। सुन्दरि ! अब उस ‘सप्तसामुद्रक’ तीर्थका लक्षण बताता हूँ सुनो- ‘वैशाख मासके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिके दिन वहाँ एक विशेष चमत्कार दीखता है। उस दिन उस तीर्थमें गङ्गाका जल कभी तो दूधके समान उज्ज्वल वर्णका दीखता है और कभी पुनः उसी जलमें पीले रंगकी आभा प्रकट हो जाती है। फिर वही कभी लाल रंगमें परिणत हो जाता है और फिर थोड़ी देर बाद ही उसमें मरकतमणि तथा मोतीके समान झलक आने लगती है। आत्मज्ञानी पुरुष इन्हीं चिह्नोंसे उस तीर्थका ज्ञान प्राप्त करते हैं।’

शुभाङ्गि ! कुब्जाम्रक तीर्थके मध्यवर्ती एक अन्य महान् तीर्थका अब तुम्हें परिचय देता हूँ। भगवान् में भक्ति रखनेवाले समस्त पुरुषोंके प्रिय उस तीर्थका नाम ‘मानसर’ है उसमें स्नान करनेपर मानवको मानसरोवरमें जानेका सौभाग्य प्राप्त होता है। वहाँ इन्द्र, रुद्र एवं मरुद्गण आदि सम्पूर्ण देवताओंका उसे दर्शन मिलता है। वसुंधरे ! इस तीर्थमें यदि कोई मनुष्य तीस रात्रियोंतक निवासकर मृत्युको प्राप्त होता है तो वह सम्पूर्ण सङ्गोंसे मुक्त होकर मेरे लोकको प्राप्त करता है। अब ‘मानसर’ तीर्थका स्वरूप बतलाता हूँ, जिससे मनुष्योंको उसकी पहचान हो जाय- जानकारी प्राप्त हो सके। वह तीर्थ पचास कोसके विस्तारमें है ।

अब तुम्हें एक दूसरी बात बताता हूँ, उसे सुनो। इस ‘कुब्जाम्रक तीर्थ’ में बहुत पहले एक महान् अद्भुत घटना घट चुकी है। उसका प्रसङ्ग यह है – जहाँ मेरे भोगकी सामग्री रखी पड़ी रहती थी, वहीं एक सर्पिणी निर्भय होकर निवास करती थी। वह अपनी इच्छासे चन्दन, माला आदि पूजनकी वस्तुओंको खाया करती। इतनेमें ही एक दिन वहाँ कोई नेवला आ गया और उसने स्वच्छन्दतासे आनन्द करनेवाली उस सर्पिणीको देख लिया। अब उस नेवले और सर्पिणीमें भयंकर युद्ध छिड़ गया। उस दिन माघ मासकी द्वादशी तिथि थी और दोपहरका समय था । यह संघर्ष मेरे उस मन्दिरमें ही पर्याप्त समयतक चलता रहा । अन्तमें सर्पिणीने नेवलेको डस लिया, साथ ही विषदग्ध नेवलेने भी उस सर्पिणीको तुरंत मार गिराया। इस प्रकार वे दोनों आपसमें लड़कर मर गये। अब वह नागिन प्राग्ज्योतिषपुर (आसाम) के राजाके यहाँ एक राजकुमारीके रूपमें उत्पन्न हुई। इधर उसी समय कोसलदेशमें उस नेवलेका भी एक राजाके यहाँ जन्म हुआ। देवि ! वह राजकुमार रूपवान्, गुणवान् और सम्पूर्ण शास्त्रोंका ज्ञाता तथा सभी कलाओंसे युक्त था। दोनों अपने-अपने घर सुखपूर्वक रहते हुए इस प्रकार बढ़ने लगे, जैसे शुक्लपक्षका चन्द्रमा प्रतिरात्रि बढ़ता दीखता है। पर वह कन्या यदि कहीं किसी नेवलेको देख लेती तो तुरंत उसे मारनेके लिये दौड़ पड़ती। इसी प्रकार इधर राजकुमार भी जब किसी नागिन या सौंपिनको देखता तो उसे मारनेके लिये तुरंत उद्यत हो जाता। कुछ दिन बाद मेरी कृपासे कोसल देशके राजकुमारने ही उस कन्याका पाणिग्रहण किया और इसके बाद वे दोनों लाक्षा एवं कांष्ठकी तरह एक साथ रहने लगे। जान पड़ता था, मानो इन्द्र और शची नन्दनवनमें विहार कर रहे हों।

वसुंधरे ! इस प्रकार उस राजकुमार एवं राजकुमारीके परस्पर प्रेमपूर्वक रहते हुए पर्याप्त समय व्यतीत हो गये। वे दोनों उपवनमें एक साथ आनन्दपूर्वक इस प्रकार विहार करते, मानो समुद्र और उसकी वेला (तटी)। इस प्रकार पूरे सतहत्तर वर्ष व्यतीत हो गये। मेरी मायासे मोहित होनेके कारण वे दोनों एक-दूसरेको पहचान भी न सके। एक समयकी बात है, वे दोनों ही उपवनमें घूम रहे थे कि राजकुमारकी दृष्टि एक सर्पिणीपर पड़ी और वह उसे मारनेके लिये तैयार हो गया। राजकुमारीके मना करते रहनेपर भी वह अपने विचारोंसे विचलित न हुआ और उसने उस सर्पिणीको मार ही डाला। अब राजकुमारीके मनमें प्रतिक्रियास्वरूप भीषण रोष उत्पन्न हो गया। किंतु वह कुछ बोल न पायी। इधर उसी समय राजपुत्रीके सामने बिलसे एक नेवला निकला और भोजनके लिये किसी सर्पकी खोजमें इधर-उधर घूमने लगा। राजकुमारीने उसे देख लिया। यद्यपि नेवलेका दर्शन शुभ सूचक है और वह नेवला केवल इधर-उधर घूम रहा था, फिर भी क्रोधके वशीभूत होकर राजकुमारी उसे मारने लगी। राजकुमारने उसे बहुत रोका, किंतु प्राग्ज्योतिषनरेशकी उस पुत्रीने शुभदर्शन नेवलेको मार ही डाला।

वसुंधरे ! अब राजकुमारको बड़ा क्रोध हुआ, उसने राजकुमारीसे कहा – ‘देवि ! स्त्रियोंके लिये पति सदा आदरका पात्र होता है और मैं तुम्हारा पति हूँ, किंतु तुमने मेरी बातको निष्ठुरतापूर्वक ठुकरा दिया। यह नेवला मङ्गलमय शुभदर्शन प्राणी है और विशेषकर राजाओंकी यह प्रिय वस्तु है, इसका दर्शन शुभकी सूचना देता है। कहो तुमने इस मङ्गलस्वरूप नेवलेको मेरे मना करनेपर भी क्यों मार डाला ?”

वसुंधरे ! इसपर प्राग्ज्योतिषनरेशकी वह कन्या कोसलनरेशके पुत्रसे रोष भरकर कहने लगी कि मेरे बार-बार रोकनेपर भी आपने उस सर्पिणीको मार डाला, अतएव मैंने भी सर्पोंके मारनेवाले इस नेवलेको मार डाला। वसुंधरे ! राजकुमारीकी इस बातको सुनकर कठोर शब्दोंमें डाँटते हुए राजकुमारने उससे कहा- भद्रे ! साँपके दाँत बड़े तीक्ष्ण तथा उसका विष बड़ा तीव्र होता है। उसे देखते ही लोग डर जाते हैं। यह दुष्ट प्राणी मनुष्य आदिको डस लेता है और उससे वे मर जाते हैं। अतः सबका अहित करनेवाले एवं विषसे भरे हुए इस जीवको मैंने मारा है। इधर प्रजाकी रक्षा करना राजाओंका धर्म है जो बुरे मार्गपर चलते हैं, उनकी उचित तथा कठोर दण्डोंद्वारा ताड़ना करना हमारा कर्तव्य है। जो निरपराध साधुओं एवं स्त्रियोंको भी क्लेश पहुँचाते हैं, वे भी यथार्थ- राजधर्मके अनुसार दण्डके पात्र हैं और वधके योग्य हैं। मुझे तो राजधर्मोंका पालन करना ही चाहिये, पर मुझे तुम यह तो बताओ कि इस नेवलेका क्या अपराध था ? यह दर्शनीय एवं सुन्दर रूपवाला था। यह राजाओंके घरमें पालने योग्य तथा शुभदर्शन और पवित्र माना जाता है, फिर भी तुमने इसे मार डाला । तुमने मेरे बार-बार मना करनेपर भी इस नेवलेको मारा है, अतएव अबसे तुम मेरी पत्नी नहीं रही और न अब मैं ही तुम्हारा पति रह गया। अधिक क्या ? स्त्रियाँ सदा अवध्य बतलायी गयी हैं, इसी कारण मैं तुम्हें छोड़ देता हूँ और तुम्हारा वध नहीं करता।

देवि ! राजकुमारीसे इस प्रकार कहकर राजकुमार अपने नगर लौट गया। क्रोधके कारण उन दोनोंका परस्परका सारा स्नेह नष्ट हो गया। धीरे- धीरे मन्त्रियोंद्वारा यह बात कोसलनरेशको विदित हुई तो उन्होंने उन मन्त्रियोंके सामने ही द्वारपालोंको आज्ञा देकर राजकुमार और वधूको आदरपूर्वक बुलवाया। पुत्र और पुत्रवधूको अपने पास उपस्थित देखकर राजाने कहा- ” पुत्र ! तुमलोगोंमें जो परस्पर अकृत्रिम और अपूर्व स्नेह था, वह सहसा कहाँ चला गया? तुम लोग परस्पर अब सर्वथा विरुद्ध कैसे हो गये ? पुत्र ! यह राजकुमारी कार्यकुशल, सुन्दर स्वभाववाली एवं धर्मनिष्ठ है। आजसे पहले इसने हमारे परिवारमें भी कभी किसीको अप्रिय वचन नहीं कहा है, अतः तुम्हें इसका परित्याग कदापि नहीं करना चाहिये। तुम राजा हो, तुम्हारा राजधर्म ही मुख्य धर्म है और उसका पालन स्त्रीके सहारे ही हो सकता है । अहो ! लोगोंका यह कथन परम सत्य ही है कि ‘स्त्रियोंके द्वारा ही पुत्र एवं कुलका संरक्षण होता है।”

पृथ्वि ! उस समय राजपुत्रने पिताकी बात आदरपूर्वक सुन ली और उनके दोनों चरणोंको पकड़कर वह कहने लगा- “पिताजी, आपकी पुत्रवधूमें कहीं कोई भी दोष नहीं है, किंतु इसने बार-बार रोकनेपर भी मेरे देखते-ही-देखते एक नेवलेको मार डाला। उसे सामने मरा पड़ा देखकर मुझे क्रोध आ गया और मैंने कह दिया कि ‘अब न तो तुम मेरी पत्नी हो और न मैं तुम्हारा पति।’ महाराज! बस इतना ही कारण है, और कुछ नहीं ।” पृथ्वि ! इस प्रकार अपने पतिकी बात सुनकर प्राग्ज्योतिषपुरकी उस कन्याने भी अपने श्वशुरको सिर झुकाकर प्रणाम किया और कहने लगी- ‘इन्होंने एक सर्पिणीको जिसका कोई भी अपराध न था तथा जो अत्यन्त भयभीत थी, मेरे सैकड़ों बार मना करनेपर भी उसे मार डाला। सर्पिणीकी मृत्यु देखकर मेरे मनमें बड़ा क्षोभ और दुःख हुआ, पर मैंने इनसे कुछ भी नहीं कहा। बस यही इतनी-सी ही बात है।”

वसुंधरे ! उन कोसलदेशके राजाने अपने पुत्र और पुत्रवधूकी बात सुनकर सभाके बीचमें ही उन दोनोंसे बड़ी मधुर वाणीमें कहना आरम्भ किया। वे बोले – ‘पुत्रि ! इस राजकुमारने तो सर्पिणीको मारा और तुमने नेवलेको, फिर इस बातको लेकर तुमलोग आपसमें क्यों क्रोध कर रहे हो ? यह तो बतलाओ । पुत्र ! नेवलेके मर जानेपर तुम्हें क्रोध करनेका क्या कारण है ? अथवा राजकुमारी! यदि सर्पिणी मर गयी तो इसमें तुम्हारे क्रोधका क्या कारण है ?’

उस समय कोसलनरेशको आनन्द देनेवाले उस यशस्वी राजकुमारने पिताकी बात सुनकर मधुर स्वरमें कहा-‘महाराज ! इस प्रश्नसे आपका क्या प्रयोजन है ? आप इसे न पूछें। आपको जो कुछ पूछना हो, वह इस राजकुमारीसे ही पूछिये।’ पुत्रकी बात सुनकर कोसलनरेशने कहा- ‘पुत्र! बताओ। तुम दोनोंके बीच स्नेहविच्छेदका क्या कारण है? पुत्रोंमें जो योग्य होनेपर भी अपने पिताके पूछनेपर गोपनीय बात छिपा लेते हैं, वे अधम ही हैं, उन्हें तप्त – बालुकामय घोर रौरव नरकमें गिरना पड़ता है। किंतु जो शुभ अथवा अशुभ सभी बातोंको पिताके पूछनेपर बता देते हैं- ऐसे पुत्रोंको वह दिव्य गति मिलती है, जिसे सत्यवादी लोग पाते हैं। अतएव पुत्र ! तुम्हें मुझसे वह बात अवश्य बतलानी चाहिये, जिसके कारण गुणशालिनी पत्नीके प्रति तुम्हारी प्रीति समाप्त हो गयी है। ‘

पिताकी यह बात सुनकर कोसलवासियों के आनन्दको बढ़ानेवाले उस राजकुमारने जनमानसमें स्नेह सनी वाणीसे कहा- ‘पिताजी! यह सारा समाज यथायोग्य अपने-अपने स्थानपर पधारे, कल प्रातः काल जो आवश्यक बात होगी, मैं आपसे निवेदन करूंगा।’ रात्रिके समाप्त होनेपर प्रातः काल दुन्दुभियोंके शब्दोंसे तथा सूत, मागध एवं वन्दीजनोंकी वन्दनाओंसे कोसलनरेश जगाये गये। इतनेमें ही कमलके समान आँखोंवाला वह महान् यशस्वी राजकुमार भी स्नान कर मङ्गलद्रव्योंसहित राजद्वारपर उपस्थित हुआ । द्वारपालने राजाके पास पहुँचकर इसकी सूचना दी और कहा – ‘महाराज ! आपके दर्शनकी लालसासे राजकुमार दरवाजेपर उपस्थित हैं।’ उसकी बात सुनकर कोसलनरेश बोले- ‘ कञ्चुकिन् ! मेरे साधुवादी पुत्रको यहाँ शीघ्र लाओ।’

नरेशके ऐसा कहने पर उनकी आज्ञाके अनुसार द्वारपालने राजकुमारका वहाँ प्रवेश करा दिया। विनीत एवं शुद्धहृदय राजकुमारने पिताके महलमें जाकर उनके चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम किया। पिताने भी आनन्दपूर्वक राजकुमारको ‘जयजीव’ कहकर दीर्घजीवी होनेका आशीर्वाद दिया और उन्होंने हँसकर अपने पुत्र राजकुमारसे कहा – ‘शुभोदय ! मैंने पहले तुमसे जो पूछा था, वह बात बताओ।’ तब राजकुमारने अपने पितासे कहा – ‘महाराज ! इसके बतलानेसे किसी अच्छे फलकी सम्भावना नहीं है, राजेन्द्र ! यदि आप इसे सुननेके लिये उत्सुक ही हैं तो मेरे साथ ‘कुब्जाम्रक’ तीर्थमें चलनेकी कृपा करें। मैं इसे वहाँ चलकर आपको बतला दूँगा ।’

सुनयने! उस समय राजाने पुत्रकी बात सुनकर उससे प्रेमपूर्वक कहा – ‘बेटा! बहुत ठीक। फिर जब राजकुमार वहाँसे चला गया तो राजाने अपने उपस्थित मन्त्रिमण्डलसे मीठे स्वरमें कहा—’मन्त्रियो! आपलोग मेरी निश्चित की हुई एक बात सुनें, इस समय हम ‘कुब्जाम्रक’ तीर्थमें जाना चाहते हैं, इसकी आपलोग शीघ्र व्यवस्था कर दें। शीघ्राति शीघ्र हाथी, घोड़े, रथ आदि जुतवाये जायँ ।’ उस समय राजाकी बात सुननेके पश्चात् मन्त्रियोंने उत्तर दिया- ‘महाराज ! आप इन सबको तैयार ही समझें ।’

इसके बाद बड़े पुत्रकी अनुमतिसे राजाने अपने छोटे पुत्रको राज्यपर अभिषिक्त कर दिया और राजधानीसे चलकर सम्पूर्ण द्रव्यों तथा अन्तःपुरकी स्त्रियोंके साथ वे लोग बहुत दिनोंके बाद ‘कुब्जाम्रक’ नामक तीर्थमें पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने उस तीर्थके नियमों का पालन करते हुए अन्न-वस्त्र, सुवर्ण- गौ, हाथी-घोड़े और पृथ्वी आदि बहुत-से दान किये। इस प्रकार बहुत दिन व्यतीत हो जानेपर एक दिन राजाने राजकुमारसे पूछा- ‘वत्स! अब वह गोपनीय बात बताओ। तुमने कुल, शील और गुणोंसे सम्पन्न मेरी इस निर्दोष सुन्दरी पुत्रवधूका क्यों परित्याग कर दिया है ?’ इसपर राजकुमारने कहा- ‘इस समय आप शयन करें, प्रातः काल यह सब बातें मैं आपको बतला दूँगा ।’

रात बीत जानेके बाद प्रातःकाल सूर्योदय होनेपर राजकुमारने गङ्गामें स्नानकर रेशमी वस्त्र धारण करके विधिपूर्वक मेरी पूजा की। तत्पश्चात् उस गुरुवत्सल राजकुमारने पिताकी प्रदक्षिणा कर यह वचन कहा – ‘पिताजी! आइये, हमलोग वहाँ चलें, जहाँकी आप गोपनीय बातें पूछ रहे हैं। इसके बाद राजा, राजकुमार और कमलके समान नेत्रोंवाली वह राजकुमारी – सभी उस निर्माल्यकूटके पास पहुँचे, जहाँ वह पुरानी घटना घटी थी। राजपुत्र उस स्थानपर पहुँचकर अपने पिताके दोनों चरणोंको पकड़कर कहने लगा- ‘महाराज! पूर्वजन्ममें मैं एक नेवला था और यहींसे थोड़ी ही दूरपर एक केलेके वृक्षके नीचे मेरा निवास था। एक दिन कालके चंगुलमें फँसकर मैं इस ‘निर्माल्य कूट’ पर चला आया, जहाँ सुगन्धित द्रव्यों और विविध पुष्पोंको खाती हुई एक भयंकर विषवाली सर्पिणी विचर रही थी। उसे देखकर मुझे क्रोध आया और फिर सहसा मैंने उसपर आक्रमण कर दिया। महाराज! इस प्रकार उसके साथ मेरा भयंकर युद्ध आरम्भ हो गया। उस दिन माघमासकी द्वादशी तिथि थी। किसीने भी हमलोगोंको नहीं देखा। उस समय यद्यपि मैं युद्ध करते हुए अपने शरीरकी रक्षापर भी ध्यान रखता था; फिर भी उस सर्पिणीने मेरी नाकके छिद्रमें डँस लिया। इस प्रकार विषदिग्ध होनेपर भी मैंने उस सर्पिणीको मार ही डाला । अन्ततः हम दोनोंकी मृत्यु हो गयी। इसके बाद मैं आप ( कोसलदेश राजा) – के घरमें एक राजपुत्रके रूपमें उत्पन्न हुआ । राजन् ! यही कारण है कि क्रोधवश मैंने उस सर्पिणीको मार डाला था।’

राजकुमारकी बात समाप्त होते ही राजकुमारी भी कहने लगी- ‘महाराज ! मैं ही पूर्वजन्ममें इस ‘निर्माल्यकूट’ – क्षेत्रमें रहनेवाली वह सर्पिणी थी। उस लड़ाई में मरकर मैं प्राग्ज्योतिषनरेशके यहाँ कन्याके रूपमें उत्पन्न होकर आपकी पुत्रवधू हुई। राजन् ! मेरी मृत्युके कारणभूत प्राक्तन तमोमय संस्कारोंकी स्मृति मेरे जीवात्मापर बनी थी, अतः मैंने भी उस नेवलेको मार डाला। प्रभो! यही वह गोपनीय रहस्य है।’

वसुंधरे ! इस प्रकार पुत्रवधू और पुत्रकी बात सुनकर राजा सर्वथा निर्विण्ण हो गये और वे वहाँसे पुनः ‘माया-तीर्थ’ में चले गये और वहीं उनके जीवनका अन्त हुआ। उस राजकुमारी तथा राजकुमारने भी ‘पुण्डरीक तीर्थ’ में पहुँचकर मनका निग्रहकर प्राणोंका त्याग किया और वे उस श्रेष्ठ स्थानपर पहुँच गये, जहाँ भगवान् जनार्दन सदा विराजमान रहते हैं। इस प्रकार राजा, राजकुमार और यशस्विनी राजकुमारी कठिन तपके द्वारा कर्मबन्धनको विच्छिन्न कर श्वेतद्वीपमें पहुँचे और उनका सारा परिवार भी महान् पुण्यके द्वारा परम सिद्धिको प्राप्तकर श्वेतद्वीप पहुँच गया।

देवि! यह मैंने तुमसे ‘कुब्जाम्रक’ – तीर्थकी महिमा बतलायी। इसका वर्णन मैंने उन ब्राह्मण- श्रेष्ठ रैभ्यसे भी किया था। यह बहुत पवित्र प्रसङ्ग है। चारों वर्णोंका कर्तव्य है कि वे इसका पठन एवं चिन्तन करें। इसे मूर्ख, गोहत्या करनेवाले, वेद-वेदाङ्गके निन्दक, गुरुसे द्वेष करनेवाले और शास्त्रोंमें दोष देखनेवाले व्यक्तिके सामने कभी नहीं कहना चाहिये। इसे भगवान् के भक्तों तथा वैष्णव- दीक्षा सम्पन्न पुरुषोंके सामने ही कहना चाहिये । पृथ्वि ! जो प्रातः काल उठकर इसका पाठ करता है, वह अपने कुलके आगे-पीछेकी दस-दस पीढ़ियोंको तार देता है। देवि! अपने भक्तोंकी सुख प्राप्तिके लिये मैंने ‘कुब्जाम्रक-तीर्थ’ के अन्तर्वर्ती स्थानोंका वर्णन किया, अब तुम दूसरी कौन-सी बात पूछना चाहती हो, वह कहो ।

अध्याय १०७ 'दीक्षासूत्र' का * वर्णन

सूतजी कहते हैं – इस प्रकार अनेक धर्मोको सुनकर बहुतोंको मुक्ति सुलभ हो जाय, इस उद्देश्यसे पृथ्वीने भगवान् जनार्दनसे पूछा- भगवन्! ‘मायातीर्थ’की महिमा बड़ी अद्भुत है । इसके माहात्म्य-श्रवणसे मेरा अन्तःकरण शुद्ध हो गया। अब प्राणियोंके कल्याण तथा विश्वकी रक्षाके लिये आप कृपाकर मुझे अपनी दीक्षाविधिका उपदेश करें।

 भगवान् वराह बोले- देवि! तुमने जो भागवती दीक्षाके विषयमें पूछा है, अब उसे बताता हूँ, सुनो। यह दीक्षा कर्ममय संसारसे मुक्त और सर्वसुख प्रदान करनेवाली है। इस दीक्षाका रहस्य योगव्रतमें स्थित रहनेवाले देवतातक भी नहीं जानते। इस मङ्गलमय धर्मका रहस्य केवल मैं ही जानता हूँ। देवि! उत्तम दीक्षा वह है, जिसके प्रभावसे मुझमें मन लगाकर मनुष्य सुखपूर्वक गर्भवासरूप संसार समुद्रसे पार पा जाता है। इसके लिये साधकको चाहिये कि वह गुरुके समीप जाकर उनसे प्रार्थना करे कि ‘गुरुदेव ! मैं आपका शिष्य होना चाहता हूँ, आप मुझे दीक्षा देनेकी कृपा कीजिये।’ फिर उनकी आज्ञासे दीक्षाके उपयोगी पदार्थों-धानका लावा, मधु, कुश, घृत, चन्दन, पुष्प, दीप धूप- नैवेद्य, काला मृगचर्म, पलाशका दण्ड, कमण्डलु, कलश, वस्त्र, खड़ाऊँ, स्वच्छ यज्ञोपवीत, अर्घ्यपात्र, चरुस्थाली, दर्वी, तिल-यव अनेक प्रकारके फल, दीक्षित पुरुषोंके खानेयोग्य अन्न, पीनेयोग्य तथा तीर्थोंके जल आदि वस्तुओंको लाकर एकत्र करे। साथ ही आवश्यक (उपयोगी) विविध प्रकारके बीज, रत्न, एवं काच आदि पदार्थोंको भी एकत्र कर ले।

तदनन्तर माङ्गलिक द्रव्य लगाकर स्नान करे और गुरुके चरणोंको पकड़कर उनसे आज्ञा लेकर एक बड़ी वेदीका निर्माण करे। यदि दीक्षा लेनेवाला व्यक्ति ब्राह्मण हो तो उसे चाहिये कि वह सोलह हाथ लम्बी-चौड़ी चौकोर वेदी बनाकर उसके ऊपर कलशकी स्थापना करे । धान्यके ऊपर नवीन एवं सुदृढ़ कलशकी विधिपूर्वक स्थापना कर वेदमन्त्रोंका उच्चारण करके उसमें जल भर दे और फिर पुष्पों तथा पल्लवोंसे उसे अलंकृत कर दे। तत्पश्चात् उसपर विधिपूर्वक तिलोंसे भरा हुआ एक पात्र स्थापित कर गुरुमें मेरी भावना करके पहलेसे एकत्र किये हुए द्रव्योंके द्वारा उनकी विधिपूर्वक पूजा करे। गुरुके प्रति निश्चितरूपसे धर्मको जानने तथा पालन करनेवाला शिष्य पुरुष उनकी सविधि पूजाकर पूर्वोक्त निर्दिष्ट द्रव्योंको उस वेदीपर स्थापित करे। सुन्दरि ! फिर चारों भागोंमें जलसे भरे हुए चार कलशोंको आमके पल्लवोंसे पूर्णकर ब्राह्मणोंको दानार्थ संकल्प कर दे। इसके बाद वेदीको श्वेत सूतोंद्वारा सब ओरसे घेर दे और चारों पार्श्वभागों में चार पूर्णपात्र रखे। उस समय दीक्षा देनेवाले गुरुका कर्तव्य है कि उक्त कार्य सम्पन्न करके शिष्यको ऐसा मन्त्र दे, जो रुचि एवं वर्णादिके न्यायके अनुसार हो अथवा जिससे उसकी हार्दिक तुष्टि हो। जिसके मनमें गुरुके प्रति पवित्र भक्ति भावना हो तथा जिस दीक्षाकी विशेष अभिलाषा हो, वह भगवान् विष्णुके मन्दिरमें जाकर नियमका पालन करते हुए सभी कार्योंको सम्पन्न करे। फिर आचार्य पूर्वाभिमुख बैठकर दीक्षाकी इच्छा रखनेवाले सभी शिष्योंको निम्नलिखित उपदेश सुनाये।

जो व्यक्ति मेरा भक्त होकर भी किन्हीं अन्य भगवद्भक्त सत्पुरुषोंको देखकर उनके लिये आदरपूर्वक उठकर स्वागत-सत्कार आदि कर्म नहीं करता, वह मानो मेरी ही हिंसा करता है। जो कन्याका दान करके अपने कर्मसे उसका उपकार नहीं करता, उसने मानो अपने पूर्वके आठ पितरोंकी हत्या कर दी। जो निष्ठुर व्यक्ति अपनी साध्वी स्त्रीका भी, जो एक प्रिय मित्रका कार्य करती है, वध करता है-वह हिंसक व्यक्ति पुनः स्त्री-योनिमें जन्म पाता है और पूर्वोक्त कर्मके प्रभावसे उसे पुनः दाम्पत्यसुखकी प्राप्ति नहीं होती । ब्राह्मणका वध करनेवाला, कृतघ्न, गोघाती – ये पापी समझे जाते हैं तथा जो अन्य पापी कहे गये हैं, वे यदि शिष्य बनकर दीक्षा लेना चाहें तो उन्हें शिष्य न बनाकर उनका परित्याग ही कर देना चाहिये ।

दीक्षित पुरुषको चाहिये कि वह यदि परमसिद्धि या मोक्ष पानेकी इच्छा रखता हो या सनातन धर्मका संग्रह करना चाहता हो तो बेल, गूलर तथा उपयोगी वृक्षोंको कभी न काटे। क्या खाना चाहिये, क्या नहीं खाना चाहिये, इसे आचार्यको भी अपने शिष्यको बता देना चाहिये। गूलरका ताजा फल भक्ष्य है, पर उसका बासी फल सर्वथा अभक्ष्य है। लहसुन, प्याज आदि वस्तुएँ जिनसे दुर्गन्ध निकलती हैं, वे सभी अभक्ष्य मानी जाती हैं।

दीक्षित व्यक्तिके लिये उचित है कि वह सभी प्रकारके मांस मछलियोंका निश्चयपूर्वक सर्वथा त्याग कर दे। उसे दूसरोंकी निन्दा और प्राणीकी हिंसा भी कभी नहीं करनी चाहिये। वह किसीकी चुगली न करे और चोरी तो सर्वथा त्याग दे । दूरसे आये हुए अतिथिको आदर- सत्कारपूर्वक भोजनादि कराना चाहिये। वह गुरु, राजा तथा ब्राह्मणकी स्त्रीके प्रति मनमें कभी बुरी भावना न करे। सुवर्ण, रत्न और युवती स्त्री- इनकी ओर चित्त न लगाये। दूसरेके उत्तम भाग्य और अपनी विपत्तिको देखकर दुःख न करे, यह सनातन धर्म है।

वसुंधरे ! दीक्षाके पहले मन्त्र लेनेवाले शिष्यके प्रति गुरु इन सब बातोंका उपदेश दें। सुन्दरि ! साथ ही छुरा तथा जलसे भरा हुआ एक पात्र भी रखना चाहिये, फिर मन्त्रोच्चारणपूर्वक मेरा आवाहन एवं विधिके साथ मेरा पूजन करना चाहिये ।

देवि ! इस प्रकार अर्घ्य एवं पाद्य देनेके उपरान्त गुरु हाथमें अस्तूरा लेकर शुद्ध भावसे यह मन्त्र पढ़े। मन्त्रका भाव यह है- ‘शिष्य ! विष्णुमय जलकी सहायतासे तुम्हारा क्षौरकर्म किया जा रहा है। इस अवसरपर वरुण देवता तुम्हारे सिरकी रक्षा करें। यह दीक्षा संसारसे उद्धार करनेवाली है।’ फिर नाई क्षौरकर्म करे और यजमान उस कलशको उस नाईको ही दे दे। नाई ऐसी सावधानी से (सिरका) क्षौरकर्म करे कि कहीं त्वचाके कटनेसे एक विन्दु भी रक्त न निकले। इस प्रकार सविधि कृत्य सम्पन्न कर लेना चाहिये। इसके उपरान्त यजमान भगवान्‌में श्रद्धा रखनेवाले पुरुषोंको प्रणाम करके अग्नि प्रज्वलित करे और फिर वह धानका लावा, काला तिल, घृत और मधु – इन वस्तुओंको मिलाकर उसमें सात आहुतियाँ प्रदान करे। फिर तिल और खीरसे बीस आहुतियाँ देनी चाहिये। हवनके पश्चात् घुटनोंके बल जमीनपर झुककर इस मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये। मन्त्रका भाव यह है- ‘दोनों अश्विनीकुमार, दसों दिशाएँ, सूर्य और चन्द्रमा- ये सभी इस कार्यमें साक्षी हैं। सत्यके बलपर ही पृथ्वी तथा आकाश अवलम्बित हैं। सत्यके बलसे ही सूर्य गतिशील हैं तथा पवनदेव प्रवाहित होते हैं। तदनन्तर मन्त्रपूर्वक विधिके साथ आचार्यकी पूजा कर उन्हें प्रसन्न करना चाहिये। गुरुको भगवान्‌में भक्ति रखनेवाला एवं दिव्य पुरुष होना चाहिये। फिर तीन बार गुरुकी प्रदक्षिणा कर उनके चरणोंको श्रद्धापूर्वक पकड़ ले और कहे- ‘गुरुदेव ! मैं आपकी कृपा तथा इच्छाके अनुसार ‘दीक्षा- ग्रहण कर्म’ में उद्यत हुआ हूँ। मुझसे कुछ अनुचित हुआ हो तो आप उसे क्षमा करनेकी कृपा करें। फिर स्वयं वह पूरब दिशाकी ओर मुख करके बैठ जाय। इस समय गुरुकी दृष्टि केवल शिष्यपर ही रहनी चाहिये। गुरुका कर्तव्य है कि हाथमें कमण्डलु एवं यज्ञोपवीत लेकर कहे- ‘शिष्य! भगवान् विष्णुकी कृपासे तुम्हें यह सुअवसर प्राप्त हुआ है। साथ ही सिद्धदीक्षा और कमण्डलु – ये वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं। कर्मके प्रभावसे दीक्षासम्बन्धी इस शुभ अवसरपर तुम अपने हाथोंमें कमण्डलु ले लो। इसके बाद गुरु उसे मन्त्रकी दीक्षा दें।

दीक्षाप्राप्त पुरुष गुरुके चरणोंपर मस्तक रखकर प्रणाम करे और उनकी प्रदक्षिणा कर इस प्रकार कहे- ‘गुरुदेव ! मैंने अब आपकी शरण प्राप्त की है। आपके द्वारा मुझे ‘वैष्णवी दीक्षा’ सुलभ हो गयी, यह आपकी कृपाका फल है। फिर गुरु उसे उठाकर शुद्ध जलसे भरा कमण्डलु तथा दिव्य तन्तुओंद्वारा निर्मित एक वस्त्र शिष्यको दें। उस समय गुरुको कहना चाहिये – ‘वत्स ! तुम यह वस्त्र तथा पवित्र जल भरा पवित्र कमण्डलु ग्रहण करो  पुनः शिष्य गुरुको चन्दन लगाकर हाथमें मधुपर्क लेकर कहे- ‘भगवन्! आप पार्थिव शरीरको शुद्ध करनेवाले इस मधुपर्कको ग्रहण कीजिये।’

तत्पश्चात् शिष्यको गुरुके चरणोंको पकड़कर उन्हें यत्त्रपूर्वक संतुष्ट करना चाहिये। फिर मनपर संयम रखते हुए अञ्जलिको मस्तकसे लगाकर गुरुप्रदत्त मन्त्रको हृदयमें धारण करे और कहे- ‘भगवान्‌में भक्ति रखनेवाले सभी पुरुष मेरी बात सुननेकी कृपा करें। गुरुदेवने मेरी सभी कामनाओंको पूर्ण कर दिया। मैं इनका सेवक और शिष्य हो गया और ये देवताके समान मेरे गुरु हो गये।’

वसुंधरे ! आगम (वैष्णव) शास्त्रोंमें ब्राह्मणकी दीक्षाकी यही विधि कही गयी है। अब जो अन्य तीन वर्णोंके लिये दीक्षाकी विधि है, वह भी मुझसे सुनो।

अध्याय १०८ क्षत्रियादि दीक्षा एवं गणान्तिकादीक्षाकी विधि तथा दीक्षित पुरुषके कर्तव्य

भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! मैंने ब्राह्मण- दीक्षाके समय जिन वस्तुओंके संग्रहकी बात कही है, क्षत्रियको भी उन सबको एकत्र करना चाहिये । उसे केवल एक कृष्णसार मृगका चर्म नहीं लाना चाहिये। इसी प्रकार उसे पलाशके स्थानपर पीपल वृक्षका दण्ड ग्रहण करना चाहिये और काले मृगके चर्मकी जगह काले बकरेका चर्म लेना चाहिये। उसकी दीक्षावेदी भी सोलह हाथकी जगह बारह हाथके प्रमाणकी हो। उसको गोबरसे लीप दे।

तदनन्तर गुरुके पैरोंको पकड़कर वह कहे- ‘विष्णो! मैंने सम्पूर्ण शस्त्रों एवं क्षत्रियके क्रूर कर्मोंका परित्याग कर दिया है और मैं अब आप विष्णुस्वरूप गुरुदेवकी शरणमें आ गया हूँ आप जन्म-मरणरूपी संसार सागरसे मेरा उद्धार कीजिये। इस प्रकार गुरुसे प्रार्थना कर उनमें मेरी भावना करते हुए उनके दोनों चरणोंको पकड़कर कहे- ‘देवदेव वराह! अब मैं शस्त्रका स्पर्श करना नहीं चाहता और न अब मैं किसीकी निन्दा ही करूँगा । आपने वराहरूप धारण कर संसार- सागरसे मुक्त होनेके लिये जिन कर्मोंको करनेका निर्देश किया है, अब मैं वही करनेके लिये तत्पर हूँ। तत्पश्चात् पूर्वनिर्दिष्ट विधिके अनुसार ही अनेक प्रकारके चन्दन, धूप एवं पत्र आदि उपकरणोंसे सबकी पूजा कर दीक्षा ग्रहण करे। दीक्षा लेनेके बाद, शुद्ध भगवद्भक्त पुरुषोंको भोजन कराना चाहिये। क्षत्रियकी दीक्षाके लिये यह निश्चित विधि है।

सुन्दरि ! अब वैश्यकी दीक्षाकी विधि बतलाता हूँ, वैश्य (जाति) – का साधक जिस प्रकार सिद्धि प्राप्त कर लेता है, उसे सुनो। वह भी पूर्ववत् सभी सामग्रियोंको एकत्र कर दस हाथकी चौकोर वेदी बनाये और पूर्वोक्त नियमानुसार उसे गायके गोबर से लीप दे। फिर बकरेके चर्मसे अपने शरीरको वेष्टितकर दाहिने हाथमें गूलरका दातुन लेकर शुद्ध भगवद्भक्त पुरुषोंकी तीन बार प्रदक्षिणा करे। फिर गुरुके सम्मुख घुटनेके बल बैठकर कहे- ‘भगवन्! मैं वैश्य हूँ। मैं सम्पूर्ण सांसारिक प्रपञ्चोंका परित्याग कर आपकी शरणमें आया हूँ। आप प्रसन्न होकर मुझे संसार-बन्धनसे मुक्त करनेवाला मन्त्र देनेकी कृपा करें।’ मेरा भक्तिरूप प्रसाद पानेकी इच्छावाला वह वैश्य इस प्रकार मेरी प्रार्थना कर गुरुके चरणोंका स्पर्श करे। साथ ही कहे- ‘गुरो ! इस समय मैं आपकी कृपासे ‘वैष्णवी दीक्षा’ प्राप्त करनेके लिये प्रस्तुत हुआ हूँ।’ इसके बाद भगवद्भक्त पुरुषोंके सामने उनमें देवताकी भावना करके अभिवादन करे। इसके पश्चात् जिसमें किसी प्रकारके अपराधका भागी न होना पड़े, ऐसा भोजन कराना उचित है।

 

पृथ्वि ! अब द्विजेतरोंकी दीक्षाकी विधि बतलाता हूँ। जो यह दीक्षा लेता है, उसके फलस्वरूप सम्पूर्ण पापोंसे उसकी मुक्ति हो जाती है। दीक्षाकी इच्छा रखनेवालेको चाहिये कि सम्पूर्ण संसारके उपयोगी जिन द्रव्योंको मैं पहले कह चुका हूँ, वह भी उन्हीं सभीका सम्यक् प्रकारसे संग्रह करे और आठ हाथके प्रमाणकी चौकोर वेदी बनाकर उसे गोबरसे लीप दे। उसके लिये नीले बकरेका चर्म एवं बाँसका दण्ड तथा नीला वस्त्र ही उपयुक्त है। इस प्रकार इन वस्तुओंका संग्रह कर पूर्वोक्त विधिसे दीक्षाका कार्य सम्पन्न कर वह मेरी शरणमें आकर कहे- ‘भगवन्! मैंने अब अपने अपवित्र कर्म तथा अभक्ष्य भक्षणका परित्याग कर दिया है।’ फिर गुरुके चरणोंको पकड़कर कहे- ‘प्रभो ! भगवान् श्रीहरिकी मुझपर कृपा हो गयी है। उनकी प्रसन्नतासे पहलेकी भाँति गोपनीय मन्त्र मुझे प्राप्त होनेका अवसर मिला है। आप मुझपर प्रसन्न हो जायँ ।’ पश्चात् चार बार गुरुकी प्रदक्षिणा कर उन्हें प्रणाम करे । फिर चन्दन एवं पुष्पसे गुरुकी पूजा कर भक्तोंको नियमके अनुसार भोजन कराये।’

वसुंधरे ! दीक्षित हो जानेपर सभी वर्णोंको, जिस प्रकारके छत्र दिये जायँ, यहाँ उसका स्पष्टीकरण किया जाता है। ब्राह्मणके लिये श्वेत क्षत्रियके लिये लाल, वैश्यके लिये पीला तथा द्विजेतरके लिये नीला छत्र (छाता) देनेकी विधि है।

पृथ्वी बोली- केशव ! सभी वर्णोंकी न्यायानुसार प्राप्त होनेवाली दीक्षा मैं सुन चुकी, अब मैं यह जानना चाहती हूँ कि आपके कर्ममें सदा संलग्न रहनेवाले दीक्षित पुरुषके कर्तव्य क्या हैं?

भगवान् वराह बोलेकल्याणि ! तुम जो बात पूछती हो, उसका गूढ़तम सार तथा रहस्ययुक्त उत्तर तो यह है कि वस्तुतः दीक्षित व्यक्तिको निरन्तर एकमात्र मेरा ही चिन्तन करना चाहिये । महाभागे ! ‘गणान्तिकादीक्षा’ का रहस्य अत्यन्त गोपनीय वस्तु है और इसे मेरा ही स्वरूप समझना चाहिये। विशालाक्षि ! मेरी भक्तिमें लगे रहनेवाले दीक्षित पवित्रात्मा व्यक्तिको विधिपूर्वक मन्त्रके द्वारा इसे ग्रहण करना चाहिये। जो भगवद्भक्त होकर इस दृष्टिजनित या स्पर्शजनित गणान्तिकादीक्षाको ग्रहण करता है, उसके लिये और कोई कर्तव्य कार्य शेष नहीं रह जाता। उसके लिये दीक्षा ही सर्वफलदायिका होती है। किंतु सुन्दरि ! जो व्यक्ति केवल कानसे ही सुनकर मन्त्रोंकी दीक्षा ग्रहण करता है, उसे ‘आसुरी- दीक्षा’ कहते हैं। अतएव पवित्र मनवाले पुरुषको चाहिये कि मुझसे सम्बन्धित गुह्य दीक्षा ग्रहण करे। जो बुद्धिमान् पुरुष इस दीक्षाके सहारे मेरा ध्यान- स्मरण करता है, उसने मानो हजारों जन्मोंतक मेरा ध्यान – चिन्तन कर लिया ऐसा समझना चाहिये।

वसुंधरे ! इस ‘गणान्तिकादीक्षा’ के लिये कार्तिक, मार्गशीर्ष और वैशाख मासके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथियाँ प्रशस्त हैं। दीक्षाकी बात निश्चित हो जानेपर उसे तीन दिनोंतक शुद्ध आहारपर रहना चाहिये। फिर मेरे धर्मपर अटल विश्वास रखकर उचित समयमें दीक्षा लेनी चाहिये। सुशोभने साधक पुरुष मेरे सामने अग्नि प्रज्वलित कर कुशका परिस्तरण करे। फिर भावनामयी ‘दीक्षा’ की स्थापना करे। तत्पश्चात् शिष्य देव भावनासे परम पवित्र होकर दीक्षाके कार्यमें संलग्न हो जाय।

उस समय ‘ॐ नमो नारायणाय’ कहकर यह मन्त्र पढ़े। मन्त्रका भाव है- ‘शिष्य ! यह दीक्षा भगवान् नारायणके दाहिने अङ्गसे प्रकट हुई है। उनकी कृपासे ही पितामह ब्रह्माने इसे धारण किया है, वही दीक्षा तुम भी ग्रहण करो।’ इसके बाद स्नानकर रेशमी वस्त्र धारणकर वह मेरे अङ्गोंका स्पर्श करे। फिर उसी समय कंघी और अञ्जन समर्पण कर मुझ भगवान् नारायणको मन्त्रसे स्नान कराये। मन्त्रका भाव यह है- ‘देवेश्वर ! स्नान करनेके लिये यह जल सुवर्णके कलशमें रखकर आपकी सेवमें समर्पित है। मैं हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रहा हूँ, आप इससे स्नान करनेकी कृपा करें। फिर ‘ॐ नमो नारायणाय’ का उच्चारण कर कहे — ‘माधव ! आपकी कृपाके बलपर गुरुदेवकी दयासे यह मन्त्रमयी दीक्षा मुझे प्राप्त हुई है। यह दीक्षा मुझे योग्य बना दे कि कभी भी मेरा मन अधर्मकी ओर न जा सके। ‘

वसुंधरे ! जो व्यक्ति इस विधिके अनुसार मेरे कर्ममें दीक्षित होता है, उसमें गुरुकी कृपासे महान् तेजका आधान हो जाता है। फलस्वरूप वह मेरे लोकको प्राप्त होता है। सुन्दरि ! यह दीक्षा चुगलखोर, धूर्त एवं कुत्सित शिष्यको नहीं देनी चाहिये। इसे विधिपूर्वक ग्रहण कराकर योग्य एवं सज्जन शिष्यके हाथमें एक माला देनी चाहिये। देवि ! १०८ दानोंकी जपमाला उत्तम, ५४ दानों की मध्यम तथा २७ दानोंकी गणान्तिका माला कनिष्ठ कही गयी है। रुद्राक्षकी माला परमोत्तम है, पुत्रजीवककी माला मध्यम एवं कमलगट्टेकी माला कनिष्ठ समझनी चाहिये। देवि! यह दीक्षाप्रसङ्गका मैंने तुमसे वर्णन किया। यह ‘गणान्तिका’ नामकी प्रसिद्ध दीक्षा शुद्धस्वरूप, सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये हितकारी तथा मोक्ष चाहनेवालोंके लिये उत्तम साधन है। साधक जप करनेकी इस मालाको जूठे हाथ न छुए और न इसे स्त्रियोंके हाथमें ही दे, बायें हाथसे भी इसका स्पर्श न करे । इसे अन्तरिक्ष ( दीवाल ) – में किसी कीलके सहारे लटका देना चाहिये। जपके समय इसे किसीको दिखाना भी ठीक नहीं है। जपके पूर्व एवं उपरान्त इसकी भी पूजा-स्तुति करनी चाहिये।

देवि! यह मैंने तुमसे दीक्षाका गूढ़ रहस्य बतलाया। जो पुरुष मेरी उपासनामें परायण होकर इस विधिके अनुसार मेरे ( भगवत्सम्बन्धी ) इन कर्मोंको सम्पन्न करता है, वह अपने सात कुलोंको तार देता है।

अध्याय १०९ पूजाविधि और ताम्रधातुकी महिमा

पृथ्वी बोली- भगवन्! अब आप मुझे यह बताने की कृपा करें कि आपके उपासक पुरुषको संध्या आदि कर्म तथा आपकी पूजा किस प्रकार करनी चाहिये ?

भगवान् वराह कहते हैं माधवि संध्यामें संसारसे मुक्त करनेकी शक्ति है। अतः प्रातः काल शौच-स्नानादिसे निवृत्त होकर विधिपूर्वक संध्याकी उपासना करनी चाहिये। पहले श्रद्धालु पुरुष हाथमें एक अञ्जलि जल लेकर कुछ क्षणतक मेरा ध्यान करे। फिर कहे- ‘भगवन्! आदिकालमें आप ही व्यक्तरूपसे विराजमान थे। आपसे संसारकी सृष्टि हुई। ब्रह्मा, रुद्र तथा अन्य सभी देवता आपसे ही उत्पन्न होकर आपके ध्यानमें तत्पर हुए। वे संध्या समयमें ध्यानद्वारा आपकी आराधना करते हैं। आप ही सातों दिन, पक्ष, मास, ऋतु आदि कालक्रमकी व्यवस्था करनेके लिये सूर्यरूपसे प्रकट हैं। अतः भगवन्! इस संध्याकालमें हम आपकी उपासना करते हैं। आपको हमारा नमस्कार है।’ उपासनाका यह विषय अत्यन्त गोपनीय, रहस्यमय तथा परम श्रेष्ठ है। जो इसका सदा पाठ करता है, वह पापसे लिप्त नहीं हो सकता। जिसने दीक्षा नहीं ली है एवं यज्ञोपवीत धारण नहीं किया है, उसे कभी भी इस मन्त्रको नहीं बताना चाहिये ।

देवि ! संध्याके बाद मेरी पूजाके लिये पहले ‘कर्माङ्गदीपक’ जलानेकी विधि है। इसके लिये साधक पुरुष यों प्रार्थना करे- ‘भगवन्! मैं आपके धर्मोका पालन करता हुआ यह उत्तम दीप अर्पण कर रहा हूँ, आप इसे कृपाकर स्वीकार कीजिये।’ फिर घुटनोंके बल बैठकर कहे- ‘विष्णो! ‘ॐ’ आपका स्वरूप है। आप ऐश्वर्योंसे परिपूर्ण, कृपामय एवं तेजस्वरूप हैं। आपको मेरा नमस्कार है। भगवन्! आपकी आज्ञासे समस्त देवता अग्निमें निवास करते हैं। अग्निमें जो दाहिका शक्ति है, वह आपका ही तेज है। मुझमें और मन्त्रमें भी आपका ही तेज काम कर रहा है। यह दीपक तथा सभी वैदिक-तान्त्रिक मन्त्र भी आपके ही स्वरूप हैं। आप ही समस्त कल्याणोंके स्रोत हैं। आप यह दीपक स्वीकार करें।’

तदनन्तर मेरा उपासक अर्घ्य, पाद्य, आचमन, स्नान, चन्दन, पुष्प आदिसे मेरा अर्चन कर, धूप दिखलाये। धूप उत्तम गन्धसे युक्त और मनको आकृष्ट करनेवाला हो उसे हाथमें लेकर ॐ

नमो नारायणाय’ इस मन्त्रका उच्चारण कर इस प्रकार कहे — ‘केशव ! आपके अङ्ग तो स्वभावतः सुगन्धित हैं ही; फिर भी मैं इन्हें इस सुन्दर गन्धवाले धूपसे सुगन्धित करना चाहता हूँ। फलस्वरूप मेरे भी सभी अङ्गोंको गन्धयुक्त बनानेकी कृपा करें। प्रभो! आपको धूप अर्पण करना साधकके लिये सम्पूर्ण संसारसे मुक्त करनेका परम साधन है । ‘

इस प्रकार उत्तम दीपक हाथमें लेकर घुटनेके बल बैठ जाय और पूजाकर पुनः कहे- ‘विष्णो! आपके लिये नमस्कार है। आप परम तेजस्वी हैं। सम्पूर्ण देवता अग्निमें निवास करते हैं और अग्नि आपके ही तेजसे प्रतिष्ठित है। तेज स्वयं आपका आत्मा है। भगवन्! प्रकाशमान यह दीप तेजोमय है। संसारसे मुक्त होनेके लिये मैं इसे आपको अर्पण करता हूँ। आप इसे स्वीकार करनेकी कृपा कीजिये। आप मूर्तिमान् होकर मेरे इस अर्पणको सफल बनाइये।’ वसुंधरे ! जो इस प्रकार मुझे दीपक अर्पण करता है, उसके समस्त पिता- पितामह आदि पितर तर जाते हैं।

भगवान् नारायणकी इस प्रकारकी बात सुनकर पृथ्वीका मन आश्चर्यसे भर गया। अतः उन्होंने पूछा—’ भगवन्! मैं यह जानना चाहती हूँ कि आपके पूजाकी सामग्री कैसे पात्रोंमें रखी जानी चाहिये, जिससे आपको प्रसन्नता प्राप्त हो ? भगवन्! इसे आप तत्त्वतः बतानेकी कृपा कीजिये।’

भगवान् वराह बोले- ‘देवि ! मेरी पूजाकें पात्र सोने, चाँदी और काँसे आदिके भी हो सकते हैं, किंतु उन सबको छोड़कर मुझे ताँबेका पात्र ही बहुत अच्छा लगता है’ भगवान् नारायणकी यह बात सुनकर धर्मकी इच्छा रखनेवाली पृथ्वी देवीने उन जगत्प्रभुके प्रति यह मधुर वचन कहा—’भगवन्! आपको ताँबेका पात्र ही अधिक रुचता है, इसका रहस्य क्या है, यह मुझे बतलानेकी कृपा करें।’

उस समय पृथ्वीका प्रश्न सुनकर अनादि, परम स्वतन्त्र भगवान् नारायण, जो विश्वमें सबसे बड़े देवता हैं, पृथ्वीसे इस प्रकार बोले- ‘माधवि ! आजसे सात हजार युग पूर्व ताँबेकी उत्पत्ति हुई थी और वह मुझे देखनेमें अधिक प्रिय प्रतीत हुआ। कमलनयने! पूर्व समयमें ‘गुडाकेश’ नामका एक महान् असुर ताँबेका रूप बनाकर मेरी आराधना करने लगा। विशालाक्षि ! उसने धर्मकी कामनासे चौदह हजार वर्षोंतक कठोर तप करते हुए मेरी आराधना की। उसके हार्दिक भाव एवं तीव्र तपसे मैं संतुष्ट हो गया, अतः ताँबेके समान चमकनेवाले उस दिव्य स्थानपर मैं गया, जहाँ ताँबेकी उत्पत्ति हुई थी। देवेश्वरि ! उस आश्रमको देखकर मैंने उससे प्रसन्न होकर कुछ बातें कहीं। इतनेमें वह महान् असुर मुझे देखकर घुटनोंके बल बैठ गया और मेरी स्तुति करने लगा। फिर मेरी उपासनामें तत्पर रहनेवाले उस ‘गुडाकेश’ नामक असुरने मेरे चतुर्भुज रूपको देखा तो नम्रतापूर्वक हाथ जोड़ लिया और भूमिपर मस्तक झुकाकर मेरी प्रार्थनाके लिये उद्यत हो गया। उस असुरको देखकर मेरा अन्तःकरण प्रसन्न हो गया और मैंने उससे कहा- ‘गुडाकेश ! तुम बड़े भाग्यशाली हो कहो, मैं तुम्हारे लिये कौन-सा कार्य करूँ ? सुव्रत मेरी आराधना बड़ी कठिन वस्तु है, फिर भी तुम्हारी मन-क्रम-वचनोंद्वारा सम्पादित भक्तिसे मैं परम संतुष्ट हूँ। अनघ ! अब तुम्हें जो रुचे, तुम वह वर माँग लो।’

वसुंधरे ! मेरी इस प्रकारकी बात सुनकर गुडाकेशने हाथ जोड़कर शुद्ध हृदयसे कहा- ‘देव! यदि आप सचमुच मुझपर अन्तर्हृदय एवं मनसे प्रसन्न हैं तो मुझपर ऐसी कृपा करें कि हजारों जन्मोंतक मेरी आपमें दृढ़ भक्ति बनी रहे। केशव ! साथ ही मेरी यह इच्छा है कि आपके हाथसे छूटे हुए चक्रके द्वारा मेरी मृत्यु हो और इस

प्रकार मेरे शरीरके गिरनेपर उससे जो कुछ भी वसा, मज्जा, मेदा और मांस आदि बिखरें, वे सब ताँबेके * रूपमें परिवर्तित हो जायें तथा उसमें सबको पवित्र करनेकी शक्ति निहित हो। फिर मङ्गलमय धार्मिक कार्य करनेवाले पुरुष उस ताँबेसे आपके पात्रका निर्माण करायें उस ताँबेके पात्रमें आपकी पूजनोपयोगी वस्तु रखकर साधक आपको निवेदित करे तथा उस अर्पित की हुई वस्तुसे आप पूर्ण प्रसन्न हों। भगवन् ! यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे यही वर देनेकी कृपा करें।’

उस समय भगवान् नारायणने गुडाकेशसे कहा – ‘असुरराज ! तुमने उग्र तपस्या करते समय जो कुछ भी सोचा है, वह सब वैसा ही होगा। जबतक मेरा बनाया हुआ संसार स्थित रहेगा, तबतक तुम ताम्रमय बनकर मुझमें स्थित रहोगे।’ सुव्रते ! उसी समयसे गुडाकेशका शरीर ताम्रमय बनकर जगत् में प्रतिष्ठित हुआ। इसीलिये ताँबेके पात्रमें रखकर जो वस्तु मुझ भगवान्‌को अर्पित की जाती है, उससे मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है। देवि ! यही कारण है कि ताँबा मङ्गलस्वरूप, पवित्र एवं मुझे अत्यन्त प्रिय है। वसुंधरे ! फिर मैंने उस असुरसे कहा कि देखो, मध्याह्नकालके सूर्यमें तुम्हें मेरे चक्रका दर्शन होगा। वैशाखमासके शुक्लपक्षकी द्वादशीके दिन मध्याह्नकालमें मेरा तेजोमय चक्र तुम्हारे शरीरका अन्त करेगा, जिससे तुम मेरे लोकको प्राप्त कर लोगे, इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है।

गुडाकेशसे यह कहकर मैं वहीं अन्तर्धान हो गया। उधर गुडाकेश भी मेरे चक्रद्वारा अपने वधकी प्रतीक्षा करते हुए तपस्यामें संलग्न रहा । उसके इसी प्रकार सोचते-सोचते वैशाखमासके शुक्लपक्षकी वह द्वादशी तिथि आ पहुँची। उस दिन उसने अपना धर्म निश्चय कर मेरी पूजा की और प्रार्थनामें संलग्न हो गया। फिर कहने लगा – ‘प्रभो! आप अग्निके समान अपने तेजोमय चक्रको छोड़िये, जिससे मेरे अङ्ग भलीभाँति छिन्न-भिन्न हो जायँ और मेरा आत्मा शीघ्र ही आपको प्राप्त कर ले।’

इस प्रकार वह गुडाकेश मेरे चक्रद्वारा विदीर्ण होकर मुझमें लीन हुआ और उसीके मांससे ताँबा उत्पन्न हुआ। उसका रक्त सुवर्ण हुआ और उसके शरीरकी हड्डियाँ चाँदी बनीं। उसकी अन्य धातु भी तैजस धातुओंके रूपमें परिवर्तित हो गयी और वे ही राँगा, सीसा, टीन, काँसा आदि बने तथा उसके मलसे अन्य प्राकृतिक खनिज- गंधक आदि द्रव्योंका प्रादुर्भाव हुआ। देवि ! इसीलिये ताँबेके पात्रद्वारा मुझे चन्दन, अङ्गराग, जल, अर्घ्य, पाद्यादि अन्य वस्तुएँ अर्पण की जाती हैं। देवि! ताम्रके पात्रमें स्थित एक एक पके चावलमें अनन्त फल भरा है। इससे श्रद्धालु पुरुषोंकी मेरी उपासनामें रुचि बढ़ती है। इस प्रकारसे उत्पन्न होनेके कारण ताम्र मुझे अधिक प्रिय है। दीक्षित पुरुष इस ताम्रपात्रसे ही पाद्य एवं अर्घ्य देते हैं। देवि! इस प्रकार मैंने दीक्षाकी विधि एवं ताँबेकी उत्पत्तिके प्रसङ्गका तत्त्वतः वर्णन किया। अब तुम दूसरी कौन-सी बात पूछना चाहती हो ? वह बतलाओ ।

अध्याय ११० राजाके अन्न भक्षणका प्रायश्चित्त

पृथ्वी बोलीं- प्रभो! आपकी दीक्षाका माहात्म्य अत्यद्भुत है। महाभाग ! इसे सुनकर मैं अत्यन्त निर्मल हो गयी। किंतु मेरे मनमें एक शङ्का रह गयी है। आपने इसके पूर्व बत्तीस प्रकारके अपराध कहे हैं। यदि अल्पबुद्धिवाले मनुष्यद्वारा इनमें से कोई अपराध बन जाता है तो उसकी शुद्धि किस प्रकार हो ? माधव ! आप मुझे इसे बतानेकी कृपा करें।

भगवान् वराह बोले-देवि ! मेरी उपासनामें संलग्न रहनेवाले शुद्ध भागवत पुरुष यदि लोभ अथवा भयसे राजाका अन्न खाते हैं तो उन्हें दस हजार वर्षोंतक नरककी यातनाएँ सहनी पड़ती हैं। भगवान्‌की यह बात सुनकर पृथ्वीदेवी काँप उठीं। वे अत्यन्त दीन-मन होकर भगवान्‌से मधुर वचनोंमें फिर इस प्रकार कहने लगीं।

पृथ्वी बोलीं- भगवन्! राजाओंमें ऐसा कौन- सा दोष है, जिससे उनका अन्न खानेसे प्राणीको नरकमें जाना पड़ता है?

भगवान् वराह बोले- पृथ्वि ! राजाका अन्न कभी खाने योग्य नहीं है। राजा यथासम्भव संसारमें यद्यपि सबसे समान भावसे ही व्यवहार करता है, फिर भी उससे दारुण राजस या तामस कर्म भी घटित हो जाते हैं, इसलिये पृथ्वीदेवि ! राजाका अन्न गर्हित- निन्द्य बतलाया गया है। अतएव जगत् में सम्यक् प्रकारसे धर्मका आचरण करनेवाले व्यक्तिको राजाका अन्न खाना उचित नहीं है।

वसुंधरे ! अब भक्तोंको जिस प्रकार राजाका अन्न खाना चाहिये, मैं उन-उन प्रकियाओंको बताता हूँ उसे सुनो। पहले राजाको चाहिये कि वह शास्त्रीय विधिके अनुसार मन्दिर बनवाकर उसमें मेरी प्रतिष्ठा करे और फिर भक्त भागवतोंको धन-धान्य- समृद्धि आदि प्रदानकर वैष्णवोंद्वारा मेरा नैवेद्य तैयार कराकर मुझे समर्पित करके भोजन करे- कराये। इस प्रकार राजाका अन्न खानेसे भागवतों (मेरे भक्तों) को अन्नका दोष नहीं लगता।

पृथ्वी बोलीं- जनार्दन ! यदि कोई मनुष्य आपका भक्त अनजानमें राजान्न भक्षण कर लेता है तो वह कौन सा कर्म करे; जिससे उसकी शुद्धि हो जाय ?

भगवान् वराह बोले- देवि ! एक बार चान्द्रायण या सांतपन व्रत (छः रात्रियोंका उपवास ) – के अनुष्ठान अथवा कई बार तप्तकृच्छ्र-व्रत (जल, दूध और घीको एक साथ गर्मकर एक दिन पीने तथा दूसरे दिन उपवास) के आचरणद्वारा मनुष्य राजान्न भक्षणके दोषसे छुटकारा प्राप्त कर लेता है और उसमें लेशमात्र भी दोष नहीं रह जाता। राजाका अन्न खाना उचित नहीं है। विशेषकर उसे जो मेरी पूजा-आराधना करता हुआ जीवन व्यतीत करना चाहता या उत्तम गति पानेकी चेष्टा करता है।

अध्याय १११ दातुन न करने तथा मृतक एवं रजस्वलाके स्पर्शका प्रायश्चित्त

भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! जो मानव दातुनका प्रयोग न कर मेरी उपासनामें सम्मिलित होता है, उसके इस एक अपकर्मसे ही पूर्वके किये हुए सारे धर्म नष्ट हो जाते हैं। मनुष्यका शरीर नाना प्रकारके मल एवं गंदे द्रव्योंसे भरा है। यह देह कफ, पित्त, पीब, रक्त आदिसे युक्त है और मनुष्यका मुख दुर्गन्धपूर्ण रहता है। दातुन करनेसे मुँहकी दुर्गन्ध सर्वथा नष्ट हो जाती है। पवित्रता भगवान् तथा देवताओंको प्रिय है और सदाचारसे वह बढ़ती है।

पृथ्वीने कहा- भगवन् ! दातुनका उपयोग न कर जो आपके कर्मका सम्पादन करता है, उसके लिये क्या प्रायश्चित्त है? यह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये, जिससे उसका सारा पुण्य नष्ट न हो सके।

भगवान् वराह कहते हैं महाभागे ! इसका प्रायश्चित्त यह है कि व्यक्ति सात दिनोंतक आकाशशयन – खुली हवामें – सर्वथा बाहर सोये इससे उसके दातुन न करनेके दोष नष्ट हो जाते हैं। भद्रे दातुनसम्बन्धी प्रायश्चित्त तुम्हें बतला दिया। जो व्यक्ति इस विधानसे प्रायश्चित्त करता है, उसके अपराध नष्ट हो जाते हैं।

भगवान् वराह कहते हैं इसी प्रकार जो मनुष्य अपवित्र अवस्थामें किसी मृतक (शव) – का स्पर्श करता है, उसे गर्हितरूपमें चौदह हजार वर्षोंतक नरक वास करना पड़ता है और जो व्यक्ति मृतकका स्पर्शकर बिना प्रायश्चित्त किये हुए मेरे क्षेत्रमें चला जाता है, उसे हजारों वर्षोंतक विविध कष्टमय निकृष्ट (नीच) योनियोंमें जाना पड़ता है।

यह सुनकर पृथ्वीको बड़ा क्लेश हुआ। उन्होंने सहानुभूतिसे पूछा – भगवन् ! यह तो बड़े ही दुःखकी बात है। कृपया इसके लिये भी किसी प्रायश्चित्तका वर्णन करें, जिससे प्राणी उस विकट संकटसे बच सके।

भगवान् वराह बोले- देवि! शव – स्पर्श करनेवाला मानव तीन दिनोंतक जौ खाकर और पुनः एक दिन उपवास रहकर शुद्ध हो सकता है। उसे इसका इसी रूपमें प्रायश्चित्त करना चाहिये ।

इसी प्रकार जो शास्त्रकी विधिके प्रतिकूल श्मशानमें जाता है, उसके पितर भी श्मशानमें रहकर अभक्ष्यभोजी बन जाते हैं। इसलिये उसका भी प्रायश्चित्त कर लेना चाहिये ।

पृथ्वीने पूछा- भगवन्! आपके भजन-पूजनमें लगे रहनेवालोंको भी इस प्रकारका पाप लग जाता है? यदि कर्मसिद्धान्तसे उनको पाप लगता है तो उसका भी प्रायश्चित्त बतानेकी कृपा करें।

भगवान् वराहने कहा- ऐसा व्यक्ति सात दिनोंतक एक समय भोजन करे और तीन राततक बिना भोजन किये रहे और फिर पञ्चगव्यका पान करे। इस प्रकार प्रायश्चित्त करनेसे उसका पाप दूर हो जाता है। इसी प्रकार रजस्वला स्त्रीका संसर्गी मनुष्य यदि भगवान् की मूर्तिका स्पर्श कर लेता है तो उसे भी हजार वर्षोंतक नरकमें रहना पड़ता है। नरकसे निकलकर वह पुनः अन्धा, दरिद्र और मूर्ख होता है।

रजस्वला स्त्रीका संस्पर्शदोष तपस्यासे ही दूर होता है। उसे शीतकालमें तीन राततक खुले आकाशमें शयनकर भगवत्परायण होकर तपस्याका अनुष्ठान करना चाहिये।

अध्याय ११२ भगवान्‌की पूजा करते समय होनेवाले अपराधोंके प्रायश्चित्त

भगवान् वराह कहते हैं – पृथ्वि ! इसी प्रकार पूजाके समय मुझे स्पर्श किये हुए रहनेपर यदि शरीरके दोष वायु या अजीर्णके कारण अधोवायु निकल गयी तो इस दोषसे वह पाँच वर्षोंतक मक्खी, तीन वर्षोंतक चूहा, तीन वर्षोंतक कुत्ता एवं फिर नौ वर्षोंतक कछुएका शरीर पाता है।

देवि! जो मेरे कर्ममें- पूजा-पाठ, जप-तपमें उद्यत रहनेवाला पुरुष शास्त्रका रहस्य जानता है, फिर भी यदि उसके द्वारा अपकर्म बन जाय तो इसमें उसका प्रारब्ध एवं मोह ही कारण है।

देवि ! अब मैं इसका प्रायश्चित्त बतलाता हूँ, सुनो। अनघे! जिस कर्मके प्रभावसे ऐसा अपराध बन जानेपर भी उपासक पुरुषका उद्धार हो सकता है। ऐसे व्यक्तिको तीन दिन और तीन रातोंतक यवके आहारपर रहना चाहिये। इस प्रकार प्रायश्चित्त करनेके पश्चात् वह मेरी दृष्टिमें निरपराध है और सम्पूर्ण आसक्तियोंका त्यागकर वह मेरे लोकमें पहुँच जाता है। भद्रे! तुमने जो पूछा था कि – ‘पूजाके समय बने हुए कलुषित (निन्दित) कर्म – अपराधोंसे पुरुषकी क्या गति होती है?’ इसके विषयमें मैंने तुम्हें बता दिया। अब मेरे उपासना कर्मके बीचमें ही जो मलत्याग करने जाता है, अनघे! उसके विषयमें मैं अपना निर्णय कहता हूँ, सुनो। वह व्यक्ति भी बहुत वर्षोंतक नारकीय यातनाओंको भोगता है। उसका प्रायश्चित्त यह है कि वह व्यक्ति एक रात जलमें पड़ा रहे तथा एक रात खुले आकाशके नीचे शयन करे। इस प्रकार विधान करनेसे वह इस अपराधसे छूट जाता है। पृथ्वि! पूजाके अवसरपर मेरे भक्तोंद्वारा होनेवाले अपराधोंके प्रायश्चित्त मैंने तुम्हें बतला दिये हैं। अब देवि ! मेरी भक्तिमें रहनेवाला जो व्यक्ति मेरे कर्मोंका त्याग करके दूसरे कर्मोंमें लग जाता है, उसका फल बतलाता हूँ। वह व्यक्ति दूसरे जन्ममें मूर्ख होता है। अब उसके लिये प्रायश्चित्तकी विधि बतलाता हूँ। उसे पंद्रह दिनोंतक खुले आकाशमें सोना चाहिये। इससे वह पापसे निश्चय ही मुक्त हो जाता है।

भगवान् वराह कहते हैंदेवि! जो व्यक्ति नीला वस्त्र पहनकर मेरी उपासना करता है, वह पाँच सौ वर्षोंतक कीड़ा बनकर रहता है। अब उसके अपराधका प्रायश्चित्त बतलाता हूँ उसे विधिपूर्वक चान्द्रायणव्रत का अनुष्ठान करना चाहिये। इससे वह पापसे मुक्त हो जाता है। जो व्यक्ति अविधिपूर्वक मेरा स्पर्श करता है और मेरी उपासनामें लगता है, उसे भी दोष लगता है और वह मेरा प्रियपात्र नहीं बन सकता। उसके द्वारा दिये गये गन्ध, माल्य, सुगन्धित पदार्थ तथा मोदक आदिको मैं कभी ग्रहण नहीं करता।

पृथ्वी बोली- प्रभो! आप जो मुझे आचारके व्यतिक्रमकी बात सुना रहे हैं तो कृपाकर इनके प्रायश्चित्तोंको तथा सदाचारके नियमोंको भी बतानेकी कृपा कीजिये। भगवन्! किस कर्मके विधानसे सम्पन्न होकर आपके कर्म-परायण रहनेवाले भागवत पुरुष आपके श्रीविग्रहके पास पहुँचकर स्पर्श तथा उपासना करनेके योग्य होते हैं? यह भी बतलानेकी कृपा करें।

भगवान् वराह कहते हैं – सुश्रोणि ! जो सम्पूर्ण कर्मोंका त्याग करके मेरी शरणमें आकर उपासना करता है, उसका कर्तव्य सुनो।

मेरे उपासकको चाहिये कि वह पूर्वमुख बैठकर जलसे अपने दोनों पैरोंको धोकर फिर तीन बार हाथसे पवित्र मृत्तिकाका स्पर्शकर जलसे हाथ धो डाले। इसके उपरान्त मुख, नासिकाके दोनों छिद्र, दोनों आँख और दोनों कानोंको भी धोये। दोनों पैरोंको पाँच- पाँच बार धोये। फिर दोनों हाथोंसे मुख पोंछकर सारे संसारको भूलकर एकमात्र मेरा स्मरण करते हुए प्राणायाम करे। उपासकको चाहिये कि वह परब्रह्मका ध्यान करते हुए, जलसिक्त अंगुलियोंसे तीन बार अपने सिरका, तीन बार दोनों कानोंका और तीन बार नासिकाके छिद्रोंका स्पर्श करे, फिर तीन बार जल ऊपर फेंकना चाहिये।

यदि उसे मुझे प्रसन्न करनेकी इच्छा है तो फिर मेरे श्रीविग्रहके वामभागका स्पर्श करे। मेरे कर्ममें स्थित पुरुष यदि इस प्रकारका कर्म करता है तो उसे कोई दोष स्पर्श नहीं कर सकता।

पृथ्वी बोली- भगवन्! जो दम्भी या व्यभिचारी पुरुष अविधिपूर्वक स्पर्शकर आपकी पूजा करने लगता है, उसके लिये तापन और शोधनकी भी क्रिया होती होगी ? अतः उसे आप बतानेकी कृपा कीजिये।

भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! मेरे कर्मका अनादर करनेवाले व्यक्तियोंको जो गति प्राप्त होती है, इस विषयमें मैं विचारपूर्वक कहता हूँ, सुनो। मुझसे सम्बन्धित नियमोंका ठीक रूपसे पालन न कर जो अपवित्र व्यक्ति मेरी उपासनामें लग जाता है, उसे नियमानुसार ग्यारह हजार वर्षोंतक कीड़ा होकर रहना पड़ता है, इसमें कोई संशय नहीं है। उसकी शुद्धिके लिये प्रायश्चित्त यह है – उसे महासांतपन अथवा तप्तकृच्छ्रव्रत करना चाहिये। यशस्विनि ! ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य – इनमें जो भी मेरे मतके समर्थक हैं, उन्हें इस विधिके अनुसार यह प्रायश्चित्त करना आवश्यक है। इसके फलस्वरूप पापसे छूटकर वे परम गति प्राप्त कर लेते हैं। मेरी भक्तिमें तत्पर रहनेवाला जो व्यक्ति क्रोधमें भरकर मेरे गात्रोंका स्पर्श करता है और जिसका चित्त एकाग्र नहीं रहता, उसपर मैं प्रसन्न नहीं होता, बल्कि उसपर मुझे क्रोध ही होता है। जो सदा इन्द्रियोंको वशमें रखता है, जिसके मनमें मेरे प्रति श्रद्धा है, पाँचों इन्द्रियाँ नियमानुसार कार्य करती हैं तथा जो लाभ और हानिसे कोई प्रयोजन नहीं रखता, ऐसा पवित्र व्यक्ति मुझे प्रिय है। जिसमें अहंकार लेशमात्र भी नहीं रहता तथा मेरी सेवामें जिसकी विशेष रुचि रहती है, वह मुझे प्रिय है। अब इनके अतिरिक्त दूसरे व्यक्तियोंका वर्णन करता हूँ, सुनो। जो मुझमें श्रद्धा-भक्ति रखता है, जो शुद्ध एवं पवित्र भी है, फिर भी यदि क्रोधके आवेशमें मेरा स्पर्श करता या मेरी परिक्रमा करता है, वह उस क्रोधके फलस्वरूप सौ वर्षोंतक चील पक्षीकी योनिमें जन्म पाता है, फिर सौ वर्षोंतक उसे बाज बनकर रहना पड़ता है और तीन सौ वर्षोंतक वह मेढकका जीवन व्यतीतकर दस वर्षोंतक राक्षसका शरीर पाता है। फिर वह इक्कीस वर्षोंतक अंधा रहकर बत्तीस वर्षोंतक गीध तथा दस वर्षोंतक चक्रवाककी योनिमें रहता है। इसमें वह शैवाल भक्षण करता तथा आकाशमें उड़ता रहता है। इस प्रकार क्रोधी उपासकोंकी दुर्गति होती है और उन्हें संसारचक्रमें भटकना पड़ता है।

पृथ्वीने कहा- जगत्प्रभो! आपने जो बात बतलायी उसे सुनकर मेरा हृदय विषाद एवं आतङ्कसे भर गया है। देवेश्वर ! मैं प्रार्थना करती हूँ कि मेरी प्रसन्नताके लिये आप अखिल जगत्‌को सुखी बनानेवाला ऐसा कोई प्रायश्चित्त बतानेकी कृपा करें, जिसका पालन करके कर्मशील विवेकी पुरुष इस पापसे मुक्त होकर शुद्ध हो सके ? भगवन्! वह प्रायश्चित्त ऐसा होना चाहिये, जिसे थोड़ी शक्तिवाले तथा लोभ एवं मोहसे ग्रस्त व्यक्ति भी निर्भीकतापूर्वक सरलतासे सम्पादन कर सकें और कठिन यातनाओंसे उनका उद्धार हो जाय।

पृथ्वीके इस प्रकार प्रार्थना करनेके समय ही कमलनयन भगवान् वराहके सम्मुख योगीश्वर सनत्कुमार भी पहुँच गये। वे ब्रह्माजीके मानसा पुत्र हैं। उन मुनिने पृथ्वीकी बात सुनकर भगवान वराहकी प्रेरणासे पृथ्वीसे इस प्रकार कहना आरम्भ किया।

सनत्कुमारजी बोले देवि! तुम धन्य हो जो भगवान् से इस प्रकार प्रश्न करती हो। इस समय साक्षात् भगवान् नारायण ही वराहका रूप धारणक यहाँ विराजमान हैं। सम्पूर्ण मायाकी रचना इन्हींके द्वारा हुई है। इनसे तुम्हारा क्या वार्तालाप हुआ है, उसका सारांश बतलाओ। उस समय सनत्कुमारकी बात सुनकर पृथ्वीने उनसे कहा- ‘ब्रह्मन् ! मैं इनसे क्रियायोग एवं अध्यात्मका रहस्य पूछा था

ब्रह्मन् ! मेरे पूछनेपर इन भगवान् नारायणने मुझे ज्ञानयोगके साथ उपासनाकी बातें बतलायीं। साथ ही क्रोधके आवेशमें आकर उपासना करनेके दोषका भी वर्णन किया। फिर इसके प्रायश्चित्तमें उन्होंने बताया कि गृहस्थके घरसे शुद्ध भिक्षा माँगकर मनुष्य उस पापसे मुक्त हो जाता है। भगवान् जनार्दनका यह मेरे प्रति उपदेश था। फिर उन्होंने ऐसी विधि बतलायी, जिसे करनेसे भक्तको सभी प्रकारके सुख-सम्पत्तिकी प्राप्ति हो ।’ यह सुनकर सनत्कुमारजी भी पृथ्वीके साथ ही पुनः भगवान् के उपदेशोंको सुनने लगे।

भगवान् वराह बोले- जगत्‌में जो प्राणी पूजाके अयोग्य पुष्पसे मेरी अर्चना करता है, उसकी पूजाको न तो मैं स्वीकार करता हूँ और न वैसा व्यक्ति ही मुझे प्रिय है। देवि! जिनकी मुझमें तो भक्ति है, किंतु जो अज्ञानसे भरे हैं, वे मुझे प्रसन्न नहीं कर पाते, उन्हें तो रौरव नामक भयंकर नरकमें गिरना पड़ता है। अज्ञानके दोषके कारण वे अनेक दुःखोंका अनुभव करते हैं। ऐसा व्यक्ति दस वर्षोंतक वानर, तेरह वर्षोंतक बिल्ली, पाँच वर्षोंतक वक, बारह वर्षोंतक बैल आठ वर्षोंतक बकरा, एक महीने ग्राममें रहनेवाला मुर्गा तथा तीन वर्षोंतक भैंसके रूपमें जीवन व्यतीत करता है, इसमें कोई संशय नहीं । भद्रे ! जो पुष्प मुझे अप्रिय है, इसके प्रसङ्गमें मैं इतनी बातें बता चुका। साथ ही जो गन्धहीन, कुरूप पुष्प मुझे अर्पण करते हैं, उनकी दुर्गति भी बतला दी।

पृथ्वीने पूछा- भगवन् ! जिसका अन्तःकरण परम शुद्ध है, उसीके व्यवहारसे यदि आप प्रसन्न होते हैं तो कोई ऐसा साधन बतलाइये, जिसका प्रयोग करके आपके कर्ममें परायण रहनेवाले भक्त अन्तर्हृदयसे शुद्ध हो जायँ ।

भगवान् वराह कहते हैं-देवि ! जिसके विषयमें तुम मुझसे पूछ रही हो, उसका विचार- पूर्वक वर्णन करता हूँ, सुनो। प्रायश्चित्तके सहारे मानव शुद्ध हो जाते हैं। ऐसे व्यक्तिको एक महीनेतक एक समय भोजन करना चाहिये । दिनमें वह सात बार वीरासनका अभ्यास करे, एक महीनेतक दिनके चौथे पहरमें (केवल) घृत अथवा पायस (खीर) का आहार करे। तीन दिनोंतक यवान्न (जौ) खाकर रहे और तीन दिनोंतक वह केवल वायुके आधारपर ही रह जाय। जो व्यक्ति इस विधिका पालनकर मेरे कर्मोंमें उद्यत रहता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे छूटकर मेरे लोकको प्राप्त होता है।

अध्याय ११३ सेवापराध और प्रायश्चित्त- कर्मसूत्र

भगवान् वराह कहते हैं – पृथ्वीदेवि ! जो लाल वस्त्र पहनकर मेरी उपासना करता है, वह भी दोषी माना जाता है। अब उसके लिये दोषमुक्त करनेवाला प्रायश्चित्त बतलाता हूँ, सुनो। प्रायश्चित्तका प्रकार यह है – ऐसे पुरुषको चाहिये कि सत्तरह दिनोंतक वह एक समय भोजन करे, तीन दिनोंतक वायु पीकर रहे और एक दिन केवल जलके आहारपर बिताये। यह प्रायश्चित्त सम्पूर्ण संसारकी आसक्तियोंसे मुक्त करानेवाला है। जो पुरुष अँधेरी रातमें बिना दीपक जलाये मेरा स्पर्श करता है। तथा जल्दीके कारण अथवा मूर्खतावश शास्त्रकी आज्ञाका पालन न कर मेरा स्पर्श करता है, उसका भी पतन होता है। वह अधम मानव उस दोषसे क्लेश भोगता है। वह एक जन्मतक अन्धा होकर अज्ञानमय जीवन बिताता है और अभक्ष्य-अपेय पदार्थोंको खाता-पीता रहता है।

अब मैं रात्रिके अन्धकारमें दीपरहित स्थितिमें अपने स्पर्शदोषका प्रायश्चित्त बतलाता हूँ, जिससे दोष मुक्त होकर वह मेरे लोकको प्राप्त होता है। ऐसा व्यक्ति अनन्य भक्तिभावसे पंद्रह दिनोंतक आँखें ढककर रहे और बीस दिनोंतक सावधान होकर एक समय भोजन करे और फिर जिस किसी भी महीनेकी द्वादशी तिथिको एक समय भोजन करके और जल पीकर रह जाय। इसके पश्चात् गोमूत्रमें सिद्ध किया हुआ यवान्न भक्षण करे। इस प्रायश्चित्तके प्रभावसे वह इस दोषसे मुक्त हो जाता है।

देवि ! जो व्यक्ति काला वस्त्र पहनकर मेरी उपासना करता है, उसका भी पतन होता है। वह अगले जन्ममें पाँच वर्षोंतक लाक्षा (लाह) आदि वस्तुओंमें रहनेवाला घुन होता है, फिर पाँच वर्षोंतक नेवला और दस वर्षोंतक कछुआ होकर रहता है। फिर कबूतरकी योनिमें जन्म लेकर वह चौदह वर्षोंतक मेरे मन्दिरके पार्श्वभागमें रहता है। अब उसका प्रायश्चित्त बतलाता हूँ। उसे चाहिये कि सात दिनोंतक यवके आटेकी लपसी और तीन दिनोंतक यवके सत्तूकी एक पिण्डी तथा तीन रातोंतक तीन-तीन पिण्डियाँ खाय। इससे वह पापसे मुक्त हो जाता है। जो बिना धोये वस्त्र पहनकर मेरी उपासनामें लग जाता है, वह भी इस अपराधसे संसारमें गिर जाता है। जिसके फलस्वरूप वह एक जन्मतक मतवाला हाथी, एक जन्मतक ऊँट, एक जन्ममें भेड़िया, एक जन्ममें सियार और फिर एक जन्ममें घोड़ा होता है। इसके बाद वह एक जन्ममें मोर और पुनः एक जन्ममें मृग भी होता है। इस प्रकार सात जन्म व्यतीत होनेपर उसे मनुष्यकी योनि मिलती है। उस जन्ममें वह मेरा भक्त, गुणज्ञ-पुरुष और कार्यकुशल होकर मेरी उपासनामें परायण होता है तथा निरपराधी और अहंकार – शून्य जीवन व्यतीत करता है।

अब उसके शुद्ध होनेका उपाय बतलाता हूँ, उसे सुनो, जिससे उसे हीन योनियोंमें नहीं जाना पड़ता। वह क्रमशः तीन दिनोंतक यव, तीन दिन तिलकी खली और फिर तीन दिनोंतक वह पत्ते, खीर एवं वायुके आहारपर रह जाय। इस प्रकारके नियमका पालन करनेसे अशुद्ध वस्त्र पहननेवाले उपासकका दोष मिट जाता है और उसे कई जन्मोंतक संसारमें भटकना नहीं पड़ता ।

देवि ! जो मानव बत्तक आदि पक्षियों या किसी भी प्रकारका मांस खाकर मेरी पूजामें लगता है, वह पंद्रह वर्षोंतक बत्तककी योनिमें रहता है। फिर वह दस वर्षोंतक तेन्दुआ नामक हिंसक वन्य जन्तु होता है और पाँच वर्षोंतक उसे सूअर बनना पड़ता है। मेरे प्रति किये गये उस अपराधसे उसे इतने वर्षोंतक संसारमें भटकना पड़ता है। इस प्रकारके मांस खानेवाले व्यक्तिके लिये प्रायश्चित्त यह है कि वह क्रमशः तीन-तीन दिनोंतक यव, वायु, फल, तिल, बिना नमकके अन्नके आहारपर रहे। इस प्रकारका पंद्रह दिनोंमें प्रायश्चित्त पूराकर एक बारके मांसभक्षणदोषसे शुद्ध होता है। बार- बारके ऐसे अपराधोंका कोई प्रायश्चित्त नहीं है।

भगवान् वराह कहते हैं-देवि ! दीपकका स्पर्श करके हाथ धो लेना चाहिये, अन्यथा इससे भी दोषका भागी बनना पड़ता है। महाभागे ! इसके प्रायश्चित्तका यह रूप है कि जिस किसी भी महीनेके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिके शुभ अवसरपर चौथे भागमें भोजन करके ठंडी ऋतुमें अवसरपर खुले आकाशमें सोये, फिर दीपदानकर इस दोषसे वह मुक्त हो जाता है। भद्रे ! न्यायके अनुसार इस कर्मके प्रभावसे पुरुषमें पवित्रता आ जाती है और वह मेरे कर्म पथपर आरूढ़ हो जाता है। दीपक स्पर्श करके बिना हाथ धोये हुए मेरे कर्ममें लगनेका यह प्रसङ्ग तुम्हें बतला दिया। यह प्रायश्चित्त संसारमें शुद्ध करनेके लिये परम साधन है, जिसका पालन करके पुरुष कल्याण प्राप्त कर लेता है।

देवि ! जो मनुष्य श्मशानभूमिमें जाकर बिना स्नान किये ही मुझे स्पर्श करता है, उसे भी सेवापराधका दोष लगता है, फलस्वरूप वह चौदह वर्षोंतक पृथ्वीपर श्रृंगाल होकर रहता है। फिर सात वर्षोंतक आकाशमें उड़नेवाला गीध होता है। इसके पश्चात् चौदह वर्षोंतक उसे पिशाचयोनिमें जाना पड़ता है।

पृथ्वी बोली जगत्प्रभो ! भक्तोंकी याचना पूर्ण करना आपका स्वभाव है। आपने यह जो परम गोपनीय विषय कहा है, इससे मुझे अत्यन्त आश्चर्य हो रहा है, अतः प्रभो! आपसे मेरी प्रार्थना है कि वह सम्पूर्ण विषय मुझे स्पष्टरूपसे बतानेकी कृपा करें। कमललोचन भगवान् शंकरने तो श्मशानकी बड़ी प्रशंसा की है और उसे पवित्र बतलाया है, फिर वहाँ दोष क्या है ? रुद्र तो परम बुद्धिमान् हैं, उनमें किसी ऐश्वर्यकी भी कमी नहीं है, तब भी वे दीप्तिमान् कपालको लिये सदा श्मशानभूमिमें विराजते हैं, फिर आप उसकी निन्दा कैसे करते हैं?

भगवान् वराह कहते हैं-देवि ! पवित्र व्रत करनेवाले पुरुष भी आजतक इस रहस्यसे अनभिज्ञ हैं। अखिल भूतोंके अध्यक्ष भगवान् शंकरको कोई नहीं जानता। उन्होंने त्रिपुरवधके समय बहुतेरे बालक-वृद्धों तथा बहुत सी स्त्रियोंको भी मार डाला था, अतएव उस पापसे वे बड़े दुःखी थे। उस समय मैंने उन नष्टैश्वर्य भगवान् शंकरका स्मरण किया और वे मेरे पास पहुँचे। उस समय ज्यों ही मैंने उनपर अपनी दिव्य दृष्टि डाली कि वे पुनः सम्पूर्ण भूतोंके शासक महान् रुद्र बन गये। उस समय उनकी इच्छा मेरे यजनकी हुई, पर सहसा उनका ज्ञान और योगका बल नष्ट-सा हो गया। तब मैंने उनसे कहा- ‘प्रभो! आप ऐसे मुग्ध से क्यों बैठे हैं ? ( आप मोहसे कैसे घिरे हैं ?) बनाना, बिगाड़ना और बिगड़े हुएको पुनः बनाना – यह सब तो आपके हाथकी बात है। मृत्यु आपके अधीन रहती है, आप सबके मूल कारण और परमाश्रय हैं, आपको देवताओंका भी देवता कहा जाता है, आप साम और ऋक्स्वरूप हैं। देवेश्वर! आपकी इस म्लानताका कारण क्या है? आप कृपया इन्हें स्पष्टरूपसे बतलाइये। आप अपने योग और मायाको भी सँभालें देखें, यह परब्रह्म परमेश्वरकी लीला है। मेरे मनमें आपको प्रसन्न करनेकी इच्छा हुई है, अतएव मैं यहाँ आया हूँ।’

वसुंधरे ! फिर तो मेरी बात सुनकर शंकरजीको पूर्ण ज्ञान हो गया। उन्होंने मधुर वाणीमें मुझसे कहा – ‘नारायण! आप ध्यान देकर मेरी वाणी सुननेकी कृपा कीजिये आप सम्पूर्ण लोकोंके एकमात्र शासक हैं। विष्णो! अब आपकी कृपासे मुझमें पुनः देवत्व जाग्रत् हो गया। माधव! मुझे योगकी उपलब्धि हो गयी और सांख्यका ज्ञान भी सुलभ हो गया, मेरी चिन्ताएँ शान्त हो गयीं, यही नहीं, आपकी कृपासे पूर्णमासीके अवसरपर उमड़नेवाले समुद्रकी भाँति मैं आनन्दमय बन गया हूँ। भक्तोंकी इच्छा पूर्ण करनेवाले भगवन्! मैं आपको तत्त्वतः जानता हूँ और आप मुझे हम दोनोंकी अभिन्नताको दूसरा कोई भी नहीं देख सकता है। आप महान् ऐश्वर्यसे सम्पन्न हैं। सम्पूर्ण मायाकी रचना आपके द्वारा हुई है।’

माधवि ! भूतगणोंके महान् अधिष्ठाता रुद्रने इस प्रकार मुझसे कहा और एक मुहूर्ततक वे ध्यानमें बैठे रहे। इसके बाद पुनः मुझसे कहा- ‘विष्णो! आपकी कृपासे ही मैंने त्रिपुरासुरका वध किया था, उस समय मैंने बहुत से दानवों और गर्भिणी स्त्रियोंका भी संहार कर दिया था। दसों दिशाओंमें भागते हुए बालक एवं वृद्धों को भी मैंने मार डाला था। उस पापके कारण मै योगमाया और ऐश्वर्योंसे शून्य हो गया हूँ। आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे कोई ऐसा साधन बतलाइये, जिसके आचरणसे मेरे पाप नष्ट हो जायँ और मैं शुद्ध हो जाऊँ ।

 भगवान् रुद्रको इस प्रकार चिन्तित देखकर मैंने उनसे कहा- ‘शंकरजी ! आप कपालकी माला धारण करें और ‘समल’ – स्थानमें चले जायँ ।’ उस समय मेरी ऐसी बात सुनकर उन भूतभावन भगवान् भवने मुझसे पुनः कहा- ‘जगत्प्रभो ! वह ‘समल’ स्थान कहाँ है? आप मुझे बोध देकर पूर्णरूपसे समझानेकी कृपा करें।’ इसपर मैंने उनसे कहा- ‘शंकरजी ! श्मशान ही रक्त पीबके गन्धसे युक्त ‘समल’ – स्थान है, जहाँ कोई भी मनुष्य जाना नहीं चाहता। वहाँ मनुष्य जाकर स्पृहारहित हो जाता है। शिवजी! आप कपालोंको लेकर वहीं रमण करें। अपने व्रतमें अटल रहकर देवताओंके वर्षसे आप एक हजार वर्षतक वहाँ रहें और पापोंको नष्ट करनेके लिये आप वहाँ रहकर मौनव्रतका पालन करें। पूरे एक हजार वर्षतक उस श्मशान भूमिमें रहनेके पश्चात् आप मुनिवर गौतम मुनिके आश्रमपर जायें। वहाँ आपको पूर्ण आत्मज्ञानकी उपलब्धि हो जायगी और उस समय आप इस कपालसे भी मुक्त हो जायँगे।’

वसुंधरे ! इस प्रकार रुद्रको वर देकर मैं वहीं अन्तर्धान हो गया और रुद्र भी गजचर्मसे आच्छन्न होकर श्मशान भूमिमें भ्रमण करते हुए निवास करने लगे। इसीलिये श्मशान भूमि मुझे पसंद नहीं है और मैंने श्मशान भूमिको निन्दित बताया है। वहाँ जाकर बिना संस्कार किये हुए प्राणीको मेरी पूजा-अर्चामें उपस्थित नहीं होना चाहिये। अब वह प्रायश्चित्त बताता हूँ, जिसका पालन करनेसे साधक इस पापसे छूट जाता है। वह पंद्रह दिनोंतक दिनके चौथे भागमें एक बार भोजन करे। रातमें एक वस्त्र पहनकर कुशके विस्तरपर आकाश शयन करे, अर्थात् शीतकालकी रात्रिमें खुले आकाशके नीचे शयन करे और प्रातः काल उठकर वह पञ्चगव्यका प्राशन करे। ऐसा करनेसे उसके पापकर्मका परिमार्जन हो जाता है और वह पुरुष सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर मेरे लोकको प्राप्त होता है।

सुश्रोणि! इसी प्रकार जो व्यक्ति हींग खाकर मेरी उपासना करता है, उसे भी दोष लगता है, अब उसके पापका परिणाम तथा शोधन करनेवाला प्रायश्चित्त सुनो। वह जन्मान्तरमें दस वर्षोंतक उल्लू और तीन वर्षोंतक कछुआ होकर निवास करता है। तदनन्तर उसे फिरसे मनुष्यकी योनि मिलती है और मेरी उपासनामें उसकी रुचि होती है।

वसुंधरे ! इन प्रमादियोंके लिये तथा जिन्हें इस संसारमें केवल दूसरोंके दोष ही दिखायी पड़ते हैं, उनके मुक्त होनेके लिये मैं एक महान् ओजस्वी प्रायश्चित्त बतलाता हूँ, जिसका पालन- कर वह पवित्र होकर संसार सागरको पार कर जाता है। इस पापसे छूटनेके लिये मनुष्यको एक दिन यवकी लपसी खाकर तथा एक दिन गोमूत्रके आहारपर रहना चाहिये । रातमें वह वीरासनसे बैठकर तथा आकाश-शयनद्वारा कालक्षेप करे। इस विधिका पालन करनेसे वह पुरुष संसारमें न जाकर मेरे लोकमें पहुँच जाता है।

सुशोभने ! जो दम्भी मनुष्य मदिरा – पानकर मेरी उपासनामें सम्मिलित होता है, उसका दोष बताता हूँ, तुम मनको एकाग्र करके सुनो। इस अपराधके कारण वह व्यक्ति दस हजार वर्षोंतक दरिद्र होता है जो मेरा भक्त है और जिसने वैष्णव दीक्षा भी ग्रहण कर ली है, वह यदि कोई कार्य सिद्ध करनेके उद्देश्यसे मोहित होकर मद्य पी लेता है तो उसके लिये कोई प्रायश्चित्त नहीं है। वसुंधरे ! अब अदीक्षित उपासकके लिये प्रायश्चित्तके उपाय बतलाता हूँ, वह सुनो। यदि यह अग्निवर्ण प्रतप्त सुराका पान करे तो उक्त पापसे छूट सकता है। जो पुरुष इस विधिके अनुसार प्रायश्चित्त करता है, वह न तो पापसे लिप्त होता है और न संसारमें उसकी उत्पत्ति ही होती है।

पृथ्वि ! मेरी उपासना करनेवाला जो पुरुष वनकुसुमका, जिसे लोक व्यवहारमें ‘बरे’ कहते हैं, शाक खाता है, वह पंद्रह वर्षोंतक घोर नरकमें पड़ता है। इसके बाद उसको भूलोकमें सूअरकी योनि प्राप्त होती है। फिर तीन वर्षोंतक वह कुत्ता और एक वर्षतक श्रृंगाल होकर जीवन व्यतीत करता है।

भगवान् वराहकी बात सुनकर देवी पृथ्वीने श्रीहरिसे पुनः पूछा कि – ‘कुसुमके शाकका नैवेद्य अर्पण करनेसे जो पाप बन जाता है, प्रभो! उससे कैसे उद्धार हो सकता है— इसके लिये प्रायश्चित्त बतानेकी कृपा कीजिये।’

भगवान् वराह कहते हैं-देवि ! जो मानव ‘वन- कुसुम’ के शाकको मुझे अर्पितकर स्वयं भी खा लेता है, वह दस हजार वर्षोंतक नरकमें क्लेश पाता है। उसका प्रायश्चित्त चान्द्रायण व्रत’ ही है। परंतु यदि वह केवल उसका प्रसाद भोग बनाकर ही रह जाता है, खाता नहीं है तो वह बारह दिनोंतक पयोव्रत करे। जो इस प्रकार प्रायश्चित्त कर लेता है, वह पापसे लिप्त नहीं होता और मेरे लोकको ही प्राप्त होता है।

माधवि ! मेरे कर्ममें परायण जो मन्द बुद्धिका व्यक्ति दूसरेके वस्त्रको बिना धोये ही पहन लेते हैं तथा मेरी उपासनामें लग जाते हैं तो उन्हें भी प्रायश्चित्ती बनना पड़ता है। देवि! यदि वह मेरा स्पर्श करता है तथा परिचर्या करता है तो वह दस वर्षोंतक हरिण बनकर रहता है, फिर एक जन्ममें वह लँगड़ा होता है और बादमें वह मूर्ख, क्रोधी और अन्तमें पुनः मेरा भक्त होता है। सुश्रोणि ! अब मैं उसका प्रायश्चित्त बतलाता हूँ, जिससे पाप मुक्त होकर उसकी मेरी भक्तिमें रुचि उत्पन्न होती है। वह मेरी भक्तिमें संलग्न होकर दिनके आठवें भागमें आहार ग्रहण करे। जिस दिन माघमासके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथि हो, उस दिन जलाशयपर जाकर शान्त दान्त और दृढ़वती होकर अनन्यभावसे मेरा चिन्तन करे। इस प्रकार जब दिन रात समाप्त हो जायें तो प्रातः काल सूर्योदय हो जानेपर पञ्चगव्यका प्राशनकर मेरे कार्यमें उद्यत हो जाय। जो इस विधानसे प्रायश्चित्त करता है, वह अखिल पापोंसे मुक्त होकर मेरे लोकको प्राप्त होता है।

जो व्यक्ति नये अन्न उत्पन्न होनेपर नवान्नविधिका पालन न करके उसे अपने उपयोगमें लेता है, उसके पितरोंको पंद्रह वर्षोंतक कुछ भी प्राप्त नहीं होता। और जो मेरा भक्त होकर भी नये अन्नोंको दूसरोंको न देकर स्वयं अपने ही खा लेता है वह तो निश्चय ही धर्मसे च्युत हो जाता है। महाभागे ! इसके लिये प्रायश्चित्त बतलाता हूँ, जो मेरे भक्तोंके लिये सुखदायी है। वह तीन रात उपवासकर चौथे दिन आकाश-शयनकर सूर्यके उदय होनेके पश्चात् पञ्चगव्यका प्राशनकर सद्यः पापसे मुक्त हो जाता है जो व्यक्ति इस विधिके अनुसार प्रायश्चित्त कर लेता है, वह अखिल आसक्तियोंका भलीभाँति त्यागकर मेरे लोकमें चला जाता है।

इसी प्रकार भूमे ! जो मानव मुझे बिना चन्दन और माला अर्पण किये ही धूप देता है, वह इस दोषके कारण दूसरे जन्ममें राक्षस होता है और उसके शरीरसे मुर्दे-सी दुर्गन्ध निकलती रहती है और इक्कीस वर्षोंतक वह लौहशालामें निवास करता है। अब उसके लिये भी प्रायश्चित्त बताता हूँ, सुनो। उसकी विधि यह है – जिस किसी मास के शुक्लपक्षको द्वादशीतिथिके दिन वह व्रत करके दिनके आठवें भागमें सायंकाल यथालब्ध आहार ग्रहण करे। फिर प्रातः काल जब सूर्यमण्डल दिखायी पड़ने लगे, उस समय वह पञ्चगव्यका प्राशन करे। इसके प्रभावसे वह पुरुष पापसे सद्यः छूट जाता है। इस विधिके अनुसार जो प्रायश्चित्तका पालन करता है, उसके पिता पितामह आदि पितर भी तर जाते हैं।

भूमे ! जो मनुष्य पहले भेरी आदिद्वारा शब्द किये बिना ही मुझे जगाता है, वह निश्चय ही एक जन्ममें बहरा होता है। अब! मैं उसका प्रायश्चित्त बतलाता हूँ, जिससे वह पापसे छूट जाता है। वह किसी शीत ऋतुके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिकी रातमें आकाश-शयन करे। इस नियमका पालन करनेसे मानव पापसे शीघ्र छूट जाता है।

वसुंधरे ! जो मानव बहुत अधिक भोजन करके अजीर्णयुक्त बिना स्नान किये ही मेरी उपासनामें आ जाता है, वह इस अपराधके कारण क्रमशः कुत्ता, वानर, बकरा और श्रृंगालकी योनियोंमें एक-एक बार जन्म लेकर फिर अन्धा और बहरा होता है। बादमें इस क्लेशमय संसारको पारकर वह किसी अच्छे कुलमें उत्पन्न होता है। उस समय अपराधसे छूट जानेके कारण वह पुरुष परम शुद्ध और श्रेष्ठ भगवद्भक्त होता है।

मैं अब उसके लिये प्रायश्चित्त बतलाता हूँ, जिसके पालन करनेसे वह पापसे छूट जाय । प्रायश्चित्तका स्वरूप यह है कि उसे क्रमशः तीन-तीन दिनोंतक यावक, मूलक, पायस (खीर), सत्तू तथा वायुके आहारके आधारपर रहकर फिर तीन रात आकाश-शयन करना चाहिये। फिर ब्राह्ममुहूर्तमें उठकर दन्तधावनकर शरीरको परम शुद्ध करनेके लिये उसे पञ्चगव्यका प्राशन करना चाहिये जो मानव इस विधानके अनुसार प्रायश्चित्त करता है, उसपर पापका प्रभाव नहीं पड़ सकता और वह मेरे लोकको प्राप्त होता है।

महेश्वरि ! यह प्रसङ्ग आख्यानोंमें महाख्यान और तपस्याओंमें परम तप है। जो मनुष्य प्रातः काल उठकर इसका पाठ करता है, वह व्यक्ति मेरे लोकको प्राप्त होता है। साथ ही वह अपने दस पूर्व और दस पीछेकी पीढ़ियोंको तार देता है। यह प्रसङ्ग परम मङ्गलकारी तथा सम्पूर्ण पापोंको नष्ट करनेवाला है। अपने व्रतमें अटल रहनेवाला जो भागवत पुरुष इसका सदा पाठ करता है, वह सम्पूर्ण अपराधोंका आचरण करके भी उससे लिप्त नहीं होता। यह जप करने योग्य तथा परम प्रमाणभूत शास्त्र है। इसे मूर्खोके समाजमें अथवा निन्दित व्यक्तियोंके सामने नहीं पढ़ना चाहिये। देवि! तुमने मुझसे जो पूछा था, वह आचारका निर्णीत विषय मैंने तुम्हें बतला दिया, अब तुम दूसरा कौन-सा प्रसङ्ग सुनना चाहती हो, यह बतलाओ।

अध्याय ११४ वराहक्षेत्रकी महिमाके प्रसङ्गमें गीध और शृगालका वृत्तान्त तथा आदित्यको वरदान

पृथ्वी बोली भगवन्! आपने मुझे तथा अपने भक्तोंको प्रिय लगनेवाली बड़ी सुन्दर बात सुनायी। महाबाहो ! अब मैं यह जानना चाहती हूँ कि ‘कुब्जाम्रक’ क्षेत्रमें सबसे श्रेष्ठ एवं पवित्र आचरणीय व्रत क्या है ? तथा भक्तोंको सुख देनेवाला इसके अतिरिक्त अन्य तीर्थ कौन-सा है ?

भगवान् वराह बोले- देवि ! ऐसे तो मेरे सभी क्षेत्र परम शुद्ध हैं; फिर भी ‘कोकामुख’, ‘कुब्जाम्रक’ तथा ‘सौकरव’ – स्थान (वराहक्षेत्र) क्रमशः उत्तरोत्तर उत्तम माने जाते हैं; क्योंकि इनमें सम्पूर्ण प्राणियोंको संसारसे मुक्त करनेके लिये अपार शक्ति है। देवि! भागीरथी गङ्गाके समीप यह वही स्थान है, जहाँ मैंने तुम्हें समुद्रसे निकालकर स्थापित किया है।

पृथ्वी बोली- प्रभो ! ‘सौकरव’ में मरनेवाले प्राणी किन लोकोंको प्राप्त होते हैं तथा वहाँ स्नान करने एवं उस तीर्थके जलके पान करनेवालेको कौन – सा पुण्य प्राप्त होता है? कमलनयन ! आपके उस वराहक्षेत्रमें कितने क्षेत्र हैं? आप यह सब मुझे बतानेकी कृपा कीजिये ।

भगवान् वराह कहते हैं महाभागे ! वराहक्षेत्रके दर्शन- अभिगमन आदिसे श्रेष्ठ पुण्य तो प्राप्त ही होता है, साथ ही उस तीर्थमें जिनकी मृत्यु होती है, उनके पूर्वके दस तथा आगे आनेवाली पीढ़ीके दस तथा ( मातुल आदि कुलके) अन्य बारह पुरुष स्वर्गमें चले जाते हैं। सुश्रोणि! वहाँ जाने तथा मेरे (श्रीविग्रहके) मुखका दर्शन करनेमात्रसे सात जन्मोंतक वह पुरुष विशाल धन-धान्यसे परिपूर्ण श्रेष्ठ कुलमें उत्पन्न होता है, साथ ही वह रूपवान्, गुणवान् तथा मेरा भक्त होता है जो मनुष्य वराहक्षेत्रमें अपने प्राणोंका त्याग करते हैं वे उस तीर्थके प्रभावसे शरीर त्यागनेके पश्चात् शङ्ख, चक्र और गदा आदि आयुधोंसे विभूषित चतुर्भुजरूप धारणकर श्वेतद्वीपको प्राप्त होते हैं। वसुंधरे ! इसके अन्तर्गत ‘चक्रतीर्थ’ नामका एक प्रतिष्ठित क्षेत्र है, जिसमें व्यक्ति इन्द्रियोंपर संयम रखते हुए नियमानुकूल भोजन और वैशाखमासकी द्वादशी तिथिको विधिपूर्वक स्नानकर ग्यारह हजार वर्षोंतक विख्यात कुलमें जन्म पाकर प्रभूत धन-धान्यसे सम्पन्न रहकर मेरी परिचर्या में परायण रहता है।

पृथ्वी बोली- भगवन्! सुना जाता है कि इस वराहतीर्थमें चन्द्रमाने भी आपकी उपासना की थी, जो बड़े कौतूहलका विषय है। अतः आप इसे विस्तारपूर्वक बतानेकी कृपा करें।

भगवान् वराह बोले- देवि ! चन्द्रमा मुझे स्वभावतया ही प्रिय हैं; अतः तप करनेके बाद मैंने उन्हें अपना देवदुर्लभ दर्शन दिया। पर मेरे उस स्वरूपको देखकर वे अपनेको सँभाल न सके और अचेत हो गये। मेरे तेजसे वे ऐसे मोहित हो गये कि मुझे देखनेकी भी उनमें शक्ति न रही। उन्होंने आँखें बंद कर लीं और घबराहटके कारण त्रस्त – नेत्र होकर कुछ भी बोल न पाये। इसपर मैंने उनसे धीरेसे कहा- ‘परम तपस्वी सोम! तुम किस उद्देश्यसे तप कर रहे हो? तुम्हारे मनमें जो बात हो, वह मुझसे बताओ। मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, अतः तुम्हें सब कुछ प्राप्त हो जायगा – इसमें कोई संशय नहीं।’

इसपर ‘सोमतीर्थ’ में स्थित होकर चन्द्रमाने कहा- ‘भगवन्! आप योगियोंके स्वामी हैं और संसारमें सबसे श्रेष्ठ हैं। आप यदि मुझपर प्रसन्न हैं तो यहाँ निवास करनेकी कृपा कीजिये, साथ ही मैं यह भी चाहता हूँ कि जबतक ये लोक रहें, तबतक आपमें मेरी निश्चलरूपसे अतुल श्रद्धा और भक्ति सदा बनी रहे। मेरा जो रूप है, वह कभी आपसे रिक्त न हो और वह सातों द्वीपोंमें सर्वत्र दिखायी पड़े। यज्ञोंमें ब्राह्मण समुदाय मेरे नामसे प्रसिद्ध सोमरसका पान करें। प्रभो! इसके प्रभावसे उन्हें परम एवं दिव्य गति प्राप्त हो जाय। अमावास्याको मुझमें क्षीणता आ जायगी, उसमें पितरोंके लिये पिण्डकी क्रियाएँ लाभकर होंगी, पर पूर्णिमाको मैं पुनः नियमानुसार सुन्दर दर्शनीयबन जाऊँ। अधर्ममें मेरी बुद्धि कभी न जाय और मैं ओषधियोंका भी स्वामी बन जाऊँ । महादेव! आप यदि मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे आनन्दित करनेके लिये यह वर देनेकी कृपा कीजिये।’

वसुंधरे! चन्द्रमाकी इन बातोंको सुनकर और उन्हें वैसा वरदान देकर मैं वहीं अन्तर्धान हो गया। महाभागे! चन्द्रमाने जहाँ एक पैरपर खड़े रहकर पाँच हजार वर्षोंतक महान् तपस्या की थी, वह ‘सोमतीर्थ’ नामसे विख्यात हुआ तथा उन्हें दुर्लभ सिद्धि एवं कान्ति प्राप्त हुई। जो मेरा भक्त इस सोमतीर्थमें श्रद्धासे स्नानकर प्रतिदिन दिनके आठवें भाग में भोजन करके मेरी उपासनामें लगा रहता है, अब उसके फलका वर्णन करता हूँ। वह पैंतीस हजार वर्षोंतक ब्राह्मणका शरीर पाता है और वेद-वेदाङ्गका पारगामी विद्वान्, धनवान् गुणवान्, दानी एवं मेरा निर्दोष भक्त होता है और संसारसागरको पार कर जाता है। यशस्विनि ! यह ऐसा महत्त्वपूर्ण तीर्थ है, जहाँ महात्मा चन्द्रमाने दीर्घकालतक तपस्या की थी।

अब उस ‘सोमतीर्थ’ का लक्षण बतलाता हूँ, सुनो। वैशाख शुक्ल द्वादशीको चन्द्रमाके अस्त होने एवं अन्धकारके प्रवृत्त होनेपर जहाँ बिना चन्द्रमाके ही पृथ्वीपर चन्द्रिका चमकती दीखे, उसे ही सोमतीर्थ समझना चाहिये। वास्तवमें यह महान् आश्चर्यका विषय है कि चन्द्रमाका आलोक (प्रकाश) तो दीखता है, पर स्वयं चन्द्रमा वहाँ नहीं दीखते। महाभागे ! ये परम पवित्र सौकरवतीर्थ तथा सोमतीर्थ – मुझसे सम्बन्ध रखते हैं।

वसुंधरे ! अब मैं एक दूसरी बात बतलाता हूँ. उसे सुनो; जिससे इस क्षेत्रकी अद्भुत महिमा प्रख्यायित होती है। यहाँ एक श्रृंगाली रहती थी, जो बिना श्रद्धाके ही पूर्वकर्मवश दैवयोगसे मरकर इस क्षेत्रके प्रभावसे अगले जन्ममें गुणवती, रूपवती और चौंसठ कलाओंसे सम्पन्न श्यामा * सर्वाङ्गसुन्दरी राजाकी पुत्री हुई थी। उसी सोमतीर्थ के पूर्वी भागमें ‘गृध्रवट’ नामका भी एक प्रसिद्ध तीर्थ है, जहाँ एक गीधकी अनायास मृत्यु हुई, जिसकी कोई कामना न थी, पर उसे मनुष्यकी योनि प्राप्त हुई थी।

पृथ्वी बोली- प्रभो! इस तीर्थके प्रभावसे तिर्यक्-योनिमें पड़े हुए गीध और श्रृंगाली मनुष्य- शरीरको कैसे प्राप्त हुए? यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है! साथ ही उस तीर्थमें स्नान करनेसे अथवा प्राणत्याग करनेसे मनुष्य किस गतिको प्राप्त करते हैं तथा उनके शरीरपर कौनसे विशेष चिह्न होते हैं? केशव ! आप मुझे यह भी बतानेकी कृपा कीजिये ।

भगवान् वराह बोले- देवि ! धर्मप्रधान सत्ययुगके बाद त्रेतायुगका प्रवेश ही हुआ था । उस समय काम्पिल्या नगरमें ब्रह्मदत्त’ नामक एक धर्मनिष्ठ राजा रहते थे। उनका सभी लक्षणोंसे सम्पन्न एक सोमदत्त नामक पुत्र था। एक बार वह पितरोंके उद्देश्यसे मृगोंके अन्वेषणमें आखेटके लिये बाघ और सिंहोंसे भरे वनमें गया; किंतु राजकुमारको पितृकार्यके उपयुक्त कोई वस्तु न दिखी। इस प्रकार वह इधर-उधर घूम ही रहा था कि उसकी दाहिनी ओरसे एक सियारिन निकली, जो ( अनायास एक मृगपर छोड़े हुए) उसके बाणोंसे बिंध गयी और व्यथासे तड़पने लगी फिर वह इस तीर्थमें जल पीकर एक शाखोट- वृक्षके नीचे गिर पड़ी। धूपसे व्याकुल तथा बाणसे बिंधी होनेके कारण न चाहनेपर भी उसके प्राण इस सोमतीर्थमें ही निकल गये । भद्रे ! उसी समय सोमदत्त भी भूख-प्याससे पीड़ित होकर इस ‘गृध्रवट’ नामक तीर्थमें पहुँचा और विश्राम करनेके लिये ठहर गया। इतनेमें ही उस वटकी शाखापर उसे एक गीध बैठा दिखायी दिया। यशस्विनि ! उसने उसे भी एक ही बाणसे मार गिराया, जो उसी वृक्षकी जड़पर गिरा। हृदयमें बाण लगनेसे उसे मूर्च्छा आ गयी और उसके प्राणपखेरू उड़ गये। उस गीधको देखकर राजकुमारके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई। अतः उसने बाणोंके पर बनानेके लिये उस गीधके पंख काट लिये और उन्हें लेकर घर आया। इस प्रकार गीधके न चाहनेपर भी उस तीर्थमें मृत्यु होनेपर उसकी सद्गति हो गयी और कालान्तरमें वह कलिङ्गदेशके नरेशके घर रूपवान् विद्वान् एवं गुणसम्पन्न राजपुत्र हुआ ।

वसुंधरे ! उधर जो शृगाली मरी थी, वह काञ्चीनरेशके यहाँ राजपुत्रीके रूपमें उत्पन्न हुई जो सर्वाङ्गसुन्दरी, श्यामा अत्यन्त रूप गुणसे सम्पन्न, कार्य-कुशल और चौंसठ कलाओंसे सम्पन्न थी। उसका स्वर कोयलके समान मधुर एवं सुखदायी था। इधर अनायास काञ्चीनरेश और कलिङ्ग नरेशकी प्रीति बढ़ गयी और परिणामतः काञ्ची- नरेशकी कन्याका कलिङ्गराजके पुत्रके साथ विधिपूर्वक विवाह हो गया। काञ्चीनरेशने वर-वधूको दहेजमें अनेक प्रकारके रत्न, आभूषण, हाथी, घोड़े, भैंस और दास-दासियाँ दीं। फिर विवाहोपरान्त कलिङ्गराज वधूसहित अपने पुत्रको लेकर अपनी राजधानीको वापस लौट आये।

देवि ! विवाहके बाद दम्पतीको प्रेमपूर्वक रहते कुछ वर्ष व्यतीत हो गये। उनकी प्रीति रोहिणी और चन्द्रमाकी तरह निरन्तर बढ़ती गयी। वे नन्दनवनकी उपमावाले वन उपवन उद्यानादि एवं क्रीडाके अन्य दिव्यस्थलोंमें आनन्दपूर्वक विहार करते । इधर कलिङ्ग – राजकुमार अपनी बुद्धि, सुशीलता और श्रेष्ठ कर्मोंसे नगरकी जनताको भी परम संतुष्ट रखता। उधर अन्तःपुर एवं नगरकी स्त्रियोंको राजकुमारीने संतुष्ट कर रखा था। इस प्रकार उन दोनोंके सौम्य गुणों एवं शीलयुक्त व्यवहारसे सभी राज्यवासी संतुष्ट थे।

एक बार उस राजकुमारीने उस राजकुमारसे वार्तालापके प्रसङ्गमें कहा कि मैं आपसे एक रहस्यकी बात पूछती हूँ । यदि मुझपर आपका स्नेह हो तो आप मुझे उसे बतानेकी कृपा करें। पत्नीकी बात सुनकर राजकुमारने कहा- ‘भद्रे ! मैं सत्यकी शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम्हारे मनकी अभिलाषा पूरी करनेके लिये अवश्य प्रयत्न करूँगा। देवि ! सत्यके आधारपर ही विश्व ठहरा है। सत्य भगवान्‌का ही स्वरूप है और तपस्याका मूल भी सत्य ही है तथा सत्यके आधारपर ही हमारा राज्य टिका हुआ है। मैं कभी भी मिथ्या नहीं बोलता। इसके पहले भी मेरे मुँहसे कभी झूठी बात नहीं निकली है। अतः तुम कहो, मैं तुम्हारे लिये कौन-सा कार्य करूँ? हाथी, घोड़े, रथ, रत्न, सवारी, धन अथवा परम श्रेष्ठ अपना पट्टबन्ध, शिरोमुकुटतक मैं तुम्हें समर्पण करनेको तैयार हूँ।

इसपर काशीनरेशकी उस कन्याने अपने पतिदेवके चरणोंको पकड़कर यह बात कही ‘पतिदेव! मैं रत्न, हाथी, घोड़े एवं रथ कुछ भी नहीं चाहती। आपके पट्टबन्धसे मेरा क्या प्रयोजन ? मैं तो केवल यही चाहती हूँ कि मध्याह्नकालमें एकान्तमें निश्चिन्त सो सकूँ । प्राणनाथ ! आप ऐसी व्यवस्था कर दें कि मैं उस समय जितनी देरतक सोयी रहूँ, उस समय मुझे मेरे श्वशुर, सास अथवा दूसरा कोई भी देख न सके- यही मेरा व्रत है। यही नहीं अपने सगे-सम्बन्धी अथवा घरके अन्य स्वजन भी सोयी हुई अवस्थामें मुझपर कभी दृष्टि न डालें।’

वसुंधरे ! इसपर कलिङ्गदेशके उस राजकुमारने उसका समर्थन कर दिया और कहा – ‘तुम विश्वास करो, सोते समय तुम्हें कोई भी न देखेगा।’ कुछ समयके बाद कलिङ्गनरेशने उस राजकुमारको राज्यपदपर अभिषिक्त कर दिया। फिर कुछ दिनोंके पश्चात् उनकी मृत्यु हो गयी। अब राजकुमार राज्यका विधिपूर्वक समुचित ढंगसे संचालन करने लगा। राजकुमारी जिस स्थानपर अकेली सोती, वहाँ उसे कोई देख नहीं पाता था। फिर यथासमय उस राजकुमारके कलिङ्ग-कुलको आनन्दित करनेवाले सूर्यके समान तेजस्वी पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। इस प्रकार उस राजकुमारके निष्कण्टक राज्य करते हुए सतहत्तर वर्ष बीत गये। अठहत्तरवें वर्ष एक दिन जब सूर्य मध्य आकाशमें स्थित थे, तब वह एकान्तमें बैठकर इन बातोंको प्रारम्भसे सोचने लगा। उस दिन माघमास के शुक्लपक्षको द्वादशी तिथि थी, अतः उसके मनमें आया कि ‘मैं अपनी पत्नीको देखूं कि वह एकान्तमें किसकी अर्चना करती है अथवा उसका व्रत कौन-सा है ? निर्जनस्थानमें सोती रहकर क्या करती है ? कोई स्त्री सोकर व्रत करे, ऐसा तो कोई धर्म-संग्रह नहीं दीखता है। मनुने भी किसी ऐसे धर्मका उल्लेख नहीं किया। बृहस्पति अथवा धर्मराजके बनाये हुए धर्मोंमें भी कहीं इस प्रकारका उल्लेख नहीं पाया जाता है। ऐसा तो कहीं देखा-सुना नहीं गया कि कोई स्त्री सोयी रहकर व्रतका आचरण करे। यह तो इच्छानुसार भोगोंका उपभोग करती-बना- बनाया भोजन-पान करती और अत्यन्त महीन रेशमी वस्त्र धारणकर श्रेष्ठ गन्धोंसे विभूषित तथा सब प्रकारके रत्नोंसे अलंकृत रहती है। पर सम्भव है, इस प्रकार देखनेपर वह प्रकुपित हो जाय, पर जो कुछ हो उसे एक बार देखना अवश्य चाहिये कि वह किस प्रकार कौन सा व्रत करती है ? किंनरोंने बतलाया है कि वशीकरण मन्त्रको सिद्ध कर लेनेपर स्त्री योगीश्वरी बनकर जहाँ उसकी इच्छा हो, जा सकती है। इस प्रकार इसमें वह शक्ति आ जायगी, जो कामरागसे दूसरेका भी स्पर्श कर सकती है तथा दूसरोंसे इसका भाव भी हो सकता है।’

पृथ्वि ! इस प्रकार राजकुमारके सोचते-विचारते सूर्य अस्त हो गये और सबको विश्राम देनेवाली भगवती रात्रिका आगमन हुआ। फिर रात्रि बीतनेपर मङ्गलमय प्रभातका भी उदय हुआ । मागध, वन्दीगण, सूत और वैतालिक राजाकी स्तुति करने लगे। शङ्ख और दुन्दुभिकी ध्वनियोंसे उसकी निद्रा भङ्ग हुई। इधर अखिललोकनायक भगवान् भास्कर भी उदित हो गये। उस समय पहलेकी बातोंका स्मरण करते हुए राजकुमारके मनमें अन्य कोई चिन्ता नहीं रह गयी थी, केवल वही चिन्ता उसके हृदयमें व्याप्त थी। उसने विधिपूर्वक स्नानकर दो रेशमी वस्त्र पहन लिये। इस प्रकार भलीभाँति तैयार होकर उसने सबको दूर हटा दिया और कहा कि ‘मैं किसी व्रतमें दीक्षित हो गया हूँ, अतः कोई भी स्त्री अथवा पुरुष मेरा स्पर्श न करे; अन्यथा वह दण्ड- विधान के अनुसार मेरा वध्य हो सकता है ?”

वसुंधरे ! कलिङ्गनरेश इस प्रकारकी आज्ञा देकर शीघ्रतापूर्वक चलकर जहाँ राजकुमारी रहती थी, वहाँ पहुँचा और अपनी स्त्रीको देखा। वह चारपाईके पास नीचे आसन लगाकर बैठी थी और अपने मनमें इष्टदेवका चिन्तन कर रही थी, साथ ही सिरके दर्द से पीड़ित होकर रो रही थी। राजकुमारी कह रही थी- ‘मैंने पूर्वजन्ममें कौन सा ऐसा दुष्कर कर्म किया है, जिससे मैं इस दयनीय दशाको प्राप्त हो गयी हूँ। मैं अनाथकी भाँति क्लेश सहती हूँ, किंतु मेरे पतिदेवको इसका भी पता नहीं है। मेरा व्रत सब तरहसे विकृत ही कहा जा सकता है। मेरा बड़ा सौभाग्य होता यदि मैं कभी सौकरवक्षेत्रमें जा सकती और मेरे हृदयमें जो बात बसी है, उसे अपने पतिसे कह पाती।’

कलिङ्गनरेश अपनी स्त्रीकी बात सुन रहा था। उसने उठकर दोनों हाथोंसे अपनी पत्नीको पकड़कर कहा- ‘भद्रे ! तुम यह क्या कह रही हो ? अपनेको तुम इस प्रकार बार-बार कोसती क्यों हो? तुम प्रारब्धकी बातोंको क्यों सोचती हो और अपनेको क्यों कोसती हो? तुम्हें तो यह एक महान् शिरोरोग है। इसे दूर करनेके लिये अष्टाङ्ग – कुशल वैद्य क्या तुम्हें नहीं मिलते, जो तुम्हारे सिरकी कठिन पीड़ाको दूर कर सकें? वायु, कफ, पित्त आदि रोगोंसे तुम्हें संनिपात हो गया है, अथवा असमयपर तुममें पित्तका प्रकोप हो गया है। तुम व्रतके बहाने व्यर्थमें इतना क्लेश क्यों पाती हो? तुम कहती हो कि ‘सौकरवक्षेत्रमें चलनेपर कहूँगी, इस विषयमें ऐसा क्या गोपनीय है, जिसे तुम कहना नहीं चाहती हो ?”

अब राजकुमारी बड़े संकोचमें पड़ गयी। वह दुःखसे पीड़ित तो थी ही, उसने स्वामीके चरण पकड़ लिये और कहने लगी- ‘महाराज ! आप मुझपर प्रसन्न हों, यह बात आप इस समय पूछ रहे हैं, यह ठीक नहीं। वीरवर ! मेरा यह वृत्त जन्मान्तरीय कर्मोंसे सम्बद्ध है।’ पत्नीकी बात सुनकर कलिङ्गदेशके उस नरेशने परम हित करनेके विचारसे उसके प्रति मधुर वचन कहा – ‘देवि ! मेरे सामने यह कौन सी गोपनीय बात है ? तुम ठीक-ठीक बात बतला दो ।’ पतिकी बात सुनकर राजकुमारीकी आँखें आश्चर्यसे भर गयीं। वह मधुर वाणीमें बोली- ‘प्राणनाथ ! शास्त्रोंके अनुसार स्त्रीके लिये स्वामी ही धर्म, अर्थ और सर्वस्व है। उसका पति ही परमात्मा है। अतएव आप जो मुझसे पूछ रहे हैं, वह मुझे अवश्य कहना चाहिये। फिर भी जो बात मेरे हृदयमें बैठ गयी है उसे कहनेमें मैं असमर्थ हूँ। पीड़ा पहुँचानेवाली मेरी यह बात आप मुझसे पूछें, यह उचित नहीं जान पड़ता। महाभाग ! इस दुःखका मेरे शरीरसे दूर होना असम्भव सा दीखता है। आप सुखमें सदा समय बिताते हैं, यह बड़ी अच्छी बात है। स्वामिन्! मेरे समान बहुत-सी स्त्रियाँ आपके अन्तःकरणमें हैं। जिन्हें आप विविध प्रकारके अन्न और उत्तम भूषण दिया करते हैं और वे आपकी सेवा करती हैं, फिर मुझसे आपका क्या तात्पर्य ? राजन् ! आप हाथी, रथ और घोड़ेपर यात्रा किया करते हैं, यह सब ठीक है। पर राजन्! इस विषयमें मुझसे आपको नहीं पूछना चाहिये। आप मेरे इष्ट देवता, गुरु एवं साक्षात् सनातन यज्ञपुरुष हैं। मानद ! मेरे लिये आप धर्म, अर्थ, काम, यश और स्वर्ग सब कुछ हैं। आपके पूछनेपर मुझको चाहिये कि सदा सभी बातें सत्य एवं प्रिय कहूँ। क्योंकि सम्पूर्ण पतिव्रताओंके लिये यह सनातन धर्म है। तथापि मेरी बातों पर निश्चित विचार करके मेरी पीड़ाके विषयमें आपको नहीं पूछना चाहिये।’

 उस समय कलिङ्ग-नरेशको अपनी पत्नीकी पीड़ासे भीषण मानसिक संताप हो रहा था, अतएव उसने मधुर वाणीमें कहा-देवि ! मैं तुम्हारा पति हूँ, ऐसी स्थितिमें मेरे पूछनेपर तुम्हें शुभ हो या अशुभ उसे अवश्य बताना चाहिये। धर्मके मार्गपर चलनेवाली स्त्रीका कर्तव्य है कि वह गुप्त बात भी पति के सामने प्रकट कर दे। जो स्त्री किसी राग या लोभसे मोहित होकर अपकर्म कर उसे पतिसे छिपाती है तो विद्वत्समाज उसे सती नहीं कहता। यशस्विनि! ऐसा विचार करके तुम्हें मुझसे अपनी गुप्त बात भी अवश्य कहनी चाहिये। यदि इस गोपनीय बातको तुम मुझे बता देती हो तो तुम्हें अधर्मका भागी नहीं होना पड़ेगा।

राजकुमारी बोली- ‘प्राणनाथ! राजा देवता, गुरु एवं ईश्वरके समान पूज्य हैं—-आप मेरे पति भी हैं। महाराज ! सुनिये! यद्यपि मेरा कार्य बहुत गुह्य नहीं है, तब भी मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ, स्वामिन्! अपने राज्यपर बड़े राजकुमारका अभिषेक कर दीजिये, यह नियम कुलके अनुसार है और आप मेरे साथ ‘सौकरव (वराह) क्षेत्र’ में चलनेकी कृपा करें।’

पत्नीकी यह बात सुनकर कलिङ्ग-नरेशने सहर्ष उसका अनुमोदन कर दिया। अपने वाक्योंसे पत्नीको प्रसन्नकर उसने कहा- ‘सुन्दरि ! तुम्हारे कथनानुसार मैं पुत्रको राज्यपर बैठा दूँगा। फिर वे दोनों रनिवाससे बाहर निकले। राजकुमारने कलुकीको देखकर कहा – ‘ द्वारपाल ! तुम यहाँके सब लोगोंको सूचित कर दो। वे आकर यहाँ उपस्थित हों।

इसके बाद कलिङ्ग-नरेशने अपनी रुचिके अनुसार उस समय कुछ खाने योग्य अन्न-जल ग्रहण किया और आचमन करके कुछ समयतक विश्राम किया। फिर उन्होंने अपने पुत्रका अभिषेक करनेके लिये मन्त्रिमण्डलको बुलाया और आज्ञा दी – ‘सब लोग आचारके अनुसार माङ्गलिक कृत्य करके राजधानीका संस्कार करनेमें जुट जायें।’ फिर कलिङ्ग-नरेशने अपने वृद्ध मन्त्रीसे कहा- ‘ तात ! कल मैं राज्यपर अपने पुत्रका विधिके अनुसार अभिषेक करना चाहता हूँ। उसकी आप शीघ्र तैयारी करें।’ नरेशकी बात सुनकर मन्त्रियोंने कहा- ‘राजन्! सभी वस्तुएँ तैयार ही हैं। आप जो कह रहे हैं, वह हम सभीको पसंद है। महाराज! आपके ये राजकुमार सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें सदा संलग्न रहते हैं। प्रजाओंपर प्रेम रखनेवाले, नीतिके पूर्ण जानकार, विचारशील और शूरवीर भी हैं। प्रभो! आपके मनमें जो अभिलाषा है, वह हमलोगोंको सम्यक् प्रकारसे प्रिय लगती है।’ ऐसी बात कहकर मन्त्रीलोग अपने स्थानपर चले गये और भगवान् सूर्य अस्त हो गये। राजा और रानीने सुखपूर्वक शयन किया। रात आनन्दपूर्वक बीत गयी।

प्रातः काल गन्धर्वों, वन्दीजनों सूतों एवं मागधोंने अपने समुचित स्तुति पाठसे राजाको जगाया। राजाने शुभ मुहूर्तका अवसर पाकर उस परम योग्य अपने कुमारका अभिषेक कर दिया। कलिङ्गनरेश धर्मका पूर्ण ज्ञाता था। राजगद्दीपर बैठानेके पश्चात् उसने राजकुमारका मस्तक सूँघा । साथ ही उससे यह मधुर वचन कहा- ‘बेटा! तुम पुत्रोंमें श्रेष्ठ हो मैं तुम्हें राजधर्म बताता हूँ, वह सुनो- तात ! यदि तुम चाहते हो कि मुझे परम धर्म प्राप्त हो जाय तथा मेरे पितर तर जायँ तो तुम्हें धर्मात्मा पुरुषोंको किसी प्रकार क्लेश नहीं देना चाहिये। जो दूसरोंकी स्त्रियोंपर बुरी दृष्टि डालते हैं, बालकोंका वध करते हैं तथा स्त्रीकी हत्या करनेमें नहीं हिचकते, ऐसे व्यक्ति दण्डके पात्र हैं। कोई भी सुन्दर स्त्री सामने आ जाय तो तुम्हें आँखें मूँद लेनी चाहिये। दूसरोंके अर्जित धनके प्रति तुम्हें लोभ नहीं करना चाहिये और न अन्यायसे ही धन कमाना चाहिये। तुम्हें न्यायपूर्वक पूरी तैयारी तथा दक्षतासे अपने देशकी रक्षा करनी चाहिये। तुम सदा उद्योगशील होकर तत्पर रहना और मन्त्रियोंकी मन्त्रणाका पालन करना, वे जो बात बतायें, उन्हें विचारपूर्वक करना। अपने शरीरकी रक्षापर पूरा ध्यान देना है। बेटा! यदि तुम मेरा प्रिय करना चाहते हो तो तुम्हारे जिस व्यवहारसे प्रजा आनन्दसे रहे एवं ब्राह्मण जिससे संतुष्ट रहें, तुम्हें वही कर्म करना चाहिये। राजाओंके लिये सात प्रकारके महान् व्यसन कहे गये हैं— उनसे तुम्हें सदा दूर रहना चाहिये। तुम्हारी सम्पत्तिमें किसी प्रकार दोष आ जाय, ऐसा काम तुम्हें कभी भी नहीं करना चाहिये । राज्यकर्मके सम्बन्धमें अपने मन्त्रीसे तुम्हें किसी प्रकार अप्रिय वचन नहीं कहना चाहिये। मैं इस समय तीर्थमें जानेके लिये प्रस्तुत हूँ, तुमको मुझे रोकना नहीं चाहिये। पुत्र! यदि मुझे प्रसन्न करना चाहते हो तो इतना काम करनेके लिये शीघ्र उद्यत हो जाओ।’

पृथ्वीदेवि ! उस समय पिताकी बात सुनकर राजकुमारने उनके पैर पकड़ लिये और उनसे करुणापूर्वक वचन कहना आरम्भ किया। राजकुमारने कहा – ‘पिताजी! आप यदि यहाँ नहीं रहेंगे तो राज्य, खजाना और सेनासे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। आपके बिना मैं जीवित नहीं रह सकता। भले ही आपने अभिषेक करके मुझे राजा बना दिया। पर पिताजी! मैं तो केवल बालकोंके खेल ही जानता हूँ। राजालोग जिस प्रकार राज्यकी व्यवस्था करते हैं, उन सभीसे तो मैं सर्वथा अनभिज्ञ हूँ।’

अपने पुत्रकी बात सुनकर राजाने उससे सामपूर्वक कहा – ‘पुत्र ! तुम जो कहते हो कि ‘मैं कुछ नहीं जानता’ तो इस विषयमें तुम्हारे मन्त्री एवं नगरके रहनेवाले सत्पुरुष सब कुछ बता देंगे।’ देवि! उस समय अपने पुत्रको इस प्रकारका उपदेश देकर कलिङ्गनरेश धर्म शास्त्रकी विधिके अनुसार ‘सौकरव (वराह) क्षेत्र’ में जानेके लिये तैयार हो गया। उसे वहाँ जाते देखकर वहाँके रहनेवाले लोग भी अपनी स्त्री तथा पुत्रोंके सहित सब के सब पीछे चल पड़े। इतना ही नहीं, अन्तःपुरकी स्त्रियाँ भी बड़ी प्रसन्नतासे हाथी, घोड़े, रथ आदि सवारियोंपर चढ़कर उसके पीछे-पीछे चल पड़ीं।

इस प्रकार वह कलिङ्गराज बहुत समयके पश्चात् ‘सौकरव’ तीर्थमें पहुँचा और वहाँ पहुँचकर धन-धान्यका यथोचित दान किया और इस प्रकार धर्म करते हुए धीरे-धीरे समय बीतता गया। इस प्रकार कुछ दिन बीत जानेके पश्चात् राजाने अपनी पत्नीसे यह मधुर वचन कहा- ‘सुन्दरि ! आज मेरे जीवनके हजार वर्ष पूरे हो गये। अब मैंने तुमसे जो पूछा था, उस परम गोपनीय विषयको मुझे बताओ।’ इसपर वह राजकुमारी राजाके दोनों चरणोंको पकड़कर बोली- ‘मानद! महाभाग ! आप मुझसे जो बात पूछ रहे हैं, उसे तीन रातोंतक उपवास करनेके बाद आप सुननेकी कृपा करें।’ उसने पत्नीकी बातका अनुमोदन किया और कहा – ‘कमलनयनि ! तुम जैसी बात कहती हो, वह मुझे पसंद है। फिर स्नानकर तीन राततक नियमपूर्वक रहनेके लिये संकल्प किया। तदनन्तर तीन राततक नियमपूर्वक रहकर दम्पतीने स्नान किया और पवित्र रेशमी वस्त्र धारणकर अलंकारोंसे अपने शरीरको आभूषित किया तथा भगवान् विष्णुको प्रणाम किया। फिर राजकुमारीने अपने अलंकारोंको उतारकर मुझे (विष्णु-वराहको ) अर्पण कर दिया तथा उस नरेशसे बोली- ‘नाथ! आइये! हम दोनों एकान्त स्थानपर चलें। आपके मनमें जिस गोपनीय बातको जाननेकी इच्छा है, उसे समझें।’

तत्पश्चात् कलिङ्गनरेश और काशी – राजकुमारी एकान्त स्थानमें गये। फिर राजकुमारीने कहा- ‘राजन्! मैं पूर्वजन्ममें एक श्रृंगाली थी, मेरा जन्म तिर्यक् – योनिमें हुआ था । मृगके भ्रमसे सोमदत्त नामक एक राजकुमारने बाण चलाया और मैं उससे बिंध गयी। मेरे सिरमें अब भी उस तीखे बाणके चिह्न अवशेष हैं, आप इसे देखनेकी कृपा कीजिये । उसीके दोषसे मेरे सिरमें यह रोग सदा बना रहता है। काशीनरेशके कुलमें मेरा जन्म हुआ। फिर संयोग तथा अपने पिताजीकी कृपासे मैं आपकी पत्नी बन गयी हूँ। सौकरवक्षेत्रके प्रभावसे मेरा ऐसा जन्म हुआ है और सिद्धि सुलभ हुई है। प्राणनाथ! आपको मेरा प्रणाम है।’ यह कहकर फिर वह चुप हो गयी ।

अब राजकुमारको भी अपने पूर्वजन्मकी स्मृति हो आयी। वह कहने लगा- ‘महाभागे देखो, मैं भी पूर्वजन्ममें एक गीध था। उसी सोमदत्तने एक बाणद्वारा मुझे भी मार डाला था। इस तीर्थके परिणामस्वरूप मैं कलिङ्गदेशका राजा बना हूँ। मुझे बहुत कष्टका सामना करना पड़ता था । पर वही आज मैं महान् राज्यका अधिकारी बन गया था। सुशोभने ! आज सिद्धि भी मेरे हाथमें आ गयी है। देखो, मेरे मनमें कोई भी संकल्प नहीं था, फिर भी सूकरक्षेत्रकी ऐसी महिमा है।’

वसुंधरे ! इसके बाद वे दोनों दम्पती तथा वहाँ जो भी नगर ग्रामनिवासी मेरे भक्त एवं प्रेमी उपस्थित थे, वे सभी यह प्रसङ्ग सुनकर हानि- लाभका विचार छोड़कर सर्वथा शुभ ध्यानमें संलग्न हो गये और वहीं प्राण त्यागकर आसक्तियोंसे शून्य होकर चतुर्भुज रूप धारणकर शङ्ख, चक्रादि आयुधोंसे सज्जित होकर श्वेतद्वीप पहुँचे।

जो व्यक्ति इस प्रकार नियमके अनुसार इस तीर्थमें निवास करता है और उसकी वहाँ मृत्यु हो जाती है तो वह श्वेतद्वीपको अवश्य प्राप्त कर लेता है। वसुंधरे ! यहीं एक आखेटक तीर्थ है। उसमें स्नान करनेसे जो फल मिलता है, वह सुनो। यहाँ स्नान करनेवाले प्राणी नन्दनवनमें पहुँचकर ग्यारह हजार वर्षोंतक निरन्तर परमानन्दका उपभोग करते हैं। फिर जब वे स्वर्गसे च्युत होते हैं तो विशाल कुलमें उत्पन्न होकर मेरे भक्त होते हैं – इसमें कोई संशय नहीं एक बात और, जो कोई मनुष्य यहाँके ‘गृध्रवटनामक’ तीर्थमें स्नान करता और संध्या, तर्पण आदि कर्म करता है, वह जो फल प्राप्त करता है, वह बतलाता हूँ। वह इस पुण्यके प्रभावसे नौ हजार नौ सौ वर्षोंतक इन्द्रलोकमें पहुँचकर देवताओंके साथ आनन्दका उपभोग करता है। फिर जब वह इन्द्रलोकसे च्युत होता है तो मेरे इस तीर्थके प्रभावसे वह मेरा भक्त बन जाता है और उसकी सारी आसक्तियाँ दूर हो जाती हैं।

भगवान् नारायणसे ऐसा सुनकर उत्तम व्रतका आचरण करनेवाली देवी पृथ्वी समस्त लोकोंके स्वामी भगवान् जनार्दनसे मधुर वचनोंमें बोली- ‘देव! किस कर्मके फलस्वरूप प्राणीको यह तीर्थ प्राप्त होता है अथवा वहाँ स्नान करने और मरनेका कैसे संयोग प्राप्त होता है, इसे यथार्थरूपसे कहनेकी कृपा कीजिये ।

भगवान् वराह कहते हैं-देवि ! तुम महान भाग्यशालिनी हो । सुनो! जिन मनुष्योंने पूर्वजन्ममें सद्धर्मो का पालन किया है, पर किसी बुरे कर्मके दोषसे पशुकी योनिमें जन्म पा जाते हैं, वे किन्हीं अन्य जन्मोंके उपार्जित पुण्यों तथा तीर्थ स्नान, जप एवं महान् दान तथा देवार्चनोंके प्रभावसे ही भले तीर्थमें मरनेका संयोग प्राप्त करते हैं।

तीर्थोंके दर्शन एवं अवगाहन करनेके प्रभावसे पाप नष्ट हो जाते हैं। वस्तुतः धर्मानुमोदित इस वराहक्षेत्र – कर्मकी गति बड़ी गहन है। उसके प्रभावसे जो बहुत छोटा-सा दीखता है, वह बहुत बड़ा बननेकी शक्ति प्राप्त कर लेता है और उसे अद्भुत पुण्यकी प्राप्ति होती है। इसीसे उस शृगाली एवं गीधको मनुष्ययोनि एवं साम्राज्यकी प्राप्ति हुई थी और उन्हें जन्मान्तरकी भी स्मृति बनी रही। यह सब इस तीर्थका ही प्रभाव है और अन्तमें वे श्वेतद्वीपको प्राप्त हुए।

देवि! अब अन्य तीर्थकी बात बतलाता हूँ, उसे सुनो। यहाँ एक ‘वैवस्वत’ नामका तीर्थ है, जहाँ पुत्रकी कामनासे कभी सूर्यदेवने कठोर तपस्या की थी और बादमें उन्होंने वहाँ दस हजार वर्षोंतक निरन्तर चान्द्रायण व्रत भी किया था, फिर सात हजार वर्षोंतक वे मात्र वायुके आहारपर रहे। भद्रे ! तब मैं उनपर संतुष्ट हुआ और उनसे वर माँगनेके लिये कहा। इसपर उन्होंने कहा—’भगवन्! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे एक पुत्र प्रदान करनेकी कृपा कीजिये।

फिर मेरे वरदानसे ‘यम’ और ‘यमुना’ नामकी उन्हें दो जुड़वीं संतानें हुई। तबसे ‘सौकरव’ क्षेत्रके अन्तर्गतका यह तीर्थ ‘वैवस्वततीर्थ’ नामसे प्रसिद्ध हुआ। वसुंधरे ! जो मनुष्य वहाँ जाकर दिनके आठवें भागमें अर्थात् सूर्यास्तके कुछ पूर्व स्नानकर भोजन करता है, वह दस हजार वर्षोंतक सूर्यके लोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। यदि किसी प्राणीकी वहाँ अनायास मृत्यु हो जाती है तो वह इस तीर्थके प्रभावसे यमपुरीमें नहीं जाता। भद्रे ! इस ‘सौकरव’ तीर्थ (वराहक्षेत्र) – में स्नान करने और मरनेका फल तथा वहाँकी घटनाएँ मैंने तुम्हें बतला दीं। यह आख्यान भी आख्यानों में महान् तथा पवित्रोंमें परम पवित्र ‘आख्यान’ है तथा यह सौकरव-तीर्थोंमें परम श्रेष्ठ तीर्थ है। यहाँ संध्योपासन तथा जप-तप-अनुष्ठानके फल परम उत्तम हैं। यह परम तेज एवं सभी भागवत पुरुषोंका परम प्रिय रहस्य है। जिसे दूसरोंकी निन्दा करनेका स्वभाव है एवं जो अज्ञानी हैं, उनके सामने इसका उपदेश नहीं करना चाहिये। जिनकी भगवान् में श्रद्धा है, जो वेदज्ञोंमें श्रेष्ठ हैं, जिन्होंने दीक्षा ले रखी हैं, जो सम्पूर्ण शास्त्रोंको जानते हैं, उन्हीं लोगोंके सामने यह दिव्य प्रसङ्ग सुनाना चाहिये। यह सौकरव- क्षेत्रमें प्राप्त होनेवाला महान् पुण्य तुमसे बतला दिया। पृथ्वि! जो मनुष्य प्रातः काल उठकर इसका पाठ करता है, उसने मानो बारह वर्षोंतक मेरा ध्यान कर लिया, इसमें कोई संदेह नहीं है, उसे शाश्वत मुक्ति सुलभ हो जाती है। जो इसके केवल एक अध्यायका भी पाठ कर लेता है, वह अपने दस कुलोंको तार देता है।

अध्याय ११५ वराहक्षेत्रान्तर्वर्ती 'आदित्यतीर्थ' का प्रभाव (खञ्जरीटकी कथा )

सूतजी कहते हैं- भगवान् वराहके मुखारविन्दसे वराहक्षेत्रकी महिमा, गुणस्तुति और जात्यन्तर- परिवर्तनकी शक्ति सुनकर पृथ्वीदेवीका हृदय आश्चर्य से भर गया, अतः उन्होंने भगवान् नारायणसे कहा-प्रभो! ‘वराहक्षेत्र’ में मरा हुआ प्राणी न चाहनेपर भी मनुष्य जन्म पानेका अधिकारी हो जाता है; अतः निःसंदेह यह क्षेत्र बहुत पवित्र है। प्रभो ! अब आप वहाँका कोई दूसरा प्रसङ्ग बताने की कृपा कीजिये। देवेश्वर! मैं यह जानना चाहती हूँ कि शास्त्रोंमें वहाँ गायन-वादन करने, नृत्य एवं जागरण करने, गोदान, अन्नदान और जलदान करने, सम्यक् प्रकारसे स्नान करने अथवा गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य आदिसे आपकी पूजा करनेका क्या फल होता है ? जप और यज्ञ आदि अन्य कर्म करनेसे शुद्ध मनवाले प्राणी वहाँ किस गतिको प्राप्त करते हैं? भगवन्! आप अपने भक्तको सुख पहुँचानेके विचारसे यह सब प्रसङ्ग बतलानेकी कृपा कीजिये ।

भगवान् वराह बोले- देवि ! यह कथा अत्यन्त पुण्यप्रद एवं सुख देनेवाली है। पहले इसी सौकरव- क्षेत्रमें एक खञ्जरीट* (खञ्जन, खंडरिच, wagtail) पक्षी रहता था। उसने एक बार बहुत से कीड़ोंको खा लिया, फलतः वह अजीर्णसे अत्यन्त पीड़ित होकर मरणासन्न हो गया और इस ‘सूकरक्षेत्र’ में ही गिर पड़ा। इतनेमें ही बहुत से बालक इधर-उधरसे दौड़ते एवं खेलते हुए वहाँ पहुँचे और उस शिथिलगात्र पक्षीको देखकर कहने लगे – ‘ हमलोग इसे पकड़ेंगे।’ फिर उनमें परस्पर विवाद छिड़ गया, कोई कहता ‘यह मेरा है’ और कोई कहता कि ‘मेरा।’ इस प्रकार खेल खेलमें ही उनमें झगड़ा होने लग गया और महान् कलह-कोलाहल मच गया। तबतक एक बालकने उसे उठाकर गङ्गाके जलमें फेंक दिया, साथ ही कहा- ‘भाई! यह तुम्हीं लोगोंका है, इससे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है।’

वसुंधरे ! इस प्रकार वह मृत खञ्जरीट (खंडरिच) पक्षी गङ्गाके जलसे भलीभाँति भीग गया। जहाँ वह गङ्गामें पड़ा था, वह ‘आदित्यतीर्थ’ था। फिर तो वह उस तीर्थके प्रभावसे अनेक उत्तम यज्ञ करनेवाले धन एवं रत्नसे परिपूर्ण किसी वैश्यके घरमें उत्पन्न हुआ। वसुंधरे ! वह रूपवान्, गुणवान्, विवेकी, पवित्र तथा मुझमें भक्ति रखनेवाला पुरुष हुआ ।

सुव्रते ! इस प्रकार उस बालकके बारह वर्ष बीत गये। एक बार जब माता और पिता सुखसे बैठे हुए थे, उनपर उस गुणी बालककी दृष्टि पड़ी। उसने पृथ्वीपर सिर रखकर उन्हें प्रणाम करके कहा- ‘पिताजी! यदि आपलोग मेरा प्रिय करना चाहते हों तो मुझे एक वर देनेकी कृपा करें मेरी प्रार्थना यह है कि आप दोनों मेरे मनोरथमें किसी प्रकारकी बाधा न डालें। पिताजी! मैं सत्यकी शपथ खाकर कहता हूँ, आप मेरे गुरु हैं, जैसा आप कहेंगे वही होगा ।’

देवि ! अपने पुत्रकी यह बात सुनकर दम्पती हर्षसे भर गये और उन्होंने सुन्दर नेत्रोंवाले बालकसे यह बात कही – ‘पुत्र ! तुम जो जो कहोगे और जो कुछ तुम्हारे हृदयमें बात हो, हमलोग वह सब कर देंगे। बस, अब तुम विश्वासपूर्वक बोलो। पुत्र ! हमारी तीन हजार गायें हैं, जो सभी खूब दूध देती हैं। तुम जिसे चाहो, उसे इन्हें दे सकते हो, इसमें लेशमात्र विचारनेकी आवश्यकता नहीं है। यदि तुम चाहो तो हमारा व्यापारका काम बहुत विख्यात है, उसका भी सारा अधिकार तुम्हें साँप दूँ । तुम न्यायपूर्वक उसकी व्यवस्था करो अथवा मित्रोंको धन बाँट दो पुत्र ! तुम धन-धान्य, रत्न आदि जिसे जो भी चाहो, उसे दे सकते हो, इसमें कोई भी प्रतिबन्ध नहीं है। हम अच्छे कुल तथा जातिमें उत्पन्न बहुत-सी सुन्दरी भली कन्याओंको भी विवाह विधिके द्वारा तुम्हें प्राप्त करा सकते हैं। सौम्य यदि तुम्हारे मनमें जैसे पूर्वके वैश्यलोग वेदमें कहे हुए विधानके अनुसार यज्ञ करते थे-वैसे यज्ञकी इच्छा हो तो तुम उसे भी कर सकते हो। वैश्यका कर्म खेती है। इसके लिये आठ-आठ बलवान् बैलोंद्वारा चलनेवाले एक सौ हल भी हमारे पास हैं। फिर तुम और क्या पाना चाहते हो ? जितने ब्राह्मणोंको भोजन कराकर तुम तृप्त करना चाहते हो, यह कार्य तथा अन्य कुछ कार्य भी जैसे चाहो, वह सब स्वेच्छानुसार सम्पन्न कर सकते हो।’

वसुंधरे ! अपने माता- पिताकी बात सुनकर उस धर्मात्मा बालकने उनके चरण पकड़ लिये और उनसे कहने लगा-गोदानसे इस समय मेरा कोई प्रयोजन नहीं है, न मित्रोंके विषयमें ही मुझे कोई चिन्ता है। मुझे विवाह या यज्ञके फल भी अभीष्ट नहीं हैं। मैं व्यापारका काम करूँ, खेती और गोरक्षामें मेरा समय व्यतीत हो अथवा सम्पूर्ण अतिथियोंका सत्कार करूँ – इन बातोंके लिये भी मेरे हृदयमें कोई आसक्ति नहीं। पिताजी! मेरे मनमें तो बस, भगवान् नारायणके क्षेत्र ‘सौकरव’ (वराहक्षेत्र) की ही एक प्रगाढ़ चिन्ता है।

देवि ! बालकके माता-पिता दोनों ही मेरे उपासक थे, उन्होंने पुत्रकी यह बात सुनी तो वे दोनों ही दुःखमें भरकर करुण विलाप करने लग गये और कहने लगे (माता कहती है ) – ‘बेटा! अभी तुम्हें जनमे केवल बारह वर्ष ही बीते हैं, वत्स! भगवान् नारायणकी शरणमें जानेकी चिन्ता तुम्हें अभीसे कैसे हो गयी ? जिस समय तुम्हें उसके योग्य आयु प्राप्त होगी, तब उस विषयमें विचार करना। अभी तो मैं भोजन लेकर तुम्हारे पीछे-पीछे दौड़ती चलती हूँ। पुत्र! तुम ‘सौकरव’ (वराहक्षेत्र) में जानेकी बात अभी क्यों सोचते हो? तुम तो अभी दुधमुँहे बच्चे हो । मेरे स्तन धन्य हैं, जिससे सदा दूध स्रवित होता है (और तुम उसे पीते हो)। बेटा! तुमने अपने स्पर्शसुखकी आशा लगानेवाली मुझ माँके प्रति यह क्या सोचा ? जब तुम रातमें सोकर करवटें बदलते हो तो उस समय भी मुझे ‘माँ-माँ’ कहकर पुकारते हो। फिर (वराहक्षेत्र जाने तथा नारायणके आश्रमकी) इस प्रकारकी बातें क्यों सोचते हो? तुम जब खेलते हो तो अन्य स्त्रियाँ भी बड़े स्नेहसे तुम्हारा स्पर्श करती हैं। वत्स! किसीने भी कहीं खेलमें, घरपर अथवा अपने परिजनमें तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया, नौकरोंने तुम्हें कोई कटु वचन नहीं कहे तुम्हें डरवानेके लिये भी मैंने कभी अपने हाथमें छड़ी नहीं ली। फिर पुत्र ! तुम्हारे इस निर्वेद (वैराग्य) का कारण क्या है?’

वसुधे! माताकी यह बात सुनकर उस बालकने उससे मधुर वचनोंमें कहा -‘माँ! मैं तुम्हारे गर्भमें रह चुका हूँ, तुम्हारे उदरसे ही मेरा जन्म हुआ है, तुम्हारी गोदमें खेला हूँ, प्रेमसे मैंने तुम्हारे स्तनोंका पान किया है। धूल लगे हुए शरीरसे तुम्हारी गोदमें बैठा हूँ मातः ! तुम मुझपर जो इतनी करुणा करती हो, यह तुम्हारे लिये उचित ही है, किंतु मेरी पूजनीया माँ तुम अब पुत्र सम्बन्धी मोहका परित्याग करो। यह संसार एक घोर महा- सागरके समान है। यहाँ प्राणी आते हैं और चले जाते हैं, कुछ लोग तो चले गये और कुछ लोग जा रहे हैं। कोई जीव दीखता है, फिर वह नष्ट हो जाता है और आगे कभी दिखायी नहीं पड़ता । इस प्रकार कौन किससे जनमा, कहाँ उसका सम्बन्ध हुआ, किसकी कौन माता हुई और कौन किसका पिता हुआ, इसका कोई ठिकाना नहीं। हजारों माता-पिता, सैकड़ों पुत्र और स्त्रियाँ प्रत्येक जन्ममें आते-जाते रहते हैं। फिर वे किस-किसके हुए या हम ही किसके रहे? अतः माँ! इस प्रकारकी चिन्तामें पड़कर तुम्हें कभी भी सोच नहीं करना चाहिये।’ पुत्रकी इस प्रकारकी बातें सुनकर माता और पिताको बड़ा आश्चर्य हुआ, अतः वे फिर बोले- ‘बेटा! अहो ! यह तो बड़ी मार्मिक बात है। पुत्र ! इसका रहस्य बतलाओ।’ उनकी यह बात सुनकर वह वैश्यकुमार मधुर वाणीमें अपने माता-पितासे कहने लगा- ‘पूज्यवरो! यदि इस गुह्य बातको सुनकर और विचारकर आप कुछ कहना चाहते हैं तो आपको ‘वराहक्षेत्र’ का रहस्य पूछना चाहिये और उसे सुननेके लिये ‘सौकरवक्षेत्र’ में ही पधारनेकी कृपा कीजिये और वहीं यह गुह्य विषय आपलोगोंको पूछना समुचित होगा। वहीं मैं अपनी भी एक आश्चर्यकारी बात बतलाऊँगा। पिताजी!‘सौकरवक्षेत्र’ में एक ‘सूर्य’ तीर्थ है। वहाँ पहुँच जानेपर यह बात बतलाऊँगा।’ इसपर दम्पतीने पुत्रसे कहा – ‘बहुत अच्छा ।’

फिर उस बालकके माता-पिता दोनोंने सौकरवतीर्थमें जानेका संकल्प किया। उन्होंने सब प्रकारके द्रव्य साथमें लिये और ‘सौकरवतीर्थ’ के लिये चल पड़े। कमलपत्रके समान बड़े-बड़े नेत्रोंवाले उस वैश्योंके नेताने अपने जानेके पहले बीस हजार गायोंको ही सबसे आगे हँकवाया, फिर उसके सभी परिजन द्रव्योंसहित प्रस्थित हुए। उनके घरमें जो कुछ था, सब कुछ उन्होंने भगवान् नारायणको समर्पित कर दिया। फिर माघमासकी त्रयोदशी तिथिके दिन पूर्वाह्न कालमें अपने सभी स्वजनों और सम्बन्धियोंको बुलाकर विधिपूर्वक शुभ मुहूर्तमें उसने स्वयं भी यात्रा कर दी। ‘भगवान् नारायणका दर्शन होगा’ इससे उनके मनमें बड़ा हर्ष था। श्रीहरिके प्रेममें प्रवाहित वे सभी लोग बहुत समयके पश्चात् वैशाखमासकी द्वादशी तिथिके दिन मेरे क्षेत्रमें आ गये। वहाँ पहुँचनेपर सभीने विधिपूर्वक स्नानकर पितरोंका तर्पण किया। उस वैश्यने दिव्य वस्त्रोंसे विभूषित बीस हजार गौओंको साथ ले लिया था और उन्हें भाङ्गुरस नामक व्यक्तिको सौंपकर आगे प्रस्तुत कर रखा था। उनमेंसे बीस गायोंको वहीं दान कर दिया। इसी प्रकार वह प्रतिदिन बहुत से धन और रत्न दानमें बाँटने लगा।

इस प्रकार अपने स्त्री- पुत्र और स्वजनोंके साथ उसके वहाँ रहते-रहते सभी ( सस्य – ) धान्य पौधोंको संवर्धन और पालन करनेवाली ‘वर्षा ऋतु’ आ गयी, जिससे कदम्ब, कुटज (कोरैया) और अर्जुन नामके वृक्ष पुष्पित हो गये। नदियोंके गर्जन, मोरोंके मधुर स्वर, कोरैया, अर्जुन और कदम्ब आदि वृक्षोंकी सुखद गन्ध और भौंरोंका गुञ्जन, पवनका प्रवाह – यह सब उस ऋतुकी विशेषता थी । फिर शरद् ऋतुका प्रवेश हुआ और अगस्त्य – नक्षत्रका उदय हुआ । तड़ागोंके जलमें स्वच्छता आ गयी और उनमें कमल, कुमुद आदि पुष्प खिल गये । अन्य सुरम्य कमल – फूलोंसे भी सर्वत्र शोभाकी वृद्धि होने लगी। अब शीतल, सुगन्ध एवं परम सुखदायी वायु बहने लगी। फिर धीरे-धीरे यह ऋतु भी समाप्त हो चली और कार्तिक महीनेके शुक्ल- पक्षकी एकादशी तिथि आयी। सुभ्रु ! उस समय उस वैश्य दम्पतीने स्नानकर, रेशमी वस्त्र धारण किया और अपने पुत्रसे कहा – ‘पुत्र ! हमलोग यहाँ छः महीने सुखपूर्वक रह चुके। आज द्वादशी तिथि आ गयी है, अब वह गोपनीय बात हमलोगोंको तुम क्यों नहीं बताते, जिसे तुमने यहाँ आकर बतानेको कहा था?”

देवि! अपने माता-पिताकी बात सुनकर उस धर्मात्मा पुत्रने उनसे मधुर वचनोंमें कहा- ‘महाभाग ! आपने जो बात पूछी है, वह प्रसङ्ग बड़ा रहस्यपूर्ण एवं गोपनीय है। इसे मैं कल प्रातः आपलोगोंको बतलाऊँगा। पिताजी! आज यह द्वादशी तिथि है। इस पुण्य अवसरपर दीक्षित योगियोंके कुलमें उत्पन्न तथा विष्णुकी भक्तिमें तत्पर रहनेवाले जो व्यक्ति दान करते हैं, वे भगवत्कृपासे भयंकर संसार सागरको पार कर जाते हैं।’

वसुंधरे ! इस प्रकार उन लोगोंमें परस्पर बात करते-करते मङ्गलमयी रात्रि समाप्त हो गयी और फिर दिन-रात्रिकी संधिका समय आ गया एवं सूर्यमण्डल उदित हुआ। तब वह बालक यथाविधि स्नानादिसे शुद्ध होकर रेशमी वस्त्र धारणकर शङ्ख-चक्र एवं गदा धारण करनेवाले भगवान् श्रीहरिको प्रणामकर माता-पिताके दोनों चरणोंको पकड़कर बोला- ‘महाभाग ! पिताजी! जिस प्रयोजनसे हमलोग यहाँ आये हुए हैं तथा जो बात आप मुझसे बार-बार पूछ रहे हैं एवं जिस गोपनीय बातको इस ‘सौकरवक्षेत्र’ में कहनेके लिये मैंने प्रतिज्ञा की थी, उसे सुनें, वह प्रसङ्ग इस प्रकार है- ” मैं पूर्वजन्ममें एक खञ्जरीट (खंडरिच) पक्षी था। एक बार मैं बहुत से कीड़ोंको खाकर अजीर्ण ग्रस्त होकर हिलने डुलनेमें भी असमर्थ हो गया। उसी समय कुछ बालकोंने मुझे पकड़ लिया और खेल-खेलमें, एकके हाथसे दूसरे लेते रहे। एक कहता ‘इसे मैंने देखा’ और दूसरा कहता ‘मैंने’। इस प्रकार वे आपस में झगड़ने लगे। इसी बीच विवादसे ऊबकर एक बालकने मुझे घुमाकर गङ्गाके ‘आदित्यतीर्थ’ नामक स्थानपर जलमें फेंक दिया, जहाँ मेरे प्राण प्रयाण कर गये। यद्यपि मेरे मनमें कोई अभिलाषा न थी, फिर भी उस तीर्थके प्रभावसे मुझे आपलोगोंका पुत्र होनेका सौभाग्य मिला। इस प्रकार तेरह वर्ष पूरे हो चुके। यही वह गोपनीय बात थी, जिसे मैंने आपसे कह दी।”

इसपर माता-पिता पुनः बोले- ‘पुत्र ! भगवान् विष्णुके बतलाये जितने कर्म हैं, उनमें तुम जिस – जिस कर्मको करोगे, उन्हें हम भी विधिपूर्वक सम्पन्न करेंगे।’ शास्त्र कहते हैं कि ‘घटमाला’ कर्म संसारसे मुक्त करनेके लिये परम साधन है, अतः वे सभी कुछ दिनोंतक उसका आचरण करते हुए मेरी उपासनामें संलग्न रहे। पर्याप्त धर्मानुष्ठानके बाद उनका नश्वर शरीर छूट गया और वे अपने धर्मके प्रभावसे तथा मेरे क्षेत्रकी महिमासे संसारसे मुक्त होकर श्वेतद्वीपमें पधारे। जो लोग उनके साथ गये थे, वे योगमें निरत हो गये। उनके शरीरसे कमलके समान गन्ध निकलती थी। देवि! मेरे क्षेत्रके प्रसादसे वे भी यथायोग्य आनन्दका उपभोग करने लगे तथा इस क्षेत्रके प्रभावसे बहुत से प्राणी पशुयोनिसे छूटकर श्वेतद्वीपमें पहुँच गये। जो व्यक्ति प्रातः काल उठकर इसका पाठ करता है, वह अपने दस आगे और दस पीछेके पुरुषोंको तार देता है। मूर्ख, पापी, शास्त्रनिन्दक और चुगलखोर व्यक्तियोंके सामने इसकी व्याख्या या पाठ नहीं करना चाहिये। ब्राह्मणोंके समाजमें अथवा अकेले एकान्त स्थानमें इसका अध्ययन करे; क्योंकि यह सम्पूर्ण संसारसे मुक्त करने के लिये परम साधन है।

अध्याय ११६ भगवान्‌के मन्दिरमें लेपन एवं संकीर्तनका माहात्म्य

भगवान् वराह कहते हैं-देवि ! मेरे मन्दिरका गोमयसे लेपन करनेवालेको जो फल प्राप्त होता है, वह ध्यान देकर मुझसे सुनो। ( मन्दिरको ) लीपते हुए मनुष्य जितने पग चलता है, उतने हजार वर्षोंतक वह दिव्य लोकोंमें आनन्द करता है। देवि ! यदि मेरा कोई भक्त व्यक्ति बारह वर्षोंतक मन्दिर लीपनेका कार्य करता है, तो वह धन और धान्यसे भरे-पूरे किसी शुद्ध एवं विशाल कुलमें जन्म पाता है और देवताओंद्वारा अभिवन्दित होता हुआ कुशद्वीपको प्राप्त करता है और वहाँ दस हजार वर्षोंतक निवास करता है। शुभे ! देवि ! जो मेरे अन्तर्गृहका स्वयं लेपन करता है अथवा न्यायपूर्वक दूसरोंसे लेपन कराता है, वह मेरे लोकको प्राप्त होता है। वसुंधरे ! अब मैं गोबरकी महिमा बताता हूँ, तुम उसे सुनो। मन्दिर लीपनेके लिये जो प्राणी किसी समीपके स्थानसे अथवा कहीं दूर जाकर जितने पंग चलकर गोमय लाता है, वह ( गोबरको लानेवाला व्यक्ति) उतने ही हजार वर्षोंतक स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठा पाता है। स्वर्गकी अवधि समाप्त हो जानेपर वह शाल्मलिद्वीपमें (जन्म प्राप्तकर ) आनन्दका उपभोग करता है और वहाँ बारह हजार एक सौ वर्षोंतक निवास करता है। फिर वह भारतवर्ष में राजा होकर मेरा भक्त होता है तथा सभी धर्मज्ञोंमें वह श्रेष्ठ तथा मेरा उपासक होता है। अगले जन्ममें भी अपने प्राक्तन संस्कार एवं अभ्यासके कारण पुनः गोमय ला करके मेरे मन्दिरका लेपन करता है तथा उसके फलस्वरूप मेरे लोकको प्राप्त होता है। कोई गौको स्नान करा रहा हो या गायके गोबरसे मेरे मन्दिरका उपलेपन करता हो, उस समय जो व्यक्ति उसके पास जल पहुँचाता है, वह उस जलकी बूँदोंके तुल्य सहस्र वर्षोंतक स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है और वहाँसे जब भ्रष्ट होता है तो वह क्रौञ्चद्वीपमें जाता है और क्रौञ्चद्वीपसे भ्रष्ट होकर भूमण्डलपर धार्मिक राजा होता है। पुनः उसी पुण्यके प्रभावसे वह प्राणी मेरे श्वेतद्वीपमें पहुँचता है।

वसुंधरे ! जो स्त्री-पुरुष मेरे मन्दिरमें मार्जन कर्म करते (झाडू लगाते) हैं, वे सभी अपराधोंसे मुक्त होकर स्वर्गलोकमें सम्मानपूर्वक निवास करते है तथा मार्जनके समय धूलके जितने कण उड़ते हैं, उतने सौ वर्षोंतक स्वर्गलोकमें निवास करते हैं और वहाँसे च्युत होनेपर वे शाकद्वीपको प्राप्त होते हैं। ऐसा व्यक्ति वहाँ बहुत दिनोंतक निवासकर फिर पवित्र भारतभूमिपर धार्मिक राजा होता है और सब प्रकारके भोगोंको प्राप्तकर मेरी उपासनाकर श्वेतद्वीपको प्राप्त होता है।

देवि ! अब तुम्हें कुछ अन्य बातें बताता हूँ, वह सुनो। जो प्राणी मेरी आराधनाके समय पद्य- गान करते हैं, उन्हें जो फल प्राप्त होता है, उसे बतलाता हूँ, तुम सुनो। गाये जानेवाले पद्यकी पडियोंके जितने अक्षर होते हैं, उतने हजार वर्षोंतक गायक पुरुष इन्द्रलोकमें प्रतिष्ठा पाता है। गायनमें सदा परायण रहनेवाला मेरा वह भक्त इन्द्रलोक तथा रमणीय नन्दनवनमें देवताओंके साथ आनन्द करनेके बाद जब वहाँसे च्युत होता है तो भूमण्डलमें वैष्णव कुलमें जन्म पाकर वैष्णवोंके साथ ही निवास करता है और वहाँ भी भक्तिके साथ मेरे यशोगानमें संलग्न रहता है। फिर आयु समाप्त होनेपर शुद्ध अन्तःकरणवाला वह पुरुष मेरी कृपासे मेरे ही लोकमें चला जाता है।

पृथ्वी बोली- अहो, भक्ति-संगीतका कैसा विस्मयकारी प्रभाव है, अतः अब मैं सुनना चाहती हूँ कि इस गायनके प्रभावसे कितने पुरुष सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं ?

भगवान् वराह कहते हैं-देवि ! वराहक्षेत्रमें मेरे मन्दिरके पास एक चण्डाल रहता था, जो मेरी भक्तिमें तत्पर रहकर सारी रात जगकर मेरा यश गाता रहता था। कभी वह सुदूर अन्य प्रदेशतक भ्रमण करते हुए मेरा भक्ति संगीत गाता रहता। इस प्रकार उसने बहुत-से संवत्सर व्यतीत कर दिये ।

एक समयकी बात है, कार्तिकमासके शुक्लपक्षकी द्वादशीकी रातमें जब सभी लोग सो गये थे, उसने वीणा उठायी और भक्ति गीत गाते हुए भ्रमण करना प्रारम्भ किया। इसी बीच उसे एक ब्रह्मराक्षसने पकड़ लिया। चण्डाल बेचारा निर्बल था और ब्रह्मराक्षस अत्यन्त बली, अतः वह अपनेको उससे छुड़ा न सका और दुःख एवं शोकसे व्याकुल होकर वह निश्चेष्ट सा हो गया। फिर उस ब्रह्मराक्षससे कहने लगा- ‘अरे! मुझसे तुम्हारा क्या अभीष्ट सिद्ध होनेवाला है, जो तुम इस प्रकार मुझपर चढ़ बैठे हो ?’ उसकी यह बात सुनकर मनुष्योंके मांसके लोभी ब्रह्मराक्षसने चण्डालसे कहा- ‘आज दस रातोंसे मुझे कोई भोजन नहीं मिला है। ब्रह्माने मेरे भोजनके लिये ही तुम्हें यहाँ भेज दिया है। आज मैं मज्जा, मांस और रक्तोंसे भरे-पूरे तेरे शरीरका भक्षण करूँगा। इससे मेरी तृप्ति हो जायगी।’

वसुंधरे ! चण्डाल मेरे गुणगानके लिये लालायित था। उस व्यक्तिने ब्रह्मराक्षससे प्रार्थना की— ‘महाभाग ! मैं तुम्हारी बात मानता हूँ। ब्रह्माने तुम्हारे खानेके लिये ही मुझे भेजा है, परंतु परम प्रभुकी भक्तिसे सम्पन्न होकर इस जागरणमें मैं देवाधिदेव जगदीश्वरके पद्यगानके लिये समुत्सुक हूँ । अतः वनमें उनके आवासस्थलके पास जाकर संगीत सुनाकर मैं लौट आऊँ, तब तुम मुझे खा लेना परंतु इस समय मुझे जाने दो, क्योंकि मैंने यह व्रत धारण कर रखा है कि निशीथ (आधी रात ) में भगवान् श्रीहरिको प्रसन्न करनेके लिये भक्तिसंगीत सुनाया करूँगा। व्रत पूरा होनेपर तुम मुझे खा लेना। इसपर क्षुधार्त ब्रह्मराक्षस कठोर शब्दों में बोला – ” अरे मूर्ख! क्यों ऐसी झूठी बात बनाता है? तू कहता है कि ‘तुम्हारे पास फिर मैं आऊँगा’। भला ऐसा कौन मनुष्य है, जो मृत्युके मुखमें पहुँचकर फिर जीवित लौट जाय ? तुम ब्रह्मराक्षसके मुखमें पड़कर भी फिर जानेकी इच्छा करते हो ?’ चण्डाल बोला- ‘ब्रह्मराक्षस! मैं यद्यपि पहलेके निन्दित कर्मोंके प्रभावसे इस समय चण्डाल बना हूँ, किंतु मेरे अन्तःकरणमें धर्म स्थित है। तुम मेरी प्रतिज्ञा सुनो, मैं धर्मानुसार पुनः निश्चित आऊँगा । ब्रह्मराक्षस!” अपने जागरणव्रतको पूराकर मैं लौटकर यहाँ अवश्य आऊँगा। देखो, सम्पूर्ण जगत् सत्यके आधारपर ही टिका है। अन्य सब लोक भी सत्यपर ही आधृत हैं। ब्रह्मवादी ऋषियोंने सत्यके द्वारा ही सिद्धि प्राप्त की थी। कन्या सत्यप्रतिज्ञापूर्वक ही दान की जाती है। ब्राह्मणलोग भी सदा सत्य ही बोलते हैं। राजालोग सत्य भाषण करनेके प्रभावसे ही तीनों लोकोंपर विजय प्राप्त करते हैं। स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति भी सत्यके प्रभावसे ही सुलभ होती है। सूर्य भी सत्यके प्रतापसे ही तपते हैं और चन्द्रमा भी सत्यके ही प्रभावसे जगत्‌को रञ्जित-आनन्दित करते हैं। मैं सत्यतापूर्वक प्रतिज्ञा करता हूँ कि ‘यदि मैं लौटकर तुम्हारे पास फिर न आऊँ तो षष्ठी, अष्टमी, अमावास्या, दोनों पक्षकी चतुर्दशी – इन तिथियोंमें जो स्नानतक नहीं करता, उसकी जो दुर्गति होती है, वह गति मुझे प्राप्त हो। जो व्यक्ति अज्ञान तथा मोहमें पड़कर गुरु और राजाकी पत्नीके साथ गमन करता है, उसे जो गति मिलती है, वही गति यदि मैं फिर न लौटू         तो मुझे प्राप्त हो। मिथ्या यज्ञ करनेवाले पुरुषोंको तथा मिथ्या भाषण करनेवाले लोगोंको जो गति प्राप्त होती है, वही गति यदि मैं पुनः न आ सकूँ तो मुझे प्राप्त हो। ब्राह्मणका वध करनेपर, मदिरापान, चोरी और व्रतभङ्ग करनेपर मनुष्यको जो गति प्राप्त होती है, यदि मैं पुनः न लौटू तो वह मुझे प्राप्त हो।’ देवि ! उस समय चण्डालकी बात सुनकर वह ब्रह्मराक्षस प्रसन्न हो गया। अतः वह मधुर वाणीमें कहने लगा-‘अच्छा, तुम जाओ, नमस्कार। इस प्रकार अपने निश्चयमें अडिग चण्डाल ब्रह्मराक्षससे ऐसा कहकर मेरे संगीतमें तल्लीन हो गया। उसके नाचते-गाते सम्पूर्ण रात्रि बीत गयी। प्रातः काल होनेपर जब वह ब्रह्मराक्षसके पास वापस चला तो इतनेमें कोई पुरुष उसके सामने आकर खड़ा हो गया और उसने उससे कहा— ‘साधो! तुम इतनी शीघ्रतासे कहाँ चले जा रहे हो? तुम्हें उस ब्रह्मराक्षसके पास कदापि नहीं जाना चाहिये। वह ब्रह्मराक्षस तो शवतकको खा जाता है; अतः तुम्हें वहाँ प्रत्यक्ष मृत्युमुखमें नहीं जाना चाहिये।’

चण्डालने कहा – ‘पहले जब मुझे ब्रह्मराक्षस खानेको तैयार था, तब मैंने उसके सामने प्रतिज्ञा की थी कि मैं वापस आ जाऊँगा। सत्यका पालन करना परम आवश्यक है।’ इसपर उस पुरुषने उसके हितकी इच्छासे कहा- ‘ चण्डाल ! वहाँ मत जाओ; क्योंकि जीवनकी रक्षाके लिये सत्यत्यागका दोष नहीं होता।’ किंतु चण्डाल अपने व्रतमें अटल था । अतः वह मधुर वाणीमें बोला- ‘मित्र ! तुम जो कह रहे हो, वह मुझे अभीष्ट नहीं है। मुझसे सत्यका त्याग नहीं हो सकता; क्योंकि मेरा व्रत अचल है। जगत् की जड़ सत्य है और सत्यपर ही यह सारा संसार टिका है। सत्य ही परम धर्म है। परमात्मा भी सत्यपर ही प्रतिष्ठित है; अतः मैं किसी प्रकार भी असत्यका आचरण नहीं करूँगा।’ इस प्रकार कहकर वह चण्डाल ब्रह्मराक्षसके पास चला गया और उसका सम्मान हुए, आश्चर्यचकित होकर उससे पूछा- ‘ब्रह्मराक्षस ! करते हुए बोला- ‘महाभाग! मैं आ गया हूँ। अब मुझे भक्षण करनेमें तुम विलम्ब न करो। तुम्हारी कृपासे अब मैं भगवान् विष्णुके उत्तम स्थानको जाऊँगा। अब तुम अपनी इच्छाके अनुसार मेरे शरीरके इन अङ्गोंको खा सकते हो।

अब वह ब्रह्मराक्षस मधुर वाणीमें कहने लगा- ‘साधु वत्स! साधु! मैं तुमसे संतुष्ट हो गया, क्योंकि तुमने सत्य धर्मका भलीभाँति पालन किया है। चण्डालोंको प्रायः किसी धर्मका ज्ञान नहीं होता, पर तुम्हारी बुद्धि पवित्र है।’

‘भद्र! यदि तुम्हें जीनेकी इच्छा है तो विष्णु- मन्दिरके पास जाकर गत रातमें तुमने जो गान किया है, उसका फल मुझे दे दो, मैं तुम्हें छोड़ दूंगा, न तो खाऊँगा और न डराऊँगा।’

ब्रह्मराक्षसकी बात सुनकर चण्डाल बोला- ‘ब्रह्मराक्षस ! तुम्हारे इस वाक्यका क्या अभिप्राय है? मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। पहले ‘मैं खाना चाहता हूँ’- ‘यह कहकर अब तुम भगवद्गुणानुवादका पुण्य क्यों चाहते हो ?’

चण्डालकी बात सुनकर ब्रह्मराक्षस बोला- ‘बस, तुम अपने एक पहरके गीतका ही पुण्य मुझे दे दो। फिर मैं तुम्हें छोड़ दूंगा और स्त्री- पुत्रके साथ तुम जीवित रह सकोगे।’ पर उस चण्डालको गीतके पुण्यका लोभ था। अतः वह बोला- ‘ब्रह्मराक्षस! मैं संगीतका फल नहीं दे सकता। तुम अपने नियमके अनुसार मुझे खा जाओ और मनोऽभिलषित रुधिरका पान कर लो।’ अब वह ब्रह्मराक्षस कहने लगा, ‘तात! तुमने जो विष्णुके मन्दिरमें गायन कार्य किये हैं, उनमेंसे केवल एक गीतका ही फल मुझे देनेकी कृपा करो। तुम्हारे इस एक गीतके फलसे ही मैं तर सकता हूँ और अपने परिवारको भी तार सकता हूँ।’

इसपर चण्डालने उसे सान्त्वना देते हुए, आश्चर्यचकित होकर उससे पूछा – ‘ब्रह्मराक्षस! तुमने कौन-सा विकृत कर्म किया है, जिस दोषसे तुम्हें ब्रह्मराक्षस होना पड़ा है। तुम मुझे बताओ।’

ब्रह्मराक्षस बोला—’मैं पूर्वजन्ममें चरकगोत्रीय सोमशर्मा नामका एक यायावर ब्राह्मण था मुझे यद्यपि वेदके सूत्र और मन्त्र कुछ भी ठीक-ठीक ज्ञात न थे, फिर भी यज्ञादि कर्म करानेमें लगा रहता था। लोभ और मोहसे आकृष्ट होकर फिर मैं मूर्खोका पौरोहित्य करने लगा – उनके यज्ञ हवन आदिका कार्य कराने लगा। एक समयकी बात है कि जब मैं संयोगवश एक ‘पाञ्चरात्र’ संज्ञक यज्ञ करा रहा था कि इतनेमें ही मुझे उदरशूल उत्पन्न हुआ और मेरे प्राण निकल गये। उसकी पूर्णाहुति नहीं हुई। अतः मेरी यह स्थिति हुई है। उस दूषित कर्मके प्रभावसे ही मैं ब्रह्मराक्षस हो गया। मैंने उस यज्ञमें मन्त्रहीन, स्वरहीन और नियमविरुद्ध प्राग्वंश * आदिकी स्थापना की थी, हवन भी अविधिपूर्वक ही कराया। उसी कर्म- दोषके परिणामस्वरूप मुझे यह राक्षसी योनि प्राप्त हुई है। अब तुम अपने गीतका फल देकर मेरा उद्धार करो। विष्णुगीतके पुण्यद्वारा अब मुझ अधमको शीघ्र ही इस पापसे मुक्त कर दो।’

देवि ! वह चण्डाल एक उत्तमव्रती व्यक्ति था। उसने ब्रह्मराक्षसकी बात सुनकर उसके वचनोंका सहर्ष अनुमोदन किया, साथ ही बोला-‘राक्षस! यदि मेरे गीतके फलसे तुम शुद्धमना एवं क्लेशमुक्त हो सकते हो तो लो, मैंने अत्यन्त सुन्दर स्वरोंसे जो सर्वोत्कृष्ट गान किया है, उसीका फल मैं तुम्हें प्रदान करता हूँ। जो पुरुष श्रीहरिके सामने इस भक्ति-संगीतका गान करता है, वह लोगोंको अत्यन्त कठिन परिस्थितियोंसे भी तार देता है।’ ऐसा कहकर उस चण्डालने उस गीतका फल ब्रह्मराक्षसको दे दिया।

भद्रे ! फलतः वह ब्रह्मराक्षस तत्काल एक दिव्य पुरुषके रूपमें परिवर्तित हो गया। ऐसा जान पड़ता था, मानो वह शरद् ऋतुका चन्द्रमा हो । मेरे गुणयुक्त गीतोंका फल अनन्त है। देवि ! यह मैंने भक्ति संगीतके गायनके श्रेष्ठ फलका वर्णन कर दिया, जिस गीतके एक शब्दके प्रभावसे मनुष्य संसार सागरसे तर जाता है।

 अब जो वाद्यका फल होता है, उसे बताता हूँ, इसकी सहायतासे वसिष्ठने देवताओंसे शबला गौको प्राप्त किया था। (शम्पा) झाँप और ताल अथवा इनके संयोग प्रयोगसे मनुष्य नौ हजार नौ सौ वर्षोंतक कुबेरके भवनमें जाकर इच्छानुसार आनन्दका उपभोग करता है। फिर वहाँसे अवकाश मिलनेपर झाँप और तालोंसे सम्पन्न होकर स्वतन्त्रतापूर्वक मेरे लोकोंमें पहुँच जाता है। अब जो मनुष्य मेरी आराधनाके समय नृत्य करता है, उसका पुण्य कहता हूँ, सुनो। इसके फलस्वरूप वह संसार-बन्धनको काटकर मेरे लोकको प्राप्त करता है।

जो मानव जागरण करके गीत और वाद्यके साथ मेरे सामने नृत्य करता है, वह जम्बूद्वीपमें जन्म पाकर, राजाओंका भी राजा होता है और सम्पूर्ण धर्मोसे सम्पन्न होकर वह सम्पूर्ण पृथ्वीका रक्षक होता है मेरा भक्त मुझे पुष्प और उपहार अर्पणकर मेरे लोकको प्राप्त होता है। वसुंधरे ! जो सत्कर्मके पथपर पैर रखकर मेरी उपासना करता है तथा जो पुष्पोंको लाकर मेरे ऊपर चढ़ाता है, वह महान् उत्तम कर्मका सम्पादन कर लेता है, अतः वह मेरे लोकमें जानेका अधिकारी हो जाता है। वसुंधरे ! जो मनुष्य प्रातः काल उठकर इसका पाठ करता है, वह अपने पूर्वकी दस तथा आगे होनेवाली दस पीढ़ियोंको तार देता है। मूर्खो एवं निन्दकोंके सामने इसका प्रवचन नहीं करना चाहिये। यह धर्मोमें परम धर्म और क्रियाओंमें परम क्रिया है। शास्त्रकी निन्दा करनेवाले व्यक्तिके सामने कभी भी इसका कथन नहीं करना चाहिये जो मुझमें श्रद्धा रखते हैं तथा जिनमें मुक्तिकी अभिलाषा है, उनके सामने ही उसका पठन-पाठन करना चाहिये ।

अध्याय ११७ कोकामुख-बदरी - क्षेत्रका माहात्म्य

पृथ्वी बोली- भगवन्! आपने जिन तीर्थोंके माहात्म्यका वर्णन किया है, उन्हें मैं सुन चुकी। अब मैं यह जानना चाहती हूँ कि आप सगुण- साकार विग्रह धारणकर सदा किस क्षेत्रमें सुशोभित होते हैं; जहाँ आपका उत्तम कर्म सम्पादनकर श्रेष्ठ गति प्राप्त की जाय ?

भगवान् वराह कहते हैं देवि ! कोकामुख-‘ तीर्थका नाम तो मैं तुम्हें पहले बता ही चुका हूँ, जो गिरिराज हिमालयकी तलहटीमें स्थित है। इसके अतिरिक्त दूसरा लोहार्गल नामका एक स्थान है, जिसे मैं एक क्षण भी नहीं छोड़ता। ऐसे तो ज्ञानकी दृष्टिसे चर-अचर सारा जगत् मुझसे व्याप्त है और कोई भी स्थान मुझसे रिक्त नहीं, किंतु जो लोग मेरी गूढ़ गतिको जानना चाहते हैं, वे मेरी आराधनामें लगनेकी इच्छासे यथाशीघ्र ‘कोकामुख’ जानेका प्रयत्न करें।

धरणीने पूछा जगत्प्रभो ! जब आप सर्वत्र रहते हैं, तो आप ‘कोकामुख’ क्षेत्रको ही कैसे श्रेष्ठ बतलाते हैं ?

भगवान् वराह कहते हैं वसुंधरे ! ‘कोकामुख’ क्षेत्रसे बढ़कर कोई भी स्थान मेरे लिये श्रेष्ठ, पवित्र, उत्तम या प्रिय नहीं है। जो व्यक्ति ‘कोकामुख’ क्षेत्रमें पहुँच गया, वह पुन: इस संसारमें जन्म नहीं पाता। ‘कोकामुख ‘क्षेत्रके समान दूसरा कोई स्थान न हुआ, न आगे होगा। वहाँ मेरी मूर्तिका गुप्तरूपसे निवास है।

पृथ्वी बोली- देवेश्वर! आप सर्वोपरि देवता हैं। भक्तोंको अभय प्रदान करना आपका स्वाभाविक गुण है। अब इस ‘कोकामुख ‘क्षेत्रमें जितने गोपनीय स्थान हैं, उन्हें मुझे बतानेकी कृपा कीजिये ।

भगवान् वराह कहते हैं-देवि ! जहाँ इसमें मुख्य पर्वतसे सदा जलकी बूँदें भूमिपर गिरती हैं, उस स्थानको ‘जलबिन्दु’ तीर्थ कहते हैं। वहाँ पृथ्वीपर मूसलकी तुलना करनेवाली पर्वतसे एक धारा गिरती है, जिसका नाम ‘विष्णुधारा’ है। जो वहाँ मात्र एक दिन-रात उपवासकर यत्नपूर्वक स्नान करता है, उसे एक हजार ‘अग्निष्टोम- यज्ञों के अनुष्ठान करनेका फल प्राप्त होता है। और उसकी बुद्धिमें कर्तव्यनिर्धारणमें कभी व्यामोह नहीं होता। फिर अन्तमें वह ‘विष्णुधारा’ के तटपर ही मरनेका सौभाग्य प्राप्तकर नित्य मेरी इस मूर्तिका दर्शन करता रहता है, इसमें कोई संशय नहीं। उस ‘कोकामुख ‘क्षेत्रमें एक ‘विष्णुपद’ नामका स्थान है। वसुंधरे ! वहाँ भी मेरी मूर्ति है, किंतु इस रहस्यको कोई नहीं जानता। देवि! जो व्यक्ति वहाँ स्नानकर एक रात निवास करता है, वह मुझमें श्रद्धा रखनेवाला व्यक्ति ‘क्रौञ्च’ द्वीपमें जन्म पाता है और अन्तमें जब प्राणोंका त्याग करता है, तब आसक्तियोंसे मुक्त होकर मेरे लोकको प्राप्त होता है।

इसी ‘कोका’ मण्डलमें ‘चतुर्धारा’ नामक एक स्थान है। वहाँ ऊँचे पर्वतसे धाराएँ गिरती हैं। जो मानव पाँच राततक निवास करते हुए वहाँ स्नान करता है, वह कुशद्वीपमें निवास करनेके पश्चात् मेरे लोकमें स्थान पाता है। कर्मफलको सुखमें परिवर्तित करनेवाला यहाँ एक ‘अनित्य’ नामक प्रसिद्ध क्षेत्र है, जिसे देवतालोग भी जाननेमें असमर्थ हैं, फिर मनुष्योंकी तो बात ही क्या ? श्रेष्ठ गन्धोंवाली पृथ्वि ! वहाँ एक दिन-रात निवास करके स्नान करनेवाला पुरुष पुष्करद्वीपमें जन्म पाता है और फिर वह सभी पापोंसे मुक्त होकर मेरे लोकको जाता है। वहीं मेरा एक अत्यन्त गोपनीय ‘ब्रह्मसर’ नामसे प्रसिद्ध स्थान है, जहाँ शिलातलपर एक पवित्र धारा गिरती है। जो मेरा भक्त पाँच राततक वहाँ निवासकर स्नान करता है, वह सूर्यलोकको प्राप्त होता है। सूर्यधाराके आश्रयमें रहनेवाला वह व्यक्ति जब प्राणोंका त्याग करता है तो वह मेरे लोकको प्राप्त होता है।

देवि! यहीं मेरा एक परम गुप्त स्थान है, जिसे ‘ धेनुवट’ कहते हैं। वहाँ ऊँची शिलासे एक मोटी धारा गिरती है। मेरे कर्ममें संलग्न जो पुरुष वहाँ प्रतिदिन स्नान करता और सात राततक रह जाता है तो उसे ऐसा माना जाता है कि उसने सातों समुद्रोंमें स्नान कर लिया है। फलतः वह मेरी उपासनामें लगा हुआ सातों द्वीपोंमें विहार करता चलता है तथा अन्तमें मेरा ध्यान भजन करते हुए मरकर वह सातों द्वीपोंका अतिक्रमण- कर मेरे लोकको प्राप्त कर लेता है। देवि! वहाँपर ‘कोटिवट’ नामका एक गुप्तक्षेत्र है, जहाँ वटवृक्षकी जड़से निकलकर एक धारा गिरती है। वहाँ एक राततक निवास करके स्नान करनेवाला मनुष्य मेरे उस पर्वत शृङ्गपर वटके पत्तोंकी संख्याके हजार गुने वर्षोंतक रूप और सम्पत्तिसे सम्पन्न रहता है। फिर देवि! मृत्यु होनेपर वह अग्निके समान तेजस्वी होकर मेरे लोकको प्राप्त होता है।

देवि ! मेरे इस क्षेत्रमें ‘पापप्रमोचन’ नामका एक गुप्त स्थान है जो कोई वहाँ एक दिन-रात रहकर स्नान करता है, वह चारों वेदोंमें पारंगत होकर जन्म पाता है। वहीं एक कौशिकी नामकी नदी है। जो मानव वहाँ पाँच रात्रितक निवास करता हुआ स्नान करता है, वह इन्द्रलोकमें जाता है। कौशिकी नदीसे होकर वहाँ एक धारा बहती है जो मनुष्य एक रात रहकर उसमें स्नान करता है, उसे यमलोकके घोर कष्टोंको नहीं भोगना पड़ता। मेरा वह भक्त प्राणोंका त्यागकर मेरे धाममें चला जाता है।

भद्रे ! मेरे बदरीक्षेत्रमें एक और विशिष्ट स्थान है, जिसके प्रभावसे मनुष्य संसार सागरको लाँघ जाते हैं। उसका नाम ‘द्रष्ट्राङ्कुर’ है और यहीं कोका नदीका उद्गम स्थान है। इस गुह्य स्थानको जाननेमें सभी असमर्थ हैं, इस कारण लोग वहाँ जा नहीं पाते। भद्रे ! वहाँ स्नान करके एक दिन- रात पवित्रभावसे निवास करनेवाला मानव ‘शाल्मलि ‘ द्वीपमें जन्म पाता है। फिर मेरी उपासनामें संलग्न रहता हुआ वह व्यक्ति प्राणत्याग करनेके उपरान्त ‘शाल्मलि’ द्वीपका भी परित्यागकर मेरे संनिकट पहुँच जाता है।

महाभागे ! वहीं एक परम फलदायक दूसरा गुप्त स्थान भी है, जिसे ‘विष्णुतीर्थ’ कहते हैं। वहाँ पर्वतके बीचसे जलकी धारा निकलकर ‘कोका’ नदीमें गिरती है। उस जलको ‘त्रिस्रोतस् ‘ कहते हैं, यह सम्पूर्ण संसारसे मुक्त करानेवाला है। पृथ्वीदेवि ! वहाँ स्नान करनेवाला मनुष्य संसारके बन्धनको काटकर वायुदेवताके लोकको प्राप्त होता है और वायुका स्वरूप धारण करके ही वह वहाँ निवास करता है। फिर मेरी उपासनामें

संलग्न रहता हुआ वह व्यक्ति जब प्राणोंका त्याग करता है, तब उस लोकसे चलकर मेरे लोकमें पहुँच जाता है। यहीं ‘कौशिकी’ और ‘कोका’ के सङ्गमपर एक श्रेष्ठ स्थान है, जिसके उत्तर भागमें ‘सर्वकामिका’ नामकी शिला शोभा पाती है। वहाँ स्नानपूर्वक जो एक दिन-रात निवास करता है, उसकी प्रशस्त एवं विशाल कुलमें उत्पत्ति होती है और उसे जातिस्मरता प्राप्त होती है (पूर्वजन्मकी सारी बातें याद रहती हैं)। इस कौशिकी-कोकासङ्गममें ( सर्वकामिका शिलाके पास) स्नान करनेसे मनुष्य स्वर्ग अथवा भूमण्डल जहाँ कहीं भी जाना चाहता है या जो कुछ प्राप्त करना चाहता है, वह सब कुछ ही प्राप्त कर लेता है। मेरी आराधनामें तत्पर रहनेवाला मानव उस स्थानपर प्राणोंके परित्याग करनेके बाद सब प्रकारकी आसक्तियोंसे मुक्त हो करके मेरे लोकमें चला जाता है। भद्रे ! ‘कोकामुख’ क्षेत्रमें ‘मत्स्यशिला’ नामक एक गुह्य स्थान है। उस श्रेष्ठ स्थानपर कौशिकी नदीसे निकली हुई तीन धाराएँ गिरती हैं। देवि ! यदि उसमें स्नान करते समय जलमें मछली दिखलायी पड़ जाय तो उसे समझना चाहिये कि स्वयं भगवान् नारायण ही मुझे प्राप्त हो गये। सुन्दरि ! मत्स्यको देखनेके पश्चात् यजन (पूजन) करता हुआ पुरुष मधु और लाजा (लावा) – से समन्वित अर्घ्य प्रदान करे। देवि ! जो मेरे ऐसे उत्तम एवं परम गुह्य क्षेत्रमें स्नान करता है, वह मेरुपर्वतके उत्तर भागमें ‘पद्मपत्र’ नामक स्थानपर निवास करता है। कुछ दिन वहाँ रहनेके पश्चात् मेरे उस गोपनीय स्थानको जब छोड़ता है, तब मेरे लोकमें चला जाता है।

वसुंधरे ! पाँच योजनके विस्तारमें मेरा ‘कोकामुख’ नामक क्षेत्र है। उसे जाननेवाला पापकर्ममें लिप्त नहीं होता। अब एक दूसरे स्थानका परिचय सुनो।

परम रमणीय इस ‘कोकामुख’ क्षेत्रमें जहाँ मैं दक्षिण दिशाकी ओर मुख करके बैठता हूँ, वहीं ‘शिलाचन्दन’ नामका एक स्थान है, जो देवताओंके लिये भी दुर्लभ है। पुरुषकी आकृतिसे सम्पन्न होनेपर भी मैं वहाँ वराहका रूप धारण करके रहता हूँ। वहाँ सुन्दर ऊँचा मुख और ऊपरतक उठे हुए दाढ़सहित मैं अखिल विश्वको देखता हूँ। देवि! जो मेरे प्रेमी भक्त मुझे स्मरण करते हैं तथा मेरे उपास्य कर्मोंमें रत रहते हैं, उनके पापोंका सर्वथा नाश हो जाता है। अतः वे पवित्रात्मा पुरुष संसार-बन्धनसे छूट जाते हैं। यह महत्त्वपूर्ण ‘कोकामुखस्थान’ गुह्योंमें भी परम गुह्य है और सिद्धोंके लिये परम सिद्धि- प्रदाता है। साधक पुरुष सांख्ययोगके प्रभावसे जिस महान् सिद्धिको प्राप्त नहीं कर पाते, वही सिद्धि ‘कोकामुख ‘क्षेत्रमें जानेपर सहज सुलभ हो जाती है। वसुंधरे ! यह रहस्य मैं तुम्हें बता चुका।

महाभागे ! तुम्हारे प्रश्नके उत्तरमें मैंने श्रेष्ठ स्थानोंका वर्णन कर दिया। अब तुम अन्य कौन-सा प्रसङ्ग सुनना चाहती हो ? पृथ्वी देवि! मेरा कहा हुआ यह ‘कोकामुख’ तीर्थ सर्वोत्तम स्थान है। जो वहाँ जाकर दर्शन स्नानादि करता है, वह अपने दस पूर्वके पुरुषोंको और दस आगे होनेवाले कुटुम्बियोंको तार देता है। फिर यदि वहाँ दैवयोगसे कदाचित् शरीरका परित्याग कर देता है तो वह परम शुद्ध भगवद्भक्तके कुलमें जन्म लेता है। उसका मन एकमात्र मुझमें लगता है और वह मेरे धर्मका प्रचारक होता है। जो मानव प्रातः काल उठकर इसका सदा श्रवण करता है, वह शरीर त्यागनेके पश्चात् मेरे लोकमें जाता है। उसके पाँच सौ जन्मोंके सब पाप मिट जाते हैं और वह मेरा प्रिय भक्त हो जाता है। जो प्रातः काल इस उपाख्यानको नित्य पढ़ता है, उसे मेरा उत्तम स्थान प्राप्त होता है, इसमें कोई संशय नहीं ।

अध्याय ११८ 'बदरिकाश्रम' का माहात्म्य

भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! उसी हिमालय पर्वतपर एक अत्यन्त गुह्य स्थान है, जो देवताओंके लिये भी दुर्लभ है। इसे ‘बदरिकाश्रम’ कहते हैं। इसमें संसारसे उद्धार करनेकी दिव्य शक्ति है। जिनकी मुझमें श्रद्धा है, केवल वे ही उस भूमिमें पहुँचनेमें सफल होते हैं। उसे प्राप्त करनेपर मानवके सभी मनोरथ पूर्ण हो सकते हैं। उस ऊँचे पर्वतशिखरपर ‘ब्रह्मकुण्ड’ नामका एक प्रसिद्ध स्थान है, जहाँ मैं हिममें स्थित होकर निवास करता हूँ। जो मनुष्य वहाँ तीन राततक उपवास रहकर स्नान करता है, वह ‘अग्निष्टोम’ यज्ञका फल प्राप्त करता है। मेरे व्रतमें आस्था रखनेवाला जितेन्द्रिय मनुष्य यदि वहाँ प्राणोंका त्याग करता है तो वह सत्यलोकका उल्लङ्घन कर मेरे धामको प्राप्त होता है। मेरे उसी उत्तम क्षेत्रमें एक ‘अग्निसत्यपद’ नामक स्थान है, जहाँ हिमालयके तीन शृङ्गोंसे जलकी विशाल धाराएँ गिरती हैं। मेरे कर्ममें परायण रहनेवाला जो मानव वहाँ तीन राततक निवास कर स्नान करता है, वह सत्यवादी एवं कार्यमें परम कुशल होता है। वहाँके जलका स्पर्श करके यदि कोई प्राणोंका त्याग करता है तो वह मेरे लोकमें आनन्दपूर्वक निवास करता है।

देवि ! इसी बदरिकाश्रममें ‘इन्द्रलोक’ नामका भी मेरा एक प्रसिद्ध आश्रम है । वहाँ इन्द्रने मुझे भलीभाँति संतुष्ट किया था। हिमालयके शृङ्गोंसे निरन्तर वहाँ जलकी मोटी धाराएँ गिरती हैं। उस विशाल शिलातलपर मेरा धर्म सदा व्यवस्थित रहता है। जो मानव वहाँ एक रात भी रहकर स्नान करता है, वह सत्यवक्ता एवं परम पवित्र होकर ‘सत्यलोक’ में प्रतिष्ठा पाता है। जो वहाँ नित्य व्रत करनेके पश्चात् अपने प्राणोंका त्याग करता है, वह मेरे लोकमें जाता है।

बदरिकाश्रमसे सम्बन्ध रखनेवाला ‘पञ्चशिख’ नामका एक ऐसा तीर्थ है, जहाँ हिमालयकी पाँच चोटियोंसे जलकी धाराएँ गिरती हैं। वे धाराएँ पाँच नदीके रूपमें परिवर्तित हो गयी हैं। वहाँ जो मानव स्नान करता है, वह ‘अश्वमेधयज्ञ’ का फल प्राप्तकर देवताओंके साथ आनन्दका उपभोग करता है। दुष्कर तप करनेके पश्चात् यदि वहाँ कोई प्राण- त्याग करता है तो वह स्वर्गलोकका अतिक्रमण कर मेरे लोकमें प्रतिष्ठित होता है। मेरे उसी क्षेत्रमें ‘चतुःस्रोत’ नामसे प्रसिद्ध एक स्थान है जहाँ हिमालयकी चारों दिशाओंसे जलकी चार धाराएँ गिरती हैं जो मनुष्य एक रात भी वहाँ निवास कर स्नान करता है, वह स्वर्गके ऊर्ध्वभागमें आनन्द-पूर्वक निवास करता है और वहाँसे भ्रष्ट होकर मनुष्यलोकमें जन्म लेनेपर मेरा भक्त होता है। फिर संसारके दुष्कर कर्म ( कठिन साधना) करके प्राणोंका त्यागकर स्वर्गका अतिक्रमण कर मेरे लोकको प्राप्त होता है।

वसुंधरे ! मेरे उसी क्षेत्रमें एक ‘वेदधार’ नामका तीर्थ है, जहाँ ब्रह्माजीके मुखसे चारों वेद प्रकट हुए थे । यहाँ चार विशाल जलकी धाराएँ ऊँची शिलापर गिरती हैं, जो मनुष्य चार राततक यहाँ रहकर स्नान करता है, वह चारों वेदोंके अध्ययनका अधिकारी होता है। जो मेरा उपासक मनुष्य वहाँ अपने प्राणोंका त्याग करता है, वह मेरे लोकमें प्रतिष्ठित होता है। यहीं द्वादश दिव्य ‘कुण्ड’ नामक वह स्थान है, जहाँ मैंने बारह सूर्योको स्थापित किया था। वहाँके पर्वत शृङ्गकी जड़ विशाल है। इसके नीचे बहुत सी शिलाएँ हैं। किसी भी द्वादशी तिथिको यदि कोई वहाँ स्नान करता है तो जहाँ द्वादश सूर्य रहते हैं, वह उस लोकमें जाता है, इसमें कोई संशय नहीं। फिर मेरे कर्ममें स्थित रहनेवाला वह मनुष्य प्राणोंका परित्याग कर आदित्योंके पाससे अलग होकर मेरे लोकमें प्रतिष्ठित होता है।

यहीं ‘सोमाभिषेक’ नामसे प्रसिद्ध एक तीर्थ है, जहाँ मैंने चन्द्रमाका ब्राह्मणोंके राजाके रूपमें अभिषेक किया था। उन अत्रिनन्दन चन्द्रमाने मुझे यहीं संतुष्ट किया था। वसुंधरे ! चौदह करोड़ वर्षोंतक तपोऽनुष्ठान कर मेरी कृपासे चन्द्रमाको परम सिद्धि उपलब्ध हुई थी। यह सारा जगत् एवं इसकी उत्तम औषधियाँ सब उन चन्द्रमाके ही अधिकारमें हैं। इसी स्थानपर इन्द्र, स्कन्द और मरुद्गण प्रकट और विलीन हुआ करते हैं। देवि! मुझसे सम्बन्ध रखनेवाली वहाँकी सभी वस्तुएँ सोममय होकर अन्तमें मुझमें स्थित हो जायँगी। वहाँ ‘सोमगिरि’ नामसे प्रसिद्ध एक ऐसा स्थान है, जहाँ भूमिपर, कुण्डमें एवं विशाल वनमें भी जलकी धाराएँ गिरती हैं। देवि ! यह मैं तुम्हें बता चुका। जो मानव तीन राततक वहाँ रहकर स्नान करता है, वह सोमलोकको प्राप्तकर आनन्दका उपभोग करता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं देवि ! फिर अत्यन्त कठोर तप करनेके बाद जब उसकी मृत्यु होती है तो वह चन्द्रलोकका उल्लङ्घन कर मेरे लोकको प्राप्त करता है।

देवि! मेरे इसी बदरिकाश्रमक्षेत्रमें उर्वशी कुण्ड’ नामक वह गुप्त क्षेत्र भी है, जहाँ उर्वशी नामकी अप्सरा मेरी दाहिनी जाँघको विदीर्ण कर प्रकट हुई थी। देवि ! देवताओंका कार्य साधन करनेके लिये मैं वहाँ ( निरन्तर ) तप करता रहता हूँ, पर मुझे कोई नहीं जानता, मैं स्वयं ही अपने आपको जानता हूँ। वहाँ मेरे तपस्या करते हुए बहुत वर्ष बीत गये, किंतु इन्द्र, ब्रह्मा एवं महेश्वर आदि देवता भी यह रहस्य न जान सके।

देवि! ‘बदरिकाश्रम’ में तपका फल सुनिश्चित है, अतः स्वयं मैंने भी वहाँ रहकर बहुत वर्षोंतक तपस्या की है। पृथ्वीदेवि ! वहाँपर मैं दस करोड़, दस अरब तथा कई पद्म वर्षोंतक तप करनेमें तत्पर रहा। उस समय में ऐसे गुप्त स्थानमें था कि देवतालोग भी मुझे देख न सके। अतः उन्हें महान् दुःख हुआ और वे अत्यन्त विस्मयमें पड़ गये । वसुंधरे ! मैं तो तपमें संलग्न था और सभीको देख रहा था, किंतु मेरी योगमायाके प्रभावसे आवृत होनेके कारण उन सभीको मुझे देखनेकी शक्ति न थी तब उन सब देवताओंने ब्रह्माजीसे कहा- ‘पितामह! भगवान् विष्णुके बिना जगत्‌में हमें शान्ति नहीं मिल रही है। तब देवताओंकी बात सुनकर लोक पितामह ब्रह्मा मुझसे कहनेके लिये उद्यत हुए। देवि ! उस समय मैं योगमायाके पटके भीतर छिपा था अतः ! उन्हें दर्शन न हो सका। अतएव देवता, गन्धर्व, सिद्ध और ऋषिगण परम प्रसन्न होकर मेरी स्तुति करनेके लिये चल पड़े। इन्द्रादि सभी देवता वहाँ मेरी प्रार्थना करने लगे। उन्होंने स्तुति की-

‘नाथ! आपके अदर्शनसे हम सब महान् दुःखी एवं उत्साहहीन हैं। हमसे कोई भी प्रयत्न होना शक्य नहीं है। हृषीकेश ! आप महान् अनुग्रह करके हमारी रक्षा कीजिये।’

बड़ी आँखोंसे शोभा पानेवाली पृथ्वि ! देवताओंकी इस प्रार्थनापर मैंने उनपर कृपादृष्टि डाली। मेरे देखते ही वे परम शान्त हो गये। यह इसी उर्वशी तीर्थकी विशेषता है। इस ‘उर्वशी कुण्ड’ में जो मानव एक रात भी रहकर स्नान करता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है, इसमें कोई संशय नहीं वह ‘उर्वशी’ लोकमें जाकर अनन्त समयतक क्रीडा करनेका अवसर प्राप्त करता है। देवि ! मेरी उपासनामें परायण रहनेवाला जो मानव वहाँ प्राणोंका त्याग करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त होकर सीधे मुझमें ही लीन हो जाता है।

वसुंधरे ! इस ‘बदरिकाश्रम’ का पुण्य जहाँ-जहाँ रहकर स्मरण किया जाय, वहीं विष्णुके स्थानकी भावना जाग उठती है। ऐसा करनेवाला मानव फिर संसारमें नहीं आता। जो व्यक्ति इसका पठन एवं श्रवण करता है, वह ब्रह्मचारी, क्रोधविजयी, सत्यवादी जितेन्द्रिय तथा मुझमें श्रद्धा रखनेवाला, ध्यान एवं योगमें सदा रत होकर मुक्तिके फलका भागी होता है। जो इसे जानता है, वही समस्त ध्यानयोगको जानता है। वह अपने आत्मतत्त्वको प्राप्त करके परम गतिको प्राप्त कर लेता है।

अध्याय ११९ उपासनाकर्म एवं नारीधर्मका वर्णन

पृथ्वी बोली- माधव ! मैं आपकी दासी आपसे यह प्रार्थना करती हूँ कि स्त्रियोंमें प्राण और बल बहुत थोड़ा होता है, वे अनशन करने या क्षुधा वेगको सहन करनेमें असमर्थ होती हैं।

भगवान् वराह बोले- महाभागे ! सर्वप्रथम इन्द्रियोंको वशमें रखकर फिर मुझमें चित्त लगाकर तथा संन्यासयोगका आश्रय लेकर सभी कर्मोंको मेरा समझता हुआ करे। फिर चित्तको एकाग्र करके अपने व्रतमें दृढ़ रहते हुए, सभी कर्म मुझे अर्पण कर दे। ऐसा करनेसे स्त्री, पुरुष अथवा नपुंसक कोई भी क्यों न हो, वह जन्म-मरणरूपी संसार-बन्धनसे छूट जाता है अथवा परम गति पानेकी इच्छा हो तो ज्ञानरूपी संन्यासयोगका आश्रय ग्रहण करे। यदि प्राणीका चित्त समानरूपसे मुझमें स्थिर हो गया तो वह सब प्रकारके भक्ष्याभक्ष्य पदार्थोंको खाता हुआ, पीने योग्य अथवा अपेय पदार्थोंको पीता हुआ भी उस कर्मदोषसे लिप्त नहीं होता। मन, बुद्धि और चित्तको यदि समानरूपसे मुझमें स्थापित कर दिया तो कुछ भी कर्म करता हुआ वह ठीक उसी प्रकार उससे लिप्त नहीं होता, जैसे कमलका पत्र जलमें रहता हुआ भी जलसे अलग ही रहता है। समत्वके प्रभावसे कर्मका संयोग होते हुए भी प्राणी उससे लिप्त नहीं होता है। इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। देवि ! रात दिन, एक मुहूर्त, एक क्षण, एक कला, एक निमेष अथवा एक पल भी अवसर मिल जाय तो चित्तको समरूपमें मुझमें स्थापित करना चाहिये । यदि चित व्यवस्थितरूपसे सम रह सके तो जो लोग दिन रात सदा मिश्रित कर्म करते रहते हैं, उन्हें भी परम सिद्धि प्राप्त हो जाती है। जागते- सोते, सुनते और देखते हुए भी जो व्यक्ति मुझमें चित्त लगाये रखता है, उस मुझमें चित्त लगाये पुरुषको क्या भय ? देवि ! कोई दुराचारी चण्डाल हो या सदाचारी ब्राह्मण इससे मेरा कोई तात्पर्य नहीं। मैं तो उसीकी प्रशंसा करता हूँ, जो सदा अनन्यचित्त है— एकमात्र मेरा भक्त है। जो सम्पूर्ण धर्मोके ज्ञानी पुरुष ज्ञानरूपी संस्कारसे पवित्र होकर मेरी उपासना करते हैं, मेरे कर्ममें तत्पर रहनेवाले उन व्यक्तियोंका चित्त सदा मुझमें लगा रहता है। जो लोग अपने हृदयमें पूर्णरूपसे मुझे स्थापित करके कर्मोंका सम्पादन करते हैं, वे संसारके कर्मोंमें लगे रहनेपर भी सुखकी नींद सोते हैं। देवि! जिनका चित्त परम शान्त है, वे मेरे प्रिय पात्र हैं। कारण, वे अपने शुभ अथवा अशुभ जो भी कर्म हैं, उन सबको मुझमें अर्पण करके निश्चिन्त रहते हैं।

देवि ! जिनका चित्त सदा चञ्चल रहता है, वे अधम मानव दुःखी हो जाते हैं, चञ्चल चित्त ही प्राणीका वास्तविक शत्रु है और शान्त चित्त उसके मोक्षका साधन है। अतएव वसुंधरे ! तुम चित्तको मुझमें लगा दो। ज्ञान और योगका आश्रय लेकर मनको एकाग्र करती हुई तुम मेरी उपासना करो। जो निरन्तर मुझमें चित्त लगाकर अपने व्रतमें निश्चित रहता हुआ मेरी उपासना करता है, वह मेरे सांनिध्य (समीपता) को प्राप्तकर अन्तमें मुझमें ही लीन हो जाता है।

वसुंधरे ! पुनः दूसरी बात बताता हूँ, सुनो ज्ञानका चित्तसे सम्बन्ध है और क्रियाका योगसे ज्ञानी पुरुष कर्मके प्रभावसे मेरे स्थानको प्राप्त कर लेते हैं। योगके सिद्ध पारगामी पुरुष भी वहीं जाते हैं। मेरे मार्गका अनुसरण करनेवाले मानव ज्ञान, योग एवं सांख्यका चित्तमें चिन्तन न होनेपर भी परम सिद्धि पानेके अधिकारी हो जाते हैं। देवि! ऋतुकाल उपस्थित होनेपर मुझमें श्रद्धा रखनेवाली स्त्रीका कर्तव्य है कि वह तीन दिनोंतक निराहार रहे। उसे वायुके आहारपर समय व्यतीत करना चाहिये। चौथे दिन गृह-सम्बन्धी कार्योंको सम्पन्न करे। उस समय अन्य स्थानोंपर जाना निषिद्ध है। सर्वप्रथम सिर धोकर स्नान करे, फिर निर्मल श्वेत वस्त्र धारण करे। वसुंधरे ! चित्तपर अपना अधिकार रखकर जो स्त्री मन और बुद्धिको सम रखकर कर्म करती है, वह सदा मेरे हृदयमें निवास करती है। भोजनकी सामग्रीको मेरा नैवेद्य मानकर ग्रहण करना चाहिये। भूमे ! इन्द्रियोंको वशमें रखकर चित्तको एकाग्र करे और तब संन्यासयोगकी साधना करनी चाहिये। स्त्री, पुरुष या नपुंसक जो कोई भी हो, उन्हें नित्य ऐसा करना ही चाहिये। ज्ञान रहते हुए भी मेरे कर्मके सम्बन्धमें जो योगकी सहायता नहीं लेते और सांसारिक कार्योंमें जीवन व्यतीत करते हैं, ऐसे मानव आजतक भी मेरे विषयमें अनभिज्ञ हैं। देवि! वे सांसारिक मोहमें लिप्त मुझे नहीं जानते। उनमें माता, पिता, पुत्र और स्त्री- ये सैकड़ों एवं हजारों मोहकी शृङ्खलाएँ हैं, जिनमें वे चक्कर काटते रहते हैं और मुझे नहीं जान पाते। मोह और अज्ञानसे ढका हुआ यह संसार अनेक प्रकारकी आसक्तियोंमें बँधा है। इससे मनुष्य मुझमें चित्त नहीं लगा पाता । मृत्युके समय ये सभी साथ छोड़कर इस संसारसे पृथक्- पृथक् स्थानपर चले जाते हैं। फिर सब अपने- अपने कर्मोंके अनुसार जन्म पाते हैं। पृथ्वीदेवि ! संसारके मोहमें पड़े हुए प्रायः सभी मानव अज्ञानी ही बने रहते हैं। इसीमें उनका पूरा समय बीत जाता है। पुनः उनके पुनर्जन्म होंगे और मृत्यु भी, किंतु मेरे सांनिध्यके लिये कोई यत्न नहीं करता ।

वसुंधरे ! यह सब ‘संन्यासयोग’ का विषय है। जिसे इसके रहस्यका ज्ञान हो जाता है, वह सदा योगमें लगकर संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं जो मानव प्रातः काल उठकर निरन्तर इसका श्रवण करता है, उसे पुष्कल सिद्धि प्राप्त हो जाती है और अन्तमें वह मेरे लोकको प्राप्त होता है।

अध्याय १२० मन्दारकी महिमाका निरूपण

भगवान् वराह कहते हैं सुन्दरि ! गङ्गाके दक्षिण तटपर तथा विन्ध्यपर्वतके पिछले भागमें मेरा एक परम गुह्य एकान्त स्थान है, जिसे मेरे प्रेमी भक्त मन्दार नामसे पुकारते हैं। देवि! वहीं त्रेतायुगमें ‘राम’ नामसे प्रसिद्ध एक महान् प्रतापी पुरुषका प्राकट्य होगा। वे वहाँ मेरे विग्रहकी स्थापना करेंगे, इससे संदेह नहीं।

पृथ्वी बोली- देवेश नारायण ! आपने धर्म एवं अर्थसे संयुक्त मन्दार नामक जिस स्थानका वर्णन किया है, उस स्थानपर मनुष्योंके लिये कौन-से कर्तव्य कर्म हैं तथा उन मानवोंको किन लोकोंकी प्राप्ति होती है, इसे जाननेके लिये मेरे मनमें बड़ी उत्सुकता हो गयी है, अतः आप विस्तारसे इसे बतलानेकी कृपा कीजिये ।

भगवान् वराह कहते हैं-देवि ! मन्दारका रहस्य अत्यन्त गोपनीय है। एक बार जब मन्दारपर सर्वत्र पुष्प खिले हुए थे और मैं मनोविनोद कर रहा था तो एक सुन्दर पुष्पको मैंने उठाकर अपने हृदयसे लगा लिया। तबसे विन्ध्यपर्वतपर स्थित उस मन्दारमें मेरा चित्त संलग्न हो गया। वसुंधरे ! ग्यारह कुण्ड उस पर्वतकी शोभा बढ़ाते हैं। सुभगे ! भक्तोंपर कृपा करनेकी इच्छासे मैं उस मन्दार नामक वृक्षके नीचे निवास करता हूँ। विन्ध्यपर्वतकी तलहटीमें वह परम सुन्दर स्थान अत्यन्त दर्शनीय है । उस महान् वृक्ष मन्दारमें एक बड़े आश्चर्यकी बात है, वह भी सुनो। वह विशाल वृक्ष द्वादशी और चतुर्दशी तिथिके दिन फूलता है। वहाँ दोपहरके समयमें लोग उसे भलीभाँति देख सकते हैं। पर अन्य दिनोंमें वह किसीको दिखलायी नहीं देता। वहाँ मानव एक समय भोजन करके निवास करता है तो स्नान करते ही उसकी आत्मा शुद्ध हो जाती है और वह परम गतिको प्राप्त होता है।

देवि ! उसके उत्तर भागमें ‘प्रापण’ नामका एक पर्वत है, जहाँ दक्षिण दिशासे होती हुई जलकी तीन धाराएँ गिरती हैं। मेरुके दक्षिण शिखरपर ‘मोदन’ नामका एक स्थान है और उसके पूरब और उत्तरके बीचमें ‘वैकुण्ठकारण’ नामका एक गुह्य स्थान है। वहाँ हल्दीके रंगकी भाँति चमकनेवाली जलकी एक धारा गिरती है। जो मानव एक रात रहकर वहाँ स्नान करता है, उसे स्वर्ग प्राप्त हो जाता है। वहाँ जाकर वह देवताओंके साथ आनन्दका अनुभव करता है और उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं और वह अपने समस्त कुलका उद्धार कर देता है।

विन्ध्यगिरिकी चोटियोंपर मेरुशिखरसे ‘समस्रोत’ नामकी धारा गिरकर एक गहरे तालाबके रूपमें परिवर्तित हो जाती है। वहाँ मनुष्यको चाहिये कि स्नान करके एक रात निवास करे। ऊँची शिलावाले मेरुपर्वतके पूर्वपार्श्वमें रहकर चित्तको सावधान करके जो अपने प्राणका परित्याग करता है, उसके सम्पूर्ण बन्धन कट जाते हैं और वह मेरे लोकमें चला जाता है। मन्दारके पूर्वमें ‘कोटरसंस्थित’ नामक स्थानमें मूसलकी आकृति जैसी एक पवित्र जलको धारा गिरती है। वहाँ स्नानकर पाँच दिन निवास करने से वह मेरुगिरिके पूर्वभागमें स्वर्ग-सुख प्राप्त करता है पुनः वहाँ भी वह अत्यन्त कठिन कर्मका सम्पादन कर मेरे लोकको प्राप्त होता है। यशस्विनि ! मन्दारके दक्षिण और पश्चिम भागमें सूर्यके समान प्रकाशमान एक जलकी धारा गिरती है। वहाँ स्नानकर मनुष्यको एक दिन-रात निवास करना चाहिये। इससे मेरुके पश्चिम भागमें ध्रुवके स्थानमें रहकर भक्तिपरायण वह मनुष्य जब भौतिक शरीरसे अलग होता है तो मेरे लोकको प्राप्त होता है। वह महान् यशस्वी मानव रहकर तथा चक्रवर्ती नरेशके समान प्राणोंका परित्याग कर मेरुके शृङ्गोंको छोड़कर मेरी संनिधिमें आ जाता है। उससे तीन कोसकी दूरीपर दक्षिण दिशामें गभीरक’ नामक एक गुह्य स्थान है, जहाँ गहरे जलवाला एक महान् सरोवर है। वहाँ स्नानकर आठ दिनोंतक निवास करनेसे स्वच्छन्द गमन करनेकी शक्ति मिलती है और अन्तमें वह मेरे लोकको प्राप्त होता है।

देवि ! अब उस क्षेत्रका मण्डल बतलाता हूँ सुनो। मेरुपर्वतपर स्थित ‘मन्दर’ नामक एक स्थान है, जो ‘स्यमन्तपञ्चक’ नामसे प्रसिद्ध है, वहाँ मैं सदा निवास करता हूँ। विन्ध्यकी ऊँची शिलापर दक्षिणकी ओर चक्र, वामभागमें गदा और आगे हल मूसल और शङ्ख विराजमान रहते हैं। यह गुह्य रहस्य है।

देवि! जो मानव मेरी शरणमें आ जाते हैं, वे ही इस परम पवित्र रहस्यको जानते हैं, अन्य मनुष्य नहीं; क्योंकि मेरी मायाने उनकी बुद्धिको मोहित कर रखा है।

अध्याय १२१ सोमेश्वरलिङ्ग, मुक्तिक्षेत्र ( मुक्तिनाथ ) और त्रिवेणी आदिका माहात्म्य

पृथ्वी बोली- प्रभो! आपकी कृपासे मैं मन्दारका वर्णन सुन चुकी। अब इससे जो श्रेष्ठ स्थान हो, उसे बतानेकी कृपा कीजिये ।

भगवान् वराह कहते हैं देवि ! ‘शालग्राम’ ( मुक्तिनाथ क्षेत्र) नामसे मेरा एक परम प्रिय एवं प्रसिद्ध स्थान है। पहले द्वापरयुगमें यदुवंशमें शूरसेन नामके एक कुशल कर्मठ व्यक्ति हुए जिनके पुत्र वसुदेवजी हुए। वसुधे! उनकी सहधर्मिणीका नाम देवकी है। महाभागे ! उसी देवकीके गर्भसे मैं अवतार धारण करता हूँ और करूँगा । देवताओंके शत्रुओंका मर्दन करना मेरे अवतारोंका मुख्य उद्देश्य है। उस समय ‘वासुदेव’ नामसे मेरी प्रसिद्धि होगी। यादवोंके कुलको बढ़ानेवाले शूरसेनके वहाँ रहते समय एक श्रेष्ठ महर्षि, जिनका नाम सालङ्कायन था, मेरी आराधना करनेके लिये दसों दिशाओंमें भ्रमण कर रहे थे। पहले उन्होंने मेरुगिरिकी चोटीपर जाकर पुत्रके लिये तपस्या आरम्भ की। वसुंधरे ! इसके बाद वे ‘पिण्डारक’ में और फिर ‘लोहार्गल क्षेत्रमें भी जाकर एक हजार वर्षतक तप करते रहे। देवि! ब्रह्मर्षि ‘सालङ्कायन’ वहाँ इधर-उधर मेरा अन्वेषण कर रहे थे, किंतु मेरे वहाँ रहनेपर भी उन्हें मेरा दर्शन नहीं हुआ।

भगवान् शंकर भी वहाँ शिलाके रूपमें विराजने लगे, जहाँ मैं शालग्राम शिलारूपमें विराजता हूँ। वहाँकी चक्राङ्कित शिलाएँ सब मेरा ही स्वरूप हैं। पुनः वहाँकी कुछ शिलाएँ ‘शिवनाभा’ और कुछ ‘चक्रनाभा’ नामसे प्रसिद्ध हैं। यह शिवरूप पर्वत सोमेश्वर नामसे प्रसिद्ध है। चन्द्रदेव अपना शाप मिटानेके लिये यहाँ एक हजार वर्षोंतक तपस्या करते रहे, जिससे वे शापमुक्त होकर परम तेजस्वी बन गये और भगवान् शंकरकी स्तुति की। उनकी दिव्य स्तुतिसे प्रसन्न होकर वर देनेवाले भगवान् शंकर ‘सोमेश्वरलिङ्ग’ से प्रकट होकर तीन नेत्रोंसे सम्पन्न होकर सामने स्थित हो गये।

चन्द्रमाने कहा ‘जिनका सौम्य स्वरूप है, उमादेवी जिनकी पत्नी हैं, भक्तोंपर कृपा करनेके लिये जो सदा आतुर रहते हैं, ऐसे पञ्चमुख भगवान् त्रिलोचन नीलकण्ठ शंकरको मैं प्रणाम करता हूँ। जिनके ललाटपर चन्द्रमा सुशोभित हैं, जो हाथमें पिनाक धनुष धारण किये हुए हैं तथा भक्तोंको अभयदान देना जिनका स्वभाव है, ऐसे दिव्य रूपधारी देवेश्वर शंकरको मैं प्रणाम करता हूँ जिनके हाथमें त्रिशूल और डमरू है, अनेक प्रकारके मुखवाले गण जिनकी सदा सेवा करते रहते हैं, उन भगवान् वृषध्वजको मैं प्रणाम करता हूँ। जो त्रिपुर, अन्धक एवं महाकाल नामके भयंकर असुरोंके संहारक हैं, जो हाथीके चर्मको पहनते हैं, उन प्रलयमें भी अचल भगवान् शंकरको मैं प्रणाम करता हूँ। जो सर्पका यज्ञोपवीत पहनते हैं, रुद्राक्षकी माला जिनकी छवि छिटकाती है, भक्तोंकी इच्छा पूर्ण करना जिनका स्वाभाविक गुण है तथा जो सबके शासक हैं, उन अद्भुत रूपधारी भगवान् शंकरको मैं प्रणाम करता हूँ। सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि जिनके नेत्र हैं, मन एवं वाणीकी जिनके पास पहुँच नहीं है तथा जिन्होंने अपने जटासमूहसे गङ्गाको प्रकट किया एवं हिमालय पर्वतके कैलासशिखरपर अपना आश्रम बना रखा है, उन भगवान् शंकरको मैं प्रणाम करता हूँ।’

देवि ! चन्द्रमाने जब भगवान् शंकरकी इस प्रकार स्तुति की तो उन्होंने कहा – ‘गोपते ! मुझसे तुम अपना अभिलषित वर माँग लो।’

चन्द्रमाने कहा – ‘भगवन्! आप यदि वर देना चाहते हैं तो मेरी यह अभिलाषा है कि आप मेरे इस ‘सोमेश्वर’ लिङ्गमें सदा निवास करें और इसमें श्रद्धा रखकर उपासना करनेवाले पुरुषोंका मनोरथ पूर्ण करनेकी कृपा करें।’

देवेश्वर शंकरने कहा – ‘शीत किरणोंके स्वामी शशाङ्क ! भगवान् विष्णुके साथ मैं यहाँ सदा निवास करता आया हूँ। तुम भी मेरे ही स्वरूप हो, पर अब मैं आजसे यहाँ विशेषरूपसे रहूँगा और इस लिङ्गकी पूजा करनेवाले श्रद्धालु पुरुषोंको सदा मेरी पूजाका फल प्राप्त होता रहेगा। तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुम्हें देवदुर्लभ वर दे रहा हूँ। यहाँ पहले सालङ्कायन मुनिने भी महान् तप किया है। उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान् विष्णुने उन्हें उनके साथ रहनेका वर दे रखा है। अतः कलानिधे हम दोनोंका यहाँ रहना पहलेसे ही निश्चित है। श्रीहरिके द्वारा अधिष्ठित पर्वतका नाम ‘शालग्राम’ – गिरि है और मैं ‘सोमेश्वर’ नामसे स्थित हूँ। इन दोनों पर्वतोंसे सम्बन्ध रखनेवाली ये शिलाएँ भी ‘विष्णुशिला’ तथा ‘शिवशिला’ नामसे प्रसिद्ध होंगी। पूर्व समयमें रेवाने भी मेरी प्रसन्नता प्राप्त करनेके लिये तपस्या की थी। उसके मनमें इच्छा थी कि मुझे भगवान् शिवके समान पुत्र चाहिये। मैंने सोचा कि मैं तो किसीका भी पुत्र नहीं हूँ, फिर अब क्या करूँ। सोम ! उस समय बहुत सोच-विचारकर मैंने उससे कहा था – ‘ देवि! तुमने मेरी अपार भक्ति की है, अतः मैं पुत्र बनकर गणेशके सहित लिङ्गरूपसे तुम्हारे गर्भ में निवास करूंगा। इस प्रकार रेवाने मेरा सांनिध्य प्राप्त कर लिया और यहाँ आ गयी। तबसे इसकी भी ‘रेवाखण्ड’ नामसे प्रसिद्धि हुई। साथ ही गण्डकी भी सूखे पत्ते खाकर तथा वायु पीकर देवताओंके वर्षसे सौ वर्षोंतक तपस्यामें तत्पर रही। उस समय वह सदा भगवान् विष्णुका ही चिन्तन करती थी । अन्तमें जगत् के स्वामी श्रीहरि वहाँ स्वयं पधारे और बोले— ‘पुण्यमयी गण्डकि! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ । सुव्रते ! तुम मुझसे वर माँगो।’

इसके पूर्व भी गण्डकीको एक बार शङ्ख, चक्रं एवं गदाधारी भगवान्‌का दर्शन प्राप्त हुआ था। फिर उन प्रभुकी बात सुनकर गण्डकीने उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम कर इस प्रकार स्तुति प्रारम्भ

की—’भगवन्! मैंने आपके जिस रूपका दर्शन किया है, वह देवताओंके लिये भी दुर्लभ है। इस स्थावरजङ्गममय सम्पूर्ण संसारकी सृष्टि आपकी ही कृपाका प्रसाद है। जिस समय आप नेत्र बंद कर लेते हैं, उस समय सारा विश्व संहत हो जाता है। श्रुतिके निर्देशानुसार अनादि, अनन्त एवं असीमस्वरूप जो ब्रह्म है, वह आप ही हैं। महाविष्णो! जो आपको जानता है, वह वेदका तत्त्वज्ञ पुरुष है। आपकी ही आदिशक्ति योगमाया तथा प्रधान प्रकृति नामसे प्रसिद्धि है। आप अव्यक्त, चित्स्वरूप, निर्गुण, निरञ्जन, निर्विकार एवं आनन्दस्वरूप परम शुद्ध परमात्मा हैं। आप स्वयं सृष्टिकी रचनासे पृथक् रहते हैं और आपकी योगमाया सभी कार्योंका सम्पादन करती है। आपके निरञ्जन रूपको भला मैं एक मूर्ख अबला यथार्थतः कैसे जानूँ ?’

गण्डकीकी प्रार्थनासे प्रभावित होकर भगवान् विष्णुने कहा- ‘देवि! तुम्हारी जो इच्छा हो, जो अन्य मनुष्योंके लिये सब प्रकारसे दुर्लभ एवं अप्राप्य है, वह वर मुझसे माँग लो भला मेरा दर्शन हो जानेपर प्राणीका कौन-सा मनोरथ अपूर्ण रह सकता है ?”

हिमांशो ! इसपर जनताको तारनेवाली देवी गण्डकीने श्रीहरिके सामने हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक मधुर वचनोंमें कहा- ‘भगवन्! आप यदि प्रसन्न हैं तो मुझे अभिलषित वर देनेकी कृपा कीजिये। मैं चाहती हूँ कि आप मेरे गर्भमें आकर निवास करें।’

इसपर भगवान् विष्णु प्रसन्न होकर सोचने लगे कि मेरे साथ सदा रहनेका लाभ उठानेवाली इस गण्डकी नदीने कैसा अद्भुत वर माँगा है। इससे सम्पूर्ण प्राणियोंका तो बन्धन कट सकता है। अतः इसे यह वर अवश्य दूँगा । अतः वे प्रसन्नतापूर्वक बोले- देवि! मैं शालग्रामशिलाका रूप धारण कर तुम्हारे गर्भ में निवास करूँगा और मेरी संनिधिके कारण तुम नदियोंमें श्रेष्ठ मानी जाओगी। तुम्हारे दर्शन, स्पर्श, जलपान तथा अवगाहन करनेसे मनुष्योंके मन, वाणी एवं कर्मसे बने हुए पापोंका नाश होगा। जो पुरुष तुम्हारे जलमें स्नान करके देवताओं, ऋषियों एवं पितरोंका तर्पण करेगा, वह अपने पितरोंको तारकर उन्हें स्वर्गमें पहुँचा देगा। साथ ही मेरा प्रिय बनकर वह स्वयं भी ब्रह्मलोकमें चला जायगा। तुम्हारे तटपर मृत प्राणियोंको मेरे लोककी प्राप्ति होगी, जहाँ जाकर सोच नहीं होता।’

इस प्रकार देवी गण्डकीको वर देकर भगवान् विष्णु वहीं अन्तर्धान हो गये। शशाङ्क! तबसे हम और भगवान् विष्णु इस क्षेत्र * में निवास करते हैं।

भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! इस प्रकार कहकर भगवान् शंकरने चन्द्रमाको प्रभा प्रदान कर उनके अङ्गोंपर अपना हाथ भी फेरा। इससे वे तत्क्षण परम स्वच्छ हो गये। फिर भगवान् शंकर वहाँसे प्रस्थान कर गये। इसी ‘सोमेश्वर’ लिङ्गके दक्षिणभागमें रावणने वाणसे पर्वतका भेदन किया था, जहाँसे जलकी एक पवित्र धारा निकली। यह स्नान करनेवालेके पापोंको हरण करती तथा प्रचुर पुण्य प्रदान करती है। इसका नाम ‘वाणगङ्गा’ है। सोमेश्वरके पूर्वभागमें रावणका वह तपोवन है, जहाँ तीन राततक रहकर उसने तपस्या और नृत्यकार्य किये थे और उसके नृत्यसे संतुष्ट होकर भगवान् शंकरने उसे वर प्रदान किया था। इस कारण उस स्थानको ‘नर्तनाचल’ कहते हैं। वाणगङ्गामें स्नान करने तथा ‘वाणेश्वर’ का दर्शन करनेपर मनुष्यको गङ्गामें स्नान करनेका फल मिलता है और देवताकी भाँति उसे स्वर्गमें आनन्द भोगनेका सौभाग्य प्राप्त होता है।

वसुंधरे ! उसी समय सालङ्कायन मुनि भी मेरे शालग्राम क्षेत्रमें आकर महान् तप करने लगे। उनके मनमें इच्छा थी कि ‘मुझे शिवजीके ही समान पुत्र चाहिये।’ मुनिके इस श्रेष्ठ भावको जानकर भगवान् शंकरने अपना एक दूसरा सुन्दर सुखप्रद रूप निर्माण किया और अपनी योगमायाकी सहायतासे वे सालङ्कायनके पुत्र बनकर उनके दक्षिणभागमें विराज गये; परंतु सालङ्कायन मुनि इसे न जान सके। वे मेरी आराधनामें बैठे ही रहे। तब शंकरकी ही दूसरी मूर्ति नन्दीने हँसकर सालङ्कायन मुनिसे कहा – ‘मुनिवर ! आप अब उपासनासे विरत हों। आपका मनोरथ सफल हो गया।’

देवि ! नन्दीकी यह बात सुनकर मुनिवर सालङ्कायनका मुख प्रसन्नतासे खिल उठा। वे आश्चर्यसे बोले- ‘अहो ! यदि मेरे इस तपका फल उदय हो गया तो भगवान् विष्णुको भी अवश्य दर्शन देना चाहिये। मैं जबतक उन्हें न देखूँगा, तबतक मैं तपस्यासे उपरत न होऊँगा।’ फिर वे नन्दीसे बोले – ‘पुत्र ! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ, तुम योगका आश्रय लेकर मथुरा जाओ। वहाँ मेरा एक पवित्र आश्रम है। उस जगह मेरी प्रचुरमात्रामें गोसम्पत्ति पड़ी है। वहाँ आमुष्यायण नामका मेरा शिष्य भी है। उन्हें लेकर तुम यथाशीघ्र यहाँ आ जाओ।’ सालङ्कायन मुनिकी आज्ञासे नन्दी उसी क्षण मथुराको चल पड़े। वहाँ पहुँचकर उन्होंने ऋषिके आश्रमका अन्वेषण किया और आमुष्यायण उन्हें दिखायी पड़ गये।

पुनः कुशल प्रश्नके बाद घरपर स्थित गो आदि सम्पत्तिके विषयमें भी बातचीत की। उन्होंने उत्तर दिया- ‘साधो! तपस्याके परमधनी मेरे गुरुदेवकी कृपासे यहाँ सर्वत्र कुशल है। अब आप मेरे गुरुजीकी कुशल बतानेकी कृपा करें। इस समय वे कहाँ विराजमान हैं? आप कहाँसे पधारे हैं और आपके यहाँ आनेका प्रयोजन क्या है ? यह बात विस्तारपूर्वक बतायें और अर्घ्य आदि स्वीकार करें।’ आमुष्यायणके इस प्रकार कहने पर नन्दीने उनका दिया हुआ अर्घ्य स्वीकार किया और सालङ्कायन मुनिका वृत्तान्त बताया तथा अपने आनेकी बात स्पष्ट कर दी। फिर नन्दी आमुष्यायणके साथ गोधन लेकर वहाँसे वापस हुए। बहुत दिनोंतक चलनेके बाद वे गण्डकी नदीके तीरपर त्रिवेणीसङ्गमपर पहुँचे। ‘देविका’* नामकी एक नदी भी वहीं आकर तपस्या कर रही थी । पुलस्त्य एवं पुलह मुनिके आश्रम के पास यह तथा गङ्गा नदी भी आकर मिली। इन तीन नदियोंके एक साथ मिल जानेके कारण यह स्थान ‘त्रिवेणी सङ्गम’ नामसे प्रसिद्ध हुआ। आगे चलकर इस महान् तीर्थका नाम ‘कामिक’ हुआ। इस तीर्थसे पितृगण बहुत प्रसन्न होते हैं। यहाँ भगवान् शंकरका एक महान् लिङ्ग है, जिसे ‘त्रिजलेश्वर’ महादेव कहते हैं। इसके दर्शन करनेसे भुक्ति एवं मुक्ति दोनों सुलभ हो जाती हैं और सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।

पृथ्वी बोली- प्रभो ! मैंने तो सुना है कि त्रिवेणी केवल प्रयागमें ही है, जहाँ भगवान् महेश्वर एक ‘शूलटङ्क’ नामसे तथा दूसरे सोमेश्वर’ नामसे प्रसिद्ध हैं। साथ ही वहाँ स्वयं श्रीहरि भी ‘वेणीमाधव’ नामसे विराजते हैं। वहाँ गङ्गा, यमुना और सरस्वती—ये तीन नदियाँ हैं, वहाँ सम्पूर्ण देवताओं, ऋषियों, नदियों एवं तीर्थोंका समाज भी विराजमान रहता है। उस’तीर्थराज’ में स्नान करनेवाले तथा प्राणत्याग करनेवाले व्यक्ति मोक्षके भागी होते हैं। फिर आप जो गण्डकीकी ‘त्रिवेणी’ बता रहे हैं, यह वही ‘त्रिवेणी’ है या कोई दूसरी ? महाभाग ! आप अखिल जगत्का हित करनेकी इच्छासे इसे बतानेकी कृपा करें। दयानिधे! मेरी कलुषित बुद्धिपर ध्यान न देकर इस प्रसङ्गको स्पष्ट करनेकी अवश्य कृपा करें।

भगवान् वराह कहते हैं-देवि ! इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास प्रसिद्ध है। हिमालय पर्वतके रमणीय स्थलमें देवतालोग निवास करते हैं। बहुत पहले जगत्‌के हित-सम्पादनके विचारसे भगवान् विष्णु वहीं तपस्या करने लगे। कुछ समय बाद उनके श्रीविग्रहसे एक अत्यन्त दिव्य तेज प्रकट हुआ, जिससे चर और अचर – सम्पूर्ण संसार जलने लगा और विष्णुके गण्डस्थल ( कपोल) पसीने से भींग गये तथा उसी स्वेदसे दिव्य नदी गङ्गा प्रवाहित हुई । इस अद्भुत घटनासे जन-महलोंक प्रभृति सभी आश्चर्यमें भर गये और गङ्गाके प्रादुर्भावस्थलका पता लगाने चले, पर पता न लग सका। अन्तमें ब्रह्मासहित सभी देवता भगवान् शंकरके पास पहुँचे और उन्हें प्रणाम कर एक ओर खड़े हो गये और फिर उनसे गङ्गाके उद्गमका पता पूछा। इसपर भगवान् शंकर कुछ क्षणके लिये ध्यानस्थ हुए। और फिर बोले-‘आप लोगोंको इसका उत्पत्तिस्थल दिखाता हूँ।’ यों कहकर वे उमादेवी, अपने गणों तथा देवताओंके सहित उस ओर प्रस्थित हो गये, जहाँ भगवान् विष्णु तपस्यामें स्थित थे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने कहा- ‘भगवन्! आप सर्वसमर्थ हैं। अखिल जगत् आपसे बना है। आपके मनमें क्या अभिलाषा उत्पन्न हो गयी कि आप तप कर रहे हैं ? सम्पूर्ण संसार आपपर आश्रय पाये हुए हैं। आप सभीके अधिष्ठाता हैं। फिर आपके लिये कौन-सा दुर्लभ पदार्थ है, जिसके लिये आप यह कठोर तप कर रहे हैं ?”

इसपर जगत्प्रभु विष्णुने उन्हें प्रणाम करके उत्तर दिया- ‘मैं संसारकी हितकामनासे तप करनेके लिये उद्यत हुआ हूँ । आपके दर्शन करनेके लिये भी मनमें बड़ी उत्सुकता थी । जगत्प्रभो ! इस समय आपका दर्शन पा जानेसे मेरा यह मनोरथ सफल हो गया।’

भगवान् शंकर बोले- भगवन् ! यह मुक्तिक्षेत्र है। इसके दर्शन करनेसे ही मनुष्य मुक्ति पानेका अधिकारी हो जाता है। क्योंकि यहाँ आपके गण्डस्थल ( कपोल) – से प्रकट हुई ‘गण्डकी ‘ नदी नदियोंमें श्रेष्ठ होगी, जिसके गर्भमें आप सुशोभित होंगे; इसमें कोई संशय नहीं है। आप जगत् के स्वामी हैं। जब आपका यहाँ निवास होगा तो केशव ! आपके सम्पर्कसे मैं, शिव, ब्रह्मा, समस्त देवता, ऋषि, यज्ञ एवं तीर्थ – प्रायः सभी इस गण्डकी नदीमें सदा निवास करेंगे। प्रभो ! जो मनुष्य पूरे कार्तिक मासमें यहाँ स्नान करेगा, उसके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जायेंगे और वह निश्चय ही मुक्तिका भागी होगा। यह तीर्थोंमें परम तीर्थ तथा मङ्गलोंमें परम मङ्गल है। यहाँ स्नान करनेसे मानव गङ्गा स्नानके फलके भागी हो जायँगे। इसके स्मरण करने, देखने तथा स्पर्श करनेसे मनुष्य पापसे छूट सकता है। इसकी समता करनेवाली दूसरी कोई नदी नहीं है। केवल गङ्गा इससे श्रेष्ठ है। भुक्ति-मुक्ति देनेवाली परम पुण्यमयी वह गण्डकी जहाँ है, वहीं ‘देविका’ नामसे प्रसिद्ध एक दूसरी नदी भी गण्डकीके साथ मिल गयी है। यहींसे थोड़ी दूरपर पुलस्त्य और पुलह मुनि आश्रम बनाकर सृष्टिका विधान सम्पन्न होनेके लिये महान् तपस्या कर रहे थे । तपके फलस्वरूप उन्हें सृष्टि करनेकी शक्ति सुलभ हो गयी। उसी समय ब्रह्माके शरीरसे एक पुण्यमयी नदी गङ्गा जो नदियोंमें प्रधान मानी जाती है वह तथा एक और नदी देविका गण्डकीमें आकर मिल गयी। अतः उस महान् पवित्र नदीका नाम त्रिवेणी पड़ गया, जो देवताओंके लिये भी दुर्लभ है। वह पवित्र मुक्तिप्रद क्षेत्र एक योजनके विस्तारमें है

देवि! पूर्व समयकी बात है। वेद विद्याविशारद कर्दममुनिके दो पुत्र थे, जिनका नाम क्रमशः जय और विजय था । ये दोनों यज्ञविद्यामें निपुण तथा वेद एवं वेदाङ्गके पारगामी विद्वान् थे और भगवान् श्रीहरिमें भी उनकी बड़ी निष्ठा थी संयोगसे कभी उन दोनों परम कुशल ब्राह्मणोंको राजा मरुतने यज्ञके लिये बुलाया। यज्ञ समाप्त हो जानेपर राजाने उन दोनों भाइयोंकी पूजा की और उन्हें प्रभूत दक्षिणा दी। अब वे दोनों ब्राह्मण घर आ गये और दक्षिणामें मिली हुई सम्पत्तिको बाँटने लगे। इसी समय उनमें आपसमें संघर्ष छिड़ गया। बड़े पुत्र जयका कथन था कि धनको बराबर-बराबर बाँटना चाहिये। विजयने कहा- जिसने जो अर्जन किया है, वह धन उसका है। तब जयने विजयसे कहा- ‘क्या मुझे तुम शक्तिहीन मानकर ऐसा कहते हो सब सम्पत्ति लेकर तुम जो मुझे देना नहीं चाहते तो ग्राह बन जाओ।’

इसपर विजयने भी जयसे कहा- ‘क्या धनके लोभसे तुम सर्वथा अन्धे ही हो गये हो? तुम मदान्ध होकर जो मुझसे इस प्रकार कह रहे हो तो तुम मदान्ध हाथी ही हो जाओ।’

इस प्रकार एक दूसरेके शापके कारण वे दोनों ब्राह्मण अलग-अलग गज और ग्राह बन गये। इनमें विजय तो गण्डकी नदीमें जातिस्मर ग्राह हुआ और जय त्रिवेणीके वन्य क्षेत्रमें हाथी । वह हाथीके बच्चों और हथिनियोंके साथ क्रीडा करता हुआ वहीं वनमें रहने लगा। इस प्रकार ग्राह और गजराज – दोनोंको वहीं रहते हुए कई हजार वर्ष बीत गये। एक समयकी बात है – वह हाथी कभी हथिनियोंके झुंडको साथ लेकर त्रिवेणीमें पहुँचा और उसके बीचमें जाकर स्नान करने लगा। वह हथिनियोंपर जल छिड़कता और हथिनियाँ उसपर जल छिड़कतीं। वह सूँडसे स्वयं ही जल पीता और उन हथिनियोंको भी पिलाता। इस प्रकार प्रसन्न मन होकर वह उनके साथ क्रीडा करता रहा। उसकी इसी क्रीडाके बीच दैवयोगसे प्रेरित वह ग्राह अपने पूर्व वैरका स्मरण करता हुआ उस हाथीके पास आया और उसके पैरको अत्यन्त दृढतासे पकड़ लिया। इसपर हाथीने भी उसपर अपने दाँतोंसे प्रहार किया। इधर अब वह ग्राह उस हाथीको जलमें खींचने लगा। हाथी बाहर निकलना चाहता और ग्राह उसे भीतर खींच ले जाना चाहता था। इस प्रकार उन दोनोंमें कई हजार वर्षोंतक युद्ध चलता रहा ।

इस प्रकार मत्सर (द्वेष एवं क्रोध) से परिपूर्ण गज एवं ग्राह- इन दोनोंके परस्पर लड़नेसे वहाँके बहुत से प्राणियोंको महान् पीड़ा पहुँची। बहुतेरे जीव तो अपने प्राणोंसे भी हाथ धो बैठे। तब उस क्षेत्रके स्वामी ‘जलेश्वर’ ने भगवान् श्रीहरिको इसकी सूचना दी और इसपर कृपालु भगवान् ने सुदर्शन चक्रसे ग्राहके मुँहको चीर डाला। वसुंधरे ! वे अपने चक्रको बार-बार चला रहे थे। इससे शिलाओं पर भी चोट पहुँची। अतः चक्रके आघात से शिलाओंमें भी उनके चिह्न पड़ गये जिससे वे शिलाएँ वज्रकीटद्वारा खायी सी दीखती हैं। सुन्दरि ! इस त्रिवेणीक्षेत्रके विषयमें तुम्हें संदेह करना ठीक नहीं है। इस क्षेत्रकी ऐसी महिमा है, जिसका वर्णन मैंने तुमसे किया। *

वसुंधरे ! राजा भरत भी पुलह – पुलस्त्यमुनिके आश्रमके निकट जाकर ‘त्रिजलेश्वर ‘भगवान्की पूजामें संलग्न हुए तो उनकी संसारसे सर्वथा विरति हो गयी और मृगके शरीर छूटनेके पश्चात् वे जडभरत हुए। इस जन्ममें भी पुनः उन्होंने इनकी पूजा की। इसीसे वे जलेश्वर या जडेश्वर भी कहलाने लगे। भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करनेसे योग – सिद्धि प्राप्त हो जाती है।

सुभगे ! जब मैं श्रेष्ठ शालग्राम क्षेत्रमें था तो वहीं मुझे यह बात विदित हुई कि जलेश्वर ( जडभरत) – ने मेरी स्तुति की है। वसुधे! भक्तोंपर कृपा करनेके लिये मैं विवश हो जाता हूँ, अतः मैंने अपना सुदर्शन चक्र चलाया। मेरा प्रथम चक्र जहाँ गिरा, वहाँ ‘चक्रतीर्थ’ बन गया। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य तेजसे सम्पन्न होकर सूर्यके लोकमें प्रतिष्ठा पाता है और मरकर मेरे लोकको प्राप्त होता है। मेरे तथा भगवान् शंकरके वहाँ रहनेके कारण ही यह तीर्थ ‘हरिहरक्षेत्र’ कहलाने लगा।

यहाँ ‘त्रिधारक’ नामका तीर्थ है, जिसके पूर्वभागमें ‘हंसतीर्थ’ नामसे प्रसिद्ध एक स्थान है। वहाँका एक कौतुकपूर्ण सर्वोत्कृष्ट वृत्तान्त बताता हूँ, सुनो। किसी समयकी शिवरात्रिके दिन जब इस मन्दिरमें उत्सव चल रहा था, अनेक प्रकारके नैवेद्य अर्पण करके शंकरजीकी उपासना चल रही थी, इतनेमें ही कुछ भूखे कौए उस अन्नपर टूट पड़े और एक कौआ अन्न उठाकर ऊपर उड़ गया और दूसरा उसको छीननेके लिये उसपर झपटा। इस प्रकार वे दोनों परस्पर लड़ते हुए एक कुण्डमें गिर पड़े। वहाँ गिरते ही सहसा उनकी आकृति हंसके समान हो गयी और जब वे बाहर निकले तो उनसे चन्द्रमाके तुल्य प्रकाश फैलने लगा। वहाँकी जनता यह देखकर महान् आश्चर्यमें भर गयी। तबसे लोग उस स्थानको ‘हंसतीर्थ’ कहने लगे। बहुत पहले यहीं यक्षोंने भगवान् शंकरकी आराधना की थी। उस समयसे वह ‘यक्षतीर्थ’ के नामसे कहा जाता है। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य पवित्र होकर यक्षोंके लोकमें प्रतिष्ठा पाता है ।

अध्याय १२२ शालग्राम क्षेत्रका माहात्म्य

धरणीने पूछा भगवन्! आप सम्पूर्ण देवताओंके स्वामी हैं। मैं जानना चाहती हूँ कि मुनिवर सालङ्कायनने आपके उस मुक्तिप्रद क्षेत्रमें तपस्या करते हुए अन्य कौन-सा कार्य किया और कौन सी सिद्धि प्राप्त की ?”

भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! सालङ्कायन मुनि वहाँ दीर्घ कालतक तप करते रहे। उनके सामने शालका एक उत्तम वृक्ष था, जिससे सुगन्ध फैल रही थी। सालङ्कायन ऋषि निरन्तर तप करनेसे थक गये थे। इतनेमें उनकी दृष्टि उस शाल वृक्षपर पड़ी। वे उस विशाल वृक्षके नीचे गये और विश्राम करने लगे। उनके मनमें मेरे दर्शनकी अभिलाषा बनी रही। उस समय शाल- वृक्षके पूर्वभागमें पश्चिमकी ओर मुख करके मुनि बैठे थे। मेरी मायाने उन्हें ज्ञानशून्य बना दिया था

अतः वे मुझे देख न सके। सुन्दरि ! कुछ दिनोंके बाद जब वैशाख मासकी द्वादशी तिथि आयी तो वहीं पूर्व दिशामें ही उन्हें मेरा दर्शन प्राप्त हुआ। उस समय उत्तम व्रतका पालन करनेवाले उन तपस्वी मुनिने मुझे वहाँ देखकर बार-बार प्रणाम किया और वेदके मन्त्रोंसे मेरी स्तुति करने लगे। उस अवसरपर मेरे तीक्ष्ण तेजसे मुनिके नेत्र चौंधिया गये, अतः उन्होंने धीरेसे अपने नेत्र बंद कर लिये और स्तुति करने लगे। फिर ज्यों ही उन्होंने अपनी आँखें खोलीं तो उन्होंने देखा कि मैं उस वृक्षके दक्षिणभागमें खड़ा हूँ। अब वे ऋषि मेरे सामने आकर बैठ गये और ऋग्वेदकी ऋचाओंसे मेरी स्तुति करने लगे। तबतक मैं शालके पश्चिम ओर चला गया। तब वे मुनि भी वहीं पश्चिमकी ओर जाकर बैठ गये और ‘यजुर्वेद’ के मन्त्रोंसे मेरी स्तुति की। देवि! इसके बाद मैं उसके उत्तर दिशामें चला गया। वहाँ भी वे सामवेदके मन्त्रोंका गान करके मेरी स्तुति करने लगे । सुन्दरि ! फिर तो उन ऋषिप्रवर सालङ्कायनकी स्तुतियोंसे संतुष्ट होकर मैं उनपर अत्यन्त प्रसन्न हो गया। अतः उनसे कहा- ‘मुनिवर सालङ्कायन ! तुम्हारे इस तप एवं स्तुतिके प्रभावसे मैं परम संतुष्ट हूँ। तपस्याके फलस्वरूप तुम्हें परम सिद्धि प्राप्त हो गयी है।’

इसपर सालङ्कायन मुनिने विनयपूर्वक मुझसे कहा – ‘ हरे ! मैं भूमण्डलपर निरन्तर भ्रमण तथा तप करता रहा। किंतु निश्चित रूपसे मुझे आज ही आपका शुभ दर्शन प्राप्त हुआ है। यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और मुझे वर देना चाहते हैं तो जगन्नाथ ! मुझे भगवान् शिवके समान पुत्र देनेकी कृपा कीजिये। मुनीश्वर ! ईश्वरकी ही एक दूसरी मूर्ति नन्दिकेश्वरके नामसे प्रसिद्ध है जो (नन्दिकेश्वर) आपके दाहिने अङ्गसे पुत्रके रूपमें प्रकट हो चुके हैं। ब्राह्मणदेव! अब आप तपसे उपरत हों। योगमायाकी शक्तिसे सम्पन्न होकर वे इस समय मेरे साथ व्रजमें विराज रहे हैं। आपके शिष्य आमुष्यायणको मथुरासे बुलाकर उनके साथ वे शूलपाणि- रूपमें वहाँ अवस्थित हैं। अब एक दूसरी गुप्त बात भी बताता हूँ, उसे सुनें । आजसे यह उत्तम क्षेत्र ‘शालग्राम क्षेत्र कहलायगा । साथ ही आपने जो यह वृक्ष देखा है, वह भी निःसंदेह मैं ही हूँ। इसे भगवान् शंकरके अतिरिक्त अन्य कोई भी व्यक्ति नहीं जानता। मैं अपनी योगमायासे सदा छिपा रहता हूँ, किंतु आपके तपसे मैं प्रकट हुआ हूँ।’

वसुधे ! उस समय सालङ्कायन मुनिको इस प्रकार वर देकर उनके देखते-ही-देखते मैं अन्तर्धान हो गया। उस वृक्षकी प्रदक्षिणा करके सालङ्कायन मुनि भी अपने आश्रमको चल पड़े।

वसुंधरे ! अब एक दूसरा महान् आश्चर्यपूर्ण स्थान बतलाता हूँ। यहाँ ‘शङ्खप्रभ’ नामसे प्रसिद्ध मेरा एक परम गुह्य क्षेत्र है। वहाँ द्वादशीके पर्वपर आधी रातमें शङ्खकी ध्वनि सुनायी देती है। उसी क्षेत्रके दक्षिण दिशामें ‘गदाकुण्ड’ नामसे विख्यात मेरा एक अन्य स्थान भी है, जहाँसे एक जल स्रोत प्रवाहित है वहाँ तीन दिनोंतक रहकर स्नान करनेकी विधि है। इसमें स्नान करनेवाला व्यक्ति वेदान्तवादी ब्राह्मणोंके समान फलभागी होता है। यदि श्रद्धालु एवं गुणवान् मनुष्य उस क्षेत्रमें प्राणका परित्याग करता है तो वह हाथमें गदा लिये हुए विशालकाय होकर मेरे लोकको प्राप्त करता है।

वसुंधरे ! यहीं ‘देवहद’ संज्ञावाला मेरा एक दूसरा क्षेत्र भी है। यह अगाध जलवाला श्रेष्ठ देव- सरोवर सुन्दर एवं शीतल जलसे सम्पन्न होकर सबको सुख पहुँचाता है। देवता भी उसके लिये तरसते हैं। पृथ्वी देवि ! वह हृद सदा जलसे परिपूर्ण रहता है। उसमें अनेक ऐसी मछलियाँ भी विचरण करती रहती हैं, जिनपर चक्रका चिह्न अङ्कित रहता है।

सुनयने! अब वहाँका एक दूसरा प्रसङ्ग बताता हूँ, उसे सुनो। वहाँ एक आश्चर्ययुक्त घटना निरन्तर घटती रहती है। मुझमें श्रद्धा रखनेवाला मानव ही इस अलौकिक आश्चर्यमय दृश्यको देख सकता है, पापी पुरुष उसे देखनेमें असमर्थ है। उस परम पवित्र देवहृदमें सूर्योदय के समय सुनहरे रंगके छत्तीस स्वर्णकमल दिखायी पड़ते हैं, जिन्हें सभी लोग मध्याह्न कालतक देखते हैं। उसमें स्नान करनेपर मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक मल धुल जाते हैं और वे शुद्ध होकर स्वर्ग चले जाते हैं। जो व्यक्ति दस दिनोंतक वहाँ निवास एवं स्नान करता है, उसे विधिपूर्वक अनुष्ठित दस अश्वमेध यज्ञोंका फल प्राप्त होता है। यदि मेरे चिन्तनमें संलग्र प्राणी वहाँ अपना प्राण त्याग करता है तो वह अश्वमेध यज्ञके फलको भोगकर मेरा सारूप्य मोक्ष प्राप्त करता है।

देवि! यहीं श्रीकृष्णके विग्रहसे ‘कृष्णगण्डकी’ का प्रादुर्भाव हुआ है। इसी प्रकार ‘त्रिशूलगङ्गा’ नामकी प्रसिद्ध विशाल नदी जो शिवके शरीरसे निकली है, वह भी यहीं है। इस प्रकार दोनों नदियोंके बीचका यह प्रदेश तीर्थ बन गया है। इस स्थानको ‘सर्वतीर्थकदम्बक’ कहते हैं । यहाँका कदली- वन शिववनकी सुषमा बढ़ाता है। निचुल, जायफल, नागकेसर, खजूर, अशोक, वकुल, आम्र, प्रियालक, नारियल, सोपारी, चम्पा, जामुन, धव, नारङ्गी, बेर, जम्बीर, मातुलुङ्ग, केतकी, मल्लिका (चमेली), यूथिका ( जूही ), कूई, कोरया, कुटन और अनार आदि अनेक फलों तथा फूलोंवाले वृक्षोंसे उसकी अनुपम शोभा होती रहती है। देवता लोग अपनी पत्नियोंके साथ वहाँ आकर आनन्दका अनुभव करते हैं। इस परम पुण्यमय सरोवरमें उन दो महान् नदियोंका सङ्गम है। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य सौ अश्वमेध यज्ञोंका फल प्राप्त करता है। वहाँ वैशाख मासमें स्नान करनेसे एक हजार गाय दान करनेका, माघ महीनेमें स्नान करनेका तथा प्रयागमें मकर स्नानका फल पा लेता है। कार्तिक मासमें सूर्य जब तुला राशिपर आ जायें, तब वहाँ विधिपूर्वक स्नान करनेवाला निश्चय ही मुक्तिफलका अधिकारी हो जाता है। देवि ! इस प्रकार यह हम लोगोंका ‘हरिहरात्मक’ क्षेत्र है। जो यहाँ शरीरका त्याग करते हैं, उन मेरे कर्मके अनुसरण करनेवाले व्यक्तियोंको उत्तम गति प्राप्त होती है। पहले ‘मुक्तिक्षेत्र’, तब ‘रुरुखण्ड’ फिर उन दोनों दिव्य स्थलोंसे निर्मित बहाव – प्रदेश और त्रिवेणी-सङ्गम- इन तीर्थोंमें उत्तरोत्तर क्रमशः एक-से-एक श्रेष्ठ माने जाते हैं। गण्डकीसे सङ्गम क्षेत्रको परम प्रमाण जानना चाहिये। देवि ! इस प्रकार नदियों में वह गण्डकी नदी सर्वश्रेष्ठ है। भागीरथी गङ्गासे वह जहाँ मिलती है, वहाँ स्नान करनेसे बहुत फल होता है। यह वही महान् क्षेत्र है, जिसे ‘हरिहर क्षेत्र’ कहते हैं। यहाँ पवित्र गण्डकी नदी भगवती भागीरथीसे मिलती है। इस तीर्थके महत्त्वको तो देवतालोग भी भलीभाँति नहीं जानते ।

भद्रे ! मैं तुमसे शालग्राम क्षेत्र* और सब पापोंको नष्ट करनेवाले गण्डकीके माहात्म्यका वर्णन कर चुका।

जो मानव प्रातः काल उठकर इसका सदा पाठ करता है, वह अपनी इक्कीस पीढ़ियोंको तार देता है। ऐसा मानव मृत्युके समय कभी मोहमें नहीं पड़ता। वह यदि परम सिद्धि चाहता है तो मेरे धाममें चला जाता है। महादेवि ! मैंने तुमसे शालग्राम क्षेत्रके इस श्रेष्ठ माहात्म्यका वर्णन कर दिया। अब तुम्हें अन्य कौन-सा प्रसङ्ग सुननेकी इच्छा है? कहो !

अध्याय १२३ रुरुक्षेत्र * एवं हृषीकेशके माहात्म्यका वर्णन

पृथ्वी बोली- प्रभो! आपने जो शालग्राम क्षेत्रके बहुत अद्भुत माहात्म्यका वर्णन किया, उसके श्रवण करनेसे मेरी चिन्ता शान्त हो गयी। अब मैं यह जानना चाहती हूँ कि ‘रुरु’ खण्डकी प्रसिद्धि कैसे हुई और वह उत्तम क्षेत्र आपका शुभ आश्रम कैसे बन गया ? जगन्नाथ! आप इसे मुझे बतानेकी कृपा करें।

 भगवान् वराह कहते हैं देवि ! पहले भृगुवंशमें देवदत्त नामके एक वेद-वेदाङ्गपारगामी विद्वान् ब्राह्मण रहते थे। वे अपने पवित्र आश्रममें रहकर दस हजार वर्षोंतक कठोर तपस्या करते रहे। इससे इन्द्रके मनमें महान् चिन्ता उत्पन्न हो गयी। अतः उन्होंने कामदेव, वसन्त ऋतु तथा गन्धर्वोके साथ प्रम्लोचा नामकी अप्सराको बुलाकर उनकी तपस्यामें विघ्न डालनेके लिये भेजा और वह अप्सरा इनके साथ मुनिवर देवदत्तके आश्रमपर चली गयी। वहाँ अनेक प्रकारकी लताएँ और वृक्ष पहलेसे ही उनके आश्रमकी शोभा बढ़ा रहे थे तथा कोकिलोंका समूह मधुर कूजन कर रहा था। आम्रकी मञ्जरियाँ, भौरोंका गुञ्जन, गन्धर्वोका संगीत, शीतल- मन्द- सुगन्धित वायु-ये एक से-एक रागोद्दीपक थे। अत्यन्त स्वच्छ सुगन्धित और मधुर जलसे सरोवर भरा था, जिसमें कमलोंका समुदाय खिला हुआ था। इसी समय उस परम सुन्दरी अप्सराने अत्यन्त मधुर संगीतका तान छेड़ा। इधर कामदेवने भी अपना पुष्पमय धनुष खींचा और उसपर वाणोंका संधान कर | शान्त चित्तवाले मुनिवर देवदत्तको अपना लक्ष्य बनाया रम्य आलापसे सम्पन्न उस सुमधुर संगीतको सुनकर उन उत्तम व्रती मुनिवर देवदत्तका चित्त विक्षुब्ध हो उठा। अब वे इधर-उधर देखते हुए आश्रममें घूमने लगे। इसी बीच सुन्दर अङ्गोंसे शोभा पानेवाली वह प्रम्लोचा भी उन्हें दीख गयी। उस समय वह गेंद उछाल रही थी। उसकी दृष्टि पड़ते ही मुनिवर देवदत्त कामदेवके वाणसे बिंध गये। उसी समय प्रम्लोचाके अङ्गोंपर मलयवायुका झोंका लगा, जिससे उसके वस्त्र भी खिसक गये। अब मुनि अपनेको सँभाल न सके। उन्होंने उससे पूछा – ‘ सुभगे ! तुम कौन हो तथा इस उपवनमें कैसे आयी हो ?’ अन्तमें उसकी सम्मतिसे उसके साथ रहते हुए उन्होंने अपने तपके प्रभावसे अनेक मनोहर भोगोंको भोगा। सुख भोगमें आसक्त होकर दिन-रात वे कभी सोते भी न थे। इस प्रकार बहुत दिन व्यतीत हो गये। एक दिनकी बात है, उनका विवेक जाग्रत् हुआ और वे अज्ञानरूपी नींदसे सहसा जाग उठे। वे कहने लगे- ‘अहो ! भगवान् श्रीहरिकी माया कैसी प्रबल है, जिसके प्रभावसे मैं भी मोहके गर्तमें डूब गया। यह जानते हुए भी कि इससे मेरी तपस्या नष्ट हो जायगी, प्रबल दैवके अधीन होनेके कारण मैंने यह कुत्सित कार्य कर डाला। ‘सुभाषित’ के नामसे यह प्रवाद प्रसिद्ध है कि नारी अग्निके कुण्ड जैसी है और पुरुष घृतके घड़े के समान, पर मेरी समझसे तो यह मूर्खोका प्रवादमात्र है। विचारकी दृष्टिसे देखा जाय तो वस्तुतः इनमें बड़ा अन्तर है। क्योंकि घीका घड़ा तो आगपर रखनेसे पिघलता है, न कि देखनेमात्रसे किंतु पुरुष तो स्त्रीको देखकर ही पिघल उठता है। तथापि इस स्त्रीका यहाँ कोई अपराध नहीं है; क्योंकि मैं स्वयं अपनी इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करनेमें असमर्थ था।’

इस प्रकार पश्चात्ताप करते हुए उन्होंने प्रम्लोचाको वहाँसे विदा कर दिया। फिर वे सोचने लगे- ‘इस स्थानमें यह विघ्न हुआ, अतः मैं अब इस आश्रमका परित्यागकर कहीं अन्यत्र चलूँ और वहाँ तीव्र तपस्याका आश्रय लेकर इस शरीरको सुखा दूँ। इस प्रकार निश्चय कर वे भृगुमुनिके आश्रमपर गये और वहाँ गण्डकी नदीके सङ्गममें स्नानकर देवताओं और पितरोंका उन्होंने तर्पण किया एवं भगवान् विष्णु और शिवकी भलीभाँति पूजा की। फिर वे भगवान् शंकरके दर्शनकी अभिलाषासे गण्डकी तटपर स्थित भृगुतुङ्ग * पर कठोर तपस्या करने लगे। इस प्रकार बहुत दिन बीतनेपर भगवान् शंकर उन मुनिपर संतुष्ट हुए । उनके लिङ्गरूपमें सहसा ऊपर एवं नीचेसे जलकी तिरछी धाराएँ निकलने लगीं। फिर वे बोले- ‘मुने! इधर मुझे देखो, मैं शिव हूँ। तुम्हें जानना चाहिये कि विष्णु भी मैं ही हूँ। हम दोनोंमें तत्त्वतः कोई भेद नहीं है। इसके पूर्वके तपमें तुम्हारी मुझमें और विष्णुमें भेद-दृष्टि थी, अतः तुम्हें विघ्नोंका सामना करना पड़ा तथा तुम्हारी महान् तपस्या क्षीण हो गयी। अब तुम हम दोनोंको समानभावसे ही देखो। इससे तुम्हें फिर शीघ्र ही सिद्धि सुलभ हो जायगी । जहाँ तुमने तपस्या की है और अनेकों शिवलिङ्गोंका प्राकट्य हुआ है, यह स्थान ‘सङ्गम’ नामसे प्रसिद्ध होगा। इस गण्डकी – तीर्थमें स्नान करके जो यहाँ मेरे इन लिङ्गोंकी पूजा करेगा, उसे सम्यक् प्रकारसे योगका उत्तम फल प्राप्त हो जायगा, इसमें कोई संदेह नहीं।’ मुनिको वर देकर भगवान् शंकर वहीं अन्तर्धान हो गये और वे उनके बताये मार्गका अनुसरण करने लगे। अतः वे परम सायुज्य पदको प्राप्त हुए।

इधर मुनिके सम्पर्कसे प्रम्लोचा भी गर्भवती हो गयी थी। आश्रमके पास ही उससे एक कन्या उत्पन्न हुई, जिसे वहीं छोड़कर वह स्वर्गलोकमें चली गयी। उससे उत्पन्न हुई कन्या भी ‘रुरु’ नामक मृगोंद्वारा पालित होकर धीरे-धीरे बड़ी हुई, अतः उसका नाम भी ‘रुरु” हुआ। वह अपने पिता देवदत्तके आश्रमपर ही रहती, अनेक युवक उसे अपनी पत्नी बनाना चाहते, किंतु उसने किसीकी भी बात न मानी और भगवान् विष्णुकी प्रसन्नताके लिये तपस्या करने लगी। वह कठोर तप करती हुई केवल सूखे पत्ते खाकर रहती और बादमें पत्ते खाना भी छोड़कर केवल वायुके आहारपर रहती हुई वह भगवान् श्रीहरिकी आराधनामें तत्पर हो गयी। इस प्रकार सौ वर्षोंतक द्वन्द्वोंको सहती हुई निश्चलभावसे भगवद्ध्यानमें समाधिस्थ होकर स्थाणु (ठूंठ) के समान निश्चल रहने लगी। अब उसके शरीरके दिव्य प्रकाशसे सारा संसार व्याप्त हो गया।

अब मैं उसके सामने प्रत्यक्ष हुआ । नियन्त्रित इन्द्रियोंवाली उस कन्याके सामने स्वयं मैं नियन्त्रित रूपसे प्रकट हुआ, अतः तबसे मैं ‘हृषीकेश’ नामसे यहाँ स्थित हुआ। फिर मैंने उससे कहा—‘बाले! तुम्हारी इस उत्तम तपस्यासे मैं पूर्ण संतुष्ट हूँ। तुम्हारे मनमें जो कुछ बात हो, वह मुझसे वररूपमें माँग लो। अन्य किन्हीं व्यक्तियोंके लिये जो अत्यन्त दुर्लभ है, ऐसा अदेय वर भी मैं तुम्हें इस समय देनेके लिये तत्पर हूँ।’

तब ‘रुरु’ नामकी उस दिव्य कन्याने मुझ श्रीहरिकी बारंबार प्रणाम-स्तुति की और कहा- ‘जगत्पते ! आप यदि मुझे वर देना चाहते हैं तो देवाधिदेव ! आप इसी रूपसे यहाँ विराजनेकी कृपा कीजिये।’ तब मैंने उससे कहा- ‘बाले ! तुम्हारा कल्याण हो। मैं तो यहीं हूँ, अब तुम मुझसे कोई अन्य वर भी माँग लो।’ इसपर उसने मुझे प्रणाम कर कहा – ‘देवेश! आप यदि मुझपर प्रसन्न हैं तो आप ऐसी कृपा करें कि यह क्षेत्र मेरे ही नामसे प्रसिद्ध हो जाय – इसके अतिरिक्त मेरी अन्य कोई अभिलाषा नहीं है।’ सुभगे ! तब मैंने कहा – ‘ देवि ! ऐसा ही होगा, तुम्हारा यह शरीर सर्वोत्तम तीर्थ होगा और यह समस्त क्षेत्र भी तुम्हारे ही नामसे विख्यात होगा। साथ ही जो मनुष्य इस तीर्थमें तीन रातोंतक निवास एवं स्नान करेगा, वह मेरे दर्शनसे पवित्र हो जायगा- इसमें कोई संशय नहीं। उसके जाने-अनजाने किये गये सभी पाप नष्ट हो जायेंगे- इसमें कोई संदेह नहीं । ‘

देवि ! इस प्रकार ‘रुरु’को वर देकर मैं वहीं अन्तर्धान हो गया और वह भी समयानुसार पवित्र तीर्थ बन गयी ।

अध्याय १२४ 'गोनिष्क्रमण' - तीर्थ और उसका माहात्म्य

धरणीने कहा भगवन्! आपकी कृपासे मैंने रुरुक्षेत्र हृषीकेशकी महिमाका वर्णन सुना। देवेश ! अब जो अन्य पावन क्षेत्र हैं, उन्हें बताने की कृपा कीजिये ।

भगवान् वराह कहते हैं-देवि ! हिमालय पर्वतके शिखरपर मेरा एक क्षेत्र है, जिसका नाम है – ‘गोनिष्क्रमण’, जहाँ पहले सुरभी आदि गौएँ समुद्रसे तैरकर बाहर निकली थीं। बहुत पहले ‘और्वनाम’ से प्रसिद्ध एक प्रजापति थे, जिन्होंने यहाँ दीर्घ कालतक निष्कामभावसे तपस्या की थी।

वसुंधरे ! कुछ दिनोंके बाद जिस ऊँचे पर्वतपर वे तपस्या कर रहे थे, फलों एवं फूलोंसे परिपूर्ण लक्ष्मी भी वहाँ प्रकट हो गयीं। अतः वहाँ कुछ और तपस्वी ब्राह्मण आ गये। इसी समय कहींसे घूमते हुए वहाँ महान् तेजस्वी भगवान् शंकर भी आ गये। एक बार और्वमुनि जब कुछ कमलपुष्पोंके लिये हरिद्वार गये थे कि महादेवने अपने उग्र तेजसे और्वमुनिके उस प्रिय आश्रमको भस्म कर दिया और फिर वहाँसे यथाशीघ्र अपने वासस्थान हिमालयपर चले गये।

देवि ! ठीक उसी समय मुनिवर और्व पत्र – पुष्पकी टोकरी लिये हरिद्वारसे अपने उस आश्रमपर आ गये । यद्यपि मुनि शान्त एवं मृदु स्वभावके क्षमाशील एवं सत्यव्रतमें तत्पर रहनेवाले थे, तथापि प्रभूत फूलों, फलों एवं जलोंसे सम्पन्न उस आश्रमको दग्ध हुआ देखकर वे क्रोधसे भर गये । दुःखके कारण उनकी आँखें डबडबा गयीं और क्रोधसे भरकर उन्होंने यह शाप दिया— प्रचुर फूलों, फलों और उदकोंसे सम्पन्न मेरे इस आश्रमको जिसने जलाया है, वह भी दुःखसे संतप्त होकर सारे संसारमें भटकता फिरेगा फलतः भगवान् शंकर समस्त संसारके स्वामी होते हुए भी उसी क्षण व्याकुल हो उठे और उन्होंने उमा देवीसे कहा- ‘प्रिये! और्वमुनिकीकठिन तपस्या देखकर देवसमुदायके हृदयमें आतङ्क छा गया था। इसलिये मुझसे उन्होंने प्रार्थना की कि ‘भगवन्! अखिल जगत् जल रहा है। फिर भी वे (और्व ) इससे बचानेके लिये कोई चेष्टा नहीं करते। हमारी प्रार्थना है कि आप उसके निवारणके लिये कोई ऐसा उपाय कीजिये, जिससे सबकी सुरक्षा हो सके।’ जब देवताओंने मुझसे इस प्रकार कहा, तब मैंने और्वके आश्रमपर तृतीय नेत्रकी दृष्टि डाल दी, अतः उनका वह आश्रम भस्म हो गया। हमलोग तो वहाँसे बाहर निकल गये; किंतु आश्रमके जलनेसे और्वको महान् दुःख तथा संताप हुआ।

शिवे! वे क्रोधसे भर उठे हैं और अब उनके रोषयुक्त शापसे हमारे मनमें भी बड़ी व्यथा हो रही है।’

वसुंधरे ! फिर महाभाग शम्भुने अशान्त होकर इधर-उधर भ्रमण करना आरम्भ किया; किंतु किसी क्षण वे शान्त न रह सके। मैं भी उनके आत्मा होनेसे उस समय उनके दुःखसे दुःखी और संतप्त होकर निश्चेष्ट सा हो गया। इधर पार्वतीने भगवान् शंकरसे कहा- ‘अब हमलोग भगवान् नारायणके पास चलें। सम्भव है, उनकी वाणी और परामर्शसे हमें शान्ति मिल जाय। अथवा भगवान् नारायणको साथ ले फिर हम सभी और्वके पास चलें और उनसे प्रार्थना करें कि आपने जो शाप दिया है, उसे वापस कर लें; क्योंकि इससे हम सभी जल रहे हैं।’

देवि ! फिर उस समय इस प्रकारके सभी प्रयत्न किये गये, किंतु और्वने उत्तर दिया- ‘मेरी बात कभी भी मिथ्या नहीं हो सकती। हाँ, मैं उपाय बतला सकता हूँ, सुरभि गायोंको लेकर आप लोग वहाँ जायँ और ये गौएँ अपने दूधसे रुद्रको स्नान करायें तो निश्चय ही इस शापसे आप सब छूट जायेंगे, इसमें संदेह नहीं।’

कल्याणि ! उस अवसरपर मैंने महान् शक्तिशालिनी सतहत्तर सुरभि गायोंको स्वर्गसे नीचे उतारा और उनके दूधसे सिक्त हो जानेपर रुद्र एवं अन्य सबोंकी जलन भी सदाके लिये शान्त हो गयी। तबसे उस स्थानका नाम ‘गोनिष्क्रमण’ तीर्थ हो गया। जो मनुष्य वहाँ एक रात भी निवास एवं स्नान करता है, वह ‘गोलोक’ में जाकर आनन्दका उपभोग करता है। उत्तम धर्मके आचरण करनेके पश्चात् यदि उसकी वहाँ (गोनिष्क्रमण – तीर्थमें) मृत्यु होती है तो वह शङ्ख, चक्र एवं गदासे सम्पन्न होकर मेरे लोकमें प्रतिष्ठा पाता है।

यहाँ गौओंके मुखसे निकला हुआ एक अत्यन्त श्रुति-सुखद शब्द सुनायी पड़ता है। एक बार ज्येष्ठ मासके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिको मैंने स्वयं ऐसा सुसंस्कृत शब्द सुना था, अतः इसमें कोई संदेह नहीं करना चाहिये। ऐसा ही गोस्थलक नामका एक परम पवित्र क्षेत्र है। वहाँ मुझमें श्रद्धा रखनेवाले पवित्रात्मा पुरुषको शुभ कर्म करना चाहिये। उसके प्रभावसे वह पापोंसे यथाशीघ्र छूट जाता है। महाभागे ! जिस समय शंकरको और्वमुनिका शाप लगा था और वे उससे जल रहे थे, तब वे मरुद्रणोंके साथ वहाँ गये तथा शापसे उनकी मुक्ति हो गयी, इसीसे इस क्षेत्रकी ऐसी महिमा है। यह ‘गोस्थलक’ नामवाला क्षेत्र परम श्रेष्ठ एवं सब प्रकारसे शान्ति प्रदान करनेवाला है।

महाभागे ! यह प्रसङ्ग सम्पूर्ण मङ्गलोंको प्रदान करनेवाला और मेरे मार्गका अनुसरण करनेवाले भक्तोंमें श्रद्धाकी वृद्धि करनेवाला है। यह श्रेष्ठोंमें परम श्रेष्ठ, मङ्गलोंमें परम मङ्गल, लाभोंमें परम लाभ और धर्मोंमें उत्तम धर्म है। यशस्विनि ! मेरे निर्दिष्ट पथके पथिक पुरुष इसका पाठ करनेके प्रभावसे तेज, शोभा, लक्ष्मी तथा सब मनोरथोंको प्राप्त कर लेते हैं। मनस्विनि ! इसके पाठक इस अध्यायमें जितने अक्षर हैं, उतने वर्षोंतक मेरे धाममें सुशोभित होते हैं। प्रतिदिन इसे पढ़नेवाले मानवका कभी पतन नहीं होता और उसकी इक्कीस पीढ़ियाँ तर जाती हैं। निन्दक, मूर्ख और| दुष्टोंके सामने इसका प्रवचन नहीं करना चाहिये ।

इसके स्वाध्याय करनेकी योग्यतावाले पुत्र या शिष्यको ही इसे सुनाना चाहिये। वसुंधरे ! पाँच योजनके विस्तारवाले इस क्षेत्रसे मेरा अतिशय प्रेम है। अतएव मैं यहाँ सदा निवास करता हूँ। यहाँ गङ्गाकी धारा पूर्व दिशासे होकर पश्चिम दिशामें विपरीत बहती है। ऐसे गुह्य रहस्यकी जानकारी सभी सत्कर्मोंमें सुख प्रदान करती है। महाभागे ! यही वह गुप्त क्षेत्र है, जिसके विषयमें तुमने पूछा था।

अध्याय १२५ स्तुतस्वामीका माहात्म्य

पृथ्वी बोली – जगत्प्रभो ! गौओंकी महिमाबड़ी विचित्र है। इसे सुनकर मेरी सम्पूर्ण शङ्काएँ शान्त हो गयीं। नारायण ! ऐसे ही अन्य भी कुछ गुप्त तीर्थोंको बतानेकी कृपा कीजिये। प्रभो! यदि इस क्षेत्रसे भी कोई विशिष्ट श्रेष्ठ क्षेत्र हो तो उसे भी सुनाइये।

 भगवान् वराह कहते हैं- महाभागे ! अब मैं तुम्हें एक दूसरा क्षेत्र बताता हूँ, जिसका नाम है ‘स्तुतस्वामी’ । सुन्दरि ! द्वापरयुग आनेपर मैं वहाँ निवास करूँगा । उस समय श्रीवसुदेवजी मेरे पिता होंगे और देवकी माता; कृष्ण मेरा नाम होगा और उस समय मैं सभी असुरोंका संहार करूँगा। उस समय मेरे पाँच – शाण्डिल्य, जाजलि, कपिल, उपसायक और भृगु नामक धर्मनिष्ठ शिष्य होंगे और मैं वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध- इन चार रूपोंमें सदा प्रत्यक्ष रहूँगा । उस समय कुछ लोग इस चतुर्व्यूहकी उपासनासे, कुछ ज्ञानके प्रभावसे और कुछ व्यक्ति सत्कर्ममें परायण रहकर मुक्त होंगे। सुश्रोणि! कितनोंको तो इच्छानुसार किया हुआ यज्ञ तथा बहुतोंको कर्मयोग इस संसारसे तार देता है। कुछ सज्जन योगका फल भोगकर मुझमें स्थित संसारको देखते हैं। मुझमें विधिपूर्वक निष्ठा रखनेवाले कितने मनुष्य सब जीवोंमें मेरा ही रूप देखते हैं। भूमे ! बहुत से पुरुष अखिल धर्मोका आचरण करते, सब कुछ भोजन कर लेते और सभी पदार्थोंका विक्रय भी करते हैं, तब भी यदि उनका चित्त मुझमें एकाग्र रहा और वे उचित व्यवस्थामें लगे रहे तो उन्हें मेरा दर्शन सुलभ हो जाता है।

देवि ! यह वराहपुराण संसारसे उद्धार करनेके लिये परम साधन एवं महान् शास्त्र है। मेरे भक्तोंकी व्यवस्था ठीक रूपसे चल सके, इसलिये मैंने इस परम प्रिय प्रयोगका वर्णन किया है। शाण्डिल्यप्रभृति मेरे वे शिष्य इच्छानुसार इन साधनोंका प्रचार (प्रवचन) करेंगे।

मेरे इस ‘स्तुतस्वामी’ क्षेत्रसे लगभग पाँच कोसकी दूरीपर पश्चिम दिशामें एक कुण्ड है। उसका जल मुझे बहुत प्रिय लगता है। उस अगाध जलवाले सरोवरका पानी स्वर्ण अथवा मरकतमणिके समान चमकता है। मेरे इस सरोवरमें पाँच दिनोंतक स्नान करनेसे मनुष्यके सभी पाप धुल जाते हैं। इसके समीप ही ‘धूतपाप’ नामक तीर्थ है, जो मणिपूरगिरिके ऊपर है। वहाँ निवास करनेवाले प्राणीपर तबतक जल धारा नहीं गिरती, जबतक उसके सभी पाप समाप्त न हो जायँ यह बड़े आश्चर्यकी बात है। सुश्रोणि ! सम्पूर्ण पापोंके नष्ट हो जानेपर ही प्राणीपर जलधारा वहाँ गिरती है। ऐसे ही वहाँ एक पीपलका वृक्ष भी है।

(बद्रीनाथ नाथ से 8 कि०मी० दूर भारतवर्ष के अंतिम “माना गॉव” है; जिसके अन्तर्गत वसु-धारा नाम की स्थल हैं वहा यह झरना हैं )

पृथ्वी बोली- ‘भगवन्! आप ही ‘स्तुतस्वामी’ हैं, मैंने ऐसी बात सुनी है। अब इस ‘स्तुतस्वामी’ नामसे आपका अभिप्राय क्या है? इसे बतानेकी कृपा कीजिये ।

भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! जब मैं ‘मणिपूर’ नामक स्थानपर था, उस समय मन्त्रोंके प्रवचन करनेवाले ब्रह्मा आदि बहुत से देवतालोग मेरी स्तुति करने लगे। परम सौभाग्यवती देवि ! इसी कारण नारद, असित, देवल तथा पर्वत नामवाले मुनिगणोंने भक्तिसे सम्पन्न होकर उस समय उस ‘मणिपूर’ पर्वतपर मेरा नाम ‘स्तुतस्वामी’ रखा तबसे मेरे सत्कर्मसे सम्बन्धित मेरा यह ‘स्तुतस्वामी’ नाम विख्यात हुआ।

भद्रे ! मैंने तुमसे अखिल धर्मोको आश्रय देनेवाला यह ‘श्रीस्तुतस्वामीका माहात्म्य’ बतलाया। अब तुम दूसरा कौन प्रसङ्ग पूछना चाहती हो, यह बतलाओ ।

अध्याय १२६ द्वारका-माहात्म्य

पृथ्वी बोली- भगवन्! देवेश्वर! आपकी कृपासे ‘स्तुतस्वामी’ का माहात्म्य सुननेका सौभाग्य मिला है। कृपानिधे! अब इन स्तुतस्वामीके गुण एवं माहात्म्य मुझे सुनानेकी कृपा करें।

भगवान् वराह कहते हैं देवि ! द्वापरयुगमें यादवोंके कुलमें कुलोद्धारक ‘शौरि वसुदेव’ नामसे मेरे पिता होंगे। उस समय विश्वकर्माद्वारा निर्मित दिव्य पुरी द्वारकामें मैं पाँच सौ वर्षोंतक निवास करूँगा। उन्हीं दिनों दुर्वासा नामसे विख्यात एक ऋषि होंगे, जो मेरे कुलको शाप दे देंगे। पृथ्वि ! उन ऋषिके शापसे संतप्त होनेके कारण वृष्णि, अन्धक एवं भोज – कुलके सभी व्यक्तियोंका संहार हो जायगा । उसी समय जाम्बवती नामवाली मेरी एक प्रिय पत्नी होगी। वह मेरे सुखकी साधिका बनेगी। उससे एक महान् भाग्यशाली पुत्रका जन्म होगा। रूप एवं यौवनका गर्व करनेवाला मेरा वह परम सुन्दर पुत्र साम्ब नामसे विख्यात होगा, जो मुझे प्रिय होगा।

अब मैं वैष्णव पुरुषोंको सुख प्रदान करनेवाले द्वारकाके स्थानोंका वर्णन करता हूँ, सुनो। ‘पञ्चसर’ नामसे विख्यात मेरा एक गुह्य क्षेत्र है। समुद्रके तटसे कुछ दूर जाकर मेरे कर्ममें (भक्तिमें) संलग्न मानवको सुखी बनानेवाले उस क्षेत्रमें छः दिनोंतक निवासकर स्नान करना चाहिये। इसके फलस्वरूप स्नान करनेवाला मनुष्य अप्सराओंसे भरे हुए स्वर्गलोकमें आनन्दका उपभोग करता है। उस ‘पञ्चसर’ धाममें प्राण त्याग करनेवाला मनुष्य मेरे लोक ( वैकुण्ठ) में प्रतिष्ठा पाता है। वहीं समुद्रमें मकरकी आकृतिवाला एक स्थान है, जहाँ अनेक मगरमच्छ इधर-उधर घूमते हुए दिखलायी पड़ते हैं, पर जलमें स्नान करनेवाले व्यक्तियोंके प्रति वे कुछ भी अपराध नहीं करते। मानव उस विमल जलमें जब पिण्डोंको फेंकते हैं तो उन्हें दूर रहनेपर भी वे झपटकर ले लेते हैं, परंतु बिना दिये वे उन्हें नहीं लेते। इसी प्रकार यदि कोई पापी मनुष्य जलमें पिण्ड देता है तो उसे वे नहीं लेते, किंतु धर्मात्मा पुरुषोंके फेंके हुए पिण्डोंको वे ग्रहण कर लेते हैं।

देवि ! मेरे इस द्वारकाक्षेत्रमें ‘पञ्चपिण्ड’ नामसे प्रसिद्ध एक गुह्य स्थान है, उसमें अगाध जल है। उसे पार करना सभी के लिये कठिन है। वह एक कोसके विस्तारमें फैला है। मनुष्य पाँच रात वहाँ रहकर मेरा अभिषेक करे। इससे वह इन्द्रके लोकमें निःसंदेह आनन्द भोगता है। यशस्विनि यदि वहाँ उसके प्राण शरीरसे निकल गये तो फिर वह वहाँसे मेरे धाममें पहुँच जाता है। उसी द्वारकाक्षेत्रमें हंसकुण्ड – नामसे विख्यात एक तीर्थ है, जहाँ ‘मणिपूर’ पर्वतसे होकर एक जलकी धारा गिरती है। उस तीर्थमें छः दिनोंतक रहकर स्नान करनेकी बड़ी महिमा है। महाभागे ! इसमें स्नान करनेवाला व्यक्ति आसक्तिरहित होकर वरुणलोकमें आनन्द प्राप्त करता है। वरानने! यदि उस ‘हंसतीर्थ’ में वह अपने पाञ्चभौतिक शरीरका त्याग करता है तो वरुणलोकका परित्याग कर मेरे लोकमें पहुँचकर प्रतिष्ठा पाता है। उसी प्रसिद्ध द्वारकाक्षेत्रमें ‘कदम्ब’ नामसे प्रसिद्ध एक स्थान है। यह वह स्थान है, जहाँ वृष्णिकुलके शुद्ध व्यक्ति मेरे धाम सिधारे थे। मनुष्यको चाहिये कि चार राततक वहाँ निवास करके मेरा अभिषेक करे। ऐसा करनेसे वह पुण्यात्मा पुरुष निःसंदेह ऋषियोंके लोकोंको प्राप्त कर लेता है।

वसुंधरे ! मेरे उसी द्वारकाक्षेत्रमें ‘चक्रतीर्थ’ नामसे प्रसिद्ध एक श्रेष्ठ स्थान है। वहाँ मणिपूर पर्वतसे होती हुई जलकी पाँच धाराएँ गिरती हैं। पाँच दिनोंतक वहाँ रहकर अभिषेक करनेवाला मनुष्य दस हजार वर्षोंतक स्वर्गमें सुख भोगता है। लोभ और मोहसे मुक्त होकर मानव यदि वहाँ प्राण छोड़ता है तो सम्पूर्ण आसक्तियोंका परित्याग कर वह मेरे धाममें चला जाता है। उसी द्वारकाक्षेत्र में एक रैवतक’ नामका तीर्थ है, जहाँ मैं लीला करता हूँ, वह स्थान समस्त लोकोंमें प्रसिद्ध है। बहुत सी लताएँ, वल्लरियाँ और फूल उसकी छवि छिटकाते रहते हैं। उसके दसों दिशाओंमें अनेक वर्णवाले पत्थर तथा गुहाएँ हैं और वह वापियों तथा कन्दराओंसे भी युक्त है तथा देवसमुदायके लिये भी दुर्लभ है। मनुष्यको छः दिनोंतक वहाँ रहकर अभिषेक करना चाहिये। फिर तो वह कृतकृत्य होकर निश्चय ही चन्द्रमाके लोकमें चला जाता है। मेरी पूजामें निरत वह पुरुष यदि वहाँ प्राणोंका त्याग करता है तो उस लोकसे मेरे धाममें निवास करने चला जाता है। महाभागे ! वहाँकी भी एक अलौकिक बात बतलाता हूँ, सुनो धर्मके अभिलाषी प्रायः सभी पुरुष वह दृश्य देख सकते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। वहाँ सम्पूर्ण वृक्षोंके बहुत से पत्ते गिरते हैं, किंतु एक भी पत्ता किसीको दिखायी नहीं पड़ता। सभी पत्ते विमल जलमें चले जाते हैं। एक विशाल वृक्ष मेरे पूर्वभागमें है तथा इसके अतिरिक्त कुछ वृक्ष मेरे पार्श्वभागमें हैं। देवतालोग भी इन वृक्षोंका दर्शन करनेमें असमर्थ हैं। पाँच कोसका विस्तारवाला वह स्थान तथा महान् वृक्ष- ये दोनों अत्यन्त शोभनीय हैं। सुन्दर गन्धवाले पद्म एवं उत्पल उसे चारों ओरसे घेरे हुए हैं। बहुत-सी मछलियाँ और जलोंसे पूर्ण तालाब भी उसके सभी भागों में हैं। मनुष्यको आठ दिनोंतक वहाँ रहकर अभिषेक करना चाहिये। इसमें स्नान करनेवाला अप्सराओंसे युक्त दिव्य नन्दनवनमें विहार करता है।

वसुंधरे ! मेरे इस द्वारका- क्षेत्रमें ‘विष्णुसंक्रम’ नामका एक स्थान है, जहाँ ‘जरा’ नामक व्याधने मुझे अपने वाणसे मारा था। मैंने वहाँ पुनः अपनी मूर्तिकी स्थापना कर दी है। महाभागे ! वहाँ एक कुण्ड भी है। यह स्थान ‘मणिपूर पर्वत’ पर है, ऐसा सुना जाता है। वहाँ जलकी एक धारा गिरती है।

लाभ एवं हानिसे निश्चिन्त होकर वहाँ निवास करनेवाला मनुष्य सूर्यलोकका उल्लङ्घन कर मेरे लोकमें प्रतिष्ठा पाता है।

देवि! दसों दिशाओंमें चारों ओर फैला हुआ यह मेरा ‘द्वारकाक्षेत्र’ तीस योजनके प्रमाणमें है । वरारोहे! वहाँ जो पुण्यात्मा मनुष्य मेरा भक्तिपूर्वक दर्शन करेंगे, उन्हें बहुत शीघ्र ही परम गति प्राप्त हो जायगी। यह प्रसङ्ग आख्यानोंमें महान् आख्यान, शान्तियोंमें परम शान्ति, धर्मोमें परम धर्म, घुतियोंमें परम द्युति, लाभोंमें परम लाभ, क्रियाओंमें परम क्रिया, श्रुतियोंमें परम श्रुति तथा तपस्याओंमें परम तपस्या है।

भद्रे ! जो मानव प्रातः काल उठकर इसका अध्ययन करता है, वह अपने कुलकी इक्कीस पीढ़ियोंको तार देता है। देवि ! द्वारकाक्षेत्रके इस पुनीत प्रसङ्गको मैंने तुम्हें सुना दिया। अब उचित एवं लोकोपकारी अन्य कोई प्रसङ्ग तुम पूछना चाहती हो तो पूछो !

अध्याय १२७ सानन्दूर-माहात्म्य

पृथ्वी बोली- प्रभो! आपने कृपापूर्वक मुझे द्वारका-माहात्म्यका वर्णन सुनाया। इस परम पवित्र विषयको सुननेसे मैं कृतकृत्य हो गयी। जगत्प्रभो ! यदि इससे भी अधिक कोई गुह्य प्रसङ्ग हो तो वह भी मैं सुनना चाहती हूँ। जनार्दन ! यदि मुझपर आपकी अपार दया हो तो वह भी कहनेकी कृपा कीजिये ।

भगवान् वराह कहते हैं- देवि ! ‘सानन्दूर’ नामसे प्रसिद्ध मेरा एक परम गुप्त निवासस्थल है। यह क्षेत्र समुद्रसे उत्तर और मलयगिरिसे दक्षिणकी ओर है। वहाँ मेरी एक मध्यम प्रमाणकी अत्यन्त आश्चर्यमयी प्रतिमा है। जिसे कुछ लोग लोहेकी, कुछ लोग ताँबेकी और कितने व्यक्ति कांस्य (काँसा ) धातुसे निर्मित समझते हैं तथा कुछ लोग कहते हैं कि यह सीसेकी बनी है। मेरी उस प्रतिमाको अन्य व्यक्ति प्रस्तरकी बनी हुई भी कहते हैं। भूमे ! अब वहाँके स्थानोंका वर्णन करता हूँ, सुनो। यशस्विनि! इस ‘सानन्दूर’ नामक मेरे क्षेत्रकी ऐसी महिमा है कि वहाँ जानेवाले मानव संसार सागरसे पार हो जाते हैं।

वरानने! ‘सानन्दूर’ क्षेत्रमें संगमन नामका एक मेरा परम उत्तम गुह्य क्षेत्र है। प्रिये ! रामसर और समुद्रके समागमका वह स्थान है। महाभागे ! वहाँ स्वच्छ जलवाला एक कुण्ड है। बहुत-सी वल्लरियों, लताओं और पक्षियोंसे उसकी विचित्र शोभा होती है। समुद्रके संनिकटमें ही कुछ योजन दूरीपर वह स्थान है। अनेक सुगन्धित उत्तम कुमुद एवं कमलके पुष्प उसकी सदा मनोहरता बढ़ाते रहते हैं। मनुष्यको चाहिये कि वहाँ छः दिनोंतक निवास एवं अवगाहन करे । इसके प्रभावसे वह कुछ समय समुद्रके भवनमें रहकर मेरे धाममें चला जाता है।

सुमध्यमे ! सानन्दूर क्षेत्रमें ‘शक्रसर’ नामसे विख्यात मेरा एक परम गुह्य क्षेत्र है। वहाँसे पूर्व- भागमें कुछ योजनकी दूरीपर वह स्थान है। उस कुण्डके मध्यभागमें विषमरूपसे जलकी चार धाराएँ गिरती हैं। कल्याणि ! उन धाराओंके जल अत्यन्त निर्मल होते हैं। चार दिनोंतक रहकर वहाँ मनुष्यकों स्नान करना चाहिये । इस पुण्यसे वह चार लोकपालोंके उत्तम नगरोंमें जानेका अधिकारी होता है। वहाँके तालाबका नाम ‘शक्रसर’ है। यदि वहाँ कोई व्यक्ति प्राण परित्याग करता है। तो वह लोकपालोंका स्थान छोड़कर मेरे धाममें आनन्दपूर्वक निवास करता है। महाभागे ! वहाँ जो आश्चर्य की बात देखी जाती है, उसे कहता हूँ, सुनो। भूमे ! जिनका अन्तःकरण पवित्र है तथा जो मुझमें श्रद्धा रखते हैं, वे ही उस दृश्यको देख पाते हैं। उस दृश्यके प्रभावसे संसार सागरसे पुरुषोंका उद्धार हो जाता है। भद्रे ! वहाँ चारों दिशाओंसे जलकी चार धाराएँ गिरती हैं । वहाँका गिरा हुआ जल न अधिक बढ़ता है और न कम ही होता है, उसकी स्थिति सदा समान बनी रहती है। भाद्रपद मासके शुक्ल पक्षकी द्वादशी तिथिके पुण्य पर्वपर कानोंको मनोहर सुनायी पड़नेवाला उत्तम गीत वहाँ उच्चरित होता रहता है।

वसुंधरे ! शूर्पारक नामसे प्रसिद्ध मेरा एक परम पवित्र एवं गुह्य क्षेत्र है, जो परशुराम और श्रीरामके आश्रमोंसे सुशोभित है। देवि ! वह पावन स्थल समुद्रके तटपर है। मैं वहाँ शाल्मली वृक्षके नीचे निवास करता हूँ। वहाँ पाँच दिनोंतक रहकर मनुष्यको स्नान करना चाहिये। इसके फलस्वरूप मनुष्य ऋषिलोकमें जाकर अरुन्धतीका दर्शन कर सकता है। यदि मेरे शुद्ध सत्कर्ममें स्थानोंमें संलग्न रहता हुआ वह पुरुष अपने प्राणोंका त्याग करता है, तो ऋषिलोकको छोड़कर मेरे स्थानमें पहुँच जाता है। महाभागे ! इसकी एक आश्चर्यमयी बात यह है कि यहाँ जो मुझे एक बार प्रणाम करता है, वह बारह वर्षोंतक किये गये नमस्कारके फलका भागी हो जाता है। इस शूर्पारक * क्षेत्रमें निष्ठावान् पुरुष ही मेरा दर्शन कर पाते हैं, मायासे मोहित व्यक्ति मुझे नहीं देख पाते।

महाभागे ! इसी ‘सानन्दूर क्षेत्रमें मेरा एक परम गुप्त स्थान है। वायव्य (पश्चिम और उत्तरके) कोणमें विराजमान उस क्षेत्रका नाम ‘जटाकुण्ड’ है। प्रिये! चारों ओर वह दस योजनतक फैला है। यह स्थान मलयाचलके दक्षिण और समुद्रके उत्तर भागमें है। यहाँ रहकर मानवको पाँच दिनोंतक स्नान करना चाहिये। इसके फलस्वरूप वह व्यक्ति अगस्त्यमुनिके आश्रममें जाकर निश्चय ही आनन्दपूर्वक निवास कर सकता है। यदि मेरा चिन्तन करता हुआ मानव वहाँ प्राण विसर्जन करता है तो वह उस स्थानको छोड़कर मेरे लोकमें जानेका पूर्ण अधिकारी बन जाता है। सुश्रोणि! उस कुण्डकी नौ जलकी धाराएँ हैं।

भद्रे! यह ‘सानन्दूर’ क्षेत्रकी महिमाका मैंने वर्णन किया। इसे सुननेसे भगवान् श्रीहरिमें भक्ति और श्रद्धा बढ़ती है। यह क्षेत्र गुह्योंमें परम गुह्य और सर्वोत्तम स्थान है। सुश्रोणि ! नौ प्रकारकी भक्तियोंमें संलग्न जो व्यक्ति इस ‘सानन्दूर’ क्षेत्रमें जाता है, उसे मेरे कथनानुसार परम सिद्धि प्राप्त हो जाती है। जो मनुष्य प्रतिदिन प्रसन्नताके साथ इसे पढ़ता है अथवा सुनता है, उसके अठारह पीढ़ीके पूर्वपुरुष तर जाते हैं।

अध्याय १२८ लोहार्गल क्षेत्रका माहात्म्य

पृथ्वी बोली – विष्णो! आप जगत् के स्वामी हैं। मैं आपके मुखसे ‘सानन्दूर ‘क्षेत्रकी परम उत्तम एवं रहस्यपूर्ण महिमा सुन चुकी। इसके सुनने से मुझे परम शान्ति प्राप्त हुई। यदि इससे भिन्न और कोई सुखदायी गुप्त क्षेत्र हो तो मैं उसे भी जानना चाहती हूँ, आप कृपया उसे भी बतलायें ।

भगवान् वराह कहते हैं-देवि ! मैं अब तत्त्वपूर्वक एक दूसरे गुप्त क्षेत्रका प्रसङ्ग बताता हूँ, सुनो।

‘सिद्धवट’ नामक स्थानसे तीस योजनकी दूरीपर म्लेच्छोंका देश है, जिसके मध्य दक्षिण भागमें हिमालयपर्वत स्थित है। वहीं मेरा ‘लोहार्गल’* नामसे प्रसिद्ध एक गुप्त क्षेत्र है। वह पंद्रह आयामका क्षेत्र चारों ओर पाँच योजनतक फैला है । चतुर्दिक् वेष्टित वह स्थान पापियोंके लिये दुर्गम एवं दुःसह है, पर जो सदा मेरे चिन्तनमें तत्पर रहते हैं और जिनका सारा समय पुण्यकार्यमें लगता है, उनके लिये वह परम सुलभ है। भद्रे उस स्थानके उत्तर दिशामें मैं निवास करता हूँ। वहाँ सुवर्णमयी मेरी प्रशस्त प्रतिमा है।

वसुंधरे ! एक समय मेरे उस उत्तम स्थानपर सम्पूर्ण दानवोंने आक्रमण कर दिया। मायाके बलसे उन्होंने मेरी अवहेलना भी कर दी थी, तब ब्रह्मा, रुद्र, स्कन्द, इन्द्र, मरुद्गण, आदित्य, वसुगण, वायु, अश्विनीकुमार, चन्द्रमा, बृहस्पति तथा समस्त देव समुदायको मैंने वहाँ सुरक्षित किया और अपना तेजस्वी सुदर्शनचक्र उठाकर उन निशाचरोंका संहार कर दिया। इससे देवगण आनन्दित हो विचरने लगे। तभीसे मैंने उस स्थानका नाम ‘लोहार्गल’ रख दिया और प्रबल शक्तिशाली देवसमुदायकी वहाँ प्रतिष्ठा कर अपनी भी प्रतिमा प्रतिष्ठित कर दी। उस स्थानपर मेरी प्रतिष्ठित मूर्तिका जो व्यक्ति यत्नपूर्वक दर्शन करता है, भूमे ! वह मेरा भक्त हो जाता है। जो मनुष्य तीन रातोंतक वहाँ निवास करके शास्त्रविहित कर्म करता है और नियमके साथ वहाँके कुण्डमें स्नान करता है, वह कई हजार वर्षोंतक स्वर्गमें जाकर आनन्द भोगता है इसमें कुछ भी संशय नहीं। यदि अपने कर्ममें भलीभाँति तत्पर रहनेवाला वह व्यक्ति वहाँ प्राण त्यागता है तो उन स्वर्गलोकोंसे भी आगे मेरे धाममें चला जाता है।

एक बार मैंने एक अश्वकी रचनाकर उसे अखिल आभूषणोंसे अलंकृत किया। वह अश्व श्वेत कमल, शङ्ख अथवा कुन्दपुष्पके समान विद्यो – तित हो रहा था। धनुष, अक्षसूत्र और कमण्डलु लेकर तथा उसपर आसीन होकर मैंने यात्रा आरम्भ की और चलते-चलते सीधे श्वेतपर्वतपर पहुँचा, जहाँ कुरुवंशी रहते थे। फिर वहाँसे मैंने उन्हें गिराना आरम्भ किया और आकाशतलसे बहुतसे दूसरोंको भी मार गिराया। इस प्रकार सभीको नष्टकर भी वह अश्व आकाशमें शान्त, ज्यों-का-त्यों सुरक्षित तथा सुस्थिर रहा।

भगवान् वराह बोले- सुमध्यमे ! तबसे पुरुष उत्तम कुलकें अश्वोंपर चढ़कर स्वर्गतककी यात्रा करने लगे। देवि! ‘पञ्चसार’ नामसे प्रसिद्ध मेरा एक परम गुप्त क्षेत्र है। वहाँ शङ्खके समान सफेद एवं तीव्र गति से बहनेवाली जलकी चार धाराएँ गिरती हैं। उस क्षेत्रमें चार दिनोंतक रहकर व्यक्ति ‘चैत्राङ्गद’ लोकमें जाकर गन्धर्वोके साथ विहार करता है और वहाँ प्राणत्यागकर प्राणी मेरे लोकको प्राप्त होता है। यहीं ‘नारदकुण्ड’ नामसे विख्यात मेरा एक दूसरा उत्तम क्षेत्र है, जहाँ तालवृक्षके समान मोटी जलकी पाँच धाराएँ गिरती हैं। उस तीर्थमें एक दिन निवास और स्नान कर पुरुष देवर्षि नारदजीके दर्शनका सौभाग्य प्राप्त करता है तथा वहाँ मरकर मेरे धामको जाता है। यहीं एक वसिष्ठकुण्ड है, जिसमें जलकी तीन धाराएँ गिरती हैं। वहाँ पाँच रात स्नान तथा निवास कर मनुष्य वसिष्ठजीके लोकमें आनन्द प्राप्त करता है। मेरे कर्मोंमें लगा वह पुरुष यदि यहाँ प्राण छोड़ता है तो उस लोकको छोड़कर मेरे धाममें पहुँच जाता है।

देवि! इस ‘लोहार्गल ‘क्षेत्रमें मेरा एक पञ्चकुण्ड नामक प्रधान तीर्थ है, जहाँ हिमालयसे निकलकर जलकी पाँच धाराएँ गिरती हैं। वहाँ पाँच दिनोंतक निवास एवं स्नानकर मनुष्य ‘पञ्चशिख’ स्थानपर निवास करता है। यदि इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर वह मेरा भक्त वहाँ प्राण त्यागता है तो वह मेरे लोकको प्राप्त कर लेता है।

इसी ‘लोहार्गल’ क्षेत्रमें ‘सप्तर्षिकुण्ड’ संज्ञक एक अन्य तीर्थ है। वहाँके स्नानके पुण्यसे पुरुष ऋषियोंके लोकोंमें जाकर हर्षपूर्वक निवास करता है। देवि! वहीं ‘अग्निसर’ नामसे विख्यात एक कुण्ड है, जहाँ आठ रातोंतक रहकर तथा उस कुण्डमें स्नानकर प्राणी सभी सुखोंका उपभोगकर अङ्गिरामुनिके लोकको प्राप्त होता है, इसमें कोई संशय नहीं । यदि मुझसे सम्बन्धित कर्ममें तत्पर वह पुरुष वहाँ प्राण छोड़ता है तो अग्निके लोकका त्यागकर मेरे धामको प्राप्त होता है।

देवि ! उसी ‘लोहार्गल ‘क्षेत्रमें ‘उमाकुण्ड’ नामसे एक प्रसिद्ध स्थान है। यह वह स्थान है, जहाँ भगवान् शंकरकी परमसुन्दरी पत्नी गौरीका प्राकट्य हुआ था। वहाँ दस रातोंतक रहकर मनुष्यको स्नान करना चाहिये। इससे उसे गौरीका दर्शन सुलभ होता है और उनके लोकमें वह सानन्द निवास करता है। यदि आयु क्षीण होनेपर वह मनुष्य उस स्थानपर प्राणका त्याग करता है तो उस लोकसे हटकर मेरे धाममें शोभा पाता है। भगवान् शंकरके साथ उमादेवीका यहीं विवाह हुआ था। इसमें हंस, कारण्डव, चक्रवाक, सारस आदि पक्षी सदा निवास करते हैं। हिमालय- पर्वतसे होकर यहाँ निर्मल जलकी तीन धाराएँ गिरती हैं। मनुष्य बारह दिनोंतक यहाँ निवास और स्नान करे तो वह रुद्रलोकमें आनन्द करता है। यदि वहाँ वह अत्यन्त कठिन कर्म करके प्राणोंको छोड़ता है तो रुद्रलोकसे पृथक् होकर मेरे स्थानकी यात्रा करता है। वहीं ‘ब्रह्मकुण्ड’ नामक स्थानमें चारों वेदोंकी उत्पत्ति हुई थी। इसीके उत्तर- पार्श्वमें सुवर्णके समान रंगवाली एक स्वच्छ जलकी धारा गिरती है, जहाँ ऋग्वेदकी ध्वनि हुई थी। यहीं पश्चिमभागमें यजुर्वेदसे युक्त धारा तथा दक्षिण पार्श्वमें अथर्ववेदसे समन्वित धारा गिरती है। सात रातोंतक रहकर जो मनुष्य वहाँ स्नान करता है, वह ब्रह्माके लोकको प्राप्त करता है। यदि अहंकारशून्य होकर वह व्यक्ति वहाँ प्राण त्यागता है तो उस लोकका परित्याग करके मेरे लोकमें आ जाता है। महाभागे ! मेरे इस ‘लोहार्गल ‘क्षेत्रकी कथा बड़ी ही रहस्यात्मक है। सिद्धि चाहनेवाले मनुष्यको वहाँ अवश्य जाना चाहिये। वरानने! वह क्षेत्र पचीस योजनकी दूरीमें चारों ओर फैला है और स्वयं ही प्रकट हुआ है। यह विषय आख्यानोंमें परम आख्यान, धर्मोमें सर्वोत्कृष्ट धर्म तथा पवित्रोंमें परम पवित्र है। जो श्रद्धालु पुरुष इसका पाठ करते हैं अथवा सुनते हैं, उनके माता एवं पिता- इन दोनों कुलोंके दस दस पूर्वपुरुषोंका संसार सागरसे उद्धार हो जाता है।

अध्याय १२९ मथुरातीर्थकी प्रशंसा

सूतजी कहते हैं – ऋषियो ! भगवान् श्रीहरिके द्वारा ‘लोहार्गल ‘क्षेत्रकी महिमा सुनकर पृथ्वीको बड़ा आश्चर्य हुआ और वे बोलीं- प्रभो! आपकी कृपासे मैंने ‘लोहार्गल ‘क्षेत्रका माहात्म्य सुना। यदि इससे भी श्रेष्ठ तीर्थोंमें  सर्वोत्तम एवं सबके लिये कल्याणकारी कोई तीर्थ हो तो उसे बतानेकी कृपा कीजिये ।

भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! मथुराके समान मेरे लिये दूसरा कोई भी तीर्थ आकाश, पाताल एवं मर्त्य- इन तीनों लोकोंमें कहीं प्रिय प्रतीत नहीं होता। इसी पुरीमें मेरा श्रीकृष्णावतार हुआ, अतः यह पुष्कर, प्रयाग, उज्जैन, काशी एवं नैमिषारण्यसे भी बढ़कर है। यहाँ विधिपूर्वक निवास करनेवाला मानव निःसंदेह आवागमनसे मुक्त हो जाता है । माघमासके उत्तम पर्वपर प्रयागमें निवास करनेसे मनुष्यको जो पुण्य फल प्राप्त होता है, वह मथुरामें एक दिन रहनेपर ही मिल जाता है। इसी प्रकार वाराणसीमें हजार वर्षोंतक निवास करनेसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह मथुरामें एक क्षण निवास करनेपर सुलभ हो जाता है। वसुंधरे ! कार्तिक मासमें पुष्करक्षेत्रके निवासका जो सुविख्यात पुण्य (फल) है, वही पुण्य मथुरामें निवास करनेवाले जितेन्द्रिय पुरुषको सहज प्राप्त हो जाता है। यदि कोई ‘मथुरामण्डल’ का नाम भी उच्चारण करता है और उसे दूसरा कोई सुन लेता है तो सुननेवाला भी सब पापोंसे छूट जाता है। भूमण्डलपर समुद्रपर्यन्त जितने तीर्थ एवं सरोवर हैं, वे सभी मथुराके अन्तर्गत स्थित हैं, क्योंकि साक्षात् भगवान् श्रीहरि ही गुप्तरूपसे वहाँ निरन्तर निवास करते हैं। कुब्जाम्रक, सौकरव और मथुरा – ये परम विशिष्ट तीर्थ हैं, जहाँ योग तपकी साधना न रहनेपर भी इन स्थानोंके निवासी सिद्धि पा जाते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है।

देवि! द्वापरयुग आनेपर मैं वहाँ राजा ययातिके वंशमें अवतार ग्रहण करूँगा और मेरी क्षत्रिय जाति होगी। उस समय मैं चार मूर्ति-कृष्ण, बलराम, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध बनकर चतुर्व्यूहके रूपमें सौ वर्षोंतक वहाँ निवास करूँगा। मेरे ये चारों विग्रह क्रमशः चन्दन, सुवर्ण, अशोक एवं कमलके सदृश रूपवाले होंगे। उस समय धर्मसे द्वेष करनेवाले कंस आदि महान् भयंकर बत्तीस दैत्य उत्पन्न होंगे, जिनका मैं संहार करूँगा, वहाँ सूर्यकी पुत्री यमुनाका सुन्दर प्रवाह सदा संनिकट शोभा पाता है। मथुरामें मेरे और बहुत-से गुप्त तीर्थ हैं। देवि! उन तीर्थोंमें स्नान करनेपर मनुष्य मेरे लोकमें प्रतिष्ठित होता है और वहाँ मरनेपर वह चार भुजाओंसे युक्त होकर मेरा स्वरूप बन जाता है।

देवि! मथुरामण्डलमें ‘विश्रान्ति’ नामका एक तीर्थ है, जो तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। वहाँ स्नान करनेवाला मानव मेरे लोकमें रहनेका स्थान पाता है और वहाँ मेरी प्रतिमाका दर्शनकर सम्पूर्ण तीर्थोके अवगाहनका फल प्राप्त करता है। जो दो बार उसकी प्रदक्षिणा कर लेता है, वह विष्णुलोकका भागी होता है। इसी प्रकार एक कनखल नामक अत्यन्त गुह्य स्थान है, जहाँ केवल स्नान करनेसे ही मनुष्य स्वर्ग सुखका अधिकारी हो जाता है। ऐसे ही ‘विन्दुक’ नामसे विख्यात मेरा एक परम गोप्य क्षेत्र है। देवि ! उस क्षेत्रमें स्नान करनेवाला व्यक्ति मेरे लोकमें प्रतिष्ठा पाता है।

वसुंधरे ! अब उस तीर्थमें घटित एक प्राचीन इतिहास सुनो। पाञ्चालदेशमें प्रसिद्ध काम्पिल्य* नगरमें राजा ब्रह्मदत्त रहते थे। वहीं तिन्दुक नामक एक नाई रहता था । बहुत दिनोंतक यहाँ निवास करनेके बाद उसका पूरा परिवार क्षीण हो गया और वह पीड़ित होकर वहाँसे मथुरा चला आया और एक ब्राह्मणके घर रहने लगा। वहाँ वह ब्राह्मणके सैकड़ों कार्य करते हुए प्रतिदिन यमुना- स्नान भी करता । इस प्रकार दीर्घकाल व्यतीत होनेपर उसकी इसी तीर्थमें मृत्यु हुई, जिससे दूसरे जन्ममें वह जातिस्मर ब्राह्मण हुआ ।

इसी मथुरामें एक ‘सूर्यतीर्थ’ है, जो सब पापोंसे मुक्त करनेवाला है, जहाँ विरोचनपुत्र बलिने पहले सूर्यदेवकी उपासना की थी। उसकी उपासनासे प्रसन्न होकर भगवान् सूर्यदेवने तपका कारण पूछा। इसपर बलिने कहा-‘देवेश्वर! पातालमें मेरा निवास है। इस समय मैं राज्यसे वञ्चित हो गया हूँ एवं धनहीन हूँ।’ इसपर भगवान् सूर्यने बलिको अपने मुकुटसे चिन्तामणि निकालकर दिया, जिसे लेकर बलि पाताललोक चले गये। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्यके समस्त पाप समाप्त हो जाते हैं और वहाँ मरनेपर उस प्राणीको मेरे लोककी प्राप्ति होती है। देवि! प्रत्येक रविवारके दिन, संक्रान्तिके अवसरपर अथवा सूर्य एवं चन्द्रग्रहणमें उस तीर्थमें स्नान करनेसे राजसूय यज्ञके समान फल मिलता है। ध्रुवने भी यहीं स्नानादिपूर्वक कठोर तपस्या की थी, जिससे वह आज भी ‘ध्रुवलोक’ में प्रतिष्ठा पाता है। वसुधे! जो पुरुष इस ‘ध्रुवतीर्थ’ में श्रद्धा रखता है, उसके सभी पितर तर जाते हैं। ‘ध्रुवतीर्थ’ के दक्षिणभागमें तीर्थराजका स्थान है। देवि ! वहाँ अवगाहन कर मानव मेरा धाम प्राप्त करता है। देवि! मथुरामें ‘कोटितीर्थ’ नामक एक स्थान है, जिसका दर्शन देवताओंके लिये भी दुर्लभ है। वहाँ खान एवं दान करनेसे मेरे धाममें प्रतिष्ठा मिलती है। उस ‘कोटितीर्थ’ में स्नान करके पितरों एवं देवताओंका तर्पण करना चाहिये। इससे पितामह आदि सभी पितर तर जाते हैं। उस तीर्थमें स्नान करनेवाला मनुष्य ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठा पाता है। यहीं पितरोंके लिये भी दुर्लभ एक ‘वायुतीर्थ’ है, जहाँ पिण्डदान करनेसे पुरुष पितृलोकमें जाता है। देवि ! गयामें पिण्डदान करनेसे मनुष्यको जो फल मिलता है, वही फल यहाँ ज्येष्ठमें पिण्ड देनेसे प्राप्त हो जाता है— इसमें कोई संशय नहीं। इन बारह तीर्थोंका केवल स्मरण करनेसे भी पाप दूर हो जाते हैं और मनुष्यकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।

अध्याय १३० मथुरा, यमुना और अकूरतीर्थोंके माहात्म्य

भगवान् वराह कहते हैं वसुंधरे ! ‘शिवकुण्ड’ के उत्तर ‘नवक ‘नामक एक पवित्र क्षेत्र है, जहाँ स्नान करनेमात्र से ही प्राणीको सौभाग्य सुलभ हो जाता है और पापी पुरुष भी मेरे धाममें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है।

अब इस तीर्थकी एक पुरानी घटना सुनो। पहले नैमिषारण्यमें एक दुष्ट निषाद रहता था। एक बार वह किसी मासकी चतुर्दशीको मथुरा आया और उसके मनमें यमुनामें तैरनेकी इच्छा उत्पन्न हुई । यद्यपि वह यमुनामें तैरता हुआ ‘संयमन’ तीर्थतक पहुँच गया, फिर भी दैवयोगसे वह उससे बाहर न निकल पाया और वहीं उसका प्राणान्त भी हो गया। दूसरे जन्ममें वही (निषाद) क्षत्रियवंशमें उत्पन्न होकर सम्पूर्ण भूमण्डलका स्वामी बना, जिसकी राजधानी सौराष्ट्रमें थी और कालान्तरमें वही ‘यक्ष्मधनु’ नामसे प्रख्यात हुआ। वह अपने धर्म ( क्षात्रधर्म तथा राजधर्म) का भलीभाँति पालन करता तथा अपने राज्यकी रक्षा और प्रजाका रञ्जन करनेमें समर्थ और सफल था। उसका विवाह काशिराजकी सुन्दरी कन्या पीवरीसे हुआ। यक्ष्मधनुकी और भी रानियाँ थीं, किंतु सभी रानियोंमें पीवरी ही उसे सबसे अधिक प्रिय थी । वह उसके साथ भवनों, उद्यानों, उपवनों और नदी-तटोंपर विहार करता हुआ राज्यसुखका उपभोग करने लगा। कालान्तरमें उसके सात पुत्र और पाँच पुत्रियाँ उत्पन्न हुईं। इस प्रकार यक्ष्मधनुके सतहत्तर वर्ष बीत गये। एक समय जब वह शयन कर रहा था तो अचानक उसे मथुराके संयमन तीर्थकी स्मृति हो आयी और उसके मुँहसे ‘हा! हा’! शब्द निकलने लगा। इसपर पासमें सोयी उसकी पटरानी पीवरीने कहा- ‘राजन् ! आप यह क्या कह रहे हैं?’ राजाने उत्तर दिया- ‘प्रिये ! जो किसी मादक वस्तु आदि सेवनसे बेसुध रहता है, नींदमें रहता है अथवा जिसका चित्त विक्षिप्त रहता है, उसके मुखसे असम्बद्ध शब्दों का निकल जाना स्वाभाविक है। मैं नींदमें था, इसीसे ये शब्द निकल गये। अतः इस विषयमें तुम्हें नहीं पूछना चाहिये।’ फिर रानीके बार-बार आग्रह करनेपर यक्ष्मधनुने कहा- ‘शुभानने! यदि मेरी बात तुम्हें सुननी आवश्यक जान पड़ती है तो हम दोनों मथुरापुरी चलें। वहीं मैं तुम्हें यह बात बताऊँगा । ग्राम, रत्न, खजाना और जनताकी सँभालके लिये पुत्रको राज्यपर अभिषिक्त कर देना चाहिये। देवि! विद्याके समान कोई आँख नहीं है, धर्मके समान कोई बल नहीं है, रागके समान कोई दुःख नहीं है और त्यागसे बढ़कर दूसरा कोई सुख नहीं है। संसारका संग्रह करनेवालेकी अपेक्षा त्यागी पुरुष सदैव श्रेष्ठ माना गया है।’

वसुंधरे ! राजा यक्ष्मधनुने इस प्रकार अपनी पत्नी पीवरीसे सलाहकर अपने ज्येष्ठ पुत्रका राज्याभिषेक किया और उसके साथ श्रेष्ठ पुरुषों ( मन्त्री आदि) – के रहनेकी व्यवस्था कर दी। फिर पुरवासी जनतासे विदा ले हाथी, घोड़ा, कोष और कुछ पैदल चलनेवाले पुरुषोंको साथ लेकर वे दोनों मथुराके लिये चल पड़े और बहुत दिनोंके बाद वे मथुरा पहुँचे। मथुरापुरी उस समय देवताओंकी पुरी ‘अमरावती’ जैसी प्रतीत हो रही थी। बारह तीर्थोंसे सम्पन्न उस पुण्यमयी पुरीने मानो पापोंको नष्ट करनेके लिये अपनेको मनोहर बना लिया हो ।

वसुंधरे ! जब राजा यक्ष्मधनु और पीवरीने मथुरापुरीका दर्शन किया तो उनका हृदय प्रसन्न हो गया। फिर उस रानीने उस रहस्यको पूछा, जिसके लिये वे मथुरा आये थे। इसपर यक्ष्मधनुने कहा – ‘पहले तुम अपनी रहस्यपूर्ण बात बताओ, तब मैं बताऊँगा ।’

पीवरी बोली- पहले मेरा निवास गङ्गाके तटपर था, किंतु वहाँ भी मेरा नाम ‘पीवरी’ ही था। एक बार मैं कार्तिक द्वादशीके दिन इस मथुरापुरीके दर्शनके लिये यहाँ आयी। उसी समय नावद्वारा यमुनाको पार करते समय मैं अचानक ‘धारापतन’ तीर्थके गहरे जलमें गिर गयी, जिससे मेरे प्राण निकल गये। इसी तीर्थके प्रभावसे मेरा काशी नरेशके यहाँ जन्म तथा फिर आपसे विवाह हुआ।

वसुंधरे ! इसके बाद राजा यक्ष्मधनुने जिस प्रकार संयमन – तीर्थमें उसकी मृत्यु हुई थी, वह सब कथा पीवरीसे सुनायी। अब वे दोनों मथुरा में ही रहने लगे और यमुनामें स्नान करनेका नियम बना लिये। प्रतिदिन नियमसे वे मेरा दर्शन करते। कालान्तरमें वहीं शरीर त्यागकर सभी बन्धनोंसे मुक्त होकर वे मेरे लोकको प्राप्त हुए ।

देवि! उसी मथुरामें ‘मधुवन’ नामक एक अत्यन्त सुन्दर स्थान है और यहीं एक ‘कुन्दवन’ के नामसे मेरा प्रसिद्ध स्थान है, जहाँ जानेपर ही व्यक्ति सफल मनोरथ हो जाता है। यहीं वनोंमें प्रधान एक ‘काम्यकवन’ है, जहाँ स्नान करनेसे मनुष्य मेरे धामको प्राप्त होता है । यहाँके ‘विमलकुण्ड’ तीर्थमें स्नान करनेसे प्राणीके सम्पूर्ण पाप धुल जाते हैं और जो वहीं प्राणोंका परित्याग करता है, वह मेरे लोकमें प्रतिष्ठा पाता है। पाँचवें वनको ‘वकुलवन’ कहते हैं। वहाँ स्नान कर मनुष्य ‘अग्निलोक’ को प्राप्त करता है। यमुनाके उस पार ‘भद्रवन’ नामका छठा वन है। मेरी भक्तिमें परायण रहनेवाले पुरुष ही वहाँ जा पाते हैं और उन्हें नागलोककी प्राप्ति होती है।

‘खदिर वन’ सातवाँ है और आठवाँ ‘महावन’

नवें वनका नाम ‘लौहंजङ्घवन’ है, क्योंकि लौहजङ्घ ही इसकी रक्षा करता था। दसवें वनका नाम ‘बिल्ववन’ है। वहाँ जाकर प्राणी ब्रह्माजीके लोकमें प्रतिष्ठा पाता है। ‘भाण्डीर’ वन ग्यारहवाँ है, जिसके दर्शनमात्रसे मनुष्य माताके गर्भमें नहीं आता। बारहवाँ वन ‘वृन्दावन’ है, जहाँकी अधिष्ठात्री वृन्दादेवी हैं।

देवि! समस्त पापोंका संहार करनेवाला यह स्थान मुझे बहुत प्रिय है। वसुंधरे ! वृन्दावन जाकर जो गोविन्दका दर्शन करते हैं, उन्हें यमपुरीमें कदापि नहीं जाना पड़ता। उनको पुण्यात्मा पुरुषोंकी गति सहज सुलभ हो जाती है।

यमुनेश्वर तीर्थके ‘धारापतन’ में स्नान करनेपर मनुष्य स्वर्गका आनन्द पाता है और यहाँ प्राण त्यागनेवाला मेरे धामको जाता है। इसके आगे नागतीर्थ एवं ‘घण्टाभरणतीर्थ’ है, जिसमें स्नानकर मनुष्य सूर्यलोकमें जाता है। वसुधे! यहाँ ‘सोमतीर्थ’ का वह पवित्र स्थान है, जहाँ द्वापरमें चन्द्रमा मेरा दर्शन करते हैं। इसमें अभिषेककर मनुष्य चन्द्रलोकमें निवास करता है। यहीं जहाँ सरस्वती नदी ऊपरसे उतरी है, वह पवित्र स्थान सम्पूर्ण पापोंको हरनेवाला है।

मथुराके पश्चिममें ऋषिगण निरन्तर मेरी पूजा करते हैं। प्राचीन कालमें सृष्टिके अवसरपर ब्रह्माद्वारा मनसे निर्मित होनेके कारण इसका नाम ‘मानसतीर्थ’ पड़ गया है। यहाँ जो स्नान करते हैं, उन्हें स्वर्ग मिलता है। यहीं भगवान् श्रीगणेशका एक पुण्यमय तीर्थ है, जिसके प्रभावसे पाप दूरसे ही भाग जाते हैं। यहाँ चतुर्थी, अष्टमी और चतुर्दशीके दिन स्नान करनेसे मनुष्योंके सामने श्रीगणेशजीके प्रभावसे दुःख पासमें नहीं फटकते। विद्या आरम्भ की जाय अथवा यज्ञ एवं दान आदिकी क्रियाएँ सम्पन्न करनी हों तो सभी समयोंमें गौरीनन्दन गणेशजी धर्मकर्ता पुरुषके कार्यको सदा निर्विघ्न पूर्ण कर देते हैं। यहीं आधा कोसके परिमाणवाला परम दुष्कर ‘शिवक्षेत्र’ है, जहाँ रहकर भगवान् शंकर इस मथुरापुरीकी निरन्तर रक्षा करते हैं। उसके जलमें स्नान और उस जलका पान कर मनुष्य मथुरावासका फल प्राप्त करता है।

भगवान् वराह कहते हैं देवि ! अब मैं एक दूसरे दुर्लभ ‘अक्रूर ‘तीर्थका वर्णन करता हूँ। अयन* विषुव तथा विष्णुपदीके शुभ अवसरपर मैं श्रीकृष्णरूपमें वहाँ स्थित रहता हूँ। यहाँ सूर्यग्रहणके समय स्नान करनेसे मनुष्य ‘राजसूय ‘ एवं ‘अश्वमेध’ यज्ञोंका फल प्राप्त करता है। अब इस तीर्थके एक बहुत पुराने इतिहासको सुनो। पहले यहाँ सुधन नामका एक धनी एवं भक्त वैश्य रहता था। वह स्त्री -पुत्र और अपने बन्धुओंके साथ सदा मेरी उपासनामें लगा रहता तथा गन्ध, पुष्प, धूप तथा दीप अर्पण करके नित्य नियमानुसार मुझ श्रीहरिकी पूजा करता था। वह प्रायः एकादशीको इसी अक्रूर तीर्थमें आकर मेरे सामने नृत्य करता ।

एक बार वह रात्रि जागरण, नृत्य तथा कीर्तन आदि करनेके उद्देश्यसे मेरे पास आ रहा था कि किसी भयंकर ब्रह्मराक्षसने उसके पैर पकड़ लिये। उसकी आकृति बड़ी डरावनी थी तथा बाल ऊपरको उठे हुए थे। उसने सुधनसे कहा—’वैश्य! आज मैं तुम्हें खाकर तृप्ति प्राप्त करूँगा।

इसपर सुधन बोला- ‘राक्षस! बस, तुम थोड़ी देर प्रतीक्षा करो, मैं तुम्हें पर्याप्त भोजन दूँगा और बादमें तुम मेरे इस शरीरको भी भक्षण कर लेना। पर इस समय मैं देवेश्वर श्रीहरिके सामने नृत्य एवं रात्रि जागरण करनेके लिये जा रहा हूँ। मैं अपना यह व्रत पूरा कर प्रातः सूर्यके उदय होते ही तुम्हारे पास वापस आ जाऊँगा तब तुम मेरे इस शरीरको अवश्य खा लेना । भगवान् नारायणकी प्रसन्नताके लिये किये जानेवाले मेरे इस व्रतको भङ्ग करना तुम्हारे लिये उचित नहीं है।’ इसपर ब्रह्मराक्षस आदरपूर्वक मधुर वाणीसे बोला- ‘साधो तुम यह असत्य बात क्यों कह रहे हो ? भला, ऐसा कौन मूर्ख होगा, जो राक्षसके मुखसे छूटकर पुनः स्वेच्छासे उसके पास लौट आये।’

इसपर वैश्यवर बोला—’सम्पूर्ण संसारकी जड़ सत्य है। सत्यपर ही अखिल जगत् प्रतिष्ठित है। वेदके पारगामी ऋषिलोग सत्यके बलपर ही सिद्धि प्राप्त करते हैं। यद्यपि पूर्वजन्मके कर्मवश मेरी उत्पत्ति धनी वैश्यकुलमें हुई है, फिर भी मैं निर्दोष हूँ। ब्रह्मराक्षस! मैं प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि वहाँ जागरण और नृत्य करके सुखपूर्वक मैं अवश्य लौट आऊँगा। सत्यसे ही कन्याका दान होता है और ब्राह्मण सदा सत्य बोलते हैं। सत्यसे ही राजाओंका राज्य चलता है। सत्यसे ही पृथ्वी सुरक्षित है। सत्यसे ही स्वर्ग सुलभ होता है और सत्यसे ही मोक्ष मिलता है। अतः यदि मैं तुम्हारे सामने न आऊँ तो पृथ्वीका दान करके पुनः उसका उपभोग करनेसे जो पाप होता है, मैं उसका भागी बनूँ। अथवा क्रोध या द्वेषवश जो पत्नीका त्याग करता है, वह पाप मुझे लगे। यदि मैं पुनः तुम्हारे पास न आऊँ तो एक साथ बैठकर भोजन करनेवाले व्यक्तियोंमें जो पङ्किभेदका पाप करता है, मुझे वह पाप लगे। अथवा यदि मैं फिर तुम्हारे पास पुनः न आऊँ तो एक बार कन्यादान करके फिर दूसरेको दान करने अथवा ब्राह्मणकी हत्या करने, मदिरा पीने, चोरी करने या व्रत भङ्ग करनेपर जो बुरी गति मिलती है, वह गति मुझे प्राप्त हो ।

भगवान् वराह कहते हैं-देवि ! सुधनकी बात सुनकर वह ब्रह्मराक्षस संतुष्ट हो गया। उसने कहा- ‘भाई! तुम वन्दनीय हो और अब जा सकते हो।’ इसपर वह कलामर्मज्ञ वैश्य मेरे सामने आकर नृत्यगान करने लगा और प्रातः कालतक नृत्य करता रहा। दूसरे दिन उसने प्रातः काल ॐ नमो नारायणाय’ का उच्चारण कर यमुनामें गोता लगाया और मथुरा पहुँचकर मेरे दिव्य रूपका दर्शन किया। देवि! उसी समय मैं एक दूसरा रूप धारणकर उसके सामने प्रकट हुआ और उससे मैंने पूछा- ‘आप! इतनी शीघ्रतासे कहाँ जा रहे हैं?’ इसपर सुधनने कहा- ‘मैं अपनी प्रतिज्ञानुसार ब्रह्मराक्षसके पास जा रहा हूँ।’ उस समय मैंने उसे मना किया और कहा – ‘अनघ! तुम्हें वहाँ नहीं जाना चाहिये। जीवन रहनेपर ही धर्मानुष्ठान सम्भव है। इसपर उस वैश्यने उत्तर दिया- ‘महाभाग ! मैं ब्रह्मराक्षसके पास अवश्य जाऊँगा, जिससे मेरी (सत्यकी) प्रतिज्ञा सुरक्षित हो। जगत्प्रभु भगवान् विष्णुके निमित्त जागरण और नृत्य करनेका मेरा व्रत था। वह नियम सुखपूर्वक सम्पन्न हो गया।’ इस प्रकार कहकर वह वहाँसे चला गया और ब्रह्मराक्षससे कहा- ‘राक्षस! तुम अब इच्छानुसार मेरे इस शरीरको खा जाओ।’

इसपर ब्रह्मराक्षसने कहा- ‘वैश्यवर ! तुम वस्तुतः सत्य एवं धर्मका पालन करनेवाले साधु पुरुष हो, तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुम्हारे व्यवहारसे संतुष्ट हूँ। महाभाग ! अब तुम अपने नृत्य एवं जागरणके पूरे पुण्यको मुझे देनेकी कृपा करो । तुम्हारे प्रभावसे मेरा भी उद्धार हो जायगा ।’

‘राक्षस! मैं तुम्हें अपने रात्रिजागरण एवं नृत्यका पुण्य नहीं दे सकता। आधी रात एक प्रहर तथा आधे प्रहरके भी जागरणका पुण्य मैं तुम्हें नहीं दे सकता’ – वैश्यने कहा ।

‘तब बस एक नृत्यका ही पुण्य मुझे देनेकी दया करो।’ – राक्षस बोला।

‘मैं तुम्हें पुण्य तो यह भी नहीं दे सकता। पर जो बात कह चुका हूँ, उसके लिये आ गया हूँ। साथ ही मैं यह भी जानना चाहता हूँ कि तुम किस कर्मके दोषसे ब्रह्मराक्षस हुए ? यदि यह बहुत गोप्य न हो तो मुझे बता दो।’- वैश्यने कहा ।

अब ब्रह्मराक्षसके मुखपर हँसी छा गयी। उसने कहा- ‘वैश्यवर ! तुम ऐसी बात क्यों कहते हो। मैं तो तुम्हारे पासका ही रहनेवाला हूँ। मेरा नाम ‘अग्निदत्त’ है। मैं पूर्वजन्ममें वेदाभ्यासी ब्राह्मण था । किंतु चौर्यदोषसे मुझे ब्रह्मराक्षस होना पड़ा। दैवयोगसे तुमसे भेंट हो गयी है। अब तुम मेरा उपकार करनेकी कृपा करो। वैश्यवर ! तुम यदि एक ही ‘नृत्य एवं गान’ का पुण्य मुझे दे दो तो मेरा उद्धार हो जाय।’ वैश्यने कहा- ‘राक्षस! मैंने एक नृत्यके पुण्यका फल तुम्हें दे दिया।’ फिर तो उस एक नृत्यके पुण्यके प्रतापसे उसका तत्काल उद्धार हो गया और ब्रह्मराक्षसकी योनिसे सदाके लिये मुक्ति मिल गयी।

भगवान् वराह कहते हैं-देवि ! उसी समय वहाँ ब्रह्मराक्षसकी जगह शङ्ख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण किये मैं (भगवान् श्रीहरि ) प्रकट हो गया। उस समय मेरे (श्रीविष्णुरूपके अपने ) श्रीविग्रहकी आभा परम दिव्य थी। भक्तोंकी याचना पूर्ण करनेवाले (श्रीविष्णुरूपमें) मैंने उस वैश्यसे मधुर वाणीमें कहा – ‘तुम अब सपरिवार उत्तम विमानपर चढ़कर मेरे दिव्य विष्णुलोकको जाओ।’

वसुंधरे ! इस प्रकार कहकर मैं (भगवान् श्रीहरि) वहीं अन्तर्धान हो गया और सुधन भी अपने परिवारके सहित दिव्य विमानद्वारा सशरीर विष्णुलोकमें चला गया। देवि! ‘अक्रूर- तीर्थ’ की यह महिमा मैंने तुम्हें बतला दी। उस कार्तिकमासके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिको जो तीर्थमें स्नान करता है, उसे ‘राजसूययज्ञ’ का फल प्राप्त होता है और वहाँ श्राद्ध तथा वृषोत्सर्ग करनेवाला पुरुष अपने कुलके सभी पितरोंको तार देता है।

अध्याय १३१ मथुरामण्डलके 'वृन्दावन' आदि तीर्थ और उनमें स्नान दानादिका महत्त्व

भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! अब मैं मथुरामण्डलके ‘वत्स क्रीडन’ नामक तीर्थका वर्णन करता हूँ। यहाँ लाल रंगकी बहुत-सी शिलाएँ हैं । यहाँ स्नान करनेमात्रसे मनुष्य वायु- देवके लोकको प्राप्त होता है। यहीं दूसरा एक ‘भाण्डीर’ वन भी है, जिसकी साखू, ताल तमाल, अर्जुन, इङ्गुदी, पीलुक, करील तथा लाल फूलवाले अनेक वृक्ष शोभा बढ़ाते हैं। यहाँ स्नान करनेसे मनुष्यके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं और वह इन्द्रके लोकको प्राप्त होता है। वल्लरियों तथा लताओंसे आच्छादित यहाँका रमणीय वृन्दावन देवता, दानवों और सिद्धोंके लिये भी दुर्लभ है। गायों और गोपालोंके साथ मैं यहाँ क्रीडा करता हूँ। यहाँ एक रात निवास तथा कालिन्दीमें अव-गाहनकर मनुष्य गन्धर्वलोकको प्राप्त होता है और वहाँ प्राणोंका त्याग कर मनुष्य मेरे धामको प्राप्त होता है।

वसुंधरे ! यहाँ एक दूसरा तीर्थ ‘केशिस्थल’ है। ‘वृन्दावन’ के इसी स्थानपर मैंने केशीदैत्यका वध किया था। उस ‘केशीतीर्थ’ में पिण्डदान करनेसे गयामें पिण्ड देनेके समान ही फल मिलता है। यहाँ स्नान-दान और हवन करनेसे ‘अग्निष्टोम’ – यज्ञका फल मिलता है। यहाँ द्वादशादित्यतीर्थपर यमुना लहराती है, जहाँ कालियनाग आनन्दपूर्वक निवास करता था। यहीं मैंने उसका दमन और द्वादश आदित्योंकी स्थापना की थी। इस तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है और जो व्यक्ति यहाँ प्राणोंका परित्याग करता है, वह मेरे धाममें आ जाता है। इस स्थानका नाम ‘हरिदेव’ क्षेत्र और ‘कालियहद’ है। इस ‘हरिदेव’ क्षेत्रके उत्तर और ‘कालियहद’ के दक्षिण भागमें जिनका पाञ्चभौतिक शरीर छूटता है, उनका संसारमें पुनरावर्तन नहीं होता * ।

भगवान् वराह कहते हैं — देवि ! यमुनाके उस पार ‘यमलार्जुन’ नामक तीर्थ है, जहाँ शकट ( भाण्डोंसे भरी हुई गाड़ी) – भग्न और भाण्ड छिन्न-भिन्न हुए थे। वहाँ स्नान और उपवास करनेका फल अनन्त है। वसुंधरे ! ज्येष्ठमासके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिके दिन उस तीर्थमें स्नान और दान करनेसे महान् पातकी मनुष्यको भी परम गति प्राप्त होती है। इन्द्रियनिग्रही मनुष्य यमुनाके जलमें स्नान करनेपर पवित्र हो जाता है और सम्यक् प्रकारसे श्रीहरिकी अर्चना करके वह परम गति प्राप्त कर सकता है।

देवि! स्वर्गमें गये हुए पितृगण यह गाते हैं- ‘हमारे कुलमें उत्पन्न जो पुरुष मथुरामें निवास करके कालिन्दीमें स्नान करेगा और भगवान् गोविन्दकी पूजा करेगा तथा ज्येष्ठमासके शुक्ल पक्षकी द्वादशी तिथिके अवसरपर यमुनाके किनारे पिण्डदान करेगा, वह परम कल्याणका भाजन होगा।’

देवि! मथुरातीर्थ महान् है। अनेक नामोंवाले बहुत से वन उसकी शोभा बढ़ाते हैं। वहाँ स्नान करनेवाला मनुष्य भगवान् रुद्रके लोकमें प्रतिष्ठा पाता है। चैत्रमासके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिके पुण्य अवसरपर यहाँ अवगाहन करनेवाला मानव मेरे लोकमें निश्चय ही चला जाता है। यमुनाके दूसरे पारमें ‘भाण्डहद’ नामसे विख्यात एक दुर्लभ तीर्थ है। विश्वके अलौकिक कार्यको सम्पन्न करनेवाले आदित्यगण वहाँ प्रतिदिन दृष्टिगोचर होते हैं। वहाँ जो मनुष्य स्नान करता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर सूर्यलोकको प्राप्त होता है। वहीं स्वच्छ जलसे भरा ‘सप्तसामुद्रिक’ नामक एक कूप है। वसुधे ! वहाँ स्नान करनेसे मानव सभी लोकोंमें स्वच्छन्दताके साथ विचरण कर सकता है। यहीं वीरस्थल नामसे प्रसिद्ध मेरा एक और परम गुह्य क्षेत्र है, जहाँ खिले हुए कमल जलकी निरन्तर शोभा बढ़ाते हैं । सुमध्यमे ! जो मनुष्य एक रात यहाँ निवास करके स्नान करता है, वह मेरी कृपासे वीरलोकमें आदर पाता है।

इसी मथुरामण्डलमें ‘गोपीश्वर’ नामसे विख्यात एक तीर्थ है, जहाँ हजारों गोपियाँ सुन्दर रूप धारण करके भगवान् श्रीकृष्णको आनन्दित करनेके लिये पधारी थीं और मैंने (श्रीकृष्णरूपमें) उनके साथ रासलीला की थी एवं बाल्यकालमें यमलार्जुन नामक दो वृक्षोंको भी तोड़ा था। यहीं इन्द्रने एक कूपके पास रत्न और ओषधियोंसे सम्पन्न जलपूर्ण कलशोंसे गोप-वेषधारी भगवान् श्रीकृष्णका अभिषेक किया था। तभीसे उस कूपका नाम ‘सप्तसामुद्रिक’ कूप पड़ गया। जो पुरुष इस ‘सप्तसामुद्रिक’ कूपपर जाकर पितरोंके लिये श्राद्ध करता है, वह अपने कुलकी सतहत्तर पीढ़ियोंको तार देता है। सोमवती अमावास्याके दिन जो वहाँ पिण्डदान करता है, उसके पितर करोड़ वर्षके लिये तृप्त हो जाते हैं।

 

वसुंधरे ! यहाँ ‘वसुपत्र’ नामसे विख्यात एक तीर्थ है, जो मेरा परम पवित्र एवं उत्तम स्थान है। मथुराके दक्षिणभागमें ‘फाल्गुनक’ और लगभग आधे योजनकी दूरी पर पश्चिमकी ओर धेनुकासुरका ‘तालवन’ नामका प्रसिद्ध स्थान है। विशालाक्षि यहाँ ‘संपीठककुण्ड’ नामका भी मेरा एक श्रेष्ठ तीर्थ है, जिसमें सदा पवित्र एवं स्वच्छ जल भरा रहता है। जो लोग एक रात यहाँ निवास करके स्नान करते हैं, उन्हें ‘अग्निष्टोम’ यज्ञका फल मिलता है – इसमें कोई संशय नहीं ।

वसुंधरे ! कृष्णावतारमें मैंने बड़े पवित्र भावसे| सूर्यदेवकी आराधना की थी, जिससे मुझे ( पीछे साम्ब – जैसे ) रूपवान् गुणवान् एवं ज्ञानी पुत्रकी प्राप्ति हुई थी। यहीं आराधनाके समय मुझे हाथमें कमल लिये हुए भगवान् सूर्यके दर्शन हुए थे। देवि! तबसे भाद्रपदमासके कृष्णपक्षकी सप्तमी तिथिको प्रखर तेजवाले सूर्य वहाँ सदा विराजते हैं। उस कुण्डमें जो मनुष्य सावधान होकर स्नान करता है, उसे संसारमें कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रहती; क्योंकि सूर्य सम्पूर्ण सम्पत्तियोंके दाता हैं। देवि! यदि रविवारको सप्तमी तिथि पड़ जाय तो उस शुभ समयमें स्नान करनेवाला पुरुष हो अथवा स्त्री, वह समग्र फल प्राप्त करता है। प्राचीन समयमें राजा शान्तनुने भी इसी स्थानपर तपस्याकर भीष्म नामक परम पराक्रमी पुत्रको प्राप्त किया था और जिसे लेकर वे तुरंत हस्तिनापुरके लिये प्रस्थित हो गये थे। अतएव वहाँ स्नान तथा दान करनेसे निश्चय ही मनोऽभिलषित फल मिलता है।

अध्याय १३२ मथुरा - तीर्थका प्रादुर्भाव, इसकी प्रदक्षिणाकी विधि एवं माहात्म्य

भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! मेरे मथुराक्षेत्रकी सीमा बीस योजनमें है जिसमें जहाँ कहीं भी स्नानकर मानव सम्पूर्ण पापोंसे छूट जाता है। वर्षा ऋतुमें मथुरा विशेष आनन्दप्रद रहती है और हरिशयनीके बाद चार मासके लिये तो मानो सातों द्वीपोंके पुण्यमय तीर्थ और मन्दिर मथुरामें ही पहुँच जाते हैं। जो देवोत्थानके समय मेरे उठनेपर मथुरामें मेरा दर्शन करते हैं, उनके सामने वहाँ मैं सदा उपस्थित रहता हूँ, इसमें कोई संशय नहीं वसुधे! उस समय मेरे (श्रीकृष्णरूपके) कमल जैसे मुखको देखकर मनुष्य सात जन्मोंके पापोंसे तत्काल मुक्त हो जाता है। जिसने मथुरामें पहुँचकर मेरी (श्रीकृष्णके विग्रहकी) विधिवत् पूजाकर प्रदक्षिणा कर ली, उसने मानो सात द्वीपोंवाली पृथ्वीकी प्रदक्षिणा कर ली।

धरणीने पूछा – भगवन् ! प्रायः सभी तीर्थ- क्षेत्र पशु, भूत, पिशाच और विनायक – इन उपद्रव करनेवाले प्राणियोंसे बाधित होते रहते हैं। फिर यह मथुरापुरी किस देवताके द्वारा सुरक्षित रहकर अनन्त फल प्रदान करनेमें समर्थ है ?

भगवान् वराह कहते हैं-देवि ! मेरे प्रभावसे विघ्नकारी शक्तियाँ मेरे इस क्षेत्रपर या भक्तोंपर कभी दृष्टि नहीं डाल पातीं। इसकी रक्षाके लिये मैंने दस दिक्पालों और चार लोकपालोंको नियुक्त कर रखा है, जो निरन्तर इस पुरीकी रक्षामें तत्पर रहते हैं। इसके पूर्वमें इन्द्र, दक्षिणमें यम, पश्चिममें वरुण, उत्तरमें कुबेर तथा मध्यभागमें उमापति महादेवजी रक्षा करते हैं। जो मनुष्य मथुरामें कोठेदार मकान बनवाता है, उस जीवन्मुक्त पुरुषको चार भुजाओंवाले विष्णुका ही रूप समझना चाहिये।

अब यहाँके निर्मल जलवाले ‘मथुराकुण्ड’ की एक आश्चर्यकी बात कहता हूँ, सुनो। हेमन्त ऋतुमें इसका जल गर्म रहता है और ग्रीष्म ऋतुमें बर्फके समान शीतल। साथ ही वर्षा ऋतुमें वहाँका पानी न बढ़ता है और न ग्रीष्म ऋतुमें सूखता ही है। वसुंधरे ! मथुरामें पग-पगपर तीर्थ हैं, जिनमें स्नानकर मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है।

‘मुचुकुन्दतीर्थ’ नामक यहाँ एक दिव्य क्षेत्र है, जहाँ देवासुरसंग्रामके बाद राजा मुचुकुन्दने शयन किया था। वहाँ स्नान करनेवालेको अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है तथा मरनेवालोंको मेरे लोककी ।

देवि ! भगवान् केशवके नाम संकीर्तनमें ऐसी शक्ति है कि वह इस जन्मके तथा पूर्वजन्मोंमें किये हुए सभी पापोंको उसी क्षण नष्ट कर डालता है। अतः कार्तिक शुक्लकी अक्षय-नवमीको भगवन्नाम-कीर्तन करते हुए मथुराकी प्रदक्षिणा करनेसे मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। इसकी विधि यह है कि कार्तिक शुक्ला अष्टमीको मथुरामें जाकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए निवास करे तथा रात्रिमें ही प्रदक्षिणाका संकल्प कर ले। प्रातः काल दन्तधावनकर स्नान करके धौतवस्त्र पहन ले और मौन होकर इसकी प्रदक्षिणा प्रारम्भ करे। इससे मनुष्यके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। प्रदक्षिणा करते समय मनुष्यको यदि कोई दूसरा व्यक्ति स्पर्श करता है तो उसके भी सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं, इसमें कुछ विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। प्रदक्षिणा करनेपर जो पुण्य मिलता है, वही पुण्य मथुरामें जाकर स्वयं प्रकट होनेवाले भगवान् श्रीहरिके दर्शनसे सुलभ हो जाता है।

भूमिकी परिक्रमाकी गणना भी योजनोंके प्रमाणमें की गयी है। पृथ्वीमें स्थित साठ हजार करोड़ और साठ सौ करोड़ तीर्थ हैं। देवताओं और आकाशमें स्थित तारागणोंकी संख्या भी इतनी है। यह गणना विश्वके आयुस्वरूप वायु, ब्रह्मा, लोमश, नारद, ध्रुव, जाम्बवान्, बलि और हनूमान् ने की है। इन लोगोंने वन, पर्वत – समुद्रसहित इस भूमिकी बाहरी रेखासे अनेक बार परिक्रमाएँ की थीं। सुग्रीव, पाँचों पाण्डव और मार्कण्डेय-प्रभृति कुछ योगसिद्धलोगोंने पृथ्वीके भीतर भ्रमण कर भी तीर्थोंकी गणना की। पर अन्य जो थोड़े ओज- बल अथवा बुद्धिवाले हैं, वे मनसे भी इन सबों के परिभ्रमणमें असमर्थ हैं, प्रत्यक्ष गमनकी तो बात ही क्या ? किंतु इन सातों द्वीपों और तीर्थोंमें घूमनेसे जो फल होता है, उससे भी अधिक फल मथुराकी परिक्रमामें मिल जाता है। जो मथुराकी प्रदक्षिणा करता है, वह मानो सात द्वीपोंवाली पृथ्वीकी प्रदक्षिणा कर लेता है। सभी मनोरथको चाहनेवाले मनुष्योंको सब प्रकारसे प्रयत्नकर मथुरा जाकर इसकी विधिपूर्वक प्रदक्षिणा करनी चाहिये।

एक बार सप्तर्षियोंके पूछनेपर ब्रह्माजीने कहा था – ‘समस्त वेदोंके अध्ययन, सभी तीर्थोंमें स्नान, अनेक प्रकारके दान और यज्ञ यागादि एवं कुआँ – तालाब, धर्मशाला बनवानेसे जो पुण्य होता है और उनका जो फल मिलता है, उससे सौ गुना अधिक फल मथुराकी परिक्रमासे प्राप्त होता है।’

ब्रह्माजीसे यह बात सुनकर सातों ऋषियोंने उन्हें प्रणाम किया और वहाँसे मथुरा आकर वहाँ आश्रम बनाये। उनके साथ ध्रुव भी थे। फिर उन सबोंने अपनी कामनाकी पूर्तिके लिये कार्तिकमासके शुक्लपक्षकी नवमी तिथिको मथुराकी विधिवत् परिक्रमा की। इससे वे सभी मुक्त हो गये।

भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! कार्तिक मासके शुक्लपक्षकी अष्टमी तिथिको व्रती साधक मथुरामें उपस्थित होकर ‘विश्रान्तितीर्थ’ में स्नान करे और देवताओं तथा पितरोंके पूजनमें संलग्न हो जाय। फिर विश्रान्तिके दर्शन करनेके पश्चात् दीर्घविष्णु और भगवान् केशवदेवका दर्शन करना चाहिये। उस रात ब्रह्मचर्यपूर्वक उपवास या अल्पाहार करे साथ ही अपने अन्तःकरणको शुद्ध करनेके लिये अपवादभूत सायंकाल भी दन्तधावन करे। फिर स्नान करके धौतवस्त्र पहने और मौनव्रत धारणकर हाथमें तिल, चावल और कुशा लेकर पितरों एवं देवताओंकी पूजा करे।

फिर नवमीको प्रात: काल ब्राह्ममुहूर्तमें प्रात:काल संयमपूर्वक पवित्र होकर सूर्योदयके पूर्व ही प्रदक्षिणार्थ यात्राका कार्य आरम्भ कर देना चाहिये। प्रातः कालका स्नान ‘दक्षिणकोटि’ नामक तीर्थमें करनेकी विधि है। सर्वप्रथम दोनों पैरोंको धोकर आचमन करके मङ्गलोंके स्वरूप तथा बालब्रह्मचारी हनुमान् जी को प्रसन्न करनेकी चेष्टा करे, जिनके स्मरणसे समस्त उपद्रव शान्त हो जाते हैं। फिर प्रार्थना करे- ‘भगवन्! आपने जिस प्रकार भगवान् श्रीरामकी यात्रामें सिद्धि प्रदान की थी, उसी प्रकार मेरी इस परिक्रमा यात्रामें सफलता प्रदान करें।’ फिर गणेश्वर, भगवान् विष्णु, हनुमानजी तथा कार्त्तिकेयकी विधिपूर्वक फल, माला तथा दीप आदिके द्वारा पूजनकर यात्रा आरम्भ करे। यात्रामें ‘वसुमती’ देवीका दर्शन बहुत आवश्यक है। वहीं राजाओंके आयुध रखनेके स्थानमें सम्पूर्ण भयको भगानेवाली भगवती ‘अपराजिता’ का भी दर्शन करे। देवि ! फिर ‘कंसवासनिका’, ‘औग्रसेना’, ‘चर्चिका’ तथा ‘वधूटी’ देवियोंका दर्शन करे। ये देवियाँ दानवोंको पराजय और देवताओंको विजय प्रदान करानेवाली हैं। पुनः देवताओंसे सुपूजित आठ माताओं, गृहदेवियों और वास्तुदेवियोंका दर्शनकर तथा उनसे आज्ञा लेकर यात्रा आरम्भ करे। जबतक परिक्रमामें ‘दक्षिणकोटि तीर्थ न मिले, तबतक मौन होकर यात्रा करनी चाहिये। ‘दक्षिणकोटि तीर्थमें स्नान, पितृतर्पण, देवदर्शन और प्रणामकर भगवान् श्रीकृष्णद्वारा पूजित भगवती ‘इक्षुवासा’ को प्रणाम करे। इसके बाद ‘वासपुत्र’, ‘अर्कस्थल’, ‘वीरस्थल’, ‘कुशस्थल’, ‘पुण्यस्थल’ और प्रचुर पापोंके नाशक ‘महास्थल’ पर जाय ये सभी तीर्थ सम्पूर्ण पापोंको दूर भगा देते हैं। फिर ‘हयमुक्ति’, ‘सिन्दूर’ और ‘सहायक’ नामके प्रसिद्ध स्थानोंपर जाय ।

इस विषय में ऋषियोंकी कही हुई एक प्राचीन गाथा सुनी जाती है— कहते हैं, कभी कोई राजकुमार घोड़ेपर सवार होकर मथुराकी सुखपूर्वक परिक्रमा कर रहा था। पर बीचमें ही नौकरसहित घोड़ेकी तो मुक्ति हो गयी, पर वह राजकुमार इस संसारमें ही पड़ा रह गया। अतएव जिसे श्रेष्ठ फलकी इच्छा हो, उसे सवारीपर चढ़कर मथुराकी कदापि परिक्रमा नहीं करनी चाहिये, क्योंकि इससे मुक्ति नहीं मिलती।

उस ‘हयमुक्ति’ तीर्थका दर्शन एवं स्पर्श करनेसे पापोंसे मुक्ति मिल जाती है। बीचमें ‘शिवकुण्ड’ नामसे प्रसिद्ध एक महान् तीर्थ है। भगवान् कृष्णको विजयी बनानेवाली ‘मल्लिका’ देवीका भी दर्शन करना चाहिये। फिर ‘कदम्बखण्ड’ की यात्राकर सपरिवार ‘चर्चिका’ योगिनीका दर्शन करे। फिर पापोंके हरण करनेवाले ‘वर्षखात’ नामक श्रेष्ठ कुण्डपर जाकर स्नान और तर्पण करना चाहिये।

देवि ! यहाँ भूतोंके अध्यक्ष भगवान् महादेवका दिव्य विग्रह है। इसके आगे ‘कृष्णक्रीडा-सेतुबन्ध’ तथा ‘बलिहद’ कुण्ड है, जहाँ श्रीकृष्णने जलविहार किया था। इसके दर्शनमात्रसे मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे छूट जाता है। यहीं कुछ आगे गंधोंसे सुवासित रहनेवाला ‘स्तम्भोच्चय’ नामक एक शिखर है, जिसे भगवान् श्रीकृष्णने सजाया और पूजित किया था। इसकी भी यत्नके साथ प्रदक्षिणा तथा पूजा करनी चाहिये, इससे प्राणी सभी पापों से मुक्त होकर विष्णुलोकको जाता है। इसके पश्चात् ‘नारायणस्थान’ तीर्थपर जाकर फिर ‘कुब्जिका’ तथा ‘वामनस्थान’ पर जाये। यहीं ‘विद्येश्वरी’ देवीका भी स्थान है, जो श्रीकृष्णकी रक्षा करनेके लिये यहाँ सदा तत्पर रहती हैं। कंसको मारनेकी अभिलाषा रखनेवाले श्रीकृष्ण, बलभद्र और गोपोंने देवीके संकेतसे यहाँ मन्त्रणा की थी। तबसे इन्हें ‘सिद्धिदा’, ‘भोगदा’ और ‘सिद्धेश्वरी’ भी कहा जाता है और कुछ व्यक्ति इन्हें ‘संकेतकेश्वरी’ भी कहते हैं। इनका दर्शन करनेसे अवश्य सिद्धि प्राप्त होती है। यहाँके कुण्डका स्वच्छ जल सब पापोंको नष्ट कर देता है। इसके बाद ‘गोकर्णेश्वरी’ – देवीका दर्शनकर सरस्वती नदी और विघ्नराज गणेशके दर्शन करनेसे मनुष्य श्रेयको प्राप्त करता है।

फिर प्रचुर पुण्यवाले ‘गार्ग्यतीर्थ’, ‘भद्रेश्वर- तीर्थ’ तथा ‘सोमेश्वर’ तीर्थमें जाना चाहिये। ‘सोमे- श्वर’ तीर्थमें स्नान करके भगवान् सोमेश्वरका दर्शन फिर ‘ घण्टाभरणक’, ‘गरुडकेशव’, ‘धारालोपनक’, ‘वैकुण्ठ’, ‘खण्डवेलक’, ‘मन्दाकिनी’, ‘संयमन’, ‘असिकुण्ड’, ‘गोपतीर्थ’, ‘मुक्तिकेश्वर’, ‘वैलक्षगरुड़’ और ‘महापातक-नाशन’ तीर्थोंमें भी जाना चाहिये।

तत्पश्चात् भगवान् शिवसे यों प्रार्थना करे- ‘देवेश! आप मुक्ति देनेवाले प्रधान देवता हैं। सप्तर्षियोंने भी पृथ्वीकी परिक्रमाके समय आपकी स्तुति की थी। इसी प्रकार मैं भी आपसे प्रार्थना करता हूँ। आपकी आज्ञासे मथुराकी प्रदक्षिणामें मुझे सफलता प्राप्त हो जाय।’ इस भाँति उस क्षेत्रके स्वामी देवाधिदेव शिवकी प्रार्थना कर ‘विश्रान्तिसंज्ञक’ तीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ जाकर स्नान, तर्पण एवं प्रणाम करना चाहिये ।

तदनन्तर श्रीकृष्णकी बहन आर्तिहरा भगवती ‘सुमङ्गला’ देवीके मन्दिरमें जाकर उनसे मथुरा- यात्राकी सिद्धिके लिये इस प्रकार प्रार्थना करे- ‘शिवे! आप सम्पूर्ण मङ्गलपूर्ण कार्योंको सम्पन्न करनेमें कुशल हैं। आपकी कृपासे प्राणीके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। आप प्रसन्न हो जायँ जिससे मुझे भी इस यात्रामें सफलता प्राप्त हो।” इसके उपरान्त ‘पिप्पलेश्वर महादेवके स्थानप जाय। पिप्पलादमुनिने यहाँ उनकी अर्चना की थी। वे महान् तपस्वी मुनि परिक्रमा करनेसे थक गये थे। इस स्थानपर भगवान् शिवने उनकी थकावट दूर की थी। उस समय पिप्पलादमुनिने वहाँकी भूमिका उपलेपन किया और उसके ऊपर अपने नामसे अङ्कित भगवान् शंकरकी प्रतिमा स्थापित कर दी। इससे उन्हें यात्रामें सफलता मिली । अतः इनका दर्शन शुभका सूचक है। मन्दिरमें प्रवेश करते समय दक्षिण भागका सुशब्द कार्यकी अनुकूलता सूचित करता है। स्वयं श्रीकृष्णको कंसवधकी सफलताके लिये प्रार्थना करनेपर इन देवीका शुभसूचक उत्तम दर्शन पहले और अन्तमें भी प्राप्त हुआ था। अतः इनका दर्शन करनेसे मनुष्यके सभी अभीष्ट कार्य पूर्ण होते हैं। उस समय कंसके बड़े-बड़े पहलवानोंको मारनेके विचारसे श्रीकृष्णने वज्रके समान मुखवाले भगवान् सूर्यका भी ध्यान किया था। जब वे सभी मल्ल कालके ग्रास बन गये, तब उन्होंने वहीं उन वज्रानन सूर्यकी स्थापना कर दी। तबसे मथुरामें निवास करनेवाले व्यक्तियोंने इन वरदाता सूर्यको अपने कुलका प्रधान देवता मान लिया है। अतः ‘सूर्य तीर्थ’ पर उनका दर्शन करके प्रदक्षिणाकी यात्रा समाप्त करनी चाहिये। मथुराकी प्रदक्षिणा के समय मनुष्यके जितने पैर पृथ्वीपर पड़ते हैं, उसके कुलके उतने व्यक्ति सनातन सूर्यलोकमें स्थान पाते हैं। मथुराकी परिक्रमा पूर्ण करके आनेवाले मनुष्यको जो कोई भी देख लेता है तो वह भी पापोंसे छूट जाता है और जो परिक्रमाकी बात सुनते हैं, वे भी अपराधोंसे मुक्त होकर परमपद प्राप्त कर लेते हैं।

अध्याय १३३ देववन और 'चक्रतीर्थ' का प्रभाव

भगवान् वराह कहते हैं- वसुंधरे ! अधर्मी एवं दुरात्मा मनुष्य भी मथुराके सेवनसे तथा वहाँके वनोंके दर्शन अथवा उस पुरीकी परिक्रमासे नरकक्लेशसे मुक्त हो जाते हैं तथा स्वर्गभोगके अधिकारी हो जाते हैं।

देवि ! इस मथुरामण्डलमें बारह वन हैं, जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं- मधुवन, तालवन, कुन्दवन, काम्यकवन, बहुवन, भद्रवन, खदिरवन, महावन, लौहवन, बिल्ववन, भाण्डीर वन और वृन्दावन। ये सभी परम श्रेष्ठ और मुझे अत्यन्त प्रिय हैं। लौहवनके प्रभावसे प्राणीके समस्त पाप दूर हो जाते हैं तथा बिल्ववन तो देवताओंसे भी प्रशंसित है जो मानव इन वनोंका दर्शन करते हैं, उन्हें नरक नहीं भोगना पड़ता।

भगवान् वराह कहते हैं- वसुंधरे ! अब मथुराके उत्तर भागमें स्थित ‘चक्रतीर्थ’ की महिमा कहता हूँ, उसे सुनो। पहले जम्बूद्वीपकी शोभा बढ़ानेवाला ‘महागृहोदय’ नामसे प्रसिद्ध एक उत्तम नगर था शुभे! उस दिव्य नगरमें एक वेदोंका पारगामी प्रतिष्ठित ब्राह्मण रहता था।

देवि! एक समयकी बात है, वह अपने पुत्रको लेकर शालग्राम (मुक्तिनाथ ) तीर्थको गया और वहीं अपना निवास बना लिया। सदा वह नियमतः वहाँ पवित्र नदीमें स्नानकर देवताओंका दर्शन करता, यही उसका नित्यकर्म था। वहीं उसे एक ‘कान्यकुब्ज’ के सिद्ध पुरुषके दर्शन हुए, जो बहुधा ‘कल्पग्राम’ में भी जाया करता था । बातचीतके प्रसङ्गमें वह सिद्ध प्रायः प्रतिदिन ‘कल्पग्राम’ की प्रशंसा करता। उस ग्रामकी विभूति सुनकर उस श्रेष्ठ ब्राह्मणके मनमें भी विचार उठा कि मैं भी उस ‘कल्पग्राम’ में चलूँ और उसने सिद्ध पुरुषसे प्रार्थना की- ‘मित्रवर! आप सिद्ध पुरुष हैं, अतः एक बार मुझे भी आप ‘कल्पग्राम’ ले चलनेकी कृपा कीजिये।’

पृथ्वि! उस श्रेष्ठ ब्राह्मणकी बात सुनकर सिद्ध पुरुषने कहा – ‘द्विजवर ! वहाँ तो केवल सिद्ध पुरुष ही जा सकते हैं, सामान्य व्यक्तिका वहाँ जाना सम्भव नहीं है।’ इसपर उस ब्राह्मणने कहा – ‘मुझे भी आत्मयोगकी शक्ति सुलभ है अतः उसके सहारे मैं अपने पुत्रके साथ वहाँ चल सकूँगा।’ फिर तो उस सिद्ध पुरुषने अपने दाहिने हाथमें उस वेदज्ञ ब्राह्मणको तथा बायें हाथमें उसके परम बुद्धिमान् पुत्रको लेकर ऊपर उड़ा और ‘कल्पग्राम’ में पहुँच गया। वहाँ पहुँच जानेपर वे पिता-पुत्र अब ‘कल्पग्राम’ में ही रहने लगे। बहुत समय व्यतीत हो जानेपर उस ब्राह्मणके शरीरमें व्याधि उत्पन्न हो गयी, वृद्धावस्था तो थी ही, अतः मरनेका निश्चयकर उस धर्मात्मा ब्राह्मणने अपने सुयोग्य पुत्रको सामने बुलाया और कहा- ‘वत्स! मुझे गङ्गाके तटपर ले चलो।’ पुत्रने उसे गङ्गाके किनारे पहुँचाया और वह भी अपने पिताके प्रति अपार श्रद्धा-भक्तिके कारण वहीं उसके पास रहने लगा।

भद्रे ! एक दिनकी बात है, दैववश कान्यकुब्ज- देशके निवासी उस सिद्ध पुरुषके घर वह ब्राह्मणकुमार भोजनके लिये गया। उस सिद्धने ब्राह्मणकुमारका स्वागत-सत्कार किया और न्यायपूर्वक उसकी अर्चना करनेके पश्चात् उसके साथ अपनी कन्याका विवाह भी कर दिया। तबसे वह ब्राह्मणकुमार प्रतिदिन अपने श्वशुरके ही घर जाकर भोजन करने लगा। अपने पिताकी चिन्तनीय स्थिति देखकर उस ब्राह्मणकुमारने एक दिन अपने उस सिद्ध पुरुष श्वशुरसे पूछा- ‘स्वामिन्! आप मुझे यह बतानेकी कृपा करें कि पिताजीका यह कष्टजर्जित शरीर कब शान्त होगा ?’ इसपर उस सिद्ध पुरुषने मुस्कुराकर कहा- ‘द्विजवर! तुम्हारे पिताने अपवित्र अन्न खाया था। इसी आहार- दोषने उन्हें इस दुर्गतिको पहुँचा दिया है। वह अन्न अभी इनके पैरोंमें पड़ा है।

लड़केने किसी दिन यह बात अपने पिताको बतला दी, अतः शरीरकी जर्जरतासे अत्यन्त दुःखी उस श्रेष्ठ ब्राह्मणने एक दिन गङ्गातटपर पड़े एक पत्थरसे ( अन्नदोषयुक्त) अपनी दोनों टाँगें तोड़ दीं, जिससे उसके प्राण निकल गये। उस समय उसका पुत्र अपने श्वशुरके गृह स्नान तथा भोजनादिके लिये गया हुआ था। लौटनेपर उसने जब अपने पिताका शव देखा तो विलाप करने लगा ।

आपस्तम्बमुनिने ठीक ही कहा है- ‘सर्पके काटनेसे, सींग एवं दाँतवाले जानवरोंके मारनेसे तथा सहसा अपने प्राणोंके त्यागनेसे अर्थात् आत्महत्या करनेसे जिसके प्राण जाते हैं, वह मनुष्य पापका भागी होता है।’

अब वह ब्राह्मणकुमार जब पुनः अपने श्वशुरके घर गया तो उसे देखते ही श्वशुरने कहा – ‘अरे! तुम्हें तो ब्रह्महत्या लगी है, तुम यहाँसे चले जाओ।’ श्वशुरकी बात सुनकर जामाताने कहा – ‘महानुभाव ! मैंने तो कभी किसी ब्राह्मणकी हत्या नहीं की, फिर आप मुझपर ब्रह्महत्याका दोषारोपण कैसे कर रहे हैं?’ श्वशुरने उससे कहा – ‘पुत्रक! तुम अपने पिताकी ही मृत्युके हेतु बने हो, अत: तुम ब्रह्महत्याके भागी हुए हो। ऐसा नियम है कि ‘यदि किसी पतितके साथ संनिकटमें एक वर्षतक शयन, भोजन अथवा वार्तालाप किया जाय तो शुद्ध पुरुष भी पतित हो जाता है। अतएव अब मेरे घरपर तुम्हारे रहनेके लिये कोई स्थान नहीं है।’ श्वशुरकी यह बात सुनकर जामाताने कहा- ‘सुव्रत! जब आपने मेरा त्याग कर ही दिया तो अब मेरे लिये कौन-सा प्रायश्चित्त कर्तव्य है—यह बतानेकी कृपा कीजिये।’ इसपर श्वशुर बोला- “अब तुम कल्पग्रामका त्यागकर ‘मथुरा’ जाओ। मथुराको छोड़कर तुम्हारी शुद्धि कहीं भी सम्भव नहीं है।” अब वह ब्राह्मण उसी क्षण ‘कल्पग्राम’ से चलकर ‘मथुरा’ आया और नगरके बाहर ही अपने रहनेका प्रबन्ध किया।

उस समय मथुरामें कान्यकुब्जके महाराज कुशिकका नित्य-सत्र चल रहा था, जिस सत्रमें प्रतिदिन दो हजार ब्राह्मण भोजन करते थे। वहाँ ब्राह्मणोंके खाते समय छूटे हुए जूँठे (उच्छिष्ट) अन्नके खानेसे उस ब्राह्मण- कुमारका उद्धार हो गया। वह सदा ‘चक्रतीर्थ’ में जाकर स्नान करता । न किसीके घर वह भिक्षा माँगता और न कहीं अन्यत्र ही जाता था।

वसुंधरे ! बहुत दिनोंके बाद उसके श्वशुरके मनमें उसकी चिन्ता हुई। उसने अपने दिव्य ज्ञानसे जामाताकी स्थिति ज्ञात कर ली और अपनी पुत्रीको आदेश दिया- ‘तुम भोजन लेकर अब मथुरापुरी जाओ; तुम्हारा पति वहीं है। वह कन्या भी योगसिद्धा एवं दिव्य ज्ञानसे सम्पन्न थी । अतएव अपने स्वामीको भोजन करानेके विचारसे वह प्रतिदिन उसके पास आने-जाने लगी और यह उसका नित्यका एक कार्यक्रम बन गया। सायंकाल भोजन लेकर वह ब्राह्मणपुत्री उस ब्राह्मणके पास जाती । वह ब्राह्मणकुमार पत्नीका दिया हुआ भोजन कर लेता और रात्रिमें उसी सत्रशालामें ही पड़ा रहता। इस प्रकार वहाँ निवास करते ब्राह्मणके छः महीने और व्यतीत हो गये। कुछ समय पश्चात् वहाँ रहनेवाले ब्राह्मणोंने उससे पूछा – ‘ आप यहाँ कहाँ निवास करते हैं और प्रतिदिन आपको भोजन कहाँसे प्राप्त होता है ?’

अब उस ब्राह्मणने उन लोगोंसे अपना सम्पूर्ण वृत्तान्त स्पष्ट कह दिया। इसे सुनकर वे सभी ब्राह्मण एकत्रित होकर उससे बोले- ‘द्विजवर ! अब तो आप सर्वथा शुद्ध हो गये हैं। इस ‘चक्रतीर्थ’ के प्रभावसे आपके सारे पाप दूर हो गये हैं। फिर हमलोगोंके शरीरसे सम्पर्क होनेके कारण आपके बचे-खुचे दूसरे पाप भी समाप्त हो गये हैं।’ उन ब्राह्मणोंकी बात सुनकर उस ब्राह्मणका मन प्रसन्नतासे खिल उठा। अब वह स्नानार्थ पुनः ‘चक्रतीर्थ’ आया। यहाँ उसकी भार्या भोजन लेकर पहलेसे ही उपस्थित थी । उसने हर्षित मनसे अपने पतिसे कहा –’स्वामिन्! मुझे ऐसा दिखायी पड़ता है कि आप अब ब्रह्महत्यासे सर्वथा मुक्त हो गये हैं।’ पत्नीकी बात सुनकर उसने कहा-‘प्रिये! तुमने जो कहा है, उसे पुनः स्पष्ट करनेकी कृपा करो।’ यह सुनकर पत्नीने कहा- ‘इससे पहले आप बात करनेमें भी अयोग्य हो चुके थे। क्योंकि आप उस समय ब्रह्महत्यासे ग्रस्त थे । द्विजवर ! अब आप ‘चक्रतीर्थ’ के प्रभावसे पापमुक्त हो गये हैं। कान्त ! अब आप उठें और परम पवित्र ‘कल्पग्राम’ को चलें।’ तदनन्तर वह श्रेष्ठ ब्राह्मण अपनी भार्याके साथ ‘कल्पग्राम’ चला गया।

वसुंधरे ! उस परम पवित्र ‘चक्रतीर्थ’ में भगवान्’ भद्रेश्वर’ विराजते हैं, जिनका दर्शन करनेसे तीर्थका फल प्राप्त होता है। वसुंधरे ! ‘चक्रतीर्थ’ के सेवनसे समग्र ‘कल्पग्राम’ की अपेक्षा भी सौगुना फल मिलता है। एक दिन- रात वहाँ उपवास करनेपर मनुष्यका ब्रह्महत्या से भी उद्धार हो जाता है।

अध्याय १३४ कपिल - वराह' का माहात्म्य

भगवान् वराह कहते हैं- वसुंधरे ! मिथिला- प्रान्तमें जनकजीकी ‘जनकपुरी’ नामकी एक प्राचीन एवं परम रमणीय पुरी है, जहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- ये चारों वर्णोंके लोग निवास करते एवं तीर्थयात्रा आदिके लिये बाहरसे भी आते-जाते रहते थे। फिर वहाँके समीपवर्ती ‘सौकरव-तीर्थ’ में स्नानकर वे ‘मथुरापुरी’ की यात्रा करते थे; और वहाँ वे कुछ कालके लिये ठहर जाते।

उसी समाजमें एक ऐसा ब्राह्मण था जिसके शरीर में ब्रह्महत्याके चिह्न थे। उसके हाथसे सदा रुधिरकी धारा गिरती रहती थी, जिसे प्रायः सभी लोग देखते थे। वह ब्राह्मण उस हत्यासे मुक्त होनेके लिये सभी तीर्थोंमें भ्रमण-स्नान कर चुका था, फिर भी उसकी ब्रह्महत्या दूर न हुई। किंतु इसके बाद जब उसने ‘वैकुण्ठ’ तीर्थमें स्नान किया तो वह रुधिरधारा स्वतः बंद हो गयी। अब उसके सभी सहवासी आश्चर्यसे कहने लगे- ‘यह कैसे हो गया, यह कैसे हो गया!’ उसी समय ब्राह्मणका रूप धारणकर एक दिव्य पुरुष वहाँ आया और उसने उन सभी उपस्थित लोगोंसे पूछा – ‘यहाँसे ब्रह्महत्या इस ब्राह्मणको छोड़कर कैसे चली ग़यी?’ इसपर उन लोगोंने उसे उस ब्राह्मणके ब्रह्महत्यासे छूटनेके सारे प्रयत्न और अन्तमें ‘वैकुण्ठ – तीर्थ’ में स्नानद्वारा हत्यामुक्तिकी बात बतला दी, अतः इस तीर्थकी महिमामें किंचित् भी संदेह नहीं करना चाहिये ।

सूतजी कहते हैंऋषियो ! इसके बाद भगवान् वराहने पुनः पृथ्वीसे कहा – ‘देवि ! यहाँ अमित पुण्य प्रदान करनेवाला ‘असिकुण्ड’ नामक एक दूसरा क्षेत्र है, अब मैं उसे बताता हूँ। उस क्षेत्रमें एक अन्य कुण्ड भी है, जिसे ‘गन्धर्वकुण्ड’ कहते हैं। वह सभी तीर्थोंमें प्रमुख है। वहाँ अवगाहन करनेवाला गन्धर्वोके साथ आनन्द भोगता है और जो उस स्थानपर प्राणोंका त्याग करता है, वह मेरे लोकमें चला जाता है।

देवि! मथुरामण्डलकी सीमा बीस योजनमें है और सभीको मुक्ति देनेमें परम समर्थ उस पुरीकी आकृति कमलके समान है। इसकी कर्णिकाके मध्यभागमें क्लेशोंके नाशक भगवान् केशव विराजते हैं। इस स्थानपर जिनके प्राण प्रस्थान करते हैं, वे मुक्तिके भागी होते हैं। यही क्यों? मथुराके भीतर कहीं भी जिनकी मृत्यु होती है, वे सभी मुक्त हो जाते हैं। इस तीर्थके पश्चिम भागमें ‘गोवर्धनपर्वत’ है, जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण निवास करते हैं। वहाँ उन देवेश्वरके दर्शन प्राप्त कर लेनेपर मनमें संताप नहीं रह जाता।

पृथ्वि ! पूर्वकालमें मान्धाता नामके एक राजा थे। उनकी भक्तिपूर्वक स्तुतिसे प्रसन्न होकर मैंने उन्हें यह प्रतिमा सौंपी थी। राजा मान्धाताके मनमें मुक्ति पानेकी अभिलाषा थी, अतः वे नित्य इस प्रतिमाकी अर्चना करने लगे। जिस समय मथुरामें लवणासुरका वध हुआ था, उसी समय वह प्रतिमा इस तीर्थमें स्थापित की गयी थी। यह विग्रह परम दिव्य पुण्यस्वरूप एवं तेजसे सम्पन्न है।

इसके मथुरा आनेकी कथा विचित्र है। कपिल नामके मुनिने अपार श्रद्धा और मनोयोगपूर्वक मेरी इस वाराही प्रतिमाका निर्माण किया था। ये विप्रवर कपिल प्रतिदिन इस प्रतिमाका ध्यान एवं पूजन करते थे। देवि! फिर इन्द्रने उन मुनिवर कपिलसे इसके लिये प्रार्थना की। तब कपिलने प्रसन्न होकर यह दिव्य रूपवाली प्रतिमा उन्हें दे दी। जब इन्द्रको यह प्रतिमा प्राप्त हुई तो उनके हृदयमें हर्ष भर गया और नित्यप्रति भक्तिके साथ मेरा पूजन करने लगे। इसके फलस्वरूप शक्रको सर्वोत्कृष्ट दिव्य ज्ञान प्राप्त हो गया। इन्द्रने मेरी इस ‘कपिलवराह’ नामक प्रतिमाकी बहुत वर्षोंतक पूजा की। इसके बाद रावणनामक दुर्दान्त राक्षस हुआ। वह महान् पराक्रमी निशाचर इन्द्रके लोकमें गया और स्वर्गको जीतनेकी चेष्टा करने लगा और देवराजके साथ युद्ध करने लगा। उसने देवताओंको परास्त कर दिया। परम पराक्रमी इन्द्र भी उससे हार गये और उन्हें बन्दी बनाकर रावण उनके भवनमें घुस गया। जब वह राक्षस रत्नोंसे सुशोभित इन्द्र भवनमें गया तो उसे इन भगवान् ‘कपिलवराह’ के दर्शन हुए। देखते ही उसने अपना मस्तक जमीनपर टेक दिया और दीर्घकालतक इन श्रीहरिकी स्तुति की। इसपर भगवान् विष्णु सौम्यरूप धारणकर पुष्पक विमानपर आरूढ़ होकर उस राक्षसके पास आये। साथ ही उस विग्रहमें उनका प्रवेश हो गया। रावणने प्रतिमा उठानी चाही, किंतु वह उठा न सका। अब उसके आश्चर्यकी सीमा न रही। उसने कहा ‘भगवन्! बहुत पहलेकी बात है, मैंने शंकरसहित कैलासपर्वतको भी अपने हाथोंसे उठा लिया था। आपकी आकृति तो बहुत ही छोटी है, फिर भी उठानेमें मेरी शक्ति कुण्ठित हो गयी है। देवेश्वर ! आपको नमस्कार है। मुझपर प्रसन्न होनेकी कृपा करें। प्रभो ! मेरी हार्दिक इच्छा है कि मैं आपको अपनी सर्वोत्तम पुरी लङ्कामें ले चलूँ ।

भगवान् वराह कहते हैं- वसुंधरे ! उस समय मैंने ‘कपिलवराह’ के रूपमें रावणसे कहा था – ‘राक्षस ! तुम अवैष्णव व्यक्ति हो। तुम्हें ऐसी भक्ति कहाँसे प्राप्त हो गयी ?’ तब मुझ ‘कपिलवराह’ की बात सुनकर रावणने कहा ‘महात्मन्! आपके पवित्र दर्शनसे ही मुझे ऐसी अनन्य भक्ति सुलभ हो गयी है। देवेश्वर! आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। आप कृपया मेरी पुरीमें पधारें।’ पृथ्वि ! तब मेरी यह प्रतिमा हलकी हो गयी और रावण तीनों लोकोंमें विख्यात मेरी उस ‘कपिलवराह’ की प्रतिमाको पुष्पक विमानपर चढ़ाकर लङ्का ले आया और वहाँ उसे प्रतिष्ठित कर दी। तदनन्तर जब भगवान् रामने राक्षसराज रावणको मारकर लङ्काके राजसिंहासनपर विभीषणका अभिषेक किया तो विभीषणने श्रीरामसे प्रार्थना की – ‘प्रभो! यह सारा राज्य आपका है। आप इसे स्वीकार करें।’

श्रीरामजीने कहा- ‘राक्षसराज विभीषण! यह सब कुछ तुम्हारा है, इससे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। पर राक्षसेश्वर ! इन्द्रके लोकसे रावणद्वारा जो ‘कपिलवराह’ की प्रतिमा यहाँ लायी गयी है, केवल उसे मुझे दे दो। उन वराहभगवान्‌की मैं प्रतिदिन पूजा करना चाहता हूँ। दानवेश्वर ! मैं उन्हें अयोध्या ले जाऊँगा।’ तब विभीषणने उस दिव्य प्रतिमाको श्रीरामको सादर समर्पण कर दिया। श्रीरामने उसे पुष्पक विमानपर रखकर अपनी नगरी अयोध्याके लिये प्रस्थान किया और अयोध्या पहुँचकर उसकी स्थापना की और प्रतिदिन पूजा करनेका नियम बना लिया। इस प्रकार दस वर्ष व्यतीत हो जानेपर श्रीरामने लवणासुरका वध करनेके लिये शत्रुघ्नको आज्ञा दी। उस समय वह राक्षस मथुरामें रहता था। शत्रुघ्नने महात्मा श्रीरामको प्रणाम किया और अपनी चतुरङ्गिणी सेना लेकर मथुराके लिये चल पड़े। लवणासुरका रूप बड़ा भयंकर था। सभी राक्षस उसे अपना नायक मानते थे। फिर भी शत्रुघ्नने उसका वध कर डाला। तत्पश्चात् शत्रुघ्न मथुरा नगरके भीतर गये और वहाँ उन्होंने अत्यन्त तेजस्वी छब्बीस हजार वेदके पारगामी ब्राह्मणोंको बसाया। जहाँ एक भी निवासी वेद नहीं जानता था, वहाँ चारों वेदोंके ज्ञाता पुरुष निवास करने लगे। अब वह स्थान ऐसा पवित्र बन गया, जहाँ एक भी ब्राह्मणको भोजन कराया जाय तो करोड़ ब्राह्मणोंके भोजन करनेके समान फल होने लगा ।

पृथ्वि ! फिर लौटनेपर जब शत्रुघ्नने लवणासुरके वधका यथावत् समाचार श्रीरामसे कहा, तब उस असुरकी मृत्युका वृत्तान्त सुनकर भगवान् राघवेन्द्रने प्रसन्न होकर उनसे कहा – ‘ शत्रुघ्न ! तुम्हारे मनमें जिस वस्तुकी अभिलाषा हो, वह तुम मुझसे वरके रूपमें माँग लो। उस समय श्रीरामकी बात सुनकर शत्रुघ्नने कहा- ‘भगवन्! आप मेरे पूज्य हैं। यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और वर देना चाहते हैं तो मुझे यह भगवान् ‘कपिलवराह’ की प्रतिमा देनेकी कृपा करें।’ तब शत्रुघ्नके वचन सुनकर श्रीरामने कहा – ‘शत्रुघ्न ! तुम इन वराह भगवान्‌की प्रतिमा ले जा सकते हो। तुम्हारे अनुगत मण्डलीको धन्यवाद और संसारमें पवित्र उस मथुरापुरीको धन्यवाद! मथुराका वह जनसमाज धन्य है, जो सदा ‘श्रीकपिलवराह’ का दर्शन करेगा। शत्रुघ्न ! जो इन कपिलवराहका दर्शन, स्पर्श एवं ध्यान करता है और इन्हें प्रतिदिन स्नान कराता तथा इनका अनुलेपन करता है, उसके सब पापोंको ये हर लेते हैं। जो इनकी पूजा तथा दर्शन करता है उसके समस्त पापोंका नाश करके ये मोक्षतक दे डालते हैं।’

पृथ्वि ! इस प्रकार कहकर श्रीरामने कपिलवराह-की यह प्रतिमा शत्रुघ्नको दे दी। उसे लेकर शत्रुघ्न  मथुरापुरी चले गये और वहाँ उन्होंने मेरे पास ही उसकी स्थापना कर दी। मध्यभागमें स्थापित करके उनकी विधिवत् पूजा की।

‘गया’ में तथा ज्येष्ठ मासमें ‘पुष्कर’ क्षेत्रमें पिण्डदान करनेसे एवं ‘सेतुबन्ध- रामेश्वर’ के दर्शन करनेसे मनुष्य जो फल पाता है, वह इनका दर्शन करनेसे पा जाता है।

वैसा ही फल विश्रान्तिसंज्ञक, गोविन्द केशव तथा दीर्घविष्णुके प्रति श्रद्धा होनेपर प्राप्त होता है। मेरा तेज प्रातः काल ‘विश्रान्तिसंज्ञक’ में, मध्याह्नके अवसरपर ‘दीर्घविष्णु” में तथा दिनके चतुर्थ भाग अर्थात् सायंकालमें  ‘केशव’ में प्रतिष्ठित रहता है। देवि! यह ब्रह्मविद्या परम प्राचीन है।

अध्याय १३५ अन्नकूट (गोवर्धन ) - पर्वतकी परिक्रमाका प्रभाव

भगवान् वराह कहते हैं-देवि ! मथुराके पास ही पश्चिम दिशामें दो योजनके विस्तारमें गोवर्धन नामसे प्रसिद्ध एक क्षेत्र है, जहाँ वृक्षों और लताओंसे मण्डित एक सुन्दर सरोवर भी है। मथुराके पूर्व भागमें ‘इन्द्र’ तीर्थ, दक्षिणमें ‘यम’ तीर्थ, पश्चिममें ‘वरुण’ तीर्थ और उत्तरमें ‘कुबेर’ तीर्थ-ये चार तीर्थ हैं। भद्रे ! यहाँ ‘अन्नकुण्ड’ नामका भी एक क्षेत्र है, इसकी परिक्रमा करनेवाले मानवका संसारमें फिर जन्म नहीं होता। फिर’मानसी गङ्गा’ में स्नानकर गोवर्धनगिरिपर भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन करना चाहिये। जो इस गोवर्धनपर्वतकी प्रदक्षिणा कर लेता है, उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता। सोमवती अमावास्याके दिन जो यहाँ जाकर पितरोंको पिण्ड प्रदान करता है, उसे राजसूय यज्ञका फल प्राप्त हो जाता है।

गयातीर्थमें जाकर पिण्डदान करनेवाले मनुष्योंको जो फल मिलता है, वही गोवर्धनपर पिण्डदानसे सुलभ हो जाता है, इसमे विचार करनेकी आवश्यकता नहीं। गोवर्धन- भगवान्‌की परिक्रमा करनेसे राजसूय और अश्वमेध- यज्ञोंका फल प्राप्त होता है।

गोवर्धनकी परिक्रमाकी विधि यह है कि भाद्रपदमासके शुक्लपक्षकी पुण्यमयी एकादश तिथिके दिन इस पर्वतके पास उपवास रहक प्रातः काल सूर्योदयके समय स्नानकर पर्वतपर स्थित श्रीहरिकी पूजा करनी चाहिये। इसके बाद ‘पुण्डरीक’ तीर्थपर जाकर वहाँके कुण्डमें स्नानकर देवताओं और पितरोंका सम्यक् प्रकारसे अर्चन करके भगवान् पुण्डरीकका पूजन करे। वहाँ निर्मल जलसे पूर्ण एक ‘अप्सरा-कुण्ड’ है। वहाँ स्नान करनेसे सभी पाप धुल जाते हैं। उस कुण्डपर तर्पण करनेसे राजसूय और अश्वमेध यज्ञोंका फल निश्चय ही मिल जाता है। मथुरा में ‘संकर्षण’ नामसे विख्यात एक तीर्थ है, उसके रक्षक बलभद्रजी हैं। वहाँ जाने एवं स्नान करने से पहलेसे लगी हुई गोहत्याके पापसे मुक्ति हो जाती है।

पृथ्वि ! गोवर्धनके पास में ही एक ‘शक्रतीर्थ’ हैं। यहाँ श्रीकृष्णने इन्द्रकी पूजाके लिये किये जा रहे यज्ञको नष्ट कर दिया था। उस यज्ञके अवसरपर भोज्य आदि पदार्थोंकी बहुत बड़ी ऊँची ढेरी लग गयी थी। उस समय इन्द्रके साथ श्रीकृष्णका विवाद छिड़ गया। इन्द्रने घोर वृष्टि की। वह जल व्रजवासियों तथा गौओंके लिये कष्टप्रद होने लगा। श्रीकृष्णने उनकी रक्षा करनेके निमित्त इस श्रेष्ठ पर्वत ( गोवर्धन) को हाथपर उठा लिया था। तभीसे यह पर्वत ‘अन्नकूट पर्वत’ के नामसे विख्यात हो गया। यहीं आगे एक स्वच्छ जलवाला ‘कदम्बखण्ड’ नामक कुण्ड है। वहाँ स्नान करके पितरोंका तर्पण करनेसे ब्रह्मलोककी प्राप्ति होती है। इसके बाद सौ शिखरवाले देवगिरिपर जाय, जहाँ स्नान एवं दर्शन करनेसे ‘वाजपेय यज्ञका फल मिलता है।

देवि ! जब ‘मानसीगङ्गा ‘ के उत्तर तटपर चक्र धारण करनेवाले देवेश्वर श्रीहरिका अरिष्टासुरके साथ घोर युद्ध हुआ था, तब उस असुरने अपना वेष बैलका बना लिया था। उसकी जीवनलीला श्रीकृष्णके ही हाथ समाप्त हुई। उसके क्रोधपूर्वक एड़ीके प्रहारसे पृथ्वीपर एक तीर्थ बन गया। यह वृषभासुरके वधसे निर्मित तीर्थ अत्यन्त अद्भुत है – यह जानने योग्य बात है। उस वृषभरूपी महासुरको मारनेके पश्चात् श्रीकृष्णने उसी तीर्थमें स्नान किया था। यह जानकर श्रीकृष्णके मनमें| चिन्ता उत्पन्न हो गयी कि यह पापी अरिष्टासुर बैलके रूपमें था और मेरे हाथ इसकी हत्या हो गयी है। इतनेहीमें भगवती श्रीराधादेवी श्रीकृष्णके समीप पधारीं। उन्होंने अपने नामसे सम्बद्ध उस स्थानको एक तीर्थरूप कुण्ड बना दिया। तबसे समस्त पापोंको हरनेवाले उस शुभ स्थानकी ‘राधाकुण्ड’ नामसे प्रसिद्धि हुई। प्रसङ्गतया लोग उसे ‘अरिष्टकुण्ड’ और ‘राधाकुण्ड’ भी कहते हैं। वहाँ स्नान करनेसे राजसूय और अश्वमेध – यज्ञोंका फल मिलता है।

मथुराके पूर्व दिशामें एक तीर्थ ‘इन्द्रध्वज’ के नामसे विख्यात है, वहाँ स्नान करनेवाले स्वर्गलोकमें जाते हैं। यहाँ परिक्रमा एवं यात्राका पुण्य भगवान्‌को समर्पित कर देना चाहिये।

मनुष्यका कर्तव्य है कि प्रारम्भ करते समय ‘चक्रतीर्थ’ में स्नान करे और यात्रा समाप्तिके अवसरपर ‘पञ्चतीर्थकुण्ड’ में स्नान कर ले। यहाँ रात्रि जागरणका भी नियम है। इससे मनुष्यके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।

भद्रे ! ‘अन्नकूटपर्वत’ की परिक्रमाका विधान मैंने तुमसे बतला दिया। इसी प्रकार इसी क्रमसे आषाढ़ में भी प्रदक्षिणा की जाती है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक भगवान् श्रीहरिके इस तीर्थकी प्रदक्षिणा के प्रसङ्गका तथा गोवर्धनके माहात्म्यको सुनता है, उसे गङ्गामें स्नान करनेका फल मिल जाता है।

भगवान् वराह कहते हैं – पृथ्वि ! अब एक इतिहासयुक्त दूसरा प्रसङ्ग सुनो। मथुराके दक्षिण किसी नगरमें सुशील नामक एक धनी वैश्य रहता था। उस वैश्यका प्रायः सारा जीवन क्रय- विक्रयमें ही बीत गया। न कभी उसे किसी प्रकारका सत्सङ्ग प्राप्त हुआ और न उसने कोई दान-धर्म आदि सत्कर्म ही किये। इस प्रकार गृह-कुटुम्बमें आसक्त रहते ही वह वैश्य कालवश होकर इस लोकसे चल बसा और उसे प्रेतयोनि मिली और बिना जलवाले तथा छायारहित जङ्गलोंमें भूख-प्यास से व्याकुल होकर वह इधर उधर भटकने लगा । यों घूमता हुआ वह भयंकर प्रेत मरुस्थल में पहुँच गया और बहुत दिनोंतक वहाँ एक वृक्षपर निवास करता रहा।

 पृथ्वि ! इस प्रकार बहुत समय व्यतीत हो जानेपर दैवयोगसे वहाँ एक खरीद-बिक्री करनेवाला वैश्य आया, जिसे देखकर उस प्रेतको अत्यन्त प्रसन्नता हुई और नाचते हुए वह बोला- ‘अहो ! तुम इस समय मेरा आहार बनकर यहाँ आ गये हो।’ अब क्या था, प्रेतकी बात सुनकर वह व्यापारी वैश्य अत्यन्त भयभीत होकर भाग चला। पर प्रेत दौड़कर उसे पकड़ लिया और कहा- ‘अब मैं तुम्हें खाऊँगा ।’ उस प्रेतकी बात सुनकर महाजनने कहा- ‘राक्षस! मैं अपने परिवारके भरण-पोषणके विचारसे इस घोर वनमें आया हूँ। मेरे घरमें बूढ़े पिता और माता हैं, एक पतिव्रता पत्नी भी है। यदि तुम मुझे खा लोगे तो उन सबकी मृत्यु हो जायगी।’ उस वैश्यकी बात सुनकर प्रेतने पूछा—’महामते ! तुम किस स्थानसे यहाँ कैसे आये हो? सब सत्य सत्य बताओ।’

वैश्यने कहा – ‘प्रेत ! मैं गिरिराज गोवर्धन और महानदी यमुना – इन दोनोंके बीच मथुरापुरीमें रहता हूँ। मैंने पहलेसे जो कुछ सम्पत्ति संचित की थी, वह सब चोर उठा ले गये और मैं सर्वथा निर्धन हो गया, अतः थोड़ा धन लेकर व्यापारके लिये इस मरुस्थलकी ओर आया हूँ। ऐसी स्थितिमें अब तुम्हें जो जँचे, वह करो।

प्रेतने कहा- ‘वैश्य ! तुमपर मुझे दया आ गयी है, अतः अब मैं तुम्हें खाना नहीं चाहता। यदि तुम मेरे वचनका पालन कर सको तो एक शर्तपर मैं तुम्हें छोड़ दूंगा। तुम मेरा एक कार्य सिद्ध करनेके लिये यहाँसे लौटकर मथुरा जाओ।

वहाँ जाकर तुम ‘चातुः सामुद्रिक’ नामक कूपपर जाकर सविधि स्नानकर मेरे नामका उच्चारण करके अपने घरके धनसे विधिपूर्वक पिण्डदान करो और उन स्नान दानादि सभी कर्मोंका फल मुझे दे देना। बस, इतना ही काम है, अब तुम सुखपूर्वक जा सकते हो।’ प्रेतकी बात सुनकर वैश्यने उत्तर दिया- ‘प्रेत ! मेरे पास एक मकानको छोड़कर घरपर और कोई धन नहीं है।’ इसपर प्रेतने उससे मुसकाकर कहा – ‘वैश्य! मैंने जो तुमसे कहा है कि तुम्हारे घरमें धन है, उसका अभिप्राय यह है – तुम्हारे घरमें एक गड्ढा है और उसमें सुवर्णकी बहुत बड़ी संचित राशि गड़ी है। मैं तुम्हें मथुराका मार्ग भी दिखला देता हूँ।’

सूतजी कहते हैं – ऋषियो ! इसपर उस वैश्यने पुनः पूछा- ‘प्रेत ! इस योनिमें तुम्हें ऐसा दिव्य ज्ञान कैसे प्राप्त है ?

प्रेतने कहा- ‘वैश्य ! मैं भी पहले जन्ममें मथुराका निवासी था। जहाँ साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण विराजते हैं। एक दिन प्रातः काल उन भगवान्‌के मन्दिरपर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रजनोंका समाज जुटा था। वहाँ एक श्रेष्ठ कथावाचक बैठे थे जो पुराणोंकी पवित्र कथा कह रहे थे। मेरा एक मित्र भी प्रतिदिन वहीं जाया करता था। उस दिन मित्रकी प्रेरणासे मैं भी वहाँ पहुँच गया । अत्यन्त आदरके साथ समाजने बार-बार मुझे संतुष्ट करनेका प्रयत्न किया। उसमें मैंने सुना कि वहाँ एक पवित्र कूप है जो पापोंको धो डालता है। इस कूपमें चारों समुद्र आ करके प्रतिष्ठित होते हैं। इस कूपके माहात्म्यको सुनने से महान् फल मिलता है। उस समय सभी श्रेष्ठ पुरुषोंने कथा – वाचकजीको धन दिया, किंतु मैं मौन रह गया। तब मित्रने मुझसे पुन: कहा- ‘प्रियवर! अपनी शक्तिके अनुसार कुछ अवश्य देना चाहिये।’ इसपर मैंने उन कथावाचकको एक ‘सुवर्ण’ (आठ रत्ती सोनेकी एक मुद्रा) प्रदान कर दिया। इसके बाद जब मेरी मृत्यु हुई तो मेरे पूर्वकर्मो के अनुसार यमराजकी आज्ञासे मुझे यह दुःखद प्रेतयोनि मिली। मैंने पूर्वजन्ममें कभी तीर्थस्नान, दान-हवन अथवा पितरोंके लिये तर्पण नहीं किये थे, इसी कारण मुझे प्रेत बनना पड़ा।’ इसपर उस वैश्यने पुनः पूछा- ‘तुम इस वृक्षकी जड़में रहकर कैसे प्राण धारण करते हो ?’

प्रेत बोला-‘पहलेकी बातें मैं तुम्हें बता ही चुका हूँ। मैंने उन कथावाचकको जो सुवर्णमुद्रा दी थी, उसीके प्रभावसे मैं इस वृक्षपर भी प्रायः तृप्त रहता हूँ, यद्यपि उसे भी मैंने दूसरेकी प्रेरणासे ही दी थी। इसीका परिणाम है कि प्रेतयोनिमें भी मेरा दिव्य ज्ञान बना है।

वसुंधरे ! प्रेतकी बात सुनकर वह वैश्य मथुरापुरी गया और वहाँ पहुँचकर उसने प्रेतके निर्देशानुसार सब कुछ वैसा ही किया। इससे वह प्रेत मुक्त होकर स्वर्ग गया।

देवि ! यह मथुरापुरीका माहात्म्य है। यहाँ ‘चतुः सामुद्रिक’ कूपपर पिण्डदान करनेसे परम गति प्राप्त होती है। मथुराके किसी स्थानपर, चाहे वह देवालय हो या चौराहा- जहाँ कहीं भी किसीकी मृत्यु हो, वह मुक्त हो जाता है, इसमें संदेह नहीं। दूसरी जगहके किये हुए पाप तीर्थोंमें जानेपर नष्ट हो जाते हैं, पर जो पाप उन तीर्थस्थानोंमें किये जाते हैं, वे तो वज्रलेप हो जाते हैं। पर यह मथुरापुरीकी ही विशेषता है कि यदि (भूलसे) यहाँ पाप बन भी गया तो वह वहीं नष्ट भी हो जाता है, क्योंकि यह पुरी परम पुण्यमयी है और इसमें कहीं पापके लिये स्थान नहीं है * । यदि कोई एक पुरुष हजार युगोंतक एक पैरपर खड़ा होकर तपस्या करे और एक व्यक्ति मथुरामें निवास करे तो मथुरावासीका पुण्य ही अधिक होता है। मथुरामें जो क्रोधरहित मानव देवताओंकी पूजा तथा तीर्थोंमें स्नान करते हैं, वे देवयोनिमें जाते हैं। दूसरी जगह एक हजार महाभाग ब्राह्मणोंकी पूजा करनेसे जो फल मिलता है, वही फल मथुरामें एक ब्राह्मणकी पूजासे प्राप्त होता है; क्योंकि देवताओंका सिद्ध समाज मथुरामें आकर सामान्य प्राणीके रूपमें स्थित है। देवताओं, सिद्धों और भूतोंका जो समुदाय है, वे सभी यहाँ चार भुजावाले विष्णुस्वरूप मथुरावासी प्राणियोंका दर्शन करने आते हैं; अतः मथुरामें जो मनुष्य हैं, वे विष्णुके ही स्वरूप हैं।

अध्याय १३६ 'असिकुण्ड' - तीर्थ तथा विश्रान्तिका माहात्म्य

धरणीने कहा प्रभो ! महादेव! आपके श्रीमुखसे मैं अनेक प्रकारके तीर्थोंका वर्णन सुन चुकी अब आप मुझे ‘असिकुण्ड’ के तीर्थका प्रसङ्ग सुनानेकी कृपा करें।

भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! सुमति नामके एक धार्मिक और विख्यात राजा थे, जिनकी किसी तीर्थयात्रा – प्रसङ्गमें मृत्यु हो गयी। अब उनके पुत्र विमतिने राज्य सँभाला। इसी बीच एक दिन वहाँ नारदजी पधारे। उसने उनका पाद्य एवं अर्घ्य आदिसे स्वागत किया। फिर बातोंके प्रसङ्गमें मुनिने उससे कहा- ‘राजन् ! पिताके ऋणको चुका देनेपर ही पुत्र धर्मका भागी हो सकता है।’ यों कहकर नारदमुनि वहीं अन्तर्धान हो गये। मुनिके चले जानेपर राजाने अपने मन्त्रियोंसे नारदजीकी बातका अर्थ पूछा। मन्त्रियोंने कहा – ‘ अपनी तीर्थयात्राका फल आप महाराजको समर्पण कर दें तो पिताका ऋण चुक सकता है, क्योंकि उनकी तीर्थयात्रा अधूरी ही रही थी।’ नारदजीके कथनका यही आशय था।

देवि ! मन्त्रियोंकी बात सुनकर विमतिने मथुरापुरीमें निवासकी बात सोची, क्योंकि वहाँ प्रायः सभी तीर्थ स्थित हैं। विमतिके मथुरा आनेपर वहाँके तीर्थोंने आपसमें कहा – ‘इसका सामना करनेमें तो हम सभी असमर्थ हैं अतः उचित है कि जहाँ भगवान् वराह विराजते हैं, हमलोग उस ‘कल्पग्राम’ में चलें।’ वसुंधरे ! इस प्रकार परामर्श करके सभी तीर्थ ‘कल्पग्राम’ में चले गये। देवि! वराहका रूप धारण कर वहाँ मैं आनन्दसे निवास करता हूँ। वे सभी मेरे सामने कल्पग्राममें आये और कहने लगे- भगवन्! आप स्वयं श्रीहरि हैं, आप अचिन्त्य, अच्युत एवं जगत् के शास्ता और स्रष्टा हैं। प्रभो! आपकी जय हो, जय हो !

भगवान् वराह कहते हैं – वसुधे ! जब तीर्थोंने मेरी इस प्रकार स्तुति की, तब मैंने उनसे कहा- ‘तीर्थवरो! तुम्हारा कल्याण हो। तुम मुझसे कोई वर माँग लो।’

तीर्थ बोले- ‘बराहका रूप धारण करनेवाले देवेश्वर! यदि आप प्रसन्न हैं तो हमें विपत्तिसे अभय प्रदान करनेकी कृपा कीजिये।’

इसपर मैं चलकर मथुरापुरी आया और अपने दिव्य ‘असि’ (तलवार) से विमतिका शिरश्छेद कर दिया। तलवारकी नोकसे वहाँ पृथ्वीमें एक गड्डा हो गया, जो एक दिव्य कुण्डके रूपमें परिवर्तित हो गया और वही ‘असिकुण्ड’ नामसे प्रसिद्ध हुआ। इसके प्रभावसे सुमति और विमति भी मुक्त हो गये।

देवि! दक्षिणसे उत्तरतकके तीर्थोंकी जो संख्या मैं पहले कह चुका हूँ, उनकी गणना इस असिकुण्डसे ही आरम्भ करनी उत्तम है जो मनुष्य द्वादशीके दिन प्रातः काल सोनेसे उठते ही असिकुण्डमें स्नान करता है, उसे यहाँ वराह, नारायण, वामन, और राघवकी सुवर्ण प्रतिमाओंके दिव्य दर्शन होते हैं। इनका दर्शन करनेवाला फिर संसारमें नहीं आता ।

भगवान् वराहने कहा- देवि ! अब विश्रान्ति- तीर्थकी महिमा सुनो। पहले उज्जयिनीमें एक दुराचारी ब्राह्मण रहता था। वह न देवताओंकी पूजा करता, न साधु-संतोंको प्रणाम करता और न तीर्थोंमें जाकर कभी स्नान ही करता था। वह मूर्ख प्रात: और सायंकाल इन दोनों संध्याओं में भी सोया रहता था। ब्रह्माजीने बताया है कि सम्पूर्ण आश्रमों में गार्हस्थ्य ही उत्तम है। जैसे सभी जन्तु पृथ्वीके आश्रित हैं और शिशुओंका जीवन मातापर अवलम्बित है। इसी प्रकार सम्पूर्ण प्राणिवर्ग गृहस्थोंपर ही आश्रित है। पर वह अधम ब्राह्मण इस आश्रम में भी रहकर सदा चोरी आदिमें ही लगा रहता ।

वसुंधरे ! एक बार जब वह रातमें चोरीके लिये इधर-उधर दौड़ रहा था, उसी समय राजाके सैनिकोंने उसे पकड़नेके लिये ललकारा। इसपर वह तेजीसे भागता हुआ एक कुएँमें जा गिरा, जहाँ उसकी जीवनलीला ही समाप्त हो गयी और इस प्रकार वह अगले जन्ममें एक वनमें ब्रह्मराक्षस हुआ।

उसका रूप बड़ा भयंकर था। एक समयकी बात हैं कि कार्यवश वहीं एक जनसमाज आ गया उसीमें एक ऐसा ब्राह्मण भी था, जो रक्षोघ्नमन्त्र पढ़कर सबकी रक्षा करता था। अब वह ब्रह्मराक्षस उस ब्राह्मणसे आकर कहने लगा- ‘विप्र! तुम्हारे मनमें जिस वस्तुकी इच्छा हो, वह मैं तुम्हें देनेके लिये तत्पर हूँ। बहुत दिनोंके बाद आज मुझे मनचाहा भोजन प्राप्त हुआ है। विप्र! तुम उठो और यहाँसे अन्यत्र जाकर कहीं सो जाओ। जिससे मैं इन सबको खाकर तृप्त हो जाऊँ। इसपर ब्राह्मणने कहा- ‘राक्षस! मैं इन्हींके साथ यहाँ आया हूँ, ये सभी मेरे परिवार ही हैं। अतः मैं इन्हें छोड़ नहीं सकता। तुम यहाँसे चले जाओ। मेरे मन्त्र में ऐसी शक्ति है कि उसके प्रभावसे तुम इनपर आँखतक नहीं उठा सकते । अस्तु, अब तुम यह बतलाओ कि तुम्हें यह योनि कैसे मिली ?”

इसपर वह राक्षस कहने लगा- ‘विप्र ! केवल अनाचार के कारण मेरी यह दुर्गति हुई है।’ इस प्रकार उस राक्षसने अपनी सारी बातें यथावत् ब्राह्मणके सामने स्पष्ट कीं। इसपर उस ब्राह्मणने कहा- ‘राक्षस! तुम अब मित्रकी श्रेणीमें आ गये हो । बोलो मैं तुम्हें क्या दूँ?”

राक्षस बोला – ‘विप्र ! यदि मेरे मनमें जो बात बसी है, वह तुम देना चाहते हो तो दे दो। तुमने मथुरापुरीमें विश्रान्तितीर्थमें जो स्नान किया है उसका फल मुझे देनेकी कृपा करो, जिससे मैं मुक्त हो जाऊँ।’ अब राक्षसके दुःखसे दुःखी होकर वह कृपालु ब्राह्मण बोला- ‘राक्षस! विश्रान्ति नामक तीर्थके विषयमें तुम्हें जानकारी कैसे प्राप्त हुई और उसका ऐसा नाम क्यों हुआ ? इसे बतानेकी कृपा करो । ‘

राक्षस बोला – ‘ब्राह्मण! मैं पहले उज्जयिनीमें निवास करता था। एक समयकी बात है, मैं संयोगवश श्रीविष्णुके मन्दिरमें चला गया। उस मन्दिरके फाटकपर एक कथा कहनेवाले वेदके विद्वान् ब्राह्मण बैठते थे, जिनका विश्रान्तितीर्थकी महिमा सुनाना प्रतिदिनका व्रत था। उस माहात्म्यको सुननेसे ही मेरे हृदयमें भक्ति उदित हुई। अनघ ! मुझे वहीं यह सुननेका अवसर मिला कि इस तीर्थका ‘विश्रान्ति’ नाम कैसे हुआ है ? उन्होंने ही स्पष्ट बतलाया था कि इस स्थानपर संसारके शासक श्रीहरि विश्राम करते हैं। उन विशाल भुजावाले प्रभुको वासुदेव भी कहते हैं। इसीलिये यह तीर्थ ‘विश्रान्ति’ नामसे विख्यात हुआ है।’ राक्षसकी यह बात सुनकर उस ब्राह्मणने कहा- ‘राक्षस! उस तीर्थमें एक बार स्नान करनेका पुण्यफल मैंने तुम्हें दे दिया।’ प्रिये! ब्राह्मणके मुखसे यह वचन निकलते ही वह राक्षस उस योनिसे मुक्त हो गया।

अध्याय १३७ मथुरा तथा उसके अवान्तरके तीर्थोंका माहात्म्य

भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! भगवान् शिव इस मथुरापुरीकी निरन्तर रक्षा करते हैं। उनके दर्शनमात्रसे मथुराका पुण्य फल सुलभ हो जाता है। बहुत पहले रुद्रने पूरे एक हजार वर्षतक मेरी कठिन तपस्या की थी। मैंने संतुष्ट होकर कहा – ‘हर ! आपके मनमें जो भी हो, वह वर मुझसे माँग लें।

महादेवजी बोले – ‘देवेश ! आप सर्वत्र विराजमान हैं। आप मुझे मथुरामें रहनेके लिये स्थान देनेकी कृपा करें।’ इसपर मैंने कहा- ‘देव! आप मथुरामें क्षेत्रपालका स्थान ग्रहण करें- मैं यह चाहता हूँ। जो व्यक्ति यहाँ आकर आपका दर्शन नहीं करेगा, उसे कोई सिद्धि प्राप्त न होगी। जिस प्रकार स्वर्गमें इन्द्रकी अमरावतीपुरी है, वैसी ही जम्बूद्वीपमें यह मथुरापुरी है। यद्यपि मथुरामण्डलका विस्तार बीस योजनोंका है, पर वहाँ एक एक पैर रखनेपर भी अश्वमेध यज्ञोंका फल मिलता है। इस क्षेत्रमें साठ करोड़, छ: हजार तीर्थ हैं। गोवर्धन तथा अक्रूरक्षेत्र- ये दो करोड़ तीर्थोंके समान हैं एवं ‘प्रस्कन्दन’ और ‘भाण्डीर’ – ये छ: कुरुक्षेत्रोंके समान हैं। ‘सोमतीर्थ’, ‘चक्रतीर्थ’, ‘अविमुक्त’, ‘यमन’, ‘तिन्दुक’ और ‘अक्रूर’ नामक तीर्थोकी ‘द्वादशादित्य’ संज्ञा है। मथुराके सभी तीर्थ कुरुक्षेत्रसे सौ गुना बढ़कर हैं, इसमें कोई संशय नहीं। जो मथुरापुरीके इस माहात्म्यको समाहित चित्तसे पढ़ता या सुनता है, वह परमपदको प्राप्त होता है और अपने मातृ-पितृ-दोनों पक्षोंके दो सौ बीस पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है।

मथुराके सभी स्थानोंमें भगवान् श्रीकृष्णके चरणके चक्रचिह्न सुशोभित हैं। उन्हींके मध्यमें एक ऐसा भी तीर्थ है, जहाँ चक्रका आधा ही चिह्न दृष्टिगोचर होता है। वहाँके निवासी मुक्ति पानेके अधिकारी हो जाते हैं – इसमें संशय नहीं। श्रीकृष्णकी क्रीडाभूमिके भी दो छोर हैं – एक उत्तर और दूसरा दक्षिण। उन दोनोंके मध्यभागमें वे विराजते हैं। आकारमें वे द्वितीयाके चन्द्रमाके समान हैं। जो मनुष्य वहाँ स्नान और दान करता है, उसे वे दिव्य तीर्थ मधुराक्षेत्रका फल प्रदान करनेके लिये सदा उद्यत रहते हैं। यहाँ नियमके अनुसार रहकर जो शुद्ध भोजन करनेवाले व्यक्ति स्नान करते हैं, उन्हें अक्षय लोकोंकी प्राप्ति होती है-इसमें कोई संशय नहीं। ‘दक्षिणकोटि’ से आरम्भ करके ‘उत्तरकोटि’ पर यात्रा समाप्त करनी चाहिये। वहाँ यज्ञोपवीतके प्रमाणभर भूमिपर जो चलते हैं, उनके द्वारा अनेक कुलोंकी रक्षा हो सकती है।

पृथ्वीने पूछा- प्रभो ! ‘यज्ञोपवीत’ का क्या माप है, आप यह मुझे स्पष्टतः बतानेकी कृपा करें।

भगवान् वराह कहते हैं- वरवर्णिनि ! अब मैं यज्ञोपवीतकी विधि बताता हूँ, सुनो। मेरी क्रीडाभूमिके जो दक्षिणका छोर हैं, वहाँसे लेकर और उत्तर सिरेतककी जो सीमा है, इसीको ‘यज्ञोपवीत’ की सीमा कही गयी है। इसी क्रमसे दक्षिणसे आरम्भ करके उत्तरकी सीमापर यात्रा समाप्त करनी चाहिये । घरसे बाहर होनेपर जबतक स्नान न करे, तबतक मौन रहनेका नियम है। वसुंधरे ! स्नान करनेके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा करना परम आवश्यक है। इसके बाद बोला जा सकता है। देवि ! स्नान समाप्त होनेपर क्रमशः देवाधिदेव श्रीकृष्णकी पूजा, यज्ञ, पयस्विनी गौका दान, सुवर्ण एवं धनका वितरण कर ब्राह्मणोंको भोजन कराये। इस प्रकार कर्म करनेवाला व्यक्ति पुनः संसारमें लौटकर नहीं आता, वह मेरे धामको प्राप्त होता है। इस ‘अर्द्धचन्द्र’ तीर्थमें जिनकी मृत्यु होती है या और्ध्वदैहिक क्रिया होती है, वे सभी स्वर्गमें जाते हैं। इस तीर्थमें पुरुषकी हड्डियाँ जबतक रहती हैं, तबतक वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित रहता है। अधिक क्या ? यदि यहाँ गदहेका भी शरीर जला दिया जाय तो वह भी विष्णुका रूप प्राप्त कर सकता है।

मथुराके प्राणी मेरे ही रूप हैं, उनके तृप्त होनेसे मैं तृप्त होता हूँ-इसमें संशय नहीं । देवि ! इस विषयमें गरुडका एक आख्यान सुनो। एक बार वे श्रीकृष्ण दर्शनकी अभिलाषासे मथुरा आये और देखा कि यहाँके सभी निवासी कृष्णके रूप थे। अन्तमें वे जैसे-तैसे भगवान् के पास पहुँचे और उनकी बड़ी स्तुति की। उनकी स्तुति सुनकर भगवान् ने कहा – ‘ गरुड ! तुम किस उद्देश्य से मथुरा आये हो? और किसलिये यह मेरी स्तुति कर रहे हो ? सभी बातें स्पष्ट बताओ ।’

गरुड बोले- भगवन्! मैं आपके कृष्णरूपके दर्शनकी अभिलाषासे मथुरा आया था। पर यहाँके सभी निवासी मुझे आपके ही स्वरूप दीखे । मेरी दृष्टिमें मथुराकी सारी जनता एक समान प्रतीत होने लगी। सबको एक समान देखकर मैं मोहमें पड़ गया हूँ । गरुडकी यह बात सुनकर श्रीहरि मुसकाये और मधुर वाणीमें इस प्रकार बोले ।

श्रीकृष्णने कहा- ‘गरुड! मथुराके निवासियों- का जो रूप है, वह मेरा ही रूप है। पक्षिराज ! जिनके भीतर पाप भरे हैं, वे ही मधुरावासियोंको मुझसे भिन्न देखते हैं।’ इस प्रकार कहकर भगवान् कृष्ण तत्क्षण वहीं अन्तर्धान हो गये और गरुड भी वहाँसे वैकुण्ठ गये। यहाँ मरकर मनुष्य, पशु, पक्षी अथवा तिर्यग्योनिके कीड़े, पतंगेतक भी सब के-सब चार भुजावाले विष्णुके रूप बन जाते हैं-यह नितान्त निश्चित है। देवि! यहाँ आकर श्रीकृष्णकी बहन भगवती एकानंशा, उनकी माता यशोदा देवकी तथा ‘महाविद्येश्वरी’ देवियोंका अवश्य दर्शन करना चाहिये । यहाँके विश्रान्तितीर्थ, दीर्घविष्णु और केशवके दर्शन करनेसे सभी देवताओंके दर्शन एवं पूजनका पुण्य फल प्राप्त होता है।

अध्याय १३८ गोकर्णतीर्थ और सरस्वतीकी महिमा

भगवान् वराह कहते हैं वसुंधरे ! अब एक दूसरा प्राचीन इतिहास बताता हूँ उसे सुनो। बहुत पहले मथुरामें वसुकर्ण नामक एक प्रसिद्ध वैश्य रहता था। उसकी स्त्री सुशीला बड़ी सद्गुणवती थी, पर उसे कोई संतान न थी । देवि! एक दिन जब वह वैश्य पत्नी ‘सरस्वती’ नदीके तटपर अनेक पुत्रवती स्त्रियोंको देखकर एकान्तमें खिन्न होकर रो रही थी तो एक मुनिके हृदयमें बड़ी दया आयी और उन्होंने उससे पूछा – ‘ सुभगे ! तुम कौन हो और क्यों रो रही हो ?’

इसपर सुशीलाने कहा- मैं एक पुत्रहीना स्त्री हूँ, पर मेरी सभी सखियाँ पुत्रवती हैं। यही मेरे खेदका कारण हैं।’ इसपर मुनिने कहा- ‘देवि ! भगवान् गोकर्णकी कृपासे तुम्हें पुत्र मिलेगा। यशस्विनि ! तुम अपने पतिके साथ उनकी आराधना करो और स्नान, दीपदान उपहार तथा अनेक प्रकारके जप और स्तोत्रोंद्वारा उन्हें प्रसन्न करनेका प्रयत्न करो।’

मुनिके इस उपदेशको सुनकर वह स्त्री उन्हें प्रणामकर अपने घर गयी और इससे अपने पतिको अवगत कराया। इसपर वसुकर्णने उससे कहा – ‘ देवि! मुनिने जो बात कही है, यह मुझे भी आशाप्रद और अनुकूल जान पड़ती है।’ अब वैश्य – दम्पति प्रतिदिन सरस्वती नदीमें स्नानकर पुष्प – धूप-दीप आदिके द्वारा गोकर्ण महादेवकी आराधना करने लगे। इस प्रकार दस वर्ष बीत जानेपर भगवान् शंकर उनपर प्रसन्न हुए और उन्हें रूपवान् एवं गुणी पुत्र प्राप्तिका वर दिया । फिर दसवें महीनेमें सुशीलाके एक सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ। वसुकर्णने पुत्र जन्मोत्सवके समय हजार गौओं, बहुत-से सुवर्ण तथा वस्त्रोंका दान किया । उसने भगवान् गोकर्णकी कृपासे उत्पन्न होनेके कारण उस बालकका नाम भी ‘गोकणं’ रखा। फिर यथासमय उसके अन्नप्राशन, चूडाकरण तथा यज्ञोपवीत आदि संस्कार कराये और वैवाहिक गोदान कराया। अब वसुकर्णका अधिकांश समय भगवान्‌की पूजा-उपासनादिमें बीतने लगा । इधर गोकर्ण भी युवावस्थामें पहुँच गया, पर उसे कोई पुत्र न हुआ, अतः पिताने उसके तीन और विवाह कर दिये। इस प्रकार उसकी चार भार्याएँ हो गयीं, जो सभी परम सुन्दरी – वय, रूप और उत्तम गुणोंसे सम्पन्न थीं। फिर भी किसीको संतान सुख सुलभ न हो सका, अतः गोकर्णने भी पुत्र प्राप्तिके लिये धर्मकृत्य आरम्भ किये और अनेक वापी, कूप, तालाब, मन्दिर आदि निर्माण कराये। पानीके लिये पौसले तथा भोजनके लिये सदावर्तकी भी व्यवस्था की। उसने ‘गोकर्णशिव’ के संनिकट ही पश्चिम दिशामें भगवान् चक्रपाणिका एक बहुत बड़ा पञ्चायतन (मन्दिर) बनवाया और एक विशाल उद्यान लगवाया, जिसमें अनेक प्रकारके वृक्ष एवं पुष्प भी लगवाये। वे चारों स्त्रियाँ मन्दिरमें जाकर भगवान्‌को पूजा-अर्चा करतीं। इस प्रकार धर्मनिष्ठामें प्रवृत्त गोकर्णके जब सारे धन-धान्य धीरे-धीरे समाप्त हो गये तो उसे चिन्ता हुई। यह सोचकर कि ‘अब महान् कष्टका समय उपस्थित हो गया; क्योंकि माता-पिता तथा आश्रित परिवारके भोजनकी व्यवस्था मुझपर निर्भर है और धनके बिना यह कार्य सुकर नहीं’ उसने पुनः व्यापार करनेके लिये मनमें निश्चय किया और कुछ सहायकोंको साथ लेकर मथुरामण्डल से बाहर गया और कुछ क्रय- विक्रयकी सामग्री लेकर वह अपने घर आया।

एक दिन वह थोड़े विश्रामकी इच्छासे पासके एक पर्वतकी चोटीपर गया, जहाँ बहुत-सी सुन्दर कन्दराएँ थीं। वहाँ जब वह इधर-उधर घूम रहा था कि उसकी दृष्टि एक अनुपम स्थानपर पड़ी, जो स्वच्छ जलसे सम्पन्न था। वहाँ फलवाले वृक्षों और सुगन्धित लता – पुष्पोंकी भी भरमार थी। एक जगह दो पहाड़ोंकी सन्धिमें मालाकी तरह गोलाकार रिक्त स्थान पड़ा था। वहीं उसे ऐसा शब्द सुनायी पड़ा, मानो कोई अतिथिके स्वागतके लिये बुला रहा हो। इतनेमें उसकी दृष्टि एक तोतेपर पड़ी, जो एक पिंजड़े में बैठा था। जब गोकर्ण उसके सामने पहुँचा तो उस सुग्गेने कहा – ‘ पान्थ ! कृपया आप अपने साथियों सहित पधारें, इस उत्तम आसनपर बैठें और पाद्य- अर्घ्य, फल-फूल स्वीकार करें। अभी मेरे माता-पिता यहाँ आकर आप सबका विशेषरूपसे स्वागत करेंगे। कारण, जो गृहस्थ आये हुए अतिथिका स्वागत नहीं करता, उसके पितर निश्चय ही नरकमें गिरते हैं। और जो अतिथियोंका सम्मान करते हैं, उन्हें अनन्त कालतक स्वर्गमें आनन्द भोगनेका अवसर मिलता है। जिस गृहस्थके घर अतिथि आकर निराश लौट जाता है, वह अपना पाप उस गृहस्थको देकर उसका पुण्य लेकर चला जाता है। अतएव गृहाश्रमीको चाहिये कि वह सब प्रकारसे प्रयत्नकर अतिथिका स्वागत करे। अतिथि समयपर आया हो या असमयमें, वह भगवान् विष्णुके समान ही पूजाका पात्र है।’

इसपर गोकर्णने तोतेसे पूछा – ‘पुराणके रहस्यको जाननेवाले तुम कौन हो ? वह मनुष्य धन्य है, जिसके पास तुम निवास करते हो।’ इसपर उस तोतेने अपना पूर्व इतिहास बताना प्रारम्भ किया। वह बोला- “पान्थ ! बहुत पहलेकी बात है एक बार सुमेरुगिरिके उत्तर भागमें जहाँ महर्षियोंका निवास है, मुनिवर शुकदेव तपस्या कर रहे थे। वे प्रतिदिन पुराणों एवं इतिहासोंका प्रवचन करते, जिसे सुननेके लिये असित, देवल, मार्कण्डेय, भरद्वाज, यवक्रीत, भृगु, अङ्गिरा, तैत्तिरि, रैभ्य, कण्व, मेधातिथि, कृत, तन्तु, सुमन्तु वसुमान्, एकत, द्वित, वामदेव, अश्वशिरा, त्रिशीर्ष तथा गोतमोदर एवं अन्य भी अनेक वेदज्ञ ऋषि महर्षि, सिद्ध देवता, पन्नग और गुह्यक आदि आते तथा धर्मसंहिताके विषयमें शङ्काओंका निराकरण कराते। उस समय मैं वामदेव मुनिका दुराचारी शिष्य ‘शुकोदर’ था। मेरा बचपनसे ही ऐसा स्वभाव बन गया था कि जहाँ धर्मकथा या नीतियोंपर विचार होता, वहाँ मैं अश्रद्धालु बनकर आगे पहुँच जाता और बारंबार तर्क-वितर्क कर प्रश्न करता रहता । गुरुजी मुझे अन्यायवादी बताकर सदा रोकते रहते, पर मेरी प्रकृति नहीं गयी। वहाँ भी मैंने एक दिन यही किया, यद्यपि मेरे गुरुजीने तथा बहुत-से प्रधान मुनियोंने मुझे बहुत रोका, किंतु मैंने उनके वचनकी अवहेलना कर दी। तब शुकदेवजीने क्रोधके आवेशमें आकर मुझे शाप दे दिया और कहा कि ‘यह बड़ा ही बकवादी है, अतः जैसा इसका नाम है, उसीके अनुसार यह शुक (तोता) पक्षी हो जाय’ – बस क्या था, मैं तुरंत तोता बन गया। फिर मुनियोंकी प्रार्थनापर उन्होंने कहा कि इसका रूप तो पक्षीका होगा, परंतु यह पुराणोंका जानकार होगा और सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थ इसे अवगत होंगे और अन्तमें मथुरामें मरकर यह ब्रह्मलोकको प्राप्त होगा।”

‘पान्थ! इसके बाद मैं वहाँसे उड़कर इस हिमालयपर आकर इस गुहामें रहने लगा और सावधानीसे सदा ‘मथुरा’का नाम जपता रहता हूँ। फिर मैं एक बहेलियेके चंगुलमें फँस गया, जिससे इस पिंजड़े में रहना पड़ता है।’ अब गोकर्ण कहने लगा—’ भद्र! मैं पापनाशिनी मथुरापुरीमें ही रहता हूँ और व्यापारसे थककर विश्रामके विचारसे यहाँ आया हूँ। इधर इन दोनोंमें इस प्रकारकी बात हो ही रही थी कि शबरकी स्त्री, जो उस समय सो रही थी, कुछ आहट पाकर नींदसे जग गयी । तोतेने उससे कहा- ‘माँ ! ये अतिथिरूपमें यहाँ पधारे हैं, अतः पूज्य हैं। इसपर वह स्वागतका सामान संग्रह करने लगी, इसी बीच शबर भी आ पहुँचा। तोतेने उसे भी अतिथि सत्कारकी सलाह दी। उसने गोकर्णको प्रणाम किया और उसकी पूजा कर स्वादिष्ठ फल तथा सुगन्धपूर्ण पेय पदार्थ समर्पण करके उससे कुछ वार्तालाप किया। फिर पूछा – ‘अतिथिदेव ! कहिये, मैं आपकी और क्या सेवा करूँ ?”

गोकर्ण ने कहा- ‘मित्र ! यदि स्वागत-सत्कारके अतिरिक्त तुम मुझे अन्य कुछ भी देना चाहते हो तो मुझे इस तोतेको ही दे दो। मैं इसे मथुरामें ले जाऊँगा और अपने पुत्रके रूपमें रखूँगा । इसपर शबर बोला- ‘क्या इसके बदले हमें तुम यमुना स्नानका फल दे सकते हो ? इस तोतेने मुझे बताया है कि कोई नीच योनिमें अथवा जन्मसे राक्षस ही क्यों न हो, यदि वह मथुरावास, सङ्गम- स्नान एवं द्वादशीव्रत करता है तो उसे अभीष्ट गति प्राप्त हो सकती है। जो सङ्गममें स्नान तथा भगवान् गोकर्णेश्वरका दर्शन करता है, वह यमपुरीमें नहीं जाता। उसे भगवान् श्रीहरिके लोककी ही प्राप्ति होती है।’ इसपर गोकर्णने स्वीकृति दे दी।

अध्याय १३९ सुग्गेका मथुरा जाना और वसुकर्णसे वार्तालाप

भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! इस प्रकार गोकर्णने शबरसे (मथुरास्नानके बदले) उस सुग्गेको प्राप्तकर मथुरा नगरके लिये प्रस्थान किया और वहाँ पहुँचकर उस तोतेको अपने माता-पिताको सौंप दिया तथा उसका परिचय भी दे दिया। फिर कुछ दिनोंके बाद वह व्यापार करनेके लिये उस तोतेको अपने साथ लेकर अपने सहकर्मियोंके साथ समुद्रमार्गसे चल पड़ा।

इसी बीच एक दिन प्रतिकूल वायु चलनेसे समुद्रमें सहसा भयंकर तूफान आ गया, जिससे सभी पोतयात्री घबड़ा गये और ‘गोकर्ण’ को लक्ष्यकर कहने लगे—‘कोई निकृष्ट एवं पापी व्यक्ति इस जहाजपर चढ़ गया है, जिसके कारण हमारी यह दुर्दशा हुई है एवं हम सभी मरे जा रहे हैं। गोकर्णने तोतेके सामने अपनी दयनीय स्थिति रखी और कहा कि ‘पुत्रहीन व्यक्तिकी बड़ी दुर्गति होती है। यहाँ जहाजमें जितने व्यक्ति हैं, उनके बीच मैं ही सबसे बड़ा पापी हूँ। अब क्या करना उचित है यह तुम्हीं जानते हो ।’

तोतेने कहा – ‘पिताजी! आप खेद न करें, मैं अभी एक उपाय करता हूँ।’ इस प्रकार गोकर्णको आश्वासन देकर वह तोता उड़ा और ध्रुवकी ओर उत्तर दिशामें बढ़ता गया। आगे एक योजनके ऊँचे पर्वतकी एक चोटी पड़ी, जिसे लाँघकर वह भगवान् विष्णुके सुन्दर मन्दिरके पास पहुँचा, जिसके प्रकाशसे सब ओर वहाँ बड़ी शोभा हो रही थी। उसके भीतर प्रवेश कर उसने कहा- ‘यहाँ यह कौन देवता विराज रहे हैं? मैं उनसे जानना चाहता हूँ कि अपार कठिनाईको पार करनेवाले पुण्यात्मा पुरुषकी भाँति मेरे पिताजी इस घोर समुद्रको कब पार कर सकेंगे ?’

पृथ्वि ! वह सुग्गा इस चिन्तामें ही था कि वहाँ एक देवी आयी, जिसके हाथमें एक सुवर्णपात्र था। उसने विष्णुकी पूजा की और ‘नमो नारायणाय’ कहकर एक उत्तम आसनपर बैठ गयी। अभी पलमात्र ही समय बीता होगा कि फिर वहाँ वैसी असंख्य रूपवती देवियाँ आ गयीं और वे सभी नृत्य, गान, वाद्यसे देवार्चन करके वापस चली गयीं। वहीं जटायुके वंशके कुछ पक्षी भी थे। उन्होंने उस सुग्गेसे पूछा – ‘तुम यहाँ कैसे पहुँचे, क्योंकि अगाध जलसे परिपूर्ण समुद्रको पार करना साधारण काम नहीं है।’ इसपर तोतेने उत्तर दिया- मेरे पिताजी वायुकी तेज गतिमें समुद्री जहाजपर बड़ी कठिनाईका अनुभव कर रहे हैं। उनकी रक्षाके लिये ही मैं यहाँ आया हूँ । आपलोग कुछ प्रयत्न करें, जिससे वे सुखी हो सकें।’

पक्षीगण बोले- ‘ जिस मार्गसे हम चलें, तुम उसका अनुसरण करो। हम पादविन्याससे ही समुद्रमें चलकर चोंचोंसे मकर-नक्रादिका संहार कर डालेंगे। इससे तुम्हारे साथ तुम्हारे पिता भी समुद्र तर जायेंगे।’ अब वह तोता उन पक्षियोंके पीछे-पीछे चलता हुआ गोकर्णके पास पहुँचा और उनके प्रयाससे गोकर्ण समुद्रसे बाहर निकल गया। वहाँ पहुँचकर वह उसी देवमन्दिरके सामने गया; जहाँ कमलोंसे सुशोभित एक सरोवर था, जिसकी सीढ़ियाँ मणियों और रत्नोंसे बनी थीं। गोकर्णने उस सरोवरमें स्नान कर देवताओं तथा पितरोंका तर्पण किया, फिर मन्दिरमें जाकर भगवान् केशवकी आराधना कर वह प्रभूत रत्नोंद्वारा सम्पन्न उस पञ्चायतनमन्दिरमें तोतेके साथ एक ओर छिप गया। इतनेमें ही वे देवियाँ, जिन्होंने पहले उस मन्दिरमें देवार्चन किया था, वहीं पुनः आ गयीं और देवपूजन करने लगीं। फिर उनमेंसे एक प्रधान देवीने कहा-‘सखियो ! ब्रह्ममें निष्ठा रखनेवाले गोकर्णके खानेके लिये दिव्य फल और पीनेके लिये उत्तम जल प्रदान करो, जिससे तीन महीनोंतक इसकी तृप्ति बनी रहे एवं इसके शोक, मोह तथा पाप भी नष्ट हो जायँ ।’

इसपर उन देवियोंने सब कुछ वैसा ही कर गोकर्णसे कहा- तुम निश्चिन्त एवं निर्भय होकर इस स्वर्गके समान सुखदायी स्थानमें तबतक निवास करो, जबतक तुम्हारा काम सिद्ध न हो जाय’ और फिर वे वहाँसे चली गयीं। अब गोकर्ण वहाँ इस प्रकार रहने लगा मानो मथुरापुरीमें ही हो। कुछ समयके पश्चात् उसका जहाज भी संयोगवश किनारे लग गया। अब इधर जहाजपरके उसके साथी उसे न देखकर परस्पर कहने लगे- ‘ओह, पता नहीं गोकर्ण कहाँ चला गया ? वह मर गया, जलमें डूब गया अथवा किसी जीवने उसे खा लिया ? हो सकता है, लज्जाके कारण वह समुद्रमें डूब गया हो। अब हमलोगोंका यही कर्तव्य है कि उसके पिताके सामने हम ही- पुत्ररूपमें रहें। उपार्जित रत्नोंमेंसे जितना भाग गोकर्णका हो, वह उसके पिताको हम सौंप दें।’

उधर गोकर्णका मन बड़ा शोकाकुल था। उसने तोतेसे माता- पिताके हितकी बात पूछी। सुग्गेने कहा- ‘मैं तुच्छ पक्षी आपको वहाँ ले चलूँ यह मेरी शक्तिसे बाहर है। हाँ, मैं आपकी आज्ञासे आकाशमार्गसे मथुरा जाकर तथा आपकी बात उनके पास तथा उनका संदेश आपके पास पहुँचा सकता हूँ।’ गोकर्णने कहा – ‘पुत्र ! ठीक है, यही करो तुम मथुरा जाओ और मेरी अवस्था पिताजी से बता दो तथा वहाँसे फिर शीघ्र वापस आ जाओ।’

अब वह सुग्गा मथुरा पहुँचा और गोकर्णकी सारी स्थिति उसके पितासे बता दी। इस विषम परिस्थितिको सुनकर माता – पिताको दारुण दुःख हुआ और बहुत देरतक उनकी आँखोंसे अश्रुधारा गिरती रही। फिर उस सुग्गेके प्रति उनके मनमें बड़ा स्नेह हुआ। उन्होंने कहा- ‘विहंगम ! तुमने धर्मके अनुकूल (नीतिपूर्ण) वृत्तान्त कहकर हमारे जीवन रक्षाके लिये यह बड़ा उत्तम कार्य किया है।’ वसुंधरे ! इस प्रकार उस पक्षीने अपनी बुद्धि एवं विद्याके बलसे पुत्र शोकके कारण अत्यन्त दुःखी गोकर्णके वृद्ध माता-पिताको पूर्ण शान्ति प्रदान की। इधर गोकर्णक बीसों साथी भी वसुकर्णके पास प्रभूत रत्न लेकर आये। उनके पास अतुल रत्न – राशि थी, अतः वसुकर्णके प्रति उन सबने पुत्र जैसा ही पुत्र-: व्यवहार किया और फिर उसकी आज्ञा लेकर वे अपने-अपने घर गये ।

अध्याय १४० गोकर्णका दिव्य देवियोंसे वार्तालाप तथा मथुरामें जाना

भगवान् वराह कहते हैंशुभे ! गोकर्णने दिव्य देवियोंके आदेशसे उस मन्दिरमें तेरह दिनोंकी आराधना आरम्भ की। इस बीच वे देवियाँ भी यथासमय आकर नृत्य करतीं। इसी बीच एक दिन गोकर्णने उन सभी देवियोंको अत्यन्त म्लान, निस्तेज और दुःखी देखा वह सोचने लगा कि शास्त्रोंमें ठीक ही कहा गया है। कि पुत्रहीन पुरुषकी सद्गति नहीं होती। अहो मुझ पापात्माके दोषसे ये देवियाँ भी इस स्थितिमें आ गयी हैं, मानो इन्हें बुढ़ापेने घेर लिया है।’ फिर साहसकर उसने उनसे उदास होनेका कारण पूछा। इसपर उन देवियोंने कहा- ‘महाभाग ! यह बात पूछने योग्य नहीं है। सभी कार्योंमें कालात्मा उस दैवका ही हाथ है। पर गोकर्ण बार-बार आग्रहपूर्वक उन्हें प्रणाम कर इस प्रश्नको पूछता ही रहा और उनके न बतलानेपर उसने समुद्रमें डूबकर अपने प्राणत्याग करनेकी बात भी कही

उसके ऐसा कहनेपर उन देवियोंमेंसे ज्येष्ठादेवीने कहा – ‘दुःख तो उसी व्यक्तिके सामने कहना चाहिये, जो उसे दूर कर सके, फिर भी बताती हूँ। मथुरा नामसे प्रसिद्ध एक दिव्य पुरी है, जिसके प्रभावसे मनुष्य मुक्ति पानेका अधिकारी बन जाता है। इस समय अयोध्यानरेश चातुर्मास्यव्रत करनेके विचारसे अपनी चतुरङ्गिणी सेनाके साथ वहीं गये हैं। वहाँ विष्णुके पाँच मन्दिर तथा अनेक फुलवारियाँ हैं, पर उनके सेवकोंने उन बगीचोंको नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है।’

इतना कहकर वह तथा सभी देवियाँ एक साथ रोने लगीं। इससे गोकर्ण अत्यन्त दुःखी हो गया। फिर उसने उन्हें प्रणाम कर और हाथ जोड़कर सबको सान्त्वना देते हुए मधुर वाणीमें उनसे कहा- ‘देवियो ! यदि मैं अयोध्याके राजासे मिला तो यह दुर्व्यवहार अवश्य बन्द करा दूँगा, परंतु इस समय प्रतिकूल प्रारब्धने मुझे सर्वथा वञ्चित कर रखा है।’ गोकर्णके इस प्रकार कहनेपर देवियोंने उस वैश्यसे पूछा – ‘तुम कौन हो और कहाँसे आये हो?”

गोकर्णने अपना नाम पता बताकर फिर उनका परिचय पूछा तो उन्होंने अपनेको ‘उद्यानाधिष्ठात्री देवी’ बतलाया। इसपर गोकर्णने उनसे पूछा – ‘देवियो ! संसारमें बगीचा लगानेवालेको क्या फल मिलता है तथा जो कुआँ तथा देवमन्दिरका निर्माण करता है, उसे कौन-सा पुण्यफल प्राप्त होता है? आप यह सब हमें बतानेकी कृपा करें।’ इसपर वे बोलीं- “आर्य! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य – इन द्विजाति वर्णोंके लिये धर्मका पहला साधन है- ‘इष्टापूर्त का पालन करना। ‘इष्ट के प्रभावसे स्वर्ग मिलता है और ‘पूर्त’ से मोक्ष’।

जो पुरुष बिगड़ते हुए वापी, कुआँ, तालाब अथवा देवमन्दिरोंका जीर्णोद्धार कराता है, वह पूर्तके पुण्य फलका भागी होता हैं।

भूमि दान और गोदान करनेसे पुरुषोंके लिये जो पुण्य बताया गया है, वैसा ही फल वृक्षोंके लगाने से मानव प्राप्त कर लेते हैं।

एक पीपल अथवा एक पिचुमन्द (निम्ब), एक बड़, दस फूलवाले वृक्ष, दो अनार, दो नारङ्गी और पाँच आम्रके वृक्षोंका जो आरोपण करता है, वह नरकमें नहीं जाता। जिस प्रकार सुपुत्र कुलका उद्धार कर देता है तथा प्रयत्नपूर्वक नियमसे किया गया ‘अतिकृच्छ्र’ व्रत उद्धारक होता है, वैसे ही फलों और फूलोंसे सम्पन्न वृक्ष अपने स्वामीका नरकसे उद्धार कर देते हैं। “

भगवान् वराह कहते हैं- पृथ्वि ! मालती प्रभृति पुष्प-जाति तथा वृक्षोंकी यज्ञाङ्ग-साधनभूता, फलप्रदाता छाया एवं गृहोपयोग आदिसे सम्बद्ध ज्येष्ठादेवीके साथ इस प्रकार वार्तालाप करनेके बाद गोकर्ण कहने लगा- ‘अहो ! महान् दुःखकी बात है कि मैं अपने माता-पिताको भूल गया?’ और उसे मूर्च्छा आ गयी। फिर उन देवियोंने गोकर्णके मुखपर जल छिड़के, जिससे उसकी चेतना लौटी।

फिर देवियोंने उसे आश्वासन दिया और पूछा- आर्य! जहाँसे तुम आये हो, वहाँकी बातें बताओ।’

गोकर्णने कहा – ‘देवियो ! मेरा निवास मथुरा में है, वहाँ मेरे वृद्ध माता-पिता और मेरी चार पतिव्रता पत्नियाँ भी हैं। वहाँ मेरा एक उद्यान और देवताका मन्दिर भी है।

इसपर ज्येष्ठादेवीने कहा- ‘अनघ ! यदि तुम्हें मथुरा जानेकी उत्कट अभिलाषा है तो मैं तुम्हें वहाँ आज ही पहुँचा सकती हूँ। इससे हमें भी मथुरापुरीका दर्शन सुलभ हो जायगा। तुम इस सुन्दर विमानपर अभी बैठो और इन दिव्य रत्न, आभूषण तथा फलोंको भी साथ ले लो।’ अब गोकर्ण विमानपर बैठा और भगवान् श्रीहरिको नमस्कार तथा देवियोंका अभिवादन कर मथुराके लिये प्रस्थित हुआ एवं वहाँ पहुँचकर उसने अयोध्याके राजाको वे रत्न, फल-फूल समर्पण किये। वहाँ गोकर्णको आया देखकर राजाके मनमें अपार आनन्द हुआ। उसने उसे अपने आसनपर ऐसे बैठाया, मानो किसी रत्नदाता धनी व्यक्तिको आसन दे रहा हो और बड़ा प्यार किया। अब गोकर्णने राजासे कहा- ‘थोड़ी देरके लिये आप इस स्थानसे बाहर चलें। अभी मैं एक आश्चर्यमय दृश्य दिखाऊँगा और आपसे कुछ निवेदन भी करूँगा।’

इसका प्रबन्ध हो जानेपर वे सभी देवियाँ भी विमानसे वहाँ आ गयीं। सभी बात ज्ञात होनेपर राजाने अपनी सेना मथुरासे अयोध्या वापस कर और गोकर्णको बारंबार धन्यवाद देकर उसकी प्रशंसा कर उसे इच्छानुसार वर दिया। देवियाँ भी गोकर्णसे- ‘तुम्हारा कल्याण हो’- यों कहकर दिव्य लोकमें चली गयीं। अयोध्या-नरेशने गोकर्णको बहुत-से गाँव अमूल्य वस्त्र, हाथी, घोड़े तथा अन्य अपार धन भी दिये। ‘बाग-बगीचे लगाना परम धर्म है। इससे आश्चर्यमय महान् फलकी प्राप्ति होती है – यह सुनकर उस नरेशने अन्य उद्यानोंके आरोपणकी भी व्यवस्था कर दी।

भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! गोकर्ण न्यायका पालन करते हुए अब मथुरामें निवास करने लगा। उसने घर पहुँचकर अपने माता और पिताके चरणकमलों में सिर झुकाकर प्रणाम किया। उस तोतेने भी गोकर्णके माता-पिता और चारों सहधर्मिणियोंका अपने वैभव एवं शक्तिके अनुसार सम्मान करके उनकी पूजा की। मथुरामें निवास करनेवाली प्रजाको बाग लगानेकी प्रेरणा दी फिर गोकर्णने एक यज्ञ आरम्भ किया और ब्राह्मणोंको उत्तम भोज्य एवं अन्य बहुत से दान दिये। तोतेको हृदयसे लगाकर भली प्रकार उसने देखा और गद्गद होकर कहने लगा- ‘यह ऐसा जीव है, जिसकी कृपासे मुझे जीवन, सद्धर्म तथा उत्तम गतिकी प्राप्ति हुई है।’

गोकर्णने मथुरामें एक मन्दिर बनवाया और उसका नाम ‘शुकेश्वर मन्दिर रखा। उसमें ‘शुकेश्वर ‘के नामसे एक प्रतिमा भी स्थापित की और एक अन्न वितरण करनेकी संस्था भी खोल दी। उसमें दो सौ ब्राह्मणोंको भोजनके लिये प्रतिदिन अन्न बँटने लगा। गोकर्णने उस संस्थाका नाम ‘शुकसत्र’ रख दिया। उस स्थानपर जिसकी मृत्यु होती है, वह मुक्त हो जाता है। अन्तमें वह सुग्गा भी विचित्र विमानपर चढ़कर स्वर्गलोकमें चला गया। जिस शबरकी कृपासे गोकर्णको वह तोता प्राप्त हुआ था, उसका उद्धार होनेके लिये गोकर्णने त्रिवेणी स्नानका फल अर्पण कर दिया। अतः वह शबर अपनी पत्नीसहित स्वर्ग गया। शुकोदरके साथ ही वे सभी दिव्य विमानपर विराजमान होकर स्वर्ग गये।

वसुंधरे ! इस प्रकार मैंने तुमसे मथुराके सरस्वती – सङ्गममें स्नानका गोकर्णेश्वर शिवके दर्शनका, गोकर्ण नामक वैश्यकी अविनाशी संतानका तथा उसके सुख-सुखोपभोग और मुक्तिलाभका वर्णन कर दिया।

अध्याय १४१ ब्राह्मण-प्रेत-संवाद *, सङ्गम-महिमा तथा वामन - पूजाकी विधि

भगवान् वराह कहते हैं- वसुंधरे ! त्रिवेणी सङ्गमसे सम्बन्धित एक दूसरा प्रसङ्ग सुनो। पूर्व समयमें यहीं महानाम वनमें उत्तम व्रतका पालन करनेवाला एक ‘महानाम’ संज्ञक योगाभ्यासी ब्राह्मण भी रहता था। एक बार तीर्थयात्राके विचारसे उसने मथुराकी यात्रा की, मार्गमें उसे पाँच विकराल प्रेत मिले। उनसे ब्राह्मणने पूछा- ‘अत्यन्त भयंकर रूपवाले आपलोग कौन हैं? तथा आपलोगों का ऐसा बीभत्स रूप किस कर्मसे हुआ है ?”

अब प्रथम प्रेत बोला-‘हमलोग प्रेत हैं और हमारे नाम क्रमशः ‘पर्युषित’, ‘सूचीमुख’, ‘शीघ्रग’, ‘रोधक’ और ‘लेखक’ हैं। इनमेंसे मैं तो स्वयं स्वादिष्ठ भोजन करता और बासी अन्न ब्राह्मणको दिया करता था, इसी कारण मेरा नाम ‘पर्युषित’ पड़ा है। इस दूसरेके पास अन्न पानेकी इच्छासे जो ब्राह्मण आते थे उनको यह मार डालता था, अतः यह ‘सूचीमुख’ है। इस तोसरेके पास देनेकी शक्ति थी, किंतु जब कोई ब्राह्मण इससे याचना करने आता तो यह कहीं अन्यत्र ही चला जाता, अतः लोग इसे ‘शीघ्रग’ कहते हैं। चौथा माँगनेके डरसे ही अकेले सदा उद्विग्न होकर घरमें ही बैठा रहता था, अतः इसे ‘रोधक’ कहा जाता है जो ब्राह्मणके याचना करनेपर मौन होकर सदा बैठ जाता और पृथ्वीपर रेखा खींचने लगता, वह हम सभीमें अधिक पापी हैं। उसका अनुगुण- नाम ‘लेखक’ पड़ा है। अभिमान करनेसे ‘लेखक’ तथा नीचे मुख करनेसे ‘रोधक’ की यह दशा हुई है। ‘शीघ्रग’ अब पङ्गुत्वका कष्ट भोगता है। ‘सूचीमुख’ इस समय उपवास करता है। उसकी गर्दन छोटी, ओठ लम्बे और पेट बहुत बड़ा है। पापसे ही हमारी ऐसी स्थिति है। विप्र ! यदि तुम्हें हमारी इस स्थितिके अतिरिक्त अन्य भी कुछ सुननेकी इच्छा हो या पूछना चाहते हो तो पूछो ?

ब्राह्मणने कहा – ‘प्रेतो! पृथ्वीके सभी प्राणियोंका जीवन आहारपर ही अवलम्बित है। अतः मैं जानना चाहता हूँ कि तुम लोगोंके आहार क्या हैं?’

प्रेत बोले – ‘ दयालु ब्राह्मण! हमारे जो आहार हैं, उन्हें बताता हूँ, सुनो। वे आहार ऐसे हैं, जिन्हें सुनकर तुम्हें अत्यन्त घृणा होगी । जिन घरोंमें सफाई नहीं होती, स्त्रियाँ जहाँ कहीं भी थूक खखार देती हैं और मल-मूत्र यत्र-तत्र पड़ा रहता है, उन घरोंमें हम निवास एवं भोजन करते हैं। जहाँ पञ्चबलि नहीं होती, मन्त्र नहीं पढ़े जाते, दान-धर्म नहीं होता, गुरुजनोंकी पूजा नहीं होती, भाण्ड इधर-उधर बिखरे रहते हैं, जहाँ कहीं भी जूठा अन्न पड़ा रहता है, प्रतिदिन परस्पर लड़ाई उनी रहती है, ऐसे घरोंसे हम प्रेत भोजन प्राप्त करते हैं। विप्रवर! तुम तपस्याके महान् धनी पुरुष हो। हम तुमसे पूछना चाहते हैं, मनुष्यको ऐसा कौन-सा काम करना चाहिये, जिससे उसे प्रेत न होना पड़े, तुम उसे हमें बतानेकी कृपा करो।’

ब्राह्मण बोला- ‘एकरात्र, त्रिरात्र, चान्द्रायण, कृच्छ्र, अतिकृच्छ्र आदि व्रत करनेसे पवित्र हुए मनुष्यको प्रेतकी योनि नहीं मिलती। जो श्रद्धापूर्वक मिष्टान्न एवं जल दान करता है, जो संन्यासीका सम्मान करता है, वह प्रेत नहीं होता। पाँच, तीन अथवा एक वृक्षको भी जो नित्य जलसे पोसता है तथा जो सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करता है, वह प्रेत नहीं होता। देवता, अतिथि, गुरु एवं पितरोंकी नित्य पूजा करनेवाला व्यक्ति भी प्रेत नहीं होता। क्रोधपर विजय रखनेवाला, परम उदार, सदा संतुष्ट, आसक्तिशून्य, क्षमाशील और दानी व्यक्ति प्रेत नहीं हो सकता। जो व्यक्ति शुक्ल तथा कृष्णपक्षको एकादशीका व्रत करता है तथा सप्तमी एवं चतुर्दशी तिथियोंको उपवास करता है, वह भी प्रेत नहीं होता। गौ, ब्राह्मण, तीर्थ, पर्वत, नदियों तथा देवताओंको जो नित्य नमस्कार करता है, उसे प्रेतकी योनि नहीं मिलती। पर जो मनुष्य सदा पाखण्ड करता, मदिरा पीता है और चरित्रहीन तथा मांसाहारी है, उसे प्रेत होना पड़ता है। जो व्यक्ति दूसरेका धन हड़प लेता है तथा शुल्क (धन) लेकर कन्या बेचता है, वह प्रेत होता है जो अपने निर्दोष माता-पिता, भाई- बहन स्त्री अथवा पुत्रका परित्याग कर देता है, वह भी प्रेत होता है। इसी प्रकार गो-ब्राह्मण- हत्यारे, कृतघ्न तथा भूमि और कन्यापहारी पापी व्यक्ति भी प्रेत होते हैं।’

प्रेतोंने पूछा- ‘जो मूर्खतावश सदा अधर्म तथाविरुद्ध कर्म करते हैं, ऐसे पापी व्यक्तियोंके प्रेतत्वमुक्तिके क्या उपाय हैं, आप यह बतानेकी कृपा करें।’

ब्राह्मणने कहा – ‘महाभागो ! बहुत पहले राजा मान्धाताके इसी प्रकार प्रश्न पूछनेपर वसिष्ठजीने उन्हें इसका उपदेश किया था। यह पुण्यमय प्रसङ्ग प्रेतोंको मुक्त कर उन्हें उत्तम गति प्रदान करता है। भाद्रपद मासके शुक्ल पक्षमें श्रवण नक्षत्रसे युक्त द्वादशीमें किये गये दान, हवन और स्नान- ये सभी लाख गुना फल प्रदान करते हैं। उस दिन सरस्वती सङ्गममें स्नानकर भगवान् वामनकी पूजाकर विधिपूर्वक कमण्डलुका दान करे। इस वामन- द्वादशीके व्रतसे मनुष्य प्रेत नहीं होता और मन्वन्तरपर्यन्त स्वर्गमें निवास करता है। तत्पश्चात् वह वेदपारगामी ‘जातिस्मर’ ब्राह्मण होता है और फिर निरन्तर ब्रह्मचिन्तन करनेसे वह मुक्त हो जाता है।’

“उस दिन भगवान्‌के षोडशोपचार पूजनकी विधि है। इसके लिये वह आवाहन करते हुए कहे — ‘ श्रीपते! आप अपने अंशसे सब जगह विराजमान रहते हैं। मुझपर कृपा करके यहाँ पधारिये और इस स्थानको सुशोभित कीजिये । फिर – ‘आप श्रवण नक्षत्रके रूपमें साक्षात् भगवान् ही हैं और आज द्वादशीको आकाशमें सुशोभित हैं। अपनी अभिलाषा-सिद्धिके लिये मैं आपको नमस्कार करता हूँ’ ऐसा कहकर श्रवण नक्षत्रका भी पूजन-वन्दन करे फिर ‘केशव ! आपकी नाभिसे कमल निकला है और कहकर विसर्जन करे- ‘भगवन्! आपको देवगर्भ यह विश्व आपपर ही अवलम्बित है, आपको मेरा प्रणाम है’ – यह कहकर भगवान् वामनको स्नान कराये। ‘नारायण! आप निराकाररूपसे सर्वत्र विराजते हैं। जगद्योने! आप सर्वव्यापी, सर्वमय एवं अच्युत हैं। आपको नमस्कार’ – यह कहकर चन्दनसे उनकी पूजा करे। ‘केशव ! श्रवण नक्षत्र और द्वादशी तिथिसे युक्त इस पुण्यमय अवसरपर मेरी पूजा स्वीकार करनेकी कृपा कीजिये – यह कहकर पुष्प चढ़ाये। ‘शङ्ख, चक्र एवं गदा धारण करनेवाले भगवन्! आप देवताओंके भी आराध्य हैं। यह धूप सेवामें समर्पित है’ – यह कहकर धूप दे। दीपक – समर्पण करनेके लिये कहे- ‘अच्युत, अनन्त, गोविन्द तथा वासुदेव आदि नामोंको अलङ्कृत करनेवाले प्रभो! आपके लिये नमस्कार है। आपकी कृपासे इस तेजद्वारा यह विस्तृत अखिल विश्व नष्ट न होकर सदा प्रकाश प्राप्त करता रहे।’ नैवेद्य अर्पण करते हुए कहे- ‘भक्तोंकी याचना पूर्ण करनेवाले भगवन् ! आप तेजका रूप धारण करके सर्वत्र व्याप्त हैं। आपके लिये नमस्कार है। प्रभो! आप अदितिके गर्भमें आकर भूमण्डलपर पधार चुके हैं। आपने अपने तीन पगोंसे अखिल लोकको नाप लिया और बलिका शासन समाप्त किया था। आपको मेरा नमस्कार है।’ ‘भगवन्! आप अन्न, सूर्य, चन्द्रमा, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, यम और अग्नि आदिका रूप धारण करके सदा विराजते हैं’- यह कहकर कमण्डलु प्रदान करे। फिर इस कपिला गौके अङ्गोंमें चौदह भुवन स्थित हैं। इसके दानसे मेरी मन:कामना पूर्ण हो’ – यह कहकर कपिला दान करे। अन्तमें इस प्रकार कहा जाता है। मैं भलीभाँति आपका पूजन कर चुका। प्रभो! आपको नमस्कार है।’ जो विज्ञ मनुष्य श्रद्धासे सम्पन्न होकर जिस किसी भी भाद्रपद मासमें भगवान् वामनकी इस प्रकार आराधना करेगा, उसे सफलता अवश्य प्राप्त होगी।”

ब्राह्मणने पुनः कहा- “जहाँ यमुना और सरस्वती नदीका सङ्गम हुआ है, उस ‘सारस्वत’ तीर्थपर जो इस विधिके साथ श्रद्धापूर्वक यह व्रत करता है, उसे सौ गुना फल प्राप्त होता है। मैंने भी श्रद्धाके साथ उस तीर्थका सेवन किया है और क्षेत्रसंन्यासीके रूपमें वहाँ बहुत दिनोंतक निवास किया है, जिससे तुमलोग मुझे अभिभूत नहीं कर पाये। इस तीर्थकी महिमा तथा इस व्रतका माहात्म्य सुननेसे तुमलोगोंका भी कल्याण होगा।”

भगवान् वराह कहते हैं- वसुंधरे ! वह ब्राह्मण इस प्रकार कह ही रहा था कि आकाशमें दुन्दुभियाँ बज उठीं और पुष्प वृष्टि होने लगी, साथ ही उन प्रेतोंको लेनेके लिये चारों ओर विमान आकर खड़े हो गये। देवदूतने प्रेतोंसे कहा – ‘ इस ब्राह्मणके साथ वार्तालाप करने, पुण्यमय चरित्र सुनने तथा तीर्थकी महिमाका श्रवण करनेसे अब तुमलोग प्रेतयोनिसे मुक्त हो गये। अतः प्रयत्नपूर्वक संत पुरुषके साथ सम्भाषण करना चाहिये।’

इस प्रकार देवतीर्थमें अभिषेक करने तथा सरस्वती – सङ्गमके पुण्यसम्पर्कमात्रसे उन दुरात्मा प्रेतोंको अक्षय स्वर्ग प्राप्त हो गया और उस तीर्थकी महिमाके श्रवणमात्रसे वे मुक्तिके भागी हो गये। तबसे यह स्थान ‘पिशाचतीर्थ के नामसे विख्यात हुआ। उन पाँचों प्रेतोंको मुक्ति देनेवाला यह प्रसङ्ग सम्पूर्ण धर्मोका तिलक है। जो परम भक्ति के साथ तत्परतापूर्वक इस चरित्रको पढ़ता अथवा सुनता है तथा इसपर श्रद्धा करता है, वह भी प्रेत नहीं होता।

अध्याय १४२ ब्राह्मण कुमारीकी मुक्ति

भगवान् वराह कहते हैं –देवि ! अब कृष्ण (मानसी ) – गङ्गासे सम्बन्धित एक दूसरा प्रसङ्ग सुनो। एक समय श्रीकृष्णद्वैपायनमुनिने मथुरामें एक दिव्य आश्रम बनाकर बारह वर्षोंतक यमुनाकी धारामें नियमपूर्वक अवगाहनका नियम बनाया। अतः वहाँ चातुर्मास्यके लिये अनेक वेद-तत्त्वज्ञ एवं उत्तम व्रतोंके पालन करनेवाले मुनियोंका आना-जाना बना रहता। वे उनसे श्रौत स्मार्त- पुराणादिकी अनेक शङ्काएँ पूछते और मुनि उनकी शङ्काका निराकरण करते। वहीं ‘कालञ्जर’ नामसे प्रसिद्ध तीर्थ है, जिसके प्रधान देवता शिव हैं। उनका दर्शन करनेसे ही ‘कृष्णगङ्गा’ में स्नान करनेका फल प्राप्त होता है।

‘सोमतीर्थ’ और ‘वैकुण्ठतीर्थ’ के बीच ‘कृष्ण-गङ्गा’ स्थान है।

इसी बीच ध्यानयोगमें सदा संलग्न रहनेवाले मुनिवर व्यास एक बार हिमालय पर्वतपर गये और बदरिकाश्रममें वे कुछ समयके लिये ठहर गये। उन त्रिकालदर्शी सिद्ध मुनिने अपने ज्ञाननेत्रसे ‘कृष्णगङ्गा के तटका एक बड़ा आश्चर्यजनक दिव्य दृश्य देखा, जो इस प्रकार है। नदीके उस तटपर ‘पाञ्चाल ‘कुलका ‘वसु’ नामक एक ब्राह्मण रहता था । दुर्भिक्षसे पीड़ित होनेके कारण वह अपनी स्त्रीको साथ लेकर दक्षिणा पथको गया और शिवनदीके दक्षिणतटवर्ती एक नगरमें ब्राह्मणी- वृत्तिसे रहने लगा । वहाँ उसके पाँच पुत्र और एक निलोत्तमा नामकी कन्या उत्पन्न हुई। कन्याका विवाह उसने किसी ब्राह्मणके साथ कर दिया फिर वह ब्राह्मण सपत्नीक कालधर्मको प्राप्त हो गया। उस समय वह ‘तिलोत्तमा’ कन्या ही माता-पिताकी हड्डियाँ लेकर तीर्थयात्रियोंके साथ मथुरा आयी; क्योंकि उसने पुराणोंमें सुना था कि जिसकी हड्डी मथुराके अर्द्धचन्द्र ‘तीर्थमें गिरती है, वह सदा स्वर्गमें निवास करता है।’ यह पुत्री उस ब्राह्मणकी सबसे छोटी संतान थी, जो विवाहके कुछ ही काल बाद विधवा हो गयी थी।

उन्हीं दिनों ‘कान्यकुब्ज के राजाने मथुराके गर्तेश्वर महादेवके लिये एक ‘अन्न- सत्र’ खोल रखा था, जहाँ निरन्तर भोजन वितरण होता रहता था। उस नरेशके यहाँ नृत्य-गान भी होता था । यहाँ गणिकाओंके दुश्चक्रमें पड़कर वह कन्या भी उसी कर्ममें लग गयी और थोड़े ही दिनोंके बाद वह भी उस राजाकी परिजन बन गयी।

 भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! उस ‘वसु’ ब्राह्मणके कनिष्ठ पुत्रका नाम पाञ्चाल था, जो बड़ा रूपवान् था। वह कुछ व्यापारियोंके साथ अनेक देशों, राज्यों, पर्वतों और नदियोंको पारकर यात्रा करते हुए मथुरा पहुँचा तथा वहीं रहने लगा। एक दिन प्रातः काल कुछ पुरुषोंके साथ स्नान करनेके लिये वहाँके उत्तम ‘कालञ्जर’ तीर्थमें गया और स्नानकर श्रेष्ठ वस्त्र एवं अलङ्कारोंसे अलङ्कृत होकर धनके गर्वमें एक यानपर बैठकर देवताका दर्शन करनेके लिये ‘त्रिगर्तेश्वर महादेवके स्थानपर पहुँचा। वहाँ उसकी दृष्टि ‘तिलोत्तमा’ पर पड़ी, जिसे देखकर वह सर्वथा मुग्ध हो गया। फिर उसने उस कन्याकी धाईके द्वारा उसे कपड़ोंकी गाँठे, सैकड़ों सुवर्णके आभूषण तथा रत्नोंके हार भेंट किये। अब वह आसक्तिके कारण प्राय: उसीके घर रहता और जब आधा पहर दिन चढ़ जाता तब अपनी छावनीपर जाता तथा समीपके ‘कृष्णगङ्गोद्भव’ तीर्थमें स्नान करता, इस प्रकार छः महीने बीत गये। एक बार जब वह सुमन्तुमुनिके आश्रमके पास स्नान कर रहा था तो मुनिकी दृष्टि उसपर पड़ गयी। उसके शरीरमें कीड़े पड़ गये थे, जो रोम कूपोंसे निकलकर जलमें गिर रहे थे। पर स्नान कर लेनेके बाद वह सर्वथा नीरोग हो गया। जब मुनिने इस प्रकारका दृश्य देखा तो उससे पूछा – ‘सौम्य ! तुम कौन हो, तुम्हारे पिता कौन हैं? कहाँके रहनेवाले हो, तुम्हारी कौन-सी जाति है तथा तुम दिन-रात किस काममें व्यस्त रहते हो? यह सब तुम मुझे बताओ ।’

पाञ्चालने कहा- ‘मैं एक ब्राह्मणका बालक हूँ और मेरा नाम ‘पाञ्चाल’ है। इस समय मैं व्यापार कार्यसे दक्षिण भारतसे यहाँ आया हूँ और प्रातः काल यहाँ स्नानकर ‘त्रिगर्तेश्वर ‘महादेवका दर्शन करता हूँ। फिर कालञ्जर- क्षेत्रमें आकर आपके चरणोंका दर्शन करता हूँ। तत्पश्चात् छावनीमें लौट जाता हूँ।’

मुनिने कहा- ‘ब्राह्मण! तुम्हारे शरीरमें मैं प्रतिदिन एक महान् आश्चर्यकी बात देखता हूँ। तुम्हारा शरीर स्नानके पहले कृमिपूर्ण और स्नान कर लेनेपर स्वच्छ एवं प्रकाशमय बन जाता है। तुम किसी पाप-प्रपञ्चमें पड़े हो, जो इस तीर्थमें स्नान करनेके प्रभावसे दूर हो जाता है। अब तुम सोच-विचारकर उसका पता लगाकर मुझे बताओ ।’

इसपर पाञ्चालने उस कन्याके घर जाकर उससे एकान्तमें आदरपूर्वक पूछा – ‘सुभगे ! तुम किसकी पुत्री हो और तुम्हारा कौन-सा देश है ?एवं यहाँ कैसे आयी तथा रहती हो ?

उस समय पाञ्चालके अनुरोधपूर्वक पूछनेपर भी उस कन्याने उसका कुछ उत्तर नहीं दिया। कुछ समय बाद पाञ्चालने कहा- ‘देखो, अब तुम यदि सच्ची बात नहीं कहोगी तो मैं अपने प्राणोंका त्याग कर दूंगा।’ उसके इस निश्चयको देख उस कन्याने अपने माता-पिता, भाई, देश, जाति और कुल सबका यथावत् परिचय देते हुए बतलाया कि ‘मेरे पिताके पाँच पुत्र और मैं- ये छः संतानें हुई थीं, जिनमें सबसे छोटी संतान में ही हूँ । विवाहके बाद मेरे पतिदेवका शीघ्र ही देहान्त हो गया। पाँचों भाइयोंमें जो सबसे छोटा था, वह धनकी तृष्णासे बचपनमें ही व्यापारियोंके साथ विदेश चला गया। उसके चले जानेपर मेरे माता-पिता मर गये। अतएव कुछ सहायकोंका साथ पाकर मैं इस तीर्थमें उनके अस्थिप्रवाहके लिये चली आयी । यहाँ कुछ गणिकाओंके कुचक्रमें पड़कर मेरी यह दशा हुई। मैंने कुलटा स्त्रियोंका धर्म अपनाकर अपने कुलको नष्ट कर दिया। यही नहीं, मातृ-पितृ और पति- इन तीनों कुलोंके इक्कीस पीढ़ियोंको घोर नरकमें गिरा दिया।

इस प्रसङ्गको सुनकर पाञ्चालको तो मूर्च्छा आ गयी और वह भूमिपर गिर पड़ा। वहाँ उपस्थित स्त्रियाँ दीनवदना उस ब्राह्मणकुमारीको समझा-बुझाकर पाञ्चालके चारों ओर खड़ी हो गर्मी और फिर अनेक प्रकारके उपायोंका प्रयोग कर उन सबने उसकी मूर्च्छाको दूर किया। जब उसके शरीरमें चेतना आयी तो उन्होंने उससे बेहोशीका कारण पूछा। इसपर उस ब्राह्मणकुमारने अपना सारा वृत्तान्त कह सुनाया।

फिर इस पापसे उसके मनमें घोर चिन्ता व्याप्त हो गयी और वह प्रायश्चित्तकी बात सोचने लगा। उसने कहा-‘मुनियोंने विचार करके यह आदेश दिया है कि यदि कोई द्विजाति ब्राह्मणकी हत्या कर दे अथवा मदिरा पी ले तो उसका प्रायश्चित्त शरीरका परित्याग ही है। माता, गुरुकी पत्नी, बहन, पुत्री, और पुत्रवधूसे अवैध सम्बन्ध रखनेवालेको जलती अग्निमें प्रवेश कर जाना चाहिये। इसके अतिरिक्त उसकी शुद्धिके लिये दूसरा कोई उपाय नहीं है।’ जब पाञ्चालीने अपने बड़े भाईके मुखसे ही मुनिकथित यह प्रायश्चित्त सुना तो उसने भी अपने सौभाग्यके सम्पूर्ण आभूषण, रत्न-वस्त्र, धन और धान्य आदि जो कुछ भी वस्तुएँ संचित कर रखी थीं, वह सब का सब ब्राह्मणों में बाँट दिया। साथ ही बताया कि ‘इस द्रव्यसे कालञ्जरका शृङ्गार तथा एक उद्यानका निर्माण कराया जाय। ‘ फिर उसने सोचा- ‘अपनी आत्म शुद्धिके लिये ‘कृष्णगङ्गोद्भवतीर्थ में चलकर विधिपूर्वक चितारोहण करूँ।’

उधर पाञ्चाल भी सुमन्तुमुनिके पास पहुँच कर उन्हें प्रणामकर मृत्युके उपयोगी कर्मोंका सम्पादन कर मथुराके निवासी ब्राह्मणोंको बुलाकर उन्हें भलीभाँति दान देकर अपनी शेष सम्पूर्ण धनराशि सत्र खोलनेके लिये दे दी और विधिके अनुसार अपनी और्ध्वदैहिक संस्कारके लिये भी व्यवस्था कर ली। ‘कृष्णगङ्गा में स्नानकर उसने इष्टदेवका दर्शनकर, उन्हें प्रणाम किया और सुमन्तुमुनिके चरणोंको पकड़कर प्रार्थना की- ‘भगवन्! मैं अगम्यागमनके दोषसे महान् पापी बन गया हूँ। मुझ कुलनाशकका स्वभगिनीके साथ ही दुर्योगसे अवैध सम्बन्ध हो गया। अब मैं अपने शरीरका त्याग करना चाहता हूँ। आप आज्ञा दें।’

इस प्रकार सुमन्तुमुनिको अपना पाप सुनाकर चितापर घृत छिड़क कर वह अग्निमें प्रवेश करना ही चाहता था कि सहसा आकाश वाणी हुई – ऐसा दुःसाहस मत करो; क्योंकि तुम दोनोंके पाप सर्वथा धुल गये हैं। जहाँ स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने सुखपूर्वक लीला की है तथा जो स्थान उनके चरणके चिह्नसे चिह्नित है, वह तो ब्रह्मलोकसे भी श्रेष्ठ है। दूसरी जगहके किये हुए पाप इस तीर्थमें आते ही नष्ट हो जाते हैं। मनुष्य ‘गङ्गा-सागर में एक बार स्नान करनेसे ब्रह्म-हत्या जैसे पापसे छूट जाता है। पृथ्वीपर जितने तीर्थ हैं, उन सभी तीर्थोंमें स्नान करनेसे जो फल मिलता है, वैसा ही फल ‘पञ्चतीर्थ में स्नान करनेसे मिल जाता है – इसमें कोई संशय नहीं। शुक्ल और कृष्णपक्षकी एकादशियोंको विश्रान्ति – तीर्थ में, द्वादशीको ‘सौकरव’ तीर्थमें, त्रयोदशीको नैमिषारण्यमें चतुर्दशीको प्रयागमें तथा कार्तिकी एकादशीको पुष्करमें स्नान करना चाहिये। इससे सारे पाप दूर हो जाते हैं।’

भगवान् वराह कहते हैं वसुंधरे ! इस प्रकारकी आकाशवाणीको सुनकर पाञ्चालने सुमन्तुसे पूछा- ‘मुने! आप मुझे यह बतानेकी कृपा करें कि मैं आगमें प्रवेश करूँ या ‘त्रिरात्र’, ‘कृच्छ्र’ या ‘चान्द्रायण’ व्रत करूँ ?’ उनका

मुनिने आकाशवाणीकी बातोंपर विश्वासकर उसे शुद्ध धर्माचरणका आदेश दिया। देवि ! जो मनुष्य श्रद्धासे इस माहात्म्यका श्रवण एवं पठन करेगा, वह कभी भी पापसे लिप्त नहीं हो सकता, साथ ही उसके सात जन्म पहलेके भी किये हुए पाप दूर भाग जाते हैं और वह जरा- मरणसे मुक्त होकर स्वर्गलोकको चला जाता है।

अध्याय १४३ साम्बको शाप लगना और उनका सूर्याराधन-व्रत

भगवान् वराह कहते हैं – शुभाङ्गि ! अब मैं श्रीकृष्णकी कथाका वह अद्भुत प्रसङ्ग कहता हूँ, जो द्वारकापुरीमें घटित हुआ था। साथ ही साम्बके शापकी बात भी सुनो। एक बार जब भगवान् सानन्द द्वारकामें विराजमान थे तो नारदमुनि वहाँ पधारे। श्रीभगवान् ने उन्हें आसन, अर्घ्य, पाद्य मधुपर्क एवं गौ समर्पण किये। तदनन्तर मुनिने उन्हें यह सूचना दी कि ‘मैं आपसे एकान्तमें कुछ कहना चाहता हूँ और एकान्तमें उन्होंने कहा— ‘प्रभो! आपका नवयुवक पुत्र साम्ब बड़ा वाग्मी, रूपवान्, परम सुन्दर तथा देवताओंमें भी आदर पानेवाला है। देवेश्वर! आपकी देवतुल्य हजारों स्त्रियाँ भी उसको देखकर क्षुब्ध हो जाती हैं। आप साम्बको और उन देवियोंको यहाँ बुलाकर परीक्षा करें कि वस्तुतः क्षोभ है या नहीं।’

इसके पश्चात् सभी स्त्रियाँ तथा साम्ब श्रीकृष्णके सामने आये और हाथ जोड़कर बैठ गये । क्षणभरके बाद साम्बने पूछा- ‘प्रभो! आपकी क्या आज्ञा है?’ वस्तुतः साम्बकी सुन्दरताको देखकर श्रीकृष्णके सामने ही उन स्त्रियोंके मनमें क्षोभ उत्पन्न हो गया था।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा- ‘देवियो ! अब तुम सभी उठो और अपने स्थानको जाओ।’ श्रीकृष्णकी आज्ञा पाकर वे देवियाँ अपने-अपने स्थानको चली गयीं। पर साम्ब वहीं बैठे रहे। उनके शरीरमें कँपकँपी बँध रही थी। श्रीकृष्णने कहा- ‘नारदजी ! स्त्रियोंका स्वभाव बड़ा ही विलक्षण है।’

नारदजीने कहा- ‘प्रभो! इनकी इस प्रवृत्तिसे सत्यलोकमें भी आपकी निन्दा हो रही है, अतः अब साम्बका परित्याग करना ही उचित है

भगवन्! संसारमें आपकी तुलना करनेवाला दूसरा कौन पुरुष है? आप ही इसे कर सकते हैं।’

वसुंधरे ! नारदके इस कथनपर श्रीकृष्णने साम्बको रूपहीन होनेका शाप दे दिया, जिससे साम्बके शरीरमें कुष्ठ रोग हो गया और उनके शरीरसे दुर्गन्धयुक्त रक्त गिरने लगा। अब उनका शरीर ऐसा दिखायी पड़ने लगा, मानो कोई छिन्न-भिन्न अङ्गवाला पशु हो। फिर नारदजीने ही साम्बको शापसे छूटनेके लिये सूर्यकी आराधनाका उपदेश दिया और साथ ही कहा – ‘जाम्बवती नन्दन ! तुम्हें वेद और उपनिषदोंमें कहे हुए मन्त्रोंका उच्चारण करके विधिके अनुसार सूर्य- नमस्कार करना चाहिये। इससे वे संतुष्ट हो जायँगे।’ फिर सूर्यसे तुम्हारा समुचित संवाद होगा, जिस प्रसङ्गको लेकर ‘भविष्यपुराण’ निर्मित होगा। उसे मैं ब्रह्माजीके लोकमें जाकर उनके सामने सदा पाठ करूँगा। फिर सुमन्तुमुनि मर्त्यलोकमें मनुके सामने उसका कथन करेंगे। इस प्रकार उसका सभी लोकोंमें प्रचार-प्रसार होगा।’

साम्बने कहा- ‘प्रभो! मेरी स्थिति तो ऐसी है, मानो मांसका एक पिण्ड हो। फिर उदयाचलपर मैं जा ही कैसे सकता हूँ। यह आपकी ही कृपा है कि मुझे यह दुःख भोगना पड़ रहा है, नहीं तो तत्त्वतः मैं बिल्कुल दोषरहित था।’

नारदजी बोले – ‘साम्ब ! उदयाचलपर जाकर सूर्यकी आराधना करनेसे जैसा फल मिलता है, वैसा ही फल मधुराके ‘षट्सूर्य तीर्थ ‘पर सुलभ हो जाता है। यहाँ भगवान् सूर्यकी प्रतिमाओंका प्रातः, मध्याह्न एवं सायंकालमें जो पूजा करता है, वह तुरंत ही साम्राज्य जैसा फल प्राप्त कर सकता है। प्रातः, मध्याह्न और सायं- इन तीनों पवित्र समयोंमें सूर्यमन्त्रका जप तथा उच्चस्वरसे उनके स्तोत्रपाठसे सारे पाप धुलकर कुष्ठ आदि रोगोंसे भी मुक्ति मिल जाती है।’

भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! मुनिवर नारदके ऐसा कहनेपर महाबाहु साम्बने श्रीकृष्णसे आज्ञा प्राप्त करके भुक्तिमुक्ति फल देनेवाली मथुरामें आकर देवर्षि नारदकी बतायी विधिके अनुसार प्रातः, मध्याह्न और सायंकालमें उन षट्सूर्योकी पूजा एवं दिव्य स्तोत्रद्वारा उपासना आरम्भ कर दी। भगवान् सूर्यने भी योगबलकी सहायतासे एक सुन्दर रूप धारण कर साम्बके सामने आकर कहा- ‘साम्ब ! तुम्हारा कल्याण हो ! तुम मुझसे कोई वर माँग लो मेरे कल्याणकारी व्रत एवं उपासनापद्धति प्रचारके लिये भी इसे करना परम आवश्यक है। मुनिवर नारदने तुम्हें जो स्तोत्र बताया है और जिसे तुमने मेरे सामने व्यक्त किया है, उस तुम्हारी ‘साम्बपञ्चाशिका’ – स्तुतिमें वैदिक अक्षरों एवं पदोंसे सम्बद्ध पचास श्लोक हैं। वीर! नारदजीद्वारा निर्दिष्ट इन श्लोकोंद्वारा तुमने जो मेरी स्तुति की है, इससे मैं तुमपर पूर्ण संतुष्ट हो गया हूँ।’

वसुधे! यह कहकर भगवान् सूर्यने साम्बके सम्पूर्ण शरीरका स्पर्श किया। उनके छूते ही साम्बके सारे अङ्ग सहसा रोगमुक्त होकर चमक उठे। फिर तो वे ऐसे विद्योतित होने लगे, मानो दूसरे सूर्य ही हों उसी समय याज्ञवल्क्यमुनि माध्यन्दिन – यज्ञ करना चाहते थे। भगवान् सूर्य साम्बको लेकर उनके यज्ञमें पधारे और वहाँ साम्बको ‘माध्यन्दिन- संहिता का अध्ययन कराया। तबसे साम्बका भी एक नाम ‘माध्यन्दिन’ पड़ गया। ‘वैकुण्ठक्षेत्र’ के पश्चिमभागमें यह यज्ञ सम्पन्न हुआ था। अतएव इस स्थानको ‘माध्यन्दिनीय’ तीर्थ कहते हैं। वहाँ स्नान एवं दर्शन करनेके प्रभावसे मानव समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है। साम्बके प्रश्न करनेपर सूर्यने जो प्रवचन किया वही प्रसङ्ग भविष्यपुराण के नामसे प्रख्यात पुराण बन गया। यहाँ साम्बने ‘कृष्णगङ्गा ‘ के दक्षिण तटपर मध्याह्न सूर्यकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा की जो मनुष्य प्रातः, मध्याह्न और अस्त होते समय इन सूर्यदेवका यहाँ दर्शन करता है, वह परम पवित्र होकर ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है।

इसके अतिरिक्त सूर्यकी एक दूसरी उत्तम प्रातःकालीन विख्यात प्रतिमा भगवान् ‘कालप्रिय’ नामसे प्रतिष्ठित हुई । तदनन्तर पश्चिमभागमें ‘मूलस्थान में अस्ताचलके पास ‘मूलस्थान ‘नामक प्रतिमाकी प्रतिष्ठा हुई। इस प्रकार साम्बने सूर्यकी तीन प्रतिमाएँ स्थापित कर उनकी प्रातः मध्याह्न एवं संध्या – तीनों कालोंमें उपासनाकी भी व्यवस्था की*।

देवि ! साम्बने ‘भविष्यपुराण में निर्दिष्ट विधिके अनुसार भी अपने नामसे प्रसिद्ध एक मूर्तिकी यहाँ स्थापना करायी। मथुराका वह श्रेष्ठ स्थान ‘साम्बपुर के नामसे प्रसिद्ध है। सूर्यकी आज्ञाके अनुसार वहाँ रथ यात्राका प्रबन्ध हुआ । माघ मासकी सप्तमी तिथिके दिन जो सम्पूर्ण राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे मुक्त मानव उस दिव्य स्थानमें रथ यात्राकी व्यवस्था करते हैं, वे सूर्यमण्डलका भेदन कर परमपद प्राप्त करते हैं।

देवि ! साम्बके शापका यह प्रसङ्ग मैंने तुम्हें बतलाया। इसके श्रवणसे सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।

अध्याय १४४ शत्रुघ्नका चरित्र, सेवापराध एवं मथुरामाहात्म्य

भगवान् वराह कहते हैं- देवि ! प्राचीन समयकी बात है – मथुरामें लवण नामक एक राक्षस था । ब्राह्मणोंकी रक्षाके लिये महात्मा शत्रुघ्नने उसका वध किया था। उस स्थानकी बड़ी महिमा है। मार्गशीर्षकी द्वादशी तिथिके अवसरपर वहाँ संयमपूर्वक पवित्र रहकर स्नान करना और शत्रुघ्नके चरित्रका वर्णन करना चाहिये। लवणासुरके वध करनेसे शत्रुघ्नको अपने शरीरमें पापकी आशङ्का हो गयी थी। उसे दूर करनेके लिये उन्होंने सुस्वादु अन्नोंसे ब्राह्मणोंको तृप्त किया था। इस समाचारसे भगवान् श्रीरामको त्यन्त आनन्द मिला था। अतः अपनी सेनाके साथ अयोध्यासे यहाँ आकर उन्होंने इसके उपलक्ष्यमें महान् उत्सव किया। अगहन मासके शुक्ल पक्षको दशमी तिथिके दिन भगवान् राम मथुरा पहुँचे थे और वहाँ एकादशी तिथिके पुण्य-अवसरपर उपवास करके ‘विश्रान्ति- तीर्थ’ में सपरिवार स्नान कर महान् उत्सव मनाया। फिर ब्राह्मणोंको तृप्त करके स्वयं भोजन किया। उस दिन जो वहाँ उत्सव मनाता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर पितरोंके साथ दीर्घ कालतक  अर्थात् प्रलयपर्यन्त स्वर्गलोकमें निवास करता है।

भगवान् वराह कहते हैंवसुंधरे ! मन वाणी अथवा कर्म किसी प्रकारसे भी पाप कर्ममें रुचि रखना अपराध है। दन्तधावन न करने, राजान्न खाने, शवस्पर्श करने, सूतकवाले व्यक्तिका जल ग्रहण करने एवं उसका स्पर्श तथा मल, मूत्र, आदि क्रियाओंसे भी अपराध बन जाते हैं। अवाच्यवाणी बोलना, अभक्ष्य भक्षण करना, पिण्याक (हींग) को भोजनमें सम्मिलित करना, दूसरेके मलिन वस्त्र, नीले रंगवाला वस्त्र धारण करना, गुरुसे असत्य भाषण, पतित व्यक्तिका अन्न खाना तथा भोजन न देनेका भय उत्पन्न करना—ये सब सेवापराध हैं। उत्तम अन्न स्वयं खा लेना, बत्तक आदिका मांस खाना और देव मन्दिरमें जूता पहनकर जाना भी अपराध है। देवताकी आराधनामें जिस फूलको शास्त्रमें निषिद्ध माना गया है, उसे काममें लेना, निर्माल्यको विग्रह (मूर्ति)-परसे हटाये बिना ही अस्त-व्यस्त होकर अँधेरेमें भगवान्‌की पूजा करना भी अपराध है । मदिरा पीना, अन्धकारमें इष्टदेवताको जगाना, भगवान्‌की पूजा एवं प्रणाम न करके सांसारिक काममें प्रवृत्त हो जाना – ये सभी अपराध हैं वसुधे ! इस प्रकारके तैंतीस अपराधोंको मैंने स्पष्ट कर दिया। इन अपराधोंसे युक्त पुरुष परम प्रभु श्रीहरिका दर्शन नहीं पा सकता। यदि वह दूर रहकर भी पूजा एवं नमस्कार करे तो उसका वह कर्म राक्षसी माना जाता है।

क्रमशः इनकी शुद्धिका प्रकार यह है – मैले वस्त्रसे दूषित व्यक्ति एक रात दो रात अथवा तीन रातोंतक वस्त्र पहने ही स्नान करे और पञ्चगव्य पिये तो उसकी शुद्धि हो जाती है। नीला वस्त्र पहननेके पापसे बचनेके लिये मानव गोमयद्वारा अपने शरीरको भलीभाँति मले और ‘प्राजापत्य’ व्रत करे तो वह पवित्र हो जाता है। गुरुके प्रति बने हुए पापसे मुक्तिके लिये दो ‘चान्द्रायण ‘व्रत करनेका विधान है। लोग पतितका अन्न खा लेनेपर ‘चान्द्रायण’ और ‘पराक’व्रत’ करनेसे शुद्ध होते हैं। जूता पहनकर मन्दिरमें जानेवाला मानव ‘कृच्छ्रपाद ‘व्रत और दो दिन उपवास करे। फूल तथा नैवेद्यके अभावमें भी पञ्चामृतसे भगवान्‌का स्नान एवं स्पर्श करके नमस्कार करनेकी विधि है । मदिरा पानके पापसे शुद्ध होनेके लिये ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यको चाहिये कि चार ‘ चान्द्रायण’ व्रत तथा बारह वर्षोंतक तीन ‘प्राजापत्य’ व्रत करे।

अथवा ‘सौकरवक्षेत्र में जाकर उपवास एवं गङ्गामें स्नान करे। उसके प्रभावसे प्राणी शुद्ध हो सकता है। ऐसे ही मथुरामें भी स्नान- उपवास करनेसे शुद्धि सम्भव है। जो मनुष्य इन दोनों तीर्थोंका उक्त प्रकारसे एक बार भी सेवन करता है, वह अनेक जन्मोंके किये हुए पापोंसे मुक्त हो जाता है। इन तीर्थोंमें स्नान, जलपान तथा भगवान्‌के ध्यान-धारणा, कीर्तन, मनन- श्रवण एवं दर्शन करनेसे भी पातक पलायन कर जाते हैं।

पृथ्वीने पूछा – सुरेश्वर! मथुरा और सूकर- ये दोनों ही तीर्थ आपको अधिक प्रिय हैं। पर यदि इनसे भी बढ़कर कोई अन्य तीर्थ हो तो अब उसे बतानेकी कृपा कीजिये ।

भगवान् वराह कहते हैं-वसुधे! छोटी-छोटी नदियोंसे लेकर समुद्रपर्यन्त पृथ्वीपर जितने तीर्थ हैं, उन सबमें ‘कुब्जाम्रक’ तीर्थ श्रेष्ठ माना जाता है। मेरी श्रद्धासे सम्पन्न सत्पुरुष सदा उनकी प्रशंसा करते हैं। कुब्जाम्रकसे भी कोटिगुना अधिक परम गुह्य ‘सौकरव ‘तीर्थ है। एक समयकी बात है – मार्गशीर्षके शुक्ल पक्षकी द्वादशी तिथिको मैं ‘सितवैष्णव ‘तीर्थमें गया। वहाँ पुराणोंमें श्रेष्ठ एक ‘गङ्गासागरिक’ नामका पुराण देखा है। इसमें मेरे मथुरामण्डलके तीर्थोकी अत्यन्त गुह्य महिमा वर्णित है। ‘सिततीर्थसे’ परार्द्धगुना फल यहाँ सुलभ होता है – इसमें कोई संशय नहीं है। ‘कुब्जाम्रक’ प्रभृति समस्त तीर्थोंमें भ्रमण करनेके पश्चात् मैं मथुरामें आया और एक स्थानपर बैठ गया। मेरे उस स्थानका नाम ‘विश्रान्तितीर्थ’ पड़ गया । वह स्थान गोपनीयोंमें भी परम गोपनीय है। वहाँ स्नान करनेसे परम उत्तम फल मिलता है। गतिका अन्वेषण करनेवाले व्यक्तियोंके लिये मथुरा परम गति है। मथुरामें विशेष करके ‘कुब्जाम्रक’ और ‘सौकर’ क्षेत्रकी महिमा है। सांख्ययोग और कर्मयोगके अनुष्ठानके बिना भी इन तीर्थोंकी कृपासे मानव मुक्त हो जाता है, इसमें कोई संशय नहीं है। योगसे सम्पन्न विद्वान् ब्राह्मणके लिये जो गति निश्चित है, वही गति मथुरामें प्राण त्याग करनेसे साधारण व्यक्तिको भी प्राप्त हो जाती है। सुव्रते ! वस्तुतः मथुरासे उत्तम न कोई दूसरा तीर्थ है और न भगवान् केशवसे श्रेष्ठ कोई देवता है।

अध्याय १४५ श्राद्धसे अगस्तिका उद्धार, श्राद्ध-विधि तथा 'ध्रुवतीर्थ की महिमा

भगवान् वराह कहते हैं- वसुंधरे ! अब पितरोंसे सम्बद्ध एक दूसरा प्रसङ्ग कहता हूँ, उसे सुनो। मथुरापुरीमें पहले एक धार्मिक एवं शूर- वीर राजा थे, जिनका नाम चन्द्रसेन था। उनकी दो सौ रानियाँ थीं, जिनमें ‘चन्द्रप्रभा’ सबसे गुणवती थी, उसके सौ दासियाँ थीं, जिनमें एकका नाम ‘प्रभावती’ था। उस दासीके परिवारके पुरुष सदाचार विहीन थे। सभी मरकर दोषके कारण नरकयातनामें पड़ गये; क्योंकि उनके कुलमें एक वर्णसंकर उत्पन्न हो गया था।

देवि ! एक समय वे पितर ‘ध्रुवतीर्थ ‘में आये, जिनपर एक त्रिकालदर्शी ऋषिकी दृष्टि पड़ गयी। इनमें कुछ दिव्य रूपवाले पितर आकाश-गमनकी शक्तिसे युक्त श्रेष्ठ वाहनोंपर चढ़कर आये और अपने वंशजोंको आशीर्वाद देकर चले गये। कुछ दूसरे पितृगण जो ‘ध्रुवतीर्थ में आये, उनके श्राद्ध न होनेसे पेटमें झुर्रियाँ पड़ गयी थीं। अतः वे पुत्रोंको शाप देकर चले गये। त्रिकालज्ञ मुनि यह सब दृश्य देख रहे थे। जब पितृगण चले गये और वे मुनि अकेले आश्रममें रह गये तो एक सूक्ष्म शरीरधारी पितरने उनसे कहा – ‘मुने! वर्णसंकरसम्बन्धी दोषके कारण मुझे नरकमें स्थान मिला है। मैं सौ वर्षोंसे आशारूपी रस्सियोंसे बँधा प्रतीक्षा करता रहा; पर अब निराश होकर आपके पास आया हूँ। तीनों तापोंसे अत्यन्त घबराकर और विवश होकर मैं आपकी शरण आया हूँ। जिनके पुत्रोंने पिण्डदान एवं तर्पण किया है, वे पितर हष्ट-पुष्ट होकर आकाशगमनकी शक्तिसे स्वर्गमें चले गये हैं। किंतु मैं बलहीन व्यक्ति कहीं भी नहीं जा सकता हूँ जिनकी संतान अपने बाल-बच्चोंके साथ सदा सम्पन्न हैं, वे उनके द्वारा स्वधासे सुपूजित होकर परम गतिके अधिकारी होते हैं। त्रिकालज्ञ मुनिवर ! आपको दिव्य दृष्टि सुलभ है। उसके प्रभावसे आपने जिन पितरोंको स्वर्गमें जाते हुए देखा है वे सभी आज राजा चन्द्रसेनके द्वारा सत्कृत हुए हैं।’

पितरने कहा – ‘जो पितरोंके लिये श्राद्ध करता है, उसका उत्तम फल निश्चित है, किंतु न करनेसे विपरीत फल सामने आता है और पितर नरकके भागी हो जाते हैं; इसमें कुछ कारण है, वह भी मैं आपको बताता हूँ; सुनें। श्राद्धसम्बन्धी जो द्रव्य उचित देश, काल और पात्रको नहीं दिया गया, विधिकी रक्षा न हुई, साथमें दक्षिणा न दी गयी तो वह प्रत्यवायका कारण हो जाता है। जो श्राद्ध श्रद्धाके साथ सम्पन्न नहीं हुआ, जिसपर दुष्ट प्राणीकी दृष्टि पड़ गयी, जिसमें तिल और कुशाका अभाव रहा एवं मन्त्र भी नहीं पढ़े गये, उस श्राद्धको असुर ग्रहण कर लेते हैं। प्राचीन समयसे ही भगवान् वामनने ऐसे श्राद्धका अधिकारी बलिको बना रखा है। ऐसे ही दशरथ- नन्दन भगवान् रामके द्वारा अपने गणोंके साथ क्रूर रावण जब दिवंगत हो गया तो उन त्रिभुवनभर्ता श्रीरामने कुछ ऐसे श्राद्धोंका फल त्रिजटाको भी दे दिया था। भगवान् राम जब भगवती सीताके साथ बैठे थे, सीताने उनसे कहा- ‘त्रिजटा आपमें भक्ति रखती थी। सीताजीकी बात सुनकर श्रीराम प्रसन्न हो गये।’ अतः उन परम प्रभुने उस राक्षसीको यह वर दिया- ‘त्रिजटे ! जिस श्राद्ध करनेवाले व्यक्तिके घर श्राद्धकी उत्तम हविष् पदार्थ आदि सामग्रियाँ न हों, विधि और पात्र उचित रहनेपर भी यदि श्राद्ध करते समय क्रोध आ गया हो तथा पाक्षिक, मासिक श्राद्ध उचित समयपर सम्पन्न न हों एवं दक्षिणा भी न दी जाय तो उसका फल मैं तुम्हें देता हूँ।’

इसी प्रकार एक बार भगवान् शंकरने नागराज वासुकिकी भक्तिसे प्रसन्न होकर उसे वर देते हुए कहा था- ‘नागराज ! जिस मनुष्यने वार्षिक श्राद्ध करनेके पूर्व भगवान् श्रीहरिसे आज्ञा प्राप्त नहीं की और श्राद्ध-क्रिया सम्पन्न कर ली, यज्ञके अवसरपर उचित दक्षिणा न दी, देवता एवं ब्राह्मणके सामने देनेकी प्रतिज्ञा करके उसे पूरा नहीं किया, श्राद्धमें बिना मन्त्र पढ़े ही क्रियाएँ कर दीं – ऐसे यज्ञों एवं श्राद्धोंका सम्पूर्ण फल मैं तुम्हें अर्पित करता हूँ।’ मुने! ये सभी बातें पुराणों एवं इतिहासोंमें वर्णित हैं।

‘मुने! जिन्हें आपने दयनीय दशामें देखा था, उनके श्राद्ध, अवैध रूपमें ही अनुष्ठित हुए हैं। अतः उसका उत्तम फल इन पितरोंको प्राप्त नहीं हो सका है। यही कारण है कि ये नंग-धड़ंग कालक्षेप कर रहे हैं। इनके पुत्रोंने जो श्राद्ध- क्रिया की थी, उसमें त्रुटि रह गयी थी। इसी लिये पितृगण गाथा गाते हैं कि ‘क्या हमारे कुलमें ऐसा कोई व्यक्ति जन्म लेगा, जो प्रभूत जलवाली नदियोंमें ‘तृप्यध्वं०, उदीरतां०, आयन्तु० ‘ इत्यादि मन्त्रोंसे हमारा तर्पण एवं उनके तटपर श्राद्ध करेगा। महाप्राज्ञ! आपने मुझसे जो पूछा था, संक्षेपमें उसका यही उत्तर है।”

वसुंधरे ! यह सब सुनकर वे ऋषि राजा चन्द्रसेनके पास पहुँचे। उन ऋषिको देखकर राजा सिंहासनसे उठकर पृथ्वीपर खड़े होकर उनके चरणोंमें मस्तक झुकाकर कहा-‘मुनिवर ! आप मेरे घरपर पधारे, इससे मैं धन्य एवं कृतार्थ हो गया। आपके यहाँ आ जानेसे मेरा जन्म सफल हो गया। मुने! पाद्य, अर्घ्य, मधुपर्क और गौ- ये सभी वस्तुएँ आपकी सेवामें समर्पित हैं। इन्हें आप स्वीकार करें, जिससे मुझे पूर्ण संतोष हो जाय। ‘

देवि ! उस समय राजा चन्द्रसेनके दिये हुए अर्घ्य आदिको स्वीकार करके त्रिकालज्ञ मुनिने तुरंत उन नरेशसे कहा- ‘राजन् ! मेरे आनेका एक विशेष कारण भी है, आप उसे सुनें।’ इसपर राजर्षि चन्द्रसेनने उन तपोधन ऋषिसे पूछा- ‘तपोधन ! वह कौन-सा कार्य है? आप बतानेकी कृपा कीजिये। मैं वह समुचित कार्य करनेके लिये उद्यत हूँ, जिससे आपका मनोरथ सिद्ध हो सके।’

मुनिने कहा- ‘राजन् ! आप अपनी पटरानी तथा उनकी दासीको जिसे लोग प्रभावती कहते हैं, यहाँ बुलायें।’ इसपर राजाने अपनी रानी तथा दासीको वहाँ बुलवाया। रानी परम साध्वी थीं। वे आकर जमीनपर बैठ गयीं। पर उस समय उनका शरीर भय एवं आशङ्काओंसे काँप रहा था। उन्होंने आते ही विनयपूर्वक ऋषिको प्रणाम किया। उनके बैठ जानेपर मुनिने कहा – ” मैंने ‘ध्रुवतीर्थ’ में जो आश्चर्यकी एक बात देखी है, उसे आप सभीके सामने व्यक्त करना चाहता हूँ। वह बात यह है कि आज प्राणियोंके पितृगण ‘ध्रुवतीर्थ में उपस्थित हुए थे। श्राद्ध करनेमें कुशल पुत्रोंने जिनका विधिवत् श्राद्ध किया है, वे तो तृप्त होकर स्वर्गको गये; किंतु वहीं मुझे एक अत्यन्त दुःखी पितर मिले हैं। उनका शरीर भूख- प्याससे सूख गया है। उनका मुख शुष्क और आँखें बड़ी छोटी हैं। स्वर्गमें जानेकी आशा तो दूर, वे पुनः अपवित्र नरकमें ही जानेके लिये विवश हैं। उन्हें देखकर मेरे हृदयमें बड़ी दया आयी, अतः मैंने उनसे पूछा- ‘भाई! तुम कौन हो और क्या चाहते हो? मुझे बतानेकी कृपा करो।’ तब उन्होंने अपनी सारी स्थिति बतायी। उस समय उनकी बात सुनते ही करुणासे मैं विवश हो गया हूँ। महारानीजी ! बात ऐसी है आपकी जो यह दासी है, इसकी एक पुत्री है, जो ‘विरूपकनिधि’ नामसे प्रसिद्ध है। आप उसे भी इस समय यहाँ बुलानेकी कृपा करें।”

वसुंधरे ! इस प्रकार मुनिवर त्रिकालज्ञकी बात सुनकर महाराजा चन्द्रसेनकी रानीने उसी क्षण उस दासी पुत्रीको बुलानेकी आज्ञा दी। उस समय वह मद्यपान कर उन्मत्त हो रही थी। किसी प्रकार राजसेवकोंने उसे सँभालकर हाथसे पकड़े हुए वहाँ लाकर उन मुनिके पास उपस्थित किया। मुनि धर्मके पूर्ण ज्ञाता थे। मदके प्रभावसे विक्षिप्त चित्तवाली उस दासीको देखकर उन्होंने उससे पूछा- ‘अरे! तुमने पितरोंके लिये पिण्डदान तथा जलसे ‘स्वधा’ कहकर ‘तर्पण’ किया है अथवा नहीं? ऐसा जान पड़ता है कि तुमने पितरोंको मुक्त करनेवाली पिण्ड एवं तर्पणकी विधियाँ सम्पन्न नहीं की है।’ वसुधे ! इसपर उस दासीने उन मुनिसे कहा- मैंने ऐसी कोई भी विधि सम्पन्न नहीं की है। मैं तो यह भी नहीं जानती कि कौन मेरे पितर हैं और उनके लिये कौन-सी क्रिया करनी चाहिये।’

पृथ्वि ! फिर तो ऐसी बात कहनेवाली उस दासीसे उन त्रिकालज्ञ मुनिने कहा- ‘आज इस नगरके महाराज, महारानी और यहाँके निवासी- सभी सज्जन पुरुष ‘ध्रुवतीर्थ ‘में पधारें। वहाँ पितरोंके लिये पुत्रोंद्वारा किये गये श्राद्धकी महिमाका फल आपलोगोंके सामने सुस्पष्ट हो जायगा। यह सुनकर सभी नगरनिवासी तथा जिनकी श्राद्ध करनेमें कौतुकवश भी प्रवृत्ति न थी, वे सभी अधिकारी ब्राह्मण भी ‘ध्रुवतीर्थ’ में गये। वहाँ जानेपर सबकी दृष्टि उस संतानद्वारा असत्कृत एवं अस्त-व्यस्त प्राणीपर पड़ी। बिचारेको क्षुद्र मच्छड़ जैसे जीव चारों ओरसे घेरे हुए थे। साथ ही वह भूखसे भी अत्यन्त व्यथित था। उस समय त्रिकालज्ञने कहा- ‘देखो, ये स्त्रियाँ तुम्हारी संतानोंसे उत्पन्न हैं। तुम परिपुष्ट हो जाओ,

एतदर्थ राजाकी कृपासे इनका यहाँ आगमन हुआ है।’ तब वह पितर बोला- ‘यह दासी इस ‘ध्रुवतीर्थ में पहले स्नान करे, फिर वेदमें निर्दिष्ट क्रमसे तर्पण करे। तदनन्तर प्राचीन ऋषियोंने जो विधि बतायी है, उसके अनुसार यह पिण्ड- दानादि श्राद्धकर्म करे। सभी कर्मपात्र चाँदीके हों। साथमें वस्त्र और चन्दन रहना आवश्यक है। फिर भक्तिपूर्वक पिण्डार्चन करके पितरोंकी पूजा करे । आप सभी सज्जन यहीं रहें और इसका परिणाम तत्काल देख लें-मैं परम सुखसे सम्पन्न हो जाऊँगा । इस विधानसे इस संतानके द्वारा मेरा श्राद्ध कराना आप सभीकी कृपापर निर्भर है।’

वसुंधरे ! रानी चन्द्रप्रभा अगस्तिकी बात सुनकर दासीके द्वारा उस प्राणीका श्राद्ध करानेमें तत्पर हो गयीं। उस श्राद्धमें बहुत-सी दक्षिणाएँ दी गयीं। रेशमी वस्त्र, धूप, कर्पूर, अगुरु, चन्दन, तिल और अन्न आदि विविध वस्तुएँ पिण्डदानके अवसरपर काममें लायी गयीं। फलस्वरूप श्राद्ध एवं पिण्डदानका क्रम समाप्त होते ही वह विकृत दशावाला अगस्ति ऐसा बन गया, मानो कोई देवता हो। उसका शरीर परम तेजोमय हो गया। पार्श्ववर्ती जो मशक थे, उनकी आकृतिमें भी वैसा ही परिवर्तन हो गया । अब उनसे घिरा हुआ वह प्राणी ऐसी असीम शोभा पाने लगा, मानो यज्ञमें दीक्षित कोई पुरुष अन्तमें अवभृथ स्नानसे सम्पन्न हुआ हो। उस समय स्वर्गसे इतने दिव्य विमान आये कि आकाश ढक गया।

अब अगस्ति आदि सभी बोले – ‘महानुभावो हम लोग भलीभाँति तृप्त हो गये हैं। अतः अब परमधाममें जाते हैं। ध्रुवतीर्थकी यह महिमा मैंने आपके सामने प्रकट कर दी। महामुने! मेरे कहनेकी बात ही क्या है। आप सबने स्वयं भी इसकी महिमा देख ली। हमारा उद्धार होना नितान्त असम्भव था; किंतु आपकी कृपासे हमने इस दुस्तर पापपुञ्जको पार कर लिया।’

पृथ्वि ! अब वह अगस्ति नामका प्राणी, मुनिवर त्रिकालज्ञ, राजा चन्द्रसेन, रानी चन्द्रप्रभा, उपस्थित जनता दासी प्रभावती तथा उसकी पुत्रीको इस प्रकारकी बातें सुनाकर तथा ‘आप सभी लोगोंका कल्याण हो’ – इस प्रकार कहता हुआ अपने सहचरोंके साथ उत्तम विमानपर चढ़कर स्वर्गके लिये प्रस्थान कर गया ।

भगवान् वराह कहते हैं- भद्रे ! इसके पश्चात् महाराज चन्द्रसेन उस तीर्थकी महिमा देखकर महर्षि त्रिकालज्ञको प्रणामकर अपने परिजन, पुरजनसहित नगरको लौट गये।

पृथ्वि! मथुरा- मण्डलके अन्तर्गत तीर्थोका माहात्म्य मैंने तुम्हें सुनाया। यह तीर्थ ऐसा शक्ति- सम्पन्न है कि जिसका स्मरण करनेसे भी मनुष्यके पूर्व जन्मके पाप नष्ट हो जाते हैं। जो पुरुष ब्राह्मणोंकी संनिधिमें बैठकर इस प्रसङ्गको पढ़ता है, उसने मानो गयशिरपर ( गयाक्षेत्रमें) जाकर अपने पितरोंको तृप्त कर दिया। महाभागे ! जिसकी व्रतमें आस्था न हो, इस प्रसङ्गको सुननेमें उदासीन हो तथा भगवान् श्रीहरिकी अर्चासे विमुख हो, उसके सामने इसका वर्णन नहीं करना चाहिये। यह प्रसङ्ग तीर्थोंमें परम तीर्थ, धर्मोमें श्रेष्ठ धर्म, ज्ञानोंमें सर्वोत्कृष्ट ज्ञान एवं लाभों में उत्तम लाभ है। महाभागे जिनकी भगवान् श्रीहरिमें सदा श्रद्धा रहती है तथा जो पुण्यात्मा पुरुष हैं, उनके सामने ही इसका प्रवचन करना उचित है।

सूतजी कहते हैं – ऋषियो ! भगवान् वराहकी यह वाणी सुनकर देवी धरणीका मन अत्यन्त आश्चर्य से भर गया। अब उन देवीने प्रसन्नतापूर्वक प्रतिमाकी स्थापनाके विषयमें प्रभुसे पुनः प्रश्न करना आरम्भ किया।

अध्याय १४६ काष्ठ-पाषाण-प्रतिमाके निर्माण, प्रतिष्ठा एवं पूजाकी विधि

सूतजी कहते हैं – ऋषियो ! भगवती वसुंधराने जब तीर्थोंका महत्त्व सुना तो वे आश्चर्य एवं प्रसन्नतासे भर गयीं और भगवान् वराहसे पुनः बोलीं।

धरणीने पूछाभगवन्! आपने मथुरा क्षेत्रकी महत्ताका जो वर्णन किया, उसे सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई; परंतु मेरे हृदयमें एक जिज्ञासा है। विष्णो! उसे सविस्तार बतानेकी कृपा कीजिये। मैं यह जानना चाहती हूँ कि काष्ठ, पाषाण एवं मृत्तिकाके विग्रहमें आप किस प्रकार विराजते हैं? अथवा ताँबा, काँसा, चाँदी और सुवर्ण आदिकी प्रतिमामें आपको कैसे प्रतिष्ठित करना चाहिये, जिससे वे अर्चाएँ आपका स्वरूप बन सकें। माधव ! लोग अपने दक्षिण भागमें दीवालपर अथवा भूमिपर भी आपके श्रीविग्रहकी रचना करते हैं, मैं उसकी विधि भी जानना चाहती हूँ।

भगवान् वराह बोले- वसुंधरे ! जिस वस्तु या द्रव्यादिसे प्रतिमा बनवानी हो, पहले उसका शोधन करके उसे लक्षणोंके अनुसार चिह्नित करना चाहिये। फिर उसकी शुद्धि कर सविधि प्रतिष्ठा करानी चाहिये। देवि! इसके पश्चात् जन्म- मरणरूपी भयसे मुक्त होनेके लिये उसकी पूजा करनी चाहिये। वसुंधरे ! यदि काष्ठमयी प्रतिमा बनवानी हो तो महुएकी लकड़ी सर्वोत्तम है। प्रतिमा बन जानेपर उसकी सविधि प्रतिष्ठा पूजा करे। प्रतिष्ठाके समय अर्चनाकी जिन वस्तुओंका मैंने वर्णन किया है, उन गन्ध आदि पदार्थोंको विग्रहपर अर्पित करना चाहिये। कपूर, कुंकुम, दालचीनी, अगुरु, रस, इत्र, चन्दन, सिल्हक तथा उशीर आदि सामानोंसे विवेकशील पुरुष उस प्रतिमाका अनुलेपन एवं पूजन करे। स्वस्तिक वृद्धिका सूचक है। अतः प्रतिमापर उसका श्रीवत्सका तथा कौस्तुभ मणिका चिह्न रहना आवश्यक है। फिर विधिपूर्वक उसका पूजन कर अर्चाको दूधसे सिद्ध हुए खीरका भोग लगाना चाहिये। यह अत्यन्त मङ्गलप्रद है। तिलके तेल या घीका दीपक पूजाके लिये उत्तम है – इसमें कोई संदेह नहीं ।

प्राणायाम करके इस मन्त्रको पढ़ना चाहिये- मन्त्रका भाव इस प्रकार है- ‘भगवन् ! यह सम्पूर्ण विश्व आपका ही स्वरूप है, तथापि आपकी स्पष्ट प्रतीति नहीं होती । प्रभो! अब आप सुस्पष्ट रूपसे भूमण्डलपर पधारकर इस काष्ठमयी प्रतिमामें प्रतिष्ठित होइये। काठकी बनी हुई प्रतिमाओंमें भगवान्‌की स्थापनाकी यह विधि है। स्थापनाके बाद भगवत्प्रेमी पुरुषोंके साथ प्रदक्षिणा करनी चाहिये। पूजाके बाद भी दीपक प्रज्वलित रहना चाहिये। मन-ही-मन ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस मन्त्रका उच्चारण करे। प्रतिष्ठित मूर्तिकी पूजा नित्य होनी चाहिये। साथ ही इस प्रकार प्रार्थना करे– ‘भगवन्! आप मेरे एकमात्र आश्रय हैं। वासुदेव! मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप इस स्थानका कभी परित्याग न करें ।’

वसुंधरे ! फिर उस समय वहाँ अन्य जितने भी भगवत्प्रेमी लोग उपस्थित हों, वे सभी इसी विधिसे अर्चाविग्रहकी पूजा करें। फिर सबको चन्दन, पुष्प, अनुलेपन एवं नैवेद्यद्वारा सविधि पूजन करना चाहिये । सुन्दरि महुएकी लकड़ीसे प्रतिमा बनाने और प्रतिष्ठा करनेका यही विधान है। जो मानव काष्ठकी प्रतिमा स्थापित कर इस विधिके साथ पूजा करता है, वह संसारमें न जाकर मेरे लोकको प्राप्त होता है।

 भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! अब मैं जिस प्रकार पाषाणकी बनी हुई प्रतिमाओंमें निवास करता हूँ, वह बतलाता हूँ। पाषाणकी अच्छी प्रतिमा बनानेके लिये देखनेमें सुन्दर, शल्यरहित एवं भलीभाँति शुद्ध किसी पत्थरको देखकर उसमें दक्ष कलाकारको नियुक्त करे। सर्वप्रथम उस पत्थरपर एक उजली बातीसे प्रतिमा चिह्नित करके उसकी अक्षत आदिसे पूजा कर, दीपक दिखाये और दही एवं चावलसे बलि देकर प्रदक्षिणा करे। इसके पश्चात् – ‘ॐ नमो नारायणाय’ यह मन्त्र पढ़कर कहे- ‘भगवन्! आप सम्पूर्ण प्राणियोंमें श्रेष्ठ एवं परम प्रसिद्ध हैं; सूर्य-चन्द्रमा एवं अग्नि आपके ही रूप हैं। आपसे अधिक विज्ञ चराचर विश्वमें अन्य कोई है ही नहीं । भगवान् वासुदेव ! इस मन्त्रके प्रभावसे प्रभावित होकर आप इस प्रतिमामें शनैः-शनैः प्रतिष्ठित होकर मेरी कीर्तिको बढ़ायें तथा स्वयं भी वृद्धिको प्राप्त हों। अच्युत वराह ! आपकी जय हो, जय हो। आप अपनी अभीष्ट प्रतिमा स्वयं निर्मित करायें। * फिर ऐसी धारणा करे कि सारा विश्व एक परम प्रभु भगवान् नारायणका ही स्वरूप है। जब मूर्ति बन जाये तो उसे पूर्वाभिमुख रखे। फिर उज्ज्वल वस्त्र धारणकर रातमें उपवास करे। पुनः प्रातः दन्तधावन कर और सफेद यज्ञोपवीत पहनकर हाथमें गन्धादि लेकर कहे- ‘भगवन्! जिन्हें सर्वरूप एवं ‘मायाशबल’ कहा जाता है, वही आप अखिल जगत् के रूपमें विराजते हैं। प्रभो! इस प्रतिमामें भी आपका वास है। जगत् के कारण, जगत् के आकार तथा अर्चावतार धारण करके शोभा पानेवाले लोकनाथ ! इस प्रकार मैंने आपकी आराधना की है। यह विग्रह भी आपसे रिक्त नहीं है आदि और अन्तसे रहित प्रभो! इस जगत्‌की सत्ता स्थिर रहनेमें आप ही निमित्त हैं। आप अपराजेय हैं!’ इस प्रकार भगवद्विग्रहकी पूजा कर – ॐ नमो वासुदेवाय’ मन्त्र पढ़कर प्रतिमाके ऊपर जल छिड़कना चाहिये।

सुन्दरि ! इस प्रकार पाषाणमयी प्रतिमामें मेरी प्राण-प्रतिष्ठाकर पूर्वाभाद्रपद नक्षत्रमें अन्नादिमें अधिवासन करना चाहिये। मेरी उपासनामें उद्यत रहनेवाला जो व्यक्ति मेरी प्रतिमाकी स्थापना करता है, वह मुझ भगवान् श्रीहरिके लोकमें जाता है – यह निश्चित है। स्थापनाके दिनों में साधक यव अथवा दूधसे बने आहारपर दिन-रात व्यतीत करे। इष्टदेवकी प्रतिमा प्रतिष्ठित हो जानेपर सायंकालकी संध्याके समय चार दीपक प्रज्वलित करे। भगवान् के आसनके नीचे पञ्चगव्य, चन्दन और जलसे परिपूर्ण चार कलश स्थापित करना चाहिये। इस समय सामवेदके गान करनेवाले ब्राह्मण वेदध्वनि करें। देवि! जो ब्राह्मण वेदके हजारों मन्त्रोंको पढ़ते हैं, उनके मुखसे निकलते हुए इस शुभप्रद सामके स्वरको सुनकर मैं वहाँ आ जाता हूँ। क्योंकि वेद-मन्त्रका पाठ मुझे परम प्रिय है। किंतु वहाँ अनर्गल प्रलाप नहीं होना चाहिये।

पुण्यव्रती व्यक्ति पूजाके समय इस अर्थवाले मन्त्रको पढ़कर आवाहन करे- ‘भगवन्! छः प्रकारके कर्मोंमें आपकी प्रधानता है। आप पाँचों इन्द्रियोंसे सम्पन्न होकर यहाँ पधारनेकी कृपा कीजिये । जगत्प्रभो! आपमें सभी वेदमन्त्र स्थान पाये हुए हैं। समस्त प्राणियोंकी स्थिति भी आपहमें है। यह अर्चा आपके रहनेका सुरक्षित स्थान है।’ इसी अर्थ मन्त्रका उच्चारण करते हुए तिल, घृत, समिधा और मधुसे एक सौ आठ आहुतियाँ भी देनी चाहिये। देवि ! मैं इस विधिके द्वारा प्रतिमामें प्रतिष्ठित हो जाता हूँ। फिर प्रातःकाल स्वच्छ जलमें स्नान करे और मन्त्र पढ़कर पञ्चगव्यका पान करे। अनेक प्रकारके गन्ध, पुष्प और लाजा आदिका प्रयोग कर फिर माङ्गलिक गीत वाद्यके साथ प्रतिमाको मध्यभागमें एक ऊँचे स्थानपर स्थापित करे। सब प्रकारके सुगन्धोंको लेकर फिर प्रार्थना करे- ‘भगवन्! जिन्हें लक्षणोंसे लक्षित, देवी लक्ष्मीसे सुशोभित तथा सनातन श्रीहरि कहते हैं, वे आप ही तो हैं। प्रभो! हमारी प्रार्थना है कि परम प्रकाशसे सुशोभित होकर आप यहाँ विराजिये आपको मेरा बारम्बार नमस्कार है।’

इस प्रकार भगवान्‌की शैलार्चाकी स्थापना कर उसका अनुलेपन ( उबटन) करना चाहिये। चन्दन – कुंकुमादिसे मिला हुआ ‘यक्षकर्दम’ का उद्वर्तन ( उबटन) श्रेष्ठ है। इस प्रकार उद्वर्तन अर्पण करके इस अर्थका मन्त्र पढ़ना चाहिये – ‘प्रभो! आप सम्पूर्ण संसारमें प्रधान हैं तथा ब्रह्मा और बृहस्पतिने आपकी भलीभाँति पूजा की है। आप अखिल लोकके कारण एवं मन्त्रयुक्त हैं। भगवन्! मैं आपका इस मन्त्रके द्वारा स्वागत करता हूँ । आप यहाँ विराजनेकी कृपा कीजिये।’ इस विधिसे भलीभाँति स्थापना करके गन्ध एवं फूलोंसे पूजा करनी चाहिये। मेरे विग्रहपर पहले श्वेत वस्त्र चढ़ाना चाहिये । वस्त्र अर्पण करते समय इस अर्थका मन्त्र पढ़े- ‘देवेश ! भक्तिपूर्वक वस्त्र आपके लिये अर्पित करता हूँ। विश्वमूर्ते ! इन वस्त्रोंको आप ग्रहण करके मुझपर प्रसन्न होइये । आपको मेरा बारम्बार नमस्कार है।’

तत्पश्चात् कुंकुम और अगुरुसे मिला हुआ धूप देना चाहिये। धूप देते समय इस अर्थका मन्त्र पढ़ना चाहिये – ‘देवेश ! जो आदिरहित, पुराणपुरुष तथा सम्पूर्ण संसारमें सर्वोपरि शोभा पाते हैं, वे भगवान् नारायण ! आप चन्दन, मालाएँ, धूप और दीप स्वीकार करनेकी कृपा कीजिये। आपको मेरा निरन्तर नमस्कार है । ‘

इस प्रकार पूजा करनेके पश्चात् भगवत्प्रतिमाके सामने नैवेद्य अर्पण करना चाहिये । प्रापण – अर्पण करनेका मन्त्र पूर्वमें बतला दिया गया है, उसीका उच्चारण करके विज्ञ पुरुष उसे अर्पित करे । शरीरकी शुद्धिके लिये नैवेद्यके बाद आचमन देना आवश्यक है। शान्ति पाठ करे। क्योंकि शान्तिका पाठ करनेसे सम्पूर्ण कार्यों में सिद्धि सुलभ हो जाती है। मन्त्रका भाव यह है – ‘जगत्प्रभो ! ओंकार आपका स्वरूप है। आप ऐसी कृपा करें कि राजा, राष्ट्र, ब्राह्मण, बालक, वृद्ध, गौएँ कन्याएँ तथा पतिव्रताओंमें भलीभाँति शान्ति रहे। रोग नष्ट हो जायँ, किसानोंके यहाँ सदा अच्छी फसल उत्पन्न हो। दुर्भिक्ष न रहे। समयपर अच्छी वृष्टि हो और विश्वमें शान्ति बनी रहे। *

वसुंधरे ! व्रती पुरुष इस प्रकारकी विधिका पालन करते हुए शास्त्रमें निर्दिष्ट विधिके द्वारा देवेश्वर भगवान्‌की भली प्रकारसे आराधना करे। इसके पश्चात् ब्राह्मणोंको निरहंकार – भावसे भोजन कराये। यदि अपनेमें शक्ति हो तो गरीबों एवं अनाथोंको भी तृप्त करनेका प्रयत्न करे। इस विधिसे मेरी अर्चाकी स्थापना करनी चाहिये। इसके परिणामस्वरूप पुरुष मेरे लोकमें प्रतिष्ठा पाता है। फिर तो मेरे अङ्गोंपर जलकी जितनी बूँदें गिरती हैं, उतने हजार वर्षोंतक वह विष्णुलोकमें रहनेका अधिकारी होता है। भूमे अहंकारसे रहित जो व्यक्ति मेरी स्थापना करता है, वह मानो अपने उनचास पीढ़ीके पुरुषोंका उद्धार कर देता है।

अध्याय १४७ मृण्मयी एवं ताम्रप्रतिमाओंकी प्रतिष्ठाविधि

भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! अब मृत्तिकासे बनी अपनी प्रतिमाका स्थापन विधान कहता हूँ, सुनो। मृण्मयी मूर्ति सुन्दर, स्पष्ट और अखण्डित होनी चाहिये। यदि काष्ठ न मिल सके तो मिट्टीका अथवा पाषाणका विग्रह बनानेका विधान है। कल्याणकी कामनावाले विद्वान् पुरुष ताँबा, काँसा, चाँदी, सोना अथवा शीशा- इन वस्तुओंसे भी मेरी सुन्दर प्रतिमाका निर्माण कराते हैं। यदि कर्मकाण्डके संकोचकी इच्छा हो तो वेदीपर ही मेरी पूजा की जा सकती है। कुछ लोग जगत्‌में यश फैलनेकी कामनासे भी मेरी प्रतिमाओंकी स्थापना करते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अपना अभीष्ट पूरा होनेके लिये प्रतिमाएँ स्थापित करते हैं, कुछ लोग उत्तम तीर्थको देखकर वहीं मेरा पूजन कर लेते हैं अथवा मेरे तेजसे प्रकट हुए सूर्यमण्डलमें ही मेरी आराधना करते हैं।

देवि! तुम्हें ऐसा समझना चाहिये कि मैं विभिन्न व्यक्तियोंकी भावनाके अनुसार वहीं उपस्थित हो जाता हूँ और पूजा प्राप्त कर मैं उपासकको सम्पूर्ण सम्पत्तियोंसे पूर्ण कर देता हूँ, इसमें कोई संशय नहीं। मनुष्य जिस-जिस फलका उद्देश्य रखकर मन्त्रोंका उच्चारण अथवा विधिपूर्वक कर्मोंके सम्पादनद्वारा मेरी आराधनामें लगा रहता है, उसे वह अभिलषित फल प्राप्त हो जाता है। यही नहीं, मेरी कृपासे उसे सर्वोत्तम गति भी प्राप्त हो जाती है। मेरा भक्त प्रतिदिनके नियमित कार्यों में सदा व्यस्त रहते हुए मनसे भी मेरी आराधना कर सकता है। मेरे लिये यदि किसीने श्रद्धापूर्वक एक अञ्जलि जल भी अर्पण कर दिया तो मैं उसकी उस भक्तिसे संतुष्ट हो जाता हूँ। उसके लिये बहुतसे फूलों, जपों एवं नियमकी क्या आवश्यकता है। जो अपने अन्तःकरणको स्वच्छ रखकर नित्य मेरा चिन्तन करता है, मैं उसकी भी सम्पूर्ण कामनाएँ पूरी कर देता हूँ और उसे दिव्य एवं मनोरम भोग तथा ज्ञान एवं मोक्ष भी सुलभ हो जाते हैं।

वसुंधरे ! ये सभी बातें अत्यन्त गोपनीय हैं, मेरे कर्मोंमें श्रद्धा रखनेवाला व्यक्ति मृन्मयी प्रतिमाका निर्माण कर श्रवण नक्षत्र में उसके स्थापन एवं प्रतिष्ठाकी तैयारी करे। इसमें भी पूर्वोक्त मन्त्रोंका उच्चारणकर उसी विधिसे स्थापना करनी चाहिये। जलके साथ पञ्चगव्य और चन्दनको मिलाकर उससे मेरी प्रतिमाको स्नान कराये। उस समय कहे- ‘अच्युत ! जो विश्वकी रचना करते हैं तथा जिनकी कृपासे जगत्‌की सत्ता सुरक्षित है, वे आप ही हैं। भगवन्! मुझपर कृपा करके आप इस मृन्मयी प्रतिमामें प्रतिष्ठित होइये। प्रभो! आप कारणके भी कारण, प्रचण्ड तेजस्वी, परम प्रकाशमान तथा महापुरुष हैं। आपको मेरा निरन्तर नमस्कार है।’ ऐसा कहकर उस प्रतिमाकी मन्दिरमें स्थापना करे। यहाँ भी पहलेकी ही तरह चार कलशोंका स्थापन करना चाहिये। उन चारों कलशोंको लेकर इस भावका मन्त्र पढ़ना चाहिये- ‘भगवन्! आप ओंकारस्वरूप हैं। समुद्र आपका ही रूप है, जो वरुणकी कृपा प्राप्त करके सम्यक् प्रकारसे पूजा पाता है तथा उसके हृदयमें जलराशि एवं प्रसन्नता भरी रहती है। इस विचारको सामने करके मैं आपको उत्तम अभिषेक अर्पित करता हूँ। जिसकी विशाल भुजाएँ हैं; अग्नि, पृथ्वी एवं रस- ये सभी जिनसे सत्तावान् बने हैं, ऐसे आपको मैं प्रणाम करता हूँ।’

अर्चाविग्रहका इस प्रकार स्नान कराकर पूर्वकथित नियमोंके अनुसार चन्दन, पुष्प, माला, अगुरु, धूप, कपूर एवं कुंकुमयुक्त धूपसे – ‘ॐ नमो नारायणाय’ – इस मन्त्रका उच्चारण करते हुए पूजनकर न्यायके अनुसार पितृ तर्पण करे। फिर वस्त्र अर्पण करते समय भी ‘ॐ नमो नारायणाय’ कहकर मन्त्र पढ़े। तत्पश्चात् नैवेद्य अर्पित करे और पूर्वोक्त मन्त्रसे पुनः आचमन देकर शान्तिपाठ करे। मन्त्रका भाव यह है- ‘देवताओं, ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्योंको शान्ति सुलभ हो । वृद्ध और बालवृन्द उत्तम शान्ति प्राप्त करें। भगवान् पर्जन्य जलकी वृष्टि करें और पृथ्वी धान्योंसे परिपूर्ण हो जाय।’ इस अर्थवाले मन्त्रसे विधिपूर्वक शान्तिपाठ करना चाहिये। तत्पश्चात् श्रीहरिमें श्रद्धा रखनेवाले ब्राह्मणोंका पूजन कर उनकी वन्दना करे और पूजाकी त्रुटियोंके लिये क्षमा-प्रार्थना कर विसर्जन करे। विसर्जनके बाद वहाँ जितने लोग हों, उनका उचित सत्कार करना चाहिये। यदि किसीको मेरा सायुज्य प्राप्त करने की इच्छा हो तो वह गुरुकी भी विधिपूर्वक पूजा करे। जो व्यक्ति शास्त्र – विहित कर्मको सम्पन्न कर भक्तिके साथ गुरुकी पूजा करता है, वह मानो निरन्तर मेरी ही पूजा करता है। यदि कोई राजा किसीपर प्रसन्न होता है तो बड़ी कठिनता से उसे कहीं एक गाँव दे पाता है, किंतु गुरु यदि किसी प्रकार प्रसन्न हो गये तो उनकी कृपासे ब्रह्माण्डपर्यन्त पृथ्वी सुलभ हो जाती है। शुभे ! मैंने जो बात कही है, यह सभी शास्त्रोंका निश्च्योत है। कल्याणि ! सम्पूर्ण शास्त्रों में गुरुदेवके पूजनकी समुचित व्यवस्था दी गयी है। जो मनुष्य इस विधिसे मेरी प्रतिष्ठा करता है, उसके इस प्रयाससे दोनों कुलोंकी इक्कीस पीढ़ियाँ तर जाती हैं। पूजा करते समय मेरे विग्रहपर जितनी जलविन्दुएँ गिरती हैं, उतने हजार वर्षोंतक वह व्यक्ति मेरे लोकोंमें आनन्द भोगता है। भूमे ! मैं तुमसे मृत्तिकासे बनी हुई मूर्तिकी प्रतिष्ठाका वर्णन कर चुका। अब जो सम्पूर्ण भागवत पुरुषोंके लिये प्रिय है, वह दूसरा प्रसङ्ग तुम्हें सुनाऊँगा ।

भगवान् वराह कहते हैं- वसुंधरे ! मेरी ताम्रकी सुन्दर एवं चमकीली अर्चाका निर्माण कराकर समुचित उपचारपूर्वक मन्दिरमें ले आये और उत्तराभिमुख रखे । फिर चित्रा नक्षत्रमें उसका अन्नाधिवासनकर अनेक प्रकारके गन्धों एवं पञ्चगव्यसे मिश्रित जलसे मेरी प्रतिमाको स्नान कराये। स्नान करानेके मन्त्रका भाव यह है— ‘भगवन्! जो जगत्के एकमात्र तत्त्व तथा उसके आश्रय हैं, वे आप ही हैं। आप मेरी प्रार्थना स्वीकार करके यहाँ पधारिये और पाँच भूतोंके साथ इस तामे (ताम्र ) की प्रतिमामें प्रतिष्ठित होकर मुझे दर्शन दीजिये।’ यशस्विनि ! इस प्रकार प्रार्थनापूर्वक प्रतिमा स्थापित कर पूर्वोक्त विधिके क्रमसे अधिवासनसमापक पूजा सम्पन्न करे। दूसरे दिन सूर्योदय होनेपर वेदकी ऋचासे शुद्धि करके मन्त्रपूर्वक मूर्तिको स्नान कराये। उपस्थित ब्राह्मणमण्डली वेदध्वनि करे और माङ्गलिक वस्तुएँ मण्डपमें रखी जायें। पूजा करनेवाला व्यक्ति सुगन्धित द्रव्यसे युक्त जल लेकर इस भावके मन्त्रको पढ़ता हुआ मेरी प्रतिमाको स्नान कराये। भाव यह है- ‘ॐ कारस्वरूप प्रभो ! जो सर्वोपरि विराजमान हैं, सर्वसमर्थ हैं, जिनकी शक्ति पाकर माया बलवती हुई है तथा जो यौगिक शक्तिके शिरोमणि हैं, वे पुरुष आप ही तो हैं। प्रभो ! मेरे कल्याणके लिये यथाशीघ्र यहाँ पधारिये और इस ताम्रमयी प्रतिमामें विराजनेकी कृपा कीजिये। ॐकारस्वरूप भगवन्! आप परम पुरुष हैं। सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, श्वास एवं प्रश्वास- ये सब स्वयं आप ही तो हैं।’ इसी प्रकार गन्ध, पुष्प एवं दीपकसे अर्चना करनी चाहिये। स्थापनाके मन्त्रका भाव यह है- तीनों लोकोंके प्रतिपालक पुरुषोत्तम ! ‘आप प्रकाशके भी प्रकाशक, विज्ञानमय, आनन्दमय एवं संसारके प्रकाशक हैं। भगवन्! यहाँ आइये और इस प्रतिमामें सदाके लिये विराजिये और कृपाकर मेरी रक्षा कीजिये।’ वैष्णव शास्त्रोंमें जो नियम बतलाये गये हैं, उसके अनुसार इस मन्त्रको पढ़कर स्थापना करनी चाहिये। फिर हाथमें निर्मल श्वेत वस्त्र लेकर कहे- ‘सम्पूर्ण विश्वपर शासन करनेवाले प्रभो! आप ॐकारस्वरूप परम पुरुष परमात्मा जगत्‌में एकमात्र तत्त्व एवं शुद्धस्वरूप हैं। ऐसे आप पुरुषोत्तमको मेरा नमस्कार है। मैं आपको ये सुन्दर वस्त्र अर्पित करता हूँ, आप इन्हें स्वीकार करनेकी कृपा कीजिये ।

पृथ्वि ! मेरे कर्ममें परायण रहनेवाला मानव प्रतिमाको वस्त्रोंसे आच्छादितकर फिर विधिपूर्वक मेरी अर्चा करे गन्ध एवं धूप आदिसे पूजा करनेके उपरान्त नैवेद्य अर्पण करे। तत्पश्चात् शान्ति पाठ कराया जाय। शान्ति मन्त्रका भाव है – ‘देवताओं और ब्राह्मणोंके लिये उत्तम शान्ति सुलभ हो। राजा, राष्ट्र, वैश्य, बालक, धान्य, व्यापार एवं गर्भिणी स्त्रियाँ – सबमें सदा शान्ति बनी रहे। देवेश! आपकी कृपासे मैं कभी अशान्त न होऊँ ।’

शान्ति पाठके पश्चात् ब्राह्मणोंकी पूजाकर भोजन, वस्त्र एवं अलंकारोंके द्वारा गुरुकी पूजा करनी चाहिये। जिसने गुरुकी पूजा की, उसने मेरी ही पूजा की। जिसके व्यवहारसे गुरु संतुष्ट न हुए, उससे मैं भी बहुत दूर रहता हूँ। जो मनुष्य इस विधानसे मेरी स्थापना करता है, उसके इस कार्यसे छत्तीस पीढ़ी तर जाती है। भद्रे ! ताँबेकी प्रतिमामें मेरे स्थापनकी यह विधि है, जिसे तुम्हें बतला दिया। इसी भाँति सभी प्रतिमाओंकी पूजाका प्रकार मैं तुम्हें बता दूँगा । पृथ्वि ! मुझे स्नान कराते समय जलकी जितनी बूँदें मूर्तिके ऊपर गिरती हैं, प्रतिष्ठा करनेवाला व्यक्ति उतने वर्षोंतक मेरे लोकमें निवास पाता है।

अध्याय १४८ कांस्य - प्रतिमा स्थापनकी विधि

भगवान् वराह कहते हैं- सुन्दरि ! कांस्य धातुसे स्वच्छ सुन्दर सभी अङ्ग सम्पन्न प्रतिमा बनवाकर ज्येष्ठा नक्षत्रमें मूर्तिको घरपर लाकर माङ्गलिक ध्वनिके साथ उसकी भी प्रतिष्ठा करनी चाहिये। मेरी प्रतिमाके प्रवेशकालमें विधिके अनुकूल अर्घ्य लेकर मन्त्र पढ़ना चाहिये। उसका भाव यह है— ‘जगत्प्रभो ! जो सम्पूर्ण यज्ञोंमें पूजा प्राप्त करते हैं, योगिजन जिनका ध्यान करते हैं, जो सदा सबकी रक्षा करते हैं, जिनकी इच्छापर विश्वकी सृष्टि, पालन आदि निर्भर है तथा जो महान् आत्मा एवं सदा प्रसन्न रहते हैं, वे आप ही हैं। भगवन्! आप भली प्रकारसे मेरी यह पूजा स्वीकार कर प्रसन्नतापूर्वक इस विग्रहमें विराजिये। फिर अर्घ्य देकर शास्त्रीय विधिका पालन करते हुए मूर्तिके मुखको उत्तरकी ओर करके रखे। प्रतिष्ठाके समय पञ्चगव्य, सभी प्रकारके चन्दन, लाजा एवं मधुसे सम्पन्न चार कलशोंको स्थापित करनेकी विधि है। पवित्रात्मा पुरुषको चाहिये कि सूर्यास्त हो जानेपर मेरी वह प्रतिमा पूजा करनेके विचारसे वहीं रख दे। साथ ही भगवन्निमित्त उन शुद्ध कलशोंको उठाकर विग्रहके पास – ॐ नमो नारायणाय’ कहकर रखना चाहिये। तत्पश्चात् आगेका मन्त्र पढ़ना चाहिये। मन्त्रका भाव यह है— ‘भगवन्! ब्रह्माण्ड एवं युगका आदि और अन्त आपके ही रूप हैं। आपके अतिरिक्त विश्वमें कहीं कुछ भी नहीं है। लोकनाथ ! अब आप यहाँ आ गये हैं, अतः सदाके लिये विराजिये। प्रभो! आप संसाररूपसे विकार, परमात्मरूपसे निराकार, निर्गुण होनेसे आकारशून्य तथा मूर्तिमान् होनेसे साकार भी हैं। आपको मेरा प्रणाम है।’

पृथ्वि ! दूसरे दिन प्रातः सूर्य उदय होनेपर अश्विनी, मूल अथवा तीनों उत्तरा नक्षत्रसे युक्त मुहूर्तमें पूर्वोक्त विधानके अनुसार मुझे मन्दिरके द्वारदेशपर स्थापित करे। सब प्रकारसे शान्ति करनेके लिये जल, गन्ध और फलके साथ – ‘ॐ नमो नारायणाय’ इसका उच्चारण कर प्रतिमाको भीतर ले जाय। कलशोंमें चन्दनयुक्त जल भरकर उसे अभिमन्त्रित करे। फिर उसी जलसे स्नान कराये। सम्पूर्ण अङ्गोंको शुद्ध करनेके लिये मन्त्रपूर्वक जलका आवाहन करे । मन्त्रका भाव यह है – ‘पुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है। भगवन् ! ऐसी कृपा करें कि समस्त सागर, सरिताएँ, सरोवर तथा पुष्कर आदि जितने तीर्थ हैं, वे सभी यहाँ आयें, जिनसे मेरे अङ्ग शुद्ध हो जायँ ।’

तत्पश्चात् उपासक भक्तिपूर्वक प्रतिमाको स्नान कराकर सविधि अर्चन कर, गन्ध-धूप-दीप आदिसे पूजा कर वस्त्र अर्पित करे। साथ ही यह मन्त्र पढ़े- ‘ॐ कारस्वरूप देवेश ! ये सूक्ष्म, सुन्दर एवं सुखदायी वस्त्र आपकी सेवामें उपस्थित हैं। आप इन्हें स्वीकार करें। आपको मेरा नमस्कार है। वेद, उपवेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद- ये सभी आपके रूप हैं और सभी आपकी आराधना करते हैं।’ पृथ्वि ! मन्त्रके विशेषज्ञ व्यक्ति विधिके साथ पूजा करके मुझे अलंकृत करनेके बाद नैवेद्य अर्पित कर आचमन करायें। फिर शान्तिपाठ करें। शान्तिपाठके मन्त्रका भाव यह है – ‘विद्या, वेद, ब्राह्मण सम्पूर्ण ग्रह, नदियाँ, समुद्र, इन्द्र, अग्नि, वरुण, आठों लोकपाल आदि देवता – ये सभी विश्व शान्ति प्रदान करें। भक्तोंकी कामना पूर्ण करनेवाले भगवन्! आप सर्वत्र व्याप्त मनोहर और यम अर्थात् अहिंसा, सत्य वचन एवं ब्रह्मचर्यस्वरूप हैं। ऐसे ॐकारमय आप परम पुरुषके लिये मेरा नमस्कार है।’ फिर मेरी प्रदक्षिणा, स्तुति तथा अभिवादन करे। इसके पश्चात् भगवान् श्रीहरिमें श्रद्धा रखनेवाले ब्राह्मणोंकी पूजाकर उन्हें भी तृप्त करे। कमलनयने ! विप्रवर्ग शान्ति-कलशका जल लेकर प्रतिमापर सिंचन करें।

साधकको ब्राह्मणों, मेरे भक्तों एवं गुरुजनोंकी निन्दा नहीं करनी चाहिये । प्रतिष्ठाके समय मेरे अङ्गोंपर जलकी जितनी बूँदें गिरती हैं, उतने हजार वर्षोंतक वह व्यक्ति विष्णुलोकमें रहनेका अधिकारी हो जाता है। जो मनुष्य इस विधिसे मेरी स्थापना करेगा, उसने मानो अपने मातृपक्ष एवं पितृपक्ष- दोनों कुलके पितरोंका उद्धार कर दिया। भद्रे ! कांस्यधातुसे निर्मित मेरी प्रतिमाकी जैसे प्रतिष्ठा करनी चाहिये, वह बात मैं तुम्हें बता चुका। अब ऐसे ही चाँदीसे बनी मूर्तिकी भी स्थापना होती है, वह आगे बताऊँगा ।

अध्याय १४९ रजत-स्वर्णप्रतिमाके स्थापन तथा शालग्राम और शिवलिङ्गकी पूजाका विधान

भगवान् वराह कहते हैं- वसुंधरे ! इसी प्रकार मेरी चाँदी तथा स्वर्णसे भी प्रतिमा बनाने एवं उसकी प्रतिष्ठा करनेका विधान है। मूर्ति- निर्माण एवं प्रतिष्ठा उसी प्रकार की जानी चाहिये, जैसी ताम्र या काँसेकी विधि है। वसुंधरे ! इसमें भी पूजा-अर्चा, कलश स्थापन एवं शान्तिपाठका भी पूर्वोक्त विधान ही अनुष्ठित होना चाहिये।

पृथ्वी बोली- माधव! आपने सुवर्ण आदिसे बनी हुई जिन प्रतिमाओं की बात बतायी है, प्रायः उन सभी में आपका निवास है। पर शालग्रामशिलामें आप स्वभावतया सदा निवास करते हैं। प्रभो ! मैं यह जानना चाहती हूँ कि गृह आदिमें साधारण रूपसे किनकी पूजा करनी चाहिये अथवा विशेष- रूपसे कौन देवता पूज्य हैं? आप मुझे इसका रहस्य बतानेकी कृपा करें। साथ ही मुझे यह भी स्पष्ट करा दीजिये कि शिवपरिवारके पूजनमें कितनी संख्याएँ होनी आवश्यक हैं?

भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! गृहस्थके घरमें दो शिवलिङ्ग, तीन शालग्रामकी मूर्तियाँ, दो गोमती चक्र, दो सूर्यकी प्रतिमाएँ, तीन गणेश तथा तीन दुर्गाकी प्रतिमाओंका पूजन करना निषिद्ध है। विषम संख्यायुक्त शालग्रामकी पूजा नहीं करनी चाहिये। युग्ममें भी दोकी संख्या नहीं होनी चाहिये । विषमसंख्यक शालग्रामकी पूजा निषिद्ध है, पर विषममें भी एक शालग्रामका पूजन विहित है। इसमें विषमताका दोष नहीं है। अग्निसे जली हुई तथा टूटी-फूटी प्रतिमाकी पूजा नहीं करनी चाहिये, क्योंकि घरमें ऐसी मूर्तियोंकी पूजा करनेसे गृह स्वामीके मनमें उद्वेग या अनिष्ट होता है। शालग्रामकी मूर्ति यदि चक्रके चिह्नसे युक्त हो तो खण्डित होनेपर भी उसकी पूजा करनी चाहिये, क्योंकि वह टूटा-फूटा दीखनेपर भी शुभप्रद माना जाता है। देवि! जिसने शालग्रामकी बारह मूर्तिका विधिवत् पूजन कर लिया, अब मैं तुम्हें उसका पुण्य बताता हूँ। यदि बारह करोड़ शिव लिङ्गोंका सोनेके कमलपुष्प चढ़ाकर बारह कल्पोंतक पूजन किया जाय, उससे जितना पुण्य प्राप्त होता है, उतना पुण्य केवल एक दिन बारह शालग्रामकी पूजासे होता है। श्रद्धा के साथ सौ शालग्रामका अर्चन करनेवाला जो फल पाता है, उसका वर्णन मेरे लिये सौ वर्षोंमें भी सम्भव नहीं है। अन्य देवताओंकी तथा मणि आदिसे बने हुए शिवलिङ्गोंकी पूजा सर्वसाधारण व्यक्ति कर सकते हैं, पर शालग्रामकी पूजा स्त्री एवं हीन अपवित्र व्यक्तियोंको नहीं करनी चाहिये। शालग्रामके चरणामृत लेनेसे सम्पूर्ण पाप भस्म हो जाते हैं। शिवजीपर चढ़े हुए फल, फूल, नैवेद्य, पत्र एवं जल ग्रहण करना निषिद्ध है। हाँ, यदि शालग्रामकी शिलासे उसका स्पर्श हो जाय तो वह सदा पवित्र माना जा सकता है। देवि ! जो व्यक्ति स्वर्णके साथ किसी भगवद्भक्त पुरुषको शालग्रामकी मूर्तिका दान करता है, उसका पुण्य कहता हूँ, सुनो। वसुंधरे ! उसे वन एवं पर्वतसहित समुद्रपर्यन्त सम्पूर्ण पृथ्वी सत्पात्र ब्राह्मणको देनेका पुण्य प्राप्त होता है। यदि शालग्रामकी मूर्तिके मूल्यका निश्चय करके कभी कोई उसे बेचता और खरीदता है तो वे दोनों निश्चय ही नरकमें जाते हैं। वस्तुतः शालग्रामके पूजनके फलका वर्णन तो कोई सौ वर्षमें भी नहीं कर सकता।

अध्याय १५० सृष्टि और श्राद्धकी उत्पत्ति कथा एवं पितृयज्ञका वर्णन

पृथ्वी बोली- भगवन्! मैं आपके वराह तथा मथुराक्षेत्रकी महिमा सुन चुकी । प्रभो! मैं अब पितृयज्ञके सम्बन्धमें जानना चाहती हूँ कि यह क्या है और इसे किस प्रकार आरम्भ करना चाहिये ? सर्वप्रथम किसने इस यज्ञका शुभारम्भ किया तथा इसका प्रयोजन एवं स्वरूप क्या है ?

भगवान् वराह कहते हैं-देवि ! सर्वप्रथम मैंने स्वर्गलोककी रचना की, जो देवताओंका पहले आवास बना। जगत् प्रकाशशून्य था और सर्वत्र अन्धकार व्याप्त था। उस समय मेरे मनमें ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि चर और अचर प्राणियोंसे सम्पन्न तीनों लोकोंका सृजन करूँ। उस समय मैं संसारकी सृष्टिसे विमुख शेषनागकी शय्यापर शयन कर रहा था।

ऐसा मेरा अनन्त शयन हुआ करता है। माया- स्वरूपिणी निद्रा मेरी सहचरी है। इसका सृजन मेरी इच्छापर निर्भर है। इसीसे मैं सोता और जागता हूँ। सृष्टिके प्रारम्भमें सर्वत्र जल ही जल था। कहीं कुछ भी पता नहीं चलता था । उस जलमें एक वट वृक्षके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं था। वह वट भी बीजजनित नहीं था, बल्कि मुझ विष्णुद्वारा ही उत्पन्न था। मायाका आश्रय लेकर एक बालकके रूपमें मैं उसपर निवास करता था। मेरी आज्ञा पाकर मायाने चर और अचरसे परिपूर्ण तीनों लोकोंको सजाया है। ये सभी मेरी आँखोंके सामने हैं। शुभे। मैं ही इस विविध वैचित्र्योपेत चराचर

* प्राय: लोग प्रश्न करते हैं कि बीज पहले या वट पहले। यह उसीका उत्तर है, जिसमें विष्णुको ही वटका तथा विश्ववृक्षका बीज बतलाया गया है।

विश्वका आधार हूँ। समयानुसार मैं ही बडवामुख नामक अग्नि बन जाता हूँ। माया मेरा ही आश्रय पाकर काम करती है, जिससे सभी जल बडवानलसे निकलकर मुझमें लीन हो जाते हैं। प्रलयकी अवधि पूरी हो जानेपर लोकपितामह ब्रह्माने मुझसे पूछा कि मैं क्या करूँ ? तब मैंने उनसे यह वचन कहा—’ ब्रह्मन् ! तुम यथाशीघ्र सुर-असुर एवं मानवोंकी सृष्टि करो।’

देवि ! इस प्रकार मेरे कहनेपर ब्रह्माने हाथसे कमण्डलु उठाया और उसके जलसे आचमनकर देवताओंकी सृष्टिका कार्य आरम्भ कर दिया। पितामहने बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र, दो अश्विनीकुमार, उनचास मरुद्गण एवं सबका उद्धार करनेके लिये ब्राह्मण तथा सुरसमुदायकी सृष्टि की। उनकी भुजाओंसे क्षत्रियोंकी, ऊरुओंसे वैश्योंकी तथा चरणोंसे शूद्रोंकी उत्पत्ति हुई। देवि! उन्हींसे देवता और असुर सब-के-सब धराधामपर विराजने लगे। देवता और दानवोंमें तप तथा बलकी अधिकता हुई । अदिति देवीसे आदित्य वसुगण, रुद्रगण, मरुद्गण, अश्विनीकुमार आदि तैंतीस करोड़ देवता उत्पन्न हुए। दिति देवीसे देवताओंके विरोधी दानवोंकी उत्पत्ति हुई। उसी समय प्रजापतिने तपोधन ऋषियोंको उत्पन्न किया। वे सभी तीव्र तेजके कारण सूर्यके समान प्रकाशित हो रहे थे। उन्हें सभी शास्त्रोंका पूर्ण ज्ञान था। अब उनके पुत्रों तथा पौत्रोंकी संख्या सीमित न रही। उन्होंमें एक निमि हुए। उन निमिको भी एक पुत्र हुआ, जो आत्रेय नामसे प्रसिद्ध हुआ। वह जन्मसे ही सुन्दर, संयतचित्त एवं उदार स्वभावका था। वह मनको एकाग्रकर अविचल भावसे सावधान होकर तपस्या करता । वसुंधरे ! पञ्चाग्नि तापना, वायु पीकर रहना, भुजा ऊपर उठाकर एक पैरसे खड़े रहना, सूखे पत्ते एवं जल ग्रहण करना, शीतकालमें जलशयन करना, फलोंके आहारपर रहना तथा चान्द्रायणव्रतका पालन करना – ये उसकी तपस्याके अङ्ग थे। इन सभी नियमोंका पालन करते हुए वह दस हजार वर्षोंतक तपस्यामें लीन रहा। इतनेमें कालवश उसका देहान्त हो गया। ऐसे सुयोग्य पुत्रकी मृत्युसे निमिका हृदय शोकपूर्ण हो गया। इस प्रकार पुत्रशोकके कारण ये निमि दिन-रात चिन्तित रहने लगे ।

माधवि ! उस समय निमिने तीन राततक शोक मनाया। उनकी बुद्धि बहुत विस्तृत थी । अतः इस शोकसे मुक्त होनेका विचार किया कि माघमासकी द्वादशीका दिन उपयुक्त है और फिर उस दिन पुत्रके लिये श्राद्धकी व्यवस्था की। उस बालक ( आत्रेय ) को खाने एवं पीनेके लिये जितने भोजनके पदार्थ अन्न, फल, मूल तथा रस थे, उन्हें एकत्रकर फिर स्वयं पवित्र होकर सावधानीके साथ ब्राह्मणको आमन्त्रित किया और अपसव्य विधानसे सभी श्राद्ध कार्य सम्पन्न किये। सुन्दरि ! इसके बाद सात दिनोंका कृत्य एक साथ सम्पन्न किया। शाक, फल और मूल- इन वस्तुओंसे पिण्डदान किया। सात ब्राह्मणोंकी विधिवत् पूजा की। कुशोंको दक्षिणकी ओर अग्रभाग करके रखकर नाम और गोत्रका उच्चारण करके मुनिवर निमिने धार्मिक भावनासे अपने पुत्रके नाम पिण्ड अर्पण किया । भद्रे ! इस प्रकार विधान पूरा करते रहे, दिन समाप्त हो गया और भगवान् सूर्य अस्ताचलको चले गये। यह परम दिव्य उत्तम कर्म श्रेष्ठभावसे सम्पन्न हुआ । उन्होंने मन और इन्द्रियोंको वशमें करके आशाएँ त्याग दीं और अकेले ही शुद्ध भूमिमें पहले कुश, तब मृगचर्म और इसके बाद वस्त्र बिछाकर बैठ गये। उनका वह आसन न बहुत ऊँचा था न अति नीचा। चित्त और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको वशमें करके एकाग्र हो अपने अन्तःकरणको शुद्ध करनेके लिये उन्होंने योगासन लगाया और अपने शरीर तथा सिरको समान रखकर अचल कर लिया। उनकी दृष्टि नासिकाके अग्रभागपर जमी थी। चित्तमें किसी प्रकारका क्षोभ भी न था । फिर निर्भीक एवं ब्रह्मचर्यसे रहकर श्रद्धाके साथ एकनिष्ठ होकर उन्होंने मुझमें अपने चित्तको लगाया। इस प्रकार सायंकालकी संध्या समाप्त हुई। पर रात्रिमें पुनः चिन्ता और शोकके कारण उनका मन सहसा क्षुब्ध हो उठा और इस प्रकार पिण्डदानकी क्रिया करनेसे उनके मनमें महान् पश्चात्ताप हुआ। वे सोचने लगे—’अहो, मैंने जो श्राद्ध-तर्पणकी क्रियाएँ की हैं, इन्हें आजतक किन्हीं मुनियोंने तो नहीं किया है। जन्म और मृत्यु पूर्वकर्मके फलसे सम्बद्ध हैं। पुत्रकी मृत्युके बाद मैंने जो तर्पण किया, यह अपवित्र कार्य है। अहो ! स्नेह एवं मोहके कारण मेरी बुद्धि नष्ट हो गयी थी। इसीसे मैंने यह कर्म किया। पितृ पदपर स्थित जो देवता, दानव, गन्धर्व, पिशाच, उरग और राक्षस आदि हैं, वे अब मुझे क्या कहेंगे।’

वसुंधरे ! इस प्रकार निमि सारी रात चिन्तामें व्यग्र रहे। फिर रात्रि बीती, सूर्य उदित हुए। फिर निमिने प्रातः संध्या कर, जैसे-तैसे अग्निहोत्र किया। पर वे चिन्ता – दुःखसे पुनः संतप्त हो उठे और अकेले बैठकर प्रलाप करने लगे। उन्होंने कहा- ‘ओह! मेरे कर्म, बल एवं जीवनको धिक्कार है। पुत्रसे सभी सुख सुलभ होते हैं। पर आज मैं उस सुपुत्रको देखनेमें असमर्थ हूँ । विवेकी पुरुषोंका कथन है कि ‘पूतिका’ नामका नरक घोर क्लेशदायक है, पर पुत्र इससे रक्षा करता है। अतः सभी मनुष्य इस लोक तथा परलोकके लिये ही पुत्रकी इच्छा करते हैं। अनेक देवताओंकी पूजा, विविध प्रकारके दान तथा विधिवत् अग्निहोत्र करनेके फलस्वरूप मनुष्य स्वर्गमें जानेका अधिकारी होता है, पर वही स्वर्ग पिताको पुत्रद्वारा सहज ही सुलभ हो जाता है। यही नहीं, पौत्रसे पितामह तथा प्रपौत्रसे प्रपितामह भी आनन्द पाते हैं। अतः अब अपने पुत्रके बिना मैं जीवित नहीं रहना चाहता हूँ।’

देवि ! इस प्रकार वे चिन्तासे अत्यन्त दुःखी हो रहे थे कि देवर्षि नारद सहसा उन निमिके आश्रममें पहुँच गये। उस अलौकिक आश्रममें सभी ऋतुएँ अनुकूल थीं। अनेक प्रकारके फल- फूल एवं जल उपलब्ध थे। स्वयंप्रकाशसे प्रकाशमान नारदजी निमिके आश्रमके भीतर गये। धर्मज्ञ निमिने उन्हें आया देखकर उनका स्वागत और पूजन किया। देवि ! उस समय निमिके द्वारा आसन, पाद्य एवं अर्घ्य आदि दिये गये। नारदजीने उन्हें ग्रहणकर फिर उनसे इस प्रकार कहना आरम्भ किया ।

नारद बोले- ‘निमे! तुम्हारे जैसे ज्ञानी पुरुषको इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिये। जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये तथा जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये पण्डितजन शोक नहीं करते। यदि कोई मर जाय, नष्ट हो जाय अथवा कहीं चला जाय, इनके लिये जो व्यक्ति शोक करता है, उसके शत्रु हर्षित होते हैं जो मर गया, नष्ट हो गया, वह पुनः लौट आये, यह सम्भव नहीं है। चर और अचर प्राणियोंसे सम्पन्न इन तीनों लोकोंमें मैं किसीको अमर नहीं देखता। देवता, दानव, गन्धर्व-मनुष्य, मृग- ये सभी कालके ही अधीन हैं। तुम्हारा पुत्र ‘श्रीमान्’ निश्चय ही एक महान् आत्मा था। उसने पूरे दस हजार वर्षोंतक अत्यन्त कठिन तपस्याकर परम दिव्य गति प्राप्त की है। इन सब बातोंको जानकर तुम्हें सोच नहीं करना चाहिये।’

नारदजीके इस प्रकार कहनेपर निमिने उनके चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम किया। किंतु फिर भी उनका मन पूरा शान्त न हुआ। वे बारम्बार दीर्घ साँस ले रहे थे और उनका हृदय करुणासे व्याप्त था। वे लज्जित होकर कुछ डरते हुए से गद्गदवाणीमें बोले- ‘मुनिवर ! आप अवश्य ही महान् धर्मज्ञानी पुरुष हैं। आपने अपनी मधुर वाणीद्वारा मेरे हृदयको शान्त कर दिया। फिर भी प्रणय, सौहार्द अथवा स्नेहके कारण मैं कुछ कहना चाहता हूँ, आप उसे सुननेकी कृपा कीजिये । मेरा चित्त एवं हृदय इस पुत्रशोकसे व्याकुल है। अतएव मैं उसके लिये संकल्प करके अपसव्य होकर श्राद्ध, तर्पण आदि क्रियाएँ कर चुका हूँ। साथ ही सात ब्राह्मणोंको अन्न एवं फल आदिसे तृप्त किया है तथा जमीनपर कुशा बिछाकर पिण्ड अर्पण किये हैं। द्विजवर ! पर अनार्य पुरुष ही ऐसा कर्म करता है, इससे स्वर्ग अथवा कीर्ति उपलब्ध नहीं हो सकती। मेरी बुद्धि मारी गयी थी। मैं कौन हूँ-यह मुझे स्मरण न था। अज्ञानसे मोहित होनेके कारण यह काम मैं कर बैठा। पहले किसी भी देवता ऋषियोंने| ऐसा काम नहीं किया है। प्रभो। मैं ऊहापोहमें पड़ा हूँ कि कहीं मुझे कोई प्रत्यवाय या शाप न लग जाय । ‘

नारदजी बोले – ‘द्विजश्रेष्ठ ! तुम्हें भय नहीं करना चाहिये। मेरे देखनेमें यह अधर्म नहीं, किंतु परम धर्म है। इसमें कोई संशय नहीं करना चाहिये। अब तुम अपने पिताकी शरणमें जाओ।’

नारदजीके इस प्रकार कहनेपर निमिने अपने पिताका मन, वाणी और कर्मसे ध्यानपूर्वक शरण ग्रहण किया और उनके पिता भी उसी समय उनके सामने उपस्थित हो गये। उन्होंने निमिको पुत्र-शोकसे संतप्त देखकर उन्हें कभी व्यर्थ न होनेवाले अभीष्ट वचनोंद्वारा आश्वासन देना आरम्भ किया- ‘निमे! तुम्हारे द्वारा जो संकल्पित कार्य हुआ है, तपोधन! यह ‘पितृयज्ञ’ है। स्वयं ब्रह्माने इसका नाम ‘पितृयज्ञ’ रखा है। तभीसे यह धर्म ‘व्रत’ एवं ‘क्रतु’ नामसे अभिहित होता आया है। बहुत पहले स्वयंभू ब्रह्माने भी इसका आचरण किया था। उस समय विधिके उत्तम जानकार ब्रह्माने जो यज्ञ किया था, उसमें श्राद्धकर्मकी विधि और प्रेत-कर्मका विधान है। उसे उन्होंने नारदको भी सुनाया था।

भगवान् वराह कहते हैं— सुन्दरि ! अब मैं ब्रह्माद्वारा उपदिष्ट उस श्राद्धविधिका भलीभाँति प्रतिपादन करता हूँ, सुनो। इससे ज्ञात हो जायगा कि पुत्र पिताके लिये किस प्रकार श्राद्ध करता है।

जितने प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सबकी समयानुसार मृत्यु हो जाती है। चींटी आदिसे लेकर जितने भी जन्तु हैं, उनमें किसीको मैं अमर नहीं देखता; क्योंकि जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु और जो मरता है, उसका जन्म निश्चित है। हाँ, कोई विशेष कर्म अथवा प्रायश्चित्तका सहयोग प्राप्त होनेसे मोक्ष होना भी निश्चित है।*

सत्त्व, रज और तम – ये तीनों शरीरके गुण कहे जाते हैं। कुछ दिनोंके पश्चात् युगके अन्तमें मनुष्य अल्पायु हो जायँगे।

तमोगुणकी प्रधानतावाले मानव कर्म-दोषके प्रभावसे सात्त्विक विषयपर ध्यान नहीं देते, अतः उस कर्मके प्रभावसे उन्हें नरकमें जाना पड़ता है। फिर अगले जन्मोंमें उन्हें पशु, पक्षी अथवा राक्षसकी योनि मिलती है।

वेदको जाननेवाले सात्त्विक ज्ञानी लोग धर्म, ज्ञान और वैराग्यके सहारे मुक्ति मार्गकी ओर अग्रसर होते हैं।

क्रूर, भयभीत, हिंसक, निर्लज्ज, अज्ञानी, श्रद्धाहीन मनुष्यको और पिशाचके समान व्यवहार करनेवालेको तमोगुणी जानना चाहिये। उसे कोई अच्छी बात बतायी जाय तो वह समझता नहीं है।

इसी प्रकार पराक्रमी, अपने वचनके पालन करनेवाले, स्थिरबुद्धि, सदा संयमशील, शूरवीर तथा प्रसिद्ध व्यक्तिको राजस पुरुष मानना चाहिये।

जो क्षमाशील, इन्द्रियविजयी, परम पवित्र, उत्तम ज्ञानवान्, श्रद्धालु तथा तप एवं स्वाध्यायमें सदा संलग्न रहते हैं, वे सात्त्विक पुरुष हैं।

ब्रह्माजीने निमिसे कहा था – पुत्र ! इस प्रकार सोच-विचारकर तुम्हें शोक करना अनुचित है; क्योंकि शोक सबका संहारक है। वह लोगोंके शरीरको जला देता है, उसके प्रभावसे मनुष्यकी बुद्धि नष्ट हो जाती है। लज्जा, धृति, धर्म, श्री कीर्ति, नीति तथा सम्पूर्ण शोकाकुल मनुष्यका परित्याग कर देते हैं। अतएव पुत्र ! तुम शोकका त्याग करके परम सुखी बननेका प्रयत्न करो। मूर्ख मनुष्य मोहवश हिंसा तथा मिथ्या भाषण करनेमें तत्पर हो जाता है। ऐसे मनुष्यको अपने दोषोंके कारण घोर नरकमें निवास करना पड़ता है, अतः अब मैं धार्मिक जगत्‌का कल्याण होनेके लिये सच्ची बात बताता हूँ, तुम उसे सुनो।

सम्पूर्ण संसारसे आसक्ति हटाकर धर्ममें बुद्धिको लगाना चाहिये – यह सार वस्तु है। स्वायम्भुव मनुने जो कहा है तथा तुमने जो श्राद्ध किया है, इसपर विचार करके मैं चारों वर्णोंके लिये विधान बतलाता हूँ, उसे सुनो।

जिस समय प्राण कण्ठस्थानपर पहुँच जाता है, उस समय मनुष्य भय और भ्रान्तिवश अत्यन्त घबड़ा जाता है और वह सभी दिशाओं में दृष्टि डालनेमें असमर्थ हो जाता है। किसी क्षणमें स्मृति भी आ जाती है। माधवि ! जीवकी जबतक आँख नहीं खुलती, तबतक भूमिके देवता ब्राह्मणगण स्नेहपूर्वक सामने सत् – शास्त्र पढ़ें और यथायोग्य दान आदि धर्म कराना समुचित है। दूसरे लोकमें उस प्राणीका कल्याण हो– इसलिये गोदान करना चाहिये। इसकी विशेष महिमा है, धरातलपर विचरना और अमृत तुल्य दुग्ध प्रदान करना गौका स्वाभाविक गुण है। इसके दानसे मनुष्य यथाशीघ्र तापसे छूट जाता है। इसके बाद मरणासन्न प्राणीके कानमें श्रुतिकथित दिव्य मन्त्र सुनाना चाहिये। जब प्राणी अत्यन्त विवश हो जाय तो मनुष्य उसे देखकर मन्त्र पढ़कर मरणकालोचित कर्म विधिपूर्वक सम्पन्न करे।

मन्त्रमें सम्पूर्ण संसारसे प्राणीको मुक्त करनेकी शक्ति है। फिर तत्काल मधुपर्क हाथमें लेकर कहे- ‘ओंकारस्वरूप भगवन्! आप मेरा अर्पण किया हुआ मधुपर्क स्वीकार करनेकी कृपा करें। यह परम स्वच्छ संसारमें आने-जानेका नाशक, अमृतके समान भगवत्प्रेमी व्यक्तियोंके लिये नारायणरचित, दाह मिटानेवाला तथा देवलोकमें परम पूजनीय है। यह कहकर उसे मरणासन्न प्राणीके मुखमें डाल दे। इसके फलस्वरूप व्यक्ति परलोकमें सुख पाता है। इस प्रकारकी विधि सम्पन्न होनेपर यदि प्राण निकलते हैं तो वह प्राणी फिर संसारमें जन्म नहीं पाता। मृत प्राणीकी सद्गतिके उद्देश्यसे उसे वृक्षके नीचे ले जाकर अनेक प्रकारके गन्धों तथा घृत, तेलके द्वारा उस प्राणीके शरीरका शोधन करे। साथ ही तैजस एवं अविनाशी सभी कार्य उसके लिये करना उचित है। जलके संनिकट दक्षिणकी ओर पैर करके लेटा देना चाहिये। तीर्थ आदिका आवाहन करके उसे स्नान करानेका विधान है। गया आदि जितने तीर्थ, ऊँचे, विशाल एवं पुण्यमय पर्वत, कुरुक्षेत्र, गङ्गा, यमुना, कौशिकी, पयोष्णी, गण्डकी, भद्रा, सरयू, बलदा, अनेक वन, वराहतीर्थ, पिण्डारक्षेत्र, पृथ्वीके सम्पूर्ण तीर्थ तथा चारों समुद्र – इन सभीका मनमें ध्यान करके मृत प्राणीको उस जलसे स्नान कराना चाहिये। फिर विधिके अनुसार उसे चितापर रखना चाहिये। उसके पैर दक्षिणकी दिशामें हों। प्रधान दिव्य अग्नियोंका ध्यान करके हाथमें अग्नि उठा ले उसे प्रज्वलित करके विधिवत् यह मन्त्र पढ़ना चाहिये। मन्त्रका भाव है – ‘ अग्निदेव ! यह मानव जाने अथवा अनजाने जो कुछ भी कठिन काम कर चुका है, किंतु अब मृत्युकालके अधीन होकर यह इस लोकसे चल बसा। धर्म, अधर्म, लोभ और मोहसे यह सदा सम्पन्न रहा है। फिर भी आप इसके गात्रोंको भस्म कर दें और यह स्वर्गलोकमें चला जाय।’ इस प्रकार कहकर प्रदक्षिणा कर जलती हुई अग्नि उसके सिरके स्थानमें प्रज्वलित कर दे। फिर तर्पणकर मृत व्यक्तिका नाम लेकर पृथ्वीपर उसके लिये पिण्ड दे। पुत्र! चारों वर्णोंमें इसी प्रकारका संस्कार होता है। फिर शरीर और वस्त्रोंको धोकर वहाँसे लौटना चाहिये। उसी समयसे दस दिनपर्यन्त सभी सगोत्रके लोग अशौचके भागी बन जाते हैं और उन्हें देवकर्मोंमें अधिकार नहीं रह जाता है।

अध्याय १५१ अशौच, पिण्डकल्प और श्राद्धकी उत्पत्तिका प्रकरण

धरणीने कहा माधव ! प्रभो ! अब मैं आपसे ‘अशौच’ सम्बन्धी कर्मको विधिवत् सुनना चाहती हूँ, आप उसे बतलानेकी कृपा करें।

भगवान् वराह कहते हैं – कल्याणि ! जिस प्रकार अशौचसे मनुष्योंकी शुद्धि होती है, वह सुनो। क्षयाहके तीसरे दिन श्राद्धकर्ता नदीके जलसे स्नान कर चूर्णसे निर्मित तीन पिण्ड एवं तीन अञ्जलि जल दे चौथे, पाँचवें और छठे दिन, सातवें दिन भी ऐसे ही एक-एक पिण्ड तथा जल देनेका विधान है। पिण्डकी जगह पृथक् पृथक् हो । दस दिनपर्यन्त क्रमशः इस प्रकारकी विधिका पालन करना आवश्यक है। दसवें दिन क्षौर कर्म कराकर दूसरा पवित्र वस्त्र धारण करना चाहिये। गोत्रके सभी स्वजन तिल, आँवला और तेल लगाकर स्नान करें। दसवें दिन बाल बनवाकर विधिपूर्वक स्नान करनेके पश्चात् भाई-बन्धुओंके साथ अपने घर जाना चाहिये। ग्यारहवें दिन समुचित विधिसे एकोद्दिष्ट श्राद्ध करनेका नियम है। स्नान करके शुद्ध होनेके बाद अपने उस प्रेतको अन्य पितरोंमें सम्मिलित करनेके लिये पिण्ड दे। माधवि ! चारों वर्णोंके मनुष्योंके लिये एकोद्दिष्टका विधान एक समान है। तेरहवें दिन ब्राह्मणोंको श्रद्धापूर्वक पक्वान्न भोजन कराना चाहिये। इसमें जिस दिवंगत व्यक्तिके लिये श्राद्ध किया जाता हो, उसका नाम लेकर संकल्प करना आवश्यक है। इसके लिये पहले ब्राह्मणके घरपर जाकर स्वस्थ चित्तसे नम्रतापूर्वक निमन्त्रण देना चाहिये। देवि ! उस समय मन ही मन यह मन्त्र पढ़ना चाहिये, जिसका भाव है- ‘विप्रवर! तुम इस समय यमराजके आदेशानुसार दिव्य लोकमें पहुँच गये हो, अब वायुका रूप धारण करके मानसिक प्रयत्नद्वारा इस ब्राह्मणके शरीरमें स्थित होनेकी कृपा करो।’ फिर उस श्रेष्ठ ब्राह्मणको नमस्कार करके पाद्यार्पण करना चाहिये।

सुन्दरि ! उस समय ब्राह्मणके शरीरमें प्रेतके विग्रहकी कल्पनाकर उसका हित करनेके विचारसे पाद-संवाहन (पैर दबाना) आदि कार्य परम उपयोगी है। भूमे ! मनुष्यका कर्तव्य है कि अशौचके दिनोंमें मेरे गात्रका स्पर्श न करे। रात बीत जानेपर प्रातःकाल सूर्योदयके पश्चात् श्राद्धकर्ताको विधिपूर्वक बाल बनवाकर तेल आदि लगाकर स्नान करना चाहिये। फिर पृथ्वीको स्वच्छ करके यहाँ वेदी बनाये। इसका उपयुक्त देश नदीतट अथवा श्राद्धकर्मके लिये निश्चित भूमि है। ऐसे स्थानपर पिण्डदान करना उत्तम है। चौंसठ पिण्ड देनेसे यथार्थ सुकृत सुलभ होता है। सुन्दरि ! दक्षिण और पूर्वकी ओर मुख करके ये सभी पितृभाग सम्पन्न होते हैं। नदीके तटपर वृक्षके नीचे अथवा कुंजर* वृक्षकी छायामें भी इस कार्यको करनेका विधान है। उस स्थानपर हीन प्राणियोंकी दृष्टि न पड़े। जिस स्थानमें प्रेत सम्बन्धी कार्य किये जायें, वहाँ मुर्गा, कुत्ता, सूकर प्रभृति पशु-पक्षियोंका प्रवेश या नेत्र दृष्टि निषिद्ध हैं। उनके शब्द भी वहाँ नहीं होने चाहिये। वसुंधरे ! मुर्गेकी पाँख-सम्बन्धी वायुसे तथा चण्डालकी दृष्टिसे युक्त स्थानमें श्राद्ध करनेसे पितरोंको बन्धन प्राप्त होता है।

सुन्दरि ! इसलिये विवेकी मनुष्यका परम कर्तव्य है कि वे प्रेतकार्यमें इनका उपयोग न करें। देवता, दानव, गन्धर्व, उरग, नाग, यक्ष- राक्षस, पिशाच तथा स्थावर और जङ्गम आदि जितने प्राणी हैं, वे सभी तुम्हारे पृष्ठभागपर प्रतिष्ठित हो स्नान आदि क्रियाएँ यथावसर करते रहते हैं। यह सारा जगत् भगवान् विष्णुकी मायाका क्षेत्र है। चण्डालसे लेकर ब्राह्मणपर्यन्त सभी वर्णके मनुष्य शुभ अथवा अशुभ कार्य करनेके लिये स्वतन्त्र हैं। भूमे ! इसलिये आवश्यकता यह है कि प्रेत कार्य समय पहले स्नानपूर्वक स्थानकी शुद्धि करे। भूमिको बिना पवित्र किये श्राद्ध करना अनुपयुक्त होता है। भद्रे ! जगत् तुमपर आधारित है और तुम स्वभावतः शुद्ध हो पर अपवित्र कार्योंके द्वारा तुम्हें दूषित बना दिया जाता है। इसलिये कभी बिना पवित्र किये स्थानपर श्राद्ध नहीं करना चाहिये; क्योंकि उसे देवता और पितर स्वीकार नहीं करते। यहाँतक कि उस उच्छिष्ट स्थानके प्रभावसे उन्हें घोर नरकमें गिरना पड़ता है। अतएव स्थानकी शुद्धि करके ही प्रेतको पिण्ड देना चाहिये। माधवि ! नाम और गोत्रके साथ संकल्प करके पिण्ड अर्पण करनेकी विधि है। यह सभी कार्य पूरा हो जानेपर अपने गोत्र एवं कुल- सम्बन्धी सभी सज्जन एक स्थानपर बैठकर भोजन करें। चारों वर्णोंके लिये प्रेत-निमित्त कार्यों में यही नियम है।

देवि ! इस प्रकार पिण्डदान करनेसे प्रेतलोकमें गये हुए प्राणी पूर्णतः तृप्त हो जाते हैं जो असपिण्ड मनुष्य पिण्ड दान नहीं करता, किंतु अशौचग्रस्त व्यक्तियोंके भोजनमें सम्मिलित रहता है, उसकी भी शुद्धि आवश्यक है। वह किसी नदीपर जाकर वस्त्रसहित उसमें स्नान करे। यदि वह वहाँ जानेमें असमर्थ हो तो मानसिक तीर्थयात्रा करके मन्त्रमार्जनपूर्वक जलके छोटे दे। माधवि ! उस समय पूर्ण स्वस्थ पुरुषको चाहिये कि ब्राह्मणके लिये अर्घ्य एवं पाद्य अर्पण करे। सर्वप्रथम मन्त्र पढ़कर विधिपूर्वक आसन देनेका नियम है। आसनके मन्त्रका भाव यह है – ‘द्विजवर! आपकी सेवामें यह आसन प्रस्तुत है। आप इसपर विश्राम करें। विप्रवर! साथ ही परम प्रसन्न होकर मुझे कृतार्थ करना आपकी कृपापर ही निर्भर है।’ जब ब्राह्मण आसनपर बैठ जायें, तब संकल्पपूर्वक छातेका दान करना चाहिये। आकाशमें बहुत-से देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस एवं सिद्धोंका समुदाय तथा पितरोंका समाज उपस्थित रहता है, जो अत्यन्त तेजस्वी होते हैं। अतः उनसे तथा आतपवर्षादिसे बचनेके लिये छत्र धारण करना आवश्यक है। वसुंधरे ! प्रेतका हित हो, इस विचारसे भी छत्र-दान अनिवार्य है। पहले प्रसन्नतापूर्वक प्रेतभाग देना चाहिये । प्रेत किसी आवरणके नीचे रहे, इसलिये भी उसके निमित्त ब्राह्मणको छत्र दान करना परम उपयोगी है। देवता दानव, सिद्ध-गन्धर्व तथा मांसभक्षी राक्षस आकाशमें रहकर नीचे देखते रहते हैं। उन सबकी दृष्टि पड़नेपर प्रेत विशेष लज्जाका अनुभव करता है। जब प्रेत लज्जित हो जाता है तो उसे देखकर असुर एवं राक्षस उसका उपहास करते हैं। इसलिये बहुत पहलेसे ही भगवान् आदित्यने इसके निवारणके निमित्त छत्रकी व्यवस्था कर रखी है।

-देवि! पूर्वकालकी बात है एक बार अनेक देवता एवं ऋषि प्रेतलोकमें पहुँचे, पर वहाँ उनपर अग्नि, पत्थर, जलते हुए जल तथा भस्मकी दिन-रात वर्षा होने लगी। उसी उपद्रवको शान्त करनेके लिये भगवान् आदित्यको छत्रकी व्यवस्था करनी पड़ी थी, अतः प्रेतकार्यमें ब्राह्मणको छत्र- दान अवश्य करना चाहिये ।

शुभे ! इसके पश्चात् उपानह दान करनेका भी विधान है। इसे धारण करनेसे पैरोंको आराम पहुँचता है। इसके दान करनेसे जो फल प्राप्त होता है, वह भी बताता हूँ। यमराजकी पुरीमें जाते समय उपानह- दान करनेसे प्रेतके पैर नहीं तपते । यममार्ग अत्यन्त अन्धकारसे व्याप्त, महान् कठिन एवं देखनेमें भयावह है। उसी मार्ग यमके लोकमें प्राणी अकेले ही जाता है

वहाँ यमराजके दूत पीछे-पीछे दण्ड लेकर शासन करनेमें सदा तत्पर रहते हैं। माधवि ! दिन-रात दूतकी चेष्टा प्रेतको यमपुरीमें ले जानेके लिये बनी रहती है। अतः पैर सुखपूर्वक काम करते रहें – इस निमित्त ब्राह्मणको उपानहका दान करना अत्यन्त आवश्यक है। यमपुरीके मार्गकी भूमिपर तपती हुई बालुकाएँ बिछी रहती हैं। कण्टक भी बिखरे रहते हैं। ऐसी स्थितिमें वह उस दिये गये उपानहकी सहायतासे कठिन मार्गको पार कर पाता है।

भूमे ! इसके पश्चात् मन्त्र पढ़कर धूप और दीप देनेका विधान है। प्रेतके साथ पृथक् पृथक् इनकी योजना उपयुक्त है। नाम और गोत्रके उच्चारणसे प्रेत उन्हें प्राप्त करता है। इसके बाद भूमिपर कुश बिछाकर प्रेतका आवाहन करना चाहिये। आवाहनके मन्त्रका भाव यह है- ‘प्रेत ! तुम इस लोकको परित्यागकर परमगतिको प्राप्त कर चुके हो। मैंने भक्तिपूर्वक तुम्हारे लिये यह गन्ध उपस्थित किया है, तुम प्रसन्न होकर इसे स्वीकार करो।’ साथ ही विप्रके प्रति कहे- ‘विप्रवर! मेरे प्रयाससे ये सब प्रकारके गन्ध पुष्प, धूप एवं दीप प्रेतके सेवार्थ समर्पित हैं। आप इन्हें स्वीकार करके प्रेतका उद्धार करनेकी कृपा करें।’

वसुंधरे ! इसी प्रकार प्रेतके निमित्त सिद्ध अन्न, वस्त्र एवं आभूषण भी ब्राह्मणको दान करना चाहिये। माधवि ! प्रेतके उपभोगके योग्य अनेक द्रव्य दान करनेके पश्चात् तीन बार अपने पैरकी शुद्धि भी समुचित है। चारों वर्णोंको ऐसी ही विधिका पालन करना चाहिये। ग्रहीता ब्राह्मण भी मन्त्रका उच्चारण करके ही दातव्य वस्तु ग्रहण करे। प्रेतश्राद्धमें भोजन करनेवाले ब्राह्मणको ज्ञानी एवं शुद्धस्वरूप होना अनिवार्य है। सर्वप्रथम प्रेतके लिये अन्न देना चाहिये। उस समय एक- दूसरेका स्पर्श होना निषिद्ध है। उन सभी व्यञ्जनोंकी कल्पना प्रेतके निमित्त ही हो ऐसा नियम है। सुव्रते ! प्रेतके लिये पिण्डदान करते समय देवता और ब्राह्मण भी भाग पानेके अधिकारी हैं। बुद्धिमान् पुरुषको इस बातपर सदा ध्यान रखना चाहिये कि ऐसे अवसरोंपर मानवोचित व्यवहार भी बना रहे। विधिके साथ मन्त्र पढ़कर पितृतीर्थसे* पिण्ड अर्पण करना चाहिये। इस प्रकारके कार्य प्रेतों और ब्राह्मणोंके लिये स्वल्पान्तरके समयसे होना उचित है। प्रेतकार्यसे निवृत्त होकर हाथ-पैर धोना तथा विधिवत् आचमन करना चाहिये। फिर मन्त्रपूर्वक भक्षण करनेके योग्य सिद्ध अन्न हाथमें उठाये। जो ब्राह्मण प्रेतकार्य में सदासे भोजन करता हो, अपनी जाति, बन्धु एवं गोत्रोंमें जो भोजनका अधिकारी हो तथा जिसके लिये जैसा उचित हो, उसको समुचित रूपसे वैसा ही भाग देना चाहिये। ब्राह्मणको जब कुछ दिया जा रहा हो, उस समय किसीको मना नहीं करना चाहिये । यदि कोई दूसरा दान करता हो और कोई दूसरा उसे रोकता है तो गुरुकी हत्या- जैसे बुरे फलका भागी होता है। यहीं नहीं, ऐसे व्यक्तिके दिये हुए पदार्थको देवता, अग्नि और पितर भी ग्रहण नहीं करते और प्रेतको भी प्रसन्नता नहीं प्राप्त होती है। अतएव मनुष्यको ऐसा कार्य करना चाहिये कि जिससे दान-धर्मका लोप न हो सके। जातिवाले तथा सम्बन्धियोंके बीच प्रसन्नमनसे जो ब्राह्मणको विशेषरूपसे प्रेतभाग भोजनके लिये प्रदान करता है, उसकी अचल प्रतिष्ठा होती है, केवल देखनेमात्रसे कोई तृप्त नहीं होता। इस प्रकार प्रेतकी भावना करके भोजन आदि पदार्थ अर्पण करनेके प्रभावसे प्राणी यथाशीघ्र पापसे मुक्त हो जाता है।

शान्तिके लिये जलसे विधिवत् स्नानकर सिर झुकाकर प्रणाम करना चाहिये। तत्पश्चात् पितरोंके लिये दान देनेके स्थानपर आ जाय। देवि! तुम्हारी भक्तिमें निष्ठा रखते हुए मानवको इन मन्त्रोंको पढ़कर स्तुति करनेकी विधि है। मन्त्रका भाव यह है – ‘वसुधे! आप जगत् की माता हैं तथा मेदिनी, उर्वी, महाशैलशिलाधारा-आदि नामोंसे विभूषित हैं। आप जगत् की जननी तथा उसे आश्रयप्रदान करनेवाली हैं। जगत् आपपर आधारित है। आपको मेरा निरन्तर नमस्कार है।’ सुन्दरि इस विधिसे जब भक्त पिण्डदान करता है तो उसे महान् पुण्य प्राप्त होता है। फिर प्रेतके नाम और गोत्रका उच्चारण करके तिलोदक देना चाहिये। साथ ही दोनों घुटनोंको जमीनपर टेककर श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको नमस्कार करे। मन्त्रपूर्वक अपने हाथसे ब्राह्मणका हाथ पकड़कर उठाये और उन्हें शय्यापर बैठाकर अञ्जन आदि वस्तुओंको अर्पित करे। कुछ क्षणतक वहाँ विश्राम करके निवाप (श्राद्ध) स्थानपर आ जाय और गौकी पूँछ पकड़कर ब्राह्मणके हाथमें उसका दान करना चाहिये।

गूलरकी लकड़ीसे बने हुए पात्रमें काला तिल और जल लेकर द्विजातिगण ‘सौरभेय्यः सर्वहिताः ० ‘ – ‘इन मन्त्रोंका उच्चारण करे। मन्त्रसे जब जलकी शुद्धि हो जाती है तो उसके उपयोगसे सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। इसके बाद प्रेतका विसर्जन करके ब्राह्मणको दान देना उचित है। अन्तमें अपसव्य रूपसे काकबलि देनी चाहिये। इसके बाद प्रेतके लिये बने हुए पदार्थसे चींटी आदि प्राणियोंके लिये भी सम्यक् प्रकारसे बलि देकर तर्पण करनेकी विधि है। माधवि ! सब लोग भोजन कर लें, इसके बाद अनाथों और गरीबोंको भी संतुष्ट करना चाहिये। इससे वे यमपुरीमें जाकर मृत प्राणीकी सहायता करते हैं। सुन्दरि ! अनाथोंको दिया हुआ सम्पूर्ण अन्न अक्षय हो जाता है। अतः प्रेतका संस्कार अवश्य करना चाहिये ।

इस प्रकार चारों वर्णोंके लिये निमि प्रभृति आदर्श ऋषियों तथा स्वायम्भुव आदि मनुओंने सब प्रकारसे शुद्ध होनेके नियम प्रदर्शित किये हैं। अतः इससे पुरुष शुद्ध होता है, इसमें कोई संदेह नहीं प्रेतसम्बन्धी कार्यमें धर्मपूर्वक संकल्प करनेकी विशेष आवश्यकता है। आत्रेयने भी कहा था- पुत्र ! तुमने जो प्रेतकार्य किया है और इसके विषयमें भयका अनुभव करते हो, यह कार्य अनुचित है। यह प्रसङ्ग मैं नारदके सामने विस्तारसे व्यक्त कर चुका हूँ। पुत्र! तुम्हारे लिये मैं एक यज्ञकी प्रतिष्ठा कर देता हूँ। आजसे लेकर यह यज्ञ अखिल जगत् में पितृयज्ञके नामसे प्रसिद्ध होगा। वत्स! अब तुम जा सकते हो। शोक करना तुम्हारे लिये अशोभनीय है। ब्रह्मा, विष्णु और शिवके लोकमें रहनेका तुम्हें सुअवसर मिलेगा। इसमें कोई संशय नहीं।’

इस प्रकार पितृसम्बन्धी कर्मका वर्णन करके आत्रेय मुनिने निमिको आश्वासन दिया। अतएव तीसरे, सातवें, नवें, ग्यारहवें मासोंमें सांवत्सरिक क्रियाका नियम चल पड़ा। इन मासोंमें पिण्डदानकी विधि बन गयी है। प्रेतका यह कार्य पूरे एक वर्षमें पूर्ण होता है। कितने प्राणी इस लोकसे जाते हैं और जाकर बहुतोंको अन्य लोकमें भी पहुँचना पड़ता है। पिता – पितामह, पुत्रवधू, स्त्री, जातिवाले, सम्बन्धीजन और बन्धु एवं बान्धव – इन बहुसंख्यक प्राणियोंसे सम्बन्ध रखनेवाला यह संसार स्वप्नके समान मिथ्या और सारहीन है। किसीकी मृत्यु हो गयी तो उसका स्वजन कुछ समय रोता है और फिर मुँह पीछे करके लौट जाता है। स्नेहरूपी बन्धनसे प्राणी जकड़ा हुआ है। फिर आधे क्षणमें वह स्नेह बन्धन कट भी जाता है। किसकी कौन माता, किसका कौन पिता, किसकी कौन स्त्री और किसके कौन पुत्र हैं! प्रत्येक युगमें इनके सम्बन्ध होते टूटते रहते हैं। अतः इनपर कोई आस्था नहीं रखनी चाहिये। संसार मोहकी रस्सीमें बँधा है। मृतक व्यक्तिके लिये संस्कारकी विधि श्रद्धा एवं स्नेहपूर्वक की जाती है, इसीलिये उसे ‘श्राद्ध’ कहते हैं ।

माता, पिता, पुत्र और स्त्री प्रभृति संसारमें आते हैं तथा चले भी जाते हैं। अतः वे किसके हैं और हमारा किससे सम्बन्ध है? मृत प्राणीके प्रेत संस्कार सम्पन्न हो जानेपर वह पितरोंकी श्रेणीमें सम्मिलित हो जाता है। फिर प्रत्येक मासकी अमावास्या तिथिके दिन उसके लिये तर्पण करना चाहिये। ब्राह्मणके मुखमें हवन करनेसे अर्थात् ब्राह्मणको भोजन करानेसे पितामह एवं प्रपितामह सदाके लिये तृप्त हो जाते हैं। पितृयज्ञके प्रतिनिधि आत्रेयमुनिने इस प्रकारकी निश्चयात्मक बात बताकर कुछ समयतक भगवान् श्रीहरिका ध्यान किया और वहीं अन्तर्धान हो गये।

नारदजी कहते हैं—मुने! हमने आत्रेयके लिये जो संस्कार-सम्बन्धी बात बतायी है और तुमने उसका श्रवण भी किया है, वह प्रायः चारों वर्णोंसे सम्बन्ध रखता है, अतः उसे विधिपूर्वक करना चाहिये। तभीसे तपके परम धनी ऋषियोंके द्वारा प्रत्येक मासकी अमावास्याके दिन न्यायके अनुसार यह पितृयज्ञ होता आ रहा है। निमिद्वारा निर्दिष्ट यह यज्ञ द्विजातियोंको मन्त्रसहित और शूद्रवर्गको बिना मन्त्र पढ़े करना चाहिये – यह विधि है। तबसे इसका नाम ‘नेमिश्राद्ध’ पड़ गया और द्विजातिवर्णके प्राणी सदा इसे करते आ रहे हैं। महाभाग ! तुम मुनिगणोंमें परम प्रतिष्ठित हो । तुम्हारा कल्याण हो, अब मैं जाना चाहता हूँ। माधवि ! इस प्रकार कहकर नारदमुनि अमरावतीके लिये प्रस्थान कर गये।

अध्याय १५२ श्राद्धके दोष और उसकी रक्षाकी विधि

धरणीने कहा- भगवन्! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चारों वर्णोंको जिस विधिसे श्राद्ध करना चाहिये, इन्हें जैसे अशौच लगता है और जैसे शुद्ध होते हैं तथा जिस विधिसे प्रेतकी सद्गतिके लिये भोजन आदि करानेका विधान है – यह प्रसङ्ग मैं सुन चुकी। प्रभो! ऐसा वर्णन मिलता है कि चारों वर्णोंके सभी व्यक्तियोंका  कर्तव्य है कि उत्तम ब्राह्मणको ही दान दें। मेरे हृदयमें यह शङ्का है कि दान किसे देना उचित है ? प्रेतश्राद्धका दान ग्रहण करना निन्दित एवं गर्हित कार्य है, अतः पुरुषोत्तम ! आपसे मैं यह भी जानना चाहती हूँ कि विप्रसमाजमें जिस ब्राह्मणने प्रेतभाग स्वीकार कर लिया, वह क्या कर्म करे, जिससे उसके पाप दूर हो जायँ और दाताका भी श्रेय हो ।

 

सूतजी कहते हैं ऋषियो ! जब पृथ्वीदेवीने इस प्रकार परम प्रभुसे प्रश्न किया तो शङ्ख एवं दुन्दुभियोंकी ध्वनि होने लगी। उस समय वराहरूपधारी भगवान् नारायणने भगवती वसुंधरासे कहा।

भगवान् वराह बोले- देवि ! ब्राह्मण जिस प्रकार दाताका उद्धार कर सकते हैं, वह मैं तुम्हें बताता हूँ। जो ब्राह्मण अज्ञानमें प्रेतके निमित्त दिया हुआ अन्न ग्रहण कर लेता है, उसे शरीरकी शुद्धिके लिये एक दिन और रात निराहार रहकर प्रायश्चित्त करना चाहिये। ऐसा करनेसे वह ब्राह्मण शुद्ध हो जाता है। उसे पूर्वकी ओर बहनेवाली नदीमें विधिके अनुसार स्नानकर प्रातः- संध्या करनेके बाद तर्पण, अग्निमें तिलका हवन, शान्तिपाठ एवं मङ्गलपाठ करना चाहिये। फिर पञ्चगव्य-पान और मधुपर्कका सेवन परम शुद्धिका साधन है। तदनन्तर गूलरकी लकड़ीसे बने हुए पात्रमें शान्तिका जल लेकर वह ब्राह्मण अपने घरका मार्जन करे। पापोंको भस्म करनेके लिये देवताओंका मुख अग्निका काम करता है, अतः समस्त देवताओंका क्रमशः तर्पण, भूतोंके लिये बलि तथा इसके बाद ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये। गौके दान करनेसे सभी पाप नष्ट हो जाते हैं, अतः गोदान भी करे। ऐसी विधिका पालन करनेसे परमगति होती है। जिसके पेटमें प्रेतनिमित्तक अन्न हो और काल – धर्मके अनुसार उसके प्राण प्रयाण कर जायँ तो वह ब्राह्मण कल्पपर्यन्त भयंकर नरकमें निवास करता है और उसे कठिन दुःख भोगने पड़ते हैं। बादमें उसे राक्षसकी योनि मिलती है। इसलिये दाता और भोक्ता दोनोंको स्वकल्याणार्थ प्रायश्चित्त करना नितान्त आवश्यक है।

माधवि ! गौ, हाथी, घोड़ा तथा समुद्रपर्यन्त सम्पूर्ण सम्पत्तियाँ दानमें लेनेवाला ब्राह्मण भी यदि मन्त्रपूर्वक प्रायश्चित्तका कार्य सम्पन्न कर ले तो निश्चय ही उसमें दाताके उद्धार करनेकी शक्ति आ जाती है।

जो ज्ञानसे सम्पन्न तथा वेदका अभ्यास करनेमें सदा संलग्न रहता है, वह ब्राह्मण स्वयं अपनेको एवं दाताको तारनेमें पूर्ण समर्थ है- इसमें कोई संशय नहीं वसुंधरे ! तीनों वर्णोंका परम कर्तव्य है कि वे कभी भी ब्राह्मणका अनादर न करें। देवकार्यके अवसरपर, जन्मनक्षत्रके दिन श्राद्धकी तिथिमें, किसी पर्वकालपर अथवा प्रेत सम्बन्धी कार्यमें प्रवीण ब्राह्मणको सम्मिलित करे जो वैदिक विद्या जानता हो, जिसकी व्रतमें निष्ठा हो, जो सदा धर्मका पालन करता हो, शीलवान्, परम संतोषी, धर्मज्ञानी, सत्यवादी, क्षमासे सम्पन्न, शास्त्रका पारगामी तथा अहिंसाव्रती हो, ऐसे ब्राह्मणको पाकर उसे तुरंत दान देना चाहिये। वही ब्राह्मण दाताका उद्धार करनेमें समर्थ है ‘कुण्ड’ अथवा ‘गोलक’ ब्राह्मणको दिया हुआ दान निष्फल हो जाता है। * वह दाताको नरकमें पहुँचा देता है। पितृसम्बन्धी या देवकार्यमें कदाचित् एक भी कुण्ड या गोलक ब्राह्मण उपस्थित हो जाय तो उसे देखकर पितर निराश होकर लौट जाते हैं।

यशस्विनि ! अपात्रको भी कभी दान न दे। इस सम्बन्धमें एक प्राचीन प्रसङ्ग कहता हूँ, तुम उसे सुनो। अवन्तीपुरीमें पहले एक मनुके वंशमें उत्पन्न परम धार्मिक राजा रहते थे, जिनका नाम मेधातिथि था। उनके अत्रिगोत्रकुलोद्भव पुरोहितका नाम चन्द्रशर्मा था, जो सदा वेद पाठ संलग्न रहते थे। राजा मेधातिथि अत्यन्त दानी थे। वे प्रतिदिन ब्राह्मणोंको गौएँ दान दिया करते थे। विधिके साथ सौ गौएँ रोज दान करनेके पश्चात् ही उनका अन्न ग्रहण करनेका नियम था । वैशाखमासमें उन महाराजने अपने पिताके श्राद्ध दिवसपर अनेक ब्राह्मणोंको आमन्त्रित किया। फिर उन ब्राह्मणों एवं गुरु ( राजपुरोहित ) – के आनेपर उन्होंने उन्हें प्रणाम किया और विधिके साथ श्राद्धकार्य प्रारम्भ हुआ। पिण्ड प्रदानके बाद अन्नदानका संकल्प करके उसे ब्राह्मणोंमें वितरित किया गया, पर उसी विप्रसमाजमें एक गोलक ब्राह्मण भी था। राजाने श्राद्धमें संकल्पित अन्न उस ब्राह्मणको भी दिया, जिससे श्राद्धमें एक महान् दोष उत्पन्न हो गया। इसी कारणसे राजा मेधातिथिके पितर स्वर्गसे नीचे उतर आये और उन्हें काँटोंसे भरे हुए जंगलमें रहना पड़ा और रात-दिन भूख-प्यासकी पीड़ा उन्हें सताने लगी एक समयकी बात है – स्वयं राजा मेधातिथि संयोगवश दो-तीन परिजनोंके साथ मृगयाके लिये उसी जंगलमें पहुँच गये। राजाने वहाँ उन पितरोंको देखकर पूछा – ‘महानुभाव! आपलोग कौन हैं? और आपलोगोंकी ऐसी दशा कैसे हुई ? आप सभी किस कर्मके कारण यह दारुण दुःख भोग रहे हैं ? — यह मुझे बतानेकी कृपा करें।’

पितरोंने कहा- हमारे वंशकी निरन्तर वृद्धि करनेवाला एक शक्तिसम्पन्न पुरुष है। लोग उसे मेधातिथि कहते हैं। हम सभी उसीके पितर हैं; किंतु इस समय नरकमें पड़े हैं। देवि ! उस समय पितरोंकी यह बात सुनकर राजा मेधातिथिके हृदयमें अवर्णनीय दुःख हुआ । उन्होंने पितरोंको सान्त्वना दी। साथ ही कहा- ‘पितृगण ! मेधातिथि तो मैं ही हूँ। आपलोग मेरे ही पितर हैं। मैं जानना चाहता हूँ कि किस कर्मके दोषसे आपको नरकमें जाना पड़ा है।’

पितर बोले- पुत्र ! तुमने जो हमलोगोंके लिये श्राद्धमें अन्न संकल्प किये, दैववश वह अन्न एक गोलक ब्राह्मणके पास पहुँच गया। अतः श्राद्ध कर्म दूषित हो गया, उसीके फलस्वरूप हमें नरकमें जाना पड़ा और उसी समयसे हम दुःख भोग रहे हैं। हमारे मनमें इच्छा है कि हमको किसी प्रकार पुनः स्वर्ग सुलभ हो । पुत्र ! तुम तो सम्पूर्ण प्राणियोंके हित में सदा संलग्न रहते हो दान करना तुम्हारा स्वाभाविक गुण है। तुम्हारे द्वारा अनगिनत गोएँ दानमें दी जा चुकी हैं। दक्षिणाएँ भी तुमने पर्याप्त दी हैं। उसी पुण्यके प्रभावसे हम स्वर्ग पाना चाहते हैं। पर तुम्हें पुनः एक बार श्राद्ध करना चाहिये, जिससे हम सभी पितरोंका उद्धार हो सके।

वसुंधरे ! पितरोंकी बात सुनकर राजा मेधातिथि घर वापस गये और उन्होंने अपने पुरोहित चन्द्रशर्माको बुलाया और उनसे उपर्युक्त वृत्तान्त कहा तथा पुनः श्राद्ध करनेकी इच्छा व्यक्त की और निवेदन किया कि इस श्राद्धमें ‘कुण्ड गोलक’ ब्राह्मण सर्वथा न बुलाये जायें।

देवि ! राजा मेधातिथिके आदेशसे पुरोहित चन्द्रशर्माने ब्राह्मणोंको पुनः बुलाकर पिण्डदान एवं श्राद्ध सम्पन्न कराया और ब्राह्मणोंको भोजन कराया फिर दक्षिणाएँ देकर उनकी पूजा की इसके बाद सबको विदा करके उन्होंने स्वयं प्रसाद ग्रहण किया। तत्पश्चात् राजा पुनः वनमें गये और वहाँ उन्होंने अपने उन पितरोंको हृष्ट- पुष्ट तथा परम पराक्रमीरूपमें देखा। अब उन नरेशके हर्षकी सीमा न रही। उस अवसरपर पितरोंमें श्रद्धा रखनेवाले राजा मेधातिथिको देखकर पितरोंके मुखमण्डलपर भी प्रसन्नता छा गयी और उन्होंने कहा – ‘तुम्हारा कल्याण हो। तुमने हमारा हित कर महान् कार्य सम्पन्न किया है। अब हम स्वर्गको जाते हैं।’

देवि! श्राद्धमें संकल्पित अन्नपात्र ब्राह्मणके अभावमें गौको दे अथवा गौके अभावमें भी यत्नपूर्वक उसे नदीमें छोड़ दे, पर किसी प्रकार भी अपात्र, नास्तिक, गुरुद्रोही, गोलक अथवा कुण्डको वह अन्न न दे।

भामिनि ! इस प्रकार अपना उद्गार प्रकट करके सभी पितर स्वर्ग चले गये और राजा मेधातिथि ब्राह्मणोंके साथ अपनी पुरीको लौटे। उन्होंने पितरोंकी आज्ञाका यथाविधि पालन किया। देवि ! यह इसीलिये मैंने तुम्हें बताया है कि एक भी उत्तम ब्राह्मण मिल जाय तो वही पर्याप्त है। उसीकी कृपासे यज्ञकर्ता कठिनाइयोंसे तर सकता है— इसमें कोई संशय नहीं वह एक ही विप्र दाताको इस प्रकार पार करनेमें समर्थ है, जैसे अगाध जलको पार करनेके लिये एक नाव । वसुंधरे ! अतएव सुपात्र ब्राह्मणको ही दान देना चाहिये। देवता, दानव, मानव, राक्षस, गन्धर्व और उरग-इन सभीके लिये यह विधान है।

अध्याय १५३ श्राद्ध और पितृयज्ञकी विधि तथा दानका प्रकरण

पृथ्वी बोली- भगवन्! देवता, मनुष्य, पशु एवं पक्षी – प्रभृति सभी प्राणी कालवश प्रेत होते हैं, वे कभी नरकोंमें जाते हैं और पुनः संसारमें भी आते हैं। अब मैं यह जानना चाहती हूँ कि पितर कौन-से हैं, जिन्हें विधिपूर्वक अर्पण करनेसे श्राद्ध-सम्बन्धी पदार्थ भोजनके लिये उपलब्ध होता है? प्रत्येक मासमें संकल्पपूर्वक दिया गया पिण्ड किस प्रकार पितरोंके पास पहुँचता है? पितृक्रियासे सम्बन्ध रखनेवाले श्राद्धमें कौन पितर भोजन पानेके अधिकारी हैं ? इस विषयमें मुझे महान् कौतूहल हो रहा है, कृपया निर्णयपूर्वक बतलायें ।

भगवान् वराह बोले- देवि! तुम मुझसे जो पूछती हो, उसे मैं बताता हूँ। माधवि ! पितृसम्बन्धी यज्ञोंमें भाग पानके जो अधिकारी हैं, उन्हें सुनो – पिता, पितामह तथा प्रपितामह – इन पितरोंके लिये पिण्डका संकल्प करना चाहिये। पितृपक्ष आनेपर नक्षत्र और तिथिकी जानकारी प्राप्त करके पितरके लिये उन्हें पुण्यपर्व मान ले। उन्हीं अवसरोंपर पिण्डदान करनेसे विशेष फल प्राप्त होता है। शुभलोचने ! जिन ज्ञानवान् पुरुषोंको जिस प्रकार श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करनेका विधान है, वह सभी मैं तुम्हें बताता हूँ, तुम सावधान होकर सुनो। ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ और मनुष्ययज्ञ- ये अनेक प्रकारके यज्ञ हैं। कुछ द्विजाति ब्रह्मयज्ञ, कुछ गृहस्थाश्रममें रहकर भूतयज्ञ तथा मनुष्ययज्ञ करके इष्टदेवकी उपासना करते हैं। अब मैं पितृयज्ञका वर्णन करता हूँ, उसे सुनो। वरारोहे! जो लोग सौ यज्ञ करते हैं, उन सभीके द्वारा प्रायः मेरी ही आराधना होती है। तुम्हें मैं यह बिलकुल सत्य बात बताता हूँ। माधवि ! हव्य एवं कव्य ग्रहण करनेके लिये देवताओंका मुख अग्नि है। यज्ञोंमें आवस्थ्य (उत्तराग्नि), दक्षिणाग्नि और आहवनीयाग्नि प्रयुक्त होती हैं। इन सभी अग्नियोंमें मैं ही व्याप्त हूँ एवं समस्त कार्यों तथा देवयज्ञोंमें भी पावनरूपसे मैं ही व्यवस्थित हूँ। देवतीर्थोंमें भिक्षुक, वानप्रस्थी और संन्यासी – इनका सत्कार करना उचित है; किंतु श्राद्धमें इन्हें भोजन नहीं कराना चाहिये; क्योंकि देवताओंके निमित्त ही इनकी पूजा करनेका विधान है। अब जो व्रती ब्राह्मण श्राद्धमें निमन्त्रित करनेके लिये योग्य हैं, उनका निर्देश करता हूँ। जो अपने घरपर सदा संतुष्ट रहता है तथा क्षमाशील, संयमी, इन्द्रिय-विजयी उदासीन, सत्यवादी, श्रोत्रिय एवं धर्मका प्रचारक है – ऐसे ब्राह्मणको श्राद्धके लिये ग्राह्य मानना चाहिये। माधवि जो वेद-विद्याके पारगामी तथा स्वच्छ एवं मधुर अन्न खानेके स्वभाववाले हों, ऐसे ब्राह्मणोंको पितृयज्ञ-सम्बन्धी श्राद्धमें भोजन कराना हितकर है। सुन्दरि ! श्राद्धमें सर्वप्रथम देवतीर्थोंमें अवगाहन करनेकी आवश्यकता है। पहले अग्निमें हवन कर बादमें विधिका पालन करते हुए पितरके निमित्त ब्राह्मणोंके मुखमें हवन करना उचित है।

देवि ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र- ये चारों वर्ण श्राद्ध करनेके अधिकारी हैं। श्राद्धके पदार्थको कुत्ते, मुर्गे, सूअर तथा अपवित्र व्यक्ति न देख सकें। जो अपनी श्रेणीसे च्युत हो गये हैं, जिनका संस्कार नहीं हुआ है, जो सब प्रकारके अकार्य कर्म करते रहते हैं तथा जो सर्वभक्षी हैं, ऐसे ब्राह्मणको पितृयज्ञसे सम्बन्धित श्राद्धको नहीं देखना चाहिये। यदि कदाचित् ऐसे ब्राह्मणोंकी दृष्टि श्राद्धपर पड़ गयी तो उसे ‘आसुरी श्राद्ध’ कहते हैं। बहुत पहले जब मैंने इन्द्रका कार्य सिद्ध करनेके लिये वामनका अवतार ग्रहण किया था तो ऐसे श्राद्धोंको मैं बलिको दे चुका हूँ। इसलिये विद्वान् पुरुषको चाहिये कि पितृयज्ञोंमें ऐसे ब्राह्मणोंको सम्मिलित न करे, जहाँ सर्व साधारणकी दृष्टि न पड़े, ऐसे स्थानमें पवित्र होकर तर्पणपूर्वक ब्राह्मणको श्राद्धमें भोजन कराये। भूमे ! मन्त्र पढ़कर पितरोंका आवाहनकर तीन पिण्ड देने चाहिये । इन पिण्डों के अधिकारी पिता, पितामह तथा प्रपितामह हैं। प्रति मासमें अपसव्य होकर इनके लिये तिलोदक तथा पिण्डदान करना चाहिये। फिर वैष्णवी, काश्यपी और अजया – इन नामोंका उच्चारणकर सिर झुकाकर तुम्हें भी प्रणाम करना चाहिये ।

देवि ! इस प्रकार पिण्ड दान करनेसे पितर प्रसन्न हो जाते हैं – इसमें कोई संशय नहीं है सृष्टिके प्रारम्भमें तीन पुरुष पितरोंके रूपमें प्रकट हुए थे। पिण्ड ही उनका आहार है। देवता, असुर, यक्ष, राक्षस, गन्धर्व एवं पन्नग – ये सब के-सब वायुका रूप धारण करके पितृयज्ञ करनेवाले पुरुषकी श्राद्धक्रियाके छिद्रपर दृष्टि लगाये रहते हैं – यह निश्चित है जो विवेकी व्यक्ति पितृयज्ञ करते हैं, उन्हें पितरोंकी कृपासे आयु, कीर्ति, बल, तेज, धन, पुत्र, पशु, स्त्री तथा आरोग्य सदाके लिये सुलभ हो जाते हैं – इसमें कोई संशय नहीं। यही नहीं – अपने इस उत्तम कर्मके प्रभावसे वे मनुष्य परम पवित्र लोकोंके अधिकारी हो जाते हैं और वे प्रेत एवं पशु पक्षीकी योनिमें नहीं पड़ते हैं। ऐसा पुरुष नरकमें गये हुए अपने पितरोंका उद्धार करनेमें पूर्ण समर्थ बन जाता है। देवताओं तथा पितरोंकी उपासना करनेवाला मनुष्य गृहस्थाश्रममें रहता हुआ भी पूरी विधिके साथ द्विजाति वर्गके पितरोंको तृप्त कर सकता है। श्राद्धमें तृप्त हुए पितर उस प्राप्त वस्तुको अविनाशी मानते हैं। जिनकी पितरोंके प्रति श्रद्धा है, उनकी भी परमगति होती है। इस प्रकारके ज्ञानीजन मृत्युके पश्चात् सत्त्वगुणसे सम्पन्न शुक्लमार्गसे प्रयाण करते हैं।

देवि ! जिनके मनपर अज्ञानका आवरण है, जो कृतघ्न एवं प्रचण्ड मूर्ख हैं, ऐसे मनुष्य स्नेहमयी सैकड़ों रस्सियोंसे बँधकर भयंकर नरकमें गिरते हैं। पर जो मानव कल्पपर्यन्तके लिये नरकमें पड़े हैं, उनके भी पुत्र अथवा पौत्र यदि कहीं श्राद्ध-क्रिया कर दें तो उसके प्रभावसे उन प्राणियोंकी सद्गति हो जाती है। अमावास्याको जो जलाशयमें जाकर पितरोंके निमित्त विन्दुमात्र भी जल देते हैं, उससे उनके नरकस्थित पितरोंको भी तृप्ति प्राप्त हो जाती है। जो द्विजातिवर्गके पुरुष पितरोंके लिये भक्तिपूर्वक तर्पण, तिलाञ्जलि एवं पिण्डपातप्रभृति श्राद्ध कार्य करते हैं, उनके पितरोंकी नरकसे मुक्ति मिल जाती है और वे सदाके लिये तृप्त हो जाते हैं। श्राद्धमें गूलरकी लकड़ीके पात्रसे तिल और जलद्वारा तर्पणकी बड़ी महिमा है। पितरोंका उद्धार करनेके लिये ब्राह्मणोंके वचनपर श्रद्धा रखना और अपने वैभवके अनुसार उन्हें दक्षिणा देना परम आवश्यक है। नीले साँड़ छोड़नेसे जो पुण्य भूमण्डलपर होता है, उसके प्रभावसे पुरुषके पितर छाछठ हजार वर्षोंतक चन्द्रमाके लोकमें आनन्दपूर्वक निवास करते हैं। उन्हें भूख-प्यास नहीं लगती।

श्राद्ध-तर्पण गृहस्थोंके लिये महान् धर्म है। चींटी आदि जङ्गम प्राणी एवं आकाशमें विचरनेवाले जीव गृहस्थोंके आश्रयपर ही जीवन धारण करते हैं, इसमें कोई संशय नहीं। गृहस्थाश्रम ही सभी धर्मोका मूल है। सारे वर्ण एवं आश्रम इसीपर आधृत हैं। इस आश्रम में रहकर जो व्यक्ति प्रति मास पर्व तथा प्रत्येक निर्दिष्ट तिथिपर श्राद्ध करते हैं, उनके द्वारा पितरोंका निश्चय ही उद्धार हो जाता है। गृहस्थके घरमें धर्मपूर्वक श्राद्ध करनेसे जैसा फल प्राप्त होता है, वैसा फल यज्ञ, दान, अध्ययन, उपवास, तीर्थस्नान, अग्निहोत्र तथा विधिपूर्वक अनेक प्रकारके दानोंसे भी प्राप्य नहीं है। ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्रके शरीरमें प्रविष्ट पितृगण पिता पितामह एवं प्रपितामहके रूपसे प्रकट होकर विराजते हैं। कश्यप उनके जनक हैं। पहले कभी अग्निमें हवन न करके ब्राह्मणके मुखमें हवन किया गया अर्थात् ब्राह्मणको भोजन कराया गया। भूमिपर कुश बिछाकर पिण्ड संकल्प करके उनपर रख दिये गये। उस पिण्डसे पितृदेवोंको अजीर्ण हो गया और उन्हें महान् पीड़ा होने लगी। उन्होंने भोजन करना छोड़ दिया और दुःखसे अत्यन्त संतप्त होकर वे सोमदेवके पास गये। सुश्रोणि! अजीर्णसे दुःखी उन पितरोंपर चन्द्रमाकी दृष्टि पड़ी तो उन्होंने मधुर वाक्योंसे उनका स्वागत किया।

सोमने पूछा- ‘पितरो ! तुम्हारे इस दुःखका क्या कारण है ?’ इसपर पितरोंने कहा- ‘सोमदेव आप हमारी बातें सुननेकी कृपा करें। ब्रह्मा, विष्णु और शंकरके शरीरसे उत्पन्न हुए हम तीनों पितृदेवता हैं। हमलोगोंकी नियुक्ति श्राद्धमें हुई थी। पुत्र आदि द्वारा दिये गये पिण्डोंसे हम अत्यन्त तृप्त हो गये । यहाँतक कि हमें अजीर्ण हो गया। इसीसे हम दुःख पा रहे हैं।’

सोमने कहा— ‘पितृगण ! मैं तुमलोगोंका मित्र बन जाता हूँ। अब तुम तीन ही नहीं रहे। एक चौथा पितर मैं भी बन गया। अब हम सभी ऐसी जगह चलें, जहाँ हमारे कल्याण होनेकी सम्भावना हो।’ वसुंधरे ! सोमके इस प्रकार कहनेपर वे पितर उनके साथ सुमेरुपर्वतके शिखरपर गये, जहाँ पितामह ब्रह्माजी ब्रह्मर्षियोंद्वारा सेवित एवं सुशोभित हो रहे थे। सभीने उन्हें प्रणाम किया। फिर सोमने उनसे कहा- ‘भगवन्! ये पितर अजीर्णसे पीड़ित होकर आपकी शरण आये हैं, आप इन्हें क्लेश-नाशका उपाय करें।’

इसपर श्रीब्रह्माजी एक मुहूर्ततक परम योगीश्वर भगवान् श्रीहरिके ध्यानमें लीन रहे। फिर भगवान् श्रीहरिने प्रकट होकर उनसे कहा- ब्रह्मन् ! यह मेरी वैष्णवी मायाका ही प्रभाव है कि पहले जो देवता थे, वे अब पितरके रूपमें प्रकट हैं। मेरे अङ्गसे निकले हुए पिता ब्रह्माके रूप, पितामह विष्णुके रूप तथा प्रपितामह रुद्रके रूप माने जाते हैं। मर्त्यलोकमें श्राद्धके अवसरपर इन्हें पितृ- देवताके रूपमें नियोजित किया गया है। ब्राह्मणोंके हितार्थ विष्णुमायाकी आज्ञासे प्रजा इन्हें पितृयज्ञोंसे तृप्त करती हैं। अब मैं इनके अजीर्ण दूर होनेका उपाय बतला रहा हूँ। धूम्रकेतु और विभावसु* नामके शाण्डिल्य मुनिके दो तेजस्वी पुत्र हैं। मानवमात्रके लिये यह कर्तव्य है कि वे श्राद्ध करते समय पहले अग्निको भाग देकर शेष पिण्ड उन तेजस्वी विभावसुके साथ ही पितरोंको अर्पित करें।’

परम प्रभुके इस कथनपर ब्रह्माजीने मन-ही- मन हव्यवाहन अग्निका आवाहन किया। उनके स्मरण करते ही सर्वभक्षी अग्निदेव उनके पास आये। अग्निका शरीर प्रचण्ड तेजसे उद्दीप्त हो रहा था। मेरी प्रेरणासे ब्रह्माजीने उन्हें पाँच प्रकारके यज्ञोंमें भाग पानेका अधिकारी बनाया और अग्निसे कहा- ‘हुताशन! तुम ब्रह्मस्वरूप हो। पितरोंके निमित्त श्राद्धमें दिये गये पिण्डके भागमें – ॐ अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा’- इस मन्त्रद्वारा सर्वप्रथम तुम्हें ही भाग पानेका अधिकार दिया जाता है। तुम्हारे बाद मरुद्गणसहित देवता भाग प्राप्त करनेके अधिकारी होंगे। तुम सभीके ग्रहण कर लेनेपर साथका अन्न पितरोंके लिये पथ्यस्वरूप हो जायगा और सोमसहित पितर उसके अधिकारी होंगे।

वसुंधरे ! ब्रह्माकी इस व्यवस्थासे अग्नि, देवता एवं पितर श्राद्धके भागी बने। तबसे अग्नि एवं सोमके साथ पितृयज्ञमें सभीका पितरोंके साथ भोजन करनेका सदाके लिये नियम बन गया। जगत् को प्रश्रय देनेवाली पृथ्वी देवि! इस नियमका अनुसरणकर पितरोंके निमित्त श्राद्ध करते समय सर्वप्रथम पिण्ड अग्निको देकर पश्चात् पितरोंको तृप्त करना चाहिये। वसुंधरे ! इस प्रकार जो मनुष्य मन्त्रोंका उच्चारणकर विधिके साथ पितरोंके लिये श्राद्ध करते हैं, वे तृप्त हुए पितरोंकी कृपासे निरन्तर सुख-समृद्धि के भागी होते हैं।

देवि ! अब श्राद्धकी श्रेणीमें जो निन्द्य हैं, उन ब्राह्मणोंका विवेचन करता हूँ। नपुंसक, चित्रकार, पशुपाल, कुमार्गी, काले दाँतवाला, कण (एक नेत्रसे रहित), लम्बोदर, नाच करनेवाला, गायक, कपड़ा रँगकर जीविका चलानेवाला, वेदविक्रयी सभी वर्णोंसे यज्ञ करानेवाला, राजाका सेवक, व्यापारके निमित्त खरीदने एवं बेचनेवाले, ब्रह्म- योनिमें उत्पन्न, निन्दक, पतित संस्काररहित गणक, गाँवमें घूमकर याचना करनेवाला, दीक्षित काण्डपृष्ठ, ( शस्त्र लेकर घूमनेवाला), सूदखोर रसविक्रेता, वैश्यकी वृत्तिसे जीविका चलानेवाला, चोर, लेखकार, याजक, शौण्डिक (शराब बनानेवाला), गैरिक (गेरुआ कपड़ा पहननेवाला) दम्भी, सभी वर्णसे सम्बन्धित कार्यमें रत तथा सब कुछ बेचने में तत्पर – ये सभी ब्राह्मण श्राद्ध- कर्मके लिये निन्द्य माने जाते हैं। इन्हें पितरोंके निमित्त श्राद्धमें भोजन नहीं कराना चाहिये पण्डितसमाजका कथन है कि जो जीविकाके निमित्त दूर चले जाते हैं, रस बेचते हैं तथा धूर्त एवं तिलविक्रयी हैं, ऐसे ब्राह्मणोंके श्राद्धमें सम्मिलित हो जानेसे वह श्राद्ध राजस हो जाता है। देवि ! इनके अतिरिक्त मैंने जिन निन्दित ब्राह्मणोंको बताया है, वे सभी ब्राह्मण राजस हैं।

माधवि ! श्राद्धसम्बन्धी कर्मोंमें पितरोंके लिये पिण्डदान करते समय ऐसे पङ्किदूषित ब्राह्मणोंका दर्शनतक नहीं करना चाहिये । यदि ऐसे ब्राह्मण श्राद्धमें भोजन करते हों और उनपर श्राद्धकर्ताकी दृष्टि पड़ गयी तो उसके पितर छः महीनोंतक दारुण दुःख उठाते हैं। वसुधे! यदि कहीं ऐसी त्रुटि हो जाय तो श्राद्धकर्ता और भोक्ता दोनोंके लिये आवश्यक है कि वे यथाशीघ्र प्रायश्चित्त करें। प्रायश्चित्तका स्वरूप है कि प्रज्वलित अग्निमें घृतका हवन, सूर्यका दर्शन, सिरका मुण्डन, पिता पितामह आदिके लिये पुनः गन्ध-पुष्प- धूप आदिसे पूजन, अर्घ्य तथा तिलोदकका दान एवं विधिके साथ पवित्र होकर वह ब्राह्मण- भोजन आदि कराये।

सुन्दरि ! अब पुनः एक अन्य बात बताता हूँ, उसे सुनो। ज्ञानद्वारा जिसका अन्तःकरण पवित्र हो गया है, वह ब्राह्मण विधिके अनुसार मन्त्रशुद्धि करे। माधवि ! जो कभी भी मृतक सम्बन्धित अन्नका भक्षण नहीं करते हैं, ऐसे ब्राह्मणको वैश्वदेवनिमित्तक भाग देना चाहिये, उन्हें श्राद्धों में भोजन कराना अनुचित है जो ब्राह्मण श्राद्धमें प्रेतान्न खाते हैं, अब उनका दोष बताता हूँ । प्रेतान्न खानेके प्रभावसे ऐसे दम्भी मनुष्यको नरकमें जाना पड़ता है। अब उसकी शुद्धिका उपाय बतलाता हूँ। ऐसे द्विजातिपुरुषका कर्तव्य है। कि माघमासके द्वादशी तिथिको पुष्य नक्षत्रमें मधु और फलसे पितरोंको तृप्त करके घृतयुक्त खीरका प्राशन करे । ‘मुझे पवित्रता प्राप्त हो जाय’ – इस संकल्पसे वह कपिला गौका दान करे तथा अपने कल्याणकी अभिलाषासे पितृ- श्राद्ध सम्पन्न कर, युग्म ब्राह्मणको भोजन कराकर विसर्जन करना चाहिये ।

विशालाक्षि ! अमावास्या तिथिको दन्तधावन करना प्रायः सभीके लिये निषिद्ध है। जो बुद्धिहीन व्यक्ति अमावास्याको दातुन करता है, उसके इस कर्मसे चन्द्रमा, देवता तथा पितर कष्ट पाते हैं। रात बीत जानेपर जब प्रातः काल हो जाय और सूर्यकी किरणें प्रकाशित होने लगें तो दिनका कार्य आरम्भ करे। यह काम ब्राह्मणको सविधि सम्पन्न करना चाहिये। पितरोंके प्रति श्रद्धा रखनेवाला मानव बाल बनवाने, नाखून कटवाने और तेल लगाकर स्नान करनेके पश्चात् पवित्र पक्वान्न तैयार करे। पाक बन जानेपर दिनके मध्यकालमें श्राद्ध करनेकी विधि है। फिर तीर्थके शुद्ध जलके द्वारा ब्राह्मणको पाद्य देकर मण्डपके भीतर प्रवेश कराकर विधिके साथ अर्घ्यपूर्वक चन्दन, माला, धूप-दीप, वस्त्र और तिल एवं जलसे पूजा करनी चाहिये। फिर भोजनके लिये सामने पात्र रखे और भस्मसे मण्डलकी रचना करे। पृथक् पृथक् मण्डल होनेसे पडिका दोष नहीं लगता। फिर अग्निसम्बन्धी कार्य सम्पन्न करके अन्नपरिवेषण करे। सपात्रक * श्राद्धमें पितरोंको लक्ष्य करके संकल्प नहीं करना पड़ता। इसमें केवल ब्राह्मणसे प्रार्थना करे – ‘द्विजदेव ! अब आपको सुखपूर्वक भोजन करना चाहिये। विद्वान् पुरुष भोजन करते समय ‘रक्षोघ्न- मन्त्र’ का भी पाठ करें। ब्राह्मणके तृप्त हो जानेपर अन्न- विकरण करनेका विधान है।

इसके पश्चात् दूसरा आसन देकर पिण्ड देना चाहिये । भूमिपर कुश बिछाकर दक्षिणकी ओर मुख करके पिता पितामह और प्रपितामह – इन पितरोंके लिये पिण्ड अर्पण करे। फिर अपनी संतानमें वृद्धि होनेके उद्देश्यसे विधिपूर्वक उनकी पूजा करे। पूजाके अन्तमें ब्राह्मणके हाथमें अक्षय्योदक देना चाहिये। जब ब्राह्मण संतुष्ट हो जायँ तो स्वस्ति वाचनपूर्वक विसर्जन करे। वसुधे ! जबतक तीनों पिण्ड पृथ्वीपर रहते हैं, तबतक पितरोंको सुख मिलता रहता है।

फिर श्राद्धकर्ता आचमन करके पवित्र हो शान्ति निमित्तक जल दे। फिर जहाँ पिण्डपात हुआ है, उस भूमिको वैष्णवी, काश्यपी और अक्षया – इन नामोंका उच्चारणकर सिर झुकाकर प्रणाम करे। पहला पिण्ड स्वयं ग्रहण करे, दूसरा पत्नीको दे और तीसरा पिण्ड पानीमें डाल दे, फिर प्रणाम करके पितरों एवं देवताओंका विसर्जन करे। इस प्रकार पिण्डदान करनेसे पितृदेव प्रसन्न हो जाते हैं— इसमें कोई संशय नहीं। उन पितरोंकी कृपासे लम्बी आयु, पुत्र- पौत्र तथा सम्पत्ति सुलभ हो जाती है। श्राद्धके अवसरपर उत्तम ज्ञानी ब्राह्मणोंको तथा योगियों को भी श्राद्धसम्बन्धी वस्तुएँ समर्पण करे। अन्यथा वह श्राद्ध फल प्रदान करनेमें असमर्थ हो जाता है- इसमें कोई संशय नहीं ।

अध्याय १५४ 'मधुपर्क' की विधि और शान्तिपाठकी महिमा

पृथ्वी बोली- भगवन् ! यद्यपि आपसे मैं बहुत कुछ सुन चुकी, किंतु अभी तृप्ति नहीं हुई। अब मुझपर दयाकर आप यह बतानेकी कृपा कीजिये कि ‘मधुपर्क’ में कौन पदार्थ किस मात्रामें हो तथा उसके अर्पणकी क्या-क्या विधि एवं पुण्य है ?

भगवान् वराहने कहा- देवि! मैं ‘मधुपर्क’ की उत्पत्ति और दानका प्रसङ्ग बताता हूँ, सुनो। इससे सारे अनिष्ट दूर हो जाते हैं। जब संसारकी सृष्टि हुई, तब मेरे दक्षिण अङ्गसे एक पुरुषका प्रादुर्भाव हुआ, जो बड़ा द्युतिमान् एवं कीर्तिमान् था उसे देख ब्रह्माजीने पूछा- ‘प्रभो! यह कौन है ?’ तब मैंने उनसे कहा-‘ यह तो मधुपर्क है, जो मेरे ही शरीरसे उत्पन्न है तथा मेरे भक्तोंको संसारसे मुक्त करनेवाला है। जो व्यक्ति मेरी आराधनाके समय इस मधुपर्कको अर्पण करता है, उसे वह सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त होता है, जहाँ जानेपर प्राणीको शोक नहीं होता।’ अब इसके निर्माण और दानकी विधि भी बताता हूँ, जिसे करनेपर मानव मेरे दिव्य धाममें पहुँच जाते हैं। यदि सर्वश्रेष्ठ सिद्धि पानेकी अभिलाषा हो तो मधु दही और घृतको समान भागमें लेकर मन्त्र पढ़नेके साथ ही विधिपूर्वक मिलाना चाहिये। जो इस विधिका पालन करते हैं, वे मेरे परम प्रिय हो जाते हैं। फिर मधुपर्क हाथमें लेकर यह कहना चाहिये –’ ॐकारस्वरूप भगवन्! यह मधुपर्क आपको समर्पित है, आप इसे स्वीकार करनेकी कृपा करें। प्रभो! यह आपके ही श्रीविग्रहसे प्रकट हुआ है । संसारसे मुक्त होनेके लिये यह परम साधन है। भक्तिपूर्वक मैंने इसे सेवामें समर्पण किया है। देवेश! आपको मेरा बार-बार नमस्कार है।’

सूतजी कहते हैं – ऋषियो ! मधुपर्ककी उत्पत्ति, उसके दानका पुण्य फल तथा ग्रहणकी आवश्यकता सुनकर उत्तम व्रतका पालन करनेवाली पृथ्वीदेवीको बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने भगवान् श्रीहरिके चरण स्पर्श कर पूछा- ‘भगवन्! आपका प्रिय पदार्थ मधुपर्क शान्तिपाठसहित आपके श्रद्धालु भक्त किस प्रकार अर्पण करें ? कृपया इस महान् कर्मकी विधि बतायें।

भगवान् वराह कहते हैं- महाभागे ! मैं सभी प्रसङ्ग बताता हूँ। इसके प्रभावसे मानव दुःखरूपी संसारसे मुक्त हो जाते हैं। तुमने पहले जिस बातकी चर्चा की है, उसे मेरी भक्तिमें रहनेवाले व्यक्ति सम्पन्न करके शान्ति पाठ करें।

शान्तिका पाठ करनेके पश्चात् मेरी भक्तिमें लगे पुरुष मुझे जलाञ्जलि प्रदान करके पुनः इस भावका मन्त्र पढ़ें। मन्त्रका भाव यह है- ‘भगवन्! जिनके द्वारा जगत् की सृष्टि होती है, देवसम्बन्धी यज्ञोंमें कर्मके जो साक्षी हैं, वे प्रभु स्वयं आप ही हैं। वासुदेव! मुझे शान्ति प्रदान करनेके साथ ही संसारके आवागमनसे मुक्त कर दें।’

पृथ्वि ! यह सिद्धि, कीर्ति, बलोंमें महान् बल, लाभोंमें परम लाभ और गतियोंमें परम गति है। ऐसे शान्तिपाठका विचारपूर्वक जो पठन करता है, वह मुझमें लीन हो जाता है। संसारमें पुनः उसे आना नहीं पड़ता, इस प्रकार शान्तिपाठ करके मुझे मधुपर्क निवेदन करना चाहिये। ‘ॐ नमो नारायणाय’ कहकर मन्त्र पढ़नेकी विधि है। मन्त्रका भाव यह है-‘भगवन् ! आप सर्वश्रेष्ठ देवताओंके भी स्रष्टा हैं। मधुपर्क आपके नामसे सम्बन्ध रखता है। जो सभी जगह सुपूजित होते हैं, वे प्रभु आप ही हैं। आप संसार- सागरसे मेरा उद्धार करनेके लिये यहाँ पधारें और इन पात्रोंमें विराजमान हों।’

सुश्रोणि ! गूलरकी लकड़ीसे बने हुए पात्रमें घी, दही और मधुको समानरूपसे रखकर मधुपर्क बनाना चाहिये । यदि शहद न मिल सके तो गुड़ भी मिलाया जा सकता है। घृतके अभावमें उसकी जगह धानके लावेसे भी काम चल सकता है। दही न मिले तो दूध ही मिला दे। इस प्रकार दही, शहद और घृत समानमात्रामें मिलाकर मधुपर्क बना ले*। फिर उसे इस प्रकार अर्पित करें – ‘देवेश रुद्र भी आपके ही रूप हैं। मैं दधि, घृत, मधुसे बना हुआ यह मधुपर्क आपको अर्पित करता हूँ।’ यदि सभी वस्तुओंका अभाव हो तो श्रद्धालु भक्त केवल जल ही हाथमें लेकर यह मन्त्र पढ़े- ‘जिन प्रभुकी नाभिसे निकले हुए कमलपर संसारकी सृष्टि अवलम्बित है तथा यज्ञों, मन्त्रों और रहस्ययुक्त जपोंसे जिनकी अर्चना होती है, वे भगवान् आप ही हैं। भगवन्! यह मधुपर्क आपसे सम्बद्ध है। इस दिव्य पदार्थको आप स्वीकार करनेकी कृपा करें।’

भगवति । इस मधुपर्कको जो मुझे अर्पित करता है, उसे यज्ञसम्बन्धित सभी फल प्राप्त हो जाते हैं और वह मेरे लोकमें चला जाता है।

पृथ्वि ! अब दूसरी बात सुनो-मेरे कर्ममें| लगे रहनेवाले व्यक्तिके प्राण त्यागनेके समय यह प्रयोग करना चाहिये। उसकी प्राण-यात्राके समय विधिपूर्वक मन्त्र पढ़कर इस संसारमें ही मधुपर्क देनेका विधान है। प्राण प्रयाणके समयमें ही अनेक कर्मोंका करना आवश्यक है। मेरा भक्त मरणासन्न ( मृत्युको प्राप्त हो रहे ) व्यक्तिको सम्पूर्ण संसारसे मुक्त करनेवाला मधुपर्क अवश्य दे। जब देखे कि यह व्यक्ति आतुर हो गया है तो हाथमें उत्तम मधुपर्क लेकर इस भावका मन्त्र पढ़े- ‘देवलोकके स्वामी भगवन्! जो सारे संसारमें प्रधान हैं तथा सबके शरीरमें जिनकी सत्ता शोभा पाती है, वह भगवान् नारायण आप ही हैं। प्रभो मैंने ! मधुपर्क आपकी सेवामें भक्तिपूर्वक समर्पित |

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किया है। इसे आप स्वीकार करें। मृत्युके समय इसी मन्त्रके साथ मधुपर्क दे। पृथ्वि ! मधुपर्कके इस सामर्थ्यको कोई नहीं जानता है, अतः सिद्धिके अभिलाषीको ऐसा मधुपर्क अवश्य देना चाहिये। उस समय सर्वप्रथम संसार सागरसे मुक्त करनेवाले भगवान् श्रीहरिका अर्चन भी आवश्यक है। जो ‘मधुपर्क’ देता है, उसे परम- गति मिलती है। यह प्रसङ्ग पवित्र, स्वच्छ, सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाला है। जो दीक्षित हो, गुरुमें भक्ति रखनेवाला शिष्य हो, उसके सामने इसका प्रसङ्ग सुनाना चाहिये। मधुपर्कका यह आख्यान पापोंको नष्ट करनेवाला है। जो इसे सुनता है, वह मेरी कृपासे परम दिव्य सिद्धिको प्राप्त होता है।’

भद्रे ! ‘मधुपर्क’ के परिचयका यह प्रसङ्ग मैंने तुम्हें सुना दिया। राजदरबार में, श्मशानभूमिपर अथवा भय एवं दुःखकी परिस्थिति सामने आनेपर जो लोग इस शान्तिदायक प्रसङ्गका अध्ययन करेंगे, उन्हें कार्यमें शीघ्र सफलता मिलेगी। इसके प्रभावसे पुत्रहीनोंको पुत्र, भार्याहीनोंको भार्या और पतिहीना स्त्रीको सुन्दर पति मिलता है। मानवके बन्धन कटते हैं। भूमे ! सुख देनेवाला महान् शान्तिदायक यह प्रसङ्ग तुम्हें सुना चुका । यह विषय जगत्से उद्धारक परम रहस्यपूर्ण है। जो व्यक्ति विधिसहित इसका प्रयोग करता है, वह संसारकी आसक्तियोंको त्याग कर मेरे लोकको प्राप्त होता है।

अध्याय १५५ नचिकेताद्वारा यमपुरीकी यात्रा

लोमहर्षणजी कहते हैं – एक बार व्यासजीके शिष्य वेद-वेदाङ्गके पारगामी वैशम्पायन राजा जनमेजयके दरबार में गये। पर उस समय राजाके अश्वमेधयज्ञमें दीक्षित होनेके कारण उन्हें फाटकपर रुकना पड़ा। जब यज्ञ समाप्त होनेपर वे हस्तिनापुर लौटे तो उन्हें ज्ञात हुआ कि परम ज्ञानी वैशम्पायन ऋषि वहाँ पधारे हैं और गङ्गाके तटपर उन्होंने अपने रहनेका स्थान बना रखा है। ‘ऋषि मुझसे मिलने आये थे, मेरे न मिल पानेसे एक प्रकारसे यह उनका अपमान ही हुआ।’ इससे जनमेजय चिन्तासे व्याकुल हो गये। उनकी आँखें अकुला उठीं। राजा जनमेजयका जन्म कुरुवंशकी अन्तिम पीढ़ीमें हुआ था, अतः वे शीघ्र ही वैशम्पायन ऋषिके पास गये और उनका स्वागत करनेके बाद कहा- ‘भगवन्! मेरा चित्त चिन्तासे व्याकुल है। मैं जानना चाहता हूँ कि यमराजकी पुरी कैसी और कितनी दूरमें विस्तृत है? मैंने सुना है कि प्रेतपुरीके अध्यक्ष धर्मराज बड़े धीर हैं और सम्पूर्ण जगत् पर उनका शासन है। प्रभो! कैसे कर्म किये जायँ कि वहाँ जाना न पड़े।’

वैशम्पायनजी बोले – राजन् ! इस विषयमें एक पुराना इतिहास सुनाता हूँ, सुनो। जिसे सुनते ही मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है। प्राचीन समयमें उद्दालक नामक एक वैदिक महर्षि थे। उनका नचिकेता नामका एक तेजस्वी योगाभ्यासी पुत्र था। संयोगवश उसके पिता उद्दालकने एक दिन रोषमें आकर अपने इस परमधार्मिक पुत्रको शाप दे दिया- ‘दुर्मते! तुम यमराजकी पुरीमें चले जाओ।’ इसपर नचिकेताने कुछ क्षण विचारकर फिर बड़ी नम्रतासे पिता उद्दालकसे| कहा- ‘पिताजी! आप धार्मिक पुरुष हैं। आपकी बात कभी मिथ्या नहीं हुई है। अतः मैं इसी समय आपकी आज्ञासे बुद्धिमान् धर्मराजकी सुरम्य नगरीमें जाता हूँ।’

अब उद्दालक पश्चात्ताप करते हुए कहने लगे- ‘तुम मेरे एक ही पुत्र हो। तुम्हारा दूसरा कोई भाई भी नहीं है। मैंने क्रोध किया, इससे मुझे अधर्म, निन्दा अथवा मिथ्यावादी कहलानेका दोष भले ही लग जाय, परंतु वत्स ! अब तुम्हारा व्यवहार ऐसा होना चाहिये, जिससे मेरा उद्धार हो जाय। मैंने तुम जैसे सदा धर्मका आचरण करनेवाले पुत्रको जो शाप दिया, वह ठीक नहीं किया। तुम्हें यमपुरी जाना उचित नहीं है। उस पुरीके राजा वैवस्वत देव हैं। यदि तुम स्वेच्छासे भी वहाँ चले जाओगे तो वे महान् यशस्वी राजा रोषके कारण कभी भी तुम्हें आने नहीं देंगे। पुत्र! तुम्हें देखना चाहिये कि अपने कुलके भविष्यका संहार करनेवाला मैं प्रायः नष्ट हो रहा हूँ। नरकका एक नाम (पुत्) है। उससे त्राण देनेके कारण लड़केको ‘पुत्र’ कहते हैं। अतएव लोग इस लोक तथा परलोकके लिये पुत्रकी कामना करते हैं। संतानहीन व्यक्तिका किया हुआ हवन, दिया हुआ दान, तप की हुई तपस्या तथा पितरोंका तर्पण -प्रायः ये सब के सब व्यर्थ हो जाते हैं।

‘पुत्र ! मैंने सुना है कि सेवापरायण शूद्र, खेतीसे जीविका चलानेवाला वैश्य, धनकी रक्षा करनेवाला राजसमूह, उपासना कर्ममें निरत ब्राह्मण, महान् तप करनेवाला तपस्वी अथवा उत्तम दान करनेवाला कोई दानी व्यक्ति भी यदि संतानहीन है तो वह स्वर्ग प्राप्त नहीं कर सकता। पुत्रसे पिताको, पौत्रसे पितामहको और प्रपौत्रसे प्रपितामह- को परम आनन्द प्राप्त होता है। अतएव मैं अपने वंशकी वृद्धि करनेवाले तुम जैसे पुत्रका त्याग नहीं करूँगा। मैं इसके लिये याचना करता हूँ, तुम यमपुरी न जाओ।’

वैशम्पायनजीने कहा- राजन्! मुनिवर उद्दालककी बात सुनकर नचिकेताने कहा- ‘पिताजी! आप विषाद न करें। मैं पुनः यहाँ लौटकर वापस आऊँगा और आप मुझे निश्चितरूपसे पुनः देख सकेंगे। सारा संसार जिनको नमस्कार करता है, उन दिव्य पुरुष धर्मराजका दर्शन करके मैं पुनः यहाँ निश्चय ही लौट आऊँगा। मुझे मृत्युसे बिलकुल भय नहीं है। पिताजी! सत्यमें बड़ी शक्ति है, वह सत्य स्वर्गकी सीढ़ी है। सूर्य भी सत्यके बलपर ही तपते हैं। अग्निको सत्यसे ही दाहकताशक्ति प्राप्त हुई है। सत्यपर ही पृथ्वी टिकी है। सत्यका पालन करनेके लिये ही समुद्र अपनी मर्यादाका अतिक्रमण नहीं करता है। जगत् का हित करनेके लिये ही सामवेद सत्यमन्त्रोंका गान करता है। सत्यपर ही सबकी प्रतिष्ठा है। स्वर्ग और धर्म – ये सभी सत्यके रूप हैं। सत्यके अतिरिक्त दूसरा कुछ भी नहीं है। पिताजी! मैंने तो ऐसा सुना है कि सत्यसे सब कुछ मिल सकता है और यदि उसका परित्याग कर दिया गया तो कोई भी उत्तम वस्तु हाथ नहीं लग सकती ।

‘ब्रह्माजीने भी सृष्टिके आरम्भमें यत्नपूर्वक सत्यकी दीक्षा ली थी। सत्यका आश्रय लेकर ही और्वमुनिने अग्निको बड़वामुखमें फेंक दिया था। पिताजी! प्राचीन समयमें सर्वशक्तिसम्पन्न संवर्तने देवताओंपर कृपा करनेके लिये सम्पूर्ण लोकोंको आश्रय दिया था । पातालमें निवास करनेवाले बलिने भी सत्यके रक्षार्थ ही बन्धन स्वीकार किया था। सैकड़ों शिखरोंसे शोभा पानेवाला महान् विन्ध्यपर्वत बढ़ता जा रहा था। सत्यका पालन करनेके लिये बढ़नेसे रुक गया। सम्पूर्ण चर और अचरसे सम्पन्न यह जगत् सत्यसे ही शोभा पाता है। गृहस्थ, वानप्रस्थी एवं योगियोंके जितने उत्तम दृश्यमान ( पालनीय ) धर्म हैं तथा हजार अश्वमेधयज्ञोंका जो धर्म है, उसकी यदि सत्यसे तुलना की जाय तो सत्य ही सबसे बढ़कर सिद्ध हो सकता है। सत्यसे धर्मकी रक्षा होती हैं और रक्षित धर्म प्राणियोंकी रक्षा करता है। अतएव आप इस समय सत्यकी रक्षा कीजिये।’

सुव्रत ! इस प्रकार कहकर ऋषि पुत्र नचिकेता यमराजकी उत्तम पुरीको चल पड़ा। तप एवं योगके प्रभावसे शीघ्र ही यमपुरी पहुँच गया। पहुँचनेपर यमराजने उसका यथोचित स्वागत- सत्कार किया और कुछ ही दिनों बाद उसे वहाँसे वापस होनेकी सम्मति दे दी और फिर वह ऋषिकुमार घर आ गया। वापस आये हुए पुत्रको देखकर उद्दालकमुनिने उसे दोनों बाँहोंमें भरकर छातीसे लगा लिया। उसका सिर सूँघा । उस समय अपार हर्षके कारण पृथ्वी और आकाशमें भी हर्षध्वनि होने लगी।

फिर उद्दालकने उससे पूछा – ‘वत्स! यमपुरी में तुम्हें कोई यातना तो नहीं पहुँचायी गयी ? उस समय यमपुरीसे लौटे नचिकेताको देखनेके लिये वहाँ ऋषि, मुनि और बहुत-से देवता भी पधारे। उन ऋषियोंमें बहुत से नंगे थे। अनेक ऐसे थे, जिनका पत्थरसे कूटकर अन्न खानेका स्वभाव था। बहुत से ऋषि पत्थरसे कूटकर अन्न भक्षण करते थे। बहुतोंने मौनव्रत धारण कर रखा था। कुछ ऋषि वायु पीकर रह जाते थे। अनेक ऋषियोंका नियम अग्निसेवन था, उस व्रतके व्रती ऋषि धुआँ पीकर ही रह जाते थे। समस्त समुदाय उस ऋषिकुमारके चारों ओर खड़े हो उसे देखने लगा। कुछ ऋषि बैठे थे और कुछ खड़े थे। वे सभी शान्त, शिष्ट, अनुशासित एवं शालीन थे। उन सभी ऋषियोंने वेदान्तका साङ्गोपाङ्ग अध्ययन किया था। जब प्रथम बार यमलोकसे आये हुए नचिकेतापर उनकी दृष्टि पड़ी तो उनमें से कुछ भयके कारण घबड़ा से गये तथा कुछ महान् कौतूहलसे ग्रस्त थे। साथ ही उनके हृदयोंमें हर्ष भी भरा था। कुछ ऋषियोंके मनमें बेचैनी उत्पन्न हो गयी तथा कुछ लोग संदेहास्पद बातें करनेमें संलग्न थे। फिर उन ऋषियोंने तपके महान् धनी ऋषिकुमार नचिकेतासे एक साथ ही प्रश्न पूछना आरम्भ कर दिया।

ऋषियोंने उसे बार-बार सम्बोधित करके पूछा- ‘वत्स! तुम बड़े विज्ञ और गुरुके परम सेवक तथा अपने धर्मपर अडिग रहनेवाले हो। तुम सच्ची बात बताओ कि यमपुरीकी तुमने कौन-सी विशेषताएँ देखी और सुनी हैं ? उपस्थित सभी ऋषियोंके मनमें इसे सुननेकी इच्छा है। तुम्हारे पिता तो इस विषयको विशेषरूपसे सुनना चाहते हैं। तात! हमारे पूछनेपर यदि कोई गुप्त बात हो तो भी विशिष्ट मानकर उसे स्पष्ट कर ही देना चाहिये। क्योंकि उस पुरीसे सभी भयभीत रहते हैं—इस बातको प्रायः सभी जानते हैं। इस मायाराज्यमें स्थित सम्पूर्ण जगत् लोभ एवं मोहजनित अन्धकारसे व्याप्त है। चिन्तन तथा अन्वेषणकी क्रियाएँ तो होती रहती हैं; किंतु जो हितकी बात है, वह चित्तपर नहीं चढ़ती। यमपुरीमें चित्रगुप्तकी कार्यशैली कैसी है? पुनः उनके कथनका क्या रूप है ? मुने! धर्मराज और कालका कैसा स्वरूप है ? वहाँ किस रूपसे व्याधियाँ दृष्टिगोचर होती हैं ? कर्मविपाकका स्वरूप भी हम जानना चाहते हैं और यह भी जानना चाहते हैं कि किस कर्मसे उससे छुटकारा हो सकता है ?

विप्रवर! वहाँका जैसा दृश्य तुम्हें दिखायी पड़ा हो अथवा श्रवणगोचर हुआ हो तथा तुमने जिसे निश्चित रूपसे जाना हो, वह सब का सब विस्तारपूर्वक यथावत् वर्णन करनेकी कृपा करो ।

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय ! नचिकेता महान् मनस्वी मुनि थे। महाराज ! जब ऋषियोंने उनसे इस प्रकार पूछा और उन श्रेष्ठ मुनिपुत्रने जो उत्तर दिया- अब मैं वह बताता हूँ, सुनो।

अध्याय १५६ यमपुरीका वर्णन

नचिकेताने कहा – ‘सदा तपमें तत्पर रहनेवाले द्विजवरो! आपलोगोंको मैं यमपुरीका प्रसङ्ग बताता हूँ। जो असत्य बोलते हैं, स्त्री एवं बालक आदि प्राणियोंका वध करते हैं, जो ब्राह्मणकी हत्यामें तत्पर रहनेवाले एवं विश्वासघाती हैं, जिनमें शठता, कृतघ्नता तथा लोलुपता भरी है, तथा जो दूसरोंकी स्त्रीका अपहरण करते और सदा पापमें रत रहते हैं, वे यमपुरीको जाते हैं।

जो वेदोंकी निन्दा करते, वैदिकमार्गपर आघात पहुँचाते, मदिरा पीते, ब्राह्मणका वध करते, ब्याज उगाहते, कपट करते, माता-पिता और पतिव्रता स्त्रीका त्याग करते हैं, वे नरकमें जाते हैं। जो गुरुसे द्वेष करते, बुरे आचरणका पालन करते, कपटभरी बातें बोलते, दूतका काम करते, गृह- ग्रामकी सीमा ध्वंस करते तथा व्यर्थ ही फल- फूल तोड़ते रहते हैं, जो पतिव्रतापर दया नहीं करते तथा पापी, हिंसक, व्रत-भञ्जक, सोमविक्रयी स्त्रीके ही अधीन रहते हैं, जिन्हें झूठ बोलनेकी आदत है तथा जो द्विज होकर वेद बेचते हैं, जो घर-घर नक्षत्रकी सूचना देते हैं, वे नरकमें जाते हैं और वहाँ अपने बुरे कर्मोंका फल भोगते हैं।’

वैशम्पायनजी कहते हैं – राजन् ! जब उन परम तपस्वी मुनियोंने नचिकेताके मुखसे इस प्रकारकी बातें सुनीं, तब उनके आश्चर्यकी सीमा न रही। अतः वे उससे पुनः पूछने लगे ।

ऋषियोंने कहा ‘मुने! तुम बड़े ज्ञानी पुरुष हो। तुमने यमपुरीमें जो कुछ देखा है, वह सभी हमें बतानेकी कृपा करो । विद्वानोंका कहना है कि सूक्ष्म शरीर यमयातनाके अनेक क्लेश भोगने, आग से जलाने तथा अस्त्रोंसे काटनेपर भी नष्ट नहीं होता। विप्र ! वैतरणी नदीका क्या रूप हैं? तथा उसमें कैसा जल बहता है ? रौरव नरककी कैसी स्थिति है ? अथवा कूटशाल्मलिका क्या रूप है ? यमराजके दूत कैसे हैं? उनका क्या कार्य है ? और उनमें कैसा पराक्रम है ? वहाँके दूत किस प्रकार कार्यमें उद्यत रहते हैं ? और उनका कैसा आचार है ? उनके अपूर्व तेजसे आच्छन्न हो जानेके कारण प्राणी प्रायः अचेत सा हो जाता है। प्राणीके द्वारा समय-समयपर दोष होते रहते हैं। वह रज-तमसे भरा रहता है, अतः धैर्य भी उसका साथ नहीं देता। यह किसकी माया है, जिसके प्रभावसे प्राणी परम प्रभुको भूलकर संसारके चकाचौंध में विह्वल रहते हैं। बहुत से व्यक्ति मूर्खताके कारण पाप करते हैं और उसके फलस्वरूप उन्हें कष्ट भोगने पड़ते हैं। वत्स! तुमने यमपुरीमें जाकर सभी बातें स्वयं देखी हैं, अतः इसे बतानेकी कृपा करो।’

वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! उन सभी ऋषियोंका अन्तःकरण अत्यन्त पवित्र था। उनकी बात सुननेके पश्चात् बोलनेमें परम कुशल नचिकेताने सभी बातोंका स्पष्टीकरण करते हुए कहा- ‘द्विजवरो! धर्मराजकी वह पुरी दो परिखाओंसे घिरी और सोनेसे बनी एक हजार योजनमें फैली हुई है तथा अट्टालिकाओं और दिव्य भवनोंसे सुशोभित है उसमें कहीं तो भीषण युद्ध तथा कहीं संघर्ष चलता है और कहीं प्राणी विवश होकर बँधे पड़े हैं। वहाँ पुष्पोदका नामकी एक नदी है, जिसके तटपर अनेक प्रकारके वृक्ष हैं। उसकी सीढ़ियाँ सोनेकी तथा बालुकाएँ सुवर्ण- जैसे रंगवाली हैं।

वहाँ वैवस्वती नामकी एक प्रसिद्ध बहुत बड़ी नदी है। वह नदी वहाँकी सभी नदियोंमें पवित्र तथा श्रेष्ठ मानी जाती है। वह परम रमणीय सरिता पुरीके मध्यमें इस प्रकार विचरती है, मानो माता अपने पुत्रकी रक्षामें तत्पर हो। उसका जल सबके लिये सुखदायी तथा मनको मुग्ध करनेवाला है। वह नदी सदा दिव्य जलसे भरी रहती है। कुन्द एवं चन्द्रमाके समान सफेद रंगवाले हंस आनन्दके उमंगमें उसके तटोंपर निरन्तर घूमते रहते हैं। जिनका आकार तथा रंग बड़ा आकर्षक है और जिनकी कर्णिकाएँ तपाये हुए सुवर्णके समान चमकती हैं, ऐसे रमणीय कमलोंसे युक्त वह नदी बड़ी ही मनोहर दिखायी पड़ती है। सुवर्णनिर्मित सीढ़ियोंके कारण उसकी सुन्दरता और भी बढ़ गयी है। उसके निर्मल जल स्वादिष्ठ, सुगन्धपूर्ण तथा अमृतकी तुलना करते हैं। उसके तटवर्ती वृक्षोंपर फूलों एवं फलोंका कभी भी अभाव नहीं होता। भूलोकमें जो मनुष्योंके द्वारा पितरोंके लिये जल दिये जाते हैं, उन्हींसे उस नदीका यह सुन्दर रूप बन गया है। उस नदीके तीरपर अनेक ऊँचे भवनोंकी पतियाँ हैं, जिनकी आभासे उसकी रमणीयता बहुत अधिक बढ़ गयी है।

यह पुरी अनेक प्रकारके यन्त्रों, प्रकाशके साधनों तथा अन्य आवश्यक उपकरणोंसे भी परिपूर्ण है। देवताओं, ऋषियों और धर्मपर दृष्टि रखनेवाले मनुष्योंके लिये यहाँ पृथक्-पृथक् निवास बने हैं । यहाँके गोपुर ऐसे प्रकाशमान हैं, मानो वे शरद् ऋतुके मेघ ही हों। यहाँ पुण्यात्मा मनुष्योंका इन्हीं दरवाजोंसे प्रवेश होता है। अग्नि एवं धूपके यहाँ सभी दोष शान्त हो जाते हैं, पर इस पुरीके दक्षिणका द्वार अत्यन्त भयंकर एवं लौहमय हैं, जो आतपादिसे सदा संतप्त रहता है। जो पापमें रत हैं, दूसरोंसे शत्रुता रखते हैं, मांस खाते हैं तथा दूषित स्वभाववाले हैं, उन महान् पापियोंके लिये ‘औदुम्बर’, ‘अवीचिमान्’ तथा ‘उच्चावच’ नामकी खाइयाँ बनी हैं। यमपुरीके पश्चिम फाटकके पास तो आगकी लपटें निरन्तर उठती रहती हैं। पापी जीवोंका इसी मार्गसे प्रवेश होता है।

उस परम रमणीय पुरीमें एक ओर सर्वोत्कृष्ट सभाभवनका भी निर्माण हुआ है, जिसमें सब प्रकारके रत्नोंका उपयोग हुआ है। धार्मिक और सत्यवादी व्यक्तियोंसे उसके सभी स्थान भर गये हैं। जिन्होंने क्रोध और लोभपर विजय प्राप्त कर ली है तथा जो वीतराग एवं तपस्वी हैं – वह सभा ऐसे धर्मात्मा – महात्माओंसे भरी रहती है। इस सभामें प्रजापति- मनु, मुनिवर व्यास, अत्रि, औद्दालकि, असीम पराक्रमी महर्षि आपस्तम्ब, बृहस्पति, शुक्राचार्य, गौतम, महातपा शङ्ख, लिखित, अङ्गिरा मुनि, भृगु, पुलस्त्य तथा पुलह जैसे ऋषि- मुनि – महाराज भी विराजते हैं। इनके अतिरिक्त भी धर्मके प्रपाठकोंका समुदाय वहाँ विचार करता है।

द्विजवरो! यमराजके पार्श्ववर्ती अनेक ऐसे ऋषि हैं, जो छन्दः शास्त्र, शिक्षा, सामवेदका पाठ करते रहते हैं तथा धातुवाद, वेदवाद और निरुक्तवाद करनेवालोंकी भी कमी नहीं है। विप्रो ! धर्मराजके भवनपर उत्तम कथाओंका प्रवचन करनेवाले बहुत से ऋषियों और पितरोंको भी मैंने देखा है।

ऋषियो ! वहाँ एक कल्याणमयी देवीका भी मुझे दर्शन हुआ है, जो मानो सभी तेजोंकी एकत्र राशि-सी है। स्वयं यमराज दिव्य गन्धों और अनुलेपनोंसे उसकी पूजा करते हैं। समस्त संसारका उद्भव पालन-संहार उसीके हाथोंमें है। विश्वकी गतियोंमें उसे ही सर्वोत्तम गति कहते हैं। विज्ञ पुरुषोंका कथन है कि किसी भी कर्तव्य – साधनमें इतनी शक्ति नहीं है, जो उसका सामना कर सके। जिससे समस्त प्राणी त्रस्त हो जाते हैं, वह काल भी वहाँ मूर्तरूपमें विराजमान है। वह काल प्रकृतिका सहयोग पाकर अत्यन्त भयंकर, क्रोधी तथा दुर्विनीत बन जाता है। उसमें अथाह बल एवं तेज है। वह न कभी बूढ़ा होता है और न उसकी सत्ता ही समाप्त होती है। उसका कोई तिरस्कार नहीं कर सकता। मैंने देखा है कि दिव्य चन्दन तथा अनुलेपन उसकी भी शोभा बढ़ा रहे थे। उसके सहवासियोंमें कुछ व्यक्ति ऐसे थे, जो गीत गाते हँसते और सम्पूर्ण प्राणियोंको उत्साहित करनेमें उद्यत थे। उन्हें कालका रहस्य ज्ञात था और उसकी सम्मतिके वे समर्थक थे ।

धर्मराजकी पुरीमें कूष्माण्ड, यातुधान तथा मांसभक्षी राक्षसोंके भी अनेक समूह हैं। किसीके एक पैर, किसीके दो पैर, किसीके तीन पैर तथा किसीके अनेक पैर हैं। वहाँ एक बाहु, दो बाहु, तीन बाहु एवं छोटे-बड़े कान, हाथ-पैरवाले भी हैं। हाथी, घोड़े, बैल, शरभ, हंस, मोर, सारस और चक्रवाक प्रभृति पशु-पक्षियों- इन सभीसे  यमराजकी पुरी परम शोभा पा रही है।

अध्याय १५७ यम-यातनाका स्वरूप

नचिकेताने कहा -द्विजवरो! जब मैं यमपुरीमें पहुँचा तो उस प्रेतपुरीके अध्यक्ष यमराजने मुझे एक मुनि मानकर आसन, पाद्य एवं अर्घ्य अर्पणपूर्वक मेरा सम्मान किया और कहा- ‘मुने! यह सुवर्णमय आसन है, आप इसपर विराजिये।’ वे मुझे देखते ही परम सौम्य बन गये थे ।

फिर मैंने उनकी स्तुति करते हुए कहा- ‘महाभाग ! आप ही श्राद्धमें धाता और विधाताके रूपसे दिखायी देते हैं। पितृसमूहमें आप प्रधान देवता हैं। वृषभस्वरूप होनेसे आपको चतुष्पाद कहा जाता है। आप कालज्ञ, कृतज्ञ, सत्यवादी एवं दृढ़व्रती हैं। प्रेतोंपर शासन करनेवाले धर्मराज! आपको निरन्तर नमस्कार है। प्रभो! आप कर्मके प्रेरक, भूत, भविष्य एवं वर्तमानमें विराजमान हैं। श्रीमन्! आपसे ऐसा प्रकाश फैल रहा है, मानो दूसरे सूर्य ही हों। आपको नमस्कार है। प्रभविष्णो! हव्य और कव्य पानेके अधिकारी आप ही हैं। आपकी आज्ञासे व्यक्ति कठोर तपस्या, सिद्धि एवं व्रतमें सदा तत्पर होकर पापोंसे छुटकारा पा जाता है। आप धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ, कृतज्ञ, सत्यवादी तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके हितैषी हैं।’

वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! ऋषिपुत्र नचिकेताके मुखसे ऐसी स्तुति सुनकर धर्मराज अत्यन्त संतुष्ट हो गये और ऋषिकुमारसे उन्होंने अपना अभिप्राय स्पष्ट करना आरम्भ किया ।

यमराजने कहा अनघ ! तुम्हारी वाणी यथार्थ एवं परम मधुर है। मैं इससे अतिशय संतुष्ट हूँ। अब तुम्हें दीर्घायुष्य, नीरोगता अथवा अन्य जो कुछ भी अभीष्ट हो, वह मुझसे माँग लो।

ऋषिकुमार नचिकेताने कहा – ‘प्रभो! आप यहाँके अधिष्ठाता हैं। महाभाग ! मैं जीना मरना- कुछ नहीं चाहता। आप सदा सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें संलग्न रहते हैं। भगवन्! यदि आप मुझे वर देना ही चाहते हैं तो मेरी इच्छा है कि आपके देशको मैं भलीभाँति देख सकूँ। पापात्माओं और पुण्यात्माओंकी जो गति है – प्रायः वह सभी यहाँ दृष्टिगोचर हो रही है। राजन् ! आप यदि मेरे लिये वरदाता बनना चाहते हैं तो मुझे ये सभी दिखानेकी कृपा करें। आपके कार्यकी व्यवस्था करनेमें कुशल एवं शुभचिन्तक जो चित्रगुप्त हैं, उन्हें भी दिखाना आपकी कृपापर निर्भर है।’

इस प्रकार मेरे कहनेपर महान् तेजस्वी यमराजने द्वारपालको आज्ञा दी – ‘तुम इस ब्राह्मणको समुचित रूपसे चित्रगुप्तके पास ले जाओ। उन महाबाहुसे कहना कि ऋषिकुमारसे वे मृदुताका व्यवहार करें। समयोचित अन्य सभी बातें भी उनसे बता देना ।

द्विजवरो ! जब यमराजने दूतको आज्ञा दी तो उसने तुरंत मुझे चित्रगुप्तके पास पहुँचाया। मुझे देखकर चित्रगुप्त अपने आसनसे उठ गये । वस्तुस्थितिका विचार करके उन्होंने कहा- ‘मुनिवर! आपका स्वागत है। आप इच्छानुसार यहाँ पधारिये’ और फिर उन्होंने अपने दूतोंसे कहा- ‘दूतो! तुम लोग सदा मेरे मनके अनुसार आचरण करते हो। तुम इन्हें यमपुरी इस प्रकार दिखलाओ कि कोई जान भी न सके। इन्हें सर्दी, गरमी, भूख अथवा प्याससे भी क्लेश न हो।

‘ ऋषिकुमार नचिकेता कहते हैं— द्विजवरो! चित्रगुप्तकी आज्ञासे दूतोंके साथ जब मैं वहाँ पहुँचा तो देखा कि अनेक दूत बड़ी उतावलीके साथ इधर-उधर दौड़ रहे थे। वे किसीको पकड़ते तथा किन्हीं पर प्रहार करते, पापियोंको बाँधते, आगमें जलाते तथा डंडोंसे बार-बार पीटते थे। कितनोंके सिर फूट गये थे और कई भयंकर चीत्कार कर रहे थे, पर वहाँ उनका कोई रक्षक न था । ऐसे ही बहुत-से प्राणी अन्धकारपूर्ण अगाध नरकमें पच रहे थे। कुछ प्राणी नरकोंमें पकाये जाते थे, जिनसे अग्निके लिये ईंधनका काम लिया जा रहा था। जो अधिक पापकर्मी थे, वे प्राणी खौलते हुए घृत, तेल एवं क्षार वस्तुवाले नरकमें गिरे थे। उनकी देह खौलते हुए घृत, तेल एवं क्षार पदार्थोंसे जलायी जा रही थी। भयंकर यातनाओंसे उनकी देह जल रही थी। अपने कर्मोंके अनुसार यत्र-तत्र विवश होकर वे रो रहे थे। कितने प्राणी तो तिलकी भाँति कोल्हूमें डालकर पेरे जा रहे थे। उन पापात्मा प्राणियोंके रुधिर, मेदादिसे एक दुस्तर वैतरणीनदी प्रकट हो गयी थी। उस भयंकर नदीमें फेनमिश्रित रुधिर भँवरें उठने लगीं। हजारों दूत ऐसे दृष्टिगोचर हुए, जो पापियोंको शूलकी नोकपर चढ़ाते और स्वयं वृक्षोंपर चढ़कर उन जीवोंको अत्यन्त भयंकर वैतरणीनदीमें फेंक देते थे। वह नदी अत्यन्त उष्ण रुधिरों तथा फेनोंसे भरी थी । उसमें अनेक सर्प थे, जो वहाँ पड़े हुए प्राणियोंको डँसा करते थे। उस नदी से बाहर होना किसीके वशकी बात न थी। वे उस रुधिरमय जलमें डूबते और उतराते थे। उनके मुखसे वमन हो रहा था। उन्हें उनका कोई रक्षक नहीं मिलता।

वहाँ बहुत से ऐसे प्राणी भी थे, जिन्हें दूतोंने ‘कूटशाल्मलि’ नामके वृक्षपर लटका दिया था। उस वृक्षमें लोहेके असंख्य काँटे थे। दूतोंद्वारा तलवारों और शक्तियोंसे बार-बार उनपर प्रहार हो रहा था। उस वृक्षकी शाखाएँ रोमाञ्चकारी थीं। उनपर लटके हुए हजारों पापी जीवोंको मैंने देखा है। कूष्माण्ड और यातुधान- ये यमराजके अनुचर हैं। इनकी आकृति बड़ी लम्बी है। इन्हें देखते ही प्राणी डर जाते हैं। तीखे काँटोंसे भरे हुए शाल्मलिवृक्षको शाखाओंपर ये बड़ी शीघ्रतासे चढ़ते और निःशङ्क होकर पापी प्राणियोंके सुन्दर अङ्गोंपर प्रहार करने लगते थे। वे कूष्माण्ड- प्रभृति प्राणियोंको मारकर उनके मांस खानेमें तत्पर हो जाते। कारण, उनकी जाति भयंकर राक्षसकी है। पापियोंके मांस वे इस प्रकार खाने लगते थे, मानो बंदर वृक्षोंपर फल खा रहे हों। जैसे मनुष्य वनमें आम्रके पके फल खाता है, ठीक वैसे ही लम्बे मुखवाले एवं दुर्धर्ष वे कूष्माण्ड आदि राक्षस मुखमें लेकर उन प्राणियोंको अपने उदरमें पहुँचा देते थे। वे वृक्षपर ही उन पापी प्राणियोंको चूस लेते और जब केवल हड्डियाँ बच जाती थीं, तब उन जीवोंको जमीनपर फेंक देते थे। पृथ्वी पर पड़नेके पश्चात् वनवासी जानवर झट वहाँ आते और जो बचा खुचा मज्जा-मांस रहता, उसे पुनः वे चूसने लगते थे। फिर भी अवशिष्ट कर्मोंका क्रम यथाशीघ्र चलता रहता था। वहाँ कभी पत्थरों और धूलोंकी वर्षा होती है, जिससे घबड़ाकर कितने पापात्मा प्राणी वृक्षके नीचे जाते हैं, पर वहाँ भी उनके शरीरमें आग लग जाती है। कोई जीव जोरसे भागनेका प्रयास करते हैं, किंतु दूत उन्हें सावधानीके साथ पकड़कर बाँध लेते हैं। भयंकर स्थानोंमें वे आगके द्वारा पचाये जाते हैं। वे दुःखी प्राणियोंसे कहते हैं- तुम सभी कृतघ्न, लोभी थे और परायी स्त्रियोंसे प्रेम करते थे। तुम्हारे मनमें सदा पाप बसा रहता था तुमने कोई भी सुकृत नहीं किये। तुम सदा दूसरोंकी निन्दा किया करते थे। इस यातना भोगके बाद भी जब तुम्हारा जगत्में जन्म होगा तो वहाँ भी दुर्गति ही होगी, क्योंकि पाप कर्म करनेवाले प्राणी पुनः अत्यन्त दरिद्रकुलोंमें जन्म पाते हैं। जो सदाचारी हैं तथा सत्य भाषण करते, प्राणियोंपर दया रखते हैं, वे ही उत्तम कुलमें जन्म पाते हैं। उनके मनमें किसी प्रकारकी चिन्ता नहीं रहती। वे इन्द्रियोंको वशमें रखकर श्रेष्ठ साधना करते हुए अन्तमें परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं।

नचिकेताने कहा – द्विजवरो ! यमपुरीमें एक ऐसा भी स्थान है, जहाँ लोहेके काँटे बिछे हैं और सर्वत्र अन्धकार-ही-अन्धकार फैला रहता है। उसकी स्थिति बड़ी विषम है। वहाँ कुछ पापाचारी प्राणी पड़े हैं। इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे हैं, जिनके पैर कट गये हैं। अधिकतर बिना हाथ और सिरके हैं। उसी यमपुरीमें लोहेकी बनी हुई एक स्त्री है, जिसका शरीर अग्निके समान जलता है। उसकी आकृति बड़ी भयंकर है। जब वह किसी पापी पुरुषके अङ्गसे अपना अङ्ग सटाती है तो जलनेके कारण वह भागने लगता है। तब वह भी उसके पीछे दौड़ती और कहती है-‘अरे पापी! मैं तेरी बहन थी। ऐसे ही अन्य स्त्रियाँ भी हैं, जो कहती हैं- मैं तेरी पुत्रवधू थी। अरे मूर्ख! मैं तेरी मौसी थी, मामी थी, फुआ थी, गुरुपत्नी थी, मित्रकी भार्या थी, भाई तथा राजाकी स्त्री थी । श्रोत्रिय ब्राह्मणोंकी पत्नी होनेका मुझे सौभाग्य मिला था। उस समय तूने हमसे बलात्कार किया था। अब तू इस क्लेशसे बच नहीं सकता। अरे निर्लज्ज! अब विपत्तियोंसे घबड़ाकर भागता क्यों है ? दुष्ट! मैं तुझे अवश्य मार डालूंगी। तूने जैसा काम किया है, उसका अब फल भोग ।’

द्विजवरो! फिर बाघ, सिंह, सियार, गदहा, राक्षस, हिंसक जन्तु कुत्ते और कौवे उन पापियोंको अपना ग्रास बनानेमें तत्पर हो जाते हैं तथा यमराजके दूत उन्हें ‘असिपत्रवन’ एवं ‘तालवन’ संज्ञक नरकोंमें फेंक देते हैं। वहाँ धुआँ और ज्वालाओंसे परिपूर्ण दावानलकी भाँति धायें- धायें अग्नि जलती रहती है। जब पापात्मा प्राणियोंको अग्निकी ज्वालाएँ असह्य हो जाती हैं, तब वे वृक्षोंके नीचे विश्राम करनेके लिये चले जाते हैं। वहाँ तलवारके समान पत्रोंसे उनका शरीर छिद उठता है। फिर तो छिन्न-भिन्न होने, जलाये जाने तथा बुरी तरह मार खानेके कारण वे कराहते रहते हैं। पीड़ासे मर्माहत होकर वे चिल्लाने लगते हैं। असिपत्र और तालवन नामवाले नरकोंके फाटकपर महारथी वीर पहरा करते हैं। उनके रूपकी भयंकरता अवर्णनीय है।

विप्रो ! मैंने यमपुरीमें यह भी देखा कि वहाँ अनेक पक्षी अग्निकी ज्वालाके समान जलानेकी शक्ति रखते हैं। उनके शब्द अत्यन्त तीक्ष्ण एवं कर्कश होते हैं। उनका स्पर्श होते ही प्राणी जलने लगते हैं। उनके चोंच ऐसे हैं, मानो लोहेके बने हों। कहीं अत्यन्त भयंकर बाघोंका झुंड है, कहीं मांसभक्षी क्रूर कुत्तोंकी टोली है तथा अनेक हिंसक जानवर क्रोधमें भरकर पापी प्राणियोंको खा रहे हैं। एक जगह ‘असितालवन’ भालुओं और हाथियोंसे खचाखच भरा है। यमपुरमें मेघ हड्डियों, पाषाणों, रुधिरों और अश्मखण्डोंकी भी वर्षा करते हैं। उस समय पापी प्राणी उनसे आहत होकर उछलते दौड़ते हैं और भागते हैं। अत्यन्त आहत हो जानेके कारण उनके मुँहसे दारुण शब्द निकलते रहते हैं। प्रत्येक प्राणी कहता है- हा ! अब मैं मारा गया। उनके करुण क्रन्दनसे सभी दिशाएँ व्याप्त हो जाती हैं। कहीं कोई रोता है, कहीं कोई बुरी तरहसे छिदा है, कहीं कोई मोटे पत्थरोंसे दबा है तथा कहीं कोई उठनेका प्रयास करता है। सर्वत्र हाहाकारपूर्ण अत्यन्त करुण पुकार सुनायी पड़ता है।

ऋषिकुमार नचिकेता कहते हैं— द्विजवरो! तप्त, महातप्त, रौरव, महारौरव, सप्तताल, कालसूत्र, अन्धकार, करीषगर्त, कुम्भीपाक तथा अन्धकाररव- ये दस प्रसिद्ध भयंकर नरक हैं, जिनमें उत्तरोत्तर दुगुना, तिगुना और दसगुना क्लेश है; यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं। प्रेत यहाँसे दिन-रात मार्गपर चलते रहनेपर यमपुरी पहुँचते हैं। दुःखियोंका दुःख क्रमशः बढ़ता ही जाता है। मार्गमें तथा वहाँ केवल दुःख ही दुःख रहता है, सुख सामने आता ही नहीं है। दुःख ही दुःख आ घेरता है। कोई उपाय नहीं जिससे थोड़ा भी सुख मिले। परिवारसे सम्बन्ध छूट जाता है। पाँचों भूत अलग हो जाते हैं। उसकी मृतक या प्रेत संज्ञा हो जाती है। इस दुःखका कहीं अन्त मिल जाय- यह असम्भव – सी बात है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस गन्ध-ये सुखके साधन हैं। किंतु इनके रहनेपर भी वहाँ उस जीवको कुछ भी सुख नहीं मिल सकता । दुःखकी अन्तिम सीमापर पहुँचे हुए व्यक्तिको शरीर एवं मनः सम्बन्धी अनेक क्लेश कष्ट देते रहते हैं। कहीं लोहेके बने हुए तीखे काँटों तथा अत्यन्त तपती हुई बालुकाओंसे भरी पृथ्वीपर उसे पैर रखना पड़ता है। धधकती आगकी भाँति जीभवाले अनेक पक्षी आकाशमें भरे रहते हैं। अतः उसे वहाँ भी कष्टका सामना करना पड़ता है। भूख और प्यासकी मात्रा चरम सीमापर पहुँच जाती है। ऐसी स्थितिमें यदि कहीं पानी मिलता है तो वह भी अत्यन्त गरम। कहीं ठंडा मिला तो उसकी शीतलता भी मात्रासे अति अधिक। जब पापात्मा प्राणी पानी पीनेकी इच्छा करता है तो राक्षस उसे तालाबपर ले जाते हैं। हंस एवं सारससे भरे हुए उस तालाबकी कमल और कुमुद शोभा बढ़ाते रहते हैं। प्राणीको जल पीनेकी उत्कट इच्छा रहती है। अतः दौड़कर वहाँ चले जाते हैं, पर वहाँका जल अत्यन्त संतप्त रहता है। उसमें जाते ही उनके मांस पक जाते हैं। और राक्षसोंकी उदरपूर्तिका वह साधन बन जाता है। फिर जब पापी व्यक्ति क्षार जलवाले महान् हृदमें गिराया जाता है, तब उसमें रहनेवाले अनेक मगरमच्छ उसे खाने लगते हैं। कुछ समय यों व्यतीत होनेके बाद प्राणी किसी प्रकार वहाँसे भाग जाते हैं। इसी प्रकार ‘शृङ्गाटकवन’ नामक नरकमें नारकी सियारोंका जत्था घूमता रहता है। अत्यन्त जलती हुई बालुओंसे वहाँकी भूमि भरी है। अतः पापकर्मके परिणामस्वरूप वे प्राणी उन नरकोंमें जलते, छिदते, कटते, मरते, गिरते तथा पिटते रहते हैं। इतना ही नहीं, वहाँ सर्पों एवं बिच्छुओंके समान दुःखदायी बहुत-से कुत्ते भी और उन्हें काटते रहते हैं। उन दुर्धर्ष कुत्तोंकी आकृति काले और साँवले रंगकी है, जो सदा क्रोधके आवेशमें रहते हैं। यहीं ‘कूटशाल्मलि’ नामक एक दूसरा नरक भी है, जो काँटोंसे परिपूर्ण है। यमराजके दूत उसमें नारकी जीवको घसीटते रहते हैं। जब केवल उसकी हड्डी शेष रह जाती है, तब उसे अन्यत्र भेजते हैं। वहाँ करम्भवालुका नामकी एक नदी है, जिसकी चौड़ाई सौ योजन है। वैतरणीनदीका विस्तार पचास योजन है और वह पाँच योजन गहरी है। इसमें त्वचा, मांस और हड्डीको छिन्न-भिन्न करनेवाले बहुत से हिंसक केकड़े निवास करते हैं, जिनकी दन्तावली वज्रकी तुलना करती है। वहाँ धनुषके समान आकारवाले उल्लुओं का समाज विचरता रहता है। उनकी वज्राकार जिह्वाएँ हड्डियोंको खण्ड-खण्ड कर देती हैं। वे बड़े विषैले, महान् क्रोधी, अत्यन्त भयंकर तथा सबके लिये अति असह्य हैं। बड़ी कठिनाईके साथ उस नदीको पार करनेके पश्चात् एक योजन कीचड़का मार्ग तय करना पड़ता है। तब कुछ प्राणी समतल जमीनपर पहुँचते हैं, पर वहाँ भी उन्हें ठहरनेका न कोई मकान मिलता है और न कोई आश्रम ।

वैतरणीसे दूर कुछ दक्षिण दिशामें तीन योजन ऊँचा एक वटका वृक्ष है उससे संध्याकालीन बादलकी तरह सदा ही प्रकाश फैलता रहता है। उसके आगे यमचुल्ली नामकी नदी है, जिसकी गहराई तीन योजन है।

उसके आगे सौ योजनकी दूरीमें फैला हुआ ‘शूलग्रह’ नामक नरक है, जिसका आकार पर्वतका है। वहाँ पौधोंके लिये कोई स्थान नहीं  है। वहाँ सर्वत्र केवल पत्थर ही पत्थर हैं। यहीं ‘शृङ्गाटकवन’ में तरह-तरहकी घासें हैं। काटनेवाली नीले रंगकी मक्खियाँ उस विशाल बनके प्रत्येक भागमें विचरती रहती हैं। उस समय पापी प्राणीका आकार कीड़े जैसा रहता है। हिंसक मक्खियाँ उसपर आक्रमण करके काटने लगती हैं। यहाँ वह देखता है कि उसके माता, पिता, पुत्र तथा स्त्री आदि सभी जन चारों ओर बन्धनमें पड़े हैं और उनकी आँखोंसे आँसूकी धारा गिर रही है। अचेत पड़े हैं। होश आनेपर कहते हैं- ‘पुत्र! रक्षा करो, रक्षा करो।’ फिर रोने लगते हैं। ऐसी स्थितिमें यमराजके दूत लाठियों, मुद्गरों, डंडों, घुटनों, वेणुओं, मुक्कों, कोड़ों और सर्पाकार रस्सियोंके द्वारा उन्हें पीटते हैं, जिससे वह प्राणी सर्वथा मूच्छित सा हो जाता है।

अध्याय १५८ राक्षस - यमदूत संघर्ष तथा नरकके क्लेश

ऋषिपुत्र नचिकेता कहते हैं- विप्रो ! एक बार जब सभी दूत थककर कामसे ऊबकर बैठ गये और हाथ जोड़कर चित्रगुप्तसे कहा कि हमारी सारी शक्ति समाप्त हो चुकी है। आप किन्हीं अन्य दूतोंको इस कार्यके लिये नियुक्त करें तो चित्रगुप्तकी भौंहें चढ़ गयीं और उन्होंने ‘मन्देह’ राक्षसों को प्रकट किया। वे सभी राक्षस अनेक प्रकारके रूप धारण किये हुए थे। उन राक्षसोंने उनसे कहा- ‘प्रभो! हमें यथाशीघ्र आज्ञा देनेकी कृपा करें।’

चित्रगुप्त बोले- ‘तुम इन प्रतिकूल दूतोंको पकड़ो और तुरन्त बन्धनमें डाल दो।’

राक्षस बोले- ‘जो थके हों, जिन्हें भूख सता रही हो, जो दुःखी अथवा तपस्वी हों, ऐसे दयनीय व्यक्तियोंको सेवक अथवा आत्मीयजन समझकर उनपर कृपा करनी चाहिये। आप महात्मा पुरुष हैं, अतः आप ऐसी आज्ञा न दें।’ पर चित्रगुप्त न माने। अन्तमें दूतों एवं राक्षसोंमें भयंकर संग्राम होने लगा । दूत घोर पराक्रमी वीर थे। राक्षसोंकी सेना तितर-बितर हो गयी। एक ओर शोर मच गया- ‘मुझे जीवन दान करो, प्राण दान करो।’ तो दूसरी ओर ‘ठहरो, पकड़ो, और काट डालो की आवाज उठने लगी। जिनके अङ्ग छिन्न-भिन्न हो चुके थे, वे पिशाच युद्धभूमिसे विमुख होकर भागने लगे। ऐसी स्थितिमेंदूत सैनिक क्रोधसे आँखें लाल करके उन्हें ऊँचे स्वरसे पुकारने लगे- ‘ठहरो, कहाँ भागे जा रहे हो। धैर्य रखो ! अब हम तुमपर आक्रमण करना नहीं चाहते हैं।’

इसी समय सहसा धर्मराज वहाँ पधार गये और उनकी आज्ञासे वह युद्ध समाप्त हो गया। फिर उन्होंने दूतोंकी चित्रगुप्तके साथ संधि भी करा दी।

धर्मराजका वहाँ यह आदेश था कि ‘जो झूठी गवाही देता है और चुगलखोरी करता है, उस मानवके दोनों कानोंमें जलती हुई कीलें ठोंक दो। झूठ बोलनेवालेको भी यही दण्ड देना चाहिये। जो गाँवोंमें भ्रमण करके यज्ञ कराता है, किसी एक सिद्धान्तपर नहीं रहता, दम्भ करता है तथा जिसके मनमें मूर्खता भरी है, ऐसे ब्राह्मणको रस्सीसे बाँधकर किसी भयंकर नरकमें डाल दो। जिसकी जीभसे सदा बुरी वाणी निकलती है, उस पापीकी जीभ तुरंत काट डालो। जिसने सुवर्णकी चोरी की है, जो दूसरेके किये हुए उपकारको भूल गया है, जिसने पिताकी हत्या कर डाली है, वह क्रूर एवं पापी मानव है। उसे ब्रह्मघातियोंकी श्रेणीमें बैठाओ। बहुत शीघ्र उसकी हड्डियोंको काटकर धधकती हुई आगमें जला दो ।

ऋषियो ! चित्रगुप्तके अनुसार असत्यके चार भेद हैं-निन्दा, कटुवचन, हिंसाप्रद एवं सर्वथा असत्य । ऐसे असत्यभाषी निष्ठुर, शठ, निर्दयी निर्लज्ज, मूर्ख तथा मर्मभेदी वाणी बोलनेवाले जो दूसरे व्यक्तियोंके प्रशंसनीय उत्तम गुणोंको सहनेमें असमर्थ हैं, कुत्सित एवं कठोर बातें कहते हैं तथा मनमें मूर्खता भरी रहती है, वे अधम मनुष्य बन्धन एवं नरकमें पड़ते हैं। इसके बाद पशु-योनि तथा कीड़े एवं पक्षी आदिकी अनेक योनियोंमें जन्म पानेके वे अधिकारी हैं।

इनके अतिरिक्त जगत्में जो दोषपूर्ण कार्य करते हैं तथा सभी प्राणियोंसे द्वेष करना जिनका स्वभाव बन गया है, वे पापकर्मा प्राणी बहुत दिनोंतक भयंकर नरकमें पड़े रहते हैं। जब नरककी अवधि पूरी हो जाती है तो वे फिर मनुष्यकी योनि प्राप्त करते हैं। उसमें भी किन्हींका शरीर क्षीण, कोई विकृत पेट आदिसे युक्त होते हैं। किन्हींके सिर और अङ्गोंमें व्रण, कोई अङ्ग-हीन अथवा वातके रोगी होते हैं, किन्हींकी आँखोंसे सदा आँसू गिरता रहता है तथा किन्हींको स्त्रीका अभाव अथवा पत्नी होनेपर भी संतानका अभाव या अपने समान सुन्दर लक्षणवाली संतान न मिलकर नटखट, कुरूप, विकारवान् पुत्रादि मिलते हैं एवं आँखोंसे भी वे हीन होते हैं।

यमराज कहते हैं— ‘दूतो! जो चोरी करनेमें तत्पर रहते हैं, वे पशुओं अथवा मनुष्योंके शरीर प्राप्त करें और सदा व्यग्र रहें। जो धर्म- शीलादिसे सम्पन्न एवं शुभ लक्षणवाले व्यक्तिकी अवहेलना करते हैं, उन्हें हजारों वर्षोंतक नरकयातनामें डाल दो।’ फिर नरक यन्त्रणाके बाद भी ये व्यक्ति निर्लज्ज, चितकबरे अङ्गवाले, दुर्बलगात्र, स्त्रीके अधीन, स्त्रीके समान वेषवाले, स्त्रीमें सदा आसक्त स्त्रियोंकी प्रभुतासे बड़े बननेवाले, स्त्रीके लिये ही प्राप्त पदार्थपर अवलम्बित, केवल स्त्रीको देवता माननेमें उद्यत, स्त्रीके नियम एवं वेषके अनुसार स्वयं बन जानेवाले अथवा उन्हींकी भावना लेकर संसारमें उत्पन्न होते- जन्म पाते हैं।

अध्याय १५९ कर्मविपाक - निरूपण

ऋषिपुत्र नचिकेता कहते हैं – विप्रो ! अब मैं धर्मराज और चित्रगुप्त संवादका एक दूसरा प्रसङ्ग कहता हूँ, आप उसे सुनें। चित्रगुप्त धर्मराजसे कह रहे थे— ‘यह मनुष्य स्वर्गमें जाय, यह प्राणी वृक्षकी योनिमें जन्म ले, यह पशुकी योनिमें जाय और इस प्राणीको मुक्त कर दिया जाय। इस व्यक्तिको उत्तम गति प्राप्त होनी चाहिये। इसे अपने पिता – पितामहप्रभृति पूर्वजोंसे मिलना चाहिये। फिर वे दूसरे दूतोंसे कहने लगे—’महान् पराक्रमी वीरो ! यह व्यक्ति सदा धर्मसे विमुख रहा। इसने साध्वी स्त्रीका परित्याग किया है। इसके पास पुत्र-पौत्र भी नहीं हैं, अतः इसे रौरव नरकमें फेंक दो।’

‘ये सभी बड़े धर्मात्मा व्यक्ति हैं। ऐसे मानव न हुए हैं और न होंगे ही। इनमें पापका लेशमात्र भी नहीं है। अतः बहुत शीघ्र इन्हें यहाँसे जानेके लिये कह दो। इन व्यक्तियोंने जीवनभर किसीकी निन्दा नहीं की है। सम्पत्ति अथवा विपत्ति- किसी भी स्थितिमें इन्होंने सम्पूर्ण धर्मोका पालन किया है, अतः ये स्वर्गमें जाकर अनेक कल्पोंतक वहाँ निवास करें। यह व्यक्ति पूर्वकालमें परम धार्मिक पुरुष रहा है, पर यह स्त्रीमें अधिक आसक्त रहा, अतः कलियुगमें मनुष्यकी योनि प्राप्त करे। इसके बाद स्वर्गमें वास करनेकी सुविधा मिलेगी। यह व्यक्ति युद्धभूमिमें शत्रुको मारकर पीछे स्वयं मरा है। ब्राह्मण, गौ अथवा राष्ट्रके लिये लड़ाई छिड़ी थी। उसमें इसने प्राण- विसर्जन किये हैं। अत: तुम्हें विनयके साथ इससे निवेदन करना चाहिये कि यह व्यक्ति विमानपर चढ़कर इन्द्रकी अमरावती पुरीमें जाय और एक कल्पतक वहाँ निवास करे। उसीके समान यह भी एक धर्मात्मा पुरुष है। इस परम भाग्यशाली प्राणीने निरन्तर धर्मका पालन किया है। इसके सभी क्षण दान करनेमें ही व्यतीत हुए हैं। यह समस्त प्राणियोंपर दया करता था। इसका गन्धों और मालाओंसे यथाशीघ्र सम्मान करो। इस महात्मा व्यक्तिके लिये तुमलोगोंसे मेरा यह आदेश है कि इसके ऊपर चँवर झले जायें और इसकी भली प्रकारसे पूजा होनी चाहिये।’

‘यह भी एक यशस्वी पुरुष है। इससे सभी प्राणी सुख पाते रहे हैं। इसका कल्याण होना चाहिये। इसे सैकड़ों गुणोंसे शोभा पानेवाले इन्द्रकी अमरावतीमें भेजा जाय। यह धर्मात्मा प्राणी स्वर्गमें तबतक रहेगा, जबतक वहाँ इन्द्र रहेंगे। जितने समयतक इसका धर्म साथ देता रहेगा, उतने कालतक स्वर्गमें आनन्द भोगनेका इसे सुअवसर मिले। वहाँसे समयानुसार इसे उतरना पड़े तो मनुष्यकी योनिमें जन्म पाकर सुख भोगे। इसने रत्नोंकी बाँसुरी बनवाकर दान किये हैं तथा सम्पूर्ण धर्मोका विधिपूर्वक पालन किया है। इसको अश्विनीकुमारके लोकमें ले जाओ। क्योंकि उस लोकमें सब प्रकारकी सुख-सामग्री सुलभ रहती है।’

‘यह महान् भाग्यशाली पुरुष है। यह देवाधिदेव सनातन श्रीहरिके पास पधारे। इसकी त्यागवृत्ति असीम थी। यह सुखसे दूध देनेवाली गौएँ दान करता था। अपनी सभी शक्तियोंका उपयोग कर यह ब्राह्मणोंको गौ दान देनेमें उत्सुक रहता था । विशेषता यह थी कि इसने परम पवित्र ब्राह्मणोंको बहुत-सा अन्न भी दिया है। रुद्रधेनुकी तुलना करनेवाली वे मनोहारिणी गौएँ कल्पपर्यन्त इसका साथ देंगी। यह पुरुष एक कल्पतक रुद्रके लोकमें रहेगा इसमें कोई संशय नहीं। इसने अनेक मधुर पदार्थ, सुगन्धित वस्तुएँ तथा रस- दूधसे परिपूर्ण सवत्सा गौ ब्राह्मणोंको दी थीं, जिनके सभी अङ्ग सुवर्णसे सुशोभित थे। इस महान् दानी पुरुषसे सम्बन्ध रखनेवाली पुस्तिका मैंने देखी है। उसमें लिखा है, तीन करोड़ वर्षोंतक यह स्वर्गमें निवास करेगा। तत्पश्चात् ऋषियोंके कुलमें इसका जन्म होगा।’

‘इसने सुवर्णका दान किया है। इसको देवताओंके पास भेज देना चाहिये। उनसे आज्ञा पाकर उमापति भगवान् रुद्रके लोकमें यह जाय। यह निश्चय ही महान् तेजस्वी जान पड़ता है। वहाँ जाकर अपनी इच्छाके अनुसार कामनाएँ पूर्ण करे।’ (किन्हीं अन्य प्राणियोंको देखकर) ‘इन व्यक्तियोंने दान करनेका नियम बना लिया था। अनेक प्रकारके प्राणी इनका अभिवादन करते थे। अतः ये स्वर्गमें जायँ।’ (किसी औरके प्रति ) ‘यह परम कुशल पुरुष है। इससे जनताकी आवश्यकता पूरी होती थी। सबके हित साधनमें यह संलग्न रहता था। सभी कामनाओंको पूरा करनेवाला यह प्राणी सबके लिये आदरका पात्र था। इसने ब्राह्मणोंको पृथ्वी दान की है।’ अतः स्वर्गमें जाय और वहीं बहुत दिनोंतक रहे। इसके बाद अपने अनुयायियोंके साथ ब्रह्माजीके लोकमें स्थान पावे। इस श्रेष्ठ मानवकी अनेक प्रकारके इच्छित भोगोंसे सेवा होनी चाहिये। इसका स्थान अक्षय और अजर होगा। महर्षिगण इसका आदर करेंगे।’

(किसी अन्य पुरुषको देखकर) ‘यह प्राणी सभीके लिये अतिथिके रूपमें यहाँ आया है। सब इन्द्रियाँ इसके अधीन हैं। यह सम्पूर्ण प्राणियोंपर कृपा करता था । प्रायः सभीको समानरूपसे अन्न-दान करनेमें इसकी प्रवृत्ति थी। परिवारमें सब भोजन कर लेते थे, तब यह अन्न ग्रहण करता था। मेरे प्रिय भृत्यो! तुम्हें इसको यहाँसे अभी विदा कर देना चाहिये। धर्मराजने ऐसा निर्णय कर दिया है।’

‘इस प्राणीने कई कन्याओंका दान किया तथा यज्ञ सम्पन्न किये हैं। अतः इसे दस हजार वर्षोंतक स्वर्गमें सुख भोगनेका सुअवसर प्रदान करो। इसके पश्चात् यह मर्त्यलोक – निवासी किसी उत्तम कुलमें सर्वप्रथम जन्म पायगा। यह दयालु पुरुष दस हजार वर्षोंतक देवताओंके समान सुखपूर्वक स्वर्गमें विराजमान रहे, इसके बाद यह मनुष्यकी योनिमें जन्म पाये और सभी इसका सम्मान करें।’ (किसी अन्यके विषयमें ) ‘यह वही व्यक्ति है, जिसने छाता, जूता और कमण्डलु बार-बार दान किये हैं, इसकी तुमलोग पूजा करो जिस देशमें हजारों सभा मण्डप हैं, उस देशमें विद्याधर बनकर यह चार महापद्म वर्षोंतक निरन्तर निवास करे । ‘

नचिकेताने कहा – विप्रो! चित्रगुप्तद्वारा कथित एक अन्य महत्त्वकी बात बतलाता हूँ, उसे सुनें। वे कहते थे- ‘गौएँ दिव्य प्राणी हैं। इनके सम्पूर्ण अङ्गोंमें सभी देवताओंका निवास है। अपने शरीरमें अमृत धारण करना और धरातलपर उसको बाँट देना इनका स्वाभाविक गुण है। ये तीर्थोंमें परम तीर्थ, पवित्र करनेवाले पदार्थोंमें परम पवित्रकर तथा पुष्टिकारकोंमें परम पुष्टिप्रद हैं। इनसे प्राणी शुद्ध हो जाता है। अतएव प्राचीन समयसे ‘गौओंके दानकी परम्परा चली आ रही है। इनके दहीसे समस्त देवता, दूधसे भगवान् शंकर, घृतसे अग्निदेव तथा खीरसे पितामह ब्रह्मा तृप्तिका अनुभव करते हैं। इनके पञ्चगव्यके प्राशनसे अश्वमेधयज्ञका पुण्य प्राप्त होता है। गौके दाँतोंमें मरुद्गण, जिह्वामें सरस्वती, खुरके मध्यमें गन्धर्व, खुरके अग्रभागमें नागगण, सभी संधियोंमें साध्यगण, आँखों में चन्द्रमा एवं सूर्य, ककुद (मौर) में सभी नक्षत्र, पूँछमें धर्म, अपानमें अखिल तीर्थ, योनिमें गङ्गा नदी तथा अनेक द्वीपोंसे सम्पन्न चारों समुद्र, रोमकूपोंमें ऋषि-समुदाय, गोमयमें पद्मा लक्ष्मी रोयेंमें समस्त देवतागण तथा इनके चर्म और केशोंमें उत्तर एवं दक्षिण- दोनों अयन निवास करते हैं। इतना ही नहीं, स्थैर्य, धृति, कान्ति, पुष्टि, वृद्धि, स्मृति, मेधा, लज्जा, वपु, कीर्ति, विद्या, शान्ति, मति और संतति- ये सब गौओंके पीछे चलती हैं, इसमें कोई संशय नहीं । जहाँ गौओंका निवास है, वहीं सारा जगत्, प्रधान देवता, श्री लक्ष्मी तथा ज्ञान एवं धर्म- ये सभी निवास करते हैं।*

अध्याय १६० दान धर्मका महत्त्व

ऋषिपुत्र नचिकेता कहते हैं— विप्रो ! नारदजी यद्यपि परम सात्त्विक पुरुष हैं, किंतु उनके मनमें कलह देखनेकी भी रुचि रहती है। इसी प्रकार वे एक बार कौतूहलवश घूमते हुए धर्मराजकी सभामें पधारे, जहाँ उनका राजाने बड़ा स्वागत किया। फिर उन्होंने नारदजीसे कहा- ‘द्विजवर! आप यहाँ मेरे बड़े सौभाग्यसे पधारे हैं। महामुने! आप सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सम्पूर्ण धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ तथा गन्धर्व – विद्या एवं इतिहासके पूर्ण ज्ञाता हैं। विभो आप यहाँ पधारे और हमें दर्शन मिल गया, इससे हम सभी पवित्र हो गये। हमारा अन्तःकरण परम शुद्ध हो गया। मुनिवर ! यही नहीं, यह देश भी सब ओरसे पुनीत हो गया। भगवन्! अब आप अपने मनोरथकी बात कहें।’

विप्रो ! नारदजी धर्मके पूरे मर्मज्ञ हैं। धर्मराजकी उक्त बात सुनकर प्रश्नके रूपमें जो उन्होंने कहा, वह भी एक महान् गूढ़ विषय है। वही मैं तुमसे कहूँगा ।

नारदजी बोले भगवन्! आपका शासन धर्मके अनुसार होता है। आप सत्य, तप, शान्ति और धैर्यसे सम्पन्न हैं। सुव्रत ! मेरे मनमें एक महान् संदेह उत्पन्न हो गया है, उसे आप बतानेकी कृपा करें। सुरोत्तम! मेरे संशयका विषय यह है कि ‘प्राणी किस व्रत, नियम, दान, धर्म और तपस्या करनेके प्रभावसे अमरत्व प्राप्त करता है तथा उसकी क्या विधि है ? बहुत-से महात्मा तो संसारमें अतुलनीय श्री, कीर्ति, महान् फल तथा परम दुर्लभ सनातन पदतक प्राप्त कर लेते हैं। इसके विपरीत कुछ लोग जीवनभर क्लेश भोगकर मरनेपर नरकमें आ जाते हैं। आप तत्त्वपूर्वक हमसे सभी विषय स्पष्ट करनेकी कृपा कीजिये।’

धर्मराजने कहा तपोधन! मैं विस्तारके साथ वे सभी बातें बता रहा हूँ आप उन्हें सुनें। अधर्मियोंके लिये नरकका निर्माण हुआ है। यहाँ पापी मानव ही आते हैं। जो अग्निहोत्र नहीं करता; संतानहीन है और भूमिदानसे रहित है, ऐसा मनुष्य मरकर नरकमें आता है। जो वेदोंके पारगामी विद्वान् तथा शूरवीर पुरुष हैं, उनकी आयु सौ वर्षोंकी हो जाती है। जो मानव स्वामीकी आज्ञाका नियमसे पालन करते तथा सदा सत्य भाषण करते हैं, वे कभी नरकमें नहीं आते। जिन्होंने इन्द्रियोंको वशमें कर लिया है, स्वामीमें श्रद्धा रखते हैं, हिंसा नहीं करते, यत्नसे ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, जो इन्द्रियनिग्रही एवं ब्राह्मणभक्त हैं, वे नरकमें नहीं आते। जो स्त्रियाँ पतिव्रता हैं तथा जो पुरुष एक पत्नीव्रतका पालन करनेवाले, शान्तस्वभाव, परायी स्त्रीसे विमुख सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने समान माननेवाले तथा समस्त जीवोंपर कृपा करनेमें उद्यत रहते हैं, ऐसे मनुष्य अन्धकारसे आवृत एवं पापियोंसे भरे हुए इस नरकसंज्ञक देशमें नहीं आते हैं।

इसी प्रकार जो द्विज ज्ञानी हैं, जिन्होंने साङ्गोपाङ्ग विद्याका अध्ययन कर लिया है, जो जगत् से उदासीन रहते हैं तथा जिन व्यक्तियोंने स्वामीके लिये अपने प्राणोंको होम दिया है, जो संसारमें सदा दान करते एवं सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें संलग्न रहते हैं तथा जो माता-पिताकी भली प्रकार सेवा करते हैं, वे नरकमें नहीं जाते जो प्रचुर मात्रामें तिल, गौ और पृथ्वीका दान करते हैं, वे नरकमें नहीं जाते, यह निश्चित है जो शास्त्रोक्त विधिसे यज्ञ करते-कराते और चातुर्मास्य एवं आहिताग्नि-व्रतका नियम पालन तथा मौनव्रतका आचरण करते हैं, जो सदा स्वाध्याय करते हैं तथा शान्त स्वभाववाले एवं सभ्य हैं, ऐसे द्विज यमपुरीमें आकर मेरा दर्शन नहीं करते। जो जितेन्द्रिय व्यक्ति पर्वसे भिन्न समयमें केवल अपनी ही स्त्रीके पास जाते हैं, वे भी नरकमें नहीं जाते। ऐसे ब्राह्मण तो साक्षात् देवता बन जाते हैं- इसमें कोई संशय नहीं है जिनकी सम्पूर्ण कामनाएँ निवृत्त हो चुकी हैं, जो किसीसे कुछ आशा नहीं रखते और अपनी इन्द्रियोंको सदा वशमें रखते हैं, वे इस घोर स्थानपर कभी नहीं आते।

नारदजीने पूछा- सुव्रत! कौन सा दान श्रेष्ठ है और कैसे पात्रको दान देनेसे उत्तम फलकी प्राप्ति होती है अथवा कौन सा ऐसा श्रेष्ठ कर्म है, जिसका सम्पादन करनेपर प्राणी स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठा पाता है ? किस दानकी ऐसी महिमा है, जिसके परिणामस्वरूप प्राणी सुन्दर रूप, धन, धान्य, आयु तथा उत्तम कुल प्राप्त कर सकता है? यह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये ।

धर्मराज बोले- देवर्षे! दानकी विधियाँ तथा उनकी गतियाँ अगणित हैं, जिसे कोई सौ वर्षोंमें भी बता पानेमें असमर्थ है। फिर भी मनुष्य जिसके प्रभावसे उत्कृष्ट फल प्राप्त करते हैं, उसे संक्षेपमें बताता हूँ। तपस्या करनेसे स्वर्ग सुलभ होता है, तपस्यासे दीर्घ आयु और भोगकी वस्तुएँ मिलती हैं। ज्ञान-विज्ञान, आरोग्य, रूप, सौभाग्य, सम्पति- ये सभी तपस्यासे प्राप्त होते हैं। केवल मनमें संकल्प कर लेनेमात्रसे कोई भी सुख भोग प्राप्त नहीं हो जाता। मौनव्रत पालन करनेसे अव्याहत आज्ञा-शक्ति प्राप्त होती है। दान करनेसे उपभोगकी सामग्रियाँ तथा ब्रह्मचर्यके पालनसे दीर्घ जीवन प्राप्त होता है अहिंसाके फलस्वरूप सुन्दर रूप तथा दीक्षा ग्रहण करनेसे उत्तम कुलमें जन्म मिलता है। फल और मूल खाकर निर्वाह करनेवाले प्राणी राज्य एवं केवल पत्तेके आहारपर अवलम्बित व्यक्ति स्वर्ग प्राप्त करते हैं। पयोव्रत करनेसे स्वर्ग तथा गुरुकी सेवामें रत रहनेसे प्रचुर लक्ष्मी प्राप्त होती है। श्राद्ध, दान करनेके प्रभावसे पुरुष पुत्रवान् होते हैं। जो उचित विधिसे दीक्षा लेते अथवा तृण आदिकी शय्यापर शयन करके तप करते हैं, उन्हें गौ आदि सम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं। जो प्रातः, मध्याह्न और सायंकालमें त्रिकाल स्नानका अभ्यासी है, वह ब्रह्मको प्राप्त करता है। केवल जल पीकर तपस्या करनेवाला अपना अभीष्ट प्राप्त कर लेता है* । सुव्रत ! यज्ञशाली पुरुष स्वर्ग तथा उपहार पानेका अधिकारी है। जो दस वर्षोंतक विशेष रूपसे जल पीकर ही तपस्यामें तत्पर रहते हैं तथा लवण आदि रासायनिक पदार्थोंका सेवन नहीं करते, उन्हें सौभाग्यकी प्राप्ति होती है। मांस त्यागी व्यक्तिकी संतान दीर्घायु होती है। चन्दन और मालासे रहित तपस्वी मानव सुन्दर स्वरूपवाला होता है। अन्नका दान करनेसे मानव बुद्धि और स्मरणशक्तिसे सम्पन्न होता है। छाता दान करनेसे उत्तम गृह, जूतादानसे रथ तथा वस्त्र दान करनेसे सुन्दर रूप, प्रचुर धन एवं पुत्रोंसे प्राणी सम्पन्न होते हैं। प्राणियोंको जल पिलानेसे पुरुष सदा तृप्त रहता है। अन्न और जल-दोनोंका दान करनेके प्रभावसे प्राणियोंकी सभी कामनाएँ पूर्ण होती हैं। जो सुगन्धित फूलों एवं फलोंसे लदे हुए वृक्ष ब्राह्मणको दान करता है, वह सब प्रकारकी उपयोगी वस्तुओंसे भरा गृह प्राप्त करता है। सुन्दरी स्त्रियाँ और अमूल्य रत्न उस गृहमें परिपूर्ण रहते हैं। अन्न, वस्त्र, जल और रस प्रदान करनेसे व्यक्तिको दूसरे जन्ममें वे सभी सुलभ होते हैं। जो ब्राह्मणोंको धूप और चन्दन दान करता है, वह अगले जन्ममें सुन्दर तथा नीरोग होता है। जो व्यक्ति किसी ब्राह्मणको अन्न तथा सभी उपकरणोंसे युक्त गृह दान करता है, उसे जन्मान्तर में बहुत-से हाथी, घोड़े और स्त्री-धन आदिसे परिपूर्ण उत्तम महल निवास करनेके लिये प्राप्त होते हैं। धूप प्रदान करनेसे मानवको गोलोकमें तथा वसुओंके लोकमें रहनेका सुअवसर सुलभ होता है। हाथी तथा हृष्ट-पुष्ट बैल दान करनेसे प्राणी स्वर्ग में जाता है और वहाँ उसे कभी समाप्त न होनेवाला दिव्य सुख भोग प्राप्त होता है। घृतका दान करनेसे तेज एवं सुकुमारता तथा तैलदानसे प्राणमें स्फूर्ति और शरीरमें कोमलता उपलब्ध होती है। शहद दान करनेसे प्राणी दूसरे जन्ममें अनेक प्रकारके रसोंसे सदा तृप्त रहता है। दीपक दान करनेसे अन्धकारका कष्ट नहीं होता तथा खीर दान करनेवाले व्यक्तिका शरीर हृष्ट-पुष्ट होता है। खिचड़ी दान करनेसे कोमलता और सौभाग्य प्राप्त होता है। फल दान करनेवाला व्यक्ति पुत्रवान् तथा भाग्यशाली होता है। रथ दान करनेसे दिव्य विमान तथा दर्पणोंका दान करनेसे प्राणी उत्तम भाग्य प्राप्त करता है, इसमें कोई संशय नहीं डरे हुए प्राणीको अभय प्रदान करनेसे मनुष्यकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।

अध्याय १६१ पतिव्रतोपाख्यान

ऋषिपुत्र नचिकेता कहते हैं- विप्रो ! इसी बीच यायावर, * शिलोञ्छजीवी स्वाध्यायव्रती तपस्वी ब्राह्मणोंको अपने ऊपरसे जाते देखकर यमराज अत्यन्त उदास हो गये। ब्राह्मणो ! इतनेमें ही वहाँ विमानपर सवार होकर अपने पतिदेवके साथ एक परम तेजस्विनी पतिव्रता स्त्री आ गयी। उसके साथमें बहुत-से अनुचर तथा परिकर-परिच्छद भी विराजमान थे। उस प्रियदर्शना देवीके आगमनकालमें नरसिंगे आदि वाद्योंकी विपुल ध्वनि होने लगी। जीवमात्रपर अनुग्रह रखनेवाली उस देवीको धर्मकी पूर्ण जानकारी थी। उसके सारे प्रयासमें धर्मराजका हित भरा था। इस प्रकार साधन सम्पन्न वह शुभाङ्गना विमानपर बैठे-बैठे ही धर्मराजको तपस्वियोंसे ईर्ष्या न करने तथा उनके प्रति सद्भाव रखनेका परामर्श देकर एवं उनसे पूजित हो आकाशमें अदृश्य हो गयी – जैसे बिजली बादलमें समा जाती है। इस अवसरपर धर्मराजके द्वारा सुपूजित उस स्त्रीको देखकर नारदजीने पूछा- ‘राजन्! जो आपके द्वारा अर्चित होनेके बाद हितकी बात कहकर पुन: यहाँसे प्रस्थित हो गयी, वह स्त्रियोंमें सर्वोत्तम देवी कौन है? यह तो परम भाग्यशालिनी जान पड़ती है। इसका रूप बड़ा दिव्य है। अनुपम भाग्योंसे शोभा पानेवाले राजन्! मैं इस रहस्यको जानना चाहता हूँ। क्योंकि इससे मेरे मनमें महान् आश्चर्य हो रहा है। अतः इसे संक्षेपमें बतानेकी कृपा करें।’

धर्मराजने कहा- देवर्षे! मैंने जिस देवीकी पूजा की है, उसकी कथा परम सुखद है। उसे मैं आपके सामने विस्तारसे स्पष्ट करता हूँ। तात ! पूर्व कल्पके सत्ययुगकी बात है— निमि नामसे प्रसिद्ध एक महान् तेजस्वी, सत्यवादी एवं प्रजापालक राजा थे। उनके पुत्र मिथि हुए। केवल पितासे जन्म होंनेके कारण जनताने उनका नाम जनक रख दिया। उनकी पत्नीका नाम ‘रूपवती’ था। वह निरन्तर अपने पतिके हितमें तत्पर रहती थी। पतिकी आज्ञा का पालन करना, उनमें अपार श्रद्धा-भक्ति रखना तथा शुभ कर्मोंमें लगे रहना उसका स्वाभाविक गुण था। स्वामीके वचनानुसार अत्यन्त प्रसन्नताके साथ वह कार्यमें तत्पर रहती थी । महाराज मिथि भी महान् तपस्वी, सत्यके समर्थक तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें ही अपने सारे समयका उपयोग करते थे। वे श्रम एवं धर्मपूर्वक सम्पूर्ण भूमण्डलका पालन करते थे। उनके शासनकालमें रोग, बुढ़ापा और मृत्युकी शक्ति कुण्ठित हो गयी थी। उन परम तेजस्वी नरेशके राष्ट्रमें देवता समयानुसार सदा जल बरसाते थे। उनके राज्यमें कोई भी ऐसा व्यक्ति दृष्टिगोचर नहीं होता था, जो दुःखी, मरणासन्न या व्याधियोंसे ग्रस्त अथवा दरिद्रतासे पीड़ित हो । विप्रवर! बहुत समय व्यतीत हो जानेके पश्चात् एक दिन उनकी रानीने उनसे नम्रतासे भरी हुई वाणीमें कहा—’राजन् ! हमारी सारी सम्पत्ति भृत्यों, ब्राह्मणों और परिजनोंके प्रबन्धमें शनैः शनैः समाप्त हो गयी। अब आपके कोषमें कुछ भी अवशेष नहीं है। अधिक क्या ? इस समय अपने भोजनकी भी कोई व्यवस्था नहीं है। हमारे पास अब कोई गोधन, कपड़े-लत्ते या बर्तन भी नहीं बचे हैं। राजन् ! इस समय मेरे लिये जो उचित कर्तव्य हो, वह बतानेकी कृपा कीजिये। मैं आपकी आज्ञाकारिणी दासी हूँ।’

राजा मिथिने कहा- ‘भामिनि * ! तुम्हारी भावनाके विरुद्ध मैं कभी कुछ कहना नहीं चाहता, फिर भी सुनो। सौ वर्ष तो हमलोगोंको हविष्य भोजनपर ही रहते हो गये हैं। प्रिये! अब हमलोग कुद्दाल और काष्ठकी सहायतासे खेतीका काम करें। इस प्रकार काम करने तथा जीवन-निर्वाह करनेसे हमें शुद्ध धर्मकी प्राप्ति हो सकती है, इसमें कोई संशय नहीं। ऐसा करनेसे हमें भक्ष्य एवं भोज्यकी आवश्यक वस्तुएँ भी उपलब्ध हो जायँगी और हमारा जीवन भी सुखमय बन जायगा।’

राजा मिथिके इस प्रकार कहनेपर रानी रूपवतीने कहा- ‘राजन् ! आप महान् यशस्वी पुरुष हैं। आपके महलपर सेवकों, शूरवीरों, हाथियों, घोड़ों, ऊँटों, भैंसों और गदहोंकी संख्या कई हजार है। राजन् ! क्या आपकी इच्छाके अनुसार ये सभी लोग कृषि आदि कार्य नहीं कर सकते हैं?’

राजा मिथि बोले- वरानने! मेरे पास जितने सेवक हैं, वे सभी राष्ट्र रक्षाके अपने-अपने काममें नियुक्त हैं और सभी अपने काममें संलग्न भी हैं। देवि! अपने पासके सभी पशु-हृष्ट-पुष्ट बैल, खच्चर, घोड़ा, हाथी और ऊँट भी राज्यके काममें ही नियुक्त हैं। अनिन्दिते! इसी प्रकार लोहे, राँगे, ताँबे, सोने और चाँदीसे बने हुए उपकरण भी राष्ट्रमें काम दे रहे हैं। देवि ! इस समय अब अपने लिये कहीं चलकर कोई उपयुक्त भूमि तथा लोहा आदि द्रव्यकी खोज करनी चाहिये, जिससे मैं उपयुक्त भूमि तथा एक कुद्दाल बनवा सकूँ एवं सुगमतासे कृषि कर सकूँ ।

रानीने उत्तर दिया- ‘राजन्! आप अपनी इच्छाके अनुसार चलें। मैं भी आपके पीछे-पीछे चलूँगी।’ इस प्रकार बात-चीत होनेके पश्चात् महाराज मिथि अपनी सहधर्मिणीके साथ वहाँसे चल पड़े। स्थान क्षेत्र आदिकी तलाश करते जब वे दोनों पर्याप्त मार्ग पार कर चुके, तब राजाने एक स्थानको लक्ष्यकर कहा – ‘वरवर्णिनि । यह क्षेत्र कल्याणप्रद प्रतीत होता है। अब तुम यहाँ रुको। भद्रे जबतक मैं इन घासों और काँटोंको काटता हूँ, तबतक तुम भी यहाँ कुछ ठीक- ठाककर तृणपत्रोंको दूर करो।

तपोधन। राजा मिथिके इस प्रकार कहनेपर रानी हँसती हुई मधुर वाणीमें कहने लगी- ‘प्रभो! यहाँ केवल वृक्ष और सुनहरे रङ्गवाली लताएँ तो दिखायी पड़ती हैं, किंतु पासमें किंचिन्मात्र भी जलका दर्शन नहीं होता। यहाँ खेतीका काम करनेपर तो हृदयमें चिन्ता ही बनी रहेगी, फिर खेतीका काम हमलोग कैसे कर सकेंगे ? यहाँ यह वेगवती नदी भी बहती है, यह वृक्ष है तथा यहाँकी भूमि भी कंकड़वाली है। ऐसे स्थानमें खेतीका काम करनेपर हमलोगोंको कैसे सफलता मिल सकेगी ?”

रानीकी बात सुनकर राजा मिथिने मधुर वचनोंमें कहा – ‘प्रिये पहलेके ही समान यहाँ भी सम्पत्तिका संग्रह हो सकता है। सुन्दरि बहुत संनिकट, पासमें ही पानीकी व्यवस्था हो सकती है और चार मनुष्योंके आ जानेपर यहाँ किंचिन्मात्र भी असुविधा नहीं रहेगी। महादेवि ! देखो, यह घर है। यहाँ किसी प्रकारकी बाधा नहीं आ सकती है।’ इतना कहनेके उपरान्त राजा अपनी पत्नीके साथ उस क्षेत्रका शोधन करने लगे। इधर सूर्य जब आकाशके मध्यभागमें चले गये और उनका उग्र ताप फैल गया, तब रानी सहसा प्याससे व्याकुल हो गयी। उस तपस्विनीको भूख भी सताने लगी। उसके पैरके कोमल तलवे ताँबेके समान लाल हो गये। तापके कारण वे संतप्त हो उठे। अब उस देवीने अत्यन्त व्यथित होकर पतिदेवसे कहा – ‘महाराज ! मैं ग्रीष्मसे पीड़ित होकर प्याससे व्याकुल हो गयी हूँ। राजन् ! कृपापूर्वक मुझे शीघ्र जल देनेकी व्यवस्था करें।’ उस समय देवी रूपवती दुःखसे अत्यन्त संतप्त होनेके कारण अपनी सुध-बुध खो चुकी थी। अतः वह पृथ्वीपर पड़ गयी। उसी अवस्थामें उसके नेत्र सूर्यपर पड़ गये। गिरते समय उसके मनमें क्रोधका भाव भी आ गया था और उसकी दृष्टि स्वतः सूर्यपर पड़ गयी थी। फिर तो आकाशमें रहते हुए भी भगवान् भास्कर भयसे काँप उठे। उन महान् तेजस्वी देवको आकाश छोड़कर धरातलपर आ जानेके लिये विवश हो जाना पड़ा। इस प्रकृतिविरुद्ध बातको देखकर राजा जनकने कहा- ‘तेजस्विन्! आप आकाश- मण्डलका त्याग करके यहाँ कैसे पधारे हैं? आप परम तेजस्वी देवता हैं। सभी व्यक्तियोंके द्वारा आपका अभिवादन होता है। मैं आपका क्या| स्वागत करूँ ?”

राजा मिथिसे सूर्यने विनयपूर्वक कहा- ‘राजन् ! यह पतिव्रता मुझपर अत्यन्त क्रुद्ध हो गयी थी, अतएव मैं आकाशसे आपकी आज्ञाके पालनार्थ यहाँ आया हूँ। इस समय भूमण्डलमें, स्वर्गमें, अथवा तीनों लोकोंमें इसके समान कोई भी ऐसी पतिव्रता स्त्री दृष्टिगोचर नहीं होती है। इसमें असीम शक्ति है। इसके तप, धैर्य, निष्ठा एवं पराक्रम एक से एक आश्चर्यकर हैं। इसके अन्य गुण भी प्रशंसनीय हैं। महाभाग ! इसका चित्त भी आपके चित्तका सदा अनुसरण करता है। सुपात्र व्यक्तिका सुपात्रसे सम्बन्ध हो जाय – इसमें उसके पुण्यका महान् फल समझना चाहिये। आप दोनों शची एवं इन्द्रके समान सर्वथा एक-दूसरेके अनुरूप हैं। राजन्! आपकी अभिलाषा किसी प्रकार भी व्यर्थ नहीं होनी चाहिये। महाराज ! यदि भोजनके उचित प्रबन्धके लिये आपके मनमें खेतीका कार्य उत्तम प्रतीत होता है तो इसे अवश्य करें। इस विचारका व्यक्ति आपके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है। आपका यह प्रयास सफल, यश देनेवाला तथा अभिलाषा पूर्ण करनेवाला होगा।’

ऐसा कहकर भगवान् सूर्यने उनके लिये जलसे भरे हुए एक पात्रका निर्माण किया। फिर वह पात्र, एक जोड़ा जूता तथा दिव्य अलङ्कारोंसे अलङ्कृत एक छाता – ये सभी वस्तुएँ उन्होंने उन राजा मिथिको दीं। भगवान् भास्करने यह भी बतला दिया कि यह इस स्त्रीके ही पुण्यकर्मका फल है।

रानी रूपवती जल पाकर तृप्त हुईं। वे अब सचेत और अभय हो गयीं। फिर वे इस आश्चर्यको देखकर राजासे बोलीं- ‘राजन् ! किसने यह स्वच्छ एवं शीतल जल दिया है और ये दिव्य छत्र और उपानह किसने दिये हैं? आप बतानेकी कृपा करें।’

राजा जनक बोले- महादेवि ! ये विश्वके प्रधान देवता भगवान् विवस्वान् हैं, जो तुमपर कृपा करनेके लिये गगन मण्डलसे यहाँ आये हैं, इन्होंने ही ये सब पदार्थ दिये हैं।

राजा मिथिसे यह वचन सुनकर रानी रूपवतीने कहा—’प्राणनाथ! इन सूर्यदेवकी प्रसन्नताके लिये मैं क्या करूँ? आप इनकी अभिलाषा जाननेका प्रयत्न करें।’ राजा जनक महान् तेजस्वी पुरुष थे। रानीके यह कहनेपर उन्होंने भगवान् सूर्यके सामने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा- ‘भगवन्! आपका मैं कौन-सा प्रिय कार्य करूँ ?’ राजाकी प्रार्थनापर भगवान् भास्करने कहा— ‘मानद! मेरी हार्दिक इच्छा यह है कि स्त्रियोंसे मुझे कभी कोई भय न हो । ‘

राजा मिथि सबका सम्मान करनेमें कुशल व्यक्ति थे। रानी रूपवती उनके हृदयको सदा आह्लादित रखती थीं। भुवनभास्करकी बात सुननेके उपरान्त राजाने अपनी स्त्रीसे सारा प्रसङ्ग सुना दिया। उनके वचन सुनकर मनको प्रसन्न करने में परम कुशल रानी आनन्दसे भर उठी। अतः उस देवीने अपना उद्गार प्रकट किया- ‘देव! अपनी तीव्र किरणोंसे रक्षाके लिये आपने छातेका दान किया, साथ ही एक दिव्य जलपात्र दिया। ये दोनों उपानह ( जूते ) पैरोंको सकुशल रखनेके लिये दान दिये हैं। ये सभी परम आवश्यक वस्तुएँ हैं। अतः महाभाग ! आपने जैसा वर माँगा है, वैसा ही होगा। आपको स्त्रियोंसे किसी प्रकारका भय नहीं करना चाहिये। अपनी इच्छाके अनुसार कार्य करनेमें आप स्वतन्त्र हैं।’

यमराजने कहा- ‘विप्र यही इस स्त्रीकी कथा है और तबसे इस प्रकारकी पतिव्रताओंका मैं पूजन तथा नमन करता हूँ।’

अध्याय १६२ पतिव्रताके माहात्म्यका वर्णन

नारदजी बोले – धर्मराज! मैं जानना चाहता हूँ कि तपोधना स्त्रियाँ किस कर्म अथवा तपसे सर्वोत्तम गति पानेकी अधिकारिणी बन सकती हैं? आप मुझे यह बतानेकी कृपा करें।

यमराजने उत्तर दिया उत्तम सुव्रत द्विजवर! वैसी स्थिति प्राप्त करनेके लिये नियम और तप कोई भी उपयोगी साधन नहीं हैं। महामुने! उपवास, दान अथवा देवार्चन भी यथेष्ट गति प्रदान करनेमें असमर्थ हैं। यह स्थिति जिस प्रकारसे सुलभ हो सकती है, वह संक्षेपसे बताता हूँ, सुनें। जो स्त्री अपने पतिके सो जानेपर सोती और उसके जगनेके पूर्व ही स्वयं निद्रा त्याग देती है तथा पतिके भोजन कर लेनेपर भोजन करती है, उसकी मृत्युपर विजय हो जाती है – यह सत्य है। द्विजवर ! जो स्त्री पतिके मौन होनेपर मौन रहती और उसके आसन ग्रहण कर लेनेपर स्वयं भी बैठ जाती है, वह मृत्युको परास्त कर सकती है। तपोधन! जिसकी दृष्टि एकमात्र पतिपर ही पड़ती है, जिसका मन सदा पतिमें ही लगा रहता है तथा जो स्वामीकी आज्ञाका निरन्तर पालन करनेमें तत्पर रहती है, उस पतिव्रतासे हम सब लोग एवं अन्य सभी भय मानते हैं। जो स्वामीके वचनोंपर श्रद्धा रखती है और कभी भी आज्ञाका उल्लङ्घन नहीं करती, उस साध्वीकी संसारमें परम शोभा होती है। देवतालोग भी उसका सम्मान करते हैं। द्विजवर ! जो प्रत्यक्ष अथवा परोक्षमें भी किसी अन्य पुरुषका ध्यान नहीं करती, उसे ‘पतिव्रता’ कहते हैं। ऐसी स्त्रीको मृत्युका भय नहीं रहता। जो सदा स्वामीके हित साधनमें संलग्न रहती है, वह अभय रहती है। ब्रह्मनन्दन ! जो पतिव्रता पतिकी आज्ञाका सदा अनुसरण करती है, वह मृत्युके द्वारा जीती नहीं जा सकती।

यमराजने कहा- द्विजवर ! जो स्त्री पतिके विषयमें यह विचार करती है कि यही मेरे लिये माता, पिता, भाई एवं परम देवता हैं, सदा पतिकी शुश्रूषामें संलग्न रहती है, उसपर मेरा कोई शासन सफल नहीं होता। स्वामीके ध्यान और उनके अनुसरण – अनुगमनके अतिरिक्त जिसका एक क्षण भी व्यर्थ चिन्तनमें नष्ट नहीं होता है, वह परम साध्वी है। मैं उसके सामने हाथ जोड़ता हूँ। जो स्वामीके विचारके बाद अपना अनुकूल विचार प्रकट करती है, उस पतिव्रताको मृत्युका आभास नहीं देखना पड़ता । नृत्य, गीत और वाद्य-ये प्रायः सभी देखने एवं सुननेके विषय हैं, किंतु जिस स्त्रीके नेत्र तथा कान इनपर नहीं जाते हैं, बल्कि पतिकी सेवामें ही निरन्तर लगे रहते हैं, वह मृत्युके दरवाजेको नहीं देखती। जो स्नान करने, स्वच्छन्द बैठने अथवा केश सँवारनेके समय मनसे भी किसी दूसरे व्यक्तिपर दृष्टि नहीं डालती, उसे मृत्युका दरवाजा नहीं देखना पड़ता ।

द्विजवर ! पति देवताकी आराधना कर रहा हो अथवा भोजनमें संलग्न हो, उस समय भी जो चित्तसे सदा उसीका चिन्तन करती रहती है, उसे मृत्युका द्वार नहीं देखना पड़ता । तपोधन ! जो स्त्री सूर्योदयके पूर्व ही नित्य उठकर घरको बुहारने- साफ करनेमें उद्यत रहती है, उसकी दृष्टि मृत्युके फाटकपर नहीं पड़ती। जिसके नेत्र, शरीर और भाव सदा सुसंयत रहते हैं तथा जो अपने शुद्ध आचार एवं विचारसे सदा संयुक्त रहती है, उस साध्वी स्त्रीको मृत्युका दरवाजा नहीं देखना पड़ता। जो स्वामीके मुखको देखने, उसके चित्तका अनुसरण करने अथवा उसके हितमें अपना समय सार्थक करनेमें तत्पर रहती है, उसके सामने मृत्युका भय नहीं आता।

द्विजवर ! संसारमें यशस्वी मनुष्योंकी ऐसी अनेक स्त्रियाँ हैं, जो स्वर्गमें निवास करती हैं और जिनका देवतालोग भी दर्शन करते हैं। वही पतिव्रता मेरे सामने विराजमान थी। भगवान् सूर्यके द्वारा पतिव्रताकी यह महिमा सुननेका मुझे अवसर मिला था। विप्रवर! उन्हींकी कृपासे ये सभी गोपनीय रहस्यभरी बातें यथावत् मेरे कर्णगोचर हो गयीं। तभीसे मैं पतिव्रताओंको देखकर उनकी भक्तिभावसे पूजा करता हूँ।

अध्याय १६३ कर्मविपाक एवं पापमुक्तिके उपाय

नारदजी कहते हैं ‘यशस्विन्! आपने भगवान् सूर्यके मतानुसार पतिव्रता स्त्रियोंके उत्तम धर्मोका रहस्यात्मक उपाख्यान कहा, जिसे मैंने बड़े ध्यानसे सुना। किंतु सभी प्राणियोंसे सम्बद्ध कर्मफलों (सुख – दुःखों) के विषयमें जाननेकी मुझे बड़ी उत्कण्ठा है। महातपा ! मैं उसे सुनना चाहता हूँ, कृपया उसे कहें। जो मनुष्य दुःख और तापसे संतप्त होकर सुखके लिये कठोर तपस्या तो करते हैं, पर उनके मनोरथ पूर्ण होते नहीं दीखते; वे सब प्रकारके सांसारिक प्रिय तथा अप्रियको त्यागकर सुखके लिये अनेक व्रत एवं उपायका आचरण करते हैं, फिर भी सफल नहीं होते हैं, किसी-न-किसी प्रकार विफल कर दिये जाते हैं। लोकमें यह श्रुति प्रसिद्ध है कि धर्मके आचरणसे कल्याण होता है, पर देखा यह जाता है कि भलीभाँति कठोर तप करनेवाले भी क्लेशके भागी बन जाते हैं। यह क्यों? कौन इस (उद्भिज्ज, स्वदेज, अण्डज और जरायुज) चार प्रकारके भूतग्रामवाले जगत् का संचालन करता है ? धर्मात्मन्! कौन किस द्वेषके कारण मनुष्यकी बुद्धिको पापकी ओर प्रेरित कर देता है? वह कौन है, जो इस लोकमें सुख तथा अत्यन्त कठोर दुःख भी उत्पन्न करता है ?”

नारदजीके इस प्रकार कहने पर महामना धर्मराजने कहा – ‘ आपने जो यह पुण्यमय प्रश्न पूछा है, मैं उसका उत्तर देता हूँ, आप उसे ध्यान देकर सुनें मुनिवर !

इस संसारमें न कोई कर्ता दीखता है और न करनेकी प्रेरणा देनेवाला ही दृष्टिगोचर होता है। जिसमें कर्म प्रतिष्ठित है – जिसके अधीन कर्म है, जिसके नामका कीर्तन होता है, जिससे जगत् आदेशित होता है- प्रेरणा पाता है तथा जो कार्यका सम्पादन करता है, उसके विषयमें कहता हूँ, सुनिये।

ब्रह्मन् ! एक समय इस दिव्य सभामें बहुतसे ब्रह्मर्षि विराजमान थे। वहाँ जो (विचार-विमर्श हुआ और) मैंने जैसा देखा- सुना, उसे ही कहता हूँ।

तात! मानव जिसे अपनी शक्तिसे स्वयं करता है, वही उसका स्वकर्म प्रारब्ध बनकर (परिणामरूपमें) भोगनेके लिये उसके सामने आ जाता है, चाहे वह सुकृत हो या दुष्कृत – सुख देनेवाला हो या दुःख देनेवाला। जो संसारके थपेड़ों (दुःखादि द्वन्द्वोंसे) पीड़ित हों, उन्हें चाहिये कि अपनेसे अपना उद्धार करें, क्योंकि मनुष्य अपने-आप ही अपना शत्रु और बन्धु है।

जीव अपने आपका पहलेका किया हुआ कर्म ही निश्चित रूपसे इस संसारमें सैकड़ों योनियोंमें जन्म लेकर भोगता है। यह संसार सर्वथा सत्य है-ऐसी धारणा बन जानेके कारण वह आवागमनमें सर्वत्र भटकता है।

प्राणी जो कुछ कर्म करता जाता है, वह उसके लिये संचित हो जाता है। फिर पुरुषका पाप कर्म जैसे-जैसे क्षीण होता जाता है, वैसे-वैसे ही उसे शुभ बुद्धि प्राप्त होती जाती है।

दोषयुक्त व्यक्ति शरीरधारी होकर संसारमें जन्म पाता है। जगत् में गिरे हुए प्राणियोंके बुरे कर्मका अन्त हो जानेपर शुद्ध बुद्धि या ज्ञानका प्रादुर्भाव होता है। प्राणीको पूर्वशरीरसे सम्बन्ध रखनेवाली शुभ अथवा अशुभ बुद्धि प्राप्त होती है। पुरुषके स्वयं उपार्जित किये हुए दुष्कृत एवं सुकृत दूसरे जन्ममें अनुरूप सहायक बनते हैं। पापका अन्त होते ही क्लेश शान्त हो जाता है। फलस्वरूप प्राणी शुभ कर्ममें लग जाता है।

इस प्रकार मनुष्य जब सत्कर्मका फल शुभ और दुष्कर्मका फल अशुभ भोग लेता है, तब उसके विस्तृत कर्ममें निर्मलता आ जाती है और सत्समाजमें उसकी प्रतिष्ठा होने लगती है। शुभ कर्मोंके फलस्वरूप उसे स्वर्ग मिलता तथा अशुभ कर्मोंसे वह नरकमें जाता है। वस्तुतः न तो दूसरा कोई किसी दूसरेको कुछ देता है और न कोई किसीका कुछ छीनता ही है।

नारदजीने पूछा- यदि ऐसा ही नियम है कि अपना ही किया हुआ शुभ अथवा अशुभ कर्म सामने आता है और शुभसे अभ्युदय तथा अशुभसे ह्रास होता है तो प्राणी मन, वाणी, कर्म या तपस्या- इनमेंसे किसकी सहायता ले, जिससे वह इस संसाररूपी क्लेशसे बच सके, आप उसे बतानेकी कृपा कीजिये।

यमराजने कहा- मुनिवर ! यह प्रसङ्ग अशुभोंको भी शुभ बनानेवाला, परम पवित्र पुण्यस्वरूप तथा पाप एवं दोषका सदा संहारक है। अब मैं उन जगत्स्रष्टा जगदीश्वरको जिनकी इच्छासे संसार चलता है, प्रणामकर आपके सामने इसका सम्यक् प्रकारसे वर्णन करता हूँ।

चर और अचर सम्पूर्ण प्राणियोंसे सम्पन्न इस त्रिलोकका जिन्होंने सृजन किया है, वे आदि, मध्य एवं अन्तसे रहित हैं। देवता और दानव किन्हीं में यह शक्ति नहीं है कि उन्हें जान सकें जो समस्त प्राणियों में समान दृष्टि रखता है, वह वेद – तत्त्वको जाननेवाला सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। जिसकी आत्मा वशमें हैं, जिसके मनमें सदा शान्ति विराजती है तथा जो ज्ञानी एवं सर्वज्ञ है, वह पापोंसे मुक्त हो जाता है। धर्मका सार अर्थ एवं प्रकृति तथा पुरुषके विषयमें जिसकी पूर्ण जानकारी है अथवा जान लेनेपर जो पुनः प्रमाद नहीं कर बैठता, उसीको सनातनपद सुलभ होता है। गुण, अवगुण, क्षय एवं अक्षयको जो भलीभाँति जानता है तथा ध्यानके प्रभावसे जिसका अज्ञान नष्ट हो गया है, वह पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो संसारके सभी आकर्षणों एवं प्रलोभनोंकी ओरसे निराश होकर शुद्ध जीवन व्यतीत करता है तथा इष्ट वस्तुओंमें जिसका मन नहीं लुभाता एवं आत्माको संयममें रखकर प्राणोंका त्याग करता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है। अपने इष्टदेवमें जिसकी श्रद्धा है, जिसने क्रोधपर विजय प्राप्त कर ली है, जो दूसरेकी सम्पत्ति नहीं लेना चाहता एवं किसीसे द्वेष नहीं करता, वह मनुष्य सभी पापोंसे छूट जाता है। जो गुरुकी सेवामें सदा संलग्न रहता है, जो कभी किसी प्राणीकी हिंसा नहीं करता है तथा जो नीच वृत्तिका आचरण नहीं करता, वह मनुष्य सभी पापोंसे छूट जाता है। जो प्रशस्त धर्म-कर्मोंका आचरण करता है और निन्दित कर्मोसे दूर रहता है, वह सभी पापोंसे छूट जाता है। जो अपने अन्तःकरणको परम शुद्ध करके तीर्थोंमें भ्रमण करता है तथा दुराचरणसे सदा दूर रहता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य ब्राह्मणको देखकर भक्तिभावसे भर उठता और समीप जाकर प्रणाम करता है, वह भी सब पापोंसे छूट जाता है।

नारदजी बोले – परंतप ! जो सम्पूर्ण प्राणियों के लिये कल्याणप्रद हितकर एवं परम उपयोगी है, उसका वर्णन आपके द्वारा भलीभाँति सम्पन्न हो गया। प्रभो! तत्त्वार्थदर्शी व्यक्तियोंको सम्यक् प्रकारसे इसका पालन अवश्य करना चाहिये । आपकी कृपासे मेरा संदेह दूर हो गया। महाभाग ! अब आप योगकी अपेक्षा कोई छोटा उपाय जो पापको दूर कर सके, उसे मुझे बतानेकी कृपा कीजिये; क्योंकि आप योगधर्मसे सम्बद्ध साधन पहले कह चुके हैं। पापको दूर करना महान् कठिन कार्य है। अतः कोई दूसरा ऐसा साधन बतायें जिससे जगत् में सुखप्राप्तिका लक्ष्य सिद्ध करनेके लिये अल्प प्रयास करना पड़े। इस लोक अथवा परलोकमें भी जो आत्मजयी व्यक्ति हैं तथा अनेक प्रकारके गुणोंकी जिनमें अधिकता है, वे सज्जन नित्य जिस साधनको काममें लेते हैं, मैं उसे जानना चाहता हूँ। महान् तपस्वी प्रभो! अनेक योनियोंमें प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है और उनसे अशुभ कर्म बने रहते हैं। अतः उनको दूर करनेके लिये कोई सरल सुगम उपाय हो तो बतायें।

यमराजने कहा- मुने! स्वयम्भू ब्रह्माजी प्रजाजनके स्रष्टा हैं। इस धर्मके विषयमें उन्होंने जिस प्रकारका वर्णन किया है, वही मैं उन्हें प्रणाम करके व्यक्त करता हूँ। प्राणियोंका कल्याण तथा पापोंका विनाश ही इसका प्रधान उद्देश्य है। हाँ, क्रिया करना परम आवश्यक है, उसे कहता हूँ, सुनें। कैवल्य प्रति श्रद्धालु बननेपर मनुष्यको ज्ञान होता है। जो व्यक्ति अपने अन्तःकरणको परम शुद्ध करके धर्मसे ओतप्रोत यह प्रसङ्ग सुनता है, उसकी सभी अभिलषित कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं तथा पापोंसे छूटकर वह इच्छानुसार सुख प्राप्त कर सकता है।

( ब्रह्माजीके कहे हुए उपदेशप्रद वचन ये हैं— ) शिशुमारचक्र उनका ही स्वरूप है जो मनुष्य उनके इस रूपकी प्रतिमा बनाकर अपने शरीरमें भावना करके प्रयत्नपूर्वक उसका अर्चन एवं अभिवादन करता है, उसके पाप नष्ट हो जाते हैं और उस व्यक्तिका उद्धार हो जाता है।

अपने उदरमें स्थित उसके स्वरूपका दर्शन करनेसे मन, वाणी तथा कर्मसे जो कुछ भी पाप बन गया है, वह दूर हो जाता है, इसमें कोई संशय नहीं है। जब उस चक्रमें स्थित सोम एवं गुरु आदि सभी ग्रहोंकी वह मानसिक प्रदक्षिणा तथा ध्यान करता है तो मानव अनेक पापोंसे मुक्त हो जाता है शुक्र, बुध, शनैश्चर तथा मङ्गल – ये सभी बलवान् ग्रह हैं। चन्द्रमाका सौम्य रूप है। हृदयमें इन ग्रहोंकी भावना करके जब मनुष्य प्रदक्षिणा एवं ध्यान करता है, तब उसके पापका सदाके लिये शोधन हो जाता है। उस समय पुरुषको ऐसी शुद्धता प्राप्त हो जाती है, मानो शरद् ऋतुका चन्द्रमा हो सौ बार प्राणायाम करनेसे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्ति मिल जाती है।

मुने! मनुष्यको चाहिये कि यत्त्रपूर्वक शुद्ध होकर जघन-स्थानमें स्थित चन्द्रमाका दर्शन तथा नमन करे। इसके फलस्वरूप समस्त पापोंसे वह मुक्त हो सकता है। ‘शिशुमारचक्र’ एक सौ आठ अक्षरोंसे सम्पन्न है। इसे जलमें भिगोकर स्वयं भी आर्द्र हो ध्यान करना चाहिये। चन्द्रमा और सूर्य- ये दोनों स्वयं स्वच्छ देवता हैं। अपने तेजसे प्रकाशमान ये दोनों जब परस्पर एक-दूसरेको देखते हों, उस समय हृदयमें इनका ध्यान करना चाहिये। इससे सदाके लिये पाप शमन हो जाता है। महामुने! मानव इस प्रकारकी कल्पना करे कि ये श्रीहरि ही शिशुमारचक्रमय वामनरूपमें अवतीर्ण हुए तथा इन्होंने ही वराहका रूप धारणकर जलपर दर्शन दिया था और इन्हींकी दाढ़पर पृथ्वी शोभा पा रही थी तथा ये ही नृसिंहके रूपमें अवतीर्ण हुए थे। जल या दुग्धके आहारपर रहकर उनकी आराधना करे। इससे उसका सम्पूर्ण पापोंसे उद्धार हो जाता है। जो विधिपूर्वक उन्हें प्रणाम करता है, वह भी सभी पापोंसे छूट जाता है।

अध्याय १६४ पाप नाशके उपायका वर्णन

ऋषिपुत्र नचिकेता कहते हैं – विप्रो ! धर्मराजकी इस प्रकारकी शुभ वाणी सुनकर नारदजीने भक्ति एवं भावसे पूर्ण पुनः उनसे यह वचन कहा।

नारदजी बोले – महाबाहो ! धर्मराज! आप मेरे पिताके समान शक्तिशाली हैं तथा स्थावर एवं जङ्गम- सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति समान व्यवहार करते हैं। आपने अबतक द्विजातियोंके हितके लिये मुझसे सरल उपाय बताया है, अब कृपया औरोंके लिये भी उपाय बतायें।

यमराजने कहागौओंकी बड़ी महिमा है वे परम पवित्र, मङ्गलमयी एवं देवताओंकी भी देवता हैं। उनकी सेवा करनेवाला पापोंसे मुक्त हो जाता है। शुभ मुहूर्तमें उनके पञ्चगव्यके पानसे मनुष्य तत्क्षण पापोंसे मुक्त हो जाता है। उनकी पूँछसे गिरते जलको जो सिरपर चढ़ाता है, वह धन्य हो जाता है । उनको प्रणाम करनेवाला भी सभी तीर्थोंका फल प्राप्तकर सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। इसलिये सर्वसाधारणको गौकी सेवा अवश्य करनी चाहिये। उदयकालीन सूर्य, अरुंधती, बुध तथा सभी सप्तर्षियोंकी वैदिक विधिके अनुसार पूजा करनी चाहिये। वैसे ही दहीसे मिला हुआ अक्षत उन्हें भी अर्पित करनेका विधान है। साथ ही मनको एकाग्र करके हाथ जोड़े हुए जो मानव उन्हें प्रणाम करता है, उसके सम्पूर्ण पाप उसी क्षण अवश्य नष्ट हो जाते हैं। जो शूद्र व्यक्ति ब्राह्मणकी सेवा करता, उन्हें तृप्त करता तथा भक्तिके साथ यत्नपूर्वक प्रणाम करता है, वह पापोंसे शीघ्र मुक्त हो जाता है। विषुवयोगमें अर्थात् जिस दिन रात और दिनका मान बराबर हो उस दिन जो पवित्र होकर दूधका दान करता है, उसका जन्मभरका किया हुआ पाप उसी क्षण नष्ट हो जाता है। जो मनुष्य पूर्वाग्र कुशा बिछाकर उसपर वृषभको खड़ा करके दान देता है और ब्राह्मणोंको साथ लेकर उसे प्रणाम करता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे छूट जाता है। पूर्वकी ओर बहनेवाली नदीमें सव्य होकर प्रदक्षिणक्रमसे विधिवत् अभिषेक करनेपर मनुष्य पापमुक्त हो जाता है। जो ब्राह्मण पवित्र होकर प्रसन्नतापूर्वक दक्षिणावर्त शङ्खसे हाथमें जल लेकर उसे सिरपर धारण करता है, उसके जन्मभरके किये पाप उसी समय नष्ट हो जाते हैं।

ब्रह्मचारी मनुष्यका कर्तव्य है कि पूर्वकी ओर धारा बहानेवाली नदीमें जाय और नाभिमात्र जलमें खड़ा होकर स्नान करे। फिर काले तिलसे मिश्रित सात अञ्जलि जलसे तर्पण करे। साथ ही तीन बार प्राणायाम करना चाहिये। फलस्वरूप इसके जीवनपर्यन्तके पाप उसी क्षण नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य कमलके छिद्ररहित पत्तेमें जल रखकर सम्पूर्ण रत्नोंके सहित उससे तीन बार स्नान करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है।

मुने! मैं आपसे एक दूसरे अत्यन्त गोपनीय उपायका वर्णन करता हूँ। कार्तिक मासके शुक्लपक्षकी प्रबोधिनी एकादशी तिथिके व्रतसे भुक्ति और मुक्ति- ये दोनों सुलभ हो जाती हैं। मुनिवर ! वह

भगवान् विष्णुके व्यक्त और अव्यक्त रूपकी मूर्ति है, जो मर्त्यलोकमें आयी है। इसकी उपासना करनेवालेके करोड़ों जन्मोंके अशुभ नष्ट हो जाते हैं। प्राचीन समयकी बात है- भगवान् श्रीहरि वराहके रूपमें पधारे थे। ऐसे अवसरपर सम्पूर्ण संसारके कल्याणके विचारसे पृथ्वीदेवीने एकादशीको ही हृदयमें रखकर पूछा था ।

धरणीने कहा – प्रभो! यह कलियुग प्रायः सभीके लिये भयानक है। इसमें मनुष्य सदा पापमें ही संलग्न रहते हैं। गुरु, ब्राह्मणका धन हड़प लेना और उनका वधतक लोगोंके लिये साधारण सी बात हो जाती है। भगवन्! कलियुगके लोग गुरु, मित्र और स्वामीके प्रति वैर रखनेमें तत्पर रहते हैं। परायी स्त्रीसे अनुचित सम्बन्ध करनेमें भी वे लोक-परलोकका भय नहीं करते। सुरेश्वर। दूसरेकी सम्पत्तिपर अधिकार जमाना, अभक्ष्य भक्षण कर लेना तथा देवता एवं ब्राह्मणकी निन्दा करना उनका स्वभाव बन जाता है। प्रायः कलियुगके लोग दाम्भिक एवं मर्यादाहीन होते हैं। कुछ लोग तो अनीश्वरवादीतक बन जाते हैं। इसमें मनुष्य निन्दित दान लेने और अगम्यागमनमें रुचि रखनेवाले होते हैं। विभो ! वे ये तथा इनके अतिरिक्त भी अनेक पाप करते हैं, उनका श्रेय कैसे हो ?

भगवान् वराहने उत्तर दिया- भगवान् विष्णु की सर्वोत्कृष्ट शक्तिने कलियुगके नाना प्रकारके घोर पापोंमें रत मनुष्योंके कल्याणके लिये ही एकादशीका रूप धारण किया था। इसलिये सभी मासोंके दोनों पक्षोंकी एकादशीको व्रत करना चाहिये। इससे मुक्ति सुलभ होती है।

एकादशीके दिन अत्र नहीं खाना चाहिये। पूर्णरूपसे उपवासकर व्रत रहना चाहिये। यदि विशेष कारणसे पूर्ण उपवास सम्भव न हो तो नक्तव्रत करे। मनुष्यको प्रबोधिनी एकादशीका व्रत तो अवश्य ही करना चाहिये। सोम, मङ्गलवार तथा पूर्व एवं उत्तर- भाद्रपद नक्षत्रोंके योगमें इस एकादशीका महत्त्व करोड़ गुना बढ़ जाता है। उस दिन स्वर्णकी प्रतिमा बनवाकर भगवान् विष्णुकी तथा उनके दस अवतारोंकी भी विधिवत् पूजा करनेका विधान है। प्रबोधिनीकी महिमा हजारों मुखसे नहीं कही जा सकती। हजारों जन्मको शिवोपासनासे प्राप्त होनेवाली वैष्णवता विश्वमें सर्वाधिक दुर्लभ वस्तु है, अतएव विद्वान् पुरुष प्रयत्नपूर्वक विष्णुभक्त बननेकी चेष्टा करे। इसके पाठसे दुःस्वप्न एवं सभी भय नष्ट हो जाते हैं।

यमराजने कहा -‘मुने ! उत्तम व्रतके पालनमें सदा तत्पर रहनेवाली महाभागा धरणीने जब भगवान् वराहकी यह बात सुनी तो वे जगत् प्रभुकी विधिवत् आराधना करके उनमें लीन हो गयीं।’

नारदजी कहते हैं ‘धर्मराज! आप सम्पूर्ण धर्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ हैं। आपने जो यह दिव्य कथा कही है, यह धर्मसे ओतप्रोत है। अतः मैं भी आपद्वारा निर्दिष्ट धर्ममार्गकी व्याख्यासे संतुष्ट हो गया। अब मैं यथाशीघ्र उन लोकोंमें जाना चाहता हूँ, जहाँ मेरे मनमें आनन्दकी अनुभूति होती है। महाराज! आपका कल्याण हो।’

नचिकेता कहते हैं – विप्रो ! इस प्रकार कहकर मुनिवर नारदने यमलोकसे प्रस्थान किया। वे मुनिवर अपनी इच्छाके अनुसार सर्वत्र विचरनेमें समर्थ हैं। जाते समय आकाश उनके तेजसे प्रकाशित हो गया, मानो वे दूसरे सूर्य हों। धर्मराज धर्मपर विशेष आस्था रखते हैं। मुनिके जानेके बाद उन्होंने फिर बड़ी प्रसन्नतासे मुझे प्रणाम किया और आदर-सत्कारपूर्वक यह प्रिय वचन कहा-सुव्रत! अब आप भी यहाँसे पधार सकते हैं।’ उस समय शक्तिशाली धर्मराजकी अन्तरात्मा प्रसन्नतासे भर चुकी थी। विप्रो मैंने भी उन धर्मराजकी उत्तम पुरीमें देखी सुनी अपनी जानकारीकी सभी बातें आपलोगोंको सुना दी।

वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! वे सभी ब्राह्मण तपको अपना धन मानते थे। नचिकेताकी इन बातोंको सुनकर उनके मनमें प्रसन्नता छा गयी और उनकी आँखें आश्चर्यसे भर गयी थीं। उनमें कुछ मुनि तथा विप्र ऐसे थे, जिनकी देशान्तर भ्रमणमें विशेष रुचि थी। ऐसे ही अन्य ब्राह्मण वनमें निवास करनेके विचारसे आये थे। कुछ ब्राह्मण शालीन ( यायावर) एवं कपोती वृत्तिके समर्थक थे। कितने ऐसे ब्राह्मण थे, जिनके मुखसे यह शुभ वाणी निकलती रहती थी कि सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करना कल्याणकर है। वे सभी बार-बार नचिकेताको धन्यवाद दे रहे थे। उनमें से कुछ ब्राह्मण शिल एवं उञ्छ’ वृत्तिवाले थे, कुछ महान् तेजस्वी ब्राह्मणोंने काष्ठवृत्तिको अपनाया था। सबकी विधियाँ भिन्न-भिन्न थीं। कुछ लोग सदा आत्म चिन्तनमें व्यस्त रहते थे। कितने विप्रोंने मौनव्रत तथा जलाशय व्रतको धारण कर लिया था। कुछ लोग ऊपर मुख करके सोते थे तथा कुछ ब्राह्मणोंका मृगके समान इधर-उधर स्वच्छन्द विचरण करनेका नियम था। कितने ब्राह्मण पञ्चाग्नि- व्रती तथा कुछ ब्राह्मण केवल पत्तेके आहारपर रहते थे । कुछ ब्राह्मणोंकी जीवन यात्रा केवल जल अथवा कितनोंकी वायुपर अवलम्बित थी। कुछ लोग शाक खाकर रहते थे। इनके अतिरिक्त कुछ लोग घोर तपस्वी एवं ज्ञानयोगी थे। उनका यह कथन था कि जन्म लेने और मरनेके अतिरिक्त संसारमें अन्य कुछ बात नहीं है – वे ही बार-बार इसे दुहराते थे । उनके मनमें संसारसे सदा भय बना रहता था। अतः सावधान होकर उक्त नियमोंका सदा पालन करते थे। उद्दालक कुमार नचिकेतामें भी धर्मकी प्रबलता थी। इन तपस्वी व्यक्तियोंको देखकर उनके मनमें अपार हर्ष हुआ और फिर उनके द्वारा सदा धर्मका चिन्तन होने लगा। मनका विषय अमित वेदार्थ, शुद्धस्वरूप श्रीहरि तथा चिन्मय भगवद्विग्रह रह गया। फिर तो धर्मात्मा नचिकेता सावधान होकर शुद्ध तपस्याके मार्गपर ही आरूढ़ हो गये।

राजन् ! इस उत्तम उपाख्यानके प्रभावसे भगवान्‌में श्रद्धा उत्पन्न होती है। इसे जो सुनेगा अथवा सुनायेगा, उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जायँगी।

अध्याय १६५ गोकर्णेश्वरका माहात्म्य

सूतजी कहते हैं – ऋषियो ! प्राचीन समयकी बात है, जब ‘तारकामय’ नामक घोर देवासुर- संग्राम हुआ था। उस उग्र युद्धमें देवता और दानव – दोनोंकी सेनामें एक-से-एक शूरवीर थे। युद्धके अन्तमें देवताओंने दानवोंकी सेनाको परास्त कर दिया था और इन्द्र फिरसे स्वर्गके सिंहासनपर प्रतिष्ठित हो गये। तीनों लोकोंके चर-अचर प्राणियों में सुख-शान्ति व्याप्त हो गयी। उन्हीं दिनों पर्वतराज मेरुके एक सुवर्णमय शिखरपर जिसकी विविध रत्न सब ओरसे शोभा बढ़ा रहे थे और कहीं-कहीं विद्रुममणिकी खान भी थी, एक विशाल कमल दिव्य आसनके रूपमें आस्तृत था । उस आसनपर ब्रह्माजी चित्तको एकाग्र करके सुखपूर्वक बैठे थे।

एक दिन सनत्कुमारजी वहाँ आये और आते ही उन्होंने पितामहको प्रणाम किया और ‘गोकर्ण’ के सम्बन्धमें इस प्रकार पूछा।

सनत्कुमारजीने पूछा- भगवन्! तत्त्वके जाननेवाले पुरुषोंमें आप शिरोमणि हैं। महाभाग ! मैं आपके श्रीमुखसे ऋषियोंद्वारा कथित पुराण सुनना चाहता हूँ। विभो ! उत्तर गोकर्ण, दक्षिण- गोकर्ण और शृङ्गेश्वर- ये तीन शिवलिङ्ग परम उत्तम बताये जाते हैं। इनकी कैसे और क्यों प्रतिष्ठा हुई है ? भगवान् शंकर मृगका रूप धारण करके वहाँ क्यों विराजते हैं? प्रमुख देवता लोग वहाँ कैसे निवास करते हैं? शंकरके मृगरूप होनेका क्या कारण है ? तथा उनके विग्रहकी प्रतिष्ठा किस समय हुई है ?

ब्रह्माजी बोले वत्स ! यह पुराण एक रहस्यपूर्ण विषय है। मैंने जैसा सुना है, उसके अनुसार यथार्थ तुम्हें सुनाता हूँ, सुनो।

गिरिराज मन्दराचलके परम पवित्र उत्तर भागमें ‘मुञ्जवान्’ नामसे प्रसिद्ध एक शिखर है, जिसकी शोभाको नन्दन नामक उपवन बढ़ाता रहता है। वहाँकै साधारण पत्थर भी हीरा एवं स्फटिकमणिके समान हैं और कुछ ( मूँगेके सदृश) लाल बालुकाओंसे सुशोभित हैं, कुछ अन्य शिलाखण्ड नीले और कुछ स्वच्छ भी हैं। वहाँ स्थान-स्थानपर श्रेष्ठ गुफाएँ तथा पानीके झरने हैं। उस पर्वतराजके सभी शिखर विचित्र फूलोंसे भरे हैं। विविध फूल-फलोंसे लदे उस शिखरकी शोभा अत्यन्त मनोमोहक है। वहाँ देवतागण अपनी स्त्रियोंके साथ विहार करते रहते हैं। डालियोंपर कूजनेवाले मतवाले पक्षी उस पर्वत प्रवरको मुखरित एवं सुशोभित करते रहते हैं। वहाँ उपवनोंमें कहीं कचनार फूले हैं, कहीं हंस और सारस घूम रहे हैं। कहीं विकसित कमलोंवाले तालाब, जिनमें निर्मल जल भरा है, उसकी शोभा बढ़ाते रहते हैं। पशु- पक्षी नदियोंसे सनाथ और अत्यन्त शोभाशाली उद्यानवाला वह स्थान तपस्याके लिये सर्वथा उपयुक्त है। उसे ‘धर्मारण्य’ कहते हैं। वहीं भगवान् ‘स्थाणु महेश्वर’ का स्थान है। वे प्रभु सम्पूर्ण सुरगणोंके गुरु हैं। भक्तोंपर सदा कृपा करनेवाले उन शक्तिशाली प्रभुके साथ गिरिराज – कन्या गौरी निरन्तर विराजती हैं। अपने पार्षदों और स्वामी कार्तिकेयके साथ उनका उस श्रेष्ठ पर्वतपर आसन लगा रहता है। वे देवेश्वर अजन्मा, अविनाशी और परम पूज्य हैं। उनकी सेवा करनेके विचारसे बहुतसे देवता विमानपर चढ़कर वहाँ आते हैं।

त्रेतायुगकी बात है। नन्दी नामसे विख्यात एक महान् मुनि भगवान् शंकरकी आराधना करनेकी अभिलाषासे वहाँ आकर तीव्र एवं कठिन तपस्या करने लगे। वे गरमीके दिनोंमें पञ्चाग्नि तापते और जाड़ेकी ॠतुमें पानीमें खड़ा रहकर तप करते थे। वे बिना किसी अवलम्बके खड़े होकर ऊपर हाथ उठाये तपस्या करते थे। जल, अग्नि और वायु केवल ये ही उनके सहारे थे। अनेक प्रकारके व्रतों और तपोंके नियमको वे पूर्ण करते थे। ब्राह्मणों में नन्दीकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। वे समय-समयपर जल, फल एवं अन्य उचित उपहारोंसे उन प्रभुकी अर्चना करते रहते थे। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले उन द्विजवरने उग्र तपस्यासे अपनेपर विजय प्राप्त कर ली थी । अन्ततः भगवान् शंकर उनपर परम प्रसन्न हुए और उन्होंने मुनिवर नन्दीको साक्षात् दर्शन दिया और कहा-‘मुने! मैं तुम्हें दिव्य नेत्र प्रदान करता हूँ। वत्स! अबतक तो तुम्हारे लिये मेरा रूप अदृश्य था, किंतु मैं प्रसन्न हो गया हूँ, अतः मेरा यह रूप देखो। संसारमें विद्वान् पुरुष ही मेरे इस अप्रतिम एवं ओजस्वी रूपको देख सकते हैं।’

राजन् ! उस समय शंकरजीके श्रीविग्रहसे हजारों किरणोंवाले सूर्यके समान प्रकाश फैल रहा था। वे प्रभाके पुञ्ज प्रतीत हो रहे थे। जटाएँ उनके सिरकी छवि बढ़ा रही थीं और चन्द्रमा ललाटको सुशोभित कर रहे थे। भगवान् शंकरके दो नेत्र परम प्रकाश- मान थे तथा तीसरा नेत्र अग्निके समान धधक रहा था। कमलकी माला उनके पवित्र अङ्गपर विराजमान थी । हाथमें कमण्डलु लिये हुए थे। शरीरपर बाघाम्बर था । सर्पका यज्ञोपवीत धारण किये हुए थे। ऐसे भगवान् महादेवका दर्शन पाते ही महान् तपस्वी नन्दीको रोमाञ्च हो आया।

राजन् ! वे प्रभु सनातन परब्रह्म परमात्माके ही रूपान्तर थे। उनका दर्शन प्राप्त होनेपर मुनिवर नन्दीने अञ्जलि बाँध ली और प्रभुकी इस प्रकार स्तुति करने लगे- ‘जो स्वयं प्रकट होकर जगत् का धारण एवं पोषण करते हैं तथा वर देना जिनका स्वभाव है, उन प्रभुके लिये मेरा नमस्कार है। जो ‘त्रिनेत्र’, ‘शिव’, ‘शंकर’ एवं ‘ भव’ नामसे विख्यात हैं, संसारका संहार एवं पालन भी जिनके ऊपर निर्भर है तथा जो चर्ममय वस्त्र धारण करनेवाले एवं मुनिरूप हैं, उन प्रभुके लिये नमस्कार है। जो नीलकण्ठ, भीम, भूत, भव्य, भव, प्रलम्बभुज, कराल, हरिनेत्र, कपर्दी, विशाल, मुञ्जकेश, धीमान्, शूल, पशुपति, विभु स्थाणु, गणोंके पति स्रष्टा, संक्षेप्ता, भीषण, सौम्य, सौम्यतर, त्र्यम्बक, श्मशाननिवास, वरद, कपालमाली एवं हरितश्मश्रुधर’ अधिनामोंसे सम्बोधित होते हैं, उन भगवान् रुद्रके लिये नमस्कार है। जो भक्तोंको सदा प्रिय हैं, उन परमात्मा शंकरको हमारा बार-बार नमस्कार है।’

इस प्रकार विप्रवर नन्दीने भगवान् रुद्रकी स्तुति की और उनकी सम्यक् प्रकारसे आराधना कर सिर झुकाकर बार-बार नमस्कार किया तथा पुष्पाञ्जलि अर्पित की। भगवान् शंकर ब्राह्मणश्रेष्ठ नन्दीपर संतुष्ट हो गये और उन वरद प्रभुने स्वयं ऋषिसे यह वचन कहा- ‘विप्रवर! वर माँगो । महामुने! तुम्हारे मनमें जो भी अभिलषित हो, वह सभी मैं देनेके लिये उद्यत हूँ । अतः तुम्हारी जो अभिलाषा हो, वह मुझसे कहो। ‘

राजन् ! जब भगवान् शंकरने उन मुनिवर नन्दीसे इस प्रकार कहा, तब उनका अन्त:करण प्रसन्नतासे भर गया और उन्होंने भगवान् शंकरसे कहा – ‘प्रभो! मुझे प्रभुत्व, देवत्व, इन्द्रत्व, ब्रह्मत्व, लोकपालत्व, अपवर्ग, अणिमादि आठों सिद्धियाँ, ऐश्वर्य या गाणपत्य – इनमेंसे एक भी पदार्थ नहीं चाहिये। देवेश्वर! आप कल्याणस्वरूप हैं और अपने भक्तोंका कल्याण करनेमें सदा संलग्न रहते हैं, अतः यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो सुरेश्वर ! आप कृपापूर्वक मुझे अपनी भक्ति प्रदान करें। महेश्वर ! आपके अतिरिक्त अन्य किसी देवतामें मेरी भक्ति न हो और सम्पूर्ण प्राणियोंको आश्रय देनेवाले आप प्रभुमें ही भक्ति सदा स्थिर रहे- यही मेरी सच्ची हार्दिक अभिलाषा है, जिसके फलस्वरूप मैं आपके लिये सदा तपमें संलग्न रह सकूँ और मेरे इस कार्यमें विघ्न न उपस्थित हो मैं रात-दिन आपका ही नाम जपता रहूँ, मैं यही चाहता हूँ।’

राजन् ! विप्रवर नन्दीकी यह बात सुनकर भगवान् शंकरके मुखपर हँसी छा गयी। वे प्रसन्न होकर मधुर वाणीमें नन्दीसे कहने लगे- ‘विप्रर्षे! उठो सुव्रत ! तुम्हारी इस तपस्यासे मैं परम प्रसन्न हो गया हूँ। महाभाग ! तुमने बड़े शुद्ध चित्तसे भक्तिपूर्वक मेरी आराधना की है। तपोधन ! तुम्हारी तपश्चर्यासे मुझे परम संतोष हुआ है। वत्स! तुम मेरी आराधनामें दत्तचित्तसे निरन्तर लगे रहे। रुद्रोंके समक्ष तुमने मेरे लिये तीन करोड़ जप किये हैं। महामुने! पूरे एक हजार वर्षोंतक तुमने तीव्र तपस्या की है। ऐसी तपस्या आजसे पहले किसी भी देवता, दानव अथवा ऋषिने नहीं की है। तुम्हारा किया हुआ यह अत्यन्त कठिन तप महान् आश्चर्यजनक है। इसके प्रभावसे चर और अचर प्राणियोंसे व्याप्त ये तीनों लोक अत्यन्त क्षुब्ध हो उठे हैं। तुम्हें देखनेके लिये इन्द्रके साथ सभी देवता अभी यहाँ आनेवाले हैं। सुरों और असुरोंके लिये तुम अक्षय, अव्यय तथा अतर्क्य हो। तुम्हारे शरीरसे दिव्य तेज निकल रहा है। अलौकिक आभूषणोंसे अलंकृत होकर तुम परम सुशोभित हो रहे हो। तुममें मुझ जैसी ही शक्ति आ गयी है। देवता और दानव – ये सभी तुमको अद्वितीय पुरुष मानते हैं। अब तुम मेरे समान रूप धारण करोगे और तुम्हें मुझ जैसा ही तेज प्राप्त होगा, तुम्हारे तीन नेत्र होंगे। सभी गुणोंकी तुममें प्रधानता रहेगी और देवता तथा दानव तुम्हारी आराधना करेंगे – इसमें कोई संदेह नहीं है। तुम इसी शरीरसे सदा अमर रहोगे । बुढ़ापा और मृत्यु तुम्हारे पास न आ सकेगी। इसको गाणेश्वरीगति कहते हैं। देवताओंके द्वारा भी यह सदाके लिये अलभ्य है। द्विजोत्तम! मेरे पार्षदोंमें तुम्हारा प्रधान स्थान होगा। तुम्हें जनता ‘नन्दीश्वर’ कहेगी, इसमें कोई संशय नहीं है।

‘तपोधन! तुम्हें सात्त्विक ऐश्वर्य या आठों सिद्धियाँ प्राप्त होंगी और तुम मेरे ही एक दूसरे स्वरूप समझे जाओगे। देवता लोग तुम्हें नमस्कार ‘करेंगे। मुनीश्वर ! मेरी कृपासे संसारमें तुम स्वामीका पद प्राप्त करोगे। आजसे देवकार्योंमें तुम्हारी सर्वत्र प्रथम पूजा होगी और तुम मेरे पार्षदों में प्रधान होगे मुझसे प्रसन्नता प्राप्त करनेवाले सभी मानव भलीभाँति तुम्हारी ही अर्चना करेंगे। तुम मेरे गण बनो, मेरे द्वारपालपदपर प्रतिष्ठित हो जाओ और विषम समयमें मेरे शरीरकी रक्षा करते रहो। तीनों लोकोंमें वज्र, दण्ड, चक्र अथवा अग्नि-इनमेंसे किसीसे भी तुम्हें कोई बाधा न होगी; देवता, दानव, यक्ष, गन्धर्व, पन्नग, राक्षस तथा जो मेरे भक्त पुरुष हैं, वे सभी तुम्हारा आश्रय ग्रहण करेंगे। अब तुम्हारे संतुष्ट होनेपर में संतुष्ट हो जाऊँगा और तुम्हारे कुपित होनेपर मेरे मनमें भी क्रोधका आविर्भाव हो जायगा । द्विजवर ! अधिक क्या तुमसे बढ़कर विश्वमें मेरा दूसरा कोई प्रिय है ही नहीं ।’

इस प्रकार द्विजवर नन्दीको वर देकर उमापति भगवान् शंकरने प्रसन्नतापूर्वक स्वयं आकाशको गुँजानेवाली मधुर वाणीमें स्पष्टरूपसे कहा- ‘विप्रवर! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम कृतकृत्य हो गये । मरुद्गणोंके साथ समस्त देवता तुम्हारा दर्शन करनेके लिये यहाँ आ रहे हैं- ऐसा जान लो। वत्स ! वह सभी सुरसमुदाय यहाँ आकर जबतक मुझे देख नहीं लेता, इसके पूर्व ही मैं यहाँसे अन्यत्र चला जाना चाहता हूँ।’ बस, इतनी बात कहकर भगवान् शंकर वहीं अन्तर्हित हो गये ।

अध्याय १६६ गोकर्णमाहात्म्य और नन्दिकेश्वरको वर प्रदान

ब्रह्माजी कहते हैं— सनत्कुमार। जब इस प्रकार कहकर भूतभावन भगवान् शंकर वहाँ अन्तर्धान हो गये तो उसी क्षण गणोंके अध्यक्ष नन्दीका शरीर परम दिव्य हो गया। वे चार भुजाओं और तीन नेत्रोंसे सम्पन्न होकर एक दिव्य स्थानपर बैठ गये। उनके विग्रहका वर्ण भी दिव्य हो गया और उससे दिव्य अगुरुकी सुगन्ध फैलने लगी। त्रिशूल, परिघ, दण्ड और पिनाक उनके हाथोंमें सुशोभित होने लगे तथा मूँजकी मेखला कमरकी शोभा बढ़ाने लगी। अपने तेजसे वे ऐसे प्रतीत होने लगे, मानो दूसरे शंकर ही विराजमान हों। फिर भगवान् वामनकी भाँति उद्यत होकर उन्होंने अपना पैर ऐसे आगे बढ़ाया, मानो वे द्विजवर तीन डगोंसे पृथ्वीको नापनेका विचार कर रहे हों। उन्हें देखकर आकाशमें विचरनेवाले सम्पूर्ण देवताओंका मन आशङ्कित हो गया। उनके आश्चर्यकी सीमा नहीं रही। अतः इन्द्रको इसकी सूचना देनेके लिये वे स्वर्गकी ओर चल पड़े। देवताओंके द्वारा यह वृत्तान्त सुनकर इन्द्र तथा अन्य उपस्थित लोकपालोंको बड़ा विषाद हुआ। उनके मनमें चिन्ता व्याप्त हो गयी। उन सभीने सोचा, यह कोई ऐसा व्यक्ति है, जिसने उमाकान्त भगवान् शंकरसे वर प्राप्त कर लिया है। अतः इसमें अपार शक्ति आ गयी है। अब यह श्रीमान् पुरुष तीनों लोकोंपर अवश्य ही विजय प्राप्त कर लेगा। इसमें जैसा उत्साह, तेज और बल प्रतीत होता है, इससे सिद्ध होता है कि यह अवश्य कोई महान् पराक्रमी पुरुष ही है। यह तो देवताओंके मुख्य स्थानको भी छीन सकता है, अतः अपने तेजके प्रभावसे जबतक यह स्वर्गलोकमें नहीं आ जाता है, इसके पूर्व ही हमलोग वर देनेमें कुशल भगवान् महेश्वरको प्रसन्न करनेमें संलग्न हो जायँ ।

मुने! इस प्रकार परस्पर वार्तालाप करके वे सभी श्रेष्ठ देवता मेरे साथ ‘मुझवान् पर्वत’ के शिखरपर आ गये। वहाँ जगत्के आश्रयदाता, अपार शक्तिवाले भगवान् श्रीहरिने अपने लिये स्थान बना रखा था। जब श्रीहरिको ज्ञात हुआ कि सुरसमुदाय आ रहा है तो वे दौड़कर आगे आ गये। कारण, सबके हृदयकी बात उन्हें विदित थी। अब उनकी कृपासे देवताओं और मुनियोंकी सभी बातें स्पष्ट हो गयीं। तब स्वयं भगवान् विष्णु देवताओंके साथ मेरी तुलना करनेवाले नन्दीके पास पहुँच गये।

नन्दीने कहा- ‘ओह! आज मेरा जीवन सफल हो गया। मैंने जितना परिश्रम किया है, वह आज सब सफल हो गया; क्योंकि देवताओंके अध्यक्ष इन्द्र तथा सम्पूर्ण संसारके शासक श्रीहरिके दर्शनका आज मुझे परम श्रेष्ठ सौभाग्य प्राप्त हो गया है। आज मेरे जीवनकी साध पूरी हो गयी और मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हो गये। पापोंका संहार करनेवाले भगवान् शिव शान्तस्वरूप हैं। उनकी प्रसन्नता तो मुझे प्राप्त हो ही चुकी है। उन्होंने वर देकर मुझे अपना पार्षद बना ही लिया है। मुझपर उनकी असीम कृपा है। निश्चय ही अब मेरे सारे कल्मष दूर हो गये। भगवान् शंकर बड़े महात्मा पुरुष हैं। उन्होंने देवताओंके विषयमें मेरे सामने जो बात कही है, वह परम हितकर एवं सत्य सिद्ध हो गयी। उसमें कुछ भी अन्यथा नहीं रहा। उन्होंने मुझसे स्पष्ट कहा था कि ‘प्रिय नन्दिन् ! देवर्षिलोग तुमपर प्रसन्न होकर तुम्हें देखने यहाँ पधार रहे हैं। आज परमेष्ठीद्वारा भी मैं आदर प्राप्त कर चुका। इससे मेरे हृदयमें अपार आनन्द भर गया है।’

देवताओंने कहा – ‘विप्रवर! नन्दिन् ! हमलोग भी उन वरदायी भगवान् शंकरका दर्शन करना चाहते हैं। तुम्हारी तपस्यासे संतुष्ट होकर जिन प्रभुने तुम्हें साक्षात् दर्शन दिया है, उन्हींका अवलोकन हमें भी अभीष्ट है।’ इतनी बात कहनेके पश्चात् देवताओंने द्विजवर नन्दीसे पुनः पूछा- ‘कपाल धारण करनेवाले महाभाग महेश्वरका दर्शन हमलोग किस स्थानपर प्राप्त कर सकेंगे ?’

नन्दीने कहा- ‘वे प्रभु तो मुझपर कृपा करके वहीं अन्तर्धान हो गये। अब मैं नहीं जानता हूँ कि वे कहाँ विराज रहे हैं। अतः वे जहाँ हों, आप सभी देवता स्वयं ही अन्वेषण कर लें।’

सनत्कुमारजीने पूछा- ‘भगवन्! महाभाग शंकरने नन्दीसे क्या कहा था, जिससे उन्होंने उनका पता नहीं बताया ? देवेश ! आप यह बात मुझे बतानेकी कृपा करें। प्रभो! भगवान् शंकरकी तो कोई भी बात गोपनीय नहीं है ?”

ब्रह्माजी कहते हैं— ‘वत्स! शंकरने जो बातें कही हैं, उन्हें देवताओंके सामने स्पष्ट करना मेरे लिये भी उचित नहीं है। पर उन्होंने नन्दीसे जो बात कही थी, वह मैं तुम्हें बताता हूँ, सुनो। भगवान् शंकरजीने कहा था- ‘विप्रवर! हिमालयके उस पार पृथ्वीपर संकटगिरि नामसे विख्यात एक सिद्ध स्थान है, जिसकी अनेक वन, उपवन शोभा बढ़ाते हैं। वहाँ ‘ श्लेष्मातक’ नामका एक श्रेष्ठ सर्प निवास करता है। उसने तीव्र तपस्या की है, जिससे उसके सभी पाप भस्म हो गये हैं। इस समय उसपर अनुग्रह करना मेरे लिये अत्यन्त आवश्यक है। वहाँ एक बहुत सुन्दर आश्रम है। वहीं निर्जन स्थानमें वह रहता है। उस दिव्य स्थानमें रहते हुए उसके बहुत से वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। पवित्र पर्वतके ऊँचे शिखरपर वह स्थान है। श्लेष्मातक सर्पका निवास होनेके कारण उसीके नामसे ‘श्लेष्मातकवन’ उसकी संज्ञा हो गयी है। एक समयकी बात है-मैं मृगका रूप धारणकर वहाँ विचर रहा था। मैंने देखा; देवतालोग मुझे पकड़नेके लिये प्रयास कर रहे हैं। मैं झट वहीं छिप गया। वे मुझे खोजनेमें व्यस्त हो गये । वत्स ! तुम्हें यह प्रसङ्ग उन देवताओं और अप्सराओंको भी नहीं बताना चाहिये। मैंने उसे अनेक वर दिये, फिर मैं वहीं अन्तर्धान हो गया।’

 ( सनत्कुमारके प्रति ब्रह्माजीका कथन है- ) जिस समय नन्दीको वर देकर भगवान् शंकर अन्तर्धान हो गये, उस समय उनके तेजसे सभी दिशाएँ जगमगा उठी थीं। उनके पास अनेक देवता आ गये थे। उनका दिव्य शरीर द्वितीयाके चन्द्रमाकी भाँति पूजनीय बन गयी। मरुद्गणोंको साथ लेकर इन्द्र मनोगामी ( इच्छानुसार चलनेवाले) रथपर बैठे और वहाँ आ गये। उनके वहाँ पहुँचते ही पर्वत- भाग तेजसे चमचमाने लगे। विविध जलचर जीवोंके स्वामी वरुण वर देनेके विचारसे अपने गणोंको साथ लेकर वहाँ आये । उनका अत्यन्त तेजस्वी विमान वज्र एवं स्फटिकमणिके समान चमक रहा था। उस पर्वतके शिखरपर धनके स्वामी कुबेरका भी आगमन हो गया। उनका विचित्र रथ तपाये हुए सुवर्णके द्वारा निर्मित था । धनाध्यक्षके साथ बहुत से यक्ष एवं राक्षस भी आये थे। सूर्यके समान प्रकाशमान करोड़ों विमानोंसे वे आये थे। उन विमानोंकी शोभा अलौकिक थी। अपने उत्तम पुण्योंसे सुशोभित कुबेर ऐसे जान पड़ते थे, मानो दूसरे सूर्य हों। सूर्य-चन्द्रमा तथा समस्त ग्रहमण्डल एवं नक्षत्रसमूह अग्निके समान तेजस्वी विमानोंपर चढ़कर आकाशसे धरातलपर उतर आये। ग्यारह रुद्रों और बारह सूर्योका भी वहाँ आगमन हो गया। दोनों अश्विनीकुमार उस महान् मुञ्जवान्पर्वतपर पधारे। विश्वेदेव, साध्यगण और तपस्वी बृहस्पति भी आये । विशाख नामसे विख्यात स्वामी कार्तिकेय तथा भगवान् विघ्नविनायक भी उस श्रेष्ठ पर्वतपर पधारे। वहाँ सैकड़ों मोर बोल रहे थे। नारद, तुम्बुरु, विश्वावसु परावसु, हाहा हूहू तथा अन्य भी अनेक प्रसिद्ध गन्धर्व इन्द्रकी आज्ञाके अनुसार विविध प्रकारके विमानोंद्वारा वहाँ आ गये। पवन- अग्नि, धर्म-सत्य, ध्रुव तथा देवर्षि, सिद्ध, यक्ष, विद्याधर एवं गुह्यकोंका समुदाय भी वहाँ पहुँच गया। कई महान् आदरणीय ऋषि भी आये। गन्धकाली, घृताची, बुद्धा, गौरी, तिलोत्तमा, उर्वशी, मेनका, रम्भा, पुञ्जिकस्थला तथा ऐसी अन्य भी बहुत-सी अप्सराएँ उस मुञ्जवान् पर्वतपर आयीं । पुलस्त्य, अत्रि, मरीचि, वसिष्ठ, भृगु, कश्यप, पुलह, विश्वामित्र, गौतम, भारद्वाज, अग्निवेश्य, वृद्ध पराशर, मार्कण्डेय, अङ्गिरा, गर्ग, संवर्त, क्रतु, जमदग्नि, भार्गव और च्यवन- ये सभी महर्षि विष्णुकी तथा स्वर्गाध्यक्ष शक्रकी आज्ञासे वहाँ सामूहिक रूपसे आये थे ।

स्त्री-पुरुषका रूप धारण करके सिन्धु, महानदी सरयू, ताम्रारुणा, चारुभागा, वितस्ता, कौशिकी, पुण्या, सरस्वती, कोका, नर्मदा, बाहुदा, शतद्रू, विपाशा, गण्डकी, सरिद्वरा, गोदावरी, वेणी, तापी, करतोया, सीता, चीरवती, नन्दा, चन्दना, चर्मण्वती, पर्णाशा, देविका, प्रभास, सोम, लौहित्य तथा गङ्गासागर एवं अन्य भी जितने अनेक पुण्य तीर्थ थे, वे सब भी उस समय वहाँ पृथ्वीपर पधारे। इन्द्रकी आज्ञासे मुझवान् नामक उस उत्तम पर्वतपर सबका आगमन हो गया। पर्वतोंमें उत्तम महामेरु, कैलास, गन्धमादन, हिमवान्, हेमकूट, निषेध, पर्वतप्रवर विन्ध्याचल, महेन्द्र, सह्य, मलयगिरि, दर्दुर, माल्यवान्, चित्रकूट, अत्यन्त ऊँचा द्रोणाचल, श्रीपर्वत, लताओंसे परिपूर्ण पर्वतराज पारियात्र- ये सभी पर्वतोंमें उत्तम माने जाते हैं। इन सबका तथा अनेक अरण्योंका भी वहाँ आगमन हो गया । सम्पूर्ण यज्ञ, समस्त विद्याएँ, चारों वेद, धर्म, सत्य, दम, स्वर्ग, महान् ऋषि कपिल, महाभाग वासुकि, सर्पराज, अमृताशी, हजारों फणोंसे प्रकाशमान अनन्त शेषनाग, धृतराष्ट्र, सर्पोंके राजा किर्मीर, श्रीमान् अम्भोधर, महान् तेजस्वी नागराज तथा सर्पोंके अध्यक्ष, अरबों एवं खरबों सर्प वहाँ आये। विद्युज्जिह्न, द्विजिह्वेन्द्र, शङ्खवर्चा, महाद्युति, तीनों लोकोंमें विख्यात धीमान् अनिमिषेश्वर, विरोचनकुमार सत्य, स्फोटमणि, सतैचीत, पर्वतकी भाँति अचल रहनेवाले तथा सैकड़ों फणोंसे युक्त श्रृंग, अरिमेजयके साथ सर्पराज प्रज्ञावान् नागराज विनत, भूरि, कम्बल और अश्वतर सर्पोंके राजा पराक्रमी एकापत्र, नागोंके अध्यक्ष कर्कोटक एवं धनंजय – इस प्रकारके महान् पराक्रमी अनेकों भुजगेन्द्र मुञ्जवान् पर्वतपर आये। दिन-रात, पक्ष- मास, संवत्सर, आकाश, पृथ्वी, दिशाएँ और विदिशाएँ वहाँ आयीं। उस समय आये हुए देवताओं, यक्षों और सिद्धोंसे उस मुञ्जवान् पर्वतका शिखर इस प्रकार भर गया, जैसे प्रलयकालमें समुद्रका किनारा जलसे परिपूर्ण हो जाता है। जब उस पर्वतराज मुञ्जवान्के सुरम्य शिखरपर देवताओंका समाज जुट गया तो वायुसे प्रेरित होकर वृक्षोंने उनपर फूलोंकी वृष्टि आरम्भ कर दी। उस समय दिव्य गन्धवने उत्तम संगीत, अप्सराओंने प्रशंसनीय नृत्य और पक्षियोंने प्रसन्न होकर मधुर स्वरसे सुन्दर शब्द करना प्रारम्भ कर दिया। पवन पुण्य गन्धोंको लेकर प्रवाहित होने लगे। उसके स्पर्शसे सबका मन मुग्ध हो जाता था। इस प्रकार भगवान् विष्णुको आगे कर सभी देवता वहाँ उपस्थित हुए और देखा कि नन्दी सामने विराजमान हैं तथा दिव्य आभासे उनकी मूर्ति विद्योतित हो रही है। अब वहाँ आये हुए गन्धर्वो और अप्सराओंके गणोंपर नन्दीकी भी दृष्टि पड़ी। उन्होंने देखा कि अन्य सभी देवता तथा देवराज इन्द्र भी एक साथ ही वहाँ पधारे हैं। फिर तो नन्दी सावधान हो गये और उन्होंने हाथ जोड़ तथा मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। सहसा एक साथ सभी देवताओंका आगमन देखकर उन्हें महान् आश्चर्य हुआ। फिर वे सबके स्वागत करनेमें संलग्न हो गये। उपस्थित सभी देवताओंको क्रमशः नमस्कार करनेके पश्चात् उन्होंने उनके लिये यथाशीघ्र आसन, पाद्य एवं अर्घ्य आदिके लिये अपने अनुयायियों को आदेश दिया। नन्दीके स्वागतको स्वीकारकर आदित्य, वसु, रुद्र, मरुत्, अश्विनीकुमार, साध्य, विश्वेदेव, गन्धर्व और गुह्यक आदि देवताओं तथा गण- देवताओंने नन्दीकी प्रशंसा की। विश्वावसु, हाहा हूहू, नारद, तुम्बुरु, चित्रसेन और अन्य गन्धर्वोने नन्दीकी भी पूजा की। वासुकिप्रभृति नाग सर्पोंके राजा कहे जाते हैं। उनमें असीम शक्ति है। सौम्य मूर्ति नन्दीश्वरको देखकर उन सबोंने भी उनकी अर्चना की। सिद्ध, चारण, विद्याधर और अप्सराओंका उपस्थित समाज देवेश्वर इन्द्रसे सम्मानित नन्दीश्वरकी पूजा करने लगा । यक्ष, विद्याधर, ग्रह, समुद्र, पर्वत, सिद्ध, ब्रह्मर्षिगण, गङ्गा आदि नदियाँ – इन सभीमें अपार हर्ष उत्पन्न हो गया था, अतः सभीने नन्दीश्वरको आशीर्वाद देना आरम्भ किया। ‘

देवता बोले- ‘मुने! पशुपति भगवान् शंकर तुमपर सदा प्रसन्न रहें। अनवद्य! तुम्हारी सर्वत्र अबाध गति हो जाय अथवा द्विजवर! तुम्हें ऐसी शक्ति सुलभ हो जाय कि कोई भी देवता तुमसे श्रेष्ठ न हो सके। विभो ! रोग-व्याधि तुम्हारे पास न आ सके। तुम अमर होकर विचरण कर सको अच्युत ! भगवान् शंकरके साथ सातों लोकोंमें सुखसे रहनेका तुम्हें सौभाग्य प्राप्त हो।’ देवताओंके इस प्रकार कहनेपर नन्दीश्वरने पुनः उनसे अपना विचार इस प्रकार व्यक्त करना आरम्भ किया।

नन्दिकेश्वर बोले- ‘आप सभी प्रधान देवता हैं और मुझपर आप सभीका अगाध स्नेह है। आप महानुभावोंने जो प्रिय बात कहकर मुझे आशीर्वाद दिया है, उसके लिये मैं आपलोगोंका अत्यन्त आभारी हूँ। अब आपलोगोंके लिये मुझे क्या करना चाहिये ? इसके लिये आप आज्ञा देनेकी कृपा करें। देवताओ! मैं आपका आज्ञाकारी हूँ।’ नन्दीश्वरकी यह बात सुनकर इन्द्रने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया।

शक्र बोले- ‘भद्र ! तुम यह बतलाओ कि भगवान् शंकर कहाँ गये और इस समय वे कहाँ विराज रहे हैं? विप्रवर! देवताओंके अध्यक्ष उन शक्तिशाली शिवको हम सभी लोग देखना चाहते हैं । मुने! जिन्हें स्थाणु, उग्र, शिव, शर्व एवं महादेव कहते हैं, उन भगवान् शंकरको तुम जानते हो कि वे इस समय कहाँ हैं ? महर्षे! वह स्थान यथाशीघ्र मुझे बतानेकी कृपा करो।’ वज्रपाणि इन्द्रकी यह बात बुद्धिमत्तापूर्ण थी। उसे सुनकर नन्दीने भगवान् शंकरका स्मरण किया। साथ ही वे इन्द्रको उत्तर देनेके लिये भी उद्यत हो गये।

नन्दिकेश्वरने कहा – ‘देवेन्द्र! आप स्वर्गके स्वामी हैं। इसके विषयमें यथार्थ बात सुनानेकी आप कृपा करें। इसी मुञ्जवान् पर्वतपर मैंने भगवान् शंकरकी पूजा की थी। वे परम शक्तिशाली पुरुष हैं। उन्होंने मुझपर प्रसन्न होकर अनेक दिव्य वर प्रदान किये। फिर वे प्रभु परम प्रसन्न होकर यहाँसे कहीं अन्यत्र चले गये। अब उनकी जानकारी करनेमें मैं भी समर्थ नहीं हूँ। वासव ! मैं आपका आज्ञाकारी हूँ। यदि आप उनके विषयमें मुझे आज्ञा देते हैं तो अब हम सभी प्रयत्नपूर्वक उन प्रभुका अन्वेषण करनेका प्रयास करें।’

अध्याय १६७ गोकर्णेश्वर तथा जलेश्वरके माहात्म्यका वर्णन

ब्रह्माजी कहते हैं – इसके बाद सम्पूर्ण देवताओंके साथ परामर्शकर इन्द्रने भगवान् शंकरके पास जानेका विचार किया। सभी देवता उस ऊँचे शिखरसे उठे और नन्दीके साथ आकाशमार्गले उन्होंने प्रस्थान कर दिया। भगवान् रुद्रके अन्वेषण करनेमें तत्पर होकर अखिल देवताओंने स्वर्गलोक, ब्रह्मलोक और नागलोक सर्वत्र छान डाला तथा वे उन्हें ढूँढ़ते-ढूँढ़ते थक गये, पर उनका पता न चला। अब उनके मनमें निराशा छा गयी। रुद्रका पता न देख उन्होंने चारों समुद्रोंपर्यन्त सात द्वीपोंवाली पृथ्वीपर भी ढूँढ़ना आरम्भ किया। फिर वे वनोंसे युक्त महान् पर्वतोंकी कन्दराओं और उनके ऊँचे शिखरोंपर भी गये तथा उन्हें गहन निकुञ्जों और क्रीडा – स्थलों में भी सब ओर खोजते रहे। उनके इस ढूँढ़नेके प्रयाससे इस पृथ्वीके तृणोंके भी टुकड़े टुकड़े हो गये; पर इतना प्रयत्न करनेपर भी भगवान् शंकरको प्राप्त करनेमें देवताओंको सफलता न मिली और भगवान् शंकरका दर्शन उन्हें न मिल सका। अतः देवतालोग अत्यन्त उदास हो गये।

आगे कर्तव्य सम्बन्धमें परस्पर विचार विमर्श और वार्तालाप करनेके पश्चात् वे सभी देवता मेरी (ब्रह्माकी) शरणमें आये। तब मैंने मनको सावधान करके संसारको कल्याण प्रदान करनेवाले उन शंकरका समाहित मनसे ध्यान किया। उनके वेश और अलंकारोंके ध्यान करनेसे मुझे एक उपाय सूझ गया। फिर मैंने देवताओंसे कहा- ‘हमलोगोंने निरन्तर अन्वेषण करते हुए सारी त्रिलोकी छान डाली है, किंतु भूमण्डलपर ‘श्लेष्मातक ‘वन नामक स्थानपर नहीं गये। अतएव प्रधान देवताओ! हम सभी लोग यहाँसे उस देशमें चलें।’ इस प्रकार कहकर उन सम्पूर्ण देवताओंके साथ हमलोग उस दिशाकी और प्रस्थित हो गये और शीघ्रगामी विमानोंपर चढ़कर तत्क्षण ‘श्लेष्मातक ‘वनमें* पहुँच गये। वह पुण्यमय स्थान सिद्ध और चारणोंसे सेवित था । वहाँ पर्वतोंकी बहुत-सी कन्दराएँ तथा अनेक प्रकारके पवित्र एवं परम रमणीय स्थान ध्यान करनेके उपयुक्त थे। उनमें सभी गुणोंकी अधिकता थी। अनेक सुन्दर आश्रम, उद्यान और स्वच्छ जलवाली नदियाँ शोभा बढ़ा रही थीं। उस वनमें श्रेष्ठ सिंह, भैंसे, नीलगाय, भालू-बंदर, हाथी और मृगोंके झुंड शब्द कर रहे थे। सिद्ध आदि पुरुषोंसे वह स्थान भरा था।

देवताओंने इन्द्रको आगे करके उसमें प्रवेश किया। वहाँ वे रथ आदि सवारियोंको छोड़कर पैदल हो गये। फिर हम सभी कन्दराओं, झाड़ियों एवं वृक्षोंसे भरे हुए सघन वनोंमें सम्पूर्ण देवताओंके स्वरूप भगवान् रुद्रको खोजनेमें संलग्न हो गये। आगे जानेपर हमें एक अत्यन्त सुन्दर वन मिला, जो सभी वनोंका अलंकार था। वहाँ बहुत सी पर्वतीय नदियाँ और फूले हुए अनेक वृक्ष उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। सभी देवताओंने उसमें प्रवेश किया। नदियोंके तटपर कुन्द तथा चन्द्रमाके समान स्वच्छ वर्णवाले हंस विचर रहे थे। फूलोंसे अच्छी गंध निकल रही थी, जिसके कारण वह वन सुवासित हो रहा था। वहाँ बिखरी हुई बालुकाएँ ऐसी प्रतीत होती थीं, मानो मोतियोंके चूर्ण हैं। उसी स्थानपर क्रीडा करती हुई मनको मुग्ध करनेवाली एक कन्या दिखायी पड़ी। सभी देवताओंने उसे देखकर मुझे सूचित किया; क्योंकि सम्पूर्ण देवताओंका मैं अग्रणी था। मैं सोचने लगा यह क्या बात है? फिर मैं एक मुहूर्ततक ध्यानस्थ हो गया। तभी मुझे उस कन्याके विषयमें सहसा ज्ञान हुआ। मैंने सोचा, संसारके शासक शंकरकी मूल शक्ति, जिन्हें गिरिराज हिमालयकी पुत्री होनेका गौरव मिल चुका है, निश्चय ही ये वही भगवती ‘उमादेवी’ ही हैं। इसके बाद सभी प्रधान देवता उस पर्वत- शिखरके ऊपर चढ़ गये और वहाँसे नीचेकी ओर देखने लगे। तब उन सभीको सुरसत्तम शंकरका दर्शन प्राप्त हुआ। उस समय वे प्रभु मृग-समूहके बीचमें उनके रक्षककी भाँति विराजमान थे । उनके सिरपर एक सींग और एक पैर था। वे तपाये हुए सोनेकी भाँति चमक रहे थे। उनका प्रत्येक अङ्ग गठित, उनके मुख, नेत्र सुडौल और सुन्दर थे तथा उनके दाँत बड़े सुन्दर थे।

उस समय ऐसे मृगरूपधारी भगवान् रुद्रको देखकर सभी देवता शिखरसे उतरकर उनकी ओर दौड़े। उन मृमेन्द्रको पकड़नेके लिये उनके मनमें तीव्र अभिलाषा जग गयी थी। अतः बड़े वेगसे वे सब प्रकारके उद्यममें तत्पर हो गये। फिर तो इन्द्रने सींगके अगले भागको पकड़ लिया, मैं भी वहीं था। मैंने बड़ी श्रद्धाभक्तिसे उनके सींगके मध्यभागमें अपना हाथ लगाया। यही नहीं, उन महात्माके सींगके मूलभागको श्रीहरिने भी पकड़ लिया। फिर इस प्रकार तीनोंके पकड़ लेनेपर वह सींग तीन भागों में विभक्त हो गया । इन्द्रके हाथमें अगला भाग, मेरे हाथमें बीचका भाग और विष्णुके हाथमें मूलभाग शोभा पाने लगा। इस भाँति उसके तीन रूप हो गये। इस प्रकार हम- लोगोंने जब सींगके तीनों भागोंको अपना लिया, तब वे प्रधान मृगरूपधारी शंकर सींग-रहित होकर वहाँ ही अर्न्तधान हो गये। फिर हम – लोगोंके लिये वे अदृश्य हो गये और आकाशमें चले गये तथा उपालम्भ देते हुए कहने लगे- ‘देवताओ! मैंने तुम्हें ठग लिया। तुमलोग स्वयं हमें प्राप्त नहीं कर सकोगे। मैं शरीरी होकर तुम्हारे हाथ लग गया था; किंतु छुड़ाकर यहाँ आ गया। अब तुमलोग केवल मेरे सींगसे ही संतोष करो। तुमलोग मेरे वास्तविक रूपसे वञ्चित हो गये। मैं अपने पूरे शरीरसे रह सकूँ तो धर्म भी अपने चारों पैरोंसे रहने लगे। यह मेरा सिद्धान्त है।

‘देवताओ! यह ‘ श्लेष्मातक’ वन है। यहीं मेरे शृङ्गोंको विधिपूर्वक स्थापित कर देना चाहिये। इस कार्यसे जगत्का कल्याण होगा। यह वन अत्यन्त महान् पुण्यक्षेत्र होगा। मेरे प्रभावसे प्रभावित इस स्थानपर महान् यज्ञ सम्भाव्य है। भूमण्डलपर जितने तीर्थ, समुद्र तथा नदियाँ हैं, मेरे लिये वे सब यहाँ आयेंगे। हिमवान् पर्वतोंके राजा हैं। उनके एक शुभ प्रदेशका नाम नेपाल है। मैं वहाँ पृथ्वीसे स्वयम्भूरूपसे स्वतः प्रकट होऊँगा। मेरे उस विग्रहमें चार मुख होंगे और मेरा सिर प्रचण्ड तेजसे प्रकाशित होगा। फिर तीनों लोकोंमें सब जगह शरीरेश ( पशुपतिनाथ * ) के नामसे मेरी ख्याति होगी। वही नागहद नामसे प्रसिद्ध एक विशाल हृद होगा। सम्पूर्ण प्राणियोंका हित करनेके विचारसे मैं उसके जलमें तीस हजार वर्षोंतक निवास करूँगा। जिस समय वृष्णिकुलमें भगवान् श्रीकृष्णका अवतार होगा और वे इन्द्रकी प्रार्थनासे अपने चक्रद्वारा पर्वतोंको उखाड़कर दानवोंका संहार करेंगे, उस समय वह म्लेच्छोंसे भरा प्रदेश शुद्ध होगा, बहुत-से सूर्यवंशी क्षत्री उत्पन्न होंगे और उनके प्रयाससे म्लेच्छोंकी सत्ता समाप्त हो जायगी। साथ ही क्षत्रियगण उस देशमें ब्राह्मणोंको बसायेंगे और उन ब्राह्मणोंकी सहायतासे प्रचलित धर्मोकी स्थापना करेंगे। उन्हें अविनाशी एवं अचल राज्यकी उपलब्धि हो जायगी। पहले कुछ दिनोंतक वह प्रान्त शून्य रहेगा। पश्चात् क्षत्रियवंशमें उत्पन्न वे राजा लोग मुझे उस शून्य स्थानमें प्राप्तकर मेरे अर्चा-विग्रहकी प्रतिष्ठा करेंगे। इसके बाद वह स्थान प्रसिद्ध ब्राह्मणों तथा सम्पूर्ण वर्णाश्रमोंसे सम्पन्न होकर एक महान् जनपद बन जायगा। उस जनपदके विस्तृत भागमें राजाओंका सम्यक् प्रकारसे निवास होगा और सामान्य जनता वहाँ सुखपूर्वक निवास करने लगेगी। सभी प्राणी प्रत्येक समयमें वहाँ मेरी आराधना करेंगे। जो सज्जन एक बार भी विधिके साथ मेरी वन्दना एवं दर्शन करेंगे, उनके सम्पूर्ण पाप भस्म हो जायँगे। साथ ही वे शिवपुरीमें जायेंगे और वहाँ उन्हें मेरा दर्शन प्राप्त हो जायगा । मेरा यह स्थान गङ्गासे उत्तर और अश्विनीमुखसे दक्षिणमें चौदह योजन दूरीके विस्तारमें होगा, ऐसा समझना चाहिये। वागमती नामकी नदी हिमालयके ऊँचे शिखरसे निकलकर उसकी शोभा बढ़ायेगी। उस वागमती नदीका शुद्ध जल भागीरथी गङ्गासे भी सौगुना अधिक पवित्र कहा गया है। उसमें स्नान करनेके प्रभावसे मानव विष्णु और इन्द्रके लोकोंका स्पर्श करके शरीर त्यागनेके पश्चात् सीधे मेरे लोकमें पहुँच जाते हैं, इसमें कोई संशय नहीं। इस क्षेत्रमें निवास करनेवाले घोर पापकर्मा ही क्यों न हों, उन्हें भी यह गति सुलभ हो जाती है। इन्द्रकी नगरीमें जो नियमपूर्वक निवास करनेवाले देवता, दानव, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, उरग, मुनि, अप्सरा तथा यक्षप्रभृति हैं, वे सभी मेरी मायासे मोहित होनेके कारण मेरे उस गुह्य स्थानको जाननेमें असफल हैं।

‘सुरोत्तमो! तपस्वियोंके लिये यह तपोभूमि एवं सिद्धक्षेत्र कहा गया है। विद्वान् पुरुष प्रभास, प्रयाग, नैमिषारण्य, पुष्कर और कुरुक्षेत्रसे भी बढ़कर उस क्षेत्रकी महिमा बताते हैं। वहाँ मेरे श्वशुर पर्वतराज हिमवान् स्वयं विराजते हैं। गङ्गा, जो नदियोंमें उत्तम मानी जाती हैं। उनका तथा अन्य कई श्रेष्ठ नदियोंका वहींसे उद्गम होता है। वह उत्तम क्षेत्र परम पुण्यमय है। सभी श्रेष्ठ नद- नदियाँ तथा तीर्थ वहाँसे प्रकट होते हैं । वहाँक सभी पर्वत पुण्यस्वरूप हैं। वहीं मेरा आश्रम होगा। सिद्ध और चारण उस आश्रमकी सेवा करेंगे। वहाँ मेरा विग्रह शैलेश्वर नामसे विख्यात होगा । धारारूपसे बहनेवाली नदियोंमें श्रेष्ठ एवं पुण्यमयी वागमती नामकी नदी भी वहाँसे बहकर हिमालय आयेगी। भागीरथी और वेगवती नामकी नदियाँ परम पवित्र हैं। इनका कीर्तन करनेसे भी मनुष्योंका पाप भस्म हो जाता है और दर्शन करनेसे तो प्राणी सम्पूर्ण ऐश्वर्योको प्राप्त कर लेता है। इन श्रेष्ठ नदियोंका जल पीने तथा अवगाहन करनेसे पुरुष अपने सात कुलोंको तार देता है। उस तीर्थकी महिमाको स्वयं लोकपाल भी गाते हैं। वहाँ जो स्नान करते हैं, वे स्वर्गमें जाते हैं और जिनकी वहाँ मृत्यु होती है, उन्हें पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता। जो लोग बार- बार वहाँ नित्य स्नान और मेरी पूजा करते हैं, उनपर परम प्रसन्न होकर मैं संसार सागरसे उनका उद्धार कर देता हूँ। जो उसके जलसे भरा हुआ एक घड़ा लाकर मनको पवित्र करके श्रद्धापूर्वक उससे मुझे स्नान कराता है, वह वेद एवं वेदाङ्गके ज्ञाता श्रोत्रिय ब्राह्मणकी सहायतासे मेरा अभिषेक करता है, उसे अग्निहोत्रका फल सुलभ हो जाता है। उसके तटपर जलका भेदन करके मृगशृङ्गोदक नामसे प्रसिद्ध मेरी एक प्रतिमा प्रकट हुई है, जो मुनिजनोंको अत्यन्त प्रिय है। वहाँ सावधान होकर सिरपर जल फेंकते हुए स्नान या अभिषेक करना चाहिये, इससे जीवनभरके किये हुए सभी पाप उसी क्षण नष्ट हो जाते हैं। वहीं ‘पञ्चनद’ नामका भी एक पवित्र तीर्थ है, जहाँ ब्रह्मर्षिगण निवास करते हैं। वहाँ केवल स्नान करनेमात्रसे प्राणी ‘अग्निष्टोम’ यज्ञका फल प्राप्त कर लेता है। वागमती नदी यहाँ साठ हजार दिव्य गाँवोंकी रक्षा करती है, अतः उसे कृतघ्न अथवा पापी मानव प्राप्त करनेमें असमर्थ हैं। जो सदा पवित्र रहते हैं, इष्टदेवतापर जिनकी श्रद्धा रहती है तथा जो सत्यका पालन करते हैं, ऐसे मानवोंको ही वागमतीमें स्नान करनेका सौभाग्य प्राप्त होता है और वे उत्तम गतिको प्राप्त कर लेते हैं। जो दुःखी, भयभीत एवं संतप्त मनुष्य हैं अथवा जो व्याधियोंसे सतत कष्ट पाते रहते हैं, ऐसे व्यक्ति भी यदि इसमें स्नानकर मुझ ‘पशुपतिनाथ का दर्शन यहाँ करते हैं तो वे परम पवित्र हो जाते हैं और उन्हें शाश्वत शान्ति प्राप्त हो जाती है, इसमें कोई संशय नहीं है। उसमें स्नान करनेवाले पुरुषके सम्पूर्ण पाप मेरी कृपासे नष्ट हो जाते हैं, इतना ही नहीं, इति’ आदि सभी उग्र उपद्रव भी सर्वथा शान्त हो जाते हैं। वागमती सम्पूर्ण नदियोंमें प्रधान हैं। उसके जलमें जो स्नानकर मेरा दर्शन करते हैं, उनके अन्तःकरण शुद्ध एवं पवित्र हो जाते हैं। इस ‘वागमती के जलमें मानव जहाँ-जहाँ स्नान करता है, वहाँ वहाँ उसे राजसूय और अश्वमेध यज्ञोंका फल प्राप्त होता है। यह क्षेत्र एक योजनके भीतर चारों ओर फैला हुआ है।

जिस स्थानपर मैं स्वयं नागेश्वर रुद्ररूपमें विराजमान रहता हूँ, उसको मूल क्षेत्र जानना चाहिये। उसके पूर्व और दक्षिणके भागमें नागराज वासुकि का एक स्थान है। ये हजार अन्य नागोंके साथ मेरे दरवाजेपर सदा स्थित रहते हैं। जो लोग मेरे क्षेत्रमें प्रवेश करना चाहते हैं, वासुकिका काम उनके सामने विघ्न उपस्थित करना है। पर जो पहले उन्हें नमस्कार करके फिर मुझे प्रणाम करने आनेका कार्यक्रम बनाते हैं, उन प्रवेश करनेवाले पुरुषोंके सामने किसी प्रकारका भी विघ्न उपस्थित नहीं हो पाता। उस क्षेत्रमें जाकर जो मनुष्य परम भक्तिके साथ सदा मेरी वन्दना करता है, उसे पृथ्वीपर राजा होनेका सुयोग्य मिलता है और सभी प्राणी उसका अभिवादन करते हैं। जो मनुष्य गन्धों और मालाओंके द्वारा मेरी मूर्तिका अभ्यर्चन करता है, वह ‘तुषित ‘संज्ञक देवताओंकी योनिमें पैदा होता है, इसमें कोई संशय नहीं। जो व्यक्ति मेरे उस पर्वतपर श्रद्धापूर्वक प्रज्वलित दीप प्रदान करता है, उसकी उत्पत्ति ‘सूर्यप्रभ’ नामक देवताओंकी योनिमें होती है। जो लोग संगीत- वाद्य, नृत्य स्तुति अथवा जागरण करके मेरी सेवा, उपासना करते हैं, वे मेरे लोकमें निवासके अधिकारी हो जाते हैं। जो प्राणी दही, दूध, मधु, घृत अथवा जलसे मुझे स्नान कराते हैं, उनपर, बुढ़ापा रोग और मृत्युका वश नहीं चलता। जो मानव श्रद्धाके अवसरपर भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंको इस स्थानमें भोजन कराता है, उसे स्वर्गमें अमृत पान करनेका अवसर मिलता है और देवतालोग उसका आदर करते हैं। जो ब्राह्मण इस क्षेत्रमें अनेक प्रकारके व्रत-उपवास, भाँति-भाँतिके हवन, स्वादिष्ठ नैवेद्य आदि उपचारोंके द्वारा समुचित श्रद्धा से सम्पन्न होकर मेरी आराधना करते हैं, उन्हें साठ हजार वर्षोंतक स्वर्गमें निवास करनेका अवसर मिलता है। इसके पश्चात् उन्हें पुनः मृत्यु- लोकमें आना पड़ता है और उन्हें सभी ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं।

यहींके एक स्थानका नाम ‘शैलेश्वर’ भी है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा स्त्री ही क्यों न हो, यदि वहाँ जाकर भक्तिके साथ मेरी उपासना करते हैं, उन्हें मेरे पार्षद होनेकी सुविधा मिलती है और वे सदा मेरे गणों तथा देवताओंके साथ आनन्दका उपभोग करते हैं। यह ‘शैलेश्वर’ परम गुह्य स्थान है। इस भूमण्डलमें उससे श्रेष्ठ कहीं भी कोई दूसरा क्षेत्र नहीं है। ब्राह्मण, गुरु अथवा गौका जिसके द्वारा हनन हो गया है अथवा जो सम्पूर्ण पापोंसे लिप्त है, ऐसा मानव भी इस क्षेत्रमें आकर पापोंसे मुक्त हो जाता है। यहाँपर अनेक प्रकारके तीर्थ तथा बहुत से पवित्र देवता निवास करते हैं। इस तीर्थका जल उनसे सम्बद्ध है। अतः जो मानव उन जलोंका स्पर्श करता है, वह अखिल अघोंसे छुटकारा पा जाता है।

उसके दो कोसकी दूरीपर ‘कोशोदक’ नामसे प्रसिद्ध एक पवित्र तीर्थ है, जो देवताओंद्वारा निर्मित है। यह मुनियोंको बहुत प्रिय है। यहाँ स्नान करनेसे मनुष्य पवित्र हो जाता है और उसका मन वशमें हो जाता है तथा उसकी सत्यमें रुचि होती है। साथ ही वह पुरुष सम्पूर्ण पापोंसे छूटकर सभी प्रकारके उत्तम फलका भागी बन जाता है। महात्मा शैलेश्वरके दक्षिण भागमें वह अविनाशी तीर्थ है। जो पुरुष वहाँ जाता है, उसे उत्तम गति प्राप्त होती है। वहीं ‘भृगुप्रपतन ‘नामका स्थान है। उसके प्रभावसे मानव काम और क्रोधसे रहित होकर विमानके द्वारा स्वर्गमें सिधार जाता है। अप्सराओंके समुदायसे उसे सहायता मिलती रहती है। ‘भृगुप्रपतन के आगे एक ब्रह्मोद्भेद नामसे विख्यात तीर्थ है। इसके निर्माता स्वयं ब्रह्माजी हैं। उसका जो फल है, वह भी मैं कहता हूँ; सुनो ! जो पुरुष संयमशील बनकर एक वर्षतक वहाँ स्नान करता है, वह ब्रह्माजीके ‘विरज ‘संज्ञक लोकमें जाता है, इसमें कोई संशय नहीं। वहीं ‘गो-रक्ष’ नामका एक तीर्थ है। उस स्थानपर गायों और बैलोंके अनेक पदचिह्न हैं। उनका दर्शन करनेसे पुरुषको हजार गोदानका फल मिलता है। वहाँ ‘गौरीशिखर’ (गौरीशंकर ) नामक भगवती गौरीका शिखर (चोटी) है, जहाँ सिद्ध पुरुष निवास करते हैं। शिखरोंसे प्रेम रखनेवाली ‘पार्वतीदेवी’ वहाँ सदा विराजमान रहती हैं। वहाँ भी जाना चाहिये। संसारकी रक्षा करनेमें उद्यत जगन्माता भगवती उमा वहाँ विराजती हैं। उनके दर्शन, चरणोंके स्पर्श तथा अभिवादन करनेसे मानव उनके लोकमें जानेका अधिकारी हो जाता है। उनके स्थानसे नीचे वागमती नदी प्रवाहित होती है। उसके तटपर जो अपना प्राण त्यागता है, उसके सामने आकाशगामी विमान आता है और उसपर चढ़कर वह तुरंत ही भगवती उमाके लोकमें चला जाता है। वहीं देवी उमासे सम्बन्धित एक स्तनकुण्ड है। जो मानव उसमें स्नान करता है, वह अग्निके समान प्रकाशमान होकर स्वामिकार्तिकेयके लोकमें चला जाता है। यहीं पञ्चनद नामका एक पुण्य तीर्थ है। ब्रह्मर्षिगण वहाँ निवास करते हैं। वहाँ जाकर केवल स्नान करनेसे प्राणीको अग्निहोत्र – यज्ञका फल मिल जाता है।

एक बार एक नकुलके मनमें सद्बुद्धि उत्पन्न हुई। अतः उसने सावधान होकर वहाँ स्नान किया। इससे उसका मन परम पवित्र बन गया और उसे पूर्वजन्मकी बात याद आ गयी। उसके उत्तर भागमें सिद्धपुरुषोंसे सेवित एक श्रेष्ठ तीर्थ है। उस गुह्यतीर्थका नाम ‘प्रान्तकपानीय’ है, जिसकी गुह्यकगण निरन्तर रक्षा करते हैं। जो मनुष्य वहाँ पूरे वर्षभर सदा स्नान करता है, उसे उत्तम बुद्धि प्राप्त होती है और वह गुह्यकका शरीर प्राप्तकर भगवान् रुद्रका अनुचर बन जाता है। इस शिखरपर निवास करनेवाली भगवती उमाके पूर्व उत्तर और दक्षिण भागों में वागमतीकी धारा प्रवाहित होती है। यह पुण्य नदी हिमालयकी कन्दरासे निकली हैं। वहाँ ब्रह्मोद्भेद नामका एक दूसरा पवित्र तीर्थ भी है। वहाँ जाकर मानवको जलसे आचमन एवं स्नान करना चाहिये। इसके फलस्वरूप उसे मृत्युलोकका दर्शन नहीं होता। उसे किसी प्रकारकी बाधा कष्ट नहीं पहुँचा सकती। वहीं सुन्दरिका – तीर्थ है। बहुत पहले ब्रह्माजीने उसका निर्माण किया है। उसके जलमें स्नान करनेसे पुरुष सुन्दर रूपवाला और तेजस्वी हो जाता है। मनुष्यको चाहिये कि तीनों संध्याओंके समयमें वहाँ जाकर संध्योपासन करे। इससे वह पापसे मुक्त हो जाता है। वागमती और मणिवती-ये दोनों पवित्र नदियाँ हिमालयका भेदन करके निकली हैं। इन दोनोंमें पापनाश करनेकी पूरी शक्ति है। जो वेदका पूर्ण विद्वान् द्विज पवित्र होकर दिन रात वहाँ निवास करता और रुद्रका जप करता है, वह अग्निष्टोम यज्ञका फल प्राप्त करता है। राजा उसका सम्मान करते हैं। उसके इस कर्मके प्रभावसे उसका सारा कुल तर जाता है। किसी प्रकारका व्यक्ति वहाँ स्नान करके तिल और जलसे तर्पण करता है तो उसके पितर तर जाते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है। जहाँ जहाँ वागमती नदी प्रवाहित हुई है, वहाँ-वहाँ श्रेष्ठ पुरुषको स्नान करना चाहिये । इसके फलस्वरूप वह मानव तिर्यग्योनिमें जन्म पानेसे मुक्त हो जाता है। किसी समृद्ध कुलमें उसका जन्म होता है। वागमती और मणिवती इन दोनों नदियोंमें थोड़ा भेद है। ऋषिलोग यहाँ निवास करते हैं। बुद्धिमान् पुरुषका कर्तव्य है कि वह काम और क्रोधसे रहित होकर विधानपूर्वक गङ्गाद्वारमें स्नान करे । वहाँ स्नान करनेका जो महान् पुण्यफल बताया गया है, उससे कहीं दसगुना अधिक फल उक्त नदियोंमें स्नान करनेसे प्राप्त होता है, इसमें कोई संदेह नहीं। इस क्षेत्रमें विद्याधर, सिद्ध, गन्धर्व, मुनि देवता और यक्ष- इनका समुदाय आकर स्नान करता और उपासनामें सदा संलग्न रहता है । यहाँपर यदि ब्राह्मणोंको थोड़ा भी धन दानमें दिया जाय तो उस दानका पुण्य फल अक्षय हो जाता है। अतएव देवताओ ! सब प्रकारसे प्रयत्न करके यहाँ धर्म – कार्यका सम्पादन करना चाहिये। यह ‘श्लेष्मातक ‘वन परमपुण्य क्षेत्र है। इसमें देवता निवास करते हैं। इससे बढ़कर दूसरा कोई उत्तम क्षेत्र है ही नहीं। प्रिय देववृन्द ! मैंने मृगका रूप धारण करके जहाँ-जहाँ विचरण किया अथवा बैठा और सोया करता था, वहाँ वहाँकी समूची, सब ओरकी भूमि सम्यक् प्रकारसे पुण्यक्षेत्र बन गयी है। सुरगणो! मेरे शृङ्गके ही ये तीन रूप बन गये थे, इसे भली प्रकार हृदयमें धारण कर लो। यह मेरा क्षेत्र पृथ्वीमें ‘गोकर्णेश्वर के नामसे प्रसिद्ध होगा।

इस प्रकार सनातन भगवान् रुद्रने देवताओंको आदेश देकर अपना रूप संवरण कर लिया। अब देवता उन्हें देखनेमें असमर्थ हो गये और वे उत्तर दिशाकी ओर चल पड़े।

अध्याय १६८ 'गोकर्णेश्वर' और 'शृङ्गेश्वर' आदिका माहात्म्य

भगवान् वराह कहते हैं- मुने! मृगका रूप धारण करनेवाले भगवान् शंकर जब वहाँसे अन्यत्र चले गये तो मुझ सहित उपस्थित सभी प्रधान देवताओंने पुनः परस्पर विचार करना प्रारम्भ किया। उस समयतक भगवान् शंकरका शृङ्ग तीन भागोंमें बँट चुका था। देवसमुदायने यत्नकर वैदिक कर्मके अनुसार भलीभाँति पृथक् पृथक् उनकी स्थापनाका प्रबन्ध किया। (भगवान् वराहका धरणीके प्रति कथन है – ) देवि ! वज्रपाणि इन्द्रके हाथमें सींगका अग्रभाग था। शक्तिशाली शंकरके शृङ्गका बिचला भाग ( ब्रह्माजी कहते हैं -) मैंने ले रखा था। फिर देवराजने तथा मैंने उन भागोंको वहीं विधिपूर्वक स्थापित कर दिया। तब देवताओं, सिद्धों, देवर्षियों और ब्रह्मर्षियोंके प्रयाससे वह इस परम विशिष्ट मूर्तिकी ‘गोकर्ण’ नामसे प्रतिष्ठा हो गयी। श्रीहरिके हाथमें शृङ्गका मूलभाग पड़ा था। उन्होंने देवतीर्थसे उसकी स्थापना कर दी। वह विशाल विग्रह ‘ शृङ्गेश्वर ‘के नामसे वहाँ सुशोभित हुआ। शृङ्गमें तीन रूप धारण करके भगवान् शिव विराजते थे। वे ही उन सभी स्थानोंमें प्रतिष्ठित हो गये। वस्तुतः वे एक ही अनेक रूपोंमें अभिव्यक्त हैं। उन्होंने उस मृगके शरीरमें अपने सौ भागोंको स्थान दिया था। फिर उस श्रङ्गमें तीन प्रकारसे विभक्त भागोंको स्थापितकर सम्पूर्ण ऐश्वयसे सम्पन्न भगवान् शंकर उस मृगरूपी शरीरसे पृथक् होकर हिमालय पर्वतके शिखरपर पधार गये। पर्वतोंके राजा हिमालयपर सर्वसमर्थ शिवकी सैकड़ों मूर्तियाँ सुप्रतिष्ठित हैं। ये तीन प्रकारके विग्रह प्रभुके एक सींगमें ही सर्वप्रथम सुशोभित थे ।

भगवान् शंकर समस्त संसारके शासक हैं। देवता और दानव सभी उन्हें अपना गुरु मानते हैं। उस समय उन सभीने अत्यन्त कठिन तपस्याके द्वारा भगवान् शिवकी आराधना की और अनेक प्रकारके वर प्राप्त किये। ‘ श्लेष्मातक ‘वनका समस्त भूभाग चारों ओरसे देवताओं, दानवों, गन्धर्वो यक्षों और महोरगोंके द्वारा भरा रहता था। तीर्थयात्राके विचारसे वे वहाँ आते और प्रदक्षिणा करनेमें संलग्न हो जाते थे। तीर्थोके दर्शनसे फल प्राप्त होता है- यह भावना उनके मनमें भरी रहती थी तथा इस क्षेत्रका महान् फल भी उन्हें विदित था । प्रायः सभी सुरगण जहाँ- जहाँ तीर्थ हैं, वहाँ जाते और उस स्थानसे पुनः इस ‘श्लेष्मातक ‘तीर्थमें पधारते थे। एक दिन पुलस्त्य ऋषिका पौत्र रावण भी वहाँ आया । उसके साथ उसके दोनों भाई भी वहाँ आये थे। उसने अत्यन्त उग्र तपस्या करके भगवान् शंकरकी आराधना की। वहाँ सनातन श्रीशिवजी ‘गोकर्णेश्वर’ नामसे प्रतिष्ठित थे। जब रावणने उनकी असीम शुश्रूषा की, तब वे वर देनेमें कुशल प्रभु स्वयं उसपर संतुष्ट हो गये। ऐसी स्थितिमें रावणने तीनों लोकोंपर विजय पानेके लिये उनसे वर माँग लिया । अन्तमें भगवान् शंकरकी कृपासे उसकी सारी मन:कामनाएँ पूरी हो गयीं। उन परम प्रभुने रावणकी बार-बार सहायता की। फिर उसी क्षण त्रिलोकीपर विजय प्राप्त करनेके विचारसे उसने अपने नगरसे प्रस्थान कर दिया। तीनों लोकोंको जीतकर उसने इन्द्रपर भी अपना अधिकार जमा लिया। इन्द्रजित् नामका उसका पुत्र उसे सहयोग दे रहा था। उस समय बहुत पहले इन्द्रने जो भगवान् शम्भुके सींगका अग्रभाग लेकर अपने यहाँ स्थापित किया था, उसे अपने पुत्रसहित रावणने उखाड़ लिया। पर जब वह राक्षस उसे लेकर अपनी पुरीको जा रहा था और सिन्धुके तटपर पहुँचा तो उस मूर्तिको जमीनपर रखकर मुहूर्तभर संध्या करने लगा। फिर संध्या समाप्त होनेपर जब उसने उसे बलपूर्वक उठानेकी चेष्टा की तो वह उसे उठा न सका और वह मूर्ति वज्रके समान कठोर बन गयी। तब रावणने उसे वहीं छोड़ दिया और लङ्काकी यात्रा की। (भगवान् वराह पृथ्वीसे कहते हैं -) महामते ! तुम्हें इसी मूर्तिको ‘दक्षिणगोकर्णेश्वर’ समझना चाहिये। भूतपति भगवान् शंकर वहाँ स्वयं प्रतिष्ठित हुए हैं।’

ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! मैंने तुम्हें विस्तारके साथ ये सभी बातें कह सुनायीं। इसी तरह महात्मा गोकर्णकी उत्तर दिशामें भी प्रतिष्ठा हुई है। विप्रर्षे! जैसे दक्षिणमें भगवान् शृङ्गेश्वर ‘की प्रतिष्ठा हुई है, उसी क्रमसे उत्तरमें भगवान् ‘शैलेश्वर’ विराजते हैं। वत्स! मैं तुमसे इस क्षेत्रके तीर्थोकी महान् उत्पत्तिका प्रसङ्ग कह चुका । अब तुम मुझसे दूसरा कौन-सा प्रसङ्ग सुनना चाहते हो।

अध्याय १६९ वराहपुराणकी फल- श्रुति

सनत्कुमारजी कहते हैं- भगवन्! आपने यथावत् मेरी सभी शङ्काओं का निराकरणकर सारी बातें स्पष्ट कर दीं। मैं संशयकी बातें पूछता रहा और आप उन्हें भलीभाँति स्पष्ट करते रहे हैं। विश्वस्वरूप ‘स्थाणु’ जगदीश्वर भगवान् शंकर अप्रतिम तेजस्वी हैं। वे जंगलमें आनन्दपूर्वक विचर रहे थे। वह जंगल पुण्यक्षेत्र था। महाभाग जगत् का कल्याण करनेके लिये उनका विग्रह एवं शृङ्ग जिस प्रकार प्रतिष्ठित हुआ तथा जैसे वे स्थान तीर्थ बन गये, मैं उसे सुनना चाहता हूँ। जगत्प्रभो! आप यथार्थरूपसे उसका वर्णन करनेकी कृपा कीजिये ।

ब्रह्माजीने कहा महामुने! इन सभी तीर्थोंके फलका जो निश्चित रूप बतलाया गया है, उसका शेष भाग तुमसे पुलस्त्यजी कहेंगे*। तुम इस समय मुनियोंके अग्रणी बनकर इस वनमें विराजो । तात! तुम मेरे समान ही वेद और वेदाङ्गके तत्त्वको भलीभाँति जाननेवाले पुत्र हो । जो पुरुष इस प्रसङ्गको सुनेगा, वह सम्पूर्ण पापोंसे छूट जायगा। यही नहीं, वह यशस्वी, कीर्तिमान् होकर इस लोकमें और परलोकमें भी पूज्य होगा। चारों वर्णोंके व्यक्तियोंका कर्तव्य है कि वे मन और इन्द्रियोंको सावधान करके निरन्तर इस प्रसङ्गका श्रवण करें। यह कथानक परम मङ्गलस्वरूप, कल्याणमय, धर्म, अर्थ और कामका साधक, समस्त मनोरथोंका प्रदान करनेवाला, परम पवित्र, आयुवर्धक और विजय देनेमें सक्षम है। यह धन और यश देनेवाला, पापका नाशक, कल्याणकारी और शान्तिकारक है। इस पुराणको सुननेसे मनुष्यकी लोक-परलोकमें दुर्गति नहीं होती। जो मनुष्य प्रातः काल उठकर इसका श्रवण-कीर्तन करता है, वह स्वर्गमें प्रतिष्ठित होता है।

सूतजी कहते हैं – विप्रवरो ! परमेष्ठी प्रजापति ब्रह्माजीने सनत्कुमारजीसे ये सब बातें कहकर विराम लिया। उन सभी बातोंका मैंने भी आप लोगों से तत्त्वपूर्वक वर्णन किया। ऋषिवरो! भगवान् वराह और पृथ्वीदेवीके संवादका यह सारभाग है। जो व्यक्ति भक्तिपूर्वक सदा इसका पठन, `श्रवण अथवा मनन करेगा, वह सम्पूर्ण पापोंसे छूटकर परमगति प्राप्त करेगा। प्रभासक्षेत्र, नैमि षारण्य, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, ब्रह्मतीर्थ और अमरकण्टकमें जानेसे जो पुण्यफल प्राप्त होता है, उससे कोटिगुणा अधिक फल इस पुराणके श्रवण एवं पठनसे होता है। श्रेष्ठ ब्राह्मणको कपिला दान करनेपर जो फल मिलता है, उतना फल इस वराहपुराणके एक अध्यायका श्रवण करनेसे हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। पवित्र होकर सावधानीके साथ इस पुराणके दस अध्यायोंका श्रवण करनेपर मनुष्य ‘अग्निष्टोम’ एवं ‘अतिरात्र’ यज्ञोंके फलका भागी हो जाता है। जो बुद्धिमान् व्यक्ति उत्तम भक्तिके साथ निरन्तर इसका श्रवण करता रहता है, उसे भगवान् वराहके वचनानुसार यज्ञों, सभी दानों तथा अखिल तीर्थोंके अभिषेकका फल प्राप्त हो जाता है, इसमें कोई संदेहकी बात नहीं। पुत्रहीन व्यक्ति इसके श्रवणसे पुत्रको और पुत्रवान् सुन्दर पौत्रको प्राप्त करता है। जिसके घरमें यह वराहपुराण लिखित रूपमें रहता है और उसकी पूजा होती है, उसपर भगवान् नारायण पूर्ण संतुष्ट हो जाते हैं।

वसुंधरे ! इस पुराणका श्रवण करके सनातन भगवान् विष्णुकी भाँति चन्दन, पुष्प और वस्त्रों से पूजा करनी चाहिये और ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये। यदि राजा हो तो उसे अपनी शक्तिके अनुसार ग्राम आदिका दान करना चाहिये जो मानव पवित्र होकर संयतचित्तसे इस पुराणका श्रवण करके इसकी पूजा करता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे छूटकर श्रीहरिका सायुज्य प्राप्त कर लेता है

 

* श्रीवराहपुराण समाप्त