- अध्याय-01 कलिधर्म का निरूपण
- अध्याय-02 श्रीव्यास जी द्वारा कलियुग, शूद्र और स्त्रियों का महत्व का वर्णन
- अध्याय-03 श्रीव्यास जी द्वारा कलियुग, शूद्र और स्त्रियों का महत्व का वर्णन
- अध्याय-04 प्राकृत प्रलय का वर्णन
- अध्याय-05 आध्यात्मिक आदि त्रिविध तापों का वर्णन, भगवान तथा वासुदेव शव्दों की व्याख्या भगवान के पारमार्थिक स्वरुप का वर्णन
- अध्याय-06 केशिध्वज और खाण्डिक्य की कथा
- अध्याय-07 ब्रह्मायोग का निर्णय
- अध्याय-08 शिष्य परम्परा का माहात्म्य और उपसंहार
श्रीविष्णुपुराण षष्ठमअंश

अध्याय-01 कलिधर्म का निरूपण
श्रीमैत्रेयजी बोले- हे महामुने ! आपने सृष्टिरचना, वंश-परम्परा और मन्वन्तरोंकी स्थितिका तथा वंशोंके चरित्रोंका विस्तारसे वर्णन किया ॥१॥ अब मैं आपसे कल्पान्तमें होनेवाले महाप्रलय नामक संसारके उपसंहारका यथावत् वर्णन सुनना चाहता हूँ ॥२॥
श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय ! कल्पान्तके समय प्राकृत प्रलयमें जिस प्रकार जीवोंका उपसंहार होता है, वह सुनो ॥३॥ हे द्विजोत्तम ! मनुष्योंका एक मास पितृगणका एक दिन, एक वर्ष देवगणका और दो सहस्र चतुर्युग ब्रह्माका एक दिन-रात होता है ॥४॥ सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलि-ये चार युग हैं, इन सबका काल मिलाकर बारह हजार दिव्य वर्ष कहा जाता है ॥५॥ हे मैत्रेय ! आदि कृतयुग और अन्तिम कलियुगको छोड़कर शेष सब चतुर्युग स्वरूपसे एक समान हैं ॥६॥ जिस प्रकार आद्य सत्ययुगमें ब्रह्माजी जगत्की रचना करते हैं उसी प्रकार अन्तिम कलियुगमें वे उसका उपसंहार करते हैं ॥७॥
श्रीमैत्रेयजी बोले- हे भगवन् ! कलिके स्वरूपका विस्तारसे वर्णन कीजिये, जिसमें चार चरणोंवाले भगवान् धर्मका प्रायः लोप हो जाता है ॥८॥
श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय ! आप जो कलियुगका स्वरूप सुनना चाहते हैं सो उस समय जो कुछ होता है वह संक्षेपसे सुनिये ॥९॥ कलियुगमें मनुष्योंकी प्रवृत्ति वर्णाश्रम-धर्मानुकूल नहीं रहती और न वह ऋक्-साम-यजुरूप त्रयी-धर्मका सम्पादन करनेवाली ही होती है ॥१०॥ उस समय धर्मविवाह, गुरु-शिष्य-सम्बन्धकी स्थिति, दाम्पत्यक्रम और अग्निमें देवयज्ञक्रियाका क्रम भी नहीं रहता ॥११॥
कलियुगमें जो बलवान् होगा वही सबका स्वामी होगा चाहे किसी भी कुलमें क्यों न उत्पन्न हुआ हो, वह सभी वर्गों से कन्या ग्रहण करनेमें समर्थ होगा ॥१२॥ उस समय द्विजातिगण जिस-किसी उपायसे भी ‘दीक्षित’ हो जायेंगे और जैसी-तैसी क्रियाएँ ही प्रायश्चित्त मान ली जायँगी ॥१३॥ हे द्विज ! कलियुगमें जिसके मुखसे जो कुछ निकल जायगा वही शास्त्र समझा जायगा; उस समय सभी देवता होंगे और सभीके सब आश्रम होंगे ॥१४॥ उपवास, तीर्थाटनादि कायक्लेश, धन-दान तथा तप आदि अपनी रुचिके अनुसार अनुष्ठान किये हुए ही धर्म समझे जायँगे ॥१५॥
कलियुगमें अल्प धनसे ही लोगोंको धनाढ्यताका गर्व हो जायगा और केशोंसे ही स्त्रियोंको सुन्दरताका अभिमान होगा ॥१६॥ उस समय सुवर्ण, मणि, रत्न और वस्त्रोंके क्षीण हो जानेसे स्त्रियाँ केश-कलापोंसे ही अपनेको विभूषित करेंगी ॥१७॥ जो पति धनहीन होगा उसे स्त्रियाँ छोड़ देंगी । कलियुगमें धनवान् पुरुष ही स्त्रियोंका पति होगा ॥१८॥ जो मनुष्य अधिक धन देगा वही लोगोंका स्वामी होगा; यह धन-दानका सम्बन्ध ही स्वामित्वका कारण होगा, कुलीनता नहीं ॥१९॥
कलिमें सारा द्रव्य-संग्रह घर बनाने में ही समाप्त हो जायगा, बुद्धि धन-संचयमें ही लगी रहेगी, सारी सम्पत्ति अपने उपभोगमें ही नष्ट हो जायगी ॥२०॥
कलिकालमें स्त्रियाँ सुन्दर पुरुषकी कामनासे स्वेच्छाचारिणी होंगी तथा पुरुष अन्यायोपार्जित धनके इच्छुक होंगे ॥२१॥ हे द्विज ! कलियुगमें अपने सुहृदोंके प्रार्थना करनेपर भी लोग एक-एक दमड़ीके लिये भी स्वार्थहानि नहीं करेंगे ॥२२॥ कलिमें ब्राह्मणोंके साथ शूद्र आदि समानताका दावा करेंगे और दूध देनेके कारण ही गौओंका सम्मान होगा ॥२३॥
उस समय सम्पूर्ण प्रजा क्षुधाकी व्यथासे व्याकुल हो प्राय: अनावृष्टिके भयसे सदा आकाशकी ओर दृष्टि लगाये रहेगी ॥२४॥ मनुष्य तपस्वियोंके समान केवल कन्द, मूल और फल आदिके सहारे ही रहेंगे तथा अनावृष्टिके कारण दु:खी होकर आत्मघात करेंगे ॥२५॥
कलियुगमें असमर्थ लोग सुख और आनन्दके नष्ट हो जानेसे प्रायः सर्वदा दुर्भिक्ष तथा क्लेश ही भोगेंगे ॥२६॥ कलिके आनेपर लोग बिना स्नान किये ही भोजन करेंगे, अग्नि, देवता और अतिथिका पूजन न करेंगे और न पिण्डोदक क्रिया ही करेंगे ॥२७॥
उस समयकी स्त्रियाँ विषयलोलुप, छोटे शरीरवाली, अति भोजन करनेवाली, अधिक सन्तान पैदा करनेवाली और मन्दभाग्या होंगी ॥२८॥ वे दोनों हाथोंसे सिर खुजलाती हुई अपने गुरुजनों और पतियोंके आदेशका अनादरपूर्वक खण्डन करेंगी ॥२९॥ कलियुगकी स्त्रियाँ अपना ही पेट पालनेमें तत्पर, क्षुद्र चित्तवाली, शारीरिक शौचसे हीन तथा कटु और मिथ्या भाषण करनेवाली होंगी ॥३०॥ उस समयकी कुलांगनाएँ निरन्तर दुश्चरित्र परुषोंकी इच्छा रखनेवाली एवं दुराचारिणी होंगी तथा पुरुषोंके साथ असद्व्यवहार करेंगी ॥३१॥
ब्रह्मचारिगण वैदिक व्रत आदिसे हीन रहकर ही वेदाध्ययन करेंगे तथा गृहस्थगण न तो हवन करेंगे और न सत्पात्रको उचित दान ही देंगे ॥३२॥ वानप्रस्थ ग्राम्य भोजनको स्वीकार करेंगे और संन्यासी अपने मित्रादिके स्नेहबन्धनमें ही बँधे रहेंगे ॥३३॥
कलियुगके आनेपर राजालोग प्रजाकी रक्षा नहीं करेंगे, बल्कि कर लेनेके बहाने प्रजाका ही धन छीनेंगे ॥३४॥ उस समय जिस-जिसके पास बहुत-से हाथी, घोड़े और रथ होंगे वह-वह ही राजा होगा तथा जो-जो शक्तिहीन होगा वह-वह ही सेवक होगा ॥३५॥ वैश्यगण कृषि-वाणिज्यादि अपने कर्मोंको छोड़कर शिल्पकारी आदिसे जीवन-निर्वाह करते हुए शूद्रवृत्तियों में ही लग जायेंगे ॥३६॥ आश्रमादिके चिह्नसे रहित अधम शूद्रगण संन्यास लेकर भिक्षावृत्तिमें तत्पर रहेंगे और लोगोंसे सम्मानित होकर पाषण्ड-वृत्तिका आश्रय लेंगे ॥३७॥ प्रजाजन दुर्भिक्ष और करकी पीड़ासे अत्यन्त उपद्रवयुक्त और दुःखित होकर ऐसे देशोंमें चले जायँगे जहाँ गेहूँ और जौकी अधिकता होगी ॥३८॥
उस समय वेदमार्गका लोप, मनुष्योंमें पाषण्डकी प्रचुरता और अधर्मकी वृद्धि हो जानेसे प्रजाकी आयु अल्प हो जायगी ॥३९॥ लोगोंके शास्त्रविरुद्ध घोर तपस्या करनेसे तथा राजाके दोषसे प्रजाओंकी बाल्यावस्थामें मृत्यु होने लगेगी ॥४०॥
कलिमें पाँच-छ: अथवा सात वर्षकी स्त्री और आठ-नौ या दस वर्षके पुरुषोंके ही सन्तान हो जायगी ॥४१॥ बारह वर्षकी अवस्थामें ही लोगोंके बाल पकने लगेंगे और कोई भी व्यक्ति बीस वर्षसे अधिक जीवित न रहेगा ॥४२॥ कलियुगमें लोग मन्द-बुद्धि, व्यर्थ चिह्न धारण करनेवाले और दुष्ट चित्तवाले होंगे, इसलिये वे अल्पकालमें ही नष्ट हो जायँगे ॥४३॥
हे मैत्रेय ! जब-जब धर्मकी अधिक हानि दिखलायी दे तभी-तभी बुद्धिमान् मनुष्यको कलियुगकी वृद्धिका अनुमान करना चाहिये ॥४४॥ हे मैत्रेय ! जब-जब पाषण्ड बढ़ा हुआ दीखे तभी-तभी महात्माओंको कलियुगकी वृद्धि समझनी चाहिये ॥४५॥ जब-जब वैदिक मार्गका अनुसरण करनेवाले सत्पुरुषोंका अभाव हो तभी-तभी बुद्धिमान् मनुष्य कलिकी वृद्धि हुई जाने ॥४६॥ हे मैत्रेय ! जब धर्मात्मा पुरुषोंके आरम्भ किये हुए कार्यों में असफलता हो तब पण्डितजन कलियुगकी प्रधानता समझें ॥४७॥ जब-जब यज्ञोंके अधीश्वर भगवान् पुरुषोत्तमका लोग यज्ञोंद्वारा यजन न करें तब-तब कलिका प्रभाव ही समझना चाहिये ॥४८॥ जब वेद-वादमें प्रीतिका अभाव हो और पाषण्डमें प्रेम हो तब बुद्धिमान् प्राज्ञ पुरुष कलियुगको बढ़ा हुआ जानें ॥४९॥ हे मैत्रेय ! कलियुगमें लोग पाषण्डके वशीभूत हो जानेसे सबके रचयिता और प्रभु जगत्पति भगवान् विष्णुका पूजन नहीं करेंगे ॥५०॥ हे विप्र ! उस समय लोग पाषण्डके वशीभूत होकर कहेंगे- ‘इन देव, द्विज, वेद और जलसे होनेवाले शौचादिमें क्या रखा है ?’ ॥५१॥ हे विप्र ! कलिके आनेपर वृष्टि अल्प जलवाली होगी, खेती थोड़ी उपजवाली होगी और फलादि अल्प सारयुक्त होंगे ॥५२॥ कलियुगमें प्रायः सनके बने हुए सबके वस्त्र होंगे, अधिकतर शमीके वृक्ष होंगे और चारों वर्ण बहुधा शूद्रवत् हो जायँगे ॥५३॥ कलिके आनेपर धान्य अत्यन्त अणु होंगे, प्रायः बकरियोंका ही दूध मिलेगा और उशीर ही एकमात्र अनुलेपन होगा ॥५४॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! कलियुगमें सास और ससुर ही लोगोंके गुरुजन होंगे और हृदयहारिणी भार्या तथा साले ही सुहृद् होंगे ॥५५॥ लोग अपने ससुरके अनुगामी होकर कहेंगे कि ‘कौन किसका पिता है और कौन किसकी माता; सब पुरुष अपने कर्मानुसार जन्मते-मरते रहते हैं’ ॥५६॥
उस समय अल्पबुद्धि पुरुष बारम्बार वाणी, मन और शरीरादिके दोषोंके वशीभूत होकर प्रतिदिन पुनःपुनः पापकर्म करेंगे ॥५७॥ शक्ति, शौच और लज्जाहीन पुरुषोंको जो-जो दुःख हो सकते हैं कलियुगमें वे सभी दुःख उपस्थित होंगे ॥५८॥ उस समय संसारके स्वाध्याय और वषट्कारसे हीन तथा स्वधा और स्वाहासे वर्जित हो जानेसे कहीं-कहीं कुछ-कुछ धर्म रहेगा ॥५९॥ किन्तु कलियुगमें मनुष्य थोड़ा-सा प्रयत्न करनेसे ही जो अत्यन्त उत्तम पुण्यराशि प्राप्त करता है वही सत्ययुगमें महान् तपस्यासे प्राप्त किया जा सकता है ॥६०॥
इति श्रीविष्णुपुराणे षष्टेऽशे प्रथमोऽध्यायः
अध्याय-02 श्रीव्यास जी द्वारा कलियुग, शूद्र और स्त्रियों का महत्व का वर्णन
श्रीपराशरजी बोले- हे महाभाग ! इसी विषयमें महामति व्यासदेवने जो कुछ कहा है वह मैं यथावत् वर्णन करता हूँ, सुनो ॥१॥ एक बार मुनियोंमें पुण्यके विषयमें यह वार्तालाप हुआ कि ‘किस समयमें थोड़ा-सा पुण्य भी महान् फल देता है और कौन उसका सुखपूर्वक अनुष्ठान कर सकते हैं ?’ ॥२॥ हे मैत्रेय ! वे समस्त मुनिश्रेष्ठ इस सन्देहका निर्णय करनेके लिये महामुनि व्यासजीके पास यह प्रश्न पूछने गये ॥३॥ हे द्विज ! वहाँ पहुँचनेपर उन मुनिजनोंने मेरे पुत्र महाभाग व्यासजीको गंगाजीमें आधा स्नान किये देखा ॥४॥ वे महर्षिगण व्यासजीके स्नान कर चुकनेकी प्रतीक्षामें उस महानदीके तटपर वृक्षोंके तले बैठे रहे ॥५॥
उस समय गंगाजीमें डुबकी लगाये मेरे पुत्र व्यासने जलसे उठकर उन मुनिजनोंके सुनते हुए ‘कलियुग ही श्रेष्ठ है, शूद्र ही श्रेष्ठ है’ यह वचन कहा । ऐसा कहकर उन्होंने फिर जलमें गोता लगाया और फिर उठकर कहा-“शूद्र ! तुम ही श्रेष्ठ हो, तुम ही धन्य हो” ॥६-७॥ यह कहकर वे महामुनि फिर जलमें मग्न हो गये और फिर खड़े होकर बोले-“स्त्रियाँ ही साधु हैं, वे ही धन्य हैं, उनसे अधिक धन्य और कौन है ?” ॥८॥
तदनन्तर जब मेरे महाभाग पुत्र व्यासजी स्नान करनेके अनन्तर नियमानुसार नित्यकर्मसे निवृत्त होकर आये तो वे मुनिजन उनके पास पहुँचे ॥९॥ वहाँ आकर जब वे यथायोग्य अभिवादनादिके अनन्तर आसनोंपर बैठ गये तो सत्यवतीनन्दन व्यासजीने उनसे पूछा-“आपलोग कैसे आये हैं?” ॥१०॥
तब मुनियोंने उनसे कहा- “हमलोग आपसे एक सन्देह पूछनेके लिये आये थे, किंतु इस समय उसे तो जाने दीजिये, एक और बात हमें बतलाइये ॥११॥ भगवन् ! आपने जो स्नान करते समय कई बार कहा था कि कलियुग ही श्रेष्ठ है, शूद्र ही श्रेष्ठ हैं, स्त्रियाँ ही साधु और धन्य हैं; सो क्या बात है ? हम यह सम्पूर्ण विषय सुनना चाहते हैं । हे महामुने ! यदि गोपनीय न हो तो कहिये । इसके पीछे हम आपसे अपना आन्तरिक सन्देह पूछेगे” ॥१२-१३॥
श्रीपराशरजी बोले- मुनियोंके इस प्रकार पूछनेपर व्यासजीने हँसते हुए कहा- “हे मुनिश्रेष्ठो ! मैंने जो इन्हें बारम्बार साधु-साधु कहा था, उसका कारण सुनो ॥१४॥
श्रीव्यासजी बोले- हे द्विजगण ! जो फल सत्ययुगमें दस वर्ष तपस्या, ब्रह्मचर्य और जप आदि करनेसे मिलता है उसे मनुष्य त्रेतामें एक वर्ष, द्वापरमें एक मास और कलियुगमें केवल एक दिन-रातमें प्राप्त कर लेता है, इस कारण ही मैंने कलियुगको श्रेष्ठ कहा है ॥१५-१६॥ जो फल सत्ययुगमें ध्यान, त्रेतामें यज्ञ और द्वापरमें देवार्चन करनेसे प्राप्त होता है वही कलियुगमें श्रीकृष्णचन्द्रका नाम-कीर्तन करनेसे मिल जाता है ॥१७॥ हे धर्मज्ञगण ! कलियुगमें थोड़े-से परिश्रमसे ही पुरुषको महान् धर्मकी प्राप्ति हो जाती है, इसीलिये मैं कलियुगसे अति सन्तुष्ट हूँ ॥१८॥
द्विजातियोंको पहले ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करते हुए वेदाध्ययन करना पड़ता है और फिर स्वधर्माचरणसे उपार्जित धनके द्वारा विधिपुर्वक यज्ञ करने पड़ते हैं ॥१९॥ इसमें भी व्यर्थ वार्तालाप, व्यर्थ भोजन और व्यर्थ यज्ञ उनके पतनके कारण होते हैं; इसलिये उन्हें सदा संयमी रहना आवश्यक है ॥२०॥ सभी कामों में अनुचित करनेसे उन्हें दोष लगता है; यहाँतक कि भोजन और पानादि भी वे अपने इच्छानुसार नहीं भोग सकते ॥२१॥ क्योंकि उन्हें सम्पर्ण कार्योंमें परतन्त्रता रहती है । हे द्विजगण ! इस प्रकार वे अत्यन्त क्लेशसे पुण्य-लोकोंको प्राप्त करते हैं ॥२२॥
किंतु जिसे केवल पाक-यज्ञका ही अधिकार है वह शूद्र द्विजोंकी सेवा करनेसे ही सद्गति प्राप्त कर लेता है, इसलिये वह अन्य जातियोंकी अपेक्षा धन्यतर है ॥२३॥ हे मुनिशार्दूलो ! शूद्रको भक्ष्याभक्ष्य अथवा पेयापेयका कोई नियम नहीं है, इसलिये मैंने उसे साधु कहा है ॥२४॥
पुरुषोंको अपने धर्मानुकूल प्राप्त किये हुए धनसे ही सर्वदा सुपात्रको दान और विधिपूर्वक यज्ञ करना चाहिये ॥२५॥ हे द्विजोत्तमगण ! इस द्रव्यके उपार्जन तथा रक्षणमें महान् क्लेश होता है और उसको अनुचित कार्यमें लगानेसे भी मनष्योंको जो कष्ट भोगना पड़ता है वह मालूम ही है ॥२६॥ इस प्रकार हे द्विजसत्तमो ! पुरुषगण इन तथा ऐसे ही अन्य कष्टसाध्य उपायोंसे क्रमशः प्राजापत्य आदि शुभ लोकोंको प्राप्त करते हैं ॥२७॥ किंतु स्त्रियाँ तो तन-मन-वचनसे पतिकी सेवा करनेसे ही उनकी हितकारिणी होकर पतिके समान शुभ लोकोंको अनायास ही प्राप्त कर लेती हैं जो कि पुरुषोंको अत्यन्त परिश्रमसे मिलते हैं । इसीलिये मैंने तीसरी बार यह कहा था कि ‘स्त्रियाँ साधु हैं’ ॥२८-२९॥ “हे विप्रगण ! मैंने आपलोगोंसे यह कह दिया, अब आप जिसलिये पधारे हैं वह इच्छानुसार पूछिये । मैं आपसे सब बातें स्पष्ट करके कह दूँगा” ॥३०॥ तब ऋषियोंने कहा- “हे महामुने ! हमें जो कुछ पूछना था उसका यथावत् उत्तर आपने इसी प्रश्नमें दे दिया है ॥३१॥
श्रीपराशरजी बोले- तब मुनिवर कृष्णद्वैपायनने विस्मयसे खिले हुए नेत्रोंवाले उन समागत तपस्वियोंसे हँसकर कहा ॥३२॥ मैं दिव्य दृष्टिसे आपके इस प्रश्नको जान गया था इसीलिये मैंने आपलोगोंके प्रसंगसे ही ‘साधु-साधु’ कहा था ॥३३॥ जिन पुरुषोंने गुणरूप जलसे अपने समस्त दोष धो डाले हैं उनके थोड़े-से प्रयत्नसे ही कलियुगमें धर्म सिद्ध हो जाता है ॥३४॥ हे द्विजश्रेष्ठो ! शूद्रोंको द्विजसेवापरायण होनेसे और स्त्रियोंको पतिकी सेवामात्र करनेसे ही अनायास धर्मकी सिद्धि हो जाती है ॥३५॥ इसीलिये मेरे विचारसे ये तीनों धन्यतर हैं, क्योंकि सत्ययुगादि अन्य तीन युगोंमें भी द्विजातियोंको ही धर्म सम्पादन करनेमें महान् क्लेश उठाना पड़ता है ॥३६॥ हे धर्मज्ञं ब्राह्मणो ! इस प्रकार आपलोगोंका जो अभिप्राय था वह मैंने आपके बिना पूछे ही कह दिया, अब और क्या करूँ ?” ॥३७॥
श्रीपराशरजी बोले- तदनन्तर उन्होंने व्यासजीका पूजनकर उनकी बारम्बार प्रशंसा की और उनके कथनानुसार निश्चयकर जहाँसे आये थे वहाँ चले गये ॥३८॥ हे महाभाग मैत्रेयजी ! आपसे भी मैंने यह रहस्य कह दिया । इस अत्यन्त दुष्ट कलियुगमें यही एक महान् गुण है कि इस युगमें केवल कृष्णचन्द्रका नाम-संकीर्तन करनेसे ही मनुष्य परमपद प्राप्त कर लेता है ॥३९॥ अब आपने मुझसे जो संसारके उपसंहारप्राकृत प्रलय और अवान्तर प्रलयके विषयमें पूछा था । वह भी सुनाता हूँ ॥४०॥
इति श्रीविष्णुपुराणे षष्टेऽशे द्वितीयोऽध्यायः
अध्याय-03 श्रीव्यास जी द्वारा कलियुग, शूद्र और स्त्रियों का महत्व का वर्णन
श्रीपराशरजी बोले- सम्पूर्ण प्राणियोंका प्रलय नैमित्तिक, प्राकृतिक और आत्यन्तिक तीन प्रकारका होता है ॥१॥ उनमेंसे जो कल्पान्तमें ब्राह्म प्रलय होता । है वह नैमित्तिक, जो मोक्ष नामक प्रलय है वह । आत्यन्तिक और जो दो परार्द्धके अन्तमें होता है वह । प्राकृत प्रलय कहलाता है॥२॥
श्रीमैत्रेयजी बोले- भगवन् ! आप मुझे परार्द्धकी संख्या बतलाइये, जिसको दूना करनेसे प्राकृत प्रलयका परिमाण जाना जा सके ॥३॥
श्रीपराशरजी बोले- हे द्विज ! एकसे लेकर क्रमश: दशगुण गिनते-गिनते जो अठारहवीं बार* गिनी जाती है वह संख्या परार्द्ध कहलाती है ॥४॥ हे द्विज ! इस परार्द्धकी दूनी संख्यावाला प्राकृत प्रलय है, उस समय यह सम्पूर्ण जगत् अपने कारण अव्यक्तमें लीन हो जाता है ॥५॥ मनुष्यका निमेष ही एक मात्रावाले अक्षरके उच्चारण-कालके समान परिमाणवाला होनेसे मात्रा कहलाता है; उन पन्द्रह निमेषोंकी एक काष्ठा होती है और तीस काष्ठाकी एक कला कही जाती है ॥६॥ पन्द्रह कला एक नाडिकाका प्रमाण है । वह नाडिका साढ़े बारह पल ताँबेके बने हुए जलके पात्रसे जानी जा सकती है ॥७॥
मगधदेशीय मापसे वह पात्र जलप्रस्थ कहलाता है; उसमें चार अंगुल लम्बी चार मासेकी सुवर्ण-शलाकासे छिद्र किया रहता है [उसके छिद्रको ऊपर करके जलमें डुबो देनेसे जितनी देरमें वह पात्र भर जाय उतने ही समयको एक नाडिका समझना चाहिये] ॥८॥ हे द्विजसत्तम ! ऐसी दो नाडिकाओंका एक मुहूर्त होता है, तीस मुहूर्तका एक दिन-रात होता है तथा इतने (तीस) ही दिन-रातका एक मास होता है ॥९॥ बारह मासका एक वर्ष होता है, देवलोकमें यही एक दिन-रात होता है । ऐसे तीन सौ साठ वर्षोंका देवताओंका एक वर्ष होता है ॥१०॥ ऐसे बारह हजार दिव्य वर्षोंका एक चतुर्युग होता है और एक हजार चतुर्युगका ब्रह्माका एक दिन होता है ॥११॥
हे महामुने ! यही एक कल्प है । इसमें चौदह मनु बीत जाते हैं । हे मैत्रेय! इसके अन्तमें ब्रह्माका नैमित्तिक प्रलय होता है ॥१२॥ हे मैत्रेय ! सुनो, मैं उस नैमित्तिक प्रलयका अत्यन्त भयानक रूप वर्णन करता हूँ । इसके पीछे मैं तुमसे प्राकृत प्रलयका भी वर्णन करूँगा ॥१३॥ एक सहस्र चतुर्युग बीतनेपर जब पृथिवी क्षीणप्राय हो जाती है तो सौ वर्षतक अति घोर अनावृष्टि होती है ॥१४॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! उस समय जो पार्थिव जीव अल्प शक्तिवाले होते हैं वे सब अनावृष्टिसे पीड़ित होकर सर्वथा नष्ट हो जाते हैं ॥१५॥ तदनन्तर, रुद्ररूपधारी अव्ययात्मा भगवान् विष्णु संसारका क्षय करनेके लिये सम्पूर्ण प्रजाको अपनेमें लीन कर लेनेका प्रयत्न करते हैं ॥१६॥ हे मुनिसत्तम ! उस समय भगवान् विष्णु सूर्यकी सातों किरणोंमें स्थित होकर सम्पूर्ण जलको सोख लेते हैं ॥१७॥ हे मैत्रेय ! इस प्रकार प्राणियों तथा पृथिवीके अन्तर्गत सम्पूर्ण जलको सोखकर वे समस्त भूमण्डलको शुष्क कर देते हैं ॥१८॥ समुद्र तथा नदियोंमें, पर्वतीय सरिताओं और स्रोतोंमें तथा विभिन्न पातालोंमें जितना जल है वे उस सबको सुखा डालते हैं ॥१९॥ तब भगवान्के प्रभावसे प्रभावित होकर तथा जलपानसे पुष्ट होकर वे सातों सूर्यरश्मियाँ सात सूर्य हो जाती हैं ॥२०॥ हे द्विज ! उस समय ऊपर-नीचे सब ओर देदीप्यमान होकर वे सातों सूर्य पातालपर्यन्त सम्पूर्ण त्रिलोकीको भस्म कर डालते हैं ॥२१॥ हे द्विज ! उन प्रदीप्त भास्करोंसे दग्ध हुई त्रिलोकी पर्वत, नदी और समुद्रादिके सहित सर्वथा नीरस हो जाती है ॥२२॥ उस समय सम्पूर्ण त्रिलोकीके वृक्ष और जल आदिके दग्ध हो जानेसे यह पृथिवी कछुएकी पीठके समान कठोर हो जाती है ॥२३॥
तब सबको नष्ट करनेके लिये उद्यत हुए श्रीहरि कालाग्नि-रुद्ररूपसे शेषनागके मुखसे प्रकट होकर नीचेसे पातालोंको जलाना आरम्भ करते हैं ॥२४॥ वह महान् अग्नि समस्त पातालोंको जलाकर पृथिवीपर पहुँचता है और सम्पूर्ण भूतलको भस्म कर डालता है ॥२५॥ तब वह दारुण अग्नि भुवर्लोक तथा स्वर्गलोकको जला डालता है और वह ज्वाला-समूहका महान् आवर्त वहीं चक्कर लगाने लगता है ॥२६॥ इस प्रकार अग्निके आवर्तोंसे घिरकर सम्पूर्ण चराचरके नष्ट हो जानेपर समस्त त्रिलोकी एक तप्त कराहके समान प्रतीत होने लगती है ॥२७॥ हे महामुने ! तदनन्तर अवस्थाके परिवर्तनसे परलोककी चाहवाले भुवर्लोक और स्वर्गलोकमें रहनेवाले [मन्वादि] अधिकारिगण अग्निज्वालासे सन्तप्त होकर महर्लोकको चले जाते हैं किन्तु वहाँ भी उस उग्र कालानलके महातापसे सन्तप्त होनेके कारण वे उससे बचनेके लिये जनलोकमें चले जाते हैं ॥२८-२९॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! तदनन्तर रुद्ररूपी भगवान् विष्णु सम्पूर्ण संसारको दग्ध करके अपने मुख-नि:श्वाससे मेघोंको उत्पन्न करते हैं ॥३०॥ तब विद्युत्से युक्त भयंकर गर्जना करनेवाले गजसमूहके समान बृहदाकार संवर्तक नामक घोर मेघ आकाशमें उठते हैं ॥३१॥ उनमें से कोई मेघ नील कमलके समान श्यामवर्ण, कोई कुमुद-कुसुमके समान श्वेत, कोई धूम्रवर्ण और कोई पीतवर्ण होते हैं ॥३२॥ कोई गधेके-से वर्णवाले, कोई लाखके-से रंगवाले, कोई वैडूर्य-मणिके समान और कोई इन्द्रनील-मणिके समान होते हैं ॥३३॥ कोई शंख और कुन्दके समान श्वेत-वर्ण, कोई जाती (चमेली)-के समान उज्ज्वल और कोई कज्जलके समान श्यामवर्ण, कोई इन्द्रगोपके समान रक्तवर्ण और कोई मयूरके समान विचित्र वर्णवाले होते हैं ॥३४॥ कोई गेरूके समान, कोई हरितालके समान और कोई महामेघ, नील-कण्ठके पंखके समान रंगवाले होते हैं ॥३५॥ कोई नगरके समान, कोई पर्वतके समान और कोई कूटागार (गृहविशेष)-के समान बृहदाकार होते हैं तथा कोई पृथिवीतलके समान विस्तृत होते हैं ॥३६॥ वे घनघोर शब्द करनेवाले महाकाय मेघगण आकाशको आच्छादित कर लेते हैं और मूसलाधार जल बरसाकर त्रिलोकव्यापी भयंकर अग्निको शान्त कर देते हैं ॥३७॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! अग्निके नष्ट हो जानेपर भी अहर्निश निरन्तर बरसते हुए वे मेघ सम्पूर्ण जगत्को जलमें डुबो देते हैं ॥३८॥
हे द्विज ! अपनी अति स्थूल धाराओंसे भूर्लोकको जलमें डुबोकर वे भुवर्लोक तथा उसके भी ऊपरके लोकोंको भी जलमग्न कर देते हैं ॥३९॥ इस प्रकार सम्पूर्ण संसारके अन्धकारमय हो जानेपर तथा सम्पूर्ण स्थावर-जंगम जीवोंके नष्ट हो जानेपर भी वे महामेघ सौ वर्षसे अधिक कालतक बरसते रहते हैं ॥४०॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! सनातन परमात्मा वासुदेवके माहात्म्यसे कल्पान्तमें इसी प्रकार यह समस्त विप्लव होता है ॥४१॥
इति श्रीविष्णुपुराणे षष्टेऽशे तृतीयोऽध्यायः
अध्याय-04 प्राकृत प्रलय का वर्णन
श्रीपराशरजी बोले- हे महामुने ! जब जल सप्तर्षियोंके स्थानको भी पार कर जाता है तो यह सम्पूर्ण त्रिलोकी एक महासमुद्रके समान हो जाती है ॥१॥ हे मैत्रेय ! तदनन्तर, भगवान् विष्णुके मुखनिःश्वाससे प्रकट हुआ वायु उन मेघोंको नष्ट करके पुनः सौ वर्षतक चलता रहता है ॥२॥ फिर जनलोकनिवासी सनकादि सिद्धगणसे स्तुत और ब्रह्मलोकको प्राप्त हुए मुमुक्षुओंसे ध्यान किये जाते हुए सर्वभूतमय, अचिन्त्य, अनादि, जगत्के आदिकारण, आदिकर्ता, भूतभावन, मधुसूदन भगवान् हरि विश्वके सम्पूर्ण वायुको पीकर अपनी दिव्य-मायारूपिणी योगनिद्राका आश्रय ले अपने वासुदेवात्मक स्वरूपका चिन्तन करते हुए उस महासमुद्रमें शेषशय्यापर शयन करते हैं ॥३-६॥ हे मैत्रेय ! इस प्रलयके होनेमें ब्रह्मारूपधारी भगवान् हरिका शयन करना ही निमित्त है; इसलिये यह नैमित्तिक प्रलय कहलाता है ॥७॥ जिस समय सर्वात्मा भगवान् विष्णु जागते रहते हैं उस समय सम्पूर्ण संसारकी चेष्टाएँ होती रहती हैं और जिस समय वे अच्युत मायारूपी शय्यापर सो जाते हैं उस समय संसार भी लीन हो जाता है ॥८॥ जिस प्रकार ब्रह्माजीका दिन एक हजार चतुर्युगका होता है उसी प्रकार संसारके एकार्णवरूप हो जानेपर उनकी रात्रि भी उतनी ही बड़ी होती है ॥९॥
उस रात्रिका अन्त होनेपर अजन्मा भगवान् विष्णु जागते हैं और ब्रह्मारूप धारणकर, जैसा तुमसे पहले कहा था उसी क्रमसे फिर सृष्टि रचते हैं ॥१०॥
हे द्विज ! इस प्रकार तुमसे कल्पान्तमें होनेवाले नैमित्तिक एवं अवान्तर-प्रलयका वर्णन किया । अब दूसरे प्राकृत प्रलयका वर्णन सुनो ॥११॥ हे मुने ! अनावृष्टि आदिके संयोगसे सम्पूर्ण लोक और निखिल पातालोंके नष्ट हो जानेपर तथा भगवदिच्छासे उस प्रलयकालके उपस्थित होनेपर जब महत्तत्त्वसे लेकर विशेषपर्यन्त सम्पूर्ण विकार क्षीण हो जाते हैं तो प्रथम जल पृथिवीके गुण गन्धको अपनेमें लीन कर लेता है । इस प्रकार गन्ध छिन लिये जानेसे पृथिवीका प्रलय हो जाता है ॥१२-१४॥ गन्ध-तन्मात्राके नष्ट हो जानेपर पृथिवी जलमय हो जाती है, उस समय बड़े वेगसे घोर शब्द करता हुआ जल बढ़कर इस सम्पूर्ण जगतको व्याप्त कर लेता है । यह जल कभी स्थिर होता और कभी बहने लगता है । इस प्रकार तरंगमालाओंसे पूर्ण इस जलसे सम्पूर्ण लोक सब ओरसे व्याप्त हो जाते हैं ॥१५-१६॥ तदनन्तर जलके गुण रसको तेज अपनेमें लीन कर लेता है । इस प्रकार रस-तन्मात्राका क्षय हो जानेसे जल भी नष्ट हो जाता है ॥१७॥ तब रसहीन हो जानेसे जल अग्निरूप हो जाता है तथा अग्निके सब ओर व्याप्त हो जानेसे जलके अग्निमें स्थित हो जानेपर वह अग्नि सब ओर फैलकर सम्पूर्ण जलको सोख लेता है और धीरे-धीरे यह सम्पूर्ण जगत् ज्वालासे पूर्ण हो जाता है ॥१८-१९॥ जिस समय सम्पूर्ण लोक ऊपर-नीचे तथा सब ओर अग्नि-शिखाओंसे व्याप्त हो जाता है उस समय अग्निके प्रकाशक स्वरूपको वायु अपनेमें लीन कर लेता है ॥२०॥ सबके प्राणस्वरूप उस वायुमें जब अग्निका प्रकाशक रूप लीन हो जाता है तो रूप-तन्मात्राके नष्ट हो जानेसे अग्नि रूपहीन हो जाता है ॥२१॥ उस समय संसारके प्रकाशहीन और तेजके वायुमें लीन हो जानेसे अग्नि शान्त हो जाता है और अति प्रचण्ड वायु चलने लगता है ॥२२॥ तब अपने उद्भवस्थान आकाशका आश्रय कर वह प्रचण्ड वायु ऊपर-नीचे तथा सब ओर दसों दिशाओंमें बड़े वेगसे चलने लगता है ॥२३॥ तदनन्तर वायुके गुण स्पर्शको आकाश लीन कर लेता है; तब वायु शान्त हो जाता है और आकाश आवरणहीन हो जाता है ॥२४॥ उस समय रूप, रस, स्पर्श, गन्ध तथा आकारसे रहित अत्यन्त महान् एक आकाश ही सबको व्याप्त करके प्रकाशित होता है ॥२५॥
उस समय चारों ओरसे गोल, छिद्रस्वरूप, शब्दलक्षण आकाश ही शेष रहता है; और वह शब्दमात्र आकाश सबको आच्छादित किये रहता है ॥२६॥ तदनन्तर, आकाशके गुण शब्दको भूतादि ग्रस लेता है । इस भूतादिमें ही एक साथ पंचभूत और इन्द्रियोंका भी लय हो जानेपर केवल अहंकारात्मक रह जानेसे यह तामस कहलाता है फिर इस भूतादिको भी बुद्धिरूप महत्तत्त्व ग्रस लेता है ॥२७-२८॥ जिस प्रकार पृथ्वी और महत्तत्त्व ब्रह्माण्डके अन्तर्जगत्की आदि-अन्त सीमाएँ हैं उसी प्रकार उसके बाह्य जगत्का भी हैं ॥२९॥ हे महाबुद्धे ! इसी तरह जो सात आवरण बताये गये हैं वे सब भी प्रलयकालमें परस्पर लीन हो जाते हैं ॥३०॥ जिससे यह समस्त लोक व्याप्त है वह सम्पूर्ण भूमण्डल सातों द्वीप, सातों समुद्र, सातों लोक और सकल पर्वतश्रेणियोंके सहित जलमें लीन हो जाता है ॥३१॥ फिर जो जलका आवरण है उसे अग्नि पी जाता है तथा अग्नि वायुमें और वायु आकाशमें लीन हो जाता है ॥३२॥ हे द्विज ! आकाशको भूतादि, भूतादिको महत्तत्त्व और इन सबके सहित महत्तत्त्वको मूल प्रकृति अपनेमें लीन कर लेती है ॥३३॥ हे महामुने ! न्यूनाधिकसे रहित जो सत्त्वादि तीनों गुणोंकी साम्यावस्था है उसीको प्रकृति कहते हैं; इसीका नाम प्रधान भी है । यह प्रधान ही सम्पूर्ण जगत्का परम कारण है ॥३४॥ यह प्रकृति व्यक्त और अव्यक्तरूपसे सर्वमयी है । हे मैत्रेय ! इसीलिये अव्यक्तमें व्यक्तरूप लीन हो जाता है ॥३५॥
इससे पृथक् जो एक शुद्ध, अक्षर, नित्य और सर्वव्यापक पुरुष है वह भी सर्वभूत परमात्माका अंश ही है ॥३६॥ जिस सत्तामात्रस्वरूप आत्मा से पृथक् रहनेवाले ज्ञानात्मा एवं ज्ञातव्य सर्वेश्वरमें नाम और जाति आदिकी कल्पना नहीं है वही सबका परम आश्रय परब्रह्म परमात्मा है और वही ईश्वर है । वह विष्णु ही इस अखिल विश्वरूपसे अवस्थित है उसको प्राप्त हो जानेपर योगिजन फिर इस संसारमें नहीं लौटते ॥३७-३८॥ जिस व्यक्त और अव्यक्तस्वरूपिणी प्रकृतिका मैंने वर्णन किया है वह तथा पुरुष-ये दोनों भी उस परमात्मामें ही लीन हो जाते हैं ॥३९॥ वह परमात्मा सबका आधार और एकमात्र अधीश्वर है; उसीका वेद और वेदान्तोंमें विष्णुनामसे वर्णन किया है ॥४०॥
वैदिक कर्म दो प्रकारका है- प्रवृत्तिरूप और निवृत्तिरूप । इन दोनों प्रकारके कर्मोंसे उस सर्वभूत पुरुषोत्तमका ही यजन किया जाता है ॥४१॥ ऋक्, यजुः और सामवेदोक्त प्रवृत्ति मार्गसे लोग उन यज्ञपति पुरुषोत्तम यज्ञ-पुरुषका ही पूजन करते हैं ॥४२॥ तथा निवृत्ति-मार्गमें स्थित योगिजन भी उन्हीं ज्ञानात्मा ज्ञानस्वरूप मुक्ति-फलदायक भगवान् विष्णुका ही ज्ञानयोगद्वारा यजन करते हैं ॥४३॥ ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत-इन त्रिविध स्वरोंसे जो कुछ कहा जाता है तथा जो वाणीका विषय नहीं है वह सब भी अव्ययात्मा विष्णु ही है ॥४४॥ वह विश्वरूपधारी विश्वरूप परमात्मा श्रीहरि ही व्यक्त, अव्यक्त एवं अविनाशी पुरुष हैं ॥४५॥ हे मैत्रेय ! उन सर्वव्यापक और अविकृतरूप परमात्मामें ही व्यक्ताव्यक्तरूपिणी प्रकृति और पुरुष लीन हो जाते हैं ॥४६॥
हे मैत्रेय ! मैंने तुमसे जो द्विपरार्द्धकाल कहा है वह उन विष्णुभगवान्का केवल एक दिन है ॥४७॥ हे महामुने ! व्यक्त जगत्के अव्यक्त-प्रकृतिमें और प्रकृतिके पुरुषमें लीन हो जानेपर इतने ही कालकी विष्णुभगवान्की रात्रि होती है ॥४८॥ हे द्विज ! वास्तवमें तो उन नित्य परमात्माका न कोई दिन है और न रात्रि, तथापि केवल उपचारसे ऐसा कहा जाता है ॥४९॥ हे मैत्रेय ! इस प्रकार मैंने तुमसे यह प्राकृत प्रलयका वर्णन किया, अब तुम आत्यन्तिक प्रलयका वर्णन और सुनो ॥५०॥
इति श्रीविष्णुपुराणे षष्टेऽशे चतुर्थोऽध्यायः
अध्याय-05 आध्यात्मिक आदि त्रिविध तापों का वर्णन, भगवान तथा वासुदेव शव्दों की व्याख्या भगवान के पारमार्थिक स्वरुप का वर्णन
श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय ! आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक-तीनों तापोंको जानकर ज्ञान और वैराग्य उत्पन्न होनेपर पण्डितजन आत्यन्तिक प्रलय प्राप्त करते हैं ॥१॥ आध्यात्मिक ताप शारीरिक और मानसिक दो प्रकारके होते हैं; उनमें शारीरिक तापके भी कितने ही भेद हैं, वह सुनो ॥२॥
शिरोरोग, प्रतिश्याय (पीनस), ज्वर, शूल, भगन्दर, गुल्म, अर्श (बवासीर), शोथ (सूजन), श्वास (दमा), छर्दि तथा नेत्ररोग, अतिसार और कुष्ठ आदि शारीरिक कष्ट-भेदसे दैहिक तापके कितने ही भेद हैं । अब मानसिक तापोंको सुनो ॥३-४॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! काम, क्रोध, भय, द्वेष, लोभ, मोह, विषाद, शोक, असूया (गुणोंमें दोषारोपण), अपमान, ईर्ष्या और मात्सर्य आदि भेदोंसे मानसिक तापके अनेक भेद हैं । ऐस ही नाना प्रकारके भेदोंसे युक्त तापको आध्यात्मिक कहते हैं ॥५-६॥ मनुष्योंको जो दु:ख मृग, पक्षी, मनुष्य, पिशाच, सर्प, राक्षस और सरीसृप (बिच्छू) आदिसे प्राप्त होता है उसे आधिभौतिक कहते हैं ॥७॥ तथा हे द्विजवर ! शीत, उष्ण, वायु, वर्षा, जल और विद्युत् आदिसे प्राप्त हुए दुःखको श्रेष्ठ पुरुष आधिदैविक कहते हैं ॥८॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! इनके अतिरिक्त गर्भ, जन्म, जरा, अज्ञान, मृत्यु और नरकसे उत्पन्न हुए दुःखके भी सहस्रों प्रकारके भेद हैं ॥९॥ अत्यन्त मलपूर्ण गर्भाशयमें उल्बसे लिपटा हुआ यह सुकुमारशरीर जीव, जिसकी पीठ और ग्रीवाकी अस्थियाँ कुण्डलाकार मुड़ी रहती हैं, माताके खाये हुए अत्यन्त तापप्रद खट्टे, कड़वे, चरपरे, गर्म और खारे पदार्थोंसे जिसकी वेदना बहुत बढ़ जाती है, जो मल-मूत्ररूप महापंकमें पड़ापड़ा सम्पूर्ण अंगोंमें अत्यन्त पीड़ित होनेपर भी अपने अंगोंको फैलाने या सिकोड़नेमें समर्थ नहीं होता और चेतनायुक्त होनेपर भी श्वास नहीं ले सकता, अपने सैकड़ों पूर्वजन्मोंका स्मरण कर कर्मोंसे बँधा हुआ अत्यन्त दुःखपूर्वक गर्भ में पड़ा रहता है ॥१०-१३॥ उत्पन्न होनेके समय उसका मुख मल, मूत्र, रक्त और वीर्य आदिमें लिपटा रहता है और उसके सम्पूर्ण अस्थिबन्धन प्राजापत्य वायुसे अत्यन्त पीड़ित होते हैं ॥१४॥ प्रबल प्रसूति-वायु उसका मुख नीचेको कर देती है और वह आतुर होकर बड़े क्लेशके साथ माताके गर्भाशयसे बाहर निकल पाता है ॥१५॥
हे मुनिसत्तम ! उत्पन्न होनेके अनन्तर बाह्य वायुका स्पर्श होनेसे अत्यन्त मुर्छित होकर वह जीव बेसुध हो जाता है ॥ १६॥ उस समय वह जीव दुर्गन्धयुक्त फोड़ेमेंसे गिरे हुए किसी कण्टक-विद्ध अथवा आरेसे चीरे हुए कीड़ेके समान पृथिवीपर गिरता है ॥१७॥ उसे स्वयं खुजलाने अथवा करवट लेनेकी भी शक्ति नहीं रहती । वह स्नान तथा दुग्धपानादि आहार भी दूसरेहीकी इच्छासे प्राप्त करता है ॥१८॥ अपवित्र बिस्तरपर पड़ा रहता है, उस समय कीड़े और डाँस आदि उसे काटते हैं तथापि वह उन्हें दूर करनेमें भी समर्थ नहीं होता ॥१९॥ इस प्रकार जन्मके समय और उसके अनन्तर बाल्यावस्थामें जीव आधिभौतिकादि अनेकों दुःख भोगता है ॥२०॥ अज्ञानरूप अन्धकारसे आवृत होकर मूढ़हृदय पुरुष यह नहीं जानता कि ‘मैं कहाँसे आया हूँ ? कौन हूँ ? कहाँ जाऊँगा ? तथा मेरा स्वरूप क्या है ? ॥२१॥ मैं किस बन्धनसे बँधा हूँ ? इस बन्धनका क्या कारण है ? अथवा यह अकारण ही प्राप्त हुआ है ? मुझे क्या करना चाहिये और क्या न करना चाहिये ? तथा क्या कहना चाहिये और क्या न कहना चाहिये ? ॥२२॥ धर्म क्या है ? अधर्म क्या है ? किस अवस्थामें मुझे किस प्रकार रहना चाहिये ? क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है ? अथवा क्या गुणमय और क्या दोषमय है ?’ ॥२३॥ इस प्रकार पशुके समान विवेकशून्य शिश्नोदरपरायण पुरुष अज्ञानजनित महान् दुःख भोगते हैं ॥२४॥
हे द्विज ! अज्ञान तामसिक भाव है, अत: अज्ञानी पुरुषोंकी कर्मोके आरम्भमें प्रवृत्ति होती है; इससे वैदिक कर्मोंका लोप हो जाता है ॥२५॥ मनीषिजनोंने कर्म-लोपका फल नरक बतलाया है; इसलिये अज्ञानी पुरुषोंको इहलोक और परलोक दोनों जगह अत्यन्त ही दुःख भोगना पड़ता है ॥२६॥ शरीरके जराजर्जरित हो जानेपर पुरुषके अंग-प्रत्यंग शिथिल हो जाते हैं, उसके दाँत पुराने होकर उखड़ जाते हैं और शरीर झुर्रियों तथा नस-नाड़ियोंसे आवृत हो जाता है ॥२७॥ उसकी दृष्टि दूरस्थ विषयके ग्रहण करने में असमर्थ हो जाती ह, नेत्रोंके तारे गोलकोंमें घस जाते हैं, नासिकाके रन्ध्रोंमेंसे बहुत-से रोम बाहर निकल आते हैं और शरीर काँपने लगता है ॥२८॥ उसकी समस्त हड्डियाँ दिखलायी देने लगती हैं, मेरुदण्ड झुक जाता है तथा जठराग्निके मन्द पड़ जानेसे उसके आहार और पुरुषार्थ कम हो जाते हैं ॥२९॥ उस समय उसकी चलना-फिरना, उठनाबैठना और सोना आदि सभी चेष्टाएँ बड़ी कठिनतासे होती हैं, उसके श्रोत्र और नेत्रोंकी शक्ति मन्द पड जाती है तथा लार बहते रहनेसे उसका मुख मलिन हो जाता है ॥३०॥ अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ स्वाधीन न रहनेके कारण वह सब प्रकार मरणासन्न हो जाता है तथा वह उसी समय अनुभव किये हुए समस्त पदार्थोंको भी भूल जाता है ॥३१॥
उसे एक वाक्य उच्चारण करनेमें भी महान् परिश्रम होता है तथा श्वास और खाँसी आदिके महान् कष्टके कारण वह जागता रहता है ॥३२॥ वृद्ध पुरुष औरोंकी सहायतासे ही उठता तथा औरोंके बिठानेसे ही बैठ सकता है, अतः वह अपने सेवक और स्त्री पुत्रादिके लिये सदा अनादरका पात्र बना रहता है ॥३३॥ उसका समस्त शौचाचार नष्ट हो जाता है तथा भोग और भोजनकी लालसा बढ़ जाती है । उसके परिजन भी उसकी हँसी उड़ाते हैं और बन्धुजन उससे उदासीन हो जाते हैं ॥३४॥ अपनी युवावस्थाकी चेष्टाओंको अन्य जन्ममें अनुभव की हुई-सी स्मरण करके वह अत्यन्त सन्तापवश दीर्घ निःश्वास छोड़ता रहता है ॥३५॥
इस प्रकार वृद्धावस्थामें ऐसे ही अनेकों दुःख अनुभव कर उसे मरणकालमें जो कष्ट भोगने पड़ते हैं वे भी सुनो ॥३६॥ कण्ठ और हाथ-पैर शिथिल पड़ जाते तथा शरीरमें अत्यन्त कम्प छा जाता है । बार-बार उसे ग्लानि होती और कभी कुछ चेतना भी आ जाती है ॥३७॥ उस समय वह अपने हिरण्य, धन-धान्य, पुत्र-स्त्री, भृत्य और गृह आदिके प्रति ‘इन सबका क्या होगा ?’ इस प्रकार अत्यन्त ममतासे व्याकुल हो जाता है ॥३८॥ उस समय मर्मभेदी क्रकच तथा यमराजके विकराल बाणके समान महाभयंकर रोगोंसे उसके प्राण-बन्धन कटने लगते हैं ॥३९॥ उसकी आँखोंके तारे चढ़ जाते हैं, वह अत्यन्त पीड़ासे बारम्बार हाथ-पैर पटकता है तथा उसके तालु और ओंठ सूखने लगते हैं ॥४०॥ फिर क्रमशः दोष-समूहसे उसका कण्ठ रुक जाता है अत: वह घरघर’ शब्द करने लगता है; तथा ऊर्ध्वश्वाससे पीड़ित और महान् तापसे व्याप्त होकर क्षुधा-तृष्णासे व्याकुल हो उठता है॥४१॥ ऐसी अवस्थामें भी यमदूतोंसे पीड़ित होता हुआ वह बड़े क्लेशसे शरीर छोड़ता है और अत्यन्त कष्टसे कर्मफल भोगनेके लिये यातना-देह प्राप्त करता है ॥४२॥ मरणकालमें मनुष्योंको ये और ऐसे ही अन्य भयानक कष्ट भोगने पड़ते हैं; अब, मरणोपरान्त उन्हें नरकमें जो यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं वह सुनो- ॥४३॥
प्रथम यम-किंकर अपने पाशोंमें बाँधते हैं; फिर उनके दण्ड-प्रहार सहने पड़ते हैं, तदनन्तर यमराजका दर्शन होता है और वहाँतक पहुँचनेमें बड़ा दुर्गम मार्ग देखना पड़ता है ॥४४॥
हे द्विज! फिर तप्त बालुका, अग्नि-यन्त्र और शस्त्रादिसे महाभयंकर नरकोंमें जो यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं वे अत्यन्त असह्य होती हैं ॥४५॥ आरेसे चीरे जाने, मूसमें तपाये जाने, कुल्हाड़ीसे काटे जाने, भूमिमें गाड़े जाने, शूलीपर चढ़ाये जाने, सिंहके मुखमें डाले जाने, गिद्धोंके नोचने, हाथियोंसे दलित होने, तेलमें पकाये जाने, खारे दलदल में फँसने, ऊपर ले जाकर नीचे गिराये जाने और क्षेपण-यन्त्रद्वारा दूर फेंके जानेसे नरकनिवासियोंको अपने पाप-कर्मोंके कारण जो-जो कष्ट उठाने पड़ते हैं उनकी गणना नहीं हो सकती ॥४६–४९॥
हे द्विजश्रेष्ठ ! केवल नरकमें ही दुःख हों, सो बात नहीं है, स्वर्गमें भी पतनका भय लगे रहनेसे कभी शान्ति नहीं मिलती ॥५०॥ बार-बार वह गर्भमें आता है और जन्म ग्रहण करता है तथा फिर कभी गर्भ में ही नष्ट हो जाता है और कभी जन्म लेते ही मर जाता है ॥५१॥ जो उत्पन्न हुआ है वह जन्मते ही, बाल्यावस्था, युवावस्थामें, मध्यमवयमें अथवा जराग्रस्त होनेपर अवश्य मर जाता है ॥५२॥ जबतक जीता है तबतक नाना प्रकारके कष्टोंसे घिरा रहता है, जिस तरह कि कपासका बीज तन्तुओंके कारण सूत्रोंसे घिरा रहता है ॥५३॥ द्रव्यके उपार्जन, रक्षण और नाशमें तथा इष्ट-मित्रोंके विपत्तिग्रस्त होनेपर भी मनुष्योंको अनेकों दु:ख उठाने पड़ते हैं ॥५४॥
हे मैत्रेय ! मनुष्योंको जो-जो वस्तुएँ प्रिय हैं, वे सभी दुःखरूपी वृक्षका बीज हो जाती हैं ॥५५॥ स्त्री, पुत्र, मित्र, अर्थ, गृह, क्षेत्र और धन आदिसे पुरुषोंको जैसा दुःख होता है वैसा सुख नहीं होता ॥५६॥ इस प्रकार सांसारिक दुःखरूप सूर्यके तापसे जिनका अन्त:करण तप्त हो रहा है उन पुरुषोंको मोक्षरूपी वृक्षकी छायाको छोड़कर और कहाँ सुख मिल सकता है ? ॥५७॥ अत: मेरे मतमें गर्भ, जन्म और जरा आदि स्थानोंमें प्रकट होनेवाले आध्यात्मिकादि त्रिविध दुःख-समूहकी एकमात्र सनातन ओषधि भगवत्प्राप्ति ही है जिसका निरतिशय आनन्दरूप सुखकी प्राप्ति कराना ही प्रधान लक्षण है ॥५८-५९॥ इसलिये पण्डितजनोंको भगवत्प्राप्तिका प्रयत्न करना चाहिये । हे महामुने ! कर्म और ज्ञान-ये दो ही उसकी प्राप्तिके कारण कहे गये हैं ॥६०॥
ज्ञान दो प्रकारका है- शास्त्रजन्य तथा विवेकज । शब्दब्रह्मका ज्ञान शास्त्रजन्य है और परब्रह्मका बोध विवेकज ॥६१॥ हे विप्रर्षे ! अज्ञान घोर अन्धकारके समान है । उसको नष्ट करनेके लिये शास्त्रजन्य* ज्ञान दीपकवत् और विवेकज ज्ञान सूर्यके समान है ॥६२॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! इस विषयमें वेदार्थका स्मरणकर मनुजीने जो कुछ कहा है वह बतलाता हूँ, श्रवण करो ॥१३॥
ब्रह्म दो प्रकारका है- शब्दब्रह्म और परब्रह्म । शब्दब्रह्ममें निपुण हो जानेपर जिज्ञासु परब्रह्मको प्राप्त कर लेता है ॥६४॥ अथर्ववेदकी श्रुति है कि विद्या दो प्रकारकी है-परा और अपरा । परासे अक्षर ब्रह्मकी प्राप्ति होती है और अपरा ऋगादि वेदत्रयीरूपा है ॥६५॥ जो अव्यक्त, अजर, अचिन्त्य, अज, अव्यय, अनिर्देश्य, अरूप, पाणि-पादादिशून्य, व्यापक, सर्वगत, नित्य, भूतोंका आदिकारण, स्वयं कारणहीन तथा जिससे सम्पूर्ण व्याप्य और व्यापक प्रकट हुआ है और जिसे पण्डितजन देखते हैं वह परमधाम ही ब्रह्म है, मुमुक्षुओंको उसीका ध्यान करना चाहिये और वही भगवान् विष्णुका वेदवचनोंसे प्रतिपादित अति सूक्ष्म परमपद है ॥६६-६८॥ परमात्माका वह स्वरूप ही भगवत्’ शब्दका वाच्य है और भगवत् शब्द ही उस आद्य एवं अक्षय स्वरूपका वाचक है ॥६९॥
जिसका ऐसा स्वरूप बतलाया गया है उस परमात्माके तत्त्वका जिसके द्वारा वास्तविक ज्ञान होता है वही परमज्ञान है । त्रयीमय ज्ञान इससे पृथक् है ॥७०॥ हे द्विज ! वह ब्रह्म यद्यपि शब्दका विषय नहीं है तथापि आदरप्रदर्शनके लिये उसका भगवत्’ शब्दसे उपचारतः कथन किया जाता है ॥७१॥ हे मैत्रेय ! समस्त कारणोंके कारण, महाविभूतिसंज्ञक परब्रह्मके लिये ही ‘भगवत्’ शब्दका प्रयोग हुआ है ॥७२॥ इसमें भकारके दो अर्थ हैं-पोषण करनेवाला और सबका आधार तथा गकारके अर्थ कर्म-फल प्राप्त करनेवाला, लय करनेवाला और रचयिता हैं ॥७३॥ सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य-इन छ:का नाम ‘भग’ है ॥७४॥ उस अखिल भूतात्मामें समस्त भतगण निवास करते हैं और वह स्वयं भी समस्त भूतोंमें विराजमान है, इसलिये वह अव्यय ही वकारका अर्थ है ॥७५॥
हे मैत्रेय ! इस प्रकार यह महान् ‘भगवान्’ शब्द परब्रह्मस्वरूप श्रीवासुदेवका ही वाचक है, किसी औरका नहीं ॥७६॥ पूज्य पदार्थोंको सूचित करनेके लक्षणसे युक्त इस ‘भगवान्’ शब्दका परमात्मामें मुख्य प्रयोग है तथा औरोंके लिये गौण ॥७७॥ क्योंकि जो समस्त प्राणियोंके उत्पत्ति और नाश, आना और जाना तथा विद्या और अविद्याको जानता है वही भगवान् कहलाने योग्य है ॥७८॥ त्याग करनेयोग्य गुण आदिको छोड़कर ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य और तेज आदि सद्गुण ही ‘भगवत्’ शब्दके वाच्य हैं ॥७९॥
उन परमात्मामें ही समस्त भूत बसते हैं और वे स्वयं भी सबके आत्मारूपसे सकल भूतोंमें विराजमान हैं, इसलिये उन्हें वासुदेव भी कहते हैं ॥८०॥ पर्वकालमें खाण्डिक्य जनकके पूछनेपर केशिध्वजने उनसे भगवान् अनन्तके वासुदेव’ नामकी यथार्थ व्याख्या इस प्रकार की थी ॥८१॥ प्रभु समस्त भूतोंमें व्याप्त हैं और सम्पूर्ण भूत भी उन्हींमें रहते हैं तथा वे ही संसारके रचयिता और रक्षक हैं; इसलिये वे ‘वासुदेव’ कहलाते हैं ॥८२॥ हे मुने ! वे सर्वात्मा समस्त आवरणोंसे परे हैं । वे समस्त भूतोंकी प्रकृति, प्रकृतिके विकार तथा गुण और उनके कार्य आदि दोषोंसे विलक्षण हैं ! पृथिवी और आकाशके बीचमें जो कुछ स्थित है उन्होंने वह सब व्याप्त किया है ॥८३॥ वे सम्पूर्ण कल्याण-गुणोंके स्वरूप हैं, उन्होंने अपनी मायाशक्तिके लेशमात्रसे ही सम्पूर्ण प्राणियोंको व्याप्त किया है और वे अपनी इच्छासे स्वमनोऽनुकूल महान् शरीर धारणकर समस्त संसारका कल्याण-साधन करते हैं ॥८४॥ वे तेज, बल, ऐश्वर्य, महाविज्ञान, वीर्य और शक्ति आदि गुणोंकी एकमात्र राशि हैं, प्रकृति आदिसे भी परे हैं और उन परावरेश्वरमें अविद्यादि सम्पर्ण क्लेशोंका अत्यन्ताभाव है ॥८५॥ वे ईश्वर ही समष्टि और व्यष्टिरूप हैं, वे ही व्यक्त और अव्यक्तस्वरूप हैं, वे ही सबके स्वामी, सबके साक्षी और सब कुछ जाननेवाले हैं तथा उन्हीं सर्वशक्तिमान्की परमेश्वर संज्ञा है ॥८६॥ जिसके द्वारा वे निर्दोष, विशुद्ध, निर्मल और एकरूप परमात्मा देखे या जाने जाते हैं उसीका नाम ज्ञान (परा विद्या) है और जो इसके विपरीत है वही अज्ञान है ॥८७॥
इति श्रीविष्णुपुराणे षष्टेऽशे पञ्चमोऽध्यायः
अध्याय-06 केशिध्वज और खाण्डिक्य की कथा
श्रीपराशरजी बोले- वे पुरुषोत्तम स्वाध्याय और संयमद्वारा देखे जाते हैं, ब्रह्मकी प्राप्तिका कारण होनेसे ये भी ब्रह्म ही कहलाते हैं ॥१॥ स्वाध्यायसे योगका और योगसे स्वाध्यायका आश्रय करे । इस प्रकार स्वाध्याय और योगरूप सम्पत्तिसे परमात्मा प्रकाशित होते हैं ॥२॥ ब्रह्मस्वरूप परमात्माको मांसमय चक्षुओंसे नहीं देखा जा सकता, उन्हें देखनेके लिये स्वाध्याय और योग ही दो नेत्र हैं ॥३॥
श्रीमैत्रेयजी बोले- भगवन् ! जिसे जान लेनेपर मैं अखिलाधार परमेश्वरको देख सकूँगा । उस योगको मैं जानना चाहता हूँ; उसका वर्णन – कीजिये ॥४॥
श्रीपराशरजी बोले- पूर्वकालमें जिस प्रकार इस योगका केशिध्वजने महात्मा खाण्डिक्य जनकसे वर्णन किया था मैं तुम्हें वही बतलाता हूँ ॥५॥
श्रीमैत्रेयजी बोले- ब्रह्मन् ! यह खाण्डिक्य और विद्वान् केशिध्वज कौन थे ? और उनका योगसम्बन्धी संवाद किस कारणसे हुआ था ? ॥६॥
श्रीपराशरजी बोले- पूर्वकालमें धर्मध्वज जनक नामक एक राजा थे । उनके अमितध्वज और कृतध्वज नामक दो पुत्र हुए । इनमें कृतध्वज सर्वदा अध्यात्मशास्त्रमें रत रहता था ॥७॥ कृतध्वजका पुत्र केशिध्वज नामसे विख्यात हुआ और अमितध्वजका पुत्र खाण्डिक्य जनक हुआ ॥८॥ पृथिवीमण्डलमें खाण्डिक्य कर्म-मार्गमें अत्यन्त निपुण था और केशिध्वज अध्यात्मविद्याका विशेषज्ञ था ॥९॥ वे दोनों परस्पर एक-दूसरेको पराजित करनेकी चेष्टामें लगे रहते थे । अन्तमें, कालक्रमसे केशिध्वजने खाण्डिक्यको राज्यच्युत कर दिया ॥१०॥ राज्यभ्रष्ट होनेपर खाण्डिक्य पुरोहित और मन्त्रियोंके सहित थोड़ी-सी सामग्री लेकर दुर्गम वनोंमें चला गया ॥११॥ केशिध्वज ज्ञाननिष्ठ था तो भी अविद्या-द्वारा मृत्युको पार करनेके लिये ज्ञानदृष्टि रखते हुए उसने अनेकों यज्ञोंका अनुष्ठान किया ॥१२॥
हे योगिश्रेष्ठ ! एक दिन जब राजा केशिध्वज यज्ञानुष्ठानमें स्थित थे उनकी धर्मधेनुको निर्जन वनमें एक भयंकर सिंहने मार डाला ॥१३॥ व्याघ्रद्वारा गौको मारी गयी सुन राजाने ऋत्विजोंसे पूछा कि ‘इसमें क्या प्रायश्चित्त करना चाहिये?’ ॥१४॥ ऋत्विजोंने कहा–’हम नहीं जानते; आप कशेरुसे पूछिये ।’ जब राजाने कशेरुसे यह बात पूछी तो उन्होंने भी उसी प्रकार कहा कि ‘हे राजेन्द्र ! मैं इस विषयमें नहीं जानता । आप भृगुपुत्र शुनकसे पूछिये, वे अवश्य जानते होंगे ।’ हे मुने ! जब राजाने शुनकसे जाकर पूछा तो उन्होंने भी जो कुछ कहा, वह सुनिये- ॥१५-१६॥
“इस समय भूमण्डलमें इस बातको न कशेरु जानता है, न मैं जानता हूँ और न कोई और ही जानता है, केवल जिसे तुमने परास्त किया है वह तुम्हारा शत्रु खाण्डिक्य ही इस बातको जानता है” ॥१७॥ यह सुनकर केशिध्वजने कहा— ‘हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं अपने शत्रु खाण्डिक्यसे ही यह बात पूछने जाता हूँ । यदि उसने मुझे मार दिया तो भी मुझे महायज्ञका फल तो मिल ही जायगा और यदि मेरे पूछनेपर उसने मुझे सारा प्रायश्चित्त यथावत् बतला दिया तो मेरा यज्ञ निर्विघ्न पूर्ण हो जायगा’ ॥१८-१९॥
श्रीपराशरजी बोले- ऐसा कहकर राजा केशिध्वज कृष्ण मृगचर्म धारणकर रथपर आरूढ़ हो वनमें, जहाँ महामति खाण्डिक्य रहते थे, आये ॥२०॥ खाण्डिक्यने अपने शत्रुको आते देखकर धनुष चढ़ा लिया और क्रोधसे नेत्र लाल करके कहा- ॥२१॥
खाण्डिक्य बोले- अरे ! क्या तू कृष्णाजिनरूप कवच बाँधकर हमलोगोंको मारेगा ? क्या तू यह समझता है कि कृष्ण मृगचर्म धारण किये हुए मुझपर यह प्रहार नहीं करेगा ? ॥२२॥ हे मूढ़ ! मृगोंकी पीठपर क्या कृष्ण मृगचर्म नहीं होता, जिनपर कि मैंने और तूने दोनोंहीने तीक्ष्ण बाणोंकी वर्षा की है ॥२३॥ अत: अब मैं तुझे अवश्य मारूँगा, तू मेरे हाथसे जीवित बचकर नहीं जा सकता । हे दुर्बुद्धे ! तू मेरा राज्य छीननेवाला शत्रु है, इसलिये आततायी है ॥२४॥
केशिध्वज बोले- हे खाण्डिक्य ! मैं आपसे एक सन्देह पूछनेके लिये आया हूँ, आपको मारनेके लिये नहीं आया, इस बातको सोचकर आप मुझपर क्रोध अथवा बाण छोड़ दीजिये ॥२५॥
श्रीपराशरजी बोले- यह सुनकर महामति खाण्डिक्यने अपने सम्पूर्ण पुरोहित और मन्त्रियोंसे एकान्तमें सलाह की ॥२६॥ मन्त्रियोंने कहा कि ‘इस समय शत्रु आपके वशमें है, इसे मार डालना चाहिये । इसको मार देनेपर यह सम्पूर्ण पृथिवी आपके अधीन हो जायगी’ ॥२७॥ खाण्डिक्यने कहा- “यह निस्सन्देह ठीक है, इसके मारे जानेपर अवश्य सम्पूर्ण पृथिवी मेरे अधीन हो जायगी; किन्तु इसे पारलौकिक जय प्राप्त होगी और मुझे सम्पूर्ण पृथिवी परन्तु यदि इसे नहीं मारूँगा तो मुझे पारलौकिक जय प्राप्त होगी और इसे सारी पृथिवी ॥२८-२९॥ मैं पारलौकिक जयसे पृथिवीको अधिक नहीं मानता; क्योंकि परलोक-जय अनन्तकालके लिये होती है और पृथिवी तो थोड़े ही दिन रहती है । इसलिये मैं इसे मारूँगा नहीं, यह जो कुछ पूछेगा, बतला दूंगा” ॥३०-३१॥
श्रीपराशरजी बोले- तब खाण्डिक्य जनकने अपने शत्रु केशिध्वजके पास आकर कहा– ‘तुम्हें जो कुछ पूछना हो पूछ लो, मैं उसका उत्तर दूंगा’ ॥३२॥
हे द्विज ! तब केशिध्वजने जिस प्रकार धर्मधेनु मारी गयी थी वह सब वृत्तान्त खाण्डिक्यसे कहा और उसके लिये प्रायश्चित्त पूछा ॥३३॥ खाण्डिक्यने भी वह सम्पूर्ण प्रायश्चित्त, जिसका कि उसके लिये विधान था, केशिध्वजको विधिपूर्वक बतला दिया ॥३४॥ तदनन्तर पूछे हुए अर्थको जान लेनेपर महात्मा खाण्डिक्यकी आज्ञा लेकर वे यज्ञभूमिमें आये और क्रमशः सम्पूर्ण कर्म समाप्त किया ॥३५॥
फिर कालक्रमसे यज्ञ समाप्त होनेपर अवभृथ स्नानके अनन्तर कृतकृत्य होकर राजा केशिध्वजने सोचा ॥३६॥ “मैंने सम्पूर्ण ऋत्विज् ब्राह्मणोंका पूजन किया, समस्त सदस्योंका मान किया, याचकोंको उनकी इच्छित वस्तुएँ दी, लोकाचारके अनुसार जो कुछ कर्तव्य था वह सभी मैंने किया, तथापि न जाने, क्यों मेरे चित्तमें किसी क्रियाका अभाव खटक रहा है ?” ॥३७-३८॥ इस प्रकार सोचतेसोचते राजाको स्मरण हुआ कि मैंने अभीतक खाण्डिक्यको गुरु-दक्षिणा नहीं दी ॥३९॥ हे मैत्रेय ! तब वे रथपर चढ़कर फिर उसी दुर्गम वनमें गये, जहाँ खाण्डिक्य रहते थे ॥४०॥ खाण्डिक्य भी उन्हें फिर शस्त्र धारण किये आते देख मारनेके लिये उद्यत हुए । तब राजा केशिध्वजने कहा- ॥४१॥ “खाण्डिक्य ! तुम क्रोध न करो, मैं तुम्हारा कोई अनिष्ट करनेके लिये नहीं आया, बल्कि तुम्हें गुरु-दक्षिणा देनेके लिये आया हूँ—ऐसा समझो ॥४२॥
मैंने तुम्हारे उपदेशानुसार अपना यज्ञ भली प्रकार समाप्त कर दिया है, अब मैं तुम्हें गुरु-दक्षिणा देना चाहता हूँ, तुम्हें जो इच्छा हो माँग लो” ॥४३॥
श्रीपराशरजी बोले- तब खाण्डिक्यने फिर अपने मन्त्रियोंसे परामर्श किया कि “यह मुझे गुरु-दक्षिणा देना चाहता है, मैं इससे क्या माँगूं ?” ॥४४॥ मन्त्रियोंने कहा-“आप इससे सम्पूर्ण राज्य माँग लीजिये, बुद्धिमान् लोग शत्रुओंसे अपने सैनिकोंको कष्ट दिये बिना राज्य ही माँगा करते हैं” ॥४५ ॥ तब महामति राजा खाण्डिक्यने उनसे हँसते हुए कहा- “मेरे-जैसे लोग कुछ ही दिन रहनेवाला राज्यपद कैसे माँग सकते हैं ? ॥४६॥ यह ठीक है आपलोग स्वार्थ-साधनके लिये ही परामर्श देनेवाले हैं; किन्तु ‘परमार्थ क्या और कैसा है ?’ इस विषयमें आपको विशेष ज्ञान नहीं है” ॥४७॥
श्रीपराशरजी बोले- यह कहकर राजा खाण्डिक्य केशिध्वजके पास आये और उनसे कहा, ‘क्या तुम मुझे अवश्य गुरु-दक्षिणा दोगे?’ ॥४८॥ जब केशिध्वजने कहा कि ‘मैं अवश्य दूंगा’ तो खाण्डिक्य बोले- “आप आध्यात्मज्ञानरूप परमार्थ-विद्यामें बड़े कुशल हैं ॥४९॥ सो यदि आप मुझे गुरु-दक्षिणा देना ही चाहते हैं तो जो कर्म समस्त क्लेशोंकी शान्ति करनेमें समर्थ हो वह बतलाइये” ॥५०॥
इति श्रीविष्णुपुराणे षष्टेऽशे षष्ठोऽध्यायः
अध्याय-07 ब्रह्मायोग का निर्णय
केशिध्वज बोले- क्षत्रियोंको तो राज्य-प्राप्तिसे अधिक प्रिय और कुछ भी नहीं होता, फिर तुमने मेरा निष्कण्टक राज्य क्यों नहीं माँगा ? ॥१॥
खाण्डिक्य बोले- हे केशिध्वज ! मैंने जिस कारणसे तुम्हारा राज्य नहीं माँगा वह सुनो । इन राज्यादिकी आकांक्षा तो मूर्खोको हुआ करती है ॥२॥ क्षत्रियोंका धर्म तो यही है कि प्रजाका पालन करें और अपने राज्यके विरोधियोंका धर्म-युद्धसे वध करें ॥३॥ शक्तिहीन होनेके कारण यदि तुमने मेरा राज्य हरण कर लिया है, तो मुझे कोई दोष न होगा । क्योंकि यद्यपि यह अविद्या ही है तथापि नियमविरुद्ध त्याग करनेपर यह बन्धनका कारण होती है ॥४॥ यह राज्यकी चाह मुझे तो जन्मान्तरके सुखभोगके लिये होती है; और वही मन्त्री आदि अन्य जनोंको राग एवं लोभ आदि दोषोंसे उत्पन्न होती है केवल धर्मानुरोधसे नहीं ॥५॥ उत्तम क्षत्रियोंका याचना करना धर्म नहीं है’ यह महात्माओंका मत है । इसीलिये मैंने अविद्याके अन्तर्गत तुम्हारा राज्य नहीं माँगा ॥६॥ जो लोग अहंकाररूपी मदिराका पान करके उन्मत्त हो रहे हैं तथा जिनका चित्त ममताग्रस्त हो रहा है वे मूढजन ही राज्यकी अभिलाषा करते हैं; मेरेजैसे लोग राज्यकी इच्छा नहीं करते ॥७॥
श्रीपराशरजी बोले- तब राजा केशिध्वजने प्रसन्न होकर खाण्डिक्य जनकको साधुवाद दिया और प्रीतिपूर्वक कहा, मेरा वचन सुनो- ॥८॥ मैं अविद्याद्वारा मृत्युको पार करनेकी इच्छासे ही राज्य तथा विविध यज्ञोंका अनुष्ठान करता हूँ और नाना भोगोंद्वारा अपने पुण्योंका क्षय कर रहा हूँ ॥९॥ हे कुलनन्दन ! बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुम्हारा मन विवेकसम्पन्न हुआ है अतः तुम अविद्याका स्वरूप सुनो ॥१०॥ संसार-वृक्षकी बीजभूता यह अविद्या दो प्रकारकी है- अनात्मामें आत्मबुद्धि और जो अपना नहीं है उसे अपना मानना ॥११॥ यह कुमति जीव मोहरूपी अन्धकारसे आवृत होकर इस पंचभूतात्मक देहमें ‘मैं’ और ‘मेरापन’ का भाव करता है ॥१२॥ जब कि आत्मा आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी आदिसे सर्वथा पृथक् है तो कौन बुद्धिमान् व्यक्ति शरीरमें आत्मबुद्धि करेगा ? ॥१३॥ और आत्माके देहसे परे होनेपर भी देहके उपभोग्य गृहक्षेत्रादिको कौन प्राज्ञ पुरुष अपना’ मान सकता है ॥१४॥ इस प्रकार इस शरीरके अनात्मा होनेसे इससे उत्पन्न हुए पुत्रपौत्रादिमें भी कौन विद्वान् अपनापन करेगा ॥१५॥ मनुष्य सारे कर्म देहके ही उपभोगके लिये करता है; किन्तु जब कि यह देह अपनेसे पृथक् है, तो वे कर्म केवल बन्धनके ही कारण होते हैं ॥१६॥ जिस प्रकार मिट्टीके घरको जल और मिट्टीसे लीपते-पोतते हैं उसी प्रकार यह पार्थिव शरीर भी मृत्तिका और जलकी सहायतासे ही स्थिर रहता है ॥१७॥ यदि यह पंचभूतात्मक शरीर पांचभौतिक पदार्थोंसे पुष्ट होता है तो इसमें पुरुषने क्या भोग किया ॥१८॥ यह जीव अनेक सहस्र जन्मोंतक सांसारिक भोगोंमें पड़े रहनेसे उन्हींकी वासनारूपी धूलिसे आच्छादित हो जानेके कारण केवल मोहरूपी श्रमको ही प्राप्त होता है ॥१९॥ जिस समय ज्ञानरूपी गर्म जलसे उसकी वह धूलि धो दी जाती है तब इस संसार-पथके पथिकका मोहरूपी श्रम शान्त हो जाता है ॥२०॥ मोह-श्रमके शान्त हो जानेपर पुरुष स्वस्थ-चित्त हो जाता है और निरतिशय एवं निर्बाध परम निर्वाण पद प्राप्त कर लेता है ॥२१॥ यह ज्ञानमय निर्मल आत्मा निर्वाण-स्वरूप ही है, दु:ख आदि जो अज्ञानमय धर्म हैं वे प्रकतिके हैं. आत्माके नहीं ॥२२॥ हे राजन् ! जिस प्रकार स्थालीके जलका अग्निसे संयोग नहीं होता तथापि स्थालीके संसर्गसे ही उसमें खौलनेके शब्द आदि धर्म प्रकट हो जाते हैं, उसी प्रकार प्रकृतिके संसर्गसे ही आत्मा अहंकारादिसे दूषित होकर प्राकृत धर्मोको स्वीकार करता है; वास्तवमें तो वह अव्ययात्मा उनसे सर्वथा पृथक् है ॥२३-२४॥ इस प्रकार मैंने तुम्हें यह अविद्याका बीज बतलाया; इस अविद्यासे प्राप्त हुए क्लेशोंको नष्ट करनेवाला योगसे अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है ॥२५॥
खाण्डिक्य बोले- हे योगवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महाभाग केशिध्वज ! तुम निमिवंशमें योगशास्त्रके मर्मज्ञ हो, अतः उस योगका वर्णन करो ॥२६॥
केशिध्वज बोले- हे खाण्डिक्य ! जिसमें स्थित होकर ब्रह्ममें लीन हुए मुनिजन फिर स्वरूपसे च्युत नहीं होते, मैं उस योगका वर्णन करता हूँ ; श्रवण करो ॥२७॥
मनुष्यके बन्धन और मोक्षका कारण केवल मन ही है; विषयका संग करनेसे वह बन्धनकारी और विषयशून्य होनेसे मोक्षकारक होता है ॥२८॥ अत: विवेकज्ञान सम्पन्न मुनि अपने चित्तको विषयोंसे हटाकर मोक्षप्राप्तिके लिये ब्रह्मस्वरूप परमात्माका चिन्तन करे ॥२९॥ जिस प्रकार अयस्कान्तमणि अपनी शक्तिसे लोहेको खींचकर अपनेमें संयुक्त कर लेता है उसी प्रकार ब्रह्मचिन्तन करनेवाले मुनिको परमात्मा स्वभावसे ही स्वरूपमें लीन कर देता है ॥३०॥ आत्मज्ञानके प्रयत्नभूत यम, नियम आदिकी अपेक्षा रखनेवाली जो मनकी विशिष्ट गति है, उसका ब्रह्मके साथ संयोग होना ही ‘योग’ कहलाता है ॥३१॥
जिसका योग इस प्रकारके विशिष्ट धर्मसे युक्त होता है वह मुमुक्षु योगी कहा जाता है ॥३२॥ जब मुमुक्षु पहले-पहले योगाभ्यास आरम्भ करता है तो उसे ‘योगयुक्त योगी’ कहते हैं और जब उसे परब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है तो वह ‘विनिष्पन्नसमाधि’ कहलाता है ॥३३॥ यदि किसी विघ्नवश उस योगयुक्त योगीका चित्त दूषित हो जाता है तो जन्मान्तरमें भी उसी अभ्यासको करते रहनेसे वह मुक्त हो जाता है ॥३४॥ विनिष्पन्नसमाधि योगी तो योगाग्निसे कर्मसमूहके भस्म हो जानेके कारण उसी जन्ममें थोड़े ही समयमें मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥३५॥ योगीको चाहिये कि अपने चित्तको ब्रह्मचिन्तनके योग्य बनाता हुआ ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रहका निष्कामभावसे सेवन करे ॥३६॥ तथा संयत चित्तसे स्वाध्याय, शौच, सन्तोष और तपका आचरण करे तथा मनको निरन्तर परब्रह्ममें लगाता रहे ॥३७॥ ये पाँच-पाँच यम और नियम बतलाये गये हैं । इनका सकाम आचरण करनेसे पृथक्पृथक् फल मिलते हैं और निष्कामभावसे सेवन करनेसे मोक्ष प्राप्त होता है ॥३८॥
यतिको चाहिये कि भद्रासनादि आसनोंमेंसे किसी एकका अवलम्बन कर यम-नियमादि गुणोंसे युक्त हो योगाभ्यास करे ॥३९॥ अभ्यासके द्वारा जो प्राणवायुको वशमें किया जाता है उसे ‘प्राणायाम’ समझना चाहिये । वह सबीज और निर्बीज भेदसे दो प्रकारका है ॥४०॥ सद्गुरुके उपदेशसे जब योगी प्राण और अपानवायुद्वारा एक-दूसरेका निरोध करता है तो दो प्राणायाम होते हैं और इन दोनोंका एक ही समय संयम करनेसे तीसरा प्राणायाम होता है ॥४१॥ हे द्विजोत्तम ! जब योगी सबीज प्राणायामका अभ्यास आरम्भ करता है तो उसका आलम्बन भगवान् अनन्तका हिरण्यगर्भ आदि स्थूलरूप होता है ॥४२॥ तदनन्तर वह प्रत्याहारका अभ्यास करते हुए शब्दादि विषयोंमें अनुरक्त हुई अपनी इन्द्रियोंको रोककर अपने चित्तकी अनुगामिनी बनाता है ॥४३॥ ऐसा करनेसे अत्यन्त चंचल इन्द्रियाँ उसके वशीभूत हो जाती हैं । इन्द्रियोंको वशमें किये बिना कोई योगी योग-साधन नहीं कर सकता ॥४४॥ इस प्रकार प्राणायामसे वायु और प्रत्याहारसे इन्द्रियोंको वशीभूत करके चित्तको उसके शुभ आश्रयमें स्थित करे ॥४५॥
खाण्डिक्य बोले- हे महाभाग ! यह बतलाइये कि जिसका आश्रय करनेसे चित्तके सम्पूर्ण दोष नष्ट हो जाते हैं वह चित्तका शुभाश्रय क्या है ? ॥ ४६॥
केशिध्वज बोले- हे राजन् ! चित्तका आश्रय ब्रह्म है जो कि मूर्त और अमूर्त अथवा अपर और पर-रूपसे स्वभावसे ही दो प्रकारका है ॥४७॥ हे भूप ! इस जगत्में ब्रह्म, कर्म और उभयात्मक नामसे तीन प्रकारकी भावनाएँ हैं ॥४८॥ इनमें पहली कर्मभावना, दूसरी ब्रह्मभावना और तीसरी उभयात्मिकाभावना कहलाती है । इस प्रकार ये त्रिविध भावनाएँ हैं ॥४९॥ सनन्दनादि मुनिजन ब्रह्मभावनासे युक्त हैं और देवताओंसे लेकर स्थावर-जंगमपर्यन्त समस्त प्राणी कर्मभावनायुक्त हैं ॥५०॥ तथा बोध और अधिकारसे युक्त हिरण्यगर्भादिमें ब्रह्मकर्ममयी उभयात्मिकाभावना है ॥५१॥ हे राजन् ! जबतक विशेष ज्ञानके हेतु कर्म क्षीण नहीं होते तभीतक अहंकारादि भेदके कारण भिन्न दृष्टि रखनेवाले मनुष्योंको ब्रह्म और जगत्की भिन्नता प्रतीत होती है ॥५२॥ जिसमें सम्पूर्ण भेद शान्त हो जाते हैं, जो सत्तामात्र और वाणीका अविषय है तथा स्वयं ही अनुभव करनेयोग्य है, वही ब्रह्मज्ञान कहलाता है ॥५३॥ वही परमात्मा विष्णका अरूप नामक परम रूप है, जो उनके विश्वरूपसे विलक्षण है ॥५४॥
हे राजन् ! योगाभ्यासी जन पहले-पहल उस रूपका चिन्तन नहीं कर सकते, इसलिये उन्हें श्रीहरिके विश्वमय स्थूल रूपका ही चिन्तन करना चाहिये ॥५५॥ हिरण्यगर्भ, भगवान् वासुदेव, प्रजापति, मरुत्, वसु, रुद्र, सूर्य, तारे, ग्रहगण, गन्धर्व, यक्ष और दैत्य आदि समस्त देवयोनियाँ तथा मनुष्य, पशु, पर्वत, समुद्र, नदी, वृक्ष, सम्पूर्ण भूत एवं प्रधानसे लेकर विशेष पर्यन्त उनके कारण तथा चेतन, अचेतन, एक, दो अथवा अनेक चरणोंवाले प्राणी और बिना चरणोंवाले जीव-ये सब भगवान् हरिके भावनात्रयात्मक मूर्तरूप हैं ॥५६–५९॥ यह सम्पूर्ण चराचर जगत्, परब्रह्मस्वरूप भगवान् विष्णुका, उनकी शक्तिसे सम्पन्न ‘विश्व’ नामक रूप है ॥६०॥
विष्णुशक्ति परा है, क्षेत्रज्ञ नामक शक्ति अपरा है और कर्म नामकी तीसरी शक्ति अविद्या कहलाती है ॥६१॥ हे राजन् ! इस अविद्या-शक्तिसे आवृत होकर वह सर्वगामिनी क्षेत्रज्ञ-शक्ति सब प्रकारके अति विस्तृत सांसारिक कष्ट भोगा करती है ॥६२॥ हे भूपाल ! अविद्याशक्तिसे तिरोहित रहनेके कारण ही क्षेत्रज्ञ-शक्ति सम्पूर्ण प्राणियों में तारतम्यसे दिखलायी देती है ॥६३॥ वह सबसे कम जड पदार्थों में है, उनसे अधिक वृक्ष-पर्वतादि स्थावरोंमें, स्थावरोंसे अधिक सरीसृपादिमें और उनसे अधिक पक्षियोंमें है ॥६४॥ पक्षियोंसे मृगोंमें और मृगोंसे पशुओंमें वह शक्ति अधिक है तथा पशुओंकी अपेक्षा मनुष्य भगवानकी उस शक्तिसे अधिक प्रभावित हैं ॥६५॥ मनुष्योंसे नाग, गन्धर्व और यक्ष आदि समस्त देवगणोंमें, देवताओंसे इन्द्रमें, इन्द्रसे प्रजापतिमें और प्रजापतिसे हिरण्यगर्भमें उस शक्तिका विशेष प्रकाश है ॥६६-६७॥ हे राजन् ! ये सम्पूर्ण रूप उस परमेश्वरके ही शरीर हैं, क्योंकि ये सब आकाशके समान उनकी शक्तिसे व्याप्त हैं ॥६८॥ हे महामते ! विष्णु नामक ब्रह्मका दूसरा अमूर्त रूप है, जिसका योगिजन ध्यान करते हैं । और जिसे बुधजन ‘सत्’ कहकर पुकारते हैं ॥६९॥ हे नृप ! जिसमें कि ये सम्पूर्ण शक्तियाँ प्रतिष्ठित हैं वही भगवान्का विश्वरूपसे विलक्षण द्वितीय रूप है ॥७०॥ हे नरेश ! भगवानका वही रूप अपनी लीलासे देव, तिर्यक् और मनुष्यादिकी चेष्टाओंसे युक्त सर्वशक्तिमय रूप धारण करता है ॥७१॥ इन रूपोंमें अप्रमेय भगवानकी जो व्यापक एवं अव्याहत चेष्टा होती है वह संसारके उपकारके लिये ही होती है, कर्मजन्य नहीं होती ॥७२॥
हे राजन ! योगाभ्यासीको आत्म-शद्धिके लिये भगवान विश्वरूपके उस सर्वपापनाशक रूपका ही चिन्तन करना चाहिये ॥७३॥ जिस प्रकार वायुसहित अग्नि ऊँची ज्वालाओंसे युक्त होकर शुष्क तृणसमूहको जला डालता है उसी प्रकार चित्तमें स्थित हुए भगवान् विष्णु योगियोंके समस्त पाप नष्ट कर देते हैं ॥७४॥ इसलिये सम्पूर्ण शक्तियों के आधार भगवान् विष्णुमें चित्तको स्थिर करे, यही शुद्ध धारणा है ॥७५॥
हे राजन् ! तीनों भावनाओंसे अतीत भगवान् विष्णु ही योगिजनोंकी मुक्तिके लिये उनके चंचल तथा स्थिर रहनेवाले चित्तके शुभ आश्रय हैं ॥७६॥
हे पुरुषसिंह ! इसके अतिरिक्त मनके आश्रयभूत जो अन्य देवता आदि कर्मयोनियाँ हैं, वे सब अशुद्ध हैं ॥७७॥ भगवानका यह मूर्तरूप चित्तको अन्य आलम्बनोंसे नि:स्पृह कर देता है । इस प्रकार चित्तका भगवान में स्थिर करना ही धारणा कहलाती है ॥७८॥
हे नरेन्द्र ! धारणा बिना किसी आधारके नहीं हो सकती; इसलिये भगवानके जिस मूर्तरूपका जिस प्रकार ध्यान करना चाहिये, वह सुनो ॥७९॥ जो प्रसन्नवदन और कमलदलके समान सुन्दर नेत्रोंवाले हैं, सुन्दर कपोल और विशाल भालसे अत्यन्त सुशोभित हैं तथा अपने सुन्दर कानोंमें मनोहर कुण्डल पहने हुए हैं, जिनकी ग्रीवा शंखके समान और विशाल वक्षःस्थल श्रीवत्सचिह्नसे सुशोभित है, जो तरंगाकार त्रिवली तथा नीची नाभिवाले उदरसे सुशोभित हैं, जिनके लम्बी-लम्बी आठ अथवा चार भुजाएँ हैं तथा जिनके जंघा एवं ऊरु समानभावसे स्थित हैं और मनोहर चरणारविन्द सुघरतासे विराजमान हैं उन निर्मल पीताम्बरधारी ब्रह्मस्वरूप भगवान् विष्णुका चिन्तन करे ॥८०-८३॥
हे राजन ! किरीट, हार, केयर और कटक आदि आभूषणोंसे विभूषित, शार्ङ्गधनुष, शंख, गदा, खड्ग, चक्र तथा अक्षमालासे युक्त वरद और अभययुक्त हाथोंवाले* रत्नमयी मुद्रिकासे शोभायमान भगवानके दिव्य रूपका योगीको अपना चित्त एकाग्र करके तन्मयभावसे तबतक चिन्तन करना चाहिये जबतक यह धारणा दृढ़ न हो जाय ॥८४-८६॥ जब चलते-फिरते, उठते-बैठते अथवा स्वेच्छानुकूल कोई और कर्म करते हुए भी ध्येय मूर्ति अपने चित्तसे दूर न हो तो इसे सिद्ध हुई माननी चाहिये ॥८७॥
इसके दृढ़ होनेपर बुद्धिमान् व्यक्ति शंख, चक्र, गदा और शाङ्ग आदिसे रहित भगवानके स्फटिकाक्षमाला और यज्ञोपवीतधारी शान्त स्वरूपका चिन्तन करे ॥८८॥ जब यह धारणा भी पूर्ववत् स्थिर हो जाय तो भगवानके किरीट, केयूरादि आभूषणोंसे रहित रूपका स्मरण करे ॥८९॥ तदनन्तर विज्ञ पुरुष अपने चित्तमें एक अवयव-विशिष्ट भगवानका हृदयसे चिन्तन करे और फिर सम्पूर्ण अवयवोंको छोड़कर केवल अवयवीका ध्यान करे ॥९०॥
हे राजन् ! जिसमें परमेश्वरके रूपकी ही प्रतीति होती है, ऐसी जो विषयान्तरकी स्पृहासे रहित एक अनवरत धारा है उसे ही ध्यान कहते हैं; यह अपनेसे पूर्व यमनियमादि छ: अंगोंसे निष्पन्न होता है ॥९१॥ उस ध्येय पदार्थका ही जो मनके द्वारा ध्यानसे सिद्ध होनेयोग्य कल्पनाहीन स्वरूप ग्रहण किया जाता है उसे ही समाधि कहते हैं ॥९२॥ हे राजन् ! विज्ञान ही प्राप्तव्य परब्रह्मतक पहुँचानेवाला है तथा सम्पूर्ण भावनाओंसे रहित एकमात्र आत्मा ही प्रापणीय है ॥९३॥ मुक्ति-लाभमें क्षेत्रज्ञ कर्ता है और ज्ञान करण है; मुक्तिरूपी कार्यको सिद्ध करके वह विज्ञान कृतकृत्य होकर निवृत्त हो जाता है ॥९४॥ उस समय यह भगवद्भावसे भरकर परमात्मासे अभिन्न हो जाता है । इसका भेद-ज्ञान तो अज्ञानजन्य ही है ॥९५॥
भेद उत्पन्न करनेवाले अज्ञानके सर्वथा नष्ट हो जानेपर ब्रह्म और आत्मामें असत् भेद कौन कर सकता है ? ॥९६॥ हे खाण्डिक्य ! इस प्रकार तुम्हारे पूछनेके अनुसार मैंने संक्षेप और विस्तारसे योगका वर्णन किया; अब मैं तुम्हारा और क्या कार्य करूँ ? ॥९७॥
खाण्डिक्य बोले- आपने इस महायोगका वर्णन करके मेरा सभी कार्य कर दिया, क्योंकि आपके उपदेशसे मेरे चित्तका सम्पूर्ण मल नष्ट हो गया है ॥९८॥ हे राजन् ! मैंने जो ‘मेरा’ कहा यह भी असत्य ही है, अन्यथा ज्ञेय वस्तुको जाननेवाले तो यह भी नहीं कह सकते ॥९९॥ ‘मैं’ और ‘मेरा’ ऐसी बुद्धि और इनका व्यवहार भी अविद्या ही है, परमार्थ तो कहने-सुननेकी बात नहीं है क्योंकि वह वाणीका अविषय है ॥१००॥ हे केशिध्वज ! आपने इस मुक्तिप्रद योगका वर्णन करके मेरे कल्याणके लिये सब कुछ कर दिया, अब आप सुखपूर्वक पधारिये ॥१०१॥
श्रीपराशरजी बोले- हे ब्रह्मन् ! तदनन्तर खाण्डिक्यसे – यथोचित पूजित हो राजा केशिध्वज अपने नगरमें चले आये ॥१०२॥ तथा खाण्डिक्य भी अपने पुत्रको राज्य दे* श्रीगोविन्दमें चित्त लगाकर योग सिद्ध करनेके लिये वनको चले गये ॥१०३॥ वहाँ यमादि गुणोंसे युक्त होकर एकाग्रचित्तसे ध्यान करते हुए राजा खाण्डिक्य विष्णु नामक निर्मल ब्रह्ममें लीन हो गये ॥१०४॥ किन्तु केशिध्वज विदेहमुक्तिके लिये अपने कर्मोंको क्षय करते हुए समस्त विषय भोगते रहे । उन्होंने फलकी इच्छा न करके अनेकों शुभ-कर्म किये ॥१०५॥ हे द्विज ! इस प्रकार अनेकों कल्याणप्रद भोगोंको भोगते हुए उन्होंने पाप और मलका क्षय हो जानेपर तापत्रयको दूर करनेवाली आत्यन्तिक सिद्धि प्राप्त कर ली ॥१०६॥
इति श्रीविष्णुपुराणे षष्टेऽशे सप्तमोऽध्यायः
अध्याय-08 शिष्य परम्परा का माहात्म्य और उपसंहार
श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय ! इस प्रकार मैंने तुमसे तीसरे आत्यन्तिक प्रलयका वर्णन किया, जो सनातन ब्रह्ममें लयरूप मोक्ष ही है ॥१॥ मैंने तुमसे संसारकी उत्पत्ति, प्रलय, वंश, मन्वन्तर तथा वंशोंके चरित्रोंका वर्णन किया ॥२॥ हे मैत्रेय ! मैंने तुम्हें सुननेके लिये उत्सुक देखकर यह सम्पूर्ण शास्त्रोंमें श्रेष्ठ सर्वपापविनाशक और पुरुषार्थका प्रतिपादक वैष्णवपुराण सुना दिया । अब तुम्हें जो और कुछ पूछना हो पूछो । मैं उसका तुमसे वर्णन करूँगा ॥३-४॥
श्रीमैत्रेयजी बोले- भगवन् ! मैंने आपसे जो कुछ पूछा था वह सभी आप कह चुके और मैंने भी उसे श्रद्धाभक्तिपूर्वक सुना, अब मुझे और कुछ भी पुछना नहीं है ॥५॥ हे मुने ! आपकी कृपासे मेरे समस्त सन्देह निवृत्त हो गये और मेरा चित्त निर्मल हो गया तथा मझे संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयका ज्ञान हो गया ॥६॥ हे गुरो ! मैं चार प्रकारकी राशि और तीन प्रकारकी शक्तियाँ जान गया तथा मुझे त्रिविध भाव-भावनाओंका भी सम्यक् बोध हो गया ॥७॥ हे द्विज ! आपकी कृपासे मैं, जो जानना चाहिये वह भली प्रकार जान गया कि यह सम्पूर्ण जगत् श्रीविष्णुभगवानसे भिन्न नहीं है, इसलिये अब मुझे अन्य बातोंके जाननेसे कोई लाभ नहीं ॥८॥
हे महामुने ! आपके प्रसादसे मैं निस्सन्देह कृतार्थ हो गया क्योंकि मैंने वर्ण-धर्म आदि सम्पूर्ण धर्म और प्रवृत्ति तथा निवृत्तिरूप समस्त कर्म जान लिये । हे विप्रवर ! आप प्रसन्न रहें; अब मुझे और कुछ भी पूछना नहीं है ॥९-१०॥ हे गुरो ! मैंने आपको जो इस सम्पूर्ण पुराणके कथन करनेका कष्ट दिया है, उसके लिये आप मुझे क्षमा करें; साधुजनोंकी दृष्टिमें पुत्र और शिष्यमें कोई भेद नहीं होता ॥११॥
श्रीपराशरजी बोले- हे मुने ! मैंने तुमको जो यह वेदसम्मत पुराण सुनाया है इसके श्रवणमात्रसे सम्पूर्ण दोषोंसे उत्पन्न हुआ पापपुंज नष्ट हो जाता है ॥१२॥ इसमें मैंने तुमसे सृष्टिकी उत्पत्ति, प्रलय, वंश, मन्वन्तर और वंशोंके चरित-इन सभीका वर्णन किया है ॥१३॥ इस ग्रन्थमें देवता, दैत्य, गन्धर्व, नाग, राक्षस, यक्ष, विद्याधर, सिद्ध और अप्सरागणका भी वर्णन किया गया है ॥१४॥ आत्माराम और तपोनिष्ठ मुनिजन चातुर्वर्ण्य-विभाग, महापुरुषोंके विशिष्ट चरित, पृथिवीके पवित्र क्षेत्र, पवित्र नदी और समुद्र, अत्यन्त पावन पर्वत, बुद्धिमान् पुरुषोंके चरित, वर्ण-धर्म आदि धर्म तथा वेद और शास्त्रोंका भी इसमें सम्यक्प से निरूपण हुआ है, जिनके स्मरणमात्रसे मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥१५–१७॥
जो अव्ययात्मा भगवान् हरि संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके एकमात्र कारण हैं उनका भी इसमें कीर्तन किया गया है ॥१८॥ जिनके नामका विवश होकर कीर्तन करनेसे ही मनुष्य सिंहसे डरे हुए गीदड़ोंके समान पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥१९॥ । हे मैत्रेय ! जिनका भक्तिपूर्वक किया हुआ नाम संकीर्तन सम्पूर्ण धातुओंको पिघलानेवाले अग्निके समान समस्त पापोंका सर्वोत्तम विलयन है ॥२०॥ जिनका एक बार भी स्मरण करनेसे मनुष्योंको नरक-यातनाएँ देनेवाला अति उग्र कलि-कल्मष तुरन्त नष्ट हो जाता है ॥२१॥ हे द्विजोत्तम ! हिरण्यगर्भ, देवेन्द्र, रुद्र, आदित्य, अश्विनीकुमार, वायु, अग्नि, वसु, साध्य और विश्वेदेव आदि देवगण, यक्ष, राक्षस, उरग, सिद्ध, दैत्य, गन्धर्व, दानव, अप्सरा, तारा, नक्षत्र, समस्त ग्रह, सप्तर्षि, लोक, लोकपालगण, ब्राह्मणादि मनुष्य, पशु, मृग, सरीसृप, विहंग, पलाश आदि वृक्ष, वन, अग्नि, समुद्र, नदी, पाताल तथा पृथिवी आदि और शब्दादि विषयोंके सहित यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जिनके आगे सुमेरुके सामने एक रेणुके समान है तथा जो इसके उपादान-कारण हैं उन सर्व सर्वज्ञ सर्वस्वरूप रूपरहित और पापनाशक भगवान् विष्णुका इसमें कीर्तन किया गया है ॥२२-२७॥
हे मुनिसत्तम ! अश्वमेध-यज्ञमें अवभृथ स्नान करनेसे जो फल मिलता है वही फल मनुष्य इसको सुनकर प्राप्त कर लेता है ॥२८॥ प्रयाग, पुष्कर, कुरुक्षेत्र तथा समुद्रतटपर रहकर उपवास करनेसे जो फल मिलता है वही इस पुराणको सुननेसे प्राप्त हो जाता है ॥२९॥ एक वर्षतक नियमानुसार अग्निहोत्र करनेसे मनुष्यको जो महान् पुण्यफल मिलता है वही इसे एक बार सुननेसे हो जाता है ॥३०॥
ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशीके दिन मथुरापुरीमें यमुना-स्नान करके कृष्णचन्द्रका दर्शन करनेसे जो फल मिलता है । हे विप्रर्षे ! वही भगवान् कृष्णमें चित्त लगाकर इस पुराणके एक अध्यायको सावधानतापूर्वक सुननेसे मिल जाता है ॥३१-३२॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! ज्येष्ठ मासके शुक्लपक्षकी द्वादशीको मथुरापुरीमें उपवास करते हुए यमुना-स्नान करके समाहितचित्तसे श्रीअच्युतका भलीप्रकार पूजन करनेसे मनुष्यको अश्वमेध-यज्ञका सम्पूर्ण फल मिलता है ॥३३-३४॥ कहते हैं अपने वंशजोंद्वारा उन्नति लाभ किये हुए अन्य पितरोंकी समृद्धि देखकर दूसरे लोगोंके पितृपितामहोंने इस प्रकार कहा था- ॥ ३५॥ क्या हमारे कुलमें उत्पन्न हुआ कोई पुरुष ज्येष्ठ-मासके शुक्ल पक्षमें मथुरामें उपवास करते हुए यमुनाजलमें स्नान करके श्रीगोविन्दका पूजन करेगा, जिससे हम भी अपने वंशजोंद्वारा उद्धार पाकर ऐसा परम ऐश्वर्य प्राप्त कर सकेंगे ? जो बड़े भाग्यवान् होते हैं उन्हींके वंशधर ज्येष्ठमासीय शुक्लपक्षमें भगवानका अर्चन करके यमुनामें पितृगणको पिण्डदान करते हैं ॥३६-३८॥ उस समय यमुनाजलमें स्नान करके सावधानतापूर्वक भलीप्रकार भगवानका पूजन करनेसे और पितृगणको पिण्ड देनेसे अपने पितामहोंको तारता हुआ पुरुष जिस पुण्यका भागी होता है वही पुण्य भक्तिपूर्वक इस पुराणका एक अध्याय सुननेसे प्राप्त हो जाता है ॥३९-४०॥ यह पुराण संसारसे भयभीत हुए पुरुषोंका अति उत्तम रक्षक, अत्यन्त श्रवणयोग्य तथा पवित्रोंमें परम उत्तम है ॥४१॥ यह मनुष्योंके दुःस्वप्नोंको नष्ट करनेवाला, सम्पूर्ण दोषोंको दूर करनेवाला, मांगलिक वस्तुओंमें परम मांगलिक और सन्तान तथा सम्पत्तिका देनेवाला है ॥४२॥
इस आर्षपुराणको सबसे पहले भगवान् ब्रह्माजीने ऋभुको सुनाया था । ऋभुने प्रियव्रतको सुनाया और प्रियव्रतने भागुरिसे कहा ॥४३॥ फिर इसे भागुरिने स्तम्भमित्रको, स्तम्भमित्रने दधीचिको, दधीचिने सारस्वतको और सारस्वतने भृगुको सुनाया ॥४४॥ तथा भृगुने पुरुकुत्ससे, पुरुकुत्सने नर्मदासे और नर्मदाने धृतराष्ट्र एवं पूरणनागसे कहा ॥ ४५ ॥ हे द्विज ! इन दोनोंने यह पुराण नागराज वासुकिको सुनाया । वासुकिने वत्सको, वत्सने अश्वतरको, अश्वतरने कम्बलको और कम्बलने एलापुत्रको सुनाया ॥४६-४७॥ इसी समय मुनिवर वेदशिरा पाताललोकमें पहुँचे, उन्होंने यह समस्त पुराण प्राप्त किया और फिर प्रमतिको सुनाया ॥४८॥ प्रमतिने उसे परम बुद्धिमान् जातुकर्णको दिया तथा जातुकर्णने अन्यान्य पुण्यशील महात्माओंको ॥४९॥
पुलस्त्यजीके वरदानसे मुझे भी स्मरण रह गया । सो मैंने ज्यों-का-त्यों तुम्हें सुना दिया । अब तुम भी कलियुगके अन्तमें इसे शिनीकको सुनाओगे ॥५०-५१॥
जो पुरुष इस अति गुह्य और कलि-कल्मषनाशक पुराणको भक्तिपूर्वक सुनता है वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥५२॥ जो मनुष्य इसका प्रतिदिन श्रवण करता है उसने तो मानो सभी तीर्थों में स्नान कर लिया और सभी देवताओंकी स्तुति कर ली ॥५३॥ इसके दस अध्यायोंका श्रवण करनेसे निःसन्देह कपिला गौके दानका अति दुर्लभ पुण्य-फल प्राप्त होता है ॥५४॥
जो पुरुष सम्पूर्ण जगत्के आधार, आत्माके अवलम्ब, सर्वस्वरूप, सर्वमय ज्ञान और ज्ञेयरूप आदि-अन्तरहित तथा समस्त देवताओंके हितकारक श्रीविष्णुभगवानका चित्तमें ध्यान कर इस सम्पूर्ण पुराणको सुनता है उसे निःसन्देह अश्वमेध-यज्ञका समग्र फल प्राप्त होता है ॥५५॥
जिसके आदि, मध्य और अन्तमें अखिल जगत्की सृष्टि, स्थिति तथा संहारमें समर्थ ब्रह्मज्ञानमय चराचरगुरु भगवान् अच्युतका ही कीर्तन हुआ है उस परम श्रेष्ठ, और अमल पुराणको सुनने, पढ़ने और धारण करनेसे जो फल प्राप्त होता है वह सम्पूर्ण त्रिलोकीमें और कहीं प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि एकान्त मुक्तिरूप सिद्धिको देनेवाले भगवान् विष्णु ही इसके प्राप्तव्य फल हैं ॥५६॥
जिनमें चित्त लगानेवाला कभी नरकमें नहीं जा सकता, जिनके स्मरणमें स्वर्ग भी विघ्नरूप है, जिनमें चित्त लग जानेपर ब्रह्मलोक भी अति तुच्छ प्रतीत होता है तथा जो अव्यय प्रभु निर्मलचित्त पुरुषोंके हृदयमें स्थित होकर उन्हें मोक्ष देते हैं उन्हीं अच्युतका कीर्तन करनेसे यदि पाप विलीन हो जाते हैं तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? ॥५७॥ यज्ञवेत्ता कर्मनिष्ठ लोग यज्ञोंद्वारा जिनका यज्ञेश्वररूपसे यजन करते हैं, ज्ञानीजन जिनका परावरमय ब्रह्मस्वरूपसे ध्यान करते हैं, जिनका स्मरण करनेसे पुरुष न जन्मता है, न मरता है, न बढ़ता है और न क्षीण ही होता है तथा जो न सत् हैं और न असत् ही हैं उन श्रीहरिके अतिरिक्त और क्या सुना जाय ? ॥५८॥ जो अनादिनिधन भगवान् विभु पितृरूप धारणकर स्वधासंज्ञक कव्यको और देवता होकर अग्निमें विधिपूर्वक हवन किये हुए स्वाहा नामक हव्यको ग्रहण करते हैं तथा जिन समस्त शक्तियोंके आश्रयभूत भगवानके विषयमें बड़े-बड़े प्रमाणकुशल पुरुषोंके प्रमाण भी इयत्ता करनेमें समर्थ नहीं होते वे श्रीहरि श्रवण-पथमें जाते ही समस्त पापोंको नष्ट कर देते हैं ॥५९॥
जिन परिणामहीन प्रभुका आदि, अन्त, वृद्धि और क्षय कुछ भी नहीं होता, जो नित्य निर्विकार पदार्थ हैं उन स्तवनीय प्रभु पुरुषोत्तमको मैं नमस्कार करता हूँ ॥६०॥ जो उन्हींके समान गुणोंको भोगनेवाला है, एक होकर भी अनेक रूप है तथा शुद्ध होकर भी विभिन्न रूपोंके कारण अशुद्धसा प्रतीत होता है और जो ज्ञानस्वरूप एवं समस्त भूत तथा विभूतियोंका कर्ता है उस नित्य अव्यय पुरुषको नमस्कार है ॥६१॥ जो ज्ञान, प्रवृत्ति और नियमनकी एकतारूप है, पुरुषको भोग प्रदान करनेमें कुशल है, त्रिगुणात्मक तथा अव्याकृत है, संसारकी उत्पत्तिका कारण है, उस स्वतःसिद्ध तथा जराशून्य प्रभुको सर्वदा नमस्कार करता हूँ ॥६२॥ जो आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवीरूप है, शब्दादि भोग्य विषयोंकी प्राप्ति करानेमें समर्थ है और पुरुषका उसकी समस्त इन्द्रियोंद्वारा उपकार करता है उस सूक्ष्म और विराटरूप व्यक्त परमात्माको नमस्कार करता हूँ ॥६३॥
इस प्रकार जिन नित्य सनातन परमात्माके प्रकृति-पुरुषमय ऐसे अनेक रूप हैं वे भगवान् हरि समस्त पुरुषोंको जन्म और जरा आदिसे रहित सिद्धि प्रदान करें ॥६४॥
इति श्रीविष्णुपुराणे षष्टेऽशे अष्टमोऽध्यायः