मार्कण्डेयजी द्वारा भगवान विष्णु की स्तुति
मायासे बाल-रूप धारण करनेवले देवदेव जगन्नाथ! कमलके समान सुन्दर नेत्रोंवाले सुरश्रेष्ठ पुरुषोत्तम ! मैं दुःखित होकर आपकी शरणमें आया हूँ। मेरी रक्षा कीजिये। संवर्तक नामक अग्निने मुझे संतप्त कर रखा है। मैं अँगारोंकी वर्षासे भयभीत हो रहा हैं, मेरा उद्धार कीजिये। देवेश! पुरुषोत्तम! मैंने आपके उदरमें चराचर जगत्का अवलोकन किया है। इससे मुझे अड़ा विस्मय हुआ हैं। मैं विषादग्रस्त तो हूँ ही। मेरी रक्षा कीजिये । पुरुषोत्तम ! इस अवलम्बशुन्य संसारमें आपके सिवा दूसरा कोई सहारा देनेवाला नहीं है। मुझपर प्रसन्न होइये। सुरश्रेष्ठ ! प्रसन्न होइये। विबुधप्रिय ! प्रस्न्न होइये। देवताओंके नाथ ! प्रसन्न होइये। देवताओंके निवासस्थान ! प्रसन्न होइये। जगत्के कारणोंके भी कारण सर्वलोकेश्वर! मुझपर प्रसन्न होइये। सबको सृष्टि करनेवाले देव! प्रसन्न होइये। धरणीधर! मुझपर प्रसन्न होइये। जलमें निवास करनेवाले परमेश्वर! मुझपर प्रसन्न होइये। मधुसूदन ! मुझपर प्रसन्न होगे । कमलाकान्त ! प्रसन्न होइये। त्रिदशेश्वर! प्रसन्न होइये। कंस और केशका नाश करनेवाले श्रीकृष्ण ! प्रसन्न होइये। अरिष्टासुरका नाश करनेवाले गोविन्द ! प्रसन्न होइये। दैत्यनाशक श्रीकृष्ण ! प्रसन्न होइये । दानवोंका अन्त करनेवाले वासुदेव ! प्रसन्न होइये । मथुरावासी रे ! प्रसन्न होइये। यदुनन्दन ! प्रसन्न होइये। इनके छोटे भाई उपेन्द्र प्रसन्न होइये। वरदायक अविनाशी देव ! प्रसन्न होइये। भगवन् ! आप ही पृथ्वी, आप ही जत, आप ही अग्नि और आप ही वायु हैं। जगत्पते ! आकाश, मन, अहंकार, बुद्धि, प्रकृति तथा सत्त्वादि गुण भी आप ही हैं। आप सम्पूर्ण विश्वमें व्यापक पुरुष हैं। पुरुषसे भी उत्तम पुरुषोत्तम हैं। प्रभो! आप ही सम्पूर्ण इन्द्रियों और उनके शब्द आदि विषय हैं। आप हौ दिक्पाल, धर्म, वेद दक्षिणसहित यज्ञ, इन्द्र, शिव, देवता, हविष्य और अग्नि हैं। वसु, रुद्र, आदित्य और ग्रह भी आपके ही स्वरूप हैं। और जितनी भी जातियाँ हैं, जो कुछ भी जीवनामधारी पदार्थ है, वह सब आप ही हैं। अधिक कहनेकी क्या आवश्यकता, ब्रह्माले लेकर तिनकेतक जो कुछ भी भूत, भविष्य और वर्तमान चराचर जगत् है, वह आप ही हैं। देव ! आपका जो परमस्वरूप है, वह कूटस्थ, अचल एवं ध्रुव हैं। उसे ब्रह्मा आदि देवता भी नहीं जान पाते। फिर हुम-जैसे छोटी बुद्धिवाले मनुष्य कैसे उसका तत्त्व समझ सकते हैं। भगवन् ! आप शुद्धस्वभाव, नित्य, प्रकृतिसे परे, अव्यक्त, शाश्वत, अनन्त एवं सर्वव्यापी महेश्वर हैं। आप ही आकाशस्वरूप, परम शान्त, अजन्मा, व्यापक एवं अविनाशी हैं। इस प्रकार आपके निर्गुण एवं निरञ्जन (मायारहित शुद्ध) झपकी स्तुति कौन कर सकता है। देव ! अविनाशी देवदेवश्वर। मैंने जो विकल एवं अल्पज्ञन होनेके कारण आपके स्तवनकी धृष्टता की है, उसे आप क्षमा करनेकी कृपा करें।