सूर्य-सिद्धांत अध्याय-3 त्रिप्रश्नाधिकारः (दिशा, स्थान और समय)
शिलातले +अम्बुसंशुद्धे वज्रलेपे +अपि वा सम् ।
तत्र शङ्क्वङ्गुलैरिष्टैः समं मण्डलमालिखेत् ॥
तन्मध्ये स्थापयेच्छङ्कुं कल्पनाद्वादशाङ्गुलम् ।
तच्छायाग्रं स्पृशेद्यत्र वृत्ते पूर्वापरार्धयोः ॥
तत्र बिन्दू विधायोभौ वृत्ते पूर्वापराभिधौ ।
तन्मध्ये तिमिना रेखा कर्तव्या दक्षिणोत्तरा ॥
याम्योत्तरदिशोर्मध्ये तिमिना पूर्वपश्चिमा ।
दिङ्मध्यमत्स्यैः संसाध्या विदिशस्तद्वदेव हि ॥
जल के द्वारा संशोधित पत्थर की शिलातल पर अथवा वज्रलेप से बने समतल चबूतरे पर शंकु के अनुसार अर्द्धव्यास वृत्त बनावें । उस वृत्त के मध्य में १२ अंगुल का एक शंकु स्थापित करें । इस शंकु का छायाग्र वृत्त परिधि को पूर्वाह्न में तथा अपराह्न में जहां स्पर्श करे उन स्थानों पर बिन्दु बनावें । ये दोनों बिन्दु पूर्वापर संज्ञक होते है । इन दोनों बिन्दुओं में मध्य में तिमि द्वारा दक्षिणोत्तर रेखा का निर्माण करना चाहिये । याम्योत्तर रेखाओं के बीच तिमि द्वारा पूर्वापर रेखा का निर्माण कर दोनों रेखाओं के मध्य में विदिशाओं का निर्माण करना चाहिये ।। १-४ ।।
चतुरस्रं बहिः कुर्यात्सूत्रैर्मध्याद्विनिर्गतैः ।
भुजसूत्राङ्गुलैस्तत्र दत्तैरिष्टप्रभा स्मृता ॥
वृत्त परिधिस्थित प्रत्येक दिशा के मध्य बिन्दु से की गई स्पर्श रेखाओं से वृत के बाहर एक चतुरस्र का निर्माण करे । चतुर्भुज के पूर्व अथवा पश्चिम बिन्दु से गणितागत दिशा में छायाग्र-पूर्वापर सूत्रों के अन्तर तुल्य, भुजसूत्र का अंगुलात्मक मान, पूर्वापर रेखा से इष्टकालिक छायाग्र बिन्दुका मान होता है ।। ५ ।।
प्राक्पश्चिमाश्रिता रेखा प्रोच्यते सममण्डल् ।
उनण्डले च विषुवन्मण्डले परिकीर्त्यत् ।।
पूर्व एवं पश्चिम बिन्दु से संलग्न पूर्वापर रेखा सममण्डल के धरातल में होती है । ऐसी दैवज्ञों का मत है । वही पूर्वापर रेखा उन्मण्डल के धरातल में तथा विषुववृत्त उन्मण्डल के धरातल में भी होती है ।। ६ ।।
रेखा प्राच्यपरा साध्या विषुवद्भाग्रगा तथा ।
इष्टच्छायाविषुवतोर्मध्यमग्राभिधीयत् ।।
पूर्वापर सूत्र के समानान्तरा पलभाग्र बिन्दु से जाने वाली रेखा और इष्टच्छायाग्र बिन्दु का अन्तर अग्रा होता है । कर्णवृत्त में परिणत करने पर उसे कर्णवृताग्रा कहते है ।। ७ ।।
शङ्कुच्छायाकृतियुतेर्मूलं कर्णो +अस्य वर्गतः ।
प्रोज्झ्य शङ्कुकृतिं मूलं छाया शङ्कुर्विपर्ययात् ॥
शंकु और छाया के वर्ग योग का वर्गमूल कर्ण होता है । कर्ण वर्ग से शंकु वर्ग को घटाकर शेष का वर्गमूल छाया तथा इससे विपरीत अर्थात कर्ण वर्ष से छाया वर्ग को घटाकर शेष का वर्गमूल शंकु होता है ।। ८ ।।
त्रिंशत्कृत्यो युगे भानां चक्रं प्राक्परिलम्बत् ।
तद्गुणाद्भूदिनैर्भक्ताद्द्युगणाद्यदवाप्यत् ।।
तद्दोस्त्रिघ्ना दशाप्तांशा विज्ञेया अयनाभिधाः ।
तत्संस्कृताद्ग्रहात्क्रान्तिच्छायाचरदलादिकम् ॥
एक महायुग में नक्षत्र चक्र, तीस गुणा बीस बार पूर्व दिशा में परिलम्बित होता है । ६०० से अहर्गण को गुणा कर गुणनफल में युग सावन दिन संख्यां से भाग देने पर प्राप्त लब्धि का भुज बनाकर ३ से गुणा कर उसमें १० का भाग देने से अयनांश होता है । इस अयनांश संस्कृत ग्रह द्वारा क्रान्ति, छाया, चरखण्ड आदि का साधन करना चाहिये ।। ९-१० ।।
स्फुटं दृक्तुल्यतां गच्छेदयने विषुवद्वय् ।
प्राक्चक्रं चलितं हीने छायार्कात्करणागत् ।।
दोनों अयन बिन्दुओं तथा दोनों विषुव बिन्दुओं पर सूर्य के संक्रमण के समय अयन चलन स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है । छायार्क से गणितागत सूर्य अल्प होने पर अन्तरांश तुल्य सम्पात में भचक्र पूर्व की ओर चला है तथा यदि गणितागत सूर्य का भोगांश अधिक है तो अन्तरांश तुल्य नक्षत्र चक्र पश्चिम दिशा में चला है ऐसा समझे ।। ११ ।।
अन्तरांशैरथावृत्य पश्चाच्छेषैस्तथाधिक् ।
एवं विषुवती छाया स्वदेशे या दिनार्धजा ॥
इस प्रकार अपने-अपने देश में मध्याह्न कालिक दक्षिणोत्तर रेखा में पड़ने विषुवच्छाया उस स्थान की पलभा होती है ।। १२ ।।
दक्षिणोत्तररेखायां सा तत्र विषुवत्प्रभा ।
शङ्कुच्छायाहते त्रिज्ये विषुवत्कर्णभाजित् ।।
शंकु और शंकुच्छाया से पृथक-पृथक त्रिज्या को गुणाकर गुणनफल को विषुव कर्ण से भाग देने पर क्रमशः लम्बज्या और अक्षज्या होती है । इनके चापीय मान क्रमशः लम्बांश और अक्षांश होते है । उत्तरगोल में अक्षांश सदैव दक्षिण होते है ।। १३ ।।
लम्बाक्षज्ये तयोश्चापे लम्बाक्षौ दक्षिणौ सदा ।
मध्यच्छाया भुजस्तेन गुणिता त्रिभमौर्विका ॥
स्वकर्णाप्ता धनुर्लिप्ता नतास्ता दक्षिणे भुज् ।
उत्तराश्चोत्तरे याम्यास्ताः सूर्यक्रान्तिलिप्तिकाः ॥
दिग्भेदे मिश्रिताः साम्ये विश्लिष्टाश्चाक्षलिप्तिकाः ।
ताभ्यो +अक्षज्या च तद्वर्गं प्रोज्झ्य त्रिज्याकृतेः पदम् ॥
मध्याह्न काल में सूर्य की छाया भुज संज्ञक होती है । उस छाया से त्रिज्या को गुणाकर गुणनफल में मध्याह्न कालिक छाया कर्ण से भाग देने पर जो लब्धि प्राप्त हो उसकी चापकला मध्याह्न कालिक नतांश होती है । यदि छाया पूर्वापर सूत्र से दक्षिण हो तो उत्तर नतांश तथा यदि छाया उत्तर दिशा में हो तो दक्षिण नतांश होता है ।। १४ ।।
यदि सूर्य की क्रान्तिकला और नतांश में परस्पर दिग्भेद हो तो दोनों का योग करने से तथा यदि दोनों की एक ही दिशा होने पर अन्तर करने से अक्षलिप्ता (अक्षांश कला) होती है ।। १५ ।।
उक्त अक्षांश से अक्षज्या साधित कर उसके वर्ग को त्रिज्या के वर्ग में घटा कर शेष का वर्गमूल लेने से लम्बज्या होती है । अक्षज्या को १२ से गुणाकर लम्बज्या से भाग देने पर लब्ध फल पलभा होती है ।। १६ ।।
लम्बज्यार्कगुणाक्षज्या विषुवद्भाथ लम्बया ।
स्वाक्षार्कनतभागानां दिक्षाम्ये +अन्तरमन्यथा ॥
दिग्भेदे +अपक्रमः शेषस्तस्य ज्या त्रिज्यया हता ।
परमापक्रमज्याप्ता चापं मेषादिगो रविः ॥
कर्क्यादौ प्रोज्झ्य चक्रार्धात्तुलादौ भार्धसंयुतात् ।
मृगादौ प्रोज्झ्य भगणान्मध्याह्ने +अर्कः स्फुटो भवेत् ॥
स्वदेशीय अक्षांश और नतांश यदि एक दिशा के हो तो अन्तर, यदि भिन्न दिशा के हो तो योग करने से मध्याह्नकाल में सूर्य की क्रान्ति होती है । क्रान्तिज्या को त्रिज्या से गुणाकर परमक्रान्तिज्या से भाग देने से जो लब्धि प्राप्त हो उसका चाप मेषादि तीन राशियों में सायन सूर्य होता है । कर्कादि तीन राशियों में लब्धि को छः राशि से घटाने से, तुलादि तीन राशियों में छः राशि में जोड़ने से तथा मकरादि तीन राशियों में द्वादश से घटाने पर शेष मध्याहन कालिक स्पष्ट सायन सूर्य होता है ।। १७-१८ ।।
गणितागत स्फुट सूर्य से मन्दफल का साधन कर उस का स्पष्ट सूर्य में विलोम संस्कार करे पुनः संस्कृत सूर्य से मन्दफल साधन कर स्पष्ट सूर्य में विलोम संस्कार करें । इस प्रकार असकृत् संस्कार करने से अहर्गणोत्पन्न मध्यम सूर्य होगा ।। १९ ।।
तन्मान्दमसकृद्वामं फलं मध्यो दिवाकरः ।
स्वाक्षार्कापक्रमयुतिर्दिक्षाम्ये +अन्तरमन्यथा ॥
शेषं नतांशाः सूर्यस्य तद्बाहुज्या च कोटिज्या ।
शङ्कुमानाङ्गुलाभ्यस्ते भुजत्रिज्ये यथाक्रमम् ॥
अक्षांश और सूर्य के क्रान्त्यंशों की एक दिशा होने पर योग एवं भिन्न दिशा होने पर अन्तर करने से सूर्य का मध्याह्नकालिक नतांश होता है । नातांशों को ९० में घटाने से उन्नतांश होते है । नातांशों की ज्या को दृग्ज्या कहते है और उन्नातांशों की ज्या को कोटिज्या या महाशंकू कहते है । भुजज्या को १२ से गुणा कर कोटिज्या का भाग देने से लब्धि मध्याह्नकालिक छाया तथा द्वादश गुणित त्रिज्या में कोटिज्या का भाग देने से लब्धि मध्याह्नकालिक छाया कर्ण होता है ।। २०-२१ ।।
कोटिज्यया विभज्याप्ते छायाकर्णावहर्दल् ।
क्रान्तिज्या विषुवत्कर्णगुणाप्ता शङ्कुजीवया ॥
अर्काग्रा स्वेष्टकर्णघ्नी मध्यकर्णोद्धृता स्वका ।
विषुवद्भायुतार्काग्रा याम्ये स्यादुत्तरो भुजः ॥
विषुवत्यां विशोध्योदग्गोले स्याद्बाहुरुत्तरः ।
विपर्ययाद्भुजो याम्यो भवेत्प्राच्यपरान्तर् ।।
क्रान्तिज्या को पलकर्ण से गुणाकर द्वादश का भाग देने से अर्काग्रा होती है । इस अर्काग्रा को इष्टकालिक छायाकर्ण से गुणाकर मध्यकर्ण से भाग देने पर स्वकर्नाग्रा होती है ।। २२ ।।
दक्षिणगोल में कर्णाग्रा और पलभा का योग करने से तथा उत्तर गोल में पलभा में कर्णाग्रा को घटाने से शेष उत्तर भुज होता है । यदि पलभा में कर्णाग्रा न घटे तो कर्नाग्रा में पलभा को घटाने से शेष दक्षिण भुज होता है । पूर्वापर सुत्र और छायाग्र के बीच भुज होता है । मध्याह्नकालिक भुज ही सदैव मध्याह्न कालिक छाया होती है ।। २३-२४ ।।
माध्याह्निको भुजो नित्यं छाया माध्याह्निकी स्मृता ।
लम्बाक्षजीवे विषुवच्छायाद्वादशसङ्गुण् ।।
क्रान्तिज्याप्ते तु तौ कर्णौ सममण्डलगे रवौ ।
सौम्याक्षोना यदा कान्तिः स्यात्तदा द्युदलश्रवः ॥
लम्बज्या और अक्षज्या को क्रम से पलभा और द्वादश से गुणाकर क्रान्तिज्या का भाग देने से प्राप्त लब्धियाँ सममण्डल छायाकर्ण होती है ।। २५ ।।
जब सूर्य की उत्तरा क्रान्ति अक्षांशों से अल्प होती है तभी सममण्डलगत सूर्य का छायाकर्ण होता है क्योकी उसी स्थिति में सूर्य सममण्डल में प्रवेश करेगा । दक्षिण क्रान्ति होने पर अथवा अक्षांशों से क्रान्ति अधिक होने पर स्वक्षितिज के ऊपर सूर्य का सममण्डल में प्रवेश सम्भव नहीं होता । प्रकारान्त से सममण्डल कर्ण का साधन – मध्याह्नकर्ण को पलभा से गुणाकर मध्याग्रा का भाग देने से सममण्डल कर्ण होता है ।। २६ ।।
विषुवच्छाययाभ्यस्तः कर्णो मध्याग्रयोद्धृतः ।
स्वक्रान्तिज्या त्रिजीवाघ्नी लम्बज्याप्ताग्रमौर्विका ॥
इष्टक्रान्तिज्या को त्रिज्या से गुणाकर लम्बज्या का भाग देने से अग्राज्या होती है ।। २७ ।।
स्वेष्टकर्णहता भक्ता त्रिज्ययाग्राङ्गुलादिका ।
त्रिज्यावर्गार्धतो +अग्रज्यावर्गोनाद्द्वादशाहतात् ॥
पुनर्द्वादशनिघ्नाच्च लभ्यते यत्फलं बुधैः ।
शङ्कुवर्गार्धसंयुक्तविषुवद्वर्गभाजितात् ॥
तदेव करणी नाम तां पृथक्स्थापयेद्बुधः ।
अर्कघ्नी विषुवच्छायाग्रज्यया गुणिता तथा ॥
भक्ता फलाख्यं तद्वर्गसंयुक्तकरणीपदम् ।
फलेन हीनसंयुक्तं दक्षिणोत्तरगोलयोः ॥
याम्ययोर्विदिशोः शङ्कुरेवं याम्योत्तरे रवौ ।
परिभ्रमति शङ्कोस्तु शङ्कुरुत्तरयोस्तु सः ॥
अग्रा को अभीष्ट कालिक छाया कर्ण से गुणाकर त्रिज्या से भाग देने पर लब्धि अंगुलादि कर्ण वृत्तीया अग्रा होती है । त्रिज्यावर्ग के आधे से अग्रा का वर्ग घटाकर शेष को १४४ से गुणाकर ७२ युत पलभावर्ग से भाग देने से जो लब्धि प्राप्त हो वह करणी संज्ञक होती है । १२ गुणित पलभा को अग्रा से गुणाकर पूर्वोक्त हर का भाग देने से जो लब्धि प्राप्त हो उसकी फलसंज्ञा होती है । फल के वर्ग में करणी जोड़कर वर्गमूल ले । इस मूल में दक्षिणगोल में फल घटाने से तथा उत्तरगोल में फल जोड़ने से कोण शंकु सिद्ध होता है । याम्योत्तर सूर्य के भ्रमण करने पर अग्नि, नैऋत्य, ईशान और वायु कोण का यह शंकु होता है । कोण शंकु और त्रिज्यावर्ग के अन्तर का वर्गमूल दृग्ज्या होती है ।। २८-३२ ।।
तत्त्रिज्यावर्गविश्लेषान्मूलं दृग्ज्याभिधीयत् ।
स्वशङ्कुना विभज्याप्ते दृक्त्रिज्ये द्वादशाहत् ।।
कोणशंकु और त्रिज्या के वर्गान्तर के वर्गमूल को ‘दृग्ज्या’ कहते है । कोणीय दृग्जा और त्रिज्या को पृथक-पृथक १२ से गुणाकर कोणशंकु से भाग देने पर लब्धि, सूर्य की स्थिति एवं काल के अनुसार कोणवृत में क्रमशः छाया और छायाकर्ण होता है ।। ३३ ।।
छायाकर्णौ तु कोणेषु यथास्वं देशकालयोः ।
त्रिज्योदक्चरजायुक्ता याम्यायां तद्विवर्जिता ॥
अन्त्या नतोत्क्रमज्योना स्वहोरात्रार्धसङ्गुणा ।
त्रिज्याभक्ता भवेच्छेदो लम्बज्याघ्नो +अथ भाजितः ॥
त्रिभज्यया भवेच्छङ्कुस्तद्वर्गं परिशोधयेत् ।
त्रिज्यावर्गात्पदं दृग्ज्या छायाकर्णौ तु पूर्ववत् ॥
उत्तरगोल में त्रिज्या में चरज्या जोड़ने से और दक्षिणगोल में त्रिज्या में चरज्या घटाने से अन्त्या होती है । अन्त्या में नतकाल की उत्क्रमज्याघटाने से शेष, इष्टान्त्या होती है । इष्टान्त्या को अपने अहोरात्रवृत्त के व्यासार्ध से गुणाकर त्रिज्या का भाग देने से छेद होता है । छेद को लम्बज्या से गुणाकर त्रिज्या का भाग देने से शंकु होता है । शंकु के वर्ग को त्रिज्या के वर्ग में घटाकर वर्गमूल लेने से दृग्ज्या होती है । पूर्वोक्त रीति से साधित शंकु और दृग्ज्या से छाया और छायाकर्ण का साधन होता है ।। ३४-३६ ।।
अभीष्टच्छाययाभ्यस्ता त्रिज्या तत्कर्णभाजिता ।
दृग्ज्या तद्वर्गसंशुद्धात्त्रिज्यावर्गाच्च यत्पदम् ।।
शङ्कुः स त्रिभजीवाघ्नः स्वलम्बज्याविभाजितः ।
छेदः स त्रिज्ययाभ्यस्तः स्वाहोरात्रार्धभाजितः ॥
उन्नतज्या तया हीना स्वान्त्या शेषस्य कार्मुकम् ।
उत्क्रमज्याभिरेवं स्युः प्राक्पश्चार्धनतासवः ॥
इष्टकालिक छाया से त्रिज्या को गुणाकर छायाकर्ण का भाग देने से लब्धि दृग्ज्या होती है । त्रिज्यावर्ग में इस दृग्ज्या का वर्ग घटाकर वर्गमूल लेने से शंकु होता है । शंकु को त्रिज्या से गुणाकर स्वलम्बज्या का भाग देने से इष्ट हृति होती है । इस छेद को त्रिज्या से गुणाकर अपनी द्युज्या से भाग देने से उन्नतज्या होगी । इस इष्टान्त्या को स्वकीय अन्त्या में घटाने से शेष नतकाल की उत्क्रमज्या होती है । उत्क्रमज्या पिण्डों से चाप करने से नतासु होते है । ये पूर्वाह्णकालिक इष्टच्छाया में पूर्व कपाल में तथा अपराह्णकालिक इष्टच्छाया में पश्चिम कपाल में नतासु होंगे ।। ३७-३९ ।।
इष्टाग्राघ्नी तु लम्बज्या स्वकर्णाङ्गुलभाजिता ।
क्रान्तिज्या सा त्रिजीवाघ्नी परमापक्रमोद्धृता ॥
इष्टकालिक कर्णवृत्ताग्रा को लम्बज्या से गुणाकर तात्कालिक छायाकर्ण से भाग देने पर इष्टक्रान्तिज्या होती है । इष्टक्रान्तिज्या को त्रिज्या से गुणाकर परमक्रान्तिज्या से भाग देने पर इष्टभुजज्या होती है । इसका चाप राश्यादि इष्टभुज होता है । इस भुज से उत्पन्न सायन रवि चारों पदों में होगा ।। ४० ।।
तच्चापं भादिकं क्षेत्रं पदैस्तत्र भवो रविः ।
इष्टे +अह्नि मध्ये प्राक्पश्चाद्धृते बाहुत्रयान्तर् ।।
इष्टदिन के पूर्वाह्ण या अपराह्ण में या मध्यकाल में स्थापित शंकु की छायारूप तीन भुजाग्रों पर चिन्ह करके अव्यवहित दो दो चिन्हों से दो मत्स्य बनाकर उसके मुखपुच्छगत रेखा करें । फिर मुखपुच्छगत रेखाओं को अपने मार्ग में बढ़ानेसे जहां संपात हो उस सम्पातबिन्दु को केन्द्र मानकर सम्पातबिन्दु और किसी भुजाग्रबिन्दु के अन्तर के तुल्य त्रिज्या से जो वृत्त बनेगा वह तीनों भुजाग्रचिह्नों को स्पर्श करता हुआ जाएगा । यही भाभ्रमवृत है इसी वृत्त में शंकु की छाया भ्रमण करेगी ।। ४१ ।।
मत्स्यद्वयान्तरयुतेस्त्रिस्पृक्षूत्रेण भाभ्रमः ।
त्रिभद्युकर्णार्धगुणाः स्वाहोरात्रार्धभाजिताः ॥
क्रमादेकद्वित्रिभज्यास्तच्चापानि पृथक्पृथक् ।
स्वाधो +अधः परिशोध्याथ मेषाल्लङ्कोदयासवः ॥
तीन राशियों की ज्या को अलग-अलग तीन राशि की द्युज्या से गुणा कर स्वद्यज्या से भाग देने पर जो लाब्धियाँ प्राप्त हो उनका चाप बनाकर क्रमशः अधोsध: घटाने से मेषादि राशियों के उदयमान होते है । यथा – प्रथम फल मेष राशि का दुसरे फल में प्रथम फल को घटाने से वृष राशि का और दुसरे फल को तीसरे फल से घटाने से मिथुन राशि का लंकोदय मान होगा । मेषाराशि के १६७०, वृष राशि के १७९५, मिथूनराशि के १९३५ लंकोदयासु होते है ।। ४२-४३ ।।
खागाष्टयो +अर्थगो +अगैकाः शरत्र्यङ्कहिमांशवः ।
स्वदेशचरखण्डोना भवन्तीष्टोदयासवः ॥
व्यस्ता व्यस्तैर्युताः स्वैः स्वैः कर्कटाद्यास्ततस्त्रयः ।
उत्क्रमेण षडेवैते भवन्तीष्टास्तुलादयः ॥
पूर्वासाधित लंकोदयासुओं में अपने देश के चरासु घटाने से तत्तद् राशियों के स्वदेशोदयासु होते है । मेषादि तीन राशियों के लंकोदयासुओं को विलोम क्रम से रखकर उनमें मेषादि राशियों के चरखण्डों को विपरीत क्रम से जोड़ने पर कर्क आदि तीन राशियों के उदयासु होंगे । मेषादि छः राशियों के उदयासु ही उत्क्रमगणना से तुलादि छः राशियों के उदयासु होते है ।। ४४-४५ ।।
गतभोग्यासवः कार्या भास्करादिष्टकालिकात् ।
स्वोदयासुहता भुक्तभोग्या भक्ताः खवह्निभिः ॥
अभीष्टघटिकासुभ्यो भोग्यासून् प्रविशोधयेत् ।
तद्वत्तदेष्यलग्नासूनेवं यातात्तथोत्क्रमात् ॥
शेषं चेत्त्रिंशताभ्यस्तमशुद्धेन विभाजितम् ।
भागैर्युक्तं च हीनं च तल्लग्नं क्षितिजे तदा ॥
तात्कालिक सूर्य के गतासु या भोग्यासु बनाकर, जिस राशि पर सूर्य हो उस राशि के उदयासुओं से गुणाकर ३० का भाग देने से क्रमशः गत और भोग्य असु होते है । इष्ट घटिकाओं के असुओं में भोग्यासुओं को घटाकर आगे की राशियों के उदयासुओं को भी जहाँ तक घट सके घटाए । जिस राशि के उदयासु नहीं घट सके उनको अशुद्ध कहते है । घटाने से बचे शेष को ३० से गुणाकर अशुद्ध का भाग देने से जो अंशादि फल मिले उसको अशुद्ध से पूर्व जितनी मेष आदि राशियाँ हो उसमें जोड़ने से अथवा घटाई हुई राशि तथा अंशादि को इस अंशादिफल में जोड़ने से तात्कालिक उदय लग्न होता है । इसी प्रकार भुक्तासुओं को और भुक्तराशियों के उदयासुओं को इष्टघटिकाओं में घटाकर पूर्वोक्त रीति से गुणन भजन द्वारा जो अंशादि फल हो उसको पूर्वोक्त अशुद्ध पूर्व मेषादि राशियों में घटाने से लग्न होता है ।। ४६-४८ ।।
प्राक्पश्चान्नतनाडीभिस्तस्माल्लङ्कोदयासुभिः ।
भानौ क्षयधने कृत्वा मध्यलग्नं तदा भवेत् ॥
पूर्व-पश्चिम नत घटिका और तात्कालिक सायन सूर्य से लग्नानयन की भाँती लंकोदयासुओं से साधन करने से जो राश्यादि फल प्राप्त हो उसको सूर्य में ऋण-धन करने से मध्यलग्न होगा ।। ४९ ।।
भोग्यासूनूनकस्याथ भुक्तासूनधिकस्य च् ।
सम्पीण्ड्यान्तरलग्नासूनेवं स्यात्कालसाधनम् ॥
सूर्यादूने निशाशेषे लग्ने +अर्कादधिके दिवा ।
भचक्रार्धयुताद्भानोरधिक्के +अस्तमयात्परम् ॥
लग्न और सूर्य के बीच में जो अल्प हो उसके भोग्यासु तथा जो अधिक हो उसके भुक्तासु साधन कर इन दोनों के योग में अन्तर लग्नासु अर्थात लग्न और सूर्य के बीच में जितनी राशियाँ हो उंके उदयासुओं को जोड़ने से इष्टकाल होता है ।। ५० ।।
स्पष्टसूर्य से लग्न न्यून हो तो रात्रिशेष में सूर्योदय से पूर्व का इष्टकाल होगा और अधिक हो तो दिन में सूर्योदय के पश्चात् दिन का इष्टकाल होगा । यदि छः राशियुक्त सूर्य से अधिक लग्न हो तो सूर्यास्त के अनन्तर रात्रि का इष्टकाल होगा ।। ५१ ।।