Shree Naval Kishori

सूर्य-सिद्धांत अध्याय-7 ग्रहयुत्यधिकारः (ग्रहीय संयोग)

ताराग्रहाणामन्योन्यं स्यातां युद्धसमागमौ ।
समागमः शशाङ्केन सूर्येणास्तमनं सह् ।।

भौम आदि पाँचों ग्रहों का परस्पर योग युद्ध एवं समागम संज्ञक होता है । चन्द्र के साथ भौम आदि ग्रहों का योग होने पर समागम तथा सूर्य के साथ भौम आदि ग्रहों का अथवा चन्द्रमा का योग हो तो अस्त संज्ञक है ।। १ ।।

शीघ्रे मन्दाधिके +अतीतः संयोगो भवितान्यथा ।
द्वयोः प्राग्यायिनोरेवं वक्रिणोस्तु विपर्ययात् ॥

जिन दो ग्रहों की युति ज्ञात करनी हो उनमे यदि मन्दगतिग्रह से शीघ्रगतिग्रह अधिक हो तो गतयुति तथा न्यून हो तो गम्ययुति होती है । यदि दोनों ग्रह वक्री हों तो इससे विपरीत क्रम से युति होती है । अर्थात मन्दगति ग्रह से शीघ्र गतिग्रह अधिक हो तो गम्य युति और न्यून हो तो गतयुति होती है । यदि एक ग्रह वक्री हो, तथा मार्गी ग्रह से न्यून हो तो गतयुति अधिक हो तो गम्ययुति होती है ।। २ ।।

प्राग्यायिन्यधिके +अतीतो वक्रिण्येष्यः समागमः ।
ग्रहान्तरकलाः स्वस्वभुक्तिलिप्ताः समाहताः ॥
भुक्त्यन्तरेण विभजेदनुलोमविलोमयोः ।
द्वयोर्वक्रिण्यथैकस्मिन् भुक्तियोगेन भाजयेत् ॥
लब्धं लिप्तादिकं शोध्यं गते देयं भविष्यति ।
विपर्ययाद्वक्रगत्योरेकस्मिंस्तु धनव्ययौ ॥
समालिप्तौ भवेतां तौ ग्रहौ भगणसंस्थितौ ।
विवरं तद्वदुद्धृत्य दिनादिफलमिष्यत् ।।

अभीष्ट युति सम्बंधि दोनों ग्रह यदि वक्री या मार्गी हो तो उन ग्रहों की अन्तरकला को अपनी अपनी गतिकला से गुणाकर गुणनफल में उन दोनों ग्रहों की गत्यन्तरकला से भाग दे । यदि एक ग्रह वक्री और एक ग्रह मार्गी हो तो उनकी अन्तर कला को अपनी अपनी गति कला से गुणाकर अपनी गतियोग से भाग दे । जो लब्धि प्राप्त हो उस गतयोग को मार्गी ग्रहों में हीन और वक्री ग्रहों में युत करे । एष्य युति हो तो मार्गी ग्रहों में युत और वक्री ग्रहों में हीन करे । यदि एक ग्रह वक्री और एक ग्रह ममार्गी हो तो स्व-स्वफल को युत-हीन करे । गम्ययुति हो तो मार्गी ग्रह में धन और वक्री ग्रह में ऋण करे । इस प्रकार राशि चक्र में स्थित राश्यादि ग्रह समकल होते है । इष्टकालिक युति सम्बन्धी ग्राहों के अन्तर में उन दोनों ग्रहों के गत्यन्तर का भाग देने से गत युति में गत तथा गम्ययुति में एष्य दिनादि होते है ।। ३-६ ।।

कृत्वा दिनक्षपामानं तथा विक्षेपलिप्तिकाः ।
नतोन्नतं साधयित्वा स्वकाल्लग्नवशात्तयोः ॥

दृर्क्कम साधन के लिए समान ग्रहों का दिनमान रात्रिमान और शरकला का साधन कर अपने-अपने लग्न द्वारा नतकाल और उन्नतकाल का साधन करना चाहिये ।। ७ ।।

विषुवच्छाययाम्यस्तद्विक्षेपाद्द्वादशोद्धृतात् ।
फलं स्वनतनाडीघ्नं स्वदिनार्धविभाजितम् ॥
लब्धं प्राच्यामृणं सौम्याद्विक्षेपात्पश्चिमे धनम् ।
दक्षिणे प्राक्कपाले स्वं पश्चिमे तु तथा क्षमः ॥

पलाभा को शर से गुणाकर १२ का भाग देने से जो फल प्राप्त हो उसे अपमी अपनी नत घटी से गुणाकर अपने अपने दिनार्ध से भाग दे यदि रात्रि में नेतोन्नतकाल हो तो रात्र्यर्ध से भाग दे । लब्धि कला दि फल को ग्रहों में धन, ऋण करे ।। ८-९ ।।

सत्रिभग्रहजक्रान्तिभागघ्नाः क्षेपलिप्तिकाः ।
विकलाः स्वमृणं क्रान्तिक्षेपयोर्भिन्नतुल्ययोः ॥

पूर्व साधित शरकला को सत्रिभग्रह के क्रान्त्यंश से गुणा करने से आयन दृक्कर्म विकला होती है । इन विकलाओं को सत्रिभ ग्रह की क्रान्ति और शर की एक दिशा हो तो ग्रह में ऋण और भिन्न दिशा हो तो ग्रह में धन करना चाहिये ।। १० ।।

नक्षत्रग्रहयोगेषु ग्रहास्तोदयसाधन् ।
शृङ्गोन्नतौ तु चन्द्रस्य दृक्कर्मादाविदं स्मृतम् ॥

नक्षत्र और ग्रहों की युतिसाधन में, ग्रहों के उदयास्त साधन में तथा चन्द्र की श्रृंगोन्नति साधन में आयन दृक्कर्म और आक्षदृक्कर्म का संस्कार पहले ही कहा गया है ।। ११ ।।

तात्कालिकौ पुनः कार्यौ विक्षेपौ च तयोस्ततः ।
दिक्तुल्ये त्वन्तरं भेदे योगः शिष्टं ग्रहान्तरम् ॥

दृक्कर्मद्वयसंस्कृत ग्रहों का युतिकाल जान कर, युतिकाल में ग्रहों का साधन कर दोनों दृक्कर्मों का संस्कार करना चाहिये । इस प्रकार असकृत कर्म करने से दृक्कर्मद्वयसंस्कृतग्रह तुल्य होते है । इन तुल्य ग्रहों के तात्कालिक शरों का एक दिशा में अन्तर और भिन्न दिशा में योग करने से युतिसम्बन्धी ग्रह बिम्बों के केन्द्रों का याम्योत्तर अन्तर होता है ।। १२ ।।

कुजार्किज्ञामरेज्यानां त्रिंशदर्धार्धवर्धिताः ।
विष्कम्भाश्चन्द्रकक्षायां भृगोः षष्टिरुदाहृता ॥
त्रिचतुः कर्णयुत्याप्तास्ते द्विघ्नास्त्रिज्यया हताः ।
स्फुटाः स्वकर्णास्तिथ्याप्ता भवेयुर्मानलिप्तिकाः ॥

भौम का ३०, शनि का अर्धार्ध वर्धित, बुध का ४५, बृहस्पति का साढे बावन और शुक्र का ६० योजन तुल्य चन्द्रकक्षा में बिम्बव्यास कहा है । इनके व्यासों को द्विगुणित त्रिज्या से गुणाकर त्रिज्या और चतुर्थ कर्म द्वारा सिद्ध कर्ण के योग से भाग देने पर इनके बिम्ब व्यास स्पष्ट होते है ।इनमे १५ का भाग देने से मानकला होगी ।। १३-१४ ।।

छायाभूमौ विपर्यस्ते स्वच्छायाग्रे तु दर्शयेत् ।
ग्रहः स्वदर्पणान्तःस्थः शङ्क्वग्रे सम्प्रदिश्यत् ।।

समतल भूमि में ग्रह से विलोमदिशा में पडी हुई ग्रह की छाया से अग्रभाग में स्थापित किये गए दर्पण में स्थित ग्रह को गणक दिखलावे । वह आकाश में दिक्सम्पात में स्थित शंकु के अग्र में दीखता है ।। १५ ।।

पञ्चहस्तोच्छ्रितौ शङ्कू यथादिग्भ्रमसंस्थितौ ।
ग्रहान्त्रेण विक्षिप्तावधो हस्तनिखातगौ ॥
छायाकर्णौ ततो दद्याच्छायाग्राच्छङ्कुमूर्धगौ ।
छायाकर्णाग्रसंयोगे संस्थितस्य प्रदर्शयेत् ॥

युति सम्बंधित ग्रहों को देखने के लिये काष्ठादिनिर्मित पांच हाथ लम्बे दो शंकुओं को, जिस दिशा में ग्रह भ्रमण करते हो, उस दिशा में ग्रहों के याम्योत्तर अन्तर के तुल्य अन्तरित एक दो हाथ गहरे गर्त में दृढ़ता से स्थापित करना चाहिये । शंकुओं के मूल से ग्रहाधिष्ठित कपाल में छायाग्रा से शंकुओं के अग्रपर्यन्त छाया कर्णों का दान करना चाहिये । यहाँ ग्रहों की छाया चार हाथ के शंकु के प्रमाण से साधन करनी चाहिये । छायाकर्नाग्रा के संयोग में स्थित द्रष्टा को, आकाश में अपने शंकुओं के अग्र में स्थित दृकतुल्य ग्रहों को दिखलाना चाहिये ।। १६-१७ ।।

स्वशङ्कुमूर्धगौ व्योम्नि ग्रहौ दृक्तुल्यतामितौ ।
उल्लेखं तारकास्पर्शाद्भेदे भेदः प्रकीर्त्यत् ।।
युद्धमंशुविमर्दाख्यमंशुयोगे परस्परम् ।
अंशादूने +अपसव्याख्यं युद्धमेको +अत्र चेदणुह् ॥

भौमआदि पञ्चतारा ग्रहों की बिम्ब नेमियों का स्पर्शमात्र हो तो उल्लेखसंज्ञक और मण्डल का भेद हो तो भेदसंज्ञक तथा परस्पर दो ग्रहों के किरणों का योग हो तो अंशुविमर्द संज्ञक युद्ध होता है । दो ग्रहों का याम्योत्तर अन्तर एक अंश से कम हो तो अपसव्यसंज्ञक युद्ध होता है । यदि इनमें एक ग्रह का बिम्ब छोटा हो तो अपसव्ययुद्ध व्यक्त होता है अन्यथा अव्यक्त । दो ग्रहों का याम्योत्तर अन्तर एक अंश से अधिक हो तो समागम होता है ।। १८-१९ ।।

समागमो +अंशादधिके भवतश्चेद्वलान्वितौ ।
अपसव्ये जितो युद्धे पिहितो +अणुरदीप्तितान् ॥

अपसव्यसंज्ञक युद्ध में जिस ग्रह का बिम्ब आच्छादित हो, अथवा बिम्ब छोटा हो या प्रभारहित, रुखा, स्वाभाविक वर्ण से हीन तथा दक्षिण दिशा में स्थित हो तो उस ग्रह को पराजित समझना चाहिये ।। २० ।।

रूक्षो विवर्णो विध्वस्तो विजितो दक्षिणाश्रितः ।
उदक्ष्थो दीप्तिमान् स्थूलो जयी याम्ये +अपि यो बली ॥

दुसरे ग्रह की अपेक्षा उत्तर दिशा में स्थित, दीप्तीमान, बृहद बिम्बवाला ग्रह जयी होता है । दक्षिण दिशा में भी बलमान अर्थात जिस गृह का बिम्ब दीप्तिमान और बड़ा हो वह ग्रह जयी होता है ।। २१ ।।

आसन्नावप्युभौ दीप्तौ भवतश्चेत्समागमः ।
स्वल्पौ द्वावपि विध्वस्तौ भवेतां कूटविग्रहौ ॥

यदि दोनों ग्रहोंके बिम्ब आसन्न होने पर भी प्रभायुक्त हो तो समागमसंज्ञक युद्ध होता है । यदि दोनों के बिम्ब सूक्ष्म और विध्वस्त के लक्षणों से युक्त हो तो कूट एवं विग्रह संज्ञक युद्ध होता है ।।२२।।

उदक्ष्थो दक्षिणस्थो वा भार्गवः प्रायशो जयी ।
शशाङ्केनैवमेतेषां कुर्यात्संयोगसाधनम् ॥

उत्तर दिशा में या दक्षिण दिशा में स्थित शुक्र, प्राय: विजयी ही होता है । चन्द्रमा के साथ भौम आदि पंच तराग्रहों का युति साधन पूर्वोक्त रीति से करना चाहिए ।।२३।।

भावाभावाय लोकानां कल्पनेयं प्रदर्शिता ।
स्वमार्गगाः प्रयान्त्येते दूरमन्योन्यमाश्रिताः ॥

अपनी अपनी कक्षा में स्थित, भ्रमण करते हुए ग्रह युतिकाल में परस्पर अति दूर होते हुए भी ऊर्ध्वाधर अन्तर के दृश्य न होने से मिले हुए दिखाई देते है । यह ग्रहयुतिरूप कल्पना लोक के शुभशुभफल के लिए कही गई है । वस्तुतः न ग्रहों का युद्ध होता है और न ग्रह परस्पर युक्त होते है ।। २४ ।।